विनियोगः
विश्वास-प्रस्तुतिः
ॐ अस्य श्रीउत्तरचरित्रस्य (उत्तम-चरित्रस्य) रुद्र ऋषिः, महासरस्वती देवता, अनुष्टुप् छन्दः, भीमा शक्तिः, भ्रामरी बीजम्, सूर्यस्तत्त्वम्, सामवेदः स्वरूपम्, महासरस्वतीप्रीत्यर्थे (/महासरस्वतीप्रीत्यर्थं कामार्थे) उत्तरचरित्रपाठे (/जपे/हवने) विनियोगः।
मूलम्
ॐ अस्य श्रीउत्तरचरित्रस्य (उत्तम-चरित्रस्य) रुद्र ऋषिः, महासरस्वती देवता, अनुष्टुप् छन्दः, भीमा शक्तिः, भ्रामरी बीजम्, सूर्यस्तत्त्वम्, सामवेदः स्वरूपम्, महासरस्वतीप्रीत्यर्थे (/महासरस्वतीप्रीत्यर्थं कामार्थे) उत्तरचरित्रपाठे (/जपे/हवने) विनियोगः।
अनुवाद (हिन्दी)
ॐ इस उत्तरचरित्रके रुद्र ऋषि हैं, महासरस्वती देवता हैं, अनुष्टुप् छन्द है, भीमा शक्ति है, भ्रामरी बीज है, सूर्य तत्त्व है और सामवेद स्वरूप है। महासरस्वतीकी प्रसन्नताके लिये उत्तरचरित्रके पाठमें इसका विनियोग किया जाता है।
ध्यानम्
विश्वास-प्रस्तुतिः
ॐ घण्टाशूलहलानि शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥
मूलम्
ॐ घण्टाशूलहलानि शङ्खमुसले चक्रं धनुः सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपने करकमलोंमें घण्टा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, शरद्ऋतुके शोभासम्पन्न चन्द्रमाके समान जिनकी मनोहर कान्ति है, जो तीनों लोकोंकी आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्योंका नाश करनेवाली हैं तथा गौरीके शरीरसे जिनका प्राकट्य हुआ है, उन महासरस्वतीदेवीका मैं निरन्तर भजन करता हूँ।
शुम्भनि-शुमभाभ्यां देव-त्रासः
मूलम् (वचनम्)
(ॐ नमश् चण्डिकायै॥)
‘ॐ क्लीं’ ऋषिरुवाच॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरा शुम्भ-निशुम्भाभ्याम्
असुराभ्यां शचीपतेः।
त्रैलोक्यं यज्ञ-भागाश् च
हृता मद-बलाश्रयात्॥२॥
मूलम्
पुरा शुम्भनिशुम्भाभ्यामसुराभ्यां शचीपतेः।
त्रैलोक्यं यज्ञभागाश्च हृता मदबलाश्रयात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। २)
ऋषि कहते हैं—॥ १॥ पूर्वकालमें शुम्भ और निशुम्भ नामक असुरोंने अपने बलके घमंडमें आकर शचीपति इन्द्रके हाथसे तीनों लोकोंका राज्य और यज्ञभाग छीन लिये॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताव् एव सूर्यतां तद्-वद्
अधिकारं तथैन्दवम्।
कौबेरम् अथ याम्यं च
चक्राते वरुणस्य च॥३॥
मूलम्
तावेव सूर्यतां तद्वदधिकारं तथैन्दवम्।
कौबेरमथ याम्यं च चक्राते वरुणस्य च॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताव् एव पवनर्द्धिं च
चक्रतुर् वह्नि-कर्म च।
ततो देवा विनिर्धूता
भ्रष्ट-राज्याः पराजिताः॥४॥
मूलम्
तावेव पवनर्द्धिं च चक्रतुर्वह्निकर्म च।
ततो देवा विनिर्धूता भ्रष्टराज्याः पराजिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हृताऽधिकारास् त्रिदशास्
ताभ्यां सर्वे निराकृताः।
महासुराभ्यां तां देवीं
संस्मरन्त्य् अपराजिताम्॥५॥
मूलम्
हृताधिकारास्त्रिदशास्ताभ्यां सर्वे निराकृताः।
महासुराभ्यां तां देवीं संस्मरन्त्यपराजिताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयास्माकं वरो दत्तो
यथाऽऽपत्सु स्मृताखिलाः।
भवतां नाशयिष्यामि
तत्-क्षणात् परमापदः॥६॥
मूलम्
तयास्माकं वरो दत्तो यथाऽऽपत्सु स्मृताखिलाः।
भवतां नाशयिष्यामि तत्क्षणात्परमापदः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ६)
वे ही दोनों सूर्य, चन्द्रमा, कुबेर, यम और वरुणके अधिकारका भी उपयोग करने लगे। वायु और अग्निका कार्य भी वे ही करने लगे। उन दोनोंने सब देवताओंको अपमानित, राज्यभ्रष्ट, पराजित तथा अधिकारहीन करके स्वर्गसे निकाल दिया। उन दोनों महान् असुरोंसे तिरस्कृत देवताओंने अपराजितादेवीका स्मरण किया और सोचा—‘जगदम्बाने हम-लोगोंको वर दिया था कि आपत्तिकालमें स्मरण करनेपर मैं तुम्हारी सब आपत्तियोंका तत्काल नाश कर दूँगी’॥ ३—६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति कृत्वा मतिं देवा
हिमवन्तं नगेश्वरम्।
जग्मुस् तत्र ततो देवीं
विष्णु-मायां प्रतुष्टुवुः॥७॥
मूलम्
इति कृत्वा मतिं देवा हिमवन्तं नगेश्वरम्।
जग्मुस्तत्र ततो देवीं विष्णुमायां प्रतुष्टुवुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ७)
यह विचारकर देवता गिरिराज हिमालयपर गये और वहाँ भगवती विष्णुमायाकी स्तुति करने लगे॥ ७॥
देवीप्रसादः
मूलम् (वचनम्)
ऋषिरुवाच॥ ८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्तवादियुक्तानां
देवानां तत्र पार्वती।
स्नातुम् अभ्याययौ तोये
जाह्नव्या नृपनन्दन॥
मूलम्
एवं स्तवादियुक्तानां देवानां तत्र पार्वती।
स्नातुमभ्याययौ तोये जाह्नव्या नृपनन्दन॥
मूलम्
एवं स्तवाभियुक्तानां देवानां तत्र पार्वती।
स्नातुमभ्याययौ तोये जाह्नव्या नृपनन्दन॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ८४)
ऋषि कहते हैं—॥ ८३॥ राजन्! इस प्रकार जब देवता स्तुति कर रहे थे, उस समय पार्वतीदेवी गंगाजीके जलमें स्नान करनेके लिये वहाँ आयीं॥ ८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साब्रवीत्तान् सुरान् सुभ्रूर्भवद्भिः स्तूयतेऽत्र का।
शरीरकोशतश्चास्याः समुद्भूताब्रवीच्छिवा॥
मूलम्
साब्रवीत्तान् सुरान् सुभ्रूर्भवद्भिः स्तूयतेऽत्र का।
शरीरकोशतश्चास्याः समुद्भूताब्रवीच्छिवा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ८५)
उन सुन्दर भौंहोंवाली भगवतीने देवताओंसे पूछा—‘आपलोग यहाँ किसकी स्तुति करते हैं?’ तब उन्हींके शरीरकोशसे प्रकट हुई शिवादेवी बोलीं—॥ ८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तोत्रं ममैतत् क्रियते शुम्भदैत्यनिराकृतैः।
देवैः समेतैः समरे निशुम्भेन पराजितैः॥
मूलम्
स्तोत्रं ममैतत् क्रियते शुम्भदैत्यनिराकृतैः।
देवैः समेतैः समरे निशुम्भेन पराजितैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ८६)
‘शुम्भ दैत्यसे तिरस्कृत और युद्धमें निशुम्भसे पराजित हो यहाँ एकत्रित हुए ये समस्त देवता यह मेरी ही स्तुति कर रहे हैं’॥ ८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरकोशाद्यत्तस्याः पार्वत्या निःसृताम्बिका।
कौशिकीति समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते॥
मूलम्
शरीरकोशाद्यत्तस्याः पार्वत्या निःसृताम्बिका।
कौशिकीति समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ८७)
पार्वतीजीके शरीरकोशसे अम्बिकाका प्रादुर्भाव हुआ था, इसलिये वे समस्त लोकोंमें ‘कौशिकी’ कही जाती हैं॥ ८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत्सापि पार्वती।
कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया॥
मूलम्
तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत्सापि पार्वती।
कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ८८)
कौशिकीके प्रकट होनेके बाद पार्वतीदेवीका शरीर काले रंगका हो गया, अतः वे हिमालयपर रहनेवाली कालिकादेवीके नामसे विख्यात हुईं॥ ८८॥
असुरलोभः
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽम्बिकां परं रूपं बिभ्राणां सुमनोहरम्।
ददर्श चण्डो मुण्डश्च भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः॥
मूलम्
ततोऽम्बिकां परं रूपं बिभ्राणां सुमनोहरम्।
ददर्श चण्डो मुण्डश्च भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ८९)
तदनन्तर शुम्भ-निशुम्भके भृत्य चण्ड-मुण्ड वहाँ आये और उन्होंने परम मनोहर रूप धारण करनेवाली अम्बिकादेवीको देखा॥ ८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताभ्यां शुम्भाय चाख्याता
सातीव सुमनोहरा।
काप्यास्ते स्त्री महाराज
भासयन्ती हिमाचलम्॥
मूलम्
ताभ्यां शुम्भाय चाख्याता अतीव सुमनोहरा।
काप्यास्ते स्त्री महाराज भासयन्ती हिमाचलम्॥
मूलम् (भास्कररायः)
ताभ्यां शुम्भाय चाख्याता सातीव सुमनोहरा।
काप्यास्ते स्त्री महाराज भासयन्ती हिमाचलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ९०)
फिर वे शुम्भके पास जाकर बोले—‘महाराज! एक अत्यन्त मनोहर स्त्री है, जो अपनी दिव्य कान्तिसे हिमालयको प्रकाशित कर रही है॥ ९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव तादृक् क्वचिद्रूपं दृष्टं केनचिदुत्तमम्।
ज्ञायतां काप्यसौ देवी गृह्यतां चासुरेश्वर॥
मूलम्
नैव तादृक् क्वचिद्रूपं दृष्टं केनचिदुत्तमम्।
ज्ञायतां काप्यसौ देवी गृह्यतां चासुरेश्वर॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ९१)
वैसा उत्तम रूप कहीं किसीने भी नहीं देखा होगा। असुरेश्वर! पता लगाइये, वह देवी कौन है और उसे ले लीजिये॥ ९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीरत्नमतिचार्वङ्गी द्योतयन्ती दिशस्त्विषा।
सा तु तिष्ठति दैत्येन्द्र तां भवान् द्रष्टुमर्हति॥
मूलम्
स्त्रीरत्नमतिचार्वङ्गी द्योतयन्ती दिशस्त्विषा।
सा तु तिष्ठति दैत्येन्द्र तां भवान् द्रष्टुमर्हति॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ९२)
स्त्रियोंमें तो वह रत्न है, उसका प्रत्येक अंग बहुत ही सुन्दर है तथा वह अपने श्रीअंगोंकी प्रभासे सम्पूर्ण दिशाओंमें प्रकाश फैला रही है। दैत्यराज! अभी वह हिमालय-पर ही मौजूद है, आप उसे देख सकते हैं॥ ९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानि रत्नानि मणयो गजाश्वादीनि वै प्रभो।
त्रैलोक्ये तु समस्तानि साम्प्रतं भान्ति ते गृहे॥
मूलम्
यानि रत्नानि मणयो गजाश्वादीनि वै प्रभो।
त्रैलोक्ये तु समस्तानि साम्प्रतं भान्ति ते गृहे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ९३)
प्रभो! तीनों लोकोंमें मणि, हाथी और घोड़े आदि जितने भी रत्न हैं, वे सब इस समय आपके घरमें शोभा पाते हैं॥ ९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐरावतः समानीतो गजरत्नं पुरन्दरात्।
पारिजाततरुश्चायं तथैवोच्चैःश्रवा हयः॥
मूलम्
ऐरावतः समानीतो गजरत्नं पुरन्दरात्।
पारिजाततरुश्चायं तथैवोच्चैःश्रवा हयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ९४)
हाथियोंमें रत्नभूत ऐरावत, यह पारिजातका वृक्ष और यह उच्चैःश्रवा घोड़ा—यह सब आपने इन्द्रसे ले लिया है॥ ९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विमानं हंससंयुक्तमेतत्तिष्ठति तेऽङ्गणे।
रत्नभूतमिहानीतं यदासीद्वेधसोऽद्भुतम्॥
मूलम्
विमानं हंससंयुक्तमेतत्तिष्ठति तेऽङ्गणे।
रत्नभूतमिहानीतं यदासीद्वेधसोऽद्भुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ९५)
हंसोंसे जुता हुआ यह विमान भी आपके आँगनमें शोभा पाता है। यह रत्नभूत अद्भुत विमान, जो पहले ब्रह्माजीके पास था, अब आपके यहाँ लाया गया है॥ ९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निधिरेष महापद्मः समानीतो धनेश्वरात्।
किञ्जल्किनीं ददौ चाब्धिर्मालामम्लानपङ्कजाम्॥
मूलम्
निधिरेष महापद्मः समानीतो धनेश्वरात्।
किञ्जल्किनीं ददौ चाब्धिर्मालामम्लानपङ्कजाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ९६)
यह महापद्म नामक निधि आप कुबेरसे छीन लाये हैं। समुद्रने भी आपको किंजल्किनी नामकी माला भेंट की है, जो केसरोंसे सुशोभित है और जिसके कमल कभी कुम्हलाते नहीं हैं॥ ९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छत्रं ते वारुणं गेहे काञ्चनस्रावि तिष्ठति।
तथायं स्यन्दनवरो यः पुराऽऽसीत्प्रजापतेः॥
मूलम्
छत्रं ते वारुणं गेहे काञ्चनस्रावि तिष्ठति।
तथायं स्यन्दनवरो यः पुराऽऽसीत्प्रजापतेः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ९७)
सुवर्णकी वर्षा करनेवाला वरुणका छत्र भी आपके घरमें शोभा पाता है तथा यह श्रेष्ठ रथ, जो पहले प्रजापतिके अधिकारमें था, अब आपके पास मौजूद है॥ ९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृत्योरुत्क्रान्तिदा नाम शक्तिरीश त्वया हृता।
पाशः सलिलराजस्य भ्रातुस्तव परिग्रहे॥
मूलम्
मृत्योरुत्क्रान्तिदा नाम शक्तिरीश त्वया हृता।
पाशः सलिलराजस्य भ्रातुस्तव परिग्रहे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ९८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
निशुम्भस्याब्धिजाताश्च समस्ता रत्नजातयः।
वह्निरपि* ददौ तुभ्यमग्निशौचे च वाससी॥
मूलम्
निशुम्भस्याब्धिजाताश्च समस्ता रत्नजातयः।
वह्निरपि* ददौ तुभ्यमग्निशौचे च वाससी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ९९)
दैत्येश्वर! मृत्युकी उत्क्रान्तिदा नामवाली शक्ति भी आपने छीन ली है तथा वरुणका पाश और समुद्रमें होनेवाले सब प्रकारके रत्न आपके भाई निशुम्भके अधिकारमें हैं। अग्निने भी स्वतः शुद्ध किये हुए दो वस्त्र आपकी सेवामें अर्पित किये हैं॥ ९८-९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं दैत्येन्द्र रत्नानि समस्तान्याहृतानि ते।
स्त्रीरत्नमेषा कल्याणी त्वया कस्मान्न गृह्यते॥
मूलम्
एवं दैत्येन्द्र रत्नानि समस्तान्याहृतानि ते।
स्त्रीरत्नमेषा कल्याणी त्वया कस्मान्न गृह्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १००)
दैत्यराज! इस प्रकार सभी रत्न आपने एकत्र कर लिये हैं। फिर जो यह स्त्रियोंमें रत्नरूप कल्याणमयी देवी है, इसे आप क्यों नहीं अपने अधिकारमें कर लेते?’॥ १००॥
दौत्यम्
मूलम् (वचनम्)
ऋषिरुवाच॥ १०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निशम्येति वचः शुम्भः
स तदा चण्ड-मुण्डयोः।
प्रेषयाम् आस सुग्रीवं
दूतं देव्या महासुरम्॥१०२॥
मूलम्
निशम्येति वचः शुम्भः स तदा चण्डमुण्डयोः।
प्रेषयामास सुग्रीवं दूतं देव्या महासुरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १०२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति चेति च वक्तव्या
सा गत्वा वचनान् मम।
यथा चाभ्येति सम्प्रीत्या
तथा कार्यं त्वया लघु॥१०३॥
मूलम्
इति चेति च वक्तव्या सा गत्वा वचनान्मम।
यथा चाभ्येति सम्प्रीत्या तथा कार्यं त्वया लघु॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १०३)
ऋषि कहते हैं—॥ १०१॥ चण्ड-मुण्डका यह वचन सुनकर शुम्भने महादैत्य सुग्रीवको दूत बनाकर देवीके पास भेजा और कहा—‘तुम मेरी आज्ञासे उसके सामने ये-ये बातें कहना और ऐसा उपाय करना, जिससे प्रसन्न होकर वह शीघ्र ही यहाँ आ जाय’॥ १०२-१०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत्र गत्वा यत्रास्ते
शैलोद्देशे ऽतिशोभने।
सा देवी, तां ततः प्राह
श्लक्ष्णं मधुरया गिरा॥१०४॥
मूलम्
स तत्र गत्वा यत्रास्ते शैलोद्देशेऽतिशोभने।
तां च देवीं ततः प्राह श्लक्ष्णं मधुरया गिरा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५।१०४)
वह दूत पर्वतके अत्यन्त रमणीय प्रदेशमें, जहाँ देवी मौजूद थीं, गया और मधुर वाणीमें कोमल वचन बोला॥ १०४॥
मूलम् (वचनम्)
दूत उवाच॥ १०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवि दैत्येश्वरः शुम्भस्
त्रैलोक्ये परमेश्वरः।
दूतोऽहं प्रेषितस् तेन
त्वत्-सकाशम् इहागतः॥१०६॥
मूलम्
देवि दैत्येश्वरः शुम्भस्त्रैलोक्ये परमेश्वरः।
दूतोऽहं प्रेषितस्तेन त्वत्सकाशमिहागतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १०६)
दूत बोला—॥ १०५॥ देवि! दैत्यराज शुम्भ इस समय तीनों लोकोंके परमेश्वर हैं। मैं उन्हींका भेजा हुआ दूत हूँ और यहाँ तुम्हारे ही पास आया हूँ॥ १०६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्याहताज्ञः सर्वासु
यः सदा देव-योनिषु।
निर्जिताखिल-दैत्यारिः
स यद् आह शृणुष्व तत्॥१०७॥
मूलम्
अव्याहताज्ञः सर्वासु यः सदा देवयोनिषु।
निर्जिताखिलदैत्यारिः स यदाह शृणुष्व तत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १०७)
उनकी आज्ञा सदा सब देवता एक स्वरसे मानते हैं। कोई उसका उल्लंघन नहीं कर सकता। वे सम्पूर्ण देवताओंको परास्त कर चुके हैं। उन्होंने तुम्हारे लिये जो संदेश दिया है, उसे सुनो—॥ १०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम त्रैलोक्यमखिलं
मम देवा वशानुगाः।
यज्ञभागान् अहं सर्वान्
उपाश्नामि पृथक् पृथक्॥
मूलम्
मम त्रैलोक्यमखिलं मम देवा वशानुगाः।
यज्ञभागानहं सर्वानुपाश्नामि पृथक् पृथक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १०८)
‘सम्पूर्ण त्रिलोकी मेरे अधिकारमें है। देवता भी मेरी आज्ञाके अधीन चलते हैं। सम्पूर्ण यज्ञोंके भागोंको मैं ही पृथक्-पृथक् भोगता हूँ॥ १०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रैलोक्ये वररत्नानि मम वश्यान्यशेषतः।
तथैव गजरत्नं च हृत्वा देवेन्द्रवाहनम्॥
मूलम्
त्रैलोक्ये वररत्नानि मम वश्यान्यशेषतः।
तथैव गजरत्नं च हृत्वा देवेन्द्रवाहनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १०९)
पादटिप्पनी
१-पा०—गजरत्नानि।
२-पा०—हृतं।
अनुवाद (हिन्दी)
तीनों लोकोंमें जितने श्रेष्ठ रत्न हैं, वे सब मेरे अधिकारमें हैं। देवराज इन्द्रका वाहन ऐरावत, जो हाथियोंमें रत्नके समान है, मैंने छीन लिया है॥ १०९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीरोदमथनोद्भूतमश्वरत्नं ममामरैः।
उच्चैःश्रवससंज्ञं तत्प्रणिपत्य समर्पितम्॥
मूलम्
क्षीरोदमथनोद्भूतमश्वरत्नं ममामरैः।
उच्चैःश्रवससंज्ञं तत्प्रणिपत्य समर्पितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ११०)
क्षीरसागरका मन्थन करनेसे जो अश्वरत्न उच्चैःश्रवा प्रकट हुआ था, उसे देवताओंने मेरे पैरोंपर पड़कर समर्पित किया है॥ ११०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानि चान्यानि देवेषु गन्धर्वेषूरगेषु च।
रत्नभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने॥
मूलम्
यानि चान्यानि देवेषु गन्धर्वेषूरगेषु च।
रत्नभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १११)
सुन्दरी! उनके सिवा और भी जितने रत्नभूत पदार्थ देवताओं, गन्धर्वों और नागोंके पास थे, वे सब मेरे ही पास आ गये हैं॥ १११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीरत्नभूतां त्वां देवि लोके मन्यामहे वयम्।
सा त्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्नभुजो वयम्॥
मूलम्
स्त्रीरत्नभूतां त्वां देवि लोके मन्यामहे वयम्।
सा त्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्नभुजो वयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ११२)
देवि! हमलोग तुम्हें संसारकी स्त्रियोंमें रत्न मानते हैं, अतः तुम हमारे पास आ जाओ; क्योंकि रत्नोंका उपभोग करनेवाले हम ही हैं॥ ११२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां वा ममानुजं वापि निशुम्भमुरुविक्रमम्।
भज त्वं चञ्चलापाङ्गि रत्नभूतासि वै यतः॥
मूलम्
मां वा ममानुजं वापि निशुम्भमुरुविक्रमम्।
भज त्वं चञ्चलापाङ्गि रत्नभूतासि वै यतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ११३)
चंचल कटाक्षोंवाली सुन्दरी! तुम मेरी या मेरे भाई महापराक्रमी निशुम्भकी सेवामें आ जाओ; क्योंकि तुम रत्नस्वरूपा हो॥ ११३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यसे मत्परिग्रहात्।
एतद् बुद्ध्या समालोच्य मत्परिग्रहतां व्रज॥
मूलम्
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यसे मत्परिग्रहात्।
एतद् बुद्ध्या समालोच्य मत्परिग्रहतां व्रज॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ११४)
मेरा वरण करनेसे तुम्हें तुलनारहित महान् ऐश्वर्यकी प्राप्ति होगी। अपनी बुद्धिसे यह विचारकर तुम मेरी पत्नी बन जाओ’॥ ११४॥
मूलम् (वचनम्)
ऋषिरुवाच॥ ११५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्ता सा तदा देवी
गम्भीरान्तःस्मिता जगौ।
दुर्गा भगवती भद्रा
ययेदं धार्यते जगत्॥११६॥
मूलम्
इत्युक्ता सा तदा देवी गम्भीरान्तःस्मिता जगौ।
दुर्गा भगवती भद्रा ययेदं धार्यते जगत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ११६)
ऋषि कहते हैं—॥ ११५॥ दूतके यों कहनेपर कल्याणमयी भगवती दुर्गादेवी, जो इस जगत् को धारण करती हैं, मन-ही-मन गम्भीरभावसे मुसकरायीं और इस प्रकार बोलीं—॥ ११६॥
मूलम् (वचनम्)
देव्युवाच॥ ११७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यमुक्तं त्वया नात्र मिथ्या किञ्चित्त्वयोदितम्।
त्रैलोक्याधिपतिः शुम्भो निशुम्भश्चापि तादृशः॥
मूलम्
सत्यमुक्तं त्वया नात्र मिथ्या किञ्चित्त्वयोदितम्।
त्रैलोक्याधिपतिः शुम्भो निशुम्भश्चापि तादृशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ११८)
देवीने कहा—॥ ११७॥ दूत! तुमने सत्य कहा है, इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है। शुम्भ तीनों लोकोंका स्वामी है और निशुम्भ भी उसीके समान पराक्रमी है॥ ११८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं त्वत्र यत्प्रतिज्ञातं मिथ्या तत्क्रियते कथम्।
श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञा या कृता पुरा॥
मूलम्
किं त्वत्र यत्प्रतिज्ञातं मिथ्या तत्क्रियते कथम्।
श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञा या कृता पुरा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। ११९)
किंतु इस विषयमें मैंने जो प्रतिज्ञा कर ली है, उसे मिथ्या कैसे करूँ? मैंने अपनी अल्पबुद्धिके कारण पहलेसे जो प्रतिज्ञा कर रखी है, उसे सुनो—॥ ११९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति॥
मूलम्
यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १२०)
‘जो मुझे संग्राममें जीत लेगा, जो मेरे अभिमानको चूर्ण कर देगा तथा संसारमें जो मेरे समान बलवान् होगा, वही मेरा स्वामी होगा’॥ १२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् आगच्छतु शुम्भोऽत्र
निशुम्भो वा महासुरः।
मां जित्वा किं चिरेणात्र
पाणिं गृह्णातु मे लघु॥
मूलम्
तदागच्छतु शुम्भोऽत्र निशुम्भो वा महासुरः।
मां जित्वा किं चिरेणात्र पाणिं गृह्णातु मे लघु॥
मूलम् (भास्कररायः)
तदागच्छतु शुम्भोऽत्र निशुम्भो वा महाबलः।
मां जित्वा किं चिरेणात्र पाणिं गृह्णातु मे लघु॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १२१)
इसलिये शुम्भ अथवा महादैत्य निशुम्भ स्वयं ही यहाँ पधारें और मुझे जीतकर शीघ्र ही मेरा पाणिग्रहण कर लें, इसमें विलम्बकी क्या आवश्यकता है?॥ १२१॥
मूलम् (वचनम्)
दूत उवाच॥ १२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवलिप्तासि मैवं त्वं देवि ब्रूहि ममाग्रतः।
त्रैलोक्ये कः पुमांस्तिष्ठेदग्रे शुम्भनिशुम्भयोः॥
मूलम्
अवलिप्तासि मैवं त्वं देवि ब्रूहि ममाग्रतः।
त्रैलोक्ये कः पुमांस्तिष्ठेदग्रे शुम्भनिशुम्भयोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १२३)
दूत बोला—॥ १२२॥ देवि! तुम घमंडमें भरी हो, मेरे सामने ऐसी बातें न करो। तीनों लोकोंमें कौन ऐसा पुरुष है, जो शुम्भ-निशुम्भके सामने खड़ा हो सके॥ १२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्येषामपि दैत्यानां सर्वे देवा न वै युधि।
तिष्ठन्ति सम्मुखे देवि किं पुनः स्त्री त्वमेकिका॥
मूलम्
अन्येषामपि दैत्यानां सर्वे देवा न वै युधि।
तिष्ठन्ति सम्मुखे देवि किं पुनः स्त्री त्वमेकिका॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १२४)
देवि! अन्य दैत्योंके सामने भी सारे देवता युद्धमें नहीं ठहर सकते, फिर तुम अकेली स्त्री होकर कैसे ठहर सकती हो॥ १२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्राद्याः सकला देवास्तस्थुर्येषां न संयुगे।
शुम्भादीनां कथं तेषां स्त्री प्रयास्यसि सम्मुखम्॥
मूलम्
इन्द्राद्याः सकला देवास्तस्थुर्येषां न संयुगे।
शुम्भादीनां कथं तेषां स्त्री प्रयास्यसि सम्मुखम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १२५)
जिन शुम्भ आदि दैत्योंके सामने इन्द्र आदि सब देवता भी युद्धमें खड़े नहीं हुए, उनके सामने तुम स्त्री होकर कैसे जाओगी॥ १२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा त्वं गच्छ मयैवोक्ता पार्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः।
केशाकर्षणनिर्धूतगौरवा मा गमिष्यसि॥
मूलम्
सा त्वं गच्छ मयैवोक्ता पार्श्वं शुम्भनिशुम्भयोः।
केशाकर्षणनिर्धूतगौरवा मा गमिष्यसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १२६)
इसलिये तुम मेरे ही कहनेसे शुम्भ-निशुम्भके पास चली चलो। ऐसा करनेसे तुम्हारे गौरवकी रक्षा होगी; अन्यथा जब वे केश पकड़कर घसीटेंगे, तब तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा खोकर जाना पड़ेगा॥ १२६॥
मूलम् (वचनम्)
देव्युवाच॥ १२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवम् एतद् बली शुम्भो
निशुम्भश् चातिवीर्यवान्।
किं करोमि प्रतिज्ञा मे
यद् अनालोचिता पुरा॥१२८॥
मूलम्
एवमेतद् बली शुम्भो निशुम्भश्चातिवीर्यवान्।
किं करोमि प्रतिज्ञा मे यदनालोचिता पुरा॥
मूलम् (भास्कररायः)
एवमेतद् बली शुम्भो निशुम्भश्चापि तादृशः।
किं करोमि प्रतिज्ञा मे यदनालोचिता पुरा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १२८)
देवीने कहा—॥ १२७॥ तुम्हारा कहना ठीक है, शुम्भ बलवान् हैं और निशुम्भ भी बड़े पराक्रमी हैं; किंतु क्या करूँ? मैंने पहले बिना सोचे-समझे प्रतिज्ञा कर ली है॥ १२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं गच्छ मयोक्तं ते
यद् एतत् सर्वम् आदृतः।
तद् आचक्ष्वासुरेन्द्राय
स च युक्तं करोतु तत्॥॥१२९॥
ॐ॥
मूलम्
स त्वं गच्छ मयोक्तं ते यदेतत्सर्वमादृतः।
तदाचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्तं करोतु तत्॥ ॐ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०५। १२९)
अतः अब तुम जाओ; मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, वह सब दैत्यराजसे आदरपूर्वक कहना। फिर वे जो उचित जान पड़े, करें॥ १२९॥
मूलम् (समाप्तिः)
॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये देव्या दूतसंवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥ ५॥
उवाच ९, त्रिपान्मन्त्राः ६६, श्लोकाः ५४, एवम् १२९, एवमादितः३८८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार श्रीमाकर्ण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्म्यमें ‘देवी-दूत-संवाद’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ५॥