१४ सप्तशतीन्यासः

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सप्तशतीके विनियोग, न्यास और ध्यान करने चाहिये। न्यासकी प्रणाली पूर्ववत् है—

॥विनियोगः॥ प्रथममध्यमोत्तरचरित्राणां ब्रह्मविष्णुरुद्रा ऋषयः, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः, गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि, नन्दाशाकम्भरीभीमाः शक्तयः, रक्तदन्तिकादुर्गाभ्रामर्यो बीजानि, अग्निवायुसूर्यास्तत्त्वानि, ऋग्यजुःसामवेदा ध्यानानि, सकलकामनासिद्धये श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीदेवताप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः।


खड्‌गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा।
शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा॥
अङ्गुष्ठाभ्यां नमः।


शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च॥ तर्जनीभ्यां नमः।


प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे।
भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि॥ मध्यमाभ्यां नमः।


सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते।
यानि चात्यर्थघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम्॥ अनामिकाभ्यां नमः।


खड्गशूलगदादीनि यानि चास्त्राणि तेऽम्बिके।
करपल्लवसङ्गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वतः॥ कनिष्ठिकाभ्यां नमः।


सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥ करतलकरपृष्ठाभ्यां।


खड्‌गिनी शूलिनी घोरा॰ - हृदयाय नमः।


शूलेन पाहि नो देवि॰ - शिरसे स्वाहा।


प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च॰ - शिखायै वषट्।


सौम्यानि यानि रूपाणि॰ - कवचाय हुम्।


खड्गशूलगदादीनि॰ - नेत्रत्रयाय वौषट्।


सर्वस्वरूपे सर्वेशे॰ - अस्त्राय फट्।

॥ध्यानम्॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां
कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं
बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे॥

मूलम्

विद्युद्दामसमप्रभां मृगपतिस्कन्धस्थितां भीषणां
कन्याभिः करवालखेटविलसद्धस्ताभिरासेविताम्।
हस्तैश्चक्रगदासिखेटविशिखांश्चापं गुणं तर्जनीं
बिभ्राणामनलात्मिकां शशिधरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे॥

सूचना

इसके बाद प्रथम चरित्रका विनियोग और ध्यान करके ‘मार्कण्डेय उवाच’ से सप्तशतीका पाठ आरम्भ करे। प्रत्येक चरित्रका विनियोग मूल सप्तशतीके साथ ही दिया गया है तथा प्रत्येक अध्यायके आरम्भमें ध्यान भी दे दिया गया है। पाठ प्रेमपूर्वक भगवतीका ध्यान करते हुए करे। मीठा स्वर, अक्षरोंका स्पष्ट उच्चारण, पदोंका विभाग, उत्तम स्वर, धीरता, एक लयके साथ बोलना—ये सब पाठकोंके गुण हैं।१ जो पाठ करते समय रागपूर्वक गाता, उच्चारणमें जल्दबाजी करता, सिर हिलाता, अपनी हाथसे लिखी हुई पुस्तकपर पाठ करता, अर्थकी जानकारी नहीं रखता और अधूरा ही मन्त्र कण्ठस्थ करता है, वह पाठ करनेवालोंमें अधम माना गया है।२ जबतक अध्यायकी पूर्ति न हो, तबतक बीचमें पाठ बंद न करे। यदि प्रमादवश अध्यायके बीचमें पाठका विराम हो जाय तो पुनः प्रति बार पूरे अध्यायका पाठ करे।३ अज्ञानवश पुस्तक हाथमें लेकर पाठ करनेका फल आधा ही होता है। स्तोत्रका पाठ मानसिक नहीं, वाचिक होना चाहिये। वाणीसे उसका स्पष्ट उच्चारण ही उत्तम माना गया है।४

पादटिप्पनी

१-माधुर्यमक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु सुस्वरः।
धैर्यं लयसमर्थं च षडेते पाठका गुणाः॥
२-गीती शीघ्री शिरःकम्पी तथा लिखितपाठकः।
अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः॥
३-यावन्न पूर्यतेऽध्यायस्तावन्न विरमेत्पठन्।
यदि प्रमादादध्याये विरामो भवति प्रिये।
पुनरध्यायमारभ्य पठेत्सर्वं मुहुर्मुहुः॥
४-अज्ञानात्स्थापिते हस्ते पाठे ह्यर्धफलं ध्रुवम्।
न मानसे पठेत्स्तोत्रं वाचिकं तु प्रशस्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत जोर-जोरसे बोलना तथा पाठमें उतावली करना वर्जित है। यत्नपूर्वक शुद्ध एवं स्थिरचित्तसे पाठ करना चाहिये।१ यदि पाठ कण्ठस्थ न हो तो पुस्तकसे करे। अपने हाथसे लिखे हुए अथवा ब्राह्मणेतर पुरुषके लिखे हुए स्तोत्रका पाठ न करे।२ यदि एक सहस्रसे अधिक श्लोकोंका या मन्त्रोंका ग्रन्थ हो तो पुस्तक देखकर ही पाठ करे; इससे कम श्लोक हों तो उन्हें कण्ठस्थ करके बिना पुस्तकके भी पाठ किया जा सकता है।३ अध्याय समाप्त होनेपर ‘इति’, ‘वध’, ‘अध्याय’ तथा ‘समाप्त’ शब्दका उच्चारण नहीं करना चाहिये।४

पादटिप्पनी

१-उच्चैः पाठं निषिद्धं स्यात्त्वरां च परिवर्जयेत्।
शुद्धेनाचलचित्तेन पठितव्यं प्रयत्नतः॥
२-कण्ठस्थपाठाभावे तु पुस्तकोपरि वाचयेत्।
न स्वयं लिखितं स्तोत्रं नाब्राह्मणलिपिं पठेत्॥
३-पुस्तके वाचनं शस्तं सहस्रादधिकं यदि।
ततो न्यूनस्य तु भवेद् वाचनं पुस्तकं विना॥
४-अध्यायकी पूर्ति होनेपर यों कहना चाहिये—‘श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये प्रथमः ॐ तत्सत्।’ इसी प्रकार ‘द्वितीयः’, ‘तृतीयः’ आदि कहकर समाप्त करना चाहिये।