विश्वास-प्रस्तुतिः
ॐ अस्य श्रीसप्तशतीरहस्यत्रयस्य नारायण ऋषिरनुष्टुप्छन्दः, महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवता यथोक्तफलावाप्त्यर्थं जपे विनियोगः।
मूलम्
ॐ अस्य श्रीसप्तशतीरहस्यत्रयस्य नारायण ऋषिरनुष्टुप्छन्दः, महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवता यथोक्तफलावाप्त्यर्थं जपे विनियोगः।
अनुवाद (हिन्दी)
ॐ सप्तशतीके इन तीनों रहस्योंके नारायण ऋषि, अनुष्टुप् छन्द तथा महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती देवता हैं। शास्त्रोक्त फलकी प्राप्तिके लिये जपमें इनका विनियोग होता है।
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन्नवतारा मे चण्डिकायास्त्वयोदिताः।
एतेषां प्रकृतिं ब्रह्मन् प्रधानं वक्तुमर्हसि॥
मूलम्
भगवन्नवतारा मे चण्डिकायास्त्वयोदिताः।
एतेषां प्रकृतिं ब्रह्मन् प्रधानं वक्तुमर्हसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। १)
राजा बोले—भगवन्! आपने चण्डिकाके अवतारोंकी कथा मुझसे कही। ब्रह्मन्! अब इन अवतारोंकी प्रधान प्रकृतिका निरूपण कीजिये॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आराध्यं यन्मया देव्याः स्वरूपं येन च द्विज।
विधिना ब्रूहि सकलं यथावत्प्रणतस्य मे॥
मूलम्
आराध्यं यन्मया देव्याः स्वरूपं येन च द्विज।
विधिना ब्रूहि सकलं यथावत्प्रणतस्य मे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। २)
द्विजश्रेष्ठ! मैं आपके चरणोंमें पड़ा हूँ। मुझे देवीके जिस स्वरूपकी और जिस विधिसे आराधना करनी है, वह सब यथार्थरूपसे बतलाइये॥ २॥
मूलम् (वचनम्)
ऋषिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं रहस्यं परममनाख्येयं प्रचक्षते।
भक्तोऽसीति न मे किञ्चित्तवावाच्यं नराधिप॥
मूलम्
इदं रहस्यं परममनाख्येयं प्रचक्षते।
भक्तोऽसीति न मे किञ्चित्तवावाच्यं नराधिप॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। ३)
ऋषि कहते हैं—राजन्! यह रहस्य परम गोपनीय है। इसे किसीसे कहनेयोग्य नहीं बतलाया गया है; किंतु तुम मेरे भक्त हो, इसलिये तुमसे न कहनेयोग्य मेरे पास कुछ भी नहीं है॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्त्रिगुणा परमेश्वरी।
लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता॥
मूलम्
सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्त्रिगुणा परमेश्वरी।
लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। ४)
त्रिगुणमयी परमेश्वरी महालक्ष्मी ही सबका आदि कारण हैं। वे ही दृश्य और अदृश्यरूपसे सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त करके स्थित हैं॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातुलुङ्गं गदां खेटं पानपात्रं च बिभ्रती।
नागं लिङ्गं च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्धनि॥
मूलम्
मातुलुङ्गं गदां खेटं पानपात्रं च बिभ्रती।
नागं लिङ्गं च योनिं च बिभ्रती नृप मूर्धनि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। ५)
राजन्! वे अपनी चार भुजाओंमें मातुलुंग (बिजौरेका फल), गदा, खेट (ढाल) एवं पानपात्र और मस्तकपर नाग, लिंग तथा योनि—इन वस्तुओंको धारण करती हैं॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तप्तकाञ्चनवर्णाभा तप्तकाञ्चनभूषणा।
शून्यं तदखिलं स्वेन पूरयामास तेजसा॥
मूलम्
तप्तकाञ्चनवर्णाभा तप्तकाञ्चनभूषणा।
शून्यं तदखिलं स्वेन पूरयामास तेजसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। ६)
तपाये हुए सुवर्णके समान उनकी कान्ति है, तपाये हुए सुवर्णके ही उनके भूषण हैं। उन्होंने अपने तेजसे इस शून्य जगत् को परिपूर्ण किया है॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शून्यं तदखिलं लोकं विलोक्य परमेश्वरी।
बभार परमं रूपं तमसा केवलेन हि॥
मूलम्
शून्यं तदखिलं लोकं विलोक्य परमेश्वरी।
बभार परमं रूपं तमसा केवलेन हि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। ७)
परमेश्वरी महालक्ष्मीने इस सम्पूर्ण जगत् को शून्य देखकर केवल तमोगुणरूप उपाधिके द्वारा एक अन्य उत्कृष्ट रूप धारण किया॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा भिन्नाञ्जनसंकाशा दंष्ट्राङ्कितवरानना।
विशाललोचना नारी बभूव तनुमध्यमा॥
मूलम्
सा भिन्नाञ्जनसंकाशा दंष्ट्राङ्कितवरानना।
विशाललोचना नारी बभूव तनुमध्यमा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। ८)
वह रूप एक नारीके रूपमें प्रकट हुआ, जिसके शरीरकी कान्ति निखरे हुए काजलकी भाँति काले रंगकी थी, उसका श्रेष्ठ मुख दाढ़ोंसे सुशोभित था। नेत्र बड़े-बड़े और कमर पतली थी॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खड्गपात्रशिरःखेटैरलङ्कृतचतुर्भुजा।
कबन्धहारं शिरसा बिभ्राणा हि शिरःस्रजम्॥
मूलम्
खड्गपात्रशिरःखेटैरलङ्कृतचतुर्भुजा।
कबन्धहारं शिरसा बिभ्राणा हि शिरःस्रजम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। ९)
उसकी चार भुजाएँ ढाल, तलवार, प्याले और कटे हुए मस्तकसे सुशोभित थीं। वह वक्षःस्थलपर कबन्ध (धड़)-की तथा मस्तकपर मुण्डोंकी माला धारण किये हुए थी॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा प्रोवाच महालक्ष्मीं तामसी प्रमदोत्तमा।
नाम कर्म च मे मातर्देहि तुभ्यं नमो नमः॥
मूलम्
सा प्रोवाच महालक्ष्मीं तामसी प्रमदोत्तमा।
नाम कर्म च मे मातर्देहि तुभ्यं नमो नमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। १०)
इस प्रकार प्रकट हुई स्त्रियोंमें श्रेष्ठ तामसीदेवीने महालक्ष्मीसे कहा—‘माताजी! आपको नमस्कार है। मुझे मेरा नाम और कर्म बताइये’॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां प्रोवाच महालक्ष्मीस्तामसीं प्रमदोत्तमाम्।
ददामि तव नामानि यानि कर्माणि तानि ते॥
मूलम्
तां प्रोवाच महालक्ष्मीस्तामसीं प्रमदोत्तमाम्।
ददामि तव नामानि यानि कर्माणि तानि ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। ११)
तब महालक्ष्मीने स्त्रियोंमें श्रेष्ठ उस तामसीदेवीसे कहा—‘मैं तुम्हें नाम प्रदान करती हूँ और तुम्हारे जो-जो कर्म हैं, उनको भी बतलाती हूँ,॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महामाया महाकाली महामारी क्षुधा तृषा।
निद्रा तृष्णा चैकवीरा कालरात्रिर्दुरत्यया॥
मूलम्
महामाया महाकाली महामारी क्षुधा तृषा।
निद्रा तृष्णा चैकवीरा कालरात्रिर्दुरत्यया॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। १२)
महामाया, महाकाली, महामारी, क्षुधा, तृषा, निद्रा, तृष्णा, एकवीरा, कालरात्रि तथा दुरत्यया—॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमानि तव नामानि प्रतिपाद्यानि कर्मभिः।
एभिः कर्माणि ते ज्ञात्वा योऽधीते सोऽश्नुते सुखम्॥
मूलम्
इमानि तव नामानि प्रतिपाद्यानि कर्मभिः।
एभिः कर्माणि ते ज्ञात्वा योऽधीते सोऽश्नुते सुखम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। १३)
ये तुम्हारे नाम हैं, जो कर्मोंके द्वारा लोकमें चरितार्थ होंगे। इन नामोंके द्वारा तुम्हारे कर्मोंको जानकर जो उनका पाठ करता है, वह सुख भोगता है’॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामित्युक्त्वा महालक्ष्मीः स्वरूपमपरं नृप।
सत्त्वाख्येनातिशुद्धेन गुणेनेन्दुप्रभं दधौ॥
मूलम्
तामित्युक्त्वा महालक्ष्मीः स्वरूपमपरं नृप।
सत्त्वाख्येनातिशुद्धेन गुणेनेन्दुप्रभं दधौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। १४)
राजन्! महाकालीसे यों कहकर महालक्ष्मीने अत्यन्त शुद्ध सत्त्वगुणके द्वारा दूसरा रूप धारण किया, जो चन्द्रमाके समान गौरवर्ण था॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षमालाङ्कुशधरा वीणापुस्तकधारिणी।
सा बभूव वरा नारी नामान्यस्यै च सा ददौ॥
मूलम्
अक्षमालाङ्कुशधरा वीणापुस्तकधारिणी।
सा बभूव वरा नारी नामान्यस्यै च सा ददौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। १५)
वह श्रेष्ठ नारी अपने हाथोंमें अक्षमाला, अंकुश, वीणा तथा पुस्तक धारण किये हुए थी। महालक्ष्मीने उसे भी नाम प्रदान किये॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाविद्या महावाणी भारती वाक् सरस्वती।
आर्या ब्राह्मी कामधेनुर्वेदगर्भा च धीश्वरी॥
मूलम्
महाविद्या महावाणी भारती वाक् सरस्वती।
आर्या ब्राह्मी कामधेनुर्वेदगर्भा च धीश्वरी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। १६)
महाविद्या, महावाणी, भारती, वाक्, सरस्वती, आर्या, ब्राह्मी, कामधेनु, वेदगर्भा और धीश्वरी (बुद्धिकी स्वामिनी)—ये तुम्हारे नाम होंगे॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोवाच महालक्ष्मीर्महाकालीं सरस्वतीम्।
युवां जनयतां देव्यौ मिथुने स्वानुरूपतः॥
मूलम्
अथोवाच महालक्ष्मीर्महाकालीं सरस्वतीम्।
युवां जनयतां देव्यौ मिथुने स्वानुरूपतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। १७)
तदनन्तर महालक्ष्मीने महाकाली और महासरस्वतीसे कहा—‘देवियो! तुम दोनों अपने-अपने गुणोंके योग्य स्त्री-पुरुषके जोड़े उत्पन्न करो’॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा ते महालक्ष्मीः ससर्ज मिथुनं स्वयम्।
हिरण्यगर्भौ रुचिरौ स्त्रीपुंसौ कमलासनौ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा ते महालक्ष्मीः ससर्ज मिथुनं स्वयम्।
हिरण्यगर्भौ रुचिरौ स्त्रीपुंसौ कमलासनौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। १८)
उन दोनोंसे यों कहकर महालक्ष्मीने पहले स्वयं ही स्त्री-पुरुषका एक जोड़ा उत्पन्न किया। वे दोनों हिरण्यगर्भ (निर्मल ज्ञानसे सम्पन्न) सुन्दर तथा कमलके आसनपर विराजमान थे। उनमेंसे एक स्त्री थी और दूसरा पुरुष॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मन् विधे विरिञ्चेति धातरित्याह तं नरम्।
श्रीः पद्मे कमले लक्ष्मीत्याह माता च तां स्त्रियम्॥
मूलम्
ब्रह्मन् विधे विरिञ्चेति धातरित्याह तं नरम्।
श्रीः पद्मे कमले लक्ष्मीत्याह माता च तां स्त्रियम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। १९)
तत्पश्चात् माता महालक्ष्मीने पुरुषको ब्रह्मन्! विधे! विरिंच! तथा धातः! इस प्रकार सम्बोधित किया और स्त्रीको श्री! पद्मा! कमला! लक्ष्मी! इत्यादि नामोंसे पुकारा॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाकाली भारती च मिथुने सृजतः सह।
एतयोरपि रूपाणि नामानि च वदामि ते॥
मूलम्
महाकाली भारती च मिथुने सृजतः सह।
एतयोरपि रूपाणि नामानि च वदामि ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। २०)
इसके बाद महाकाली और महासरस्वतीने भी एक-एक जोड़ा उत्पन्न किया। इनके भी रूप और नाम मैं तुम्हें बतलाता हूँ॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीलकण्ठं रक्तबाहुं श्वेताङ्गं चन्द्रशेखरम्।
जनयामास पुरुषं महाकाली सितां स्त्रियम्॥
मूलम्
नीलकण्ठं रक्तबाहुं श्वेताङ्गं चन्द्रशेखरम्।
जनयामास पुरुषं महाकाली सितां स्त्रियम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। २१)
महाकालीने कण्ठमें नील चिह्नसे युक्त, लाल भुजा, श्वेत शरीर और मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट धारण करनेवाले पुरुषको तथा गोरे रंगकी स्त्रीको जन्म दिया॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स रुद्रः शंकरः स्थाणुः कपर्दी च त्रिलोचनः।
त्रयी विद्या कामधेनुः सा स्त्री भाषाक्षरा स्वरा॥
मूलम्
स रुद्रः शंकरः स्थाणुः कपर्दी च त्रिलोचनः।
त्रयी विद्या कामधेनुः सा स्त्री भाषाक्षरा स्वरा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। २२)
वह पुरुष रुद्र, शंकर, स्थाणु, कपर्दी और त्रिलोचनके नामसे प्रसिद्ध हुआ तथा स्त्रीके त्रयी, विद्या, कामधेनु, भाषा, अक्षरा और स्वरा—ये नाम हुए॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरस्वती स्त्रियं गौरीं कृष्णं च पुरुषं नृप।
जनयामास नामानि तयोरपि वदामि ते॥
मूलम्
सरस्वती स्त्रियं गौरीं कृष्णं च पुरुषं नृप।
जनयामास नामानि तयोरपि वदामि ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। २३)
राजन्! महासरस्वतीने गोरे रंगकी स्त्री और श्याम रंगके पुरुषको प्रकट किया। उन दोनोंके नाम भी मैं तुम्हें बतलाता हूँ॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णुः कृष्णो हृषीकेशो वासुदेवो जनार्दनः।
उमा गौरी सती चण्डी सुन्दरी सुभगा शिवा॥
मूलम्
विष्णुः कृष्णो हृषीकेशो वासुदेवो जनार्दनः।
उमा गौरी सती चण्डी सुन्दरी सुभगा शिवा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। २४)
उनमें पुरुषके नाम विष्णु, कृष्ण, हृषीकेश, वासुदेव और जनार्दन हुए तथा स्त्री उमा, गौरी, सती, चण्डी, सुन्दरी, सुभगा और शिवा—इन नामोंसे प्रसिद्ध हुई॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं युवतयः सद्यः पुरुषत्वं प्रपेदिरे।
चक्षुष्मन्तो नु पश्यन्ति नेतरेऽतद्विदो जनाः॥
मूलम्
एवं युवतयः सद्यः पुरुषत्वं प्रपेदिरे।
चक्षुष्मन्तो नु पश्यन्ति नेतरेऽतद्विदो जनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। २५)
इस प्रकार तीनों युवतियाँ ही तत्काल पुरुषरूपको प्राप्त हुईं। इस बातको ज्ञाननेत्रवाले लोग ही समझ सकते हैं। दूसरे अज्ञानीजन इस रहस्यको नहीं जान सकते॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मणे प्रददौ पत्नीं महालक्ष्मीर्नृप त्रयीम्।
रुद्राय गौरीं वरदां वासुदेवाय च श्रियम्॥
मूलम्
ब्रह्मणे प्रददौ पत्नीं महालक्ष्मीर्नृप त्रयीम्।
रुद्राय गौरीं वरदां वासुदेवाय च श्रियम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। २६)
राजन्! महालक्ष्मीने त्रयीविद्यारूपा सरस्वतीको ब्रह्माके लिये पत्नीरूपमें समर्पित किया, रुद्रको वरदायिनी गौरी तथा भगवान् वासुदेवको लक्ष्मी दे दी॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वरया सह सम्भूय विरिञ्चोऽण्डमजीजनत्।
बिभेद भगवान् रुद्रस्तद् गौर्या सह वीर्यवान्॥
मूलम्
स्वरया सह सम्भूय विरिञ्चोऽण्डमजीजनत्।
बिभेद भगवान् रुद्रस्तद् गौर्या सह वीर्यवान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। २७)
इस प्रकार सरस्वतीके साथ संयुक्त होकर ब्रह्माजीने ब्रह्माण्डको उत्पन्न किया और परम पराक्रमी भगवान् रुद्रने गौरीके साथ मिलकर उसका भेदन किया॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अण्डमध्ये प्रधानादि कार्यजातमभून्नृप।
महाभूतात्मकं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्॥
मूलम्
अण्डमध्ये प्रधानादि कार्यजातमभून्नृप।
महाभूतात्मकं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। २८)
राजन्! उस ब्रह्माण्डमें प्रधान (महत्तत्त्व) आदि कार्यसमूह—पंचमहाभूतात्मक समस्त स्थावर-जंगमरूप जगत् की उत्पत्ति हुई॥ २८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुपोष पालयामास तल्लक्ष्म्या सह केशवः।
संजहार जगत्सर्वं सह गौर्या महेश्वरः॥
मूलम्
पुपोष पालयामास तल्लक्ष्म्या सह केशवः।
संजहार जगत्सर्वं सह गौर्या महेश्वरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। २९)
फिर लक्ष्मीके साथ भगवान् विष्णुने उस जगत् का पालन-पोषण किया और प्रलयकालमें गौरीके साथ महेश्वरने उस सम्पूर्ण जगत् का संहार किया॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महालक्ष्मीर्महाराज सर्वसत्त्वमयीश्वरी।
निराकारा च साकारा सैव नानाभिधानभृत्॥
मूलम्
महालक्ष्मीर्महाराज सर्वसत्त्वमयीश्वरी।
निराकारा च साकारा सैव नानाभिधानभृत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। ३०)
महाराज! महालक्ष्मी ही सर्वसत्त्वमयी तथा सब सत्त्वोंकी अधीश्वरी हैं। वे ही निराकार और साकाररूपमें रहकर नाना प्रकारके नाम धारण करती हैं॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामान्तरैर्निरूप्यैषा नाम्ना नान्येन केनचित्॥ ॐ॥
मूलम्
नामान्तरैर्निरूप्यैषा नाम्ना नान्येन केनचित्॥ ॐ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(दु०प्रा०। ३१)
सगुणवाचक सत्य, ज्ञान, चित्, महामाया आदि नामान्तरोंसे इन महालक्ष्मीका निरूपण करना चाहिये। केवल एक नाम (महालक्ष्मीमात्र)-से अथवा अन्य प्रत्यक्ष आदि प्रमाणसे उनका वर्णन नहीं हो सकता॥ ३१॥
मूलम् (समाप्तिः)
॥ इति प्राधानिकं* रहस्यं सम्पूर्णम्॥
पादटिप्पनी
- प्रथम रहस्यमें पराशक्ति महालक्ष्मीके स्वरूपका प्रतिपादन किया गया है; महालक्ष्मी ही देवीकी समस्त विकृतियों (अवतारों)-की प्रधान प्रकृति हैं, अतएव इस प्रकरणको प्राकृतिक या प्राधानिक रहस्य कहते हैं। इसके अनुसार महालक्ष्मी ही सब प्रपंच तथा सम्पूर्ण अवतारोंका आदि कारण हैं। तीनों गुणोंकी साम्यावस्थारूपा प्रकृति भी उनसे भिन्न नहीं है। स्थूल-सूक्ष्म, दृश्य-अदृश्य अथवा व्यक्त-अव्यक्त—सब उन्हींके स्वरूप हैं। वे सर्वत्र व्यापक हैं। अस्ति, भाति, प्रिय, नाम और रूप—सब वे ही हैं। वे सच्चिदानन्दमयी परमेश्वरी सूक्ष्मरूपसे सर्वत्र व्याप्त होती हुई भी भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये परम दिव्य चिन्मय सगुणरूपसे भी सदा विराजमान रहती हैं। उनके उस श्रीविग्रहकी कान्ति तपाये हुए सुवर्णकी भाँति है। वे अपने चार हाथोंमें मातुलुंग (बिजौरा), गदा, खेट (ढाल) और पानपात्र धारण करती हैं तथा मस्तकपर नाग, लिंग और योनि धारण किये रहती हैं। भुवनेश्वरी-संहिताके अनुसार मातुलुंग कर्मराशिका, गदा क्रियाशक्तिका, खेट ज्ञानशक्तिका और पानपात्र तुरीय वृत्ति (अपने सच्चिदानन्दमय स्वरूपमें स्थिति)-का सूचक है। इसी प्रकार नागसे कालका, योनिसे प्रकृतिका और लिंगसे पुरुषका ग्रहण होता है। तात्पर्य यह कि प्रकृति, पुरुष और काल—तीनोंका अधिष्ठान परमेश्वरी महालक्ष्मी ही हैं। उक्त चतुर्भुजा महालक्ष्मीके किस हाथमें कौन-से आयुध हैं, इसमें भी मतभेद है। रेणुका-माहात्म्यमें बताया गया है, दाहिनी ओरके नीचेके हाथमें पानपात्र और ऊपरके हाथमें गदा है। बायीं ओरके ऊपरके हाथमें खेट तथा नीचेके हाथमें श्रीफल है, परंतु वैकृतिक रहस्यमें ‘दक्षिणाधःकरक्रमात्’ कहकर जो क्रम दिखाया गया है, उसके अनुसार दाहिनी ओरके निचले हाथमें मातुलुंग, ऊपरवाले हाथमें गदा, बायीं ओरके ऊपरवाले हाथमें खेट तथा नीचेवाले हाथमें पानपात्र है। चतुर्भुजा महालक्ष्मीने क्रमशः तमोगुण और सत्त्वगुणरूप उपाधिके द्वारा अपने दो रूप और प्रकट किये, जिनकी क्रमशः महाकाली और महासरस्वतीके नामसे प्रसिद्धि हुई। ये दोनों सप्तशतीके प्रथम चरित्र और उत्तर चरित्रमें वर्णित महाकाली और महासरस्वतीसे भिन्न हैं; क्योंकि ये दोनों ही चतुर्भुजा हैं और उक्त चरित्रोंमें वर्णित महाकालीके दस तथा महासरस्वतीके आठ भुजाएँ हैं। चतुर्भुजा महाकालीके हाथोंमें खड्ग, पानपात्र, मस्तक और ढाल हैं; इनका क्रम भी पूर्ववत् ही है। चतुर्भुजा सरस्वतीके हाथोंमें अक्षमाला, अंकुश, वीणा और पुस्तक शोभा पाते हैं। इनका भी पहले-जैसा ही क्रम है। फिर इन तीनों देवियोंने स्त्री-पुरुषका एक-एक जोड़ा उत्पन्न किया। महाकालीसे शंकर और सरस्वती, महालक्ष्मीसे ब्रह्मा और लक्ष्मी तथा महासरस्वतीसे विष्णु और गौरीका प्रादुर्भाव हुआ। इनमें लक्ष्मी विष्णुको, गौरी शंकरको तथा सरस्वती ब्रह्माजीको प्राप्त हुईं। पत्नीसहित ब्रह्माने सृष्टि, विष्णुने पालन और रुद्रने संहारका कार्य सँभाला।
इन अवतारोंका क्रम इस प्रकार है—
चतुर्भुजा महालक्ष्मी (मूल प्रकृति)