०१ निवेदन

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥

मूलम्

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्गासप्तशती हिंदू-धर्मका सर्वमान्य ग्रन्थ है। इसमें भगवतीकी कृपाके सुन्दर इतिहासके साथ ही बड़े-बड़े गूढ़ साधन-रहस्य भरे हैं। कर्म, भक्ति और ज्ञानकी त्रिविध मन्दाकिनी बहानेवाला यह ग्रन्थ भक्तोंके लिये वांछाकल्पतरु है। सकाम भक्त इसके सेवनसे मनोऽभिलषित दुर्लभतम वस्तु या स्थिति सहज ही प्राप्त करते हैं और निष्काम भक्त परम दुर्लभ मोक्षको पाकर कृतार्थ होते हैं। राजा सुरथसे महर्षि मेधाने कहा था—‘तामुपैहि महाराज शरणं परमेश्वरीम्। आराधिता सैव नृणां भोगस्वर्गापवर्गदा॥ महाराज! आप उन्हीं भगवती परमेश्वरीकी शरण ग्रहण कीजिये। वे आराधनासे प्रसन्न होकर मनुष्योंको भोग, स्वर्ग और अपुनरावर्ती मोक्ष प्रदान करती हैं।’ इसीके अनुसार आराधना करके ऐश्वर्यकामी राजा सुरथने अखण्ड साम्राज्य प्राप्त किया तथा वैराग्यवान् समाधि वैश्यने दुर्लभ ज्ञानके द्वारा मोक्षकी प्राप्ति की। अबतक इस आशीर्वादरूप मन्त्रमय ग्रन्थके आश्रयसे न मालूम कितने आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा प्रेमी भक्त अपना मनोरथ सफल कर चुके हैं। हर्षकी बात है कि जगज्जननी भगवती श्रीदुर्गाजीकी कृपासे वही सप्तशती संक्षिप्त पाठ-विधिसहित पाठकोंके समक्ष पुस्तकरूपमें उपस्थित की जा रही है। इसमें कथा-भाग तथा अन्य बातें वे ही हैं, जो ‘कल्याण’ के विशेषांक ‘संक्षिप्त मार्कण्डेय-ब्रह्मपुराणांक’ में प्रकाशित हो चुकी हैं। कुछ उपयोगी स्तोत्र और बढ़ाये गये हैं।
इसमें पाठ करनेकी विधि स्पष्ट, सरल और प्रामाणिक रूपमें दी गयी है। इसके मूल पाठको विशेषतः शुद्ध रखनेका प्रयास किया गया है। आजकल प्रेसोंमें छपी हुई अधिकांश पुस्तकें अशुद्ध निकलती हैं, किंतु प्रस्तुत पुस्तकको इस दोषसे बचानेकी यथासाध्य चेष्टा की गयी है। शापोद्धारके अनेक प्रकार बतलाये गये हैं। कवच, अर्गला और कीलकके भी अर्थ दिये गये हैं। वैदिक-तान्त्रिक रात्रिसूक्त और देवीसूक्तके साथ ही देव्यथर्वशीर्ष, सिद्ध-कुंजिकास्तोत्र, मूल सप्तश्लोकी दुर्गा, श्रीदुर्गाद्वात्रिंशन्नाममाला, श्रीदुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्र, श्रीदुर्गामानसपूजा और देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रको भी दे देनेसे पुस्तककी उपादेयता विशेष बढ़ गयी है। नवार्ण-विधि तो है ही, आवश्यक न्यास भी नहीं छूटने पाये हैं। सप्तशतीके मूल श्लोकोंका पूरा अर्थ दे दिया गया है। तीनों रहस्योंमें आये हुए कई गूढ़ विषयोंको भी टिप्पणीद्वारा स्पष्ट किया गया है। इन विशेषताओंके कारण यह पाठ और अध्ययनके लिये बहुत ही उपयोगी और उत्तम पुस्तक हो गयी है।
सप्तशतीके पाठमें विधिका ध्यान रखना तो उत्तम है ही, उसमें भी सबसे उत्तम बात है भगवती दुर्गामाताके चरणोंमें प्रेमपूर्ण भक्ति। श्रद्धा और भक्तिके साथ जगदम्बाके स्मरणपूर्वक सप्तशतीका पाठ करनेवालेको उनकी कृपाका शीघ्र अनुभव हो सकता है। आशा है, प्रेमी पाठक इससे लाभ उठायेंगे।
—हनुमानप्रसाद पोद्दार