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मार्कण्डेयजी कहते हैं कि हे कौष्टुकि! सावर्णि नाम जो सूर्य के पुत्र अष्टम मनु होंगे उनकी उत्पत्तिकी कथा विस्तारपूर्वक मैं कहताहूं सुनो १ अर्थात् जिसतरह महामाया के प्रभाव से मन्वन्तर के स्वामी वह सावर्णि नाम से विख्यात हुये उसका हाल सुनो २ कि पहिले स्वन्तर में स्वारोचिषमनुकें पुंत्र जो राजा चैत्र के वंश में सुरथ नाम पृथ्वीमण्डल के राजा हुये ३ वे
मार्कण्डेय उवाच॥ सावर्णिस्सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः॥ निशामय तदुत्पत्तिं विस्तराद्गदतो मम १ महामायानुभावेन यथा मन्वन्तराधिपः॥ स बभूव महाभागस्सावर्णिस्तनयो रवेः २ स्वारोचिषेऽन्तरे पूर्वञ्चैत्रवंशसमुद्भवः॥ सुरथो नाम राजाऽभूत्समस्ते क्षितिमण्डले ३ तस्य पालयतस्सम्यक् प्रजाः पुत्रानिवौरसांन्॥ बभूवुः शत्रवो भूपाः कोलाविध्वंसिनस्तथा ४ तस्य तैरभवद्युद्धमतिप्रबलदण्डिनः॥ न्यूनैरपि
राजा अपनी प्रजाको पुत्रकी तरह पालन करते थे उसी समय कोलाविध्वंसी राजा लोग उनके शत्रु होकर उनके राज्य पर चढ़ाआये ४ तब महाराज सुरथ और उन कोलाविध्वंसी राजाओं में महायुद्ध हुआ यद्यपि राजा सुरथ सब तरह से बली थे परन्तु प्रारब्ध के प्रतिकूल होने से इनके शत्रु कोलाविध्वंसी लोगोंने इनकी राज्य छीनकर अपने वशमें करलिया कोला एक दूसरे स्थान का नामहै जो दूसरी राजधानी सुरथ की थी उसको कई एक आदमियों ने लेकर बिगाड़ दिया और अपने
प्रबन्ध में करलिया इस सबब से उन लोगों का नाम कोलाविध्वंसी हुआ ५ तब सुरथ पराजय होकर वहां से चलकर अपनी राजधानी में आकर अपने देशही भर का राज्य करने लगे परन्तु वहां भी उनलोगों ने चैन न लेने दिया किन्तु प्रबल होकर महाराज सुरथको घेर लिया ६ तब इनके मन्त्री और अफ़्सरों ने इनको कमजोर और बेक़ाबू समझकर उन दुरात्मालोगों ने इनका खज़ाना
सतैर्युद्धे कोलाविध्वंसिभिर्जितः ५ ततः स्वपुरमायातो निजदेशाधिपोऽभवत्॥ आक्रान्तः स महाभागस्तैस्तदा प्रबलारिभिः ६ अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य दुरात्मभिः॥ कोशो बलञ्चापहृतन्तत्रापि स्वपुरे ततः ७ ततो मृगयाव्याजेन हृतस्वाम्यस्स भूपतिः॥ एकाकी हयमारुह्य जगाम गहनं वनम् ८ स तत्राश्रममद्राक्षीद् द्विजवर्यस्य मेधसः॥ प्रशान्तश्वापदाकीर्णं मुनिशिष्योपशोभितम् ९ तस्थौ कञ्चित्स कालञ्च
और फ़ौज सब अपने अख़्तियार में कर लिया ७ जब इनके मन्त्री और नौकरों ने इनका खज़ाना लेकर हुक्म भी इनका उठादिया तब महाराज सुरथ लज्जित होकर शिकार के बहाने से घोड़े पर सवार होकर अकेले दुर्गम वन में चलेगये ८ उस रमणीक वन में जो पशु और पक्षी और मुनि और उनके शिष्यों से शोभायमान था मेधा नाम द्विजोत्तम के आश्रम को देखा ९ और उस आश्रम पर वह राजा सुरथ जाकर टहलने फिरने लगा मुनि ने राजा को देखकर उनकी वड़ी
खातिरदारी की मुनि की ख़ातिरदारी करने से राजा कुछ दिन वहां ठहरगया १० एक दिन राजा अपने नगर और प्रजा को ममता की राह से याद करके शोचनेलगा कि मैं तो अपने नगर को जो मेरे पुरखों का बसाया हुआ था छोड़कर चला आया अव नहीं मालूम कि मेरे नौकर चाकर जो अधर्मी हैं मेरी प्रजा का पालन न्यायपूर्वक करते हैं या नहीं ११ और यह भी नहीं जाना जाता कि
मुनिना तेन सत्कृतः॥ इतश्चेतश्च विचरंस्तस्मिन्मुनिवराश्रमे १० सोचिन्तयत्तदा तत्र ममत्वाकृष्टचेतनः॥ मत्पूर्वैः पालितम्पूर्वम्मया हीनम्पुरं हि तत्॥ मद्भृत्यैस्तैर सद्वृत्तैर्धर्मतः पाल्यते न वा ११ न जाने स प्रधानो मे शूरहस्ती सदा मदः॥ मम वैरि वशं यातः कान्भोगानुपलप्स्यते १२ ये ममानुगता नित्यं प्रसादधनभोजनैः॥ अनुवृत्तिं ध्रुवन्तेऽद्य कुर्वन्त्यन्यमहीभृताम् १३ असम्यग्व्ययशीलैस्तैः कुर्वद्भिः सततं
मेरे मत्तहाथी को महावत और दारोगा दानापानी देते हैं या नहीं क्योंकि अब वह सब मेरे शत्रु हैं और शत्रु के वश में हैं यदि भूंखों मरते हों तो कुछ आश्चर्य नहीं १२ और जो लोग रोज़ रोज़ मेरे पास आकर मेरी प्रसन्नता चाहते थे और धन भोजनादि मुझसे पाते थे वे लोग अब अपनी जीविका के वास्ते दूसरे राजाओं की सेवा करते होंगे, १३ और जिस खज़ाने को मैंने वड़े परिश्रम से जमा किया था उस खज़ाने को मेरे नौकर चाकर लोगों ने निरर्थक और अनावश्यक कामों में
खर्च करके सब बरबाद करदिया होगा १४ इन्हीं सब बातोंको राजा शोच रहाथा कि इतने में उसी मुनिके आश्रम के पास एक बनियां को देखा १५ और उससे पूछा कि तुम कौनहो और किस वास्ते आयेहो और क्यों उदासहो १६ यह बात राजा की सुनकर वह वैश्य बड़ी अधीनता से राजा
व्ययम्॥ सञ्चितः सोऽतिदुःखेन क्षयं कोशो गमिष्यति १४ एतच्चान्यच्च सततञ्चिन्तयामास पार्थिवः॥ तत्र विप्राश्रमाभ्याशे वैश्यमेकन्ददर्श सः १५ स पृष्टस्तेन कस्त्वं भो हेतुश्चागमनेऽत्र कः॥ सशोक इव कस्मात्त्वं दुर्मना इव लक्ष्यसे १६ इत्याकर्ण्य वचस्तस्य भूपतेः प्रणयोदितम्॥ प्रत्युवाच स तं वैश्यः प्रश्रयावनतो नृपम् १७ वैश्य उवाच॥ समाधिर्नाम वैश्योऽहमुत्पन्नो धनिनां कुले॥ पुत्रदारैर्निरस्तश्च धनलोभादसाधुभिः १८ विहीनश्च धनैर्द्दारैः पुत्रैरादाय मे धनम्॥ वनमभ्यागतो दुःखी निरस्तश्चाप्तबन्धुभिः १९सोहं न वेद्मि पुत्राणां कुशलाकुशलात्मिकाम्॥
को प्रणाम करके वोला १७ कि मेरा नाम समाधि है जाति का वैश्य हूं धनी का पुत्रहूं और मेरे स्त्रीपुत्रने मेरे धन पर लोभ करके मुझको घर से निकाल दिया १८ जो कि मेरी स्त्री और पुत्रने मुझे निर्धन करके निकाल दिया है इस सवव से मैं दुःखी होकर इस जङ्गल में चलाआया भाई बन्धुने भी न्याय करके मेरे स्त्री और पुत्र को नहीं समझाया और उन सबने भी मुझे त्याग दिया १६
अब मैं तो इस वन में हूं और मुझको अपने स्त्री पुत्र भाई बन्धु के कुशल अकुशल की कुछ ख़बर नहीं है २० कि वे लोग अपने घर में कुशल क्षेम से हैं या नहीं और यह भी नहीं जानता कि मेरे लड़कों का कारवार अच्छी तरह चलता है या बिगड़गया और वे लोग अच्छा काम करते हैं या नहीं २१ यह बात समाधि से सुनकर राजा सुरथ बोला कि जब तेरी स्त्री और पुत्रादि लालची
प्रवृत्तिं स्वजनानाञ्च दाराणां चात्र संस्थितः २० किन्नु तेषां गृहे क्षेममक्षेमं किन्नु साम्प्रतम्॥ कथन्ते किन्नु सद्वृता दुर्वृत्ताः किन्नु मे सुताः २१ राजोवाच॥ यैर्निरस्तो भवाल्लुँब्धैः पुत्रदारादिभिर्धनैः॥ तेषु किं भवतस्स्नेहमनुबध्नाति मानसम् २२ वैश्य उवाच॥ एवमेतद्यथा प्राह भवानस्मद्गतं वचः॥ किङ्करोमि न बध्नाति मम निष्ठुरताम्मनः २३ यैः सन्त्यज्य पितृस्नेहं धनलुब्धैर्निराकृतः॥ पत्तिस्वजनहार्द्दञ्च हार्द्दिते
दुष्टोंने तेरा सब धन लेकर तुझे घरसे निकाल दिया तब फिर उन लोगों की ममता अपने जी में क्यों रखता है २२ वैश्य ने कहा कि हे महाराज! आपका कहना सब सत्य है परन्तु मैं क्या करूं मेरा जी मेरे वश में नहीं है इसी सबब से उन लोगोंकी ममता मुझसे छोड़ी नहीं जाती है २३ यद्यपि मेरी स्त्री और पुत्र और भाई वन्धुने धनके लालचसे मेरी ममता छोड़कर मुझे घरसे निकाल
दिया पर तौ भी मेरे जी में उन लोगों की ममता भरी हुई है २४ हे महामते! यह कैसी बात है कि मैं जानकर अनजान होताहूं कि जिन भाई बन्धुने शत्रुता करके मुझको घर से निकाल दिया है उनकी ममता से मेरा जी अलग नहीं होता है २५ और उन लोगों के देखे विना शोच से लम्बीश्वासें निकलती हैं और जी में उदासी छाई रहती है हे महाराज! मैं क्या करूं कि जिसमें मेरा
ष्वेव मे मनः २४ किमेतन्नाभिजानामि जानन्नपि महामते॥ यत्प्रेमप्रवणञ्चित्तं विगुणेष्वपि बन्धुषु २५ तेषां कृते मे निःश्वासो दौर्म्मनस्यञ्च जायते॥ करोमि किं यत्नमनस्तेष्वप्रीतिषु निष्ठुरम् २६ मार्कण्डेय उवाच॥ ततस्तौ सहितौ विप्र तम्मुनिं समुपस्थितौ॥ समाधिर्न्नाम वैश्योऽसौ स च पार्थिवसत्तमः २७ कृत्वा तु तौ यथान्यायं यथार्हन्तेन संविदम्॥ उपविष्टौ कथाः काश्चिच्चक्रतुर्वैश्यपार्थिवौ २८ राजोवाच॥
चित्त इन लोगोंकी प्रीति छोड़कर निष्ठुर होजाय २६ मार्कण्डेयजी कहते हैं कि हे द्विजोत्तम! बाद इसके वह समाधि वैश्य और राजा सुरथ मेधाऋषि के पास गये २७ और वहां जाकर मुनि को न्यायपूर्वक प्रणाम करके स्तुति किया मुनिने भी दोनों मनुष्यों को आशीर्वाद देकर वैठने की आज्ञा दी तब राजा और वैश्य ने वहां बैठकर कुछ कथा वार्त्ता कहना आरम्भ किया २८ यहां
तक कि महाराज सुरथ ने ऋषि से कहा कि हे भगवन्! आपसे एक बात सन्देह की पूछताहूं कहिये मुनि ने कहा कि जो चाहो पूछो राजा ने कहा कि मेरा चित्त मेरे वश में नहीं है इसवास्ते मुझको मनसे दुःख होता है २९और वह यह है कि मुझको अपनी राज्य और नौकर चाकर हाथी घोड़ा असबाब खज़ाना आदि में बहुत ममता रहती है यद्यपि मैं जानताहूं कि अब मैं इन
भगवंस्त्वामहं प्रष्टुमिच्छाम्येकं वदस्व तत्॥ दुःखाय यन्मे मनसः स्वचित्तायत्ततां विना २९ममत्वं मम राज्यस्य राज्याङ्गेष्वखिलेष्वपि॥ जानतोऽपि यथाज्ञस्य किमेतन्मुनिसत्तम ३० अयञ्च निष्कृतः पुत्रैर्द्दारैर्भृत्यैस्तथोज्झितः॥ स्वजनेन च सन्त्यक्तस्तेषु हार्द्दी तथाप्यति ३१ एवमेष तथाहं च द्वावप्यत्यन्तदुःखितौ॥ दृष्टदोषेऽपि
सबसे अलग होगयाहूं अब इन सबमें प्रीति रखने से दुःख होगा परन्तु तौ भी अज्ञानी के समान इन सब में मेरा जी फँसा रहता है ३० और यह जो मेरे साथ वैश्यहै इसको भी इसके बेटे और स्त्री और नौकर चाकर भाई बन्धु ने इसका धन लेकर घर से निकाल दिया परन्तु इसका चित्त उन्होंकी प्रीति से अलग नहीं होता ३१ मैं और वैश्य दोनों मनुष्य इस बात में वहुत दुःखी होरहे हैं कि यद्यपि उन लोगों की खुटाई को जानते हैं तौभी उन सबकी ममता हम लोगों के जी से नहीं
जाती है ३२ हे महाभाग! आप बतलाइये कि किस सबब से हम लोगों का जी अपने वश में नहीं है जो जान बूझकर अन्धों की तरह उन सबकी प्रीति में अज्ञान होरहे हैं और यह अज्ञानता तो उनको होना चाहिये जिनको ज्ञान नहीं है ३३ यह प्रश्न महाराज सुरथ का सुनकर मेधाऋषि बोले कि हे महाराज! इस संसार के विषय समझने में सब किसी को ज्ञान है और यह विषय भी
विषये ममत्वाकृष्टमानसौ ३२ तत्केनैतन्महाभाग यन्मोहो ज्ञानिनोरपि॥ ममास्य च भवत्येषा विवेकान्धस्यमूढता ३३ ऋषिरुवाच॥ ज्ञानमस्ति समस्तस्य जन्तोर्विषयगोचरे॥ विषयश्च महाभाग याति चैवं पृथक् पृथक् ३४ दिवान्धाः प्राणिनः केचिद्रात्रावन्धास्तथापरे॥ केचिद्दिवा तथा रात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः ३५ ज्ञानिनो मनुजास्सत्यं किन्नु ते नहि केवलम्॥ यतो हि ज्ञानिनस्सर्वे पशुपक्षिमृगादयः ३६ ज्ञानञ्च तन्मनुष्याणां यत्तेषां मृगपक्षिणाम्॥ मनुष्याणाञ्च यत्तेषां तुंल्यमन्यत्तथो
सब किसीका अलग अलग है ३४ क्योंकि कितने जानवर दिन में अन्धे हैं और कितने रात्रि में अन्धे हैं और कितनों को दिनरात्रि वरावर सूझता है और कितनों को कुछ नहीं सूझता ३५ केवल मनुष्यही के ज्ञान नहीं है किन्तु पशु और पक्षी के भी ज्ञान होता है ३६ जो ज्ञान पशु पक्षी के है
वह ज्ञान मनुष्यके भी है इस सबबसे दोनों बराबर हैं ३७ देखो पक्षी सब भूॅंख से पीड़ित रहते हैं और जानतेहैं कि बच्चोंके स्वानेसे हमारी भूॅंख नहीं जायगी तौभी ममताके वश होकर अपना आहार बच्चों के मुखमें देदेतेहैं आप भूॅंखे रहजातेहैं ३८ हे महाराज ! मनुष्य लोग भी अपने उपकारकी आशापर अपने लड़कों को पालते हैं क्या तुम नहीं देखतेहो जो सब मनुष्योंको ज्ञानहै ३९ पर तोभी संसार
भयोः ३७ ज्ञानेऽपि सति पश्यैतान्पतङ्गाञ्छावचञ्चुषु॥ कणमोक्षादृतान्मोहात्पीड्यमानानपि क्षुधा ३८ मानुषा मनुजव्याघ्र साभिलाषाः सुतान्प्रति॥ लोभात्प्रत्युपकाराय नन्वेतान् किन्न पश्यसि ३९ तथापि ममतावर्ते मोहगर्ते निपातिताः॥ महामायाप्रभावेण संसारस्थितिकारिणः ४० तन्नात्र विस्मयः कार्यो योगनिद्रा जगत्पतेः॥ महामाया हरेश्चैषा तया संमोह्यते जगत् ४१ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा॥ बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ४२ तया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्च
के पालनेवाले परमेश्वरकी जो महामाया है उसके प्रभावसे मनुष्यलोग घिरकर मोहके कुयेंमें गिर पड़ते हैं अथवा गिरायेजाते हैं ४० महामायाके ऐसे प्रभाव में सन्देह न करना चाहिये क्योंकि यह योगनिद्रा महामाया जगत्पति श्रीविष्णु भगवान्की है जिनकी माया में जंगत् मोहितहै ४९ और यह महामाया भगवती देवी ज्ञानियों के चित्तको भी खींचकर मोहमें फँसा देती है ४२ और वही
भगवती इस चराचर जगत् को उत्पन्न करती है और वही भगवती प्रसन्न होकर और वरदान देकर मनुष्यों को मुक्तिभी देती है ४३ और वह भगवती परमविद्या का स्वरूप और मुक्ति का कारण और सनातनी है और वही भगवती संसार के बन्धन का कारण और सम्पूर्ण ईश्वरों की ईश्वरी है ४४ यह सुनकर राजा सुरथ बोला कि हे भगवन्! वह देवी कौन है? जिनको आप
राचरम्॥ सैषा प्रसन्ना वरदा नृणाम्भवति मुक्तये ४३ सा विद्या परमामुक्तेर्हेतुभूता सनातनी॥ संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी ४४॥ राजोवाच॥ भगवन्का हि सा देवी महामायेति याम्भवान्॥ ब्रवीति कथमुत्पन्ना सा कर्मास्याश्च किं द्विज ४५ यत्प्रभा वा च सा देवी यत्स्वरूपा यदुद्भवा॥ तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तो ब्रह्मविदांवर ४६॥ ऋषिरुवाच॥ नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिदं ततम्॥ तथापि तत्समुत्पत्तिर्बहुधा श्रूयताम्मम ४७ देवानाङ्कार्यसिद्ध्यर्थमाविर्भवति सा यदा॥ उत्पन्नेति तदा लोके
महामाया कहते हैं और किसतरह उनकी उत्पत्तिहै और क्या उनका चरित्रहै ४५ मैं उनका स्वरूप और स्वभाव आपसे सुना चाहताहूं विस्तारपूर्वक कह सुनाइये ४६ ऋषि बोले कि वह भगवती नित्या और जगन्मूर्ति है यह सम्पूर्ण जगत् उन्हीं का बनाया हुआ है और उनकी उत्पत्ति और चरित्र बहुत तरहके हैं संक्षेप में कहताहूं सुनो ४७ कि जब देवता लोग अपना कार्य सिद्ध होने के
वास्ते उनकी स्तुति करतेहैं तब वह उनलोगों का कार्य सिद्ध करने के वास्ते लोक में उत्पन्न होती हैं परन्तु तोभी वे नित्या कहलाती हैं ४८ कल्प के अन्त में जगत् एकार्णव होजानेपर जब विष्णु भगवान् शेषशय्या के ऊपर योगनिद्रा में प्राप्तहुये यानी सोगये ४९तव उनके कान के मैलसे दो असुर महाघोर मधु और कैटभ नाम उत्पन्न होकर ब्रह्मा के मारने के वास्ते मुस्तैद हुये ५० तब
सा नित्याप्यभिधीयते ४८ योगनिद्रां यदा विष्णुर्जगत्येकार्णवीकृते॥ आस्तीर्य शेषमभजत्कल्पान्ते भगवान्प्रभुः ४९ तदा द्वावसुरौ घोरौ विख्यातौ मधुकैटभौ॥ विष्णुकर्णमलोद्भूतौ हन्तुम्ब्रह्माणमुद्यतौ ५० स नाभिकमले विष्णोः स्थितो ब्रह्मा प्रजापतिः॥ दृष्ट्वा तावसुरौ चोग्रौ प्रसुप्तञ्च जनार्द्दनम् ५१ तुष्टाव योगनिद्रान्तामेकाग्रहदयस्थितः॥ विबोधनार्थाय हरेर्हरिनेत्रकृतालयाम् ५२ विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसं
ब्रह्माने जो विष्णु भगवान् के कमलनाभि में स्थित थे उन दोनों उग्र असुरों को देखा और जनार्द्दन विष्णु भगवान् को सोया हुआ देखकर ५१ उनके जागने के वास्ते विष्णु भगवान् के नेत्र में जो योगनिद्रा वास कियेहुये थीं उन्हीं की स्तुति जी लगाकर करनेलगे ५२ अर्थात् जो भगवती योगनिद्रा विश्वेश्वरी संसार की स्थिति और संहार करनेवाली और अतुलतेज भगवान् विष्णु
की शक्तिहैं ५३ उनकी स्तुति इस तरहसे ब्रह्माजी करनेलगे कि हे भगवती! स्वाहा और स्वधा और वषट्कारस्वरूपिणी आपही हैं और स्वरस्वरूपिणी और सुधा आपही हैं और नित्य अक्षरों में तीन तरह से मात्रास्वरूपिणी होकर आप विराजमान हैं ५४ और अर्धमात्रारूपिणी होकर आप स्थित रहती हैं और आप नित्या हैं जिनको विशेषपूर्वक कोई उच्चारण नहीं करसक्ता है वे आपही हैं
हारकारिणीम्॥ निद्राम्भगवतीं विष्णोरतुलान्तेजसः प्रभोः ५३॥ ब्रह्मोवाच॥ त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका॥ सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधामात्रात्मिका स्थिता ५४ अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः॥ त्वमेव सा त्वं सावित्री त्वं देवि जननी परा ५५ त्वयैव धार्यते सर्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्॥ त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा ५६ विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने॥ तथा संहृतिरूपान्तेजगतोऽस्य जगन्मये ५७ महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतिः॥
और सावित्री और हे देवि! सवकी परम जननी आपही हैं ५५ सब जगत् की धारण और सृष्टि और पालन करनेवाली और अन्त में सबका नाश करनेवाली भी आपही हैं ५६ और हे जगन्मये! आप संसांरकी सृष्टि में सृष्टिरूपा और पालन में स्थितिरूपा और फिर इसीतरह नाश करने में संहाररूपा हैं ५७ और महाविद्या और महामाया और महामेधा और महास्मृति और महामोहा
और भगव़ती और महादेवी और महासुरी आपही हैं ५८ फिर सब किसी की त्रिगुणमयी प्रकृति और दारुणा अर्थात् भयावनी कालरात्रि और महारात्रि और मोहरात्रि आपही हैं ५९ और श्री और ईश्वरी और हो अर्थात् लज्जा बीज और बुद्धि और बोध और लक्षणा औरं लज्जा यानी लाज और तुष्टि और पुष्टि और शान्ति और क्षान्तिभी आपही हैं ६० और स्वङ्गिनी और शूलिनी
महामोहा च भवती महादेवी महासुरी ५८ प्रकृतिस्त्वञ्च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी॥ कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा ५९त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा॥ लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च ६० खङ्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा॥ शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा ६१ सौम्या सौम्य तराशेषसौम्येभ्यस्त्वत्तिसुन्दरी॥ परापराणाम्परमा त्वमेव परमेश्वरी ६२ यच्च कि
और घोरा अर्थात् एक हाथ में मुण्ड धारण किये भयंकरी हो और गदिनी और चक्रिणी और शङ्खिनीऔर चापिनी और वारण और भुशुण्डी और परिघ ये सब आयुध महाकालीरूप धारण करके दशो भुजों में आप रखती हैं ६१ और आप सौम्या हैं और सौम्यतरा हैं और सब सौम्यों से अतीव सुन्दरी हैं और सबसे परे और परमा और परमपरमेश्वरी हैं इससे आप परमेश्वरी कहलाती हैं ६२ और हे अखिलात्मिके ! जहां पर जो कुछ सत् या असत् वस्तु है उनमें जो शक्ति
है वह आपही हैं तो फिर आपकी स्तुति कहांतक कीजाय ६३ और जिस महामायाशक्ति से विष्णु भगवान् जगत् की उत्पत्ति और पालन और नाश करते हैं वेभी इस समय निद्रा के वश हैं तव तुम्हारी स्तुति कौन करसक्ता है ६४ क्योंकि विष्णु और हम और महादेव आपही की आज्ञा से शरीर धारण करते हैं तो आपकी स्तुति करने की किसको सामर्थ्य है ६५ और हे देवि ! आपका
ञ्चित्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके॥ तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा ६३ यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत्॥ सोऽपि निद्रावशन्नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः ६४ विष्णुश्शरीरग्रहणमहमीशान एव च॥ कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत् ६५ सा त्वमित्थम्प्रभावैस्स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता॥मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभो ६६ प्रबोधञ्च जगत्स्वामी नीयतामच्युतोलघु ॥ बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ ६७॥ ऋषिरुवाच॥ एवं स्तुता तदा
इस तरह उदारप्रभाव जो रक्षासाधारण माहात्म्य है उसी माहात्म्य से आपकी स्तुति होती है हे महामाये ! आप इन दोनों दुराधर्ष मधु कैटभ असुरों को मोह में प्राप्त करदीजिये ६६ और आप जल्दी से जगत्स्वामी अच्युत भगवान् विष्णु को जगाकर इन महाअसुरों के मारने के वास्ते मुस्तैद कीजिये ६७ ऋषि कहते हैं कि हे महाराज, सुरथ ! इस तरह उस समय विष्णु भगवान्
के जगाने और मधु कैटभ असुर के मारने के वास्ते ब्रह्माजी ने जव तामसी महाकाली की स्तुति की ६८ तब वह महामाया विष्णुभगवान् के नेत्र और नासिका और बाहु और हृदय और छाती से निकलकर ब्रह्माजी को दर्शन देने के वास्ते बाहर खड़ी होगईं ६९ योगनिद्रा महामाया के वाहर निकलने से विष्णु भगवान् शेषशय्या से उठ बैठे और उस एकार्णव में उन दोनों असुरों को
देवी तामसी तत्र वेधसा॥ विष्णोः प्रबोधनार्थाय निहन्तुं मधुकैटभौ ६८ नेत्रास्यनासिकाबाहुहृदयेभ्यस्तथोरसः॥ निर्गम्य दर्शने तस्थौ ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ६९ उत्तस्थौ च जगन्नाथस्तया मुक्तो जनार्द्दनः॥ एकार्णवेऽहिशयनात्ततस्स ददृशे च तौ ७० मधुकैटभौ दुरात्मानावतिवीर्यपराक्रमौ॥ क्रोधरक्तेक्षणावत्तुं ब्रह्माणं जनितोद्यमौ ७१ समुत्थाय ततस्ताभ्यां युयुधे भगवान् हरिः॥ पञ्चवर्षसहस्राणि बाहुप्रहरणो विभुः ७२ तावप्यतिबलोन्मत्तौ महामायाविमोहितौ॥ उक्तवन्तौ वरोऽस्मत्तो त्रियता
देखा और उन दोनों ने भी इनको देखा ७० फिर वे दोनों असुर दुरात्मा महाबली पराक्रमी मधुकैटभ क्रोध से आंखें लाल किये हुये जब ब्रह्माजी को मारने पर मुस्तैद होगये ७१ तब भगवान्विष्णु उन दोनों असुरों के साथ बाहुयुद्ध करने लगे और वह वाहुयुद्ध पाँचहजार वर्षतक होता रहा ७२ तब वे मधु कैटभ महामाया की माया में मोहित होकर केशव भगवान् से बोले कि हम
दोनों तुम्हारे इस युद्ध से बहुत प्रसन्न हुये अब तुम हमसे वर मांगो जो मांगोगे हम देंगे ७३ विष्णु भगवान् ने कहा कि जो तुम दोनों प्रसन्न होकर मुझे वर देना चाहते हो तो मैं यही वरदान चाहताहूं कि तुम दोनों मेरे हाथ से मारेजाव ७४ मेधाऋषि कहते हैं कि हे राजा सुरथ! इस तरह मधु कैटभ विष्णु भगवान् के वाक्यफन्द में आकर और सव जगत् को जलमय देखकर विष्णु
मिति केशवम् ७३॥ भगवानुवाच॥ भवेतामद्य मे तुष्टौ मम वध्यावुभावपि॥ किमन्येन वरेणात्र एतावद्धि वृतम्मम ७४॥ ऋषिरुवाच॥ वञ्चिताभ्यामिति तदा सर्वमापोमयं जगत्॥ विलोक्य ताभ्यां गदितो भगवान्कमलेक्षणः॥ आवां जहि न यत्रोर्वी सलिलेन परिप्लुता ७५॥ ऋषिरुवाच॥ तथेत्युक्त्वा भगवता शङ्खचक्रगदाभृता॥ कृत्वा चक्रेण वैच्छिन्ने जघने शिरसी तयोः ७६ एवमेवा समुत्पन्ना ब्रह्मणा
भगवान् से वोले कि एवमस्तु पर जहां जल न हो वहां पर हमको मारो ७५ ऋषि कहते हैं कि इस तरह मधु कैटभ के कहने पर वह शङ्ख चक्र गदाधारी विष्णु भगवान् ने बहुत अच्छा कहकर अपनी जांघ को बिना पानी की जगह समझकर उसका माथा उसी जांधपर रखकर सुदर्शनचक्रसे काटडाला विष्णु भगवान् का शरीर पञ्चतत्त्व से नहीं बना है शुद्ध मायाकृत है ७६ इस तरह वह दश भुजावाली महाकाली उत्पन्न हुई हैं जिनकी स्तुति ब्रह्माजीने की है अव फिर वही त्रिगुण-
मयी महालक्ष्मीजी का अवतार हुई हैं सो कहताहूं सुनो ७७ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणेमधुकैटभवधो नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
मेधाऋषि कहते हैं कि हे सुरथ! पूर्वकाल में असुरों का स्वामी महिषासुर था और देवताओं के
संस्तुता स्वयम्॥ प्रभावमस्या देव्यास्तु भूयः शृणु वदामिते ७७ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये मधुकैटभवधो नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
ऋषिरुवाच॥ देवासुरमभूद्युद्धम्पूर्णमब्दशतम्पुरा॥ महिषेऽसुराणामधिपे देवानाञ्च पुरन्दरे १ तत्रासुरैर्महावीर्यैर्देवसैन्यम्पराजितम्॥ जित्वा च सकलान्देवानिन्द्रोभून्महिषासुरः २ ततः पराजिता देवाः पद्मयोनिम्प्रजापतिम्॥ पुरस्कृत्य गतास्तत्र यत्रेशगरुडध्वजौ ३ यथावृत्तन्तयोस्तद्वन्महिषासुरचेष्टितम्॥ त्रिदशाः कथयामासु
स्वामी इन्द्र थे उस समय देवताओं और असुरों में सौवर्ष तक युद्ध हुआ १ उस युद्धमें बड़े बड़े बली राक्षसों ने सम्पूर्ण देवताओं को जीतलिया तब महिषासुर आप इन्द्र हुआ २ तब देवतालोग पराजित होकर ब्रह्मा प्रजापति के पास गये और फिर ब्रह्माजी को आगे कर जहां विष्णु भगवान् और महादेवजी थे वहां गये ३ और उनसे युद्ध का सब वृत्तान्त जिस तरह महिषासुर विजय
पाकर इन्द्र हुआ वह सब देवताओं ने कह सुनाया ४ और कहा कि हे भगवन्! सूर्य और अग्नि इन्द्र और वायु और चन्द्रमा और यम और वरुणादि सब देवताओंका अधिकार महिषासुर आपकर रहाहै ५ और सब देवताओंको उसने वहांसे निकालदिया अब देवतालोग मनुष्यों की तरह पृथ्वी में मारे मारे फिरते हैं ६ हे महाराज! महिषासुर के उत्पात का हाल विस्तारपूर्वक आपको
र्द्देवाभिभवविस्तरम् ४ सूर्येन्द्राग्न्यनिलेन्दूनां यमस्य वरुणस्य च॥ अन्येषाञ्चाधिकारान्सस्वयमेवाधितिष्ठति ५ स्वर्गान्निराकृतास्सर्वे तेन देवगणा भुवि॥ विचरन्ति यथा मर्त्या महिषेण दुरात्मना ६ एतद्वः कथितं सर्वममरारिविचेष्टितम्॥ शरणञ्च प्रपन्नाःस्मो वधस्तस्य विचिन्त्यताम् ७ इत्थं निशम्य देवानां वचांसि मधुसूदनः॥ चकार कोपं शम्भुश्च भ्रुकटीकुटिलाननौ ८ ततोऽतिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वदनात्ततः॥ निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणश्शङ्करस्य च ९ अन्येषाञ्चैव देवानां शक्रादीनां
कह सुनाया और हमलोग आपकी शरणागतहैं अव जिसमें वह राक्षस माराजाय सो कीजिये ७ देवताओं का यह वचन सुनकर महादेवजी और विष्णु भगवान् वड़े कोपको प्राप्त हुये कि जिससे भकुटी और मुख तमतमागया ८ तत्पश्चात् उसी कोपकी व्यवस्था में भगवान् विष्णु के मुख सेएक महातेज निकला फिर उसी तरह ब्रह्माजी और महादेवजीके मुखसे भी निकला ९ फिर इन्द्रादि
जितने देवतालोग वहां पर थे उन सबके शरीर से भी जो तेज निकला वह सब इकट्ठा होगया १० फिर उस तेजको देवतालोग क्या देखते हैं कि वह तेज जलते हुये पहाड़ के समान होगया और ज्वाला उसकी सम्पूर्ण दिशाओंमें छागई ११ फिर वही अतुलतेज जो सम्पूर्ण देवताओंके अङ्गसे निकला था एक स्त्रीका रूप वनगया जोकि उस ज्वाला में रजोगुण ब्रह्मा और सतोगुण विष्णु
शरीरतः॥ निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत १० अतीवतेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम्॥ ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्तदिगन्तरम् ११ अतुलन्तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्॥ एकस्थं तदभून्नारीव्याप्तलोकत्रयं त्विषा १२ यदभूच्छाम्भवन्तेजस्तेनाजायत तन्मुखम्॥ याम्येन चाभवन्केशा बाहवो विष्णुतेजसा १३ सौम्ये न स्तनयोर्युग्मम्मध्यं चेन्द्रेण चाभवत्॥ वारुणेन च जङ्घोरू नितम्बस्तेजसा भुवः १४
और तमोगुण महादेवजी का तेज भी इकट्ठा होगया था इस कारण से वह स्त्री त्रिगुणा अष्टादश भुजा से प्रकट होकर लोक में महालक्ष्मी कहलाई १२ महादेवजी के तेज से उन महालक्ष्मीजी का मुख श्वेत और यमके तेजसे शिर के बाल श्यामरूप और विष्णु भगवान् के तेज से श्यामरङ्ग उनकी अष्टादश भुजा हुई १३ और चन्द्रमाके तेजसे दोनों स्तन गोरे और इन्द्र के तेजसे शरीर का मध्यभाग रक्तवर्ण हुआ और वरुणके तेजसे जांघ और ऊरू और पृथ्वीके तेजसे नितम्ब हुआ १४
और ब्रह्म के तेजसे दोनों चरण लाल और सूर्यके तेज से चरणों की अंगुलियां हुई और वसुओं के तेजसे दोनों हाथों की अंगुलियां और कुबेरके तेजसे उनकी नासिका हुई १५ और दक्षप्रजापति के तेजसे सब दांत और अग्नि के तेजसे तीन आखं उनकी हुई १६ और दोनों सन्ध्या के तेजसे उनकी दोनों भ्रुकुटी और वायु के तेजसे दोनों कान हुये तात्पर्य यह है कि इसी तरह
ब्रह्मणस्तेजसा पादौ तदङ्गुल्योऽर्कतेजसा॥ वसूनाञ्च कराङ्गुल्यः कौबेरेण च नासिका १५ तस्यास्तु दन्तास्सम्भूताः प्राजापत्येन तेजसा॥ नयनत्रितयं जज्ञे तथा पावकतेजसा १६ भ्रुवौ च सन्ध्ययोस्तेजः श्रवणावनिलस्य च॥ अन्येषाञ्चैव देवानां सम्भवस्तेजसां शिवा १७ ततस्समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम्॥ तां विलोक्य मुदम्प्रापुरमरा महिषार्द्दिताः १८ शूलं शूलाद्विनिष्कृष्य ददौ तस्यै पिनाकधृक्॥ चक्रञ्च दत्तवान् कृष्णः समुत्पाट्य स्वचक्रतः १९ शङ्खञ्च वरुणश्शक्तिं ददौ
सब देवताओं के तेजसे वह महालक्ष्मी शिवा प्रकट हुई १७ तत्पश्चात् वे सब देवतालोग जो महिषासुर के त्रास से अत्यन्त पीड़ितहो रहेथे उस तेजोराशि से उत्पन्न महालक्ष्मीजी को देखकर अतिहर्षित हुये १८ उस समय महादेवजी ने अपने शूल से एक दूसरा शूल और भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी ने अपने चक्र से एक चक्र उत्पन्न करके उनको दिया १९ और वरुणने एक शङ्ख
और अग्नि ने अपनी शक्ति और वायु ने धनुष् और तीरों से भरे हुये दो तर्कस उनको दिये २० और देवताओं के पति इन्द्र ने अपने वज्र से एक वज्र और ऐरावत हाथी से उतार कर घण्टा महालक्ष्मीजी को दिया २१ और यमराज ने अपने कालदण्ड से एक दण्ड और वरुण ने फांस और दक्षप्रजापति ने अक्षमाला और ब्रह्माजी ने कमण्डलु दिया २२ और सूर्यने उनके सम्पूर्ण
तस्यै हुताशनः॥ मारुतो दत्तवांश्चापम्बाणपूर्णे तथेषुधी २० वज्रमिन्द्रस्समुत्पाट्य कुलिशादमराधिपः॥ ददौ तस्यै सहस्राक्षो घण्टामैरावताद् गजात् २१ कालदण्डाद्यमो दण्डम्पाशं चाम्बुपतिर्द्ददौ॥ प्रजापतिश्चाक्षमालां ददौ ब्रह्मा कमण्डलुम् २२ समस्तरोमकूपेषु निजरश्मीन्दिवाकरः॥ कालश्च दत्तवान् खङ्गं तस्याश्चर्म च निर्मलम् २३ क्षीरोदश्चामलं हारमजरे च तथाम्बरे॥ चूडामणिन्तथा दिव्यं कुण्डले कटकानि च २४ अर्धचन्द्रन्तथाशुभ्रङ्केयूरान्सर्वबाहुषु॥ नूपुरौ विमलौ तद्वद् ग्रैवे
रोमकूपों में अपनी किरणें भरदीं और काल ने खड्ग और एक अमल ढाल दिया २३ और क्षीरसमुद्र ने एक बहुत अच्छा हार और दिव्याम्बर और दिव्य चूड़ामणि अर्थात् शिर के भूषण के वास्ते रत्न दिया और दोनों कानों के कुण्डल और पहुँची २४ और अर्धचन्द्रमा के समान स्वच्छललाट के भूषण और अठारहों बाहु में बिजायठ और ब्राजूबन्द और दोनों चरणों में नूपुर और
गलेका उत्तम कण्ठा २५ और सब अंगुलियों में जड़ाऊ अँगूठी उनको विश्वकर्मा ने दिया और निर्मल फरसा २६ और और भी अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्रादि और अभेददंशन अर्थात् किसी हथियार से नहीं काटने योग्य बख़्तरभी दिया और शिर और गले में पहिरने के वास्ते निर्मल कमल की माला २७ और हाथमें रखने के वास्ते अतिशोभायमान कमल उनको जलधिनाम
यकमनुत्तमम् २५ अङ्गुलीयकरत्नानि समस्तास्वङ्गुलीषु च॥ विश्वकर्मा ददौ तस्यै परशुञ्चातिनिर्मलम् २६ अस्त्राण्यनेकरूपाणि तथाभेद्यञ्च दंशनम्॥ अम्लानपङ्कजाम्मालां शिरस्युरसि चापराम् २७ अददज्जलधिस्तस्यै पङ्कजञ्चातिशोभनम्॥ हिमवान्वाहनं सिंहं रत्नानि विविधानि च २८ ददावशून्यं सुरया पानपात्रन्धनाधिपः॥ शेषश्च सर्वनागेशो महामणिविभूषितम् २९ नागहारन्ददौ तस्यै धत्ते यः पृथिवी
समुद्र ने दिया और हिमवान् पर्वत ने हर तरहके रत्न और सवारी के वास्ते सिंह दिया २८ और कुबेरने सुरा से भराहुआ पीनेका पात्र दिया और शेषजी जो सब नागों के पति और पृथ्वी को शिरपर उठाये हुये हैं उन्हों ने रत्नजटित २९ नागहार दिया इन महालक्ष्मी के अठारह भुजा तो विशेष मैंने वर्णन किये परन्तु हथियारोंके धारण करनेसे हजार भी भुजा होती हैं इसमें अष्टादश भुजा उनका विशेष रूप है ब्राह्मी और वैष्णवी और शैवी ये त्रिगुणा महालक्ष्मी आदिशक्ति के
अवतारह यह सव विस्तारपूर्वक वैकृतरहस्य में लिखाहैं फिर वह देवी बहुत हथियारों और भषणों से संयुक्त ३० होकर वारम्बार प्रसन्नतासे बड़े उच्चस्वर से गर्जसंयुक्त हँसी उनके गर्जने से सम्पूर्ण लोक दहल गये किन्तु उनके महाशब्द से आकाश गूँज गया ३१ जिससे सब लोकों में हलचल पड़गया और सातों समुद्र कांपनेलगे ३२ और सम्पूर्ण पृथ्वी हिलगई पर्वत सब डोलगये यह
मिमाम्॥ अन्यैरपि सुरैर्द्देवी भूषणैरायुधैस्तथा ३० सम्मानिता ननादोच्चैस्साट्टहासम्मुहुर्म्मुहुः॥ तस्या नादेन घोरेण कृत्स्नमापूरितन्नभः ३१ अमायतातिमहता प्रतिशब्दो महानभूत्॥ चुक्षुभुस्सकला लोकाः समुद्राश्च चकम्पिरे ३२ चचाल वसुधा चेलुः सकलाश्च महीधराः॥ जयेति देवाश्च मुदा तामूचुः सिंहवाहिनीम् ३३ तुष्टुवुर्मुनयश्चैनाम्भक्तिनम्रात्ममूर्तयः॥ दृष्ट्वा समस्तं संक्षुब्धं त्रैलोक्यममरारयः ३४ सन्नद्धाखिलसैन्यास्ते समुत्तस्थुरुदायुधाः॥ आःकिमेतदितिक्रोधादाभाष्य महिषा
देखकर देवतालोग हर्षसंयुक्त उस सिंहवाहिनी महालक्ष्मी से बोले कि हे देवि! आपकी जय हो हमारे शत्रुओं को भय दीजिये ३३ इसी तरह मुनिलोग भी भक्तिपूर्वक देवीजी को प्रणाम करके उनकी स्तुति करनेलगे और यह दशा देखकर तीनों लोक और जितने राक्षस थे सब व्याकुल होगये ३४ और सब राक्षसलोग अपने अपने अस्त्र शस्त्र लेलेकर युद्ध करने के वास्ते उपस्थित
होगये और महिषासुर भी मारे क्रोध के आश्चर्य से घबराकर ३५ सब असुरों को साथ लेकर जिसतरफ़ से गर्जने की आवाज़ आती थी दौड़ा और वहां जाकर महालक्ष्मीको देखा कि उनकी ज्योति सम्पूर्ण लोकों में फैलरही है ३६ और उनके चलनेसे पृथ्वी झुकगई है और उनके शिरके किरीटसे सम्पूर्ण आकाश प्रकाशमान होरहा है और उनके धनुष्के खींचनेकी आवाज से सम्पूर्ण
सुरः ३५ अभ्यधावत तं शब्दमशेषैरसुरैर्वृतः॥ स ददर्श ततो देवीं व्याप्तलोकत्रयान्त्विषा ३६ पादाक्रान्त्या नतभुवङ्किरीटोल्लिखिताम्बराम्॥ क्षोभिताशेषपातालान् धनुर्ज्यानिस्स्वनेनताम् ३७ दिशोभुजसहस्रेण समन्ताद् व्याप्य संस्थिताम्॥ ततः प्रववृते युद्धन्तया देव्या सुरद्विवाम् ३८ शस्त्रास्त्रैर्बहुधामुक्तैरादीपितदिगन्तरम्॥ महिषासुरसेनानीश्चिक्षुराख्यो महासुरः ३९ युयुधे चामरश्चान्यैश्चतुरङ्गबलान्वितः॥
लोक और पाताल डोल रहे हैं ३७ और आप भगवती अपने हजारों भुजों से सब दिशाओं को व्याप्त करके विराजमान होरही हैं ऐसा रूप उनका देखकर राक्षसलोग उनसे युद्ध करने लगे ३८ उस युद्ध में सवतरह के हथियार चलने की चमक से सव दिशा प्रकाशमान होरही थीं उस समय महिषासुर के सेनापति चिक्षुरनाम महाअसुर ने भगवती से बहुत युद्ध किया ३९ और चामर नाम असुर भी बहुत से शूरवीर राक्षसों की चतुरङ्गिणी सेना साथ लेकर बहुत लड़ा और उदग्र
नाम असुर साठहजार रथ अपने साथ लेकर युद्ध करनेके वास्ते आया ४० और हनुनाम असुर करोड़ सेना लेकर देवीके साथ लड़ा और असिलोमानाम महाअसुरने पांचकरोड़ सेना लेकर युद्ध किया ४१ और वाष्कलनाम असुर साठलाख असुर लेकर रणमें आया और युद्ध किया और विडालनाम असुर कितने हजार हाथी और घोड़े ४२ और एक करोड़ रथ साथ लेकर आया और युद्ध
रथानामयुतैः षड्भिरुदग्राख्यो महासुरः ४० अयुध्यतायुतानाञ्च सहस्रेण महाहनुः॥ पञ्चाशद्भिश्च नियुतैरसिलोमा महासुरः ४१ अयुतानां शतैः षड्भिर्वाष्कलो युयुधे रणे॥ गजवाजिसहस्रौधैरनेकैः परिवारितः ४२ वृतो रथानाङ्कोट्या च युद्धे तस्मिन्नयुध्यत॥ बिडालाख्योऽयुतानाञ्च पञ्चाशद्भिरथायुतैः ४३ युयुधे संयुगे तत्र रथानाम्परिवारितः॥ अन्ये च तत्रायुतशो रथनागहयैर्वृताः ४४ युयुधुस्संयुगे देव्या सह तत्र महासुराः॥ कोटिकोटिसहस्रैस्तु रथानान्दन्तिनान्तथा ४५ हयानाञ्च
किया निदान जब सब सेना उसकी काम आई तो फिर पांच लाख रथ अपने साथ लेकर ४३ उस संग्राम में आया और युद्ध किया और भी उस युद्धमें दश २ हजार रथ आर हाथी और घोड़े साथमें लियेहुये ४४ कितने असुरोंने देवीसे युद्ध किया तदनन्तर कोटानकोट सहस्ररथ और हाथी ४५ और
घोड़े साथ लेकर उस रण में महिषासुर आया और तोमर और भिन्दिपाल और शक्ति और मुशल ४६ आर खड्ग और फरसा और किर्च इत्यादि हथियारों से भगवती के साथ लड़नेलगा अर्थात् कोई असुर तो शक्ति और कोई फरसा इत्यादि चलाता था ४७ और और भी नामी असुर लोग देवी के ऊपर खड्ग इत्यादि चलाते थे परन्तु उस चण्डिका देवीने उन असुरों के हथियारों
वृतो युद्धे तत्राभून्महिषासुरः॥ तोमरैर्भिन्दिपालैश्च शक्तिभिर्मुशलैस्तथा ४६ युयु धुस्संयुगे देव्या खड्गैः परशुपट्टिशैः॥ केचिच्च चिक्षिपुश्शक्तीः केचित्पाशांस्तथा परे ४७ देवीं खड्गप्रहारैस्तु ते तां हन्तुम्प्रचक्रमुः॥ सापि देवी ततस्तानि शस्त्राण्यस्त्राणि चण्डिका ४८ लीलयैव प्रचिच्छेद निजशस्त्रास्त्रवर्षिणी॥ अनायस्तानना देवी स्तूयमाना सुरर्षिभिः ४९ मुमोचासुरदेहेषु शस्त्राण्यस्त्राणि चेश्वरी॥ सोपि क्रुद्धो धुतसटो देव्या वाहनकेशरी ५० चचारासुरसैन्येषु वनेष्विव हुताशनः॥ निश्वा
को ४८ वेपरवाही के साथ खेल की तरह अपने हथियारों से काटकर खण्ड खण्ड करडाला तब देवता और ऋषिलोग आकर देवीजी की स्तुति करनेलगे ४९ और देवीजी उन असुरोंके अस्त्रशस्त्र को काटकर उनलोगों के ऊपर अपने हथियारों का वार करने लगी और उनका वाहन सिंहभी क्रोध से ५० जिस तरह अग्नि चारों तरफ़ फैलकर जङ्गल को जलाकर क्षार कर
देता है उसी तरह असुरों की सेना म वह सिंह विचरने लगा और असुरों को मार मार कर गिराने लगा और उस समय अम्बिका देवी की श्वास से ५१ लाखों गण उत्पन्न हुये और वे लोग फरसा और भिन्दिपाल और तलवार तेगा किर्च इत्यादिसे असुरों के साथ युद्ध करनेलगे ५२ और असुरों को मारने लगे देवी के प्रभाव से प्रसन्न होकर सब देवतालोग खुशी का नगाड़ा बजाने लगे और
सान्मुमुचे यांश्च युध्यमाना रणेऽम्बिका ५१ तएव सद्यस्संभूता गणाः शतसहस्रशः॥ युयुधुस्ते परशुभिर्भिन्दिपालासिपट्टिशैः ५२ नाशयन्तोऽसुरगणान्देवीशक्त्युपबृंहिताः॥ अवादयन्त पटहान् गुणाः शङ्खांस्तथापरे ५३ मृदङ्गांश्च तथैवान्ये तस्मिन् युद्धमहोत्सवे॥ ततो देवी त्रिशूलेन गदया शक्तिवृष्टिभिः ५४ खड्गादिभिश्च शतशो निजघान महासुरान्॥ पातयामास चैवान्यान् घण्टास्वनविमोहितान् ५५ असुरान्भुवि पाशेन बद्ध्वा चान्यानकर्षयत्॥ केचिद्द्विधाकृतास्तीक्ष्णैः खड्गपातैस्तथा
कोइ शङ्ख और कोई ५३ उस रणके महाउत्सव में मृदङ्ग बजाते थे तब देवीने त्रिशल और गदा और बाणों की वृष्टि से ५४ और खड्ग इत्यादि से लाखों असुरों को मारडाला और कितनों को घण्टे के शब्द से मोहित कर पृथ्वी पर गिरादिया ५५ और कितनों को पाश में बांधकर खींचकर
खड्ग से काटडाला ५६ और कितने असुरों को गदा से मारडाला और कितने उस गदा की मारसे पृथ्वी पर अचेत हो पड़े थे और कितने वारम्बार मुशल की मारसे रक्त वमन करते थे ५७ और कितने छाती में शूल के घाव लगने से और कितने वाणों के घाव लगने से उस रणाजिर में मरे पड़े थे ५८ और जो असुरलोग उस रण में सेना के आगे चलते थे वे लोग कितने तो बाणों के
परे ५६ विपोथितानिपातेन गदया भुवि शेरते॥ वेमुश्च केचिद्रुधिरम्मुशलेन भृशं हताः ५७ केचिन्निपतिता भूमौ भिन्नाश्शूलेन वक्षसि॥ निरन्तराश्शरौघेण कृताः केचिद्रणाजिरे ५८ सेनानुकारिणः प्राणान्मुमुचुस्त्रिदशार्दनाः॥ केषाञ्चिद्वाहवश्छिन्नाश्छिन्नग्रीवास्तथापरे ५९ शिरांसि पेतुरन्येषामन्ये मध्ये विदारिताः॥ विच्छिन्नजङ्घास्त्वपरे पेतुरुर्व्याम्महासुराः ६० एकवाह्वक्षिचरणाः केचिद्देव्याद्विधाकृताः॥ छिन्नेऽपि
लगने से मरगये और कितनों की भुजा कटगई और कितनों का गला छिदगया ५९ और कितनों का शिर कटकर गिरपड़ा और कितने राक्षसलोग आधे धड़से कटकर मरगये और कितने जांघ कट जानेसे पृथ्वीपर गिरपड़े थे ६० और किसी की एकही बांह कटकर गिरी पड़ी थी और किसी की आंखही फूटगई थी और किसी का एकही पांव कटगया था और किसीको देवीने काटकर दो
खण्ड करदिया था और कितने शिर कटजाने परभी गिरकर फिर उठके ६१ कवन्ध हथियार लेकर देवी से युद्ध करतेथे और उस युद्ध में कोई बाजे के स्वर की लय का आश्रयण कर नृत्य करते थे ६२ और कितने असुरों के शिर तो कटगये थे परन्तु कबन्ध और खड्ग और शक्त्यृष्टि जिसके दोनों तरफ़ धार होती है हाथ में लियेहुये तिष्ठ तिष्ठ कहतेहुये भगवती से युद्ध करते
चान्ये शिरसि पतिताः पुनरुत्थिताः ६१ कबन्धा युयुधुर्देव्या गृहीतपरमायुधाः॥ ननृतुश्चापरे तत्र युद्धे सूर्यलयाश्रिताः ६२ कबन्धाश्छिन्नशिरसः खड्गशक्त्यृष्टिपाणयः॥ तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तो देवीमन्ये महासुराः ६३ पातितैरथनागाश्वैरसुरैश्चवसुन्धरा॥अगम्या साभवत्तत्र यत्राभूत्स महारणः ६४ शोणितौघामहानद्यस्सद्यस्तत्रविसुस्रुवुः॥ मध्ये चासुरसैन्यस्य वारणासुरवाजिनाम् ६५ क्षणेन तन्महासैन्यमसुराणां
थे ६३ जिस स्थानपर देवी से युद्ध हुआ था वह स्थान हाथी घोड़ों और रथ और असुरों के कटे हुये शिरों से भरा हुआ था ६४ हाथी और घोड़ों और असुरों के रुधिर से उस स्थानपर बड़े जोर शोर से एक दरिया बह निकला ६५ और जिस तरह सूखे हुये तृण और काठ के ढेर को अग्नि बहुत जल्द जलादेती है उस तरह अम्बिका देवीने असुरों की सेना को एक क्षणमात्र में नाश
करडाला ६६ और जब वह सिंह देवी का वाहन शिर उठाकर गर्जता तो ऐसा जान पड़ता कि मानो उसकी गर्जना ने असुरों का प्राण निकाल लिया ६७ और देवी के गणलोग जो असुरों से युद्ध करते थे उनके ऊपर देवता लोग प्रसन्न होकर सुमनवृष्टि करते थे ६८ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरसैन्यवधो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
तथाम्बिका॥ निन्ये क्षयं यथा वह्निस्तृणदारुमहाचयम् ६६ सच सिंहो महानादमुत्सुजन्धुतकेशरः॥ शरीरेभ्योऽमरारीणामसूनिव विचिन्वति ६७ देव्यागणैश्च तैस्तत्र कृतं युद्धन्तथासुरैः॥ यथैषान्तुष्टुबुर्देवाः पुष्पवृष्टिमुचो दिवि ६८ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणेसावर्णिकेमन्वन्तरेदेवीमाहात्म्ये महिषासुरसैन्यवधोनाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
ऋषिरुवाच॥ निहन्यमानं तत्सैन्यमवलोक्य महासुरः॥ सेनानीश्चिक्षुरः कोपाद्ययौ योद्धुमथाम्बिकाम् १ स देवीं शरवर्षेण ववर्ष समरेऽसुरः॥ यथा मेरुगिरेः शृङ्गं
मेधाऋषि बोले कि हे महाराज, सुरथ! महिषासुरके सेनापति चिक्षर नाम असुरने जब सेना को नाश होतेहुये देखा तब वड़े क्रोधसे आप अम्बिका देवीके सम्मुख युद्ध करनेको आया १ और जैसे मेघ मेरु पर्वत के ऊपर जल वर्षाता है वैसेही वह असुर देवी के ऊपर अपने बाणा की वृष्टि
करनेलगा २ परन्तु देवीने अपने वाणोंसे उसके बाणों को खेलकी तरह काटडाला और उसके घोड़े को भी कोचवान सहित मारडाला ३ और उसके धनुष और रथके ध्वजाको भी काटडाला और फिर अपने बाणों से उसके सारे शरीर को छेदडाला ४ परन्तु वह असुर धनुष और रथ और घोड़ा और सारथिके कटजानेपरभी तलवार लेकर देवी के सामने दौड़ा ५ और तीक्ष्ण खड्ग सिंहके शिर
तोयवर्षेण तोयदः २ तस्यच्छित्त्वा ततो देवी लीलयैव शरोत्करान्॥ जघान तुरगान्बाणैर्यन्तारञ्चैव वाजिनाम् ३ चिच्छेद च धनुस्सद्यो ध्वजं चातिसमुच्छ्रितम्॥ विव्याध चैव गात्रेषु छिन्नधन्वानमाशुगैः ४ सच्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः॥ अभ्यधावत तान्देवीं खड्गचर्मधरोऽसुरः ५ सिंहमाहत्य खङ्गेन तीक्ष्णधारेण मूर्धनि॥ आजघान भुजे सव्ये देवीमप्यतिवेगवान् ६ तस्याः खड्गो भुजम्प्राप्य पफाल नृपनन्दन ॥ ततो जग्राह शूलं स कोपादरुणलोचनः ७ चिक्षेप च ततस्तत्तु भद्रकाल्याम्म
पर मारकर जल्दी से एक बार देवी की बाईं भुजांपर किया ६ ऋषि कहते हैं कि हे सुरथ ! वह खड्ग उसका देवी की भुजापर पड़ने से खण्ड २ होकर पृथ्वीपर गिरपड़ा तब उस असुरने क्रोध से लाल नेत्र करके शूलको उठालिया ७ और देवीपर चलाया तब वह शूल आकाश में जाकर फिर वहांसे
सूर्यसमान सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशमान करता हुआ भद्रकाली के ऊपर चला ८ तब भगवती ने उस शूलको अपनी तरफ़ आतेहुये देखकर अपने शूलसे उस शूलके सैकड़ों टुकड़े करडाले और उस असुर को भी मारडाला ९ उस सेनापति के मरने के बाद चामरनाम असुर हाथी पर सवार होकर देवी से युद्ध करने के वास्ते सम्मुख आया १० और देवीके ऊपर शक्ति चलाई तव देवी
हासुरः॥ जाज्वल्यमानन्तेजोभीरविविम्बमिवाम्बरात् ८ दृष्ट्वा तदापतच्छूलं देवी शूलममुञ्चत॥ तच्छूलं शतधा तेन नीतं स च महासुरः ९ हते तस्मिन्महावीर्ये महिषस्य चमूपतौ॥ आजगाम गजारूढश्चामरस्त्रिदशार्दनः १० सोपि शक्तिं मुमोचाथ देव्यास्तामम्विका द्रुतम्॥ हुङ्काराभिहताम्भूमौ पातयामास निष्प्रभाम् ११ भग्नां शक्तिन्निपतितान्दृष्ट्वा क्रोधसमन्वितः॥ चिक्षेप चामरश्शूलम्बाणैस्तदपि साच्छिनत् १२ ततः सिंहः समुत्पत्य गजकुम्भान्तरस्थितः॥ बाहुयुद्धेन युयुधे तेनोच्चैस्त्रिदशा
ने उस शक्ति के तेजको भी उसी समय हुंकारशब्द से हरण करके पृथ्वी पर गिरा दिया ११ तव चामरने अपनी शक्ति को गिरी हुई देखकर क्रोध करके देवी के ऊपर अपनी शक्ति चलाई परन्तु देवी ने उसकोभी अपने बाणोंसे काटडाली १२ और सिंह जो देवीका वाहन था वह कूदकर हाथीके
मस्तकपर जिसपर असुर सवार था गया और वहींपर उस असुरसे वाहुयुद्ध करनेलगा १३ अन्तको वह असुर और सिंह दोनों लड़तेहुये पृथ्वीपर आये और गदा इत्यादि हथियार ले लेकर अत्यन्त दारुण युद्ध करने लगे १४ उस समय सिंह ने कूदकर और सामने जाकर एक ऐसा तमाचा मारा कि उस असुर का शिर धड़से अलग होगया १५ तत्पश्चात् उदग्र नाम राक्षसने युद्धकिया उसको
रिणा १३ युद्ध्यमानौ ततस्तौतु तस्मान्नागान्महीङ्गतौ॥ युयुधातेतिसंरव्धौप्रहारैरति दारुणैः १४ ततो वेगात्खमुत्पत्य निपत्य च मृगारिणा॥ करप्रहारेणशिरश्चामरस्य पृथक्कृतम् १५ उदग्रश्चरणे देव्या शिलावृक्षादिभिर्हतः॥ दन्तमुष्टितलैश्चैव करालश्च निपातितः १६ देवी क्रुद्धा गदापातैश्चूर्णयामास चोद्धतम्॥वाष्कलम्भिन्दिपालेन बाणैस्ताम्रन्तथान्धकम् १७ उग्रास्यमुग्रवीर्यं च तथैव च महाहनुम्॥ त्रिनेत्रा च
भी देवी ने शिला और वृक्ष इत्यादि लेकर ऐसा मारा कि वह भी मर गया तब कराल नाम असुर आया उसको भी देवी ने दांत और मुष्टि और चपेटों से मारडाला १६ इसके उपरान्त उद्धत नाम असुर आया उसको भी देवी ने क्रोधसंयुक्त गदासे मारकर चूर्ण करदिया तब वाष्कल नाम असुर आया उसे भिन्दिपाल से मारडाला फिर ताम्र और अन्धक नाम असुर आये उनको भी वाणों से देवीने मारडाला १७ फिर उग्रास्य और उग्रवीर्य और महाहनु नाम असुरों को भी त्रिनेत्रा
परमेश्वरीने त्रिशूल से मारडाला १८ वाद इसके विडाल नाम राक्षस आया उसकाभी शिर देवी ने खड्ग से काटकर गिरादिया फिर दुर्द्धर और दुर्मुख नाम असुरों को बाणों से मारकर यमलोक में भेजदिया १९ जब इस प्रकार से महिषासुर की सेना नाश होगई तब महिषासुरने आप महिषरूप धारण करके भगवती के गणों को मारकर व्याकुल करदिया २० कितनों को तो तुण्ड अर्थात्
त्रिशूलेन जघान परमेश्वरी १८ विडालस्यासिना कायात्पातयामास वै शिरः॥ दुर्द्धरन्दुर्मुखञ्चोभौ शरैर्न्निन्ये यमक्षयम् १९ एवं संक्षीयमाणे तु स्वसैन्ये महिषासुरः॥ माहिषेण स्वरूपेण त्रासयामास तान्गणान् २० कांश्चित्तुण्डप्रहारेण खुरक्षेपैस्तथापरान्॥ लाङ्गूलताडितांश्चान्याञ्छृङ्गाभ्याञ्च विदारितान् २१ वेगेन कांश्चिदपरान्नादेन भ्रमणेन च॥ निःश्वासपवनेनान्यान्पातयामास भूतले २२ निपात्य प्रमथा
थूथुन के प्रहार से और कितनों को टाप फेंककर और कितनों को पूंछकी मारसे और कितनों को सींगोंसे फाड़कर मारडाला २१ और कितनों को अपनी शीघ्रगामी से और कितनों को अपने गर्जन शब्द से और कितनों को भ्रमण से और कितनों को श्वासकी वायुसे पृथ्वी पर गिरादिया २२ इस तरह पहिले गणों की सेना को पृथ्वीपर गिरादिया फिर अम्बिकादेवीके सिंहको मारने के वास्ते वह
महिषासुर दौड़ा तव तो अम्बिकादेवी के अत्यन्त क्रोध उत्पन्न हुआ २३ और वह महापराक्रमी महिषासुर भी कोप करके अपने खुरोंसे पृथ्वी को खोदताहुआ और सींगों से बड़े बड़े ऊँचे पर्वतों को उखाड़कर फेंकता हुआ गर्जा २४ और उसके पैंतरे की धमक से पृथ्वी फटगई और उसके पूंछ के हिलानेसे समुद्र उवलकर सब लोक को डुवानेलगा २५ और उसके सींगके हिलाने से घन
नीकमभ्यधावत सोऽसुरः॥ सिंहं हन्तुम्महादेव्याः कोपञ्चक्रे ततोऽस्विका २३ सोपि कोपान्महावीर्यः खुरक्षुस्ममहीतलः॥ शृङ्गाभ्याम्पर्वतानुच्चांश्चिक्षेप च ननाद च २४ वेगभ्रमणविक्षुस्मा मही तस्य व्यशीर्यत॥ लाङ्गूलेन हतश्चाव्धिः प्लावयामास सर्वतः २५ धुतशृङ्गविभिन्नाश्च खण्डं खण्डं ययुर्धनाः॥ श्वासानिलास्ताः शतशो निपेतुर्नभसोचलाः २६ इति क्रोधसमाध्मातमापतन्तम्महासुरम्॥ दृष्ट्वा सा चण्डिका कोपन्तद्वधाय तदाकरोत् २७ सा क्षिप्त्वा तस्य वै पाशं तं ववन्ध महासुरम्॥ तत्याज
अर्थात् बादल फटगया और उसके श्वास की प्रवलपवन चलने से सम्पूर्ण पर्वत उखड़ २५ कर पृथ्वी के ऊपर गिरपड़े २६ इसप्रकार क्रोधसंयुक्त अग्निवत् महिषासुर को आतेहुये देखकर चण्डिकादेवी को अत्यन्त कोप उत्पन्न हुआ २७ तव देवीने पाश (फँसरी ) फेंककर उस असुर को बांधलिया
तब उस असुरने महिषरूप अपना छोड़ दिया २८ और जल्दी से सिंह का रूप धारण करलिया फिर जब अम्बिका देवी उसको मारने का यत्न करनेलगीं तब वह पुरुषरूप होकर खड्ग हाथ में लेकर सम्मुख हुआ देवी तब यह देखकर २९ जल्दीसे ढाल तलवार के साथ उस पुरुषरूपी महिषासुर को अपने वाणों से मारनेलगीं तब उसने उस रूप कोभी छोड़कर हाथीका रूप धारण कर-
माहिषं रूपं सोपि बद्धो महामृधे २८ ततः सिंहोऽभवत्सद्यो यावत्तस्याम्बिका शिरः॥ छिनत्ति तावत्पुरुषः खड्गपाणिरदृश्यत २९ तत एवाशु पुरुषं देवी चिच्छेद शायकैः॥ तङ्खड्गचर्मणा सार्द्धं ततस्सोऽभून्महागजः ३० करेण च महासिंहं तं चकर्ष जगर्ज च॥ कर्षतस्तु करं देवी खड्गेन निरकृन्तत ३१ ततो महासुरो भूयो माहिषं वपुरास्थितः॥ तथैव क्षोभयामास त्रैलोक्यं सचराचरम् ३२ ततः क्रुद्धा जगन्माता चण्डिका
लिया ३० और सूंड़ से देवी के वाहन अर्थात् सिंह को खैंच लिया और गर्जा तव देवी ने अपने खड्गसे उसके सूंड़ को काटडाला ३१ फिर उस असुरने पहिलेकी तरह महिषरूप धारण करलिया जिससे तीनोंलोकके चराचरजीव भयभीत होगये ३२ और वह जगन्माता चण्डिका देवी महिषासुर को शिवका अवतार समझकर उसके मारने में दया और लज्जाकरके सहम जातीथीं इसवास्ते क्रोध
करके बारम्बार मदिरापान करनेलगीं उस मदिरा पीने से आंखैं लाल होगई और जोरसे हँसने लगीं ३३ और इधर वह असुर भी अपने वल के घमण्ड से गर्जनेलगा और सींगों से पहाड़ों को उठाउठाकर देवी के ऊपर फेंकनेलगा ३४ पर चण्डिका ने उसके फेंकेहुये पहाड़ोंको अपने बाणों से चूर्ण करडाला और शराब के नशेमें मुँह लाल किये हुये महिषासुर से कहनेलगीं ३५ कि हे
पानमुत्तमम्॥ पपौ पुनः पुनश्चैव जहासारुणलोचना ३३ ननर्द्द चासुरः सोपि बलवीर्यमदोद्धतः॥ विषाणाभ्यां च चिक्षेप चण्डिकां प्रति भूधरान् ३४ सा च तान्प्रहितांस्तेन चूर्णयन्ती शरोत्करैः॥ उवाच तं मदोद्धृतमुखरागाकुलाक्षरम् ३५ देव्युवाच॥ गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम्॥ मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः ३६॥ ऋषिरुवाच॥ एवमुक्त्वा समुत्पत्य सारूढा तं महासुरम्॥ पादेना क्रम्य कण्ठे च शूलेनैनमताडयत् ३७ ततः सोपि पदाक्रान्तस्तया निजमुखात्ततः॥
मूढ़! क्षणमात्र और तू गर्ज ले जब तक मैं मदिरा पान करतीहूं तदनंतर इसी स्थान पर तुझे मारूंगी और तेरे मारेजानेपर तुरन्तही देवतालोग गर्जेंगे ३६ मेधाऋषि कहते हैं कि हे सुरथ! इस तरह देवी कह कह कर शीघ्रही उस महिषरूप महिषासुर के ऊपर कूदकर चढ़ गई और पांव से दबाकर उसके कण्ठ में एक शूल मारा ३७ तब महिषासुर ने भगवती के पांवतले दबा हुआ
शूल लगनेपर अपना महिषस्वरूप छोड़कर पुरुषरूप धारणकर ढाल तलवार लियेहुये मुखकी ओर से निकलना चाहा परन्तु देवी के अतिपराक्रम से आधा शरीर निकला समूचा निकलने न पाया ३८ उसी आधेही शरीर से वह महासुर युद्ध करनेलगा तब उस भगवती देवी ने एक बड़ी तलवार लेकर उसका शिर काटकर पृथ्वीपर गिरादिया ३९ महिषासुर के वध होनेपर बाकी जो
अर्धनिष्क्रान्त एवातिदेव्या वीर्येण संवृतः ३८ अर्धनिष्क्रान्त एवासौ युध्यमानो महासुरः॥ तया महासिना देव्या शिरश्छित्त्वा निपातितः ३९ ततो हाहाकृतं सर्वं दैत्य सैन्यन्ननाश तत्॥ प्रहर्षश्च परं जग्मुस्सकला देवतागणाः ४० तुष्टुवुस्तां सुरा देवीं सहदिव्यैर्महर्षिभिः॥ जगुर्गन्धर्बपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणाः ४१॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरवधोनाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥
दैत्यों की सेना थी वह सव हाहाकार करतीहुई समर से भाग गई यह देखकर सम्पूर्ण देवता परसहर्ष को प्राप्त हुये ४० और सब देवता और ऋषालोग आनन्दसंयुक्त भगवती की स्तुति करने लगे और गन्धर्वपति लोग गानेलगे और अप्सरालोग नृत्य करनेलगीं ४१॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरवधोनाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥
मेधाऋषि कहते हैं कि हे सुरथ! जब देवीने उस अत्यन्त पराक्रमी दुरात्मा महिषासुरको और उसकी सेनाको मारडाला तब इन्द्रादि सब देवता शिर और कन्धा झुकाय अतिहर्षसे सुन्दर रोमांच शरीर हो वचन करके देवीकी स्तुति इसतरहपर करनेलगे १ कि हम सबलोग भक्तिपूर्वक उस अम्बिकादेवी को प्रणाम करते हैं जो सब देवताओं के तेज से उत्पन्न हैं और वह अपनी शक्ति
ऋषिरुवाच॥ शक्रादयस्सुरगणा निहतेतिवीर्ये तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिविले च देव्या॥ तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा वाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्गमचारुदेहाः १ देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या॥ तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां भक्त्या नतास्स्म विदधातु शुभानि सा नः २ यस्याः प्रभावमतुलम्भगवाननन्तो ब्रह्मा हरश्च नहि वक्तुमलम्बलञ्च॥ साचण्डिकाखिलजगत्परिपालना य नाशाय चाशुभभयस्य मतिङ्करोतु ३ या श्रीः स्वयं सुकृतिनाम्भवनेष्वलक्ष्मीः पापा
से इस सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न करके सब ठौर व्यास रहती हैं और जिनको बड़े बड़े ऋषिलोग पूजते हैं वह देवी हमलोगों का कल्याण करैः २ और वह देवी कैसी हैं कि जिनका अतुलप्रभाव वर्णन करने में ब्रह्मा और विष्णु और महादेव थकित हैं वह चण्डिका भगवती जगत् का पालन करैः और पाप करके जो भय उत्पन्न होताहै उसके नाश करने में सदा चित्त रक्खैं ३ हे देवि!
आप सुकृती लोगोंके घरमें लक्ष्मी होकर और पापियोंके घरमें दरिद्र बनकर और निर्मलचित्तवालों के चित्त में बुद्धि होकर और मतवा लों के हृदय में श्रद्धा और कुलीनों के हृदय में लज्जा होकर स्थित रहती हैं आपको हमलोग प्रणाम करते हैं हे देवि! इस पृथ्वी का आप पालन कीजिये ४ और हे देवि! आपके इस अचिन्त्यरूप और असुरों को क्षयकरनेवाले पराक्रम और समर में
त्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः॥ श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्वम् ४ किं वर्णयाम तव रूपमचिन्त्यमेतत्किंचातिवीर्यमसुरक्षयकारि भूरि॥ किञ्चाहवेषु चरितानि तवातियानि सर्वेषु देव्यसुरदेवगणादिकेषु ५ हेतुस्समस्तजगतां त्रिगुणापि दोषैर्न्न ज्ञायसे हरिहरादिभिरप्यपारा॥ सर्वाश्रयाखिलोमिदं जगदंशभूतमव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या ६ यस्याः समस्तसुरता
आपका चरित्र हम सवों से किस प्रकार वर्णन होसक्ता है ५ आप अचिन्त्य हैं और सब जगत्कीकारण और सतोगुण और रजोगुण और तमोगुणसंयुक्त हैं तो फिर राग इत्यादिसे आपको कौन जानसक्ताहै विष्णु और महादेवभी आपकी अपार महिमाको नहीं जानसक्के क्योंकि सब जगत् आप के आश्रय और आपके अंश से पैदा है और आप सब विकारों से रहित हैं और परम आदिप्रकृति हैं ६ हे देवि! यज्ञादि में आपही के नाम लेनेसे देवतालोग और पितृकर्म में पितरलोग तृप्त होते
हैं आपही का नाम स्वाहा और स्वधाहै इसीलिये देवकर्म में स्वाहा और पितृकर्म में स्वधा उच्चारण करते हैं ७ हे देवि! जोकि आप मुक्ति की कारण अविन्त्यहैं और दया और सत्य और ब्रह्मचर्य इत्यादि आपका साधनहै और सम्पूर्ण दोषोंको भञ्जन करनेवाली ब्रह्मज्ञानस्वरूप विद्या आपही हैं इसलिये मोक्ष चाहनेवाले जितेन्द्रिय मुनिलोग राग इत्यादि को छोड़कर और साक्षात् ब्रह्म आप
समुदीरणेन तृप्तिं प्रयाति सकलेषु मखेषु देवि॥ स्वाहासि वै पितृगणस्य च तृप्तिहेतुरुच्चार्यसे त्वमत एव जनैः स्वधा च ७ या मुक्तिहेतुरविचिन्त्यमहाव्रता च अभ्यस्यप्ते सुनियतेन्द्रियतत्त्वसारैः॥ मोक्षार्थिभिर्मुनिभिरस्तसमस्तदोषैर्विद्यासि सा भगवती परमा हि देवि ८ शब्दात्मिका सुविमलर्ग्यजुषान्निधानमुद्गरथिरम्यपदपाठवताञ्च साम्नाम्॥ देवी त्रयी भगवतीभवभावनाय वार्त्ता च सर्वजगताम्परमार्त्तिहन्त्री ९ मेधासि
ही को जानकर सदा ध्यान किया करते हैं ८ हे देवि! दोषोंसे रहित ऋचावाली यजुर्वेद पाठत मन्त्रों का और प्रणवयुक्त सुन्दर पद पाठवाली सामवेद पठित मन्त्रों का शब्दस्वरूपिणी तीनों वेदमयी आपही हैं और सब जगत् का संकट हरनेवाली और प्राणियों के जीवनके वास्ते कृषी और वाणिज्य पशुपाल इत्यादि कर्म और वार्त्ताभी आपही हैं९ और हे देवि! मेधा और सरस्वती
सब शास्त्रों की जाननेवाली और दुर्गम संसारसागर से ज्ञानरूपी असंग नौका होकर पार करनेवाली दुर्गा आपही हैं क्योंकि प्राकृत नौका में खेनेवाले इत्यादि का संग रहताहै और विष्णु के हृदय मैं रहनेवाली लक्ष्मी और महादेवजी के अर्धाङ्ग म रहनेवाली गौरी आपही हैं १० और हे देवि! बड़े आश्चर्य की बातहै कि आपके मुसकराते हुये मुखको जो पूर्णमासी के निर्मल चन्द्रमा और उत्तम
देवि विदिताखिलशास्त्रसारा दुर्गास दुर्गभवसागरनौरसङ्गा॥ श्रीःकैटभारिहृदयैककृताधिवासा गौरी त्वमेव शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा १० ईषत्सहासममलम्परिपूर्णचन्द्रबिम्बानुकारिकनकोत्तमकान्तिकान्तम्॥ अत्यद्भुतं प्रहृतमाप्तरुषा तथापि वक्त्रं विलोक्य सहसा महिषासुरेण ११ दृष्ट्वा तु देवि कुपितं भ्रुकुटीकरालमुद्यच्छशाङ्कसदृशच्छवि यन्न सद्यः॥ प्राणान्मुमोच महिषस्तदतीव चित्रं कैर्जीव्यते हि कुपितान्तकदर्श
सुवर्ण की ज्योतिसमान है देखने पर भी महिषासुर का चित्र समर में आसक्त न हुआ और उसका क्रोध न शान्त हुआ वह महिषासुर बड़ा शूर था जो आपके ऐसे सुख को जो सम्पूर्ण जगत्को मोहनेवाला है देखकर मोहित न हुआ ११ और हे देवि! आपकी क्रोधसंयुक्त तिरछी भौंहें और करालरूप और उदयकाल के लालचन्द्रमा समान सुख आपका देखकर महिषासुर शीघ्रही वहीं न मरगया यह और भी आश्चर्य की बात है क्योंकि क्रोधयुक्त कृतांन्त को देखकर कौन जीसक्ता
है १२ हे देवि! हमलोगों पर आप दयालु रहिये आप सदा दयावती हैं जब जब हमलोगों पर कष्टपरता है तब तब आप हमारे दुःखों को नाश करदेती हैं यह सब बातें हम यथोचित जानते हैं क्योंकि महिषासुर को सहित उसकी प्रबल सेना के इसीसमय आपने नाश करदिया है १३ हे देवि ! जिन लोगों पर आप सदा दयालु और प्रसन्न रहती हैं वही लोग धन्यहैं और उन्हीं को
नेन १२ देवि प्रसीद परमा भवती भवाय सद्यो विनाशयसि कोपवती कुलानि॥ विज्ञातमेतदधुनैव यदस्तमेतन्नीतम्बलं सुविपुलम्महिषासुरस्य १३ ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषान्तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः॥ धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना १४ धर्म्याणि देवि सकलानि सदैव कर्माण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति॥ स्वर्गं प्रयाति च ततो भवतीप्रसादाल्लो
महात्मालोग बड़ा समझते हैं और उन्हींलोगों को हमेशा धन और यश और अर्थ और धर्म और काम और मोक्ष प्राप्त होता है और उन्हीं के स्त्री और पुत्र और नौकर चाकर सदा पुष्ट रहतेहैं १४ हे देवि! जिन पुण्यात्मालोगों पर आप दयालु रहती हैं वही लोग आपकी दयासे सदा श्रद्धायुक होकर नित्य नैमित्तिकआदि धर्म कर्म किया करते हैं और आपही की दया से वे लोग धर्म कर्म करके स्वर्ग को प्राप्त होते हैं आपही की दया से लोग ज्ञान पाकर मोक्ष पाते हैं और तीनों लोक
में फलदाता आपही हैं १५ हे देवि! जो कोई संकटमें आपका स्मरण करताहै उसका संकट निवारण करदेती हैं और जो लोग आपका ध्यान करते हैं उनको आप अविचल ज्ञान देती हैं दारिद्रय और दुःख और भय की नाश करनेवाली आपके समान सर्वोपकारक और दयावान् चित्त दूसरा कोई नहीं है १६ हे देवि! आपने इन्हीं दो बातों के वास्ते दैत्योंको मारा है एकतो संसार को
कत्रयेपि फलदा ननु देवि तेन १५ दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृतामतिमतीवशुभां ददासि॥ दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता १६ एभिर्हतैर्जगदुपैति सुखन्तथैते कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम्॥ संग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु मत्वेति नूनमहितान्विनिहंसि देवि १७ दृष्ट्वैव किन्न भवती प्रकरोति भस्म सर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम्॥ लोकान्प्रयान्तु रिपवोऽपि
सुख हो दूसरे दैत्यलोग पापी नारकी हैं संग्राम में मारेजाने से उनको स्वर्ग प्राप्त हो १७ और हे देवि! दैत्यलोग इस संग्राम में आपकी कोपदृष्टिसे भस्म होसक्ते थे शस्त्र चलाने की कुछ आवश्यकता न थी परन्तु इस हेतुसे उन लोगोंपर आपने शस्त्र चलाया कि आपका शस्त्र लगकर मरने से वे लोग निष्पाप होकर स्वर्गमें जावें इससे ज्ञात होताहै कि दुष्टोंपर भी आपकी दया रहतीहै तो
आपके भक्तोंके भाग्यका वर्णन कहांतक कियाजाय १८ और हे देवि! असुरों की आंखैं जो आपके शूल और खड्ग की चमक से न फूटीं इसका यही कारण है कि आपके ललाट को वे लोग देखते रहे जिसमें अमृत किरणयुक्त अर्धचन्द्रमा विराजमान है १९ और हे देवि! आपका स्वभाव सिद्धगुण है जिससे पापियों का भी पाप नाश होता है और आपका अचिन्त्यरूप उपमारहित है और
हि शस्त्रपूता इत्थम्मतिर्भवति तेष्वपि तेतिसाध्वी १८ खड्गप्रभानिकरविस्फुरणैस्तथोग्रैः शूलाग्रकान्तिनिवहेन दृशोसुराणाम्॥ यन्नागताविलयमंशुमदिन्दुखण्डयोग्याननन्तव विलोकयतान्तदेतत् १९ दुर्वृत्तवृत्तशमनं तव देवि शीलं रूपं तथैतदविचिन्त्यमतुल्यमन्यैः॥ वीर्यञ्च हन्तृहृतदेवपराक्रमाणां वैरिष्वपि प्रकटितैव दया त्वयेत्थम् २० केनोपमा भवतु तेऽस्य पराक्रमस्य रूपश्च शत्रुभयकार्यतिहारि कुत्र॥ चित्ते
आपने जो अपना पराक्रम देवताओंके सतानेवाले राक्षसोंको देखाकर माराहै तो इससे आपकी दयालुता प्रकट होती है २० और हे देवि! आपका यह पराक्रम और दुष्टोंको भय देनेवाला और उनको नाश करनेवाला रूप और दुष्टोंके ऊपर चित्त में तो दया और प्रकट में समर विषय उनलोगोंके साथ कठोरता यह सब बातें तीनों लोकमें सिवाय आपके और किसमें हैं कि जिसके साथ
आपकी उपमा दीजाय २१ और हे देवि! आपने समर में दुष्टों का नाश करके जो तीनों लोककी रक्षा की है और उन शत्रुओं को स्वर्ग में प्राप्त किया है और हम सवका भय दूर कियाहै इन सब बातों के गुणानुवाद में सिवाय प्रणाम करने के और क्या हम सब से होसक्ताहै २२ हे अम्बिके देवि! आप अपने शूल से और घण्टा बजाने और धनुष चढ़ाने की आवाज से हमलोगों की रक्षा
कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टा त्वय्येव देवि वरदे भुवनत्रयेपि २१ त्रैलोक्यमेतदखिलंरिपुनाशनेन त्रातं त्वया समरमूर्द्धनि तेपि हत्वा॥ नीता दिवं रिपुगणा भयमप्यपास्तमस्माकमुन्मदसुरारिभवन्नमस्ते २२ शूलेन पाहिनो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके॥ घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च २३ प्राच्यां रक्ष प्रतीच्याञ्च चण्डिके रक्ष दक्षिणे॥ भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि २४ सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते॥ यानि चात्यर्थघोराणि तैरक्षास्मांस्तथा भुवम् २५ खड्गशूलगदादीनि
कीजिये २३ और हे चण्डिके! आप अपने शूलको घुमाकर पूर्व और पश्चिम और दक्षिण और उत्तर दिशामें और इसीतरह चारों कोणोंमें भी हे ईश्वरी! रक्षा कीजिये २४ और आपका तीनों लोकमें सृष्टि पालन करनेवाला और नाश करनेवाला जो मङ्गल और भयानक रूपहै ऐसे रूपसे हम सबकी और पृथ्वीकी रक्षा कीजिये २५ और हे अम्बिके! आपके करपल्लव में खड्ग और शूल और गदा
इत्यादि जो सब अस्त्र विराजमान हैं उन अस्त्रों से हम सबकी सर्वत्र रक्षा कीजिये २६ मेधाऋषि कहते हैं कि हे सुरथ! जब इसतरह सब देवतालोगोंने नन्दनवन के दिव्य फूलों और गन्ध और चन्दन इत्यादिसे पूजन और स्तुति जगद्धात्री भगवती का किया २७ और सम्पूर्ण देवतालोगों ने भक्तिपूर्वक दिव्य धूपके धूमसे जब भगवती को प्रसन्न किया तब भगवती कृपा करके उन देव-
यानि चास्त्राणि तेऽम्बिके॥ करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वतः २६॥ ऋषिरुवाच॥ एवं स्तुता सुरैर्दिव्यैः कुसुमैर्नन्दनोद्भवैः॥ अर्च्चिता जगतां धात्री तथा गन्धानुलेपनैः २७ भक्त्या समस्तैस्त्रिदशैर्दिव्यैर्द्धपैस्तु धूपिता॥प्राह प्रसादसुमुखी समस्तान्प्रणतान् सुरान् २८॥ देव्युवाच॥ व्रियतां त्रिदशास्सर्वे यदस्मत्तोभिवाञ्छितम्॥ देवा ऊचुः॥ भगवत्या कृतं सर्वन्न किञ्चिदवशिष्यते २९ यदयन्निहतश्शत्रुरस्माकं महिषासुरः॥ यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकम्महेश्वरि ३० संस्मृता संस्मृता त्वन्नो हिंसे
ताओंकी तरफ़ सम्मुख होकर बोलीं २८ देवी ने कहा कि हे देवतालोगो! जो तुम्हारी इच्छाहो वह मुझसे मांगो मैं दूंगी देवताओंने कहा कि हे भगवती! आप हमलोगों की सब इच्छा पूर्ण करचुकीं अब कुछ बाकी नहीं है २९ क्योंकि हमलोगों का शत्रु जो महिषासुर था उसको आपने मारा परन्तु हे महेश्वरी! जो आप हम सबको वर देनाही चाहती हैं ३० तो हम लोगोंनेंभी आपका बहुत
ध्यान कियाहै एक तो हम सबकी परम विपत्ति को आप सदा प्रसन्न होकर नारा किया कीजिये और हे अमलानने! इस स्तोत्र से जो मनुष्य आपकी स्तुतिकरे ३१ उसके ज्ञान और ऐश्वर्यसंयुक धन और स्त्री और पुत्र इत्यादिकी वृद्धिके वास्ते हे अम्बिके! सव दिन आप उसपर सहाय रहिये ३२ मेधाऋषि कहते हैं कि हे राजन्! इस तरह देवतालोगों ने अपने और दूसरों के वास्ते भगवतीकी
थाः परमापदः॥ यश्च मर्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने ३१ तस्य वितर्द्धिविभवैर्घनदारादिसम्पदाम्॥ वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथास्सर्वदाम्बिके ३२॥ ऋषिरुवाच॥ इति प्रसादिता देवैर्जगतोर्थे तथात्मनः॥ तथेत्युक्त्वा भद्रकाली बभूवान्तर्हिता नृप ३३ इत्येतत्कथितं भूप सम्भूता सा यथा पुरा॥ देवी देवशरीरेभ्यो जगत्त्रयाहेतैषिणी ३४ पुनश्च गौरीदेहात्सा समुद्रुता यथाभवत्॥ वधाय दुष्टदैत्यानां तथा शुम्भनिशुम्भयोः ३५ रक्षणाय च लोकानां देवानामुपकारिणी॥ तच्छृणुष्व मयाख्यातं
प्रार्थना की तब वह भद्रकाली प्रसन्न होकर एवमस्तु कहकर अन्तर्धान होगई ३३ हे राजन्! देवताओंके शरीर से तीनोंलोक के उपकार के वास्ते जिसतरह देवी उत्पन्न हुई उसका वृत्तान्त तो सव तुमसे वर्णन किया ३४ फिर जिसतरह दुष्ट दैत्यों और शुम्भ और निशुम्भ के मारनेके वास्ते गौरी के शरीर से देवाजी प्रकट हुई ३५ और सव लोकों की रक्षा और देवताओं का उपकार किया
उसका वृत्तान्त भी विस्तारपूर्वक वर्णन करता हूं सुनो ३६ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिकेमन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये शक्रादिकृतदेव्याः स्तुतिर्न्नाम चतुर्थोऽध्यायः॥ ४ ॥
ऋषि कहते हैं कि हे सुरथ! पूर्वकाल में शुम्भ और निशुम्भ दोनों असुरों ने अपने बलके अहङ्कारसे इन्द्र का राज्य और सम्पूर्ण देवताओं का यज्ञभाग हरण करके तीनों लोकको अपने
यथावत्कथयामि ते ३६ इति श्री मार्कण्डेयपुराणे सावर्णिकेमन्वन्तरे देवीमाहात्म्येशक्रादिकृतदेव्याः स्तुतिर्न्नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
ऋषिरुवाच॥ पुरा शुम्भनिशुम्भाभ्यामसुराभ्यां शचीपतेः॥ त्रैलोक्यं यज्ञभागाश्च हृता मदबलाश्रयात् १ तावेव सूर्यतान्तद्वदधिकारन्तथैन्दवम्॥ कौबेरमथ याम्यञ्च चक्राते वरुणस्य च २ तावेव पवनर्द्धिञ्च चक्रतुर्वह्निकर्म च॥ ततो देवा विनिर्द्धूता भ्रष्टराज्याः पराजिताः ३ हृताधिकारास्त्रिदशास्ताभ्यां सर्वे निराकृताः॥ महा
वश में करलिया १ और सूर्य और चन्द्रमा और कुबेर और यम और वरुणका भी अधिकार छीनकर आपही करनेलगा २ इसीतरह पवन और अग्निका अधिकार भी आपही करताथा तब देवता लोग उसके डर से कांपकर और पराजित होकर अपनी राज्य से अलग होगये ३ तौभी उनदोनों असुरोंने देवताओंको चैन न लेने दिया सबको स्वर्गसे निकाल दिया तब देवताओं ने अप-
राजिता देवीका ध्यान किया ४ और शोचा कि भगवती ने हम सबको पूर्वही वरदान दियाहै कि जब तुमलोग विपत्तिमें मेरा ध्यान करोगे तब मैं उसी समय तुम्हारी विपत्ति लुड़ादूंगी ५ तात्पर्य यह हैं कि देवतालोग यह बात अपने जी में शोचकर हिमवान् नाम गिरिराज पर गये और वहां जाकर विष्णुमाया भगवती की इस तरह स्तुति करनेलगे ६ कि उस देवीको हमलोग हित चित
सुराभ्यां तान्देवीं संस्मरन्त्यपराजिताम् ४ तयास्माकं वरो दत्तो यथापत्सु स्मृताखिलाः॥ भवतां नाशयिष्यामि तत्क्षणात्परमापदः ५ इति कृत्वा मतिं देवा हिमवन्तन्नगेश्वरम्॥ जग्मुस्तत्र ततो देवीं विष्णुमायां प्रतुष्टुवुः ६ देवा ऊचुः॥ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततन्नमः॥ नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणतास्स्म ताम् ७ रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमोनमः॥ ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततन्नमः८ कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमोनमः॥ नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै
से प्रणाम करतेहैं जो ब्रह्मादिकों से स्वर्ग इत्यादि का व्यवहार कराती है और कल्याण करती है और सबकी उत्पत्ति और पालन करनेवाली हैं ७ और उसी देवी को हम सब हरसमय प्रणाम करते हैं जो सबकी नाश करनेवाली और आप अविनाशी है और गौरी है और सम्पूर्ण जगत् की धारण करनेवाली ज्योतिस्स्वरूपिणी परमानन्दरूपा है ८ और प्रणतजनों का कल्याण करने-
वाली और वृद्धि और सिद्धि देनेवाली भगवती जो पर्वतोंकी लक्ष्मी और शिवशक्ति और शर्वाणी है उसको हमलोग बारंबार प्रणाम करतेहैं ९ और संसारसागरसे पार करनेवाली दुर्गा और सब जगत्का कार्य करनेवाली और प्रकृति पुरुष में भेद ज्ञानरूपिणी और कृष्णा अर्थात् काली और धूम्रा अर्थात् जिनका रूप धुआंसा है उनको हमारा प्रणाम है १० और उस भगवती को हमारा बारं-
ते नमोनमः ९ दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै॥ ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततन्नमः १० अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमोनमः॥ नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमोनमः ११ या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः १२ या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते॥ नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः १३ या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता॥नमस्त
बार प्रणामहै जो संसार को स्थिर करनेवाली और अत्यन्त दयावती और संसार में प्रवृत्ति करनेवाली अतिरौद्रा है और सम्पूर्ण जगत् का कारण और देवशक्ति और क्रियारूप है ११ और जो देवी सब प्राणियों में विष्णुमाया मूलविद्या कहलाती हैं उनको मन वचन कर्मसे हमलोग प्रणाम करते हैं १२ और जो देवी सब प्राणियों में चैतन्यरूप होकर विराजती हैं उनको हमलोग प्रणाम करते हैं १३ और जो देवी सब प्राणियों में बुद्धिरूप होकर विराजती हैं उनको हम सबका प्रणाम
है १४ और जो देवी सब प्राणियों में निद्रारूप होकर विराजती हैं उनको हमारा प्रणाम है १५ और जो देवी सब प्राणियों में क्षुधारूप होकर रहती हैं उनको हमारा प्रणाम है १६ और जो देवी सब प्राणियों में छायारूप होकर रहती हैं उनको हमारा प्रणामहै १७ और जो देवी सब प्राणियों
स्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः १४ या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः १५ या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः १६ या देवी सर्वभूतेषु छायारूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः १७ या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः १८ या देवी सर्व भूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः १९ या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः २० या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोन
में शक्तिरूप होकर रहती हैं उनको हमारा प्रणाम है १८ और जो देवी सब जीवों में तृष्णारूप होकर विराजती हैं उनको हमारा प्रणामहै १९ और जो देवी सब किसीमें क्षमा रूप होकर रहती हैं उनको हमारा प्रणाम है २० और जो देवी सब प्राणियों में जातिरूप होकर विराजती हैं
उनको हमारा प्रणाम है २१ और जो देवी सब प्राणियों में लज्जारूप होकर विराजती हैं उनको हमारा प्रणाम है २२ और जो देवी सब प्राणियों में शान्तिरूप होकर विराजती हैं उनको हमारा प्रणाम है २३ और जो देवी सब प्राणियों में श्रद्धारूप होकर विराजती हैं उनको हमारा प्रणाम
मः २१ या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः २२ या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः २३ या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः २४ या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः २५ या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता॥ नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः २६ या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः २७ या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण
है २४ और जो देवी सब जीवोंमें कान्ति अर्थात् तेजरूप होकर विराजतीहैं उनको हमारा प्रणाम है २५ और जो देवी सबप्राणियों में लक्ष्मीरूप होकर विराजती हैं उनको हमारा प्रणाम है २६ और जो देवी सब जीवों में जीविकारूप होकर विराजती हैं उनको हमारा प्रणामहै २७ और जो
देवी सब प्राणियों में स्मृति अर्थात् अनुभवरूप होकर विराजती हैं उनको हमारा प्रणामहै २८ और जो देवी सब प्राणियों में दयारूप होकर विराजती हैं उनको हमारा प्रणाम है २९और जो देवी सब प्राणियों में तुष्टि अर्थात् सन्तोषरूप होकर विराजती हैं उनको हमारा प्रणाम है ३० और जो देवी सब प्राणियों में मातारूप होकर विराजती हैं उनको हमारा प्रणाम है ३१ और जो
संस्थिता॥ नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः २८ या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः २९ या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ३० या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ३१ या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता॥नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः ३२ इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानामखिलेषु या॥ भूतेषु सततन्तस्यै व्याप्त्यै देव्यै नमोनमः ३३ चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद्व्याप्य स्थिता जगत्॥ नमस्तस्यै नमस्तस्यै
देवी सब प्राणियों में भ्रान्तिरूप होकर विराजती हैं उनको हमारा प्रणाम है ३२ और जो देवी सब प्राणियों में इन्द्रियों की मालिक और सबमें व्याप्त हैं उनको हम सबका प्रणाम है ३३ फिर बह देवी जो चैतन्यशक्तिरूप होकर सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त हैं उनको मन वचन कर्म से हमलोग
प्रणाम करते हैं ३४ और जिस देवी ईश्वरी भगवती कल्याण की कारण को ब्रह्मा आदि देवताओं ने पहिले स्तुति की है और महिषासुर के वध होने पर अपना वाञ्छित मनोरथ सिद्ध होने से इन्द्र ने जिनकी सेवा की है वह देवी हमलोगों की विपत्ति को नाश करके अत्यन्त कल्याण करें ३५ और वह देवी हमलोगों की सम्पूर्ण विपत्तिको हरण करें जिनकी स्तुति इससमय प्रबल दैत्यों से
नमस्तस्यै नमोनमः ३४ स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रयात्तथासुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता॥ करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ३५ या साम्प्रतञ्चोद्धतदैत्यतापितैरस्माभिरीशा च सुरैर्न्नमस्यते॥ या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नस्सर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः ३६ ऋषिरुवाच॥ एवं स्तवादियुक्तानान्देवानान्तत्र पार्वती॥ स्नातुमभ्याययौ तोये जाह्नव्या नृपनन्दन ३७ साब्रवीत्तान्सुरान्सुभ्रूर्भवद्भि
पीड़ित होकर हमलोग करते हैं और जो देवी हमलोगों के स्मरण करनेपर शीघ्रही सम्पूर्ण विपत्ति को नाश करती हैं ३६ मेधाऋषि कहते हैं कि हे राजा सुरथ! इसतरह देवताओंके स्तुति करने से प्रसन्न होकर श्रीपार्वतीजी शिवशक्तिरूप से गंगास्नान करने के बहाने से देवताओं के सामने प्रकट हुई ३७ और उनलोगों से कहने लगीं कि तुमलोग किसकी स्तुति करतेहौ तत्पश्चात्
उनके शरीर से सात्त्विकरूप सरस्वती शिवा प्रकट होकर देवताओं से कहने लगीं ३८ कि तुम देवता लोग समर में शुम्भ और निशुम्भ असुरों से पराजित होकर फिर यहां इकट्ठा होकर हमारी स्तुति करतेहौ३९मेधाऋषि कहते हैं कि हे सुरथ! जोकि वह देवी श्रीपार्वतीजी के शरीरकोश से प्रकट हुई इससे कौशिकी कहलाती हैं ४० और वह देवी उसी हिमाचल पर्वतपर रहने लगीं
स्स्तूयतेऽत्र का॥शरीरकोशतश्चास्याः समुद्भूताब्रवीच्छिवा ३८ स्तोत्रम्ममैतत् क्रियते शुम्भदैत्यनिराकृतैः॥ देवैस्समेतैस्समरे निशुम्भेन पराजितैः ३९शरीरकोशाद्यत्तस्याः पार्वत्या निस्सृताम्बिका॥ कौशिकीति समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते ४० तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत्सापि पार्वती॥ कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया ४१ ततोम्बिकां परं रूपम्बिभ्राणां सुमनोहरम्॥ ददर्श चण्डो मुण्डश्च भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः ४२ ताभ्यां शुम्भाय चाख्याता अतीवसुमनोहरा॥ काप्यास्ते स्त्री
इनके प्रकट होनेसे अर्थात् निकलजाने से श्रीपार्वतीजी कृष्णा अर्थात् काली होगई इसीसे कालिका कहलानेलगीं ४१ दैवयोगसे उस अम्बिकादेवी के मनोहररूप को शुम्भ निशुम्भके नौकरों ने जिनका नाम चण्ड मुण्ड था देखा ४२ और वे दोनों अपने स्वामी शुम्भ के पास जाकर वोले
कि हे महाराज! एक स्त्री मनहरण अपने प्रकाश से सम्पूर्ण हिमाचल पर्वत को प्रकाशमान कियेहुये है ४३ ऐसा उत्तमरूप किसीका मैंने कभी नहीं देखा है निश्चय होताहै कि वह कोई देवी है हे असुरेश्वर! इस देवीको आप ग्रहण कीजिये ४४ क्योंकि वह स्त्री अत्यन्त सुन्दरी सब स्त्रियों में रत्न है हिमाचल पर्वतपर अपने शरीर के प्रकाश से दशों दिशाको प्रकाशित कररही है आपके
महाराज भासयन्ती हिमाचलम् ४३ नैव तादृक्क्वचिद्रूपं दृष्टं केनचिदुत्तमम्॥ ज्ञायतां काप्यसौ देवी गृह्यताञ्चासुरेश्वर ४४ स्त्रीरत्नमतिचार्वङ्गी द्योतयन्ती दिशस्त्विषा॥सा तु तिष्ठति दैत्येन्द्र ताम्भवान्द्रष्टुमर्हति ४५ यानि रत्नानि मणयो गजाश्वादीनि वै प्रभो॥ त्रैलोक्ये तु समस्तानि साम्प्रतम्भान्ति ते गृहे ४६ ऐरावतस्समानीतो गजरत्नं पुरन्दरात्॥ पारिजाततरुश्चायं तथैवोच्चैश्श्रवा हयः ४७ विमानं हंससंयुक्तमेतत्तिष्ठति तेऽङ्गणे॥ रत्नभूतमिहानीतं यदासीद्वेधसोऽद्भुतम् ४८ निधिरेष महा
देखने योग्य है उसको देखिये ४५ क्योंकि जितने रत्न और मणि और हाथी और घोड़े त्रिलोक में रत्न हैं वे सब इस समय आपके घरमें वर्तमानहैं ४६ जिसप्रकार ऐरावत गजरत्न को इन्द्र से छीनकर आप लाये और पारिजात वृक्षरत्न को और घोड़ों में रत्न उच्चैश्श्रवा घोड़ेको लाये ४७ और ब्रह्माका हंसयुक्त विमानरत्नभी आप अपने बलसे लेआकर घरमें रक्खाहै जो अबतक वर्तमान है ४८
और महापद्मनाम निधि जो सब निधियों में रत्न है उसको भी आप कुबेर से छीनकर लेआये और अमल कञ्ज की किञ्जल्किनी नाम माला समुद्रने आपको डरकर देदिया ४९ और वरुण का छाता जो सुवर्णवर्षण करताहै वहभी आपके घर में मौजूद है इसीतरह उत्तम स्यन्दन अर्थात्रथभी जो पहिले प्रजापति के पास था आपके घर में मौजूद है ५० और मृत्युउत्क्रान्तिदा नाम
पद्मस्समानीतो धनेश्वरात्॥ किञ्जल्किनीं ददौ चाब्धिर्म्मालामम्लानपङ्कजाम् ४९छत्रन्ते वारुणङ्गेहे काञ्चनस्रावि तिष्ठति॥ तथायं स्यन्दनवरो यः पुरासीत्प्रजापतेः ५० मृत्योरुत्क्रान्तिदानाम् शक्तिरीश त्वयाहृता॥ पाशस्सलिलराजस्य भ्रातुस्तव परिग्रहे ५१ निशुम्भस्याब्धिजाताश्च समस्ता रत्नजातयः॥वह्निरपि ददौ तुभ्यमग्निशो चे च वाससी ५२ एवं दैत्येन्द्र रत्नानि समस्तान्याहृतानि ते॥स्त्रीरत्नमेषा कल्याणी
अर्थात् मौत देनेवाली मृत्युशक्ति भी आप छीनकर ले आये हैं और वरुण का पाश छीनकर आप के भाई निशुम्भ अपने हाथ में रक्खे हुये हैं ५१ और जो जो रत्न समुद्र से उत्पन्न हैं वे सब निशुम्भ के हाथ में सर्वकाल रहते हैं और अग्निने मारेडरके आपके पहिरने के वास्ते सुन्दर वस्त्र का आभरण देदिया है ५२ हे दैत्येन्द्र! इसी तरह जितने रत्न हैं वे सब आपने हरण करके अपने
पास रक्खे हैं तो यह कल्याणी स्त्रीरत्न को आप क्यों नहीं ग्रहण करते हैं ५३ मेधाऋषि कहते हैं कि हे सुरथ! यह वचन चण्ड मुण्ड का सुनकर शुम्भने सुग्रीव नाम दूत को देवी के पास भेजा ५४ और उससे कहदिया कि मेरा यह हुक्म उसको सुनावो और जिसतरह वह राज़ी होकर आवे उसीतरह लेआवो ५५ तब वह दूत शुम्भ की आज्ञा पाकर उस पर्वतपर जहां देवीजी रहती थीं
त्वया करमान्न गृह्यते ५३॥ ऋषिरुवाच॥ निशम्येति वचश्शुम्भस्स तदा चण्डमुण्डयोः॥ प्रेषयामास सुग्रीवं दूतं देव्या महासुरम् ५४ इति चेति च वक्तव्या सा गत्वा वचनान्मम॥ यथा चाभ्येति सम्प्रीत्या तथा कार्यं त्वया लघु ५५ स तत्र गत्वा यत्रास्ते शैलोद्देशेऽतिशोभने॥ सा देवी तान्ततः प्राह श्लक्ष्णम्मधुरया गिरा ५६॥ दूतउवाच॥ देवि दैत्येश्वरः शुम्भस्त्रैलोक्ये परमेश्वरः॥ दूतोऽहं प्रेषितस्तेन त्वत्सका शमिहागतः ५७ अव्याहताज्ञस्सर्वासु यः सदा देवयोनिषु॥ निर्जिताखिलदैत्यारिः
जाकर कोमल शब्दसे कहनेलगा ५६ कि हे देवि! शुम्भनाम दैत्यों का राजा जो तीनों लोक का ईश्वर है उसका भेजा हुआ मैं आपके पास आया हूं ५७ उसका हुक्म देवतालोग मानते हैं और वह सब देवताओंका भी ईश्वरहै उसने जो संदेशा आपसे कहनेको मुझसे कहा है वह मैं कहता
हूं सुनिये ५८ अर्थात् उसने कहाहै कि यह त्रैलोक्य हमारा है और सब देवतालोग हमारे वश में हैं और सब यज्ञों का भाग पृथक् पृथक् मैं ही लेताहूं ५९ और तीनों लोक में जो अच्छे अच्छेरत्न हैं वे सब मेरे पासहैं जैसा कि हाथियों में रत्न ऐरावत हाथी मैंने इन्द्र से छीनलिया है ६० और समुद्रमथन में जो उच्चैश्श्रवा घोड़ा रत्न निकला था उसको भी देवतालोग हाथ जोड़कर मुझे दे
स यदाह शृणुष्व तत् ५८ मम त्रैलोक्यमखिलम्ममदेवावशानुगाः॥ यज्ञभागानहं सर्वानुपाश्नामि पृथक् पृथक् ५९ त्रैलोक्ये वररत्नानि ममवश्यान्यशेषतः॥ तथैव गजरत्नञ्च हृत्वा देवेन्द्रवाहनम् ६० क्षीरोदमथनोद्भूतमश्वरत्नं ममामरैः॥ उच्चैश्श्रवससंज्ञं तत्प्रणिपत्य समर्पितम् ६१ यानि चान्यानि देवेषु गन्धर्वेषूरगेषु च॥ रत्नभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने ६२ स्त्रीरत्नभूतां त्वां देवि लोके मन्यामहे वयम्॥ सात्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्नभुजो वयम् ६३ मां वा ममानुजं वापि निशुम्भमुरुविक्रम
गये ६१ और देवगण और गन्धर्बगण और नागगण के पास जो जो रत्नथे वे सबके सब मेरे पास मौजूद हैं ६२ और इसलोक में मैं तुमको रत्न समझताहूं इससे तुम मेरे पास चली आवो क्योंकि इस समय रत्नभोक्ता मैं ही हूं ६३ मेरे पास अथवा मेरे छोटे भाई निशुम्भ के पास जहां तुम्हारी
इच्छा हो आकर रहो और सेवा करो क्योंकि तुम रत्नरूप हौ ६४ मेरी सेवा करने से तुमको अतुल धन प्राप्त होगा इन बातों का विचार करके मेरी स्त्री होकर रहो ६५ मेधाऋषि कहते हैं कि हे राजन्! इस तरह जव असुर के दूतने देवीसे कहा तब वह दुर्गा भगवती जो जगत् के कल्याण के वास्ते शरीर धारण करती हैं मुसकराकर बहुत गम्भीर शब्द से बोलीं ६६ कि तुमने जो कहा
म्॥ भज त्वं चञ्चलापाङ्गिरत्नभूतासि वै यतः ६४ परमैश्वर्यमतुलम्प्राप्स्यसे मत्परिग्रहात्॥ एतद्बुद्ध्या समालोच्य मत्परिग्रहतां व्रज ६५॥ ऋषिरुवाच॥ इत्युक्ता सा तदा देवी गम्भीरान्तस्मिता जगौ॥ दुर्गा भगवती भद्रा ययेदं धार्यते जगत् ६६॥ देव्युवाच॥ सत्यमुक्तन्त्वया नात्र मिथ्या किञ्चित्त्वयोदितम्॥ त्रैलोक्याधिपतिश्शुम्भो निशुम्भश्चापि तादृशः ६७ किन्त्वत्र यत्प्रतिज्ञातं मिथ्या तत्क्रियते कथम्॥ श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञा या कृता पुरा ६८ यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्प्पं व्य
वह सब सत्य है किञ्चित् मिथ्या नहीं है शुम्भ और निशुम्भ तीनों लोक के मालिक हैं ६७ परन्तु स्वामी करने के वास्ते जो मैंने प्रतिज्ञा की है उसको किस प्रकार मिथ्या करूं प्रतिज्ञा छोड़ना बड़ा दोष है मैंने मूर्खता से जो प्रतिज्ञा पहिले की है वह सुनो ६८ प्रतिज्ञा मेरी यहहै कि जो कोई समर में मुझको जीतले या जो मेरे अहंकार को किसी तरह तोड़दे अथवा जिसको मेरे बराबर बल हो
वही मेरा पति होगा ६९ऐसी सामर्थ्य जो शुम्भ में हो अथवा निशुम्भ में हो तो यहां आकर मुझको समर में जीतकर इसीसमय विवाह लें ७० यह बात सुनकर दूत बोला कि हे देवि! इस तरह घमण्ड की बात हमारे आगे मत बोलो तीनों लोक में ऐसा कौन पुरुष समर्थ है जो शुम्भ निशुम्भ के आगे खड़ारहे तुमतो स्त्री हो ७१ और जो उनके दूसरे दैत्य लोगहैं उनके सामने भी
पोहति॥ यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति ६९ तदागच्छतु शुम्भोऽत्र निशुम्भो वा महासुरः॥ मां जित्वा किञ्चिरेणात्र पाणिं गृह्णातु मे लघु ७०॥ दूत उवाच॥ अवलिप्तासि मैवं त्वं देवि ब्रूहि ममाग्रतः॥ त्रैलोक्ये कः पुमांस्तिष्ठेदग्रे शुम्भनिशुम्भयोः ७१ अन्येषामपि दैत्यानां सर्वे देवा न वै युधि॥ तिष्ठन्ति सम्मुखे देवि किं पुनस्स्त्री त्वमेकका ७२ इन्द्राद्याः सकला देवास्तस्थुर्येषां न संयुगे॥ शुम्भादीनाङ्कथं तेषां स्त्री प्रयास्यसि संमुखम् ७३ सा त्वं गच्छ मयैवोक्तापार्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः॥
कोई देवता समर में नहीं खड़ेहोसक्ते तुमतो स्त्री और अकेलीहो किसतरह समरमें सामना उनका करसकोगी ७२ और जिन शुम्भ इत्यादि असुरोंके आगे इन्द्रआदि सम्पूर्ण देवता मिलकर समर में नहीं खड़ेहोसके हैं उन लोगों के साथ तुम स्त्री होकर किसतरह रण चाहती हो ७३ मेरा कहा
मानो तुम शुम्भ निशुम्भके पास चलो नहीं तो कोई दूसरा दुष्ट दैत्य उनका आवेगा तो वह तुम्हारा सव घमण्ड तोड़कर और तुम्हारे शिरके बाल पकड़कर लेजायगा ७४ दूत की यह बात सुनकर देवी बोलीं कि सत्य है शुम्भ और निशुम्भ ऐसेही बली और पराक्रमी हैं परन्तु क्या करूं मैं पहिले विना विचारे ऐसी प्रतिज्ञा करचुकीहूं अव दूसरी बात नहीं होसक्ती ७५ अव तुम जावो और जो
केशाकर्षणनिर्द्धतगौरवा मा गमिष्यसि ७४॥ देव्युवाच॥ एवमेतद्बली शुम्भो निशुम्भश्चातिवीर्यवान्॥ किङ्करोमि प्रतिज्ञा मे यदनालोचिता पुरा ७५ स त्वं गच्छ मयोक्तं ते यदेतत्सर्वमादृतः॥ तदाचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्तङ्करोतु यत् ७६ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणेसावर्णिकेमन्वन्तरेदेवीमाहात्म्ये देव्यादूतसंवादोनामपञ्चमोऽध्यायः॥५॥
ऋषिरुवाच॥ इत्याकर्ण्य वचो देव्याः स दूतोमर्षपूरितः॥ समाचष्ट समागम्य
कुछ मैंने तुमसे कहाहै वह सब न्यूनाधिक बिना असुरों के स्वामी शुम्भ से जाकर कहो फिर इस बात में जो यत्न वे सोचेंगे करेंगे ७६ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिकेमन्वन्तरे देवीमाहात्म्येदेव्यादूतसंवादोनाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
मेधाऋषि कहते हैं कि हे सुरथ! इतनी बातें देवीजीकी सुनकर वह दूत ईर्षासंयुक्त हो दैत्य-
राज अर्थात् शुम्भ के पास गया और देवीकी सब बातें विस्तारपूर्वक कहसुनाया १ दूतकी बात सुनतेही वह असुरराज शुम्भ क्रोधित होकर अपने सेनापति धूम्रलोचन से कहनेलगा २ कि हे धूम्रलोचन! तुम अपनी सेना को साथ लेकर शीघ्र वहां जावो और उस दुष्टा को केश पकड़कर विह्वल करके ज़वरदस्ती यहां लेआवो ३ जो उसका कोई रक्षक सामना करे चाहे वह देवता हो
दैत्यराजाय विस्तरात् १ तस्य दूतस्य तद्वाक्यमाकर्ण्यासुरराट् ततः॥ सक्रोधः प्राह दैत्यानामधिपन्धूम्रलोचनम् २ हे धूम्रलोचनाशु त्वं स्वसैन्यपरिवारितः॥ तामानय बलाद्दृष्टां केशाकर्षणविह्वलाम् ३ तत्परित्राणदः कश्चिद्यदिवोत्तिष्ठतेपरः॥ सहन्तव्योऽमरो वापि यक्षो गन्धर्ब एव वा ४॥ ऋषिरुवाच॥ तेनाज्ञप्तस्ततः शीघ्रं सदैत्यो धूम्रलोचनः॥ वृतः षष्ट्यासहस्राणामसुराणां द्रुतं ययौ ५ स दृष्ट्वा तां ततो देवीं तु हिनाचलसंस्थिताम्॥ जगादोच्चैः प्रयाहीति मूलं शुम्भनिशुम्भयोः ६ न चेत्प्रीत्याद्य
चाहे यक्ष चाहे गन्धर्ब कोई हो उसको तुम मारडालना ४ ऋषि कहते हैं कि इतनी आज्ञा शुम्भ की पाकर शीघ्रही वह धूम्रलोचन साठहज़ार असुर साथ लेकर चला ५ और वहां जाकर उस हिमाचलपर्वतपर देवीको विराजमान देखकर बड़े शब्द से बोला कि तुम शुम्भ निशुम्भके पास चलो ६ यदि प्रीतिसंयुक्त मेरे स्वामी के पास नहीं चलोगी तो तुम्हारा झोंटा पकड़कर विह्वल
करके बरजोरी लेजाऊँगा ७ देवीने कहा कि तुम दैत्यराजकी आज्ञासे सेना साथ लेकर आयेहो बलवान् हो यदि बरजोरी मुझे लेजावगे तो मैं क्या करसकूंगी ८ मेधाऋषि कहते हैं कि इतना कहने पर वह असुर धूम्रलोचन क्रोधकरके देवीपर दौड़ा तब अम्बिका देवीने हुंकार शब्द करके उसको भस्म करडाला ९ तत्पश्चात् असुरों की सेना महाक्रोध करके लड़ने के वास्ते उपस्थित हुई और
भवती मद्भर्तारमुपैष्यति॥ ततो बलान्नयाम्येष केशाकर्षणविह्वलाम् ७॥ देव्युवाच॥ दैत्येश्वरेण प्रहितो बलवान् बलसंवृतः॥ बलान्नयसि मामेवं ततः किं ते करोम्यहम् ८॥ ऋषिरुवाच॥ इत्युक्तस्सोभ्यधावत्तामसुरो धूम्रलोचनः॥ हुङ्कारेणैवतम्भस्म सा चकाराम्बिका ततः ९ अथ क्रुद्धं महासैन्यमसुराणान्तथाम्विका॥ ववर्षसायकैस्तीक्ष्णैस्तथा शक्तिपरश्वधैः १० ततो धुतसटः कोपात्कृत्वा नादं सुभैरवम्॥ पपातासुरसेनायां सिंहो देव्यास्स्ववाहनः ११ कांश्चित् करप्रहारेण दैत्यानास्येन
देवीजीं भी क्रोधसंयुक्त होकर अच्छे २ बाणों और शक्ति और परशुकी वर्षा करने लगीं १० तब देवीजी के वाहन अर्थात् सिंहने अपने मनमें विचार किया कि विना सेनापति के समरमें देवीको परिश्रम करना उचित नहीं इससे अपनी पूंछ हिलाकर गर्जता हुआ असुरों की सेनामें कूदकर पहुँचा ११ और किसीको हाथ के प्रहार से किसीको मुखसे किसीको अपने भ्रमण के जोर धकासे किसी को
अपने ओठ से मारडाला १२ और किसी का उस सिंहने नख से पेटही फाड़डाला और किसीको हाथहीसे मारकर शिर तोड़डाला १३ और कितनोंका उस सिंहने बाहु और शिर काटडाला और कितनों का पेंट फारकर रुधिर पान करलिया १४ इसीतरह उस देवी के वाहन सिंह ने अत्यन्त कोप करके क्षणमात्र में उस असुरदल को मारडाला १५ जब देवी के हाथसे धूम्रलोचनका मरना
चापरान्॥ आक्रान्त्या चाधरेणान्यान् स जघान महासुरान् १२ केषांचित्पाटयामास नखैः कोष्ठानि केशरी॥ तथा तलप्रहारेण शिरांसि कृतवान् पृथक् १३ विच्छिन्नबाहुशिरसः कृतास्तेन तथापरे॥ पपौ च रुधिरं कोष्ठादन्येषान्धुतकेशरः १४ क्षणेन तद्वलं सर्वं क्षयन्नीतं महात्मना॥ तेन केशरिणा देव्या वाहनेनातिकोपिना १५ श्रुत्वा तमसुरं देव्या निहतं धूम्रलोचनम्॥ बलश्च क्षयितं कृत्स्नं देवीकेशरिणा ततः १६ चुकोप दैत्याधिपतिश्शुम्भः प्रस्फुरिताधरः॥ आज्ञापयामास च तौ चण्डमुण्डौ महासुरौ १७ हे चण्ड हे मुण्ड बलैर्बहुलैः परिवारितौ॥ तत्र गच्छत गत्वा च
और उनके वाहन सिंह करके सम्पूर्ण सेना का नाश होना शुम्भने सुना १६ तब दैत्योंका अधिपति शुम्भ अत्यन्त क्रोधित हुआ और मारेक्रोध के ओठ कँपाने लगा तब चण्ड और मुण्डादि असुरों से कहा १७ कि हे चण्ड! हे मुण्ड! तुमलोग वहुतसी सेना लेकर वहां जावो और उस
देवी को जल्द ले आवो १८ केश पकड़कर अथवा वांधकर लेआना यदि यह भी न होसकै तो सब कोई मिलकर अस्त्रोंसे समरकर मार ही डालना १९ और उस दुष्टाके मारेजाने पर उसके वाहन सिंहको भी मारडालना और जल्द आवो शक्तिभर उस अम्बिकाको वांधहीकर लेआना २० इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिकेमन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये धूम्रलोचनवधोनाम षष्ठोऽध्यायः॥ ६ ॥
सा समानीयतां लघु १८ केशेष्वाकृष्य बद्ध्वा वा यदि वः संशयो युधि॥ तदाशेषायुधैस्सर्वैरसुरैर्विनिहन्यताम् १९ तस्यां हतायां दुष्टायां सिंहे च विनिपातिते॥ शीघ्रमागम्यतां बद्ध्वा गृहीत्वा तामथाम्बिकाम् २० इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहांत्म्ये धूम्रलोचनवधोनाम षष्ठोऽध्यायः॥६॥
ऋषिरुवाच॥ आज्ञप्तास्ते ततो दैत्याश्चण्डमुण्डपुरोगमाः॥ चतुरङ्गबलोपेताययुरभ्युद्यतायुधाः १ ददृशुस्ते ततो देवीमीषद्धासां व्यवस्थिताम्॥ सिंहस्योपरि शैलेन्द्रशृङ्गे महति काञ्चने २ ते दृष्ट्वा तां समादातुमुद्यमञ्चक्रुरुद्यताः॥ आकृष्टचापासि
मेधाऋषि कहते हैं कि हे सुरथ! इसतरह शुम्भकी आज्ञा पाकर चण्ड और मुण्ड इत्यादि सब दैत्य अस्त्र शस्त्र संयुक्त चतुरङ्गिणी सेना लेकर देवीजी को लेआने के वास्ते गये १ तब उन असुरोंने हिमाचल पर्वतके शृङ्गपर सिंहपर चढ़ी हुई मन्द २ मुसुकरातीहुई भगवतीको देखा २
यह देखकर राक्षसोंमें से कोई तो अपना धनुष् चढ़ाकर कोई खड्ग लेकर समीप जाकर देवीजीको पकड़नेपर नियुक्त हुआ ३ तब अम्बिका देवीने उन शत्रुओंपर ऐसा क्रोध किया कि मारे क्रोधके भगवती का शरीर उस समय कज्जल के सदृश काला होगया ४ और उस कोपसे भगवती के भ्रुकुटी कुटिलसंयुक्त ललाट से शीघ्रही हाथों में खड्ग और पाश धारण कियेहुये भयानक मुख
धरास्तथान्ये तत्समीपगाः ३ ततः कोपञ्चकारोच्चैरम्बिका तानरीन्प्रति॥ कोपेन चा स्यावदनम्मसीवर्णमभूत्तदा ४ भ्रुकुटीकुटिलात्तस्या ललाटफलकाद्द्रुतम्॥ काली करालवदना विनिष्क्रान्तासिपाशिनी ५ विचित्रखट्वाङ्गधरा नरमालाविभूषणा॥द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा ६ अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा॥ निमग्ना रक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा ७ सा वेगेनाभिपतिता घातयन्ती महासुरान्॥
वाली श्रीकालीजी प्रकट हुईं ५ और वह विचित्रखट्वांगधरा अर्थात् मुरदेका पांजर अथवा खटियाका अङ्ग लियेहुये और मुण्डमाल पहिने हुये और बाघकी खाल ओढ़े हुये अत्यन्त भयावनी विना मांसका शरीर ६ और मुख से बड़ीभारी जीभ काढ़े हिलाती हुई और भयानक कुवां के समान गहिरे तीन नेत्र धारण कियेहुये और अपने गर्जनशब्द से दशों दिशा को पूरित करती हुई ७ वह काली बड़े वेगसे उस असुरदल में पहुँचकर उन महाअसुरों को मारने लगीं वहांतक
कि सम्पूर्ण राक्षसदल को भक्षण करगई ८ और एकही हाथ से सटा मारकर सहित महावत और सवार और घण्टा इत्यादिक हाथियों को पकड़कर अपने मुख में डाललिया ९ इसीतरह घोड़ों को भी सहित उनके सवारों के और रथों को भी सहित उनके कोचवानों के मुखमें डालकर दांतों से चबाडाला १० और किसीके केश पकड़कर किसीको छाती का धक्का मारकर किसी
सैन्ये तत्र सुरारीणामभक्षयत तद्बलम् ८ पार्ष्णिग्राहाङ्कुशग्राहियोधघण्टासमन्वितान्॥ समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप वारणान् ९ तथैव योधं तुरगै रथं सारथिना सह॥निक्षिप्य वक्रे दशनैश्चर्वयन्त्यतिभैरवम् १० एकं जग्राह केशेषु ग्रीवायामथ चापरम्॥ पादेनाक्रम्य चैवान्यमुरसान्यमपोथयत् ११ तैर्मुक्तानि च शस्त्राणि महास्त्राणि तथासुरैः॥ मुखेन जग्राह रुषा दशनैर्मथितान्यपि १२ बलिनां तद्वलं सर्वमसुराणान्दुरात्मनाम्॥ममर्दाभक्षयच्चान्यानन्यांश्चाताडयत्तथा १३ असिना निहताः केचित्
का गला दबाकर किसी को पांवतले दबाकर मारडाला ११ और जो असुर महाअस्त्र और शस्त्र चलाते थे उन सबको क्रोधसंयुक्त मुख में डालकर दांतोंसे पीसडाला १२ और बड़े बड़े बली महाअसुरोंको हथियारों से मारडाला और कितनों को खागई १३ कितने तो तलवारकी मार से
और कितने खट्वाङ्गकी मारसे और कितने दन्ताग्र अर्थात् दांतों की नोक के मार से मरगये इसीतरह असुरों की सब सेना नाश को प्राप्त होगई १४ तात्पर्य यह है कि एकही क्षणमात्र में जब देवीजीने सम्पूर्ण सेना को नाश करदिया तब वह चण्ड और मुण्ड आप श्रीकालीजी की तरफ दौड़ा १५ और महाभयंकर वाणों की वर्षा करके और हजारों चक्रभी फेंककर कालीजी
केचित्खट्वाङ्गताडिताः॥ जग्मुर्विनाशमसुरा दन्ताग्राभिहतास्तथा १४ क्षणेन तद्बलं सर्वमसुराणां निपातितम्॥ दृष्ट्वा चण्डोभिदुद्राव तां कालीमतिभीषणाम् १५ शरवर्षैर्महाभीमैर्भीमाक्षीं ताम्महासुरः॥ छादयामास चक्रैश्च मुण्डः क्षिप्तैस्सहस्रशः १६ तानि चक्राण्यनेकानि विशमानानि तन्मुखम्॥ वभुर्यथार्कबिम्बानि सुबहूनि घनोदरम् १७ ततो जहासातिरुषा भीमम्भैरवनादिनी॥ काली करालवक्रान्तर्दुर्दर्शदशनोज्ज्वला १८ उत्थाय च महासिं हं देवी चण्डमधावत॥ गृहीत्वा चास्य केशेषु शि
को छापलिया १६ वह सब चक्र कालीजी के मुखपर सटसटकर ऐसे मालूम होते थे कि जैसे मेघ में बहुतसे सूर्योकी किरण शोभायमान हो १७ उस समय बड़े भयंकर मुख और दांत दिखलाकर कालीजी महागर्जसंयुक्त हँसीं १८ और महाखड्ग उठाकर बड़े क्रोधसंयुक्त (हं) ऐसा
शब्द उच्चारण करके चण्डकी तरफ़ दौड़ीं और केश पकड़कर शिर उसका काटलिया १९ जब चण्ड मारागया तब मुण्ड देखकर दौड़ा तो उसको भी कालीजी ने मारकर पृथ्वीपर गिरादिया २० फिर तो उन दोनों चण्ड और मुण्ड के मारे जानेपर बाक़ी सेना असुरोंकी डर डर जहां तहां भागगई २१ तब कालीजी चण्ड और मुण्ड का शिर धड़सहित लेकर बड़े जोर से हँसतीहुई
रस्तेनासिनाच्छिनत् १९ अथ मुण्डोऽप्यधावत्तां दृष्ट्वा चरडं निपातितम्॥ तमप्यपातयद्भूमौ साखङ्गाभिहतंरुषा २० हतशेषं ततः सैन्यं दृष्ट्वा चएडं निपातितम्॥ मुण्डञ्च सुमहावीर्यं दिशो भेजे भयातुरम् २१ शिरश्चण्डस्य काली च गृहीत्वा मुण्डमे व च॥ प्राह प्रचण्डाट्टहासमिश्रमभ्येत्य चण्डिकाम् २२ मया तवात्रोपहृतौ चण्ड मुण्डौ महापशू॥ युद्धयज्ञे स्वयं शुम्भं निशुम्भं च हनिष्यसि २३॥ ऋषिरुवाच॥ तावानीतौ ततो दृष्ट्वा चण्डमुण्डौ महासुरौ॥ उवाच कालीं कल्याणीं ललितं चण्डि
चण्डिका देवी के पास जिनके ललाट से निकली थीं आकर बोलीं २२ कि हे देवि! इस समर के यज्ञ में मैंने तुम्हारे वास्ते इन दोनों महापशु चण्ड और मुण्डको बलिदान दिया है इसी बलिसे तृप्त होकर तुम अपने हाथ से शुम्भ और निशुम्भको मारौगी २३ मेधाऋषि कहते हैं कि हे सुरथ! उस महाअसुर चण्ड और मुण्ड के मृतक शरीर को देखकर चण्डिका देवी कालीजी से कहने
लगीं २४ कि जोकि तुम चण्ड मुण्डको मारकर मेरे सामने लाई हो इसवास्ते हे देवि! तुम चामुण्डा नामसे जगत् में विख्यात होगी २५ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिकेमन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये चण्डमुण्डवधोनाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥
फिर मेधाऋषि कहते हैं कि हे सुरथ! जब कालीजीने चण्ड और मुण्ड इत्यादि दैत्योंको मार
कावचः २४ यस्माच्चण्डञ्च मुण्डञ्च गृहीत्वा त्वमुपागता॥चामुण्डेति ततो लोकेख्याता देवि भविष्यसि २५ इति श्रीमार्कंडेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये चण्डमुण्डवधोनाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥
** ऋषिरुवाच॥ चण्डे च निहते दैत्ये मुण्डे च विनिपातिते॥ बहुलेषु च सैन्येषु क्षयितेष्वसुरेश्वरः १ ततः कोपपराधीनचेताश्शुम्भः प्रतापवान्॥ उद्योगं सर्वसैन्यानां दैत्यानामादिदेश ह २ अद्य सर्वबलैर्दैत्याः षडशीतिरुदायुधाः॥ कम्बूनां चतुरशीतिर्नि**
डाला और बाकीं सेना को घायल किया तब असुरों के मालिक १ महाप्रतापी शुम्भ ने कोपसे व्याकुल होकर दैत्योंकी सेनाको देवीसे लड़नेके वास्ते तैयार होनेका हुक्म दिया २ कि इससमय जो उदायुधनाम छियासी बलवान् दैत्य हैं और कम्बूनाम जो चौरासी दैत्यहैं वे सबलोग अपनी
अपनी सेना लेकर देवीसे लड़ने को चलैं ३ और कोटिवीर्य नाम जो पचास दैत्यहैं और धूम्रवंश के जो सौ असुर हैं वे सबकोई तैयार होकर लड़ने के वास्ते चलैं ४ और कालका नाम करके जो असुरहैं और दुर्हृदनाम असुरके जो बेटेलोग हैं और मौर्यानाम करके जो असुर हैं और कालका के बेटेलोग सबके सब युद्धका सामान लेकर रणभूमि में जायँ ५ इसतरह की प्रबल आज्ञा देकर
र्यान्तु स्वबलैर्वृताः ३ कोटिवीर्याणि पञ्चाशदसुराणां कुलानि वै॥ शतंकुलानि धौम्राणां निर्गच्छन्तु ममाज्ञया ४ कालका दौर्हृदा मौर्या : कालकेयास्तथासुराः॥ युद्धाय सज्जा निर्यान्तु आज्ञया त्वरिता मम ५ इत्याज्ञाप्यासुरपतिश्शुम्भो भैरवशासनः॥ निर्जगाम महासैन्यः सहस्रैर्बहुभिर्वृतः ६ आयान्तं चण्डिका दृष्ट्वा तत्सैन्यमतिभीषणम्॥ ज्यास्वनैः पूरयामास धरणीगगनान्तरम् ७ ततः सिंहो महानादमतीव कृतवान् नृप॥ घण्टास्वनेन तन्नादमम्बिका चोपबृंहयत् ८ धनुर्ज्यासिंहघण्टानां नादापूरितदिङ्मु
वह शुम्भ असुरोंका मालिक हज़ारों फ़ौज अपने साथ लेकर लड़नेके वास्ते निकला ६ इस तरह की भयानक सेना बहुत सी देखकर चण्डिका देवीने अपने धनुष् को चढ़ाया कि जिसके चढ़ाने का शब्द आकाश और पाताल में पहुँचा ७ तत्पश्चात् वह सिंह देवीका वाहन भी गर्जा और उसके गर्जनेका शब्द चण्डिका के घण्टे के शब्दसे मिलकर औरभी बढ़गया ८ इंसतरह सिंह
और धनुष् और घण्टे की आवाज से दशोंदिशा गूॅंज उठीं और अम्बिका देवी के धनुष् के भयानक शब्द के आगे काली की गर्ज नीचे पड़गई ऐसा शब्द सुनकर दैत्यों की सेना ने क्रोध करके काली और सिंहको चारों तरफ़ से घेर लिया १० उस समय उन असुरों के नाश और देवताओं के कल्याण होने के वास्ते बड़े बड़े वीरों को साथ लेकर ११ ब्रह्मा और महादेव और विष्णु और
खा॥ निनादैर्भीषणैः काली जिग्ये विस्तारितानना ९ तन्निनादमुपश्रुत्य दैत्यसैन्यैश्चतुर्द्दिशम्॥ देवी सिंहस्तथा काली सरोषैः परिवारिताः १० एतस्मिन्नन्तरे भूप विनाशाय सुरद्विषाम्॥ भवायामरसिंहानामतिवीर्यबलान्विताः ११ ब्रह्मेशगुहविष्णूनां तथेन्द्रस्य च शक्तयः॥ शरीरेभ्यो विनिष्क्रम्य तद्रूपैश्चण्डिकां ययुः १२ यस्य देवस्य यद्रूपं यथाभूषणवाहनम्॥ तद्वदेव हि तच्छक्तिरसुरान् योद्धुमाययौ १३ हंसयुक्तविमानाग्रे साक्षसूत्रकमण्डलुः॥ आयाता ब्रह्मणः शक्तिर्ब्रह्माणी साभिधीयते १४
इन्द्र और अन्य देवतालोगों की शक्तियां उन्हीं देवताओं का रूप धारण करके चण्डिका देवी के पास पहुँचीं १२ और जिन जिन देवताओंका जैसा जैसा रूप और जैसी सवारी और जैसी पोशाक थी वैसीही उन देवताओंकी शक्तियां भी धारण करके असुरोंसे युद्ध करनेके वास्ते आई १३ अर्थात् हंसयुक्त विमानपर बैठकर हाथ में माला और कमण्डलु लियेहुये ब्रह्माजी की शक्ति जो ब्रह्माणी
कहलाती हैं १४ और एक बड़ा त्रिशूल हाथ में लियेहुये महातक्षक सर्प बाहु में लपेटे चन्द्रकला भूषण शरीर में पहिने महादेव की शक्ति माहेश्वरी आई १५ इसी तरह हाथ में सांग लिये मोरके ऊपर सवार युद्ध करने के वास्ते कार्त्तवीर्य की शक्ति कौमारी आई १६ इसीतरह चक्र गदा शङ्खधनुष्हाथों में लियेहुये चतुर्भुजी विष्णुकी शक्ति लक्ष्मीजी गरुड़पर सवार होकर आई १७ और
माहेश्वरी वृषारूढा त्रिशूलवरधारिणी॥ महाहिबलया प्राप्ता चन्द्ररेखाविभूषणा १५ कौमारी शक्तिहस्ता च मयूरवरवाहना॥ योद्धुमभ्याययौ दैत्यानम्बिका गुहरूपिणी १६ तथैव वैष्णवी शक्तिर्गरुडोपरिसंस्थिता॥ शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गखड्गहस्ताभ्युपाययौ १७ यज्ञवाराहमतुलं रूपं या बिभ्रती हरेः॥ शक्तिः साप्याययौ तत्र वाराहीम्बिभ्रती तनुम् १८ नारसिंही नृसिंहस्य बिभ्रती सदृशं वपुः॥ प्राप्ता तत्र सटाक्षेपक्षिप्तनक्षत्रसंहतिः १९ वज्रहस्ता तथैवैन्द्री गजराजोपरिस्थिता॥ प्राप्ता सहस्रनयना
अतुलयज्ञ वाराहरूप धारण करनेवाली जो विष्णु की शक्ति हैं वहभी वाराहीरूप बनाकर आई १८ और नृसिंहजीकी शक्ति नारसिंहीका रूप बनाकर रणभूमि में आई जो अपना झंडा आकाश में फहराकर नक्षत्रों को अलग अलग करती थीं १९ इसीतरह हाथ में वज्रलिये ऐरावत हाथी पर
सवार सहस्रलोचन इन्द्रकी शक्ति भी उस रणभूमि में पहुँची २० इसके बाद उन देवशक्तियों के साथ महादेवजी भी वहां आकर चण्डिका से बोले कि इन असुरोंको शीघ्र मारकर मुझे तृप्तकरो २१ इसी अन्तर में चण्डिका देवी के शरीरसे प्रकट होकर बहुत भयानक स्वभाववाली हजारों सियारिनी बोलती हुई साथ लेकर २२ वहां अपराजिता धूम्रवर्णा जटाधारी आकर महादेवजी से
यथा शक्रस्तथैव सा २० ततः परिवृतस्ताभिरीशानो देवशक्तिभिः॥ हन्यन्तामसुराश्शीघ्रम्मम प्रीत्याह चण्डिकाम् २१ ततो देवीशरीरात्तु विनिष्क्रान्तातिभीषणा॥चण्डिका शक्तिरत्युग्रा शिवा शतनिनादिनी २२ सा चाह धूम्रजटिलमीशानमपराजिता॥ दूत त्वं गच्छ भगवन्पार्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः २३ ब्रूहि शुम्भं निशुम्भञ्च दानवा वतिगर्वितौ॥ ये चान्ये दानवास्तत्र युद्धाय समुपस्थिताः २४ त्रैलोक्यमिन्द्रो लभतां देवाः सन्तु हविर्भुजः॥ यूयं प्रयात पातालं यदि जीवितुमिच्छथ २५ बलावलेपादथ
बोलीं कि हे भगवन्! आप मेरी ओरसे दूत होकर शुम्भ और निशुम्भ के पास जाइये २३ और उस घमण्डी दैत्यसे और दूसरे असुरलोगों से भी जो लड़ाई करने के वास्ते आयेहों उन सबसे कहिये २४ कि अव इन्द्र अपना त्रिलोक का राज्य करेंगे और देवतालोग अपना यज्ञभाग लेंगे इससे तुमलोगों की भलाई और जिन्दगी इसीमें है कि तुमलोग पाताल में चलेजावो २५ और
जो तुमलोग बलके अहंकार से युद्ध करना चाहतेहो तो आते जावो कि तुमलोगों का मांस मेरी सियारिनी खा खाकर तृप्त होजायँ २६ जोकि उस समय देवीने साक्षात् महादेवजीको अपना दूत बनाया था इसलिये वह भगवती शिवदूती कहलाती हैं २७ तात्पर्य यह है कि देवीकी आज्ञानुसार महादेवजीने असुरों से जाकर कहा तब वे असुरलोग इस देवी की बातको बुरा मानकर
चेद्भवन्तो युद्धकाङ्क्षिणः॥ तदा गच्छत तृप्यन्तु मच्छिवाः पिशितेन वः २६ यतो नियुक्तो दौत्येन तया देव्या शिवः स्वयम्॥ शिवदूतीति लोकेस्मिंस्ततः सा ख्यातिमागता २७ तेपि श्रुत्वा वचो देव्याः शर्वाख्यातम्महासुराः॥ अमर्षापूरिता जग्मुर्यतः कात्यायनी स्थिता २८ ततः प्रथममेवाग्रे शरशक्त्यृष्टिवृष्टिभिः॥ ववर्षुरुद्धतामर्षास्तान्देवीममरारयः २९ सा च तान्प्रहितान्बाणाञ्च्छूलशक्तिपरश्वधान्॥ चिच्छेद लीलयाध्मातधनुर्मुक्तैर्महेषुभिः ३० तस्याग्रतस्तथा काली शूलपातविदारितान्॥ खट्वाङ्ग
जहांपर वह देवी विराजमान थी वहां पर सब असुर गये २८ और भगवतीके सामने जातेही मतवालों की तरह उनपर बाणों और शक्तियों का मेह वर्षानेलगे २९ परन्तु देवीजी ने उनके चलाये हुये बाणों और शूल और शक्ति और फरसा इत्यादिको अपने धनुष् बाण से काटडाला ३० इसी तरह देवीजी के चलायेहुये हथियारों को भी उन असुरोंने अपने बाणों से काटडाला तब काली
जी जो देवीजीके ललाटसे निकली थीं अपने शूल और खट्वाङ्ग से असुरों को मारती हुई उस रणमें विचरनेलगीं ३१ और ब्रह्माजीकी शक्ति उस रण में घूम घूमकर अपने कमण्डलु का पानी छिड़क छिड़क कर उन असुरों का बल और तेज हरण करतीथीं ३२ इसीतरह माहेश्वरी क्रोधयुक्त अपने त्रिशूल से और वैष्णवी अपने चक्र से और कौमारी अपनी शक्तिसे दैत्योंको मारती
पोथितांश्चारीन्कुर्वती व्यचरत्तदा ३१ कमण्डलुजलाक्षेपहतवीर्यान्हतौजसः॥ ब्रह्माणी चाकरोच्छत्रून्येन येन स्म धावति ३२ माहेश्वरी त्रिशूलेन तथा चक्रेण वैष्णवी॥ दैत्यान् जघान कौमारी तथा शक्त्यातिकोपना ३३ ऐन्द्री कुलिशपातेन शतशो दैत्यदानवाः॥ पेतुर्विदारिताः पृथ्व्यां रुधिरौघप्रवर्षिणः ३४ तुण्डप्रहारविध्वस्ता दंष्ट्राग्रक्षतवक्षसः॥ वाराहमूर्त्यान्यपतंश्चक्रेण च विदारिताः ३५ नखैर्विदारितांश्चा
थीं ३३ और ऐन्द्री के वज्रपातसे हज़ारों दैत्य और दानव कटेहुये रुधिरप्रवाह करतेहुये पृथ्वीपर गिरेपड़ेथे ३४ और वाराही के तुण्डके प्रहारसे विध्वस्त और उनके दन्ताग्रसे छाती फट फटकर और चक्रकी मारसे टुकड़े टुकड़े हो होकर पृथ्वी पर गिरेपड़े थे ३५ और कितने असुरोंको नारसिंही अपने नखोंसे फाड़ फाड़कर खाती थीं और उस रणभूमि में टहल टहलकर अपने मर्जका
शब्द दशो दिशामें पहुँचातीथीं ३६ और कितने असुर महाप्रचण्ड अट्टहास से डरकर और उन शिवदूती के शूलसे कटकटकर पृथ्वी के ऊपर गिरजाते थे और उनको वह खाजाती थीं ३७ इसी तरह उन महाअसुरों को तरह तरहके उपायों से शक्तियों ने मारडाला और जो कुछ सेना असुरों की बाक़ी रहगई वह शक्तियों का कोप देखकर भाग गई ३८ उन शक्तियोंसे पीड़ित होकर भागते
न्यान्भक्षयन्ती महासुरान्॥ नारसिंही चचाराजौ नादापूर्णदिगन्तरा ३६ चण्डाट्टहासैरसुराः शिवदूत्यभिदूषिताः॥ पेतुः पृथिव्याम्पतितांस्तांश्चखादाथ सा तदा ३७ इति मातृगणं क्रुद्धं मर्दयन्तम्महासुरान्॥ दृष्ट्वाभ्युपायैर्विविधैर्नेशुर्देवारिसैनिकाः ३८ पलायनपरान्दृष्ट्वा दैत्यान्मातृगणार्दितान्॥ योद्धुमभ्याययौ क्रुद्धो रक्तबीजो महासुरः ३९ रक्तबिन्दुर्यदा भूमौ पतत्यस्य शरीरतः॥ समुत्पतति मेदिन्यास्तत्प्रमाणस्तदासुरः ४० युयुधे सगदापाणिरिन्द्रशक्त्या महासुरः॥ ततश्चैन्द्री स्ववज्रेण रक्तबीजमताड
हुये दैत्यों की सेनाको देखकर बड़े कोप के साथ रक्तबीज नाम असुर उस संग्राम में लड़ने के वास्ते उपस्थित हुआ ३९ और स्वभाव उसका यह था कि घाव लगने से जितने बूंद रुधिर के उसके शरीर से पृथ्वीपर गिरें उतनेही असुर उसके समान उत्पन्न होजायँ ४० तात्पर्य यहहै कि
वह रक्तबीज महाअसुर हाथ में गदा लेकर इन्द्रकी शक्तिसे लड़ने लगा तथा च इन्द्रकी शक्तिने अपने वज्रसे रक्तबीज को मारा ४१ उस वज्र के घावलगने से जितने बूंद रुधिर के उसके शरीर से पृथ्वीपर गिरे उतनेही असुर रक्तबीज के समान उसी समय प्रकट होगये ४२ अर्थात् जितने रक्तबिन्दु उसके शरीर से निकलतेथे उतने असुर पराक्रमी रक्तबीज के समान उत्पन्न होते थे ४३
यत् ४१ कुलिशेनाहतस्याशु बहु सुस्राव शोणितम्॥ समुत्तस्थुस्ततो योधास्तद्रूपास्तत्पराक्रमाः ४२ यावन्तः पतितास्तस्य शरीराद्रक्तबिन्दवः॥ तावन्तः पुरुषा जातास्तद्वीर्यबलविक्रमाः ४३ ते चापि युयुधुस्तत्र पुरुषा रक्तसम्भवाः॥ समम्मातृभिरत्युग्रं शस्त्रपातातिभीषणम् ४४ पुनश्च वज्रपातेन क्षतमस्य शिरो यदा॥ ववाह रक्तम्पुरुषास्ततो जाताः सहस्रशः ४५ वैष्णवी समरे चैनं चक्रेणाभिजघानं ह॥ गदया ताडयामास ऐन्द्री तमसुरेश्वरम् ४६ वैष्णवीचक्रभिन्नस्य रुधिरस्रावसम्भवैः॥ सहस्र
और वे सब असुर उन शक्तियों के साथ लड़ते थे ४४ जब इन्द्र की शक्तिने अपने वज्र से रक्तवीज का शिर काटडाला तब उसके शरीर से बहुतसा रुधिर पृथ्वी पर गिरा और उस रुधिर से हज़ारों असुर उसके समान उत्पन्न हुये ४५ और वे सब इन्द्रकी शक्ति के सामने से भागकर जब वैष्णवीके सामने गये तो वैष्णवीने अपने चक्र और गदासे उसको मारा ४६ उस वज्रका घाव लगनेसे जितना
रुधिर उसके शरीरसे गिरा उससे भी हज़ारों रक्तबीज उत्पन्न हुये और सम्पूर्ण लोक उन रक्तबीजोंसे भरगया ४७ फिर उन रक्तबीज महाअसुरोंको कौमारीने अपनी शक्तिसे और वाराहीने अपने खड्ग से और माहेश्वरीने अपने त्रिशूलसे मारना शुरू किया ४८ और उधरसे उन रक्रवीज महाअसुरोंनेभी उन शक्तियों को अलग अलग करके मारना शुरू किया ४९ निदान सांग और शूल आदि से
शो जगद्व्याप्तं तत्प्रमाणैर्महासुरैः ४७ शक्त्या जघान कौमारी वाराही च तथासि ना॥ माहेश्वरी त्रिशूलेन रक्तबीजम्महासुरम् ४८ स चापि गदया दैत्यस्सर्वा एवाहनत् पृथक्॥ मातॄः कोपसमाविष्टो रक्तबीजो महासुरः ४९ तस्याहतस्य बहुधा शक्तिशूलादिभिर्भुवि॥ पपात यो वै रक्तौघस्तेनासञ्च्छतशोसुराः ५० तैश्चासुरा सृक्सम्भूतैरसुरैः सकलं जगत्॥ व्याप्तमासीत्ततो देवा भयमाजग्मुरुत्तमम् ५१ तान्विषस्मान्सुरान् दृष्ट्वा चण्डिका प्राह सत्वरा॥ उवाच कालीञ्चामुण्डे विस्तरं वदनं कुरु ५२ मच्छस्त्र
जितने शरीर उन रक्तबीज असुरोंके घायल हुये उतनेही उनके रुधिरसे रक्तबीज सब उत्पन्न हुये ५० यहांतक कि उन रक्तबीज असुरों से सम्पूर्ण पृथ्वी भरगई यह दशा देखकर देवताओंको भय उत्पन्न हुआ ५१ तब चण्डिका देवी देवताओंको त्रसित देखकर कालीजी से कहने लगीं कि तुम अपना मुख फैलाओ ५२ मेरे स्त्रश का घाव लगने और रुधिर गिरने से जितने असुरलोग उत्पन्न हों उन
सबको खाजायाकरो और फिर उनका रुधिर पृथ्वीपर गिरने न पावे चाटजायाकरो ५३ और जितने महाअसुर रुधिर से उत्पन्न हुये हैं उन सबको घूम घूमकर खा जाया करो इसतरहसे वे दैत्य क्षय होजायँगे ५४ और फिर और असुर पैदा न होंगे यह सब बातैं कालीजीको समझा कर देवीजी ने रक्तबीजको शूलसे मारा ५५ और जो रुधिर उसके शरीरसे निकला उसको कालीजी ने मुख में ले
पातसम्भूतान् रक्तबिन्दून्महासुरान्॥ रक्तबिन्दोः प्रतीच्छ त्वं वक्रेणानेन वेगिता ५३ भक्षयन्ती चररणे तदुत्पन्नान्महासुरान्॥ एवमेष क्षयन्दैत्यः क्षीणारक्तो गमिष्यति ५४ भक्ष्यमाणास्त्वया चोग्रा न चोत्पत्स्यन्ति चापरे॥ इत्युक्त्वा तान्ततो देवी शूलेनाभिजघान तम् ५५ मुखेन काली जगृहे रक्तबीजस्य शोणितम्॥ ततोसावाजघानाथ गदया तत्र चण्डिकाम् ५६ न चास्या वेदनाञ्चक्रे गदापातोल्पिकामपि॥ तस्याहतस्य देहात्तु बहु सुस्राव शोणितम् ५७ यतस्ततस्तद्वक्रेण चामुण्डा सम्प्र
लिया पृथ्वी के ऊपर गिरने न दिया तब रक्तबीज ने कोप करके देवीजी के ऊपर गदा चलाया ५६ परन्तु उस गदाने देवीजी के ऊपर कुछ असर न किया और देवीजी के बार करने से जो रुधिर उसके शरीरसे निकलता था ५७ उस रुधिरको चामुण्डा देवी मुख में लेलेती थीं और उससे जो
असुर चामुण्डा देवी के मुखमें उत्पन्न होतेथे ५८ उनको चबाजाती थीं इसतरह से जो असुर रुधिर से उत्पन्न हुये थे वे सब समाप्त होगये तब भगवती ने असल रक्तबीजको शूल और वज्र और बाण और खड्ग और ऋष्टिसे मारा ५९ इसतरह जब चामुण्डा देवीने उसका रुधिर पीलिया और देवीजी ने उसको शस्त्रों से मारा तब वह रक्तबीज नीरक्त होकर पृथ्वीके ऊपर मरकर गिरपड़ा ६० मेधा
तीच्छति॥ मुखे समुद्रता येस्या रक्तपातान्महासुराः ५८ तांश्चखादाथ चामुण्डापपौ तस्य च शोणितम्॥ देवी शूलेन वज्रेण बाणैरसिभिॠष्टिभिः ५९ जघान रक्तबीजन्तं चामुण्डापीतशोणितम्॥ सपपात महीपृष्ठे शस्त्रसङ्घसमाहतः ६० नीरक्तश्च महीपाल रक्तबीजो महासुरः॥ ततस्ते हर्षमतुलमवापुस्त्रिदशा नृप ६१ तेषाम्मातृगणो जातो ननर्तासृङ्मदोद्धतः ६२॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये रक्तबीजवधोनामाष्टमोऽध्यायः॥८॥
ऋषि कहते हैं कि हे सुरथ! जब रक्तबीज मरगया तब देवतालोग अतुलहर्षको प्राप्त हुये ६१ और सब शक्तियां रुधिर पी पीकर उस समरभूमि में उनसे उत्पन्न होकर नृत्य करने लगीं ६२॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये रक्तबीजवधोनामाष्टमोऽध्यायः॥८॥
राजा सुरथ ने कहा कि हे भगवन्! देवीजी के चरित्र और प्रभाव और रक्तबीज की लड़ाई और उसके वध होनेकी आश्चर्य कथा तो आपने मुझ से वर्णन किया ९ अव रक्तबीज के मरने पर क्रोध संयुक्त शुम्भ और निशुम्भ ने जो काम किया हो वह मैं सुना चाहताहूं वर्णन कीजिये २ मेधाऋषि कहते हैं कि हे सुरथ! जब उस लड़ाई में रक्तवीज और अन्य असुर सब मारे गये तब
राजोवाच॥ विचित्रमिदमाख्यातम्भगवन् भवता मम॥ देव्याश्चरितमाहात्म्यं रक्तबीजवधाश्रितम् १ भूयश्चेच्छाम्यहं श्रोतुं रक्तबीजे निपातिते॥ चकार शुम्भो यत्कर्म निशुम्भश्चातिकोपनः २॥ ऋषिरुवाच॥ चकार कोपमतुलं रक्तबीजे निपातिते॥ शुम्भासुरो निशुम्भश्च हतेष्वन्येषु चाहवे ३ हन्यमानम्महासैन्यं विलोक्यामर्षमुद्वहन्॥ अभ्यधावन्निशुम्भोऽथ मुख्ययासुरसेनया ४ तस्याग्रतस्तथा पृष्ठे पार्श्वयोश्च महासुराः॥ सन्दष्टौष्ठपुटाः क्रुद्धा हन्तुन्देवीमुपाययुः ५ आजगाम महावीर्यः
शुम्भ और निशुम्भ कोपसंयुक्त ३ अपनी सेना के बड़े बड़े वीरों को मराहुआ देखकर क्रोध में आकर अपनी मुख्य सेना साथ लेकर देवी से लड़ने के वास्ते दौड़े ४ अर्थात् निशुम्भ और उसके साथ चारों तरफ़ से बड़े बड़े असुरलोग दाँत पीसकर देवीजीके मारने के वास्ते चले ५ इसी तरह
शुम्भभी अपनी सेना साथ लेकर रणभूमि में चण्डिकादेवी के मारने के वास्ते आया ६ और देवीजीके साथ दोनोंने बड़ा युद्ध किया दोनों ओरसे बाणों का मेह बरसता था ७ शुम्भ और निशुम्भ के चलायेहुये बाणों को चण्डिका देवी ने अपने बाणों से काटकर अपना बाण उन सबपर मारा ८ तब निशुम्भने भी एक हाथमें ढाल और दूसरे हाथमें तलवार तेज लेकर पहिले देवीजी के वा-
शुम्भोऽपि स्वबलैर्वृतः॥ निहन्तुं चण्डिकां कोपात्कृत्वा युद्धन्तु मातृभिः ६ ततो युद्धमतीवासीद्देव्याः शुम्भनिशुम्भयोः॥ शरवर्षमतीवोग्रं मेघयोरिव वर्षतोः ७ चिच्छेदा स्ताञ्च्छरांस्ताभ्यां चण्डिका स्वशरोत्करैः॥ ताडयामास चाङ्गेषु शस्त्रौघैरसुरेश्वरौ ८ निशुम्भो निशितं खङ्गञ्चर्म चादाय सुप्रभम्॥ अताडयन्मूर्ध्नि सिंहं देव्यावाहनमुत्तमम् ९ ताडिते वाहने देवी क्षुरप्रेणासिमुत्तमम्॥ निशुम्भस्याशु चिच्छेद चर्म चाप्यष्टचन्द्रकम् १० छिन्ने चर्मणि खड्गे च शक्तिञ्चिक्षेप सोसुरः॥ तामप्यस्य द्विधा चक्रे चक्रे
हन सिंह पर मारा ९ देवीजी ने सिंहको उस घाव से पीड़ित देखकर शीघ्रही अपने बाण से निशुम्भ की तलवार को और उसकी ढालको भी जिसमें रत्नों के आठ चन्द्रमा बनेहुये थे काटडाला १० तब निशुम्भ ने शक्ति चलाया देवीजी ने उस शक्तिको भी अपने चक्रसे दो टुकड़े कर
डाला ११ तब निशुम्भ ने क्रोधकरके देवीजी पर शूल चलाया देवीजीने उस शूलको भी अपने मुक्का से चूरचूर करडाला १२ फिर उसने चण्डिका पर गदा चलाया उस गदाकोभी देवीने त्रिशूल से काटडाला १३ तब वह दैत्य हाथ में फरसा लेकर दौड़ा फिर तो देवीजी ने उसको बाणोंसे मारकर पृथ्वीपर गिरादिया १४ उस शूरवीर निशुम्भको पृथ्वीपर गिराहुआ देखकर उसका बड़ा
णाभिमुखागताम् ११ कोपाध्मातो निशुम्भोथ शूलं जग्राह दानवः॥ आयान्तम्मुष्टिपातेन देवी तच्चाप्यचूर्णयत् १२ आविध्याथ गदां सोपि चिक्षेप चण्डिकां प्रति॥सापि देव्या त्रिशूलेन भिन्ना भस्मत्वमागता १३ ततः परशुहस्तं तमायान्तं दैत्यपुङ्गवम्॥ आहत्य देवी बाणौघैरपातयत भूतले १४ तस्मिन्निपतिते भूमौ निशुम्भेभीमविक्रमे॥ भ्रातर्यतीव संक्रुद्धः प्रययौ हन्तुमम्बिकाम् १५ सरथस्थस्तथात्युच्चैर्गृहीतपरमायुधैः॥ भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषम्बभौ नमः १६ तमायान्तं समालोक्य
भाई शुम्भ अत्यन्त क्रोधयुक्त होकर अम्बिका देवी से लड़नेके वास्ते आया १५ अर्थात् वह शुम्भ बहुत ऊँचे रथपर सवार होकर बड़े बड़े आठौ भुजाओंमें अस्त्र और शस्त्रादि धारण कियेहुये और उससे सम्पूर्ण आकाश को प्रकाशित करताहुआ रणभूमि में पहुँचा १६ उसको आतेहुये देखकर
देवीजी ने शङ्ख बजाया और अपने धनुष्कों चढ़ाया जिससे बड़े गर्जका शब्द हुआ १७ और फिर उनके घण्टेका शब्द दशोंदिशामें फैलगया जिससे सबको मालूम हुआ कि अब देवीजी दैत्यों की सेनाको मारैंगी १८ तत्पश्चात् सिंह गर्जा उसके गर्जनेसे आकाश और पाताल किन्तु दशोंदिशा गूंज उठे १९ फिर कालीजीने ऊपर उछलकर दोनों हाथ पृथ्वीपर ऐसा मारा कि जिसका शब्द
देवी शङ्खमवादयत्॥ ज्याशब्दञ्चापि धनुषश्चकारातीव दुस्सहम् १७ पूरयामास ककुभो निजघण्टास्वनेन च॥ समस्तदैत्यसैन्यानां तेजोवधविधायिनाम् १८ ततः सिंहोमहानादैस्त्याजितेभमहामदैः॥ पूरयामास गगनं गां तथोपदिशो दश १९ ततः कालीसमुत्पत्य गगनं क्ष्मामताडयत्॥कराभ्यां तन्निनादेन प्राक्स्वनास्तेतिरोहिताः २० अट्टट्टहासमशिवं शिवदूती चकार ह॥ तैश्शब्दैरसुरास्त्रेसुः शुम्भः कोपं परं ययौ २१ दुरात्मंस्तिष्ठ तिष्ठेति व्याजहाराम्बिका यदा॥ तदा जयेत्यभिहितं दैवैराकाशसंस्थितैः २२ शुम्भेनागत्य या शक्तिर्म्मुक्ता ज्वालातिभीषणा॥आयान्ती वह्निकूटाभा सा
पहिले के गर्जसे भी बढ़गया २० तदनन्तर शिवदूती ऐसे भयङ्कर शब्दसे गर्जीं कि असुरोंकी सेना डरगई और शुम्भको बड़ाक्रोध हुआ २१ फिर जिससमय अम्बिकादेवी ने शुम्भ से कहा कि हे दुरात्मन्! खड़ारहु उससमय देवतालोग आकाश से जय जय मनानेलगे २२ तब शुम्भने आकर
बड़ाभारी सॉंग देवीजीके ऊपर चलाया उस साँग को अग्निके ढेर समान आतेहुये देखकर महोल्कानाम गदासे देवीजीने काटडाला २३ मेधाऋषि कहते हैं कि हे सुरथ! उस समय शुम्भ ऐसा गर्जा कि उसके गर्ज के शब्द से तीनों लोक थर्रागये २४ फिर उससमय शुम्भके चलाये हुये हज़ारों बाणों को देवीजी ने अपने बाणों से काटडाला और इसीतरह शुम्भने भी देवीजी के
निरस्ता महोल्कया २३ सिंहनादेन शुम्भस्य व्याप्तं लोकत्रयान्तरम्॥ निर्घातनिस्वनो घोरो जितवानवनीपते २४ शुम्भमुक्ताञ्च्छरान् देवी शुम्भस्तत्प्रहिताञ्च्छरान्॥ चिच्छेद स्वशरैरुग्रैः शतशोथ सहस्रशः २५ ततस्सा चण्डिका क्रुद्धा शूलेनाभिजघान तम्॥ स तदाभिहतो भूमौ मूर्च्छितो निपपात ह २६ ततो निशुम्भः सम्प्राप्य चेतनामात्तकार्मुकः॥ आजघान शरैर्द्देवीं कालीं केशरिणं तथा २७ पुनश्च कृत्वा
चलाये हुये बाणों को काटडाला २५ तत्पश्चात् चण्डिकादेवी ने क्रोधयुक्त शूल से शुम्भको मारा कि जिससे वह घायल होकर पृथ्वीपर गिरपड़ा २६ तबतक उधरसे निशुम्भ ने चेतमें आकर और हाथ में धनुष् लेकर कालीजी को और उनके वाहन सिंहको बाणों से मारना शुरू किया २७ फिर दशहजार बाहु धारण करके और उन सब हाथों में चक्र लेकर चण्डिका देवी को आच्छादित
करदिया २८ तब उस भगवती दुर्गा दुर्गतिकी नाश करनेवाली ने क्रोधसे उस चक्र को और उसके हाथके धनुष्को अपने बाणों से काटडाला २९ तत्पश्चात् निशुम्भ जल्दी से दैत्यों की सेना साथ लेकर हाथों में गंदा लियेहुये चण्डिकाके मारने के वास्ते दौड़ा ३० उसके आतेही उसकी गदाको चण्डिका ने अपने तीव्रखड्ग से काटडाला तब उसने शूल उठालिया ३१ शूल हाथमें लेकर जब
बाहूनामयुतं दनुजेश्वरः॥ चक्रायुधेन दितिजश्छादयामास चण्डिकाम् २८ ततो भगवती क्रुद्धा दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनी॥ चिच्छेद तानि चक्राणि स्वशरैस्सायकांश्च तान् २९ ततो निशुम्भो वेगेन गदामादाय चण्डिकाम्॥अभ्यधावत वै हन्तुं दैत्यसेनासमावृतः ३० तस्यापतत एवाशु गदाञ्चिच्छेद चण्डिका॥ खड्गेन शितधारेण स च शूलं समाददे ३१ शूलहस्तं समायान्तं निशुम्भममरार्दनम्॥हृदि विव्याध शूलेन वेगाविद्धेन चण्डिका ३२ भिन्नस्य तस्य शूलेन हृदयान्निस्सृतोपरः॥ महाबलो महावीर्यस्तिष्ठेति पुरुषो वदन् ३३ तस्य निष्क्रामतो देवी प्रहस्य स्वनवत्ततः॥ शिरश्चि
निशुम्भ सामने आया तब चण्डिकाने तत्कालही उसकी छाती में अपना शूल मारा ३२ उस शूल के लगने से उसकी छातीसे एक दूसरा महापराक्रमी दैत्य प्रकट होकर खड़ीरहु कहताहुआ निकला ३३ उसके प्रकटहोने पर देवीजी बहुत हँसी और शिर उसका खड्ग से काटकर पृथ्वीपर
गिरादिया ३४ तब सिंह और काली और शिवदूती उन असुरोंके कटेहुये शिर और लोथको खागई ३५ कितने महाअसुर तो कौमारीकी शक्तिसे कटगये और कितने असुर ब्रह्माणीके मन्त्रित जल फेंकने से भस्म होगये ३६ इसीतरह कितने असुर माहेश्वरी के त्रिशूलसे कटकर गिरपड़े और कितने वाराहीके तुण्डसे चूरचूर होकर मरगये ३७ और कितने दानव वैष्णवीके चक्रसे टुकड़े टुकड़े होगये
च्छेद खड्गेन ततोसावपतद्भुवि ३४ ततः सिंहश्चखादोग्रदंष्ट्राक्षुण्णशिरोधरान्॥ असुरांस्तांस्तथा काली शिवदूती तथापरान् ३५ कौमारीशक्तिनिर्ब्भिन्नाः केचिन्नेशुर्महासुराः॥ ब्रह्माणीमन्त्रपूतेन तोयेनान्ये निराकृताः ३६ माहेश्वरीत्रिशूलेन भिन्नाः पेतुस्तथापरे॥ वाराहीतुण्डघातेन केचिच्चूर्णीकृता भुवि ३७ खण्डखण्डञ्च चक्रेण वैष्णव्या दानवाः कृताः॥ वज्रेण चैन्द्रीहस्ताग्रविमुक्तेन तथापरे ३८ केचिद्विनेशुरसुराः केचिन्नष्टा महाहवात्॥ भक्षिताश्चापरे काली शिवदूतीमृगाधिपैः ३९ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिकेमन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये निशुम्भवधोनाम नवमोऽध्यायः॥९॥
और कितने असुर इन्द्राणी के हाथसे वज्रकी चोट खाकर मरगये ३८ इसतरह बहुत असुर मारे गये और बहुतेरे रणसे भागगये और कितनोंको काली और शिवदूती और सिंहने खालिया ३९ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिकेमन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये निशुम्भवधोनाम नवमोऽध्यायः॥९॥
इतनी कथा कहकर मेधाऋषि कहनेलगे कि हे सुरथ! शुम्भ अपने भाई निशुम्भको सेना सहित मरा हुआ देखकर क्रोधसंयुक्त होकर भगवती से कहने लगा १ कि हे दुर्गे! तुम अपने बलका घमण्ड मत करो शक्तियों के बलसे लड़ती हो और अपने को महाबली समझतीहो २ देवीजीने कहा कि हे दुष्ट! इस जगत् में मैं अकेली हूं कोई शक्ति मुझसे अलग नहीं है यह सब शक्तियां मेरे
ऋषिरुवाच॥ निशुम्भं निहतं दृष्ट्वा भ्रातरं प्राणसम्मितम्॥ हन्यमानं बलं चैव शुम्भः क्रुद्धोऽब्रवीद्वचः १ बलावलेपाद्दुष्टे त्वं मादुर्गे गर्वमावह॥ अन्यासां बलमाश्रित्य युध्यसे यातिमानिनी २॥ देव्युवाच ॥ एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा॥ पश्यैता दुष्ट मय्येव विशन्त्यो मद्विभूतयः ३ ततः समस्तास्ता देव्यो ब्रह्माणीप्रमुखालयम्॥ तस्या देव्यास्तनौ जग्मुरेकैवासीत्तदाम्बिका ४॥ देव्युवाच॥ अहं विभूत्याबहुभिरिह रूपैर्यदा स्थिता॥ तत्संहृतं मयैकैव तिष्ठाम्याजौ स्थिरो भव ५॥ ऋषिरुवा
विभवसे हैं इन सबको मेराही शरीर समझ ३ इतनी बात कहने पर ब्रह्माणी इत्यादि सब शक्तियां अम्बिकादेवी के शरीर में मिलगई उससमय अम्बिका देवी अकेली रहगईं ४ और कहनेलगीं कि मैं जो इस रणमें बहुतरूप धारण किये हुये थी अब उन सब रूपों को मैंने अपने शरीर में मिलालिया आ देख अब में अकेली रणमें खड़ी हूं तूभी खड़ारहु ५ मेधाऋषि कहते हैं कि हे
सुरथ! देवता और असुर सब अलगसे देखते रहे और देवीजी और शुम्भ से बड़ा युद्ध होने लगा ६ और कठिन कठिन बाणों और दूसरे अस्त्र और शस्त्रों की ऐसी बौछाड़ पड़ने लगी कि सम्पूर्ण लोक भयभीत होगये ७ अम्बिका देवी ने जो सैकड़ों अस्त्र चलाये उन सबको दैत्यों के मालिक शुम्भने अपने अस्त्रोंसे काटडाले ८ इसीतरह उसकेभी चलाये हुये अस्त्रोंको परमेश्वरीने
च॥ ततः प्रववृते युद्धं देव्याश्शुम्भस्य चोभयोः॥ पश्यतां सर्वदेवानामसुराणां च दारुणम् ६ शरवर्षैश्शितैश्शस्त्रैस्तथास्त्रैश्चैव दारुणैः॥ तयोर्युद्धमभूद्भूयः सर्वलोक भयंकरम् ७ दिव्यान्यस्त्राणि शतशो मुमुचे यान्यथाम्बिका॥ बभञ्ज तानि दैत्येन्द्रस्तत्प्रतीघातकर्तृभिः ८ मुक्तानि तेन चास्त्राणि दिव्यानि परमेश्वरी॥ बभञ्ज लीलयैवोग्रहुङ्कारोच्चारणादिभिः ९ ततश्शरशतैर्द्देवीमाच्छादयत सोसुरः॥सापि तत्कुपिता देवी धनुश्चिच्छेद चेषुभिः १० छिन्ने धनुषि दैत्येन्द्रस्तथा शक्तिमथाददे॥ चि
हुंकार शब्द उच्चारण करके खेल की तरह काटडाले ९ तब उस असुरने सैकड़ों बाणों से देवीजीको ढांकलिया परन्तु देवीजीने कोप करके उन सब बाणों को काटकर उसके हाथ के धनुष्को भी काटडाला १० धनुष् के कटजानेपर शुम्भने शक्ति उठालिया परन्तु वह शक्तिको चलाने भी न
पाया कि देवीजी ने उसको भी चक्र से काटडाला ११ तब शुम्भ खड्ग और शतचन्द्र ढाल जिसमें सौ चन्द्रमा सूर्य समान लगेथे हाथ में लेकर देवीजी की तरफ़ दौड़ा १२ उसके पहुँचतेही देवीजीने अपने बाणों से उसकी ढाल और तलवार को काटडाला और उसके घोड़े और रथ और रथवान् इत्यादिको भी काटडाला १३ इन सबके कटजाने पर शुम्भने अम्बिका देवी के मारने के वास्ते
च्छेद देवी चक्रेण तामप्यस्य करे स्थिताम् ११ ततः खड्गमुपादाय शतचन्द्रं च भानुमत्॥ अभ्यधावत तां देवीं दैत्यानामधिपेश्वरः १२ तस्यापतत एवाशु खड्गं चिच्छेद चण्डिका॥ धनुर्मुक्तैः शितैर्बाणैश्चर्मचार्किकरामलम् १३ हताश्वः स तदा दैत्यश्छिन्नधन्वा विसारथिः॥जग्राह मुद्गरं घोरमम्बिकानिधनोद्यतः १४ चिच्छेदापततस्तस्य मुद्गरं निशितैश्शरैः॥ तथापि सोभ्यधावत्तां मुष्टिमुद्यम्य वेगवान् १५ समुष्टिं पातयामास हृदये दैत्यपुङ्गवः॥ देव्यास्तञ्चापि सा देवी तलेनोरस्यताडयत् १६ तलप्रहा
बड़ाभारी मुद्गर उठालिया १४ जब वह असुर मुद्गर लेकर चला तब देवीजी ने उसको भी अपने बाणोंसे काटडाला तब वह शीघ्रता से मुक्का तानकर दौड़ा १५ और जातेही देवीजीकी छाती पर जोरसे मारा तब देवीजीने भी उसकी छातीपर एक तमाचा ऐसे जोर से मारा १६ कि वह असुर चक्कर
खाकर पृथ्वी के ऊपर गिरपड़ा परन्तु फिर सँभलकर खड़ा होगया १७ और देवीजी को पकड़कर आकाश में लेगया परन्तु वहां भी चण्डिका देवी विना सहारे रथ इत्यादि के उस दैत्य से लड़ने लगीं १८ अर्थात् आकाश में चण्डिकादेवी और उस दैत्यसे ऐसा बाहुयुद्ध होनेलगा कि जिससे सिद्ध और मुनिलोग डरगये १९ फिर तो अम्बिका देवीने उस शुम्भ दैत्यको गेंद की तरह ऊपर
राभिहतो निपपात महीतले॥ स दैत्यराजस्सहसा पुनरेव तथोत्थितः १७ उत्पत्य च प्रगृह्योच्चैर्द्देवीं गगनमास्थितः॥ तत्रापि सा निराधारा युयुधे तेन चण्डिका १८ नियुद्धं खे तदा दैत्यश्चण्डिका च परस्परम्॥ चक्रतुः प्रथमं युद्धम्मुनिविस्मयकारकम् १९ ततो नियुद्धं सुचिरं कृत्वा तेनाम्बिकासह॥उत्पाट्य भ्रामयामास चिक्षेप धरणीतले २० स क्षिप्तो धरणीम्प्राप्य मुष्टिमुद्यम्य वेगितः॥ अभ्यधावत दुष्टात्मा चण्डिकानिधनेच्छया २१ तमायान्तं ततो देवी सर्वदैत्यजनेश्वरम्॥ जगत्यां पातया
फेंकदिया और रोककर उसका पांव पकड़कर जोरसे घुमाकर पृथ्वी के ऊपर पटकदिया २० फिर वह दुष्टात्मा पृथ्वी पर से सँभलकर उठा और जल्दी से देवीजी को मुक्का मारने के वास्ते दौड़ा २१ तव देवीजी ने उस दैत्येश्वर अर्थात् शुम्भ की छाती में शूल मारकर पृथ्वी पर गिरा
दिया २२ तब वह दैत्य देवीजीके शूल का घाव खाकर पृथ्वीपर गिरतेही मरगया उसके गिरनेकी धमक से समुद्र और द्वीप और पर्वत इत्यादि किन्तु सम्पूर्ण पृथ्वी डोलगई २३ और पहिले जो आकाश से लूक इत्यादि गिरता था वह मिटगया इसीतरह जितनी नदियां उल्टी बहती थीं वह सब सीधी बहनेलगीं अर्थात् सब उत्पात मिटगये २४ और उस दुरात्माके मरने उपरान्त सम्पूर्ण
मास भित्त्वा शूलेन वक्षसि २२ सगतासुः पपातोर्व्यांदेवीशूलाग्रविक्षतः॥ चालयन्सकलाम्पृथ्वीं साब्धिद्वीपां सपर्वताम् २३ उत्पातमेघास्सोल्का ये प्रागासंस्ते शमं ययुः॥ सरितो मार्गवाहिन्यस्तथासंस्तत्र पातिते २४ ततः प्रसन्नमखिलं हते तस्मिन्दुरात्मनि॥ जगत्स्वास्थ्यमतीबाप निर्मलञ्चाभवन्नभः २५ ततो देवगणाः सर्वेहर्षनिर्भरमानसाः॥ बभूवुर्निहते तस्मिन्गन्धर्बा ललितञ्जगुः २६ अवादयंस्तथैवान्ये ननृतुश्चाप्सरोगणाः॥ ववुः पुण्यास्तथा वातास्सुप्रभोभूद्दिवाकरः २७ जज्वलु
जगत् प्रसन्न होकर स्थिर होगया और आकाश भी निर्मल होगया २५ और उसके मरने से देवतालोग भी प्रसन्न होगये और गन्धर्बलोग गीत गानेलगे २६ और कोई बाजा बजानेलगे और अप्सरा नृत्य करनेलगीं और मन्द सुगन्ध वायु चलने लगी और सूर्यका प्रकाश बढ़गया २७ और
अग्निकी ज्वाला जो अत्यन्त शीतल होरही थी वह भी प्रज्वलित होगई २८ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिकेमन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये शुम्भवधोनाम दशमोऽध्यायः॥१०॥
इतना कहकर फिर मेधाऋषि कहनेलगे कि उस शुम्भके मारेजानेपर इन्द्र के साथ अग्नि आदि देवता लोग आनन्द से सब दिशावों को प्रकाशित करतेहुये देवीजी की इस प्रकार से
श्चाग्नयः शान्ताः शान्तदिग्जनितस्वनाः २८ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणेसावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये शुम्भवधोनाम दशमोऽध्यायः॥१०॥
ऋषिरुवाच॥ देव्या हते तत्र महासुरेन्द्रे सेन्द्रास्सुरावह्निपुरोगमास्ताम्॥ कात्यायनीं तुष्टुवुरिष्टलाभाद्विकाशिवक्राब्जविकासिताशाः १ देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोखिलस्य॥ प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य २ आधारभूता जगतस्त्वमेका महीस्वरूपेण यतः स्थितासि॥ अपां स्वरूपस्थितया त्व
स्तुति करनेलगे १ कि हे देवि! आप अपने भक्तों के दुःख दूर करनेवाली और सब जगत्की माता और सबकी ईश्वरी हैं सब कोई आपके वश में है आप प्रसन्न होकर इस संसारकी रक्षा कीजिये २ सम्पूर्ण जगत् की आपही आधार हैं और आपही पृथ्वी होकर सबका भार अपने ऊपर उठायेहुये हैं और आपही जल होकर सम्पूर्ण संसार को आनन्द करती हैं आपका पराक्रम
अत्यन्त बलवान् है ३ फिर अत्यन्त पराक्रमी वैष्णवीशक्ति होकर इस जगत्का पालन आपही करती हैं और संसारकी कारण परममाया अविद्या आपही हैं कि जिस करके यह सब जीव मोहित रहते हैं और आपहीकी प्रसन्नता मुक्ति की जड़ है ४ और हे देवि! संसार में जितनी विद्या हैं वह सब आपही हैं और जितनी पतिव्रता स्त्रियां हैं वह सब आपही की अंश हैं और एक आपही हैं जो
यैतदाप्यायते कृत्स्नमलङ्घ्यवीर्ये ३ त्वं वैष्णवीशक्तिरनन्तवीर्या विश्वस्य बीजम्परमासि माया॥ संमोहितं देवि समस्तमेतत्त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः ४ विद्यास्समस्तास्तव देवि भेदाः स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु॥ त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्काते स्तुतिस्स्तव्यपरापरोक्तिः ५ सर्वभूता यदा देवि स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी॥ त्वं स्तुता स्तुतयेकावा भवन्तु परमोक्तयः ६ सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते॥ स्वर्गा
इस संसार के भीतर और बाहर सर्वत्र व्यापित हैं कोई वस्तु आपसे अलग नहीं है हे देवि! सिवाय इसके और कौनसी स्तुति आपकी हमलोग करसक्ते हैं ५ जो कोई आपकी स्तुति करता है उसको आप स्वर्ग और मुक्ति देती हैं और सब प्राणियों में आप विराजमान रहती हैं इसलिये आपकी स्तुतिके वास्ते बहुत कहना उचित नहीं है ६ आप सब जीवों के हृदय में बुद्धिरूप होकर
विराजमान रहती हैं इसकारण से जीवों को स्वर्ग और मुक्ति देनेवाली आपही हैं नारायण विष्णु भगवान् की आप शक्ति हैं आपको हमलोग प्रणाम करते हैं ७ और कला और काष्ठा अर्थात् घड़ी और पल इत्यादि जो काल है उसका रूप धारण करके जिन्दगी को आखिरतक पहुँचानेवाली आपही हैं और संसारके नाश करनेमें भी आप समर्थ हैं हे नारायणि! आपको प्रणाम है ८ और
पवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ७ कलाकाष्ठादिरूपेण परिणामप्रदायिनि॥ विश्वस्योपरतौ शक्ते नारायणि नमोऽस्तु ते ८ सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके॥ शरण्ये त्र्यम्बिके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ९ सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि॥ गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते १० शरणागतदीनार्तपरित्राणपरा
सब मङ्गलोंका रूप आपही हैं और कल्याण और सम्पूर्ण अर्थों की सिद्ध करनेवाली और शरण देनेवाली त्रिनयनी गौरी आपही हैं हे नारायणि! आपको हमलोग प्रणाम करते हैं ९ और ब्रह्मा और विष्णु और महेश इन तीनों देवताओंमें उत्पत्ति और पालन और प्रलय करनेवाली शक्ति होकर आपही विराजमान रहती हैं और आप नित्या हैं और महदादि गुणों की आप आधार हैं और तीनों गुणोंसे आप संयुक्त हैं हे नारायणि! आपको हम सबका प्रणाम है १० और जो दुःखीलोग
आपकी शरण में आतेहैं उनकी आप रक्षा करती हैं आप सब जगत् की पीड़ा हरण करनेवाली हैं हे नारायणि देवि! आपको नमस्कार है ११ हंसयुक्त विमानपर बैठकर ब्रह्माणीरूप धारणकियेहुये कमण्डलु का जल छिड़कनेवाली नारायणी को हमलोगोंका प्रणाम है १२ और माहेश्वरीरूप त्रिशूल और चन्द्रमा और नागराज शेष को धारण किये हुये वैल पर सवार जो नारायणी हैं
यणे॥ सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ११ हंसयुक्तविमानस्थे ब्रह्माणीरूपधारिणि॥ कौशाम्भःक्षरिके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते १२ त्रिशूलचन्द्राहिधरे महावृषभवाहिनि॥ माहेश्वरीस्वरूपेण नारायणि नमोऽस्तु ते १३ मयूरकुक्कुटवृते महाशक्तिधरेऽनघे॥ कौमारीरूपसंस्थाने नारायणि नमोऽस्तु ते १४ शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गगृहीतपरमायुधे॥ प्रसीद वैष्णवीरूपे नारायणि नमोऽस्तु ते १५ गृहीतोग्रमहाचक्रे दं
उनको हम सब नमस्कार करते हैं १३ और कौमारी शक्तिरूपको धारण करके मोरपर चढ़ी हुई पापरहित महाशक्ति धारण करनेवाली नारायणी को प्रणाम है १४ और शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म, अस्त्रोंको धारण कियेहुये वैष्णवी शक्तिरूप धारण करनेवाली नारायणी को प्रणाम है है नारायाणि! हम सबोंपर प्रसन्न हूजिये १५ और वाराहरूप धारण कियेहुये महाचक्र हाथ में लेकर दांतों
से पृथ्वीको उठानेवाली और कल्याण देनेवाली नारायणी के रूप को हम सब प्रणाम करते हैं १६ और दैत्यों के मारने और तीनोंलोक की रक्षा करने के वास्तें जो आपने नृसिंहरूप धारण कियाथा आपके रूप को हे नारायणि! नमस्कार हैं १७ और किरीटधारण करके महावज्र हाथ में लेकर हज़ारों आंखों से प्रकाशमान होकर वृत्रासुर के प्राणहरण करनेवाली इन्द्रकी शक्तिरूप आपको
ष्ट्रोद्धृतवसुन्धरे॥ वाराहरूपिणि शिवे नारायणि नमोऽस्तु ते १६ नृसिंहरूपेणोग्रेणहन्तुन्दैत्यान्कृतोद्यमे॥ त्रैलोक्यत्राणसहिते नारायणि नमोऽस्तु ते १७ किरीटिनि महावज्रे सहस्रनयनोज्ज्वले॥ वृत्रप्राणहरे चैन्द्रि नारायणि नमोऽस्तु ते १८ शिवदूतीस्वरूपेण हतदैत्यमहाबले॥ घोररूपेमहारावेनारायणि नमोऽस्तु ते १९ दंष्ट्राकरालवदने शिरोमालाविभूषणे॥ चामुण्डे मुण्डमथने नारायणि नमोऽस्तु ते २० लक्ष्मि लज्जे
हे नारायणि! नमस्कार है १८ और शिवदूतीस्वरूप धारण करके दैत्यों का बल नाश करनेवाली भयानकरूप होकर भयानक शब्द करनेवाली नारायणी को प्रणाम है १९ और बड़े बड़े दांत निकलेहुये भयावनी सूरत मुण्डमाल पहिनेहुये चण्ड मुण्ड की मारनेवाली चामुण्डारूप आप को हे नारायणि! नमस्कार है २० और लक्ष्मी और लज्जा और महाविद्या और श्रद्धा और पुष्टि
और स्वधा और सबके मोहित करने में समर्थ महामायारूप आपको हे नारायणि! नमस्कार है २१ और धारण करनेवाली बुद्धि और सरस्वती और उत्तम ऐश्वर्य और रजोगुणयुक्त और तमोगुणयुक्त और मूलशक्ति जो आप समर्थ हैं हे नारायणि! प्रसन्न हूजिये आपको नमस्कार है २२ और सबलोगोंमें समानरूप और सबसे समर्थ और सब शक्तियों से युक्त जो आप दुर्गादेवी हैं
महाविद्ये श्रद्धे पुष्टि स्वधे ध्रुवे॥ महारात्रि महाविद्ये नारायणि नमोऽस्तु ते २१ मेधे सरस्वति वरे भूति बाभ्रवितामसि॥ नियते त्वम्प्रसीदेशे नारायणि नमोऽस्तु ते २२ सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते॥ भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते २३ एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्॥ पातु नस्सर्वभूतेभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते २४ ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्॥ त्रिशूलम्पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते २५ हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्॥ सा घण्टा पातु नो
प्रसन्न हूजिये और हमलोगों का भय छुड़ा दीजिये आपको नमस्कार है २३ और हे कात्यायनि! तीन नेत्रों से जो आपका परमशोभित मुख है वह हमलोगों की रक्षा सम्पूर्ण संसारी विकारों से करै आपको हम सब प्रणाम करते हैं २४ और हे भद्रकालि! आपको प्रणामहै आपका त्रिशूल जो ज्वाला करके भयङ्कर अत्यन्त उग्र असुरोंका मारनेवालाहै वह हमलोगों की रक्षा करै २५ और हे
देवि! आपका घण्टा जिसका शब्द सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त होकर दैत्यों के तेजों को नाश करता है वह हम सबों की पुत्रके समान रक्षा करै २६ और हे चण्डिके! आपका उज्ज्वल हाथ जो असुरों के मांस व रुधिर से भरा हुआ है उस हाथसे सदा हमलोगों का कल्याण हो हम लोग आपको प्रणाम करते हैं २७ हे देवि! जिसपर आप प्रसन्न होती हैं उसके रोगों को दूर करदेती
देवि पापेभ्यो नस्सुतानिव २६ असुरासृग्वसापङ्कचर्चितस्ते करोज्ज्वलः॥ शुभाय खड्गो भवतु चण्डिके त्वान्नता वयम् २७ रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान्स कलांनभीष्टान्॥ त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति २८ एतत्कृतं यत्कदनन्त्वयाद्य धर्मद्विषां देवि महासुराणाम्॥ रूपैरनेकैर्बहुधात्ममूर्तिं कृत्वाम्बिके तत्प्रकरोति कान्या २९ विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपेष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्व
हैं और जिसपर आप अप्रसन्न होती हैं उसकी सब कामना नाश होजाती हैं और जो कोई आप की शरणमें हैं उन लोगोंको कभी दुःख नहीं होता और जो लोग आपकी शरण में रहते हैं उन लोगों की शरण पकड़ने से दूसरे लोगभी सुखी होजाते हैं २८ और हे अम्बिके देवि! आपने अनेक रूप धारण करके धर्मद्रोही असुरों को जो नाश कियाहै सिवाय आपके दूसरा कौन ऐसा करने वालाहै २९ और ज्ञान और शास्त्र और उपनिषद् और कर्मकाण्ड के बतानेवाले जो वेदके वचन
हैं इन सबके होतेहुये भी इस संसार के ममतारूपी अँधेरे कूपमें गिरानेवाली सिवाय आपके दूसरा कोई नहीं है ३० और जहांपर राक्षस और महाबिष और सांप और शत्रु और चोर और जिस जगह चारोंतरफ़ से आग में घिरकर या समुद्र की लहर में पड़कर कोई व्याकुल हो इन इन जगहोंपर जो कोई आपका स्मरण करता है वहांपर पहुँचकर आप उसकी रक्षा करती हैं ३१ और
दन्या॥ ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारे विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम् ३० रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र॥ दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम् ३१ विश्वेश्वरी त्वं परिपासि विश्वं विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्॥ विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः ३२ देवि प्रसीद परिपालय नोरिभीतेर्न्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः॥ पापानि सर्वजगतां
आप संसार की रक्षा करने से विश्वेश्वरी और संसार के धारण करने से विश्वात्मिका कहलाती हैं और आपको विश्वके ईश इन्द्रादि देवता और इसीतरह संसारके आश्रितलोग भक्तिपूर्वक नम्रहोकर आपकी वन्दना करते हैं ३२ हे देवि! जिसतरह आपने इससमय असुरोंको मारकर हमलोगों की रक्षा की है इसीतरह सर्वकाल हमलोगों की रक्षा कीजिये और सब जगत् के पापों को क्षय
करके उत्पात करनेवाले महाविघ्नों को भी शमन कीजिये ३३ और हे देवि! आप संसारकी पीड़ाहरण करनेवाली हैं और तीनों लोक के रहनेवाले आपकी स्तुति करते हैं आपके चरणारविन्द में हम लोग प्रणत हैं अव आप प्रसन्न होकर हमलोगों को वरदान दीजिये ३४ इतनी स्तुति देवताओं के मुख से सुनकर देवी ने कहा कि हे देवताओ! तुम लोगों को जो वर मांगना हो
प्रशमं नयाशु उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान् ३३ प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि॥ त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव ३४॥ देव्युवाच॥ वरदाहं सुरगणा वरं यन्मनसेच्छ्रथ॥ तं वृणुध्वं प्रयच्छामि जगतामुपकारकम् ३५॥ देवा ऊचुः॥ सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि॥ एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ३६॥ देव्युवाच॥ वैवस्वतेऽन्तरे प्राप्ते ह्यष्टाविंशतिमे युगे॥ शुम्भो निशुम्भश्चै
मांगों मैं बरदान दूँगी कि जिससे तुमलोगों का और सम्पूर्ण जगत्का उपकार होगा ३५ तब देवतालोग बोले कि हे अखिलेश्वरि! शुम्भ इत्यादि असुरों के मारेजानेसे सकल लोकका दुःख नाश होगया फिर इसीतरह जब कभी हमलोगों को दुःख देनेवाला दुष्ट असुर प्रकटहो तो उनसबको भी आप नाश किया कीजिये ३६ यह सुनकर देवीजीने कहा कि अट्ठाईसवें चतुर्युग में
वैवस्वत मन्वन्तर प्रकट होनेपर जब दूसरा शुम्भ निशुम्भ महाअसुर उत्पन्न होगा ३७ उस समय मैं नन्दगोप के घरमें यशोदाके गर्भ से उत्पन्न होकर उन शुम्भ निशुम्भ महाअसुरों को नाश करूंगी और विन्ध्याचल पर्वतपर निवास करूंगी ३८ फिर पृथ्वीतलमें अत्यन्त भयङ्कर रूपधारण करके विप्रचित्ती सन्तान के दैत्यों को मारूंगी ३९ और उस विप्रचित्ती सन्तान के महा-
वान्यावुत्पत्स्येते महासुरौ ३७ नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा॥ ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी ३८ पुनरप्यतिरौद्रेण रूपेण पृथिवीतले॥ अवतीर्य हनिष्यामि वैप्रचित्तांस्तु दानवान् ३९ भक्षयन्त्याश्च तानुग्रान् वैप्रचितान्महासुरान्॥ रक्ता दन्ता भविष्यन्ति दाडिमीकुसुमोपमाः ४० ततो मां देवतास्स्वर्गे मर्त्यलोके च मानवाः॥ स्तुवन्तो व्याहरिष्यन्ति सततं रक्तदन्तिकाम् ४१ भूयश्च शतवार्षिक्यामनावृष्ट्यामनम्भसि॥ मुनिभिस्संस्तुता भूमौ सम्भविष्याम्ययोनिजा ४२
असुरों को मारकर खानेसे मेरे सब दांत रुधिर से अनार के फूल की तरह लाल होजायँगे ४० तब मुझको देवतालोग और मनुष्यलोग स्वर्गलोक और मृत्युलोक में हरसमय मेरी स्तुति करते हुये रक्तदन्तिका नाम करके कहेंगे ४१ फिर जब सौ वर्षतक पृथ्वी पर वर्षा नहीं होगी और कुवां इत्यादि में कहीं पानी न रहेगा उस समय मुनिलोग पानी होनेके वास्ते मेरी स्तुति करैंगे
तब मैं पृथ्वी में पार्वती के समान अयोनिजा ( अर्थात् आप से आप ) उत्पन्न हूंगी ४२ उस समय सौ नेत्र धारण करके उन सब नेत्रोंसे मुनियों को देखूंगी इस कारण से मनुष्यलोग मेरा नाम शताक्षी रक्खेंगे ४३ हे देवतालोगो ! तब मैं अपने शरीर से शाक उत्पन्न करके उसीसे सब लोगों का पालन करूंगी ४४ तब पृथ्वी में मेरा नाम शाकम्भरी विख्यात होगा फिर उसी शाकम्भरी
ततः शतेन नेत्राणां निरीक्षिष्यामि यन्मुनीन्॥ कीर्तयिष्यन्ति मनुजाश्शताक्षीमिति मान्ततः ४३ ततोहमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवैः॥ भरिष्यामि सुराश्शाकैरावृष्टेः प्राणधारकैः ४४ शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहम्भुवि॥ तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यम्महासुरम् ४५ दुर्गादेवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति॥ पुनश्चाहं यदा भीमं रूपं कृत्वा हिमाचले ४६ रक्षांसि भक्षयिष्यामि मुनीनां त्राणकारणात्॥ तदा मां मुनयस्सर्वे स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः ४७ भीमादेवीति विख्यातं तन्मे
अवतारमें दुर्ग नाम असुरको वध करूंगी ४५ तब मेरा नाम दुर्गादेवी प्रसिद्ध होगा फिर मैं हिमाचल पर्वतपर भयङ्कररूपसे प्रकट होकर ४६ मुनिलोगोंकी रक्षाके वास्ते राक्षसों को भक्षण करूंगी तब मुनिलोग शिर झुकाकर मेरी स्तुति करैंगे ४७ तब मेरा नाम भीमादेवी विख्यात
होगा फिर जब तीनोंलोक में अरुण नाम असुर महाबाधक उत्पन्न होगा ४८ तब में भ्रामरीरूप जिसमें असंख्य भौंरा मेरे चरण में लिपटे होंगे धारण करके तीनोंलोक के उपकार के वास्ते अरुणदैत्य को मारूंगी ४९ उस समय मेरा नाम भ्रामरी प्रचलित होगा और सब जगह सबलोग मेरी स्तुति करैंगे इसीतरह जब जब दैत्यों से तुमलोगों को दुःख पहुँचेगा ५० तब तब मैं इस
नाम भविष्यति॥ यदारुणाख्यस्त्रैलोक्ये महाबाधां करिष्यति ४८ तदाहं भ्रामरं रूपं कृत्वाऽसंख्येयषट्पदम्॥ त्रैलोक्यस्य हितार्थाय वधिष्यामि महासुरम् ४९ भ्रामरीति च मां लोकास्तदा स्तोष्यन्ति सर्वतः॥ इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ५० तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम् ५१ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिकेमन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये नारायणीस्तुतिर्नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
देव्युवाच॥ एभिस्स्तवैश्च मां नित्यं स्तोष्यते यस्समाहितः॥ तस्याहं सकलां
पृथ्वी में उत्पन्न होकर तुमलोगों के शत्रुओं का नाश करूंगी ५१ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिकेमन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये नारायणीस्तुतिर्नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
इतना वरदान देकर देवीजी बोलीं कि हे देवतालोगो! इस स्तोत्र से जो कोई चित्त स्थिर करके
नित्य मेरी स्तुति करेगा उसका दुःख म निस्सन्देह नाश करदूंगी १ और जो कोई मधुकैटभका नाश और महिषासुर का वध और शुम्भ निशुम्भके मरण की कथा पढ़ेगा २ और अष्टमी और नवमी और चतुर्दशीको एकचित्त होकर मेरे इस उत्तम माहात्म्य को सुनैगा ३ उसको किसी प्रकार का पाप और विघ्न और दरिद्रता न होगा उसको इष्ट और मित्रसे कभी वियोग न होगा ४ और उसको शत्रुओं
बाधां नाशयिष्याम्यसंशयम् १ मधुकैटभनाशश्च महिषासुरघातनम्॥ कीर्तयिष्यन्ति ये तद्वद्वध शम्भनिशुम्भयोः २ अष्टम्याञ्च चतुर्दश्यां नवम्यां चैकचेतसः॥ श्रोष्यन्ति चैव ये भक्त्या मम माहात्म्यमुत्तमम् ३ न तेषां दुष्कृतं किञ्चिद् दुष्कृतोत्था न चापदः॥ न भविष्यति दारिद्र्यं नचैवेष्टवियोजनम् ४ शत्रुतो न भयं तस्य दस्युतो वा न राजतः॥ न शस्त्रानलतोयौघात्कदाचित्सम्भविष्यति ५ तस्मान्ममैतन्माहात्म्यं पठितव्यं समाहितैः॥ श्रोतव्यं च सदा भक्त्या परं स्वस्त्ययनं हि तत् ६ उपसर्गानशेषांस्तु
और चोरों और राजाओं और हथियारों और अग्नि और जलसे किसीतरहका भय न होगा ५ इस वास्ते मेरे माहात्म्य को पढ़ना और सुनना चाहिये क्योंकि यह माहात्म्य कल्याणकारक मार्ग है ६ और महामारी से उत्पन्न उपसर्गों को और इसी प्रकार दैहिक दैविक भौतिक तीनों तरह के
उत्पातोंको मेरा माहात्म्य शान्त करताहै ७ और जिस घरमें मेरा यह माहात्म्य नित्य पढ़ाजायगा उस घरमें हमेशा मैं रहूंगी कभी उससे अलग न हूंगी ८ और बलिप्रदान और पूजा और होम और पुत्र के जन्म और विवाहादि मङ्गलों में इस मेरे चरित्र को पढ़ना और सुनना चाहिये ९ और ज्ञानी हो अथवा अज्ञानी जो कोई बलिप्रदान और पूजा और होम करै उसको भी मैं प्रीतियुक्त मानती
महामारीसमुद्भवान्॥ तथा त्रिविधमुत्पातम्माहात्म्यं शमयेन्मम ७ यत्रैतत्पठ्यते सम्यङ्नित्यमायतने मम॥ सदा न तद्विमोक्ष्यामि सान्निध्यं तत्र मे स्थितम् ८ बलिप्रदाने पूजायामग्निकार्ये महोत्सवे॥ सर्वम्ममैतच्चरितमुच्चार्यं श्राव्यमेव च ९ जानता जानतावापि बलिपूजान्तथाकृताम्॥ प्रतीक्षिष्याम्यहं प्रीत्या वह्निहोमन्तथा कृतम् १० शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी॥ तस्याम्ममैतन्माहात्म्यं श्रुत्वा भक्तिसमन्वितः ११ सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः॥ मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः १२ श्रुत्वा ममैतन्माहात्म्यं तथा चोत्पत्तयश्शुभाः॥ पराक्रमं
हूं १० और शरत्काल में मेरी पूजा जो प्रतिवर्ष कीजाती है उसमें इस मेरे माहात्म्य को श्रद्धा के साथ जो कोई सुनेगा ११ वह सब दुःखों से छूटकर अन्न और धन और पुत्र इत्यादि मनुष्यलोग मेरे प्रसाद से पावैंगे इसमें कुछ किसी तरह का सन्देह न करना चाहिये १२ और मेरे इस
माहात्म्य और मेरी उत्पत्ति और मेरे पराक्रम को सुनकर मनुष्यलोग निर्भय होजायँगे १३ और जो पुरुष मेरे इस माहात्म्यको जी लगाकर सुनैंगे उन लोगों के शत्रुलोग क्षय होजायँगे और उस सुननेवाले का कल्याण होगा और उसके कुल की बढ़ती होगी १४ और शान्तिकर्मों में और दुःस्वप्नों में और ग्रहपीड़ा में इस मेरे माहात्म्य को सुनना चाहिये १५ इसके सुनने से महामारी
च युद्धेषु जायते निर्भयः पुमान् १३ रिपवस्संक्षयं यान्ति कल्याणं चोपपद्यते॥ नन्दते च कुलं पुंसां माहात्म्यं मम शृण्वताम् १४ शान्तिकर्मणि सर्वत्र तथा दुःस्व प्रदर्शने॥ ग्रहपीडासु चोग्रासु माहात्म्यं शृणुयान्मम १५ उपसर्गाः शम यान्ति ग्रहपीडाश्च दारुणाः॥ दुःस्वप्नञ्च नृभिर्दृष्टं सुस्वप्नमुपजायते १६ बालग्रहाभिभूतानां बालानां शान्तिकारकम्॥ सङ्घातभेदे च नृणां मैत्रीकरणमुत्तमम् १७ दुर्वृत्तानामशे
से उत्पन्न सब उपसर्ग और भयंकर ग्रहपीड़ा सब सुगम होजाती हैं और दुःस्वप्न का दोष भी मिटजाता है १६ और पूतना इत्यादि बालग्रहों से ग्रसित बालकों के वास्ते यह मेरा माहात्म्य शान्तिकारक है और जो मनुष्यों के आपस में बिगाड़ होगया हो तो इस मेरे माहात्म्य के पढ़ने से मिलाप होजाता है १७ और फिर यह मेरा माहात्म्य वाघ वगैरह दुष्ट जानवरों का बल नाश
करदेताहै और राक्षस और भूत और पिशाचों का भी नाश इसके पढ़ने से होजाताहै १८ और यह सम्पूर्ण मेरा माहात्म्य सन्निधि करनेवालाहै और बलिदान और पुष्पाञ्जलि और अर्ध्य और गन्धदीप १९ और ब्राह्मणों को भोजन कराने और होम और वर्ष दिन तक रात दिन पञ्चामृतसे स्नानकराने और उनको वस्त्र भूषण देनेसे जितना मनुष्योंपर मैं प्रसन्न होती हूं २० उतना जो एक दिन
षाणां बलहानिकरं परम्॥ रक्षोभूतपिशाचानां पठनादेव नाशनम् १८ सर्वम्ममैतन्माहात्म्यम्ममुसन्निधिकारकम्॥ पशुपुष्पार्ध्यधूपैश्च गन्धदीपैस्तथोत्तमैः १९ विप्राणां भोजनैर्होमैः प्रोक्षणीयैरहर्निशम्॥ अन्यैश्च विविधैर्भोगैः प्रदानैर्वत्सरेण या २० प्रीतिर्मे क्रियते सास्मिन्सकृत्सुचरिते श्रुते॥ श्रुतं हरति पापानि तथारोग्यम्प्रयच्छति २१ रक्षां करोति भूतेभ्यो जन्मनां कीर्तनम्मम्॥ युद्धेषु चरितं यन्मे दुष्टदैत्यनिबर्हणम् २२ तस्मिञ्छुते वैरिकृतं भयं पुंसां न जायते॥ युष्माभिस्स्तुतयो याश्च याश्च
मेरे चरित्र को सुनताहै उसपर मैं प्रसन्न होती हूं जिससमय मेरे चरित्रको कोई सुनताहै उसीसमय उसका पाप नाश होजाताहै और उसके शरीर का दुःख छूटजाता है २१ और मेरे जन्म के चरित्र सुननेसे मनुष्यों को भूत और पिशाचादि से रक्षा होती है और समरमें दैत्योंके नाश करने के वास्ते मैंने जो जो चरित्र किये हैं २२ उनके सुनने से मनुष्योंको शत्रुओं से भय नहीं होता फिर हे देवता
लोगो! आप और ऋषिलोगोंने जो मेरी स्तुति की है २३ और ब्राह्मणोंने जो मेरी स्तुति की है उसके सुनने और पढ़नेसे मनुष्यों को उत्तमज्ञान होताहै फिर उस मन में जहां मनुष्य चारों ओर से अग्निसे घिरगयाहो या कहीं भयावती जगह में अकेले पड़गयाहो २४ या चारोंओरसे डाकुओंने घेर लिया हो या किसी जङ्गल में बाघ या सिंह या जङ्गली हाथीकी चपेट में आगयाहो २५ या राजाने मारने
ब्रह्मर्षिभिः कृताः २३ ब्रह्मणा च कृतास्तास्तु प्रयच्छन्ति शुभाम्मतिम्॥ अरण्ये प्रान्तरे वापि दावाग्निपरिवारितः २४ दस्युभिर्वावृतश्शून्ये गृहीतो वापि शत्रुभिः॥ सिंहव्याघ्रानुयातो वा वने वा वनहस्तिभिः २५ राज्ञा क्रुद्धेन चाज्ञप्तो वध्यो बन्धगतोपि वा॥ आघूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे २६ पतत्सु चापि शस्त्रेषु संग्रामे भृशदारुणे॥ सर्वाबाधासु घोरासु वेदनाभ्यर्दितोपि वा २७ स्मरन्ममैतच्चरितं नरो मुच्येत सङ्कटात्॥ ममप्रभावात्सिंहाद्या दस्यवो वैरिणस्तथा २८ दूरादेव पला
का हुक्म दियाहो या कैद में पड़गयाहो या नावपर चढ़कर हवामें पड़कर महाजलार्णवमें घूमता हो या कहीं नाव फँसकर न छूटतीहो २६ या कहीं लड़ाईमें उसपर हथियारोंका मेह बरसताहो या कैसेही घोर उपद्रवमें पड़ाहो २७ तो इस मेरे चरित्रको स्मरण करनेसे उन सब दुःख और उपद्रवों से छूटजायगा और मेरे प्रभावसे सिंह और चौरादि सब दुष्ट २८ दूरहीसे भागजायँगे मेधाऋषि
कहते हैं किं हे सुरथ! भगवती यह सब बातें देवताओंसे कहकर २९ देखतेही देखते देवताओंकी दृष्टिसे अन्तर्धान होगई और देवतालोग निर्भय होकर पहिले की तरह अपना २ अधिकार बर्तने लगे ३० और निस्सन्देह यज्ञ भाग अपना २ लेनेलगे अर्थात् जब देवीने शुम्भको मारडाला ३१ और अतुल पराक्रमी जगत् के विध्वंस करनेवाले निशुम्भ को भी मारलिया तब बाक़ी जो दैत्य लोग
यन्ते स्मरतश्चरितं मम॥ ऋषिरुवाच॥ इत्युक्त्वा सा भगवती चण्डिका चण्डविक्रमा २९ पश्यतामेव देवानां तत्रैवान्तरधीयत॥तेपि देवा निरातङ्कास्स्वाधिकारान्यथापुरा ३० यज्ञभागभुजस्सर्वे चक्रुर्विनिहतारयः॥ दैत्याश्च देव्या निहते शुम्भे देवरिपौ युधि ३१ जगद्विध्वंसके तस्मिन् महोग्रेतुलविक्रमे॥ निशुम्भे च महावीर्येशेषाः पातालमाययुः ३२ एवं भगवती देवी सानित्यापि पुनः पुनः॥ संभूय कुरुते भूप जगतः परिपालनम् ३३ तयैतन्मोह्यते विश्वं सैव विश्वं प्रसूयते॥ सा याचिता
रहगये थे वह भागकर पातालको चलेगये ३२ हे सुरथ! देवी नित्याहैं जब जब देवताओंके ऊपर दुःख पड़ताहै तब तब अवतार लेकर जगत्की रक्षा करती हैं ३३ और वही भगवती सम्पूर्ण संसार को मोह लेती हैं और वही सबको पैदा करती हैं फिर वही देवी निष्काम भक्तिपूर्वक पूजन करनेसे
मुक्ति और आत्मतत्त्वज्ञान देती हैं और फलप्राति निमित्त पूजा करने से प्रसन्न होकर ऐश्वर्य देती हैं ३४ मेधाऋषि कहते हैं कि हे राजन्! महाप्रलयमें महामारी स्वरूप से जो महाकाली रहती हैं उन्हींमें यह सब ब्रह्माण्ड मिलजाताहै ३५ और वही महाकाली प्रलयकालमें संहारशक्ति और सृष्टि कालमें सृष्टिशक्ति और स्थितिकालमें सनातनी शक्ति होकर पालन करती हैं ३६ फिर वही भगवती
च विज्ञानं तुष्टा ऋद्धिम्प्रयच्छति ३४ व्याप्तं तथैतत्सकलं ब्रह्माण्डं मनुजेश्वर॥ महाकाल्या महाकाले महामारीस्वरूपया ३५ सैवकाले महामारी सैव सृष्टिर्भवत्यजा॥ स्थितिं करोति भूतानां सैब काले सनातनी ३६ भवकाले नृणां सैव लक्ष्मीर्वृद्धिप्रदागृहे॥ सैवाभावे तथा लक्ष्मीर्विनाशायोपजायते ३७ स्तुता सम्पूजिता पुष्पैर्वूपगन्धादिभिस्तथा॥ ददाति वित्तं पुत्रांश्च मतिं धर्म्मे तथा शुभाम् ३८ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणेसावर्णिकेमन्वन्तरेदेवीमाहात्म्येफलस्तुतिर्न्नामद्वादशोऽध्यायः॥१२॥
ऐश्वर्यबाले मनुष्यों के घरमें लक्ष्मी होकर रहती हैं और फिर बही भगवती मनुष्योंके घरमें धनको नाश करने के वास्ते दरिद्ररूप होजाती हैं ३७ और फिर बही महाकाजी स्तुति और पूजा करनेसे और फल चढ़ाने और धूपदेनेसे प्रसन्नहोकर धन और पुत्र देतीहैं और धर्म करनेसे अच्छी बुद्धि देती हैं ३८ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिकेमन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये फलस्तुतिर्नामद्वादशोऽध्यायः॥१२॥
इतना कहकर मेधाऋषे फिर बोले के हे सुरथ! जिस देवी का प्रभाव और उत्तम माहात्म्य कह आये वही सम्पूर्ण जगत् की उत्पन्न करनेबाली और पालनेबाली और नाश करनेबाली हैं १ औरवही भगवती भगवान् विष्णु की माया हैं और वही भगवती साधन तत्वज्ञानको भी देती हैं ओर हे सुरथ! उसी देवी से आप और यह वैश्य और इतीतरह वेद और शास्त्र के जानने
ऋषिरुवाच॥ एतत्ते कथितं भूप देवीमाहात्म्यमुतमम्॥ एवंप्रभावां सा देवी ययेदं धार्यते जगत् १ विद्या तथैव क्रियते भगवद्विष्णुमायया॥ तथा त्वमेव वैश्यश्च तथैवान्ये विवेकिनः २ मोह्यन्ते मोहिताश्चेव मोहमेऽयन्ति चापरे॥ तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम् ३ आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा॥ मार्कण्डेय उवाच॥ इति तस्य वचश्श्रुत्वा सुरथस्स नराधिपः ४ प्रणिपत्य महाभागं तमृषिं
वाले भी २ मोहित हुये हैं और मोहित रहते हैं ओर रहैंगे हे सुरथ! आप उसी जगत्मोहनी महामाया परमेश्वरी को शरण पकड़िये २ आराधना करनेसे वही देवी मनुष्यों को भोग और स्वर्ग और मुक्ति देती हैं मार्कण्डेयजी कहते हैं कि हे क्रौष्टुकि! इतनी बातैं मेधाऋषि की सुनकर राजा सुरथ ४ ममत्व और राज्य छिनजाने के दुःख से आकुल होकर महाभाग और महाव्रत
मेधाऋषि को साष्टाङ्ग प्रणाम करके ५ उस वैश्यसमेत तपस्या करनेके वास्ते वहांसे चले और एकजगह नदी के किनारे पर देवीजी के दर्शन होने के अर्थ बैठगये ६ और देवीजी का परमसूक्त जपतेहुये तपस्या करने लगे अर्थात् देवीका स्वरूप मिट्टी से बनाकर ७ पहिले फूल और उसका हार बनाकर एकचित्त होकर देवीजी में मन लगाकर धूप दीप होम इत्यादि से पूजन
संशितव्रतम्॥ निर्विण्णोति ममत्वेन राज्यापहरणेन च ५ जगाम सद्यस्तपसे स च वैश्यो महामुने॥ संदर्शनार्थमम्बाया नदीपुलिनसंस्थितः ६ स च वैश्यस्तपस्तेपे देवीसूक्तं परं जपन्॥ तौ तस्मिन्पुलिने देव्याः कृत्वा मूर्तिम्महीमयीम् ७ अर्हणां चक्रतुस्तस्याः पुष्पधूपाग्नितर्पणैः॥ निराहारौ यताहारौ तन्मनस्को समाहितौ ८ ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम्॥ एवं समाराधय तोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनोः ९ परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चरिडका॥ देव्युवाच॥ यत्प्रार्थ्यते त्वया भूप त्वया
किया ८ फिर महाराज सुरथ और वैश्यने अपना २ शरीर काटकर रुधिर निकाल देवीजी को बलिदान दिया जब इसतरह सब इन्द्रियों को साधकर तीन वर्ष तक पूजन किया ९ तब वह जगत् की माता चण्डिका देवी प्रसन्न होकर प्रकट हो और दर्शन देकर बोलीं कि हे महाराज
सुरथ! और हे कुलनन्दन वैश्य! तुमलोग जो वर चाहते हो १० वह सब हमसे तुमलोग पावोगे और हम प्रसन्न होकर तुमलोगों को देंगी मार्कण्डेयजी कहते हैं कि हे क्रौष्टुकि! इतनी आज्ञा देवीजीकी पाकर सुरथने दूसरे जन्ममें बहुतदिनोंतक राज्य रहनेका वरदान देवीजीसे मांगा ११ और इस जन्ममें भी अपने बलसे शत्रुओंको मारकर अपना राज्य अपने वशमें लानेका वरदान
च कुलनन्दन १० मत्तस्तत्प्राप्यतां सर्वं परितुष्टा ददामि तत्॥ मार्कण्डेय उवाच॥ ततो वव्रे नृपो राज्यमविभ्रंश्यन्यजन्मनि ११ अत्रैव च निजं राज्यं हतशत्रुबलं बलात्॥ सोपि वैश्यस्ततो ज्ञानं वव्रे निर्विस्ममानसः १२ ममेत्यहमितिप्राज्ञस्सङ्गविच्युतिकारकम्॥ देव्युवाच॥ स्वल्पैरहोभिर्नृपते स्वं राज्यं प्राप्स्यते भवान् १३ हत्वा रिपूनस्खलितं तव तत्र भविष्यति॥ मृतश्च भूयः संप्राप्य जन्मदेवाद्विव
देवीजी से मांगलिया तदनन्तर उस वैश्यनेभी संसारसे विरक्तचित्त होकर देवीजीसे तत्त्वज्ञान का वरदान मांगलिया १२ कि जिससे यह मेरा और मैं ऐसा संग सब छूटजाय सुरथ और वैश्य के वरदान मांगने पर देवीजी ने कहा कि सुरथ थोड़ेही दिन में तुम अपना राज्य पावोगे १३ और तुम्हारे सब शत्रु नाश होकर राज्य में एक तुम्हारा ही हुक्म चलेगा और दूसरे जन्म में तुम
विवस्वान् के पुत्र होकर १४ सावर्णिक नाम मनु पृथ्वी में होगे और हे वैश्य! तुम जो वरदान चाहते हो १५ तौन वरदान मैं देऊँगी संसिद्धि अर्थात् मुक्तिके लिये तेरा ज्ञान होगा मार्कण्डेयजी कहते हैं सुरथ वैश्य दोनों करके भक्ति से स्तुति की हुई देवी भगवती यथाभिलषित वरदान को देकर शीघ्रही अन्तर्धान होगई १६ इसप्रकार देवी से वरदान को पाकर क्षत्रियों में श्रेष्ठ सुरथ सूर्य
स्वतः १४ सावर्णिको नाम मनुर्भवान् भुवि भविष्यति॥ वैश्यवर्य त्वया यश्च वरोस्मत्तोभिवाञ्छितः १५ तं प्रयच्छामि संसिद्ध्यै तवज्ञानं भविष्यति॥ मार्कण्डेय उवाच॥ इतिदत्त्वा तयोर्देवी यथाभिलषितं वरम्॥ बभूवान्तर्हिता सद्यो भक्त्या ताभ्यामभिष्टुता १६ एवं देव्या वरं लब्ध्वा सुरथः क्षत्रियर्षभः॥ सूर्याज्जन्म समासाद्य सावर्णिर्भविता मनुः १७ इति श्रीसुरथवैश्ययोर्वरप्रदानन्नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥
से उत्पन्न होकर सावर्णि नाम का मनु होगा १७ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिकेमन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये भाषानुवादे सुरथवैश्ययोर्वरप्रदानन्नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥
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आठवीं वार
लखनऊ
केशरीदास सेठ द्वारा
नवलकिशोर प्रेस में मुद्रित व प्रकाशित- सन् १९२२ ई०
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