श्रीगोविन्ददामोदरस्तोत्र

[[श्रीगोविन्ददामोदरस्तोत्र Source: EB]]

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मुद्रक तथा प्रकाशक–
घनश्यामदास जालान
गीताप्रेस, गोरखपुर

मूल्य एक आना

सं. १९९२ प्रथम संस्करण ३२५०
सं.१९९३ द्वितीय,संस्करण ४०००

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ॐ श्रीहरिःॐ
श्रीबिल्वमङ्गलाचार्यविरचितं

गोविन्ददामोदरस्तोत्रम्
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( १)

अग्रे कुरूणामथ पाण्डवानां
दुःशासनेनाहृतवस्त्रकेशा।
कृष्णा तदाक्रोशदनन्यनाथा
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( २)

श्रीकृष्ण विष्णो मधुकैटभारे
भक्तानुकम्पिन्‌ भगवन्‌ मुरारे ।
त्रायस्व मां केशव लोकनाथ
गोविन्ददामोदर माधवेति ॥

( ३ )

विक्रेतुकामाखिरगोपकन्या
मुरारिपादार्पितचित्तवृत्तिः ।
दध्यादिकं मोहवशादवोचद्‌
गोविन्द दामोदरः माधवेति ॥

( ४)

उलूखले सम्भृततण्डुलांश्च
संघट्टयन्त्योमुशलेः प्रमुग्धाः।
गायन्ति गाप्यो जनितानुरागा
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

ॐश्रीहरिःॐ
श्रीबिल्वमङ्गलाचार्यविरचित
गोविन्द-दामोदर-स्तोत्र
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( १ )

[जिस समय ]कौरव ओर पाण्डवोंकेसामने भरी सभामे दुःशासनने द्रौपदीके वस्त्रऔर बालोंको पकडकर खींचा उस समय, जिसका कोई दूसरा नाथ नहीं है ऐसी द्रोपदीने रोकर पुकारा-‘ हेगोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’

(२)

हे श्रीकृष्ण ! हे विष्णो! हे मधुकैटभकोमारनेवाले ! हे भक्तोंके ऊपर अनुकम्पा करनेवाले ! हे भगवन्‌ ! हे मुरारे ! हे केशव ! हे लोकेश्वर ! हे गोविन्द ! है दामोदर ! हे माधव! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो ।”

( ३)

जिनकी चित्तवृत्ति मुरारिके चरणकमलोंमें लगी हुई है वे सभी गोपकन्याएँ दूध-दही बेचनेकी इच्छसे धरते चलीं। उनका मन तो मुरारिके पास था; अतः प्रेमवश सुध-बुध भूल जानेके कारण “दही लो दही” इसके स्थानमें जोर-जोरसे “गोविन्द ! दामोदर ! माधव !’ आदि पुकारने लगी।

( ४)

ओखलीमेंधान भरे हुए हैं,उन्हें मुग्धा गोपरमणियाँ मूसलोंसे कूट रही हैं, और कूटते-कूटते कृष्णप्रेममें विभोर होकर “ गोविन्द ! दामोदर ! माधव !” इस प्रकार गायन करती जाती हैं।

( ५ )

काचित्कराम्भोजपुटे निषण्णं
क्रीडाशुकं किंशुकरक्ततुण्डम्‌।
अध्यापयामास सरोरुहाक्षी
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

(६ )

गृहे गृहे गोपवधूसमूहः
प्रतिक्षणं पिञ्जरसारिकाणाम्‌।
स्खलद्‌गिरं वाचयितुं प्रवृत्तो
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

( ७ )

पर्य्यङ्किकाभाजमलंकुमारं
प्रखापयन्त्योऽखिलगोपकन्याः।
जगुःप्रबन्धं स्वरतालबन्धं
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

( ८ )

रामानुजं वीक्षणकेलिलोलं
गोपी गृहीत्वा नवनीतगोलम्‌।
आबालकं बालकमाजुहाव
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

(९ )

विचित्रवर्णाभरणाभिरामे-
ऽभिधेहिवक्‍त्राम्बुजराजहंसि।
सदामदीये रसनेऽग्ररङ्गे
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

( ५)

कोई कमलनयनी बाला मनोविनोदके लिये पालेहुए अपने करकमलपर बैठे किशुककुसुमके समान रक्तवर्णचोंचवाले सुग्गेको पढ़ा रही थी—पढ़ोतो तोता ! ‘गोविन्द ! दामोदर ! माधव !’

( ६ )

प्रत्येक घरमें समूह-की-समूह गोपाङ्गनाएँ पींजरोंमें पाली हुईअपनी मैनाओंसे उनकी लड़खड़ाती हुई वाणीकोक्षण-क्षणमें ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’इत्यादि रूपसे कहलानेमें लगी रहती थीं।

( ७)

पालनेमें पौढ़े हुए अपने नन्हेंबच्चेकोसुलाती हुईसभी गोपकन्याएँताल-स्वरके साथ ‘गोविन्द ! दामोदर ! माघव’इस पदको ही गाती जाती थीं।

( ८ )

हाथमें माखनकागोला लेकर मैया यशोदाने आँखमिचौनीकी क्रीडामें व्यस्त बलरामके छोटे भाई कृष्णको बालकोंके बीचसे पकड़कर पुकारा—‘अरे गोविन्द ! अरे दामोदर ! अरे माधव !’

( ९ )

विचित्र वर्णमय आभरणोंसे अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होनेवालीहेमुखकमलकी राजहंसीरूपिणी मेरी रसने ! तू सर्वप्रथम ‘गोविन्द ! दामोदर ! माधवः’ इस ध्वनिका ही विस्तार कर।

( १० )

अङ्काधिरूढं शिशुगोपगूढं
स्तनं धयन्तं कमलैककान्तम्।
सम्बोधयामास मुदा यशोदा
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

( ११ )

क्रीडन्तमन्तर्व्रजमात्मजं स्वं
समं वयस्यैः पशुपालबालैः।
प्रेम्णा यशोदा प्रजुहाव कृष्णं
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

( १२ )

यशोदयागाढमुलूखलेन
गोकण्ठपाशेन निबध्यमानः।
रुरोद मन्दं नवनीतभोजी
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

( १३ )

निजाङ्गने कङ्कणकेलिलोलं
गोपी गृहीत्वा नवनीतगोलम्‌।
आमर्दयत्पाणितलेन नेत्रे
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

( १४ )

गृहे गृहे गोपवधूकदम्बाः
सर्वेमिलित्वा समवाययोगे।
पुण्यानि नामानि पठन्ति नित्यं
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

( १० )

अपनी गोदमें बैठकर दूध पीते हुए बालगोपालरूपधारी भगवान्‌ लक्ष्मीकान्तको लक्ष्य करके प्रेमानन्दमेंमग्नहुई यशोदामैया इस प्रकार बुलाया करती थीं—‘ऐ मेरे गोविन्द ! ऐमेरे दामोदर ! ऐ मरे माधव ! ज़रा बोलो तो सही?’

( ११ )

अपने समवयस्क गोपबालकोंके साथ गोष्ठमें खेलते हुए अपने प्यारे पुत्र कृष्णको यशोदामैयाने अत्यन्त स्नेहके साथ पुकारा—‘अरे ओ गोविन्द ! ओ दामोदर ! अरे माधव ! [कहाँ चला गया?]'

( १२ )

अधिक चपलता करनेके कारण यशोदामैयाने गौ बँधनेकी रस्सीसे खूब कसकर ओखलीमें उन घनश्यामकों बाँध दिया, तब तो वे माखनभोगी कृष्ण धीरे-धीरे [आँखेंमलते हुए ] सिसक-सिसककर
‘गोविन्द ! दामोदर ! माधव !’कहते हुए रोने लगे।

( १३ )

श्रीनन्दनन्दन अपने ही घरके आँगनमें अपने हाथके कंकणसे खेलनेमें लगे हुए हैं, उसी समय मैयाने धीरेसे जाकर उनके दोनों कमलनयनोंकी अपनी हथेलीसे मूँद लिया तथा दुसरे हाथमे नवनीत- का गोला लेकर प्रमपूर्वक कहने लगी—‘गोविन्द ! दामोदर ! माधव ! [लो देखो, यह माखन खा लो ]।’

( १४)

व्रजके प्रत्येक घरमें गोपाङ्गनाएँएकत्र होनेका अवसर पानेपर झुण्ड-की-झुण्ड आपसमें मिलकर उन मनमोहन माघवके “गोविन्द, दामोदर, माधव” इन पवित्र नामोंको पढ़ा करती है।

१५

मन्दारमूले वदनाभिरामं
विम्वाधरे पूरितवेणुनादम् ।
गोगोपगोपीजनमध्यसंस्थं
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

१६

उत्थाय गोप्योऽपररात्रभागे
स्मृत्वा यशोदा सुतबालकेलिम् ।
गायन्ति प्रोच्चैर्दधि मन्थयन्त्यो
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

१७

जग्धोऽथ दत्तो नवनीतपिण्डो
गृहे यशोदा विचिकित्सायन्ती ।
उवाच सत्यं वद हे मुरारे
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

१८

अभ्यर्च्य गेहं युवतिः प्रवृद्ध -
प्रेमप्रवाहा दधि निर्ममन्थ ।
गायन्ति गोप्योऽथ सखीसमेता
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

१९

क्वचित् प्रभाते दधिपूर्णपात्रे
निक्षिप्य मन्थं युवती मुकुन्दम् ।
आलोक्य गानं विविधं करोति
गोविन्द दामोदर माधवेति

( १५ )

जिनका मुखारविन्द बड़ा ही मनोहर है, जो अपने विभ्बके समान अरुण अधरोंपर रखकर वंशीकी मधुर ध्वनि कर रहे हैं तथा जो कदम्बके तले गौ; गोप और गोपियोंके मध्यमें विराजमान हैं उन भगवान्का ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’इस प्रकार कहते हुए सदा स्मरण करना चाहिये।

( १६ )

व्रजाङ्गनाएँब्राह्ममुहुर्तमें उठकर और उन यशुमतिनन्दनकी बालक्रीड़ाओंकी ब्रातोंकोयाद करके दही मथते-मथते “गोविन्द ! दामोदर ! माधव” इन पदोकों उच्चस्वरसे गाया करती हैं।

( १७ )

[ दधि मथकर माताने माखनका लौंदा रख दिया था। माखनभोगी कृष्णकी दृष्टि पड़ गयी, झट उसे धीरेसे उठा लाये ]कुछ खाया कुछ बाँटदिया। जब ढूँढते-ढूँढते न मिला तो यशोदामैयाने आपपर सन्देह करते हुए पूछा—‘हेमुरारे ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’ ठीक-ठीक बता माखनका लौंदा क्या हुआ ?’

( १८ )

जिसके हृदयमें प्रेमकी बाढ़ आ रही है ऐसी माता यशोदा घरको लीपकर दही मथने लगी। तब और सब गोपाङ्गनाएँतथा सखियाँ मिलकर ‘गोविन्द ! दामोदर ! माधव !’ इस पदका गान करने लगीं।

( १९ )

किसी दिन प्रातःकाल ज्यों ही माता यशोदा दहीभरे भाण्डमें मथानीको छोड़कर उठी त्यों ही उसकी दृष्टि शय्यापर बैठेहुए मनमोहन मुकुन्दपर पड़ी। सरकारको देखते ही वह प्रेमसे पगली हो गयी और ‘मेरा गोविन्द ! मेरा दामोदर ! मेरा माधव !’ऐसा कहकर तरह-तरहसे गाने लगी।

( २० )

क्रीडापरं भोजनमजनार्थं
हितैषिणी स्त्री तनुजं यशोदा।
आजूहवत्‌ प्रेमपरिप्लुताक्षी
गोविन्द दामोदरमाधवेति॥

( २१ )

सुखं शयानंनिलये च विष्णुं
देवषिमुख्या मुनयः प्रपन्नाः।
तेनाच्युते तन्मयतां व्रजन्ति
गोविन्ददामोदर माधवेति॥

( २२ )

विहाय निद्रामरुणोदये च
विधाय कृत्यानि च विप्रमुख्याः।
वेदावसाने प्रपठन्ति नित्यं
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

( २३ )

वृन्दावने गोपगणाश्च गोप्यो
विलोक्य गोविन्दवियोगखिन्नाम्‌।
राधां जगुः साश्रुविलोचनाभ्यां
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

( २४ )

प्रभातसञ्चारगता च गाव-
स्तद्रक्षणार्थंतनयं यशोदा।
प्राबोधयत्‌ पाणितलेन मन्दं
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

( २० )

क्रीडाविहारी मुरारि बालकोंके साथ खेल रहे हैं [ अभीतक न स्नान किया है न भोजन ] अतः प्रेममें विहल हुई माता उन्हें लान ओर भोजनके लिये पुकारने लगी-“अरे ओ गोविन्द ! ओ दामोदर ! ओ माधव ! [ आ बेटा ! आ पानी ठण्डा हो रहा है जल्दीसे नहा ले और कुछ खा ले] ।

( २१ )

नारद आदि ऋषि ’ हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! ’ इस प्रकार प्रार्थना करते हुए घरमे सुखपूर्वक सोये हुए उन पुराणपुरुष बालकृष्णकी शरणमे आये ; अतः उन्होंने श्रीअच्युतमे तन्मयता प्राप्त कर ली।

( २२ )

वेदज्ञ ब्राह्मण प्रातःकाल उठकर और अपने नित्यनैमित्तिक कर्मोको पूर्णकर वेदपाठके अन्तमें नित्य ही गोविन्द ! दामोदर ! माधव !! इन मञ्जुल नामोंका कीर्तन करते हैं \।

( २३)

वृन्दावनमें श्रीवृषभानुकुमारीकों वनवारीके वियोगसे विह्वलदेख गोपगण और गोपियाँ अपने कमलनयनोंसे नीर बहाती हुई “ हा गोबिन्द ! हा दामोदर ! हा माधव ! आदि कहकर पुकारने लगीं।

( २४ )

प्रातःकाल होनेपर जब गोएँ वनमें चरनेचली गयीं तबउनकी रक्षाके लिये यशोदामैया शय्यापर शयन करते हुए बालकृष्ण को मीठी-मीठी थपकियोंसे जगाती हुईं बोलीं–’ बेटागोविन्द ! मुन्ना माधव ! लल्लू दामोदर ! [ उठ; जा गौओंको चरा ला ] ।!

(२५ )

प्रवालशोभा इव दीर्घकेशा
वाताभ्बुपर्णाशनपूतदेहाः ।
मूले तरूणां मुनयः पठन्ति
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( २६ )

एवं ब्रुवाणा विरहातुरा भृशं
व्रजस्त्रियः कृष्णविष्क्तमानसाः।
विसृज्य लज्जां रुरुदुः स्म सुखरं
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( २७ )

गोपी कदाचिन्मणिपिञ्जरस्थं
शुकं वचोवाचयितुं प्रवृत्ता ।
आनन्दकन्द व्रजचन्द्र कृष्ण
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( २८ )

गोवत्सबालेःशिशुकाकपक्षं
बध्नन्तमम्भोजदलायताक्षम्‌ ।
उवाच माता चिबुक गृहीत्वा
गोविन्ददामोदर माधवेति ॥

( २९ )

प्रभातकालेवरवल्लवौघा
गोरक्षणार्थंधृतवेत्रदण्डाः ।
आकारयामासुरनन्तमाद्यं
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( २५ )

केवल वायु, जल ओर पत्तके खानेसे जिनके शरीर पवित्र हो गये हैं, ऐसे प्रवालके समान शोभायमान लम्बी-लम्बी एवं कुछ अरुण रंगकी जटाओंवले मुनिगण पवित्र वृक्षोंकी छायामें विराजमान होकर निरन्तर भोविन्द ! दामोदर ! माधव ! इन नामोका पाठ करते हैं ।

( २६ )

श्रीवनमालीके विरहमें विहल हुईव्रजाङ्गनाएँउनके विषयमें विविध प्रकारकी बातें कहती हुईं लोक लजाको तिलाञ्जलि दे बड़े आर्त्तस्वरसे ( गोविन्द ! दामोदर ! माधव ! कहकर जोर-जोरसे रोने ठगी \।

( २७ )

गोपी श्रीराधिकाजी किसी दिन मणियोंके पिंजड़ेमे पले हुए तोतेसे बार-बार ( आनन्दकन्द ! ब्रजचन्द्र! कष्ण ! गोविन्द ! दामोदर ! माधव ! इन नामोंको बुलवाने लगीं \।

( २८ )

कमलनयन श्रीकृष्णचन्द्रको किसी गोपबरालककी चोटी बछड़ेकी पूँछके बालोंसे बोधते देख मैया प्यारसे उनकी ठोढ़ीकोपकड़कर कहने लगीं–’ मेरा गोविन्द ! मेरा दामोदर ! मेरा माधव !’

( २९ )

प्रातःकाल हुआ, ग्वाल-बालोंकी मित्रमण्डली हाथोंमे वेतकी छड़ी और लाठी ले गौओंको चरानेके लिये निकली । तब वे अपने प्यारे सखा अनन्त आदिपुरुष श्रीकृष्णकों गोविन्द ! दामोदर ! माधव ! कह-कहकर बुलाने लगे ।

( ३० )

जलाशये कालियमर्दनाय
यदा कदम्बादपतन्मुरारिः ।
गोपाङ्गनाश्चुक्रुशुरेत्य गोपा
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( २१ )

अक्रूरमासाद्य यदा मुकुन्द-
श्चापोत्सवार्थंमथुरां प्रविष्टः।
तदा स पौरैर्जयतीत्यभाषि
गोविन्ददामोदर माधवेति ॥

( २२ )

कंसस्य दूतेन यदैव नीतौ
बृन्दावनान्ताद्‌ वसुदेवसूनू ।
रुरोद्‌ गोपी भवनस्य मध्ये
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( २२ )

सरोवरे कालियनागबद्धं
शिशुं यशोदातनयं निशम्य ।
चक्रुर्लुठन्त्यः पथि गोपबाला
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ३४ )

अक्रूरयाने यदुवंशनाथं
संगच्छमानं मथुरां निरीक्ष्य ।
ऊचुर्वियोगात्‌ किल गोपबाला
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ३० )

जिस समय कालियनागका मर्दन करनेके लिये कन्हैया कदम्बके वृक्षसे कूदे, उस समय गोपाङ्गनाएँ और गोपगण वहाँ आकर “ हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माघव ! कहकर बड़े ज़ोरसे रोने लगे ।

( ३१ )

जिस समय श्रीकृष्णचन्द्रने कंसके धनुर्यज्ञोत्सवमे सम्मिलित होने केलिये अक्रूरजीके साथ मथुरामेंंप्रवेश किया) उस समय पुरवासीजन “हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! तुम्हारी जय हो, जय हो” ऐसा कहने लगे \।

( ३२ )

जब कंसके दूत अक्रूरजी वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण और बलरामको वृन्दावनसे दूर ले गये तब अपने घरमे बेठी हुई यशोदाजी ' हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव ! ” कह-कहकर रुदन करने लगीं \।

( ३३)

यशोदानन्दन बालक श्रीकृष्णको कालियहृदमेंकालियनागसे जकड़ा हुआ सुनकर गोपबालाएँ रास्तेमें लोटती हुई’ हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव ! ’ कहकर जोरोंसे रुदन करने लगीं ।

( ३४ )

अक्ररके रथपर चढ़कर मथुरा जाते हुए श्रीकृष्णको देख समस्त गोपबालाएँवियोगके कारण अधीर होकर कहने लगीं—हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव ! [हमें छोड़कर तुम कहाँ जाते हो ]?'

( ३५ )

चक्रन्द गोपी नलिनीवनान्ते
कृष्णेन हीना कुसुमे शयाना ।
प्रफुल्लनी लोत्पललोचनाभ्यां
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ३६ )

मातापितृभ्यां परिवार्यमाणा
गेहं प्रविष्टा बिललाप गोपी ।
आगत्य मां पालय विश्वनाथ \।
गोविन्ददामोदरमाधवेति ॥

( ३७ )

वृन्दावनस्थं हरिमाशु बुद्ध्वा
गोपी गता कापि वनं निशायाम्‌ ।
तत्राष्यदृष्ट्वातिभयादबोचद्‌
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ३८ )

सुखंशयाना निलये निजेऽपि
नामानि विष्णोः प्रवदन्ति मर्त्याः ।
ते निश्चितंतन्मयतां व्रजन्ति
गोविन्ददामोदर माधवेति ॥

( ३९ )

सा नीरजाक्षीमवलोक्य राधां
रुरोद गोविन्दवियोगखिन्नाम्‌ ।
सखी प्रफुल्लोत्पललोचनाभ्यां
गोविन्द्‌ दामोदर माधवेति ॥

( ३५ )

श्रीराधिकाजी श्रीकृष्णके अलग हो जानेपर कमलवनमें कुसुमशय्यापर सोकर अपने विकसित कमलसदृश लोचनोंसे आँसू बहाती हुई ’ हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव !’कहकर क्रन्दन करने लगीं ।

( ३६ )

माता-पिता आदिसे घिरी हुईं श्रीराधिकाजी घरके भीतर प्रवेशकर विलाप करने लगीं कि हेविश्वनाथ ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! है माधव ! तुम आकर मेरी रक्षा करो ! रक्षा करो !”

( ३७ )

रात्रिका समय था , किसी गोपीको भ्रम हो गया कि बृन्दावनविहारी इस समय वनमें विराजमान हें । बस , फिर क्या था, झट उसी ओर चल दी । किन्तु जबउसने निर्जन वनमें वनमालीको न देखा, तो डरसे कॉपती हुई ‘हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव कहने लगी ।

( ३८ )

[ वनमें न भी जायेँ] अपने घरमें ही सुखसे शय्यापर शयन करते हुए भी जो लोग “ हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !” इन विष्णुभगवान् के पवित्र नामोंकी निरन्तर कहते रहते हैं वे निश्चय ही भगवान् की तन्मयता प्राप्त कर लेते हैं \।

(३९ )

कमललोचना राधाको श्रीगोविन्दकी विरहव्यथासे पीडित देख कोई सखी अपने प्रफुल्ल कमलसदृश नयनोंसे नीर बहाती हुईं ‘हे गोविन्द \। हे दामोदर ! हे माघव !’ कहकर रुदन करने लगी ।

( ४० )

जिह्वेरसश्चे मधुरप्रिया त्वं
सत्यं हितं त्वां परमं वदामि।
आवर्णेयेथा मधुराक्षराणि
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ४१ )

आत्यन्तिकव्याधिहरं जनानां
चिकित्सकं वेदविदो वदन्ति \।
संसारतापत्रयनाशबीजं \।
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ४२ )

ताताक्षया गच्छति रामचन्द्रे
सलक्ष्मणेऽरण्यचये ससीते ।
चक्रन्द रामस्य निजा जनित्री
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ४३ )

एकाकिनी दण्डककाननान्तात्‌
सा नीयमाना दशकन्धरेण ।
सीता तदाक्रन्ददनन्यनाथा
गोविन्ददामोदर माधवेति ॥

( ४४ )

रामाद्वियुक्ता जनकात्मजा सा
विचिन्तयन्ती हृदि रामरूपम्‌ ।
रुरोद सीता रघुनाथ पाहि
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥*1

**( ४० ) **

हे रसोंकी चखनेवाली जिह्णे! तुझे मीठी चीज बहुत अधिक प्यारी लगती है, इसलिये मैंतेरे हितकी एक बहुत ही सुन्दर और सच्ची बात बताता हूँ।तू निरन्तर हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! इन मधुर मज्जुल नामोंकी आवृत्ति किया कर ।

( ४१ )

वेदवेत्ता विद्वान्‌ गोविन्द ! दामोदर ! माधव ! इन नामोंको ही लोगोंकी बड़ी - से - बड़ी विकट व्याधिको विच्छेद करनेवाला वैद्य और संसारके आधिभौतिकआधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों तापोंके नाशका बढ़िया बीज बतलाते हैं ।

( ४२ )

अपने पिता दशरथकी आज्ञासे भाई लक्ष्मण और जनकनन्दिनी सीताके साथ श्रीरामचन्द्रजी बीहड़ वनोंके लिये चलने लगे, तब उनकी माता श्रीकौसल्याजी हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! [ हे राम ! हे रघुनन्दन ! हे राघव ।]ऐसा कहकर जोरोंसे विलाप करने लगीं ।

( ४२ )

जब राक्षसराज रावण पञ्चवटीमें जानकीजीको अकेली देख उन्हें हरकर ले जाने लगा तबरामचन्द्रजीके सिवा जिनका दूसरा कोई स्वामी नहीं है ऐसी सीताजी हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव ! [ हे राम ! हे रघुनन्दन ! हे राघव ! ] कहकर जोरसे रुदन करने लगीं ।

( ४४ )

रथमें बिठाकर ले जाते हुए रावणके साथ ,रामवियोगिनी सीता दृदयमें अपने स्वामी श्रीरामचन्द्रजीका ध्यान करती हुईहा रघुनाथ ! हा गोविन्द ! हा दामोदर ! हा माधव ! [हे राम ! हे रघुनन्दन ! हे राघव ! मेरी रक्षा करो ] इस प्रकार रोती हुईजाने लगी।

( ४५ )

प्रसीद विष्णो रघुवंशनाथ
सुरासुराणां सुखदुःखहेतो ।
रुरोद सीता तु समुद्रमध्ये
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ४६ )

अन्तर्जले ग्राहगृहीतपादो
विसृष्टविक्लिष्टसमस्तवन्धुः ।
तदा गजेन्द्रो नितरां जगाद \।
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ४७ )

हंसध्वजः शङ्खयुतो ददर्श
पुत्रं कटाहे प्रतपन्तमेनम्‌ ।
पुण्यानि नामानि हरेर्जपन्तं
गोविन्द्‌ दामोदर माधवेति ॥

( ४८ )

दुर्वाससो वाक्यमुपेत्य कृष्णा
सा चाव्रवीत्‌ काननवासिनीशम्‌ ।
अन्तःप्रविष्टं मनसाजुहाव
गोविन्ददामोदर माधवेति ॥

( ४९ )

ध्येयः सदा योगिभिरप्रमेयः
चिन्ताहरश्चिन्तितपारिजतः।
कस्तुरिकाकल्पितनीलवर्णाो
गोविन्दे दामोदर माधवेति ॥
*2

(४५)

जब रावणके साथ सीताजी समुद्रके मध्यमेंपहुँचीं तब यह कहकर जोर-जोरसे रुदन करने लगीं— विष्णो ! हे रघुकुलकुते ! हे देवताओंको सुख ओर असुरोंकों दुःख देनेवाले ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! [ हे राम ! हे रघुनन्दन ! हे राघव !] प्रसन्न होये; प्रसन्न हो इये। ”

( ४६ )

पानी पीते समय जलके भीतरसे जब ग्राहने गजका पैर पकड़ लिया ओर उसका समस्त दुखी बन्धुओंसे साथ छूट गया तब वह गजराज अधीर होकर अनन्यभावसे निरन्तर हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! ऐसे कहने लगा ।

( ४७ )

अपने पुरोहित शङ्खमुनिके साथ राजा हंसध्वजने अपने पुत्र सुघन्वाको तप्त तैलकीकड़ाहीमें कूदते और " हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! ” इन भगवान् के परमपावन नामोंका जप करते हुए देखा ।

( ४८ )

[ एक दिन द्रौपदीके भोजन कर लेनेपर असमयमें दुर्वासा ऋषिने शिष्योंसहित आकर भोजन माँगा ] तब वनवासिनी द्रौपदीने भोजन देना स्वीकार कर अपने अन्तःकरणमें स्थित श्रीश्यामसुन्दरको हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! **’**कहकर बुलाया ।

( ४९ )

योगी भी जिन्हें ठीक-ठीक नहीं जान पाते , जो सभी प्रकारकी चिन्ताओंको हरनेवालेऔर मनोवांछित वस्तुओंकों देनेके लिये कल्पवृक्षेके समान हैं तथा जिनके शरीरका वर्ण कस्तूरीके समान नीला है उन्हें सदा ही गोविन्द । दामोदर ! माधव ! ’ इन नामोंसे स्मरण करना चाहिये ।

( ५० )

संसारकूपे पतितोऽत्यगाधे
मोहान्धपूर्णेविषयाभितप्ते।
करावलम्बं मम देहि विष्णो
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

( ५१)

त्वामेव याचे मम देहि जिह्ने
समागते दण्डधरे कृतान्ते।
वक्तव्यमेवं मधुरं सुभक्त्या `
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

( ५२)

भजस्व मन्त्रं भवबन्धमुकत्यै
जिह्वेरसज्ञे सुलभंमनोज्ञम्‌ ।
द्वैपायनाद्यैर्मुनिभिःप्रजप्तं
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ५३ )

गोपाल वंशीधर रूपसिन्धो
लोकेश नारायण दीनबन्धो।
उच्चस्वरैस्त्वं वद सर्वदैव
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

( ५४)

जिह्वेसदैवं भज सुन्दराणि
नामानि कृष्णस्य मनोहराणि ।
समस्तभक्तार्तिविनाशनानि
गोविन्ददामोदर माधवेति ॥

( ५० )

जो मोहरूपी अन्धकारसे व्याप्त और विषयोंकी ज्वालासेसन्तप्त है, ऐसे अथाह संसाररूपी कृपमें मैंपड़ा हुआ हूँ । हे मरे मधुसूदन ! गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! मुझे अपने हाथका सहारा दीजिये ।

( ५१ )

हे जिह्णे! मेंतुझीसे एक भिक्षा माँगता हूँ, तू ही मुझे दे । वह यह कि जब दण्डपाणि यमराज इस शरीरका अन्त करने आवें तो बड़े ही प्रेमसे गद्गद स्वरमें ‘हे गोविन्द! हे दामोदर ! हे माधव !” इन मञ्जुल नामोका उच्चारण करती रहना ।

( ५२ )

हे जिह्णे ! हे रसज्ञे ! संसाररूपी बन्धनकों काटनेके लिये तू सवेदा “हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !” इस नामरूपी मन्त्रका जप किया कर, जो सुलभ एवं सुन्दर हैऔर जिसे व्यास, वसिष्ठादि ऋषियोंने भी जपा है \।

( ५२ )

रे जिह्णे! तू निरन्तर गोपाल ! वंशीषर ! रूपसिन्धो ! लोकेश ! नारायण ! दीनबन्धों! गोविन्द ! दामोदर ! माधव ! इन नामोंका उच्च स्वरसेकीर्तन किया कर !

( ५४ )

हे जिह्णे ! तू सदा ही श्रीकृष्णचन्द्रके ‘ गोविन्द ! दामोदर ! माधव !इन मनोहर मज्जुल नामोंको) जो भक्तोंके समस्त सङ्कटोंकी निवृत्ति करनेवाले हैं, भजती रह ।

( ५५ )

गोविन्द गोविन्दहरे मुरारे
गोविन्द गोविन्द मुकुन्द कृष्ण ।
गोविन्दगोविन्द रथाङ्गपाणे
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ५६ )

सुखावसाने त्विदमेव सारं
दुःखावसाने त्विदमेव गेयम्‌ ।
देहावसाने त्विदमेव जाप्यं
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ५७ )

दुर्वारवाक्यं परिगृह्य कृष्णा
मृगीव भीता तु कथं कथञ्चित्‌
सभां प्रविष्टा मनसाजुहाव
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ५८ )

श्रीकृष्ण राधावर गोकुलेश
गोपाल गोवर्धेन नाथ विष्णो।
जिह्वेपिबस्वामृतमेतदेव
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ५९)

श्रीनाथ विश्वेश्वर विश्वमूर्ते
श्रीदेवकीनन्दन दैत्यशत्रो ।
जिह्वेपिवस्वामृतमेतदेव
गोविन्ददामोदर माधवेति॥

( ५५ )

हे जिह्णे! ‘ गोविन्द ! गोविन्द ! हरे! मुरारे ! गोविन्द ! गोविन्द \। मुकुन्द \। कृष्ण ! गोविन्द ! गोविन्द ! रथाङ्गपाणे ! गोविन्द \। दामोदर ! माधव !’–इन नामोंको तू सदा जपती रह ।

( ५६ )

सुखके अन्तमें यही सार है, दुःखके अन्तमें यही जानने योग्य है और शरीरका अन्त हनेके समय भी यही मन्त्र जपने योग्य है, कौन-सा मन्त्र ? यही कि ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! है माधव’ !!

( ५७ )

दुःशासनके दुर्निवार्य वचनोंको स्वीकारकर मृगीके समान भयभीत हुईद्रौपदी किसी-किसी तरह सभामें प्रवेशकर मन-ही-मन “गोविन्द ! दामोदर ! माधव !” इस प्रकार भगवान् का स्मरण करने लगी

( ५८ )

हे जिह्णेतूश्रीकृष्ण ! राधारमण ! ब्रजराज ! गोपाल ! गोवर्धन ! विष्णो ! गोविन्द ! दामोदर ! माधव ! इस नामामृतका निरन्तर पान करती रह ।

( ५९ )

हे जिह्णे! श्रीकृष्ण ! सर्वेश्वर ! श्रीविष्णुस्वरूप ! श्रीदेवकीनन्दन ! असुरनिकन्दन \। गोविन्द ! दामोदर ! माघव ! इस नामामृत- का निरन्तर पान करती रह ।

( ६० )

गोपीपते कंसरिपो मुकुन्द
लक्ष्मीपते केशव वासुदेव ।
जिह्वेपिबस्वामृतमेतदेव
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ६१ )

गोपीजनाह्लादकर व्रजेश
गोचारणारण्यकृतप्रवेश ।
जिह्वेपिबस्वामृतमेतदेव \।
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

**( ६२ ) **

प्राणेश विश्वम्भर कैटभारे
वैकुण्ठ नारायण चक्रपाणे।
जिह्वेपिबस्वामृतमेतदेव
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ६३ )

हरे मुरार मधुसूदनाद्य
श्रीराम सीतावर रावणारे ,
जिह्वेपिबस्वामृतमेतदेव
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ६४ )

श्रीयादवेन्द्राद्विधराम्बुजाक्ष
गोगोपगोपीसुखदानदक्ष ।
जिह्वेपिबस्वामृतमेतदेव
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

(६० )

हे जिह्णे तू “गोपोपते ! कंसरिपो! मुकन्द \। लक्ष्मीपते ! केशव ! वासुदेव ! गोविन्द ! दामोदर ! माधव ! इस नामामृतका निरन्तर पान करती रह।

( ६१ )

जो व्रजराज ब्रजाङ्गनाओंको आनन्दित करनेवाले हैं, जिन्होंने गोओंको चरानेके लिये वनमें प्रवेश किया है; हे जिह्णे ! तू उन्हीं मुरारिके गोविन्द ! दामोदर ! माधव !–इस नामामृतका निरन्तर पान करती रह \।

( ६२ )

हे जिह्णे ! तू ’ प्राणेश \। विश्वम्भर ! कैटभारे ! वेकुण्ठ ! नारायण ! चक्रपाणे ! गोविन्द ! दामोदर ! माधव इस नामामृतकरा निरन्तर पान करती रह ।

( ६३)

हे हरे ! हे मुरारे ! हे मधुसूदन ! हे पुराणपुरुषोत्तम ! हे रावणारे ! हे सीतापते श्रीराम ! गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! ‘–इस नामामृतका हे जिह्णे \। तू निरन्तर पान करती रह ।

( ६४ )

हे जिह्णे ! तू श्रीयदुकुलनाथ ! गिरिधर ! कमलनयन ! गो‚गोप और गोपियोंको सुख देनेमें कुशल । श्रीगोविन्द ! दामोदर ! माधव ! - इस नामामृतका निरन्तर पान करती रह ।

( ६५ )

धराभरोत्तारणगोपवेष
विहारलीलाकृतबन्धुशेष ।
जह्वेपिबस्वामृतमेतदेव
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ६६ )

बकीबकाघासुरधेनुकारे
केशीतृणावर्तविघातवक्ष ।
जिह्वेपिबस्वामृतमेतदेव
गोविन्ददामोदर माधवेति ॥

( ६७ )

श्रीजानकीजीवन रामचन्द्र
निशाचरारे भरताग्रजेश ।
जिह्वेपिबस्वामृतमेतदेव
गोविन्ददामोदर माधवेति ॥

( ६८ )

नारायणानन्त हरे नृसिंह
प्रह्लदबाधाहर हे कृपालो ।
जिह्वेपिबस्वामृतमेतदेव
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ६९ )

लीलामनुष्यारकृतिरामरूप
प्रतापदासीकृतसर्वभूप ।
जिह्वेपिबस्वामृतमेतदेव
गोविन्द दामोदर माधवेति ॥

( ६५ )

जिन्होंने पृथ्वीका भार उतारनेके लिये सुन्दर ग्वालका रूप धारण किया है ओर आनन्दमयी लीला करनेके निमित्त ही शेषजीको अपना भाई बनाया है,ऐसे उन नटनागरके “गोविन्द ! दामोदर । माधव !”–इस नामामृतका है जिह्णे ! तू निरन्तर पान करती रह ।

( ६६ )

जो पूतना; बकासुर, अघासुर और धेनुकासुर आदि राक्षसोंके शत्रु हैं और केशी तथा तृणावर्तको पछाड़नेवाले हैं, हे जिह्णे ! उन असुरारि मुरारिके “गोविन्द! दामोदर ! माधव !”–इस नामामृतका तू निरन्तर पान करती रह ।

( ६७ )

हे जानकीजीवन भगवान्‌ राम ! हे दैत्यदलन भरताग्रज ! हे ईश ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !!–इस नामामृतका तू जिह्णे ! तू निरन्तर पान करती रह।

( ६८ )

हे प्रह्लादकी बाधा हरनेवके दयामय “नृसिह ! नारायण ! अनन्त \। हरे ! गोविन्द ! दामोदर! माधव ! –इस नामामृतका हे जिह्णे! तू निरन्तर पान करती रह ।

( ६९ )

हे जिह्वे\। जिन्होंने लीलाहीसे मनुष्योंकीसी आकृति बनाकर, रामरूप प्रकट किया है ओर अपने प्रबल पराक्रमसे सभी भूपोंकोदास बना लिया है, तू उन नीलाम्बुज श्यामसुन्दर श्रीरामके गोविन्द । दामोदर ! माधव !–इस नामामृतका ही निरन्तर पान करती रह \।

गोविन्द-दामोदर-स्तोत्र

( ७० )

श्रीकृष्ण गोविन्द्हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव।
जिह्वेपिबस्वामृतमेतदेव
गोविन्द दामोदर माधवेति॥

( ७१ )

वक्तुं समर्थोऽपि न वक्ति कश्चि-
दहो जनानां व्यसनाभिमुख्यम्‌।
जिह्वेपिस्वामृतमेतदेव
गोविन्ददामोदर माधवेति ॥

इति श्रीबिल्वमङ्गलाचार्यविरचितं श्रीगोविन्ददामोदरस्तोत्रं

सम्पूर्णम्‌।

गोविन्द-दामोदर-स्तोत्र

( ७० )

हे जिह्णे! तूश्रीकृष्ण ! गोविन्द्‌ ! हरे ! मुरारे ! हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव ! तथा गोविन्द ! दामोदर ! माधव !–इस नामामृतका ही निरन्तर प्रेमपूर्वकपान करती रह ।

( ७१ )

अहो ! मनुष्योंकी विषयलोलुपता केसी आश्चर्यजनक है! कोई - कोई तो बोलनेमें समर्थहोनेपर भी भगवन्नामका उच्चारण नहीं करते; किन्तु हे जिह्वे! मैंतुझसे कहता हूँ, तू “गोविन्द ! दामोदर ! माधव ! –इस नामामृतका ही निरन्तर प्रेमपूर्वक पान करती रह।

इस प्रकार यह श्रीबिल्वमङ्गलाचार्यका बनाया हुआ गोविन्द-दामोदर-
स्तोत्र समाप्त हुआ ।

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श्रीहनुमानप्रसाद पोद्दारकी पुस्तकें

बिनय-पत्रिका-(सचित्र) तुलसीदासजीके ग्रन्थकी टीका

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मानव-धर्म-धर्मकेदश लक्षण सरल भाषामें समझाये हैं

साधन-पथ-(सचित्र) साधन-पथके विघ्नो निवारणके उपायों तथा सहायक साधनोंका वर्णन कियागया है \। पृष्ठ ७२

भजन-संग्रह-भाग ५ बॉ (पत्र-पुष्प)सचित्र सुन्दर पद्मपुष्पोंका संग्रह

स्री-धर्म-प्रश्नोतरी-(सचित्र)स्त्रीशिक्षाकी पुस्तक है,६५० ०० छपी है

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गोपी-प्रेम-(तुलूसी दलसे) प्रचारार्थ अलग छापा है; सचित्र पृष्ठ ५०,

मनको वश करनेके कुछउपाय-सचित्र

ब्रह्मचर्य -ब्रह्मचार्यकी रक्षाके अनेक सरल उपाय बताये गये हैं।

समाज-सुधार-समाजके जटिल प्रश्नोंपर विचार, सुधारकेसाधन

**वर्तमान शिक्षा-**बच्चों को कैसी शिक्षा किस प्रकार दी जाय ! पृष्ठ ४५,

नारदभक्तिसूत्र-सटीक दिव्य सन्देश-भगवत्प्राप्तिके उपाय ।

पता-गीताप्रेस, गोरखपुर

गीताप्रेसकी कुछ संस्कृत पुस्तकें–

श्रीमद्भगवद्गीता [श्रीशांकरभाष्यका सरल हिन्दी अनुवाद] इसमे मृल भाष्य तथा भाष्यके सामने ही अर्थ लिखा है स्मृति, इतिहासोमे उद्धृतप्रमाणीका अर्थ दिया गया है। पृष्ठ५१९ ,३ चित्र, साधारण जिल्द २॥) बढ़िया जिल्द२॥)

श्रीमद्भगवद्गीता मूलपदच्छेद, अन्वयः साधारणभाषा टीकाटिप्पणी, प्रधान और सूक्ष्मविषयएवं त्यागसे.भगवत्प्रात्पिसहित , मोटाटाइप. सजिल्द, चित्र ४ पृ. ५७०

श्रीमद्भगवद्गीता- प्रायःसभी विषय १ ) वालीकसमान& विशेषता यह हैं कि श्लोकोके सिरपरभावार्थछपा हुआ है… साइज और टाइप कुछ छोटे.पृष्ट४६८

श्रीमद्भगवद्गीता मूल. मोटे अक्षरवाली

श्रीमद्भगवद्गीता साधारण भाषाटीका. पाकेट साइज, सभी विषय ॥) वालीकेसमान, पृष्ठ२५२)

गृह्याग्निकर्मप्रयोगमाला-हिन्दी सहित, प्रष्ठ १८२

पञ्चरत्न गीता -सचित्र पृष्ठा३२८. मजिल्द

श्रीकृष्ण-विज्ञानश्रीमद्भगवद्गीता का मूल्यसहितहिन्दी पद्यानुवाद ) २ चित्र पृष्ठा२७५ मोटा कागज

विष्णुसहस्रनाम शङ्करभाष्यहिन्दी टीकासहित ,सचित्र ; भाष्य केसामने हीउसका अर्थ छापा गया है। पृष्ठ २७५, ॥

सूक्ति-सुधाकर-सचित्र ; पृष्ठ २७६

श्रुतिरत्नवली (लेखक स्वामीजी श्रीभोलेवाबाजी , एक पेज मे मूल श्रुतियाँ और उसके सामने केपेजमे उनके अर्थ है,प्रष्ठ २८४॥)

स्तोत्ररत्नावली- हिन्दीअनुवादसहित सचित्र

मनुस्मृति - द्वितीय अध्याय साथ

विष्णुसहस्रनाम-मूल मूल्य॥ सजिल्द

शारीरकमीमांसादर्शनप्रश्नोत्तरी-सटीक

सन्ध्या(हिन्दीविधिसहित )॥**पातञ्जलयोगदर्शन—**मूल

(बलिवैश्वदेवविधि)॥सप्तश्लोकी गीता

संस्कृतकी कुछ सानुवाद पुस्तकें–

श्रीविष्णुपुराण-सटीक, बड़ा आकार,पृ ५५०, चित्र ८, मूल्य साधारण जिल्द २॥, कपड़ेकी जिल्द्
अध्यात्मरामायण-सटीक, बडा आकार, पृ ४०२, चित्र
मूल्य साधारण जिल्द १॥, कपडेकी जिल्द
एकादश स्कन्ध सटीक, सचित्र,पृ. ४२०, मू॥) मजिल्द
ईशावास्योपनिषद्‌-सानुवाद शाङ्करभाष्यसहित, सचित्र पृ०
**केनोपनिषद्‌-**सानुवाद शाङ्करभाष्यसहित, चित्र, पृ० १५६
कठोपनिषद्‌-सानुवाद शाङ्करभाष्यसहित, सचित्र, पृ १७२
मुण्डकोपनिषद्‌-सानुवाद शाङ्करभाष्यसहित,सचित्र, पृ १३२
**प्रश्नोपनिषद्‌-**सानुवाद शाङ्करभाष्यसहित, सचित्र, पृ.
उपरोक्त पाँचोंउपनिषद्एक जिल्दमें, सजिल्द [ उपनिषद्- ॐ
भाष्य खण्ड १] मू० २।

माण्डुक्योपनिषद् -श्रीगौडपादीय कारिसरित , सानुवाद शांकरभाष्यसहित, सचित्र, पृष्ठ ३००
**ऐतरेयोपनिषद्-**सानुवाद शाङ्करभाष्यसहित, सचित्र, पृष्ठ १०४
तैत्तिरीयोपनिषद्-सानुवाद शाङ्करभाष्यसहित, सचित्र,पृष्ठ २५२

      उपरोक्त तीनों उपनिषद्‌एक जिल्दमें , सजिल्द **\[ उपनिषद्‌भाष्य खण्ड ३ \]**  

**मुमुक्षुसर्वेस्वसार-**भाषासहित, पृष्ठ ४१४. सजिल्द
विवेक-चूडामणि-सटीक,सचित्र, तीसरा संस्करण,पृ १८५
प्रबोधसुधाक्रर-सटीक, दो चित्र, दूसरा संस्करण, पृ ८०,
अपरोक्षानुभूति-सटीक, सचित्र
**रामगीता-**सरीकः दूसरा संस्करण

पता-गीताप्रेस, गोरखपुर

]


  1. “अत्र “ हे राम रघुनन्दन राघवेति !” इति पाठान्तरम्‌ ।” ↩︎

  2. “अत्र ‘ हे राम रघुनन्दन राघवेति’ इति पाठान्तरम्‌ ।” ↩︎