विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(तुष्टाव)+++ विबोधनार्थाय हरेर्
हरि-नेत्र-कृतालयाम्।
विश्वेश्वरीं जगद्-धात्रीं
स्थिति-संहार-कारिणीम्॥
निद्रां भगवतीं विष्णोर्
अतुलां तेजसः प्रभुः॥
मूलम्
विबोधनार्थाय हरेर्हरिनेत्रकृतालयाम्।
विश्वेश्वरीं जगद्धात्रीं स्थितिसंहारकारिणीम्॥
निद्रां भगवतीं विष्णोरतुलां तेजसः प्रभुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ७१)
जो इस विश्वकी अधीश्वरी, जगत् को धारण करनेवाली, संसारका पालन और संहार करनेवाली तथा तेजःस्वरूप भगवान् विष्णुकी अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रादेवीकी भगवान् ब्रह्मा स्तुति करने लगे॥ ६४—७१॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच॥ ७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि
वषट्कारः स्वरात्मिका॥
मूलम्
त्वं स्वाहा त्वं स्वधा त्वं हि वषट्कारः स्वरात्मिका॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ७३)
ब्रह्माजीने कहा—॥ ७२॥ देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा और तुम्हीं वषट्कार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुधा त्वम् अक्षरे नित्ये +++(ओंकारे)+++
+++(अ-उ-म् इति)+++ त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता।
+++(उच्चारणादाव् अन्ते च)+++ अर्ध-मात्रास्थिता नित्या
या ऽन्-उच्चार्या विशेषतः॥
मूलम्
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता।
अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ७४)
तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणवमें अकार, उकार, मकार—इन तीन मात्राओंके रूपमें तुम्हीं स्थित हो तथा इन तीन मात्राओंके अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेषरूपसे उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमेव संध्या, सावित्री
त्वं देवि जननी परा।
+++(अस्मद्-अनुभूतौ)+++ त्वयैतद् धार्यते विश्वं
त्वयैतत् सृज्यते जगत्॥
मूलम्
त्वमेव संध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा।
त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ७५) देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो। देवि! तुम्हीं इस विश्व-ब्रह्माण्डको धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत् की सृष्टि होती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(अस्मद्-अनुभूतौ)+++ त्वयैतत् पाल्यते देवि
त्वम् अत्स्य् अन्ते च सर्वदा।
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं
स्थितिरूपा च पालने॥
तथा सिंहृतिरूपान्ते
जगतो ऽस्य जगन्-मये।
मूलम्
त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्ते च सर्वदा।
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने॥
तथा सिंहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये।
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ७६)
तुम्हींसे इसका पालन होता है और सदा तुम्हीं कल्पके अन्तमें सबको अपना ग्रास बना लेती हो। जगन्मयी देवि! इस जगत् की उत्पत्तिके समय तुम सृष्टिरूपा हो, पालन-कालमें स्थितिरूपा हो तथा कल्पान्तके समय संहाररूप धारण करनेवाली हो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा-विद्या महा-माया +++(अहो विरोधः!)+++
महा-मेधा महा-स्मृतः॥
महामोहा च भवती
महादेवी महासुरी +++(अहो विरोधः!)+++।+++(5)+++
मूलम्
महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतः॥ महामोहा च भवती महादेवी महासुरी।
मूलम् (भास्कररायः)
महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृतः॥ महामोहा च भवती महादेवी महेश्वरी।
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ७७)
तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृतिस् त्वं च सर्वस्य
गुण-त्रय-विभाविनी॥
मूलम्
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ७८)
तुम्हीं तीनों गुणोंको उत्पन्न करनेवाली सबकी प्रकृति हो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालरात्रिर् महारात्रिर्
मोहरात्रिश् च दारुणा।
त्वं श्रीस् त्वम् ईश्वरी त्वं
ह्रीस् त्वं बुद्धिर् बोध-लक्षणा॥
मूलम्
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारुणा।
त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ७९) भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्री और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
लज्जा पुष्टिस् तथा तुष्टिस्
त्वं शान्तिः क्षान्तिर् एव च।
मूलम्
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्तिः क्षान्तिरेव च।
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ८०) लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
खड्गिनी शूलिनी घोरा
गदिनी चक्रिणी तथा॥
शङ्खिनी चापिनी बाण-
भुशुण्डी-परिघायुधा।
मूलम्
खड्गिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा॥
शङ्खिनी चापिनी बाणभुशुण्डीपरिघायुधा।
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ८१)
तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करनेवाली हो। बाण, भुशुण्डी और परिघ—ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौम्या सौम्यतराशेष-
सौम्येभ्यस् त्व् अतिसुन्दरी॥
परापराणां परमा
त्वम् एव परमेश्वरी।
मूलम्
सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी॥
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी।
यच्च किंचित्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ८२) तुम सौम्य और सौम्यतर हो—इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो। पर और अपर—सबसे परे रहनेवाली परमेश्वरी तुम्हीं हो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच् च किंचित् क्वचिद् वस्तु
सद्-असद् वा ऽखिलात्मिके॥
तस्य सर्वस्य या शक्तिः
सा त्वं किं स्तूयसे तदा।
मूलम्
यच्च किंचित्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके॥ तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे तदा।
मूलम् (भास्कररायः)
यच्च किंचित्क्वचिद्वस्तु सदसद्वाखिलात्मिके॥ तस्य सर्वस्य या शक्तिः सा त्वं किं स्तूयसे मया।
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ८३) सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो। ऐसी अवस्थामें तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है?
विश्वास-प्रस्तुतिः
यया त्वया जगत्-स्रष्टा
जगत् पात्य्, अत्ति यो जगत्॥
सोऽपि निद्रावशं नीतः
कस् त्वां स्तोतुम् इहेश्वरः।
मूलम्
यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यत्ति यो जगत्॥ सोऽपि निद्रावशं नीतः कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वरः।
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ८४) जो इस जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान् को भी जब तुमने निद्राके अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करनेमें यहाँ कौन समर्थ हो सकता है?
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णुः शरीर-ग्रहणम्
अहम् ईशान एव च॥
कारितास् ते यतो, ऽतस् त्वां
कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत्।
मूलम्
विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च॥ कारितास्ते यतोऽतस्त्वां कः स्तोतुं शक्तिमान् भवेत्।
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ८५) मुझको, भगवान् शंकरको तथा भगवान् विष्णुको भी तुमने ही शरीर धारण कराया है; अतः तुम्हारी स्तुति करनेकी शक्ति किसमें है?
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैर्
उदारैर् देवि संस्तुता॥
मोहयैतौ दुराधर्षाव्
असुरौ मधुकैटभौ।+++(5)+++
प्रबोधं च जगत्स्वामी
नीयताम् अच्युतो लघु॥
मूलम्
सा त्वमित्थं प्रभावैः स्वैरुदारैर्देवि संस्तुता॥
मोहयैतौ दुराधर्षावसुरौ मधुकैटभौ।
प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ८६) देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावोंसे ही प्रशंसित हो। ये जो दोनों दुर्धर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोहमें डाल दो और जगदीश्वर भगवान् विष्णुको शीघ्र ही जगा दो।
विश्वास-प्रस्तुतिः
+++(कर्तव्य-)+++बोधश् च क्रियताम् अस्य
हन्तुम् एतौ महासुरौ॥
मूलम्
बोधश्च क्रियतामस्य हन्तुमेतौ महासुरौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अ०१। ८७)
साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान् असुरोंको मार डालनेकी बुद्धि उत्पन्न कर दो॥ ७३—८७॥
[इति रात्रिसूक्तम्।]