०३ कीलकम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ कीलकस्तोत्रम्॥ अस्य श्री कीलकमन्त्रस्य शिव ऋषिः अनुष्टुप्छन्दः श्री महासरस्वती देवता
श्री जगदम्बाप्रीत्यर्थं सप्तशतीपाठाङ्गजपे विनियोगः॥ ॐ नमश्चण्डिकायै॥

मूलम्

ॐ अस्य श्रीकीलकमन्त्रस्य शिव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहासरस्वती देवता, श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थं सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।
ॐ नमश्चण्डिकायै॥

अनुवाद (हिन्दी)

ॐ चण्डिकादेवीको नमस्कार है।

फलस्तुतिः

मूलम् (वचनम्)

मार्कण्डेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे॥

मूलम्

ॐ विशुद्धज्ञानदेहाय त्रिवेदीदिव्यचक्षुषे।
श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०की०१)
मार्कण्डेयजी कहते हैं—विशुद्ध ज्ञान ही जिनका शरीर है, तीनों वेद ही जिनके तीन दिव्य नेत्र हैं, जो कल्याण-प्राप्तिके हेतु हैं तथा अपने मस्तकपर अर्धचन्द्रका मुकुट धारण करते हैं, उन भगवान् शिवको नमस्कार है॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामभिकीलकम्।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जाप्यतत्परः॥

मूलम्

सर्वमेतद्विजानीयान्मन्त्राणामभिकीलकम्।
सोऽपि क्षेममवाप्नोति सततं जाप्यतत्परः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०की०२)
मन्त्रोंका जो अभिकीलक है अर्थात् मन्त्रोंकी सिद्धिमें विघ्न उपस्थित करनेवाले शापरूपी कीलकका जो निवारण करनेवाला है, उस सप्तशतीस्तोत्रको सम्पूर्णरूपसे जानना चाहिये (और जानकर उसकी उपासना करनी चाहिये), यद्यपि सप्तशतीके अतिरिक्त अन्य मन्त्रोंके जपमें भी जो निरन्तर लगा रहता है, वह भी कल्याणका भागी होता है॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि सकलान्यपि।
एतेन स्तुवतां देवी स्तोत्रमात्रेण सिद्ध्यति॥

मूलम्

सिद्ध्यन्त्युच्चाटनादीनि वस्तूनि सकलान्यपि।
एतेन स्तुवतां देवी स्तोत्रमात्रेण सिद्ध्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०की०३)
उसके भी उच्चाटन आदि कर्म सिद्ध होते हैं तथा उसे भी समस्त दुर्लभ वस्तुओंकी प्राप्ति हो जाती है; तथापि जो अन्य मन्त्रोंका जप न करके केवल इस सप्तशती नामक स्तोत्रसे ही देवीकी स्तुति करते हैं, उन्हें स्तुतिमात्रसे ही सच्चिदानन्दस्वरूपिणीदेवी सिद्ध हो जाती हैं॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते।
विना जाप्येन सिद्ध्येत सर्वमुच्चाटनादिकम्॥

मूलम्

न मन्त्रो नौषधं तत्र न किञ्चिदपि विद्यते।
विना जाप्येन सिद्ध्येत सर्वमुच्चाटनादिकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०की०४)
उन्हें अपने कार्यकी सिद्धिके लिये मन्त्र, ओषधि तथा अन्य किसी साधनके उपयोगकी आवश्यकता नहीं रहती। बिना जपके ही उनके उच्चाटन आदि समस्त आभिचारिक कर्म सिद्ध हो जाते हैं॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समग्राण्यपि सिद्ध्यन्ति लोकशङ्कामिमां हरः।
कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम्॥

मूलम्

समग्राण्यपि सिद्ध्यन्ति लोकशङ्कामिमां हरः।
कृत्वा निमन्त्रयामास सर्वमेवमिदं शुभम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०की०५)
इतना ही नहीं, उनकी सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ भी सिद्ध होती हैं। लोगोंके मनमें यह शंका थी कि ‘जब केवल सप्तशतीकी उपासनासे अथवा सप्तशतीको छोड़कर अन्य मन्त्रोंकी उपासनासे भी समानरूपसे सब कार्य सिद्ध होते हैं, तब इनमें श्रेष्ठ कौन-सा साधन है?’ लोगोंकी इस शंकाको सामने रखकर भगवान् शंकरने अपने पास आये हुए जिज्ञासुओंको समझाया कि यह सप्तशती नामक सम्पूर्ण स्तोत्र ही सर्वश्रेष्ठ एवं कल्याणमय है॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुप्तं चकार सः।
समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावन्नियन्त्रणाम्॥

मूलम्

स्तोत्रं वै चण्डिकायास्तु तच्च गुप्तं चकार सः।
समाप्तिर्न च पुण्यस्य तां यथावन्नियन्त्रणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०की०६)
तदनन्तर भगवती चण्डिकाके सप्तशती नामक स्तोत्रको महादेवजीने गुप्त कर दिया। सप्तशतीके पाठसे जो पुण्य प्राप्त होता है, उसकी कभी समाप्ति नहीं होती; किंतु अन्य मन्त्रोंके जपजन्य पुण्यकी समाप्ति हो जाती है। अतः भगवान् शिवने अन्य मन्त्रोंकी अपेक्षा जो सप्तशतीकी ही श्रेष्ठताका निर्णय किया, उसे यथार्थ ही जानना चाहिये॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेवं न संशयः।
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः॥

मूलम्

सोऽपि क्षेममवाप्नोति सर्वमेवं न संशयः।
कृष्णायां वा चतुर्दश्यामष्टम्यां वा समाहितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०की०७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति।
इत्थंरूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम्॥

मूलम्

ददाति प्रतिगृह्णाति नान्यथैषा प्रसीदति।
इत्थंरूपेण कीलेन महादेवेन कीलितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०की०८)
अन्य मन्त्रोंका जप करनेवाला पुरुष भी यदि सप्तशतीके स्तोत्र और जपका अनुष्ठान कर ले तो वह भी पूर्णरूपसे ही कल्याणका भागी होता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो साधक कृष्णपक्षकी चतुर्दशी अथवा अष्टमीको एकाग्रचित्त होकर भगवतीकी सेवामें अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है और फिर उसे प्रसादरूपसे ग्रहण करता है, उसीपर भगवती प्रसन्न होती हैं; अन्यथा उनकी प्रसन्नता नहीं प्राप्त होती।* इस प्रकार सिद्धिके प्रतिबन्धकरूप कीलके द्वारा महादेवजीने इस स्तोत्रको कीलित कर रखा है॥ ७-८॥

पादटिप्पनी
  • यह निष्कीलन अथवा शापोद्धारका ही विशेष प्रकार है। भगवतीका उपासक उपर्युक्त तिथिको देवीकी सेवामें उपस्थित हो अपना न्यायोपार्जित धन उन्हें अर्पित करते हुए एकाग्रचित्तसे प्रार्थना करे—‘मातः! आजसे यह सारा धन तथा अपने-आपको भी मैंने आपकी सेवामें अर्पण कर दिया। इसपर मेरा कोई स्वत्व नहीं रहा।’ फिर भगवतीका ध्यान करते हुए यह भावना करे, मानो जगदम्बा कह रही हैं—‘बेटा! संसार-यात्राके निर्वाहार्थ तू मेरा यह प्रसादरूप धन ग्रहण कर।’ इस प्रकार देवीकी आज्ञा शिरोधार्य करके उस धनको प्रसाद-बुद्धिसे ग्रहण करे और धर्मशास्त्रोक्त मार्गसे उसका सद्‍व्यय करते हुए सदा देवीके ही अधीन होकर रहे। यह ‘दानप्रतिग्रह-करण’ कहलाता है। इससे सप्तशतीका शापोद्धार होता और देवीकी कृपा प्राप्त होती है।
विश्वास-प्रस्तुतिः

यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति संस्फुटम्।
स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो जायते नरः॥

मूलम्

यो निष्कीलां विधायैनां नित्यं जपति संस्फुटम्।
स सिद्धः स गणः सोऽपि गन्धर्वो जायते नरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०की०९)
जो पूर्वोक्त रीतिसे निष्कीलन करके इस सप्तशतीस्तोत्रका प्रतिदिन स्पष्ट उच्चारणपूर्वक पाठ करता है, वह मनुष्य सिद्ध हो जाता है, वही देवीका पार्षद होता है और वही गन्धर्व भी होता है॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापीह जायते।
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात्॥

मूलम्

न चैवाप्यटतस्तस्य भयं क्वापीह जायते।
नापमृत्युवशं याति मृतो मोक्षमवाप्नुयात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०की०१०)
सर्वत्र विचरते रहनेपर भी इस संसारमें उसे कहीं भी भय नहीं होता। वह अपमृत्युके वशमें नहीं पड़ता तथा देह त्यागनेके अनन्तर मोक्ष प्राप्त कर लेता है॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत न कुर्वाणो विनश्यति।
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः॥

मूलम्

ज्ञात्वा प्रारभ्य कुर्वीत न कुर्वाणो विनश्यति।
ततो ज्ञात्वैव सम्पन्नमिदं प्रारभ्यते बुधैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०की०११)
अतः कीलनको जानकर उसका परिहार करके ही सप्तशतीका पाठ आरम्भ करे। जो ऐसा नहीं करता, उसका नाश हो जाता है।* इसलिये कीलक और निष्कीलनका ज्ञान प्राप्त करनेपर ही यह स्तोत्र निर्दोष होता है और विद्वान् पुरुष इस निर्दोष स्तोत्रका ही पाठ आरम्भ करते हैं॥ ११॥

पादटिप्पनी
  • यहाँ कीलक और निष्कीलनके ज्ञानकी अनिवार्यता बतानेके लिये ही विनाश होना कहा है। वास्तवमें किसी प्रकार भी देवीका पाठ करे, उससे लाभ ही होता है। यह बात वचनान्तरोंसे सिद्ध है।
विश्वास-प्रस्तुतिः

सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद् दृश्यते ललनाजने।
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जाप्यमिदं शुभम्॥

मूलम्

सौभाग्यादि च यत्किञ्चिद् दृश्यते ललनाजने।
तत्सर्वं तत्प्रसादेन तेन जाप्यमिदं शुभम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०की०१२)
स्त्रियोंमें जो कुछ भी सौभाग्य आदि दृष्टिगोचर होता है, वह सब देवीके प्रसादका ही फल है। अतः इस कल्याणमय स्तोत्रका सदा जप करना चाहिये॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः।
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत्॥

मूलम्

शनैस्तु जप्यमानेऽस्मिन् स्तोत्रे सम्पत्तिरुच्चकैः।
भवत्येव समग्रापि ततः प्रारभ्यमेव तत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०की०१३)
इस स्तोत्रका मन्दस्वरसे पाठ करनेपर स्वल्प फलकी प्राप्ति होती है और उच्चस्वरसे पाठ करनेपर पूर्ण फलकी सिद्धि होती है। अतः उच्चस्वरसे ही इसका पाठ आरम्भ करना चाहिये॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐश्वर्यं यत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यसम्पदः।
शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः॥ ॐ॥

मूलम्

ऐश्वर्यं यत्प्रसादेन सौभाग्यारोग्यसम्पदः।
शत्रुहानिः परो मोक्षः स्तूयते सा न किं जनैः॥ ॐ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दु०की०१४)
जिनके प्रसादसे ऐश्वर्य, सौभाग्य, आरोग्य, सम्पत्ति, शत्रुनाश तथा परम मोक्षकी भी सिद्धि होती है, उन कल्याणमयी जगदम्बाकी स्तुति मनुष्य क्यों नहीं करते?॥ १४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति देव्याः कीलकस्तोत्रं सम्पूर्णम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इसके अनन्तर रात्रिसूक्तका पाठ करना उचित है। पाठके आरम्भमें रात्रिसूक्त और अन्तमें देवीसूक्तके पाठकी विधि है। मारीचकल्पका वचन है—

विश्वास-प्रस्तुतिः

रात्रिसूक्तं पठेदादौ मध्ये सप्तशतीस्तवम्।
प्रान्ते तु पठनीयं वै देवीसूक्तमिति क्रमः॥

मूलम्

रात्रिसूक्तं पठेदादौ मध्ये सप्तशतीस्तवम्।
प्रान्ते तु पठनीयं वै देवीसूक्तमिति क्रमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

रात्रिसूक्तके बाद विनियोग, न्यास और ध्यानपूर्वक नवार्णमन्त्रका जप करके सप्तशतीका पाठ आरम्भ करना चाहिये। पाठके अन्तमें पुनः विधिपूर्वक नवार्णमन्त्रका जप करके देवीसूक्तका तथा तीनों रहस्योंका पाठ करना उचित है। कोई-कोई नवार्ण-जपके बाद रात्रिसूक्तका पाठ बतलाते हैं तथा अन्तमें भी देवीसूक्तके बाद नवार्णजपका औचित्य प्रतिपादन करते हैं; किंतु यह ठीक नहीं है। चिदम्बरसंहितामें कहा है—‘मध्ये नवार्णपुटितं कृत्वा स्तोत्रं सदाभ्यसेत्।’ अर्थात् सप्तशतीका पाठ बीचमें हो और आदि-अन्तमें नवार्णजपसे उसे सम्पुटित कर दिया जाय। डामरतन्त्रमें यह बात अधिक स्पष्ट कर दी गयी है—

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतमादौ शतं चान्ते जपेन्मन्त्रं नवार्णकम्।
चण्डीं सप्तशतीं मध्ये सम्पुटोऽयमुदाहृतः॥

मूलम्

शतमादौ शतं चान्ते जपेन्मन्त्रं नवार्णकम्।
चण्डीं सप्तशतीं मध्ये सम्पुटोऽयमुदाहृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्थात् आदि और अन्तमें सौ-सौ बार नवार्णमन्त्रका जप करे और मध्यमें सप्तशती दुर्गाका पाठ करे; यह सम्पुट कहा गया है। यदि आदि-अन्तमें रात्रिसूक्त और देवीसूक्तका पाठ हो और उसके पहले एवं अन्तमें नवार्ण-जप हो, तब तो वह पाठ नवार्ण-सम्पुटित नहीं कहला सकता; क्योंकि जिससे सम्पुट हो उसके मध्यमें अन्य प्रकारके मन्त्रका प्रवेश नहीं होना चाहिये। यदि बीचमें रात्रिसूक्त और देवीसूक्त रहेंगे तो वह पाठ उन्हींसे सम्पुटित कहलायेगा; ऐसी दशामें डामरतन्त्र आदिके वचनोंसे स्पष्ट ही विरोध होगा। अतः पहले रात्रिसूक्त, फिर नवार्ण-जप, फिर न्यासपूर्वक सप्तशती-पाठ, फिर विधिवत् नवार्ण-जप, फिर क्रमशः देवीसूक्त एवं रहस्यत्रयका पाठ—यही क्रम ठीक है। रात्रिसूक्त भी दो प्रकारके हैं—वैदिक और तान्त्रिक। वैदिक रात्रिसूक्त ऋग्वेदकी आठ ऋचाएँ हैं और तान्त्रिक तो दुर्गासप्तशतीके प्रथमाध्यायमें ही है। यहाँ दोनों दिये जाते हैं। रात्रिदेवताके प्रतिपादक सूक्तको रात्रिसूक्त कहते हैं। यह रात्रिदेवी दो प्रकारकी हैं—एक जीवरात्रि और दूसरी ईश्वररात्रि। जीवरात्रि वही है, जिसमें प्रतिदिन जगत् के साधारण जीवोंका व्यवहार लुप्त होता है। दूसरी ईश्वररात्रि वह है, जिसमें ईश्वरके जगद्‍रूप व्यवहारका लोप होता है; उसीको कालरात्रि या महाप्रलयरात्रि कहते हैं। उस समय केवल ब्रह्म और उनकी मायाशक्ति, जिसे अव्यक्त प्रकृति कहते हैं, शेष रहती है। इसकी अधिष्ठात्रीदेवी ‘भुवनेश्वरी’ हैं।* रात्रिसूक्तसे उन्हींका स्तवन होता है।

पादटिप्पनी

ब्रह्ममायात्मिका रात्रिः परमेशलयात्मिका।
तदधिष्ठातृदेवी तु भुवनेशी प्रकीर्तिता॥
(देवीपुराण)