[[स्तोत्राणि (द्वितीयो भागः) Source: EB]]
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| CONTENTS |
| VISHNU STOTRAS |
| MISCELLANEOUS STOTRAS |
| LALITA TRISATISTOTRA BHASHYA |
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| विषयाः |
| विष्णुस्तोत्राणि |
| सकीर्णस्तोत्राणि |
| ललितात्रिशतीस्तोत्रभाष्यम् |
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॥श्री॥
॥विषयानुक्रमणिका॥
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| हनुमत्पञ्चरत्नम् |
| श्रीरामभुजगप्रयातस्तोत्रम् |
| लक्ष्मीनृसिंहपञ्चरत्नम् |
| लक्ष्मीनृसिंहकरुणारसस्तोत्रम् |
| श्रीविष्णुभुजगप्रयातस्तोत्रम् |
| विष्णुपादादिकेशान्तस्तोत्रम् |
| पाण्डुरङ्गाष्टकम् |
| अच्युताष्टकम् |
| कृष्णाष्टकम् |
| हरिस्तुति |
| गोविन्दाष्टकम् |
| भगवन्मानसपूजा |
| मोहमुद्गर |
| कनकधारास्तोत्रम् |
| अन्नपूर्णाष्टकम् |
| मीनाक्षीपञ्चरत्नम् |
| मीनाक्षीस्तोत्रम् |
| दक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् |
| कालभैरवाष्टकम् |
| नर्मदाष्टकम् |
| यमुनाष्टकम् |
| यमुनाष्टकम् |
| गङ्गाष्टकम् |
| मणिकर्णिकाष्टकम् |
| निर्गुणमानसपूजा |
| प्रात स्मरणस्तोत्रम् |
| जगन्नाथाष्टकम् |
| षट्पदीस्तोत्रम् |
| भ्रमराम्बाष्टकम् |
| शिवपञ्चाक्षरनक्षत्रमालास्तोत्रम् |
| द्वादशलिङ्गस्तोत्रम् |
| अर्धनारीश्वरस्तोत्रम् |
| शारदाभुजगप्रयाताष्टकम् |
| गुर्वष्टकम् |
| काशीपञ्चकम् |
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**॥ श्रीमहाविष्णु.॥ **
॥श्री॥
॥हनुमत्पञ्चरत्नम्॥
वीताखिलविषयेच्छ
जातानन्दाश्रुपुलकमत्यच्छम्।
सीतापतिदूताद्य
वातात्मजमद्य भावये हृद्यम्॥१॥
तरुणारुणमुखकमल
करुणारसपूरपूरितापाङ्गम्।
सजीवनमाशासे
मञ्जुलमहिमानमञ्जनाभाग्यम्॥२॥
शम्बरवैरिशरातिग-
मम्बुजदलविपुललोचनोदारम्।
कम्बुगलमनिलदिष्ट
बिम्बज्वलितोष्ठमेकमवलम्बे॥३॥
दूरीकृतसीतार्ति
प्रकटीकृतरामवैभवस्फूर्ति।
दारितदशमुखकीर्ति
पुरतो मम भातु हनुमतो मूर्ति॥४॥
वानरनिकराध्यक्ष
दानवकुलकुमुदरविकरसदृक्षम्।
दीनजनावनदीक्ष
पवनतप पाकपुञ्जमद्राक्षम्॥५॥
एतत्पवनसुतस्य
स्तोत्र य पठति पञ्चरत्नाख्यम्।
चिरमिह निखिलान्भोगा
न्भुङ्क्त्वा श्रीरामभक्तिभाग्भवति॥६॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोवि दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
हनुमत्पञ्चरत्न सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥श्रीरामभुजंगप्रयातस्तोत्रम्॥
———
विशुद्ध पर सच्चिदानन्दरूप
गुणाधारमाधारहीन वरेण्यम्।
महान्त विभान्त गुहान्त गुणान्त
सुखान्त स्वय धाम राम प्रपद्ये॥१॥
शिव नित्यमक विभु तारकाख्य
सुखाकारमाकारशून्य सुमान्यम्।
महेश कलेश सुरेश परेश
नरेश निरीश महीश प्रपद्ये॥२॥
यदावर्णयत्कर्णमूलेऽन्तकाले
शिवो राम रामेति रामेति काश्याम्।
तदेक पर तारकब्रह्मरूप
भजेऽह भजेऽह भजेऽह भजेऽहम्॥३॥
महारत्नपीठे शुभे कल्पमूले
सुखासीनमादित्यकोटिप्रकाशम्।
सदा जानकीलक्ष्मणोपेतमेक
सदा रामचन्द्र भजेऽह भजेऽहम्॥४॥
क्वणद्रत्नमञ्जीरपादारविन्द
लसन्मेखलाचारुपीताम्बराढ्यम्।
महारत्नहारोल्लसत्कौस्तुभाङ्ग
नदच्चञ्चरीमञ्जरीलोलमालम्॥५॥
लसच्चन्द्रिकास्मेरशोणाघराभ
समुद्यत्पतङ्गेन्दुकोटिप्रकाशम्।
नमद्ब्रह्मरुद्रादिकोटीररत्न
स्फुरत्कान्तिनीराजनाराधिताङ्घ्रिम्॥६॥
पुर प्राञ्जलीनाञ्जनेयादिभक्ता-
न्स्वचिन्मुद्रायाभद्रया बोधयन्तम्।
भजेऽह भजेऽह सदा रामचन्द्र
त्वदन्य न मन्ये न मन्ये न मन्ये॥७॥
यदा मत्समीप कृतान्त समेत्य
प्रचण्डप्रकोपैर्भटैर्भीषयेन्माम्।
तदाविष्करोषि त्वदीय स्वरूप
सदापत्प्रणाश सकोदण्डबाणम्॥८॥
निजे मानसे मन्दिरे सनिधेहि
प्रसीद प्रसीद प्रभो रामचन्द्र।
ससौमित्रिणा कैकयीनन्दनेन
स्वशक्त्यानुभक्त्या च ससेव्यमान॥९॥
स्वभक्ताग्रगण्यै कपीशैर्महीशै-
रनीकैरनकैश्चराम प्रसीद।
नमस्ते नमोऽस्त्वीश राम प्रसीद
प्रशाधि प्रशाधि प्रकाश प्रभो माम्॥१०॥
त्वमेवासि दैव पर मे यदेक
सुचैतन्यमेतत्त्वदन्य न मन्ये।
यतोऽभूदमेय वियद्वायुतेजो
जलोर्व्यादिकार्यं चर चाचर च॥११॥
नम सच्चिदानन्दरूपाय तस्मै
नमो देवदेवाय रामाय तुभ्यम्।
नमो जानकीजीवितेशाय तुभ्य
नम पुण्डरीकायताक्षाय तुभ्यम्॥१२॥
नमो भक्तियुक्तानुरक्ताय तुभ्य
नम पुण्यपुञ्जैकलभ्याय तुभ्यम्।
नमो वेदवेद्याय चाद्याय पुसे
नम सुन्दरायेन्दिरावल्लभाय॥१३॥
नमो विश्वकर्त्रे नमो विश्वहर्त्रे
नमो विश्वभोक्त्रेनमो विश्वमात्रे।
नमो विश्वनेत्रे नमो विश्वजेत्रे
नमो विश्वपित्रे नमो विश्वमात्र॥१४॥
नमस्ते नमस्त समस्तप्रपञ्च
प्रभागप्रयोगप्रमाणप्रवीण।
मदीय मनस्त्वत्पदद्वन्द्वसेवा
विधातु प्रवृत्त सुचैतन्यसिद्ध्यै॥१५॥
शिलापि त्वदङ्घ्रिक्षमासङ्गिरेणु
प्रसादाद्धि चैतन्यमाधत्त राम।
नरस्त्वत्पदद्वन्द्वसेवाविधाना-
त्सुचैतन्यमेतीति किं चित्रमत्र॥१६॥
पवित्र चरित्र विचित्र त्वदीय
नरा ये स्मरन्त्यन्वह रामचन्द्र।
भवन्त भवान्त भरन्त भजन्तो
लभन्ते कृतान्त न पश्यन्त्यतोऽन्ते॥१७॥
स पुण्य स गण्य शरण्यो ममाय
नरो वेद यो देवचूडामणिं त्वाम्।
सदाकारमेक चिदानन्दरूप
मनोवागगम्य पर धाम राम॥१८॥
प्रचण्डप्रतापप्रभावाभिभूत
प्रभूतारिवीर प्रभो रामचन्द्र।
बल ते कथ वर्ण्यतेऽतीव बाल्ये
यतोऽखण्डिचण्डीशकोदण्डदण्डम्॥१९॥
दशग्रीवमुग्रसपुत्र समित्र
सरिद्दुर्गमध्यस्थरक्षोगणेशम्।
भवन्त विना राम वीरो नरो वा
सुरो वामरो वा जयेत्कस्त्रिलोक्याम्॥२०॥
सदा राम रामेति रामामृत ते
सदाराममानन्दनिष्यन्दकन्दम्।
पिबन्त नमन्त सुदन्त हसन्त
हनूमन्तमन्तर्भजे त नितान्तम्॥२१॥
सदा राम रामेति रामामृत ते
सदाराममानन्दनिष्यन्दकन्दम्।
पिबन्नन्वह नन्वह नैव मृत्यो
र्बिभेमि प्रसादादसादात्तवैव॥२२॥
असीतासमेतैरकोदण्डभूषै
रसौमित्रिवन्द्यैरचण्डप्रतापै।
अलङ्केशकालैरसुग्रीवमित्रै-
ररामाभिधेयैरल दैवतैर्न॥२३॥
अवीरासनस्थैरचिन्मुद्रिकाढ्यै
रभक्ताञ्जनेयादितत्त्वप्रकाशै।
अमन्दारमूलैरमन्दारमालै
ररामाभिधेयैरल दैवतैर्न॥२४॥
असिन्धुप्रकोपैरवन्द्यप्रतापै
रबन्धुप्रयाणैरमन्दस्मिताढ्यै।
अदण्डप्रवासैरखण्डप्रबोधै
ररामाभिधेयैरल दैवतैन॥२५॥
हरे राम सीतापते रावणारे
खरारे मुरारेऽसुरार परेति।
लपन्त नयन्त सदाकालमेव
समालोकयालोकयाशेषबन्धो॥२६॥
नमस्ते सुमित्रासुपुत्राभिवन्द्य
नमस्ते सदा कैकयीनन्दनेड्य।
नमस्ते सदा वानराधीशवन्द्य
नमस्ते नमस्ते सदा रामचन्द्र॥२७॥
प्रसीद प्रसीद प्रचण्डप्रताप
प्रसीद प्रसीद प्रचण्डारिकाल।
प्रसीद प्रसीद प्रपन्नानुकम्पिन्
प्रसीद प्रसीद प्रभो रामचन्द्र॥२८॥
भुजङ्गप्रयात पर वेदसार
मुदा रामचन्द्रस्य भक्त्या च नित्यम्।
पठन्सन्तत चिंन्तयन्स्वान्तरङ्ग
स एव स्वय रामचन्द्र स धन्य॥२९॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोवि दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
श्रीरामभुजङ्गप्रयातस्तोत्रम्
सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥लक्ष्मीनृसिंहपञ्चरत्नम्॥
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त्वत्प्रभुजीवप्रियमिच्छसि चेन्नरहरिपूजा कुरु सतत
प्रतिबिम्बालकृतिधृतिकुशलो बिम्बालकृतिमातनुते।
चेतोभृङ्ग भ्रमसि वृथा भवमरुभूमौ विरसाया
भज भज लक्ष्मीनरसिंहानघपदसरसिजमकरन्दम्॥
शुक्तौ रजतप्रतिभा जाता कटकाद्यर्थसमर्था चें
द्दु खमयी ते ससृतिरेषा निर्वृतिदाने निपुणा स्यात्।
चेतोभृङ्ग भ्रमसि वृथा भवमरुभूमौ विरसाया
भज भज लक्ष्मीनरसिंहानघपदसरसिजमकरन्दम्॥
आकृतिसाम्याच्छाल्मलिकुसुमे स्थलनलिनत्वभ्रममकरो
गन्धरसाविह किमु विद्येते विफल भ्राम्यसि भृशविरसेऽस्मिन्।
चेतोभृङ्ग भ्रमसि वृथा भवमरुभूमौ विरसाया
भज भज लक्ष्मीनरसिंहानघपदसरसिजमकरन्दम्॥३॥
स्रक्चन्दनवनितादीन्विषयान्सुखदान्मत्वा तत्र विहरसे
गन्धफलीसदृशा ननु तेऽमी भोगानन्तरदु खकृत स्यु।
चेतोभृङ्ग भ्रमसि वृथा भवमरुभूमौ विरसाया
भज भज लक्ष्मीनरसिंहानघपदसरसिजमकरन्दम्॥४॥
तव हितमेक वचन वक्ष्ये शृणु सुखकामो यदि सतत
स्वप्नेदृष्ट सकल हि मृषा जाग्रति च स्मर तद्वदिति।
चेतोभृङ्ग भ्रमसि वृथा भवमरुभूमौ विरसाया
भज भज लक्ष्मीनरसिंहानघपदसरसिजमकरन्दम्॥५॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचायस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
लक्ष्मीनृसिंहपञ्चरत्न सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥लक्ष्मीनृसिंहकरुणारसस्तोत्रम्॥
———
श्रीमत्पयोनिधिनिकेतनचक्रपाण
भोगीन्द्रभोगमणिराजितपुण्यमूर्ते।
योगीश शाश्वत शरण्य भवाब्धिपोत
लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥१॥
ब्रह्मेन्द्ररुद्रमरुदर्ककिरीटकोटि
सघट्टिताङ्घ्रिकमलामलकान्तिकान्त।
लक्ष्मीलसत्कुचसरोरुहराजहस
लक्ष्मीनृसिंह मम दहि करावलम्बम्॥२॥
ससारदावदहनाकरभीकरोरु-
ज्वालावलीभिरतिदग्धतनूरुहस्य।
त्वत्पादपद्मसरसीरुहमागतस्य
लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥३॥
ससारजालपतितस्य जगन्निवास
सर्वेन्द्रियार्थबडिशाग्रझषोपमस्य।
प्रोत्कम्पितप्रचुरतालुकमस्तकस्य
लक्ष्मीनृसिंह मम दहि करावलम्बम्॥४॥
ससारकूपमतिघोरमागधमूल
सप्राप्य दु खशतसर्पसमाकुलस्य।
दीनस्य देव कृपया पदमागतस्य
लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥५॥
ससारभीकरकरीन्द्रकराभिघात
निष्पीड्यमानवपुष सकलार्तिनाश।
प्राणप्रयाणभवभीतिसमाकुलस्य
लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥६॥
ससारसर्पविषदिग्धमहोग्रतीव्र
दंष्ट्राग्रकोटिपरिदष्टविनष्टमूर्ते।
नागारिवाहन सुधाब्धिनिवास शौरे
लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥७॥
ससारवृक्षमघबीजमनन्तकर्म-
शाखायुत करणपत्रमनङ्गपुष्पम्।
आरुह्य दु खफलित चकित दयालो
लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥८॥
ससारसागरविशालकरालकाल
नक्रग्रहग्रसितनिग्रहविग्रहस्य।
व्यग्रस्य रागनिचयोर्मिनिपीडितस्य
लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥९॥
ससारसागरनिमज्जनमुह्यमान
दीन विलोकय विभो करुणानिधे माम्।
प्रह्लादखेदपरिहारपरावतार
लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥१०॥
ससारघोरगहने चरतो मुरारे
मारोग्रभीकरमृगप्रचुरार्दितस्य।
आर्तस्य मत्सरनिदाघसुदु खितस्य
लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥११॥
बद्ध्वा गले यमभटा बहु तर्जयन्त
कर्षन्ति यत्र भवपाशशतैर्युत माम्।
एकाकिन परवश चकित दयालो
लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥१२॥
लक्ष्मीपते कमलनाभ सुरेश विष्णो
यज्ञेश यज्ञ मधुसूदन विश्वरूप।
ब्रह्मण्य केशव जनार्दन वासुदेव
लक्ष्मीनृसिह मम देहि करावलम्बम्॥१३॥
एकेन चक्रमपरेण करेण शङ्ख-
मन्येन सिन्धुतनयामवलम्ब्य तिष्ठन्।
वामेतरेण वरदाभयपद्मचिह्न
लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥१४॥
अन्धस्य मे हृतविवेकमहाधनस्य
चोरैर्महाबलिभिरिन्द्रियनामधेयै।
मोहान्धकारकुहरे विनिपातितस्य
लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥१५॥
प्रह्लादनारदपराशरपुण्डरीक-
व्यासादिभागवतपुगवहृन्निवास।
भक्तानुरुक्तपरिपालनपारिजात
लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम्॥१६॥
लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुव्रतेन
स्तोत्र कृत शुभकर भुवि शकरेण।
ये तत्पठन्ति मनुजा हरिभक्तियुक्ता
स्ते यान्ति तत्पदसरोजमखण्डरूपम्॥१७॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचायस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
लक्ष्मीनृसिंहकरुणारसस्तोत्र सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥श्रीविष्णुभुजंगप्रयातस्तोत्रम्॥
———
चिदश विभु निर्मल निर्विकल्प
निरीह निराकारमोंकारगम्यम्।
गुणातीतमव्यक्तमेक तुरीय
पर ब्रह्म य वेद तस्मै नमस्ते॥१॥
विशुद्ध शिव शान्तमाद्यन्तशून्य
जगज्जीवन ज्योतिरानन्दरूपम्।
अदिग्दशकालव्यवच्छदनीय
त्रयीवक्ति यवेद तस्मै नमस्तै॥२॥
महायागपीठे परिभ्राजमाने
धरण्यादितत्त्वात्मके शक्तियुक्त।
गुणाहस्करे वह्निबिम्बार्धमध्ये
समासीनमोंकर्णिकेऽष्टाक्षराब्जे॥३॥
समानोदितानेकसूर्येन्दुकोटि-
प्रभापूरतुल्यद्युतिं दुर्निरीक्षम्।
न शीत न चाष्ण सुवर्णावदात-
प्रसन्न सदानन्दसवित्स्वरूपम्॥४॥
सुनासापुट सुन्दरभ्रूललाट
किरीटोचिताकुञ्चितस्निग्धकेम्।
स्फुरत्पुण्डरीकाभिरामायताक्ष
समुत्फुल्लरत्नप्रसूनावतसम्॥५॥
लसत्कुण्डलामृष्टगण्डस्थलान्त
जपारागचोराधर चारुहासम्।
अलिव्याकुलामोदिमन्दारमाल
महोरस्फुरत्कौस्तुभोदारहारम्॥६॥
सुरत्नाङ्गदैरन्वित बाहुदण्डै-
श्चतुर्भिश्चलत्कङ्कणालकृताग्रै।
उदारोदरालकृत पीतवस्त्र
पदद्वन्द्वनिर्धूतपद्याभिरामम्॥७॥
स्वभक्तेषु सदर्शिताकारमेव
सदा भावयन्सनिरुद्धेन्द्रियाश्व।
दुराप नरो याति ससारपार
परस्मै परेभ्योऽपि तस्मै नमस्ते॥८॥
श्रिया शातकुम्भद्युतिस्निग्धकान्त्या
धरण्या च दूर्वादलश्यामलाङ्ग्या।
कलत्रद्वयेनामुना तोषिताय
त्रिलोकीगृहस्थाय विष्णो नमस्ते॥९॥
शरीर कलत्र सुत बन्धुवर्गं
वयस्य धन सद्म भृत्य भुव च।
समस्त परित्यज्य हा कष्टमेको
गमिष्यामि दु खेन दूर किलाहम्॥१०॥
जरेय पिशाचीव हा जीवतो मे
वसामत्तिरक्त च मास बल च
अहो देव सीदामि दीनानुकम्पि
न्किमद्यापि हन्तत्वयोदासितव्यम्॥११॥
कफव्याहतोष्णोल्बणश्वासवेग
व्यथाविष्फुरत्सर्वमर्मास्थिबन्धाम्।
विचिन्त्याहमन्त्यामसख्यामवस्था
बिभेमि प्रभो किं करोमि प्रसीद॥१२॥
लपन्नच्युतानन्त गोविन्द विष्णो
मुरारे हरे नाथ नारायणेति।
यथानुस्मरिष्यामि भक्त्या भवन्त
तथा मे दयाशील देव प्रसीद॥१३॥
भुजगप्रयात पठेद्यस्तु भक्त्या
समाधाय चिन्ते भवन्त मुरारे।
स मोह विहायाशु युष्मत्प्रसादा
त्समाश्रित्य योग व्रजत्यच्युत त्वाम्॥१४॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविदभग
वत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
श्रीविष्णुभुजगप्रयातस्तोत्र सपूर्णम्॥
————
॥श्री॥
॥विष्णुपादादिकेशान्तस्तोत्रम्॥
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लक्ष्मीभर्तुर्भुजाग्रेकृतवसति सित यस्य रूप विशाल
नीलाद्रेस्तुङ्गशृङ्गस्थितमिव रजनीनाथबिम्ब विभाति।
पायान्न पाञ्चजन्य स दितिसुतकुलत्रासनैपूरयन्स्वै
र्निध्वानैर्नीरदौघध्वनिपरिभवदैरम्बर कम्बुराज॥१॥
आहुर्यस्य स्वरूप क्षणमुखमखिल सूरय कालमेत
ध्वान्तस्यैकान्तमन्त यदपि च परम सर्वधाम्ना च धाम।
चक्र तच्चक्रपाणेर्दितिजतनुगलद्रक्तधाराक्तधार
शश्वन्नोविश्ववन्द्य वितरतु विपुल शर्म धर्मांशुशोभम्॥
अव्यान्निर्घातघोरो हरिभुजपवनामर्शनाध्मातमूर्ते
रस्मान्विस्मेरनेत्रत्रिदशनुतिवच साधुकारै सुतार।
सर्वंसहर्तुमिच्छोररिकुलभुवन स्फारविष्फारनाद
सयत्कल्पान्तसिन्धौ शरसलिलघटावार्मुच कार्मुकस्य॥
जीमूतश्यामभासा मुहुरपि भगवद्बाहुना मोहयन्ती
युद्धेषूद्धूयमाना झटिति तटिदिवालक्ष्यते यस्य मूर्ति।
सोऽसिस्त्रासाकुलाक्षत्रिदशरिपुवपु शोणितास्वादतृप्तो
नित्यानन्दाय भूयान्मधुमथनमनोनन्दनो नन्दको न॥
कम्राकारा मुरारे करकमलतलेनानुरागाद्गृहीता
सम्यग्वृत्ता स्थिताग्रसपदि न सहते दर्शन या परेषाम्।
राजन्ती दैत्यजीवासवमदमुदिता लोहितालेपनार्द्रा
काम दीप्ताशुकान्ता प्रदिशतु दयितेवास्य कौमोदकी न॥
यो विश्वप्राणभूतस्तनुरपि च हरेर्यानकेतुस्वरूपो
य सचिन्त्यैव सद्य स्वयमुरगवधूवर्गगर्भा पतन्ति।
चञ्चच्चण्डोरुतुण्डत्रुटितफणिवसारक्तपङ्काङ्कितास्य
वन्दे छन्दोमय त खगपतिममलस्वर्णवर्णं सुपर्णम्॥६॥
विष्णोर्विश्वेश्वरस्य प्रवरशयनकृत्सर्वलोकैकधर्ता
सोऽनन्त सर्वभूत पृथुविमलयशा सर्ववेदैश्च वेद्य।
पाता विश्वस्य शश्वत्सकलसुररिपुध्वसन पापहन्ता
सर्वज्ञ सर्वसाक्षी सकलविषभयात्पातु भोगीश्वरो न॥
वाग्भूगौर्यादिभेदैर्विदुरिह मुनयो या यदीयैश्चपुसा
कारुण्यार्द्रैकटाक्षै सकृदपि पतितै सपद स्यु समग्रा।
कुन्देन्दुस्वच्छमन्दस्मितमधुरमुखाम्भोरुहा सुन्दराङ्गीं
वन्दे वन्द्यामशेषैरपि मुरभिदुरोमन्दिरामिन्दिरा ताम्॥
या सूते सत्वजाल सकलमपि सदा सनिधानेन पुसो
धत्ते या तत्त्वयोगाच्चरमचरमिद भूतये भूतजातम्।
धात्रींस्थात्रीं जनित्रीं प्रकृतिमविकृतिं विश्वशक्तिं विधात्रीं
विष्णोर्विश्वात्मनस्ता विपुलगुणमयीं प्राणनाथा प्रणौमि॥
येभ्योऽसूयद्भिरुच्चै सपदि पदमुरु त्यज्यते दैत्यवर्गै-
र्येभ्यो धर्तुं च मूर्ध्ना स्पृहयति सतत सर्वगीर्वाणवर्ग।
नित्य निर्मूलयेयुर्निचिततरममी भक्तिनिघ्नात्मना न
पद्माक्षस्याङ्घ्रिपद्मद्वयतलनिलया पासव पापपङ्कम्॥
रेखा लेखादिवन्द्याश्चरणतलगताश्चक्रमत्स्यादिरूपा
स्निग्धा सूक्ष्मा सुजाता मृदुललिततरक्षौमसूत्रायमाणा।
दद्युर्नो मङ्गलानि भ्रमरभरजुषा कोमलेनाब्धिजाया
कम्रेणाम्रेड्यमाना किसलयमृदुना पाणिना चक्रपाणे॥
यस्मादाक्रामतो द्या गरुडमणिशिलाकेतुदण्डायमाना
दाश्च्योतन्ती बभासे सुरसरिदमला वैजयन्तीव कान्ता।
भूमिष्ठो यस्तथान्यो भुवनगृहबृहत्स्तम्भशोभा दधौ न
पातामेतौ पयोजोदरललिततलौपङ्कजाक्षस्य पादौ॥
आक्रामद्भ्या त्रिलोकीमसुरसुरपती तत्क्षणादेव नीतौ
याभ्या वैरोचनीन्द्रौ युगपदपि विपत्सपदोरेकधाम।
ताभ्या ताम्रोदराभ्या मुहुरहमजितस्याञ्चिताभ्यामुभाभ्या
प्राज्यैश्वर्यप्रदाभ्या प्रणतिमुपगत पादपङ्केरुहाभ्याम्॥
येभ्यो वर्णश्चतुर्थश्चरमत उदभूदादिसग प्रजाना
साहस्री चापि सरया प्रकटमभिहिता सर्ववेदेषु येषाम्।
प्राप्ता विश्वभरा यैरतिवितततनोर्विश्वमूर्तेर्विराजो
विष्णोस्तेभ्यो महद्भ्य सततमपि नमोऽस्त्वङ्घ्रिपङ्केरुहेभ्य॥
विष्णो पादद्वयाग्रेविमलनखमणिभ्राजिता राजते या
राजीवस्येव रम्या हिमजलकणिकालकृताग्रादलाली।
अस्माक विस्मयार्हाण्यखिलजनमन प्रार्थनीया हि सेय
दद्यादाद्यानवद्या ततिरतिरुचिरा मङ्गलान्यङ्गुलीनाम्॥
यस्या दृष्ट्वामलाया प्रतिकृतिममरा सभवन्त्यानमन्त
सेन्द्रा सान्द्रीकृतेर्ष्यास्त्वपरसुरकुलाशङ्कयातङ्कवन्त।
सा सद्य सातिरेका सकलसुखकरीं सपद साधयेन्न
श्चञ्चच्चार्वंशुचक्रा चरणनलिनयोश्चक्रपाणेर्नखाली॥
पादाम्भोजन्मसेवासमवनतसुरव्रातभास्वत्किरीट-
प्रत्युप्तोच्चावचाश्मप्रवरकरगणैश्चितितयद्विभाति।
नम्राङ्गाना हरेर्नोहरिदुपलमहाकूर्मसौन्दर्यहारि-
च्छाय श्रेय प्रदायि प्रपदयुगमिद प्रापयत्पापमन्तम्॥
श्रीमत्यौ चारुवृत्ते करपरिमलनानन्दहृष्टे रमाया
सौन्दर्याढ्येन्द्रनीलोपलरचितमहादण्डयो कान्तिचोरे।
सूरीन्द्रैस्तूयमाने सुरकुलसुखदे सूदितारातिसघे
जङ्घेनारायणीये मुहुरपि जयतामस्मदहो हरन्त्यौ॥
सम्यक्साह्यविधातु सममिव सतत जङ्घयोखिन्नयोर्ये
भारीभूतोरुदण्डद्वयभरणकृतोत्तम्भभाव भजेते।
चित्तादर्शं निधातु महितमिव सताते समुद्रायमान
वृत्ताकारे विधत्ता हृदि मुदमजितस्यानिश जानुनी न॥
देवो भीतिं विधातु सपदि विदधतौ कैटभाख्य मधु चा
प्यारोप्यारूढगर्वावधिजलधि ययोरादिदैत्यौ जघान।
वृत्तावन्योन्यतुल्यौ चतुरमुपचय बिभ्रतावभ्रनीला
वूरू चारू हरेस्तौ मुदमतिशयिनीं मानस नो विधत्ताम्॥
पीतेन द्योतते यच्चतुरपरिहितेनाम्बरेणात्युदार
जातालकारयोग जलमिव जलधेर्बाडबाग्निप्रभाभि।
एतत्पातित्यदान्नो जघनमतिघनादेनसो माननीय
सातत्येनैव चेतोविषयमवतरत्पातु पीताम्बरस्य॥२१॥
यस्या दाम्ना त्रिधाम्नो जघनकलितया भ्राजतेऽङ्ग यथाब्धे-
र्मध्यस्थो मन्दराद्रिभुजगपतिमहाभागसनद्धमध्य।
काञ्चीसा काञ्चनाभा मणिवरकिरणैरुल्लसद्भिप्रदीप्ता
कल्या कल्याणदात्री मम मतिमनिश कम्ररूपा करोतु॥
उन्नम्रकम्रमुच्चैरुपचितमुदभूद्यत्र पत्रैर्विचित्रै
पूर्वं गीर्वाणपूज्य कमलजमधुपस्यास्पद तत्पयोजम्।
यस्मिन्नीलाश्मनीलैस्तरलरुचिजलै पूरिते केलिबुद्ध्या
नालीकाक्षस्य नाभीसरसि वसतु नश्चित्तहसश्चिराय॥
पाताल यस्य नाल वलयमपि दिशा पत्रपङ्क्तीर्नगेन्द्रा-
न्विद्वास केसरालीर्विदुरिह विपुला कर्णिका स्वर्णशैलम्।
भूयाद्गायत्स्वयभूमधुकरभवन भूमय कामद नो
नालीक नाभिपद्माकरभवमुरु तन्नागशय्यस्य शौरे॥
आदौकल्पस्य यस्मात्प्रभवति वितत विश्वमेतद्विकल्पै
कल्पान्ते यस्य चान्त प्रविशति सकल स्थावर जङ्गम च।
अत्यन्ताचिन्त्यमूर्तेश्चिरतरमजितस्यान्तरिक्षस्वरूपे
तस्मिन्नस्माकमन्त करणमतिमुदा क्रीडतात्क्रोडभागे॥
कान्त्यम्भ पूरपूर्णे लसदसितवलीभङ्गभास्वत्तरङ्गे
गम्भीराकारनाभीचतुरतरमहावर्तशोभिन्युदारे।
क्रीडत्वानद्वहेमोदरनहनमहाबाडबाग्निप्रभाढ्ये
काम दामोदरीयोदरसलिलनिधौ चित्तमत्स्यश्चिर न॥
नाभीनालीकमूलादधिकपरिमलोन्मोहितानामलीना
माला नीलेवयान्ती स्फुरति रुचिमती वक्त्रपद्योन्मुखी या।
रम्या सा रोमराजिर्महितरुचिकरी मध्यभागस्य विष्णो-
श्चित्तस्था मा विरसीच्चिरतरमुचिता साधयन्ती श्रीय न॥
सस्तीर्णं कौस्तुभाशुप्रसरकिसलयैर्मुग्धमुक्ताफलाढ्य
श्रीवत्सोल्लासिफुल्लप्रतिनववनमालाङ्कि राजद्भुजान्तम्।
वक्ष श्रीवृक्षकान्त मधुकरनिकरश्यामल शार्ङ्गपाणे
ससाराध्वश्रमार्तैरुपवनमिव यत्सेवित तत्प्रपद्ये॥२८॥
कान्त वक्षो नितान्त विदधदिव गल कालिमा कालशत्रो
रिन्दोर्बिम्ब यथाङ्को मधुप इव तरोर्मञ्जरीं राजत य।
श्रीमान्नित्य विधेयादविरलमिलित कौस्तुभश्रीप्रतानै
श्रीवत्स श्रीपत सश्रिय इव दयितो वत्स उच्चै श्रिय न॥
सभूयाम्भोधिमध्यात्सपदि सहजया य श्रिया सनिधत्ते
नीले नारायणोर स्थलगगनतले हारतारोपसेव्ये।
आशा सर्वा प्रकाशा विदधदपिदधच्चात्मभासान्यतेजा
स्याश्चर्यस्याकरो नो द्युमणिरिव मणि कौस्तुभ सोऽस्तु भूत्यै॥
या वायावानुकूल्यात्सरति मणिरुचा भासमाना समाना
साक साकम्पमसे वसति विदधती वासुभद्र सुभद्रम्।
सार सारङ्गसघैर्मुखरितकुसुमा मेचकान्ता च कान्ता
माला मालालितास्मान्न विरमतु सुखैर्योजयन्ती जयन्ती॥
हारस्योरुप्रभाभि प्रतिनववनमालाशुभि प्राशुरूपै
श्रीभिश्चाप्यङ्गदाना कबलितरुचि यन्निष्कभाभिश्चभाति।
बाहुल्येनैव बद्धाञ्जलिपुटमजितस्याभियाचामहे त
द्वन्धार्तिं बाधता नो बहुविहतिकरीं बन्धुर बाहुमूलम्॥
विश्वत्राणैकदीक्षास्तदनुगुणगुणक्षत्रनिर्माणदक्षा
कर्तारो दुर्निरूपस्फुटगुणयशसा कर्मणामद्भुतानाम्।
शार्ङ्गं बाण कृपाण फलकमरिगदे पद्मशङ्खौ सहस्र
बिभ्राणा शस्त्रजाल मम दधतु हरर्बाहवो मोहहानिम्॥
कण्ठाकल्पोद्गतैर्य कनकमयलसत्कुण्डलोत्थैरुदारै
रुद्योतैकौस्तुभस्याप्युरुभिरुपचितश्चित्रवर्णो विभाति।
कण्ठाश्लेषे रमाया करवलयपदैर्मुद्रिते भद्ररूपे
वैकुण्ठीयेऽत्र कण्ठे वसतु मम मति कुण्ठभाव विहाय॥
पद्मानन्दप्रदाता परिलसदरुणश्रीपरीताग्रभाग
काले काले च कम्बुप्रवरशशधरापूरणे य प्रवीण।
वक्राकाशान्तरस्थस्तिरयति नितरा दन्ततारौघशोभा
श्रीभर्तुर्दन्तवासोद्युमणिरघतमोनाशनायास्त्वसौ न॥
नित्य स्नेहातिरेकान्निजकमितुरल विप्रयोगाक्षमा या
वक्त्रेन्दोरन्तराले कृतवसतिरिवाभाति नक्षत्रराजि।
लक्ष्मीकान्तस्य कान्ताकृतिरतिविलसन्मुग्धमुक्तावलिश्री-
र्दन्ताली सतत सा नतिनुतिनिरतानक्षतान्रक्षतान्न॥
ब्रह्मन्ब्रह्मण्यजिह्मा मतिमपि कुरुषे देव सभावये त्वा
शभो शक्रत्रिलोकीमवसि किममरैर्नारदाद्या सुख व।
इत्थ सेवावनम्र सुरमुनिनिकर वीक्ष्य विष्णो प्रसन्न
स्यास्येन्दोरास्त्रवन्ती वरवचनसुधाह्लादयेन्मानस न॥
कर्णस्थस्वर्णकम्रोज्ज्वलमकरमहाकुण्डलप्रोतदीप्य
न्माणिक्यश्रीप्रतानैपरिमिलितमलिश्यामल कोमल यत्।
प्रोद्यत्सूर्यांशुराजन्मरकतमुकुराकारचोर मुरारे
र्गाढामागामिनीं न शमयतु विपद गण्डयोर्मण्डल तत्॥
वक्ताम्भोजे लसन्त मुहुरधरमणिं पक्वबिम्बाभिराम
दृष्ट्वा द्रष्टु शुकस्य स्फुटमवतरतस्तुण्डदण्डायते य।
घोण शोणीकृतात्मा श्रवणयुगलसत्कुण्डलोस्त्रैर्मुरारै
प्राणाख्यस्यानिलस्य प्रसरणसरणि प्राणदानाय न स्यात्॥
दिक्कालौ वेदयन्तौजगति मुहुरिमौ सचरन्तौ रवीन्दू
त्रैलोक्यालोकदीपावभिदधति ययोरेव रूप मुनीन्द्रा।
अस्मानब्जप्रभे ते प्रचुरतरकृपानिर्भर प्रेक्षमाणे
पातामाताम्रशुक्लासितरुचिरुचिरे पद्मनेत्रस्य नेत्रे॥४०॥
पातात्पातालपातात्पतगपतिगतेर्भ्रूयुग भुग्नमध्य
येनेषच्चालितेन स्वपदनियमिता सासुरा देवसघा।
नृत्यल्लालाटरङ्गेरजनिकरतनारर्धखण्डावदाते
कालव्यालद्वय वा विलसति समया वालिकामातर न॥
लक्ष्माकारालकालिस्फुरदलिकशशाङ्कार्धसदर्शमील-
न्नेत्राम्भोजप्रबोधोत्सुकनिभृततरालीनभृङ्गच्छटाभ।
लक्ष्मीनाथस्य लक्ष्यीकृतविबुधगणापाङ्गबाणासनार्ध-
च्छाये तो भूरिभूतिप्रसवकुशलते भ्रूलते पालयेताम्॥
रूक्षस्मारक्षुचापच्युतशरनिकरक्षीणलक्ष्मीकटाक्ष-
प्रोत्फुल्लत्पद्ममालाविलसितमहितस्फाटिकैशानलिङ्गम्।
भूयाद्भूयो विभूत्यै मम भुवनपतेभ्रूलताद्वन्द्वमध्या
दुत्थतत्पुण्ड्रमूर्ध्वं जनिमरणतम खण्डन मण्डन च॥
पीठीभूतालकान्त कृतमकुटमहादेवलिङ्गप्रतिष्ठे
ललाटे नाट्यरङ्गेविकटतरतटे कैटभारेश्चिराय।
प्रोद्धाट्यैवात्मतन्द्रीप्रकटपटकुटीं प्रस्फुरन्ती स्फुटाङ्ग
पट्वीय भावनारया चटुलमतिनटी नाटिका नाटयेन्न॥
मालालीवालिधाम्नकुवलयकलिता श्रीपते कुन्तलाली
कालिन्द्यारुह्यमूर्ध्नोगलति हरशिर स्वर्धुनीस्पर्धया नु।
राहुर्वा याति वक्त्र सकलशशिकलाभ्रान्तिलोलान्तरात्मा
लोकैरालोक्यते या प्रदिशतु सतत साखिल मङ्गल न॥
सुप्ताकारा प्रसुप्ते भगवति विबुधैरप्यदृष्टस्वरूपा
व्याप्तव्योमान्तरालास्तरलमणिरुचा रञ्जिता स्पष्टभास।
देहच्छायोद्गमाभा रिपुवपुरगरुप्लोषरोषाग्निधूम्या
केशा केशिद्विषो नो विदधतु विपुलक्लेशपाशप्रणाशम्॥
यत्र प्रत्युप्तरत्नप्रवरपरिलसद्भूरिरोचिष्प्रतान-
स्फूर्त्यां मूर्तिर्मुरारेर्द्युमणिशतचितव्योमवद्दुर्निरीक्ष्या।
कुर्वत्पारेपयोधि ज्वलदकृशशिखाभास्वदौर्वाग्निशङ्का
शश्वन्न शर्म दिश्यात्कलिकलुषतम पाटन तत्किरीटम्॥
भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा यदन्तस्त्रिभुवनगुरुप्यब्दकोटीरनेका
गन्तु नान्त समर्थो भ्रमर इव पुनर्नाभिनालीकनालात्।
उन्मज्जन्नूर्जितश्रीस्त्रिभुवनमपर निममे तत्सदृक्ष
देहाम्भोधि सदेयान्निरवधिरमृत दैत्यविद्वेषिणो न॥
मत्स्य कूर्मो वराहो नरहरिणपतिवामनो जामदग्न्य
काकुत्स्थ कसघाती मनसिजविजयी यश्च कल्किर्भविष्यन्।
विष्णोरशावतारा भुवनहितकरा धर्मसस्थापनाथा
पायासुर्मांत एते गुरुतरकरुणाभारखिन्नाशया ये॥४९॥
यस्माद्वाचो निवृत्ता सममपि मनसा लक्षणामीक्षमाणा
स्वार्थालाभात्परार्थव्यपगमकथनश्लाघिनो वेदवादा।
नित्यानन्द स्वसविन्निरवधिविमलस्वान्तसक्रान्तबिम्ब
च्छायापत्यापि नित्य सुखयति यमिनो यत्तदव्यान्महो न॥
आपादादा च शीर्षाद्वपुरिदमनघ वैष्णव य स्वचित्ते
धत्ते नित्य निरस्ताखिलकलिकलुष सततान्त प्रमोदम्।
जुह्वज्जिह्वाकृशानौ हरिचरितहवि स्तोत्रमन्त्रानुपाठै
म्तत्पादाम्भोरुहाभ्या सततमपि नमस्कुर्महे निर्मलाभ्याम्॥
मोदात्पादादिकेशस्तुतिमितिरचिता कीर्तयित्वा त्रिधाम्न
पादाब्जद्वन्द्वसेवासमयनतमतिर्मस्तकेनानमेद्य।
उन्मुच्यैवात्मनैनोनिचयकवचक पञ्चतामेत्य भानो-
र्बिम्बान्तर्गोचर स प्रविशति परमानन्दमात्मस्वरूपम्॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
विष्णुपादादिकेशान्तस्तोत्र
सपूर्णम्॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1722310545Screenshot(68"/>.png)
॥श्री॥
॥पाण्डुरङ्गाष्टकम्॥
————
महायोगपीठे तटे भीमरथ्या
वर पुण्डरीकाय दातु मुनीन्द्रै।
समागत्य तिष्ठन्तमानन्दकन्द
परब्रह्मलिङ्गभजे पाण्डुरङ्गम्॥१॥
तटिद्वासस नीलमेघावभास
रमामन्दिर सुन्दर चित्प्रकाशम्।
वर त्विष्टकाया समन्यस्तपाद
परब्रह्मलिङ्ग भजे पाण्डुरङ्गम्॥२॥
प्रमाण भवाब्धेरिद मामकाना
नितम्ब कराभ्या धृतो यन तस्मात्।
विधातुर्वसत्यै धृतो नाभिकोश
परब्रह्मलिङ्ग भजे पाण्डुरङ्गम्॥३॥
स्फुरत्कौस्तुभालकृत कण्ठदेशे
श्रिया जुष्टकेयूरक श्रीनिवासम्।
शिव शन्तमीड्य वर लोकपाल
परब्रह्मलिङ्ग भजे पाण्डुरङ्गम्॥४॥
शरच्चन्द्रबिम्बानन चारुहास
लसत्कुण्डलाक्रान्तगण्डस्थलान्तम्।
जपारागबिम्बाधर कञ्जनेत्र
परब्रह्मलिङ्ग भजे पाण्डुरङ्गम्॥५॥
किरीटोज्ज्वलत्सर्वदिक्प्रान्तभाग
सुरैरर्चित दिव्यरत्नैरनर्घै।
त्रिभङ्गाकृतिं बर्हमाल्यावतस
परब्रह्मलिङ्ग भजे पाण्डुरङ्गम्॥६॥
विभु वेणुनाद चरन्त दुरन्त
स्वय लीलया गोपवेष दधानम्।
गवा बृन्दकानन्दद चारुहास
परब्रह्मलिङ्ग भजे पाण्डुरङ्गम्॥७॥
अज रुक्मिणीप्राणसजीवन त
पर धाम कैवल्यमेक तुरीयम्।
प्रसन्न प्रपन्नार्तिह देवदेव
परब्रह्मलिङ्ग भजे पाण्डुरङ्गम्॥८॥
स्तव पाण्डुरङ्गस्य वै पुण्यद ये
पठन्त्येकचित्तेन भक्त्या च नित्यम्।
भवाम्भोनिधि ते वितीर्त्वान्तकाले
हरेरालय शाश्वत प्राप्नुवन्ति॥९॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोवि दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रामच्छकरभगवत कृतौ
पाण्डुरङ्गाष्टक सपूर्णम्॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1722233408Screenshot2024-07-29113926.png"/>
॥श्री॥
॥अच्युताष्टकम्॥
———
अच्युत केशव रामनारायण
** कृष्णदामोदर वासुदेव हरिम्।
श्रीधर माधव गोपिकावल्लभ
जानकीनायक रामचन्द्र भजे॥१॥**
अच्युत केशव सत्यभामाधव
माधव श्रीधर राधिकाराधितम्।
इन्दिरामन्दिर चेतसा सुन्दर
देवकीनन्दन नन्दज सदधे॥२॥
विष्णवे जिष्णवे शङ्खिने चक्रिणे
रुक्मणीरागिणे जानकीजानये।
वल्लवीवल्लभायार्चितायात्मने
कसविध्वसिने वशिने ते नमः॥३॥
कृष्ण गोविन्द हे राम नारायण
श्रीपते वासुदेवाजित श्रीनिधे।
अच्युतानन्त हे माधवाधोक्षज
द्वारकानायक द्रौपदीरक्षक॥४॥
राक्षसक्षोभित सीतया शोभितो
दण्डकारण्यभूपुण्यताकारणम्।
लक्ष्मणेनान्वितो वानरै सेवितो
ऽगस्त्यसपूजितो राघव पातु माम्॥५॥
धेनुकारिष्टहानिष्टकृद्द्वेषिणा
केशिहा कसहृद्वशिकावादक।
पूतनाकापक सूरजाखलनो
बालगोपालक पातु मा सर्वदा॥६॥
विद्युदुद्योतवत्प्रस्फुरद्वासस
प्रावृडम्भोदवत्प्रोल्लसद्विग्रहम्।
वन्यथा मालया शोभितोर स्थल
लोहिताङ्घ्रिद्वय वारिजाक्ष भजे॥७॥
कुञ्चितै कुन्तलैर्भ्राजमानानन
रत्नमौलिं लसत्कुण्डल गण्डयो।
हारकेयूरक कङ्कणप्रोज्ज्वल
किंकिणीमञ्जुल श्यामल त भजे॥८॥
अच्युतस्याष्टक य पठेदिष्टद
प्रेमत प्रत्यह पूरुष सस्पृहम्।
वृत्तत सुन्दर वेद्यविश्वभर
तस्य वश्यो हरिर्जायते सत्वरम्॥९॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्रजकाचायस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
अच्युताष्टक सपूर्णम्॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1722238575Screenshot2024-07-29130532.png"/>
॥श्री॥
॥कृष्णाष्टकम्॥
———
श्रियाश्लिष्टो विष्णु स्थिरचरगुरुर्वेदविषयो
धिया साक्षी शुद्धो हरिरसुरहन्ताब्जनयन।
गदी शङ्खी चक्री विमलवनमाली स्थिररुचि
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय॥१॥
यत सर्व जात वियदनिलमुख्य जगदिद
स्थितौ नि शेष योऽवति निजसुखाशेन मधुहा।
लये सर्वं स्वस्मिन्हरति कलया यस्तु स विभु
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय॥२॥
असूनायम्यादौ यमनियममुरयै सुकरणै
र्निरुद्ध्येद चित्त हृदि विलयमानीय सकलम्।
यमीड्य पश्यन्ति प्रवरमतयो मायिनमसौ
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय॥
पृथिव्या तिष्ठन्यो यमयति महीं वेद न धरा
यमित्यादौ वेदो वदति जगतामीशममलम्।
नियन्तार ध्येय मुनिसुरनृणा मोक्षदमसौ
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय॥
महेन्द्रादिर्देवो जयति दितिजान्यस्य बलतो
न कस्य स्वातन्त्र्य क्वचिदपि कृतौ यत्कृतिमृते।
बलारातेर्गर्वपरिहरति योऽसौ विजयिन
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय॥
विना यस्य ध्यान व्रजति पशुता सूकरमुखा
विना यस्य ज्ञान जनिमृतिभय याति जनता।
विना यस्य स्मृत्या कृमिशतजनिं याति स विभु
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय॥६॥
नरातङ्कोट्टङ्क शरणशरणो भ्रान्तिहरणो
घनश्यामो वामो व्रजशिशुवयस्योऽर्जुनसख।
स्वयभूर्भूताना जनक उचिताचारसुखद
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय॥७॥
यदा धर्मग्लानिर्भवति जगता क्षोभकरणी
तदा लोकस्वामी प्रकटितवपु सेतुधृदज।
सता धाता स्वच्छो निगमगणगीतो व्रजपति
शरण्यो लोकेशो मम भवतु कृष्णोऽक्षिविषय॥८॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोवि दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
कृष्णाष्टक सपूर्णम्॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1722239395Screenshot2024-07-29131914.png"/>
॥श्री॥
॥हरिस्तुतिः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1722239638Screenshot(63"/>.png)
स्तोष्ये भक्त्या विष्णुमनादिं जगदादिं
यस्मिन्नेतत्ससृतिचक्र भ्रमतीत्थम्।
यस्मिन्दृष्टे नश्यति तत्ससृतिचक्र
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥१॥
यस्यैकाशादित्थमशेष जगदेत-
त्प्रादुर्भूत येन पिनद्ध पुनरित्थम्।
येन व्याप्त येन विबुद्ध सुखदु खै
स्त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥२॥
सर्वज्ञो यो यश्च हि सर्व सकलो यो
यश्चानन्दोऽनन्तगुणो यो गुणधामा।
यश्चाव्यक्तो व्यस्तसमस्त सदसद्य
स्त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥३॥
यस्मादन्यन्नास्त्यपि नैव परमार्थ
दृश्यादन्यो निर्विषयज्ञानमयत्वात्।
ज्ञातृज्ञानज्ञेयविहीनाऽपि सदा ज्ञ
स्त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥४॥
आचार्येभ्यो लब्धसुसूक्ष्माच्युततत्त्वा
वैराग्येणाभ्यासबलाच्चैव द्रढिम्ना।
भक्त्यैकाग्र्यध्यानपरा य विदुरीश
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥५॥
प्राणानायम्योमिति चित्त हृदि रुध्वा
नान्यत्स्मृत्वा तत्पुनरत्रैव विलाप्य।
क्षीणे चित्त भादृशिरस्मीति विदुर्य
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥६॥
यब्रह्माख्य देवमनन्य परिपूर्ण
हृत्स्थ भक्तैर्लभ्यमज सूक्ष्ममतर्क्यम्।
ध्यात्वात्मस्थ ब्रह्मविदो य विदुरीश
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥७॥
मात्रातीत स्वात्मविकासात्मविबोध
ज्ञेयातीत ज्ञानमय हृद्युपलभ्य।
भावग्राह्यानन्दमनन्य च विदुर्यं
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥८॥
यद्यद्वेद्यवस्तुसतत्त्व विषयाख्य
तत्तद्ब्रह्मैवेति विदित्वा तदह च।
ध्यायन्त्येव य सनकाद्या मुनयोऽज
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥९॥
यद्यद्वेद्य तत्तदह नेति विहाय
स्वात्मज्योतिर्ज्ञानमयानन्दमवाप्य।
तस्मिन्नस्मीत्यात्मविदो य विदुरीश
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥१०॥
हित्वाहित्वा दृश्यमशेष सविकल्प
मत्वा शिष्ट भादृशिमात्र गगनाभम्।
त्यक्त्वा देह य प्रविशन्त्यच्युतभक्ता-
स्त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥११॥
सर्वत्रास्त सर्वशरीरी न च सर्व
सर्वं वेत्त्येवेह न य वेति च सव।
सर्वत्रान्तर्यामितयेत्थ यमयन्य-
स्तससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥१२॥
सर्वं दृष्ट्वा स्वात्मनि युक्त्या जगदेत-
द्दृष्ट्वात्मान चैवमज सर्वजनेषु।
सर्वात्मैकोऽस्मीति विदुर्य जनहृत्स्थ
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥१३॥
सर्वत्रैक पश्यति जिघ्रत्यथ भुङ्क्ते
स्प्रष्टा श्रोता बुध्यति चेत्याहुरिम यम।
साक्षी चास्ते कर्तृषु पश्यन्निति चान्ये
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥१४॥
पश्यञ्शृण्वन्नत्रविजानन्रसयन्स
जिघ्रद्बिभ्रद्देहमिम जीवतयेत्थम्।
इत्यात्मान य विदुरीश विषयज्ञ
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥१५॥
जाग्रद्दृष्ट्वा स्थूलपदार्थानथ माया
दृष्ट्वा स्वप्नेऽथापि सुषुप्तौसुखनिद्राम।
इत्यात्मान वीक्ष्य मुदास्त च तुरीये
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥१६॥
पश्यञ्शुद्धोऽप्यक्षरएका गुणभेदा
न्नानाकारान्स्फाटिकवद्भाति विचित्र।
भिन्नश्छिन्नश्चायमज कर्मफलैर्य
स्त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥१७॥
ब्रह्मा विष्णू रुद्रहुताशौ रविचन्द्रा
विन्द्रो वायुर्यज्ञ इतीत्थ परिकल्प्य।
एक सन्त य बहुधाहुर्मतिभेदा
त्त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥१८॥
सत्य ज्ञान शुद्धमनन्त व्यतिरिक्त
शान्त गूढ निष्कलमानन्दमनन्यम्।
इत्याहादौ य वरुणोऽसौ भृगवेऽज
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥१९॥
कोशानेतान्पञ्च रसादीनतिहाय
ब्रह्मास्मीति स्वात्मनि निश्चित्य दृशिस्थम्।
पित्रा शिष्टो वेद भृगुर्यंयजुरन्ते
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥२०॥
येनाविष्टो यस्य च शक्त्या यदधीन
क्षेत्रज्ञोऽय कारयिता जन्तुषु कर्तु।
कर्ता भोक्तात्मात्र हि यच्छक्त्यधिरूढ
स्तससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥२१॥
सृष्ट्वा सर्वं स्वात्मतयैवत्थमतर्क्यं
व्याप्याथान्त कृत्स्नमिद सृष्टमशेषम्।
सच्चत्यच्चाभूत्परमात्मा स य एक
स्त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥२२॥
वेदान्तैश्चाध्यात्मिकशास्त्रैश्च पुराणै
शास्त्रैश्चान्ये सात्त्वततन्त्रैश्च यमीशम।
दृष्ट्वाथान्तश्चेतसि बुद्ध्वाविविशुर्यं
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥२३॥
श्रद्धाभक्तिध्यानशमाद्यैर्यतमानै-
र्ज्ञातु शक्यो देव इहैवाशु य ईश।
दुर्विज्ञेयो जन्मशतैश्चापि विना तै-
स्तससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥२४॥
यस्यातर्क्यंस्वात्मविभूत परमार्थं
सर्वं खल्वित्यत्र निरुक्त श्रुतिविद्भि।
तज्जातित्वादब्धितरङ्गाभमभिन्न
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥२५॥
दृष्ट्वा गीतास्वक्षरतत्त्व विधिनाज
भक्त्या गुर्व्या लभ्य हृदिस्थ दृशिमात्रम्।
ध्यात्वा तस्मिन्नस्म्यहमित्यत्र विदुर्यं
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥२६॥
क्षेत्रज्ञत्व प्राप्य विभु पञ्चमुखैर्यो
भुङ्क्तेऽजस्त्रभोग्यपदार्थान्प्रकृतिस्थ।
क्षेत्र क्षेत्रेऽप्स्विन्दुवदेको बहुधास्ते
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥२७॥
युक्त्यालोड्य व्यासवचास्यत्रहि लभ्य
क्षत्रक्षत्रज्ञान्तरावद्भि पुरुषाख्य।
याऽहसाऽसौसाऽस्म्यहमवात विदुर्य
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीड॥२८॥
एकाकृत्यानकशरीरस्थामम ज्ञ
य विज्ञायहैव सएवाशु भवन्ति।
यस्मिल्ँलीना नह पुनजन्म लभन्त
त ससारध्वान्तावनाश हरिमीड॥२९॥
द्वन्द्वैकत्व यच्च मधुब्राह्मणवाक्यै
कृत्वा शक्रापासनमासाद्य विभूत्या।
योऽसौसोऽह साऽस्म्यहमेवेति विदुर्य
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥३०॥
याऽय दह चेष्टयितान्त करणस्थ
सूर्ये चासौ तापायता सोऽस्म्यहमेव।
इत्यात्मैक्यापासनया य विदुरीश
त ससारध्वान्तावनाश हरिमीडे॥३१॥
विज्ञानाशो यस्य सत शक्त्यधिरूढा
बुद्धिर्बुध्यत्यत्र बाहर्बोध्यपदार्थान।
नैवान्त स्थ बुध्यति य बोधयितार
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥३२॥
कोऽय देह देव इतात्थ सुविचार्य
ज्ञाता श्राता मन्तयिता चैष हि देव।
इत्यालोच्य ज्ञाश इहास्मीति विदुर्यं
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥३३॥
का ह्यवान्यादात्मनि न स्यादयमष
ह्येवानन्द प्राणिति चापानिति चेति।
इत्यस्तित्व वक्त्युपपत्त्याश्रुतिरषा
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥३४॥
प्राणो वाह वाक्छ्रवणादीनि मना वा
बुद्धिर्वाह व्यस्त उताहोऽपि समस्त।
इत्यालोच्य ज्ञप्तिरिहास्मीति विदुर्यं
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥३५॥
नाह प्राणो नैव शरीर न मनोऽह
नाह बुद्धिर्नाहमहकारधियौ च।
योऽत्र ज्ञाश सोऽस्म्यहमेवेति विदुर्यं
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीड॥३६॥
सत्तामात्र कवलविज्ञानमज स-
त्सूक्ष्म नित्य तत्त्वमसीत्यात्मसुताय।
साम्नामन्ते प्राह पिता य विभुमाद्य
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीड॥३७॥
मूर्तामूर्ते पूर्वमपाह्याथ समाधौ
दृश्य सर्वंनेति च नतीति विहाय।
चैतन्याशे स्वात्मनि सन्त च विदुर्यं
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥३८॥
ओत प्रोत यत्रच सर्वंगगनान्त
योऽस्थूलानण्वादिषु सिद्धोऽक्षरसज्ञ।
ज्ञातातोऽन्यो नेत्युपलभ्यो न च वेद्य
स्त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥३९॥
तावत्सर्वंसत्यमिवाभाति यदेत-
द्यावत्सोऽस्मीत्यात्मनि यो ज्ञोन हि दृष्ट।
दृष्टे यस्मिन्सर्वमसत्य भवतीद
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥४०॥
रागामुक्त लोहयुक्त हेम यथाग्नौ
योगाष्टाङ्गैरुज्ज्वलितज्ञानमयाग्नौ।
दग्ध्वात्मान ज्ञ परिशिष्ट च विदुर्यं
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥४१॥
य विज्ञानज्योतिषमाद्य सुविभान्त
हृद्यर्केन्द्वग्न्योकसमीड्य तटिदाभम्।
भक्त्याराध्येहैव विशन्त्यात्मनि सन्त
त ससारध्वान्तविनाश हरिमीड॥४२॥
पायाद्भक्त स्वात्मनि सन्त पुरुष या
भक्त्या स्तौतीत्याङ्गिरसविष्णुरिम माम्।
इत्यात्मान स्वात्मनि सहृत्य सदैक
स्त ससारध्वान्तविनाश हरिमीडे॥४३॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचायस्य श्रीगोविदभग-
वत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
हरिस्तुति सपूर्णा॥
॥श्री॥
॥गोविन्दाष्टकम्॥
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सत्य ज्ञानमनन्त नित्यमनाकाश परमाकाश
गोष्ठप्राङ्गणरिङ्खणलालमनायासपरमायासम्।
मायाकल्पितनानाकारमनाकार भुवनाकार
क्ष्मामानाथमनाथ प्रणमत गोविन्द परमानन्दम॥१॥
मृत्स्नामत्सीहेतियशोदाताडनशैशवसत्रास
व्यादितवक्त्रालाकितलाकालोकचतुदशलोकालिम्।
लोकत्रयपुरमूलस्तम्भ लोकालाकमनालोक
लोकेश परमेश प्रणमत गोविन्द परमानन्दम्॥२॥
त्रैविष्टपरिपुवीरघ्नक्षितिभारध्नभवरागध्न
कैवल्य नवनीताहारमनाहार भुवनाहारम्।
वैमल्यस्फुटचेतोवृत्तिविशेषाभासमनाभास
शैव केवलशान्त प्रणमत गोविन्द परमानन्दम्॥३॥
गोपाल प्रभुलीलाविग्रहगोपाल कुलगोपाल
गोपीखेलनगोवधनधृतिलीलालालितगोपालम्।
गोभिर्निगदितगोविन्दस्फुटनामान बहुनामान
गोधीगोचरदूर प्रणमत गोविन्द परमानन्दम्॥४॥
गोपीमण्डलगोष्ठीभेद भदावस्थमभेदाभ
शश्वद्गोखुरनिर्धूतोद्गतधूलीधूसरसौभाग्यम्।
श्रद्धाभक्तिगृहीतानन्दमचिन्त्य चिन्तितसद्भाव
चिन्तामणिमहिमान प्रणमत गोविन्द परमानन्दम्॥
स्नानव्याकुलयोषिद्वस्त्रमुपादायागमुपारूढ
व्यादित्सन्तीरथ दिग्वस्त्रा दातुमुपाकर्षन्त ता।
निर्धूतद्वयशोकविमोह बुद्ध बुद्धेरन्त स्थ
सत्तामात्रशरीर प्रणमत गोविन्द परमानन्दम्॥६॥
कान्त कारणकारणमादिमनादिं कालधनाभास
कालिन्दीगतकालियशिरसि सुनृत्यन्त मुहुरत्यन्तम्।
काल कालकलातीत कलिताशष कलिदोषघ्न
कालत्रयगतिहेतु प्रणमत गोविन्द परमानन्दम्॥७॥
वृन्दावनभुवि वृन्दारकगणवृन्दाराधितवन्द्याया
कुन्दाभामलमन्दस्मेरसुधानन्द सुमहानन्दम्।
वन्द्याशेषमहामुनिमानसवन्द्यानन्दपदद्वन्द्व
नन्द्याशेषगुणाब्धिंप्रणमत गोविन्द परमानन्दम्॥८॥
गोविन्दाष्टकमेतदधीत गोविन्दार्पितचता या
गोविन्दाच्युत माधव विष्णा गोकुलनायक कृष्णेति।
गोविन्दाङ्घ्रिसरोजध्यानसुधाजलधौतसमस्ताघा
गोविन्द परमानन्दामृतमन्तस्थस तमभ्येति॥९॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोवि दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
गाविन्दाष्टक सपूर्णम्॥
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॥श्रीः॥
॥भगवन्मानसपूजा॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1722264483Screenshot(63"/>.png)
हृदम्भोजे कृष्ण सजलजलदश्यामलतनु
सरोजाक्ष स्रग्वी मकुटकटकाद्याभरणवान्।
शरद्राकानाथप्रतिमवदन श्रीमुरलिका
वहन्ध्येयो गोपीगणपरिवृत कुङ्कुमचित॥१॥
पयोम्भोधेर्द्वीपान्मम हृदयमायाहि भगव
न्मणिव्रातभ्राजत्कनकवरपीठ भज हरे।
सुचिह्नौते पादौ यदुकुलज ननेज्मि सुजलै
र्ग्रहाणेददूर्वाफलजलवदर्घ्यंमुररिपो॥२॥
त्वमाचामोपेन्द्र त्रिदशसरिदम्भोऽतिशिशिर
भजस्वेमपञ्चामृतफलरसाप्लावमघहन्।
द्युनद्या कालिन्द्याअपि कनककुम्भस्थितमिद
जल तेन स्नान कुरु कुरु कुरुष्वाचमनकम्॥३॥
तटिद्वर्णे वस्त्र भज विजयकान्ताधिहरण
प्रलम्बारिभ्रातमृदुलमुपवीत कुरु गल।
ललाट पाटीर मृगमदयुत धारय हरे
गृहाणेद माल्य शतदलतुलस्यादिरचितम्॥४॥
दशाङ्ग धूप सद्वरद चरणाग्रऽपितामद
मुख दीपनेन्दुप्रभविरजस दव कलय।
इमौपाणी वाणीपतिनुत सकपूररजसा
विशोध्याग्रे दत्त सलिलमिदमाचाम नृहरे॥५॥
सदा तृप्तान्न षड्रसवदखिलव्यञ्जनयुत
सुवर्णामत्रेगोघृतचषकयुक्त स्थितमिदम्।
यशादासूना तत्परमदययाशान सखिभि
प्रसाद वाञ्छद्भिसह तदनु नार पिबविभा॥६॥
सचूर्णं ताम्बूल मुखशुचिकर भक्षय हर
फल स्वादु प्रीत्या पारमलवदास्वादय चिरम्।
सपर्यापर्याप्त्यै कनकमणिजात स्थितमिद
प्रदीपैरारार्तिं जलधितनयाश्लिष्ट रचये॥७॥
विजातीयैपुष्पैरतिसुरभिभिर्बिल्वतुलसी
युतैश्चेमपुष्पाञ्जालमजित त मूर्ध्नि निदध।
तव प्रादक्षिण्यक्रमणमघविध्वसिरचित
चतुर्वार विष्णा जनिपथगतश्चान्तविदुषा॥८॥
नमस्कारोऽष्टाङ्ग सकलदुरितध्वसनपटु
कृत नृत्य गीत स्तुतिरपि रमाकान्त त इयम।
तव प्रीत्यै भूयादहमपि च दासस्तव विभा
कृत छिद्र पूर्णं कुरु कुरु नमस्तऽस्तु भगवन्॥ ९॥
सदा सेव्य कृष्ण सजलघननील करतले
दधाना दध्यन्न तदनु नवनीत मुरलिकाम्।
कदाचित्कान्ताना कुचकलशपत्रालिरचना
समासक्त स्निग्धै सह शिशुविहार विरचयन्॥१०॥
इति श्रीमत्परमहसपारव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
भगवन्मानसपूजा सपूर्णा॥
॥श्री॥
॥मोहमुद्गरः॥
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भज गाविन्द भज गोविन्द
भज गोविन्द मूढमते।
प्राप्ते सनिहिते काले
न हि न हि रक्षति डुकृञ्करण॥१॥
मूढ जहीहि धनागमतृष्णा
कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसनिजकर्मोपात्त
वित्त तेन विनोदय चित्तम्॥२॥
नारीस्तनभरनाभीदेश
दृष्ट्वा मा गा माहावशम्।
एतन्मासवसादिविकार
मनसि विचिन्तय वार वारम्॥३॥
नलिनीदलगतजलमतितरल
तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्त
लाक शोकहत च समस्तम्॥४॥
यावद्वित्तोपार्जनसक्त
स्तावन्निजपरिवारो रक्त।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेह
वार्त्तांकोऽपि न पृच्छति गेहे॥५॥
यावत्पवनो निवसति देहे
तावत्पृच्छति कुशल गेहे।
गतवति वायौ दहापाये
भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये॥६॥
बालस्तावत्क्रीडासक्त
स्तरुणस्तावत्तरुणीसक्त।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्त
परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्त॥७॥
का ते कान्ता कस्तपुत्र
ससारोऽयमतीव विचित्र।
कस्य त्वं क कुत आयात
स्तत्त्व चिन्तय यदिदभ्रान्त॥८॥
सत्सङ्गत्वे नि सङ्गत्व
नि सङ्गत्व निर्मोहत्वम्।
निर्मोहत्व निश्चलितत्व
निश्चलितत्व जीव मुक्ति॥९॥
वयसि गते क कामावकार
शुष्क नीर क कासार।
क्षीणे वित्त कपरिवारो
ज्ञात तत्त्वे क ससार॥१०॥
मा कुरु धनजनयौवनगर्वं
हरति निमेषात्काल सर्वम्।
मायामयमिदमखिल हित्वा
ब्रह्मपद त्व प्रविश विदित्वा॥११॥
दिनयामिन्यौ साय प्रात
शिशिरवसन्तौ पुनरायात।
काल क्रीडति गच्छत्यायु
स्तदपि न मुञ्चत्याशावायु॥१२॥
काते कान्ताधनगतचिन्ता
वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जनसगतिरेका
भवति भवार्णवतरणे नौका॥१३॥
जटिली मुण्डी लुञ्चितकेश
काषायाम्बरबहुकृतवेष।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढो
ह्युदरनिमित्त बहुकृतवेष॥१४॥
अङ्ग गलित पलित मुण्ड
दशनविहीन जात तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्ड
तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्॥१५॥
अग्रेवह्निपृष्ठे भानू
रात्रौ चुबुकसमर्पितजानु।
करतलभिक्षस्तरुतलवास
स्तदपि न मुचत्याशापाश॥१६॥
कुरुत गङ्गासागरगमन
व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीन सर्वमतेन
मुक्तिं न भजति जन्मशतेन॥१७॥
सुरमन्दिरतरुमूलनिवास
शय्या भूतलमजिन वास।
सर्वपरिग्रहभोगत्याग
कस्य सुख न करोति विराग॥१८॥
योगरतो वा भोगरतो वा
सगरतो वा सगविहीन।
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्त
नन्दति नन्दति नन्दत्येव॥१९॥
भगवद्गीता किंचिदधीता
गङ्गाजललवकणिका पीता।
सकृदपि येन मुरारिसमर्चा
क्रियते तस्य यमेन न चर्चा॥२०॥
पुनरपि जनन पुनरपि मरण
पुनरपि जननीजठरे शयनम्।
इह ससारे बहुदुस्तारे
कृपयापारे पाहि मुरारे॥२१॥
रथ्याकर्पटविरचितकन्थ
पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थ।
योगी योगनियोजितचित्तो
रमते बालोन्मत्तवदेव॥२२॥
कस्त्व कोऽह कुत आयात
का मे जननी को मे तात।
इति परिभावय सर्वमसार
विश्व त्यक्त्वा स्वप्नविचारम्॥२३॥
त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णु
र्व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णु।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मान
सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम्॥२४॥
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ
मा कुरु यत्न विग्रहसन्धौ।
भव समचित्त सर्वत्र त्व
वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम्॥२५॥
काम क्रोध लोभ मोह
त्यक्त्वात्मान भावय काऽहम।
आत्मज्ञानविहीना मूढा
स्ते पच्यन्ते नरकनिगूढा॥२६॥
गेय गीतानामसहस्र
व्यय श्रीपतिरूपमजस्रम्।
नेय सज्जनसङ्गेचित्त
देय दीनजनाय च वित्तम्॥२७॥
सुखत क्रियते रामाभोग
पश्चाद्धन्त शरीरे रोग।
यद्यपि लोके मरण शरण
तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्॥२८॥
अर्थमनर्थंभावयनित्य
नास्ति तत सुखलेश सत्यम्।
पुत्रादपि धनभाजा भीति
सर्वत्रैषा विहिता रीति॥२९॥
प्राणायाम प्रत्याहार
नित्यानित्यविवेकविचारम्।
जाप्यसमेतसमाधिविधान
कुर्ववधान महदवधानम्॥३०॥
गुरुचरणाम्बुजनिर्भरभक्त
ससारादचिराद्भव मुक्त।
सेन्द्रियमानसनियमादेव
द्रक्ष्यसि निजहृदयस्थ देवम्॥३१॥
इति मोहमुद्गर सपूर्ण॥
॥श्री॥
॥कनकधारास्तोत्रम्॥
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अङ्ग हरे पुलकभूषणमाश्रयन्ती
भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरण तमालम्।
अङ्गीकृताखिलविभूतिरपाङ्गलीला
माङ्गल्यदास्तु मम मङ्गलदवताया॥१॥
मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारे
प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि।
मालादृशोमधुकरीव महोत्पले या
सा मे श्रिय दिशतु सागरसभवाया॥२॥
विश्वामरन्द्रपदविभ्रमदानदक्ष
मानन्दहेतुरधिक मुरविद्विषोऽपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्द्ध
मिन्दीवरोदरसहादरमिन्दिराया॥३॥
आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्द
मानन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम्।
आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्र
भूत्यै भवेन्मम भुजगशयाङ्गनाया॥४॥
बाह्वन्तरे मधुजित श्रितकौस्तुभेया
हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला
कल्याणमावहतु मे कमलालयाया॥५॥
कालाम्बुदालिललितारसि कैटभार-
र्धाराधरे स्फुरति यत्तटिदङ्गनेव।
मातु समस्तजगता महनीयमूर्ति
र्भद्राणि मे दिशतु भागवन दनाया॥६॥
प्राप्त पद प्रथमत खलु यत्प्रभावा-
न्माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन।
मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं
मन्दालस च मकरालयकन्यकाया॥७॥
दद्याद्दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा
मस्मिन्न किंचन विहगशिशौविषण्णे।
दुष्कर्मधर्ममपनीय चिराय दूर
नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाह॥८॥
इष्टाविशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र-
दृष्ट्या त्रिविष्टपपदसुलभ लभन्ते।
दृष्टि प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टा
पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टराया॥९॥
गीर्देवतेति गरुडध्वजसुन्दरीति
शाकभरीति शशिशेखरवल्लभेति।
सृष्टिस्थितिप्रलयकलिषु सस्थितायै
तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै॥१०॥
श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै
रत्यैनमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै।
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै
पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै॥११॥
नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै
नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूम्यै।
नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै
नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै॥१२॥
सपत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि
साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि।
त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि
मामेव मातरनिश कलयन्तु मान्ये॥१३॥
यत्कटाक्षसमुपासनाविधि
सेवकस्य सकलार्थसपद।
सतनोति वचनाङ्गमानसै
स्त्वा मुरारिहृदयेश्वरीं भजे॥१४॥
सरसिजनिलये सरोजहस्ते
धवलतमाशुकगन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे
त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्॥१५॥
दिघ्घस्तिभि कनककुम्भमुखावसृष्ट
स्वर्वाहिनीविमलचारुजलप्लुताङ्गीम्।
प्रातर्नमामि जगता जननीमशष
लोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम्॥१६॥
कमल कमलाक्षवल्लभ त्व
करुणापूरतरङ्गितैरपाङ्गे।
अवलोकय मामकिंचनाना
प्रथम पात्रमकृत्रिम दयाया॥१७॥
स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमीभिरन्वह
त्रयीमयींत्रिभुवनमातर रमाम्।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभाजिनो
भवन्ति त भुवि बुधभाविताशया॥१८॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचायस्य श्रीगोवि दभग-
वत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
कनकधारास्तोत्र सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥अन्नपूर्णाष्टकम्॥
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नित्यानन्दकरी वराभयकरी सौन्दर्यरत्नाकरी
निर्धूताखिलदोषपावनकरी प्रत्यक्षमाहेश्वरी।
प्रालयाचलवशपावनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षा दहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥१॥
नानारत्नविचित्रभूषणकरी हेमाम्बराडम्बरी
मुक्ताहारविडम्बमानविलसद्वक्षोजकुम्भान्तरी।
काश्मीरागरुवासिताङ्गरुचिर काशीपुराधीश्वरी
भिक्षा दहिकृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥२॥
योगानन्दकरी रिपुक्षयकरी धर्मैकनिष्ठाकरी
चन्द्रार्कानलभासमानलहरी त्रैलोक्यरक्षाकरी।
सर्वैश्वर्यकरी तप फलकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षा देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥३॥
कैलासाचलकन्दरालयकरी गौरी ह्युमाशाकरी
कौमारी निगमार्थगोचरकरी ह्योंकारबीजाक्षरी।
मोक्षद्वारकवाटपाटनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षा देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥४॥
दृश्यादृश्यविभूतिवाहनकरी ब्रह्माण्डभाण्डोदरी
लीलानाटकसूत्रखेलनकरी विज्ञानदीपाङ्कुरी।
श्रीविश्वेशमन प्रसादनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षा देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥५॥
आदिक्षान्तसमस्तवर्णनकरी शभुप्रिया शाकरी
काश्मीरत्रिपुरेश्वरी त्रिनयनी विश्वेश्वरी शर्वरी।
स्वर्गद्वारकवाटपाटनकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षा देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥६॥
उर्वीसर्वजनेश्वरी जयकरी माता कृपासागरी।
नारीनीलसमानकुन्तलधरी नित्यान्नदानेश्वरी
साक्षान्मोक्षकरी सदा शुभकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षा देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥७॥
देवी सर्वविचित्ररत्नरचिता दाक्षायणी सुन्दरी
वामा स्वादुपयाधरा प्रियकरी सौभाग्यमाहेश्वरी।
भक्ताभीष्टकरी सदा शुभकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षा देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥८॥
चन्द्रार्कानलकोटिकोटिसदृशी चन्द्राशुबिम्बाधरी
चन्द्रार्काग्निसमानकुण्डलधरी चन्द्रार्कवर्णेश्वरी।
मालापुस्तकपाशसाङ्कुशधरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षा देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥९॥
क्षत्रत्राणकरी महाभयहरी माता कृपासागरी
सर्वानन्दकरी सदा शिवकरी विश्वेश्वरी श्रीधरी।
दक्षाक्रन्दकरी निरामयकरी काशीपुराधीश्वरी
भिक्षा देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी॥१०॥
अन्नपूर्णे सदापूर्णे
शकरप्राणवल्लभे।
ज्ञानवैराग्यसिद्ध्यर्थं
भिक्षा देहि च पार्वति॥११॥
माता च पार्वतीदेवी
पिता दवा महेश्वर।
बान्धवा शिवभक्ताश्च
स्वदेशो भुवनत्रयम्॥१२॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
अन्नपूर्णाष्टक सपूर्णम्॥
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॥श्रीः॥
॥मीनाक्षीपञ्चरत्नम्॥
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उद्यद्भानुसहस्रकोटिसदृशा केयूरहारोज्ज्वला
बिम्बोष्ठीं स्मितदन्तपङ्क्तिरुचिरा पीताम्बरालकृताम्।
विष्णुब्रह्मसुरेन्द्रसेवितपदा तत्त्वस्वरूपा शिवा
मीनाक्षीं प्रणतोऽस्मि सततमह कारुण्यवारानिधिम्॥
मुक्ताहारलसत्किरीटरुचिरा पूर्णेन्दुवक्त्रप्रभा
शिञ्जन्नूपुरकिंकिणीमणिधरा पद्मप्रभाभासुराम्।
सर्वाभीष्टफलप्रदा गिरिसुता वाणीरमासेविता
मीनाक्षीं प्रणतोऽस्मि सततमह कारुण्यवारानिधिम्॥
श्रीविद्या शिववामभागनिलया ह्रींकारमन्त्रोज्ज्वला
श्रीचक्राङ्कितबिन्दुमध्यवसतिं श्रीमत्सभानायकीम्।
श्रीमत्षण्मुखविघ्नराजजननीं श्रीमज्जगन्मोहिनीं
मीनाक्षीं प्रणतोऽस्मि सततमह कारुण्यवारानिधिम्॥
श्रीमत्सुन्दरनायकींभयहरा ज्ञानप्रदा निर्मला
श्यामाभाकमलासनार्चितपदा नारायणस्यानुजाम्।
वीणावेणुमृदङ्गवाद्यरसिका नानाविधाडम्बिका
मीनाक्षीं प्रणतोऽस्मि सततमह कारुण्यवारानिधिम्॥
नानायोगमुनीन्द्रहृन्निवसतीं नानार्थसिद्धिप्रदा
नानापुष्पविराजिताङ्घ्रियुगला नारायणेनार्चिताम्।
नादब्रह्ममयींपरात्परतरा नानार्थतत्त्वात्मिका
मीनाक्षींप्रणतोऽस्मि सततमह कारुण्यवारानिधिम्॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
मीनाक्षीपञ्चरत्न सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥मीनाक्षीस्तोत्रम्॥
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श्रीविद्ये शिववामभागनिलये श्रीराजराजार्चिते
श्रीनाथादिगुरुस्वरूपविभवे चिन्तामणीपीठिके।
श्रीवाणीगिरिजानुताङ्घ्रिकमले श्रीशाभवि श्रीशिवे
मध्याह्ने मलयध्वजाधिपसुते मा पाहि मीनाम्बिके॥१॥
चक्रस्थेऽचपले चराचरजगन्नाथे जगत्पूजिते
आर्तालीवरदे नताभयकर वक्षोजभारान्विते।
विद्ये वेदकलापमौलिविदिते विद्युल्लताविग्रहे
मात पूर्णसुधारसार्द्रहृदये मा पाहि मीनाम्बिके॥२॥
कोटीराङ्गदरत्नकुण्डलधरे कादण्डबाणाञ्चिते
कोकाकारकुचद्वयापरिलसत्प्रालम्बहाराञ्चिते।
शिञ्जन्नूपुरपादसारसमणीश्रीपादुकालकृते
मद्दारिद्र्यभुजगगारुडखगे मा पाहि मीनाम्बिके॥३॥
ब्रह्मेशाच्युतगीयमानचरिते प्रतासनान्तस्थिते
पाशोदङ्कुशचापबाणकलित बालन्दुचूडाञ्चित।
बाले बालकुरङ्गलालनयन बालाककाट्युज्ज्वल
मुद्राराधितदैवते मुनिसुत मा पाहि मीनाम्बिके॥४॥
गन्धर्वामरयक्षपन्नगनुत गङ्गाधरालिङ्गित
गायत्रीगरुडासन कमलजे सुश्यामले सुम्थित।
खातीते खलदारुपावकशिखे खद्यातकोट्युज्ज्वले
मन्त्राराधितदैवते मुनिसुते मा पाहि मीनाम्बिके॥५॥
नादे नारदतुम्बुराद्यविनुते नादान्तनादात्मिक
नित्ये नीललतात्मिके निरुपम नीवारशूकोपम।
कान्त कामकल कदम्बनिलय कामश्वराङ्कस्थित
मद्विद्य मदभीष्टकल्पलतिके मा पाहि मीनाम्बिके॥६॥
वीणानादनिमीलिताधनयन विस्रस्तचूलीभर
ताम्बूलारुणपल्लवाधरयुते ताटङ्कहारान्वित।
श्यामे चन्द्रकलावतसकलित कस्तूरिकाफालिक
पूर्णे पूर्णकलाभिरामवदने मा पाहि मीनाम्बिके॥७॥
शब्दब्रह्ममयी चराचरमयी ज्योतिर्मयी वाङ्मयी
नित्यानन्दमयी निरञ्जनमयी तत्त्वमयी चिन्मयी।
तत्त्वातीतमयी परात्परमयी मायामयी श्रीमयी
सर्वैश्वयमयी सदाशिवमयी मा पाहि मीनाम्बिके॥८॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचायस्य श्रीगोविदभग
वत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
मीनाक्षीस्तोत्र सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥दक्षिणामूर्तिस्तोत्रम्॥
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उपासकाना यदुपासनीय
मुपात्तवास वटशाखिमूले।
तद्धाम दाक्षिण्यजुषा स्वमूर्त्या
जागर्तु चित्ते मम बोधरूपम्॥१॥
अद्राक्षमक्षीणदयानिधान-
माचार्यमाद्य वटमूलभागे।
मौनेन मन्दस्मितभूषितन
महाषलोकस्य तमो नुदन्तम्॥२॥
विद्राविताशषतमोगणन
मुद्राविशेषण मुहुमुनीनाम्।
निरस्य माया दयया विधत्ते
देवो महास्तत्त्वमसीति बोधम्॥३॥
अपारकारुण्यसुधातरङ्गै
रपाङ्गपातैरवलोकयन्तम्।
कठोरससारनिदाघतप्ता
न्मुनीनह नौमि गुरु गुरूणाम्॥४॥
ममाद्यदेवो वटमूलवासी
कृपाविशेषात्कृतसनिधान।
ओंकाररूपामुपदिश्य विद्या
माविद्यकध्वान्तमपाकरोतु॥५॥
कलाभिरिन्दोरिवकल्पिताङ्ग
मुक्ताकलापैरिव बद्धमूर्तिम्।
आलोकये देशिकमप्रमेय
मनाद्यविद्यातिमिरप्रभातम्॥६॥
स्वदक्षजानुस्थितवामपाद
पादोदरालकृतयोगपट्टम्।
अपस्मृतेराहितपादमङ्गे
प्रणौमि देव प्रणिधानवन्तम्॥७॥
तत्त्वार्थमन्तेवसतामृषीणा
युवापि य सन्नुपदेष्टुमीष्टे।
प्रणौमि त प्राक्तनपुण्यजालै
राचार्यमाश्चर्यगुणाधिवासम्॥८॥
एकेन मुद्रा परशु करेण
करेण चान्येन मृग दधान।
स्वजानुविन्यस्तकर पुरस्ता
दाचायचूडामणिराविरस्तु॥९॥
आलेपवन्त मदनाङ्गभूत्या
शार्दूलकृत्त्या परिधानवन्तम्।
आलोकये कचन देशिकेन्द्र
मज्ञानवाराकरबाडबाग्निम्॥१०॥
चारुस्थित सोमकलावतस
वीणाधर व्यक्तजटाकलापम।
उपासते केचन योगिनस्त्व
मुपात्तनादानुभवप्रमोदम्॥११॥
उपासते य मुनय शुकाद्या
निराशिषो निर्ममताधिवासा।
त दक्षिणामूर्तितनु महेश
मुपास्मह मोहमहार्तिशान्त्यै॥१२॥
कान्त्या निन्दितकुन्दकदलवपुर्न्यग्रोधमूले वस
न्कारुण्यामृतवारिभिमुनिजन सभावयन्वीक्षितै।
मोहध्वान्तविभेदन विरचयन्बोधेन तत्तादृशा
देवस्तत्त्वमसीति बोधयतु मा मुद्रावता पाणिना॥१३॥
अगौरनेत्रैरललाटनेत्रै
रशान्तवेषैरभुजगभूषे।
अबोधमुद्रैरनपास्तनिद्रै
रपूरकामैरमरैरल न॥१४॥
दैवतानि कति सन्ति चावनौ
नैव तानि मनसो मतानि मे।
दीक्षित जडधियामनुग्रहे
दक्षिणाभिमुखमव दैवतम्॥१५॥
मुदिताय मुग्धशशिनावतसिने
भसितावलेपरमणीयमूर्तये।
जगदिन्द्रजालरचनापटीयसे
महसे नमोऽस्तु वटमूलवासिने॥१६॥
व्यालम्बिनीभि परितो जटाभि
कलावशषेण कलाधरेण।
पश्यल्ललाटेन मुखेन्दुना च
प्रकाशसे चेतसि निर्मलानाम्॥१७॥
उपासकाना त्वमुमासहाय
पूर्णेन्दुभाव प्रकटीकरोषि।
यदद्य ते दर्शनमात्रता मे
द्रवत्यहो मानसचन्द्रकान्त॥१८॥
यस्त प्रसन्नामनुसदधानो
मूर्तिं मुदा मुग्धशशाङ्कमौले।
ऐश्वर्यमायुलभत च विद्या
मन्त च वेदान्तमहारहस्यम्॥१९॥
इति दक्षिणामूर्तिस्तोत्र संपूर्णम्॥
॥श्री॥
॥कालभैरवाष्टकम्॥
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देवराजसेव्यमानपावनाङ्घ्रिपङ्कज
व्यालयज्ञसूत्रबिन्दुशेखर कृपाकरम्।
नारदादियोगिबृन्दवन्दित दिगम्बर
काशिकापुराधिनाथकालभैरव भजे॥१॥
भानुकोटिभास्वर भवाब्धितारक पर
नीलकण्ठमीप्सिताथदायक त्रिलोचनम्।
कालकालमम्बुजाक्षमक्षशूलमक्षर
काशिकापुराधिनाथकालभैरव भजे॥२॥
शूलटङ्कपाशदण्डपाणिमादिकारण
श्यामकायमादिदेवमक्षर निरामयम्।
भीमविक्रम प्रभु विचित्रताण्डवप्रिय
काशिकापुराधिनाथकालभैरव भजे॥३॥
भुक्तिमुक्तिदायक प्रशस्तचारुविग्रह
भक्तवत्सल स्थिर समस्तलाकविग्रहम्।
निक्वणन्मनोज्ञहेमकिङ्किणीलसत्कटिं
काशिकापुराधिनाथकालभैरव भज॥४॥
धर्मसेतुपालक त्वधममागनाशक
कर्मपाशमोचक सुशर्मदायक विभुम्।
स्वर्णवर्णकशपाशशोभिताङ्गनिर्मल
काशिकापुराधिनाथकालभैरव भजे॥५॥
रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मक
नित्यमद्वितीयमिष्टदैवत निरञ्जनम्।
मृत्युदपनाशन करालदष्ट्रभूषण
काशिकापुराधिनाथकालभैरव भज॥६॥
अट्टहासभिन्नपद्मजाण्डकोशसततिं
दृष्टिपातनष्टपापजालमुग्रशासनम्।
अष्टसिद्धिदायक कपालमालिकाधर
काशिकापुराधिनाथकालभैरवभजे॥७॥
भूतसङ्घनायक विशालकीर्तिदायक
काशिवासिलोकपुण्यपापशोधक विभुम्।
नीतिमार्गकोविद पुरातन जगत्पतिं
काशिकापुराधिनाथकालभैरवभजे॥८॥
कालभैरवाष्टक पठन्ति ये मनोहर
ज्ञानमुक्तिसाधक विचित्रपुण्यवर्धनम्।
शोकमोहलोभदैन्यकोपतापनाशन
ते प्रयान्ति कालभैरवाङ्घ्रिसनिधिं ध्रुवम्॥९॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
कालभैरवाष्टक सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥नर्मदाष्टकम्॥
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सबिन्दुसिन्धुसुस्खलन्तरङ्गभङ्गरञ्जित
द्विषत्सु पापजातजातकादिवारिसयुतम्।
कृतान्तदूतकालभूतभीतिहारिवर्मदे
त्वदीयपादपङ्कज नमामि देवि नर्मदे॥१॥
त्वदम्बुलीनदीनमीनदिव्यसप्रदायक
कलौ मलौघभारहारिसवतीर्थनायकम्।
सुमच्छकच्छनक्रचक्रवाकचक्रशर्मदे
त्वदीयपादपङ्कजनमामि देवि नर्मदे॥२॥
महागभीरनीरपूरपापधूतभूतल
ध्वनत्समस्तपातकारिदारितापदाचलम्।
जगल्लये महाभये मृकण्डुसूनुहर्म्यदे
त्वदीयपादपङ्कज नमामि देवि नर्मदे॥३॥
गततदैव मे भय त्वदम्बु वीक्षितयदा
मृकण्डुसूनुशौनकासुरारिसेवित सदा।
पुनर्भवाब्धिजन्मज भवाब्धिदु खवर्मदे
त्वदीयपादपङ्कज नमामि देवि नर्मदे॥४॥
अलक्ष्यलक्षकिन्नरामरासुरादिपूजित
सुलक्षनीरतीरधीरपक्षिलक्षकूजितम्।
वसिष्ठशिष्टपिप्पलादिकर्दमादिशर्मद
त्वदीयपादपङ्कज नमामि देवि नर्मदे॥५॥
सनत्कुमारनाचिकेतकश्यपात्रिषट्पदै
र्धृत स्वकीयमानसेषु नारदादिषट्पदै।
रवीन्दुरन्तिदेवदेवराजकर्मशर्मदे
त्वदीयपादपङ्कज नमामि देवि नर्मदे॥६॥
अलक्षलक्षलक्षपापलक्षसारसायुध
ततस्तु जीवजन्तुतन्तुभुक्तिमुक्तिदायकम्।
विरिञ्चिविष्णुशकरस्वकीयधामवर्मदे
त्वदीयपादपङ्कज नमामि देवि नर्मदे॥७॥
अहो धृत स्वन श्रुत महेशिकेशजातट
किरातसूतबाडवेषु पण्डित शठ नटे।
दुरन्तपापतापहारि सर्वजन्तुशर्मद
त्वदीयपादपङ्कज नमामि देवि नर्मदे॥८॥
इद तु नर्मदाष्ठक त्रिकालमेव ये सदा
पठन्ति ते निरन्तर न यन्ति दुगतिं कदा।
सुलभ्यदेहदुर्लभ महशधामगौरव
पुनर्भवा नरा न वै विलोकयन्ति रौरवम्॥९॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
नर्मदाष्टक सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥यमुनाष्टकम्॥
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मुरारिकायकालिमाललामवारिधारिणी
तृणीकृतत्रिविष्टपा त्रिलोकशोकहारिणी।
मनोनुकूलकूलकुञ्जपुञ्जधूतदुर्मदा
धुनोतु नो मनामल कलिन्दनन्दिनी सदा॥१॥
मलापहारिवारिपूरिभूरिमण्डितामृता
भृश प्रवातकप्रपञ्चनातिपण्डितानिशा।
सुनन्दनन्दिनाङ्गसङ्गरागरञ्जिता हिता
धुनोतु नो मनोमल कलिन्दनन्दिनी सदा॥२॥
लसत्तरङ्गसङ्गधूतभूतजातपातका
नवीनमाधुरीधुरीणभक्तिजातचातका।
तटान्तवासदासहससवृताह्निकामदा
धुनोतु नो मनोमल कलिन्दनन्दिनी सदा॥३॥
विहाररासखेदभदधीरतीरमारुता
गता गिरामगोचरे यदीयनीरचारुता।
प्रवाहसाहचर्यपूतमेदिनीनदीनदा
धुनोतु नो मनोमल कलिन्दनन्दिनी सदा॥४॥
तरङ्गसङ्गसैकतान्तरातित सदासिता
शरन्निशाकराशुमञ्जुमञ्जरी सभाजिता।
भवार्चनाप्रचारुणाम्बुनाधुना विशारदा
धुनातु नो मनोमल कलिन्दनन्दिनी सदा॥५॥
जलान्तकेलिकारिचारुराधिकाङ्गरागिणी
स्वभर्तुरन्यदुलभाङ्गताङ्गताशभागिनी।
स्वदत्तसुप्तसप्तसिन्धुभेदिनातिकोविदा
धुनोतु नो मनोमल कलिन्दनन्दिनी सदा॥६॥
जलच्युताच्युताङ्गरागलम्पटालिशालिनी
विलोलराधिकाकचान्तचम्पकालिमालिनी।
सदावगाहनावतीर्णभर्तृभृत्यनारदा।
धुनोतु नो मनोमल कलिन्दनन्दिनी सदा॥७॥
सदैव नन्दिनन्दकेलिशालिकुञ्जमञ्जुला
तटोत्थफुल्लमल्लिकाकदम्बरेणुसूज्ज्वला।
जलावगाहिना नृणा भवाब्धिसिन्धुपारदा
धुनोतु नो मनोमल कलिन्दनन्दिनी सदा॥८॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोवि दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
यमुनाष्टक सपूर्णम्॥
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॥श्री॥0
॥यमुनाष्टकम्॥
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कृपापारावारा तपनतनया तापशमना
मुरारिप्रेयस्या भवभयदवा भक्तिवरदाम्।
वियज्ज्वालोन्मुक्ता श्रियमपि सुखाप्ते परिदिन
सदा धीरो नून भजति यमुना नित्यफलदाम्॥१॥
मधुवनचारिणि भास्करवाहिनि जाह्नविसङ्गिनि सिन्धुसुते
मधुरिपुभूषणि माधवतोषिणि गोकुलभीतिविनाशकृते।
जगदघमोचिनि मानसदायिनि केशवकलिनिदानगते
जय यमुने जय भीतिनिवारिणि सकटनाशिनि पावय माम्॥
अयि मधुरे मधुमोदविलासिनिशैलविदारिणि वेगपरे
परिजनपालिनि दुष्टनिषूदिनि वाञ्छितकामविलासधरे।
व्रजपुरवासिजनार्जितपातकहारिणि विश्वजनोद्धरिके
जय यमुने जय भीतिनिवारिणि सकटनाशिनि पावय माम्॥
अतिविपदाम्बुधिमग्नजन भवतापशताकुलमानसक
गतिमतिहीनमशेषभयाकुलमागतपादसरोजयुगम्।
ऋणभयभीतिमनिष्कृतिपातककोटिशतायुतपुञ्जतर
जय यमुने जय भीतिनिवारिणी सकटनाशिनि पावय माम्॥
नवजलदद्युतिकोटिलसत्तनुहेमभयाभररञ्जितके
तडिदवहेलिपदाञ्चलचञ्चलशोभितपीतसुचेलधर।
मणिमयभूषणचित्रपटासनरञ्जितगञ्जितभानुकरे
जय यमुने जय भीतिनिवारिणि सकटनाशिनि पावय माम्॥
शुभपुलिने मधुमत्तयदूद्भवरासमहोत्सवकेलिभरे
उच्चकुलाचलराजितमौक्तिकहारमयाभररोदसिके।
नवमणिकोटिकभास्करकञ्चुकिशोभिततारकहारयुते
जय यमुने जय भीतिनिवारिणि सकटनाशिनि पावय माम्॥
करिवरमौक्तिकनासिकभूषणवातचमत्कृतचञ्चलके
मुखकमलामलसौरभचञ्चलमत्तमधुव्रतलोचनिक।
मणिगणकुण्डललोलपरिस्फुरदाकुलगण्डयुगामलके
जय यमुने जय भीतिनिवारिणि सकटनाशिनि पावय माम्॥
कलरवनूपुरहेममयाचितपादसरोरुहसारुणिके
धिमिधिमिधिमिधिमितालविनोदितमानसमञ्जुलपादगते।
तव पदपङ्कजमाश्रितमानवचित्तसदाखिलतापहर
जय यमुने जय भीतिनिवारिणि सकटनाशिनि पावय माम्॥
भवोत्तापाम्भोधौ निपतितजनो दुर्गतियुता
यदि स्तौति प्रात प्रतिदिनमनन्याश्रयतया।
हयाह्रेषैकाम करकुसुमपुञ्जैरविसुता
सदा भोक्ता भोगान्मरणसमये याति हरिताम्॥९॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचायस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
यमुनाष्टक सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥गङ्गाष्टकम्॥
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भगवति भवलीलामौलिमाल तवाम्भ
कणमणुपरिमाण प्राणिनो य स्पृशन्ति।
अमरनगरनारीचामरग्राहिणीना
विगतकलिकलङ्कातङ्कमङ्केलुठन्ति॥१॥
ब्रह्माण्ड खण्डयन्ती हरशिरसि जटावल्लिमुल्लासयन्ती
स्वर्लोकादापतन्ती कनकगिरिगुहागण्डशैलात्स्खलन्ती।
क्षोणीपृष्टेलुठन्ती दुरितचयचमूनिर्भर भर्त्सयन्ती
पाथोधिं पूरयन्ती सुरनगरसरित्पावनी न पुनातु॥२॥
मज्जन्मातङ्गकुम्भच्युतमदमदिरामादमत्तालिजाल
स्नानै सिद्धाङ्गनाना कुचयुगविगलत्कुङ्कुमासङ्गपिङ्गम्।
सायप्रातर्मुनीना कुशकुसुमचयैश्छिन्नतीरस्थनीर
पायान्नो गाङ्गमम्भ करिकरमकराक्रान्तरहस्तरङ्गम्॥
आदावादिपितामहस्य नियमव्यापारपात्रेजल
पश्चात्पन्नगशायिनो भगवत पादोदक पावनम्।
भूय शभुजटाविभूषणमणिर्जह्नोर्महर्षेरिय
कन्या कल्मषनाशिनी भगवती भागीरथी पातु माम्॥
शैलन्द्रादवतारिणी निजजल मज्जज्जनोत्तारिणी
पारावारविहारिणी भवभयश्रणीसमुत्सारिणी।
शषाङ्गैरनुकारिणी हरशिरोवल्लीदलाकारिणी
काशीप्रान्तविहारिणी विजयत गङ्गा मनोहारिणी॥५॥
कुतो वीची वीचिस्तव यदि गता लोचनपथ
त्वमापीता पीताम्बरपुरनिवास वितरसि।
त्वदुत्सङ्गे गङ्गे पतति यदि कायस्तनुभृता
तदा मात शान्तक्रतवपदलाभाऽप्यतिलघु॥६॥
भगवति तव तीरे नीरमात्राशनोऽह
विगतविषयतृष्ण कृष्णमाराधयामि।
सकलकलुषभङ्गे स्वर्गसोपानसङ्गे
तरलतरतरङ्गे देवि गङ्गे प्रसीद॥७॥
मातर्जाह्नवि शभुसङ्गमिलिते मौलौ निधायाञ्जलिं
त्वत्तीरे वपुषोऽवसानसमये नारायणाङ्घ्रिद्वयम्।
सानन्द स्मरतो भविष्यति मम प्राणप्रयाणोत्सवे
भूयाद्भक्तिरविच्युता हरिहराद्वैतात्मिका शाश्वती॥८॥
गङ्गाष्टकमिद पुण्य
य पठेत्प्रयतो नर।
सर्वपापविनिर्मुक्तो
विष्णुलोक स गच्छति॥९॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
गङ्गाष्टक सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥मणिकर्णिकाष्टकम्॥
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त्वत्तीरे मणिकर्णिके हरिहरौ सायुज्यमुक्तिप्रदौ
वादन्तौ कुरुत परस्परमुभौ जन्तो प्रयाणोत्सवे।
मद्रूपो मनुजोऽयमस्तु हरिणा प्रोक्त शिवस्तत्क्षणा
त्तन्मध्याद्भृगुलाञ्छनो गरुडग पीताम्बरो निगत॥
इन्द्राद्यास्त्रिदशा पतन्ति नियत भोगक्षये ये पुन
र्जायन्त मनुजास्ततोपि पशव कीटा पतङ्गादय।
ये मातर्मणिकर्णिके तव जले मज्जन्ति निष्कल्मषा
सायुज्यऽपि किरीटकौस्तुभधरा नारायणा स्युनरा॥
काशी धन्यतमा विमुक्तनगरी सालकृता गङ्गया
तत्रेय मणिकर्णिका सुखकरी मुक्तिर्हि तत्किंकरी।
स्वर्लोकस्तुलित सहैवविबुधै काश्या सम ब्रह्मणा
काशी क्षोणितल स्थिता गुरुतरा स्वर्गोलघुत्व गत॥
गङ्गातीरमनुत्तम हि सकल तत्रापि काश्युत्तमा
तस्या सा मणिकर्णिकोत्तमतमा यत्रेश्वरो मुक्तिद।
देवानामपि दुर्लभ स्थलमिद पापौघनाशक्षम
पूर्वोपार्जितपुण्यपुञ्जगमक पुण्यैर्जनै प्राप्यते॥४॥
दु खाम्भोधिगतो हि जन्तुनिवहस्तेषा कथ निष्कृति
ज्ञात्वा तद्धि विरिञ्चिना विरचिता वाराणसी शर्मदा।
लोका स्वगसुखास्ततोऽपि लघवो भोगान्तपातप्रदा
काशी मुक्तिपुरी सदा शिवकरी धर्माथमोक्षप्रदा॥५॥
एको वेणुधरो धराधरधर श्रीवत्सभूषाधर
योऽप्येक किल शकरो विषधरो गङ्गाधरो माधव।
ये मातर्मणिकर्णिके तव जले मज्जन्ति ते मानवा
रुद्रा वा हरयो भवन्ति बहवस्तेषा बहुत्व कथम्॥६॥
त्वत्तीरे मरण तु मङ्गलकर देवैरपि श्लाघ्यते
शक्रस्त मनुज सहस्रनयनैद्रष्टु सदा तत्पर।
आयान्त सविता सहस्रकिरणै प्रत्युद्गतोऽभूत्सदा
पुण्योऽसौ वृषगोऽथवा गरुडग किं मन्दिर यास्यति॥
मध्याह्ने मणिकर्णिकास्नपनज पुण्य न वक्तु क्षम
स्वीयैरब्धशतैश्चतुर्मुखधरो वेदाथदीक्षागुरु।
योगाभ्यासबलेन चन्द्रशिखरस्तत्पुण्यपारगत
स्त्वत्तीरे प्रकराति सुप्तपुरुष नारायण वा शिवम्॥८॥
कृच्छ्रैकोटिशतै स्वपापनिधन यच्चाश्वमेधै फल
तत्सर्वं मणिकर्णिकास्नपनजे पुण्ये प्रविष्ट भवेत्।
स्नात्वा स्तोत्रमिद नर पठति चेत्ससारपाथोनिधिं
तीर्त्वापल्वलवत्प्रयाति सदन तेजोमय ब्रह्मण॥९॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचायस्य
श्रीगोवि दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
मणिकर्णिकाष्टक सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥निर्गुणमानसपूजा॥
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शिष्य उवाच—
अखण्डे सच्चिदानन्दे निर्विकल्पैकरूपिणि।
स्थितेऽद्वितीयभावेऽपि कथ पूजा विधीयते॥१॥
पूर्णस्यावाहन कुत्र सर्वाधारस्य चासनम्।
स्वच्छस्य पाद्यमर्घ्यं च शुद्धस्याचमन कुत॥२॥
निर्मलस्य कुत स्नान वासो विश्वोदरस्य च।
अगोत्रस्य त्ववर्णस्य कुतस्तस्योपवीतकम्॥३॥
निर्लेपस्य कुता गन्ध पुष्प निर्वासनस्य च।
निर्विशेषस्य का भूषा कोऽलकारो निराकृते॥४॥
निरञ्जनस्य किं धूपैर्दीपैर्वा सर्वसाक्षिण।
निजानन्दैकतृप्तस्य नैवेद्य किं भवेदिह॥५॥
विश्वानन्दयितुस्तस्य किं ताम्बूल प्रकल्पते।
स्वयप्रकाशचिद्रूपा योऽसावर्कादिभाषक॥६॥
गीयते श्रुतिभिस्तस्य नीराजनविधि कुत।
प्रदक्षिणमनन्तस्य प्रमाणोऽद्वयवस्तुन॥७॥
वेदवाचामवेद्यस्य किं वा स्तोत्र विधीयते।
अन्तर्बहि सस्थितस्योद्वासनविधि कुत॥८॥
श्रीगुरुरुवाच—
आराधयामि मणिसनिभमात्मलिङ्ग
मायापुरीहृदयपङ्कजसनिविष्टम्।
श्रद्धानदीविमलचित्तजलाभिषेकै
र्नित्य समाधिकुसुमैरपुनर्भवाय॥९॥
अयमेकोऽवशिष्टोऽस्मीत्येवमावाहयेच्छिवम्।
आसन कल्पयेत्पश्चात्स्वप्रतिष्ठात्मचिन्तनम्॥१०॥
पुण्यपापरज सङ्गो मम नास्तीति वेदनम्।
पाद्य समर्पयेद्विद्वान्सवकल्मषनाशनम्॥११॥
अनादिकल्पविधृतमूलाज्ञानजलाञ्जलिम्।
विसृजेदात्मलिङ्गस्य तदेवार्घ्यसमर्पणम्॥१२॥
ब्रह्मानन्दाब्धिकल्लोलकणकोट्यशलेशकम्।
पिबन्तीन्द्रादय इति ध्यानमाचमन मतम्॥१३॥
ब्रह्मानन्दजलेनैव लोका सर्वे परिप्लुता।
अच्छेद्योऽयमिति ध्यानमभिषचनमात्मन॥१४॥
निरावरणचैतन्य प्रकाशाऽस्मीति चिन्तनम्।
आत्मलिङ्गस्य सद्वस्त्रमित्येव चिन्तयेन्मुनि॥१५॥
त्रिगुणात्माशेषलोकमालिकासूत्रमस्म्यहम्।
इति निश्चयमेवात्र ह्युपवीत पर मतम्॥१६॥
अनेकवासनामिश्रप्रपञ्चोऽय धृतो मया।
नान्येनेत्यनुसधानमात्मनश्चन्दन भवेत्॥१७॥
रज सत्त्वतमोवृत्तित्यागरूपैस्तिलाक्षतै।
आत्मलिङ्ग यजेन्नित्य जीवन्मुक्तिप्रसिद्धये॥१८॥
ईश्वरो गुरुरात्मेति भेदत्रयविवर्जितै।
बिल्वपत्रैरद्वितीयैरात्मलिङ्ग यजेच्छिवम्॥१९॥
समस्तवासनात्याग धूप तस्य विचिन्तयेत्।
ज्योतिर्मयात्मविज्ञान दीप सदर्शयेद्बुध॥२०॥
नैवेद्यमात्मलिङ्गस्य ब्रह्माण्डारय महोदनम्।
पिबानन्दरस स्वादु मृत्युरस्यापसचनम्॥२१॥
अज्ञानोच्छिष्टकरस्य क्षालन ज्ञानवारिणा।
विशुद्धस्यात्मलिङ्गस्य हस्तप्रक्षालन स्मरेत॥२२॥
रागादिगुणशून्यस्य शिवस्य परमात्मन।
सरागविषयाभ्यासत्यागस्ताम्बूलचवणम्॥२३॥
अज्ञानध्वान्तविध्वसप्रचण्डमतिभास्करम्।
आत्मनो ब्रह्मताज्ञान नीराजनमिहात्मन॥२४॥
विविधब्रह्मसदृष्टिर्मालिकाभिरलकृतम्।
पूर्णानन्दात्मतादृष्टिं पुष्पाञ्जलिमनुस्मरेत्॥२५॥
परिभ्रमन्ति ब्रह्माण्डसहस्राणि मयीश्वरे।
कूटस्थाचलरूपोऽहमिति ध्यान प्रदक्षिणम्॥२६॥
विश्ववन्द्योऽहमेवास्मि नास्ति वन्धो मदन्यत।
इत्यालोचनमेवात्र स्वात्मलिङ्गस्य वन्दनम्॥२७॥
आत्मन सत्क्रिया प्रोक्ता कर्तव्याभावभावना।
नामरूपव्यतीतात्मचिन्तन नामकीर्तनम्॥२८॥
श्रवण तस्य देवस्य श्रोतव्याभावचिन्तनम्।
मनन त्वात्मलिङ्गस्य मन्तव्याभावचिन्तनम्॥२९॥
ध्यातव्याभावविज्ञान निदिध्यासनमात्मन।
समस्तभ्रान्तिविक्षेपराहित्येनात्मनिष्ठता॥३०॥
समाधिरात्मनो नाम नान्यच्चित्तस्य विभ्रम।
तत्रैव ब्रह्मणि सदा चित्तविश्रान्तिरिष्यते॥३१॥
एव वेदान्तकल्पोक्तस्वात्मलिङ्गप्रपूजनम्।
कुर्वन्ना मरण वापि क्षण वा सुसमाहित॥३२॥
सर्वदुर्वासनाजाल पदपासुमिव त्यजेत्।
विधूयाज्ञानदु खौघमोक्षानन्द समश्नुते॥३३॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचायस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
निगुणमानसपूजा सपूर्णा॥
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॥श्री॥
॥प्रातःस्मरणस्तोत्रम्॥
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प्रात स्मरामि हृदि सस्फुरदात्मतत्त्व
सच्चित्सुख परमहसगतिं तुरीयम्।
यस्तु प्रजागरसुषुप्तमवैति नित्य
तद्ब्रह्म निष्कलमह न च भूतसङ्घ॥१॥
प्रातभजामि मनसा वचसामगम्य
वाचो विभान्ति निखिला यदनुग्रहेण।
यन्नेति नेति वचनैर्निगमा अवोच
स्त देवदेवमजमच्युतमाहुरग्र्यम्॥२॥
प्रातर्नमामि तमस परमर्कवर्णं
पूर्णं सनातनपद पुरुषोत्तमारयम्।
यस्मिन्निद जगदशेषमशेषमूर्तौ
रज्ज्वा भुजगम इव प्रतिभासित वै॥३॥
श्लोकत्रयमिद पुण्य
लोकत्रयविभूषणम्।
प्रात काले पठेद्यस्तु
स गच्छेत्परम पदम्॥४॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
प्रात स्मरणस्तोत्र सपूर्णम्॥
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॥श्रीः॥
॥जगन्नाथाष्टकम्॥
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कदाचित्कालिन्दीतटविपिनसगीतकवरो
मुदा गापीनारीवदनकमलास्वादमधुप।
रमाशभुब्रह्मामरपतिगणशार्चितपदो
जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामा भवतु मे॥१॥
भुजे सव्ये वेणु शिरसि शिखिपिञ्छ कटितटे
दुकूल नेत्रान्त सहचरकटाक्ष विदधत्।
सदा श्रीमद्बृन्दावनवसतिलीलापरिचयो
जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥२॥
महाम्भोधेस्तीरे कनकरुचिर नीलशिखरे
वसन्प्रासादान्त सहजबलभद्रेण बलिना।
सुभद्रामध्यस्थ सकलसुरसेवावसरदो
जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥३॥
कृपापारावार सजलजलदश्रेणिरुचिरो
रमावाणीसोमस्फुरदमलपद्मोद्भवमुखै।
सुरेन्द्रैराराध्य श्रुतिगणशिखागीतचरितो
जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥४॥
रथारूढो गच्छन्पथि मिलितभूदेवपटलै
स्तुतिप्रादुर्भाव प्रतिपदमुपाकर्ण्य सदय।
दयासिन्धुर्बन्धु सकलजगता सिन्धुसुतया
जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥५॥
परब्रह्मापीड कुवलयदलोत्फुल्लनयनो
निवासी नीलाद्रौ निहितचरणोऽनन्तशिरसि।
रसानन्दो राधासरसवपुरालिङ्गनसुखो
जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥६॥
न वै प्रार्थ्यं राज्य न च कनकता भोगविभवे
न याचेऽह रम्या निखिलजनकाम्या वरवधूम्।
सदा काले काले प्रमथपतिना गीतचरितो
जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥७॥
हर त्व ससार द्रुततरमसार सुरपते
हर त्व पापाना विततिमपरा यादवपते।
अहो दीनानाथ निहितमचल पातुमनिश
जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥८॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
जगन्नाथाष्टक सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥षट्पदीस्तोत्रम्॥
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अविनयमपनय विष्णो
दमय मन्शमय विषयमृगतृष्णाम्।
भूतदया विस्तारय
तारय ससारसागरत॥१॥
दिव्यधुनीमकरन्दे
परिमलपरिभोगसच्चिदानन्द।
श्रीपतिपदारविन्दे
भवभयखेदच्छिदे वन्दे॥२॥
सत्यपि भेदापगमे
नाथ तवाह न मामकीनस्त्वम्।
सामुद्रो हि तरङ्ग
क्वचन समुद्रो न तारङ्ग॥३॥
उद्धृतनग नगभिदनुज
दनुजकुलामित्र मित्रशशिदृष्टे।
दृष्टे भवति प्रभवति
न भवति किं भवतिरस्कार॥४॥
मत्स्यादिभिरवतारै-
रवतारवतावता सदा वसुधाम्।
परमेश्वर परिपाल्यो
भवता भवतापभीतोऽहम्॥५॥
दामोदर गुणमन्दिर
सुन्दरवदनारविन्द गोविन्द।
भवजलधिमथनमन्दर
परम दरमपनय त्व मे॥६॥
नारायण करुणामय
शरण करवाणि तावकौ चरणौ।
इति षट्पदी मदीये
वदनसरोजे सदा वसतु॥७॥
इति षट्पदीस्तोत्र सपूर्णम्॥
॥श्री॥
॥भ्रमराम्बाष्टकम्॥
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चाञ्चल्यारुणलोचनाञ्चितकृपाचन्द्राकचूडामणिं
चारुस्मेरमुखा चराचरजगत्सरक्षणीं तत्पदाम्।
चञ्चच्चम्पकनासिकाग्रविलसन्मुक्तामणीरञ्जिता
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातर भावये॥१॥
कस्तूरीतिलकाञ्चितेन्दुविलसत्प्रोद्भासिफालस्थली
कर्पूरद्रवमिश्रचूर्णखदिरामोदोल्लसद्वीटिकाम्।
लोलापाङ्गतरङ्गितैरधिकृपासारैर्नतानन्दिनीं
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातर भावये॥२॥
राजन्मत्तमरालमन्दगमना राजीवपत्रेक्षणा
राजीवप्रभवादिदेवमकुटै राजत्पदाम्भोरुहाम्।
राजीवायतमन्दमण्डितकुचा राजाधिराजेश्वरीं
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातर भावये॥३॥
षट्तारा गणदीपिका शिवसती षड्वैरिवर्गापहा
षट्चक्रान्तरसस्थिता वरसुधा षड्योगिनीवेष्टिताम्।
षट्चक्राञ्चितपादुकाञ्चितपदा षड्भावगा षोडशीं
श्रीशैलस्थलवासिनींभगवतीं श्रीमातर भावये॥४॥
श्रीनाथादृतपालितत्रिभुवना श्रीचक्रसचारिणीं
ज्ञानासक्तमनोजयौवनलसद्गन्धर्वकन्यादृताम्।
दीनानामतिवेलभाग्यजननीं दिव्याम्बरालकृता
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतींं श्रीमातर भावये॥५॥
लावण्याधिकभूषिताङ्गलतिका लाक्षालसद्रागिणीं
सेवायातसमस्तदेववनिता सीमन्तभूषान्विताम्।
भावोल्लासवशीकृतप्रियतमा भण्डासुरच्छेदिनी
श्रीशैलस्थलवासिनींं भगवतींं श्रीमातर भावये॥६॥
धन्या सोमविभावनीयचरिता धाराधरश्यामला
मुन्याराधनमेधिनीं सुमवता मुक्तिप्रदानव्रताम्।
कन्यापूजनसुप्रसन्नहृदया काञ्चीलसन्मध्यमा
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातर भावये॥७॥
कर्पूरागरुकुङ्कुमाङ्कितकुचा कर्पूरवर्णस्थिता
कृष्टोत्कृष्टसुकृष्टकमदहना कामेश्वरीं कामिनीम्।
कामाक्षींकरुणारसार्द्रहृदया कल्पान्तरस्थायिनीं
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातर भावये॥८॥
गायत्रीं गरुडध्वजा गगनगा गान्धर्वगानप्रिया
गम्भीरा गजगामिनीं गिरिसुता गन्धाक्षतालकृताम्।
गङ्गागौतमगर्गसनुतपदा गा गौतमीं गोमतीं
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातर भावये॥९॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
भ्रमराम्बाष्टकं सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥शिवपञ्चाक्षरनक्षत्रमालास्तोत्रम्॥
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श्रीमदात्मने गुणैकसिन्धवे नम शिवाय
धामलेशधूतकोकबन्धवे नम शिवाय।
नामशेषितानमद्भवान्धवे नम शिवाय
पामरेतरप्रधानबन्धवे नम शिवाय॥१॥
कालभीतविप्रबालपाल ते नम शिवाय
शूलभिन्नदुष्टदक्षफाल ते नम शिवाय।
मूलकारणाय कालकाल ते नम शिवाय
पालयाधुना दयालवाल ते नम शिवाय॥२॥
इष्टवस्तुमुख्यदानहेतवे नम शिवाय
दुष्टदैत्यवशधूमकेतवे नम शिवाय।
सृष्टिरक्षणाय धर्मसेतवे नम शिवाय
अष्टमूर्तये वृषेन्द्रकेतवे नम शिवाय॥३॥
आपदद्रिभेदटङ्कहस्त ते नम शिवाय
पापहारिदिव्यसिन्धुमस्त ते नम शिवाय।
पापदारिणे लसन्नमस्ततेनम शिवाय
शापदोषखण्डनप्रशस्त ते नम शिवाय॥४॥
व्योमकेश दिव्यभव्यरूप तेनम शिवाय
हेममेदिनीधरेन्द्रचाप ते नम शिवाय।
नाममात्रदग्धसर्वपाप ते नम शिवाय
कामनैकतानहृद्दुराप ते नम शिवाय॥५॥
ब्रह्ममस्तकावलीनिबद्ध ते नम शिवाय
जिह्मगेन्द्रकुण्डलप्रसिद्ध ते नम शिवाय।
ब्रह्मणे प्रणीतवेदपद्धते नम शिवाय
जिंहकालदेहदत्तपद्धते नम शिवाय॥६॥
कामनाशनाय शुद्धकर्मणे नम शिवाय
सामगानजायमानशर्मणे नम शिवाय।
हेमकान्तिचाकचक्यवर्मणे नम शिवाय
सामजासुराङ्गलब्धचर्मणे नम शिवाय॥७॥
जन्ममृत्युघोरदुःखहारिणे नम शिवाय
चिन्मयैकरूपदेहधारिणे नम शिवाय।
मन्मनोरथावपूर्तिकारिणे नम शिवाय
सन्मनोगताय कामवैरिणे नम शिवाय॥८॥
यक्षराजबन्धवे दयालवे नम शिवाय
दक्षपाणिशोभिकाञ्चनालवे नम शिवाय।
पक्षिराजवाहहृच्छयालवे नम शिवाय
अक्षिफाल वेदपूततालवे नम शिवाय॥९॥
दक्षहस्तनिष्ठजातवेदसे नम शिवाय
अक्षरात्मने नमद्बिडौजसे नम शिवाय।
दीक्षितप्रकाशितात्मतेजसे नम शिवाय
उक्षराजवाह ते सता गते नम शिवाय॥१०॥
राजताचलेन्द्रसानुवासिने नम शिवाय
राजमाननित्यमन्दहासिने नम शिवाय।
राजकोरकावतसभासिने नम शिवाय
राजराजमित्रताप्रकाशिने नमशिवाय॥११॥
दीनमानवालिकामधेनवे नम शिवाय
सूनबाणदाहकृत्कृशानवे नम शिवाय।
स्वानुरागभक्तरत्नसानवे नम शिवाय
दानवान्धकारचण्डभानवे नम शिवाय॥१२॥
सर्वमङ्गलाकुचाग्रशायिने नम शिवाय
सवदेवतागणातिशायिन नम शिवाय।
पूर्वदेवनाशसविधायिने नम शिवाय
सर्वमन्मनोजभङ्गदायिने नम शिवाय॥१३॥
स्तोकभक्तितोऽपि भक्तपोषिणे नम शिवाय
माकरन्दसारवर्षिभाषिणे नमः शिवाय।
एकबिल्वदानतोऽपि तोषिणे नम शिवाय
नैकजन्मपापजालशोषिणे नम शिवाय॥१४॥
सर्वजीवरक्षणैकशीलिने नम शिवाय
पार्वतीप्रियाय भक्तपालिने नम शिवाय।
दुर्विदग्धदैत्यसैन्यदारिण नम शिवाय
शर्वरीशधारिणे कपालिने नम शिवाय॥१५॥
पाहि मामुमामनोज्ञदेह ते नम शिवाय
देहि मे वर सिताद्रिगेह ते नम शिवाय।
मोहितर्षिकामिनीसमूह ते नम शिवाय
स्वेहितप्रसन्न कामदोह ते नम शिवाय॥१६॥
मङ्गलप्रदाय गोतुरग ते नम शिवाय
गङ्गया तरङ्गितोत्तमाङ्ग ते नमः शिवाय।
सङ्गरप्रवृत्तवैरिभङ्ग त नम शिवाय
अङ्गजारय करेकुरङ्ग त नम शिवाय॥१७॥
ईहितक्षणप्रदानहेतवे नम शिवाय
आहिताग्निपालकोक्षकेतवेनम शिवाय।
देहकान्तिधूतरौप्यधातवे नम शिवाय
गेहदु खपुञ्जधूमकेतवे नम शिवाय॥१८॥
त्र्यक्ष दीनसत्कृपाकटाक्ष ते नम शिवाय
दक्षसप्ततन्तुनाशदक्ष ते नम शिवाय।
ऋक्षराजभानुपावकाक्ष त नम शिवाय
रक्ष मा प्रपन्नमात्ररक्ष ते नम शिवाय॥१९॥
न्यङ्कुपाणये शिवकराय ते नम शिवाय
सकटाब्धितीर्णकिंकराय ते नम शिवाय।
पङ्कभीषिताभयकराय ते नम शिवाय
पङ्कजाननाय शकराय ते नम शिवाय॥२०॥
कर्मपाशनाश नीलकण्ठ ते नम शिवाय
शर्मदाय नर्यभस्मकण्ठ ते नम शिवाय।
निर्ममर्षिसेवितोपकण्ठ ते नम शिवाय
कुर्महे नतीर्नमद्विकुण्ठ ते नम शिवाय॥२१॥
विष्टपाधिपाय नम्रविष्णवे नम शिवाय
शिष्टविप्रहृद्गुहाचरिष्णवे नम शिवाय।
इष्टवस्तुनित्यतुष्टजिष्णवे नम शिवाय
कष्टनाशनाय लोकजिष्णवे नम शिवाय॥२२॥
अप्रमेयदिव्यसुप्रभाव ते नम शिवाय
सत्प्रपन्नरक्षणस्वभाव ते नम शिवाय।
स्वप्रकाश निस्तुलानुभाव ते नम शिवाय
विप्रडिम्भदर्शितार्द्रभाव ते नम शिवाय॥२३॥
सेवकाय मे मृड प्रसीद ते नम शिवाय
भावलभ्य तावकप्रसाद ते नम शिवाय।
पावकाक्ष देवपूज्यपाद ते नम शिवाय
तावकाङ्घ्रिभक्तदत्तमोद ते नमः शिवाय॥२४॥
भुक्तिमुक्तिदिव्यभोगदायिने नमः शिवाय
शक्तिकल्पितप्रपञ्चभागिने नम शिवाय।
भक्तसकटापहारयोगिने नम शिवाय
युक्तसन्मन सरोजयोगिने नम शिवाय॥२५॥
अन्तकान्तकाय पापहारिण नम शिवाय
शान्तमायदन्तिचर्मधारिणे नम शिवाय।
सतताश्रितव्यथाविदारिणे नम शिवाय
जन्तुजातनित्यसौख्यकारिणे नम शिवाय॥२६॥
शूलिने नमो नम कपालिने नम शिवाय
पालिने विरिञ्चितुण्डमालिने नम शिवाय।
लीलिने विशेषरुण्डमालिने नम शिवाय
शीलिने नम प्रपुण्यशालिने नम शिवाय॥२७॥
शिवपञ्चाक्षरमुद्रा
चतुष्पदोल्लासपद्यमणिघटिताम्।
नक्षत्रमालिकामिह
दधदुपकण्ठ नरो भवेत्सोम॥२८॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचायस्य
श्रीगोवि दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
शिवपञ्चाक्षरनक्षत्रमालास्तोत्रसपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥द्वादशलिङ्गस्तोत्रम्॥
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सौराष्ट्रदेशे वसुधावकाशे
ज्योतिमय चन्द्रकलावतसम्।
भक्तिप्रदानाय कृतावतार
त सोमनाथ शरण प्रपद्ये॥१॥
श्रीशैलशृङ्ग विविधप्रसङ्गे
शेषाद्रिशृङ्गेऽपि सदा वसन्तम्।
तमर्जुन मल्लिकपूर्वमेन
नमामि ससारसमुद्रसेतुम्॥२॥
अवन्तिकाया विहितावतार
मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्।
अकालमृत्यो परिरक्षणार्थं
वन्दे महाकालमह सुरेशम्॥३॥
कावेरिकानर्मदयो पवित्रे
समागमे सज्जनतारणाय।
सदैव मान्धातृपुरे वसन्त
मोंकारमीश शिवमेकमीढे॥४॥
पूर्वोत्तरे पारलिकाभिधाने
सदाशिव त गिरिजासमेतम्।
सुरासुराराधितपादपद्म
श्रीवैद्यनाथ सतत नमामि॥५॥
आमर्दसज्ञे नगरे च रम्ये
विभूषिताङ्ग विविधैश्चभोगै।
सद्भुक्तिमुक्तिप्रदमीशमेक
श्रीनागनाथ शरण प्रपद्ये॥६॥
सानन्दमानन्दवने वसन्त
मानन्दकन्द हतपापबृन्दम्।
वाराणसीनाथमनाथनाथ
श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये॥७॥
यो डाकिनीशाकिनिकासमाजे
निषेव्यमाण पिशिताशनैश्च।
सदैव भीमादिपदप्रसिद्ध
त शकर भक्तहित नमामि॥८॥
श्रीताम्रपर्णीजलराशियोगे
निबद्ध्यसेतु निशि बिल्वपत्रै।
श्रीरामचन्द्रेण समर्चितत
रामेश्वराख्य सतत नमामि॥९॥
सिंहाद्रिपार्श्वेऽपि तट रमन्त
गोदावरीतीरपवित्रदेशे।
यद्दर्शनात्पातकजातनाश
प्रजायते त्र्यम्बकमीशमीडे॥१०॥
हिमाद्रिपार्श्वेऽपि तटे रमन्त
सपूज्यमान सतत मुनीन्द्रै।
सुरासुरैर्यक्षमहोरगाद्यै
केदारसज्ञ शिवमीशमीडे॥११॥
एलापुरीरम्यशिवालयेऽस्मि
न्समुल्लसन्त त्रिजगद्वरेण्यम्।
वन्दे महोदारतरस्वभाव
सदाशिव त घिषणेश्वराख्यम्॥१२॥
एतानि लिङ्गानि सदैव मर्त्या
प्रात पठन्तोऽमलमानसाश्च।
ते पुत्रपौत्रैश्च धनैरुदारै
सत्कीर्तिभाज सुखिनो भवन्ति॥१३॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
द्वादशलिङ्गस्तोत्र सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥अर्धनारीश्वरस्तोत्रम्॥
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चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै
कर्पूरगौराधशरीरकाय।
धम्मिल्लकायै च जटाधराय
नमशिवायै च नमशिवाय॥१॥
कस्तूरिकाकुङ्कुमचर्चितायै
चितारज पुञ्जविचर्चिताय।
कृतस्मरायै विकृतस्मराय
नम शिवायै च नमशिवाय॥२॥
झणत्कणत्कङ्कणनूपुरायै
पादाब्जराजत्फणिनूपुराय।
हेमाङ्गदायै भुजगाङ्गदाय
नम शिवायै च नमशिवाय॥३॥
विशालनीलोत्पललोचनायै
विकासिपङ्केरुहलोचनाय।
समेक्षणायै विषमेक्षणाय
नम शिवायै च नमशिवाय॥४॥
मन्दारमालाकलितालकायै
कपालमालाङ्कितकन्धराय।
दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय
नम शिवायै च नमशिवाय॥५॥
अम्भोधरश्यामलकुन्तलायै
तटित्प्रभाताम्रजटाधराय।
निरीश्वरायै निखिलेश्वराय
नम शिवायै च नम शिवाय॥६॥
प्रपञ्चसृष्ट्युन्मुखलास्यकायै
समस्तसहारकताण्डवाय।
जगज्जनन्यै जगदेकपित्रे
नम शिवायै च नम शिवाय॥७॥
प्रदीप्तरत्नोज्ज्वलकुण्डलायै
स्फुरन्महापन्नगभूषणाय।
शिवान्वितायै च शिवान्विताय
नम शिवायै च नम शिवाय॥८॥
एतत्पठेदष्ठकमिष्टद या
भक्त्या स मान्यो भुवि दीघजीवी।
प्राप्नोति सौभाग्यमनन्तकाल
भूयात्सदा तस्य समस्तसिद्धि॥९॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छरभगवत कृतौ
अर्धनारीश्वरस्तोत्रम् सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥शारदाभुजंगप्रयाताष्टकम्॥
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सुवक्षोजकुम्भा सुधापूर्णकुम्भा
प्रसादावलम्बा प्रपुण्यावलम्बाम्।
सदास्येन्दुबिम्बासदानोष्ठबिम्बा
भजे शारदाम्बामजस्र मदम्बाम्॥१॥
कटाक्षे दयार्द्रांकरे ज्ञानमुद्रा
कलाभिर्विनिद्रा कलापै सुभद्राम्।
पुरस्त्रींविनिद्रा पुरस्तुङ्गभद्रा
भजे शारदाम्बामजस्र मदम्बाम्॥२॥
ललामाङ्कफाला लसद्गानलोला
स्वभक्तैकपाला यश श्रीकपोलाम्।
करे त्वक्षमाला कनत्प्रत्नलोला
भजे शारदाम्बामजस्र मदम्बाम्॥३॥
सुसीमन्तवेणीं दृशा निर्जितैणीं
रमत्कीरवाणीं नमद्वज्रपाणीम्।
सुधामन्थरास्या मुदा चिन्त्यवेणीं
भजे शारदाम्बामजस्र मदम्बाम्॥४॥
सुशान्ता सुदेहा दृगन्ते कचान्ता
लसत्सल्लताङ्गीमनन्तामचिन्त्याम्।
स्मरेत्तापसैसङ्गपूर्वस्थिता ता
भजे शारदाम्बामजस्र मदम्बाम्॥५॥
कुरङ्गेतुरगे मृगेन्द्रे खगेन्द्रे
मराले मदेभे महोक्षेऽधिरूढाम्।
महत्या नवम्यासदा सामरूपा
भजे शारदाम्बामजस्र मदम्बाम्॥६॥
ज्वलत्कान्तिवह्निंजगन्मोहनाङ्गी
भजे मानसाम्भोजसुभ्रान्तभृङ्गीम्।
निजस्तोत्रसगीतनृत्यप्रभाङ्गीं
भजे शारदाम्बामजस्र मदम्बाम्॥७॥
भवाम्भोजनेत्राजसपूज्यमाना
लसन्मन्दहासप्रभावक्त्रचिह्नाम्।
चलच्चञ्चलाचारुताटङ्ककर्णां
भजे शारदाम्बामजस्त्र मदम्बाम्॥८॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
शारदाभुजगप्रयाताष्टक सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥गुर्वष्टकम्॥
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शरीर सुरूप तथा वा कलत्र
यशश्चारु चित्र धन मेरुतुल्यम्।
मनश्चेन्न लग्न गुरोरङ्घ्रिपद्म
तत किं तत किं तत किं तत किम्॥१॥
कलत्र धन पुत्रपौत्रादि सर्वं
गृह बान्धवा सर्वमेतद्धि जातम्।
मनश्चेन्न लग्न गुरोरङ्घ्रिपद्ये
तत किं तत किं तत किं तत किम्॥२॥
षडङ्गादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या
कवित्वादि गद्य सुपद्य करोति।
मनश्चेन्न लग्न गुरोरङ्घ्रिपद्मे
तत किं तत किं तत किं तत किम्॥३॥
विदेशेषु मान्य स्वदेशेषु धन्य
सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्य।
मनश्चेन्न लग्न गुरोरङ्घ्रिपद्म
तत किं तत किं तत किं तत किम्॥४॥
क्षमामण्डले भूपभूपालबृन्दै
सदा सेवित यस्य पादारविन्दस्।
मनश्चेन्न लग्नगुरोरङ्घ्रिपद्मे
तत किं तत किं तत किं तत किम्॥५॥
यशो मे गत दिक्षु दानप्रतापा
ज्जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात्।
मनश्चेन्न लग्न गुरोरङ्घ्रिपद्मे
तत किं तत किं तत किं तत किम्॥६॥
न भोगे न योगे न वा बाजिराजो
न कान्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम्।
मनश्चेन्न लग्न गुरोरङ्घ्रिपद्ये
तत किं तत किं तत किं तत किम्॥७॥
अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये
न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्घ्ये।
मनश्चेन्न लग्न गुरोरङ्घ्रिपद्मे
तत किं तत किं तत किं तत किम्॥८॥
गुरोरष्टक य पठेत्पुण्यदेही
यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी चगेही।
लभेद्वाञ्छितार्थंपद ब्रह्मसज्ञ
गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम्॥९॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
गुर्वष्टक सपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥काशीपञ्चकम्॥
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मनो निवृत्ति परमोपशान्ति
सा तीर्थवर्या मणिकर्णिका च।
ज्ञानप्रवाहा विमलादिगङ्गा
सा काशिकाहनिजबोधरूपा॥१॥
यस्यामिद कल्पितमिन्द्रजाल
चराचर भातिमनोविलासम्।
सच्चित्सुखैका परमात्मरूपा
सा काशिकाह निजबोधरूपा॥२॥
कोशेषु पञ्चस्वधिराजमाना
बुद्धिर्भवानी प्रतिदेहगेहम्।
साक्षी शिव सर्वगतोऽन्तरात्मा
साकाशिकाह निजबोधरूपा॥३॥
काश्या हि काशत काशी
काशी सर्वप्रकाशिका।
सा काशी विदिता येन
तेन प्राप्ता हि काशिका॥४॥
काशीक्षेत्र शरीर त्रिभुवनजननी व्यापिनी ज्ञानगङ्गा
भक्ति श्रद्धा गयेय निजगुरुचरणध्यानयोग प्रयाग।
विश्वेशोऽय तुरीय सकलजनमन साक्षिभूतोऽन्तरात्मा
देहे सर्वं मदीये यदि वसति पुनस्तीर्थमन्यत्किमस्ति॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य
श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य
श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
काशीपञ्चक संपूर्णम्॥
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॥श्री॥
॥ललितात्रिशतीभाष्यम्॥
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वन्दे विघ्नेश्वर दव सर्वसिद्धिप्रदायिनम्।
वामाङ्कारूढवामाक्षीकरपल्लवपूजितम्॥१॥
पाशाङ्कुशेक्षुसुमराजितपञ्चशाखा
पाटल्यशालिसुषुमाञ्चितगात्रवल्लीम्।
प्राचीनवाक्स्तुतपदा परदवता त्वा
पञ्चायुधार्चितपदा प्रणमामि देवीम्॥२॥
लोपामुद्रापतिंनत्वा हयग्रीवमपीश्वरम्।
श्रीविद्याराजससिद्धिकारिपकजवीक्षणम्॥३॥
विस्तारिता बहुविधा बहुभि कृता च
टीकां विलोकयितुमक्षमता जनानाम्।
तत्रत्यसवपदयोगविवकभानु
तुष्ट्यैकरामि ललितापदभक्तियोगात्॥४॥
अगस्त्य उवाच—
हयग्रीव दयासिन्धो भगवन् शिष्यवत्सल।
त्वत्तश्रुतमशेषेण श्रोतव्य यद्यदस्ति तत्॥
रहस्यनामसाहस्रमपि त्वत्तश्रुत मया।
इत’ पर मे नास्त्येव श्रोतव्यमिति निश्चय॥
तथापि मम चित्तस्य पर्याप्तिर्नैव जायते।
कात्स्न्र्यार्थ प्राप्य इत्येव शोचयिष्याम्यह प्रभो॥
किमिद कारण ब्रूहि ज्ञातव्याशोऽस्ति वा पुन।
अस्ति चेन्मम तद्ब्रूहि ब्रूहीत्युक्त्वा प्रणम्य तम्॥
सूत उवाच—
समाललम्बे तत्पादयुगल कलशोद्भव।
हयाननो भीतभीत किमिद किमिद त्विति॥
मुञ्चमुञ्चेति त चोक्त्वा चिन्ताक्रान्तो बभूव सः।
चिर विचार्य निश्चिन्वन्वक्तव्य न मयेत्यसौ॥
तूष्णीं स्थित स्मरन्नाज्ञां ललिताम्बाकृता पुरा।
प्रणम्य विप्र स मुनिस्तत्पादावत्यजन्स्थित॥७॥
वर्षत्रयावधि तथा गुरुशिष्यौ तथा स्थितौ।
तच्छृण्वन्तश्च पश्यन्त सर्वे लोकासुविस्मिताः॥
ततश्रीललितादेवी कामेश्वरसमन्विता।
प्रादुर्भूय हयग्रीव रहस्येवमचोदयत्॥९॥
श्रीदेव्युवाच—
अश्वाननावयोः प्रीति शास्त्रविश्वासिनि त्वयि।
राज्य देय शिरो देय न देया षोडशाक्षरी॥१०॥
स्वमातृजारवद्गोप्या विद्यैषेत्यागमा जगुः।
ततोऽतिगोपनीया मे सर्वपूर्तिकरी स्तुति॥
मया कामेश्वरेणापि कृता सगोपिता भृशम्।
मदाज्ञया वचोदेव्यश्चक्रुर्नामसहस्रकम्॥१२॥
आवाभ्या कथिता मुख्या सर्वपूर्तिकरी स्तुतिः।
सर्वक्रियाणा वैकल्यपूर्तिर्यज्जपतो भवेत्॥१३॥
सर्वपूर्तिकर तस्मादिद नाम कृत मया।
तद्ब्रूहि त्वमगस्त्याय पात्रमेव न सशय॥१४॥
पत्न्यस्य लोपामुद्राख्या मामुपास्तेऽतिभक्तित।
अय च नितरा भक्तस्तस्मादस्य वदस्व तत्॥
अमुञ्चमानस्त्वत्पादौ वर्षत्रयमसौ स्थित।
एतज्ज्ञातुमतो भक्त्या हीदमेव निदर्शनम्॥
चित्तपर्याप्तिरेतस्य नान्यथा सभविष्यति।
सर्वपूर्तिकर तस्मादनुज्ञातो मया वद॥१७॥
सूत उवाच—
इत्युक्त्वान्तरधादम्बा कामेश्वरसमन्विता।
अथोत्थाप्य हयग्रीव पाणिभ्या कुम्भसभवम्॥
सस्थाप्य निकटे वाचमुवाच भृशविस्मित।
हयग्रीव उवाच—
कृतार्थोऽसि कृतार्थोऽसि कृतार्थोऽसि घटोद्भव॥
त्वत्समो ललिताभक्तो नास्ति नास्ति जगत्त्रये।
येनागस्त्य स्वय देवी तव वक्तव्यमन्वशात्॥
सच्छिष्येण त्वया चाह द्रष्टवानस्मि ता शिवाम्।
यतन्ते दर्शनार्थाय ब्रह्मविष्ण्वीशपूर्वका॥
अत पर ते वक्ष्यामि सर्वपूर्तिकर स्तवम्।
यस्य स्मरणमात्रेण पर्याप्तिस्ते भवेद्धृदि॥२२॥
रहस्यनामसाहस्रादपि गुह्यतम मुने।
आवश्यक ततोऽप्येतल्ललिता समुपासितुम्॥
तदह सप्रवक्ष्यामि ललिताम्बानुशासनात्।
श्रीमत्पश्चदशाक्षर्या कादिवर्णान्क्रमान्मुने॥
पृथग्विंशतिनामानि कथितानि घटोद्भव।
आहत्य नाम्नात्रिशती सर्वसपूर्तिकारिणी॥
रहस्यातिरहस्यैषा गोपनीया प्रयत्नत।
ता शृणुष्व महाभाग सावधानेन चेतसा॥
केवल नामबुद्धिस्ते न कार्या तेषु कुम्भज।
मन्त्रात्मकत्वमेतेषा नाम्ना नामात्मतापि च॥
तस्मादेकाग्रमनसा श्रोतव्य च त्वया सदा।
सूत उवाच—
इत्युक्त्वा त हयग्रीव प्रोचे नामशतत्रयम्॥
बहुकाल सुभक्तिमहिम्ना गुरुपादाम्बुजमवलम्ब्य स्थिताय कुम्भयोनिमुनये शिवदपतिकृतनामशतत्रयोक्त्या प्रेरितो हयग्रीव उवाच—
ककाररूपा कल्याणी कल्याणगुणशालिनी।
कल्याणशैलनिलया कमनीया कलावती॥
ककाररूपेति। ककार कवर्ण रूप ज्ञापकविशेषण यस्या सा, कादिविद्याविग्रहत्यर्थ। अथवा ककार रूपवाचक येषा त ककाररूपा हिरण्यगर्भ उदकम् उत्तमाङ्ग सुखादयश्च। हिरण्यगर्भनिष्ठजगद्धारकजगत्कर्तृत्वादिगुणवत्त्व ककारस्य व्यञ्जनादिमवर्णत्वेन वतत इति तद्वाच्य तया तथा। उदकनिष्ठान्नादिद्वारा जगत्सजीवनहेतुत्वमपि ककारस्य विद्याग्निमवर्णतयास्तीति तद्रूपा वा। सर्वेषा प्राणिना शिरस्यमृतमस्तीति योगमार्गेण कुण्डलिनीगमने तत्रत्यतत्प्रवाहाप्लुतयोगिनामीश्वरसाम्य जायत इति योगशास्त्रेषु प्रसिद्धम्। तद्वत् कवर्ण मन्त्रादिमभागस्थ तत्पुरश्चर्यापरायणाना शिवभावमेव यच्छतीति वा तद्रूपत्यर्थ, ‘क ब्रह्म ख ब्रह्म’ इति श्रुते। दहराकाशस्य सुखस्वरूप त्वेन परमप्रेमास्पदतया अभिलाषविषयत्ववत् ककारोऽप्यतिप्रीतिविषयमूलमन्त्रादिमाक्षरतया अभ्यर्हितत्वाद्वा तद्रूपे त्यर्थ॥ ॐ ककाररूपायै नम॥
कल्याणी।कल्याणानि सुखानि। युवसार्वभौमानन्दादारभ्य ब्रह्मानन्दपर्यन्त तैत्तिरीयकादौ प्रतिपादितानि। तत्तदुपाधिभेदेष्ववच्छिन्नस्वरूपतया तानि कल्याणशब्दवा च्यानि, ‘एतस्यैवानन्दस्य अन्यानि भूतानि मात्रामुपजी वन्ति’ इति श्रुते। समष्टिव्यष्टिवत्त्वमुपहितस्वरूपेण सभ वतीति मतुप्समासोपपत्ति। तथा च राहो शिर इतिवत् समासान्तर्गतषष्ठयर्थभेदस्याविवक्षिततया आनन्दैकविग्रहव तीत्यर्थ, ‘विज्ञानमानन्द ब्रह्म’ इति श्रुत्युक्तब्रह्मस्वरूपल क्षणवतीत्यर्थ॥ ॐ कल्याण्यै नम॥
कल्याणगुणशालिनी। कल्याणा सुखकर्तार ये गुणा सत्यकामसत्यसकल्पसर्वाधिपत्यसर्वेशानत्ववामनीत्वसयद्वामत्वादय, ते अस्या शालयन्त इति, तथा एना शोभयन्ती ति वा, तै शाल्यत इति वा कल्याणगुणशालिनी। तथा च कल्याणाश्च ते गुणाश्च कल्याणगुणा शालयन्त्येनामिति कल्याणगुणशालिनी, अस्मिन् समासे देवताया पराधीन गुणवत्त्वस्वत शुद्धचैतन्यत्व च स्फुरितम्। कल्याणगुणै शाल्यत इत्यत्र गुणवत्त्वमात्र देवताया द्योत्यते। तस्यौपा धिकत्व वौदकमपि स्तुतौ तदप्रकटन न दोषाय। यदि गुणानामारोपितत्वेन तत्सकीर्तनस्य भेदबुद्धिसमये तत्कृपा प्राप्तिहेतुत्वेनावश्यकत्वम्, तथापि तदपवादपुर सर शुद्ध चैतन्याभेदध्यानरूपमुख्यभजन मुख्यमवति सपादयितु स्वगुरूपदिष्टमार्गेण सुकरमेवेति नातिविस्तार्यते॥ ॐ कल्याणगुणशालिन्यै नम॥
कल्याणशैलनिलया। शिलाना विकार शैल शिलाघन इत्यर्थ, कल्याण सुखमेव शैल घनीभूत इत्यर्थ, तस्मिन् कल्याणशैले स्वस्वरूप आनन्दघने निलयति तिष्ठतीति कल्याणशैलनिलया, ‘स भगव कस्मिन् प्रतिष्ठित इति स्वे महिम्नीति होवाच’ इति श्रुते‚देवदत्त स्वस्मिन्नेव स्वय वर्तते इति लौकिकप्रयागाच्च‚ देवताया स्वस्वरूपे स्वावस्थानयुज्यत इति। कल्याणमेव शैलवत् घनीभूत कल्याणशैल आनन्दमयकोश कल्याणशैलो निलय यस्या सा इति बहु व्रीहिसमास न विरुद्ध‚ ‘ब्रह्म पुच्छ प्रतिष्ठा’ इति उक्त श्रुतिप्रामाण्यात्। अथवा कल्याणशैल महामेरु निलय गृह यस्या सा तथा, सुमेरुमध्यशृङ्गस्थेत्यर्थ॥ॐ कल्याणशैलनिलयायै नमः॥
कमनीया।परमानन्दस्वरूपत्वन परमप्रेमास्पदा, ‘को ह्येवान्यात्क प्राण्यात्। यदष आकाश आनन्दो न स्यात्’ इति श्रुते। सुखस्य मनोहरत्वेन सर्वेप्साविषयत्ववत् मायावृताना सुखप्रापकत्वेन स्वस्वेष्टदेवतासु प्रीत्यतिशयेन तत्पूजादौ प्रवर्तता तत्फलदानेन मनोहरत्वाद्वा कमनीया। ज्ञानिनामा नन्दघनीभावात्मकसुन्दरमूतिमत्तया वा कमनीया॥ ॐकमनीयायै नमः॥
कलावती। कला शिर पाण्याद्यवयवा, चतु षाष्टकला विद्यारूपा वा, चन्द्रकला वा, भक्तध्यानाय अस्यासन्तीति कलावती॥ॐ कलावत्यै नमः॥
कमलाक्षी कल्मषघ्नी करुणामृतसागरा।
कदम्बकाननावामा कदम्बकुसुमप्रिया॥
कमलाक्षी।कमले इव अक्षिणी यस्या सा तथा। कमलाया लक्ष्म्या अक्षिशब्देन तन्निमित्तक ज्ञान लक्ष्यते विषयतासब धेन तद्वतीति वा। कमलाया ऐहिकामुष्मिकश्रिय हेतुभूते अक्षिणी यस्या सा–इति स्वकीयेक्षणमात्रेण महदैश्वयप्रापिकेतिभाव॥ ॐ कमलाक्ष्यै नमः॥
कल्मषघ्नी। कल्मषाणि पापानि हन्ति नाशयतीति कल्मषघ्नी, ‘अह त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि’ इति भग वद्वचनात्। अथवा वेदान्तमहावाक्यजन्यसाक्षात्काररूपब्रह्मविद्या ‘ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा’ इति स्मृते, ‘न स पापँश्लोकँ शृणोति’ इति श्रुतेश्च॥ॐ कल्मषघ्न्यै नमः॥
करुणामृतसागरा। करुणया कृपया जात यदमृत मोक्षरूप तस्य सागर इव सागरा। यथा अमृतसमुद्र स्वयममृतस्वरूप सन् अन्यानपि लोकान् अमृतपायिमेघाद्विमुक्तामृतेन सजीवयति, तथा ‘ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति’ ‘ब्रह्मविदाप्नोति परम्’ इत्यादिश्रुत्या स्वयममृतस्वरूपा सती। ‘लभते च तत कामान्मयैव विहितान्हितान्’ इति भगवद्वचनेन तत्तदधि कारिकृतकर्मोपासनादिफलस्य देवताप्रापणीयस्य सप्राप्तौ तत्तदधिकारिणा तत्तत्फल स्थितमिति सभाव्यत इति सागरो पमा। अमृतवत्सर्वसजीवनी करुणामृतस्य अभिन्नाश्रयत्वात्सागरा, करुणा च भक्तविषयकपरिपाल्यताबुद्धि। यद्वा, करुणया कृपया अमृता शाश्वतकीर्तिमत्त्वेन ब्रह्मादिलोक गता सागरा सगरराजवश्या यस्या सा तथा, यद्वा,करुणया दयया हेतुना अमृताय प्राप्त सागर समुद्रो यया सा भागीरथी, करुणामृतसागरा॥ ॐ करुणामृतसागरायै नम॥
कदम्बकाननावासा। कदम्बनामककल्पवृक्षयुक्त यत्कानन वन तत्रावासो गृह यस्या सा तथा॥ ॐ कदम्बकाननावासायै नमः॥
कदम्बकुसुमप्रिया। कदम्बाना कुसुमानि कदम्बकुसुमानि तेषु प्रिया प्रीतिमतीति यावत्। यद्यपि प्रियशब्द प्रीतिविषयवाचक, तथापि कुसुमजन्यप्रीतरभावेन तद्विषयताया वक्तमशक्यत्वात् तथोक्तम्॥ ॐ कदम्बकुसुमप्रियायै नम॥
कदर्पविद्या कदर्पजनकापाङ्गवीक्षणा।
कर्पूरवीटीसौरभ्यकल्लोलितककुप्तटा॥३॥
कदर्पविद्या। दर्पस्य विद्या तन्निष्ठप्रत्यग्ब्रह्मैक्यज्ञानमित्यर्थ। अथवा विद्याप्रापकत्वात्तदृष्टमूलमन्त्रवर्णसमुदायो विद्येत्युच्यत वेदवाक्येषु उपनिषत्पदवत्। तद्वात्त्यार्थत्वात्तथा देवी सूच्यते॥ ॐ कदर्पविद्यायै नम॥
कदर्पजनकापाङ्गवीक्षणा। अपाङ्गाभ्या वीक्षणमपाङ्गवी क्षणम्, ईषद्दर्शनमिति यावत्। कदर्पस्य जनक अपाङ्गवीक्षण यस्या सा। अनेन नाम्ना येषा जडानामपि कुरूपिणा जनाना उपरि सकृदीषद्वीक्षणमभिजायते, ते कदर्पवद्रूपयौवनसामर्थ्यलक्ष्मीभाजो भवन्तीति ध्वनितम्।यद्वा कदर्पस्य जनक श्रीनारायण स यस्याअपाङ्गवीक्षणे ईषद्भ्रूवल्लिचलन वर्तते, यस्या आज्ञामात्रवश्यतया महा विष्णु जगद्रक्षादिकार्यंकरोतीति सा तथा इति। अथवा, कदर्पजनका महालक्ष्मी यस्याअपाङ्गवीक्षणे प्रर्यतया वर्तते सा तथा। कदपस्य मन्मथस्य जनका उत्पादका स्त्रक्चन्दनादिभोग्यविषया ते यस्या अपाङ्गवीक्षणात् भवन्ति सा तथा। अथवा, चन्द्रस्य वामनेत्रतया अपाङ्गवीक्षण चन्द्रिकोच्यते। कदपजनक अपाङ्गवीक्षण यस्या सा तथा। कदर्पजनकाशब्देन लक्ष्मीनिवासकमल लक्ष्यते, तद्वत् अपाङ्ग कमलाक्षीत्यथ तन्निरूपितवीक्षण लोकसजीवन यस्यासा तथा॥ॐ कदर्पजनकापाङ्ग वीक्षणायै नमः॥
कर्पूरवटीसौरभ्यकल्लोलितककुप्तटा। कर्पूरयुक्ताश्च ता वीटयश्च ताम्बूलकबलानि तासा सौरभ्य सौगन्ध्य तै कल्लोलितानि असकृत्परिमलितानि ककुभा दिशा तटानि प्रदेशा यस्या सा।मुखवासितपरिमलेन जगन्मात्र सुरभीकृतमिति स्वरूपातिशयोक्ति अस्मिन्नाम्निव्यज्यत, महा राजभोगवतीत्यर्थ।ॐकर्पूरवीटीसौरभ्यकल्लोलितककुप्त टायै नम॥
कलिदोषहरा कजलोचना कम्रविग्रहा।
कर्मादिसाक्षिणी कारयित्री कर्मफलप्रदा॥४॥
कलिदोषहरा। कले निन्द्या जायमानाना पुरुषाणा जन्ममात्रण ये दोषा पापानि आयाति, तान दृष्टा श्रुता कीर्तिता सस्तुता पूजिता ध्याता सती हरतीति तथा। कले अन्योन्यवादिना कलहात्तत्तन्मताभिनिवेशवशाज्जायमाना ये दोषा परब्रह्मविषये अस्तित्वनास्तित्वदेहादिव्यतिरिक्तत्वभि न्नत्वाभिन्नत्वगुणित्वादिसाधकयुक्त्याभासतदनुगुणसमत्याभा सश्रुतितात्पर्यविघटनान्यथाकरणदुराग्रहजन्यकामक्रोधपरुष परवशक्रियमाणनिन्दासहनादिरूपा बहुविधा दोषा, तानद्वैतब्रह्मज्ञानसाधनमुक्तिरूपेण हरतीति कलिदोषहरा॥ ॐ कलिदोषहरायै नम॥
कजलोचना।केभ्य जायन्त इति कजानि, कजशब्द न अरविन्दनीलोत्पलानि लक्ष्यन्ते तद्वल्लाचने यस्या सा तथा। अथवा कज ब्रह्माण्डम्। ‘अय पूर्वमप सृष्ट्वा तासु वीर्यम पासृजत् तदण्डमभवद्धैमम्’ इति वचनात् कजानि अनेक कोटिब्रह्माण्डानि लोचनयो लोचनकृतवीक्षणात् यस्या सा तथा, ‘सेय देवतैक्षत’ इति श्रुते॥ ॐ कजलोच नायै नम॥
कम्रविग्रहा। कम्र अतिमनोज्ञ, गाम्भीर्यधैर्यमाधुर्यादिबहुगुणोदितत्वात्, विग्रह मूर्ति यस्या सातथा, ‘आ नन्दरूपममृत यद्विभाति’ इति श्रुते। आनन्दस्वरूपत्वाद्वा कम्रविग्रहा, ललितारूपेत्यर्थ॥ ॐ कम्रविग्रहायै नम॥
कर्मादिसाक्षिणी। कर्म आदिर्येषा तानि कर्मादीनि उपासनायोगश्रवणमनननिदिध्यासनानि। तेषा साक्षिणी असबन्धी द्रष्ट्री, ‘साक्षी चेता’ इति श्रुते। अथवा कर्मा दय साक्षिभूता जीवनिष्ठा तदनाश्रयतया आत्मदर्शन साधनानि सृज्यमानजगदुपादानभूतानि यस्या सा तथा॥ॐ कर्मादिसाक्षिण्यै नम॥
कारयित्री कारयितृत्व नाम कुर्वित्याज्ञापयितृत्व जाय मानकार्यगोचरकृत्युत्पत्तिहेतुकर्मोद्बोधकत्वरूपलिङ्लोट्तव्य
प्रत्ययाना धर्म विधिनिष्ठभावनेत्युच्यते। तेषा शब्दा त्मकतया जडाना तथात्वासभवात्तदधिष्ठानचैतन्यरूपतया ‘सर्वे वेदा यत्रैक भवन्ति’ इति श्रुत्या वेदस्यात्माभेदेन स्व प्रकाशकतया अर्थप्रकाशनद्वारा प्रामाण्यविधीनामपि वेदैक देशतया प्रेरणरूपत्वात् तदधिष्ठानचैतन्यात्मनाकारयतीति तथा, ‘एष ह्येव साधु कर्म कारयति’ इति श्रुते॥ ॐ कारयित्र्यै नम॥
कर्मफलप्रदा। कृताना कर्मणा कालान्तरभाविफलप्रदाने अदृष्ट कारणमित्यनीश्वरमीमासकादिमतम् तन्न। जडाना सूक्ष्माणामदृष्टाना चतनधर्मकर्मफलप्रदानसामर्थ्या योगात् कृताना कर्मणा फलावश्यभावे‘कर्माध्यक्ष’इति श्रुते‚ ‘मयैव विहितान्हितान्’ इति स्मृतेश्च, ‘फलमत उप पत्ते ’ इति न्यायाञ्चपरदेवता कर्मफलप्रदा। ॐ कर्म फलप्रदायै नमः॥
एकाररूपा चैकाक्षर्येकानेकाक्षराकृतिः।
एतत्तदित्यनिर्देश्या चैकानन्दचिदाकृति।
एकाररूपा। एकार रूप मन्त्रद्वितीयावयवसज्ञापक यस्या सा तथा॥ ॐ एकाररूपायै नम॥
एकाक्षरी। एक मुख्यम् ईश्वरोपाधित्वेन। न क्षरति आत्मज्ञानेन विनामुक्ते न नश्यतीति अक्षर कूटस्थशब्दवाच्य माया। तत्प्रतिबिम्बनिष्ठसर्वज्ञत्वाद्याधायकविशेषणत्वेन अ स्या अस्तीति एकाक्षरी। एकम् अक्षर सवप्रकृतित्वात्परापरब्रह्मप्रतीकतया तदुपासनया तदुभयप्राप्तिसाधनत्वेन शब्द ब्रह्मरूपलक्षितलक्षकशब्द प्रणव अस्या अस्तीति वा। एक अखण्डैकचैतन्यरूप अक्षर अनश्वर अविनाशी परमश्वर अर्धशरीरत्वन अस्यामस्तीति वा। एकान्यक्ष राणि मायाबीजादीनि तदुपासनाप्रतीकत्वेन अस्या सन्ती ति वा। ‘अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते’ इति श्रुत अखण्डाकारवृत्तिप्रतिफलनयोग्यचैतन्यरूपतया तद्वृत्तिव्याप्ति मात्रेण अक्षरपदलक्ष्यचैतन्य विषयतासबन्धेन अस्या अस्तीति एकाक्षरी। चकार निर्गुणब्रह्मणोऽपि सगुणब्रह्मविशेषणसद्भा वसमुच्चयपर सर्वत्रापि द्रष्टव्य। ‘सच्चिन्मय शिव सा क्षात्तस्यानन्दमयी शिवा’ इति वचनेन, ‘स्त्रीरूपा चिन्तयेद्देवींपुरूपामथवेश्वरीं। अथवा निष्कल ध्यायत्सच्चिदा नन्दविग्रहाम्’ इति स्मृत्या च, ‘त्व स्त्री त्व पुमान्’ इति श्वेताश्वतरोपनिषदि उपाधिकृतनानारूपसभवोक्तेश्च। अत एव ‘सेय देवतैक्षत’ इत्यादौ ‘तत्सत्य स आत्मा’ इत्यन्ते च श्रुतौ स्त्रीलिङ्गान्तदेवतादिपदाना तत्सत्यमिति नपुसकान्तस्य स आत्मेति पुल्ँलिङ्गात्मशब्दस्य एकार्थत्वम् अविवक्षि तापाधिमत्तया तत्त्वपदलक्ष्यार्थस्यैकत्वात्। तस्मात् तत्त्वपदलक्ष्यार्थे सर्वेऽपि गुणा वर्णितु सभवन्तीति हय ग्रीवेण अस्या त्रिशत्या बहव चकारा उपात्ता। तेन वय सर्वेषा सर्वत्र न पार्थक्यन प्रयोजनान्तर पश्याम॥ॐ एकाक्षर्यै नमः॥
एकानेकाक्षराकृति। एकम् ईश्वरप्रतिबिम्बोपाधितया शु द्धसत्त्वप्रधानम् अक्षरमज्ञानम्। अनेकानि मलिनसत्त्वप्रधान तयाजीवोपाधिभूतान्यक्षराणि अज्ञानानि, ‘माया चाविद्या चस्वयमेव भवति’ इति श्रुते। एक चानेकानि च एकानकानि तानि च अक्षराणि च तानि तथा ‘माया तु प्रकृतिम्’ इति श्रुते। तेष्वाकृतय प्रतिबिम्बान्यवच्छिन्नानि वा चैतन्यानि घटस्थोदकावच्छिन्नप्रतिबिम्बिताकाशवद्यस्या सा तथा। अथवा एकानि च प्रणवाद्यानि अनेकानि च अकारादि क्षकारान्तानि अक्षराणि वर्णा आकृति स्वरूप यस्या सा, मातृकास्वरूपत्वेन वा। ‘अकारादिक्षकारान्ता मा तृकेत्यभिधीयते’ इति वचनात्। अथवा एच कश्च एकारककारौ तौ चेतराण्यनेकाक्षराणि च सर्वंमिलित्वा पञ्चद शवर्णात्मिका मूलविद्या आकृति स्वरूप यस्या सा। साक्षि तया एकीभूता अनेकाक्षरेषु अनेकाज्ञानेषु आकृति स्वरूप शोधिततत्त्वपदार्थसामरस्यात्मक यम्या सा तथा॥ ॐ एकानेकाक्षराकृतये नम॥
एतत्तदित्यनिर्देश्या। एतत् एतत्कालेऽपि इयत्तापरिच्छेदवद्वस्तु तत् परोक्षमनिश्चितस्वरूपम्। एतच्चतच्च एतत्तत्। इतिकार इत्थभावेतृतीयार्थे। तथा च एतत्त्वतत्त्वाभ्यामि त्यर्थ। एतत्तदित्यनेन निर्देष्टु निर्वक्तु योग्या निर्देश्या सा न भवतीति अनिर्देश्या। लोके सविशेषो हि पदार्थ परोक्षत्वापरोक्षत्वादिधर्मविशेषेण तद्गतेन निर्वक्तु शक्य।शब्दप्रवृत्तिनिमित्तजातिगुणक्रियाषष्ठ्यर्थाना यत्र सबन्धो नास्ति, ‘अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययम्’, ‘निर्गुण निष्क लम्’ इत्यादिश्रुत्या, तादृग्वस्तु केन करणेन केन वा वचनेन निर्देष्टु शक्यम्। ‘यद्वाचानभ्युदितम्’ इति श्रुते। अत एतत्तदित्यनिर्देश्या वाङ्मनसातीतेत्यर्थ। अथवा, एतत् प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्ध कार्ये पश्चाद्भावि। तत् परोक्षत्वादिविशिष्ट पूर्वकालसबन्धि व्यवहित कारणमुच्यते। इतिशब्द उभयत्र सबन्धनीय।कार्यमिति कारणमित्यपि शुद्धचैतन्यरूपा अनिर्देश्या, कार्यत्वकारणत्वघटकोपाधिविरहितत्वेन कार्यकारणभावाभावे तद्वाचकशब्दैर्विषयीकर्तुमशक्यत्वात्। अथवा, एतत् अपरोक्षतया अहमिति प्रतीयमान जीवचैतन्य त्वपदवाच्यार्थ। तत् परोक्षतया प्रती यमानमीश्वरचैतन्य तत्पदवाच्यार्थ। इति शब्द एव कारार्थ। तथा च वादिभेदसिद्धान्त अनूदित। सा ख्यमते प्रकृतिर्जगत्कर्त्री, जीवो नानाचतन भोक्ता इत्यत ईश्वर एव नास्तीत्यङ्गीकृतम्। भागवतमते तु ‘गुणी सववित्’ इति श्रुत नित्यगुणविशिष्टात् परमेश्वराद्विष्णो र्जीवानामुत्पत्तिविनाशवत्त्वेन अनित्यत्वात् स एव भगवान् पारमार्थिक एक इत्यङ्गीकृतम्। तदुभयवादिसिद्धान्त स्य औपनिषदमते निरस्तत्वात् तदुभयविधया अनिर्दे श्या। परमार्थसच्चिदानन्दरूपतया छान्दाग्यगतदेवता शब्दार्थस्य प्रतिपादनादिति भाव। अथवा, तटस्थे श्वरवादिकाणादादिसिद्धान्तवत् व्यवस्थितभदवज्जीवेश्वररू पतया अनिर्देश्या। भेदव्यवस्थाया एव साधितुमशक्यत्वादिति एतत्तदित्यनिर्देश्या॥ ॐ एतत्तदित्यनिर्देश्यायै नमः ॥
एकानन्दचिदाकृति।एका मुख्या मोक्षरूपत्वेन प्रापि त्सिता। आनन्द सुखम्। चित् चैतन्य प्रकाशज्ञानम्। आनन्दश्चासौ चिच्चआनन्दचित् एका चासावानन्दचिच्चएकानन्दचित् आकृति स्वरूप यस्या सा। सच्चिदानन्द ब्रह्मरूपलक्षणवतीत्यर्थ। ‘विज्ञानमानन्द ब्रह्म’ ‘आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्’ इति श्रुते ‘आनन्दादय प्रधानस्य’ इति न्यायाच्च दीप्तिस्वरूपप्रकाशात्मकपरमानन्दस्वरूपस्य जीव न्मुक्त्यवस्थाया परमात्मज्ञानवत् पुरुषानुभवरूपप्रत्यक्षप्रमा णगोचरत्वमस्या इति वा तथा। अथवा, एकेषा आनुभा विकाना योगिनामानन्दसाक्षात्काररूपा आकृति निरावर णप्रकाशरूपा यस्या सा तथा। अथवा, आनन्द शिवा, चित् परमेश्वर, एके मूर्तिभेदरहिते आनन्दचितौ आकृति र्यस्या सा तथा॥ ॐ एकानन्दचिदाकृतये नमः॥
एवमित्यागमाबोध्या चैकभक्तिमदर्चिता।
एकाग्रचित्तनिर्ध्याता चैषणारहितादृता॥
एवमित्यागमाबोध्या। ननु आनन्दशब्दस्य लक्षणया आनन्दमयो वाच्य। ‘य एको जालवानीशत इशनीभि’ इति श्रुत्युक्तैकत्वमपि जीवे सिध्यति। तथा च एकश्चासा वानन्दश्च तस्य चित् अधिष्ठानप्रकाशकचैतन्यमाकृति यम्या सेति विग्रह सभवति। ‘ब्रह्म पुच्छ प्रतिष्ठा’ इति तत्प्रका शकचैतन्यस्य पुच्छशब्देन परामर्शात्। एव च सति प्रका शकनित्यत्वस्य प्रकाश्यनित्यत्वापेक्षत्वात्। ‘सत्य ज्ञानमनन्त ब्रह्म’ इत्यादिब्रह्मस्वरूपलक्षणवाक्येषु वाच्यार्थप्राधान्येन विधिमुखेनैव ब्रह्मप्रतिपादने अतद्व्यावृत्तिरूपनिषेधमु खेन लक्षणार्थप्राधान्येन ब्रह्मस्वरूपलक्षणप्रतिपादनायोगेन तत्त्वमसिवाक्ये वैशिष्टयवाक्यार्थ सभवतीति चेत्, नेत्याह—एवमित्यागमाबोध्येति। एवविशिष्टतया-इति प्रत्यक्ष सिद्धत्वेन आगमैर्वेदे ज्ञापनीया न भवति। आनन्द शब्दस्यानन्दमात्रवाचकस्य तत्प्रचुरे सभावितेषद्दु ख जीवे लक्षणाया त्रयो दोषा। पारमार्थिकभिन्नसत्ताकवस्त्व न्तराभावेन तत्त्वपदवाच्यार्थनिष्ठविशेषणद्वयस्य अन्योन्य विरोधवत्तया तम प्रकाशवद्वैशिष्ट्यायोगे अखण्डार्थो वा क्याथ सपद्यते। तथा च स्वरूपलक्षणवाक्येषु वाच्यार्थस्य ‘अतोऽन्यदार्तम्’ इति श्रुत्या मिथ्यात्वप्रतिपादनात् निषेध मुखेनैव अतद्व्यावृत्तिस्वरूपप्रतिपादनेन लक्षणवाक्यानि सम ञ्जसानि भव तीति भाव॥ॐ एवमित्यागमाबोध्यायै नम॥
एकभक्तिमदर्चिता। एकस्मिन्नभेदे जीवब्रह्मणो भक्ति भजनीयत्वबुद्धि तत्परिजिज्ञासा येषा सन्ति, तैरर्चिता पूजिता इत्येतदुपलक्षण स्तुता ध्याता नमस्कृतेत्येवमादी नाम्, ‘यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति तत्कर्मणा कराति’ इति श्रुते मानसिकव्यापारपूर्वकानि हि इतरेन्द्रिय कर्माणि भवन्तीत्यभिप्राय। अथवा, अस्मिन् ससारमण्डले तत्स्वरूपपरिज्ञातार ये केचन, तेषा भजनीयत्वाध्यवसायो भक्ति तदेकप्रवणता सगुणब्रह्मविषया अष्टविधा, तैरेकभक्तिमद्भिरर्चिता अन्तर्यागबहिर्यागमहायागप्रकारै पूजिता इत्यर्थ॥ ॐ एकभक्तिमदर्चितायै नम॥
एकाग्रचित्तनिर्ध्याता।एकम् ऐक्यरूपम् अग्रम् आ लम्बन विषय विजातीयप्रत्ययतिरस्कारपूर्वकसजातीयवृत्ति काभि निरन्तरव्याप्तिविषयीकृतचैतन्य यस्य तत्तादृश चि त्तमन्त करण येषा तै।यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहा रधारणाध्यानसमाधीना परिपाकातिशयेन पश्चात्सपद्यमाना सप्रज्ञातसमाधे त्रिविधा भूमिका— ऋतभरा, प्रज्ञालोका, प्रशान्तवाहिता चेति। ऋत यथाभूत सच्चिदानन्दलक्षण ब्रह्म भरति वृत्तिव्याप्त्या विषयीकरोतीति प्रथमा तथा, ‘आत्मन्येव वश नयेत्’ इति भगवद्वचनात्। प्रज्ञालोका। प्रज्ञाया अखण्डाकारवृत्तौ नित्यनिरन्तराभ्यासेन परिपाक नीताया ब्रह्मविषयिण्या आवरणाभिभव कुर्वन्त्या सत्याम्, ‘प्रज्ञा प्रतिष्ठा’ इत्यादिश्रुते, प्रज्ञाया ब्रह्मस्वरूपाया आलोक अभिव्यक्ति साक्षात्कार यस्यासपद्यत सा का रणविज्ञानम्। यस्मिन्विज्ञाते सर्वमिद विज्ञात भवतीत्येक विज्ञानेन सर्वविज्ञानरूपम्। प्रारब्धवशात्तदा चित्त तदध्य स्त सर्वजगद्द्रष्टुमिच्छति यदि, तदानीं चैतन्यप्रकाशेनैव प्रकाशित जगत्स्वाप्नपदार्थवदशेष भासते। इद च भरद्वाजा दीनामस्तीति पुराणादिप्रमाणवेद्यमस्माकम्। तथा च तस्या भूमिकाया निरुद्धसामर्थ्यं सदन्त करण साकारस्वरूप नि र्वासन यदा नश्यति, तदा प्रशान्तवाहिता भवति। वह प्रवाह सततवृत्ति धारा अस्य अस्तीति वाही, वाहिनो भाव वाहिता प्रशान्ता च सा वाहिता व प्रशान्तवाहिता। अथवा, प्रशान्त वाह अस्य अस्तीति प्रशान्तवाही।प्रशान्तवाहिनो भाव प्रशान्तवाहिता, ‘मनसो वृत्तिशून्यस्यब्रह्माकारतया स्थिति। असप्रज्ञातनामेति समाधिर्योगिना प्रिय’ इति वचनात्, ‘प्रशान्तमनस ह्येनम्’ इति भगव द्वचनात्, ‘पृथ्व्यप्तेजाऽनिलखे समुत्थित पश्चात्मके याग गुणे प्रवृत्ते। न तस्य रागो न जरा न मृत्यु प्राप्तस्य योगाग्निमय शरीरम्’ इति श्रुत्या उक्तलक्षणसाधनपरिपाकव शाद्भवति। तैर्निर्ध्याता, ध्यानस्य निर्गतत्वात्। भेदास्फूर्तौध्यानविषयो न भवति ध्यातु स्वरूपमेव प्रकाशते, ‘ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति’ इति श्रुते। निध्याता इति पाठ नितरा श्रवणमनननिदिध्यासनेन साक्षात्कृता इत्यर्थ॥ ॐ एका ग्रचित्तनिर्ध्यातायै नम॥
एषणारहितादृता। एषणा इच्छा। सात्रिविधा। एत ल्लोकजयाय पुत्रैषणा। पितृलोकजयसाधनकर्मसपादनाय वित्तैषणा। उपासनादिना जयसाधन देवलोक, तस्मिन्ने षणा लोकैषणा। आभि रहितै अनाकृष्टचित्तै, ‘ते ह स्म पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति’ इति श्रुते। एषणारहिता ये परमहस परिव्राजका सन्यासिन तै आदरेण अतिशय प्रेम्णा स्वस्व रूपेण आदृता अङ्गीकृता निरन्तरध्यानेन साक्षात्कृता सती मोक्षरूपतया प्राप्तत्यर्थ॥ ॐ एषणारहितादृतायै नमः॥
एलासुगन्धिचिकुरा चैन कूटविनाशिनी।
एकभोगा चैकरसा चैकैश्वर्यप्रदायिनी॥७॥
एलासुगन्धिचिकुरा। एलावदिति दृष्टान्तप्रदर्शन सौग न्ध्यमात्रसद्भावप्रदर्शनेनाकल्पितदिव्यपरिमलसद्भावे हेतु, न तु प्राकृतत्वदशनपरम्‚ब्रह्मण स्वाधीनमायत्वात्। तद्व त्सुगन्ध इति साजात्यमात्र व्यज्यते, गुणमात्रादानेन सर्वत्र पदार्थान्तरस्य दृष्टान्तीकरणात्। सुगन्धा येषा सन्तीति सुगन्धिन तादृशा चिकुरा कुन्तला यस्यासा तथा। स्वभावसिद्धदिव्यपरिमलशालिसर्वाङ्गसौरभ्य वती, चिकुरपदस्य उपलक्षणत्वादिति भाव॥ ॐ एला सुगन्धिचिकुरायै नम॥
एन कूटविनाशिनी। एनसा पापाना कूट समुदाय। आगामिसचितप्रारब्धभेदेन समष्टिरूपेण दृढतर तत्त्वज्ञा नेन विना अन्यस्य भोगमात्रस्य तद्विनाशकत्वावगमात् तेषा च कल्पकोटिकाल क्रमिकभोगप्रदान विनोपायान्त रेण क्षयेप्सूनामात्मब्रह्माभेदज्ञानविषयतया चैतन्य नाशय तीति तथा। एवविदि पाप कर्म न श्लिष्यते, ‘अशरीर वाव सन्त प्रियाप्रिये न स्पृशत’ इत्यादिश्रुते, ‘अह त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि’ इति स्मृतेश्च।अथवा एनासि च तत्कारणीभूत कूट कपटवचनाभिधान च त त्कारण माया च नाशयतीति तथा॥ॐ एन कूटविना शिन्यै नम॥
एकभोगा। एकेन कामेश्वरेण साक भोग भुक्ति। भोग स्वस्वरूपानन्दानुभव यस्यासातथा। अथवा, एकस्यअज्ञानतत्कार्यस्य कार्यकारणरूपेण अभिन्नस्य तदधिष्ठानतया स्वसत्ताधायकत्वेन भोग परिपालन यया सा। प्रपञ्चोत्पत्तिस्थितिनाशहतुमायोपाधिकचैतन्यमित्यर्थ। ‘एकाकी न रमते तत पतिश्च पत्नीश्चाभवताम्’ इति पुरुषविधब्राह्मणवच नात्, दपत्योरैच्छिकभेदकत्वावगमेन परमार्थत एतत्स्वरूप स्यैकचैतन्यरूपतावगमात्‚ तदुभयभोगस्यापि एकभोगत्वात् तद्वतीति वा॥ ॐ एकभोगायै नम॥
एकरसा। एक अभिन्न रस सामरस्य यस्या सा, ‛रसँह्येवाय लब्ध्वानन्दी भवति’ इति श्रुते। एक नव रसषु मुख्य शृङ्गाररस यस्या सा तथा। अथवा, एकेन परमेश्वरेण अस्या क्रियमाण प्रीत्यतिशयरूप रस एतद्वि षयक यस्यासा। अथवाएकस्मिन्नेव स्वभर्तरि रसनिरतिशयप्रीति अनुरागसज्ञा यस्या सा। अथवा, षड्रसेषु मुख्य मधुररस प्रियत्वेन यस्या सा‚सत्त्वगुणप्रधान मायापाधिकचैतन्यस्वरूपत्वात्। रस्यास्निग्धा स्थिरा हृद्या आहारा सात्त्विकप्रिया इति भगवद्वचनात्॥ ॐ एकरसायै नमः॥
एकैश्वर्यप्रदायिनी। ईष्टे प्ररयति अन्तर्यामित्वेन सवा णीति ईश्वर। ‘य सर्वेषु भूतषु तिष्ठन्य सर्वाणि भूता न्यन्तरो यमयति’ इति श्रुते। तत्प्रेर्यमाणाना जीवाना भूतशब्दवाच्याना अज्ञानतत्कार्यान्त करणोपहितप्रतिबिम्ब चैतन्यरूपाणा जाग्रदाद्यवस्थाभिमानिना अखण्डब्रह्मसाक्षा त्कारवेलायाम्अभेदानुभवात्, ‘तत्त्वमसि’ इति श्रुतेश्च ‘ए कमेवाद्वितीयम्’ इति विशेषितत्वाच्च, एकश्चासावीश्वरश्चए केश्वर तस्य भाव तदैक्य तत्प्रददातीति तथा। बहुषु वि द्याधनवत्सु तेष्वेको विद्याधनवानित्युक्ते, तत्रत्यजननिष्ठविद्या भावे तदतिशयप्रतीतिवत् एक च निरतिशयमणिमादिकमैश्व र्यंनि श्रेयस प्रददातीति वा। यद्वा एक मानुष सर्वोत्कृष्ट सार्वभौमत्वादिलक्षणमभ्युदयसामान्यमैश्वर्यं प्रददातीति वा तथा॥ॐ एकैश्वर्यप्रदायिन्यै नम॥
एकातपत्रसाम्राज्यप्रदा चैकान्तपूजिता।
एधमानप्रभा चैजदनकजगदीश्वरी॥८॥
एकातपत्रसाम्राज्यप्रदा। आतपात् आ समन्तात्अध्या त्माधिदैवताधिभूतानि आ शब्दार्थ। तभ्या जाता तापा आतपा। तपन्ति शाषयन्तीति तपा, आतपभ्यत्रायति रक्षतीति आतपत्र सर्वससारदु खोपशमात्मकमात्मज्ञानम्। ‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेव यास्यसि इति भगवद्वचनात्। अखिलदु खनिदानाज्ञाननिवर्तक एक लक्षणया अभिन्नब्रह्म विषयकमित्यर्थ। एक च तत् आतपत्र च अखण्डाकार ज्ञानम्, तेन जायमान यत्साम्राज्य सम्राजो भाव सर्वोत्तमत्व तत्प्रददातीति। अथवा, एकातपत्रसाम्राज्य चक्रवर्तित्व तत्प्रददातीति वा॥ ॐ एकातपत्रसाम्राज्यप्रदायै नम॥
एकान्तपूजिता। एकस्य अद्वितीयस्य शोधितत्वपदार्थस्य अन्ते उपाधौ हृदि परिच्छेदकत्वात् पूजिता अहमित्य परोक्षीकृता, ‘यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म’ इति श्रुते। एकस्य ब्रह्मण अन्ते उप पूजिता षद् गत्यवसानार्थयोरिति धातुपाठात् उपनिषद्ब्रह्ममात्रतया पर्यवस्यतीत्यर्थ। एकान्तपूजि तति नाम्नोपनिषदित्यर्थ। अथवा, एकान्ते ‘गुहानिवाता श्रयेण प्रयोजयेत्’ इति श्रुत एकान्तस्थल ध्यानादिना योगिभिर्विषयीकृतेत्यर्थ। अथवा, कामेश्वरेण एकान्ते स्त्री लिङ्गे पूजिता। सप्रदायप्रवृत्त्यर्थमादौ ईश्वरेण बहिर्यागकमण आदिमसाधनेन सर्गाद्यकाले पूजादिना सतोषितत्वात् भूतार्थव्यपदेश। एकान्ते सवप्रविलापनसमये पूजिता ध्यानादिना सपादिता साक्षत्कृतेत्यर्थ। ‘कश्चिद्धीर प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्’ इति श्रुतेरिति वा॥ ॐ एकान्तपूजितायै नमः॥
एधमानप्रभा। एधमाना विवर्धमाना सर्वातिशायिनी प्रभा कान्तिर्यस्यासा, ‘तमेव भान्तमनुभाति सर्वे तस्य भासा सर्वमिद विभाति’ इति श्रुते।ॐ एधमानप्रभायै नमः॥
एजदनकजगदीश्वरी। एजन्ति कम्पमानानि चष्टमानानि प्राणवन्ति जीवन्ति अनेकानि नानोपाधिकानि जगन्ति जङ्गमानि विचरत्प्राणिन इत्यथ। ईष्टे प्रेरयतीति ईश्वरी। स्थावराणा सुखदु खप्राप्तिपरिहारोपायानभिज्ञत्वेऽपि स्वजी वनहेतुभूतोदकपानादिप्रवृत्तिदर्शनाच्चेष्टावत्त्व तत्राप्यस्तीति जगच्छब्दो निर्विशेषप्रपञ्चमात्रपरो वक्तव्य‚ अन्यथा ‘सर्वे षु भूतेषु’ इति श्रुतौ चरप्राणिमात्रपरत्वे सकोचापत्ते। अस ति विराधे सामान्यवाचकस्य शब्दस्य विशेषलक्षणाङ्गीका रस्य न्याय्यत्वात्। अन्यथा ब्रह्मण प्रपञ्चमात्रोत्पत्त्यादिहे तुत्व सकुचित भवेत्। अत एव आकरे एजत्पद उपात्तम्। यथाकथचित् क्रियाश्रयत्वेन प्राणवत्त्वमात्रस्य समष्टिहिर ण्यगर्भाश्रयत्वेन सर्वेषा प्रेर्यत्व सभवतीति भाव॥ॐ एज दनेकजगदीश्वयै नम॥
एकवीरादिससेव्या चैकप्राभवशालिनी।
ईकाररूपा चेशित्री चेप्सितार्थप्रदायिनी॥९॥
एकवीरादिससेव्या। एक अनितरसाधारण वीर पुरश्चर्यादिना कृतमन्त्रदेवतासाक्षात्कारलब्धपुरुषार्थ पुमान् विजयप्राप्ताभ्युदयशाली। राजराजनिष्ठधैर्यगाम्भीर्यादिगुण वत्त्वेन तत्तद्देवतोपासका पुरुषा वीरा इत्युच्यन्ते। यासा शक्तीनामादयो यषा प्राणिकोटीना ता एकवीरादय तासा कदम्बै ससेव्या ससेवितु योग्या। यदा ईश्वरी भक्ताननुगृह्णाति सगुणविग्रहवती स्यात् तदा अनेकपरिवारदेवताप रिसेविता मन्त्रदेवतात्वेनोपासनीयेत्यर्थ। अथवा, एकवीरा रेणुका, तदादय शक्तय श्यामलाप्रमुखा, ताभिस्तत्कालप्रपञ्चे स्वस्वपीठे स्थिता सत्य उपासकानामभीष्टवरप्रदात्र्यो दृश्यन्ते। ता अस्या परिसेवकत्वेन स्वयमभीष्टवर कामा इत्यस्या प्रकृताया महिमातिशयोक्ति॥ ॐ एकवीरादिसंसेव्यायै नमः॥
एकप्राभवशालिनी। प्रभोर्भाव प्राभव रक्षकत्व एकमनितरसाधारण च तत्प्राभव च तच्छालक इति तथा। अथवा, प्राभवस्य सापेक्षकधमत्वादेकपदस्य चानन्यगामित्वा र्थस्य सामानाधिकरण्येन स्वारस्येन पर्यालोच्यमानेन अय मर्थ सूच्यत। प्राभव च नियम्यलोकोद्भव विना अनुपपद्य मान तदन्तर्गततत्कार्यमर्थापत्त्या सिध्यति। तथा च वटबीजव स्त्वन्तर्गतपश्चाद्भाविकार्यवत्कूटस्थचैतन्यमिति भाव। अथवा, प्राभव नामेश्वरत्व तदाक्लृप्तनियम्यजगच्चोपलक्षणविधया य स्यैकस्याखण्डचैतन्यस्य तदेकप्राभवम्। ‘पादोऽस्य सर्वा भू तानि’ ‘एकाशन स्थितो जगत्’ इति श्रुतिस्मृतिभ्या भूतपूर्व गत्या प्राभवोपलक्षितमेक सच्चिच्चैतन्यरूप शालते आविष्करो ति तथा। अथवा एक च तत् प्राभव च एकप्राभव मुख्य सार्वभौमत्वमिति यावत्। प्रभुत्वपरपराया सविशेषाया कुत्रचित् पर्यवसानावश्यभावे ‘एष सर्वेश्वर एष भूताधिपतिरेष भूतपाल’ इति श्रुत्या अन्तर्यामितया साक्षात्कृ त्युत्पादकत्वयुक्त्या च इतरवागाद्यवयवप्रेरणातिशयाना प र्याप्तिरत्रैवास्तीत्यभिप्राय। तथा च निरङ्कुशस्वतन्त्रज गत्कारणत्वरूपतटस्थलक्षणलक्षितवेदान्तसमन्वयविषयीभूता अखण्डसच्चिदानन्दस्वरूपा परदेवता अवश्य स्वस्वरूपेणैव ध्यातव्येति निष्कृष्टार्थ॥ ॐ एकप्राभवशालिन्यै नम॥
ईकाररूपा। इकार रूप तृतीयावयव यद्वाचकमन्त्रस्य यस्या सा तथा॥ॐ ईकाररूपायै नम॥
ईशित्री। इच्छति ईष्टे इति ईशित्री सर्वप्रेरिका इत्यर्थ॥ ॐ ईशित्र्यैनमः॥
ईप्सितार्थप्रदायिनी।अर्थ्यन्ते प्रार्थ्यन्ते इत्यर्था अभ्यु दयनि श्रेयसरूपा, आप्तु गन्तु प्राप्तु इच्छाविषयीभूता ईप्सिता ते च ते अर्थाश्चेति कर्मधारय‚ ईप्सितार्थान्’प्रददातीति तथा। केवलकर्मणामदृष्टद्वारा कालान्तरभावि फलदातृत्वमचेतनत्वान्नापपद्यते। तादृशाना कस्मिन्नप्यर्थे सामर्थ्यादर्शनात्। चेतनाधिष्ठिताना तु कर्मणा भृत्यकृतपराक्रमादितुष्टराजवत्तदाराधितपरमेश्वर कर्माध्यक्ष‚ इति श्रुत्या सर्वज्ञस्य तत्तदधिकारिकृतपुण्यापुण्यानुरूपतया फल प्रदाने समर्थस्य सत्त्वकल्पने तदन्यस्य चेतनस्य जीवादेस्तत्र सामथ्यविरहात् स एव तत्तदनुगुणविषयेच्छोत्पादनेन तत्साधनानुष्ठापयिता सन् तत्फलकामना पूरयतीत्यनीश्व रमीमासकमतनिरासो द्रष्टव्य। अथवा, ईप्सिता जिज्ञा सिता, तथा च स्वस्वरूपप्रतिपादकवेदान्तश्रवणमनननिदि ध्यासनविषयीकृता सती अर्थं प्रार्थ्यमान सर्वाभ्यर्हितमो क्षरूप पुरुषार्थ प्रददातीति तथा॥ ॐ ईप्सितार्थप्रदा यिन्यै नम॥
ईदृगित्यविनिर्देश्या चेश्वरत्वविधायिनी।
ईशानादिब्रह्ममयी चेशित्वाद्यष्टसिद्धिदा॥
ईदृगित्यविनिर्देश्या। ईदृक् एतल्लक्षणलक्षित एतादृश परिमाण एवस्वरूप एतादृशधर्मवानिति प्रत्यक्षसिद्धार्थो विनिर्देष्टु शक्यते। ‘यच्चक्षुषा न पश्यति’ इत्यादिश्रुत्या सर्वेन्द्रियगोचरत्वनिराकरणात् विनिर्देश्या न भवति। औ पनिषदाना मते तु उपनिषदा वेदैकदेशत्वेन इतरप्रमाणा नपेक्षतया अज्ञातार्थज्ञापकत्वेन प्रामाण्यमुररीकृतम्। इद मेव एतादृगेवेति प्रत्यक्षसिद्धार्थज्ञापने तासामनुवादकत्वेन सापेक्षत्वरूपमप्रामाण्य प्रसज्येतेत्यभिप्राय। ॐ ईदृगि त्यविनिर्देश्यायै नम॥
ईश्वरत्वविधायिनी। ईश्वरस्य भाव तस्यैक्य विदधाति, आवरणविक्षेपशक्तिमदज्ञाननिवर्तकाखण्डाकारचैतन्यस्वरूपा सती भेदबुद्धिमात्रसपादितैश्वर्यैक्यायोगभ्रम निवर्तयती त्यर्थ‚ ‘स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते’ इति श्रुते। अथवा, ईश्वरत्वनाम नानादेशविद्याधनोत्कर्षादिमत्त्व तत्तत्प्राणिनि कायपुण्यप्रारब्धानुसारेण कर्मफल प्रयच्छतीति वा। ॐ ईश्वरत्वविधायिन्यै नमः॥
ईशानादिब्रह्ममयी। ईशानतत्पुरुषाघोरवामदेवसद्योजाताख्यानि पञ्च ब्रह्माणि‚ तानि मय स्वरूपमस्या अस्तीति सा तथा। अथवा, ईशान आदिर्येषाते तथा अधिकारिपुरुषाविष्णुब्रह्मेन्द्रादय, तेषामपि तत्तन्नामरूपविशिष्टानाम् अहबु द्धिमताम् अन्तर्यामिस्वरूपेण बुद्धिप्रेरकसच्चिदानन्दस्वरूपपरब्रह्मानन्दप्रकाशात्मना स्फुरतीति तथा। ॐ ईशानादि ब्रह्ममय्यै नमः॥
ईशित्वाद्यष्टसिद्धिदा। ईशित्वमादिर्यासा तास्तथा। ‘अणिमा महिमा लघ्वीगरिमा प्राप्तिरीशिता। प्राकाम्य च वशित्व च यत्र कामा परागता’ इति वचनात्। ता सिद्धीरष्टौ ददातीति तथा। अणिमा क्षणमात्रेण अतिसूक्ष्मभाव।महिमा महतो भाव। लघ्वी लाघव। गरिमा गुरोर्भाव, जडतरपवतादिवत् भारवशेनाप्रकम्पित्वमित्यर्थ। क्षणमात्रेण विराडाकृतिमत्त्वप्राप्ति। हस्तेन चन्द्रमण्डलादिस्पर्श इशिता, इन्द्रादीनामपि प्ररकता। प्राकाम्य अप्रतिहतकामनावत्त्वम्, वाञ्छितार्थफलप्राप्तिरित्यर्थ। वशित्व सर्वलोकवशीकरणसामर्थ्यम्। यत्र कामा परागता काम्यन्त इति कामा विषया यत्र यस्मिन् एश्वर्ये सति परागता बहिर्भूता भवन्ति, विषयाणामनुभवाभावे ऽपि तज्जन्यसुखवत्त्व आप्तकामत्वमित्यर्थ। एता अष्ट सिद्धय। ॐ ईशित्वाद्यष्टसिद्धिदायै नमः॥
**ईक्षित्रीक्षणसृष्टाण्डकोटिरीश्वरवल्लभा। **
ईडिता चेश्वरार्धाङ्गशरीरेशाधिदेवता॥
ईक्षित्री। उदासीनद्रष्ट्री साक्षिणी असगोदासीनज्ञानस्वरूपेत्यर्थ, ‘साक्षी चेता’ इति श्रुते, ‘आवि सनिहित गुहायाम्’ इति श्रुते। ॐ ईक्षित्र्यै नम॥
ईक्षणसृष्टाण्डकोटि। अण्डाना ब्रह्माण्डाना कोटय असख्याता‚भूतभाविकालभेदेन बहुवचन कोटिशब्दस्य, अनादित्वात् ससारमण्डलस्य, ईक्षणेन भाविकार्यालोचनेन सृष्टा अण्डकोटयो यया सा तथा, ‘तदैक्षत बहु स्या प्र जायेयेति’ ‘स ईक्षाचक्रे’ ‘आत्मा वा इदमेकमत्र आ सीत् नान्यत्किंचन मिषत् स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति स इमाल्लोँकानसृजत’ इत्यादिश्रुते, बाह्यकारणमनपेक्ष्य ऊर्ण नाभ्यादिदृष्टान्तप्रदर्शनेन चेतनस्याभिन्ननिमित्तोपादानप्रदर्शनयुक्ते, ‘प्रकृतिश्च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुपरोधात्’ इत्यादेश्चेति भाव। ॐ ईक्षणसृष्टाण्डकोटये नम॥
ईश्वरवल्लभा। ईश्वर कामेश्वर बल्लभ पति यस्या सा तथा। ईश्वराणा ब्रह्मविष्णुरुद्रादीना तत्तन्निष्ठमहिमो त्कर्षरूपेण प्रीत्यतिशयविषयत्वेन अभ्यर्हितेत्यर्थो वा। ॐ ईश्वरवल्लभायै नमः॥
ईडिता। ईड स्तुताविति धातुपाठात् स्तुतिभि विषयी कृता, वेदान्तैरिति शेष ‘एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य’ इत्यादिश्रुते। ॐ ईडितायै नम॥
ईश्वरार्धाङ्गशरीरा। ईश्वरस्य सच्चिदानन्दात्मकस्य शिव स्य अर्धं च तत् अङ्ग च अर्धाङ्गम्।आनन्दस्वरूपता शरीर शरीरवत्स्वरूपलक्षण यस्यासा तथा। ‘सच्चिन्मय शिव साक्षात्तस्यानदमयी शिवा’ इति स्मृते। अथवा, ईश्वरस्यार्धाङ्ग वामभाग शरीर मूर्तिर्यस्या सा। अथवा, ईश्वरस्य हकारस्य अर्धाङ्ग शक्तिबीज शरीर मन्त्रात्मिका मूर्तिर्यस्या सा तथा। ॐ ईश्वरार्धाङ्गशरीरायै नम॥
ईशाधिदेवता। ईशस्येत्युपलक्षण जीवस्यापि, ईशस्य तत्पदवाच्यार्थस्य मायोपाधिकस्य विशिष्टस्य अधि उपरि विशेषणद्वयस्य परित्यागे देवता द्योतमाना कूटस्थाचिन्मात्रशोधितत्त्वपदार्थरूपेत्यर्थ। अथवा, ईश कामेश्वर अधि देवता पूज्या यस्या सा तथा। परमपतिव्रतेत्यर्थ॥ ॐ ईशाधिदेवतायै नमः॥
ईश्वरप्रेरणकरी चेशताण्डवसाक्षिणी।
ईश्वरोत्सङ्गनिलया वेतिबाधाविनाशिनी॥
ईश्वरप्रेरणकरी। ईश्वरस्य बिम्बचैतन्यस्य स्वरूपा सती जगत्सर्जनादिकार्यप्रेरयित्री प्रेरणकरी आज्ञापकेत्यर्थ।इच्छाज्ञानक्रियाशक्त्यावरणविक्षेपशक्तिप्रतिफलितचित्स्वरूपा भाविकार्यानुकूलप्रारब्धाध्यक्षपरमेश्वरेक्षणनामधेयप्रकाशा-त्मि का भवतीति भाव।ईश्वरप्रेरण तदाज्ञामनुल्लङ्घनेन करोतीति वा, तदीयभार्यात्वेन नितरा तद्वश्येति यावत्॥ ॐ ईश्वरप्रेरणकर्यै नमः॥
ईशताण्डवसाक्षिणी। इशस्य तत्पदवाच्यार्थस्य ताण्डव नर्तनवदप्रयत्नसपाद्यलीलामात्रमित्यर्थ‚ जगत्सर्जनादिरूपा क्रिया चलनरूपकर्मत्वसामान्यात्, तस्य साक्षिणी अस सर्गप्रकाशरूपिणीत्यथ, ‘असगो न हि सज्जते’ इति श्रुते। अथवा, ईशताण्डवस्य परमेश्वरनृत्यनाट्याभिव्यञ्जितचतु ष ष्टिकलोपदेशस्यसाक्षिणी। तदुक्तम्—‘नर्तनाद्धि परेशस्य। चतु षष्टिकलाजनि’ इति प्रदोषस्तोत्रे ईशताण्डवनर्तनवर्णन मतिस्फुटमिति नेह लिख्यते॥ ॐ ईशताण्डवसाक्षिण्यै नम॥
ईश्वरोत्सगनिलया। ईश्वरस्य स्वभर्तु उत्सग ऊरू तौ निलय यस्या सा तथा॥ ॐ ईश्वरोत्सगनिलयायै नम॥
इतिबाधाविनाशिनी। ईतिबाधा दैवाद्युपद्रव, क्षुद्र जन्तुपीडा वा, ता विनाशयतीति तथा॥ ॐ ईतिबाधा विनाशिन्यै नम॥
ईहाविरहिता चेशशक्तिरीषत्स्मितानना।
लकाररूपा ललिता लक्ष्मीवाणीनिषेविता।
ईहाविरहिता। अप्राप्तप्राप्तिं प्रति इच्छा ईहा, तयाविरहिता, आप्तकामत्वात् तद्विरहितेत्यर्थ॥ ॐ ईहाविरहितायै नमः॥
ईशशक्ति। ईशस्यशक्ति सर्वज्ञत्वादिस्वरूपसामर्थ्यं य स्या सा तथा, ‘देवात्मशक्तिम्’ इति श्रुते॥ ॐ ईशशक्तये नम॥
इषत्स्मितानना। इषत् स्मित मन्दहास यस्य तत्तथा, तादृगानन यस्यासा तथा, पर्याप्तकामत्वेन सर्वदा प्रसन्न मुखीत्यर्थ। दु खास्पर्शिपरमानन्दरूपतया वा तथा॥ ॐ ईषत्स्मिताननायै नम॥
लकाररूपा। रूप्यत इति रूप मन्त्रस्य चतुर्थवर्णत्वेन ज्ञापक यस्यासा तथा॥ॐ लकाररूपायै नम॥
ललिता ‘ललित त्रिषु सुन्दरम् इति वचनात् अ त्यन्तसौन्दर्यवतीत्यर्थ। अनुपमसौन्दर्या वा॥ ॐ ललि तायै नम॥
लक्ष्मीवाणीनिषेविता। लक्ष्मी रमा सर्वैश्वर्यशक्ति, वाणी सरस्वती सर्वज्ञानशक्ति, ताभ्या नितरा अकृत्रिमप्रेम्णा अनन्यभूता सती सेविता। सेवानाम उन्मीलिताज्ञाप्रतीक्षा, तद्वत्त्वादित्यर्थ॥ ॐ लक्ष्मीवाणीनिषेवितायै नम॥
लाकिनी ललनारूपा लसद्दाडिमपाटला।
ललन्तिकालसत्फाला ललाटनयनार्चिता॥
लाकिनी। क सुखम्, ‘क ब्रह्म इति श्रुते तन्न भवतीत्यक ब्रह्मभिन्नतया प्रतीयमान दु खात्मक जगत् अकम्, लीयत इति लम्, उपलक्षणमुत्पत्त्यादे, लमक मस्यास्तीति लाकिनी, अनृतजडदु खरूपजगत्कारणतद्व्यावृत्तस्वरूपब्रह्मभूता इत्यर्थ॥ ॐ लाकिन्यै नम॥
ललनारूपा। रूप्यते ज्ञाप्यते अनेनेति रूप ज्ञापक तद्व्या प्यलिङ्ग चिह्नमिति वा, ललनाना स्त्रीणा रूप वेष आभर णाद्यलकारो वा आकृतिर्वा यस्यासा तथा, ललना स्त्रिय रूपाणि भूतय यस्या सा तथा, ‘लिङ्गाङ्कितमिद पश्य जगदेतद्भगाङ्कितम्’ इति पुराणवचनात्॥ ॐ लल नारूपायै नम॥
लसद्दाडिमपाटला। दाडिमशब्दन विकसित तत्पुष्प लक्ष्यते, लसत् सद्या विकसनप्रकाश च तद्दाडिम च, इद उपलक्षण बन्धूकादीनाम्, तद्वत्पाटला श्वेतमिश्ररक्तवर्ण प्रधानमूर्तिमतीत्यथ, ‘श्वेतरक्त तु पाटलम्’ इति वचनात्। ॐ लसद्दाडिमपाटलायै नम॥
ललन्तिकालसत्फाला। ललन्तिकया परित मुक्ताफल स्वचितनवरत्नमध्यया ललाटमध्यदेशभूषया, इदमुपलक्षण ललाटपट्टादीनाम्, लसत् फाल यस्यासा तथा॥ॐ ललन्तिकालसत्फालायै नमः॥
ललाटनयनार्चिता। ललाटे नयन येषा ते, अत्रलला टशब्देन भ्रूमध्य लक्ष्यते, नयनशब्देन ज्ञानमपि, तथा चोर्ध्वदृष्टिभि खेचरीमुद्रया विलीनचित्तै असिवरुणयोर्म ध्यदेशाभिधानाविमुक्तकृतपरमेश्वराराधनपरपुरुषप्राप्यत्वाभि धायकात्रिप्रश्नोत्तरजाबालश्रुतिगतयाज्ञवल्क्योत्तरवाक्यनिर्दि ष्टभूमिकाजयसिद्धिमत्पुरुषै अर्चिता साक्षात्कृतेत्यर्थ। अथ वा, तृतीयनेत्रवता शिवेन तत्स्वरूपरुद्रैर्वा पूजितेत्यर्थ। ॐ ललाटनयनार्चितायै नमः॥
लक्षणोज्ज्वलदिव्याङ्गी लक्षकोट्यण्डनायिका।
लक्ष्यार्था लक्षणागम्या लब्धकामा लतातनु॥
लक्षणोज्ज्वलदिव्याङ्गी। दीप्यते प्रकाशत इति दिव्य लक्षणै स्वरूपतटस्थनामकै उज्ज्वल शोभित शुद्धम् अङ्ग स्वरूप विग्रहो वा। घृताकठिन्यन्यायेन ‘तदात्मान स्वय मकुरुत’ इति श्रुत सच्चिदानन्दघनीभूतजीवात्मको विग्रहो यस्या सा तथा। अथवा, सामुद्रिकशास्त्रोक्तदिव्यलक्षणै रुज्ज्वलानि सपूर्णानि दिव्यानि यानि अङ्गान्यवयवा शिर पाण्यादय अस्या सन्तीति वा तथा॥ ॐ लक्षणोज्ज्वल दिव्याङ्ग्यै नमः॥
लक्षकोट्यण्डनायिका। लक्षानि च कोट्यश्च असख्या तापरिमितानीत्यर्थ, ससारस्यानादित्वेन भूतभविष्यदा दिभेदेन बहुसख्यावत्त्वमण्डानाम्, तानि च तान्यण्डानि च हिरण्यगर्भविराड्रूपाणि समष्टिव्यष्ट्यात्मना विश्वतैजसापा धिभूतानि, तेषाम्अधिष्ठानविम्बचैतन्यात्मना नयति स्वस त्तामापादयतीति नायिका॥ ॐ लक्षकोट्यण्डनायिकायै नम॥
लक्ष्यार्था। लक्षणया शोधनया जहदजहल्लक्षणया वा प्रतिपाद्यते वेदान्तमहावाक्याना योऽर्थ तत्स्वरूपा। अथ वा, योगशास्त्रप्रसिद्धबहिरन्तरूर्ध्वाध प्रदेशविशेषरूपभूमिका सु स्वस्वमनोवाञ्छाविषयविशेषणत्वन निर्गुणत्वन वा मना विलयरूपहठराजयोगादिसाधनपरिपाकवशेन साक्षात्कृत चै तन्य लक्ष्य इत्युच्यते, अर्थ्यते याच्यते गुरु प्रति इति अर्थ, लक्ष्यो योऽर्थ चित्स्वरूपपरमानन्दरूप सोऽपि सैवेति तथा, ‘ब्रह्मैवेदममृत पुरस्ताद्ब्रह्म पश्चाद्ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तरेण’ इति श्रुते॥ ॐ लक्ष्यार्थायै नम॥
लक्षणागम्या। लक्षणानाम शक्यार्थे वाचकस्य पदस्य अन्वयाद्यनुपपत्या तत्सबन्धिपदार्थान्तरज्ञानहेतु शक्य सबन्धादिपदजन्यपदार्थान्तरज्ञानहेतु शब्दवृत्तिरित्युच्यते, तस्या वाच्यवाचकतत्सबन्धादिभेदज्ञानपूर्विकाया परिच्छि न्नसावयवपदार्थसबन्धज्ञानहेतो केवलचिन्मात्रे निरुपाधि के वस्तुनि षष्ठीजात्यादीना लक्ष्यतावच्छदकधर्माणामभावे प्रवृत्त्ययोगात् तथा अगम्या, गन्तु ज्ञातु योग्य गम्य तन्न भवतीत्यगम्या। वेदान्तमते जहदजहल्लक्षणया विशषणमात्रपरित्यागस्य अन्यान्यतादात्म्यानुपपत्त्या बोधितत्वात् तदर्थं सा अवश्यमङ्गीकर्तव्या। विशेष्यस्य ज्ञानस्वरूप त्वेन नित्यतया लक्षणाजन्यत्वात् तदर्थं सा न अपेक्ष्यत इति भाव तथा च प्रकृताया देवताया शुद्धचैत न्यमात्रस्वरूपतया स्वय प्रकाशत्वेन लक्षणागोचरत्वात्लक्षणागम्येति नाम युक्तमिति भाव॥ ॐ लक्षणागम्यायै नम॥
लब्धकामा। लब्धा काम्यन्त इति कामा ऐहिकामुष्मिकसुखसाधनानि, लक्षणया तत्तज्जन्यसुखानि वा तथाभूता कामा यया सा तथा पर्याप्तकामेत्यर्थ, ‘पर्याप्तकामस्य कृतात्मनस्तु इहैव सर्वे प्रविलीयन्ति कामा’ इति श्रुते॥ ॐ लब्धकामायै नम॥
लतातनु। लता इव लता कल्पादिवल्ल्य सकलपुरुषाथप्रदत्वेन जगति प्रसिद्धा, ता इव सुकुमारत्वाद्याश्रया तनु मूर्ति यस्या सा तथा॥ ॐ लतातनवे नम॥
ललामराजदलिका लम्बिमुक्तालताञ्चिता।
लम्बोदरप्रसूर्लभ्या लज्जाढ्या लयवर्जिता॥
ललामराजदलिका। ललाम्नाकस्तूरीतिलकेन कस्तूरी पत्रण वा राजत् विभ्राजत् परमशाभि अलिक ललाट यस्या सा तथा॥ॐ ललामराजदलिकायै नम॥
लम्बिमुक्तालताञ्चिता। लम्बिन्य लम्बमाना अध प्रसृता मुक्तालताहारा मुक्ताफलानि वा यस्या सा तथा। नवरत्नखचितसुवर्णमुक्तागुच्छैसर्वाङ्गेषु प्रलम्ब मानै ललाटपर्यन्त लम्बमानकिरीटप्रथमभागललाटपट्टनासाग्रताटङ्काध कर्णदेशकण्ठप्रदेशहस्तचतुष्टयाङ्गदसमानप्रदेशकूर्पासपरित पदकाग्रदेशकटिनिबद्धकाञ्च्यादिषु परिलम्बमा नैरित्यर्थ॥ ॐ लम्बिमुक्तालताञ्चितायै नम॥
लम्बोदरप्रसू। लम्बोदरस्य महागणेशस्य प्रसू जनयीत्रीमातेत्यर्थ। लम्बोदर प्रसूत इति वा॥ ॐ लम्बोदरप्रसवे नम॥
लभ्या। ससारदशायामावारकाज्ञानेन स्फुटमप्रकाशमाना सती श्रवणादिसस्कृतान्त करणवृत्तावखण्डाकारज्ञानभूमिकाया प्रतिफलितस्वरूपेण विस्मृतकण्ठगतकनकभूषणवत् प्राप्तप्राप्तिरूपतया लब्धु योग्येति तथा॥ ॐ लभ्यायै नम॥
लज्जाढ्या। लज्जया, उपलक्षणमन्त करणधर्माणा सर्वेषाम्, आढ्या तद्वत्त्वेन आकारवतीत्यर्थ। तिरोधानादिना अन्तर्हिता सती वरादि प्रयच्छतीति लज्जाढ्या भवतीति च उपचर्यते॥ ॐ लज्जाढ्यायै नम॥
लयवर्जिता। ‘अविनाशी वा अरेऽयमात्मा अनुच्छि त्तिधर्मा’ इत्यादिश्रुत, लयो विनाश, तेन रहिता वर्जितेत्यर्थ। इदमुपलक्षण षड्भावविकाराणाम्, सत्य ज्ञानमनन्त ब्रह्म’ इत्यादिश्रुते॥ ॐ लयवर्जितायै नमः॥
ह्रींकाररूपा ह्रींकारनिलया ह्रींपदप्रिया।
ह्रींकारबीजा ह्रींकारमन्त्रा ह्रींकारलक्षणा॥
ह्रींकाररूपा। ह्रींकार रूप्यते निरूप्यते निर्देश्यत इति रूप मन्त्रपञ्चमावयव यस्यासा तथा। ॐ ह्रींकार रूपायै नम॥
ह्रींकारनिलया। ह्रीमक्षर निलय गृहवदवच्छेदक यस्या सा तथा। स्वीयवाचकत्वारोपितवाच्यतावच्छेदकधर्मावच्छिन्नतादिसपादनेन गृहवर्तिपुरुषवत् व्यावृत्तस्वरूपेण ज्ञा पक भवति। अन्यथा, नाम्नो वाच्यार्थे प्रवृत्त्ययोगादिति भाव। ॐ ह्रींकारनिलयायै नमः॥
ह्रींपदप्रिया। पद्यते गम्यते ज्ञायते अनेनेति पदम्, पद्यत गम्यते प्राप्यत इति वा पदम्, ह्रींकारस्य मन्त्रावयवतया तद्देवताप्रकाशकत्वेन तस्या शक्तत्वात्—‘शक्त पदम्’ इति तल्लक्षणत्वात् तथा प्रथम व्याख्यानम्। हकाररेफेकारानुस्वारा णा वर्णाना समष्टिस्वरूपेण समुदायात्मकत्वात् ‘वर्णसमुदाय पदम्’ इत्यपि पदलक्षणवत्त्वमस्य घटते। पुरश्चर्यावता स्वदेव तासाक्षात्कारद्वारा सकलपुरुषार्थप्रापकत्वात् द्वितीयव्याख्यान तथा कृतम्। तस्मिन् प्रिया प्रीतिमतीत्यर्थ॥ ॐ ह्रींपदप्रियायै नमः॥
ह्रींकारबीजा। ह्रींकार एव बीज स्ववाचकमन्त्रभाग, ‘ज्ञापक देवताना यत् बीजमक्षरमुच्यते’ इति वचनात् ह्रींकारस्य मायाप्रकाशकत्वेन, वटधानादि स्वनिष्ठवृक्षाभिव्य ञ्जकत्वेन कारणतया यथा बीजमित्युच्यते–सत्कार्यवादिनामव्यक्तनाम-रूपकारण बीजम्, अभिव्यक्तनामरूपात्मक पश्चा द्भावि कार्यमित्यङ्गीकार, सकलकारणसमवधाने विशेषनामरूपवत्तया कारणस्याभिव्यक्तिरुत्पत्ति, तथा चोक्तबीजस्यमायावच्छिन्नचैतन्याभिव्यञ्जकत्वेनापि बीजत्वम्, तादृश ह्रींकारबीज यस्या सा तथा॥ ॐ ह्रींकारबीजायै नमः॥
ह्रीकारमन्त्रा। ह्रींकारस्य मननात् त्रायत रक्षति वाच्यवाचकयोरभेदादिति तथा। ह्रीकारघटितो मन्त्रो वा यस्या सा इति वा तथा॥ ॐ ह्रींकारमन्त्रायै नमः॥
ह्रींकारलक्षणा। हकार शिव, आकाशबीजत्वादाकाशवन्निर्लेप, रेफ वह्निबीज कार्योत्पादसनिहितशक्तिमदी श्वरवाचकम, तथा च हकारयुक्तरेफ शुद्धचैतन्यमेव कारणतावच्छिन्नम्–इति वदति। ईकार मन्मथबीज तत्कारणलक्षकतया स्थितिहेतु विष्णुरूपचैतन्यमभिदधाति। अनुस्वारस्तस्मिन्नेव पदार्थे अभिन्ननिमित्तोपादाने लय वक्ति। तथा च ह्रीमित्युक्ते जगदुत्पत्तिस्थितिलयकारण चैतन्य शक्त्या वाच्यार्थ प्रतीयते। तस्यैवोपाधिपरित्यागरूपलक्षण यस्या सा तथा। ह्रींकार लक्षण तटस्थलक्षण यस्या सेति वा तथा॥ ॐ ह्रींकारलक्षणायै नमः॥
ह्रींकारजपसुप्रीता ह्रींमती ह्रींविभूषणा।
ह्रींशीला ह्रींपदाराध्या ह्रींगर्भा ह्रींपदाभिधा॥
ह्रींकारजपसुप्रीता। ह्रींकारस्य जप ह्रींकारजप, तेन सुप्रीता॥ ॐ ह्रींकारजपसुप्रीतायै नम॥
ह्रींमती। वाचकत्वेन लक्षकत्वेन वा लक्ष्यपदार्थरूपेण वा वाक्यवाचकयोरभेदेन वा अस्या अस्तीति ह्रींमती॥ ॐ ह्रींमत्यै नमः॥
ह्रींविभूषणा। केवलजडमायावाचक ह्रींकार, तथा हि–हकार श्वेतवाचक, रेफ रोहिताथक, ईकार नीला थक, तथा च विशिष्टस्य शुक्लरक्तनीलवत्पदार्थवाचक तया सत्त्वरजस्तमोगुणवत्प्रकृतिवाचकत्वेन परिच्छिन्नानृत जडदु स्वस्वरूपवाच्यार्थकतया प्रकाशराहित्येन अनुपादेय ताया सत्या तदवच्छिन्नस्वप्रकाशचैतन्याकारतया विशिष्टा र्थस्य आपादमस्तकभूषिततरुणीवदानन्दस्वरूपतया तद्वाच कह्नींपदस्य अष्टैश्वर्यसिद्धिप्रदानशक्त्याधायकतया शोभायमा न भूषणवत्, ‘कुण्डली पुरुष’ इत्यत्र कुण्डलस्योपलक्षणतया इतरसजातीयादिव्यावर्तकत्वम्, तथास्यापि बीजस्येतरव्या वृत्तवाच्यार्थगोचरप्रमाजनकत्वेन भूषणवत् यस्या सा तथा॥ ॐ ह्रींविभूषणायै नम॥
ह्रींशीला। हीमित्यनन तद्वाच्यार्था ब्रह्मविष्णुरुद्रालक्ष्यन्ते, तेषा शील स्वभाव पारमार्थिक रूप सच्चिदान न्दात्मकता यस्या सा तथा, तन्निष्ठधर्मा सत्त्वरजस्तमागुणादयो वा यस्यासा तथा, ‘शील स्वभावे धर्मे च’ इति वचनात्॥ ॐ ह्रींशीलायै नमः॥
ह्रींपदाराध्या। ह्रीपदन एकाक्षरबीजमन्त्रेण आराधितु योग्या तथा। ‘ह्रींकारेणैव ससिद्धो भुक्तिं मुक्तिं च विन्द ति’ इति भुवनेश्वरीकल्पवचनादिति यावत्॥ ॐ ह्रींप दाराध्यायै नम॥
ह्रींगर्भा। ह्रींशब्दार्था सगुणमूर्तयस्तिस्र गर्भे स्वस्व रूपे सशक्तिका अविनाभावसबन्धेन यस्या सा तथा, ‘मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भंदधाम्यहम्’ इति वचनात्॥ ॐ ह्रींगर्भायै नम॥
ह्रींपदाभिधा। ह्रींकार अभिधा नाम यस्या सा तथा। समष्टिरूपाया समष्टिशब्दवाच्यत्वनियमादित्यभिसधि॥ ॐ ह्रींपदाभिधायै नम॥
ह्रींकारवाच्या ह्रींकारपूज्या ह्रींकारपीठिका।
ह्रींकारवेद्या ह्रींकारचिन्त्या ह्रीं ह्रींशरीरिणी॥
ह्रींकारवाच्या। मायोपाधिकब्रह्मणि कल्पितधर्मेणशब्दप्रवृत्त्युपपत्त ह्रीँपदस्य वाच्या रूढ्येत्यर्थ॥ ॐ ह्रीं कारवाच्यायै नमः॥
ह्रींकारपूज्या। ‘मूलमन्त्रेण पूजयेत्’ इति पूजाङ्गत्वन मू लमनोर्विनियोग श्रूयते। मूलमनुश्च देवताया स्वक नामेति वचनात्। अन्तमुखानामेव मन्त्रशास्त्रेषु तन्नाम्ना व्युत्पन्नत्वा न्। ह्रींकार नमोऽन्तमुच्चार्य यथागुरुसप्रदाय श्रीचक्रादौ मूलदेवता पूजनीयेत्यागमरहस्यात् ह्रींबीजेनैव पूजयितु यो ग्या। अतिप्रियबीजनामत्वादित्यभिप्राय॥ ॐ ह्रींकार पूज्यायै नम॥
ह्रींकारपीठिका। अत्र पीठशब्द आधारलक्षक। वाच्यार्थो हि वाचकशब्दस्य सत्ताप्रदत्वेन आधारो भवति। मन्त्रदेवतयारभेदेऽपि अर्थनिष्ठमहिम्नतद्वाचकपदेऽदृश्यमानत्वात् कल्पितभेदसपाद्येदमुच्यते। ह्रींकारस्य पीठिका वृत्तिस्थान शक्त्या गोचरतया विषयीभूतत्यर्थ॥ ॐ ह्रींका रपीठिकायै नम॥
ह्रींकारवेद्या। स्वरूपत निगुणब्रह्मतया अज्ञानविषयत्वाश्रयत्वाभ्यामप्राप्तपुरुषार्थरूपतया ससाग्दशाया प्रतीयमानत्वात् गुरूपसदनश्रवणादिरूपविध्यप्रामाण्यनिरासाय लक्षणया शुद्धस्वरूपपरमानन्दतया प्रेसितत्वात् श्रवणादिजन्यवृत्तिव्याप्यत्वरूपवेदनाविषयत्वम्। ‘ब्रह्मण्यज्ञाननाशाय वृत्ति व्याप्तिरितीर्यते’ ‘मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेताम्’ इत्यादि वचनात् भगवताप्यङ्गीकृतमिति। ह्रींकारेण गुरुमुखोद्भूतेन वेद्या वेदितु योग्या। तत्स्वरूपपरिज्ञानद्वारा तत्प्राप्तिरूपपु रुषार्थहेतुत्वादिति तात्पर्यम्॥ ॐ ह्रींकारवेद्यायै नमः॥
ह्रींकारचिन्त्या। अस्य बीजस्य पञ्चप्रणवान्तर्गतत्वेन ॐकारभेदे ब्रह्मप्रतीकत्वाविशेषात्। प्रणवे यथा परापरब्रह्मापासनहेतुवदस्मिन्वा प्रतीके तद्भवतीति विकल्प। यदा भक्तिपार्थक्येन मन्त्रविशेषेषु भवतीति योगवेदमार्गरहस्य न वादजल्पाद्यवकाश। ह्रींकारे उभयविधब्रह्मस्वरूपतया चिन्तितु योग्या। ध्यानस्य साक्षात्कार प्रत्यारादुपकारकत्वेन ध्यातव्येत्यर्थ॥ ॐ ह्रींकारचिन्त्यायै नमः॥
ह्रीं। हृञ्हरण इति धातुपाठात्समस्तविद्यैश्वर्यप्रदा नादिशक्त्यारोपाधिष्ठानत्वे सत्यपवादावशेषितपरमानन्दरूप मुक्तिरित्यथ॥ ॐ ह्रीं नमः॥
ह्रींशरीरिणी। मूलमन्त्रात्मिकेति यावत् ह्रीमेव शरीर मूर्तिरस्या अस्तीति ह्रींशरीरिणी॥ॐ ह्रींशरीरिण्यै नम॥
हकाररूपा हलधृक्पूजिता हरिणेक्षणा।
हरप्रिया हराराध्या हरिब्रह्मेन्द्रवन्दिता॥
हकाररूपा। हकार रूप षष्ठावयव यस्या सा, मूलविद्यावाच्यार्थवाचक यस्या सा, तथा॥ ॐ हकाररूपायै नम॥
हलधृक्पूजिता। हल युग धरति इति हलधृक् बल राम, तेन पूजिता ध्यानादिभिराराधितेत्यर्थ॥ ॐ हलधृक्पूजितायै नमः॥
हरिणेक्षणा। हरिण्या एण्या ईक्षणमिव ईक्षण यस्या सा तथा,अतिसतोषेण कातराक्षीति भाव। सर्वत्र सर्वदा सर्वद्रष्ट्रीति वा। भक्तेष्वादरहेतुदर्शनवतीति भाव॥ ॐ हरिणेक्षणायै नम॥
हरप्रिया। हरस्य प्रिया शिववल्लभेत्यर्थ। हर प्रियो यस्या सा इति वा॥ ॐ हरप्रियायै नमः॥
हराराध्या। हरेण स्वभर्त्राआराधितु योग्या, केवलसच्चिदानन्दस्वरूपत्वात्॥ ॐ हराराध्यायै नमः॥
हरिब्रह्मेन्द्रवन्दिता। हरि रमेश। ब्रह्मा वाणीश। इन्द्रो देवश उपलक्षण सर्वदेवभेदानाम्। तैर्वन्दिता नम स्कृता॥ ॐ हरिब्रह्मेन्द्रवन्दितायै नम॥
हयारूढासेविताङ्घ्रिर्हयमेधसमर्चिता।
हर्यक्षवाहना हसवाहना हतदानवा॥
हयारूढासेविताङ्घ्रि। हयारूढानाम अश्वमात्रसेनानी शक्ति वश्यकरी। तया सेवितौ अङ्घ्रीयस्या सा तथा॥ॐ हयारूढासेविताङ्घ्र्यैनम॥
हयमेधसमर्चिता। हयमेधेन अश्वमेधेन समर्चिता पू जिता। पुरुषत्वादिप्राप्त्यैइलादिभिरित्यथ॥ ॐ हयमेध समर्चितायै नम॥
हर्यक्षवाहना। वाहयतीति वाहनम्, हयक्ष केसरी वाहन यस्या सा तथा। महालक्ष्मीरूपदुर्गेत्यर्थ॥ ॐ हर्यक्षवाहनायै नम॥
हसवाहना। हन्ति गच्छतीति हस सूर्य प्राणो वा, वाहनवत् आधारभूतप्रतीकमित्यर्थ, अभिव्यक्तिस्थानमिति यावत्, ‘स यश्चाय पुरुषे। यश्चासावादित्ये। स एक’ इति श्रुते। अथवा, हसवाहना ब्राह्मीरूपेणेत्यर्थ॥ ॐ हंस वाहनायै नम॥
हतदानवा। हता दानवा अनेकप्रकारशक्तिरूपधरया भण्डासुरादय यया सा तथा॥ ॐ हतदानवायै नमः॥
हत्यादिपापशमनी हरिदश्वादिसेविता।
हस्तिकुम्भोत्तुङ्गकुचा हस्तिकृत्तिप्रियाङ्गना॥
हत्यादिपापशमनी। हत्या ब्रह्महत्या आदिर्येषा तानि तथा पापानि शमयतीति तथा, ‘हरिर्हरति पापानि’ इति वचनात्॥ ॐ हत्यादिपापशमन्यै नमः॥
हरिदश्वादिसेविता। हरित् हरिद्वर्ण मरकत इव अश्वो यस्येन्द्रस्य स तथा आदिर्येषा दिक्पतीना तै सविता चर णारविन्दसनिधिं किंकरतयाश्रितेत्यथ॥ ॐ हरिदश्वा दिसेवितायै नमः॥
हस्तिकुम्भोत्तुङ्गकुचा। हस्त अस्यास्तीति हस्ती, तभ्यकुम्भौ तद्वदुन्नतौ कुचौ सान्द्रौ यस्या सा तथा॥ ॐ हस्तिकुम्भोत्तुङ्गकुचायै नम॥
हस्तिकृत्तिप्रियाङ्गना। हस्तिन कृत्तौ चर्मणि प्रिय प्रीतिमान् शिव, तस्याङ्गना भामिनीत्यथ॥ ॐ हस्तिकुत्तिप्रियाङ्गनायै नमः॥
हरिद्राकुङ्कुमादिग्धा हर्यश्वाद्यमरार्चिता।
हरिकेशसखी हादिविद्या हालामदोल्लसा॥
हरिद्राकुङ्कुमादिग्धा। हरिद्राकुङ्कुमाभ्या उपलक्षण कस्तूरीपत्रादीनाम्। दिग्धा लिप्तेत्यर्थ॥ ॐ हरिद्राकुङ्कुमादिग्धायै नम॥
हर्यश्वाद्यमरार्चिता। हर्यश्व सुरेश आदिर्येषाम् अम राणा तैरर्चिता किंकरतया नियामकत्वेन पूजितेत्यर्थ॥ ॐ हर्यश्वाद्यमरार्चितायै नमः॥
हरिकेशसखी। हरय हरिद्वर्णा केशा शिरोरुहा यच्च, ‘हिरण्यश्मश्रुर्हिरण्यकेश’ इति श्रुते। तस्य सखी प्रयोज नमनपेक्ष्योपकारिणीत्यर्थ। यद्वा वर्णेन नीलेन हरिणा विष्णुना समा केशा अस्य सन्तीति सर्वाङ्गसुन्दरनित्ययौवनचि द्रूपसहितकामेश्वर, तस्य सखी॥ ॐ हरिकेशसख्यै नमः॥
हादिविद्या। लोपामुद्रापासितमनुरूपत्यर्थ॥ ॐ हादि विद्यायै नमः॥
हालामदालसा। हालाया अमृतमथनाद्भूतवारुण्या मदेन उल्लासेन अलसा आरक्तनेत्रान्तरोमाञ्चादिचिह्नवती त्यर्थ॥ ॐ हालामदालसायै नमः॥
सकाररूपा सर्वज्ञा सर्वेशी सर्वमङ्गला।
सर्वकर्त्रीसर्वभर्त्रीसर्वहन्त्री सनातना॥
सकाररूपा। द्वितीयखण्डद्वितीयावयवत्वेन ज्ञापक यस्या सातथा॥ ॐ सकाररूपायै नमः॥
सर्वज्ञा। अलुप्तनित्यज्ञानस्वरूपेण सामान्यरूपेण सर्वंजानातीति सर्वज्ञा, ‘य सर्वज्ञ सर्ववित्’ इति श्रुते॥ ॐ सर्वज्ञायै नम॥
सर्वेशी। सर्वस्य कार्यस्य अन्तर्यामिरूपेण ईष्टे प्रेरयती ति तथा॥ ॐ सर्वेश्यै नमः॥
सर्वमङ्गला। सर्वप्रकारेण शुद्धविशिष्टचैतन्यरूपेण मङ्ग ला परमानन्दस्वरूपा। अत्र बहुव्रीहेरविवक्षितत्वात् विवक्षिताया वा सुन्दरकायो राजत्यादिवत् समासार्थ। अथवा, सर्वेषा मङ्गल यस्या सा तथा। सर्वै प्रकारे ध्यानकीर्त नपूजानमस्काराद्यर्चनभक्तिजन्यकैङ्कर्यै जडानामपि मङ्गल सुख यस्या जायत सा तथा। सर्वेषामात्मरूपतया प्रतीय मान मङ्गल सुखस्वरूप यस्या सेति वा। सर्वशब्दवाच्य सर्वकारण शिव, तस्य मङ्गल सुख यस्या जायते सा तथा, सच्चिन्मय शिव साक्षात्तस्यानन्दमयी शिवा’ इति त्रचनात्। अथवा, मङ्गलशब्दन मङ्गलहतुभूता स्त्रियो लक्ष्यन्ते। सर्वेषा प्राणिना मङ्गल मङ्गलसाधनभूता योषा स्वाभिन्नसच्चिदानन्दवत्त्वेन यस्या सा तथा, ‘एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति’ इति श्रुतेरित्यर्थ। ‘अशुभानि निराचष्टे तनोति शुभसततिम्। स्मृतिमात्रेण यत्पुसा ब्रह्म तन्मङ्गल विदु। अतिकल्याणरूपत्वात् नित्यकल्याणसश्रयात्। स्मतॄणा वरदत्वाच्चब्रह्म तन्मङ्गल विदु’ इत्यादिवचनात्॥ ॐ सर्वमङ्गलायै नम॥
सर्वकर्त्री। सर्वंसमस्त स्वशक्त्या मायारूपया करा तीति तथा, ‘ईशत ईशनीभि’ इति श्रुत॥ ॐ सर्वकर्त्र्यै नमः॥
सर्वभर्त्री।सर्वं बिभर्तीति तथा, ‘एष विधृतिरेषा लाकानाम इति श्रुत॥ ॐ सर्वभत्र्यै नमः॥
सवहन्त्री। सर्वंहरतीति तथा। एभिर्नामत्रयै ‘यतो वा’इत्यादिश्रुत्युक्ततटस्थलक्षणत्रयमभिहितमिति वेदित व्यम्। ॐ सर्वहन्त्र्यै नम॥
सनातना। ‘अजो नित्य शाश्वताऽय पुराण’ इतिश्रुत नित्यसिद्धस्वरूपेत्यर्थ॥ ॐ सनातनायै नम॥
सर्वानवद्या सर्वाङ्गसुन्दरी सर्वसाक्षिणी।
सर्वात्मिका सर्वसौख्यदात्री सर्वविमोहिनी॥
सर्वानवद्या। सर्वैर्ज्ञानैश्वर्यादिगुणैरनवद्या। अवद्यानाम विद्यया हीना जडप्रकृति मिथ्याबाध्यमानत्वात्। तद्विलक्षणा सत्यज्ञानानन्दरूपत्वादनवद्या। सर्वेषा सर्वाभीष्टप्रापकत्वेन स्तुत्या वा॥ ॐ सर्वानवद्यायै नम॥
सर्वाङ्गसुन्दरी। सर्वाणि च तानि अङ्गानि च अवयवा शिर पाण्यादय, तेष्वन्यूनातिरिक्तभाववत्त्वात् यथासामुद्रि कलक्षण तद्वत्त्वनसर्वाङ्गसुन्दरी। अथवा, सर्वेषामङ्गेषु शरीरेषु ब्रह्मस्वरूपतया अत्यन्तप्रेमविषयत्वेन सुन्दरपदार्थ वदविनाभाववाञ्छाविषयत्वात् तथा॥ ॐ सर्वाङ्गसुन्दर्यै नम॥
सर्वसाक्षिणी। सर्वेषा जडाना कार्याणा स्फूत्याधायकत्वेनप्रकाशकर्त्री तथा। सर्वंसाक्षादीश्नत इति वा तथा॥ॐ सर्वसाक्षिण्यै नम॥
सर्वात्मिका। सर्वेषामात्मस्वरूपत्वात्। ‘यच्चाप्नोति यदा दत्ते यच्चात्ति विषयानिह। यच्चास्य सतता भावस्तम्मादात्मेति गीयत’ इनि वचनात्तथा॥ ॐ सर्वात्मिकायै नम॥
सवसौख्यदात्री। सुखिन भाव सौख्यम्, सर्वाणि च तानि प्रियमोदप्रमोदानन्दशब्दवाच्यानि। इष्टदर्शनजन्य सुख प्रिय। तल्लाभजन्य मोद। तदनुभवजन्य प्रमोद। आनन्द समष्टि। जीव भोक्ता। तानि ददातीति तथा। सर्वप्रकारै स्मरणादिभि सौख्य ददातीति वा। सर्वेषा माब्रह्मस्तम्बपर्यन्ताना यथाकर्मोपासन प्रत्यक्षेण दृश्यमान ज्ञानैश्वर्यादिसहित सुख ददातीति वा तथा। ‘एष ह्यवानन्द याति’ इति श्रुते॥ ॐ सर्वसौख्यदात्र्यै नम॥
सर्वविमाहिनी। सर्वान विमोहयतीति अन्यथा ग्राह्य तीति वा तथा। ’अज्ञानेनावृत ज्ञान तन मुह्यन्ति जन्त व ‘अनृतेन हि प्रत्यूढा’ इति श्रुतिस्मृतिभ्या अज्ञाना वरणशक्तिकार्यं मोहनादिसत्ताप्रकाशादिप्रधानाधिष्ठानत्वेन उपचारात् सर्वंमाहयतीत्युच्यत। अयो दहतीतिवत्॥ ॐ सर्वविमोहिन्यै नम॥
सर्वाधारा सर्वगता सर्वावगुणवर्जिता।
सर्वारुणा सर्वमाता सर्वभूषणभूषिता॥
सर्वाधारा। सर्वस्याधारा ‘ब्रह्म पुच्छ प्रतिष्ठा’ इति श्रुते। सर्वेषा हृदयानि आधार अभिव्यक्तिस्थान उपासनाय यस्या सेति तथा॥ ॐ सर्वाधारायै नम॥
सर्वगता। सर्वं गच्छतीति तथा। ‘अनेन जीवेनात्म नानुप्रविश्य’ इति श्रुते॥ ॐ सर्वगतायै नम॥
सर्वावगुणवर्जिता। अवमानहतवश्च ते गुणाश्च तथा, आध्यात्मिकसबन्धन आरोपिता सत्त्वादय समष्टौ, अन्त करणधर्मा कामादय व्यष्टौ, सर्वे च ते अवगुणाश्च तथा। सर्वान्तर्यामित्वेन सवानुस्यूतत्वेऽपि तत्तदुपाधिनिष्ठोत्तमाधम धर्मै न संबध्यत— घटादिनिष्ठाकाशवत् कोशान्तर्गतखड्गव द्वा, ‘सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षु न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्य दोषै। एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यत लोकदु खेन बाह्य’ इति श्रुते॥ ॐ सर्वावगुणवर्जितायै नमः॥
सर्वारुणा। सर्वेष्वङ्गेष्वरुणा आरक्तवती, ‘असौ यस्ता म्रो अरुण’ इति श्रुते॥ ॐ सर्वारुणायै नम॥
सर्वमाता। सर्वेण कार्येण मीयते अनुमीयतेऽभदनेति तथा। तथा हि—इद जगत् ब्रह्माभिन्न तत्सत्तास्फूर्तिनिय तसत्ताप्रकाशज्ञानविषयत्वात्, यत् यन्नियतसत्ताप्रकाशवान्स तदभिन्न— यथा तन्तुकार्य पट इति। सर्वान्मिनातिस्वाभेदेन जानातीति तथा॥ ॐ सर्वमात्रे नमः॥
सर्वभूषणभूषिता। सर्वात्मकत्वन ये ये प्राणिन यानि यानि भूषणालकारभोजनादीनि भाग्यवस्तून्यात्मार्थं सपा दयन्ति, तेषा सर्वेषा प्रत्यक्तया तै सर्वैर्भूषिता उपकृतेत्यर्थ, ‘आत्मनस्तु कामाय सर्वंप्रिय भवति’ इति श्रुते। अथवा, सर्वदेवात्मकत्वेन सर्वभक्तजनस्य स्वस्वेष्टदेवताप्रीत्यर्थं भूष णभूषितत्वेन तथा। अथवा सर्वैर्भक्तजनै तत्तदवयवेषु भूषणैरारापिता, स्वस्या महाराज्ञीत्वेन असगोदासीनस्व भावत्वादिति भाव। यद्वा, सवदेशकाललोकेषु भूषणै तत्र तत्र भवै उच्चावचैभूषणैरारोपिता, हस्त्यश्वादिदहोपाधिका सती तत्तदीयालकारादिषु जुगुप्सारहितेत्यर्थ। भूष यन्ति सर्वोत्तमत्वेन प्रतिपादयन्ताति भूषणानि वेदान्तम हावाक्यानि, सर्वै समस्तै गतिसामान्यात् एकतात्पर्येण भूषिता लक्षणया पर्यवसिता समन्विता वेत्यर्थ॥ॐसर्वभूषणभूषितायै नम॥
ककारार्थाकालहन्त्रीकामेशी कामितार्थदा।
कामसजीवनी कल्या कठिनस्तनमण्डला॥
ककारार्था। ‘क ब्रह्म’ इति श्रुत्या ककारस्य ब्रह्मार्थक त्वेन तद्व्यतिरिक्तस्यातदर्थस्य बाधितत्वात्॥ ॐ ककारा र्थायै नम॥
कालहन्त्री। अजपारूपेण प्राणापाननामकचन्द्रसूर्यनियमन पुरुषाणा नियमितपरिमितायु स्वरूपैकविंशतिषट्शताधिकसहस्रसख्याकनिर्गमनरूपण क्षपयन्ति अवशेषायुषो युगकल्पाद्यविशिष्टस्य वृद्धौ पुन सयमने तथा तथा वृद्धौ सयुञ्जानस्य सर्वप्राणेन्द्रियस्य वृत्तिलये मनोन्मन्यवस्था नि ष्पद्यते। तथा च श्रुति— ‘पृथिव्यप्तेजोऽनिलखे समुत्थिते पञ्चात्मक यागगुणे प्रवृत्ते। न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु प्राप्तस्य योगाग्निमय शरीरम्’ इति ‘अध्यात्मयागा धिगमेन देव मत्वा धीरा हर्षशोकौ जहाति’ इति च। तथा च तदानीमाविभूतब्रह्मस्वरूपेण ‘तत सवत्सरो ऽजायत’ इति श्रुत्या क्रियागक्त्यात्मककालोत्पत्तिश्रवणात् तस्मिन् ब्रह्मण्येव लये काल हन्ति नाशयतीति तथा नामनिर्वचन युक्त वक्तुमिति भाव॥ ॐ कालहन्त्र्यै नमः॥
कामेशी। कामाना भोग्यपदार्थाना यथादृष्ट ईष्टे प्रेरयतीति तथा॥ ॐ कामेश्यै नम॥
कामितार्थदा। कामितानर्थान् ददातीति तथा,‘आप्त काम’ इति श्रुते। ससारदशायामावृतानन्दस्य अनाप्तवद वभासमानस्य आत्यन्तिकसुखात्मिका मुक्तिर्मे स्यादिति काम्यमानत्वादात्मन कामितत्वम्। कामितश्चासावर्थश्चेति तस्यैव ज्ञानस्यावरणाभिभावकत्वेन प्राप्तप्राप्तिरूपतया त ददाति प्रयच्छतीति प्रकाशस्वरूपण अनुभावयतीत्यर्थ॥ ॐ कामि तार्थदायै नमः॥
कामसजीवनी।काम मन्मथ परमेश्वरनेत्राग्निविप्लुष्ट भण्डासुरात्मना अनेककालदेवलोकविपक्ष कामशास्त्रप्रयोग समये रतिदेवीप्रार्थनसमीचीनतदीयपूर्वकाय तपश्चर्यादिपरिपाकफलभूत करुणारसपूरितापाङ्गावलोकनेन सजीवयति सप्राण कृत्वा तस्मै वरादि प्रयच्छति तेन त हर्षयतीति तथा॥ ॐ कामसजीवन्यै नम॥
कल्या।कलयितु ध्यातु योग्या। अथवा, सर्वोत्तमदेवत्वेन ध्यातु याग्या कल्या।कले कामधेनुत्वेन यथा वाञ्छितार्थकारणम्॥ ॐ कल्यायै नमः॥
कठिनस्तनमण्डला। स्तनयो मण्डले आदिमभागौ सान्त प्रदेशौ कठिने अप्रकम्पे अतिस्थिरे वा यस्या तथा॥ ॐ कठिनस्तनमण्डलायै नमः॥
करभोरुकलानाथमुखी कचजिताम्बुदा।
कदाक्षस्यन्दिकरुणा कपालिप्राणनायिका॥
करभोरु। करभ इव ऊरू यस्या सा तथा। ‘मणि बन्धादाकनिष्ठ करस्य करभो बहि’ इति प्रमाणादिति भा व॥ ॐ करभोरवे नमः॥
कलानाथमुखी। कला चतु षष्टिकला नाथयति प्रेर यतीति कलानाथ, ‘निश्वसितमेतदृग्वेदो यजुर्वेद सामवेद’ इत्यादिश्रुते, ‘शास्त्रयानित्वात्’ इति न्यायाच्च। तादृशमुख वदन यस्या सेति तथा। कलानाथश्चन्द्र इव मुख यस्यासेति वा॥ॐ कलानाथमुख्यै नम॥
कचजिताम्बुदा।कचेन कशभारेण कबरेण वेत्यर्थं। जिता अधरीकृता अम्बुदा मेघा यया सातथा, मेघमण्डलापेक्षया ऊर्ध्वगामिशिरोरुहभारा व्योमकेशीति भाव। अथवा, केशवृत्तिनीलरूपेण सादृश्यासहत्वेन धिक्कृता मेघा यया सा तथा॥ॐ कचजिताम्बुदायै नम॥
कटाक्षस्यन्दिकरुणा। यद्यपि दीनेषु परिपाल्यताबुद्धिर्देवाना महता करुणेत्युच्यते, तथापि तस्या आन्तरत्वेन अज्ञायमानतया तेषु भक्त्यतिशयेन प्रवृत्त्यर्थंसेवादौ तद्वत्ता ज्ञानस्यावश्यकफलप्रदानादिहेतुतया निश्चयेन तदनुरूपकसा त्त्विकवीक्षणस्मेरसभाषणादिसत्त्व तत्रावश्य भवतीति कार्यसत्त्वप्रसञ्जितकारणसत्त्वत्त्वात्, करुणाया नवरसेष्वन्तर्भावात्, रसशब्दस्य मधुरादौ रूढत्वात् तेषामनिवचनी यत्वऽपि अनुभवगोचरतायामिक्ष्वादिसारद्रव्यपदार्थनिष्ठत्वापलब्धे तत्सबन्धवशात् परपरया द्रवद्रव्यवृत्तिस्यन्दनरूपक्रियाश्रयत्वमुपचर्यते। तथा च कटाक्षस्यन्दिनी करुणा परिपाल्यताबुद्धिरूपा यस्या सा तथा॥ ॐ कटाक्षस्यन्दिकरुणायै नम॥
कपालिप्राणनायिका। कपालमस्य अस्तीति कपाली आनन्दभैरव, तस्यप्राणनायिका प्राणस्येत्युपलक्षण पञ्चानाम।नायिका अधिष्ठानत्वेन प्रेरका। ‘न प्राणेन नापानेन मर्त्यो जीवति कश्चन। इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ’ इति श्रुते। तस्यापि हृदयान्तर्वर्तिपरमश्वररूपेति यावत। प्राणवल्लभेति वा‚ प्रियेति भाव। ॐ कपालिप्राणना यिकायै नमः॥
कारुण्यविग्रहा कान्ता कान्तिधूतजपावलि।
कलालापा कम्बुकण्ठी करनिर्जितपल्लवा॥
कारुण्यविग्रहा। कारुण्य पूर्वोक्तकृपा, करुणस्य भाव, तत् विग्रह मूर्तिर्यस्या सति तथा। कारुण्यस्यान्त करणपरिणामबुद्धिरूपत्वेन नत्रान्तवीक्षासस्मितभाषादि नानुमीयमानत्वेऽपि साक्षात्तज्जन्यमनोवाञ्छितवरप्रदानादीना शरीरावयवविशेषजन्यतया कारुण्य विग्रहो यस्या सेति समासोपपत्ति।मायोपाधिकस्य ब्रह्मण जगत्सृष्ट्य नुकरणहेतुभूतस्वेच्छामाजत्रनिमित्तककर्मानधीनसच्चिदानन्दधनीभूतात्मकभक्तानुग्राहकविग्रहवत्ता विना देवताया बुद्धा वनारोपेण सगुणोपासनमनुपपद्यमान स्यात्, तदर्थं देवताधिकरण मन्त्रप्रकाशिता देवा ‘वज्रहस्त पुर न्दर’ इत्यादिस्वत प्रमाणवेदवाक्यवशात् बाधकाभावे विग्रहवन्त अङ्गीकर्तव्या इति प्रतिष्ठापितम्। तथा ‘बहु शोभमानामुमा हैमवतीम्’ इति केनोपनिषद्भाष्ये हैमानि हेमविकाराणि भूषणानि यस्यासेति वा तथा, हिमवत अपत्य स्त्रीति च तथेति परदेवताया दिव्यविग्रहवत्त्व प्रति ष्ठापितम्। तथा च महानुभावाना स्वप्रकाशचैतन्यरूपाणा मेवभूताना सर्वात्त्मना सर्वोत्तमाना मूर्तित्रयदेवाना ध्याना द्युपकाराय तादृशमूर्तिमत्त्वम् अस्तीति न किंचिदनीश्व रवादप्रसङ्गावकाश इति आस्ता विस्तर॥ ॐ कारु ण्यविग्रहायै नम॥
कान्ता। ‘कन दीप्तौ’ इति धातो अत्यन्तमनोहरतमे त्यर्थ। मदनगोपालविग्रहा वा। ‘कदाचिदाद्या ललिता पु रूपा कृष्णविग्रहा। वशनादविनोदेन करोति विवश जगत्’ इति त्रिपुरतापनीये॥ ॐ कान्तायै नमः॥
कान्तिधूतजपावलि। जपाना जपापुष्पाणाम्, उपलक्षणम् अन्येषामारक्तवर्णानाम्, आवलि पङ्क्ति दृष्टान्तत्वेन कविभि रुत्प्रेक्षिता। कान्त्या अप्राकृतस्वच्छपरमानन्दचिद्भासा धूता परित्यक्ता प्राकृतत्वेन अल्पकान्तिमत्तया उपमायोग्यतया यथा सा, ‘न हि महान्तो नीचैरुपमीयन्ते’ इति न्याया दिति भाव॥ ॐ कान्तिधूतजपावल्यै नम॥
कलालापा।कला चतु षष्टिकला आलापो व्यावहारिकशब्द यस्या सा तथा, ‘वेदशास्त्रमयी वाणी यथा सा परदेवता’ इति वचनात्। कल अव्यक्तमधुर सप्रयो जन आलाप सलापो यस्या सेति वा तथा, ‘अव्यक्ता भारती तथा’ इति महापुरुषसामुद्रिकवचनात्॥ ॐ कलालापायै नमः॥
कम्बुकण्ठी। कम्बुशब्दन अत्र शङ्खनिष्ठरेखात्रय लक्ष्य ते। तद्वान्कण्ठो यस्या सेति तथा गुणनामेदम्॥ ॐ कम्बुकण्ठ्यै नम॥
करनिर्जितपल्लवा। करशब्देन करतल लक्ष्यते। पल्ल वशब्देन तन्निष्ठपाटल्य स्त्रिग्धता लक्षणया इत्यर्थ। तथाच अन्योन्यगुणयोर्जयपराजये, अर्थात्तद्वतोरपि तौ सिद्धाविति तन्नामोपपत्ति। ‘विवाहश्च विवादश्चसमयोरेव शोभते’ इति वचनात् करतल तत्साम्यध्वनिरनेन नाम्ना कृत। करेण निर्जिता पल्लवा यस्या सा तथा॥ ॐ करनिर्जित पल्लवायै नम॥
कल्पवल्लीसमभुजा कस्तूरीतिलकाञ्चिता।
हकारार्था हसगतिर्हाटकाभरणोज्ज्वला॥
कल्पवल्लीसमभुजा। यथा दिव्यवृक्षा नन्दनोद्याने प्र सिद्धा तथा तदलकाराय वल्ल्यादयोऽपि कल्पयन्ति सपा दयन्तीति कल्पा‚कल्पाश्च ता वल्ल्यश्च व्रतत्य, ताभि समा भुजा हस्ता यस्या सा तथा। कविसप्रदायप्रात्यास्त्रीभुजाना वल्लीसाम्योक्तिरिति मन्तव्यम्। अत्र समपद स्वारस्येन तेषामपि तदवच्छिन्नचैतन्यद्वारा यथाप्रारब्ध चे तनवल्लोकवाञ्छितफलकतृत्वमिति ध्वनितम्।‘एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूप रूप प्रतिरूपो बहिश्च’ इति श्रुते, ‘तत्तदेवावगच्छ त्वमम तेजोंशसभवम्’ इति स्मृतौ च भगवता स्वकीयसच्चिदानन्दस्वरूपावस्थितिरेवोक्ता। अत एव परदेवीभुजाना नैव साम्योक्तिरिति शङ्का निरस्ता वेदितव्या, औपाधिकचैतन्येन तथाभूतचैतन्यस्य साम्योपपत्ते॥ ॐ कल्पवल्लीसमभुजायै नम॥
कस्तूरीतिलकाञ्चिता। कस्तूरीतिलकेन ललाटदेशसस्था पितबिन्द्वाकारमृगनाभिना अञ्चिता चिह्निता अलकृतेत्यर्थ॥ॐ कस्तूरीतिलकाञ्चितायै नमः॥
हकारार्था। हकारस्य आकाशबीजस्य अर्था, अर्थ स्व रूपचैतन्यम् आकाशविग्रहेत्यर्थ, ‘आकाशो ह वै नाम ना मरूपयोर्निर्वहिता ते यदन्तरा तद्ब्रह्म’ इति श्रुते॥ ॐ हकारार्थायै नम॥
हसगति। हन्ति गच्छतीति हस प्राण आदित्यो वा। हसस्य प्राणस्य गति गमनागमन लक्षणया तज्जाप्याजपा मन्त्ररूपा यस्या सा तथा, ‘हकारेण बहिर्याति सकारेण पुनर्विशेत्’ इति वचनात्। यद्वा, तदभिमानिदेवतारूपा ग्नीषोमात्मकसूर्यचन्द्रगती अहोरात्रात्मककालस्वरूपाया य स्यासा। अथवा, हन्ति देहाद्देहान्तर गच्छति स्वक र्मवशेनेति हसा जीव‚ तस्य गति प्राप्यस्थान मुक्ति रित्यर्थ‚ ‘ब्रह्मविदाप्नोति परम्’ ‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते’ इति श्रुतिस्मृतिवचनात्। अथवा हन्ति स्वकार्यभूत जगत्प्रविशतीति हस। ‘हसस्तु परमेश्वर’ इति नृसिंहतापनीये। गम्यते प्राप्यते शरणत्वेन प्रपद्यते चतुर्विधभक्तैरिति गति। हसश्चासौ गतिश्चेति सामानाधिकरण्यसमास, ‘हँसशुचिषत्’ इति श्रुते। आहोस्वित्, हसस्य ब्रह्मवाह नस्य गतिरिव गमन यस्या सा तथा। उताहो, हसशब्देन नामैकदेशेन हसक पादकटकमुच्यते‚ गम्यते अनेनेति गति चरणम्, हसयुक्ते गती पादारविन्दे यस्या सा तथा। यद्वा, हसशब्देन नित्यानित्यसारासारजडाजडादिव स्तुविवेकसमर्था, हन्ति गच्छन्ति प्रतिग्राम प्रतिदेशम् इति हसा परिव्राजका चतुर्थाश्रमिण निष्कामा‚ तेषा गति गम्यते ज्ञायते साक्षात्क्रियत इति गति, ‘सन्यासयो गाद्यतयशुद्धसत्वा ‘इति श्रुते। ‘ये पूर्व देवा ऋषयश्च तद्विदु ते तन्मया अमृता वै बभूवु’ इति श्रुते। जीवन्मु क्तपुरुषानुभूयमानपरमानन्दमुक्तिस्वरूपेत्यथ॥ ॐ हस गत्यै नम॥
हाटकाभरणोज्ज्वला।हाटकस्य सुवर्णस्य कार्याणि च तानि आभरणानि च हाटकाभरणानि तैरुज्ज्वला तथा, प्रकाशिता अलकृतेत्यर्थ। हाटकस्य सुवर्णरूपब्रह्माण्डस्यआभरणवदुज्ज्वला प्रकाशकरी सत्तास्फूर्तिकरीत्यर्थ। यद्वा, तस्मिन्नाभरणै मङ्गलसूत्रादिभि सनाथस्त्रीमण्डस्वरूपैरुज्ज्वलतीति। आहोस्वित्, कार्यकारणद्वयरूपवसुदानेन वसु स्वरूपेण वा उज्ज्वलति प्रकाशत इति तथा, ‘वसुरन्तरिक्ष सत्’ इति श्रुते॥ ॐ हाटकाभरणोज्ज्वलायै नम॥
हारहारिकुचाभोगा हाकिनी हल्यवर्जिता।
हरित्पतिसमाराध्या हठात्कारहतासुरा॥
हारहारिकुचाभोगा। हरस्य परमेश्वरस्य इमे सबन्धिन हारा ईश्वरत्वाप्तकामत्वनित्यतृप्तत्वादयो गुणा, तान् हरति तद्विपरीताविद्याद्याधानेन उत्सादयतीति हारहारी, कु चयोराभोग पर्यन्तभूमि यस्या सा तथा। परमेश्वरस्य तद्विषयकवाञ्छया तदेकसक्तमनस्त्वेन तत्कारणीभूताविद्या वशवृत्तित्वेन वशीकृतमायत्वस्वरूपेश्वरत्वसमानाधिकरणा प्तकामत्वादय अपहृता, जीवेश्वरयोरेकत्र तेषा तद्गुणाना च सामानाधिकरण्यायोगादित्यर्थ। तथा च ईश्वरस्य मदिष्टसाधनमित्यन्यत्र पदार्थे बुद्धिमत्त्वस्यैव बहुभवनरूपत या तस्य जगदाकारत्वाधायका– इत्यधिकगुणोत्प्रेक्षाविषयत्वेन भोगस्यातिशयोक्तिरिति द्रष्टव्यम्। अथवा, हारान् मुक्तास्त्रज हरति आदत्ते इति हारहारी कुचाभोगो यस्या सेति तथा षट्कारेण मुक्ताहारेण यथोचितकाल भूषितवतीति भाव॥ ॐ हारहारिकुचाभोगायै नमः॥
हाकिनी। हाकयति जन्ममरणयो छेदयतीति हाकिनी,‘हाक् च्छेदे’ इति धातुपाठात्॥ ॐ हाकिन्यैनम॥
हल्यवर्जिता। हलसबन्धि हल्य कृष्यादिद्वारा जनक त्वम्, तद्वर्जिता, कामादिविहीनशुद्धचैतन्यस्वरूपत्वात्। हल्य कपट मित्रेष्वप्यन्यथा स्वान्त करणाविष्कृति तेन व र्जिता। अविद्याविरहिततत्त्वपदलक्ष्यार्थभूतत्वादिति यावत्॥ ॐ हल्यवर्जितायै नम॥
हरित्पतिसमाराध्या। हरिता दिशा पतय महेन्द्रादय, तैसम्यक् श्रद्धाभक्तिपूर्वकम् आराधितु योग्या। तद्विपक्ष निबर्हणनेष्टप्रापकदैवतत्वादित्यभिसधि॥ ॐ हरित्पतिस माराध्यायै नम॥
हठात्कारहतासुरा। हठात्कारेण अतिशीघ्रतया हता पराभूता असुरा असुरपक्षा महिषादयो यया सा तथा, समबलयो किल लोके सामाद्युपाय बलाबलविचारणा च भवति। प्रबलस्य तु दुर्बलेषु वैरिषु सिंहस्य मेषेष्विव तदयोगेन अतित्वरयाविचारेणैव देवलोकसुखप्रदा—इति ना मार्थविचारणायामितरेषु कैमुतिकन्यायेन तत्कारणत्व ध्व नितमिति योजनीयम्॥ ॐ हठात्कारहतासुरायै नम॥
हर्षप्रदा हविर्भोक्त्री हार्दसतमसापहा।
हल्लीसलास्यसतुष्ठाहसमन्त्रार्थरूपिणी॥
हर्षप्रदा। हर्ष आनन्दकारक मुखविकासादिकार्योन्नेय स्वात्मसभावनेतरपरिभवनिमित्तचित्तवृत्तिविशेष, कार्यस्य कारणाविनाभावितया तत्प्रदान तद्धेतोरप्याक्षिपतीति सुखप्रदेत्यर्थ। प्रददातीति प्रदा। अथवा, हर्षंधनयौवनादि सुख पुत्रबन्धुवर्गादिरूपेण परिहृत्य प्रकर्षेण द्यति खण्ड यतीति वा तथा॥ ॐ हर्षप्रदायै नम॥
हविर्भोक्त्री। ‘स ब्रह्मा स शिव स हरि सेन्द्र सो ऽक्षर परम स्वराट्’ इति श्रुते वसुरुद्रादित्याकारेण हवींषि यजमानेन अग्नौ प्रक्षिप्तानि स्वाहामुखेन भुङ्क्तइति तथा। यद्वा हवींषि कालान्तरभाविफलानि अदृष्टात्मना सूक्ष्मरूपाणि तत्तद्यजमानजीवगतानि भूतसूक्ष्माभिधानानि समष्टि व्यष्ट्यात्मनेश्वरजीवोपाधिभूतानि मायाविद्याशब्दितानि मु क्तिपर्यन्त भुनक्ति पालयतीति वा तथा। अन्यथा ससा रस्यानादित्वाभावेन आदिमशरीराद्युत्पत्तौ अङ्गीक्रियमाणा याम् प्रपञ्चस्याकस्मिकत्वमकृताभ्यागमप्रसङ्गश्च स्यादिति भाव॥ ॐ हविर्भोक्त्र्यैनम॥
हार्दसतमसापहा। हृदयावच्छिन्न हार्द, ‘यो वेद नि हित गुहायाम्’ इति श्रुते। अस्मिन् यत्सतमस आवारक त्वात् ‘तम आसीत्’ इति श्रुत्या च आत्मविषयक तदाश्रय मज्ञानम् अनर्थकरम् अव्याकृताकाशमित्युच्यते, महावाक्य श्रवणजन्यधीवृत्तिप्रतिफलिताकारेणापहन्तीति सा तथा। नाह ब्रह्मास्मि ससारी ब्रह्म नास्ति न भाति च–इत्यज्ञानस्य सोऽहब्रह्मास्मि सच्चिदानन्दलक्षण— इति एकाकारवृत्तिबा ध्यत्वनियमेन बाधाधिष्ठानम् ‘नेह नाना’ इति श्रुतिसिद्ध ब्रह्मरूपेति यावत्॥ॐ हार्दसतमसापहायै नमः॥
हल्लीसलास्यसतुष्टा। हल्लीसैचित्रदण्डै कुमारिकाभि एकतालादियुक्तगीतपूर्वक यल्लास्य नर्तन तस्मिन् सतुष्टा प्रीतिमतीत्यर्थ। ‘नारीणा मण्डलीनृत्य बुधा हल्लीसक विदु’ इति हारावलीकोशात् मण्डलाकारनृत्यसतुष्टेत्यर्थ॥ ॐ हल्लीसलास्यसतुष्टायै नमः॥
हसमन्त्रार्थरूपिणी। हसै परमहसै उपास्योयो मन्त्र प्रणव तस्य शास्त्रबोधिततत्त्वाथरूपिणी। वाच्यलक्ष्यार्थस्व रूपेण ज्ञायमानेत्यथ। अथवा, हसमन्त्र अजपा। हकार सकारौ शोधिततत्त्वपदार्थौ, हकारस्य परोक्षवाचिन सकारस्य तादृशस्य च भागत्यागलक्षणया निष्प्रपञ्चनित्यशुद्धमुक्तबुद्धसच्चिदानन्दस्वरूपेत्यर्थ॥ ॐ हसमन्त्रार्थरूपिण्यै नमः॥
हानोपादाननिर्मुक्ता हर्षिणी हरिसोदरी।
हाहाहूहूमुखस्तुत्या हानिवृद्धिविवर्जिता॥
हानोपादाननिर्मुक्ता। अनिष्टसाधने हान परित्यागक्रिया। इष्टसाधने उपादान स्वीकारक्रिया। परिजिहीर्षा आदित्सा वा। ‘अप्राणो ह्यमना शुभ्र’‘अकायम्’ ‘अ शरीर वाव सन्त न प्रियाप्रिये स्पृशत’ इति बहुश्रुते अशरीरस्य ब्रह्मणोऽन्त करणादिधर्माणामसभवात् ताभ्या निर्मुक्ता नि सङ्गेत्यर्थ, ‘विमुक्तश्च विमुच्यते’ इति श्रुते॥ ॐ हानोपादाननिर्मुक्तायै नमः॥
हर्षिणी। ‘एष ह्येवानन्दयाति’ इति श्रुते हर्षयति सतोषयतीति तथा॥ॐ हर्षिण्यै नमः॥
हरिसोदरी। हरिणा कृष्णेन समान एक उदरम् उत् ईषत् अर भेदक अवच्छेदकमित्यर्थ। उच्चैरर कूटो वा अत्यल्पमि थ्याभूतमायोपाधिकचैतन्यावस्थाविशेषरूपा। ‘अपरेयमि तस्त्वन्या प्रकृतिं विद्धि मे पराम्। जीवभूता महाबाहो ययेद धार्यते जगत्’ ‘देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्’ इत्यादिस्मृतिश्रुतिभ्याम् ईश्वरस्य रूपभेदवत्त्वावगमादिति मन्त व्यम्॥ ॐ हरिसोदर्यै नम॥
हाहाहूहूमुखस्तुत्या। हाहाहूहूनामकगन्धर्वौमुख्यौ येषा जनाना तैस्तथा। स्तुत्या गुणिनिष्ठगुणाभिधान स्तुति। तदाश्रयत्वेन प्रतिपादनीयेत्यर्थ॥ ॐ हाहाहूहूमुखस्तु त्यायै नम॥
हानिवृद्धिविवर्जिता। अवयवोपचयरूपा वृद्धि, तदप चयरूपा हानि, ताभ्या वर्जिता, ‘न कर्मणा वर्धते नो कनीयान्’ इति श्रुते। उपलक्षणम्, षड्भावविकाराणा शरीरधर्मत्वेन कर्मनिमित्तत्वादीश्वरे तदभावेन निर्विकारेत्यर्थ॥ ॐ हानिद्धिविवर्जितायै नमः॥
हय्यङ्गवीनहृदया हरिगोपारुणाशुका।
लकाराख्या लतापूज्या लयस्थित्युद्भवेश्वरी॥
हय्यङ्गवीनहृदया। हय्यङ्गवीनवत् नवनीतसदृशविरल मृद्ववयवपरिणामद्रवत्वसादृश्ययोगिहृदयकृपारसरूपपरिणा मवतीति सा तथा। हृदयाभावेऽपि सर्वात्मकतया तद्वत्वम्। ईक्षणादिवन्मायापरिणामरूपा दया वा हृदयशब्देन उच्यते। ‘अवागमना’ इति श्रुत्या सर्वनिषेधात्॥ ॐ हय्यङ्गवी नहृदयायै नमः॥
हरिगोपारुणाशुका। हरिगोप इन्द्रगोप आर्द्रामघानक्षत्रे वर्षासूद्भवा अष्ठपादा रक्तवर्णा मृद्वङ्गा कीटविशेषा, तथा शोणमशुक अम्बरम्, स्वार्थे कप्रत्यय,किरणानि वा यस्या सा तथा। ॐ हरिगोपारुणांशुकायै नम॥
लकाराख्या। लकारयुक्त मूलमन्त्र आख्या वाचक शब्द यस्या सा तथा। लकारस्य शक्रबीजस्य वार्थ, ‘सेन्द्र’ इति श्रुते। लकारयुक्तस्य मायाबीजस्य वा स्तब्धमायेत्यर्थ॥ॐ लकाराख्यायै नम॥
लतापूज्या। लवन्ति विनमन्ति अत्यन्तनम्रा भवन्तीति लता परमपतिव्रता अरुन्धत्यादय स्त्रिय, ताभि स्थिरमा ङ्गल्याय स्वेष्टदेवतात्वेन पूज्या पूजनीया। तदुक्तम्—‘समा राध्य महेशानीं भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति’ इति। अथवा, केदारादिगौरीविशेषमूर्तौलताभि उपलक्षण वन्यपूजोपकरणैपूज्या अलकृता। शबरी वा वनदुर्गा वेति भाव॥ ॐ लतापूज्यायै नमः॥
लयस्थित्युद्भवेश्वरी। वैपरीत्येन विशेषण योज्यम्। उद्भवतीत्युद्भव कार्यात्मना अभिव्यक्ति। स्थिति ज्ञानविषय तायोग्यकालावच्छेद अनुभवसत्तावत्त्वमिति यावत्। लय उत्पन्नकार्यस्य कारणात्मना अवस्थिति वाचारम्भणयोग्यते त्यर्थ। तासा क्रियाणाम्अचेतनकार्यत्वायोगेन घटादिकार्ये चेतनस्य निमित्ततादर्शनात् एकतटस्थेश्वरत्व वा, गोपुरादौ नानाचेतनदर्शनात्तादृशनानेश्वरत्व वेति विशये, ‘यतो वा इ मानि भूतानि जायन्ते’ इति श्रुतौ ‘यत’ इत्येकवचनपञ्चम्या नानात्वतटस्थत्वे, ‘जनिकर्तु प्रकृति’ इति सूत्रम्। जनिकर्तु कार्यस्य प्रकृतिरुपादानमपादानसज्ञा स्यात्। ‘अपादाने पञ्चमी’ इति शासनात् अभिन्ननिमित्तोपादनत्वमीश्वरत्वमिति सिद्धान्त। तटस्थलक्षणमेतत्, ज्ञायमानस्य ब्रह्मण लक्षण प्रमाणयो अवश्यवाच्यत्वादित्यभिप्राय। आदौ लयशब्दो पादानेन अनादित्व प्रपञ्चस्य सूचितम्। जगत इति शब्द पूरणन नाम योजनीयम्। तथा च जगत लयश्च स्थितिश्च उद्भवश्च तेषामीश्वरी। कूटस्थचैतन्यमात्रसच्चिदानन्दाधायक तया विवर्तकारणमित्यर्थ॥ ॐ लयस्थित्युद्भवेश्वर्यै नमः॥
लास्यदर्शनसतुष्टा लाभालाभविवर्जिता।
लड्घ्येतराज्ञा लावण्यशालिनी लघुसिद्धिदा॥
लास्यदर्शनसतुष्टा। यथा राजा सपूर्णकाम प्रयोजनम नुद्दिश्यापि मृगयादिलीलाविशेषान् पश्यति बालकादिनृत्य वा, तथा अज्ञानाम् इष्टानिष्टमिश्रोदासीनपदार्थचतुष्टयानुभवजन्यहर्षशोकादिसभवन्मदोद्रेकशोकातिरेकहेतुकविहिता दिकरणाकरण-रूपचरणाद्यङ्गपरिस्पन्दरूपनानाविधप्राणिकायनिकायजन्यलास्यदर्शनेन अनुद्दिश्यापि प्रयोजन सतुष्टा त त्तत्कर्मानुसारेण फलप्रापकेश्वरतया सर्वसमानत्वात्, ‘नादत्ते कस्यचित्पाप न चैव सुकृत विभु’ इति भगवद्वचनात्। लास्य दवतादिवारवनितादिभि क्रियमाण तालगीतयुक्त नृत्य तद्दर्शनेन सतुष्टा। तदीयफलप्रदानोन्मुखकृपारसवती त्यर्थ॥ ॐ लास्यदर्शनस्तुष्टायै नमः॥
लाभालाभविवर्जिता। अप्राप्तप्राप्तिर्लाभ, कृतेऽपि यत्ने तदप्राप्तिरलाभ, ताभ्या विवर्जिता, पर्याप्तकामत्वेन नित्यतृ प्तत्वात्, ‘न मे पार्थास्ति कर्तव्य त्रिषु लोकेषु किंचन’ इति भगवद्वचनात्॥ ॐ लाभालाभविवर्जितायै नम॥
लङ्घ्येतराज्ञा। इतरेषा जीवभ्रान्तिकल्पिताना गुणमूर्त्या दीनाम् उपासनाविधिरूपा वा, कर्मविधिरूपा वा आज्ञा प्रेरणा लङ्घ्याअविषयीकृता यया सा तथा। शुद्धचैतन्यस्य विशि ष्टक्रियाद्यात्मकत्वाभावेन विध्यविषयत्वादिति यावत्। अथ वा, किंकरीत्वाभावेन इतरेषा देवतानाम् आज्ञा प्रेरणा लङ्घ्या उपेक्षणीया यया सा तथा, ‘सर्वस्याधिपति सर्वस्येशान’ इति श्रुते। ईश्वरस्य सर्वनियन्तृत्वेन स्वेतरानियम्यत्वादिति ज्ञातव्यम्॥ॐ लड्घ्येतराज्ञायै नम॥
लावण्यशालिनी। लावण्य सौन्दर्यं परमानन्दस्वरूपतया अतिशयप्रीतिविषयत्व शालत इति तथा। सर्वावयवसाधारणसु दरभाववतीति वा॥ॐ लावण्यशालिन्यै नमः॥
लघुसिद्धिदा। लघुना उपायेन सिद्धिं वाञ्छितार्थप्राप्तिं ददातीति तथा, लघुशब्द लक्षणया लघिमासिद्धिपर। तथा च लघिमाद्यष्टैश्वर्यप्रदेति वा। अथवा, लघूना अत्य न्ताल्पज्ञानभाग्यशरीररूपचरणवतामप्यतिनिकृष्टाना तिर्यगादीनामपि सिद्धिं मुक्तियोग्यताहेतुज्ञानादिसाधनसपत्तिं तत्कार्यमहिमातिशयोन्नेया ददातीति सा तथा॥ ॐ लघुसिद्धिदायै नमः॥
लाक्षारससवर्णाभा लक्ष्मणाग्रजपूजिता।
लभ्येतरा लब्धभक्तिसुलभा लाङ्गलायुधा॥
लाक्षारससवर्णाभा। लाक्षारसेन लाक्षाद्रवेण समानो वर्णो यस्या सातथाभूता शोभा कान्तिर्यस्या सातथा।अतिपाटलविग्रहप्रभेत्यर्थ॥ ॐ लाक्षारससवर्णा भायै नम॥
लक्ष्मणाग्रजपूजिता। अग्रे जायेते इत्यग्रजौ रामभरतौ लक्ष्मणस्यापि ज्येष्ठभूतरामाचारानुकारित्वेन चतुर्भिरपि दाशरथिभि पूजितेत्यर्थ। रामस्य शिवलिङ्गप्रतिष्ठाता–इति नामवत्त्वान्यथानुपपत्या शिवदपतिपूजकत्वेन तदितरेषा तद्वशस्त्रीपुरुषाणा तत्सिद्धिरिति ध्वनितोऽर्थ॥ ॐ लक्ष्मणाग्रजपूजितायै नम॥
लभ्येतरा। लभ्यानि लब्धव्यानि कर्मोपासनाविशेषाणा फलत्वेन साध्यानि भव्यानीत्यर्थ। तेभ्य इतरा विलक्षणा। ‘तत्सत्य स आत्मा’ ‘नित्यो नित्याना चेतनश्चेतनानामेको बहूना यो विदधाति कामान्। तमात्मस्थम्’ इति ‘यत्साक्षाद परोक्षाद्ब्रह्म’ इत्यादिभि श्रुतिभि आत्मन नित्यप्राप्तस्वरूप त्वेन प्राप्तप्राप्तव्यरूपतया मोक्षरूपत्वेन चतुर्विधक्रियाफलत्वाभावादिति मन्तव्यम्। अथवा, इतराणि धर्मार्थकामरूपत्रिवर्गरूपाणि फलानि लब्धव्यानि प्राप्तव्यानि यस्या सका शादिति सा तथा, उक्तश्रुते॥ ॐ लभ्येतरायै नम॥
लब्धभक्तिसुलभा। भक्ति सामान्यविशेषाकारेण द्वि विधा। तत्राद्या आर्तजिज्ञास्वर्थार्थिभि यैर्लब्धा तत्तत्फलो द्देशेन समयविशेषे विच्छिद्य विच्छिद्य प्राप्ता तेषा सुलभा तत्तत्प्रारब्धानुसारेण फलदानोन्मुखस्वात्मरूपतया सनिहितत्वात्। द्वितीया भक्तिस्तु ब्रह्मसाक्षात्कारवता पुरुषेण येनैकभ क्तितया लब्धा, ‘एकभक्तिर्विशिष्यते’ इति स्मृते, तस्य सु लभा, स्वात्मरूपतया सदा ज्ञायमानत्वात्। ‘ज्ञानी त्वात्मैव मतम्’ इति गीतासु। अथवा, लब्धा प्राप्ता सत्यपि कण्ठ गतचामीकरवत् लब्धभक्तीना सुलभा सुखनानायासेन कष्टेन विना साध्यतया लाभ प्राप्तिर्यस्या सा तथा, ‘भक्त्या मामभिजानाति’ इति स्मृते॥ ॐ लब्धभक्तिसुलभायै नमः॥
लाङ्गलायुधा। शेषरूपतया हलायुधेत्यर्थ, ‘अनन्त श्चास्मि नागानाम्’ इति श्रीभगवद्वचनात्॥ ॐ लाङ्गलायु धायै नमः॥
लग्नचामरहस्तश्रीशारदापरिवीजिता।
लज्जापदसमाराध्या लपटा लकुलेश्वरी।
लग्नचामरहस्तश्रीशारदापरिवीजिता। लग्नौ करसबद्धौ धृतावित्यर्थ, लग्नौ चामरौ ययोस्तौ तादृशौ हस्तौ ययोस्ते श्रीश्च महालक्ष्मी शारदा च ते ताभ्या वीजिता परिवी जिता। अनादिकालादारभ्य परिचर्यया वीज्यमानेत्यर्थ॥ ॐ लग्नचामरहस्तश्रीशारदापरिवीजितायै नमः॥
लज्जापदसमाराध्या। लज्जानाम अन्त करणधर्म जुगु प्साहेतु गूहनसाधनम्, उपलक्षण मनोधर्माणाम्, तस्य पदम् आश्रय, ‘काम सकल्पा विचिकित्सा श्रद्धाश्रद्धा वृतिरधृ, ‘तिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत्सर्वंमन एव’ इति श्रुत। तस्मिन समा राध्या चिन्तनीयेत्यर्थं ‘य आत्मनि तिष्ठन्नन्तरो यमयति’ ‘गुहाहित गह्वरेष्ठ पुराणम्’ ‘तमात्मस्थ येऽनुपश्यन्ति धीरा’ इत्यादिश्रुतिभ्य। अथवा, लज्जापद जीवचक्रम्, तस्मिन् तदधिष्ठानानन्दाभिव्यक्तिहेतुतया बहिर्यागक्रमेण पू जनीयेत्यर्थ॥ ॐ लज्जापदसमाराध्यायै नमः॥
लपटा। लमिति पृथ्वीवाचकबीजेन तदुपलक्षित जगल्ल क्ष्यते, पटशब्दन आवारकत्वधर्मवत्तया अविद्या लक्ष्यते, लम जगत पट कारणीभूता अविद्या यस्या सा तथा, ‘मायिन तु महेश्वरम्’ ‘य एको जालवान्’ इति श्रुते। ‘अज्ञानेनावृत ज्ञानम्’ इति स्मृतेश्च। अथवा, लम्पटो नाम तन्द्री आलस्यम्, कर्मोपासनाबाहुल्येऽपि प्रतिबन्धकभूयस्त्वे शीघ्रतया परमेश्वरस्य फलदानोन्मुखताया राजादिवञ्चिरविलम्बितसेवाफलदानवैमुख्ये तद्वत्तोपचारात्, लम्पटो यस्या सा तथा। अथवा, लम्पटादीनामन्त करणधर्माणामध्यासवशेन तदवच्छिन्ने चैतन्ये सत्त्वरजस्तम कार्याणामुपलब्धेस्तद्वत्त्व वा॥ॐ लपटायै नमः॥
लकुलेश्वरी। कु पृथिव्युपलक्षितजगत् लीयते अस्मि न्निति कुलम्, मायोपाधिकचैतन्यम्, प्रलयाधिष्ठानम्। ‘यत्प्रयन्त्यभिमविशन्ति’ इति श्रुते। लीयमान कुल लकुल निरुपाधिकमित्यर्थ। तच्च सा ईश्वरी चसा तथा। अथवा, लकुल स्थानविशेष स्वाधिष्ठान मणिपूरक वा, तस्येश्वरी, विष्णुरुद्रात्मिकेत्यथ, भूतसृष्टिश्रुतौ पृथिव्या उदके तस्य तेजसि तस्य परमात्मनि लयश्रवणात्। ‘सदायतना सत्प्र तिष्ठा’ इति। तस्येश्वरी विभूतिविशेषो वा॥ ॐ लकुले श्वर्यै नमः॥
लब्धमाना लब्धरसा लब्धसपत्समुन्नति।
ह्रींकारिणी च ह्रींकारी ह्रींमध्या ह्रींशिखामणि॥
लब्धमाना। सर्वै प्राणिभि लब्ध मान अध्यस्ताहका र, आभमानात्मकस्तद्वदहकार प्रकीर्त्यते’ इति स्मरणात्। अध्यासेनाहकाराधिष्ठानेत्यथ। अथवा, ‘मान पूजायाम्’ इति स्मरणात् यैर्यै प्राणिभि विद्यैश्वर्यकुलसौन्दयातिशयादि वशात् पूजा लभ्यते सुखहेतु सा तदन्तर्यामिणा पूर्वमेव लब्धा, पूजादिजन्योपकारस्य सुखादे स्वस्वरूपतया लब्धत्वात्। यद्वा मान परिमाण अणुमहद्दीघह्रस्वभेदेन प्रसि द्ध।‘सवा एष महानज आत्मा महान प्रभुर्वै पुरुष’ अणोदणीयान् महता महीयान’ इत्यादिवेदवाक्यैर्जलसूर्या दिवदुपाधिधर्माणामुपहिते गजस्तम्भमत्कुणसर्पादौ प्रतीयमा नत्वात्, लब्ध मान परिमाण उपहिततया जगत यया सा तथा॥ ॐ लब्धमानायै नम॥
लब्धरसा। ‘रसो वै स’ इति श्रुतेरसवत् रस्यते सबध्यत इति अत्यन्तप्रीतिविषय आनन्द, स स्वस्वरूप त्वन लब्धो यया सा तथा। शृङ्गाररसो वा, तद्व्यञ्जकम ङ्गलाभरणपुष्पालकारवत्त्वादिति भाव। शुद्धसत्त्वप्रधानमायोपाधिकतया, ‘रस्यास्निग्धा स्थिरा हृद्या आहारा सात्त्विकप्रिया’ इति गीतावचनात् नैवेद्यादौ कट्वाम्ललव’ णादीना देवादिविषये निषेधाच्चप्रीतिविषयत्वेन मधुररसो लब्धो ययेति वा तथा॥ॐ लब्धरसायै नम॥
लब्धसपत्समुन्नति। लब्धा स्वस्वरूपतया स्वत सि द्धा या सपद सत्यकामत्वादय सच्चिदानन्दादयो वा ताभि समुन्नति सर्वोत्कृष्टता यस्या सेति तथा। ब्रह्मण माथामात्रापाधिना अभिव्यज्यमाना गुणा कर्मानुद्भूतत्वादनाकस्मिका सन्त सर्वोत्कृष्टभाव ब्रह्मण ज्ञापयन्ति। ‘तमीश्वराणा परम महेश्वर त देवताना परम च दैवत। पतिं पतीना परम पुरस्ताद्विदाम देव भुवनेशमीड्यम्’‘सत्यकाम सत्यसकल्प’ ‘एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषो ऽन्तर्याम्येष योनि सर्वस्य’ इति ‘गतिर्भर्ता प्रभु साक्षी’ इत्यादिश्रुतिस्मृतिशतेभ्य ‘एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य’ इति प्रसिद्धनित्योत्कर्षवत्त्व ब्रह्मस्वरूपमेवेति नात्र विचारणीय किंचिदस्तीत्यभिप्राय॥ ॐ लब्धसपत्समुन्नत्यै नमः॥
ह्रींकारिणी। ह्रींकार द्वितीयखण्डसमाप्त्यवयवतया वा च्यवाचकसबन्धन अस्याअस्तीति तथा॥ ॐ ह्रींका रिण्यै नम॥
ह्रींकाराद्या। अत्र ह्रींकारशब्देन तत्कार्यभूता वेदा, तेषामप्यर्थतया कारणतया वा आद्या आदौ भवा पूर्वभा वीत्यर्थ। शब्दस्य अर्थविषयत्वेन प्रवृत्ते शक्तिग्रहादौ काव्यादिकृतौ च अर्थज्ञानपूर्वकशब्दप्रयोगदर्शनादर्थस्य पूर्व भावित्वमुक्तमिति भाव॥ ॐ ह्रींकाराद्यायै नमः॥
ह्रींमध्या। अस्य बीजस्य जगदभिन्ननिमित्तोपादानभूत मायाविशिष्टचैतन्यवाचकतया तत्प्रतीकत्वेन तन्निष्ठयावद्गुण वत्त्व तदुपासनातिशयमहिम्नाभिव्यज्यते। अन्यथा मन्त्रपुरश्चर्यास्विष्टसिद्ध्यभावप्रसङ्ग स्यात्। अव्यवहितपूर्वनाम्नानभिव्यक्त-स्वरूपस्यापि शब्दजालस्य एतद्बीजमात्रात्मनैवाङ्कुरितबीजार्थवत्तया पूर्वभावित्वमुक्तम्। इदानीमभिव्यक्ता त्मकस्वार्थकतया विवर्तवादमाश्रित्य वाचारम्भणाकारेण ना त्मरूपद्वयवत्त्वमुच्यते। ह्रींकारबीजार्थ तेन शब्देन लक्ष्यते। मध्ये व्यवहारकाले ह्रीं यस्या सा तथा। घटादिषु वस्तुषु सच्चिदानन्दप्रतीत्या व्यवहारकालेऽपि प्रपञ्चकारण ब्रह्मानुस्यूततया भासमान जगत्कारणमिति सिद्धान्त। अनेनाचेतनपरिणामारम्भादिवादा निष्प्रमाणतया युक्त्याद्याभासक त्वेन निरस्ता वेदितव्या॥ ॐ ह्रींमध्यायै नम॥
ह्रींशिखामणि। लाके यथा चूडामणि सर्वाङ्गरचिता भरणापक्षया तद्विजातीयप्रकाशसत्ताद्याश्रयवान् उत्तमाङ्गस्थानविशेषे स्थापित महदैश्वर्यादि तद्वत पुरुषस्य ज्ञाप यति, तथा सर्वशब्दजालतद्वाच्यार्थभूतचिज्जडसबन्धरूपप्रपञ्चवाचकाति-सूक्ष्मह्रींवर्णात्मकश्रीविद्याराजबीजस्य सत्य ज्ञानानन्दात्मकलक्ष्यार्थभूता सती ह्रींबीजजापकाना सर्वार्थ प्रदानेन पारमैश्वर्यं व्यञ्जयतीति गुणयोगकृतनामेदम्। तथा च ह्रीम शिखामणि परमतात्पर्येण ज्ञापयतीत्यर्थ॥ ॐ ह्रींशिखामणये नमः॥
ह्रींकारकुण्डाग्निशिखा ह्रींकारशशिचन्द्रिका।
ह्रींकारभास्कररुचिह्रींकाराम्भोदचञ्चला॥
ह्रींकारकुण्डाग्निशिखा।ह्रींकार एव कुण्ड वाच्यवाच कसबन्धेन परब्रह्मावच्छेदकतया आहवनीयादिसदृशम्, त स्याग्निशिखा, ‘उद्दीप्तेऽग्नौजुहोति’– इति प्रमाणेन ‘आ हवनीये जुहोति’– इति विधिवाक्यावगतहोमाधारताया केवलाहवनीयस्यायोग्यतया साग्निज्वालस्य होमाधारताया ज्ञायमानायामदृष्टद्वारा स्वर्गसबन्धेन स्वार्थकतया तज्ज्ञा पकवेदवाक्यस्यापि पुरुषार्थसबन्धित्वमाहवनीयनिष्ठहोमा धिकरणदीप्ताग्निज्वालास्वाधारभूतकुण्डसार्थक्यसपादकेवाभा ति। तथा स्ववाचकबीजस्यापि ‘मन्त्रैरुपासीत’ इति वि धिगतदेवतोपासनकरणाना मन्त्राणामपि स्ववाचकतया सा र्थक्यसपादनात्तथोच्यते॥ ॐ ह्रींकारकुण्डाग्निशिखायै नम॥
ह्रीकारशशिचन्द्रिका।ह्रींकार एव शशी चन्द्र तस्य स्वरूपाभेदभूतप्रकाशचैतन्य चन्द्रिकापदेनोपमीयते। यथा चन्द्रस्वरूपभूतामृतप्रसारभूता ज्योत्स्ना देवादिसर्वलोकाना सजीवकतयोपकरोति, तथा दृढतरभक्तिपरवशपुरुषधौरेयादीना ह्रींकारवाच्यार्थतया तदभिन्नत्वेऽपि जगद्विवर्तकारण तयासच्चिदानन्दाधायकत्वेन सजीवयतीति भाव॥ ॐ ह्रींकारशशिचन्द्रिकायै नम॥
ह्रींकारभास्कररुचि। भास कान्ती करोति प्रसारयति लाकोपकारायेति तथा सूर्य‚तस्य रुचि प्रचण्डभानु। यथा लाके सूर्य वर्षास्वतिगाढतरस्रवदुदकधारासव्याप्तदि गन्तरासु दिवा विद्यमानोऽपि सूर्य साक्षादयमिति चाक्षुष ज्ञानगाचरो न भवति, तदभावे शिष्टाना भोजनादिसजीव कव्यवहाराभावन तदुपायासिद्धयाप्रसन्नमनासि भवन्ति, तथा ज्ञानमार्गानधिकारिणा मोक्षमार्गोपायभूताविदितदेवता रूपह्रींकाराणा जनाना बहुतरपुण्यमहिम्नामहावातनेव मेघा वलौ दूरीकृताया चण्डभानुरिव सुखसाधन गुरुकृपापाङ्गाव लोकनरूपदीक्षावशेन प्रतिबन्धकदुरितापगमे परदेवतारूप ह्रींकार पुरश्चर्यया साक्षाद्वाच्यार्थापरोक्षज्ञानहेतुर्भवति। चिरकालनैरन्तर्यभावनाप्रकर्षेण तस्मिन्नभिमुखे सति तल्ल क्ष्यार्थरूपपरमानन्दचित्कला स्वयमेवाभिव्यक्ता सत्यानन्दा नुभवामृतेन सुखयतीति तथोच्यते॥ ॐ ह्रींकारभास्कर रुचये नमः॥
ह्रींकाराम्भोदचञ्चला। अम्भासि अमृतानि ददतीत्यम्भादा, ह्रींकारोऽपि कामवर्षत्वन तैरुपमीयत। तेषु चञ्च ला विद्युल्लता विद्यमाना तदभिन्नप्रकाशमाना सती वर्षोद कद्वारा सस्याद्युत्पादकत्व यथा व्यनक्तितथा ह्रींकारवाच्य तया तदभिन्नापि तत्स्वरूपविचारणाया शुद्धलक्ष्यार्थस्वरूपा सत्यपि अनिर्वचनीयस्ववाचकमन्त्रप्रकाशितदेवतात्वेन स्वा भीष्टपुरुषार्थ-प्राप्तिहेतुभूतेत्यभिसधि॥ ॐ ह्रींकाराम्भोद चञ्चलायै नम॥
**ह्रींकारकन्दाङ्कुरिका ह्रींकारैकपरायणा।
ह्रींकारदीर्घिकाहसी ह्रींकारोद्यानकेकिनी॥ **
ह्रींकारकन्दाङ्कुरिका।ह्रींकार एवकन्दम् दृढतरबीज भाव तस्य अङ्कुरिका आदिप्रसव नूतनाभिव्यक्तिरित्यर्थ।यथा लोके अङ्कुरादिक कन्दादिनिष्ठोत्पादकशक्तिमनभिभू यैव स्वयस्कन्धशाखापत्रपुष्पफलाद्यात्मना यथा विवर्तमान तत्सामर्थ्यप्रकटनकारण भवति, तथा ह्रींकारस्यवेदैकदेशत्वेन इतरप्रमाणानपेक्षतया स्ववात्त्यार्थज्ञापनन स्वत प्रा माण्ये स्थितऽपि तज्जन्यज्ञानविषयतावच्छेदकधमरूपनाना प्रकारजगत्परिणामहेतुत्वसाधकाघटितघटनापटीयसीमायोपाधिकत्वेन तदर्थद्वयरूपा सती तन्मात्रप्रमाणवेद्येत्यर्थ॥ ॐह्रींकारकन्दाङ्कुरिकायै नम॥
ह्रींकारैकपरायणा। ह्रींकार एव एक अनितरसाधारण चतुर्विधपुरुषार्थसाधकतया परम् अयन ज्ञापक प्रमाण यस्या सा तथा। अस्य बीजस्य वाच्यार्थो माया, सा निरधिष्ठाना न सिध्यतीति तदाश्रयत्वविषयत्वाभ्या तद्रहित तेन ज्ञाप्यत इति भाव॥ ॐ ह्रींकारैकपरायणायै नम॥
ह्रींकारदीर्घिकाहसी। ह्रींकार एव दीर्घिका राजोद्यान वनक्रीडावापी।ससारकाननसचारिलोकविश्रान्तिकारण त्वेन ह्रींकार तयोपमीयते, ‘आराममस्य पश्यन्ति न त पश्यति कश्चन’ इति श्रुते। आ समन्ताद्रमत्यस्मिन् इत्या राम अथवा जगत्। तत्रोपासनादिना परमानन्दप्रापकतया वा ह्रींकार उपमीयते। तस्मिन् हसी स्त्रीहस। यथा लोके सारासारविवेकिहस्या आधारसुवर्णकमलादिमती वापि का महाराजसबन्धिनी विज्ञाप्यते, तद्वद्वात्त्यार्थरूपतया प्रका शमाना सती स्वसबन्धिबीजस्य सुखोत्पादकत्वमोक्षहेतुत्व द्योतयतीत्यभिप्राय॥ ॐ ह्रींकारदीर्घिकाहस्यै नम॥
ह्रींकाराद्यानकेकिनी। ह्रींकार एव उद्यानवत् फलानुभा वकत्वात् तथोच्यते तस्य केकिनी मयूरी। यथा लोके बहुषु पक्षिषु आरण्यकेषु सत्स्वपि तस्या रूपध्वनिभ्या सुखतया दर्शनश्रवणादिजन्यप्रमोदसाधकतया उद्यानालक रिष्णुत्वम, तथा ह्रींकाररूपदेवताध्वने सच्चिदानन्दरूपत द्वाच्यार्थस्य च परमपुरुषार्थसाधकत्वेन अविशिष्टत्वेऽपि ब्र ह्यविष्णुरुद्रादिमूर्तिषु उद्यानतरुवल्लिकक्षगुल्मादिवदुत्तमनीच देवतिर्यङमनुष्यादिषु च मयूरीव स्वेच्छया सर्वव्यापकत्वेन तदात्मरूपतया शरीरन्द्रियप्राणाद्याधारपरमप्रेमास्पदपरमा नन्दरूपप्रत्यग्गोचराहवृत्तिव्याप्यतयैतद्बीजप्रकाश्या भवती त्यर्थ॥ ॐ ह्रींकारोद्यानकेकिन्यै नमः॥
ह्रींकारारण्यहरिणी ह्रींकारावालवल्लरी।
ह्रींकारपञ्जरशुकी ह्रींकाराङ्गणदीपिका॥
ह्रींकारारण्यहरिणी। ह्रींकारवाच्यार्थैकदेशभूतमायावि द्यातत्कार्याणा बन्धरूपतया गहने व्याघ्रादीनामिव भयहे तूना सद्भावेन दुष्प्रवेशत्वरूपधर्मसाम्येन ह्रींकारस्य अरण्यो पमितत्वम्। तथा च अरण्यमिव ह्रींकार इति सर्वत्रोपमा नोत्तरपदसमास। तत्रैव सति यथारण्यगतपुरुषस्य शीघ्र दृष्टिपथ गता हरिणी एणी व्याघ्राद्यभावनिश्चयेन तदधिगम फलप्राप्तिसाधनतामवगमयति धीरपुरुषस्य, तथा निरन्तरभक्तिभजनपरप्राणिलोकस्य उपासनापरिपाकमहिम्ना अपरोक्षीकृताज्ञाननिवृत्तिपूर्वक भयापकरणेनानन्द प्रापयतीति तयो पमितेति भाव। ‘तमेव विदित्वातिमृत्युमेति’ इति श्रुत॥ ॐ ह्रींकारारण्यहरिण्यै नम॥
ह्रींकारावालवल्लरी।ह्रींकारमन्त्रवाचकतानिरूपितवा च्यतानामकसबन्धावच्छिन्नपरदेवतास्वरूपत्वन तदुपासना विषयफलदानसमर्था सती आवालमात्रप्ररोहद्विवृद्धवल्लर्यो पमीयते। तथा च तत्सबन्धितया ह्रींकार जपादिना आ वाल इव सर्वदा सरक्षणीय इति तात्पर्यार्थ परिनिष्पन्न इति यावत्॥ ॐ ह्रींकारावालवल्लयै नम॥
ह्रींकारपञ्जरशुकी। मन्दाधिकारिणामप्युपासनाकारण साधारणपार्वतीप्रतीकतया ह्रींकारस्य बालकादिलालनविषय त्वधर्मपुरस्कारण पञ्जरोपमा। तथा च तत्रत्यशुकीवसला पादिना मनुष्यादिचित्तरञ्जिनी। एव तत्तददृष्टानुसारेण फलदात्रीसत्ती तयोपमितेति द्रष्टव्यम्। ह्रीकार पञ्जरमिव तस्य शुकी तत्सार्थक्यकारिणीत्यभिप्राय॥ ॐ ह्रींकारप ञ्जरशुक्यै नमः॥
ह्रींकाराङ्गणदीपिका। अङ्गणवत् सर्वसाधारणविश्रान्ति स्थानतया ह्रींकारस्य तदुपमा तस्य दीपिका। यथाङ्गणारो पितदीप बाह्याभ्यन्तरवस्तुजात प्रकाशयन तत्रत्यलोकाना मन्धकारादिनिवर्तनपूर्वकमभीष्टव्यवहारहेतुतया सर्वान् श्ला घयति स्वयमपि तै सरक्ष्यते, तथा ह्रींकारबीजार्थश्रवणम नननिदिध्यासननिरन्तराभ्यासादपरोक्षीकृतस्वयप्रकाशानन्द रूपा सती स्वसेवकान् सर्वोत्कर्षयतीति तदुपमिता सती तथोच्यते॥ ॐ ह्रींकाराङ्गणदीपिकायै नम॥
ह्रींकारकन्दरासिही ह्रींकाराम्भोजभृङ्गिका।
ह्रींकारसुमनोमाध्वी ह्रींकारतरुमञ्जरी॥
ह्रींकारकन्दरासिंही। पर्वतशिखाग्रवर्तिगुहा कन्दरा दरीत्यर्थ। वेदमौलिपठितह्रींकारस्य प्राम्यविषयलिप्सुप्राणि प्रवेशयोग्यताविकलतया कन्दरापमा। तत्र यथा सिंही स्वेतरक्षुद्रमृगप्रवेशभयहेतुसटादिस्वव्याप्यचिह्नानुमिता तस्या स्वाश्रयमात्त्रता धीरस्य तत्परिसरनखनिर्घातमुक्ताफलादि प्राप्तिं च नयति, तथा मन्दभक्तितन्द्री-बुभुक्षादिकलुषितपरिच्छिन्नाभिमानदेवतान्तरप्रतिपादकबीजतया स्वदेवतैक भाव कामितार्थंच प्रापयतीति सिंह्युपमिता सती तथोच्यते॥ ॐ ह्रींकारकन्दरासिंह्यै नम॥
ह्रींकाराम्भोजभृङ्गिका। ह्रींकारस्य अष्टैश्वर्यात्मकपुरुषार्थसाधकनानाशक्तिमत्तया नानाप्रकारवर्णान्तरघटितत्वेन परागपरिमलादिमत्कमलोपमितत्वमिति याजनीयम्। कमले यथा मधुमात्रसारग्राहिणी भृङ्गी रमते सर्वपुष्परसमधुपास्वाभाव्येन सर्वसमापि मध्वाधिक्यविविदिषया प्रभूतमधुवत्त्वेन च तस्मिन्नेव विशिष्यासक्तिमती, तथा सर्वमन्त्र बीजवाच्यदेवतात्मना सर्वानुगतापि ह्रींकारस्य विशिष्टगुण वत्त्वेन सर्वोपादानसगुणब्रह्मप्रतिपादकतया तदीयस्वरूपत टस्थलक्षणवत्त्वेन तदभिन्नस्वरूपतया सर्वशब्दजालप्रकृतित्वेन च रूढ्या लक्षणया वा तत्सबन्धिनी सती तदुपास काना तदधिष्ठानतया च तैलक्ष्यत इति भृङ्ग्युपमया व र्णितेति तात्पर्यम्॥ ॐ ह्रींकाराम्भोजभृङ्गिकायै नम॥
ह्रींकारसुमनोमाध्वी। ह्रींकारस्य वाञ्छितफलप्रदानसाधकतया सुमन सादृश्यम्। अथवा, पुष्पाणि व्यवहारसमये बहुसावधानतया व्यवहर्तव्यानि परममार्दवाधिकरणत्वेन बहु मान्यत्वात्‚ तथा ह्रींकारोऽप्युपासनवेलाया परब्रह्मवाचकत्वेन प्रयत्नपूर्वकमेकाग्रमनसा देवताभिन्नत्वेन ध्यातव्य इति निय मसपादनार्थं पुष्पोपममिति विभावनीयम्। तथा च वाय्वादिना शुष्काणि पुष्पाणि निर्मधुत्वेन फलान्यजनयित्वा परिपतन्ति फलजनकशक्तेरभावेन‚ तदितराणि तु तद्वत्त्वेन तज्जनकानि लोके दृष्टानि, पुष्परसश्च पृथिवीकारणभूतादक तन्मात्रस्वरूपमधुररसात्मकत्वात् पुष्पाणा फलजनकशक्तिज्ञा पको भवति, तथा ह्रींकारस्यापि सर्वजनकताशक्याधायकत दधिष्ठानसच्चिदानन्दपरब्रह्मस्वरूपा सती तन्मन्त्रप्राप्त्या यथोक्तफलहेतुतया तदर्थरूपेण तद्वृत्तिर्भवतीति माध्वीसमानधर्मवत्त्वमस्या उपपद्यत इति विवेचनीयमिति यावत्॥ ॐ ह्रींकारसुमनोमाध्व्यै नम॥
ह्रींकारतरुमञ्जरी। फलार्थिन स्वारूढजनान् पतनादि भ्य प्रतिबन्धकेभ्यस्तारयति पार प्रापयति फललाभेन स तोषयतीति तरु। ह्रींकारस्यकल्पादितरुर्दृष्टान्तीकृत। प्रेक्षावता सवादिप्रवृत्तिजनकत्वेन शाखोपशाखाग्रगता पुष्प मञ्जरी फलकारणयोग्यता ज्ञापयतीव पुरुषार्थार्थिना अस शयप्रवर्तकत्वेन प्रत्यक्स्वरूपा सती गुरूपदिष्टमन्त्रदेवतात्म कतया मन्त्रोपासनायामभिमुखीकरणेन पुरुषार्थान् प्राप यतीति मञ्जरीसादृश्य प्राप्त परदेवताया इति विवेचनी यम्। ॐ ह्रींकारतरुमञ्जर्यै नम॥
सकाराख्या समरसा सकलागमसस्तुता।
सर्ववेदान्ततात्पर्यभूमिसदसदाश्रया॥
सकाराख्या। सकारयुक्ता श्रीविद्यानामिका आख्या वाचकशब्द यस्या सा तथा॥ ॐ सकाराख्यायै नम॥
समरसा। सम एक रस मधुरादिरसवद्गुडपिण्डादा वेकरूपेण कार्ये व्यवस्थितेत्यर्थ। अथवा, ससारदशाया सर्वज्ञत्वकिंचिज्ज्ञत्वादिविशेषणभेदेन भिन्नरसवत् भिन्नस्वभा ववत् प्रतीयमानयोरीश्वरजीवयोर्वेदान्तश्रवणादिना जन्याखण्डाकारवृत्तिव्याप्त्या अह ब्रह्मास्मि– इत्यभेदानुभवदशायामेकरूपतया साक्षात्क्रियते इति सा तथोच्यते, ‘रसो वै स’ इति श्रुते, रसशब्दार्थ परब्रह्म सम अभिन्न यस्या सा तथा। तैत्तिरीयोपनिषत्प्रतिपाद्येत्यर्थ॥ ॐ समरसायै नम॥
सकलागमसस्तुता। आ समन्तात् गमयन्तीति आगमा, सकलपदार्थगोचरसविकल्पकप्रमाजनकवेदा इत्यर्थ। सकलै रन्यूनानतिरेकेणेतिहासपुराणसहितयावदङ्गोपाङ्गरहस्यादियो गित्व सकलशब्दार्थ। तै सस्तुता सम्यक् नात पर किवि दस्तीति निश्चयपूर्वक स्तुता गुणिनिष्ठगुणाभिधानविषयतया तदुपजीवकेत्यर्थ। सर्वार्थप्रकाशकवेदाना सर्वज्ञत्वेनैदपर्येण तदीयस्तुतिविषयतया शुद्धचैतन्यात्मकतया मोक्षकारणीभू तज्ञानस्वरूपत्वेन जिज्ञास्येति ध्वनितोऽर्थ॥ॐ सकला गमसस्तुतायै नम॥
सर्ववेदान्ततात्पर्यभूमि। वेदानामन्त अवसान तत्त्वम स्यादिमहावाक्यानि तेषा तात्पर्यं समन्वय सामानाधिक रण्यमित्यर्थ। तस्य भूमि विषय ज्ञाप्यमिति यावत्। ‘उपक्रमापसहारावभ्यासाऽपूर्वता फलम्। अर्थवादोपपत्ती च लिङ्ग तात्पर्यनिर्णये’ इति वचनोक्ततात्पर्यनिर्णायकप्रमा णबलेनातीन्द्रियधर्मादिगोचरवाक्यवत् सर्वेषा वेदान्ता नामुपासनाज्ञानविधिं विनाकर्मशेषतया अज्ञातज्ञापकत्वेन शासनादेव शास्त्रशब्दवाच्यानामद्वैते ब्रह्मणि गतिसामान्येन कर्मोपासनाकाण्डद्वयार्थोपकार्यत्वेन मोक्षहेतुज्ञानजनकत्वेन पर्यवसानमिति तात्पर्यविषयता अखण्डचैतन्यस्येति सि द्धान्तार्थ इत्यभिसधि।‘सामानाधिकरण्य च विशेषण विशेष्यता। लक्ष्यलक्षणभावश्च पदार्थप्रत्यगात्मनाम्’ इति न्यायेन सबन्धत्रयेण अखण्डार्थंवेदान्ता बोधयन्तीति ‘तत्तु समन्वयात्’ इत्यधिकरणे प्रतिष्ठापितमित्यलमतिवि स्तरेण॥ ॐ सर्ववेदान्ततात्पर्यभूमये नमः॥
सदसदाश्रया। अपरोक्षतया सन्निति प्रतीतिविषयतया व्यवह्रियमाण सत्कार्यं रूपादिवत्तया व्यावहारिकसत्ताश्रय पृथिव्यप्तेजोभूतत्रय सदित्युच्यते। असत् सद्भिन्नतया परो क्षज्ञानगोचर वाय्वाकाशादि तत्कार्यं च रूपादिभिन्नगुणाश्र यमुच्यत इत्यर्थ। तयोराश्रया उपादानत्वेन तदधिष्ठानभूते त्यर्थ। आरोपितस्याधिष्ठानसत्तातिरिक्तसत्ताशून्यतया सत्ता स्फूर्तिप्रदत्वेन सर्वदा तदनुस्यूतेति ध्येयम्॥ ॐ सदसदा श्रयायै नम॥
सकला सच्चिदानन्दा साध्या सद्गतिदायिनी।
सनकादिमुनिध्येया सदाशिवकुटुम्बिनी॥
सकला। आरोपितकलाभि उपासनार्थं कल्पिताभि जाबालिना सत्यकाम प्रत्युक्तषोडशकलायुक्तपुरुषोपासनप्रति पादकच्छान्दोग्यवचनरीत्या कलाशब्दितावयवै सह वर्तते इति सा तथा। चतु षष्टिचन्द्रकलाभ्या वा सहिता। अथवा, कलाशब्द सुखादिकान्तिवचन तया सहितेति वा॥ ॐ सकलायै नमः॥
सच्चिदानन्दा।सच्चासौ चिच्चसञ्चित् सच्चिच्चासौ आनन्दश्च, कालत्रयाबाध्यत्व सत्त्वम्, स्वेतरप्रकाशाप्रकाश्यत्व चित्त्वम्, परमप्रेमास्पदत्वमानन्दत्वम्, ‘सत्य ज्ञानमनन्तम्’ ‘विज्ञानमानन्दम्’ ‘सदेव सोम्येदमग्र आसीत्’ ‘प्रज्ञा प्रतिष्ठा प्रज्ञान ब्रह्म’ ‘आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्’‘आ नन्द ब्रह्मणो विद्वान्न बिभेति कुतश्चन’ इत्यादिश्रुतिभ्य।
ते स्वरूप यस्या सा तथोक्ता। वेदान्तशास्त्रोक्तब्रह्मस्वरूप लक्षणलक्षितेत्यर्थ॥ॐ सच्चिदानन्दायै नमः॥
साध्या। कर्मोपासनादिभि महावाक्यश्रवणजन्यब्रह्म विद्यात्वेन साधनचतुष्टयसपन्नाधिकारिणा अपरोक्षतया साधितु प्राप्तुमहा, फलस्वरूपत्वादित्यर्थ। साध्वीति वा पाठ साधो स्त्री, सत्त्वगुणसपन्नत्वात् साधु, सकलविद्यापारगत्वे सति सदाचारसपन्न दैवीसपत्तिमानित्य थ। तदेकनिष्ठा परमपतिव्रता सती स्त्रीणा पातिव्रत्यसप्रदा यप्रवर्तकेति यावत्॥ ॐ साध्यायै नमः॥
सद्गतिदायिनी। समीचीना पुनरावृत्तिरहिता सुखमात्र रूपा गति‚ गम्यते ज्ञायते प्राप्यते इति वा गति। यत् ज्ञायते तदेव गति, तदन्यस्याज्ञातत्वात् गतित्वानुपपत्ते। ज्ञाते फले इच्छया तत्साधनेषु पुरुष प्रवर्तते, न त्व ज्ञातफलसाधने–इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्याम्, ‘ब्रह्मविदाप्राति परम’ ‘ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति’ ’ ये पूर्व देवा ऋषयश्च तद्विदु ते तन्मया अमृता वै बभूवु’ इत्यादिश्रुत्या च परदेवतास्वरूपमेव मुक्तिस्वरूपतया सद्गति। तदावारकाज्ञानाभिभवेन स्वरूपानन्दमभिव्यञ्जयतीति दायिनी। अभेदेऽपि गतिदानयो कर्मकर्तृप्रयाग उपपद्यते। ‘तदात्मानँस्वयमकुरुत’ इत्यादिवदित्यथ। सतीं वा सत्त्वगु णयुक्ता देवयानादिगतिं वा ददातीति सा तथा॥ ॐ सद्ग तिदायिन्यै नम॥
सनकादिमुनिध्येया। मननशीला मुनय‚ मननशब्दन लक्षणया तत्साक्षात्कारवन्त इत्यथ ब्रह्मण मानसिकपुत्रा ज्ञानवैराग्यादिबहुला मोक्षमागप्रवर्तका‚ सनक आदि येषा त मुनय सनन्दनसनातनसनत्कुमारप्रमुखा निरै षणा निश्चिन्ता, तैर्ध्येया अत्यादरेण स्वात्माभदज्ञानन स र्वदा विषयीकृतेत्यर्थ‚ ‘त्व वा अहमस्मि भगवो देवत अह वै त्वमसि’ ,क्षत्रज्ञ चापि मा विद्धि’ ‘आत्मान चेद्वि जानीयादहमस्मीति पूरुष’ ‘अथ योऽन्या देवतामुपास्त ऽन्याऽसावन्याऽहमस्मीति न स वद यथा पशु’ ‘मृत्यो स मृत्युमाप्नाति य इहनानेव पश्यति’ इत्यादिश्रतिस्मृति शतेभ्य॥ ॐ सनकादिमुनिध्येयायै नम॥
सदाशिवकुटुम्बिनी। सदाशिव कुटुम्बम् अस्या अस्तीति तथा॥ ॐ सदाशिवकुटुम्बिन्यै नम॥
सकलाधिष्ठानरूपा सत्यरूपा समाकृति।
सर्वप्रपञ्चनिर्मात्री समानाधिकवर्जिता॥
सकलाधिष्ठानरूपा। ‘अथात आदेशो नेति नेति’ ‘नेह नानास्ति किंचन’ इत्यादिनिषेधश्रुतिभ्य प्रतिपन्ना। ‘सर्वंखल्विद ब्रह्म’ इत्यादिबाधाया सामानाधिकरण्य मवगम्यते। कार्यस्यकारणाभेदज्ञान बाधा। तद्भिन्नता ज्ञानस्य भ्रमरूपत्वात्। तथा च श्रुतिनिषेधस्यावध्यपेक्षाया प्रकृत्यादीनामपि तत्त्वज्ञानेन निवृत्तौ भूतपूर्वगत्या सर्वाधि ष्ठानत्वेन अनुभूयते इति भाव॥ ॐ सकलाधिष्ठानरूपायै नम॥
सत्यरूपा। सत्य जडानृतपरिच्छिन्नव्यावृत्तत्व सच्चिदानन्दरूप यस्यासा तथा। परिणामवादमाश्रित्य सत् अपरोक्षज्ञानयोग्यानि पृथिव्यप्तेजासि, त्यत्तु परोक्षज्ञानविषया नि त्यानुमेया इत्यर्थ, ‘सञ्चत्यच्चाभवत्’ इति श्रुते। सत्य रूप यस्या सा तथा॥ ॐ सत्यरूपायै नमः॥
समाकृति। समा अभिन्ना सच्चिदानन्दरूपैकरसा आ कृति मूर्ति स्वरूप यस्या सा तथोक्ता। समा अन्यूना नतिरिक्ता यथाशास्त्रप्रमाण मूर्तिर्विग्रहो यस्या सेति वा। समा सदाशिवेन गुणसौन्दर्यबलवीर्ययशोगाम्भीर्यधैर्येङ्गितादिपरिज्ञानसर्वज्ञत्वादिबहुलधर्मविशेषै मूर्तिर्यस्या सेति वा। चतुर्विधभूतग्रामेषु तत्तत्प्रारब्धानुसारेण सभा तत्र तत्र निवासयाग्या मूर्तिर्यस्या सति वा। कर्माध्यक्ष तया तत्तत्फलविशेषदानेषु समा पक्षपातरहिता मूर्तिर्यस्या सा। समा बाल्यस्थविरत्वादिभावविकारवर्जिता एक प्रकारा नित्ययौवनशालिनी मूर्तिर्यस्या सा। ‘सम सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्’ अङ्गुष्ठमात्र पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनाना हृदये मनिविष्ट’ इति स्मृतिश्रुतिभ्यामेकरूपत्वावगमादित्याशय॥ ॐ समाकृतये नम॥
सर्वप्रपञ्चनिर्मात्री। ससारस्यानादितया माक्षस्थायित्वन च भूतभविष्यद्वर्तमानगत्या सर्वशब्दवाच्यत्व प्रपञ्चम्य, प्रप ञ्च्यते विस्तार्यते विवर्तत इति प्रपञ्च’ एक बीज बहुधा य करोति’ इति श्रुते। तस्य निर्मात्रीनिर्माणमभिव्यक्ति तन्निमित्ततया तत्तत्कर्तृत्वमुपचर्यते, दवदत्त पचतीतिवत्॥ ॐ सर्वप्रपञ्चनिर्मात्र्यै नमः॥
समानाधिकवर्जिता। कुलशीलजातिगुणादिभि तुल्य समान‚ तै श्रेयानधिक‚ तैवर्जिता। ‘न तस्य प्रतिमास्ति’ ‘विश्वाधिको रुद्रो महर्षि’ इति श्रुते, ‘सर्वाधि पत्य कुरुते महात्मा’ इति ‘एकमेवाद्वितीयम्’ ‘न त्वत्स मोऽस्त्यभ्यधिक कुतोऽन्यो लोकत्रये’ इत्यादिश्रुतिस्मृतिभ्या चेति भाव। एतद्दृष्टया समाननीय समान पूजनी योऽधिक तहूयेन वर्जिता। ‘एकमेवाद्वितीय ब्रह्म’ इत्यादिश्रुतेरिति वार्थ॥ ॐ समानाधिकवर्जितायै नमः॥
सर्वोत्तुङ्गा सगहीना सगुणा सकलेश्वरी।
ककारिणी काव्यलोला कामेश्वरमनोहरा॥
सर्वोत्तुङ्गा। कार्यापेक्षया कारणस्याधिकत्वात् सर्वा पेक्षया उत्तुङ्गा उन्नता, ‘पादोऽस्य विश्वा भूतानि। त्रिपा दस्यामृत दिवि’ इति श्रुते॥ ॐ सर्वोत्तुङ्गायैनमः॥
सगहीना। निरवयवत्वेन निष्कारणत्वन वा निर्गुणत्वेन वा निराश्रयत्वेन वा नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वरूपत्वेन सबन्धर हिता वा, ‘असगो न हि सज्जते’ ‘न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिप’ इत्यादिश्रतेरित्याशय॥ ॐ सगहीनायै नम॥
सगुणा। समा एकप्रकारा गुणा सत्यकामत्वादय य स्या सा तथा। ‘गुणी सर्वविद्य’ ‘सत्यकाम सत्यसकल्प’ इत्यादिश्रुते। त्रिमूर्तिस्वरूपतया सत्त्वरजस्तमोगुणै सह वर्तते इति वा तथा॥ॐ सगुणायै नमः॥
सकलेष्टदा। इच्छाविषयभूतानि इष्टानि काम्यानीत्यर्थ‚ सकलानि च तानीत्यभेदसमास‚ अन्यथा जीवादिवत् कस्मिंश्चिद्विषये असामर्थ्यशङ्का स्यात्। एकस्य पदार्थस्य बहूनामिच्छाविषयत्वदर्शनात्, एकत्र कामनायामपि तत्सह भावित्वेन सर्वप्रापकत्वोक्तौपरदेवताया बहुफलप्रदातृत्वेन अत्यन्तविश्वसनीयतया अतिशयप्रतिभानाच्चेत्यर्थ। अथवा, परिच्छिन्नपरिमितभाग्यवत्प्राणिन सर्वस्य सर्वत्र इच्छाया मपि, यानि सर्वाणि स्वबुद्धयाशास्त्राविरोधेनेष्टानि एषितव्यानि वाञ्छितव्यानि‚ तान्येव प्रयच्छति ददाति, न तद धिकानि, लोकेच्छाया बहुप्रकारत्वेन दुष्पूरणीयत्वादिति भाव। सर्वेषा प्राणिनामिष्टया इज्यया पूजया विषयीकृता, यज्ञेन वा समाराधिता तस्यफलप्रदेत्यर्थ। ‘अह च स र्वयज्ञाना भोक्ता च प्रभुरेव च’ ‘एष ह्यव साधु कर्म का रयति यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषति’ इति स्मृतिश्रुतिभ्या परमेश्वरार्पणबुद्ध्या क्रियमाणस्यैव कर्मण शुभफलत्वात् मुक्तिहेतुत्वेन, काम्यफलार्थिना जन्ममरणादिबन्धकत्वेन स्वल्पफलतया अनादरणीयत्वादित्यर्थ। अथवा, कलाभि अवयवै तरतमभावैरित्यर्थ। तैसहितानि इष्टानि फलानि मनुष्यानन्दादिब्रह्मानन्दपर्यन्तानि फलानि आनन्द स्वरूपाणि ददातीति तथा॥ ॐ सकलेष्टदायै नम॥
ककारिणी। तृतीयखण्डद्वितीयवर्णरूप ककारावयव वाचक अस्या अस्तीति तथा। ॐ ककारिण्यै नमः॥
काव्यलोला। वाल्मीकिवेदव्यासादिकृतेषु काव्येषु लो ला, वाच्यलक्ष्यार्थभेदेन तत्र सबद्धेत्यर्थ। अथवा, कवि भि कृतेषु स्तुतिविशेषेषु प्रीतिमतीत्यर्थ॥ ॐ काव्यलो लायै नम॥
कामश्वरमनोहरा। कामेश्वरस्य मन हरतीति तथा। ॐ कामेश्वरमनोहरायै नम॥
कामेश्वरप्राणनाडी कामेशोत्सङ्गवासिनी।
कामेश्वरालिङ्गिताङ्गी कामेश्वरसुखप्रदा॥
कामेश्वरप्राणनाडी। कामेश्वरस्य प्राणनाडी यथा नाड्या प्राण सचरति सा तथा, जीवनाडीत्यर्थ। ‘इडया तु बहि र्याति’ इति लयखण्डवचनात्। लोके विशम्यमाने पशौ हृदय पुण्डरीकाकार मासखण्डात्मकान्त सुषिराष्टदलोपेतमङ्गुष्ठप रिमाणसुषिरयुताधाभागकर्णिकामध्य दृश्यते, तथा कर्णिका या कसरायमाना एकशत नाडीनामङ्कुरा तद्वेष्टनपुरीतन्नाम कनाडीसुषिरविन्यस्तमूला भवन्ति। तत्र सुषुम्नानानामकनाडी मूलाधारादारभ्य ब्रह्मर ध्रपर्यन्त गता। तस्या षट् चक्राणि मूलाधारादीनि तत्तन्मातृकावर्णसहितयोगशास्त्रोक्तदलसयुतानि सनद्धानि वर्तन्त। तस्या मूल पृथ्वीदेवता बिसतन्तुत नीयसी कुण्डलिन्यधोमुखावरणशक्तिर्निद्राति। तस्या दक्षिणभागे इलानामनाडी भ्रूमध्यपर्यन्त प्रसृता। वामे पिङ्गला तथा। तथा च जाग्रदवस्थाया नेत्रयो दपत्यात्मना श्रुतिप्रतिपादित, स्वप्ने मनउपाधिक, सुषुप्तावज्ञानोपाधि क, जाग्रति स्थूलशरीराभिमानी विश्व इत्युच्यत, स्वप्ने सूक्ष्माभिमानी तैजस, सुषुप्तौ कारणाभिमानी प्राज्ञ। सुषुप्तौ कारणात्मना स्थितानि स्थूलसूक्ष्मशरीरजन्यभोगसाधन प्रारब्धकर्मवशेन पुरीराद्द्वारा नाडीमार्गेण तत्तद्गोलकानि प्रवि शन्ति इन्द्रियाणि। तदुपरमप्रारब्धोद्बोधे आन्दोलिकाया वि द्यमानो राजा गृहान्तरे सोपानभागद्वारा प्रासादे विहृत्य तदवच्छिन्नान्त पुरपर्यङ्के शयान इव नाडीद्वारा पुरीतत्प्रविश्य तदवच्छिन्नहृदयोपाधिक परमात्मान यदा प्रविशति तदा सुप्त इत्युच्यते। लिङ्गशरीर कारणात्मना लीयत। तदा प्राणा दिवायव प्रलीनवृत्तय सन्त आयु स्वरूपेण शरीर रक्षन्ति। तथा च भाविजाग्रत्स्वप्नभोगानुकूलकर्मानुबन्धप्राणधारण सुषुप्तौ सोपाधिकचैतन्यस्यैव दृश्यते। तत्सत्तया च नाडीना प्राणसचारयोग्यतापि। एव च सति ‘न प्राणेन नापानेन मर्त्यो जीवति कश्चन। इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ’ इति श्रुत्या ‘जीव प्राणधारणे’ इति धातुपाठाञ्चप्राण नाडीशब्दस्य लक्षणया परमात्मैवोच्यते। कामेश्वरस्यैव प्रारब्धकर्मजन्यशरीरमात्राभावेऽपि घृतकाठिन्यन्यायेन मूर्ति मत्तया तदन्तर्यामिसभावनया एतन्नाम। कामेश्वरस्य प्राण नाडी तदधिष्ठानचैतन्यमिति फलितोऽर्थ॥ ॐ कामेश्वर प्राणनाड्यै नम॥
कामशोत्सगवासिनी। कामेशस्य उत्सगे वामाङ्के वसती ति तथा। ‘अनेकमन्मथाकारकामेशोत्सगवासिनी’ इति ललितातापनीये॥ ॐ कामेशोत्सगवासिन्यै नमः॥
कामेश्वरालिङ्गिताङ्गी। तेन आलिङ्गितम् अङ्गीकृतम् अङ्ग यस्यासा तथा॥ॐ कामेश्वरालिङ्गिताङ्ग्यै नम॥
कामेश्वरसुखप्रदा। कामेश्वराय सुख प्रददातीति वा। कामेश्वरस्य यत्सुख ब्रह्मस्वरूपसच्चिदानन्दसाक्षात्कारात्म कम, ‘दवो भूत्वा देवानप्येति’ इति श्रुत्युक्तन्यायात् स्व कीयभक्ताना कामेश्वराभेदरूप सच्चिदानन्दघनात्मक मोक्ष ददातीत्यर्थ॥ ॐ कामेश्वरसुखप्रदायै नम॥
कामेश्वरप्रणयिनी कामेश्वरविलासिनी।
कामेश्वरतप सिद्धिकामेश्वरमनप्रिया॥
कामेश्वरप्रणयिनी। कामेश्वरस्य स्वस्वरूपे परमानन्दघने या प्रीति तद्विषयभूतेत्यर्थ॥ ॐ कामेश्वरप्रणयिन्यै नम॥
कामेश्वरविलासिनी। कामेश्वरस्य विलास कार्यात्मना विवर्तोऽस्या अस्तीति तथा॥ ॐ कामेश्वरविलासिन्यै नमः॥
कामेश्वरतप सिद्धि। कामेश्वरस्य तप जगदालोचना त्मकम, सिध्यत्यनयेति सिद्धि, तपस साधनभूतेत्यर्थ। स्त्रीपुरुषात्मना कल्पितभेदवशात् जगत्सर्जनसाधनभूतत्यर्थ॥ ॐ कामेश्वरतप सिद्धयै नमः॥
कामेश्वरमन प्रिया। मनस प्रिया तथा, निरवधिकप्रेमास्पदत्यर्थ॥ ॐ कामेश्वरमनःप्रियायै नम॥
कामेश्वरप्राणनाथा कामेश्वरविमोहिनी।
कामेश्वरब्रह्मविद्या कामेश्वरगृहेश्वरी॥
कामेश्वरप्राणनाथा। कामेश्वरस्यप्राण हिरण्यगभ त नाथयति पालयतीति तथा। कामेश्वर प्राणनाथो वल्लभो यस्या सेति वा तथा॥ ॐ कामेश्वरप्राणनाथायै नम॥
कामेश्वरविमोहिनी। विमोहयति स्वय भिन्नविग्रहवती सती आवा दपती— इति द्विप्रकारकज्ञानवन्त करोतीति सा तथा। अभेदज्ञानवत तद्विपरीतज्ञानवत्त्व मोह तत्करोती ति सा तथा। अथवा, मोहो नाम बुद्धेरेकालम्बनतया तदन्याविषयकत्वम् परमेश्वरस्य स्वस्वरूपपरदेवतापरमानन्द साक्षात्कारेण स्थाणुवन्निश्चलतया उपचारेण मोहवत्तया तदि तरप्रपञ्चाकारकृत्याद्याश्रयतादर्शनेन मोहयतीत्युपचारनाम। मोहयतीत्यर्थ। अन्त पुरगत राजान स्त्रियासक्तमितिव दित्यर्थ॥ ॐ कामेश्वरविमोहिन्यै नम॥
कामश्वरब्रह्मविद्या। कामेश्वरस्य तत्त्वपदार्थसाक्षात्कार भूतेत्यर्थ, ‘य साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म’ इति श्रुते॥ ॐ कामेश्वरब्रह्मविद्यायै नम॥
कामेश्वरगृहेश्वरी। गृह्यत इति ग्रह सर्वज्ञानम् तस्य ईश्व री विषयाधिष्ठानभूतत्वेन नियामिकेत्यर्थ। अथवा, ‘गृहिणी गृहमुच्यते’ इति न्यायात् कामेश्वर गृहेश्वर स्वस्या अ धिपति अस्या अस्तीति सा तथा॥ कामेश्वरगृहेश्वर्यै नम॥
कामेश्वराह्लादकरी कामेश्वरमहेश्वरी।
कामेश्वरी कामकोटिनिलया काङ्क्षितार्थदा॥
कामेश्वराह्लादकरी। आह्लाद तृप्तिजन्यसुख परमेश्वरस्य नित्यतृप्तत्वरूपा शक्ति, परदेवतात्मकतया त करोतीति तथा॥ ॐ कामेश्वराह्लादकर्यै नम॥
कामश्वरमहेश्वरी। महती च मा इश्वरी निरुपाधिकैश्व र्यवती, ‘महाप्रभुर्वै पुरुष’ इति श्रुते। कामेश्वरम्य मह दैश्वर्यम् अस्या अस्तीति तथा, भगवतीत्यर्थ। ‘ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशस श्रिय। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णा भग इतीरणा’ तमीश्वराणा परम महेश्वरम’ इति श्रुते॥ ॐ कामेश्वरमहेश्वर्यै नमः॥
कामेश्वरी। मन्मथापासितकादिविद्यारूपेत्यर्थ॥ ॐ कामेश्वर्यै नमः॥
कामकोटिनिलया। षण्णवतिपीठेषु मध्य कामकाटि श्रीचक्रमित्यर्थ। निलय गृह यस्या सा तथा॥ ॐ कामकोटिनिलयायै नमः॥
काङ्क्षितार्थदा। काङ्क्षितान् काङ्क्षाविषयीभूतान्‚ प्राप्तम जातीयेच्छा काङ्क्षा, तद्गोचरान् पदार्थान् ददातीति तथा। काङ्क्षिता सती उपास्यदेवता मे प्रसन्ना भूयादितीच्छयाचिरकालोपासिता सती पुरुषार्थान् अप्रार्थयमानस्यापि स्वयमेव ददातीत्यर्थ॥ ॐ काङ्क्षितार्थदायै नम॥
लकारिणी लब्धरूपा लब्धधीर्लब्धवाञ्छिता।
लब्धपापमनोदूरा लब्धाहकारदुर्गमा॥
लकारिणी तृतीयखण्डतृतीयवर्णत्वेन वाचकतया अस्याअस्तीति सा तथा॥ॐ लकारिण्यै नम॥
लब्धरूपा। रूप्यते ज्ञाप्यत एभिरिति रूपाणि लक्षणा नि स्वरूपतटस्थभेदेन सगुणनिर्गुणपराणि, लब्धानि यया सा तथा। रूप्यते ज्ञाप्यत इति रूपम् अर्थ‚ उपलक्षण नाम्नो sपि, लब्धे नामरूपे यया सा तथा। आदौ स्वय मायोपा धिना शब्दार्थभावमापद्य पश्चात् व्याकरणमकरोदिति भा व॥ ॐ लब्धरूपायै नम॥
लब्धधी। निश्चयात्मिका सविकल्पनामका अन्त कर णवृत्तयो धिय, ता उपाधित्वेन प्रतिबिम्बाधिष्ठानत्वेन लब्धा यया सा तथा। वृत्त्यारूढ चैतन्य ज्ञानमिति वा, चैतन्यव्याप्ता वृत्तिर्वेति वेदान्तसिद्धान्त। जडाना विषयाणा ग्रहणे तादृशीना वृत्तीना असामर्थ्ये जगदान्ध्यप्रसङ्गेन स्वरूपचै तन्यमन्त करणाद्युपहित फलचैतन्यतया प्रकाशयति। तथा च ‘ब्रह्मण्यज्ञाननाशाय वृत्तिव्याप्तिरिहेष्यते’ इति न्यायेन लब्धा धी तत्त्वमस्यादिमहावाक्यश्रवणजन्यवृत्तिव्याप्तिर्यया सत्यर्थ। अथवा, धी शब्दन सर्वज्ञत्वादिकमुच्यते, तत् लब्ध ययेति वा, ‘य सर्वज्ञ सर्ववित्’इति श्रुत॥ ॐलब्धधिये नम॥
लब्धवाञ्छिता। वाञ्छाया विषयीभूत वाञ्छतम् इष्टफ लमित्यर्थ। लब्ध पूर्वमव प्राप्त तद्ययेति तथा। आप्तकामेति यावत्॥ ॐ लब्धवाञ्छितायै नम॥
लब्धपापमनोदूरा। पापप्रधानानि च तानि मनासि च पापमनासि लब्धानि पापमनासि यैस्ते सदा पापचिन्तका इत्यर्थ। तषादूरा अवेद्येत्यर्थ, ‘अन्यत्र धर्मादन्यत्राध र्मादन्यत्रास्मात्कृताकृतात् इति श्रुते। ‘तमेत वेदानुवच नेनब्राह्मणा विविदिषन्ति ‘इति श्रुत्या विहिताना तत्तद्वर्णाश्रमधर्माणामीश्वरार्पणबुद्ध्या क्रियमाणानामात्मज्ञानमाधन तया श्रूयमाणत्वात् तदन्येषा दु खप्राप्तिसाधनत्वेन पापवा सनाप्रधानत्वेन दुरधिगमेत्यर्थ॥ ॐ लब्धपापमनोदू रायै नमः॥
लब्धाहकारदुर्गमा। अहकारोऽभिमान उपलक्षण त त्कार्याणामासुरसपत्तिविशेषाणाम्। लब्ध अहकार राजस तामसात्मक यैस्त दुखेनाप्यधिकप्रयत्नेन क्रियमाणसाध नकलापेन अधिगन्तु ज्ञातुमशक्या। सत्त्वगुणाभावे देहेन्द्रियादौ सुखप्रकाशाव्याप्तौ मन स्थैर्याभावेन रजस प्रवर्त कस्य विक्षेपकस्य तमसश्चावरणप्रधानस्य विवेकज्ञानप्रतिब न्धकस्य निद्रालस्यादिसमुद्भवस्य कार्येण जामित्वादिरूपेण श्रेयोमागसाधनानुष्ठाने गुरुवेदयो श्रद्धाक्षये बाह्यविषयस पादनव्यग्रमनसि लाभालाभहेतुकहर्षशोकजन्यरागद्वेषपर तन्त्रे अनात्मज्ञासुरसपत्तिमता चित्ते न भातीत्याशय। प्रत्युत जननमरणप्रवाहरूपससारमेवानुभवन्ति, ‘तानह द्विषत क्रूरान्’ इति भगवद्वचनात्। अतो निरभिमानपुरु षेण स्वाभीष्टलाभाय चित्त सदा चिन्तनीयेत्यर्थ। यतय शुद्धसत्त्वा ‘इत्यादिप्रमाणेभ्य इति द्रष्टव्यम्॥ ॐ लब्धा हकारदुर्गमायै नम॥
लब्धशक्तिर्लब्धदेहा लब्धैश्वर्यसमुन्नति।
लब्धवृद्धिर्लब्धलीला लब्धयौवनशालिनी॥
लब्धशक्ति। लब्धा शक्ति सकलसामर्थ्यहेतुभूता मा यात्मिका यया सा तथा, ‘ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन् देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्’ इति श्रुते॥ ॐ लब्धश क्त्यै नम॥
लब्धदेहा। लब्ध देह विग्रह यया सा तथा। स्वेच्छावलम्बितमूर्ति घृतकाठिन्यन्यायेन जीवत्वाभावेन कर्मा धीनत्वाभावात्। तथा च सति अध्यस्तमायाशक्ते भेदक त्वस्वाभाव्य ‘पतिश्च पत्नी चाभवताम्’ इति श्रुत्या च दपतिमूर्तिमतीबभूवेत्यभिप्राय॥ ॐ लब्धदेहायै नम॥
लब्धैश्वयसमुन्नति। ऐश्वर्याणा समुन्नति आधिक्य प यवसानमित्यर्थ, लब्धा ऐश्वर्यसमुन्नति यया सा तथा, ‘तमीश्वराणा परम महश्वरम्’ इति श्रते ‘नान्तोऽस्ति मम दिव्याना विभूतीना परतप’ इति स्मृतेश्च। ‘सर्वे श्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनि सर्वस्य’ इति श्रुतौ निरुपाधिकमहदैश्वर्यसपत्ते तदुपासकानामगस्त्यादि महर्षीणा दर्शनात् तदीयमहदैश्वर्यस्य निरवधिकत्वमिति किमु वक्तव्यमिति ज्ञायते इत्यभिप्राय॥ ॐ लब्धैश्वर्यसम्मुन्नत्यै नम॥
लब्धवृद्धि। वृद्धिर्नाम व्याप्ति परिपूर्णतेत्यथ‚ अव यवोपचयात्मका न, तस्या कर्मजन्यत्वेन विनाशहेतुत्वात्, ‘स वा एष महानज आत्मा न वर्धते कमणा’ इति श्रुतिवचनात्‚ ‘निष्क्रिय निष्कलम्’ इति अवयवमात्रनिषेधाच्च,तथा च लब्धा वृद्धि सर्वव्यापकता स्वस्वरूपैव सती उपाधिभिर्जन्यैस्तदाश्रयभूतै अभिव्यभ्यत। नत्वविद्यमानारोपिता इति निष्कर्षार्थ॥ ॐ लब्धवृद्धयै नम॥
लब्धलीला। लीला अन्यप्रयोजनार्थव्यापारा स्वहर्ष मात्रहेतुका वा तत्तत्कालोचितशृङ्गारादिनवरसाङ्गीकारसमये तदुचितभङ्गीविशेषा वा लब्धा यया सा तथा॥ ॐ लब्धलीलायै नम॥
लब्धयौवनशालिनी। अस्तित्वजननवर्धनभावविकारा वस्था बाल्यम्, परिणाम अपक्षयो नाश उत्तरावस्था जरा, दहाभावेन तदुभयनिषेधे अर्थाद्यौवनम्‚ यौति गच्छतीति युवा दृढबलवीर्य, तस्य भाव यौवन तदुभ यवयोऽवस्थाराहित्येनैकस्वरूपता, तल्लब्ध प्राप्त यौवन यया सा तथा, ‘अजरोऽमृतोऽभयो ब्रह्म’ इति श्रुते सर्वदा एकप्रकारस्वरूपवतीति भाव॥ ॐ लब्धयौवनशालिन्यै नमः॥
लब्धातिशयसर्वाङ्गसौन्दर्या लब्धविभ्रमा।
लब्धरागा लब्धपतिर्लब्धनानागमस्थितिः॥
लब्धातिशयसर्वाङ्गसौन्दर्या। सुन्दरो रुचिर तस्य भाव सौन्दर्यम्‚ अवयवाना सर्वेषा सौन्दर्यमतिशायि सर्वाङ्गेषु सर्वावयवेषु लब्ध यया सा तथा, यथाशास्त्रोक्ता वयवविन्यासविशेषत्वन सर्वमनाहरमूर्तिवतीत्यर्थ‚‘न तस्यप्रतिमास्ति’ इति श्रुत॥ ॐ लब्धातिशयसर्वाङ्गसौ न्दर्यायै नम॥
लब्धविभ्रमा। विभ्रमो बालक्रीडा लब्धा यया सा तथा, सर्वात्मकतया सर्वकर्तृत्वादिति भाव॥ ॐ लब्ध विभ्रमायै नम॥
लब्धरागा। लब्ध सजातीयो राग काम, ‘सोऽकामयत’ इति श्रुत्या जगत्सर्जनस्य कामनापूर्वकत्वप्रतिपाद नात्‚ लब्धो रागो यया मा तथा इत्यर्थ॥ ॐ लब्धरा गायै नम॥
लब्धपति। लब्ध स्वेच्छयैव स्वयवरे पति कामेश्वरो यया सा तथा॥ ॐ लब्धपतये नमः॥
लब्धनानागमस्थितिति। आ समतात् नानाप्रकारैकर्मोपासनाज्ञानकाण्डतदङ्गत्वादिभि गमयन्ति स्वार्थान् प्रका शयन्तीत्यागमा वेदा नाना अनेकशाखाप्रभिन्नसामादय तेषा स्थिति परिपालन लब्धा यया सा तथा। नाना गमस्थिति वेदचतुष्टयोक्तमर्यादा काण्डत्रयविषया लब्धा यया सेति वा। ससारस्यानादित्वेन निरपेक्षप्रमाणभूतान् वेदान् ‘सर्वे वदा यत्रैक भवन्ति’ इति श्रुते स्वस्वरूपभूतान्महाप्रलये सरक्ष्य सर्गादौ जायमानहिरण्यगर्भस्यान्यूनानति रेकेण तानेव प्रतिभासयति स्वय दपती भूत्वा तदुक्तधर्मा ननुष्ठाय परेषामप्यनुष्ठापयतीति च। ‘वेदशास्त्रे ममैवाज्ञे वर्त एव च कर्मणि। यदि ह्यह न वर्तेय जातु कर्मण्यतन्द्रि त। उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्योकर्म चेदहम्’ इत्यादि भगवद्वचनादिति द्रष्टव्यम्॥ ॐ लब्धनानागमस्थित्यै नम॥
लब्धभोगा लब्धसुखा लब्धहर्षाभिपूजिता।
ह्रींकारमूर्तिर्ह्रींकारसौधशृङ्गकपोतिका॥५४॥
लब्धभोगा। भोग सुखमात्रानुभव दु खानुभवेउच्य माने जीवाविशेषप्रसङ्गात्। लब्ध भोग यया सा तथा। जीववत् क्रमिकस्वेष्टपदार्थानुभवानन्तरकालीन सुख न भव ति, स्वस्याआनन्दरूपत्वेन सिद्धस्वरूपत्वात्‚ साधनभूतभोगोऽप्येतद्विषये सिद्ध इत्युपचर्यते इति लब्धभोगेत्सु च्यते॥ ॐ लब्धभोगायै नम॥
लब्धसुखा। लब्ध सुख अनुकूलवेदनीय स्वस्वरूपभूत सुख तत्साधन च धर्म यया सा तथा॥ ॐ लब्धसु स्वायै नम॥
लब्धहषाभिपूरिता। लब्ध या हर्ष तृप्तिनिमित्तकचि त्तोल्लासविशेष मुखप्रसादशरीरपुष्ट्यादिकार्योन्नेय जगत्या स्वाभीष्टपदार्थानुभवादिजन्य सतोष इति प्रसिद्ध, तेनाभि पूरिता अभित समन्तादन्यूनानतिरेकेणाविच्छिन्नरूपतया पूरिता भरिता। तद्विपरीतदु खाद्यनुत्पादेन तन्मात्रसमाश्रया नित्यप्रसन्नमुखीत्यर्थ॥ ॐ लब्धहर्षाभिपूरितायै नमः॥
ह्रींकारमूर्ति। वाच्यवाचकताभेदसबन्धेन ह्रींकार मूर्ति विग्रहो यस्या सा तथा॥ ॐ ह्रीकारमूर्त्यै नम॥
ह्रींकारसौधश्रृङ्गकपोतिका। सुधामय सौधम, सुधाविकार अट्टालिकेत्यर्थ, तस्य शृङ्ग शिखर चन्द्रशालादिभित्त्युपरिभाग, निरुपाधिकविश्रान्तिजन्यसुखानुभवहेतु तयाह्रींकारस्यसौधोपमा, तत्र हकारस्य श्वेतवर्णतया अट्टालिकसादृश्यम्,रेफस्य लोहितरूपतया इष्टकादिकृता धोभित्त्युपमा, हकारोपरि ईकारस्य शृङ्गोपमा, ऊर्ध्वगत्वसाम्यात्, तदुपरितनबिन्दु सर्वप्रकृतिभूतशब्दार्थात्मकतया तदवयवत्वेन विचित्रस्वरूपोऽपि सूक्ष्मतया अपवरकगतकपोतकान्तेवजागरूक दृश्यत इति तदर्थत्वेन परद वतोपमानशब्देनाभिधीयत इति भाव॥ ॐ ह्रींकारसौधशृङ्गकपोतिकायै नमः॥
ह्रींकारदुग्धाब्धिसुधा ह्रींकारकमलेन्दिरा।
ह्रींकारमणिदीपार्चिर्ह्रींकारतरुशारिका॥
ह्रींकारदुग्धाब्धिसुधा। दोहान्निष्पन्न दुग्धम्। स्तनग तस्य पयस स्वीयतापादनहस्तक्रियाविशेषो दोह। उपल क्षण चोषणादीनाम्, तथा च प्रदीपालकार सिद्ध, अनन्तो दकप्रसारितनिम्नभूप्रदेश अब्धिरुच्यते। आप धीयते अस्मिन्निति तथा। तस्मिन् सजीवकत्व धर्म। डिम्भक सजीवनेस्तन्यादौ दर्शनात्। ह्रींकारस्यापि हकारयुक्ततया श्वेतवर्णत्वादमृतहेतोश्च तत्सादृश्यम्। तस्य सुधेव सुधा तदभिव्यक्तत्वाविशेषात्तत्सेवकाना नित्यत्वे सति बहुविधम हिमशालितया दर्शनादिति भाव॥ ॐ ह्रींकारदुग्धाब्धि सुधायै नमः॥
ह्रींकारकमलेन्दिरा। ह्रींकारबीजस्य विचित्रवर्णतया पर मप्रीतिविषयतया च कमलोपमा। तस्यवाच्यार्थतया तदु परितनत्वेन सर्वपुरुषार्थप्रदातृत्वाच्च कमलशब्देनाभिधीयते। तस्या पद्मालयत्वात् ह्रींकारकमलस्य इन्दिरा तदधीनब्रह्मविद्येत्यर्थ॥ॐ ह्रींकारकमलेन्दिरायै नमः॥
ह्रींकारमणिदीपार्चि। आधिदैविकाद्युपद्रवानभिभूतत्वसति चिरकालावस्थायित्व मणिदीपसादृश्यम्ह्रींकारस्य। तस्य प्रकाश अनितरसाधारणमहातिशयवत्त्वेन अनर्घत्व मावेदयति। तदुपासकस्य निरवधिकमहत्त्वापादकह्रींकार वाच्यतया तत्प्रकाशकेत्यर्थ। तथा च निरन्तरतमोऽपाकर णेन स्वेष्टपदार्थापादनेन च सुखयतीति फलितोऽर्थ॥ ॐ ह्रींकारमणिदीपार्चिषे नम॥
ह्रींकारतरुशारिका। तारयति फलार्थिन स्वारूढान् पतनादे रक्षतीति तरु, तस्य शारिका पिङ्गतुण्डनेत्रचरणा शारिका अभ्यासातिशयेन मनुष्यभाषायामपि भाषते। भूतभविष्यद्वर्तमानलोकयात्रापरिज्ञात्री सती शुभाशुभफल प्राप्तिं च स्वभाषया वदति। अस्य बीजस्य वाच्यार्थतया तत्सबन्धिनी सती वेदवाचा सर्व प्रकाशयतीत्यर्थ॥ ॐ ह्रींकारतरुशारिकायै नम॥
ह्रींकारपेटकमणिर्ह्रींकारादर्शबिम्बिता।
ह्रींकारकोशासिलता ह्रींकारास्थाननर्तकी॥
ह्रींकारपेटकमणि। गूहनसाधनतया ह्रींकार पेटकेन दृष्टान्तीक्रियते। तस्य मणि वैडूर्यमित्यर्थ। यथा हीरा दिमणि पेटकादौ गापितोऽपि स्वकान्त्या बाह्याभ्यन्तर तस्य प्रकाशयन्नितरपेटकेभ्य त व्यावर्तयति, तथेदमपि बीज स्ववाचकतयेतरवर्णेभ्य निरतिशयमहिम्ना भेदयतीति भाव॥ ॐ ह्रींकारपेटकमणये नमः॥
ह्रींकारादर्शबिम्बिता। अस्य बीजस्य इतरप्रमाणानपेक्ष वेदान्तर्गततया निर्दोषत्वादादशसाम्यम्। तस्मिन् बिम्बिता प्रतिबिम्बिता, मायाप्रतिबिम्बचैतन्यस्यैव जगत्कारणतया सर्वत्र दर्पणे मुखमिव प्रतिफलतीति तात्पर्यार्थ॥ॐह्रींकारादर्शबिम्बितायै नमः॥
ह्रींकारकोशासिलता। ह्रींकार एव कोश तस्यासिलता अतिदीर्घखड्गमित्यथ। सर्ववैर्यादिजन्यदु खविवर्तकत्वमसि लताया इव परदेवताया अपि। तथात्वेन बहि प्रकटनायो ग्यतासादृश्येन आच्छादकापेक्षया ह्रींकारस्य वाचकशब्द तया अर्थावारकत्वौपम्यादसिकोशतुल्यता। तथा च ह्रींकार काशे विद्यमाना असिलतेव दु खनिवारकत्वे सति भक्ताभयकरीति भाव। सर्वेषामायुधविशेषाणाम् असिपदमुपलक्ष णम्। ‘महद्भय वज्रमुद्यतम्’ ‘भीषास्माद्वात पवते’ इत्या दिश्रुते॥ॐ ह्रींकारकोशासिलतायै नमः॥
ह्रींकारास्थाननतकी। ह्रींकार एव आस्थान सभामण्डप सर्वाश्रयत्वात्। तस्य नतकी नटनसबन्धभूसयोगचरणवि न्यासोपलक्षिततालानुसारिहस्ताद्यङ्गचेष्टा नर्तनम्, तत्कर्त्री नर्तकी। ह्रींकारवाच्यार्थतया मायादिसबन्धासबन्धनिमित्त कविचित्रतरकार्योत्पादनव्यापारानुकारविकार्यविकारिस्वरूप वत्तया द्रष्टृलोकमनोवृत्तिभेदेन तीव्रमन्दमन्दतरप्रीतिरूपभ क्तिविषयतयाभिव्यक्तानभिव्यक्तेष्टफलसाधनतया स्वकीयपुण्यादितारतम्येन बुद्धिशुद्धिभेदात्प्रतिभातीत्यर्थ॥ ॐ ह्रीं कारास्थाननर्तक्यै नम॥
ह्रींकारशुक्तिकामुक्तामणिर्ह्रींकारबाधिता।
ह्रींकारमयसौवर्णस्तम्भविद्रुमपुत्रिका॥
ह्रींकारशुक्तिकामुक्तामणि। ह्रींकार एव शुक्तिका नील पृष्ठत्रिकोणाकारा, तस्या मुक्तिकेव मुक्ताफलामवाभिव्यज्यमाना—यथा स्वातीमहानक्षत्र सर्वदेशेषु मघसघात्पतज्जल बिन्दु शुक्तिकान्त पतित समुद्रदेशविशेषे मुक्ताकारेण परिणमते, तथा सत्वरजस्तमोगुणात्मकह्रीबीजावच्छेदेन म नोहरवाचामगोचरसुन्दरतरपरदेवतामूर्त्या सर्वगतमपि चैतन्य विशिष्याभिव्यज्यते। तथा च मौक्तिकार्थिना शुक्त्यु पादानवत् परदेवतासाक्षात्कारेप्सूना ह्रींकारोपादानमाव श्यकमिति भाव॥ ॐ ह्रींकारशुक्तिकामुक्तामणये नमः॥
ह्रींकारबोधिता। सिद्धे पदार्थे इन्द्रियादिसबन्धे सति स्वत एव ज्ञानोत्पत्तिदर्शनान्न ज्ञाने विधिरपेक्षित, क्रियाफलत्वाभावात्। तर्हि नित्यापरोक्षधर्मादिज्ञानवत् शुद्धब्रह्माभेद वेदैकदेशह्रींकारेणैव बोध्यते, अज्ञातज्ञापकत्वेन वदस्य स्वत प्रामाण्याम्युपगमात्, परचैतन्यस्य च ज्ञायमानस्य परमानन्दरूपतया पुरुषार्थरूपत्वात्। अत ह्रींकारेणैव मू लमन्त्रात्मना बोधिता ज्ञापिता। हकाररेफेकाराणा व्यस्तत्व दशाया भिन्नभिन्नार्थकाना मेलने ह्रींकारात्मना परिणामे सच्चिदानन्दस्वरूपश्रीत्रिपुरसुन्दर्या तदर्थत्वेन अद्वैतस्वरूप तयाप्रतिभानात्। ‘नान्योऽतोऽस्ति द्रष्टा’ ‘इद सर्वं यदयमात्मा’ ‘एक एव तु भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थित। एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत्’ इत्यादिश्रुते। आत्मा वा अरे दृष्टव्य’ ‘तद्विजिज्ञासस्व’ ‘आत्मान पश्येत्’ इत्यादिलिङ्लोट्तव्यप्रत्ययानामर्हतार्थकतया न वि धित्वमिति सिद्धान्त। ॐ ह्रींकारबोधितायै नमः॥
ह्रींकारमयसौवर्णस्तम्भविद्रुमपुत्रिका। पिङ्गलपृथ्वीरेणु सुवर्णमित्युच्यते। अनुच्छिद्यमानद्रवत्वस्य नैमित्तिकत्वेऽपि तैजसान्तर प्रदीपप्रभादावदर्शनात्। पदार्थान्तरसयोगे रज तादिवदतितेज सयोगात् भस्मभावापत्तेश्च हीरमणौ लोहले ख्यत्वाभाववत्त्वेऽपि पार्थिवत्ववदत्र पार्थिवत्वे बाधाभावात्। द्रवत्वस्यादकस्वभावत्वन तत्कायपृथिव्यामपि उपलम्भोपप त्तेश्च। तद्विकार, सौवणश्चासौ स्तम्भश्च। सौवर्णस्तम्भस्यनवरत्नमण्डपभारवाहित्वे सति तदभिन्नत्वेन तदलकारभूतत्व स्येव साधर्म्यस्य ह्रींकारेऽपि जगदाश्रयत्वे सति तत्कारणत्वे सति तदन्तर्भूतत्वे सति परमानन्दजनकत्वस्यसत्त्वेन ह्रींका रमय इत्यभेदोपचार प्रदीपालकारद्योतनार्थ इति ज्ञातव्यम्। ह्रींकारे उपमेये मयब्देनोपमानाभेदकल्पनात्। तस्मिन्वि चित्रपिङ्गप्रधानरूपे तत्सबन्धितया विद्रुमपुत्रिकेव प्रतीय माना विद्रुमन प्रवालन कृता पुत्रिका सालभञ्जिका। सौव र्णस्तम्भशब्द उपलक्षण भित्त्यादीनाम्, प्रायस्त्वदर्शनात् तदु पादान स्वत मनोज्ञस्य स्तम्भस्यातिशयदर्शनीयतायै। दुर्ल भतरप्रवालपुत्रिका स्तम्भमण्टप तत्स्वामिन तद्दश च प्रकृ ष्टीकरोति तथा श्रीपरदेवतापि रूढ्यैतद्बीजाथतया तदव च्छिन्ना सती तदादीन्सर्वान्भूषयति सफलीकरातीत्यथ॥ ॐ ह्रींकारमयसौवर्णस्तम्भविद्रुमपुत्रिकायै नमः॥
ह्रींकारवेदोपनिषद्ध्रींकाराध्वरदक्षिणा।
ह्रींकारनन्दनारामनवकल्पकवल्लरी॥८७॥
ह्रींकारवेदोपनिषत्। वेद्यन्ते ज्ञायन्ते सर्वे पदार्था अनेनेति वेद। जात्येकवचनम्। ह्रींकार एव वद। ज्ञापकत्वाविशेषात्। तस्य उपनिषद्वेदान्तभाग लक्ष्यार्थो वा, तत् ब्रह्मोपनिषत्परमिति श्रुत। कर्मोपासनाज्ञानकाण्डभेदेन चत्वाराऽपि वेदा त्रिप्रकारा। ‘तमेत वदानुव चनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति’ इति वाक्येन ज्ञानसाधनतया कर्मोपासनयो विनियुक्तत्वात्, ‘अन्धतम प्रविशन्ति ये ऽविद्यामुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायारता’ इति श्रुत्या तदुभयो ससारफलकत्वेन निन्दितत्वाच्च, ‘आत्मान चेद्विजानीयादयमस्मीति पुरुष। किमिच्छन् क स्य कामाय शरीरमनुसज्वरेत्’ ‘आत्मकाम आप्तकाम’ इत्यादिश्रुतिभ्य अद्वैतज्ञानोत्पादकवेदभागस्योपनिषच्छब्द वाच्यस्य मोक्षफलकत्वेन फलप्रतिपादनात्तदुभयप्रतिपादक वदभागापेक्षा श्रेष्ठत्वम्, लाके साधनापेक्षया फलस्य श्रष्ठत्व नात्तमत्वप्रसिद्धे। तथा च पूर्वकाण्डद्वयार्थस्य जन्यतया तत्प्रतिपादकवेदभागस्योपनिषच्छेषत्ववत् ह्रींकारस्यापि परदेवताप्रकाशकत्वेन तच्छेषत्वात्तस्या प्राधान्यमुक्तमिति द्रष्ट व्यम्। वेदान्तेषूपनिषच्छब्दतज्जन्यतारूपशक्यसबन्धेन प्र वर्तते। मुख्यया वृत्त्या तु ब्रह्मविद्यायामेव। तथा हि— उपशब्द समीपदेशार्थक। ब्रह्मण्यभ्यस्तमायासमीपदेशक तत्पदार्थप्रतिबिम्बितमविद्योपाधिकचैतन्य जीवशब्दवाच्यमुप शब्दार्थ लक्षणया प्रतिपाद्यते। नि शब्द षद् इति पदस्य विशेषणम्। सत इति पद सदनगत्यवसादनेषु भवति। तथा च उपशब्दवाच्यो जीव अविद्या निहत्य त्यक्त्वा ब्रह्मस्वरूपेण निषीदति वर्तत इति उपनिषदित्येकोऽर्थ। जीव ब्रह्म स्वरूपत्वेन निगच्छति जानातीत्यन्योऽर्थ। जीव ब्रह्मस्वरूपेण अवसीदति परिसमाप्नोतीति तृतीयोऽथ। एवमुपनिषच्छब्दस्य ब्रह्मविद्यावाचकत्वेन प्रसिद्धस्य तद्वाच कवेदभागे लक्षणवत्त्वेऽप्युपनिषच्छब्दवाच्यो भवति। तथा च ह्रींकार एव वेद तस्य उपनिषत्प्रधानभूता ब्रह्मविद्ये त्यर्थ। ॐ ह्रींकारवेदोपनिषदे नम॥
ह्रींकाराध्वरदक्षिणा। ह्रींकार एव अध्वर यज्ञ तस्य दक्षिणा समाप्तिसाधनम्, दक्षिणाया दत्ताया यज्ञसमाप्ति दर्शनात्। ह्रींकारस्यापि जप यजनात्मकतया अध्वान राति गच्छतीत्यध्वर मार्गसाधक इत्यर्थ। दक्षिणापद फलवाचि ऋत्विग्व्यापाराणा दक्षिणाफलत्वदर्शनात्। ह्रीं काराध्वरस्य ह्रींकारजपयज्ञस्य दक्षिणा फलसाधनीभूतपुरु षार्थरूपा। अथवा ह्रींकाराध्वरस्य दक्षिणा पत्नी, ‘मखस्य दक्षिणा पत्नी’ इति वचनात्। ‘ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट स्या मिति मे मति’ इति भगवद्वचनात्। ह्रींकारलक्ष्यार्थज्ञानमेव ह्रींकाराध्वर ह्रींकारज्ञानयज्ञ, ‘प्रधान दक्षिणा मखे’ इति वचनात् दक्षिणावत्फलभूतत्वेन प्रधानभूतेति वा। दे वतोद्दशेन द्रव्यत्यागो याग इत्युच्यते। त्यक्तद्रव्यस्य अग्नौ प्रक्षेपा होम। ऋत्विगुद्देशन वद्यामथविभागो दक्षिणा। अर्थिभ्य वेदिबहिर्देशेऽर्थविभागो दानमिति तेषा भेद॥ ॐ ह्रींकाराध्वरदक्षिणायै नम॥
ह्रींकारनन्दनारामनवकल्पकवल्लरी। नन्दयत्यानन्दयती ति नन्दन स चासौ आरामश्च तथा। देवेन्द्रोद्यान विचि त्रस्वरूपतया विजातीयार्थकत्वात्। ह्रींकार एव नन्दना राम सुखकर्तृविश्रामभूमि, तस्य नवा नूतना अतिकोमले त्यर्थ। कल्पयतीति कल्पका कल्पका च सा वल्लरी चेति तथा। देवोद्याने विद्यमानाना वृक्षगुल्मलतातृणादीनाम् एतल्लोकातिशायिपुष्पफलादिमत्त्वेऽपि न सर्वोत्तमताप्रसिद्धि। कल्पवल्ल्यास्तु यथाकर्म यथासेवमुपासकना सर्वार्थप्रदानशक्तिमत्वेन सर्वोत्कृष्टता। तथा ब्रह्मविष्णुरुद्राणा तद्वाचकवर्णभेदानाम् अन्योन्यसबन्धतया एकत्र प्रतीयमा नत्वेन चिरजीवित्वफलादिप्रदानेन आनन्दकतया ससारता पशामकत्वेन च ह्रींकारस्य नन्दनापमा। तत्र सर्वाथप्रदा तृत्वेन कामेश्वरालिङ्गितकोमलतरसुन्दरमूत्या विशिष्टपुरुषा र्थचतुष्टयकल्पनन सगुणनिर्गुणोपासकाना तद्दवतात्मना प्रा धान्येन समष्टिरूपतया सादृश्येन नवकल्पकवल्लरीत्युच्यत इति भाव॥ ॐ हीकारनन्दनारामनवकल्पकवल्लयै नम॥
ह्रींकारहिमवद्गङ्गा ह्रींकारार्णवकौस्तुभा।
ह्रींकारमन्त्रसर्वस्वा ह्रींकारपरसौख्यदा॥
ह्रींकारहिमवद्गङ्गा। हिमान्यस्मिन् सन्तीति हिमवान् शीतलपर्वतराज। ह्रींकारस्य अमृतादिसाधकतया शीत लता बोध्या। तस्माद्गङ्गेव पावनी सर्वपुरुषार्थप्रदा मन्त्रदवतात्मनाभिव्यक्तेत्यर्थ॥ ॐ ह्रींकारहिमवद्गङ्गायै नमः॥
ह्रींकारार्णवकौस्तुभा। कौस्तुभ क्षीराब्धिजन्मसु चतु र्दशरत्नेषु यथा श्रेष्ठ सर्वाधिकप्रकाशादिगुणतया, तथा पर देवतापि अपारमहिमापरिच्छिन्नह्रींकारमन्त्रवेद्यत्वेन तन्नि ष्पन्ना सती ‘अत्राय पुरुष स्वय ज्योति’ इति श्रुते स्वय प्रकाशतया विद्योतत इत्यर्थ। अत्र कौस्तुभहृदयस्य लक्ष्मी पतित्वसर्वदेवोत्तमत्वसकलसुन्दरतमत्वगुणा इव विष्णो ह्रीं कारार्णवविद्योतमानह्रींकारदेवतोपासकस्यापि नारायणाभेदेन श्रीकान्तत्वादिधर्मा स्वत एव सिध्यन्तीति कौस्तुभपदन ध्वनितमिति द्रष्टव्यम्॥ ॐ ह्रींकारार्णवकौस्तुभायै नम॥
ह्रींकारमन्त्रसर्वस्वा।सर्वाणि च तानि स्वानि च धना नि अणिमाद्यष्टैश्वर्यजनकत्वादीनि तानि तथा। ह्रींकारघटि ता ह्रींकारो वा तेषा सर्वस्वा सकलसपत् सर्वार्थसाधकश क्तिरित्यर्थ॥ ॐ ह्रीकारमन्त्रसर्वस्वायै नमः॥
ह्रींकारपरसौख्यदा। ह्रींकारपरा ह्रींकारमन्त्रजपपरा ह्रींकारघटितश्रीविद्याजपपरा वा। तेषा सौख्य चतुर्विधपुरु षार्थप्राप्तिजन्यानन्द तद्ददातीति तथा। ह्रींकाराणा व्यष्टि रूपण वाच्यार्थना त्रिमूर्तीना पर सौख्य सामरस्यसुख एकी भावानन्द ददातीति वार्थ। ‘यत्र नान्यत्पश्यति नान्य च्छृणोति नान्यद्विजानाति स भूमा। यत्रान्यत्पश्यत्यन्य च्छृणोत्यन्यद्विजानाति तदल्पम्’ ‘नास्पे सुखमस्ति’ इति, ‘आनन्द ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चन’ इति ‘यदा ह्यवैष एतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयनेऽभय प्रतिष्ठा विन्दते। अथ सोऽभय गतो भवति’, ‘विज्ञानमानन्द ब्रह्म रातिर्दातु परायणम्’ इत्यादिबहुश्रुतिभ्य अखण्डसच्चिदानन्दब्रह्मस्वरूपतया सैव फल भवति, अन्यज्ञानादन्यफल प्राप्तेरयोगात्। ‘ब्रह्म वद ब्रह्मैव भवति’ ‘तरति शोकमा त्मवित्’, ‘येन मामुपयान्ति ते। तषामह समुद्धर्ता मृत्यु ससारसागरात्’ ‘ब्रह्मैव सन्ब्रह्माप्यति’ इत्यादिश्रुतिस्मृ तिशतेभ्य स्वस्वरूपप्राप्तरेव पुरुषार्थस्य प्रदातृत्व सिद्धम्॥ ॐ ह्रींकारपरसौख्यदायै नम॥
इति श्रीमत्परमहसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगव
त्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छकरभगवत कृतौ
श्रीललितात्रिशतीभाष्यम् सपूर्णम्॥
इत्येव ते मयाख्यात देव्या नामशतत्रयम्।
रहस्यातिरहस्यत्वाद्गोपनीय त्वया मुने॥
शिववर्णानि नामानि श्रीदेव्या कथितानि हि।
शक्त्यक्षराणि नामानि कामेशकथितानि च॥
उभयाक्षरनामानि ह्युभाभ्या कथितानि वै।
तदन्यैर्ग्रथित स्तोत्रमेतस्य सदृश किमु॥३॥
नानेन सदृश स्तोत्र श्रीदेवीप्रीतिदायकम्।
लोकत्रयेऽपि कल्याण सभवेन्नात्र सशय॥
इति हयमुखगीत स्तोत्रराज निशम्य
प्रगलितकलुषोऽभूच्चित्तपर्याप्तिमेत्य।
निजगुरुमथ नत्वा कुम्भजन्मा तदुक्त
पुनरधिकरहस्य ज्ञातुमेव जगाद॥५॥
अगस्त्य उवाच—
अश्वानन महाभाग रहस्यमपि मे वद।
शिववर्णानि कान्यत्र शक्तिवर्णानि कानि हि॥
उभयोरपि वर्णानि कानि वा वद देशिक।
इति पृष्ट कुम्भजेन हयग्रीवोऽवदत्पुनः॥७॥
तव गोप्य किमस्तीह साक्षादम्बानुशासनात्।
इद त्वतिरहस्य ते वक्ष्यामि शृणु कुम्भज॥
एतद्विज्ञानमात्रेण श्रीविद्या सिद्धिदा भवेत्।
कत्रय हद्वयचैव शैवो भागः प्रकीर्तितः॥९॥
शक्त्यक्षराणि शेषाणि ह्रींकार उभयात्मकः।
एव विभागमज्ञात्वा ये विद्याजपशालिन॥
न तेषां सिद्धिदा विद्या कल्पकाटिशतैरपि।
चतुर्भिशिवचक्रैश्च शक्तिचक्रैश्च पञ्चभि॥
नवचक्रैश्चससिद्ध श्रीचक्र शिवयार्वपु।
त्रिकोणमष्टकोण च दशकोणद्वग तथा॥१२॥
चतुर्दशार चैतानि शक्तिचक्राणि पञ्च च।
बिन्दुश्चाष्टदल पद्म पद्म षोडशपत्रकम्॥१३॥
चतुरश्र च चत्वारि शिवचक्राण्यनुक्रमात्।
त्रिकोणे बैन्दव श्लिष्ट अष्टारेष्टदलाम्बुजम्॥
दशारयो षाडशार भूगृह भुवनाश्रके।
शैवानामपि शाक्ताना चक्राणा च परस्परम्॥
अविनाभावसबन्ध यो जानाति स चक्रवित्।
त्रिकोणरूपिणी शक्तिर्बिन्दुरूपपर शिव॥
अविनाभावसबन्ध तस्माद्बिन्दुत्रिकोणयो।
एव विभागमज्ञात्वा श्रीचक्र यः समर्चयेत्॥
न तत्फलमवाप्नोति ललिताम्बा न तुष्यति।
ये च जानन्ति लोकऽस्मिन्श्रीविद्याचक्रवेदिनः॥
सामान्यवेदिन सर्वे विशेषज्ञोऽतिदुर्लभः।
स्वयविद्याविशेषज्ञो विशेषज्ञ समर्चयेत्॥१९॥
तस्मै देय ततो ग्राह्यमशक्तस्तस्य दापयेत्।
अन्धनमःप्रविशन्ति येऽविद्या समुपासते।
इति श्रुतिरपाहैतानविद्योपासकान्पुन।
विद्यान्योपासकानेव निन्दत्यारुणिकी श्रुतिः॥
अश्रुता सश्रुतासश्च यज्वानोयेऽप्ययज्वनः।
स्वर्यन्तो नापेक्षन्ते इन्द्रमग्निं च ये विदुः॥
सिकता इव सयन्ति रश्मिभि समुदीरिताः।
अस्माल्लोकादमुष्माच्चेत्याह चारण्यकश्रुतिः॥
यस्य नो पश्चिम जन्म यदि वा शकर स्वयम्।
तेनैव लभ्यते विद्या श्रीमत्पञ्चदशाक्षरी॥
इति मन्त्रेषु बहुधा विद्याया महिमोच्यते।
माक्षैकहेतुविद्या तु श्रीविद्या नात्र सशयः॥
न शिल्पादिज्ञानयुक्ते विद्वच्छब्दप्रयुज्यते।
माक्षैकहेतुविद्या मा श्रीविद्यैव न सशय॥
तस्माद्विद्याविदेवात्र विद्वान्विद्वानितीर्यते।
स्वय विद्याविदे दद्यात्ख्यापयत्तद्गुणान्सुधी॥
स्वयविद्यारहस्यज्ञो विद्यामाहात्म्यवेद्यपि।
विद्याविद नार्चयेच्चेत्को वा त पूजयेज्जनः॥२८॥
प्रसङ्गादिदमुक्त त प्रकृत शृणु कुम्भज।
य कीर्तयन्सकृद्भक्त्या दिव्यनामशतत्रयम्॥
तस्य पुण्यमह वक्ष्ये शृणु त्वकुम्भसभव।
रहस्यनामसाहस्त्रपाठे यत्फलमीरितम्॥३०॥
तत्फल कोटिगुणितमेकनामजपाद्भवेत्।
कामेश्वरीकामेशाभ्या कृत नामशतत्रयम्॥
नान्येन तुलयेदेतत्स्तोत्रेणान्यकृतेन च।
श्रिय परम्परा यस्य भावि वा चोत्तरोत्तरम्॥
तेनैव लभ्यते चैतत्पश्चाच्छ्रेय परीक्षयेत्।
अस्यानाम्ना त्रिशत्यास्तु महिमा केन वर्ण्यते॥
या स्वयशिवयोर्वक्रपद्माभ्या परिनिःसृता।
नित्य षोडशसख्याकान्विप्रानादौ तु भोजयेत्॥
अभ्यक्तास्तिलतैलेन स्नातानुष्णेन वारिणा।
अभ्यर्च्य गन्धपुष्पाद्यै कामेश्वर्यादिनामभिः॥
सूपापूपै शर्कराद्यैपायसैफलसयुतै।
विद्याविदो विशेषेण भोजयेत्षोडश द्विजान्॥
एव नित्यार्चन कुर्यादादौ ब्राह्मणभोजनम्।
त्रिशतीनामभिःपश्चाद्ब्राह्मणान्क्रमशोऽर्चयेत्॥
तैलाभ्यङ्गादिक दत्वा विभवे सति भक्तित।
शुक्लप्रतिपदारभ्य पौर्णमास्यवधि क्रमात्॥
दिवसे दिवसे विप्रा भोज्या विशतिसख्यया।
दशभि पञ्चभिर्वापि त्रिभिरेकेन वा दिनै॥
त्रिंशत्षष्टि शतविप्रा सभोज्यास्त्रिशत क्रमात्
एव यकुरुते भक्त्या जन्ममध्ये सकृन्नर॥
तस्यैव सफल जन्म मुक्तिस्तस्य करे स्थिरा।
रहस्यनामसाहस्रभोजनेऽप्येवमेव हि॥४१॥
आदौ नित्यबलिं कुर्यात्पश्चाद्ब्राह्मणभोजनम्।
रहस्यनामसाहस्रमहिमा यो मयोदितः॥४२॥
सशीकराणुरत्रैकनाम्नो महिमवारिधेः।
वाग्देवीरचिते नामसाहस्रे यद्यदीरितम्॥४३॥
तत्फल कोटिगुणित नाम्नोऽप्येकस्य कीर्तनात्।
एतदन्यैर्जपै स्तोत्रैरर्चनैर्यत्फल भवेत्॥४४॥
तत्फल कोटिगुणित भवेन्नामशतत्रयात्।
वाग्देवीरचितास्तोत्रे तादृशो महिमा यदि॥
साक्षात्कामेशकामेशीकृतेऽस्मिन्गृह्यतामिति।
सकृत्सकीर्तनादेव नाम्नामस्मिञ्शतत्रये॥४६॥
भवेच्चित्तस्य पर्याप्तिर्न्यूनमन्यानपेक्षिणी।
न ज्ञातव्यमितोऽप्यन्यन्न जप्तव्य च कुम्भज॥
यद्यत्साध्यतम कार्य तत्तदर्थमिद जपेत्।
तत्तत्फलमवाप्नोति पश्चात्कार्य परीक्षयेत्॥
ये ये प्रयोगास्तन्त्रेषु तैस्तैर्यत्साध्यते फलम्।
तत्सर्व सिध्यति क्षिप्र नामत्रिशनकीर्तनात्॥
आयुष्कर पुष्टिकर पुत्रद वश्यकारकम्।
विद्याप्रद कीर्तिकर सुकवित्वप्रदायकम्॥५०॥
सर्वसपत्प्रद सर्वभोगद सर्वसौख्यदम्।
सर्वाभीष्टप्रद चैव देव्या नामशतत्रयम्॥५१॥
एतज्जपपरो भूयान्नान्यदिच्छेत्कदाचन।
एतत्कीर्तनसतुष्टा श्रीदेवी ललिताम्बिका॥
भक्तस्य यद्यदिष्ट स्यात्तत्तत्पूरयते ध्रुवम्।
तस्मात्कुम्भोद्भव मुने कीर्तय त्वमिद सदा॥
नापर किंचिदपि ते बोद्धव्य नावशिष्यते।
इति ते कथित स्तोत्रललिताप्रीतिदायकम्॥
नाविद्यावेदिने ब्रूयान्नाभक्ताय कदाचन।
न शठाय न दुष्टाय नाविश्वासाय कर्हिचित्॥
यो ब्रूयात्त्रिशतीं नाम्ना तस्यानर्थो महान्भवत्।
इत्याज्ञा शाकरी प्राक्ता तस्माद्गोप्यमिद त्वया॥
ललिताप्रेरितनैव मयोक्त स्तात्रमुत्तमम्।
रहस्यनामसाहस्रादपि गोप्यमिद मुने॥५७॥
एवमुक्त्वा हयग्रीव कुम्भज तापसोत्तमम्।
स्तोत्रेणानन ललितां स्तुत्वा त्रिपुरसुन्दरीम्॥
आनन्दलहरीमग्नमानसः समवर्तत॥५९॥
इति श्रीललितात्रिशतीस्तोत्र सपूर्णम्॥
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