+०१ मधुकैटभवधः

न्यासः

विश्वास-प्रस्तुतिः

ॐ प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, महाकाली देवता, गायत्री छन्दः, नन्दा शक्तिः, रक्तदन्तिका बीजम्, अग्निस्तत्त्वम्, ऋग्वेदः स्वरूपम्, श्रीमहाकालीप्रीत्यर्थे प्रथमचरित्रजपे विनियोगः।

मूलम्

ॐ प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, महाकाली देवता, गायत्री छन्दः, नन्दा शक्तिः, रक्तदन्तिका बीजम्, अग्निस्तत्त्वम्, ऋग्वेदः स्वरूपम्, श्रीमहाकालीप्रीत्यर्थे प्रथमचरित्रजपे विनियोगः।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रथम चरित्रके ब्रह्मा ऋषि, महाकाली देवता, गायत्री छन्द, नन्दा शक्ति, रक्तदन्तिका बीज, अग्नि तत्त्व और ऋग्वेद स्वरूप है। श्रीमहाकाली देवताकी प्रसन्नताके लिये प्रथम चरित्रके जपमें विनियोग किया जाता है।

ध्यानम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

ॐ खड्गं चक्र-गदेषु-चाप-परिघाञ् छूलं भुशुण्डीं शिरः
शङ्खं संदधतीं करैस् त्रिनयनां सर्वाङ्ग-भूषा-वृताम्।
नीलाश्म-द्युतिम् आस्य-पाद-दशकां सेवे महाकालिकां
याम् अस्तौत् स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥

मूलम्

ॐ खड्गं चक्रगदेषुचापपरिघाञ्छूलं भुशुण्डीं शिरः
शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥

मूलम् (भास्कररायः)

ॐ खड्गं चक्रगदेषुचापपरिघान् शूलं भुशुण्डीं शिरः
शङ्खं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वाङ्गभूषावृताम्।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां
यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधुं कैटभम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् विष्णुके सो जानेपर मधु और कैटभको मारनेके लिये कमलजन्मा ब्रह्माजीने जिनका स्तवन किया था, उन महाकाली देवीका मैं सेवन करता हूँ। वे अपने दस हाथोंमें खड्ग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, मस्तक और शंख धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वे समस्त अंगोंमें दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं। उनके शरीरकी कान्ति नीलमणिके समान है तथा वे दस मुख और दस पैरोंसे युक्त हैं।

प्रस्तावः

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमश् चण्डिकायै।
‘ॐ’ ऐं।

मूलम्

ॐ नमश्चण्डिकायै।
‘ॐ’ ऐं।

अनुवाद (हिन्दी)

ॐ चण्डीदेवीको नमस्कार है।

मूलम् (वचनम्)

मार्कण्डेय उवाच॥ १॥

सावर्णिमनुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

सावर्णिः सूर्य-तनयो
यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः।
निशामय तद्-उत्पत्तिं
विस्तराद् गदतो मम॥२॥

मूलम्

सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः।
निशामय तदुत्पत्तिं विस्तराद् गदतो मम॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। २)
मार्कण्डेयजी बोले—॥ १॥ सूर्यके पुत्र सावर्णि जो आठवें मनु कहे जाते हैं, उनकी उत्पत्तिकी कथा विस्तारपूर्वक कहता हूँ, सुनो॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महामाया ऽनुभावेन
यथा मन्वन्तराधिपः
बभूव महाभागः
सावर्णिस् तनयो रवेः॥

मूलम्

महामायानुभावेन यथा मन्वन्तराधिपः।
स बभूव महाभागः सावर्णिस्तनयो रवेः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ३)
सूर्यकुमार महाभाग सावर्णि भगवती महामायाके अनुग्रहसे जिस प्रकार मन्वन्तरके स्वामी हुए, वही प्रसंग सुनाता हूँ॥ ३॥

राज-वैश्य-व्यसनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वारोचिषे ऽन्तरे पूर्वं
चैत्रवंश-समुद्भवः।
सुरथो नाम राजाऽभूत्
समस्ते क्षिति-मण्डले॥४॥

मूलम्

स्वारोचिषेऽन्तरे पूर्वं चैत्रवंशसमुद्भवः।
सुरथो नाम राजाभूत्समस्ते क्षितिमण्डले॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ४)
पूर्वकालकी बात है, स्वारोचिष मन्वन्तरमें सुरथ नामके एक राजा थे, जो चैत्रवंशमें उत्पन्न हुए थे। उनका समस्त भूमण्डलपर अधिकार था॥ ४॥

राजव्यसनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य पालयतः सम्यक्
प्रजाः पुत्रान् इवौरसान्।
बभूवुः शत्रवो भूपाः
+++(नाम्ना)+++ कोला-विध्वंसिनस् तदा॥५॥

मूलम्

तस्य पालयतः सम्यक्
प्रजाः पुत्रान् इवौरसान्।
बभूवुः शत्रवो भूपाः
कोला-विध्वंसिनस् तदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ५)
वे प्रजाका अपने औरस पुत्रोंकी भाँति धर्मपूर्वक पालन करते थे; तो भी उस समय कोलाविध्वंसी1 नामके क्षत्रिय उनके शत्रु हो गये॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य तैर् अभवद् युद्धम्
अति-प्रबल-दण्डिनः।
न्यूनैर् अपि स तैर् युद्धे
कोला-विध्वंसिभिर् जितः

मूलम्

तस्य तैरभवद् युद्धमतिप्रबलदण्डिनः।
न्यूनैरपि स तैर्युद्धे कोलाविध्वंसिभिर्जितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ६)
राजा सुरथकी दण्डनीति बड़ी प्रबल थी। उनका शत्रुओंके साथ संग्राम हुआ। यद्यपि कोलाविध्वंसी संख्यामें कम थे, तो भी राजा सुरथ युद्धमें उनसे परास्त हो गये॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स्व-पुरम् आयातो
निज-देशाधिपो ऽभवत्
आक्रान्तः स महाभागस्
तैस् तदा प्रबलारिभिः॥७॥

मूलम्

ततः स्वपुरमायातो निजदेशाधिपोऽभवत्।
आक्रान्तः स महाभागस्तैस्तदा प्रबलारिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ७)
तब वे युद्धभूमिसे अपने नगरको लौट आये और केवल अपने देशके राजा होकर रहने लगे (समूची पृथ्वीसे अब उनका अधिकार जाता रहा), किंतु वहाँ भी उन प्रबल शत्रुओंने उस समय महाभाग राजा सुरथपर आक्रमण कर दिया॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमात्यैर् बलिभिर् दुष्टैर्
दुर्बलस्य दुरात्मभिः।
कोशो बलं चापहृतं
तत्रापि स्वपुरे ततः॥८॥

मूलम्

अमात्यैर्बलिभिर्दुष्टैर्दुर्बलस्य दुरात्मभिः।
कोशो बलं चापहृतं तत्रापि स्वपुरे ततः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ८)
राजाका बल क्षीण हो चला था; इसलिये उनके दुष्ट, बलवान् एवं दुरात्मा मन्त्रियोंने वहाँ उनकी राजधानीमें भी राजकीय सेना और खजानेको हथिया लिया॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मृगया-व्याजेन
हृत-स्वाम्यः स भूपतिः।
एकाकी हयम् आरुह्य
जगाम गहनं वनम्॥९॥

मूलम्

ततो मृगयाव्याजेन हृतस्वाम्यः स भूपतिः।
एकाकी हयमारुह्य जगाम गहनं वनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ९)
सुरथका प्रभुत्व नष्ट हो चुका था, इसलिये वे शिकार खेलनेके बहाने घोड़ेपर सवार हो वहाँसे अकेले ही एक घने जंगलमें चले गये॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राश्रमम् अद्राक्षीद्
द्विज-वर्यस्य मेधसः।
प्रशान्तः श्वापदाकीर्णं
मुनि-शिष्योपशोभितम्॥१०॥

मूलम्

स तत्राश्रममद्राक्षीद् द्विजवर्यस्य मेधसः।
प्रशान्तश्वापदाकीर्णं मुनिशिष्योपशोभितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। १०)
वहाँ उन्होंने विप्रवर मेधा मुनिका आश्रम देखा, जहाँ कितने ही हिंसक जीव [अपनी स्वाभाविक हिंसावृत्ति छोड़कर] परम शान्तभावसे रहते थे। मुनिके बहुत-से शिष्य उस वनकी शोभा बढ़ा रहे थे॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्थौ कंचित् स कालं च
मुनिना तेन सत्कृतः
इतश् चेतश् च विचरंस्
तस्मिन् मुनिवराश्रमे॥११॥

मूलम्

तस्थौ कंचित्स कालं च मुनिना तेन सत्कृतः।
इतश्चेतश्च विचरंस्तस्मिन्मुनिवराश्रमे॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ११)
वहाँ जानेपर मुनिने उनका सत्कार किया और वे उन मुनिश्रेष्ठके आश्रमपर इधर-उधर विचरते हुए कुछ कालतक रहे॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽचिन्तयत् तदा तत्र
ममत्वाकृष्ट-मानसः।
मत्-पूर्वैः पालितं पूर्वं
मया हीनं पुरं हि तत्॥१२॥

मूलम्

सोऽचिन्तयत्तदा तत्र ममत्वाकृष्टचेतनः।
मत्पूर्वैः पालितं पूर्वं मया हीनं पुरं हि तत् ॥

मूलम् (भास्कररायः)

सोऽचिन्तयत्तदा तत्र ममत्वाकृष्टमानसः।
मत्पूर्वैः पालितं पूर्वं मया हीनं पुरं हि तत् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। १२) फिर ममतासे आकृष्टचित्त होकर वहाँ इस प्रकार चिन्ता करने लगे—‘पूर्वकालमें मेरे पूर्वजोंने जिसका पालन किया था, वही नगर आज मुझसे रहित है। …'

विश्वास-प्रस्तुतिः

मद्-भृत्यैस् तैर् असद्-वृत्तैर्
धर्मतः पाल्यते न वा
न जाने स प्रधानो मे
शूर-हस्ती सदामदः॥१३॥

मूलम् (भास्कररायः)

मद्‍भृत्यैस्तैरसद्‍वृत्तैर्धर्मतः पाल्यते न वा।
न जाने स प्रधानो मे शूरो हस्ती सदामदः॥

मूलम् (भास्कररायः)

मद्‍भृत्यैस्तैरसद्‍वृत्तैर्धर्मतः पाल्यते न वा।
न जाने स प्रधानो मे शूरहस्ती सदामदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। १३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम वैरिवशं यातः
कान् भोगान् उपलप्स्यते
ये ममानुगता नित्यं
प्रसाद-धन-भोजनैः॥१४॥

मूलम्

मम वैरिवशं यातः कान् भोगानुपलप्स्यते।
ये ममानुगता नित्यं प्रसादधनभोजनैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। १४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुवृत्तिं ध्रुवं तेऽद्य
कुर्वन्त्य् अन्य-मही-भृताम्
असम्यग्-व्यय-शीलैस् तैः
कुर्वद्भिः सततं व्ययम्॥१५॥

मूलम्

अनुवृत्तिं ध्रुवं तेऽद्य कुर्वन्त्यन्यमहीभृताम्।
असम्यग्व्ययशीलैस्तैः कुर्वद्भिः सततं व्ययम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। १५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सञ्चितः सोऽतिदुःखेन
क्षयं कोशो गमिष्यति
एतच् चान्यच् च सततं
चिन्तयाम् आस पार्थिवः॥१६॥

मूलम्

संचितः सोऽतिदुःखेन क्षयं कोशो गमिष्यति।
एतच्चान्यच्च सततं चिन्तयामास पार्थिवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। १६) ‘पता नहीं, मेरे दुराचारी भृत्यगण उसकी धर्मपूर्वक रक्षा करते हैं या नहीं। जो सदा मदकी वर्षा करनेवाला और शूरवीर था, वह मेरा प्रधान हाथी अब शत्रुओंके अधीन होकर न जाने किन भोगोंको भोगता होगा? जो लोग मेरी कृपा, धन और भोजन पानेसे सदा मेरे पीछे-पीछे चलते थे, वे निश्चय ही अब दूसरे राजाओंका अनुसरण करते होंगे। उन अपव्ययी लोगोंके द्वारा सदा खर्च होते रहनेके कारण अत्यन्त कष्टसे जमा किया हुआ मेरा वह खजाना खाली हो जायगा।’ ये तथा और भी कई बातें राजा सुरथ निरन्तर सोचते रहते थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र विप्राश्रमाऽभ्याशो
वैश्यम् एकं ददर्श सः।
स पृष्टस् तेन - “कस् त्वं भो
हेतुश् चागमनेऽत्र कः”॥१७॥

मूलम्

तत्र विप्राश्रमाभ्याशे वैश्यमेकं ददर्श सः।
स पृष्टस्तेन कस्त्वं भो हेतुश्चागमनेऽत्र कः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। १७) एक दिन उन्होंने वहाँ विप्रवर मेधाके आश्रमके निकट एक वैश्यको देखा और उससे पूछा—‘भाई! तुम कौन हो? यहाँ तुम्हारे आनेका क्या कारण है?

विश्वास-प्रस्तुतिः

सशोक इव कस्मात् त्वं
दुर्मना इव लक्ष्यसे
इत्य् आकर्ण्य वचस् तस्य
भूपतेः प्रणयोदितम्॥१८॥

मूलम्

सशोक इव कस्मात्त्वं दुर्मना इव लक्ष्यसे।
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य भूपतेः प्रणयोदितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। १८) ‘तुम क्यों शोकग्रस्त और अनमने-से दिखायी देते हो?’

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्युवाच स तं वैश्यः
प्रश्रयावनतो नृपम्॥१९॥

मूलम्

प्रत्युवाच स तं वैश्यः प्रश्रयावनतो नृपम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। १९)
राजा सुरथका यह प्रेमपूर्वक कहा हुआ वचन सुनकर वैश्यने विनीतभावसे उन्हें प्रणाम करके कहा—॥ १२—१९॥

वैश्यव्यसनम्

मूलम् (वचनम्)

वैश्य उवाच ॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाधिर् नाम वैश्यो ऽहम्
उत्पन्नो धनिनां कुले॥

मूलम्

समाधिर्नाम वैश्योऽहमुत्पन्नो धनिनां कुले॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। २१)
वैश्य बोला—॥ २०॥ राजन्! मैं धनियोंके कुलमें उत्पन्न एक वैश्य हूँ। मेरा नाम समाधि है॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्र-दारैर् निरस्तश्
धन-लोभाद् असाधुभिः।
विहीनश् च धनैर् दारैः
पुत्रैर् आदाय मे धनम्॥

मूलम्

पुत्रदारैर्निरस्तश्च धनलोभादसाधुभिः।
विहीनश्च धनैर्दारैः पुत्रैरादाय मे धनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। २२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनम् अभ्यागतो दुःखी
निरस्तश् चाप्त-बन्धुभिः।
सोऽहं न वेद्मि पुत्राणां
कुशलाकुशलात्मिकाम्॥

मूलम्

वनमभ्यागतो दुःखी निरस्तश्चाप्तबन्धुभिः।
सोऽहं न वेद्मि पुत्राणां कुशलाकुशलात्मिकाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। २३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रवृत्तिं स्वजनानां च
दाराणां चात्र संस्थितः।
किं नु तेषां गृहे क्षेमम्
अक्षेमं किं नु साम्प्रतम्॥

मूलम्

प्रवृत्तिं स्वजनानां च दाराणां चात्र संस्थितः।
किं नु तेषां गृहे क्षेममक्षेमं किं नु साम्प्रतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। २४)
मेरे दुष्ट स्त्री-पुत्रोंने धनके लोभसे मुझे घरसे बाहर निकाल दिया है। मैं इस समय धन, स्त्री और पुत्रोंसे वंचित हूँ। मेरे विश्वसनीय बन्धुओंने मेरा ही धन लेकर मुझे दूर कर दिया है, इसलिये दुःखी होकर मैं वनमें चला आया हूँ। यहाँ रहकर मैं इस बातको नहीं जानता कि मेरे पुत्रोंकी, स्त्रीकी और स्वजनोंकी कुशल है या नहीं। इस समय घरमें वे कुशलसे रहते हैं अथवा उन्हें कोई कष्ट है?॥ २२—२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं ते किं नु सद्‍वृत्ता
दुर्वृत्ताः किं नु मे सुताः॥

मूलम्

कथं ते किं नु सद्‍वृत्ता दुर्वृत्ताः किं नु मे सुताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१।२५)
वे मेरे पुत्र कैसे हैं? क्या वे सदाचारी हैं अथवा दुराचारी हो गये हैं?॥ २५॥

मोहाभिज्ञानम्

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यैर् निरस्तो भवाल्ँ लुब्धैः
पुत्रदारादिभिर् धनैः॥
तेषु किं भवतः स्नेहम्
अनुबध्नाति मानसम्॥

मूलम्

यैर्निरस्तो भवाल्ँ लुब्धैः पुत्रदारादिभिर् धनैः॥
तेषु किं भवतः स्नेहमनुबध्नाति मानसम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। २८)
राजाने पूछा—॥ २६॥ जिन लोभी स्त्री-पुत्र आदिने धनके कारण तुम्हें घरसे निकाल दिया, उनके प्रति तुम्हारे चित्तमें इतना स्नेहका बन्धन क्यों है॥ २७-२८॥

मूलम् (वचनम्)

वैश्य उवाच॥ २९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवम् एतद् यथा प्राह
भवान् अस्मद्-गतं वचः॥

मूलम्

एवमेतद्यथा प्राह भवानस्मद्गतं वचः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ३०)
वैश्य बोला—॥ २९॥ आप मेरे विषयमें जैसी बात कहते हैं, वह सब ठीक है॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं करोमि न बध्नाति
मम निष्ठुरतां मनः
यैः संत्यज्य पितृ-स्नेहं
धन-लुब्धैर् निराकृतः …॥

मूलम्

किं करोमि न बध्नाति मम निष्ठुरतां मनः।
यैः संत्यज्य पितृस्नेहं धनलुब्धैर्निराकृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ३१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

… पति-स्वजन-हार्दं च,
हार्दि तेष्व् एव मे मनः।
किम् एतन् नाभिजानामि
जानन्न् अपि महामते॥

मूलम्

पतिस्वजनहार्दं च हार्दि तेष्वेव मे मनः।
किमेतन्नाभिजानामि जानन्नपि महामते॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ३२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्-प्रेम-प्रवणं चित्तं
विगुणेष्व् अपि बन्धुषु।
तेषां कृते मे निःश्वासो
दौर्-मनस्यं च जायते

मूलम्

यत्प्रेमप्रवणं चित्तं विगुणेष्वपि बन्धुषु।
तेषां कृते मे निःश्वासो दौर्मनस्यं च जायते॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ३३)
किंतु क्या करूँ, मेरा मन निष्ठुरता नहीं धारण करता। जिन्होंने धनके लोभमें पड़कर पिताके प्रति स्नेह, पतिके प्रति प्रेम तथा आत्मीयजनके प्रति अनुरागको तिलांजलि दे मुझे घरसे निकाल दिया है, उन्हींके प्रति मेरे हृदयमें इतना स्नेह है। महामते! गुणहीन बन्धुओंके प्रति भी जो मेरा चित्त इस प्रकार प्रेममग्न हो रहा है, यह क्या है—इस बातको मैं जानकर भी नहीं जान पाता। उनके लिये मैं लंबी साँसें ले रहा हूँ और मेरा हृदय अत्यन्त दुःखित हो रहा है॥ ३१—३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करोमि किं यन् न मनस् तेष्व्
अप्रीतिषु निष्ठुरम्॥

मूलम्

करोमि किं यन्न मनस्तेष्वप्रीतिषु निष्ठुरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ३४)
उन लोगोंमें प्रेमका सर्वथा अभाव है; तो भी उनके प्रति जो मेरा मन निष्ठुर नहीं हो पाता, इसके लिये क्या करूँ?॥ ३४॥

मूलम् (वचनम्)

मार्कण्डेय उवाच॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस् तौ सहितौ विप्र
तं मुनिं समुपस्थितौ

मूलम्

ततस्तौ सहितौ विप्र तं मुनिं समुपस्थितौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ३६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाधिर् नाम वैश्योऽसौ
स च पार्थिव-सत्तमः।
कृत्वा तु तौ यथान्यायं
यथार्हं तेन संविदम्॥
उपविष्टौ कथाः काश्चिच्
चक्रतुर् वैश्य-पार्थिवौ॥

मूलम्

समाधिर्नाम वैश्योऽसौ स च पार्थिवसत्तमः।
कृत्वा तु तौ यथान्यायं यथार्हं तेन संविदम्॥
उपविष्टौ कथाः काश्चिच्चक्रतुर्वैश्यपार्थिवौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ३८)
मार्कण्डेयजी कहते हैं—॥ ३५॥ ब्रह्मन्! तदनन्तर राजाओंमें श्रेष्ठ सुरथ और वह समाधि नामक वैश्य दोनों साथ-साथ मेधा मुनिकी सेवामें उपस्थित हुए और उनके साथ यथायोग्य न्यायानुकूल विनयपूर्ण बर्ताव करके बैठे। तत्पश्चात् वैश्य और राजाने कुछ वार्तालाप आरम्भ किया॥ ३६—३८॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवंस् त्वाम् अहं प्रष्टुम्
इच्छाम्य् एकं वदस्व तत्॥

मूलम्

भगवंस्त्वामहं प्रष्टुमिच्छाम्येकं वदस्व तत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ४०)
राजाने कहा—॥ ३९॥ भगवन्! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, उसे बताइये॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःखाय यन् मे मनसः
स्व-चित्तायत्ततां विना।
ममत्वं गत-राज्यस्य
राज्याङ्गेष्व् अखिलेष्व् अपि॥

मूलम्

दुःखाय यन्मे मनसः स्वचित्तायत्ततां विना।
ममत्वं गतराज्यस्य राज्याङ्गेष्वखिलेष्वपि॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ४१)
मेरा चित्त अपने अधीन न होनेके कारण वह बात मेरे मनको बहुत दुःख देती है। जो राज्य मेरे हाथसे चला गया है, उसमें और उसके सम्पूर्ण अंगोंमें मेरी ममता बनी हुई है॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानतोऽपि यथाऽज्ञस्य
किम् एतन् मुनि-सत्तम।
अयं च निकृतः पुत्रैर्
दारैर् भृत्यैस् तथोज्झितः॥

मूलम्

जानतोऽपि यथाज्ञस्य किमेतन्मुनिसत्तम।
अयं च निकृतः पुत्रैर्दारैर्भृत्यैस्तथोज्झितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ४२)
मुनिश्रेष्ठ! यह जानते हुए भी कि वह अब मेरा नहीं है, अज्ञानीकी भाँति मुझे उसके लिये दुःख होता है; यह क्या है? इधर यह वैश्य भी घरसे अपमानित होकर आया है। इसके पुत्र, स्त्री और भृत्योंने इसे छोड़ दिया है॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वजनेन च संत्यक्तस्
तेषु हार्दी तथाप्य् अति।
एवम् एष तथाहं च
द्वाव् अप्य् अत्यन्त-दुःखितौ॥

मूलम्

स्वजनेन च संत्यक्तस्तेषु हार्दी तथाप्यति।
एवमेष तथाहं च द्वावप्यत्यन्तदुःखितौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ४३)
स्वजनोंने भी इसका परित्याग कर दिया है, तो भी यह उनके प्रति अत्यन्त हार्दिक स्नेह रखता है। इस प्रकार यह तथा मैं—दोनों ही बहुत दुःखी हैं॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट-दोषेऽपि विषये
ममत्वाकृष्ट-मानसौ।
तत्-किम् एतन् महाभाग
यन् मोहो ज्ञानिनोर् अपि॥
ममास्य च भवत्य् एषा
विवेकान्धस्य मूढता॥+++(5)+++

मूलम्

दृष्टदोषेऽपि विषये ममत्वाकृष्टमानसौ।
तत्किमेतन्महाभाग यन्मोहो ज्ञानिनोरपि॥
ममास्य च भवत्येषा विवेकान्धस्य मूढता॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ४५)
जिसमें प्रत्यक्ष दोष देखा गया है, उस विषयके लिये भी हमारे मनमें ममताजनित आकर्षण पैदा हो रहा है। महाभाग! हम दोनों समझदार हैं; तो भी हममें जो मोह पैदा हुआ है, यह क्या है? विवेकशून्य पुरुषकी भाँति मुझमें और इसमें भी यह मूढ़ता प्रत्यक्ष दिखायी देती है॥ ४४-४५॥

हेत्व्-अभिज्ञानम्

मूलम् (वचनम्)

ऋषिरुवाच॥ ४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानम् अस्ति समस्तस्य
जन्तोर् विषय-गोचरे॥

मूलम्

ज्ञानमस्ति समस्तस्य जन्तोर्विषयगोचरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ४७)
ऋषि बोले—॥ ४६॥ महाभाग! विषयमार्गका ज्ञान सब जीवोंको है॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषयश् च महाभाग
+++(प्रति-व्यक्ति)+++ याति चैवं पृथक् पृथक्।
+++(यथा-)+++ दिवान्धाः प्राणिनः केचिद्
रात्रावन्धास् तथापरे॥

मूलम्

विषयश्च महाभाग याति चैवं पृथक् पृथक्।
दिवान्धाः प्राणिनः केचिद्रात्रावन्धास्तथापरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ४८)
इसी प्रकार विषय भी सबके लिये अलग-अलग हैं, कुछ प्राणी दिनमें नहीं देखते और दूसरे रातमें ही नहीं देखते॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचिद् दिवा तथा रात्रौ
प्राणिनस् तुल्य-दृष्टयः
ज्ञानिनो मनुजाः - सत्यं,
किं तु ते न हि केवलम् +++(ज्ञानिनः)+++॥

मूलम्

केचिद्दिवा तथा रात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः।
ज्ञानिनो मनुजाः सत्यं किं तु ते न हि केवलम्॥

मूलम् (भास्कररायः)

केचिद्दिवा तथा रात्रौ प्राणिनस्तुल्यदृष्टयः।
ज्ञानिनो मनुजाः सत्यं किं नु ते न हि केवलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ४९)
तथा कुछ जीव ऐसे हैं, जो दिन और रात्रिमें भी बराबर ही देखते हैं। यह ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं; किंतु केवल वे ही ऐसे नहीं होते॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतो हि ज्ञानिनः सर्वे
पशु-पक्षि-मृगादयः
ज्ञानं च तन् मनुष्याणां,
यत् तेषां मृग-पक्षिणाम्॥+++(5)+++

मूलम्

यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिमृगादयः।
ज्ञानं च तन्मनुष्याणां यत्तेषां मृगपक्षिणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ५०)
पशु, पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी समझदार होते हैं। मनुष्योंकी समझ भी वैसी ही होती है, जैसी उन मृग और पक्षियोंकी होती है॥ ५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनुष्याणां च यत् तेषां
तुल्यम् अन्यत् तथोभयोः।
ज्ञानेऽपि सति पश्यैतान्
पतङ्गाञ् छाव-चञ्चुषु
कण-मोक्षादृतान् मोहात्
पीड्यमानान् अपि क्षुधा।

मूलम्

मनुष्याणां च यत्तेषां तुल्यमन्यत्तथोभयोः।
ज्ञानेऽपि सति पश्यैतान् पतङ्गाञ्छावचञ्चुषु॥
कणमोक्षादृतान्मोहात् पीड्यमानानपि क्षुधा।

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ५२) तथा जैसी मनुष्योंकी होती है,वैसी ही उन मृग-पक्षी आदिकी होती है। यह तथा अन्य बातें भी प्रायः दोनोंमें समान ही हैं। समझ होनेपर भी इन पक्षियोंको तो देखो, ये स्वयं भूखसे पीड़ित होते हुए भी मोहवश बच्चोंकी चोंचमें कितने चावसे अन्नके दाने डाल रहे हैं!

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानुषा मनुज-व्याघ्र
साभिलाषाः सुतान् प्रति॥
लोभात् प्रत्युपकाराय
नन्व् एतान् किं न पश्यसि

मूलम्

मानुषा मनुजव्याघ्र साभिलाषाः सुतान् प्रति॥
लोभात्प्रत्युपकाराय नन्वेतान् किं न पश्यसि।

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ५३) नरश्रेष्ठ! क्या तुम नहीं देखते कि ये मनुष्य समझदार होते हुए भी लोभवश अपने किये हुए उपकारका बदला पानेके लिये पुत्रोंकी अभिलाषा करते हैं?

महामायापरिचयः

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथापि ममतावर्त्ते
मोहगर्ते निपातिताः
महामाया-प्रभावेण
संसार-स्थिति-कारिणा।

मूलम्

तथापि ममतावर्त्ते मोहगर्ते निपातिताः॥
महामायाप्रभावेण संसारस्थितिकारिणा*।

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ५४) यद्यपि उन सबमें समझकी कमी नहीं है, तथापि वे संसारकी स्थिति (जन्म-मरणकी परम्परा) बनाये रखनेवाले भगवती महामायाके प्रभावद्वारा ममतामय भँवरसे युक्त मोहके गहरे गर्तमें गिराये गये हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन् नात्र विस्मयः कार्यो
योगनिद्रा जगत्-पतेः॥
महामाया हरेश् चैषा
तया सम्मोह्यते जगत्।

मूलम्

तन्नात्र विस्मयः कार्यो योगनिद्रा जगत्पतेः॥
महामाया हरेश्चैषा तया सम्मोह्यते जगत्।

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ५५) इसलिये इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये। जगदीश्वर भगवान् विष्णुकी योगनिद्रारूपा जो भगवती महामाया हैं, उन्हींसे यह जगत् मोहित हो रहा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानिनाम् अपि चेतांसि
देवी भगवती हि सा॥
बलाद् आकृष्य मोहाय
महामाया प्रयच्छति।+++(5)+++

मूलम्

ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा॥
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ५६) वे भगवती महामायादेवी ज्ञानियोंके भी चित्तको बलपूर्वक खींचकर मोहमें डाल देती हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तया विसृज्यते विश्वं
जगद् एतच् चराचरम्॥
सैषा प्रसन्ना वरदा
नृणां भवति मुक्तये

मूलम्

तया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम्॥
सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये।

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ५७) वे ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत् की सृष्टि करती हैं तथा वे ही प्रसन्न होनेपर मनुष्योंको मुक्तिके लिये वरदान देती हैं।

मुक्त्य्-उपायः

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा विद्या परमा मुक्तेर्
हेतु-भूता सनातनी॥
संसार-बन्ध-हेतुश् च
सैव सर्वेश्वरेश्वरी॥

मूलम्

सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी॥
संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ५८)
वे ही परा विद्या संसार-बन्धन और मोक्षकी हेतुभूता सनातनीदेवी तथा सम्पूर्ण ईश्वरोंकी भी अधीश्वरी हैं॥ ५८॥

उत्पत्तिः

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच॥ ५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् का हि सा देवी
महामायेति यां भवान्॥
ब्रवीति, कथम् उत्पन्ना सा
कर्मास्याश् च किं द्विज।

मूलम्

भगवन् का हि सा देवी महामायेति यां भवान्॥
ब्रवीति कथमुत्पन्ना सा कर्मास्याश्च किं द्विज।

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ६१) राजाने पूछा—॥ ५९॥ भगवन्! जिन्हें आप महामाया कहते हैं, वे देवी कौन हैं? ब्रह्मन्! उनका आविर्भाव कैसे हुआ? तथा उनके चरित्र कौन-कौन हैं?

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्प्रभावा च सा देवी
यत्स्वरूपा यदुद्भवा॥
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि
त्वत्तो ब्रह्मविदां वर॥

मूलम्

यत्प्रभावा च सा देवी यत्स्वरूपा यदुद्भवा॥
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तो ब्रह्मविदां वर॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ६२)
ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षे! उन देवीका जैसा प्रभाव हो, जैसा स्वरूप हो और जिस प्रकार प्रादुर्भाव हुआ हो, वह सब मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ॥ ६०—६२॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषिरुवाच॥ ६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यैव सा जगन् मूर्तिस्
तया सर्वम् इदं ततम्
तथापि तत्-समुत्पत्तिर्
बहुधा श्रूयतां मम।

मूलम्

नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिदं ततम्॥
तथापि तत्समुत्पत्तिर्बहुधा श्रूयतां मम।

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ६४)
ऋषि बोले—॥ ६३॥ राजन्! वास्तवमें तो वे देवी नित्यस्वरूपा ही हैं। सम्पूर्ण जगत् उन्हींका रूप है तथा उन्होंने समस्त विश्वको व्याप्त कर रखा है, तथापि उनका प्राकट्य अनेक प्रकारसे होता है। वह मुझसे सुनो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवानां कार्य-सिद्ध्य्-अर्थम्
आविर् भवति सा यदा
उत्पन्नेति तदा लोके
सा नित्या ऽप्य् अभिधीयते

मूलम्

देवानां कार्यसिद्ध्यर्थमाविर्भवति सा यदा॥
उत्पन्नेति तदा लोके सा नित्याप्यभिधीयते।

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ६५)
यद्यपि वे नित्य और अजन्मा हैं, तथापि जब देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये प्रकट होती हैं, उस समय लोकमें उत्पन्न हुई कहलाती हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगनिद्रां यदा विष्णुर्
जगत्य् एकार्णवीकृते॥
आस्तीर्य शेषम् अभजत्
कल्पान्ते भगवान् प्रभुः।

मूलम्

योगनिद्रां यदा विष्णुर्जगत्येकार्णवीकृते॥
आस्तीर्य शेषमभजत्कल्पान्ते भगवान् प्रभुः।

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ६६)
कल्पके अन्तमें जब सम्पूर्ण जगत् एकार्णवमें निमग्न हो रहा था और सबके प्रभु भगवान् विष्णु शेषनागकी शय्या बिछाकर योगनिद्राका आश्रय ले सो रहे थे,

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा द्वावसुरौ घोरौ
विख्यातौ मधुकैटभौ
विष्णु-कर्ण-मलोद्भूतौ
हन्तुं ब्रह्माणम् उद्यतौ

मूलम्

तदा द्वावसुरौ घोरौ विख्यातौ मधुकैटभौ॥
विष्णुकर्णमलोद्भूतौ हन्तुं ब्रह्माणमुद्यतौ।

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ६७)
उस समय उनके कानोंके मैलसे दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए, जो मधु और कैटभके नामसे विख्यात थे। वे दोनों ब्रह्माजीका वध करनेको तैयार हो गये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स नाभि-कमले विष्णोः
स्थितो ब्रह्मा प्रजापतिः॥
दृष्ट्वा तावसुरौ चोग्रौ
प्रसुप्तं च जनार्दनम्।
तुष्टाव योगनिद्रां ताम्
एकाग्र-हृदय-स्थितः॥

मूलम्

स नाभिकमले विष्णोः स्थितो ब्रह्मा प्रजापतिः॥
दृष्ट्वा तावसुरौ चोग्रौ प्रसुप्तं च जनार्दनम्।
तुष्टाव योगनिद्रां तामेकाग्रहृदयस्थितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ६८)
भगवान् विष्णुके नाभिकमलमें विराजमान प्रजापति ब्रह्माजीने जब उन दोनों भयानक असुरोंको अपने पास आया और भगवान् को सोया हुआ देखा, तब एकाग्रचित्त होकर उन्होंने भगवान् विष्णुको जगानेके लिये उनके नेत्रोंमें निवास करनेवाली योगनिद्राका स्तवन आरम्भ किया।

देवीक्रिया

मूलम् (वचनम्)

ऋषिरुवाच॥ ८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स्तुता तदा देवी
तामसी तत्र वेधसा॥
विष्णोः प्रबोधनार्थाय
निहन्तुं मधुकैटभौ।
नेत्रास्य-नासिका-बाहु-
हृदयेभ्यस् तथोरसः॥
निर्गम्य दर्शने तस्थौ
ब्रह्मणो ऽव्यक्त-जन्मनः।+++(र4)+++

मूलम्

एवं स्तुता तदा देवी तामसी तत्र वेधसा॥
विष्णोः प्रबोधनार्थाय निहन्तुं मधुकैटभौ।
नेत्रास्यनासिकाबाहुहृदयेभ्यस्तथोरसः॥
निर्गम्य दर्शने तस्थौ ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः।

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१।९०) ऋषि कहते हैं—॥ ८८॥ राजन्! जब ब्रह्माजीने वहाँ मधु और कैटभको मारनेके उद्देश्यसे भगवान् विष्णुको जगानेके लिये तमोगुणकी अधिष्ठात्री देवी योगनिद्राकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे भगवान् के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्षःस्थलसे निकलकर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीकी दृष्टिके समक्ष खड़ी हो गयीं।

शत्रु-वञ्चनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तस्थौ च जगन्नाथस्
तया मुक्तो जनार्दनः॥
एकार्णवे ऽहि-शयनात्
ततः स ददृशे च तौ
मधु-कैटभौ दुरात्मानाव्
अतिवीर्य-पराक्रमौ॥
क्रोध-रक्तेक्षणाव् अत्तुं
ब्रह्माणं जनितोद्यमौ।

मूलम्

उत्तस्थौ च जगन्नाथस्तया मुक्तो जनार्दनः॥
एकार्णवेऽहिशयनात्ततः स ददृशे च तौ।
मधुकैटभौ दुरात्मानावतिवीर्यपराक्रमौ॥
क्रोधरक्तेक्षणावत्तुं ब्रह्माणं जनितोद्यमौ।

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ९२) योगनिद्रासे मुक्त होनेपर जगत् के स्वामी भगवान् जनार्दन उस एकार्णवके जलमें शेषनागकी शय्यासे जाग उठे। फिर उन्होंने उन दोनों असुरोंको देखा। वे दुरात्मा मधु और कैटभ अत्यन्त बलवान् तथा पराक्रमी थे और क्रोधसे लाल आँखें किये ब्रह्माजीको खा जानेके लिये उद्योग कर रहे थे। वे दोनों भी अत्यन्त बलके कारण उन्मत्त हो रहे थे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुत्थाय ततस् ताभ्यां
युयुधे भगवान् हरिः॥
पञ्च-वर्ष-सहस्राणि
बाहु-प्रहरणो विभुः।

मूलम्

समुत्थाय ततस्ताभ्यां युयुधे भगवान् हरिः॥
पञ्चवर्षसहस्राणि बाहुप्रहरणो विभुः।

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ९३) तब भगवान् श्रीहरिने उठकर उन दोनोंके साथ पाँच हजार वर्षोंतक केवल बाहुयुद्ध किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताव् अप्य् अतिबलोन्मत्तौ
महामाया-विमोहितौ
उक्तवन्तौ वरो ऽस्मत्तो
व्रियताम् इति केशवम्॥

मूलम्

तावप्यतिबलोन्मत्तौ महामायाविमोहितौ॥
उक्तवन्तौ वरोऽस्मत्तो व्रियतामिति केशवम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ९४) वे दोनों भी अत्यन्त बलके कारण उन्मत्त हो रहे थे। इधर महामायाने भी उन्हें मोहमें डाल रखा था; इसलिये वे भगवान् विष्णुसे कहने लगे—‘हम तुम्हारी वीरतासे संतुष्ट हैं। तुम हमलोगोंसे कोई वर माँगो’॥ ८९—९५॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच॥ ९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवेताम् अद्य मे तुष्टौ
मम वध्याव् उभावपि॥
किमन्येन वरेणात्र
एतावद्धि वृतं मम॥

मूलम्

भवेतामद्य मे तुष्टौ मम वध्यावुभावपि॥
किमन्येन वरेणात्र एतावद्धि वृतं मम॥

मूलम् (भास्कररायः)

भवेतामद्य मे तुष्टौ मम वध्यावुभावपि॥
किमन्येन वरेणात्र एतावद्धि वृतं मया॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। ९८)
श्रीभगवान् बोले—॥ ९६॥ यदि तुम दोनों मुझपर प्रसन्न हो तो अब मेरे हाथसे मारे जाओ। बस, इतना-सा ही मैंने वर माँगा है। यहाँ दूसरे किसी वरसे क्या लेना है॥ ९७-९८॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषिरुवाच॥ ९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वञ्चिताभ्याम् इति तदा
सर्वम् आपोमयं जगत्॥
विलोक्य ताभ्यां गदितो
भगवान् कमलेक्षणः।
आवां जहि न यत्रोर्वी
सलिलेन परिप्लुता”॥

मूलम्

वञ्चिताभ्यामिति तदा सर्वमापोमयं जगत्॥
विलोक्य ताभ्यां गदितो भगवान् कमलेक्षणः।
आवां जहि न यत्रोर्वी सलिलेन परिप्लुता॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। १०१)
ऋषि कहते हैं—॥ ९९॥ इस प्रकार धोखेमें आ जानेपर जब उन्होंने सम्पूर्ण जगत् में जल-ही-जल देखा, तब कमलनयन भगवान्से कहा—‘जहाँ पृथ्वी जलमें डूबी हुई न हो—जहाँ सूखा स्थान हो, वहीं हमारा वध करो’॥ १००-१०१॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषिरुवाच॥ १०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेत्य् उक्त्वा भगवता
शङ्ख-चक्र-गदा-भृता।
कृत्वा चक्रेण वै च्छिन्ने
जघने शिरसी तयोः॥

मूलम्

तथेत्युक्त्वा भगवता शङ्खचक्रगदाभृता।
कृत्वा चक्रेण वै च्छिन्ने जघने शिरसी तयोः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। १०३) ऋषि कहते हैं—॥ १०२॥ तब ‘तथास्तु’ कहकर शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् ने उन दोनोंके मस्तक अपनी जाँघपर रखकर चक्रसे काट डाले।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेषा समुत्पन्ना
ब्रह्मणा संस्तुता स्वयम्।
प्रभावम् अस्या देव्यास् तु
भूयः शृणु वदामि ते॥

मूलम्

एवमेषा समुत्पन्ना ब्रह्मणा संस्तुता स्वयम्।
प्रभावमस्या देव्यास्तु भूयः शृणु वदामि ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अ०१। १०४)
इस प्रकार ये देवी महामाया ब्रह्माजीकी स्तुति करनेपर स्वयं प्रकट हुई थीं। अब पुनः तुमसे उनके प्रभावका वर्णन करता हूँ, सुनो॥ १०३-१०४॥

मूलम् (समाप्तिः)

ऐं ॐ॥१०४॥

॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये मधुकैटभवधो नाम प्रथमोऽध्यायः॥ १॥
उवाच १४, अर्धश्लोकाः २४, श्लोकाः ६६,
एवमादितः१०४॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्म्यमें ‘मधु-कैटभ-वध’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ॥ १॥


  1. ‘कोलाविध्वंसी’ यह किसी विशेष कुलके क्षत्रियोंकी संज्ञा है। दक्षिणमें ‘कोला’ नगरी प्रसिद्ध है, वह प्राचीन कालमें राजधानी थी। जिन क्षत्रियोंने उसपर आक्रमण करके उसका विध्वंस किया, वे ‘कोलाविध्वंसी’ कहलाये। ↩︎