दुर्गासप्तशती

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[TABLE]

श्रीः।

अथ सप्तशतीस्थविषयानुक्रमणिका।

विषय
१. अथ प्रयोगविधिः
२. अथ शतचण्डीविधिः
३. अथसंकल्पः
४. अथसप्तशतीकवचम्
५. अथअर्गलास्तोत्रम्
६. अथ कीलकस्तोत्रम्
७. अथ दूर्गासप्तशती

श्रीः।

अथ प्रयोगविधिः।

श्रीगणेशाय नमः॥

अथ प्रयोगान्तराणि कात्यायनीतन्त्रीक्तानि॥ प्रतिश्लोकमाद्यन्तयोः प्रणवंजपेन्मन्त्रसिद्धिः॥१॥

अग्रे सर्वत्र श्लोकपदं मन्त्रोपलक्षणं॥ सप्रणवमनुलोमव्याहृति-त्रयमादौ अन्तेतुविलोमंतदित्येवं॥ प्रतिश्लोकं कृत्वा शतावृत्तपाठेऽतिशीघ्रं सिद्धिः॥२॥

प्रतिश्लोकमादौजातवेदस इत्यृचं पठेत्सर्वकामसिद्धिः॥३॥

अपमृत्युवारणाय त्र्यंबकमन्त्रं पठेत्॥ आदावन्तेचशतमित्यर्थः॥ प्रतिश्लोकं तन्मन्त्रजप इत्यन्यत्र॥४॥

प्रतिश्लोकं शूलेन पाहिनो देवीतिपाठादपमृत्युनाशः अस्य केवलस्यापि श्लोकस्य लक्षमयुतं सहस्रं शतं वाजपे अपमृत्युवरणम्॥५॥

श्रीगणेशायनमः॥ अथ प्रयोगान्तराणाङ्कात्यायनीतत्रोक्तानाम्भाषाटीकेयम्॥ सप्तशतीके पाठ करनेमें मन्त्रमन्त्रके आदि अन्तमें जो ॐकार पढे तो जिसमन्त्रकी सिद्धिचाहै उसी मन्त्रकी सिद्धिहोय॥१॥ और जो भूर्भुवः स्वः इसप्रकार सुलटे क्रमसे ॐकारसहित तीन व्याहृति मन्त्रमन्त्रके आदिमें पढे और अन्तमें स्वःभुवर्भूः इसप्रकार उलटे क्रमसे पढे ऐसे सप्तशती के शत १०० पाठ करनेसे तत्काल कार्य्यकी सिद्धिहोय॥२॥और जो सप्तशशतीके पाठ करनेमें मन्त्रमन्त्रके आदिअन्तमें जातवेदसे इस ऋचाको पढे तो सब काम सिद्धहोय॥३॥और अकाल मृत्यु हटानेके लिये सप्तशती पाठके आदि अन्तमें त्र्यम्बकंयजामहे इस मन्त्रको शत १०० शत १०० जप करे अथवा मन्त्रमन्त्रके प्रति पढे तो अकालमृत्यु हटे॥४॥ और जो सप्तशती पाठमें मन्त्रमन्त्रके प्रति शूलेनपाहिनोदेवि इस मन्त्रकों पढे अथवा इस केवल मन्त्रका लक्ष १००००० अथवा दशहजार १०००० अथवा हजार १००० अथवा शत १०० जपकरे तौभी अकाल मृत्यु हटताहै॥५॥

प्रतिश्लोकं शरणागतदीनार्तेति श्लोकं पठेत्सर्वकार्यसिद्धिः॥६॥

प्रतिश्लोकं करोतुसानः शुभेत्यर्द्धं पठेत्सर्वकार्य्यसिद्धिः॥७॥

स्वाभीष्टवरप्राप्तये एवं देव्यावरं लब्ध्वेति श्लोकं पठेत्॥८॥

सर्वापत्तिवारणाय प्रतिश्लोकं दुर्गेस्मृतेति पठेत्॥ अस्य केवलस्यापिश्लोकस्य कार्य्यानुसारेण लक्षमयुतं सहस्रशतं वाजपः॥९॥

सर्वाबाधेत्यस्य लक्षजपे प्रतिश्लोकपाठे वा श्लोकोक्तम्फलम्॥१०॥

टीका—और जो सप्तशती के पाठ करनेमें मन्त्रमन्त्रके प्रति शरणागदीनार्त्त इस मन्त्रको पढे तो सम्पूर्ण कार्य सिद्धिहोय॥६॥ और जो करोतुसानःशुभहेतुरीश्वरीशुभानिभद्राण्यभिहन्तुचापदः इस अर्द्धमन्त्रकों सप्ततीपाठमें मन्त्रमन्त्रके प्रति पढे तो सम्पूर्ण कार्य्यकी सिद्धिहोय॥७॥ और मनोवांछित वरकी प्राप्ति के लिये मन्त्रमन्त्रके प्रति एवं देव्यावरंलब्ध्वा इह

मन्त्रकोपढे॥८॥ और सम्पूर्ण आपत्तिनिवारणके लिये मन्त्रमन्त्रके प्रति दुर्गेस्मृता इस मन्त्रको पढे अथवा इस केवल मन्त्रका जैसा कार्य्य होतिसके अनुसार लक्ष १००००० अथवा दशहजार १०००० अथवा हजार १००० अथवा शत १०० जपकरना उचितहै॥९॥ और सर्व

बाधाविनिर्म्मुक्त इस मन्त्रका लक्ष १००००० जप करनेसे अथवा इसकों सप्तशतीके पाठमें मन्त्रमन्त्रके प्रति पढनेसे धन धान्य पुत्र इनकरिके युक्तमनुष्य होताहै॥३०॥

इत्थं यदा यदा बाधेति प्रतिश्लोकनपेमहामारीशान्तिः॥११॥

ततोवव्रेनृपोराज्यमिति मन्त्रस्यजपेपुनः स्वराज्यलाभः॥१२॥

हिनस्तिदैत्यतेजांसि इत्यनेनसदीपबलिदाने घण्टाबन्धने च बालग्रहशान्तिः॥१३॥

आद्यावृत्तिमनुलोमेनपठित्वा ततोविपरीतक्रमेण द्वितीयामनुलोमेन॥ तृतीयामित्येवमावृत्तित्रयेण शीघ्रङ्कार्य्यसिद्धिः॥१४॥

सर्वापत्तिवारणाय दुर्गेस्मृतेत्यर्द्धं ततोयदंतियच्च दूरके इत्यृचं तदन्तेदारिद्र्यदुः खेत्यर्द्धमेवङ्कार्यानुसारेण लक्षमयुतं सहस्रं शतं वाजपः॥१५॥

टीका—और सप्तशती के पाठमें मन्त्र-मन्त्रके प्रति इत्थंयदायदाबाधादानवोत्थाभविष्यति इस मन्त्रको पढनेसे महामारी शांत होय॥११॥ और सप्तशतीके पाठमें जो मन्त्र मन्त्रके प्रति ‘ततोवव्रेनृपोराज्यम्०’इस मन्त्रको जपे तो गयाहुवा अपना राज्य फिर मिले॥१२॥ और ‘हिनस्तिदैत्यतेजांसि’ इस मन्त्रकरिके भगवतीके अर्थ दीपक सहित बलिदान देनेसे और भगवतीके मंदिरमें घण्टा बांधनेसे बालग्रहोंकी शांति होय॥१३॥ और जो पहिले सप्तशतीका सुलटे क्रमसे पाठ करैऔर दूसरे उलटी रीतिसे फिर तीसरे सुलटे क्रमसे पाठ करे इस प्रकार तीन पाठ करनेसे तत्काल कार्य्यकी सिद्धि होय॥१४॥ सम्पूर्ण आपत्ति निवारणके लिये ‘दुर्गेस्मृताहरसिभीतिमशेषजन्तोः’ इस अर्द्धमन्त्रको पढकर तिसके अन्तमें ‘यदन्तियच्चदूरके’ इस ऋचाको पढे फिर तिसके अन्तमें दारिद्र्यदुःख इस अर्द्धमन्त्रको पढे इस प्रकार जैसा कार्य्यहो तिसके अनुसार लक्ष १००००० अथवा दशहजार १०००० अथवा हजार १००० अथवा शत १०० इसका जप करना उचित है॥१५॥

कांसोस्मीत्यृचं प्रतिश्लोकं पठेल्लक्ष्मीप्राप्तिः॥१६॥

प्रतिश्लोकमनृणा अस्मिन्नित्यृचं पठेदृणपरिहारः॥१७॥मारणार्थमेवमुक्त्वासमुत्पत्येति श्लोकं प्रति श्लोकं पठेन्मारणोक्तावृत्तिभिः फलसिद्धिः॥१८॥

ज्ञानिनामपि चेतांसि इति श्लोकजपमात्रेण सद्योमोहनमित्यनुभवसिद्धम्॥ प्रतिश्लोकं तच्छ्लोकपाठेत्ववश्यम्॥१९॥

रोगानशेषानिति श्लोकस्य प्रतिश्लोकं पाठे सकलरोगनाशः॥ तन्मात्रजपेपिसः॥२०॥

टीका—और जो सप्तशतीके पाठमें मन्त्र मन्त्र के प्रति ‘कांसोस्मि’ इस ऋचाकों पढे तो लक्ष्मीकी प्राप्ति होय॥७६॥ और जो मन्त्र मन्त्र के ‘प्रतिश्लोकमनृणा अस्मिन्’ इस ऋचाको पढ़े तो ऋण उतरे॥१७॥ और मारणके ‘मारणार्थमेवमुक्त्वासमुत्पत्य’ इस मन्त्रको मन्त्र मन्त्रके प्रति पढे और मारणमें

जितनी कात्यायनी आदि तन्त्रोंमें सप्तशतीकी आवृत्ति वर्णन करी आवृत्तियों के करने से मारणरूप फलकी सिद्धि होती है॥१८॥ ‘ज्ञानिनामपिचेतांसि’ इस मन्त्रके जप मात्र करने करके तत्काल वशी यह अनुभव किया हुवा है अथवा मन्त्र मन्त्रके प्रति इस मन्त्रकों वशीकरण सिद्ध होय॥१९॥और ‘रोगानशेषान्’ इस मन्त्रको मन्त्र प्रति पढनेंसे सम्पूर्ण रोगका नाश होय अथवा तिस केवल मन्त्रके जसेभी सम्पूर्ण रोगका नाश होता है॥२०॥

इत्युक्तासातदादेवी गंभीरेतिश्लोकस्य प्रतिश्लोकं पाठे पृथग्जपेवा विद्याप्राप्तिर्वाग्वैकृतनाशश्च॥२१॥

भगवत्याकृतं सर्वमित्यादिद्वादशोत्तरशताक्षरोमन्त्रः सर्वकामदः॥ सर्वापत्ति वारणश्च॥२२॥

देविप्रपन्नार्त्तिहरे इति श्लोकस्य यथाकार्य्यं लक्षायुतसहस्रशतान्यतमसंख्यजपे प्रतिश्लोकं पाठेवासर्वापन्निवृत्तिः सर्वकामाप्तिश्च॥ एषु प्रयोगेषु प्रतिश्लोकं दीपाग्रेकेवलमेव नमस्करणेऽतिशीघ्रं सिद्धिः॥ प्रतिश्लोकं कामबीजसम्पुटितस्थयैकचत्वारिंशद्दिनंत्रिरावृत्तौ सर्वकामसिद्धिः॥२३॥ एकविंशतिदिन-पर्य्यन्तमुक्तरीत्याप्रत्यहं द्वादशावृत्तौवशीयणम्॥२४॥

मायाबीजसम्पुटितस्य फट्पल्लव-सहितस्य सप्तदिनपर्य्यन्तं त्रयोदशावृत्तावुच्चाटनासिद्धिः॥२५॥

टीका—और इत्युक्तसातदेवी इस मन्त्रको मन्त्रमन्त्रकेप्रति पठन करने अथवा अलग केवलको जपकरनेसे विद्याकी प्राप्तिहोय और वाणीमेंगेहूँपनाआदि विकार होय तिसको नाशहोय॥२१॥ और भगवत्याकृतं सर्वम् इससे

आदिलेकर यह एक सौ १२ बारह अक्षरका मन्त्रहै सो सम्पूर्ण कामना दीनेवालाहै और सम्पूर्ण आपत्तिका दूर करनेवालाहै इस केवल मन्त्रको जपे अथवा सप्तशतीपाठमें मन्त्रमन्त्रकेप्रतिपढे॥२२॥ और जैसा कार्यहोतिसमाफिक देविप्रपन्नार्त्तिहरेप्रसीद इसमन्त्रको जप लक्ष१०००००

अथवा दशहजार १०००० अथवा हजार १००० अथवाशत १०० इसमेंसे एकसंख्याजपकरनेसें अथवा इसमन्त्रको सप्तशतीपाठमें मन्त्रमन्त्रके पढनेसे संपूर्ण आपत्तिदूरहोय और सम्पूर्ण कामना पूर्णहोय और इन प्रयोगोमें प्रांतमन्त्र दीपके आगे केवल नमस्कार करनेसे अतिशीघ्र फलकी सिद्धिहोय और प्रतिमन्त्र काम बीजसम्पुटित अर्थात् क्लींइस करके सम्पुटित सप्तशतीको इकतालीस दिनतक नित्यप्रति तीन आवृत्तिकरनेसे सम्पूर्ण कामकी सिद्धिहोय॥२३॥ और जो इक्कीसदिनतक उसी कामबीजसम्पुटित सप्तशतीकी बारह आवृत्ति नित्यप्रतिकरनेसे वशीकारण सिद्धहोताहै॥२४॥ और जो ह्रीं इस मायाबीजकरके प्रतिमन्त्र सम्पुटितफट् पल्लव करके सहित सप्तशती पाठकी सप्तदिनतक नित्यप्रति त्रयोदश आवृत्तिकरनेसे उच्चाटन सिद्धहोय॥२५॥

तादृश्यामेव दिनचतुष्टयमेकादशावृत्तौ सर्वोपद्रवनाशः॥२६॥

एकोनपञ्चाशद्दिन-पर्य्यन्तम्प्रतिश्लोकं श्रीबीजसम्पुटि तस्य पञ्चदशावृत्तौलक्ष्मीप्राप्तिः॥२७॥

प्रतिश्लोकं वाग्बीज सम्पुटितस्य शतावृत्त्याविद्याप्राप्तिः॥२८॥

इति॥

टीका—और चार दिनतक नित्यप्रति एकादश आवृत्ति करनेसे सम्पूर्ण उपद्रवका नाश होय॥

२६॥ और उपंचास दिनतक प्रति मन्त्र श्रीबीज सम्पुटित सप्तशती पाठकी पंदरह आवृत्तिकरनेसे लक्ष्मीकी प्राप्तिहोय॥२७॥ और प्रतिमन्त्र ऐं इस वाग्बीजसम्पुटित सप्तशतीकी शत १०० आवृत्ति करनेसे विद्याकी प्राप्ति होय॥२८॥ इति तन्त्रोक्तप्रयोगान्तराणि॥

इति प्रयोगविधिः समाप्तः।

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श्रीः।

अथ शतचण्डीविधिः।

शङ्करस्य भवान्या चा प्रासादनिकटे शुभम्॥ मण्डपं द्वारवेद्याढ्यंउ… ध्वजतोरणम्॥१॥

तत्र कुण्डं प्रकुर्वीत प्रतीच्यांमध्यतोपिवा॥ स्नात्वानित्यक्रियांकत्वा वृणुयाद्दशवाडवान्॥२॥

जितेंद्रियान्सदाचारान् कुलीनान्त्सत्यवादिनः॥(वाडवा ब्राह्मणाः)॥ व्युत्पन्नांश्चण्डिकापाठरतान्लज्वा दयावतः॥३॥

मधुपर्कविधानेन स्वर्णवस्त्रादिदानतः॥ जपार्थमासनमाला दद्यात्तेभ्योऽपि भोजनं॥४॥

तेहविष्यान्नमश्नंतो मन्त्रार्थगतमागसाः॥ भूमौशयानाः प्रत्येकं जपेयुश्चंडिकास्तवम्॥५॥

मार्कण्डेयपुराणोक्तं दशकृत्वसचेतसः॥ नवार्णं चंडिकामन्त्रं जपेयुश्वायुतं पृथक्॥६॥

पृथक्संपृते करणादितिशेषः॥ प्रत्येकं ब्राह्मणैरयुतजपः कार्य्यः॥

अष्टमी नवमी चतुर्दशी पौर्णमासीषु यथा शतावृत्तिसमाप्तिर्भवति तथारम्भः कर्तव्य इति सांप्रदायिकाः॥

यजमानः पूजयेच्च कन्यानां नवकंशुभं॥ द्विवर्याद्यशाब्दान्तः कुमारीः परिपूजयेत्॥१॥

तासां क्रमेण नामानि॥

कुमारी १ त्रिमूर्निः २ कल्याणी ३ रोहिणी ४ कालिका ५ शांभवी ६ दुर्गा ७ चण्डिका ८ सुभद्रा ९ इति॥

नाममन्त्रैस्तासां पूजां॥

तत्र हीनाधिकाङ्गी कुठव्रणयुता अंधा काणाकुरूपा केकराकुबरी लोमयुग्देहा दासीजा रोगिणीत्येवमाव्यावर्ज्याः॥

विप्रांसर्वेष्टसंसिद्ध्यैयशसेक्षत्रियोद्भवाम्॥ वैश्यनांधनलाभाय पुत्राप्त्यैशूद्रजां यजेत्॥

गन्धपुष्पधूपदीपभक्ष्यभोज्यैर्यथाशक्ति वस्त्राभचरणैश्व पूजयेत्॥द्विवर्षा साकुमार्य्युक्ता त्रिमूर्त्तिर्हीयनत्रिका॥

चतुरब्दातु कल्याणी पञ्चवर्ण तु रोहिणी॥१॥

षडब्दा कालिका प्रोक्ता चण्डिका सप्तहायना॥ अष्टवर्षा शांभवीस्याद्दुर्गा तु नवहायना॥ सुभद्रा दशवर्षोक्ता नाममन्त्रैः सा पूजयेत्॥तासामावाहने मन्त्रः प्रोच्यते शङ्करोदितः॥ मन्त्राक्षरमयीं लक्ष्मींमातृृणां रूपधारिणीम्॥

नवदुर्गात्मिकां साक्षात्कन्यामावाहयाम्यहम् कुमारिकादिकन्यानां पूजामन्त्रान्ब्रुवेऽधुना॥

जगत्पूज्ये जगद्वन्द्ये

शक्तिस्वरूपिणि॥पूजां गृहाण कौमारि जगन्मातर्नमोऽस्तुते॥ त्रिपुरां त्रिपुराधारां त्रिवर्षांज्ञानरूपिणीम्॥त्रैलोक्यवन्दितां देवीं त्रिमूर्त्तिं पूजयाम्यहम्॥ कलात्मिकां कलातीतां कारुण्यहृदयां शिवाम्॥ कल्याणजननीं देवीं कल्याणीं पूजयाम्यहम्॥ अणिमादिगुणाधारामकारायक्षरात्मिकां॥ अनन्त शक्तिकां लक्ष्मीं रोहिणीं पूजयाम्यहम्॥ कामचारीं शुभां कान्तां कालचक स्वरूपिणीम्॥ कामदां करुणोदारां कालिकां पूजयाम्यहम्॥ चंडवीरां चंडमायांचण्डमुण्डप्रभंजनीम्॥ पूजयामि सदादेवीं चंडिकां चंडविक्रमाम्॥ सदानंदकरींशांतां सर्वदेवनमस्कृताम्॥ सर्वभूतात्मिकां लक्ष्मीं शांभवीं पूजयाम्यहम्॥ दुर्गमेदुस्तरे कार्ये भवदुःखविनाशिनीम्॥ पूजयामि सदाभत्त्यादुर्गांदुर्गार्तिनाशिनीम्॥ सुन्दरीं स्वर्णवर्णानां सुखसौभाग्यदायिनीम्॥ सुभद्रजननीं देवीं सुभद्रां पूजयाम्यहम्॥ एतैर्मत्रैः पुराणोकैस्तांतां कन्यां समर्चयेत्॥ इति पूजनंकुमारिकाणाम्॥ वैद्यांविरचितेरम्ये सर्वतोभद्रमंडले॥घटं संस्थाप्यविधिनातत्रावाह्यार्चयेच्छिवाम्॥ तदयेकन्यकाश्चापि पूजयेद्ब्राह्मणानपि॥ उपचारैस्तुविविधैर्नवार्णावरणान्यपि॥ ॐकारः प्रथमं पीठं पूर्णपीठमतः परम्॥ तृतीयं कामपीठं चपूजयेत्संप्रदायतः॥ पूर्वादिदिक्षु पीठस्य गणेशादिचतुष्टयम्॥ गणेशक्षेत्रपालौचपादुकेबदुकास्त्रयः॥ आग्नेय्यादिचतुर्दिक्षुपूज्यंदेवीचतुष्टयम्॥ जया चविजयाचैवजयंती चापराजिता॥ पूर्वोक्तयंत्रे पूर्वकोणसरस्वतीसहितो बह्मा श्रीसहितो विष्णुर्नैर्ऋत्यामुमयाशिवोवायव्यां षट्कोणे चक्रमध्यस्थमध्यबीजेश्रीमहालक्ष्मीः॥ ह्रींमहाकाली ऐंमहासरस्वतीदक्षिणवामयोः॥ उदक्सिंहोदक्षिणेमहिषः॥ षट्कोणेषुनंदजा रक्तदंतिका शाकंभरीदुर्गाभीमाभामर्य्यः॥ सबिंदुनामाद्यवर्णताराव्याश्चासांनाममंत्राः पूजादौ॥ तारःप्रणवः॥ अष्टत्रयेषु ब्रह्माणीमाहेश्वरीकौमारीवैष्णवीवाराहीनारसिंही ऐंद्रीचामुण्डा उक्तकरीत्यानामहमन्त्रैः पूज्याः ततोविष्णुमायादिचतुर्विंशतिदेवताः प्रागादिक्रमेणकेसरेषु पूज्याः रतिपत्रंचकेसरत्रयम्॥ताश्चविष्णुमाया१ चेतना २ बुद्धि ३ निद्रा ४ क्षुधा ५ छाया ६ शक्ति ७ तृष्णा ८ क्षांति ९ जाति १० लज्जा ११ शान्ति १२ श्रद्धा

१३ कान्ति १४ लक्ष्मी १५ धृति १६ वृत्ति १७ स्मृति १८ दया १५ तुष्टि २० पुष्टि २१ मातृ २२ भ्रांति २३ चिति २४ रूपा एतावत्यः सप्तशतीस्तवेपंचमेध्याये आसां चतुर्विंशतीनांनपाठ इति न श्रमितव्यम्॥ कात्यायनीतंत्रविरोधात्॥ नालमूलेतु संपूज्यमाधवादिचतुष्टयम्॥ आधारः कूर्मशेषौ च चतुर्थी पृथिवीनृप॥गृहकोणेषु गणेशःक्षेत्रपालो बटुको योगिन्यः॥ श्रगादिदिक्षुद्राद्याश्चेति॥ एवं चतुर्द्दिनं कुर्यात्॥ तत्र प्रथमेन्हि एकावृत्तिर्द्वितीद्वेतृतीयेतिस्रश्चतुर्थे चतस्र इति॥ पंचमेहोमः॥होमद्रव्याणि॥ पायसान्नैन्नि मध्यक्तैर्द्राक्षारं भाफलादिभिः॥ मातुलिंगैरिक्षुखंडैर्नालिकेरयुतैस्तिलैः॥ जातीफलैराम्रफलैरन्यैर्मधुरवस्तुभिरिति॥ सप्तशत्यादशावृत्त्याप्रतिमन्त्रं हुतं चरेत्॥ अयुतंच नवार्णेन स्थापितेऽग्नौविधानतः॥ कृत्वावरणदेवानां होमं तन्नाममन्त्रतः॥ कृत्वापूर्णाहुतिं सम्यग्देवमग्निं विसूज्प च॥ अभिर्षिचेच्चयष्टारं विप्रौघःकलशोदकैः॥ निष्कं सुवर्णमथवाप्रत्येकं दक्षिणदिशेत्॥ भोजनयेच्चशतां प्रान्भक्ष्यभोज्यैः पृथग्विधैः॥ तेभ्योपिदक्षिणांदत्वागृह्णीयादाशिषस्तथा एवंकृतेजगद्वश्यं सर्वे नश्यंत्युपद्रवाः॥ इति शतचण्डीविधिः॥ श्रीजगदंबाप्रसादोस्तु॥

अथ संकल्पः।

अद्येत्यादि० श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताप्रीत्यर्थ चंडीसप्तशतीपाठाख्यं कर्मकरिष्ये॥तदं गत्वेनादौकवचार्गलाकील पठनमाद्यंतयोरष्टोत्तरशतसंख्यन-वार्णजपपूर्वकंक्रमेणरात्रिसूक्तदेवीसूक्तपठनमंतेरहस्य त्रयपठनं च करिष्ये॥॥ इति संकल्प्य॥ प्रथमं नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः॥ नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियतणताःस्मतां॥ इति मंत्रेण पंचोपचारैः पुस्तकपूजां कुर्यात्॥ श्रीरस्तु॥

इतिसंकल्पः।

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श्रीः।

अथ सप्तशतीकवचं

भाषाटीकासमन्वितम्।

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ॐ नमश्चण्डिकायै॥ मार्कण्डेयउवाच॥ ॐयद्गुह्यं परमं लोसर्वरक्षाकरं नृणाम्॥ यन्नकस्य चिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥ ब्रह्मोवाच॥ अस्तिगुह्यतमंविप्रसर्व-भूतोपकारकम्॥ देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्वमहामुने॥२॥ प्रथमं शैलपुत्रीतिद्वितीयं ब्रह्मचारिणी॥तृतीयं चन्द्रघण्टेतिकूश्माण्डेति चतुर्थकम्॥३॥ पंचमं स्कंदमातेति षष्ठं कात्यायनीति च॥ सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥ नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः॥ उक्तान्येतानिनामानि ब्रह्मणैवमहात्मना॥५॥

श्रीगणेशायनमः॥ नत्वाहमीशं जगदेकनाथं वर्म्मार्गलाकीलकसंयुतायाः॥ करोमि भाषामबुधोपकृत्यै विन्मग्निरामः खलु सप्तशत्याः॥

टीका—ॐ नमश्चण्डिकायै॥ एक समय मार्कण्डेय ऋषि ब्रह्मासे इसप्रकार प्रश्न कर्त्ते भये कि हे ब्रह्मन् जो लोकके विषे अत्यंत गुप्त है और सब मनुष्योंकी रक्षा करनेवाली और किसी अन्यको नहीं उपदेश दईहोसो

हमको उपदेश करो॥१॥ तब ब्रह्माजी बोले कि हे विप्रहे महामुने सह मनुष्योंका उपकार करनेवाली और अत्यंत गुप्त ऐसा देवीका कवच है ताहि तुम श्रवण करो॥२॥ प्रथम तो शैलपुत्री और दूसरे ब्रह्मचारिणी तीसरे चन्द्रघण्टा चौथे कुष्मांडा॥३॥पाचवे स्कंदमाता छठे कात्यायनी सातवे कालरात्रि आठवे महागौरी॥४॥ नवमें सिद्धिदात्री ये नवदुर्गा वर्णन करी है येनाम ब्रह्मा मैनेही वर्णन किये है॥५॥

अग्निनादह्यमानस्तुशत्रुमध्येगतोरणे॥ विषमेदुर्गमेचैवभया

र्ताश्शरणं गताः॥६॥ न तेषां जायते किं चिदशुभं रणसंकटे॥ नापदंतस्य पश्यामिशोकदुःखभयं नहि॥७॥ यैस्तुभक्त्या स्मृतानूनं तेषां सिद्धिः प्रजायते॥येत्वां स्मरन्तिदेवेशिरक्षसेतान्नसंशयः॥८॥ प्रेतसंस्थातुचामुण्डावाराहीमहिपासना॥ ऐन्द्रीगज-समारूढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥ माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना॥ लक्ष्मीः पद्मासनादेवीपद्महस्ताहरिप्रिया॥१०॥

टीका—जो मनुष्य अग्निकरके दग्ध होता हुवा और जो संग्राम विषे शत्रुओंके मध्यमें रुकाहुवा और जो मनुष्य विकट दुर्गके रुकाहुवा और जे इन आदि भयार्त्त मनुष्य इन ब्रह्मोक्तदुर्गाके नामों उच्चारण कर्त्ते हैं॥६॥ तिनके रण आदि संकटोंमें कुछभी अशुभं

नहीं होता है और शरणागत मनुष्यके मैं आपत्ति और शोक दुःख भय नहीं देखता हूं॥७॥ और जिनो करके भक्तिसे दुर्गा स्मरण करी जाती तिनके निश्चयकरके धन संतान आदि सब वस्तुकी वृद्धि होती है और देवेशि जे मनुष्य तुहारा स्मरण कर्त्तेहैं तिनकी तुम रक्षा करोहो इसमें शय नहीं॥८॥और प्रेतोंके विषे स्थित ऐसी चामुंडा और महिषहै सबकोजिसकी ऐसी बाराही और गजसमारूढ ऐंद्री और गरुड है वाहन जिस ऐसी वैष्णवी॥९॥ और वृषभके ऊपर बैठी हुई माहेश्वरी और मयूर वाहन जिसका ऐसी कौमारी और कमल है आसन जिसका और कमल हाथों में जिसके हरिकी प्रिया ऐसी लक्ष्मी॥१०॥

श्वेतरूपधरादेवी ईश्वरीवृषवाहना॥ब्राह्मीहंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता॥११॥ इत्येतामातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः॥ नानाभरणशोभाढ्यानानारत्नोपशोभिताः॥१२॥ दृश्य न्तेरथमारूढादेव्यः क्रोधसमाकुलाः॥ शंख चक्रं गदां शक्तिं हलं चमुसलायुधम्॥ खेटकं तोमरं चैवपरशुंपाशमेवच॥१३॥ कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥ दैत्यानां देहनाशा-

यभक्तानामभयायच॥१४॥ धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हितायवै॥नमस्तेस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे॥१५॥

टीका—और वृप है वाहन जिसका और श्वेतरूपकों धारण करनेवाली ऐसी ईश्वरी देवी और हंसके ऊपर बैठीहुई संपूर्ण आभूषणोंकरके अलंकृत ऐसी ब्राह्मी॥११॥ हे देवि पूर्वोक्त तुमारी ये शक्ति संपूर्ण जगन्मातासंपूर्ण योग करके युक्तहै और नाना प्रकारके रत्नजटित आभूषणोकी शोभा करके युक्तहैं॥१२॥ और क्रोध करके विव्हल रथों में बैठी हुई दीखतीहैं और शंख चक्र गदा शक्ति हल खेटक तोमर परशु पाश॥१३॥ कुंत त्रिशूल शार्ङ्ग धनुष इन उत्तम आयुधोको दैत्योंके देहके नाशके लिये और भक्तोंके अभयके लिये॥१४॥ और देवोंके हितके लिये धारण कियेहैं हे महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ऐसी तुमकों नमस्कारहो॥१५॥

महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥ त्राहिमांदेविदुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्द्धिनि॥१६॥ प्राच्यां रक्षतुमामैन्द्री आग्नेय्यां भयवर्द्धिनी॥ दक्षिणेऽवतुवाराहीनैर्ऋत्यांखङ्गधारिणी॥१७॥ प्रतीच्यां वारुणीरक्षेद्वायव्यां मृगवाहिनी॥ उदीच्यां पातुकौमारी ईशान्यां शूलधारिणी॥१८॥ ऊर्ध्वं ब्रह्माणीमेरक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा॥ एवं दशदिशो रक्षेच्चामुण्डाशववाहना॥१९॥ जयामेचाग्रतः पातुविजयापातुपृष्ठतः॥अजितावामपार्श्वे तुदक्षिणेचापराजिता॥२०॥

टीका—और हेमहाबले हेमहोत्साहे हेमहाभयविनाशिनि हे दुष्प्रेक्ष्ये हे शत्रुओंके भय बढानेवाली तुम मेरी रक्षा करो॥१६॥ पूर्वके विषे ऐंद्री मेरी रक्षा करो और अभिकोणके विषे भयवर्द्धिनी रक्षा करो और दक्षिणके विषे वाराही और नैर्ऋतके विषे खङ्गधारिणी मेरी रक्षा करो॥१७॥ और पश्चिमके विषे वारुणी और वायु कोणके विषे मृगवाहिनी और उत्तरके विषे कौमारी और ईशानीके विषे शूलधारिणी मेरी रक्षा करो॥१८॥

और मेरे उपर ब्रह्माणी रक्षा करो तिसीप्रकार नीचे वैष्णवी रक्षा करो ऐसे शववाहना चामुंडा दशो दिशामें रक्षाकरो॥१९॥ और मेरे अगाडी जया रक्षा करो और विजया पीठ पीछेरक्षा करो और अजिता वामपार्श्वके विषे और अपराजिता दक्षिणपार्श्वके विषे रक्षा करो॥२०॥

शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमामूर्ध्नि व्यवस्थिता॥ मालाघरीललाटे च भुवौरक्षेद्यशस्विनी॥२१॥ त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्येयमघण्टा चनासिके॥शंखिनीचक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी॥२२॥ कपोलौकलिकारक्षेत्कर्णमूलेतुशांकरी॥ नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठेचचर्चिका॥२३॥ अधरेचामृतकलाजिह्वायां च सरस्वती॥ दन्तान्रक्षतु कौमारीकण्ठदेशेतु चण्डिका॥२४॥ घण्टिकां चित्रघण्टा च महामायाचतालुके॥ कामाक्षीचिबुकं रक्षेद्वाचं मे सर्वमंगला॥२५॥

टीका—और शिखाकी उद्योतिनी रक्षा करो और उमा मूर्द्धके विषे स्थित हुई रक्षा करो और मालाधरी ललाटके विषे रक्षा करो और भुकुटिओंकीयशस्विनी रक्षा करो॥२१॥ और त्रिनेत्रा भ्रुकुटीओंके मध्यमें और नासिकाकी यमघण्टा रक्षा करो और नेत्रोंके मध्यमें शंखिनी और श्रोत्रोंके विषे द्वारवासिनी रक्षा करो॥२२॥ और कपोलोंकी कालिका रक्षा करो और कर्णमूलके विषे शांकरी रक्षा करो और नासिकाके विषे सुगंधा और उत्तरोष्ठके विषे चर्चिका रक्षा करो॥२३॥ और अधरोष्ठके विषे अमृतकला और जिह्वाकेविषेसरस्वती रक्षा करो और दंतोंकी कौमारी रक्षा करो और कंठदेशके विषे चंडिका रक्षा करो॥२४॥ और घंटिकाकी चित्रघण्टा रक्षा करो और महामाया तालुके विषे रक्षा करो और कामाक्षी ठोडीकी रक्षा करो और सर्वमङ्गला मेरी वाणीकी रक्षा करो॥२५॥

ग्रीवायां भद्रकालीचपृष्ठवंशेधनुर्धरी॥ नीलग्रीवाबहिः कण्ठे नलिकां नलकूबरी॥२६॥ स्कन्धयोः खङ्गिनीरक्षेद्बाहू मे वज्र

धारिणी॥ हस्तयोर्दण्डनीरक्षेदम्बिकाचांगुलीषु च॥२७॥ नखाञ्छूलेश्वरीरक्षेत्कुक्षौर-क्षेत्कुलेश्वरी॥ स्तनौरक्षेन्महादेवी मनश्शोकविनाशिनी॥२८॥ हृदयेललिता देवीउदरेशूल-धारिणी॥ नाभौचकामिनीरक्षेद्गुह्यं गुह्येश्वरी तथा॥२९॥ पूतना कामिकामेंढ्रं गुदेमहिषवाहिनी कट्यां भगवतीरक्षेज्जानुनीविन्ध्यवासिनी॥३०॥

टीका—और गलेके विषे भद्रकाली और पृष्ठके वंशके विषे धनुर्धरी रक्षा करो और कंठके बहिः प्रदेशके विषे नीलग्रीवा रक्षा करो और नलिकोंकी नलकूबरी रक्षा करो॥२६॥ और कंधूके विषे खङ्गिनी रक्षा करो और मेरी भुजाकी वज्रधारिणी रक्षा करो और हस्तोंके विषे दंढिनी रक्षा करो और अंगुलिओंके विपे अंबिका रक्षा करो॥२७॥ श्वरी रक्षा करो और कुक्षिके विषे कुलेश्वरी रक्षा करो और स्तनोंकी मनका शोक दूर करनेवाली महादेवी रक्षा करो॥२८॥ और हृदयके विषे ललिता देवी और उदरके विषे शूलधारिणी और नाभिके विषे कामिनी रक्षा करो तिसीप्रकार गुह्यस्थानकी गुह्येश्वरी रक्षा करो॥२९॥ और पूतना कामिका शिश्नकी रक्षा करो और गुदस्थानके विषे महिषवाहिनी और कटिदेशके विषे भगवती रक्षा करो और गोडों की विंध्यवासिनी रक्षा करो॥३०॥

जंघेमहाबलारक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी॥ गुल्फयोर्नारसिंहीच पादपृष्ठेतुतेजसी॥३१॥ पादांगुलीषु श्रीरक्षेत्पादाधःस्थलवासिनी॥ नखान्दंष्ट्राकरालीच केशंश्चैवोर्ध्वकेशिनी॥३२॥ रोमकूपेषु कौमारीत्वचं वागीश्वरी तथा॥ रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमदांसि पार्वती॥३३॥ अन्त्राणिकालरात्रीचपित्तंच मुकुटेश्वरी॥ पद्मावतीपद्मकोशेकफेचूडामणिस्तथा॥३४॥ ज्वालामुखीनसाजालमभेद्यासर्वसंधिषु॥ शुक्रंब्रह्माणी मेरक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा॥३५॥

टीका—और सर्व मनोरथोकी देनेवाली महाबला जंघाओंकी रक्षा करोऔर टाँकनाके विषे नारसिंही और पैरोके पृष्ठ के विषे तैजसी रक्षा करो॥३१॥ और पैरोंकी अंगुलिओंके विषे श्री रक्षा करो और पैरेका अधोभागकी स्थलवासिनी रक्षा करो और नखकी दष्ट्राकराली और केशोंकी ऊर्ध्वकेशिनी रक्षा करो॥३२॥ और रोमकूपोंके विषे कौमारी रक्षा करो तिसीप्रकार त्वचाकी वागीश्वरी रक्षा करो और रक्त मज्जा वसा मांस अस्थि मेद इनकी पार्वती रक्षाकरो॥३३॥ और आतोंकी कालरात्रि रक्षा करो और पित्तकी मुकुटेश्वरी रक्षाकरो और तिसीप्रकार पद्मावती पद्मकोशके विषे और कफके विषे चूडामणि रक्षा करो॥३४॥ और ज्वालामुखी नसाजालकी रक्षा करो और अभेद्या सभसंधिओं के विषे रक्षा करो और वीर्यकी ब्रह्माणी रक्षा करो तिसीप्रकार छायाको छत्रेश्वरी रक्षा करो॥३५॥

अहंकारं मनोबुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥ प्राणापानौ तथाव्यानमुदानं च समानकम्॥३६॥ वज्रहस्ता चमे रक्षत्प्राणकल्पं च शोभना॥ रसेरूपेचगन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी॥३७॥ सत्त्वं रजस्तमश्चैवरक्षेन्नारायणीसदा॥आयूरक्षतुवाराहीधर्मं रक्षतु वैष्णवी॥३८॥यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥ गोत्रमिन्द्राणीमेरक्षेत्पशून्मेरक्ष चण्डिके॥३९॥ पुत्रान्रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यारक्षतु भैरवी॥ पन्थानं सुपथारक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा॥४०॥

टीका—और मेरा अहंकार मन और बुद्धि इनकी धर्मधारिणी रक्षा करो तिसीमकार मेरा प्राण अपान व्यान उदान समान॥३६॥ इन पंच प्राणों की वज्रहस्ता रक्षा करो और प्राणकल्पकी शोभना रक्षा करो रसके विषे रूपके विषे गंधके विषे शब्दके विषे स्पर्शके विषे योगिनी रक्षा करो॥३७॥ और सर्वदा सत्वगुण रजोगुण तमोगुण इनकी नारायणी रक्षा करो और आयुकी वाराही रक्षा करो और धर्मकी वैष्णवी रक्षा करो॥३८॥

यश कीर्ति लक्ष्मी धन विद्या इनकी चाकणी रक्षा करो हे इन्द्राणि तुम मेरे गोत्रकी रक्षाकरो और हेचंडिके तुम मेरे पशुओंकी रक्षाकरो॥३९॥ पुत्रोंकी महालक्ष्मी रक्षाकरो भार्याकी भैरवी रक्षाकरो और पन्थाकी सुपथा और तिसीप्रकार मार्गकी क्षेमकरी रक्षाकरो॥४०॥

राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजयासर्वतः स्थिता॥रक्षाहीनंतुयत्स्थानंवर्जितं कवचेनतु॥४१॥ तत्सर्वं रक्षमे देविजयन्तीपापनाशिनी॥ पदमेकं न गच्छेत्तुयदीच्छेच्छुभमात्मनः॥४२॥ कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैवगच्छति॥ तत्रतत्रार्थलाभश्चविजयः सार्वकामिकः॥४३॥ ययंचिंतयते कामं तं तं प्राप्नोतिनिश्चितम्॥ परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतलेपुमान्॥४४॥ निर्भयोजायतेमर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः॥ त्रैलोक्येतु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतःपुमान्॥४५॥

टीका—राजद्वारके विषे महालक्ष्मी रक्षाकरो तिसीप्रकार चौतरफ स्थितहुई विजया रक्षाकरो और रक्षा करके रहित और कवच करके वर्जित जो स्थान॥४१॥ तिस संपूर्ण मेरे स्थानकी पापोंके नाश करनेवाली ऐसी जयंती देवि तुम रक्षाकरो और जो मनुष्य अपना शुभ चाहें तो कवचविना एकपैड न चले॥४२॥ और जो कवच करके युक्तहुवा मनुष्य नित्यप्रति जहां जहां जाताहै वहां तहां उसको लाभ होता है और उसका विजय होता है॥४३॥ फिर वह मनुष्य जिस जिस कामकी इच्छा कर्त्ताहै तिस तिस कामको निश्वय करि प्राप्त होता है और पृथ्वीके विषे अतुल उत्तम ऐश्वर्यकोे प्राप्तहोताहै॥४४॥ फिर वह कवच करके आवृत पुरुष संग्रामके विषे निर्भय और अपराजित होताहै और त्रिलोकीके विषे पूज्य होवे॥४५॥

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्॥यः पठेत्प्रयतोनित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥ दैवीकलाभवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः॥ जीवेद्वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः॥४७॥ नश्यन्तिव्याधयः सर्वेलूताविस्फोटकादयः॥ स्थावरजंगमं

चैवकृत्रिमं चापिय द्विषम्॥४८॥ अभिचाराणिसर्वाणिमं त्रयं त्राणिभूतले॥भूचराःखेचराश्चैवकुलजाश्चोपदेशिकाः॥॥४९॥ सहजाकुलजामालाडाकिनीशाकिनी तथा॥ अन्तरिक्षचराघोराडाकिन्यश्च महाबलीः॥५०॥

टीका—और यह देवीका कवच देवता ओंकोभीदुर्लभहै जो पुरुष श्रद्धाकरके युक्त और एकाग्रचित्तहुवा इस कवचको नित्यप्रति त्रिकालपढे॥४६॥ तो उस पुरुषकी देवीके समान कला होवे और वह तीनो लोकोंके विषे किसी करके पराजित नहीं होवे और वह अपमृत्युकरके वर्जितहुवा शतवर्ष जीवे॥४७॥ और लूता विस्फोटकासे आदिलेकर जे व्याधिहै और स्थावर शंखिया आदि जंगम सर्प आदि कृत्रिम बनाहुवा जो तीन प्रकारका विषहै ये संपूर्ण उपद्रव उस पुरुषके नष्ट हो जाते है अर्थात् उस पुरुषको क्लेश नहीं देशकतेहैं॥४८॥ और पृथ्वीके विषे मंत्रयंत्ररूपी जे अभिचारहैं अर्थात् मूठ आदि कर्त्तवहै और भूचर खेचर कुलज उपदेशिक येभीसंपूर्ण उपद्रव उसपुरुषकों स्पर्श नहीं कर शकतेहै॥४९॥ और सहजा कुलजा माला तथा डाकिनी शाकिनी और अंतरिक्षमें विचरनेवाली भयंकर और बलवान् जेडाकिनी॥५०॥

ग्रहभूतपिशाचाश्चयक्षगन्धर्वराक्षसाः॥ ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूश्माण्डाभैरवादयः॥५१॥ नश्यन्तिदर्शनात्तस्यकवचेत्दृदिसंस्थिते॥मानोन्नतिर्भवेद्राज्यंतेजोवृद्धिकरं परम्॥५२॥ यशसावर्धते सोऽपिकीर्तिमण्डितभूतले॥ जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वातुकवचं पुरा॥५३॥ यावद्भूमंडलंधत्तेसशैलवनकाननम्॥ तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥ देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्॥प्राप्नोति पुरुषोनित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥ लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते॥५६॥ इति वाराहपुराणेहरिहरब्रह्मविरचितं देव्याः कवचं समाप्तम् ॥ श्रीजगदंबार्पणमस्तु॥

टीका—और ग्रह भूत पिशाच यक्ष गन्धर्व राक्षस ब्रह्मराक्षस बेताल कूष्मांड भैरव इन आदि ने उपद्रव है॥५१॥ वे जिसके हृदयके विषे कवच स्थित हुएसंते तिसके दर्शनमात्रसे ये संपूर्ण नष्ट होजाते है अर्थात् स्पर्श नहीं कर सकते है और पृथ्वीके ऊपर इस कवचके प्रतापसे उस पुरुषके मानकी उन्नति होवे और तेजको बढानेवालो उस पुरुषको उत्तम राज्य होवे॥५२॥ और जो पुरुष पहिले कवचकों करके सप्तशती चण्डीको जपे बह पुरुषभी कीर्त्ति करके शोजित भूमण्डलके विषे यश करके बढताहै॥५३॥ और जब पर्यंत शेष भूमण्डलको धारण कर्त्ता है तब पर्यन्त पृथ्वीके विषे उस पुरुषकीपुत्रपौत्रकी संतति स्थित रहती है॥५४॥ फिर देहके अंत समयके विषे वह पुरुष महामायाकी कृपासे देवताओं करकेभी जो दुर्लभ स्थान है तिसको निश्चयकर प्राप्त होताहै॥५५॥ फिर मनोहर रूपको प्राप्त होताहैऔर शिवजीके साथ आनंद कर्त्ता है॥५६॥ इति वाराहपुराणे हरिहरब्रह्मविरचितं देव्याः कवचं समाप्तम्॥॥॥॥॥

इति देव्याः कवचं समाप्तम्।

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श्रीः।

अथ अर्गलास्तोत्रम्।

ॐ नमश्चण्डिकायै॥ जयन्तीमङ्गलाकालीभद्रकालीकपालिनी॥ दुर्गाक्षमाशिवाधात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते॥१॥ जयत्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणी॥जय सर्वगते देविकालरात्रि नमोस्तुते॥२॥ मधुकैटभविद्याविविधातृवरदेनमः॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥३॥ महिषासुरनिर्णाशिभक्तानां सुखदेनमः॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥४॥ रक्तबीजवधे देविचंडमुंडविनाशिनि॥ रूपं देहि जयं देहि यशोदेहि द्विषो जहि॥५॥

टीका—ॐ नमश्चण्डिकायै। जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा, स्वधा तु्ह्मारेको नमस्कार॥१॥ हे देवि हे चामुण्डे तुह्मारा जय हो हे भूतार्त्तिहारिणि तुह्मारा जय हो हे सर्वगते तुम्हारा जयहो हे कालरात्रि तुमको नमस्कार॥२॥ हे मधुकैटभकों मोह प्राप्त करनेवाली हे ब्रह्माकों पर देनेवाली हमको रूप द्यो जय द्योयश द्योहमारे शत्रुओंको मारो॥३॥ हे महिषासुर को मारनेवाली और हे भकोंको सुख देनेवाली तुमको नमस्कार हमको रूप जय यश द्यो और हमारे शत्रुओंको मारो॥४॥ हेरक्तबीजको मारनेवाली हे चण्डमुण्डकों विनाश करनेवाली हमको रूप, जय, यश द्योऔर हमारे शत्रुओंको मारो॥५॥

शुंभस्यैवनिशुंभस्य धूम्राक्षस्यचमर्दिनि॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥६॥ वन्दितांघ्रियुगेदे विसर्वसौभाग्यदायिनि॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥७॥ अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥८॥ नतेभ्यः सर्वदाभक्त्यांचण्डिकेदुरितापहे॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥९॥ स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिकेव्याधिनाशिनि॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१०॥

टीका—हे शुंभ और निशुंभ और धूम्राक्ष इनका नाश करनेवाली हमको रूप, जय, यश द्योऔर हमारे शत्रुओं को मारो॥६॥ हे वन्दित हैं पादयुग्म जिसके ऐसी हे सर्व सौभाग्यकी देनेवाली हमकों रूप, जय, यश द्योऔर हमारे शत्रुओंको मारो॥७॥ नहीं चिंतवन किये जाय रूप और चरित्र जाके ऐसी हे देवि और हे सर्व शत्रुओंका विनाश करनेवाली हमको रूप, जय, यश द्यो और शत्रुओंको मारो॥८॥ हे चण्डिके हे पापों को नाश करनेवाली सर्वकाल भक्ति करके नत जे हम हैं हमकों रूप, जय, यश द्योऔर शत्रुओं को मारो॥९॥ हे चण्डिके हे व्याधिनाशिनी भक्तिपूर्वक स्तुति कर्तेहुएको रूप, जय, यश द्योऔर शत्रुओंको मारो॥१०॥

चण्डिके सततं येत्वामर्चयंतीहभक्तितः॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥११॥ देहिसौभाग्यमारोग्यं देहिमेपरमं सुखं॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१२॥ विधेहिद्विषतां नाशं विधेहिबलमुच्चकैः॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१३॥ विधेहिदेविकल्याणं विधेहिपरमांश्रियं॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१४॥ सुरासुरशिरोरत्ननिष्पृष्टचरणेऽम्बिके॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१५॥

टीका—हे चण्डिके इस भूलोकके विषे जे कोई भक्तिसे तुमको पूजते हैं तिनको रूप, जय, यश द्यो और तिनके शत्रुओंको मारो॥११॥ हे देवि हमको सौभाग्य, आरोग्य, उत्तम सुख द्यो और रूप, जय, यश द्योऔर शत्रुओंको मारो॥१२॥ हे देवि शत्रुओंको नाश करो हे देवि बडा पराक्रम करो और रूप, जय, यश द्योऔर शत्रुओंको मारो॥१३॥ और हे देवि कल्याण, उत्कृष्ट लक्ष्मी करो और रूप, जय, यश द्यो और शत्रुओंको मारो॥१४॥ और सुर और असुर इनके शिरोरत्न करके निघृष्टहै चरण जाके ऐसी तुम हे अंबिके रूप, जय, यश द्यो और शत्रुओंको मारो॥१५॥

विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवंतं जनं कुरु॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१६॥ प्रचण्डदैत्यदर्पघ्नेचण्डिके प्रणतायमे॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१७॥ चतुर्भुजे चतुर्वक्रसंस्तुते परमेश्वरि॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१८॥ कृष्णेन संस्तुतेदेविशश्वद्भक्त्यासदाम्बिके॥रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥१९॥ हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२०॥

टीका—और विद्यावान् लक्ष्मीवान् और यशस्वी पुरुष मेरेको करो और रूप जय यश द्योऔर शत्रुओंकों मारो॥१६॥ और हे प्रचण्ड दैत्योंका गर्वविध्वंसन करनेवाली हेचण्डिके भक्तिसे प्रणत जो मेहूँ तिसकों रूप जय यश द्योऔर शत्रुओं को मारो॥१७॥ हे चार भुजावाली हेबाह्मसंस्तुते हे परमेश्वरि हमकों रूप जय यश द्यो और शत्रुओंको मारो॥१८॥ और हे कृष्णकरके निरंतर भक्तिसे सदा स्तुति किईहुई हे अंबिके हमको रूप जय यश द्यो और शत्रुओंको मारो॥१९॥ और हे शिवकरके स्तुति किईहुई हेपरमेश्वरि हमकों रूप जय यश द्यो और शत्रुओंको मारो॥२०॥

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२१॥ देविप्रचण्डदोर्दंडदैत्यदर्पविनाशिनी॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥२२॥ देविभक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदम्बिके॥ रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥॥२३॥ पत्नींमनोरमां देहिमनोवृत्तानुसारिणीम्॥ तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥२४॥इदं स्तोत्रं पठित्वातुमहास्तोत्रं पठेन्नरः॥ सतुसप्तशती संख्यावरमाप्नोति सम्पदाम्॥२५॥

इतिमार्कण्डेयपुराणे अर्गलास्तोत्रं समाप्तम्॥२॥

टीका—और हेइंद्राणि हे पतिसद्भावपूजिते हेपरमेश्वरि हमकों रूप जय

यश द्यो और शत्रुओंकों मारो॥२१॥ हेदेवि हेप्रचण्डभुजदण्डों करके दैत्योंका गर्वविध्वंस करनेवाली हमकों रूप जय यश दो और शत्रुओंको मारो॥२२॥हे देवि हेभक्तजनोंको अत्यन्त दियोहै आनन्दोदय जाने ऐसी तुम हमकों रूप जय यश दो और शत्रुओंकों मारो॥२३॥ और हे देवि मनको रंजन करनेवाली और हमारे मनके वृत्तान्तके अनुकूल चलनेवाली और दुर्गम संसाररूपी सागरके मध्यमें तरानेवाली ऐसी पत्नी हम को दो॥२४॥ और जो मनुष्य इसस्तोत्रकों पढके महास्तोत्र पढे वह मनुष्य संपत्तियोंका सप्तशतीसंख्यावरकों प्राप्तहोवे॥२५॥ इति मार्कण्डेय पुराणे अर्गलास्तोत्रं समाप्तम्॥

इति अर्गलास्तोत्रम्।

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श्रीः।

अथ कीलकस्तोत्रम्॥

ॐ नमश्चण्डिकायै॥ मार्कण्डेय उवाच॥ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे॥श्रेयः प्राप्तिनिमित्तायनमः सोमार्द्धधारिणे॥१॥ सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामपिकीलकम्॥ सोपिक्षेमम वाप्नोति सततं जाप्यतत्परः॥२॥ सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनिवस्तू निसकलान्यपि॥ एतेनस्तुवतां देवीं स्तोत्रमात्रेण सिद्ध्यति॥३॥न मंत्रं नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते॥ विनाजाप्येनसिद्ध्ये तसर्वमुच्चाटनादिकम्॥४॥ समग्राण्यपिसिद्ध्यंतिलोकशं कामिमां हरः॥कृत्वानिमंत्रयामास सर्वमेवमिदंशुभम्॥५॥

टीका—ॐनमश्चण्डिकायै। मार्कण्डेयऋषि जैमिनीसे वर्णन करतेभये परंतु प्रथमशिवकों नमस्कार किया कैसे कि विशुद्धज्ञानहै देह जिनका और तीनों वेद है दिव्यनेत्र जिनके और कल्याणप्राप्तिको कारण और अर्द्धचंद्रको मस्तकमें धारणकरनेवाले ऐसे शिवको नमस्कार॥१॥ फिर कहनेलगे मनुष्य मन्त्रोंकाभीयह संपूर्ण कीलक जानों जो निरन्तर इसके जाप्यमें तत्पर रहतहै सो निश्वयकारी क्षेमको प्राप्तहोताहै॥२॥और इसके जपमात्रसे उच्चाटन आदि कृत्य सिद्धहोतेहै और यावत्संपूर्ण वस्तुभी सिद्धहोतीहै और इसकरके स्तुति करतेहुओंके देवी स्तोत्रमात्रकरके सिद्धहोतीहै॥३॥ और न मन्त्र और न औषध कुछभी तिसके जाप्यके बिना सिद्ध नही होवे और तिसी प्रकार संपूर्ण उच्चाटनादिक सिद्ध न होवें॥४॥ फिरइन मन्त्रोंके प्रभावसे निश्वयकर संपूर्णवस्तु सिद्धहोती है तो लोकमें परस्पर ईर्ष्याकरके अन्याय होजायगा इस लोकशंकाको जानिके शिवजी सभ मन्त्रसमुदायकों कीलित किया॥५॥

स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तुतच्चगुप्तंचकारसः॥ समाप्नोतिस पुण्येनतांयथावन्नियन्त्रणाम्॥६॥ सोपिक्षेममवाप्नोति सर्वमेवन-

संशयः॥ कृष्णायां वाचतुर्द्दश्यामष्टम्यां वासमाहितः॥७॥ ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसिद्ध्यति॥ इत्थंरूपेणकीलेन महादेवेन कीलितम्॥८॥ यो निष्कीलां विधायैनांनित्यंज पतिसंस्फुटं॥प्रसिद्धः सगणस्सोपिगन्धर्वोजायतेनरः॥९॥ नचैवाप्यतस्तस्यभयंक्वापि-हि-जायते॥ नाऽपमृत्युवशं याति मृतोमोक्षमवाप्नुयात्॥१०॥

टीका—और चंडिकास्तोत्रकों गुप्तकिया और जो पुण्यवान् मनुष्यहै सो पुण्यके प्रभावकरके उस यथावत् नियंत्रणाको प्राप्तहोताहै॥६॥ और जो पुरुष कृष्णपक्षकी अष्टमीके और चतुर्दशीके विषे विधिसे सप्तशतीको उपदेश देताहै अथवा ग्रहणकर्त्ताहै वह पुरुष निश्चयकरि क्षेमकों प्राप्तहोताहै और प्रकारसे यह भगवती सिद्ध नही होतीहै इस प्रकारके कीलककरके शिवजीने मन्त्रसमूहको कीलितकिया॥७॥८॥ और जो पुरुष उत्कीलितकरके सुंदरप्रकारसे सप्तशतीकों जपताहै सो प्रसिद्ध और गणकरके सहित गन्धर्व होता है॥९॥ और विचरते हुए उस पुरुषको मार्गमें कहूँ भय उत्पन्न नहीं होता है और वह मनुष्य अपमृत्युके वश नही प्राप्तहोताहै और मरतेही मोक्षको प्राप्तहोताहै॥१०॥

ज्ञात्वाप्रारभ्य कुर्वीत नकुर्वाणो विनश्यति॥ ततोज्ञात्वैवसम्पन्नमिदम्प्रारभ्यते बुधैः॥११॥ सौभाग्यादिचयत्किञ्चिदृश्यते ललनाजने॥ तत्सर्वं तत्प्रसादेनतेनजाप्यमिदं शुभम्॥१२॥ शनैस्तुजप्यमानेस्मिन्स्तोत्रेसम्पत्तिरुच्चकैः॥ भवत्येवसमग्रापिततः प्रारभ्यमेवतत्॥१३॥ ऐश्वर्यं यत्प्रसादेनसौभाग्यारोग्यसम्पदः॥ शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सानकिं जनैः॥१४॥

इति भगवत्याः कीलकस्तोत्रं समाप्तम्॥३॥ शुभंभूयात्॥

टीका—मनुष्य निश्चयात्मक जानिके और विधिसे प्रारंभ करके सप्तश-

तीको अनुष्ठानकरे और विधिसे अनुष्ठान नहीकर्त्ताहुवा मनुष्य नाशकोप्राप्त होताहै तिसकारणसे इसको विधान सहित जानिकेही विद्वान् प्रारंभ कर्त्तहै॥११॥ और जो कुछ सौभाग्य आदि स्त्रीजनमें दीखताहै वह सब तुम्हारी कृपा करके है तिसकारणसे तुहारा यह शुभस्तोत्र जपना चाहिए॥१२॥ और धीरेसे यह सप्तशतीस्तोत्र जपे जाते संते अथवा उच्चस्वरसे जपेजाते सन्ते निश्चयकरि मनुष्यके समग्रसंपत्ति होतीहै और तबसे लेकरही जिसकी कृपासे ऐश्वर्य सौभाग्य आरोग्य संपत्ति ये होतीहै फिर वह भगवती क्या मनुष्यो करके नहीं स्तुति किई जातीहै किन्तु किईही जातीहै॥२४॥ इति भगवत्याः कीलकस्तोत्रं समाप्तम्॥३॥

इति कीलकस्तोत्रं समाप्तम्।

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पुस्तक मिलनेका ठिकाना-

खेमराज श्रीकृष्णदास

“ श्रीवेङ्कटेश्वर” छापखाना (मुंबई.)

श्रीः।

अथ दुर्गासप्तशती

भाषाटीकासमेता।

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मार्कण्डेय उवाच।

सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः॥ निशामयतदुत्पत्तिं विस्तराद्गतोमम॥१॥ महामायानुभावेनयथामन्वंतराधिपः॥ सबभूवमहाभागः सावर्णिस्तनयोरवेः॥२॥ स्वारोचिपेंतरेपूर्वंचैत्र वंशसमुद्भवः॥ सुरथोनामराजाभूत्समस्तेक्षितिमण्डले॥३॥ तस्य पालयतः सम्यक्प्रजाः पुत्रानिचौरसान्॥ बभूवुः शत्रवो भूपाः कोलाविध्वंसिनस्तदा॥४॥

श्रीगणेशाय नमः॥ श्रीकृष्णचन्द्रो विजयतेतराम्॥ अथ भाषाटीकेयं सप्तशत्याः॥ एक समय तपस्या करते हुये महात्मा मुनियोंमें श्रेष्ठ ऐसे जो मार्कण्डेय ऋषि तिनसे बड़े तेजस्वी व्यासजीके शिष्य जैमिनि ऋषि प्रश्न करते भये हे मार्कण्डेय बुद्धिमानोमें श्रेष्ठ सब शास्त्रमें निपुण सब माहात्म्यनमें बढ़ा उत्तम जो देवीका माहात्म्य है ताहि श्रवण करिवेकी मेरी इच्छा है सो आप कृपा करि वर्णनकरो तब मार्कण्डेय ऋषि बोले हे जैमिनि तुमसे एक कथाप्रसंग ऐसा वर्णन करूंहूँ ताके बीचमें देवीहीको बहुत माहात्म्य है ताहि तुम श्रवण करो व्यासआदि ऋषियोंनैसूर्यका पुत्र सावर्णि मनुआठवाँ मनु कहा है ताकी उत्पत्ति विस्तारपूर्वक हमसे श्रवण करो॥१॥ वह सूर्यका पुत्र सावर्णि मनु महामाया भगवतीकी कृपासे जैसे आठवाँ मन्वन्तरका स्वामी होताभया तैसे आप चरित्र श्रवण करो॥२॥ पहिले स्वारोचिप मन्वन्तरके मध्यमें चैत्रवंशमें उत्पन्नसंपूर्ण भूमण्डलमें चक्रवर्ती सुरथ नाम राजा होता

गया॥३॥कैसा है वह राजा कि प्रजावोँकी पालना पुत्रोकीँसी तरह करनेवाला ताकी राजधानी नष्ट करनेके लिये यवन भूप शत्रु बन संग्राम वास्ते तयार होते भये॥४॥

तस्यतैरभवद्युद्धमतिप्रबलदण्डिनः॥न्यूनैरपिसतैर्युद्धेकोलाविध्वंसिभिर्जितः॥५॥ ततः स्वपुरमायातोनिजदेशाधिपोभवत्॥ आक्रान्तः समहाभागस्तैस्तदाप्रवलारिभिः॥६॥ अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य दुरात्मभिः॥ कोशोबलं चापहृतं तत्रापिस्वपुरेततः॥७॥ ततो मृगया व्याजेन हृतस्वाम्यः सभूपतिः॥ एकाकी हयमारुह्य जगाम गहनं वनं॥८॥

टी०—फिर राजाका शत्रुवोंके साथ बड़ा युद्ध हुवा वह राजा महा प्रबल शत्रुवोंको वश करनेॆवालाभी था परन्तु दैवयोगतें निर्बलोंनेभीराजाको जीत लिया॥५॥ पीछे संग्रामभूमिमें शत्रुवोंसे हारकर अपनी नगरीमें आते भये अपनो देशहीका स्वामी होताभया॥६॥ फिर उस नगरीके विषे दुर्बल वसता हुवा राजा ताका राज्य हरणके लिये दुष्ट मंत्रियोंनें फौज खजाना सब अपने वश करलिये॥७॥ऐसे जब राजाका सर्वस्व ले लिया ताके अनन्तर घोड़ापर बैठ शिकारका बहाना लेकर अकेला गंभीर वनेको जाता भया॥८॥

सतत्राश्रममद्राक्षीद्द्विजवर्यस्य मेधसः॥प्रशांतश्वापदाकीर्णं मुनिशिष्योपशोभितं॥९॥ तस्थौ कंचित्सकालं च मुनिना तेनसत्कृतः॥ इतश्चेतश्च विचरंस्तस्मिन्मुनिवराश्रमे॥१०॥ सोचिंतयत्तदा तत्र ममत्वाकृष्टमानसः॥ मत्पूर्वैः पालितं पूर्वं मयाहीनं पुरंहितत्॥ मद्भृत्यैस्तैरसद्वृत्तैर्धर्मतः पाल्यतेनवा॥॥११॥ नजानेसप्रधानो मे शूर हस्ती सदामदः॥ मम वैरिवशं यातः कान्भोगानुपलप्स्यते॥१२॥

टी०—फिर वा वनके विषे पशुहिंसासे रहित शान्त स्वभाववाले सिंह वगैरह करिकै युक्त मुनिको शिष्यमण्डलीसे शोभित ऐसा सुमेधा ऋषिका आश्रम देखताभया॥९॥ ताके अनन्तर जहां तहां विचरताहुवा मुनिके

आश्रममें पहुँचता गया मुनिने कोमल वचनोंसे राजाका सत्कार किया पश्चात् कुछ काल ता आश्रममें राजा निवासभी करता गया॥१०॥ तब वा आश्रमके विषे ममता करिकै व्याकुल है बुद्धि जिसकी ऐसा जो सुरथ राजा है सो चिन्ता करता गया कि हाय! जो पुर पहिले मेरे बढोंने वसा कर पालन किया था सो पुर मेरेसे शत्रुवोंने ले लिया फिर इस प्रकार मनमें विचार करने लगा कि निश्चय करिकै दुष्ट है चरित्र जिनके ऐसे मेरे मंत्रियोंसे आदि लेकर जे नौकर हैं वे मेरे पुरकी धर्मपूर्वक पालना करते हैं या नहीं॥११॥ और मेरा शूर हस्ती जो सदा मत्त रहता था वह मेरा शत्रुवोंके वश होकर कौनसे भोग भोगता होगा॥१२॥

ये ममानुगता नित्यं प्रसादधनभोजनैः॥ अनुवृत्तिं ध्रुवं तेद्य कुर्वंत्यन्यमहीभृताम्॥१३॥असम्यग्व्ययशीलैस्तैः कुर्वद्भिः सततंव्ययम्॥ सचिंतःसोतिदुःखेनक्षयं कोशो गमिष्यति॥१४॥ एतच्चान्यच्चसततंचिंतयामासपार्थिवः॥ तत्र विप्राश्रमाभ्याशे वैश्यमेकं ददर्श सः॥१५॥ सपृष्टस्तेनकस्त्वंभोहेतुश्चागमनेऽत्रकः॥सशोक इव कस्मात्त्वं दुर्मना इव लक्ष्यसे॥१६॥

टीका—और जे मेरे सेवक धन भोजनादिक से संतुष्ट थे वे अनाथ और राजावोँकी निश्चय करिकै सेवा करते होंगे॥१३॥ और बडे दुःखसे संचय कियाहुवा जो खजानाहै सो अब बुरीरीतिसें खर्च करनेवाले मंत्रियोंकरिकै नष्ट होजायगा॥१४॥ इन बातोंकों तथा अन्य बातोँको शोच करिकै राजा शोकयुक्त चिन्ता करताभया ता समय वा आश्रमके समीप राजा एक वैश्यको देखता गया॥१५॥ और पूछने लगा कि हे भाई! तुम कौनहो? किसकारणसे इस अश्रममें तुह्मारा आगमन हुवा?किसकारणसे तुम शोकयुक्तसे दीखतेहो और विमनसे कैसे दीखतेहो॥१६॥

इत्याकर्ण्य वचस्तस्य भूपतेः प्रणयोदितम्॥ प्रत्युवाच सतंवैश्चयः प्रश्रयावनतोनृपं॥१७॥ वैश्य उवाच॥ समाधिर्नाम

वैश्योहमुत्पन्नोधनिनां कुले॥ पुत्रदारैर्निरस्तश्चधनलोभादसाधुभिः॥१८॥ विहीनश्चधनैर्दारैः पुत्रैरादायमेधनम्॥ वनमभ्यागतोदुःखीनिरस्तश्चाप्तबन्धुभिः॥१९॥ सोहं न वेद्मि पुत्राणां कुशलाकुशलात्मिकाम्॥प्रवृत्तिं स्वजनानां चदाराणां चात्रसंस्थितः॥२०॥

टीका—ऐसे कोमल वचन राजाके श्रवण करिकै वैश्य विनयपूर्वक बोलता गया॥१७॥वैश्य बोला हे राजन् मैं समाधिनाम वैश्यहूँ और धनवानोंके वंशमें उत्पन्न हुवाहूँ धनलोभसे पुत्र स्त्री स्वजनों करिकै तिरस्कृतहूँ॥१८॥ और संपूर्ण स्त्री पुत्र बंधु परिवारने मेरा धन छीनकर तिरस्कार किया सो धनहीन दुःखी होकर दशोंदिशोंमें भ्रमताहुवा वनमें आयाहूँ और पुत्रादिकनसे वियुक्तहूं इसकारण से मैं शोकयुक्तहूँ॥१९॥ और मैं या वनके बीचमें स्थित हुवा स्त्री पुत्र मित्रादिकनकी कुशल क्षेमकी वार्त्ताभी नहीं जानता हूँ॥२०॥

किं नु तेषां गृहे क्षेममक्षेमं किंनु सांप्रतम्॥ कथं ते किंनु सद्वृत्तादुर्वृत्ताः किंनुमे सुताः॥२१॥ राजोवाच॥ यैर्निरस्तोभवाल्लुँब्धैः पुत्रदारादिभिर्धनैः॥ तेषु किं भवतः स्नेहमनुबध्नाति मानसम्॥२२॥ वैश्यउवाच॥ एवमेतद्यथाप्राह भवानस्मगतं वचः॥ किंकरो मिनाबध्नाति ममनिष्ठुरतांमनः॥२३॥ यैः सन्त्यज्यपितृस्ने इंधनलुब्धैर्निराकृतः॥ पतिस्वजनहार्द्दं च हार्दितेष्वेव मे मनः॥२४॥

टीका—और स्त्री पुत्र बंधु जनोंके घरमें कुशलहै या नहीं अब यह वार्त्ता कैसे निश्वय करूं वे मेरे पुत्र जे हैं ते सुमार्गमै हैं या कुमार्ग में यह दोनो वार्त्ता मेरेकों कैसे निश्चय होंय॥२१॥ तब सुरथराजा बोलते गये कि हे वैश्य! धनके लोभते स्त्री पुत्रादिकोंने तुह्मारा निरादर किया ऐसे कुटिल स्त्री पुत्रादिकनके विषे तुह्मारा चित्त स्नेह कैसे करताहै॥२२॥ वैश्यने कहा कि हे राजन्! जैसा आपने कहा वह ऐसाही है परंतु मैं क्या करूं मेरा मन कठोरताको नहीं धारणकरता॥२३॥ धनके लोभी जिन दुष्टोंने पिताका स्नेह

और स्त्रीनें पतिका स्नेह छोडकर मुझको निकालदिया फिर भी तिनमेंही मेरा मन स्नेहयुक्तहै॥२४॥

किमेतन्नाभिजानामि जानन्नपि महामते॥यत्प्रेमप्रवणं चित्तं विगुणेष्वपि बंधुषु॥२५॥ तेषां कृते मेनिःश्वासोदौर्मनस्यं च जायते॥ करोमि किं यन्नमनस्तेष्वप्रीतिषुनिष्ठुरम्॥२६॥ मार्कंडेय उवाच॥ ततस्तौ सहितौ विप्रतं मुनिं समुपस्थितौ॥ समाधिर्नामवैश्यो सौसचपार्थिवसत्तमः॥२७॥ कृत्वातुतौ यथान्यायं यथार्हंतेन संविदम्॥ उपविष्टौ कथाः काश्चिच्चक्रतुर्वैश्यपार्थिवौ॥२८॥

टीका—हेराजन्। गुण करिकैहीन जे मेरे बन्धु हैं तिनके विषेभी मेरा चित्त प्रेमयुक्तहै यह जानताहुवाभीमैं चित्तको रोक नहीं सकताहूँ॥२५॥ हे राजन् और मेरे विषे जिनकी प्रीति नहीं ऐसे जे मेरे पुत्रादिकहैं तिनके लिये मेरेको शोक और चित्तको ग्लानिहै मैं क्याकरूं मेरा चित्त उनके विषे कठोरता धारण नहीं करता है॥२६॥ मार्कण्डेयऋषि बोले हेजैमिनि ता प्रसंगके अनंतर मित्रभावसे समाधिनाम वैश्य और सुरथराजा ये दोनो सुमेधाॠषिके समीप जा पहुँचे॥२७॥ फिर वे दोनोजनोने यथाशास्त्र और यथायोग्य मुनीश्वरसे संभाषणादि किया फिर मुनीने कोमलवाणीसे सत्कार पूर्वक बैठालिये फिर ये मुनीश्वरसे अपने स्वार्थकी वार्त्ता पूंछते गये॥२८॥

राजोवाच॥ भगवंस्त्वामहं प्रष्टुमिच्छाम्येकं वदस्वतत्॥ दुःखाययन्मे मनसः स्वचित्तायत्ततां विना॥२९॥ मम त्वं गत राज्यस्यराज्यांगेष्वखिलेष्वपि॥ जानतोपियथाज्ञस्य किमेतन्मुनि सत्तम॥३०॥ अयं च निकृतः पुत्रैर्दारैर्भृत्यैस्तथोज्झितः॥ स्वजनेन च संत्यक्तस्तेषुहार्दी तथाप्यति॥३१॥एवमेषतथाहं चद्वावप्यत्यंतदुःखितौ॥ दृष्टदोषेपि विषये ममत्वाकृष्टमानसौ ३२॥

टीका—राजा बोले कि हे भगवन् तुह्मारेसे एक रहस्य पूछनेकी इच्छा

करूंहूं ताहि तुम कहो मेरे चित्तकी अपने निश्चयात्मक स्वरूपके विषे एकाग्रता विना जो अवस्थाहै सो दुःख देरहीहै॥२९॥ हे मुनिसत्तम! राज्य मेरा चलागया यह मैं जानताजीहूँ परंतु स्वामी, अमात्य, सुहृत्, कोश, राष्ट्र दुर्ग बल येंसात राज्यके अंगहै तिनके विषे मेरी अज्ञानीकीसी तरह ममताहै सो क्या कारणहै॥३०॥ और यह जो वैश्यहै सो पुत्र कलत्रादिकन करिकै तथा भ्रात्रादिकन करिकै त्यक्तहै तौभी उनके विषे अति स्नेहबान् है॥३१॥ और हेमुनिसत्तम !ऐसे यह तथा मैं दोनो दुःखी तहाँ देखाहै दोष जाके विषे ऐसे राज्यादिकनके विषेभीममत्व करिकै आधीनहै मन जिनका ऐसे हमहैं॥३२॥

तत्किमेतन्महाभाग यन्मोहोज्ञानिनोरपि॥ ममास्य च भवत्येषाविवेकांधस्न्यमूढता॥३३॥ ऋषिरुवाच॥ ज्ञानमस्तिसमस्तस्यजंतोर्विषयगोचरे॥ विषयाश्चमहाभागयांतिचैवं पृथक्पृथक्॥३४॥ दिवांधाः प्राणिनः केचिद्रात्रावंधास्तथापरे॥ केचिद्दिवातथारात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः॥३५॥ ज्ञानिनोमनुजाः सत्यं किं नु तेन हि केवलं॥ यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिमृगादयः॥

टीका—सो महाभाग हे मुने जिस कारणसे हम दोनो ज्ञानवानोंको भी मोहहै यह क्या कारणहै जा मोहते यह विवेकरहित मनुष्यके योग्य जो अज्ञानता सो हमको होरहीहै॥३३॥ तब ऋषि बोले कि हेराजन्! समस्त प्राणियोंकों इंद्रियके विषयमे ज्ञानहै और मोक्षके विषे ज्ञान नहींहै और हे महाभाग इन्द्रियनकी जे वृत्तिहैंते पृथक् पृथक् विषयताको प्राप्त होरहीहैं॥३४॥ हेराजन् ! कितेक उलूकादिक प्राणी दिनमें दृष्टि हीनहैं और कित्तेक काकादिक प्राणी रात्रिके विषे दृष्टिहीनहैं और कित्तेक प्राणी अश्वसे आदि लेकर रात्रि दिनके विषे तुल्य दृष्टिवालेहैं॥३५॥ हेराजन्। तुमने कहा कि मनुष्य ज्ञानीहैं सो सत्यहै परंतु केवल मनुष्यही ज्ञानी नहींहै किन्तु मनुष्योंते अन्य पशु पक्षी मृगादिक ये सब ज्ञानी हैं॥३६॥

ज्ञानं च तन्मनुष्याणां यत्तेषां मृगपक्षिणाम्॥ मनुष्याणां चयत्तेषां तुल्यमन्यत्तथोभयोः॥३७॥ ज्ञानेपिसतिपश्यैतान्पतङ्गाञ्छावचंचुषु॥ कणमोक्षादृतान्मोहात्पीड्यमानानपिक्षुषा॥३८॥ मानुषामनुजव्याघ्रसाभिलाषाःसुतान्प्रति॥ लोभात्प्रत्युपका रायनन्तान्किं न पश्यसि॥३९॥ तथापि मम तावर्तेमोहगर्ते निपातिताः॥ महामायाप्रभावेण संसारस्थितिकारिणा॥४०॥

टी०—हे राजन! जो स्वभावोत्पन्न ज्ञान मृग पक्षियोंको है वह मनुष्यनको नहीं है और मनुष्यनको जो शास्त्रोक्त ज्ञान है सो मृग पक्षियों को नहीं है और आहार निद्रा विषयादि ज्ञान मनुष्य मृग पक्षी इत्यादिकनको समान है॥३७॥ और हे राजन् क्षुधा करिकै पीडित जे पक्षी हैं तिनको यह ज्ञानभी है कि जे कण पुत्रोंके मुखमें गेरिवे योग्य हैं ते कण हम भक्षण करितें तो क्षुधा हमें बाधा नहीं करैंतौभी मोहते अपने पुत्रोंके चंचुवोंमें कण गेरदेते हैं इह्नेंतुम देखो॥३८॥ और हे मनुजव्याघ्र वृन्दावस्थामें ये हमारी सेवा करेंगे इस प्रयोजनके लोभते पुत्रनके विषे मनुष्य कामनासहित व्है रहैं और इन्हे पशु पक्षी मृगादिक केवल ममतासेही पुत्रनके विषे आदरयुक्त हैं इन्हे तुम नहीं देखते हो और पुत्र प्रत्युपकारके लिये नहीं होतेहैं यह क्या तुम नहीं देखते हो॥३९॥ हे राजन् ! तौभी संसारकी पालना करनेवाला ऐसा जो महामायाका प्रभाव ताने या संसार रूपी समुद्रके ममतारूपी भँवर के मोहरूपी जो खाडा ताके विषे मनुष्पनको पटकरक्खे है॥४०॥

तन्नात्रविस्मयःकार्योयोगनिद्राजगत्पतेः॥ महामायाहरेश्चैषातयासंमोह्यते जगत्॥४१॥ ज्ञानिनामपिचेतांसिदेवीभगवतीहिसा॥ बलादाकृष्यमोहायमहामाया प्रयच्छति॥४२॥ तयाविसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम्॥सैषाप्रसन्नावरदानृणां भवति मुक्तये॥४३॥ साविद्यापरमा मुक्तेर्हेतुभूतासनातनी॥ संसारबंधहेतुश्चसैवसर्वेश्वरेश्वरी॥४४॥

टी०—सो या बात के विषे आश्चर्य करना योग्य नहीं क्यों कि जगत्के स्वामी विष्णुकी जो योगनिद्रा महामाया है ताने जगत्को मोहित कर राखा है॥४१॥ हे राजन्! कैसी है वह महामाया कि उपनिषदोंके विषे वर्णन किया जो ज्ञान है ताका अनुभव करनेवाले ऐसे जे ज्ञानवान् पुरुष हैं तिन केभी चिचनको बलसे खैंच कर ममताके आधीन करती है॥४२॥ फिर हे राजन्! वह भगवती कैसी है कि ता करिकै समस्त चराचर जगत् रचा जाता है सो यह प्रसन्न होनेसे मनुष्यनको वरदान और मोक्ष देतीहै॥४३॥ परन्तु हे राजन् उस मायाके दो भेद हैं एक तो विद्या और दूसरी अविद्या जो अविद्या रूपा माया है सो संसारके बन्धनमें कारण है और ब्रह्मादिकन कीभीस्वामिनी है और जो सनातनी विद्या रूपा माया है सो मोक्षका कारण है॥४॥

राजोवाच॥ भगवन्काहिसादेवीमहामायेतियां भवान्॥ ब्रवीति कथमुत्पन्नासाकर्मास्याश्च-किं द्विज॥४५॥ यत्प्रभावाचसादेवीयत्स्वरूपायदुद्भवा॥ तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामित्वत्तो ब्रह्मविदांवर॥४६॥ ऋषिरुवाच॥ नित्यैवसाजगन्मूर्तिस्तयासर्वमिदंततम्॥ तथा पितत्समुत्पत्तिर्बहुधा श्रूयतांमम्॥४७॥ देवानां कार्यसिद्ध्यर्थमाविर्भवतिसायदा॥ उत्पन्नेतितदालोकेसा नित्याप्यभिधीयते॥४८॥

टीका—तब राजा बोले हे भगवन् हे द्विज वह कौनसी देवी है जिसको आप महामाया कहतेहैं और कैसे उत्पन्न गई है इसका क्या कर्म है और क्या पराक्रम है॥४५॥ और हे ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ उस देवीका कैसा सामर्थ्य है और कैसा स्वरूप है और कैसा प्रादुर्भाव है ये संपूर्ण बात तुमसे श्रवण करिवेकी मेरी इच्छा है॥४६॥ तब ऋषि बोले संपूर्ण जगत्की आश्रयभूत शक्ति जा करिकै जगत् रचाहुवा हैं वह किसी करिकै रचित नहीं है तौभी बहुधा लोकके उपकारके वास्ते वाकी उत्पत्ति मेरेसे श्रवण

करो॥४७॥ हे राजन्! जब देवतानके कार्यकी सिद्धिके लिये प्रकट होती है तब वह नित्यभीहै परन्तु लोकमें उत्पन्न गई है यह कहा जाता है॥४८॥

योगनिद्रांयदाविष्णुर्जगत्येकार्णवीकृते॥आस्तीर्यशेषमभजरकल्पांते भगवान्प्रभुः॥४९॥ तदाद्वावसुरौ घोरौ विख्यातौमधुकैटभो॥ विष्णुकर्णमलोद्भूतौहंतुंब्रह्माणमुद्यतौ॥५०॥ सनाभिकमले विष्णोः स्थितो ब्रह्माप्रजापतिः॥ दृष्ट्वा तावसुरौ चोग्रौप्रसुप्तं च जनार्दनम्॥५१॥ तुष्टावयोगनिद्रां तामेकाग्रहृदयः स्थितः॥ विवोधनार्थाय हरेर्हरिनेत्रकृतालयां॥५२॥

टीका—हे राजन् ब्रह्मा के दिनके अनन्तर जो प्रलय ताकेविषे जब सात समुद्र करिके जुदा जुदा स्थापन किया हुवा जगत् एकार्णवताको प्राप्त हो गया ता समयकेविषे भगवान् ऐश्वर्यादिकनकरिकै सहित शेषशय्या बिछाय कर योगनिद्राका सेवन करते गये अर्थात् शयन करते गये॥४९॥ ता शयनसमयकेविषे विष्णुके कानोंके मैलसे मधु और कैटभ ये दो दैत्य उत्पन्न होते गये और ब्रह्माके मारनेको तयारगये॥५०॥ तब वह ब्रह्मा विष्णुकी नाभिकमलमें स्थित हुवा बड़े भयंकर असुरोंको देखकर और भगवान्को योगनिद्रासे शयन करता हुवा देखकर॥५१॥ एकाग्रचित्तहोयकर विष्णुके जगानेके लिये हरिके नेत्रोंमें कियो है निवास जाने ऐसी जो योगनिद्रा है ताकी स्तुति करतो गयो॥५२॥

विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्॥ निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः॥५३॥ ब्रह्मोवाच॥ त्वंस्वाहात्वं स्वधात्वं हिवषट्कारःस्वरात्मिका॥ सुधात्वमक्षरेनित्येत्रिधा मात्रात्मिकास्थिता॥५४॥ अर्धमात्रास्थितानित्यायानुच्चार्याविशेषतः॥ त्वमेव संध्यासावित्रीत्वं देविजननी परा॥५५॥ त्वयैतद्भार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्॥ त्वयैतत्पाल्यतेदेवित्वमत्स्यंते च सर्वदा॥५६॥

टीका—ब्रह्मा बोले अनंत है तेज जिनका ऐसे जे विष्णु तिनकी योगनिद्रा जो तुम हो तुह्मारी मैं स्तुति करता हूँ कैसी हो आप संसारकी रचनेवाली फिर कैसी हो आप जगत्का पोषण करनेवाली फिर कैसी हो आप जगत्का पालन और संहार करनेवाली॥५३॥ फिर कैसी हो आप देवतावों को हविर्दानमें स्वाहा मन्त्ररूप हो और पित्रीश्वरोंको अन्नदानमें स्वधा मन्त्ररूप हो और वषट्काररूप हो अर्थात् यज्ञरूप हो फिर कैसी हो तुम अकारसे आदि लेकर जे सोलह स्वर हैं तेई हैं स्वरूप जाको ऐसी हो फिर कैसी हो देवतायों के अन्नस्वरूप हो हे वृद्धि ह्रास करिके रहित हे नित्ये ब्राह्मीवैष्णवी माहेश्वरी ये लोकमांता है स्वरूप जाको इस तरह तीन प्रकारसे विराजमान हो॥५४॥ हे भगवती फिर तुम कसी हो जागृत्, स्वप्न, सुषुप्ति इन तीन अवस्थासे जुदी चौथी अवस्थाको प्राप्त ॐकारकेविषे अर्धमात्रारूप विराजमान हो और नित्य हो और आप परमात्मस्वरूप हो याते विशेषकरिकै वर्णन नहीं करी जाती हो फिर कैसी हो संध्यारूप हो और सावित्री रूप हो और वेदोंकी माता गायत्रीरूप तुम हो॥५५॥ फिर कैसी हो संपूर्ण जगत्को धारण करती हो और ब्राह्मी शक्तिरूपकरिकै जगत् रचती हो और वैष्णवी शक्तिरूपसे पालना करती हो और माहेश्वरी शक्ति रूपसे प्रलयविषे जगत्का संहार करती हो फिर भक्तोंको सर्व वस्तु देतीहो॥५६॥

विसृष्टौसृष्टिरूपात्वं स्थितिरूपाचपालने॥ तथा संहतिरूपां तेजगतोस्य जगन्मये॥५७॥ महाविद्यामहामायामहामेधामहास्मृतिः॥ महामोहा च भवती महादेवीमहेश्वरी॥प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी॥५८॥ कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्चदारुणा॥५९॥ त्वं श्रीस्त्वमीश्वरीत्वंह्नीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षण॥ लज्जापुष्टिस्तथातुष्टिस्त्वं शांतिः क्षांतिरेवच॥६०॥

टीका—हे जगन्मये फिर कैसी हो विशेषकरिकै जगत्के रचनेमैंसृष्टिरूप तुम हो और पालनेविषे स्थितिरूप हो और संहारके विषे संहृतिरूप

हो॥५७॥ और परब्रह्मको जाननेवाला ज्ञानरूप तुम हो और शरीरादिकोंके विषे जो आत्मबुद्धि ऐसी महामायारूप तुम हो और ध्यानरूप हो और महाममतारूप हो ऐश्वर्य युक्त हो और समस्त देवशक्तिरूप हो और हिरण्याक्षादि शक्तिरूप हो॥५८॥ जाके विषे विश्वको लय होय ऐसी कालरात्रि रूप तुम हो और जाके विषे ब्रह्माको मोक्ष होय ऐसी महारात्रि रूप तुम हो और संसारको रचनेवाली मोहरात्रिरूप तुम हो॥५९॥ फिर कैसी हो श्रीः लक्ष्मीबीजरूप हो ह्रीं कामबीजरूप तुमहो त्वं ह्रीः अर्थात् तुम भुवनेशी बीजरूपतुम हो निर्णयात्मक है स्वरूप जाको ऐसा अंतःकरणरूपी तुम हो और लज्जारूप हो पुष्टिरूप हो संतोष रूप हो शांतिरूप हो अर्थात् विषयोंसे इन्द्रियोंका त्यागरूपी तुम हो और शांतिरूप हो अर्थात् सामर्थ्य होता सता अपराध सहिष्णुतारूपी तुम हो॥६०॥

खङ्गिनीशूलिनीघोरागदिनीचक्रिणी तथा॥ शंखिनीचापिनीबाणभुशुंडीपरिघायुधा॥६१॥ सौम्यासौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुंदरी॥परापराणां परमात्वमेवपरमेश्वरी॥६२॥ यच्च किंचित्क्वचिद्वस्तुसदसद्वाखिलात्मिके॥तस्य सर्वस्य या शक्तिः सात्वं किंस्तूयसेमया॥६३॥ ययात्वयाजगत्स्रष्टाजगत्पात्यत्तियोजगत्॥ सोपिनिद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः॥६४॥

टीका—खड्ग, त्रिशुल, गदा, चक्र, शंख, धनुष, बाण, भुशुंडी, परिधइन शस्त्रोंकों धारण करनेवालीहो और एक शत्रुको मुंड लेराखो याते बडी भयंकर रूपहो॥६१॥ फिर कैसीहो भक्तोंकेविषे सौम्यरूप अर्थात शांतरूपहे और दैत्योंके क्रूररूपहो और संपूर्ण सुन्दर वस्तुवोंसे बडी सुन्दरहो और पश्यंती मध्यमा वैखरी इनका बीज रूप हो उत्कृष्ट जेहैं तिनमें परमप्रधान तुमही हो या तुम परमेश्वरीहो॥६२॥ हे अखिलात्मिके देवि या जगत् के विषे जो कुछ कहूँ सत् असत् वस्तु प्रतीत होताहै ता संपूर्णकी शक्ति अर्थात्सामर्थ्य तुमही हो पाते अस्मदादिकरिकै कैसे स्तुति कियेजावो॥६३॥

और ब्रह्म, विष्णु, रुद्ररूप करिकै जगत्का उत्पत्ति पालन संहार करनेवालाजो भगवान्है सोभी तुमने निद्राके वशकरदिया याते तुह्मारी स्तुति करनेको कौन समर्थहै॥६४॥

विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च॥ कारितास्तेयतोतस्त्वांकः स्तोतुं शक्तिमान्भवेत्॥६५॥ सात्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवसंस्तुता॥ मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ॥६६॥ प्रबोधं च जगत्स्वामीनीयतामच्युतोलघु॥ बोधश्चक्रियतामस्य हंतुमेतौ महासुरौ॥६७॥ ऋषिरुवाच॥ एवंस्तुतातदादेवी तामसीतत्र वेधसा॥ विष्णोः प्रबोधनार्थायनिहंतुं मधुकैटभौ॥६८॥

टीका—फिर कैसीहो विष्णु और मै और रुद्र इनकोभी तुमने शरीर धारण करवादियाऐसी महामाया जो आपको आपकी स्तुति करनेको कौन समर्थहोय॥६५॥ ऐसे उदार अपने माहात्म्योंकरिकै स्तुतिकीगई ऐसी जो तुम हो ये बडे भयंकर जे मधुकैटभ दैत्य हैं तिनको मोहनकरो॥६६॥ हे देवि जगत्का स्वामी जो विष्णुहै ताको शीघ्र जगावो और मधुकैटभको मारनेको भगवतकी बुद्धिको उत्साह करो॥६७॥ तब ऋषि बोले हे राजन् या रीतिसे जब ब्रह्माने भगवतीकी स्तुति करो तब योगनिद्रा भगवती विष्णुको जगाने के लिये और मधुकैटभ दैत्योंको मारनेके लिये॥६८॥

नेत्रास्य नासिका बाहुहृदयेभ्यस्तथोरसः॥ निर्गम्यदर्शनेतस्थौब्रह्मणोव्यक्तजन्मनः॥६९॥ उत्तस्थौचजगन्नाथस्तयामुक्तो जनार्दनः॥ एकार्णवेहिशयनात्ततः सददृशेचतौ॥७०॥ मधुकैटभौ दुरात्मानावतिवीर्यपराक्रमौ॥ क्रोधरक्तेक्षणावत्तुं ब्रह्माणं जनितोद्यमौ॥७१॥ समुत्थायततस्ताभ्यां युयुधेभगवान्दरिः॥ पंचवर्षसहस्राणिबाहुप्रहरणोविभुः॥७२॥

टीका—विष्णुका नेत्र मुख नासिका भुजा और हृदय वक्षःस्थल इनसे निकलकर ब्रह्माके सन्मुख स्थित होती गई॥६९॥ तब वा समुद्रके

विषयोगनिद्राकारकै त्यक्त विष्णु शेषशय्यासे उठतेगये और मधुकैटभ दैत्योंको देखतेगये॥७०॥ फिर मधु कैटभ दैत्य कैसेहैं बडे पराक्रमी हैं और क्रोधकरिकै लालहैंनेत्र जिनोंके ब्रह्माको भक्षण करनेको करराख्योहै उद्यम जिनोंने॥७३॥ ऐसे मधुकैटभ दैत्योंसे उठकरिकै भगवान् युद्ध करते गये भुजाहीहै शस्त्र जिसके ऐसे भगवान् पांचहजार वर्षे उन दैत्योंके साथ युद्ध करतेगये॥७२॥

तावप्यतिबलोन्मत्तौ महामायाविमोहितौ॥ उक्तवंतौवरोस्मत्तोव्रियतामितिकेशवं॥७३॥ भगवानुवाच॥ भवेतामद्य मे तुष्टौ मम वध्यावुभावपि॥ किमन्येन वरेणात्र एतावद्धिवृतं मया॥७४॥ ऋषिरुवाच॥ वंचिताभ्यामिति तदा सर्वमापोमयंजगत्॥विलोक्यताभ्यांगदितोभगवान्कमलेक्षणः॥७५॥ प्रीतौस्वस्तव युद्धेन श्लाघ्यस्त्वं मृत्युरावयोः॥ आवांजहिनयत्रोर्वीसलिलेनपरिप्लुता॥७६॥

टीका—ताके अनन्तर बलकरिके उन्मत्त और महामायाकरिकै मोहित वे दैत्य बोले हे विष्णो तुह्मारे युद्धसे हम बडे प्रसन्नभये तुम हमसे वरदान मांगो॥७३॥ तब श्रीभगवान् बोले जो तुम मेरे ऊपर प्रसन्नहो तो दोनो मेरे हाथ मृत्युको प्राप्त हो और वरदानोंसे मेरेको कुछ प्रयोजन नहीं यह वरदान मैं मांगा है॥७४॥ तब ऋषि बोले कि हे राजन् जब भगवान् वरदान मांगिके दैत्योंको ठगलिया तब संपूर्ण जगत्को जलमयी देखकर भगवान्सेकहते गये॥७५॥ कि हे विष्णो वहां हमको मारो जहां जलसे डुबी हुई पृथ्वी नहीं है॥७६॥

ऋषिरुवाच॥ तथेत्युक्त्वा भगवता शंखचक्रगदाभृता॥ कृत्वा चक्रेण वै छिन्नेजघनेशिरसीतयोः॥७७॥ एवमेषासमुत्पन्नाब्रह्मणासंस्तुतास्वयं॥ प्रभावमस्या देव्यास्तुभूयः शृणुवदामिते

ऐंॐ॥७८॥ इति मार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये मधुकैटभ-वधोनामप्रथमोऽध्यायः॥१॥

टीका—तब ऋषि बोले कि हे राजन् शंख चक्र गदाको धारण करने वाले तुम कहो जैसेही सही ऐसा दैत्योसे कहकरिकै अपनी जंघापर उनका शिर रखके सुदर्शनचक्र से काटते गये॥७७॥ हे राजन् ऐसी रीतिसे भगवती उत्पन्न गई है जाकी स्तुति करिहै फिर या देवीको माहात्म्य तुह्मारे अर्थ वर्णन करूहूँ सो श्रवणकरो॥७८॥ इति श्रीमार्कंडेयपुराणे देवीमाहात्म्ये मधुकैटभवधोनामप्रथमोऽध्यायः॥१॥

ऋषिरुवाच॥ देवासुरमभूद्युद्धं पूर्णमब्दशतं पुरा॥महिषे सुराणामधिपेदेवानांच पुरंदरे॥१॥ तत्रासुरैर्महावीर्यैर्देवसैन्यं पराजितम्॥जित्वाच सकलान्देवानिंद्रोभून्महिषासुरः॥॥२॥ ततः पराजितादेवाः पद्मयोनिं प्रजापतिम्॥ पुरस्कृत्यगतास्तत्रयत्रेशगरुडध्वजौ॥३॥ यथा वृत्तं तयोस्तद्वन्महिषासुरचेष्टितम्॥ त्रिदशाः कथयामासुर्देवाभिभवविस्तरम्॥४॥

टीका—तब पहिले सुमेधा ऋषि बोले हे सुरथ राजन् असुरोंका राजा महिषासुर होता गया और देवतावोंका स्वामी इंद्र होता गया देवदानवोंका परस्पर पूर्ण सौ वर्षपर्यन्त युद्ध होता गया॥१॥ ता युद्धकेविषे असुरोंकी फौजने देवतावोंकी फौज हरा दई पीछे संपूर्ण देवतानको जीतकर महिषासुर इन्द्र होतो गयो॥२॥ ताके अनन्तर देवता हार कर ब्रह्माजीको अगाडी करिकै जहां महादेवजी और भगवान् थे वहाँ जाते गये॥३॥ जैसा महिषासुरका करा हुवा देवोंका तिरस्कार रूपी वृत्तान्त था तैसा संपूर्ण वृत्तान्त शिव विष्णुके आगे देवता कहते गये॥४॥

सूर्यैद्राग्न्यनिलें दूनांयमस्य वरुणस्य च॥ अन्येषां चाधिकारान्सस्वयमेवाधितिष्ठति॥५॥ स्वर्गान्निराकृताः सर्वेतेनदेव गणाभुवि॥ विचरंति यथामर्त्योमहिषेणदुरात्मना॥६॥ एतद्वःकथितं सर्वममरारिविचेष्टितम्॥ शरणंवः प्रपन्नाःस्मोव-

धस्तस्य विचिंत्यतां॥७॥ ऋषिरुवाच॥ इत्थं निशम्यदेवानांवचांसि मधुसूदनः॥चकार कोपं शंभुश्चभ्रुकुटीकुटिलाननौ॥८॥

टीका—सूर्य इन्द्र अग्नि वायु चंद्र इनका और यमराज और वरुणका और संपूर्ण देवताका अधिकारकेविषे स्वयं महिषासुर स्थित है॥५॥ वा महिषासुर दुष्टने संपूर्ण देवोंको स्वर्गसे निकाल दिया अब सब देवतामनुष्योंकी तरह पृथ्वी में विचरते है॥६॥ हे महाराज महिषासुरकी जो दुष्टचेष्टा है सो आपके आगे हमने कही हम आपकी शरण प्राप्त हैं सो आप इस दुष्टको मारनेको उपाय चिंतवन करो॥७॥ या प्रकारसे देवतोंका वचन श्रवणकरिकै भ्रुकुटी चढाकर टेढा कर लिया है मुख जिनोंने ऐसैजे विष्णु और शिव ते कोप करते गये॥८॥

ततोति कोपपूर्णस्य चक्रिणोवदनात्ततः॥ निश्चक्राममहत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च॥९॥ अन्येषां चैवदेवानां शक्रादीनां शरीरतः॥ निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत॥१०॥ अतीवतेजसः कूटंज्वलंतमिवपर्वतं॥ ददृशुस्तेसुरास्तत्रज्वाला व्याप्तदिगंतरं॥११॥ अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजं॥ एकस्थं तदभून्नारीव्याप्तलोकत्रयं त्विषा॥१२॥

टीका—ताके अनन्तर अत्यंत कोपकरिकै पूर्ण जो विष्णु और शिव तिनके मुखसे बढा तेज निकलता गया॥९॥ फिर इन्द्रादिक देवोंकाभी शरीरसे बड़ा तेज निकला वह सब इकट्ठा होता गया॥१०॥ ताके अनंतर उस देव सभाके विषे लटाँकरिकै प्रकाशित कियो है दशोदिशाँको मध्य जाने ऐसा अत्यंत जो तेजका समुदाय है ताको इन्द्रादिक देव देखते गये फिर कैसा है वह तेज जानो प्रकाशमान हेमाद्रिपर्वतही विराजमान है॥११॥ कात्यायन ऋषिके आश्रममें सब देवोंके शरीरसे निकला हुआ जो इकठ्ठो अनंत तेज है सो स्त्रीरूप होतागया फिर कैसा है वह तेज अपनी दीप्तिकरिकै प्रकाशित किये है तीनों लोक जाने॥१२॥

यदभूच्छांभवं तेजस्तेनाजायततन्मुखं॥ याम्येनचाभवन्केशाबाहवोविष्णुतेजसा॥१३॥ सौम्येनस्तनयोर्युग्मंमध्यं चैंद्रेण चाभवत्॥ वारुणेन चजंघोरूनितं वस्तेजसाभुवः॥१४॥ ब्रह्मणस्तेजसा पादौ तदं गुल्योर्कतेजसा॥वसूनांचकरांगुल्यः कौबेरेचनासिका॥१५॥ तस्यास्तुदंताः संभूताः प्राजापत्येनतेजसा॥नयनत्रितयंजज्ञे तथा पावकतेजसा॥१६॥

टीका—फिर जो शंभुका तेज था वाते उस स्त्रीका मुख होता गया और यमके तेजसे केश होते गये विष्णुके तेजसे भुजा होती गईं॥१३॥ सोमके तेजसे दोनो स्तन होते गये इन्द्रके तेजसे उदर होता गया वरुणके तेजसे जंघा और पींडी ये होती गईं पृथ्वीके तेजसे कटिके पीछेका भाग होता गया॥१४॥ ब्रह्माके तेजसे पैर होते गये सूर्यके तेजसे पैरोंकी अंगुलियां होती गईं वसुदेवताके तेजसे हाथोंकी अंगुलीयां होती गईं कुवेरके तेजसे नासिका होती भई॥१५॥ प्रजापतियों के तेजसे उसके दाँत होते गये अग्निके तेजसे तीन नेत्र उत्पन्न होते गये॥१६॥

भ्रुवौ च संध्ययोस्तेजःश्रवणावनिलस्य च॥ अन्येषां चैवदेवानां संभवस्तेजसांशिवा॥१७॥ ततस्समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम्॥ तांविलोक्यमुदंप्रापुरमरामहिषार्दिताः॥१८॥ ततो देवाददुस्तस्यैस्वानिस्वान्यायुधानि च॥ ऊचुर्जयजयेत्युच्चैर्जयन्तीं तेजयैषिणः॥१९॥ शूलं शूलाद्विनिष्कृष्यददौ तस्यै पिनाकधृक्॥चक्रंचदत्तवान्कृष्णः समुत्पाट्यस्वचक्रतः॥२०॥

टीका—संध्याके तेजसे भ्रुकुटी होती गई वायुके तेजसे दोनो कान होते गये इन देवतोंका और अन्य देवतोंके तेजका एकाकी भाव है सो शिवा नामकरिकै प्रसिद्ध गई॥१७॥ फिर समस्त देवताके तेजसे उत्पन्न गईऐसी भगवतीको देखकरिके महिषासुरकरिकै पीडित जे देवता है वे आनंदको प्राप्त होतेगये॥१८॥ ताके अनन्तर भगवतीको देवता अपना अपना

शस्त्र देते भये और उच्च स्वरसे जयजयकार शब्द करते भये॥१९॥ महादेवजी भगवतीको त्रिशूलसे त्रिशूल उत्पन्न कर देतेभये कृष्ण सुदर्शन चक्रसे चक्र खैंचकर देते भये॥२०॥

शंखं च वरुणः शक्तिं ददौ तस्यैहुताशनः॥ मारुतोदत्तवांश्चापं बाणपूर्णेतथेषुधी॥२१॥ वज्रमिंद्रः समुत्पाट्य कुलिशादमराधिपः॥ददौ तस्यै सहस्राक्षोघंटामैरावताद्गजात्॥२२॥ कालदंडाद्यमोदंडं पाशां चांबुपतिर्ददौ॥प्रजापतिश्चाक्षमालां ददौ ब्रह्माकमंडलुम्॥२३॥ समस्तरोमकूपेषु निजरश्मीन्दिवाकरः॥ कालश्चदत्तवान्खड्गंतस्यैचर्मचनिर्मलम्॥२४॥

टीका—वरुण शंख देते गये अग्निशक्ति शस्त्र देते गये वायु धनुष और दो बाणोंके भरे तूणीर देता गया॥२१॥ अपने वज्रसे वज्र उत्पादन करिके इन्द्र वज्र देतो गयो और ऐरावत हाथीसे बंटा लेकर देतो गयो॥२२॥ यम कालदण्डसे दण्ड उत्पन्न करिकै देतो गयो वरुण अपने पाशसे पाश उत्पन्न करिकै देतो गयो और प्रजापति ब्रह्मा जयमाला और कमण्डलु देतोगयो॥२३॥ वा देवीके संपूर्ण रोम कूप जे हैं तिनके विषे सूर्य अपनी किरण देते गये उस भगवतीको काल खड्गदेतो गयो और श्रेष्ठ ढाल देतो गयो॥२४॥

क्षीरोदश्चामलंहारमजरे चतथांवरे॥ चूडामणिं तथा दिव्यं कुंडले कटकानि च॥२५॥अर्धचंद्र तथाशुभ्रंकेयूरान्सर्वबाहुषु॥ नूपुरौ विमलौ तद्वद्ग्रैवेयकमनुत्तमम्॥ अंगुलीयकरत्नानिसमस्तास्वंगुलीषु च॥२६॥ विश्वकर्माददौ तस्यै परशुंचाति निर्मलं॥ अस्त्राण्यनेकरूपाणि तथाभेद्यं च दंशनम्॥२७॥अम्लानपंकजां मालां शिरस्युरसिचापरां॥अददज्जलधिस्तस्यैपंकजंचातिशोभनं॥

टीका—क्षीरोद समुद्र निर्मल हार देतोगयो और नवीनवस्त्र देतोगयो॥२५॥ दिव्य चूडामणि रत्न तथा कुण्डल और कडाऔर अर्द्धचंद्र सं-

पूर्ण भुजायें बाजू और निर्मल बिछिया और गलेमें पहरनेकी रत्नजडित माला और समस्त अंगुलियोंके विषे छल्लाअंगूठी ये सब आभूषण भगवतीको विश्वकर्मा देतोगयो और निर्मल परशी देतो गयो और अनेक तरहके अस्त्रऔर कवच ये देतोगयो॥२६॥२७॥ फिर उसदेवीको समुद्र सदा प्रफुल्लित रहै ऐसे कमलोंकी माला शिरके विषे धारण करनेकी और कंठमें धारण करनेकी देतो गयो और मनोहर कमल देतोगयो॥२८॥

हिमवान्वाहनं सिंहं रत्नानि विविधानि च॥ ददावशून्यंसुरयापानपात्रं धनाधिपः॥२९॥ शेषश्चसर्वनागेशोमहामणि विभूषितं॥नागहारं ददौ तस्यैधत्तेयः पृथिवीमिमाम्॥३०॥ अन्यैरपि सुरैर्देवीभूषणैरायुधैस्तथा॥ संमानिताननादोच्चैः साट्टहासंमुहुर्मुहुः॥३१॥तस्यानादेनघोरेण कृत्स्नमापूरितं नभः॥ अमायतातिमहता प्रतिशब्दो महानभूत्॥३२॥

टीका—और हिमवान् पर्वतराज देवीको सिंहवाहन देतोगयो और अनेक तरहके रत्न देतोगयो और कुबेर मदिराकरिकै पूर्णपात्र देतोगयो॥२९॥ फिर उसदेवीको संपूर्ण नामोंका राजा जो शेषहै सो महामणि करिकै शोभित नागरूप हार देतोगयो फिर वह शेष कौनसाहै जो या पृथ्वीको धारण करताह॥३०॥ फिर और देवोंनेभीआभूषण और शस्त्रों करिके देवीका सन्मान किया तब देवी आदरयुक्त होकर वारंवार उच्चस्वर करिकैअट्टहासपूर्वक नाद करतीगई॥३१॥ उस भगवतीके भयंकर शब्द करिके संपूर्ण आकाश शब्दायमान होताभयासमीप आताहुवा जो बडा शब्दहै ता करिकै बडा प्रतिध्वनिशब्द होताभया॥३२॥

चुक्षुभुः सकलालोकास्समुद्राश्चचकंपिरे॥चचालवसुधाचेलुः सकलाश्च महीधराः॥३३॥ जयेतिदेवाश्चमुदातामूचुः सिंहवाहिनीं॥तुष्टवुर्मुनयश्चैनां भक्तिनम्रात्ममूर्तयः॥३४॥ दृष्ट्वा समस्तं संक्षुब्धं त्रैलोक्य मम रारयः॥ सन्नद्धाखिलसैन्यास्ते

समुत्तस्थुरुदायुधाः॥३५॥आः किमेतदितिक्रोधादाभाष्यमहिषासुरः॥अभ्यधावततं शब्दमशेषैरसुरैर्वृतः॥३६॥

टीका—ता प्रतिध्वनि शब्द करिकै सब लोक चलायमान होगये और समुद्र कांपने लगगये और पृथ्वी पर्वत ये तिससमय सब चलायमान होजाते भये॥३३॥ तासमय देवता आनंदपूर्वक जय जय शब्द करतेगये शक्ति करिकै नम्र है स्वकाय जिनोंका ऐसे मुनि सिंहवाहिनी भगवतीकी स्तुति करतेभये॥३४॥ फिर उस भगवतीका भयंकर शब्द करिके त्रिलोकीको चलायमान देखकर युद्धके लिये करी है सेना तयार जिनोंने और उठाये हैं शस्त्र जिनोंने ऐसे जे दैत्यहै ते युद्ध करनेको उठतेगये॥३५॥ यह क्या है ऐसे क्रोधसे कहकर महिषासुर समस्त असुरोंकारिकै सहित उस देवीके शब्दके सन्मुख जातोगयो॥३६॥

सददर्श ततो देवीं व्याप्त लोकत्रयांत्विषा॥ पादाक्रांत्यानतभुवं किरीटोल्लिखितांबराम्॥३७॥ क्षोभिताशेषपातालांधनुर्ज्यानिःस्वनेनतां॥ दिशोभुजसहस्रेण समंताद्व्याप्यसंस्थितां॥३८॥ ततः प्रववृते युद्धं तयादेव्यासुरद्विषां॥ शस्त्रास्त्रैर्बहुधा मुक्तैरादीपितदिगंतरं॥३९॥ महिषासुरसेनानीश्चिक्षुराख्यो महासुरः॥ युयुधेचामरश्चान्यैश्चतुरंगबलान्वितः॥४०॥

टीका—पीछे वहां जाके अपनी कांतिकरिकै प्रकाशित कियेहै तीनो लोक जानें पैरके आक्रमणसे नम्र करीहै पृथ्वी जाने मुकुट करिकै स्पर्शित है आकाश जाने धनुषकी प्रत्यंचाका शब्द करिकै चलायमान कियोहै संपूर्ण रसातल जाने हजार भुजासे दशदिशाको व्याप्त करिकै सम्यक्प्रकारसे स्थित ऐसी जो भगवती है ताको महिषासुर देखतोभयो॥३७॥३८॥ ताके अनंतर देवीके साथ असुरोंका युद्ध होताभया फिर कैसा युद्ध भयाकि बहुत प्रकारसे शस्त्र और अन चलाने करकै प्रकाशित भयोहै दशोंदिशाको मध्यभाग जामें॥३९॥ महिषासुरकी सेनाका स्वामी चिक्षुरनामा असुर युद्ध करतोभयो और हाथि

योंके सवार घोडोंके सवार रथोंके सवार पियादे ये है चार अंग जामें ऐसी जो चतुरंगिणी सेना तिसकरिके सहित दूसरा चामरनामा असुर देवीके साथ युद्ध करताभया॥४०॥

रथानामयुतैः षड्भिरुदयाख्योमहासुरः॥ अयुध्यतायुतानां च सहस्रेण महाहनुः॥४१॥ पंचाशद्भिश्चनियतैरसिलोमा महासुरः॥ अयुतानांशतैः षड्भिर्बाष्कलोयुयुधेरणे॥४२॥ गजवाजिसहस्रौघैरनेकैरुग्रदर्शनः॥ वृत्तोरथानां कोट्याचयुद्धे तस्मिन्नयुद्ध्यत॥४३॥ बिडालाख्योमहादैत्यः पंचाशद्भि रथायुतैः॥ युयुधे संयुगे तत्र रथानां परिवारितः॥४४॥

टीका—और साठिहजार रथोंके सवारों करिकै सहित उदयनामा असुर देवीके साथ युद्ध करताभया और महाहनुनामा असुर कोटि रथोंके सवारों करिकै सहित देवी के साथ युद्ध करताभया॥४१॥ और असिलोमा नामा असुर पांचकोटि रथोंके सवारों करिकै सहित देवीके साथ युद्धकरताभया और बाष्कलनामा असुर रणके विषे साठिलाख रथोकें सवारों करिकै सहित देवीके साथ युद्ध करताभया॥४२॥ और उग्रदर्शन नामा असुर हजारों हाथी घोडोंके सवारों करिकै सहित और एक कोटि रथोंके सवारों करिकै सहित रणमें देवीके साथ युद्ध करता भया॥४३॥ और बिडालनामा असुर पांचलाख रथोंके सवारों करिकै सहित संग्राममें युद्ध करता भया॥४४॥

वृत्तः कालोरथानांचरणेपंचाशतायुतैः॥ युयुधे संयुगेतत्रतावद्भिः परिवारितः॥४५॥ अन्ये च तत्रायुतशोरथनागहयैर्वृताः॥ युयुधुस्संयुगेदेव्यासह तत्र महासुराः॥४६॥ कोटिकोटि-सहस्त्रैस्तुरथानां दन्तिनां तथा॥ हयानां च वृतोयुद्धे तत्राभून्महिषासुरः॥४७॥ तोमरैर्भिन्दिपालैश्चशक्तिभिर्मुसलैस्तथा॥ युयुधुःसंयुगेदेव्याखङ्गैः परशुपट्टिशैः॥४८॥

टीका—और काल नामा असुर पांचलाख रथोंके सवारों करिकै वेष्टित

रणके विषे देवीके साथ युद्ध करता भया फिर वही असुर पाँचलाख हाथिके सवारों करिकै सहित संग्राममें देवीके साथ युद्ध करताभया ताके अनन्तर वही पाँचलाख घोडोंके सवारों करिकै युक्त युद्ध करता भया फिर ताके अनन्तर वही पांचलाख पयादों करिकै परिवारित देवीके साथ युद्ध करता भया॥४५॥ तिस रणके विषे दशहजार रथ हाथी घोडोंके सवारों करिकै सहित और जे असुर हैं वे देवी के साथ युद्ध करते भये॥४६॥ फिर एक शंख संख्या परिमित रथोंके सवार और एक शंख संख्या परिमित हाथियोंके सवार और एक शंख संख्या परिमितही घोडोके सवार इस प्रकारसे तीन शंख सेना करिकै सहित महिषासुर देवीके साथ युद्ध करनेको रणभूमिमें सावधान होतो भयो॥४७॥ तिस समय संग्रामके विषे ते संपूर्ण असुर तोमर जे भाला हैं और भिंदिपाल जे गोफिया हैं और शक्ति जे शांग हैंऔर मुशल जे हैं और खड्ग जे हैं और फरशी जे हैं और पट्टिश जे हैं इन शस्त्रों करिके देवी के साथ युद्ध कर्त्ते गये॥४८॥

केचिच्चचिक्षिपुःशक्तीः केचित्पाशांस्तथापरे॥देवीं खङ्गप्रहारैस्तुतांहंतुं प्रचक्रमुः॥४९॥ सापिदेवीततस्तानिशस्त्राण्यस्त्राणिचण्डिका॥लीलयैवप्रचिच्छेद निजशस्त्रास्त्रवर्षिणी॥५०॥ अनायस्ताननादेवीस्तूयमानासुरर्षिभिः॥मुमोचासुरदेहेषु शस्त्राण्यस्त्राणिचेश्वरी॥५१॥ सोपिक्रुद्धोधुतसटोदेव्या वाहनकेसरी॥चचारासुरसैन्येषु वनेष्विबहुताशनः॥५२॥

टीका—उस युद्धमें कितनेही देवीको मारनेकों शांग फेंकते भये और कितनेही नागपाश आदि पाश फेंकते गये और कितनेही खड्गके प्रहारों करिकै देवीको मारनेको उद्योग कर्त्ते भये॥४९॥ ताके अनन्तर अपने शस्त्र और अस्त्रोंकी वर्षा करती हुई भगवती उन दैत्योंके शस्त्र और अस्त्र लीली करिकैसब खंडित करती भई॥५०॥ फिर ग्लानि करिकैरहित है मुख जिसका और देव और ऋषि इन करिकै स्तुति करीभई ऐसी ईश्वरी असुरोंके शरीरोंके विषे शस्त्र और अस्त्र छोडतीभई॥५१॥ फिर देवीका वाहन

सिंहभी काँधेके केश कँपाताहुवा और क्रोधयुक्त गर्जताहुवा असुरोंकी सेनामें चारों तरफ श्रमता भया कैसे कि जैसे वाँशके वनोंमें चारों तरफ अग्नि ताकी तुल्य॥५२॥

निःश्वासान्मुमुचेयांश्चयुध्यमानारणेम्बिका॥तएव सद्यः संभूतगणाः शतसहस्रशः॥५३॥ युयुधुस्तेपरशुभिर्भिदिपालासिपट्टिशैः॥नाशयंतोसुरगणान्देवीशक्त्युपबृंहिताः॥५४॥ अवादयंतपटहान्गणाःशंखांस्तथापरे॥मृदंगांश्चतथैवान्ये तस्मिन्युद्ध महोत्सवे॥५५॥ ततो देवीत्रिशूलेन गदयाशरवृष्टिभिः॥ खड्गादिभिश्चशतशोनिजघानमहासुरान्॥५६॥

टीका—फिर असुरोंके साथ संग्रामके विषे जितने क्रोधका निःश्वार अंबिका छोडती भई फिर वे निःश्वासही उतने लाख भगवतीके गण होजाते भये॥५३॥ फिर वे गण तुम असुरोंके साथ युद्धकरो युद्धकरो ऐसे देवी करिकै उत्साह प्राप्त कियेहुवेफरशी और गोफिया और खड्ग और पट्टिश इन शस्त्रोंकरिकै असुरगणोंका नाश कर्तेहुवे महाअसुरों के साथ युद्ध कर्तेगये॥५४॥ फिर उस युद्ध महोत्सव के विषे देवीके निःश्वाससे उत्पन्नहुवे पूर्वोक्त गण उनमेंसे कितनेंहीं तो नगारा बजाते गये और कितनेही शंख बजाते भये और कितनेही मृदंग बजातेभये॥५५॥ ताके अनंतर त्रिशुल गदा और खड्गऔर भाला और मुद्गर और मुशल इन आदिले शस्त्रोंके प्रहार करिकै और बाणोंकी वर्षा करिकै भगवती एक एक वा शत शत महा असुर मारती भई॥५६॥

पातयामासचैवान्यान्वंटास्वनविमोहितान्॥ असुरान् भुविपाशेनबद्धाचान्यानकर्षयत्॥५७॥॥ केचिद्द्विधाकृतास्तीक्ष्णैः खड्गपातैस्तथापरे॥ विपोथितानिपातेनगदया भुविशेरते॥५८॥ वेमुश्चकेचिद्रुधिरं मुसलन भृशंहताः॥ केचिन्निपतिता भूमौभिन्नाः शूलेन वक्षसि॥५९॥ निरंतरशरौघेणकृताः केचिद्रणाजिरे॥सेनानुकारिणः प्राणान्मुमुचु-स्त्रिदशार्दनाः॥६०॥

टीका—फिर देवीके घंटाके शब्दसे मूर्छित जे असुर हैं तिनको देवी पाशसे बाँधकर पृथ्वीमें पटकती भई और कितनेहीं असुरोंको पाशसे बाँध कर खैंचतीभई॥५७॥ फिर देवी और कितनेही असुरोंका तीखे खड्गके प्रहारों करिके दो टुकड़ा कर्त्ती भई और कितनेही असुर देवीकी गदाके प्रहारकरिकै मृत्युकों प्राप्त हुवे पृथ्वीमें सोते भये॥५८॥ और कितनेही असुर देवीके मुशलके प्रहार करिकै मुखसे रुधिर वमन कर्त्तेभये फिर और कितनेही असुर देवीके त्रिशूलकरिकै छातीमें विदारित हुवे पृथ्वीमें पढते भये॥५९॥ फिर पर्वतके समान है शरीर जिनोंका और देवताको पीड़ा करनेवाले ऐसे जे असुर ते देवीके निरंतर बाणोंके समुदायके प्रहारसे रणमें विंधेहुवे प्राणोंको त्यागतेभये॥६०॥

केषांचिद्बाहवछिन्नाश्छिन्नग्रीवास्तथापरे॥ शिरांसि पेतुरन्येषामन्येमध्येविदारिताः॥६१॥ विच्छिन्नजंघास्त्वपरेपेतुरुर्व्यां महासुराः॥ एकबाह्वक्षिचरणाः केचिद्देव्याद्विधाकृताः॥६२॥ छिन्नेपिचान्यशिरसि पतिताः पुनरुत्थिताः॥ कबंधाय्युधुर्देव्यागृहीतपरमायुधाः॥६३॥ ननृतुश्चापरेतत्रयुद्धे तूर्यलयाश्रिताः॥ कबंधाश्छिन्नशिरसः खङ्गशक्त्यृष्टिपाणयः॥६४॥ तिष्ठतिष्ठेति भाषंतोदेवीमन्येमहासुराः॥ रुधिरौघविलुप्तांगाः संग्रामेलोमहर्षणे।६५॥

टीका—और कितनेही असुरोंकी देवीके शस्त्र प्रहारोंसे खंडितहुई भुजा पृथ्वीमें पडतीगई और कितनेही असुर देवीके शखप्रहारोंसे कटी हैं नाडी जिनोंकी ऐैसे पृथ्वी में पडतेभये और कितनेही असुरोंका देवीके खड्गआदि शस्त्र प्रहारसे शिर कटके गिरतेभये और कितनेही देवीके शस्त्रप्रहारोंकरिकै शरीरके विषे हाथ पैरोंसे खंडितहुवे पृथ्वीमें पड़तेगये॥६१॥ और कितनेही असुर कटीहैं जंघा जिनोंकी ऐसे पृथ्वीमें पडतेगये और कितनेही असुर देवीके शस्त्रमहार करिके खंडित कियेहुये एक भुजावाले और

एक नेत्रवाले और एक चरणवाले होतेहुवे पृथ्वीमें पडते भये॥६२॥ और कितनेही असुर शिर कटनेसे पृथ्वीमें पढेभीफिर शिर धारण कर्त्तेहुवे उठतेभये तोके अनंतर शस्त्र ग्रहण करिकै देवीके साथ युद्ध केर्त्तेभये॥६३॥ फिर उस युद्धकेविषे कटेहैं शिर जिनोंके ऐसे जे दैत्यहै ते वीणा मृदंग आदि वादित्रोंके वीरशब्दके आश्रितहुवे अर्थात् वीररसके आवेशते चेत कर्त्तेहुवे फिर शिर धारण कर्ते संते कितनेही तो नृत्य कर्त्तेगये और उनमेंसे कितनेही खड्गशांग पौलंडी लाठी ये शस्त्रहैं हाथमें जिनके ऐसै भगवती के साथ युद्ध कर्तेभये॥६४॥ फिर उस भयंकर संग्रामके विषे रुधिर करके सन्योहै अंग जिनोंका ऐसे और तुम हमारे आगे खडीरहो खडीरहो ऐसे कहतेहुवे जे कितनेही और महाअसुरहैं ते देवीके साथ युद्ध करनेकों आतेभये॥६५॥

पातितैरथनागाश्वैरसुरैश्चवसुंधरा॥ अगम्यासाभवत्तत्रयत्राभूत्समहारणः॥६६॥ शोणितौघा-महानद्यस्सद्यस्तत्र विसुस्रुवुः॥ मध्येचासुरसैन्यस्य वारणासुरवाजिनाम्॥६७॥ क्षणेनतन्महासैन्यमसुराणांतथाम्बिका॥ निन्येक्षयंयथावह्निस्तृणदारुमहाचयम्॥६८॥ सचसिंहोमहानादमुत्सृजन्धुतकेसरः॥ सोपिक्रुद्धोधुतसटोदे व्यावाहनकेसरी॥६९॥ शरीरेभ्योमरारीणामसू निवविचिन्वति॥देव्यागणैश्चत्तैस्तत्रकृतं युद्धं तथा सुरैः॥ यथैनांतुष्टुवुर्देवाः पुष्पवृष्टिमुचोदिवि॥७०॥ श्रीमार्कण्डे यपुराणेसावर्णिके मन्वंतरेदेवीमाहात्म्येद्वितीयोऽध्यायः॥२॥

टीका—फिर जहाँ देवीके साथ महिषासुरकी सेनाका बडा भयंकर युद्ध हुवा तहां देवीनें बाण आदि शखोंके प्रहारसे पटके जे रथ हाथी घोडे और असुर तिन करिकै आकीर्णभूमि अगम्य होतीभई॥६६॥ फिर उस युद्धके विषे जब देवीके साथ असुरोंका संग्राम प्रारंभ हुवा उसी क्षणमैंहीअसुरोंकी सेनाके मध्यमें हाथी असुर और घोडे इनके रुधिरके समूहकी म

हानदियाँ बहतीभई॥६७॥ फिर जैसे तृण काष्टके संचयको अग्निक्षणमात्रकरिकैनाशको प्राप्त करदेता है तिसीप्रकारसे देवी क्षणमात्रकरिकै असुरोंकी महासेनाको नाशको प्राप्त करती गई॥६८॥ फिर तिसी प्रकारसे वह जो भगवती वाहन सिंह है सोभी कंठ गर्जना कर्त्ताहुवा कंपायेहै कंधाके केश ज्याने क्रोधयुक्त हुवा नखप्रहारों करिकै असुरोंकी सेनाको नाश कर्त्तागया॥६९॥ फिर उस संग्रामकेविषे देवीका क्रोधके निश्वासते उत्पन्नगये ऐसैजेगण जिनोंने तिस प्रकारसे असुरोंकी साथ युद्धकिया और जैसे स्वर्गमें पुष्पोंकीवर्षाकर्त्तेहुए देवता भगवतीकी स्तुति कर्तेभये तिसप्रकारसे श्रवणकरो॥७०॥ इति श्रीमार्कंडेयपुराणे सावर्णिके मन्वंतरे देवीमाहात्म्ये द्वितीयोऽध्यायः॥२॥

॥ऋषिरुवाच॥ निहन्यमानंतत्सैन्यमवलोक्यमहासुरः॥ सेनानीश्चिक्षुरः कोपाद्ययौयोद्धुमर्थांबिकाम्॥१॥ सदेवींशरवर्षेण ववर्ष समरे सुरः॥यथा मे रुगिरेः शृंगतोयवर्षेणतोयदः॥२॥ तस्य च्छित्त्वा ततोदेवी लीलयैवशरोत्करान्॥जघानतुरगान्वाणैर्यं तारं चैववाजिनाम्॥३॥ चिच्छेदचधनुः सद्योध्वजंचातिसमुच्छ्रितम्॥ विव्याधचैवगात्रेषु च्छिन्नधन्वानमाशुगैः॥४॥ सच्छिन्नधन्वाविरथोहताश्वोहतसारथिः॥ अभ्यधावततां देवीं खड्गचर्मधरोसुरः॥५॥

टीका—ऋषि बोले फिर ताके अनंतर संपूर्ण महिषासुरकी सेनाको देवीकरिकैहवी हुई देखकर महिषासुरका सेनापति चिक्षुर नामा दैत्य क्रोधसे दौडके युद्ध करनेको देवीके सन्मुख जातोभयो॥१॥ ताके अनंतर चिक्षुर नामा दैत्य संग्राममें बाणोंकी वर्षाकरिकै भगवतीको आच्छादित कर्त्तेभयोकैसेके जैसे मेघ जलकी वर्षाकरिकै सुमेरु पर्वतकी शिखरको आच्छादित कर देता है॥२॥ ताके अनंतर उस संग्राममें बिना परिश्रमके साथ देवी अपने बाणोंकरिकै चिक्षुर नामा दैत्यके बाणोंको काटकर घोड़ोकों मारती गई और पीछे सारथियों को भी

भारती भई॥३॥फिर उसी क्षणमें बाणों करिकै देवी उस दैत्यका धनुष काटती गई और बड़ी ऊंची जो तिसके रथकी ध्वजा है ताको काटती भई फिर टूट गयो है धनुष जाको ऐसो जो चिक्षुर नामा दैत्य है ताकेसमग्र शरीरके अवयवोंमें बड़े तीखे बाणोंकारकै छेद कर्त्ती भई॥४॥ ताके अनंतर टूटो है धनुष और रथ जाको मरे हैं घोडा और सारथी जिसके ऐसा जो चिक्षुर नामा दैत्य सो तरवार ढाल लेके देवीके उपर दाडताभया॥५॥

सिंहमाहत्यखड्गेनतीक्ष्णधारेणमूर्धने॥ आजघानभुजेसव्येदेवीमप्यतिवेगवान्॥ ६॥ तस्याः खड्गोभुजं प्राप्यपफालनृपनन्दन॥ ततो जग्राहशूलं सकोपादरुणलोचनः॥७॥ चिक्षेप च ततस्तत्तुभद्रकाल्यांमहासुरः॥जाज्वल्यमानं तेजोभी रविबिंबमिवांबरात्॥८॥ दृष्ट्वा तदा पतच्छूलं देवीशूलममुञ्चत॥तेन तच्छतधानीतं शुलं स च महासुरः॥९॥ हतेतस्मिन्महावीर्ये महिषस्य चमूंपतौ॥ आजगामगजारूढश्चामरस्त्रिदशार्दनः॥१०॥

टीका—ताके अनंतर तीखी धारवाले खड्गको सिंहके माथेमें प्रहारकरिकै बड़ा वेगवाला दैत्य देवीकी बाँई भुजामें प्रहार कर्त्ताभया॥६॥ हे सुरथ वह खड्गभगवतीके भुजाको प्राप्त होकर उसी समय चूर्णीभूत होता भया ताके अनंतर क्रोधसे लाल नेत्र कर्त्ता हुवा त्रिशूल ग्रहणकर्त्ता भया॥७॥ फिर वह त्रिशूल भद्रकालीको मारनेकेलिये फेकता भया कैसा है वह त्रिशूल कि जानू आकाशमें चलनेवाला तेनोकरिकै प्रकाशमान सूर्यका बिंब॥८॥ ताके अनंतर उस त्रिशुलको आता हुवा भगवती देखकर अपना त्रिशूल छोडती भई फिर भगवतीके त्रिशूलने असुरके त्रिशूलका चूर्ण करदिया और उस असुरकाभीचूर्ण कर दिया॥९॥ फिर जब महिषासुरका सेनापति चिक्षुर नामा दैत्य संग्राममें मारा भया तब हाथीपर बैठा हुवा देवतानको पीडा करनेवाला चामर नामादैत्य आता भया॥१०॥

सोपिशक्तिंमुमोचाथदेव्यास्तामंबिकाद्रुतम्॥हुंकाराभिहतां भूमौपातयामासनिष्प्रभां॥११॥ भग्नां शक्तिं निपतितां दृष्ट्वा क्रोधसमन्वितः॥ चिक्षेपचामरः शूलंबाणैस्तदपिसाच्छिनत्॥१२॥ ततः सिंहः समुत्पत्यगजकुंभांतरेस्थितः॥बाहुयुद्धेनयुयुधेतेनोच्चैस्त्रिदशारिणा॥१३॥युध्यमानौ ततस्तोतुतस्मान्नागान्महीं गतौ॥ युयुधातेति संरब्धौ प्रहारैरतिदारुणैः॥१४॥ ततोवेगात्खमुत्पत्यनिपत्यचमृगारिणा॥ करप्रहारेणशिरश्चामरस्य पृथक्कृतं॥१५॥

टीका—फिर वहभीदेवीको मारनेके लिये शांग शस्त्र फेकता भया फिर अंबिका अपना हुंकारकरिकै मलिन हुईं शांगको शीघ्रही पृथ्वीमें गिराती भई॥११॥ ताके अनंतर देवीकरिकै खंडित हुई और पृथ्वीमें पडी हुईअपनी शांगको देखकर क्रोधयुक्त हुवा चामर नामा दत्य देवीके सन्मुख त्रिशूल फेकता भया उस त्रिशुलकोभी भगवती वाणोंकरिके काटती भई॥१२॥ फिर ता समय सिंह उछलके हाथीके माथेके मध्यमें बैठा हुवा अत्यंत बाहुयुद्धकरिकै देवतोंका शत्रु चामर नामा दैत्यके साथ युद्ध कर्त्तो भयो॥१३॥ ताके अनंतर सिंह और चामर नामा दैत्य ये दोनों युद्ध कर्त्ते हुवे हाथीपरसे पृथ्वीमें गिरते भये फिरभी बड़े कठोर प्रहारों करिकै अत्यंत क्रोधयुक्त हुवे युद्ध कर्त्ते भये॥१४॥ ताके अनंतर सिंहने आकाशमें उछलके और पृथ्वीपर पडके नखप्रहारोंकरिकै चामर दैत्यका शिर काट दिया॥१५॥

उदग्रश्चरणेदेव्याशिलावृक्षादिभिर्हतः॥दंतमुष्टितलैश्चैव करालश्चनिपातितः॥१६॥ देवीक्रुद्धागदापातैश्चूर्णयामास चोद्धतम्॥ बाष्कलंभिंदिपालेनबाणैस्ताम्रंतथांधकम्॥१७॥ उग्रास्यमुग्रवीर्यचतथैवचमहाहनुं॥ त्रिनेत्राचत्रिशूलेन जघानपरमेश्वरी॥१८॥ बिडालस्यासिनाकायात्पातयामासवैशिरः॥ दुर्धरंदुर्मुखं चोभौशरैर्निन्येयमक्षयं॥ कालं च कालदण्डेन काल-

रात्रिरपातयत्॥१९॥ उग्रदर्शनमत्युग्रैः खड्गपातैरताडयत्॥असिनैवासिलोमानमच्छिदत्सारणोत्सवे॥ गणैः सिंहेनदे व्याचजयक्ष्वेडातोत्सवैः॥२०॥

टीका—फिर उस रणकेविषे पापाण और वृक्ष इनके प्रहार करिकैऔर धनुष आदि शस्त्रोंके प्रहारकरिकै देवीने उग्रनामदैत्यको मारा और हाथीके दांतकी बनी जो मुष्टिका तिनके प्रहारकरिकै चनपटोकरिकै करालनामा दैत्य को पृथ्वीमें गिरादिया॥१६॥ फिर उस संग्राममें क्रोधयुक्त होतीहुई भगवती उद्धतनाम दैत्यको गदाके प्रहारोंकरिके चूर्ण कर्त्तीभई और गोफियाशस्त्रके प्रहारकरिके त्रिनेत्रापरमेश्वरी बाष्कलदैत्यकों मारतीभई तिसीमकार बाणोंके प्रहारकरिकै ताम्रदैत्यको मारतीभई और तैसेही अंधक दैत्यको मारतीभई और तिसीप्रकार उग्रास्य और उग्रवीर्य और महाहनु इन दैत्योंकोभी मारतीभई और त्रिशुलके प्रहार करिकै समग्रसेनाकों भारतीभई॥१८॥ और तलवार करिकै बिडालासुरके शिरकों शरीरसे अलग गिरातीभईऔर बाणोंके प्रहारकारिकै दुर्धर और दुर्मुख इन दोनो दैत्योंको यमराजके लोकमें प्रप्तकर्त्ती गई और कालरात्रि देवी कालदंडकरिकै कालनामदैत्यको पृथ्वीमें गिराती भई॥१९॥ और बडेकठोर खड्गके प्रहारकरिकै भगवती उग्रदर्शन दैत्यको पृथ्वीमें गिरातीभई और खड्गके प्रहारकरिकेही असिलोमा दैत्यको मारतीभई फिर उस रणरूपी उत्सवकेविषे भगवतीके गण और सिंह और भगवती इनोंने जयसंबंधी सिंहनाद किया॥२०॥

एवं संक्षीयमाणेतुस्वसैन्येमहिषासुरः॥ माहिषेण स्वरूपेण त्रासयामासतान्गणान्॥२१॥ कांश्चित्तुंडप्रहारेण क्षुरक्षेपैस्तथापरान्॥ लांगूलताडितांश्चान्यान् शृंगाभ्यां च विदारितान्॥२२॥ वेगेनकांश्चिदपरान्नादेन भ्रमणेन च॥ निःश्वासपवनेनान्यान्पातयामासभूतले॥२३॥ निपात्यप्रमथानीकमभ्यधावतसोऽसुरः॥ सिंहहंतुं महादेव्याः कोपं चक्रे ततो-

म्बिका॥२४॥ सोपिकोपान्महावीर्यःक्षुरक्षुण्णमहीतलः॥ शृंगाभ्यां पर्वतानुच्चांश्चि-क्षेपचनादच॥२५॥

टीका—इसप्रकारसे देवीके गणोंकरिकै अपनी सेना नाशमान होतेहुवे देखकर इसवातको नहीं सहताहुवा महिषासुर महिषाकार स्वरूपकरिके भगवतीके गणोंको कंपायमान कर्त्तोभयो॥२१॥ ताके अनंतर कितनेही गण तो मुखके प्रहारसे पृथ्वीमें गिरातोभयो और कितनेही गण खरोंके प्रहारों करिकै पृथ्वीमें गिरातोभयो और कितनेही पुच्छकरिकै ताडित तिनको पृथ्वीमें गिरातो भयो और कितनेही गणोको शृगोंसे बींधकर पृथ्वीमें गिरावो भयो॥२२॥ और कितनेही गणोको वेगकरिकैं पृथ्वीमें गिरातो भयो और कितनेही गणोको गर्जनाकरिकै पृथ्वीमें गिरातोभयो और कितनेही गणको शरीरकी फेटकरिकै पृथ्वीमें गिरातोभयो और कितनेही गणोको अपने श्वासकी पवनकरिकै पृथ्वीमें गिरातोभयो॥२३ फिर वह असुर भगवतीकी पार्षदसेनाको ऐसे गिराकर पीछे भगवतीके सिंहके मारनेको सन्मुख दौडतो भयो ता समय भगवती महिषासुरकेविषे अत्यंत क्रोध कर्त्तीभई॥२४॥ फिर वहभी बडा पराक्रमी दैत्य क्रोधसे खैरू खूंदत हुवा पर्वतोंको शृंगोंसे उठाकर भगवतीके मस्तकपर फेकताभया और ऊंचे स्वरसे गर्जना कर्त्तोभयो॥२५॥

वेगभ्रमणविक्षुण्णामहीतस्य व्यशीर्यत॥ लांगूलेनाहतश्चान्धिः प्लावयामाससर्वतः॥२६॥धुतशृंगविभिन्नाश्चखंडखंडययुर्धनाः॥ श्वासानिलास्ताः शतशोनिपेतुर्नभसोचलाः॥२७॥ इति क्रोध समाध्मातमापतंतं महासुरं॥दृष्ट्वासाचंडिकाकोपं तद्वधायतदाकरोत्॥२८॥साक्षिप्त्वा तस्य वै पाशंतंबबंधमहासुरं॥तत्याजमा हिषं रूपं सोपिबद्धो महामृधे॥२९॥ ततः सिंहो भवत्सद्योयावत्तस्याम्बिका शिरः॥छिनत्तितावत्पुरुषःखङ्गपाणिरदृश्यत॥३०॥

टीका—फिर तिस महिषासुरका जो वेगकरिकै भ्रमण ताकरिकै पिसी-

हुई पृथ्वी आपही नम्र होतीभई और उस महिषासुरकी पुच्छकारकै ताडितहुवा समुद्र सर्वत्र पृथ्वीकेविषे मनुष्योंको डुबाताभया॥२६॥ फिर कंपित शृंगोंकरिकै विदीर्ण किये ऐसे जे मेघ ते खंडखंड होयकर जातेभये और तिस महिषासुरका क्रोधका सेंकडों श्वासके पवनसे फेकेहुवे जे पर्वत वे चूर्णीभूत हुवेआकाशसे पडतेभये॥२७॥ इस प्रकारसे क्रोधरूपी अग्निकरिकै संयुक्त और युद्धकेलिये आताहुवा महिषासुरको देखकर चंडिका उसके मारनेकेलिये क्रोध कर्त्तीभई॥२८॥ फिर उस महासंग्राममें महिषासुरके मारनकेलिये भगवती पाश फेकके महिषासुरको बांधतीभई सोभी पाशके बंधसे घबराताहुवा महिषाकार स्वरूपको त्यागताभया॥२९॥ फिर महिषाकार स्वरूप त्यागके अनंतर भगवतीसे युद्ध करनेको उसीसमय सिंहरूप होतोभयोफिर जितने कालकारकै भगवती उसको शिर काटेगी उतने कालकेविषे खड्गहै हाथमें जिसके ऐसा पुरुष प्रकट होताहुवा भगवतीको दीखताभया॥३०॥

तत एवाशुपुरुषं देवीचिच्छेद सायकैः॥तंखङ्गं चर्मणासार्धं ततः सोभून्महागजः॥३१॥ करेणचमहासिं हंतं च कर्षजगर्ज च॥ कर्षतस्तुकरंदेवीखढ्गेननिरकृंतत॥३२॥ ततो महासुरो भूयो माहिषंव पुराश्रितः॥ तथैवक्षोभयामासत्रैलोक्यं सचराचरं॥३३॥ ततः क्रुद्धाजगन्माताचण्डिकापानमुत्तमम्॥ पपौपुनःपुनःश्चैव जहासारुणलोचना॥३४॥ ननर्दचासुरः सोपि बलवीर्यमदोद्धतः॥ विषाणाभ्यां चचिक्षेपचंडिकां प्रतिभूधरान्॥३५॥

टीका—फिर पुरुष देखनेके अनंतरही बाणोंकरिकै भगवती पुरुषका कंठ काटती भईं और उसकी तलवार ढालभी काटती भई फिर पुरुषरूपके सकाशते गजरूप होतो भयो॥३१॥ फिर शूंड करिकै वह असुर देवीवाहन सिंहको खैंचतो भयो और गर्जतो भयो फिर सिंहको खैंचते हुवेकी शूंड देवी खड्ग करिकै काटती भई॥३२॥ ताके अनंतर वह असुर फिर अपने निज

महिषाकार स्वरूप बनाता भ

या और तिसीमकार चराचर त्रिलोकीको दुःख देता भया॥३३॥ ताके अनंतर क्रोधयुक्त होती हुई जगत्की माता चंडिका और लाल हैं नेत्र जाके ऐसी भगवती रणकेविषे मद्यपीती भ

ई फिर वारंवार हँसतीही गई और युद्धको कुछ नहीं गिनती भ

ई॥३४॥ फिर सामर्थ्य और तेज और गर्व इनकरिकै छोडी है मर्यादा जाने ऐसो जो महिषासुर सोभी रणभूमिकेविषे गर्जतो भयो और शृंगोंसे भगवतीपर पर्वत फेकतो भयो॥३५॥

साचतान्प्रहितांस्तेनचूर्णयंती शरोत्करैः॥ उवाचतंमदोद्धूतसुखरागाकुलाक्षरम्॥३६॥ देव्युवाच॥ गर्जगर्जक्षणं मूढमधुयावत्पिवाम्यहं॥ मयात्वयिहतेत्रैव गर्जिष्यंत्याशुदेवताः॥३७॥॥ऋषिरुवाच॥ एवमुक्त्वासमुत्पत्यसारूढातं महासुरं॥ पादेनाक्रम्यकंठे च शूलेनैनमताडयत्॥३८॥ ततः सोपिपदाक्रांतस्तयानिजमुखात्ततः॥ अर्धनिष्क्रान्तएवासी-द्देव्यावीर्येण संवृतः॥३९॥ अर्धनिष्क्रांत एवासौयुध्यमानो महासुरः॥ तयामहासिनादेव्या-शिरश्छित्त्वानिपातितः॥४०॥

टीका—फिर उस दैत्यके फेंके हुवे पर्वतोंको बाणोंकी वर्षाकरिकै चूर्णकर्त्ती हुई भगवती मद्यपानके मद्यकरिकै उत्पन्न भयो जो मुखकेविषे राग ताकरिके अच्छी तरह नहीं समझेन अक्षर जाकेविषे जैसा होय तैसा बोलती भई॥३६॥ देवी बोलती भई कि हे मूढ जितने मैं मधु पीती हूं उतने क्षणभर तू गर्ज गर्ज ताके अनंतर मेरेसे तेरे मरनेके बाद इस संग्रामकेविषे श्रीघ्रही देवता गर्जेगे॥३७॥ ताके अनंतर ऋषि बोले कि हे राजन् ऐसे भगवतीकहकर और उछलकर असुरके ऊपर बैठती हुई एक पैरसे असुरको बांधकर पीछे उसके कंठमें त्रिशूल भारती भई॥३८॥ ताके अनंतर एक पैरसे बंधा हुवा महिषासुर अपने मुखसे पुरुषरूप होकर निकसता हुवा तिस समय देवीने अपनी सामर्थ्यकरिकै रोक दिया याते आधा निकसता

हुवाही रहता भया॥३९॥ फिर वह जो आधा निकसा हुवाही देवीके साथ युद्ध कर्त्ता हुवा महिषासुर दैत्य है सो उसे भगवतीने महा खड्गसे शिर काटकरिकै पृथ्वीमें गिरा दिया॥४०॥

एवं समहिषोनाम ससैन्यः ससुहृद्गुणः॥ त्रैलोक्यं मोहयित्वातुतयादेव्याविनाशितः॥४१॥ त्रैलोक्यस्थैस्तदाभूतैर्महिषे विनिपातिते॥ जयेत्युक्तंततः सर्वैः सदेवासुरमानवैः॥४२॥ ततो हाहाकृतं सर्वं दैत्यसैन्यं ननाशयत्॥ प्रहृर्षं च परं जग्मुः सकलादेवतागणाः॥४३॥ तुष्टुवुस्तांसुरादेवीं सह दिव्यैर्महर्षिभिः॥ जगुर्गं धर्वपतयोननृतुश्चाप्सरोगणाः॥४४॥ इति श्रीमार्कण्डेय पुराणे सावर्णिके मन्वंतरे देवीमाहात्म्ये तृतीयोऽध्यायः॥३॥

टीका—इस प्रकारसे अपनी सेनाकरिकै सहित और अपने मित्रादिकन करिकैसहित त्रिलोकीको दुःख देकर युद्ध कर्त्ता हुवा ऐसा जो महिषासुर उसे संग्रामकेविषे भगवतीने मारा॥४१॥ तिस समयकेविषे त्रिलोकीमें रहनेवाले देव और असुर और मनुष्य अर्थात् स्वर्गमें रहनेवाले इंद्रादिक देवता और पातालमें रहनेवाले बलि आदि असुर और पृथ्वीमें रहनेवाले ब्राह्मण आदि मनुष्य ये सब जयजयशब्द कर्त्तेभये॥४२॥ ताके अनंतर जो कुछ बाकी रही दैत्योंकी सेना सो हाहाकार कर्त्ती हुई अदृष्ट होती भई और संपूर्ण देवता आनंदको प्राप्त होते भये॥४३॥ फिर स्वर्गेमें रहनेवाले महर्षियोंकरिकै सहित देवता भगवतीकी स्तुति कर्त्तेगये और हाहा हूहू आदि गंधर्व गाते भये और उर्वशीसे आदिले अप्सरा नाचती भई॥४४॥ इति मार्कंडेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरवधोनाम तृतीयो_(०)॥३॥

ऋषिरुवाच॥ ततः सुरगणाः सर्वेदेव्या इन्द्रपुरोगमाः॥ स्तुतिमारेभिरेकर्त्तुं निहते महिषासुरे॥१॥ शक्रादयः सुरगणानिहतेतिवीर्येतस्मिन्दुरात्मनिसुरारिबलेचदेव्या॥ तां तुष्टुवुः प्रणति

नम्रशिरोधरां सावाग्भिःप्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहाः॥२॥ देवा ऊचुः॥ देव्याययाततमिदंजगदात्मशक्त्या निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या॥तामं विकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां भक्त्यानताः स्म विदधातु शुभानिसानः॥३॥ यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननं तोब्रह्माहरश्चनहिवक्तुमलंबलंच॥ साचण्डिकाखिल-जगत्परिपालनाय नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु॥४॥ या श्रीःस्वयंसुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः पापात्मनांकृतधियां हृदयेषु बुद्धिः॥ श्रद्धासतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा तां त्वां न ताःस्मपरि पालयदेविविश्वम्॥५॥

टीका—ऋषि बोले कि हे राजन् महिषासुरके मरनेके अनंतर इंद्रादिक देवता भगवतीकी स्तुति करनेको आरंभ कर्त्तेभये॥१॥ और जब देवीने उस संग्रामके विषे बडा पराक्रमी और दुरात्मा ऐसे महिषासुरको मारा और दैत्योंकी सेनाको मारी ता समयकेविषे स्नेहकरिकै नम्र है नाडि और कंधे जिनोके और आनंदकेविषे जे रोमांच तिनका जो ऊठना ताकरिकै मनोहर है देह जिनोंके ऐसे जे इंद्रादिक देवताते भगवतीकी स्तुति कर्त्तेभये॥२॥ देवता बोलतेभये कि संपूर्ण देव और उनकी शक्ति इनके ने समूह तेही है मूर्ति जिसकी ऐसी जो भगवती ताने अपनी शक्ति करिकै जगत् रच्यो है और संपूर्ण देव और महर्षि इन करिकै पूज्य ऐसी जो अंबिका देवी ताको हम भक्ति करिकै नमस्कार करतेहैं हे भगवती हमारा कल्याण करो॥३॥ और नहीं है उपमा जाकी ऐसा जो भगवतीका प्रभाव और बल ताको वर्णन कर्नेको विष्णु और ब्रह्मा और शिव येभी समर्थ नहीं वह चंडिका जगत्को पालनेंके अर्थ और अशुभनसे जो भय ताके नाशके अर्थ बुद्धि करो॥४॥ है देवी! पुण्यवानोंके घरोंके विषे जो तुम लक्ष्मीरूपहो और पापियों के घरों के विषे अलक्ष्मी रूपहो और ज्ञानियोंके हृदयकेविषे बुद्धिरूपहो और सज्जनोंके हृदयके विषे श्रद्धारूपहो और श्रेष्ठकुलकेविषे उत्पन्न जो मनुष्य ताके हृद-

यके विषे लज्जारूपहो ऐसी जो तुमहो सो तुमको हम नमस्कार करतेहैं तुम या जगत्को पालनकरो॥५॥

किं वर्णयामतवरूपमचिंत्यमेतत्किंचातिवीर्यमसुरक्षयकारिभूरि॥ किंचाहवेषु चरितानि-तवातियानि सर्वेषु देव्यसुरदेवगणादिकेषु॥६॥हेतुः समस्तजगतांत्रिगुणापि देवैर्नज्ञाय-संहरिहरादिभिरप्यपारा॥ सर्वाश्रयाखिलमिदं जगदंशभूतयव्याकृता हि परमाप्रकृति-स्त्वमाद्या॥७॥ यस्याः समस्तसुरतासमुदीरणेन तृप्तिं प्रयातिसकलेषु मखेषु देवि॥ स्वाहासिवैपितृगणस्य चतृप्तिहेतुरुच्चार्यसेत्वमत एव जनैः स्वधाच॥८॥ या मुक्ति हेतुरविचिंत्य महाव्रतात्वमभ्यस्य से सुनियतेंद्रियतत्त्वसारैः॥ मोक्षार्थिभिर्मुनिभिर-स्तसमस्तदोषौर्विद्याऽसिसाभगवतीपरमा हि देवि॥९॥ शब्दात्मिकासुविमलर्ग्यजुषां निधानमुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम्॥ देवीत्रयी भगवती भवभावनाय वार्तासिसर्वजगतां परमार्तिहंत्री॥१०॥

टीका—हेदेवि! संपूर्ण असुर और देवगण इत्यादिकोंके विषेअत्यंत असुरोंका क्षय करनेंवाला और बडा पराक्रमी मन करिकेभीचितवन करनेंको दुर्लभ ऐसा जो तुमारा यह मनोहररूप ताको हम वाणी करिकै कैसे वर्णन करें और संग्रामोंके विषे मत करिकेभी स्मरण करनेको दुर्लभ ऐसे जे तुमारे वीर कर्महै तिनकेभीहम बाणीकरिकै कैसे वर्णन करें॥६॥ हे भगवती! स्वर्ग और पृथ्वी और पाताल इनका कारण त्रिगुणभी तूहै तौभीहरिहरादिकदेवों करिकैनहीं जानीजातीहै फिर कैसीहै अनंतहै और सबका आश्रयहै और यह जगत्संपूर्ण तेरा अंशभूतहै फिर तू कैसीहैं किसी करिकैप्रकाशित नहींहै फिर कैसीहैउत्कृष्ट लक्ष्मीरूपहै फिर कैसीहै जगत्का मूल भूतहै फिर कैसीहै प्रकृतिरूपहै॥७॥ हे भगवती! फिर तू कैसीहै स्वाहारूपहै जाका उच्चार करिकै संपूर्ण यज्ञोंके विषे संपूर्ण देवता तृप्तिको प्राप्त होतेहैं

इसकारणसे निश्चयकरिके पितृगणकी तृप्तिका हेतु स्वधारूप मनुष्यों करिकै उच्चारण करीजातीहै॥८॥ हेभगवती! जो तुम मुक्तिका हेतु चितवन करनेमें नहींआवो और बडे कठिनहैं व्रत जाकेविषे और संपूर्ण ऐश्वर्य करिकै युक्तऔर वेदांतके अभ्यास करिकै उत्पत्ति जाकी ऐसी ब्रह्मज्ञानकी प्राप्ति रूप जो विद्या सो तुमहो फिर तुम कैसी हो अच्छीतरह विषयोंसे हटाईहै इन्द्रियोंकी वृत्ति जिनोंने और तत्वज्ञानहै सार जिनोंके और नष्ट होगयेहैं समस्त कामादि रूप दोष जिनोंके ऐसे मोक्षकी इच्छा करनेवाले जे मुनिहैं तिन करिकै वारंवार अभ्यासकरीजातीहो॥९॥ हेभगवति! फिर तुम कैसीहो संपूर्ण ऐश्वर्य करिकै युक्तहो और नादरूपहो सुंदर और दोष करिके रहित ऐसे जे ऋग्वेद तिन करिके सहित जे यजुर्वेद और उच्चस्वरसे गाने करिकै रमणीकपदपाठवाले ऐसे जे सामवेद इनकी शिवजीका ध्यानके अर्थ प्रवृत्त त्रयीरूप तुमहो फिर कैसीहो कृषिगोरक्षादि वृत्तिरूप तुमहो फिर कैसीहो सबजगत्का आधारहो और सब जगत्का दुःख हरनेवालीहो॥१०॥

मेधासिदे विविदिताखिलशास्त्रसारादुर्गाऽसि दुर्गभवसागरनौरसंगा॥ श्रीः कैटभारिहृदयैककृताधिवासागौरीत्वमेवाशिमौलिकृतप्रतिष्ठा॥११॥ ईषत्सहासममलं परिपूर्णचंद्रबिम्बानुकारिकनकोत्तमकांतिकांतम्॥ अत्यद्भुतंप्रहृतमात्तरुषातथापिवक्रं विलोक्यसहसामहिषासुरेण॥१२॥ दृष्ट्वातुदेवि कुपितं भ्रुकुटीकरालमुद्यच्छशांक सदृशच्छवियन्नसद्यः॥ प्राणान्मुमोच मद्विषस्तदतीवचित्रं केर्जीव्यते हि कुपितां तकदर्शनेन॥१३॥ देविप्रसादपरमाभवती भवाय सद्योविनाशयसि कोपवती कुलानि॥ विज्ञातमेतदधुनैव यदस्तमेतन्नीतंबलंसुविपुलं महिषासुरस्य॥१४॥ ते संमताजनपदेषु धनानितेषां तेषां यशांसिनचसीदतिबंधुवर्गः॥ धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारायेषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्नाः॥१५॥

टीका—हे भगवती! फिर तुम कैसी हो कि जानेंजांय संपूर्ण शास्त्र जा करिकै ऐसी बुद्धिरूप हो फिर कैसी हो दुःख करिकै प्राप्त होसकतीहो फिर कैसी हो अगम्य जो संसार रूपी समुद्र ताके विषे नौका रूप हो फिर कैसी हो कि संसारके विषय वासना करिकै रहित हो फिर कैसी हो विष्णुके वक्षस्थलमें निवास करनेवाली लक्ष्मीरूप हो फिर कैसी हो शिवजीनें कियो है सत्कार जाको ऐसी गौरीरूप तुम हो॥११॥ हे भगवती! मंदहास्य करिकै सहित और निर्मल और पूर्णिमाके चंद्रमाके बिंबके सदृश और सुवर्णके बीचमें जो उत्तम सुवर्ण ताकी शोभाके सदृश है शोभा जाकी याते बडाही मनोहर ऐसा जो तुह्मारा मुख ताको देखकर तोभी क्रोधयुक्त महिषासुरने बलात्कारसे प्रहार किया यह बड़ा अचरज है क्यौंकि जगत्को मोहन करनेवाला ऐसा जो तुह्मारा मुख ताको देखकर महिषासुरको मोहन नहीं हुवायाते यह अत्यंत भेद भयो॥१२॥ हे देवी उस रणके विषे क्रोध करिकै युक्त और भ्रुकुटीकरिकै भयंकर और पूर्णिमाके विषे उदयहोताहुवा चंद्रमाकी तुल्य है शोभा जाकी ऐसा तुह्मारे मुखको देखकर ता समय महिषासुर प्राण नहीं त्यागता भया यह बड़ा अचरज है क्यौंकि क्रोधयुक्त कालके दर्शन करिकै कौन प्राणी जीवे अर्थात् कोई नहीं जीवे॥१३॥ हे भगवती तुम प्रसन्न हो फिर कैसी हो उत्कृष्ट लक्ष्मीरूप हो तुह्मारेसे युद्ध करनेको आई ऐसी जो महिषासुरकी सेना है ताको तुमने नाशको प्राप्त करदई यह क्या बात है इसको अबही हम जानें है कि हे भगवती जब तुम प्रसन्न होती हो तब शीघ्रहीजगत्का पालन कर्ती हो और जब क्रोधयुक्त होती हो तब शीघ्रही असुरोंके वंशका नाश कर्ती हो॥१४॥ हे भगवती! तुम मनोरथ पूर्ण करनेवाली जिनके ऊपर प्रसन्न हों वेही मनुष्य संपूर्ण देशों में प्रतिष्ठा वाले है और उनके धन है और उनकेही यश है और उनके भाईबंध जे हैं तेभी दुःख नहीं पाते है और वेही पुण्यवाले हैं फिर वे पुरुष कैसे हैं कि शिक्षा दियेगयेहैं कुलको आचरणके विषे पुत्र और नौकर और स्त्रियां जिनोंके॥१५॥

धर्म्याणि देविसकलानि सदैव कर्माण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति॥ स्वर्गं प्रयाति च ततो भवती प्रसादाल्लोकत्रयेपिफलदाननुदेवितेन॥१६॥ दुर्गेस्मृता हरसि भीतिमशेषजंतोः स्वस्थैः स्मृतामतिमतीव शुभां ददासि॥ दारिद्र्यदुःखभयहारिणिकात्वदन्या-सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥१७॥ एभिर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते कुर्वंतु नाम नरकाय चिराय पापं। संग्राममृत्युमधिगम्यदिवं प्रयांतुमत्वेतिनूनमहितान्विनिहंसिदेवि॥१८॥ दृष्ट्वैव किं न भवती प्रकरोति भस्मसर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषिशस्त्रं॥लोकान्प्रयान्तुरि-पवोपिहिशस्त्रपूता इत्थं मतिर्भवतितेष्वहितेषुसाध्वी॥१९॥ खड्गप्रभानिकर-विस्फुरणैस्तथोग्रैः शूलाग्र कांतिनिवहेनदृशो सुराणां॥ यन्नागताविलयमंशुमदिं दुखंडयोग्याननं तवविलोकयतांतदेतत्॥२०॥

टीका—हे भगवती! तुमारी कृपासे नित्यप्रति सदाही आदरयुक्त होता हुवा जो सुकृति मनुष्य है सो तुह्मारी प्रसन्नताके अर्थ ज्योतिष्टोमादिक जे कर्म हैं कि कर्त्ता है फिर ताके अनंतर तुह्मारी प्रसन्नतासे स्वर्गमें जाता है फिर ताके अनंतर मोक्षको प्राप्त होता है है देवी! तिस कारण करिकै तीनों लोकोंमेंतुमही फल देनेंवाली हो॥१६॥ हे दुर्गे ! तुम मन करिकै स्मरण करी हुई सब प्राणीयोंका भय दूर कर्ती हो और स्थिर चित्तवालों करिकै स्मरण करी हुई तुम उनको धर्म अर्थ काम मोक्ष इनका साधनभूत अत्यंत श्रेष्ठ बुद्धि देती हो हे दारिद्र्य और दुःख और भय इनको दूर करनेवाली! सबका उपकार करनेको सदैव आर्द्रहै हृदय जाको ऐसी तुह्मारेसे और दूसरी कौन है अर्थात् कोई नहीं है॥१७॥ तुमनें मारे जे ये महिषासुरसे आदि ले करकै दैत्य तिन करिकै जगत् सुखको प्राप्त हो और तिस प्रकार ये असुर बहुत काल पर्यंत नरकके विषे प्राप्त होवेको पाप मत करो किंतु ये असुर संग्रामके विषे मृत्युको प्राप्त होकर स्वर्गमें जावो ये निश्चय करिकैतीन

कारण मनमें विचार करिकै हे देवी! इन असुरोंको तुम मारती हो॥१८॥ हे भगवती! दृष्टि करिकेही क्या सब असुरोंको भस्म नहीं करद्यो अर्थात् करिही द्योतौभी शत्रुवोंके विषे जो तुम शस्त्र छोडती हो सो हमारो शत्रुभी शस्त्रौंसे पवित्र होता हुवा यथेच्छ स्वर्गादिक लोकोंके विषे जावो इस प्रकारसेदुष्ट दैत्योंके विषे तुह्मारी श्रेष्ठ बुद्धि है॥१९॥ और संग्रामके विषे तुह्मारे खड्गकी ने प्रभा ताके रामूहके चौतरफ फैलनें करिकै और त्रिशूलकी प्रभाके समूह करिकै असुरोंकी जे दृष्टि ते नाशको प्राप्त न गई सो यह और ही कारण है क्यौं कि कैसे हैं वे असुर है अमृतमयी किरण जाकी ऐसा अर्द्धचंद्र करिकै युक्त जो तुह्मारा मुख ताको देखते हुवे॥२०॥

दुर्वृत्तवृत्तशमनं तवदेविशीलं रूपं तथैतदविचिंत्यमतुल्यमन्यैः॥ वीर्यं च हंतृहृतदेव पराक्रमाणां वैरिष्वपि प्रकटितैव दयात्वयेत्थम्॥२१॥ केनोपमाभवतुतेस्यपराक्रमस्य रूपं च शत्रुभय कार्यतिहारिकुत्र॥चित्तेकृपाप्तमरनिष्ठुरताचदृष्टात्वय्येव देवि वरदेभुवनत्रयेपि॥२२॥ त्रैलोक्यमेतदखिलं रिपुनाशनेनत्रातं त्वयासमरमूर्धनितेपिहत्वा॥ नीतादिवंरिपुगणाभयमप्यषास्तमस्माकमुन्मदसुरारिभवंनमस्ते॥२३॥शूलेनपाहिनोदेवि पाहि खड्गेन चाम्बिके॥ घण्टास्वनेननः पाहिचापज्यानिःस्वनेन च॥२४॥ प्राच्यां रक्षप्रतीच्यां च चण्डिकेरक्षदक्षिणे॥ भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यांतथेश्वरि॥२५॥

टीका—फिर हेदेवि! तुम कैसीहो पापियोंके पाप दूर करनेंवाला यह तुह्मारा स्वाभाविक गुणहै और तिसीप्रकार मन करिकेभी चितवन करनेंको दुर्लभ और अद्वितीय होनेंसे और कोई मनोहर रूपों करिकै समान नहीं ऐसा तुमारा रूपहै और तिसीप्रकार अपने आधीन कियेहैं देव जानें ऐसा है पराक्रम जिनोंका ऐसे दैत्योंको मारनेवाला तुह्मारा पराक्रमहै फिर हेदेवि! वैरियोंकेविषेभी तुमने ऐसे दयाही प्रगट करी॥२१॥ हेवरदान देनेंवाली !

तुमारा इस पराक्रमकी तीन लोकमेंभी किसीके साथ उपमा होय अर्थात् किसीके साथ नहीं ऐसा तुह्मारा पराक्रमहै और शत्रुवोंकों भय करनेवाला औरनको मनोहारी ऐसा रूप कहां ऐसा तुमाराही रूपहै और तुह्मारा चित्तके विषे कृपा और रणके विषे कठोरता यह तुम्हारे विषेही देखीहै॥२२॥ हेदेवि! संग्रामके विषे दैत्योंको मारि कारके तुमनें संपूर्ण त्रिलोकीकीरक्षा करो फिर उन अपने दैत्योंकोभीसंग्रामके विषे मारि करिके तुमनें स्वर्गमें पहुँचादिये और दैत्योंसे उत्पन्न जो हमको भय था सो हमारा भयभी तुमने दूरकिया ऐसी जो तुमहो तुह्मारे अर्थ नमस्कारहै॥२३॥ हे अंबिके! त्रिशूल करिके हमारी शत्रुवोंसे रक्षाकरो और खड्गकरिकै रक्षाकरो और हे देवि! घंटाकेशब्द करिकै और धनुषकी टंकार करिके तुम हमारी शत्रुवोंसे और पापोंसे रक्षाकरो॥२४॥ हेचंडिके त्रिशूलको चारों और घुमानें करिकै पूर्वमें और पश्चिममें और दक्षिणमें हमारी रक्षाकरो और तिसीप्रकार हेईश्वरी उत्तरके विषे रक्षाकरो॥२५॥

सौम्यानियानि रूपाणि त्रैलोक्यविचरंतिते॥ यानि चात्यंतघोराणितैरक्षास्मांस्तथाभुवम्॥२६॥ खड्गशूलगदादीनियानि चास्त्राणितेम्बिके॥ करपल्लव संगीनि तैरस्मान्रक्षसर्वतः॥२७॥ ऋषिरुवाच॥ एवं स्तुता सुरैर्दिव्यैः कुसुमैर्नंदनोद्भवैः॥ अर्चिताजगतां धात्री तत्र गंधानुलेपनैः॥२८॥ भक्त्यासमस्तौस्त्रिदशैर्दिव्यैर्धूपैः सुधूपिता॥ प्राहप्रसादसुमुखी-समस्तान्प्रणतान्मुरान्॥२९॥ देव्युवाच॥ व्रियतां त्रिदशाः सर्वेयदस्मत्तोभिवांछितम्॥ ददाम्यहमतिप्रीत्यास्तवैरोभिः सुपूजिता॥३०॥

टीका—और हेभगवती! संसारको रचनवाले और पालना करनेंवाले जे तुम्हारे सौम्यरूपहैं और संसारके संहार करनेवाले ऐसे जे तुम्हारे भयंकर रूप हैं ते दोनो प्रकारके रूप त्रिलोकीके विषे विचरतेहैं तिन दोनों प्रकारके रूपों करिकैहमारी रक्षाकरो और या पृथ्वीकी रक्षा करो और पातालकी राक्ष-

करो॥२६॥ और हेभगवती! हाथेंमें धारण किये ऐसे जे खड्गऔर त्रिशूल और गदा इन आदिलेकर शस्त्र! तिनकरिके और धनुपआदि जे अस्त्रहैं दिन करिके चारों तरफ शत्रुवोंसे और दुःखसे हमारी रक्षाकरो॥२७॥ तब ऋषि बोले कि हे राजन्! जब इसप्रकारसे जगत्के पोषण करनेवाली भगववती देवता करिकै स्तुति करीहुई और दिव्य नंदन वनमें उत्पन्न होनेवाले पुष्पों करिकै और चंदन श्रीराग इत्यादिकोंकरिके पूजितहुई॥२८॥ और देवतावों करिकैभक्तिपूर्वक दिव्य धूपसे पूजितहुई ऐसी भगवती प्रसन्न होतीहुई देवतोंके प्रति बोलतीभई॥२९॥ देवी बोली कि हे देवो! सब तुम मेरेसे मनोवांछित वरदान मांगो तुमने स्तुतिकरी जिसकरिकै मैं बडीप्रसन्नहूं सो जो मांगोगे वही दूंगी॥३०॥

कर्त्तव्यमपरं यच्च दुष्करं तन्नविद्महे॥ इत्याकर्ण्यवचोदेव्याःप्रत्यूचुस्ते दिवौकसः॥३१॥ देवा ऊचुः॥ भगवत्या कृतं सर्वं न किंचिदवशिष्यते॥ यदयं निहतः शत्रुरस्माकं महिषासुरः॥३२॥ यदि चापिवरोदेयस्त्वयास्माकं महेश्वरि॥संस्मृतासंस्मृतात्वं नो हिंसेथाः परमापदः॥३३॥ यश्चमर्त्यःस्तवैरेभिस्त्वांस्तोष्यत्यमलानने॥ तस्य वित्तर्द्धिविभवैर्धनदारादिसंपदाम्॥ वृद्धयेस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके॥३४॥ऋषिरुवाच॥

॥ इति प्रसादितादेवैर्जगतोर्थे तथात्मनः॥ तथेत्युक्त्वाभद्रकालीबभूवांतर्हितानृपं॥३५॥

टीका—फिर हेदेवो! और जो तुमको कार्य करणाहोय सो कहो उसको कुछ मुश्किल नहीं जानतीहूं ऐसे भगवतीके कोमल वचन सुन करिकै देवता बोलतेभये॥३१॥ देव बोले हेदेवि! जिस कारणसे तुमने यह हमारामहिषासुर नाम शत्रु मारा याते तुमने सबहमारा प्रयोजन करिही दिया और कुछ काम बाकी न रहा॥३२॥ हेमहेश्वरी! जो तुमनें हमारेको वरदेना योग्यहीहै तो वही आपत्तियोंके विषे तुमे वारंवार स्मरण करीहुई हमारी

आपत्ति दूरकरो॥३३॥ और हे भगवती हे अमलानने जिन श्लोकोंकरिकै तुह्मारी हमनें स्तुति कही उनश्लोकोंकरिके जो कोई मनुष्य तुह्मारी स्तुति करेगा याते हमारेपर प्रसन्नहुई उस मनुष्यकी अश्वसे आदि लेकर जो धन और ऋद्धि और ऐश्वर्य इन करिके सहित जे धन और स्त्री पुत्रादिकनकी संपत्तिहै तिनकी तुम सदा वृद्धिके अर्थ हो॥३४॥ तब ऋषि बोले हेसुरथ राजन् इस प्रकारसे जगत्के अर्थ और अपने अर्थ देवोंने प्रसन्नकरी ऐसी जो भद्रकाली सो तैसेही हो ऐसे कहकर अंतर्द्धान होती भई॥३५॥

इत्येतत्कथितं भूपसंभूता सायथापुरा॥ देवीदेवशरीरेभ्योजगत्त्रयहितैपिणी॥३६॥ पुनश्चगौरीदेहात्सासमुद्भूता यथाभवत्॥ वधायदुष्टदैत्यानां तथा शुंभनिशुंभयोः॥३७॥ रक्षणायचलोकानां देवानामुपकारिणी॥ तच्छृणुष्वमयाख्यातं यथावत्कथयामिते॥३८॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिकेमन्वंतरेदेवीमाहात्म्ये शक्रादिस्तुतिर्नामचतुर्थोऽध्यायः॥४॥

टीका—हे राजन् तीनों लोकका हित चाहनेवाली भगवती महिषासुर आदि दैत्योंके वधवास्ते पहिले जैसे सब देवोंके शरीरोंसे तेजरूप उत्पन्न होती गई यह वृत्तांत मैंने तुह्मारेको कहा॥३६॥ फिर दुष्ट दैत्योंके मारनेके वास्ते और शुंभ निशुंभके मारनेकेवास्ते और तीनों लोकोंकी रक्षाकेवास्ते गौरीका देहसे जैसे भगवती उत्पन्न गई सो तुमसे यथार्थ कहता हूँ मेरा कहा सुनो॥३७॥३८॥ इति मार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे शक्रादिकतदेव्याःस्तुतिर्न्नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥

ऋषिरुवाच॥ पुरा शुंभनिशुंभाभ्यामसुराभ्यांशचीपतेः॥ त्रैलोक्यंयज्ञभागाश्च-हृतामदबलाश्रयात्॥१॥ तावेव सूर्यतांतद्वदधिकारं तथैंदवम्॥ कौबेरमथयाम्यंचचक्राते वरुणस्य च॥२॥ तावेवपवनर्द्धिं च चक्रतुर्वह्निकर्म च॥ अन्येषां चाधिकारान्सस्वयमेवाधितिष्ठति॥ ततो देवाविनिर्धूताभ्रष्टराज्याः पराजिताः॥३॥

हृताधिकारास्त्रिदशास्ताभ्यां सर्वे निराकृताः॥ महासुराभ्यांतां देवीं संस्मरंत्यपराजिताम्॥४॥ तयास्माकं वरो दत्तो यथापत्सु स्मृताखिलाः॥ भवतांनाशयिष्यामितत्क्षणात्परमापदः॥५॥

टीका—ऋषि बोले पहिले तामसमन्वन्तरकेविषे कश्यपजीके सकाशते दनु स्त्रीकेविषे तीन असुर उत्पन्न होते गये जिनोंयेंबढ़ा तो नमुचि नामा और छोटे शुंभ और निशुंभ तिनमें शुंभ और निशुंभ ए दो बडे पराक्रमी गये इन शुंभ निशुंभ दोनों असुरों ने मद और गर्व और सामर्थ्य इनके शरीरमें होनेसे इंद्राकात्रैलोक्य खोस लिया॥१॥ और वे दोनों शुंभ निशुंभही सूर्यपनाकाकाम कर्त्तेगये और तिसी प्रकार चंद्रपनाका काम कर्त्तेनये और तिसी प्रकार कुबेरपनाका और यमराजपनाका और वरुणपनाका काम कर्त्ते भये॥२॥ और बेही पवनके निरंतर गतिरूपी जो ऐश्वर्य हैं सो कर्त्तेऔर वेही अग्निका काम कर्त्तेगये इसी प्रकार और सब देवतोंकाभीअधिकार आपही लैते भये और तिन शुंभ निशुंभ असुरोसे हारे हुवे यातेही भ्रष्ट हो भयो है राज्य जिनका ऐसे जे देव ताते शुंभ निशुंभ असुरोंने स्वर्गले निकास दिये॥३॥फिर खुसगया है राज्य जिनोका ऐसे ने तिन दानवोंकरिकै स्वर्गसे निकासे हुवे संपूर्ण देवता ते नहीं किसी करिकैभी पराजित ऐसी जो भगवती ताको स्मरण कर्त्ते भये॥४॥ मैं आपत्तिकालकेविषे स्मरण करी हुई उसी समय तुह्मारी संपूर्ण आपत्ति जे हैं तिनको नष्ट करूंगी इस प्रकारसे भगवतीने हमारेको वर दिया है॥५॥

इति कृत्वा मतिं देवाहिमवंतंनगेश्वरम्॥जग्मुस्तत्रततोदेवीं विष्णुमायां प्रतुष्टुवुः॥६॥ देवा ऊचुः॥ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः॥ नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम्॥७॥ रौद्रायैनमो नित्यायै गौर्य्यै धात्र्यै नमोनमः॥ नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमोनमः॥८॥ ज्योत्स्नायैचंद्ररूपिण्यै सुखायै सततं नमः॥ कल्याण्यैप्रणतामृद्ध्यै सिद्ध्यैकूर्म्यै

नमोनमः॥ नैर्ऋत्यैभृभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यैते नमोनमः॥९॥ दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिणि॥ ख्यात्यैतथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः॥१०॥

टीका—इस प्रकार मनमें विचार करिकै पर्वतराज हिमालय पर्वत जो हैतहां जाते भये फिर विष्णुमाया भगवतीकी स्तुति कर्त्ते भये॥६॥ देव बोले कि देवीके अर्थ नमस्कार है और महादेवीके अर्थ और कल्याणरूपा भगवतीके अर्थ निरंतर नमस्कार है और प्रकृतिके अर्थ नमस्कार है और मंगलरूपाके अर्थ नमस्कार है एकाग्र चित्त हुवे तिस भगवतीको हम प्रणाम
कर्त्तेहैं॥७॥ और संहारशक्तिके अर्थ नमस्कार है और कालत्रयकरिकै अबाधित ऐसी नित्यरूपा भगवतीके अर्थ नमस्कार हो गौरीके अर्थ और धरणीरुपाके अर्थ नमस्कार ३ और जगत्का धारण करनेवाली के अर्थ नमस्कार देवी और कृतीके अर्थ नमस्कार है॥८॥और चांदिनीरूपाके अर्थ और चंद्ररूपिणी अर्थ परमानंदरूपाके अर्थ निरंतर नमस्कार और कल्याणीके अर्थऔर प्रणाम करनेवाले तिनकी ऋद्धिके अर्थ और सिद्धिके अर्थ और कर्मसंबंधिनीशक्तिके अर्थ नमस्कार और अलक्ष्मीके अर्थ और राजावोंकीलक्ष्मीके अर्थ और शर्वाणीके अर्थ नमस्कार २॥९॥ और दुःख करिकै जानी जाय ऐसी दुर्गाके अर्थ और संसारसे दूरके अर्थ और सर्व कारिणीके अर्थ और विख्यातिरूपाके अर्थ और तिसी प्रकार कृष्णशक्तिके अर्थ और धूम्रवर्णा अर्थ निरंतर नमस्कार हो॥१०॥

अतिसौम्यातिरौद्रायै नमस्तस्यै नमो नमः॥नमो जगत्प्रतिष्टायै देव्यै कृत्यै नमो नमः॥११॥ या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेतिशब्दिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥१२॥ या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते॥ नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥१३॥ या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ १४ ॥

यादेवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यैनमोनमः॥१५॥

टी०—और अतिसौम्या के अर्थ अर्थात् अतिसुंदरा के अर्थ और अत्यंत भयंकराके अर्थ नमस्कार नमस्कार नमस्कार और जगत्के उपादान कारणरूपाके अर्थ नमस्कार और देवशक्तिके अर्थ और क्रियारूपाके अर्थ नमस्कार नमस्का नमस्कार॥११॥ और जो भगवती सब भूतोंकेविषे विष्णुमाया नामकरिकै कही है ता अर्थ काय वाणी और मन इन करिके प्रत्येक नमस्कार नमस्कार नमस्कार॥१२॥और जो सब प्राणियोंकेविषेचैतन्यशक्ति कहीजाती है ताके अर्थ नमस्कार ३॥१३॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियों के विषे बुद्धिरूप करके स्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥१४॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंके विषे निद्रारूप करिके स्थित है ताके अर्थ नमस्कार ३॥१५॥

यादेवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥१६॥ या देवी सर्वभूतेषु च्छायारूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥१७॥ या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥१८॥ या देवी सर्वभूतषु तृष्णारूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥॥१९॥ या देवी सर्वभूतेषु क्षांतिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२०॥

टीका—और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंकेविषे क्षुधारूप करिकै स्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥१६॥ और जो देवी संपूर्णप्राणीयोंकेविषे छायारूप करिके स्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥१७॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंकेविषे शक्तिरूप करिके स्थित हैं ताके अर्थ नमस्कार ३॥१८॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंकेविषे ष्णारूप करिके स्थितहै ताके अर्थ

नमस्कार ३॥१९॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंकेविषे क्षांतिरूप करिके स्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥२०॥

या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२१॥ यादेवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२२॥ या देवी सर्वभूतेषु शांतिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२३॥ या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२४॥ या देवी सर्वभूतेषु कांतिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२५॥

टीका—और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंके विषे जातिरूप करिकैस्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥२१॥और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंके लज्जारूप करके स्थित है ताके अर्थ नमस्कार ३॥२२॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंकेविषेशांतिरूप करकैस्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥२३॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंके विषे श्रद्धारूप करिके स्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥२४॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंकेविषे कांतिरूप करिके स्थितहै ताके अर्थ नमस्कार॥३॥२५॥

या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२६॥ या देवी सर्वभूतेषु धृतिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२७॥ या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२८॥ या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥२९॥ या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥३०॥

टीका—और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंके विपे लक्ष्मीरूप करिकै स्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥२६॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंकेविषे धृतिरूप करके स्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥२७॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियों के विषे वृत्तिरूप करिके स्थितहैताके अर्थ नमस्कार ३॥२८॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंके विषे स्मृतिरूप करिके स्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥२९॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंके विषे दयारूप करिके स्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥३०॥

या देवी सर्वभूतेषु नीतिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥३१॥ या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥३२॥ या देवीसर्वभूतेषु पुष्टिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥३३॥ या देवी सर्व सूतेषु मातृरूपेण संस्थिता॥ नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥३४॥ या देवी सर्वभूतेषु भ्रांतिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥३५॥

टीका—और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंके विषे नीतिरूप करिके स्थितहै। ताके अर्थ नमस्कार ३॥३१॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंकेविषे तुष्टिरूप करिकै स्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥३२॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंकेविषे पुष्टिरूप करिके स्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥३३॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंकेविषे मातृरूपकरिकै स्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥३४॥ और जो देवी संपूर्ण प्राणियोंकेविषे भांतिरूप करिके स्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥३५॥

इंद्रियाणामधिष्ठात्रीभूतानां चाखिलेषु या॥ भूतेषु सततं व्याप्त्यैतस्यै देव्यै नमो नमः॥३६॥ चितिरूपेणयाकृत्स्नमेतद्व्याप्यस्थिताजगत्॥ नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै

नमो नमः॥३७॥ स्तुतासुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रयात्तथासुरेंद्रेशदिनेषु सेविता॥ करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहंतुचापदः॥३८॥ यासां प्रतंचोद्धतदैत्यतापितैरस्माभिरीशाचसुरैर्नमस्यते॥ या च स्मृतातत्क्षणमेवहन्तिनःसर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः॥३९॥ ऋषिरुवाच॥ एवंस्तवाभियुक्तानां देवानां तत्र पार्वती॥ स्नातुमभ्याययौतोयेजाह्नव्यानृपनंदन॥४०॥

टीका—और जो देवी संपूर्ण पञ्चमहाभूतोंकी आधार शक्ति है और संपूर्ण प्राणियोंकेविष ज्ञानके कारण ऐसी स्थूल सूक्ष्म जे इंद्रिय तिनको प्रेरण करनेवाली ऐसी व्याप्तिरूप तिस देवीके अर्थ निरंतर नमस्कार ३॥३६॥ और जो देवी चैतन्यशक्तिरूपकरिके संपूर्ण जगत्कूं व्याप्त करिके स्थितहै ताके अर्थ नमस्कार ३॥३७॥ और जो शुभका कारण ईश्वरी अभीष्ट वस्तुके कारणसे पहिले ब्रह्मा आदिदेवोंकरिके स्तुतिकरिगई और तिसीप्रकार इंद्र करिके नित्यप्रति सेवितहोती गई सो भगवती हमारे निर्विघ्नपूर्वक मंगलकरो और आपत्ति है तिनको दूर करो॥३८॥ और जो देवी निर्मर्यादजे शुभनिशुंभ असुर तिनकरिके पीडित और भक्तिकरिके नम्रहै मूर्ति जिनोंकी ऐसे जे हम तिनकरके स्तुति करीजातीहै और जो देवी स्मरण करीहुई उसीक्षण हमारी संपूर्ण आपत्तियों को दूरकरतीहै सो भगवती हमारे निर्विघ्नपूर्व क मंगल करो और आपत्ति ने है तिन दूर करो॥३९॥ तब ऋषि कोले कि हे राजन् फिर उस हिमाद्रिपर्वतके विषे इसप्रकार स्तुतिकेविषे युक्त जे देवता तिनके सन्मुख श्रीगंगाजीके जलमें स्नान करनेकों पार्वती भगवती आतीभई॥४०॥

साब्रवीत्तान्सुरान्सुभूर्भवद्भिः स्तूयतेत्रका॥ शरीरकोशतश्चारन्याः समुद्भूतानब्रवीच्छिवा॥४१॥ स्तोत्रं ममैतत्क्रियतेशुंभदैत्यनिराकृतैः॥देवैः समस्तैः समरेनिशुंभेनपराजितैः॥४२॥ शरीरकोशाद्यत्तस्याः पार्वत्या निःसृताम्बिका॥ कौशिकीतिस

मस्तेषुततो लोकेषु गीयते॥४३॥ तस्यांविनिर्गतायांतु कृष्णाभूत्सापिपार्वती॥ कालिकेतिसमाख्याता हिमाचलकृताश्रया॥४४॥ ततोम्बिकां परं रूपं विभ्राणां सुमनो हरं॥ ददर्शचण्डोमुण्डश्चभृत्योशुंभनिशुंभयोः॥४५॥

टीका—फिर वह पार्वती देवता से प्रश्न कर्त्ती गई के हे देवो तुम मेरेसे अन्य किसकी स्तुति कर्त्तेहो ताके अनन्तर देवताके उत्तर दीनेके पहिलेही पार्वतीके शरीरकोशसे निकसकर प्रकटहुई शिवा नाम भगवती उत्तर देती भई॥४१॥ निशुंभ करिके संग्रामकेविषे हार हुवे और शुंभ करिकै स्वर्ग से निकासे हुवे ऐसे जे सब देव तिनकरिके यह मेरी स्तुति करी जाती है॥ ४२॥ जिस कारणसे तिस पार्वतीका शरीरकोशसे निकसी हुई जो अंबिका तिस कारणसे सब लोकोविषे कौशिकी इस नाम करिके कही जाती है॥४३॥ फिर पार्वतीका शरीरकोशसे शिवा निकसाके बाद पार्वती कृष्णवर्ण होती गई हिमाचलके विषे किया है स्थान जाने ऐसी कालिका नामकरिके विख्यात भई॥४४॥ ताके अनंतर अत्यंत मनोहर रूपको धारण कर्त्ती हुई भगवतीको शुंभ और निशुंभ इनके नौकर चंड और मुंड ये देखते भये॥४५॥

ताभ्यांशुंभायचाख्याताअतीवसुमनोहरा॥ काप्यास्ते स्त्रीमहाराजभासयंतीहिमाचलम्॥४६॥ नैवतादृक्क्वचिद्रूपंदृष्टं केनचिदुत्तमम्॥ ज्ञायतां काप्यसौ देवीगृह्यतां चासुरेश्वर॥४७॥ स्त्रीरत्नमतिचार्वं गोद्योतयंतीदिशस्त्विषा॥ सातुतिष्ठतिदैत्येंद्र तां भवान्द्रष्टु मर्हति॥४८॥ यानि रत्नानिमणयोगजाश्वादीनिवैप्रभो॥ त्रैलोक्ये तु समस्तानिसांप्रतं तानिते गृहे॥४९॥ ऐरावतः समानीतो गजरत्नं पुरन्दरात्॥ पारिजाततरुश्चायंत थैवोच्चैःश्रवा हयः॥५०॥

टीका—ताकेअनंतर तिनोनें जाकर शुंभसे कहा के हे महाराज हिमाचल पर्वतकूंअपनी कांतिकरिके शोभायमान कर्त्ती हुई एक वहां बडी मनोहर

भी है॥४६॥ ऐना उत्तम रूप किसीने कहूनहीं देखा याते यह कोई ऐसी भीदेवी है यह आप निश्चय जाणों हे असुरेश्वर आप उसको ग्रहण करो॥४७॥ और अत्यंत मनोहर अंगवाली और सब स्त्रियोंकेविषे उत्तम और अपनी कांतिकरिके दशो दिशाकों प्रकाशमान कर्त्ती हुई हिमालयपर्वतकेविषे स्थित है सो हे दैत्येन्द्र तुम उसको देखनेकूंयोग्य हो॥४८॥ और हे प्रभो त्रिलोकविषेसंपूर्ण हाथी और घोडे इनसे आदि लेकर रत्नसदृश है और हे प्रभो पद्मरागादिक जे मणी है इस समय ये संपूर्ण वस्तु तुह्मारघरकेविषे वर्तमान है॥४९॥ और हे प्रभो ऐरावत हाथीरूपी रत्न और कल्पवृक्षरूपी रब और उच्चैःश्रवा अभ्वरूपी रत्न ये आप इंद्रके पासते लाये॥५०॥

विमानं हंससंयुक्तमेतत्तिष्ठतितेंगणे॥ रत्नभूतमिहानीतंयदासीद्वेषसोद्भुतम्॥५१॥ निधिरेषमहापद्मः समानीतोधनेश्वरात्॥ किंजल्किनीं ददौ चाब्धिर्मालामम्लानपंकनाम्॥५२॥ छत्रं तेवारुणं गेहे कांचन स्त्रावितिष्ठति॥ तथा यंस्यंदनवशेयः पुरासीत्प्रजापतेः॥५३॥ मृत्योरुत्क्रांतिदानामशक्तिरीशत्वयाहृता॥ पाशःसलिलराजस्य भ्रातुस्तवपरिग्रहे॥५४॥ निशुंभस्याब्धिजाताश्च समस्तारत्नजातयः॥वह्निश्चापिददौतुभ्यमग्निशौचेचवाससी॥५५॥

टीका—और हंसों करिके युक्त रत्नरूपी जो ब्रह्माका अद्भुत विमान था सो यहां ल्याया हुवा तुह्मारा आँगनके विषे स्थित है॥५१॥ और कुबेरसे ल्याया ऐसा निधिरुपी रत्न तुह्मारे घरके विषे वर्तमान है और भयसे समुद्र कमलोकी ‘माला देतो भयो॥५२॥ और सुवर्णकी वर्षा करनेवाला ऐसा वरुणका छत्र तुलारे घरके विषेस्थित है और तिसी प्रकार जो पहिले दक्ष प्रजापतिके रथ था सो यहां लाया हुवा तुझारे घरके विषे स्थित है॥५३॥ और हे ईश अंतकके सकाशते तुमने प्राणोंको खैचनेवाली शक्ति लई और वरुणका जो पाश है सो तुम्हारा भाई निशुंभका हाथके विषे है॥५४॥ और

जितने प्रकारके समुद्रसे उत्पन्न होनेवाले रत्न है वे संपूर्ण तुह्मारा भाई के घरवे विषे है और हे शुंभ अग्निमें गेरनेसे पवित्र होय ऐसे सुवर्णमयी दो वस्त्र तुह्मारेको अग्निदेव देतो भयो॥५५॥

एवं दैत्येंद्ररत्नानिसमस्तान्याहृतानिते॥स्त्रीरत्नमेषाकल्याणोत्वयाकस्मान्नगृह्यते॥५६॥ऋषिरुवाच॥ निशम्येतिवचः शुंभःसतदा चंडमुंडयोः॥ प्रेषयामाससुग्रीवं दूतं देव्या महासुरः॥५७॥

शुंभ उवाच॥ इति चेति च वक्तव्यासागत्वावचनान्मम॥ यथाचाभ्येति संप्रीत्यातथाकार्यंत्वयालघु॥५८॥ सतत्रगत्वा यत्रास्ते शैलोद्देशेति शोभने॥ तांचदेवीं ततः प्राह श्लक्ष्णं मधुरयागिरा॥५९॥ दूत उवाच॥ देविदैत्येश्वरः शुंभस्त्रैलोक्येपरमेश्वरः॥ दूतोहंप्रेषितस्तेनत्वत्सकाशमिहागतः॥६०॥

टीका—हे दैत्येंद्र इस प्रकार तुमने पूर्वोक्त सब रत्न संचय किये फिर शुभ करनेवाली अंबिका स्त्रीरूपी रत्न तुम क्यों ग्रहण नहीं कर्त्तेहो॥५६॥ तब ऋषि बोले कि हे सुरथ राजन् इस प्रकार चंड और मुंड इनका वचन सुन करिके शुभ देवी संदेस लानेवाला ऐसा सुग्रीव नामा दूत ताको देवी पास भेजता भया॥५७॥ शुंभ बोला हे सुग्रीव तू वहां जा करिके मेरे वचनसे साम और भेद इन उपायों करिकै इस प्रकार कहना के जिस तरह प्रीति करिकै वह शीघ्र हमारे पास आ जाय तिस प्रकार तुझारेको कार्य कर्त्तव्य है॥५८॥ ताके अनंतर जहां हिमालय पर्वतका श्रेष्ठ प्रदेशके विषे देवी विराजमान तहां जा करके अत्यंत मधुर वाणी करिकै उस देवीको मनोहर वाक्य बोलता गया॥५९॥ दूत बोला कि हे देवी त्रिलोकीके विषे शुंभ नामा दैत्येश्वर परमेश्वर है ताका भेजाहुवा दूत मैं यहां तुह्मारे पास आया हूँ॥६०॥

अव्याहताज्ञः सर्वासुयः सदादेवयोनिषु॥ निर्जिताखिलदैत्यारिः सयदाहशृणुष्वतत्॥६१॥ मम त्रैलोक्यमखिलं मम देवावशानुगाः॥ यज्ञभागान हंसर्वानुपाश्नामि पृथक्पृथक्॥६२॥

त्रैलोक्येवररत्नानिममवश्यान्यशेषतः॥ तथैवगजरत्नं हृतंदेवेंद्रवाहनं॥६३॥ क्षीरोदमथनोद्भूतमश्वरत्नं ममामरैः॥ उच्चैः श्रवससंज्ञं तत्प्रणिपत्य समर्पितम्॥६४॥ यानिचान्यानिदेवेषु गंधर्वेषूरगेषु च॥ रत्नभूतानि भूतानि तानिमय्येव शोभने॥६५॥

टीका—सदा देव दानवोंविषे नहीं रुके आज्ञा जाकी और जीतलिये सब देव जाने ऐसा जो शुंभासुर ताने जो कहा सा मेरेसे तुम सुनो॥६१॥ संपूर्ण त्रिलोकी मेरी है और संपूर्ण देव मेरे वशीभूत नौकर है और पृथक् पृथक् इंद्रादि देवोंके निमित्त विधान किये आहुति रूपी जे यज्ञभाग हैं तिन सबको मैंही भोजन कर्त्ताहूँ॥६२॥ और जे त्रिलोकीके विषे सुंदर वस्तु है ते संपूर्ण मेरे वश है और तिसी प्रकार इंद्रका वाहन गजरूपी रत्न हमारे स्न्याया हुवा है॥६३॥ और क्षीर समुद्र मंथनसे उत्पन्न भया ऐसा उच्चैःश्रवानामा जो अश्व सो देवताओंनें प्रणाम करिकै मेरे भेट किया॥६४॥ और हे शोभने देवोंकेविषे और गंधर्वों के विषे और नागों के विषे जे अन्य मनोहर स्त्रीरूपी रत्न हैं ते संपूर्ण मेरेही विषे है॥६५॥

स्त्रीरत्नभूतां त्वां देविलोकेमन्यामहेवयम्॥ सात्वमस्मानुपागच्छयतोरत्नभुजोवयम्॥६६॥ मांवाममानुजंवापि निशुंभमुरुविक्रमम्॥ भजत्वंचंचलापांगिरत्नभूतासिवैयतः॥६७॥ परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यसेमत्परिग्रहात्॥एतद्बुद्ध्यासमालोच्य मत्परिग्रहांव्रज॥६८॥ ऋषिरुवाच॥ इत्युक्तासातदादेवी गंभीरांतः स्मिताजगौ॥ दुर्गाभगवती भद्राययेदंधार्यतेजगत्॥६९॥ देव्युवाच॥ सत्यमुक्तं त्वयानात्र मिथ्याकिंचित्त्वयोदितम्॥ त्रैलोक्याधिपतिः शुंभनिशुंभश्चापि तादृशः॥७०॥

टीका—हे देवी इसभूलोकके विषे तुमारेको हम उत्तम स्त्रीरूपीरत्न जानतेहै सो तुम हमारेकों प्राप्तहो याते हम उत्तम रत्नको भोगनेवाले होये॥६६॥ हे चपलकटाक्षोंवाली तुम उत्तम रत्नरूपी हैं याते मेरेको अथवा मेरा छोटा

भाई बडापराक्रमी निशुंभकू पतिभावसे अंगीकार करो॥६७॥ और मेरा आश्रयसे तुम अत्यंत श्रेष्ठ ऐश्वर्यकी स्वामिनी अर्थात् मालिक होजावोगी हे देवी यह बुद्धिसेविचार करके मेरे स्त्रीपनाको तुम प्राप्त हो॥६८॥ तब ऋषि बोले कि हे सुरथराजन् जब इस प्रकारसे दूतने भगवतीको शुंभका संदेश कहा ताको सुनि हसतीभई भगवती उसदूतको बोलतीगई फिर कैसीहै देवी अगाधहै अभिप्राय जाको फिर कैसी हैं के दुःखकरिके जानीजाय फिर कैसीहै कल्याणरुपीहै वह कौन भगवती के जा करिके यह जगत् धारण कियाजाताहै सो॥६९॥ देवी बोली के हे दूत त्रैलोक्यका राजा शुंभहै और निशुंभभी उसी के समान है इसमे तुमनें सत्य कहा कुछ मिथ्या नहींकहा॥७०॥

किंत्वत्रयत्प्रतिज्ञातं मिथ्यातत्क्रियते कथम्॥ श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञायाकृतापुरा॥७१॥ योमांजयतिसंग्रामेयोमेदर्पव्यपोहति॥ यो मे प्रतिबलो लोकेसमे भर्ता भविष्यति॥७२॥ तदागच्छतुशुंभोत्रनिशुंभोवामहासुरः॥ मांजित्वाकिं चिरेणा त्रपाणिं गृह्णातुमेलघु॥७३॥ दूतउवाच॥ अवलिप्तासिमैवं त्वं देविब्रूहिममाग्रतः॥ त्रैलोक्येकः पुमांस्तिष्ठेदग्रेशुंभनिशुंभयोः॥७४॥

अन्येषामपिदैत्यानां सर्वे देवानवैयुधि॥ तिष्ठंति संमुखे देविकिं पुनःस्त्रीत्वमेकिका॥७५॥

टीका—इस शुंभका आश्रयणके विषे मेरा विचारहैपरंतु जो मैने प्रतिज्ञा करी सो मिथ्या कैसे करू जो मैने पहिले बाल्यावस्थाके विषे विगर विचारि करिके प्रतिज्ञा करीहै सो तुम सुनो॥७१॥ जो मेरेको संग्रामके विषे जीते और जो मेरा गर्व दूरकरे और जो लोकके विषे मेरेसे बलवान् सो मेरा भर्चाहोगा॥७२॥ फिर तिसप्रतिज्ञा कारणसे यहां मेरी प्रतिज्ञा पालनके विषेशुंभ आवों अथवा महासुर निशुंभ आवो फिर देरकरनेकरिके क्या है संग्रामके विषे मरेको जीतकर शीघ्र मेरा पाणिग्रहणकरो॥७३॥ तब दूत बोला के हे देवीतुम ऐसे गव मतकरो और तुम मेरे आगे यह कहो के त्रिलोकीके विषे ऐस

पुरुष कौनहै जो शुंभनिशुंके आगे युद्ध करनेको खडा होवे अर्थात् कोई नहीं॥७४॥ और हेदेवी संग्रामके विषे अन्य दैत्योकेभी सन्मुख संपूर्ण देव नहीं खडेरहतेहै फिर तु इकल्ली स्त्री युद्धके विषे दैत्याके सन्मुख केसी खडी रहसकती हो अर्थात् सर्वथा नही॥७५॥

इंद्राद्यास्सकलादेवास्तस्थुषांनसंयुगे॥शुंभादीनां कथं तेषां स्त्रीप्रयास्य सितं मुखम्॥७६॥ सात्वंगच्छमयैवोक्तापार्श्वंशुंभनिशुंभयोः॥ केशाकर्षणनिर्धूतगौरवामागमिष्यसि॥७७॥देव्युवाच॥ एवमेतद्बलीशुंभनिशुंभश्चातिवीर्यवान्॥ किंकरोमिप्रतिज्ञामेयदनालाोचितापुरा॥७८॥ सत्वंगच्छमयोकिंते यदेतत्सर्वमादृतः॥ तदाचक्ष्वासुरेंद्रायसप्तचयुक्तं करोतु तत्॥७९॥ मार्कंडेयपुराणे सावर्णिके मन्वंतरेदेवीमाहात्म्ये देव्यादूतसंवादोनाम पंचमाध्यायः॥५॥

टीका—और संग्रामके विषे जिनके अगाडी युद्धकरनेको इंद्रादिक देव नहीं खडे रहतेभये तिनशुंभनिशुंभके सन्मुख युद्धकरनेको तू स्त्री कसी जाय भी॥७६॥ सो तुम मेरा कहनासे शुंभनिशुंभके पास चलो क्योंके केशोके स्वैचने करिके दूर होगया बड़पन जाका ऐसी तुम शुंभनिशुंभके पास मत आवों इस दया करिके मै तुमको कहताहू॥७७॥ तब देवी बोली हे दूत शुंभ बडापराक्रमीहै और निशुंभ बडा पराक्रमीहै यह तुमने कहा सो जैसेही है परंतु क्या करू मेरी यह प्रतिज्ञा है मैने पहिले विचार नहीं किया॥७८॥ हे दूत सो तुम जावो और मैने संपूर्ण तुमारेको यह कहा सो जाकर आदरयुक्त हुवा शुंभासुरके अर्थ कहो ताके अनंतर वह शुंभासुर उचितहो सो करो॥७९॥इति मार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वंतरे देवीमाहात्म्ये देव्यादूतसंवादोनामपंचमोऽध्यायः॥५॥

ऋषिरुवाच॥इत्याकर्ण्यवचोदेव्याःसदूतोमर्षपूरितः॥ समाचष्टसमागम्यदैत्यराजाय-विस्तरात्॥१॥ तस्य दूतस्यत-

द्वाक्यमाकर्ण्यासुरराट्ततः॥ सक्रोधः प्राहदैत्यानामधिपंधूम्रलोचनं॥२॥ धूम्रलोचनाशुत्वं स्वसैन्यपरिवारितः॥ तामानयबलाद्दुष्टांकेशाकर्षणविह्वलां॥३॥ तत्परित्राण दःकश्चिद्यदिवोत्तिष्टते परः॥ सहंतव्योमरोवापियक्षोगंधर्व एववा॥४॥ ऋषिरुवाच॥ तेनाज्ञप्तस्ततः शीघ्रं स दैत्योधूम्रलो चनः॥ वृतः षष्ट्यासहस्राणामसुराणांद्रुतं ययौ॥५॥

टीका—ताके अनंतर ऋषिबोले हे सुरथराजन् इसप्रकार देवीका वचन श्रवणकरिके वह दूत क्रोधकरिके भराहुवा देवीका पर्वतके सकाशते आकरिके विस्तारते शुंभासुरके अर्थ कहता भया॥१॥ तिस दूतका मुखसे देवी का वाक्य श्रवण करके ताके अनंतर क्रोध युक्तहुवा असुरोका राजा शुंभासुर दैत्योका मालिक ऐसा जो धूम्रलोचन ताहि कहताच्या॥२॥ हे धूम्र लोचन तुम अपणी सेनाकरिके युक्तहुवा केशोंके खैचनेकरिके व्याकुल ऐसी जो दुष्टिनी देवी है ताहि बलात्कारसें शीघ्र ल्यायो मेरेकूं प्राप्तकरो॥३॥ और ताहि ग्रहण करनेको इच्छाकरे ऐसो ताकी रक्षा करनेवालो जो कोई और शत्रुता करिके खडाहोवे सो मारनेके योग्यहै चहिये देव होवे चाहिये यक्ष होवे अथवा गंधर्व होवे॥४॥ तब ऋषि बोले हे राजन् ताके अनंतर शुंभकरिके आज्ञादियाहुवा ऐसा वह धूम्रलोचन दैत्य साठिहजार असुरोका समूह करिके युक्तहुवा शीघ्र जाताभया॥५॥

सदृष्ट्वातांततोदेवीं तुहिनाचलसंस्थिताम्॥ जगादोच्चैः प्रयाहीति मूलंशुंभनिशुंभयोः॥६॥ नचेत्प्रीत्याद्यभवतीमद्भर्तारमुपैष्यति॥ ततोबठान्नयाम्येष केशाकर्षणविह्वलाम्॥७॥ देव्युवाच॥ दैत्येश्वरेणप्रहितो बलवान्बलसंवृतः॥ बलान्नयसि मामेवंततः किं ते करोम्यहं॥८॥ ऋषिरुवाच॥ इत्युक्तः सोभ्यधावत्तामसुरोधूम्रलोचनः॥हुंकारेणैवतं भस्मसाचकारां विकाततः

॥९॥ अथकुद्धं महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका॥ ववर्षसायकैस्तीक्ष्णैस्तथाशक्तिपरश्वधैः॥१०॥

टीका—फिर वह धूम्रलोचन हिमाचलके विषे स्थित ऐसी जो देवी ताहि देखकर हे देवि तुम शुंभनिशुंभके पास चलो इस प्रकारसे ऊचेश्वरकरिके बोलताभया॥६॥ और जो तुम आज अपनी रुची करिके हमारा स्वामी शुंभ जो हैं ताहि नहीं प्राप्त होगी तो तिसकारणते यह धूम्रलोचननामा जो मै असुर हू सो अबही केशोंके खैचनेकरिके वेवश ऐसी जो तुम हो ताहि बलात्कार करिके हमारा स्वामी शुंभ जो है तिन्हे प्राप्तकरुगा॥७॥ तब देवी बोली के हे धूम्रलोचन तु बलवान्है और सेनाकरिके युक्त है और शुंभासुरभेजाहुवाहै सो तु इस प्रकार पूर्वोक्त केश खैचनेकरिके वेवश ऐसी मै जो हू ताहि बलात्कारसे प्राप्तकरे तो ताके अनंतर मै तेरा क्या करू अर्थात् कुछनहीं॥८॥तब ऋषि बोले के देवी करके ऐसे कहाहुवा धूम्रलोचनअसुर वेग करके देवी जो है ताहि सन्मुख दौड़तागया ताके अनंतर वह अंबिका हुंकार करिकही ताहि भस्म कर्त्तीभई॥९॥ फिर धूम्रलोचन भस्म होनेके बाद क्रोधयुक्तहुई ऐसी जो असुरोकी सेना है नाहि तीखे बाणों करिके और शाग्य सहित कुठारोके संपात करिके अंबिका आच्छादन कर्तीभई॥१०॥

ततो धुतसटः कोपात्कृत्वानादं सुभैरवं॥पपातासुरसेनायांसिंहोदेव्यास्तुवाहनः॥११॥ कांश्चित्करप्रहारेणदैत्यानास्ये नचापरान्॥ आक्रम्यचरणेनान्यान्निजघानमहासुरान्॥१२॥ केषां चित्पाटयामास नखैः कोष्ठानिकेसरी॥ तथा तलप्रहारेण शिरांसि कृतवान्पृथक्॥१३॥ विच्छिन्नबाहुशिरसः कृतास्तेनतथापरे॥पपौचरुधिरं कोष्टादन्येषांधुतकेसरः॥१४॥ क्षणेन तद्वलं सर्वं क्षयं नीतं महात्मनां॥तेन केसरिणादेव्यावाहने नातिकोपिना॥१९॥

टीका—ताके अनंतर क्रोधसे कंपाये हैं काँधके केश जाने ऐसादेवीका

वाहन सिंह भयंकर गर्जना करिके असुरोंकी सेनाके विपे उछल कर पडता भया॥११॥ फिर कितनेही जे दैत्य है तिन्है करके प्रहार करकैमारता भया और कितनेही जे है तिन्है मुखके प्रहार करिके मारतागया और कितनेहीं जो अन्य है तिन्हैंचरणके प्रहार करिके मारता भया॥१२॥ और कितनेहीदैत्योंका नखों करिके पेट फाडता गया और तिसी प्रकार कितनेही दैत्योंका शिर जे है तिन्हे चनपटके प्रहार करिके धडसे अलग कर्त्ता भया॥१३॥ फिर वा सिंहने और कितनेही हाथ शिर कटेहुवे करिदिये फिर कंपाय है कांधाके केश जाने ऐसा सिंह अन्य कितनेही दैत्योंका पेट फाडकर उनका पेटसे रुधिर पीतोभयो॥१४॥ अत्यंत क्रोधवाला ऐसा देवीवाहन जो सिंह है तानैसंपूर्ण धूम्रलोचनकी सेना जो है ताहि क्षणभरकरिके शको प्राप्त कर दई॥१५॥

श्रुत्वातमसुरं देव्यानिहतं धूम्रलोचनं॥बलं चक्षयितं कृत्स्त्रं देवीकेसरिणाततः॥१६॥ चुकोपदैत्याधिपतिः शुंभःप्रस्फुरिताताधरः॥आज्ञापयामास चतौचंडमुंडौमहासुरौ॥१७॥ हे चंडमुंडबलैर्बहुभिः परिवारितौ॥ गच्छतं तत्र गत्वाचसासमानीयतांलघु॥१८॥ केशेष्वाकृष्य वद्ध्वावा यदिवः संशयो युधि॥ तदा शेषायुधैः सर्वैरसुरैर्विनिहन्यतां॥१९॥ तस्यां हतायां दुष्टायां सिंहेचावेनिपातिते॥शीघ्रमागम्यतांबद्ध्वागृहीत्वातामथांबिकाम्॥२०॥इति मार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वंतरेदेवीमाहात्म्ये धूम्रलोचनवधोनामषष्टोध्यायः॥६॥

टीका—ताके अनंतर देवीने भस्म किया ऐसा धूम्रलोचन जो असुर है ताहि सुन करिके और देवीके सिंहनैसंपूर्ण धूम्रलोचनका सैन्य नष्ट किया ताहि सुन करिके॥१६॥ क्रोधसे कंपाये है होठ जाने ऐसा दैत्येश्वर शुंभ क्रोध कर्त्ताभया और चंडऔर मुंड ये जे महाअसुर है तिन्है आज्ञा देते

भयो॥१७॥ हे चंड हे मुंड तुम बहुतसी सेना करिके सहित जहां वह देवी विराजमान है वहां जावो वहां जाकर उस देवीको शीघ्र ल्यावो॥१८॥ हे चंड मुंड सेनावो तुम केश खैचकर अथवा रस्सीसे बांधकर वादेवीको मेरे समीप ल्यावो जो युद्ध प्रवृत्त हो जाय तिसके विषे लानेमें संदेह होय तो संपूर्ण शस्त्रों के प्रहार करके ता देवीको सब जने मारो॥१९॥ ताकूं मारेके बाद और सिंहको मारकर पृथ्वीमें गिरायेके बाद तुम शीघ्र आवो और जीवती ल्यानेकी सामर्थ्य होय तो वा अंबिकाको रस्सीसे बांध और ग्रहणकर शीघ्र आवो॥२०॥ इति मार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वंतरे देवीमाहात्म्ये धूम्रलोचनवधो नाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥

ऋषिरुवाच॥ आज्ञप्तास्ते ततो दैत्याश्चंडमुंडपुरोगमाः॥ चतुरंगबलोपेताययुरभ्युद्यतायुधाः॥१॥ ददृशुस्तेततो देवीमीषद्धासांव्यवस्थिताम्॥सिंहस्योपरिशैलेंद्र शृंगेमहति कांचने॥२॥ तेदृष्ट्वातांसमादातुमुद्यमं चक्रुरुद्यताः॥ आकृष्टचापासिधरास्तथान्येतत्समीपगाः॥३॥ ततः कोपंचकारोच्चैरं विकातानरीन्प्रति॥ कोपेन चास्यावदनं मषीवर्णमभूत्तदा॥४॥ भ्रुकुटीकुटिलात्तस्याललाटफलकाद्द्रुतं॥ कालीकरालवदनाविनिष्क्रांतासिपाशिनी॥५॥

टीका—ताके अनंतर शुंभ करिके आज्ञा दियेहुए और उठाये है शस्त्र जिनोने और चतुरंगिणी सेनाकरिके युक्त और चंड मुंड हैं अगाडी चलनेवाले जिनोंके ऐसे जे दैत्य ते भगवती के पास जाते भये॥१॥ ताके अनंतर हिमालयकी सुवर्णमय शिखरकेविषे स्थित जो सिंह ताके ऊपर बैठी हुई और मंद है हास्य जाको ऐसी जो देवी ताहि ते दैत्य देखते भये॥२॥ फिर वे देख करिके ताके अनंतर उद्युक्त हुवे ताहि ग्रहण करने को उद्यम कर्त्तगये कैसे है वे दैत्य खैचा है धनुष जिनोने ऐसे और खड्ग धारण करनेवाले ऐसे और तिसी प्रकार अन्य कितनेही भगवतीके पास जाते भये॥३॥ ताके

अनंतर अंबिका तिन शत्रूनके प्रति अत्यंत कोपकर्त्ती भई तब कोपकरिके याको मुख स्याहीकी समान श्याम होतो भयो॥४॥ ता समय अंबिकाको भृकुटीके चढानेते वाकों ऐसो जो ललाटरूपी पटल ताके सकाशते भयंकरहै मुख जाको और खड्गपाश ए है हाथों के विषे जाके ऐसी काली नाम कोई अन्य शक्ति निकसती गई अर्थात् प्रकट होती भई॥५॥

विचित्रखट्वांगधरानरमालाविभूषणा॥द्वीपिचर्मपरीधानाशुष्कमांसातिभैरवा॥६॥ अतिविस्तारवदनाजिह्वांल्लनभीषणा॥ निमग्नारक्तनयनानादापूरितदिङ्मुखा॥७॥ सावेगेनाभिपतिताघातयन्तीमहासुरान्॥ सैन्ये तत्र सुरारीणामभक्षयततद्बलम्॥८॥ पार्ष्णिग्राहांकुशग्राहयोधघंटासमन्वितान्॥ समादायैकहस्ते नमुखेचिक्षेपवारणान्॥९॥ तथैवयोधंतुरगैरथंसारथिना सह॥निक्षिप्यवक्रे दशनैश्चर्वयंत्यति भैरवं॥१०॥

टीका—कैसी है वह काली अनेक तरहके हैं चित्राम जाके ऐसा खट्वांगको धारण करे ऐसी फिर कैसी है प्रेतोंके मुंडोंकी माला है आभूषण जाके ऐसी फिर कैसी है व्याघ्रके चर्मका है वस्त्रजाके ऐसी फिर कैसी है हाडचर्म मात्र हैं शरीर जाकाऐसी यातेही अति भयंकर ऐसी॥६॥ फिर कैसी है अत्यंत है विस्तार जाको ऐसो है मुख जाको फिर कैसी है जिव्हाके आस्वादन करनेकी जो इच्छा ताकरिकै भयंकर है फिर कैसी है गडे हुये हैं लाल नेत्र जाके फिर कैसी है सिंहनादकरिकै पूर्ण किये हैं दशों दिशावों के मध्य जाने॥७॥ फिर वह काली तिस असुरोंकी सेनाकेविषे वेग करिकै पड़ती हुई महा असुर जे हैं तिन्हैंमारतीहुई असुरोंकी सेना जो है ताहि भक्षण कर्त्ती भई॥८॥ और जे भाला लेकरिकै हाथियोंके पीछे चलनेवाले ऐसे जे हाथियों के शिक्षक हैं और जे हाथियोंको चलानेवाले महावत हैं और जे हाथियोंके सवार योद्धा हैं और जे हाथियों के गलेमें बँधी हुई घंटा हैं तिन सब करिकै सहित जे हाथी हैं तिन्हैंएक हाथ करिकै ग्रहण करि काली

मुखविषे गेरती भई अर्थात् खाती भई॥९॥ और तिस प्रकारही घोडो करिकै सहित जे योद्धा तिन्हैंऔर सारथियोंकरिकै सहित जे रथ हैं तिन्हें मुखकेविषे गेर करि दातों करिकै मृत्यु जो है ताहि चर्वण करवाती भई॥१०॥

एकं जग्राहकेशेषु ग्रीवायामथचापरम्॥ पादेनाक्रम्यचैवान्यमुरसान्यमपोथयत्॥११॥ तैर्मुक्तानिचशस्त्राणि महास्त्राणितथासुरैः॥ मुखेनजग्राहरुषादर्शनैर्मथितान्यपि॥१२॥ बलिनांतद्बलं सर्वमसुराणां दुरात्मनां॥ ममर्दाभक्षयच्चान्यानन्यांश्चाताडयत्तथा॥१३॥ असिनानिहताः केचित्केचित्खट्वां गताडिताः॥जग्मुर्विनाशमसुरादंताग्राभिहतारणे॥१४॥ क्षणेनतन्महासैन्यमसुराणां निपातितं॥ दृष्ट्वा चंडोभिदुद्रावतां कालीमतिभीषणां॥१५॥

टीका—ताके अनंतर केशोकेविषे एक दानव जो है ताहि पकडती भई याके अनंतर गलकेविषे अन्य दानव, जो है ताहि पकडतीभई और पैर करिके पकडएक दानव जो हैताहि मारतीगई और पेट पकडके एक दानव जोहै ताहि मारती भई॥११॥ ता समय चंड मुंडसे आदि लेकर जे दानव है तिन्होंने और तिसीप्रकार अन्य असुरोंने कालीके सन्मुख वाहैं ऐसे खड्ग आदि लेकर जे शस्त्र और आग्नेयसे आदि लेकर जे बड़े अस्त्रतिन्हे क्रोधसे मुख करकै काली ग्रहण कर्तीगई और ग्रहण करिकै दातोंसे चूर्णितभी कर्चीभई॥१२॥ फिर दुष्टहै अंतःकरण जिनोका और बलवान ऐसे जे चंडमुंडसे आदि लेकर असुर तिनकी संपूर्ण सेना जो है ताहि काली नष्ट कर्त्ती गई ता सेनाकेविषे कितने जे हैं तिन्हें भक्षण कर्तीगई और कितनेही जेहैं तिन्हें मारतीभई॥१३॥ फिर उस रणमें कितनेही असुर कालीने खड्गके प्रहारकारके मारे हुवे नाशको प्राप्त होतेभये और कितनेहीखाटके पाये करिके ताडन कियेहुये विनाशको प्राप्त होतभये और तिसी प्रकार दंतके अग्रभाग करिके ताडन कियेहुये विनाशको प्राप्त होतेभये॥१४॥ फिर

क्षणभर करिकै कालीने पृथ्वीमें गिराई ऐसी जो वह असुरोंकी महासेना— है ताहि देखकर अतिभयंकर जो काली है ताहि युद्ध करनेको चंड सन्मुख दौतो भयो॥१५॥

शरवर्षैर्महाभीमैर्भीमाक्षीं तां महासुरः॥छादयामासचक्रैश्चमुंडः क्षिप्तैः सहस्रशः॥१६॥ तानिचक्राण्यनेकानिविशमानानितन्मुखं॥ बभुर्यथार्कविंवानिसुबहूनिघनोदरम्॥१७॥ ततो जहासातिरुषा भीमं भैरवनादिनी॥ कालीकरालवक्रांतर्दुर्दशेदशनोज्ज्वला॥१८॥ उत्थाय च महासिंहदेवीचंडमधावत॥ गृहीत्वाचास्य केशेषु शिरस्तेनासिनाच्छिनत्॥॥१९॥ छिन्नेशिरसि दैत्येन्द्रश्चक्रेनादं सुभैरवं॥ तेनलादेनमहतात्रासितं भुवनत्रयं॥२०॥

टीका—ताके अनंतर भयंकरहैं नेत्र जाके ऐसी जो कालीहै ताहि बागोंकी वर्षा करिकै और मस्तक काटेहैं जिनो करिकै ऐसे जे हजार हजार चक्रहैं तिनो करेके चंड आच्छादित कर्त्तोभयो॥१६॥ फिर चंड करिके चलायेगये जे अनेकचक्र ते कालीका मुख जोहै ताहि प्रवेश हुये शोभायमान होतेभये कैसे कि जैसे उत्पातकेविषे बहुत सूर्यके बिंबमेघका उदर जो है ताहि प्रवेश होतेहुवे शोभायमान होतेहैं॥१७॥ फिर रणके उत्सवते काली अत्यंत क्रोध करिके भयंकर जैसे होय तैसे हँसती भई काली कैसी है भयंकर शब्द करे ऐसी फिर कैसीहै भयंकर जो मुख ताकेविषे दुःख करिकै देखीजाय ऐसी जो डाढ तिन करिकै उज्ज्वल अर्थात् श्वेतवत्प्रतीयमान ऐसी॥३८॥ ताके अनंतर काली महाखड्गउठायकर रोष करिके चंडके सन्मुख दौडती भई फिर चंडके केश खैंच करि तिस महाखड्गसे शिर काटतीभई॥१९॥ फिर देवी करिके शिर कटेसंते तासमयही दैत्येंद्र चंड महाभयंकर शब्द कर्त्तोगयो तिस बडे भयंकर शब्द करिकै तीनों लोक त्रासको प्राप्तकिये॥२०॥

अथ मुंडोभ्यधावत्तां दृष्ट्वा चंडं निपातितं॥ तमप्यपातयद्भूमौ खट्वां गाभिहतंरुषा॥२१॥ हतशेषंततः सैन्यंदृष्ट्वा चंडं निपातितं॥मुंडं च सुमहावीर्यं दिशो भेजे भयातुरम्॥२२॥ शिरश्चंडस्य कालीसा गृहीत्वामुण्डमेवच॥ प्राह प्रचंडाट्टहासमिश्रमभ्येत्यचंडिकां॥२३॥ मयातवात्रोपहृतौचण्डमुंडौ महापशु॥युद्धयज्ञेस्वयंशुंभनिशुंभं चहनिष्यसि॥२४॥ ऋषिरुवाच॥ तावानीतौ ततो दृष्ट्वाचंडमुंडौमहासुरौ॥ उवाच कालीं कल्याणी ललितं चंडिकावचः॥२५॥

टीका—पाके अनंतर कालीने संग्रामकेविषे गिराया ऐसा जो चण्डहै ताहि देखकर मुंड कालीके सन्मुख दौडतो भयो फिर खट्वांग प्रहार करिके ताडित ऐसा जो मुंढहै ताहिभी रोष करिकै पृथ्वीमें गिरातीभई॥२१॥ फिर मरेहुवे दानवोंसे बाकी रही ऐसी जो दानवोंकी सेनाहै सो देवीने संग्रामके विषे गिराया ऐसा जो चंडहै ताहि और बढापराक्रमी मुंड जोहै ताहि देखकर भयकरिके विह्वलहुई रणभूमिके सकाशते निकस करके दौडजातीभई॥२२॥ ताके अनंतर काली चंडका शिर जोहै ताहि और मुंडका शिर जोहै ताहि ग्रहण करिकैऔर चंडिका जोहै ताहि प्राप्त होकर प्रगल्भ जो अधिक हास ताकरिके मिलाहुवा जैसे तैसे बोलतीभई॥२३॥ हे चंडिके इस युद्धरूपी यज्ञविषे चंड और मुंड ये महापशू मैं ने तुम्हारे भेटकियेहैं और देवगणकी प्रीतिके अर्थ शुंभ और निशुंभ जो दो पशूहैं तिन्हे तुमही मारोगी॥२४॥ तब ऋषि बोले ताके अनंतर कालीकरिके लायेहुये जे चंड मुंड महाअसुर हैं जिन्हे चंडिका देखकर काली जोहै ताहि मनोहर वचन बोलती भई॥२५॥

देव्युवाच॥ यस्माच्चंडं च मुंडं च गृहीत्वात्वमुपागता॥ चासुंडेतिततो लोकेख्यातादेवी भविष्यसि॥२६॥ इति मार्कण्डेयपुराणे सावर्णिकेमन्वंतरे देवीमाहात्म्येचण्डमुण्डवधोनाम सप्तमोध्यायः॥७॥

टीका—देवी बोली हे काली जिसकारणते चंड और मुंड जोहैं ताहि ग्रहण करिकै तुम मैं जोहूं ताहि प्राप्तहुई हो तिसकारणते लोककेविषे तुम चामुंडा इस नाम करिकै विरूपात देवी होगी॥२६॥ इति मार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वंतरे देवीमाहात्म्ये चंडमुंडवधोनामसप्तमोऽध्यायः॥७॥

ऋषिरुवाच॥ चंडे च निहते दैत्ये मुण्डे च विनिपातिते॥ बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्व-सुरेश्वरः॥१॥ ततः कोपपराधीनचेताः शुंभः प्रतापवान्॥उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादि-देशह॥२॥ अद्यसर्वबलैर्दैत्याः षडशीतिरुदायुधाः॥ कंबूनांचतुराशीतिर्निर्यान्तु-स्वबलैर्वृताः॥३॥ कोटिवीर्याणि पंचाशदसुराणां कुलानिवै॥ शतं कुलानि धूम्राणां निर्गच्छन्तुममाज्ञया॥४॥ कालकादौर्हृदामौर्याः कालिकेयास्तथासुराः॥ युद्धायसज्जा निर्यांतु आज्ञया त्वरितामम॥५॥

टीका—तब ऋषि बोले कालीकरिकै चंड मारेगये संते और तिसी प्रकार मुंड मार पृथ्वीमें गिरायेसंते और ताकरिकेही असंख्यात सेना नष्टहुये संता अनंतर कोप करिके परवशहै चित्त जाको और प्रतापी ऐसो असुरोंको ईश्वर जो शुंभासुर सो दैत्योंकी संपूर्ण सेना जेहै तिनको चंडिकाके पास जाने रूपी उद्योग आज्ञा करतो भयो॥१॥२॥आज मेरी आज्ञा करिकै छ्यासी जे तुम प्रधान दैत्य हो ते उठायेहै शस्त्र जिन्होंने ऐसे संपूर्ण अपनी चतुरंगिनी सेना जे हैं तिन करिके युक्त हुवे देवीके साथ युद्ध करनेको जावो और कंबुनाम जे दैत्यहैं तिनके चौराशी समूह भेद जे हैं ते अपनी सेना करिकै युक्तहुवे देवीके साथ युद्ध करनेको जावो॥३॥ और कोटि वीर्य नाम जे असुरोंके पंचाशकुल ते और धूम्र नाम असुर जे तिनके जे सौकुल ते मेरी आज्ञा करिकै देवीके साथ युद्ध करनेको जावें॥४॥ और कालक नामा जेअसुर और दौर्हृद नामा जे असुर और मौर्यनामा जे असुर और तिसीप्रकार कालकेयनामा जे असुर ते संपूर्ण मेरी आज्ञा करिके शीघ्र तैयार होतेहुये देवीके साथ युद्ध करनेको जावो॥५॥

इत्याज्ञाप्यासुरपतिः शुम्भोभैरवशासनः॥ निर्जगाममहासैन्यसहस्रैर्बहुभिर्वृतः॥६॥ आयातं चण्डिकादृष्ट्वातत्सैन्यमतिभीषणम्॥ ज्यास्वनैः पूरयामासधरणीगगनांतरम्॥७॥ सचसिंहो महानादमतीवकृतवान्नृप॥ घण्टास्वनेनतन्नादमंविकाचाप्यबृंहयत्॥८॥ धनुर्ज्यासिंहघण्टानां नादापूरितदिङ्मुखा॥ निनादैर्भीषणैः कालीजिग्ये विस्तारितानना॥॥९॥ तंनिनादमुपश्रुत्यदैत्यसैन्यैश्चतुर्दिशम्॥ देवीसिंहस्तथाकालीशरौघैः परिवारिताः॥१०॥

टीका—फिर भयंकर है शिक्षा जाकी ऐसा असुरपति शुंभ इस प्रकार असुर जें हैं तिन्हैं आज्ञा देकर बड़ी है सेना हजारों जिनोकेविषे ऐसे बहुत दानवनरिकै युक्तहुवा देवीके साथ युद्ध करनेको जाता भया॥६॥ ताके अनंतर चंडिका आताहुवा जो शुंभ है ताहि और बाकी जो भयंकर सेना है ताहि देखकर धनुषको प्रत्यंचाके टंकार शब्दन करिकै आकाश पृथ्वीका मध्य जो है वाहि पूर्ण करतीभई॥७॥ ताके अनंतर हे नृप वह भगवतीका सिंहभी बडा शब्द कर्त्ता भया फिर अंबिका घंटाके शब्दकरिकै सिंहके शब्दको बढाती भई॥८॥ फिर धनुषक प्रत्यंचाके और सिंह और घंटा इन शब्दोंकरिकै पूर्ण किये हैं दिशावोंके मुख जाने और फाडा है मुख जाने ऐसी देवी तिन दैत्यनको जीतती भई॥९॥ ताके अनंतर धनुषकी प्रत्यंचा सिंह घंटा इनका चारों दिशामें व्याप्त ऐसा शब्द सुनके दैत्यसेनानें देवी और सिंह और तिसी प्रकार काली ये सब बाणोंके समूह करिकै रोक दिये॥१०॥

एतस्मिन्नंतरे भूपविनाशाय सुरद्विषाम्॥ भवायामरसिंहानायतिवीर्यबलान्विताः॥११॥ ब्रह्मेशगुहविष्णूनांतथेंद्रस्य च शक्तयः॥शरीरेभ्योविनिष्क्रम्यतद्रूपैश्चण्डिकांययुः॥१२॥ यस्य देवस्य यद्रूपं यथा भूषणवाहनम्॥ तद्वदेवहितच्छक्ति-

रसुरान्योद्धुमाययौ॥१३॥ हंसयुक्तविमानस्थासाक्षसूत्रकमण्डलुः॥ आयाताब्रह्मणः शक्तिर्ब्रह्माणीसाभिधीयते॥१४॥ माहेश्वरीवृषारूढात्रिशूलवरधारिणी महाहिवलयाप्राप्ता-च न्द्रलेखाविभूषणा॥१५॥

टीका—और इस देवी दानवोंके संग्रामके होते संते मध्यमें दानवोंके विनाशके अर्थ और देवोंकी वृद्धिके अर्थ ब्रह्मा शिव स्वामी कार्तिक विष्णु तथा इंद्र इन सबकी सामर्थ्यरूपी जे शक्ति हैं ते इनके शरीरोंते निकसकर अपने अपने देवोंके समान रूपों करिकै चण्डिकाके समीप आतीभई॥११॥१२॥ फिर जिस देवका जैसा रूप और जैसा भूषण और जैसा वाहन तिसी प्रकार तिस देवकी असुरोंते रणमें युद्ध करनेको देवीके पास आती भई॥१३॥ हंसयुक्त विमानमें बैठी हुई और स्फटिक मणियोंका माला पहरे हुये और कमंड्ललिये हुये ब्रह्माकी शक्ति युद्ध करनेको आती भई सो ब्रह्माणी इस नाम करिके कही जाती है॥१४॥ और माहेश्वरी शक्ति वृषभके ऊपर बैठीहुई और त्रिशूलको धारण किये हुवे और बडेसर्पोंका है कडाजाके अर्द्धचंद है मस्तकमें आभूषण जाके ऐसी असुरोंके साथ युद्ध करनेको भगवतीके पास आती भई॥१५॥

कौमारीशक्तिहस्ताच मयूरवरवाहना॥योद्धुमभ्याययौदैत्यानंविकागुहरूपिणी॥१६॥ तथैववैष्णवीशक्तिर्गरुडोपरिसंस्थिता॥ शंखचक्रगदाशार्ङ्गखहस्ताभ्युपाययौ॥१७॥ यज्ञेवाराहमतुलंरूपं या विभ्रतीहरेः॥ शक्तिःसाप्याययौतत्रवाराहींबिभ्रतीतनुम्॥१८॥नारसिंहीनृसिंहस्य बिभ्रती सदृशंवपुः॥ प्राप्ता तत्र सटाक्षेपक्षिप्त नक्षत्रसंहतिः॥१९॥ वज्रहस्तातथैवैंद्री गजराजोपरिस्थिता॥ प्राप्तासहस्रनयना यथा शक्रस्तथैवसा॥२०॥

टीका—फिर शाग्य है हाथमें जाके और श्रेष्ठ मयूर है बाहन जाके और स्वामीकार्तिक के समानहै रूप जाके ऐसी कौमारी अंबिका दैत्योके साथ युद्ध

करनेको आतीभई॥१६॥ और तिसीप्रकार वैष्णवीशक्ति गरुड़के ऊपर बैठीहुई और शंख चक्र गदा शार्ङ्ग धनुष खड्गये शस्त्र है हाथोंमे जाके ऐसी विष्णुकी समान वैष्णवीशक्ति उस रणमें असुरोंके साथ युद्ध करने को आतीभई॥१७॥ फिर ताके अनंतर उपमा करिकै रहित विष्णुका वरारूप जो है ताहि धारण कर्त्तीहुई जो प्रकट होतीभई सो शक्तिभी वराहका शरीर धारण कर्त्तीहुई रणमें आतीभई॥३८॥ ताके अनंतर कांधेके केशरोका जहां तहां ताडन करिकै दूर करेहैं नक्षत्रोंके समूह जाने ऐसी नृसिंहके समान शरीर धारण कर्त्तीहुई नारसिंही शक्ति असुरोंते रणमें युद्ध करनेको आती भई॥१९॥ फिर तिसीमकार वज्र है हाथमें जाके और ऐरावत हाश्रीके ऊपर बैठीहुई और हजारहैं नेत्र नाके ऐसी ऐंद्री शक्ति रणमें प्राप्त होतीभई जैसा इंद्र तैसीही वह॥२०॥

ततः परिघृतस्ताभिरीशानोदेवशक्तिभिः॥ हन्यतामसुराः शीघ्रंममप्रीत्याहचंडिकाम्॥२१॥ ततो देवीशरीरात्तुविनिष्क्रां तातिभीषणा॥चंडिकाशक्तिरत्युग्राशिवाशतनिनादिनी॥२२॥ साचाहधूम्रजटिलमीशानमपराजिता॥ दूतत्वं गच्छभगवन्पार्श्वं शुंभनिशुंभयोः॥२३॥ ब्रूहि शुंभनिशुंभं च दानवावति गर्वितौ॥ येचान्येदानवास्तत्रयुद्धाय समुपस्थिताः॥२४॥ त्रैलोक्यमिंद्रोलभतां देवाः संतुहविर्भुजः॥ यूयंप्रयातपातालं दिजीवितुमिच्छ्थ॥२५॥

टीका—ताके अनंतर तिन देव शक्तियों करिकै युक्त महेश मेरी प्रीति करिकै तुम असुरोंको जलदी मारो इस प्रकार चंडिकाको कहताभया॥२१॥ फिर ताके अनंतर चंडिका देवीके शरीरतेभी अत्यंत भयंकर और अत्यंत उग्र स्वभाववाली और शेकडों गीदडियोंकरिकैसहित शब्द कर्त्तीहुई फिर चंडिकाशक्ति निकसतीभई॥२२॥ फिर शत्रुवों करिकै अपराजित वह भगवती धूम्र जटावाला शिव जो है ताहि बोलती भई

कि हे दूत तुम शुंभ निशुंभके पास जावो॥२३॥ तीन भुवनको जीतकर अत्यंत गर्वयुक्त जे शुंभ निशुंभ दानव हैं तिन्हें और जे उनकी तरफ संग्राममें शुरवीरपाका गर्व करिकै युद्ध करनेकेवास्ते तैयारहैंतिन्हेँ तुम यह हित कारी वचन कहो॥२४॥ इंद्र त्रिलोकी जोहै ताहि प्राप्तहो और इंद्रादिक देव यज्ञोक्रे विषे यथाभाग हविष जेंहैं तिन्हैंभोजन करनेवालेहोऔर हे शुंभा दिक दैत्यो तुम सभहीजो जीनेको चाहतेहो तो पाताल जावो॥२५॥

बलावलेपादथचेद्भवंतोयुद्धकांक्षिणः॥ तदागच्छत तृप्यंतुमच्छिवाः पिशितेनवः॥२६॥ यतो नियुक्तोदूत्येनतयादेव्याशिवः स्वयम्॥ शिवदूतीतिलोकेस्मिंस्ततः साख्यातिमा गता॥२७॥ ते पिश्रुत्वा वचो देव्याः शर्वाख्यातं महासुराः॥ अमर्षापूरिता जग्मुर्यत्रकात्यायनीस्थिता॥२८॥ ततः प्रथममेवाग्रेशरशक्त्यृष्टिवृष्टिभिः॥ववर्षुरुद्धतामर्षा-स्तांदेवीममरारयः॥२९॥ साचतान्प्रहितान्बाणाञ्छूलशक्तिपरश्वधान्॥ चिच्छेदलीलया ध्मातधनुर्मुक्तैर्महेषुभिः॥३०॥

टीका—और जो बलके गते तुम युद्धकी इच्छा कर्त्तेहो तो मेरे साथ युद्ध करने आवो फिर मेरा परिवार जे शृंगालहै ते तुम्हारे मांस करिकै तृप्तहो॥२६॥ जिसकारण ते देवीने दूतभाव करिकै शिव भेजाथा तिसकारणते इस लोकके विषे वह देवी शिवदूती इसनामको प्राप्तभई॥२७॥ फिर शुंभादिक महाअसुरभी शिव करिकै कहा ऐसा देवीका संदेश सुनकै क्रोध करिकै भरेहुवे जहां कात्यायनी भगवती स्थित थी तहांआवेभये॥२८॥ताके अनंतर देवताके शत्रु और बढाहै कोष जिनोके ऐसे शुंभादिक दानव पहिलेही देवीके वक्षस्थलके विषे बाणोंके तथा पोलंडी लाठियोंके और खङ्गके प्रहारों करिके देवीको आच्छादित कर्त्तेभये॥२९॥ फिर ताके अनंतर शुंभादिक असुरोंने चलाये ऐसे जे बाण और त्रिशूल और शक्ति और कुहाडे और जे संपूर्ण शस्त्र तिन्हैं चंडिका बिन श्रम करिकै प्रत्यंचाकी

टंकार करिकै शब्दायमान जो धनुष तासे छोडेहुवे तीखे बाण तिन करिकै काटतीभई॥३०॥

तस्याग्रतस्तथाकालीशूलपातविदारितान्॥ खट्वांगपोथितांश्चारीन् कुर्वतीव्यचरत्तदा॥३१॥ कमंडलुजलाक्षेपहतवीर्यान्हतौजसः॥ ब्रह्माणीचाऽकरोच्छत्रून्येनयेनस्मधावति॥३२॥ माहेश्वरीत्रिशूलेन तथा चक्रेण वैष्णवी॥दैत्याञ्जवानकौमारी तथा शक्त्याति कोपना॥३३॥ ऐंद्रीकुलिशपातेनशतशोदैत्यदानवाः॥पेतुर्विदारिताः पृथ्व्यांरुधिरौघप्रवर्षिणः॥३४॥॥तुंडप्रहारविध्वस्तादंष्ट्राग्रक्षतवक्षसः॥ वाराहमूर्त्यान्यपतंश्चक्रेणचविदारिताः॥३५॥

टीका—तब संग्रामकालके विषे चंडिकाके आगे काली चंडिकाकी तरह त्रिशूलके प्रहारों करिकै विदारित और खट्वांगके प्रहार करिकै असुरोंको नष्ट कर्त्ती हुई रणमें विचरती भई॥३१॥ और ब्रह्माणी आदि शक्ति जिस जिस मार्ग करिकै असुरोंको साथ युद्ध करनेको जाती भई तहांतहांमार्गिके विषे कमंडलुके जलका प्रोक्षण करिकै नष्ट पराक्रम और नष्टतेज दैत्योंको कर्त्ती भई॥३२॥ फिर उस चंडिकाके आगे माहेश्वरी त्रिशूल करके वैष्णवी चक्र करिके और अति क्रोधयुक्त कौमारी शांग करिकै दैत्यनको भारती भई॥३३॥ और ऐंद्रीशक्तिके वज्रके प्रहार करिकै विदारित रुधिरके समूहकी वर्षा कर्त्तेहुवे सैकड़ों दैत्य दानव पृथ्वीमें पडते भये॥३४॥ और ता संग्रामके विषे वाराहमूर्ति शक्तिके मुखका प्रहार करिकै और उसकी डाढोंकीलफनियो करिकै विदीर्ण है छाती जिनोकी और चक्रके प्रहार करिकै विदारित ऐसे विध्वस्त हुवे दानव पृथ्वीमें पड़ते भये॥३५॥

नखैर्विदारितांश्चान्यान्भक्षयंती महासुरान्॥ नारसिंहीचचारा जौनादापूर्णदिगंतरा॥३६॥चंडाट्टहासैरसुराः शिवदूत्यभि दूषिताः॥पेतुः पृथिव्यां पतितांस्तांश्च खादाथ सा तदा॥३७॥

इति मातृगणं क्रुद्धंमर्दयं तं महासुरान्॥ दृष्ट्वाभ्युपायैर्विविधैर्नेशूर्देवारिसैनिकाः॥३८॥ पलायनपरान्दृष्ट्वादैत्यान्मातृगणार्दितान्॥ योद्धुमभ्याययौक्रुद्धोरक्तबीजोमहासुरः॥३९॥ रक्तबिंदुर्यदाभूमौ पतत्यस्य शरीरतः॥ समुत्पततिमेदिन्यां तत्प्रमाणो महासुरः॥४०॥

टीका—और सिंहनाद करिकै पूर्ण कियेहै दिशावोंके मध्य जाने ऐसी नारसिंही शक्ति नखों करिकै विदारित जे दानव तिन्है और अन्य जे महा असुर तिन्हैंभक्षण कर्त्ती हुई संग्राममें विचरती भई॥३६॥ फिर ता संग्रामके विषे शिवदूती शक्तिने भयंकर अट्टहासन करिकै मूर्छाको प्राप्त कियेऐसे जे दैत्य ते पृथ्वीमें पडतेभये ताके अनंतर पृथ्वीमें पडेहुवे जे दैत्यहैं तिह्नैं वह शिवदूती भक्षण कर्त्तीभई॥३७॥ अनेक उपायों करिकै असुरोंको नष्ट कर्त्ताहुवा ऐसा क्रोधयुक्त हुवा ब्रह्माणी आदि शक्तियोंका जो समूह ताहि देखकर असुर डरपेहुवे भागि जतिभये॥३८॥ और ब्रह्माणीते आदि ले मातृगण करिकै पीडित और इसकारण तेही डरपे हुवे ऐसे जे दैत्य तिन्हैंदेख कर क्रोधयुक्त हुवा महाअसुर रक्तबीज देवीके साथ युद्ध करनेको आता भया॥३९॥ फिर ता रणमें जब रक्तबीजके शरीरते रुधिरकी बिंदु पृथ्वीमें पढ़ें तब पृथ्वीमें रक्तबीजके समान महाअसुर उत्पन्न होजाय॥४०॥

युयुधे सगदापाणिरिंद्रशक्त्यामहासुरः॥ततश्चैंद्री स्ववज्रेणरक्तवीजमताडयत्॥४१॥ कुलिशेनाहतस्याशु बहुसुस्रावशोणितं॥ समुत्तस्थुस्ततोयोधास्तद्रूपास्तत्पराक्रमाः॥४२॥ यावंतः पतितास्तस्य शरीराद्रक्तबिंदवः॥तावंतः पुरुषाजातांस्तद्वीर्यबलविक्रमाः॥४३॥ तेचापियुयुधुस्तत्रपुरुषारक्तसंभवाः॥ समंमातृभिरत्युग्रंशस्त्रपातातिभीषणम्॥४४॥ पुनश्च वज्रपाते नक्षतमस्य शिरो यदा॥ववाहरक्तं पुरुषास्ततो जातास्सहस्रशः॥४५॥

टीका—फिर वह महाअसुर रक्तबीज गदा हाथमें लिये हुये ऐंद्रीशक्तिके साथ युद्ध कर्त्तागया ताके अनंतर ऐंद्रीशक्ति अपने वज्र करिकै रक्तबीजको ताडन कर्त्तीभई॥४१॥ ता समय ऐंद्रीका वज्रके प्रहार करिकै ताडित जो रक्तबीज ताके शरीरते बहुत रुधिर पृथ्वीमें पडताभया ता रुधिरते रक्तबीजके समान रूपवाले और समान पराक्रमवाले कई योधा उत्पन्न होतेभये॥४२॥ फिर जितना रुधिरका बिंदु रक्तबीजका शरीरते पड़ा उतनाही संख्या रक्तबीजके समान शूर वीर और पराक्रमी दैत्य उत्पन्न होतेभये॥४३॥ फिर वे रक्तबीजके रुधिरते उत्पन्नहुवे जे दैत्यहैं वेभीउस रणके विषे ब्रह्माणीते आदि ले जो मातृगण है ताके साथ दारुण जैसे होय तैसे और शस्त्रोंके प्रहार करिकै भयंकर जैसे होय तैसे युद्ध कर्त्तेभये॥४४॥ फिर ऐंद्रीशक्तिने किया जो वज्रप्रहार ता करके इस रक्तबीजका शिर विदीर्ण होतागया फिर उस शिरते रुधिर वहता भया फिर वा रुधिरके प्रवाहते हजारों दैत्य उत्पन्न होते गये॥४५॥

वैष्णवी समरेचैनं चक्रेणाभिनधानह॥गदयाताडयामासऐंद्रीतमसुरेश्वरं॥४६॥ वैष्णवीचक्रभिन्नस्य रुधिरस्रावसंभवैः॥ सहस्रशोजगद्व्याप्तं तत्प्रमाणैर्महासुरैः॥४७॥ शक्त्याजवानकौमारीवाराहीचतथासिना॥माहेश्वरीत्रिशूलेनरक्तबीजंमहासुरम्॥४८॥ सचापिगदयादैत्यः सर्वा एवाहनत्पृथक्॥ मातृृः कोपसमाविष्टोरक्तबीजोमहासुरः॥४९॥ तस्याहतस्य बहुधाशक्तिशूलादिभिर्भुवि॥ पपातयोवैरक्तौवस्तेनासञ्छतशोसुराः॥५०॥

टीका—फिर उस रणमें वैष्णवीशक्ति रक्तबीजको चक्रके प्रहार करिके मारतीगई और पीछे यही असुर ऐंद्रीशक्तिके साथ युद्ध करनेको प्राप्तगया जब वैष्णवीशक्ति इस असुरको गदाके प्रहार करिके ताड़न कर्त्तीभई॥४६॥ फिर वैष्णवीशक्तिके चक्रप्रहार करिकै विदारित जो रक्तबीज तिसके रुधिरका प्रवाहते उत्पन्न भये जे रक्तबीजके समानाकार हजारों महासुर तिन क-

रिके जगत् व्याप्त होताभया॥४७॥ फिर उस संग्रामके विषेकौमारीशक्ति रक्तबीज जो है ताहि शांगके प्रहार करिके और तिसी प्रकार वाराहीशक्ति खङ्गके प्रहार करके और माहेश्वरी त्रिशूलके प्रहार करिकै ताड़न कर्त्ती भई॥४८॥ फिर वह महाअसुर रक्तबीज क्रोधयुक्त हुवा ब्रह्माणीते आदि लेकर जे संपूर्ण शक्ति हैं तिन्हैंगदाके प्रहार करिके पृथक् पृथक् ताड़न कर्त्ताभया॥४९॥ फिर संग्रामके विषे शक्ति त्रिशूल इन आदि शस्त्रोंके प्रहार करिके ताड़ित हुवा जो रक्तबीज ताके शरीरते निकसा रुधिरका प्रवाह जो पृथ्वीमें पडता भया ता करिके कोटिन दैत्य उत्पन्न होतेभये॥५०॥

तैश्चासुरासृक्संभूतैरसुरैस्सकलंजगत्॥ व्याप्तमासीत्ततोदेवाभयमाजग्मुरुत्तमम्॥५१॥ तान्विषण्णान्सुरान्दृष्ट्वाचंडिका प्राहसत्वरा॥उवाचकालीचामुंडेविस्तीर्णं वदनं कुरु॥५२॥ मच्छस्त्रपातसंभूतान्रक्तबिंदून्महासुरान्॥ रक्तबीजात्प्रतीच्छत्वंवक्त्रेणानेनवेगिना॥५३॥ भक्षयंतीचररणेतदुत्पन्नान्महासुरान्॥ एवमेषक्षयं दैत्यः क्षीणरक्तो गमिष्यति॥५४॥ भक्ष्यमाणास्त्वयाचोग्रानचोत्पत्स्यंतिचापरे॥ऋषिरुवाच॥ इत्युक्त्वातांततोदेवीशूलेनाभि-जघानतम्॥ सुखेन कालीजगृहे रक्तबीजस्यशोणितम्॥५५॥

टीका—फिर ताके अनंतर रक्तबीजके रुधिरते उत्पन्न भये जे दैत्य तिनकरिकै सम्पूर्ण जगत् व्याप्त होताभया तिस कारण ते देवता अधिक जय जो है ताहि प्राप्त होतेभये॥५१॥ फिर चंडिका भयभीत जे देव हैं तिन्हैंदेखकर बोली हे देवो तुम मत डरपोफिर कालीको बोलतीभई कि हे चामुंडे तुम अपना मुख विस्तृत करो॥५२॥ फिर बोली तुम अत्यंत वेगवाले विस्तृत मुख करिके मेरे शस्त्रों के प्रहारों करिके उत्पन्न जे रुधिरके बिंदु तिन्हें रक्तबीजके शरीरते पीवो नहीं तो रक्तबिंदु पृथ्वीमें पडताही अन्य असुरनको उत्पन्न करदेगा॥५३॥ और चामुंडे रक्तबीजका रुधिरते उत्पन्न भये जे

महादैत्य तिन्है तुम भक्षण कर्त्ती हुई संग्राममें विचरो इसप्रकार यह दैत्य क्षीण रक्त हुवा नाशको प्राप्त होजायगा और जे रक्तबीजके रुधिरते उत्पन्न गये भयंकर दैत्य हैं ते तुझारे करिकै भक्षण कियेहुये नहीं उत्पन्न होंगे॥५४॥ तब ऋषि बोले कि हे सुरथराजन् इसप्रकारसे चंडिका कालीके प्रति कह कर त्रिशूलके प्रहार करकै तिस रक्तबीजको ताडन कर्त्ती गई फिर रक्तबीजके रुधिरको काली मुख करिकै पीती भई॥५५॥

ततोसावाजघानाथगदयातत्रचंडिकाम्॥नचास्यावेदनांचके गदापातोल्पिकामपि॥५६॥ तस्याहतस्य देहात्तुबहुसुस्रावशोणितम्॥यतस्ततस्तद्वक्रेणचामुंडासंप्रतीच्छति॥५७॥ मुखे समुद्गतायेस्यारक्तपातान्महासुराः॥ तांश्चखादाथचामुंडापपौतस्य च शोणितम्॥५८॥ देवीशूलेनचक्रेणबाणैरसिभिरिष्टिभिः॥जघानरक्तबीजं तं चामुंडा पीतशोणितम्॥॥५९॥ स पपातमहीपृष्ठेशस्त्रसंहतितोहतः॥ नीरक्तश्च महीपालरक्तबीजो महासुरः॥६०॥

टीका—ताके अनंतर तिस संग्राममें यह रक्तबीज दैत्य गदाके प्रहार करिके चंडिका जो है ताहि ताडन कर्त्तागया चंडिका परमानंदस्वरूप है या ताकोगदाका प्रहार कुछभी वेदना नहीं कर्त्ताभया॥५६॥ फिर चंडिकाके शस्त्रों करिकै ताडितजो रक्तबीज ताके शरीरते जो बहुत रुधिर झरताभया सो चामुंडा अपना मुख करिके पीतीभई॥५७॥ फिर कालीके मुखमें रक्तबीजका रुधिर पडनेते उत्पन्न भये जे महाअसुर तिन्हैंचामुंडाकाली भक्षण कर्त्तीगईऔर रक्तबीजका रुधिर पीती भई॥५८॥ फिर चामुंडाने पियोहै रुधिर जाको ऐसो जो रक्तबीज ताहि चंडिका त्रिशूलके प्रहार करिकै और चक्रके प्रहार करिकै और बाणों के प्रहार करिकै और खङ्गोके प्रहार करिकै और रिष्टियोंके प्रहार करिकै ताडन कर्त्ती भई॥५९॥ फिर हे राजन् शस्त्रोंकैसमूहते ताडित और रुधिररहित हुवा रक्तबीज मराहुवा पृथ्वीमें पडता भया॥६०॥

ततस्तेहर्षमतुलमवापुस्त्रिदशानृप। तेषांमातृगणोमत्तोननर्ता सृङ्मदोद्धतः॥६१॥ इति श्री मार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वंतरे देवीमाहात्म्ये रक्तबीजवधनामाष्टमोध्यायः॥८॥

टीका—हे सुरथ फिर रक्त बीजके वधके अनंतर संपूर्ण देव अपरिमित हर्षको प्राप्त होते भये और रक्तबीजसे आदिले दैत्योंको रुधिर पानते मदोत्कट जो ब्रह्माणी ते आदिले मातृगणहैं सो मदोन्मत्त हुवा नाचताभया॥६१॥ इति श्रीमार्कडेयपुराणे सावर्णिकेमन्वंतरे देवीमाहात्म्येभाषा-टीकायांरक्तबीजवधोनाम अष्टमोऽध्यायः॥८॥

॥राजोवाच॥ विचित्रमिदमाख्यातं भगवन्भवतामम॥देव्याश्चरितमाहात्म्यंरक्तबीज-वधाश्रितम्॥१॥भूयश्चेच्छाच्छाम्यहं श्रोतुं रक्तबीजे निपातिते॥ चकारशुंभोयत्कर्मनिशुं भश्चातिकोपनः॥२॥ ऋषिरुवाच॥ चकारकोपमतुलंरंक्त बीजे निपातिते॥ शंभासुरोनिशुंभश्चहतेष्वन्येषु चाहवे॥३॥ हन्यमानं महासैन्यं विलोक्यामर्षसुद्वहन्॥अभ्यधावन्निशुंभीथमुख्ययासुरसेनया॥४॥ तस्याग्रतस्तथापृष्ठे पार्श्वयोश्चमहासुराः॥ संदष्टौष्ठपुटाः क्रुद्धा हंतुं देवीमुपाययुः॥५॥

टीका—तब सुरथराजा बोलते भये कि हे भगवन् आपने रक्तबीजके वध विषयक यह देवीके चरित्रोका विचित्र माहात्म्य मेरेसे कहा॥१॥ हे भगवन् देवी ने रक्तबीजको पृथ्वीमें डाले सते क्रोधयुक्त हुये शुंभ और निशुंभ फिर जो संग्राम लक्षण कर्म कर्त्तेगये सो आपते अधिक जैसे होय तैसे मै सुना चाहताहूँ॥२॥ तब ऋषि बोले कि हे राजन् देवीने रक्तबीजको मार पृथ्वीमें डालेसते और जे दैत्यहैं तिनको संग्रामके विषे मारेसते शुंभासुर और निशुंभ ये बडाकोध कर्त्तेभये॥३॥ ताके अनंतर देवी करिकै हत अपनी सैन्यको देखकर क्रोधयुक्तहुवा निशुंभ अपनी मुख्य असुरोंकी सेनाकरि सहित देवीके सन्मुख दौबताभया॥४॥ फिर वा निशुंभके अगाडी तथा पिछाड़ी और दाहिने वामे

वर्त्तमान जे महाअसुर ते क्रोधयुक्त ओष्ठपुट चावते हुवे देवीको मारनेको समीप प्राप्त होतेभये॥५॥

आजगाममहावीर्यः शुंभोपि स्वबलैर्वृतः॥ निहंतुंचंडिकांकोपात्कृत्वायुद्धंतुमातृभिः॥६॥ ततोयुद्धमतीवासीद्देव्याः शुंभ निशुंभयोः॥ शरवर्षमतीवोग्रंमेघयोरिववर्षतोः॥७॥ चच्छेदाऽस्ताञ्छरांस्ताभ्यां चंडिका स्वशरोत्करैः॥ ताडयामासचांगेपुशस्त्रौघैरसुरेश्वरौ॥८॥ निशुंभोनिशितं खङ्गं चर्मचादायसुप्रभं॥अताडयन्मूर्ध्निसिंहं देव्यावाहनमुत्तमम्॥॥९॥ ताडितेवाहनेदेवीक्षुरप्रेणासिमुत्तमम्॥निशुंभस्या शुचिच्छेदचर्म चाप्यष्टचंद्रकं॥१०॥

टीका—फिर ताके अनंतर शुंभभी अपनी सेना करिकै युक्तहुवा बह्माणी आदि शक्तियोंते युद्ध करके क्रोधतेचंडिकाके मारनेको चंडिका के समीप प्राप्त होताभया॥६॥ ताके अनंतर अत्यंत भयंकर बाणोंकी मेघकीसी तरह वर्षा कर्तेहुये जे शुंभ और निशुंभ दैत्यहै तिनका और भगवतीका पर स्पर बडाही युद्ध होताभया॥७॥ फिर तिन शुंभनिशुंभ दैत्योंकरिकै छोडे हुवे जे बाणहै तिन्हें चंडिका अपने बाणनके समूह करिके काटतीगई याके अनंतर शुंभ निशुंभ जे हैं तिन्हे शस्त्रों के समूह करिकै रोम रोमकेविषे ताडन कर्त्तीभई॥८॥ फिर निशुंभ तीखा और प्रकाशमान खङ्गऔर प्रकाशमा न ढाल लेकरके देवीवाहन सिंहके मस्तकमें ताडन कर्त्ताभया॥९॥ फिर निशुंभनेदेवीके वाहन सिंहसे ताडन कियेसंते चंडिका क्षुरप्रमाण करिकै निशुभका खङ्गजोहै ताहि और आठहैं चंद्राकार लिखित जाकेविषे ऐसी ढाल जोहै ताहि काटती॥१०॥

छिन्नेचर्मणिखङ्गेचशक्तिं चिक्षेपसोसुरः॥ तामप्यस्य द्विधाचक्रेचक्रेणाभिमुखागतां॥११॥ कोपाध्मातोनिशुंभोधशूलं जग्राहदानवः॥ आयातं मुष्टिपातेन देवो तच्चाप्यचूर्णयत्॥१२॥

अथादायगदांसोपिचिक्षेपचंडिकांप्रति॥ सापिदेव्यास्त्रिशूलेनभिन्नाभस्मत्वमागता॥१३॥ ततः परशुहस्तंतमायां तं दैत्यपुंगवं॥आहत्यदेवीबाणौघैरपातयतभूतले॥१४॥ तस्मिन्निपतिते भूमौ निशुंभे भीमविक्रमे॥ भ्रातर्यतीवसंक्रुद्धः प्रययौहंतुमंविकास्॥१५॥

टीका—फिर चंडिकाने निशुंभके खड्गऔर ढाल काटेसंते निशुंभ देवीकेप्रति शक्ति शस्त्र फेकताभया फिर सन्मुख आवतीहुई याकी शक्तिकाभी चंडिका चक्र करिकै दो टूक कर्त्तीभई॥११॥ या अनंतर अत्यंत क्रोधयुक्त हुवा निशुंभ देवीके प्रति त्रिशूल फेकतागया फिर आतेहुवे तिस त्रिशूलकाभीचंडिका मुष्टिकेप्रहार करिकै चूर्ण कर्त्तभई॥१२॥ याके अनंतर फिर निशुंभभी गदा ग्रहण करिकै चंडिकाके प्रति फेकताभयाफिर वह गदाभी देवीके अभिबीजगर्भं त्रिशूल करिकै खंडितहुई भस्मको प्राप्त होतीभई॥१३॥ ताके अनंतर फरशी है हाथेमें जाके और दैत्योंमें श्रेष्ठ ऐसा आताहुवा निशुंभ जोहै ताहि चंडिका बाणोंके समूह करिकै ताडन कर पृथ्वीकेविषे गिरातीभई॥१४॥ फिर घोर है पराक्रम जाने विषे ऐसा वह निशुंभ भ्राता पृथ्वीमें पडेसंते अत्यंत क्रोधयुक्त हुवाशुंभ अंबिकाको मारनेको शीघ्र जातोभयो॥१५॥

सरथस्थस्तथात्युच्चैर्गृहीतपरमायुधैः॥ भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषंवभौनभः॥१६॥ तमायां तंसमालोक्य देवीशंखमवादयत्॥ ज्याशब्दं चापिधनुषश्चकारातीव दुस्सहं॥१७॥ पूरयामासककुभोनिजघंटास्वनेनच॥ समस्तदैत्यसैन्यानां तेजोवधविधायिना॥१८॥ ततः सिंहोमहानादैस्त्याजितेभमहामदैः॥ पूरयामासगगनंगांतथैवदिशोदश॥१९॥ ततःकाली-समुत्पत्यगगनंक्ष्मामताडयत्॥कराभ्यांतन्निनादेनप्राक्स्वनास्तेतिरोहिताः॥२०॥

टीका—फिर वह शुंभ रथमें स्थितहुवा मुद्रिका प्रकारकरिकै ग्रहण कियेहैं उत्तम शस्त्र जिनोविषे ऐसी ने बडी ऊंचि अतुल आठभुजा तिन करिकैसंपूर्ण आकाशको व्याप्त करताता कालकेविषे शोभायमान होतोभयो॥१६॥ फिर तिसको आताहुवा देखिके देवी शंख बजाती भाई और धनुषकी प्रत्यंचाका बडाही दुःसह शब्दजी कर्त्ती भई॥३७॥ फिर चंडिका संपूर्ण असुरोंके सैन्यका तेजको नष्ट करनेवाला ऐसा अपनी घंटाका जो शब्द है ता कारकै दशोदिशाँको संबर्द्धमान कर्त्तीभई॥१८॥ फिर ताके अनंतर दूर कियेहैं हाथियोंके महामद जिनोंने ऐसा जो कंठ गर्ज्जनहै तिन करिकै सिंह आकाश जो है ताहि पूर्ण कर्त्तोभयो और तिसीप्रकार पृथ्वी और दशोदिशा तिन्हे पूर्ण कर्त्तोभयो॥१९॥ फिर ताके अनंतर चामुंडा काली उछल करिकैहाथसे आकाश और पृथ्वी जोहै तिन्हें ताडन कर्त्ती भई फिर या पृथ्वी और आकाशके ताडनके शब्द करिकै शंखप्रत्यंचा घंटा सिंह इनके जे शब्द थे ते आच्छादित होतेभये॥२०॥

अट्टाट्टहासमशिवंशिवदूतीचकार॥ तैः शब्दैरसुरास्त्रेसुः शुंभः कोपं परं ययौ॥२१॥ दुरात्मंस्तिष्ठतिष्ठेतिव्याजहारांविकायदा॥ तदाजयेत्यभिहितं देवैराकाशसंस्थितैः॥२२॥ शुंभेनागत्ययाशक्तिर्मुक्ताज्वालातिभीषणा॥ आयांतीवन्हिकूटाभासानिरस्तामहोल्कया॥२३॥ सिंहनादेनशुंभस्य व्याप्तं लोकत्रयान्तरम्॥निर्घातनिःस्वनोघोरोजितवानवनीपते॥२४॥ शुंभमुक्ताञ्च्छरान्देवीशुंभस्तत्प्रहिताञ्छरान्॥ चिच्छेदस्वशरैरुग्रैःशतशोथ सहस्रशः॥२५॥

टीका—और शिवदूती तासमय बडा कठोर अट्टाट्टहास कर्त्तीभई फिर अट्टाट्टहासते उत्पन्नभये जे शब्दहैं दिन करिकै असुर त्रासको प्राप्त होतेगये और शुंभ अत्यंत कोपको प्राप्त होतोभयो॥२१॥ फिर हे शुंभदुरात्मन् तू खडारहै खडारहै ऐसे संग्रामकेविषे जब अंबिका कहतीभई तब आका-

शमें स्थितहुये देवोंने जय जय शब्द किया अर्थात् है अंबिके तुम शत्रुवोंका तिरस्कार करो इस प्रकार से कहा॥२२॥फिर शुंभने आकरिकै ज्वाला करिकै बढी भयंकर ऐसी शांग भगवतीके सन्मुख छोडी अग्निके तुल्यहै कांति जाकी ऐसी आतीहुई शांगको अंबिका अपनी महोल्का शांग करिकै निरस्त कर्त्तीभई॥२३॥ हे सुरथ तासमय शुंभके कंठ गर्ज्जन करिकै लोकत्रयका मध्य व्याप्त होता भया तोजी ताहि देवीको मारो मारो यह जो शुंभके सैनिकनका शब्दहै सो शुंभका शब्द जो है ताहि तिरस्कृत कर्त्ताभया॥२४॥ फिर ता संग्रामकेविषे देवी अपने उग्रबाणों करिकै सौ सौ हजार हजार शुंभकेछोडेहुए जे बाणहैं तिन्हें काटती गई और शुंभ देवीके छोटेहुये जे बाणहैं तिन्हैंअपनेबाणों करिकै काटताभया॥२५॥

ततः साचण्डिकाक्रुद्धाशूलेनाभिजघानतम्॥सतदाभिहतो भूमौमूर्च्छितोनिपपातह॥२६॥ ततो निशुंभः संप्राप्यचेत नामात्तकार्मुकः॥ आजघान शरैर्देवीं कालीं केसरिणं तथा॥२७॥ पुनश्चकृत्वाबाहूनामयुतं दनुजेश्वरः॥ चक्रायुतेनदितिज श्छादयामासचंडिकाम्॥२८॥ ततो भगवतीकुद्धादुर्गा दुर्गातिनाशिनी॥ चिच्छेदतानिचक्राणि स्वशरैः सायकांश्चतान्॥२९॥ ततो निशुंभो वेगे नगदामादायचंडिकाम्॥ अभ्यधावतवैहंतुं दैत्यसेनासमावृतः॥३०॥

टीका—फिर शुंभको संग्राममें अपने समान देखिके वह चंडिका क्रोध युक्त हुई त्रिशूलके प्रहार करिकै तिस दैत्यको ताडन कर्त्तीभई फिर वह शुंभ त्रिशूलके प्रहार करिकै ताडित मूर्छित हुवा पृथ्वीमें पड़ताभया॥२६॥ ताके अनंतर पहिले मूर्छाको प्राप्तहुवा निशुंभ चेतना जो है ताहि प्राप्त होकर ग्रहण कियोहै धनुष जाने ऐसा बाणोंके प्रहार करिकै काली देवी जोहै ताहिताडन कर्त्तागया और तिसी प्रकार सिंह जो है ताहि ताडन कर्त्ताभया॥२७॥ और तासमय फिर वह निशुंभ मायावी दशहजार भुजावाला बनिके चक्रके

प्रहार करकै चंडिका जोहै ताहि ताडन कर्त्तोभयो॥२८॥ ताके अनंतर संकटमें पीडाको नष्ट करनेवाली ऐसी दुर्गा भगवती क्रोषयुक्त हुई अपने बाणों करिकै वा दैत्यके चक्र और बाण जे हैं तिन्हैंकाटती भई॥२९॥फिर ताके अनंतर निशुंभ वेग करिकै गदा जो है ताहि ग्रहण करिकै दैत्यनकी सेना करिकै युक्त हुवा चंडिका जो है ताहि मारनेको दौडताभया॥३०॥

तस्यापतत एवाशुगदांचिच्छेदचंडिका॥ खङ्गेनशितधारेण स च शूलंसमाददे॥३१॥ शूलहस्तं समायांत निशुंभममरार्द्दनम्॥हृदिविव्याधशूलेन वेगाविद्धेन चंडिका॥३२॥ भिन्नस्य तस्य शूलेन हृदयान्निःसृतोपरः॥ महाबलोमहावीर्यस्तिष्ठेतिषुरुषोवदन्॥३३॥ तस्य निष्कामतोदेवीप्रहस्य स्वनवत्ततः॥ शिरश्चिच्छेदखङ्गेनततोसावपतद्भुवि॥३४॥ ततः सिंहश्चखादोग्रदंष्ट्राक्षुण्णशिरोधरान्॥ असुरांस्तांस्तथाकालीशिवदूती तथा परान्॥३५॥

टीका—फिर आताहुवाही निशुंभकी गदा जो है ताहि चंडिका तीखी धारवाले खङ्गकरिकै तत्काल काटतीगई फिर वह दानव त्रिशूल ग्रहण कर्त्तो भयो॥३१॥ फिर त्रिशुल है हाथमें जिसके और देवतानको दुःख देनेवाला ऐसा आताहुवा निशुंभ जो है ताहि चंडिका वेगते फेकाहुवाजो त्रिशूल है ता करकैहृदयकेविषे विंधती भई॥३२॥ फिर त्रिशूलके प्रहार करिकै भिन्नहुवा जो निशुंभ है ताके हृदयते हे देवि तू कहां जायगी खडी रहै ऐसे कहताहुवा बड़ा पराक्रमी और बड़ा वीर अन्य पुरुष निकसता भया॥३३॥ फिर रेरे दुष्ट! तू खडारह खडारहै मन्मयी मायाको प्राप्त होकर तू फिर मेरेकोही मारनेको उद्युक्त हो रहाहै यातै मैं तेरेको अवहीं मारूंगी इसप्रकार हँसके निशुंभके हृदयते निकसता हुवा जो निशुंभका अवतार है ताको देवी खङ्गके प्रहार करके शिर काटतीगई ताके अनंतर निशुंभ रणभूमिकेविषे पड़वाभया॥३४॥ ताके अनंतर उग्रदंष्ट्रानकरिकै संपिष्ट है ग्रीवा जिनोकी

ऐसे जे असुर हैं तिन्हें सिंह खाताभया और सिंह भक्षित असुरोंते अन्य जे असुर हैं तिन्हैंकाली भक्षण कर्त्तीभई तिनोंसेभी अन्य जे हैं तिन्हें शिवदूती भक्षण कर्त्तीभई॥३५॥

कौमारीशक्ति निर्भिन्नाः केचिन्नेशुर्महासुराः॥ ब्रह्माणो मंत्रपूतेनतोयेनान्येनिराकृताः॥३६॥ माहेश्वरीत्रिशूलेनभिन्नाः पेतुस्तथापरे॥वाराहीतुंडपातेनकेचिच्चूर्णीकृताभुवि॥३७॥ खंडं खंडंचचक्रेणवैष्णव्यादानवाः कृताः॥ वज्रेणचैंद्रीहस्ताग्रविमुक्ते तथापरे॥३८॥ केचिद्विनेशुरसुराः केचिन्नष्टामहाहवात्॥भक्षिताश्चापरेकालीशिवदूतीमृगाधिपैः॥३९॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणेसावर्णिके मन्वंतरेदेवीमाहात्म्येनि शुंभवधोनामनवमोऽध्यायः॥९॥

टीका—और कितनेही महाअसुर कौमारीकी शक्तिके प्रहार करिकै छिन्नभिन्न हुवे नाशको प्राप्त होते भये और कितनेही अन्य असुर ब्रह्माणीके मंत्रते पवित्र जल करिकै नष्ट करिदिये॥३६॥ और तिसीप्रकार अन्य कितनेही असुर माहेश्वरीके त्रिशूलके प्रहार करिकै भिन्नहुवे रणभूमिकेविषे पड़तेभये और कितनेही वाराहीशक्तिके मुखके प्रहार करिकै चूर्णितहुवे रणभूमिकेविषे पड़तेभये॥३७॥ फिर वैष्णवीशक्तिने चक्रके प्रहार करिकै खंडपनाको दानव प्राप्त करदिये और तिसीप्रकार कितनेही अन्य दानव ऐंद्री शक्तिके हस्ताग्रकरिकै प्रेरित जो वज्र ताके प्रहार करिकै खंडितहुये नष्ट होतेभये॥३८॥ फिर ता संग्रामकेविषे कितनेही तो असुर नष्ट होते भये और कितनेही तिस संग्रामते डरपके भागजातेभये और कितनेही असुर काली और शिवदूती और सिंह इनोने भक्षण किये॥३९॥ इति मार्कण्डेयपुराणे सावर्णिकेमन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये निशुंभवधोनाम नवमोध्यायः॥९॥

ऋषिरुवाच॥ निशुंभंनिहतं दृष्ट्वाभ्रातरं प्राणसंमितम्॥ हन्यमानंबलचैव शुंभः क्रुद्धोब्रवीद्वचः॥१॥ बलावलेपाद्दुष्टेत्वंमादु-

र्गेगर्वमावह॥अन्यासांबलमाश्रित्य युध्यसेयातिमानिनी॥२॥ देव्युवाच॥ एकैवाहंजगत्यत्रद्वितीयाकाममापरा॥ पश्यैतादुष्टमय्येव विशंत्यो मद्विभूतयः॥३॥ ऋषिरुवाच॥ ततःसमस्तास्तादेव्यो ब्रह्माणीप्रमुखालयम्॥तस्यादेव्यास्तनौजग्मुरे कैवासीत्तदांबिका॥४॥ देव्युवाच॥ अहंविभूत्याबहुभिरिहरूपैर्यदास्थिता॥ तत्संहृतं मयैकैव तिष्ठाम्याजौस्थिरोभव॥५६॥

टीका—तब ऋषि बोले कि हे सुरथराजन् फिर शुंभ प्राणोंके समान देवी करिकै माराहुवा ऐसा निशुंभ भ्राता जो है ताहि देखकर और अपनी सेना देवी करिके हन्यमान देखकर क्रोधयुक्त हुवा वचन बोलताभया॥१॥ हे दुर्गे दुष्टनी बलके संबंधसे तू गर्व मतकरे जो तू ब्रह्माणीआदि शक्तियों काबल जो है ताहि आश्रय करिकैनिरंतर अहंकारवाली हुई युद्ध कर्त्ती है सो सर्वथा दूसरेके बलका आश्रय लेकर युद्धकेविषे तेरेको गर्व करना अनुचित है॥२॥ताके अनंतर देवी बोलतीभई कि हे दुष्ट शुंभ इस जगत्के विषे परमात्मरूप एक मैहींहूँ मेरेते अन्य दूसरी कौन है अर्थात् कोई नहीं और ये जे ब्रह्माणी आदि लेकर मेरी विभूति हैं तिन्हैंमेरे विषही प्रवेश होतीहुई तू देख॥३॥ तब ऋषि बोले कि हे सुरथराजन् ताके अनंतर ब्रह्माणी है मुख्य जिनोंके विषे ऐसी जे आठ शक्ति हैं वे सब तिस चंडिकाके शरीरमें ऐक्यको प्राप्त होतीभई अर्थात् लीन होतीभई तब एक अंबिका देवीही अद्वितीय रहतीभई॥४॥ फिर देवी बोलती गई हे शुंभ मैं इस रणभूमिके विषे बहुत रूपों करिकै जो बहुत्व अंगीकार करा सो बहुत्व समेटलिया अब मैं एकही स्थितहूँ तू अब संग्रामकेविषे स्थिरहो॥५॥

ऋषिरुवाच ॥ ततः प्रववृते युद्धं देव्याः शंभस्य चोभयोः॥ पश्यतां सर्वदेवानाम-सुराणांचदारुणम्॥६॥शरवर्षैः शितैः शस्त्रैस्तथास्त्रैश्चैवदारुणैः॥तयोर्युद्धमभूद्धयः सर्वलोकभयंकरं॥७॥ दिव्यान्यस्त्राणिशतशोमुमुचेयान्यथांबिका॥ वभंज

तानिदैत्येंद्रस्तत्प्रतीयातकर्तृभिः॥८॥ मुक्तानितेन चास्त्राणिदिव्यानिपरमेश्वरी॥ वभंजलीलयैवोग्रहुंकारोच्चारणादिभिः॥९॥ ततश्शरशतैर्देवीमाच्छादयतसोसुरः॥सापित-त्कुपितादेवीधनुश्चिच्छेदचेषुभिः॥१०॥

टीका—तब ऋषि बोले कि हे सुरथराजन् ताके अनंतर देवी और शुंभ इन दोनोंका परस्पर युद्ध प्रवृत्त होतागया वह कैसा युद्धहुवा कि देखतेहुये संपूर्ण देव तिनको ने जयंकर ऐसा॥६॥ फिर बाणोंकी वर्षा करिकै तीखें शस्त्रों करिकै और कठोर अस्त्रों करिकै शुंभका और देवीका संपूर्ण लोकको भय करनेवाला ऐसा बहुत युद्ध होताभया॥७॥ याके अनंतर अंबिका शुंभकेविषे जे सेंकडों दिव्याऽस्त्र छोडे तिन्हैंतिनका विध्वंस करनेवाले अस्त्रों करिकै शुंभ काटताभया॥८॥ फिर शुंभने छोडे जे दिव्य अस्त्र हैं तिन्हैं परमेश्वरी हुंकारोच्चारणादि करिकै विनापरिश्रम करिकेही काटती भई॥९॥ ताके अनंतर हजारों वाणों करिकै वह असुर देवी जो है ताहि आच्छादित कर्त्तोभयो तितकारणते वह भगवती क्रोधयुक्त हुई बाणों करिकै शुभको धनुष जो है ताहि काटतीभई॥१०॥

छिन्नेधनुषिदैत्येंद्रस्तथाशक्तिमथाददे॥ चिच्छेददेवीचक्रेणतामप्यस्य करे स्थिताम्॥११॥ ततः खड्गमुपादायशतचंद्रंचभातुमत्॥ अभ्यधावतांहंतुंदैत्यानामधिपेश्वरः॥१२॥तस्यापततएवाशुखड्गंचिच्छेद चंडिका॥धनुर्मुक्तैः शितैर्बाणैश्चर्मचार्ककरामलं॥१३॥ अश्वांश्चपातयामासरथंसारथिना सह॥हताश्वःसतदादैत्यश्छिन्नधन्वाविसारथिः॥जग्राहमुद्गरंघोरमंविकानिधनोद्यतः॥१४॥ चिच्छेदापततस्तस्य मुद्गरं निशितैः शरैः॥ तथापिसोभ्यधावत्तांमुष्टिसुद्यम्यवेगवान्॥१५॥

टीका—फिर देवीने शुंभका धनुष काटे संते शुंभ तिसीप्रकार शक्ति शस्त्र ग्रहण कर्त्तोभयो याके अनंतर देवी शुंभके हाथमें स्थित जो शक्ति शस्त्रहै

ताहिबी चक्र करिके काटतीभई॥११॥ ताके अनंतर दैत्योंके अधिप ने धूम्रलोचनादिक तिनका ईश्वर शुंभ खड्गजो है ताहि ग्रहण करि के और सौ हैलिखेहुवे चंद्राकार जाके विषे और प्रकाशमान ऐसा जो ढालहै ताहि ग्रहण करिकै ता देवीके मारने को दौडताभया॥१२॥ फिर आताहुवा ही जो शुंभहै ताका खड्ग जो है ताहि अत्यंत प्रकाशमान जो ढालहै ताहि चंडिका धनुष करिकै छोडेहुवे जे तीखे बाणहैं तिन करिकै काटती भई॥१३॥ और अश्व जे हैं तिन्हें और सारथि करिकै सहित जो रथहै ताहि चंडिका बाणों करिकै पृथ्वीमें गिरातीगई फिर मारेगयेहैं अश्व जाके और टूटगयाहै धनुष जाका और विगतहुवाहै सारथि जाका ऐसा वह शुंभदैत्प अंबिकाके मारनेमें उद्युतहुवा भयंकर मुद्गर ग्रहण कर्त्ताभया॥१४॥ फिर ताके अनंतर प्रहार करनेकी इच्छा कर्त्ताहुवा जो शुंभ है ताका मुद्गर जोहै ताहि सो देवी तीखे बाणों करिकै काटतीभई तौभीमूका ऊंचा करिकै शुंभ देवीके मारनेको दौडताभया॥१५॥

समुष्टिं पातयामासहृदयेर्दैत्यपुंगवः॥ देव्यास्तंचापिसादेवीत लेनोरस्यताडयत्॥१६॥ तलप्रहाराभिहतोनिपपात महीतले॥सदैत्यराजः सहसापुनरेवतथोत्थितः॥१७॥ उत्पत्य च प्रगृह्योच्चैर्देवीं गगनमास्थितः॥ तत्रापि सानिराधारायुयुधेते न चंडिका॥१८॥ नियुद्धं खेतदा दैत्यश्चंडिकाचपरस्परम्॥ चक्रतुः प्रथमं सिद्धमुनिविस्मयकारकम्॥१९॥ततो नियुद्धं सुचिरं कृत्वा तेनांविकासह॥ उत्पात्य भ्रामयामासचिक्षेपधरणीतले॥२०॥

टीका—फिर वह दैयनमें श्रेष्ठ शुंभ देवीके हृदयकेविषे मुष्टिका प्रहार कर्त्ताभया फिर वह शुंभ जोहै ताहिभी करतल करिकै वक्षस्थलकेविषे ताडन कर्त्तीभई॥१६॥ फिर वह दैत्यराज देवीके करतलके प्रहारकरके ताडितहुवा महीतलकेविषे पडताभया फिर वह दैत्य वेगकरिके तिसी प्रकार संग्रामभूमिमें खडाहोताभया॥१७॥ फिर देवी जोहै

ताहि ग्रहण करिके महीतलते उड़कर आकाशकेविषे स्थित होताभया तहांभी निराधार हुई भगवती तिस शुंभके साथ युद्धकर्त्तीभई॥१८॥ फिर तब आकाशमें आरोहण कालकेविषे शुंभ दैत्य और चंडिका ये पहिले सिद्ध और मुनि इनको विस्मय करनेवाला ऐसा परस्पर बाहुयुद्धं कर्त्तेभये॥१९॥ फिर अंबिका शुंभके साथ बहुत काल युद्ध करिकै ताके अनंतर शुंभका पैर पकड उठाके भ्रमातीगई पीछे भ्रमा करिकै भगवती शुंभ जोहै ताहि पृथ्वीतलकेविषे फेकतीभई॥२०॥

सक्षिप्तो धरणीं प्राप्यमुष्टिमुद्यम्यवेगितः॥ अभ्यधावतदुष्टात्माचंडिकानिधनेच्छया॥२१॥ तमायांतं ततो देवीसर्वदैत्यजनेश्वरम्॥ जगर्त्यापातयामासभित्त्वाशूलेनवक्षसि॥२२॥ सगतासुःपपातोर्व्यांदेवीशूलाग्रविक्षतः॥चालयन्सकलां पृथ्वीं साब्धिद्वीपां सपर्वताम्॥२३॥ ततः प्रसन्नमखिलं हते तस्मिन्दुरात्मनि॥ जगत्स्वास्थ्यमतीवापनिर्मलंचाभवन्नभः॥॥२४॥उत्पातमेघास्सोल्कायेप्रागासंस्ते शमंययुः॥ सरितोमार्गवाहिन्यस्तथा शुंभे निपातिते॥२५॥

टीका—फिर आकाशते देवी करिकै फेकाहुवा दुष्टात्मा शुंभदैत्य पृथ्वीजोहै ताहि प्राप्त होकरिकै मुष्टि उठा करिकै चंडिकाको मारनेकी इच्छा करिकैदौढताभया॥२१॥ फिर ताके अनंतर आताहुवा जो संपूर्ण दैत्योंका ईश्वर शुंभहै ताहि भगवती त्रिशूलके प्रहार करिकै वक्षस्थलमें वेधन करि पृथ्वीमें गिरातीभई॥२२॥ वह दैत्य देवीका त्रिशूलके अग्रभाग करिकै हतऔर भये प्राण जाके ऐसाहुवा पर्वतों करिकैऔर समुद्र द्वीपों करिकै सहित जो पृथ्वीहै ताहि चलायमान कर्त्ताहुवा पृथ्वीके विषे पडताभया॥२३॥ फिर देवीने तिस दुरात्मा शुंभको मारे संते ता कारणते संपूर्ण जगत्प्रसन्न होतोभयो और फिर जगत् अत्यंत स्वस्थपनाको प्राप्त होतोभयो और आकाश निर्मल होतोभयो॥२४॥ और ज्वाला करिकै सहित ने

शुंभ मरे पहिले उत्पातके मेघथे वे शांतिको प्राप्त होतेभये देवीने शुंभको पृथ्वीमें गिरायेसंते उत्पथते तिसीप्रकार मार्गवाहिनी नदिया होतीभई॥२५॥

ततो देवगणास्सर्वेहर्षनिर्भरमानसाः॥ बभूवुर्निहतेतस्मिन् गंधर्वाललितं जगुः॥२६॥ अवादयंस्तथैवान्येननृतुश्चाप्सरोगणाः॥ ववुःपुण्यास्तथावातास्सुप्रभोभूद्दिवाकरः॥२७॥जज्वलुश्चाग्नयःशांताःशांतदिग्जनितस्वनाः॥२८॥ इति श्रीमा० पु० सावर्णिमन्वंतरे-देवीमाहात्म्ये शुंभवेधोनामदशमोऽध्यायः॥१०॥

टीका—और वा दैत्यको देवीने मारेसंते तिसकारणने हर्ष करिकै पूर्णहै मन जिनके ऐसे देवगण होतेभये और गंधर्व मनोहर गातेभये॥२६॥ और तासमय कितनेही अन्य गंधर्व वादित्र बजातेगये और अप्सरावोंके गण नृत्य कर्त्तेगये और तासमय शीतल मंद सुगंध पवन चलतेगये और तिसीप्रकार सूर्य सुप्रभहोताभया॥२७॥ और आहवनीय अग्नि यज्ञनके निर्मल जलती और दिशावोंकेविषे उत्पन्न ऐसे उत्पातको सूचन करनेवाले जे शब्द ते शांत होतेभये॥२८॥ इति मार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वंतरे देवीमाहात्म्ये भाषाटीकायां शुंभवधोनाम दशमोऽध्यायः॥१०॥

ऋषिरुवाच॥ देव्याहतेतत्रमहासुरेंद्रे सेंद्राःसुरावन्दिपुरोगमास्ताम्॥कात्यायनीं तुष्टुवुरिष्टलाभाद्विकासिवक्राव्जविकासिताशाः॥१॥ देवाऊचुः॥ देविप्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीदमातर्जगतो खिलस्य॥प्रसीदविश्वेश्वरि पाहिविश्वं त्वमीश्वरीदेविचराचरस्य॥२॥आधारभूताजगतस्त्वमे कामही स्वरूपेणयतः स्थितासि॥ अपां स्वरूपस्थितया त्वयैतदाप्यायते कृत्स्नमलंघ्यवीर्ये॥३॥ त्वं वैष्णवीशक्तिरनंतवीर्याविश्वस्य बीजं परमासिमाया॥ संमो हितं देवि समस्तमेतत्वं वै प्रसन्नाभुविमुक्तिहेतुः॥४॥ विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः स्त्रियः समस्ताः सकलं जगच्च॥ त्वयै कयापूरितमंबयैतत्काते स्तुतिःस्तव्यपरापरोक्तिः॥५॥

टीका—फिर ऋषि बोले कि हे सुरथराजन् चंडिकाने संग्रामकेविषे शुंभासुर मारेसंते अपने इष्टके लाभते प्रसन्न है मुख जिनोंका ऐसे इंद्र करिके सहित अग्नितेआदि लेकर जे देव ते तिस कात्यायनी भगवतीकी स्तुति कर्त्तेभये॥१॥तबदेव भगवतीकी स्तुतिके उपयोगी वाक्य बोलतेभये हे शरणागतका दुःख हरनेवाली भगवती तुम प्रसन्नहो हे संपूर्ण जगत्की माता तुम प्रसन्नहो हे विश्वश्वरि तुम प्रसन्नहो हे देवि तुम लक्ष्मीरूप करिकै जगत्की रक्षा करो और हे देवी तुम चराचर जगत्की व्यापकहो॥२॥ और हे देवी जा कारणते तुम पृथ्वीरूप करिकै स्थितहो ताते जगत्का आधार रूप एक तुह्महीहो अन्य नहीं और नहीं उलांघसकाजाय पराक्रम जाका ऐसी जलोंका स्वरूप कारिके स्थित जो है भगवती तुमहो सो तुम करिकै संपूर्ण जगत् बढायाजाताहै॥३॥हे देवि तुम कैसीहो अनंतहै पराक्रम जाको ऐसीहै और विश्वका कारण माया तुमहीहो और जा करिकै अशेष जगत्कीविष्णु पालना कर्त्ताहै ऐसी विष्णुकी सामर्थ्यलक्षण वैष्णवी शक्ति तुमही हो हे देवि तुह्मारी मायाने यह सम्पूर्ण जगत् मोहितकिया अर्थात् ममताके वशीभूत किया और तुम प्रसन्नहुई पृथ्वीकेविषे मुक्तिका कारण हो॥४॥ और हे देवि श्रुति स्मृति पुराण इनते आदि लेकर जे विद्यार्है वे तुह्माराही अंशहैं और ब्रह्माणीते आदि लेकर जे संपूर्ण शक्ति हैं वे तुह्माराही अंशहै और संपूर्ण यह जगत् तुह्मारे करिकै पूर्ण है है भगवति स्तुति और स्तुत्य इनके भेदमें स्तुति होती है है भगवति एकत्वके विषे तुह्मारी क्या स्तुति करीजाय॥५॥

सर्वभूता यदा देवी भुक्तिमुक्ति प्रदायिनी॥ त्वंस्तुतास्तुतयेका वाभवंतिपरमोक्तयः॥६॥ सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदिसं स्थिते॥ स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोस्तुते॥७॥ कलाकाष्ठादिरूपेण परिणामप्रदायिनी॥विश्वस्योपरतौशक्ते नारायणि नमोस्तुते॥८॥ सर्व मंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके॥शरण्ये त्र्यंबकेगौरि नारायणि नमोस्तुते॥९॥ सृष्टिस्थिति विनाशानां-

शक्तिभूते सनातनि॥गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोस्तुते॥१०॥

टीका—फिर हे भगवति भुक्तिमुक्तिकी देनेवाली तुम विश्वरूपहो इस प्रकारसे जब तुम स्तुति कीगई तब तुह्मारी स्तुतिके अर्थ कौनसी श्रेष्ठ उक्तियांहैं कि जिन करिकै तुम स्तुति कीजातीहो अर्थात्नहीं॥६॥ हे देवि संपूर्ण प्राणियोंके हृदयकेविषे स्थितहै स्वर्ग मोक्षकी देनेवाली हे नारायणि तेरे अर्थ नमस्कार है॥७॥ क्षण मुहूर्त्त अहोरात्र पक्ष मास ऋतु अयन संवत्सर इन आदि कालरूप करिकै मनुष्यादिकनको बाल्य तरुण वृद्ध अवस्था देनेवाली तिसी प्रकार संसारके अन्तमें रुद्ररूप ऐसी हे नारायणि तेरे अर्थ नमस्कार है॥८॥ और हे सर्व मंगलोंका मंगलरूप हे कल्याण करनेवाली है शरणागतवत्सल हे त्रिनेत्रे हे गौरि हे नारायणि तेरे अर्थ नमस्कार है॥९॥और जगत्का रचना पालन और संहार इनको करनेवाली हे शक्तिरूप और हे सनातन हे गुणनका आश्रय हे गुणमयि हे नारायणि तेरे अर्थ नमस्कार है॥१०॥

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे॥सर्वस्यार्तिहरे देविनारायणि नमोस्तुते॥११॥हंसयुक्तविमानस्थेब्रह्माणीरूपधारिणि॥ कौशांभःक्षरिदेविनारायणि नमोस्तुते॥१२॥ त्रिशूलचंद्राहिधरेमहावृषभवाहिनि॥माहेश्वरी स्वरूपेण नारायणि नमोस्तुते॥१३॥ मयूरकुक्कुटवृते महाशक्ति धरेनघे॥ कौमारी रूपसंस्थाने नारायणि नमोस्तुते॥१४॥शंखचक्रगदाशार्ङ्गगृहीतपरमायुधे॥ प्रसीदवैष्णवीरूपे नारायणि नमोस्तुते॥१५॥

टीका—हे शरणागत ऐसे गरीब और दुःखीओंको दुःखोंते रक्षा करनेमें तत्पर हे सर्वलोकका दुःख हरनेवाली हे नारायणि तेरे अर्थ नमस्काहरै॥११॥ हे हंसंयुक्त विमानमें स्थित ब्रह्माणीका रूप धारण करने वाली और हे कुशोदकका शत्रुवोंपर सेचन करनेवाली हे नारायणि तेरे अर्थ नमस्कार है॥१२॥ और माहेश्वरी स्वरूप करिकै हेत्रिशुल

चंद्रको धारण करनेवाली हे महावृषभवाहिनि हे नारायणि तेरे अर्थ नमस्कार है॥१३॥ मयूर और कुक्कुट इन करिकै युक्त और महाशक्ति को धारण करनेवाली और पापों करिकै रहित और कुमारशक्तिकासाहै शरीरका अवयव जाके ऐसी जो नारायणि तुमहो सो तुह्मारे अर्थ नमस्कारहै॥१४॥और शंख चक्र गदा शार्ङ्ग धनुष येग्रहण किये हैं परम आयुधजाने ऐसी॥ वैष्णवीरूप हे नारायणि तुम प्रसन्नहो तुमारे अर्थ नमस्कार है॥१५॥

गृहीतोग्रमहाचक्रेदंष्ट्रोद्धृतवसुंधरे॥वराहरूपिणि शिवे नारायणि नमोस्तुते॥१६॥ नृसिंहरूपेणोग्रेण हंतुं दैत्यान्कृतोद्यमे॥ त्रैलोक्यत्राणसहिते नारायणि नमोस्तुते॥१७॥किरीटिनि महावज्रेसहस्रनयनोज्ज्वले॥ वृत्रप्राणहरे चैंद्रिनारायणि नमोस्तुते॥१८॥ शिवदूतीस्वरूपेणहत दैत्येमहाबले॥ घोररूपे महारावेनारायणि नमोस्तुते॥१९॥ दंष्ट्राकरालवदने शिरो मालाविभूषणे॥ चामुंडेमुंडमथने नारायणि नमोस्तुते॥२०॥

टीका—और ग्रहण कियाहै उग्रचक्र जाने और दंष्ट्रावों करिकै उठाई है पृथ्वी जाने और वराहके रूपको धारण करनेवाली और कल्याणरूपिणी ऐसी जो हे नारायणि तुमहो तुमारे अर्थ नमस्कारहै॥१६॥ और उग्र जो नृसिंह रूपहै ता करिकै दैत्य जेहैं तिन्हें मारनेको कियोहै उद्यम जाने और त्रैलोक्यकी रक्षा करिकै सहित ऐसी जो हे नारायणि तुमहोतुह्मारे अर्थ नमस्कारहै॥१७॥ और मुकुटको धारण करनेवाली और बडाहै वज्र जिसका और हजार नेत्र जेहैं तिन केरिकै प्रकाशमान और वृत्रासुरका प्राण हरनेवाली ऐसी ऐंद्रीशक्तिरूप जो हे नारायणि तुमहो सो तुह्मारे अर्थ नमस्कार है॥१८॥ और शिवदूती स्वरूप करिकैमाराहै दैत्योंका महासैन्य जाने और घोरहै रूप जाको और बडाहै शब्द जाका ऐसी जो हेनारायणि तुमहो तुझारे अर्थ नमस्कारहै॥१९॥ और दंष्ट्रावोंकारिकै भयंकर है मुख जाको

और नरमुंडोंकी मालाकाहै आभूषण जिसके ऐसी चंडमुंडको मारनेवाली चामुंडारूप जो हेनारायणि तुमहो सो तुह्मारे अर्थ नमस्कार है॥२०॥

लक्ष्मिलज्जेमहाविद्येश्रद्धेपुष्टेस्वधेध्रुवे॥महारात्रे महामाये नारायणि नमोस्तुते॥२१॥ मेधे सरस्वति वरे भूतिबाभ्रवितामसि॥ नियतेत्वंप्रसीदेशेनारायणिनमोस्तुते॥२२॥ सर्वतःपाणिपादां ते सर्वतोक्षिशिरोमुखे॥ सर्वतः श्रवणघ्राणे नारायणि नमोस्तुते॥२३॥ सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते॥ भयेभ्यस्त्राहिनोदेविदुर्गेदेवि नमोस्तुते॥२४॥ एतत्ते वदनं सौम्यंलोचनत्रयभूषितम्॥ पातुनः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोस्तुते॥२५॥

टीका—और लक्ष्मी लज्जा महाविद्या श्रद्धा पुष्टि स्वधा ध्रुवा महारात्रि महामाया इनरूप जो हे नारायणि तुमहो सो तुह्मारे अर्थ नमस्कार है॥२१॥ और मेधारूप सरस्वतीरूप और श्रेष्ठ ऐश्वर्यरूप कृष्णकी भगिनीरूप और तामसी शक्तिरूप और अदृष्टरूप और समर्थ ऐसीजो हे नारायणि तुमहो से प्रसन्नहो तह्मारे अर्थ नमस्कारहे॥२२॥ और चारो तरफहैं हाथ पैर अवयव जाके और चौतरफहैं नेत्र और शिर और मुख जाके और चौतरफहै कान और नाक जाके ऐसी जो हे नारायणि तुमहो सो तुह्मारे अर्थ नमस्कारहै॥२३॥ और संपूर्ण जगत्है स्वरूप जाको और सबकी स्वामिनी और संपूर्ण शक्तियों करिकै समन्वित ऐसी जो हेदेवि तुमहो सो भयोंते हमारी रक्षा करो हे दुर्गेदेवि तुह्मारे अर्थ नमस्कारहो॥२४॥ और तीन नेत्रों करिकै अलंकृत जो तुह्मारा यह सुंदर मुखहै सो संपूर्णभयोंते हमारी रक्षाकरो हेकात्यायनि तुह्मारे अर्थ नमस्कारहो॥२५॥

ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्॥त्रिशूलं पातुनो भीतेर्भद्रकालि नमोस्तुते॥२६॥ हिनस्तिदैत्यतेजांसिस्वनेनापूर्ययाजगत्॥ साघंटापातुनोदेविपापेभ्योनः सुतानिव॥२७॥

असुरासृग्वसापंक चर्चितस्तेकरोज्ज्वलः॥ शुभायखङ्गो भवतु चंडिकेत्वां नतावयम्॥२८॥ रोगानशेषानपहंसितुष्टाददासि कामान्सकलानभीष्टान्॥ त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिताह्याश्रयतां प्रयांति॥२९॥ एतत्कृतं यत्कदनं त्वयाद्यधर्म द्विषां देविमहा-सुराणाम्॥ रूपैरनेकैर्बहुधात्ममूर्ति कृत्वाऽम्बिकेतत्प्रकरोतिकान्या॥३०॥

टीका—और ज्वालावों करिकै उच्च और बड़ा भयंकर और संपूर्ण असुरोंका हिंसक ऐसा जो हे भद्रकालि तुह्मारा त्रिशूलहै सो हमारी भयते रक्षा करो तुह्मारे अर्थनमस्कार हो॥२६॥ और जो तुह्मारी घंटा अपना शब्द करिकै जगत् जो है ताहि पूर्ण कर दैत्यनके तेज जे हैं तिन्हें नष्ट कर्त्तीगई सो तुह्मारी घंटा पापोंते पुत्रोंकीसी तरह हमारी रक्षा करो॥२७॥ और असुरोंका रुधिर और मेद रूप जो कीच ता करिकै व्याप्त ऐसे तुह्मारे हाथमें जो उज्वल खड्ग सो जगत्का और हमारे कल्याणके अर्थहो हे चंडिक हम तुझें प्रणाम कर्त्तेहैं॥२८॥ और हे भगवती तुम आराधन करिकै प्रसन्न हुई तुह्मारेआश्रित जे मनुष्य हैं तिनका संपूर्ण रोग नष्ट कर्त्तीहो और तिनको संपूर्ण मनोवांछित अर्थ देतीहो और हे देवी तुह्मारे आश्रित जे नर हैं तिनके विपत्ति नहीं है और तुह्मारे आश्रित जे नरहैं वे तुह्मारी कृपाते राजत्व देवत्व पदवीको प्राप्त होते हैं॥२९॥ फिर हे देवी इससमय ब्रह्माणीते आदि अनेक रूपों करिकै बहुत प्रकारकी अपनी मूर्त्ति जो है ताहि करिकै धर्मके द्वेषी ऐसे असुर ने हैं तिनका जो नाश यह तुमने किया सो यह असुनरोंका नाश तुह्मारेते अन्य स्त्री कौन करनेको समर्थहै अर्थात् कोई नहीं॥३०॥

विद्यामुशास्त्रेषु विवेकदीपेष्वाद्येषु वाक्येषु च कात्वदन्या॥ मम त्वगर्तेति महांधकारे विभ्रामयस्येतदतीवविश्वम्॥३१॥ रक्षांसियत्रोग्रविषाश्चनागायत्रारयोदस्युबलानियत्र॥ दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थितात्वं परिपासिविश्वम्॥३२॥ वि-

श्वेश्वरीत्वं परिपातिविश्वं विश्वात्मिकाधारयसीतिविश्वम्॥ विश्वेशवंद्याभवती भवंति विश्वाश्रयायेत्वयिभक्तिनम्राः॥३३॥ देविप्रप्तीदपरिपालयनोऽरिभीतेर्नित्यं यथासुरवधादधु-नैव सद्यः॥ पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु उत्पातपाकजनितांश्चमहोपसर्गान्॥३४॥ प्रणतानां प्रसीदत्वं देविविश्वार्तिहारिणि॥ त्रैलोक्यवासिनामीड्येलोकानां वरदाभव॥३५॥

टीका—और हे देवि आन्वीक्षिकीते आदिले चतुर्दश विद्यां होतेसेतं और ज्ञानके प्रकाशक मनुस्मृत्यादिक धर्मशास्त्रोंके होतेसंते और आदि वाक्योंके होतेसंते अर्थात् वैदिक पुराणोंके होतेसंते बढा है अंधकार जाके विषे ऐसा ममतारूपी जो गर्त्तहै ताके विषे यह विश्व जो हैं ताहि तुम भ्रमाती हो सो तुमने अन्य देवी कौनहै अर्थात् कोई नहीं॥३१॥ और हे देवि जहां दैत्यहैं और जहां उग्रहैं विष जिनोमें ऐसे सर्पहैं और जहां शत्रुहैं और जहां चोरोंके समूह हैं और तिसीमकार जहां समुद्रके विषे दावानल अग्निहै तहां पड़ेहुये जे मनुष्यहैं तिनकी तुम सर्वत्र स्मरण करीदुई तहां वहां स्थित हुई रक्षा कर्त्तीही॥३२॥ और हे देवि तुम विश्वेश्वरीहो पाते विश्वकी रक्षा कर्त्तीहो और तुम विश्वात्मिकाही याते विश्वको धारण कर्त्ती हो और ब्रह्मादिक जे हैं तिन करिकैभी तुम स्तुति करने योग्य हो और हे भगवती जे तुह्मारे विषे भक्ति करिकै नम्र हैं वे जगत्के धारण करनेवाले हैं॥३३॥ और हे देवि तुम हमारे ऊपर प्रसन्न होवो जैसे शुंभासुरके वधते हमारी पालना करी तिसीप्रकार अगाडी होनेवाले शत्रुभयते नित्य हमारी रक्षा करो और संपूर्ण जगरत्के पाप जे हैं तिन्हैंशीघ्रं नाशको प्राप्तकरो और उत्पातनका फल दान काल करिकै उत्पन्न भये जे उपद्रव तिन्हैंशीघ्र नाशको प्राप्त करो॥३४॥ हे विश्वका दुःख हरनेवाली भक्ति करिकै नम्र जे हैं तिनके ऊपर प्रसन्नहो हे त्रैलोक्यवासियों करिके स्तुति करने योग्य देवि तुम लोकोंको मनोवांछित वरदान देनेवाली होवो॥३५॥

देव्युवाच॥ वरदाहं सुरगणावरं यं मनसेच्छथ॥ तंवृणुध्वं प्रयच्छामि जगतामुपकारकम्॥३६॥ देवाऊचुः॥ सर्वबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि॥ एवमेतत्त्वया कार्यमस्मद्वेरिविनाशनम्॥३७॥ देव्युवाच॥ वैवस्वतेंतरे प्राप्ते अष्टाविंशतिमेयुगे॥ शुंभो निशुंभश्चैवान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ॥३८॥ नंदगोपगृहे जातायशोदागर्भसंभवा॥ ततस्तौ नाशयिष्यामि विंध्याचल निवासिनी॥३९॥ पुनरप्यतिरौद्रेणरूपेणपृथिवीतले॥ अवतीर्य हनिष्यामि वै प्रचित्तांश्च दानवान्॥४०॥

टीका—तब देवी बोलतीभई कि हे देवगणो मैं तुह्मारेको वरदान देनेवाली हूँ सो जो तुम जगत्को उपकार करनेवाला वर मन करिकै इच्छा कर्त्तेहो सो मांगो मैं द्यूंगी॥३६॥ तब देव बोलतेभये हे संपूर्ण त्रैलोक्यकी स्वामिनी तुह्मेंत्रैलोक्यके संपूर्ण दुःखका विनाश करना योग्य है और ऐसेही जगत्का उपकारक जो हमारे वैरियोंका विनाशहै सो करना योग्यहै॥३७॥ तब देवी बोलतीभई हे देवो तुम श्रवण करो मैंने जगत्के उपकारके अर्थ ये पराक्रम किये अब फिर वैवस्वत मन्वन्तरके मध्यमें आनेवाली अठ्ठाईसवी युगचौकडी प्राप्त होतेसंते अर्थात् द्वापर कलियुगकी संधिके विषे अन्य शुंभ और निशुंभ ये दो महाअसुर उत्पन्न होंगे॥३८॥ ताके अनंतर नंद गोपिका गृहके विषे उत्पन्न भई यशोदाके गर्भते है जन्म जाको ऐसी मैं विंध्याचलके विषे निवास कर्त्तीहुई तिन दोनों शुंभ और निशुंभ दैत्योंको नष्ट करूंगी॥३९॥ फिर उसी अट्ठाईसवी चौकडीमें द्वापरके अनंन्तर कलियुगके विषे बड़ा भयंकर रूप करिके फिरभी पृथ्वीतलमें अवतार लेकर वैप्रचित्ति नाम जे दानवहें तिन्हैंमारूंगी॥४०॥

भक्षयंत्याश्चतानुग्रान्वैप्रचित्तान्महासुरान्॥ रक्तादंता भविष्यंति दाडिमीकुसुमोपमाः॥४१॥ ततो मां देवताः स्वर्गेमर्त्यलोके च मानवाः॥ स्तुवंतो व्याहरिष्यंति सततं रक्तदंतिकाम् ॥४२॥

भूयश्चशतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनंभसि॥ मुनिभिःसंस्तुता भूमोसंभविष्याम्ययोनिजा॥४३॥ ततः शतेननेत्राणां निरोक्षिष्यामियन्मुनीन्॥ कीर्तयिष्यंतिमनुजाः शताक्षीमितिमां ततः॥४४॥ ततोहमखिलंलोकमात्मदेहसमुद्भवैः॥ भरिष्यामिसुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः॥४५॥

टीका—और वैप्रचित्तिनाम उग्र महाअसुर जे हैं तिन्हैभक्षण कर्त्ती हुईका मेरा दाडयूके पुष्पके समान रक्तदांत होंयगे॥४१॥ ताकारणते स्वर्गलोकके विषे देवता और भूलोकके विषे मनुष्य ये मेरी निरंतर स्तुति कर्तेहुवे मेरेको रक्तदंतिका नाम करिके कहैंगे॥४२॥ फिर शतवर्षपर्यन्त वर्षा नहींहोने करिके नदी तडागादिकमेभीजल नहीं होतेसंते मुनियों करिकै स्तुति करीहुई अयोनिज प्रकट हूँगी॥४३॥ ताके अनंतर शत नेत्रन करिकै मुनि जेहैं तिन्हें मैं देखूंगी ताकारणते मनुष्य मेरेको शताक्षी कहैंगे॥४४॥ ताके अनंतर संपूर्ण लोक जो है ताहि अपने शरीरते उत्पद्यमान और वृष्टि होनेतक प्राणोंके धारक ऐसे जे शाकहैं तिनकरिकै में पोषण करूंगी॥४५॥

शाकंभरीति विख्याति तदा यास्याम्यहं भुवि॥ तत्रैवचवधिष्यामि दुर्गमाख्यं महासुरम्॥४६॥ पुनश्चाहं यदा भीमं रूपं कृत्वाहिमाचले॥रक्षांसि भक्षयिष्यामि मुनीनांत्राणकारणात्॥॥४७॥ तदा मां मुनयः सर्वे स्तोष्यंत्या नम्रमूर्तयः॥ भीमादेवीति विख्यातं तन्मेनाम भविष्यति॥४८॥ यदारुणाख्यस्त्रैलोक्ये महाबाधां करिष्यति॥ तदाहं भ्रामरं रूपं कृत्वासंख्येयषट्पदम्॥४९॥त्रैलोक्यस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम्॥ भ्रामरीतिचमां लोकास्तदास्तोष्यंति सर्वतः॥५०॥

टीका—तब पृथ्वीके विषे मैं शाकंभरी यह जो संज्ञाहै ताहि प्राप्तहूँगी फिर तहांही दुर्गनामा जो महाअसुरहै ताहि मारूंगी॥४६॥ और हेदेवो फिरभी जब मैं हिमाचलके विषे घोररूप करिकै मुनि जो हैं तिनकी रक्षाके

कारणते राक्षस जेहैं तिन्हैंभक्षणंकरूंगी॥४७॥ तबआसमन्तात् नम्र है मूर्ति जिनोंकी ऐसे वसिष्ठादिक मुनि मेरी स्तुति करेंगे और ताकारणते भीमादेवी यह विख्यात मेरा नाम होगा॥४८॥ और हे देवो त्रिलोकीके विषे जब अरुणनामा महासुर बडी पीडा करेगो तब मैं असंख्येय हैं भ्रमर जाके विषे ऐसो भ्रामररूप जो है ताहि करिकै त्रिलोकीके हितके अर्थ अरुणासुर जोहै ताहि मारूंगी तब लोक सर्वत्र भ्रामरीनाम करिकैमेरी स्तुति करैंगे॥४९॥५०॥

इत्थं यदा यदा बाधादानवोत्था भविष्यति॥ तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरि संक्षयम्॥५१॥ इति श्रीमार्कंडेयपुराणेसावर्णिके मन्वंतरेदेवोमाहात्म्ये नारायणीस्तुतिर्नामै-कादशोऽध्यायः॥११॥

टीका—और हे देवो जब जब लोकोंको दानवोंते पीडा उत्पन्न होगी तब तब अवतार लेकर शत्रुवोंका नाश करूंगी॥५१॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वंतरेदेवीमाहात्म्ये टीकायां नारायणीस्तुतिर्नामैकादशोऽध्यायः॥३१॥

देव्युवाच॥ एभिःस्तवैश्चमां नित्यं स्तोष्यतेयः समाहितः॥ तस्याहं सकलां बाधां नाशयिष्याम्यसंशयम्॥१॥ मधुकैटभनाशंचमहिषासुरघातनम्॥ कीर्तयिष्यंतियेतद्वद्वधं-शुंभ निशुंभयोः॥२॥ अष्टम्यां च चतुर्दश्यां नवम्यां चैकचेतसः॥ स्तोष्यंतिचैव ये भक्त्यामममाहात्म्यमुत्तमम्॥३॥ नतेषांदुष्कृतं किंचिद्दुष्कृतोत्थानचापदः॥ भविष्यति नदारिद्र्यं नचैवेष्टवियोजनम्॥४॥ शत्रुतोनभयं तस्य दस्युतोवानराजतः॥ नशास्त्रानलतोयौघात्कदाचित्संभविष्यति॥५॥

टीका—फिरभी देवी बोलतीगई कि हे देवो इन स्तोत्रों करिकै एकाग्रचित्त हुवा जो कोई नित्यमेरी स्तुति करेगा तिसकी निस्संदेह संपूर्ण बाधा मैं नष्टकरूंगी॥१॥ और मधुकैटभका है नाश जाके विषे और महिषासुर

का घात जाके विषे और तिसीप्रकार शुंभ निशुंभका है वधप्रतिपादन जाके विषे ऐसे जो मेरो उत्तम माहात्म्य ताहि अष्टमी और चतुर्दशी और नवमी इन तिथियोंके विषे जे कोई पुरुष एकाग्र चित्तहुवे भक्ति करिकै सुनेंगे अथवा पाठ करैंगे तिनका संपूर्ण पाप नष्टहोगा और पापोंते उठी जे आपत्ति है वे सब नष्ट होगी और तिनके कभी दरिद्रता नहींहोगी और कभी पुत्र धनादिकोंते वियोग नहींहोगा॥२॥३॥४॥ और तिनको शत्रुते और चोरते और राजते कभी भय नहीं होगा और शस्त्रते और अग्निते और जलके प्रवाहते कभी तिन्होंका घात नहीं होनेका॥५॥

तस्मान्ममैतन्माहात्म्यं पठितव्यं समाहितैः॥श्रोतव्यं च सदा भक्त्यापरंस्वस्त्ययनं महत्॥६॥उपसर्गानशेषांस्तु महामारीसमुद्भवान्॥तथा त्रिविधमुत्पातं माहात्म्यं शमयेन्मम॥७॥ यत्रैतत्पठ्यते सम्यङ्नित्यमायतने मम॥ सदानतद्विमोक्ष्यामिसांनिध्यं तत्रमस्थितम्॥८॥बलिप्रदाने पूजायामग्निकार्ये महोत्सवे॥ सर्वं ममैतच्चरितमुच्चार्यं श्राव्यमेवच॥९॥ जानताजानतावापिबलिं पूजां तथा कृताम्॥ प्रतीक्षिष्याम्यहं प्रीत्यावह्निहोमं तथा कृतम्॥१०॥

टीका—ताकारण एकाग्रचित्तपुरुषोंको प्रकृष्ट कल्याणकारक पूजनीय ऐसा मेरा माहात्म्य जोहै सो भक्ति करिकै सदा श्रवण करने योग्यहै॥६॥ और मेरा माहात्म्य जोहै ताहि श्रवण कर्त्तेहुये और पठन कर्त्तेहुये जे पुरुषहैं तिनके महामारीते उत्पन्न भये जे संपूर्ण उपद्रव तिन्हें मेरा माहात्म्य दूर करेहै और तिसीप्रकार अध्यात्म अधिभूत अधिदेव अर्थात् शरीरोत्पन्न व्याध्यादिक और प्रेतादिजनित भयभ्रमादिक और देवकृत दारिद्र्यादिक ये तीन प्रकारको जो उत्पातहै ताहिमेरा माहात्म्य दूर करैहै॥७॥ और जहां मेरे मंदिरके विषे मेरा माहात्म्य पुरुषों करिके शुद्धरीति से पढाजाताहै उस स्थानको मैं नहीं छोड़ोगी और उस गृहके विषे मेरा सांनिध्य

स्थित है॥८॥ और महानवमी इत्यादिक तिथियोंके विषे छाग मेषादि पशुवोंकरिकै जो देवनिमित्तक बलिदान तासमयके विषे और हवनकालके विषे और पुत्रजन्मविवाहादिक महोत्सवोंके विषे संपूर्ण मेरा माहात्म्य मनुष्योंके पढने योग्यहै और श्रवण करने योग्य है॥९॥ और ता प्रकार करके गुरूपदिष्ट कर्त्तव्यता जो है ताहि जानता और नहीं जानता जो भक्तिमान पुरुषहै ता करिकै किया जो बलिदान और पूजा और तिसीप्रकार अग्निके विषे तिलमध्वादिक हवन तिन्हे मैं प्रीतिकरिकै स्वीकार करूंगी॥३०॥

शरत्कालेमहापूजाक्रियते याचवार्षिकी॥ तस्यां ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वाभक्तिसमन्वितः॥११॥ सर्वबाधाविनिर्मुक्तोधनधान्यसुतान्वितः॥ मनुष्योमत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः॥१२॥ श्रुत्वाममैतन्माहात्म्यं तथा चोत्पत्तयः शुभाः॥ पराक्रमं च युद्धेषु जायते निर्भयः पुमान्॥१३॥ रिपवःसंक्षयं यांति कल्याणं चोपपद्यते॥ नंदते चकुलं पुंसांमाहात्म्यं मम शृण्वताम्॥१४॥ शांतिकर्मणिसर्वत्र तथा दुःस्वप्नदर्शने॥ ग्रहपीडासुचोग्रासु माहात्म्यं शृणुयान्मम॥१५॥

टीका—जो आश्विनशुक्लप्रतिपदाते लेकर शरत्काल के विषे महापूजा करोजाती और जो चैत्रशुक्ल प्रतिपदाते लेकर वार्षिकी पूजा करीजातीहै ताके विषे मेरा यहजो चरित्रत्रयलक्षणमाहात्म्य है ताहि भक्तियुक्त हुवा मनुष्य सुनकर मेरी कपाते संपूर्ण बाधा करिकै विनिर्मुक्त और धन धान्य सुतः करिकै युक्तहोगा इसमें संदेह नहीं॥११॥१२॥ और मेरा यह माहात्म्य जोहै ताहि गुरुते सुनकर और तिसीप्रकार जगत्का अभ्युदय करनेवाली ब्रह्माण्या दि शक्तिरूप जे मेरी उत्पत्तिहैं तिन्हैंऔर मेरे वीरपराक्रम जे हैं तिन्हैं सुनकर पुरुष युद्धनके विषे निर्भय होता है॥१३॥ और मेरा माहात्म्य जोहै ताहि सुनतेहुवे ने पुरुषहैं तिनके शत्रु नाशको प्राप्त होतेहैं और तिनके मंगल उत्पन्न होताहै और तिनका कुल समृद्धिको प्राप्त होताहै॥१४॥

और उपद्रवका संपूर्ण शांतिकर्म के विषे और तिसीप्रकार दुष्टस्वम दीखने में और बहुत अनिष्ट ग्रहों करके जे पीडाहै तिनमें पुरुष मेरा माहात्म्य जो है ताहि सुनें॥१५॥

उपसर्गाः शमं यांतिग्रहपीडाश्चदारुणाः॥ दुःस्वप्नंचनृभिर्दृष्टं सस्वप्नमुपजायते॥१६॥ बालग्रहाभिभूतानां बालानां शांतिकारकम्॥संघातभेदेचनृणांमैत्रीकरणमुत्तमम्॥१७॥ दुर्वृत्तानामशेषाणां बलहानिकरंपरम्॥रक्षोभूतपिशाचानां पठना देवनाशनम्॥१८॥ सर्वं ममैतन्माहात्म्यं मम सन्निधिकारकम्॥ सर्वं कृत्स्नमेतदादिमध्यावसानलक्षणं॥१९॥ पशुपुष्पार्घधूपैश्च गंधदीपैस्तथोत्तमैः॥ विप्राणां भोजनैर्होमैः प्रेक्षणीयैरहर्निशम्॥२०॥

टीका—फिर मेरे माहात्म्यके श्रवणने उपद्रव शांतिको प्राप्त होता है और शनि आदि ग्रहों करिकै जे कठोर पीडा हैं वे शांत होतीहैं और मनुष्योंनेदेखा जो खोटा स्वम है सो श्रेष्ठस्वम होता है॥१६॥ और श्मशानमें रहनेवाले ऐसे पूतनाते आदि लेकर जे बालग्रह तिन करिकै पीडित जे बालकतिनके मेरामाहात्म्यश्रवण शांतिका कारणहै और एक कार्य करनेवाले पुरुषोंके समूहमें भेद होतेसंते मेरा माहात्म्यका श्रवणही उत्तम मैत्रीका साधनहै॥१७॥ फिर मेरा माहात्म्य कैसा है कि संपूर्ण दुष्टोंके बलकी हानि करनेवाला और पठनमात्रते रक्षो भूत पिशाच इनको दूर करनेवाला॥१८॥और सर्वं कृत्स्रंइसप्रकार आदि मध्य अंतमें है चिन्ह जाके विषे ऐसा मेरा यह संपूर्ण माहात्म्य मनुष्यको मेरे समीप प्राप्त करनेवालाहै॥१९॥ और पशु पुष्प अर्घ्यऔर धूप इन करिकै और गंध दीप इन करिकैऔर तिसीप्रकारब्राह्मणोंको तरह तरहके उत्तम जिमानो करिकै और हवनोंकरिकै ओर तिसीप्रकार हरवखत नृत्य गीतादिकनकरिकै॥२०॥

अन्यैश्चविविधैर्भोगैःप्रदानैर्वत्सरेणया॥ प्रीतिर्मेक्रियतेसास्मि-

न्सकृदुच्चरितश्रुते॥२१॥ श्रुतं हरति पापानि तथारोग्यं प्रयच्छति॥रक्षां करोति भूतेभ्यो जन्मनां कीर्तनं मम॥२२॥ युद्धेषु चरितं यन्मेदुष्ट दैत्य निबर्हणम्॥ तस्मिन्छुतेवैरिकृतं भयं पुंसां न जायते॥२३॥ युष्माभिः स्तुतयोयाश्च याश्च ब्रह्मर्षिभिः कृताः॥ ब्रह्मणाचकृतायास्ताः प्रयच्छं तु शुभां गतिम्॥॥२४॥ अरण्ये प्रांतरेवापिदावग्निपरिवारितः॥ दस्युभिर्वा वृतःशून्येगृहीतोवापिशत्रुभिः॥२५॥ सिंहव्याघ्रानुयातोवावनेवादनेवावनहस्तिभिः॥ राज्ञा-क्रुद्धेन चाज्ञप्तोवध्योबंधगतोपिवा॥॥२६॥ आघूर्णितोवावातेन स्थितः पोतेमहार्णवे॥पतत्सुचापि शस्त्रेषुसंग्रामे भृशदारुणे॥२७॥ सर्वाबाधासुघोरासुवेदनाभ्यर्दितोपिवा॥ स्मरन्ममैतच्चरितं नरोमुच्येत संकटात्॥२८॥

टीका—और तिसीप्रकार तरह तरहके अन्य भोगों करिकै और तिसीप्रकार मेरी प्रीतिके अर्थ दानों करिकै जो संपूर्ण कामनाको देनेवाली प्रीति करी जातीहै सो प्रीति एकवार उच्चारण किया और श्रवण किया जो मेरा माहात्म्य है ताके विषे भक्तिकरिके भक्तोंने करीजातीहै॥२१॥ फिर श्रवण कियाहुवा मेरा माहात्म्य पाप जे हैं तिन्है दूरकर्त्ताहै और तिसीप्रकार सेवन करनेवालोंको आरोग्य देताहै और मेरे जे ब्रह्माणी आदि रूप करके प्रादुर्भाव है तिनका जो कीर्त्तन सो भक्तोंकी भूत पिशाचादिकन से रक्षा कर्त्ताहै॥२२॥ और मेरा जो दुष्ट दैत्यनको हनन करनेवाला चरित्र होतागया ताके श्रवण करे संते श्रवण करनेवाले पुरुषोंकोयुद्धनके विषे वैरि करिके भय नहीं होता है॥२३॥और हे देवो जे तुमने मेरी स्तुति करीहै और ताके पहिले सुमेधा मार्कण्डेय इत्यादि ब्रह्मर्षियोंने जे मेरी स्तुति करीहै और मधु और कैटभ इन दैत्योंके भयते ब्रह्माने जे मेरी स्तुति करी है वे स्तुति मनुष्यों करके पढीहुई मनुष्य जे हैं तिनके अर्थ शुभगति जो है ताहि देगी॥२४॥ अरण्यके विषे जो वर्तमान और तिसीप्रकार म-

नुष्योंकरिकै शून्य मार्गके विषे वर्तमान और तिसीप्रकार दावाग्निकरिकै चौतरफ रुकाहुवा और तिसीप्रकार चौरों करिके रोकाहुवा और तिसी प्रकार उद्यानमें शत्रुवों करिकै ग्रहण कियाहुवा वनमें मारनेको सिंह भगेरो करिकै अनुयातहुवा और तिसीप्रकार हाथियों करिकै मारनेंको पीछे दौडा गया हुवा और क्रोधयुक्त राजाने यह मारने योग्यहै इसप्रकार आज्ञा दिया हुवाभीऔर तिसीप्रकार कैदीखानामें प्राप्तहुवा और तिसीप्रकार समुद्रके विषे नौकामें स्थित पवन करिकै व्याकुल हुवा और बडे भयंकर संग्रामके विषेशस्त्रोंके पडतेसंतेभी वर्त्तमानहुवा और विसीप्रकार सम्पूर्ण वेदना जे हैं तिनके विषे तिस दुःखका अनुभवोंके विषे वर्त्तमान जो मनुष्य सो मेरा यह माहात्म्य जो है ताहि स्मरण करताहुवा संकटते छूटजाय २५। २६।२७।२८॥

ममप्रभावात्सिंहाद्यादस्यवोवैरिणस्तथा॥ दूरादेवपलायंते स्मरतश्चरितं मम॥२९॥ ऋषिरुवाच॥ इत्युक्त्वासाभगवतीचंडि काचंडविक्रमा॥पश्यतामेवदेवानां तत्रैवांतरधीयत॥३०॥

टीका—और मेरे प्रभावते सिंह व्याघ्रादिक और चर और तिसीप्रकार शत्रु ये सब मेरा चरित्र स्मरण कर्ताहुवा जो पुरुष है ताकेसकासते डरपके भाग जातेहैं॥२९॥ तब ऋषि बोले हे सुरथराजन् प्रचंड है पराक्रम जाको ऐसी चंडिका देवतावोंके प्रति इस प्रकार कहकर देवतावोंके देखतेहुवेंही नहीं अंतर्धान होतीभई॥३०॥

तेपिदेव्यानिरातंकाःस्वाधिकारान्यथापुरा॥यज्ञभागभुजःसर्वेचक्रुर्विनिहतारयः॥३१॥ दैत्याश्चदेव्यानिहते शुंभेदवरिपौयुधि॥जगद्विध्वंसंकेतस्मिन्महोग्रेतुलविक्रमे॥ निशुंभ चमहावीर्येशेषाः पातालमाययुः॥३२॥ एवं भगवतीदेवीसा नित्यापिपुनःपुनः॥ संभूय कुरुते भूपजगतः परिपालनम्॥३३॥ तयैतन्मोद्यतेविश्वं सैवविश्वं प्रसूयते॥ सायाचिताचविज्ञानं तुष्टाऋद्धिं प्रयच्छति॥३४॥ व्याप्तं तयैतत्सकलंब्रह्मांडं मनुजे-

श्वर॥ महाकाल्यामहाकालेमहामारीस्वरूपया॥३५॥

टीका—फिर ताके अनंतर देवी करिके मारेगयेहैं शत्रु जिनोंके ऐसे वे देवभी जैसै पहिले निर्भयथे तिसीप्रकार निर्भयहुवे यज्ञोंके भाग भोगतेहुये अपने जे अधिकार अर्थात् व्यापार तिन्हे कर्त्तेभये॥३१॥ फिर हे राजन् देवीने जगत्का विध्वंस करनेंवाला देवतावोंके प्रबलशत्रु शुंभको युद्धके विषे मारेसंते और निशुंभको मारेसंते फिर शेषदैत्य भयभीत हो पातालको भागजाते भये॥३२॥हेराजन् भगवती नित्यभीहै परंतु इसप्रकार वारंवार अवतार लेकर जगत्का परिपालन कर्तीहै॥३३॥ और तिसी करिकै यह जगत् रचाजाताहै और तिसी करिकै मोहाजाता हैसो भगवती भक्तोंकरिकै प्रार्थितहुई भक्तोंके प्रति ज्ञान देतीहै और प्रसन्नहुई संपत्ति देतीहै॥३४॥ फिर हेराजन् महामारीस्वरूप जो महाकाली है ता करिकै प्रलयकालके विषे यह संपूर्ण ब्रह्मांड व्याप्त होताहै॥३५॥

सैवकालेमहामारी सैवसृष्टिर्भवत्यजा॥ स्थितिं करोति भूतानां सैवकालेसनातनी॥३६॥ भवकालेनृणां सैवलक्ष्मीर्वृद्धिप्रदागृहे॥सैवाभावे तथा लक्ष्मीर्विनाशायोपजायते॥३७॥ स्तुतासंपूजितापुष्पैर्धूपगंधादिभिस्तथा॥ददाति वित्तं पुत्रांश्च मतिं धर्मेगतिं शुभाम्॥३८॥ इति मार्कंडेय पुराणे सावर्णिके मन्वंतरेदेव्याश्चरितमाहात्म्यं भगवतीवाक्यं-नामद्वादशोध्यायः॥१२॥

टीका—और वह नित्य भगवती प्रलयकालके विषे महामारी कहीजातीहै और सृष्टिकालमें सर्गशक्ति कही जातीहै और वही जगत्का पालन कर्तीहै या पालनशक्ति कहीजातीहै॥३६॥और वही मनुष्यों के घरोमें संपत्तिकालके विषे लक्ष्मीके वृद्धिको देनेवालीहै फिर वही आपत्कालके विषे लक्ष्मीका नाशके अर्थ अलक्ष्मी होजातीहै॥३७॥ और हेराजन् वह भगवती मनुष्यों करिकै स्तुति करीहुई और तिसीप्रकार पुष्प गंध धूप इत्यादिकों करिकै पूजितहुई तिन भक्त मनुष्योंके अर्थ धन और पुत्र और धर्म

के विषेश्रेष्ठ बुद्धि और शुभगति ये सर्ववस्तु देती है॥३८॥ इति श्रीमाकंडेय पुराणे सावर्णिकेमन्वंतरे देवीमाहात्म्ये भाषाटीकायां द्वादशोध्यायः॥१२॥

ऋषिरुवाच॥ एतत्ते कथितं भूपदेवीमाहात्म्यमुत्तमम्॥ एवं प्रभावासादेवीययेदंधार्यते जगत्॥ विद्यातथैवक्रियते भगवद्विष्णुमायया॥१॥ तयात्वमेषवैश्यश्चतथैवान्येविवेकिनः॥ मोह्यं ते मोहिताश्चैवमोहमेष्यंतिचापरे॥२॥ तामुपैहि महाराजशरणं परमेश्वरीम्॥ आराधितासैवनृणां भोगस्वर्गापवर्गदा॥५॥ मार्कंडेय उवाच॥ इति तस्य वचः श्रुत्वा सुरथः सनराधिपः॥ प्रणिपत्यमहाभागंतमृषिं संशितव्रतम्॥४॥ निर्विण्णोतिममत्वेनराज्याप-हरणेन च॥ जगामसद्यस्तपसे सचवैश्योमहामुने॥५॥

टीका—फिर ऋषि बोलतेभये हेसुरथराजन् तुह्मारे अर्थ सर्ववस्तुका साधन देवीका श्रेष्ठ माहात्म्य कहा सो देवी ऐसी है के जा करिकै यथायोग्य कालके विषे यह जगत् रचाजाताहै और पालन कियाजाताहै और संहार कियाजाताहै॥१॥और तिस प्रकार भगवद्विष्णुकी माया चंडिका करिकेही ज्ञान उत्पादन कियाजाताहै और ताकरिकै तुम और यह वैश्य और तिसी प्रकार अन्य जे विवेकहैं ते सब मोहेजातेहैं और मोहितहैं और मोहकों प्राप्त होंगें॥२॥ हेराजन् ऐसी भगवतीकी तुम शरण प्राप्तहो वही भगवती मनुष्यों करकैआराधन करीहुई मनुष्योंको भोग और स्वर्ग और मोक्ष देनेवालीहै॥३॥तब मार्कण्डेयऋषि बोलतेभये कि हे जैमिने इस प्रकार सुमेधाऋषिका वचन सुनकर सुरथ राजा संपादन कियाहै व्रत जाने ऐसा महाभाग सुमेधाऋषि जोहै ताहि प्रणाम करिकै पुत्र मित्र कलत्रादिनमें अति मोह करके और शत्रुओं करिके राज्यके हरनेसे दुःखितहुवा तपके अर्थ वनको जातागया और तिसीप्रकार वह वैश्यभी जाताभया॥४॥५॥

संदर्शनार्थमंवायानदीपुलिनमास्थितः॥ सचवैश्यस्तपस्ते

पेदेवीसूक्तं परंजपन्॥६॥ तौतस्मिन्पुलिनेदेव्याः कृत्वामूर्तिमीमयीम्॥ अर्हणां चक्रतुस्तस्याःपुष्पधूपाग्नितर्पणैः॥७॥ निराहारौयताहारौ तन्मनस्कौ समाहितौ॥ ददतुस्तौ वलिं चैवनिजगात्रासृगुक्षितम्॥८॥ एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनोः॥ परितुष्टा-जगद्धात्रीप्रत्यक्षं प्राहचंडिका॥९॥ देव्युवाच॥ यत्प्रार्थ्यते त्वयाभूपत्वयाचकुलनंदन॥ मत्तस्तत्प्राप्यतां सर्वं परितुष्टाददामितत्॥१०॥

टीका—फिर वहां जाके देवीको प्रत्यक्ष करनेंके वास्ते नदीके तटपर सुरथराजा और वैश्य देवीसूक्त जपता हुवा, तप कर्तेभये॥६॥ फिर वे तिस तटके विषे भगवतीकी मृन्मयी मूर्ति बनाके पुष्प धूप होम तर्पण इन करिकै तिसकी पूजा कर्तेभये॥७॥ फिर हविष्य भोजन करनेवाले और निवृत्त किया है विषयोंते मन जिनोंने और ताके विषेही ध्यान करनेंको है मन जिनोंका और सावधान ऐसे जे सुरथराना और वैश्य वे भगवतीके अर्थ अपने शरीरके मांसकी बलि देतेभये॥८॥ इसप्रकार भगवतीके विषे मन लगाये तीन वर्षोंकरिके भगवतीका सम्यक् प्रकार आराधनं कर्ते जे सुरथराजा और समाधिनामा वैश्य तिनके तप करिकै प्रसन्न हुई जगतोंका धारण करनेंवाली चंडिका प्रत्यक्ष होकर बोलतीभई॥९॥ देवी बोलतीभई कि हे सुरथराजन्और हे समाधि वैश्य जो तुम याचना कर्तेहो सो संपूर्ण वस्तु मेरेते प्राप्तहो मैं प्रसन्नहुई सब वस्तु दुंगी॥१०॥

मार्कंडेय उवाच॥ ततो वव्रेनृपोराज्यमविभ्रंश्यन्यजन्मनि॥ अत्रैवचनिजं राज्यं हत शत्रुबलं बलात्॥११॥ सोपिवैश्यस्त तोज्ञानं वव्रेनिर्विण्णमानसः॥ ममेत्यहमितिप्राज्ञः संगविच्युति-कारकम्॥१२॥ देव्युवाच ॥ स्वल्पैरहोभिर्नृपतेस्वंराज्यंप्राप्स्यते भवान्॥ हत्वारिपून-स्स्वलितं तव तत्र भविष्यति॥॥१३॥ मृतश्चभूयः संप्राप्यजन्म देवाद्विवस्वतः॥ साव

र्णिकोर्नाममनुर्भवान्भुवि भविष्यति॥१४॥ वैश्यवर्यत्त्वयायश्चवरोस्मत्तोभिवांच्छितः॥ तं प्रयच्छामि संसिद्ध्यैतवज्ञानं भविष्यति॥१५॥

टीका—तब मार्कण्डेय ऋषि बोले हे जैमिने ताके अनंतर सुरथराजा अगले जन्मके विषे भगवतीके सकाशते अचल राज्य मांगतोभयो और फिर इसी अपनें नगरके विषे नष्ट हुवाहै शत्रुबल जाके विषे ऐसो अपनो राज्य मांगतो भयो॥११॥ ताके अनंतर फिर वह बुद्धिमान् वैश्यभीसंसारके दुःखों करिकै उद्विग्नचित्तहुवा यह धनादि मेरा है और इनका मैं स्वामी हूँ इसप्रकारके अध्यास करिकै उत्पन्न जो संग है ताको नष्ट करनेंवालो ऐसो ज्ञान भगवतीके सकाशते मांगतोभयो॥१२॥ फिर देवी बोलती गई कि हे सुरथ राजन् थोडेसे दिनो करिके शत्रुको मार तुम अपनें राज्यको प्राप्त होंगे फिर तहांतुह्मारा अचल राज्य होगा॥१३॥ और मरता ही फिर सूर्यके सकाशते सवर्णाके विषे जन्म लेकर पृथ्वीके विषे तू सावर्णिनामा मनु होगा॥१४॥ और हे वैश्ववर्य तुमनें जो मेरेसे वरदान मांगा तांहि परमरूपकी प्राप्तिके अर्थ देतीहूं तेरेको ज्ञान होगा॥१५॥

मार्कंडेय उवाच॥ इति दत्वातयोर्देवी यथाभिलषितंवरम्॥ बभूवांतर्हि-तासद्योभक्त्याताभ्यामभिष्टता॥१६॥ एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथःक्षत्रियर्षभः॥ सूर्याज्जन्म-समासाद्य सावर्णिर्भवितामनुः॥१७॥ इति श्रीमार्कंडेयपुराणे सावर्णिकेमन्वंतरेदेवी माहात्म्ये सुरथवैश्ययोर्वरप्रदानं नामत्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥

टीका—तब मार्कंडेयऋपि बोलतेगये कि हे जैमिने तिनोकरिके भक्तिते स्तुति किईहुई देवी इसप्रकार सुरथराजाको और समाधिवैश्यको जैसा वांछि तथा वैसा वर देकर उसी बखत अंतर्द्धन होतीभई॥१६॥ इसप्रकार क्षत्रियोंमें श्रेष्ठ सुरथराजा भगवतीके सकाशते वरको प्राप्तहोकर ताके

अनंतर सूर्यके सकाशते सवर्णामें जन्मकों प्राप्त होकर सावर्णिनामा मनु होगा॥१७॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वंतरे देवीमाहात्म्ये भाषाटीकायां त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥

राठदेशांतर्गतलघुजवणायचाख्यग्रामनिवासिना श्रीमत्पण्डितबदरीप्रसादात्मजेन पण्डित-मग्नीरामशर्म्मणामुंबापुर्य्याम् खशरखगक्ष्मामितेवत्सरेसप्तशत्या भाषाटीकानिर्मिता॥

इदं पुस्तकं श्रीकृष्णदासात्मजखेमराजेन मुंबय्यां स्वकीये
श्रीवेङ्कटेश्वर” मुद्रणालये मुद्रयित्वा प्रकाशितम्।
शके १८१५ संवत् १९५०

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पुस्तक मिलनेका ठिकाना—

खेमराज श्रीकृष्णदास

“श्रीवेङ्कटेश्वर” छापाखाना—मुम्बई.

श्रीः॥

वाल्मीकीय रामायण.

श्रीवाल्मीकीय रामायण २४००ग्रंथका सरल सुबोध ब्रजभाषाटीका बनवाकर छापके तैयारहै जिसके बीचमें मूल और नीचेऊपर भाषाटीकाहै. और एक वाल्मीकीय रामायणका भाषावार्तिक छपाहै. जिसमें मूलके अनुसार यथावत्भाषा करके मूल श्लोकोंके अंकभी लगादिये गयेहैं. —रामायणकी कथापढनेवालोंको पुराण वांचनेमें बहुत उपयोगी होगा. –जिन महाशयोंको लेना होवे २५ रु० भेजदेनेसे भाषाटीकासहित इस पुस्तकको अपने स्थानपर पासकेंगे और भाषावार्तिकको १० रु० भेजनेसें पासकेंगे महाशयहो! इस अलभ्यलाभको शीघ्रताकरिये. इसके सबकाण्ड (बाल, अयोध्या, आरण्य, किष्किंधा, सुन्दर, युद्ध और उत्तर ) ए सातहीकांड और रामायणमाहात्म्य भी भाषाटीका सहित छपेहुए तैयार हैं; जिनकी इच्छा हो मँगालीजिये.

श्रीमद्गोस्वामितुलसीदासकृत (सटीक) रामायण।

सम्पूर्ण दोहा, चौपाई, सोरठा, और छंदों व क्षेपकोंका अर्थ अक्षरार्थ सुमनोहर ललित और सुगम शब्दोंमें श्रुति स्मृति पुराणोंके दृष्टान्त देकर किया गयाहैमाहात्म्य तुलसीदासजोका जीवनचरित, रामवनवास तिथिपत्र, तथा अष्टम रामाश्वमेघ लवकुश कांडभी सम्मिलित किया गयाहै इसके सिवाय कठिन २ शब्दोंका कोषभी लगायागयाहै और फोटूग्राफानुसार उत्तम २ चित्रभी डाले गये हैं देखते ही चित्त प्रसन्न होजायगा सोनहरी चित्रित जिल्द बंधी कीमत ८ रु० है.

श्रीमद्भागवत संस्कृत तथा भाषाटीकासहित।

श्रीवेदव्यासप्रणीत श्रीमद्भागवत सबसे कठिनहै और इसका प्रचार भरतखण्डमें सबसे अधिक है यह ग्रंथ क्लिष्टताके कारण सर्व

साधारण लोकोंको टीका होनेपरभी अच्छी रीतिसे समझना कठिन था कोई २ स्थलमें बडे २ पण्डितोंकीभी बुद्धि चक्करमें उडजाती थी इसलिये विना संस्कृत पढे सर्व साधारण पंडित व स्वल्प विद्या जाननेवाले भगवत्भक्तोंके लाभार्थ संस्कृतमूल व अतिप्रिय ब्रजभाषा टीकासहित जोकि हिन्दी भाषाओंमें शिरोमणि और मान नीय है उसी भाषामें टीका बनवाकर प्रथमावृत्ती छपायाथा ओ बहुतही जल्दी हाथोंहाथ विकगई फिर द्वितीयावृत्ति भी विकगई अबइस्की तृतीयावृत्ती द्वितीयावृत्तीकी अपेक्षा अच्छी तरह शुद्ध करवाके मोटे अक्षरमें छपायाहै और भक्तिज्ञानमार्गी ५०० अतीव मनोहर दृष्टांत दिये हैं कागज विलायती वढिया लगायाहै माहात्म्य षष्ठान्यायी भाषाटीका सहित इसके साथ ही है प्रथमावृत्तीमें मूल्य १५ रुपया था इस आवृत्तीमें केवल १२ वाराही रुपया रक्खाहै.

मनुस्मृति संस्कृत तथा भाषाटीका सहित।

यह अपूर्व्व धर्म्मशास्त्रका ग्रंथ हमारे यहाँ बहुतही सुंदर रीतिसे छप्पाहै भाषा अत्यंत सरल और सुललित कीगईहै, अन्वयार्थभी किया गयाहै तिसपर कीमत सर्व साधारणके सुगमार्थ केवल ३ रु० रक्खीहै.

शाक्तप्रमोद।

यह ग्रंथ में दशों महाविद्याओंका पंचांग और पांचों पंचायन देवताओंका पंचाग सविस्तर है, यह अलभ्य और परमगोप्य ग्रंथ है. शाक्तलोगोंनें अवश्य संग्रह करनें योग्य है. की० ५ पांच रुपये.

पुस्तकं मिलनेका ठिकाना—

खेमराज श्रीकृष्णदास

“श्रीवेंकटेश्वर” छापाखाना–बम्बई.

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