१६ वैकृतिकं रहस्यम्

मूलम् (वचनम्)

ऋषिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ॐ त्रिगुणा तामसी देवी सात्त्विकी या त्रिधोदिता।
सा शर्वा चण्डिका दुर्गा भद्रा भगवतीर्यते॥

मूलम्

ॐ त्रिगुणा तामसी देवी सात्त्विकी या त्रिधोदिता।
सा शर्वा चण्डिका दुर्गा भद्रा भगवतीर्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। १)
ऋषि कहते हैं—राजन्! पहले जिन सत्त्वप्रधाना त्रिगुणमयी महालक्ष्मीके तामसी आदि भेदसे तीन स्वरूप बतलाये गये, वे ही शर्वा, चण्डिका, दुर्गा, भद्रा और भगवती आदि अनेक नामोंसे कही जाती हैं॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगनिद्रा हरेरुक्ता महाकाली तमोगुणा।
मधुकैटभनाशार्थं यां तुष्टावाम्बुजासनः॥

मूलम्

योगनिद्रा हरेरुक्ता महाकाली तमोगुणा।
मधुकैटभनाशार्थं यां तुष्टावाम्बुजासनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। २)
तमोगुणमयी महाकाली भगवान् विष्णुकी योगनिद्रा कही गयी हैं। मधु और कैटभका नाश करनेके लिये ब्रह्माजीने जिनकी स्तुति की थी, उन्हींका नाम महाकाली है॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशवक्त्रा दशभुजा दशपादाञ्जनप्रभा।
विशालया राजमाना त्रिंशल्लोचनमालया॥

मूलम्

दशवक्त्रा दशभुजा दशपादाञ्जनप्रभा।
विशालया राजमाना त्रिंशल्लोचनमालया॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ३)
उनके दस मुख, दस भुजाएँ और दस पैर हैं। वे काजलके समान काले रंगकी हैं तथा तीस नेत्रोंकी विशाल पंक्तिसे सुशोभित होती हैं॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्फुरद्दशनदंष्ट्रा सा भीमरूपापि भूमिप।
रूपसौभाग्यकान्तीनां सा प्रतिष्ठा महाश्रियः॥

मूलम्

स्फुरद्दशनदंष्ट्रा सा भीमरूपापि भूमिप।
रूपसौभाग्यकान्तीनां सा प्रतिष्ठा महाश्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ४)
भूपाल! उनके दाँत और दाढ़ें चमकती रहती हैं। यद्यपि उनका रूप भयंकर है, तथापि वे रूप, सौभाग्य, कान्ति एवं महती सम्पदाकी अधिष्ठान (प्राप्तिस्थान) हैं॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खड्गबाणगदाशूलचक्रशङ्खभुशुण्डिभृत्।
परिघं कार्मुकं शीर्षं निश्च्योतद्रुधिरं दधौ॥

मूलम्

खड्गबाणगदाशूलचक्रशङ्खभुशुण्डिभृत्।
परिघं कार्मुकं शीर्षं निश्च्योतद्रुधिरं दधौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ५)
वे अपने हाथोंमें खड्ग, बाण, गदा, शूल, चक्र, शंख, भुशुण्डि, परिघ, धनुष तथा जिससे रक्त चूता रहता है, ऐसा कटा हुआ मस्तक धारण करती हैं॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा सा वैष्णवी माया महाकाली दुरत्यया।
आराधिता वशीकुर्यात् पूजाकर्तुश्चराचरम्॥

मूलम्

एषा सा वैष्णवी माया महाकाली दुरत्यया।
आराधिता वशीकुर्यात् पूजाकर्तुश्चराचरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ६)
ये महाकाली भगवान् विष्णुकी दुस्तर माया हैं। आराधना करनेपर ये चराचर जगत् को अपने उपासकके अधीन कर देती हैं॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वदेवशरीरेभ्यो याऽऽविर्भूतामितप्रभा।
त्रिगुणा सा महालक्ष्मीः साक्षान्महिषमर्दिनी॥

मूलम्

सर्वदेवशरीरेभ्यो याऽऽविर्भूतामितप्रभा।
त्रिगुणा सा महालक्ष्मीः साक्षान्महिषमर्दिनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ७)
सम्पूर्ण देवताओंके अंगोंसे जिनका प्रादुर्भाव हुआ था, वे अनन्त कान्तिसे युक्त साक्षात् महालक्ष्मी हैं। उन्हें ही त्रिगुणमयी प्रकृति कहते हैं तथा वे ही महिषासुरका मर्दन करनेवाली हैं॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वेतानना नीलभुजा सुश्वेतस्तनमण्डला।
रक्तमध्या रक्तपादा नीलजङ्घोरुरुन्मदा॥

मूलम्

श्वेतानना नीलभुजा सुश्वेतस्तनमण्डला।
रक्तमध्या रक्तपादा नीलजङ्घोरुरुन्मदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ८)
उनका मुख गोरा, भुजाएँ श्याम, स्तनमण्डल अत्यन्त श्वेत, कटिभाग और चरण लाल तथा जंघा और पिंडली नीले रंगकी हैं। अजेय होनेके कारण उनको अपने शौर्यका अभिमान है॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुचित्रजघना चित्रमाल्याम्बरविभूषणा।
चित्रानुलेपना कान्तिरूपसौभाग्यशालिनी॥

मूलम्

सुचित्रजघना चित्रमाल्याम्बरविभूषणा।
चित्रानुलेपना कान्तिरूपसौभाग्यशालिनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ९)
कटिके आगेका भाग बहुरंगे वस्त्रसे आच्छादित होनेके कारण अत्यन्त सुन्दर एवं विचित्र दिखायी देता है। उनकी माला, वस्त्र, आभूषण तथा अंगराग सभी विचित्र हैं। वे कान्ति, रूप और सौभाग्यसे सुशोभित हैं॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टादशभुजा पूज्या सा सहस्रभुजा सती।
आयुधान्यत्र वक्ष्यन्ते दक्षिणाधःकरक्रमात्॥

मूलम्

अष्टादशभुजा पूज्या सा सहस्रभुजा सती।
आयुधान्यत्र वक्ष्यन्ते दक्षिणाधःकरक्रमात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। १०)
यद्यपि उनकी हजारों भुजाएँ हैं, तथापि उन्हें अठारह भुजाओंसे युक्त मानकर उनकी पूजा करनी चाहिये। अब उनके दाहिनी ओरके निचले हाथोंसे लेकर बायीं ओरके निचले हाथोंतकमें क्रमशः जो अस्त्र हैं, उनका वर्णन किया जाता है॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षमाला च कमलं बाणोऽसिः कुलिशं गदा।
चक्रं त्रिशूलं परशुः शङ्खो घण्टा च पाशकः॥

मूलम्

अक्षमाला च कमलं बाणोऽसिः कुलिशं गदा।
चक्रं त्रिशूलं परशुः शङ्खो घण्टा च पाशकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ११)

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्तिर्दण्डश्चर्म चापं पानपात्रं कमण्डलुः।
अलङ्‍कृतभुजामेभिरायुधैः कमलासनाम्॥

मूलम्

शक्तिर्दण्डश्चर्म चापं पानपात्रं कमण्डलुः।
अलङ्‍कृतभुजामेभिरायुधैः कमलासनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। १२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वदेवमयीमीशां महालक्ष्मीमिमां नृप।
पूजयेत्सर्वलोकानां स देवानां प्रभुर्भवेत्॥

मूलम्

सर्वदेवमयीमीशां महालक्ष्मीमिमां नृप।
पूजयेत्सर्वलोकानां स देवानां प्रभुर्भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। १३)
अक्षमाला, कमल, बाण, खड्ग, वज्र, गदा, चक्र, त्रिशूल, परशु, शंख, घण्टा, पाश, शक्ति, दण्ड, चर्म (ढाल), धनुष, पानपात्र और कमण्डलु—इन आयुधोंसे उनकी भुजाएँ विभूषित हैं। वे कमलके आसनपर विराजमान हैं, सर्वदेवमयी हैं तथा सबकी ईश्वरी हैं। राजन्! जो इन महालक्ष्मीदेवीका पूजन करता है, वह सब लोकों तथा देवताओंका भी स्वामी होता है॥ ११—१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गौरीदेहात्समुद्भूता या सत्त्वैकगुणाश्रया।
साक्षात्सरस्वती प्रोक्ता शुम्भासुरनिबर्हिणी॥

मूलम्

गौरीदेहात्समुद्भूता या सत्त्वैकगुणाश्रया।
साक्षात्सरस्वती प्रोक्ता शुम्भासुरनिबर्हिणी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। १४)
जो एकमात्र सत्त्वगुणके आश्रित हो पार्वतीजीके शरीरसे प्रकट हुई थीं तथा जिन्होंने शुम्भ नामक दैत्यका संहार किया था, वे साक्षात् सरस्वती कही गयी हैं॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दधौ चाष्टभुजा बाणमुसले शूलचक्रभृत्।
शङ्खं घण्टां लाङ्गलं च कार्मुकं वसुधाधिप॥

मूलम्

दधौ चाष्टभुजा बाणमुसले शूलचक्रभृत्।
शङ्खं घण्टां लाङ्गलं च कार्मुकं वसुधाधिप॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। १५)
पृथ्वीपते! उनके आठ भुजाएँ हैं तथा वे अपने हाथोंमें क्रमशः बाण, मुसल, शूल, चक्र, शंख, घण्टा, हल एवं धनुष धारण करती हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा सम्पूजिता भक्त्या सर्वज्ञत्वं प्रयच्छति।
निशुम्भमथिनी देवी शुम्भासुरनिबर्हिणी॥

मूलम्

एषा सम्पूजिता भक्त्या सर्वज्ञत्वं प्रयच्छति।
निशुम्भमथिनी देवी शुम्भासुरनिबर्हिणी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। १६)
ये सरस्वतीदेवी, जो निशुम्भका मर्दन तथा शुम्भासुरका संहार करनेवाली हैं, भक्तिपूर्वक पूजित होनेपर सर्वज्ञता प्रदान करती हैं॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तानि स्वरूपाणि मूर्तीनां तव पार्थिव।
उपासनं जगन्मातुः पृथगासां निशामय॥

मूलम्

इत्युक्तानि स्वरूपाणि मूर्तीनां तव पार्थिव।
उपासनं जगन्मातुः पृथगासां निशामय॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०।१७)
राजन्! इस प्रकार तुमसे महाकाली आदि तीनों मूर्तियोंके स्वरूप बतलाये, अब जगन्माता महालक्ष्मीकी तथा इन महाकाली आदि तीनों मूर्तियोंकी पृथक्-पृथक् उपासना श्रवण करो॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महालक्ष्मीर्यदा पूज्या महाकाली सरस्वती।
दक्षिणोत्तरयोः पूज्ये पृष्ठतो मिथुनत्रयम्॥

मूलम्

महालक्ष्मीर्यदा पूज्या महाकाली सरस्वती।
दक्षिणोत्तरयोः पूज्ये पृष्ठतो मिथुनत्रयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। १८)
जब महालक्ष्मीकी पूजा करनी हो, तब उन्हें मध्यमें स्थापित करके उनके दक्षिण और वामभागमें क्रमशः महाकाली और महासरस्वतीका पूजन करना चाहिये और पृष्ठभागमें तीनों युगल देवताओंकी पूजा करनी चाहिये॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विरञ्चिः स्वरया मध्ये रुद्रो गौर्या च दक्षिणे।
वामे लक्ष्म्या हृषीकेशः पुरतो देवतात्रयम्॥

मूलम्

विरञ्चिः स्वरया मध्ये रुद्रो गौर्या च दक्षिणे।
वामे लक्ष्म्या हृषीकेशः पुरतो देवतात्रयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। १९)
महालक्ष्मीके ठीक पीछे मध्यभागमें सरस्वतीके साथ ब्रह्माका पूजन करे। उनके दक्षिणभागमें गौरीके साथ रुद्रकी पूजा करे तथा वामभागमें लक्ष्मीसहित विष्णुका पूजन करे। महालक्ष्मी आदि तीनों देवियोंके सामने निम्नांकित तीन देवियोंकी भी पूजा करनी चाहिये॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टादशभुजा मध्ये वामे चास्या दशानना।
दक्षिणेऽष्टभुजा लक्ष्मीर्महतीति समर्चयेत्॥

मूलम्

अष्टादशभुजा मध्ये वामे चास्या दशानना।
दक्षिणेऽष्टभुजा लक्ष्मीर्महतीति समर्चयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। २०)
मध्यस्थ महालक्ष्मीके आगे मध्यभागमें अठारह भुजाओंवाली महालक्ष्मीका पूजन करे। उनके वामभागमें दस मुखोंवाली महाकालीका तथा दक्षिणभागमें आठ भुजाओंवाली महासरस्वतीका पूजन करे॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टादशभुजा चैषा यदा पूज्या नराधिप।
दशानना चाष्टभुजा दक्षिणोत्तरयोस्तदा॥

मूलम्

अष्टादशभुजा चैषा यदा पूज्या नराधिप।
दशानना चाष्टभुजा दक्षिणोत्तरयोस्तदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। २१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालमृत्यू च सम्पूज्यौ सर्वारिष्टप्रशान्तये।
यदा चाष्टभुजा पूज्या शुम्भासुरनिबर्हिणी॥

मूलम्

कालमृत्यू च सम्पूज्यौ सर्वारिष्टप्रशान्तये।
यदा चाष्टभुजा पूज्या शुम्भासुरनिबर्हिणी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। २२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

नवास्याः शक्तयः पूज्यास्तदा रुद्रविनायकौ।
नमो देव्या इति स्तोत्रैर्महालक्ष्मीं समर्चयेत्॥

मूलम्

नवास्याः शक्तयः पूज्यास्तदा रुद्रविनायकौ।
नमो देव्या इति स्तोत्रैर्महालक्ष्मीं समर्चयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। २३)
राजन्! जब केवल अठारह भुजाओंवाली महालक्ष्मीका अथवा दशमुखी कालीका या अष्टभुजा सरस्वतीका पूजन करना हो, तब सब अरिष्टोंकी शान्तिके लिये इनके दक्षिणभागमें कालकी और वामभागमें मृत्युकी भी भलीभाँति पूजा करनी चाहिये। जब शुम्भासुरका संहार करनेवाली अष्टभुजादेवीकी पूजा करनी हो, तब उनके साथ उनकी नौ शक्तियोंका और दक्षिणभागमें रुद्र एवं वामभागमें गणेशजीका भी पूजन करना चाहिये (ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री, शिवदूती तथा चामुण्डा—ये नौ शक्तियाँ हैं)।
‘नमो देव्यै……’ इस स्तोत्रसे महालक्ष्मीकी पूजा करनी चाहिये॥ २१—२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवतारत्रयार्चायां स्तोत्रमन्त्रास्तदाश्रयाः।
अष्टादशभुजा चैषा पूज्या महिषमर्दिनी॥

मूलम्

अवतारत्रयार्चायां स्तोत्रमन्त्रास्तदाश्रयाः।
अष्टादशभुजा चैषा पूज्या महिषमर्दिनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। २४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

महालक्ष्मीर्महाकाली सैव प्रोक्ता सरस्वती।
ईश्वरी पुण्यपापानां सर्वलोकमहेश्वरी॥

मूलम्

महालक्ष्मीर्महाकाली सैव प्रोक्ता सरस्वती।
ईश्वरी पुण्यपापानां सर्वलोकमहेश्वरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। २५)
तथा उनके तीन अवतारोंकी पूजाके समय उनके चरित्रोंमें जो स्तोत्र और मन्त्र आये हैं, उन्हींका उपयोग करना चाहिये। अठारह भुजाओंवाली महिषासुरमर्दिनी महालक्ष्मी ही विशेषरूपसे पूजनीय हैं; क्योंकि वे ही महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती कहलाती हैं। वे ही पुण्य-पापोंकी अधीश्वरी तथा सम्पूर्ण लोकोंकी महेश्वरी हैं॥ २४-२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महिषान्तकरी येन पूजिता स जगत्प्रभुः।
पूजयेज्जगतां धात्रीं चण्डिकां भक्तवत्सलाम्॥

मूलम्

महिषान्तकरी येन पूजिता स जगत्प्रभुः।
पूजयेज्जगतां धात्रीं चण्डिकां भक्तवत्सलाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। २६)
जिसने महिषासुरका अन्त करनेवाली महालक्ष्मीकी भक्तिपूर्वक आराधना की है, वही संसारका स्वामी है। अतः जगत् को धारण करनेवाली भक्तवत्सला भगवती चण्डिकाकी अवश्य पूजा करनी चाहिये॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्घ्यादिभिरलङ्कारैर्गन्धपुष्पैस्तथाक्षतैः।
धूपैर्दीपैश्च नैवेद्यैर्नानाभक्ष्यसमन्वितैः॥

मूलम्

अर्घ्यादिभिरलङ्कारैर्गन्धपुष्पैस्तथाक्षतैः।
धूपैर्दीपैश्च नैवेद्यैर्नानाभक्ष्यसमन्वितैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। २७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुधिराक्तेन बलिना मांसेन सुरया नृप।
(बलिमांसादिपूजेयं विप्रवर्ज्या मयेरिता॥
तेषां किल सुरामांसैर्नोक्ता पूजा नृप क्वचित्।)
प्रणामाचमनीयेन चन्दनेन सुगन्धिना॥

मूलम्

रुधिराक्तेन बलिना मांसेन सुरया नृप।
(बलिमांसादिपूजेयं विप्रवर्ज्या मयेरिता॥
तेषां किल सुरामांसैर्नोक्ता पूजा नृप क्वचित्।)
प्रणामाचमनीयेन चन्दनेन सुगन्धिना॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। २८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकर्पूरैश्च ताम्बूलैर्भक्तिभावसमन्वितैः।
वामभागेऽग्रतो देव्याश्छिन्नशीर्षं महासुरम्॥

मूलम्

सकर्पूरैश्च ताम्बूलैर्भक्तिभावसमन्वितैः।
वामभागेऽग्रतो देव्याश्छिन्नशीर्षं महासुरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। २९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजयेन्महिषं येन प्राप्तं सायुज्यमीशया।
दक्षिणे पुरतः सिंहं समग्रं धर्ममीश्वरम्॥

मूलम्

पूजयेन्महिषं येन प्राप्तं सायुज्यमीशया।
दक्षिणे पुरतः सिंहं समग्रं धर्ममीश्वरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ३०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाहनं पूजयेद्देव्या धृतं येन चराचरम्।
कुर्याच्च स्तवनं धीमांस्तस्या एकाग्रमानसः॥

मूलम्

वाहनं पूजयेद्देव्या धृतं येन चराचरम्।
कुर्याच्च स्तवनं धीमांस्तस्या एकाग्रमानसः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ३१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कृताञ्जलिर्भूत्वा स्तुवीत चरितैरिमैः।
एकेन वा मध्यमेन नैकेनेतरयोरिह॥

मूलम्

ततः कृताञ्जलिर्भूत्वा स्तुवीत चरितैरिमैः।
एकेन वा मध्यमेन नैकेनेतरयोरिह॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ३२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरितार्धं तु न जपेज्जपञ्छिद्रमवाप्नुयात्।
प्रदक्षिणानमस्कारान् कृत्वा मूर्ध्नि कृताञ्जलिः॥

मूलम्

चरितार्धं तु न जपेज्जपञ्छिद्रमवाप्नुयात्।
प्रदक्षिणानमस्कारान् कृत्वा मूर्ध्नि कृताञ्जलिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ३३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षमापयेज्जगद्धात्रीं मुहुर्मुहुरतन्द्रितः।
प्रतिश्लोकं च जुहुयात्पायसं तिलसर्पिषा॥

मूलम्

क्षमापयेज्जगद्धात्रीं मुहुर्मुहुरतन्द्रितः।
प्रतिश्लोकं च जुहुयात्पायसं तिलसर्पिषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ३४)
अर्घ्य आदिसे, आभूषणोंसे, गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप तथा नाना प्रकारके भक्ष्य पदार्थोंसे युक्त नैवेद्योंसे, रक्तसिंचित बलिसे, मांससे तथा मदिरासे भी देवीका पूजन होता है।* (राजन्! बलि और मांस आदिसे की जानेवाली पूजा ब्राह्मणोंको छोड़कर बतायी गयी है। उनके लिये मांस और मदिरासे कहीं भी पूजाका विधान नहीं है।) प्रणाम, आचमनके योग्य जल, सुगन्धित चन्दन, कपूर तथा ताम्बूल आदि सामग्रियोंको भक्तिभावसे निवेदन करके देवीकी पूजा करनी चाहिये। देवीके सामने बायें भागमें कटे मस्तकवाले महादैत्य महिषासुरका पूजन करना चाहिये, जिसने भगवतीके साथ सायुज्य प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार देवीके सामने दक्षिण भागमें उनके वाहन सिंहका पूजन करना चाहिये, जो सम्पूर्ण धर्मका प्रतीक एवं षड्विध ऐश्वर्यसे युक्त है। उसीने इस चराचर जगत् को धारण कर रखा है।
तदनन्तर बुद्धिमान् पुरुष एकाग्रचित्त हो देवीकी स्तुति करे। फिर हाथ जोड़कर तीनों पूर्वोक्त चरित्रोंद्वारा भगवतीका स्तवन करे। यदि कोई एक ही चरित्रसे स्तुति करना चाहे तो केवल मध्यम चरित्रके पाठसे कर ले; किंतु प्रथम और उत्तर चरित्रोंमेंसे एकका पाठ न करे। आधे चरित्रका भी पाठ करना मना है। जो आधे चरित्रका पाठ करता है, उसका पाठ सफल नहीं होता। पाठ-समाप्तिके बाद साधक प्रदक्षिणा और नमस्कार कर तथा आलस्य छोड़कर जगदम्बाके उद्देश्यसे मस्तकपर हाथ जोड़े और उनसे बारंबार त्रुटियों या अपराधोंके लिये क्षमा-प्रार्थना करे। सप्तशतीका प्रत्येक श्लोक मन्त्ररूप है, उससे तिल और घृत मिली हुई खीरकी आहुति दे॥ २७—३४॥

पादटिप्पनी
  • जो लोग मांस और मदिराका व्यवहार करते हैं, उन्हीं लोगोंके लिये मांस-मदिराद्वारा पूजनका विधान है। शेष लोगोंको मांस-मदिरा आदिके द्वारा पूजा नहीं करनी चाहिये।
विश्वास-प्रस्तुतिः

जुहुयात्स्तोत्रमन्त्रैर्वा चण्डिकायै शुभं हविः।
भूयो नामपदैर्देवीं पूजयेत्सुसमाहितः॥

मूलम्

जुहुयात्स्तोत्रमन्त्रैर्वा चण्डिकायै शुभं हविः।
भूयो नामपदैर्देवीं पूजयेत्सुसमाहितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ३५)
अथवा सप्तशतीमें जो स्तोत्र आये हैं, उन्हींके मन्त्रोंसे चण्डिकाके लिये पवित्र हविष्यका हवन करे। होमके पश्चात् एकाग्रचित्त हो महालक्ष्मीदेवीके नाम-मन्त्रोंको उच्चारण करते हुए पुनः उनकी पूजा करे॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयतः प्राञ्जलिः प्रह्वः प्रणम्यारोप्य चात्मनि।
सुचिरं भावयेदीशां चण्डिकां तन्मयो भवेत्॥

मूलम्

प्रयतः प्राञ्जलिः प्रह्वः प्रणम्यारोप्य चात्मनि।
सुचिरं भावयेदीशां चण्डिकां तन्मयो भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ३६)
तत्पश्चात् मन और इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए हाथ जोड़ विनीतभावसे देवीको प्रणाम करे और अन्तःकरणमें स्थापित करके उन सर्वेश्वरी चण्डिकादेवीका देरतक चिन्तन करे। चिन्तन करते-करते उन्हींमें तन्मय हो जाय॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं यः पूजयेद्भक्त्या प्रत्यहं परमेश्वरीम्।
भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमाप्नुयात्॥

मूलम्

एवं यः पूजयेद्भक्त्या प्रत्यहं परमेश्वरीम्।
भुक्त्वा भोगान् यथाकामं देवीसायुज्यमाप्नुयात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ३७)
इस प्रकार जो मनुष्य प्रतिदिन भक्तिपूर्वक परमेश्वरीका पूजन करता है, वह मनोवांछित भोगोंको भोगकर अन्तमें देवीका सायुज्य प्राप्त करता है॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो न पूजयते नित्यं चण्डिकां भक्तवत्सलाम्।
भस्मीकृत्यास्य पुण्यानि निर्दहेत्परमेश्वरी॥

मूलम्

यो न पूजयते नित्यं चण्डिकां भक्तवत्सलाम्।
भस्मीकृत्यास्य पुण्यानि निर्दहेत्परमेश्वरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ३८)
जो भक्तवत्सला चण्डीका प्रतिदिन पूजन नहीं करता, भगवती परमेश्वरी उसके पुण्योंको जलाकर भस्म कर देती हैं॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्पूजय भूपाल सर्वलोकमहेश्वरीम्।
यथोक्तेन विधानेन चण्डिकां सुखमाप्स्यसि॥

मूलम्

तस्मात्पूजय भूपाल सर्वलोकमहेश्वरीम्।
यथोक्तेन विधानेन चण्डिकां सुखमाप्स्यसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०वै०। ३९)
इसलिये राजन्! तुम सर्वलोकमहेश्वरी चण्डिकाका शास्त्रोक्त विधिसे पूजन करो। उससे तुम्हें सुख मिलेगा*॥ ३९॥

पादटिप्पनी
  • पूर्वोक्त प्राकृतिक या प्राधानिक रहस्यमें कारणात्मक प्रकृतिभूता महालक्ष्मीके स्वरूप तथा अवतारोंका वर्णन किया गया। इस प्रकरणमें विशेषरूपसे प्रकृतिसहित विकृतियोंके ध्यान, पूजन, पूजनोपचार तथा पूजनकी महिमाका वर्णन हुआ है; अतः इसे वैकृतिक रहस्य कहते हैं। इसमें पहले सप्तशतीके तीन चरित्रोंमें वर्णित महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वतीके ध्यानका वर्णन है; यहाँ महाकाली दशभुजा, महालक्ष्मी अष्टादशभुजा तथा महासरस्वती अष्टभुजा हैं। इनके आयुधोंका क्रम पहले बताये अनुसार दाहिने भागके निचले हाथसे लेकर क्रमशः ऊपरवाले हाथोंमें, फिर वामभागके ऊपरवाले हाथसे लेकर नीचेवाले हाथतक समझना चाहिये। जैसे महाकालीके दस हाथोंमें पाँच दाहिने और पाँच बायें हैं। दाहिनेवाले हाथोंमें क्रमशः नीचेसे ऊपरतक खड्ग, बाण, गदा, शूल और चक्र हैं; तथा बायें हाथोंमें ऊपरसे नीचेतक क्रमशः शंख, भुशुण्डि, परिघ, धनुष और मस्तक हैं। इसी तरह अष्टादशभुजा महालक्ष्मीके नौ दाहिने हाथोंमें नीचेकी ओरसे क्रमशः अक्षमाला, कमल, बाण, खड्ग, वज्र, गदा, चक्र, त्रिशूल और परशु हैं तथा बायें हाथोंमें ऊपरसे नीचेतक शंख, घण्टा, पाश, शक्ति, दण्ड, ढाल, धनुष, पानपात्र और कमण्डलु हैं। अष्टभुजा महासरस्वतीके भी चार दाहिने हाथोंमें पूर्वोक्त क्रमसे बाण, मुसल, शूल और चक्र हैं तथा बायें हाथोंमें शंख, घण्टा, हल और धनुष हैं। इन तीनोंके ध्यानके विषयमें कही हुई अन्य सारी बातें स्पष्ट हैं। तत्पश्चात् इन सबकी उपासनाका क्रम यों बतलाया गया है—बीचमें चतुर्भुजा महालक्ष्मीको स्थापित करके उनके दक्षिण भागमें चतुर्भुजा महाकाली तथा वामभागमें चतुर्भुजा महासरस्वतीकी स्थापना करे। महाकालीके पृष्ठभागमें रुद्र-गौरी, महालक्ष्मीके पृष्ठभागमें ब्रह्मा-सरस्वती तथा महासरस्वतीके पृष्ठभागमें विष्णु-लक्ष्मीकी पूजा करे। फिर चतुर्भुजा महालक्ष्मीके सामने मध्यभागमें अष्टादशभुजाको स्थापित करे। इनका मुख चतुर्भुजा महालक्ष्मीकी ओर होगा। अष्टादशभुजाके दक्षिणभागमें अष्टभुजा महासरस्वती और वामभागमें दशानना महाकाली रहेंगी। यदि केवल अष्टादशभुजा या दशानना अथवा अष्टभुजाका पूजन करना हो तो इनमेंसे किसी एक अभीष्ट देवीको स्थापित करके उनके दक्षिणभागमें काल और वामभागमें मृत्युकी स्थापना करनी चाहिये। अष्टभुजाकी पूजामें कुछ विशेषता है। यदि केवल अष्टभुजाकी पूजा करनी हो तो उनके साथ उनकी ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ऐन्द्री, शिवदूती और चामुण्डा—इन नौ शक्तियोंकी भी पूजा करनी चाहिये। साथ ही दाहिने भागमें रुद्र और वामभागमें विनायकका पूजन भी आवश्यक है। काल और मृत्युकी पूजा भी, जो पहले बतायी गयी है,होनी चाहिये। कुछ लोग शैलपुत्री आदि नवदुर्गाओंको नौ शक्तियोंमें ग्रहण करते हैं, किन्तु यह ठीक नहीं है; क्योंकि उन्हें अष्टभुजाकी शक्तिरूपसे कहीं नहीं बताया गया है। ये ब्राह्मी आदि शक्तियाँ ही महासरस्वतीके अंगसे प्रकट हुई थीं; अतः ये ही उनकी नौ शक्तियाँ हैं। अष्टादशभुजादेवीके सामने दक्षिणभागमें सिंह और वामभागमें महिषकी पूजा करे। कुछ लोगोंका कथन है कि जब अष्टादशभुजादेवीकी पूजा करनी हो, तब उनके दक्षिणभागमें दशानना और वामभागमें अष्टभुजाकी भी पूजा करे। जब केवल दशाननाकी पूजा करनी हो, तब उनके साथ दक्षिणभागमें कालकी और वामभागमें मृत्युकी पूजा करे तथा जब केवल अष्टभुजाकी पूजा करनी हो, तब उनके साथ पूर्वोक्त नौ शक्तियों और रुद्र-विनायककी भी पूजा करनी चाहिये। यह क्रम-विभाग देखनेमें सुन्दर होनेपर भी मूलपाठके प्रतिकूल है। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि अष्टादशभुजा आदिमेंसे जिसकी प्रधानतासे पूजा करनी हो, उसे मध्यमें स्थापित करके दाहिने और वामभागमें शेष दो देवियोंकी स्थापना करे और मध्यमें स्थित देवीके दक्षिण-वाम-पार्श्वोंमें रुद्र-विनायकको स्थापित करके सबका पूजन करे। यह बात भी मूलसे सिद्ध नहीं होती। कोई-कोई अष्टभुजाके पूजनमें विकल्प मानते हैं। उनका कहना है कि अष्टभुजाके साथ या तो काल एवं मृत्युकी ही पूजा करे अथवा नौ शक्तियोंसहित रुद्र-विनायककी ही पूजा करे; सबका एक साथ नहीं, किंतु ऐसी धारणाके लिये भी कोई प्रबल प्रमाण नहीं है। नीचे कोष्ठकोंसे समष्टि-उपासना और व्यष्टि-उपासनाका क्रम स्पष्ट किया जाता है—
    (समष्टि-उपासना)
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पादटिप्पनी

(व्यष्टि-उपासना)

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मूलम् (समाप्तिः)

॥ इति वैकृतिकं रहस्यं सम्पूर्णम्॥