भक्तिसूत्रम्

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॥ॐ॥ श्रीहरिः शरणम्॥ॐ॥

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प्यारे भाई भारतवासियों । यदि इस लोक में शान्ति के साथ जीवनयात्राका निर्वाह करने और सरल तथा मधुरमार्गसेबैकुण्ठधाम में पहुँचनेकी कामना हो तो भक्ति मार्गके बटोही वनो । निश्चय रक्खो, कि– इस त्रितापमय संसार में शान्ति और अंत में अच्युतधामको पानेका पथ केवल प्रेम है। विना निःस्वार्थ प्रेम वा विशुद्ध भक्ति के न यह लोक है, न परलोक है । भगवान् नेतुमको जिस जगत् में जन्म दिया है, जिस देश, जिस जाति वा जिसकुटुम्बमें तुमको भेजा है, उस देश, जाति और कुटुम्बसेप्रेम करो और अपने परमपूज्य प्रियतम परमात्माको भक्तभावसे ढूँढो, बस इसीमें तुम्हारा परममङ्गल है, परंतु देश, जाति और परिवार के साथ सच्चाप्रेम करने में तुमको स्वार्थका बलिदान करना पड़ेगा, तुम

यदि अपने भोग्य पदार्थ देश, जाति और परिवारके लिये न्यौछावर करसको तब ही तुम्हारा सच्चाप्रेम समझाजायगा। परंतु भगवत्प्रेममें और भी आगै को बढ़ना होगा, सर्वथा भोगत्याग के बिना भगवान्की भक्ति होना असंभव है, भगवान्मैं सच्चा प्रेम होगा तो विषयोंसे वैराग्य अवश्य ही होगा। यही तत्त्व नारदजी ने इन भक्तिसूत्रों में पद् २ पर दरशाया है। जो भगवान्‌ कें प्रेमको पानेका प्यासा होगा, उसको विषयभोग विषमय प्रतीत होगा। ईश्वर और संसार, दोनोकी ओरको प्रेम वाँटदेनेसेप्रेमका वास्तविक सूख नहीं मिलता, उस प्रेम मेंबास्तबिक मधुरता नहीं होती, वह तो भक्ति भावकी क्षणभरको बिजलीकीसी चमक है, अनन्यभाव और तन्मयता के बिना सच्चा प्रेम नहीं हो सकता। भगवान्के लिये व्याकुल होने पर मनमें से विषयोंका वेग कम होजाता है, परंतु विषयभोग में मग्न होनेपर भगवान् मेंठीक २प्रेम नहीं हो सकता। देवर्षि नारदजीने इस शास्त्र के पहिले और दूसरे

अनुवाक में भक्ति की मधुरता और उसको पाने के लिये मनःसंयमकी आवश्यकता दिखाई है, तीसरे और चौथे अनुवाकमेंभक्ति के अनेकों प्रकार के लक्षण तथा कर्म, योग और शान से भक्तिकी अधिकता वर्णन की है, पाँचवें अनुवाकमेंभगवद्भक्तिको पाने के लिये साधनके सकल अंगोंका वर्णन किया है, छठे अनुवाकमेंभक्तिको पातेसमयके विघ्न और उनको निवारण करने के उपायोंको बताया है, सातवें और आठवेंअनुवाकमेंप्रेमका स्वरूप और किसभावसे उस परमानन्दका स्वाद मिलता है तथा उसके लिये किसप्रकारकी मानसिक पवित्रताकी आवश्यकता है, इस बातको स्पष्टरूपसे दिखाया है, नबमअनुवाक में भगवद्भक्तके मधुरभावका वर्णन करकै दशम अनुवाकमेंभक्तिभावकी स्थिरताके लिये प्रतिदिन भगवान् के भजनकीर्त्तन और दास्य, सख्य, कान्त भाव आदि अनन्य आसक्ति के साथ भगवद्भावमें मग्न होजानेका अमूल्य उपदेश देकर भक्तशिरोमणि देवर्षि नारदजीने जीवकें परमकल्याणका उपाय

रखदिया है। यद्यपि इस भक्तिशास्त्रका एक संक्षिप्त अनुवाद मै पहिले अपने हितैषी, श्रद्धेय, भगवद्भक्त अग्रवाल–वैश्यवंशावतंस लाला गणेशीलालजीकी प्रेरणा से लिखचुका हूँ, जोकि–उनके ही लक्ष्मीनारायण यंत्रालय में छपकर अनेकों भगवद्भक्तोंके करकमलोंमें पहुँछचुका है, परंतु इसवार कुछ अधिक समय के श्रमसे यह विस्तृत व्याख्या लिखकर छापी है, यदि इसको पढ़कर भगवद्भक्तों को कुछ भी सन्तोष हुआ तो मैं अपने श्रम और समयको सार्थक समझूँगां।

निवेदक—

( ऋ०कु० ) रामस्वरूप शर्मा

स० ध० प्रेस, मुरादाबाद-

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श्रद्धेय मान्य स्वर्गीय लाला गणेशीलालजी ! महोदय !

आपने अपनेजीवनकाल में मेरे साथ जो २ उपकार किये, क्या किसी दूसरेसे मैं वैसी आशा करसकता हूँ? मैं रुपये पैसे की सहायताकी बात नहीं कहता, वह तो मेरे आपकेसंबंधमें आनुषंगिक घटना थी, और आपका मेरे दुःख सुखमें साथी होना तो स्वाभाविक था, परंतु आपकी उत्तेजनासे यह जो मेरे द्वारा अनुवादित और सम्पादित हुए श्रीमद्भागवत उपनिषदादि अनेकों पुस्तक प्रकाशित हुए यह आपका उपकार केवल मेरे ऊपर ही नहीं किंतु हिंदीसाहित्य और धार्मिक हिंदीपाठकों के ऊपर भी है, आपने व्यापारसे विरक्त होकर एकांतसेवी होने पर भी धार्मिकों के उपकारके लिये मेरे द्वारा ‘लक्ष्मीनारायण’ यंत्रालय स्थापित करकैऔर धर्मविषयक अनेकों पुस्तकें प्रकाशित कराकर संसारको निःस्वार्थपरोपकारका ज्वलन्त दृष्टांत दिखादिया, वास्तवमें हिंदीसंसार में मेरे नामोल्लेखके निदान आप ही हैं। यद्यपि आपके स्वर्गवासी होजाने पर

मुझैअव वैसी उत्तेजना देनेवाला दूसरा नहीं है, परंतु आपकी वही उत्तेजना मेरे हृदयमें सजीव रहकर अवभी आपका स्मरण तथा प्रेमाश्रुधाराकी वर्षा कराती हुई धार्मिक ग्रंथों का अनुवाद और अनुशीलन करनेमें मुझे प्रवृत्त करती है, इसके लिये यदि मैं आप का उपकार न मानूँ तो मुझसा कृतघ्नकौन होगा ? इसी नातेसे आजयह आपकीजीवनाधार भक्तिकेनिरूपकनारदसूत्रों की विस्तृत व्याख्या भक्तिभरे आनन्दाश्रुप्रवाह के साथ आपकी स्वर्गीयआत्माको अर्पण करता हूँ, क्योंकि– इस मर्त्यलोक में जब आप मुझसे निःस्वार्थ निर्मल प्रेम करतेथे तो आशा है, कि–स्वर्गधाममें भी इस स्वर्गीय वस्तुको स्वीकार करतेहुए आप मुझैपूर्ववत् उपकृत करेंगे।

आपका वही वशम्वद —
( ऋ०कु० ) रामस्वरूपशर्मा

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॥ ॐ ॥ श्रीकृष्णः शरणं मम ॥ ॐ ॥

नारदकृत—

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प्रथम अनुवाक

एक समय श्रीमन्नारायणावतार महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यासजीने वदरिकाश्रममें निवास करतेहुए अपनी इच्छानुसार विचरते २ तहां आकर उपस्थित हुए देवर्षि नारदजीको देख उनका विधिविधानसे सत्कार करके वूझा, कि— हे देवर्षे ! सुख दुःख मनुष्य के अधीन नहीं हैं, किंतु मनुष्यमात्र सुख दुःखके अधीन हैं, सुखदुःखमय संसार मनुष्यका बंधन है, मनुष्य बंधनको नहीं चाहता, इस-

लिये अनिच्छित संसारबंधनसे मोक्ष होनेकी, आवश्यकता है, वह मोक्ष उपायसे साध्य है, कर्म मोक्षकासाक्षात् उपाय नहीं मानाजासकता । यद्यपि ज्ञान मोक्षका साक्षात् उपायस्वरूप गिनाजाता है, तथापि भक्तिविहीन ज्ञानको शास्त्र अकिञ्चित्करं कहता है, इसकारण परमपुरुषार्थ मोक्षकी एकमात्र साधनरूप भक्तिकीव्याख्या करिये ?, तव देवर्षिनादरजी कुछ सूत्रोंकेद्वारा भक्तिकी व्याख्या करनेलगे, उन नारदकृत भक्तिसूत्रों में पहिला सूत्र है —

अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ॥ १ ॥

अथ शब्दो मङ्गलवाचकः तथाचोक्तं— ॐ कारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा । कण्ठम्भित्त्वा विनिर्यातौ तस्मान्माङ्गलिकावुमौ। आनन्तर्यवाचको वा अथशब्दः, द्वैपायनप्रश्नानन्तरमित्यर्थः अतः भक्तेरेव परमपुषार्थोपायभूतत्वात्, भक्तिं व्याख्यास्यामः, भक्तिं तत्ववर्णनेनं विवृणुमः ।

पदार्थ —(अथ) कृष्णद्वैपायनके प्रश्न करने के अनन्तर (अतः) एकमात्र भक्ति ही परमपुरुषार्थ मोक्षका साधन होने से(भक्तिम्) भक्तिको (व्याख्यास्यामः) तत्त्ववर्णनके द्वारा विस्तार से वर्णन करेंगे ।

** (भावार्थ) —** कृष्णद्वैषायन वेदव्यासजीके प्रश्न करनेपर देवर्षि नादरजीने कहा, कि– हे महर्षे! मैं आपके प्रश्नके अनुसार परमपुरुषार्थसाधक परमप्रेमरूपा भक्तिकी व्याख्या करूँगा, आप का अवतार लोकोपकारके ही निमित्त है, आपने मुझसे जो यह भक्तिविषयक प्रश्न किया है, यह भी लोकोपकार करने के लिये ही है। आपने अपने शिष्य जैमिनि मुनिके द्वारा पूर्वमीमांसा में कर्मजिज्ञासा और स्वयं ही उत्तरमीमांसा में ज्ञानजिज्ञासाकी है। इससमय भक्तिजिज्ञासाकेमिषसे मेरे मुखसे भक्तिकी व्याख्या करने को पूवृत्त हुए हो, यद्यपि मैं आपकी आज्ञासे भक्तिकी व्याख्या करूंगा, परंतु भक्तिकीपूर्ण वास्तविकव्याख्या आप स्वयं ही करेंगे यह मेरा भक्तिसूत्र ग्रंथ आपकी उत्तरमीमांसा अन्तर्गत अतिसंक्षिप्त भक्तिलक्षणके व्याख्यान के स्थल में सूत्ररूप ही गिनाजायगा आप स्वयं ही ब्रह्मसूत्रके मान्यरूप श्रीमद्भागवत में स्वरचित भक्तिलक्षण केव्याख्यानरूप इन मेरे मक्तिसूत्रोंकीकी सविस्तर व्याख्या करेंगे १

सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा॥ २॥

सा व्याख्यातुमारब्धा भक्तिस्तु, अस्मिन् विश्वव्यापिनि श्रीमन्नारायण परमप्रेमरूपा॥" सा कस्मै परमप्रेमरूपा" इत्यपि पाठः कस्मै परमेश्वराय, परमेश्वरः सदा पूश्नार्हत्वात्किं शब्देनोच्यते, तथा

चोंक्त महाभारते विष्णुसहस्रनामसु–नैकः सर्वःह्रसवः कः किमिति॥

पदार्थ – (सा–तु) हम जिस भक्तिकी व्याख्या करेंगे वह तो (अस्मिन्) परमेश्वरमें (परमप्रेमरूपा) परमप्रेमस्वरूप है।

** (भाषार्थ) –**भक्ति शब्द भज् धातुसे क्तिन् प्रत्यय लगाकर बनता है, भज् धातुका अर्थ सेवा करना वा अनुशीलन है, परतत्त्व का रुचिकर भावमय और चेष्टामय अनुशीलन ही भक्तिका स्वरूपलक्षण है, यह अनुशीलन उपाधिरहित हो तो इसको उत्तमा भक्ति कहते हैं, स्वरूपसिद्धा केवला शुद्धा आदि उत्तमा भक्तिके ही नाम हैं, यह उत्तमा भक्ति साध्य और साधन भेदसे दो, प्रकार की है एक साध्यरूपा दूसरी साधनरूपा। साध्यभक्ति प्रेममयी वा भावमयी है, और इस साध्यभक्तिको प्रकाशित करनेवाली चेष्टामयी भक्ति ही साधनभक्ति है। भावशब्दका अर्थ रति हैं, यद्यपि शान्त आदि भेदसे रति पांच प्रकारकी है, परन्तु कान्तारति सर्वोपरि है। यह रति भी मिश्रा और केवला दो प्रकारकी है। केवला रति मिश्रा रतिसे स्वाभाविक ही श्रेष्ठ है, इसीसे सूत्रमेंके परमप्रेम शब्दका अर्थकेवलाकान्तारति है अर्थात् केवला कान्तारति वा परमप्रेम भक्ति शब्दका अर्थ है। गोपालतापिनी उपनिषद्की श्रुति कहती है, कि–“भक्तिरस्य भजनं तदिहामुत्रोपाधिनैरास्येनामुष्मिन्मनःकल्पन-

मेतदेव नैष्कर्म्षम्”। अर्थात् श्रीकृष्ण नामक परतत्त्वकाभजन कहिये अनुकूल श्रवण आदिकी चेष्टारूप अनुशलिन और उस श्रीकृष्णनामक परतत्त्वमें मनःकल्पन अर्थात् अनुकूल श्रवण आदिकी चेष्टायुक्त अन्यप्रकारके विश्वाससेरहित सजातीय विश्वास का प्रवाहरूप भावमय अनुशीलन भक्तिका स्वरूपलक्षण है, उपाधिरहित होना उसका तटस्थ लक्षण है। उपाधिशब्दका अर्थ है, इस लोककीभोगाभिलाषऔर पारलौकिक मोक्षाभिलाष। भोगाभिज्ञापका साधन कर्म और मोक्षाभिलाषका साधन ज्ञान है। इससे सिद्ध हुआ कि–जिसमें कर्मका वा ज्ञानका मिश्रण न हो वह भक्ति हीउपाधिरहित तटस्थलक्षणा भक्ति है। कर्म और ज्ञानके मिश्रण बिना भी भक्ति मोक्षकरी है, क्योंकि–मोक्ष तो भक्तिका आनुषंगिक फलसिद्ध होता है। इसप्रकार नारदजीका कहा हुआ भक्तिका लक्षण श्रुति के साथमी मिलताहुआहै॥*॥ अनादि परतत्त्व परमात्मासे विमुख होनेके कारण मायासे आच्छन्न हुआ मनुष्य, देहको ही आत्मा मानने के अनन्तर देहके दुःखसे मोहित होकर और विषयभोगसे खिचकर संसारचक्रमें घूमा करता है। जब स्वयं ही किसी मनुष्यकी उन विषयोंकी औरको खिचावटसे कुछ एक निवृत्ति होती है उसी समय परतत्त्वकी विमुखता दूर

होकर परतत्त्वके सन्मुख होनेमें प्रवृत्ति होती है अर्थात् विषयभोगका आकर्षण होतेहुए भी सौभाग्यवश शास्त्रमें वर्णित परमेश्वर, आत्मा परलोक और फर्मफल आदिमें विश्वासके साथ उसका चित्त, क्रमसे अन्तर्मुख होनेलगता है, इन ही विषयोंका विचार धीरे २ बढ़ने लगता है, उस विचारको फलसे साधुसङ्ग होता है, उसविचारके द्वारा वैराग्य होनेपर ज्ञानी का संग होता है और उससे उत्पन्न हुए कारुण्यभावसे भक्तका संग होता है, साधु ज्ञानी होने पर उसके साथ२ मोक्ष की इच्छा होती है और भक्त होनेपर उसके साथ २ भक्ति की इच्छा बलवती होती जाती है और इसप्रकार भक्तिकी इच्छा बलवती होनेपर दीनता और निरपेक्षताके साथ भजनक्रिया वा परतत्त्वविषयकेश्रवण कीर्त्तनादिरूपअनुकूल चेष्टाका उदय होता है यह चेष्टा ही साधनभक्ति है।

साधन के पकजाने पर अनर्थकीनिवृत्तिकेवाद निष्ठा आदि के क्रमसे भाव प्रकट होता है, भावका परिपाक होजाना वा दृढता ही प्रेम है। कान्ताप्रेम ही हमारे प्रेम की पराकाष्ठा है, इसकारण उसको हीं परमप्रेम शब्दसे कह सकते हैं और वह परमप्रेमही भक्तिका स्वरूपलक्षण है, अन्य प्रेम उपलक्षण हैं। प्रेम भगवान् की स्वरूपशक्तिकी एक वृत्ति है, उसको भगवान् के नित्यसिद्ध सेवक अपनी सम्पत्ति

समझते हैं, वह नित्यधामके नित्यसिद्ध भगवत्पारिषदों की सम्पत्ति होनेपर भी श्रीभगवान् केअनुग्रहसे देवनदी गंगांके प्रवाहकी समान संसार में आकर और शुद्ध जीवोंके स्वभाव के साथ एकाकार होकर उनकी स्वाभाविक वृत्ति के रूपमें बहरही है। कहा भी है, कि–“देवानां गुणलिङ्गानामानुश्रविककर्मणाम्। सत्त्व एवैक्तमनसो वृत्तिः स्वाभाविकी तु या॥अनिमित्ता भागवती भक्तिः सिद्धेर्गरयिसी। जरयत्याशु या कोपं निगीर्णमनलो यथा॥” अर्थात् प्रकृति के तीनो गुण जिनकी उपाधि है और वेदपुराणादिमें जिनके कर्मोंका वर्णन है उन तीनों देवताओं में अधिष्ठानके द्वारा सत्त्वगुणका उपकार करनेवाले श्रीविष्णुभावान्में अनन्यचित्तसे पुरुषकी जो स्वाभाविक वृत्ति होती है अर्थात् अनुकूलतादिरूप एकप्रकारका ज्ञान होता है उसका ही नाम भागवती भक्ति है। वह स्वरूपशक्ति की वृत्ति होनेपर भी विषयसौन्दर्य के कारण विना यत्नके शुभभक्त के स्वभाव के साथ एकाकार होकर प्रकाशित होने पर ही उसको जीवशक्ति की स्वभाविक वृत्ति कहते हैं, उसमें किसी फलकी अभिलाषा नहीं रहती, वह मोक्षपर्यन्त सब प्रकारकी सिद्धियोंसे बडी है, जैसे पेटमेंकीजठाराग्नि पेटमें पहुँचे हुए सकल पदार्थों को पचाकर जीर्ण करदेती है तैसे ही वह वृत्ति जीवके अन्नमयादि सफल कोषोंको शीघ्र ही जीर्ण करदेती है। भागवती भक्ति स्वरूपशक्ति की वृत्ति

है, जीवशक्तिकी वृत्ति लौकिकी भक्ति है, यह लौकिकी भक्ति ही स्वाभाविक वृत्ति है। इस वृत्ति के साथ एकाकार होकर प्रकाशित होती है, इससे भागवती भक्तिको भी जविकी स्वाभाविक वृत्ति कहा है। भक्त और भजनीयका परस्पर सम्बन्ध होनेसे ही भक्तिका प्रकाश होता है। लौकिकी भक्तिकेमूलमें लोकसम्बन्ध है और भागवती भक्तिकी मूलमें भगवत्सम्बंध देखने में आता है। लोकसंबन्ध दास्यभाव आदिस्वरूप है, भगवत्संबंध भी ऐसा ही है। कितने ही पुरुष समझते हैं, कि–अलौकिसम्बंध लौकिकसंबंध से अन्यप्रकारका ही होगा, परन्तु हम ऐसा नहीं मानते, क्योंकि लोक अलोकसे सर्वथा भिन्न नहीं है, लौकिकसंसार अलौकिक संसारके ही अनुरूप है, जीवका संसार भगवत्संसार की ही छाया है। भगवान् नेजैसे जविको प्रायः अपनी सदृश रचा है तैसे ही जीवकेसंसारको भी अप्राकृत संसार के अनुरूप ही रचा है। केवल वह पूर्ण है, जीव अपूर्ण है। उनका संसार अप्राकृत है, जीवकासंसार प्राकृत है, इतना ही भेद होनेपर भी परमेश्वरका अंशभूत जीव जिस उपायके द्वारा प्राकृत संसार में से अप्राकृत संसार में पहुँचेगा, वह उपाय प्राकृत और अप्राकृत दोनों के सन्धिस्थान में स्थित है। वह उपाय प्राकृत होकर भी अप्राकृत और अप्राकृत होकर भी प्राकृत है तथा वह प्राकृत और अप्राकृतका

एकीभावरूप है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं होसकता। यह उपाय ही भक्ति है। भक्ति जीवकानेत्र है, वह ज्ञानका सार विज्ञान है, वह हृदयरूप खानमें स्थित स्वच्छ रत्न है। देखनेयोग्य वस्तु के साथ चक्षुका, जाननेयोग्य वस्तु के साथ विज्ञानका और क्रययोग्य वस्तु के साथ रत्नादिका जो संबन्ध है, भक्तिके साथ भगवान् कावहीं संबन्ध है। जीव भक्ति के द्वारा ही भगवान्को देखता, जानता और खरीदलेता है। जीव भक्तिकी सहायता सें ही प्राकृत संसारके साथ भगवत्संसारका संबन्ध स्थापन करता हुआप्राकृतसंसार में ही भगवत्संसारको लेआता है अथवा प्राकृत संसारको लाँघकर भगवत्संसारमें प्रवेश करता है। इसमें संदेह नहीं है, कि–भक्ति परतत्त्वमें प्रवेशका प्रथम द्वार है, परतत्त्वमें चढ़नेकी पहिली सीढी है, ऐसा होनेपर भी क्या कोई यह कह सकता है, कि–भक्ति शेष द्वार, भक्ति अन्तिम सोपान वा भक्ति सबसे ऊँची सींढ़ी नहीं है ?।भक्ति ही आदि है, भक्ति ही अन्त है, वही जीवका सबसे पहिला आलंबन है और वही जीवका अन्तिम आश्रय है, भक्ति के विना परतत्व के समीप नहीं पहुँच सकता। परतत्व के होने का विश्वास उत्पन्न कराकर भक्ति निवृत्त होजाती है और वह आगैकोनहीं बढ़सकती, ऐसा समझना भ्रांति है, ऐसा

विश्वास तो साधारण ज्ञानसे ही होजाता है, जो ज्ञान परतत्वकेहोने का विश्वास कराता हैं, भक्ति उसका सारांश है। ज्ञान भूयोदर्शनकी परीक्षाफा फल–तर्कयुक्ति के ऊपर स्थित है, यह ज्ञान आस्तिकमात्रको होता है, परन्तु यह नियम नहीं है, कि– कोई आस्तिक होनेसे ही भक्त होजाय। भक्ति के वास्तविक अर्थ में बहुत हीथोडेसेदेखेगए हैं। श्रीभगवान् का साक्षात्कार, उनके साथ मिलन और उनके संसारमें प्रवेश बहुत ही थोड़े आस्तिकों के भाग्य में होता है। क्या हम सवोंने ही श्रीभगवान् को देखा है? यदि नहीं देखा है, यदि हमको उनका साक्षात्कार नहीं हुआ है तो इम कैसे कहैं, कि–हममें भक्ति है और हम परमात्माके भक्त हैं? हम निरन्तर अपने सामने जिन पदार्थोंको देखते है उनके प्रत्यक्षमेंक्या हमको कुछ संशय होता है? जिनको देखने की शक्ति नहीं है उनके सिवाय और कोई भी कभी प्रत्यक्ष में सन्देह नहीं करसकता, क्योंकि – वह हमारा इन्द्रियजन्य ज्ञान है, उसमें तर्ककी आवश्यकता नहीं है, हमारी इंद्रियें ही उस ज्ञान की साक्षी हैं, इंद्रियेंही प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इस प्रत्यक्ष संसारके होनेमें हमको जैसा विश्वास है, श्रीभगवान् के वा उनके गुणसमूह के होनेमें क्या हमको वैसा विश्वास है? इन्द्रियें जैसे सकल प्रत्यक्ष पदार्थोंका
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अनुभव करती हैं, हमारा आत्मा क्या उसी प्रकार सच्चिदानन्दमय परमात्माका प्रत्यक्ष करता है ? हमको ईश्वर के अस्तित्वमें विश्वास हैं, इस बात को मानते हैं, परंतु वह विश्वास ही भक्ति है, यह वात नहीं मानसकते, यह विश्वास भक्तिराज्यमें प्रवेश करने का द्वार है, विश्वासवाला पुरुष ही भक्तिका अधिकारी है, हमारे ज्ञानमें परमात्माका अस्तितत्व होनेपर भी भक्तिकेविना हमारे आत्मामें परमात्माकासाक्षात्कार नहीं होसकता, यदि वास्तव में हमको परमपुरुषार्थको पाने के लिये आग्रह है तो केवल उनके अस्तित्वकी धारणामात्र से हमारी तृप्ति कदापि नहीं होसक्ति, उसकी सिद्धिके लिये शक्तिमान् लीलामय परमपुरुषका अनुभव होना चाहिये।

हम परम पुरुषार्थको साधनके लिये ज्ञान कर्मादि अनेकों साधनों का अनुष्ठान करते हैं, परंतु भक्ति के विना सब साधन वृथाहैं क्योंकि–एक भक्ति ही उसका साधन है। हम नियमके साथ धर्मचर्चाकरसकते हैं, अनेकों अनुष्ठानों में लगसकतेहैं, परंतु भक्ति के सामने वह कुछ भी नहीं हैं। हम सैकड़ों शास्त्रों की आलोचना करसकते हैं, अनेकों नियमों को पालसकते हैं, परंतु यह सब हमारे परमपुरुषार्थ के साधनमें विशेष अनुकूल नहीं हैं, यदि यह हमारी परमपुरुषार्थसिद्धिमें विशेष सहायक होते तो हम वारंवार खाली

हाथों और शून्यहृदयसे घरको लौटकर न आते अर्थात् इन सकल अनुष्ठानों को करकैफिर मायाजालमें न जकड़ेजाते और विषयोंके अन्धकूपमें न गिरते, उधर जिस हृदयमें भक्तिका कणमात्र भी उदय होजाता है, वह हृदय फिर कभी शून्य देखने में नहीं आता, उस हृदयवाले को फिर कभी विषयासक्त होते नहीं देखागया, भक्त के हृदयसे किसी दिन भी परमात्माका पवित्र आविर्भाव दूर नहीं होता, भक्त के संसारकी हरएक वस्तुमें परमात्मा की छवि प्रतिविंबित होती है। यह ठीक है, कि–प्रलोभनमयी प्रकृति जीव को सदा अपनी ओरको खेंचकर परमात्मासे वहिर्मुख करदेती है, जीव प्रकृति के परदे से आवृत होकर चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार देखता है, परन्तु भक्तिका उदय होनेपर वह भाव सर्वथा बदलजाता है, उसका उदय होनेपर जीवकी सब ही वृत्तियेंअन्तर्मुखी होजाती हैं, उससमय प्रकृतिका परदा आपसे आप ही हटजाता है, परमात्मा के प्रकाशसे हृदयका घोर अन्धकारमय प्रदेश भी आलोकमय होजाता है, उससमय दुःखमय संसार सुखमय भासनेलगता हैं उससमय सवप्रकार के संदेह और सब प्रकारकी वासनाएं उखड कर दूर जापडती हैं, ‘उमसमय ज्ञानकर्म आदिका आवरण इधर उधर कोविच्छिन्न और विध्वस्त होजाता है, भक्ति दूरवर्ती परमात्माको

समवर्त्ती करदेती है, वह किसीसे न जीतेजानेवाले परमात्माको भक्त के वशमेंकरदेती है। भक्तिका उदय होनेपर सब ही चेष्टाएं प्रति कूलता छोड़कर अनुकूल हो जाताहैं, उस समय संसार में आसक्ति न होने पर भी संसारका विद्वेषरूप वैराग्य हृदयमेंस्थान नहीं पाता, क्योंकि– उससमय संसार सुख शांतिका मंदिर होजाता है। उस समय संसारका विद्वेषरूप वैराग्य न होने पर भी दीनता और निरपेक्षता के कारण संसारका डरावना आकर्षण न होनेसे अहं ममाभिमानमूलक संसारबंधन आपसे आप ही शिथिल होजाता है। उस समय उसके चित्तमें परमात्मा के सिवाय और किसीको स्थान नहीं मिलता, अतः भगवत्संगके लिये भक्ति के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है। प्रकृति आकर्षण से जो परमात्माका विस्मरण होजाता है, वह भक्ति के उदय से दूर होजाता है, क्योंकि–उससमय ईश्वर चित्तराज्यपर अधिकार जमाकर ही विराजमान होते हैं, यह भक्ति केवल अप्रत्यक्षं परमेश्वरका इस प्रकार प्रत्यक्ष कराकर ही शांत नहीं होजाती है, किंतु जीवको ईश्वरमें और ईश्वरको जीवके हृदयमें स्थित करती है भक्तका हृदय परमात्माका नित्यनिवासस्थान है इसीसे भक्त हृदयमें और किसी को स्थान नहीं मिलता। इन सबकारणों से ही भक्ति के सिवाय जीवका दृश्य सहजमें शुद्ध

करनेका और कोई उपाय देखनेमें नहीं आता, भक्तिका उदय होनेसे वह आपसे आप ही शुद्ध होजाता है।उससमय दायें, वायें, सामने, पीछे, ऊपर, नीचे सर्वत्र यदि परमेश्वर की मूर्तिका ही दर्शन करनेलगा, इसके सिवाय और कुछ भी यदि मेरी चाहनाकी और चित्ताकर्षण की सामग्री नहीं रही, तव स्वयं ही आत्मरक्षा होगई, डरावने सांसारिक प्रलोभनसे मैंने अपनी रक्षा करली, यदि परमेश्वरके प्रियतम होनेकी भावना नहीं करसकेगा तो और, किसी प्रकारसे भी सकल आकर्षणोंसे समस्त संसारबंधनों से नहीं छूटसकैगा और परमपुरुषार्थ की प्राप्तिभी नहीं कर सकेगा। यदि देह, गेह, विषय, वैभव, माता, पिता, स्त्री, पुरुष, बंधु, बान्धव आदि सबके हीविषयका प्रेम परमात्माको अर्पण नहीं करसकेगा, तो उनको अपना प्रियतम भी नहीं मानसकेगा।जितनी भक्ति होगी उतना ही परमात्माका ज्ञान होगा और उतनी ही अन्यत्र की आसक्ति कम होगी, इसीलिये देवर्षि नारदजीने भक्तिका लक्षण किया है, कि परमेश्वरमें परमप्रेम ही भक्ति है। इसी कारण दैत्यकुलपावन प्रह्लादजीने श्रीनृसिंहदेवसे याचना की थी, कि–हे नाथ ! ऐसी कृपाकीजिये कि–सकल अविवेकी पुरुषों में जो अनपायिनी प्रीति देखनेमें आती है, आपके स्मरण आदिमें मेरी वह प्रीति

ही हृदयमें स्थित होय उससमय वह मेरे हृदयमें से दूर न हो अर्थात् मैं साधनाकालमें सब प्रकारका प्रेम आपको ही अर्पण करसकूं॥ २॥

अमृतस्वरूपा च ॥३॥

पदार्थ–( अमृतस्वरूपा–च ) अमृतस्वरूप भी है।

** भावार्थ–**वह परमप्रेमरूपा भक्ति अमृतरूप है। समुद्रमन्थन के समय निकली हुई, रोग शोक–जरा–मरणादि नाशक, देवताओं के भोगनेयोग्य एक परमौषधकानाम अमृत है। भक्ति इस ही अमृतकेतुल्य है। परमात्माकी लीलारूप समुद्रको मथनेसे यह प्रेम रूप अमृत उत्पन्न होता है, वह परमात्मा के प्रेमी साधुजानोके भोगने योग्य है, इसके सेवन से सम्पूर्ण भवरोगका नाश होता है। आध्यात्मिकआधिदैविक और अधिभौतिक तीनों प्रकारके ताप शान्त होते हैं, और वारंवार जन्ममरणादिरूप संसारका आवागमन विलीन होता है। जीव पापरहित, जरारहित, मृत्युरहित, शोकरहित, क्षुधाराहत, तृष्णारहित, सत्यकाम और सत्यसङ्कल्प होता है, इसप्रकार यद्यपि प्राकृत अमृतसे इसका वड़ाभारी भेद है, तथापि और कोई दृष्टान्त न होनेसे इसको प्राकृत अमृत तुल्य कहा है ३

यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवत्यमृतो भवति तृप्तो भवति॥ ४॥

यत्–प्रेम, लब्ध्वा–प्राप्य, पुमान्–जीवः, सिद्धः–साधनान्तरप्रयोजनराहितः। अमृतः–अमरणधर्मा, तृप्तः–ऐहिके पारलौकिकेच सुखे वितृष्णः, भवति–सम्पद्यते॥

** पदार्थ–**(यत्) जिस भक्ति को ( लब्ध्वा) पाकर ( पुमान्) जीव ( सिद्धः) सिद्ध (भवति) होता है ( अमृतः) अमर (भवति ) होता है (तृप्तः ) तृप्त ( भवति ) होता है \।

भाषार्थ– प्राकृत अमृतको पाकर ही देवता अपने को सिद्ध, अमर और तृप्त मानलेते हैं, परंतु वास्तव में देवता उस अमृतसे सिद्ध अमर वा तृप्त नहीं होते, यदि होते तो उनमें किसी पदार्थका अभाव, ईर्षा, द्वेष, भय और असन्तोष आदि देखनेमें नहीं आता परन्तु स्वर्गमें इन सब दोषोंका होना चिरकाल से पुराण आदि में प्रसिद्ध है, इसके सिवाय वास्तविक ज्ञानी पुरुष स्वर्गसुखको त्याज्य अकिंचित्कर और क्षणभंगुर विचार कर उससे श्रेष्ठ सुखको पानेके लिये चेष्टा करते हुए देखने में आते हैं तथा उनका ऐसा करना ‘सफल भी होता है, परन्तु परमात्माके प्रेमको पाकर कोई भी भक्त

अपनेको प्रसिद्ध, मृत वा अतृप्त नहीं मानता है, भक्तिका उदय होनेपर जीवको और किसी साधन की आवश्यकता नहीं रहती मुक्ति स्वयं ही आकर उसकी सेवा करती है उसको परमानन्दकी प्राप्ति होती है, इसकारण उसको इसलोकपरलोककेकिसी सुखभोगी वासना नहीं रहती है, इसकारण यह मानना होगा कि–प्रेमलाभ ही जीवको स्वरूपसम्पत्तिकी प्राप्ति है॥४॥

यत्प्राप्य न किञ्चिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति॥५॥

यत् प्रेम, प्राप्य लब्ध्वा किञ्चित् ऐहिकमामुष्मिकम्वा वस्तु न वाञ्छति अभिलषति, न शोचति चिन्ताकुलो भवति, न द्वेष्टि नान्यत्र रमते नान्यार्थमुत्साही उद्युक्तः भवति॥

पदार्थ– (यत्) जिस प्रेमको (प्राप्य) पाकर (किञ्चित्) कुछ (न) नहीं (वाञ्छति) चाहता है (न) नहीं (शोचति) शोक करता है (न) नहीं (द्वेष्टि) द्वेष करता है (न) नहीं (रमते) आसक्त होता है (न) नहीं (उत्साही) उत्साहवाला (भवति) होता है॥

**(भाषार्थ)—**इस संसार में सुख पानेके लिये वहुतों को

अनेकों प्रकारका कर्म करते हुए देखते हैं, परन्तु उन कर्मों को करकै भीकिसीको शान्ति पातेहुए नहीं देखते और यह आशा भी नहीं हैं, कि–उनमेंकाकोई शान्ति पाजाय। उधर भगवत्प्रेमीको आवश्य ही शान्ति मिलती है, क्योंकि–इच्छा द्वेषादि मनमें हुआ करते हैं परंतु भक्तिका उदय होनेपर मन तो भगवान् के चरणों में अर्पित और विलीन होजाता है, इसप्रकार जब मनकी क्रिया और चेष्टा ही न रही तव शोकमोह आसक्ति उत्साह आदि मनकी तरंगे अपने आप ही विलीन होजायँगी॥५॥

यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवत्यात्मारामो भवति॥६॥

न केवलं कर्मतएव श्रेष्ठ्यं किंतु ज्ञानतोऽपि ज्यैष्ठ्यमित्याह यदिति। यत् प्रेम, ज्ञात्वा अनुभूय मत्तः उन्मत्तः स्तब्धःनिश्चेष्टः आत्मारामः आत्मरतः, भवति।

पदार्थ (यत) जिस प्रेमको (ज्ञात्वा) अनुभव करके (मत्तः) उन्मत्त (भवति) होता है (स्तब्धः) चेष्टारहित (भवति) होता है(आत्मारामः) आत्माराम (भवति) होता है॥

**भाषार्थ–**प्रेम भक्तमें अन्धापन नहीं लाता, किंतु जीवको अपने स्वरूपका अनुभव कराकर रागोन्मत्त, अन्य विषयोंमें उद्योग

रहित और आत्माराम करदेता है अर्थात् जब भक्तकेहृदयमें प्रेम का उवाल उठता है उससमय उसका शरीर रोमाञ्चित, नेत्र अश्रुओंसे पूर्ण और स्वर गद्गद होजाता है, भक्त जिससमय निर्लज्जकी समान ऊँचेस्वरसे गाता और नाचता है उससमय प्रेतवाधावाले पुरुष की समान विकट हास्य करता और चिल्लाता है, कभी वारंवार लंबी २ श्वासें लेकर “श्रीकृष्ण! नारायण! वासुदेव” आदि नामका उच्चारण करता है, कभी मग्न हुआ जड़की समान निश्चल बैठजाता है और कभी अपनेमेंआप ही मतवाला होकर परमानन्द को भोगता है। यही बात श्रीमद्भागवतमें भक्तशिरोमणि प्रह्लादजीने दैत्यवालकोंको उपदेश देते समय कही है, कि–“निशम्य कर्माणि गुणानतुल्यान् वीर्याणि लीलातनुभिः कृतानि। यदातिहर्पोत्पुलकाश्रु गद्गदंप्रोत्कण्ठउद्गायति रौति नृत्यति॥ यदा ग्रहग्रस्त इन क्वचिद्धसत्याक्रंदतंध्यायति वंदते जनम्। मुहुः श्वसन् वक्ति हरे जगत्पते नारायणेत्यात्मगतिर्गतत्रपः॥ तदा पुमान् मुक्तसमस्तबंधनस्तद्भावभावानुशयाकृताकृतिः। निदग्धार्वीजानुशयो महीयसा भक्तिप्रयोगेण समेत्यधोक्षजम्॥,, अर्थात् भक्तजन भगवान् के अनेकों, लीला करकै धारण कियेहुए स्वरूपों के कर्म, अनुपम गुण और पराक्रमों को सुनकर जब हर्षसे पुलकित, नेत्रोमें आनन्दाश्रु मरेहुए गद्गदकण्ठ

होजाते हैं उससमय बडे ऊँचे स्वरसे गाते, नाचते और रोते हैं, कभी प्रेतग्रस्त मनुष्योंकी समान हँसते और चिल्लाते हैं, कभी वार २ लंबी सांसे लेकर हरे! नारायण! जगत्पते! आदि नाम लेतेहुए लज्जाको छोड़कर कीर्तन करते हैं जबऐसी गति होजाती है तब जीव सब बंधनों से छूटकर भगवान् कीभक्तिमें भरा उनकी लीलाको अनुकरण चेष्टा आदि करनेलगता है और भक्तिको प्रभाव से सुकर्म दुष्कर्मोंकेबीजोंको जलाकर भगवान् कोप्राप्त होता है, उस परमप्रेमरूपा भक्तिकोपानेका यही लक्षण है, कि–मनुष्य पागलसा, निश्चेष्ट चौर आत्माराम अर्थात् संसार विषयों में प्रीति छोडकर ईश्वरमें ही सदा रमण करता है। यद्यपि जीव ज्ञानकी प्राप्तिसे भीआत्माराम होसकता है, परन्तु वास्तविक आत्माराम प्रेमी भक्त ही है, क्योंकि– ज्ञानियों को भी भगवान् के गुणों से आकृष्ट होकर भगवान्में अहैतुकी भक्ति स्थापन करने की चेष्टा करनी पड़ती है। ज्ञान विनातरङ्गों के समुद्र की समान है और प्रेमसागर में सदा तरंगें उठती रहती हैं, अतएव ज्ञानी पुरुष प्रेमी भक्तों की समान प्रेमससागरमेंकी तरंगों में आंदोलित होनेके लिये यत्न करते हैं, परन्तु प्रेमी भक्तको और कुछ यत्ननहीं करना पड़ता वह सदा ही भगवान्की लीलारूपी तरंगोंमें स्नान करताहुआ उसमें ही

उन्मत्त उससे अन्य विषयोंमें चेष्टारहित और उसमें ही तृप्त रहकर आत्माराम शब्दको सार्थक करता है॥६॥

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द्वितीय अनुवाक

सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात्॥७॥

सा परमप्रेमरूपा भक्तिःकामयमाना मनस्कामनापूरणाय सकामा न यतो निरोधरूपा॥

** पदार्थ–**(स) वह भक्ति (निरोधरूपत्वात्) निरोधस्वरूप होनेसे(कामयमाना) किसी कामनाको पूर्ण करने के लिये सकाम (न) नहीं है।

**भावार्थ–**प्रेम साध्यरूप, साधनाका फल है। श्रवण आदि प्रेमका साधन है। प्रेम श्रवण आदि साधन भक्तिकेद्वारा साध्य होनेपर भी प्रेमसाघनीभूता भक्तिको सकाम नहीं कहा जा सकता, क्योंकि–सबप्रकारकी फलकामनाओंका त्यागरूप निरोध, साधन भक्तिमें प्रवेश करनेका द्वार है। जब फलत्याग ही जिसमें प्रवेश करनेका द्वार है, फलको ईश्वरार्पण करना ही जिसका प्राणहै तब वह कदापि सकाम नहीं हो सकती। फलको पाने के उद्देश्यसे किया हुआ कर्म ही सकाम होता है, यज्ञादि कर्म फलके

उद्देश्यसे कियेजाते हैं, इसीसे सकाम कर्म कहते हैं। कामनाओं को पूरी करनेके लिये भक्ति करना तो केवल वणिग्वृत्ति (लौकिक व्यापार) है। भगवान् ने नृसिंहमूर्ति में प्रकट होकर भक्त प्रह्लादजी से कहाथा, कि–बेटा! वर भाँगो, इस पर प्रह्लादजीने हाथ जोड़कर उत्तर दिया, कि–“यस्त आशिष आशास्ते न स मृत्यः स वै वणिक् “अर्थात् हे प्रभो! मैं व्यापारी नहीं मैं तो आपका भक्त हूँ, जो पुरुष आपसे सेवा के वद्दलेमें इसलोक वा परलोकका विषयसुख चाहता है वह आपका सेवक नहीं है, किंतु लेनदेन करनेवाला व्यापारी है। और यदि आप वर देना हो चाहते हैं तो यह कृपा कीजिये, कि–मेरे चित्तमें राज्यभोग वा स्वर्गीयसुखभोग आदि किसी विषयकी वासना उत्पन्न न हो। यही वात भगवान् ने कही भी है, कि–” न मय्यावेशितधियां कामः कामया कल्पते। भर्जिताः कथिता धाना भूयो वीजाय नेष्यते " अर्थात् जिन्होंने अपनी बुद्धियेंमुझमें ही लगादी हैं उनकी इच्छा किसी विषयफलकोनहीं चाहती, क्योंकि–भूने वापकाये हुए धानों से अंकुर नहीं उगसकता। इसप्रकार जब कि इंद्रियों से भोग्य किसी भी ऐहिक व पारलौकिक सुखको पानेकी इच्छा से कीहुई प्रीतिको भी हम प्रेम नहीं कह सकते तव जो लोग स्वार्थवश किसीसे प्रीति

करकैयह कहते हैं, कि–हम प्रेम करते हैं, उनको लज्जित होना चाहिये क्योंकि–वास्तवमें प्रेम उसको ही कहसकते हैं जिसमें कोई कामना न हो। इंद्रिय, मन और प्राणआदि के निरुद्ध अर्थात् बाहरी व्यापारसे हटेविना वास्तविक प्रेम वा भक्तिका उदय नहीं होता। चित्त आदिकी वृत्ति अपने २ स्थानमें रुकजाने पर भोगकी वासना उठती ही नहीं।इस निष्काम अवस्थामें ही अन्तःकरणमें भक्ति प्रवाह विष्णुपादोदकी गङ्गाकी समान तरल वेगके साथ बहनेलगता है। अथवा भगवान् की कृपा सद्गुरुकी कृपा और अपना सौभाग्य इन तीन डोरियों की वट लगजाने पर जीवका संसारकीओरको बढ़ना बँचजाताहै और भगवान् के भावसूत्रमें निरुद्ध होजाता है। बह निरोध छःप्रकारका है अर्थात् परमात्मामें छः प्रकारकीभाबना करने से जीवका चित्त संसारकी ओरसे हटकर परमात्माकी ओर जाकर ठहरने लगता है। वह छः भावना वा निरोध यह हैं पहिला भीतिभावनिरोध, अर्थात्—संसार की यंत्रणायें और बासनाओंसे व्याकुल होकर भगवान् कीशरण लेना। दूसरा स्वाभिभाव निरोध, अर्थात्—भगवान् ही जगत् प्रभु हैं, मैं उनका दास हूँ, इस प्रकार भगवान् कीशरण लेना। तीसरा सर्वभावनिरोध, अर्थात् छोटेसे छोटे और बड़ेसे बड़े जगत् के चेतन अचेतन सब ही पदार्थ

ईश्वर हैं, पिता, माता, भ्राता, पुत्र, स्त्री, पुरुष शत्रु मित्र सबही ईश्वर है, ऐसा समझकर सर्वत्र उनकी ही झाँकीकरना। चौथा सख्य भावनिरोध, अर्थात्—विपत्ति में, सम्पत्तिमेंसुखमें,दुःखमें सदा ही परमात्मा मेरे सहायक हैं, वह दनिबन्धु हैं, ऐसे सखाभावसे उनका, अनुगामी होना। पांचवां वात्सल्यभाव निरोध, अर्थात्— पुत्रकी समान प्राणों की मूर्ति मानकर उनका आदरकर तन्मयता के साथ स्नेह करना और छठा कांतभावनिरोध, अर्थात् मेरे मनकी प्रकृति नारी है, और भगवान् पुरुष — पति हैं इस भावसे उनमें मग्न होजाना।’ इनमें से किसी एक निरोध के अधीन होजाने पर जीवकी कामनाएं आप ही रुकजाती हैं और आपसे आप हृदयमें परमात्मा का आविर्भाव होता है, जो सर्वत्रसे मनको हटाकर उनको भजेंगे उनके सकल दुःख दूर होकर परमानन्दकी प्राप्ति होगी ही, यही बात भगवान् नेगीतामेंअर्जुनसे कही है, कि– " कौन्तेय प्रतिज्ञानीहि न मे भक्तः प्राणश्यति। तेषामहं समुद्धर्त्ता मृत्युसंसारसागरात्॥ " अर्थात्— भगवान् कहते हैं कि–हे अर्जुन! निश्चय रक्खो, कि–मेरा भक्त नष्ट नहीं होता, क्योंकि– अपने भक्तोंका मृत्युसंसारसागरसे उद्धार करनेवाला मै हूँ॥ ७॥

निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः॥ ८॥

लौकिकानां वैदिकानाञ्च व्यापाराणां कर्मणां, न्यासः त्यागः, निरोध इत्युच्यते॥

पदार्थ–(निरोधः–तु) निरोध तो (लोकवेदव्यापारन्यासः) लौकिक और वैदिक सकल व्यापारोंका त्याग है॥

भाषार्थ– अंतःकरण और इन्द्रियों की सकल वृत्तियों के बाहरी चेष्टाको त्यागदेने पर अथवा ईश्वरकी शरणागत होकर मनुव्यक्ती अन्य चेष्टाएं न रहने पर लौकिक व्यवहार वा वैदिक व्यवहार किसी कर्ममें भीभक्तीकीप्रवृत्ति नहीं होती भक्त निष्क्रिय और धर्म अधर्म के अनुष्ठानसे रहित होता है, इसीसे कहते हैं, कि–आहार, विहार आदि लौकिक कार्य और यज्ञ आदि वैदिक कार्यके त्यागको निरोध कहते हैं। यहां कर्मके त्यागसे कर्मफलकात्याग समझना क्योंकि–सब प्रकारके कर्मका सर्वथा त्याग होना तो असंभवः है, इसलिये फलकीकामनारहित कर्मानुष्ठानका नाम ही निरोध है, वास्तविक ईश्वरभक्त का कोई कर्म स्वार्थके लिये नहीं होता, किंतु परार्थ, भगवत्प्रसन्नतार्थ होता है, इससे भक्त के निष्काम कर्मको ही निरोध कहाजासकता है॥ ८॥

तस्मिन्नन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च॥ ६॥

तस्मिन् प्रेमसाधने, अनन्यता तन्मयता, तद्विरोधिषु विषयेषु, उ-

दासीनता अप्रवृत्तिश्चनिरोध इत्युच्यते॥

** पदार्थ–**(तस्मिन्) तिस प्रेमसाधन में (अनन्यता) अनन्य भाव (च) और (तद्विरोधिषु) तिसके विरोधी विषयों में (उदासीनता) प्रवृत्ति न होना॥

भाषार्थ– निरोध शब्दका अर्थ केवल कर्मफलका त्याग ही नहीं है, किंतु प्रेमसाधनमें अनन्यता और प्रेमसाधनके विरोधी विषयों में प्रवृत्ति न होना भी है। क्योंकि–केवल कर्मफल के त्यागसे प्रेमलाभ नहीं होसकता, किंतु प्रेमको पानेके लिये कर्मफल के त्याग के साथ प्रेमसाधनमें अनन्यता और उसके विरोधी विषयों में पूवृत्ति रहित भी होनाचाहिये। कर्मफलत्यागका अर्थ है, कि–कर्मका फल भगवान् कोअर्पण करना, यह फलार्पण भी एक कर्म है और इसकोआरोपसिद्धा भक्तिमेंगिनाजाता है। जो भक्ति न होकर भी भक्ति के लिये एक प्रकारका फल उत्पन्न करकैभक्ति के आकारमें दीखने लगता है उस धर्मको ही आरोपसिद्धा भक्ति कहा है। ईश्वरको फलका अर्पण करना रूप कर्म स्वयं भक्ति न होकर भी भक्ति का फल जो चित्तशुद्धि उसको उत्पन्न करकै भक्ति के आकारमें दीखनेलगता है, इसी से इसको आरोपसिद्धा भक्ति कहते हैं

अन्याश्रयाणान्त्यागोऽनन्यता॥ १०॥

अन्येषां सकलानामाश्रयाणां त्यागोऽनन्यतेत्युच्यते॥

पदार्थ – (अन्याश्रयाणाम्) अन्य आश्रयोंका (त्यागः) त्याग (अनन्यता) अनन्यता है॥

** भाषार्थ –**केवल एकमात्र प्रेमसाधन श्रवण आदि साधनभक्ति का आश्रय लेकर उससे अन्य सकल आश्रयोकोंत्यागदेना अनन्यता है, इसकारण अनन्यता शब्दका अर्थ है शरणागत होना १०

लोकवेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता ११

लोकेषुवेदेषु च, तदनुकूलाचरणं प्रेमसाधनानुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासनितेत्युच्यते॥

पदार्थ– (लोकवेदेषु) लोक और वेदमें (तदनुकूलाचरणम्) प्रेमसाधन के अनुकूल आचरण करना ही (तद्विरोधिषु– उदासीनता) उसके विरोधियों में उदासीनता है॥

** भाषार्थ–** यदि प्रेम और उसके साधनों के प्रतिकूल जो राग, द्वेष, अभिनिवेश आदि अनेकों अनर्थ हैं उनसे उदासीन होना होगा तो एकनिष्ठाके साथ चिरकालसे प्रचलित लौकिक सद्व्यवहार और वेदविहित धर्मानुष्ठान रूप भगवद्भावके अनुकूल आचरण करना होगा।विहित कर्मों के अनुष्ठान किये विना राग द्वेषादिसे उदासीनता नहीं होसकती और विहितकर्मोंका अनुष्ठान

निष्कामभाव और एकनिष्ठा से करते रहो तो भगवद्भावके प्रतिकूल कार्यमान्त्रमें आपसे आाप अनास्था और उदासीनता होजायगी॥

भवतु निश्चयदार्ढ्यार्यादूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम्॥ १२॥

निश्चयस्य श्रद्धायाः दार्ढ्यात् दृढतायाः, ऊर्ध्वं परम्, यदि केनचित् शास्त्रमर्यादापालनं, शास्त्रोक्तकर्मानुष्ठानं, क्रियते, तत् करोतु, नास्ति तत्र प्रत्यवायः, श्रद्धादार्ढ्यात्पूर्वन्तु शास्त्रविहितकर्मानुष्टानअवश्यमेव कर्त्तव्यम्॥

** पदार्थ–** (निश्चयदार्ढ्यात्) निश्चयबुद्धि दृढहोने से (ऊर्ध्वम्) आगै(शास्त्ररक्षणम्) शास्त्रमर्यादाकी रक्षा (भवतु) होय।

भाषार्थ– भगवान् कीउपासना करते २ जवतकएकनिष्ठारूप श्रद्धा अविचल न हो, तवतक शास्त्रमें लिखे हुए अपने अधिकारानुसार विहित और निषिद्ध कर्मोकी ओर अवश्य ध्यान रखकर चलै, क्योंकि–भक्ति की अपरिपक्कदशामें कर्मानुष्ठानपर अश्रद्धा करनेसे मनकी मलिनता दूर नहीं होती और वह मलिनता भक्तिको प्रबल नहीं होनेदेती भक्तिसाधन सिद्ध होनेपर कर्मनिष्ठा आपसे आप ही निवृत्त होजाती है, इसकारण उससमय कर्म न करनेसे प्रत्यवाय नहीं होता और यदि कोई भक्तिका अधिकारी अपने अधि-

कारको दृढ करनेके लिये फिर भी कर्मका अनुष्ठान करैतो उसमें कोई दोषभीनहीं है॥१२॥

अन्यथा पातित्यशंकया॥ १३॥

अन्यथा निश्चयपदार्ढ्यात्पूर्वं विहितकर्मानाचरणे निषिद्धकर्माचरणे च, पातित्यस्य भक्तिसाधनविच्युतेः शंकास्ति, अतः श्रद्धादृढत्वमाशास्त्ररक्षणमावश्यकम्॥

पदार्थ– (अन्यथा) ऐसा न करनेमें (पातित्यशंकया) साधनसे च्युत होनेका सन्देह है, इसकारण॥

भाषार्थ– जैसे वृक्षके नए पौधेकी मूल में जल न देने से उसका सुखजाना संभव है, तैसे ही भक्तिरूपलताको मूलमें कर्मरूप जल से विना सींचे उसके विनष्ट होजानेकी शंका है, इसकारण भक्तिको दृढ़ करने के लिये शास्त्रविहित कर्मका अनुष्ठान अवश्य ही करना चाहिये॥१३॥

लोकोऽपि तावदेव किंतु भोजनादिव्यापारस्त्वाशरीरधारणावधि॥ १४॥

लोकः लोकाचारोपि, तावदेव निश्चयदृढत्वपर्यन्तमेव, भोजनानादिव्यापारः तु, आशरीधारणाषधि यावत्कालं शरीरधारणं तावत्कालपर्यन्तमेव॥

** पदार्थ—**(लोकः–अपि) लोकाचार भी (तावदेव) तवतक ही है (किंतु) परन्तु (भोजनादिव्यवहारः–तु) भोजन आदिका व्यवहार तो (आशरीरधारणावधि) शरीरधारणपर्यन्त है॥

भाषार्थ — लोकाचारकी मर्यादाका नियम भी श्रद्धा की दृढ़ता होने तक ही है, श्रद्धा दृढ होजाने पर लोक मर्यादाकीरक्षा न कीजाय तो कोई हानि नहीं है, परन्तु भोजनादिरूप लौकिक व्यवहार तो शररिधारणपर्यन्त होगा ही, यह नियम आश्रमी अधिकारियों के लिये है, कि–वह स्वधर्माचरणके द्वारा लोकमर्यादाकी रक्षा करें, परिनिष्ठित अधिकारीको भी लोकशिक्षाके लिये लौकिक, सदाचारका पालन करना चाहिये, परंतु निरपेक्ष अधिकारी के लिये कोई नियम नहीं है, वह लौकिक कर्माचरणकेविना शरीर धारण नकरसकै तो लौकिक कर्मोका आचरणकरैऔर यदि लौकिक कर्मानुष्ठानके विना ही शरीर धारण करसकै तो वह उसको मी त्यागसकता है। कितने ही लोग शंकाकरते हैं, कि–जव खाना पीना आदि कर्म ही न छूटा तो जीवनमें कर्मत्याग ही क्या हुआ ? इस शंका को दूर करनेके लिये ही इस सूत्रकी रचना है। भोजनादि व्यवहार शरीररक्षामात्रके लिये है, भोजनत्याग का नाम कर्मत्याग नहीं है, यदि ऐसा होता तव तो विष खाकर मरजानेसे ही भोजन

त्याग होकर कार्यसिद्धि होजाती। इसकारण यहाँ कर्म कहने से सकामपारलौकिक कर्म लेना, जबतक वासनाका क्षय न हो तवतकही लौकिक और पारमार्थिक कर्मका अनुष्टान करें और जब वासनाका क्षय होजाय तव"कोविधिः को निषेधः” उसके लिये कोई विधि निषेध नहीं है। भक्त विल्वमङ्गलाचार्यने तो भक्ति में तन्मय होकर यहां तक कह दिया, कि–" सन्ध्यावन्दन भद्रमानु भवते भोस्नान तुभ्यं नमः भोदेवाः पितरश्च तर्पणविधौ मातृंक्षमः क्षम्यताम्। यत्र क्वापि निषद्य यादवकुलोत्तंसस्य कंसद्विपः, स्मारंरमारमद्यंहरामि तदलं मन्ये किमन्येन मे॥ १४॥

तृतीय अनुवाक

तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात्॥ १५॥

तत्त्वाः भक्तेः, लक्षणानि, नानामतभेदात् नानामतेषु येभेदास्ताननुसृत्य, वाच्यन्ते निरूप्यन्ते।

पदार्थ–(तल्लक्षणानि) उस भक्ति लक्षण (नानामतभेदात्) अनेकों मतोंकेभेदसे (वाच्यन्ते) कहेजाते हैं॥

**भाषार्थ–**भक्तिमेंवास्तवमें कोई भेद न होनेपर भी भिन्न २ ऋषियों भिन्न २ सम्प्रदायानुसार साधनगत भेदसे भक्तिके भिन्न २ लक्षण कहेंगे। इस सुत्रमें एक संदेह होसकता है कि–यह वास्तव

में सूत्र नहीं है, क्योंकि–“खलाक्षरमसंदिग्धम् सूत्रं” जिसमें वर्णनीय विषय संक्षेपसेऔर निःसंदेहभावसे कहा हो, उसको ही सूत्र कहते हैं, भक्ति के लक्षण तो कहेंगे ही अतः प्रतिज्ञाको सूत्र नहीं कहते। सो यह सन्देह करना ठीक नहीं है, क्योंकि–वास्तव में यह सूत्र वक्तव्य विषयकी प्रतिज्ञाका बोधक नहीं है, किंतु लोक में जो पिता, माता, बन्धु, बांधव, स्त्री, पुत्रादिमें प्रेमभाव दीखता है, वह वास्तविक प्रेम नहीं है, शास्त्रोक्त प्रेम और उसके जो महात्मा अनेकों प्रकारकेलक्षण करते हैं उसकी ओर ध्यान दिलाना ही इस सूत्र का लक्ष्य है॥ १६॥

पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः॥ १६॥

पूजादिषु भगवदर्चनादिषु, अनुरागः भक्तिः इति पाराशर्यः पराशरोक्तः सम्प्रदायविशेषः।

पदार्थ – (पूजादिषु) पूजा आदिमें (अनुरागः) अनुराग (इति) यह (पाराशर्यः) पराशर मुनिका कहा संप्रदायविशेष है॥

भाषार्थ– जिस वृत्तिका उदय होने पर भगवान् कीपूजा आदिमें, अनुराग उत्पन्न हो वह वृत्तिविशेष ही भक्तिका स्वरूप है, वह साध्यरूप है और अनुरागको साथ भगवत्पूजन आदि उसका साधन है, इसप्रकार वास्तव में कुछ मतभेद नहीं है॥ १६॥

कथादिष्विति गार्गः॥ १७॥

कथादिषु भगवद्गुणकर्मणादिषु अनुरागः भक्तिः इति मार्गः गर्गोक्तः सम्प्रदायविशेषः।

पदार्थ– (कथादिषु) कथाआदिमें(अनुरागः) अनुराग (इति) ऐसा (गार्गः) गर्ग मुनिका कहा सम्प्रदायविशेष है॥

भाषार्थ– जिसवृत्तिका उदय होने पर, भगवान् केगुग्णानुवाद का सुनना और सुनाना ही सकलसाधनों का सार है ऐसा जानकर उसमें गाढअभिनिवेश और श्रद्धा उत्पन्न हो, वह वृत्ति हो भक्ति है ऐसा गर्ग ऋषिका मत है, यह वृत्ति साध्य है और अनुरागके साथ भगवान् कीकथाका श्रवण आदि उसका साधन है, अतः मूलमें कोई भेद नहीं है॥ १७॥

आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः॥१८॥

आत्मरत्यविरोधेनयथा आत्मरतर्हानंन स्यात्तथा भगवदर्चनादिषुअनुरागः भक्तिः इति शाण्डिल्यो मनुते॥

पदार्थ – (आत्मरत्यविरोधेन) आत्मरति के अविरुद्धरूपसे (इति) ऐसा (शाण्डिल्यः) शाण्डिल्य मुनि मानते हैं।

भाषार्थ– परमप्रेम ही भक्तिका स्वरूप है, पूजा आदि उसका

साधन हैं, इसकारण जिसप्रकारकी पूजा आदिसे प्रेमकी हानि न हो उस पूजा आदिमें अनुराग ही अनुकूल साधन है;सांसारिक बोधको छोडकर एक आत्मचैतन्यमें ही सकल अस्तित्वकी आहुति देकर पूर्णानन्द में मग्न होना ही आत्मरति वा परमप्रेम है, इस आत्मरतिमें जिसप्रकार वाधा न आवे, जो उपाय आत्मरतिकेअनुकूल हो उसके द्वारा जिस प्रेममयी वृत्तिका प्रवाह वहैउसको ही शाण्डिल्य मुनिने भक्ति माना है। इसप्रकार पूर्वोक्त लक्षणों में कहने की शैलीमात्रका भेद दीखने पर भी अर्थ में एकता है। सार यह है कि—भगवान् कापरमप्रेम ही भक्ति है और जिसके द्वारा यह परम प्रेम अवाधरूपसे प्रकाशित हो वह ही उसका साधन है, इसविषय में किसी से मतभेद नहीं है, अतएव पूर्वोक्त सब ऋषियोंके मतको आगैरखकर देवर्षि नादरजी फिर कहते है, कि—॥ १८॥

नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति॥ १९॥


यस्याः वृत्तेरुदये ‘‘यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यति कौन्तेय तत्कुरुष्ण मदर्पणम्॥” इति भगवदुक्ताचारतत्परता, तद्विमरणे च परममव्याकुलता भवेत् सा वृत्तिर्भक्तिरिति तु नारदस्याभिमतम्॥

पदार्थ – (नारदः–तु) नारद तो (तदर्पिताखिलाचारता) अपने सकलकर्म भगवान्को अर्पण करनेका स्वभाव (तद्विस्मरणे) उनके विस्मरणामें(परमव्याकुलता) अत्यन्त व्याकुल होना (इति) ऐसा मानते हैं।

भाषार्थ– जिस वृत्तिका उदय होनेसे सब कर्म भगवान् में अर्पित हों और उनके विस्मरणमें परम व्याकुलता हो वह वृत्तिही भक्तिका स्वरूपहै, परमप्रेम ही ऐसी वृत्ति है, समस्त कर्म भगवान्को अर्पण करना ही उसका साधन है। कर्म दो प्रकारकेहोते हैं– लौकिक और पारलौकिक। पारलौकिक में इतना करना चाहिये कि– तुम कुटुंबकापालन करो, अतिथिसेवा करो, याग यज्ञ करो तपस्या आदि किसी भी कर्मका अनुष्ठान करो, उसको ईश्वरार्थ वा ईश्वरपूजनार्थ समझकर उसका फलईश्वरको अर्पण करतेहुए करो, उसमय मन खोलकर कहो, कि–प्रातरुत्थाय सायाह्नंसायाह्नात्प्रातरन्ततः। यत्करोमि जगन्नाथ तदेव तव पूजनम्॥,,प्रातःकाल से उठकर सायंकाल पर्यन्त और सायंकाल से फिर प्रातःकाल पर्यन्त जो कुछ कार्य करता हूँ हेभगवन् ! वह सब आपका ही पूजन है। लौकिकमें यह कर्तव्य है कि–कार्य करते समय यदि भगवान्को भूलकर “मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूं” ऐसा खोटा अभिमान

होने लगैतो जवतक फिर भगवान् कोहृदयका स्वामी न बनासकै तबतकयदि उनके विरहकी पीड़ासे तुम्हारा चित्त परमव्याकुल होनेलगे तो समझो, कि परमप्रेमरूपा वृत्तिका उदय हुआ, इस प्रकार पारलौकिक कर्म तो भगवान् कोफल अर्पण करने से निवृत्त हुएऔर लौकिक कर्मोमेंअभिनिवेश होनेपर व्याकुलता हुई तो वह आप ही छूटजायँगे, अर्थात् जब लौकिक पारलौकिक कर्मों की प्रवृत्तिसे छुटकर अन्तःकरणमें अनवच्छिन्न तैलधाराकी समान भगवद्भावकीवृत्तिका प्रवाह वहनेलगै, निरंतर भगवत्प्रेममें चित्त मग्न रहैं, जराभी विस्मरण होनेपर परमव्याकुलता होनेलगै, यह ही भक्तिकालक्षण है॥ १९॥

अस्त्येवमेवम्॥२०॥

पदार्थ– (एवम्, एवम्) यह इसप्रकार ही (अस्ति) है।

भाषार्थ– श्रीभगवान् कोसमस्त कर्म अर्पण करना और उनके विस्मरणमें परमव्याकुलता होने के दृष्टान्त भी हैं, यह केवल कल्पना ही नहीं है, यही बात दिखाते हैं॥ २०॥

यथा व्रजगोपिकानाम्॥ २१॥

व्रजगोपिकानां आचरणं, यथा– अत्रदृष्टान्तः।

पदार्थ– ( यथा ) जैते ( व्रजगोपिकानाम् ) व्रजकी गोपियों का[दृष्टान्तहै]

भाषार्थ– नन्दनन्दन श्रीकृष्ण ही भगवान् हैं, गोप और गोपियेंउनकी स्वरूपशक्तियें हैं, राधिका प्रधान गोपी है और सब गोपियें राधिका का कायव्यूह हैं, गोपियोंका प्रेम श्रीभगवान् कीस्वरूपशक्ति का, ल्हादिनी अंशकीप्रधानतावाला शुद्धसत्वरूप वृत्ति है। यह गोपीप्रेमरूपा वृत्ति गोपियोंकी स्वाभाविकी थी, अतएव गोपियोंकेसकलकर्म नित्य भगवान् कोअर्पित होते थे, व्रजगोपिका जो सब ही कर्म भगवान् के लिये थे। जबरासमण्डलमें भगवान् ने वंशी बजाकर गोपियोंको बुलाया उस समय वह जिसप्रकार सब कर्मोको त्यागकर अनन्य मनसे वंशीकी ध्वनिकी ओर ध्यान लगाएहुए वनमेंको गंई, उसको पढ़नेसे यही बात सिद्ध होती है। भगवान्के विरह में गोपियों का परमव्याकुल होना किसीसे छुपा नहीं है, भगवान् के दर्शन के विना क्षणभरका समय भी उनको सैकड़ो युगसामालूम होता था, भगवान् कोविना देखे जिनको ऐसी व्याकुलता होती थी, उनको विस्मरण होनेपर व्याकुलताका तो कहना ही क्या ? प्रिय वस्तुका दर्शन न होनेपर उसका स्मरण ही प्रेमीका अवलम्बन होता है, दैवात् यदि विस्मृति होजाय

तो कैसी व्याकुलता होगी, इस वातको तो भुक्तभोगी ही समझसकते हैं, गोपियों की यह व्याकुलता भी स्वाभाविक थी, वास्तवमें वृन्दावनविहारिणी गोपियें प्रेमभक्तिकी पराकाष्ठा दिखागई हैं, तभी तो नारदजी ने भक्तिके उदाहरणसूत्रमें गोपियों का नाम लिया है, वास्तवमै प्रेममेंमग्नहोकर जो मद्यप मतवालेकी समान घर, संसार, ऐश्वर्य, मान, प्रतिष्ठा और लोकलज्जा आदि सब को त्याग कर उनकी ही परम भक्त थीं, उनकी महिमाको कौन कहसकता है? भगवान् नेस्वयं ही कहा है–“न पारयेऽहंनिवद्यसंयुजां एवसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः। या माभजन् दुर्जरगेहशृङ्खलां संवृश्च्य तद्वः प्रतियातु साधुना॥” अर्थात् हे व्रजदेवियों ! यदि मैं देवतायोंकी आयु धारण करूँ और वैसी अनेकों कल्पोंकी आयु से तुममें से एकका भी प्रतिउपकार कराचाहूँ तो नहीं कर सकूँगा, क्योंकि — महादुर्जर घरकी जंजीरको तुम्हारे सिवाय कौन तोडसकता है ? ।भगवान् नेउद्धवजीसे भी कहा था, कि–“ता मन्मनस्कामत्प्राणा मदर्थे त्यक्तदैहिकाः। ये त्यक्तलोकधर्माश्च मदर्थे तान्बिभर्म्यहम्॥ मयि ताः प्रेयसां प्रेष्ठे दूरस्थे गोकुलस्त्रियः स्मरन्त्योङ्गं विमुह्यन्ति विरहोत्कण्ठाविह्वलाः॥ प्रधारयन्ति कृच्छ्रेण प्रायः प्राणान् कथञ्चन। प्रत्यागमन सन्देशैर्वल्लभ्यो मे मदात्मिकाः॥”

अर्थात हे उद्धव ! गोपियोंने अपना मन मुझमें ही अर्पण करदिया है, मैं ही उनका प्राण हूँ, मेरे निमित्त उन्होने अपने २ शारीरिक व्यवहारतककोत्याग दिया है, जिन्होंने मेरे लिये लौकिक व्यवहारऔर धर्म केविधिनिषेध तकको तुच्छ कररक्खाहै, उनकी रक्षा मैं ही करता हूं, गोपियें मुझे अपने परमप्यारोंसे भी प्यारा समझती हैं, मेरे दूर रहनेसे मुझे स्मरणकरती हुई वह विरहकी परमपीडासेव्याकुल होकर अपने शरीरतककी सुध भूलजाती हैं, मेरे बिना वह बडेक्लेशसे प्राण धारण करती हैं, मेरे फिर लौटकर आने के सन्देशसे ही वह प्राणोंको धारण कररही हैं, मैं ही उन ब्रजगोपिकाओं का अत्मा हूं और वह मेरी हैं। ऐसी गोपियों के प्रेमकी महिमा श्रीमद्भागवत आदि धर्मग्रन्थोंका अधिकतर भाग भूषित है, उसको भक्तजन उन ग्रन्थोंमे ही पढैं। प्रेमभक्तिके प्रचारक श्रीगौराङ्गदेवने भी अपने संन्यासनिर्णयग्रन्थमें, गोपी तथा गोपोंका विरहानुभवप्राप्त होनेकी अपनी उत्कण्ठा दिखायी है और गोपियोंको प्रेममार्गका गुरु माना है, यथा— “यच्च दुःखं यशोदाया नंदादीनाञ्वगोकुले। गोपिकानां यद्दुःखं तद्दुःखं स्यान्मम क्वचित्॥ गोकुले गोपिकानां च सर्वेषां व्रजवासिनां। यत्सुखं समभूत्तन्मे भगवान् किं विधास्यति॥ उद्धवागमने जात उत्सवः सुमहान् यथा।

वृन्दावने गोकुले वा तथा मे मनसि क्वचित्॥” इत्यादि गोपगोपियों के प्रेमकी कौन थाह पासकता है ?॥ २१॥

न तत्रापि माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः \।\। २२ \।\।

तत्रापिपरमप्रेम्णिअपि माहात्म्यज्ञानस्य विस्मृतिरूपोऽपवादो नास्ति॥

पदार्थ– (तत्रापि) तिस दशामें भी (माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः) माहात्म्यज्ञान न होनेका अपवाद (न) नहीं है।

**भाषार्थ–**अनेकों का यह विश्वास है कि–गोपियोंका भगवान्में प्रेम था, परन्तु वह भगवान् के माहात्म्यको नहीं जानती थीं अर्थात् श्रीकृष्णको भगवत्दृष्टिसे नहीं देखती थीं, परंतु जब गोपियों को यह कहते हुए सुनते हैं, कि– “गैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसम्” “अरत्यमेतदुपदेशपदे त्वयीशे, प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किलवन्धुरात्मा” “व्यक्तं भवान् ब्रजभयार्त्तिहरोऽभि जातः” “न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्” तब हम कैसे विश्वास करलें, कि–गोपियें उनको भगवान् नहीं जानती थीं॥ २२॥

तद्विहीनं जाराणामिव॥ १३॥

तेन माहात्म्यज्ञानेन, विहीनं शून्यं प्रेम, जाराणामिव उपपतीनामिव न चिरं स्थायि भवति॥

पदार्थ– (तद्विहीनम्) माहात्मज्ञानसे हीन प्रेम(जाराणाम्इव) उपपतियोंके जैसा होता है।

भाषार्थ– जहाँ माहात्म्यका ज्ञान नहीं होता वहाँ की प्रीति जारोंकीसी होती है। व्यभिचारिणी स्त्रियें जारोंसे प्रेम करती हैं, परन्तु उनका वह प्रेमचिरकालपर्यन्त नहीं रहसकता, क्योंकिजार साधारण मनुष्य है, साधारणमनुष्यमें कुछ माहात्म्य हैं यह भावना नहीं होती, अतः उसके ऊपरका प्रेम चिरकालतक नहीं ठहरता। जिसमें प्रेमकिया है, व्यभिचारिणी जब उसके माहात्म्य को भूलजाती है और जब दूसरा जार उससे महान् मालूम होने लगता है उसीसमय पहिले जारमें किया हुआ उसका प्रेम नष्ट होजाता है। भगवान् के साथ भक्तका ऐसा भाव नहीं होता, भक्त समझता है, कि–भगवान् सेबड़ा कोई है ही नहीं, इसीसे भक्तके प्रेमको भगवान् केसिवाय और कोई पाही नहीं सकता, भक्तका प्रेम चिरकाल रहता है, उसका नाश होता ही नहीं॥ २३॥

नास्त्येव तस्मिंस्तत्सुखसुखित्वम्॥ २४॥

तस्मिन् जारप्रेम्णि, तत्सुखसुखित्वं तस्य जारस्य सुखेन सुखित्वं नास्ति, एक॥

पदार्थ – (तस्मिन् ) तिस जारप्रेममें (तत्सुखसुखित्वम् ) प्रियतमके सुखसे सुखी होना (न–एव) नहीं ही (अस्ति ) है।

भाषार्थ– विशेषकर उषपतिके प्रेममें तत्सुखसुखित्व देखने में नहीं आता, व्यभिचारिणी स्त्रियेंकामके वशीभूत होकर अपना सुख साधने के लिये ही जारमें प्रेमभाव दिखाती हैं, उनसे इस प्रेम में उपपतिकेसुखमें सुख नहीं होसकता, परन्तु भगवत्प्रेम ऐसा नहीं होता। आत्मकाम भगवान्में भी स्वार्थ नहीं है और भगववत्प्रीतिमात्रकी कामनावाले भक्तमें भी और कोई स्वार्थ नहीं है, भक्तके प्रेममें ही भगवान् सुखी हैं और भगवत्प्रेम में ही भक्त सुखी है। समतारहित शांत भक्त सकल प्राणियों में दयाभाव रखने में ही भगवत्प्रीति समझत हैं और ममतायुक्त गौरवमावमय दासभक्त दास्यभावमें ही भगवत्प्रीति मानते हैं तथा ममतायुक्त अनुग्रहभावमय वात्सल्यभक्त भगवान् कीवात्सल्यसेवामें ही भगवत्प्रीति मानते है और ममतायुक्त अपने सुखके तात्पर्यसे रहित सम्भोगतृष्णावाले कान्ताभक्त कान्तसेवामें ही भगवत्प्रीति मानते हैं, सार यह है, कि– भगवत्प्रीतिमें ही सब भक्तोंकी प्रीति है। गोपियें भगवत्प्रेमिका

थीं, कामुका नहीं थीं, वह भगवान् कृष्णसेप्रेम करती थीं, कामके वशीभूत होकर इन्द्रियोंको तृप्त करनेके लिये उनको नहीं चाहती थीं। प्रेम और वस्तु है, काम और वस्तु है। मेरे द्वारा दूसरा सुखी हो ओर दूसरे के द्वारा मैं सुखी होऊँ, ऐसे मनके वेगका नाम प्रेम हैं और दूसरेकेद्वारा मुझैसुख मिलै, इसका नाम काम है। गोपियें अपन मन प्राण पर्यन्तको भगवान् केसुखी करने की सामग्री समझनीथीं, ब्रजकीप्रेमलीला– आश्चर्यमयी प्रेमलीला थी। गोलोककीगोप्यलीलामृत्युलोकमें अभिनीत हुई थी॥ २४॥

चतुर्थ अनुवाक।

सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योप्यधिकतरा॥ २५॥

सा परमप्रेमरूपा भक्तिः तु, कर्मतो ज्ञानतो योगतोऽपि अधिक तरा श्रेष्ठतरा॥

पदार्थ– (सा–तु) वह परमप्रेमरूपा भक्ति तो (कर्मज्ञानयोगेभ्यःअपि) कर्म, ज्ञान और योग से भी (अधिकतरा) परमश्रेष्ठ है

भाषार्थ– भक्ति भगवान् कीस्वरूपशक्तिकी वृत्ति है। वृत्ति शब्दका अर्थ है क्रिपा, रूपशक्तिकी क्रिया स्वरूपशक्तिकी ही सम्पत्ति हैं, इस सम्पत्तिका सोता भगवती गंङ्गाके प्रवाहकीसमान

मृत्युलोक में भी वह रहा है, जैसे गङ्गाका प्रवाह भगरिथके खातमें ही वहता है, तैसे ही भक्तिकाप्रवाह भी भक्तिसम्प्रदायमें ही वहताहुआ देखने में आता है, जो उसके अनुगामी वनकर भक्तिसम्पदाको चाहते हैं वह ही उसको पाते हैं। कर्मी, ज्ञानी और योगियों के सम्प्रदाय में भक्तिका लाभ नहीं हो सकता, क्योंकि भक्ति उन सम्प्रदायोंकी सम्पत्ति नहीं है। भक्तिरूपा सम्पत्ति तो कर्म–ज्ञान ओर योग आदि सबसम्पत्तिर्योंसे श्रेष्ठ है। कर्मका फल भुक्ति, ज्ञानका फलमुक्ति ओर योगका फल सिद्धि है। मुक्ति, भुक्ति और सिद्धि की कामना वालोंको शान्ति नहीं होती, भक्तिका फल शान्ति है, भक्त शान्त होते हैं। भक्तिका फल तृप्तिहै, भक्त तृप्त होते हैं। भक्तिकाफल प्रीति है, भक्त प्रेमी होतेहैं। अतएव भक्ति सबसे श्रेष्ठ है॥*॥ पहिले कर्म दो प्रकारका है –विहित और निषिद्ध। जगत् के अमङ्गलकारी इसलोक और वरलोकमें अपने को व्याकुल करनेवाले पापरूपकर्मका नाम निषिद्ध कर्म है। जगत् काऔर अपना मंगलकरने वाले पुण्यरूप कर्मका नाम विहित कर्म है। निषिद्ध कर्मको करने से मृत्यु होनेपर प्रेतदशाके अनन्तर नरकगति होती है, प्रेतलोकके नीचेकीप्रांतही नरकलोक हैसमुद्र के वक्षःस्थल से चन्द्रलोक पर्यन्त ऊपर २ स्थित होने के

अनन्तर २ के सूक्ष्मद्वीप नामक भूतलके कोप ही प्रेतलोक हैं, प्रेत शब्दका अर्थ है मृत। निषिद्ध कर्म करनेवालेको नरकभोग के अंत में फिर पृथिवीपर आकर कर्मानुसार शरीर धारण करना पड़ता है निषिद्ध शारीरिक कर्मसे स्थावर शरीर, निषिद्ध वाचिक कर्मसे पक्षी आदिका तिर्यक् शरीर और निषिद्ध मानस कर्म से नीचजाति का मानवदेह मिलता है। विहित कर्म भी दो प्रकारका है–एक सकाम और दूसरा निष्काम। फलकी कामनावाले कर्मका नाम सकाम कर्म है। सकाम कर्म भीतीन प्रकारका है–सात्त्विक, राजरा और तामस। तामस विहित कर्म करनेवालेकी प्रेतदशाके अनन्तर विलस्वर्गमें गति होती है। भूगर्भमेकी पातालपुरी विलस्वर्ग है। राजस विहित कर्म करनेवालेकी भुवर्लोकमें गति होती है। चन्द्रमंडलसे सुर्यमण्डल पर्यन्त सौर जगत् ही भुवर्लोक है। सात्विक विहित कर्म करनेवालेकी प्रेतत्त्वके अनन्तर स्वर्गमेंगति होती है सौर जगत् सेआगेसमस्त प्राकृत लोकोंका साधारण नाम स्वर्ग है। स्वर्गभोगकेअनंतर फिर पृथिवीपर आकर कर्मानुरूप स्थान प्राप्त होता है। सात्विक कर्माधिकारीका कर्मभूमि भारतवर्ष में और सकाम कर्माधिकारीका भोगभूमि अन्य वर्षों में जन्म होता है, भारतवर्षसे अन्य वर्षोंका साधारण नाम भौमस्वर्ग है। स्वर्गसे च्युतहुए जीवोंका वासस्थान होने से

ही उनको भौमस्वर्ग कहाजासकता है। स्वर्गके चार भाग हैं–गृही का स्वर्ग इन्द्रलोक, ब्रह्मचारीका स्वर्ग महर्लोंकऔर जनलोक, वानप्रस्थका स्वर्ग तपोलोक, संन्यासीका स्वर्ग ब्रह्मलोक वा सत्यलोकसे प्रकृतिक आवरणतक। सत्यलोकसे परै क्षिति आदि आवरणोंका नाम भुवनकोष है। पूर्वोक्त तामस आदि तीन प्रकार के विहित कर्मोका आचरण करनेवालोंका ही भोगके अन्तमें इस लोकमें फिर आना शास्त्रों में सुना जाता है। उनमें तामस विहिताचारी तामस ज्ञान वा तामस भक्तिकेअधिकारी होते हैं, राजस विहिताचारी राजस ज्ञान वा राजस भक्तिके अधिकारी होते हैं, और सात्विक विहिताचारी सात्विक ज्ञान वा सात्विक भक्तिका अधिकार पाते हैं। मोहसे उत्पन्न ज्ञान वा भक्ति तामस है, विषय से उत्पन्न ज्ञान वा भक्ति राजस है, और आत्मासे उत्पन्न हुआ ज्ञान वा भक्ति सात्विक है। सात्विक ज्ञान और सात्विक भक्तिके अधिकारीकी निष्काम कर्ममें प्रवृत्ति होती है। सात्विक ज्ञानी निष्काम कर्म वा कर्मयोग द्वारा चित्तशुद्धि के अनन्तर मोक्षकल को पाते हैं। मुक्तको कर्मका वन्धन नहीं है। सात्विक भक्त निष्काम कर्म वा भक्तियोगके द्वारा चित्तशुद्धिके अनंतर भगवत्प्रेमरूप सम्पदा को पाते हैं, भगवत्प्रेमीको कर्मवंधन नहीं है। मुक्त और भक्त

दोनो ही स्थूल, सूक्ष्म और कारण इस तीन प्रकार के जीवकोष से मुक्त होकर प्रकृति परले पार चलेजाते हैं, इन दोनो को फिर धर्मसुत्रमेनहीं बँधना पडता। मुक्त और भक्त दोनोंको ही कर्म तृप्त जीवकोषमें बँधकरइसलोक में नहीं आना पड़ता है। मुक्त पुरुष अपनेअस्तित्वकोपरब्रह्म के अस्तित्वमें मिलाकर शान्त होते हैं। औरभक्तअपनेकोभजनीय भगवान् के अधीन करकैभजनीय परम पुरुषको आत्मसमर्पण करकैशान्तिसुखको भोगते हैं। सिद्ध शरीरको न ग्रहण करनेवाले मुक्त, निष्क्रिय अवस्था में विलीन होजाते हैं। सिद्धशरीरको प्राप्त हुआभक्त अनन्तकाल तक श्रीभगवान् कीसेवा मेंतत्पररहता है, भक्तका कर्मबंधन न होनेपर भी उनका कर्मप्रवाह विच्छिन्न नहीं होता है वह भगवत्कर्मके सहकारी होते हैं॥ +॥ स्वरूपानुभवकासाधनभूत ज्ञान तीन प्रकारका है – ब्रह्मज्ञान परमात्मज्ञान और भगवद्ज्ञान। “सोऽहम्” मैं ब्रह्म हूँ, इस ज्ञानका नाम ब्रह्मज्ञान है। मैं जीवात्मा अन्तर्यामी परमात्माका अंश हूँ, यह परमात्मज्ञान है। मैं शक्ति हूँ, शक्तिमान् परमेश्वरकी शक्तिकाअंश हूँ, इस ज्ञानका नाम भगवद् ज्ञान है। ब्रह्मज्ञानका फल ब्रह्मायुज्य वा सद्योमुक्ति और परमात्मज्ञानका फल परमात्मसायुज्य वा क्रममुक्ति है।

योग शब्द से कर्मयोग, ज्ञानयोग भक्तियोग और अष्टाङ्गयोग यह चार योग लियेजाते हैं। कर्मयोग निष्काम कर्मका नाम है। कर्मयोग के फल में स्वतंत्रता नहीं है, वह ज्ञानका अङ्गीभूत होकर चित्तशुद्धि के द्वारा ज्ञानके फल मोक्षको और भक्तिका अङ्गीभूत होकर चित्तशुद्धिके द्वारा भक्तिके फल प्रेमको उत्पन्न करती है। यम, नियम, आसन प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन आठ के समूहका नाम अष्टाङ्गयोग है। कर्मयोगकी समान अष्टाङ्गयोगका फल भी स्वतंत्र नहीं है। यह भी ज्ञानका अङ्गीभूत होकर चित्तकी एकाग्रताके द्वारा ज्ञानके फल मोक्षको और भक्तिका अङ्गीभूत होकर भक्तिकेफल प्रेमको उत्पन्न करता है।

भक्ति भी तीन प्रकारकी है गुणीभूता, प्रधानीभूता और केवला। कर्म, ज्ञान वा योग ही जिसका प्रधान अंग है और किसी फलकी प्राप्तिके लिये भक्ति केवल जिसका आनुषंगिक अंग है, उसका ही नाम गुणीभूता भक्ति है। गुणीभूता भक्तिका दूसरा नाम सकाम भक्ति है, इसका फक्त सिद्धि और मुक्ति है। कामनावाले और आर्त्तपुरुष इसके अधिकारी हैं। भक्ति जिसका प्रधान अंग हैं और कर्म, ज्ञान वा योग जिसके सहायकमात्र हैं उस का नाम प्रधानीभूता भक्ति है। प्रधानीभूता भक्तिका दूसरा नाम मिश्रा,

निष्कामा वा सात्विकी भक्ति है, यह भक्ति फिर तीन प्रकारकी है कर्ममिश्रा,ज्ञानमिश्रा और योगमिश्रा। मुमुक्षुपुरुष ही सबका अधिकारी है। कर्ममिश्रा भक्तिका फल ज्ञानमिश्रा भक्ति वा ज्ञानयोग और योगमिश्रा भक्ति वा अष्टाङ्ग योग है। ज्ञानयोगका फल सद्योमुक्ति है। अष्टाङ्गयोगका फल क्रममुक्ति है। कर्ममिश्रा भक्ति का दूसरा नाम आरोपसिद्धा भक्ति है। कर्ममिश्रा भक्तिके अङ्गरूपनिष्काम कर्म, भक्तिका कार्य जो चित्तशुद्धि तिसके द्वारा भक्तित्व का आरोप होनेपर भक्तिरूप सिद्ध होते हैं अर्थात् भक्ति न होकर भी कुछएक भक्तिकेआकारवाले प्रतीत होते हैं इससे आरोपसिद्धा भक्ति कहेजाते हैं। ज्ञानमिश्रा और योगमिश्रा भक्तिका दूसरा नाम संगसिद्धा भक्ति है। ज्ञानमिश्रा भक्तिका अंगभूत सात्विक ज्ञान और योगमिश्रा भक्तिकी अङ्गभूत सात्विक क्रियाएं भक्तिके साथ होकर भक्तिकाफल जो ब्रह्मसाक्षात्कार और परमात्मसाक्षात्कार तिसके द्वारा भक्तिकेकिसी अंशके आकारमें प्रतीत होनेलगती हैं इसीकारण उसको संगसिद्धा भक्ति कहते हैं। केवला भक्ति इनसे सर्वथा भिन्न हैं। केवला भक्तिका दूसरा नाम निर्गुणा वा स्वरूपसिद्धा भक्ति है। कर्म ज्ञानादि इसके अधीन हैं, यह कर्म ज्ञानादिके अधीन नहीं है, किंतु सर्वथा स्वाधीन है। यहस्वाधीनभावसे ही कर्मका

फल जो चित्तशुद्धि एवं ज्ञान और योगका फल जो मोक्षइन सबोंके साथ अपने फल भगवत्प्रेम और उसके साक्षात्कार आदि को देती है, इसकारण भक्ति सबसे श्रेष्ठ है॥ २५॥

फलरूपत्वात्॥ २६॥

फलरूपा अस्ति अतोपि श्रेष्ठा।

पदार्थ– (फलरूपत्वात्) फलरूप होनेसे [ श्रेष्ठा ] श्रेष्ठ है।

भाषार्थ– भक्ति स्वयं फलरूप है, इसकारण सबसे श्रेष्ठ है। ज्ञानाभिमानी कहते हैं, कि–भक्ति साधन है और ज्ञानरूप उसका फल है, सो यह ठीक नहीं है, क्योंकि–भगवद्गीता में लिखा है, कि “अहङ्कारं बलं दर्पं कांमक्रोधं परिग्रहम्। विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥ ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति !. समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥” इसमें भगवान्ने दिखाया है, कि–ज्ञान, कर्म और योगरूप साधनसे मनुष्य अहंकार, वल, दर्प, काम, क्रोधको त्यागकर निर्मल, शान्त, ब्रह्मात्मज्ञान युक्तं, परमानन्दपूर्ण होकर शोक कामना आदिसे रहित और सब प्राणियों में समदर्शी होजाता है तब भगवान्की पराभक्तिको पाता है, सब साधनों का एक यही फल है, कि–भगवान्की कृपा प्राप्त हो, भगवान्की कृपादृष्टि विनाहुए भक्ति सिद्ध नहीं होती, इसकारण,

भक्ति सबसाधनोंका फलरूप होनेसे सर्वश्रेष्ठ है॥ २६॥

ईश्वरस्याप्यभिमानिद्वेषित्वाद्दैन्यप्रियत्वाच्च।२७।

ईश्वरोऽपिअभिमानिद्वेष्टा दैन्यप्रियः अतोऽपि भक्तेः श्रेष्ठत्वम्।

पदार्थ– (ईश्वरस्य–अपि) ईश्वरके भी (अभिमानिद्वेषित्वात्) अभिमानीका द्वेषी होनेसे (च) और (दैन्यप्रियत्वात्) दीनताका प्रिय होनेसे॥

**भाषार्थ–**कर्म, योग और ज्ञानके साधनकालमें साधकके चित्तमें उन साधनोंका अभिमान होनेपर उस अभिमानी से परमेश्वर प्रसन्न नहीं होते। भगवान् तो एकमात्र दीनों के बंधु, पतितोंके उद्धारकर्त्ताऔर निर्धनों के सर्वस्वधन हैं, वह अभिमानीको कोई नहीं हैं, ठीक ही है, जिनको अपने साधनों का भरोसा है उनको वह वयोंबूझेंगे ? जो स्त्री अपनी सुंदरता और जारोंके द्वारा धनोपार्जन करती है उसको पति क्यों बूझेगा? जो बालक आप अपनी जीविका करलेनेका अभिमानी है उसकी ओर मातापिताका ध्यान क्यों होगा? जो सेवक अपना निर्वाह आप ही करलेनेका अभिमानी है उसके स्वामीको क्या चिंता? विशेषकर परमेश्वरसे स्वामीकोकि–जिसको सदा दीन हीं प्यारे हैं, उसके सामने तो

जवसबसाधनों को छोड़ अनन्यभावसे कहोगे, कि-सर्वसाधनहीनस्य पराधीनस्य सर्वथा । पापापीनस्य दीनस्य कृष्ण एवं गतिर्मम ॥ अर्थात्– हे कृष्ण! मैं सर्वसाधनों से हीन, सर्वथा पराधीन हूँ पापों से पिचाहुभा और परमदीन हूँ हे नाथ! अव तो मेरी गति आप ही हैं, तबही वह तुम्हारी ओर घ्यान देंगे, क्योंकि–उनकी विरद है, कि–तेषामहं समुद्धर्त्ता भृत्युसंसारसागरात् । अर्थात् अपने शरणागतोंको मैं भवसागर से उवारता हूँ । इसकारण जो दीनभाव रखते हैं वही भगवान् के प्रीतिपात्र हैं । मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ, मैं मुक्तहूँ, मैं सिद्ध हूँ, ऐसा समझना ही अहंकारका परिचय देता है। जो अपनेको कर्त्ता आदि मानते हैं, उनको फिर परमेश्वरको मानने की भी आवश्यकता नहीं दीखती और वह परमेश्वरको मान भी नहीं सकते, इसकारण वह अवश्य ही उनके द्वेषी हैं, जो परमेश्वरके विद्वेषी हैं वह उनके प्रियपात्र कभी नहीं होसकते, किंतु उलटे वह असुरोंमें ही गिने जाते हैं । जो असुरस्वभाव के होते हैं उनके हृदयमें ही वैसे अभिमानका उदय होता है, जवतक यह अहंकार विनष्ट नहीं होगा तवतक देवस्वभाव का उदय न होने से परमेश्वरका प्रीतिपात्र नहीं हो सकता, दैन्यबुद्धिका उदय होने पर ही अहङ्कारका विलय होता है । अन्य साधनों की अपेक्षा न करकैकेवल परमेश्वर की कृपा को

ही आत्मसमर्पण कियेविना इस दैन्यबुद्धिका उदय नहीं होता, निरपेक्षभावसहित शरणागति ही अहंकार को नष्ट करती है, वह हीशुद्धा भक्ति की एक अवस्था है, अतएव शुद्धा भक्ति सबसे श्रेष्ठ है॥

तत्या ज्ञानमेव साधनमित्येके॥ २८॥

तस्याः भक्तेःज्ञानमेव साधनं, इति एके केचित् वदन्ति।

पदार्थ– (तस्याः) तितका (साधनम्) साधन (ज्ञानम्–एव) ज्ञान ही है (इति) ऐसा (एके) कोई कहते हैं।

** भाषार्थ–**किन्हीके मत में ज्ञान ही भक्तिका साधन है परंतु ऐसा मानना ठीकनहीं है, क्योंकि – गृध, गजेन्द्र आदिको कौन ज्ञान सिखाने आया था?, उन्होंने केवल भक्तिके साथ भगवान् कोपुकारा ही था, इसी से भगवान्का साक्षात् दर्शन पागए, भगवान्ने कहाभी है— “केवलेन हि भावेन गोप्यो गावः खगा मृगाः। येन्येमृदधियो नागा सिद्धा मामीयुरञ्जसा॥ २८॥

अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये॥ २९॥

अन्योन्याश्रयत्वं ज्ञानभक्तयोः परस्पराश्रयत्वम् इति अन्ये केचित् वदन्ति।

** पदार्थ**—(अन्योन्याश्रयत्वम्) परस्पराश्रयपना है(इति) ऐसा (अन्ये) दूसरे कहते हैं।

** भाषार्थ—**दूसरे कोई २कहते हैं, कि–ज्ञान भक्तिके आश्रय और भक्ति ज्ञानके आश्रय है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि — भक्तिका उदय होजानेपर ज्ञानतत्त्वकी जिज्ञासाका उदय ही नहीं होता॥ २६॥

स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः॥ ३०॥

स्वयं स्वस्या एव फल्तरूपता इति सनत्कुमारनारदादयो ब्रह्मकुमारा मन्वते।

पदार्थ –(स्वयम्) आप (फलरूपता) फलरूपपना (इति) ऐसा (ब्रह्मकुमाराः) ब्रह्मकुमार मानते हैं।

** भाषार्थ** **–**सनत्कुमारादि और नारदजीका मत है कि–भक्ति स्वयं ही फल है और स्वयं ही उस फलका साधन है। नित्यसिद्ध भगवान् केप्रेमरूप भक्तिका कोई साधन है ही नहीं, श्रवणादिसे शुद्धहुए चित्तमें उसका उदय आप ही होजाता है। श्रवण आदि भक्तिके अङ्गही क्रमसे परिपक्वहोकर भावरूपमें और भाव अपनी गाढ़तामें प्रेमरूपसे प्रकाशित होता है॥ ३०॥

राजगृहभोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात्॥ ३१॥

राज्ञांनृपतीनां गृहेषु भवनेषु च भोजनादिव्यापारेषु च तथैव दृष्टत्वात्

** पदार्थ—** (राजगृहभोजनादिषु) राजद्वार और भोजन आदि

में (तथैव) तैसा ही (इष्टत्वात्) देखा है इसकारण।

** भाषार्थ —** राजद्वार (राजदरवार) और भोजनादिमें ऐसा ही देखा है, जिसको अगले सूत्रमें उदाहरण देकर दिखाते हैं ३१

न तेन राजपरितोषः क्षुधाशान्तिर्वा॥ २२॥

तेन वोधमात्रेण राजपरितोषः भूपतेः तुष्टिः क्षुधाशांतिः वुभुक्षानिवृत्तिः, न भवति।

** पदार्थ —** (तेन) ज्ञानसे (राजपरितोपः) राजाकी प्रसन्नता (वा) या (जुवाशांतिः) भूखकी शांति (न) नहीं होती॥

** भाषार्थ—** भक्ति ज्ञानका फलरूप नहीं है, इस वातको दृष्टान्त देकर सिद्ध करते हैं, कि–मानलो, तुमने जानलिया कि – राजा धनवान्, सौम्य, दयालु, धर्मात्मा और प्रजाको प्रसन्न रखनेवाला है तो दषातुम्हारे इतने जानलेनेमात्रसे राजा सन्तुष्ट होजायगा अर्थात्तुमको राजज्ञान होजानेसे राजाकी तृप्ति नहीं हो सकती तथा वो शर्करा आदिसे मिष्टान्न बनता है इस बातको केवल जानलेनेसे ही क्या तुम्हारी भूख दूर होजायगी? कदापि नहीं होगी ऐसे ही भगवान् केस्वरूपको जानलेनेमात्रसे जीवका कर्त्तव्यसिद्ध नहीं होता, इसीसे अगले सूत्र में फिर कहते हैं कि॥३२॥

तस्मात् सैव ग्राह्या सुमुक्षुभिः॥ ३३॥

तस्मात्कारणात् मुमुक्षुभिः मोक्षाभिलाषिभिः सैवं भक्तिरेव, ग्राह्यास्वीकार्या।

** पदार्थ–**(तस्मात्) तिससे (मुमुक्षुभिः) मुमुक्षओंकरकै(सा –एव) वह ही (ग्राह्या) ग्रहण करने योग्य है।

** भाषार्थ** **–**इसकारण सकल प्रकारकी उपाधियों से मुक्ति चाहनेवालों को इस भक्तिका ही आश्रय करना चाहिये। तात्पर्य यह है, कि — सूत्रकारने अनेकों प्रकारका विचार करके सिद्धांत करा है–की कर्म, योग जोर ज्ञान मुक्ति का साधन होने पर भी उनमें अनेकों विघ्न होना संभव है। मुक्ति पानेके लिये–भगवान् का दर्शन करनेके लिये भक्ति ही निर्मल मार्ग है, इसीसे जीवोंके ऊपर करुणा करकैउन्होने भक्तिसमानमेंप्रवृत्ति दी है। मुक्ति भक्तिका मुख्य फल नहीं है, किंतु भक्तिसाधना के मार्गमेंको बढनेपर मार्ग में मुक्ति आप आपहुँचती है मुक्ति पाजानके अनंतर भी भक्तिका मार्ग दूरतक फैलाहुआ है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीन प्रकारकी उपाधि से मुक्ति पाने के लिये मुमुक्षु को पृथक् साधन नहीं करना पडता है, भक्ति ही समस्त परमार्थकी प्रदात्री है॥ ३३॥

पञ्चम अनुवाक—

तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्याः॥ ३४॥

आचार्याः शाण्डिल्यादयः, तस्याः भक्तेः साधनानि गायन्ति कीर्त्तयन्ति।

पदार्थ –(आचार्याः) आचार्य (तस्याः) उस भक्तिके (साधनानि) साधनों को (गायन्ति) कीर्त्तन करते हैं।

** भाषार्थ–**यद्यपि प्रेम नित्यसिद्ध है, उसका कोई कारण नहीं है तथापि प्रेमभक्तिको पाने के उपायस्वरूप कुछ साधन आचार्योने कहें हैं॥ ३४॥

तत्तुविषयत्यागात्सङ्गत्यागाच्च॥ ३५॥

तत प्रेम तु विषयत्यागात् तत्सङ्गत्यागाच्च प्राप्यते।

पदार्थ–(तत्–तु) वह प्रेम तो (विषयत्यागात्) विषयत्यागसे(च) और (सङ्गत्यागात्) सङ्गके त्यागसे॥

** भाषार्थ–**विषयत्यागका अर्थ है– विषयभोगत्याग और विषयसङ्गत्यागता अर्थ है–विषयासक्तिको त्यागना, विषयोंकी खिचावट बड़ी ही प्रवलहै, विषयोंको त्यागना बडा ही कठिन है, किसी प्रकार विषय छूट भी जायँ तो विषयोंका संग नहीं छूटता। यम

नियम आदिके अभ्यास और वैराग्य के द्वारा धीरे २ विषय और विषयोंके सङ्गका त्याग कियाजासकता है। परंतु विषय और विषयोंके संगको छोड़नेका एक सहज उपाय भगवान् में भक्ति करना है,ऐसा करनेसे ही विषयोंसे वैराग्य और निःसङ्गता होकर परम प्रेमरूपा भक्तिसिद्धि होती है॥ १५॥

अव्यावृतभजनात्॥ ३६॥

अव्यावृतभजनात्। नरन्तरभजनात्विषयतत्सङ्गत्यागपूर्वकं प्रेम लभ्यते

** पदार्थ–** (अव्यावृतभजनात्) निरन्तर भजन करने से।

** भाषार्थ–**निरंतर भगवान् का भजन अर्थात् भगवान् के गुण नाम आदिका श्रवण, कीर्त्तन और स्मरण करना चाहिये, क्योंकि भजनसे अवकाश पाते ही मन रजोगुण और तमोगुणमें को घुसने लगता है। उससमय विषयचिन्ता मनको मुल्लादेती है, इसलिये निरंतर भजन करैंनिरंतर भजन करनेसे उसमें वृत्ति जमजाती है, तब आप ही विषय और उनका संग छूटकर इंद्रियाोंसहित मन भगवान् केचरणों में जा लगता है और चित्त शुद्ध होजाता है, उस शुद्ध चित्तमें ही क्रम से प्रेमका आविर्भाव होता है, इसी से श्रीबल्लभाचार्यजी ने कहा है—“तस्मात्सर्वात्मना नित्यं श्रीकृष्णः शरणं मम। वद्भिरेव सततं स्थातव्यमिति मे मतिः।” अर्थात्-

इसकारण नित्य निरन्तर ‘श्रीकृष्णः शरणं मम’ कहा करै, ऐसा मेग सतहै, आपने भक्तिवर्द्धिनी ग्रंथमें भी कहाहै कि–’ अव्यावृतो भजेत्कृष्णं पूजया श्रवणादिभिः।” श्रवण कीर्त्तनादि पूजाके द्वारा भगवान् कृष्णुका निरंतर भजन करै, ऐसा न समझे, कि–जैसे नित्य भोजनादि करते हैं ऐसे ही थोडीदेर को यह भी सही, किंतु इसको निरंतर करो, इसका यह भाव नहीं है, कि–शरीरयात्रा के व्यवहारोंको छड़दा, किंतु निर्वाह लौकिक व्यवहार करतेहुए जब उनसे अवसर पाओतवऔर कोई व्यर्थ काम न करके भगवान् कास्मरणकरो, क्योंकि–निरन्तर भगवत्स्मरणसे चित्तशुद्धि होकर भक्ति प्रकट होती है, तभी तो श्रीकृष्ण चैतन्यदेवने कहा है, कि–“चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्निनिर्वापणं, श्रेयः कैरवचन्द्रिकाविलरह्यंविद्यावधूजीवनम्। आनन्दाम्बुधिवर्द्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं, सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसङ्कर्त्तिनम् ॥” जो मनोरूप दर्पण की मलिनता को दूर करता है, जो संसाररूप भयानक दावानलको बुझाता है, जो परमंगलरूप कुमुदको खिलाने के लिये चांदनी देता है, जो विद्यावधूको जीवनदान देता है, जो सुखसमुद्रको बढाता है, जो पद२ पर पूर्ण अमृतकेसा स्वाद देता है और जो आत्माको प्रेम सागरमेंस्नान कराता है वह श्रीकृष्णकीर्त्तन सर्वोत्कर्षसे विराजमान है? ६

लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्त्तनात्॥ ३७॥

भगवतो गुणानां श्रवणकीर्त्तर्नादिभ्यः चित्तशुद्धौ प्रेमप्राप्तिः लोकेऽपि दृश्यते।

पदार्थ (लोके–अपि) लोकमें भी (भागवद्गुणश्रवणकीर्त्तनात्) भगवान के गुणों का श्रवण और कीर्तन करनस।

** भाषार्थ —** जबतक निरन्तर भगवद्भजन करनेकी सामर्थ्य न होजाय तबतक अवकाश मिलने पर लोकों के समीप भगवान् कीकथाका श्रवण ओर कीर्त्तन करैं, क्योंकि–इस कलिकाल में भगवन्नामकीर्त्तन मुख्य धर्म है, इस युगमें नामसंकीर्त्तन हीपुरुषार्थ सिद्धि होसकती है, इसीसे भगवान्न कृपा करके नाममें अनेकों प्रकारसे अपनी शक्तियों को स्थित करदिया है, इसीकारण भगवान् कीकथा का श्रवणकीर्त्तन करते २ चित्त क्रमसे भगवान् की ओर को खिचने लगता है, श्री चैतन्यदेवजी लिखते हैं, कि–व्यावृत्तोऽपि हरौ चित्तं श्रवणादौ यर्तत्सदा। ततः प्रेम तथासक्तिव्यसनञ्चयदा भवेत्।” अर्थात् यदि चित्त भक्तिमेंन रंगा हो तो हरिकथाके श्रवण आदिमें लगावैधीरे २ उसमें शासक्ति बढैगी अर्थात् श्रवण कीर्त्तनकाव्यसन पड़जायगा और भक्तिका बीज आप ही दृढ़ होजायगा। सवलोग भक्ति के अधिकारी नहीं होते, परंतु श्रवणकीर्त्तन

करने से सवहोजाते हैं और श्रवण कीर्त्तन के अधिकारी मुक्त, मुमुक्षु और विषयीतीनों हैं यही बात श्रीमद्भागवत के आरंभ में कही है"निवृत्ततर्षैरुपीयमानाद्भवौषधाच्छ्रोत्रमनोभिरामात्। क उत्तम श्लोकगुणानुवादात्पुनाम्विरज्येत विना पशुघ्नात् “॥ ३७॥

सुख्यतस्तु महत्वपयैव भगवत्कृपालेशाना।३८।

नुरूपरूपेण तु महत्कृपया महात्मजनानुग्रहेणैव अथवा भगवतो कृपालेयतः प्रेम लभ्यते।

** पदार्थ —** (मुख्यतः–तु) मुख्यरूपसे तो (महत्कृपया–एव) महात्मायोंकी कृपा से ही (वा) अथवा (भगवत्कृपालेशात्) भगवान्की कृपाकेलवसे।

** भाषार्थ—**यद्यपि पूर्वोक्त साधनों से भक्तिका आविर्भाव होता है, परन्तु महात्मायोंकी कृपावा श्रीभगवान्की कृपाका लेशप्रेम को पानेका मुख्य उपाय है। यहाँ महत् शब्दका अर्थ मध्यम भक्त है, क्योंकि सकल प्राणियों में समदृष्टि रखनेवाले उत्तम भक्तोंकीकृपामें तो विषमता होती ही नहीं और अभक्तों के ऊपर कृपा करना मध्यमभक्तकागुण है। भगवान् कीकृपा भक्तकी कृपाके पीछे पीछे चलती है, जिससे ऊपर भक्तकी कृपा होती है, उसके ऊपर भगवान् भी दया करते हैं; भगवान् की दया होने

पर प्रेम अलभ्य नहीं रहता, उनकी स्वरूपशक्ति की वृत्तिरूप प्रेम स्वरूपशक्तिमेंसे जीवशक्तिमें को गङ्गाकेप्रवाहकी समान वहने लगता है, इसकारण महात्मायोंकी दया होनेपर प्रेम सुलभ है। कभी२ किन्हीं २ जीवोंको साक्षात भगवान् की कृपा से भी प्रेमलाभ होता है, परन्तु यह बात भगवान्के अवतारकाल में ही हो सकती है और समय भक्तोंके द्वारा ही भगवान्की कृपा का लाभ होता है। महात्मा जडभरतने रहूगण राजासे कहा था कि—” रहूगणैतत्तपसा न याति नचेज्यया निर्वैपनाद्गृहाद्वा। न छन्दसा नैव जलाग्निसूर्यैर्विना महत्पादरजोभिषेकात्॥” अर्थात् हे रहूगण! यह भक्तिरूप सिद्धि तपस्याके द्वारा नहीं होती, यागादि कर्मके द्वारा भी नहीं होती, घरको छोडकर योगी होनेसे भी नहीं होती, वेद और वेदान्तको पढलेनेमात्र से भी नहीं होती जल के द्वारा स्नान सन्ध्या तर्पणादि करने से भी नहीं होती, अग्निकेद्वारा श्रग्निहोत्रादि करने से भी नहीं होती,सूर्योपस्थान वा ग्रीष्मकेतापसेवनादिसे भी नहीं होती, केवलमहात्माओंकी चरणरज के सेवनसे ही होती है। भगवान् ने अपने श्रीमुखसे भी कहा है–“नह्यम्भयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः। ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः॥” हे अक्रूर!

गंगा आदि तीर्थ पर मृण्मय वा शिल्लामय देवता जिनको पवित्र नहीं करते वा बहुत विलम्बसे पवित्र करते हैं, उनको साधु महात्मा दर्शनमात्रसेही पवित्र करदेते हैं। बाहरी चेष्टा वा यत्नसे भक्ति का लाभ नहीं होता, किंतु साधुमहात्माओंका अनुग्रह होते ही भगवान्कीकृपादृष्टि होकर हृदयमें भक्तिका उदय होता है॥ ३८॥

महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघ॥ ३९॥

महता संगः, दुष्प्राप्यः, गम्यः, सफलश्च।

पदार्थ —(तु) किंतु (महत्संगः) महात्माओंका संग (दुर्लभः ) दुर्लभ (अगम्यः) अगम्य (च) और (अमोघः ) सफल है।

** भाषार्थ —** महात्माओंकासंग होय तो उनकी कृपा होसकती है, परन्तु उनका संग होना बड़ा दुर्लभ है, वह हमारे चाहने पर नहीं हो सकता, क्योंकि–वह कामना और स्वार्थरहित होते हैं उनका संग होनेका उनकी इच्छाके सिवाय और कोई उपाय नहीं हैं, उनकी ऐसी इच्छा होनेका कारण भी साधारण पुरुषों की समझमेंनहीं आसकता, अपना सौभाग्य हो तब ही उनका दर्शन होता है, यदि महात्मा सामने आजायँ तव मी अपने मनमें मलिनता होने के कारण उनको पहिचाना नहीं जाता, इसकारण

महत्पुरुषोंका संग दुर्लभ है, परन्तु एक वार किसीप्रकार संग हुआ, कि—वह निष्फल नहीं जाता, अपने अधिकारके अनुसार उसका फल अवश्य ही मिलता है, इस कारण वह अमोघ है॥

लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव॥ ४०॥

तस्य भगवतः कृपयैव संगः अपि लभ्यते प्राप्यते।

पदार्थ — (तत्कृपया–एव ) भगवान् की दया करकैही (लभ्यते–पि) प्राप्त भी होता है।

** भाषार्थ —** श्रीभगवान् जिसके ऊपर दया करना चाहते हैं, उसी समय वह किसी साधुके मन बैठकर उसको भेजदेते हैं। वह अपने भावसे जिसको रँगदेते हैं, दया करकैजिसके हृदयके किवाड खोलदेते हैं, उसको ही भगवान् के भेजेहुए साधुका दर्शन और संग होता है॥ ४०॥

तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्॥ ४१॥

तस्मिन् भगवति तज्जने हरिजने भेदाभावात् एवं भवति।

पदार्थ —( तस्मिन् ) तिन भगवान्में ( तज्जने) उनके भक्त मैं (भेदाभावात् ) भेद न होनेसे॥

** भाषार्थ —** श्रीभगवान् और उनके भक्तमें भेद नहीं है, इसी

से भगवान्की इच्छा ही भक्त की इच्छा होती है, इसीसे भगवान् जिसके ऊपर दया करना चाहते हैं, उसको अपना निदर्शनरूप साधुसंग देते हैं, भगवान् कीदयाका भी समय है, जब किसी जीवका हृदय आत्मप्रशंसारहित होता है जब आत्मग्लानिका अनुभव करता हैअपनेको तुच्छ समझनेलगता है, तब ही उसके ऊपर भगवान् कीदया होतीहै, वह आत्मग्लानि जव शास्त्रीय श्रद्धाके साथ दीनताके रूपमें आजाती है, उसी समय वह दया साधुसंगकेस्वरूपमें प्रकाशित होती है, साधुको देखते ही भगवान् कास्मरण होता है, भक्तकी भावनाके अनुसार उनकी प्रतीति होती है, भक्त उनमें और वह भक्तके हृदयमें रहते हैं, इसकारण दोनोमें भेद नहीं है॥ ४१॥

तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम्॥ ४२॥

तत् प्रेम एव पौनःपुन्येन साध्यताम्॥

पदार्थ — (तत्–एव) उस प्रेमको ही (साध्यताम्) साधनकरो, (तत्–एव) उस प्रेमको ही (साध्यताम्) साघन करो॥ ४२॥

** भाषार्थ —** नारदजी भक्तिको पानेका और उपाय न देखकर, और किसी चातुरीसे जीवकी गति होती न समझकर, भक्ति ही साधनसमुद्रका एकमात्र अमूल्य रत्न है, इस वातका तपोवलसे अनुभव करकैजीवके कल्याणके लिये ऊपर को भुजा उठाकर

मुक्तकण्ठसे कहते हैं, कि —हे जीव भगवद्भक्ति के सिवाय और किसी प्रकार उद्धार नहीं है, उसकी ही साधना कर॥ ४२॥

षष्ठ अनुवाक

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दुःसङ्गः सर्वथैव त्याज्यः॥ ४३॥

दुःसङ्गःविषयिजनसमागमः, सर्वथासर्वैः प्रयत्नैः त्याज्यः परिहरणीयः।

पदार्थ—(दुःसङ्गः) कुसंग (सर्वथा–एव) सवप्रकारसे ही (त्याज्यः) त्यागदेना चाहिये॥

** भाषार्थ —** यदि भक्तिको पाने की चाहना हो तो पहिले दुःसंग को त्यागो।विषयों में आसक्त पुरुषोंके संगको दुःसंग कहते हैं। संग होनेपर एककेगुण दोष दूसरेमें आते हैं, विषयासक्त पुरुषकेसंग से विषयके सुखदायकपन गुणका ध्यान होते २ विषयों में आसक्ति होने लगती है, विषयासक्त पुरुष किसीप्रकार विषयको छोड़देने पर भी विषयों की तृष्णासे छुटकारा नहीं पासकता, इसकारण विषयतृष्णा के मूल दुःसङ्गको उद्योग करके त्यागदेना चाहिये॥ ४३॥

कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशसर्वनाशकारणत्वात्॥ ४४॥

यतो हि सः दुःसङ्गःकामक्राधादीनां निदानमतः त्याज्यः ।

पदार्थ –(कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशसर्वनाशकारणत्वात् ) काम, क्रोध, मोह, स्मृतिनाश, बुद्धिनाश और सर्वनाशका कारण होनेसे ॥

** भाषार्थ** **–**कुसंगीकीखोटी संगतिसे और उसके खोटे व्यवहार को देखनेसे काम अर्थात् विषयोंके भोग की अभिलाषा होती है, किसी कारणसे उस विषयभोगकी तृप्तिमें बाधा पड़ेनेसे क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोधका उदय होते ही चित्त चंचल होकर भले बुरेके विचारसे हनितारूप मूढता वा मोह उत्पन्न होजाता है, मोह होते ही चित्त अज्ञानांधकारसे ढकजाताहै, चित्तमें स्थित संस्कारोंका विस्मरण होजाता हैं, तव अपने कल्याणसाधन के उपायरूप इन्द्रियों को जीतने की चेष्टा और उसके अनुसंधानका भी ध्यान नहीं रहता इस स्मृतिनाशके साथ २ बुद्धि भी ठिकाने नहीं रहती, मनुष्य कुछका कुछ करने लगता है, धौर ऐसा हुआ, कि–जीवका लोक परलोक सब नष्ट होजाता है, ऐसे सर्वनाशकेकारण दुःसंगको जैसे बनैतैसे त्यागना ही चाहिये ॥ ४४ ॥

तरङ्गायिता अपीमेसङ्गात्समुद्रायन्ति ॥ ४५ ॥

तरङ्गायिता अपि सूक्ष्मरूपेण वर्त्तमानाः अपि, इमे कामादयः

सङ्गात् दुःसमागमात् समुद्रायन्ति उपचीयन्ते।

पदार्थ—(तरंगायिता–अपि) तरंगकीसमान स्थित भी (इमे) यह (सङ्गात्) संगसे (समुद्रायन्ति) समुद्रसे होजाते हैं।

** भाषार्थ —** उस कुसंगा और भी दोष दिखाते हैं, कि–जो मनुष्य सुमार्ग पर चलते हैं उनको जैसे कभी २ ज्ञानकी सूक्ष्मतरंगें उठाकरती हैं, जैसे स्त्रीगमनकेअन्तमें, तीर्थमात्रा में हरिकथाओंको सुननेपर वा स्मशानको देखने पर ज्ञानकी तरंगें उठती हैं, मनुष्य जितनी देर स्मशानमें बैठते हैं—संसार नाशवान् है, धन जनमें मोह करना अच्छा नहीं, इत्यादि ज्ञानकी वातें करते हैं, परन्तु तहांसे लौटकर घर आते ही सब भूलकर संसार में मग्न होजाते हैं, ऐसे ही सज्जनोंकोयद्यपि अपने वर्णाश्रमकेअनुकूल कर्मों को करते हुए पुत्रस्नेह आदिके द्वारा काम क्रोधादिकी तरंगें उठकर मोह होता है, परन्तु वह उतने ही समयं रहता है जवतक वह अपने स्वरूप को भूले रहते हैं, परन्तु यदि वही सज्जन कुसंगके जाल में पड़जायँ तो उनकी साधुता के भाव धीरे २ अन्तर्धान होकर उन सुक्ष्मरूपसे वर्तमान काम क्रोधादिकी तरंगों पर तरंगें आकर उनका एकविशाल समुद्रसा वनजाता है और वह जीवोंको दुःखभरी गंभीर गहराई में
डुवोदेता है॥ ४९॥

कस्तरति कतरति मायां ! यः संगं त्यजति यो महानुभावं सेवते निर्ममो भवति ॥ ४६ ॥

कः जनः मायां तरति अतिक्रामति यः जनः सङ्गंआसक्तिं, त्यजति परिहरति, महानुभावं साधुजनं, सेवते भजति, निर्भयःमः ममत्वरहितः भवति, स एव मायां तरति ।

** पदार्थ —** (कः ) कौन (मायाम् ) मायाको ( तरति ) तरता है (कः) कौन ( मायाम् ) मायाको ( तरति ) तरता है ( यः ) जो ( संगम् ) संगको ( त्यजति ) त्यागता है (यः) जो (महानुभावम् ) साधुपुरुषको (सेवते ) भजता है (निर्ममः) ममतारहित (भवति) होता है

** भाषार्थ—**मनुष्यमात्र स्वभावसे ही यह चाहता है, कि–मेरे दुःख दूर होंऔर सुख मिले, परंतु यह दुःख दूर होना और सुख मिलना मनुष्यकी इच्छा के अधीन नहीं है, यह सब कर्मानुसार होता है, कर्मो के वशीभूत मनुष्य परवश होकर दुःखों को और सुखोंको भोगता है । विवश होकर सुखदुःखोंका भोग करते२ कमी किसी पुरुष को आत्मग्लानि होती है, आत्मग्लानि होनेसे श्रद्धा होती है । शास्त्र पर विश्वासका नाम ही श्रद्धा है, श्रद्धावान् पुरुष ही भक्तिका अधिकारी है । शास्त्र के ऊपर विश्वास होनेपर व्यवहारसे गाढा संबंध होने पर भी परमार्थ में शिथिल विश्वास के साथ शास्त्रानुसार आच-

रणमें आदर और चाहना देखने में जाती है। यह आदरसहित चाहना भी श्रद्धाकीही एक अवस्था है। शास्त्रोक्त आचरण में आदर के साथ चाहना उत्पन्न होने पर भी यथावत् आचार के पालनकी शक्ति नहीं होती, इसीसे सांसारिक सुख दुःख देनेवाले कर्ममें उदासीनता उत्पन्न नहीं होता और सकल कर्मो में बड़ी भारी आसक्ति भी नहीं होती। जितनी २ आसक्ति कम होती जाती है उतनी उतनी ही निषिद्ध आचरणकी कमी के साथ विहित आचरण की वृद्धि होती जाती है और ऐसा होते २ क्रमसे कर्मफलमें आसक्ति नहीं रहती। फल्लकी आसक्ति से रहित कर्मको ही निष्काम कर्म कहते हैं ! निष्काम कर्मका आरंभ होते ही साधनकी आवश्यकता प्रतीत होने लगती है और ऐसी समझ होते ही साधुपुरुषों का समागम होता है। साधुसमागम के साथ साधुसेवा में प्रवृत्ति होने के साथ २ व्यवहार में कुछ २ शिथिलता और परमार्थमेंको कुछ गाढता होनेलगती है, यह ही प्रेमका वीज साधुसेवा ही भजनकी पहिली सीढीहै। यह प्रथम भजन किया दो प्रकार की है –निष्ठित और अनिष्ठित। इस भजनक्रियाका आरंभ होते ही अन्यवातें दूर होकर क्षणिक ध्यान होनेलगता है, फिर भजनक्रिया की मात्रा के अनुसार सकल अनर्थोंकी निवृ-

त्तिके साथ २ ध्यान जमने लगता है और अन्य वातोंको चित्त नहीं जाता। अनर्थ चार प्रकारके हैं–१ दुष्कर्म से होनेवाले, २ सुकृत से होनेवाले, ३ अपराधसे होनेवाले, और ४ भक्ति से होनेवाले।पापकर्म के कारण जो अनुचित भोगासक्ति आदि, उससे उत्पन्न हुए काम आदि शत्रुओंकेआक्रमण से कलुपित हुए चित्तके लय विक्षेप आदिका नाम दुष्कर्मोत्थ अनर्थ है। पुण्यकर्मवश शुद्ध भोगासक्ति आदिके कार्यरूप लयविक्षेप आदिका नाम सुकृतोत्थ अनर्थ है। नामापराधसे उत्पन्न हुए लयविक्षेप घ्यादि अनर्थोंका नाम अपराधोत्थअर्थ है। शिव कोई अलग ईश्वर नहीं हैं, किंतु विष्णुका ही एक अवतार हैं, तथापि उनको विष्णु से भिन्न एक अलग ईश्वर मानना तथा गुरुदेवमें मनुष्यबुद्धि आदि अवज्ञा करना, वेद पुराण आदि शास्त्रोंकी निंदा करना, नाम में अर्थवाद अर्थात् भगवन्नामकी जो शक्तियें कहीं है वह वास्तवमें नहीं हैं, किंतु प्रशंताकी बात है ऐसा समझना। नामकी खोटी व्याख्या वा कष्टकल्पना करना, नामके बल पर पापकर्म करना, नामको अन्य शुभकर्मो के समान समझना, श्रद्धाहीनको नामका उपदेश देना, नामका माहात्म्य सुनकर भी नाममें प्रीति न करना, यह दश नामापराध हैं भक्तिके द्वारा होनेवाली पूजा आदिकी चेष्टासे

उत्पन्न हुए लय विक्षेप आदिका नाम भक्त्युत्थ अनर्थ है। यह चारोंप्रकार के अनर्थ जितने कम होंगे उतनी ही भजनमें निष्ठा होगी। निश्चलताको निष्ठा कहते हैं। अनर्थदशामें लयविक्षेप आदिके कारण भजनमें निश्चलता नहीं होती। जितने २ लय विक्षेपआदि अनर्थ कम होतेजायँगे उतनी ही निश्चलता होतीजायगी। इन अनर्थोकेनिवृत्त होने का उपाय श्रीचैतन्यदेवने कहा है, कि- “तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना। अमानिना मानदेन कीर्त्तनीयः सदा हरिः"‍ तिनुकेसे भी नीचा, वृक्षसे मी अधिक सहनशील, आप निरभिमान होना और सबमें भगवान् की ही झांकी है ऐसा समझकर दूसरोंका सन्मान करना, ऐसा होकर निरन्तर भगवन्नामकीर्त्तन करै, इस उपदेश पर चलने से भजनमें, निष्ठा हो जायगा, निष्ठाके अनंतर रुचि होकर आसक्ति होगी। आसक्ति होनेपर ध्यान जमने लगेगा, ध्यान गाढ़ा होकर भाव हो जायगा, वह भाव ही प्रेमका अंकुर है। उस दशा में समाधिकेसमय परतत्त्वकी स्फूर्ति होती है। भावका ही दूसरा नाम प्रेम है।प्रेमका उदय होनेपर क्रमसे देह और देहके संबंधियोंमेकी ममता कम होती जाती है और ममतारहित भक्त भगवानका अन्तः साक्षात्कार पाता है, फिर बहिः साक्षात्कार पाता है, भगवान्का वहिः साक्षात्कार होनेसे हृदयकी गांठ खुलजाती है, सब प्रकार के संदेहों

की निवृत्ति और कर्मका जडमूलसे, क्षय होजाता है, जिसके कर्म की जड फटगई वही माया के पार होगया, यह मायाके पार होना किसीका शरीर शान्त होनेपर और किसका शरीर के रहते भी सिद्ध होताहै॥ ४६॥

यो विविक्तस्थानं सेवते यो लोकवन्धमुन्मूलयति निस्त्रैगुणयो भवति यो योगक्षेमं त्यजति॥ ४७॥

यः पुरुषः, विविक्तस्थानं एकान्तं सेवते, यः जोकवन्धं लौकिक सम्बन्धं उन्मूलयति दूरीकरोति, निस्त्रैगुणयः त्रिगुणारहितः उपनिषत्प्रतिपादितात्मयाथात्म्यनिश्चयः भवति यः योगक्षेमं अप्राप्तस्य प्राप्त्युद्योगं प्राप्तस्य च परिरक्षणं त्यजति सः मायां तरति ।

** पदार्थ** —(यः) जो (विविक्तस्थानम्) निर्जनस्थानको (सेवते) सेवन करता है (यः) जो (लोकवन्धम्) लोकसंगरूप बंधनको (उन्मूलयति) उन्मूलन करता है (निस्त्रैगुण्यः) त्रिगुणरहित (भवति) होता है (यः) जो (योगक्षेमम्) योग क्षेमको (त्यजत) त्यागता है॥ ४७॥

** भाषार्थ** — मायासे निस्तार पानेका और भी उपाय कहते हैं, कि–लोकसमूह में रहने से सांसारिक कोलाहल के कारण निरन्तर भगवच्चितवन नहीं बनता, नानाप्रकारके लोकोंके संगसे व्यवहार में

संलग्न होना पड़ता है, इस दशामें संगदोष लगसकता है और जनसमूह में रहने से लौकिकमर्यादाके अनुसार ही आचार व्यवहार आदि की व्यर्थ अडचन में पड़ना होगा, नाच गान रंगरसमें मन मग्न होजायगा, इसलिये निर्जनस्थानमें निवासकरना ही हितकारी है, नो निष्काम कर्म के द्वारा विशुद्धचित्त होकर निर्जनस्थानमें आत्मचिन्तवनमें लगे रहते है, इसप्रकार जिनके लौकिक व्यवहारकाबंधन विच्छिन्न होजाता है, जो सत्त्व, रजः, तमः इन तीन गुण और इन गुणों के कार्यों से अलग रहकर उपनिषदोंमें वर्णन कियेहुए आत्मतत्व के साक्षात्कार की चेष्टा करते हैं, ऐसा करने के लिये जो वाणी शरीर और मनको वशमें रखकर योगक्षेम को त्याग देते हैं अर्थात् भोजनाच्छादनकी चेष्टातकको त्यागदेते हैं, शरीरयात्रा के लिये जो कुछ चाहिये भगवद्भक्तको उसकी भी चिंता नहीं करनी पडती—“भोजनाच्छादने चिंतां वृथा कुर्वन्ति वैष्णवाः । विश्वम्भरो गुरुर्येषां किं दासान् समुपेक्षते । “अर्थात् विष्णुपरायण पुरुष अपने भोजन वस्त्र के लिये वृथा ही चिंता करते हैं, क्योंकि–चराचर सकल विश्वको भोजन देनेवाला विश्वम्भर जिनका रक्षक है वह क्या अपने अनुगत सेवकों की उपेक्षा करसकता है ? भगवानकी तो प्रतिज्ञा ही है, कि —“अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः प्रर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां

योगक्षेमं वहाम्यहम्॥” जो पुरुष अनन्यभावसे मेरा ध्यान करते हुए उपासना करते हैं उनकी शरीरयात्रा के निर्वाहका मार मैं अपने ऊपर लेता हूँ । क्योंकि–जब सब कुछ छोड़कर भी अपने लिये हाय हाय ही रही तो उस छोड़नेको धिक्कार है, ऐसी वृत्तिवाले पुरुष शरीर और शरीर के संबंधियों की ममता से रहित और शांत होकर पापरहित, अजर, अमर, क्षुधापिपासारहित, सत्यकाम, सत्यसङ्कल्प, शुद्ध जीवात्माके साक्षात्कार के अनंतर सफल प्राणियों में समदर्शीपना पाकर परमप्रेमकेप्रकट होनेपर मायाके पार होजाते हैं ।४७।

यः कर्मफलं त्यजते कर्माणि संन्यसति ततो निर्द्वंद्धो भवति॥ ४८॥

यः कर्मफलम् त्यजति, ततः कर्माणि अपि संन्यसति परित्यजति सः ततस्तदनन्तरं निर्द्वन्द्वः द्वन्द्वातीतो भवति ।

** पदार्थ**— (यः) जो (कर्मफलम्) कर्मफलको (त्यजते)त्यागता है (कर्माणि) कर्मों का (संन्यसति) त्यागता है (ततः) तदनंतर (निर्द्वद्दः) द्वन्द्वातीत (भवति) होता है।

भाषार्थ— जव तक साधक के मनोवेगकीशान्ति न हो अर्थात्पदार्थों में प्रवृत्ति वनीरहै तवतक विहित कर्मोंका आचरण न छोडै

परंतु उन कर्मों के फल को अपने भोगके लिये न चाहकर उन सब कर्मोंका फल भगवान्को अर्पण करदेय, तदनंतर जब इंद्रियें और उनका वेग शांत होनेलगे अर्थात् निवृत्तिमें श्रद्धाका उदय होय तव विक्षेपकारी कर्मों को भी त्यागदेय। इस प्रकार साधनके क्रम से सुखदुःखादि द्वन्द्वों के पार होजाय अर्थात् जिसका चित्त सुखमें स्पृहारहित और दुःखमें उद्वेगरहित हो वह समदर्शी ही मायाके पार होता है ॥ ४८ ॥

यो वेदानपि सन्न्यसति केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते ॥ ४६ ॥

यः वेदान् वेदोक्तकाम्यविधीन् अपि संन्यसति त्यजति केवलं एकमात्रं अविच्छिन्नानुरागं निरंतरं प्रेमलभते ।

** पदार्थ** — (यः) जो (वेदान्–अपि) वेदोक्त मर्यादाको भी (संन्यसति) त्यागता है (केवलम्) एकमात्र (अविच्छिन्नानुरागम्) निरंतर प्रेमको (लभते) पाता है ।

** भाषार्थ** — फर्मफलमें आसक्तिरहित होकर कर्मफलका अनुष्ठान करते २ मनका वेग दूर होकर शुद्धचित्त हुए मनुष्य को ज्ञान और भक्तिकी प्राप्ति होती है, फिर लोकमर्यादाकी ओरको ध्यान नहीं होता। स्वधर्माचरणके गुण और उसको त्यागनेके दोषको जानने

वाले पुरुष के भी लोकिक कर्मका त्याग हो जाता है, लौकिककर्म का त्याग होने पर भी वेद की ओरकोध्यान रहनेसे वैदिक कर्मका त्याग नहीं होता, भक्त भक्तिका उदयहोनेपर्यन्त ही वेदविहित कर्मका अनुष्ठान करते हैं, परंतु प्रेमपंथी पुरुष लोकमर्यादा और वेदमर्यादा दोनों को त्यागकर निरन्तर प्रेम के साथ भगवान् के गुणानुवादका श्रवणकीर्त्तन आदि ही करते हैं, जिनके अन्तःकरण में ऐसे पवित्र परमप्रेमका प्रवाह निरन्तर बहने लगता है वह अनायासमें ही माया के पार होजातेहैं ॥ ४९ ॥

स तरति स तरति स लोकाँस्तास्यति ॥ ५० ॥

सः निरवच्छिन्नप्रेमयुक्तो भक्तः, मायां तरति, लोकान् अपि तारयति ।

** पदार्थ** — (सः) वह ( तरति ) तरता है (सः) वह ( तरति ) तरता है ( लोकान–अपि) लोकों को भी ( तारयति ) तारता है ।

** भाषार्थ**—नारदजीभक्तिरसमें भरकर और भक्तितत्वकी निर्मल ज्योतिका दर्शन करकै, भक्तिसाधककी विश्वमोहिनी अवस्थाको देखकर आनन्दमें नाचउठे और लोगोंकी आँखें खोलने के लिये उत्साह के साथ कहते हैं, कि—अविछिन्नभगवत्प्रेमी भक्त ही मायाके पार होताहै और आप ही पार नहीं होता, किंतु और

लोगोंको भी पार लगाता है, भगवान् आप ही कहतेहैं, कि–“मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति, वा, पुनाति भुवनत्रयम्॥” अर्थात्मेरा भक्त त्रिलोकीको पवित्र करता है ॥ ५० ॥

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सप्तम अनुवाक

अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्॥५१॥

येन प्रेम्णा भक्तः स्वयं कृतार्थः सन्नन्यानपि कृतार्थयति तत्त्वप्रेम्णः स्वरूपं निर्वचनीयं वक्तुमशक्यम् ।

पदार्थ — ( प्रेमस्वरूपम् ) प्रेमका स्वरूप ( अनिर्वचनीयम् ) अकथनीयहै ।

** भाषार्थ** — जिस प्रेमकी सहायता से परमकल्याण होता है, उस प्रेमका स्वरूप वाणी से नहीं कहाजासकता, उसको प्रेमी ही जानते हैं, जानकर भी उसको वह किसी के सामने प्रकट नहीं करसकते, इस संसार में ऐसी कोई वस्तु वा वाक्य है ही नहीं जिसके द्वारा प्रेमका स्वरूप समझायाजासकै, प्रेमके लिये दूसरा शब्द है चाहना परंतु लौलिक चाहना और श्रीभगवान्की चाहना एक नहीं है, लौकिक चाहनाकी मूल अशुद्ध है, क्योंकि—उसमें स्वार्थ है, भगवत्प्रेम अत्यन्त शुद्ध और निःस्वार्थ है । भगवत्प्रेम के भीतर निःस्वार्थभाव, निरहंकारभाव और आत्मसमर्पण का भाव भराहुआ

है। जहाँ स्वार्थ है, तहाँ अहंकार है, जहाँ आत्मभरीपन देखने में आता है तहां लौकिक प्रेम ही हो सकता है, भगवत्प्रेम नहीं होसकता। भगवत्प्रेम आत्मामें एक ऐसा पदार्थ होता है, कि–जो मनुष्य के स्वार्थको भगवदर्थमें, अहंकारको दीनतामें और स्वार्थीपन को परमार्थपरायणता में बदलकर विलीन करकैचैतन्यको विभुचैतन्यमें, अंशको अंशीमें, दासको प्रभुमें और शक्तिको शक्तिमान्में समर्पण करा देता है। भगवत्प्रेम अनादिसे बाहर्मुख जीवको सवप्रकार से अन्तर्मुख करदेताहै। वह स्वभावसेभगवद्विमुख मनुष्य को निरंतर स्मरण के प्रवाह में डालकर हरसमय भगवान्की सन्मुखता देताहै। प्रेम आत्माकी वह वृत्ति है, कि–जो परमक्षुद्रमनुष्यको वाणी और मनके अगोचर अनन्त परब्रह्मकी खोज में प्रवृत्त कराकर अंशको अंशीकेसाथ, शक्तिको शक्तिमान के साथ मिला कर अटूटबंधन में बांधदेती है। वह मनुष्यकेअस्वाभाविक अहङ्कार को स्वाभाविक अहङ्कारमें विलीन करकैउसमें आनेवाले प्रभुता के अभिमानको चिरकालके लिये मुलाकर ठहरनेवाली दास्यबुद्धि को उत्पन्न करदेती है और अंत में उसकी क्षुद्र वासना को परमेश्वरकी महती कृपामें मिलाकर, चिरकालसे अलग हुई शक्तिको शक्तिमान्केसाथ संमोमद्दशामें पूर्णतया एकाकार करदेती है। वह

मनुष्य की स्वतंत्रता परतंत्रता में बदल देती है, मनुष्य के सकल स्वार्थमूलक कर्मो को परार्धमूल फरक, जगत् के द्वेषभावको प्रीति भाव में बदलकर उसको सफल जीवोकी सेवा में भगवान्की सेवा में लगा देती है । वह मनुष्य प्रज्ञानांधकार को दूर करके उसको निःस्वार्थभावसे परोपकार करने के लिये जगत्का हित करने के लिये तत्त्वज्ञानसे प्रकाशित करदेती है । वह मनुष्य को अपनी औरकी चिन्ता से रहित कर उसका ध्यान संसार और संसारपतिकी और को लगा देती है । वह मनुष्यफे कठोर पन्तःकरणको कोमल करदेती है, संसार सफल विक्षेपोंको हटा देती है, विक्षिप्त चित्तको शांत करती है, मनुष्यकी मोहनिद्राको दूर करकै जगादेती है, खिन्नता को दूर करके प्रसन्नता देती है, कर्त्तव्यभ्रष्ट मनुष्यको कर्तव्य पर ठहराती है, नीरस चित्तमें सरसता लाती है, उसकी शक्ति अनंत है, उसका स्वरूप अनिर्वचनीय है, क्योंकि उसकेसी कोई लौकिक वस्तु है ही नहीं, इसीसे मंगवत्प्रेमको लौकिक वाणी से प्रकाशित करने की आशा दुराशा ही है ॥ ५१ ॥

मूकास्वादनवत् ॥ ५२ ॥

तत् मूकास्वादनवत् अनिर्वचनीयम् ।

पदार्थ - ( मुकास्वादनवत् ) गूँगेके स्वाद की समान है \।

पदार्थ— ( मूसास्वादनवत् ) गूँगे के स्वाद की समान हैं ।

भाषार्थ —जैसे गूँगा पुरुष परम स्वादु मीठे पदार्थों का स्वाद लेकर आनन्द से गद्गद होजाता है, परन्तु वाक्शक्ति न होने से दूसरे को उस रसका वर्णन करके नहीं समझा सकता, केवल हँस देता है, ऐसे ही भगवान्का प्रेमी भक्त भी प्रेम प्रकट होने के समय आनन्दसे गद्गद होजाता है स्वयं उसका स्वाद लेकर भी दूसरे को उसका स्वरूप कह कर नहीं समझा सकता, इसकारण वह पारीका विषय न होनेसे अनिर्वचनीय है ॥ ५२ ॥

प्रकाश्यते क्वापि पात्रे ॥ ५३ ॥

क्वापि पात्रे कस्मिंश्चित् अधिकारिणि स्वयमेव प्रकाश्यते ।

पदार्थ — (क्वापि ) किसी भी ( पात्रे ) अधिकारी में ( प्रकाश्यते ) प्रकाशित होता है ।

भाषार्थ —प्रेम स्वयंप्रकाश’ है, उसका कोई प्रकाशक नहीं हैं, बुद्धि विचार, कल्पना और मापाकी निपुणता के द्वारा उसके रूपकी व्याख्या नहीं की जा सकती, परन्तु उसमें अपनी एक ऐसी शक्ति है, कि जब कोई भाग्यवान् पुरुष प्रेममें मतवाला होकर अपने को आप ही भूल जाता है, उस समय वह प्रेमी के संसर्गसे धारे २ आप ही प्रकाशित होजाता है ॥ ५३ ॥

गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्द्धमानमविच्छिन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूम् ॥ ५४ ॥

गुणरहित गुणातीतं कामनारहितं कामनाया यविषय, प्रतिक्षणं वर्द्धमानं, अविच्छिन्नं अखण्डितं, सूक्ष्मतरं परमं सूक्ष्मं, अनुभवरूपं प्रेम \।

** पदार्थ** — (गुणरहितम् ) गुणोंसे हीन ( कामनारहितम् ) जाननाहीन (प्रतिक्षणवर्द्धमानम्) क्षयार में बढ़नेवाला (अविच्छिन्नम्) विच्छेद रहित ( सूक्ष्मतरम् ) प्रतिसूक्ष्म ( अनुभवरूपम् )
अनुभवस्वरूप है ।

** भाषार्थ** —किसीके गुणों को देखकर जो प्रेम, भक्ति वा चाहनाका उदय होता है, स्वर्गादिकी कामनासे वा भोगादिकी लालसासे जो पुण्यकर्म में वा भक्ति में आसक्ति होती है वह वास्तविक प्रेम नहीं है, क्योंकि-गुणीसे जो प्रेम कियाजाता है, उसका गुण दूर होते ही उस प्रेमका क्षय होजाता है, स्वर्गादिकी प्राप्ति होजानेपर कर्ममें आसक्ति कम होजाती है, स्त्रीसंयोगकी समाप्तिमें वह प्रेम नष्ट होजाता है, परंतु भगवत्प्रेम का विच्छेद नहीं होता, क्योंकि वह गुणकेसंपर्कसे शून्य और कामनारहित होता है, संसारका प्रेम

पहिले तो बड़े चाव के साथ बढ़ता है, परन्तु पछि अवस्था, रूप, वल और धन प्रादिके घटने के साथ १ दिनदिन घटता चला जाता है, परंतु भगवत्प्रेम तो क्षण २ में बढता है, प्रेमकी धारा अनंत परमेश्वर ओरको प्रवाहसे निरंतर वहती है, उसमें किसी सांसारिक दुःख आदिकी बाधा, विच्छेद वा विराम नहीं होता, क्योंकि—भगवद्वियोग महान् दुःखसागर में संसार के सकल क्षुद्र दुःख डूबनाते हैं । वह भगवत्प्रेम सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और अनुभवस्वरूप है, वह सच्चिदानंदमय परमेश्वरकी सच्चिदानंदमयी स्वरूपश किसी अनुकूल अभिलाषारूप स्वाभाविक वृत्ति है, यह वृत्ति निरन्तर बढती हुई अविच्छिन्न प्रवाहरूपसे बहती रहती है । यह जिस समय भगवान की कृपासे किसी मनुष्य के अन्तःकरण में प्रकट होकर उसकी वृत्तिके साथ मिल जाती है, उससमय यह उसमनुष्य को अपनी ही वृत्ति मालूम होती है और तबही यह उसके अनुभवका विषय होती है, इसप्रकार सुक्ष्मातिसूक्ष्म और अनुभवरूप होनेसे ही इसका कोई उदाहरण नहीं दियाजासकता । भाषाके बोधा कविने प्रेमकी सुक्ष्मता के वर्णन में यह कवित्त कहा है- “अतिछीन मृनाल के तारहुते, तेहि ऊपर पाँवदे भावनो है । सुचिवेंवते नाको सकीने तहाँ, परतीतको टाँडो लदावनो है । कवि बोधा अनी घनी नेनहुते,

चढि तापै नचित्त डिगावनो है । यह प्रेमको पंथ कराल महा, तरवारकी धार धवन है” ॥ ४९ ॥

तत्प्राप्य तदेवावलोकयति तदेव शृणोति तदेव चिन्तयति ॥ ५५ ॥

तत् प्रेम प्राप्य, मनुष्यः तदेव अवलोकयति पश्यति, तदेव शृणोति तत् एव चिन्तयति विचारयति ।

** पदार्थ** — (तत्) उसको ( प्राप्य ) पाकर ( तत एव ) उसकोही (अवलोकयति ) देखता है (तूत एवं ) उसको ही (शृणोति) सुनता है ( तत्-एव ) उसको ही ( चिन्तयति ) विचारता है ।

** भाषार्थ** — प्रेमी के सामने प्रेममय भगवानका स्वरूप और प्रेमास्वरूप एक ही पदार्थ है, जिन्होने प्रेमको पालिया उन्होंने भगवान्को पालिया, इस कारण उनको फिर प्रेमस्वरूप भगवानको सिवाय औौर किसीको देखने, सुनने वा विचारने की इच्छा नहीं रहती ॥ ५१ ॥

गौणी त्रिधा गुणभेदादार्त्तादिभेदाद्वा॥५६॥

प्रेम्णःसाधनरूपा भक्तिर्द्विविधा मुख्या गौणी, तत्र गौणीगुणभेदात् वा आर्त्तादिभेदात् त्रिविधा ।

** पदार्थ** — ( गौणी ) गौणी भक्ति ( गुणभेदात् ) गुणभेदसे (वा) अथवा ( झादिभेदात् ) श्रार्त यदि मेवसे ( त्रिधा ) तीन प्रकारकी है ।

** भाषार्थ** — मुख्या पौर गौणो भेदसे भक्ति दो प्रकारकी ज्ञानी वा निर्गुण भक्ती अनुभव कीहुई भक्ति मुख्या है, उसका स्वरूप यहां तक दिखाया । अव गौणी भक्ति सत्त्व-रज-तमः इन गुणों के कारण सात्विकी राजसी और तामसी यह तीन प्रकार की है, सत्वगुणी की हुई सात्त्विक, रजोगुणीकी की हुई राजसी और तमोगुण पुरुषी की हुई गौणी भक्ति तामसी कहती है, जिज्ञासु वा मुमुक्षु भक्त सात्विक, प्रति भक्त राजा और अर्थार्थी भक्त तामस अधिकारी है । इनमें निज्ञासु निष्काम और श्रार्त्त तथा अर्थी सक्षम हैं ॥ ५६ ॥

उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पूर्वपूर्वा श्रेयाय भवति ॥ ५७ ॥

उत्तरस्मात् उत्तरस्मात् परतः परतः पूर्वपूर्वा भक्तिः श्रेयाय कल्याणाय भवति ।

** पदार्थ** — ( उत्तरस्मात् उत्तरमात् ) अगले २ से ( पूर्वपूर्वा ) पहिली २ ( श्रेयाय ) कल्याण के लिये ( भवति ) होती है ।

** भाषार्थ** — यद्यपि तीनों प्रकारकी भक्ति कल्याणकारिणी है

तथापि तामसी से राजसी और राजसी सात्त्विकी भक्तिको अधिक कल्याणदायक समझना चाहिये, क्योंकि- अर्थार्थीतामस भक्त किसी कामना से ही भक्ति करते हैं, यदि उनको किसी पदार्थ की इच्छा न हो तो वह जाने भक्ति करें या नहीं, इसमें संदेह ही है, इसके सिवाय काम्य पदार्थ मिलजानेपर अभिमान होकर फिर उनको भगवान की याद भी नहीं आती, आर्त भक्तको भी आर्तिंके बिना भक्ति नहीं होती, विपत्तिमेंविना पडे वह भगवान का भजन नहीं करते, यह ठीक है, परन्तु वित्ति छूटने पर उनको अभिमान होनेकी व्यधिक संभावना नहीं है, विशेषतः उस दशा में वह अपनी हीनता का अनुभव करके श्रीभगवान्को आत्मसर्पण करते हैं, इस कारण वह कभी भगवान्को भूलते नहीं हैं, इसीसे अर्थार्थींसे आर्त्त भक्त श्रेष्ठ है, परंतु जिज्ञासु इन दोनोंसेही श्रेष्ठ है, क्योंकि-मर्थार्थी और प्रति दोनो सकामं हैं, जिज्ञासु मोक्षकाम वा निष्काम होता है, जिज्ञासु केवल तत्वज्ञान के लिये भगवान की भक्ति करते हैं, जिज्ञासुकी भक्ति श्रीभगवान् के लिये वा श्रीभगवान्को जानने के लिये होती है । उसकी भक्तिकी मूलमें अपनी क्षुद्रता और भगवान् का महत्व झलकता है । मर्घार्थी और अतिकी अभिलाषा भगवान् के अतिरिक्त उनके प्रसादसुखको पानेके लिये होती है ।

जिज्ञासु पहिले मोक्षसुखकी अभिलाषा दीखने पर भी साधनके पकजाने पर वह भी नहीं रहती, इस दशामें ही वह ज्ञानी होता है, ज्ञानीको श्रीभगवान् के सिवाय और कोई अभिलाषा ही नहीं होती, इसकारण निर्गुण भक्त ज्ञानी ही सबसे श्रेष्ठ है ॥ ५७ ॥

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अष्टम अनुवाक

अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ ॥ ५८ ॥

अन्यस्मात् कर्मादिसाधनात् भक्तो सौलभ्यं सुलभत्वम् ।

** पदार्थ** — ( अन्यस्मात् ) औरसे (भक्तौ ) भक्ति में (सौलभ्यम् ) सुलभता है ।

** भाषार्थ** — मोक्ष के तीन साधन हैं कर्म, ज्ञान और भक्ति । कर्म, कर्मयोग और अष्टांगयोग भेदसे दो प्रकारका यह कर्म मानका साधन होते हुए भी साक्षात् साधन नहीं है किंतु ज्ञान और भक्ति काअनुगामी होकर परम्परासे मोक्ष का साधन होता है । ज्ञान और भक्ति मोक्ष के साक्षात् साधन हैं । कर्मयोग और अष्टांगयोग का साधन करते समय अनेकों सिद्धियें वश होकर साधको उन्नतिमार्ग में विघ्न डालती हैं, परन्तु ज्ञानयोग वा भक्तियोग में विघ्न होना संभव ही नहीं, क्योंकिज्ञानयोगमें चित्तशुद्धि पर्यन्त और

भक्तियोग आशयशुद्धिपर्यन्त कोई सिद्धि वशमें होती ही नहीं । इसप्रकार ज्ञानयोग और भक्तियोग में समता मालूम होनेपर भी भक्तियोग ही सुलभता में श्रेष्ठ है, क्योंकि—विषयोंसे वैराग्य विना हुए, ज्ञानयोगका अधिकारी नहीं हो सकता, परंतु भक्तियोग में ज्ञान वा वैराग्यको अपेक्षा नहीं है, जो विषयोंमें न प्रतिमासक्त हो और न प्रतिविरक्त हो वही भक्तियोगता अधिकारी है। हाँ यदि कोई ज्ञान वैराग्य को लेकर भक्तियोग में प्रवेश करें तो वह उत्तम अधिकारी हैं, उनको भक्तिश्री सिद्धि शीघ्र ही हो जायगी, भगवान् की कथा आदिमें श्रद्धा होतेही भक्तियोग अधिकार होजाता है । कर्मत्याग विदा पुरुष ज्ञानी नहीं होसकता, परन्तु भक्त हो सकता है, ज्ञानी कर्मका त्याग करनेपर ही ज्ञानी होगा, परन्तु भक्त कर्मफलको त्यागनेसे ही भक्त होजायगा । यद्यपि विघ्न न होनेके विषय में ज्ञान और भक्ति दोनो समान हैं, परन्तु ज्ञानसे भक्तिका साधन सरस है । शान के साधन यम नियम आदि नीरस हैं, और भक्तिके साधन श्रवण कीर्तन यादि सरस हैं, ज्ञानमें अधिकारका विचार है, परन्तु भक्ति में अधिकारका विचार नहीं है, अतः भक्ति सबसे सुलभ है, तभी तो विद्याविहीन होकर भी गणिका, निर्धन होकर भी शवरी, वेद न पढकर भी गोपियें, मनुष्य न होकर भी

जटायु और गजराज तथा चाण्डाल होकर भी गुहने भक्ति द्वारा भगवान्को पाया ॥ ५८ ॥

प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात्स्वयं प्रमाणत्वात् ५६

भक्तिः स्वयं प्रमाण स्त्ररूना तत्सिद्ध्यै प्रमाणांतरस्य आवश्यकता ना

पदार्थ — ( प्रमाणां परस्य ) अन्यप्रमाणी ( घ्यनपेक्षत्वात् ) अपेक्षा न होनेसे ( स्वयम् ) आप (प्रमाणत्वात् ) प्रमाण रूप होने से।

भाषार्थ— भगवान्की भक्ति करनेमें किसी प्रकारका परिश्रम वा क्लेश नहीं हाता, यह बात किसीको समझाने की आवश्यकता नहीं है, जो भक्तिकी उपासना करते हैं, उनको आप ही इस बातका अनुभव हाजाता है । भक्ति होगई या नहीं, विवादको द्वारा इस संदेहका निवारण नहीं करना पडता भक्ति साधनमें क्लेशका उदय होनेकी तो बात ही क्या? प्रत्युत सफल क्लेश दूर हो जाते हैं, उस भक्ति के लिये सच्ची उत्कंठा होते ही प्राप्त होती है, चित्तकी सच्ची चाहना ही उसका मूल्य है, अतएव भक्तिभी सुलभता में भक्त ही प्रमाण है ॥ ५६ ॥

शान्तिरूपात् परमानन्दरूपाच्च ॥ ६० ॥

भक्तिः शान्तिरूपा परमानन्दरूपाचं प्रतोऽपि सुलभैव ।

** पदार्थ** — (शान्तिरूपात्) शान्तिरूप होनेसे (च) और (परमानन्दरूपात्) परमानन्दरूप होनेसे ।

** भाषार्थ**— जिस साधनमें अशान्ति और दुःख है वह हीदुर्गम है और जिसमें वादविवाद, द्वन्द्व, उद्वेग, सन्देह, संकल्प, विकल्प, सुख दुःख आदि तरंगों का लेश भी नहीं है, किंतु शान्ति और सुख है, वह ही सुगम है, जो सुगम है वह ही सुलभ भक्ति के सिवाय और सब साधनों के अनुष्ठान में प्रशान्ति और सुख होता है, भक्ति के अनुष्ठान से ही शांति तथा सुख उत्पन्न होता है और साधनों के सिद्ध होनेपर शान्ति तथा सुख दीखता परंतु भक्ति में प्रवृत्ति होते ही शांति और सुखका अनुभव होने लगता है, क्योंकि भक्ति स्वयं शांतिरूप और सुखरूप है, कामना ही शांति की सून है, भक्ति का आरंभ होते ही सब कामनाएं रुकने लगती हैं और भक्ति परमानंदरूप है इसको तो सब ही जानते ह ॥

लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदात् ॥ ६१ ॥

भक्तौ लोक हानेश्चिंता न कर्त्तव्या यतस्तदा आत्मा लोको वेदश्च भगवते निवेदितः ।

पदार्थ — (निवेदितात्मलोकवेदत्वात्) आत्मा, लोक और वेदको

निवेदन करनेके कारण (लोकहानौ) लोकहानिके विषय में (चिंता) चिंता (न) नहीं (कार्य) करनी चाहिये ॥

** भाषार्थ** —जव आत्मा, लोक, वे सब भगवान्को घर्पण करचुके, फिर लोक परलोक की चिन्ता क्या ? जो वस्तु जिसको अर्पण करदी जाती है, उसकी देखभाल और रक्षाका भार उसी के ऊपर होता है, भगवान् उसकी चिन्ता आप करलेंगे, भक्तको तो केवल भगवान्की प्रेमसेवामात्र की चिन्ता रखनी चाहिये, यही धाज्ञा भगवान्ने चतुःश्लोकीमें दी है, “एवं सदा स्वक्तव्यं स्वयमेव करिष्यति । प्रभुः सर्वसमर्थो हि ततो निश्चिंततां व्रजेत् ॥ यदि श्रीगोकुलाधीशो
धृतः सर्वात्मना हृदिस्ततः किमपरं ब्रूहि लौकिके वेदिकैरपि ॥ ॥ ६१ ॥

न तदसिद्धौलोकव्यवहारो हेयः किंतुफलत्यागस्तत्साधनञ्च कार्यमेव ॥ ६२ ॥

तस्या भक्तेःसिद्धौ लोकव्यवहारो न हेयः न त्याज्यः किंतु कर्मणाः फलस्य त्यागः कर्त्तव्यः तस्य लौकिककर्मणः साधनमनुष्ठानञ्चकर्तव्यमेव ।

** पदार्थ** — (तत्सिद्धौ) प्रेमसिद्धिके लिये (लोकव्यवहारः) लौकिक व्यवहार (न) नहीं (हेयः) त्यागना चाहिये (किंतु) परन्तु (फज्ञत्यागः) कर्म के फलका त्याग (व) और (तत्सा-

धनम् ) लौकिक कर्मका अनुष्ठान ( कार्यम्-एव) करना चाहिये ही

** भाषार्थ—** भक्ति के साधकको ईश्वर में पूर्णतया आत्मनिवेदन की दृढता होनेसे पहिले लोकव्यवहारोंको नहीं त्यागना चाहिये, नहीं तो वही दशा होगी, कि— “दोनो दीनसे गए पांडे, हलुवा हुआ न पांडे ।’ साधनकाल में एकसाथ लोकव्यवहारको त्याग देने से तो शरीरयात्राका निर्वाह होना भी कठिन है । योगारूढ होने का अभितापी पुरुष कर्मत्यागका अधिकारी नहीं है, जो योगारूढ हा जाता है वह ही कर्मको त्यागसकता है \। नवत योगमें वृत्ति न जमजाय तबतक फल की इच्छा को त्यागकर सकल लोकिक कर्मों का अवश्य ही करता रहे, ऐसा करंत २ चित्त शुद्ध होजाता है और शुद्धचित्त पुरुष ही योगसिद्धि पासकता है, भक्तिमार्ममें श्रद्धा होते ही योगको प्रवृत्ति होती है । जो सफल सकलोको त्यागकर सब प्रकार शरणागत होता है, वह ही श्रद्धालु है, वह ही ले व्यवहारको त्याग सकता है। श्रद्धालु भी तीन प्रकारका होता है, कष्ठ, मध्यम और उत्तम । जिनके कुछ २ श्रद्धा होती है वह कनिष्ठ श्रद्धालु हैं, इसको ही स्वनिष्ठ अधिकारी कहते हैं । स्वनिष्ठ अधिकारी फर्मको नहीं त्यागें किन्तु फलका उदय होने पर्यन्त आसक्तिको त्याग कर स्वधर्म विहित, हिंसारहित फर्मो का आचरण

करते रहें । जिनकी श्रद्धा मध्यम श्रेणी की होती है वह मध्यम श्रद्धालु कहते हैं, इनको परिनिष्ठित अधिकारी भी कहते हैं । इनको भी कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये, यदि इनकी चित्तशुद्धि होगई हो तब भी उसकी दृढताके लिये कर्म करते रहैं, यह यदि प्रतिष्ठाशाली हो तो लोकशिक्षा के लिये भक्तिप्रधान कर्मोका अनुष्ठान करें, ऐसे कार्य फलकी प्राप्ति पर्यन्त करने चाहिये । जिनकी श्रद्धां तीव्र हो वह उत्तम श्रद्धालु हैं, उत्तम श्रद्धालुका नाम निरपेक्ष है, निरपेक्ष भक्त केवल मन में श्रमिव की सेवा करें, इस संसारके साथ संबंध रखने वा त्यागने के लिये उनको किसी विधि वा निषेध की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिये, उनसे ऐसे आचरण से संसारकी कुछ क्षति नहीं होसकती ॥ ३२ ॥

स्त्रीधनास्तिकवैरिचरित्र न श्रवणीयम् ॥६३ ॥

स्त्रियाः, धनस्य, नास्तिकरुस्य, वैरिणः च चरित्रं न श्रोतव्यम् ।

** पदार्थ** — ( स्त्रीधनास्ति रूचरित्रम् ) खिये और धन विषयकी बातें, नास्तिको पौर वैरियोंका चरित्र ( न ) नहीं ( श्रवणीयम् ) सुनना चाहिये ।

** भाषार्थ** — स्त्रियों के रूप, यौवन’ हाव भाव घ्यादिका जिसमें वर्णन हो उस पुस्तकादिको न पढो न सुनों, कोई ऐसी बातें करे

ता भी न सुनो क्योंकि सुनंनसे विलासवासनाफा वेग बढजायगा । धन वैभा की बातें न सुनो, क्योंकि उसमें लोभ जागउटैगा । नास्तिकों के चरित्र प्योर उनकी कुटिल तर्कनामको भी मत पढो सुना, क्योंकि ऐसा करने में भगवान्का विश्वास विचलित होनायगा तुम्हारे शत्रुष्णोंकी बातें कोई सुनावै तो उधरको फान न लगाओ, क्योंकि उनके बुरे व्यवहारकी बातें सुनने पर तुम्हारा चित्त खिन्न और अप्रसन्न होकर क्रोधादिशा उत्पन्न होना और तपः शक्तिता विचलित होना संभव है ॥ ६३ ॥

अभिमानदंभादिकं त्याज्यम् ॥ ६४ ॥

अपराधहेतूनां दंभादीनां त्यागः कर्त्तव्यः ।

** पदार्थ**—( अभिमानदंभादिकम् ) अभिमान देंम यादि (त्याज्यम् ) त्यागदेना चाहिये । "

** भाषार्थ —**अभिमान और दम यह दो भक्तिमार्ग के बडे विरोधी हैं, क्योंकि - भक्ति सिद्ध होजाने पर भी ‘मैं भक्त हूँ मैं उपदेष्टा हूँ, इत्यादि अभिमान और पूजापादिमें दिखावट के लिये बाहरी आडंवररूप दंभका उदय होसकता है, इसीकारण भक्तिपंथका अपराधरूप दंभ, अभिमान, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदिशा त्याग करना चाहिये ॥ ६४ ॥

तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम् ॥६५॥

तस्मिन् भगवति अर्पितानि व्यखिलानि सकलानि आचाराणि कर्माणि येन, तेन कामादिकं श्रपि तस्मिन् भगवति एवं करणीयम् ।

पदार्थ —( तदर्पिताखिलाचारः सन् ) सफल कर्म भगवान्को अर्पण करतेहुए ( कामक्रोधाभिमानादिकम् ) काम, क्रोध, अभिमान आदि (तस्मिन्-एव) उसमें ही (करणीयम्) करना चाहिये !

भाषार्थ— शरीर, इन्द्रियें और मनसे वैदिक लौकिक जो कुछ कर्म करे वह स भगवान्को ही अर्पण करे। यदि फामका वेग उठे तो अनन्यचित्तते परमात्मामें ही रति करै, कि वह सर्वश्रेष्ठ प्यारा हमें मिले, यदि क्रोध करना हो तो उसी के ऊपर करे, कि वह हमको क्यों नहीं मिलता ? यदि अभिमान करना हो तो भी उसके विपयता करना, कि हमारे सर्वैश्वर्यवान् प्रभुकीसमानऔर कौन हो सकता है ? अथवा हमारे प्राणप्यारेकी समान मनोहर और सुंदर दूसरा कौन हो सकता है ? यदि लोभ हो तो भगवद्रूप भक्तों के संगता यदि मोह हो तो इष्टदेव भगवान् का और यदि मद हो तो भगवान् के गुणगानका करो, इत्यादि ॥ ६९ ॥

त्रिरूपभङ्गपूर्वकं नित्यदास्यनित्यकान्ताभजनात्मकं वा प्रेम एव कार्य प्रेम एवं कार्यमिति ॥६६॥

त्रिरूपभङ्गपूर्वकं-पूर्वं रूपत्रयस्यपृथग्भावं परित्यज्य नित्यं दास्यरूपं कान्तामजनात्मकं नारीसेवनस्वरूपं निर्गुणाभक्तिसाध्यं प्रेम एव कर्त्तव्यम् ।

** पदार्थ** — (त्रिरूपपूर्वकम्) पहिले तीन रूपोंकीभिन्नताको विनष्टकरके( नित्यदास्यनित्यकान्ताभजनात्मकम् ) नित्य दासभाव और नित्य कान्तासेवनरूप ( प्रेम - एव ) प्रेम ही ( कार्यम ) करना चाहिये ( प्रेम एव ) प्रेम ही ( कार्यम् ) करना चाहिये ( इति ) इसपूकार \।

** भावार्थ**—ब्रह्मा, विष्णु, शिव तीनों में भेदभाव न रखकर ब्रहा, ईश्वर, जीव तीनों को एक मानकर सत्त्व, रज, तमः तीनोंका एकत्र चूर्ण करकै गुरु, भगवान्, भक्त तीनोंको एक देखकर वा सत् चित् आनन्द तीनों एकीभूत पथम दासभावसे प्रारंभ कर

हूँ, इत्याकान्त भावकीमनोहर आडंबररूप दम्भसेअपने दृढ भगवद्रूप अपराधरूप दंभ, से प्राप्तन यदि मह आदिफा त्यागङ्करं ! हो उस प्रेमका साधन प्राप्त होता है, मौर सुने कहा- अयि! कृपया तव पादपङ्क-

अस्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥ ‘हे नन्दनन्दन ! तुम्हारा सेवक मैं घोर भवसागरमें डूबरहा हूँ, मुझे तुम अपने चरणकमलों में स्थित धूलिकी समान विचारो ॥ ६६ ॥

नवम अनुवाक

भक्ता एकान्तिनो मुख्याः ॥ ६७ ॥

एकांतनः मदेकनिष्ठा भक्ताः मुख्याः श्रेष्ठाः ।

** पदार्थ**—(एकांतिनः) एकांती(भक्ताः) भक्त (मुख्याः) श्रेष्ठ हैं

** भाषार्थ** — जिनकी भक्ति अन्तःकरणमेएक मुझमें ही निबद्ध होती है, बाहरी पाडम्बरके लिये नहीं होती, जो एकमात्र मेरा ही आधार रखते हैं, वह मेरे एकान्ती वा एकनिष्ठ भक्त ही श्रेष्ठ हैं, श्रीचैतन्यमहाप्रभुका उपदेश है, कि - ‘न धनं न जनं न सुन्दरी कवितां वा जगदीश फामये । मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवनाद्भक्तिरहेतुकी त्वयि ॥ अर्थात् हे, जगदीश्वर ! मैं घन नहीं चाहता, परिवार नहीं चाहता सुन्दरी नारी नहीं माँगता, कवित्वशक्ति मी नहीं चाहता; केवल यही चाहता हूँ, कि जन्म जन्म में आपकी अहैतुकी भक्ति हो ॥

कण्ठावरोधरोमाश्रुभिः परस्परं लपमानाः पावयंति कुलानि पृथिवीञ्च ॥ ६८ ॥

कण्ठावरोधो गद्गदभावः, रोमः रोमोनमः, अक्षुः प्रेमाश्रुप्रवाहः एतैरुपलक्षिताः परमप्रेममग्नाः भक्ताः परस्परमन्योन्यं लपमानाः परमेश्वरगुणान् फीर्त्तयतः, कुज्ञानि निजवंश्यान् पृथिवीं च पावति पुनन्ति ।

** पदार्थ** —(कण्ठावरोधरोमाशुभिः कण्ठरोध, रोमान्च और अश्रूयुक्त हुए (परस्परम्) आपस (लपमानाः) कीर्तन करते हुए (कुन्तानि) कुलोंफो (च) और (पृथिवीम्) पृथिवीफो (पावयन्ति) पवित्र करते हैं ।

** भाषार्थ** —जिस समय भक्तिका प्रबल उभार होता है, जिस समय परमप्रेम से हृदय शिथिल होजाता है, जिस समय प्राण सच्चे अनुरागमें भरजाते हैं, उससमय भक्त परस्पर भगवान् के गुण नाम आदिका कीर्तन करते हैं कण्ठरोध होजाता है, शरीर पुलकायमान होकर रोम खडे होजाते हैं और न जाने किसने प्रेममें विह्वल होकर दोनो नेत्रों में से अविरल धार बहनेलगती है, ऐसे महापुरुष शरीर, इन्द्रिय और मनके धर्म प्यादि संसारधर्म में मोहित नहीं होते, उनके मन में भोगवासना वा शरीरमें भोगचेष्टाका उदय नहीं होता, उनको जन्म कर्म प्रादिका देहाभिमान नहीं होता, उनके आत्मामें वा चित्तमें अपने परायेकी भेदबुद्धि नहीं होती, वह त्रिलोकी भरकी विभूतिकी प्राप्ति होनेपर भी भगवत्स्मरणको नहीं

भूलते, उनका चित्तभ्रमर कभी भगवान्के चरणकमलोंको नहीं त्यागता । यह अवस्था बडी पवित्र और बड़ी मनोहर है, इस अवस्था का साधन बड़ा दुर्लभ है, ऐसे साधक जिससमय भक्ति में भरकर परस्पर कीर्तन करते हैं उससमय वह केवल अपने वंशधरों को ही नहीं, किंतु भूमंडलभरको पवित्र करदेते हैं, उनकी भक्तिकी पवन शरीरको लगजाने पर पत्थरसमान कठोर हृदयमें भी पवित्रता और भक्तिकासंचार होता हैं, तभी तो श्रीचैतन्यमहाप्रभुने कहा है, कि- “नयनं गलदश्रुधारणा, वदनं गङ्गदरुद्धया गिरा । पुलकैर्निचित्तं वपुः यदा तव नामग्रहणे भविष्यति ॥ " हे प्रभो ! कव आपका नाम लेन में मेरे नेत्रों से अश्रुधारा बहेगी, कंठ गद और शरीर रोमांचित होगा ? ॥ ६७ ॥

तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मी कुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्री कुर्वति शास्त्राणि ॥ ६९ ॥

ते भक्ताः तीर्थानि पावनस्थानानि तीर्थंकुर्वन्ति पुनन्ति, कर्माणि’ सुकर्मीकुर्वन्ति, शास्त्राणि अध्पयनेन सच्छास्त्रीकुर्वन्ति ।

** पदार्थ** — (तीर्थानि ) तीर्थो को ( तीर्थं कुर्वन्ति ) पवित्रकरते हैं ( कर्माणि ) कर्मोको (सुकर्मी कुर्वति ) सुकर्म करते हैं । (शास्त्राणि) शास्त्रों को ( सच्छास्त्रीकुर्वति ) सत्शास्त्रं करते हैं ।

** भाषार्थ**— पापी पुरुष तीर्थों पर जाते हैं तो तीर्थ उनके पाप दूर कर पवित्र करते हैं, परंतु उन पापियोंके समागमसे तीथों में जो मलिनताका स्पर्श होजाताहै, भक्तोंके समागम से तीर्थ उस पाप से मुक्त होकर फिर तीर्थता पाते हैं इसीसे कहा है- " जाहव्यादीनि तीर्थानि पापनिष्कृतिहेतवे । कांक्षंति हरिदासानां दर्शनं हरिदासवत् ॥ अनेको कर्म हैं, उनमें से भक्तपुरुष जिनकर्मों का अनुष्ठान करते हैं वह सब धर्म सुकर्म कहलाते हैं, ऐसे ही शास्त्र भी असंख्य हैं, परंतु उनमें से जिनशास्त्रोंको भक्त पढ़ते हैं, रचते हैं वा व्याख्या करते हैं, वह सब शास्त्र ही सच्छास्त्र हैं ॥ ६९ ॥

तन्मयाः ॥ ७० ॥

यतः तन्मयाः भगवदेकनिष्ठाः भवन्ति ।

** पदार्थ** —( तन्मयाः ) तन्मय होते हैं ।

** भाषार्थ** — भगवान् पवित्रों को भी पवित्र करनेवाले हैं ‘पवित्राणां पवित्रं यः । ”और मंगल करनेवालों के भी मंगलस्वरूप है “मंगलानाञ्चमंगलम्’ भक्त उनके भावमें मांगकर तन्मय होना ते हैं, जैसे नदी सागरके यीतर जाकर सागररूप होजाती है, तैसे ही भक्त भगवान्में आत्मसमर्पण करकै भगवान् की पवित्र शक्तियों को पाजाते हैं यही कारण है, कि उनके समागमसे तीर्थ, कर्म और शास्त्र भी पवित्र

होजाते हैं । “तत्रैव गंगा यमुना त्रिवेणी गोदावरी सिंधु सरस्वती च । सर्वाणि तीर्थानि वसन्ति तत्र यत्राच्युतोदारकथाप्रसङ्गः ।’ इस श्लोकमें यह दिखाया है कि- भगवद्गुणगानका आसन सकल तीर्थोंसे भी पवित्र और ऊँचा है । यह भी शास्त्र में अनेकों स्थान पर कहा है, कि जो कुछ कर्म करे वह भगवान् के उद्देश्यसे करे, इससे सिद्ध है, -कर्मोकी अपेक्षा भगवान् अधिक पवित्र हैं, और यह भी लिखा है कि– यस्मिन् शास्त्रे पुराणे च हरिभक्तिर्न दृश्यते । न श्रोतव्यं न वक्तव्यं यदि ब्रह्मा स्वयं वदेत् ॥ इससे सिद्ध हुआ, कि- शास्त्र की पवित्रताका कारण भी मगवन्नाम ही है, तव भगवद्भावमय, श्रद्धेय मक्तों के संगसे तीर्थादि पावत्र हों तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ॥ ७० ॥

मोदन्ति पितरो नृत्यन्ति देवताः सनाथा चेयं सूर्भवति ॥ ७१ ॥

भक्तान् अवलोक्य पितरः मोदन्ति प्रहृष्यन्ति देवताः इन्द्रादयः नृत्यन्ति, इंय भूः च सनाधा भवति ।

** पदार्थ** — ( पितरः ) पितर ( मोदन्ति ) प्रसन्न होते हैं (देवताः) देवता ( नृत्यन्ति ) नाचते हैं (च ) और ( इयम् ) यह ( मूः ) भूमि ( सनाथा ) सनाथ (भवति) होती है ।

** भाषार्थ**— भक्तों प्रभावसे भूलोक पवित्र होता है, पितृलोक निवासी और देवता का प्राकाशमेका सूक्ष्मतत्त्वपूर्ण तेजामार्ग स्वच्छ होता हैं, भक्तका दर्शन पाकर सफल मर्त्यजीव पवित्र होकर उनकी पितृकार्य और देवकार्यमें श्रद्धा होती है । याग, यज्ञ, पितृतर्पण ध्यादि करनेपर, पितर और देवता तृप्त होते हैं, भक्तों को और उनके चरित्र चेष्टा आदिको देखनेपर भक्त पितर और कुलदेवता अपनेको धन्य मानते हैं और भक्तको दर्शन देने के लिये भगवान् भूतल पर प्रकट और प्रकाशित होते हैं, इसलिये पृथिवी भी भक्त अनुग्रह से सनाथ होती है - कुलं पवित्र जननी च धन्या वसुंधरा भागवती च धन्या । स्वर्गेपि तेषां पितरश्च धन्या येषां कुलेवैष्णवनामधेयम् ॥ ७० ॥

नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनाक्रेयीदिभदः ।

तेषु भक्तेषु जातिः जन्म, विद्या वेदादिपाठः, रूप सौन्दर्य, कुलं धनं क्रियादीनां भेदः न भवति ।
** पदार्थ** —( तेषु ) उन भक्तों (जातिविद्यारू कुलधन क्रपादिभेदः ) जन्म, विद्या, रूप, कुल, धर्म, कर्म आदिका भेद ( न ) नहीं ( अस्ति) है ।

** भाषार्थ** — ब्राह्मण वा शुद्र, चाण्डाल वा लेमच्छ, मनुष्य वा

पशु जो भी जीव भक्तियुक्त होकर भगवान् शरणागत होगा, भक्तवत्सल भगवान् उसकी जाति विद्यादिशी मोरको दृष्टि न देकर दर्शन देंगे,क्योंकि उनकी तो प्रतिज्ञा है, कि - “यो मद्भक्तः स मे प्रियः” तथा भक्त भी परस्पर जाति विद्या आदिका गौरव लाघव नहीं रखते हैं, क्योंकि— भगवत्प्रेमीका लक्षण ही यह है, कि -न यस्य जन्मकर्मभ्यां वर्णाश्रमं नातिभिः । सज्जतेऽस्मिन्नह भावो देहे वै स हरेः प्रियः । अर्थात् जिसको इस शरीर में जन्म, कर्म, वर्ण, आश्रम और जाति आदिका अहंकार नहीं होता वही भगवान् का प्यारा भक्त है ७२

यतस्तदीयाः ॥ ७३ ॥

यतो हेतोः ते तदीयाः ।
** पदार्थ** — ( यतः ) क्योंकि ( तदीयाः ) उनके है \।

** भाषार्थ** — जब तुम उनके हो और वह भी उनके हैं तथा जव तुम्हांरी और उनकी एकावस्था विना हुए दोनोको वह अपना करते ही नहीं और जब वह दोनों के हृदयमें समानभावसे विराजमान हैं, तब दोनो में भेद कैसा ?

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दशम अनुवाक

वादो नावलम्ब्यः ॥ ७४ ॥

वादः प्रतिकूल तर्कः नावलग्व्यः न स्वीकर्तव्यः ।

** पदार्थ** — ( वादः ) शुष्क तर्क ( न ) नहीं ( अवलम्व्यः) स्वीकार करे ।

** भाषार्थ** —

भक्तिमार्ग में वाद कहिये शुष्क तर्कको सर्वथा त्याग देय जिसका प्रत्यक्ष वा अनुमान नहीं होता उसमें तर्क करना निष्प्रयोजन है, विश्वासकी दृढता के लिये कहीं २ सत् तर्क करलेय परन्तु प्रतिकूल तर्फ तो करै ही नहीं, क्योंकि तर्क वितर्क, वाद विवाद करने से मनमें दूसरे को जीतनेका दुराग्रह होता है और साथ २ तमोगुण का उदय होजाता है, तमोगुण भक्तिका वाधक है, इसलिये वाद विवादको त्यागदेय ॥ ७४ ॥

बाहुल्यावकाशवत्वादनियतत्वात् ॥ ७५ ॥

वादे बहुलतया अवकाशः समयापव्ययो भवति तत्र भगवत्प्राप्ति नियमोऽपि नास्ति यतः स त्याज्यः ।

पदार्थ —

( बाहुल्यावकाशवत्वात् ) अधिक अवकाशवाला होनेसे ( नियतत्वांत ) नियमरहित होनेसे ।

भाषार्थ —

भगवत्तत्त्वको जाननेके लिये वाद विवाद करना नितांत निरर्थक है । तुम चाहे जितना वाद विवाद करो, चाहे जितनी शास्त्रीय चतुराई दिखायो, चाहे जितना कूटतकोंका जाल फैलाओ, तुम्हारी बुद्धि भगवान्को नहीं पावैगी “यतो वाचो निवर्त्तन्ते अप्राप्य मनसा सह” मन उसको न पाकर वाणकि सहित लौट

जाता है । व्यासजीने कहा है " तर्काप्रतिष्ठानात् " । वह तो मन और बुद्धिका अगोचर है ’ नेति नेति वाक्योंके द्वारा वेदान्त ने उसका वर्णन करनेकी चेष्टा की है, तुम्हारा वृथा वादविवाद उस राज्यकाक्या समाचार पासकता है ? एकमात्र भक्तिसे ही जिसको पायाजाता है " भक्तया मेकया ग्रहाः, भक्तया त्वनन्यया लभ्यः " उसको पानेके लिये वादविवादको छोडदो, केवल उसका विश्वास करो \।\। ७५ ॥

भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदर्द्धककर्माण्यपि करणीयानि ॥ ७६ ॥

भक्तिशास्त्राणि भक्तिनतिपादकानि ग्रंथानि मनर्नायानि विचाररणीयानि, तर्द्धकानि भक्तिवर्द्धकानि कर्माणि अपि करणीयानि

** पदार्थ** —

(भक्तिशास्त्राणि) भक्तिशास्त्रको (मननयानि) विचारै (तद्वरुकर्माणि) भक्ति को बढ़ानेवाले कर्म ( करीयानि) करे ।

** भाषार्थ**—

वाद विवादको छोडकर केवल सिद्धांत स्वरूप भक्तिशास्त्र में जो कुछ लिखा है उसका विचार करै । आचार्य और भक्तों के सिद्धांत वाक्योंके गूढ तत्त्वों को समझें, और भक्तिको वढानेके लिये सत्संग, तीर्थयात्रा, मगवत्कथाओं का श्रवण, भक्तोंके साथ सम्भाषण, भगवत्सेवा और गुरुशुश्रूषा आदि कार्य करें तो

भक्ति बरावर वढती रहेगी ॥ ७६ ॥

सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपि व्यर्थ न नेयम् ॥ ७७ ॥

** पदार्थ** —

( सुखदुःखेच्छानाभादित्यक्ते ) सुख, दुःख इच्छा, लाभादिशुन्य (फाले प्रतीक्ष्यमाणे ) फालकी प्रतीक्षी करते हुए (क्षणार्द्धम् पपि) प्राधा क्षणभी (न) नहीं (नेतम् ) बिताना चाहिये,

** भाषार्थ**—

मनुष्यजीवनका समय है ही घोड़ासा, फिर उस बहुतसा भाग, विवश होकर प्रकृति के नियमानुसार बालकपन शयन आदिमें विनाना पड़ता है, कभी दुःखों, कमी सुखमें और कभी विपयचितवनमें समय बीत जाता है, यदि भाग्यवश कभी वासनाओंका क्षय होकर तुम्हैसुखदुःखादिसे रहित समय मिलजाय तो उससे आधा क्षण भी व्यर्थ नहीं खोना चाहिये, उसमें परमपुरुषार्थरूप परमप्रेमका मनुसंधान करना चाहिये ॥ ७७ ॥

अहिंसा सत्यशौ च दयास्तिक्यादिचारित्राणि परिपालनीयानि ॥ ७८ ॥

पदार्थ

( हिंसासत्यशौचदद्यास्तित्यादिचारित्राणि ) - हिंसा, सत्य, शौच, दया, मास्तिकता यादि यांचार ( परिपालनीयानि ) पालन करने चाहियें । .

** भाषार्थ** —

चित्तफी मलिनताको दूर करनेके लिये और सत्त्वगुणका उदय होनेके लिये अहिंसा, सत्य, शौच, दया और वास्तिकता आदि यम नियमोंका आचरण यथाशक्ति करे ॥७८॥

सर्वदा सर्वभावेन निचिंतितैर्भगवानेव भजनीयः।

** पदार्थ** —

(सर्वदा ) सब कालमें ( सर्वभावेन ) सब भावसे (निश्चिंतितैः) निश्चिन्तरूपप्ते ( भगवान् एव ) भगवान् ही ( भजनीयः ) सेवा करने योग्य हैं।

** भाषार्थ** —

अबसिद्धांतवाक्य कहते हैं, कि तुम प्रतिदिन सकलकार्यों में उठते, बैठते, खाते, पीते सदा भगवान् की सत्ताकोदेखो, भगवद्धवना के समय संसारकी सब

चिंताओं को छोडदो, क्योंकि संसारकी मलिन चिन्ता मध्यमें भगवद्भक्तिका पूरा २ प्रकाश नहीं होता, भक्ति ठीक न होनेसे भजनमें मी अडचन रहती है ।

संकीर्त्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवत्यनुभावयति भक्तान् ॥ ८ ॥

** पदार्थ** —( समान ) कीर्तन कियाजाता हुआ ( शीघ्रम एव ) शीघ्र ही (याविर्भवति ) प्रकट होता है ( भक्तान् ) भक्तों का ( अनुभावयति ) अनुभवयुक्त करता है ।

** भाषार्थ** — भगवान् ने कहा है–’ नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां

हृदये’ न च । मद्भुक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ॥” जहां मेरे भक्त मेरे नाम गुण आदिका कीर्तन करते हैं, मैं तहां ही नित्य विराजमान रहवा हूं । श्रीभगवान्का कीर्त्तन वडामारी साधन है, वह दुष्ट घोडेकी समान चंचल मनको रोकने के लिये लगाम है । मनको लय विक्षेप घ्यादिरहित अवस्था में समाधिके योग्य करने का उपाय फीर्त्तन ही है । श्रवण और स्मरण कीर्तन के पङ्ग हैं, कीर्तन, दशामें श्रवण और स्मरण आप ही होते हैं कीर्त्तन की वडीभारी महिमा है, फीर्तन होनेपर भगवान् शीघ्र ही भक्त हृदयमें प्रकट होजाते हैं, और भक्तों को मनचाहे रूपका दर्शन देते हैं ॥८०॥

त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी भक्तिरेव गरीयसी ८९

** पदार्थ** —

(त्रिसत्यस्य ) त्रिकालमै सत्स्वरूप भगवानूकी (भक्तिः एव ) भक्ति ही ( गरीयसी ) सबसे श्रेष्ठ है ( भक्तिः–एव) भक्ति ही ( गरीयसी ) सनसे श्रेष्ठ है ।

** भाषार्थ**—

भगवान्को पाने के शास्त्रमें जितने साधन कहे हैं, उनमें एकभक्ति ही सबसे सुगम और श्रेष्ठ उपाय है । क्योंकि–‘भक्ति- प्रियो माधवः’ अन्य साधन वडी कठिनतासे हो सकते हैं तथा उनमें सर्वसाधारणका अधिकार भी नहीं है । परन्तु भक्ति ऐसा साधन कि—केवल दीनभाव के प्रवेशमें भगवान्को पुकारने पर ही

भक्तवत्सल भगवान् तुम्हारे हृदय में उदित होजायेंगे \। जो सिद्धि युगयुगान्त योगसाधना करनेसे नहीं होती वह भक्ति साधना से क्षणभर में हो सकती है । योगराज्यमें जो वाणी और मनके पार है, वहीं मतिराज्यमें हृदयकी तय २ में गुथा और जडाहुधा है, इसीसे नारदजी कहते हैं, मिक्सेि श्रेष्ठ और कोई साधन नहीं है ८१

गुणमाहात्म्यासक्तिरूपासक्तिपूजासक्तिस्मरणासक्तिदास्यासक्तिसख्यासक्तिकान्तासक्तिवात्सल्यासच्यात्मनिवेदनासक्तितन्मयासक्तिपरमविरहासक्तिरूपैकधाप्येकादधा भवति ॥ ८२ ॥

** पदार्थ**—

(एकधा - पपि) एक प्रकार की मी ( गुणमाहात्या सातरूपासक्तिपूजासक्तिस्मरणासक्तिदास्यासक्तिसख्यासक्ति-वात्सल्यासक्तयात्मनिवेदनासातितन्मयासक्तिपरमविरहासी क्तरूपा) गुणमाहात्म्यासक्ति, रूपासक्ति, पूजासक्ति, स्मरणासकि, दास्यासक्ति, संख्यासक्ति, कांतासक्ति, वात्सल्यासक्ति आत्मनिवेदनासक्ति, तन्मयतासक्ति, और परम विहासक्ति रूप ( एकादशधा ) ग्यारह प्रकारकी (भवति) होती है ।

** भावार्थ**— जो जिसको चाहता है वह उसकी सकल चेष्टा और सकल मंगोको चाहता है, तथापि नजाने क्यों कोई२. किसी२ अंग \।

की सुंदरता और किसी२ अंगकी चेष्टाको विशेपरूप से प्रेम करते हैं, ऐसे ही भक्त भगवान्में सब प्रकार से आसक होते हैं, परंतु कोई२ भक्त उनके कीसी२ भाव विशेष व्यासक्त होते हैं । जैसे राजा परीक्षितेन, नारद, हनुमान और हरिगुण सुनने को दश सहस्र कान माँगनेवाले राजा पृथु भगवानके गुणमाहात्मासक्त भक्त, हुए कृष्णके वालरूप से प्रेमी नन्द उपनन्द यशोदा घ्यादि और किशोर रूपकी प्रेमिका लगदेवि पशु पक्षी आदि रूपात मक्त थे । राजा पृथु पूजासक्त, प्रह्लाद स्मरणासक्त, हनुमान् अक्रूर विदुर पाहि दाहयासक्त, अर्जुन सुग्रीव उद्धष कुवेर सुत्रल्ल श्रीदामादि सख्यासक्त, व्रजगोपिकाएं कान्तासक्त, नन्द यशोदा कौशल्या दशरथ आदि वात्सल्यासक्त, राजा वान्ने ध्यात्मनिवेदनासक्त, औौण्डिन्य शुरूदेव आदि महायोगी अभेदभाव से तन्मयता सक्त, श्रीकृष्ण के वैकुण्ठको पधारने पर गोपी और उद्धव आदि परमविरहासक्त भक्त कहलाये हैं

इत्येवं वदंति जनजल्पनिर्भया एकमताः कुमारव्यास शुकशाण्डिल्य गर्गविष्णुकौण्डिन्यशेषोद्रवारुणिव लिहडमाद्विभीषणादयो भक्त्याचार्याः ॥ ८३ ॥

पदार्थ — ( इति ) इस भक्ति के स्वरूपको ( एवम् ) इसप्रकार -

( जनजल्प निर्भयाः ) लोकहास्य से निर्भय हुए ( एकमताः ) एक है मत जिनका ऐसे ( कुमारव्यास शुरुशांडिल्यगर्ग विष्णु कौण्डिन्यशेषोद्धवारुणिवन्निहनुमद्विभीषणादयः ) सनत्कुमार, व्यासजी, शुरुदेव, शाण्डिल्य, गर्ग, विष्णु, कौण्डिन्य, शेप, उद्धव, आरुणि, बलि,
हनुमान्, विभीषण आदि ( भक्त्याचार्याः ) मंकित के प्राचार्य ( वदन्ति ) कहते हैं ।

भाषार्थ — लोकोंकीवशवादका कुछ भय न करके सनत्कुमार वेदव्यास, देवी, शांडिल्य, गर्गाचार्य, विष्णुस्वामी, कौण्डिन्य, शेष, उद्धव, आरुणि, वलि, हनुमानजी, गौर विभषिणआदि भक्तिके सव आचार्योंने एकमत होकर एकवाक्यसे भक्ति स्वरूपका इसप्रकार वर्णन किया है, उनसे मत और व्याख्या के अनुसार नारद जीके मन्त्रिको चाहे कोई उपहास्यकी दृष्टिसे देखै, परन्तु वह उससे भयभीत नहीं हैं, इसीकार साहस के साथ ऊपरको भुजा उठाकर सव मनुष्यों से कहते हैं, कि हे जावो ! यदि अपना २ कल्याण चाहते हो तो भक्तिमार्ग पथिक बनो ॥ ८३ ॥

य इदं नारदमोकं शिवानुशासनं विश्वसिति श्रद्धते स भक्तिमान् भवति स प्रेष्ठं - लभते इति

पदार्थ — (यः ) जो (इदम्) इस (नारदप्रोक्तम् ) नारद -

जीके यहे ( शिवानुशानम् ) शिवोपदेशको ( विश्वसिति ) विश्वास करता है ( श्रद्धत्ते ) श्रद्धा करता है ( सः ) वह ( भक्तिमान् ) भक्तिवाला (भवति) होता है ( स ) वह ( प्रेष्ठम् ) प्रियतमको ( लभते ) पाता है (इति) भक्तिसूत्र समाप्त हुए ।

** भाषार्थ** — भक्तिकी व्याख्या करके अवफल कहते है, कि -

यद्यपि और साधनों से भगवान्को ब्रह्मा, विष्णु, शिव, नारायण यादि रूपमें पासकते हो, परन्तु भक्ति की साधनाको विना परमप्यारे रूपसे उसको नहीं पासकते । जो इन नारदजी के सूत्रों पर विश्वास और श्रद्धा करके मक्तिमार्ग में चलेंगे, बह प्रियतमरूपमें भगवान्का दर्शन पावेंगे, श्रुतिने भी भगवान् के प्रियतमरूपका वर्णन किया है-” प्रेयो वित्तात्प्रेयः पुत्रात्प्रेयोऽन्यस्मात् सर्वस्मादन्तरतरं तदयमात्मा । ” आत्मा ( भगवान् ) धनसे, पुत्रसे तथा और सफल प्रियवस्तुओं से भी अधिक प्रिय हैं ॥ ८४ ॥

इतिश्री सुरादाबादनिवासि भारद्वाज गोत्र - गौढवंश्य- प० भोलानाथात्मन
ऋषिकुमारोपनाम - सनातन धर्म पताका संपादक रामस्वरूपशर्माकृत
पदार्थ भाषार्थसहित नारदभक्तिसूत्र समाप्त

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