रामस्वरूपः

[[श्रीहर्षचरितम् Source: EB]]

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[TABLE]

प्रकाशक—
पं० नारायणदत्त शर्मा
अध्यक्षआशुतोष पुस्तकालय
सींख (करनाल)
ब्रांच—लाहोर।

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मुद्रक—
सरदारीलाल शारदा
मैनेजर दी सनातन धर्मएजुकेशनल
प्रिंटिंग प्रेस, लिमिटिड, लाहौर।

ऊँ

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1727456768Screenshot2024-09-27223551.png"/>नम्रनिवेदनम्‌<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1727456791Screenshot2024-09-27223551.png"/>

श्रीमाननीयाः?विद्वान्सः—

श्रीहर्षचरित “आशुतोषिण्यायाः” प्रथमेस्मिन्संस्करणेअक्षरसंयोजकानां प्रकाशकानांचानवधानतया, कार्यान्तर संलग्नेच मयि जातानां यन्ताद्यशुद्धीनां कृते खेदो महान्‌ मनसि मे, तदर्थं सानुरोधं प्रार्थ्यन्ते मया विद्वान्सः—यत्‌ कृपया तत्र तत्र तच्छंशोधनं विधाय पठन्तपाठयन्तश्च मयि महान्तमनुग्रहं विधास्यन्तीति, कि बहुना—मनुष्य जनसुलभप्रमाद हेतोर्यत्र कुत्रापि काचित्त्रुटिरुपलभ्येत, तन्मां प्रति लेखद्वारा सूचयेयुः–वुधाः, येनाग्रिमे संस्करणे तन्निराकरयां करिष्येत।किं वा स्वयमपि तत्र तत्र तत्पूर्तिकरणेन मत्साहाय्यमाचरन्तो मयाशतशोधन्यवादैर्भुष्येरन्निति बद्धाञ्जलिः प्रार्थयते।

कर्मण्यस्मिन्‌ मत्साहाय्यकराणां पं० जगन्नाथशास्त्रिणां (प्रो० चीफकालिज़), म० म० पं० माधव भारुडारी शास्त्रिणां (प्रो० औरियण्टल कालिज़), पं० रामचन्द्र “कुशल” शास्त्रिणां(प्रो० औरियण्टल कालिज़), पं० सूर्यनारायणशास्त्रिणां (प्रो० शीतला महाविद्यालय) पं० ज्ञानचन्द्र वेदान्तशास्त्रिणां (लवपुरम्‌) पं० अमरनाथशास्त्रिणां (वामनौली) च कृते शतशःधन्यवादाः। यैर्मत्साहाय्यं मनसा वाचा कर्मणा चाकारि।

श्रीविश्वेश्वरानन्द वेदिक अनुसंधानालय
डी० ए० वी० कालिज लाहौर
विदुषामनुचरः—
श्रावणी— सं० १९९६
रामस्वरूपः

प्राक्कथन

१— बाण का जीवन— संस्कृत के कवियों में बाण कुछ भाग्यवान्‌ हैं। इनकी जीवन कहानी ओर तिथि के बारे में हमें निश्चय पूर्वक जितना मालूम है उतना कदाचित्‌ किसी अन्य कवि के बिपय में नहीं। अपने हर्षचरित्‌ के पहिले दो उच्छ्वासों एवं कांदबरी के आरम्भ में अपनी कथा स्वयं लिखी है।

सरस्वती के पुत्र सारस्वत थे। इनके चचेरे भाई वत्स के कुल में कुबेर उत्पन्न हुए। कुबेर के पड़पोते (चित्रभानु) ही बाणके पिता थे। इनकी माता का नाम राजदेवी था। बाण अभी चौदह वर्षके ही थे, कि इनके माता पिता स्वगे सिधारे। उदास होकर ये देशाटन करने लगे। इससे इन्हें बहुत अनुभव प्राप्त हुआ। कुछ समय पश्चात्‌ ये अपने घर (प्रीतिकूट) लौट आए। एक दिन एक राजदूत इन्दं लेने आया। पहले तो बाण डरे, फिर साहस करके हर्ष के दर्वार में उपस्थित हुए। महाराज ने इनकी कविता से प्रसन्न हो बड़ा सम्मान किया, ये अब राज कवि कहलाने लगे, तथा इनकी कीर्ति चारों और फेलने लगी।

कदाचित्‌ उसी वर्षपतझढके आने पर ये अवकाश लेकर अपने देश को आए। भाई बन्धुओं के कौतुक से हषे के विषय में पूछे जाने पर इन्होंने जो कहा—वही हर्षचरित्‌ है।

आगे इन्होंने अपने बिपय में कुछ न कह कर अपने राजा की ही महत्त्व पूर्णा जीवनी के दर्शन कराये हैं। इन्हें अपने दोनों ग्रन्थ समाप्त करने का अवसर नहीं मिला। “कादंबरी” इनके पुत्र (पुलिन्द) ने इनके बाद पूर्णकी हर्षचरित अधूरा ही रहा। ये शाहबाद (आरा) प्रान्तवर्ति प्रीतिकूट ग्राम के निवासी तथा थानेश्वर और कन्नौज के महाराज हर्षवर्धन के प्रधान सभा पण्डितथे।

२— बाण का बेटा ओर बाण— कादंबरी को पूर्ण करने का सेहरा कवि के सुयोग्य पुत्र पुलिन्द के सिर पर है। पुलिन्द ने यह कार्य कर संस्कृत प्रमियों पर विशेष अनुकम्पा को है। डाक्टर बुह्लर के कथनानुसार बाण के पुत्र का नाम भूषणबाण अथवा भूषणभट्ट है, यह बात अब असत्य सिद्ध की जा चुकी है, क्‍योंकि—

(क) कादंबरी के पुराने लेखमिले हैं जिन पर पुलिन्द नाम लिखित हे।

(ख) कवि धनपाल ने भी अपनी सुक्तिमुक्तावली में लिखा है—

केवलोऽपि स्मृतो बाणः करोति विमदान् कवीन्।
किम्पुनः क्लृप्तसंप्रधानपुलिन्दकृतसंनिधिः॥

३— बाण और मयूर— बाण और मयूर दोनों हर्षके दर्वारकी शोभा थे। कहते हैं, मयूर बाण के श्वसुर थे। मयूर का लिखा सूर्यशतक अब भी पढ़ा जाता है। संभव है कि उन्हों ने और भी लिखा होगा। पर समय के चक्र में वह नष्ट हो गया हो।

४— बाण की तिथि— इस विषय में हमें दो जगह से सहायता मिलती है। एक तो काव्य-ग्रन्थों से। दूसरे ह्यूनश्याँग के यात्रावृत्तान्त से, बाण ने हर्षचरित के प्रारम्मिक श्लोकोंमें कुछकवियों की स्तुति की है। कुछ अन्य कवियों की सूचि के निरीक्षण ने जहाँ बाण की तिथि नियत करने में सहायता दी है, वहाँ साहित्य के अनेक ऐतिहासिक पहलुओं पर भी प्रकाश-प्रक्षेपन किया है।

चीनी यात्री ह्यूनश्याङ्ग सातवीं शताब्दी के पूर्वार्धमें भारत में आया। उसने भी हर्षका वर्णन किया है। अतएवबाण की तिथि सातवीं शताब्दी ईस्वी के पूर्वार्धमें ही मानी जाती है।

५— आख्यायिका और कथा–संस्कृतकाव्य के तीन मुख्य भाग

हैं— गद्य, पद्य, और मिश्र।गद्य के आगे दो भाग है— आख्यायिका और कथा।

(१) आख्यायिका में कवि के कुल इत्यादि का संक्षेप सेगद्यरूप में विस्तार से वर्णन होता है। कथामें पद्यरूप में ऐसा किया जाता है।

(२) आख्यायिका में नारी–हरण, युद्ध, नेता का वियोग–आदि का वर्णन होता है, कथा में नहीं।

(३) आख्यायिका में नेता अपने किए कार्य्योका वर्णन करता है कथा में दूसरे व्यक्ति करते हं।

(४) आख्यायिका को उच्छ्वासोंमें बाँटाजाता है। कथा में साधारगातः कोई भाग नहीं होते। यदि हों तो उन्हें लंबक कहते हैं।

वस्तुतः इन दोनों में कोई विशेष भेद नहीं होता।

हर्षचरित्‌ एक आख्यायिका है और कादम्बरी, एक कथा।

६— टीका टिप्पणी

संस्कृत साहित्य में बाण एक चमकता हुआ ताश है। गद्य काव्य में इसका स्थान बहुत ऊँचा है।

अनेक बातों में इसका हर्षचरित निराला है। यही आख्यायिकाहै जो आजकल मिलती है। मुख्य बातों पर यह ह्यूनश्याङ्ग के विवरण से मिलता जुलता है। आगे चलकर हम देखेंगे कि सामयिक भारत के विषय में बाण हमें क्या २ बतलाता है। पहले हम इसकी शैली को लेते हैं।

बाण पाञ्चाली तथा गौड़ी शैली में लिखता है। पहली बात जो साफ़ तौर पर नजर आ जाती हैं, वह है इसकी श्लेष प्रयोग करने के लिए उत्सुकता। प्रायः वे पौराणिक विषय पर होती है। पढ़नेवाला थक जाता है किन्तु अर्थफिर भी गूढ़रखने का यत्न करते प्रतीत होता है। दूसरे, यह लम्बे समासों का प्रयोग करके भाषा को जटिल

बना देता है। वास्तव में यह इसका अपराध नहीं। उस समय इन बातोंको ही गद्य का ओजस अथवा प्राण समझाजाता था। यदि यह ऐसा न करता तो पण्डितमण्डली इसे सराहती— इसमें सन्देह है। परन्तु कहीं २ इसकी लेखनी से जो सीधे–सादे और सुन्दर पद निकले हैं, वे अमर हो गए हैं। इसके पात्र नेसर्गिक अतः प्रभाव–पूर्णभाषा बोलते हैं। किन्तु जबयहकवि उड़ने लगता है तो इसकी कल्पना–कल्पना नहीं मालूम होती वह एक जीती जागती वस्तु दीखती है।

बाण का शब्द–परिचय भी बहुत हं। अनैक शब्दों का अर्थ अपनी बुद्धि से घड़ना पड़ता है।

यह ऐसे शब्द लाना चाहता हैजिनक्की आवाज़ में जीभ को खूब मोडना पड़े—इसे अनुप्रास कहते हैं। यह खूबी समझी जाती थी।

उत्प्रेक्षा, विरोध, निदर्शन, व्यतिरेक, बिषम, उपमा रूपक ओर व्याघात। बाण ने प्रायः इन— अलङ्कारोका प्रयोग किया है—

बाण शब्दअथवा समानार्थभाव को दुहरात रहता है जो प्रायः भला मालूम होता है, किन्तु कहीं २ पाठक उबने लगता है।

इसका प्रकृति–वर्णन्सिद्ध करता है— कि यह प्राकृतिक सौंदर्य्य को समझने और प्यार करने वाला था।

सारांश यह है कि इसके काव्य का, चाहे किसी रस में वह लिख रहाहो, पढ़ने वाले पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। इसका चित्रण सज्जीव और अपूर्व है। भाषा में लवक पेदा करना इसे खूब आता है, और काबूकरना भी, ताकि जिधर चाहेमोड़ सके। महाराज हर्षने इसे “वश्यवाणी कविचक्रवर्ती” के नाम से अलंकृत किया, इसकी शेली में छिद्र भी है, पर जेसा हम कह आए हैं, बे समय के प्रभाव के कारण थे, इसकी धवल कीर्ति के चन्द्र

मण्डल पर वे केवल धब्वेकहेजा सकते हैं। अब हम उस समय के “बाणद्वारा” इंगित रीति–रिवाज पर कुछ प्रकाश डालते हे।

मुख्य मत दो थे— हिन्दूऔर बौद्ध। कभी कोई सांप्रदायिक झगड़ा न होता था। राजगृह ही में अलग २ मातानुयायी थे। हर्ष के पिता सूर्य भक्त थे। उनके बड़े भाई, राज्यवर्द्धन, पक्के बौद्ध, और हर्षस्वयं अपने आपको परमेश्वर कहते थे। राजा किसी विशेष धर्म की प्रशंसा न करता था। सब श्रेष्ठ लोग एक सा ही मान पाते थे।

आजकल की भांति पुराणों की कथाएँ प्रायः होती थीं। इससे पुराणों की प्राचीनता सिद्ध होती है, बाण ने रामायण ओर महाभारत का भो उल्लेख किया हैं।

मूर्ति–पूजा और देवालय होते थे। कादंबरी से पता चलता हैं, कि उन दिनों ब्रह्मा और कार्तिकेय की पूजा का भी रिवाज था। तथा सती प्रथा भी थी। हर्षचरित्में रानी यशोवती अपने पति की मृत्यु के पूर्वही चिता मेंजलकर प्राण त्याग करती है किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि जनता इस बात को बहत पसन्द न करती थी।

ब्राह्मण वेद शास्त्रों का अध्यन किया करते थे। उत्सव के अवसर पर उँचे घरों के स्त्री पुरुषों में नृत्य का भी रिवाज था।

७ — बाण की कृतियाँ

निम्नलिखित ग्रन्थ बाण के कहे जाते हैं :—

(१) हर्षचरित्‌। (२) कादंबरी। (३) चँडीशतक। (४) पार्वतीपरिणय।

चौथा ग्रन्थ नाटक है यह कविकी असफल कृति कही जा सकती है। कोई पंडित लोग तो इसे बाण का लिखा नहीं मानते। दो तीन ओर ग्रन्थ भी बाण ने लिखे, परन्तु वे अब नहीं मिलते।

रामस्वरूपः

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श्रीहर्षचरितम्

आशुतोषिण्यासमेतम्

प्रथमः उच्छ्वासः

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चतुर्मुख1 मुखाम्भोज वनहंसवधूर्मम्।
मानसे रमतां नित्यं सर्वशुक्लासरस्वती॥१॥

<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-172512698656.png"/>आशुतोषिणी<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-172512698656.png"/>

वृन्दारकैर्वन्दितपादपीठो गौर्येकदन्ताग्निभवैरूपेतः।
सदाशुतोषः करुणापयोधिश्शिवंप्रतन्याद्गिरिजापतिर्नः॥

अथ2 श्रीमन्महा कविर्बाणभद्रःचिकीर्षितस्य स्वनिवन्धस्यनिर्विघ्नपरिसमाप्त्यर्थं वाग्देवता स्मरण रूप॑ मङ्गलं ग्रन्थादौशिष्यशिक्षायैनिबध्नाति।चतुर्मुखेति— चतुर्मुखस्य, ब्रह्मणः,चत्वारि, आननान्येव, (अम्भोजानां,कमलानां), वनानि,तत्र या हंसवधूः, मरालस्त्री, (प्रजापतेःमुखकमल वनविहारस्तत्रहंसवधूस्वरूपेत्यर्थः) सर्वेशुक्ला,सर्वतःशरीर

नमस्तुंगशिरश्चुम्वि चन्द्रचामरचारवे।
त्रैलोक्यनगरारम्भ मूलस्तम्भाय शम्भवे॥२॥

वसनादिना, (पक्षे) च्युतसंस्कारादिदोषरहिता, शुक्ला, श्वेतवर्णा, (पक्षे) परिशुद्धा, सरस्वती, वाग्देवी, (पक्षे) संस्कृतभारती च, मम मानसे, चित्ते, (पक्षे) मानसाख्ये सरसि यथा हंसोमानसंविहायस्वर्गसुखमप्यनुभवितुं नेच्छति, तस्यैव सरसःशोभामतितरांप्रकशयति, तथैव विदुषां मानसकलहंसी भगवती भारती मन्मानसंप्रविश्यसदर्थजातं प्रकाशयतु, इति श्लेषताप्तर्यार्थः) नित्यं, सर्वदा, रमतां, विहरतु। कमलकानने मानसाख्ये सरसि हंसीव या प्रजापतेःमुखकमलवने नित्यंश्रुति रूपेण विहरति, साऽतिविशुद्धस्वरूपा सरस्वती मम मानसे3नित्यं निवसतु, इति भावार्थः।हंस वधूरूपेण भगवत्या वर्णनत्वाद्रूरूपकमलंकारः, अनुष्टव्वृत्तम्‌॥१॥

अथेदानीजन्मान्तरीमैहिकंवा विघ्ननिचयमाशङ्क्यस्वादिष्टदेवं शिवं स्तौति।

नमस्तुङ्गेति— तुङ्गं, समुन्नतं, शिरः, उत्तमाङ्गं, तं चुम्बति, स्पृशति, (तत्र संलग्नइत्यर्थः) यश्चद्रः, शशीः, स एव, चामरं, व्यजनं, (चमर्थाःगोः पुच्छसंभूतःव्यजनविशेषः) तेन, चारूः, मनोहरः, त्रैलोक्यं, त्रिभुवनं, (भूःभुव-स्वः) एव नगरं, पुरं, तस्य य आरम्भः, निर्माणोपक्रमः, तस्य, मूलस्तम्भः शुभ्रशिलामय स्थूणाविशेषः, तस्मै, शम्भवे, शंकराय, नमः, प्रणातिरस्तु।

यथा महानगरी निर्माणे पुरतो गोपुरं विरचय्य महतींस्थूणां च निवेश्य श्वेतपताकां निबध्नानि जनः, तथेव त्रैलोक्य नगरारम्भे पताकारूपेणशुभ्रं

हरकण्ठग्रहानन्द मीलिताक्षीं नमाम्युमाम्‌।
कालकूट विष स्पर्श जात मूर्छागमामिव॥३॥

चंद्रमसं नियुज्य स्थूणारूपेण स्वयं भगवान् शंकरःअतितरां शोभते तस्मै शम्भवे नमः इतितात्पर्यार्थः। परम्परित4 रूपकमत्रालंकारः। अनुष्टुप्‌॥२॥

अथ श्रीभूतभावनंसंस्तुत्य तदर्द्धाङ्गिनीं श्रीपार्वतीं स्तौति—**हरकण्ठग्रहेति—**हरस्य, शंकरस्य, कण्ठग्रहे, कण्ठाश्लेषे, यः–आनन्दः, सुख विशेषः, तेन मीलिते, संकुचिते, अक्षिणी, नेत्रे, यस्यास्ताम्‌ (आश्लेषसुख शिथिलगात्रीमित्यर्थः) अत एव काल5 कूटस्य, हलाहलस्य, (अत्र काल कूट शब्देनैव विषत्व सिद्धेःपुनर्विषशब्दप्रयोगःपौनरूक्त्यमावहति परं गो वलीवर्द्दन्यायेन कविसम्मतत्वाच्चनाशङ्किनीयोऽयंदोषः) स्पर्शेन, सम्पर्केण, जातः, सम्भूतः, मूर्छागमः, मोहावेशः; यस्याः पार्वत्याः(तथाभूतामिव) उमां , पार्वतीं नमामि, वन्दे।

यथैव विष संसर्गे हि श्वासप्रश्वास योगेनपार्श्ववर्तिनःमूर्च्छागमःसम्भाव्यते, तथैव विषसंयुतेमहादेवकण्ठेबाहोस्संसर्गे–आनन्देन निर्मीलिताक्ष्याःपार्वत्याः विषोपहतामिव नेत्र निमीलनमतिशय प्रणय दर्शनाय पतिकण्ठग्रहानन्द कृते विष सम्पर्कजनित मूर्च्छागम इत्युत्प्रेक्षितम्‌। उत्प्रेक्षालंकारः—अनुष्टुप्6॥३॥

अथ कविकुल शिरोमणिं भगवंतं श्रीकृष्णद्वैपायनं प्रथमं स्तोति—नमः, इति—सर्वविदे, सर्ववेदादिकंवेत्तीति सर्ववित्‌, (सर्वज्ञायेत्यर्थः)।

नमः सर्वविदे तस्मैव्यासाय कविवेधसे।
चक्रेपुण्यं सरस्वत्या यो वर्षमिव भारतम्‌॥४॥

कविवेधसे7, कवीनांकाव्यकर्तृणां, वेधाः, विधाता, (कविभ्यः–अभिनव काव्य रचनामार्ग प्रदर्शनेन शिक्षयितारमित्यर्थः) (व्यस्यति, विभजति, वेदादीनिति व्यासः) तस्मै व्यासाय, नमः, प्रणतिः, योऽसौकविबेधाःव्यासः तदाख्यं महाकाव्यं, भारतवर्षमिव, भरतराज्ञः, स्थानमिव (अत्र–भारतं इत्येकस्यैव पदस्य श्लेष्मानिबन्धेनोभयार्थे वर्षमिव इत्यनेनान्वयं ज्ञेयम्‌।सरस्वत्या वागधिष्ठात्र्यादेव्याः, (पक्षे) तदाख्यया नद्या, पुण्यं चक्रे, पवित्रं कृतवान्।

प्रथमं वेदशास्त्रमविभक्तमासीत्‌ तं पराशरसुतोव्यासः(द्वैपायनः) ऋग्यजुसामाथर्वरूपंमन्त्रब्राह्मणात्मकभेद्वयंविभज्य पञ्चमं वेदमूतं महाभारतं पुराणादीना च विभागं चक्रेतदास्य नाम व्यासेति प्रसिद्धिमगात्‌। भावः—प्रजापतिः स्‍वकर्म कौशलं सर्वर्तुर्मनोहरं रत्ननिचयमेकत्रप्रदर्शयितुं भारतवर्ष–अखिल दुरितनाशाय यथा पवित्र प्रवाहिण्यासरस्वत्या नद्या पवित्रीचकार, तथैव व्यासोऽपि विद्याप्रकाश रूपं कौशलं योगवलेन अन्तर्निगूढभावं लोकाति शायिनं महाभारतंवाग्देव्याः कला विलासेन पवित्रतामनयदिति—अत्रमहाभारतस्य भारतवर्षेणसह अवैधर्म्यत्वादपमालंकारःतादात्म्य संबंधेन च व्यज्यते व्यासोऽयंविधाता— अतः- उपमालंकारेण रूपकरालंकारध्वनिरितिः8 ज्ञेयम्‌॥४॥

कवीनां स्वभावं-पर्यालोचयन्नाहश्लोकषट्केन।प्राय-इति—इह लोके रागः, अस्मदभिनिवेशः, तेन, अधिष्ठिता, आक्रान्ता, दृष्टिर्ज्ञानं, येषां ते, तथाभूताः, अतःएवकुकवयः, कुत्सिताः,घृणास्पदाः, कवयः, (असत्संदर्भनिर्मातार इति यावत्) प्रायः, बाहुल्येन, लोके, जगति, दृश्यन्ते इति शेषः।

प्रायः कुकवयो लोके रागाधिष्ठित दृष्टयः।
कोकिला इव जायन्ते वाचालाः कामचारिणः॥५॥

(अज्ञानान्थतयात्र कुकवीनां यानि हि भूयांसि काव्यानि दृश्यन्ते लोके तानि आलंकारिकमार्ग रहितानि केवलमसारतरविषयकानि काव्याध्येतृणामनिष्ट कारकाणि सर्वथात्याज्यानि—इति भावः।तथैव ते तु केवलं कोकिला इव, परभूत इव, वाचालाः, श्रुतिमधुरयावाचा, मूर्खाणां चित्ताकर्षकाः(असंबद्ध प्रलापिन इति यावत्‌) कामचरिणः, शास्त्राननुशीलाः, यथेच्छया विचरन्तः, (अनभिज्ञाहिते-इत्यर्थः) कुकवयः, जायन्ते,उत्पयन्ते, कुकविनिन्दात्र—

यथैव कोकिलाःस्व कुहुरवेण प्राकृतानां जनानां मनांसि वशीकुवन्ति, तथैव पूर्व कवीनां मार्गं मननुसरन्तः स्वेच्छया काव्यकान्तार पर्यटनशीलाः, ये केवलं वाङ्माधुर्येण हि जनानां चेतांसि प्रीणयितुंयतन्ते, परमध्येतृणां श्रेष्ठ काव्येषु प्रवृत्तिंअसत् काव्येषु निवृत्तिं च कर्तुमक्षमास्तेषां काव्यालाप वर्जनीय एवेतिभावः।

कोकिल पक्षे-त्वेवं—रागः, लौहित्यं, तेन, अधिष्ठिता, व्याप्ता, दृष्टिः, चक्षुः, येषां तथा विधाः, वाचालाः, प्रलपनशीलाः, वाचा, वाण्या, (स्वकीय कुहुरवेणेत्यर्थः) आलाः, आसमन्तात्‌, लान्ति, आवर्जयन्ति, वशी कुर्बन्ति (मानसमितिभावः) येते तादृशाः कामचारिणः, कामोत्तेजनकराः, जायन्ते। (काममद्दीपयन्तीत्यर्थः)।

“वाचाला इत्यत्र अवाचालाः “इति पठान्तरे” केचित्‌ कवयः कोकिला इव अवाचालाःमधुरभाषिणः कामचारिणः, स्वप्रतिभानुसारमभिनवसंदर्भ कुर्वाणाः, सुकवि प्रशंसात्रज्ञेया।अत्रकविषु कोकिलानामबैधर्म्यत्वात्‌ श्लिष्टविशेषण प्रतिपादितः। श्लेषानुप्राणितोऽपमाऽलंकारः॥५॥

सन्ति श्वान इवासंख्या जातिभाजो गृहे गृहे।
उत्पादका न वहवः कवयः शरभा इव ॥६॥

अन्यवर्ण परावृत्या वन्धचिह्ननिगूहनैः।
अनाख्यातः सतां मध्ये, कविश्चौरो विभाव्यते॥७॥

सन्तीति—गृहेगृहे, प्रतिगृहम्‌, असंख्याः, संख्यातीताः, (गणयितुमशक्या इति यावत्‌) जातिः जन्म, तन्मात्रं भजन्ते, इत्येवंभूताः, सामान्यसामर्थ्यकाः। (नहि अभिनव रचनया किमपि जगतः-उपकर्तुं समर्था इति भावः) श्वान इव, कुक्कुरा इव, सन्ति, विद्यन्ते, ते हि यथा भुक्तोद्गीर्ण भोजनप्रियाः, अमेध्य भोजनेप्सया यथाक्रमं विचरन्तः, अगणनीयाः, कुकवयः, असत्‌ काव्यरचनया कालंनयन्तः, एवं भूताः, निंदास्पदाः, (सततं-निन्दनीयाः-एवेतिभावः) (उक्तकवयःनिन्द्याःपरंके अनिन्द्याइत्यपेक्षायामाह। उत्पादकाः, इति—किन्तु बहवः, भूयांसः, कवयः, कवित्वख्यातिमिच्छया काव्यकला प्रणयनोत्सुकाः, शरभा इव, अष्टापदमृगविशेषा इव, न उत्पादकाः, नाभिनवकाव्यरचना निपुणा इत्यर्थः।सन्तीति पूर्वेणसंबंधः। अत्यल्पा एव विद्यन्ते इति तात्पर्यम्‌।

यथैव। शरभाणांकुत्रचिदेवावस्थानं9 नहिसर्वत्रलभ्यन्ते तथैव सत्काव्य निर्मातारः सुकवयःअल्पसंख्याका एव विद्यन्ते संसारे इति भावः। अत्र कुकविषु शुनां सुकविषु च शरभाणां अबैधर्म्यसाम्यप्रतिपादनात्‌ उपमाद्वयं—अन्योऽन्यनैरपेक्ष्यतया स्थितेश्चानयोः संसृष्टिः॥६॥

अन्येति—अन्यस्य अपरस्य, कवेः, काव्यकर्तुः, वर्णानां, अक्षराणां, (रचितानां संदर्भाणामितिभावः) परावृत्तिः, विपर्यासेन, परिवर्त-

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2. जाति सामान्य जन्मनोः………………………."

श्लेषप्रायमुदीच्येषु, प्रतीच्येष्वर्थमात्रकम्।
उत्प्रेक्षा दाक्षिणात्येषु, गोड़ेष्वक्षरडम्बरः॥८॥

नेनेत्यर्थः। ग्रथनं (पक्षे) अन्येवर्णाःकृष्ण गौरादयःतेषां परावृत्तिः, वर्णान्तरेणगृहनं तिरोधानं तथा वंधानां गौड़ी पाञ्चाली वैदर्भ्यादीनां, चिह्नानां, श्रीप्रभृति लिङ्गादीनां च, गूहनैः, गोपनैः(पक्षे) बन्धचिह्नस्य शृंखलादेः, निगृहनैः अनाख्यातः, अप्रकटितः, अथ च नना अनाः, अपुरुषः, (का पुरुषः इति भावः) एवं ख्यातः, प्रसिद्धः, कविः, काव्यनिर्माता सतां, सहृदयानां, सज्जनानां मध्ये (सज्जन संसदीव्यर्थः) चौरः, तस्करः, विभाव्यते, ज्ञायते, योहि अपर कवीनां संदर्भादाकृष्यरचयति रचनां तस्कररूपेणासौहि सहृदय समाजे चौरोगण्यते॥७॥

इदानीं देशभेदेन रचना शलीं दर्शयति—श्लेषेति—उदीच्येषु उत्तर पथ वासिषु, प्रदशेषु, तत्रत्यानां कवीनां रचनायामितिभावः। श्लेषप्रायं, वह्वर्यवाचकत्वं, श्लेष प्रयोगः, आधिक्येन दृश्यते, उदीच्याः हिकवयः श्लेषालंकाराश्रपेण काव्यं रचयन्तीतिमावः। प्रतीच्येषु, पाश्चात्येषु, पश्चिम देशेष्वित्यर्थः। अर्थमात्रकं, अर्थस्यैव प्राधान्यं, नच शब्दालंकारादीनामित्यर्थः। तथाच प्रतीच्यां दिशि अर्थस्यैव विशेषादरः नोदीच्यादीनामिव तेषां शब्दालंकारादिषु मात्रशद्वेनायंव्यज्यते।दाक्षिणात्येषु तद्देशोद्भवेषु-उत्प्रेक्षायाः संशय मूलकप्रकृतस्यालंकारस्यैवविशेषादरः गौड़ेषु वङ्गदेशादारभ्य उत्कलदेश पर्यन्तेषु, जनपदेषु, प्राच्येषु अक्षराणां, वर्णानां, डंवरः, ओजगुणवतांसमासभूयिष्टानांपदानामेव रचना सौकर्यमित्यर्थः।

सर्वत्रैवदेशेषु कविभिरेकैकोहि गुणः समाद्रितः परं नहि-सहृदयानां-संतोषकरः, अतःगुणनिचय मेवहि श्रेयानितिभावः॥८॥

साम्प्रतं सहृदय प्रीति जनकंरचना प्रकारं वर्णयति—नव इतिनवः, नूतनः,

नवोऽर्थोजाति रग्राम्या श्लेषोऽक्लिष्टः स्फुटो रसः।
विकटाक्षरबंधश्च कृत्स्नमेकत्रदुष्करम्‌॥९॥

किं कवेस्तस्य काव्येन सर्ववृत्तान्तगामिनी।
कथेव भारती यस्य न व्याप्नोति दिगन्तरम्‌॥१०॥

अन्यैः, कविभिरनिवद्धः, अर्थः, अभिभेयः, (अविधा प्रतिपाद्योवाच्यार्थःइति यावत्‌) अग्राम्या, नीच जनोच्चारितवाग्जालःग्राम्यःसचदोषविशेषः तद्रहिता, जातिः, रचनाशैली, यत्रश्लेषःशब्दार्थभियवृत्तिरलंकारः, अक्लिष्टः, सहृदयवेद्यः(अदुर्बोध इति यावत्‌) रसः शृंगारादि स्फुटः, सुव्यक्तः, विकटः, (विकटत्वं पदानां न्यासविशेषः) तद्गुणःयुक्तः, बन्धः, प्रबन्धः, ओज गुण प्रकाशकै राडम्बर विशेषैःगोड़ीरीत्यनुसारेणातिभावः। ग्राम्यादि दोषरहितं सुबोध्य श्लेषादिकंस्फुटं रसं गोडीरीति वंधनं रचनयागुम्फनामत्यर्थः। एतत्सर्वकृत्स्नंकाठिन्येनहि एकत्र, एकस्मिन्कवितरीतिशेषः। दुष्करं (दुर्लभमिति यावत्‌) एतेहि गुणाः एकस्मिन्सन्दर्भे न दृश्यन्ते, एतच्चसर्वगुणा सौष्ठवत्वंसहृदय प्रीति करमित्यर्थः। अथ च नूतन-अर्थःग्राम्यत्वादि दोष रहितः, श्लेषादिऽलंकारैःशोभितः, अकठिनः, स्फुटः, अक्षर विन्यासादिभिरलंकृतोहिसंदर्भःसहृदयानां प्रीतिमुद्भावयति॥६॥

ये हि कवयः पूर्वोक्त गुणयुक्तांरचनां कर्तुमसमर्थास्तेषां काव्यकरणं निरर्थकत्वमित्याशथेनाह।किमिति—यस्य कवेः, कवित्वख्यातिप्राप्तुमिच्छो, कथा, संदर्भविशेषः, तस्यवाक्, सर्ववृत्तान्तगामिनी, सर्वविषयप्रकाशिनी, प्रागुक्त नवार्थादिगुणोद्भासिनीत्यर्थः।अथवा सर्वाणि यानि वृत्तानि मात्रिक वार्णिकादीनि छंदांसि तेषामध्ययन परायण सहृदयानन्दकारीणीत्यर्थः। (पक्षे) भारतीव, महाभारतमिव (भगवतो व्यासस्थमहाकाव्यं सर्वैः कविभिराद्रीयते) दिगन्तरं, दिग्भागपर्यंतं (सर्वत्रेति भावः,) नप्राप्रोति,कथा10

उच्छ्वासान्तेऽप्यखिन्नास्ते येषां वक्रे सरस्वती।
कथमाख्यायिकाकारा न ते वंद्याःकवीश्वराः?॥११॥

कवीनामगलद्दर्पोनूनंवासवदतया।
शक्त्येव पाण्डुपुत्राणां गतया कणगोचरम्‌॥१२॥

नगच्छति, स्वकीयया प्रतिभया झटिति जनानां हृदयानि न व्याप्रोति, तस्य कवेः, काव्येन, संदर्भेण किं न किमपि प्रयोजनं जनानामित्यर्थः, (वैफल्य मेव तस्य जगतीतिभावः) पूर्वंनिर्दिष्टरचनाशैलीमनुसृत्य महाभारत कथामिव यस्य संदर्भः दिगन्तरं न प्राप्तस्तस्य काव्येन किं प्रयोजनमिति भावः॥१०॥

साम्प्रतं नमस्करोति कवीन्। उच्छ्वासेति—येषां कवीनां वक्रे, मुखे, सरस्वती वागधिष्ठातृदेवी, विलसतीतिशेषः, उच्छ्वासस्येव, श्वासप्रश्वास मारूतत्यागेनेव, यद्वावागविश्रान्तिन्तिस्थानस्य प्रकरणसमाप्तेरिति भावः।अन्ते, अवसानेऽपि, अखिन्नाः, कवित्व शक्तेःप्रभावाद्रचनायामनिवृत्ताः, आख्यायिकाकाराः, आख्यायिका इतिवृत्तं तं कुर्वन्ति तथोक्ताः, संदर्भरचयितारः, ते प्रसिद्धाः, लब्धख्यातिकाः, कवीश्वराः, कविश्रेष्ठाः, कथं न वंद्याः, अपितु वंदनार्हा, एवेति भावः, आख्यायिकाकारान्‌ सर्वानेव कवीन्‌ वंदे इतितात्पर्यार्थः।येषां कवीनां वदने विहरति सर्वदैव सरस्वती ते आख्यायिकाकाराःकविवराः पूजनीया इति भावः॥११॥

अधुना तद्रचित संदर्भ प्रशंसया महाकविं सुबधुंस्तौति। कवीनामिति—कर्णस्य, सूतपुत्रस्य, दुर्योधनसुहृदः, स्वनामविख्यातस्य वीरस्येतियावत्‌। एव गोचरःस्थानं (पक्षे) कर्णः, कवीनां स्वीयं २ गोः, इन्द्रियं, श्रवणं, तस्य चरं, विषयं, कवीनां श्रवणपथवर्तिनमित्यर्थः(कर्णसमीपे एक पुरूषाघातिनी

पदबन्धोज्वलो हारी कृतवर्णक्रमस्थितिः।
भट्टारहरिचन्द्रस्य गद्यबन्धो नृपायते॥१३॥

शक्तिरस्तीति पाण्डुपुत्राणांश्रवणकालमितियावत्) गतया, प्राप्तया, (पक्षे) श्रुतिविषयं नीता, वासवः, इन्द्रः, तेन दत्ता तया (पक्षे) वासवानुग्रहेण प्राप्ता स्री वासवदत्ता, तदितिवृत्तान्यः, तया शक्त्या, तदाख्यअस्त्रविशेषेणेत्यर्थः। पाण्डुपुत्राणां, युधिष्ठिरादीनामिव, वासवदत्तया, तदाख्यगद्यकाव्येन, कवीनां दर्पः, अहंकारः, नूनंनिश्चयेन, अगलत् ननाश।इन्द्रप्रदत्तां एक पुरुषाघातिनं शक्तिं निशम्य पाण्डवाःयथाविजयाशा रहिताःहतदर्पाश्चासन्, तथैव वासवदत्ताया संदर्भसौष्ठवत्वमवलोक्यसर्वे कवयः अतः परमधिकमुत्कर्षजनककाव्यं कर्तुमक्षमाःअहंकारशून्याः—अभवन्नित्यर्थः।उपमाऽलंकारः॥१२॥

महाकवेःहरिचन्द्रस्य गद्यकाव्यस्यप्राधान्यं दर्शयति—पदेति—पदानां, सुप्तिङ्न्तानां, बंधः, रचनाचातुर्यः(पक्षे) स्वस्थानपरायणश्च, तेन उज्ज्वलः, दीप्यमानः, हारी, मनोहरः, (पक्षे) हारालंकारशोभा च। अथवा (“अहारा"इति पाठे) न हरतिकस्यापि धनादिकमित्याहारी।कृता, स्थापिता, वर्णानां, अक्षराणां (पक्षे) ब्राह्मणादीनां च क्रमेण मर्यादानुसारेण च स्थितिःयेन यस्मिन्वा, एवं भूतःभट्टारः, प्रभुः, हरिचन्द्रःतन्नामकश्चित्कविः, तस्यगद्यबंधः, गद्यग्रन्थः, नृपः, राजा, स इवाचरतीति नृपायते, नृपवत् शोभते इत्यर्थः।हरिचन्दकवेःकाव्यं सर्वातिशायिनमिति व्यज्यते। यस्मिन्गद्यकाव्ये प्रदानां वर्णानां च स्थितिक्रमः, अतीव शोभनः-असौहरिचन्द्रस्य गद्यग्रन्थः नृपःइव विराजते—इति ताप्तर्यार्थः॥१३॥

अपर कविं सातवाहनं, स्तौति। अविनाशिनमिति—सातवाहनः, तदाख्यःकविः विशुद्धाः, निर्दोषा, जातिः, अलंकारादिर्येषु, तथाभूतैः, सुभापितैः, शोभना-भाः-कान्तिः, येषां तैः, शोभनैर्वाक्यैः, रत्नैरिव, अविनाशिनं

अविनाशिनमग्राम्यमकरोत् सातवाहनः।
विशुद्धजातिभिः कोषं रत्नैरिव सुभाषितैः॥१४॥

कीर्तिः प्रवरसेनस्य प्रयाता कुमुदोज्वला।
सागरस्य परं पारं कपिसेनेवसेतुना॥१५॥

अनश्वरं , अतिरमणीयं, स्थायिनं चेत्यर्थः, अग्राम्यं, ग्राम्यत्वादिदोषरहितं, कोषं, काव्यनिधिंअकरोत्।

यथा च शोभनैःरत्नैः स्वकीयनिधिः पूर्यते जनेन तथैवसातवाहनेन कविना काव्यनिधिः विशुद्धैश्शब्दरत्नैः-आपुरी।उपमालंकारः। “साम्यं वाच्यमवैधर्म्यंवाक्यैक्य उपमाद्वयोः॥१४॥

प्रवरसेननामानं कविं प्रशंसति।कीर्तिरिति—प्रवरसेनस्य, तदाख्यकवेः (पक्षे), प्लवने, (कूर्दने-हत्यर्थः) रसः, रागो, येषांते प्रवरसाः, वानराः, तेषां, इनः, स्वामी।, “इनःपन्थौनृपार्कयोः” सुग्रीवः, तस्य वानर राजस्य, कवेश्च, कीर्तिः, काव्यरचना संमुद्भवं यशः, “यशः कीर्तिः समता च—इत्यमरः” कुमुद वत्, उज्वला, प्रदीप्ता यथवा कुः, पृथिवी, तस्या-मुद आनन्दः, तया उज्वला, यद्वाकुमुदेन, तदाख्येन वानरसेनापतिना, उज्वला, प्रशस्ता, सेतुना, तदाख्य-काव्यग्रंथेन, (पक्षे) तन्नाम मार्गेण नलनील निर्मितेन, कपिसेनेव, वानरवाहिनीव, सागरस्य समुद्रस्य परं पारं प्रयाता, गता, यथैव वानर सेना सेतुबंधेन सागरं समुत्तीर्य सागरपारस्थितां लङ्कांप्राप्ता, तथैव प्रवरसेनस्य यशः तदीय ग्रन्थस्य प्रचारेण सागरमपिसमुत्तीर्यदेशान्तरं गतमितिनिष्कर्षार्थः॥१५॥

दृश्यकाव्यप्रणेतारं भासकविं प्रशंसति। सूत्रेति—भासः, तदाख्यकविः, सूत्रं, वृत्तं धारयतीति सूत्रधारः, नाटकमुख्यपुरुषः, “नाट्योपकरणादीनि सूत्रमित्यभिधीयते, सूत्रंधारयतित्यर्थेसूत्रधारो निगद्यते।”

सूत्रधारकृतारम्भैर्नाटकैर्बहुभूमिकैः।
सपताकैर्यशो लेभेभासो देवकुलैरिव॥१६॥

निर्गतासु न वा कस्य, कालिदासस्य सूक्तिषु।
प्रीतिर्मधुरसान्द्रासुमञ्जरीष्विव जायते?॥१७॥

(पक्षे)स्थपतिश्च, तेन कृतः, आरम्भोयेषांतैःवह्वी भूमिका अनुकरणावस्था, वेशपरिवर्तनादिकं (पक्षे) कक्ष्या च।येषु तथोक्तैः, सपताकैः पताकास्थानविशेषैः, “यत्रार्थेचिन्तितेऽन्यस्मिंस्तल्लिङ्गोऽन्यःप्रयुज्यते, आगन्तुकेन भावेन पताकास्थानकं तु तत्” देवकुलैरिव, देवमन्दिरैरिव, नाटकैःरूपकभेदै“नाटकं ख्यातवृत्तंस्यात्‌ पंचसंधिसमन्वितम्‌"।यशो लभे, कीर्तिमवाप।नाट्यरचनाकुशलःभासो नाम कविः स्वकीय नाटकग्रन्थैःदेवकुलैरिव यशो लेभे।

यथा मन्दिरिनिर्माता देवमंदिरं निर्माय्य पताकां च स्थाप्य यशभाग्‌ भवति तथैव भासोऽपियशमवाप॥१६॥

महाकविं कालिदासं स्तौति—निर्गताष्विति—निर्गतासु उच्चरितासु, नवार्थप्रतिपादिकासु च, मधुराः, मनोहारिण्यः, सान्द्राः, धनाः, निविडाः (सुरसा इतियावत्) (पक्षे) मधु विद्यते यासु ताः मधुराः, मकरन्दवाहिन्यः, सान्द्रः, घनाः, पूर्णावस्थां प्राप्ता इत्यर्थः। तथा विधासु मंजरीष्विव, कुसुमवल्लरीष्विव, कालिदासस्य कवेःसूक्तिषु, मनोहरेषु वाक्येषु, कस्य जनस्य वा प्रीतिःप्रेम न जायते, नोत्पद्यते, अपितु सर्वस्यैव सहृदयस्य जनस्यप्रीतिर्भवत्येवेत्यर्थः, नहि कश्चिदपि जनः यस्य कालिदासकाव्येषु नास्ति प्रीतिरितिभावः—उपमाऽलंकारः॥१५॥

समुद्दीपितेति—समुद्दीपितः, उत्तेजितः, कंदर्पः, कामो यया बहूनां कामिजनानां कथा श्रवणेन न तदुत्पत्तेरित्यर्थः, उपवनगमनविहारैःशृंगारस्य समुद्भवतीति। तथोक्ता (पक्षे) समुद्दीपितः नेत्रानलेनःदग्धः, कंदर्पः, कामः

समुद्दीपितकंदर्पा कृतगौरीप्रसाधना।
हरलीलेव नो कस्य विस्मयाय बृहत्कथा?॥१८॥

आढ्यराजकृतोत्साहैर्हृदयस्थैः स्मृतैरपि।
जिह्वान्तः कृष्यमाणेव न कवित्वे प्रवर्तते॥१९॥

यस्यां तथोक्ता, अथवा कृवं, विहितं, गौर्य्याःईश्वर्याः, प्रसाधनं, पूजन, नायेकेन, नरवाहनदतेनेतिभावः।यस्यां तथाभूता (यद्वा) कृतं गौर्य्याःपार्वत्याः, प्रसाधनं, अराधनं, हरस्यतियावत्‌-यद्वा, गौर्य्याः, (कर्मभूतायाः) प्रसाधनं अलंकरणं हरेण (कर्त्रेतिभावः) यस्यांतथाभूता, बृहत्कथा, तदाख्य इतिहास काव्यं, दरलीलेव शम्भोः कौतुकमिव, कस्य जनस्य आश्चर्यायविस्मयाय न, अपितु सवर्स्यव सहृदयजनस्य विस्मयायेतिभावः।उपमाऽलंकारः॥१८॥

आढ्यराजनामानं कविं प्रस्तौति।आढ्यराजेति आढ्यराजः, तन्नाम कविः तेन कृताः, रचिताः, ये उत्साहाः, ग्रंथविशेषाः, तैः, हृदयस्थैः, चित्तनिहितैःआलोचितैरितिभावः।अपि किं वा स्मृतैः, स्मरणतांनीतैः, विद्वद्भिः, जिह्वा, रसना (मम बाणभट्टस्येति भावः) अन्तः कृष्यमाणेव, आकृष्टा इव (वृथा तव प्रवर्तनमेतेषामुत्साहानांपुरस्तादित्याशयेनेत्यर्थः) कवित्वे, कवित्वशक्तिंप्रकटयितुंन प्रवर्तते नोत्सहते। सुमनोरमा आढ्यराजकृताः-उत्साहाः तेषां पुरस्तान्नहि कस्यापि कवित्वशक्तिः प्रसरति एतदेव हि उत्साहाना-मुत्साहत्वमितिभावः। उत्प्रेक्षाऽलंकारः।भवेत्संभावनोत्प्रेक्षाप्रकृतस्य परात्मनः “दर्पणे”॥१६॥

एवं बहूनां कवीनां सन्ति काव्यानि परं नृपतेर्भक्त्या किमपि जिह्वा चापल्यं करोम्येवेत्याशयेनाह। तथापीति—तथापि जिह्वायां अन्तःकृष्यमाणोऽपि नृपतेः, राज्ञः, श्रीहर्षस्यममवंशोद्भवस्येति यावत्‌। भक्‍त्या,अनुरागेण, निर्वहणे,परिसमाप्तौ, आकुलः, संदर्भसमाप्तिर्भवेन्न वा-इत्येवंशंक्य-

तथाऽपि नृपतेर्भक्त्या भीतो निर्वहणाकुलः।
करोम्याख्यायिकाम्भोधौजिह्वाप्लवनचापलम्॥२०॥

सुखप्रबोधललिता सुवर्णघटनोज्ज्वलैः।
शब्दैराख्यायिकाऽऽभाति शय्येव प्रतिपादकैः॥२१॥

मानः।अत एवं भीतः, त्रस्तः, सहृदयसंसदि-अप्रतिभशंक्या इत्यर्थःआख्यायिका, इतिवृत्तं।“आख्यायिका कथावत्‌ स्यात्कवेर्वशानुकीर्तनम्। अस्यामन्यकवीनां च वृत्तंपद्यं क्वचित्क्वचित्‌॥

तदेव अम्भोधिः, समुद्रः, तस्मिन्जिह्वया, रसनया, प्लवनं, संस्तरणं, तदेवचापलं चाञ्चल्यं, करोमि।उड्डपेन समद्रतरणोत्साहवता जनेनव किंचितमात्रेण जिह्वासंस्तरणेन आख्यायिकाम्भोधिं संतरितुमिच्छामीति भावः। रूपकमलंकारः॥२०॥

दर्शकानामध्येतृृणांच आख्यायिकायां प्रवृत्तिंजनयितुं सौकर्यदर्शयति।सुखेति—सुखस्य, अलोचनाजनितस्य, प्रबोधःज्ञानं, यद्वासुखेन बोधः, “काव्यं यशसेऽर्थ कृते व्यवहार विदे शिवेतरक्षतये। सद्यपरनिर्वृत्तये कान्तासम्मिततयोपदेशयूजे मम्मटः।” तेन ललिता, सुभगा, मनोहारिणीत्यर्थः (पक्षे) सुखात्, सुखस्वापात्‌ , प्रबोधः, जागरणं, तत्रललिता, मनोरमा, आख्यायिका, इतिहासकाव्यम्, सुवर्णानां, सुखयुक्तानां,, ‘एकःशब्दः सुप्रयक्तः सम्यग्ज्ञातः स्वर्गे लोके कामधुग्‌ भवति।"

वर्णानां, अक्षराणां(पक्षे) सुवर्णानां, हेम्नां, घटनया, घटनया,योजनया, (पक्षे) कारुकर्मनैपुण्येन, उज्वलैः , प्रदीप्तैःप्रतिपादकैः, विवक्षितार्थबोधकैःशब्दैः, (पक्षे) प्रतिपादकैः, सोपान विशेषैः, चरणन्यासपीठैर्वा, शय्येव, पर्यक इव, आभाति, विराजते। ष्लेषानुप्राणितोऽपमाऽलंकारः॥२१॥

साम्प्रतं ग्रन्थनायकं श्रीहृर्षमाशिषा संवर्धयति । जयतीति—ज्वलत्‌,

जयति ज्वलत्प्रतापज्वलनप्राकारकृतजगद्रक्षः।
सकलप्रणयिमनोरथसिद्धिश्रीपर्वतो हर्षः॥२२॥

** एवमनुश्रूयते—१ पुरा किल भगवान्स्वलोकमधितिष्ठन्परमेष्ठी विकासिनिपद्मविष्ठरे समुपविष्टः सुनासीरप्रमुखैर्गीर्वाणैः परिवृतो ब्रह्नोद्याः कथाः कुर्वन्नन्याश्च निरवद्या विद्यागोष्ठीर्भावयन्कदाचिदासाञ्चक्रे।**

दीप्यमानः, प्रताप एवज्वलन्, प्रतापानलः, स एव प्राकारः आवरणः"प्रकारा वरणःसालः—इत्यमरः” (कोष्ठविशेषः) तेन कृता जगतांरक्षा येन तथाभूतः(कोष्ठनिर्मिता हिपुरी शक्यते-अनायासेन रक्षयितुमितिभावः,) सकलानां, अखिलानां, प्रणयिनां, अर्थिनां, मनोरथस्य, ईप्सितस्य, सिद्धिं, अर्थजातंपूरयितुं, पूरणे, श्रियां, सम्पदां, विभूतीनां, पर्वतः, गिरिः(हर्षयतिआनन्दयति जनानिनि हर्षः) तदाख्यःनृपतिः, जयति, सर्वोत्कर्षेण वर्तते-इत्यर्थः। अधिकप्रतापेन विराजमानः श्रीहर्षःनरपतिः जगद्रक्षकः सम्पूर्णनोरथसिद्धिदः जयति सर्वदैव जयतु इति भावः।निरङ्गरूपकमलंकारः आर्य्यावृत्तम्॥२२॥

एवमिति—एवं, अनेनप्रकारेण, अनुश्रूयते, परम्परया आकर्णयते। पुरा किल भगवान् स्वलोके विद्यागोष्ठींकुर्वन् आसाश्चक्रे-इत्यनेन संबन्धः। पुरा इति—पुराकिल भगवान्‌ पूर्वसमयेभगवान् , भगं, कल्याणं, विद्यते यस्य स भगवान्‌, कल्याणकरः, स्वस्य, आत्मनः, लोकं, ब्रह्मलोकं, अधितिष्ठन् , स्थितिं कुर्वन् , परमे, सर्वोत्कृष्टे, स्थानेतिष्ठतीति परमेष्ठी, पितामहः, ब्रह्मा, विकासिनि, विकसिते, पद्ममेव, कमलमेव, विष्टरं, आसनं, तस्मिन्पद्मविष्टरे, सुनासीरप्रमुखैः, “वृद्धश्रवाः सुनासीरः पुरुहृतः पुरंदरः—इत्यमरः" इन्द्रादिभिः गीर्वाणैः, “गीर्वाणाःदानवारयः———— इत्यमरः” देवैः, परिवृतः, चतुर्तः परिवेष्टितः, ब्रह्मोद्याः, “वेदस्तत्वं तपो ब्रह्मा—इत्यमरः” ब्रह्म वेदः, ईश्वरो वा “ब्रह्मोद्यासा कथा यस्यामुच्यते ब्रह्मशाश्वतम्‌।” उद्यते कथ्यत कीर्तिं विषयं

** तथाऽऽसीनं च तं त्रिभुवनप्रतीक्ष्यं मनुदक्षचाक्षुषप्रभृतयः प्रजापतयः सर्वे च सप्तर्षिपुरः सरा महर्षयः सिषेविरे। केचिदृचः स्तुतिचतुराः समुदचारयन्। केचिदपचितिभाञ्जि यजूंष्यपठन्। केचित्प्रशंसा सामानि जगुः। **

** अपरे विवृतक्रतुक्रियातन्त्रान्मन्त्रान्व्याचचक्षिरे। विद्याविसंवादकृताश्च तत्र तेषामन्योन्यस्य विद्याविवादाः प्रादुरभवन्। आथाति**

नीयते इतियावत्‌। याभिः, तथाभूताः, कथाः, कुर्वन्‌, अन्याश्च वेदबाह्या इतिहास पुराणादीनामित्यर्थः। निरवद्या, अनिन्द्याः, प्रशंशार्हाइति यावत्‌। विद्यागोष्ठीः, ज्ञानसमालोचिती, विद्वत्परिषदित्यर्थः“‘यागोष्ठीसर्वविद्विष्टाया च स्वैरविसर्पिणी। परं हिंसात्मिका या च न तामवतरेद्बुधःलोकचित्तानुवर्तिन्या कीड़ा मात्रेक कार्यया।गोष्ठ्या सह चरन्‌ विद्वान् लोक सिद्धिं नियच्छति॥ भावयन्‌, सम्पादयन्‌, आसांचक्रे, अवतस्थे।

**तथाऽऽसीनमिति—**तथा पूर्वोक्तप्रकारेण, आसीनम्‌, उपबिष्टं, त्रिभुवनप्रतीक्ष्यं, प्रतीक्ष्यःपूज्यः—इत्यमरः।” (त्रयाणां भुवनानां समाहारः त्रिभुवनम्) तेन प्रतीक्ष्यंतेन, पूज्यं, लोकत्रय पूजनीयमितिभावः। मनुदक्ष चाक्षुषप्रभृतयः , आदयः, प्रजापतयः सर्वेच सप्तर्षिपुरःसरा-सप्तर्षिसहिता इति भावः। महर्षयः, तं ब्रह्माणं सिषेविरे, सेवितवन्तः। केचित्स्तुति चतुराः स्तुतिषु स्तोत्र पाठेषु चतुराः, दज्ञाः, ऋचः, ऋग्वेदान्‌, समुदाचरन्‌, उक्तवन्तः। उदात्तादि स्वरभेदेन सम्यक्‌ उच्चारितवंत, इत्यथः।“केचिदपचितिभाञ्जि,” पूजानमस्यापचितिः—इत्यमरः। अपचिति, पूजा, तां भजन्तीति, अपचितिभाञ्जि पूजा सन्बन्धीनीतिभावः। यजूंषि, यजुर्वेद गतान्मंत्रभागान्‌, अपठन्‌, पेठुः, केचित्प्रशंसा सामानि, स्तुतिगर्भितानि, सामानि, सङ्गीत मयानि वेद भागानि। जगुः, गीतवंंतः, सामगायमकुर्वन्नित्यर्थः।

** अपरे-इति—**अपरे, अन्ये, विवृतानि, प्रकटितानि, कतुक्रियाणां,

**रोषणः प्रकृत्या महातपा मुनिरत्रेस्तनयस्तारापतेर्भ्राता नाम्ना दुर्वासा द्वितीयेन मन्दपालनाम्ना मुनिना सह कलहायमानः साम गायन् क्रोधान्धो विस्वरमकरोत्। **

** सर्वेषु च तेषु शापभयप्रतिपन्नमौनेषु मुनिषु, अन्यालापलीलया अवधीरयति कमलसम्भवे, भगवती कुमारी किञ्चिदुन्मुक्तबालभावे भूषितन-**

यज्ञादिकर्मणां, तन्त्राणि, प्रकरणानि, यैः, येषु वा, तान् मंत्रान्‌ व्याचचक्षिरे, कथयामासुः।विद्या विसंवादकृताः, विद्यानां वेदशास्त्रादीनां, यः, विसंवादः, मतभेदः, तेनकृताः, जनिताः, (नतुरागमात्सर्यादिनेत्यर्थः) तत्र, तस्मिन्स्थाने तेषां, ऋषीणां, अन्योन्यस्य, परस्परस्य, विद्याविवादाः, प्रश्नोत्तररूपाः, प्रादुरभवन्, उत्पन्नाः। अथ सामगायन्, क्रोधान्धोदुर्वासा विस्वरमकरोदित्यनेनसंबंध। अथेति—अथ प्रादुर्भूते विवादे, अतिरोषणः, अतिकोपनः, प्रकृत्या स्वभावेनैव (अन्यथाब्रह्मसंसदि कोपोऽयमयुक्तः) महातपाः, अतितपस्वी, मुनिः, अत्रेस्तनयः, पुत्रः, तारापतेः, चन्द्रमसः, भ्राता, नाम्ना दुर्वासाः, द्वितीयेन, अपरेण, मन्दपालनाम्ना, मन्दपालाभिधयेन, मुनिना सह, कलहायमानः, कलहं कुर्वन्‌, सामगायन्‌, सामवेदं, सङ्गीतस्वरेण पठन्‌ क्रोधान्धः, क्रोधेन, मात्स्यर्येण, अन्धः, विवेकशून्यः, विस्वरम्‌, विकृताः, स्वराः, उदात्तादयः यस्मिन्‌ तथाः भूतं अकरोत्‌।

शापेति—शापभय प्रतिपन्नमौनेषु, शापादभयं शापभयं तेन त्रस्ताः, अतएवप्रतिपन्नं, स्वीकृतं, मनं, यैस्तथाभूतेषु सर्वेषु मुनिषु, अन्यालापलीलया, (अपर कथाव्याजेनेतिभावः) अवधीरयति, तिरस्कुर्वति, दुर्वाससमितिभावः। कमल सम्भवे, कमलात्‌ सम्भवोजन्मयस्य सकमलसम्भवः, तस्मिन्कमलसम्भवे, (पद्मयोनावित्यर्थः) कुमारी, कौमार व्रतं विद्यत यस्या सा कुमारी, अनूढावाला, (सामान्यवयस्का इत्यर्थः) किञ्चिदुन्मुक्तबालभाव, ईषदुज्झितशैशवे, भूषितनवयौवने, नवयौवनेनालंकृता हत्यर्थः, नवे वयसि वर्तमानानूतनामवस्थां प्राप्ता,

वयौवने वयसि वर्तमाना, गृहीतचामरप्रचलद्भुजलता पितामहमुपवीजयन्ती।

** निर्भर्त्सनताड़नजातरागाभ्यामिव स्वभावारुणाभ्यां पादपल्लवाभ्यां समुद्भासमाना, शिष्यद्वयेनेव पदक्रममुखरेण नूपुरयुगलेन वाचालितचरणा, मदननगरतोरणस्तम्भविभ्रमं विभ्राणा जङ्घाद्वितयम्, सलीलम्-उत्कलहंसकुलकलालापिनि-मेखलादाम्नि विन्यस्तवाम**

गृहीतचामरप्रचलद्भुजलता, गृहीतेन, धारितेन, चामरेण, चमरीगोपुच्छनिर्मितनब्यजनविशेषेण, प्रचला, चलन्ती भुज-एव लता यस्या एवं भूता, पितामहं, ब्रह्माणं, उपवीजयन्ती, ब्यजनं स्पन्दयन्ती।

निर्भर्त्सनेति—निर्भर्त्सनाय, विस्वरपाठतयातिरस्करणाय, यत्ताड़नं प्रहरणं, रोषोद्भूतहननमितिभावः। तेन जातः, उत्पन्नः, रागः, लौहित्यं, ययोः, एवं भूताभ्यां स्वभावारुणाभ्यां, सदहजरक्ताभ्यां पादपल्लवाभ्यांसमुद्भासमाना, सम्यक्‌ देदीप्यमाना, पदक्रममुखरेण, पादयोः यक्रमः, पादविन्यासः, तेन मुखरं सशब्दं, रणदितिभावः।तेन वाचालितचरणावाचालितौनदन्तौ, चरणौ, यस्यास्तथोक्ता। मदनेति—मदननगरतोरणस्तम्भ विभ्रमं, मदनस्य, कामस्य, यन्नगरं, पुरं, निवासस्थानं; तस्ययत्तोरणं बहिर्द्वारं, तस्य स्तम्भौ, स्थूणा, तयोर्विभ्रम इव विभ्रमः, विलासः, यस्यास्तथा विधं, जङ्घाद्वितयं, उरुयुगलंविभ्राणा, धारयन्ती। (मदन नगरे तस्याः जङ्घाद्वितयंस्तम्भरूपेणवर्तते—इत्यर्थः) उत्केति—उत्कानां, उत्सुकानां कलहंसानां, कुलस्य, समूहस्य, यः कलः, मधुररवः, सुं एव आलापः, भाषरणविशेषः, तद्वत्प्रलापिनि, सान्द्रशब्दकर्त्रीत्यर्थः। मेखलादाम्नि, काश्चिस्रजि, मालारूपधारिणीत्यर्थः। विन्यस्तः, स्थापितः, किसलयः, नवपल्लवः, तद्वत्‌वाम हस्तो यया—विद्वन्मानसेति—विद्वन्मानस निवासत्यग्नेन, विदुषां, शास्त्राध्ययनकृत परिश्रमाणां, मानसं, चित्तं, तत्र यो निवासः, अवस्थानं, तेन लग्नं, संसक्तं,

हस्तकिसलया, विद्वन्मानसनिवासलग्नेन गुणकलपिनेवांसावलम्बिना ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकाया, भास्वन्मध्यनायकम्‌- अनेकमुक्तानुयातम्अपवर्गमार्गमिव हारमुरसा समुद्वहन्ती, वदनप्रविष्टसर्वविद्यावधूचरणालक्तरसपाटलेन इव स्फुरतादशनच्छदेन विराजमाना, संक्रान्तकमलासन कृष्णाजिन प्रतिमां मधुरगीताकर्णनावतीर्णशशिहरिणाम-इव कपोलस्थलीं दधाना, तिर्य्यक्सावज्ञम् उन्नमितैकभ्रूलता श्रोत्रमेकम्,

गुणकलापेनेव, चातुर्यादिगुण समूहेनेव, अंसावलम्बिना, स्कंधे बिलम्बमानेन, ब्रह्मसूत्रेण, यज्ञोपवीतेन “अमौक्तमसौवर्णं, ब्राह्मणानां विभूषणम्‌।देवानां पितृृणां च भागो येन प्रदीयते॥” पवित्रीकृतकाया, पवित्रीकृता, शुद्धिनीताः काया, शरीरं यस्याः, **भास्वनिति—**भास्वन्मध्यनायकं, भास्वन्‌, भाः, कान्तिः विद्यतेयस्य स भास्वन्‌, देदीप्यमानः, उज्वलः मध्यनायको, मध्यमणिर्यस्य (पक्षे) भास्वतः, सूर्यस्य, अनेकमुक्तानुयातं, अनेकैः, मुक्ताफलैः, अनुयातं, ग्रथितम्‌ (पक्षे) अनेकैः, मुक्तैः, “मोक्षमार्गगामिभिः,” अनुयातं, सेवितं अपवर्गमार्गमिव, मुक्ति पथमिव, (अपवर्गमार्गस्य-मुक्ताजालस्य च विशुद्धत्वादुत्प्रक्षितम्) हारं, मुक्ताकलापं, उरसा, वक्षःस्थलेन, समुद्वहन्ती, धारयन्ती, **वदनेति—**वदने, आनने, प्रविष्टानां, सर्वासां, विद्यानामेव, वधूनां, स्त्रीणां, चरणेषुपादेषु, यः अलक्तकरसः, लाक्षाद्रवः, तेनेव पाटलः, ईषद्रक्तः, तेनस्फुरता, विलसता, दशनच्छदेन, अधरेण, विराजमाना, शोभमाना (सर्वाविद्याएवनार्यस्तासां मुखप्रवेशेनालक्तक रसेन ओष्ठयोः स्वभावारुणयोरुत्प्रेक्षितम्‌) **संक्रान्तेति—**संक्रान्ता, संलग्ना, कमलासनस्य, ब्रह्मणः, कृष्णाजिनस्य, कृष्णमृगचर्मणः, प्रतिमा, कान्तिः, यस्यास्तथाविधा। अत एव, मधुरस्य, मनोहरस्य, गीतस्य, गानस्य, आकर्णनाय, श्रवणाय, अवतीर्णः, उपस्थितः, शशिनः, चन्द्रस्य हरिणाकलंकरूपो मृगो यत्र तादृशीं, कपोलस्थलीं, गंडप्रदेशं, दधाना, धारयन्ती। **तिर्यगिति—**तिर्यक्‌, कुटिलं, यथास्यात्तथा सावज्ञं, अवज्ञया,

विस्वरश्रवणकलुषितं प्रक्षालयन्तीवअपाङ्गनिर्गतेन लोचनाशुंजलप्रवाहेण इतरश्रवणेन च विकसित सिन्धुवार मञ्जरीजुषा हसतेव प्रकटितविद्यामदा, श्रुतिप्रणयिभिः प्रणवैरिव कर्णावतंसकुसुम मधुकरकुलैरुपास्यमाना, सूक्ष्मविमलेन प्रज्ञाप्रतानेनेवांशुकेनाच्छादितशरीरा, वाङ्मयमिव निर्मलं दिक्षु दशनज्योत्स्नालोकं विकिरन्ती देवी सरस्वती श्रुत्वा जहास।

तिरस्कृतभावेन, विस्वरपाठकं, दुर्वाससमित्यर्थः। उन्नमितैकभ्रूलता, उन्नमिता, ऊर्ध्वभागंनीता, एका भ्रूलता इव, वल्लरीरूपा, भ्रूलता यया, एवंभूतया, श्रोत्रमेकं, कर्णमेकं, विस्वर श्रवणेन, अशुद्धस्वराकर्णनेन, यत्‌—कलुषितं, दूषितं, (कालुष्यतां नीतमिति यावत्‌) अपाङ्गनिर्गतेन, नेत्र प्रान्त च्युतेन, लोचनस्य, नेत्रस्य, अंशवः, किरणा एवजलानि तेषां यः प्रवाहः, स्रोतः, तेन, इतर श्रवणेन, कर्णेन, प्रक्षालयन्तीव, शुद्धतांनयन्तीव। **विकसितेति—**विकसिता, प्रफुल्लिता, या सिन्धुवारस्य सम्भलतरोः, मञ्जरी, वल्लरी, तद्जुषा, तद्वद्कान्त्या, हसतेव, हास्यं कुर्वाणा-इव, अतएव प्रकटितविद्यामदाप्रकटितः प्रकाशनीतः, विद्यामदः, विद्याजनितः, अहंकारः।यया एवंभूता।

**श्रुतिप्रणयिभिरिति—**श्रुतिप्रणयिभिः, श्रुतिर्वेदशास्त्रं, तत्र प्रणयिभिः, प्रेमकर्तृभिः, प्रणवैरिव, उोंकारैरिव, कर्णेषु, श्रोत्रेषु, यानि, अवतंसानि, कर्णभूषणानि, तान्येव कुसुमानि, पुष्पाणि, मधुकरकुलैः, भ्रमरैः, उपास्यमाना, (मधुर ध्वनिनाश्रुतिसुखंजनयद्भिरित्यर्थः) सूक्ष्मेन, ह्रस्वेन, अतएव, अतिविमलेन, परिशुद्धेन, प्रज्ञाप्रतानेनेव-प्रज्ञाप्रतानः, बुद्धिर्वैचित्र्यं, स एव प्रतानः, प्रसरः, तेनेव-अंशुकेन, वसनेन, पटनेत्यर्थः(अर्थात्बुद्धिवैचित्र्यमेव वस्त्रंयस्या-एवंभूता) तेन-आच्छादितशरीरा, अच्छादितं, आवर्णितं, शरीरं यस्या,**वाङ्मयेति—**वाङ्मयमिव-विद्यामिव (शास्त्रं) निर्मलं, अतिशुद्धं, दशनानां, या ज्योत्स्ना, कान्तिः, तस्याः, यद्-आलोकं, द्योतं, तं-इतस्ततः, दिक्षु, दिग्भागेषु, विकिरन्ती, प्रसारयन्ती, देवी सरस्वती, श्रुत्वा, आकर्ण्य, जहास।

** दृष्ट्वा च तां तथाहसन्तीं स मुनिः-आः पापे?, दुर्गृहीतविद्यालवावलेपदुर्विदग्धे?, मामपि-उपहससि।इत्युक्त्वा शिरः कम्पविशीर्यमाणबन्धविशरैः उन्मिषत्तड़ित्तन्तुपिङ्गलिम्नोजटासञ्चयस्यरोचिषा सिञ्चन्निव रोषदहनद्रवेण दश दिशः, कृतकालसन्निधानामिवान्धकारितललाटपट्टाष्टापदाम्,अन्तकान्तः पुरमण्डनपत्रभङ्गमकरिकां भ्रुकुटिमाबध्नन्,**

**दृष्ट्वा-इति—**स मुनिःतां हसन्तीं वीक्ष्य शापजलं जग्राह इत्यनेनान्वयः।**तथेति—**पादताड़नभ्रुकुटिसंचरणपूर्वकमित्यर्थः।स मुनिः, दुर्वासाः, आः इति क्रोधाभिव्यञ्जकमव्ययम्‌।पापे,? पापकारिणि, अनिष्टकर्त्रीत्यर्थः।दुर्गृहीतेति। दुर्गृहीतः, दुष्टभावेनाभ्यस्तः, यः, विद्यालेशः, (अत्यल्पविद्येतिभावः) तेन यः, अवलेपः, अहंकारः, तेन दुर्विदग्धा, दुर्विनीता तत्मम्बुद्धौ, दुर्विदग्धे? मामपि, लोकत्रयंप्रसिद्धं दुर्वाससमपीति भावः। उपहससि, हास्यास्पदं विदधासि। इत्युक्त्वा, एवमाभाष्य।**शिरःकम्पेति—**शिरसः, कम्पेन, विधूननेन, विशीर्यमाणाः, विकीर्यमाणाः, येबन्धविशराः बन्धनिचयाः, तैः। **उन्मिषदिति—**उन्मिषन्‌, उद्यन्‌, तडित्तन्तूनां, विद्युत्स्रजां, पिङ्गलिम्ना, पिङ्गत्वं, पिङ्गलवर्णत्वं यस्य, तथा भूतस्य, जटासंचयस्य, जटानिचस्य, रोचिषा, कान्त्या “रोचि शोचि रूभेक्लीवे, इत्यमरः।” सिञ्चन्निव, वर्षन्निव, दशदिशः रोषदहनद्रवेण, क्रोधाग्निप्रसृतस्वेदेन।**कृतेति—**कृतं, विदितं, कालस्य, यमस्य, कृष्णवर्णस्य वा, सन्निधानम्‌, उपस्थितिर्यस्यां तथा भूताम्‌, इव। **अन्धकारितेति—**अन्धकारितं, आकुञ्चनेनदुष्प्रेक्ष्यं, ललाटपट्टमेव, मस्तकप्रदेशमेव, अष्टापदं, सुवर्णं, यया तादृशीं (अनेनभ्रूविक्षेपेणाप्रकाशित स्वरूपेणास्यादर्शनीयत्वं स्पष्टं) **अन्तकेति—**अन्तकस्य, यमस्य, अन्तःपुरं, अवरोधगृहम्‌, तस्य मण्डनाय, अलङ्करणाय, पत्रभङ्गस्य मकरिकां, पत्रस्य यः भङ्गः, त्रुटनं, तद्वत्‌ मकराकारधारिणं किसलयमितिभावः। ताम्‌ भ्रुकुटिं भ्रुविक्षेपं, आबध्नन्।धारयन्‌ अतिलोहितेन, अतिरक्तेन, चक्षुषा, नेत्रेण, अमर्ष-

अतिलोहितेन चक्षुषामर्षदेवतायै रुधिरोपहारमिव प्रयच्छन्, निर्दयदष्ट दशनच्छदोदंतांशुच्छलेनभयपलायमानां वाचमिव रून्धन्, अंसावस्रंसिनः शापशासनपट्टस्येव ग्रंथन् ग्रन्थिम् अन्यथाकृष्णाजिनस्य, स्वेदकणप्रतिबिम्बितैः शापभयात्- शरणागतैरिव सुरासुरमुनिभिः प्रतिपन्नसर्वावयवः, कोपकम्पतरलिताङ्गुलिनाकरेण प्रसादनलग्नामक्षरमालामिवा-क्षमालामाक्षिप्य कामण्डलवेन वारिणा समुपस्पृश्य शापजलं जग्राह।

देवतायै, अमर्षः, क्रोधः, तस्याधिष्ठात्री या देवता तस्यै।रूधिरोपहारमिव, रक्तपूजासाधनमिव, प्रयच्छन्‌, अर्पयन्।निर्दयेति। निर्दयं, दयारहितं, यास्यात्तथा दष्टः, दंशितः, दशनच्छदः, ओष्ठः, (दन्तानिदृशदयति, आबृणोति, इति दशनच्छदः) येन तथाभूतः, दन्तांशुच्छलेन, दन्तकिरणव्याजेन भयपलायमानां, भयात्‌ (शाप) देशान्तरं गम्यमानां, इव, वाचं, रूध्रन्‌, अवरोधयन्‌। **अंसेति—**अंसस्रंसिनः, स्कंधावलम्बिनः, कृष्णाजिनस्य, मृगचर्मणः, शापस्य, यःशासनपट्टः, फलकं, तमिव, तस्य ग्रन्थिं, बंधनं, अन्यथा, वेपरीत्येन, ग्रन्थन्, बन्धन्‌। (शापशासनं हि स्वभाव शुक्लं लिपि कृष्णं च भवति अत्रापि श्वेतकृष्णवर्णस्य कृष्णाजिनस्यसाम्यत्वात्‌, (उत्प्रेक्षालंकारः)**स्वेदेति—**स्वेद कणेषु, क्रोधोद्भवेषुघर्मबिन्दषु, प्रतिविम्बितैः, प्रतीयमानैः, प्रति पन्नसर्वावयवः, प्रतिपन्नानि, स्फुटिभूतानि, सर्वाणि, समग्राणि, अवयवानि, देह भागानि, येषां तैःशापभयात्‌, शरणागतैःशरणं प्राप्तैः, सुरासर मुनिभिः (स्वेदविन्दुषुदृश्यन्तेहिसर्वेमुनिप्रभृतयः, तत्रोत्प्रेक्षितंकविना यदेते शापभयादस्य शरणमागना इति) कोपकम्पतरलिताङ्गुलिना, कोपेन, क्रोधेन, यः कम्पः, तेन तरलिताः, प्रचलिताः, अङ्गुलयोयस्य एवं विधेन करेण, हस्तेन। प्रसादनलग्नां, प्रसन्नतायै, लग्नां, आगतां ताम्‌।अक्षरमालामिव, वर्णावलीमिव (भारतीसंबंधेनैतदुक्तम्‌) अक्षमालां, रूद्राक्षजपमालां, आक्षिप्य, परित्यज्य, कामण्डलवेन, कमण्डलौभवः कामण्डलवः तेनस्वकरस्थितेनजलपात्रेण,

** अत्रान्तरे स्वयम्भुवोऽभ्यासेसमुपविष्टा देवी मूर्तिमती पीयूषफेनपटलपाण्डरं कल्पद्रुमदुकूलवल्कलं वसाना।विसतन्तुमयेनांशुकेनोन्नतस्तनमध्यबद्धगात्रिकाग्रन्थिः, तपोबलनिर्जितत्रिभुवनजयपताकाभिरिव तिसृभिर्भस्मपुण्ड्रक-राजिभिर्विराजितललाटाजिरा, स्कन्धावलम्बिना सुधाफेनधवलेन तपःप्रभावकुण्डलीकृतेन गङ्गास्रोतसेव योगपट्टकेन विरचितवैकक्ष्यका, सव्येन ब्रह्नोत्पत्तिपुण्डरीकमुकुल-**

वारिणा, जलेन, समुपस्पृश्य, आचम्य शापजलं, जग्राह, गृहीतवान्।

** अत्रान्तरे-इति—**अत्रान्तरे मूर्तैश्चतुर्भिर्वेदैः सहसावित्रीसमुत्तस्थौ, इत्यनेनान्वयः।स्वयम्भुवोऽभ्याशे, प्रजापतेरन्तिके, समुपविष्टा, स्थिता, देवी, भगवती, मूर्तिमती, (निश्चला इति भावः) **पीयूषेति—**पीयूषं, अमृतं, तस्य यत्‌ फेनपटलं, फेननिचयं, तद्वत्‌, पाण्डरं, शुभ्रम्। **कल्पदूमेति—**कल्यद्रुमस्य, सुरतरोः, दुकूलं, वसनं, इव, तरवल्कलं, छालं, वसाना, वस्त्ररूपेणधारयन्तीत्यर्थः। विसतन्तुमयेन, कमलतन्तुनिर्मितेन, अंशुकेन, सुविमलवस्त्रेण।**उन्नतेति—**उन्नतयोः, प्रबृद्धयोःस्तनयोः, कुचयोः, मध्ये बद्धा, गात्रिकाग्रन्थिः, बन्धनविशेषः, यया (स च स्वस्तिकाकारःस्तनोद्देशेभवतिस्त्रीणां)तपोवलेति— तपसां, चान्द्रायणादिव्रतानां, वलेन, निर्जितस्य, नितरांवशीकृतस्य, त्रिभुवनस्य, जयपताकाभिरिव, जयध्वजैरिव, तिसृभिः, भस्म पुण्ड्रकराजिभिः, भस्मतिलकैः, विराजितललाटाजिरा, विराजितं, शोभितं, ललाटाजिरं, ललाटाङ्गणं, यस्याः तथाभूता। **स्कन्धेति—**स्कन्धौ, अंसौ, तदवलम्बिना, तत्संलग्नेन, सुधाफेनधवलेन, अमृतफेन पाण्डरेण, तपः प्रभावकुण्डलीकृतेन, तपसां प्रभावेन, बलेन, कुण्डलीकृतेन, कुण्डलवत्‌ वर्तुलाकारेण।योगपट्टकेन, तदाख्य उपवीताकारेण, वसनेन, विरचित वैकक्ष्यका, ‘‘तिर्यग्वक्षसि विक्षिप्तं वैकक्ष्यकमुदाहृतम्‌’’। विरचितं, निर्मितं, वैकक्ष्यकं, कुक्षौनिहित तिर्यग्हारविशेषः, यया, सव्येन, वामेन, ब्रह्मोत्पत्तिपुण्डरीकसुकुलमिव, ब्रह्मणः उत्पत्तिः यस्मात्‌ तत्पुण्डरीकं, श्वेतपद्मं,

मिव स्फटिककमण्डलुं करेण कलयन्ती, दक्षिणमक्षमालाकृतपरि क्षेपम्,कम्बुनिर्मितोर्मिकादन्तुरितं तर्जनतरलिततर्जनीकम्,उत्क्षिपन्तीकरम्, “आः पाप?, क्रोधोपहत?दुरात्मन्?अज्ञ?अनात्मज्ञ?, ब्रह्मबन्धो?, मुनिग्वेटकापसदनिराकृत?आत्मस्खलितविलक्ष? कथं सकलसुरासुरमुनिमनुजवृन्दवन्दनीयांत्रिभुवनमातरं भगवतीं सरस्वतीं शप्तुमभिलषसि?इत्यभिदधाना, रोषविमुक्तवेत्रासनैरोङ्कारमुखरितमुखैः

तस्य मुकुलमिव, कुङ्मलमिव, स्फटिकं शुभ्रंकमण्डलुं , जलपात्रं, करेण, हस्तेन, कलयन्ती, धारयन्ती। दक्षिणमक्षमालाकृतपरिक्षेपम्‌, दक्षिणेन, दक्षिण करेण,अक्षमालया,रुद्राक्षजपमालया, कृतःपरिक्षेपः, वेष्टनं, यस्य च तम्‌। कम्बुनिर्भितोमिकादंतुरितं, कम्बुः, शंखः, तेन निर्मिता, या उर्मिका, अङ्गुलीयकं, तेन दंतुरितः, दशनवदकृतः, (युक्त इति यावत्‌) तम्‌,तर्जने, भर्त्सने, तरलिता, प्रचलिता, तर्जनी, तर्जनाङ्गुलीयकं, करं हस्तं, उत्क्षिपन्ती, उर्ध्वाधोनयन्ती।आःपाप! आनात्मज्ञ! आत्मानं न विजानाति, इति, अनात्मजः, तत्सम्बुद्धौ।ब्रह्मबन्धो! निकृष्टब्राह्मण!, मुनिवेटक!, मुनिषु ये खेटकाः, अधमाः, तेषुअपसदाः, नीचाः,तैः निराकृतः धिक्कृतः तत्सम्बुद्धौ (नीचकृत निरादर इति भावः) **आत्मस्खलितेति—**आत्मनः, स्वस्य, स्खलितं, दोषः (विस्वरपाठजनितमित्यर्थः) तेन विलक्षः, लज्जितः, तत्सम्बुद्धौ। **सकलेति—**सकलैः, सर्वैः, सुरासुरमुनिमनुजवृन्दैः, समूहैः, वन्दनीयां, पूज्यां, त्रिभुवनमातरं, जननीं, भगवतीं, कल्याणकारिणीं, सरस्वतीं, वाग्देवीं, कथं शप्तुमभिलषसि, इच्छसि।इत्यभिदधाना, कथयन्ती। **रोषेति—**रोषेण, क्रोधेन, विमुक्तानि, त्यक्तानि, वेत्रासनानि, वेतसनिर्मितानि आसनानि, यैःतथाभूतैः।औङ्कारेण, प्रणवेन, मुखरितं, ध्वनितं मुखं, येषां तैः(सततं, उों उों, इत्पेवमुच्चरद्भिरित्यर्थः)**उत्क्षेपेति—**उत्क्षेपेण-उत्थानेन, दोलायमानैः, प्रकम्पमानैः,(चलद्भिरित्यर्थः)

उत्क्षेपदोलायमानजटाभारभरितशिरोभिःपरिकरबन्धभ्रमितकृष्णाजिनाच्छायाश्यामायमानदिवसैः, अमर्षनिश्वासदोला-प्रेङ्खोलितब्रह्नलोकैः सोमरसमिव स्वेदविसरव्याजेनस्रवद्भिः–अग्निहोत्रपवित्रभस्मस्मेरललाटैः कुशतन्तुचारुचामरीर-चीवरिभिः—आषाढिभिः प्रहरणीकृतदण्डकमण्डलुमण्डलैः मूर्तैश्चतुर्भिर्वेदैः सह वृसीमपहाय सावित्री समुत्तस्थौ। ततो मर्षय भगवन्?अभूमिरेषा शापस्यइत्यनुनाथ्यमानोऽपि

जटाभारैः, जटासमूहैः, भरिनानि, पूरितानि, शिरांसि, येषां तैः।

**परिकरति—**परिकरबन्धः, कटिबन्धः, तेन, भ्रमितं, आवर्तितं, यत्‌, कृष्णाजिनं, मगचर्म, तस्य छायया, प्रभया, श्यामायमानाः, कृष्णत्वमापद्यमानाः, दिवसाः, अहानि, यैः, तथाभूतैः।**अमर्षेति—**अमर्षेण, कोपेन, यः निश्वासः, श्वसनम्‌, तदेव दोला, दोलनयंत्रं (पूरकरेचनोभयरूपत्वान्निश्वासस्येत्यर्थः) तेन प्रेङ्खोलितः, प्रकम्पितः, ब्रह्मलोकः, यैःतथाभूतैःसोमरसमिव, सोमलतारसमिव, स्वेदविसरव्याजेन, घर्मप्रसरच्छलेन, स्रवद्भ्रिः, क्षरद्भिः।**अग्निहोत्रेति—**अग्निहोत्रस्य, होमस्य, पवित्रं, शुद्धं यद्‌ भस्म, तन स्मेराः, विकसिताः, ललाटाः, मस्तकानि, येषा तंः। **कुशेति—**कुशानां, दर्भानां, तन्तवः, सूत्राणि, एवचारूणि, मनोहराणि, चामराणि, व्यजनविशेषाणि, तथा, चीराणि, वस्त्राणि, चोवराणि, कौपीनानि, येषां तथोक्ताः, तैः आषाढ़िभिः, पालाशदण्डधारिभिः “आषाढ संज्ञो दरण्डस्तु पालाशो व्रतचारिणाम्‌” ब्रह्मचारिभिः। प्रहरणीकृताः, प्रहरणाय उत्थापिताः(क्रोधादित्यर्थः) दण्डाः, पालाशाः, कमण्डलुमण्डलानि, कमण्डलुसमूहाः यैः। मूर्तैः देहधारिभिः, चतुर्भिर्वेदैः, सह वृषीम्‌, आसनं,“व्रतीनामासनंबृषी, इत्यमरः“ अपहाय, त्यक्त्वा, सावित्री समुत्तस्थौउत्थिता।ततो मर्षय इत्यतः तच्छापोदकं विससर्जइत्यनेनान्वयः। ततः, तस्मादनंतरं, मर्षय, क्षमस्व, एषा सरस्वती, शापस्य, अभूमिः, अस्थानं (अयोग्येतिभावः) एवं, विबुधैः, विद्वद्भिः, अनु

विबुधैः-उपाध्याय?स्खलितमेकंक्षमस्वेतिबद्धाञ्जलिपुटैः प्रसाद्यमानोऽपिस्वशिष्यैः, पुत्र?माकृथास्तपसः प्रत्यूहमितिनिवार्यमाणोऽप्यत्रिणा, रोषावेशविवशो दुर्वासाः दुर्विनीते?व्यपनयाभिते विद्यलवावलेपविशेषजनितामुन्नतिमिमाम्, अधस्ताद्गच्छमर्त्यलोकम्इत्युक्त्वा तच्छापोदकं विससर्ज। ततः प्रतिशापदानोद्यतां सावित्रीं सखि?संहर रोषम्, असंस्तुतमतयोऽपि जात्यैव द्विजन्मानोमाननीयाःइत्यभिदधाना सरस्वती एव न्यवारयत्। अथ तां तथा शप्तां सरस्वतीं दृष्ट्वा पितामहोभगवान्कमलोत्पत्तिलग्नमृणालसूत्रामिव धवलयज्ञोपवीतिनीं-

नाथ्यमानः, प्रसाद्यमानः।उपाध्याय? आचार्य?, स्खलितं, अपराद्धम्‌, एकम्‌। बद्धाञ्जलिपुटैः, बद्धानि, अञ्जलिपुटानि, यैःएवं भूतैःस्वशिष्यैः,प्रसाद्यमानोऽपि, प्रसन्नतां नोयमानोऽपि।पुत्र? तपसः, प्रत्यूहं, विघ्नं, माकृथाः, माकुरू, (शापदानेन तपसः नाशसंभवादित्यर्थः) एवं अत्रिणास्वपित्रा, महातपसा, निवार्यमाणोऽपि वर्जितोऽपि।रोषस्य, कोपस्य, यः, आवेशः तेन विवशः, पराधीनः, दुर्वासाः, दुर्विनीते? दुष्टे!ते, तव, विद्यालवः, विद्यालेशः, (स्वल्पमात्र विद्याधारिणीत्यर्थः,) तेन यः, अवलेपः, गर्वः, तज्जनितां, तदुत्पन्नाम्‌, उन्नितिमिमाम्‌ , व्यपनयामि, दूरीकरोमि। अधस्ताद्‌, नीचैःमर्त्यलोकं, गच्छ, व्रज,।इत्युक्त्वा, एवमुक्त्वा, तत्‌-शापोदकं, पूर्वगृहीतशापजलं विससर्ज, त्यत्याज।ततः, शापदानानन्तरं, प्रतिशापदानोद्यतां, शापप्रतिकारकरणायोत्थितां, सावित्रीं, स्वसखीं, सखि? संहर रोषम्, कोपं मा कुरू। **असंस्तुतेति—**न संस्तुता, असंस्तुता, अविशुद्धा, मतिः बुद्धिः, येषां ते, असंस्कृतमतयः, इति भावः (अपि) जात्यैव, द्विजन्मानः, ब्राह्मणाः, माननीयाः, पूजार्हाः। इत्यभिदधाना, कथयन्ती, सरस्वती एव न्यवारयत्‌ न्यषेधयत्‌। अथेत्यादितः पितामहः, सुधीरमुवाच इत्यनेनान्वयः। **तथेति—**तेन प्रकारेण, (निर्दोषां सरस्वतीमित्यभिप्रायः) शप्तां सरस्वतीं, स्वपुत्रीं, दृष्ट्वा, अवलोक्य, पितामहः, ब्रह्मा, कमलोत्पत्तिः, कमलात्‌, नारायणनाभिपद्मात्, यद्, उत्पत्तिः, जन्म, तथा

**तनुमुद्वहन्, उद्गच्छदच्छांगुलीयकमरकतमयूखलताकलापेन त्रिभुवनोपप्लवप्रशमकुशापीड़धारिणेव दक्षिणेन करेण निवार्य शापकलकलम्, अतिविमलदीर्घैर्भाविकृतयुगारम्भसूत्रपातमिव दिक्षुपातयन्दशन किरणैः सरस्वतीप्रस्थानमङ्गलपटहेनेवपूरयन्नाशाःस्वरेणसुधीरमुवाच–“ब्रह्मन्?न खलु साधु सेवितोऽयं पन्थाः येनासिप्रवृत्तः,निहन्त्येषपुरस्तात्। उद्दामप्रसृतेन्द्रियवाजिसमुत्थापितं हि रजः कलुषयति **

कारणभूतया, लग्नं, संसक्तं, मृणालसूत्रं, कमलतन्तुं, इव यज्ञोपवीतिनीं, ब्रह्मसूत्रयुक्तं, तनुं, शरीरं, उद्वहन्‌ , धारयन्‌।**उद्गच्छदिति—**उद्गच्छत्‌, उदयमानः, अच्छस्य, शुभ्रस्य, अङ्गुलीयकमरकतस्य (मरकतमणिनिर्मिताङ्गुलीयकस्ये-त्यर्थः)मयूखलताकलापः,किरणनिचयः, यस्मात्‌, तथाभूतेन। त्रिभुवनस्य, त्रिलोकस्य, यः उपप्लवः, संक्षयः,तस्य प्रशमाय, शान्तिकरणाय, कुशापीडं, दर्भतन्तुसमूहं, धारयतीति, तथोक्तनेव (माङ्गलिकत्वं हि कुशानाममङ्गलनाशायेत्यर्थः) दक्षिणकरेण, हस्तेन, शापकलकलं, शापजनितकोलाहलं, निवार्य, दूरीकृत्य।अतिविमलैःअतिशुभ्रैः, भाविनः, भविष्यतः, कृत युगारम्भस्य, सत्ययुगस्य, आरम्भे, पूर्वरूपे, यः, सूत्रपातः, विन्यासः, तमिव, दिक्षु, दिग्भागेषु, दशनकिरणैः, दन्तमयूखैः, पातयन्‌, निक्षेपयन्‌,**सरस्वतीति—**सरस्वत्याः, वाग्देव्याः, (शप्तायाः-इति यावत्‌) यत्‌ प्रस्थानं, ब्रह्मलोकात्‌ मर्त्यलोकगमनं, तस्य यः मङ्गलपटहः, माङ्गलिकवाद्यविशेषः। तेनेव,आशा, दिशाः, पूरयन्‌, स्वरेण, शब्देन, सुधीरं, गम्भीरं यथास्यात्तथा, उवाच, उक्तवान्‌।**ब्रह्मनिति—**ब्रह्मन्‌, न खलु साधुसेवितोऽयं पंथाः, साधुभिः, सज्जनैः, नहि मार्गमिदं सेव्येत, येनासिप्रवृत्तः, येनपथाभवान्‌ प्रचलितुमुद्यतः। निहन्त्येषः, एषः पन्थाः, मार्गं, पुरस्तात्‌, अग्रतः, निहन्ति (गच्छन्तमिति भावः) **उद्दामेति—**उद्यामं, उद्धत्तं, यथा तथा, प्रसृतानि प्रवृत्तानि, इन्दियाण्येव, वाजिनः, अश्वाः, तैःसमूत्थापितं, समुधृतं, रागः,

दृष्टिमनक्षजिताम्। कियद्दूरं वा चक्षुरीक्षते। विशुद्धया हि धिया पश्यन्तिकृतबुद्धयः, सर्वानर्थानसतः सतो वा। निसर्गविरोधिनी चेयं पयःपावकयोरिव धर्मक्रोधयोरेकत्रवृत्तिः। आलोकमपहाय कथं तमसि निमज्जसि! क्षमा हि मूलं सर्वतपसाम्। परदोषदर्शनदक्षा दृष्टिरिव कुपिता बुद्धिर्न ते आत्मरागदोषं पश्यति। क्व महातपोभारवैवधिकता, क्व पुरोभागित्वम्? अतिरोषणश्चक्षुष्मानन्ध एव जनः। नहिकोपकलुषिता विमृशति मतिः कर्तव्यमकर्तव्यं वा। कुपितस्य प्रथम मन्धका-

“धूलिश्च” अनक्षजिताम्‌, अक्षाणि, इन्द्रियाणि, जयन्तीति अक्षजितःते न सन्तीति अनक्षजिताः, तेषां, अजितेन्द्रियाणाम्, दृष्टिं, नेत्रं “ज्ञानं च” कलुषयत्ति, मलिनयति। कियद्दूरं वा चक्षुरीक्षते, क्रियद्दूरं हि दृश्यते चक्षुषा। (अल्पमेवेतिभावः) कृतबुद्धयः, संस्कृतमतयः, विशुद्धया हि धिया, परिशुद्धमतिना, सर्वान्, अनर्थान्, उत्पातान्, असतः सतो वा, शुभान्यशुभानि वा, पश्यन्ति, अवलोकयन्ति। **निसर्गेति—**निसर्गविरोधिनी, स्वभाववैरिणी, पयःपावकयोः, जलाग्न्योः, इव, धर्मक्रोधयोः, पुण्यपापयोः, एकत्रबृत्तिः, एकत्रावस्थानम्‌। आलोकमपहाय, आलोकं, प्रकाशं, अपहाय, त्यक्त्वा, कथं तमसि, अन्धकारे, निमज्जसि, पतसि। **परेति—**परस्य, अन्यस्य, दोषदर्शने, दोषावलोकने, दक्षा, चतुरा, दृष्टिरिव, कुपिता, कोपं प्राप्ता, बुद्धिः, मतिः, ते, तव, आत्मरागदोषं, स्वकरीयदोषं (आत्मस्खलनमित्यर्थः) न पश्यति।महातपो भारवैवधिकता, महतां, तपमां भारस्य, वैवधिकः, वाही, धर्ता, तस्यभावत्तत्ताक्व। पुरोभागित्वं, दोषैकदर्शित्वं, क्व अतिरोषणः, अतिकोपनः, चक्षुष्मान्, नेत्रसहितः (अपीतिशेषः) जनः, अन्धःएव (ज्ञानशून्यत्वादित्यर्थः) कुपितस्य, क्रोधितस्य, हि, निश्चयेन, (हीतिनिश्चयबोधक्रमव्ययम्‌) प्रथमत्‌ विद्या, ज्ञानं, अन्धकारिणी, अन्धकाराच्छन्नाभवति, (ज्ञानशून्या इत्यर्थः) ततः, तदनन्तरं, भ्रुकुटिः, भ्रूभङ्गः (भवतीतिशेषः) आदौ, पुर्वं, इन्द्रियाणि,

**रिणी भवति विद्या, ततो भ्रकुटिः। आदौ इन्द्रियाणि रागः समास्कंदति, चरमं चक्षुः। आरम्भे तपो गलति, पश्चात्स्वेदसलिलम्। पूर्वमयसःस्फुरति अनन्तरमधरः। कथं लोकविनाशायते विषपादपस्येव वल्कलानि जातानि। अनुचिता खलु-अस्य मुनिवेशस्य हारयष्टिरिव वृत्तमुक्ताचित्तवृत्तिः। शैलूष इव वृथा वहसि कृत्रिममुपशमशून्येन चेतसा तापसाकल्पम्अल्पमपि न ते पश्यामि कुशलजातम्। अनेनातिलघिम्ना-अद्याप्युपर्य्येव प्लवसे ज्ञानोदन्वतः। न खलुअनेड़मूकाः एड़ाजड़ावा सर्वेएते महर्षयः। रोषदोषनिषद्ये स्व हृदये निग्राह्ये किमर्थमसि निगृहीतवाननागस्र **

रागः, समासक्तिः, लौहित्यं च, समास्कंदति, आश्रयति, चरमं, पश्चात्‌ चक्षुः, नेत्रं, (समस्कन्दतीत्यर्थः) आरम्भे(कोपस्येति भावः) तपोगलति, नश्यति, पश्चात्स्वेदसलिलम्‌, स्वेदजलम्‌ (कुपितस्यहि स्वेदप्रस्रवणं स्वभावः) पूर्वं, प्राक्‌, अशयः, अकीर्तिः, अनन्तरं, पश्चात्‌, अधरः,ओष्ठः, स्फुरति, कम्पते।**कथमिति—**लोकविनाशायः,विषयादपस्येव, विषवृक्षस्येव, ते, तव, वल्कलानि, मुनिवस्त्राणि, (त्वक्रूपाणीतिभावः) जातानि, उत्पन्नानि।

**अनुचितेति—**अस्य, पुरोदृश्यमानस्य, मुनिवेशस्य, हारयष्टिरिव, मुक्ताहारमिव, वृत्तमुक्ता, सुचरितच्युता, “परिवर्तुल मुक्ताफला च”।अनुचिता, अयुक्ता, चित्तवृत्तिः, मनसङ्कल्पः। **शैलूषेति—**शैलूष इव, नट इव, उपशमशून्येन, शान्तिरहितेन, चेतसा, तापसाकल्पं, मुनिवेशं, कृत्रिमं(नतुयथार्थेनेतिभावः) वृथैव, वहसि, धारयसि, अल्पमपि, किंचिदपि, ते, कुशलजातं, मङ्गलं, न पश्यामि। अनेन अतिलघिम्रा, अतिलाघवेन, अद्यापि, अधुनापि, ज्ञानोदन्वतः, ज्ञानससुद्रस्य, उपरि एव, प्लवसे, संतरसि (नतु मध्ये प्रविशसीतिभावः) न खलु, अनेड़मूकाःश्रोतुंवक्तुं चासर्थाः। “कथिता अनेड मूकाःश्रोतुं वक्तुंच खलु न ये शक्ताः। एडास्तुश्रुतिहीनाः जड़ास्तुमूर्खाःबुधैःप्रोक्ताः। एडाः, श्रुतिहीनाः, जडाः, मूर्खाः, सर्वे-एते महर्षयः, (पुरः स्थिताः-इति भावः)

**सरस्वतीम्। एतानि तानिआत्मस्खलितवैलक्ष्याणियैर्याप्यतां याति अविदग्धो जनः,इत्युक्त्वा पुनराह-“वत्से सरस्वति?विषादं मागाः। **

** एषा त्वामनुयास्यति सावित्री। विनोदयिष्यति चास्मद्विरहिताम्। आत्मजमुखकमलावलोकनावधिश्च तेशापोऽयं भविष्यतीति। एतावदभिधायविसर्जितसुरासुरमुनिमनुज मण्डलः ससम्भ्रमोपगतनारदस्कन्धविन्यस्यहस्तः समुचिताह्निक करणाय-उदतिष्ठत्सरस्वत्यपि**

**रोषेति—**रोषः, क्रोधः, एव दोषः, तस्य, निषीदति-अस्यामिति निषद्या, आपण गृहं, तत्सम्बुद्धौ, (अथवा) रोष, एव दोषः,, तस्य निषद्या, आवासः, यत्रतादृशे स्वहृदये, चित्ते, निग्राह्ये, (निग्रहीतुं योग्य–इत्यर्थः) अनागसां, निरपराधाम्‌, सरस्वती, किमर्थनिगृहीतवानसि, शक्तवानसि। **एतानीति—**एतानि, आत्मनः, स्वस्य, स्खलितानि प्रमादाः, तैः, वैलक्ष्याणि, लज्जास्पदानि, (साधुसंसदि मुखावनतिविधायकानीतिभावः) यैः, याप्यतां, गर्हणीयतां, याति, प्राप्नोति, अविदग्धः, अज्ञः, जनः, इत्युक्त्वा, पुनराह, पुनः कथयामास, वत्से? पुत्रि? सरस्वति? विषादं मा गाः, मा दुःखमनुभव,।

एषा तां सावित्री अनुयास्यति, अनुगमनं करिष्यति (त्वयासार्धं गमिष्यतीत्यर्थः) अस्मद्विरहितां, वियोगितां, च त्वां, विनोदयिष्यति, सुखयिष्यति। (पुत्र मुखदर्शनपर्यं तंहि तं शापः) एतावदभिधाय, एवमुक्त्वा, विसर्जितः, प्रषितः, सुराः, देवाः, असुराः, राक्षसाः, तेषां, मुनिमनुजादीनां च, मण्डलः, समूहोयेन, तथाभूतः। ससंभ्रमं, सहसैव, उपगतः, प्राप्तः, नारदः, नारदर्षिः, स्कंधे, अंशप्रदेशे, विन्यस्तः, स्थापितः, हस्तः, करो येन, समुचितान्हिक करणाय, समुचितं, युक्तं, यत्‌, आन्हिकं, दिवसकार्यं (संध्यावंदनादिकमितिभावः) तस्य यत्‌, करणं, कार्यरूपेण परिणयनं, तस्मैउदतिष्ठत्, उत्थितः। सरस्वत्यपीत्यादितः सावित्र्यासमंगृहमगादित्यनेनान्वयः। शप्ताकिंचिदवनतमुखी, **धवलेति—**धवल कृष्णशारां, धवलः, शुभ्रः, कृष्णः, नीलः, ताभ्यां,

शप्ता किंचिदधोमुखी धवलकृष्णशारां कृष्णाजिनलेखामिव तपसेदृष्टि मुरसि पातयन्ती, सुरभिनिःश्वास परिमललग्नैर्मूर्तैः शापाक्षरैरिव षट्चरणचक्रैराकृष्यमाणाशोकशिथिलितहस्ताधोमुखीभूतेनोपदिश्यमानमर्त्यलोकावतरणमार्गेव नखमयूखजालकेन नूपुरव्याहार हृतैः भवनकलहंसकुलैः ब्रह्नलोकनिवासिहृदयैरिवानुगम्यमाना समं सावित्र्यागृहमगात्। अत्रान्तरे सरस्वत्यवतरण वार्तामिव कथयितुं मध्यमंलोकमवततार अंशुमाली। क्रमेण च मन्दायमाने मुकुलित विसिनी विरह

शारा, शवला, ताम्‌, शारशवलां (धवलकृष्णामित्यर्थः) (शारग्रहणेन वर्णद्वयप्रतीतेरितिभावः) कृष्णाजिनलेखामिव, कृष्णमृगचर्मश्रेणीमिव, तपसे, तपः कर्तुःउरसि, हृदये, दष्टिंपातयन्ती, अवलोकयन्ती।

सरभितं, सुगन्धितं, यत्‌-निश्वासं, तस्य परिमलेन, गंधेन, मर्तैः, देहवद्भिः, लग्नैः, संलग्नैः, शापाक्षरैरिव, शापवर्णैरिव, षट्‌-चरणचक्रैः, भ्रमरैः, आकृष्यमाणा, आकर्षिता,। **शोकेति—**शोकेन, शापाद्भवेन दुःखेन, शिथिलितौ, तेजरहितौ, हस्तौ, करौ, यस्याः सा। अधोमुखीभूतेन, अधोमुखतां गतेन, उपदिश्यमानं, उपदेशंदीयमानं, मर्त्यलोकावतरणमार्गाइव, मर्त्यलोके, भूलोके, यद्‌, अवतरणं, गमनं, तत्रदर्शितमार्गा, इव। नखमयुरवा नां, नखकिरणानां, जालकेन, समूहेन। नूपुरयोः रवाः, नूपुराः, पादाभूषणविशेषाः तेषां, रवाः, निस्वनाः, एव व्याहाराः वचनानि, तैः हृताः, आकृष्टाः, भवन कलहंस कुलैः, ब्रह्मसद्महंससमूहैः, ब्रह्मलोकनिवासीहदयैः, ब्रह्मलोके, निवासः, स्थितिः, येषां, तेषां हृदयैःचित्तैः, इव, अनुमम्यमाना, अनुकरणं क्रियमाणा (सदैव कृतगमना इत्यर्थः) सावित्र्यासमं, सार्धं, गृहमगात्‌, सद्मनि गता। अत्रान्तरे, अतः परं, सरस्वत्यवतरण वार्तां कथयितुं, सरस्वत्या यत्‌ अवतरणं, भुःगमनं, तस्य या वार्तातां, कथयितुंवक्तुं, मर्त्यलोकं, भूलोकं, अंशुमाली, सूर्यः, अवततार, उदयं लेभे। (पूर्वमागमनात्‌ दूता गमनं संभा-

व्यसनविषण्णसरसि वासरे, मधुमदमुदितकामिनीकोपकुटिलकटाक्षक्षिप्यमाण इव क्षेपीयः क्षितिधरशिखरमवतरति तरुणतरकपिलपनलोहिते लोकैकचक्षुषि भगवति सवितरि प्रस्नुतमहिष्युधः क्षरत्क्षीरधारा धवलितेषु, आसन्नचन्द्रोदयोद्दामक्षीरोदक्षालितेषु-इव दिव्याश्रमोपशल्यकेषु-अपराह्णप्रचारचलिते चामरिणि चामीकरतटताडन-

व्यमेवेति भावः) क्रमेणेत्यादितःसावित्री सरस्वतीमवादीत्, इत्यनेनान्वयः। क्रमेण, क्रमशः, मन्दायमाने, मन्दतां गते, (सूर्ये इति यावत्‌) मुकुलितानां, संकुचितानां, विसिनीनां, पद्मिनीनां, विरहः, वियोगः, (कान्तस्य सूर्यस्यविच्छेदादितिभावः) तदेव व्यसनं दुःखं, तेन, विषण्णं, दुःखितं, (निजकन्यकानामिवपद्मिनीनां दर्शनादितिभावः) सरः, सरोवरं, यस्मिन्‌, तथाभूते, वासरे, दिवसे, **मधुमदेति—**मधुमदेन, मद्यपानसमुद्भवेनोत्साहेन, मुदिताः, सञ्जातकामाः (संभोगाभिलापिण्यइति यावत्‌) याः कामिन्यः, स्त्रियः, तासांकोपेन, (कथमयमधुनापि नास्तमेति अन्तराय भूतः, इति क्रोधेन) कुटिलः, वकः, यःकटाक्षः, तिर्यगीक्षणं, तेन, क्षिप्यमाण इव, प्रक्षिप्त इव, क्षेपीयः, अतिक्षिप्रं, अतिसत्वरं, क्षितितिधरशिखरं, अस्ताचलप्रदेशं, अवतरति, अवतीर्यमाणे, **तरूणेति—**तरूणतरः, अतियुवा, यःकपिः, वानरः, तस्य यत्‌, लपनं, मुखं, तद्वत्लोहितः, रक्तवर्णः,तस्मिन्, लोकैकचक्षुषि, लोकानां, जगतां, एकं, अद्वितीयं चक्षुः, नेत्रं, तस्मिन्, भगवति, कल्याणकरे, सवितरि, सूर्ये। **प्रस्तुतेति—**प्रस्तुतात्‌, प्रस्रवणात्‌, महिष्याः, ऊधसः, स्तनात्‌, क्षरन्ति, यानि क्षीराणि, दुग्धानि, तेषां, धारावत्‌, स्रोत इव, धवलितानि, शुभ्रवर्णानि, तेषु। **आसन्नेति—**आसन्नः, पार्श्चवर्ती, यश्चन्द्रोदयः, तेन, उद्दामः, उच्छलितः, यः, क्षीरोदः, समुद्रः, तेन क्षालितानि, धौतानि, तेषु, इव।दिव्याश्रमोपशल्यकेषु, दिव्याः, भव्याः, ये आश्रमाः, तेषां उपशल्यकानि, प्रान्तभागानि, तेषु।अपराह्णे, द्वितीय प्रहरे, यः प्रचारः, प्रकर्षेण

रणितरदने रदति, सुरस्रवन्तीरोधांसि स्वैरमैरावते, प्रसृतानेकविद्याधराभिसारिकासहस्रचरणालक्तकरसानुलिप्त इव प्रकटयति च तारापथे पाटलताम्, तारापथप्रस्थितसिद्धदत्तदिनकरास्तमयार्घ्यावर्जिते रञ्जितककुभि, कुसुम्भभासि स्रवति पिनाकि प्रणति मुदितसंध्यास्वेदसलिल इव

चरणं (प्रर्यटनमिति यावत्‌) तस्मैप्रचलितः, प्रबृत्तः, तस्मिन्‌, चामरिणि, चामरयुक्ते।चामीकरस्य, सुवर्णपर्वतस्य (सुमेरोरित्यर्थः) तटेषु, प्रान्तभागेषु, यत्, ताड़नं, वप्रक्रीडाकरणं, तेन, रणिताः, शद्बिताः, रदनाः, दन्ताः, यस्यतथाभूते, रदति, शद्बायमाने, **सुरेति—**सुराणां, देवानां, या स्रवन्ती, मन्दाकिनी, गंगा, तस्याः रोधांसि, तटानि, तत्र, स्वैरं, यथेच्छम्‌, ऐरावते, (स्वेच्छया विचरणशीले इत्यर्थः) इन्द्रवारणे।**प्रसृतेति—**प्रसृतानां, प्रचलितानां, (कान्तं प्रति अभिसरणायेतिभावः) अनेकासां, वह्वीनां, विद्याधराभिसारिकाणां, विद्याधरसुन्दरीणां, “या दूतिका गमन काल मपाहरन्ती सोढ़ुंस्मर ज्वर भरार्तिपिपासितेव, निर्याति वल्लभ जनाधर पानलोभात्‌, साकथ्यते कविवरैरभिसारिकेति।सहस्रस्य, चरणालक्तकरसैः, चरणलाक्षाद्रवैः, अनुलिप्त इव, कृतलेप इव, प्रकटयति! प्रकाशयति, तारापथे, नक्षत्रमार्गे(आकाशे-इति यावत्‌) पाटलतां, ईषद्रक्ततां, **तारापथेति—**तारापथेषु, गगनमार्गेषु, प्रस्थितैः, प्रचलितैः, सिद्धैः, देवविशेषैः, दत्तानि, अर्पितानि, दिनकराय, सूर्याय, यानि, अस्तमयार्ध्याणि, अस्तसमयार्पितानि, अर्ध्याणि,तेभ्यः, आवर्जितः, युक्तः, तस्मिन्, रञ्जितककुभि, रक्तीकृतदिशि। कुसुम्भांसि, कुसुम्भपुष्पाणि, तद्वत्‌, भाः,कान्तिः, यस्य तादृशे, (रक्तवर्णे इत्यर्थः) स्रवति, क्षरति, सति, पिनाकिने,पिनाकं, धनुः-विद्यतेऽस्य इति पिनाकी, तस्मैशंकराय या प्रणतिः, प्रणामः, तत्र मुदिता, उल्लासिता, या, संध्या तस्याः, स्वेदसलिलं इव, धर्मोद्भवजल इव, रक्तचन्दनद्रवे, चन्दनरसे, **वन्दारु-इति—**व-दारुभिः, वन्दनशीलैः,

रक्तचन्दनद्रवे, वन्दारुमुनिवृन्दारकवृन्दबध्यमानसन्ध्याञ्जलिवने, ब्रह्नोत्पत्तिकमलसेवासमागतसकलकमलाकर इवराजति ब्रह्यलोके; समुच्चारिततृतीयसवनब्रह्मणिब्रह्मणि, ज्वलितवैतानज्वलनज्वालाजटालाजिरेषु, आरब्धधर्मसाधनशिबिरनीरा-जनेष्विव सप्तर्षिमन्दिरेषु, अघमर्षणमुषितकिल्विषविषगदोल्लाघलघुषु यतिषु सन्ध्योपासनासीनतपस्विपङ्क्तिपूतपुलिने प्लवमानपद्मयोनियानहंसहासदन्तुरोर्मिणि मन्दाकिनीजले,

(पूजनीयैरित्यर्थः) मुनिवृन्दारकाणां, मुनिश्रेष्ठानां, वृन्दैःसमूहैः, वध्यमानं, संयम्यमानं, संध्यायां, संभ्यासमये, अञ्जलिवनं, अञ्जलिसमूहः, यस्मिन्,तथाभूते (सन्ध्यासमयेमुनिभिःक्रियमाणाञ्जलिपुटे-इत्यर्थः) **ब्रह्मेति—**ब्रह्मणः, प्रजापतेः, उत्पत्तिः, जन्म यस्माद्‌ तत्‌ कमलं (नारायणाभिकमलमित्यर्थः) तस्य सेवायै, समागताः, प्राप्ताः, सकलाः, सर्वे, कमलाकराः, पद्मनिचयाः, यस्मिन्।राजति, शोभमाने, **समुच्चारितेति—**समुच्चारितं, प्रतिप्रादितं, तृतीयसवनं, सायंकालिकस्नानं, तत्र, ब्रह्म, वेदो येनतथाभूते बह्मणि, भूदेवे, ज्वलितस्य, प्रदीप्तस्य, वैतानज्वलनस्य, यज्ञाग्नेः, ज्वालाभिः, शिखाभिः, जटालानि, व्याप्तानि, अजिराणि, अङ्गणानि येषांतादशेषु।**आरब्धेति—**आरब्धं, कृतारम्भं, धर्मसाधनाय, धर्मसंचयाय, शिविरस्य, स्कंधाचारस्य (सेनानिवासस्थानस्येत्यर्थः) नीराजनं,शांतिकर्म,येषु, तथोक्तेषु, (विघ्नशंकयाकृतशान्तिकर्मष्वित्यर्थः) सप्तर्षिमन्दिरेषु, सप्तर्षिसद्मसु।**अघमर्षणेति—**अघानि, पापानि, मर्षयति, परिमार्जयतिइति अघमर्षणः वैदिक मंत्रः, तेन मुषितानि, हृतानि, किल्विषाणि, पापानि, गदाः, रोगाश्च, तैः, उल्लाघाः, स्वस्थाः, (नीरोगाः इति यावत्‌) अतएवलघवः, सुदेहाः, शोभनो देहो, शरीरं, येषांते सुदेदाः, तेषु यतिषु, ब्रह्मचारिषु।**सन्ध्येति—**सन्ध्योपासनाय, आसीनानां, उपविष्टानां, तपस्विनां पंक्तिभिः, तापसावलिभिः, पूतानि, पवित्रितानि, पुलिनानि, सैकतानि, यस्य तादृशे। **प्लवमानेति—**प्लव-

जलदेवतातपत्रे पत्ररथकुलकलत्रान्तः पुरसौधे, निजमधुमधुरामोदिनि कृतमधुपमुदि मुमुदिषमाणे कुमुदवने, दिवसावसानताम्यत्तामरसमधुरमधुसपीतिव्रते सुषुप्सति मृदुमृणालकाण्डकण्डूयनकुण्डलितकन्धरे, धुतपक्षराजिवीजितरा-जीवरजसि, राजहंसयूथे, तटलताकुसुमधूलिधूसरितस-

मानः, संतरन्‌ , यः पद्मयोनेः, प्रजापतेः, यानहंसः, वाहनः, तस्ययद्हासः हास्यं तेन दन्तुराः, उत्पन्नदशनाः, इव, उर्म्मयः, तरङ्गाः, यस्य, तथोक्ते।**जलदेवतेति—**जलदेवतायाः, जलाधिष्ठत्र्यादेव्याः, यत्‌, आतपत्रं, छत्रं तस्मिन्, पत्ररथानां, पत्रं, पक्षं, एव, रथं, वाहकं, येषां ते पत्ररथाः तेषां पत्ररथानां, पक्षिणां, कुलं, समूहः, तस्य कलत्राणि, कलेन मधुरशब्देन त्रायते रक्ष्यते याभिस्ता, कलत्राणि स्त्रियः तेषामन्तः पुरस्य सौधं, सद्म, तस्मिन्,**निजेति—**निजेन, स्वकीयेन, मधुरसेन, मकरन्देन, आमोदते, उल्लसति।**मध्विति—**मधुना कृतः, मधुपानां, षट्पदानां, मुद्, आनन्दोयत्र तथाभूते, अथवा, निजमधुना, मकरन्देन, मद्येन वा, मधुरः, मनोहरः, आमोदः, उत्साहः, यस्य तथोक्ते, कृता मधुपानां भ्रमराणां, मद्यपानां वा, मुद्‌ यत्र मुमुदिषमाणे, विकाशं प्राप्यमाणे, (पक्षे) मोदितुमिच्छति, इच्छितगानवाद्यादि गोष्ठिगते, कुमुदवने, कमलवने। **दिवसेति—**दिवसस्य, दिनस्य, अवसानेन, अन्तेन, ताम्यन्ति दुःखमनुभवन्ति, यानि, तामरसानि, रक्तकमलानि, तेषां, मधुरसस्य, सौरभस्य, पीतिः, पानं, तेन, व्रतं, नियमः, यस्य तथाभूते। सषुप्सति-निद्रामिच्छति, **मृद्विनि—**मृदुना, कोमलेन, मृणालकाण्डस्य, पद्मनालदण्डस्य, कण्टकेन (तृणेनेत्यर्थः) यत्‌ कण्डूयनं, रवर्जनं, तेन कुण्डलिता, समीकृता, कन्धरा, ग्रीवा येन तादृशे। **धुतेति—**धुताभिः कम्पिताभिः, पक्षराजिभिः, पक्षपंक्तिभिः, वीजितं, व्यजनितं, राजीवानां, श्वेतकमलानां, रजः, धूलिः येन तादृशे, राजहंसयूथे, तदाख्यहंससमुहे। **तटेति—**तटेषु, प्रान्तभागेषु, याः, लताः, वल्लर्यः, तासां, कुसुमानि, पुष्पाणि, तेषां, धूलिभिः, रजोभिः, धूस-

रिति सिद्धपुरपुरन्ध्रिवम्मिल्लमल्लिकागन्धग्राहिणि सायन्तने तनीयसि निशानिःश्वासनिभे नभस्वति, सङ्कोचोदञ्चदुच्चकेसरकोटिसङ्कटकुशेशयकोशकुटिलशायिनि षट्चरणचक्रे, नृत्योद्धृतधूर्जटिजटाटवीकुटजकुड्मलनिभे नभस्तलं स्तवकयति तारागणे, संध्यानुबन्धताम्रे परिणमत्तालफलत्विषि कालमेघमेदुरे, मेदिनीं निमीलयति नववयसि तमसि तरुणतरतिमिरपटलपाटनपटीयसि

रिताः, धूसरवर्णतांनीताः, सरितः नद्यः येन तथाभूते। **सिद्धेति—**सिद्धानां, देवयोनिविशेषाणां, पुरे, नगरे, याः पुरन्ध्रयः, स्त्रियः, तासां, धम्मिल्लेषु, संयतकेशेषु, याः, मल्लिकाः, मल्लिकापुष्पाणि, तेषां गंधग्राही, गंधं, सौरभं, गृह्णाति स्वीकरोति-इति ग्रंधग्राही, तस्मिन्‌, सायन्तने, सायंकालभवे। **तनीयसीति—**तनीयसि, सूक्ष्मे(मंदसंचारिणीत्यर्थः) निशा निःश्वासनिभे, निशा, रात्रिः(नायिकेतिभावः) तस्याः निश्वासं, श्वसनं तन्निभे, तत्सदृशे, नभस्वति, आकाशे। प्रायेणात्र उत्प्रेक्षाऽलंकारः। **सङ्कोचेति—**सङ्कोचे, निमीलने, उदञ्चताम्‌ उद्गच्छताम्‌, उच्चकेसराणां, किञ्जल्कानां, कोटिभिः, अग्रभागैः, सङ्कटानि, व्याप्तानि, यानि कुशेशयानि, पद्मानि, तेषां कोशाः, आभ्यन्तरभागाः, एव कुट्यः, कुटीराणि (क्षुद्रसद्मानीत्यर्थः)तेषु कुटिलं, यथा तथा शायिनि, शयनशीले, षट्चरणचक्रे, भ्रमरसमूहे।**नृत्येति—**नृत्येषु, नर्तनेषु, उद्धृतानि, उत्पन्नानि, धूर्जटेः, शङ्करस्य, जटाऽटव्याः, जटा एव अटवी, अरण्यं, तस्मात्‌ जटाजूटात्‌, कुटजानां, गिरिमल्लिकापुष्पाणां, कु़ड्मलानि, कोरकाणि,तन्निभे, तत्सदृशे।नभस्तलं, आकाशं, स्तवकयति, (पुष्पगुच्छमिवाचरतीत्यर्थः) तारागणे, नक्षत्रमण्डले। **सन्ध्येति—**संध्यायाःअनुबंधेन, अनुगमनेन, ताम्रं, रक्तवर्णं, तस्मिन्‌, अत एव, परिणमत्‌, पक्वावस्थां प्राप्तं यत्‌ तालफलं, तस्य, त्विट्, इव, त्विषः, प्रभाःयस्य, तादृशे, कालमेघमेदुरे, कालमेघः, कृष्णवर्णमेघः, तद्वत्मेदुरः, चिक्कणः, तस्मिन्, मेदिनीं, पृथ्वीं,

समुन्मिषति, यामिनीकामिनीकर्णपूरचम्पककलिकाकदम्बके प्रदीपप्रकरे, प्रतनुतुहिनकिरणकिरणलावण्यालोक-पाण्डुन्याश्याननीलनीरमुक्तकालिन्दीकुलबालपुलिनायमाने शातक्रतवे कृशयति तिमिरमाशामुखे, खमुचि मेचकितविकचितकुवलयसरसि, शशधरकरनिकरकचग्रहा-

निमीलयति, आच्छादयति, नववयसि, (सद्योत्पन्ने-इत्यर्थः) तमसि, अन्धकारे, **तरूणेति—**तरुणतराणां, पक्ववयरसां,तिमिरपटलानां, अन्धकारचयानां, पाटने, दूरीकरणे, पटीयान्, चतुरः, तस्मिन्, समुन्मिषति, ज्वलति (ईषत्प्रकटतां गते-इत्यर्थः) **यामिनीति—**यामिनी,रात्री एव, कामिनी, स्त्रीः, तस्याः, कर्णपूरः, अवतंसः, एव चम्पकस्य, चम्पकाख्य पुष्पस्य, कलिकायाः, डोडिकायाः, कदम्बकं, गुच्छं, तस्मिन्‌, (तत्सदृशेतिभावः) प्रदीपप्रकरे, प्रदीपसमूहे, **प्रतन्विति—**प्रतनुभिः, अत्यल्पैः, तुहिनकिरणस्य, चन्द्रस्य, किरणानां, रश्मीनां, यत्‌, लावण्यं, चारूत्वं, तस्य, आलोकैः, प्रकाशैः, तैः, पाण्डुनि ईषद्पीते, तस्मिन्, आश्यानम्‌, ईषत्शुष्कम्, नीलनीरैः, कृष्णजलैः, मुक्तं, त्यक्तं, कालिन्दीकूलस्य, यमुनातटस्य, बालपुलिनं, सद्योत्थितसैकतं, (तद्वदाचरतीनि तादृशे) शतानि क्रतवः, यज्ञाः, यस्य सः, शतक्रतुः, इन्द्रः, तस्य इदं, (अथवा) स अधिष्ठाता, यस्य तन्‌ शातक्रतवं, ऐन्द्रं, तस्मिन्‌, कृशयति, कृश्यतां नयति, (खण्डयतीतिभावः) तिमिरं, अंधकारं, आशामुरवे, विग्भागे, खमुचि, रवं, आकाशं, मुञ्चति त्यजति तथाभूते (आकाशं-परित्यज्यभूमण्डलमाच्छादयतीतिभावः) **मेचकितेति—**मेचकितं, स्निग्धतांनीतं, विकचितानां, विकशितानां, कुवलयानां, नीलोत्पलानां, सरः, सरोवरं, येन तथाभूते, **शशधरेति—**शशधरस्य, चन्द्रस्य, करनिकरैः, किरणसमूहैः, (हस्तौरित्यर्थः) यः कचग्रहः, केशग्रहणं, तेन आविलं, मालिन्यं, म्लानतां, नीतं, प्राप्तं, तस्मिन्‌, अत एव विलीयमाने, निलयं प्राप्यमाणे, (अन्योऽपिकेशाकर्षणेनावनतमुखोलज्जयाअदर्शनं गच्छतीत्यर्थः) मानिनीनां, मानवतीनां,

विले विलीयमाने मानिनीमनसीव शर्वरीशवरीचिकुरचये चापपक्षत्विषि तमस्युदिते भगवत्युदयगिरि-शिखरकुहरहरिखरनखरनिवहहेतिनिहतनिजहरिणगलगलितरुधिरनिचयनिचितमिव लोहितं वपुरुदयरागधरमधरमिव विभावरीवध्वा धारयति श्वेतभानौ, अचलच्युतचन्द्रकान्तजलधाराधौत इव ध्वस्ते ध्वान्ते, गोलोकगलितदुग्धविसरवाहिनि दन्तमयकरमुखमहाप्रणाल इवापूरयितुं प्रवृत्तेपयोधिमिन्दुमण्डले, स्पष्टे प्रदोष

(कान्तं प्रतिकुपितानामित्यर्थः) नारीणां, स्त्रीणां, मनसीव, चित्त इव, शर्वर्यां, रात्रौ, शवरीणां,शवरस्त्रीणां, चिकुरचये, केशसमूहे, चाषपक्षत्विषि, चाषोनाम पक्षविशेषः, तस्य पक्षवत्, त्विषः,कान्त्यः, यस्य तादृशे, तमसि, अंंधकारे, उदिते, प्रादुर्भूते, **उदयगिरीति—**उदयगिरेः, उदयाचलस्य, शिखरेषु, प्रान्तभागेषु, यानि कुहराणि, गह्वराणि तेषुये हरयःसिंहाः, तेषां, खराः, तीक्ष्णाः, ये नखाः, तेषांये नखरनिवहाः, तीक्ष्णनखसमूहाः, एवहेतयः, अस्त्राणि, तैः निहतः, मारितः, योनिजहरिणः, स्वोत्सङ्गागतमृगः, तस्य गलात्, कण्ठदेशात्, गलितैः, च्युतैः, रुधिरनिचयैः, रक्तसमूहैः, तैः, निचितमिव, व्याप्तमिव, अत एव लोहितं, रक्तम्, वपुः, शरीरं,उदयरागधरं, उदयसमये योरागः, लौहित्यं तंधरतीतिधरं, अधरं, ओष्ठं, इव, विभावरीवध्वा, विभावरी, रात्रिः, एव, वधूः, वधूटी, तस्याः, श्वेतभानौ, चन्द्रमसि धारयति।**अचलेति—**अचलात्, पर्वतानत्, च्युतानां, पतितानां, चन्द्रकान्तानां, चन्द्रकान्तमणीनां, जलवाराभिः, जलस्रोतैः धौतमिव, प्रक्षालितमिव, ध्वान्ते, अन्धकारे, **गोलोकेति—**गोलोकात्, गोस्थानात्, (गोष्ठादित्यर्थः) मयूखसमूहाद्वा, गलितान्, निःसृतान्‌, दुग्धविसरान्, दुग्धप्रस्रवान्‌ वहति, धाररयति, तथाभूते। दन्तमयं, गजदंतनिर्मितं यत्‌ मकरमुखं, मकराननं, (मकरःजलजलजन्तु विशेषः) तदेव महान्‌ प्रणाल, जलनिष्कासन वर्त्म, तस्मिन्निव, पूरयितुं, भरितुं, प्रवृत्ते, सन्नद्धे, पयोधिं, समुद्रं, एवं भूते, इन्दुमण्डले, चन्द्र-

समये सावित्री शून्यहृदयामिव किमपि ध्यायन्तीं सास्रां सरस्वतीमवादीत् सखि, त्रिभुवनोपदेशदानदक्षायास्तव पुरो जिह्वा जिह्रेति मे जलपन्ती। जानासि एव यादुर्वश्याःविसंष्ठुलाःगुणवत्यपि जने दुर्जनवन्निर्दाक्षिण्याः क्षणभङ्गिन्यो दुरतिक्रमणीया न रमणीया दैवस्य वामा वृत्तयःनिष्कारणा च निकारकणिकापि कलुषयति मनस्विनोऽपि मानसमसदृश जनादापतन्ती। अनवरतनयनजलसिच्यमानश्च तरुरिव विपल्लवोऽपि सहस्रधा प्ररोहति।

मण्डले, स्पष्टेप्रदोषसमये, जातेप्रदोषकाले, सावित्रीं शून्यहृदयामिव, रिक्तचित्तामिव, किमपि ध्यायन्ती, विचारयन्ती, साम्नां,अश्रुमुखींसरस्वतीं, अवादीत्‌, अकथयत्।

सखि? त्रिभुवनोपदेशदनदक्षायाः, भुवनत्रय उपदेशदाने, दक्षायाः, चतुरायाः, तवपुरः, अग्रे, जल्पन्ती, कथयन्ती, मे, मम, जिह्वा, रसना, जिह्वेति, लक्षते। दुर्वश्याः, परवश्यतां आपादयितुमशक्याः, विसंष्ठुलाः, मर्यादा रहिताः, गुणवत्यपिजने, दुर्जनवत्, निर्दाक्षिण्याः, निष्ठुराः, क्षणभंगिन्यः, नष्टप्रायाः, दुरतिक्रमणीयाः, दुःखेनातिक्रमितुमशक्याः, न रमणीयाः, अमनोज्ञाः, दैवस्य, भाग्यस्य, (अदृष्टस्येतियावत्)वामाः, कुटिलाः, (विरुद्धाः) वृत्तयः व्यवहाराः, “दुर्जनवद्गुणवत्यपिजने पतंन्त्येवं, जानास्येव इति पूर्वेणान्वयः”, निष्कारणा, कारणरहिता निकारकणिका, निकारः, तिरस्कारः, (धिक्कार इत्यर्थः) तस्य कणिका अपि, लेशमात्रमपि (अपीति संभावनायाम्‌) असदृजनात्‌, अयोग्यजनात्, आपतन्ती, मनस्विनः, श्रेष्ठजनस्य, मानसं चित्तं, कलुषयति, व्यथयति। **अनवरतेति—**अनवरतं, निरंतरं, नयनजलेन, अश्रुजलेन, सिच्यमानः, तरूरिव, वृक्षमिव, विपत्‌,आपत्‌, तस्य लवः, लेशः (पक्षे) पत्रशून्यश्च, सहस्रधा, सहस्ररूपेण, प्ररोहति, बर्धते।

संतापपरमाणवः, दुःखलेशाः, सम्यक्‌ तापःसंतापः, उष्णत्वं, च,

** अतिसुकुमारं च जनं संतापपरमाणवो मालतीकुसुममिव म्लानिमानयन्ति। महतां चोपरि तिपतन्नणुरपि सृणिरिव करिणां क्लेशः कदर्थनायालम्। सहजस्नेहपाशग्रन्थिबन्धनाश्च बान्धवभूता दुस्तयजा जन्मभूमयः। दारयति दारुणः क्रकचपात इव हृदयं संस्तुतजनविरहः।सा नार्हस्येवं भवितुम्। अभूमिः खल्वसि दुःखक्ष्वेडांकुरप्रसवानाम्। अपि च पुराकृतेकर्मणि बलवति शुभेऽशुभे वा फलकृति तिष्ठत्यधिष्ठातरिप्रष्ठे पृष्ठतश्च कोऽवसरो विदुषि शुचाम्। **

** इदं च ते त्रिभुवनमङ्गलैककमलममङ्गलभूताः कथमिव मुखमपवि-**

मालतीकुसुममिव, मालतीपुष्पमिव, अतिसुकुमारं जनं, कोमलं जनं, म्लानिमानयन्ति, दुःखयन्ति।अणुरपि, अणुमात्रमपि, क्लेशः, दुःखं, सृणिरिव, अंकुश इव, करिणां हस्तिनां, कदर्थनाय, पीड़नाय, महतांसज्जनानां, च, उपरि, निपतन्‌, अलम्‌। **सहजेति—**सहजं, स्वाभाविकं, यत्‌ स्नेह, प्रेम, एव पाशः, रज्जुस्तेन, ग्रन्थिबन्धनं यासां, तादृशाः, बान्धवभूताः, कुटुम्बतांगताः जन्मभूमयः, दुस्त्यजाः, त्यक्तुमशक्याः।संस्तुतजनविरहः, संस्तुताः, प्रणयिनः, तेषांविरहः वियोगः, दारुणः, कठोरः, क्रकचः, करपत्रं, (दारूविदारण लोहनिर्मितं करपत्रं) तस्य पातः, अङ्गेषुपातनं, तद्वदिव, दारयति (शकलतां विभजतीत्यर्थः) नार्हसि, अयोग्या। दुःखमेव क्ष्वेडः, विषं, तस्य अंकुराः, प्ररोहाः, तेषां, प्रसवानां, उत्पन्नानाम्‌, (फलानामितिभावः) अभूमिः, अस्थानं, खलु असि।अपिच, पुराकृते, पूर्वजन्मनि, कृते, कर्मणि, बलवति, फलकृति, शुभाशुभफलदातरि, अधिष्ठातरि, ईश्वरे, प्रष्ठे, सर्वश्रेष्ठे, तिष्ठति, स्थिते, विदुषि, विद्वज्जने, शुचाम्‌, शोकानाम्‌, कोऽवसरः, कः समयः; (न कोऽपीतिभावः) (शुभाशुभ कर्माणि, ईश्वरेच्छया सर्वैर्दैवानुभयन्ते,न ह्यत्र विद्वांसःशोचन्तीतितात्पर्यम्‌)।

**इदमिति—**इदं त्रिभुवनमङ्गलैककमलंभुवनत्रय मङ्गलभूतं, ते मुखं,

**त्रयन्त्यश्रुविन्दवः। तदलम्। अधुना कथय कतमं भुवोभागमलङ्कर्तुमिच्छिसि। कस्मिन्नवतितीर्षति ते पुण्यभाजि प्रदेशे हृदयम्। कानि वा तीर्थान्यनुग्रहीतुमभिलषसि। केषु वा धन्येषु तपोवनधामसु तपस्तन्तीस्थातुमिच्छसि। सज्जोऽयमुपचरणचतुरः सहपांशुक्रीडापरिचयपेशलः प्रेयान्सखीजनः क्षितितलावतरणाय। **

** अनन्यशरणा चाद्यैवप्रभृति प्रतिपद्यस्व मनसा वाचा क्रियया च सर्वविद्याविधातारं धातारं च स्वश्रेयसायस्वचरणरजः पवित्रितत्रिदशा-**

आननं, अमङ्गलभूताः, अमाङ्गलिकाः, अश्रुबिन्दवः, अश्रुकणिकाः, कथमिव, अपवित्रयन्ति,म्लानयन्ति।कथय, अधुना, साम्प्रतं, कतमं,कं, भुवोभागं पृथ्वीतलं, अलंकर्तुमिच्छासि, सुशोभयितुमोहसे। कम्मिन्‌, पुण्यभाजिप्रदेशे, पुण्यंभजतीति पुण्यक्षेत्रम्, ते, दृदयं, चित्तं, अवतितीर्षति, अवतरितुमिच्छति।कानि वा, तीर्थानि, पुण्यस्थानानि, अनुग्रहीतु, अनुग्रहकर्तुं, अभिलषसि, इच्छसि। केषु वा, धन्येषु, धन्यवादार्हेषु, तपोवनधामसु, स्थानेषु, तपस्यन्ती, तपःकुवर्न्ती, स्थातुमिच्छासि।उपचरणचतुरः, उपचरणं, सेवा, तत्रचतुरः,निपुणः, सह, सार्धं, पांशुक्रीडायां, धूलिक्रीड़न, यःपरिचयः प्रणयः,तेन पेशलः, परवशः(बाल्यकाले बालाः, क्रीडन्ति धूलिभिः, सहज स्वभावमेतत्‌ बालानां, तत्रमैत्रित्वमधिगच्छन्तिच तेनैवमैत्रिप्रेम्णापरवश इत्यर्थः) प्रेयान्‌ सखाजनः, (प्रियसखीसावित्रीतिभावः) सज्जः, प्रस्तुतः, क्षितितलावतरणाय, पृथ्वीतलमवतरितुं।

अनन्यशरणा, नास्ति अन्यंशरणं यस्याः, एवंभूता, अद्यैव प्रभृति, साम्प्रतमेव, मनसा वाचा कर्मणा च, सर्वविद्याविधातारं, सर्वासां विद्यानां, जनयितारं, धातारं, रक्षितारं, स्वश्रेयसाय, कल्याणाय, (स्वस्य) चरणरजसा, पदरेणुना, पवित्रिताः, पूताः, त्रिदशानां,देवानां, असुराणां, राक्षसानां च, मौलयः, किरीटाः, येन, एवभूतं। **सुधेति—**सुधा, अमृतं, सूते, उत्पद्यते,

सुरमौलिंसुधासूतिकलिकाकल्पितकर्णावतंसं देवदेवं त्रिभुवनगुरुं त्र्यम्बकम्। अल्पीयसैव कालेन स ते शापशोकविरतिंवितरिष्यति,इति।

** एवमुक्ता - मुक्तमुक्ताफलधवललोचनजललवा सरस्वती प्रत्यवादीत्, प्रियसखि?त्वया सह विचरन्त्या न मे कांचिदपि पीड़ामुत्पादयिष्यति ब्रह्मलोकविरहः शापशोको वा। केवलं कमलासनसेवासुखमार्द्रयति मे हृदयम्। अपि च त्वमेव वेत्सि मे भुवि धर्मसाधनानि सर्वयोगयोग्यानि च स्थानानि स्थातुम्,इत्येवमभिधाय विरराम। रणरणकोपनीत प्रजागरा चउन्मीलितलोचनैव तां निशामनयत्।**

अस्मात्‌, इति सुधासूतिः, चन्द्रः, तस्य कला एव,कलिका, कुद्मलिका, तया कल्पितः, कृतः, अवतंसकः, कर्णभूषणं, येन, तं, देवदेवं (देवानामपिदेवमिति यावत्‌) त्रिभुवनगुरुं, भुवनत्रयाचार्यं, त्र्यम्बकं, महादेवं, प्रतिप्रद्यस्व, भजस्व, (इत्यनेनान्वयः) स, एव, भगवान्, (इत्यध्याहार्यम्‌) अल्पीयसैव, कालेन अल्पसमयेनेव, ते शापशोकविरतिं, शापजनितं, यत्‌, शोकं, तस्य विरतिं, नाशं, वितरिष्यति, करिष्यति।

**मुक्तेति—**मुक्ताः, त्यक्ताः, (पातिता इतियावत्‌) मुक्ताफलवत्‌, धवलाः, शुभ्रवर्णाः, लोचनजललवाः, अश्रुबिन्दवः, यया, एवंभूता, सरस्वती, वाग्देवी, प्रत्यवादीत्‌, प्रत्युत्तमदात्‌।प्रियसखि?त्वयासहविचरन्त्या, विहरन्त्या (निवसन्त्या, इति यावत्‌) कांचिदपिपीड़ां, किमपिदुःखं, ब्रह्मलोक विरहः, वियोगः, शाप शोको वा, दुर्वासादत्तशापोद्भवः शोको वा, नोत्पादयिष्यति, न जनयिष्यति। केवलं, (एतदेवेति भावः) कमलासनस्य, ब्रह्मणः, सेवासुखं, सेवयालभ्यमानन्दं, चित्तं, आर्द्रयति, स्नेहयति, (प्रेमभावं प्रकटयतीत्यर्थः) अपि च त्वमेव वेत्सि, जानासि, मे, मम, (मदर्थमितिभावः) स्थातुं, स्थितिकरणाय, भुवि, पृथिव्यां, धर्मसाधनानि, धर्मक्षेत्राणि, सर्वयोगयोग्यानि, “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः,’’ तद्योग्यानि, उचितानि।रणरणकेति—रणरणकेन

** अपरेद्युरुदिते भगवति त्रिभुवनशेखरे तुरङ्गमुख खणखणायितखर खलीनकर्षणक्षतक्षरत्क्षतजेनेवपाटलितवपुष्युदयाचलचूडामणौ जरत्कृकवाकुचूड़ारुणारुणपुरः सरे विरोचने रोचमानेनातिदूरवतींपितामह विमानहंसकुलपालः पर्यटन्नपरवक्त्रमुच्चैरगायत्–**

“तरलयसि दृशं किमुत्सुकामकलुषमानसवासलालिते।”
अवतर कलहंसि?वापिकां, पुनरपि यास्यसि पङ्कजालयम्॥२२॥

उत्कण्ठया, उपनीतः, जातः, प्रजागरः, जागरणं, यस्याः तथाभूता, उन्मीलिते, ईषद्विकसिते, लोचने, नेत्रे, यस्याः, एवंभूता, एव, तां, निशां, रात्रिं, अनयत्। अपरेद्युरित्यादितः विमानहंसकुलपालः-उच्चैः, अगायत्-इत्यनेनान्वयः। अपरेद्युः, अपरदिने, त्रिभुवनशेखरे, त्रिभुवनतिलके, भगति, कल्याणाकरे, तुरगाणां, अश्वानां (सप्तानामितियावत्) मुखेषु, आननेषु, खणखणायिताः, खणखणशब्दंकुर्वन्तः, खगः, तीक्ष्णाः, खलीनाः, कविकाः, तेषां कर्षणेन, आकर्षणेन, यः क्षतः, आघातः (ब्रणेतियावत्) तेन क्षरत्, निःसरत्,(घोटकानां मुखेभ्य इतिभावः) क्षतजं, रक्तं, तेनेव, पाटलितवपुषि, ईषद्रक्त कलेवरे, उदयाचलचूडामणौ, उदयगिरिमस्तके, जरत्, वृद्धो यः कृकवाकुः, ताम्रचूडः, तस्यचूड़ा, मस्तकं, तद्वत्, अरुणः, रक्तवर्णः, यः अरुणः, तन्नाम सारथिः, यस्य तथाभूते, विरोचने,सूर्ये, रोचमाने, शोभमाने, नातिदूरवतां, अनतिदूरस्थः(पार्श्वस्थित एवेतिभावः) पितामहस्य, ब्रह्मणः, विमानहंसस्य, वाहनभृतमरालस्य, पालः, रक्षकः, पर्यटन्, भ्रमन्, अपरवक्रं, तदाख्यं वृत्तं, (आख्यायिकाषुप्रयोज्यंछन्द इतिभावः) उच्चैः, तारस्वरेण, अगायत्।

**तरलयसीति—**अकलुषं, अम्लानं, मानसं, तन्नामसरः, यद्वा, अकलुषं निर्मलं, मानसं चित्तं, यस्य सः, ब्रह्मा, तस्मिन् अथवा, अकलुषं मानसं येषां ते अकलुषमानसाः, विद्वांसः, तेषु वासेन, निवसनेन, लालिता, विनोदिता, तत्सम्बुद्धौ, हे अकलुषमानसवासलालिते? किं, कथम्, उत्सुक्यं, उत्कण्ठा

** तच्छ्रुत्वा सरस्वती पुनरचिन्तयत्—अहमिवानेन पर्यनुयुक्ता। भवतु। मानयामि मुनेर्वचनम्,इत्युक्त्वोत्थाय कृतमहीतलावतरण सङ्कल्पा परित्यज्य वियोगविक्लवं स्वपरिजनं ज्ञातिवर्गमवगणय्यत्रिः प्रदक्षिणीकृत्य चतुर्मुखं कथमप्यनुनयन्ती निवर्तिताऽनुयायिव्रतिव्राता ब्रह्मलोकतः सावित्री द्वितीया निर्जगाम।**

व्यञ्जिकां, (कातरामितिभावः)दृशं, दृष्टिं, तरलयसि, चञ्चलयसि, हे कलहंसि! वापिकां, दार्विकम् (पक्षे) उष्यन्ते कर्माणि, अस्यां इति वापिका, कर्मभूमिः, तां(मर्त्यलोकमितियावत्) अवतर, याहि।

अत्र हिन तवचिरस्थितिरित्याशषेनाह। पुनरपि, पङ्कजानां, (लक्षणया) हेमकमलानां,आलयः, स्थानं, तंमानसं, सरः (पक्षे) पङ्कजालयं, पद्मयोनिं, (ब्रह्माणमिति यावत्) यास्यसि, प्राप्स्यसि। अत्र हि श्लिष्ट विशेषणैः कलहंस्यावापिकावतरणरूपात्, अप्रस्तुतात्, सरस्वत्याः मर्त्यलोकावतरणस्य प्रस्तुतस्यवर्णनात्, अप्रस्तुतप्रशंसा, अलङ्कारः, अपरवक्रंवृत्तं। तच्छ्रुत्वा, तदपरवक्रंनिशम्य, पुनः अचिन्तयत्। **अहमिवेति—**अनेन, यानहंसपालेन, अहं, (सरस्वती) पर्यनुयुक्तेन, व्यङ्गयेन प्रतिबोधितेव। भवतु, अस्तु। मुनेर्वचनं, (शापवाक्यमतियावत्) मानयामि, स्वीकरोमि। इत्युक्त्वा, कृत महीतलावतरणसङ्कल्पा, कृतं, विहितं, महीतलावतरणाय, मर्त्यलोकगमनाय, संङ्कल्पः, निन्दया, ययाएवंभूता। वियोगेन, विच्छेदेन, विक्लवं, दुःखितं, स्वपरिजनं, स्वसखीजनं, परित्यज्य, त्यत्क्त्वा ज्ञातिवर्गं, बान्धवसमूहं च, अवगणय्य, अगणयित्वा, प्रदक्षिणाीकृत्य, वारत्रयं प्रदक्षिणांविधाय, चतुर्मुखं, ब्रह्माणं कथमपि, अनुनयन्ती, सान्त्वयन्ती। **निवर्तितेति—**निषिद्धाः, (मयासहनागन्तव्यमिति यावत्) अनुयायिनः, अनुगमनशीलाः, व्रतीनां, व्राताः, समूहाः यया, एवंभूताब्रह्मलोकतः; स्वर्गतः।

ततः क्रमेण, इत्यतः आरभ्यमन्दाकिनीमनुसरन्तीमर्त्यलोकमवततार इत्य-

** ततः क्रमेण ध्रुवपदप्रवृत्तां धर्मधेनुमिवाधोधावमानधवलपयोधराम्, उद्धुरध्वनिमन्धकमथनमौलिमालतीमालिकाम्, आलीयमान बालखिल्यरुद्धरोधसमरुन्धतीधौततारवत्वचम्त्वङ्गत्तुङ्गतरङ्गतरत्तरलतरतारतारकाम्, तापसवितीर्णतर-लतिलोदकपुलकितपुलिनाम्,आप्लवनपूत पितामहपातितपितृपिण्डपाण्डुरितपाराम्, पर्यन्तसुप्तसप्तर्षिकुश-**

नेनान्वयः। क्रमेण, क्रमशः, **ध्रुवेति—**ध्रुवस्य, नित्यस्य, वस्तुनः (विष्णोरितियावत्) पदात्, चरणात्, अथवा, पदात्, तृतीयपदस्थापनस्थानात्, (आकाशादितिभावः) प्रवृत्तं, निःसृतां, धर्मधेनुमिव, धर्मायधेनुः, धर्मधेनुः, (होमधेनुरितिभावः) तामिव, अधोधावमानं, नीचैः, निःसरत्, धवलं, शुभ्रं, पयः, जलं, दुग्धञ्च, यस्यास्ताम्, (पक्षे) अधोधावमानाः, अधोमुखाः, धवलाः, शुभ्रवर्णाः, पयोधराः, स्तनाः, यस्यास्ताम्। उद्धुरध्वनिं, उद्धुराः, उत्कटाः, ध्वनयः, शब्दाः यस्यास्ताम्, **अन्धकेति—**अन्धको नाम कश्चिदसुरः, तंमथयति नाशयति, (शिव, इतियावत्) तस्य मौलिः, जटाजूटं, तस्य या मालतीमालिका, मालतीपुष्पमाला, ताम्। **आलीयमानेति—**आलीयमानैः, (अतिक्षुद्रत्वाद् नश्यद्भिरित्यर्थः) वालखिल्यैः, मुनिविशेषैःरुद्धं, संश्लिष्ट रोधः, तटं यस्यास्ताम्। अरुन्धतीति - अरुन्धत्या, वषिष्ठपत्न्या, धौता प्रक्षालिता, तरोरियं, तारदी, (वृक्षसंबन्धिनीत्यर्थः) त्वक् यस्यां तथाभूताम्। **त्वङ्गेति—**त्वङ्गत्सु, प्रचलत्सु, त्वङ्गेषु, उन्नतेषु, तरङ्गेषु, लहरिकासु, तरन्त्यः, तरणशीलाः, तरलतराः, अतिचपलाः, ताराः, महत्यः, तारकाः, नक्षत्राणि, यस्यां ताम्। **तापसेति—**तापसैः, तपस्विभिः, वितीर्णानि, दत्तानि, तरलानि(तरङ्गसम्पर्कात्) चञ्चलानि, तिलोदकानि, तिलमिश्रितपर्णजलानि, तैः, पुलकितानि, उल्लसितानि, पुलिनानि, सैकतानि, यस्यास्ताम्‌। **आप्लवनेति—**आप्लवनेन, स्नानेन, पूतः, पवित्रः, यः, पितामहः, ब्रह्मा, तेन पतितैः, पितृपिण्डैः, पितृभ्यः, (अग्निष्वातादिभ्यः)अर्पितैः, पिण्डैः, (तिलोदकमिश्रि

शयनसूचितसूर्यग्रहणसूतकोपवासाम्, आचमनशुचिशचीपतिमुच्यमानार्चनकुसुमनिकरशाराम्, शिवपुरपतितनिर्माल्यमन्दरदामकानादरदारितमन्दरदरीदृषदम्, अनेकनाकनायककामिनी कुचकलशविलुलितविग्रहाम्, ग्राहग्रावग्रामस्खलनमुखरितबहु स्रोतसम्, सुषुम्नास्रुतशशिसुधाशीकरस्तवकतारकिततीराम्, धिषणाग्निकार्यधूमधूसरित

तैर्यवान्ननिर्मितैः पिण्डैःपाण्डुरितः, पाण्डुवर्णतांनीतः, पारः, तटप्रदेशः, यस्यास्ताम्। **पर्यन्तेति—**पर्यन्तेषु, प्रान्तभागेषु, सुखेन, सुप्तानां, शयनसुखमनुभवतां,सप्तानां ऋषीणां, मरीच्यादीनां, कुशा एवं शयनानि, पर्यङ्कास्तैः, सूचितः, प्रकटितः, सूर्यग्रहणस्य, सूतकेन, आशौचेन, (राहुकेतुग्रसितस्य भानोरित्यर्थः) उपवासः, अनशनम्, यम्यास्ताम्। **आचमनेति—**आचमनेन, शुचिः, पवित्रः, यःशचीपतिः, इन्द्रः तेन मुच्यमानैः, त्यक्तैः (दीयमानैरितियावत्) अर्चनकुसुमनिकरैः, पूजापुष्पनिचयैः, शारां, (चित्रविचित्रवर्णातां प्राप्तेत्यर्थः) **शिवेति—**शिवपुरात्, (कैलाशादितियावत्) मन्दारदामकं, मन्दारपुष्पस्रजं, यस्यां तथाभूतां। **अनादरेति—**अनादरेणअपमानेन, दारिताः, खण्डिताः, (अतिवेगेनेतिभावः) मन्दरदार्यः, मन्दराचल गुहायाः, दृषदः, पाषाणाः, यया, ताम्। **अनेकेति—**अनेकेषां, बहूनां, नाकनायकानां, सुराणां, याःकामिन्यः, स्त्रियः, तासां, कुचकलशैः,स्तनकुम्भैः, विलुलितः, प्रकम्पितः, (आलोड़ित इत्यर्थः) विग्रहं, शरीरं (जलरूपकमितियावत्) यस्यास्तथोक्तां। **ग्राहेति—**ग्राहाणां, जलजन्तुविशेषाणां, ग्रावग्रामाणां, पाषाणसमूहनाञ्च, स्खलितेन, इतस्ततःनिपतनेन, मुखराणि, सशब्दानि,बहूनि, स्रोतांसि, जलनिःसरणमार्गाणि यस्यास्ताम्। **सुषुम्नेति—**सुषुम्नाख्यसूर्यरश्मेः स्रुतः, निसृतः, यःशशिः, चन्द्रः, तस्य, सुधानां, पीयूषानां, (अमृतमयकिरणानामितिभावः) शीकरस्तवकैः, विन्दुच्छैगुः, तारकितं, नक्षत्रपंक्तिमिव, तीरं, तटं, यस्यास्ताम्। **धिषणेति—**धिष

सैकताम्, सिद्धविरचितबालुकालिङ्गलङ्घनत्रासविद्रुतविद्याधराम्, निर्मोकमुक्तिमिव गगनोरगस्य, लीलाललाटिकामिव त्रिविष्टपस्य, विक्रयवीथीमिव पुण्यपण्यस्य, दत्तार्गलामिव नरकनगरद्वारस्य, अंशुकोष्णीषपट्टिकामिव सुमेरूनृपस्य, दुकूलकदलिकामिव कैलासकुञ्जरस्य, पद्धतिमिवापवर्गस्य, नेमिमिवकृत युगस्य, सप्तसागरराजमहिषीं मन्दा-

णस्य, बृहस्पतेः, यत्, अग्निकार्यं, अग्निहोत्रकर्म, तस्य धूमेन, धूसरितानि, धूसरवर्णतां प्राप्तानि (म्लानानि, इत्यर्थः) सैकतानि, पार्श्वभागानि, यस्यास्ताम्। **सिध्देति—**सिध्दैः, देवयोनिविशेषैः,विरचितानि, पूजार्थंनिर्मितानि, यानि बालुका लिङ्गानि, बालुकामयशिवलिङ्गानि (चिह्नानि) तेषां लंघनात्, उल्लंघनान्, त्रासेन, भयेन (सिद्धाःसाशापं दद्युरितिभयेन) विद्रुताः, पलायिताः, विद्याधराः, देवयोनिभेदाः, यस्यां ताम्। **निर्मोकेति—**निर्मोकमुक्तिमिव, निर्मोकस्य, कञ्चुकस्य, मुक्तिः, उज्झनं, तामिव, गगनं, आकाशं, एव, उरगः, (उरसा गच्छतीतिउरगः,) सर्पः, तस्य (कृष्णावर्णत्वादाकाशस्य शुक्लवर्णत्वाच्च निर्मोकस्य, इत्युत्प्रेक्षितम्) **लीलेति—**त्रिविष्टपस्य, स्वर्गस्य, लीला ललाटिकामिव, विनोदार्थमस्तक भूषणमिव। विक्रयवीथिमिव, विक्रयस्थानमिव, पुण्य पण्यस्य, व्यवहारार्थ पुण्य सञ्चयः एव विक्रेयद्रव्यं, तस्य पण्यं विक्रयस्थानं, तमिव। दत्तार्गलामिव, दत्ता, स्थापिता, अर्गला, द्वारावरोधकाः दण्डाः, तामिव, नरकनगरस्य, नरकमेवनगरं, पुरं, तस्य, द्वारं, मुखं, तस्य। **अंशुकेति—**सुमेरुनृपस्य, राज्ञः, अंशुकं, सूक्ष्मवसनं, तेन, निर्मिता रचिता, उष्णीषपट्टिका, शिरोवेष्टनपटी, तामिव। कैलासकुञ्जरस्य, कैलासाद्रिवारणस्य, दुकूलकदलिकामिव, वस्त्ररचित वैजयन्तीमिव (स्रगिवेतिभावः) अपवर्गस्य, स्वर्गस्य, पद्धतिमिव, मार्गमिव कृतयुगस्य, सत्ययुगस्य, नेमिमव, चक्राधारमिव। सप्तसागर राजमहिषीं, सप्तानां सागाराणां समाहारः, तस्य, यद्वा, सप्त च ते सागराः, सप्तसागराः, तेषां, “अथवा” सप्तसागरराजः, क्षीरसमुद्रः तस्य, महिषीं,

किनीमनुसरन्ती मर्त्यलोकमवततार। अपश्यच्चाम्बरतलस्थितैवहारमिव वरुणस्य, अमृतनिर्झरमिव चन्द्राचलस्य, शशिमणिनिष्यन्दमिव विन्ध्यस्य, कर्पूरद्रुमद्रवप्रवाहमिव दण्डकारण्यस्य, लावण्य रस प्रस्रवणमिव दिशाम्, स्फटिकशिला पट्टशयनमिवाम्बरश्रियाः स्वच्छशिशिरसुरसवारिपूर्णं भगवतः पितामहस्यापत्यं हिरण्यवाह नामानं महानदम्, यं जनाःशोण इति कथयन्ति। दृष्ट्वा च तं रामणीयकंहृतहृदया तस्यैव तीरे वासमरचयत्। उवाच च सावित्रीम्— सखि,

पत्नीं, मंदाकिनी, गंगा, अनुसरन्ती, अनुसरणंकुर्वन्ती, मर्त्यलोकं, भूलोकं, अवततार, अवतीर्णा, (प्रायेणात्र, उत्प्रेक्षालंकारः) अम्बरतलस्थितैव, आकाशस्थितैव, वरुणस्य, जलाधिपतेः, हारमिव, मुक्तास्रगिव। अमृतनिर्झरमिव,सुधास्रोतमिव, चन्द्राचलस्य, चद्राख्य पर्वतस्य। शशिमणि निष्यन्दमिव, चन्द्रकान्त मणिस्रवन्निव, विन्ध्यम्य, विन्ध्यपर्वतस्य। **कर्पूरेति—**कर्पूरद्रुमस्य, कर्पूरवृक्षस्य, य द्रवः, स्वेदः, तस्य प्रवाहः, स्रोतः, तमिव, दण्डकारण्यस्य, दण्डकवनस्य। लावण्यस्य, सौंदर्यस्य, य रसः, तस्य यत्, प्रस्रवणं, वहनं, तमिव, दिशाम्। स्फटिकशिला, स्फटिकमणिः, तस्याः पट्टमेवशयनं, पर्यङ्कं, तदिव, अम्बरश्रियाः, आकाशलक्ष्म्याः। **स्वच्छेति—**स्वच्छानि, निर्मलानि, शिशिराणि, शीतलानि, सुरसानि, मधुराणि, वारीणि, जलानि, तैः पूर्णः, भरितः, भगवतः, पितामहस्य, ब्रह्मणः, अपत्यं, संततिं, हिरण्यवाह नामानं, तन्नाम प्रसिद्धं, महानदम्, अपश्यत्, अवलोकयत्, इति पूर्वेणान्वयः। यं नदं जनाः, मनवाः शोण इति, नाम्ना, कथयन्ती, वदन्ती। दृष्ट्वा च,अवलोक्य च तं, (नदमितियावत्) (तस्येत्याध्याहार्यम्) तस्य रामणीयकं, मनोहारित्वं, तेन हृतं, स्ववशीकृतं, हृदयं यस्या तादृशी, तस्यैव तीरे तटे, वासं, स्थितिं, अरचयत्। सखि? मधुराः, मुग्धकराः, मयूराणां, बर्हाणां, विरुतयः,शब्दाः। **कुसुमेति—**कुसुमानां, पुष्पाणां, पांशुपटलैः, धूलिसमूहैः, सिक-

मधुरमयूरविरुतयः कुसुमपांशुपटलसिकतिलतरुतलाः परिमलमत्तमधुपवेणीवीणा रणितरमणीया रमयन्ति, मां मन्दीकृतमन्दाकिनी द्युतेरस्यमहानदस्योपकण्ठभूमयः। पक्षपाति च हृदयमत्रैव स्थातुभ्मेइति। अभिनन्दितवचना च तथेति तया तस्य पश्चिमे तीरे समवातरत्। एकस्मिंश्च शुचौ शिलातलसनाथे तटलतामण्डपे गृहबुद्धिंबबन्ध। विश्रान्ता च नातिचिरादुत्थाय सवित्र्यासार्धमुच्चितार्चनकुसुमासस्नौ। पुलिनपृष्ठप्रतिष्ठित सैकतशिवलिङ्गा च भक्त्या परमया पञ्चब्रह्मपुरःसरां सम्यङ्मुद्रांबबन्ध, विहितपरिकराध्रुवागीतिगर्भामवनिपवन

तिला सैकतवन्तः, तरूणां, वृक्षाणां, तलाः, अधोभागाः, परिमलेन, सुगन्धिना, मत्तानां, उन्मत्तानां, मधुपानां, षट्चरणानां, वेणीसमूहः, सैववीणा, तन्त्री, तस्याःरणितेन, रणरण शब्देन, रमणीयाः, शोभनाः, मन्दीकृता, मन्दाकिन्याः गंगायाः, द्यूतिः कान्तिः, येन तथोक्तस्य, अस्य महानदस्य, शोणस्य, उपकण्ठभू‌मयः, पार्श्व प्रदेशाः, मां रमयन्ति, प्रीणयन्ति। मे हृहयं, अत्रैवस्थातु, अस्मिन्नेव तटेस्थितिं कर्तुं, पक्षपाति, प्रणयी। **अभिनन्दितेति—**अभिनंदितं, समर्थितं, वचनं यस्यास्तथोक्ता, तस्य पश्चिमे तीरे, पश्चिमतटे, समावतरत्। एकस्मिंञ्च, शुचौ, पवित्रे, शिलातलसनाथे, शिलातलयुक्ते, तटलतामण्डपे, तटपार्श्ववर्तिलतागृहे, (कुंजे-इत्यर्थः) गृह बुद्धिं, इदमावयोः गृहं, इति बुद्धिं, मतिं बबंध, चकार (कृतवतीत्यर्थः) विश्रान्ता च मार्गश्रमं दूरीकृत्य, च नातिचिरात्, (सद्यैवेतिभावः) उत्थाय, सावित्र्यासार्धं, स्वसख्यासह, उच्चितानि, एकत्रिकृतानि, यानि, अर्चनकुसुमानि, पूजापुष्पाणि, तैः, सस्नौ, स्रानंकृतवती। **पुलिनेति—**पुलिनस्य, सैकतप्रदेस्य, पृष्ठे, उपरि, प्रतिष्ठितं, स्थापितं, सैकतं, वालुकामयशिवलिङ्गं, यया सा परमया भक्त्या, श्रद्धया, पञ्चब्रह्माणि, (सद्योजात वामदेवाघोर तत्पुरूषैशानरूपाणि) पुरःसराणि, अग्रगण्यानि, यस्यां तादृशीं, मुद्रां, कराङ्गुलिसंयोग विशेषां,

गगनदहनतपनतुहिनकिरणयजमानमयीर्मूर्तीरष्टावपि ध्यायन्ती सुचिरमष्टपुष्पिकामदात्। अयत्नोपनतेन फलमूलेनामृतरसमप्यतिशिशयिषमाणेन च स्वादिम्ना शिशिरेण शोणवारिणा शरीरस्थितिमकरोत्। अतिवाहितदिवसा च तस्मिंल्लतामण्डपशिलातले कल्पितपल्लवशयना सुष्वाप। अन्येद्युरप्यतेनैव क्रमेण नक्तंदिनमत्यवाहयत्।

** एवमतिक्रामत्सु दिवसेषु गच्छति च काले याममात्रोद्गते च रवावुत्तरस्यां ककुभि प्रतिशब्दपूरितवनगह्वरं गम्भीरतारतरम्,तुरङ्ग ह्रेषित-**

सम्यक्, विधिपूर्वकं, बबन्ध, कृतवती। प्रथमंसद्योजातपूजामारभ्य क्रमशः, वामदेव, अघोर, तत्पुरुषइशानपूजाविधायिनोत्वैवंपञ्चमुद्रा विधानेन पञ्चब्रह्माणि अपूजयदितिभावः) विहितपरिकरा, कृतपूजानिधाना, ध्रूवाख्यातन्नाम गीतिपयिछन्दविशेषः अस्ति गर्भेमध्ये, यरयास्ताम्, अन्तरान्तरगीतिपूर्विकां, पुष्पाञ्जलिमदादिन्यनेनान्वयः। अवनिः, पृथ्वी, पवनः, वायुः, गगनं, आकाशं, तपनः, सूर्यः, तुहिनकिरणः चन्द्रः, दहनः अग्निः, सलिलं जलं, यजमानः, याज्ञिकः, एताःअवन्याद्यात्मिकाः, ताः, आष्टौ, मूर्तीः(शंकरस्येत्यर्थः) ध्यायन्ती, ध्यानंकुर्वन्ती, अष्टपुष्पिकां, अष्टौपद्मान, अदात्, दत्तवती। अयत्नोपनतेन, अनायासप्रायेन, फलमूलेन, कन्दादिना, अमृतमपि, पीयूषमपि, अतिशिषयिषमाणेन, अतिशयितुमिच्छता, स्वादिम्ना, अतिस्वादयुक्तेन, शिशिरेण, शीतेन, शोणवारिणा, शोणनदजलेन, शरीरस्थितिं (नत्वातृप्तभोजनमितिभावः) अतिवाहितदिवसा, अतिक्रान्तदिना, तस्मिन्लतामण्डपे, लतागृहे, शिलातले, प्रस्तरखण्डे, कल्पितं, निर्मितं, पल्लवानां, शयनं, शय्या, यया, एवंभूता, सुष्वाष, पर्णशयनेएव निद्रांलेभेइतिभावः। **अन्येद्युरिति—**अन्येद्युः, अपरदिने, अपि अनेनैवक्रमेण, क्रमशः, नक्तंदिनं, अहर्निशं, अत्यवाहयत्।

एवं अतिक्रामत्सु, गच्छत्सु, दिवसेषु, दिनेषु, गच्छति च काले, समये, याममात्रमिव, प्रहरमात्रामेव, उद्गते, उदिते, रवौ, सूर्ये, उत्तरस्यां, उदीच्यां,

ह्लादमशृणोत्। उपजातकुतूहला च निर्गत्य लतामण्डपाद्विलोकयन्ती विकचकेतकीगर्भपत्रपाण्डुरं रजः संघातं नातिदवीयसि सम्मुखमापतन्तमपश्यत्क्रमेण च सामीप्योपजायमानाभिव्यक्तिः तस्मिन्महति शफरोदरधूसरे रजसिपयसीव मकरचक्रं प्लवमानं पुरः प्रधावमानेन, प्रलम्बकुटिलकचपल्लवघटितललाटजूटकेन, धवलदन्तपत्रिकाद्युतिहसितकपोलभि

ककुभि, दिशि, प्रतिशब्देन, प्रतिध्वनिना, पूरितानिपूर्णानि, वनगह्वराणि, काननकन्दराः, येन तं गम्भीरतारतरं, अतिशयित गम्भीरं शब्दं तुरङ्गमाणां, अश्वानां, यानिह्रोषितानि, शब्दविशेषाः, तेषां ह्रादः, निनादः तं अशृणोत्, कर्णाकुहरतामनयत्। उपजातकुतुहला, च, उपजातः उत्पन्नः कुतुहलः, औत्सुक्यं, यया एवंभुता, लतामण्डपात् लतागृहाद्, निर्गत्य, विलोकयन्ताी। **विकचेति—**विकचं, विकसितं, केतकीगर्भपत्रं, तदाख्यपुष्पपल्लवं, तद्वत्, पाण्डुरं, ईषच्छुभ्रम, रजःसंघातं धूलिसमूहं, नातिदवीयसि, अनतिदूरवर्तिनि, (पार्श्ववर्तिन्येवेतिभावः) सम्मुखात्, पुरोयायिमार्गात्,आपतंतं, आगच्छंतं, अपश्यत्। क्रमेण च क्रमशः, **सामिप्येति—**सामीप्येन, नैकटयेन, उपजायमाना, प्रादुर्भूता, अभिव्यक्तिः, स्फुटता यस्य तादृशं, अश्ववृन्दं, अश्वसमूहं,ददर्श, अवलोकयत्, इत्यनेनान्वयः। तस्मिन् (अश्ववृन्देत्यर्थः) शफरोदर धूसरे, शफरस्य, मत्स्यस्य, उदरवत् धूसरं, धूसरवर्णाकं, तम्मिन्, रजसि, पांशौ, पयसीव, जलमिव, **मकरेति—**मकरचक्रंमकराः, जल जन्तवः, तेषां चक्रं, मण्डलं, तदिव, प्लवमानं तरमाणं, पुरः, अग्रे, प्रधावमानेन, (शीघ्रगमनेनेति भावः) **प्रलम्बेति—**प्रलम्बनेन, लम्बमानेन, कुटिलेन, कुञ्चितेन, कचः, केशः (चिकुरः कुन्तलो बालः कचः केशः शिरोरुहः इत्यमरः) पल्लवइव, नवपत्रमिव, तेन, घटिता, बद्धो, ललाटे, मस्तके, जूटकेन, केशबंधेन, एवंभूतेन। **धवलेति—**धवलायाः शुभ्रयाः, दन्तपत्रिकायाः, गजदन्तरचित कर्णाभरणायाः, या, द्यूतिः, कान्तिः, तया हसिता, उद्भासिता, कपोलभित्तिः

त्तिना, पिनद्धकृष्णागुरुपङ्कच्छुरणकषायकञ्चुकेन, उत्तरीयकृतशिरोवेष्टनेन, वामप्रकोष्ठनिविष्टहाटककटकेन, द्विगुणपट्टपट्टिकागाढग्रन्थिग्रथितासिधेनुना, अनवरतव्यायामकृशकर्कशशरीरेण, वातहरिणयूथेनेवमुहुर्मुहुः खमुड्डीयमानेन, लङ्घितसमविषमावटविटपेन, कोणधारिणा, कृपाणपाणिना, सेवागृहीतविविधवनकुसुमफलमूलपर्णेन, “चल चल, याहि याहि, अपसर्पापसर्प, पुरःप्रयच्छ पन्थानम्"इत्यनवरतकृत

गंडस्थलं, यस्य तेन। **पिनद्धेति—**पिनद्धः, धारितः, कृष्णागुरुपङ्कस्य, गंधद्रव्यविशेषद्रवस्य, च्छुरणेन, अधिवासनेन, कषाय, सुरभिः, कञ्चुकः, वारवाणः, येन, तथाभूतेन, उत्तरायेण, तद् वस्त्रेण, कृतं, शिरोवेष्टनं, उष्णीषं, येन, **द्विगुणेति—**द्विगुणा, द्विरावृत्ता, या, पट्टपट्टिका, वस्त्रखण्डं, (पेटिका इति प्रसिद्धा) तस्या, गाढेन, कठिनेन, ग्रंथिना, ग्रथिता, निवद्धा, असिधेनुका, छुरिका, येन तथोक्तेन। **अनवरतेति—**अनवरतेन, निरन्तरेण, कृतः, व्यायामः, अङ्गचालनं, तेन, कृशं, ह्रस्वं, कर्कशं, कठिनं, एवंभूतेन शरीरेण, विग्रहेण। वातहरिणा, वाताभिमुरबंधावन्ति ते, तेषां यः यूथः, समूहः, तेनेव, मुहुर्मुहुः वारम्बारं, खं, आकाशं, उड्डीयमानेन, अति वेगेनधावमानेनेत्यर्थः। **लङ्घितेति—**लङ्घितःअतिक्रान्तः, समानां, समतलानां, विषमाणां, विषमप्रदेशानां, अवटानां, उन्मार्गाणां, विटपः, विस्तरः, (प्रसरेतिभावः) येन तथा भूतेन। कोणधारणा, लगुड़धारिणा, (कोणो वाद्य प्रभेदेस्यात् वीणादीनां च वादने, एक देशे गृहा दीनामश्रौच लगुड़ेऽपि च इतिमेदिनी) कृपाणपाणिना, धृतासि हस्तेन, च। **सेवेति—**सेवायै, स्वामिनः, स्वाभिष्टदेवस्य वा, सेवार्थं, गृहीतानि, विविधानि, नानाविधानि, वनस्य, कुसुमानि, पुष्पाणि, फलानि, मूलानि, कन्दानि, पर्णानि, प्रत्राणि, च, येन, तथाभूतेन, चल, चल, याहृि, याहि, आगच्छ, आगच्छ, अपसर्पापसर्प, अपगच्छ, पुरः, अग्रतः पन्थानम्, मार्ग, प्रयच्छ, देहि, इति, एवं, अनवरतं, निरन्तरं, कृतः,

कलेन, युवप्रायेण, सहस्रमात्रेण पदातिबलेन सनाथमश्ववृन्दं सन्ददर्श।

** मध्ये च तस्य सार्धचन्द्रेण मुक्ताफलजाल मालिना विविधरत्नखण्डखचितेन शङ्खक्षीर फेन पाण्डुरेण क्षीरोदेनेव स्वयं लक्ष्मीं दातुमागतेन गगन गतेनातपत्रेण कृतच्छायम्, अच्छाच्छेनाभरणद्युतीनां निवहेन दिशामिव दर्शनानुरागलग्नेन चक्रवालेनानुगम्यमानम्, आनितम्ब विलम्बिन्या मालतीशेखरस्रजा सकलभुवनविजयार्जितया रूपप-**

विहितः, कल कलः लोलाहलः, येन तथोक्तेन, युव प्रायेण, तरूणबहुलेन, सहस्रमात्रेण, (सहस्र परिमितेन) पदातिबलेन, पद चारिसैन्येन, सनाथं, सहितं, अश्ववृदं, अश्वसमूहं, ददर्श।

मध्ये इत्यादितः, अष्टादश वर्षीयं कश्चिद् युवानमद्राक्षीत्, इत्यनेनान्वयः। मध्ये च तस्य (अश्ववृन्देत्यर्थः) सार्ध चन्द्रेण, अर्द्धशशिना, (इवेतिशेषः) मुक्ताफल जाल मालिना, मुक्ताफलानां, मौक्तिकानां, जालं, समूहः, तस्य माला स्रक्, तद्वत्। **विविधेति—**विविधानां, नानाविधानां, रत्नानां खण्डैः, शकलैः, खचितं, घटितं, तेन, शङ्खः, कम्वुः, क्षीरं, दुग्धं, तस्य यः फेनचयः, डिण्डोर निचयः, तद्वत्, पाण्डुरं, श्वेतं, तेन, क्षीरोदेनेव, क्षीरोदरागेणेव, (लक्ष्मी जनकेत्यर्थः) स्वयं, लक्ष्मीं, रमां, दातुमागतेन, प्राप्तेन, गगनगतेन, आकाशस्थितेन, आतपत्रेण, छत्रेण, कृतच्छायम्, कृता छाया, अनातपं (आतप निवारणमित्यर्थः) कान्तिश्च, यस्य तं। अच्छाच्छेन, स्वछेन, आभरणद्युतीनां,भूषणप्रभाणाम्, निवहेन, समूहेन, दर्शनानुरागलग्नेन, दर्शने, अवलोकने, यः अनुरागः, प्रेम, तेन लग्नं, आसक्तं, तेन दिशां चक्र वालेन, मण्डलेन, अनुगम्यमानं, अनुसृतं, आ नितम्बं, नितन्बपर्यन्तं, बिलम्बिन्याः, लम्बमानायाः, मालतीशेखरस्रजा, मालतीलतायाः यत् शेखरं, पुष्पं, तेन रचितया शिरोमालया, सकलानां, सर्वेषां, भुवनानां, (भूःभुवःस्वः स्वरूपाणां) विजयाय, जेतुं, अर्जितया, एकत्रितया ( प्राप्तयाइत्यर्थः) रूपपताकेव, सौन्दर्य वैजय-

ताकयेव विराजमानम्, समुत्सर्पिभिः शिखण्डकपद्मरागमणेररुणैरंशुजालैरदृश्य मानवनदेवताविधृतैर्वालपल्लवैरिव प्रमृज्यमानमार्गरेणुपरुषवपुषम्, बकुलकुड्मलमण्डलीमुण्डमाला मण्डनमनोहरेण कुटिलकुन्तलस्त बकमालिना मौलिना मीलितातपं पिबन्तमिव दिवसम्, पशुपतिजटामुकुटमृगाङ्क द्वितीयशकलघटितस्येव, सहजलक्ष्मीसमालिङ्गि तस्य ललाटपट्टस्य मनः शिलापङ्कपिङ्गलेन लावण्येन लिम्पन्तमि-

न्त्येव,विराजमानम,शोभितम, समुत्सर्पिभिः समुद्गच्छद्धिः, शिखण्डकपद्मरागमणेः, शिखंडकं,शिरोभूषण, यः पद्मरागमणिःतदाख्यमणिः(रत्नं) तस्य, अरूणैः. रक्तैः, अंशुजालैः किरणनिचयैः। **अदृश्यमानेति—**अदृश्यमानया, अदर्शनया, वनदेवतया, वनाधिष्ठात्र्यादेव्या, विधृताः, धारिताः, तैः, वालपल्लवैरिव, नवकिसलयैरिव, प्रसृज्यमानंं मार्गरेणुं, प्रसृज्यमानाः अपनीयमानाः, मार्गरेणवः, गमनादङ्गलग्नाधुलयः यस्ययतादृशं,अरुणवपुषं, रक्तशरीरं। **वकुलेति—**वकुल बुड्मलानां वकुलमुकुलानां,मण्डली,माला इव, मुण्डमाला, रुण्डमाला, तया मण्डनं, शोभा, तेन, मनोहरेण। **कुटिलेति—**कुटिलः,भङ्गिमान् यः कुन्तलानां कचानां स्तवकः गुच्छः तेषां माला, समूहः, तद्वता, मौलिना,किराटेन (शिरोभूषणे नेतिभावः) मीलितातपं, दूरीकृतघर्म्मं(किरीट प्रभावादित्यर्थः) दिवसं, दिनं, पिवेतमिव, पानंकृतवंतमिव। **पशुपतीति—**पशुपतेः शङ्करस्य जटासु, यत्, मुकुटं, शिरोभूषणभूतं, यः मृगाङ्कः, अर्द्धचन्द्रः, तस्य द्वितीयं, अन्यं शकलं,खण्डं, तेन, घटितस्येव,रचितस्येव, (अर्द्धचन्द्राकृतेरित्यर्थः) **सहजेति—**सहजा, नैसर्गिकी, या लक्ष्मीः, शोभा, यद्वा, सहजा, सहोत्पन्ना, या लक्ष्मीः, रमा, (अतिसौभाग्यत्वात्, श्रीः निरन्तर मेवसहोदर प्रेम्णा नावसदितिभावः) तया समालिङ्गितः, युक्तः, तस्यललाट पट्टस्यमस्तकप्रदेशस्य। **मनः शिलेति—**मनःशिलाःरक्तवर्णः, (मैनसिलधातुविशेषः) तस्य पङ्कः, द्रवः, तद्वत्, पिङ्गलः, गौर-

वान्तरिक्षम्, अभिनवयौवनारम्भावष्टम्भप्रगल्भदृष्टिपाततृणीकृतत्रिभुवनस्य चक्षुषः प्रथिम्ना, विकच कुमुदकुवलय कमलसरः सहस्र संछादितदशदिशं शरदमिव प्रवर्तयन्तम्, आयतनयननदीसीमान्तसेतुबन्धेन, ललाटतट शशिमणि शिलातलगलितेन कान्तिसलिलस्रोतसेवद्राघीयसा घोणावंशेन शोभमानम्, अतिसुरभिसहकारकर्पूर कल्लोललवङ्ग पारिजातक परिमलमुचा, मत्तमधुकर कुलकोलाहल स्वरेण मुखेन सनन्दनवनं वसन्तमिववसन्तम्, आसन्नसुहृत्परिहास-

वर्णः, तेन लावण्येन, सौन्दर्येण, लिम्पन्तीमिव, लपन कुर्वन्तमिव, अन्तरिक्षं, दिग्भागम्। **अभिनवेनि—**अभिनवस्य, नूतनस्य, यौवनारम्भे, यः, अवष्टम्भः, गर्वः, तेनप्रगल्भः, चतुरः, यः, दृष्टिपातः, अवलोकनं, तेनतृणी कृतं, तुच्छतांनीतं, त्रिभुवनं, त्रिलोकं, येन, तथोक्तस्य, चक्षुषः, नेत्रस्य, प्रथिम्ना, विस्तारेण। **विकचेति—**विक्रचनां, विकसितानां, कुवलयानां, नीलोत्पलानां, कुमुदानां, कमलानां च, सरः सहस्रैः, सरोवरसंघैः, संछदिता, दशदिशो येन, तथाभूतेन, शरदमिव, शरत्कालमिवप्रवर्तयन्तम्, प्रकटयन्तं। **आयतेति—**आयते, विशाले, नयने, नेत्रे, एव नयो, तपोः, सीमान्तेषु, प्रान्तभागेषु, “यःसेतुबंधः, पुलनिर्माणं, तेन। **ललाटेति—**ललाटतटं, मस्तकं, एव शशिं मणिंशिलातलं, चन्द्र कान्त मणेः प्रस्तर तलं, तस्मात् गलितं, निःसृतं, तेन, कान्तिसलिल स्रोतसेव, सौन्दर्यजल प्रवाहेणेव, द्राघीयसा, अतिदीर्घेण, घोणा वंशेन, नासादण्डेन, शोभमानम्। **अतिसुरभीति—**अतिसुरभिः, अतिशयेन सुगंधवत्, अतएव, सहकारः, आम्रः, कपूरं, कल्लोलकं, लवङ्ग (लौंग) पारिजातं, तेषां पुष्पविशेषाणां, परिमलं, सुगधं, मुञ्चतीतिपरिगल मुचा, तेन। मत्तानां, मधुकराणां, षट्पदानां, कोलाहलं, शब्दं, तेन मुखरं, सशब्दं, एवं भूतेन, मुखेन, सनन्दन वनं, नन्दन काननं, वसन्तमिव, ऋतुमिव, वसन्तं, तिष्ठंतं। **आसन्नेति—**आसन्नेन, पार्श्ववर्तिना, सुहृदा, मित्रेण, यः परिहासः,

भावनोत्तानित मुखमुग्धहसितैर्दशनज्योत्स्नास्नपितदिङ्मुखैः पुनःपुनर्नभसि सञ्चारिणं चन्द्रालोकमिव कल्पयन्तम्, कदम्बमुकुल स्थूलमुक्ताफल युगलमध्याध्यासितमरकतस्य त्रिकण्टककर्णाभरणस्य प्रेङ्खतः प्रभया समुत्सर्पन्त्या सकुसुमहरित कुन्दपल्लव कर्णावतंसमिवोपलक्ष्यमाणम्आमोदितमृगमदपङ्कलिखितपत्र भङ्ग भास्वरम्, भुजयुगलमुद्दाममकराक्रान्त शिखरमिव मकरकेतुदण्डद्वयं दधानम्, धवलब्रह्मसूत्र

हास्यं, तस्य भावना, भावावबोधः, तस्मिन्, उत्तानितं, उन्ननितं, यत्, मुखं, आननं, तस्य मुग्धानि, मनोज्ञानि, ‘यानि, हसितानि, स्मितानि, तैः। **दशनेति—**दशनानां, दन्तानां, ज्योत्स्नया, कान्त्या, स्नपितानि, धौतानि, दिङ्मुखानि, दिग्भागानि, येषु तथाभूतैः। पुनः पुनः, बारं बारं, नभसि, आकाशे संचारिणं, प्रयटनशीलं, चन्द्रालोकमिव, शशिकिरण शुभ्रत्वमिव, कल्पयन्तं, विस्तारयन्तं। **कदम्बेति—**कदम्बमुकुलवत्, स्थूलं, पीनं, यन, मुक्ताफलं युगलं, मौक्तिकयुग्मं, तस्य मध्ये, अध्याश्रितं, आश्रितं, मरकतं, तन्नामरत्नं, यस्य, यत्र वा, तथोक्तस्य, त्रिकण्टककर्णाभरणस्य, त्रीणि, कण्टकानि, (कण्टक सदृश्यः, शलाकाः, इति भावः) यत्र तादृशं, यत्, कर्णाभरणं, कर्णभूषणं, तस्य प्रेङ्खतः, दीप्यमानस्य, प्रकम्पतोवा, समुत्सर्पन्त्या, समुद्गच्छन्त्या, स कुसुमं, पुष्पसहितं हरितं, हरिद्वर्णं, कुन्दपल्लवं, कुन्दाख्य वृक्ष पत्रं, तदेव, कर्णावतंसं, कर्णाभूषणं, तमिव, उपलक्ष्यमाणम्, प्रतीयमानं,**आमोदीति—**आमोदी, सौरभवान्, यः, मृगमदपङ्कः, कस्तुरिकारसः, तेन लिखितः, चित्रितः, यो पत्रभङ्गः, पत्ररचना, तेन भास्वरं, दीप्यमानम्। **उद्दामेति—**उद्दामेन, उद्भटेन, मकरेण, (बाहुस्थितमकाराकार, मांस पिण्ड विशेषः) तेन, आक्रान्तं, व्याप्तं, (अधिष्ठितं) शिखरं, अग्रभागं, यस्य, तादृशं, भुजयुगलं, वाहुयुग्मं, मकरकेतुदण्डद्वयं, मन्मथदण्डयुगलम्, दधानं, धारयंतम्। **धवलेति—**लवलेन, सितेन, ब्रह्मसूत्रेण, यज्ञोपवीतेन,

सीमन्तितं सागरमथनसामर्षगङ्गास्रोतः संदानितमिव मन्दरंदेहमुद्वहन्तम्, कर्पूरक्षोदमुष्टिच्छुरणपांशुलेनेव कान्तोच्चकुच-चक्रवाकयुगलविपुलपुलिनेनोरःस्थलेनस्थूलभुजायामपुञ्जितम्, पुरो विस्तारयन्तमिव दिक्चक्रम्, पुरस्तादीषदधोनाभि-निहितैककोणकमनीयेन पृष्ठतः कक्ष्याधिक्षिप्तपल्लवेनोभयतसंवलनप्रकटितोरुविभागेनहारीत-हरितानिबिड़निपीडितेना-धरवाससाविभक्ततनुतर मध्यभागम्, अनवरतश्रमोप-

सीमन्तितं, सन्नद्धम्। **सागरेति—**सागरस्य, समुद्रस्य, मथनेन, सामर्षा, सकोपा, (पतिद्वेषादित्यर्थः) या गङ्गा, भागीरथी, तस्याः, स्रोतसा, प्रवाहेण, सन्दानितमिव, बद्धमिव, मन्दरं, मन्दराचलम्, इव, देहं, शरीरं, उद्वहंतम्। **कर्पूरेति—**कपूरस्य, क्षोदः, चूर्णं, तस्य मुष्टिः, (मुष्टिनिहित कर्पूरामतिभावः) तस्य च्छ्रुरणं, लेपनं, तेन, पांशुलं, शुभ्रं, तेन। **कान्तेति—**कान्तायाः, स्त्रियाः, उच्च कुचावेव, स्तनौ, एव, चक्रवाकयुगलं, चक्रवाकमिथुनं, तस्य विपुलं, वृहत् पुलिनं, सैकतं, तेनेव, उरःस्थलेन, वक्षःस्थलेन। **स्थूलेति—**स्थूलेन, पीनेन भुजयोः, आयामेन, विस्तारेण, पुञ्जितं, समाहृतं, दिक्चक्रं, दिङ्मण्डलं, पुरः, अग्रे, विस्तारयन्तमिव, प्रसारयन्तमिव। **अधोनाभीति—**नामेरधः अधोनाभिः, तत्र, निहितः, स्थापितः, एकः, कोणः, अंशः, तेन, कमनीयं, लावण्यमयं, तेन पृष्टतः, पश्चात्। **कक्ष्येति—**कक्ष्यायाः, काञ्च्याः, “कक्ष्या वृहतिकायां स्यात् काञ्च्यां मध्येभबन्धने” इति मेदिनी” अधिक्षिप्तः, वद्धः, पल्लवः, प्रान्तभागो यस्य तेन, उभयतः, उभयोः, भागयोः, संवलनेन, सङ्कोचनेन, प्रकटितः, प्रकाशितः, उर्वोर्विभागः, येन, तथाभूतेन, (ऊरुशब्दोऽत्र पाद मात्राभिव्यञ्जकः) हारीत हरिता, हारितः, पक्षिविशेषः, तद्वत् हरिद्वर्णं तेन, निविड़ निपीड़ितेन, सुदृढ़निबद्धेन, अधर वाससा, परिधानवस्त्रेण, विभक्तः, प्रकटितः (विभाजितो वा) तनुतरः, अतिकृशः, मध्यभागः, कटिप्रदेशः, यस्य, तम्। **अनवरतेति—**अनवरतं, निरन्तरं, कृतः, यः, श्रमः

चितमांसकठिनविकटमकरमुखसंलग्नजानुभ्यां विशालवक्षःस्थलोपलवेदिकोत्तम्भन शिलास्तम्भाभ्यां चारुचन्दनस्था-सकस्थूलकान्तिभ्यामुरुदण्डाभ्यामुपहसन्तमिवैरावतकरायामम्, अतिभरितोरुभारवहनखेदेनेवतनुतरजङ्घाकाण्डं, कल्पपादपपल्लवपाटलस्योभयपार्श्वावलम्बिनः पादद्वयस्य दोलायमानैर्नखमयूखैरश्वमण्डनचामरमालामिव रचयन्तम्, अभिमुखमुच्चैरुदञ्चद्भिरतिचिरमुपरिविश्राम्यद्भिरिव वलितविकटम्,पत-

व्यायामः, तेन, उपचितं, प्रवृद्धं, यत्, मांसं, तेन, कठिनं, दृढं, विकटं, बृहत्, मकरमुखं, जानुनोरुपरि प्रदेशं, तेन, संयते, संलग्ने, जानुनी, ययोः, ताभ्याम्। **विशालेति—**विशालं, बृहत्, यत्, वक्षःस्थलं, उरुतटं, तदेव उपलवेदिका, प्रस्तररचितवेदिका, तस्याः, उत्तम्भनाय, धारणाय, शिला स्तम्भौ, पाषाण स्तम्भौ, (तत्स्वरूपावितिभावः) ताभ्याम्। **चार्विति—**चारूणा, लावण्यवता, चन्दनस्थासकेन, विन्यस्तमलयजेन, स्थूला, अतिशया, कान्तिः, प्रभा, ययोः, ताभ्यां, उरूदण्डाभ्यां जङ्घाप्रदेशाभ्यां ऐरावत कराऽऽयामम्। इन्द्र वारण शुण्डादण्ड विस्तारम्, उपहसन्तमिव, हास्यं कुर्वन्निव। **अतिभरितेति—**अति, अत्यर्थं, भरितयोः, पूरितयोः, उर्वोः, भारस्य, वहनेन, धारणेन, यः खेदः, परिश्रमः, तेनेव, तनुतरः, अतिकृशः, जङ्घाकाण्डः, जानू, अधोभागः, यस्य तं। **कल्पपादपेति—**कल्पपादपस्य, कल्पतरोः, पल्लवः,किसलयः, तद्वत्, पाटलं, ईषद्रक्तं तस्य, उभयपार्श्वाविलम्बिनः, उभयोः, द्वयोः, पार्श्वयोः, पार्श्वभागयोः, आलम्व्यते, इतितादृशस्य, पादद्वयस्य, पादयुगलस्य, दोलायमानैः, प्रक्रम्यमानैः, नखमयूखैः, नखकिरणैः। **अश्वेति—**अश्वस्य, तुरगस्य, (स्व वाहनस्येति भावः) मंडनं अलंकरणं, चामरमाला, तामिव, रचयन्तम्, कुर्वन्तम्। **अभिमुखेति—**अभिमुखं, सम्मुखं, उच्चैः, उदञ्चद्भिः, उत्पतद्भिः, अतिचिरं, अतिसमयं, विश्राम्यद्भिरिव, विश्रामं कुर्वद्भिरिव, बलितं, गतिविशेषः, तेन, विकटं, उद्भटंयथा स्यात्तथा पतद्भिः, उच्च-

द्भिः खुरैः खण्डितभुवि प्रतिक्षणदशनविमुक्तखणखणायितखरखलीने दीर्घघ्राणलीनलालिकेललाटलुलितचारुचामीकर-चक्रकेशिञ्जानशातकौम्भजयनशोभिनि मनोरंहसि गोलाङ्गूलकपोलकालकायलोम्नि नीलसिन्धुवारवर्णे वाजिनीसमारूढम्, उभयतः पर्याणपट्टश्लिष्टहस्ताभ्यामासन्नपरिचारकाभ्यां दोधूयमानधवलचामरिकायुगलम्, अग्रतः पठतो

लद्भिः, खुरैः, शफैः, खण्डितभुवि, खण्डिता, खण्डशः कृता, (उत्पाटितेतिभावः) भूः, पृथ्वी, येन, तादृशेन, प्रतिक्षणं, वारम्बारं, दर्शनैः, दन्तैः, विमुक्तः, अपसारितः, तेन खणखणायितः, खणखणशब्दवत्, कृतः, खरः, कर्कशः, खलीनः, कविका (चर्वितेतिभावः) येन तथाभूते। **दीर्घेति—**दीर्घायां, बृहत्यां, घ्राणायां, नासिकायां, लीनः, लग्नः, लालिकः, कविकाशेखरं यस्य तादृशे, ललाटे, मस्तके, लुलितं, चञ्चलितं, (वेगेनेतिभावः) चारुः, सुन्दरं, यत्, चामीकरचक्रं, सुवर्णवलयं, यस्य, तथोक्ते। **शिञ्जानेति—**शिञ्जानं, यत्, शातकौम्भजयनं, “जयनं स्यात्तुरङ्गादि सन्नाहे” इति मेदिनी” स्वर्ण रचित अश्ववर्म, तेन शोभिते, मनोरंहसिः, मन इव रंह, वेगः, यस्य तादृशे। **गोलाङ्‌गूलेति—**गोलांगुलः, कृष्णमुखवानरः, (लंगूर इति प्रसिद्धः) तस्य कपोलवत्, गण्डप्रदेशवत्, कालाः, कृष्णवर्णाः, कायलोमानि, शरीररोमाणि, यस्य तादृशं। **नीलेति—**नीलं, यत्, सिन्धुवारं, तदाख्य पुष्पं, तस्येव वर्णो, यस्य तथाभूते। वाजिनि, अश्वे, समारुढम्, स्थितं, **उभयतेति—**उभयतः (उभयोः पार्श्वयोरित्यर्थः) **पर्याणेति—**पर्याणपट्टः, अश्वपृष्ठस्थितासनः, तस्मिन्, आश्लिष्टः, संयतः, हस्तः, (वामकरः, इति भावः,) याभ्यां, तथोक्ताभ्यां,आसन्नपरिचारकाभ्यां, पार्श्ववर्तिभ्यां, दोधूयमानं, वीाज्यमानं, धवलं, शुभ्रं, चामरिकायुगलम्, चामरयुग्मम्। अग्रतः, पुरस्तात्, पठतः, पठनशीलस्य, वन्दिनः, स्तुतिपाठकस्य, सुभाषितेन, सुभाषणेन, अकण्टकिते, रोमाञ्चिते, कपोलफलके, गण्डतटे, यत्र

वन्दिनः सुभाषितमुत्कण्टकितकपोलफलकेन लग्नकर्णोत्पलकेसरपक्ष्मशकलेनेव मुखशशिना भावयन्तम्,अनङ्गयुगावतारमिव दर्शयन्तम्, चन्द्रमयीमिव सृष्टिमुत्पादयन्तम्, विलासप्रायमिव जीवलोकं जनयन्तम्, अनुरागमयमिव सर्गान्तमारचयन्तम्, शृङ्गारमयमिव दिवसमापादयन्तम्, रागराज्यमिव प्रवर्तयन्तम्, आकर्षणाञ्जनमिव चक्षुषोः, वशीकरणमन्त्रमिव मनसः, स्वस्थावेशचूर्णमिवेन्द्रियाणाम्, असन्तोषमिव कौतुकस्य, सिद्धयोगमिव सौभाग्यस्य, पुनर्जन्मदिवसमिव मन्मथस्य,

तथाभूतेन। लग्नेति— लग्नानि, संसक्तानि, कर्णोत्पलस्य, कर्ण भूषणभूतस्य, कुमुदस्य, केसराणि किंजल्कानि, पक्ष्माणि, नेत्ररोमाणि (तेषां) शकलानि, खण्डानि, यस्मिन्, तेनेव, मुखशशिना, मुखचन्द्रेण, भावयन्तं. चिन्तयन्तं। **अनङ्गेति—**अनङ्गस्य, कामस्य, युगे, समये, अवतारः, अवतरणं, (जन्मग्रहणमितियावत्) तमिव, जीवलोकं, मर्त्यलोकं, दर्शयन्नं, चन्द्रमयीमिव, चन्द्रप्रायमिव, सृष्टिं, सर्गं, उत्पादयन्तम्। विलासप्रायमिव, कामोद्भवानन्दमिव, जीवलोकं, जनयन्तम्। अनुरागमिव, प्रेमातिशयमिव, मार्गान्तरं, पन्थानं, तद्भागं च, आनयंतं, प्रापयन्तम्। शृंगारमयमिव, शृगाराख्यरसमिव, दिवसं, दिनं, आपादयन्तम्, कुर्वन्तम्। रागराज्यमिव, रागः, स्नेहः, तस्य राज्यमिव, एकाधियत्यमिव, प्रवर्तयन्तम्। आकर्षणाञ्जनमिव, वशीकरणकज्जलमिव, चक्षुषोः, नेत्रयोः, मनसः, चित्तस्य, वशीकरणमंत्रमिव, वशीकर्तुं मंत्रप्रयोगमिव, इन्द्रियाणां, ज्ञानकर्मेन्द्रियाणां, (चक्षुरादीनामित्यर्थः) स्वस्थावेशचूर्णमिव, (स्वस्य यथास्योत्तथा आवेशयतीति तथाभूतं) चूर्णं, वशीकरणद्रव्यं, तदिव। असंतोषमिव, अतृप्तिभिव,कौतुकस्य, आश्चर्यस्य। सौभाग्यस्य, सौजन्यतायाः, सिद्धयोगमिव, सिध्यै, (कार्याणामित्यर्थः) योगः, उपायः, तमिव। मन्मथस्य, कामस्य, पुनर्जन्म दिवसमिव, अपरजन्मदिनमिव। यौवनस्य, रसायनमिव, औषधमिव, (गुणान्तराधानमित्यर्थः)

रसायनमिव यौवनस्य, एकाराज्यमिव रामणीयकस्य, कीर्तिस्तम्भमिव रूपस्य, मूलकोशमिव लावण्यस्य, पुण्यकर्मपरिणाममिव संसारस्य, प्रथमाङ्करमिव कान्तिलतायाः, सर्गाभ्यासफलमिव प्रजापतेः, प्रतापमिव विभ्रमस्य, यशःप्रवाहमिव वैदग्धयस्य, अष्टादशवर्षदेशीयं युवानमद्राक्षीत्।

पार्श्वे च तस्य द्वितीयमपरसंश्लिष्टतुरङ्गम्, परंप्रांशुमुत्तप्ततपनीय स्तम्भावदातं, परिणतवयसमपि व्यायामकठिनकायम्, नीचनखश्मश्रुकचम्, शुक्तिखलतिम्, ईषत्तुन्दिलम्, रोमशोरः स्थलम्,

रामणीयकम्य, सौन्दर्यस्य, एकराज्यमिय, अद्वितीयमिव। कीर्तिस्तम्भमिव, यशस्तम्भमिव, रूपस्य। मूलकोषमिव, प्रधाननिधिक्षेत्रमिव, लावण्यस्य, सौन्दर्यस्य, संसारस्य, प्रजायाः, पुण्यकर्मपरिणाममिव, पुण्यफलमिव, कान्ति लतायाः, प्रभावल्लर्याः, प्रथमाङ्कुरमिव, प्ररोहमिव, प्रजापतेः, ब्रह्मणः, सर्गाभ्यासफलमिव। सर्गस्ययत्करणं, निर्माणं, तत्र यः, अभ्यासः, (अभ्यसनमभ्यासः,) कर्मणि प्रौढत्वं तस्य यत् फलं, तमिव। विभ्रमस्य, विलासस्य, प्रतापमिव, कान्तिप्रवाहमिव। वैदग्ध्यस्य, नैपुण्यस्य, यशः प्रवाहमिव, यशसां, यत् प्रस्रवणं विस्तारं तमिव। अष्टादशवर्षदेशीयं, अष्टादशवर्षवयस्कं, युवानं, प्रौढ़ं, पुरुषं अद्राक्षीत्, अपश्यत्।

पार्श्वे च तस्य, (दधीचस्येत्यर्थः) द्वितीयं, अपरं, अन्यं, संश्लिष्टतुरङ्गम्, संसक्तं, (अश्वारूढमित्यर्थः) परं, अधिकं, प्रांशुं, उन्नतशरीरकमितियावत्। **उत्तप्तेति—**उत्तप्तं, प्रज्वलितं, यत्, तपनीयं सुवर्णं, तस्य स्तम्भवत्, स्थूणवत्, अवदातः, गौरवर्णः, तं, परिणतवयसमपि, परिणतम्, परिपाकतांगतम्, वयः, अवस्था, यस्य तं, तथाभूतमपि, (वृद्धमपीति यावत्) व्यायामेन, निरन्तरअङ्गप्रचालनपरिश्रमेण, काठिन्यतांप्राप्ताकाया, शरीरं, यस्य तं, नीचाः, निम्नाः, (लम्बमानाः, इति भावः) नखाः, श्मश्रवः, मुखबाला

अनुल्बणोदारवेशतया जरामपिविनयमिव शिक्षयन्तम्, गुणानपि गरिमाणमिवानयन्तम्, महानुभावतामपि शिष्यतामिवानयन्तम्, आचारस्याप्याचार्यमिवकुर्वाणम्, धवलक्षवारबाणधारिणम्, धौतदुकूलपट्टिकापरिवेष्टितमौलिं पुरुषम्।

** अथ स युवा पुरोयायिनां यथा दर्शनं प्रतिनिवृत्य विस्मयमानमनसांकथयतां पदातीनां सकाशादुपलभ्यदिव्याकृति, तत्कन्यायुगल-**

कचाः, केशाश्च यस्य, तं, तथाविधं, शुक्तिखलतिं, शुक्तिवत्, शंवृकवत्, खलतिं, खलवाटम्, ईषत्, किंचित्, तुन्दिलं, स्थूलोदरं, रौमशं, बहुलोमयुक्तं, उरःस्थलं, वक्षःस्थलं, यस्य तथाभूतं। **अनुल्बणेति—**अनुल्बणं, अनुत्कटः, (सौम्येतिभावः) उदारः, विशुद्धः, वेशो, (सौम्य वस्त्र परिधारणमित्यर्थः) यस्य, तस्य भावः तत्ता, तया, जरामपि, वृद्धत्वमपि, विनयमिव, अतिनम्रभावमिव, शिक्षयन्तं, (पाठयन्तमित्यर्थः) सौखमिव, गरिमाणमिव, गुणानपि, दाक्षिण्यादीनपि, गरिमाणं, गौख तां, आनयन्तं, प्रापयन्तं। महानुभावतामपि, उदारतां (महत्वतामितियावत्) शिष्यतां, छात्रतां, जनयन्तं, उत्पादयन्तं, आचारस्य, आचार्यकं, (अध्यापकत्वमित्यर्थः) कुर्वाणं, कुर्वन्तं, (विद्यानिपुणत्वादितिभावः) धवल वारबाणधारिणं, धवलं, सितं, यत् वारबाणं, (वारयतिदूरीकरोति बाणं शरमिति वारबाणं,) कवचं, तं, धारिण, **धौतेति—**धौतया, प्रक्षालितया, दुकूल पट्टिकया, वस्त्रखण्डिकया, परिवेष्टितः, परिश्लिष्टः, मौलिः, चूड़ा यस्य पुरुषं, ददर्शेतिशेषः।

**अथेति—**स युवा, पूर्वनिर्दिष्टस्तरूणः, पुरोयायिनां, अग्रगामिनां, यथादर्शनं, (पूर्वोक्तशिलातलेस्थितां, दृष्ट्वेत्यर्थः) प्रतिनिवृत्य, पुनरागत्य, विस्मयमानसां, विस्मयमानं, आश्वर्यान्वितं मनः, येषां तथोक्तानां, कथयतां, वदतां, पदातीनां, पदसैन्यचारिणां, सकाशात्, पार्श्वतः, उपलभ्य, ज्ञात्वा,

मुपजात कुतूहलः प्रतूर्णतुरगो दिदृक्षुस्तं लतामण्डपोद्देशमाजगाम। दूरादेव च तुरगादवततार। निवारितपरिजनश्च, तेन द्वितीयेन साधुनासह चरणाभ्यामेव सविनयमुपससर्प। कृतोपसंग्रहणौ तौ सावित्री समं सरस्वत्या किसलयासनदानादिना कुसुमफलार्घ्यावसानेन वनवासोचितेनातिथ्येन यथाक्रममुपजग्राह। आसीनयोश्च तयोरासीना नातिचिरमिव स्थित्वा तं द्वितीयं प्रवयसमुद्दिश्यावादीत्—“आर्य, सहजलज्जा धनस्य प्रमदाजनस्य प्रथमाभिभाषणमशालीनता, विशेषतो वनमृगीमु-

दिव्या, दर्शन योग्या, आकृतिः, मूर्तिः-एवंभूतंतत्कन्यायुगलम्, दृष्टकन्यायुग्मं, उपजातकुतूहलः, उपजातः, उत्पन्नः, कुतूहलः, (दर्शनाभिलाष इत्यर्थः) प्रतूर्णतुरगः, विद्रुताश्वः, दिदृक्षुः, द्रष्टुमिच्छु, तस्यपूर्ववर्णितस्य, लतामण्डपस्य, उद्देशं, प्रान्तभागं, आजगाम, आगतः, दूरादेव च, दूरतः, तुरगात्, अश्वात्, अवततार, निवारितपरिजनश्च, निवारितः, निषेधितः, परिजनः, पार्श्ववर्तीजनः येन तथाभूतः, तेन द्वितीयेन, अपरेण, साधुना सह वृद्धेनसार्धं, चरणाम्यामेव, पादाभ्यामेव, सविनयं, यथा स्यात्तथा, उपससर्प, अगमत्। (चरणाम्यामेवेत्यत्राति विनयं, सूच्यते) कृतोपसंग्रहणं, कृतं, विहितं, उपसंग्रहणं, सममानेनग्रहणं, प्रणामादिकं वा ययोः, तथाभूतौ। किसलयासन दानादिना, पल्लवनिर्मितआसनदानादिना, कुसुमफलार्ध्यावसानेन, कुसुमेन, पुष्पेण, फलेन च, यत् अर्घ्यं, अर्घ्यदानं (पूजनमित्यर्थः) तदेव, अवसानं, अन्तं, यस्य, तेन, वनवासोचितेन, वनवासयोग्येन, (नहिवनवासे नगर वस्तूनि लभ्यन्ते अतः) आतिथ्येन, अतिथिसत्कारेण, यथाक्रमं, यथानियमं, उपजग्राह, आदरं चक्रार (आदृत वतीतिभावः) आसीनयोः, उपविष्टयोः, तयोः, आसीना, स्थिताः, किंचिच्चिरं बिलम्व्य, तं द्वितीयं, प्रवयसं, स्थविरावस्थाकं, उद्दिस्य, उद्देश्यमभिनीय, अवादीत्, **सहजेति—**सहजा, स्वाभाविका, लज्जातद्एव धनं, यस्य एवं भूतस्य प्रमदाजनस्य, कुलस्त्रीजनस्य, प्रथमाभिभाषणं,

ग्धस्य कुलकुमारीजनस्य। केवलमियमालोकनकृतार्थाय चक्षुषे स्पृहयन्ती प्रेरयत्युदन्तश्रवणकुतूहलिनीश्रोत्रवृत्तिः। प्रथमदर्शने- चोपायनमिवोपनयति सज्जनः प्रणयम्। अप्रगल्भमपि जनं प्रभवता प्रश्रयेणार्पितं मनोमध्विव वाचालयति। अयत्नेनैवचातिनम्रेसाधौ धनुषीव गुणः परां कोटिमारोपयति विस्रम्भः। जनयन्ति च विस्मयमतिधीरधियामप्यदृष्टपूर्वा दृश्यमाना जगति स्रष्टुः सृष्ट्यतिशयाः। यतस्त्रिभुवनाभिभावि रूपमिद

प्रथमं, प्राक्, अभिभाषणं, आलापनं, अशालीना, धृष्टता, (चापल्यमितिः भावः) विशेषतः, प्रायेण, वनमृगीमुग्धस्य, वनस्यमृगी, हरिणी, तद्वत् मुग्धः, सरलः तस्य, (वनमृगी इत्यत्र जनसम्पर्क राहित्यं व्यज्यते) कुलकुमाराजनस्य, (प्रथमाभिभाषणता नौचित्यमेवेत्यर्थः) केवलं, इयं श्रोत्रवृत्तिः, श्रवणेन्द्रियव्यापारः, आलोकनेन दर्शनेन, (युवयोरितियावत्) कृतार्थाय, मनोरथसिध्यै, चक्षुषे, नयनाय, स्पृहयन्ती, स्पृहां कुर्वन्ती, (नेत्रवद् स्वयमपि कृतार्थतांगंतुमिच्छन्तीत्यर्थः) उदन्तस्य, वृत्तस्य, (युवयोरितिभावः) श्रवणे, श्रोत्रविषयी करणे, कुतूहलिनी, उत्पन्नकुतूहला, प्रेरयति, नियोजयति, (आलापयितुंमामिति शेषः) प्रथमं अपूर्वमित्यर्थः। दर्शनं, अवलोकनं, तस्मिन्, उपायनमिव, उपहारमिव, प्रणयं, स्नेहं, सज्जनः, साधुजनः, उपनयति, प्रकटयति। अप्रगल्भमपि, मुग्धमपि, जनं, प्रभवता, महता, प्रश्रयेण, विनयेन (विश्वासेनेत्यर्थः) अर्पितं, दत्तं, (सज्जनायत्तीकृतमितिभावः) मनः चित्तं, मधु इव, मद्यमिव, वाचालयति, वाचालं करोति। **अयत्नेति—**अयत्नेनैव, परिश्रमंविनैव, अतिनम्रेसाधौ, विनीतसाधुजने धनुषीव, कार्मुके इव, गुणः, विनयादि, (मौर्वीच,) परां कोटिं, परममुत्कर्षं, (धनुषः शिखाञ्च) आरोपयति, स्थापयति, विश्रम्भः, विश्वासः, अतिधीरधियां, अतिधोराधीः, बुद्धिर्येषां तथा विधानां, अदृष्टपूर्वाः, पूर्वमनवलोकिताः, दृश्यमानाः, दृष्टिपथं प्राप्ताः, स्रष्टः, विधातुः सृष्टिः, सर्गः, तस्याअतिशयाः,

मस्यमहानुभावस्य कुमारस्य। सौजन्यपरतन्त्रा चेयं देवानांप्रियस्यातिभद्रता कारयति कथां, न तु युवतिजन सहोत्था तरलता। तत्कथयागमनेनापुण्यभाक्कतमोविक्रमजृम्भित विरहव्यथयाशून्यतां नीतो देशः? क्व वा गन्तव्यम्? कस्यवायमपहृतहरहुङ्काराहङ्कारोऽपर इवानन्यजो युवा?

उत्कर्षाः (सर्वश्रेष्ठ वस्तूनीतिभावः) यतः, त्रिभुवनाभिभाविरूपमिदं, त्रिभुवनस्य, भूःभुवः स्वः, इत्यस्य, अभिभावितं, तिरस्कृतं, रूपं येन, तथोक्तस्य, महानुभावस्य (योग्यस्येत्यर्थः) कुमारस्य (दधीचस्येति) विस्मयं, आश्चर्यं, जनयन्ति, उत्पादयन्ति। **सौजन्येति—**सौजन्यस्य, सोभाग्यस्य, परतन्त्रा, पराधीना, इयं, देवानां, गीर्वाणाना, (पूज्यानामित्यर्थः) अतिभद्रता, शिष्टाचारः, (तवसमीपे इतिभावः) कथां कारयति, (वदतीत्यर्थः) (देवानांप्रियः, इति मूर्खे केचिद् व्याहरन्ति परं नात्र मूर्खशब्दवाचकोऽयं शब्दः प्रणयातिशय बोधकोयमत्र) युवतिजन सहोत्था, युवतिजनानां, प्रौढस्त्रीणां, सहोत्था, नैसर्गिकी, तरलता, चाञ्चल्यं, न तु कथां कारयतीति पूर्वेणसम्बंधः। अथमुनिशापं विचिंत्य सरस्वत्याः, भर्तृयोग्यतां दधीचस्य च मनसिनिधाय परिचयं पृच्छति। **तत्कथयेति—**तत्, तस्मात्, कथय, वद, आगमनेन कतमोदेशः, अपुण्यभाक्, पुण्यरहितः, कृतः, विक्रमजृम्भितविरहव्यथया, विक्रमेण, वलेन, जृम्भिता, उद्दीपिता, या बिरहव्यथा, वियोगपीड़ा, (युवयोरिर्थः) तया, शून्यतांनीतः (यस्मादेशाद्भवन्तावागतौसंदेशः सां प्रतं युवयोः विच्छेदेनातितरं दुःखमनुभवति एतदेव तस्यापुण्यभाक्त्वमित्यर्थः) क्ववा गमनं युवयोः कस्येति—(कस्यापत्यमित्यर्थः,) **अपहृतेति—**अपहृतः, नाशितः, हरस्य, शिवस्य, हूङ्काराहङ्कारः, गर्वः, येन, तथाभूतः (हर क्रोधानलेनादग्धइत्यर्थः,) अनन्यजः, नास्ति अन्यस्माज्जन्म यस्यसोऽनन्यजः,आत्मभूः, कामः, एवं भूतोऽयं युवा, तरूणः, कस्येति पूर्वेणान्वयः। किन्नाम्नः, किं नामाभिधेयस्य, समृद्धः, प्रवृद्धः, तपः, यस्य, पितुः (पातिरक्षतीति पिता)

किं नाम्नःसमृद्वतपसः पितुरयममृतवर्षी कौस्तुभमणिरिवहरेर्हृदयमाह्लादयति? का चास्य त्रिभुवननमस्या प्रभातसध्येव महतस्तेजेसोजननी? कानि वास्य पुण्यभाञ्जि भजन्त्यभिख्यामक्षराणि? आर्यपरिज्ञानेऽप्ययमेव क्रमः कौतुकानुरोधिनो- हृदयस्य’इत्युक्तवत्यां तस्यां प्रकटितप्रश्रयोऽसौ प्रतिव्याजहार “आयुष्मति, सतां हि प्रियंवदता कुलविद्या। न केवलमाननं हृदयमपि च ते चन्द्रमयमिव सुधाशीतलैरानन्दयति वचोभिः। सौजन्य जन्मभूमयो भूयसाशूभेन सज्जननिर्माणशि-

तस्य अमृतवर्षी, अमृतं, पीयूषं, वर्धति, सिञ्चतीति, अमृतवर्षी, कौस्तुभमणिरिव, तदाख्यरत्नमिव, हरेः, विष्णोः, हृदयं, चित्तं, आह्लादयति, आनन्दयति, (यथा कौस्तुभमणिःहरेः, हृदयमानन्दयति, तथैवायमपिआनन्दयति जनानां चेतांसीत्यर्थः) (कौस्तुभमणेरमृतप्रस्रवणं प्रसिद्धम्) का चास्य (पुरोदृश्यमानस्येतिभावः) त्रिभुवननमस्या, त्रिलोकीपूज्या, प्रभातसंध्येव, प्रातःकालीनसंध्येव, महतस्तेजसः, समृद्धकान्तेः, जननी, माता (संध्या समये सर्वेऽपि प्राणिनः भगवद्स्मरणं कुर्वन्ति, अतः त्रिलोकीपुज्येतिभावः) तामिव। (उपमा) कानि वास्य, पुण्यभाञ्जिपुण्यवन्तीत्यर्थः। अभिख्यां, संज्ञां, भजन्ति, कथयन्तीत्यर्थः, अक्षराणि, वर्णाः, (किंनामधेयोयमितिभावः) आर्यपरिज्ञानेऽपि, अयं साधुरितिज्ञानेऽपि, कौतुकानुरोधिनः विशेषपरिचय कर्त्रेः, हृदयस्य, चित्तस्य, अयमेवक्रमः, नियमः (ज्ञानपरम्परा, इत्त्यर्थः) इत्युक्तवत्यां, एवं कथयन्त्यां, तस्यां, (सावित्र्यामित्यर्थः) प्रकटित प्रश्रयः, दर्शितसौजन्यः, असौ, प्रतिव्याजहार, प्रत्युत्तरमदात्। **सतामिति—**सतां, सज्जनानां, प्रियंवदता, मधुरभाषित्वं, कुलविद्या, वंशपरम्परागतकला, (नैसर्गिकीविद्येत्यर्थः) न केवलमाननं, मुखं,अपितु हृदयमपि, चित्तमपि, ते, चन्द्रमयमिव, शशित्वमिव, सुधाशीकर शीतलैः, अमृतबिन्दुवच्छिशिरैः, बचोभिः, वचनैः (मधुरालापैरित्यर्थः) आनन्दयति, प्रीणयति। **सौजन्येति—**सौजन्यस्य, सदाचारस्य, जन्मभूमयः,

ल्पकलाभावदृश्यो जायन्ते। दूरे तावदन्योन्यस्यालापनमभिजातैः सह दृशोऽपि मिश्रीभूतामहतीं भूमिमारोपयन्ति। श्रूयताम्अयं खलु भूषणंभार्गववंशस्य भगवतो भूर्भुवःस्वस्त्रितयतिलकस्य, अदभ्रप्रभावस्तम्भितजम्भारिभुजस्तम्भस्य, सुरासुरमुकुटमणिशिलाशयन दुर्ललितपादपङ्केरुहस्य, निजतेजः प्रसरप्लुष्टपुलोम्नस्च्यवनस्य वहिर्वृत्तिजीर्वितं

उत्पत्तिस्थानानि, भूयसा, वहुलेन, शुभेन, पुण्येन, सज्जननिर्माणे, रचेन, शिल्पकला, शिल्पविद्या, इव, भवादृश्यः, भवत् शदृशाः, जायन्ते, उत्पद्यन्ते। **दूरे-इति—**अन्योन्यस्य, परस्परस्य, (सज्जनानामितिशेषः) आलापनं, भाषणं, दूरे, तावत्, (तिष्ठन्त्वित्याध्याहार्यम्) अभिजातैः, सत्कुलोत्पन्नैः, सह, सार्धं, मिश्रीभूताः, संमिश्राः, दृशोऽपि, दृष्टयोऽपि, महतीं भूमिं, स्थानं, (स्वर्गमितियावत्) आरोपयन्ति, नयन्ति। अयं खलु, भूषणं, अलङ्कारणं, भार्गववंशस्य, भृगोरयं भार्गवः, तस्य, वंशं, कुलं, तस्य,। भगवतः, भूः, पृथिवी, भुवः, अन्तरीक्षं, स्वः, स्वर्गः, तेषां त्रितयं, तस्य तिलकं, शिरोभूषणं, तस्य। **अ‌दभ्रेति—**अदभ्रः, महान्, प्रभावः, तेनस्तम्भितः, रुद्धः, जम्भारेः (जम्भः तदाख्यः, असुरस्तस्यारिशत्रुः) इन्द्रः, तस्य, भुजएवस्तम्भः, येनतथोक्तस्य, (पुरा अश्विनी कुमाराभ्यां, यज्ञभागभुजौकरू, इति प्रार्थितोऽयं तथा ताभ्यांभागं ददत्, कुद्धेन इन्द्रेण रोषित, ततश्चास्यसव्रज्रहस्तः, स्तम्भितोऽभूदितिपुराणे अवधेयम्) **सुरासुरेति—**सुराणां देवानां, असुराणां, राक्षसानां, “च” मुकुटेषु, मौलिषु, यानि मणिशिलातलानि, रत्नप्रस्तराः, तेषु, शयनेन, दुर्ललितं, दुर्गम्यं, (अत्यादृतमितिभावः) पादपङ्केरुहं, चरणकमलं, यस्य, तथाभूतस्य, (सुरासुर वन्द्यस्येत्यर्थः) **निजेति—**निजानां, स्वकीयानां, तेजसां, प्रसरेण, विस्तारेण, प्लुष्टः,दग्धः, पुलोमा, तदाख्यराक्षसः, येन, तथाभूतस्य, (पुरा गर्भवतीभृगोः पत्नीपुलोम्नाराक्षसेन हृता, तदानीं गर्भस्थोऽसौ मुनिर्गर्भाच्चुच्योत, ततश्चान्वर्थनाम्ना

दधीचो नाम तनयः। जनन्यस्यजितजगतोऽनेकपार्थिवसहस्रानुयातस्य शर्यातस्य सुता राजपुत्री त्रिभुवनकन्या रत्नं सुकन्यानाम। तां खलु देवीमन्तर्वत्नीं विदित्वा वैजनने मासिप्रसवाय पिता पत्युः पार्श्वात्स्वगृहमानाययत्। असूत च, सा तत्र देवी दीर्घायुषमेनम्। अनेहसावर्धततत्रैवायमानन्दितज्ञातिवर्गो बालस्तारकराजइव राजीवलोचनो राजगृहे। भर्तृभवत मागच्छन्त्यामपि दुहितरिनासेचनक दर्शनमिमममुञ्जन्मातामहोमनोविनोदनं नप्तारम्। अशिक्षतायं तत्रैवसर्वाविद्याः सकलाश्च-

नेनच्यवनेन राक्षसादग्धः पुराणे अनुसंधेयाचैषावार्ता) च्यवनस्य, च्यवननाम्नःबहिः, बहिर्प्रदेशे, वृत्तिः, अवस्थानं यस्य तादृशं, जीवितं, जीवनाश्रयः, दधीचोनाम, तनयः, पुत्रः, जितजगतः, जगद्विजयिनः, अनेकानि, बहूनि, पार्थिवानां, नृपाणां, सहस्राणि, तैः, अनुयातः, अनुगम्यमानः, (सेवितइत्यर्थः) तस्यशर्य्यातस्य, तदाख्यराज्ञः, त्रिभुवनकन्यारत्नं, त्रिभुवने याः, कन्याः, तासु, रत्नभूता, सुकन्यानाम, सुकन्याभिधेया, अस्यजननी, माता। तांखलु, (सुकन्यामितियावत्) देवीं, अन्तर्वत्नीं, विदित्वा, ज्ञात्वा, वैजननेमासि, प्रसवाय, पिता, (शर्यातः) पत्युः, (च्यवनस्य) पार्श्वात्, स्वगृहं, स्ववेश्म, आनाययत्, अनेहसा, कालेन, आनन्दितः, ज्ञातिवर्गः, कुटुम्बिजनः, वालस्तारक राज इव, बालचन्द्रइव, राजीवलोचनः, कमलाक्षः, तत्रैव, राजगृहे, मातामहवेश्मनि, भर्तृभवनमागच्छन्त्यामपि मातरि, (च्यवनपार्श्वसमागतामपिसुकन्यामित्यर्थः) आसेचनकं, अतितृप्तिकरं, दर्शनं यस्य, तदासेचनकंतृप्तेर्नास्त्यन्तो यस्य दर्शने। तथाभूतं, मनोविनोदं, मनसः, आनन्दजनकं, इमं, मातामहः, शर्यातः, नप्तारं, दौहित्रं, (दुहिता दूरेहिता दोग्धेर्वा पितुः सकाशात्) न, अमुञ्चत्, न प्रेषितवानितिभावः। सर्वाविद्याः, सकलाः, सम्पूर्णाः, कलाः, चतुषष्ठयात्मकाः, तत्रैव, अशिक्षत, शिक्षांलेभे। **कालेति—**कालेन, समयेन, उपारुढयौवनं, जातयौवनं, इमं,

कलाः। कालेन चोपारूढ यौवनमिममालोक्याहमिवासावप्यनुभवतु मुख कमलावलोकनानन्दमस्येति मातामहः कथंकथमप्येनंपितुरन्तिकमधुना व्यसर्जयेत्। मामपि तस्यदेवस्य सुगृहीतनाम्नः शर्यातस्याज्ञाकारिणं विकुक्षिनामानं भृत्यपरमाणुमवधारयतु भवती। पितुः पादमूलमायान्तं मया साभिसारमकोरोत्स्वामी। तद्धि नः कुलक्रमागतं राजकुलम्। उत्तमानां च चिरंतनता जनयत्यनुजीविन्यपि जने कियन्मात्रमपि मन्दाक्षम्। अक्षीणः खलु दाक्षिण्यकोशो महताम्। इतश्चगव्यूति मात्रमिव पारेशोणं तस्य भगवतस्च्यवनस्य स्वना-

आलोक्य, दृष्ट्वा, आह, उवाच, अहमिव (मत्सदृशमित्यर्थः) असावपि, (अस्यपिताच्यवनोऽपि,) अस्य, मुखकमलावलोकनसुखं, मुखपद्मदर्शने यत्सुखं, आनन्दः, तं, अनुभवतु, नयतु। (इतिविचार्येतिभावः) मातामहः, शयतिः, कथंकथमपि, अतिकृछ्रेण, पितुरन्तिकं, पितुः पार्श्वगमनाय, अधुना, साम्प्रतं, एनं, व्यसर्जयत्, प्रेषितवान्। मामपि, तस्यदेवस्य, नृपतेः, सुगृहीतनाम्रः, सुगृहीतंनाम यस्य तथोक्तस्य, (प्रातः स्मरणीयस्येतिभावः) शर्यातस्य, तदाख्यस्य, आज्ञाकारिणं, सेवापरायणं, विकुक्षिनामधेयं, भृत्यपरमाणुं, क्षुद्रतरं किंकरं, भवती, अवधारयतु, जानातु। पितुः पादमूलं, पितुः पार्श्वं, आयान्तं, आगच्छन्तं, (एनमितिशेषः) मया साभिसारं, ससहायं, स्वामी, प्रभुः, अकरोत्। (आज्ञापयदित्यर्थः) **तद्धीति—**तत्राजकुलं नः, अस्माकं, कुलक्रमागतं, (वंश परम्परासेवितमित्यर्थः) हीति (निश्चयार्थः) उत्तमानां, सज्जनानां, चिरंतनता, (चिरानुगत्यमित्यर्थः) अनुजीविनि, सेवके कियन्मात्रमपि, अल्पमात्रमपि, मन्दाक्षं, लज्जां, (चिरकालसेवके महतांलज्जा जायते, इति मामनुजीविनमपि स्वदौहित्र सहचरं कृतवानित्यर्थः) खलु, निश्चयेन, महतां दाक्षिण्यकोशः, औदार्यनिधिः, अक्षीणः, (नक्षयंप्राप्नोतीत्यर्थः) (स्वदाक्षिण्यादेवंकृतवानितिभावः) इतश्च, अस्मात् स्थानात्, पारेशोणं, शोणस्य, नद-

म्नानिर्मितव्यपेदेशं च्यावनं नाम चैत्ररथकल्पं काननं निवासः। तदवधिरेवनौयात्रा। यदि चगृहीतक्षणं दाक्षिण्यमनवहेलं वा हृदयमस्माकमुपरि भूमिर्वा प्रसादानामयं जनः श्रवणार्होवाततो न विमाननीयोऽयं नः प्रथमः प्रणयः कुतूहलस्य। वयमपि शुश्रूषवो वृत्तान्तमायुष्मत्योः। नेयमाकृतिर्दिव्यतां व्यभिचरति। गोत्र नामनी तु श्रोतुमभिलषति नौ हृदयम्। तत्कथय कतमोवंशः स्पृहणीयतां जन्मना नीतः। का चेयमत्रभवती भवत्याः समीपे समवाय

स्य पारे इति पारेशोणम्, गव्यूतिमात्रं, कोशयुगं(इव) तदेवतन्मात्रं, तस्मिन्, तस्य भगवतः, स्वनाम्ना, निर्मितः कृतः, व्यपदेशः, संज्ञा यस्य तथोक्तं, चैत्ररथकल्पं, चैत्ररथं नाम कुवेरोद्यानं, (तत्सदृशमित्यर्थः) काननं, उद्यानं, तस्मिन्, निवासः, स्थितिः। नौ, आवयोः, यात्रा, गमनं, तदवधिरेव, तद्पर्यन्तमेव,**गृहीतेति—**गृहीतं, स्वीकृतं, क्षणदाक्षिण्यं, स्वल्पकालीन चातुर्यं, येन तथाभूतं, अनवहेलं, नास्ति अवहेला, अवज्ञा, (अपमानं) यस्य तादृशं, अस्माकंहृदयं प्रसादानां, अनुग्रहाणां, भूमिः, स्थानं, श्रवणार्हः, श्रोतुंयोग्यः, अयंजनः, न, विमाननीयः, अनादरणीयः, (नोपेक्षणीय इतिभावः) नः, अस्माकं, अयं, प्रथमः, आद्यः, प्रणयः, स्नेहः, कुतुहलस्य, कौतुकस्य, (श्रवणौत्सुक्यस्येत्यर्थः) आयुष्मत्योः, युवयोः, वृत्तान्तं, इतिवृत्तं, शुश्रूषवः, श्रोतुमिच्छावः। (वयमपि” इत्यत्र द्विवचनपदवाच्ये, आदरार्थंबहुवचनम् नाशङ्कनीयोऽयंदोषः) इयमाकृति, दिव्यतां, देवत्वमित्यर्थः, न व्यभिचरति, नातिक्रामति, (नहि एतादृशी आकृतिर्दिब्यतांविनाभवितुंशक्यते) गोत्रनामनी, गोत्रं, वंश प्रवर्तकं; नाम, अभिधेयं, च, श्रोतुं, कर्णविषयीकर्तुं, नौ, आवयोः, हृदयं, अभिलषति, इच्छति। तत्कथय, वद, कतमोवंशः, कुलं, जन्मना, जन्मग्रहणेन, स्पृहणीयतां, स्पर्धायोग्यतां, नीतः, (कस्मिन्कुले अस्या जन्म इतिभावः) इयं, पुरोदृश्यमानेत्यर्थः, अत्रभवती, पूज्या, भवत्याः, तव, समीपे, पार्श्वे, विरोधिनां, परस्पर विरु-

इव विरोधिनां पदार्थानाम्। तथाहि।संनिहितबालान्धकारा भास्वन्मूर्तिश्च, पुण्डरीकमुखी हरिणलोचना च, बालातपप्रभाधारा कुमुदहासिनीच, कलहंसस्वना समुन्नतपयोधरा च, कमलकोमलकरा हिम-

द्धानां, पदार्थानां, वस्तूनां, समवाय इव, नित्यसंबंधइव, का, (एषाइतिशेषः) तथाहि, तमेवार्थमवगच्छेत्यर्थः। सन्निहित बालान्धकारा, सन्निहिताः, बालाः, नवाः, अन्धकाराः, तमांसि, भास्वन्मूर्तिश्च, भास्वतः, सूर्यस्य, मूर्तिः, (सूर्यमूर्तिसकासे अन्धकाराः नसम्भाव्यंते, अतः–विरोधः) सन्निहिताः, सङ्गताः, बालाः, केशाः, अन्धकारा तमांसि, इव यस्याः सा, भास्वन्मूर्तिः, भास्वती, दीप्यमाना, मूर्तिर्यस्यास्तथोक्ता, इतिपरिहारः। पुण्डरीकमुखी, पुण्डरीकः, तदाख्यदिग्गजः, सिंहो वा, तस्येव, मुखं, यस्याः, हरिणलोचना च, हरिण इव, मृग इव, लोचने, वत्रे यस्याः, तथोक्ता, (या च व्याघ्रमुखी सा हरिणलोचनाकथं, इति विरोधः) पुण्डरीकं, श्वेतपद्मं तद्वद्‌मुखंयस्याः, तथाभूता, हरिणलोचनाच, (याहि कमलमुखी सातुहरिण लोचनाभवितुं शक्या एवेतिपरिहारः) **बालातपेति—**बालातपस्य, सूर्यस्य, प्रभां, धरतीति, तथोक्ता, कुमदहासिनी च, कुमुदवत् हासोविद्यतेयस्याः, तथाभूता, (यत्र हि वालातपः, तत्र कृमुद हसनं, नैवसंभवति तस्य रात्रौविकसनशीलत्वात् अतः विरोधः) बालातपः नवसूर्यालोकः, (ईषद्रक्तमित्यर्थः) तस्यप्रभेव, प्रभा, कान्तिः, यस्य तथाभूतः, अधरः, ओष्ठः, यस्याः, तथाभूता, इति परिहारः। **कलहंसेति—**कलः, मधुरः, हंसस्य, स्वनः, शब्दः, यस्याः, तथाभूता, सनुन्नतपयोधरा च, समुन्नताः, समुन्नद्धाः, पयोधराः, मेधाः, यस्यां तथोक्ता (प्रावृडित्यर्थः) (नहि प्रावृट् काले हंसानां स्वनःश्रूयते, यतः ते मानसं प्रयान्तितत्समये, अत-विरोधः) कलः, मधुरः, हंसस्येव, स्वनो यस्यास्तथोक्ता, समुन्नताः, प्रवृद्धाः, पयोधराः, स्तनाः, यस्यास्तथोक्ता, इतिपरिहारः। **कमलेति—**कमलं, पद्मं, तद् कोमलौ, करौ हस्तौ, यस्याः, तथोक्ता, हिमगिरेः, हिमालयस्य, शिलावत्, पृथुः,

गिरिशिलापृथुनितम्बा च, करभोरुर्विलम्बितगमना च, अमुक्तकुमारभावा स्निग्धतारका चइति। सा त्ववादीत्–आर्य, श्रोष्यसिकालेन। भूयसो दिवसानत्र स्थातुमभिलषति नौ हृदयम्। अल्पीयांश्चायमध्वा। परिचय एव प्रकटीकरिष्यति। आर्येण न विस्मरणीयोऽयमनुषङ्गदृष्टोजनः,इत्यभिधाय तूष्णीमभूत्। दधीचस्तु नवाम्भोभारगम्भीराम्भो

महान्, नितम्बः, कटकं, यस्याः, तथोक्ता, (याहि कोमलकरा साकथंहिमशिला पृथुनितम्बा तस्याश्चकाठिन्यत्वात् विरोधः। सादृश्यात्, यथाहिमगिरेः शिला प्रवृद्धाशुभाचभवति तथैवास्याः नितम्बमपिभाति, इतिपरिहारः। करभोरुः, करभस्य, उष्ट्रस्य, उरु इव उरुः-यस्याः तथाभूता, विलम्बितं, अतिमंदं, गमनं, यस्याः, तथोक्ता, (याउष्ट्रवद्गच्छति साकथंविलम्बितगमना इतिविरोधः) करभः, करप्रान्तभागः तद्वत्, उरुः, जङ्घायस्याः सा, (अतिकोमल जङ्घा अतएव विलम्बित गमना इति परिहारः। अमुक्तकुमारभावा, नमुक्तः, नत्यक्त, कुमार भावः, वाल्यं (शैशवमित्यर्थः) स्त्रिग्धतारका, स्निग्धा, स्नेह प्रकाशिका, (प्रणयप्रकाशिनीत्यर्थः) तारका, अक्ष्णःकनीनिका, यस्यास्तथोक्ता (यथा वालभावः नत्यक्तः सानहिजानातिप्रेमबंधनं, इतिविरोधः। कुमारे, कार्तिकेये, भावः, भक्तिर्यस्याः तथोक्ता, इति परिहारः। स्निग्धः, प्रेमपात्रं, तारकः, तन्नाम दैत्यः, (कुमार भक्तायाः कुमार शत्रुंप्रति स्नेहोविरूद्धः, इति पूर्वार्धेपरिहारः) इति, एवं, सातु, अवादीत्, अकथयत्। आर्य? कालेन, समयेन, श्रोष्यति, (अस्याः वृत्तमितियावत्) भूयसः, बहून्, दिवसान्, अत्र स्थातुं, नौ, आवयोः, हृदयं, अभिलषति, इच्छति। अल्पीयान्, अत्यल्पः, अध्वा, मार्गः, परिचयः, संस्तवः, प्रकटीकरिष्यति, प्रकाशयिष्यति। अनुषङ्गदृष्टः, अनुषङ्गेण, कार्यान्तर संलग्ने, दृष्टः, अवलोकितः, अयंजनः (सरस्वतीरूपः) आर्येण, भवता, नविस्मरणीयः, स्मृतिपथंनेयः, रावेतिभावः, इत्यभिधाय, इत्युक्ता, तूष्णीमभूत्, मौनं दधार। **नवाम्भोभारेति—**नवानां,

धरध्वाननिभया भारत्या नर्त्तयन्वनलताभवनभाजो भुजगभुजः सुधीरमुवाच आर्य, करिष्यति प्रसादमार्याराध्यमाना। पश्यामस्तावत्तातम्। उत्तिष्ठ, व्रजामः, इति। तथेति च तेनाभ्यनुज्ञातः शनकैरुत्थाय कृतनमस्कृतिरुच्चचाल। तुरगारूढं च तम्प्रयान्तं सरस्वती सुचिरमुत्तम्भितपक्ष्मणा निश्चलतारकेण लिखितेनेवचक्षुषा व्यलोकयत्। उत्तीर्य च शोणमचिरेणैवकालेन दधीचः पितुराश्रमपदं जगाम। गते च तस्मिन्सा तामेवदिशामालोकयन्तीसुचिरमतिष्ठत्। कृच्छ्रादिव च संजहार दृशम्,अथ मुहूर्तमिवस्थित्वा स्मृत्वा च तां तस्य रूपसंपदं पुनः

नूतनानां, (सद्यसञ्चितानाभित्यर्थः) अम्भसां, जलानां, भारेण, गम्भीरोयोऽम्मोधरध्वानः, पयोधरनादः, तन्निभया, तत्सदृशया, भारत्या, वाण्या, नर्तयन्, वनलताः, वल्लर्यः, एव, भवनानि, सद्मानि, भजन्ते, आश्रयन्ते, तथोक्तान् (भुजगान्, सर्पान्, भुञ्जते इति भुजगभुजः) तान्, मयूरान्। तैरिवयथास्यात्तथा, सुधीरं, धैर्यावष्टम्भपूर्वकं उवाच, अगादीत्। आर्य! आर्या, श्रेष्ठा, (एषा, इतिभावः) आराध्यमाना, सेव्यमाना, (सेवितेत्यर्थः) प्रसादं, अनुग्रहं, करिष्यति। पश्यामस्तावत्तात, पितरम्। उत्तिष्ठं, व्रजामः, गच्छामः। तथा, तेनप्रकारेण, तेनाभ्यनुज्ञातः, अनुमोदितः, शनकैः, शनैः, उत्थाय, कृतनमस्कृतिः, विहितनमस्कारः, उच्चचाल, प्रतस्थे। तुरगारुढं, अश्वारूढंचतं, प्रयान्तं, गच्छंतं, उत्तम्भितेन, निश्चलेन, पक्ष्मणा, निश्चलतारकेण, स्थिरकिनीनिकया, च, लिखितेनेव, चित्रितेनेव, चक्षुषा, नेत्रेण, सुचिरं, अतिसमयं, व्यलोकयत्, ददर्श। शोणमुत्तीर्य, शोणनदावतरणं विधाय, अचिरेणैव, सत्वरमेव, कालेन, समयेन, दधीचः, पितुराश्रमपदं, पितुः पादमूलं, जगाम, गतः। गते च तस्मिन्, (दधीचगमनानन्तरमित्यर्थः) सातामेवदेशं, तमेवदिग्भागं, आलोकयन्ती, पश्यन्ती, सुचिरं, बहुकालं, अतिष्ठत्, स्थितवती। कृछ्रात्, काठिन्येन, च, दृशं, दृष्टिम्, संजहार, न्यवर्तयत्।

पुनर्व्यस्मयतास्या हृदयम्। भूयोऽपि चक्षुराचकाङ्क्ष तद्दर्शनम्। अवशेव केनाप्यनीयत तामेव दिशं दृष्टिः। अप्रहितमपिमनस्तेनैव सार्धमगात्। अजायत च नव पल्लव इव बालवनलतायाः कुतोऽप्यस्या अनुरागश्चेतसि।सालसेव शून्येव सनिद्रेव दिवसमनयत्।

** अस्तमुपयाति च प्रत्यक्पर्यस्तमण्डले लाङ्गलिकास्तबकताम्रत्विषि कमलिनीकामुके कठोरसारसशिरः शोणशोचिषि सावित्रे त्रयीम-**

अथ, अस्मादनतरं, मुहूर्तमिव स्थित्वा, अल्पकालंस्थित्वा, तां, तस्य (दधीचस्येतियावत्) रूपसंपदं, रूपनिधिं(लावण्यमित्यर्थः) स्मृत्वा, च, स्मरणं विधाय, पुनः पुनः, वारं वारं, अस्याहृदयं, चित्तं, व्यस्मयत, विस्मयमगच्छत् भूयोऽपि, पुनरपि, चक्षुः, नेत्रं, तद्दर्शनं, आचकाङ्क्ष, ऐच्छत। **अवशेति—**अवशेव, पराधीनेव, केनापि, केनचिदपि, तामेवदिशं, दिग्भागं, दृष्टिः, अनीयत, नीयते, **अप्रहितेति—**अप्रहितमपि, अप्रेरितमपि (अनियुक्तमपीत्यर्थः) मनः, च्चितं, तेनैवसार्धं, (दधीचेनसहेत्यर्थः) अगात्, अगमत्। बाल वनलतायाः, वनवल्लर्याः, कुतोऽपि, नवपल्लव इव, नूतनपत्र इव, अस्याः (सरस्वत्या इतियावन्) चेतसि, मनसि, अनुरागः, स्नेहः, अजायत, उत्पन्नः, शून्येव, रिक्तेव, सालसेव, आलस्ययुक्तेव, सनिद्रेव, निद्रितेव, दिवसं, दिनं, अनयत्, अत्यवाहयत्।

अस्तमुपयाति, अस्तंगच्छति, प्रत्यक्पर्यस्तमंडले, प्रतीच्यां, पश्चिमायांदिशि, पर्यस्तं, पतितं, मंडलं, यस्य तथाभूते। लाङ्गलिका, औषधविशेषः, तस्याः, यत्, स्तबकं, गुच्छं, तद्वत्, ताम्नाः, रक्तवर्णाः, त्विषः, प्रभाः, यस्य तथाभूते। कमलिनीकामुके, (विकाशशीलेत्यर्थः) **कठोरेति—**कठोरः, कठिनः, (वृद्धत्वमुपगत इत्यर्थः) यः सारसः, पक्षिविशेषः, तस्यशिरइव, शोणा, रक्तवर्णा, शोचि, कान्तिः, यस्य, एवंभूते, सावित्रे, सवितुरिदं सावित्रं, तस्मिन् (सूर्ये) त्रयीमये, (ऋग्यजुः सास्नांत्रितयं त्रयी) तदात्मके, तेजसि,

येतेजसि, तरुणतर तमालश्यामले च मलिनयतिव्योमव्योमव्यापिनि तिमिरसंचये, संचरत्सिद्धसुन्दरी नूपुररवानुसारिणि च मन्दंमन्दंमन्दाकिनीहंसइव समुत्सर्पति शशिनि गगनतलम्,कृतसंध्याप्रणामानिशामुख एव निपत्य विमुक्ताङ्गी पल्लवशयने तस्थौ। सावित्र्यपि कृत्वा यथाक्रियमाणं सायंतनं क्रियाकलापमुचिते शयनकाले किसलयशयनमभजत। जातिनिद्रा च सुष्वाप।

** इतरा तु मुहुर्मुहुरङ्गवलनैर्विलुलित किसलयशयनतला निमीलित-**

(प्रभायुक्ते इत्यर्थः) **तरूणेति—**तरूणतरः, नूतनः, तमालः, तदाख्यवृक्षः, तद्वत्, श्यामलः, ईषन्नीलवर्णः, तस्मिन्, व्योम, आकाशं, मलिनयति, मलिनतांनयति, व्योमव्यापिनि, आकाशमाच्छादिनि, तिमिरसंचये, अन्धकारपटले **सञ्चरदिति—**सञ्चरन्तीनां, इतस्ततः गच्छन्तीनां, सिद्धसुन्दरीणां, सिद्धस्त्रीणां, नूपुररववत्, अलङ्कारशब्दवत्, अनुसरति, अनुगच्छति, मंदं मंदं, शनैः शनैः, मन्दाकिनी हंस इव, गंगा हंस इव, समुत्सर्पति, समुद्गच्छति, गगनतलं, आकाशे, शशिनि, चन्द्रे। **कृतेति—**कृतः, संध्यायां, संध्यायै वा, प्रणामः नमस्कारः, यया तथोक्ता, (उपासितसंध्येतिभावः) निशामुखमेव, प्रदोषसमय एव, (नहि शयन कालेइत्यर्थः) निपत्य (नच यथाशयनमितिभावः) विमुक्ताङ्गी, निहितशरीरा, (निःसहाया इतियावत्, व्यज्यतेविमुक्ताङ्गीशब्देन) पल्लवशयने, किसलयशयने, तस्थौ, स्थितिंचकार। सावित्र्यपि, यथाक्रियमाणं येनकेन प्रकारेण विहितं, सायंतनं, संध्यादिकर्म, यया एवंभूता, उचिते, युक्ते, शयनकाले, समये, किसलय शयनं, पत्रशय्यां, अभजत, प्राप, जातनिद्रा च, प्राप्तनिद्रा च, सुष्वाप, शयनमकरोत्।

इतरातु, (सरस्वतीत्यर्थः) मुहुर्मुहुः, बारं बारं, अङ्गवलनैः, अङ्गचालनैः, (इतस्ततः, अङ्गप्रक्षेपैरित्यर्थः) **विलुलितेति—**विलुलितं, अवगाहितं, किसलयशयनतलं, पल्लवशय्या, ययाः, तथाभूता, निमीलित लोचनापि, निमी

लोचनापि नाभजत निद्राम्। अचिन्तयच्च—^(‘)मर्त्यलोकः— खलु सर्वलोकानामुपरि, यस्मिन्नेवं विधानि संभवन्ति त्रिभुवनभूषणानि सकलगुणग्रामगुरूणि रत्नानि। तथा हि। तस्यमुख लावण्यबिन्दुरिन्दुः। तस्य च चक्षुषो विक्षेपाः विकचकुमुदकुवलयकमलाकाराः। तस्य चाधरमणेदीधितयोविकसितबन्धूकवनराजयः। तस्य चाङ्गस्यपरभागकरणमनङ्गः। आः! पुण्यभाञ्जि तानि चक्षूंषि चेतांसि यौवनानि वा स्त्रैणानि, येषामसौ विषयोदर्शनस्य। क्षणं नु दर्शयता च तमन्यजन्मनिकृते

लिते, संकुचिते, लोचने, नेत्रे, यया, तथाभूतापि, निद्रां, नाभजन, न, प्राप। अचिन्त्ययच्च, चिन्तयामास, च, मर्त्यलोकः, भूलोकः, सर्वलोकानां, स्वर्गपातालादीनां, उपरि, श्रेष्ठः। यस्मिन् (मर्त्यलोके, इनियावत्) त्रिभुवनभूषणानि, (भूः-भुवः-स्वः, अलंकरणानिसकल ग्राम गुरुणि, सकलाः, गुणाः, दाक्षिण्यादयः, तेषां ग्रामः, समूहः, तेनगुरूणि, महान्ति, एवंविधानि, एतादृशानि, रत्नानि, सम्भवन्ति, उत्पद्यन्ते। तस्य (दधचीस्येत्यर्थः) मुखस्य, वदनस्य, यत्, लावण्यं, चारुत्वं, (सौन्दर्यमितियावत्) तस्य, बिन्दुः, कणः, (अल्प मात्रलावण्यमित्यर्थः) इन्दुः, चन्द्रः। तस्य, चक्षुषोः, नयनयोः, विक्षेपाः, निपाताः, ते, एव, विकचानां, विकसितानां, कुमुदानां, कैरवाणां, कुवलयानां, नीलोत्पलानां, कमलानां, पद्मानां, च, आकराः, निचयाः। अधरमणेः, अधरोष्ठस्य, दीधितयः, किरणाः, (एवेतिशेषः) विकसितानां, प्रफुल्लितानां, बन्धूकानां, पादपविशेषाणां, यत् वनं, काननं, तस्य राजयः पंक्तयः। तस्य, च, अङ्गस्य, शरीरस्य, परभाग करणं, (अन्यावयवमित्यर्थः) अनङ्गः, कामः। (अस्य, दधीचस्यकामः द्वितीयंशरीरमितिभावः) आः, इतिहर्षविषादयोः। पुण्यभाञ्जि, पुण्यानिभजन्ते इति तानि, स्त्रेणानि, स्त्रीणां, नारीणां, इमानि (तत्सम्बन्धीनि-इत्यर्थः) अथवा, स्त्रीणां समूहाः, स्त्रैणानि, नारिजातयः। येषां, (चक्षुरादीनामितिभावः) असौ (पूर्वनिर्दिष्टोयुवा) दर्शनस्य, अवलोक

नेव मे फलितमधर्मेण। का प्रतिपत्तिरिदानीम्’इति चिन्तयन्त्येव कथं कथमप्युपजातनिद्राक्षणमशेत। सुप्ता च तं दीर्घलोचनं ददर्श। स्वप्नासादितद्वितीयदर्शना चाकर्णाकृष्टकार्मुकेण मनसि निर्दयमताड्यत मकरकेनुना। प्रतिबुद्धाया मदनशरताडितायाश्च तस्या वार्तामिवोपलब्धुमरतिराजगाम। तथा हि। ततः प्रभृति कुसुमधूलिधवलिताभिर्वनलताभि-रताडिताऽपि वेदनामधत्त। मन्दमन्दमारुतविधुतैःकुसुमरजोभिः

नस्य, विषयः, गोचरः, (दर्शनपथि गत इत्यर्थः) क्षणं, क्षणमात्रं (निमेषमात्रमितियावत्) नु, (इतिवितर्के) दर्शयता, अवलोकयन्त्या, च, **अन्येति—**अन्यजन्मनि, पूर्वजन्मनि, यः, जनिः, जन्म, (निन्दित कर्मणामित्यर्थः) तत्कृतेनेव, तदुद्भवेनेव, मे, मम, अधर्मेण, पापेन, फलितं, (पूर्वजन्मकृतकर्मणा ईदृशीविकृतिर्जाता, इतिभावः) इदानीं, साम्प्रतं, का प्रतिपत्तिः, इति कर्तव्यता, (किमनुष्ठेयमितिभावः) इति चिन्तयन्त्येव, विचार्यमाणा एव, कथं कथमपि, केनापिप्रकारेण, (अतिकृच्छ्रादितिभावः) उपजातनिद्रा, प्राप्तनिद्रा, क्षणं, क्षणमात्रं, (नत्वधिकमित्यर्थः) अशेत, सुप्ता (च) तं, दीर्घलोचनं (दधीचमितियावत्) ददर्श, अपश्यत्। **स्वप्नेति—**स्वप्ने, निद्रावस्थायां, आसादितं, प्राप्तं, द्वितीयं, अपरं, दर्शनं, (तस्येत्यर्थः) यया एवंभूता। आकर्णाकृष्टं, कर्णपर्यन्तं, आकृष्टं, कर्षितं, कार्मुकं, धनुः, येन, एवं भूतेन, मनसि, हृदि, निर्दयं, दयारहितं यथास्यात्तथा, (निष्ठुरभावेनेत्यर्थः) मकरकेतुना, कामेन, अताड्यत, ताड़िता। प्रतिबुद्धायाः, जागरितायाः, मदनशर ताड़ितायाः, कामबाणपीड़ितायाः, तस्याः, (सरस्वत्याः, इतिभावः) वार्तां, वृत्तं, उपलब्धु, ज्ञातुं, अरतिः, वस्तु वैराग्य कामदशा। आजगाम, प्राप्तः। ततः प्रभृति, तदारभ्य। **कुसुमेति—**कुसुमानां, धूलिभिः, परागैः, धवलिता,शुभ्रतांनीता, ताभिः, वनलताभिः, अताडिताऽपि, अपीडिताऽपि, वेदनां, व्यथां, अधत्त, अनुबभूव। (लता स्पर्शे मुखमनुभव एवं जनानां परं अस्या-

अदूषित लोचना अपि अश्रुजलं मुमोच। हंसपक्षतालवृन्तचय विधुतैः शोणशीकरैः असिक्ताऽपि आर्द्रतामगात्। प्रेङ्खत्कादम्बमिथुनाभिरनूढाऽप्यघूर्णत वनकमलिनी कल्लोलदोलाभिः। विघटमानचक्रवाक युगलविसृष्टैः अस्पृष्टाऽपि श्यामताम् आततानविरहनिश्वासधूमैः। पुष्पधूलीधूसरूैरदष्टाऽपि व्यचेष्टत मधुकर कुलैः।अथ गणरात्रापगमे निवर्तमानस्तेनैव वर्त्मना तं देशमागत्य तथैव निवारित परिजनश्छ-

स्तुविपरीतमेवेत्यर्थः) मन्दं मन्दं, शनैः शनैः, यथास्यात्तथा, मारूत विधुतैः, वायुप्रकम्पनैः, कुसुमरजोभिः, पुष्पधूलिभिः, अदूषित लोचना, अकलुषितनेत्रा अपि, (अपीतिसंभावनायाम्) अश्रुजलं, मुमोच, त्यत्याज। **हंसेति—**हंसानां, पक्षाएव तालवृन्तचयाः, व्यजन समूहाः, तैः, विधुताः, क्षिप्ता, तैः, शोणशोकरैः, शोणस्य, तन्नाम नदस्य, शीकराः, जलकणाः, नैः, असिक्ताऽपि, असेचिताऽपि, आर्द्रतां, जाड्यं, अगात्। **प्रेङ्खदिति—**प्रेङ्खन्ति, सञ्चरन्ति, कादम्बानां, कलहंसानां, मिथुनानि, युग्मानि, यासु, तथोक्ताभिः, वन कमलिनी कल्लोलदोलाभिः, वनेषु, याः, कमलिन्यः, पद्मिन्यः, ताः, एव, कल्लोलदोलाः, लहरि रूपाः, दोलन यंत्राणि, ताभिः, अनुढाऽपि, अनुपवेशिताऽपि, अधूर्णत, प्रकम्पत। **निघटमानेति—**विघटमानैः, विरहंप्राप्यमाणैः, चक्रवाकानां, युगलैः, मिथुनैः, विमृष्टाः, त्यक्ताः, तैः, विरहनिश्वासधूमैः, विरहे, वियोगे, ये, निश्वासाः, ते धूमाइव, तैः, अस्पृष्टाऽपि, अस्पर्शिताऽपि, श्यामतां, कालुष्यं, (शृंङ्गाररसमलिनताज्ञापकमितिभावः) आततान, विस्तारितम्। **पुष्पेति—**पुष्पाणांधूलिभिः, रजैः, धूसराः, कपिशाः, तैः, मधुकरकुलैः, षट्पदसमूहैः, अदष्टाऽपि, अदंशिताऽपि, व्यचेष्टत(तेषांरवैःपीड़िताभूमौ विलुलितवतीत्यर्थः) **अथेति—**गणरात्रापगमे, वव्ह्योनिशाः, गणरात्रं, तस्यापगमे, अतिक्रान्ते, तेनैव वर्त्मना, मार्गेण, निवर्तमानः, प्रतिनिवृत्तः, तं देशं, (शोणप्रान्तमितियावत्) आगत्य, तथैव (पूर्वनिर्दिष्टमिव) निवारितः,

त्रधारद्वितीयो विकुक्षिर्डुढौके। सरस्वती तु तं दूरादेव संमुखमागच्छन्तं प्रीत्या सम्यक्समुत्थाय वनमृगीवोद्ग्रीवा विलोकयन्ती मार्गपरि श्रान्तमस्नपयदिवधवलितदशदिशा दृशा। कृतासनपरिग्रहं तु तं प्रीत्या सावित्री पप्रच्छ— आर्य, कच्चित्कुशली कुमारः’ इति। सोऽब्रवीत्— आयुष्मति, कुशली। स्मरति च भवत्योः। केवलममीषुदिवसेषु तनीयसीमिव तनी-

परिजनः, सहचरजनः, येन, तथाभूतः छत्रधार द्वितीयः, (छत्रधारेणसहेत्यर्थः) विकुक्षिः, तन्नामदधीचसहचरः डुढौके,प्राप्तः, (आगत इतियावत्) सरस्वती तु, तंदूरादेव, दूरतः, एव, सम्मुखं आगच्छंतं, आयान्तं, प्रीत्या, प्रेम्णा, सम्यक्, यथास्यात्तथा, उत्थाय, वनमृगीव, हरिणीव, उद्ग्रीवा, ऊर्ध्वंनीता ग्रीवा यया तथाभूता, विलोकयन्ती, पश्यन्ती, मार्गपरिश्रान्तं, क्लिनं, धवलिता, शुभ्रतांनीता, दशदिशः यया तथाभूतया, दृशा, दृष्ट्या, अस्नपयत्, इव, (स्नापितवतीत्यर्थः) **कृतेति—**कृतासनपरिग्रहं तु, (तिष्ठन्तमितियावत्) तं, (विकुक्षिणं) प्रीत्या, प्रेम्णा, पप्रच्छ, अपृच्छन्। आर्यकुशलं कुमारस्य। इति। केवलं, अमीषुदिवसेषु दिनेषु, तनीयसीं, (अतिकृशमितियावत्) तनुं शरीरं, विभर्ति, धारयति। अविज्ञायमानां, अज्ञातां, अनिमित्तां, कारणरहितां, शून्यतां, अभावं, इव, आधत्ते, अनुभवति। (सर्वदाभवत्योः स्मरणमेवकरोतीत्यर्थः) अन्वक्, मत्पश्चात्‚ (सत्वरमेवेत्यर्थः) वः, युष्माकं, वार्तां, वृत्तं, विज्ञातुं, ज्ञानाय, मालतीतिनाम्ना, मालतीनामधेया, वाणिनी, दूती, अगमिष्यति। सा, मालती, कुमारस्य, दधीचस्य, उच्छ्वसितं, जीवनम्, (प्राणसदृशीत्यर्थः) तच्छ्रुत्वा, तदाकर्ण्य, सावित्री, पुनः, अभाषत, उवाच। खलु, (खल्विति निश्चयार्थवोधकमव्ययम्) कुमारः, अतिमहानुभावः, अत्यौदार्यशीलः, यत्, अविज्ञायमाने, अविज्ञातकुलशीले, क्षणष्टेऽपि जने, परिचितिं,परिचयं, अनुबध्नाति, दधाति। (महानुभावा हि स्वपरभेदरहिताः विश्वमेवस्वं मन्यन्ते - इतिभावः) तस्य हि (हीतिनिश्चयार्थबोधकमव्ययम्) यदृच्छया, स्वे-

यसीमिव तनुं बिभर्ति। अविज्ञायमानां चानिमित्तांशून्यतामिवाधत्ते। अपिच। अन्वकसमागमिष्यतिमालतीतिनाम्ना वारिनी वार्तां वो विज्ञातुम्। उच्छ्वसितं हि सा कुमारस्य’इति। तच्छ्रुत्वा पुनरपिसावित्री समभाषत— ‘अतिमहाऽनुभावः खशुकुमारःयदेवमविज्ञायमानेक्षणदृष्टेऽपि जने परिचितिमनुबध्नाति। तस्याहि गच्छतो यदृच्छया कथमप्यंशुकमिव मार्गलतासु मानसमस्मासु मुहूर्तमासक्तमासीत्। अमूल्यं हि सौजन्यमाभिजात्येन वः स्वामिसूनोः। अलसः खलुलोको यदेवं सुलभसौहार्दानि येनकेनचिन्न क्रीणाति महतां मनांसि। सोऽयमौदार्यातिशयः कोऽपिमहात्मनामितरजनदुर्लभो येनोपकरणी कुर्वन्तित्रिभुवनम्’

च्छया, गच्छतः गतवतः, कथं कथमपि, केनापि, प्रकारेण, मार्गलतासु, मार्गवल्लरिषु, (लग्नमितिशेषः,) अंशुकमित्र, वस्त्रमिव, अस्मासु, मानयं, चित्तं, मुहूर्तं, घटिकाद्वयं, आसक्तं, अनुरक्तं, आसीत्। (मार्गचलनशीलस्य अनवधानतया लतासु वस्त्रलग्नंसंभाव्यते तथैव मार्गगतः, वल्लरीरूपासुअस्मासु हृदयवस्त्रमासक्तमभूदित्यर्थः) वः, युष्माकं, स्वामि सूनोः, प्रभु कुमारस्य, सद्वंश प्रसूतत्वेन, सौजन्यं, हृदयग्राहिता, अमूल्यंहि, (नहिकेवलं वाचिकं आन्तरभावेनापिसौहार्द्रता विद्यतेतस्यमनसीत्यर्थः) अलेसेति— अलसः, चेष्टारहितः, (मूर्खोंवा) लोकः, संसारः। **सुलभेति—**सुलभानि, सुप्राप्याणि, सौहार्दानि, मित्रताः, येषां, तानि, महतां, सज्जनानां, मनांसि, चित्तानि, येन, केनचित् (साधारणेन वस्तुनेत्यर्थः) नक्रीणाति, नकेतुंप्रभवति। सोऽयं, औदार्यातिशयः, अतिशयेन औदार्यम्। महात्मनां, विदुषां, कोऽपि, कश्चिदपि, (अनिर्वचनीयइतियावत्) इतर जनदुर्लभः, क्षुद्रजनदुर्लभ्यः, येन, त्रिभुवनं उपकरणीकुर्वन्ति, अलंकुर्वन्ति (वशीकुर्वन्तीतियावत्) विकुक्षिः, उच्चावचैः, नानाविधैः, आलापैः, वचनैः, सुचिरं, चिरकालं, स्थित्वा, यथाभिलषितं, इच्छितं, प्रदेशं, स्थानं, अयासीत्, जगाम। (सुचिरं वार्तालापंविधायग-

इति। विकुक्षिरुच्चावचैरालापैः सुचिरमिवस्थित्वा, यथाभिलषितं देशमयासीत्।

** अपरेद्युरुदितेभगवतिद्युमणावुद्दामद्युतावभिद्रुततारके तिरस्कृततमसि तामरसव्यासव्यसनिनि सहस्ररश्मौ शोणमुत्तीर्यायान्ती, तरलदेहप्रभावितानच्छलेनात्यच्छं सकलं शोणसलिलमिवानयन्ती, स्फुटितातिमुक्तककुसुमस्तबक समत्विषि सटाले महति मृगपताविव गौरी तुरङ्गमेस्थिता, सलीलमुरोवध्रारोपितस्य तिर्यगुत्कर्णतुरगाकर्ण्यमाननूषु**

तवानित्यर्थः।

अपरेद्युरित्यतः मालतीसमदृश्यत इत्यनेनान्वयः। उदिते, उदयंप्राप्ते, भगवति, कल्याणकरे, द्युमणौ, आकाशरत्ने (सूर्येइत्यर्थः) उद्दामद्युतौ, उद्दामा, उत्कटा, द्युतिः, कान्तिः, यस्य तस्मिन्, अभिद्रुताः, ताडिताः, (तिरोहिता इतियावत्) तारकाः, नक्षत्राणि, येन तथाभूते, तिरस्कृततमसि, विमानितान्धकारे, (दूरीकृतेइत्यर्थः) तामरसव्यासव्यसनिनि, तामरसस्य, रक्तोत्पलस्य, “यत्” व्यासः विकासः, तत्र व्यसनिनि, आसक्ते, सहस्ररश्मौ, सूर्ये, शोणं, पूर्वोक्तनदं, उत्तीर्य, अवतरणं विधाय, आयान्तीं, आगच्छन्तीं। **तरलेति—**तरलाः, चञ्चलाः, याः, देहप्रभाः, तासां, वितानः, विस्तारः, स, एव, छलं, तस्य वा, तेन, अत्यच्छं, अतिशुद्धं, (अमलमिनियावत्) सकलं, सम्पूर्णं, शोणसलिलं, जलं, इव, आनयन्ती, सहचररूपेण आकर्षयन्ती। **स्फुटितेति—**स्फुटितः, विकाशंगतः, यः, अति मुक्तककुसुमस्तवकः, अतिमुक्तकः, माधवीलता, तस्या, पुष्पगुच्छः, तत्, समाः, सदृशाः, त्विषः,कान्तयः, यस्य तथाभूते, सटाले। **जटावति—**मृगपताविव, सिंह इव, गौरी, गौरवर्णा, (पार्वतीच) तुरङ्गमे, अश्वे, स्थिता, सलीलं, लीलयासहितं, यथास्यात्तथा, उरोवध्रा, अश्वारूढस्य चरणस्थापनाय द्रव्य विशेषः (रकेव इति प्रसिद्धः) तत्र आरोपितस्य, स्थापितस्य, (पादयुगलस्येतियावत्)। तिर्य्य-

रपटुरणितस्यातिबहनेन पिण्डालक्तकेन पल्लवितस्य कुंकुमपिञ्जरितपृष्ठस्यचरणयुगलस्य प्रसरद्भिरतिलोहितैः प्रभाप्रवाहैरुभयतस्ताडनदोहदलोभागतानि किसलयितातिरिक्तरक्ताशोकवनानीवाकर्षयन्ती, सकलजीवनलोकहृदय-हठहरणाघोषणयेवरशनया शिञ्जानजघनस्थला, धौतधवलनेत्रनिर्मितेननिर्मोकलघुतरेणाप्रपदीनेनकंचुकेन तिरोहिततनुलता,

**गिति—**तिर्यक्, वक्रं, यथास्यात्तथा, उत्कर्णेन, ऊर्ध्वंनीतेन कर्णेन, तुरगेण, अश्वेन, आकर्ण्यमानं, श्रूयमाणं, (श्रुतिमधुरत्वादित्यर्थः) नूपुरयोः, पादभूषणयोः, पट्टः, स्पष्टं, रणितं, शब्दं, यस्य, तथाविधस्य, अतिवहलेन, अधिकेन पिण्डालक्तकेन, लाज्ञारसेन, पल्लवितस्य, किसलय इवाचरतः। **कुंकुमेति—**कुंकुमेन, (तदाख्यरक्तद्रव्यविशेषेण), (कुंगू इत्याख्येन) पिञ्जरितं, ईषद्रक्ततांनीतं, पृष्टं यस्य, तथाभूतस्य, चरणयुगलस्य, पादयुग्मस्य, प्रसरद्भिः, चलद्भिः, अतिलोहितैः, रक्तवर्णैः, प्रभाप्रवाहैः, कान्तिप्रसरैः,। **ताड़नेति—**ताड़नं, प्रहारः एव, दोहदः, गर्भाभिलाषः, तत्र, यः लोभः, इच्छा, तेन, आगतानि, किसलयानि, पल्लवानि, अत एव, अतिरिक्तानि, विसृतानि, रक्ताशोकवनानि, काननानि तानि, आकर्षयन्ती, आकृष्यनयन्ती, इव। **सकलेति—**सकलानां, जीवलोकानां, हृदयानि, मनांसि, तेषां, हठेन, सहसा, (औद्धत्यपूर्णत्वमितियावत्) यत्, हरणं, स्ववशीकरणं, तस्य, घोषणा, वाद्यविशेषानुगता (वचनानीत्यर्थः) तयेव, रशनया, काञ्च्या, (मेखलयेतिभावः) शिज्जानं, रणत्, (सशब्दमितियावत्) जघनस्थलं, यस्याः, तथाविधा। **धौतेति—**धौतं, प्रक्षालितं, अतएव, धवलंनेत्रं, वसनविशेषः, तेन, निर्मितः, रचितः, निर्मोंकः, सर्पकञ्चुकः, तद्वत्, लघुतरः, सूक्ष्मः, तेन, आप्रपदीनेन, प्रपदं, पादाग्रं, प्रपदात्, आ, (समन्तादित्यर्थः) आप्रपदं, पादाग्रपर्यन्तं, (पादाग्रमाच्छादितमित्यर्थः) कञ्चुकेन, वारबाणेन, तिरोहिता, आच्छादिता, तनुरेव, शरीरमेव, लता, वल्लरी, यया,तथाभूता। **छातेति—**छातः, सूक्ष्मः, कञ्चुकस्य, वर्मणः, (शरीराच्छादनस्येति-

छातकञ्चुकान्तरदृश्यमानैराश्यानचन्दनधवलै खयवैः स्वच्छसलिलाभ्यन्तरविभाव्यमानमृणालकाण्डेव सरसी, कुसुम्भरागपाटलं पुलकबन्धचित्रंचण्डातकमन्तः स्फुटं स्फटिकभूमिरिव रत्ननिधानमादधाना, हारेणामलकीफल निस्तुलमुक्ताफलेन स्फुरितस्थूलग्रहगणशारा शारदीव श्वेतविरलजलधरपटलावृता द्यौः, कुचपूर्णकलशयोरुपरि, रत्नप्रालम्बमालिकामरुणहरित किरणकिसलयिनीं कस्यापिपुण्यवतो हृदय-

भावः) अन्तरे, मध्ये, दृश्यमानाः, दृष्टिंगताः। **आश्यानेति—**आश्यानानि, ईषत्-शुष्काणि, चन्दनानि, मलयजानि, तैः, धवलाः, शुभ्राः, तैः, अवयवैः, अङ्गैः, (शरीरभागैरित्यर्थः) **स्वच्छेति—**स्वच्छानि, अमलानि, सलिलानि, जलानि, तेषां, अभ्यन्तरेषु, मध्यभागेषु, विभाव्यमानः, लक्ष्यमाणः, मृणालकाण्डः, पद्मलता, यस्याः, यस्यांवा, सरसीव। **कुसुम्भेति—**कुसुम्भरागेण, कुसुम्भः, पुष्पविशेषः, तस्यरागेण, वर्णेन, पाटलं, ईषद्रक्तं, पुलकवन्धेन, नानावर्ण निर्मितबिन्दुविन्यासेन, चित्रं, (मनोज्ञमितियावत्) चण्डातकं, अर्द्धोरुकम्, (उरोरधः पातिवस्त्रविशेषः) अन्तः स्फुटं, (अभ्यन्तरो ज्वलनमिति यावत्) रत्ननिधानं, कोशं, आदधाना, धारयन्ती। हारेण, मुक्ता फलस्रजा। **आमलकीति—**आमलकीफलानि, (आमलाइति प्रसिद्धं)निस्तुलानि, तुलारहितानि, (उपमारहितानीत्यर्थः) मुक्ताफलानि, (यत्र तादृशेनत्यर्थः)। **स्फुरितेति—**स्फुरितैः, राजितैः, स्थूलैः, (सुस्पष्टैरितियावत्) ग्रहगणैः, नक्षत्रमण्डलैः, शारा, विचित्रा, शारदीव, शरत्समयमिव। **श्वेतेति—**श्वैतैः, शुभ्रैः, (जलापगमादितियावत्) विरलैः, अत्यल्पैः, जलधरराणां, मेघानां, पटलैः, समूहैः, आवृता, अच्छादिता, द्यौः, अन्तरीक्षम्। **कुचेति—**कुचौ, स्तनौ, पूर्णकलशाविव, कुम्भाविव, तयोरुपरि, रत्नप्रालम्ब मालिकां, रत्नस्रजं। **अरुणेति—**अरुणेन, रक्तवर्णेन, हरितेन, श्यामलेन, किरणेन, मयूखेनन, (मरकतमणीनामिति यावत्) किसलयाः, पल्लवाः, सन्ति अस्यां, तादृशी

प्रवेशवनमालिकामिव बद्धां धारयन्ती, प्रकोष्ठनिविष्टस्यैकैकस्य हाटककटकस्य मरकतमकरवेदिकासनाथस्य हरितीकृतदिगन्ताभिर्मयूखसन्ततिभिः स्थलकमलिनीभिरिव लक्ष्मीशङ्कयानुगम्यमाना, बहलताम्बूलकृष्णिकान्धकारितेनाधर संपुटेन मुखशशिपीतं ससंध्यारागं तिमिरमिव वसन्तीं, विकच नयनकुवलय कुतूहलालीनयालिकुलसंहत्या

(सञ्जातपत्रामित्यर्थः) कस्यापिपुण्यवतः पुण्यभाजः। हृदय प्रवेशेति— हृदये, चित्ते, प्रवेशः, तस्मै, वनमालिका, पत्रपुष्परचिता माला, तामिव, (पूर्णकलशे वनमाला प्रदानं लोकेप्रसिद्धम्) वद्धां, ग्रथितां, धारयन्ती,। (कश्चित्पुण्यवान् जनः, अस्याः हृदयं प्रविशतीति मङ्गलाय पूर्णकुम्भस्थापनमियर्थः) **प्रकोष्ठेति—**प्रकोष्ठः, मणिवन्धपर्यन्तहस्तावयवः, तस्मिन्, निविष्ठः, धृतः, तस्य, हाटककटकस्य, सुवर्णकङ्कणस्य, **मरकतेति—**मरकतस्य, मरकतमणेः, मकरवेदिका, मकराकृतिग्रन्थिः, तया सनाथः, युक्तः, तस्य, (तद्‌भूषितस्येति यावत्) **हरिती कृतेति—**हरिती कृताः, श्यामतांप्राप्ताः दिगन्ताः, दिग्भागाः, याभिः, तथाभूताभिः, मयूखसंततिभिः, किरणसमूहैः, स्थलकमलिनीभिरिव, भूपद्मिनीभिरिव, (पत्रपुष्पसहिताभिरित्यर्थः) लक्ष्मीः शङ्कया, लक्ष्मीरियंकमलहस्ता (पद्मविलासिनीतिभावः) इति बोधेन, अनुगम्यमाना, अनुस्रियमाणा, **बहलेति—**बहलेन, बारम्बारं (चर्वितेनेतियावत्) ताम्बूलेन, या, कृष्णिका, कृष्णावर्ण रेखा, तथा, अन्धकारितः, सञ्जाततमः, तेन, अधरसंपुटेन, अधरोष्ठेन। **मुखेति—**मुखमेव, शशीः, चन्द्रः, तेन, पीतं, कृतपानं, यद्संध्या रागं सन्ध्यासमय लौहित्यम् (तेन सहवर्तमानं) (स्वभावारुणस्याधरस्य ताम्बूलयोगादुत्प्रेक्षितम्) तिमिरं, अन्धकारं, इव, वमन्ती, उद्गिरन्ती (भुक्तोद्गीर्णभोजनं वमनं, तमित्यर्थः) **विकचेति—**विकचे, विकस्वरे, नयने, नेत्रे, कुवलये, नीलोत्पले, इव, तयोः, कुतूहलात्, कौतुकात्, आलीना, सक्ता, तयेव, अलि कुलसंहत्या, भ्रमरसंतत्या, नीलांशुक जालिकया, नीला,

नीलांशुक जालिकयेवनिरुद्वार्धवदना, नीलीरागनिहित नीलिम्ना शितिगलशितिना वामश्रवणाश्रयिणासादन्तपत्रेण कालमेघ पल्लवेनेव विद्युदिवद्योतमाना,वकुलफलानुकारिणीभिस्तिसृभिर्मुक्ताभिः कल्पितेन वालिकयुगलेनाधोमुखेना-लोकजलवर्षिणा सिञ्चन्तीवातिकोमले भुजलते, दक्षिणकर्णावतंसितया केतकीगर्भपलाशलेखया रजनिकर जिह्वयेव लावण्यलोभेन लिह्यमानकपोलतला, तमालश्यामलेन मृगमदामोदनिष्यदिना तिलकबिन्दुना मुद्रतमिवमनोभवसर्वस्वं वदन-

नीलवर्णा, या, अंशुकजालिका, वसनग्रन्थिका, तया, निरुद्धं, आच्छादितं, अर्द्धवदनं, मुखं, यया, तथाविधा। (मार्गेचक्षुषि कीटादेर्पतनभयादित्यर्थः) **नीलीति—**नीलीरागेण, (नील” इतिप्रसिद्धः) तस्य, रागेण, वर्णेन, निहितः अर्पितः, नीलिमा, नीलन्वं, यत्र, तथाभूतेन। **शितिगलेति—**शितिगलः, नीलकण्ठः, (शङ्कर इत्यर्थः) तद्वत्, शितिः, नीलं, तेन, वामश्रवणाश्रयिणा, वामकर्णाश्रितेन, दन्तपत्रेण, कुन्दपुष्पाकारालङ्कारविशेषेण, कालमेघपल्लवेन, नीलमेघविस्तारेण, विद्युदिव, तडिदिव, द्योतमाना, दीप्यमाना। **वकुलेति—**वकुलफलानुकारिणीभिः, अनुकर्तृभिः, (तद्वदाचरणशीलैरित्यर्थः) तिसृभिः, त्रिभिः, मुक्ताभिः, मुक्ताफलैः, कल्पितेन, रचितेन, वालिकायुगलेन, बलयद्ववेन, अधोमुखेन, नताननेन। **आलोकेति—**आलोकः, उद्योतः, एव, जलं, पानीयं, तं वर्षतीति, तेन, अतिकोमले, भुजएव लते, ते, सिञ्चन्तीव,सेचनकुर्वाणा, इत्यर्थः। **दक्षिणेति—**दक्षिणेकर्णे, अवतंसितया, अलंकृतया। **केतकीति—**केतक्यागर्भपलाशः, मध्यपत्रं, स, एव, लेखा, रेखा, तया, रजनीकर जिह्वयेव, रजनीकरस्य, चन्द्रस्य, जिह्वा, रसना, तयेव, लावण्यलोभेन, सौन्दर्यलोभेन, लिह्यमानं, चुष्यमाणं, कपोलतलं, गण्डस्थलं, यस्याः, तथाभूता। तमालश्यामलेन, तमालवत् श्यामलः, कृष्णवर्णः, तेन। **मृगमदेति—**मृगमदस्य, कस्तूरिकायाः, आमोदः, सौरभं, त, निष्यन्दते, स्रवतीनि तथा विधेन, विन्दुना

मुद्वहन्ती, ललाटलासकस्य सीमन्तचुम्बिनश्चटुलातिलकमणेरुदञ्चता चटुलेनांशुजालेनेव रक्तांशुकेनेवकृतशिरोवगुण्ठना, पृष्ठप्रेङ्खदनादर संयमन शिथिलजूटिकाबन्धा, नीलचामरावचूलिनीव, चूडामणिमकरिकासनाथा, मकरकेतुपताका,कुलदेवतेव चन्द्रमसः, पुनः संजीवनौषधिरिव पुष्पधनुषः, वेलेवरागसागरस्य, ज्योत्स्नेव यौवन चन्द्रो-

कणकेन, मुद्रितं, चिह्नितं, इव, मनोभव सर्वस्वं, कामसर्वस्वधनं, वदनं, मुखं (मुखस्य सर्वोत्कृष्टेन, कामोद्दीपकत्वादित्यर्थः) उद्वहन्ती, धारयन्ती। **ललाटेति—**ललाटे,मस्तके, लासकः, नर्तकः, (स्फुरन्नितियावत्) तस्य, सीमन्तचुम्बिनः, सीमन्तः, केशपाशमध्यवर्तिरेखा (सीमन्तो केशवेशे) कौसीमान्तोऽन्यः) तं, चुम्बति, स्पृशति, तस्य, (सीमन्तस्पर्शिन इतियावत्) चटुलः, चञ्चलः, यः, तिलकमणिः, तिलकाकार पद्मरागमणिः, (मस्तकभूषणमित्यर्थः) तस्मादू, उदञ्चता, उद्गच्छता, चटुलेन, चञ्चलेन, (तरलेनेत्यर्थः) अंशुजालेन, किरणसमूहेन, रक्तांशुकेनेव, रक्तवसनेनेव, कृतं, रचितं, शिरसः, अवगुगठनं, आवरणं, यया, तथाभूता। **पृष्टेति—**पृष्ठे, पृष्ठदेशे, प्रेङ्खत्, लम्बमानः, अनादरसंयमनेन, हलाबन्धनेन, शिथिलः, स्खलितः, यः, जूटिकाबन्धः, केशजालः, यस्याः, तथाविधा। **नीलेति—**नीलं, नीलवर्णं, चामरमेव अवचूलं, पताकाधोवर्ति वसनं, चिन्हं वा, विद्यतेऽस्याः, तथाभूता। **चूड़ामणीति—**चूड़ायां, मस्तके, या मणिःमकरिका, मकराकारमणिः, तया सनाथा, युक्ता, (सहितेत्यर्थः) अतएव मकरकेतोः, मदनस्य, केतुपताकेव, ध्वजकेतनमिव, कुलदेवतेव, कुलस्य, वंशस्य, या, देवता, अधिष्ठातृदेवीव, चन्द्रमसः, इन्दोः, पुष्पधनुषः, कामस्य, पुनः, सञ्जीवनं, हरक्रोधाग्नि जलितस्यपुनर्जन्मप्राप्तिः, तस्योषधिरिव, सञ्जीवनाख्यलतेव। **रागेति—**रागः, प्रेम, (स्नेहातिशय इत्यर्थः) सैव सागरः, समुद्रः, तस्यवेलेव, तीरमिव, यद्वा, प्रवाहमित्र, (यथैवसमुद्रः—वेलामतिक्रम्यनप्रसरति, तथैव, सौन्दर्यातिशयाद्य‌ूनां

दयस्य, महानदीव रतिरसामृतस्य, कुसुमोद्गतिरिव सुरततरोः, बालविद्येव वैदग्ध्यस्य, कौमुदीपकान्तेः, धृतिरिव धैर्यस्य, गुरुशालेव गौरवस्य, बीजभूमिरिव विनयस्य, गोष्ठीवगुणानाम्, मनस्वितेव महानुभावतायाः, तृप्तिरिव तारुण्यस्य, कुवलयदलदामदीर्घलोचनया पाटलाधरया कुन्दकुड्मलस्फुटदशनया शिरीषमाला कुसुमारभुजयुगलया

दृष्टिर्नान्याषुस्त्रीषुप्रसरति, अस्यामेवस्थितत्यर्थः) **ज्योत्स्नेवेति—**यौवनं, प्रौढावस्था, तदेव, चन्द्रोदयः, तस्य ज्योत्स्नेव, कान्तिरिव। (यथा चन्द्रोदयेऽपियावन्नहि ज्योत्स्नाविकसति, तावन्न किमपि विलसति, तथैवतां विना यौवनसुषमा न कुत्रापि शौभमाना दृश्यते इतिभावः) रतिरसामृतस्य, रत्यायद्रसं, तदेवामृतं, तस्य, महानदीव, महासरिदिव। सुरततरोः, सुरतं, स्त्रीपुरुष संगमं, तदेव, तरुः, वृक्षः, तस्य, कुसुमोद्गतिरिव, पुष्पोद्गम इव। वैदग्ध्यस्य चातुर्यस्य बालविद्येव, नवशिक्षितेव, (बालकालेपठिता मिवेतिभावः) (वाल्यसंस्कारः नहि त्यक्तुं शक्यते कदापि, तथैवेतां, वैदग्ध्यमपि) कान्तेः, प्रभायाः, कौमुदीव, चन्द्रिकेव। धैर्य्यस्य, धीरतायाः, धृतिरिव, धारण कर्त्रीव। गौरवस्य, उत्कर्षस्य, गुरुशालेव, गुरुगृहमिव, यद्वा, गुर्वीमहती, शाला, गुरुशाला, सेव। विनयस्य, नम्रतायाः, बीजभूमिरिव, वपनक्षेत्रमिव। गुणानां, सौजन्यादिनां, गोष्ठीव, समाज इव। महानुभावतायाः, महद्गौरवस्य, मनस्वितेव, प्रशस्तमनशालित्वमिव। तारुण्यस्य, यौवनस्य, तृप्तिरिव, संतोषमिव। **कुवलयेति—**कुवलयदलदाम, नीलकमलदलमाला, तद्वत्,दीर्घे, आयते, लोचने, नेत्रे, यस्याः, तथाभूतया। पाटलाधरया, ईषद्रक्ताधरोष्ठ्या। **कुन्देति—**कुन्दानां, माध्यपुष्पाणां, कुड्मलानि, मुकुलानि, तानीव, स्पुटाः, उज्ज्वलाः, दशनाः, दन्ताः, यस्याः, तथोक्तया। **शिरीषेति—**शिरीषाणां, तन्नाम कुसुमानां, मालावत्, स्रगिव, सुकुमारं, कोमलं, भुजयुगल, बाहुयुग्मं, यस्याः, तथभूतया। **कमलेति—**कमलं, पद्मं, तद्वत् कोमलौ, करौ,

कमलकोमलकरया बकुलसुरभिनिःश्वसितया चम्पकावदातदेहया कुसुममय्येवताम्बूलकरङ्कवाहिन्या महाप्रमाणाश्वतरारूढयानुगभ्यमाना, कतिपयपरिचारकपरिकरामालती समदृश्यत। दूरादेव च दधीच प्रेम्णा सरस्वत्या लुण्ठितेव मनोरथैः, आकृष्टेव कुतूहलेन, प्रत्युद्गतेवोत्कलिकाभिः, आलिङ्गितेवोत्कण्ठया, अन्तः प्रवेशितेबहृदयेन, स्नपितेवानन्दाश्चुभिः, विलिप्तेव स्मितेन, वीजितेव उच्छ्वसितैः, आच्छादितेव चक्षुषा, अभ्यर्चितेव वदनपुण्डरीकेण, सखीकृतेवाशया, सविधमुप-

हस्तौ, यस्याः, तथोक्तया। **वकुलेति—**वकुलवत, तदाख्यपुष्पवत्, सुरभिः, सुगन्धिः, निश्वसितं,श्वसन, यस्याः, तथाविधया। चम्पकावदातया, चम्पकपुष्पवत्,अवदातया, गौर वर्णया, अतएव, कुसुममय्येव, पुष्पमय्येव, ताम्बूल करङ्क वाहिन्या, ताम्बूलानां, करङ्कः, पात्रं, तं, वहति, धारयतीति, तथोक्तया। महेति महत् अधिकं, प्रमाणं, परिमाणं, यस्य तादृशः, (अत्युन्नतमितियावत्) योऽश्वतरः, अश्वायांगर्दभेनजानः, अश्वाकारः पशुः (खच्चर इतिप्रसिद्धः) यद्वा तरुणः, प्रौढः, अश्वः, तुरङ्गमः (वत्सोक्षाश्वर्षभेभ्यश्चतनुत्वनू" ५।३।९१। पा० इतितनुत्वे तरप्। तं, आरूढा, आश्रिता, तथा, अनुगम्य, माना, अनुश्रिता। **कतिपयेति—**कतिपयाः, केचनः, परिचारकाः, भृत्याः, परिकराः, (परिवाराः, सहचरा इत्यर्थः) यस्याः, तथोक्ता मालती समदृश्यत् दूरादेवच, रदूत एव, दधीच प्रेम्णा, स्नेहेन, सरस्वत्या (कर्तृभूतयेत्यर्थः) लुण्ठितेव, हृतेव, मनोरथैः, इच्छितैः, कुतूहलेन, औत्सुक्येन, आकृष्टेव, आकर्षितेव, उत्कलिकाभिः, औत्सुक्यैः, प्रत्युद्गतेव, उद्गच्छदेव, उत्कण्ठया, स्पृहया, आलिङ्गितेव, कृतालिङ्गनेव, हृदयेन, चेतसा, अन्तः, अभ्यन्तरं, प्रवेशितेव, कृतप्रवेशा इव, स्नपितेव, कृतस्नानमिव, आनन्दाश्रुभिः, आनन्दाश्रुजलैः, स्मितेन, ईषद्धास्येन, विलिप्लेव, कृतलेपनेव, उछ्वासितैः, निश्वासैः, वाजितेव, कृतव्यजनेव, चक्षुषा, नेत्रेण, आच्छादितेव, आवृतेव, वदन पुण्ड-

ययौ। अवतीर्य च तुरगाद्दूरादेवावनतेनमूर्ध्ना प्रणाममकरोत्। आलिङ्गिताच ताभ्यां सविनयमुपाविशत्। सप्रश्रयं ताभ्यां संभाषिता च पुण्य भाजनमात्मानममन्यत। अकथयच्च दधीच संदिष्टं शिरसि विनिहितेनाञ्जलिना नमस्कारम्। अगृह्णाच्चाकरतः प्रभृत्यग्राम्यतया तैस्तैरपि पेशलैरालापैः सरस्वत्योर्मनसी।

** क्रमेण चातीतेमध्यंन्दिनसमये शोणमवतीर्णायां सावित्र्यांस्नातुमुत्सारितपरिजना साकूतामालती कुसुमप्रस्तशायिनीं समुप-**

रीकेण, मुखकमलेन, अभ्यर्चितेव, पूजितेव, आशया, स्पृहया, सखीकृतेव, कृतसौहृदेव, सविधं, पार्श्वं, उपययौ, प्राप्ता। **अवतीर्येति—**दूरादेव, दूरत एव, तुरगात्, अश्वात्, अवतीर्य, अवतरणंविधाय, अवनतेनमूर्ध्ना, नतशिरसा, प्रणामकरोत्, प्रणतिं चकार। ताभ्यां (सरस्वतीसावित्रीभ्यां) आलिङ्गिता, कृतालिङ्गना, सविनयं, यथास्यात्तथा, उपाविशत्, उपविष्टा। **सप्रश्रयेति—**स प्रश्रयं, सविनयं, ताभ्यां, संभाषिता, कृतवार्तालापा, आत्मानं, स्वं, पुण्यभाजं, पुण्यवंतं, (कृतार्थ मितियावत्) अमन्यत,। शिरसि, मस्तके, विनिहितः, कृतः, अञ्जलिः, यया, एवंभूता, दधीचसंदिष्टं, संदेशं, नमस्कारं, अकथयत्, उवाच। **आकारेति—**आकारतः प्रभृति, आकारात्, तथाविधात् पूर्वोक्तात्, (सौम्यादित्यर्थः) प्रभृति (दर्शनादारभ्येत्यर्थः) अग्राम्यतया, (ग्राम्यत्वदोष रहितयेतिभावः) अतिपेशलैः, अतिसुकुमारैः(सौजन्यपूर्णैरित्यर्थः) आलापैः, वचनैः, सावित्रीसरस्वत्योः (द्वयोरित्यर्थः) मनसी, चित्ते अगृह्णात्, स्व, वशवर्तिनमकरोत्।

क्रमेण च अतीते, मध्यन्दिनसमये, मध्यान्हकाले, शोणं, तन्नामनदं, स्नातुं, स्नानाय, अवतीर्णायां, अवतरितायां, सावित्र्यां, उत्सारितपरिजना, दूरीकृतसेवका, साकूता, साभिप्राया (हृदयान्तरित निगूढभावा) मालती, **कुसुमेति—**कुसुमं, पुष्पं, एव, प्रस्तरः, शयनं, (प्रस्तीर्यतेऽसावितिप्रवर्कात्,

सृत्य सरस्वतीमावभाषे—‘देवि’विज्ञाप्यं नः किंचिदस्ति रहसि। अतो मुहूर्तमवधान दानेन प्रसादं क्रियमाणमिच्छामि’इति। सरस्वती तु दधी च संदेशाशङ्किनी, किं वक्ष्यतीति स्तननिहितवामकरनखकिरणदन्तुरितमुद्भिद्यमानकुतूहलाङ्कुरनिकर-मिवहृदयमुत्तरीयकूलवल्क लैकदेशेन संछादयन्ती, गलतावतंसपल्लवेन कुतूहलात् श्रोतुं श्रवणेनेव धावमानेनावरतश्वाससंदोहदोलायितां जीविताशामिव समासन्नलतामव-

स्तरतेः कर्मण्यल्) तत्रशेते या इति तथाभूताम्। सरस्वतीं समुपसृत्य, पार्श्ववर्तिनीभूय, आवभाषे, अवादीत्। देवि? रहसि, एकान्ते, किञ्चित्, विज्ञाप्यं, कथनीयं, अस्ति। अतः, अनेनकारणेन, मुहूर्तं, घटिकाद्वयं, अवधानदानेन, सावधानेन, प्रसादं, प्रसन्नतां, क्रियमाणं, संपाद्यमानं, इच्छामि, ईहे। सरस्वतीतु, (वाग्देवी) दधीच संदेशं, वृत्तं, (वाचिकं वा) तदाशङ्किनी, आशङ्क्यमाना, किंवक्ष्यतीति, किंकथयिष्यतीति। **स्तनेति—**स्तने, पयोधरे, विनिहिनस्य, दत्तस्य, वामकरस्य, वामहस्तस्य, नखानां किरणैः, कान्तिभिः, दन्तुरितं, सञ्जानदंतं(इव) (वर्तमानमितियावत्) **उद्भिद्यमानेति—**उद्भिद्यमानाः, उच्छेद्यमानाः (कर्म कर्तरिशानच्) कुतूहलांकुराणां, कौतुकप्ररोहाणां, निकराः, निचयाः, यस्य, तथाभूतं, हृदयं, चित्तं, **उत्तरीयेति—**उत्तरीयं, यत् दुकूलं, वमनं, तदेववल्कलं, तस्य, एकदेशः, एकांशः, तेन, संछादयन्ती, आच्छादयन्ती, गलना, स्खलता, अवतंशपल्लवेन, कर्णालङ्कारपत्रेण, (इत्थंम्भूतलक्षणे इत्यनेनतृतीया) श्रोतुं, कर्णविषयीकर्तुं, श्रवणेन; इव, श्रोत्रेन्द्रियेणेव, धावमानेन, प्रधावता। **अनवरतेति—**अनवरतानां, निरन्तराणां, श्वासानां, संदोहः, समूहः, एव, दोला, दोलनयंत्रं, तां, आपिता, प्राप्ता, तां, (यथा दोलनयन्त्रं स्वस्यानादपगच्छतिपुनरागच्छतिच, तथैवनिश्वासः शरीरान्तराद् गच्छति पुनश्चोच्छ्वासरूपेण शरीराभ्यन्तरमागच्छति, इति दोलास्थितामित्यर्थः) जीविताशामिव, समासन्नलनां, सन्निहित वल्लरीं, अवलम्बमाना,

लम्बमाना, समुत्फुल्लस्य मुखशशिनो लावण्य प्रबाहेण शृङ्गाररसेनेव प्लावयन्तीजीवलोकम्, शयनकुसुमपरिमललग्नैर्मधुकरकदम्बकैर्मदनानलदाहश्यामलैर्मनोरथैरिव निर्गत्य मूर्तैरूत्क्षिप्यमाणा, कुसुम शयनीयात्स्मरशरसंज्वरिणी, मन्दं मन्दमुदागात्। “उपांशु कथय’इति कपोलतल प्रतिबिम्बितां लज्जयेवकर्णमूलं मालतीं प्रवेशयन्ती मधुरया गिरासुधीरमुवाच।

** “सखि! मालति!किमर्थमेवमभिदधासि।काहमवधानदानस्य शरीरस्य प्राणानां वा।सर्वस्याप्रार्थितोऽपि प्रभवत्येवातिवेलं चक्षुष्यो जनः।सा न काचिद्या न भवसि मेस्वसा सखी प्रणयिनी प्राणसमा**

आश्रयन्ती। लावण्य प्रवाहेण, सौन्दर्यस्रोतसा, शृङ्गार रसेनेव, (रतिप्रधानोहि रसः शृङ्गारः) तेनेव, जीवलोकं, प्राणिजातं, प्लावयन्ती, उत्प्लवनंकारयन्ती। **शयनेति—**शयनकुसुमानां, परिमलेन, सुगन्धिना, लग्नानि, संसक्तानि, तैः, मधुकरकदम्बकैः, भ्रमरसमूहैः। **मदनानलेति—**मदनानलेन, कामाग्निना, यः, दाहः, ज्वलनं, तेन, श्यामलाः, कृष्णवर्णाः, तैः, मूर्तेः, मूर्तिमद्भिः, उत्क्षिप्यमाणा, प्रक्षिप्यमाणा, कुसुमशयनीयात्, पुष्पपर्यङ्कात्। **स्मरेति—**स्मरस्य, कामस्य, शरैः, बाणैः, (शरप्रहारैरित्यर्थः) (संभूतितिशेषः) यः, संज्वरः, सन्तापः, तद्वती। मन्दं, मन्दं, शनैः, शनैः, उदगात्, चचाल। उपांशु, सुगूढं, (सत्यमितियावत्) कथय, वद। **कपोलेति—**कपोलतले, गण्डस्थले, प्रतिबिम्बिता, प्रतिफलिता, तां, लज्जयेव, व्रीडेव, कर्णमूलं, धात्रतटं, मालतीं, तन्नाम दूतिं, प्रवेशयन्ती, अभ्यन्तरं नयन्ती, मधुरयागिरा, मधुरवाण्या, सुधीरं, यथास्यात्तथा, उवाच, उक्तवती।

अभिदधासि, कथयसि अप्रार्थितोऽपि, प्रार्थना रहितोऽपि, अतिवेलं, अतिमात्रं, चक्षुष्यः, नयनरञ्जनः, जनः, सर्वस्य, प्रभवति, योग्यः। सा न काचित्, कापि, या, मे, मम, स्वसा, भगिनी, सखी, प्रणयिनि, प्रेमास्पदा,

च। नियुज्यतां यावतः कार्यस्य क्षमं क्षोदीयसोगरीयसोशरीरकमिदम्। अनवस्करमाश्रवं त्वयि मे हृदयम्। प्रीत्या प्रतिसरा विधेयास्मि ते। व्यावृणु वरवर्णिनि।विवक्षितम्इति। सा त्ववादीत्—देवि, जानास्येव माधुर्यं विषयाणाम्, लोलुपताँचेन्द्रियग्रामस्य, उन्मादितां च नवयौवनस्य, पारिप्लवतां च मनसः। प्रख्यातैव मन्मथस्य दुर्निवारता। अतो न मामुपालम्भेनोपस्थातुमर्हसि। न च बालिशता चपलता चारणता वा वाचालतायाः कारणम्। न

प्राणसमा च, प्राण सदृशी च। नियुज्यतां, नियोक्तव्यं, क्षोदीयसः, अतिक्षुद्रस्य, गरीयसः, अतिगुरूणः, कार्यस्यक्षमं, योग्यं, इदं, शरीरकं, देहं। अनवस्करं, अवस्करः, मलः, तद्रहितः, (परिशुद्धमितियावत्) आश्रवे, वचने, स्थिते, मे, मम, त्वयि, हृदयं, चित्तं, (अकपटत्वेनकर्तव्यं त्वद्वचोमयेत्यर्थः) प्रीत्या, प्रेम्णा, प्रतिसरा, नियोज्या, (अनुकूलर्वर्तिनीतियावत्) ते, तव, विधेया, विधीयते, दीयते, (आज्ञा इति यावत्) यया, सा, (वश्या) (आज्ञाकारिणीतियावत्) अस्मि, इत्यनेनान्वयः। वरवर्णिनि?, सुन्दरि! व्यावृणु, प्रकाशय, विवक्षितं, कथनार्हं, (इच्छितमितियावत्) देवि?, विषयाणां, स्रक्र्चन्दनाद्युपभोग्यवस्तूनां, माधुर्यं, मनोहारित्वं,इन्द्रियग्रामस्य, चक्षुरादीन्द्रिय समूहस्य, लोलुपतां, लालसतां, जानासि,वेत्सि, एव। नवयौवनस्य, प्रौढावस्थायाः, उन्मादितां, उन्मादकारित्वं, च, मनसः, चेतसः, पारिप्लवतां, चाञ्जल्यं, जानास्येवेति पूर्वेण सम्बन्धः। मन्मथस्य, कामस्य, दुर्निवारता, अवाध्यता, प्रख्याता, प्रसिद्धा, एव, अतः, माम्, (मालतीमितियावत्) उपालम्भेन, उपालम्भदानेन, (तिरस्कारेणेत्यर्थः) उपस्थातुं, ग्रहीतुं, न, अर्हसि, योग्यासि। बालिशता, अज्ञता, चपलता, चाञ्चल्यं, चारणता, दौत्यं, (यशः-पोषणशीलतेतियावत्) वाचालतायाः, बहुभाषितायाः, कारणं, हेतुः, न, च, (त्वदग्रेयदहंवच्मि तन्नमम

किञ्चिन्न कारयत्यसाधारणस्वामिभक्तः। सात्वं देवि, यदैव दृष्टासिदेवेन, ततएवारभ्यास्य कामो गुरूः, चन्द्रमा जीवितेशः, मलयमरुदुच्छ्वास हेतुः, आधयोऽन्तरङ्गस्थानेषु, संतापः परमसुहृत्‌, प्रजागर आप्तः, मनोरथाः सर्वगताः, निःश्वासा विग्रहाग्रेसराः, मृत्युः पार्श्ववर्ती, रणरणकः सञ्चारकः, संकल्पाबुद्धयुपदेशवृद्धाः। किं वा वि-

वालिशतादयः, नैव हेतवरितिताप्तयार्थः) कितदित्यपेक्षायामाह। **नेति—**असाधारणा, अनन्यसदृशी, स्वामिभक्तिः, प्रभौअनुरागः, किंचित्‌, किमपि, न, कारयतीति न, अपितु सर्बमेव कारयतीतिभाबः। सा त्वं, ( सरस्वतीरूपा) यदा, एव. देवेन दधीचेन, दृष्टासि, अवलोकितासि, तत एवारभ्य, ततः प्रभृति अस्य, कुमारस्य, कामः, मन्मथः, गुरुःआचार्यः(उपदेष्टाइति यावत्‌) यथैवाज्ञापयति तथैव करोति, वशवर्तित्वादित्यर्थः। चन्द्रमा, जीवितेशः, प्राणेश्वरः, (शिशिरतया कामाग्निनिर्वापणाकारणत्वात्‌, अमृतमयत्वेन च जीवन रक्षण क्षमत्वादित्यर्थः) यद्वा, जीवितेशः मृत्युः(चन्द्रोदयसमयेकामिनां सतततमुपास्यमानाः कामाग्निवर्द्धकतया मृत्युं दिशन्तीतितात्पर्यार्थः) मलयमरुन्‌, मलयबायुः, उच्छ्वास हेतुः, उच्छ्वास कारणं, (यदाहिमलयमरुद्वहतितदैवासौनिश्वसितीत्यर्थः) अन्तरङ्गस्थानेषु, अभ्यन्तरस्थानेषु, आधयः, मानसीव्यथाः, ( स्वजनाः यथासर्वदा परिचरन्ति तथैवाधयः एनंनिरन्तरमाश्रयन्तीत्यर्थः) सन्तापः, परमसुहृत्‌ , मित्रं, (सतत सहचरमितिभावः) यद्वापरम्-असुहृत्‌, प्राणहरः। प्रजागरः, जागरणं, आप्तः, विश्रम्भभाजनः, (आत्मीयइत्यर्थः) नैनंत्यजतीतिशेषः। मनोरथाः, अभिलाषः, सर्वगताः, सर्वगामिनः, निश्वासाः, श्वसनानि, विग्रहग्रेसराः, विग्रहस्य, विशिष्टज्ञानस्य, देहस्य वा, अग्रगामिनः, शरीरं परित्यज्य गन्तुमिच्छन्तीत्यर्थः, मृत्युः, मरणं,पार्श्ववर्ती, पार्श्वंचरः (त्वदनङ्गीक्रियमाणे, मरणंनिश्चितमितिताप्तर्यम्‌) रणरणकः, उत्कण्ठा, एव, सञ्चारकः, प्रेरकः। सङ्कल्पाः, मनसो कल्पनाः,

ज्ञापयामि। अनुरूपोदेवोदेव्या इत्यात्म संभावना, शीलवानिति प्रक्रम विरुद्धम्‌, धीरइत्यवस्था विपरीतम्‌, स्थिरप्रीतिरिति निपुणोपक्षेपः, जानाति सेवितुमित्यस्वामिभावोचितम, इच्छति दासभावमामरणात्कर्तुमितिधूर्तालापः, भवनस्वामिनी भवसीत्युपप्रलोभनम्‌, पुण्य भागिनी भजतिभर्तारं तादृशमितिस्वामिपक्षपातः, त्वं तस्य मृत्युरित्यप्रियम्‌, अगुणराज्ञासीत्यधिक्षेपः, स्वप्नेऽस्यबहुशः कृतग्रसादासी-

वुद्धेः, ज्ञानस्य, उपदेशः “इदं कुरुएवं करणीय॑” इत्येवंरूपः, तस्मिन्‌ , वृद्धाः, महान्तः, स्थविराश्च।किं वा, विज्ञापयामि, कथयामि, अनुरूपः, सुयोग्यः, देवः, दधीचः, (उक्ते इति शेषः) (एवं सवत्रैवज्ञेयम्‌) इति, आत्मसंभावना, आत्मश्लाघा। शीलवान्‌सुशीलः, (असावितियावत्‌) प्रक्रमविरूद्धं , प्रसङ्गविपरीतम्‌ (ईदृग्व्यापारवतः वुतः शीलवत्वमित्यर्थः) धीरः, धैर्यवान्‌, इति, अवस्था विपरीतम्‌, अवस्थाकामजनितदशा, तस्याः, विपरीतं विरूद्धं, (धीराः नह्येवं विलपन्तीत्यर्थः) स्थिरप्रीतिः, अचलप्रेमा, इति, निपुणोपक्षेपः, निपुणस्य, चतुरस्य, (यथाकथञ्चित्‌ कर्मणि दक्षस्येत्यर्थः) उपक्षेपः, उपक्रमः (आलाप इति यावत्‌) (स्थायित्वकीर्तनं विना नास्य कार्यसिद्धिरित्येव मुक्तिःयुज्यते इत्यर्थः) सेवितुं परिचरितुं, जनाति। (प्रणयानुगमनमितियावत्‌) अस्वामिभावोचितं, स्वामित्वानुपयुक्तं, (नहिसेवन्तेस्वामिनः ,सेवकान् प्रत्युतः सेवकैरेव स्वामी सेव्येते) आमरणात्‌, आजीवनं, दासभावं, सेवकत्वं, इच्छति, इति, धूर्तालापः, प्रतारकवचनं, ( धूर्तैः स्वकार्यसिध्यैरेवं, कथ्यते इत्यर्थः) भवनस्वामिनी, गृहकर्त्री, भवसि, इति, प्रलोभनं, लोभप्रदर्शनं। पुण्यभागिनी, धन्या, तादृशं, ( सुयोग्यमित्यर्थः) भर्तारं, पतिं भजति, इति, स्वामि पक्षपातः, स्वामिनि (यदर्थमहमागता) तस्मिन, प्रभौ, इति भावः। पक्षपातः, अतिप्रणयः। त्वं, तस्य, मत्युः; (त्वां विनामरिष्यत्प्रसावित्यर्थः) इति; अप्रियं; निष्ठुरवचनं। अगुणाज्ञा;गुण परिज्ञाने-

त्यसाक्षिकम्‌, प्राणरक्षार्थमर्थयन इनि कातरता, तत्रागम्यतामित्याज्ञा, वारितोऽपि वलदागच्छतीति परिभवः। तेदवमगोचरे गिरामसीतिश्रुत्वा देवी प्रमाणम्‌’ इत्यभिधाय तूष्णीममूत्‌।

** अथ सरस्वती प्रीति विस्फारितेन चक्षुषा प्रत्यवादीत— ‘अयि’नशक्नोमि बहुभाषितुम्‌। एषास्मि ते स्मितवादिनि वचसि स्थिता। गृह्यन्ताममी प्राणाः, इति। मालती तु ‘यदाज्ञापयिस्यति प्रसादः’इति**

असमर्था, इति, अधिक्षेपः, अपमानः, स्वप्ने, निद्रावस्थायां, बहुशः, बारं बारं, कृतप्रसादा, कृतः, विहितः, प्रसादः, अनुग्रहः, यया, तथाभूता। (त्वां स्वप्ने, दृष्ट्वा, असौमहतीं प्रीतिमलभतेत्यर्थः) इति, असाक्षिकम्‌। साक्षिरदहितं, (स्वप्नेसाक्षिणामभावादित्यर्थः) प्राणरक्षार्थ, जीवनरक्षितुं, अर्थयते, प्रार्थयते, (तत्प्रसादमित्यर्थः) इति कातरता, दैन्यं, (दीनानामेवालापमेतदितिभावः) तत्र, तत्पार्श्वं, आगम्यतां, इति, आज्ञा, आदेशः। वारितः, निषिद्धः, (मागन्तव्यंत्वयाम-समीपं, इति) अपि, संभावनायां, वलात्‌, दृठात्, आगच्छतीतिपरिभवः तिरस्कारः। तत् , तस्मात्‌, गिरां, वाचां, अगोचरे, अविषये, असि, (नहिकिमपिवक्तुंसमर्था इति भावः ) इति श्रुत्वा, निशम्य, देवी, भवती, प्रमाणं, (प्रमीयते, अनुमीयते, इतिप्रमाणं। इत्यभिधाय, कथयित्वा, तूष्णी मभूत्‌ , मौनं लेभे।

अथ, अनन्तरं, प्रातिविस्फारितेन, प्रीत्या, प्रेम्णा, विस्फारितं, विस्तारितं, (उन्मीलितेमित्यर्थः) तेन, चक्षुषा, नेत्रेण, प्रत्यवादीत्‌, उक्तवती अपि? बहु, अधिकं, भाषितुं, कथयितुं, न शक्नोमि (असमर्थास्म) स्मितवादिनि? मधुरभाषिणि?, एषा, अहं,ते, तव, वचसि, आज्ञायां, स्थिता,अस्मि आमीप्राणाः, (मदीयं जीवनमित्यर्थः) गृहह्यन्तां, स्वीकुरू। मालतीतु, यदाःज्ञापयसि, आज्ञां करोसि, अतिप्रसादः, अनुग्रहः, (भवत्या इति शेषः) इति, व्याहृत्य, कथयित्वा, प्रहर्षः, आनन्द विशेषः, तेन, पखशा, पराधीना, (सुखे-

व्याहृत्यप्रहर्षपरवशा प्रणम्य प्रजविना तुरगेण ततार शोणम्‌। अगाञ्चदधीचमानेतुं च्यवनाश्रमपदम्‌। इतरा तु सखी स्नेहेन सावित्रीमपि विदित वृत्तान्तामकरोत्‌। उत्कण्ठाभारभृता च ताम्यता चेतसा कल्पायितं कथं कथमपि दिवसशोषमनैषीत्‌। अस्तमुपगतवति भगवति गभस्तिमति, स्तिमिततरमवतरति तमसि, प्रहसितामिव सितां दिशं पौरन्दरीं दरीमिव केसरिणिमुञ्चतिचन्द्रमसि, सरस्वती शुचिनि चीनांशुकसुकुमारे तरङ्गिणी दुकूलकोमले, शयनइव शोणसैकते

नेतियावत्‌) प्रणम्य, नत्वा, प्रजविना, द्रुतगामिना, तुरगेण, अश्वेन, शोणं, नदं, ततार, अवतीर्णा। दधीचमानेतुं, आनयनाय, च्यवनाश्रमपदं, च्यवनस्थानं, अगात्‌, च, अगमत्‌। इतरातु (सरस्वती) सखीस्नेहेन, प्रेम्णा, सावित्रीमपि, स्वसहचरीमपि,) विदित वृत्तान्तां, विदितः, ज्ञातः, वृत्तान्तः, (दधीचेसरस्वत्याःअनुरागवृत्तं यस्यास्ताम्‌) एवं भूतां, अकरोत्‌। चकार (सावित्रीसविधेसर्ववृत्तमकथ्यदितिभावः) उत्कण्ठाभारभृता, उत्कण्ठानां, औत्सुक्यानां, भारः, अतिशयः, तं, विभर्तीति, तेन, ताम्यता, किलश्यता, चेतसा, मनसा, कल्पयितं, ब्राह्मं दिनं कल्पः, तद्वदाचरति, तं, (कल्प शदृशमितिभावः) कथं कथमपि, केनापि प्रकारेणा, दिवसं, दिनं, अनैषीत्‌, व्यतीतयत्‌। गभस्तिमति, किरणशालिनि (सूर्य इति यावत्‌) भगवति, कल्याणकरे, अस्तं, अस्ताचलं, उपगतवति, प्राप्ते, (आस्तं गते इत्यथः) स्तिमिततरं, मन्दं मन्दं, अवतरति, आविर्भवति, प्रहसितामिव, प्रकर्षेण, कृद्धास्यामिव, सितां, शुभ्रां, पौयरन्दरीदिशं, पुरन्दरस्य, इन्द्रस्य, इयं, यद्वा, पुरन्दरः, अधिष्ठाता, यस्याः, सा पौरन्दरी, तं, दिशं, (पूर्वाभितिमावः) दरीमिव, गुहामिव, केसरिणि, सिंहे, मुञ्चति, त्यजति, (उदयमाने इत्यर्थः) चन्द्रमसि, शशिनि।सरस्वती-शुचिनि, स्वच्छे, चीनांशुकं, चीनदेशोद्धवंवस्त्रं, तद्वत्‌, सुकुमारः, अतिकोमलः, तस्मिन्‌, तरङ्गणि, (प्रतिदिवसक्षीयमाणेनजलेन कृतरेखेत्यर्थः)

समुपविष्टास्वप्नकृतप्रार्थनापादपतनलग्नां दधीचचरणनखचन्द्रिकामिव ललाटिकां दधाना, गण्डस्थलादर्श प्रतिबिम्बितेन, “चारूहासिनि?”, अयमसावाहृतो हृदयदयितो जनः’ इति अवणसमीपवर्तिना निवेद्यमान मदन सन्देशेवेन्दुना, विकीर्यमाणनखकिरणचक्रवालेनबालव्यजनीकृतचन्द्रकलाकलापेनेवकरेणबीजयन्ती स्वेदिनं कपोलपट्टम, ‘अत्र दधीचादृते न केनचित्प्रवेष्टव्यम’ इति तिराश्चीनं चित्तभुवापतितां बिला-

दुकूलकोमले, दुकूलवत् सुकुमारे‚ शयनं, शय्यायां, इव, शोणसेकते, शोणनदपुलिनं, समुपविष्टा, स्थिता। स्वप्नेति— स्वप्ने,स्वप्नावस्थायां, कृता, या, प्रार्थना, “मामनुगृहाण,’’ इत्यभ्यर्थना, तस्या, यत्‌, पादयोः, (दधीचस्येत्यर्थः) पतनं, तेन, लग्ना, संसक्ता, ताम्‌। **दधीचेति—**दधीचस्य, यः, चरणनखः, तस्य, या, चन्द्रिका, ज्योत्स्ना, तामिव, ललाटिकां, शिरोभूषणं, (तिलकमितियावत्‌) दधाना, धारयन्ती। गण्डेति—गरुडस्थलं, कपोलतलं, एव, आदर्शः, दर्पणः, (अतिस्वच्छमितियावत्‌) तत्र, प्रतिबिम्बितः, प्रतिफलितः, तेन, चारुहासिनि? मधुरभाषिण? अयमासौ), (पूर्वनिर्दिष्टः) हृदयदयितोजनः, हृदयवल्लभः, आहृतः, आनीतः, (मयेतिशेषः) “इति” श्रवणसमीप वतिना, कर्ण पार्श्ववर्तिना, **निवेद्यमानेति—निवेद्यमानः, विज्ञाप्यमानः, मदनस्य, कामस्य, सन्देशः, वाचिकं, यस्यै, तथोक्ता, इन्दुना, चन्द्रेण। विकीर्यमाणेति—**विकीर्यमाणं, इतस्ततः प्रसार्यमाणं, नखकिरणानां, मयूखानां, चक्रबालं, मण्डलं, यस्य तथोक्तेन अतएव, बालव्यजनीकृतः, नवचामरत्वेनधृतः अथवा, बालकृतं व्यजनं, चामरं, तत्कृतः, चन्द्रकला कलापः, चन्द्रकलानिचयः, येन, तथोक्तेन, स्वेदिनं, (कामोदूभूत धर्माक्तमितियावत्‌) कपोलपट्टं, गण्डस्थलं, करेण, हस्तेन, उपबीजयन्ती, व्यजनं कुर्वन्ती। अत्र (हृदये इति यावत्‌) दधीचादृते, दधीचंविना, न, केनचित्‌, केनापि, प्रवेष्ठव्यम्। इति, तिरश्चीनं, तिर्यक्यथास्यात्तथा, चित्तभुवा, कामेन, पातितां, निक्षिप्तां, बिलास

सवेत्रलतामिव बालमृणालिकामधिस्तनं स्तनयन्ती कथमपि हृदयेनवहन्ती प्रतिपालयामास। आसीच्चास्यामनसि— ‘अहमपि नाम सरस्वती यत्रामुना मनोजन्मना जघन्येव परवशीकृता। तत्र का गणनेतरासुतपस्विनीष्वति तरलासु तरुणीषु’ इति।

** आजगाम च मधुमास इव सुरभिगन्धवहः, हंस इव कृतमृणालधृतिः, शिखणडीव घनप्रीत्युन्मुखः, मलयानिल इवाहितसरसचन्दन**

वेत्रलतामिव, विलासाय वेत्रयष्टिमिव, (द्वारपालः अन्यप्रवेशनिवारणाय वेत्रयष्टिं तिरश्चीनं स्वापयतीतिलोक प्रसिद्धिः) वालमृणालिकां, नवमृणाललतां, (विरहसन्ताप शान्त्यै धारितामित्यर्थः) अधिस्तनं, स्तनोपरि, स्तनयन्ती कलयन्ती। कथमपि, हृदयेन, चेतसा, वहन्ती, धारयन्ती, प्रतिपालयामास, प्रतिक्षां चकार। आसीदिति— अस्याः, सरस्वत्याः, मनसि, हृदि, आसीच्च, अहमपि (अतिधीरादेवताऽपीति यावत्‌) नाम, यत्र, अमुना, अनेन, मनोजन्मना, कामेन जघन्येव, नाचेव, परवशीकृता, परवशतांनीता। तत्र, कागणना, गणनं, (किंकथनीयमियर्थः) इतरासु, अन्यासु, तपस्विनीषु, तपशीलाषु, अतितरलासु चञ्चलासु तरुणीषु, युवतीषु। (अन्ययुवतीनांतुकिंकथनं, यदयंकिंकरोतीति)।

** आजगामेति**— आजगाम इत्यतः मालतीद्वितीयोदधीचः, इत्यनेनान्वयः। मधुमासइव, वसन्तइव, सुरभिः, सौरभशालिनं, गंधंवहति, धारयतीति, , तथोक्तः (पक्षे) सुरभिः, सौरभवान्‌, गन्धवहः, पवनः, यत्रतथाभूतः। हंसइव, कृता, विहिता, मणालेन, (कामसन्ताप निवृत्यर्थमितिभाव।) धृति, धैर्यं, येन, तथाभूतः, यद्वा कृता मृणालेन धृतिः, जीवन रक्षणं, येन, तथोक्तः, शिखणडीव, मयूर इव, घना, सान्द्रा प्रीतिः (स्नेहातिशयः ) तस्यां, उन्मुखः (तत्प्राप्तिलोलुप इतियावत्‌) (पक्षे) घने, मेघे, (तद्दर्शने इति भावः) या, प्रीतिः, प्रेम, तस्यै, उन्मुखः, ऊर्ध्वमुखः।मलयानिल इव मलयमरुदिव, आहितः‚

धवलतनुलतोत्कम्पः, कृष्यमाण इव कृतकरकचग्रहेणाग्रहपतिना, प्रेर्यमाणा इव कंदर्पोद्दीपनदक्षेण दक्षिणानिलेन, उह्यमान इवोत्कलिकाबहलेन रतिरसेन, परिमलसंपातिना मधुपपटलेन पटेनेव नीलेनाच्छादिताङ्गयष्टिः, अन्तःस्फुरता मत्तमदनकरिकर्णाशङ्खायमानेन प्रतिमेन्दुना प्रथमसमागमविलासविलक्षस्मितेनेव धवलीक्रियमाणौककपोलोदरो मालतीद्वितीयो दधीचः।

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जनितः, सरसेन, सान्द्रेण, (घृष्टेनेतियावत्‌) चन्दनेन, धवलायाः, शुभ्रायाः, तनुलतायाः, अङ्गयष्टेः, उत्कम्पः, कम्पनं (कामज्वरेणेत्यर्थः) यस्य, तथाभूतः (पक्षे) आहितः, जनितः, सरसानां, स्निग्धानां, चन्दनानां, धवाः, वृक्षविशेषाः, तान्लान्ति, आश्रयन्तीति, तथाभूताः। याः, तनुलताः, सूक्ष्मवल्लर्यः , तासाञ्चउत्कम्पः, कम्पन, येन, तथाविधः। कृष्यमाणा इव, आकृष्टः इव, कृतः, करेण, हस्तेन, मयूवेन च, कचप्रहः, केशग्रहणं, येन, तथाभूतेन, ग्रहपतिना, चन्द्रमसा। प्रेर्यमाणा इव, प्रेरित इव, कंदर्पोद्दीपनदक्षेण, कन्दर्पस्य, कामस्य, उद्दीपने, उत्तेजने, दक्षेण, चतुरेण, दक्षिणानिलेन, दक्षिणा वायुना। उह्यमान इव, नीयमान इव, उत्कलिका, वहलेन, रणरणकभूयिष्टेन, रतिरसेन, रत्यास्वादेन। **परिमलेति—**परिमलेन, गात्रसौरभेण, सम्पतति, निपततीति तथाभूतेन। मधुप पटलेन, भ्रमर समूहेन, पटेनेव, वसनेनेव, नीलेन, नीलवर्णेन, आच्छादिता, आवृता, अङ्गयष्टिः, शरीर, यस्य, तथाभूतः। अन्तः स्फुरता, अन्तर्विराजमानेन, मत्तः, दुर्मदः, मदनः, कामः, एव, करी, हस्ती, तस्य, कर्णे श्रवणे, यः, शङ्खः, (शङ्खनिर्मितभूषणविशेषः) स इवाचरतीति, तेन, प्रतिमेन्दुना, प्रतिबिम्बितशशिना, प्रथमेति— प्रथमः, आद्यः‚ समागमः, सङ्गः, तस्मिन्‌, यः, विलासः तेन, विलक्षं, सलज्जं, यत्, मृदु हास्यं, तेन इव, धवलीक्रियमाणं, शुभ्रतांनीयमानं, एकस्य, कपोलस्य, गण्डप्रदेशस्य, उदरं, अभ्यन्तरं, यस्य, तथाभूतः, मालतीद्वितीयः, (मालत्यासहेत्यर्थः) दधीचः, (पुर्वनिर्दिष्टःकुमारः) आजगाम, प्राप्तः।

** आगत्य च हृदयगतदयितानूपुररवमिप्रयेव हंसगद्गदया गिरा कृत संभाषणो। यथा मन्मथः समाज्ञापयति, यथा यौवनमुपदिशति, यथानुरागः शिक्षयति, यथा विदग्धताध्यापयति, तथा तामभिरामां रामामरमयत्‌। उपजातविस्रम्भा चात्मानमकथयदस्य सरस्वती। तया तु सार्धमेकं दिवसमिवानयत्संवत्सरमधिकम्।**

** अथ दैवयोगात्‌ सरस्वती बभार गर्भम्‌। असूत चनेहसा सर्व लक्षणाभिरामं तनयम्‌। तस्मैच जातमात्रायैव ‘सम्यक्सरहस्याः सर्वे-**

हृदयेति—हृदयंगता, (मनसिप्रविष्टा इति यावत्) या, दयिता, प्रिया, तस्याः, नूपुररवः, रणरणक शब्दविशेषः, तेन, मिश्रा, मिलिता, (एकत्वंगतेत्यर्थः) तयेव, हंसगद्गदया, (हंसशब्द मधुरयेतिभावः) गिरा, वाचा, कृतसम्भाषणः, विहित वार्तालापः, (देवि? ते कुशलपवंविधमालपन्‌) यथेति— यथा, येनप्रकारेण, मन्मथः, कामः, समाज्ञापयति, आज्ञांकरोति। यौवनं, उपदिशति, अनुशाशति। अनुरागः, प्रेम, शिक्षयति, शिक्षां ददाति। विदग्धता, चतुरता, अध्यापयति, पाठयति। तथा, तां, (सरस्वतीं) अभिरामां, मनोरमां, रामां, प्रियां, अरमयत्‌। (अनौचित्यंहि देवता विषयक शृङ्गारप्रदर्शन मतः नात्र विस्तारेण प्रदर्शितं) कुमारीत्ये गान्धर्व विवाह वर्णनौचित्येऽपिनात्रतद्वर्णनं, शापावसान मात्रपरत्वादाख्यायिकायाः, अन्यथा, तथा, निन्दनीयः पतिपरित्यागः कथमकारि, इत्यादिकुतर्कप्रसङ्गात्‌) उपजात विश्रम्भा, समुत्पन्न विश्वासा, अस्य, दधीचस्य, आत्मानं, (स्वीयंभावमित्यर्थः) सरस्वती, अकथयत्‌। तया, सरस्वत्या, (शापादिकमिति यावत्‌) सार्धं, सह, अधिकंसम्वत्सरं, वर्षमेकं, एकंदिनमिव, वासरमिव, अनयत्‌ , व्यतीतयत्‌। अथेति— अथ, अनन्तरं, दैवयोगात्‌ , भाग्यात्‌ , सरस्वती, गर्भं, बभार, दधार। अनेहसा, कालेन, सर्वलक्षणभिरामं, मनोज्ञं, तनयं, पुत्रं, असूत। तस्मे, तनयाय जातमात्राय, (उत्पन्नायेत्यर्थः) सम्पक्‌, यथास्यत्तया सरहस्याः) रहस्यं

** वेदाः सर्वाणि च शास्त्राणि सकलाश्च कलाः मत्प्रसादात्स्वयमाविर्भविष्यन्तिः’ इतिवरमदात्। सद्भर्तृश्लाघया दर्शयितुमिव हृदयेनादाय दधीचं पितामहादेशात्समं सावित्र्या ब्रह्मलोकमाररोह। गतायां च तस्यां दधीचोऽपि हृदये ह्रादिन्येवाभिहतो, भार्गववंशसंभूतस्य भ्रातुर्ब्राह्मणस्य जायामक्षमालाभिधानां मुनिकन्यकामात्मसूनोः सम्बर्धनाय नियुज्य विरहातुरस्तपसेवनमगात। यस्मिन्नेवावसरे सरस्वत्यसूत तनयं तस्मिन्नवाक्षमालापि सुतं प्रसूतवती। तौतु सा निर्विशेषं सामान्यस्तन्या शनैःशनैःशिशू समवर्धयत्‌। एकस्तयोः सारस्वताख्य एवाभवन्‌, द्वितीयो-**

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उपनिषत्‌, तेन, सहवर्तमानाः, सर्वेवेदाः, ऋग्यजुः सामाथर्वाणः, सर्वाणि च, शास्त्राणि, मीमांसादानि, कलाः, चतुः षष्टिसंख्याकाः कामविद्याः। मत्प्रसादात्,स्वयं, आविर्भविष्यन्ति. प्रकटिष्यन्ति। इति, एवं, वरमदात्‌, वरंदत्तवती। सद्भर्तृश्लाघया, सत्‌, उत्तमः, यः, भर्ता, पतिः, तस्मिन्‌, श्लाघा, गौरवं, तया, दर्शयितुं, प्रदशेनाय, इव, दधीचं, हृदयेन, चेतसा, आदाय, नीत्वा, पितामहदिशात, (पुत्र मुखदर्शनानन्तरं ते शाप विरतिः, इत्यादेशात्‌) सावित्र्यासमं, ब्रह्मलोकं, पितामह स्थानं, आरुरोह, गता। गतायां च तस्यां, (सरस्वत्यामितिभावः) दधीचोऽपि, हृदये, चेतसि, ह्रादिन्या, वज्रेण, इव, अभिहतः, ताडितः, भार्गववंशसम्भूतस्य, भार्गवकुलेद्भवस्य, भ्रातुः, ब्राह्मणस्य, जायां, दयितां, अक्षमालाऽभिधानां, अक्षमाला, नाम्नी, मुनिकन्यकां, पुत्रिं, आत्मसूनोः, स्वतनयस्य, संवर्धनाय, वर्धितुं, नियुज्य, विरहातुरः, विरह पीडितः, तपसे,तपः कर्तुं, वनम्‌, अगात्‌, गतवान्‌। यस्मिन्नेवावसरे, समये, सरस्वती, तनयं. पुत्रं. असूत, तस्मिन्नेव, (समये-इतियावत्‌) अक्षमालापि, सुत, पुत्रं, प्रसूतवती, प्रसवंचकार। तौतु, वालकौ, सा, अक्षमाला, निर्विशेषम्‌, (स्वपुत्रादभिन्न भावेनेत्यर्थः) सामान्यस्तन्या, (उभयोः साधारण मितियावत्‌) स्तन्यं, दुग्धं, यस्याः, तथोक्ता। शनैः शनेः, समवर्धयत्‌,

ऽपि वत्सनामाभवन्‌। आसीच्चतयोः सोदर्ययोरिव स्पृहणीया प्रीतिः। अथ सारस्वतो मातुर्महिम्ना यौवनारम्भ एवाविर्भूताशेषविद्या संभारस्तस्मिन्सवयसि भ्रातरिप्रेयसि प्राणसमेसुहृदि वत्से वाङ्मयं समस्तमेव संचारयामास। चकार च कृतदारपरिग्रहस्यास्य तस्मिन्नेवप्रदेशे प्रीत्या प्रीतिकूटनामानं निवासम। आत्मनाप्याषाढ़ी, कृष्णा जिनी, वल्कली, अक्षवलयी, मेखली, जटी च भूत्वा तपस्यतो जनयितुरेव जगामान्तिकम्‌। अथ तस्मात्प्रवर्धमानादिपुरुषात्‌जनितात्मचरणोन्नति-

पालितवती। तयोः (पृवनिर्दिष्टयोः) एकः, सरस्वतीपुत्रः, सारस्वताख्यः, सारस्वत नामा, अभवत। द्वितीयः, अक्षमाला पुत्रः, वत्सनामा, वत्साभिधेयः, तयोः, वालकयोः, सोदर्ययोः, एक-उदरोद्भवयोरिव स्पृहणीया, प्रशंशनीया, प्रीतिः, प्रेम, आसीत्‌। अथ, अनन्तरं, सरस्वतः, मातुः (सरस्वत्याः) महिम्ना, प्रभावेण, यौवनारम्भएव, प्रौढावस्थायामेव, आविर्भूताः, प्रादुर्भुताः, अशेषाः, सकलाः, विद्याः, तासां, संभारः, सन्घः, तस्मिन , सवयसि, समान वयस्के, भ्रातरि, प्रेयसि, प्राणसमे, सुहृदि, मित्रे, वत्से, वाङ्मयं, शास्त्रं, समस्तं, सम्पूर्णं, एव, संचारयामास। प्रवेशयामास, (सर्वस्ताविद्याः वत्समशिक्षयदित्यर्थः) कृतदारपरिग्रहस्य, कृतविवाहस्य, अस्य (वत्सस्येत्यर्थः) तस्मिन्‌, एव, प्रदेशे, स्थाने, प्रीत्या, प्रेम्णा, प्रीतिकूट नामानं, तदाख्यं, निवासं, स्थिति, चकार, अकरोत्‌। आत्मना, स्वयं, (अपीतिसंभावनायां) आषाढी, पालाश दरण्डधारी, कृष्णजिनी, कृष्णशार मृगचर्मावरणमितिभावः। वल्कली, वल्कलीवृक्षत्वक्‌, तद्वान्‌ (तरत्वग्धारीत्यर्थः) अक्षवलयी, रुद्राक्ष जपमालाधारी, मेखली, मेखला, काञ्ची (मुञ्चतृणरचित तड़ागी) तद्वान्‌। जटी, जया, रक्ष सहतकेशः, तद्वान्‌। (जटिल इति यावत्‌) भूत्वा, एवं मुनिवेषंविधाय, तपस्यतः, तपस्यां कुर्वतः, जनयितुः, पितुः (दधीचस्थेतियावत्‌) अन्तिकं, पार्श्वं, जगाम, अगमत्‌। अथेति— तस्मात्‌ , प्रवर्धमानात्‌ , वृद्धिंगच्छतः,

निर्गतप्रघोषः, परमेश्वरशिरोधृतः, सकलकलागमगम्भीरः, महामुनिमान्यः, विपक्षक्षोमक्षमः, क्षितितललब्धायतिः, अस्खलितप्रवृत्तोभागी-

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आदिपुरुषात्‌, पूर्वपुरुषात्, (वत्सादितियावत्‌) अथवा, प्रवर्धमानात्‌, सन्तत्यावृद्धिंगच्छतः, आदि पुरुषात्, पूर्वजात्‌,(भार्गवादित्यर्थः) (पक्षे) नारायणात्‌। जनितेति—जनिता, वृद्धिंनीता, आत्मचरणेन, आज्ञानेन, या, उन्नतिः, अभ्युदयः, तया, निर्गतः, (दिगन्तगत इत्यर्थः) प्रघोषः, ध्वनिः, (कीर्तिरित्यर्थः) यस्य, तथोक्तः। अथवा, जानिता, कृता, आत्मनां, स्वेषां, (स्ववंशीयानामितियावत्‌) चरणानां, कठादि शाखाध्यायिनां। उन्नतिः, उत्कर्षः, तया, निर्गतः, प्रघोषः, यशः यस्य, तथाभूतः (पक्षे) जनितस्य, उत्पादितस्य, आत्मचरणस्य, (वलिछलनसमये, स्वकी यतृतीयपादस्येतिभावः) उन्नत्या, उर्ध्वगत्या, निर्गतः, प्रघोषः, कलकल शब्दः, यस्य, तथोक्तः। (तदानीतच्चरण स्पर्शेन, ब्रह्मकटाहभेदादित्यर्थः) ब्रह्मकटाहस्थिता गङ्गा भगवच्चरण स्पर्शात्‌ कटाहभङ्गे महीतले पपात, इत्यस्या विष्णोश्चरणोद्भवेति प्रसिद्धिः) परमेश्वरशिरोधृतः, परमेश्वरः, सत्राट् तेन, शिरसाधृतः, (सम्मानित इतियावत्) (पक्षे) परमेश्वरेण, शङ्करेण, शिरसाधृत, धारितः, (हरशिरश्चारीत्यर्थः) सकलेति—सकलाः, सर्वाः, कलाः, विद्याः, तासां, आगमेन, प्राप्तेन, (ज्ञानेनेतियावत्‌) गम्भीरः, पूर्णः, (पक्षे) सकलकलेन, शव्दविशेषेण, सह, यः, आगमः, प्रवहणं, तेन, गम्भीरः,। महा मुनिमान्यः महान्तश्च ये मुनयः, तैः, मान्यः, आदरणीयः, अथवा, महामुनिवत्‌, मान्यः, मानार्हः (पक्षे) महामुनिः, जन्हुः, तेन, मान्यः, सेव्यः, (पवित्र वुध्या उदरेण धृतत्वादितियावत्‌) विपक्षेति—विपक्षक्षोभक्षमः, विपक्षाणां, शत्रुणां क्षोभे, पराजये, क्षमः, समर्थः। (पक्षे) विपक्षाः, पक्षरहिताः, (पर्वता इति यावत्‌) तेषां क्षोभे, तरङ्गाघातेन, खणडने, क्षमः, शक्तः। क्षितितलेति— क्षितितलेषु, पृथ्वी भागेषु, लब्धा, प्राप्ता, आयतिः, प्रतिष्टा, (पक्षे) आयतिः,

रथीप्रवाह इव पावनः प्रावर्तत विपुलो वंशः। यस्मादजायन्त वात्स्यायना नाम गृहमुनयः, आश्रितश्रौता, अप्यनालम्बितालीकबककाकवः, कृतकुक्कुटव्रता, अप्यवैडालबृत्तयः, विवर्जितजनवृत्तयः, परिहृतकपट-

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विस्तारः, येन, तथाभूतः। अरखलितप्रवृत्तः, नास्तिस्खलितं, सदाचारभ्रंशः, यस्मिन्‌, तद् यथारयात्तथा, प्रवृत्तः, ख्यातः, (पक्षे) अस्खलितं, अनिरुद्धं` प्रवृत्तः, प्रवहणं, यस्य, तथाभूतः। भागीरथी प्रवाहइव, गङ्गास्रोतइव विपुलः, महान्‌, पावनः, पवित्रः, वंशः, बुलं, प्रार्वतत (ख्यार्तिलेभे-इतिभावः) यस्माद्‌ (वंशादितियावत्‌) वात्स्यायननाम, वत्सवंशोद्भावाः, गृहमुनयः, गृहस्थिताः, मुनयः, (मुनिवदाचरन्त इतिभावः) आश्रितश्रौताः, आश्रितः, अवलम्बितः, श्रौतः, वेदविहितः, आचारः यै, तथोक्ता, (कपटभावंपरित्यज्यवेदानुष्ठानकर्तार इतिभावः) पक्षे, श्रौतं, श्रुतौ, कर्णेएव, आश्रितं, स्थितं,(चिरवृत्तमितिभावः) आलम्बितः, स्वीकृतः वकस्य, पक्षिविशेषस्य, काकुः, ध्वनिः, (भिन्नकण्ठध्वनिधीरैः काकुरित्यभिधीयते) यैः, तथाभूताः,। (यैःवकवृत्तिः (छद्म) स्वीकृता तैःकथं वेदमार्गमनुसर्यते) इतिविरोधः। परिहारे-अलीकं, तुछद्म परिछन्नंअनालम्बितः, अस्वीकृतः, वकस्य काकुः, ध्वनिः, यैः तथोक्ताः,। कृतेति— कृतं, कुक्कुटानां व्रतं, भक्षणं, यैः तथोक्ताः, अपि, अबैडालवृत्तयः, नास्ति वैडाली, विडाल सन्वधीनवृत्तिः, व्यवहारो येषां तथाभूताः,। यैः कुक्कुटभक्षणं कृतं ते कथं, अबौडालवृतयः, इतिविरोधः, परिहारे, कुक्कुटव्रतं, कुक्कुटाण्डप्रमाणं ग्रासभोजनं, एवंभूताः। चान्द्रायणादि व्रतेषु कुक्कुटाण्ड प्रमाणं ग्रास भोजनं क्रियत, एव। विवर्जितेति— विवर्जिता, जनानां, दुर्जनानां, अथवा, जनेषु, दुराचारपुरषेषु, वृत्ति, व्यवहारः, यैः, तथोक्ताः। **परिहृतेति—**परिहृतं, परित्यक्तं,कपटकीरस्य, दुष्टशुकस्य, कुचीकूर्चाकूतं, “किचरमिचिर’’ इति अव्यक्त शब्दोः, यैः, तथाभूताः, यद्वा, परिहृतं, कपटं, व्याजस्तुतिः, (निन्दास्तुतिरितियावत्‌)

कीरकुचीकूर्चाकूताः, अगृहीतगह्वराः, न्यक्कृतनिकृतयः, प्रसन्नप्रकृत यः, विगतविकृतयः, परपरिवादपराचीन चेतसः, वर्णत्रयव्यावृत्तिविशुद्धान्धसः, धीरधिषणावधूताध्येषणाः, असङ्क सुकस्वभावाः, प्रणतप्रणयिनः शमितसमस्तशाखान्तर संशीतयः, उद्घाटितसमस्तग्रंथार्थग्रन्थयः, कवयः,

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कीराणां, कुचीकुर्चाः, अनर्थकशब्दालापाः, तेषु, आकूतं, अभिप्रायः, यैःतथोक्ताः। (यथापाठिताहिशुकाः, रञ्जयन्तिलोकानां मनांसि, परं नहि तेषां तादृशी प्रवृत्तिः, परमेतेब्राह्मणास्तुसमव्यवदहारिणोनकापटिकावाचाला इतिभावः) अगृहीतेति— अगृहीतगह्वराः, न गृहीतं, धृतं. गह्वरं, पाप, यैः,तथोक्ताः। न्यक्कृतेति— न्यक्कृता, तिरस्कृतां निकृतिः, शाठ्यं, यैः, तथाभूताः। प्रसन्नेति— प्रसन्ना, शुद्धा प्रकृतिः, स्वभावः, येषां (सौम्या इतियावत्‌) विगत॑ति— विगता, विकृतिः, विकारो येषां ते, (अविकृतचित्ता इतिभावः) **परेति—**परेषां, परिवादं, निन्दायां, पराचीनं, पराङ्मुखं, चेतः, येषां (परनिन्दा रहिता इयर्थः) **वर्णोति—**वर्णत्रयाणां, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्धाणां, व्यावृत्त्या, विवर्ज्जने (प्रतिग्रह्मदि वैमुख्येनेतिभावः) विशुद्धानि, पवित्राणि, अन्धांसि, अन्नानि, तेषां तथाभूताः। धीरेति— घोरा, धैर्यशालनी, या, धीषणा, बुद्धिः, तया, अवधूता, तिरस्कृता, अध्येषणा, याञ्चा, यैः, तथाभूताः‚(परित्यक्तयाचनमित्यर्थः) असङ्कसुकस्वभावाः, असङ्कसुकः, स्थिरः मृदुश्च,स्वभावः, येषां, तथोक्ताः। प्रणत प्रणयिनः, प्रणतेषु, नम्रेषुजनषु, अनुरागिणः। **शमितेति—**शमिता, शान्तिंनीता, (सिद्धान्तेन निराकृतेत्यर्थः) समस्तः, समग्राः, शाखान्तराणां, कठादि वैदिक शाखाविशेषाणां, शंशीति, संशयः, यैः, तथाभृताः। **उद्धाटितेति—**उद्धाटिताः. स्फुटिकृताः, (व्याकृताइतियावत्‌) समग्राणां, सम्पूर्णानां, ग्रन्थानां. शास्त्राणां, अर्थग्रन्थयः, गूढार्थाः यैः, तथोक्ता, (शास्त्रंसंशयदूरीकरणशीला इतियावत्‌) कवयः, काव्यनिर्मातारः, वाग्मिनः, सुवक्तारः, विमत्सराः, वि-विगतः, मत्सरः, द्वेषभावः

वाग्मिनः, विमत्सरा, सरसंभाषितत्र्यसनिनः, विदग्धपरिहासवेदिनः, परिचयपेशलाः, नृत्यगीतवादित्रेष्वबाह्याः, ऐतिह्यस्यावितृष्णाः, सानुक्रोशाः, सत्यशुचयः, साधुसंमताः, सर्वसत्वसौहार्दद्रवार्द्रहृदया, तथा सर्वगुणोपेता राजसेनानभिभूताः, क्षमाभाज आश्रितनन्दनाः, अनिस्त्रिंशा विद्याधराः, अजडाःकलावन्तः; अदोषास्तारकाः; अपरोपतापितो भास्व-

येषां तथोक्ताः। सरसेति— सरसं, रसयुक्तं, भाषितं, वचनं, तत्र, व्यसनिनः, (सद्भाषितइतियावत्) विदग्धेति— विदग्धः, चतुरः, यः. परिहासः, केलिः तद्वेदिनः, ज्ञातारः। परिचयपेशलाः, परिचयेषु. संस्तवेषु (सज्जनैरितियावत्‌) पेशलाः, निपुणाः। नृत्यवादित्रेषु, नर्तनगानादिषु, अवाह्याः, वहिर्भाव रहिताः, (सर्वच्चइति भावः) ऐतिह्यस्य, इतिहासस्य, अतिवितृष्णाः, आसक्ताः, (इतिवृत्तज्ञानिन इतिभावः), सानुक्रोशाः, सदयाः। सत्यशुचयः, सत्येन शुचयः, पताः। साधुसम्मताः, सज्जनमान्याः। सर्वेति— सर्वेषु, सत्वेषु, जीवेषु, सौहार्दद्रवेण, मैत्रीभाबेन, आर्द्रं, स्निग्ध, हृदयं, येषां तथाभूताः। सर्वगुणोपेताः, सर्वैःगुणैः, दाक्षिण्यादिभिः, उपेताः, युक्ताः, राज्ञः, नृपस्य, सेनया, सैन्येन, अनभिभूताः। अनाक्रान्ताः, (ये तु सर्वैर्गुणैःसत्वरजस्तमादिभिर्युक्तास्ते राजसेन रजः, सम्बधिगुणोनदम्भाहंकारादीना इतिभावः) अनभिभूताः, अपराजिताः, रजोगुण रहिता भवन्ति इति विरोधः। परिहारस्तुप्राक। क्षमाभाजः, क्षमा,पृथ्वी, तां, भजन्ते, ते, आश्रितनन्दनाः, आश्रितं, सेवितं, नन्दनं, तदाख्यं सुरोद्यानं यैःतथाभूताः। पृथ्वी स्थितानां नन्दनाश्रयणमितिविरोधः असाम्यत्वात्‌। परिहारे, क्षमा, शक्तौसहिष्णुता, तद्भाजः (तंद्वन्त इतियावत) आश्रितनन्दनाः, आश्रितान्‌, अनुगतान् जनान्‌, नन्दयन्ति, आमोदयन्ति, तंथाभूताः। अनिस्त्रिंशाः, खङ्गवर्जिताः, विद्याधराः, देवयोनिविशेषाः) इतिविरोधः, तेषांखङ्गसामिप्यत्वात्‌। परिहारे-अनिस्त्रिंशाः, अनिर्द्दयाः, विद्याधराः, विद्वांन्सःअजड़ाः, अशीताः, (उष्णाइतियावत्‌) कलावन्तः चन्द्राः।

न्तः; अनुष्माणो हुतभुजः, अकुसृतयो भोगिनः, अस्तम्भाः, पुण्यालयाः, अलुप्तक्रतुक्रिया दक्षा, अव्यालाः कामजितः, आसाधारणा द्विजातयः।

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(ये उष्णाभवन्तितेकथं चन्द्राः, इतिविरोधः, तस्य शीतराश्मत्वात्‌) परिहारेअजडाः, अमूर्खाः, कलावन्तः, नृत्यगीतादिषुनिपुणाः। अदोषाः, दोषारात्रिस्तद्रहिताः, तारकाः, नक्षत्राणि, इतिविरोधः, रात्रिविना तारकोद्गमत्वात्। परिहारे-अदोषाः, दोषरहिताः, तारकः, तारयन्ति, उद्धरन्ति लोकानिति, तथाभूताः (उपदेष्टारइतिभावः) अपरोपतापिनः, नपरान्‌ , उपतापयन्ति, सन्ता. पयन्ति, इति, तथाभूताः, भास्वन्तः, सूर्याः, (ये, सूर्यास्तेकथं नापरसंतापकराः,) इति विरोधः। सूर्यस्यतापहेतुत्वात्‌। परिहारे-अपरे पतापिनः, परान्‌ न उपतापयन्ति, पीडयन्तीति तथाभूताः। भास्वन्तः, प्रभाशालिनः, (लोकसमाजेषु दीप्यमाना इतिभावः) अनुष्माणः, शीताः, हुतभुजः, अग्नयः, इति विरोधः, अग्नेः, उष्णत्वात्। परिहारे अनुष्माणः, उष्मरहिता, (अगर्वाइतियावत्‌) हुतभुजः, हुतं; यज्ञेषु देवभ्योदत्तं, तं भुञ्जते, इति तथाभूताः (य॒ज्ञवशिष्टाशिनइतिभावः) अकुसृतयः, नास्ति, कौ, पृथिव्यां, विवरे वा, सतिः, गतिः, स्थितिः, वा येषां, तथाभूताः, भोगिनः, सर्पाः, इति विरोधः, (सर्पाणांविवरेपृथिव्यां वा अनवस्थानमसम्भवत्वात्‌) परिहारे-अकुसृतयः, अकु-अकुसिता, सृतिः, गतिः, आचारः, येषां, तथाभूताः, भोगिनः, संसार सुख्यभोगवन्तः। अस्तम्भाः, स्तम्भः, स्थूणां, तद्रहिताः, पुण्यालयाः, पुण्यस्थानानि (मन्दिराणीतिभावः) इति विरोधः। स्तम्भविना गृहस्थिते रसम्भवात्‌। परिहारे-स्तम्भः, कामजनित सात्विकभावः, तद्रहिताः, पुण्यालयः।, पुण्यवन्तः। **अलुप्तेति—**न लुप्ता, अनष्टा, क्रतुक्रियां, यज्ञानुष्ठानं, येषां तथाभूताः, दक्षाः दक्षः, प्रजापतिः, सः, इतिविरोधः, हरकोपेन तस्य यज्ञ विध्वंसतत्वात्‌) परिहारे-दक्षा चतुराः। अव्यालाः। सर्परहिताः कामजितः रुद्रा, इतिविरोधः, महादेवेसततंसर्पसान्निष्यात्‌। परिहारे-अव्यालाः, अहिंस्राः. कामजितः,

तेषु चैवमुत्पद्यमानेषु; संसरति संसारे, यात्सुयुगेषुः अवतीर्णेकलौवहत्सु वत्सरेषु, व्रजत्सु वासरेषु, अतिक्रामति च काले, प्रसवपरम्पराभिरनवरतमापतति विकासिनि वात्स्यायनकुले, क्रमेणकुबेर नामा वैनतेय इव गुरुपक्षपातीद्विजो जन्म लेभे। तस्याभवन्नच्युत ईशानो हरः पाशुपतश्चेति चत्वारो युगारम्भा इव ब्राह्यतेजो जन्यमान-

कामजयिनः, ( निरभिलाष, इत्यर्थः) असाधारणाः, असामान्याः, द्विजातयः ब्राह्मणाः, द्विजन्मानः, द्वाभ्यां गर्भसंस्काराभ्यां जायते इति द्विजन्मा। तेषु च, एवं, अनेनप्रकारेण, उत्पद्यमानेषु, जायमानेषु, संसरति, चलति, संसारे, जगति, यात्सु,गच्छसु, सत्यद्वापर त्रेतादिषु, अवतीर्णे, प्रादुर्भूते, कलौ, कलियुगे, बहत्सु, अनिक्रामत्सु, वत्सरेषु, व्रजत्सु, गच्छसु. वासरेषु, दिवसेषु, अ्तिक्रामति, गच्छति, च, काले, समये, (प्रागभिहिते इति यावत्‌) प्रसव परम्पराभिः. अपत्यजन्मप्रवाहेः, अनवरतं, निरन्तरं, आपतति, परिवर्द्धमाने, विकासिनि, विराजमाने, वात्स्यायनकूले, वंशे, क्रमेण, जनपरम्पर या, वैनतेय इव, “विनतायाःअपत्यं पुमान्‌ वैनतेयः’’ गरुड, स इव, गुरूपक्षपाती, गुरौ, आचार्ये, पितरि वा, पक्षपातः, भक्तिः, विद्यते अस्येति तथाभतः, (पक्षे) गुरूभ्यां, महद्भयां , पक्षाभ्यां, पतति, उद्गच्छतीति तथाभूतः, द्विजः, (द्वाभ्यां जन्म संस्काराभ्यां जायते इति द्विजः, ब्राह्मणः) (पक्षे) द्वाभ्यां जन्माण्डजाभ्यां जायते इति द्विजः, पक्षी। कुवेरनामा कुवेराभिधेयः, जन्म लेमे, अजायत। तस्य, कुवेरस्य, युगारम्भा इव, युगानां, सत्यादीनां, चतुर्णां, आरभ्माः, प्रथम प्रवृत्तयः, ते, इव। व्राहमेति— ब्राह्मं,वैदिकं, तेजः, तेन, जन्यमानः, उत्पद्यमानः, प्रजानां, सन्ततीनां, विस्तारः येषां, तथोक्ताः, (पक्षे) ब्राह्मणः, विधातुरिदं ब्राह्मं, यत्‌ तेजः, तेन, (मनः प्रभावेणेतिभावः) जन्यमानः, प्रजाविस्तारः, येषु, तथाभूताः। युगादौब्रह्मणः सनकसनन्दनादीनां चतुर्णापुत्राणां मानससृष्टिः, ततः जन्म ह्रास कारणात्‌, सङ्कल्पान्मै-

प्रजाविस्तारा नारायणबाहुदण्डा इव सच्चक्रनन्दकास्तनयाः। तत्रपाशुपतस्यैक एवाभवद्‌ भूभार इवाचल कुलस्थितिश्चतुरुदधिगम्भीरोऽर्थपतिरितिनाम्ना, समग्राग्रजन्मचक्रचूडामणिर्महात्मा सूनुः।

** सोऽजनयद्भृगुं हंसं शुचिं कविं महीदत्तं धर्मं जातवेदसं चित्रभानुं त्र्यक्षम्‌,अहिदत्तं विश्वरूपञ्चेति— एकादश रूद्रानिव सोमामृतरसशीक-**

धुनःच्चसृष्टिरिति शास्त्रेऽवधेयम्‌। नारायणस्य, विष्णोः, वाहुदण्डा, भुजदण्डा, इव, (विष्णोश्चतुर्भुजत्वात्‌) सच्चक्रनन्दकाः, सतां सज्जनानां, चक्रं, समाजं, नन्दयन्ति, आहलादयन्ति, इति तथाभूताः, (पक्षे) सत्‌, तिष्ठत्‌ ,चक्रं, सुदर्शनं, नन्दकः, खङ्गः येषु तथोक्ताः। तनयाः, अच्युतादयः, एकादशपुत्राः, अभवन , बभूवुः। तत्र ( कुले इतियावत्‌ ) पाशुपतस्य, एकः-एव, भूभार इव, भुवः पृथिव्याः, भार इव, अचल कुलस्थितिः, अचला, स्थिरा, कुलस्य; वंशस्य, स्थितिः, यस्य, तथाभूतः (पक्षे)अचलानां, पर्वतानां, कुलैः, समूहैः(सप्तभिः कुलपर्वतैरितिभावः) एवं स्थितिर्यस्य तथोक्तः। (शेषशिर” स्थायाः, भूमेः नमनोन्नमन निवृत्यर्थं परितः पर्वतानामवस्थापनादितिभावः) चतुरुदधिगम्भीरः,चत्वारः,उदधयः, समुद्राः, तद्वत्गम्भीरः,(महाप्रभावत्वादविकार्यस्य) (पक्षे) चतुर्भिः, उदधिभिः, समूहैः, गम्भीरः, वेष्टितः, इति भावः। अर्थपतिनाम्ना समप्रेति—समग्राणां, अग्रजन्मनां, ब्राह्मणानां, चक्रस्य समूहस्य, चूड़ामणिः, शिरोरत्नभूतः. (अग्रगण्यइति यावत्‌) महात्मा-सूनुः, पत्रः, अभवत्‌ , बभुव।

सः, अर्थपतिः, भृगुंहंसादीनेकादशरूद्रानिव, सोमेति— सोमः „ तन्नाम लता; तस्य,अमृतमिवरसः, (यज्ञशिष्ट इत्यर्थंः) तस्य, शीकरैः, विन्दुभिः, छुरितं, (पूर्णमिति यावत्‌) मुखं, येषां, (यज्ञकर्तृत्वात्‌ सोमरस पायिन इति भावः) (पक्षे) सोमस्य, चन्द्रस्य, अमृतरसानां, निःसृत किरणद्रवाणां, शीकरैः, छुरितमुखान्‌, आवृतवदनान्, पवित्रान्‌, विशुद्ध प्रवृत्तीन्‌, पुत्रान्,

रच्छुरितमुखान्पवित्रान्पुत्नान्। अलभत च चित्रभानुः स्तेषां मध्ये राजदेव्यभिधानायां ब्राह्मण्यां बाणमात्मजम्‌। स बाल एवं विधेर्बलवतो वशादुपसम्पन्नया व्ययुज्यत जनन्या। जातस्नेहस्तु नितरां पितैवास्य मातृतामकरोत्‌। अवर्धत च तेनाधिकतरमेघीयमनधृतिर्धाम्निनिजे। क्रतोपनयनादिक्रियाकलापस्य समावृत्तस्य चतुर्दशवर्षदेशीयस्य पितापि श्रुतिस्मृतिविहितं कृत्वा द्विजजनोचितं निखिलं पुण्यजातं कालेनादशमीस्थ एवास्तमगत्‌। संस्थिते च पितरि महता शोकेनाभी

तनयान्‌ , अजनयत्‌।तेषां (पुत्राणां मध्ये) चित्रभानुः, तदाख्यः, राजदेव्यभिधानायां, राजदेवीसमाख्यायां, ब्राह्मण्यां, बाणं, बाण नामानं, आत्मजं, पुत्रं. अलमत्, प्राप्तवान्‌। सबाणः, विधेः, दैवस्य, बलवतः, प्रवलस्य (महादुर्भाग्यस्पेतिभावः) वशत्‌ , प्रभावात्‌ , उपसम्पन्नया, मृतया, जनन्या, मात्रा, व्ययुज्यत, वियोगितः। जातेति—जातः, उत्पन्नः, स्नेहः, प्रेम, एवं भूतः, पिता एव, अस्य (वाणस्य) मातृतां, मातृभावं, अकरोत्‌ चक्रार।तेन, (चित्रभानुना) अधिकतरं, वहुविधं, यथास्यात्तथा, एधीयमाना, (इध्यते अग्निरनेनेतिएघः, अग्निप्रज्वालन काष्ठं, तद्वदाचर्यमानां, उद्दीस्यमाना, धृतिःधैर्यं, यस्य, तथाभूतः, स, निजेधाम्नि, स्वकीयेगृहे, अवर्धत,अपालयत्‌ , (च-इति समुच्चनयार्थ वोधकमव्ययम्‌) कृतेति— कृतं, विदितं, उपनयनादि, क्रियां कलापं, क्रिया समूहं, यस्य, समावृत्तस्य, स्नातकस्य, (वैदाध्ययनात्परंसमावतेनं नामसंस्कारसंस्कृतस्येतिभावः) चतुर्दशवर्षदेशीयस्य, चतुर्दशवर्षीयस्य, श्रुति स्मृति विहितं, श्रुतिः, वेदः, स्मृतिः, धर्मशास्त्रं, तद् विधितं, कथितं, द्विजजनोचितं, ब्राह्मणजन योग्यं, निखिलं; सम्पूर्णं, पुण्यजातं, (श्रौतस्मार्तक्रियानिचयमितिभावः) अदशमीस्थः, “शतायुवैपुरूषः,’’ इत्युक्तेः, आयुषो दशधाविमागे दशमीनाम अन्तिमावस्था; तत्र, तिष्ठतीतिदशमीस्थः, स न विद्यते अम्येति-अदशमीस्थः (अपूर्णावस्थायामेवेतिभावः) अस्तमगात्‌,

लमनुप्राप्तोदिवानिशं दह्ममानहृदयः कथंकथमपि कतिपयान्दिविसानात्मगृहेएवानैषीत्‌। गते च विरलतांशोके शनैःशनैरविनयनिदानतया स्वातंत्र्यस्य, कुतूहलबहलतया च बाल भावस्य, धैर्यप्रतिपक्षतया च यौवनारम्भस्य, शैशवोचितान्यनेकानि चापलान्याचरन्नित्वरो बभूव। अभवंश्चास्य वयसा समानाः सुहृदःसहायाश्च। तथा च। भ्रातरौपारशवौचन्द्रसेनमातृषेणौ, भाषाकविरीशानः परंमित्रम् , प्रणयिनौ

परलोकमगमत्। संस्थिते, मृते, पितरि, महता शोकेन, अतिदुःखेन, आभीलं, कष्टं, अनुप्राप्तः, पतितः, दिवानिशं, नक्तंदिनं, दह्यमानहृदयः, प्रज्वलितचित्तः, कथं कयमपि, केनापिपकारेण, कतिपयान्दिवसान्‌, दिनान्, आत्मगृहे, स्ववेश्मनि, एव, अनैषीत्‌ , व्यतीतयत्‌। विरलतां, अल्पतां, गते, प्राप्ते, शोके, शनैः शनैः, मन्दं मन्दं, अविनय निदानतया, विनयः, दुराचारः, (मदौद्धत्यमिति यावत्‌) तस्य, निदानं, मूलकारणं, तस्य भावः, तत्ता, तया, स्वातन्त्र्यस्य, स्वाधीनायाः, कुतुहलं, आश्चर्यं, तस्य, वहलतया, आधिक्येन, बालभावस्य शिशुत्वस्य, धैर्यप्रति पक्षतया, धैर्यविरोधितया, यौवनारम्भस्य, प्रौढावस्थायाः। शैशवोचितानि, वाल्योचितानि, अनेकानि, वहूनि, चापलानि, आचरन्‌ , इत्वरः गमनशीलः, वभूव, अभवत्‌। अभवंश्चेत्यादिना आत्मनः सर्वविध कला विशारदत्वं प्रकटयति। अस्य, बाणस्य, वयसा समानाः, समान वयस्काः, (ब्राह्मणात्‌ शुद्ध कन्याया मूढायां जातौपारशवौ) सुहृदः, मित्राणि, सहायाश्च, अभवन्‌, बभूवु,। भ्रातरौ, पारशवौ, चन्द्रसेनमातृषेणौ, तन्नामाभिधेयौ), भाषाकविः, भाषायां,(संस्कृतादिवाक्ये इति यावत्‌) कविः, काव्यरचयिता, यद्वा, भाषाः, गेयवस्तुवाचः, तासु कविः, गाथादिषुगोतिनिर्माता, ईशानः, तन्नामधेयः, परं, उत्कृष्टं, मित्रं, सुहृत्‌। रुद्रनारायणौ, तन्नामकौ, यद्वा, विष्णु महेशौ, प्रणयिनौ, प्रेमपात्रौ, वार बाण बासबाणौ, तदाख्यौ), विद्वांसौ, पण्डितौ, वर्णकविः) वर्णरचनायां कविः, वेणीभारतः, तदाख्यः।

रूद्रनारायणौ, विद्वांसौवारबाणवासबाणौ, वर्णकविर्वेणीभारतः, प्राकृतकृत्कुलपुत्रो वायुविकारः, बन्दिनावनङ्गबाणसूचीबाणौ, कात्यायनिका चक्रवाकिका, जांगलिकोमयूरकः, ताम्बूलदायकश्चण्डकः, भिषक्पुत्रो मन्दारकः, पुस्तकबाचकः सुदृष्टिः, कलादश्चामीकरः, हैरिकः सिन्धुषेणः, लेखकोगोविन्दकः, चित्रकृद्वीरवर्मा, पुस्तकृत्कुमारदत्तः, मार्दङ्गिको जीमूतः, गायनौसोमिलग्रहादित्यौ, सैरिन्ध्री कुरङ्गिका, वांशिकौमधुकरपारावतौ, गान्धर्वोपाध्यायो दर्दुरकः, संवाहिका केरलिका, लासकयुवा ताण्डविकः, आक्षिक आखण्डलः, कितवो

प्राकृतकृत्‌ , प्राकृतमाषानिर्माता, वायुविकारः, तन्नामा। वन्दिनौ, स्तुतिपाठकौ, वाणासूचीबाणौ, तदाख्यौ। कात्यायनिका, विधवास्त्री। चक्रवाकिका, तदाख्या। जाङ्गुलिकः, विषवैद्यः, मयूरकः, तदाख्यं, ताम्बूल दायकः, पर्णाविक्रेता चन्द्रकः, तदाख्यः। भिषकपुत्रः, वैद्यसुतः, मन्दारकः, तन्नामा। पुस्तकचवाकः,वक्ता, सुदृष्टिः, तदाख्यः। कलादः, स्वर्णकारः, (स्वर्णकारः कलादः स्यात्तध्यक्षस्तु हैरिकः) चामीकरः, तन्नामा। पुस्तकृत्‌, ग्रन्थकर्ता, यद्वा, पुस्तं, लेप्यादि शिल्प कर्म, तत्कृत्‌, शिल्पकर्मकारी, कुमारदत्तः, तदाख्यः। मार्दङ्गिकः, मृदङ्गवादकः, जीमूतः, तन्नामा, गायनौ, गायकौ, सोमिलग्रहादित्यौ, तन्नामानौसैरिन्ध्री, प्रसाधनोपचारज्ञा, कुरङ्गिका, तन्नम्नी। वांशिकौ, वंशीवादकौ, मधुकरपारावतौ, तन्नामानौ, गान्धर्वोपाध्यायः, गान्धर्त सङ्गीतशास्त्रं, तस्य, उपाध्यायः, पाठकः, दर्दुरकः, तदाख्यः। संवाहिका, सेविका, केरलिता, तन्नाम कापि स्त्री। लासकः, नर्तकः, स च, असौ, युवा, तरुणः, ताण्डविकः, तदाख्यः। आक्षिकः, अक्षैः, पाशकैः, दीव्यति, क्रीड़तीति, आंक्षिकः, द्यूतकरः, आखण्डलः, तदाख्यः। कितवः, धूर्तः, भीमकः, तन्नामा। शैलाली,

भीमकरः, शैलालियुवा शिखण्डकः, नर्तकी हरिणिका, पाराशरी सुमतिः, क्षपणको वीरदेवः, कथको जयसेनः, शैवो वक्रघोणाः, मन्त्रसाधकः करालः, असुरविवरव्यसनी लोहिताक्षः, धातुवादविद्विहङ्गमः दादुरिको दामोदरः, ऐन्द्रजालिकश्चकोराक्षः,मस्करी ताम्रचूडः। एतैश्चान्यैश्चानुगम्यमानो बालतया निघ्नतामुपगतो देशान्तरालोकन कौतुकाक्षिप्तप्तहृदयः सत्स्वपि पितृ पितामहोपात्तेषु ब्राह्मणाजनोचितेषु

स्वयंनर्तकः, स चासौ। युवा, तथोक्तः, (तरुणशैलूष इति यावन्‌) शिखण्डकः, तन्नामा। हरिणिका , तदाख्या, नर्तकी। सुमतिः, तन्नाम्नी, पारशरी, भिक्षुः। वीरदेवः, तदाख्यः, क्षपणाकः, भिक्षुः जयसेनः, तन्नामा, कथकः, पुराणव्याखाता। वक्रघोणः, तदाख्यः, शैवः, शिवभक्तः। करालः, तन्नामा, मन्त्र साधकः, साधित मन्त्रः। लोहिताक्षः, तन्नमा, असुरःविवर व्यसनी, असुराणां, विवर, पानालमितिभावः।अवयवा-असुराणां, विवरं, रन्ध्रं, (दोष इति यावत्‌) तस्मिन्व्यसनी, (तज्ज्ञानानुशीलक इति भावः) विहङ्गमः, तदाख्यः, धातुवादविद्‌, धातवः, स्वर्ण रजतादयः, तेषां उद्यते अनेनतिवादः, गुणः, तं वेत्ताति तथाभूतः। (रसायन ज्ञाता इति भावः) दामोदरः, तदाख्यःदार्दुरिकः, वाद्यविशेष वादकः, अथवा-दर्दुराः, भेकाः, तान्‌ वेत्तीति दार्दुरिका, (भेकगुणज्ञ इति यावत्‌) चकोराक्षः, तदाख्यः, एन्द्रजालिकः, हन्द्रजालविद्यावित्‌। ताम्रचूड़ः, तन्नामा। मस्करी, परिव्राट्, (सन्यासीति यावत्‌) सः, बाणः, एतैः, पूर्वोक्तैः, (सहचरैरितियावत्) अन्यैश्च, अलुगम्यमानः, अनुसर्य॑माणः, बालतया, शैशवत्वेन, निघ्नतां, वश्यतां, उपगतः, प्राप्तः। **देशान्तरेति—**देशान्तराणां, विभिन्नदेशानां, अवलोकने, दर्शने, यत्‌, कौतुकं, औत्सुक्यं, तेन, आक्षिप्तं, आकृष्टं, (नचधनलोभादित्यर्थः) हृदयं यस्य, तथाभूतः। सत्सु, विद्यमानेषु, अपि, पितृ पितामहोपत्तेषु पौत्रकेषु ब्रह्मण जनोचितेषु, योग्येषु, विभवेषु, सम्पत्सु, अविच्छिन्ने, अत्रुटिते, विद्या प्रसङ्गे

**विभवेषु सनि चाविच्छिन्ने विद्याप्रसङ्गे गृहान्निरगात्‌। अगाच्चनिरवग्रहो ग्रहवानिव नवयौवनेन स्वैरिणा मनसा महतामुपहास्यताम्‌। **

** अथ शनैः शनैरत्युदारव्यवहृतिमनोहृन्ति वृहन्ति राजकुलानि वीक्षमाणः निरवद्यविद्याविद्योतितानि च गुरूकुलानिसेवमानःमर्हाहाऽलापगम्भीर गुणवद्गोष्ठीउपतिष्ठमानः, स्वभावगम्भीरधीर्धनानि विदग्धमण्डलानि च गाहमानः, पुनरपि तामेव वैपश्चितीमात्मवंशोचितां प्रकृतिमभजत्। महतश्च कालात्तामेव भूयो वात्स्यायनवंशश्रयामात्मनो जन्मभूवं व्राह्मणाधिवासमगात्। तत्र च चिरदर्शनादभिनवीभूतस्नेह-**

विद्याऽनुशीलेन, साति, गृहात्‌, निरगात्‌, अगमत्‌। निरवग्रहः, स्वतन्त्रः, ग्रहवानिव, भूताविष्ट इव, स्वैरिणा, स्वेच्छाचारवता, मनसा, चेतसा, महतां, सज्जनानां ,उपहास्यतां, उपहास पात्रतां, अगात्‌, प्राप, च।

**अथेति—**शनैःशनैः, क्रमेण, अत्युदारा, महती, या, व्यवहृति, व्यवहारः, (आचार इति भावः) तया, मनोहृन्ति, यानि, तद्वन्ति, वृहन्ति, राजकुलानि, राजकानि, वीक्षमाणः, पश्यन, **निरवद्येति—**निरवद्याभिः, अनिन्दनीयाभिः, विद्याभिः, कौशलादिभिः, विद्योतितानि, शोभमानानि, गुरूकुलानि, अध्ययनस्थानानि, सेवमानः। **महार्हेति—**महार्हाः, मधुराः, आलापाः, वचनानि, तैः गम्भीराः, प्रदीप्ताः, गुणवत्य, विविधगुणशालिन्य गोष्ठ्यः, समाजाः, ताः उपतिष्ठमानः,सेव्यमानः। **स्वभावेति—**स्वभावेन, प्रकृत्या, गम्भीराणि. धीराणि, धीर्धनानि, प्रज्ञाधनानि, येषां तानि, विदग्धमगडलानि, विद्वज्जनसमूहानि, गाहमानः, आश्रयन्। गाहमानः इत्यनेन, सूचितमात्मनस्तेजस्त्वम्। पुनरपि, पुनश्च, तामेव, वैपश्चितीं, विद्वज्जनोचितां, प्रकृतिं, स्वभावं, अभजत्‌, अदधत्‌। महतश्च कालात्‌, अति समयानन्तरं, भूयः, पुनः, तानेव, वात्स्यायन वंशाश्रयां, वात्स्योयन वंशोद्भवैरलंकृतां, आत्मनः, स्वस्य, जन्मभूमिं, ब्राह्यणाधिवासं, विप्राध्युषितं, पुरं , नगरं, आगत

सद्भावैःससंभ्रमप्रकटितज्ञातेयैराप्तैरुत्सबदिवस इवानन्दिताभिगमनो बालमित्रमण्डलस्य मध्यगतोमोक्षसुखमिवा-न्वभवत्‌।

इति श्रीबाणाभट्टकृते हर्षचरिते वात्स्यायन,
वंशवर्णनं नाम प्रथम-उच्छवासः।

नत्र, पुरे, चिरदर्शनात्‌ , कालान्तरावलोकनात्‌। अभिनवीभूताः, नूतनतांयाताः स्नेह्सद्भावाः, येषां, तथाभूतैः।**ससंस्तवेति—**ससंस्तवं, सपरिचयं, (सादरमिति यावत्‌) प्रकटितं, प्रकाशितं, ज्ञातेयैः, कुटुम्बिजनैः, आप्तैः, आत्मीयैः, (पक्षे) योगिभिः, उत्सवदिवस इव, आनन्दितः, आल्हादितः, अभिगमनः, सहचराः, येन्‌, एवं भृतः, बालमित्रमणडलस्य, शैशवसखमूहस्य, (पक्षे) बाल-इव (निस्तेजस्त्वादिति यावत्‌) यः मित्रः, नवसूर्यः, तस्यमणडलं, विम्बं, तस्य, मध्यगतः, मोक्षसुखमिव, निर्वाणानन्दमिव, अन्वभवत्‌, अनुभूतवान्‌। आख्यायिकासुकविभिर्निजवंश वर्णनंक्रियते, अतः पूर्वप्रसङ्गे, वाणेनाऽपि, हर्षचरित पूर्व प्रसङ्गेकिमप्यालेखि स्वकीयं वृत्तमिति।

इति श्रीबाणभट्टकृत हर्षचरित व्याख्यायां
आशुतोषणयां प्रथम-उच्छवासः।

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** श्री कृष्णा जी**

श्रीहर्षचरितम्‌
द्वितीय-उच्छ्वासः

अतिगम्भीरे भूपे कूप इव जनस्य निरवतारस्य।
दधतिसमीहितासद्धिं गुणवन्तः पार्थिवा घटकाः॥१॥

रागिणि नलिने लक्ष्मीं दिवसो निदधातिदिनकर प्रभवाम्‌।
अनपेक्षित गुणदोषः परोपकारः सतां व्यसनम्‌॥२॥

अनुकूलमुपायमाश्रित्याशङ्कते श्रीहर्षात्‌ स्वभिप्सितम्‌—**अतिगम्भीरेति—**अत्यधिकं यद्‌ गाम्भीर्यं , तस्मिन्‌, एवं भूते “पक्षे” दुरवगाहत्वं, यत्र, भूपे, राजनि, कूप इव, निरवतारस्य, निः-नास्ति, अवतारः,अवतरणं, सुसदायकादीनामाश्रयो यस्य, तथाभूतस्य, “पक्षे” सोपानादि विरहितस्य, जनस्य, लोकस्य, गुणवन्तः, गुणाः विद्याविनयादयस्तैर्युक्ताः, (पक्षे) रज्जुवन्तः, पार्थिवाः, राजनः, एव, घटकाः, योजकाः, (सहायभूता इति भावः) (पक्षे) पार्थिवाः, पृथिव्या, भुवः सम्भूताः (मृण्मया इति भावः) घटाः, एव, घटकाः, कलसाः, समीहितसिद्धिं, राजभवनेप्रवेशरुपमिष्टसाफल्यं (पक्षे) सलिलोत्तोलन रूपमिष्टसिद्धिं, दधाति, सम्पादयन्ति अवतरणिकादिरहितेनाति दुरवगाहादतिगम्भीरादपि कूपात्‌ रञ्ज्वादिमुक्तेन कुम्भेन यथा जलमधिगम्यते, तथैवातिगम्भीरतया दुरधिगम्यादपिराज्ञोगुणवतां सहायकानां सम्पर्केण जनस्याभिवाञ्छितसिद्धिर्जायते इति भावः। एतेन भूपतौ गुणवान्‌ कृष्ण एवसहाय भूतो वाणास्येष्टसिद्धिं सम्पाद्यिष्यतीतिध्वनितम्‌। भूपे कूपस्यवैधर्म्यसाम्यप्रतीतेरत्र, श्लेषोपमालङ्कारः। अर्यावृत्तम॥१॥

परोपकार प्रिया हि मानवाः गुणदोषाननवलोक्यैवपरेषामुप कुर्वते। **रागिणीति—**दिवशः, (दिवाभागे इति यावत्‌) रागिणि,

अथ तत्रानवरताध्ययनध्वनिमुखराणि, भस्मपुण्ड्रकपाण्डुरललाटैःकपिलशिखाजालजटिलैः कृशानुभिरिव क्रतु-

**रागमस्मिन्‌—**अस्ति रागिणि, लोहितरागवति, (पक्षे) अनुरागयुते, तलिने, कमले दिनकरप्रभवां, दिनङ्करोतीति दिनकरः सूर्यस्तस्य,प्रभोत्पन्नां, लक्ष्मीं, श्रियं, (शोभामितिभावः) (पक्षे) सम्पदं, निदधाति, ददाति, तथाहि, अनपेक्षितौ, अविचारितौ, गुण दोषौ यत्र, तथोक्तः, परोपकारः, परेषामुपकृतिः, सतां, सज्जनानां, व्यसनं, (व्रतमितिभावः) भवति। साधवः न विचारयन्ति गुणदोषान्‌ परेषामुपकृतिरेवाश्रयते तैः। अनेन परोपकारीकृष्णः— एवं विध गुणसम्पन्ने बाणेराजसस्पदमाधास्यति-इति-सूचितम्‌। पूर्वार्धेचात्र अप्रस्तुतस्य नलिनेदिनकृत लक्ष्मी निधानस्योपन्यासेन, बाणभट्टे कृष्णाविहितायाः, श्रीहर्षस्य सभापण्डितसौभाग्यलक्ष्मीःनिधानरूपस्य प्रस्तुतस्य प्रतीतेर प्रस्तुतप्रशंसाऽलंकारः, “अप्रस्तुत प्रशंसास्यात्सायत्र प्रस्तुताश्रया।” उत्तरार्धे च सामान्यतया प्रथमार्धेगतस्य सोपपत्तिकत्व विधानात्‌ सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासोऽलंकारः, अनयोश्चाङ्गाङ्गिभावत्वेनसंकरः॥२॥

**अथेति—**अथ-ब्राह्मणाधिवासगमनानन्तरम , तत्र (ब्राह्मणाधिवासे) **अनवरतेति—**अनवरतं, निरन्तरं, यत्‌, अध्ययनं, अधीतिः, तस्य, या ध्वनिः, शब्दः, तेन, मुखराणि, शब्दायमानानि, (बान्धवानां भवनानि, इत्यनेनान्वयः) **भस्मेति—**भस्मपुण्ड्रकेण, भस्मना कृतं यत्‌ पुण्ड्रकं तिलकं, तेन, पाण्डुराणि, धवलानि, ललाटानि, मस्तकानि, येषां, तथोक्तैः, (बटुभिरित्यनेनान्वयः) **कपिलेति—**कपिलाः, पिङ्गलाः, ये, शिखाजालाः, चूड़ासमूहाः, (पक्षे) शिखाजालाः, अर्चिसङ्घाः, तैः, जटिलाः, जटावन्तः, तैः (पक्षे) युक्ताः तैः

लोभागतैर्बटुभिरध्यास्यमानानि, सेकसुकुमारसोमकेदारिकाहरितायमानप्रघनानि, कृष्णाजिनविकीर्णशुष्यत्पुरोडा-शीयश्यामाकतण्डुलानि, बालिकाविकीर्यमाणनीवारबलीनि, शुचिशिष्यशतानीयमानहारितकुशपूलीपलाशसमिन्धि, इन्धन गोमयपिणडकूटसंकटानि, आमिक्षीयक्षीरक्षारिणीनामग्निहोत्रधेनूनां खुरवलयैर्विलिखिताजिरबितदिकानि, कामणडलब्यमृ त्पिण्ड-

कृशानुभिरिव, अग्निभिरिव, क्रतोः, यक्षस्य, लोभात्‌, मिषात्‌, आगतैः, समुपस्थितैः, वटुभिः, ब्रह्मचारिभिः, अध्यास्यमानानि, अधिष्टीयमानानि। सेकेति— सेकेन, सलिलसेचनेन, सुकुमारा, मृदु (स्निग्धा वा) सोमकेदारिकरा, यज्ञार्थंरोपितंसोमवल्ल्याः स्वल्पंक्षेत्रं, यत्र तया, (प्रधनेषु**—**अल्पक्षेत्रसम्भवत्वादितिभावः) हरितायमानानि, श्यामायमानानि, प्रधानानि, अङ्गाणानि, येषां, तानि। कृष्णाजिनेति—कृष्णाजिनेषु, असित हरिणचर्म्मसु, विकीर्णाः, प्रक्षिप्ताः, शुष्यन्तः, शोषमाप्नुवन्तः, ये, पुरोडाशीयाः, हव्या, श्यामकाः धान्यविशेषाः, तण्डुलाः, येषु, तानि। बालिकेति—बालिकाभिः, कन्याभिः, विकीर्यमानाः, प्रक्षिप्यमाणाः, नीवाराः, धान्यविशेषाः , एव, वलयः, पूजार्थं द्रव्याणि, येषु तानि। शुचीति— शुचयः, पूताः, ये, शिष्याः, अन्तेवासिनः, तेषां, शतैः, शतसंख्याकैः, आनीयमानाः, आह्रियमाणाः, हरिताः, श्यामवर्णाः, ये, कुशानां, दर्भाणां, पुल्यः, समूहाः,पलाशसमिधः, काष्ठानि, येषु तानि। इन्धनेति— इन्धनानां, काष्ठानां, गोमयपिण्डानां, उपलानां, च, ये कूटाः, राशयः, तैः, सङ्कटाः, सङ्कुलाः) येषु, तानि। आमिक्षीयेति—आमिक्षा,दुग्धदधियोगः, (छाना इति प्रसिद्धा) तस्यै, हितानि, आमिक्षीयाणि, यानि क्षीराणि, दुग्धानि, तानि,क्षरन्ति, तासां अग्निहोत्र धेनूनां, क्रतवेपालितानांगवां,

मर्दनव्यग्रयतिजनानि, वैतानवेदीशङ्कव्यानामौदुम्बरीणां शाखानां राशिभिः पवित्रितपर्यन्तानि, वैश्वदेवपिण्डपंक्तिपाण्डुरित-त्प्रदेशानि, हविर्धूमधूसरिताङ्गनविटपिकिसलयानि, वत्सीयबालकलालितललत्तरलतर्णकानि, क्रीडत्कृष्णशारच्छागशावक-प्रक-

खुरवलयैः, शफसमूहैः, विलिखितानि, कुट्टितानि, अजिरेषु, अङ्गान वसुधासु, वितर्दिका, वेदिका, येषां, तानि। **कामणडलब्येति—**कमण्डलुः, मुनीनांजलपात्रं, तदर्थमिदं, कामण्डलव्यं, यत्‌, मृत्पिण्डं, तस्य, मर्दने, पेषणे, व्यग्रः संलग्नः, यतिजनः, संन्यासिसमूहः, येषु तानि। **वैतानेति—**वितानः, क्रतुः, तस्मै, इयं, वैतानि, यज्ञीयाग्निभूः, तादृशा, या, वेदिः, तत्र शङ्कव्यानां, शङ्कवः, कीलकाः, तेभ्यो हितानां, (शंकुसम्पादिनीनामिति भावः) औदुम्बरीणां, तदाख्यबृक्षाणां (जन्तुफलकानामिति यावत्‌ ) याः, , शाखाः, तासां, राशिभिः, समूहैः। **पवित्रेति—**पवित्रितानि, पूतानि, यानि, पर्यन्तानि, प्रान्तभागाः, येषां तानि। **वैश्वदेवेति—**विश्वेभ्योः, देवेभ्यः, देयानि, पिण्डानि, अन्नानि, तेषां, पंक्तिभिः, राजिभिः, पाण्डुरिताः, धवलिताः, प्रदेशाः, येषु, तानि। **हविरिति—**हविषां, क्रतूनां, धूमैः, धूसरिताः, धूसरतांनीताः, अङ्गनविटपिनां, अजिर बृक्षाणां, किसलयाः, पल्लवाः, येषु तानि। **वत्सीयेति—**वत्सीयाः, वत्सेभ्योहिताः, (वत्ससेवाकुशला इति भावः) ये बालकाः, मुनिशिशवः, तैः, लालिताः, श्रमेणपोषिताः, ललन्तः, लम्फन्तः, तरलाः, चञ्चलाः, तर्णकाः, सद्योजातावत्सा, येषु तानि। **क्रीड़दिति—**क्रीडन्तः, चरन्तः, कृष्णशाराः, कृष्णवर्णाः, येछागाः, (पशुविशेषाः) तेषां, शावकैः, शिशुभिः, प्रकटितः, प्रकाशितः, पशुबन्धः, (पशवोबध्यन्ते `यस्मिन्‌ तथा भूतोयज्ञः) तस्य प्रबन्धः(सातत्यमिति यावत्‌) येषु

टितपशुबन्धप्रबन्धानि, शुकसारिकारब्धाध्ययनदीयमानोपाध्यायविश्रान्तिसुखानि, साक्षात्रयीतपोवनानीवचिरदृष्टानां बान्धवानां प्रीयमाणो भ्रमन्भवनानि, बाणःसुखमतिष्ठत्‌।

** तत्रस्थस्य चास्य कदाचित्कुसुमसमययुगमुपसंहरन्नजृम्भत ग्रीष्माभिधानः संफुल्लमल्लिकाधवलाट्टहासो महाकालः। प्रत्यग्रनिर्जितस्यास्तमुपगतवतो वसन्तसामन्तस्य बालापत्ये-**

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तानि। **शुकेति—**शकशारिकाभिः, कीरशारिकाभिः, आरब्धं, प्रक्रान्तं यद्‌ अध्ययनं. वेदानांपठनं, तेन, दीयमानं, सम्पाद्यमानं, उपाध्यायानां आचार्याणां, विश्रान्ति, सुखं, येषु तानि। त्रयी, ऋग्यजुः साम्नांत्रितयं, येषु तानि। तपोवनानीव। चिरदृष्टानां, बहुकालेनावलोकितानां, बान्धवानां, कुटुम्बिनां, प्रीयमाणः, अत्यन्तप्रीतिमुपागतः, भ्रमन्‌, परिभ्रमन्‌ , भवनानि, गृहाणि, सुखं, अतिष्ठत्‌, तस्थौ। तत्रेति— तत्रस्थितस्य, अस्य, बाणस्य, कदाचित, कस्मिश्चित् समये, कुसुम-समयस्य, वसन्तस्य, युगं, युग्मं, (मासद्वयमितिभावः) उपसंहरन्, दूरीकुर्वन्, ग्रीष्माभिधानः, घर्मसमयः, अजृम्भत, प्रादुर्बभूव।

**सम्फूललेति—**सम्फुल्ला, पुष्पिता, मल्लिका, तदाख्या, लता एव, धवलाः, शुभ्राः, अट्टहासाः, हासविशेषाः, यत्र, तथाभूतः, महाकालः, ग्रीष्मः(पक्षे) भयङ्करः। प्रत्यग्रनिर्जितस्य, अचिरविजितस्य, अस्तं, क्षयं उपगतवतः गच्छतः, वसन्तः कुसुमाकरः, एव, सामन्तः, सम्राट्‌, तस्य, वालापत्येषु, शिशुतनयेषु, इव, पयः पायिषु, सलिलपान योग्येषु (पक्षे) दुग्धपायिषु। नवोद्यानेषु, विहारेषु, (पक्षे) नवं, नवीनं यदुद्गमनं येषां तेषु (पूर्वमेव संसारे आगमन प्रवृत्तष्वितिभावः) दर्शितस्नेहः, दर्शितः प्रकटितः, स्नेहः, प्रीतिः, येन, सः; मृदुः, कोमलः (पक्षे) सदयः, ( ग्रीष्मसमयेनूतनानि, उद्यानानिसिच्यन्ते-इतिभावः)

ष्विव पयः पायिषु नवोद्यानेषु दर्शितस्नेहो मृदुरभूत्। अभिनवोदितश्च सर्वस्यां प्रथिव्यां सकलकुसुमबन्धनमोक्षमकरोत्परतपन्नुष्णसमयः। स्वयमृतुराजस्याभिषेकार्द्राश्चामरकलापा इवाग्रह्यन्त कामिनीनां चिकुरचयाः कुसुमायुधेन। हिमदग्धसकलकमलिनीकोपेनेव हिमालयाभिमुखींयात्रामदादंशुमाली।

** अथ ललाटं तपे तपति तपने चन्दनलिखितललाटिका-**

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**अभिनवो दितेति—**अभिनवोदितः, सद्योजातः; सर्वस्यां, अखिलायां; प्रथिव्यां, भूमौ; सकलानां, सर्वेषां, कुसुमानां, पुष्पानां; (वासन्तिकानामितिभावः) बन्धनमोक्षं, वृन्तस्खलनं, उष्णसमयः ग्रीष्मकालः, प्रतपन् (नवाभिषिक्तो हि नृपआनन्दातिशयात्कारासु पूर्वनिबद्धानां बन्धनमोक्षं सम्पादयति) स्वयं, आत्मनः ऋतु-राजस्य, ग्रीष्मस्य, अभिषेकार्द्रः, अभिषेकेन, स्नानेन; आर्द्र, (पक्षे) माङ्गलिक- सलिलसिञ्चनसबन्धादार्द्रात्वम्‌। चामरकलापाः, चामर बालब्यजनसमूहाः, इव, कुसुमायुधेन, कामेन, कामिनीनां, युवतिनां, चिकुरचयाः, केशकलापाः, अगृह्यन्त। (ग्रीष्मसमये स्नानार्द्रतया असंयमनात्‌ अतिकोमलत्वेन प्रतीयमानाः युवतिनां विरोषेण काममुद्दीपयन्तीति भावः) हिमेन, तुषारेण; दग्धः, भस्मीकृतः; सकलानां, सर्वासां; कमलिनीनां, पद्मीनीनां; कोपेन, क्रोधेन; इव, हिमालयाभिमुखीं, तदाख्यपर्वतानुगामिनीं, यात्रा, गमनं; अंशुमाली, सूर्यः; अदात्‌ (उत्तर दिशिमगमदितिभावः)

** अथेति—** ललाटं, मस्तकं; तपति, पीड़यति, तस्मिन्‌ (**कटोरे—**इति यावत्‌) तपने, सूर्ये तपति, द्योतमाने। “असूर्यललाटयोर्द्दशितपोः’ अनेन खच्‌। चन्दनेन, लिखितः, रचित,

पुण्ड्रकैरलखकचीरचीवरसंवीतैः स्वेदोदबिन्दुमुक्ताक्षवलयवाहिभिर्दिनकराराधननियमा इवागृह्मन्त ललनाललाटेन्दुभिः। चन्दनधूसराभिरसूर्यपश्याभिः कुमुदिनीभिरिव दिवसमसुप्यत सुन्दरीभिः। निद्रालसा रत्नालोकमपि नासहन्त दशः, किमुत जरटमातपम्‌। अशिशिरसमयेन चक्रवाकमिथुनाभिनन्दिताः सरित इव तनिमानमानीयन्त सोडुपाः शर्वर्य। अभिनवपटु-

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ललाटिका, भालालंकार एव, पुण्ड्रकं, तिलकं येषु तैः अलकाः केशाः, एव, चीरचीवरं, वसनं, तेन, संवीताः, वेष्टिताः, तैः। स्वेदोदकस्य, धर्मजलस्य, विन्दवः, कणाः, एव, मुक्ताक्षवलया, मौक्तिक जपमालिकाः, तान , वहन्ति, धारयन्ति, तैः। दिनकरस्य, यद्‌, आराधनं, पूजनं, तस्य ये नियमाः, विधयः, (व्रतानि वा) ललनानां, स्त्रीणां, ललाटेन्दुभिः मस्तकचन्द्रैः, अगृह्यन्त, इव। (गृहीतमिति यावत्‌) (धृत्‌ पुण्ड्रकोजपमालां गृह्णतीतितत्साम्यम्‌) चन्दनेति— चन्दनेन, यद्वा, चन्दनवत्, धूसराः, ताभिः, सूर्यं न पश्यन्तीति, ताभिः, (सूर्योदयादारभ्यास्तसमयान्तंकामिन्य आतप भिया स्वपन्ति सद्मसु कुमुदिन्यस्तुदिवा संकुचिता इत्युभयोः साम्यम्) स्वापापिक्ये अवस्थां वर्णयति-निद्रेति-निद्रया अलसा, दृशः, रत्नालोकं रत्नप्रकाशं, अपि, (इति संभावनायाम) नासहन्त, न सोढुं सक्ताः। किमुत, जठरं, कठोरं, आतपं, धर्म। अशिशिरसमयः ग्रीष्मः, तेन, चक्रवाकमिथुनैः, चक्रवाकयुगलैः, अभिनन्दिताः, स्तुताः (तेषां रात्रिषु वियोगात्स्वल्प रात्र्यभिनन्दनं युक्तमेव) सोडुपा;, स चन्द्राः (नक्षत्राणि) सनौकाश्च। (नदीषु जलाभावान्नौ सहिता नद्यः क्षयंयान्तीतिभावः) शर्वर्यः, रात्रयः, तनिमानं, अल्पतां, आतीयन्त, नीयन्ते। अभिनवेति— अभिनवः,

पाटलामामोदसुरभिपरिमलं न केवलं जलम्‌ , जनस्य पवनमपि पातुमभूदमभिलाषो दिवसकरसंतापात्‌।

** क्रमेण च खरखरमयूखे, खण्डिततडिच्छैशवे, शुष्यत्सरसि, सीदत्स्रोतसि, मन्दनिर्झरे, झिल्लिकाझाकारिणि, कातरकपोतकूजितानुबन्धबधिरितविश्वे, विश्वसत्पतत्रिणि, करीषंकषम-**

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नूतनः पटुः, प्रसरन्‌, पाटलामोदः, पाटलस्याति निर्हारी परिमलः, तेन, सुरभिः, सुगन्धिः, परिमलः सुवासः, यस्य तत्‌ न केवलं जलं, पयः, पवनं, वायुं, अपि, पातुं, पानाय, जनस्य, प्राणिनः दिवसकरसन्तापात्‌, सूयतापात्‌, अभिलाषः अभिलषनं-अभिलाषः, (घञ् चपापुंसि) इच्छा अभूत्‌।

क्रमेण इत्यतः— प्रावर्तन्तोन्मत्ता मातरिश्वानः—इत्यनेनान्वयः। क्रमेण, खरखर मयूरवे,—खरः, तीक्ष्णः, खरमयूरवः, सूर्यः, यस्मिन, तथाभूते, (निदाघकाले) इत्युत्तरस्थितेन संबंधः। खणिडतेति— खण्डितं, निर्जितं, तडितां, विद्युतां, शैशवं, बाल्यं, (शिशु चापल्यमिति भावः) येन, तथाभूते। (विद्युदालोकादपि अतितीक्ष्णालोकशालिनीत्यर्थः)। शुष्यदिति— शुष्यन्ति शोषं गच्छन्ति, सरांसि, तड़ागानि, यस्मिन्‌ तथोक्ते। सीददिति—सीदन्ति, अवसादं गच्छन्ति, स्रोतांसि, यस्मिन्‌ तादृशे। मन्दनिर्झरे—मन्दाः, स्वल्पाः, निर्झराः, प्रस्रवणानि, यत्र तथाभूते। झिलिकेति—झिल्लीकाः, क्षुद्राः कीटविशेषाः, तासां झङ्कारो विद्यते यस्मिन्‌ तथोक्ते। कातरेति— कातराणां, ग्रीष्मात्तानामित्यर्थः। कपोतानां, कूजितानुबन्धेन, कूजनसातत्येन, बधिरितं, बधिरीकृतं, विश्वं, जगत्‌, येन तथाभूते। (अतीवमेदोमयत्वात्‌ दुःसहः ग्रीष्मतापः कपोतानां कृते, अतः पतत्रित्वेऽपिपृथग्ग्रहणामेतेषां) विश्वसत्पतत्रिणि-विशेषेणश्वसन्तः, क्लान्ततयेतिभावः, पत-

रुति, विरलवीरुधि, रुधिरकुतूहलिकेसरिकिशोरकलिह्यमानकठोरधातकीस्तबके, ताम्यत्स्तम्बेरमयूथवमथुतिम्यन्महामही-धरनितम्बे, दूयमानद्विरददीनदानाश्यानश्यामिकालीनमूकमधुलिहि, लोहितायमानमन्दारसिन्दूरितसीम्नि, सलिलस्यन्दसं-

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त्रिणाः, पक्षिणाःः, (कपोतेभ्योऽन्ये इतिभावः) यस्मिन्‌ तथोक्ते। **करीषङ्कषेति—**करीषाणि, गोमयानि, कषन्ति, शोषयन्तीतितादृशाः, मरुतः, वायवः, यस्मिन्‌, तथाभूते। विरलवीरूधि, विरलाः, अल्पाः, वीरूधः, लताःयत्र तादृशे। **रुधिरेति—**रुधिरेषु, रक्तेषु ,कुतूहलिनः, लोलुपा इतिभावः। ये केशरिकिशोरकाः, सिंहशिशवः, तैः, लिह्यमानः, आस्वाद्यमानः, (रक्तधियेतिभावः) कठोरः, परिणतः, धातकीस्तबकः, धातकीलतायाः पुष्पगुच्छः, यस्मिन्‌ तथोक्त। ताम्यदिति— ताम्यताम्‌, आतपतापेनक्लिश्यतामिति यावत्‌। स्तम्बेरमयूथानांः हस्तिसङ्घानां, वमथुभिः, उद्गरे, (करशीकरैरित्यर्थः) तिम्यन्तः, आर्द्रीभवन्तः, महतां महीधराणां, पर्वतानां, नितम्बाः, कटप्रकदेशाःयस्मिन्‌ तथाभूते। दुयमानेति— दुयमानानां, ताभ्यतां, द्विरदानां, हस्तीनां, दीनस्य, क्षीणतां गतस्य, दानस्य, मदस्य, आश्याना, ईषच्छुष्का, या श्यामिका, मदलेखा, तस्यां लीनाः, अतितर्षात्‌ संसक्ताः, मूकाः, आर्ततयानिः शब्दाः, मधुलिहः, भ्रमराः यस्मिन्‌ तथोक्ते। लोहितायमानेति— लोहितायमानैः, आलोहिता लोहिताः भवन्तः तैः (पुष्पविकासात्‌ रक्तायमानैरित्यर्थः) मन्दारैः, पारिजाताख्यतरुविरोषैः ,“मन्दारः पारिजातकः” इत्यमरः। सिन्दूरिताः, सञ्जातसिन्दूराः, (दत्तसिन्दूरा इवेत्यर्थः) सीमानः, प्रान्तभागाः, (ग्रामाणामितिशेषः) यस्मिन्‌ तथोक्तं। **सलित्वेति—**सलिलानां, जलानां, स्यन्दाः, स्रवाः, तेषां सन्दोहः, समूहः) तस्य सन्देहेन,

दोहसंदेहमुह्यन्महामहिषविषाणकोटिविलिख्यमानस्फुटत्स्फटिकदृषदि, धर्ममर्मरितगर्मुति, तप्तपांशकुकूलकातरविकिरे, विवरशरणश्वाविधि, तटार्जुनकुर्रकूटज्वरविवर्तमानोत्तानशफरशारपशङ्कशेषपल्वलाम्भसि, दावजवितजगन्नीराजने, रजनीराजयक्ष्मणि, कटोरी भवति निदाघकाले, प्रतिदिशमाढौकमाना

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भ्रमेण, मुह्यद्भिः, चित्तविकृतिं गच्छद्भिः, महद्भिः महिषैः , विषाणानां, शृङ्गणां, कोटिभिः, अग्रभगैः विलिख्यमानाः, संघृष्यमाणाः, स्फुरन्त्यः, (सौरातपेन उद्भासमाना इति यावत्) स्फरिकदृषदः, स्फटिकशिलाःयस्मिन्‌ तथाभूते।

घर्मेति— घर्मेण, उष्मणा , मर्मरिताः, शुष्कत्वेन मर्मर ध्वनियुक्ताः, गर्मुतः, लताविशेषाः यस्मिन तदृशे। (गर्मुत्स्त्री स्वर्णनड़योर्गोपति शिवषण्डयोः, नृपभास्करयोः पुंसि, इति मेदिनी) तप्तेति— तप्ताः पांशवः, रजांसि एव कुकूलाः, तुषानलाः, तैः कातराः, विकिराः, कुकुटादिपक्षिभेदाःयस्मिन्‌ तादृश। विवरेति— विवराणि-गर्ता एव शरणाम् आश्रयःयेषां ते श्वाविधः-शल्याः (मृगविशेषाः) यस्मिन्‌ तादृशे। **तटेति—**तटेषु-तीरेषु ये अर्जुनाः-तरूभेदाः तेषु ये कुरराः-पक्षिभेदाः (कुंज इति हिन्दी भाषायाम्‌) तेषां कूटज्वरेण श्रुतिकुटरवसन्तापेन, विवर्तमानाः उत्सवमानाः उत्तानाः-उर्द्धमुखाः ये शफराः-मत्स्याः तैः शाराः-शवलाः, पङ्काः-कर्दमा, एव शेषाः येषु तथाविधानां पल्वलानां क्षुद्रजलाशयानाम्‌ , अम्भांसि-जलानि, यस्मिन्‌ तथोक्ते। **दावेति—**दावेन-वनाग्निना, जनितं-उत्पादितं, यत्‌ जगतां नीराजनम्‌— आरात्रिकारव्यं शान्ति कर्मविरोषः, यस्मिन्‌ तथाविधे। रजनीति— रजन्याः निशायाः राजयक्ष्मा-क्षयरोगः यस्मिन्‌। कटोरी भवति वृद्धिं गच्छति, निदाधकाले-ग्रीष्मावसरे

इवोषरेषु प्रपावाटकुटीपटलप्रकटलुण्ठकाः, प्रपक्ककपिकच्छूगच्छच्छटाच्छोटनचापलैरकाण्डकाण्डूला इव कर्षन्तः शर्करिलाः कर्करस्थलीः, स्थूलदृषच्चूर्णमुचः, मुचुकुन्दकन्दलदलनदन्तुराः, समन्ततः पतन्मुखरचीरीगणमुखशीकर-शीक्यमानतनवः, तरूणतरतरणितापतरले तरन्त इव तरङ्गिणि मृगतृष्णिकातरङ्गिणी-

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प्रतिदिशम-दिशिदरिशि। **आढौकमानेति—**ऊषरेषु-मरुभूमिषु, आढौकमाना इव गम्यमाना इव। प्रपेति— प्रपा-पानीयशाला, वाटः-पन्था, कुटी-क्षुद्रगेहम , पटलम्‌-छदिः, एतेषां प्रकटं-प्रकाशम्‌, यथा स्यात्तथा लुण्ठकाः-अपहारकाः, इति यावत्‌। प्रपक्वेति— प्रपक्कापक्कतांगता या कपिकच्छः-मर्कटी (मर्कट सदृश लोमत्वात् कपिकच्छुरपि मर्कटी भवति) (ऋष्यप्रोक्ता शूकरशिंविः कपिकच्छुश्च मर्कटी) तस्याः गुच्छछटाः-स्तबकराशयः, तासां छोटने-लूने, चापलैः। अकाण्डे-अनवसरे कणडूलाः-स्वर्जनरोगग्रस्ता इव। **कर्षन्तेति—**शर्करिलाः-पाषाणकणिकायुताः, कर्करस्थलीः-पाषागा-खशण्डयुतामहीः (कंकरभूमी) कर्पन्तः-कण्डुंकुवेन्तः। स्थूलेति स्थूलानि-विपुलानि, दृषदां-शिलानां चूर्णानि-कणिकाः तानि मुञ्चन्ति-प्रक्षिपन्ति इति तथोक्ता। मुचुकुन्देति— मुचुकुन्दानां-माध्यपुष्पाणां, कंदलानां-तन्नामपुष्पाणाम्।दलनेन दन्तुराः संजातदन्ता इव समन्ततः-चतुर्दिक्षु। पतदिति— पनन्तः-उडटीय-मानाः, मुखराः क्वणान्तः, ये चीरीगणाः-पक्षिभेदाः (चील या ईल) तेषां मुखशीकरैः-आननजलकणैः शीक्यमानाः सीच्यमानाः तनवः शरीराणि येषां तथा विधाःः

**तरुणेति—**तरुणेन-अतिप्रौढ़ेन, तरणितापेन-सूर्यातपेन, तरङ्गिणि-संज्ञाततङ्गे, मृगतृष्णिकाः-मरीचिकाः(मृगतृष्णा मरीचिका इत्य-

नामलीकवारिणि, शुष्यच्छमीममरमारवमार्गलङ्घनलाघधवजवजङ्घालाः, रैणवावर्तमणडलीरेचकरासरसरभसारब्धनर्त-नारम्भा रभटीनटाः, दावदग्धस्थलीमषीमिलनमलिनाः, शिक्षितक्षपणकवृत्तय इव वनमयूरपिच्छचयानुच्चिन्वन्तः, सप्रयाणगुञ्जा इव शिञ्जानजरत्करञ्जमञ्जरीबीजजालकैः सप्ररोहा इवातपातुरवनमहिषनासानिकुञ्जस्थूलनिः श्वासैः, सापत्या इवोड्डीयमानजवन-

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मरः) एव तरङ्गिण्य-नद्यः, तासाम्‌ अलीकवारिणि-अलीकजले, तरन्त इव-प्लवमाना इव । **शुष्यदिति—**शुष्यन्ती-शुप्कतांयान्ती, शमीवत्‌-तरुविशेषवत्‌, मर्मरः-विशेषध्वनियुक्तः, मारवः-मरुदेशीयः, मार्गः-पन्था तल्लंघने, लाघवं यस्य तथाविधेन जवेन-वेगेन, जंवालाः-जंघायुक्ताः। रेणबेति— रैणबी-तत्सम्बन्धिनी, आवर्त्तमण्डली, तस्याः रेचकस्य (रेचयति वहि करोति तथाभूतस्य) लासकस्य-नर्त-कस्य, रसरभसेन-रागवेगेन, आरब्धंयन्नर्तनं तस्यारम्भे, आर-भटीआराश्च= भटाश्च तेषामियमारभटी-वीररसप्रधानविशेषः, तत्र नटाः, ताण्डवावसानेनिपुणा। इत्यर्थः। **दावेति—**दावेन-वनानिलेन,दुग्धा स्थली एव मसी तस्याः मिलनेन मलिनाः। **शिक्षितेति—**शिक्षिता-अभ्यस्ता, क्षपणकानां वृत्तिः-व्यवहारो, यैः एवं भूता, मयूरपिच्छचयान्‌, उचिनवन्तः-धारयन्तः(पुच्छार्थकत्वलाभात्‌ मयूरपद्मत्राधिकम्) (क्षपणका अपि निजशास्त्राज्ञया मलिनपुच्छधारयन्ति) प्रयाणे-यात्रायां, गुञ्जाःढक्काः तैः सह वर्तमाना इत्यर्थः। **शिञ्जानेति—**शिञ्जनाः-शब्दवन्त्यः. जरतां-प्राचीनानां, करञ्जानांतरुभेदानां, मंजर्यः, तासां बीजजालकैः बीजसमूहैः, सप्ररोहा इवसांकुरा इव।**आतपेति—**आतपेन-संतापेन, आतुराणाम्‌ आर्त्तानाम् ,वनमहिषाणां, नासाभ्यःनिकुञ्जेभ्य इव-लतापिहितोदरेभ्य इव निर्गतैः-

वातहरिणपरिपाटीपेटकैः, सभ्रुकुटय इव दह्यमानखलधानबुसकूटकुटिलधुमकोटिभिः, सावीचिवीचय इव महोष्ममुक्तिमिः, लोमशा इव शीर्यमाणशाल्मलिफलतूलतन्तुभिः, दद्रुला इव शुष्कपत्रप्रकराकृष्टिभिः, सिराला इव तृणवेणीविकिरणैः, उच्छयाश्रव इव धूयमाननवयवशुकशकलशंकुभिः, दंष्ट्राला इव

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स्थूलनिश्वासैः, सापत्या इव ससन्ताना इव। **उड्डीयमानेति—**उड्डीयमानानां-उत्पततां, जवनतराणाम-अतिवेगिनाम्‌, हरिणानां, परिपाट्यः-पर्य्यायाः। तासां पेटकाः-समूहाः तैः सभ्रूकुटय इव-सभ्रूभङ्गा इव। **दह्यमानेति—**दह्यमानानाम्-आतपेन दग्धानाम्‌, खलधानानां-धान्यानाम्‌, ये वुसकुटाःतुषराशयः, कुटिलाः-कुटिलगामिन्यः, धूमकोटय इव-धूमराजय इव, तैः, सवीचिवीचय इव-अवीचिः-नरकविशेषः, तस्य वीचयः-तरङ्गाः-ज्वाला वा तैः सहवर्तमाना इव, महोष्ममुक्तिभिः महान्तः उष्माणः तेषां मुक्तिभिः-त्यागैः-वृष्टिभिरित्यर्थः।

लोमशेति— लोमशा इव-रोमपूर्णा इव। शीर्यमाणेति-शीर्यमाणानां-विदीर्यमाणनाम्‌, शालाम्लिफलानाम्‌, तूलतन्तुभिःतूलसूत्रैः, दद्रुला इव-दद्रुवन्तः इव। शुष्केति-शुष्काणां, पत्राणां, प्रकराः-समूहाः, तेषाम्‌, आकृष्टयः-आकर्षणानि, ताभिः, शिराला इव-शिरासमूहशालिन इव। **तृणेति—**तृणानां, वेणी-राजिः, तस्याः विकिरणैः-विक्षेपैः, उच्छ्राया-अविरतानि, अश्रूणि-नयन जलानि, येषां तथा भूता इव। धूयमानेति— धूयमानानां, कम्पमानानां, यवानाम्‌, शूकाः-शुङ्गाः, (शिखासूचय-इत्यर्थः) (शूकोऽस्त्री शुङ्गदययोः इति मोदिनी) तेषां शकलाः-खण्डाः, शङ्कवः-कीलाः तैः दं दंष्ट्रालाः-दंष्ट्रावन्तः इब। चलितेति— चलितानां-चलतां, शललानाम्‌-शल्यकीनाम्‌, सूचीशतैः-सूक्ष्माग्रभागैः, (श्वावित्तु शल्यस्त-

चलितशललसूचीशतैः जिह्वाला इव वैश्वानरशिखाभिः, उत्सर्पत्सर्पकञ्चुकचूडाला ब्रह्मस्तम्भरसाभ्यवहरणाय कवलग्रहमिवोष्णैः कमलमधुभिरभ्यस्यन्तः सकलसलिलोच्छोषधर्मघोषणापटहैरिव शुष्कवेणुवनास्फोटनपटुवैस्त्री-भुवनबिभीषिकामुद्भावयन्तः, च्युतचलचाषदक्षश्रेणीशरितसृतयः, त्विषिमन्मयूखलतालातप्लोषकल्माषवपुष इव स्फुटितगुञ्जाफलस्फुलि-

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ल्लोन्नि शलली शललं शलम्‌-इत्यमरः) जिह्वला इव-रसनावन्त इव। **वैश्वानरेति—**वेश्वानरशिखाभिः—अग्निशिखाभिः,। **उत्सर्पदिति—**उत्सर्पद्भिः-उद्गच्छद्भिः, सर्पाणां कञ्चुकैः निमोकैः चूडलाः-शिखावन्तः। ब्रह्मेति— ब्रह्मस्तम्भस्य-ब्रह्मखण्डस्य रसाभ्य-वहरणाय-रसशोषणाय-रसानां-मधुरादीनां भोजनाय वा कवलग्रहं-ग्रासग्रहणम, उष्णैः कमलमधुभिः, अभ्यस्यन्तः-पुनः पुनः कुर्वन्तः।**सकलेति—**सकलनां, सलिलानाम्‌-जलानाम्‌, उच्छोषः-अतिशयेन शोषकः यो घर्मः-आतपः, तस्य घोषणा-प्रचारः तस्याः पटहाः, तैरिव। **शुष्केति—**शुष्काणां, वेणुवनानां, स्फोटनस्य-विदारणस्य, पटुरवाः-महानिनादाः तैः रिव। त्रिभुवनेति— त्रिमुवनविभीषिकाम्‌। त्रिलोकभीतिकाम्‌, उद्भावयन्तः-जनयन्तः। **च्युतेति—**च्युताभिः-स्खलिताभिः, अतएव चलिताभिः, उत्पतन्तीभिः, चाषपक्षिश्रेणिभिःनीलकण्ठ-पत्रिपङ्क्तिभिः, शारिता-व्याप्ता, सृतयः-मार्गाः यैः तथाविधाः (सृतिःस्त्रीगमने मार्गे इति कोषः)**त्विषिमादिति—**त्विषिमतः-सूर्यस्य, मयूखलतानां-किरणज्वालानाम्‌, अलतस्य ज्वलदङ्गारस्य यः प्लोषः-दहनम्‌, तेन कल्माषं-चित्रमित्कृष्णरक्तम्‌ ,वयुः-शरीरं येषां तथाविधाः। **स्फुटितेति—**स्फुटितानि-विकसितानिः गुञ्ञाफलानिवत्‌ ये स्फुलिङ्गाः-अग्निकणाःतेषां अंगारैः अङ्किताङ्गाः,

ङ्गाङ्गाराङ्किताङ्गा गिरिगुहागम्भीरझांकारभीषणभ्रान्तयः, भुवनभस्मीकरणाभिचारचरुपचनचतुराः, रुधिराहुतिमिरिव पारिभद्रद्रुमस्तबकवृष्टिभिस्तर्पयन्तस्तारवान्वनविभावसून्‌, अशिशिरसिकतातारकितरंहसः, तप्तशैलविलीयमानशिला- जतुरसलवलिप्तदिशः, दावदहनपच्यमानचटकाण्डखण्डखचिततरुकोटरकीटपटलपुटपाकगन्धकटवः, प्रावर्तन्तोन्मत्ता मातरिश्वानः।

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प्लुषिताङ्गाः। गिरि-इति— गिरिगुहासु-पर्वतकन्दरासु, गम्भीरझंकारेण, भीषणा, भ्रान्तिः-घूर्णनं येषां ते। भुवनेति— भुवनस्य-जगतः, भस्मीकरणं-दहनं, तदेवाभिचारः-वेदविहितनिष्ठुरकर्म, तत्रचरुपचनेहविपाके, चतुराः-पटवः, रधिराहुतिभिरिव रक्ताहुतिभिरिव, परिभद्रनामद्रमस्य, स्तबक्रानां-गुच्छानाम्‌,वृष्टिभिः-पातैः, तारवान्-वृक्षसम्बन्धिनः, विभावसून्‌-दावानलान्‌, तर्पयन्तः-प्रीणयन्तः। **अशिशिरेति—**आशिशिराभिः-उष्णाभिः, बालुकाभिः, तारकितम्‌, रंहः, वेगो येषां तथोक्ताः। **तप्तेति—**तप्तेषु-शैलेषु, गिरिषु, विलीयमानानां-गलतां, शिलाजतूनां-धातुभेदानाम्, रसलवैः-जलकणैः, लिप्ताः-दिशो यैः तथोक्ताः।**दाचेति—**दावदहनेन-वनाग्निना, पच्यमानानां-दग्धानां, चटकानां-पक्षिविशेषाणम्‌, अण्डखण्डैः-डिम्बशकलैः, रवचितेषु-व्याप्तेषु, तरुकोटरेषु-वृक्षगुहासु यानि कीरपटलानि-तद्‌ भक्षणार्थ-मागतानि, पिपिलिकावृन्दानि, तेषां पुटपाकस्य-अभ्यन्तरपाकस्य, गन्धेन कटवः-उव्देजका इत्यर्थः। उन्मत्ताः-उच्छृङ्खलाः, मातरिश्वानः वायवः, प्रावर्त्तन्तः। **सर्वतेति—**पुनर्तानेव दावाग्नीन्विशिनष्टि भूरि त्यादिभिः। जरठानां बृद्धानां, अजगराणां, सर्पाणां, गम्भीराः गलाः, कण्टप्रदेशाः एव गुहा ताभ्यः, वाहिनः, वहिर्निःसरन्तः, वायवः येषु तथाभूताः। अतएव-भूरिभिः, वृहद्भिः, भस्त्राणां, अग्निसंधूक्षणयंत्राणां सहस्रैः, सन्धुक्षणेन, समुद्दीपनेन, क्षुभिता इव, समुत्तेजिता इव।

** सर्वतश्च भूरिभस्त्रासहस्रसंधुक्षणक्षुभिता इव जरठाजगरगम्भीरगलगुहावाहिवायवः क्वचित्स्वच्छन्दतृणचारिणो हरिणाः, क्वचित्तरुतलविवरधिवर्तिनी बभ्रवः, क्वचिज्जटावलम्बिनः कपिलाः, क्वचि च्छकुनकुलकुलायपातिनः श्येनाः, क्वचिद्विलीनलाक्षारसलोहितच्छबयो ऽघराः, क्वचिदासादितशकुनिपक्षकृत-**

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** स्वच्छन्देति—**स्वच्छन्दं-स्वैरं, तृणेषु, चरन्ति-प्रसरन्ति, (पक्षे) तृणानिभक्षयन्ति हरिणाः-पाण्डुवर्णाः, (पक्षे) मृगाः। **तरुतलेति—**तरुतलेषु यानि विवराणि-गर्त्तानि तेषु वर्त्तिनिः, विभ्रवः पिङ्गलाः (पक्षे) नकुलाः। शकुनेति— शकुनकुलानां-पक्षिविशेषाणाम्‌ , कुलायान्-नीडानि, पातयन्ति-दहन्ति इति यथोक्ताः श्येनाः शुक्लवर्णाः, (पक्षे) पक्षिसमूहकुलायास्थितघातकाःपक्षिभेदाः। **जटेति—**जटाऽवलम्बिनः-जटाः-मूलानि,अवलम्बन्ते-आश्रयन्ति इति तथोक्ताः (पक्षे) जटाधारिणः, कपिलाः-पिङ्गलाः(पक्षे) कपिलमुनिविशेषव्रतधारिणः तापसाः। विलिनेति— विलीनः-द्रवीभूतः, यो लाक्षारसः-अलक्तकद्रवः तद्वत्‌,(अथवा) तेन लोहिताः-रक्ताः छवयः-कान्तयः, येषां, तथा भूताः, अधराः-धर्तुंमशक्याः, निम्नौष्ठाः वा (पक्षे) धराः-पर्वताः। **आसादितेति—**आसादितेषु-प्राप्तेषु अवसादंगतेषु, वा शकुनिनां-पक्षिणां, पक्षेषु, कृता-लब्धा पटुगतिः, सम्यक्‌ प्रसरणं यैःअन्यत्र-आसादिता-प्राप्ता, शकुनि-पक्षेण-पक्षिगरुता, कृता-जनिता, पटुगतिः-सम्यक् प्रसरणं यैः तथोक्ताः। वि-विविधा, शिखा ज्वाला येषां तथोक्ताः (पक्षे) शराः।**दग्धेति—**दग्घाः-भस्मीकृताः, निष्शेषाः-समस्ताः, जन्महेतवः-स्वोत्पत्तिकारणानि, तृणकाष्ठादीनि यैः (पक्षे) दग्धाः-क्षयिताः समस्ताः पूर्वपूर्व जन्ममर्जिताः संसारागमनकारणानि, पापपुण्यानि

पटुगतयोविशिखाः क्वचिद्दग्धनिःशेषजन्महतवो निर्वाणाः क्वचित्कुसुमवासिताम्बरसुरभयो रागिणः, क्वचित्सधूमोद्गारामन्दरुचयः, क्वचित्सकलजगद्ग्रासघस्मराः सभस्मकाः, क्वचिद्वेणुशिखरलग्नमूर्तयोऽत्यन्तवृद्धाः, क्वचिदचलोपयुक्तशिलाजतवः क्षयिणः क्वचित्सर्वरसभुजः पीवानः, क्वचिद्दग्धगुग्गुलोव, रौद्रा,क्वचिज्ज्वलितनेत्र- दहनटग्धसुकुसुमशरमदनाः कृतस्थाणु

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यैः तथोक्ता निर्वाणाःशान्ताः (पक्षे) मुक्तिगनाः। **कुसुमेति—**कुसुमैः-धूमैः (पक्षे) पुष्पैःवासितं-छादितं (पक्षे) सुरभितम्, यत्‌ अम्बरं नभः (पक्षे) वस्त्रम्‌, तेन सुरभयः शोभनदर्शनाः (पक्षे) सौरभशालिनः। रागिणःरक्तवर्णाः(पक्षे) रागवन्तः। सधूमेति— सधूमोद्गाराः-धूमनिर्गमेनसहवर्तमानाः,अमन्दाः-अतिप्रवृद्धाः, रूचयःकान्तयः येषां, (पक्षे) धूमनामकरोगेण मन्दारुचिः-इच्छा, भोजनादिषु येषाम्‌ ते। सकलेति— सकलं, जगदेवग्रासः-कवलम्‌ , तद्‌ घस्मराः, भक्षकाः, सभस्मभूरिकाः भस्मनां, भूरिभिः सहवर्तमानाः। वेणिवति-वेणूना, वशांनां, शिखरेषु, लग्नाः-संसक्ताः, (पक्षे) वेणुखण्डाग्रेषु, लग्नाः कृतभराः पूर्तयः अङ्गानि येषां यथोक्ताः। अत्यन्तवृद्धाः अतिप्रवलाः, अतिस्थविराश्च (बृद्धा हि वंश लगुडेन सहगच्छन्ति)**अचलेति—**अचलेषु पर्वतेषु, उपयुक्तानिभक्षितानि, दग्धानीति-भावः, शिलाजतूनि-शिलाजत्वाख्या धातुविरोषाः यैः, पक्षे अचलम् अविच्छिन्नम्‌, यथा तथा-उपयुक्तम्‌, सेवितम्‌, ओषधरूपेणेतिभावःशिलाजतुः यैः तथोक्ता। क्षयिणःनिर्माणंगताः-ज्ञयरोगिणश्च सर्वानिति-सर्वाणि-अन्नानि, रसान्‌, जलादीं भुञ्जते इति तथोक्ताः अतएव पीवानः स्थूलकलेवराः।**क्वचिदिति—**दग्धगुग्गलवः-भस्मीकृतगन्धद्रव्याणि, यैःतथोक्ताः, रौद्राः-भीषणाः-(पक्षे) शिवसेवकाः। ज्वलितेति— ज्वलि-

स्थितयः, चटुलशिखानर्तनारम्भारभटीनटाः क्वचिच्छुष्ककासारसृतिभिः स्फुटन्नीरसनीवारबीजलाजवर्षिभिर्ज्वालाञ्जलिभिरर्चयन्त इव धर्मघृणिम्, अघृणा इव हठहूयमानकटोरस्थलकमठवसाविस्रगन्धगगृध्नवः, स्वमपि धूममम्भोदसमुद्भूतिभियेव भक्षयन्तः, सतिलाहुतय इव स्फुटद्बहलबालकीटपरलाः

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तानां, नेत्राणाम-मूलानाम, दहनेन दग्धाः, सकुसमाः-सपुष्पाः, शराःतृणभेदाः, मदनाः-वृक्षभेदाश्च यैः तथोक्ताः। (पक्षे)-ज्वलिततृतीयनय नाग्निना भस्मीकृतः कुसुमशरसहितः मदनः-कामः यैः तथोक्ताः रुद्राः। **कृतेति—**कृताः-स्थाणुषु- छिन्नशाखाषु स्थितिः यैः, (पक्षे) स्थाणोहरस्य स्थितयः-व्यवहारा यैः। **चटुलेति—**चटुलशिखाः-चंचलज्वालाः, येषाम्‌, (अन्यत्र) चूड़ाः येषाम्‌। नर्तनारम्भे यः आरभटी-प्रधानवीररसविशेषः तत्र नटाः उभयत्रतुल्यम। शुष्केति— शुष्केषु-कासारेषु तडागेषु सृतिः प्रसारो येषांतैः। स्फुरदिति— स्फुटन्ति निर्-रसानि यानि निवारबीजानि-धान्यविशेषाः तेषां लाजान्‌ वषन्ति तथोक्तैः। ज्वालाऽञ्जलिभिः-शिखाऽञ्जलिभिः। धर्मघृणिम्-उष्णरश्मिम, अघृणा इव अजुगुप्सा इव अर्चयन्तः-पूजयन्तः। **हठेति—**हठात्‌-बलात्‌, हूयसानाः-दह्यमानाः, कठोराणां, स्थलकमठानांस्थलवर्त्तिकच्छपानाम्, याः वसाः-मेदांसि तासां यो विस्रगन्धः आमगन्धः तस्यगृन्धवः-लोलुपाः। **अम्भोदेति—**अम्भोदानां-पयोदानां, समुद्‌भूतिभिया-समुत्पत्तिभयेन, धूमं भक्षयन्तः। सलिलाहुतय इव-जलाहुतय इव। स्फुटदिति— स्फुटन्ति-निर्गच्छन्ति, बहलानिभूरीणि, बालानि-क्षुद्राणि, कीटपटलानि, क्षुद्रप्राणिवृन्दानि, यथा तथोक्ताः शिवत्रिणः कक्षेषु-वहल कृमिवृन्दानि, निसरन्ति। **प्लोषेति—**प्लोषेण-दहनेन, विचरन्ति-चटत्‌ चटत्‌ इति कुर्वन्ति‚ यानि बल्कलानि-

कक्ष्येषु, श्वित्रिण इव प्लोषविचटद्वल्कलधवलशम्बूकशुक्तयः शुष्केषु सरःसु, स्वेदिन इवविलीयमानमधुपटलगोलगलितमधूबिच्छिष्टबृष्टयः काननेषु, खलतय इव परिशीर्यमाणशिखासंहतयो महोषरेषु, गृहीतशिलाकवला इव ज्वलितसूर्यमणिशकलेषु शिलोच्चयेषु, प्रत्यदृश्यन्त दारुणा दावाग्रयः।

** तथाभूते च तस्मिन्नत्युग्रे ग्रीष्मसमये कदाचिदस्य स्वगृहावस्थितस्य भुक्तवतोऽपराह्णसमये भ्राता पारशवश्चन्द्रसननामा प्रविश्याकथयत्‌— ‘एषः खलु देवस्य चतुःःसमुद्राधिपतेः सकलगजचक्रचूडामणिश्रेणीशाणकोणकषणनिर्मलीकृतचरणनखमणेः **

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तरुत्वचः तैः धवलाः शम्बूकाः शंखाः, शुक्तयः मुक्तास्फोटाख्याजलजन्तुविशेषाः येषां तथोक्ता स्वेदिन इव घर्मिण इव। शुष्केषु नीरसेषु सरःसुतडागेषु। विलीयमानेति— विलीयमानेभ्यः-विलयंगच्छद्भ्यः, मधुपटलगोलेभ्यः-मधुचक्रेभ्यः, गलिता-निःसृता, मधुच्छिष्टानां, वृष्टिः, यैः नथोक्ताः। खलतय इव-खल्वाटा इव। महोषरेषु-मरुभूमिषु, **परीति—**परि-प्रान्तभागे, शीर्यमाणाः-प्रसरन्तः, शिखासंहतयः-ज्वालासमूहाः (पक्षे) चूडासमूहाः येषां तैः तथोक्ताः।गृहीतेति— गृहीतं, शिला एव शकलं ग्रासो यैः तादृशाः। ज्वलितसूर्यमणिशकलेषु-दीप्तसूर्यकान्तमणिखण्डेषु, शिलोच्चयेषु-गिरिषु, दारुणाः भयानकाः, दावाग्नयः-वनानलाः, प्रत्यदृश्यन्तः। देवेति— देवानां-राज्ञां, देवस्य-राज्ञः, चतुःसमुद्रा धिपतेः, चतुः सागरस्वामिनः। सकलेति— सकलानां, समस्तानां, राजचक्राणां-नृपमण्डलानाम्, याः चूड़ामणिश्रेण्यः-शिरोरत्नः पंक्तयः, ता एव शाणाः, निकषपाषाणविशेषाः, तेषां कोणोषु, प्रान्तभागेषु, यत्कषणं, घर्षणाम्, तेन निर्मलीकृताः, विशदीकृता, चरणयोः, नखा एवमणयः, रत्नानि यस्य तथाविधस्य।

सर्वचक्रवर्तिनां धौरेयस्य महाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीहर्षदेवस्य भ्राता कृष्णनाम्ना भवतामन्तिकं पज्ञाततमो दीर्घाध्वगः प्रहितो द्वारमध्यास्ते’ इति। सोऽव्रवीत्‌— ‘आयुष्मन्‌, अविलम्बितंप्रवेशयैनम्‌’ इति। अथ तेनानीयमानम्‌, अतिदूरगमनगुरुजडजङ्घम्‌, कार्दमिकचेलचीरिकानियमितोच्चण्डचण्डातकम्‌, पृष्ठप्रेङ्खत्पटच्चरकर्पटघटितगलितग्रन्थिम्‌, अतिनिबिडसूत्रबन्धनिम्नितान्तरालकृतव्यवच्छेदया लेखमालिकया परिकलितमूर्धानम्‌, प्रविशन्तं लेखहारकमद्राक्षीत्‌। अप्राक्षीच्च दूरादेव— ‘भद्र, भद्रमशेषभुवननिष्कारणबन्धोस्तत्रभवतः कृष्णस्य’ इति। सः भद्रम्‌

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** सर्वेति—** सर्वेषां, चक्रवर्तिनां सार्वभौमानां, धौरेयस्य अग्रगण्यस्य। महेति— महतां, राजाधिराजानां, परमेश्वरस्य-सर्वनियन्तुः, श्रीहर्षदेवस्य। प्रज्ञाततमः अतिप्रतीतः, (अतिशयेन विज्ञात इत्यर्थः) दीर्घाध्बगः-दीर्घम्, अध्वानं-मार्गं गच्छतीति तथोक्तः। प्रहितः-प्रेषितः। अतिदूरेति— अतिदूरगमनेन, गुरू भारवत्यौ, जडे-चलना-शक्ये, जङ्घे, यस्यतम। **कार्द्दमिकेति— **कार्द्दमिकस्य-कर्द्दमेनलिप्तस्य, चेलस्य, चीरिकया-खण्डेन, नियमितं संयमितम्, उच्चण्डम्-कर्कशम्, चण्डान्तकम्‌-अरूपद्धोर्यन्तव्यापकम्‌ वसनं येन तम्‌। **पृष्ठेति— **पृष्ठेप्रेङ्खत्‌-चलत्, पटच्चरं-जीर्णवसनम्, कर्पटम्‌ धर्ममर्ज्जनार्थवस्त्रभागम्‌ च ताभ्याम्‌, घटितः-रचितः, गलितः-शिथिलः, ग्रन्थिः-वस्त्रसन्धिः येन तम्‌। **अतिनिविडेति—**अतिनिविडेन-अतिघनेन, सूत्रबन्धेन, निम्नितः नमितः, अन्तराले-मध्ये, कृतः, व्यवच्छेदो यस्याः, तया, लेखमालिकया लिपिसञ्चयेन, **परिकलितेति—**परिकलितः-वेष्टितः, मूर्द्धा-मस्तकम् ,येन तम्‌, लेखहारकम्-पत्रवाहकम्। अद्राक्षीत्-अपश्यत्‌- (दृशिरप्रेक्षणे) अप्राक्षीत्-अपृच्छत्। भद्र, साधो! **अशेषेति—**अशेषाणाम्,

इक्युक्त्वा प्रणम्य नातिदूरे सतुपाविशत्‌। विश्रान्तश्चात्रवीत्‌— ‘एष खलु स्वामिना माननीयस्य लेखः प्रहितः’ इति विमुच्य चार्पयत्‌। अथ बाणः सादरं गृहीत्वा स्वयमेवावाचयत्‌— ‘मेखलकात्संदिष्टमवधार्य फलप्रतिबन्धी धीमद्धिरपहरणीयः कालातिपात इत्येतावदत्रार्थजातम्‌। इतरद्वार्तासंवादनमात्रकम’। अवधृतलेखार्थश्च समुत्सारितपरिजनः संदेशं पृष्ठवान्‌। मेखलकस्त्ववादीत्‌— ‘एवमाह मेधाविनं स्वामी— जानात्येव मान्यः यथैकगोत्रता वा, समानजतिता वा, समं संवर्धनं वा, एकदेशनिवासो वा, दर्शनाभ्यासो वा, परस्परानुरागश्रवणं वा परोक्षोपकारकरणं वा, समानशीलता वा, स्नेहस्य हेतवः। त्वयि तु विना कारणेनादृष्टेऽपि प्रत्यासन्ने बन्धाविव बद्धपक्षपातं किमपि स्निह्यति मे हृदयं दूरस्थेऽपीन्दोरिव कुमुदाकरे। भवन्तमन्तरेणान्यथा चान्यथा चायं चक्रवर्ती

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सर्वेषाम्‌, भुवननाम्-जगताम्‌, निष्कारणः-अहेतुकः, बन्धुः, तस्य। प्रहितः प्रेषितः अवाचयत्‌-अपपठत्, मेखलकः, तदाख्यः प्रागुक्तः पत्रवाहकः। सन्दिष्टम्-वाचिकम्‌, फलप्रतिवन्धी-फलंकार्यम वध्नानि। अपहरणीयेति-कार्यव्याघातकः। कालातिपातः. समयविलम्बः, वार्तासम्बादनमात्रकम्, वृतान्तालोचनमात्रम्। अवधृतलेखार्थः, ज्ञातलिपिनिवद्धोदन्तम्। समुत्सारितपरिजनः, परिवर्जितपरिजनः। मेखलकः, पत्रवाहकः। अवादीत्-प्रोवाच। एकगोत्रता, एककुलोत्पत्तिः। समानजातिता, तुल्यजातित्वम्‌, दर्शनाभ्यासः, पुनः पुनः साक्षत्करणम्‌, **परम्परानुरागश्रवणम्‌—**अन्योऽन्यसद्भावाकर्णनम्‌। **परोक्षोपकारकरणम्‌—**प्रत्यक्षाभवेऽपि उपकारकरणाम्। प्रत्यासन्ने, समीपे, कुमुदाकरे, कैरवोत्पत्तिभुवि।

दुर्जनैर्ग्राहित आसीत्‌। न च तत्तथा। न सन्त्येव ते येषां सतामपि सतां न विद्यन्ते मित्रोदासीनशत्रवः। शिशुचापलापराचीनचेतोवृत्तितया च भवतः केनचिदसहिष्णुना यत्किंचिदसदृशमुदीरितम्‌। इतरो लोकस्तथैव तद्गृह्णाति वक्ति च। सलिलानीव गतानुगतिकानि लोलानि खलु भवन्त्यविवेकिनां मनांसि। बहुमुखश्रवणनिश्चलीकृतनिश्चयः किं करोतु पृथिवीपतिः। तत्त्वान्वेषिभिश्चास्माभिर्दूरस्थितोऽपि प्रत्यक्षीकृतोऽसि। विज्ञप्तश्चक्रवर्ती त्वदर्थम्‌— यथा प्रायेण प्रथमे वयसि सर्वस्यैव चापलैः शैशवमपराधीति। तथेति च प्रतिपन्नं स्वामिना। अतो भवता राजकुलमकृतकालक्षेपमागन्तव्यम्। अवकेशीवादृष्टपरमेश्वरो बन्धुमध्यमधिवसन्नासि मे बहुमतः। न च सेवा-

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चक्रवर्त्तीसार्वभौमः। ग्राहितः-अवबोधितः। मित्रेति मित्राणि सुहृदः, उदासीनाः, मध्यस्थाः शत्रवः-वैरिणः, न विद्यन्ते न तिष्ठन्ति। शिश्विति शिशोश्चापलम्-शैशवचापल्यम्, तत्रपराचीना, अपराङमुखी, चित्तवृत्तिर्यस्य तत्ता, तया। असहिष्णुना, सोढुम्शक्नुवता, अदृशम्, अयुक्तम्‌, उदीरितम् उक्तम्‌। गनानुगतिकानि, गतं गमनम्‌, अनुगतिः, पश्चाद्गमनम्, अविवेकिनाम्, ज्ञानरहितानाम्। वह्निति-बहूनां, सुखानाम्, श्रवणेन निश्चलीकृतः निश्चयः, अवधारणाम्‌ यस्य, तथाभूतः। प्रत्यक्षीकृतः, साक्षात्कृतः। चापलैः, चपलकर्मभिः। अवराध्यतीति, अपराधि, सदोषं भवति इति यावत्‌। प्रतिपन्नम्‌ विदितम्‌। अकृतकाल क्षेपम्, समयविलम्बमकृत्वा।

** अवकेशीव**— निष्फलतरुरिव आदृष्टपरमेश्वरः-नदृष्टः, परमेश्वरः-राजाधिराजः रविश्च येन तथाभूतः। अदृष्टरविस्तरूमध्यगतछायाप्रधानः अवकेशी अपि न कस्यचित् प्रियः। बन्धुमध्यम्‌-बन्धूनां ज्ञातीनां

वैषम्यविषादिना परमेश्वरोपसर्पणभीरूणा वा भवता भवितव्यम्‌। यतो यद्यापि—

स्वेच्छोपजातविषयोऽपि न याति वक्तुं
देहीति मार्गणशतैश्च ददातिदुःखम्‌।
मोहात्समुत्क्षिपति जीवनमप्यकाण्डे
कष्टं मनोभवं इवेश्वरदुर्विदग्धः॥३॥

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मध्यम्‌, अधिवसन् अधितिष्टन् मे मम बहुमतः, वह्णादृतः। **सेवेति— **सेवायां, परिचर्यायां, यद्‌ वैषम्यं तेन विषीदतीति तेन। दुष्टात्प्रभोः मर्यादाऽभावमाशङ्कमानाय बाणाय उपदिशन् कृष्णाः स्वकीय स्वामिनं प्रशंसितुं प्रसङ्गात् दुर्विनीतप्रभोः स्वरूपमुपवर्णयन्नाह। **स्वेच्छेति— **ईश्वरदुर्विदग्धः, दुर्विदग्धः, अपण्डितः, ईश्वरः, प्रभुः (निग्रहानुग्रहअसमर्थः, इत्यर्थः) (पक्षे) ईश्वरेण-हरेण दर्विदग्धः-दुः-दुखं कष्टकरं यथा तथा (विवेकरहित इतियावत्‌) तथा वि-विशेषेण दग्धः-भस्मीकृतः नेत्रजवह्निनेतिभावः, मनोभव इव, काम इव कष्टं (क्लेशहेतुरित्यर्थः) अल्पबुद्धेः प्रभोः सेवा क्लेशकरीतिभावः। अथ च पादत्रयेण दुःशक्यत्वमुपपादयितुमाह। **स्वेच्छेति—**स्वच्छया, निजेच्छया, उपजाताः, उपस्थिताः, विषयाः, भोग्यवस्तूनि यस्य तथाभूत., (पक्षे) स्वेच्छ्म्, यथेष्टम्‌, उपजाताः, उपगताः, विषयाः, लक्ष्याणि यस्य तथाभूतः। देहीति, प्रयच्छ इति वक्तुं, कथयितुम्, न याति न ददाति (धातूनामनेकार्थत्वात् अत्र पा धातु, दानार्थीयः) (पक्षे) देहीति, कायावान् इति वक्तुं वचनं न याति न गच्छति। मार्गणशतैः, यांचाशतैः (पक्षे) शरशतैः, (मार्गणो याचके शरे” इति मेदिनी) दुःखं ददाति, क्लेशं जनयति, एकत्र, अनुजीविभ्यः (पक्षे) कामिभ्य इति, अकाण्डे, सहसाकारणान्तरे, असत्यपीति यावत्‌,

तथाप्यन्ये ते भूपतयः, अन्य एवायम्‌। न्यक्कृतनृगनलनिषधनहुषाम्बरीषदशरथदिलीपनाभागभरतभगीरथययातिरमृतमयः स्वामी। नास्याहंकारकालकूटविषदिग्धदुष्टा दृष्टयः, न गर्वगुरुगरगलग्रहगदगद्‌गदा गिरः, नातिस्मयोष्मापस्मारविस्मृतस्थै-

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मोहात्, अज्ञानात्, यथायथं दोषादोषयोः बोधशून्यात्, (पक्षे) मोहात् स्वविकारजनितमोहात् जीवनमपि प्राणानपि, एकत्र अनुजीविनाम्, (पक्षे) कामिनामितिशेषः समुत्क्षिपति, समुत्कर्षति दण्डयतीत्यर्थः(पक्षे) हरति। श्लेषानुप्राणितोपमालंकारः वसन्ततिलकं वृत्तं।

**न्यक्कृतेति—**नृगः, इक्ष्वाकुपुत्रः, नलः, निषधाधिपः, निषधः, रामप्रपौत्र, “रामस्यतनयो जज्ञे कुश इत्यभि विश्रुतः। अतिथिस्तु कुशाज्जज्ञेनिषधस्तस्यचात्मजः। हरिवंशे" नहुषः, आयुषः पुत्रः, (पुरुरवाप्रपौत्रश्च) अम्बरीषः “अम्बरीषस्तुनाभागिः सिन्धुद्वीप पिताभवत्‌" दशरथः, रामपिता, (रघुवंशे समुत्पन्नः)दिलीपः, रामप्रपितामहः, नाभागोऽम्बरीषपिता, भरतः, दष्यन्ततनयः, भगीरथः, सगरप्रपौत्रः, (गंगया आनेता) ययातिः, शर्मिष्ठायाभर्ता, च, (द्वन्दसमासः) इमे नृपाः, न्यक्कृताः, तिरस्कृताः, येन सः, (अत्र गुणाधिक्यंद्योतितम्,) अमृतमयः, अमृतविकारः, (अग्रिमकाल कूटादि राहित्य वर्णानममृत मयत्वादेव सर्वंयुज्यते) नास्येति— अस्य, हर्षस्य, अहंकारः, अहंभावः, एवकालकूटत्रिषंतेन दिग्धा, उपलिप्ता, अत एव, दुष्टा, दृष्टय, अवलोकितानि, न। **नेति—**गर्वः, अभिमान पव, गुरूगरं, महाविषं, तेन जातोयो गलग्रहः, कण्टावरोधः, (यस्य श्लेष्मा प्रकुपितातिष्टत्यन्तर्गलेस्थिरः, आशु संजनयेत्कोपं जायतेऽस्य गलग्रहः) चरके। स एव गदः, रोगः, तेन गद्‌गदावाचः न (आमयकारणेन वाचोऽस्पष्टत्वम्,) अतिस्मयः, अतिगर्वः, तेन य

र्याणिस्थानकानि, नोद्दामदर्पदाहज्वरवेगविक्लवाविकाराः, नाभिमानमहासंनिपातनिर्मिताङ्गभङ्गानिगतानि, न मदादितवक्रीकृतौष्ठनिष्ठ्यूतनिष्ठुराक्षराणि जल्पितानि। तथा च। अस्य विमलेषु साधुषु रत्नबुद्धिः, न शिलाशकलेषु।मुक्ताधवलेषु

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उष्मा, औद्धत्यं सएव, अपस्मारः, (मृगिः) व्याधिः, तेन विस्मृतं, स्मरणाविषयंगतं, स्थैर्यं, स्थिरता, यैः, तानि स्थानकानि, स्थितयः न। नोद्दामेति— उद्दामः, प्रचण्डः, यः, दर्पः स एवज्वरः, (उष्णोत्पादकत्वात्) तस्य वेगेन, विक्लवाः, पीडिताः, विकाराः, न। **नाभीति—**अभिमान एवमहासन्निपातः, (श्वासः कासो भ्रमो मूर्च्छा प्रलापो मोहवेपथुः। पार्श्वस्यवेदना जृम्भा कषायत्वं मुखस्य च वातोल्वणस्यलिंगानि, सन्निपातस्यलक्षयेत्) रोगः, तेन, कृतः, विहितः, अंगानां, अवयवानां, (पक्षे) स्वजनानांभंगः, येषु, तानि, गतानि, गमनानि च न। **मदेति—**मदः, सौभाग्ययौवनाद्यवलेपजो विकारः “मदो विकारः सौभाग्ययोवनाद्यवलेपजः “दर्पणे,” तेन, अर्दितः पीडित, (आक्रान्त इति यावत्) अत एव वक्रीकृतः, अथवा मद एवं अर्दितः, वातव्याधि विशेषः तेन वक्रीकृतः, यः, ओष्ठः, तस्मात, निष्ठ्यूतानि, निर्गलितानि, निष्ठुराणि, दारुणानि, कर्कशानि वा, अक्षराणि, वर्णा; (कवर्गादय इति यावत्‌) येषु तानि, जल्पितानि, वचनानि, न। अस्येति— अस्य, चक्रवर्तिनः, विमलेषु, अनघेषु, (अपापेष्वितिभावः) (पक्षे) निर्मलेषु, (भास्वरतयासुच्छायेष्वित्यर्थः) साधुषु, सज्जनेषु, रत्नबुद्धिः, रत्नानि एते इति बुद्धिः (ज्ञानमिति भावः) शिला शकलेषु प्रस्तरखण्डेषु, (हीरकादिषु इति भावः) न। परिसंख्याऽलंकारः।मुक्तेति— मुक्ताधवलेषु, मौक्तिकवत् विशदेषु, गुणेषु, विद्या विनयादिषु, (पक्षे) मुक्ताभिः धवलेषु, गुणोषु, सूत्रेषु, (मौक्तिक हारे-

गुणेषु प्रसाधनधीः, नाभरणभारेषु। दानवत्सु कर्मसु साधनश्रद्धा, न करिकटेषु। सर्वाग्रेसरे यशासि महाप्रीतिः, न जीवितजरत्तृणे। ग्रहीतकरास्वाशासु प्रसाधनाऽभियोगः, न निजकलत्रचर्मपुत्रिकासु। गुणवति धनुषि सहायबुद्धिः न पिण्डोपजीविनि सेवकजने। अपिच। अस्य मित्रोपकरणमात्मा, भृत्योप-

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ष्वित्यर्थः) प्रसाधनधीः, अलङ्कार बुद्धिः, अथवा, प्रसाधनं, प्रकृष्टम् अर्जनं, गुणार्ज्जनमेव अर्ज्जनं, (नतुआभरणार्ज्जनमितिभावः) आभरणाभारेषु, भारभूतेषुआभरणेषु, (कटककुण्डलादि समूहेषु) न। दानवत्सु, दानयुक्तेषु, (पक्षे) मदयुक्तेषु(दानं गजमदे त्यागेपालनच्छेदशुद्धिषु” मेदिनी) साधनश्रद्धा, निष्पादनानुरागः, (पक्षे) साध्यतेअनेन इति साधनं, सैन्यं (सेनाङ्गमितिभावः) तद्विषयिणीश्रद्धा, (सेनाङ्गत्वेन युद्धादि कर्मसम्पादनबुद्धिरित्यर्थः) करिकटेषु, हस्तिगण्डेषु, (मदजलवर्षिष्वित्यर्थः) न। मदमुचां हस्तिनां संग्रहानु-रागोनेतिभावः। अग्रेसरे, अग्रगामिने, यशसि, महाप्रीतिः, प्रेम, जीवितजरत्तृणे, जीवने (क्षणाभङ्गुरे-इतिभावः) न। **गृहीतेति—**गृहीतः करः स्वग्राह्योभागः, याभ्यः तथाविधासु(पक्षे) गृहीतः, धृतः करः पाणिःयासां, तासु, आशासुदिक्षु, (चेतसःअनधिगतबिषयतृष्णाषुवा) प्रसाधनाऽभियोगः, वशीकरणप्रयासः (रञ्जनानुरागो वा) निजेति— निजकलत्राणि, स्वीयभार्याः, (न परकीया इति ध्वनिः) तान्येव चर्म्मपुत्रिकाः, चर्माच्छादितपुत्तलिकाः तासु न। गुणवति, मौर्वीसमन्विते, (पक्षे) विद्याविनयादिसम्पन्ने, पिण्डोपजीविनि, (अन्नदानेन भरणीये इत्यर्थः) सहायवुद्धिः, न। अस्य (हर्षस्येतियावन्‌) मित्रोपकरणं, सुहृद्रूपं, उपकरणं उपकारकं बस्तु, आत्मा, स्वस्वरूपम्‌। (आत्मप्रभावेणैव सर्वमसौसंसाधयति, न परमुखमपेक्षते इत्यर्थः)

करणं प्रभुत्वम्, पण्डितोपकरणं वैदग्ध्यम्, बान्धवोपकरणं लक्ष्मीः, कृपणोपकरणमैश्वर्यम्, द्विजोपकरणं सर्वस्वम्, सुकृतसंस्मरणोपकरणं हृदयम्, धर्मोपकरणमायुः, साहसोपकरणं शरीरं असिलतोपकरणं पृथिवी, विनोदोपकरणं राजकम्, प्रतापोपकरणं प्रतिपक्षः। नास्याल्पपुण्यैरवाप्यते सर्वातिशायिसुखरसप्रसूतिः पादपल्लवच्छाया’इति। श्रुत्वा च तमेव चन्द्र-

भृत्योपकरणं, भृत्यानामुपकारसाधनं, प्रभुत्वं, प्रभावः (सेवकादीनां दानादिसम्पादनमेवास्य प्रभुत्वफलमितिभावः) पण्डितोपकरणं, पण्डितानामुपकार साधनं, वैदग्ध्यं विद्यावत्वं, वैचक्षण्यं वा। बान्धवोपकरणं, वान्धवानामुपकारसाधनं, लक्ष्मीः, सम्पत्, (सम्पद्भिः बान्धवा उपक्रियन्ते इतिभावः) कृपणोपकरणं, कृपणानां, दीनानां, उपकरणं, पोषणम्, ऐश्वर्यं। (अस्य ऐश्वर्यं दरिद्राणां दारिद्र्यमोचनार्थमेवेतिभावः) द्विजोपकरणं,द्विजानां, ब्राह्मणानां, उपकरणं, सर्वस्वं, सर्वंधनम्, **सुकृतेति—**सुकृतस्य, कृतोपकारस्य, संस्मरणं, तस्य, उपकरणं, उपकारकं, हृदयं, चित्तम् (कृतज्ञोऽयमितिभावः) धर्मोपकरणं, धर्मोपार्जनसाधनं, आयुः, जीवनसमयः (धर्मार्जनायैवजीवितमित्यर्थः) साहसोपकरणं, सहसाप्राग् विविच्य बलेन, क्रियमाणंकर्म साहसं, तस्य उपकरणं, उपकारसाधनं, शरीरं। **असीति—**असिलता, खङ्गं, तस्या उपकरणं, उपार्जनवस्तु, (खङ्गवलेनैवानेन पृथिवी आयत्तीकृता इतिभावः) विनोदोपकरणं, विनोदस्य, प्रीतेः, उपकरणं, राजकं,राजचक्रम्, (अनुगत राज्ञांसाहचर्येणैवायं प्रीतिमनुभवति)। **प्रतापेति—**प्रतापस्य, तेजसः, उपकरणम्, ख्यापनसाधनम्, तस्य प्रतिपक्षः, शत्रुः,। अल्पपुण्यैः, लघुभागधेयैः। **सर्वेति—**सर्वातिशायी, सर्वेभ्यः उत्कर्षवान् यः मुखरसः तस्य प्रसूतिः, उत्पत्तिहेतुः।

सेनं समादिशत्— ‘कृतकशिपुं विश्रान्तसुखिनमेनं कारय’इति।

** अथ गते च तस्मिन्, पर्यस्ते च वासरे, संघट्टमानरक्तपङ्कजसंपुटपीयमाने एव क्षयिणि क्षामतां व्रजति बालवायसास्यारुणेऽपराङ्मुखातपे, शिथिलितनिजवाजिजवे जपापीडपाटलेऽस्ताचलशिखरस्खलिते खञ्जतीव कमलिनीकण्टकक्षतपादपल्लवे पतंगे, पुरः परापतति प्रेङ्खदन्धकारलेशलम्बालके शशिविरह-**

पादपल्लवच्छायाः, पादपल्लवस्य, चरणकिसलयस्य छाया, अनातपः, (आश्रय, इत्यर्थः) कृतकशिपुम्, रचितशयनम्, वा सम्पादितभोजनाच्छादनव्यापारम्, पर्यस्ते, अवसिते। **संघट्टेति—**सङ्घट्टमानः, सम्मीलन् यः रक्तपङ्कजसम्पुटः, रक्तकमलसम्पुटः, तेन पीयमाने इव ग्रस्यमाने इव। क्षयिणि, क्षयोन्मुखे, क्षमतां, क्षीणतां, ब्रजति, गच्छति। **बालेति—**बालः, सद्योजातः, यः वायसः, काकः, तस्य आस्यानं, मुखं तद्वत् अरुणे, रक्तं। **परेति—**पराङ्मुखाः, प्रतिकूलाः, आतपाः, मयूखाः, यस्य तथोक्ते। **शिथिलेति—**शिथिलितः, मन्दः, निजवाजिनाम्, स्वाश्वानां, जवः, वेगो यस्मिन् तथोक्ते। **जपेति—**जपा, सूर्यप्रियकुसुमभेदः, तस्य आपीडः, स्तबकः, तद्वत्पाटले, रक्ते अस्ताचलशिखरस्खलिते, पश्चिमगिरिचूडावलम्बिनि। खञ्जतीव, खञ्जइवाचरतीव। **कमलिनीति—**कमलिन्याः, पद्मिन्याः, कण्टकैः, क्षतः, विद्धः, पादपल्लवः, चरणकिसलयः यस्य तथाभूते पतङ्गे, सूर्ये। पुरः, पूर्वस्यांदिशि, परापतति, आगच्छति। **प्रेङ्खदिति—**प्रेङ्खन्तः, आविर्भवन्तः, अन्धकारलेशाः, तिमिरबिन्दवः एव लम्बाः, अलकाः, चूर्णकुन्तलाः यस्मिन् तथा भूते।**शशीति—**शशिनः, चन्द्रस्य विरहेण, विच्छेदेन, यः शोकः तेन श्यामे, मलिने इव श्यामा, रात्री तस्याः मुखे, प्रारम्भे। अत्र श्यामा स्त्री मुखे, च, वदने, (पतिविच्छेददुःखेन श्यामामुखोऽपि मलिनो भवति

शोकश्याम इव श्यामामुखे, कृतसंध्योपासनः शयनीयमगात्। अचिन्तयच्चैकाकी— ‘किं करोमि। अन्यथा संभावितोऽस्मि राज्ञा। निर्निमित्तबन्धुना च संदिष्टमेवं कृष्णेन। कष्टा च सेवा। विषमं च भृत्यत्वम्। अतिगम्भीरं महद्राजकुलम्। न च तत्र मे पूर्वजपुरुषप्रवर्तिता प्रीतिः, न कुलक्रमागता गतिः, नोपकारस्मरणानुरोधः, न बालसेवास्नेहः, न गोत्रगौरवम्, न पूर्वदर्शनदाक्षिण्यम्, न प्रज्ञासंविभागोपप्रलोभनम्, न विद्यातिशयकुतुहलम्, नाकारसौन्दर्यादरः, न सेवाकाकुकौशलम्, न विद्वद्गो-

(इति रूपकालंकारः) **कृतेति—**कृतसन्ध्योपासनः, विहितशायंकालिककर्म, शयनीयम्, शयनागारम्। एकाकी, अद्वितीयः। अन्यथा, विरुद्धप्रकारेण, सम्भावितः, तर्कितः, निर्निमित्तबन्धुना, अकारणमित्रेण। कष्टा, कष्टकारी। भृत्यत्वम्, भृत्यभावः, विषमम, असहनीयम्। अतिगम्भीरम, दुर्ज्ञेयस्वभावम्। **पूर्वजेति—**पूर्वजैः, पितृभिः, प्रवर्तिता, जनिता प्रीतिः, प्रणयः। कुलक्रमागता, वंशपरम्परागता। उपकारस्मरणानुरोधः, राजकुलेन कदाचित् मयोपकारः कृतः तस्य स्मरणं तदनुरोधः। बालसेवास्नेहः, बाल्यात्प्रभृतिसंवानिमित्तं ममत्वम्। गोत्रगौरवम्, कुलसम्माननम्। पूर्वदर्शनदाक्षिण्यम्, पूर्वं, दर्शनं, साक्षात्कारः, तेन दाक्षिण्यं, सारल्यम्। **प्रज्ञेति—**प्रज्ञायाः, बुद्धेः, संविभागः, समालोचनम्, तस्य उपलोभनम्, लोभो पापसन्धानम्। विद्यातिशयकुतुह‌लम्, मे विद्या अतिशायिनी भविष्यति इति कुतुहलम्, कौतुकम्। नाकारसौन्दर्यादरः, आकारस्य, अवयवस्य, सौन्दर्ये आदरः, सम्मानः। सेवाकाकुकौशलम्, सेवायां, काकुः, ध्वनिविकारः तस्य कौशलं, पाटवम्। **विद्वदिति—**विदुषां, गोष्ठी, समाजः तस्याः बन्धे, आयत्तीकरणे वैदग्ध्यं, नैपुण्यम् न। वित्तव्यय-

ष्ठीबन्धवैदग्ध्यम्, न वित्तव्ययवशीकरणम्, न राजवल्लभपरिचयः। अवश्यं गन्तव्यम्। सर्वथा भगवान्पुरारातिर्भुवनगुरुर्गतस्यमे सर्वं सांप्रतमाचरिष्यति’इत्यवधार्यगमनाय मतिमकरोत्।

** अथान्यस्मिन्नहन्युत्थाय, प्रातरेव स्नात्वा, धृतधवलदुकूलवासाः, गृहीताक्षमालः, प्रास्थानिकानि सूक्तानि मन्त्रपदानि च बहुशः समावर्त्य, देवदेवस्य विरूपाक्षस्य क्षीरस्नपनपुरःसरां सुरभिकुसुमधूपगन्धध्वजबलिविलेपनप्रदीपकबहलां विधायपूजाम्, परमया भक्त्या प्रथमहुततरलतिलत्वग्विचटनचटुल-**

वशीकरणम्, वित्तस्य, धनस्य, व्ययः तस्य वशीकरणाम्, वाध्यता न। (अस्तीति शेषः) राजसेवायां प्रचुरं वित्तं लभ्यते ममापितस्य व्ययं आवश्यकं इति। राजवल्लभः, राजप्रियः, तस्य परिचयः, परिचितिः। **पुराराति—**त्रिपुरारिः, भुवनगुरुः, लोकगुरुः, महादेवः। अवधार्य, विचिन्त्य। धृतधवलदुकूलवासाः, परिहितशुभ्रपट्टवसनः। गृहीताक्षमालः, जपमालाधारी। प्रस्थानिकानि, प्रस्थानकाले वक्तव्यानि। सूक्तानि, वेद‌मन्त्रभागानि। बहुशः, बारम्बारम्। समावर्त्य पठित्वा। देवदेवस्य, महादेवस्य। विरूपाक्षस्य, त्रिलोचनस्य। **क्षीरेति—**क्षीरेण, दुग्धेन, स्नपनं स्नानं, पुरःसरां, पूर्वं यस्याः ताम्। **सुरभिति—**सुरभीणि, सुगन्धीनि, कुसुमानि पुष्पाणि, धूपाः, गन्धाः, ध्वजाः, पताकाः, बलिविलेपनानि, पूजार्थविलेपनद्रव्याणि, तैः बहला भूयिष्ठा ताम्। **प्रथमेति—**प्रथमं, प्राक् हुतानां, देवोद्देशेनप्रक्षिप्तानाम् तरलानां, चपलानाम्, तिलानां त्वचः, आवरणानि, तासां विघटनेन, विसरणेन चटुलाः, चंचलाः, अत एव मुखराः पटत्पटदिति शब्दं कुर्वाणाः, शिखाः, ज्वालाः, शेखराणि, शिर आभरणानि यस्य तम्।

मुखरशिखाशेखरं प्राज्याज्याहुतिप्रवर्धितदक्षिणार्चिषं भगवन्तमाशुशुक्षणिं हुत्वा, दत्त्वा द्युम्नं यथाविद्यमानं द्विजेभ्यः, प्रदक्षिण कृत्य प्राङ्मुखीं नैचिकीम्, शुक्लांगरागः, शुक्लमाल्यः, शुक्लवासाः, रोचनाञ्चितदूर्वाग्रपल्लवग्रथितगिरिकर्णिकाकुसुमकृतकर्णपूरः, शिखासक्तसिद्धार्थकः, पितुः कनीयस्या स्वस्रा मात्रेव स्नेहार्द्रहृदयया श्वेतवाससा साक्षादिव भगवत्या महाश्वेतया मालत्याख्यया कृतसकलगमनमंगलः, दत्ताशीर्वादो बान्धववृद्धाभिः, अभिनन्दितः परिजनजरतीभिः वन्दितचरणैरभ्यनुज्ञातो गुरुभिः, अविवादितैराघ्रातः शिरसि कुलवृद्धैः, वर्धितगमनोत्साहः शकुनैः, मौहूर्तिकमतेन कृतनक्षत्रदोहदः, शोभने मुहूर्ते

**प्राज्येति—**प्राज्याहुतिभिः, प्रचुरघृताहुतिभिः, प्रवर्द्धिताः, वृद्धिंनीताः, दक्षिणादक्षिणदिग्वर्तिन्यः अर्चिषः, शिखायस्य तथोक्तम्। आशुशुक्षणिम्, अग्निम्। (पावकोऽनलः रोहिताश्वो वायुसखा शिखावानाशुशुक्षणिः इत्यमरः। **द्युम्नम्—**धनम्, (द्युम्नं वित्ते विलेऽपि च इति मेदनी) नैचिकीं, गाम्, (उत्तमागोषु नैचिकी इत्यमरः) शुक्लाङ्गरागः, श्वेतचन्दनदिग्धस्नेहः। **रोचनेति—**रोचनया, गोरोचनाख्यमांगल्यद्रव्येण, अञ्चिताः, रञ्जिताः दूर्वाणां, कुशानाम्, अग्रपल्लवाः तैःग्रन्थितं, गुम्फितम्, यत् गिरिकणिकाकुसुमम्, अश्वखुरीनाम मांगलिकी औषधिः, तस्याः, पुष्पं, तेन कृतः, रचितः, कर्णपूरः कर्णभूषणं येन तथोक्तः। **शिखेति—**शिखासु, चूडासु, सक्ताः, लग्नाः, सिद्धार्थकाः, श्वेतसर्षपाः यस्य तथा भूतः। स्वस्रा, भगिन्या। श्वेतवाससा धवलवसनया। महाश्वेतया, सरस्वत्या। **कृतेति—**कृतम्, अनुष्ठितम्, सकलं, गमनाय मंगलं यस्य तथोक्तः। दत्ताशीर्वादः, वितरिताशिः, परिजनजरतीभिः, परिजनेषुया जरत्यः, स्थविराः ताभिः। आघ्रातः,

हरितगोमयोपलिप्ताजिरस्थण्डिलस्थापितमसितेतरकुसुममालापरिक्षिप्तकण्ठंपिष्टपञ्चाङ्गुलपाण्डुरं मुखनिहितनवचूतपल्लवं पूर्णकलशमुदीक्षमाणः प्रणम्य कुलदेवताभ्यः कुसुमफलपाणिभिरप्रतिरथं जपद्भिर्निजद्विजैरनुगम्यमानः, प्रथमचलितदक्षिणचरणः, प्रीतिकूटान्निरगात्।

** प्रथमेऽहनिघर्मकालकष्टं निरुदकं निष्पत्रपादपविषमं-**

शिरसि चुम्बितः। शकुनैः, सुनिमित्तभूतपक्षिभिः, **मुहूर्त्तिकेति—**मुहूर्त्तं जानन्ति इति मौहूर्तिकाः, गणकाः इत्यर्थः, (दैवज्ञगणकावपिस्युमौहूर्तिक इत्यमरः) तेषांमतेन, अभिप्रायेण। **कृतेति—**कृतम्, नक्षत्रेषु, अश्विन्यादिषु दोहदम्, अनुरागविशेषः येन तथोक्तः। शोभनेमुहूर्ते, शुभघटिकायाम्, **हरितेति—**हरितेन, अशुष्केण, गोमयेन, गव्येन, उपलिप्तम्, प्रलिप्तम्, यत्अजिरम्, अंगणम्, तदेव स्थण्डिलं, परिष्कृताभूमिः, तत्र स्थापितः तम्। **असितेति—**असितेतराभिः, श्वेताभिः, कुसुममालाभिः, परिक्षिप्तः, परिवेष्टितः, कण्ठः, यस्यतथोक्तम्। **पिष्टेति—**पिष्टानां, “पिटिली” इति प्रसिद्धानां मांगलिक द्रव्याणां पंचांगुलं, पंचांगुलाकारः प्रसाधनविशेषः, तेन पाण्डुरः, शुभ्रः (पंचांगुल गृहीतपिष्टेन चित्रित इति भावः) तम्। **मुखेति—**मुखे, कलसस्येतिशेषः, निहितः, अर्पितः, नवः चूतपल्लवः, आम्रपल्लवः यस्य तथोक्तम् पूर्णकलसम्, भरितकुम्भम्, उदीक्ष्यमाणः, पश्यन्। अप्रतिरथम्, नास्तिप्रतिरथः, प्रतिद्वन्दी यत्र तद्। जपद्भिः, बाणस्पर्द्धीकोऽपिमाभूत्, इति मंत्रं जपद्भिः, निजद्विजैः, स्वकीयैः, ब्राह्मणैः। अनुगम्यमानः, प्रथमं, पूर्वं चलितः, दक्षिणचरणः, वामेतरपादः यस्य सः। प्रीतिकूटात्, एतन्नाम नगरात्, निरगात्।

** प्रथमेति—**मल्लकूटनामानं ग्राममगात् इत्यनेनान्वयः। प्रथमेऽहनि,

पथिकजननमस्क्रियमाणं, प्रवेशपादपोत्कीर्णकात्यायनीप्रतियातनं, शुष्कमपि पल्लवितमिव तृषितश्वापदकुललम्बितलोलजिह्वालतासहस्रैः पुलकितमिवाच्छभल्लगोलाङ्गूललिह्यमानमधुगोलचलितसरघासंघातैः, रोमाञ्चितमिव दग्धस्थलीरूढस्थूलाभीरुकन्दलशतैः, शनैश्चण्डिकाकाननमतिक्रम्य मल्लकूटनामानं ग्राममगात्। तत्र च हृदयनिर्विशेषेण भ्रात्रा सुहृदा च जगत्पतिनाम्ना संपादितसपर्यः सुखमवसत्। अथापरेद्युरुत्तीर्य भगवतीं

आदिमेदिवसे। **घर्मेति—**घर्म्मकाले, ग्रीष्मावसरे कष्टं, दुखं यत्र तत्। निरुदकं, जलहीनम्। **निष्पत्रेति—**निष्पत्रैः, पत्ररहितैः, पादपैः, तरुभिः, विषमं, कठोरम्। (छायाहीनाद् दुःखगाहम्) **पथिकेति—**पाथिकैः, पान्थजनैः, नमस्क्रियमाणं, प्रणम्यमानम्। **प्रवेशेति—**प्रवेशे, प्रवेशनारम्भे यः पादपः, तरुः तत्र उत्कीर्णाखोदिता कात्यायन्याः, दशभुजायाः, प्रतियातना, प्रतिकृतिः, यत्र तथोक्तम्। शुष्कमपि नीरसमपि। **पल्लवेति—**पल्लवितमिव, पत्रवदिव, तृषितैः, पिपासितैः, श्वापदकुलैः, हिंस्रजन्तुसमूहैः, लम्बितानि, बहिष्कृतानि, लोलानां, चपलानां, जिह्वालतानां, रसनावल्लीनां, सहस्राणि यैः, “इत्युत्प्रेक्षा” पुलकितमिव, रोमाञ्चितमिव, **अच्छेति—**अच्छभल्लैः, भल्लूकैः, गोलांगूलैः, कपिभेदैः, (लंगूर इति ख्यातैः) लिह्यमानानि आस्वाद्यमानानि, यानि मधुगोलानि, मधुचक्राणि, तेभ्यः चलितानाम्, उड्डीयमानानां, सरघाणां, मधुमक्षिकाणां, संघातै, समूहैः। रोमाञ्चितमिव। **दग्धेति—**दग्धासु, भस्मीकृतासु, स्थलीषु, उषरभूमिषु, रूढानां, जातानाम, अभीरुणां, शतावरीनामौषधविशेषाणां, कन्दलशतैः, नवाङ्‌कुरसमूहैः। पूर्वेणान्वयः। हृदयनिर्विशेषेण, हृदयात् निर्विशेषः, अभिन्नः तेन, सम्पादितसपर्य्यः, अनुष्ठितसत्कारः।

भागीरथीं यष्टिगृहकनाम्नि वनग्रामके निशामनयत्। अन्यस्मिन्दिवसे स्कन्धावारमुपमणितारमन्वजिरवति कृतसंन्निवेशमाससाद। अतिष्ठच्च नातिदूरे राजभवनस्य ।

** निर्वर्तितस्नानाशनव्यतिकरो विश्रान्तश्च मेखलकेन सह सह याममात्रावशेषे दिवसे भुक्तवति भूभुजि प्रख्यातानां क्षितिभुजां बहूञ्शिबिरसन्निवेशान्वीक्षमाणः शनैः शनैः पट्टबन्धार्थमुपस्थापितैश्च, डिण्डिमाधिरोहणायाहृतैश्चाभिनवबद्धैश्च, विक्षेपोपार्जितैश्च, कौशलिकागतैश्च,नागवीथीपालप्रेषितैश्च, प्रथम-**

स्कन्धावारम्, सेना निवेशार्थरचितपटमण्डपादिरूपम्। उपमणितारम्, मणिताराख्यपत्तनसमीपे। **अन्वजिरवति—**अजिरवती नाम नदी तामनु, अन्वजिरवति। कृतसन्निवेशं, कृतस्थितिम्। आससाद, प्राप। **निर्वर्वितेति—**निर्वर्तितः, कृतः, स्नानाशनयोः, स्नानभोजनयोः, व्यतिकरः विधिः येन तथोक्तः। विश्रान्तः, कृतविश्रामः। मेखलकेन, एतन्नामपत्रवाहकेन। याममात्रावशेषे, प्रहरमात्रावशिष्टे। भूभुजि, राजनि। प्रख्यातानां, प्रसिद्धानाम्। क्षितिभुजां, महिभुजम्। शिवरसंनिवेशान्, पटमण्डपानि। वीक्षमाणः, पश्यन्। पट्टबन्धार्थम्, सिंहासनमण्डप रचनार्थम्। उपस्थापितैः, आनीतैः। डिण्डिमाधिरोहणाय, पटहस्थापनाय, गजस्योपरि इति भावः। **विक्षेपेति—**विक्षेपेण, प्रेरणेन, नृपवृन्दैः उपायनार्थमितिभावः। उपार्जिताः, लब्धाः तैः। कौशलिकम्, नैपुण्यम्, आगतैः, प्राप्तैः। **नागेति—**नागवीथी, गजोत्पत्तिभूमिः, तस्याः पालः, रक्षकः, तेन प्रेषितैः, प्रेरितैः। **प्रथमेति—**प्रथमं, प्राक् यत् दर्शनम्, अवलोकनम्, तस्मिन् यन् कुतूहलम्, कौतुकम्, तेन, उपनीतैः, प्राप्तैः। **दूतेति—**दूतानां, राजवार्तावहानां, सम्प्रेषणेन, प्रेरणेन, प्रेषितैः। **पल्लीति—**पल्ली, व्याधानां

दर्शनकुतूहलोपनीतैश्च,दूतसंप्रेषणप्रेषितैश्च, पल्लीपरिवृढढौकितैश्च स्वेच्छायुद्धक्रीडाकौतुकाकारितैश्च दीयमानैश्चाच्छिद्यमानैश्च, मुच्यमानैश्च, यामावस्थापितैश्च, सर्वद्वीपविजिगीषया गिरिभिरिव सागरसेतुबन्धनार्थमेकीकृतैर्ध्वजपटपटुपटहशङ्खचामरांगरागरमणीयैः, पुष्याभिषेकदिवसैरिव कल्पितैर्वारणेन्द्रैः श्यामायमानम्, अनवरतचलितखुरपुटप्रहतमृदंगैर्नर्तयद्भिरिव राजलक्ष्मी-

क्षुद्रग्राम, तस्य परिवृढः, अधिपः, तेन ढौकितैः, प्रेषितैः। **स्वेच्छेति—**स्वेच्छया, निजेच्छया, राज्ञ इति भावः। या युद्धक्रीडा तस्याम् यत्कौतुकम्, औत्सुक्यम, तेन आकारितैः, आहूतैः **दीयमानेति—**दीयमानैः, राजभिः, उपढौक्यमानैः। आच्छिद्यमानै, अपसार्यमाणैः। मुच्यमानैः, बन्धनात्इति भावः। यामस्थापितैः, प्रहरकालावस्थितैः। **सर्वेति—**सर्वे, सकलाः, द्वीपाः, देशाः, तेषां जिगिषया, जेतुमिच्छया। **सागरेति—**सागरस्य, समुद्रस्य सेतुः, पुलम्, तद्बन्धनार्थम् गिरिभिरिव, पर्वतैरिव। एकीकृतैः, एकत्रानीतैः। **ध्वजेति—**ध्वजपटाः, पताकाः, पटवः, गम्भीरनादाः, पटहाः, ढक्काः, शंखाः, चामराणि, बालव्यजनानि, अङ्गरागाश्च, विलेपनद्रव्याणि च तैः रमणीयैः, सुदर्शनैः। पुष्याभिषेकदिवसैरिव, (पुष्यनक्षत्रयुक्तेदिने मङ्गलालङ्कृतः स्नाति तत्र ध्वजादिरम्यवस्तूनि सज्जीक्रियन्ते तादृशैः दिनैरिव) कल्पितैः, सज्जितैः, वारणेन्द्रैः, गजेन्द्रैः, श्यामायमानम्, श्यामा, निशा तद्वत् आचरतीति तथोक्तम्। **अनवरतेति—**अनवरतं, निरन्तरम्, चलितं यत् खुरपुटम, शफाग्रम, तेन प्रहतानि, ताडितानि, मृदः, मृतिकायाः, अङ्गानि, अवयवानि, यैः तथोक्तैः, नर्तयद्भिरिव, नृत्यं कारयद्भिरिव। (तत्रापि वाद्यविशेषाः मृदंगाः ताडिताः भवन्ति) **सृक्केति—**सृक्कपुटम्, ओष्ठप्रान्तम्, (प्रान्तावौष्ठस्य सृक्कणी “इत्य-

मुपहसद्भिरिव सृक्कपुटप्रसृतफेनाट्टहासेन जवजडजङ्घां हरिणजातिमाकारयद्भिरिव संघट्टहेतोर्हर्षहेषितेनोच्चैरुच्चैः श्रवसमुत्पतद्भिरिव दिवसकररथतुरगरुषा, यक्षायमाणमण्डनचामरमालैर्गगनतलं तुरंगैस्तरंगायमाणम्, अन्यत्र प्रेषितैश्च प्रेष्यमाणैश्च प्रेषितप्रतिनिवृत्तैश्च बहुयोजनगमनगणनसंख्याऽक्षरावलीभिरिव वराटिकाऽऽवलीभिर्घटितमुखमण्डनकैस्तारकितैरिव संध्याऽतपच्छेदैररुणचामरिकारचितकर्णपूरैः सरक्तोत्पलैरिव रक्तशालिशाले-

मरः) तस्मात् प्रसृतः, निसृतः, यः फेनः स एवाट्टहासः, हास्यविशेषः तेन। **जवेति—**जवे, वेगे, जडा, गन्तुमसमर्था, जङ्घा, यस्याः ताम् हरिणजातिं, मृगजातिम्, आकारयद्भिरिव, आह्वयमानैरिव। **संघटेति—**संघटहेतोः, परस्परसम्मेलनहेतोः। दिवसकरस्य, सूर्यस्य ये रथतुरगाः, स्यन्दनाश्वाः, तेभ्यः, रुट्, क्रोधः, तया, गगनतलं, नभस्तलम्, समुत्पतद्भिरिव, उड्डीयधावद्भिरिव, **पक्षेति—**पक्षवदाचरन्तीति, पक्षायमाणाः याः मण्डनचामरमालाः, भूषणार्थधृतचामरराजयः, येषां तैः। तरंगायमानम्, तरंगवदाचरतीति तथोक्तम्। साम्प्रतम् क्रमेलककुलैः कपिलायमानं राजद्वारमिति विशिनष्टि। अन्यत्र— अन्यस्मिन् प्रदेशे, प्रेषितैः, प्रेरितैः। प्रेष्यमाणैः, प्रेर्य्यमाणैः प्रेषितप्रतिनिवृत्तैः, प्रथमं प्रेषिताः पश्चात् प्रतिनिवृतैः। **वह्निति—**बहूनि योजनानि यद्गमनं, तस्य गणना, संख्या तस्याम्, अक्षरावलीभिः, गणनचिह्नभूताङ्कैः। **वराटिकावलीभिः—**कपर्दिकाभिः। **घटितेति—**घटितं, खचितम्, मुखमण्डनकं, वदनभूषणं येषां तैः तारकितैरिव, प्रकटिततारामण्डलैरिव। सन्ध्या-शायंमुखम्, तस्याऽऽतपच्छेदैः, आतपखण्डैः। **अरुणेति—**अरूणाः, रक्ताः, याः चामरिकाः, ताभिः रचिताः, खचिताः कर्णपूराः, कर्णाभरणाः येषां तैः सरक्तोत्पलैरिव, अरूण-

यैरनवरतझणझणायमानचारुचामीकरघुरुघुरुकमालिकैर्जरत्करञ्जवनैरिवरणितशूष्कबीजकोशीतैः, श्रवणोपान्तप्रेङ्खत्पञ्चरागवर्णोर्णाचित्रसूत्रजूटजटाजालैः कपिकपोलकपिलैः क्रमेलककुलैः कपिलायमानम्, अन्यत्रशरज्जलधरैरिव सद्यः स्रुतपयः पटलधवलतनुभिः, कल्पपादपैरिव मुक्ताफलजालकजायमानाऽऽलोकलुप्तच्छायामण्डलैर्नारायणनाभिपुण्डरीकैरिवाश्लिष्टगरुडपक्षैः,

कमलवद्भिरिव। रक्तानां, शालीनां, धान्यानां, शालेयाः, क्षेत्राणि तैः।**अनवरतेति—**अनवरतं, निरन्तरम्, झणझणायमानैः, एतच्छब्दंकुर्वद्भिः, चारुभिः चामीकरैः, सुवर्णैः(घटिताइति शेषः) घुरुधुरुकाः, एतच्छब्दक्रियमाणाः मालाः येषां तैः। जरत्करञ्जवनैः, जीर्णाकमलकाननैरिव। **रणितेति—**रणितानि यानि शुष्कवीजानि येषां, केशीनां, पद्मानां शतैःशतसंख्याकैः। श्रवणयोः कर्णयोः, उपान्तेषु, प्रान्तेषु, प्रेङ्खन्ति, चलन्ति, पंचभिः, पंचविधैः रागैः, वर्णैः, रचिता याः उर्णाः, मेषादीनां लोमानि ताभिः चित्राणि, मनोज्ञनि, सूत्रजूटा इव जटाजालानि केशवृन्दानि येषां तैः। कपिकपोलकपिलैः, वानरगण्डस्थलवत् पिङ्गलैः। क्रमेलककुलैः, उष्ट्रवृन्दैः। कपिलायमानम्पिङ्गलायमानम्। **अन्यत्र—**अन्यस्मिन्देशे आतपपत्रखण्डैःश्वेतद्वीपायमानम् इति राजद्वारं विशिनष्टि, शरज्जलधरैरिव, शरत्कालमेघैरिव।**सद्य इति—सद्यःतत्क्षणम्, क्षुतानां, क्षरितानाम्, पयसां, दुग्धानाम्, पटलवत्, राशिवत्धवलम्, शुभ्रम् तनुः, येषां तथाविधैः (पक्षे) सद्यः स्रुतैः, अचिर निर्गलितैः, पयसां, जलानां पटलैः समूहैः, धवलाः श्वेताश्च ते तनवः तथा भूतैः कल्पपाद‌पैरिव, सुरतरुभिरिवमुक्तेति—**मुक्ताफलानां, मौक्तिकानाम्, जालकैः, मालाभिः, जायमानः, उत्पद्यमानः, यः आलोकः, प्रभा, तेन लुप्तं, छिन्नम् यत्

क्षीरोदोद्देशैरिव द्योतमानविकटविद्रुमदण्डैः, शेषफणाफलकैरिव उपरिस्फुरत्स्फीत माणिक्यरखण्डैः, श्वेतगंगापुलिनैरिव राजहंसोपसेवितैरभिभवद्भिरिव निदाघसमयमुपहसद्भिरिव विवस्वतः प्रतापमापिबद्भिरिवातपं चन्द्रलोकमयमिव जीवलोकं जनयद्भिः कुमुदमयमिव कालं कुर्वद्भिर्ज्योत्स्नामयमिव वासरं विरचयद्भिः फेनमयीमिव दिवं दर्शयद्भिरकालकौमुदीसहस्राणीव

छायामण्डलम्, अनातपसमूहः यैः तैः (पक्षे) मुक्ताफलानां जालकैः, कल्पवृक्षप्रसूतैः मौक्तिकैः, अन्यत्रसामान्यम्। नारायणास्य विष्णोः, नाभिपुण्डरीकैः, नाभिजश्वेतक्रमलैरिव, आश्लिष्टाः, संलग्नाः, गरुडपक्षाः, रत्नविशेषाः (अन्यत्र) गरुडपक्षिणः यत्र तैः। क्षीरोदोद्देशैरिव, क्षीरसागरविभागैरिव। **द्योतेति—**द्योतमानाः, दिप्यमाना, विकटाः, विषमाः, विद्रुमदण्डाः, प्रवालद्रुमाः यत्र तैः शेषफणाफलकैरिव, **उपरीति—**उपरि, शिखरदेशे, स्फुरत् दीप्यमानम्, स्फीतम् स्थूल माणिक्यखण्डम्, येषां तैः (पक्षे) उपरि-फणाया उपरिभागे, स्फुरत् स्फीतं माणिक्यखण्डम्, येषु तैः। श्वेतगङ्गापुलिनैरिव, धवलगंगासैकतदेशैरिव। **राजहंसेति—**राजानो हंसा इव तैः नृपोत्तमैः, (पक्षे) हंसविशेषैश्च। उपसेवितानि, व्यवहृतानि; चरितानि च तैः। निदाघसमयं, ग्रीष्मकालम्, अभिभवद्भिरिव, जयद्भिरिव, (आतपनिवारणात्) विवस्वतः, सूर्यस्य, प्रतापं प्रभावम्, उपहसद्भिरिव (सर्वतसूर्यदर्शनाभावात्) चन्द्रलोकमयमिव जीवलोकम्, मनुष्यलोकम्, जनयद्भिः, उत्पादयद्भिः (तस्यातिधावल्यात्) कुमदमयमिव, कैरवमयमिवकालं, समयं कुर्वद्भिः सम्पादयद्भिः। ज्योत्स्नामयमिवकान्तिमयमिव, वासरं, दिनं विरचयद्भिः, कुर्वद्भिः। फेनमयीमिव, दिवम्, अन्तरीक्षम् दर्शयद्भिः, आलोकयद्भिः। अकालकौमुदीसहस्राणीव, कौमुदीसहस्राणि, चन्द्रिकासमूहान्, सृजद्भिः,

सृजद्भिरुपहसद्भिरिव शातक्रतवीं श्रियं श्वेतायमानैरातपत्रखण्डैः श्वेतद्वीपायमानम्, क्षणदृष्टनष्टाष्टदिङ्मुखं च मुष्णद्भिरिव भुवनमाक्षेपोत्क्षेपदोलायितुं दिनं गतागतानीव कारयद्भिरुत्सारयद्भिरिव कुनृपतिकलङ्ककालीकालेयीं स्थितिं, विकचविशदकाशवनपाण्डुरदशदिशं शरत्समयमिवोपपादयद्भिर्विसतन्तुमयमिवान्तरिक्षमाविर्भावयद्भिःशशिकररुचीनां चलतां चामराणां सहस्रैर्दोलायमानम्, अपि च हंसयूथायमानं करिकर्णशङ्खैः,कल्पलतावनायमानं कदलिकाभिः, माणिक्यवृक्षकवनायमानं मायू-

उत्पादयद्भिः, शातक्रतवीं, ऐन्द्रीं, श्रियम्, सम्पदम्, उपहसद्भिरिव। श्वेतायमानैः, श्वेतइव आचरन्ति तैः, आतपत्रखण्डैः, छत्रनिवहैः, श्वेतायमानम्। चामराणां सहस्रैः, दौलायमानमिति विशिनष्टि। **क्षणेति—**क्षणेन, दृष्टं नष्टं च, अष्टानां, दिशां, मुखानि यस्य तादृशम्, भुवनम्, लोकम्, मुष्णद्भिरिव, हरद्भिरिव। **आक्षेपेति—**आक्षेपः, प्रसारणम्, उत्क्षेपः, ऊर्द्धोत्क्षेपणम् ताभ्यां दोलायितम् दिनं, दिवसम् गतागतानि, यातायातानि, कारयद्भिरिव। **कुनृपेति—**कुनृपाः, एव कलङ्काः, अपवादाः, तैः, काली, मलिनातां कालेयीं, कलिसम्बन्धिनीं, स्थितिं, मर्यादाम्, उत्सारयद्भिरिव, अपनयद्भिरिव। **विकचेति—**विकचैः, स्फुटैः अतएव विशदैः, काशवनैः, काशनामतृणविशेषैः, पाण्डुराः, धवलाः, दिशो यत्र तथा भूतम् शरत्समयम्, शरत्कालम्, उत्पादयद्भिरिव। विषतन्तुमयम्, मृणालसूत्रमयम्, अन्तरीक्षं, गगनतलम्, आविर्भावयद्भिरिव प्रकटयद्भिरिव। शशिनः, चन्द्रस्य कराः, किरणा इव शुचीनि, स्वच्छानि तेषाम्, पूर्वेणान्वयः। करिकर्णशङ्खैः, हस्तिकर्णेषु भूषणार्थं, विन्यस्तशङ्खैः। हंसयूथायमानम्, हंससमूहमिवाचरन्तम्। कदलिकाभिः, पताकाभिः, (रम्भावृक्षेथकदली पताका-

रातपत्रैः, मन्दाकिनीप्रवाहायमाणमंशुकैः, क्षीरोदायमानं क्षोमैःकदलीवनायमानं मरकतमयूखैः, जन्यमानान्यदिवसमिव पद्मरागबालातपैः, उत्पद्यमानापराम्बरमिवेन्द्रनीलप्रभापटलैः, आरभ्यमाणापूर्वनिशमिव महानीलमयूखान्धकारैः, स्यन्दमानानेककालिन्दीसहस्रमिव गरुडमणिप्रभाप्रतानैः, अंगारांकितमिव पुष्परागरश्मिभिः, कैश्चित्प्रवेशमलभमानैरधोमुखैश्चरणनखपति-

मृगभेदयोः) कल्पलतावनायमानम्, कल्पद्रुमवनमिव आचरन्तम्। मयूरातपत्रैः, मयूरपिच्छनिर्मितच्छत्रैः। माणिक्यवृक्षकाणाम्, माणिक्यभूषित क्षुद्रतरूणाम्। वनायमानम्, काननायमानम्। अंशुकैः, वसनविशेषैः, मन्दाकिनी गंगा, तस्याः प्रवा‌हमिवाचरति, इति तथोक्तम् क्षीरोदः, क्षीरसागरः सइवाचरतीति, क्षौमैः, श्वेतपट्टवसनैः। मरकतमयूरवैः, हरिन्मणिकिरणैः। कदलीवनायमानम्, रम्भावनायमानम्, पद्मरागाणाम्, पद्माख्यरत्नानाम्, बालातपाः, अरुणालोकाः, तैः, जन्यमानः, उत्पद्यमानः, अन्यः दिवसः तमिव। इन्द्रनीलानाम्, मणिविशेषाणाम्, प्रभापटलैः, कान्तिनिचयैः, उत्पद्यमानम्, जन्यमानम्, अपराम्बरमिव, अन्यद्गगनमिव। **गरुड़ेति—**गरुड़मणीनाम्, रत्नविशेषाणाम्, प्रभाप्रतानैः, कान्तिप्रनानैः। पुष्परागाणाम्, पद्मरागाणाम, रश्मिभिः, किरणैः, अंगारांकितमिव, अग्निस्फुलिंगाङ्कितमिव। कैश्चिदित्यारभ्यः शत्रुमहासामन्तैः, समन्तादासेव्यमानमिति विशिनष्टि। कैश्चित्, कतिपयैः, प्रवेशमलभमानैः, प्रवेशमप्राप्नुवद्भिः। अतएव अधोमुखैः, अवनतवदनैः। **चरणेति—**चरणेषु, पादेषु, नखाः तत्र पतितानाम्, वदनप्रतिबिम्बानाम्, मुखच्छायानाम्, निभेन, व्याजेन, लज्जया, ब्रीडया, स्वांगानीव, स्वशरीराणीव विशद्भिः, तदन्तलीयमानैः। कैश्चित्, कतिपयैः, अंगुलीति, अंगुलिभिः, लिखि-

तवदनप्रतिबिम्बनिभेन लज्जया स्वांगानीव विशद्भिः कैश्चिदङ्गुलीलिखितायाः क्षितेर्विकीर्यमाणकरनखकिरणकदम्बव्याजेन सेवाचामराणीवार्पयद्भिः कैश्चिदुरःस्थलदोलायमानेन्द्रनीलतरलप्रभापट्टैः स्वामिप्रकोपप्रशमनाय कण्ठबद्धकृपाणपट्टैरिव कैश्चिदुच्छ्वाससौरभभ्राम्यद्भ्रमरपटलान्धकारितमुखैरपहृतलक्ष्मीशोकधृतलम्बश्मश्रुभिरिवान्यैः शेखरोड्डीयमानमधुपमण्डलैः प्रणामविडम्बनाभयपलायमानमौलिभिरिव निर्जितैरपि सम्मा-

तायाः, खनितायाः, क्षितेः, पृथिव्याः, विकीर्यमाणानाम्, उत्क्षिप्यमाणानाम्, करनखकिरणानाम्, हस्ताग्रभागमयूरवानाम्, कदम्बकम्, समूहः, तस्य व्याजेन, छलेन, सेवाचामराणि इव, परिचर्य्यावालव्य जनानीव, अर्पयद्भिः, ददद्भिः। कैश्चित्, **उरःस्थलेति—**उरःस्थलेषु,वक्षःस्थलेपु, दोलायमानानाम्, लम्बमानानाम्, इन्द्रनीलानाम्,नीलकान्तमणीनाम्, तरलानि, चपलानि, प्रभापट्टानि, कान्तिपट्टानि तैः। स्वामिनः, प्रभोः, यः प्रकोपः, क्रोधः नस्य प्रशमनाय, शान्त्यर्थम्। **कण्ठेति—**कण्ठेषु बद्धानि कृपाणपट्टानि, असिफलकानि,यैः तथा भूतैरिव। **उच्छ्‌वासेति—**उच्छासस्य, निश्वासपवनस्य, सौरभेण, सद्गन्धेन, भ्राम्यद्भिः, संचरद्भिः, भ्रमरपटलैः, अलिवृन्दैः, अन्धकारितम्, अन्धकार इवाचरितम्, मुखं येषां तैः। **अपहृतेति—**अपहृतायाः, बलाद्गृहीतायाः, लक्ष्म्याः, राजश्रियः, शोकेन, धृताः, लम्बाः, श्मश्रवःयैः। **शेखरेति—**शेखरेभ्यः, शिरोभ्यः, उड्डीयमानानि, उत्पतन्ति, मधुपमण्डलानि, अलिवृन्दानि येषां तथोक्तैः। **प्रणामेति—**प्रणामे, प्रणत्याम् विडम्बनायाः, अवमाननायाः, भयेन पलायमानाः, मौलयः किरीटाः येषां तथोक्तैः। निर्जितैरपि, पराजितैरपि, सम्मानितैरिव, आदृतैरिव, अनन्यशरणैः, अन्याश्रयरहितैः।

नितैरिवानन्यशरणैरन्तरान्तरा निष्पततां प्रविशतां चान्तरप्रतीहाराणामनुमार्गप्रधावितानेकार्थिजनसहस्राणामनुयायिनः पुरुषानश्रान्तैः, पुनः पुनः पृच्छद्भिः ‘भद्रअद्य भविष्यति भुक्त्वा स्थाने दास्यति दर्शनं परमेश्वरः, निष्पतिष्यति वा बाह्यां कक्षाम्’इति दर्शनाशया दिवसं नयद्भिर्भुजनिर्जितैः शत्रुमहासामन्तैः समन्तादासेव्यमानम्, अन्यैश्च प्रतापानुरागागतैर्नानादेशजैर्महामहीपालैः प्रतिपालयद्भिर्नरपतिदर्शनकालमध्यास्यमानम्, एकान्तोपविष्टैश्च जैनैरार्हतैः पाशुपतैः पाराशरिभिर्वर्णिभिश्च सर्वदेशजन्मभिश्च जनपदैः सर्वाम्भोधिवेलावनवलयवा-

अन्तरान्तरा, मध्येमध्ये, निष्पतताम्, निर्गच्छताम्, प्रविशताम्, अन्तरप्रतिहाराणाम्, अन्तरे, मध्ये, प्रतिहाराः, रक्षिणः, येषाम् तेषाम्। अनुमार्गम्, अनुपथम्, प्रधावितानि, अनेकानि, अर्थिजनसहस्राणि, याचकवृन्दानि, येषां तेषामनुयायिनः, पृष्ठगामिनः, पुरुषान्, जनान्। अश्रान्तैः, न श्रान्तं येषां तैरविरतैरित्यर्थः, पुनः पुनः, बारम्बारं पृच्छद्भिः। भविष्यति दर्शनमितिशेषः। स्थाने, समुचितेप्रदेशे। परमेश्वरः, राजाधिराजः। कक्ष्याम्, प्रकोष्ठम् (कक्ष्याप्रकोष्ठे हर्म्यादेः - इत्यमरः) शत्रुमहासामन्तैः, शत्रवश्च ते महान्तः सामन्ताश्च तैः। आसेव्यमानम्, उपास्यमानम्। **प्रतापेति—**प्रतापेन, तेजसा, अनुरागेण च प्रेम्णा च आगताः तैः। प्रतिपालयद्भिः, प्रतीक्षमाणैः। अध्यास्यमानम्, अधिष्ठीयमानम्। एकान्तोपविष्टैः, एकदेशासनैः। जैनैः, जैनमतावलम्बिभिः। आर्हतैः, क्षपणकैः। पाशुपतैः, शैवै। पाराशरैः, पराशरमुनिमतानुवृत्तिभिः। वर्णिभिः, ब्रह्मचारिभिः।सर्वदेशजन्मभिः, सार्वदेशीयैः। **सर्वेति—**सर्वेषाम्, अम्भोधीनाम्, सागराणाम्, वेलावनानि, तीरकाननानि, तेषां वलयं, मण्डलम्, तस्मिन्

सिभिश्च म्लेच्छजातिभिः सर्वदेशान्तरागतैश्च दूतमण्डलैरुपास्यमानम्, सर्वप्रजानिर्माणभूमिमिव प्रजापतीनां, लोकत्रयसारोच्चयरचितं चतुर्थमिव लोकम्, महाभारतशतैरप्यकथनीयसमृद्धिसंभारम्, कृतयुगसहस्रैरिव कल्पितसन्निवेशम्,स्वर्गार्बुदैरिव विहितरामणीयकम्, राजलक्ष्मीकोटिभिरिव कृतपरिग्रहं राजद्वारमगमत्।

** अभवच्चास्य जातविस्मयस्य मनसि—‘कथमिवेदमियत्प्रमाणं प्राणिजातं जनयतां प्रजासृजां नासीत्परिश्रमः, महाभूतानां वा परिक्षयः, परमाणूनां वा परिच्छेदः, कालस्य वान्तः, आयुषो**

वसन्तीति तथोक्तैः। दूतमण्डलैः, उदन्तवाहकवृन्दैः। उपास्यमानम् आश्रीयमाणम्। **सर्वेति—**प्रजापतीनाम्, विधातृणाम्। सर्वासाम्, प्रजानाम्, निर्माणभूमिमिव, उत्पत्तिक्षेत्रमिव(नहि अन्यत्र स्थित्वा प्रजापतिः सर्वान् श्रष्टुंशक्तः) **लोकेति—**लोकानाम्, स्वर्गमर्त्यपातालानाम्, त्रयं, तस्य सारोच्चयः, स्थिरांशराशिः तेन रचितम्। महाभारतशतैरपि, असंख्यमहाभारतसदृशमहाकाव्यैरपि, अकथनीयः, अनिर्वचनीयः, समृद्धीनां, सम्पदां सम्भारः, सञ्चयः यस्य तथोक्तम्। कृतयुगसहस्रैरिव, बहुतरसत्ययुगैरिव, कल्पितः, रचितः, सन्निवेशः, स्थानं यस्य तथा भूतम्। स्वर्गार्बुदैरिव, दशकोटिसंख्यैः स्वर्गैरिव, विहितम्, अर्पितम्, रामणीयकम्, रम्यत्वं यस्य तथाभूतम्। **राजेति—**राजलक्ष्मीणाम्, राजश्रीणाम्, कोटिभिरिव, लक्षशतैरिव, कृतपरिग्रहम्, कृताश्रयम्। राजद्वारमगमत्।

अस्य बाणस्य, जातविभयस्य, प्रादुभूताश्चर्यस्य। प्रजासृजां, प्रजाकर्तृृणाम्। महाभूतानाम्, क्षित्यप्तेजोवायूनाम्। सृष्ट्युपादानकारणभूतानामितिभावः। व्युपरमः, शेषः। परिसमाप्तिः, निःशेषेण-

वा व्युपरमः, आकृतीनां वा परिसमाप्तिः’इतिमेखलकस्तु दूरादेव द्वारपाललोकेन प्रत्यभिज्ञायमानः “तिष्ठतु तावत्क्षणमात्रमत्रैव पुण्यभागी’इति तमभिधायाप्रतिहतः पुरः प्राविशत् ।

** अथ स मुहूर्तादिव प्रांशुना, कर्णिकारगौरेण, वीध्रकञ्चुकच्छन्नवपुषा, समुन्मिषन्माणिक्यपदकबन्धबन्धुरशस्तबन्धकृशावलग्नेन, हिमशैलशिलाविशालवक्षसा, हरवृषककुदकूटविकटांसतटेन, उरसा चपलहृषीकहरिणकुलसंयमनपाशमिव हारं**

व्ययः। प्रत्यभिज्ञायमानः। सोऽयमिति— अवगम्यमानः। अप्रतिहतः, अनिवारितः।

अथेत्यारभ्यपुरुषेणानुगम्यमानो निर्गत्य अवोचत्इति दूरेणान्वयः। प्रांशुना, उग्रकायेन। कर्णीति— कर्णिकारं, तदाख्यकुसुमभेदः, तद्वत्गौरः, शुभ्रः तेन। वीध्रेति—वीध्रेण, विमलेन (वीध्रंतुविमलात्मकम्, इत्यमरः) कञ्चुकेन, वर्मणा, च्छन्नम्, आवृतं, वपुः, शरीरम्यस्य तथा विधेन। **समुन्मिषदिति—**समुन्मिषत्, सम् दीप्यमानम्, माणिक्यपदकम्, मणिमयराजाधिकारचिह्नम्, तस्यबन्धेन, ग्रहणेन, बन्धुरम्, रम्यम्, यत्शस्त्रम्, काञ्चनमयकटिसूत्रम्, तस्य बन्धेन, स्थापनेन, कृशम्, क्षीणाम्, अवलग्नम्, मध्यं यस्य तेन। (मध्यमञ्चावलग्नञ्चमध्योऽस्त्री- इत्यमरः) **हिमेति—**हिमशैलः, हिमाचलः, तस्य शिलावत्, विशालं, प्रशस्तं, वक्षः यस्य तेन। हरेति— हरस्य, वृषः, तस्य ककुदम, स्कन्धपृष्ठस्थमांसपिण्डविशेषः, तस्य कूटं, शिखरम् तद्वत्विकटः, समुन्नतः, अंसतटः, स्कन्धदेशः यस्यतेन। उरसा, वक्षसा। **चपलेति—**चपलानि, लोलानि, हृषीकाणि, एकादशेन्द्रियाणि, हरिणकुलानीव, मृगयूथानीव, तेषां संयमनाय, बन्धनाय, पाशः, रञ्जुः, तमिव हारम्, विभ्रता, दधानेन।

बिभ्रता, “कथयतं यदि सोमवंशसंभवः सूर्यवंशसंभवो वा भूपतिरभूदेवंविधः’इति प्रष्टुमानीताभ्यां सोमसूर्याभ्यामिव श्रवणगताभ्यां मणिकुण्डलाभ्यां समुद्भासमानेन, बृहद्वदनलावण्यविसरवेणिकाक्षिप्यमाणैरधिकारगौरवाद्दीयमानमार्गेणैव दिनकृतः किरणैःप्रसादलब्धया विकचपुण्डरीकमुण्डमालियेव दीर्घया दृष्ट्या दूरादेवानन्दयता, नैष्ठुर्याधिष्ठानेऽपि प्रतिष्ठितेन पदे पदे प्रश्रयमिवावनम्रेण, मौलिना पाण्डुरमुष्णीषमुद्वहता, वामेन स्थूलमुक्ताफलच्छुरणदन्तुरत्सरुं करकिसलयेन कलयता कृपाणम्, इतरेणापनीततरलतां ताडिनीमिव लतां शातकौम्भीं

सोमवंशसम्भवः, चन्द्रवंशोत्पत्तिः। सूर्यवंशसम्भवः, रविकुलजन्मनः। **बृहदिति—**बृहताम्, महताम्, वदनलावण्यानाम्, मुखप्रभाणाम्, विसरः, विस्तार एववेणिका, स्रोतः, तया क्षिप्यमाणाः, निराक्रियमाणाः तैः। **अधिकारेति—**अधिकारस्य, गौरवात्, सम्मानान्, दीपमानो मार्गो, येभ्यः तथोक्तैः। दिनकृतः, सूर्यस्य किरणैः, मयूरवैः, प्रसादः, प्रसन्नता, तेन लब्धा तया, विक्रचपुण्डरीकपुण्ड्रमालिकयेव, स्फुटितकमलस्रजेव, दीर्घया, विशालया, दृष्ट्या, लोचनेन। नन्दयता, संतोषयता। नैष्ठुर्याधिष्ठानेऽपि, निष्ठुरस्यभावं नैष्ठुर्यम्, तस्य अधिष्ठानं तस्मिन्। पदे, अधिकारे, प्रतिष्ठितेन, प्रश्रयमिव, विनयमिव अवनम्रेण, विनतेन, मौलिना, शिरसा, पाण्डुरम्, धबलम्, उष्णीषम्, शिरोवेष्टनम्, उद्वहता, धारयता। वामेन, सव्येन, **स्थूलेति—**करकिसलयेन, हस्तपल्लवेन। स्थूलानि, यानि, मुक्ताफलानि, मौक्तिकानि तेषां यच्छ्रुरणम्, विकाशः, तेन दन्तुरः, संजातदन्तः इवत्सरुः, खड्गमुष्टिप्रदेशः, यस्य तथा भूतम्, कृपाणं कलयता, धारयता। इतरेण, दक्षिणेन। **अपनीतेति—**अपनीता, दूरीकृता,

वेत्रयष्टिमुन्मृष्टां धारयता पुरुषेणानुगम्यमानो निर्गत्यावोचत्ए— एष खलु महाप्रतीहाराणामनन्तरश्चक्षुष्यो देवस्यपारियात्रनामा दौवारिकः। समनुगृह्णात्वेनमनुरूपया प्रतिपत्त्या कल्याणाभिनिवेशी’इति। दौवारिकःसमुपसृत्य कृतप्रणामो मधुरया गिरा सविनयमभाषत—‘आगच्छत। प्रविशत दर्शनाय। कृतप्रसादो देवः’इति। बाणस्तु ‘धन्योऽस्मि, यदेवमनुग्राह्यं मां देवो मन्यते’इत्युक्त्वा तेनोपदिश्यमानमार्गः प्राविशदभ्यन्तरम्।

** अथ वनायुजैः, आरट्टजैः, काम्बोजैः‚ भारद्वाजैः, सिन्धुदेशजैः, पारसीकैश्च, शोणैश्च, श्यामैश्च, पिञ्जरैश्च, हरिद्भिश्च, तित्तिरिकल्माषैश्च, पञ्चभद्रैश्च, मल्लिकाक्षैश्च, कृत्तिकापिञ्जरैश्च,**

तरलता, चपलता ताम् ताडनीम्, ताड्यतेऽनयेति ताम् लताम्, वल्लीम्, शातकौम्भीम्, स्वर्णमयीम्, उन्मृष्टाम्, अतिशयेन विशोधिताम्, धारयता। पूर्वेणान्वयः। महाप्रतीहाराणाम्, प्रधानद्वारपालानाम्, अनन्तरः, चक्षुष्यः, प्रियदर्शनः। अनुरूपया, समुचितया, प्रतिपत्या, आदरेण। कल्याणाभिनिवेशी, कल्यायो, शुभकर्मणि, अभिनिवेशः अस्यास्ति सः अभाषत्, अवोचत्। कृतप्रसादोदेवः, कृतः, विहितः, प्रसादः, प्रसन्नतायेन सः देवः, राजाधिराजः। अथेत्यारभ्य तुरङ्गैःआरचितां मन्दुरां विलोकयन् इति उत्तरेणान्वयः।

** वनायुजैः—**वनायुदेशोत्पन्नैः। आरट्टजैः, अरबदेशोद्भवैः। कम्बोजैः, तद्देशजैः। भारद्वाजैः, भरद्वाजदेशजैः। सिन्धुदेशोद्भवैः। पारसिकैः, पारस्यदेशभवैः। शोणैः, रक्तवर्णैः, श्यामैः, कृष्यावर्णैः, श्वेतैः, शुक्लवर्णैः। पिञ्जरैः, पिङ्गलैः। हरिद्भिः, हरिद्वर्णैः। तित्तिरिकल्माषैः, तित्तिरिपक्षिविशेषवत् विचित्रवर्णैः। पंचभद्रैः, पञ्चसु, अङ्केषु, मुखसहितेषु शफेषु, (चतुर्षु इति भाव) भद्राः, कल्याणदाः तैः।

आयतनिर्मांसमुखैः, अनुत्कटकर्णकोशैः, सुवृत्तश्लक्ष्णसुघटितघण्टिकाबन्धैः, यूपानुपूर्वीवक्रायतोदग्रग्रीवैः, उषचय-श्वसत्स्कन्धसंधिभिः, निर्भुग्नोरःस्थलैः, अस्थूलप्रगुणप्रसृतैर्लोहपीठकठिनखुरमण्डलैः, अतिजवत्रुटनभयादनिर्मिता-न्त्राणीवोदराणि वृत्तानि धारयद्भिः, उद्यद्द्रोणीविभज्यमानपृथुजघनैः, जगतीदोलायमानबालपल्लवैः, कथमप्युभयतो निखातदृढभूरिपाश-

मल्लिकाक्षैः, सितनेत्रप्रान्तैः। कृत्तिकापिञ्जरैः, (तारकाकदम्बककल्पानेकबिन्दुकल्माषितत्वचः) इति लक्षणयुक्तैः। **आयतेति—**आयतानि, दीर्घाणि, निर्मांसानि, प्रायेणास्थिमयानि मुखानि येषां तथोक्तैः। अनुत्कटः, कर्णकोशः, श्रवण पाशः येषां तैः। **सुवृत्तेति—**सुवृत्तः, सद्वर्तुलः श्लक्षणः, चिक्कणः, सुघटितः सुनिर्मितः, घण्टिका, क्षुद्रघण्टाः तासां बन्धो बन्धनं येषां तैः। **यूपेति—**यूपः, यज्ञस्तम्भः, तस्य अनुपूर्वी-अनुरुप्यम्, तथा वक्रा, आयता, विशाला, उद्ग्राउन्नता, ग्रीवा, कण्ठं येषां तैः। **उपचयेति—**उपचयेन श्वयन्, स्फीततां गच्छन्, स्कन्ध सन्धिर्येषाम् तैः। **निर्भु-इति—**निर्भुग्नम्, स्थूलतया वहिर्निर्गतम्, उरःस्थलम्, वक्षः येषां तैः। अस्थूलाः, स्वल्पमांसा, प्रगुणा, ऋजुः प्रसृता, जङ्घा येषां तैः। **लोहेति—**लोह पठीवत् कठिनम्, खुरमण्डलं, शफगोलं येषां तैः। **अतिजवेति—**अतिजवेन, अतिवेगेन, यत् त्रुटनं छेदः, तस्मात्, अनिर्मितानि अन्त्राणि, नाडीविशेषाः येषु तथोक्तानीव वृत्तानि, वर्त्तुलानिउदराणि धारयद्भिः। **उद्यदिति—**उद्यती, उदयंयाती, द्रोणी, वाजिनां शोभाविशेषः तया विभज्यमानानि व्यक्तीक्रीयमाणानि, पृथूनि जघनानि येषां तैः। **जगतीति—**जगत्यां, भूमौ दोलायमानाः वालाः, पुच्छलोमानि पल्लवा इव येषां तैः। **उभयत-इति—**उभयतः

संयमननियन्त्रितैः, आयतैरपि पश्चात्पाशबन्धप्रसारितैकांघ्रिभिरायततरैरिवोपलक्ष्यमाणैः, बहुगुणसूत्रग्रथितग्रीवागण्डकैः, आमीलिलोचनैः, दूर्वारसश्यामलफेनलवशबलान्दशनगृहीतमुक्तान्फरफरितत्वचः कण्डूजुषः प्रतीकान्प्रचालयद्भिः, सालसवलितवालधिभिः, एकशफविश्रान्तिश्रमस्रस्तशिथिलितजघनार्धैः, निद्रया प्रध्यायद्भिश्च, स्खलितहुङ्कार-मन्दमन्दशब्दायमानैश्च, ताडितखूरधरणीरणितमुखरशिखरखुरलिखितक्ष्मातलैर्घासम-

उभयोः पार्श्वयोः, निरवातः, प्रोतः, दृढः, कठिनः, भूरिः, प्रभूतः, पाशः, रज्जुः, तेन संयमनं, बन्धनं तेन नियन्त्रिताः, निरुद्धाः तैः। **अनायतैरपि—**अविस्तरितावयवैरपि, पश्चात्पाशबन्धेऽपि प्रसारितः, एकः, अङ्घ्रि-पादः येषां तैः। अतएव आयततरैरिव, दीर्घतरैरिव, उपलक्ष्यमाणैः, दृश्यमानैः। **बहुगुणेति—**बहुगुणैः, अनेकवृत्तैः, सूत्रैः, ग्रथितः, गुम्फितः, ग्रीवासु गण्डकः, भूषणभेदः येषां तैः। आमीले, ईषन्मुद्रिते, लोचने येषां तैः। **दूर्वेति—**दूर्वारसवत्, श्यामलाः, ये फेनलवाः, फेनविन्दवः, तैःशवलान्, विचित्रान्, दशनैः, दन्तैः गृहीनाः, धृताः, मुक्ताः, त्यक्ताः, तान्, फरकरिताः, पुनः पुनः ईषत् कम्पिताः त्वचः येषां तान् कण्डुजपः, कण्डुशालिनः, प्रतीकान्, अङ्गानि (अङ्गंप्रतीकोऽवयवोऽप्रघनः, इत्यमरः) प्रचालयद्भिः, कम्पयद्भिः। **सालसेति—**सालसं, लघुयथास्यात्तथा वलिताः, कम्पिताः, वालधयः, पुच्छलोमानि येषां तैः। **एकेति—**एकशफेन, एकखुरेण, या विश्रान्तिः, तया स्रस्तम्, पर्यस्तं, शिथिलितं जघनार्द्धं येषां तैः। प्रध्यायद्भिः, चिन्तयद्भिः। **स्खलितेति—**स्खलितेन, हुङ्कारेण मन्दं मन्दं यथा तथा शब्दायमानैः, ननद्भि। **ताडितेति—**ताडिता या खुरधरणी, खुराधोभूः, तस्याः, रणितेन, शब्देन, मुखरं यत्शिखरम्, अग्रम्,

भिलषद्भिश्च, प्रकीर्यमाणयवसग्रासरसमत्सरोद्भूतक्षोभैश्च, प्रकुपितचण्डचण्डालहुङ्कारकातरतरतरलतारकैश्च, कुङ्कुमप्रमृष्टिपिञ्जराङ्गतया सततसंनिहितनीराजनानलरक्ष्यमाणैरिवोपरिविततवितानैः, पुरः पूजिताभिमतदैवतैः, भूपालवल्लभैस्तुरङ्गैरारचितां मन्दुरां विलोकयन्, कुतूहलाक्षिप्तहृदयः किंचिदन्तरमतिक्रान्तो हस्तवामेनात्युच्चतया निरवकाशमिवाकाशं कुर्वाणम्, महता कदलीवनेन परिवृतपर्यन्तं सर्वतो मधुकरमयी-

येषांते खुरास्तैः लिखितं, यत्क्षमातलम्, भूतलं यैः तथा विधैः। **प्रकीर्यमाणेति—**प्रकीर्यमाणः, प्रक्षीप्यमाणः, यवग्रासः, घासकवलम्, तस्य रसे, स्वादे, यो मत्सरः, द्वेषः (अन्यकोऽपि तुरगो नैनमास्वायतु इति धियेतिभावः) तनोद्भूतः, जनितः, क्षोभः, येषां तैः। **प्रकुपितेति—**प्रकुपितः, यः चण्डचण्डालः, चण्डाश्चपालः, तस्य हुङ्कारेण, कातरतराः, अतिदीनाः, तरला, चपलाः, तारकाः, कनीनिकाः येषां तैः। कुङ्कुमेति - कुङ्‌कुमैः, प्रमृष्टिः, प्रमार्जनम्, तेन पिञ्जराणि, अङ्गानि येषां तद्भावः तत्ता तया। **सततेति—**सततं, सन्निहितेन, समीपस्थेनेतिभावः, नीराजनानलेन (यात्रायां वाजिनां नीराजना क्रियते) इति शास्त्रात्नीराजनाग्निना रक्ष्यमाणाः तैरिव। उपरि, विततः, विस्तृतः, वितानः, उल्लोचः येषां तैः **पुर इति—**पुरः, अग्रे, पूजिता, अभिमता, अभिष्टा, देवता येषां तैः। भूपालवल्लभैः, राजप्रियैः, तुरंगैः, आरचिताम्, शोभिताम्, मन्दुराम्, अश्वशालाम्, विलोकयन्, पश्यन्। (वाजिशाला तु मन्दुरा, इत्यमरः) **कुतूहलेति—**कुतूहलेन, आक्षिप्तम्, आकृष्टं, हृदयं यस्य सः। अतिक्रान्तः, गतः। हस्तवामेन, करवामभागेन। निरवकाशम्, अवकाशरहितम्। परिवृत्तपर्यन्तं, वेष्टितपर्यन्तम्। मधुकरमयीभिः, भ्रमर-

भिर्मदस्रुतिभिर्नदीभिरिवापतन्तीभिरापूर्यमाणम्, आशामुखविसर्पिणा वकुलवनानामिव विकसतामामोदेव लिम्पन्तं घ्राणेन्द्रियं दूरादव्यक्तमिभधिष्ण्यागारमपश्यत्। अपृच्छच्च—‘अत्र देवः किंकरोति’इति। असावकथयत्—‘एष खलु देवस्यौपवाह्यो वाह्यं हृदयं जात्यन्तरित आत्मा बहिश्चराः प्राणा विक्रमक्रीडासुहृद्दर्पशात इति यथार्थनामा वारणपतिः। तस्यावस्थानमण्डपोऽयं महान्दृश्यते’इति। स तमवादीत्—‘भद्र! श्रूयते दर्पशातः। यद्येवमदोषो वा पश्यामि तावद्वारणेन्द्रमेव। अतोऽर्हसि मामत्र प्रापयितुम्। अतिपरवानस्मि कूतूहलेन’इति। सोऽभाषत—‘भवत्वेवम्। आगच्छतु भवान्। को दोषः। पश्यतु तावद्वारणेन्द्रम्’इति।

गत्वा च तं प्रदेशं दूरादेव गम्भीरगलगर्जितोर्जितैर्वियति

व्याप्ताभिः। मदस्रुतिभिः, गजदानजलप्रवाहैः, आपतन्तीभिः, आवहन्तीभिः। आशामुखविसर्पिणा, दिशासमक्षेविस्तारिणा। वकुलवनानामिव, इत्याख्यकाननानामिव। आमोदेन, गन्धेन। लिम्पन्तं, पूरयन्तम्, धिष्ण्यागारम्, अवस्थानमन्दिरम् (धिष्ण्यंस्थाने गृहेभेऽग्नौ “इत्यमरः”) उपवाह्यः, क्रीडाहस्ती। जात्यन्तरितः, अन्यां जातिं गतः। **विक्रमेति—**विक्रमः, वलम्, एव क्रीडा तस्यां सुहृत्सहायः। दर्पशातः, दर्पः, अहङ्कारं (शत्रूणामितिभावः) शातयति, नाशयति तथोक्तः। वारणपतिः, गजेन्द्रः। अवस्थानमण्डपः, वासगृहम्। अदोषः, दर्शने न दोषः। प्रापयितुं, नेतुम् अतिपरवान्, अतिशयेन पराधीनः। **गम्भीरेति—**गम्भीरेण, गलगर्जितेन, कण्ठनिनादेन,। अर्जितानि, एकत्रीकृतानि, तैः। वियति, आकाशे।चातकानां, कदम्बानि, वृन्दानि, तैः। भुवि, भूतले, भवननीलकण्ठ-

चातककदम्बकैर्भुवि च भवननीलकण्ठकुलैः कलकेकाकलकलमुखरमुखैः क्रियमाणाकालकोलाहलम्, विकचकदम्बसंवादिमदसुरासौरभभरितभुवनम्, कायवन्तमिवाकालमेघकालम्, अविरलमधुबिन्दुपिङ्गलपद्मजालकितां सरसीमिवाभ्यवगाढां दशां चतुर्थीमुत्सृजन्तम्, अनवरतमवतंसशंखैरामन्द्रकर्णतालदुन्दुभिध्वनिभिः पञ्चमीप्रवेशमङ्गलार-म्भमिव गायन्तम्,अविरतचलनचित्रत्रिपदीललितलास्यलयैर्दोलायमानदीर्घदेहाभोगवत्तया मेदिनीविदलनभयेन भारमिव लघयन्तम्, दिग्भित्तितटेषु काय-

कुलैः, गृहमयूरसमूहैः। कलाः, मधुराः, केकाः, मयूरवाचः, तासां कलकलेन, मुखराणि, शब्दायमानानि येषां तैः। क्रियमाणः, कलः, मधुरः, कोलाहलः, यत्र तथोक्तम्। **विकचेति—**विकचानां, प्रफुल्लानां, कदम्बानाम्, नीपपुष्पाणाम्, संवादिना, अनुकारिणा, मदः, दान जलम् स एव सुरा, मद्यम्, तस्याः, सौरभेण, गन्धेन, भरितम्, भवनं येन तथोक्तम्। कायवन्तमिव, शरीरवन्तमिव, अकालमेघं, अविरलेति-अविरलाः, घनाः, ये मधुविन्दवः, मदजलकणाः, तैः पिञ्जरं, पद्मानां, पद्माकराणां (पक्षे) तन्नामपुष्पाणां, जालकं, समूहः, जातमस्यामिति तथोक्तम्। अनवरतं, निरन्तरं, आमन्द्रा, ईषद्गम्भीराः, कर्णतालस्य, नियतसंचालितश्रवणस्य, दुन्दुभेरिव, ध्वनयः, शब्दाः तैः अवतंसशंखैः, कर्णाभूषणीकृतशंखैः। **अविरतेति—**अविरतेन, अश्रान्तेन चलनेन चित्रा, सुदृश्या या त्रिपदी, पादबन्धनी, तस्यां ललितं, सुन्दरं यत् लास्यं, नृत्यं, तस्य लयाः, वाद्याद्यनेकतानताः तैः। **दोलायमानेति—**दोलायमानः, प्रेङ्खन्, दीर्घः, महान् देहस्य आभोगः, विस्तारः, यस्य तद्भावः, तत्ता तया। **मेदिनीति—**मेदिन्या, पृथिव्याः, विदलनं, विदारणं तस्मात् यत् भयं तेन भारमिव लघयन्तम्।

मिव कण्डूयमानम्, आहवायोदस्तहस्ततया दिग्वारणानिवाह्वयमानम्, ब्रह्नस्तम्भमिव स्थूलनिशितदन्तेन करपत्रेण पाटयन्तम्, अमान्तं भुवनाभ्यन्तरे बहिरिव निर्गन्तुमीहमानम्; सर्वतः सरसकिसलयलतालासिभिर्लेशिकैश्चिरपरिचयो-पचितैर्घनैरिवविक्षिप्तसशैवलविसविसरशवलसलिलैः सरोभिरिव चाधोरणैराधीयमाननिदाघसमयसमुचितोपचारानन्दम्, अपि च प्रतिगजदानपवनादानदूरोत्क्षिप्तेनानेकसमरविजयगणना-

**दिगिति—**दिगेव, भित्तिः, तस्याः, तटाः, आभोगाः, तेषु। कायमिव, अङ्गमिव कण्डूयमानम्। आहवाय, संग्रामाय। उदस्तः, उत्क्षिप्तः, हस्तः, शुण्डः येन तस्य भावः तत्ता तया। दिग्वारणान, दिग्गजान् आह्वयमानमिव, स्पर्द्धया आकारयन्तमिव। ब्रह्मस्तम्भमिव, ब्रह्माण्डमिव, स्थूलः, निशितः, तिक्ष्णः, दन्तः, तेन करपत्रेण, क्रकचेन, पाटयन्तमिव, विदारयन्तमिव। भुवनाभ्यन्तरे, अमान्तं, पर्य्याप्तुमलभमानम्, अतएव, वहिः भुवनाद् वाह्यदेशे निर्गन्तुं, ईहमानम्, चेष्टमानम्। सरसा, रसयुताः, किसलयाः, पल्लवाः, यासां तथाविधाः याः लताः, व्रतत्यः, ताभिः लसन्ति, राजन्ति तथोक्तैः, लेशिकैः, घासिकैः, चिरपरिचयेन, चिरानुगत्या, उपचितैः, समाहूतैः, घनैरिव, मेघैरिव। विक्षिप्तेति— विक्षिप्तानि, विकीर्णानि, सशैवलानां, विसानां, मृणालानां, विसरेण, विस्तरेण, शवलानि, मिश्राणि, सलिलानि यैः, तथाभूतैः। आधोरणैः, हस्तिपालैः, अधीयमानः, उत्पाद्यमानः, निदाघसमयस्य, ग्रीष्मकालस्य, समुचितेन, उपयुक्तेन, उपचारणेन, सेवया, आनन्दः, यस्य तम्। **प्रतिगजेति—**प्रतिगजानां, प्रतिद्वन्द्विहस्तिनां, दानपवनस्य, मद‌सौरभवाहिनोमरुत-इत्यर्थः। आदानेन, ग्रहणेन, दूरं, उत्क्षिप्तः, उद्धृतः तेन। **अनेकेति—**अने-

लेखाभिरिव बलिवलयराजिभिस्तनीयसीभिस्तरङ्गितोदरेणातिस्थवीयसा हस्तार्गलदण्डेनार्गलयन्तमिव सकलं सकुलशैलसमुद्रद्वीपकाननं ककुभां चक्रवालम्, एकं करान्तरार्पितेनोत्पलाशेन कदलीदण्डेनान्तर्गतशीकरसिच्यमानमूलम्, मुक्तपल्लवमिवापरं लीलावलम्बिना मृणालजालकेन समररसोच्चरोमाञ्चकण्टकितमिवदन्तकाडंवहन्तम्, विसर्पन्त्या च दन्तकाण्डयुगलस्य कान्त्या सरःक्रीडास्वादितानीवकुमुदवनानिबहुधा वमन्तम्, निजयशोराशिमिव दिशामर्पयन्तम्, कुकरिकीटपाट-

केषां, समराणां, युद्धानां, विजयाः, तेषां गणना संख्यानं तस्याःलेखाभिरिव, लिपिभिरिव, बलिवलयराजिभिः, वलयाकारबलिश्रेणिभिः, तनीयसीभिः, अतिक्षुद्राभिः। तरङ्गितं, भङ्गिमत्, उदरं यस्य तथोक्तेन। अतिस्थवीयसा, अतिस्थूलेन, हस्तार्गलदण्डेन, अर्गलयन्तमिव, निरुन्धन्तमिव, ककुभां, चक्रवालम्, दिङ्मण्डलम्। एकं दन्तकाण्डमित्यर्थः न्वयः। करान्तरार्पितेन, करस्य शुण्डस्य अन्तरे, मध्ये, अर्पितेन। उत्पलाशेन, उद्गतपत्रेण, कदलीदण्डेन, रम्भास्तम्भेन, अन्तगतैः, शीकरैः, जलकणैः, सिच्यमानं मूलं यस्य तथोक्तम्। मुक्तापल्लवमिव, मुक्ताफलकिसलयमिव। परं, अन्यम, लीलावलम्बिना, लीलयावलम्बते इति तथोक्तेन। मृणालजालकेन, कमलसमूहेन। **समरेति—**समरे, युद्धे, यो रसः, तेन उच्चाः, उद्गताः, रोमाञ्चा एव कण्टकाः अस्येति तथोक्तम्, दन्तकाण्डं, दशनस्तम्भम्, वहन्तं, दधानम्। विसर्पन्त्या, विसरन्त्या, दन्तकाण्डयुगलस्य कान्त्या, प्रभया। **सरःक्रीडेति—**सरसि या क्रीडा, विहारः, तत्र आस्वादितानि, भुक्तानि तानीव कुमुदवनानि, कैरववृन्दानि, बहुधा, अनेकधा, वमन्तं उद्गिरन्तम्। निजयशोराशिभिरिव, स्वकीर्त्ति समूहमिव, दिशां,

नदुर्ललितान्सिंहानिवोपहसन्तम्, कल्पद्रुमदुकूलमुखपट्टमिव चात्मनः कलयन्तम्, हस्तकाण्डदण्डोद्धरणलीलासु च लक्ष्यमाणेन रक्तांशुकसुकुमारतलेनतालुनाकवलितानि रक्तपद्मवनानीव वर्षन्तम्, अभिनवकिसलयराशीनिवोद्गिरन्तम्, कमलकवलपीतं मधुरसमिव स्वभावपिंगलेन वमन्तं चक्षुषां, चूतचम्पकलवलीलवंग कक्कोलवन्त्येलालतामिश्रितानि ससहकाराणि कर्पूरपूरपूरितानि पारिजातकवनानीवोपभुक्तानि पुनःकरटा-

अर्पयन्तम्, क्षिपन्तं। **कुकरीति—**कुत्सिताः, करिणः, हस्तिनः, ते एव कीटाः, क्षुद्रप्राणिभेदाः, तेषांपाटनेन संहननेन, दुर्ललिताः दृप्ताः तान्। **कल्पद्रुमेति—**कल्पद्रुमस्य दुकूलं, श्वेतपट्टवसनं, तदेव मुखपटः, तमिव, आत्मनः, स्वस्य धारयन्तं, कलयन्तम्। **हस्तेति—**हस्तः, शुण्डः एव काण्डदण्डः, स्तम्भयष्टिः, तस्य उद्धरणानि तान्येव लीलाः तासुलक्ष्यमाणेन दृश्यमानेन, रक्तांशुकसुकुमारतलेन, रक्तवसनकोमलतलेन, तालुना, तालुदेशेन, रक्तपद्मवनानि, रक्तकमलवृन्दानि, कवलितानि, भक्षितानि, वर्षन्तं, वमन्तं। अभिनवकिसलयराशिमिव, नूननपल्लवसमूह‌मिव, स्वभावपिङ्गलेन, सहजदीपशिखातुल्यवर्णेन, चक्षुषा, कमलानां कवलेन, ग्रासेन पीतं मधुरसमिव, मकरन्दमिव, वमन्तं, वर्षन्तं। पुरः, अग्रे, करटाभ्यां, गण्डाभ्याम्, (करटः स्यातु कटोगण्डः-इत्यमरः) बहलमदाऽऽमोदव्याजेन, प्रभूतदानवारिगन्धच्छलेन, **चूतेति—**चूतं, रसालं, चम्पकं, चम्पकपुष्पं, लवली, एतन्नामवृक्षविशेषपुष्पम्, लवंगं, लवङ्गकलिका, कक्कोलं, इत्याख्य तरोःफलम्, तद्वन्ति, एलालतामिश्रितानि, सफलैलावल्लीयुक्तानि, ससहकाराणि अतिसौरभाम्रसहितानि। (आम्रः चूतो रसालोऽसौसह‌कारोऽति सौरभ-इत्यमरः) कर्पूरपूरपूरितानि, कर्पूरा-

भ्यां बहलमदामोदव्याजेन विसृजन्तम्, अहर्निशं विभ्रमकृतहस्तस्थितिभिरर्धखण्डितपुण्ड्रेक्षुकाण्डकण्डूयनलिखितै-रलिकुलवाचालितैर्दानपट्टकैर्विलभमानमिव सर्वकाननानि करिपतीनाम् अविरलोदबिन्दुस्यन्दिना हिमशिलाशकलमयेन विभ्रमनक्षत्रमालागुणेन शिशिरीक्रियमाणम्, सकलवारणेन्द्राधिपत्यपट्टबन्धबन्धुरमिवोच्चैस्तरां शिरो दधानम्, मुहुर्मुहुः स्थगितापावृतदिङ्मुखाभ्यांकर्णतालवृन्ताभ्यां वीजयन्तमिव भर्तृभक्त्या दन्तपर्यङ्किकास्थितां राजलक्ष्मीम्, आयतवंशक्रमागतेन गजाधिप-

ख्यवृक्षस्य सुगन्धिमयानि, पारिजातकवनानि, पारिजाताख्यपुष्पाणां काननानि विसृजन्तमिव। **विभ्रमेति—**विभ्रमेण कृता हस्ते, शुण्डे, स्थितिः, यैः तादृशैः। **अति—**अर्द्धेर्द्धंखण्डितः, भुग्नः, पुण्ड्रेक्षुकाण्डः(गन्ना) तेन यत्कण्डूयनं, खर्जनं, तेन लिखितानि तैः। अलिकुलैः, मधुकरसमूहैः, वाचालितानि, मुखरितानि तैः। दानपट्टकैः, दानसनन्दपत्रैः, करिपतीनां, गजपतीनां, सर्वकाननानि, विलभमानमिव, स्ववशीक्रियमाणमिव। **अविरलेति—**अविरलं, निरन्तरं, उदविन्दुस्यन्दिना, जलकणस्राविणा, हिमशिलाशकलमयेन, तुहिनशिलाखण्डमयेन, **विभ्रमेति—**विभ्रमाय, शोभार्थं, या नक्षत्रमाला, सप्तविंशन्ति मौक्तिकमाला, तस्याः, गणेन। शिशिरीक्रियमाणम्, शीतलीक्रियमाणम्। **सकलेति—**सकलानां वारणेन्द्राणां, गजेन्द्राणां, अधिपत्यं, प्रभुत्वं, तस्य पट्टवन्धः, तेन वन्धुरं, रम्यं, उच्चैस्तरां, अत्युच्चं, शिरः, मस्तकं, दधानं, धारयन्तं। **स्थगितेति—**स्थगितं, आच्छादितं, अपावृतं, प्रकटितं, दिङ्मुखं याभ्यां तथाविधाभ्यां, कर्णावेव तालवृन्ते ताभ्याम् **दन्तेति—**दन्त एव पर्यङ्किका, क्षुद्रपर्यङ्कः, राजलक्ष्मीं, नृपश्रियं बीजयन्तमिवेति-अन्वयः। **आयतेति—**आयतः, दीर्घः, वंशः पृष्ठ-

त्यचिह्नेन चामरेणेव चलता बालधिना विराजमानम्, स्वच्छशिशिरशीकरच्छलेन दिग्विजयपीताः सरित इव पुनःपुनर्मुखेन मुञ्चन्तम्, क्षणमवधानदाननिस्पन्दीकृतसकलावयवानामन्यद्विरदडिण्डिमाकर्णनबलनानामन्ते दीर्घशीत्कारैः परिभवदुःखमिवावेदयन्तम्, अलब्धयुद्धमिवात्मानमनुशोचन्तम्, आरोहाधिरूढिपरिभवेन लज्जमानमिवाङ्गुलीलिखित-महीतलम्, मदं मुञ्चन्तम्, अवज्ञागृहीतमुक्तकवलकुपितारोहारटनानुरोधेन मद-

दण्डः, कुलञ्चतस्य क्रमेण आगतः, परम्परयाप्राप्तः, गजाधिपत्यं तस्य चिह्नं, लक्षणं, तेन, वालधिना, पुच्छेन, विराजमानं, शोभमानम्। **स्वच्छेति—**स्वच्छानां, विमलानां, शिशिराणां, शीतलानां, शीकराणां, अम्बुकणानां, छलं तेन, दिशां विजये, पीनाः ताः सरितः, नदीः, मुञ्चन्तं, त्यजन्तं। **अवधानेति—**अवधानस्य, मनोनिवेशस्य, दानेन, निष्पंदीकृताः, निश्चलीकृताः, सकलाः, अवयवाः यासुतासाम्। अन्येषां, द्विरदानां, गजानां, डिण्डिमाकर्णने, पट्टहनादश्रवणे या बलनाः, चालनाः, तासाम्। अन्ते, अवसाने, दीर्घशूत्कारैः, दीर्घकालं व्याप्य निर्गतैः, “शीत्” इत्याकारकाव्यक्तशब्द‌विशेषैः। परिभवदुःखमिवपराभवखेद‌मिव, आवेदयन्तम, प्रकटयन्तम्। अलब्धयुद्धमिव, अप्राप्तरणमिव आत्मानं, स्वं, अनुशोचयन्तं, चिन्तयन्तम्। **आरोहेति—**आरोहस्य, अधिरूढिः, अधिरोहणं, सैवपरिभवः, तेन लज्जमानमिव अङ्गुलीभिः, करिकराग्रावयवैः, (पक्षे) करशाखाभिः लिखितं, खण्डितं, महीतलं, भूतलं येन तथोक्तम्, (लज्जितानां भूलेखनं स्वभाव इतिभावः) मदं दानवारि, गर्वञ्च, मुञ्चन्तं, त्यजन्तं। **अवज्ञेति—**अवज्ञया, अवहेलया, आदौगृहीता पश्चात् मुक्ताः ये कवलाः नैः कुपितः, रुष्टः यः आरोहः, हस्तिपालः तस्य आरटना अनुरोधेन।

तन्द्रीनिमीलितनेत्रत्रिभागम्, कथं कथमपि मन्दमन्दमनादरादाददानं कवलान्, अवजग्धतमालपल्लवस्रुतश्यामलरसेन प्रभूततया मदप्रवाहमिव मुखेनाप्युत्सृजन्तम्, दलन्तमिव दर्पेण, श्वसन्तमिव शौर्येण, मूर्च्छन्तमिव मदेन, त्रुट्यन्तमिव तारुण्येन, द्रवन्तमिव दानेन, वल्गन्तमिव बलेन, माद्यन्तमिव मानेन, उद्यन्तमिवोत्साहेन, ताम्यन्तमिव तेजसा, लिम्पन्तमिव लावण्येन, सिञ्चन्तमिव सौभाग्येन, स्निग्धं नखेषु, परुषं गोमविषये, गुरुं मुखे, सच्छिष्यं विनये, मृदुं शिरसि, दृढं परिचयेषु,

**मदेति—**मदेन या तन्द्रा, निन्द्रा तया निमीलितः, नेत्रयोः त्रिभागः यस्मिन् तद् यथा तथा, कवलान्, ग्रासान्, आददानं गृह्णन्तं। **अवजग्धेति—**अवजग्धानां, स्वादितानां, तमालपल्लवानां स्रुताः, निर्गलिताः, श्यामलाः रसाः यस्मात् तथोक्तेन, मुखेन, वदनेन प्रभूतनया, प्राचुर्येण, मदप्रवाह‌मिव, दानवारिश्रोत इव उत्सृजन्तं, मुञ्चन्तं, दलन्तमिव, स्वयंभिद्यमानमिव, श्वसन्तमिव, जीवन्तमिव, त्रुट्यन्तमिव, स्खलन्तमिव, द्रवन्तमिव, स्रवन्तमिव। दानेन, मदेन। वल्गन्तमिव, विचेष्टमानमिव। माद्यन्नमिव, मत्ततां प्रकटन्तमिव। उद्यन्तमिव, उदयमानमिव, ताम्यन्तमिव, क्लिश्यन्तमिव। लिम्पन्तमिव, संयोजयन्तमिव। सिञ्चन्तमिव, वर्षन्तमिव। नखेषु, स्निग्धं, प्रीतिवान्, रोमविषये, परुषं, प्रीतिशून्यः, यः, स्निग्धः, कथं, परुषः, इति विरोधः। स्निग्धं, चिक्कणः, परुषं, कठोरः, इनि परिहारः। मुखेगुरुः, विनये शिष्यम्, यः गुरुः, सकथं शिष्यः, इति रोधः। गुरुः विस्तीर्णः, सच्छिष्यः, सुशीलः, इति परिहारः। शिरसिमृदुं, परिचयेषु दृढं, यः कोमलः कथं स कठोरः, इति विरोधः, मृदुः, नम्रः। महन्तं जनं वीक्ष्यशिरसानतो भवति, इति परिहारः। स्कन्धबन्धे, ग्रीवामूले ह्रस्वं, लघु आयुषि

ह्रस्वं स्कन्धबन्धे, दीर्घमायुषि, दरिद्रमुदरे, सततप्रवृत्तंदाने, बलभद्रं मदलीलासु, कुलकलत्रमायत्ततासु, जिनं क्षमासु, वह्निवर्षं क्रोधमोक्षेषु, गरुढं नागोद्धृतिषु, नारदं कलहकुतूहलेषु, शुष्काशनिपातमवस्कन्देषु, मकरं वाहिनीक्षोभेषु, आशीविषं दशनकर्मसु, वरुणं हस्तपाशाकृष्टिषु, यमवागुरामरातिसंवेष्टनेषु, कालं परिणतिषु, राहुं तीक्ष्णकरग्रहणेषु, लोहिताङ्गं वक्रचारेषु,

दीर्घः, यो लघुः कथं सदीर्घः, इति विरोधः। दीर्घः चिरञ्जीवीतिपरिहारः। उदरे दरिद्रं दाने सततप्रवृत्तं, यः द्ररिद्रः कथं स दानकर्त्ता, इति विरोधः। दरिद्रं, कृशं दाने मदवारिणि इति परिहारः। बलभद्रं, बलरामं, मदलीलासु मदः, दानवारि, सुरामत्तता च तल्लीलासु। कुलकलत्रं, कुलाङ्गना, आयत्तासु, वाध्यतासु, बलभद्रकुलकलत्रयोः मदमत्ततावाध्यतयाचविरोधः। जिनं, बुद्धदेवम्, वह्निवर्षम, अग्निवृष्टिम्, क्रोधमोक्षेषु, कोपप्रसरेषु (अत्र शमप्रधानजिनवह्निवर्षयोः क्षमाक्रोधमोक्षयोश्चविरोधः) नागोद्‌धृतिषु, नागानां, प्रतिपक्षहस्तिनां, सर्पाणां, च उद्धतिषु, निपातनेषु। नारदं देवर्षि नारं जलं ददातीति तथोक्तं च कलहकुतूहलेषु, विवादकौतुकेषु, युद्धव्यापारेषु च शुष्काशनिपातं, वृष्टिं विना वज्रपतनं, अवस्कन्देषु, शत्रूणांआक्रमणेषु। मकरं, जलजन्तुभेदं वाहिनीक्षोभेषु, शत्रुसेनादलनेषु, नद्युद्वेलकरणेषु च। आशीविषं, सर्पं दशनकर्मसु, दन्तव्यापारेषु। वरुणं, जलाधिपतिं, हस्त एव पाशः हस्तपाशः तेन आकृष्टयः, आकर्षणानि तासु । यमवागुराम्, यमस्य वागुरा, प्राणबन्धनजलं, ताम्। अरातिसंवेष्टनेषु, शत्रुसमाक्रमणेषु। कालं, यमं कृष्णवर्णञ्च परिणतिषु, अन्तकर्मसु, तिर्यग्दन्तप्रहारकर्मसु, शुभाशुभकर्मविपाकेषु च। तीक्ष्णकरग्रह‌णेषु, तीक्ष्णेन, तीव्रेण, करेण, शुण्डेन ग्रहणानि, आक्रमणानि, (पक्षे)

अलातचक्रं मण्डलभ्रान्तिविज्ञानेषु, मनोरथसंपादकं चिन्दामणिपर्वतं विक्रमस्य, दन्तमुक्ताशैलस्तम्भनिवासप्रासादम-भिमानस्य, घण्टाचामरमण्डनमनोहरमिच्छासंचरणविमानं मनस्वितायाः, मदधारादुर्दिनान्धकारं गन्धोदकधारागृहं क्रोधस्य, सकाञ्चनप्रतिमंमहानिकेतनमहङ्कारस्य, सगण्डशैलप्रस्रवणं क्रीडापर्वतमवलेपस्य, सदन्ततोरणं वज्रमन्दिरं दर्पस्य, उच्चकुम्भकूटाट्टाल-

तीक्ष्णकरः, सूर्यः, तस्य ग्रहणानि, ग्रासाः, तेषु। लोहिताङ्गं, मङ्गलग्रहं, वक्रचारेषु, कुटिलगतिषु। अलातचक्रं, तदाख्य काव्यवन्धविशेषणम्, उल्मुकमण्डलं च, मण्डलभ्रान्तिविज्ञानेपु, मण्डलाकारेण भ्रान्ति, भ्रमणं तस्यां विज्ञानानि, विशिष्टानि ज्ञानानि परिचयाः, इत्यर्थः, तेषु। मनोरथसम्पादकम्, अभिमतसिद्धिदम्। चिन्तामणिः, चिन्तितवस्तु- प्रदरत्नविशेषः तस्थपर्वतम्। **दन्तेति—**दन्तायेव मुक्ताशैलस्तम्भौ, मौक्तिकपाषाणस्तम्भौ यत्र नादृशम्, नित्रासप्रासादम्, निवासभवनम् अभिमानस्य। **घण्टेति—**घण्टाश्च, चामराणि च तेषां मण्डनेन मनोहरं, मनोज्ञम्। इच्छया यत् संचरणं, गमनं तदेवविमानं यस्यतम्। मनस्वितायाः, वीरतायाः। मदधाराभि, दुर्दिनं, अतएव, अन्धकारं, तमसि युक्तं, गन्धोदकधारागृहं, सुवासित जलधारागृहं, क्रोधस्य, कोपस्य। **सकाञ्चनेति—**काञ्चनप्रतिमायुत्तम्। महानिकेतनम्, विशालमन्दिरम्, अहंकारस्य। **सगण्डेति—**गण्डः, कपोलः एव शैलः तत्र प्रस्रवणम्, निर्झरः तेनसहवर्तमानम्, अवलेपस्य, गर्वस्य। **सदन्तेति—**दन्तावेव तोरणः, बहिर्द्वारम् (पक्षे) दन्तरचिततोरणः तेन सहवर्तमानम्। वज्रमन्दिम्, पाषाणगृहम्। **उच्चेति—**उच्चौ, उन्नतौ, कुम्भौ एवं कूटो यस्य तत् अट्टालकम्, हर्म्यंतद्वत् विकटं, भयंकरं, संचारि, जङ्गमं, गिरिदुर्गम्, पर्वतरूपम् महागृहम्,

कविकटं संचारि गिरिदुर्गं राज्यस्य, कृतानेकबाणविवरसहस्रं लोहप्राकारं पृथिव्याःशिलीमुखशतझां कारितं पारिजातपादपं भूनन्दनस्य, तथा च संगीतगृहं कर्णतालताण्डवानाम्, आपानमण्डपं मधुपमण्डलानाम्, अन्तःपुरं शृङ्गाराभरणानाम्, मदनोत्सवं मदलीलालास्यानाम्, अक्षुण्णप्रदोषं नक्षत्रमालामण्डलानाम्, अकालप्रावृट्कालं मदमहानदीपूरप्लवानाम्,

(यत्र शत्रुः गन्तुमसमर्थः) **कृतेति—**कृतानि, अनेकानि, बाणविवरसहस्त्राणि, बाणप्रक्षेपार्थं छिद्रसहस्रागिण, यत्र तत् लोहप्राकारम्, लोहनिर्मितप्राचीरम्। **शिलीति—**शिलिमुखानां, मधुकराणां, बाणानां वा शतैः, झंकारितः, निनादितः, विद्धो वा, तम्। पारिजातपादपं, देवतरुविशेषः। भूनन्दनस्य, पृथ्वी एव नन्दनवनम्, तस्य, (पक्षे) पृथिवीं नन्दयतिपालनेन प्रीणयति इति भूनन्दनः, राजा तस्य। कर्णातालताण्डवानां, श्रवणतालनर्तनानाम्, संगीतगृहम्। आपानमण्डपं, पानगृहं, मधुपमण्डलानां, मधुकरवृन्दानाम, (पक्षे) मद्यपायिनाम्, शृङ्गारामरणानाम्, शृङ्गाराः, सिन्दूरादिभिः, रचनाविशेषाः, एवाभरणानि तेषाम् (पक्षे) शृङ्गाररसभूषणानाम्। अन्तःपुरम्। **मदेति—**मदयतीति, मदनः, मदकरः, तस्योत्सवं (पक्षे) कामोत्सवं, मदलीलास्यानाम्। **अक्षुगणेति—**अक्षुण्णः, पृर्णः, मेघावरणरहितः, प्रदोषः, निशामुखं (पक्षे) अक्षुण्ण, पूर्णः, प्रदोः प्रकृष्टहस्तः यस्य तथोक्तम् (भुजः बाहूप्रवेष्टोदोः “इत्यमरः) नक्षत्रमालाः, तारकराजयः, मण्डलानि, गोलाकारवेष्टनानि, (पक्षे) नक्षत्रमालाः, सप्तविंशतिमौक्तिकहाराः एव मण्डलानि तेषाम् अकालप्रविष्टकालं, असमयवर्षासमयम्। मदेति-मदा एव महानद्यः तासांपूराः प्रवाहाः तेषां पल्लवाः, गतिविशेषाः तेषाम्। अलीकशरत्समयं, मिथ्याशरत्कालं, सप्प्रच्छद-

अलीकशरत्समयं सप्तच्छदवनपरिमलानाम्, अपूर्वहिमागमं शीकरनीहाराणाम्, मिथ्याजलधरं गर्जिताडम्बराणां दर्पशातमपश्यत्।

** आसीच्चास्य चेतसि—‘नूनमस्य, निर्माणे गिरयो ग्राहिताः परमाणुताम्कुतोऽन्यथा गौरवमिदम्। आश्चर्यमेतत्। विन्ध्यस्यदन्तावादिवराहस्य करः’इति विस्मयमानमेनंदौवारिकोऽब्रवीत्—‘पश्य।**

मिथ्यैवालिखितां मनोरथशतैर्निःशेषनष्टां श्रियं
चिन्तासाधनकल्पनाकुलधियां भूयो वने विद्विषाम्।
आयातः कथमप्ययं स्मृतिपथं शून्यीभवच्चेतसां
नागेन्द्रः सहते न मानसगतानाशागजेन्द्रानपि॥४॥

वनस्य, सप्तपर्णवनस्य, परिमलाः, गन्धाः, मदजलानमितिभावः, तेषाम्। अपूर्वहिमागमं, नूतनहेमन्तं, शीकरनिहाराणां, जलकणरूपशिशिराणाम्। मिथ्याजलधरं, अलीकपयोदं, गर्जिताऽम्बराणां, गर्जितान्येव आडम्बराः तेषाम् दर्पशातमपश्यत्।

निर्माणे, सृष्टौ, ग्राहिताः, प्रापिताः, गौरवं, गुरुत्वं, आश्चर्यं, चमत्कृतिः, आदिवराहस्य, वराहरूपेणावतीर्णस्य विष्णोरित्यर्थः। विस्मयमानं, चमत्कुर्वाणम्।

**मिथ्येति—**निःशेषेण, नष्टा, तां। श्रियं, राजलक्ष्मीं। **मनोरथेति—**मनोरथानां, मनोकामनानां, शतैः। मिथ्यैव, मृषैव, आलिखिताम्, चित्रितां मनसिसोचितामित्यर्थः। भूयः, पुनः। **चिन्तेति—**चिन्तया, (पुनः निजश्रीप्राप्त्यर्थं कमुयायं करिष्यामः) इति सोचनेन, साधनानां, युद्धसामग्रीणां, कल्पनया आकुला धीर्येषां तथाविधानम्। अतएव शून्यीभवच्चेतसाम्, शून्यीभवत्, (निराशीभवदित्यर्थः) चेतो

तदेहि। पुनरप्येनं द्रक्ष्यसि। पश्य तावद्देवम्’इत्यभिधीयमानश्च तेन मदजलपङ्किलकपोलपट्टपतितां मत्तामिव मदपरिमलेन मुकुलितां कथमपि तस्माद्दृष्टिमाकृष्य तेनैव दौवारिकेणोपदिश्यमानवर्त्मा समतिक्रम्य भूपालकुलसहस्रसंकुलानि त्रीणि कक्षान्तराणि चतुर्थे मुक्तास्थानमण्डपस्य पुरस्तादजिरे स्थितम्, दूरादूर्ध्वस्थितेन प्रांशूना कर्णिकारगौरेण व्यायामव्यायतवपुषा

येषां तादृशानाम्। वने द्विषां, वनवासिनां, शत्रूणाम्। कथमपि, महता कष्टेन, स्मृति पथम् आयातः, (अहो तेनैवारणपतिना पराजिताः वयमितिभावः) स्मर्णंगतः तथाविधः अयं नागेन्द्रः, गजपतिः, मानसं चित्तं, सरोवरविशेषश्चगताः तान्, आशाः, तृष्णाः, अभिलाषः, इत्यर्थः। ता एव गजेन्द्राः, आशाः, दिशः, दिग्गजाश्च तान् न सहते न क्षमते (एतस्यस्मरणेऽरीणां पुनरुद्वारस्य आशाऽपिनोदयति इतिभावः) अत्र आशासु गजेन्द्राणामभेदारोपात् रूपकालङ्कारः, शार्दूलविक्रीडित वृत्तम्॥४॥ **मदेति—**मदजलेन, पङ्किलः, मलिनः, कपोलपट्टः, मण्डतट, तत्र पतिताम्। मदेति -मदपरिमलेन, मदगन्धेन, मुकुलितां, मत्तामिव, क्षीवामिव, दृष्टिं, लोचनम्, आकृष्य, निर्वर्त्य। **भूपालेति—**भूपालसहस्राणि, नृपसहस्राणि, तैः संकुलानि, व्याप्तानि कक्षान्तराणि। चतुर्थे इत्यारभ्य चक्रवर्तिनं हर्षम् अद्राक्षीत्, इत्यनेनान्वयः। **सत्येति—**सत्यस्य, सत्यनिरूपणस्य, यत् आस्थानमण्डपं, सभागृहं, तस्य विचारालयस्येतिभावः। पुरस्तात्, अग्रतः, अजिरे, अंगने, स्थितं, तिष्ठन्तं, दूरात्, ऊर्द्वस्थितेन, दण्डायमानेन, प्रांशुना, उन्नतकायेन, कर्णिकारः, पुष्पभेदः, तद्वत् गौरेण, शुभ्रेण। व्यायामेति व्यायामेन, व्यायतं विभक्तावयवं, वपुः शरीरं यस्य तेन। शस्त्रिणा, शस्त्रपणिना। शरीरपरिचारकः, शरीरसेवकः, तादृशः

शस्त्रिणा मौलेन शरीरपरिवारकलोकेन पङ्क्तिस्थितेन कार्तस्वरस्तम्भमण्डलेनेव परिवृतम्, आसन्नोपविष्टविशिष्टेष्टलोकम्, हरिचन्दनरसप्रक्षालिते तुषारशीकरशीतलतले दन्तपाण्डुरपादे शशिमये इव मुक्ताशैलशिलापट्टशयने समुपविष्टम्, शयनीयपर्यन्तविन्यस्ते समर्पितसकलविग्रहभारं भुजे, दिङ्मुखविसर्पिणि देहप्रभाविताने विततमणिमयूखे घर्मसमयसुभगे सरसीव मृदुमृणालजालजटिलजले सराजकं रममाणम्, तेजसः

लोकस्तेन। **कार्तेति—**कार्त्तस्वरं, स्ववर्णं, तस्यस्तम्भमण्डलेन, स्तम्भनिवहेन, (स्वर्णंसुवर्णं रुक्मं कार्त्वस्वरम् “इत्यमरः) परिवृतं, परिच्छादितम्। **आसन्नेति—**आसन्ने समीपे, उपविष्टाः, स्थिताः, विशिष्टाः, सम्भ्रान्ताः, इष्टाः, अभिलषिताः लोकाः यस्य तम्। **हरिचन्दनेति—**हरिचन्दनस्य, मलयजस्य, यः, रसः, द्रवः, तेन, प्रक्षालिते, विधौते। **तुषारेति—**तुषारशीकरवत् शीतलं, तलं यस्य तथोक्ते। **दन्तेति—**दन्तवत्, पाण्डुरौ, श्वेतौ, पादौ, चरणौ यस्य तथाविधे। शशिमये इव, चन्द्रमये इव, मुक्ताशैलस्य, मौक्तिकपर्वतस्य, शिलापट्ट एव शयनं, शय्या तस्मिन्। समुपविष्टम्। **शयनीयेति—**शयनीयस्य, शय्यातलस्य, पर्यस्ते, प्रान्तभागे, विन्यस्तः, निहितः, तस्मिन्। भुजे, करे। **समर्पितेति—**समर्पितः, निहितः, सकलस्य, विग्रहस्य, शरीरस्य, भारं येन तम्। **दिङ्‌मुखेति—**दिशां, मुखानि, विसर्पति, व्याप्नोति तथाविधे, देहप्रभाविताने, अङ्गकान्तिविस्तारे। **विततेति—**वितताः, विस्तृताः, मणीनां, मयूरवाः, किरणाः, यत्र तस्मिन्, घर्मसमयसुभगे, ग्रीष्मकालरमणीये। **मृद्विति—**मृदुभिः, कोमलैः, मृणालजालैः, विससञ्चयैः, जटिलानि, जालानि यत्र तस्मिन्। सराजकं, राजगणसहितम्, रममाणं, विहरन्तं, केवलैः, तेजसः,

परमाणुभिरिव केवलैर्निर्मितम्, अनिच्छन्तमपि बलदारोपतयितुमिव सिंहासनम्, सर्वावयवेषु सर्वलक्षणैर्गृहीतम्, गृहीतब्रह्नचर्यमालिङ्गितं राजलक्षम्या, प्रतिपन्नासिधाराधारणव्रतम-विसंवादिनं राजर्षिम्, विषमराजमार्गविनिहित-पदस्खलनभियेव सुलग्नं धर्मे, सकलभूपालपरित्यक्तेन भीतेनेव लब्धवाचा सर्वात्मना सत्येन सेव्यमानम्, आसन्नवारविलासिनीप्रतियातनाभिश्चरणनखपातिनीभिर्दिग्भिरिव दशभिःप्रणम्य-

प्रतापस्य, प्रमाणुभिः, निर्मितं, सृष्ठम्। अनिच्छन्तं, इच्छारहितम्, सर्वावयवेषु, हस्तपादादिषु, सर्वलक्षणैः, शुभ चिह्नैः, गृहीतं, युक्तम्। गृहीतं, अवलम्बितं, ब्रह्मचर्यं येन तम्। राजलक्ष्म्याः, नृपश्रियाः, आलिङ्गितम्। **प्रतिपन्नेति—**प्रतिपन्नं, अवलम्बितम्, असिधाराधारणव्रतं, खड्गग्रहणव्रतं, विसंवादी, विरुद्धवक्ता स नतं। **विषमेति—**विषमे, दारुणे, नतोन्नतरूपे च, राजमार्गे, राजनीतौ, राजपथे च विनिहितस्य, अर्पितस्य, पादस्य, स्खलनभियेव, धर्मेसुलग्नम्। **सकलेति—**सकलैः, भूपालैः, परित्यक्तः, तेन भीतेनेव लब्धा, गृहीता वाक् तेन। सर्वात्मना, सर्वस्वरूपेण, सत्येन, सेवमानं, परिचर्यमाणम्। **आसन्नेति—**आसन्नानां, निकटस्थितानां, वारविलासिनीनां, वेश्यानां, प्रतियातनाभिः, प्रतिच्छायाभिः, चरणनखपातिनीभिः, दशभिः, दिग्भिरिव, प्रणम्यमानं, अभिवन्द्यमानम्, दीर्घैः, आयतैः, दिगन्त- पातिभिः, दिगन्तगामिभिः, लोकपालानां, इन्द्रादीनां, कृताकृतमिव, कार्याकार्यमिवप्रत्यक्षवेक्षमाणम्, परिपश्यन्तम्। **मणीति—**मणिपादपीठस्य, पृष्ठे, उपरि, प्रतिष्ठिताः पतिताः रक्षिताश्च कराः, किरणाः, हस्तश्च यस्य तेन, दिवसकरेण, सूर्येण, **उपरीति—**उपरिगमने, ऊर्द्धगमने, या अभ्यनुज्ञा, अनुमतिः, तां मृग्यमाणमिव, प्रार्थ-

मानम्, दीर्घैर्दिगन्तपातिभिर्दृष्टिपातैर्लोकपालानां कृताकृतमिव प्रत्यवेक्षमाणम्, मणिपादपीठपृष्ठप्रतिष्ठितकरेणो-परिगमनाभ्यनुज्ञां मृग्यमाणमिव दिवसकरेण, भूषणप्रभासमुत्सारणबद्धपर्यन्तमण्डलेन प्रदक्षिणीक्रियमाणमिव दिवसेन, अप्रणमद्भिर्गिरिभिरपि दूयमानं, शौर्योष्मणा फेनायमानमिव चन्दनधवलं लावण्यजलधिमुद्वहन्तमेकराज्योर्जित्येन, निजप्रतिबिम्बान्यपि नृपचक्रचूडामणिधृतान्यसहमानमिव दर्पदुःखासिकया चामरानिलनिभेन बहुधेव श्वसन्तीं राजलक्ष्मीं दधानम्, सकलमिव चतुःसमुद्रलावण्यमादायोत्थितया श्रिया समुपश्लिष्टम्, आभरणप्रभाजाल-जायमानानीन्द्रधनुःसहस्राणीन्द्रप्राभृतप्रहितानि

मानमिव। **भूषणेति—**भूषणानाम्, अलंकाराणां, प्रभाभिः, किरणैः, समुत्सारणेन, सन्ताडनेन, वद्धं, धृतं, पर्यन्तेषु, मण्डलं, गोलं, येन तथोक्तेन। प्रदक्षिणीक्रियमाणम्, वेष्ट्यमानम्। दिवसेन, दिनेन। अप्रणमद्भिः, प्रणतिमकुर्वद्भिः, गिरिभिः, पर्वतैरपिः, दूयमानमिव, सन्तप्यमानमिव। शौर्योष्मणा, बलोष्मणा, फनायमानमिव। **एकेति—**एकराज्येन, ऊर्जितः, तस्य, भावः, एकराज्योर्जितं तेन। लावण्यजलधिं, सौन्दर्याब्धिं, उद्वहन्तम्। नृपचक्रैः, राजमण्डलैः, चूड़ामणिभिः, शिरोरत्नैः, धृतानि, गृहीतानि, निजप्रतिविम्बानि, असह‌मानमिव, अक्षममानमिव। दर्पदुःखासिकया, अहंकारजशोककृपाणेन, चामरानिलनिभेन, चामरमरुतव्याजेन, बहुधा श्वसन्तीं, राजलक्ष्मीं, दधानम्। सकलं। **चतुरिति—**चतूर्णां, समुद्राणां समाहारः चतुस्समुद्रम् तस्यलावण्यं तत्। आदाय, गृहीत्वा, उत्थितया, आविर्भूतया, श्रियाः, लक्ष्याः, समुपसृष्टमिव, समालिङ्गितमिव। **आभरणेति—**आभरणानां प्रभाजालेन, दिप्तिसमूहेन, जायमानानि, उत्पद्यमानानि, इन्द्रधनुषां,

विलभमानमिव राज्ञां संभाषणेषु परित्यक्तमपि मधु वर्षन्तम्काव्यकथास्वपीतमप्यमृतमुद्वमन्तम्, विस्रम्भभाषितेष्वनाकृष्टमपि हृदयं दर्शयन्तम्, प्रसादेषु निश्चलामपि श्रियं स्थाने स्थानेस्थापयन्तम्, वीरगोष्ठीषु पुलकितेन कपोलस्थलेनानुरागसंदेशमिवोपांशु रणश्रियः शृण्वन्तम्, अतिक्रान्तसुभटकलहालापेषु स्नेहवृष्टिमिव दृष्टिमिष्टे कृपाणे पातयन्तम्, परिहासस्मितेषु गुरुप्रतापभीतस्य राजकस्य स्वच्छमाशयमिव दशनांशुभिः

इन्द्रचापानाम्, सह‌स्राणि, इन्द्रप्रभृतप्रहितानि, इन्द्रेण, प्राभृतेन, उपोढकत्वेन, प्रहितानि, प्रेषितानि। विलभमानमिव, प्रापमाण‌मिव। राज्ञां, सम्भाषणेषु, समालपनेषु परित्यक्तम्। मधुवर्षन्तम्, मधुरसवमन्तं काव्यकथासु, अपीतमपि, अनास्वादितं, अमृतं, पीयूषं, उद्वमन्तम्। विस्रम्भभाषितेषु विश्वस्ताऽलापेषु, अनाकृष्टमपि, अगृहीतमपि, हृदयं, मनोऽभिप्रायं, दर्शयन्तं, प्रकटयन्तम्, प्रसादेषु, प्रसन्नतासु, निश्चलामपि, स्थिरामपि, श्रियं, लक्ष्मीं, स्थाने, योग्ये, स्थापयन्तम्। वीरगोष्ठीषु, वीरसमाजेषु, पुलकितेन, रोमाञ्जितेन, कपोलस्थलेन, गण्डदेशेन, उपांशु, रहसि रणश्रियाः, संग्रामलक्ष्म्याः अनुरागसंदेशमिव शृण्वन्तम्, आकर्ण्यन्तम्। **अतिक्रान्तेति—**अतिक्रान्ताः, अतीताः, सुभटानां सुयोद्‌धृणां, कलहाः तेषां आलापाः कथा तेषु, इष्टेकृपाणे, स्नेहवृष्टिमिव, स्नेहवर्षणमिव, दृष्टिं, लोचनं पातयन्तम्। परिहासम्मितेषु, नर्म्महासेषु, गुरुणा, महता, प्रतापेन, तेजसां, भीतस्य, त्रस्तस्य, राजकस्य, राजचक्रस्य, दशनांशुभिः, दन्तकिरणैः, स्वच्छं, निर्मलं, आशयं अभिप्रायं कथयन्तम्। **सकलेति—**सकलानां, लोकानां, जनानां, हृदयेषु स्थितमपि न्याये, नीतिमार्गे तिष्ठन्तं, वर्तमानम्, यः सर्वलोकहृदिस्थः कथं स एकत्रतिष्ठतीति विरोधः। नहि अन्याय्यमाचरतीतिपरिहारः।

कथयन्तम्, सकललोकहृदयस्थितमपि न्याये तिष्ठन्तम्, अगोचरे गुणानामभूमौ सौभाग्यानामविषये वरप्रदानानामशक्ये आशिषाममार्गे मनोरथानामतिदूरे दैवस्यादिस्युपमानानामसाध्ये धर्मस्यादृष्टपूर्वे लक्ष्म्या महत्त्वे स्थितम्, अरुणपादपल्लवेन सुगतमन्थरोरुणा वज्रायुधनिष्ठुरप्रकोष्ठपृष्ठेन वृषस्कन्धेन भास्वद्बिम्बाधरेण प्रसन्नावलोकितेन चन्द्रमुखेन कृष्णकेशेन वपुषा सर्वदेवतावतारमिवैकत्र दर्शयन्तम्, अपि च मांसलमयू-

गुणानां, विद्याविनयादीनां, अगोचरे, अविषये। सौभाग्यानां, अभूमौ, अस्थाने, वरप्रदानानां, अविषये, अगोचरं, आशिषां, अशक्ये, असाध्ये, मनोरथानां, अतिदूरे, उपदिश्यमानानां, सादृश्य, बोधकानाम्, असाध्ये, साधयितुमशक्ये, धर्मस्य, (कर्त्तरिषष्ठी) अदृष्टपूर्वे, प्रागदृप्टे, लक्ष्म्यामहत्वे, उत्कर्षे। **अरुणेति—**अरुणः, रक्तः, पादपल्लवः, चरणकिसलय, यस्य तेन (पक्षे) अरुणस्य, सूर्यसारथेः, पादपल्लवेन। **सुगतेति—**सुष्ठु, गतं, गमनं, ययोः तथाभूतौ मन्थरौ, मृदुगामिनौ, उरू यस्य तेन (पक्षे) सुगतः, बुद्धः तस्य मन्थरः, मन्दगामी उरुः तेन। **वज्रति—**वज्र, कुलिशमेव आयुधं, अस्त्रविशेषः तद्वत् निष्ठुरं, कठिनं, प्रकोष्ठः, करस्यमणिबन्धभागः, पृष्ठं च यस्य तेन (पक्षे) बज्रायुधः, इन्द्रः तस्य निष्ठुरं प्रकोष्ठः, पृष्ठं तेन। वृषस्कन्धेन, बलिवर्दांसेन (पक्षे) वृषस्य, धर्मस्य स्कन्धस्तेन। **भास्वदिति—**भास्वान्, दिप्यमानः, बिम्बमिवाधरो यस्य (पक्षे) भास्वतः, सूर्यस्य बिम्बमिवाधरः तेन। **प्रसन्नेति—**प्रसन्नं, निर्मलं, अवलोकितं, दर्शनं यस्य तेन, (पक्षे) प्रसन्नः, आशुतोषः (शिवः) तस्य अवलोकितं, दर्शनमिव तेन। चन्द्रमुखेन, कृष्णकेशेन, कृष्णबालेन (पक्षे) श्रीहरेः केशेन, वपुषा, शरीरेण, सर्वदेवतावतारमिव। **मांसलेति—**मांस-

खमालामलिनितमहीतले महति महार्हे माणिक्यमालामण्डितमेखले महानीलमये पादपीठे कलिकालशिरसीव सलीलं विन्यस्तवामचरणम्, आक्रान्तकालियफणाचकक्रवालं बालमिव पुण्डरीकाक्षम्, क्षौमपाण्डुरेण चरणनखदीधितिप्रतानेन प्रसरता महीं महादेवीपट्टबन्धेनेव महिमानमारोपयन्तम्, अप्रणतलोकपालकोपेनेवातिलोहितौ सकलनृपति-मौलिमालास्वतिपीतं पद्म-

लाभिः, महतीभिः, मयूरवानां, किरणानां मालाभिः, समूहै, मलिनितम्, मलयुक्तम्, महीतलं येन तथोक्ते। **महतीति—**महति, महार्हे, महामूल्ये, **माणिक्येति—**माणिक्यमालया, मण्डिता, अलङ्कृता, मेखला, नितम्बभागः, (मध्यभागः, इत्यर्थः) यस्य तादृशे। महानीलमये, महानीलमणिनिर्मिते, कलिकालशिरसि इव, कलिमूर्द्धनि इव, सलीलं, सविलासं, **विन्यस्तेति—**विन्यस्तः, निहितः, वामचरणः, येन तथोक्तम्। **आक्रान्तेति—**आक्रान्तं, व्याप्तं, कालियस्य, नाग- विशेषस्य, फणाचक्रवालं, फणमण्डलं येन तथोक्तम्, बालं, शिशुंपुण्डरीकाक्षम्, श्रीकृष्णमिव, (पक्षे) पुण्डरीके, श्वेतपद्मे इव अक्षिणी यस्य तथोक्तम्। क्षौमपाण्डुरेण, क्षौमं, श्वेतपट्टम्, तद्वत् पाण्डुरः, धवलः तेन। **चरणेति—**चरणनखानां, दीधितिप्रतानेन, मयूरवविस्तारेण, महीं, पृथ्वीं, प्रसरता, व्याप्नुवता। **महादेवीति—**महादेवी, तस्याः पट्टबन्धः, क्षौमाच्छादनविशेषः, तेनेव महिमानं, महत्वं, आरोपयन्तम्। **अप्रणतेति—**नप्रणताः, अप्रणताः ते च ते लोकपालाश्चेति अप्रणतलोकपालाः तेषु कोपः, क्रोधस्तेनेव, अतिलोहितौ, अतिरक्तौ अतएव। **सकलेति—**सकलानां, समग्राणां, नृपतीनां, राज्ञां मौलिमालासु, मुकुटराजिषु, अतिपीतम्, अतिशयेन, गृहीतं,पद्मरागरत्नानां, तदाख्यमणीनां, आतपमिव, वमन्तौ, उद्गिरन्तौ।

रागरत्नातपमिव वमन्तौ सर्वतेजस्विमण्डलास्तमयसंध्यामिव धारयन्तावशेषराजककुसुमशेखरमधुरसस्रोतांसीव स्रवन्तौसमस्तसामन्तसीमन्तोत्तंसस्रक्सौरभभ्रान्तैर्भ्रमरमण्डलैरमित्रोत्तमाङ्गैरिव मुहूर्तमप्यविरहितौ संवाहनतत्परायाः श्रियो विकचरक्तपङ्कजवनवासभवनानीव कल्पयन्तौ जलजशङ्खमीनमकरसनाथतलतया कथितचतुरम्भोधिभोगचिह्नाविव चरमौ दधानम्,

**सर्वेति—**सर्वेषां तेजस्विमण्डलानां, वीरसमूहानां, (सूर्यादीनामितिभावः) अस्तमयसन्ध्यामिव, नाशप्राप्तिरूपसायंकालमिव, अस्तगमनसन्ध्याकालमिव च धारयन्तौ दधानौ। **अशेषेति—**अशेषाणां, समस्तानां, राज्ञां कुसमानि पुष्परचितानि इति भावः, यानि शेखराणि, शिरोभूषणानि, तेषांमधुरसाः, मकरन्दरसाः तेषां श्रोतांसीव प्रवाहानिव, स्रवन्तौ, वर्षन्तौ। **समस्तेति—**समस्तानां, सामन्तानां, अधीश्वराणाम् (सामन्तः स्यादधीश्वरः - इत्यमरः) सीमन्ताः, संयताः, केशाः तेषां, उत्तासाः, मण्डनानि याः स्रजः, मालाः, तासां सौरभेण, सुगन्धेन, भ्रान्तानि, घूर्णमानानि तैः। भ्रमरमण्डलैः, मधुकरवृन्दैः, अमित्रोत्तमांगैः, शत्रुशिरोभिः, अविरहितौ, युक्तौ। **संवाहनेति—**संवाहनं, शरीरमर्द्दनरूपासेवा तस्मिन् तत्परा, रता, तस्याः श्रियः, लक्ष्म्याः। **विकचेति—**विकचानि, प्रफुल्लानि, रक्तपङ्कजवनानि, रक्तकमलकाननानि, एव वासभवनानि नानीव कल्पयन्तौ, रचयन्तौ। **जलजेति—**जलजं, कमलं, शङ्खः, कम्बुः, मीनः, मत्स्यः, मकरः, जलजीवभेदः, तैः, सनाथं, युक्तम्, तलं ययोः तयोर्भावः तत्ता तया। **कथितेति—**कथितं, प्रकटितं, चतुर्णाम्, अम्भोधीनां, सागराणां, भोगचिह्नं, भोगलक्षणं याभ्यां तथाभूतामिव चरणौ, पादौ, दधानं, धारयन्तम्। **दिङ्नागेति—**दिङ्नागस्य, दिग्गजस्य, दन्तौ,

दिङ्नागदन्तमुसलाभ्यामिव विकटमकरमुखप्रतिबन्धबन्धुराभ्यामुद्वेललावण्यपयोधिप्रवाहाभ्यामिव फेनाहितशोभा-भ्यांकल्पचन्दनद्रुमाभ्यामिव भोगिमण्डलशिरोरत्नरश्मिरज्यमानमूलाभ्यां हृदयारोपितभूभारधारणमाणिक्य-स्तम्भाभ्यामूरुदण्डाभ्यां विराजमानम्, अमृतफेनपिण्डपाण्डुना मेखलामणिमयूखखचितेन, नितम्बबिम्बव्यासङ्गिना विमलपयोधौतेन नेत्रसूत्रनिवे-

मुसलौ, ताभ्यामिव। **विकटेति—**विकटः, उत्कटः, यो मकरस्य, जलजीवभेदस्य, मुखमिव प्रतिबन्धः, तेन बन्धुरौ, उन्नतानतौ ताभ्यां (बन्धुरस्तून्नतानतम्—इत्यमरः) (पक्षे) विकटः, यो मकरमुखः, मकरमुखाकृति भूषणविशेषः, स एव प्रतिबन्धः तेन बन्धुरौ, रम्यौ ताभ्याम्। **उद्वेलेति—**उद्वेलः, उच्छलत्, वेलातिक्रान्तश्च यः लावण्यपयोधिः, लावण्यसागरः, तस्य प्रवाहाविवस्रोतसीव, ताभ्याम्। **फेनेति—**फैनैः, आहिता, जनिता, ययोः, ताभ्याम्। **भोगीति—**भोगीनां, नृपाणाम्, सर्पाणां च (भोगी भुजङ्गमेऽपिस्यात् ग्रामपात्रेनृपेपुमान्—इत्यमरः) मण्डलस्य, वृन्दस्य, शिरोरत्नानि, तेषां रश्मिभिः, मयूरवैः, रज्यमाने, अलङ्क्रियमाणे, मूले, पादमूले, वृक्षमूले च ययोः ताभ्याम्। **हृदयेति—**हृदयं, चित्तं, तत्र, आरोपितः, यो भूभारः, तस्य धारणे, मणिक्यस्तम्भौ ताभ्याम्। उरुदण्डाभ्यां विराजमानम्। **अमृतेति—**अमृतस्य, फेनपिण्डः, फेनराशिः तद्वत् (पक्षे) फनपिण्डैः, पाण्डुः, धवलः, तेन। **मेखलेति—**मेखला, काञ्ची, तत्र ये मणयः, रत्नानि (पक्षे) मेखलासु, नितम्बेषु। **मन्दरस्येति—**मन्दरस्य ये मणयः, तेषां मयूरवैः, किरणैः, खचितं, तेन नितम्बबिम्बसङ्गिना, नितम्बमण्डलसंसक्तेन, (पक्षे) कटितटव्यापिना। **विमलेति—**विमलैः, स्वच्छैः, पयोभिः, जलैः, (पक्षे) दुग्धैः, धौतेन,

शशोभिनाधरवाससा वासुकिनिर्मोकेणेव मन्दरं द्योतमानम्, अघनेन, सतारागणेनोपरिकृतेन द्वितीयाम्बरेण भुवनाभोगमिव भासमानम्, इभपतिदशनमुसलसहस्रोल्लेखकठिनमसृणेनापर्याप्ताम्बरप्रथिम्ना विविधवाहिनीसंक्षोभकलकलसंमर्द-सहिष्णुना क्रैलासमिव महता स्फटिकतटेनोरुणोरः कपाटेन विराजमानम्,

क्षालितेन। **नेत्रेति—**नेत्रस्य, वस्त्रविशेषस्य (नेत्रं मथिगणे वस्त्रभेदे मूले द्रुमस्य च इति मेदिनी) सूत्राणां, तन्तूनां, निवेशेन, रचनया, (पक्षे) नेत्रं, मन्थनरज्जुः, तस्य सूत्राणां, निवेशेन, आधानेन, शोभते इति तथोक्तेन। अधरवाससा, परिधानवस्त्रेण। वासुकिनिर्मोकेणैव, वासुकेः, नागराजस्य, निर्माकेणेव, कञ्चुकेनेव। मन्दरं, तदाख्यं पर्वतं, द्योतमानं, राजमानं, अघनेन, सूक्ष्मेण, घनः, मेघः, तद्रहितेन च। सतारागणेन, ताराः, सूत्रबिन्दवः, नक्षत्राणि च तेषां गणः, समूहः तत्सहितेन। उपरिकृतेन, उपरिधृतेन, (पक्षे) ऊर्द्धवर्त्तिना। **द्वितीयेति—**द्वितीयेन, अम्बरेण, वसनेन, गगनेन च। भुवनाऽऽभोगमिव, भुवनाऽऽयामामिव, भासमानं, विराजमानम्। **इभपतीति—**इभपतेः, गजपतेः, दशना एव मुसलानि, तेषां सहस्त्राणां, उल्लेखेन, निरवननेन, कठिनं दृढं मसृणं, कोमलं च (पक्षे) चिक्कणं तेन। **अपर्याप्तेति—**अपर्याप्तं, यत् अम्बरं, आकाशं, तस्येव प्रथिमा तेन (पक्षे) अपर्याप्ते अम्बरे प्रथिमा, विस्तारो यस्य तेन। **विविधेति—**विविधानां, बहुविधानां, वाहिनीनां, चमूनां, संक्षोभे, समवाये, यः कलकलः, कोलाहलः, तेन संमर्दः, संक्लेशः (पक्षे) वाहिनीनां, नदीनां, संक्षोभे, यः कलकलः, तेन सम्मर्दः, तं सहितुं शीलमस्येति तथोक्तेन। उरुणा, महता, उरः कपाटेन, वक्षस्थलरूप कपाटेन। महता, स्फटिकतटेन कैलासमिव, एतदाख्यपर्वतमिव विराजमानम्।

श्रीसरस्वत्योरुरोवदनोपभोगविभागसूत्रेणेव पातितेन शेषेणेव च तद्भुजस्तम्भविन्यस्तसमस्तभूभारलब्धविश्रान्तिसुखप्रसुप्तेन हारदण्डेन परिवेष्टितकंधरम्,जीवितावधिगृहीतसर्वस्वमहादानदीक्षाचीरेणेव हारमुक्ताफलानां किरणनिकरेण प्रावृतवक्षःस्थलम्, अजजिगीषया बालैर्भुजैरिवापरैः प्ररोहद्भिर्बाहूपधानशायिन्याः श्रियाः कर्णोत्पलमधुरसधारासंंतानैरिव गलद्भिर्भुज-

**श्रीसरस्वत्योरिति—**श्रीसरस्वत्योः, लक्ष्मीवाग्देव्योः, उरोवदनयोः, यथा क्रमेण लक्ष्म्या उरसः वाग्देव्या वदनस्येतिभावः, उपभोगः, सम्भोगः तस्य विभागसूत्रं, सीमावन्धनसूत्रम्, तेनेव पातितेन, पराजयेनेतिभावः। **तद्भुजेति—**तस्य, हर्षस्य भुजः, एवस्तम्भः, तस्मिन् विन्यस्तः, यः समस्तः, भूभारः, पृथ्वीभारः, तेन लब्धा, प्राप्ता, या विश्रान्तिः, विश्रामः, तया सुखं यथा तथा प्रसुप्तः, निद्रितः तेन शेषेण, अनन्तनागेनेव। हारदण्डेन, हारयष्टिना, प्ररिवेष्टिता, आलिङ्गिता, कन्द्रा, ग्रीवा यस्य तं। **जीवितेति—**जीवितं, जीवनं, अवधिः, शेषो येषां तानि, गृहीतानि, यानि, सर्वाणि स्वानि, धनानि, तेषांमहादानं, तस्मिन् या दीक्षा, व्रतधारणनियमविशेषः, तस्याः चीरं, कौपीनम्, तेनेव। हारेति— हारस्य, जालमालायाः, मुक्तानां, मौक्तिकानां, किरणाः, मयूरवाः तेषां निकरेण, समूहेन। **प्रावृतेति—**प्रावृत्तं, अच्छादितं, वक्षःस्थलं, येन यस्य वा तम्। **अजेति—**न जायते इतिअजः, विष्णुः, जिगीषा, जयेच्छा तया (अजाविष्णु हरच्छागाः इत्यमरः) वालैः, नवैः, प्ररोहद्भिः, जायमानैः, भुजैरिव। **बाहूपधानेति—**बाहूरेव, उपधानं, उपवर्हः तत्र शायिन्याः, श्रियः, लक्ष्म्याः। **कर्णोत्पलेति—**कर्णोत्पलस्य, अवतंसभूतकमलस्य, मधुरसधाराणां, मकरन्दप्रवाहाणां, सन्तानैरिव, समूहैरिव, गलद्भिः, क्षरद्भिः, भुजजन्मनः,

जन्मनः प्रतापस्य निर्गमनमार्गैरिवाविर्भवद्भिररुणैः केयूररत्नकिरणदण्डैरुभयतः प्रसारितमणिमयपक्षवितानमिव माणिक्यमहीधरम्, सकललोकालोकमार्गार्गलेन चतुरुदधिपरिक्षेपखातशिलाप्राकारेण सर्वराजहंसबन्धवज्रपञ्जरेण भुवनलक्ष्मीप्रवेशयङ्गलमहामणितोरणेनातिदीर्घदोर्दण्डयुगलेन दिशां दिक्पालानां च युगपदायतिमपहरन्तम्, सोदर्यलक्ष्मीचुम्बनलोभेन कौस्तुभमणेरिव मुखावयवतां गतस्याधरस्य गलता रागेण पारिजात-

बाहुजनितस्य, प्रतापस्य, तेजसः, निर्गमनमार्गैरिव। आविर्भवद्भिः, प्रकटयद्भिः, अरुणैः, रक्तैः। **केयूरेति—**केयूररत्नानां, अङ्गदस्थमणीनां, किरणा एव दण्डा स्तैः। **प्रसारितेति—**प्रसारितौ, मणिमयौ, पक्षवितानौ, विस्तृतपक्षौ, यस्यतथोक्तम्। माणिक्यमहीधरं, माणिक्यरत्ननिर्मितपर्वतम्। **सकलेति—**सकलानां, लोकानां, आलोकः, उद्योतः, तस्य मार्गः, पन्था, तस्य अर्गलः तेन। **चतुरिति—**चतुर्णां, उदधीनां, समुद्राणां, सम्बन्धी, परिक्षेपः, परिवेष्टनमेव, खातानि, परिरवाः, तेषां शिलाप्राकारः पापागानिर्मितं (प्राचीरमित्यर्थः) तेन।**सर्वेति—**सर्वेषां, राजहंसानां, नृपश्रेष्ठानां, बन्धे, वन्धने, वज्रपिञ्जरं, (पाषाणनिर्मितपिञ्जरमित्यर्थः) तेन। भुवनेति **—**भुवनानां, लक्ष्म्याः, प्रवेशस्य मंगलं, महामणितोरणं, अनर्घ्यमणिनिर्मितवहिर्द्वारं तेन।**अतिदीर्घेति—**अतिदीर्घं, अत्यायनं, दोर्दण्डयुगलं, भुजदण्डद्वयं तेन युगपत्, समकालं, आयतिं, दैर्घ्यं, प्रभावच्च अपहरन्तं, नाशयन्तम्।**सौदर्येति—**सौदर्या, सहोदरा, या लक्ष्मीः, श्रीः तस्याः चुम्बनाय, लोभः तेन। कौस्तुभमणोरिव, (क्षीरसागरोत्पन्नतया सहोदरस्येवेत्यर्थः) मुखावयवतां, वदनाङ्गतां, गतस्य, प्राप्तस्य, अधरस्य, गलता, स्रवता, रागेण, लौहित्येन, पारिजातपल्लवरसेनेव, पारिजातदेवतरुकिसलय

पल्लवरसेनेव सिञ्चन्तं दिङ्मुखानि, अन्तरान्तरा सुहृत्परिहासस्मितैः प्रकीर्यमाणविमलदशनशिखाप्रतानैः प्रकृतिमूढाया राजश्रियाः प्रज्ञालोकमिव दर्शयन्तम्, मुखजनितेन्दुसंदेहागतानि कुमुदिनीवनानीव प्रेषयन्तम्, स्फुटधवलदशनपङ्क्तिकृतकुमुदवनशङ्काप्रविष्टां शरज्ज्योत्स्नामिव विसर्जयन्तम्, मदिरामृतपारिजातगन्धगर्भेण भरितसकलककुभा मुखामोदेनामृतमथनदिवसमिव सृजन्तम्, विकचमुखकमलकर्णिकाकोशेनानवरत-मापीयमानश्वाससौरभमिवाधोमुखेननासावंशेन, चक्षुषः क्षीर

द्रवेणेव, दिङ्‌मुखानि, सिञ्चन्तं, क्षालयन्तम्। अन्तरान्तरा, मध्येमध्ये। **सुहृदिति—**सुहृद्भिः, सह ये परिहासाः, तेषु स्मितानि, मन्दहासाः तैः। **प्रकीर्यमाणेति—**प्रकीर्यमाणाः, विक्षिप्यमाणा, विमलाः, दशनकिरणानां, दन्तमयूरवानां, शिखाप्रतानाः, अरच्चिनिचयाः, येषु तथोक्तैः। प्रकृतिमूढायाः, स्वभावमुग्धायाः, राजश्रियः, नृपलक्ष्म्याः। प्रज्ञाप्रलोकमिव, ज्ञानद्युतिमिव दर्शयन्तम्। **मुखेति—**मुखे, जनितः यः इन्दुसन्देहः तेन आगतानि, कुमुदिनीवनानीव, प्रेषयन्तं, इन्दुरयं नेति कृत्वा विसर्जयन्तम्। **स्फुटेति—**स्फुटधवला, या दशनपक्तिः, तया कृता, जनिता, या कुमुदवनशङ्का, तया प्रविष्टां, (मुखाभ्यन्तरमितिभावः) शरज्ज्योत्स्नां, शरत्कालिककौमुदीमिव, विसर्जयन्तं, (नैतानि कुमुदवनानीति कृत्वा त्यजन्तम्) **मदिरेति—**मदिराऽमृतवत् यः पारिजातगन्धः, सगर्भे यस्य तेन। भरितसकलककुभाः, सर्वदिक्प्रसारिणेति यावत्, मुखामोदेन, वदनसौरभेण, अमृतमथनदिवसमिव, पियूषमन्थनदिनमिव, सृजन्तं, जनयन्तम्। **विकचेति—**विकचं, प्रफुल्लं, मुखं, कमलमिव तस्य कणिकाकोशः, बीजकोशस्तेन (कर्णिका करिहस्ताग्रेऽज्वरोटेकर्णभूषणे इति मेदिनी) अधोमुखेन,

स्निग्धस्य धवलिम्ना दिङ्मुखान्यपूर्ववदनचन्द्रोदयोद्वेलक्षीरोदप्लावितानीव कुर्वाणम्, विमलकपोलफलकप्रतिबिम्बतां चामरग्राहिणीं विग्रहिणीमिव मुखनिवासिनीं सरस्वतीं दधानम्, अरुणेन चूणामणिशो-चिषासरस्वतीर्ष्याकुपितलक्ष्मीप्रसादनलग्नेन चरणालक्तकेनेव लोहितायितललाटतटम्, आपाटलांशुतन्त्रीसंतानवलयिनीं कुण्डलमणिकुटिलकोटिबालवीणामनवरतचलितचरणानां वादयतामुपवीणयतामिव स्वरव्याकरणविवेक-

नताननेन, नासिकारूपवेणुना, अनवरतं निरंतरम्, आपीयमानम्, आघ्रायमाणं श्वासस्य, सौरभं, येन तथोक्तम्। **क्षीरेति—**क्षीरवत् स्निग्धं तस्य चक्षुषः धवलिम्ना, श्चैत्येन, दिङ्मुखानि, अपूर्वः, वदनमेव चन्द्रः तस्य उदयेन उद्वेलः, वेलायामुच्छलितः, यः क्षीरोदः, तेन प्लावितानीव। **विमलेति—**विमले, कपोलफलके, गण्डनटे, प्रतिबिम्बिता, प्रतिफलिता ताम्। विग्रहह्मणीमित्र, मूर्तिमतीमिव। सरस्वतीं, वाग्देवीं, दधानम् धारयन्तम्। अरुणेन, रक्तेन। चूडेति— चूडामणेः, शिरोरत्नस्य, शोचिषा, अर्चिषा। **सरस्वतीति—**सरस्वत्यां, ईर्ष्या, द्वेषः, तया कुपिता या लक्ष्मीः, तस्याः प्रसादनं, चरणप्रणिपातेन सान्त्वनं, तेन लग्नं, संसक्तं, तेन चरणालक्तकेन। **लोहितेति—**लोहितायितः, अरुणितः, ललाटः, यस्य तथोक्तम्। **आपाटलेति—**आपाटलाः, ईषद्रक्ताः, अंशवः, मयूरवाः एत्र तन्त्रीसन्तानाः, तन्त्रीसङ्घाः, तेषां वलयः, मण्डलं विद्यतेऽस्याः ताम्। कुण्डलेति— कुण्डलयोः, कर्णभूषणयोः, ये मणयः तेषां कुटिलाः, भङ्गीमती, कोटिः, शिखा, सा एव बालवीणा, सप्ततन्त्री ताम्। **अनवरतेति—**अनवरतं, निरन्तरं, चलिताः, चरणाः, येषां तथोक्तानां। उपवीणयतां, वीणया उपगायतां तेषामिव। **स्वरेति—**स्वराः, निषादादयः, व्याक्रियन्ते,

विशारदम्, श्रवणावतंसमधुकरकुलानां कलक्वणितमाकर्णयन्तम्, प्रत्फुल्लमालतीमयेन राजलक्ष्म्याः कचग्रहलीलालग्नेन नखज्योत्स्नावलयेनेव मुखशशिपरिवेशमण्डलेन मुण्डमालागुणेन परिकलितकेशान्तम्, शिखण्डाभरणभुवा मुक्ताफलालोकेन मरकतमणिकिरणकलापेन चान्योन्यसंवलनवृजिनेन प्रयागप्रवाहवेणिकावारिणेवागत्य स्वयमभिषिच्यमानम्, श्रमजलविलीनबहलकृष्णागुरुपङ्कतिलककलङ्ककल्पितेन कालिम्ना

प्रकाश्यन्ते अनेनेति स्वरव्याकरणः स चासौ विवेकः, स्वरव्याकरणाज्ञानं तेन विशारदं चतुरं, यथा तथा। श्रवणेति— श्रवणयोः, कर्णयोः, यौ अवतंसौ तयोः मधुकरकुलानि, भृङ्गसमूहाः, तेषां कलक्कणितं, मधुररणितम्, आकर्णयतम्। **उत्फुल्लेति—**उत्फुल्लमालतीमयेन, विकसितमालतीगुम्फितेन, राजलक्ष्म्याः, नृपश्रियः, कचग्रहः, केशाकर्षणं तस्य या लीला, विलासः तया आलग्नं, संसक्तं तेन। नखेति - नखानां, ज्योत्स्नाः, प्रभाः, तासां वलयं, मण्डलं तेनेव। **मुखेति—**मुखं, शशीव, चन्द्र इव तस्य परिवेशमण्डलं, परिधिमण्डलं तेन। मुण्डमालागुगणेन, शिरोमालया, परिकल्पितः, परिगणद्धः, केशान्तः यस्य तिथोक्तम्। **शिखण्डेति—**शिखण्डाभरणं, चूडालंकारः तस्माद् भवतीति तथोक्तेन। **मुक्तेति—**मुक्ताफलानां, आलोकेन, प्रभया। मरकतमणीनां, किरणकलापेन, प्रभाजालेन। अन्योऽन्यस्य, संवलनं, मिश्रणं तेन वृजिनं, कलुपम्, तेन। **प्रयागेति—**प्रयागे, गङ्गायमुनासरस्वतीसंगमे, या प्रवाहवेणिका, तिसृणां, नदीनां, स्रोतोरुपावेणी तस्याः वारि तेनेव। अभिसिञ्चमानं, क्रियमाणभिषेकमित्यर्थः। **श्रमेति—**श्रम जल इत्यारभ्य वारविलासिनीभिः, विलुप्यमान सौभाग्यमिव सर्वतः इत्यनेनान्वयः।

प्रार्थनाचाटुचतुरचरणपतनशतश्यामिकाकिणेनेवनीलायमानललाटलेखाभिः क्षुभितमानसोद्गतैरुत्कलि-काकलापैरिव हारैरुल्लसद्भिरवष्टभ्यमानाभिर्विलासवल्गनचटुलैर्भ्रूलताकल्पैरीर्ष्ययाश्रियमिव तर्जयन्तीभिरायामिभिः श्वसितैरविरलपरिमलैर्मलयमारुतमयैः पाशैरिवाकर्षन्तीभिर्विकटबकुलावलीवराटक-वेष्टितमुखैर्वृहाद्भैःस्तनकलशैः, स्वदारसंतोपरसमिवाशेषमुद्धरन्तीभिः,—

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श्रमजलेन, धर्मेण, विलीनं लुप्तं, वहलं, धनं, यत् कृष्णागुरुपङ्कतिलकं, कालागुरुद्रवरचितं तिलकं तस्य कलङ्कं, चिह्नम् तेन कल्पितः रचितः, तेन। कालिम्ना, श्यामलत्वेन। प्रार्थनेति प्रार्थनायां, चाटुचतुरं, सविलासं यानि चरणपतनानि, तेषां शतेन, या श्याभिका, कालिमा, तस्याः किणाः चिह्नविशेषः तेन। नीलेति—नीलायमाना, नीलेवाचरन्तीः, ललाटलेखाः, भाललेखाः, यासां ताभिः। क्षुभितेति—क्षुभितानि, इष्टलाभविरहात् क्षोभंगतानि यानि मानसानि, चेयोसि, तेभ्यः उद्गताः, उत्त्थिताः तैः, क्षुभितं, वातांवशात् चंललं यत् मानसं, तदाख्यं सरः, तस्मात् उद्गतैः इति च। उत्कलिकाकलापैरिव, रणरणि—कासमूहैरिव वीचिसमूहैरिव च, उल्लसद्भिः राजमानैः हारैः, अवष्टभ्यमानाभिः, स्तब्धीक्रियमाणाभिः,। विलासेति—विलासेन, विभ्रमेण, यद् वल्गनं, चलनं तत्र चटुलाः, पटवः तैः। भूलताकल्पैः, लतासदृशीभिः (भ्रुभिरित्यर्थः) श्रियमिव राजलक्ष्मीमिव। तर्जयन्तीभिः। आयामिभिः, दीर्घैः, श्वसितैः, निश्वासैः अविरलः, सान्द्रः, परिमलः, सुगन्धः येषां तैः, मलयमारुतमयैः, दक्षणानिलनिर्मितैः, पाशैरिव, रज्जुभिरिव, आकर्षयन्तीभिः, वशीकुर्वतीभिः **विकटेति—**विकटा स्थूला या वकुलावली, वकुलमाला सैव वराटकः, रज्जुः (वराटकः पद्मवीजकोषेरज्जौकपर्दके इति मेदिनी) तेन वेष्टितं, मुखं येषां तैः। वृहद्भिः,

कुचोत्कम्पिकाविचारप्रेङ्खितानां हारतरलमणीनां रश्मिभिराकृष्यहृदयमिव हठात्प्रवेशयन्तीभिः, प्रभामुचामाभरणमणीनां मयूखैःप्रसारितैर्बहुभिरिव बाहुभिरालिङ्गन्तीभिर्जृम्भानुबन्धबन्धुरवदनारविन्दावरणीकृतैरुत्तानैः करकिसल्यैः सरभसप्रधावितानिमानसानीव निरुन्धतीभिर्मदान्धमधुकरकुलकीर्यमाणकर्णकुसुमरजःकणकूणितकोणानि कुसुमशरशरनिकरप्रहारमूर्च्छामुकुलिता-

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महद्भिः, स्तनकलसैः, पयोधरकुम्भैः। स्वदारेति—स्वस्य दाराः, पन्नयः, ताषु सन्तोषः, एव रसः, रागः तमिव। अशेषं, समग्रं, उद्धरन्तीभिः, उत्तोलयन्तीभिः, रक्तीकुर्वन्तीभिरिूगभावः। कुचेति—कुचानां, स्तनानां, उत्क्रम्पिका, (कम्पविशेषः) एव विकार, अन्यथाभावः, तेन प्रेङ्खितानां, चालितानाम्। हारतरलमणीनां, हारेषु तरलाः, भास्वराः, ये मणयः, रत्नानि तेषां, रश्मिभिः, किरणैः। प्रभामुचां, कान्तिवर्षिणां, आभरणमणीनां, भूषणरत्नानाम्, मयूरवैः, किरणैः। आलिङ्गन्तीभिः, आश्लिष्यन्तीभिः। जृम्भेति—जृम्भाणां, कामजनितानुभावविशेषाणां, अनुबन्धेन, सातत्येन, बन्धुराणि, रम्याणि, बदनानि, मुखानि, अरविन्दानीव, पद्मानीव, तेषां आवरणीकृताः, आवर्णत्वेनोद्‌धृताः तैः। उत्तानैः, उद्धवीकृतैः, करकिसलयैः, सरभसप्रधावितानि, सवेगप्रचलितानि, निरुन्धंतीभिः, अवरोधं कुर्वतीभिः। मदेति—मदेन, अन्धानि यानि, मधुकरकुलानि तैः क्रियमाणानि, क्षिप्यमाणानि, यानि, कर्णकुसुमानां, रजांसि, परागाः, तेषां कणैः, लेशैः, कूणिताः, संकोचिताः, कोणाः, एकदेशाः येषां तानि। अतएव-कुसुमेति—कुसुमशरस्य, कामस्य, शरनिकराणां, बाणसमूहानां, प्रहारैः या मूर्च्छा, मोहः तया, मुकुलितानि इव, लोचनानि, नयनानि, चतुरं। संचारयन्तीभिः, प्रसारयन्तीभिः, अन्योऽन्य-

नीव लोचनानि चतुरं संचारयन्तीभिरन्योन्यमत्सरादाविर्भवद्भङ्गुरभ्रकुटिविभ्रमक्षिप्तैःकटाक्षैः कर्णेन्दीवराणीव ताडयन्तीभिरनिमेषदर्शनसुखरसराशिं मन्थरितपदक्षमणा चक्षुषा पीतमिव कोमलकपोलपालीप्रतिविम्बितं वहन्तीभिरभिलाषलीलानिर्निमित्तस्मितैश्चन्द्रोदयानिव मदनसाहायकाय संपादयन्तीभिरङ्गभङ्गवलनान्योन्यघटितोत्तानकरवेणिकाभिः स्फुटनमुखराङ्गुलीकाण्डकुण्डलीक्रियमाण-नखदीधितिनिभेनाकिंचित्करकार्मुकाणोव

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मत्सरादिव, परस्परेर्प्यादरिव। **आविर्भवदिति—**आविर्भवन्तः, उत्पद्यमानाः, भंगुराः, कुटिलाः, ये भ्रुकुटिविभ्रमाः तैः क्षिप्ताःतैः। कर्णेन्दीवराणिव, श्रवणनीलोत्पलानीव, ताडयन्तीभिः। अनिमेषेति—अनिमेषं, निर्निमेष, दशनं, अवलोकनं, तेन सुखरसानां, सुखस्वादानां, रसः, जलं तस्य राशिः यस्मिन्‌ तं। मन्थरेति—मन्थरितानि, निश्चलानि, पक्ष्माणि, लोमानि यस्य तेन चक्षुषा, नेत्रेण, पीतमिव। कोमलेति—कोमलायां, कपोलपाल्यां, कपोलतले, प्रतिविम्बितं, प्रतिफलितं, वहन्तीभिः, धारयन्तीभिः। अभिलाषेति—अभिलाषस्य, कामतृष्णायाः, लीलया, विलासेन, निर्निमित्तानि, हेतुरहितानि, स्मितानि, मृदहसितानि तैः। मदनसहायकाय, कामसहायकाय, सम्पादयन्तीभिः, कुर्वन्तीभिः। **अंगेति—**अङ्गानां, भङ्गवलनेन, जृम्भादिजनितभङ्गिविशेषेण, अन्योऽन्येन, परस्परेण, घटिताः, कृताः, उत्तानाः या करवेणिकाः, परस्परानुबन्धेन स्थितयोः, करयोः अंगुलिविन्यासविशेषाः, ताभिः। स्फुटनेन, त्रुटनेन, मुखराः, सशब्दः, ये, अंगुलयः, एव काण्डाः, शाखाविशेषाः, तैः कुण्डलीक्रियमाणानां, नखानां, दीधितिनिवहाः, मयुरवनिचयाः तेषां, निभः, तेन। अकिञ्चित्कराणि, कामस्य, मदनस्य, कार्मुकाणि, धनूंषि तानीव,

रुषा भञ्जतीभिर्वारविलासिनीभिर्बिलुप्यमानसौभाग्यमिव सर्वतः स्पर्शस्विन्नवेपमानकरकिसलयगलितचरणारविन्दां चरणग्राहिणीं विहस्य कोणेन लीलालसं शिरसि ताडयन्तम्, अनवरतकरकलितकोणतया चात्मनः प्रियां वीणामिव श्रियमपि शिक्षयन्तम्, निःस्नेह इति धनैरनाश्रयणीय इति दोषैर्निग्रहरुचिरितीन्द्रियैदुरुपसर्प इति कलिना नीसर इति व्यसनैर्भीरुरित्ययशसा दुर्ग्रहचित्तवृत्तिरितिचित्तभुवा स्त्रीपर इति सरस्वत्या, पण्ढ इति परकलत्रैः काष्ठामुनिरित यतिभिर्धूर्त इति वेश्याभि-

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रुषा, कोपेन, भञ्जतीभिः, खण्डयन्तीभिः। विलुप्यमानेति—विलुप्यमानं, ह्रियमाणं, सौभाग्यं, वाल्लभ्यं, यस्य तथोक्तमिव। स्पर्शेति—स्पर्शेन, स्विन्न, घर्माक्तः, वेपमानः, कम्पमानश्च, यः करकिसलयः, तस्मात् गलितं, च्युतं, चरणारविन्दं, पादपद्मं, यस्याः, तथोक्ताम्। चरणग्राहिणीं, चरणसेविनीम्, कोणेन, वीणावादनदण्डेन। लीलाऽलसं, विलासमन्थरम्। ताडयन्तं, प्रहरन्तम्। अनवरतेति—अनवरतं, निरंतरं, करकलितः, हस्तगृहीतः, कोणो येन तथाविधः तस्यभावः तत्ता तया, प्रियां, शिक्षयन्तं, अभ्यस्यन्तं, निःस्नेहः, स्नेहशून्यः। अनाश्रयणीयः, असेवनीयः, निग्रहे, वशीकरणे, रुचिः, अभिलाषो यस्य सः। दुरुपसर्पः, दुर्द्धर्षः। कलिना, चतुर्थयुगेन। नीररसः, निरनुरागः। व्यसनैः, मृगयादिभिः, भीरुः भयशीलः, अपयशसा, अपकीर्त्याः। दुर्ग्रहेति—दुर्ग्रहा, दुराकर्षा, चित्तवृत्तिर्यस्य तथोक्तः। चित्तभुवा, कामेन स्त्रीपरः, स्त्रैणः। शठः, धूर्त्तः, (वञ्चक इत्यर्थः) काष्ठामुनिः, उत्कर्षवान् तपसः, (काष्ठोत्कर्षे स्थितौ दिशि इत्यमरः) नेयः, परवशः, कर्मकरः, भृत्यः। सुसहायः, सुष्ठुसहायसम्पन्नः, शत्रुयोधैः, शत्रुवीरैः, अनेकधा, बहुधा, गृह्यमाणं,

र्नेय इति सुहृद्भिः कर्मकर इति विप्रैः सुसहाय इति शत्रुयोधैरेकमप्यनेकधा गृह्यमाणम्, शन्तनोर्महावाहिनीपतिम्, भीष्माज्जितकाशिनम्, द्रोणाच्चापलालसम्, गुरुपुत्रादमोघमार्गणम्, कर्णाम्मित्रप्रियम्, युधिष्ठिराद्बहुक्षमम्, भीमादनेकनागायुतबलम्, धनंजयान्महाभारतरणयोग्यम्, कारणमिव कृतयुगस्य, बीजमिव

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ज्ञायमानम्। शन्तनोः, तदाख्यात् कुरुवंशीयराजात्। महेति—महत्यः, वाहिन्यः, चम्वः, तासां, पतिः, तम्, (पक्षे) शन्तनुस्तु महती एकैव वाहिनी, गङ्गा, तस्याः पतिरिति व्यतिरेकः। भीष्मात्, भीष्ममपेक्ष्यजितकाशी, जितेन, जयेन, क्वाशते, राजते, इति तथोक्तं तं भीष्मेनाऽपि काशिराजदुहितृस्वयंवरे काशीजिता। द्रोणात्, धनुर्वेदाचार्यात्, चापे, धनुषि लालसा, यस्य तम्। वा च इति समुच्चये, अपगता लालसा यस्य तम्। वा चापले, चपल कर्मणि, अलसः, मन्दव्यापारः तं, द्रोणास्तु द्रव्यलोभताया द्रुपदेन सह विरोधं कृतवान् पुनरयं न इति व्यतिरेकः। गुरुपुत्रात्, द्रोणाचार्यतनयात्, (अश्वत्त्थामात्) अमोघाः, अव्यर्थाः, मार्गणाः, शराः यस्य तथोक्तम्। कर्णात्, राधेयात्, मित्रप्रियं, मित्रस्य, सूर्यस्य, सुहृदाञ्च, प्रियः, तम्। युधिष्ठिरात्, धर्मराजात्, बहुक्षमं, क्षमागुणबहुलं (पक्षे) वह्वी, क्षमा, पृथ्वी यस्य तथोक्तम्। भीमात्। अनेकेति—अनेकनागायुतवत्, नास्ति एकः श्रेष्ठः येभ्यः ते च ते नागाः, हस्तिनः तेषा मायुतवत् महाबल हस्तिसमूहवत् बलं सामर्थ्यम्। (पक्षे) अनेकानि, बहूनि नागानां, हस्तिनां आयुतानि, दशसहस्राणि, बलानि सैन्यानि यस्य तथोक्तम्। धनञ्जयात्, अर्जुनात्। महाभारते यो रणः, संग्रामः (पक्षे) महान् भारः (पृथिव्या इति भावः) तस्य तरणं वहनम्। बीजम्, अंकुरोत्पादकक्षुद्रवस्तुविशेषः। विबुधसर्गस्य, देवसृष्टेः। उत्पत्ति-

विबुधसर्गस्य, उत्पत्तिद्वीपमिव दर्पस्य, एकागारमिव करुणायाः, प्रातिवेशिकमिव पुरुषोत्तमस्य, खनिपर्वतमिव पराक्रमस्य, सर्वविद्यासंगीतगृहमिव सरस्वत्याः, द्वितीयामृतमथनदिवसमिव लक्ष्मीसमुत्थानस्य बलदर्शनमिव वैदग्ध्यस्य, एकस्थानमिव स्थितीनाम, सर्वस्वकथनमिव कान्तेः, अपवर्गमिव रूपपरमाणुसर्गस्य, सकलदुश्चरितप्रायश्चित्तमिव राज्यस्य, सर्वबलसंदोहावस्कन्दमिव कन्दर्पस्य, उपायमिव पुरंदरदर्शनस्य, आवर्तनमिव धर्मस्य, कन्यान्तःपुरमिव कलानाम्, परमप्राणमिव सौभाग्यस्य, राजसर्गसमाप्त्यवभृथस्नानदिवसमिव सर्वप्रजापतीनाम्, गम्भीरं च, प्रसन्नं च, त्रासजननं च, रमणीयं च, कौतुकजननं च, पुण्यं च, चक्रवर्तिनं हर्षमद्राक्षीत्।

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द्वीपमिव, प्रभवस्थानमिव। एकागारमिव, अद्वितीयं गृहमिव। प्रातिवेशकमिव, प्रतिबिम्बमिव, पुरुषोत्तमस्य, विष्णोः। खनिपर्वतमिव, आकरगिरिमिव, सर्वविद्यासंगीतगृहमिव, सर्वशास्त्रसंगीतालयमिव; द्वितीयामृतमथनदिवसमिव, अपरपीयूषोत्तलनवासरमिव। बलदर्शमिव, शक्त्युत्कर्षप्रदर्शनमिव, एकस्थानमिव, अद्वितीयगृहमिव, सर्वस्वकथनमिव, निधिभूतत्वविज्ञापनमिव, साफल्यमिव सर्वेति—सर्वेषां, बलानां, सैन्यानां सामर्थ्यानां वा, सन्दोहः, सङ्घः तस्य, अवस्कन्दः, समावेशः, तमिव। पुरन्दर दर्शनस्य, इन्द्रसाक्षात्कारस्य, आवर्त्तनमिव, आवर्त्तमिव, कलानां, नृत्यगीतानां चतुःषष्टि विधानां कामविद्यानां, परमप्राणमिव, परमं बलमिव। राजसर्गेति—राज्ञां सर्गः–सृष्टिः, तस्य समाप्तिः, अवसानं सैव अवभृतस्नानं, दिक्षान्तस्नानं, तस्य दिवसः, तमिव। सर्वप्रजापतीनां, गम्भीरेति—गम्भीरञ्च प्रसन्नं, च त्रासजननञ्च रमणीयं, कौतुक-

** दृष्ट्वा चानुगृहीत इव निगृहीत इव साभिलाष इव, तृप्त इव, रोमाञ्चमुचा मुखेन मुञ्चन्नानन्दबाष्पवारिबिन्दून्दूरादेव विस्मयस्मेरः समचिन्तयत् ‘सोऽयं सुजन्मा, सुगृहीतनामा, तेजसां राशिः, चतुरुदधिकेदारकुटुम्बी, भोक्ता ब्रह्मस्तम्भफलस्य, सकलादिराजचरितजयज्येष्ठमल्लो देवः परमेश्वरो हर्षः। एतेन च खलु राजन्वती पृथ्वी। नास्य हरेरिव वृषविरोधीनि, बालचरितानि, न पशुपतेरिव दक्षोद्वेगकारीण्यैश्वर्यविलसितानि,**

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जननं, आश्चर्योत्पादकञ्च चक्रवर्तिनं, सार्वभौमम्।

अनुगृहीत इव, अनुकम्पित इवं, निगृहीत इव, अभिभूत इव, (तेजसेतिभावः) साभिलाष इव, समुत्सुक इव, तृप्त इव, चरितार्थ इव, द्रष्टव्यवस्तुदर्शनेन इति हृदयम्, अथ च यः अनुगृहीत, स एव निगृहीतः यः साभिलाषः सः कथं तृप्तः–इति विरोधोऽपि अत्रप्रगटः। रोमाञ्चमुचा, पुलकितेन, मुञ्चन्, त्यजन्, विस्मयस्मेरः विस्मयेन, चमत्कारेण, स्मेरः (विकसितचित्त इत्यर्थः) चतुरुदरधीति—चतुर्णां, उदधीनां, सागराणां, यत्केदारं, क्षेत्रम्, तदेव कुटुम्बं, पोष्यवर्गः, अस्येति तथोक्तः, भोक्ता, अधिकारी, ब्रह्मस्तम्भफलस्य, ब्रह्माण्डवत्तिसर्वरत्नजातस्य। सकलेति—सकलाः, समस्ताः, आदिराजानः, मन्वादयः, तेषां, चरितानि, तेषां जये, पराभवविषये, जेष्ठमल्लः, प्रधानवीरः। परमेश्वर, सम्राट्। राजन्वती, प्रशस्तराजशालिनी। अस्य, हर्षस्य, हरेस्वि, कृष्णस्येव, वृषविरोधीनि, वृषः, धर्मः, (पक्षे) वृषरूपोऽष्टासुरः, तस्य बिरोधीनि। बालचरितानि, शैशवक्रीडितानि। पशुपतेरिव, हरस्येव। दक्षेति—दक्षाणां, कुशलानां, जनानामितिभावः। (पक्षे) दक्षस्य प्रजापतेः, (स्वश्वशुरस्येतिभावः) उद्वेगकारीणि, भीषणानि, ऐश्वर्यविलासितानि, अधिपत्यचेष्टितानि, (पक्षे) ईश्वरधर्माः(अणिमा-

न शतक्रतोरिव गोत्रविनाशपिशुनाः प्रवादाः, न यमस्येवातिबल्लभानि दण्डग्रहणानि, न वरुणस्येव निस्त्रिंशग्राहसहस्ररक्षिता रत्नालयाः, न धनदस्येव निष्फलाः सन्निधिलाभाः, न जिनस्येवार्थवादशून्यानि दर्शनानि, न चन्द्रमस इव बहुलदोषोपहताः श्रियः। चित्रमिदमत्यमरं राजत्वम्। अपि चास्य त्यागस्यार्थिनः,

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दय इत्यर्थः) तेषां विलासितानि, विजृम्भितानि। शतक्रतोरिव, इन्द्रस्येव, गोत्रविनाशपिशुना। गोत्राणां, वंशानां (पक्षे) पर्वतानां, विनाशपिशुनाः, विध्वंससूचकाः। प्रवादाः, जनश्रुतयः। यमस्येव, अतिवल्लभानि, अतिप्रियाणि, दण्डग्रहणानि, करग्रह‌णानि, (पक्षे ) शासनयष्टेः ग्रहणानि। वरुणस्येव, निस्त्रिंशेति—निस्त्रिंशग्रहाणां, खङ्गधारिणां सहस्रैः(पक्षे) निस्त्रिंशाः, निष्ठुराः, ग्राहाः, जलजीवभेदाः तेषां सहस्रैःरक्षिताः, पालिताः, रत्नालयाः, रत्नभाण्डागाराणि (पक्षे) समुद्राः-इत्यर्थः। धनद्स्येव, कुवेरस्येव। न निष्फलाः, न अर्थादिफलप्राप्तिविरहिताः (पक्षे) दानादिव्ययाभावात्, निष्प्रयोजनाः। सन्निधिलाभाः, समीपप्राप्तयः (पक्षे) सन्तः, उत्कृष्टाः, निधयः, पद्मशङ्खादयः, तेषां लाभाः। जिनस्येव, बुद्धदेवस्येव। अर्थवादेति—अर्थानां, धनानां, वादः, मयेदं (लब्धमिति) तेन शून्यानि, रहितानि दर्शनानि, अवलोकनानि, (पक्षे) अर्थवादः, श्रुतिवादः, तेन शून्यानि दर्शनानि, महायानादीनि (तदीयशास्त्राणीतिभावः) चन्द्रमसः-इव, चन्द्रस्येव। बहुलेति—बहुलाः, अनेके, दोषाः (रागादय इत्यर्थः) तैरुपहताः, मलिनीकृता (पक्षे) बहुलस्य, कृष्णपक्षस्य, दोषाभिः, रजनीभिः, उपहताः, नाशिताः, श्रियः, समृद्धयः (पक्षे) शोभाः। अत्यमरं, अतीवविनश्वरम्। त्यागस्य, दानस्य, प्राप्तो विषयः, (प्रचुरंस्थानमित्यर्थः) अर्थिनः, याचकाः न इति-अन्वयः। प्रज्ञायाः, प्रकृष्ट-

प्रज्ञायाः शास्त्राणि, कवित्वस्य वाचः, सत्त्वस्य साहसस्थानानि, उत्साहस्य व्यापाराः, कीर्तेर्दिङ्‌मुखानि, अनुरागस्य लोकहृदयानि, गुणगणस्य संख्या, कौशलस्य कलाः, न पर्याप्तो विषयः। अस्मिंश्च राजनि यतीनां योगपट्टकाः, पुस्तकर्मणां पार्थिवविग्रहाः, षट्पदानां दानग्रहणकलहाः, वृत्तानां पादच्छेदाः, अष्टापदानां चतुरङ्गकल्पना, पन्नगानां द्विजगुरुद्वेषाः, वाक्यविदामधिकरणविचाराः, इति समुपसृत्य चोपवीती स्वस्तिशब्दमकरोत्।

** अथोत्तरेण नातिदूरे राजधिष्ययस्य गजपरिचारको मधुरमपरवक्रमुच्चैरगायत्—**

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बुद्धेः, कवित्वस्य, काव्यरचयितृत्वस्य, सत्वस्य, बलस्य, उत्साहस्य, बलप्रकटनस्य, कीर्तेः, यशसः, अनुरागस्य, प्रीतेः, एवं सर्वैः सह प्राप्तोयं विषयः-इति अन्वयः। यतीनां, परमहंसानां, (चतुर्थाश्रमिणामितिभावः) योगपट्टकाः। पुस्तकर्मणां, लेप्यकर्मणां। पार्थिवविग्रहाः, मृण्मयशरीराणि नतु राजविरोधाः। षट्‌पदानां, मधुकराणां, दानं तस्य ग्रहणो कलहाः नतु दत्तधनस्य। वृत्तानां, छन्दसां, पादभेदाः, चरणविरामाः। न पापविशेषे। अष्टापदानां, चतुरङ्गफलकानां, चतुरङ्गकल्पनाः, चत्वारि, अङ्गानि तेषां कल्पनाः, पन्नगानां, सर्पाणां, द्विजगुरुद्वेषाः, द्विजानां, पक्षिणां, गुरुः, गरुड, तस्मिन् द्वेषाः न ब्राह्मणेषु, गुरुषु च। वाक्यविदां, वाक्यज्ञानां, अधिकरणविचाराः, अधिकारं, प्रजानां परस्परविरोधे धर्मनिर्णयस्थानं, तत्र विचारो न न प्रजाः (सततं कलहायन्तेस्मेतिभावः) अत्र परिसंख्याऽलंकारः। समुपसृत्य, उपगम्य, उपवीती, (उद्‌धृतद‌क्षिणकर इत्यर्थः) उत्तरेण, उत्तरस्यां दिशि, राजधिष्ण्यस्य, राजमण्डलस्य, गजपरिचारकः,

‘करिकलभ ! विमुञ्च लोलतां चर विनयव्रतमानताननः।
मृगपतिनखकोटिभङ्गुरो गुरुरुपरि क्षमते न तेऽङ्‌कुशः’॥५॥

राजा तु तच्छ्रुत्वा दृष्ट्वा च तं गिरिगुहागतसिंहवृंहितगम्भीरेण स्वरेण पूरयन्निव नभोभागमपृच्छत्—‘एष स बाणः’ इति। ‘यथाज्ञापयति देवः। सोऽयम्’ इति विज्ञापितो दौवारिकेण। ‘न तावदेनमकृतप्रसादः पश्यामि’ इति तिर्यङ्नीलधवलांशुकशारां तिरस्कारिणीमिव भ्रमयन्नपाङ्गनीयमानतरलतारकस्यायामिनीं चक्षुषः प्रभां परिवृत्य प्रेष्ठस्य पृष्ठतो निषण्णस्य मालवरा-

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हस्तिपालकः, अपरवक्रं, तदाख्यं वृत्तं। **करिकलभेति—**करिकलभ !, हस्तिशावक ! लोलतां, चंचलतां, विमुञ्च, त्यज। आनतं, नम्रम्, आननं, मुखं, यस्य तथाविधःसन्। विनयव्रतं, शिष्ठाचारं, चर, कुरु। मृगपतेः, सिंहस्य, नखकोटिः, नखाग्रः, तद्वत् भंगुरः कुटिलः, गुरुः, महान्, अंकुश, करिताडनदण्डः, ते उपरि न क्षमते, तव दोषं न सहते (अनेन अशिष्टानां दण्डयिता राजा इति व्यज्यते ) अत्र हि करिकलभमप्रस्तुत विषयमादाय अशिष्टान् जनान् दण्डयिता राजा इति प्रस्तुतविषयः प्रतीयते अतः अप्रस्तुप्रशंसाऽलंकारः।

**गिरीति—**गिरिगुहां, पर्वतकन्दरां गतः सिंहः, तस्य वृहितं, गर्जितं तद्वत् गम्भीरः तेन। नभोभागं, गगनम्। अकृतप्रसादः, नकृतः, प्रसादः, प्रसन्नता येन सः (अप्रसन्न इत्यर्थः) **नीलेति—**नीलाः, धवलाः, अंशव एव अंशुकाः (स्वार्येकन्) (पक्षे) तथा विधानि, वस्त्राणि, तैः शारा, शवला, ताम्। तिरस्करिणीमिव, जवनिकामिव। **अपांगेति—**आपाङ्गं, नेत्रपान्तं, नीयमाना, प्रचाल्यमाना, तरला, चपला, तारका, कनीनिका, यस्य तथाविधस्य, चतुषः, आयामिनीं, प्रसारिणीं, प्रभां, कान्तिं भ्रमयन्, परिवृत्य प्राङ्‌मुखीभूय। प्रेष्ठस्य,

जसूनोरकथयत्—‘महानयं भुजङ्गः’ इति। तूष्णींभावेन त्वगमितनरेन्द्रवचसि तस्मिन्मूके च राजलोके, मुहूर्तमिव तूष्णीं स्थित्वा बाणो व्यज्ञापयत्—‘देव, अविज्ञाततत्त्व इव, अश्रद्दधान इव, नेय इव, अविदितलोकवृत्तान्त इव, च कस्मादेवमाज्ञापयसि। स्वैरिणो विचित्राश्च लोकस्य स्वभावाः प्रवादाश्च। महद्भिभ्तु यथार्थदर्शिभिर्भवितव्यम्। नार्हसि मामन्यथा संभावयितुमविशिष्टमिव। ब्राह्मणोऽस्मि जातः सोमपायिनां वंशे वात्स्यायनानाम्। यथाकालमुपनयनादयः कृताः संस्काराः। सम्यक्पठितः साङ्गो वेदः। श्रुतानि यथाशक्ति शास्त्राणि। दारपरिग्रहादभ्यागारिकोऽस्मि। का मे भुजङ्गता। लोकद्वयाविरो-

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अतिप्रियस्य, पृष्ठतः, निषण्णास्य, उपविष्टस्य, मालवराजसूनोः, मालवराजपुत्रस्य, भुजङ्ग, विटः, धूर्त्तः लम्पटो वा (भुजङ्गो विटसर्पयोः “इत्यमरः) तूष्णींभावेन, मौनभावेन। अगमितेति—अगमितम्, अबुद्धम्, नरेन्द्रस्य वचः तस्मिन् अविज्ञाततत्व इव, अनवगमितयथार्थ इव, अश्रद्दधान इव, अविश्वसन्निव, अविदितलोकवृन्तान्तइव, अजानितजनचरित इव। स्वैरिणः—स्वेच्छाचारिणः, लोकस्य, स्वभावाः, मनोवृत्तयः, प्रवादाश्च, विचित्राः, विषमाः। यथार्थदर्शिभिः, तत्वज्ञैः, महद्भिः, गुरुभिः, भवितव्यम्। अविशिष्टं, साधारणं, सोमपायिनां, सोमरसपानकर्तृणाम्, वात्स्यायनानाम्, वत्समुनिसन्ततीनाम्। यथाकालं, समयानुसारं”, उपनयनादयः, उपनयनं, यज्ञोपवीत आदि, मुख्यं येषां ते संस्काराः। अंगेनसहितः सांगः, व्याकरणादीनि वेदस्य षडङ्गानि तैः सहितः वेदः। अभ्यगारिकः, गृहस्थी। का मे भुजङ्गता, भुजंगता, लम्पटता, विसता वा मे मम का। केचित्तु का मे, मदने भुजंगता, शृङ्गारित्वं, अपरे, मे मम, का (वाला) भुजं, बाहुं

धि भिस्तु चापलैः शैशवमशून्यमासीत्। अत्रानपलापोऽस्मि। अनेनैव च गृहीतविप्रतीसारमिव मे हृदयम्। इदानीं तु सुगत इव शान्तमनसि, मनाविव कर्तरि वर्णाश्रमव्यवस्थानां समवर्तिनीव च साक्षाद्दण्डभृतिदेवे शासति सप्ताम्बुराशिरशनामशेषद्वीपमालिनीं महीं क इवाविशङ्कः सर्वव्यसनबन्धोरविनयस्य मनसाप्यभिनयं कल्पयिष्यति। आसतां तावन्मानुष्यकोपेताः। त्वत्प्रभावादलयोऽपि भीता इव मधु पिबन्ति। रथाङ्गनामानोऽपि लज्जन्त इवाभ्युनुवृत्तव्यसनैः प्रियाणाम्। कपयोऽपि चकिता इव चपलायन्ते। शरारवोऽपि सानुक्रोशा इव श्वाप-

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गता प्राप्तेति (विक्रोक्तिः) लोकेति-लोकयोः, स्वर्गमर्त्त्ययोः, तस्य अविरोधिनी, अविरोधकराणि तैः। चापलैः, चपलकर्मभिः, शैशवं, बाल्यं, अशून्यं, अरहितम्। अनपलापः, निरपह्नवः। गृहीतेति—गृहीतः, विप्रतीसारः, अनुतापो येन तथा भूतमिव। सुगत इव बुद्धदेव इव। मनाविव, वैवश्वते इव। वर्णेति—वर्णानां, ब्राह्मणक्षत्रीयवैश्यशूद्राणाम्, आश्रमाणाम्, ब्रह्मचर्यगृहस्थवानप्रस्थसंन्यासाणाम्। व्यवस्थानां कर्तरि। समेति—समंवर्तते इति समवर्ती, यमः, तस्मिन्निव। दण्डभृति, दण्डधरे। सप्ताम्बुराशीनां, सप्त अम्बुराशयः, सागराः रशना, मेखला यस्याः ताम्। अशेषेति—अशेषाणां, समस्तानां, द्विपानां, मालिनीं, महीं, पृथ्वीं, शासयति, पालयति, अविशंकः, निर्भीकः। सर्वेति—सर्वेषां व्यसनानां, दुश्चरितानां, बन्धोः, मित्रस्य, अविनयस्य, अभिनयं, कल्पयिष्यन्ति, करिष्यति। मानुष्यकोपेताः, मनुष्यस्यभावः, मानुष्यकस्तेनोपेताः। अलयः, भ्रमराः, अभ्यनुवृत्तिव्यसनैः, अतिशया शक्तिभिः, प्रियाणां, चक्रवाकीणाम्। कपयः, वानराः, चकिता इव, शक्ङ्किना इव, चापलायन्ते, चपलाइवाचरन्ति।

दगणाः पिशितानि भुञ्जते। सर्वथा कालेन मां ज्ञास्यति स्वामी स्वयमेव। अनपाचीनचित्तवृत्तिग्राहिण्यो हि भवन्ति प्रज्ञावतां प्रकृतयः’ इत्यभिधाय तूष्णीमभूत्।

** भूपतिरपि ‘एवमस्मामिः श्रुतम्’ इत्यभिधाय तूष्णीमेवाभवत्। संभाषणासनदानादिना तु प्रसादेन नैनमन्वग्रहीत्। केवलममृतवृष्टिभिः स्नपयन्निव स्नेहगर्भेण दृष्टिपातमात्रेणान्तर्गतां प्रीतिमकथयत्। अस्ताभिलाषिणि च लम्बमाने सवितरि विसर्जितराजलोकोऽभ्यन्तरं प्राविशत्। बाणोऽपि निर्गत्य धौतारकूटकोमलातपत्विषि निर्वाति वासरे, अस्ताचलकूटकिरीटे निचुलमञ्जरीभांसि तेजांसि मुञ्चति वियन्मुचि मरीचिमा-**

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शराखः, हिंस्राः, श्वापद्गणाः, व्याघ्रसमूहाः, सदयाः, पिशितानि, मांसानि। सानुक्रोशाः। अनपाचनेति—अनपाचिनां, अविपरीताम्, चित्तवृत्ति, गृह्णन्ति इति तथाभूता। सम्भाषणेति—संभाषणां, संलापः, आसनदानञ्च आदिर्यस्य तथोक्तेन, प्रसादेन, अनुग्रहेण, अन्वग्रहीत्, अनुचकम्पे, स्नपयन्निव, अभिषिञ्चन्निव। अस्ताभिलाषिणि, अस्ताचल गमनोद्यते, लम्बमाने, पश्चिमां दिशमवतरति, विसर्जितराजलोकः, स्वस्थानगमनाय, त्यक्तनृपमण्डलः। बाणोऽपि निवासस्थानमगादिति दूरेणान्वयः। धौतेति—धौतं, निर्मलं, यत् आरकूटं, पित्तलं तद्वत् कोमलाः, आतपस्य, त्विषः, प्रभाः, यस्य तादृशे। निर्वाति—अवसानं प्राप्ते दिवसे, दिने। अस्ताचलेति—अस्ताचलस्य, अस्तगिरेः, कूटं, शृङ्गं (कूटोऽस्त्री शिखरं शृङ्गं “इत्यमरः) तस्यकिरीटं, मुकुटंतस्मिन्। निचुलेति—निचुलस्य, स्थलवेतस्य, इज्जलवृक्षस्य (निचलोऽम्बुजइज्जलः “इत्यमरः) मञ्जरी, नूतनवल्लरी तस्याः भास इव भासः, कान्त्यः येषां तथाविधानि तेजांसि, किरणान्, मुञ्चति, विक्र-

लिनि रोमन्थमन्थरकुरङ्गकुटम्बाध्यास्यमानम्रदिष्ठगौष्ठीन पृष्ठास्वरण्यस्थलीषु, शोकाकुलकोककामिनीकूजितकरुणासु, तरंगिणीतटीषु, वासविटपोपविष्टवाचाटचटकचक्रवालेष्वालवालावर्जितसेकजलकुटेषु निष्कुटेषु, दिवसविहृतिप्रत्यागतं प्रस्नुतस्तनं स्तनंधये धयति धेनुवर्गमुद्गतक्षीरं क्षुधिततर्णकव्राते, क्रमणे चास्तधराधरधातुधुनीपूरप्लावित इव लोहितायमानम-

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रति। वियन्मुञ्जति, गगनपरित्यागिनि। मरीचिमालिनि सूर्ये। रोमन्थेति रोमन्थेन, उद्गिर्यचर्वणेन मन्थराः, अलसाः, कुरङ्गाणां, हरिणानां, कुटुम्बाः, वर्गाः, तैः अध्यास्यमानम्, अधिष्ठीयमानम्, अतएव म्रदिष्ठम्, अतिमृदुकोमलं वा, गौष्ठीनं, कृतगोष्ठं, तस्य पृष्ठं, उपरिभागम्, यासां तासु, अरण्यस्थलीषु, वनभूमिषु। शोकेति—शोकाकुलानां, कोककामिनीनां, चक्रवाकीणां कूजितैः, करुणाः कारुण्यजनन्यः, तासु तरङ्गिणीतटीषु, नदीतीरेषु। वासेति—वास विटपेषु, आश्रयवृक्षशाखासु, उपविष्टं वाचाटानां, रवतांचटकानां, पक्षिणाम्, चक्रवालं, मण्डलं येषु तादृशेषु। आलेति—आलवालानि, तरुतलेषु, मण्डलाकारेण रचिता जलाधारविशेषाः तेषु, आवर्जितानि, रक्षितानि, सेकजलकुटानि, सेचनार्थं जलघटाः येषु तथा भूतेषु, निष्कुटेषु गृहारामेषु। दिवसेति—दिवसे विहृतिः, विहारः तस्याप्रत्यागतं, प्रतिनिवृत्तं, प्रस्नुतस्तनं, प्रस्नुताः, क्षरिताः, स्तनाः यस्य तथोक्तम्। धेनुवर्गं, गोयूथं स्तनंधये, स्तनपायिनि। उद्‌गतेति—उद्गतेन, उच्छलितेन, क्षीरेण, दुग्धेन, चुभितं, व्यस्तं, तर्णकानां, वत्सानां (सद्योजातस्तुतर्णक.” इति ‘अमरः’) ब्रातं, समूहः, तस्मिन्। धयति, पिवति। अस्तेति—अस्तधराधरः, अस्ताचलः, तत्र ये धातवः, गैरिक मनः शिलादयः तेषु या धुन्यः,

हसिमज्जति संध्यासिन्धुपानपात्रे पातंगे मण्डले, कमण्डलुजलशुचिशयचरणेषु चैत्यप्रणतिपरेषु, पाराशरिषु, यज्ञपात्रपवित्र पाणौप्रकीर्णबर्हिष्युत्तेजसि जातवेदसि, हवींषि वषट्कुर्वति यायजूकजने, निद्राविद्राणद्रोणकुलकलिलकुलायेषु, कापेयविकलकपिकुलेष्वारामतरुषु, निर्जिगमिषति जग्त्तरुकोटरकुटीकुटुम्बिनि

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तत्संसृष्टा निर्झरिण्यः तासां पूरैः, प्रवाहैः प्लावितेसिक्ते इव। लोहितेति—लोहितायमानानि, रक्तायमानानि, महांसि, तेजांसे यस्य तथोक्ते। मज्जति, तिरोभवति। सन्ध्येति—सन्ध्या एव सिन्धुः, नदी तस्याः पानपात्रं, जलपात्रं, तस्मिन्। पातंगे, पतंगः सूर्यः तस्य इदं तस्मिन्। कमण्डल्विति—कमण्डलुः, यनीनां जलपात्रं, तस्य जलेन शुचयः, पवित्राः, शयाः, कराः, चरणाञ्च येषां तेषु। चैत्येति—चैत्यं, आयतनविशेषः, तस्य प्रणतिः, अभिवन्दनं तत्र पराः तेषु। पाराशरिषु, भिक्षुषु पराशरमनानुवर्त्तिषु द्विजेषु वा। यज्ञेति—यज्ञपात्रैः, स्रुक् स्रुवादिभिः, पवित्राः, पाणयो यस्य तथोक्ते, प्रकीर्णावर्हिषि, प्रकीर्णाः, विकीर्णाः वर्हिषः, कुशाः येन तस्मिन्। ओजसि, ज्वलनीत्यर्थः, जानवेद‌सि अग्नौ हवींषि हवनीय द्रव्याणि, वषट् कुर्वति। यायजूकजने अत्यर्थं यजनशीललोके। निद्रेति—निद्रया, स्वप्नेन, विद्राणानि, आकुलानि, द्रोणकुलानि, काकवृन्दानि तैः कलिलाः, व्याप्ताः, कुलायाः, नीडाः, येषां तेषु। कापेयेति—कपीनामिदं कापेयं तेन विकलानि, कपिकुलानि, वानरवृन्दानि येषु तादृशेषु। आरामतरुषु, उपवनवृक्षेषु निर्जिगमिषति, गन्तुमिच्छति। जरदिति—जरन्तः, जीर्णाः, ये तरवः, वृक्षाः तेषां कोटराणि एव गह्वराणि तान्येव कुट्यः क्षुद्रगृहाणि, तत्र कुटुम्बी, परिवारवान् तस्मिन्। कौशिककुले, उलूकवर्गे। मुनि-इति—मुनीनां, करसहस्रैः, प्रकीर्णाः, प्रक्षिप्ताः,

कौशिककुले, मुनिकरसहस्रप्रकीर्णसंध्यावन्दनोद‌बिन्दुनिकरे इव दन्तुरयति तारापथस्थलीं स्थवीयसि तारकानिकुरम्बे, अम्बराश्रयिणि शर्वरीशवरीशिखण्डे, खण्डपरशुकण्ठकाले कवलयति बाले ज्योतिःशेषं सांध्यमन्धकारावतारे, तिमिरतर्जननिर्गतासु, दहनप्रविष्टदिनकरकरशाखास्विव स्फुरन्तीषु दीपलेखासु, अररसंपुटसंक्रीडनकथितावृत्तिष्विव गोपुरेषु, शयनोपजोषजुषि जरतीकथितकथे शिशविषमाणे शिशुजने, जरन्महिषमसीमली-

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सन्ध्यावंदनस्य ये उदविन्दवः, जलविन्दवः, तेषां निकरेइव दन्तुरयति, दन्तुरां कुर्वति। तारापथस्थलीं, नारापथं, अन्तरीक्षमेव स्थली तां, स्थवीयसि, स्थूलतरे। तारक्रानिकुरम्बे, तारागणो। अम्बराश्रयिणि, आकाशसंचारिणि। शर्वरीति—शर्वरी, रात्रिः एवशवरी, शवर—नारी, तस्याः शिखण्डः चूडा तस्मिन्। खण्डेति—खण्डपरशुः, शिवः, तस्य कण्ठ इव कालः, श्यामः तस्मिन् कवलयति, ग्रसति। वाले, अभिनवे, ज्योतिः शेषं, कान्तिमात्रावशिष्टम्, सान्ध्यं, सन्ध्याकालीनम्, अन्धकारावतारे, तिमिरोद्गमे। तिमिरेति—निमिराणां तमसां तर्जनाय, अपसारणाय, निर्गताः, प्रसृताः तासु। दहनेति—दहनम्, वह्निं, प्रविष्टाः, गताः, दिनकरस्य, सूर्यस्य, करशाखाः, कराः, किरणाः एव शाखा करांगुल्यः तासु इव। स्फुरन्तीषु, ज्वलन्तीषु, दीपलेखासु, दीपराजिषु। अररेति—अरराः, कवाटाः, (कवाटमररं तुल्ये इत्यमरः) तेषां सम्पुटस्य, युगलस्य, संक्रीडनेन, शब्देन, कथिता सूचिता आवृत्तिः, अवरोधनं येषां तथा भूतेषु गोपुरेषु, पुरद्वारेषु (पुरद्वारं तु गोपुरम् इत्यमरः) शयनेति—शयने यः, उपजोषः, मौनभावः, तज्जुषि, तच्छालिनी। जरतीति—जरतीभि, वृद्धाभिः, कथिता, उक्ता, कथा, यस्य यस्मै वा तादृशे शिशयिषमणि, शयितु-

मसतमसि जनितपुण्यजनप्रजागरे विजृम्भमाणे भीषणतमे तमीमुखे, मुखरितविततज्यधनुषि वर्षति शरनिकरमनवरतमशेषसंसारशेमुषीमुषि मकरध्वजे, रताकल्पारम्भशोभिनि शम्भलीभाषितभाजि भजति भूषां भुजिष्याजने, सैरिन्ध्रीबध्यमानरशनाजालजल्पाकजघनासु जनीषु, वशिकविशिखाविहारिणीष्वनन्यजानु-

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मिच्छतीत्यर्थः। जरदिति—जरन्तः, महिषा एव मस्यः, लेखनसाधनानि द्रवद्रव्याणि तद्वत् मलीमसानि, मलिनानि, तमांसि, तिमिराणि यस्मिन् तथोक्ते। जनितेति—जनिताः, प्रसूताः, पुण्यजनानां, यक्षाणां (पुण्यजनो यक्षे राक्षसे सज्जनेऽपिच इत्यमर) प्रजागरः, प्रकर्षेण जागरणं, यस्मिन् तथोक्ते। विजृम्भमाणे, आविर्भूते, तमीमुखे, रजनीमुखे (रजनीयामिनीतमी “इत्यमरः) मुखरितेति—मुखरिता, शब्दिता, वितता, विस्तृता, ज्यायस्य तादृशं धनुः यस्य तथा भूते। वर्षति, मुञ्चति। शरनिकरं, शरवृन्दम्। अशेषेति—अशेषाणां, समस्तानां, संसाराणाम, शेमुषी, बुद्धिः (धीः प्रज्ञा शेमुषीमतिः इत्यमरः) तां मुष्णाति, अपहरति तस्मिन् मकरध्वजे, कामे। रतेति—रतस्य, निधुवनस्य, आकल्पाः, वेशरचनाः, तेषां,आरम्भेण, समुद्योगेन, शोभते इति तथोक्ते। शम्भलीति—शम्भल्याः, कुहिन्याः (कुहिनी शम्भली समे इत्यमरः) भाषितं, वचनं, भजते तथा भूते। भुजिष्याजने, दासीजने। सैरिन्ध्रीति—सैरिन्ध्रीभिः, प्रसाधनोपचाराभिः, नारीभिः। बध्यमानानां, परिधीयमानानां, रशनानां, कांञ्चीनां जालैः, संधैः, जल्पाकं, मुखरं जघनं, कटिपुरोभागो यासां तथा विधासु, जनीषु, वधुषु, (जनीसीमन्तनीवध्वोः—इति मेदिनी) वशिकेति—वशिकाजनशून्या (शन्यन्तु वशिकं—इत्यमरः) या विशिखा, रथ्या, तासु विहरन्तीति तथोक्तासु।

प्लवासु प्रचलितास्वभिसारिकासु, विरलीभवति बरटानां वेशन्तशायिनीनां मञ्जुनि मञ्जीरशिञ्जितजडे जल्पिते, निद्राविद्राणद्राघीयसि द्रावयतीव च विरहिहृदयानि सारसरसिते, भावि वासरबीजाङ्‌कुरनिकर इव च विकीर्यमाणे जगति प्रदीपप्रकरे निवासस्थानमगात्। अकरोच्च चेतसि‘अतिदक्षिणः खलु देवो हर्षः, यदेवमनेकबाललरितचापलोचितकौलीनकोपितोऽपि मनसा स्निह्यत्येव मयि। यद्यहमक्षिगतः स्याम्, न मे दर्शनेन प्रसादं कुर्यात्। इच्छति तु मां गुणवन्तम्। उपदिशन्ति हि विनयमनु-

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अनन्यजेति—अनन्यजः, मनसिजः, अनुप्लवः, अनुचरः यासां तथा विधासु। प्रचलितासु, प्रस्थितामु, अभिसारिकासु, (कान्तार्थिनीतु या पति संकेतं साऽभिसारिका) तासु नारीषु, (विरलीभवतीत्यर्थः ) वरटानां, हंसीनां (हंसस्य योषित वरटा इत्यमरः) वेशन्तशायिनां, पल्वल शायिनाम्, (वेशन्तः पल्वलञ्चाल्पसरः—इत्यमरः) मञ्जुनि, मनोज्ञे। मञ्जीरेति मञ्जीरस्य, नूपुरस्य, शिञ्जितं, रणितं तद्वत् जडं, गम्भीरं मन्थरं वा तस्मिन् जल्पिते, रवे। निद्रेति—निद्रया, स्वपनेन, विद्राणम्, अलसं, द्राघीयः, अतिदीर्घं च तस्मिन्। द्रावयति, द्रवीकुर्वति इव। सारसरसिते—सारसानां, पक्षिविशेषाणाम्, रसितं, रुतं तस्मिन्। भावीति—भाविनः, भविष्यतः, वासरस्य, दिवसस्य बीजांकुराणां निकर इव सञ्चय इव। विकीर्यमाणे, प्रसार्यमाणे। अतिदक्षिणः, अत्युदारः। अनेकेति—अनेकेषां, बहूनां, बालचरितानां, चापलं, तस्य उचितं यत् कौलीनम्, अपवादः, (स्यात्कौलीनं लोकवादे—इत्यमरः) तेन कोपितोऽपि अक्षिगतः, द्वेष्यः (द्वेष्येत्वाक्षिगतः–इत्यमरः) उपदिशन्ति, शिक्षयन्ति, विनयं, शिष्टाचारं। अनुरूपेति—अनुरूपा, योग्या, प्रतिपत्तिः, सम्भावना

रूपप्रतिपत्त्युपपादनेन वाचं विनापि भर्तव्यानां स्वामिनः। अपि च धिङ्मां स्वदोषान्धमानसमनादरपीडितमेवमतिगुणवति राजन्यथा चान्यथा च चिन्तयन्तम्। सर्वथा करोमि तथा, यथा यथावस्थितं जानाति मामयं कालेन’ इत्येवमवधार्य चापरेद्युनिष्क्रम्य कटकात्सुहृदां बान्धवानां च भवनेषु तावदतिष्ठत्, यावदस्य स्वयमेव गृहीतस्वभावः पृथिवीपतिः प्रसादवानभूत्। अविशच्च पुनरपि नरपतिभवनम्। स्वल्पैरेव चाहोभिः परमप्रीतेन प्रसादजन्मनो मानस्य प्रेम्णो विस्नम्भस्य, द्रविणस्य, नर्मणः प्रभावस्य च परां कोटिमानीयत नरेन्द्रेणेति।

इति श्रीवाणभट्टकृते हर्षचरिते राजदर्शनं नाम द्वितीय उच्छ्वासः।

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तस्या उपपादनं, योजनं तेन वाचं विनाऽपि भत्तव्यानां, प्रतिपाल्यानां, स्वामिनः, प्रभवः। स्वदोषेति—स्वदोषेणा, अन्धं मानसं यस्य तथोक्तम्। अनादरपीडितम्। अनादरेण, अवज्ञया, पीडितं, अभिभूतं राजनि, नृपे। निर्गत्य, निष्क्रम्य, कटकात्, शिविरात्। गृहीतस्वभावः, विदितचरितः, अहोभिः, दिवसैः, प्रसाद‌जन्मनः, प्रसादजनस्य, विश्रम्भस्य, विश्वासस्य, द्रविणस्य, धनस्य, प्रभावस्य, प्रतापस्य, परां कोटिं, परमोत्कर्षम्।

इति श्रीबाणभट्टकृत हर्षचरित व्याख्यायां
“आशुतोषिण्यां” द्वितीय उच्छ्वासः।

<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-17272676631.png”/>

<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-17272681851.png”/> श्रीहर्षचरितम्<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-17272681851.png”/>
तृतीय उच्छ्वासः

निजवर्षाहितस्नेहा बहुभक्तजनान्विताः।
सुकाला इव जायन्ते प्रजापुण्येन भूभुजः॥ १॥

साधूनामुपकर्तुं लक्ष्मीं द्रष्टुंविहायसा गन्तुम्‌।
न कुतूहलि कस्य मनश्चरितं च महात्मनां श्रोतुम्‌॥२॥

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** निजेति**—निजम्‌, स्वकीयम्‌, वर्षम् ,जम्बुद्वीपदेशः, तस्मिन् आहितः, स्थापितः, स्नेह, प्रेम, यैः ते। जम्बुद्वीपः, सर्ववस्तुसिद्धिद, (अतःनृपास्तत्र स्नेहं प्रकुर्वन्ति–इति भावः) (पक्षे) वर्षम्, वृष्टिः तेन आहितः, उत्पादितः, स्नेहः, आर्द्रता, यैस्तथा विधाः (सुकालाःहि वर्षया स्नेहं जनयन्ति ) वह्वीति—बहवः ये भक्तजना आमात्यप्रभृतयः, तैः, अन्विताः, युक्ताः, (पक्षे ) बहूनि, अनन्तानि, भक्तानि शालीगोधूमादीनि अन्नानि तेषाम्, जननेन, उत्पादनेन, अन्विता इति भूभुजः, महीपालाः, सुकाला इव सुसमया इव प्रजेति—प्रजाः, प्रकृतयः, तासां पुण्येन शुभकार्यकरणेन (प्रजायाः पुण्येनैव सौराज्यं सुकालश्च भवतीतिभावः) जायन्ते, प्रादुर्भवन्ति “जनिप्रादुर्भावे धातोः, लटि, झि, “ज्ञाजनोर्जा” इत्यनेन जादेशः।” अत्र हि श्लिष्टार्थत्वात् श्रेषः, सुकालैः, सह नृपां साधर्भ्यादुपमालं कारश्च॥१॥

साधूनामिति—कस्य, मनुष्यस्य इति शेषः। मनः, चित्तम्, साधवः, सज्जनास्तेषामुपकर्तुमनुकूलम् विधातुम्, लक्ष्मीं, श्रियम्, द्रष्टुम्, साक्षात् कर्तुम्, (लब्धुमिति भावः) विहायसा गगनमार्गेण गन्तुं चलितुम् महात्मनां महांश्चासौ आत्मा येषाम्, तेषाम्। महाशयानां चरितं, चरित्रम्, श्रोतुम्। कुतूहलि कुतूहलं कौतुकं तदस्ति यस्यतत् न उत्कण्ठितम् (अर्थात् सर्वेषां जनानां मनः महाशयानां-

** अथ कदाचिद्विरलितबलाहके, चातकातङ्ककारिणि, क्वणत्कादम्बे, दर्दुरद्विषि, मयूरमदमुषि, हंसपथिकसार्थसर्वातिथौ, धौतासिनिभनभसि, भास्वरभास्वति, शुचिशशिनि, तरुणतारागणे, गलत्सुनासीरशरासने, सीदत्सौदामनीदाग्नि, दामोदरनिद्राद्रुहि, द्रुतवैदूर्यवर्णार्णसि, घूर्णमानमिहिकालघुमेघमोघमघवति,**

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चरितम, श्रोतुम् भवतीति शेषः) अत्र एकस्य मनसः, उपकर्तुम् गन्तुं श्रोतुम् आदिभिः, क्रियाभिः, सह सम्बंधत्वात् कारकदीपकालंकारः॥२॥ **अथेतिक—**दाचित् बाणो वन्धून् द्रष्टुम् पुनरपि ब्राह्मणाधिवासमगादिति दूरेणान्वयः। किदृशेशरत्समयारम्भे विरलिताः, अनिविड़ाः, बलाहकाः, जलदाः, यस्मिन्, तथा विधे। **चातकेति—**चातकाः, पक्षिविशेषाः तेषाम् आतङ्कः तापः तं करोति, तस्मिन्। **क्वणदिति—**क्वणन्तः, नदन्तः, कादम्बाः हंसविशेषाः, यस्मिन् तस्मिन्। **दुर्दुरेति—**दुर्दुराः, मण्डूकाः, तान् द्वेष्टीति तस्मिन्। **मयूरेति—**मयूराः, वर्हिणस्तेषाम् मदम्, गर्वं, मुष्णाति अपनयति तस्मिन्। **हंसेति—**हंसाः पक्षिविशेषा त एव पथिकाः, पान्थाः, तेषां सार्थाः, समूहाः, त एव सर्वे अतिथयः यस्य तथा विधे। **धौतेति—**धौतः, निर्मलीकृतः, यः असिः, खङ्गः तन्निभं तत् सदृशं, नभः, आकाशं, यस्मिन् तथोक्ते। **भास्वरेति—**भास्वरः, प्रोज्वलः, भास्वान्, सूर्यः यस्मिन्। **शुचीति—**शुचिः, विमलः शशी, चन्द्रः, यस्मिन्। **तरुणेति—**तरुणः, वृद्धिंगतः तारागणः, उडुसमूहः, यस्मिन्।**गलदिति—**गलत्, क्षयंगतं, सुनासीरस्य, धनुः, चापं यस्मिन्। **सीददिति—**सीदन्ती, नश्यन्ती सौदामनी, विद्युदेव, दाम स्रक् यस्मिन्। **दामोदरेति—**दामोदरः, विष्णुः, तस्य निद्रा, शयनं, तां द्रुह्यति हरति यः तस्मिन्। **द्रुतेति—**द्रुतं, गलितं यद् वैदूर्यं, रत्नं

निमीलन्नीपे, निष्कुसुमकुटजे, निर्मुकुलकन्दले, कोमलकमले, मधुस्यन्दीन्दीवरे, कह्लाराह्लादिनि, शेफालिकाशीतलीकृतनिशे, यूथिकामोदिनि, मोदमानकुमुदावदातदशदिशि, सप्तच्छदधूलिधूसरितसमीरे, स्तबकितबन्धुरबन्धूकबध्यमानाकाण्डसंध्ये,

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तस्य वर्ण इव वर्णो यस्य तथाविधः, अर्णः, जलं यस्मिन् तथाविधे। धूर्णमानेति—घूर्णमानाः, सर्वतो वर्षिताः, याः मिहिकाः, अवश्यायाः, तद्वल्लघवः, जलाभावात्, अल्पीभूताः, ये मेघाः, पयोमुचः, तैः, मोधः, निष्फलः, मघवा, इन्द्रः, यस्मिन्। निमीलदिति—निमीलन्तः, विकसनाभावात्, संकुचन्तः, ये, नीपाः, बालवकुलाः, यस्मिन्। निष्कुसुमेति—निष्कुसुमाः, पुष्परहिताः, कुटजाः, वृक्षविशेषाः, यस्मिन्। **निर्मुकुलेति—**निर्मुकुलाः, कुसुमरहिताः, कन्दलाः, तरुविशेषाः, यस्मिन्। **कोमलेति—**कोमलानि, मृदूनि, कमलानि, पद्मानि, यस्मिन्। **मध्विति—**मधुस्यन्दीति, मकरन्दवर्षीणि, इन्दीवराणि, नीलोत्पलानि, यस्मिन्। कल्हाराल्हादिनि, सौगन्धिकापराख्यश्वेतोत्पलविकासिनी **शेफालिकेति—**शेफालिकाभिः, तदाख्य पुष्पविशेषैः, शीतलीकृता, शीरारीकृता, निशारात्रि, यस्मिन्। यूथिकामोदिनी, यूथिकापुष्पोद्‌भेदेन, आनन्दकारिणी। **मोदमानेति—**मोद‌मानैः, विकसद्भिः, कुमुदैः, कैरवैः, अवदाताः, सिताः, दशदिशः, यस्मिन्। **सप्तच्छेदति—**सप्तच्छदाः, तरुविशेषाः, तेषां धूलयः परागाः, तैः धूसरिताः, पाण्डुराः, समीराः, अनिलाः, यस्मिन्। **स्तबकेति—**स्तबकिताः, पुञ्जभूताः, ये बन्धुराः, मनोहराः, बन्धूकाः, तरुविशेषाः, तैः, वध्यमानाः, क्रियमाणाः, अकाण्डे, अनवसरे, सन्ध्याः, निशामुखाः, यस्मिन्। **नीराजितेति—**नीराजिताः, स्मरयात्रायै सम्पादितनीराजननाम्न्नीशान्तिः, यैः, तथाविधाः, वाजिनः,

नीराजितवाजिनि, उदामदन्तिनि, दर्पक्षीबौक्षके, क्षीयमाणपङ्कचक्रवाले, वालपुलिंनपल्लवितसिन्धुरोधसि, परिणामाश्यानश्या माके, जनितप्रियङ्गुमञ्जरीरजसि, कठोरित्रपुषत्वचि, कुसुमस्मेर शरे, शरत्समयारम्भे राज्ञः समीपाद्वाणो बन्धून्द्रष्टुं पुनरपि तं ब्राह्मणाधिवासमगात्।

** समुपलब्धभूपालसंमानातिशयपरितुष्टास्तस्य ज्ञातयः श्लाघमाना निर्ययुः। क्रमेण च कांश्चिद‌भिवादयमानः, कैश्चिदभिवा-**

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तुरगाः, यस्मिन्। **उद्दामेति—**उत्, उत्कटं, दाम, मदं येषां, ते (क्षीवा इत्यर्थः) दन्तिनः, करिणः, यस्मिन्। दर्पेति— दर्पः, अहंकारः, तेन, क्षीवाणि, उन्मत्तानि, औक्षकाणि, उक्षाः, वलिवर्दाः, तेषां समूहाः औक्षकाणि, (वृषभवृन्दानीतिभावः) यस्मिन्। क्षीयमाणेति—पङ्काः, कर्द्दमाः, तेषां, चक्रवालं, समूहः, तत्, क्षीयमाणं, नश्यमानं, यस्मिन्। **वालेति—**वालपुलिनं, नूननसैकतं, तत्र पल्लवितानि, प्रवाहरूपेण प्रसृतानि, यानि, सिन्धूनां, सरितां, रोधांसि, तटानि, यस्मिन्। **जनितेति—**जनितानि, उत्पन्नानि, प्रियंगूनां, तृणभेदानां, मंजर्य, तासां, रजांसि, परागाः, यस्मिन्। कठोरेति— कठोरिताः, कठिनाः, त्रपूषां, कर्कटीनां, त्वचः, वल्कलानि यस्मिन्। **कुसुमेति—**कुसुमानि, पुष्पाणि, तैः, स्मेरा, विकासंगताः, शराः, यस्मिन्। शरत्समयारम्भे, शरत्काले, इति पूर्वेणान्वयः। **समुपलब्धेति—**सम्, सम्यक्, उपलब्धः, प्राप्तः, भूपालात्, महीपालात्, सम्मानातिशयः, आदविशेषः, तेन परितुष्टाः, प्रसन्नाः। तस्य श्रीहर्षराज्ञः, ज्ञातयः, बान्धवाः, श्लाघमानाः, श्लाघनीयाः, निर्ययुः, निर्जग्मुः। क्रमेण च कांचित् अभिवाद्यमानः प्रणामं कुर्वन्। **कैश्चिदिति—**कैश्चित्, पूजनीयैः, पिताप्रपितामह प्रभृतिभिः, शिरसि,

द्यमानः, कैश्चिच्छिरसि चुम्ब्यमानः, कांश्चिन्मूर्धिन समाजिघ्रन्, कैश्चिदालिङ्ग्यमानः, कांश्चिदालिङ्गन्, अन्यैराशिषानुगृह्यमाणः, पराननुगृह्णन्, बहुबन्धुमध्यवर्ती परं मुमुदे। संभ्रान्तपरिजनोपनीतं चासनमासीनेषु भेजे। भजमानश्चार्चादिसत्कारं नितरां ननन्द। प्रीयमाणेन च मनसा सर्वांस्तान्पर्यपृच्छत्‘कच्चिदेतावतो दिवसान्सुखिनो यूयम्। अप्रत्यूहा वा सम्यक्करणपरितोषितद्विजचक्रा क्रातवी क्रियते क्रिया। यथावद‌विकलमन्त्र-

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मस्तके, चुम्बमानः, कृतचुम्बनः, कांश्चित्, बान्धवपुत्रादीन्, समाजिघ्रन्, शिरसि चुम्बयन्, कैश्चित् पूजनीयैः, आलिङ्गन्यमानः, स्पर्शनांगतः, कांचित्, लघुबान्धवान्, आलिङ्गयन्, स्पर्शयन्, अन्यैः, आशिषा, आशीर्वादेन, अनुगृह्यमाणः, अनुगृहीतः। परान्, लघून्, अनुगृहीतान्, कुर्वन्। वह्वीति—वहवः, अनेकाः, बान्धवः, ज्ञातयः, तेषां मध्यवर्ती, मध्येस्थितः, परमत्यन्तं, मुमुदे, पिप्रिये। सम्भ्रान्तेति—सम्भ्रान्तः, त्वरायुक्तः, परिजनः, परिवारः, तेन, उपनीतं, समीपे आनितं, यत्, आसनम्, विष्टरं, समासीनेषु, आसनान्युपस्थितेषु, गुरुषु, पुज्येषु, भेजे, सिषेवे, उपविष्टवान्। भजमानेति—अर्च्चादयः, पूजाप्रभृतयः, तैः, यत् सत्कारं आदरम् तद् भजमानः, सेवमानः, नितरां अत्यर्थं, ननन्द। प्रीयमाणेन, प्रसन्नभूतेन, मनसा, तान्, ज्ञातिवर्गान्, सर्वान्, समस्तान्, पर्यप्रच्छत्। कच्चिदिति—इष्टप्रश्ने, एतावतोऽद्यावधीन्, दिवसान्, दिनान्, यूयं, सुखिनः, सुखोपेताः। अप्रत्यूहाः, निर्विघ्नाः। सम्यगिति—सम्यक्करणेन, शास्त्रविहितेन, परितोषितानि, परितुष्टानि द्विजचक्राणि, ब्राह्मणसमूहाः, यस्यां, सा, क्रातवी, यागसम्बन्धिनी क्रिया, क्रियते। यथावदिति—अविकलानि, वैकल्यरहितानि, मन्त्राणि, भजन्ते, येषु,

भाञ्जि भुञ्जते हवींषि हुतभुजः। यथाकालमधीयते वा बटवः। प्रतिदिनमविच्छिन्नो वा वेदाभ्यासः। कच्चित्स एव चिरंतनोयज्ञविद्याकर्मण्यभियोगः, तान्येव व्याकरणे परस्परस्पर्धानुबन्धावन्ध्यदिवसदर्शितानि व्याख्यानमण्डलानि, सैव वा पुरातनी परित्यक्तान्यकर्तव्या प्रमाणगोष्ठी, स एव वा मन्दीकृतेतरशास्त्ररसो मीमांसायामतिरसः। कच्चित्ते एव वाभिनवसुभाषितसुधावर्षिणः काव्यालापाः’ इति।

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तादृशानि, हवींषि, हव्यानि, हुतभुजः, अग्नयः, भुञ्जते। यथेति—वटवः, विद्यार्थिनः, यथाकालं, निश्चितसमयं, अधीयते, अध्ययनं कुर्वते। प्रतिदिनं, नित्यं, वेदाभ्यासः, श्रुतेरध्ययनम्, अविच्छिन्नाः, विच्छित्तिरहितः। (भवतीतिशेषः) कश्चित्, स एव, चिरन्तनः, पूर्वकालिनः, अभियोगः, यन्नविशेषः। तानि एव व्याकरणे, शब्दशास्त्रे। परस्परेति—परस्परं, मिथः, तस्य, स्पर्धा, जिगीषा, तस्याः, अनुबन्धेन, निबन्धेन, अबन्ध्याः, फलदातारः, (सर्वदा शास्त्रपठनेन ज्ञानवर्धिनः-इति भावः) दिवसाः, दिनाः, तेषु, दर्शितानि, प्रकटिकृतानि, व्याख्यानानां, मण्डलानि, समूहाः, स एव, पूर्वसिद्ध एव, पुरातनी, पराचीनानि, परित्यक्तानि, विमुंचितानि, (उपेक्षितानीत्यर्थः) अकर्तव्यानि, यस्यां तथाविधा, प्रमाणगोष्ठी, प्रमाणसभा, (इतिभावः) स एव, पूर्वसिद्धएव। मन्दीकृतेति—मन्दीकृतः, इतरेषु, शास्त्रेषु, रसो, रागो येन, मिमांसायाम्, अतिरसः, अनन्तरागः। कच्चिदिति—प्रश्ने त एव वा। अभिनवेति—अभिनवानि, नूतनानि, यानि सुभाषितानि, तेषां सुधा, अमृतं तद्, वर्षिणः, निष्यन्दिनः, काव्यकलापाः, सन्ति न वा (इति शेषः)।

अथेति—अथ उक्तप्रश्न करणानन्तरम्, ते ज्ञातयः तं बाणम्,

** अथ ते तमूचुः—‘तात, संतोषजुषां सततसंनिहितविद्याविनोदानां वैतानवह्निमात्रसहायानां कियन्मात्रं नः कृत्यं सुखितया सकलभुवनभुजि भुजङ्गराजदेहदीर्घे रक्षति क्षितिं क्षितिभुजो भुजे। सर्वथा सुखिन एव वयम्, विशेषेण तु त्वयि विमुक्तकौ सीद्ये परमेश्वरपार्श्ववर्तिनि वेत्रासनमधितिष्ठति। सर्वे च यथाशक्ति यथाविभवं यथाकालं च संपाद्यन्ते विप्रजनोचिताः क्रियाकलापाः’ इत्येवमादिभिरालापैः स्कन्धावारवार्ताभिश्च शैशवातिक्रान्तक्रीडानुस्मरणैः पूर्वजकथाभिश्च विनोदितमनास्तैः**

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ऊचुः। तात, (इति आदरसूचकम) सततेति सततं, निरन्तरम्, सन्निहिता, कण्ठस्थिता, या, विद्या, नया, विनोदः, येषां ते। वैतानेति—वितानः, यागः, तस्यायं वैतानः, यज्ञसम्बन्धी, स चासौवह्निः, अग्निः। तन्मात्रमेव, सहायः, सहायकः, येषां तेषाम्, सन्तोषजुषाम्, सन्तोषधनानाम्, नः, अस्माकम्, कियन्, मात्रम्, अतिलघुः, कृत्यं, कर्तव्यम् अस्तीतिशेषः। सुखितया सुखेन। सकलेति—सकलानि, समग्राणि, भुवनानि, लोकाः। भुञ्जते, यः, तस्मिन्। भुजंगेति—भुजङ्गाः, सर्पाः, तेषां, राजा, नृपः, तस्य, देहवत्, कायावत्, दीर्घे, गुरौ, क्षितिः, पृथ्वी, तां, भुनक्ति, इति तस्य, राज्ञः, श्रीहर्षस्य, भुजे, करे, क्षितिं, भूमिं, रक्षति, अवतिसति। विशेषेण, प्रायेण। विमुक्तेति—विमुक्तं, कौसीद्यम्, आलस्यं, येन तस्मिन्। परमेश्वरः, सार्वभौमः, तस्य पार्श्ववर्तिनि, समीपर्वार्तनि, वेत्रासनम्, वेत्रविष्टरम्, अधितिष्ठति, त्वयि, सति, वयम्, सुखिन, एव। सर्वे, सकलाः, यथाशक्तिः, यथा सामर्थ्यम्, यथाविभवं, यथाधनं, यथाकालं, यथा समयम् च विप्रजनोचिताः, ब्राह्मणोचिताः क्रियाकलापाः, सम्पाद्यन्ते इत्येव मादिभिः, आलापैः, स्कन्धावारवार्ताभिः। शैशवाति क्रान्तेति

सह सुचिरमतिष्ठत्। उत्थाय च मध्यंदिने यथाक्रियमाणाः स्थितीरकरोत्। भुक्तवन्तं च तं सर्वेज्ञातयः पर्यवारयन्।

** अत्रान्तरे दुकूलपट्टप्रभवे सिखण्ड्यपाङ्गपाण्डुनी पौण्ड्रे वाससी वसानः स्नानावसानसमये बन्दितया तीर्थमृदा गोरोचनया च रचिततिलकः, तैलामलकमसृणितमौलिः, अनुच्चचूडाचुम्बिना निबिड़ेन कुसुमापीड़केन समुद्भासमनः, असकृदुपयुक्तताम्बूलविमलाधरकान्तिः, एकशलाकाञ्जनजनितलोचनरुचिः,**

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शैशवं, बालभावः, तेनातिक्रान्तः, अतिक्रमिता या क्रीडा, केली, तामनु स्मरणैः। पूर्वेति—पूर्वजनानां, वृद्धानां कथाभिः, च, विनोदितं मनः, यस्य, सः, तैः, ज्ञातिभिः, सह सुचिरं, बहुकालम्, अतिष्ठत्। उत्त्थात्य च यथा क्रियमाणं, यथा सम्पाद्यमानं, स्थितिं, वासं, अकरोत्, भुक्तवन्तं, खादयन्तं, तं, सर्वे, सकलाः, ज्ञातयः, पर्यवारयन्, न्यवारयन्, अत्रान्तरेति—इत्यादौ पुस्तकवाचकः, सुदृष्टिः, आजगाम इत्यनेना न्वयः। दुकूलपट्टः क्षोमतन्तुः तस्मात् प्रभवे, जाते शिखण्डी, मयूरः, तस्य अपाङ्गः, नयनप्रान्तः, तद्वत्, पाण्डुनी, श्वेते, पौण्ड्रे, पुण्ड्रदेशोद्भवे, वाससी, वस्त्रे वसानः परिधारयन्। स्नानं, मज्जनं तदवसानसमये, अन्तकाले, तीर्थमृदा, पुण्यक्षेत्रमृतिकया, गोरोचना, तन्नाम द्रव्यम्, तया रचितम्, तिलकं येन। तेन, आमलकेन, तच्चूर्णनेन, मसृणितः, चिक्कणीकृतः मौलिः येन सः अनुच्चेति—अनुच्चा, निम्ना, या चूडा, शिखा, तांचुम्बती, निविडेन, सघनेन, कुसुमानाम्। आपीडकेन समूहेन समुद्भासमान, प्रदीप्यमानः, असकृदिति—असकृत्, वारंबारं, उपयुक्तम्, चर्वितं, यत्ताम्बूलं, तेन, विमला, अधरस्य, कान्तिः, यस्य सः। एकेति— एकं यत् शलाकाञ्जनं तेन जनिता, लोचनयोः, रुचिः यस्य, सः, अचिरभुक्तः, सद्यः भोजनकृतः। नाति

अचिरभुक्तः, विनीतामार्यं च वेषं दधानः, पुस्तकवाचकः सुदृष्टिराजगाम। नातिदूरवर्तिन्यां चासन्द्यांनिषसाद। स्थित्वा च मुहूर्तमिव तत्कालापनीतसूत्रवेष्टनमपि नखकिरणैर्मृदुमृणालसूत्रैरिव वेष्टितं पुस्तकं पुरोनिहितशरशलाकायन्त्रके निधाय, पृष्ठतः सनीडसंनिविष्टाभ्यां मधुकरपारावताभ्यां दत्ते स्थानके प्राभातिकप्रपाठकच्छेदचिह्नीकृतमन्तरपत्रमुत्क्षिप्य, गृहीत्वा च कतिपयपत्रलघ्वीं कपाटिकाम्, क्षालयन्निव मसीमलिनान्यक्षराणि दन्तकान्तिभिः, अर्चयन्निव सितकुसुममुक्तिभिर्ग्रन्थम्, मुखसंन्निहितसरस्वतीनूपुररवैरिव गमकैर्मधुरैराक्षिपन्मनांसि

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दूरवर्त्तिन्यां, आसन्द्यां, वेत्रनिर्मितासने। ततेति—‘तत्काले अध्ययनकाले, अपनीतं, दूरीकृतं, सूत्रवेष्टनमपि, नख किरगणैः, कराग्रभागमयूखैः मृदुमृणालसूत्रैरिव, कोमलक्रमलतन्तुभिरिव। पुर-इति—पुरः, अग्रे, निहितं, स्थापितं यत् शरशलाकायन्त्रकम् (पुस्तकारोपणाय शरणविशेषाणां निर्मितयंत्रकम् ) तस्मिन्, पुस्तकं, निधाय, स्थाप्य सनीडसन्, समीपं, निविष्टाभ्याम्, उपविष्टाभ्याम्, मधुकरपारावताभ्याम्, भ्रमरकपोताभ्याम्। प्रभातिकेति—प्रभातः, प्रभातकालः, तस्यायं प्राभातिकः, यः प्रपाठः, तस्यच्छेदः, विरामः, तस्य, चिह्नीकृतं, दत्तचिह्नम्। (इयन्मात्रं पठितं नान्यदिति सूचकं पत्रम्) अन्तरपत्रम्, उत्क्षिप्य। कतिपयेति—कतिपयैः, पत्रैः, लघ्वी, स्वल्पतरा तां कपाटिकां, पुस्तकावरणपट्टकम्। क्षालयन्निव, मसीमलिनानि, लेखनद्रव्यरसः, मसी, तया मलिनानि, अक्षराणि, दन्तकान्तिभिः, दशनज्योत्स्नाभिः, अर्च्चयन्निव। सितेति—सितानां, धवलानां, कुसुमानां, मुक्तिभिः, वृष्टिभिः। मुखेति—मुखे, संनिहिता, स्थिता या सरस्वती तस्याः नूपुरागांरवैरिव शब्दैरिव। गमकैः, अर्थबोधकै,

श्रोतॄणां गीत्या पवमानप्रोक्तं पुराणं पपाठ।

** तस्मिंश्च तथा श्रुतिसुभगगीतिगर्भं पठति सुदृष्टौ नातिदूर वर्ती बन्दीसूचीबाणस्तारमधुरेण गीतिध्वनिमनुवर्तमानः स्वरेणेदमार्यायुगलमपठत्**—

‘तदपि मुनिगीतमतिपृथु तदपिजगद्वयापि पावनं तदपि।
हर्षचरितादभिन्नं प्रतिभाति हि मे पुराणमिदम्॥३॥
वंशानुगमविवादि स्फुटकरणं भरतमार्गभजनगुरु।
श्रीकण्ठविनिर्यातं गीतमिदं हर्षराज्यमिव॥४॥

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मधुरैः, मधुरसस्यन्दिभिः, श्रोतृणां मनांसि, चित्तानि, आक्षिपन्, आकर्षयन्। श्रुतिः, वेदः, तया सुभगा या, गीतिः, सा गर्भेयस्य तं पठति सति। नातिदूरवर्ती, समीपस्थायी यः, बन्दी, चारणः सूचिबाणः, तदाख्यः चारणः। गीतीति—गीत्याः, गीतिकायाः, ध्वनिं शब्दमनुवर्तमानः, सन, स्वरेण उच्चैः, इदमार्यायुगलमपठत्। तदपीति—तन्मुनिना, द्वैपायनेन, गीतं, कीर्तितमपि, तत् अतिपृथुः, अतिविस्तृतमपि (पृथुः—आदिराजीवेनपुत्रश्च तमतिक्रान्तं तदतिशायीत्यर्थः) तत् जगद्व्यापि, जगत्प्रसिद्धम्, पावनं, पवित्रमपि, इदं पुराणं, वाक्यमिनिशेषः, हि, निश्चितम्, हर्षचरितात् अभिन्नं, भेदहीनम् मे मनः, प्रतिभाति। अत्र तादृशात्, पुराणात् हर्षचरितस्य भेदेऽपि अभेदकथनं भेदेऽप्यभेद प्रतिपत्तिरूपा अतिशयोक्तिः, आर्यावृत्तम्॥३॥

वंशानुगमेति—वंशं, वेणुवाद्यं तदनुगच्छतीति तं (पक्षे) वंशं, कुलं तदनुगच्छतीति तम्। अविवादीति—न भवतः विवादिनौ, विरुद्धवक्तारौ स्वरौ यस्मिन् (पक्षे) न सन्ति विवादिनः, द्वेष्टारः यस्य तत्। स्फुटेति-स्फुटं, स्पष्टं, करणं, लयं (स्वराणामारोहावरोहणम्)

तच्छ्रुत्वा बाणस्य चत्वारः पितामहमुखपद्मा इव वेदाभ्यासपवित्रितमूर्तयः, उपाया इव सामप्रयोगललितमुखाः, गणपतिः, अधिपतिः, तारापतिः, श्यामल इति पितृव्यपुत्रा भ्रातरः, प्रसन्नवृत्तयः, गृहीतवाक्याः, कृतगुरुपदन्यासाः, न्यायवादिनः,

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यस्मिन् तत् (पक्षे ) स्फुटानि, प्रकटीकृतानि, कारणानि, धर्मविद्यादीनि, प्रजासुखार्थमुपायाः, यस्मिन् तत्। **भरतेति—**भरतः, संगीतशास्त्रकार, मुनिः, तस्य मार्गः, पन्था, तदनुशरणेन, गुरुः, महत्, (पक्षे) भरतः, पूर्वभूतनृपः तस्य मार्गः, नीतिः, तद्भजनेन, अनुचलनेन गुरुः। **श्रीनीलकण्ठेति—**श्रीनीलकण्ठ, महादेवः, तस्माद् विनिर्यातं, विशेषेण निःसृतम् (पक्षे) श्रीनीलकण्ठः, देशविशेषः, तस्मान्, निःसृतम्। **हर्षेति—**हर्षस्य, प्रमोदस्य, राज्यमिव (पक्षे) एतन्नाम्नः, श्रीहर्षस्य राज्यम्। अत्र हि हर्षगीतयोरर्थशिष्टत्वात्, श्लेषः, तद्वाच्यत्वाद्-उपमा॥४॥

तत् आर्यायुगलंश्रुत्वा वाणस्य, तन्नामकवेः, चत्वारः, पितामहमुखपद्मा इव परस्परस्य, मुखानि, व्यलोकयन् इनि दूरेणान्वयः। पितामहः, ब्रह्मा, तस्य मुखानि पद्म इव, पितामहमुखपद्माः, ते इव। **वेदेति—**वेदानाम्, अभ्यासेन, पुनः, पुनः, अनुशीलनेन, पवित्रिता, पूता, मूर्तिः, येषां, ते, उपाया इव, सामादयः, इव। **सामेति—**साम्नां, सामवेदानां, प्रयोगेण, ललितानि, सुन्दराणि, मुखानि, आरम्भाश्च येषां ते। **प्रसन्नेति—**प्रसन्नाः, विशुद्धाः, सुबोधाः, च, वृत्तयः, जीविकाः, सुत्रविवरणाश्च, येषां ते। **गृहीतेति—**गृहीतानि, वाक्यानि, येषां ते (पक्षे) गृहीतं, ज्ञातं वाक्यविवरणं यैः ते। **कृतेति—**कृतः, गृहीतः, पूर्वजानां, पित्रादीनां, पदे न्यासः, यैः, (अर्थात् महाशयानां पद्धति मनुसरन्तः) (पक्षे) कृताः, सम्पादिताः, गुरवः, वहवः, पदानां,

सुकृतसंग्रहाभ्यासगुरवो लब्धसाधुशब्दाः, लोक इव व्याकरणेऽपि, सकलपुराणराजर्षिचरिताभिज्ञाः, महाभारतभावितात्मानः, विदितसकलेतिहासाः, महाविद्वांसः, महाकवयः, महापुरुषवृत्तान्तकुतूहलिनः, सुभाषितश्रवणरसरसायनाः, वितृष्णाः, वयसि वचसि यशसि तपसि सदसि महसि वपुषि यजुषि च प्रथमाः, पूर्वमेव कृतसंगराः, विवक्षवः, स्मितसुधाधवलितकपोलोदराः, परस्परस्य मुखानि व्यलोकयन्।

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सुप्तिङ्‌तानाम् न्यासः यैः। **न्यायेति—**न्यायम्, उपपत्तिमद्वचनं, न्यायशास्त्रं वा नद्वादिनः। **सुकृतेति—**सुकृतानां, पुण्यानां, संग्रहः, समूहः, तदभ्यासेन (पक्षे) सुष्ठुकृतः, यः, संग्रहः, व्याकरणसन्दर्भः तस्याभ्यासेन गुरवः, महान्तः, उपाध्यायाः, च। **लब्धेति—**व्याकरणे लब्धः, स्वीकृतः साधुशब्दानां, आलोकः यैःते। **सकलेति—**सकलाः, समग्राः, पुराणराजर्षयः, पूर्वकालिकमन्वादयः, तेषां चरितानि, आचरणानि तत्र अभिज्ञाः, ज्ञातारः। **महाभारतेति—**महाभारते भाविनः, अनुशीलितः, आत्म यैः, तथोक्ताः। **विदितेति—**विदिता, विज्ञाताः, सकलाः, समस्ताः, इतिहासाः, यैः तथोक्ताः। महाविद्वांसः, प्रख्यातमतयः। **महेति—**महापुरुषाणां, गुरुजनानां, वृत्तान्तानि, उदन्तानि, तत्र कुतुहलिनः। **सुभाषितेति—**सुभाषितानां, काव्यानां, आलापानां च श्रवणो आकर्णने, यो, रसः, तस्य रसायनाः, निकषाः। वितृष्णा, विगतयानाभिलाषः। वयसि, अवस्थायाम्। कृतसङ्गराः (श्रीहर्षचरितं कथयितुं वाणमनुरुन्ध्य इति अन्योऽन्यं कृताङ्गीकाराः। विवक्षवः, वक्तुमिच्छवः। **स्मितेति—**स्मितं, ईषद् हसनं, तदेवसुधा अमृतं, तया, धवलितं, यत्, कपोलं, गण्डस्थलम्, तस्य उदरं, मध्यभाग, येषां ते। **कमलेति—**कमलदलवत्, पद्मपत्रवत्, दीर्घ-

** अथ तेषां कनीयान्कमलदलदीर्घलोचनः श्यामलो नाम बाणस्य प्रेयान्प्राणानामपि वशयीता दत्तसंज्ञस्तैः सप्रणयं दशनज्योत्स्नास्नपितककुभा मुखेन्दुना बभाषे—‘तात!, बाण!, द्विजानां राजा गुरुदारग्रहणमकार्षीत्। पुरूरवा ब्राह्मणधनतृष्णया दयितेनायुषा व्ययुज्यत। नहुषः परकलत्राभिलाषी महाभुजङ्ग आसीत्। ययातिराहितब्राह्मणीपाणिग्रहणः पपात। सुद्युम्नः स्त्रीमय एवाभवत्। सोमकस्य प्रख्याता जन्तुवधनिर्वृणता। मांधाता मार्गणव्यसनेन सपुत्रपौत्रो रसातलमगात्। पुरुकुत्सः कुत्सितं कर्म तपस्यन्नपि मेकलकन्यकायामकरोत्। कुवलयाश्वो**

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लोचनः, आयतनेत्रः। प्रयान् अधिकप्रियः, वशयिता, वशीकर्तुं समर्थः, दत्तसंज्ञः, कृतसंकेतः। **दशनेति—**दशनानां, दन्तानां, या ज्योत्स्ना, कान्तिः, तया, स्नापिताः, प्रक्षालिताः, ककुभाः, दिशाः येन तत् मुखेन्दुना, वभाषे। द्विजानां राजा, चन्द्रः, गुरोः, बृहस्पतेः, दारग्रहणं, स्त्रीहरणम्। पुरुरवा, एतन्नाम राजा, ब्राह्मणस्य, धनानि, द्रव्याणि, तेषु, तृष्णा, ग्रहणेच्छा, दयितेन, प्रियेण, आयुषा, जीवितेन, तन्नामपुत्रेण च। नहुषः, आयुषो तनयः, परस्य, अन्यस्य, कलत्राभिलाषी, नारीच्छुक, महाभुजङ्गः, महासर्पः,। ययातिः, एतन्नामराजा, **अहितेति—**अहितः, कृतः, ब्राह्मण्याः, ब्राह्मणकन्यायाः, पाणिग्रहणः, येन तथोक्तः। मुद्युम्नः, सुष्टु, द्युम्नं धनं बलं च यस्य सः, स्त्रीमयः, स्त्रीरूपः, सोमकस्य, तन्नानृपस्य प्रख्याता, प्रसिद्धा, जन्तुः, जन्तुनाम तत्पुत्रः, प्राणिः च तस्य वधेन, हत्यया, निघृणता, निष्ठुरता। मान्धाता, नृपः, **मार्गणेति—**मार्गणेषु, शरेषु, व्यसनं, समासक्तिः, यांचा सातत्यं च तेन रसातलं, पातालं, अगात्, गतवान्, पुरुकुत्सः, तन्नामराजा तपस्यन्, तपस्यांकुर्वन्, मेकलकन्यकायां, नर्मदायां

भुजङ्गलोकपरिग्रहादश्वतरकन्यामपि न परिजहार। पृथुः प्रथमपुरुषकः परिभूतवान्पृथिवीम्। नृगस्य कृकलासभावे वर्णसंकरः समदृश्यत। सौदासेन नरक्षिता पर्याकुलीकृता क्षितिः। नलमवशाक्षहृदयं कलिरभिभूतवान्। संवरणो मित्रदुहितरि विक्लवतामगात्। दशरथ इष्टरामोन्मादेन मृत्युमवाप। कार्तवीर्यो गोब्राह्मणातिपीडनेन निधनमयासीत्। मरुत्त इष्टबहुसुवर्णकोऽपि देवद्विजबहुमतो न बभूव। शंतनुरपिव्यसनादेकाकी

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( रेवा तु नर्मदा सोमोद्भवा मेकल कन्या “इत्यमरः) कुत्सितं कर्म अकरोत्। कुवलयाश्वः, राजा, भुजङ्गलोक परिग्रहात्, नागलोकगमनात्, अश्वतरकन्या, अश्वतरः, कश्चिन्नागः, तस्यकन्यां न परिजहारः, न तत्याजः। पृथुः आदिराजः, वेण तनयः, **प्रथमेति—**प्रथमः आद्यः मुख्यश्च, पुरुष एव पुरुषकः कदर्य्यपुरुषश्च, पृथ्वीं, परिभूतवान्। नृगस्य, एतदाख्यस्य नृपस्य, कृकलासभावे कृकलासः (सरटः क्षुद्रप्राणिभेदः) तद्भावे तत्स्वरूपे **वर्णति—**वर्णानां शुक्लादीनां संकरः संमिश्रणम, समदृश्यत, सौदानेन, एतन्नाम्नाराज्ञा, नरक्षिता, नपालिता, पर्याकुलीकृता, समन्तात्, आकुलतां, प्राप्ता, क्षितिः, पृथ्वी। अवशाक्षहृदयं, नवशं, अनायतम्, अक्षाणि, इन्द्रियाणि, हृदयं, मनश्च, अक्षहृदयं, अक्षज्ञानश्च यस्य तथा भूतम् नलम्। सवरणः, नामनृपः, मित्रस्य, सुहृदः, दुहितरि, कन्यायां, विक्लवतां, विह्वलतां, अगात्, कार्तवीर्यः, नामराजा। **गोब्राह्मणेति—**गवे, गोनिमित्तम् ब्राह्मणस्य, जमदग्नेः, गवां ब्राह्मणानां च अतिपीडनेन, वधेन, निधनं, नाशं, त्रयासीत्, अगात्, मरुतः, **इष्टेति—**इष्टः, अनुष्ठितः, वहूनि, सुवर्णानि यस्मिन् तथाभूतः, इष्टः, अभिमतः, बहु, अतिशयेन, सु-शोभनं, वर्णः, गौरस्वरूपः यस्य तथाभूतः, देवद्विजः, वृहस्पतिः, देवाः, द्विजाः, विप्राश्च

वियुक्तो वाहिन्या विपिने विललाप। पाण्डुर्वनमध्यगतो मत्स्य इव मदन रसाविष्टः प्राणान्मुमोच। युधिष्ठिरो गुरुभयविषण्णहृदयः समरशिरसि सत्यमुत्सृष्टवान्। इत्थं नास्ति राजत्वमपकलङ्कमृते देवदेवादमुतः सर्वद्वीपभुजो हर्षात्। अस्य हि बहून्याश्चर्याणि श्रूयन्ते। तथा हि—अत्र बलजिता निश्चलीकृताश्चलन्तः कृतपक्षाः क्षितिभृतः। अत्र प्रजापतिना शेषभोगिमण्डलस्योपरि क्षमा कृता। अत्र पुरुषोत्तमेन सिन्धुराजं प्रमथ्य

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तेषां बहुमतः, वह्वादृतः। अतिव्यसनात्, अत्यासंगात्, वाहिन्या, नद्या, गङ्गादेव्या, सेनया च, वियुक्तः, एकाकी, विपिने, वने विललाप। पाण्डुः, नामराजा, वनमध्यगतः, अरण्यगनः, जलमध्यगश्च, मदनः, कामः, फलभेदश्च तस्य रसाविष्टः मत्स्य इत्र, मीन इव, प्राणान् मुमोच। युधिष्ठिरः, पाण्डोः ज्येष्ठतनयः।**गुवर्वाति—**गुरोः, महतः, आचार्यात् च भयः तेन विषण्णं, खिन्नं हृदयं यस्य तथोक्तः, समरशिरसि सत्यं ऋतं, उत्सृष्टवान्, अत्यजन्। इत्त्थं, एवम्प्रकारं, अपकलङ्कं, निर्दोषं, देवदेवात्, राजाधिराजात्। सर्वद्वीपभुजः, सर्वान्, समग्रान्, द्वीपान् भुनक्ति इति तस्मात् हर्षात्, एतन्नाम नृपान्। अत्र, जगति, बलं, शत्रुसैन्यं, वलाख्यं असुरं च, जितवान् तेन (हर्षेणेतिशेषः) चलन्तः, विरोधितया व्यवहरन्तः, (पक्षे) शालितया उड्डीयमानाश्च, कृताः, पक्षाः, सहायाः यैः (पक्षे) धृताः, पक्षाः, पत्राणि, यैः, तथोक्ताः। क्षितिभृतः, राजानः, पर्वताश्च निश्चलीकृताः, निजितत्वान्, वशीकृताः, पक्षछेदनात् स्थावरतां नीताश्च। प्रजापतिना, राज्ञा, ब्रह्मणा च। **शेषेति—**शेषस्य, निह‌तावशिष्टस्य, भोगिनां, नानाभोगरतां (राज्ञामितिभावः) मण्डलस्य, चक्रस्य (पक्षे) शेषस्य, भोगिनः, नागस्य मण्डलस्य फणस्य च उपरि क्षमा, शान्तिः, पृथ्वी,

लक्ष्मीरात्मीकृता। अत्र बलिना मोचितभूभृद्वेष्टनो मुक्तो महानागः। अत्र देवेनाभिषिक्तः कुमारः। अत्र स्वामिनैकप्रहारपातितारातिना प्रख्यापिता शक्तिः। अत्र नरसिंहेन स्वहस्तविशसितारातिना प्रकटीकृतो विक्रमः। अत्र परमेश्वरेण तुषारशैलभुवो दुर्गाया गृहीतः करः। अत्र लोकनाथेन दिशां मुखेषु परिकल्पिता

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च कृता, विहिता, निहिता, च। पुरुषेति—पुरुपेषु, उत्तमः, श्रेष्ठः तेन राज्ञा नारायणेन च सिन्धुराजं, सिन्धुदेशाधिपतिं क्षीरसागरञ्च प्रमथ्य, निर्जित्य, विलोड्य च लक्ष्मीः, राजश्रीः, कमला च, आत्मीकृता, स्वीकृता। बलिना, बलवता, असुरराजेन, च महानागः, महान् रणहस्ती, वासुकिश्च। मोचितेति—मोचितम्, दूरीकृतम् भूभृद्भिः, अरिनृपैः, वेष्टनम्, अवरोधनम्, यस्य सः (पक्षे) भूभृतः, मन्दरस्य वेष्टनं, यस्य, सः, मुक्तः, परित्रातः, सागरमन्थनात् त्यक्तश्च। देवेन, राज्ञा, देवराजेन, च कुमारः, निजतनयः, गुरुश्च, अभिषिक्तः, प्रतिष्ठापितः, यौवराज्ये, सेनापत्ये च, (इति शेषः) स्वामिना, प्रभुणा सेनापतिना गुहेन च। एकेति—एकेन प्रहारेण, शरावातेन, प्रकर्षेण च पातिता अरातयः, शत्रवः राजानः तारकाद‌योऽसुराश्च येन तथा भूतेन। शक्तिः, सामर्थ्यं, तदाख्यमस्त्रं च, नरसिंहेन, राज्ञा नृहरिणा च। स्वहस्तेति—स्वहस्तेन न तु सैन्यसहायेन, चक्रादिनिजास्त्रेण च, विशसिताः, निहताः, विदारिताश्च अरातयः, शत्रवः, हिरण्यकशिपुप्रभृतयश्च। येन तथोक्तेन। परमेश्वरेण, सार्वभौमेन, हरेण च, तुषारशैलभुवः, हिमालयप्रदेशभूमेः, हिमगिरिजातायाश्च, दुर्गायाः, दुर्गमायाः, गौर्याश्च, गृहीतः करः, बलिः, पाणिश्च। लोकनाथेन, नरपतिना, विधात्रा, च, दिशां मुखेषु, दिशि दिशि इति यावत् (पक्षे ) दिशां मुखेषु निःसरणमार्गेषु च (सीमान्तदेशेषु इति यावत्) परि-

लोकपालाः सकलभुवनकोशश्चाग्र्यजन्मनां विभक्तः, इत्येवमादयः प्रथमकृतयुगस्येव दृश्यन्ते महासमारम्भाः। अतोऽस्य सुगृहीतनाम्नः पुण्यराशेः पूर्वपुरुषवंशानुक्रमेणादितः प्रभृति चरितमिच्छामः श्रोतुम्। सुमहान्कालो नः शुश्रूषमाणानाम्। अयस्कान्तमण्य इव लोहानि नीरसनिष्ठुराणि क्षुल्लकानामप्याकर्षन्ति मनांसि महतां गुणाः, किमुत स्वभावसरसमृदूनीतरेषाम्। कस्य न द्वितीयमहाभारते भवेदस्य चरिते कुतूहलम्। आचष्टां भवान्। भवपु भार्गवोऽयं वंशः शुचिनानेन राजर्षिचरितश्रवणेन सुतरां शुचितरः’ इत्येवमभिधाय तूष्णीमभूत्।

** बाणस्तु विहस्याब्रवीत्—‘आर्य, न युक्त्यनुरूपमभिहितम्। अघटमानमनोरथमिव भवतां कुतूहलमवकल्पयामि। शक्याश-**

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कल्पिताः, नियोजिताः, लोकपालाः, प्रजापालाः, इन्द्रादयश्च। सकलभुवनकोशः, सर्वजगतां धनं, सकलभुवनमेवकोशः, धनभण्डारश्च अग्रजन्मनां, ब्राह्मणानां, आदिनृपाणां, श्रमणानाञ्च विभक्तः, विभज्यदत्तः। प्रथमयुगस्येव, सत्ययुगस्येव, महारम्भाः, महान्ति कार्याणि अचलपक्षच्छेदनादय व्यापारा इति यावत्, तेषामारम्भाः। शुश्रुषमाणानां, श्रोतुमिच्छताम्। आयस्कान्तमणयः, लोहकान्तमणयः। नीरसनिष्ठुराणि, नीरसात्, रसशून्यत्वात्, निष्ठुराणि, कठोराणि, क्षुल्लकानां, खलानां, (क्षुल्लकस्त्रिषु नीचेऽल्पे इति मेदिनी) द्वितीयमहाभारते, द्वितीयमहाभारत सदृशे, आचष्टां, कथयतु। भार्गवः, भृगुगोत्रजातः। सुतराम्, अतिशयेन, शुचितरः, पूततरः।

युक्त्यनुरूपं, युक्त्यनुकूलं, अभिहितम्, कथितम्। अघटमानेति—अघटमानः, असम्पन्नतां गच्छन्, मनोरथः, यस्य तथाभूतम्, अवकल्पयामि, अवधारयामि। शक्येति—शक्यं, साध्यं, अशक्यं,

क्यपरिसंख्यानशून्याः प्रायेण स्वार्थतृषः। परगुणानुरागिणी प्रियजनकथाश्रवणरसरभसमोहिता च मन्ये महतामपि मतिरपहरति प्रविवेकम्। पश्यत्वार्यः क्व परमाणुपरिमाणं बटुहृदयम्, क्व समस्तब्रह्मस्तम्भव्यापि देवस्य चरितम्। क्व परिमितवर्णवृत्तयः कतिपये शब्दाः, क्व संख्यातिगास्तद्गुणाः। सर्वज्ञस्याप्ययमविषयः, वाचस्पतेरप्यगोचरः, सरस्वत्या अप्यतिभारः, किमुतास्मद्विधस्य। कः खलु पुरुषायुषशतेनापि शक्नुयाद‌विकलमस्य चरितं वर्णयितुम्। एकदेशे तु यदि कुतूहलं वः, सज्जा वयम्। इयमधिगतकतिपयाक्षरलवलघीयसी जिह्वा क्वोपयोगं

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असाध्यम्, तयोः, परिसंख्यानं, परिगणनं, तेन शून्याः, रहिताः। स्वार्थतृषः, स्वार्थकार्यतृषिताः। **प्रियेति—**प्रियजनस्य कथाश्रवणे यो रसः रागः तस्य रभसेन, अतिशयेन, मोहिता। प्रविवेकम्, प्रकृष्टज्ञानम्। परमाणुपरिमाणम्, अतिक्षुद्रम्। वटुहृदयम्, द्विजशिशुमानसम्। **समस्तेति—**समस्तः, सकलः, ब्रह्मस्तम्भः, ब्रह्मखण्डं तद्वयापि, देवस्य, हर्षस्य। **परिमितेति—**परिमितानां, परिगणितानां, वर्णानां, अक्षराणां, वृत्तयः रचनानि यत्र तथा भूताः। संख्यातिगाः, संख्याः, एकादिपरार्द्धपर्यन्ताः, ताः, अतिगच्छन्ति, अतिशेरते इति तथोक्ताः, तद्‌गुणाः देवस्य, हर्षस्य, गुणाः। अयं, हर्षचरितरूपः, सर्वज्ञस्य, परमेश्वरस्य, अविषयः, बृहस्पतेः, देवगुरोः, अपि, अगोचरः, सरस्वत्या, भारत्या, वाण्या अपि अतिभारः। **पुरुषेति—**पुरुषस्य, आयुः, जीवितकालः, तस्य शतं, (शतवर्षाणीत्यर्थः) तेषां शतेन। अविकलं, सम्यक्। वर्णयितुं, कथयितुं। सज्जाः, प्रस्तुताः। अधिगतेति—‘अधिगतः, ज्ञातः, कतिपयानां, अक्षराणां, लवः, लेशः, तेन, लघीयसी, (यत्किञ्चित् वर्णयितुं क्षमा-इति भावः) जिह्वा, रसना, क्व,

गमिष्यति। भवन्तः श्रोतारः, वर्ण्यते हर्षचरितम्, किमन्यत्। अद्य तु परिणतप्रायो दिवसः। पश्चाल्लम्बमानकपिलकिरणजटाभार भास्वरो भगवान्भार्गवो राम इव समन्तपञ्चकरुधिरमहाह्रदे निमज्जति संध्यारागपटले पूषा। श्वो निवेदयितास्मि’ इति। सर्वे च ते ‘तथा’ इति प्रत्यपद्यन्त। नातिचिरादुत्थाय संध्यामुपासितुं शोणमयासीत्।

** अथ मधुमदपल्लवितमालवीकपोलकोमलातपे मुकुलितेऽह्नि, कमलिनीमलनादिव लोहिततमे तमोलिहि रवौ लम्बमाने, रविरथतुरगमार्गानुसारेण यममहिष इव धावति नभसि तमसि,**

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उपयोगं, उपकारितां गमिष्यति। न कुत्रापि इति भावः। परिणतप्रायः, प्रायेण परिणतः, अवसितः। **पश्चादिति—**पश्चात्, पश्चिमायां दिशि, प्रष्ठदेशे च। **लम्बमानेति—**लम्बमानः, पतन्, कपिलः, पिङ्गलः, किरणः, मयूखः, एव जटाभारः, इव, केशसमूह इव, तेन भास्वरः, दीप्यमानः, राम इव, परशुराम इव। **समन्तेति—**समन्तपञ्चकं, कुरुक्षेत्रं, तत्र यत् रुधिरं (कौरवादीनां रक्तम्) तेन यः महान् ह्रदः तस्मिन्। **सन्ध्येति—**सन्ध्यायाः, रागाः, लौहित्यानि, तेषां पटलं, समूहः तस्मिन्, पूषा, सूर्यः (विकर्त्तनार्कमार्तण्डमिहिरारुणपूषणः “इत्यमरः) प्रत्यपद्यन्तः, स्वीकृतवन्तः। अथेत्यारम्भ गोष्ठ्या तस्थौ इत्यनेनान्वयः। **मध्विति—**मधुमदेन, मद्यपानजनितेन, उल्लासेन, पल्लवितः, प्रफुल्लः, मालव्याः, मालवदेशीयनार्याः, कपोलः, गण्डः, तद्वत् कोमलः, आतपः, प्रभा यस्य तथाभूते। मुकुलिते, अविकसिते, कमलिनी, मलनादिव, पद्मनीमालिन्यदर्शनादिव, लोहिततमे, अतिरक्ते, तमोलिहि, तिमिरध्वंसिनि, रवौ, सूर्ये लम्बमाने। रवीति— रविरथः, सूर्यरथः, तस्य, गुरुगाः तेषां मार्गानुसारेण, यममहिष इव

क्रमेण च गृहतापसकुटीरकपटलावलम्बिषु रक्तातपच्छेदैः सहसंहृतेषु वल्कलेषु, कलिकल्मषमुषि पुष्णति गगनमग्निहोत्रधामधूमे, सनियमे यजमानजने मौनव्रतिनि, विहारवेलाविलोलेपर्यटति पत्नीजने, विकीर्यमाणहरितश्यामाकशालिपूलिकासुदुग्धासु होमकपिलासु, हूयमाने वैतानतनूनपाति, पूतविष्टरोपविष्टे कृष्णाजिनजटिले जटिनि जपति वटुजने, ब्रह्मासनाध्यासिनि ध्यायति योगिगणे, तालध्वनिधावमानानन्तान्तेवासिनि

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नभसि, आकाशे, तमसि, अन्धकारे, धावति, सति। **गृह-इति—**गृहतापसानां, गृहस्थतपस्विनां, कुटीरकाणां, क्षुद्रगृहाणां, पटलानि, छदींषि, (अथ पटलं छदिः “इत्यमरः) आलम्बन्ते इति तथोक्तेषु। रक्तातपछेदैः, रक्तवर्णासूर्यमयूरवखण्डैः, सह संहृतेषु, आकृप्यनीतेषु, वल्कलेषु, तरुत्वक्षु। कलिकल्मषमुषि, कलिकालजनितपापहारिणि, पुष्णति, व्याप्नुवति, अग्निहोत्रधामधूमे, होमगृहधूमे, सनियमे, सुसंयते, यजमानजने, याज्ञिकवर्गे, मौनव्रतिनि, तुष्णिव्रतधारिणि। **विहारेति—**विहारस्य, वेला तेन विलोले, चंचले। **विकीर्यमाणेति—**विकीर्यमाणाः, प्रक्षिप्यमाणाः, हरिताः, श्यामलाः श्यामाकशालीनां, श्यामाख्यब्रीहिभेदानां, पूलिकाः, गुच्छाः, याभ्यः, तासु, दोहनकाले, होमकपिलासु, यज्ञधेनुषु, दुग्धासु, कृतदोहासु, हूयमाने, हविषासन्तर्प्यमाणे, वैतानतनूनपाति, यज्ञीयाग्नौ, (जातवेदास्तनूनपात् “इत्यमरः) **पूतेति—**पूते, पवित्रे, विष्टरे, आसने, उपविष्टः तस्मिन्। कृष्णाजिनजटिले, कृष्णमृगचर्मावृते, जटिनि, जटाधारिणि, जपति, वटुजने, द्विजजने। **ब्रह्मेति—**ब्रह्मासनं, आसनविशेषः, तत् अध्यासते इति तथोक्ते। ध्यायति, चिन्तयति। **तालेति—**तालध्वनिः, संकेतार्थमंगुलिशब्दविशेषः, तेन धावमानाः, सत्वरमापतन्तः, अनन्ताः,

अलसवृद्धश्रोत्रियानुमतेन गलद्ग्रन्थदण्डकोद्गारिणि संध्यां समवधारयति वठरविटवटुसमाजे, समुन्मज्जति च ज्योतिषि तारकाख्ये खे, प्राप्ते प्रदोषारम्भे भवनमागत्योपविष्टः स्निग्धैर्बन्धुभिश्च सार्धं तयैव गोष्ठ्या तस्थौ। नीतप्रथमयामश्च गणपतेर्भवने परिकल्पितं शयनीयमसेवत। इतरेषां तु सर्वेषां निमीलि तदृशामप्यनुपजातनिद्राणां कमलवनानामिव सूर्योदयं प्रतिपालयतां कुतूहलेन कथमपि सा क्षपा क्षयमगच्छत्।

** अथ यामिन्यास्तुर्येयामे प्रतिबुद्धः स एव वन्दी श्लोकद्वयमगायत्—**

** ‘पश्चादङ्घ्रि प्रसार्य त्रिकनतिविततं द्राघयित्वाङ्गमुच्चै-**

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अशेषाः, सर्वे, अन्तेवासिनः, छात्राः, यस्य तथाभूते। **अलसेति—**अलसः, मन्थरः, वृद्धः, स्थविरः, श्रोत्रियः, छान्दसः, वेदोपाध्यायः, इत्यर्थः, तस्यानुमतं तेन। **गलदिति—**गलतः, स्खलतः, ग्रन्थदण्डकान्, ऋग्विशेषान्, उद्गिरति, उच्चारयति, इति तथोक्ते, सन्ध्यां, सन्ध्याकालिकोपासनाविशेषं, समवधारयति, समालोचयति, **वठरेति—**वठराः, अबोधाः, विटाः, दुर्वृत्ताः ये वटवः, द्विजशिशवः, तेषां समाजः, सङ्घः तस्मिन्। समुन्मज्जति, समुन्मीलति, तारकारव्ये, नक्षत्रनाम्नि, खे, आकाशे, प्राप्ते, उपस्थिते, प्रदोषारम्भे, गोष्ट्या, समाजेन, तस्थौ।नीतप्रथमयामः, अवतीतपूर्वप्रहरः, परिकल्पितं, रचितम्। **निमीलितेति—**निमीलिता, दृक्, लोचनं यैः, तेषाम्। अनुपजाता, नप्रादुर्भूता, निद्रा, येषां, तेषाम्, प्रतिपालयतां, प्रतीक्षांकुर्वताम्, क्षपा, रात्रिः, क्षयं, नाशम्। तुर्ये, चतुर्थे, यामे, प्रहरे, प्रबुद्धः, त्यक्तनिद्रः।**पश्चादिति—**शयनादुत्थितः, प्रबुद्धः, तुरङ्गः, अश्वः, पश्चादंघ्रि, पृष्ठभागस्थितपदद्वयम्, त्रिकस्य, पृष्ठवंशधरस्य, (पृष्ठवंशधरेत्रिकम्,

रासज्याभुग्नकण्ठो मुखमुरसि सटा धूलिधूम्रा विधूय।
घासग्रासाभिलापादनवरतचलत्प्रोथतुन्डस्तुरंगो
मन्दं शब्दायमानो विलिखति शयनादुत्थितः क्ष्मां खुरेण॥५॥

कुर्वन्नाभुग्नपृष्ठो मुखनिकटकटिः कंधरामातिरश्चीं
लोलेनाहन्यमानं तुहिनकणमुचा चञ्चता केसरेण।
निद्राकण्डूकपायं कषति निविडितश्रोत्रशुक्तिस्तुरङ्गः
त्वङ्गत्पक्ष्माग्रलग्नप्रतनुवुसकणं कोणमक्ष्णः खुरेण॥६॥

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इत्यमरः) नत्या विनतं, विस्तृतं, यथा नथा प्रसार्य, विस्तार्य, अंगं, अवयवम्, उच्चैः, द्राघयित्वा, दीर्धीकृत्य, आभुग्नकण्ठः, नमितगलः, सन्, मुखं, उरसि, वक्षसि, आसज्य, स्पर्श्य, धूलिभिः, रजोभिः, धूम्राः, धूसराः, सटाः, जटाः, विधूय, प्रकम्प्य, घासानां, शप्पाणां, ग्रासे, कवलने, अभिलाषः, तस्मान्, अनवरतं, निरन्तरं, चलत्, स्फुरत्, प्रोथं नासिका यस्य तादृशम् (प्रोथोऽस्त्री हयघोणायां “इतिमेदिनी” घोणानासा च नासिका “इत्यमरः) तुण्डं, वदनं यस्य तथोक्तः (तुण्डमाननंलपनंमुखम् “इत्यमरः) मन्दं, शब्दायमानः, शब्दं कुर्वन खुरेण क्ष्मां, भुवं, विलिखति, कुट्टयति, अत्र प्रातरुच्यितस्याश्वस्यस्वभावकथनात् स्त्रभावोक्तिः, स्रग्धरा वृत्तं॥ ५॥

**कुर्वन्निति—**तुरङ्गः, अश्वः, निविडिते, कुञ्चिते, श्रोत्रे, कर्णौ, शुक्ती इव मुक्तास्फोटाविव येन यस्य वा तथोक्तः, तथा, आभुग्नं, आकुञ्चितं पृष्ठं येन तथोक्तः, मुखस्य निकटे, सन्नियौ, कटिः, मध्यभागः, यस्य तथाभूतः, कन्धरां, ग्रीवां, आतिरश्चीम्, आभंगुरां, कुर्वन्, लोलेन, चपलेन, तुहिनकणमुचा, शिशिरविन्दुवर्षिणा, चञ्चलता, स्फुरता, केसरेण, जटाजालेन, आहिन्यमानं, सन्ताड्यमानं, निद्राकण्डूः, निद्राऽऽवेशावशेषः, तया, कषायः, आविलः, तम्, अक्ष्णः,

बाणस्तु तच्छ्रुत्वा समुत्सृज्य निद्रामुत्थाय प्रक्षाल्य वदनमुपास्य भगवतीं संध्यामुदिते भगवति सवितरि गृहीतताम्बूलस्तत्रैवातिष्ठत्। अत्रान्तरे सर्वेऽस्य ज्ञातयः समाजग्मुः, परिवार्य चासांचक्रुः। असावपि पूर्वोद्धातेन विदिताभिप्रायस्तेषां पुरो हर्षचरितं कथयितुमारेभे—

** श्रूयताम्—अस्ति पुण्यकृतामधिवासो वासवावास इव वसुधामवतीर्णः सततमसंकीर्णवर्णव्यवहारस्थितिः, कृतयुगव्यवस्थः, स्थलकमलबहलतया पोत्रोन्मूल्यमानमृणालैरुद्भीत-**

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नेत्रस्य, कोणं, प्रान्तं त्वङ्गत्सु, पक्ष्माग्रेषु, लोमाग्रेषु, लग्नाः, संसक्ताः, प्रतनवः, स्वल्पाः, वुसकणाः, कडङ्गरांशाः, (सारहीनक्षुणधान्यानीइत्यर्थः) यत्र तत् यथा तथा खुरेण कषति, घर्पयति (अलङ्कारवृत्ते पूर्वे)॥६॥ समुत्सृज्य, त्यक्त्त्वा, प्रक्षाल्य, निर्मलीकृत्य। **गृहीतेति—**गृहीतं, नीतं, ताम्बूलं येन सः। **विदितेति—**विदितः, विज्ञातः, अभिप्रायः, आशयः,येन सः। पूण्येत्यारभ्य श्रीकण्ठोनाम जनपदः, इत्यनेनान्वयः। पुण्यकृतां, सुकृतचरतां, देवानां, च, अधिवासः, गृहम्, वासवावास, इव, इन्द्रालय इव, वसुधां, भूमिं, अवतीर्णः, अवतरितः। सततं, निरन्तरं। **असंकीर्णेति—**असंकीर्णाः, सङ्करदोषरहिताः, वर्णानां, ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशुद्राणां, व्यवहाराः, आचाराः, स्थितयः, मर्यादाश्च यत्र तथोक्तः। **कृतेति—**कृतयुगस्येव, सत्ययुगस्येव, व्यवस्था, नियमः, यत्र तथोक्तः। स्थलकमलबहलतया, स्थलपद्मप्राचुर्येण। **पोत्रेति—**पोत्रेण, मुखाग्रेण (पोत्रं वज्रे मुखाग्रे च शूकरस्य हयस्य च “इति मेदिनी) उन्मूल्यमानानि, विकाश्यमानानि, मृणालानि, कमलानि, यैः तथोक्तैः। **उद्‌गीतेति—**उद्गीताः, उच्चैः, कीर्तिताः, मेदिन्याः, स.राः, उत्कृष्टाः गुणाः यैः तथाभूतैः। **कृतेति—**कृताः, मधुकराणां, कोलाहलाः, यैः,

मेदिनीसारगुणैरिव कृतमधुकरकोलाहलैर्हलैरुलिख्यमानक्षेत्रः, क्षीरोदपयः पायिपयोदसिक्ताभिरिव पुण्ड्रेक्षुवाटसंततिभिर्निरन्तरः, प्रतिदिशमपूर्वपर्वतकैरिव खलधानधामभिर्विभज्यमानैः सस्यकूटैः संकटसीमान्तः, समन्तादुद्धातघटीसिच्यमानैर्जीरकजूटैर्जटिलितभूमिः, उर्वरावरीयोभिः शालीयैरलंकृतः, पाकविशरारुराजमाषनिकरकिर्मीरितैश्च स्फुटितमुद्रफलकोशीकपिशितैर्गोधूमधामभिः स्थलीपृष्ठैरधिष्ठितः, महिषपृष्ठप्रतिष्ठितगायद्गो-

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तादृशैः। हलैः, लाङ्गलैः, उल्लिख्यमानानि, उत्खन्यमानानि, क्षेत्राणि यस्य तथोक्तः। क्षीरोदेति क्षीरोदस्य, क्षीरसागरस्य, पयांसि, जलानि, पिवन्तीति तथाविधाः, पयोदाः, मेघाः, तैः, सिक्ताः, अभिसिञ्चिताः, ताभिरिव। पुण्ड्रेति—पुण्ड्रेक्षूणां, इक्षुविशेषाणा, वाटसन्ततयः, वृत्तिनिचयाः, (वेष्टनसमूहा “इत्यर्थः) ताभिः (वाटोमार्गे वृत्तिस्थाने स्यात् कुटीवास्तुनोः स्त्रियाम् “इत्यमरः) निरन्तरः, अविच्छिन्नः। अपूर्वपर्वतकैरिव, अभिनवलघुगिरिभिरिव। खलेति—खलेषु, सस्यसमाहरणभूमिषु, धानस्थापनाय, धाम, स्थानं येषां तैः। विभज्यमानैः, विभागेन स्थाप्यमानैः, शस्यकूटैः, धान्यादितृणराशिभिः, संकटसीमन्तः, व्याप्तसीमाभागः। उद्धातेति—उद्धात घटिभिः, यन्त्रकलशैः, सीच्यमानानि, आर्द्रीक्रियमाणानि तैः, जीरकजूटैः, जटिलिता, समाकीर्णा, भूमिः, यत्र तथोक्तः। उर्वरेति—उर्वरा, सर्वसस्याढ्या भूः तथा वरीयांसि श्रेष्ठानि तैः, शालियैः, धान्यविशेषसंधैः शालिक्षेत्रैः, अलंकृतः, परिशोभितः। पाकेति—पाकेन, विशरारुग्णां, स्फुरतां, राजमाषाणां, निकरैः, संघैः, किर्मीरितानि, शवलितानि तैः। स्फुटितेति—स्फुटितानां, पक्वानां, मुद्गफलानां, तदाख्यकलायभेदानां, कोशीभिः, शिम्बिकाभिः, कपिशितानि, पिङ्गलानि

पालपालितैश्च कीटपटललम्पटचटकानुसृतैरवटुघटितघण्टाघटीरटितरमणीयैरटद्भिरटवीं हरवृषभषीतमामयशङ्कया बहुविभक्तं क्षोरोद‌मिव क्षीरं क्षरद्भिर्वाष्पच्छेद्यतृणतृप्तैर्गोधनैर्धवलितविपिनः विविधमखहोमधूमान्धशतमन्युमुक्तैर्लोचनैरिव सहस्रसंख्यैः कृष्णशारैः शारीकृतोद्देशः, धवलधूलीमुचां केतकीवनानां रजोभिः

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तैः। गोधूमधामाभिः, गोधूमशालिभिः, स्थलीपृष्ठैः, अकृत्रिमभूतलैः, अधिष्ठितः, स्थितः। महिषेति—महिषाणां, पृष्ठेषु, प्रतिष्ठिताः, आरूढाः, गायन्तः, गोपालाः, तैः, पालितानि, रक्षितानि तैः। कीटेति—कीटानां, क्षुद्रप्राणिभेदानां, पटलेषु, वृन्देषु, गोधनानां, अङ्गलग्नेषु इति भावः, लम्पटाः, लुब्धाः, ये चटकाः, क्षुद्र पक्षिभेदाः, तैः, अनुमृतानि, अनुगतानि तैः। अवट्विति—अवटुः, घाटा (अवटुर्घाटा कृकाटिका इत्यमरः) तत्र घटिता, संयोजिता, या घण्टाघटी, घण्टारूपः, क्षुद्रघण्टः, तस्याः रटितेन, निनादेन रमणीयानि, मनोज्ञानि तैः, अरद्भि, चरद्भिः, अरवीं, वनम्। हरेति—हरस्य, शिवस्य,वृषमेण, पीतम्, आमयशंकया, अजीर्णरोगसम्भावनया, क्षीरोदमिव, क्षीरसागरमिव, बहुविभक्तम, बहुधा विभज्यस्थापितम्। वाष्पेति—वाष्पेण, उष्मणा, छेद्यानि, नाश्यानि, यानि तृणानि, तैः तृप्तानि, मन्तुष्टानि तैः। गोधनैः, गाव एव धनानि येषां तैः। धवलितेति—धवलितानि, श्वेतानि, विपिनानि यस्य तथोक्तः। विविधेति—विविधानां, नानाप्रकाराणां, मखानां, यागानां, होमधूमैः, अन्धानि, अतएव शतमन्युना, इन्द्रेण, मुक्तानि, परित्यक्तानि तैः लोचनैः, नयनैरिव, सहस्रसंख्यै, (पक्षे) सहस्रसंख्यैः, प्रभूतैः, कृष्णसारैः, शवलवर्णविचित्रैः, शारीकृतोदेशः, विचित्रितप्रदेशः। धवलधूलिमुचां, श्वेतरजोमुवां, केतकीवनानां रजोभिः, परागैः, पांण्डुरीकृतैः, पाण्डुरतांनीतैः,

पाण्डुरीकृतैः प्रथमोद्धूलनधूसरैः शिवपुरस्येव प्रवेशैः प्रदेशैरुपशोभितः, शाककन्दलश्यामलितग्रामोपकण्ठकाश्यपी पृष्ठः, पदे पदे करभपालीभिः पीलुपल्लवप्रस्फोटितैः करपुटपीडितमातुलुंगीदलरसोपलिप्तैः स्वेच्छाविचितकुङ्‌कुमकेसरकृतपुष्पप्रकरैः प्रत्यग्रफलरसपानसुखसुप्तपथिकैर्वनदेवतादीयमानामृतरसप्रपागृहैरिव द्राक्षामण्डपैः स्फुरत्फलानां च बीजलग्नश्शुकचञ्चुरागाणामिव समारूढकपिकुलकपोलसंदिह्यमानकुसुमानां दाडिमीनां वनैर्वि-

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अतएव प्रमथानां, शिवपारिषदां, भूतवर्गाणाम्, उद्धूलनेन, लुण्ठनेन, धूसराः, ईषत्पाण्डुवर्णाः तैः शिवपुरस्येव, शिवालयस्येव, प्रवेशाः, मार्गाः तैः। शाकेति—शाकानां, कन्दलेन, अभिनवेन, अंकुरेण श्यामलिता, ग्रामाणां, उपकण्ठा, प्रान्तभागाः यस्य तथोक्तम्, काश्यपीपृष्ठं, भूतलं यस्य तथाभूतः। करभपालिभिः, उष्ट्रशिशुवृन्दैः, पीलुपल्लवेन, पीलूविः, (अखरोट) तेषां पल्लवेन, किसलयेन, तैः स्फोटितैः, सुशोभितैः। करपुटेति—करपुटैः, पीडितानां, मर्द्दितानां, मातुलुङ्गीदलानां, एतदाख्यस्य वृक्षस्य पत्राणां रसैः, द्रवैः, उपलिप्तानि तैः। स्वेच्छेति—स्वेच्छया, विचिताः, उच्चिताः, कुंकुमानां केसराः, किञ्चलकाः, तैः कृतः, रचितः, पुष्पाणां, प्रकरः, माल्यं येषां तैः। प्रत्यग्रेति—प्रत्यग्राणि, अभिनवानि, यानि, फलानि, तेषां रसपानेन, सुखसुप्ताः, पथिकाः, अध्वगाः, येषु तथोक्तैः। वनेति—वनदेवताभिः, दीयमानानि, अमृतरसानां, प्रपागृहाणि, पानीयशालाः, तैरिव। द्राक्षामण्डपैः, द्राक्षालतानिकुञ्ज्ञैः। स्फुरन्ति, विकसन्ति, फलानि यासां तासाम्। वीजेति—वीजेषु, लग्नाः, संसक्ताः, शुकानां, (तोता) पक्षिणां, चञ्चुरागाः, चञ्चुलौहित्यानि येषां तथा भूतानामिव। समारूढेति—समारूढानां, कपिकुलानां, वानरवृन्दानां,

लोभनीयोपनिर्गमः, वनपालपीयमाननारिकेलरसासवैश्च पथिकलोकलुप्यमानपिण्डखर्जूरैर्गोलांगू-ललिह्यमानमधुरामोद‌पिण्डीरसैश्चकोरचञ्चुजर्जरितारुकैरुपवनैरभिरामः, तुङ्गार्जुनपालीपरिवृतैश्च गोकुलावतारकलुषितकूलकीलालैरध्वगशतशरण्यैररण्यधराबन्धैरवन्ध्यवनरन्ध्रः, करभीयकुमारकपाल्यमानैरोष्ट्रकै-

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कपोलैः, गण्डस्थलैः, सन्दिह्यमानानि, संशयमानानि, कुसुमानि यासां तथोक्तानाम्। विलोभनीयोपनिर्गमः, विलोभनीयाः, विशेषेण दर्शनीयाः, उपनिर्गमाः, निर्गमन मार्गाः यस्य तथाभूतः। वनेति—वनपालैः, वनरक्षिभिः, पीयमानाः, अस्वाद्यमानाः, नारिकेलानां रसाः, जलान्येव, आसवाः, मद्यानि, येषु तथोक्तैः। पथिकेति—पथिकलौकैः, पान्थसमूहैः, लुप्यमानानि, भक्षणेन, अदृश्यतांगतानि, पिण्डखर्जूराणि येभ्यः तथोक्तैः। गोलांगूलेति—गोलांगूलैः, कृष्णमुखकपिभिः (लंगूर) लिह्यमानः, आस्वाद्यमानः, मधुरः, स्वादुः, आमोदपिण्डीरसः, सुरभिपिण्डीखर्जूररसः येषु तैः। चकोरेति—चकोराणां, पक्षिभेदानां, चञ्चुभिः, जर्जरितानि, आरुकाणि, आरुकनामवृक्षफलानि, येषु तथोक्तैः, उपवनैः, उद्यानैः, अभिरामः, मनोहरः। तुङ्गेति—तुङ्गाभिः, उन्नताभिः, अर्जुनपालिभिः, कुकुभारव्य वृक्षश्रेणिभिः, परिवृताः, परिवेष्टिताः तैः। गोकुलेति—गोकुलानां, गोसमूहानां, अवतारेण, अवतरणेन, कलुषितानि, अविलीकृतानि, कूलकीलालानि, तीरस्थितजलानि, येषां तैः। (सलिलं कमलं जलं। पयः कोलालम् “इत्यमरः) अध्वगशतशरण्यैः, पथिकशतपरित्रायिभिः, अरण्यधराबन्धैः, वनजलाशयैः। अवन्ध्यानि, फलवन्ति, वनरन्ध्राणि, वनाभ्यन्तरभागाः यस्य तथाभूतः। करभीयेति—करमेभ्यः, उष्ट्रशावकेभ्यः हिताः, करभीयाः, ये कुमाराः, पशुपालशिशवः तैः पाल्यमानाः, रक्ष-

रौरभ्रेश्च कृतसंबाधः, दिशि दिशि रविरथतुरगविलोभनायैव वि-लोडनमृदितकुङ्‌कुमस्थलीरससमालब्धानामुत्प्रोथपुटैरुन्मुखैरुदरशायिकिशोरकजवजननाय प्रभञ्जनमिव चापिबन्तीनां वातहरिणीनामिव स्वच्छन्दचारिणीनां वडवानां वृन्दैर्विचरद्भिराचितः, अनवरतक्रतुधूमान्धकारप्रवृत्तैर्हंसयूथैरिव बाणैर्धवलितभुवनः, संगीगतमुरजरवमन्त्तैर्मयूरैरिव विभवैर्मुखरितजीवलोकः,

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माणाः, तैः। औष्ट्रकैः, उष्ट्रणां समूहैः। औरभ्रैः, मेषनिचयैः, कृतसम्बाधः, समाकीर्णः। रवीति—रवेः, सूर्यस्य, रथे ये तुरगाः, अश्वाः, तेषां विलोभनम्, अनुरागप्रकटनेन, लोभप्रदर्शनम् तस्मै इव। विलोडनेति—विलोडनेन, विलोठनेन, दलनेन, मृदिता, मर्दनंनीता, या कुंकुमस्थली, कुंकुमोत्पत्तिभूमिः, तस्याः, रसेन, द्रवेण, समालब्धाः, अनुलिप्ताः, तासाम्। उत्प्रोथपुटैः, उत्, उद्गतानि, प्रोथपुटानि, नासापुटानि, येषां तादृशानि तैः, उन्मुखैः, ऊर्द्धमुखैः। उदरशायीति—उदरशायिनां, गर्भस्थितानां, किशोरकाणां, शावकानां, जवजननाय, वेगवर्द्धनाय, प्रभञ्जनमिव, वायुमिव, आपिवन्तीनां, भक्षयन्तीनां, (संपीतवतीनामिति यावत्) वातहरिणीनामिव, वातमृगीण्णामिव,समीराभिमुखधाविनीनां, स्वच्छन्दचारिणीनां, स्वेच्छयाचरन्तीनां, वडवानां, अश्वानां, आचितः, आकीर्णः। अनवरतेति—अनवरताः, अविरताः, क्रतूनां, यज्ञानां, धूमा एव अन्धकाराः, तेषु प्रवृत्ताः, जाताः, तैः, (पक्षे) धूमेन अन्धकारः, तस्मात्, प्रवृत्तैः, पलायितैः, बाणैः, शरैः। धवलितेति—धवलितानि, श्वेतीकृतानि, भुवनानि, अवयवाः। संगीतेति—सङ्गीतेषु, निषादादि सप्तस्वरालपनेषु, गतानां, स्थितानां, मुरजानां, वाद्यानां, रवेण, नादेन, मत्ताः, मादकजनकाः, उल्लासिताश्च तैः। विभवैः, सम्पद्भिः, मुखरितः, शब्दितः, जीवलोकः यस्य। शशि-

शशिकरावदातवृत्तैर्मुक्ताफलैरिव गुणिभिः प्रसाधितः, पथिकशतविलुप्यमानस्फीतफलैर्महातरुभिरिव सर्वातिथिभिरभिगमनीयः, मृगमदपरिमलवाहिमृगरोमाच्छादितैर्हिमवत्पादैरिव महत्तरैः स्थिरीकृतः, प्रोद्दण्डसहस्रपत्रोपविष्टद्विजोत्तमैर्नारायणनाभिमण्डलैरिव तोयाशयैर्मण्डितः, मथितपयः प्रवाहप्रक्षालितक्षितिभिः

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**करेति—**शशिनः, चन्द्रस्य, कराः, किरणाः, तदवत्, अवदातानि, विशदानि, वृत्तानि, चरितानि, येषाम्, (पक्षे) शशिकरवत् अवदातानि, स्वच्छानि, वृत्तानि, वर्तुलानि, तैः, गुणिभिः, विद्याविनयशालिभिः, सूत्रवद्भिश्च, प्रसाधितः, अलंकृतः। **पथिकेति—**पथिकशतैः, पान्थैः, विलुप्कमानानि, चौर्य्यमाणानि, स्फीतानि फलानि, धनानि येषां, (पक्षे) पथिकानां, अध्वगानां, शतेः, विलुप्यमानानि, गृह्यमाणानि, भक्षणेन, स्फीतानि, प्रभूतानि, फलानि येषां तैः, अभिगमनीयः, आश्रयणीयः। **मृगेति—**मृगमदस्य, कस्तूरिकायाः, परिमलवाहिभिः, सौरभशालिभिः, मृगरोमभिः, राङ्कबेतिसंज्ञान्तरैः, (राङ्कवं मृगरोमजम्) आच्छादितैः, कृतगात्रावरणैः, (पक्षे) तथाविधमृगरोमावृतैः, हिमपादपैरिव, हिमाद्रेः प्रत्यन्तपर्वतैरिव, महत्तरैः, अतिमहद्भिः, लोकैः, वृद्धेर्वा (पक्षे ) प्रकाण्डैः, स्थिरीकृतः, आवासितः। **प्रोद्दण्डेति—**प्रकर्षेण, उद्गताः, दण्डाः, नालाः, येषां तानि सहस्रपत्राणि कमलानि तेषु उपविष्टा द्विजोत्तमाः, उत्कृष्टा, पक्षिणः, ब्राह्मणश्च, येषु, तथाभूतैः, तोयाशयैः, जलाशयैः, (पक्षे ) तोयमेव, आशयः, आधारः (स्थानमित्यर्थः) येषां तैः नारायणमण्डलैरिव, मण्डितः, सुशोभितः। **मथितेति—**मथितानां, निर्जलतक्राणां, पयसां, दुग्धानां च, प्रवाहेन, निवहेन, (पक्षे) मथितेन, विलोडितेन, पयसां दुग्धानां, प्रवाहेण, स्रोतसा, प्रक्षालिता, धौता, क्षितिः, भूभागो,

क्षीरोदमथनारम्भैरिव महाघोषैः पूरिताशः श्रीकण्ठो नाम जनपदः।

** यत्र त्रेताग्निधूमाश्रुपातजलक्षालिता इवाक्षीयन्त कुदृष्टयः। पच्यमानचयनेष्टकादहनदग्धानीव नादृश्यन्त दुरितानि। छिद्यमानयूपदारुपरशुपाटित इव व्यदीर्यताधर्मः। मखशिखिधूमजलधरधाराधौत इव ननाश वर्णसंकरः। दीयमानानेकगोसहस्रशृङ्गखण्डयमान इवापलायत कलिः। सुरालयशिलाघट्टनटङ्कनिकरनिकृत्ता इव व्यदीर्यन्त विपदः। महादानविधानकलकलाभि-**

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यैः, तथोक्तैः। महाघोषैः, महद्भिः, घोषैः, गोपपल्लीभिः, (घोषः अभीरपल्लीस्यात् “इत्यमरः) (पक्षे) महाघोषैः, महारावैश्च पूरिताः, व्याप्ताः, आशाः, आकांक्षाः, दिशश्च यत्र तथोक्तः। त्रेता, अग्नित्रयम्, प्रचण्डाग्निबोधाय त्रेताशब्दः प्रयुक्तः तस्य, धूमेन योऽश्रुपातः तस्य, जलेन, क्षालिता इव, धौता इव, कुदृष्टयः, अक्षीयन्तः, क्षयमगच्छन्। पच्यमानेति—पच्यमानं, दह्यमानं, चमनं, चित्या यासां तथा भूतानां, इष्टकानां, दहनेन, सन्तापेन, दग्धानीव भस्मीकृतानीव, दुरितानि’ पापानि, न अदृश्यन्तः। **छिद्यमानेति—**छिद्यमानानि, कृत्यमानानि, यूपायदारुणि, यैः तथाभूतैः, परशुभिः, कुठारैः, पाटित इव, कर्त्तित इव, अधर्मः, पापं, व्यदीर्यत, विदीर्णः, अभूत्। **मखेति—**मखानां, यागानां, शिखिनः, अग्नयः, तेषां धूमाः, तैः ये जलधराः, मेघाः, तेषां धाराभिः, वर्षाभिः, धौत इव, क्षालिल इव, वर्णसंकरः (प्रातिलोम्येन संतानोत्पादनम् ) ननाश। **दीयमानेति—**दीयमानानां, अनेकेषां, गोसहस्राणां, शृङ्गैः, खण्डयमान इव कलिः। **सुरेति—**सुरालयेषु, देवमन्दिरेषु, याः, शिलाः, तासां घटने, योजने ये टङ्कनिकराः, शिलाविदारणास्त्रसमूहाः, तैः निकृत्ता इव व्यदीर्यन्त, व्यचूर्णयन्त। महा-

**द्रुता इव प्राद्रवन्नुपद्रवाः। दीप्यमानसत्रमहानससहस्त्रसंतापिता इव व्यलीयन्त व्याधयः। वृषविवाहप्रहतपुण्यपटहपटुरवत्रासिता इव नोपासर्पन्नपमृत्यवः। सततब्रह्मघोषबधिरीकृता इवापजग्मुरीतयः। धर्माधिकारपरिभूतमिव न प्राभवद्दुर्दैवम्। **

** तत्र चैवंविधे नानारामाभिरामकुसुमगन्धपरिमलाभोगसुभगो यौवनारम्भ इव भुवनस्य, कु‌ङ्कुममलनपिञ्जरितबहुमहिषीसहस्त्रशोभितोऽन्तःपुरनिवेश इव धर्मस्य, मरुदुद्धूयमानचमरीबालव्य-**

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**दानेति—**महादानानां, विधाने, यः कलकलः, तेन अभिद्रुता इव, ताडिता इव, उपद्रवाः, अनिष्टपाताः, प्रादुवन्, पलायन्तः। **दीप्यमानेति—**दीप्यमानानां, राजमानानां, सत्राणां, महानसानां, रन्धनशालानां, सहस्त्रैः, सन्तापिता इव, अभिभूता इव, व्याधयः, रोगाः। **वृषेति—**वृषस्य विवाहः तत्र प्रहतस्य, वादितस्य, पुण्यपटहस्य, पटुना, तारेण, रवेण, नादेन, त्रासिता इव, भीषिता इव, अपमृत्यवः, न उपासर्पन्, नापतन्। **सततेति—**सततेन, अविरतेन, ब्रह्मघोषेण, वेदध्वनिना, वधिरीकृता इव, श्रवणशक्तिरहिता इव, ईतयः, सस्योपघातकराः जन्तवः, अपजग्मुः। **धर्मेति—**धर्माधिकारः, धर्मविचारालयः, तेन परिभूतम् इव निराकृतम् इव दुर्दैवं न प्राभवत्।

तत्र इत्यादौ स्थाण्वीश्वराख्यो जननिवेशः—इत्युत्तरेणान्वयः। नानेनि-नाना, आरामाणां, वहूनां उद्यानानां, अभिरामाणि, मनोहराणि, कुसुमानि, (पक्षे) नाना रामाः, महिलाः, अभिरामकुसुमानि, इव, तेषां गन्धस्य, सौरभस्य, परिमलः, सम्मर्दनामोदः, तस्य आभोगः, अनुभवः, तेन सुभगः रम्यः। **कुंकुमेति—**कुंकुमानां, मलनेन, कर्दमेन, पिञ्जरिता, रञ्जिता, वहवः, महिष्यः कृताभिषेकाः, राजभार्याः, उत्तमाः, महिलाश्च तासां सहस्त्रेण शोभितः। **मरुदिति—**मरुतः, वायवः,

जनधवलितप्रान्तः, एकदेश इव सुरराज्यस्य, ज्वलन्मखशिखिसहस्रदीप्यमानदशदिगन्तः शिबिरसंनिवेश इव कृतयुगस्य, पद्मा सनस्थितब्रह्मर्षिध्यानाधीयमानसकलाकुशलप्रशमः प्रथमोऽवतार इव ब्रह्मलोकस्य, कलकलमुखरमहावाहिनीशतसंकुलो विपक्ष इवोत्तरकुरूणाम्, ईश्वरमार्गणसंतापानभिज्ञसकलजनो विजिगीषुरिव त्रिपुरस्य, सुधारससिक्तधवलगृहपंक्तिपाण्डुरः प्रतिनिधिरिव चन्द्रलोकस्य, मधुरमत्तमत्तकाशिनीभूषणरवभरि-

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देवाश्च तैः उद्धूयमानाः, संचाल्यमानाः, चमरीणां वालाः, पुच्छलोमानि, तै धवलिताः, प्रान्ताः यस्य तथोक्तः। **ज्वलदिति—**ज्वलतां, मुखशिखिनां, यज्ञाग्नीनां सहस्त्रैः, दीप्यमानाः, दशानांदिशामन्ताः, यस्य तथा भूतः। शिविर सन्निवेश इव कटक वन्ध इव कृतयुगस्य, सत्ययुगस्य। **पद्येति—**पद्मासनेषु स्थिताः ये ब्रह्मर्षयः, तैः, ध्यानेन, आधीयमानः, सकलानां, समग्राणां, अकुशलानां, अमङ्गलानां, प्रशमः, शान्तिः यस्मिन् तथा भूतः। **कलकलेति—**कलकलैः मुखराः, नदन्त्यः, महत्य, वाहिन्यः नद्यः, सेनाश्च तासां शतेन संकलः, आकीर्णः, उत्तरकुरूणां, उत्तराः कुरवः मेरुसमीप देशवासिनः तेषां, विक्षेप, इव।**ईश्वरेति—**ईश्वरस्य, हरस्य, राज्ञश्च मार्गणैः, शरैः, बहुधाछलेनार्थप्रार्थनैश्च यः सन्तापः, क्लेशः तस्य, अनभिज्ञाः, सकलाः, जनाः, यस्मिन् तथाभूतः। त्रिपुरस्य तिसृणां पुरां समाहारः त्रिपुरं, मयदानवनिर्मितम् तस्य। **सुधेति—**सुधारसैः, लेपनद्रवैः, अमृतैश्च, सिक्तानां, लिप्तानां, धवलगृहाणां, प‌ङ्क्तिभिः, राजिभिः पाण्डुरः, धवलः। प्रतिनिधिरिव, प्रतिकृतिरिव, चन्द्रलोकस्य। **मध्विति—**मधुमदेन, मद्यपानजनितेनोल्लासेन, मत्ताः, याः, मत्तकाशिन्यः, उत्तमाङ्गना’, यक्षिण्यश्च, तासां भूषणरवैः, भरितं, आपूरितम्, भुवनं यत्र तथाभूतः।

तभुवनो नामाभिहार इव कुवेरनगरस्य, स्थाण्वीश्वराख्यो जननिवेशः।

** यस्तपोवनमिति मुनिभिः, कामायतनमिति वेश्याभिः, संगीतशालेति लासकैः, यमनगरमिति शत्रुभिः, चिन्तामणिभूमि रित्यर्थिभिः, वीरक्षेत्रमिति शस्त्रोपजीविभिः, गुरुकुलमिति विद्यार्थिभिः, गन्धर्वनगरमिति गायनैः, विश्वकर्ममन्दिरमिति विज्ञानिभिः, लाभभूमिरिति वैदेहकैः, द्यूतस्थानमिति भागार्थिभिः, साधुसमागम इति सद्भिः, वज्रपञ्जरमिति शरणागतैः, विटगोष्ठीति विदग्धैः, सुकृतपरिणाम इति पथिकैः, असुरविवरमिति वातिकैः, शाक्याश्रम इति शमिभिः, अप्सरःपुरमिति कामिभिः,**

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स्थाण्वीश्वराख्यः (थानेसर) जननिवेशः। देशः, मुनिभिः, तपोवनं, तपः कर्तुं, गृहं, वेश्याभिः, वारविलासिनीभिः, कामस्य, आयतनं गृहम्। लासकैः, नर्तकैः, संगीतशाला, शत्रुभिः, अरिभिः, यमनगरम्, प्राणहन्तृपुरम्। अर्थिभिः, याचकैः, चिन्तामणिः, विचारितवस्तुदरत्नविशेषः, तस्याः, भूमिः, क्षेत्रम्। शस्त्रोपजीविभिः, वीरसैनिकैः, वीरक्षेत्रम्, वीरोत्पत्तिभूमिः। विद्यार्थिभिः, अन्तेवासिभिः, गुरुकुलम्। गायनैः, गायनाचार्यैः, गन्धर्वनगरम्। विज्ञानिभिः, शिल्पादिकलाज्ञातृभिः, विश्वकर्मामन्दिरम्, शिल्पविद्यानिधिगृहम्। वैदेहिकैः, बणिग्भिः, लाभभूमिः, धनोपर्जनस्थानैः, भागर्थिभिः, भागः, सौभाग्यन्, तद‌र्थिभिः, तद‌भिलापिभिः, द्यूतस्थानम्, द्यूतं, देवनं, क्रीडेति यावत्, तत्स्थानम्। शरणागतैः, शरणप्राप्तैः, वज्रपंजरम्, वज्रनिर्मितपंजरं विदग्धैः, विलासिभिः, विटगोष्ठी, विलाससमाजः। पथिकैः, अध्वगैः सुकृतानां, पुण्यानां, परिणामः, परिणतिः। वातिकैः, वायुरोगिभिः, असुरविवरं, पानालम्। शमिभिः, बौद्वैः, शाक्याश्रमः, बुद्धसन्यासिमठः। कामिभिः,

**महोत्सवसमाज इति चारणैः, वासुधारेति विप्रैरगृह्यत। **

** यत्र च मातंगगामिन्यः शीलवत्यश्च, गौर्योविभवरताश्च, श्यामाः पद्मरागिण्यश्च, धवलद्विजशुचिवदनाः मदिरामोदिश्वसनाश्च, चन्द्रकान्तवपुषः शिरीषकोमलाङ्गयश्च, अभुजंगगम्याः कञ्चुकिन्यश्च, पृथुकलत्रश्रियो दरिद्रमध्यकलिताश्च, लावण्य-**

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विलासिभिः, अप्सरःपुरम्। चारणैः, स्तुतिगायकैः, महोत्सवस्य, समाजः, गोष्ठी। विप्रैः, ब्राह्मणैः, वसुधारा, धनप्रवाहः, मानङ्गगामिन्यः, श्वपचगामिन्यः, शीलवत्यः, सुशीलाः, याः चण्डालान गच्छन्ति कथं सा शीलवती इति विरोधः गजवत्, गामिन्य इति परिहारः। गौर्याः, पार्वत्याः, विभवरताः, विगतः, भवे, हरे, रतः यासां ताः, इति विरोधः, गौर्यः, गौराङ्गयः, विभवे, धने रताः, इति परिहारः। श्यामाः, रात्रयः, पद्मरागिन्यः, पद्मषु, कमलेषु रागवत्यः, इति विरोधः। पद्मानांनिर्मलनान् श्यामाः, श्यामलाङ्गयः, पद्मरागिण्यः, पद्मरागरत्नालंकृताः। **धवलेति—**धवलानि, विशदानि, द्विजस्येव शुचीनि, पवित्राणि, वदनानि यासां ताः। **मदिरेति—**मदिरया, सुरया, आमोदिनः, शौरभवन्तः, श्वसनाः, श्वासवायवः, यासां ताः, याः पवित्र ब्राह्मणवत् पवित्रवदनाः तासां मद्यपानेन कथं मुखपवित्रता, इति विरोधः। धवलैः स्वच्छैः, द्विजैः, दन्तैः, शुचिनि, उज्वलानि वदनानि, यासां ताः। **चन्द्रकान्तेति—**चन्द्रकान्तः, मणिविशेषः, तद्वत् वपुः यासां ताः, अथ च शिरीषकोमलाङ्गयः, शिरीषपुष्पवत्, कोमलं, सुकुमारं अङ्गं यासां ताः। याः चन्द्रकान्तप्रस्तरविशेषवत् कठिनाङ्गयः कथं ताः कोमलाङ्ग्यः-इति विरोधः। चन्द्रकान्तमणिवत् रमणीयं वपुः यासां ताः-इतिपरिहारः। **अभुजंगेति—**भुजङ्गैः सर्पैः, नगम्या अभुङ्गगम्याः, कंचुकिन्यः, भुजंग्यः, इति विरोधः, भुजंगैः, विटैः, न गम्याः

वत्यो मधुरभाषिण्यश्च, अप्रमत्ताः प्रसन्नोज्ज्वलरागाश्च, अकौतुकाः प्रौढाश्च प्रमदाः।

** यत्र च प्रमदानां चक्षुरेव सहजं मुण्डमालामण्डनं, भारः कुवलयदलदामानि। अलकप्रतिबिम्बान्येव कपोलतलगतान्यक्लिष्टाः श्रवणावतंसाः, पुनरुक्तानि तमालकिसलयानि। प्रियजनकथा**

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कंचुकं स्त्रीणां स्तनावरण चोलकं तद्वत्यः। **पृथ्विति—**पृथुः, आदिराजः, वेणपुत्रः, तस्य कलत्राणां, श्रियः, इव, सम्पदः, यासां ताः, अथ च, दरिद्रमध्यकलिताः, दरिद्राणां, मध्ये, कलिताः, संख्याताः, याः खलुराजमहिष्य इव संपच्छालिन्यः कथं ताः द्ररिद्राः इति विरोधः पृथवी महती कलत्रस्य, ओणेः (जघनस्येत्यर्थः) श्रीः शोभा यासां ताः द्ररिद्रं, क्षीणं मध्यः, कटिदेशः तेन कलिताः, इति परिहारः। लावण्यवत्यः, लावण्यरसशालिन्यः, अथ च, मधुरभाषिण्यः मधुराउक्ति यासां ताः याः लावण्यरमवहालाः कथं ताः मधुरोक्तिवत्यः-इति विरोधः, लावण्यवत्यः, सौन्दर्यवत्यः, मधुरभाषिण्यः, प्रियवादिन्यः इति परिहारः। प्रसन्ना, सुराभेदः तया उज्वलः रागः अनुरागः यासां ताः, अथ च, अप्रमत्ताः अक्षीवाः याः मद्यपायिन्यः कथं सा अप्रमत्ताः, प्रसन्नः, सौम्यः उज्वलः, विशदः, रागः वर्णः, यासां ताः, इति परिपरिहारः। अकौतुकाः, विवाह कालिकहस्तसूत्रं तद्रहिताः अथ च प्रौढाः, पूर्णयौवनाः, याहि पूर्णयौवना कथं अविवाहिताः, इति विरोधः कौतुकं, औत्सुक्यं तद्रहिताः, इति परिहारः। सहजं, अकृत्रिमम्। मुण्डमालामण्डनं, मुण्डमाला, नीलोत्पलमाला एव मण्डनं भूषणं। कुवलयदलदामानिनीलोत्पलपत्रमालिकाः भारः (वाह्यवस्तुमात्रम्, इत्यर्थः) **अलकेति—**अलकानां, चूर्णकुन्तलानां, प्रतिबिम्बानि, छाया एव, अक्लिष्टाः, श्रवणावतन्साः, श्रोत्रभूषणानि। तमालकिस-

एक सुभगाः कर्णालंकाराः, आडम्बरः कुण्डलादिः। कपोला एव सततमालोककारकाः, विभवो निशासु मणिप्रदीपाः। निःश्वासाकृष्टमधुकरकुलान्येव रमणीयं मुखावरणं, कुलस्त्रीजनाचारो जालिका। वाण्येव मधुरा वीणा, बाह्यविज्ञानं तन्त्रीताडनम्। हासा एवातिशयसुरभयः पटवासाः, निरर्थकाः कर्पूरपांशवः। अधरकान्तिविसर एवोज्ज्वलतरोऽङ्ग रागो निर्गुणो लावण्यकलङ्कः कु‌ङ्कुमपङ्कः। बाहव एव कोमलतमाः परिहासप्रहारवेत्रलताः, निष्प्रयोजनानि मृणालानि। यौवनोष्मस्वेदविन्दव एव विदग्धाः कुचालंकृतयो हारास्तु भाराः। श्रोण्य एव वि-

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लयानि, तन्नामवृक्षपत्राणि पुनरुक्तानि (निरर्थकानि इति भावः ) प्रियजनकथा, कान्तासम्बन्द्धालापाः, सुभगाः, रमणीयाः, आडम्बरः, संरम्भः, आलोककारकाः, कान्तिकर्तारः, विभवाः, ऐश्वयम्। **निश्वासेति—**निश्वासेन, आकृष्टानां, मधुकराणां, भ्रमराणां, कुलानि, सङ्घाः। मुखावरणम्, मुखाच्छादनम्। जालिका, अवगुण्ठनपटम्, तन्त्रीताडनम्, वीणागुणाघातम्। वाह्यविज्ञानम्, वाह्यं, वर्हिगतं, विज्ञानं, विशेषेण वादित्रवादनबोधः। पटवासाः, सुगन्धचूर्णविशेषाः, निरर्थकाः, निष्प्रयोजनाः, कर्पूरपांसवः, कर्पूररजांसि, अधरस्य, ओष्ठस्य, कान्तिविस्तारः, लावण्यविस्तारः, निर्गुणः, निष्फलः, लावण्यकलङ्कः, लावण्यस्य मालिन्यापादकः, कुंकुमपङ्कः, कुंकुमद्रवः। कोमलतमाः, अतिकोमलाः। **परिहासेति—**परिहासे, क्रीडाकाले, यः प्रहारः ताडनं, तदर्थं वेत्रलताः, वेत्राणि। निष्प्रयोजनानि, प्रयोजनरहितानि, मृणालानि, कमलानि। **यौवनेति—**यौवनेन, तारुण्येन, यः, उष्मा, उष्मता, तेन ये स्वेद‌विन्दवः, धर्मजलकणाः, विदग्धाः, मनोज्ञाः। श्रोण्यः, नितम्बाः। **विशालेति—**विशालं, वृहत्, यत्

शालस्फाटिकशिलातलचतुरस्रारागिणां विश्रामकारणमनिमित्तं भवनमणिवेदिकाः। कमललोभनिलीनान्यलिकुलान्येव मुखराणि पदाभरणकानि, निष्फलानीन्द्रनीलनूपुराणि। नूपुररवाहूता भवनकलहंसा एव समुचिताः संचरणसहायाः, ऐश्वर्यप्रपञ्चाः परिजनाः।

** तत्र च साक्षात्सहस्राक्ष इव सर्ववर्णधरं धनुर्दधानः, मेरुमय इव कल्याणप्रकृतित्वे, मन्दरमय इव लक्ष्मीसमाकर्षणे, जलनिधिमय इच मर्यादायाम्, आकाशमय इव शब्द‌प्रादुर्भावे,**

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स्फटिकशिलानलं, स्फटिकमणिमयशिलापट्टम्, तद्वत् चतुरस्राः, चतुष्कोणाः, रागिणां, विलासिनां, विश्रामकारणं, विश्रान्तिस्थानम्, अनिमित्तं, अकारणम्। **कमलेति—**कमललोभेन, निलीनानि, संलग्नानि। मुखराणि, निस्वनन्ति, इन्द्रनीलनूपुराणि, नीलकान्तमणिनिर्मितानि, मञ्जीराणि। सञ्चरणसहायः विचरणसङ्गिन्यः, ऐश्वर्यप्रपञ्चाः, विभवविस्तराः। तत्र इत्यादावारभ्य, पूष्पभूतिरितिनाम्नावभूव इत्येननान्वयः। सर्वेति सर्वे, वर्णाः, ब्राह्मणादयः, शुक्लाद्यश्च तान् धरतीति, धारयति, पालयति, वा तथोक्तम्, धनुः कामुर्कं, दधानः, धारयन्। कल्याणप्रकृतित्वे, कल्याणं, मङ्गलं, स्वर्णञ्च प्रकृतिः यस्य तथात्वे। मन्दरमयः, तदाख्यपर्वतकः, क्षीरोदमन्थने, मन्दराचलस्य, मन्थनदण्डरूपतया, तेनैव तत्र स्थितायाः, लक्ष्म्याः, समुद्धरणम्। मर्यादायां, स्थितौ, सदाचाररक्षणे, सीमायां च जलनिधिः, असीमा, तथा ऽयमपि अविचलितसदाचारः, शब्द‌प्रादुर्भावे, शब्दानां, यशोविनयादिरूपाणां, घटपटादिरूपाणां च, प्रादुर्भावः, प्रकाशनं, यस्मिन् आकामय इव। कलासंग्रहे, कलाः, चतुषष्टिप्रकाराः विद्या षोडशभागाश्च, तासां, संग्रहः, तस्मिन्, शशिमय इव। अकृत्रिमालापत्वे,

शशिमय इव कलासंग्रहे, वेदमय इवाकृत्रिमालापत्वे, धरणिमय इव लोकधृतिकरणे, पवनमय इव सर्वपार्थिवरजीविकारहरणे, गुरुर्वचसि, पृथुरुरसि, विशालो मनसि, जनकस्तपसि, सुयात्रस्तेजसि, सुमन्त्रो रहसि, बुधः सदसि, अर्जुनो यशसि, भीष्मो धनुषि, निषधो वपुषि, शत्रुघ्नः समरे, शूरः शूरसेनाऽऽक्रमणे, दक्षः प्रजाकर्मणि, सर्वादिराजतेजः पुञ्जनिर्मित इव राजा पुष्पभूतिरिति नाम्ना बभूव।

** पृथुना गौरियं कृतेति यः स्पर्धमान इव महीं महिषीं चकार।**

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अकृत्रिमः, अकपटः, सत्यमित्यर्थः, अपौरुषेयश्च आलापः वचनं यस्य तथात्वे वेदमय इव। लोकधृतिकरणे, लोकानां, जनानां, जगतांश्च धृतिः, धारणां, धैर्यश्च तस्याः करणो, सम्पादने धरणिमय इव। सर्वेति—सर्वषां, पार्थिवानां, राज्ञां, रजोविकारस्य, रजोगुणविकृतेः (पक्षे) पार्थिवानां, पृथिवीसम्बन्धिनां रजसां, धूलीनां विकारस्य हरणो, अपनयने। वचसि गुरुः, महान्, उरसि, वक्षसि, पृथुः, विशालः, मनसि, हृदये, विशालः, विस्तीर्णः, तपसि, तपस्यायां, जनकः, उत्पादकः, तेजसि, सुयात्रः, सुशोभना यात्रा यस्यसः रहसि एकान्ते, सुमन्त्रः, सुशोभनः मन्त्रः यस्य तथोक्तः, सदसि, सभायां, बुधः, पण्डितः। धनुषि, कार्मुक, भीष्मः, कठिनः, वपुषि, निषधः, कठिनः। समरे, युद्धे, शत्रुघ्नः, शत्रून् हन्तीति सः। शूरः, बीरः। शूरेति—शूराणां, शौर्यशालिनीनां, सेनानां, शूरसेनस्य, देशविशेषस्य आक्रमणं तस्मिन्। प्रजाकर्मणि, प्रजापालने, दक्षः, चतुरः। सर्वेति—सर्वेषां आदिराजानां तेजसः, पुञ्जेन निर्मितः, रचित इव राजा, नृपतिः, पुष्पभूतिः नाम्नाबभूव। पृथुनेत्यादि इयं, मही, गौः। कृतेति—स्पर्धमान इव, इर्ष्यमाणइव महीं, महिषीं, कृताभिषेकां,

निसर्गस्वैरिणी स्वरुच्यनुरोधिनी च भवति हि महतां मतिः। यतस्तस्य केनचिदनुपदिष्टा सहजैव शैशवादारभ्यान्यदेवताविमुखी भगवति, भक्तिसुलभे, भुवनभृति, भूतभावने, भवच्छिदि, भवे भूयसी भक्तिरभूत्। अकृतवृषभध्वजपूजाविधिर्न स्वप्नेऽप्या हारमकरोत्। अजम्, अजरम्, अमरगुरुम्, असुरपुररिपुम्, अपरिमितगणपतिम्, अचलदुहितृपतिम्, अखिलभुवनकृतचरणनतिम्, पशुपतिं प्रपन्नोऽन्यदेवताशून्यममन्यत त्रैलोक्यम्। भर्तृचित्तानुवर्तिन्यश्चानुजीविनां प्रकृतयः। तथा हि। गृहे गृहे भगवानपूज्यत खण्डपरशुः। वधुरस्य होमानलज्वालाविलीयमानबहलगुग्गुलुगन्धगर्भाः स्नपनक्षीरशीकरक्षोदक्षारिणो विल्वप-

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प्रधानपत्रिं चकार। निसर्गस्वैरिणी, स्वभावतः स्वेच्छाचारिणी, स्वरुच्यानुरोधिनी, स्वाभिमतनुवर्तिनी, अनुपदिष्टा, अशीक्षिता।भुवनेति—भुवनानि, जगन्नि, विभ्रति, धारयति तस्मिन्। भूतेति—भूतान्, प्राणिनः भावयति मनः, स्थितत्वेन, विषयेषु, प्रवर्तयति यः तस्मिन्। भवच्छिदि, संसारध्वंसिनि। भवे, हरे। अजं, जन्मरहितं, अजरं, जराशून्यम्, अमरगुरुम्, देवदेवम्, असुर पुररिपुम्, त्रिपुरारिम्, अपरिमितगणपतिम्, अपरिमितानां, असंख्यकानां, गणानां, प्रमथानां, पतिः, तम्। अचलेति—अचलस्य, नगस्य, हिमवतः, दुहितुः, कन्यायाः, पतिः, तम्। अखिलेति—अखिलैः, समग्रैः, भुवनैः, कृता, चरणयोः, नतिः, प्रणामः, यस्य तम्। प्रपन्नः, आश्रितः।खण्डपरशुः, शिवः, (शंकरश्चन्द्रशेखरः, भूतेशः खण्डपरशुः “इत्यमरः) ववुः, वह‌न्तिस्म। होमेति—होमानलज्वालायां, होमकुण्डाग्निशिखायाम्, विलीयमानानां, द्रवतां, वहलानां, वहूनां, गुग्गुलानां, गन्धोगर्भे, मध्ये येषां ते। स्नपनेति—स्नपनं, स्नानोपकरणम्, यत् क्षीरं,

ल्लवदामदलोद्वाहिनः पुण्यालयेषु वायवः। शिवसपर्यासमुचितैरुपायनैः प्राभृतैश्च पौराः, पादोपजीविनः सचिवाः, भुजबलनिर्जिताश्च करदीकृता महासान्तास्तं सिषेविरे। तथा हि। कैलासकूटधवलैः कनकपत्रलतालंकृतविषाणकोटिभिर्महाप्रमाणैः संध्यायलिवृषैः सौवर्णैश्च स्नपनकलशैरर्ध्यभाजनैश्च, धूपपात्रैश्च, पुष्पपटैश्च, मणियष्टिप्रदीपैश्च, ब्रह्मसूत्रैश्च, महार्ह माणिक्यखण्डखचितैश्च मुखकोषैः परितोषमस्य मनसि चक्रुः। अन्तःपुराण्यपि स्वयमारब्धबालेयतण्डुलकण्डनानि, देवगृहोपलेपनलोहि-

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दुग्धम्, तस्य शीकराः, विन्दवः एव क्षोदाः, चूणेसदृशाः, तान् क्षरन्तीति तथोक्ताः। **विल्वेति—**विल्वपल्लवानां, दामानि, माल्यानि, तेषां दलानि, निचयानि, उद्वहन्तीति तथाविधाः, पुण्यालयेषु, पुण्यस्थानेषु। **शिवेति—**शिवस्य, सपर्या, पूजा, तत्समुचितानि, तैः, उपात्यनैः, उपढौकनैः, प्राभृतकैः, सुहृत्प्रेषितैः, करदीकृताः, दण्डजाः कृताः, महासामन्ताः, श्रेष्ठनृपतयः। कैलासस्य, रत्नतगिरेः, कूटानि, शिखराणि तद्वत् धवलाः तैः। **कनकेति—**कनकपत्रलताभिः, स्वर्णरचितपत्रभंगैः, अलंकृताः, विषाणकोटयः, शृङ्गाग्राणि, येषां तैः। महाप्रमाणैः, वृहदाकारैः, सन्ध्यावलिवृषैः, सन्ध्याकालिकपूजार्थवृषभैः, सौवर्णैः, काञ्चनमयैः, स्नपनकलसैः, स्नानकुम्भैः, अर्घ्यभाजनैः, अर्घ्यपात्रैः, पुष्पपट्टैः, कुसुमवसनैः। मणियष्टिप्रदीपाः, ज्वलन्मणिशिखा तैः, ब्रह्मसूत्रैः, यज्ञोपवीतैः। **महार्हेति—**महार्हेण, महामूल्येन, माणिक्यखण्डेन, रत्नशकलेन, खचितैः, निवद्धैः, मुखकोषैः, मुखयुक्ताः कोषाः तैः, शिवलिङ्गाच्छादनैः, अस्य पुष्पभूतेः। अन्तः पुराणि अवरोधवर्गाः। **आरब्धेति—**आरब्धानि, वालेयानां, तण्डुलानां, कण्डनानि, यैः तथा भूतानि। **देवेति—**देवगृहस्य, शिव-

ततरकरकिसलयानि, कुसुमग्रथनव्यग्रसमस्तपरिजनानि तस्याभिलषितमन्ववर्तन्त। तथा च। परममाहेश्वरः स भूपालो लोकतः शुश्राव, भुवि भगवन्तमपरमिव साक्षाद्दक्षमखमथनं दाक्षिणात्यं बहुविधविद्याप्रभावप्रख्यातैर्गुणैः शिष्यैरिवानेकसहस्रसंख्यैर्व्याप्तमर्त्यलोकं भैरवाचार्यनामानं महाशैवम्। उपनयन्तिहि हृदयमदृष्टमपि जनं शीलसंवादाः। यतः स राजा श्रवणसमकालमेव तस्मिन्भैरवाचार्ये भगवति द्वितीय इव कपर्दिनि दूरगतेऽपि गरीयसीं बबन्ध भक्तिम्। आचकाङ्क्ष च मनोरथैरप्यस्य सर्वथा दर्शनम्।

** अथ कदाचित्पर्यस्तेऽस्ताचलचुम्बिनि वासरेऽन्तः पुरवर्तिनं राजानमुपसृत्य प्रतीहारी विज्ञापितवती**—‘देव, द्वारि परिव्राडास्ते कथयति च भैरवाचार्यवचनाद्देवमनुप्राप्तोऽस्मि’ इति।

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मन्दिरस्य, उपमेपनेत, गोमयादिनां संशोधनेन लोहिततरशः, अतिलोहिताः, करकिसलयाः, येषां तथोक्तानि। कुसुमेति—कुसुमानां, ग्रथने, गुम्फने, व्यग्राः, लग्नाः, परिवाराः, येषां तानि, अन्ववर्त्तन्तः, अन्वसरन्। परममाहेश्वरः, महेश्वरस्य परमभक्तः, भुवि वसुधायाम्। दक्षमग्वमथनम्, दक्षप्रजापतेः (यज्ञध्वंसनमित्यर्थः) दाक्षिणात्यम्, दक्षिणदेशप्रभवम्। वह्विति—बहुविधा, या विद्या, तस्याः, प्रभावेन, प्रख्यातैः, प्रसिद्धै, उपनयन्ति, उपस्थापयन्ति, शीलसंवादाः, चारित्रसादृश्यानि। कपर्दिनि, शिवि, गरीयसीं, गुरुतराम्, आचकांक्ष, इच्छ्यामास।

पर्यस्ते, अवसिते, वासरे, दिवसे, परिव्राट्, सन्न्यासी, अनुप्राप्तः, समागतः। अथ न चिरात् इत्यादौ मस्करिणमद्राक्षीत् इत्यनेनान्वयः। प्रांशु, उन्नतकायं, आजानु, उरुपर्यन्तं, लम्वौ, भुजौ यस्य तम्।

गजा तु तच्छ्रुत्वा सादरम्—‘क्वासौ आनयात्रैव। प्रवेशयैनम्’ इति चाब्रवीत्। तथा चाकरोत्प्रतीहारी। नचिराच्चप्रविशन्तं प्रांशुम्, आजानुलम्बभुजम् भैक्षक्षाममपि स्थूलास्थिभिग्वयवैः पीवरमिवोपलक्ष्यमाणम् पृथ्त्तमाङ्गम्, उत्तुङ्गबलिभङ्गस्थपुटललाटम् निर्मासगगडकृपम्, मधुबिन्दुपिङ्गलपरिमण्डलाक्षम्, ईषदावक्रधोणम्, अतिप्रलम्वैककर्णपाशम्, अलाबुबीजविकटोन्नतदन्तपङ्क्तिम्, तुरगानूकलथाधग्लेखम्, लम्बचिवुकायततरललपनम्, अंसावलम्बिना कापायेण योगपट्टकेन विरचितवैकक्षकम्, हृदयमध्यनिबद्धग्रन्थिना च रागेणेव खण्डशः कृतेन

भैक्षेति— भिक्षा, एव भैक्षं नंन क्षामं, क्षीणम। स्थूलेति—स्थूलाः, याः, अस्थयः, येषां, नैः, अवयवः, पीवरम् स्थूलं। प्रवृत्तमांगम, बृहन्मस्तकम्। उत्तंगेति उत्सुङ्गा, दीर्घा, बलिभंगा यत्र तादृशं, स्थपुटं, निम्नान्ननं, ललाटं, भालं, यस्य तथोक्तम। निर्मासेति—निर्मासौ, मांसशून्यौगण्डौ, कपोलौ, कूपाविव, यस्य तथोक्तम्। मध्विति— मधुविन्दुवन, पिंगलं, परिमण्डलं, गोलकं, ययोः नथा भूते, अक्षिणीयस्य तथा भूतम। ईषदिति ईषत्, आवका, घोगा। नासिकायस्यतम् (घोणानासा च नासिका इत्यमरः) अतीति—अति, अतिशयेन, प्रलम्बः, लम्बमानः, एकः कगापाशः यस्य तथोक्तम्। अलाध्विति अलाबुबीजवन्, तुम्बीचीज इव विकटा, कराला, उन्नता च दन्तपंक्तिः, दशनात्रलीयस्य तम्। तुरगेति— तुरगस्य, अनूकः, अधोगतः, ओष्ठः, तद्वत् अथा, शिथिला, अधरलेखा यस्य तम्। लम्बेति— लम्बेन, चिबुकेन, अधराधोभागेन, आयततरम्, अतिदीर्घे, लपनं, मुखं यस्य तथोक्तम्। अंसावलम्बिना, स्कन्धाबलम्बिना, काषायेण, कापायरञ्जितेन, योगपट्टकेन, योग

धातुरसारुणेन कर्पटेन कृतोत्तरासङ्गम्। पुनरुक्तबालप्रग्रहवेष्ट ननिश्चलमूलेन वद्धमृत्परिशोधनवंशत्वक्तित उनाकौपीनसनाथशिखरेण खर्जूरपुटसमुद्भकगर्भीकृतभिक्षाकपालकेन दारवफलकत्रयत्रिकोणत्रियष्टिनिविष्टकमण्डलुना बहिरुपपादितपादुकाषस्थानेन स्थूलदशासूत्रनियन्त्रितपुस्तिकापूलिकेन वामकरधृतेन योगभारकेणाध्यासितस्कन्धम् इतरकरगृहीतवेत्रासनं मस्करि


                          ***

साधनेन पट्टवसनखण्डेन विरचितं, वैकक्षकम्। हृदयेति— हृदयस्य, वक्षसः, मध्ये, निबद्धः, रचितः, ग्रन्थिः, यस्य तथिक्तेन, रागेणेव, धातुरसरुणेन, गैरिकरक्तेन, कर्पटेन, नक्तकेन, कृतोत्तरासंगकृतः, उत्तरासंगः, उत्तरीयं येन तथोक्तम। पुनरुक्तेति—पुनरुक्तेन, बालेन, नूतनेन, प्रग्रहेणा, रज्वा, यद्वेष्टनं, तेन निश्चलं, स्थिरं मूलं यस्य तेन। बद्धति— बद्धः, मृदां, मृतकानां, परिशोधनाय, परिमार्जनाय, वंशत्वचा, वेणुवल्कलेन, तितउः चालनी यत्र तेन (चालनीनितङः पुमान–इत्यमरः) कौपीनेति कोपीनेन, चीरवस्त्रेण, सनाथं, युक्तम, शिग्खरं, अग्रभागं, यस्य तेन। खर्जूरेति— खजूरस्य, वृक्षभेदस्य, पुटैः, श्लिष्टः, समुद्रकः, सम्पुटकः तस्य गर्भीकृतं गर्भस्थापिनं, भि ताकपालकं, (भिक्षापात्रमित्यर्थः) यस्य तथोक्तेन। दारवेति दारवं, काष्टसम्बन्धी यन् फलकत्रयम, पट्टकत्रयम, तस्मिन, ये, त्रयः कोरणाः तेषु याः, निस्रो, यष्टयः, दण्डाः, नासु, निविष्टः, कमण्डलुः यस्य तथाविधेन। बहिरिति वहिः, वाह्मदेशे, उपपादितं, सम्पादितं, पदुकयोः, उपानहोः, अवस्थानं, स्थापनं यस्य तथा विवे।स्थूलेति— स्थूलैः वृद्धः, पीवरैः, वा, दशसूत्रैः, वसनावल तन्तुभिः, नियन्त्रितं, निवद्धं, पुस्तिका पूलकं क्षुद्रपुस्तकसमूहः, यत्र तेन। वामकरधृतेन, वामहस्तगृहीतेन योगमारकेण, योगसाधन

णमद्राक्षीत्। क्षितिपतिप्युपगतमुचितेन चैनमादरेणान्वग्रहीत् आसीनं च पप्रच्छ— क्वभैरवाचार्यः’ इति। सादरनरपतिवचनुमुदितमनास्तु परितव्राट् तमुपनगरं सरस्वतीतटवनावलम्बिनि शुन्यायतने स्थितमाचचते। भूयश्वाबभाषे अर्चयति हि महाभागं भगबानाशीर्वचसा’ इत्युत्क्वा चोपनिन्ये योगभारकादाकृप्य भैरवाचार्यप्रहितानि रत्नवन्ति बहलालोकलिप्तान्तःपुराणि पञ्च राजतानि पुण्डरीकाणि।

** नरपतिस्तु प्रियजनप्रणयभङ्गकातरो दाक्षिण्यमनुरुध्यमानो ग्रहणलाघवं च लङ्घयितुमसमर्थो दोलायमानेन मनसा स्थित्वा चिरं कथं कथमप्यतिसौजन्यनिघ्नस्तानि जग्राह। जगाद च—**

द्रव्यमञ्चयस्थाल्या, अध्यामिनः, मंनिवेशितः स्कन्धः यस्य तम्। इतरेति इतरेगा, दक्षिणेन, करण, हस्तेन, गृहीतं, वेत्रासनम्। मस्करिणं सन्यासिनम्, अष्ट्राक्षीन्। क्षितिपनिः, राजा, उपगतम, उपस्थितम्। उचितेन, अनुकूलेन। उपनगरम, नगरसमीपम्। मुदितमनाः, प्रसन्नचित्तः। सरस्वतीति—सरस्वत्या, तन्नामनद्याः तेटे, नीरे यद्वनं तद‌वलम्बते इति तथोक्ते, सरस्वतीतीरम्थवनान्ते, शून्यायनने, शून्यमन्दिरे। स्थिति, वासं, आचचज्ञे, आवभास। भूयः, पुनः, अर्चयति, पूजयति, महाभागं, भाग्यवन्तम्, उपनिन्ये, समर्पितवान्। बहलेति—बहलेन, प्रभूतेन, आलोकन, कान्त्याः, लिप्तम्, अन्नपुरं, यैः तानि, रत्नवन्ति, मणिवचितानि, राजतानि, रौप्यमयानि, पुण्डरीकाणि, कमलानि। प्रियेति—प्रियजनस्य, प्रीतिपात्रस्य, प्रणयभङ्गः तेन कातरः, दाक्षिण्यं, चातुर्य, अनुरुध्यमानः, अनुसरन्, ग्रहणलाघवम्, ग्रहणे, लाघवम्, दोलायमानेन, (किंकर्त्तव्यविमूढतया गृह्णामि नवेति संशयितेनेत्यर्थः) अतिसजौत्य-

‘सर्वफलप्रसवहेतुः शिवभक्तिरियं नः, यया मनोग्यदुर्लभानि फलन्ति फलानि। येनंयमम्मासु प्रीयते भगवान्भुवनगुरुगैरवाचार्यः। श्रो द्रष्टास्मिभगवन्तम्’ इत्युक्त्वा च मस्करिणं व्यसर्जयत्। अनया च वार्तया पगं मुदमवाप।

** अपरेद्युश्च प्रातरेवोत्थाय वाजिनमधिरुह्य समुच्छितश्वेतातपत्रः समुद्धयमानधवलचामरयुगलः कतिपयेरेव राजपुत्रैः परिवृतो भैरवाचार्य सवितारमिव शशी द्रष्टुं प्रतस्थे। गत्वा च किंचिदन्तरं तदीयमेवाभिमुखमापतन्तमन्यतमं शिष्यमद्राक्षीन्। अप्राक्षाच्च ‘क भगवानास्ते’ इति। सोऽकथयत्— ‘अस्य जीर्ण-**

निव, अतिसौजन्यवंशवः। सर्वेति सर्वेषां, समग्राणां, फलानां प्रसवहतुः, उत्पत्तिकारगाम नः अस्माकम्। मनारथेति मनारथेनाऽपि, दुर्लभानि, दुष्प्राप्याणि। भुवनगुरुः, जगदाचार्यः, श्वः, परदिने, मस्करिणं, परित्राजम वात्तया, वृत्तान्तेन, वाजिनम्, अश्वम। समुच्छ्रितेति—ममुच्छितं, समुद्धृतम्, श्वेतं, धवलं, आतपत्रं, छत्रं येन सः। समुद्भूयमानेति समुदश्रूयमानं, मंत्रीज्यमानं, धवलं, अनं, च.मरयुगलं, येन सः। सविनारमिव, सूर्यमिव, शशी, चन्द्रः, द्रष्टुम, अत्रलाकयितुम अभिमुग्वम, मम्मुखम् आपतन्तं, आगच्छन्तम, अन्यतमम, अपरम शिष्यम, अन्तवासिनं, अद्राक्षीत, ददर्श। जीगर्गामातृगृहस्य, पुगननदेवीमन्दिरस्य, उत्तरंगा, उत्तरस्यां दिशि, बिल्ववाटिकाम, विल्ववृक्षशोभितोद्यानम्। अथेत्यादो भैरवाचार्यं ददर्श इत्युत्तरंणान्वयः। कापटिकवृन्दस्य, कपर्ट, चीरवम्ब्रम, परिधारयन्ति इति कापर्टिकाः, कौपीनधारिणः, तेषां, वृन्दस्य, समूहस्य। दत्तेति—दत्ताः, इष्टदेवायेतिभावः, अष्टो पुष्पिकाः, पद्मादयः येन तम्। अनुष्ठिनाग्निकार्यं, सम्पादिनहवनविधिम्। कृतेति— कृतः, भस्मचय-

**मातृगृहस्योत्तरेण बिल्ववाटिकामध्यास्ते’ इति। गत्वा च तं प्रदेशमवततार तुरङ्गमात्। प्रविवेश च बिल्ववाटिकाम्। **

** अथ महतः कार्पटिकवृन्दस्य मध्ये प्रातरेव स्नातम्, दत्ताष्टपुष्पिकम्, अनुष्ठिताग्निकार्यम्, कृतभस्मचयपरिहारपरिकरे हरितगोमयोपलिप्तक्षितितलविततेव्याघ्रचर्मण्युपविष्टम्, कृष्णकम्बलप्रावरणन्निभेनासुरविवरप्रवेशाशङ्कया पातालान्धकारावासमिवाभ्यस्यन्तम्, उन्मिषता विद्यन्कपिलेनात्मतेजसा महामांसविक्रयक्रीतेन मनः शिलापङ्केनेच शिष्यलोकं लिम्पन्तम्, जीकृतैकदेशलम्बमानरुद्राक्षशङ्खगुटिकेनोर्ध्ववर्द्धन शिग्वापाशेन बध्नन्तमिव विद्यायलेपदृविदग्धानुपरिसंचरतः सिद्धान्ध**

परिहाग्म्य, भूतिममूहसम्मार्जतम्य, परिकरः, प्रक्रिया यस्यतस्मिन्। हग्निति हग्लिन, श्यामजेन, गोमयेन, उपलिप्तं, शाभिनं, क्षितितलं, भूतलं तस्मिन बिनतं. विस्तृतं, तस्मिन्। **कृष्णकम्बलेति—**कृष्णावर्णकम्बलम, एव प्रावरणम् गात्राछादनम, नम्य निभः छलं. तेन। **असुरेति—**असुरविवग्म, पानालं, तत्र प्रवेशः नम्य आशंका, वितर्काः, तया। **पातालेति—**पाताले यः अन्धकारः, नत्र आवाभमिव, स्थितिमिव, अभ्यम्यन्तं, शिक्षमाणम्। उन्मिपता, स्फुरता, विद्युत कपिलेन, तडित्पिङ्गलेन, आत्मतेजसा, निजतेजसा। **महामांसेति—**महामांसं, नरमांसं, तस्य, विक्रयः, तेन क्रीतः, तेन। **मन-इति—**मनः शिला, (मैनशिल) धातुविशेषः तस्य पंकः, द्रवः, तेन, शिष्यलोकम, अन्तेवासिजनम्। **जटीति—**अजटा जटासम्पाद्यमानः, जटीकृतः, एकदेशः, एकांशः, तस्मिन्लम्बमानाः, रुद्राक्षाः, जपमालाः, शंखगुटिकाः, (शंखनिर्मितजपसाधना इत्यर्थः) यस्मिन् तथोक्तेन, ऊर्द्धवद्धेन, उन्नम्य नियमितेन, शिखापाशेन वध्नन्तमिव।

वलकतिपयशिरोरुहेण वयसा पञ्चपञ्चाशतं वर्षाण्यतिक्रामन्तम्, खालित्यक्षीयमाणशङ्खलोमलेखम्, लोमशकर्णशष्कुली प्रदेशम्, पृकुललाटतटम्, तिरश्च्या भस्मललाटिकया बहुशः शिरोर्धधृतदग्धगुग्गुलुसंतापस्फुटितकपालास्थिपाण्डुरराजिशङ्कामिव जनयन्तम्, सहजललाटवलिभङ्गसंकोचित कृर्चभागं बभ्रूभासं भ्रसंगत्या निरन्तरामायामिनीमेकामिव भूलेखां बिभ्राणम्, ईषत्काचरकनीनिकेन रक्तापाङ्गे निर्गतांशुप्रतानेन मध्यधवल-

विद्यति—विद्ययायोऽवलेपः, अहंकारः तेन दुर्विद्गधाः, दुर्विनीनाः तान्। उपरि, आकाश, संचरतः, परिभ्रमतः, सिद्धान देवयोनिविशेपान्। धवलति धवलाः, श्वेताः, शिरोकड़ाः, केशाः यस्मिन, तथोक्तन, शिरमा, उत्तमांगेन। खालित्येति—खलतिः, खल्वाटः तस्य भावः ग्वालित्यम् तेन चीयमाणा, शङ्खस्य, लोमलेग्या, केशनिचयो यस्य तथोक्तम। लोमशेति—लोमशः, लोमाकीर्णा, कर्ण- शष्कुली, कर्णकुहरं तस्या प्रदेशः, यस्य तम् । पृथुलल टनटम्, विशालभालम्। तिरश्च्या, तिर्यग्वर्निन्या ललाटिकया, मस्तक भूपगोन। शिर इति—शिरसः, ऊर्ध्वे, शिरोर्ध्वे, तस्मिन् धृतानां दग्धानां, गुग्गुलानां, गन्धद्रव्यभेदानां, सन्तापेन, उत्तापेन, स्फुटितानि यानि कपालाम्थीनि, मस्तकास्थीनि तेषां पाण्डुरा, धवला राजिः, पंङ्किः, तस्याः, शङ्का, तामिव, जनयन्तम, उत्पाद‌यन्तम्। सहजेति—सहजेन, स्वाभाविकेन, ललाटे यो बलिभङ्गः, तेन संकोचितः, लघुतां प्रापितः, कूर्चभागः, भ्रमध्यभागः, यस्य तथोक्तम्, (कूर्चमस्त्री भ्रुवोः, मध्यम् “इत्यमरः”) वज्रभासं, पिङ्गलकान्तिम्। भ्रसंगत्येति—भ्रवोः, संगतिः, सम्मेलनं तया, निरन्तरां, अविरलाम्, आयामिनीम, आयतां। भ्रलेखाम्। ईषदिति—ईषत्, काचरा, पीतवर्णाः, कनी-

भासेन्द्रायुधेनेवातिदीर्घेण लोचनयुगलेन परितोमहामण्डलमिवानेकवर्णरागमालिखन्तम्, सितपीतलोहितपताकावलीशबलम्, शिवबलिमिव दिक्षु विक्षिपन्तम्, तार्य्यतुण्डकोटिकुब्जाप्रघोणम्, दूरविदीर्णसृक्कसंक्षिप्तकपोलम्, किंचिद्दन्तुरतया सदाहृदयसंन्निहितहरमौलिचन्द्रातपेनेव निर्गच्छता दन्तालेकेन धवलयन्तं दिशां चक्रवालं, जिह्वाग्रस्थितसर्वशैवसंहितातिभारेणेव मनाक्प्र-

निका, मध्यतारा यस्य तेन। रक्तापांगन, नेत्रप्रान्तदेशेन। निर्गतेति—निर्गता, अंशूनां, किरणानां प्रनानाः, प्रमराः यस्मात्तेन, रक्तान, रक्तवर्गात्, अपाङ्गात्, नेत्रप्रान्तदेशानु, निर्गताः, अंशुप्रनानाः यस्य तेन। मध्येति— मध्ये, धवला, भासा, प्रभा, यस्य तेन इन्द्रायुधेन, शक्रधनुप इव, अनिदीर्घगा, आकर्गाविस्तृतेन, परितः, महामण्डलं, (सर्वनो भद्रादिरूपं यन्त्रमित्यर्थः) अनेकति अनेकैः, विविधैः, वर्गोंः, रागैः, रञ्जनं यत्रनं। सितेति— सिनाः, श्वेताः, पीताः, पीनवर्णाः, लोहिताः, रक्ताः, च याः पताकाः, वैजयन्त्यः तासां आक्यः, श्रेण्यः, नाभिः शवलं, विविधवर्गारञ्जिनम शिववलि, शिवपूजाविधिम्। ताक्ष्यति —तार्यः, गरुडः (गुरुत्मान गरुडस्तादर्यः “इत्यमरः) तस्य तुण्डकोटिः, चञ्च्चाग्रम् तद्वन् कुञ्जम, अप्रवोणम्, अग्रनामिकम् यस्य तथोक्तम्। दूरेति— दृरं, अत्यन्तं, विदीर्णाभ्याम, विस्तृताभ्याम्, सृकाभ्यां, ओष्ठाभ्याम्। संक्षिप्तो, संकोचितौ, कपोलो, गण्डौ यस्य तम्। किंचिद्दन्तुरतया, ईषद्दीर्घदन्तत्वेत, सदा, हृदये, चित्ते, सन्निहितस्य, अवस्थितस्य, हरस्य मौलो, शिरसि यः चन्द्रः तस्य आतपः आलोकः तेन इव, निर्गच्छता, बहिर्गच्छता, दन्तालोकेन, दशनप्रभया, दिशां चक्रवालं, मण्डलम्, धवलयन्त्रम्। जिह्वेति—जिह्वायाः, रसनायाः, अग्रेस्थिताः। याः, सर्वाः, शैवसंहिताः, शिवसंहिताः, शिवचरितगाथाः, तासां, अतिभारेणेव, मनाक्, ईषत्,

लम्बितोष्ठम्, प्रलम्बश्रवणपालीप्रेङ्क्षइताभ्यां स्फाटिककुण्डलाभ्यां शुक्रबृहस्पतिभ्यामिव सुरासुरविजयविद्यासिद्धिश्रद्धयानुबध्यमानम् बद्ध विविधौषधिमन्त्रसूत्रपंक्तिना सलोहवलयेनैकप्रकोष्ठेन शङ्खखण्डं पूष्णो दन्तमिव भगवता भवेन भग्नं भक्त्या भूषणीकृतं कलयन्तम्, अखिलरसकृपोदञ्चनघटीयन्त्रमालामिव रुद्राक्षमालां दक्षिणेन पाणिना भ्रमयन्तम्, उरसि दोलायमानेनापिङ्गलाग्रेण कूर्चकलापेन संमार्जयन्तमिवान्तर्गतं निजर जो-

प्रलम्बिनः, ओष्ठः, यस्य तथोक्तम्। प्रलम्बेति—प्रलम्बयोः, प्रकर्षेणलम्बमानयोः, श्रवणापाल्योः कर्णरेखयोः प्रेङ्क्षिते,आन्दोलिते, ताभ्याम्। स्फटिककुण्डलाभ्यां, स्वच्छकर्णाभूषणाभ्याम् शुक्रबृहस्पतिभ्यामिव। सुरेति—सुरासुराणां, देवदैत्यानां, या विजयविद्या, तस्याः, सिद्धिः, तस्याः श्रद्धया, अनुवम्यमानम्, अनुगम्यमानम्, बद्धेति—बद्धाविविधानां, औषधीनां, मन्त्राणांच सूत्रपंक्तिः, यस्मिन् तथाक्तेनसलोहवलयेन, लोहवलयालंकृतेन, एकप्रकोष्ठेन, एकेन, कर्पूरमणिबन्धयोःअन्तरप्रदेशेन (प्रकोष्ठो मणिवन्धस्य कर्पूरस्यान्तरेऽपिच इति मेदिनी) शंङ्खम्खण्डम, कम्बुशकलम्। पृष्णः, सूर्यस्य, दन्तमिव, भवेन, हरेण, भग्नं, पाटितं, भक्त्या, भूषणीकृतम्, कलयन्तं, धारयन्तम्। अखिलेति—अखिलस्य, समग्रम्य, रसस्य, जलस्य, अनुरागस्य च कूपात्, जलाधारात्, (संसारकूपाच्च हरंप्रति इति भावः) उदढ्चनाय, उद्धररणाय, घटियंत्रमालामिव, घटियंत्रराजिमिव (अरहाट) रुद्राक्षमालां, जपमालां दक्षिणोनपाणिना करेण भ्रमयन्तम्। उरसि, वक्षसि, अपिङ्गलाग्रेण, ईषत्कपिशाग्रेण, कूर्चकलापेन, श्मश्रुनिचयेन, सम्मार्जयन्तं, संशोधयन्तम्, अन्तर्गतं, (हृदिस्थमित्यर्थः) निजरजोनिकरम्, स्वं रजोगुणाविकारम्। अतीति-

निकरम्, अतिनिबिडनीललोममण्डलविचितं च ध्यानलब्धेन ज्योतिषा दग्धमिव हृदयदेशं दधानम्, ईषत्प्रशिथिलवलिवलयबध्यमानतुन्दम्, उपचीयमानस्फिङ्मांसपिण्डकम्, पाण्डुरपधित्रक्षौमावृतकौपीनम्, सावष्टम्भपर्यङ्कबन्धमण्डलितेनामृतफेनश्वेतरुचा योगपट्टकेन वासुकिनेवाप्रतिहतानेकमन्त्रप्रभावाविर्भूतेनप्रदक्षिणीक्रियमाणम्, अरुणतामरससुकुमारतलस्य पाद‌युगलस्य निर्मलैर्नखमयूखजालकैर्जर्जरयन्नमिव महानिधानोद्धरणरसेन

अतिनिविडेन, अतिवतेन, नीलेन, कृष्णेन, लोममण्डलेन, रोमसमूहेन, निचितं व्याप्तम, ज्योतिषा, प्रभया, (ज्ञानरूपेगोनिभावः)। ईषदिति—ईषन् प्रशिथिलेन, वलिवलयेन, वलित्रयेगा, वध्यमानं, वेष्टमानं, तुन्दं, उदरं, यस्य तथोक्तम् (पिचिण्डकुक्षिजठरोदरं तुन्दम् “इत्यमरः) उपचीयमानेति उपचीयमानम, आप्यायमानं, स्फि चयोः, नितम्बयोः (म्बियां स्फिचो कटिप्रोस्थो इत्यमरः) मांसपिण्डकम यस्य तम्। पाण्डुरेति—पाण्डुरेगा, धवलेन, पवित्रेगा, शुद्धेन, क्षोमेा, पट्टवसनेन, आवृतम, आच्छादितं, कौपीनं, अन्तर्वस्त्रं यस्य तथा भूतम्। सावटम्भेति— सावष्टम्भं, सगर्व यः पर्यङ्कवन्धः, आसनविशेषः, तेन मण्डलितं, वलयीकृतं, तेन। अमृतेति अमृतफेनवत्, श्वेता, धवला, रुक, क्रान्ति यस्य तेन योगपट्टकेन। अप्रतिहतेति अप्रतिहतानां, प्रतिरोद्ध मशक्तानां, अनेकेषां, मन्त्राणां, प्रभावेण, सामर्थ्यन, आविर्भूतः तेन, प्रदक्षिणीक्रियमाणम, समन्तात् वेष्टमानमित्यर्थः। अरुणेति—अरुणं, रक्तम्, यत् तामरसम्, पद्म, तद्वत् सुकुमारम्, सुकोमलं तलं यस्य तथाभूतस्य। नखेति तखानां, मयूरवाः, किरणाः, तेषां, जालकैः, जर्जयन्तमिव, विदारयन्तमिव। महानिधानेति—महानिधानस्य, महतो निधेः, उद्धरणम्, उत्तोलनम्

रसातलम्, तोयक्षालितशुचिना धोतपादुकायुगलेन हंसमिथुनेनेव भागीरथीतीर्थयात्रापरिचयागतेनामुच्यमानचरणान्तिकम्, शिखर निखानकुब्जकालायसकण्टकेन वैणवेन विशाखिकादण्डेन सर्वविद्यासिद्धिविघ्नविनायकापनयनाङ्‌कुशनेव सततपार्श्ववर्तिनाविराजमानम्, अबहुभाषिणं मन्दहासिनं सर्वोपकारिणं कुमारब्रह्मचारिणम्, अतितपस्विनम्, महामनस्विनं कृशक्रोधम्, अकृशानुरोधम्, महानगरमिवादीनप्रकृतिशोभितम्, मेरुमिव

तस्मिन् या रसः, रागः तेन रमातलं, पानालम्। **तोयेति—**नायेनजलेन, क्षालिनं, धोनं अतएव शुचिः पवित्रं, तेन, (पक्ष) तोये, क्षालितं, (मर्वदाजलेऽऽवसनान यौनमित्यथः) अव शुचि, शुत्रम तेन। **भागांरथाति—**भागीरथी, गंगा एव तीर्थ, पुण्यक्षेत्रम, तस्मिन यात्रा, गमनं, तत्र यः परिचयः, मंगतिः, तन, आगनं तेन। **आमुच्यमानेति—**आमुच्यमानं, चरणान्तिकं यस्य तथाक्तम। **शिखरेति—**शिखरे, शृङ्गे, निग्यातः, प्रोत्थितः, कुञ्जः, (कुञ्चित इत्यर्थः) कालायमकण्टकः, कृष्ण‌लोहितकण्टकः, यस्य तेन। वैगणचेन, वेणुः, वंशदण्डः, तस्यायं वैगावः तेन, विशिखादण्डेन, खनित्रलगुडेन। सबति सर्वासां, विद्यानां, सिद्धौ विन्नः, अन्तरायः यो विनायकः, गणपतिः, तस्य, अपनयनाय, अपसारणाय, अंकुशः, अम्त्रविशेपः, तेन इव। सर्वोपकारियां, समस्तापकारपरायणम्। कुमारत्रह्मचारिणम्, नैष्ट्रिकब्रह्मचारिणम। महामनस्विनं, प्रशस्तचित्तम्। कृशक्रोथम, अल्पक्रोधम्, अकृशानुरोधम, अकृशः, अनल्पः, अनुरोधः, आग्रहः यस्य तथोक्तम् (पक्ष) अकृशानां, स्थूलानां, अनुरोधः, अनुसरणं, यत्र, तथोक्तम्। **अदीनेति—**अदीना, दैन्यरहिता, या प्रकृतिः, स्वभावः तया शोभितः तम् (पक्ष) अदीनाभिः, दारिद्रयविहीनाभिः प्रकृतिभिः, प्रजाभिः,

कल्पतरुपल्लवराशिसुकुमारच्छायम्, कैलासमि वपशुपतिचरणग्जःपवित्रितशिग्सम्, शिवलोकमिव माहेश्वरगणानुयातम्, जलनिधिमिवानेकनदनदीसहस्त्रप्रक्षालितशरीरम्, जाह्ववाप्रवाहमिव बहुपुण्यतीर्थस्थानशुचिम्, श्राम धर्मस्य, तीर्थ तथ्यस्य, कोशं कुशलस्य, पत्तनं पूनतायाः, शाला शीलस्य, क्षेत्रं क्षमायाः, शालेयं शालांनतायाः, स्थानं स्थितेः, आधारं धृतेः, आकर करुणायरः. निवेशनं कौतुकस्य, आगमं गमणीयकस्य, प्रासादं

प्रधानपुरुषैः, वा शोभितम्। कल्पेति**—्**कल्पताभ्यां, कल्पवृक्षाणाम, पल्लवगशयः, क्रिमलयनिचयाः, तद्वत् नैश्च सुकुमारा, कोसलाविशदा च छाया। कान्तिः, अनानपश्च यस्यतथोक्तम् (छायाम्यप्रिया कान्तिः इत्यमरः) **पशुपतीति—**पशुपतेः, हरस्य, चरगार जोभिः, पचित्रितम्, पावितम्, शिरः, मस्तकम (पक्षे) पवित्रितानि, शिगंमि, शृङ्गाग्णि यस्य नथातःतम। **माहेश्वरेति—**महेश्वरा देवना येषां ते माहेश्वराः. (शैवाः-इत्यर्थः) तेषांगगाः, समूहाः (पक्ष) महेश्वरम्य इमे. माहेश्वराः, ये गरगणाः, प्रथमवर्गाः (गणाःप्रथम सङ्गाय इति मेदिनी) तैः, अनुयानः, अनुगतः, तम्। **अनेकेति—**अनेकेषु, नदनदीनांसहस्रपु, प्रक्षालितं, स्नानं शरीरं गम्य (पचे) अनेकैः, नदनदी महत्रैः, प्रक्षालिनं, शरीरं यत्र नथोक्तः, तम। **वहिति—**वहुषु, पुण्येषु, तीर्थेषु, (हरिद्वारादिपवित्रक्षेत्रेषु इत्यर्थः) स्थानेन, स्थित्या, शुचिः, पवित्रः तम, उभयं, तुल्यम्। धाम, आश्रयम्, तीर्थ, क्षेत्रम्। तथ्यस्य, मत्यस्य। काशं भाण्डागारम्, कुशलस्य, मंगलस्य पत्तनं, नगरम, पुतलायाः, पवित्रतायाः। शालागृहम्, शीलम्य, सुचरितस्य, क्षेत्रं, भूमिम, क्षमायाः, शान्तः, शालेयं, शाला एव शालेयं, गृहूं, स्थानं, स्थितः, वासस्य, धृतेः, वैर्यस्य, आधारं, आधयः, करुणायाः दद्यायाः

प्रसादस्य, आगारं गौरवस्य, समाजं सौजनस्य, संभवं सद्भावस्य, कालं कलेः, भगवन्तं साक्षादिव विरूपाक्षं भैरवाचार्यंददर्श।

** भैरवाचार्यस्तु दूरादेव राजानं दृष्ट्वा शशिनमिव जलनिधिश्चचाल। प्रथमतरोत्थितशिष्यलोकश्चोत्थाय प्रत्युञ्जगाम समपितश्रीफलोपायनश्च जहनुकर्णसमुद्रीर्यमाणगङ्गाप्रवाहह्लादगम्भीरया गिरा स्वस्तिशब्द‌मकरोत्। **

** नरपतिरपि प्रीतिविस्तार्यमाणधवलिम्ना चक्षुषा प्रत्यर्पयन्निवबहुतराणि पुण्डरीकवनानि ललाटपट्टपर्यस्तेन चोदंशुनां**

आकारम्, मूर्तिः, कौतुकस्य. आश्चर्यस्य, निकेतनं, गृहम्, रामणीयकस्यसुन्दरतायाः आरामम, उपवनम्। प्रसादस्य, प्रसन्नतायाः. प्रासादं, हम्यै, गौरवस्य, आगारम् गृहम, सौजन्यस्य, सुजनतायाः, समाजं, गोष्ठीम, सद्भावस्य, सदाचारस्य, सम्भवम्, उत्पत्तिम्। कलेः, चतुर्थयुगस्य, कालं, अन्तसमयम, विरूपाक्षं, त्रिलोचनं भैरवाचार्य ददर्श।

शशिनमिवचन्द्रमिवजलनिधिः, समुद्रः। प्रथमतरेति—प्रथमतरः, पूर्वतरः, उत्त्थितः, उद्दनः, शिष्यलोकः, छात्रसमूहः यस्य तथाविधः। समपितेति समर्पितानि, प्रदत्तानिश्रीफलान्येव, विल्वफलान्येव, उपायनानिउपहाराः यस्य तथोक्तः। ज‌हन्विति—जहुनुः, नाम ऋषिः, तस्य कर्णान् समुद्रीर्यमाणः, उद्वमनक्रियमाणः, यः, गङ्गाप्रवाहः, गङ्गास्त्रोतः, तस्य ह्रादः, अस्फुटनादः तद्वत् गम्भीरया गिरा वाण्या, स्वस्तिशब्दं अकरोत्। नरपतिः, राजा। प्रीतीति—प्रीत्या, विस्तार्यमाणः, प्रसार्यमाणः, धवलिमा, यस्य तथा भूतेन, चक्षुषा, लोचनेन, प्रत्यर्पयन्निव प्रतिदददिव, पुण्डरीकवनानि, श्वेतकमलकाननानि। ललाटेति—ललाटपट्टे, मस्तकदेशे, पर्यस्तः,

शिखामणिना महेश्वरप्रसाद‌मिव तृतीयनयनोद्गमेन प्रकाशयशन्नावर्जितकर्णपल्लवपलायमानमधुकरः शिवसेवासमुन्मूलिताशेषपापलवमुच्यमान इव दुरावनतः प्रणाममभिनवं चकार। आचायोंऽपि ‘आगच्छ अत्रोपविश’ इति शार्दूलचर्मात्मीयमदर्शयत्। उपदर्शितप्रश्रयस्तु राजा मत्तहंसकलगट्टदस्वरसुभगां मधुरसमयीं महानदीमिव प्रवर्तयन्वाचं व्याजहार ‘भगवन, नार्हसि मामन्यनृपस्खलितैः खलीकर्तुम्। अशेषराजकोपेक्षिनाया हतलक्ष्म्याः खल्वयं शीलापराधो द्रविणदौरात्म्यं वा यदेवमाचरति मयि गुरुः। अभूमिरयमुपचाराणाम्। अलमति

पतितः, तेन। उदंशूना, उन्नतकिरणेन, शिखामणिना, मौलिरत्नेन, महेश्वरप्रसाद‌मिव, शंकरानुग्रहमिव, तृतीयनयनस्य, उद्गमनेन, उद्घटनेन, प्रकाशयन। आवर्जितेति—आवर्जितेन, आन्दोलितेन, कर्णपल्लवेन, श्रोत्रपत्रेग्गा, पालयमानाः, मधुकराः, भृङ्गाः, यस्मात् सः। शिवेति—शिवस्यसंवया, समुन्मूलितानां. समुत्पाटितानां, अशेषाणां समस्तानां,पापानां, लवैः, कणैः, मुच्यमान इव, हीयमान इव, दूराचनतः, अभिनवं, नृतनं। शार्दूलचर्म, सिहचर्म। उपेति—उपद‌र्शितप्रश्रयः, प्रकटितविनयः। मत्तति—मत्तस्य, हंसस्य, कलः, मधुरास्फुटः, गद्गदस्वरः, तेन सुभगांमनोज्ञां, मधुरसमयीम, इतुरखात्मीकाम्, (अतिमधुरामित्यर्थः) महानदीमिव, वाचं. वाणीं, व्याजहार, उवाच। नृपेति अन्येपां. अपरेषां, नृपाणां. राज्ञां, स्खलितानि, दोषाः, तैः, खलीकर्तुम, सदोषं सम्भावयितुम। अशेषेति—अशेषाणां, समग्राणां राज्ञां कोपेन ईक्षितायाः, हनलक्ष्म्याः, त्त्यक्तसम्पदः, शीलापराधः, चरित्रदोषः, द्रविण शैरात्म्यं, धनदुर्वृत्तता, गुरुः, भवान् मथि विषये, एवं इत्त्थम् आचरति, अभूमिः, अस्थानम् (अपात्र

**यन्त्रणया। दूरस्थितोऽपि मनोरथशिष्योऽयं जनो भवताम्। माननीयं च गुरुवन्नोल्लङ्घनमर्हति गुगेरासनम्। आसतां च भवन्त एवात्र’ इति व्याहृत्य परिजनोपनीते वाससि निषसाद। भैरवाचार्योऽपिप्रीत्यानतिक्रमणीयं नृपवचनमनुवर्तमानः पूर्ववत्तदेव व्याघ्राजिनमभजत। **

** आसीने च सगजके एग्जिने शिष्यजने च समुचितमर्थ्या दिकं चक्रे। क्रमेण च नृपमाधुर्यहृतान्तःकरणः शशिकरनिकर विमला दशनदांधितीः स्फुरन्नीः शिवभक्तीरिव साक्षादर्शयन्नु वाच**—तात, अतिनम्रतैव ते कथयति गुणानां गौरवम्। सक लसंपत्पात्रमसि। विभवानुरूपास्तु प्रतिपत्तयः। जन्मनः प्रभूत्यदत्तदृष्टिरस्मि स्वापतेयेषु। यतः सकलदोषकन्यापानलेन्धनैः

मित्यर्थः) उपचागणां, सेवानाम्, अनियन्त्रणाया, अनिक्लेशनमनोरथशिष्यः (मनोरथेन शिष्यनां गन इत्यथः) माननीयम् सम्झा नाहम्। उल्लङ्गनं, पादेनाक्रमणं, मर्यादानिक्रमणम् वा आसनांतिष्ठन्तु। अनुवर्तमानः, अनुमोदभानः, व्याघ्राजिनम, व्याघ्रम्य सिंहस्य, अजिनं, चर्म यस्य तथोक्तः नए महादेवम्।

समुचितम् युक्तम, अघ्र्यादिकम, एनाविधानम, चक्रे, कुनवान। नृपेति—नृपस्य माधुर्येगा, रमणीयतायाः, गुगान, हतम आकृष्टम् अन्नकरगां मनः, यस्य तथा भूतः। शशीतिशशिनः, चन्द्रस्य, कराणां, मयुव्वानां, निकरवन समूहवन, विमला, विशदा दशनदीधितिः, दन्तमयूरवान। स्फुरन्तीः, गुणानां, विद्याविनयादीनां रज्जूनां च। गौरवम, उत्कर्षम, भारवत्वञ्च। सकलेति सकलानां, सम्पदा, ऐश्वर्यागां, पात्रं, भाजनम, असि, भवसि, प्रतिपत्तयः, ज्ञानानि, विभवानां, सम्पदां, अनुरुधास्तु, शादृश्य एव यथात्वं

र्धनैरविक्रीतं क्वचिच्छरीरकमस्ति। भैक्षरक्षिताः सन्ति प्राणाः। दुर्गृहीतानि कतिचिद्विद्यन्ते विद्याक्षराणि। भगवच्छित्रभट्टारकपादसेवया समुपार्जिता कियत्यपि संनिहिता पुण्यकणिका। स्वीक्रियतां यदत्रोपयोगार्हम्। प्रननुगुणग्राह्याणि कुसुमानीव हि भवन्ति सतां मनांसि। अपि च। विद्वत्संमताः श्रूयमाणा अपि साधवः शब्दा इब सुधारेऽपि हि मनसि यशांसि कुर्वन्ति। विवरं विशतःकुन्हलस्य फंनधवलेः स्रोतोभिरिवापहियमाणो गुणगणंगनीतोऽस्मि कल्याणिना’ इति।

** राजा तु तं प्रत्यवादीत्**—‘भगवन्, अनुरक्तंप्वपि शरीरादिषु साधूनां स्वामिन एवप्रणयिनः। युष्मदर्शनादुपार्जितमेव

सर्वसम्पूर्णाः। स्वापतंयेषु, धनेषु, अदत्तदृष्टिरम्मि। सकलेति—सकला, समग्राः, दोषकलापाः, दोषनिबहाः, एत्र, अनलाः अग्नयः, इन्धनानि, काष्टानिनशरीरकं तुच्छदेहं कचिन, अविक्रितम विक्रितं नास्ति। मैञ्जनिभिक्षयालव्यम भेनं तेन रक्षिताः पालिनाः। दुगृहीनानि, दुःग्यनगृहीतानि। भगवदिति—भगवतः, शिवभट्टारकम्य, शिवस्वामिनः, पादसंक्या, चरणोशुभ्रमया पुण्य कणिका, पुण्यविन्दुः प्रतन्विति— प्रतुनुना, स्वल्पेन, गुगान, उपकारादिना नन्तुना च ग्राह्याग्णि, गृहीतुं शक्यानि। विद्वदिति विद्वद्धि, मम्मनाः, अभि मनाः, स्वीकृताञ्च साधचमन्ताः, विशुद्धाश्र, शब्दा इब ग्रशासि कुर्वन्ति (प्रतिपत्ति त्रिस्नारयन्तीत्यर्थः) विवरं गहुग्म। विशनः. गच्छनः। फेनधवलेः फेनवन् वनेः स्यानाभिरिव प्रवाहेरिव, अपहियमागाः आकृष्यमाणः। कल्या गिरना, कल्याणभाजनेन, (भवताइति शेषः)।

अनुरक्तषु, अनुरागभाजनेषु, स्वामिनः, प्रभवः, प्रग्णयिनः, प्रगायन्तः उपार्जितम्, एकत्रीकृतम्, अपरिमिनम्, प्रमाणरहितम्, कुशलजानम्,

**चापरिमितं कुशलजातम्। अनेनैवागमनेन स्पृहणीयं पदमारोपितोऽस्मि गुरुणा।’ इति विविधाभिश्च कथाभिश्चिरं स्थित्वा गृहमगात्। **

** अन्यस्मिन्दिवसे भैरवाचार्योऽपि राजानं द्रष्टुं ययौ। तस्मै च राजा सान्तःपुरं सपरिजनं सकोषमात्मानं निवेदितवान्। स च विहस्योवाच—‘तात, क्वविभवः, क्वच वयं वनवर्धिताः। घनोप्मणा म्लायत्यलं लतेव मनस्विता। खद्योतानामिवास्माकमियमपरोपतापिनी राजतेतेजस्विता। भवादृशा एव भाजनं भूतेः, इति स्थित्वा च कंचित्कालं जगाम। **

** परिव्राट्तेनैव क्रमेण पञ्च पञ्च राजतानि पुण्डरीकाण्युपायनीचकार। एकदा तु श्वेतकर्पटावृतं किमप्यादाय प्राविशत्। उपविश्य च पूर्ववत्स्थित्वा मुहूर्तमब्रवीत्—‘महाभाग! भवन्तमाह भगवान्यथास्मच्छिष्यः पातालस्वामिनामा ब्राह्मणः। तेन ब्रह्मराक्षसहस्नादपहृतो सहासिरट्टहासनामा। सोऽयं भवद्भजयोम्यो**

मंगलसमूहः, स्पृहणीयम् अभिलषणीयम् पदं, स्थानं, सान्तःपुर, स्त्रीजनानावासेन सहितं, सपरिजनं, परिवारसहितम्, सकोषम्, सधनभण्डारम्, निवेदितवान, समर्पयामास। विभवः, धनानि। वनवर्धिताः, वने, अरण्ये, वर्धिताः, वृद्धिंगताः, धनोष्मणा, द्रव्यदर्पणा, म्लायति, म्लानि प्राप्नोति, अलमत्यर्थम् मनस्विना, प्रशस्तमनस्कृता। खद्योतानामिव, कीटमणिविशेषाणामित्र, (जुगनूं) अपरोपतापिनी, न धरान उपनापयतीति तथोक्ता। भूतः, सम्पदः। परित्राड्, भिक्षुः। उपायनीचकार, उपहारीकृतवान् । श्वेतकर्पटावृत्तम्, धवलवसनाच्छादिनम्। अपहृतेति—अपहृता, दूरीकृता, महाऽसि, खङ्गः, (तलवार) येन सः अट्टहासनामा। अपहृतम्, दूरीकृतम्, कपर्टच्छादनं, वस्त्राव

गृह्यताम्’ इत्यभिधायापहृतकर्पटावच्छादनात्परिवारादाचकर्ष शरद्गनमिव पिण्डतां नीतम्, कालिन्दीप्रवाहमिव स्तम्भितजलम्, नन्दकजिगीषया कृष्णकोपितं कालियमिव कृपाणतां गतम्, लोकविनाशाय प्रकाशितधारासाग्म्, प्रलयकालमेघखण्डमिव नभस्तलात्पतिम्, दृश्यमानविकटदन्तमण्डलं हासमिव हिसायाः, हरिवाहुदण्डमिव कृतदृढमुष्टिग्रहम्, सकलभुवनजीवितापहरण क्षमेण कालकूटेनेव निर्मितम्, कृतान्तकोपानलत—‘तेनेवायसा घटितम् अतितीक्ष्णतया पवनस्पशनापि रुपेव

रणंयेन, तथोक्तात्, शरद्गनमिव, शरत्कालिकाकाशव, पिण्डनां नीतम्, घनत्वं प्रापितम्। कालिन्दीप्रवाहमिव, यमुनाश्रातमित्र. स्तम्भितजलम्, स्थिरीकृतोयम्। **नन्दवेति—**नन्दकस्य, विष्णो, खड्गस्य, जिगीषया, जेतुमिच्छ्या, कृष्णाकापितम्, कृष्णेनकापितम् (दमनादितिभावः) कालीयम्, तदाख्यं यमुनावासिनं, नागविशेषम्। लोकविनाशनाय, जगन्नाशाय, प्रकाशितः, प्रकटितः, धारासारः, धारासम्पातः, धारायां, निशिनाग्रस्य, सारः, तत्वं यस्य तथाक्तश्च प्रलयकालमेघखण्डमिव, लयकालिकजलदांशमिव। दृश्यमानेति दृश्यमानानि, विकटानि, करालानि, दन्तमण्डलानि, दशनराजयः, यस्मिन्, तथा भूतम्। हिंसाया हासमिव। कृतेति कृतः, रचितः दृढः, कठिनः, मुष्टिग्रहः, मुष्टिवन्धः, यस्मिन, तम् (पक्षे)कृतः, दृढं यथा तथा पुष्टेमुष्टिकनामासुरस्य ग्रहः ग्रहणंयेन तथा भूतम्। **कृतान्तेति—**कृतान्तस्य, यमस्य कोपानलः, क्रोधाग्निः, तन तप्तं गलितं तेन, अयसालोहेन। अतितिक्षणतया, अतिनिशितत्वेन, तैक्षण्यं च तनुत्वाज्जायते तनु, अन्योऽन्यसङ्घर्षेण कणति इति हृदयं, रुपेव, कोपेनेव, काणन्तं, रगान्तम्। **मणीति—**मणिसभ कुट्टिमेषु, मणिमय-

क्वणन्तम्मणिसभाकुट्टिमपतत्प्रतिबिम्बच्छद्मनात्मानमपि द्विधेवपाट्यन्तम्, अगिशिरश्छेदलग्नैः कचैरिवकिरणैःकरालितधाग्म्मुमुर्मुहुस्तडिदुन्मेपतरलैः प्रभाचकच्छुरितैर्जग्तिातपम्, खगडशश्छिन्दन्तमिव दिवसम्, कटानमिव कालरात्रे, कर्णोत्पलमिवकालस्य, ऑकारमिव क्रौर्यस्य, अलंकारमहंकारस्यकुलमित्रं कोपस्यदेहंदर्पस्यसुसहायं साहसस्य, अपत्यं मृत्योः, आगमनमार्ग लक्ष्म्याः, निर्गमनमार्ग कीर्ते, कृपाणम्।

** अवनिपतिस्तु तं गृहीत्वा करेणायुधप्रीत्या प्रतिमानिभेनालिङ्गन्निव सुचिरं ददर्श। संदिदेश च—वक्तव्यो भगवान्पन्द्रव्यग्रहणावज्ञादुर्विदग्धमपि हि मे मनो युष्मद्विषये न शक्नोति**

सभातत्नेषु, पतत्यत् प्रतिबिम्बम्तस्यछद्म, छलं तेन। पाटयन्तं, खण्डयन्तं (अतितैक्ष्णादिति भावः) अरीति अरीगणां, शत्रूणां, शिरांसि, तेषांछेदेन, लताः तैःकचैरिव केशैरित्र कृष्णावर्णस्यतस्यकिरगणैः, मयुग्वैः, करालितधार, करालिताः, व्याप्राः धाराः, यम्य तथोक्तम्। तडिदिति—तडितां, विद्यतां, उन्मेषाः, विकासाः तद्वत्तरलानि, चंचलानि तैः, प्रभाचक्रागा।म, किरामण्डलानाम, दुरितैः, स्वचितैः, जर्जरितः, खण्डग्वण्डीकृतः, आनपः, सूर्यकान्तिः, येन तथाक्तम्, छिदन्तमिव, पटयन्त्रमिव। आंकार, प्रगाचं, कायस्य, निष्ठुग्नाया., कुलमित्रम, कुतन, वंशपरम्परया. मित्रम्, मुद्ददम। मृत्योः, अपत्यम्, सन्तानम, लक्ष्म्याः, सम्पदः राजशोभायाः वा आगमनमार्गाम, कृपाणम, असिम ।

आयुधप्रित्या, आयुधे, अस्त्रे, या प्रीतिः प्रेमतया प्रतिमानिभेन प्रतिबिम्बछलेन (स्वस्येति शेषः) सुचिरं, बहुकालम्।

संदिदेश, वाचिकं, कथयामास। परेति—परेषां, शत्रूणां,

**वचनव्यतिक्रमव्यभिचाग्माचरितुम्’ इति। परित्राट् तु गृहीते तस्मिन्परितुष्टः ‘स्वस्ति भवते। साधयामः’ इत्युक्त्वा निग्यासीत्। नृपश्च प्रकृत्या बीग्ग्सानुरागी तेन कृपाणेनामन्यत करतलवर्तिनीं मेदिनीम्। **

** अथ व्रजत्सुदिवसेष्वेकदा भैरवाचार्योराजानमुपह्वरे सोपग्रहमवादीत् ‘तात, स्वार्थालसाःपरोपकारदक्षाश्च प्रकृतयो भवन्ति भव्यानाम्। भवादृशां चार्थिदर्शनं महोत्सवः प्रणयनमागधनमर्थग्रहणमुपकारः। भूमिरसि सर्वलोमनोग्थानाम्। येनाभिधीयसे। श्रूयताम्। भगवतो महाकालहृदयनाम्नोमहामन्त्रस्य कृष्णस्त्रगस्त्रगनुलेपनाकल्पेन कल्पकथितेन महाश्म**

द्रव्याणि तेषांग्रहणेन या अवज्ञा घृणातया दुर्विश्वम् दुर्विनीनम्। वचनेति—वचनम्य, व्याज्ञावाक्यस्य, व्यतिक्रमः, उल्लङ्घनमिव,व्यभिचारः, दोषः, तम् परितुष्टः, प्रसन्नः, साधयामः गच्छामः,निर्यासीन्, ययौप्रकृत्या,स्वभावेन, वीररसस्य, अनुगगागीप्रेमी,कर्तलवर्तनीं, वशीभूत्नाां,मेदिनीम्,पृथ्वीम्।

उपह्वरे, रहसि (रहाऽन्तिकमुपहर “इत्यमरः) सोपग्रहम, साभ्यर्थनम्। स्वार्थालसाः, स्वकार्यपर ङमुवाः, परोपकारदक्षाः, अन्यस्यकार्यकरणे चतुराः, भव्यानां, सञ्जनानां प्रकृतयः, स्वभावाः, भवन्ति। अर्थिदर्शनम्, भिक्षुकदर्शनम् महोत्सवः, आनन्दजननम्, प्रवाचनं याचा आराधनं, पुजनम्। सर्वेति—सर्वेषांसमग्रागां लोकानां मनोरथाः, मनसेप्सिनानि तेषां भूमिः, पात्रमति। महाकालेति—महाकालस्य, हरस्य, हृदयं, हृदयनिहितं, वस्त्विनि, महाकाल हृदयं तन्नाम यस्य तथोक्तस्य। कृष्णेति— कृष्णानि, कृष्णवर्णानि, सृजः, माल्यानि, अम्बराणि, वस्त्राणि, अनुलेपाः, विलेपनद्रव्याणि यस्मिन्

शाने जपकोट्या कृतपूर्वसेवोऽस्मि। तस्य वेतालसाधनावसाना सिद्धिः। असहायैश्च सा दुरवापा। त्वं चालमस्मै कर्मणे। त्वयि च गृहीतभरे भविष्यन्त्यपरे सहायास्त्रयः। एकः स एवास्माकं टीटिभनामा वालमित्रं मस्करी यो भवन्तमुपतिष्ठते। द्वितीयः स पातालस्वामी। अपरोमच्छिष्य एव कर्णतालनामा द्राविडः। यदि साधु मन्यसे ततो नीयतामयं दिङ्‌नागहस्तदीर्घोगृहीताट्टहासो निशामेकामेकदिङ्‌मुखार्गलतां बाहुः।’ इति कृतवचसि च तस्मिन्नन्धकारं प्रविष्ट इव दृष्टप्रकाशः प्राप्तोपकारावकाशः प्रमुदितेनान्तरात्मना नरेन्द्रः समभाषत—‘भगवन्, परमनुगृहीतोऽस्म्यनेन शिष्यजनसामान्येन निदेशेन कृतपरिग्रहमिवात्मानमवैमि’ इति। ननन्द च तेन नरेन्द्रव्याहृतेन

नथा भूतेन, आकल्पेन, परिच्छदेन (वेशेनेत्यर्थः) (आकल्पवेशो नैपथ्यं, इत्यमरः) कल्पकथितेन, कल्पः, शास्त्रम्, तत्कथितेन। कृतेति—कृनापूर्वेसेवायेन नथा भूतः। वेतालेति—बेतालस्य, शिवानुचरस्यसाधनं, वशीकरणम्, अवमानं, अन्तं यस्याः, तथा विधा सिद्धिः। असहायैः, सहायशून्यैः, दुराषा, दुर्लभा। गृहीतभरे, भारं गृह्णानिमनि। बालमित्रं, शैशवसुहृत्, मस्करी, परित्राट्। द्रविडः, विडदेशीयः। दिङ्ङ्गागेति—दिङ्‌नागः, ऐरावतः, तद्वन् दीर्घः, आयतः। पेकेति एका दिक, तस्याः, मुश्वस्य, अर्गलतां, अवरोध कदण्डताम्। दृष्टेति—दृष्टः, अवलोकितः, दीपल्य, प्रकाशः, आलोकः, येन मः। प्राप्तेति—प्राप्तः, लब्धः, उपकाराय, अवकाशः, समयः, येन सः। मुदितंन, प्रसन्नेन, अन्तरात्मना, मनसा। शिष्येति—शिप्यजनाः, विद्यार्थिमङ्गाः तैः सह सामान्यं, समानस्य भावं सामान्यं तुल्यम्। निदेशेन आज्ञया। कृतेति—कृतः, परिग्रहः ग्रहगाम यस्य

भैरवाचार्यः। चकार च संकेतम् ‘अस्यामेवागामिन्यामसितपक्षचतुर्द शांक्षपायामियत्यां वेलायाममुष्मिन्महाश्मशानसमीपभाजि शून्यायतने शस्त्रद्वितीयनायुष्मता द्रष्टव्या वयम्’ इति।

** अथातिक्रान्तेष्वहःसु प्राप्तायां च तस्यामेव कृष्णचतुर्दश्यां शेवेन विधिना दीक्षितः क्षितिपो नियमबानभूत्। कृताधिवासं च संपादितगन्धधूपमाल्यादिपूजं खङ्गमट्टहासमकरोत्। ततः परिणते दिवसे केनापि कर्मसाधनाय कृतरुधिरबलिविधानास्विव लोहितायमानासु दिक्षु, रुधिरवलिलम्पटासु च वेतालजिह्वास्विव लम्बमानासु च रविदीधितिषु नरेन्द्रानुरागेण गृही**

तथोक्तम्। नरेद्रव्याहृतेन, राजवचनेन। संकेतं, इङ्गिन्नम्। असितेति असितः, कृष्णः, यः, पक्षः तस्य चतुर्दशी, क्षपायां, रात्रौ, इयत्यां, एतावत्परिमिते, बेलायां, समये, महाश्मशानम्य, समीपं, भजते इति तथोक्त, (श्मशाननिकटवर्तिनि इत्यर्थः) शून्यायतेन, विजनमन्दिरं।

अतिक्रान्तषु, अवनीतषु, अहःसु, दिवसेषु, शैवेन विधिना, शिवपृजनप्रकारेण। दीक्षितः, संयतः, क्षितिषः, राजा, नियमवान्, व्रतनिष्ठः, कृतः, अधिवासः, व्रतदिनात् पूर्वदिने गन्धादिना संस्कारः, यस्य तथोक्तम्। सम्पादितेति—सम्पादिता, कारिता गन्धपुष्पमाल्यादिभिः, पूजा यस्य तथोक्तम्। परिणते अवसानं गते, दिवसे, दिने। कृतेति—कृतम्, अनुष्ठितम्, रुधिरंगण, रक्तेन, वलिविधानं, पूजाप्रकारः, यासां तथोक्तासु, लोहितायमानासु, सन्ध्यारागरञ्जितासु, रुधिरवलिषु, रक्तोपहारेषु, लम्पटाः, लुब्धाः, तासु वेतालजिह्वासु इव भूनरसनासु इव, रविदीधितिषु, सूर्यकिरणेषु, नरेन्द्रानुरागेण, राजानुरक्त्त्या। गृहीतेति—गृहीता, अपरा, पश्चिमा दिक, येन तथोक्ते,

तापरांदशिस्वयमिव दिक्पालता चिकीर्षतिसवितारं, यातुधानीष्विव वर्धमानासु तरुच्छायासु. पातालवासिषु विघ्नाय दानवेष्विवोत्तिष्ठत्सु तमोमण्डलेषु, नभसि पुञ्जीभवति, रौद्रं कर्म दिदृक्षमाणे इव नक्षत्रगणेविगाढायां शर्वर्याम्, सुप्तजननिःशब्द स्तिमिले निशीथेगजा सान्तःपुरं परिजनं वञ्चयित्वा वामकरस्फुरत्सरुर्दक्षिगणकरणोत्खातं खङ्गमाट्टहासमादाय विसर्पता च खङ्गप्रभापटलेन नीलांशुकपटेनेच दर्शनभयादद्वगुण्ठितनिखिलगात्रयष्टिरनादिप्रयाप्यनुगम्यमानो राजलक्ष्म्याः पृष्ठतः

सवितरि, सूर्ये, यातुधानीषु. निशाचरीषु इव (गक्षमः कोपण कव्यान यातुधानः, पुण्यजनः “इत्यमरः) वर्द्धमानासु, वृद्धिं गच्छन्तीषु। पातालनलवासिषु, रमानलाभ्यन्तर्स्थितेषु, विहाय, कार्यव्याधानाय, तमोमण्डलेषु, यन्त्रकारसमूहेषु। नभसि, आकाशे, पुञ्जीभवति, एकत्रीभवति, रौद्रंदारुणं, दिदृक्षमाणोइव, द्रष्टुमिच्छतीव। विगाढायां, घनीभूतायां, शर्वर्य्यांरजन्याम्। सुप्तेति - सुप्ताः, निद्रिताः, जनाः, यम्मिन् तथोक्तः। अत एवनिःशब्दः तस्मिन् स्तिमिते, निशीथे,अर्द्धरात्रौ(अर्द्धरात्रनिशीथौ द्वौइत्यमरः) वामति वामे, सव्येकरे हस्ते स्फुरन्, दीप्यमानः, त्मरुः, खङ्गमुष्टिः, यस्य तथा भूतः। उत्ग्वातम, निष्कापिनम्। विसर्पता, प्रमरना, वङ्गप्रभापटलेन, असिकान्तिसमूहेन नीलांशुकपटेन इव, नीलाशुकं, नीलवस्त्रं, पत्र, पटः, तिरस्करिणो, तेन इव । अवगुण्ठितेति अवगुण्ठिना, आच्छादिता, निखिला, सकला, गात्रयष्टिः, शरीरं, येन यम्य वा तथा भूनः। अनादिष्प्रयाऽपि, अनुक्तक्रयाऽपि। राजलक्ष्म्या, राजक्रिया, अनुगम्यमानः, अनुस्रियभाणः, (सूचितः लक्ष्मीलाभः) परिमलेति—परिमलेन, सुगन्धिना, लग्नानां, सक्तानां, मधुकराणां, द्विरेफानां, वेणिः,

**परिमललग्नमधुकरवेणिव्याजेन केशेष्विव कर्मसिद्धिमाकर्षन्नेकाकी नगरान्निरगात्। अगाच्च तमुद्देशम्। **

** अथ प्रत्युजग्मुस्ते त्रयोऽपि द्रौणिकृपकृतवर्माण इत्र सौप्तिके संनद्धाः स्नाताः म्नग्विणो गृहीतविकटवेशाः, कुसुमशेखरसंचारिभिः क्रियमाणमन्त्रशिखाबन्धा इव गुञ्जन्द्भिः पट्चरणैरुप्णीपपट्टकांजलाटमध्यघटितविकटस्वस्तिकाग्रन्थीन्महामुद्राबन्धानिवधारयन्त मूर्धभिःएकश्रवणविवरविततविमलदन्तपत्रप्रभालेपचवलितकपोलैर्मुखंगपिबन्त इवनिशागजि,**

रम्याः, मंत्र सेववा व्याजः छलंतेन। कमसिद्धिकार्यसिद्धि। एकाकी, असहायः। देशं, स्थानं। अयेति प्रत्युञ्जग्मुः, गतवन्तः, प्रयः (टिटिभकर्णानालपातालम्वामिनः) द्रोणीति—श्रोणिः, अच त्थामा, कृपः, कृपाचार्यः कृतवर्मा, यादवः ते इव। सौतिकति मुष्नपुभचं, सौमिकं तन्मिन, (महाभरतीय नौनिके पर्वणि भन्नारो दुर्योधने समरपनितं अश्वत्थामाध्यम्त्रयः, प्रभोः प्रीत्ये योधिष्टिरंशिविरं धृष्टद्युम्नाधिष्ठिते सुप्तषु सर्वेषु अवशिष्टषु मनिकेषु कथमपि प्रविश्यहनाः संर्वसैनिकाः) संनद्धा, मजाः, स्नानाः, कृनम्नानाः, म्त्रग्विगाः, मालाधारिगाः। कुसुमेति— कुसुमशेखरंषु, शिरोभूषणभूतपुष्पमालामु, सञ्चरन्नीनि तैः। पढ़ चरगाः, भ्रमरैः, क्रियमाणाः, मन्त्रगण शिग्वावन्धाः, चूडाः, येषां ते इव। उष्णषेति—उष्मीपपट्टकान, शीपर्यावरणाकर्पटान। ललाटस्य, मस्तकस्य, मध्ये घटितः, रचितः, विकटः, दृढः, स्वस्तिकाग्रन्थिः, वन्धविशेषः, येषु तान्। महामुद्राबन्धानिव, महान्तः, मुद्रावन्धाः, वीराचारानुष्ठेयवन्धनाः, ज्ञान इव। मूर्द्धाभिः, शिरोभिः। एकेति एकस्मिन, श्रवणविवरे, श्रात्ररन्ध्र, वितता, विस्तृता, विमलस्य, स्वच्छस्य, दन्तपत्रस्य, गज

चरापचयचिकीर्षया शार्वरमन्धकारम् इतरकर्णावलम्बिनां रत्नकुण्डलानामच्छाच्छ्या रुचा गोरोचनयेवमन्त्रपरिजप्तया समालब्धाः, स्वप्रतिबिम्वगर्भान्कर्मसिद्धये दत्तपुरुषोपहारानिवोल्लासयन्तो निशितान्निस्त्रिंयान्, निशित निस्त्रिशांशुसंतानसीमन्तिततिमिरामात्मीय दिग्भागसंरक्षणाय त्रिधेव त्रियामां पाटयन्तः, सार्थचद्रैःकलधौतबुद्बुदावलितरलतारागणै

दन्ननिर्भिनपत्राकारस्य, (कर्णभूषणस्य) या प्रभा, कान्तिः, तस्याः, लेपः, लेपनं, तैः, यद्वा, मा एव लेपः, लेपनसुधा, ताभिः, धवलिनाः, शुभ्रीकृताः, कपोलाः, गण्डदेशाः, येषां तः, आपिवंत इव, पानंकृतवन्त इव। **निशाचरेति—**निशाचराणां, पिशाचानां, अपचयचिकीर्षा, अपकारेच्छा, तया। शार्बरं, शर्वरी, रात्रिः, तत्र भवः शार्वरः तम्, निशाचराः, निशासु, अन्धकार एव प्रभवन्ति, (नर्गतेनमसि तेषांप्रभावाभावेन तदपकारस्य सौकर्यादित्यर्थः) इतरकविलम्बिनां, अपर कर्णलम्बमानानां, अच्छाच्छया, अतिनिर्मलया, रुचा, प्रभया, गोरोचनयेव, गोरोचना, मांगलिकद्रव्यम्, तया (पीनप्रभयेति यावन्) मन्त्रपरि जप्तया, मन्त्रणपरिजना, विशोधिता, नया। समालब्धाः, लिप्ताः। स्वप्रतिविम्बगर्भान, स्वस्यप्रतित्रिम्बं, छाया, गर्भ, मध्ये येषां तान्। **दत्तेति—**दत्तः अनुष्ठितः, पुरुपोपहारः, नरबलिः, येभ्यः, तानिव। उल्लासयन्तः, सञ्चालयन्तः, निशितान, तीक्ष्णान, निस्त्रिशान, ग्वङ्गान्। **निशितेति—**निशितनिस्त्रिशानां, शोणितखड्‌गानाम्, अंशुमन्तानैः, प्रभापटलैः, सीमन्तितानि, विभक्तानि, तिमिराणि, अन्धकाराणि, यस्याः, नाम्। **आत्मीयेति—**आत्मीयः, स्वीयः, दिशांभागः, (रक्षणीयादिगितिभावः) तस्य संरक्षणं, तस्मै। त्रियामां, रात्रि, पाटयन्तः, खण्डयन्तः। सार्धचन्द्रः, अर्धचन्द्रालंकृतैः,

**निशाया इव परुषाभिधारानिकृत्तैःखगडैगृहीतैश्चर्मचर्मफलकरैकागडशर्वरीमपरां घट्यन्तः, काञ्चनशृङ्खलाकलापनियमितनिचिडनिष्प्रवाण्यः बद्धासिधेनवः, टोटिभकर्णतालपातालस्वामिनो निवेदितवन्तश्चात्मानम्। **

** अवनिपतिस्तु—‘कोऽत्र कः, इति त्रीनपृच्छत्। आचचक्षिरे च स्वं स्वं नाम त्रयोऽपि ते। तैरेव चानुगम्यमानो जगाम तां बलिदीपालोकजर्जरितगुग्गुलुष्पधूमगृह्यमाणदिग्भागतया विक्षिप्यमाणरक्षासर्पपार्थदग्धाब्धकरण्यलायमाननिशामिव समु-**

रात्रौ खडगेषु च अर्धचन्द्रम्य संभाव्यमानत्वादुक्तमेवं, नतु वास्तवत्वेन) कृष्ण चतुर्दशी रात्रौ चन्द्रः सम्भवतीति। **कलधौतेति—**कलधौतं, सैव्यं, तस्य बुदबुदावलिः, बुदबुदाः, जलम्फोटाःतदाकारबिन्दवः, तेषामावलिः, संघः तद्वत्तरलः तारागणाः, येषु, तैः। **परुषेति—**पस्वाभिः, निशिताभिः, अमिधागभिः, निकृत्ताः, छिन्नाः, तैः। चर्म फलकैः (दाल) अकाण्डशर्वरी, अकालरजनीं, श्यपरां. द्वितीयां, घटयन्नः, जनयन्तः। **काञ्चनेति—**काञ्चनश्शृङ्खलाकलापेन, स्वर्गामंग्वलाहारंगा. नियमितं निवद्धं, निविडं,घनं,निष्प्रचागिा. नबंवस्त्रं, येः, ते (अनाहतं निष्प्रवाणि तन्त्रकं च नवाम्बरं “इत्यमरः) बद्धति बद्धाः, गृहीताः, असिधेनवः, छुरिकाः, यैः तथा भूताः। निवेदितवन्तः, (भैरवाचार्याज्ञया भवन्तंप्रतीक्षामः इनि उचुः) वलिदीपनि वलि दीपम्य, पूजाप्रदीपम्य, आलोकन, प्रभया, जज्जेग्तिानां, नष्टप्रायाणां, (मन्दप्रभारणामित्यर्थः) गुग्गुलुश्रूयानां (गुग्गुलुधूपदानार्थरक्षितानामित्यर्थः) भूमैः, गृह्यमाणः, ज्ञायमानः, दिग्भागो यम्याः, तया। **विक्षिप्यमाणेति—**विक्षिप्यमाणैः, प्रसार्यमाणैः, (विन्नदूरीकरणायेत्यर्थः) रक्षासर्वपैः, रत्ताथै, विश्नेभ्यः, पूजायनुष्ठानरक्षरणार्थं, सर्षपाः.

पकल्पितसर्वोपकरणां निःशब्दां च गम्भीरां च भीषणां च साधनभूमिम्।

** तस्यां च कुमुदधूलिधवलेन भस्मना लिखितस्य महतो मण्डलस्यमध्येस्थितं दीप्ततरतेज प्रसरम्, पृथुपरिवेशपरिक्षिप्तमिव शरत्सवितारम् मध्यमानक्षीरोदावर्तमध्यवर्तिनमिव मन्दरक्तचन्द‌नानुलेपिनो रक्तस्त्रगम्वराभरणस्योत्तानशयस्य शवस्योरस्युपविश्यजातजातवेदसि मुखकुहरे प्रारब्धाग्निकार्यम् कृष्णो**

गौरमिद्धार्थाः, (मन्त्रपृताइतियावत्) तैः अर्द्धदग्धं, अन्धकारं, यस्या तथोक्ता, अतएव पलायमाना निशा यस्याः यस्यां वा नथा भूताम्। **समुपकल्पितेति—**समुपकल्पितानिआयोजितानि सर्वाणि, उपकरणानि, साधनद्रव्याणि यम्यां नाम्। माधनभूमि, मन्त्रसाधनस्थानम्। नम्याञ्च इत्यनः भैरवाचार्यमपश्यन इत्यनेनान्वयः। **कुमुदेति—**कुमुदानांश्वेतोप्तलानां, धूलिः, परागः, तद्वत् धवलः तेन। लिखितस्य, रचितस्य,मण्डलस्य, मण्डलाकाररेखायाः। **दीप्तति—**दीप्रतरः, दीप्यमानः, तेजमां प्रमरः, विस्तारः, यस्य तादृशम्। **पृथ्विति—**पृथुना, विशालेन, परिवेशेन, परिधिना( मण्डलविशेषेणेतिभावः) परिक्षिप्तः, वेष्टितः, नं, शरत्सवितारं, सूयं इव (स्थिनमितिशेषः) **मध्यमानेति—**मथ्यमानम्य, विलोडयमानस्य, क्षीरोदस्य, क्षीरसागरस्य, आर्क्स, जलभ्रमे, वर्तते इति तादृशं, मंदरं, मंदराचलम्। **रक्तेति—**रक्तचन्दनं एव अनुलेपः, लेपनं, तस्य। रक्तं, रक्तवर्ण, स्रगंचरं, माल्यवसनम्, आभरणां, यस्य, नथोक्तस्य। उत्तानशयस्य, उत्तानशायिनः, (ऊर्द्धमुग्वशयनशीलस्येत्यर्थः) शवम्य, मृतशरीरस्य। जातेति जातः, प्रादुर्भूनः, (मन्त्रवलेनेत्यर्थः) जात-’ वेदाः, अग्निः, यस्मान तथोक्ते। मुखकुहर, वदनगह्वरे। प्रारब्धेति—

प्सोषम्, कृष्णाङ्गगगम्, कृष्णप्रतिसरम्, कृष्ण्वासरम्, कृष्णतिलाहुतिनिभेन विद्याधरत्वतृष्णया मानुषनिर्माणकारण कालुष्यपरमाणूनिव क्षयमुपनयन्तम्, आहुतिदानपर्यस्ताभिः, प्रतमुखस्पर्शदृषितम्, प्रक्षालयन्तमिवाशुशुक्षणिं करनखदांधितिभिः, धूमालोहितेन चक्षुषा क्षतजाहुतिमिव हुतभुजि पातयन्तम्, ईषद्धिवृताधरपुटप्रकटितसितदशनशिखरेण दृश्यमान

प्रारब्धं, अग्निकार्य, होमः, येन, तथा भूनं। कृष्णति कृष्कृष्णावर्मा, उष्णीपं, शिरोवेष्टनवसनं यस्य, तथोक्तम। कृष्णाङ्गगर्ग, कृष्णावर्गाविलेपनम्। कृष्गाप्रतिमरं, कृष्यात्रगाहस्तसूत्रम्, कृष्णवासमं, कृप्यावसनपरिधायिनम्। कृष्योति कृष्यानिलानां, आहुतिनिमेन, आहुनिच्छलेन, विद्याधरत्वतृष्णाया, म्पृहया, (आत्मनोविद्याधरत्वलाभेच्छयेनिभावः) **मानुषेति—**मानुषस्य, निर्माणं, सृजनं तस्यकारणानि, उपादानसामग्रत्रः, कालुष्यपरमाणवः, मालिन्यनरमाणवः, तानिव, (निलानां कृष्गान्वान परमाणुनामपिकालुष्योत्प्रेक्षा) क्षयं,नाशं, उपनयन्नं,प्रापयन्तम्। **आहुतीति—**आहुनिदाने, हवनीयद्रव्यनिक्षेपममये, पर्यस्ताः, पनिताः, नाभिः, कग्नग्वदीधिनिभिः, हम्तनखकिरणैः। **प्रेतेति—**प्रेतस्य, मृनस्य, मुग्वस्पर्शन, इपिनं, अपवित्रितं, आशुशुक्षणिम्, अग्निम (अग्निवैश्वानगवह्निः, शिग्वावानाशुशुक्षणिः, इत्यमरः) प्रक्षालयन्नं, शोधयन्तं इव। **धूमेति—**धूमेन, आलोहितं, रक्तं, तेन, चक्षुपा, नेत्रगण, हुनभुजि, अग्ना, चनजाहुति, रक्ताहुति. इव, पानयन्नं, क्षिपन्नम्। **ईषदिति—**ईषद्विवृतेन, जपानुरोधादल्पनव्यात्तेन, अधरपुटेन, प्रकटितानि, प्रकाशितानि, सितानां, शुभ्राणां, दशनानां, दन्तानां, शिखराणि, अग्राणि, यम्य तथा भूतेन। दृश्यमानेति मृर्ता, मूर्तिमती, मन्त्राणां,प्रणवादीनां, अक्षर पंक्तिः, वर्णािवलिः,

**मूर्तमन्त्राक्षरपङ्क्तेनेव मुखेन किमपि जपन्तम्, होमश्रमस्वेद सलिलप्रतिबिम्बताभिगसन्नदीपिकाभिर्दहन्तमिव सिद्धये सर्वा वयवान्, अंसावलम्बिना बहुगुणेन विद्याधरराज्येनेव ब्रह्मसूत्रेण परिगृहीतं महाभैरवं भग्वाचार्यमपश्यत्। उपसृत्य चाकरोन्नमस्कारम्। अभिनन्दितश्चनेन स्वव्यापारमन्वतिष्ठत्। **

** अत्रान्तरे पातालस्वामी शातक्रनवीमाशामङ्गीचकार। कर्ण तालः कौवेरीम्। परिव्राट् प्राचेतसीम्। राजा तु त्रंशदूचेन ज्योतिषाङ्कितां ककुभमलंकृतवान्। **

** एवं चावस्थितेषु प्रतिदिशं दिक्पालेषु, दिक्पाल भुजपञ्जरप्रविष्टे विस्स्रब्धं कर्म साधयनि भैरवं भैरवाचार्यऽनिचिरं कृनकोलाहलेषु**

यत्र नथोक्लेन। होमेति—होमेन यः श्रमः, श्रान्तिः तेन, स्वेदमलिलानि, घर्मोदकानि, तेषुप्रतिबिम्बिताः प्रनिफलिताः, नाभिः, आमन्नदीपिकाभिः, पार्श्वप्रदीपैःसिद्धयेविद्याधरत्वलाभाय, अंसावलम्बिनास्कन्धलम्बिना, बहुगुणेन, बहुतन्तुना, उत्कर्षानिशयेन च। विद्याधरराज्येनइवब्रह्मसूत्रेण यज्ञोपवीनेन। अभिनन्दिनः, अनुमतः। स्वव्यापारं, (भैरवाचार्याक्तमिनियावन) अन्वनिष्ठन, अन्वपालयत्। शातक्रतवीं, ऐन्द्रीं. (पूर्व) आशां, दिशं अंगीचकार, स्वीचकार। कोवरों, उदीचीं, प्राचेतमों, प्रतीचीं। वैशङ्कयेन, त्रिशंकुर्नामराजातस्य इदं, त्रैशङ्कवं, तेन, ज्योतिषा, तेजमा, अङ्किता, चिह्निता, नां (दक्षिणां) ककुभं, दिशम (पुरागोबांध्याचेपावानीत्रिशंकोः ) एवमिति—प्रतिदिशं, सर्वामु, दिक्षु दिक्रपालपु, दिशांरक्षकेषु (पानालस्वामिप्रभृनिथ्वी निभावः)। दिक्पालेति—दिक्पालानां (एपां) भुजाः, बाहवः, एव, पञ्जरं, तस्मिन, प्रविष्टः, तस्मिन, (अकुतोभये इन्यर्थः) विस्स्रब्धं, निःशङ्क, यथा तथा. साधयति, अनुतिष्ठति।

निष्फलप्रयत्नेषु प्रत्यूहकारिषु शान्तेषु कौणपेषु, गलन्यर्धरात्रसमये मण्डलस्य नातिदवीयस्युत्तरेणाकस्मात्प्रलयमहावराहदंष्ट्राविवरमिव दर्शयन्ती क्षितिग्दीर्यत। सहसैवच तस्माद्विवरादाशाबारगोत्क्षिप्रइवालानलहस्तम्भः, महावराहपावरस्कन्धपीठो नरकासुर इवभुवो गर्भादुद्भूतःबलिदानव इव भित्त्वोत्थितः पातालम् इन्द्रनीलप्रासाद इवोपरि ज्वलितरत्नप्रदीपः, स्निग्धनीन्लघननिबिडकुटिलकुन्तलकान्तमोलिरुन्मीलन्मालती

अतिचिरं, समयं, प्रत्यूहकारिषु, विघ्नकारिषु, शान्तंषु, शान्तिगतेषुकौणपेषु, गक्षमेषु, (राक्षसः कौणपः क्रव्यादित्यमरः) गलति, अतिक्रामति। मण्डलस्य (प्रागुक्तम्य) नातिदवीयमी, नातिदृग्वतिनी, उत्तरेण, उत्तरस्यांदिशि। प्रलयेति—प्रलये, प्रलयममये, महावगहः, शुक्ररावनारः, जलमग्नायाः पृथिव्याः, उद्धारकः (नारायणावनार इनि यावत्) तस्य दंष्ट्रा दशनः, तस्याः, विवरं, दर्शयन्ती, प्रकट यन्ती। अदीर्यत्, (स्वयमेवद्विधाभवदिनिभावः) विवरात्रन्ध्रात्, पुरुषः, उञ्जगाम इत्यनेनान्वयः। आशावरणः, दिग्गजः, (पानालस्थ इतिभावः) तेन उत्क्षिप्रइव, उपरिक्षिप्त इव, आलानलाहस्तम्भः, आलानं, गजवन्धनं, तदर्थेलोहस्तम्भः, कीलः। महावगर्हति—महावराहम्य इव पीवरं, स्थूलं, स्कन्धपीठं, असपीठं, नरकासुर इव, गर्भात्, उदरात्, (अभ्यन्तरादितिभावः) इन्द्रनील प्रासाद इव, मणि हर्म्यम्इव। उपरीति उपरि, ऊर्ध्वभागे, ज्वलितौ, प्रदीप्तौ, रन्नप्रदीपौ, मणिमयदीपौ, (नेत्रे इति भावः) यस्य तथा भूतः। स्निग्धेति—स्निग्वैः, चिकणैः, नीलैः, कृष्णवर्णैः, वनैः, अविरलेः, निविडैः, संकीर्णैः, कुटिलैः, भङ्गिमद्भिः, कुन्तलैः, केशैः, कान्तः, मनोज्ञः, मौलिः, किरीटं, यस्य तादृशः। उन्मीलदिति—उन्मीलन्ती,

मुण्डमालः, गद्गदतया स्वरस्य स्वभावपाटलतया च चक्षुषःक्षीब इवयौवनमदेन वल्गद्लदामकः करसंपुटमृदितया मृदा दिङ्नागकुम्भाभाचंसकृटौ पुनः पुनः पङ्कयन्सान्द्रचन्दनकर्दमदत्तैरव्यवस्थास्थासकैरतिसितजलधरशकलशारित इव शारदाकाशैकदेशः, केतकीगर्भपत्रपाण्डुरस्य चण्डातकस्योपरि क्षामनरीकृतकृक्षिः कक्ष्याबन्धं विधाय विलासविक्षिप्तेन धवलव्याया

स्फुरन्तीमालनीमुण्डमालामालनी, पुष्पहारः, यस्यतथाभूतः। गद्गतया, अर्द्धस्फुटत्या, स्वभावपाटलतया, महजरतलया, क्षीव इव, चलत्त इव। वल्गदिति वल्गत् चलत्, गले कण्ठेदाममाल्यं, यस्य, तादृशस्य। **करेति—**करयोः हस्तयोः. सम्पुटेन, योगेन(सम्मेलनेनेत्यर्थः) मृदिता, दलिता,मृदा, मृत्तिकया। **दिङ्नागेति—**दिङ्नागकुम्भाभौ, ऐरावतकुम्भनिभौ, अंसकूटौस्कन्धशृङ्गे, पङ्कयन, कर्दमयन् (मलिनयन्निनिभावः) **सान्द्रेति—**मान्द्रेगा,घनेन, चन्दनपङ्केन, (वृष्टचन्दनेनेत्यर्थः) दत्तानि रचितानिनः, अव्यवस्थाम्थामकैः, अयथाव्यवस्थया इनियावन, स्थामकाः, चन्द्रका(बुदबुदाकागबिन्दवः–इतिभावः) अथवास्थामकः, चार्चिक्ये(अचातुर्यानुलिप्त चन्दनादिभिरिनियावत्) म्थासकः पुंसि चाचिक्ये जलादेरपि बुदबुदे” इति मेदिनी। **अतीति—**अनिमितन, विमलेन जलधारागणां, मेघानां, शकलेन, खण्डेन, शारित इव, चित्रित इव। शारदा काशकदेशःशरत्कालिकगगनैकभागः। **केनकाति—**केतक्याः. गर्भपत्रं, अभ्यन्तरच्छदः, नहन पाण्डुरं, श्वेतं, तस्य, चण्डातकस्य, षरिधानवस्त्रस्य। क्षामतरीकृतकुक्षिः, अनितरेणक्षीगणनांनीतोदरः। कक्ष्याबन्धं, कटिबन्धं। विलासविक्षिप्तन, लीलानिक्षिप्तेन। प्रवलेनि धवलःश्वेतव्यायामः, ( विशेषेणआयत

मफालीपटान्तेन धरणितलगतेन धार्यमाण इव पृष्ठतः शेषेण स्थिरस्थूलोरुदण्डः, भूमिभङ्गभयेनेव मन्थराणि स्थापयन्पदानि निर्भरर्वगुरु कथमपि शैलमिव गात्रमुद्वहन्दर्पेणमुहुर्मुहुरुरसि द्विगुणिते दोप्णि वामे निर्यगुत्क्षिप्ते च दक्षिणे जङ्घाकाण्डे कुण्डलितेचण्डस्फोटनटांकारैःकर्मविघ्ननिर्वातानिवपातयन्नेकेन्द्रियविकलमिव जोवलोकं कुर्वन्कुवन्दयश्यामलः पुरुषउज्जगाम। जगाद च विहस्य नरसिंहनादनिर्घोषपधोरया भारत्या

इति भावः) दीर्घोवा, फालीफ्टान्तः, कटिबन्धवम्त्रान्नः, तेन। धरणितलगतेननभूतललुण्ठितेन। धार्यमाणः, गृह्यमाणइवशेषेण, अननन्त,नागेन (शेषस्यधावल्यात् व्यायतत्वाच्चोत्प्रेक्षितम्) स्थिरेति—स्थिरौ, दृढौ, स्थूलौ, उरुगण्डौ, यस्य, तादृशः। भूमीति—भूमेः, पृथिव्याः, भङ्गभयेन, नाशभयेन, रसातलगमनाशङ्कया इति यावत्) मन्थराणि, मन्दसंचारगणीतिभावः। स्थापयन्अर्पयन्। निर्भरेति—निर्भरेण, निरतिशयेन. गर्वेण, यहङ्कारंगा, गुरुः, (भारवदित्यर्थः) दर्पेणअभिमानेन, द्विगुणितं, द्विगवृत्ते, वामे, सख्ये, दोष्णि, भुजे। तिर्यक्, वक्रं, यथा, नथा, उत्क्षिप्ते, ऊर्द्ध स्थापिते। जङ्घाकाण्डे, जङ्गाम्पस्तम्भे। कुण्डलिते, कुञ्चिने। चण्डेति— चण्डम, उत्कटं यन आस्फोटनं, आघानः (वाह्वारिति भावः) येन, ये टाङ्काराः, शब्द‌विशेषाः तैः। कर्मेति—कर्मणि, भैरवाचार्यसिद्धिकार्ये, विघ्नाय, (अन्नगयार्थमित्यर्थः) निर्वानाः, वायुजनिनाः, शब्दाः, तानिव। एकेन्द्रियविकलमिव, एकन, इन्द्रियेगा (श्रवणेनेतियावत्) विकलः, शक्तिहीनः, नमिच, (बधिरमिवेत्यर्थः) कुव जयदलश्यामलः, (नीलपद्म) तद्वच्छ्यामलः, उज्जगाम, उद‌तिष्ठत। नरेति—नरसिंहः, नृसिंहावतारः, तस्य नादः, शब्दः, निर्दोषः, हुङ्कारः,

भो विद्याधरीश्रद्धाकामुक, किमयं विद्यावलेपः सहायमदौवा यदस्मै जनायाविधाय बलिं वालिश इवसिद्धिमभिलषसि। का ते दुर्बुद्धिरियम्। एतावताकालेन क्षेत्राधिषतिरस्य मन्नाम्नैव लब्धव्यपदेशस्य देशस्य नागतस्ते श्रोत्रोपकण्ठं श्रीकण्ठनामा नागोऽहम्। अनिच्छतिमयि का शक्तिग्रहगणस्यापि गन्तुं गगने। भूनाथोऽप्ययमनाथस्तपस्वी यस्न्वादृशैः शैवापसदैरुपकरणीक्रियते। सहस्वेदानीं सहामुना दुर्नरेन्द्रेण दुर्नयस्यफलम् इत्यभिधाय च निष्ठुरैः प्रकोष्ठप्रहारैस्त्रानपि टोटिभप्रभृतीनभि मुखं प्रधावितान्सशरीरावरणकृपाणानपातयत्।

तद्वत्धारा, गम्भीरातया भारत्यावाचा जगाद उवाच। **विद्याधरिति—**विद्यावर्या, देवस्त्रियां, श्रद्धया, रागेण, कामुकःइच्छुकः। विद्याऽवनेषःविद्याज्ञनिनः, अहङ्कारः, सहायमदः, महकारि सद्भावजनितौद्धत्यम। अस्मै (मह्यमितिभावः) बलि पूजाप, अविधाय, अदत्वाबालिश इव. मूर्ख इव। मन्नाम्नैव, मदीयेननाम्नैवलब्धव्यपदेशस्य, प्राप्नाभिधानस्य (मङ्कनितम्येनियावन) अभ्यदेशस्य (श्रीकण्ठप्रख्यस्य) क्षेत्राधिपतिः क्षेत्रस्वामी। अत्रापकण्ठं, श्रोत्रयोः, उपगतः कण्ठं, उपकण्ठं. (श्रवगासमीपमिनियावन) श्रीकण्ठनामानागः एतदृशस्त्रामी (त्वया एतावताऽपि समयेन न श्रुतः?) ग्रहगणस्यापि, ग्रहाः रव्यादयः, तेषां गणः, तस्य, (नकोव्यत्र उत्पतितुंशक्तः इतिभावः) भूनाथः, भूपतिः, (अयंपुष्पभूतिः) अनाथः, अस्वाभाविकः(भविता) तपस्वी, वराकः, न्वादृशैः, त्वत्मदशैः। शैवापमदैः, शैवनीचैः, उपकरणोक्रियते, प्रलोभ्यसहायीक्रियते। दुर्नरेन्द्रेण, कुराज्ञा, दुर्नयस्यदुश्चेष्टितस्य, निष्ठुरैः, निर्दयैः, प्रकाप्रप्रहारैः, प्रकोष्ठस्य, हस्तावयवम्य, प्रहारैः, मुष्टिकाघातैः। अभिमुखं

अथापूर्वाधिक्षेपश्रवणादशस्त्रवणैग्यमर्षस्वेदच्छलेनानेकसमरपीतमसिधाराजलमिव वमद्भिग्वयरैपि रोमाञ्चनिभेन मुक्तशरशतशल्यनिकरभरलघुमिवात्मानं गणयकुर्वद्भिग्ट्टहासेनापि प्रतिबिम्बितततारगणेन स्पष्टदृष्ट्धवलदन्तमालमवज्ञया हसतेवकथ्यमानसत्त्वावटम्भः, परिकरबन्धविभ्रमिभ्रमितकरनखकिरणचक्रवालेन व्यपगमनाशङ्कया नागद्‌मनमन्त्रमण्डलबन्धनेव रुन्ध

सम्मुखं, प्रचावितान्, प्रचलितान्। **सशरीरेति —**शरीरावरणां, वर्म्म, कृपाणः खङ्गः, ताभ्यां, सह, वत्तमानान। **अथेति—**अथ इत्यतः"नरनाथः, सावज्ञमवादीत्इत्यनेन, न्त्रयः। अपूर्वेति—अपूर्वः, नवः, यः, अधिक्षेपः. निर्भर्त्सनं, तस्यश्रवणं, आकर्णनं, तम्मात् अशम्बत्रगणैः, न शस्त्रेगा त्रगां, क्षनं. येषां तः। अमर्पण, कोपेन, यः, स्वेदः, धर्मजलं, तस्य, अनेन, व्याजेन। अनेकेति—अनेकेषु, समरेषु, युद्धेषु, पीतम्, आस्वादितं. असिधाराजलं, खड्गजलं, इत्र, (बहुशत्रु हननान) वमद्भिः, उद्भिर्गशः, अवयवैः, अङ्गः, रामाच निभेन, लामच्छलेन, मुक्त, निःसारिनः, शर शनानि, वाणममूहानि, शल्यनिकराः, शल्यसमूहाः, एव भागयेन, नथाक्तः। अतः, लघुः, भाररहितः, तमिव। रणाय, युद्धाय। अट्टहासेन, तन्नाम खङ्गन. प्रतिविम्बिनः, प्रनिफलिनः, नारागरणः, नक्षत्रवृन्दं, यस्मिन्, तेन। स्पष्टेति स्पष्टं, स्फुटं, दृष्टा, धवला, शुत्रा, दन्तमाला, दशनश्रेणी यत्र, तद् यथा तथा, हमतेव, हामं कुवतव। कथ्यमानति कथ्यमानः, अभित्रीयमानः, सत्त्वस्य, उद्यागस्य, अवष्टम्भः, वेगः यस्य, तथोक्तः। परिकरेति परिकरबन्धः, कटिबन्धः, तस्य, विभ्रमेगा, चेष्टया, भ्रमितयो, चलिनयोः, करयोः, हस्तयोः, नखक्रिरणानां, चक्रवालं, मण्डलं, तेन। व्यपगमनाशङ्कया, शत्रोः पलायनाशङ्क-

न्दश दिशो नरनाथः सावज्ञमवादीत् ‘अरे काकोदर ! काक मयि स्थिते राजहंसे न जिहेपि बलि याचितुम्। श्रमाभिः किं वा परुषभाषितैः। भुजे वीर्य निवसति, न वाचि। प्रतिपद्यस्व शम्त्रम्। अयं न भवसि। अगृहीतहेतिप्वांशक्षितो मेभुजः प्रहर्तुम्’ इति। नागस्त्वनादृततरम् ‘एहि। कि शस्त्रेण। भुजाभ्यामेव भनज्मिभवतो दर्पम्’ इत्यभिधायास्फोटयामास। नरपतिरपि निगयुधमायुधेन युधि लज्जमानो जेतुमुत्सृज्य सचर्मफलकमट्टहासमसिमर्धोरुकस्थोपरि बबन्ध बाहुयुद्धाय कक्ष्याम्। युयुधातेच निर्दयास्फोटन्स्फुटितभजरुधिरशीकरसिच्यमानौ

येनिभावः) नागेति- नागानां, सर्पाणां, दमनमन्त्रः, शामनमन्त्रः, (गारुडादीनियावन) तेन, यः, मण्डलबन्धः, मण्डलाकारः, तेन यः रुन्धत, अवराधयन। सावज्ञं, सावहेलम्। काकादर! भुजङ्ग’ काकस्य, वायसस्य, उदरं, अथवा, काकं ईषद्गतिमदुदरंयस्य। काक ! निर्लज्ज ! राजहंसे, राजश्रेष्ठ, मराले च, न जिह्वेपि, लज्जम। चर्याल, पूजां, याचितुं। परुपभाषितैः, कट्ट‌क्तिभिः। प्रतिपद्यस्व, नय। अयम् (ईदृशः इतिभावः) अगृहीतदेहिषु, अगृहीतशस्त्रेषु, अशिक्षितः, अनभ्यस्तः। अनाहतनरं, सावज्ञं। एहि, आगच्छ। किं शास्त्रेण? (नकिमपि प्रयाजनं शम्बम्येतिभावः) भनज्मि, नाशयामि। आस्फोटयामास, आस्फालयामास। (वाहौकराघानमकरोदितिभावः ) निरायुधम, अशस्त्रम्। आयुधेन, शस्त्रेणउत्पृत्य, परित्यज्य। अट्टहासं, भैरवाचार्यदत्तखड्गं।अर्द्धोरुकस्य, उर्वाधरपर्यन्ताङ्गाच्छादनवस्त्रस्य। कक्ष्यां, कटिबन्धे। निर्देवति निर्दयं, निष्ठुरं, यन, आस्फोटनम, प्रहरणं, (तालिका शब्दकरणमितिभावः) तन, स्फुटि तस्य, विक्षतस्य, भुजस्य रुधिरणां, रक्तानां, शीकरैः, बिन्दुभिः

**शिलास्तम्भैरिव पतद्भिर्वाहुदगडैः शब्दमयमिव कुर्वाणौभुवनं तौ। न चिराच्च पानयामास भूतले भुजंगं भूपतिः। जग्राह च केशेषु। उच्चखान च शिरश्छेत्तुमट्टहासम्। अपश्यच्च वैकक्षकमालान्तरेणास्य यज्ञोपवीतम्। उपसंहृतशस्त्रव्यापारश्चावादीत् ‘दुर्विनीत!, अस्ति ने दुर्नयनिर्वाहवीजमिदम्। यतो विश्रब्धमेवाचरसि चापलानि’ इत्युक्त्वोत्ससर्जतम्। अनन्तरं च सहमैवातिबहलां ज्योत्स्नां ददर्श। शरदि विकसनां कमलवनानामिव च घ्राणावलेपिनमामोदमजिघ्रत्। झटिति च नुपुग्शब्दम शृणोत्। व्यापारयामास च शब्दानुसारेण दृष्टिम्। **

** अथ करतलस्थितस्याट्टहासस्य मध्ये तडितमिव नीलजघरोदरे स्फुरन्तीं प्रभया पिवन्तामिवत्रियामाम् तामरसस्ताम्, कोमलाङ्गलिरागराजिजालकानि च चरणलग्नानि वेला**

सिच्यमानौ, कृतमेचनकौ। उच्चरवान्, उत्तालयामास, वैकज्ञकमालां, तिर्यकवक्षावलम्बिहारअन्तरेणमध्ये। दुर्नयस्यदुर्नयस्य. दुश्चेष्टितम्य, निर्वाहः, सम्पादनं, तस्यबीजं, कारणं(ब्रह्महत्याभयान्नदण्ड्यमे इतिभावः) विश्रब्धं, निःशङ्ककम। चापलानि, चाञ्चल्यानि। उत्मजेत्यत्याज। अतिवद्दलां, अतिप्रभूनाम। ब्रागाविलेपिनं (नामाग्न्ध्रपुरकमिनियावन) आमोदम मौग्भं। व्यापाग्यामाम, प्रसारितवान। दृष्टि, नेत्रं। अथ इत्यतः “म्ब्रियमपश्यत्” इत्यनेनान्वयः। अट्टहा मस्य, तन्नामग्वङ्गस्य। तडितं, दामिनीं इत्र, स्फुरन्तों. शोभमानाम्। पिवन्तीं, पानंकुर्वन्तीं, इव। त्रियामां, रात्रि। तामरनहस्तां, पद्मकराम्। कोमलेति कोमलानां, अंगुलीनां, रागराजिः, लोहित्यधारा। तस्या, जालकानि, समृहानि। वेलेति वेलायां, तटभूमौ, बालानि, नूतनानि, यानि, विद्रुमलतावनानि, प्रवाललताउद्यानानि।

बालांबद्र मलतावनानावाकपंन्ताम्, करपङ्कजसकाचाशङ्कया शशाङ्कमण्डलमिव खण्डशः कृतं निर्मलचरणनख़निवहनिभेन बिभ्रताम्, गुल्फावलम्विनूपुरपुटतया स्थितनिविड़कटकावलिबन्धनादिव परिभ्रश्यागताम्। बहुविधकुसुमशकुनिशतशोभितात्पवनचलिततनुतर प्रादतिस्वच्छादंशुकादुदधिसलिलादिवोत्तरन्तीम्, उदधिजन्मप्रेम्णा त्रिवलिच्छलेन त्रिपथगयेच परिष्वक्तमध्धाम् अत्युन्नतस्तनमण्डलाम्, दृश्यमानदिङ्गागकुम्भामिव ककुभम् मदलग्नैगवतकर शीकरनिकरमिव शरत्ताग

तानि, इव। करेति कर एव, पङ्कनं. कमलं, तस्य, सङ्काचः, निमीलनं, (चन्द्राद्यादिनियावन) तस्य आशङ्का, भयं, तथा शशाङ्कमण्डलं. चन्द्रमण्डलं. इव।खण्डशः, कुकृनं, शकलीकृतम्। निर्मलेति निर्मलानां, स्वच्छानां, चरगानग्वानां, नित्रहः, समूहः, तन्निभेननत्महरोन। गुल्फति गुल्कं. पादग्रन्थि, अवलम्बते, नं. नृपुरपुटं, नृपुग्मन्धिः, यम्याः, नया। स्थितेति स्थिनं, निविडं, हढं. कटकावल्यां, सैनिकममूले, वन्धनं, तम्मान, परिभ्रश्य, निर्गत्य, आगनां, प्राप्ताम्। बह्निति बहुवियः, नानाप्रकारैः, कुमुमानां, पुष्पानां, शकुनीनां, पक्षिगणां, च शतैः, तन्तुनिर्मितैः (पक्षे) उपरिपतितैः। शोभितं, नम्माल। पचनेति पवनेन, वायुना, चलिताः, क्षिप्ताः, तनवः, सूक्ष्माः, तरङ्गाः, यस्यतस्मान्, अतिम्वच्छान, निर्मलान, अशुकान, वमनान, उत्तरन्तीं, उत्तिष्ठन्नीम्। उदृ‌धिजन्मप्रेम्णा, सागगप्रत्तिम्नंहन, त्रिवलिच्छलेन, त्रिवलिव्याजेन। त्रिपथगयेव, त्रिधारयागङ्गयेव, परिष्वक्तमध्यां, आलिङ्गितमध्यभागाम। दृश्यमानेति दृश्यमानौ, दिङ्नागस्य, ऐरावतस्य, कुम्भो यस्यां, तथा भूतां, इव। ककुभं, दिशम्। मदेति मंदे, दानवारिणि, लग्नः,

गणतारं हारमुरसा दधानाम्, धवलचामरैग्वि च मन्दमन्दनिःश्वासदोलाधितैर्हारकिरणैरुपवीज्यमानम्, स्वभावलोहितेन मदान्धगन्धंभकुम्भास्फालनसंक्रान्तसिन्दूरेणेव करद्वयेन द्योतमानाम्, हरशिखण्डेन्दुद्वितीयखण्डेनेव कुण्डलीकृतेन ज्योत्स्ना मुच्चा दन्तपत्रेण विभ्राजमानाम् कौस्तुभगभस्तिस्तवकेनेव च श्रवणलग्नेनाशोककिसलयेनालंकृताम् महता मातङ्गमदमयेन तिलकेनादृश्यच्छत्रच्छायामण्डलेनेवाविरहितललाटाम् आ पाद

संसक्तः, यः, ऐरावतःतस्य, कर शुगडः तस्य, शीकरगणां, जलबिन्दूनां, निकरः, समूहः तमित्र। शरदिति- शरदि, यः, तारागणः. तक्षत्रवृन्दं तद्वत् तारःउज्वलः तम् उरसा, वक्षसा। मन्देति- मन्दमन्देन, ईषन्मन्देन, निश्वासेन,दोलायिताः, चञ्चलिताः, तैः. उपत्रीज्यमाना, संबीज्यमाना ताम्। स्वभावलाहिनेन, सहजरक्तेन्। मदान्धेति -मदान्धः, मदमत्तः य गन्धेभः गन्धहस्ती, (म्वदं मूत्रं पुगेषं च मजाञ्चैव मनङ्गजाः, यस्याघ्राय विमाद्यन्ति नं विद्यादन्य हम्निनम्) नम्य. कुम्माम्फालनं, अवमर्शः, तेन, संक्रान्तं, संसकें. सिन्दुर, यस्मिन नेन इव। लक्ष्म्याः करद्वयेन, हस्तयुगलेन, द्योतमानां, शोभमानाम। हरेति- हरस्य, शिखण्डं, चूडा. नत्र, यः, इन्दुद्वितीयग्वण्डः, अर्द्धचन्द्रः, तेन इव. कुण्डलीकृतेन. वर्तुलाकारंगा, ज्योत्स्नामुचा, कान्निर्वार्पणा, दन्नपत्रेगा, गजदन्तरचितकर्णभूषणेन, विभ्राजमानां, योनमानाम्। कौस्तुभेति -कोस्तुभस्य, मगणेः, गभस्तीनां, किरणानां स्तवकः, गुच्छः, तेन, इव, श्रवणलग्मन, श्रत्रिगतेन। मातङ्गमदमये, गजदाननिर्मितन। अदृश्येति - अदृश्यस्य, निगहिनस्य, छत्रस्य, छायामण्डलं, छायावक्रं तेन, इव। अविरहितः, अशून्यः, ललाटः, यस्याः, ताम्।

तलादासीमन्ताच्च चन्द्रातपधवलेन चन्दनेनादिगजयशसेव धवलीकृताम्, धरणितलचुम्बिनीभिः कण्ठकुसुममालाभिः सरिद्भिरिवसागराधिष्ठात्रीभिरधिष्ठिताम्, मृणालकोमलैरवयवैःकमलसंभवत्वमनक्षरमाचक्षाणां स्त्रियमपश्यत्। असंभ्रान्तश्च प्रपच्छ ‘भद्रे, कासि। किमर्थ वा दर्शनपथमागतासि’ इति। सा तु स्त्रीजनविरुद्धंनावटम्भेनाभिभवन्तीबाभाषत तम्—‘बीर, सिद्धि मां नागयणोरःस्थलीलालाविहारहरिणीम्, पृथुभरतभगीरथादिराजवंशपताकाम्, सुभट्भुजजयस्तम्भविलासशा

आपादनलात्, आमीमन्नात् सीमन्नपयन्नं, चन्द्रातपधवलेन, कौमुदीवत् श्वेतन. स्वभावशुभ्रंगण वा। आदिराजयशसा, आदिराजस्य, मनाः वैवस्वतस्य, पृथुनृपनेर्वा, यशः तेन, इव। धरणितलेति घरगितलं, भूतलं. चुम्बन्ति स्पृशन्नि, इति तादृशाभिः। सागराधिष्ठाभिः सागरं अधि, अधिकृत्य तिष्ठन्ति, याः, नाभिः। कमलसम्भवत्वं, कमलादुत्पत्तिम, अथवा, सम्भूयते, स्थीयते, अम्मि न्निति, अधिष्ठानम्थानं, यस्याः (कमलवासिन्यालक्ष्म्याः इतिभावः) अनचरं, अक्षररहिनं, (नृष्णामिनियावन) आचक्षाणां, कथयन्तीं, अमम्भ्रान्तः, अचकितः, (अत्वम्एवेतिभावः) अवटुम्भेन, गर्नेगा। अभिभवन्तीव, तिग्म्कुर्वन्तीव, (अवरुन्धनीव तद्वाक्यमितिभावः ) नारायणेति नारायणास्य, विष्णोः, उरः, वक्षःस्थलम, एव, स्थली, अकृत्रिमाभूः, (वनमिनियावत्) नत्र, लीलया, स्वेच्छया, यः, विहारः, विहरणं, क्रीडनं वा नत्र हरिणि, मृगी, ताम् (स्वेच्छयारण्यस्थल्यां हरिण्या विहारः प्रसिद्धः पृथ्विति पृथुप्रभृतीनां, राज्ञां, वंशस्य, कुलस्य, वेणुदण्डस्य च, पनाकां, ध्वजां, औज्वल्यकारिणीं, कीर्तिविस्तारात्, (पक्ष) वेणुदण्डस्योपरि अवस्थानात्। सुभदेति

‘लभञ्जिकाम्, रणरुधिरतरङ्गिणीतरङ्गक्रीडादोहददुर्ललितगजहंसीम्, सितनृपच्छ्त्रपण्डशिग्वण्डिनीम्, अतिनिशितशस्त्रधारावनभ्रमणविभ्रमसिहीम्, असिधाराजलकमलिनीं श्रियम्। अपहृतास्मि तवामुना शौर्यग्सेन। याचस्व, ददामि ते वग्म भिलपितम्’ इति।

** वीरणांत्वपुनरुक्ताः परोपकाराः। यतो गजा तां प्रणम्य स्वार्थविमुखोभैरवाचार्यस्य सिद्धि ययाचे। लक्ष्मीस्तु देवा प्रीततरहृद्या विस्तीर्यमाणेन चक्षपा क्षीरोदेनेवोपरि पर्यस्तेना**

सुभटानां, सुवीरराणां, भुजाः वाहवः, एव, जयस्तम्भाः, तेषु, विलासशालभञ्जिका शाभार्थनिहितपुत्तलिकाताम्(सुभटपदेनाम्याः वीरानुरागित्वं, सूचितं) रणेतिरणेषु, युद्धेषु, या्मविरतरङ्गिण्यः. गकनयः, नामां, तरंगेषु, उम्मियु, क्रीडा, केली, नत्र दोहदेन, अभिलापेणा. दुर्ललिता, दुर्विनीता. राजहंमी ताम। सितेति सिनानि, शुत्राग्णि, नृपाणां, गजां, छत्रपण्डानि, आतपत्रसमूहानि, तत्र शिवण्डिनी, मयूरी, ताम, (अनानपेसञ्चरणशीलत्वाद मयूरीगणां) अतीति अनिनिशितानां, मुतीक्ष्णानां, शस्त्राग्णां, धारा एव, वनानितेषु, भ्रमणं एव, विभ्रमः, विलामः, नत्र, सिंही, नाम। असाति अमीनां, खङ्गानां, बाग एव, जलानि, (तनुत्वादितिभावः) तत्र कमलिनी, पद्मिनी ताम्। अपहृतेति अपहृता, आकृष्टा, शौर्य्यरसेन, उत्साहेन। अभिलपितं, इच्छितम्। अपुनरुक्तेति अपुनरुक्ताः, पुनरुक्तिदोपरहिनाः, परोपकाराः, परषामुपकृतयः, अथवा, अपुनरुक्ताः, अनधिकाः। तां, लक्ष्मीम। स्वार्थविमुखः, निःस्वार्थः। सिद्धि, इच्छतसाफल्यं । प्रीततरेति प्रीततरं, अतिशयेन, प्रीतं, (राज्ञः, स्वार्थनिःस्पृहत्वेनेति यावन्) हृदयं, यस्याः, सा। विस्तीर्यमा गोन,

**भिषिञ्चन्ती भूपालम् ‘एवमस्तु’ इत्यब्रवीत्। अवादांच्च पुनः ‘अनेन सत्त्वोत्कर्षण भगवच्छिवभट्टारकभक्त्याचासाधारणया भवान्भुवि सूर्याचन्द्रमसोस्तृतीय इवाविच्छिन्नस्य प्रतिदिनमुपचायमानवृद्धः शुचिसुभगसत्यत्यागचेशौगडपुरुषप्रकाण्डप्रायस्य महतो राजवंशम्य कर्ता भविष्यति।यस्मिन्नुत्पत्स्यते सर्वद्वीपानां भोक्ताहरिश्चन्द्र इव हर्षनामा चक्रवर्ती त्रिभुवनविविजिगीषुद्वितीयो मांधातवः यस्थायं करः स्वयमेव कमलमपहाय ग्रहीष्यति चामग्म’ इति वचसोऽन्त तिरोबभूव। **

** भूमिपादस्तु तदाकर्ण्यहृदयेनातिमात्रमप्रीयत। भैरवाचायोऽपि तस्या देव्यास्तेन वचसा कर्मणा च सम्यगुपपादितेन सद्य एव कुन्तली किरीटी कुण्डली हारी केयूरीमेखलीमुद्गरी**

विस्फार्यमाणेन(निःस्पृहत्वदर्शनेन विस्मयागमादिनि यावत्) क्षीरादेनेव, दुग्धसमुद्र गाव (प्रसन्नत्वादित्यर्थः) उपरिपयस्तेन, पतितेन। एवं, अस्तु(पूर्णा त प्राथना सत्वोत्कर्षेण, साहमातिशयेन, असधारणया निरुपमया। सूर्यचन्द्रमसोः, विनिशाकरयाः, तृतीय इव, भिन्न इव(तेजस्त्वात्) अविछिन्नस्य, अत्रुटिनस्य, उपचीयमानवृद्धेः, निग्न्तरवर्द्धमानाभ्युश्यम्य। (समयप्रभावेण उन्नति, अवनति च गच्छतः, प्रनिमासं, एवं वृद्धिमदंशस्य नृपम्येत्यर्थः “व्यनिरंकः ) शुचांति शुचिः, मृनंशुद्धाचग्गां वा मुभगं, सुशोभनं, भगं, वीर्य, यशो वा, मन्यं, यथार्थकथनं, त्यागः, दानं, वैर्य, धीरन्वं, तेपु, शोण्डाः, दक्षाः, (सर्वगुणसम्पन्नाः इत्यर्थः) पुरुपर काण्डाः पुरुषश्रेष्ठाः, प्रायेण, वाहुल्येन, यत्र, तथा भूनस्य, कर्ता, जनकः। यस्मिन (राजवंशे–इति यावन्) द्विनीयः, अपरः, मान्धातेच, नृप इव। कर्मणा, (शवसाधनरूपकार्यगतिभावः) सम्यक उपपादितेन, सम्यगनुष्ठितेन।

खङ्गी च भूत्वावाप विद्याधरत्वम। प्रोवाच च ‘राजन्, अदृरव्यापिनः फल्गुचेतसामलसानां मनोरथाः। सतां तु भुवि विस्तारवत्यः स्वभावेनैवोपकृतयः। स्वप्नेऽप्यसंभावितां दातुमिमां दक्षिणां क्षमः कोऽन्यो भवन्तमपहाय। संपस्कणिकामपि प्राप्य तुलेव लघुप्रकृतिरुन्नतिमायानि। स्वदीयैर्गुणैरुपकरणीकृतस्य त्वत्प्त्त एव च लब्धात्मलाभस्य निर्लज्जतेयमस्य मूढहृदययस्य। नदिच्छामि येन केनचित्कार्यलयोपपादनोपयोगेन स्मारयितुमात्मानम्’ इति प्रत्युपकारदुष्प्रवेशास्तु भवन्ति धीराणां हृदया

सद्य एव, तत्क्षणमेव, कुन्तली, सुकेशः, किरीटी, मुकुधारी, कुण्डली, कुण्डलयुक्तः। हारी, हारवान। केयूरी, अङ्गदी, मेखली, तडागीधारी। मुद्गरी, मुद्गरः, दण्डः, तद्वान्। विद्याधरत्वं, विद्याधरभावम्। अदृरच्यापिनः, समीपप्रसारिणः, फल्गुचेतसाम्, असारहृदयानाम्। अलसानां, उद्यमरहितानां, मनोरथाः, इप्सितानि। विस्तारवत्यः, प्रसरणशीलाः। उपकृतयः, उपकाराः। इमां, दक्षिणां, (विद्याधरत्वलाभरूपाम) क्षमः, समर्थः। अपहाय, त्यक्त्त्वा। सम्पदिति—सम्पदः, धनस्य, कणिकां, कणमात्रं, (लेशमपीतिभावः) लघुप्रकृतिः, नीचस्वभावः। उन्नतिम्। यौन्नत्यं, विपथगमनं च। उपकरणीकृतस्य, कृत उपकारस्य। लब्धेति—लब्धः, प्राप्तः, आत्मनो, लाभः, अभीष्टरूपः, येन तथा भूतस्य, अस्य (मदीयस्येति यावत्) कार्यति—कार्यस्य, लव, लेशः, (किञ्चिन्मात्रमितिभावः) तस्य उपपा दनं, करणं, तेन, यः, उपयोगः, (उपकाररूपः) तेन। स्मारयितुं, स्मरणतां नेतुं। प्रत्युपकारेति—प्रत्युपकारेण, उपकारप्रतिदानेन,

वष्टम्भाः, अतस्तं राजा ‘भवत्सिद्धयैव परिसमाप्तकृत्योऽस्मि। साधयतु मान्यो यथासमीहितं स्थानम्’ इति प्रत्याचचते।

** तथोक्तश्च भूभुजा जिगमिषुः सुदृढं समालिङ्गय टीटिभादीन्कुवलयवनेनेवावश्यायशीकरस्त्राविणा सास्त्रेण चक्षुषा वीक्षमाणः क्षितिपतिं पुनरुवाच—तात, ब्रवीमि यामीति न स्नेहसदृशम्। त्वदीयाः प्राणा इति पुनरुक्तम्। गृह्यतामिदं शरीरकमिति व्यतिरेकेणार्थकरणम्। तिलशः क्रीता वयमिति नोप**

दुष्प्रवेशाः, प्रवेष्टुमशक्याः, हृदयावष्टम्भाः, हृदयगाम्भीर्याणि, (नहि धीराः प्रत्युपकारं अर्थयन्ते) भवत्सिध्या, इप्सितपूरगोनेनिभावः। परिसमाप्तं, पूर्णानांनीनम्। कृत्यं, कर्म,यस्य, तथोक्तः। साधयतु व्रजतु, मान्यः। (भवानितियावत्) यथा समीहितं, चेष्टितानुरूपं,(यथेप्सिनमितिभावः) स्थानं, (विद्याधरलोकं) इति,एवं प्रत्याचचक्षेअकथयत्।

भूभुजा, राज्ञा, जिगमिषुः, गन्तुमिच्छुः (भैरवाचार्ये–इतिभावः) बकुलयवनेन नीलोत्पलकाननेन, इव। अवश्यायेति—अवश्यायानां तुषाराणां, शीकरान्, विन्दून् स्रवति इति तादृशेन। सास्त्रेण, सजलेन। स्नेहशदृशं, स्नेहसमुचितम्। प्राणाः, (मदीया इत्यर्थः) त्वदीयाः, (त्वं मत्तः अभिन्न इत्यर्थः) पुनरुक्तं, (कथितपूर्वमितिभावः) व्यनिरकेण, पृथग्भावेन, अर्थकरणं, अर्थसाधनम् (आवांग्खलु अभिन्नो, कथने तु विपर्ययः एवेति भावः) तिलशः, खण्डशः, क्रीता वयमिति (बहु उपकारकरणात्) नहि प्रत्युपकार कर्तुं समर्थाः वयमितिभावः) दूरीकरणं, दूरे निक्षेप, इव। अप्रत्यक्षं, वचनमात्रं (दृष्टेरविषयत्वाद्धृ

कारानुरूपम्। बान्धवोऽसीति दूरीकरणमिव । त्वथि स्थितं हृदयमित्यप्रत्यक्षम्। त्वद्भिरहकारिणी कारणेयं न सिद्धगित्यश्रद्धेयम्। निष्कारणस्तवोपकार इत्यनुवादः। स्मर्तव्या वयमित्याज्ञा। सर्वथा कृतघ्नालापेष्वसज्जनकथासु च चेतसि कर्तव्योऽयं स्वार्थनिष्ठुरो जनः’ इत्यमिधाय वेगच्छिन्नहारोच्छलितमुक्ताफलनिकरताडिततारागणं गगनतलमुत्पपात। ययौ च सीमन्तितग्रह

दयस्येतिभावः) त्वद्विरह कारिणी, नवविच्छेदजननी, अतएवनः, अस्माकं, इयं सिद्धिः, कारणा, यातना, (क्लेश एवेतियावत्) (कारणातुयातना तीव्रवेदना “इत्यमरः”) श्रश्रद्धेयं, अविश्वास्यम्, निष्कारणः, कारणारहितः, निरर्थको वा) इति, एतत्कथनं, अनुवादः, कथितस्यार्थस्य प्रकारान्तरेणकथनम्। आज्ञा, आदेशः। कृतन्नालापेषु, कृतं, (कार्ये) घ्ननन्ति-इति कृतन्नाः, तेषां, आलापाः, भाषणानि, तेषु, असज्जनकथासु, दुर्जनविपयकालापप्रम्नावेषु, भवतां प्रत्युपकाराकरणात, अहमपिकृतघ्नः, अतः, स्वार्थनिष्ठुरः स्वकार्यसाधनपरायणः, अतएव निर्दयः। वेगेति वेगेन, रंहस्रा, छिन्नात्, त्रुटितात्, हारात्, उच्छलितानां, निर्गलितानां, मुक्ताफलानां, मौक्तिकानां, निकरैः, समूहैः, ताडितः, आहतः, तारागणः, नक्षत्रवृन्दं, यस्य, यत्र वा, तन् (विषयाणां मौक्तिकानां, निगरगोन असंख्यतारागणताडनम्, अतः, असम्बन्धे सम्बन्धरूपा अतिशयोक्तिः) सीमन्तितेति सीमन्तितः, द्विधाकृतः, ग्रहाणां, दिग्वारिणां, सूर्यादीनां, ग्रामः, समूहः, येन. तथोक्तः। सिध्युचितं, (विद्याधरत्वा योग्यं) धाम, स्थानम्। श्रीकण्ठोऽपि, तन्नामनागोऽपि। पराक्रमक्रीतः, बलक्रीतः। कर्तव्येषु, कार्येषु, (भवतः,

**ग्रामः सिद्ध्युचितं धाम। श्रीकण्ठोऽपि ‘राजन्, पराक्रमक्रीतः कर्तव्येषु नियोगेनानुग्राह्यो ग्राहितविनयोऽयं जनः’ इत्यभिधाय राजानुमोदितस्तदेव भूयो भूविवरं विवेश। **

** नरपतिस्तु क्षीणभूयिष्टायां क्षपायां, प्रवातुमारब्धे प्रबुध्यमानकमलिनीनिःश्वाससुरभौ, वददेवताकुचांशुकापहरणपरिहासस्वेदिनीव सावश्यायशीकरे, परिमलाकृष्टमधुकृति कुमुदनिद्रावाहिनि निशापरिणतिजडे तुषारलेशिनि वनानिले, विरहविधु**

इतियावत्) नियोगेन, आदेशेन। ग्राहितविनयः, शिक्षितविनयः, (पराजयेनेत्यर्थः) भूविवरं, पातालम्। नरपतिः"इत्यतः नगरं विवेश” इत्यनेनान्वयः। क्षीणभूयिष्ठायां, (प्रायेणव्यतीतायामिति भावः) क्षपायां, रजन्याम्। प्रवातुं, सञ्चरितुम्। प्रबुद्धयमानेति—प्रबुद्धयमानानां, (सूर्योद‌यान) विकाशं गतानां, कमलिनीनां, निश्वासेन (तत्स्पर्शवायुनेनिभावः) सुरभिः, सुगन्धः, तस्मिन। वनेति—वनदेवतानां, कुचयोः, स्तनयोः, अंशुकस्य, वस्त्रस्य, अपहरणमेव परिहासः, हास्यं, (क्रीडनमितियावत्) तेन यः, स्वेदः, धर्मजलं, तद्वति इव, सावश्यायशीकरे, तुषारविन्दुयुक्त (समासोक्तिः) परिमलेति—परिमलः, पुष्पविमर्दोगन्धः, तन, आकृष्टाः, आकर्षिताः, मधुकृतः, द्विरेफाः (पक्ष) (तदाघ्रायोन्मादिताः विटाः- इति यावत् ) येन तादृशं। कुमुदेति कुमुदानां, निद्रानिमीलनं, तां वाह्यति, उत्पादयति, इति तस्मिन् (दक्षिणनायकत्वंव्यज्यते ऽत्रप्रेमगर्भव्यवहारेयातिभावः) निशेति—निशायाः, रात्रेः, परिणतिः, परिणामः, तया जड़ः, मन्थरः, शिशिरभारेण, (पक्षे) सर्वासां निशां, विलासात्,

रचक्रवाकचक्रनिःश्वसितसंतापितायामिवापरजलनिधिमवतरन्त्यां त्रियामायां, साक्षादागतलक्ष्मीविलोकनकुतूहलिनीष्विव समुन्मीलन्तीषु नलिनीषु, उन्निद्र‌पक्षिणि क्षरति कुसुमविसरमिव तुहिनकणनिकरं मृदुपवनलासितलते कानने, कमललक्ष्मी प्रबोधमंलशंखेष्विव रसत्स्वन्तर्यद्धध्वनन्मधुकरेषु मुकुलायमा

प्रजागरालसः, इत्यर्थः तस्मिन्। तुषारलेशिनि, शिशिरबिन्दु वाहिनि, (ईषत्शीनलेतियावत्) (पक्ष) रतिश्रमस्वेदवतीनिभावः। विरहेति - विरहेण, वियोगेन, विधुराणां, व्याकुलानां, चक्रवाकाणां, रथाङ्गपक्षिगणां, चक्रस्य, समूहस्य, निश्वसितेन, निश्वाममरुता (उष्णेनेतियावत्) सन्तापित्तायां, इव, (उत्प्रेक्षा) अपरजलनिधि, अपरं समुद्रं, त्रियामायां, रजन्यां। साक्षादिति—साक्षादागतायाः, प्राप्तायाः, लक्ष्म्याः, श्रियाः, विलोकने, दर्शने, कुतूहलिन्यः, कौतुकवत्यः, तासु—इव। समुन्मीलन्तीषु, विकसन्तीषु, नलिनीषु, पद्मिनीषु, (मुग्धनायिकात्वं, व्यज्यते एतेन कमलिनीनां)। उन्निद्रेति उन्निद्राः, विगतनिद्राः, (प्रातः पक्षिणां, जागरणस्वभावः) पक्षिणः, यत्र, तस्मिन (शृङ्गारसहायाः पक्षिणः विटानां ध्वन्यते अनेन) क्षरति, वर्षति। कुसुमविसरमिव, पुष्पनिकरमिव, (पक्षे) विर‌ह्नापोपशान्तये रतिसुखोपभुक्तये वा। मृद्विति मृदुना त्रिविधेन, पवनेन, वायुना, लासिताः, नत्तिताः, (कम्पिताः इतिभावः) लताः, व्रतत्यः, यत्र तादृशे। कमलेति कमलानां, पद्मानां, लक्ष्मीः, श्रीः, तस्याः, प्रबोधाय, जागरणाय, मङ्गलशङ्खाः, तेषु इव, (उत्प्रेक्षा) रसत्सु, ध्वनेत्सु। अन्तरिति अन्तः, अभ्यन्तरे, बद्धाः, रुद्धाः, (पद्मनिमीलनादित्यर्थः)

नेषु कुमुदेषु, उज्जिहानरविरथवाजिविसृष्टैः प्रोथपवनैः प्रोत्सार्यमाणास्विव वारुण्यां ककुभि पुञ्जीभवन्तीषु श्यामालताकलिकासु तारकासु, मन्दगशिखराश्रथिणि मन्दानिललुलितकल्पलतावनकुसुमभूलिविच्छुरित इव धूसरीभवति सप्तर्षिमण्डले, सुरवारणाङ्‌कुश इव च्युते गलति तारामये मृगे, त्रीनपिटीटिभादीन्गृहीत्वा नागयुद्धव्यतिकरमलीमसानि शुचिनि वनवापीपयसि

ध्वनन्तः, गुञ्जन्तः, मधुकराः, भ्रमराः, येषां, तेषु। मुकुलायमानेषु. मुकुलभावंगच्छत्सु। उज्जिहानेति- उज्जिहानैः, उन्नच्छद्भिः, प्रबुद्धेः, वा, रवेः, सूर्यस्य, रथवाजिभिः, रथाश्वैः, विमृष्टाः, त्यक्ताः, तैः। प्रोथपवनैः, नासामारुतैः। प्रोत्सार्यमाणामु, अपसार्यमाणासु, इव। वारुण्यां ककुभि, पश्चिमायांदिशि पुञ्जीभवन्तीपु, संहती भवन्तिषु। श्यामेति - श्यामा, रात्रिः, एव लता, व्रततिः, अथवा, श्यामालना, प्रियंगुलतिका, मकरिका वा तस्याः, कलिकाः, कुसुममुकुलानि, तासु। तारकासु, नक्षत्रेषु (रूपक्रम) मन्दरेति मन्द्रस्य, पर्वतस्य, शिखरं, शृङ्गम, आश्रयनीति तथा भूते। मन्दानिलेतिमन्देन, अल्पेन(मृदुप्रवाहवतेतिभावः) अनिलेन, वायुना, लुलितं, ईषदान्दोलितम्। यत्, कल्पलतावनं, देवनरु काननं, तस्य, कुसुमानां, पुष्पाणां, धूलिभिः, परागैः, विच्छुरित इव, विलिप्त इव, धूसरा, भवति, धूसरवर्णतांगच्छति। सप्तर्षिमण्डले, मरीच्यादि महर्षिसमूहे। सुरेति—सुरबारणस्य, ऐरावतस्य, अंकुशे इव। च्युते, स्वस्थानात् भ्रष्ट, गलति, सरति। तारामये, नक्षत्रमये, मृगे, मृगशीर्षनामनक्षत्रे, स हि, अंकुशाकारः, (अतः) कोणत्रय युक्तंनांकुशेन, (उपमा) टीटि-

प्रक्षाल्याङ्गानि नगरं विवेश। अन्यस्मिन्नहनि तेषामात्मशरीरानन्तरं स्नानभोजनाच्छादनादिना प्रीतिमकरोत्।

** कतिपयदिवसापगमे च परिव्राट् भूभुजा वार्यमाणोऽपि वनं ययौ। पातालस्वामिकर्णतालौ तु शौर्यानुरक्तौ तमेव सिषेवाते। संपादितमनोरथातिरिक्तविभवौ च सुभटमण्डलमध्ये निष्कृष्टमण्डलाग्रौ समरमुखेषु प्रथममुपयुज्यमानौ कथान्तरेषु**

भादीन। नागेति- नागेन, (श्रीकण्ठेन) सह, यन्, युद्धं, तस्यव्यतिकरः, सम्पर्कः, तेन, मलीमसानि, म्लानानि। शुचिनि, पवित्रे, वनवापीपयसि, अरण्यसरमीजले। अन्यस्मिन अहनि, अपरदिने। तेषां (टीटिभादीनां) आत्मेति- आत्मशरीरं, स्वदेहं। अनन्तरं, पश्चात् (पूर्व समाधाय स्नानादि व्यापारं तेषां, पश्चात्स्वयमपि कृनवानितिभावः) परित्राट्, परित्राजकः, (टीटिभः) भूभुजा, राज्ञा, वार्यमाणः, निषेधिनः, वनं, अरण्यं, ययौ, अगमत (वानप्रस्थमवललम्बेतिभावः)। शौर्येति- शौर्येण, पराक्रमेण, अनुरक्तौ, जानस्नेहो, (न भोगाकांक्षयेत्यर्थः) सम्पादितेति सम्पादिनः, जनितः, मनोरथस्य, आशायाः, अतिरिक्तः, अधिकः, विभवः, सम्पद्, ययौ तौ। मुभट मण्डलमध्ये, सुवीरसंघे। निष्कृष्टेति निष्कृष्टं, उत्कृष्टम्। मण्डलायं, खड्गः, (खड़गे तु निस्त्रिशचन्द्रह। सासिरिष्टयः। कौक्षेयको मण्डलाग्रः “इत्यमरः”) ययोः, तौ, अथवा, निष्कृष्टं, प्रसिद्धं, यन, मण्डलं, वीरसमूहः, तस्य, अग्रो, अग्रगणनीयौ, अतएव, समरमुग्वेषु, युद्धेषु, प्रथमम्, पूर्व, (सेनापत्यत्वेनेतिभावः) उपयुज्यमानौ, नियुक्तौ । कथाऽन्तरेषु, आलापप्रसंगेषु। अन्तरान्तरा, मध्ये मध्ये।

चान्तरान्तरा समादिष्टौ विचित्राणि भैरवाचार्यचरितानि शैशववृत्तान्तांश्च कथयन्तौ तेनैव सार्धंजराामजग्मतुरिति।

इति श्रीबाणभट्टकृते हर्षचरिते भैरवाचार्यसिद्धिसाधनं नाम
तृतीय उच्छ्वासः।

समादिष्टौ, आज्ञप्तौ, (राज्ञा इति यावत्) शैशववृत्तान्तान, वाल्यक्रीड़ादिव्यापारान् (भैरवाचार्यस्यैवेत्यर्थः) कथयन्तो। जरां, वृद्धत्वम्।

इति श्रीबाणभट्टकृतहर्षचरितव्याख्यायां “आशुतोषिण्यां”
तृतीय उच्छ्वासः।

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श्रीहर्षचरितम्।

चतुर्थ उच्छासः।

योगे स्वप्नेऽपि नेच्छन्तिकुर्वते न करग्रहम्।
महान्नो नाममात्रेण भवन्ति पतयो भुवः॥१॥

सकलमहीभृत्कम्पकृदुत्पद्यतएक एव नृपवंशे।
विपुलेऽपि पृथुप्रतिमो दन्त इव गणाधिपस्य मुखे॥२॥

अथ कविवरो भट्टबाणश्चरित्रनायकजन्मवृता तप्रस्तावमुपक्रममाणआदौमहतांभुवःपतित्वमितरवलक्षण्येन वर्णयति।

योगमिति। महान्तो नाममात्रेण नाम्नैव भुवःपतयो भवन्ति। नामैव महतां भुवःपतित्वे प्रयोजकं नत्वन्ये पराक्रमादयो गुणाः। योग संबधं युक्तिं वा स्वप्नपि नेच्छन्ति। भूपतीनां युक्त्यपेक्षित्वमेतेषां तु नेत्यर्थः। करगृहां पाणिपीडनं बलिस्वीकारं वा न कुवते। पतित्वे हि पापीडनमपेक्षित नृपत्वे च बर्यालस्वीकारस्त- दुभयमप्येते नाचरन्त्यनो वैलक्षण्यम्। अत्र प्रतिपाद्यन वस्तुना साधारण्यात्पत्यभूपतेश्च महत मुत्त्वर्षस्य यातनाच्छद्वशक्तिमूलानुसग्यारूपो व्यतिरेकालंकारः॥१॥

वर्ण्यंश्रीहर्षं सकलनृपवंशललामभूतं मनसिकृत्य तादृशस्य महतो भनेदु ब्याप्यत्वं वर्णयति सकलेनि विदुलेपि विशालेपि नृपवशे पृथुप्रतिमः पृथुन मकराजसदृशः सक्रजानां महीभृर्ता नृपाणां कपकृद् भीतिद एक एव विरल इति तात्पर्थाः उत्पन्ते प्रादुर्भवति । गणाधिग्ग्य गजाननम्य मुखे पृथुर्महती प्रतिमा आकारो यस्य तादृश एको दन्त इव। यथा गजाननमुखस्थ एको दन्तः सर्वेषां भूधराणां भीतिदृस्तदयमप्यखिलानां नृपाणां कम्प-

१ अथ तस्मात्पुष्पभूनार्द्धजवरस्वेच्छागृहीनकोषो नाभिपद्म इव पुण्डरीकेक्षणात्, लक्ष्मीपुरःसरो रत्नसंचय इव रत्नाकारात्, गुरुवुधकविकलावत्तेजस्विभूनन्दनप्रायो ग्रहगण इवो-

कृत्। अनया चोषमयाऽयतेनसदृश एत्र गग्राधिरो देवतात्वेन तदास्वीकृन आसीदिनि गम्यते। अपि च कुलस्योत्रमक एक पत्र भवति वंश इति प्रनिद्धमेव। गणाधिपो हि परिणरगजली तामनुकुवन् पीडयामास निखिलान् भूधरानिति पौराणियों सिदिमनुमृत्ये यमुपना। पृथुनभिसक अनृपत्रष्ठो मध्यम नाद्वनानशरी राज्जात आ दिनृपो भुत्रः समीकरण काले पर्वतान्क पयामासेति विष्णुपुर। यये॥२॥

अवेति। श्रथेत्वादौ राजवंशो नृपान्वयो निर्जगाम इति संबंधः कस्मात्, पुष्प भूतेस्तन्नामकान्नृपान्। पुंडरीके इन कमले इवेक्षण नयने यस्य तस्मात्। द्विजवरेर्प्राह्मणश्रे ष्ठः स्वेच्छया गृहीतः स्त्रीकृन् तः कोषोऽथसंचयो यस्य स नृपवशः। पुंडरी क्षणाद्विष्यां। र्दिजवरेगा ब्रह्मण। स्वेच्छया गृहीतः कोपः कुडमलो यस्य स नाभिपद्म इव। सर्ववेदप्रवर्तकत्वाद् द्विजश्रे ष्ठत्वं ब्रह्मणः। ‘कोषाऽस्त्री कुडमले। जाति कोशेऽर्थसंघाते, इति मेदिनी। साधारणधर्मरच द्विजवरस्वेच्छागृहोत कोषत्वम्। रत्नानां स्व नातिकोष्ठानामाकरात्वनेनेपात् (पक्ष) रत्नाकरात्सागरात् लक्ष्मीः पुरःखराघ्रगामिनां यस्य स नृपान्त्रयो लक्ष्म्यालंकृत इत्यर्थः (पते) लक्ष्मीः पुरःसरा प्रथममुत्सन्ना यस्य सः। आहिताग्न्यादित्वात्परनिपातः। रत्नार्ना स्वजातिश्रेष्ठानां संचयः (पक्षे) रत्नसंचयश्चतुर्दश रत्नानीव। ‘रत्नं स्वजातिश्रेष्ठेऽपि’ इति मेदिनी। ‘पुरःसर’ इति रूपं पुरःपूर्वकात्सरतेः, ‘पुरोयेतोयेषु सतेंः’ इत्यनेन टप्रयये निष्पन्नम्। ‘संचय’ इति सपूर्वकाच्च एरज्इत्यनेनाच् देवाचासुरैमथ्यमानात्सागराच्चतुर्दश

दयस्थानात्, महाभारवाउनयोग्यः सागर इव सगरप्रभावान्, दुर्जयवलसनाथो हरिवंश इव शुगन्निर्जगाम गजर्देशः। ग्रष्मादविनष्प्रधर्मचवलाः प्रजासर्गाडव कृनमुखान् प्रतापाक्रान्त

रत्नानि प्रादुर्वभृवृरिति भागउने। उदयस्थानात्समुन्नतेः स्थानात्युव्पनृतेः (पचे) पूर्वपर्वनाद्। ‘उद्यस्तु पुमान्पूवपवते च समुन्नतो’ इति मेदिनी। गुरव उपदेष्टारः दुधा विद्वांसः कवयः काव्यनिमीतारः लावन्तोः नृत्यादिकलाप्रवीणाम्तेजग्विनः शुगः भूनन्दना राजानः प्राया बहुला यर्याम्मन् स नृपवंशः। (पक्ष) गुरुवृपतिः बुधः सोम्यः कविः शुक्रः कलावंचन्द्रो तेजस्वी सूयः भुनन्दनः मंगलः प्राया बहुला यग्थिन् ग्रःगया इव तारका समूह इव। सागर इव प्रभावः सामर्थ्य यस्य तस्मात्पुष्पभूनेः (पत्ते) सगरम्यापत्यानि पुमांसः सगराः तेषां प्रभावात्सामथ्योत। सगरशनाद “जनपदशद्वात्क्षत्रियादञ्’ अनेन सूवेणात्रि” तद्राजकत्वाद्रहृत्वे लुक। अम्य अनपदवाचकत्वं कल्प्यमन्यथा सगरेगा सागग्म्यानिर्मितत्वादसंगतेयमुपमा स्याद। कपिला०हतः श्वैः सगापुत्रैरुत्यातः सागर इति महाभारते वनपवणि । महाभारते भुवः पालनमुद्यमार्थ गतागतं विदधनीनांनाशं भारश्च तस्यवाहनस्य धारयाम्य योग्यः। शृगदीरात (पक्षे। तन्नाम कायदु वंशपुवेनात्। दुर्जयं जेतुमशक्यमजय्यं यदलं सामर्थी तेन युक्तः (पक्षे) दुर्जयेन दुर भभवेनार्थीद्भगवना श्रीकृष्णेन बलेन वलरामेण च सनाथो हरिवंशो यादववंश इव। यस्मादिति। यम्माद। जानोऽजायन्तेत्यन्वयः। कृतमुख स्कुशलाद्य मान्। कृत दुखः कृती कुशल इत्यपि’ इत्यमरः। अविनष्टो धर्मोयेषां तादृशान् धत्र न् धूर्तान् लान्ति स्वीकुर्वन्ति ते धर्मनिरतधूर्तग्रहण बद्धादरा इत्यर्थः। ‘धत्रः जीर्णपुमान्नरे धूर्ते’ इति मेदिनी। अथत्राऽ वनष्टधर्मेण धवलाः

भुवनाः किरणा इव तेजोनिधः विग्रहव्याप्तदिङमुखाःगिरयइव भूभृत्प्रभवात्, धर्राणधारणत्तमा दिग्गजा इव ब्रह्मकरान्, उद्‌धीन्पातुमुद्यना जलधरा इव घनागमात्, इच्छाफलदायिनः कल्पतरव डवनन्दनात, सर्वभूताश्रया विश्वरूपप्रकारा इव श्रीवरादजायन्त राजानः।

शुभ्राः यशस्वन्त इतियावत्। कृतमुःवात्कृतयुगारंभाविनष्टेन पूर्णेन धर्मेण धवलाः प्रजासर्गा इव। धर्मा हि चतुष्पात् स च कृतयुगे परिपूर्गा आ नीत्तदनुरोधनाविनष्टेति विशेषणम्। अग्रे च प्रतियुगं तस्यैकेकः पादो नष्टः। धर्मस्य चतुष्पात्वं श्रीहर्षेणानलवर्णनेप्रदर्शिशम्। ‘पदैश्चतुर्भिः सुकृते स्थिरीकृते कृतेऽमुना के न तपः प्रपेदिरे’ इति। तेजसांनिधेयस्माद्राज्ञः (पक्षे) तेजोनिधेः सूर्यात्। प्रतापेन तेजसा (पराक्रमोत्यर्थः) आक्रान्तभुत्ररतलं येस्ते राजानः (पक्ष) प्रतापेन तापेनाक्रान्तं भुत्रननलं येस्ते किरणाः। ‘प्रतापस्तापतेजसोः’ इति मेदिनी। भूभृनांरज्ञां भूषगणां च प्रभवाज्जन्ममूलाद्। त्रिग्रहेण सभरेण देहन च व्याधानि दिङ्‌मुखानि यैस्ते राजानो गिरयश्च। ब्रह्मक रात्परब्रह्मचिन्तकात् (पच्छे प्रजापतेः। धरण्याः पृथ्या धारणे वहने क्षमाः समर्थाः दिग्गजा इव। नृप पक्षेप्येवमेव। ‘सूर्यस्याण्डकपाले द्वे समानीय प्रजापतिः। हम्ताभ्यां परिगृह्याथ सप्त सामान्यगायत। गायतो ब्रह्मणस्तस्मात्समुत्पेतुर्मतंगजाः’ इति पालकाव्यः। घनो दृढ़ आगमः शास्त्रं यस्य तस्माद्यस्मात्पचे वर्षाकालात्। उदधीन् पातुं आरक्षितु प्राशितु च। वर्षाकाले हि मेघाः समुद्रोपरि लंबमाना जलपानायागता इति तकयित्वेयमुपमा नन्दद्यति सन्तोषयति सुहृदः स नन्दनस्तस्मात् (पक्षे) तन्नामका त्स्वर्गोद्यानात्। नन्दनेत्यत्र ‘नन्दि ग्रहिपचादिभ्य०’ इत्यनेनल्युः।

** २ तेषु चैवमुत्पद्यमानेषु क्रमेणोदव्यादिहूणहरिणकेसरी सिन्धुगजज्वरो गुर्जरप्रजागरोगान्धाराधियगन्धद्विपकृष्टय कला लाटपाटमा र रोल ना पर शुःप्रतापशील इति प्रथिमरनाना प्रभाकरवर्धतो नाम राजाधिगतः। यो गज्याङ्गसङ्गीन्यभिषिच्यमान एव**

इच्छाय फलं ददतिते कल्पतरव इव। मुष्यजाताणिनिस्ताच्छील्य’ इत्यनेन णिनि। श्रीधराद्राजलक्ष्म्या आपारात्’ पक्षेविष्णोः। सर्वेषां भूतानां प्राणिनामाश्रयाअथवा सर्वेषां भूतानां पंचमहाभूतानामाश्रया विश्वरूपप्रकारा इव। गीतायां हि विश्वरूपदर्शनवेलायार्जुनेन सर्वभूतानि तत्र दृष्टानि तदनुरोधन,

** तेष्विति**। हूणा रजवशेषा एवहरिणामृगास्तेषां केसरी तद्धातको मृगराजः सिंधुराजस्य ज्वरः संतापकः गुर्जराणांतददेशनृपाणां प्रजागरो निद्रानाश। गान्धाराणामधुना’कंदाहार’ इति प्रसिद्धानां देशानामधिपएव गंधद्विपो मत्तगजस्तस्य कूटपाकलः, त्रिदोषजो ज्वरः। पित्तञ्चःपाकलोऽस्य कूटपूर्वस्त्रिदोषन्न’ इति त्रिकाण्डशेषः। यद्यपि कूटपाकलशब्दो हस्तिज्जरवाची तथापि गन्धद्विपपद्संनिधानः ज्ज्जर मात्रत्राच्येत्र। ‘विशिष्ट्रवा चकानां सति पृथग त्रिशेषण्णत्व विशध्यमात्रपरत्वम् इति न्यायात्। लाटानां पाथ्वस्य कौशलस्य पाटच्चरश्चोरः। पाटवशब्दः पटुशब्दाद् गन्ताच्च लघुश्रूर्वाद्’ इत्यनेन भावेऽणि निष्पन्नः। पाटच्चर इति पाटयन् नाशयश्चोरयनीति पाटच्चर इति पुष्पोरादित्वात्साधुः मालवस्य मालवाधिपस्य लक्ष्मीरेव लता तस्याः परशुः कुठारः। थितं प्रसिद्धमपरमन्यन्नाम यस्य सः। राज्यांगस्य राज्यशरीरस्य संगः संबन्धो विद्यते येषां तानि धनानि मलानीव मुमोव। स्नानेन

मलानीव मुमोच धनानि। यः परवीयणोपिकल्लवल्लभेनरणमुखे तृणेनेवधृतेनालज्जतजीवितेन। यः कर धृतधैतासिप्रतिविम्बितेनात्मजाप्यदूयतसमितिषु सहाय्येनन, रिपूणां पुरः प्रधनेषु धनुषादिनमता। यो मानी मानसेना खिद्यत यश्चान्तर्गतापरिमितरिपुशल्यशङ्कुकीलितामिवनिश्चलामुवाह राजलक्ष्मीम्। यश्च सर्वासुदिक्षुसमीकृतत

मलनाशो भवति तद्वदनेनापि राज्याभिषेक वेलायां मलभूतानि धनान्युत्सृष्टानि। अनेन दानवेलायांधनेऽनासक्तिःसूच्यते। परकीयेण शत्रुसंबंधिना रणमुखे समगग्रभागे घृतेन कातरस्यभीरोर्वल्लभेन तृणेनेव जीवितेनालज्जत। रणे भीरुशरणंगच्छंस्तृणं मुखेधन्ते। अस्य तु तृणम्वीकारेणसहैव तादृशं जीवितं लजाकरमाभात्। करहस्ते भृते धौतेशुभ्रेऽसौखङ्ग प्रतिबिम्बितेनात्मनास्वप्रतिबिवेनापि प्रधनेषु युद्धषु सहायेन। समितिषु स्वप्रतिबिम्बमपिसहायं नैच्छदित्यर्थः। मानी सगर्वो मानसेऽन्तकरणे नाखिद्यत खिन्नो न बभूव। अथवा मानी यो मानसेन उच्चपदाकांक्षारूपमनोविकारेणाग्विद्यत। यथा गवणःकर्तव्याभावं पश्यन्नखिद्यततद्वदिति वा। तथा च प्रसन्नराघव ‘लंकेश्वरः खिद्यते’ इति। अथ वा “समितिषु सहायेन” इत्यतः “अखिद्यत” इत्यंतमेकं वाक्यम्। यो मानी सगर्वोरिपूणां पुरो नमता सहायेन धनुषापि करणन मानसेन ‘अधिकरणो’ तृतीया मनस्यखिद्यत। अन्तर्गता यपरिमितानि असंख्येकानि रिपुशल्यानि शब्बाणा एव कीलिकास्तैः कीलतामित्र रुद्धामिव राज्यलक्ष्मीम्। शत्रुवाण्णा अस्योपकार का आसन् येन चांचल्यचंचू राज्यलक्ष्मीस्तस्मिन् दृढ स्थितासीदिति भावः। ‘संख्याकीलकयोःशंकुः इति शाश्वतः कादंवयीं तु राज्यलक्ष्म्याः शूद्रके

टावटविटपाटवीतरुतृण्गुल्मवीकगिरिगहनैर्दगडयात्राप यः पृथुभिर्भूत्योपयोगाय व्यभजतेय वसुधां बहुधा। यं चालब्धयुद्ध दोहदमात्मीयोऽपिसकलरिपुसमुत्सारकः परकीयश्वततापप्रतापः प्रतापः। यस्य च वह्निमयो दृदयेषु, जलमयो लोचनपुंटषु, मारुतमयो निःश्वसिनषु, क्षमामयोऽङ्गेषु, आकाशमयः शून्यतायां, पञ्चमहाभूतमयो मूर्त इवादृश्यत निहतप्रतिमामन्तान्तः पुरेषु।

चिरस्थितिरनेनेत्थंवर्णिता। चितिचिरकाललप्रमनेककुनृपतिसहस्र संपर्ककलंकमिव क्षालयन्ती यस्य कृपाण धाराजन चिरमुवामराज्यलक्ष्मीः’ पुनश्च राजानं विशिनष्टि। यश्चेति। समीकृतानि, समस्थलीकृतानि, तटानि, जीराणि, आवटा गर्ता विटपाः शाखा अध्वीतरवा वनवृक्षा तृणं गुल्मानि चुद्रवृत्ता वल्मीकानि मृत्कूटा गिश्यःपर्वता गहनानि वनानि च येषु तैः। गमनत्रिन्नकारियां विध्वंसनेन कृता मार्या इति तात्पर्यम्। विभन्ननाय सर्वेषां पदार्थानां समीकरयामावश्यकम्। यंवेति। अलब्धोऽ प्राप्तो युद्धस्य रास्य दोइदोऽभिलाषो येन सः। ‘दोड्दो गर्भलक्षणे। अभिलापे तथा गर्ने, इति हेमः। सकालानां रिपूणां समत्तारको नाशकः। ‘शेषे’ षष्ठी। अन्यथा तृजकाभ्यां कर्तरीति समासनिषेवः स्यात्। याजकादिगणे च समुत्सार कशब्दाभावान्। यस्य चेति—हृदयषुवन्मिया वन्दिरूपः संताप कत्त्रान, लोचनपुटेषु, नेत्रयुगेषु, जलमयो रोदना वर्तकत्वात्, निःश्वसितेषु, दुःखजेषु दीर्धेषु श्वास पु मारुतमयः, अगेषु अवयवेषु क्षमामयः पृथ्ञ्ज्या उपरीतस्ततो लुण्टनेन धूलिव्याप्तत्वात्प्रस्तरकठिन कायत्वाद्वा, शून्य तायामाकाशमयः अन्वकार्याभावाच्छून्यत्त्रम, पंचमहाभूतमयः पृथ्थ्यप्येजोवायग्राकाशमयः। मूर्तिमानिव। प्रतिसामन्तानां

प्रतापः। यस्य चासन्नेषु भृत्यरत्नेषु प्रतिविम्बितेव तुल्यरूपा समलक्ष्यत लक्ष्मीः। तथा च यस्य प्रतापाग्निना भूतिः शौर्योष्मणा सिद्धिरसिधाराजलेन वंशवृद्धिः शस्त्रव्रणमुखैःपुरुष कारोक्तिर्धनुर्गुणकिणेन करगृहीतिरभवत्। यश्च वैरमुपायनं त्रिग्रहमनुग्रहसमरागमं महोत्सवं शत्रु निधिदर्शनमरिबाहुल्यमभ्युद्यमाहवाहानं वरप्रदानमवस्कन्दपानं दिष्टवृद्धिशस्त्रप्रहार

शत्रुपक्षीयाणां नृपाणामन्नः पुंग्प्ववरोधेषु। यस्य चेति—आसन्नेषु समीपस्थेषु भृत्यरत्नेषु सेवकश्रष्टषु प्रतिविम्बितेव संजातप्रतिबिम्वेव तुल्यानि सदृशानि रूपाणि यस्याः सा लक्ष्मीः समलक्ष्यत। अत्रासन्नपदेन विम्बग्रहण योग्यत्वं रत्नपदेन योग्यानामेव त्कारश्च व्यज्येते। तथेति। प्रतापः पराक्रम एवामिस्ते भूतिः कल्याणं भस्म वा। शौर्योष्मणार्साि योग निष्पतिः। उष्मणा च पाकसिद्धिः—‘सिद्धिः स्त्री योगनिष्पत्तिः इतिमेदनी। असिधारजलेन खडगधारोदकेन वंशस्य कुलस्यः वृद्धिग्भ्युदयः। जलेन च वंशानां वणूनांवृद्धिः। खड्गाग्रेणहि स्वान्वयस्य संपदनेन संपादितेति भावः। ‘वृद्धिग्तुवजने। कालांतरे चाभ्युदयेस्त्रियामुत्तमयोषिति’ इति मेदिना। शस्त्रक्रणानां, शस्त्रक्षनानां मुखैरप्रभागैः पुरुषकारस्य पराक्रमस्योक्तिर्भापितम्। पराक्रनकथनेनान्या पेक्षा त्रणा एव तत्कथ का इत्यर्थः। भाषितमपि मुखैर्भर्वात। धनुर्गुणस्य धनुष्यज्यायाः किणेन प्रथितेन त्रानचिन्हेन करगृही तिर्हस्तरवीकारः। अनेन हि तस्य धनुर्विद्यातत्परत्वं ज्ञक्ष्यते। तदासक्तस्य हि हस्तेकियो भवउत्ति (पक्षे) करगृहीतिदण्डमहणम्। यश्वति। वैरं विरोधम्। ‘वीर’ शब्दाद्युवादित्वादण कर्मार्थ। उपायनमुपहारम्। विग्रहं समरम्। सम्स्य युद्धग्यागमं प्राधिम् निधिदर्श नंद्रव्यसंग्रहद्दर्शनम्। अरीणां

पतनंवसुधारारसभमन्यत। यस्मिश्च राजनि निरन्तरैर्युपनिकरैररितमिव कृतयुगेन, दिङ्मुखविसर्पिभिरध्वरधृमः पलायिनमित्र कलिना ससुधः सुरालयैरवतीर्जमिव स्वर्गेण सुरालयशिखरोद्द्यमानैर्धवलध्वजैः पल्लवितमित्र धर्मण, बहिरुपरचितविकटसमासत्रप्राप्राग्वंशमण्डपैःप्रसूतमिव

शत्रूणां बाहुल्यमाधिक्यमभ्युदयमुतरूर्षम्। आहवाय समरायाव्हानंवरप्रदानम्। अबस्कन्दपातमज्ञाताभिगमनं दिष्टस्य भाग्यस्य वृद्धिम्। शस्त्रप्रहारस्य पतनं वसुधारायाः सुवर्णप्रवाहस्यरसममन्यत। यस्मिन्निति। निरंतरर्घ नत्रू पनिकरर्य ज्ञस्तभः करणैः कृतयुगेन सत्ययुगेनांकु रतमिव। यूपा भूमेर्निर्गताः कदल्यंकुरा इव सत्ययुगांकुरा इति कल्पनययमुक्तिः। अतोयूपस्य पल्लवरूपत्वाभावादसंगतमिदमिति कल्पना पररास्ता। यथा कदल्यंकुरा भूमिमुद्भिद्य बहिरागच्छन्ति तद्वदिमे कृतयुगांकुरा इति भावः। दिशां हरिता मुखषु विसर्पन्ति प्रसरन्ति तच्छीलरधूमैःकरणैःकलिना। कलियुगेन पलायितमित्र। यथा पिशाचादया मन्वपूतधूमसंपकभात्या पलायन्ते तद्वदयमपि यज्ञत्रूमभीत्या पलायितः। अथवा कृष्णवणो दिग्वसर्पिणो धूमा एव पलायमानानि कलिस्त्ररूपाणीति कल्पना सुधायाऽमृन शुभ्रत्रण चूर्णन ‘चुना’ इति प्रसिद्धन वा सहितेःसुरालयेर्देवगृहैः स्वर्गेणस्वर्लोकनावतीर्णमिवाध आगतमिव। स्वर्गससुधानि सामृतानि देवगृहाण्यत्रापि शुभ्रचूर्णा परपर्यायसुचालिप्तान्यतः स्वर्गोमहीमागतन्त्रितिकल्पना। सुरालयाना देवगृहाणां शिखरेपूर्वभागेपूद्ध यमानैःकम्पमानेर्धवलैः शुभैध्वजेः पताकाभिधर्मेश पल्लवित्तमिव। पल्लवितेत्ययं शब्दोऽकुरितवज्ज्ञातव्यः। बद्दिवहिर्भाग उपरचिताःकृता विकटाविशाला सभाधर्मशाला सत्रंसदानंसदैवान्नदानं

ग्रामैः, काञ्चनमयसर्वोपकरणैर्विभवैर्विशीर्णमिव मेरुणा, द्विजदीयमानैरर्थकलशैःफलितमिव भाग्यसपदा तस्य च जन्मान्तरेऽपि सती पार्वतीव शंकरस्यः गृहीतपरहृदया लक्ष्मीरिव लोकगुरोःस्फुरत्तरलतारकारोहिणीव कलावतःसर्वजनजननी बुद्धिरिव प्रजापतेः महाभूभृत्कुलोद्गता गङ्गेव बाहि नीनायकस्य, मानसानुवर्तनचतुराहंसीवराजहंमस्य सकललोक

प्रपा पानीयशाला ग्राग्वंशमंडषोहविःशालायाः पूर्वभागे यजमानादीनां निवासार्थेनिर्मितो मण्डपस्तैः करणैग्रमिः प्रसृतमिव। एतेषां बाहुल्याद्वहिर्भागेऽन्ये ग्रामा उत्पन्नान्विति कल्पना। काञ्चनमयानि सुवर्णमयानि सर्वोपकरणानि येषांतैर्विभवैः संपद्भिः करणैर्मैरुणाविशीर्णमिव विदीर्णमिव। द्विजेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो दीयमानैरर्थकशैर्धनपूर्ण घटैःफलितमिव। घटाकाराणि नारिकेलसदृशानि फलानि भाग्यसंपदः संजातानाति तात्पर्यार्थः।

तस्येति। जन्मान्तरप्यन्यस्मिञ्जन्मन्यपि सतीव पार्वतीव। दक्षस्य प्रजापतेर्दुहिता सती पितृभवने यज्ञावलोकनायागता। तत्रावमानिताऽऽत्मानमग्निसाञ्चकारपावनीरूपेणोदियायशंकरंवत्रे (पक्षे) सती पतिव्रता। गृहीतमाकर्षितं परहृदयमन्यमानसं वत्सलतया यया सा। लक्ष्मीपक्षे गृहीतपरहृदयेति सुलभम्। लोकगुरोर्लोकाधिपस्यविष्णोणोश्च स्फुरन्त्यौ तरले तारके कनीनिके यस्याः। (पक्षे) स्फुरन्ती तरलाचंचला तारका नक्षत्रं यस्याः सा रोहिणीव। कलावतः कल,निपुणस्य (पक्षे) चन्द्रस्य। सर्वलोकजननी सर्वातां प्रजानां वात्सल्यान्माता। (पक्षे) जन्यतेऽनया जननी उत्पादनसाधनं करणे ल्युट् सर्वलोकानां जनन्युत्त्पादिका। वाहिनीनायकस्य सेनाध्यक्षत्य समुद्रस्य च। महाभूभृद महानृपो हिमालयश्च तस्य कुल उद्‌गतोत्प

र्चितचरणा त्रयीव धर्मस्य, दिवानिशममुक्त पार्श्वस्थितिररुन्ध नीच महामुनेः, हसमयीव गतिषु, परपुष्टमयीवालापेषुचक्रवाकीमयीव पतिप्रेम्णि, प्रावृण्मयीव पयोधरोन्नतौमदिरामयीव विलासषु निधिमयीवार्थसंचयेषु, वसुधारामयीव प्रसादेषु, कमलमयीव कोषसंग्रहषु, कुसुममयीव फलदानेषु, संध्यामयीव वन्द्यत्वे, चन्द्रमयीव निरुप्मत्वे, दर्पणमयीव प्रतिप्राणि

न्ना। मानसमन्तः करणं तदाख्यं सरश्च तस्यानुवतेने अनुकूलाचरणे नत्र स्थितौ च चतुरा कुशला राजहंसस्य नृपश्रेष्ठस्य पक्षिणश्च त्रयीव वेदयीव। ‘श्रुतिः स्त्री वेद आम्नायस्त्रयी’ इत्यमरः। सकलेलोकैरचितौ पूजितो चरणो पदो (पक्ष) चरणा शाखा यस्याः सा। दिवानिशं रात्रिदिवममुक्ता पार्श्वे समीपे स्थितियेया सा। महामुनेमननान्मुनिर्विचारवांस्तस्याथवा राजर्षेः (पचे) बशिष्ठस्य। आकाशे हि र्वाशष्ठमपरित्यजन्त्यरुन्धती तिष्ठति तदनुरोधत इदम्। हंसमयीव हंसीव। आलापेषु भाषाण पु। प्रावृण्मयीव वर्षाकालमिव पयोधरयोः स्तनयोः पयोधराणां मेघानां चोन्नतौ। मदिरामयीव मद्यमिव विलासेषु श्रृंगारजेपु विकारेषु। ‘यानस्थानासनादीनां मुखनेत्रादिकर्मणाम्। विशेषस्तु विलासः स्यादिष्टसंदर्शनादिना’ इति विश्वनाथः। मदिरा चाकस्मात्क्रोधादीन् विकार। ब्ञ्जनयतीति प्रसिद्धमेव, अर्थानां धनानां संचयेषु संग्रहेषु। वसुधाः मयीव सुवण धारेव प्रसादेष्वनुग्रहेषु। कोषाणामर्थसंचयानां कुडमलानां वा । स्त्रीणां पुष्पकलिकासु स्वाभाविकी प्रीतिस्ते युज्यत इदं वर्णनम्। कुसुममयीव पुष्पाणीव फलानां दानेषु। कुसुमेभ्यो यथा फलानि जायन्ते तद्वदुस्याः सकाशद्धृत्यानां सेवाफललाभः। वन्द्यत्बे नमस्कार्यत्वे। निरुष्मत्वे उष्मा गर्व श्रौष्ण्यं च। दर्पणमयीव

ग्रहगोषु, सामुद्रमयोव परचित्तज्ञानेषु, परमात्ममयीव व्याप्तिषु, स्मृतिमयीत्र पुगप्रवृत्तिषु, मधुमयोच सम्भावणेषु अमृतमयी- बनृप्यत्यु, वृष्टिमयीवभृत्येषु निवृतिमयीव सखीषु वेतसमयीव गुरुषु, गाववृद्धिरिव विलास नाम, प्रायश्चितशुद्धिरिव स्त्रीस्वस्य, आज्ञासिद्धिरिय मकरध्वजस्य, व्युत्थानबुद्धिरिव रूपस्य दिष्टवृद्धिरिव रतेः, मनोरथसिद्धिरिव रामणीयकस्य, देवसत्तिरिव लावण्यस्य, वंशोत्पत्तिरियानुर। गम्य, वरप्राप्तिरिव

मुकुर इव प्राणिनि प्राणिनीति प्रनिप्राणि प्रतिप्राणिग्रहण ग्वीकारः प्रतिविम्बोत्पादनं च सामुद्रमयीव सामुद्रशास्त्रमिव परेपां चित्तस्य मनसो ज्ञानेषु। सामुद्रविद्यासोऽन्यदीयस्वभावज्ञानं जाय। इति प्रथितम। ‘वेत्ता स्त्रीषु मयोचिन्हं सामुद्रिक उदाहृनः’ इनि हारावली। परमात्ममयीव ब्राव व्यात्रिषु ब्रह्मसर्वव्यापीति वेदान्तराधान्नः। अस्या अपि कायर्थि सर्वत्र गमनेन सर्वत्र व्याप्तिः तृष्यत्सु तृष्णापीडितेषु अमृतमयीव स्धेव। जलादिदानेन तेषां नृष्णाशमकत्वात्। वृष्टिमयीव वृष्टिरिव सेवा पु सदैव धनदषेणात्। निर्वृतिमयीव चित्तम्वारथमिद सर्वापु वयम्यासु तन्मानसमोद जनकत्वात्।वेतसमयीव नम्रत्वाद् गुरुपु श्वश्त्रादिवृद्धषु। विलासानां गोत्रम्य कुलस्य वृद्धिरिव। प्रायश्चित्तशुद्धिरिव पवित्रीकरणमिव स्त्रीत्त्वभ्य स्त्रीतेः। अनया निखिला स्त्रीजातिः पवित्रिता। आज्ञासिद्धिरिव। अमोघमस्त्रं नु मदनस्येति तत्पर्यार्थः। व्युत्थानबुद्धिरिवेति। व्येयुत्थानं समाधेश्चलनम्। स्वाधिक्यसंपादनाय समाधिमाश्रितस्य रूपस्य समाधेरवनरावेत्तायां जायमानं ज्ञानमित्यर्थः । रतेर्मदनभार्यायाः, दिष्टस्य भागधेयस्य वृद्धिरिव। मृतो मदनः कदाचिदनया साधनभूतयोज्जीवेतेति रतैर्भाग्यवृद्धिः। रामणी

कान्तेः, सर्गसमाप्तिरिवसौन्दर्यस्य, आयतिरिव यौवनस्य, अनभ्रवृष्टिरिववैदग्ध्यस्य, अयशःप्रमृष्टिरिवलक्ष्म्याः, यशः पुष्टिरिव चारित्रस्यहृदयतुष्टिरिवधर्मस्य, सौभाग्यपरमाणुसृष्टिरिवप्रजापतेः, शमस्यापि शान्तिरिव, विनयस्यापि विनीतिरिव, आभिजात्यस्याप्यभिजातिरिव, संयमस्यापि संयतिरिव धैर्यस्यापि धृतिरिव,विभ्रमस्यापि विभ्रान्तिरिवयशोवती नाम महादेवी प्राणानां प्रणयस्य विस्रम्भस्य धर्मस्य सुखस्य च भूमिरभूत्। यस्य वक्षसि नरकजितोलक्ष्मीरिवललास।

यकस्यरमणीयशद्वाद् ‘योपधाद्रुरूपोत्तमाद्वुञ्’ इत्यनेन भावे वुञ्। अनुरागस्यप्रेम्णोवंशोत्पत्तिरन्वपसंभूतिः। सर्गसमाप्तिः, उत्पत्तेः- समाप्तिः पराकाष्ठेत्यर्थः आयत्तिरुत्तरकाल इव यौवनस्यतारुण्यस्य। ‘युवादित्वादण भावे। अनभ्रवृष्टिःअभ्रेणसहिता वृष्टिरभ्रवृष्टिर्न तथाऽनभ्रवृष्टिः सा चाश्चर्यजनिका पुण्यवल्लभ्या च। वैदग्ध्येनेयं पुण्यतो लब्धाश्चर्यकारिणी। वैदग्ध्यं तस्यामतीवेति तात्पर्यम्। लक्ष्म्या अयशसः’यः सुन्दरस्तद्वनिता अपकीर्तेः प्रमृष्टिः शाधिका नाशिका। अनुरूपभर्तृगामिन्यपि लक्ष्मीयुतेत्यर्थः। चारित्र्यं पातिव्रत्यम्। सौभाग्यस्य परमाणुनां सूक्ष्मावयवानां सृष्टिरुत्पत्तिः (प्रथमतो ब्रह्मणासौभाग्यमुत्पिपत्सुनेयमेव निर्मितेति भावः) अभिजात्यं कुलीनत्वम्। विभ्रमस्य दयितागमने बाहुमूलादीनां व्यक्तीकरणारूपमावत्य विभ्रान्तिस्त्वरा विश्रम्भत्य विश्वासस्य। नरकान् कुंभीनसादीन् जयति सः। ‘क्विप् च’ इत्यनेन क्विप्। (पक्षे) नरकासुरं जितवतोनारायणस्य। ललास शुशुभे आलिलिंग वा।

** निसर्गत एव च स नृपतिरादित्यभक्तो वभूव। प्रतिदिनमुदये दिनकृतः स्नातःसितदुकुलधारी धवलकर्पटप्रावृतशिराःप्राङ्‌मुखः क्षितौ जानुभ्यां स्थित्वा कुङ्कुमपङ्कानुलिप्ते मण्डलके पवित्रपद्मरागपात्रीनिहितेन स्वहृदयेनेत्र सूर्यानुरक्तेनरक्तक मलषण्डेनार्चां ददौ। अजपच्च जप्यं सुचरितः प्रत्युषसि मध्यंदिने दिनान्ते चापत्यहेतोः प्राध्वं प्रयतेन मनसा जञ्जपूको मंत्रमादित्यहृदयम्।**

** भक्तजनानुरोधविधेयानि तु भवन्तिदेवतानां मनांसि। यतः। स राजा कदाचिग्द्रीष्मसमये यदृच्छया सितकरकरसितसुधाधवलस्य हर्म्यम्य पृष्ठे सुष्वाप। पार्श्वेचास्यद्विती-**

निसर्ग इति। निसर्गत एव। दिनकृतः सूर्यस्योदये सिते शुभ्रे दुकूले क्षौमजे वसने धरति सः। धवलेन शुभ्रेण कर्पटेन शिरोवेष्टनवस्त्रेण प्रावृतं शिरो येन सः। रागाणांमाणिक्यानां पात्र्यां भाजने निहितेन स्थापितेन स्वमानसेनेव यथा मनः सूर्यानुरक्तं तद्वदनुरक्तेन रक्त कमलसमूहेनार्चां पूनां ददौ। प्रत्युषसि प्रभाते मध्यंदिने मध्यान्हे दिनान्ते सायंकाले। एतेन तदा त्रिः संध्या वंदनपद्धतिरासीदिति ज्ञायते। प्राध्वं सनम्रं प्रयतेन पवित्रेण मनसा आदित्यहृदयमिति मंत्रनाम।

भक्तेति। अर्थान्तरन्यासः ग्रीष्मसमय इत्यनेन बहिः स्वापकारणमूष्मातिशयरूपं व्यंजितम् यदृच्छया। ‘यदृच्छा स्वैरिता’इत्यमरः। सितकरस्य चंद्रस्य करैः किरणैः सुधया चूर्णविशेषेणच धवलः शुभ्रः। स्वयं शुभ्रोपि चद्रकिरणैर्विशेषतो धवल इत्यर्थः।पार्श्वे च समीपे द्वित्तीयशय्यायां पृथक् शय्या हि नारीणां स्वापेयोग्या। नाश्नीयाद्भार्यया सार्धंन च स्वप्यात्तया सह’ इतिवच-

यशयने देवी यशोवती शिश्ये। परिणतप्रायां तु श्यामायाम्, आसन्नप्रभातवेलाविलुप्यमानलावण्ये लिलम्बिषमाणे सीदत्तेजसि तारकेश्वरे, कराग्रस्पृष्टकुमुदिनीप्रमोदजन्मनि शशधरस्वेद इव गलत्यतिशीतलेऽवश्यायपयसि, मधुमदमत्तप्रसुप्तसीमन्तिनीनिःश्वासाहतेषु संक्रान्तमदेष्विव धूर्षमानेष्वन्तःपुरप्रदीपेषु, राजनि च विमलनखप्रतिबिम्बिताभिः सबाह्य मानचरण इव तारकाभिः, विस्रब्धप्रसारितैर्दिगङ्ग-

नात्। श्यामायां रात्रौ। ‘श्यामा स्याच्छारिवा निशा’ इत्यमरः। आसन्नया समीपागतया प्रभातवेलया विलुप्यमानं नाशितं लावण्यं कान्तियस्थ तम्मिन् लिलम्विषमाणे दूरं जिगमिषौ सीदन्नस्यत्तेजो यस्य तस्मिंस्तारकेश्वरे चन्द्रे सति। रात्र्यास्तुरीययामावसान इति तात्पर्यार्थः। कराग्रेः किरणाग्रैःस्पृष्टायाः कुमिदिन्याः प्रमोदस्यानंदस्य जन्मयस्मादितिचन्द्र विशेणं, अथवा कराग्रस्पृष्टायाः कुमुदिन्याः प्रमोदाजन्म यस्य तस्मिन्नेवायपयसीत्यर्थः। परं चंद्रे गन्तुकामे कुमुदिन्याः प्रमोदवर्णनमसंगतमतः पूर्वोक्तार्थ एव पुनरुक्तः। शशधरस्य चग्रमसः स्वेद इव अवश्यायपयखि नीहारोदके गलति सति। शिशिरस्वेद इतिपाठःनमनोरमः। गीष्मतौ स्वेदोत्पत्योष्माधिक्यस्यैवानुभवसिद्धत्वात्। मधुनो मद्यस्य मदेन मत्तानां प्रसुप्तानां निद्रितानां सीमन्तिनीनां प्रमदानां निश्वासैराहतेषु ताडितेष्वत एव संक्रान्तः समागतो मदो येषां तेषु। मद्यमत्तकामिनीश्वाससंपर्कान्मदोपि दीपेष्वागत इति भावः। घूर्णमानेषु भ्रममागतेषु। प्रदीपा अपि मद्यमत्तचिन्हानि प्रकटयामासुरिति तात्पर्यार्थः। विमलेषुस्वच्छेषु नखेषु प्रतिविम्बिताभिस्तारकाभिर्नक्षत्रैःसंवाह्यमानौ चरणौयस्य तस्मिन्। विस्रब्धं निर्भयं प्रसारितैर्विस्तारितैः,

नानामिवार्पितैरङ्गैर्मधुसुगन्धिभिः स्वहस्तकमलतालवृन्तवारितैरिवश्वसितैर्मुखश्रिया वीज्यमाने, विमलकपोलस्थलस्थितेन सितकुसुमशेखरेणेव रतिकेलिकचग्रहलम्बितेन प्रतिमाशशिबिम्बेन विराजिते स्वपति, देवी यशोवती सहसैव ‘आर्यपुत्रपरित्रायस्वपरित्रायस्व’ इति भाषमाणा भूषणारवेणव्याहरन्तीवपरिजनमुत्कम्पमानाङ्गयष्टिरुद‌तिष्ठत्।

** अथ नेन सर्वस्यामपि पृथिव्यामश्रुतपूर्वेण किमुत देवीमुखे परि-**

दिगंगनानामिव दिग्भार्याभ्य इवार्पितैर्दत्तैरंगैरवयवैरुपलक्षितं। इत्थंभूतलक्षणे” तृतीया। मुखश्रियामुखकान्या कतृभूतया मधुना मद्येनसुरभिभिः, सुगन्धिभिः, श्वखितैः, श्वासैः, स्वस्यात्मनोहस्तकमलं हस्तस्थितमरविन्दमेवव्यजनं तस्य वातैरिववीज्यमानः विमले स्वच्छे कपोलस्थले गण्डस्थले स्थितेन प्रतिमाशशिनः प्रतिबिम्बशशिनोबिम्बेन। विमलपदंविम्बग्रहणासामर्थ्यंद्योतयतिकथंभूतेन रतिकेलिः सुरतक्रीडा तस्यांकचग्रहणेलम्बितोगण्डस्योपर्यागतस्तेन कुसुमशेखरेणेवपुष्पगुच्छेनेव विराजन्तीशोभमाना। विराजित इति राज्ञो विशेषणं वा। सहसैवातर्कितमेव। परित्रायस्वरक्ष। भूषणारवेणालंकारशब्देन संभ्रमचलनादलंकारशब्दःव्याहरन्तीवाव्हयन्तीव। उत्कम्पमाना वेपमाना अंगषष्टिःशरीरययेष्टिर्ययाः सा।

अथ तेनेनि। पूर्व श्रुतः श्रुतपूर्वो न तथा श्रुतपूर्वस्तेन। ‘सुप्सुपा’ इत्यनेन समासः। दग्ध इव ज्वलित इव। एकपदे झटिति गाढनिद्रः केनचिदंगारादिना दह्येत चेत्तर्णमुत्तिष्ठति। कोपेन क्राधेन कम्पमानेन वेपमानेन दक्षिणाकरेणापसव्यहस्तेनाकृष्टेन कर्णोत्पलेनेव कर्णोपरिस्थापितेन कमलेनेव। एतेन तस्य खड्गनिष्कोषणे

त्रायस्वेतिध्वनिना दग्ध इवश्रवणयोरेकपद एव निद्रां तत्याज राजा। शिरोभागाच्च कोपकम्पमानदक्षिणकराकृष्टेन कर्णोत्पलेनेव निर्गच्छताच्छधारेण धौतासिना सीमन्तयन्निय निशाम्, अन्तरालव्यवधायकमाकाशमित्रोत्तरीयांशुकं विक्षिपन्वामकरपल्लवेन करविक्षेपवेगगलितेन हृदयेनेव भयनिमित्तान्वेषिणा भ्रमता दिक्षु कनकबलयेन विराजमानः, सत्वरावतारितवामचरणाक्रान्तिकम्पितप्रासादः पुरःपनितेनासिधारागोचरगतेन शशिमयूखखण्डेनेवखण्डितेन हारेण राजमानः, लक्ष्मीचुम्बनलग्नताम्बूलरसरञ्जिताभ्यामिव निद्रया कोपेन चातिलोहिताभ्यां

निरायासत्वं दर्शितम्। अच्छा स्वच्छा धारा निशिताग्रभागो यस्य तेन। ‘धारा०। खड्गादेर्निशिते मुखे’ इति मेदिनी। सीमन्तयन् द्विधा कुर्वन्। खड्गचालनेन तत्तेजला तमो द्विधाभूतमिवाभात्, अन्तरालेऽभ्यन्तरे व्यवधायकमपवारकमाकाशमिव। एतेन वस्त्रस्य सौक्ष्म्यं द्योतितम्। वामेति। दक्षिणहस्ते खड्गस्य सत्वाद्वामेन वस्त्रक्षेपणम्। करस्य विक्षेपस्य प्रेरणाया वेगाद् गलितेन पतितेन हृदयेनेव भयस्य, भीतेर्निमित्तानि, कारणान्यन्विष्यति मार्गयति तेन दिक्षु, आशासु, भ्रमता, कनकवलयेन सुवर्णकं कणेनविराजमानः शोभमानः। वर्तुलो भूमी पदार्थः पतित इतस्ततो भ्रमतीति हि प्रत्यक्षम्। सत्वरं तूणमवतारितयाधोनिवेशितस्यवामचरणस्य सव्यपादस्याक्रान्त्या कम्पितः, प्राप्तादो, राजगृहं, येनसः। असिधारायाः खड्गाग्रभागस्य गोचरं वशं गतेन खण्डितेन त्रुटितेन हारेणमुक्ताहारेणशशिमयूखमण्डलेन च द्रकिरणसमूहेनेव राजमानः। लक्ष्म्याश्चुम्बनं तया, कृतं चुम्बनं तेन लग्नः, संलग्नस्ताम्बूलरसस्तेन रञ्जिताभ्यामिव रक्ताभ्यामिव। चुम्बनस्थानेषु नेत्रस्य

लोचनाभ्यां पाटलयन्पर्यन्तानाथानाम, बद्धान्धकारया त्रिपताकया भ्रकुट्यापुनरिव त्रियामा परिवर्तयन्, ‘देवि, न भेतव्यं न भेतव्यम्’ इत्यभिदधानोवेगेनोत्पपात। सर्वासु च दिक्षु विक्षिप्तचक्षुर्यदा नाद्राक्षीत्किंचिदपि तदा पप्रच्छ तां भयकारणम्।

** अथ गृहदेवतास्विव प्रधावितासु यामिकिनीषु प्रबुद्धे च समीपशायिनि परिजने, शान्ते च हृदयोत्कम्पकारिणि साध्वसे सा समभाषत- ‘आर्यपुत्र, जानामि स्वप्ने भगवतःसवितुर्मण्डलान्निर्गत्य द्वौ कुमारकौ, तेजोमयौ, बालातपेनेव पूरयन्तौ दिग्भागान्, वैद्युतमिव जीवलोकं कुर्वाणौ, मुकुटिनौकुण्डलिनौ अङ्गदिनौ, कवचिनौ, गृहीतशस्त्रौ, इन्द्रगोपकरुचा रुधिरेण स्नातौ, उन्मुखेनोत्तमाङ्गघटमानाञ्जलिना जगतः निखिलेन प्रणम्यमानौ, कन्ययैकया च चन्द्रमूर्त्येवसुषुम्णरश्मिनिर्गत-**

ग्रहणंप्रसिद्धमेव। तिस्रःपताकाः ध्वजाः यस्यास्तया। भ्रकुटेस्त्रिधा परिवर्तनेन त्रियामां रात्रिं पुनरिव परिवर्तयन् आनयन्।

अथेति। यामिकिनीषु जागरिकासु। रात्रौ नृपप्रासादे जाधनो जनाः संरक्षणाय नियुक्ताः सन्ति। समीपं निकट अर्थादन्तःपुरस्य बहिर्द्वारेशेते तस्मिन् प्रबुद्धे जागरिते। हृदयस्य मनस उत्कम्पनं वेपनं करोति तच्छीले साध्वसे भये शान्ते नष्टे सति। सवितुः सूर्यस्य मण्डलात्परिधेर्निर्गत्य बहिरागत्य। बालातपेन कोमलकिरगणैर्दिग्भागान्दिशां प्रदेशान् पूरयन्तौव्याप्नुवन्तौ वैद्युतमिव विद्युत्संबंधिनमिव। अंगदिनौ केयूरवन्तौ। इन्द्रगोपक इव ताम्रवर्णमृगकीटक इव रुक्कान्तिर्यस्य तैनोन्मुखेनोर्ध्वावविलोकिना। सुषुम्णारश्मेरमृतमयकिरणान्निर्गतया बहिरागतया। विलपन्त्याः

यानुगम्यमानौ, क्षितितलमवतीर्णौ। तौच मे विलपन्त्याः शस्त्रेणोदरं विदार्य प्रवेष्टुमारब्धौ। प्रतिबुद्धास्मि चार्यपुत्रं विक्रोशयन्ती वेपमानहृदया’ इति।

** एतस्मिन्नेव च कालक्रमे राजलक्ष्म्याः प्रथमालापः प्रथयन्निव स्वप्नफलमुपतोरणं रराणप्रभातशङ्खः। भाविनीं भूतिमिवाभिदधाना दध्वनुरमन्दं दुन्दुभयः। चकाण कोणाहतानन्दादिव प्रत्यूषनान्दी। जयजयेति प्रबोधमगलपाठकाना मुञ्चवाचोऽश्रयन्त, पुरुषपश्च वल्लभतुरङ्गमन्दुरामन्दिरे मन्दमन्दं**

मेविलपन्तीं (मामनादृत्येत्यर्थः) ‘षष्ठो चानादरे’ इत्यनेनानादरे षष्ठी। विदार्य भित्त्वा।

एतस्मिन्नेवेति स्वप्नफलं प्रथयन्निवस्वप्नोऽवश्यंभावीति सूचयन्निव उपतारणं बहिर्द्वारोपरि। विभक्त्यनेनाव्ययीभावः। प्रातदृष्टः स्वप्नः सद्यः फलद इति धर्मशास्त्रमतश्च स्वप्नोऽयमवश्य सफलभवेदिति सूचयितुमिदं वर्णनम्। अमन्दमुच्चैः। कोणो वादनदण्डस्तेन आहतं ताडनं तस्यानन्दान्। प्रत्यूषनान्दी प्राभातिकी भेरी। प्रबोधमंगलपाठकाः प्रातर्नरपतिप्रबोधनार्थ गायन्तो बन्दिनः। बल्लभः, प्रियो, यश्तुरंगस्तस्य मन्दुरामंदिरंशाला। मन्दुराशब्द एववाजिशालावाच्यपि तुरंगपदसान्निध्याच्छाला मात्रवाचकः। वाचकानां पदानां सति पृथग्विशेषणत्वे विशेष्यमात्रपरत्वमिति न्यायात्। सुप्तं निद्रा। ‘नंपुसके भावे क्तः। तस्मादुत्थितः। अथवादौसुप्तः पश्चादुत्थितः। अस्मिन्पक्षऽकर्मकत्वात्कर्तरि क्तः सप्तानां हयानाम्, च्योत्तुषाराणांपतद्धिमानां सलिलेः शीकरमार्द्रंमरकतमिव गारुत्मतमिव हरितं हरिद्वर्णंयवसं तृण किरन। वक्त्रापरवक्त्रे। वक्त्रं भाव्यर्थसूचकः छंदोविशेषः

सुप्तोत्थितः सप्तानां कृतमधुरेहपारवाणां पुरश्च्योतत्तुषारसलिलशीकरं किरन्मरकतहरितंयवसं वस्त्रापरवस्त्रेपपाठ-

निधिस्तरुविकारेण सन्मणिः स्फुरता धाम्ना।
शुभागमो निमित्तेन स्पष्टमाख्यायने लोके॥३॥

अरुण इव पुरःसरोरविं पवन इवातिजवो जलागमम्।
शुभमशुभमथापि वा नृणां कथयति पूर्वनिदर्शनोदयः ॥४॥

** नरपतिस्तु तच्च्छ्रुत्वा प्रीयमाणेनान्तःकरणेन नामवादीत्—‘देवि, मुदोऽवसरे विषीदसि। समृद्धास्ने गुरुजनाशिषः। पूर्णा नो मनोरथाः। परिगृहीतासि कुलदेवताभिः। प्रसन्नस्ते भगवानंशुमाली।**

अपरवक्त्रम् तन्नामकं मात्रावृत्तम्। ‘वक्त्रमास्ये छंदसि च’ हेमचंद्रः। उभयोगख्यायिकायामत्यावश्यकत्वम्। तथा चाग्निपुराणे, उच्छ्वासैश्च परिच्छेदो यत्र सा चूर्गिणकोत्तरा। वक्त्रं चापरवक्त्रं च यत्र साऽऽख्यायिका मता’।

निधिरिति। निधिर्भूमिगतो धनसंचयस्तरुविकारेण वृक्षस्य विशिष्टावस्थानेन सन्मणिः समीचीनं रत्नं स्फुरता विकसता धाम्रा तेजसा शुभागमः शुभस्य प्राप्रिर्निमित्तेन शकुनेन लोके जने स्पष्टमाख्याते कथ्यते। दीपकालंकारः॥३॥

अरुण इति। पुरःसरोऽग्रयायी अरुणोरविमिवातिजवो वेगवान् पवनो वायुर्जलागमं वर्षाकालमिव पूर्व प्राग् निदर्शनस्य दृष्टांतस्योदयः प्राप्तिगणां शुभमशुभं वा कल्याणमकल्यागाम् वा कथयत्ति। भाविनवर्थानथौ पूर्वमेव शकुनादिना ज्ञायेते इति तात्पर्यार्थः ॥४॥

नरपतिरिति। प्रीयमाणेन संतुष्टेन। स्वमनोरथसूचकवाक्य-

नचिरेणैवातिगुणवदपत्यत्रयलाभेनानन्दयिष्यति भवतीम्’ इति। अवतीर्य च यथाक्रियमाणाः कियाश्चकार। यशोवत्यपि तुतोष तेन पत्युर्भाषितेन।

** नतः समतिक्रान्ते कस्मिंश्चित्कालांशेदेव्यां च यशोवत्यांदेवो राज्यवर्धनः प्रथममेव संबभूव गर्भे। गर्भस्थितस्यैव च यस्य यशमेव पाण्डुतामादत्त जननी। गुणगौरवक्लान्तेव गात्रमुद्वोढुं न शशाक। कान्तिविसरामृतरसतृप्तवाहारं प्रति पराङमुखीबभूव। शनैः शनैरुपचीयमानगर्भभरालसा च**

श्रवगणात्तस्यानंदः। मुदोऽवसरे आनन्दस्य समये विषीदसि खिद्यते अंशूनां किरणानां माला पंक्तिर्विद्यते यस्य स भगवान् सूर्यः। ‘ब्रह्मादिभ्यश्च’ इत्यनेन मत्वर्थीय इनिः। अवतीर्य चन्द्रशालाया, इति शेषः।

तत इति। कालांशे स्वल्पेकाले स्वप्नः सफलःइति सूचयितुमिदम्। गर्भे स्थितस्यविद्यमानस्य यस्य राज्यवर्धनस्य। यशसा कीर्त्येव। यशसःपाण्डुत्ववर्णनं कविसंप्रदायानुरूपम्। अतएव विश्वनाथेनोक्तं कत्रिममय ‘यशसि धवलता’ इति। गुणानां गौरवेण जाड्येन क्लान्ता पीडितेव गात्रं शरोरमुद्वोढुंधारयितुम्। भारेण पीडितः स्वशरीरधारणेऽप्यसमर्थो भवति। कान्तीनां तेजसां विसरः समूह एवामृतरसस्तेन तृप्तेव। तृप्ताय च पानादि न रोचते। उक्तं च श्रीहर्षेण ‘अपां हि तृप्ताय न वारिधारा स्वादुः सुगंधिः स्वदत्ते तुषारा’। उपचीयमानस्यवधमानस्य गर्भस्य भरेणभारेणालसामन्दा गुरुभिर्वृद्धजनैर्वारितापि निषिद्धापि। कथमपिकष्टेन एतेन तस्या जनेष्वादरातिशया व्यज्यते। विश्राम्यन्ती श्रान्ताविश्रमाय यत्रकुत्रापि तिष्ठन्ती सालभञ्जिकेव पुत्तलिकेव। कमलेति।

गुरुभिर्वारितापि वन्दनायकथमपि सखीभिर्हस्तावलम्बेनानीयत। विश्राम्यन्ती सालभञ्जिकेव समीपगतस्तम्भभित्तिध्वलक्ष्यत। कमललोभनिलीनेत्जिभिरिव वृनावुद्धर्नु नाशकश्चरणौ। मृणाललोभेन च चरणनखमयूखलग्नैर्भवनहंसैरिवसंवार्यमाणा मन्दमन्दंबभ्राम मणिभित्तिपातिनीषु प्रतिमास्वपिहस्तावलम्बनलोभेन प्रसारयामास करकमलम्, किमुतसखीषु। माणिक्यस्तम्भदीधितीरप्यालम्बितुमाचकाङ्क्ष्वकिं पुनर्भवनलताः। समादेष्टुमप्यसमर्थासीद्गृहकार्याणि कैवकथा कर्तुम्। आस्तां नूपुरभारखेदितं चरणयुगलं मनसापि नोदसहत

गर्भपीडिता चरणाबुद्धर्तुं नाशकत्परं भ्रमरैःकमलभ्रान्त्या व्यामो तावतोऽसमर्थेति कल्पितम्। मृणाललोभेन विसलोभतचरणनखाना मयूखेषु किरणेषुलग्नैःसंसक्तैर्हंसैर्मरालैःसंचायमाणा गमनाय प्रेयमाणा मन्दं मन्दं शनैः शनैर्बभ्राम। हंससदृशी गतिमाचरन्ती मन्दं मन्दं जगाम हसलग्नत्वं कारणं कथितम्। मणिभित्तिषुपतन्तितासु प्रतिभासु स्वप्रतिविम्बेष्वपि। श्रान्तोयस्यकस्यापिसहायं ग्रहीतुमुत्कण्ठिताभवति तद्वदियमपि स्वप्रतिमाधारमपेक्षतेति तात्यपर्यम्। माणिक्यानां पद्मरागाणां दीधितोरपि किरणान्यप्यालंबितुम श्रयितुमाचकांक्षइत्येष। भवनलता गृहमध्यस्थापितः लताः। नपुरयोर्मंजारयोभारण खेदितं पीडितम्। पादावसमर्थावित्यत्र नाश्चर्यमपि तु सौधागेहण कल्पनामपि नासहत। तस्तान। दीर्घं श्वसितवती। प्रत्युत्थानेष्विति। उभयोर्जान्वोरुरुपर्वणोःशिखरयोरग्रयोर्निहिता स्थापितौकरकिसलयौयया सा। दिवसमित्यत्यन्तसंयोगे द्वितीया। स्तनयोः पृष्ठे संक्रान्तेन पतितेनापत्यदर्शनस्यौत्सुक्यादिच्छयाप्रविष्टेनेव। स्तनयोःपुष्ट्या-

सौधमारोढुम्। अङ्गान्यपि नाशक्नोद्धारयितुं दूरे भूषणानि। चिन्तयित्वापि कीडापर्वताधिरोहणमुत्कम्पितस्तनीतस्तान। प्रत्युत्थानेषृभयजानुशिखरविनिहितकरकिसलयापि गर्वादिव गर्भेणाधार्यत। दिवसं चाधोमुखी स्तनपृष्ठसंक्रान्तेनापत्यदर्शनौत्सुक्यादन्तः प्रविष्टेनेव मुखकमले नेत्रं प्रीयमाणा ददर्श गर्भम्। उदरेतनयेन हृद‌ये च भर्त्रातिष्ठता द्विगुणितामिवलक्ष्‌मीमुवाह। सख्युत्सङ्ग्रमुक्तशरीराच शरीरपरिचारिकाणामङ्केषु सपत्नीनान्तु शिरःसु पादौ चकार। अवतीर्णे च दशमे मासि सर्वोर्बीभृत्पक्षपाताय वज्रपरमाणुभिरिव निर्मितम्, त्रिभुवनभारधार-

धिक्यात्कञ्चुक्यामस्थितिस्तेन च तत्र प्रतिविम्बं युज्यते। अन्यथा साऽस्वीकृत चालिकेति तर्क्यंस्यात्। सखीनां सहचरीणामुत्संगेष्वं केषुमुक्तंत्यक्तंशरीरं यया सा सपत्नीनां समानपतीनां शिरःसृत्तमांगेषु। अवतीर्ण इति। सर्वेषामुर्वीभृतां नृपाणां पर्वतानां च पक्षपाताय नृपाणां महायनाशाय पर्वतानां पतत्रान्मूलनाय च। बले सखिसहाययोः। चूलिरन्धे पतत्रे च’ इति मेदिनी। वज्रस्येन्द्रायुधस्य परमाणुभिः सूक्ष्मेरवयवैरिव। इन्द्रेणोत्पातिनां पर्वतानां पक्षाः स्ववज्रेणछिन्नास्तद्वदयमप्युर्वीभृतां पक्षपाताय वज्रमय इव निर्मित इनि तात्पर्यम्। त्रिभुवनस्य त्रिलोक्याधारणे वहने समर्थं शेषस्य तन्नामकस्य सर्पराजस्य फणामण्डलस्य फणासमूहस्योपकरणैःसाधनैरिव कल्पितम्। सकलानां भूभृतां राज्ञां पर्वतानां च कम्पं करोति तच्छीलमतएव दिग्गजानामवयवैरिव विहितं कृतम् दिग्गजाःस्वदन्तैः पर्वतान्कम्पयन्ति तदनु- रोधेनेनम्। नृत्वमय्यः। पूरितेति। पूरितानां शंखाना शद्बैर्ध्वनिभिर्मुखरम्। प्रहतानां ताडितानां पटहशतानां ढक्काशतानां पटुः

णसमर्थं शेषफणामण्डलोपकरणैरिव कल्पितम्, सकलभूभृत्कम्पकारिणं दिग्गजावयवैरिव विहितमसूतदेवं राजवधनम्। यस्मिञ्जाते जातप्रमोदा नृत्यमय्यइवाजायन्त प्रजाः। पूरितासंख्यशङ्खराब्दमुखरं प्रहतण्टहरानपटुरतवंगम्भीरभेरीनिनादनिर्भरभरितभुवनं प्रमोदोन्मत्तमत्येल्लोकमनोहरं मासमेकं दिवसमिव महोत्सवमकरोन्नरपतिः।

** अथान्यस्मिन्नतिक्रान्ते कस्मिंश्चित्काले कन्दलिनि कुड्‌मलितकदम्बतरी तोक्मतृणस्तम्बेस्तम्भिततामरमे विकसितचातकचेतसि मुकमानसौकसि नभसि देव्या देवक्या इव चक्रपाणिर्यशोवत्या हृदये गर्भे च संबभूव हर्षः। शनैः शनैश्चास्या सर्वप्रजा पुण्यैरिव परिगृहीता भूयोऽप्यापाण्डुतामङ्गयष्टिर्जगाम। गर्भारम्भेण श्यामायमानचारुचुचुकचुलिकौचक्रवर्तिनः पातुं मुद्रिताविव पयोधरकलशौबभार। स्तन्या-**

सम्यग् रवोध्वनिर्यस्मिंस्तम्। गंभीरेण दुंदुभीनां भेरीणां निनादेन शब्देन निर्भरमत्यंतं भरितं व्याप्तं भुवनं येन तम्। प्रमोदेनानंदेनान्मत्तेन मत्तेन मर्त्यलोकेन मनुज लोकेन मनोहरस्तम्। मासम् त्रिंशदहोरात्रम्। अत्यन्तसंयोगे द्वितीया। एंक दिवसमिवति। उत्सवनिमग्नानामचेतितःकालोयात इति ज्ञायतेऽनेन।

अथति। कस्मिंश्चित्काले द्वित्रवर्षात्मक इत्यर्थः। कन्दलिनि नवांकुरवति कुद्मलितःसंजातकोरकः कंदवतरुर्यस्मिंस्तस्मिन्।तोक्मा हरितारतृणस्तम्बा यवससमूहा यस्मिन। स्तम्भितानि रुद्धानि (नष्टानीत्यर्थः) तामरसानि क्रमजानि यस्मिन्। पर्जन्याधिक्येन कमलध्वंसः। विकसितं प्रफुल्लं चातकचेतश्चातकमानसं यस्मिन्। एतादृशेनभसि श्रावणे नासि। मेघागमनेन चातकानंदः।

र्थमानननिहिता दुग्धनदीव दीर्घस्निग्धधवला माधुर्यमधत्त दृष्टिः। सकलमङ्गरणाधिष्ठितगात्रगरिम्णेव गतिरमन्दायत। मन्दंमन्दं संचरन्त्या निर्मलकुट्टिमनिमग्नप्रतिबिम्बनिभेन गृहीतपादपल्लवा पूर्वसेवामिवारेभे पृथिव्यस्याः। दिवसमधि शयानायाः शयनीयमपाश्रयपत्रसङ्गपुत्रिकाप्रतिमा विमलकपो-

मूका अशब्दा। मानसो कसो हंसाः यस्मिन्। हंसाना तदाऽत्रास्थित्या मुकत्वम्। तथा च विश्वनाथः ‘जलधरसमये मानसं यान्ति हंसाः, इति। देव्या देवक्याःकृष्णामातुः तस्या अपि भगवंतंध्यायन्त्याहृदये गर्भे च सममेवहरिः प्रादुरासीत्। भगवद्ध्याननिमग्ना सा गः भवत्यासीदिति तात्पर्यार्थः, नभसीत्यस्योपमानेनसंबन्धः, देवकीगर्भस्य श्रावणोऽसंभवादिति दिक् प्रजापुण्यैरिव परिगृहीता स्वीकृता आपाण्डुतां पाण्डुरत्वम्। श्यामायमानौकृष्णवर्णौचूलिके हस्तिनः कर्णमूले इव चूचुकौस्तनाग्रौ यस्याः सा चूचुकस्य चूलिकोपमा काठिन्यकार्ष्यमूलिकंत्यबधेयम्। रक्षणार्थंमुद्रांविधाय किमपि स्थाप्यते तद्वदिदमपि। गर्भकाले च कुचाग्रयोः श्यामत्वं वर्णितंवाग्भटेन अम्लेष्टता स्तनौ पीनौ’ श्वेतान्तौकृष्णचूचुकौ’ इति। चक्रवर्तिनो भाविनः पानायेत्यर्थः, स्तन्यार्थं दुग्धार्थं स्तने भवंस्तन्यं दिगादित्वाद्भवार्थे यत्। सकलमंगलगणेनार्था दिक्पालसमूहेनाधिष्ठितानां गात्राणामवयवानां गरिम्णागौरवेणगतिर्गमनममदायत। नृपश्चदेवतांशेभवति। मन्द‌ं मन्दं शनैः शनैः संचरंत्या अस्या निमले हीरकाद्रित्नमयेऽत एवस्वच्छे कुट्टिमे निवद्धायां भुवि निमग्नस्यप्रतिबिम्बस्य, निभेन, मिषेण, पूर्वसवां प्रथमसेवामिव। दिवसम् शयनं शय्यामधिशयानाया अधितिष्ठंत्याः। अपाश्रयः शय्यास्तरणं तस्य पत्रगर्भपुत्रिका तदुपरि लिखिता पुत्रिका तस्याः प्रतिमा।

लोदरगताप्रसवसमयं प्रतिपालयन्तीलक्ष्मीरिवालक्ष्यत। क्षपासुसौधशिखराग्रगतायागर्भोन्माथमुक्तांशुके स्तनमण्डले संक्रान्तमुडुपतिमगडलमुपरि गर्भस्य श्वेतातपत्रमिवकेनापि धार्यमाणमदृश्यत। सुप्तया वासभवने चित्रभित्तिचामरग्राहिण्योपिचामराणि चालयांचक्रः स्वप्नेषु करविधृतकमलिनीपलाशपुटसलिलेश्चतुर्भिरपि दिक्करिभिरक्रियताभिषेकः। प्रतिबुध्यमानायाश्च चन्द्रशालिकासालभञ्जिकापरिजनो जयशब्दमसकृदजनयत्। परिजनाह्वानेष्वादिशेत्यरारीरा वाचो निश्चेरुः। क्रीडायामपि नासह‌ताज्ञाभङ्गम्। अपि च चतुर्णामपि महार्णवानामेकी

विमले स्वच्छे कपोलोदरे गल्लमध्ये गता, विमलेत्यनेन बिंबग्रहणसामर्थ्यम्। प्रसवसमयं प्रसूतिकालं प्रतिपालयंती प्रत्यवेक्षमाणा लक्ष्मीरिवजीवन्ती’ इति प्रसिद्धाप्रसूतिदेवतेव। क्षपासु रात्रिषु सौधशिखरं चंशालां गताया गर्भस्य अर्भकस्योन्माथेन रिस्फुरणेन मुक्तं त्यक्तमंशुकं वसनं यस्यतस्मिन्। संक्रांतं प्रतिचित्रितमुडुपतिमंडलं चद्रमंडलं गर्भस्योदरस्थितार्भकस्योपरि केनापि धार्यमाणं श्वेतं शुभ्रमातपत्रं छत्रमिव। अत्र सौधाग्रगमनं तु लघुना शिविकादिना, वासभवने, शय्यागृहे। स्वप्नेष्विति। चतुर्भिरपिदिक्करिभिर्दिग्गजैःकरे शुंडादंडे विधृतस्य कमलिन्याः, पलाशस्य, पत्रस्य, पुटस्य, पर्णपात्रस्य, सलिलैरुदकरभिषेकोमंत्रपूतं जलसिंचनम्। सालभंजिकापरिजनः सौधे स्थापिताः मूर्तयः। अशरीरावाचः अमानुष्यो वाचः। चतुर्णामिति। चतुः समुद्रोदकानि सम्राडभिषेकोपयुक्तानि तत्र वाञ्छाभाविनीं साम्राज्यसिद्धि शशंस।वेलालता समुद्रतीरस्था लता तस्यागृहोदरस्य गृहमध्यस्य पुलिनपरिसरेषु वालुकाप्रदेशेषु,

**कृतेनाम्भसास्नातुं वाञ्छाबभूव। वेलालतागृहोदरपुलिनपरिसरेषु पर्यटितुं हृदयमभिललाष।आत्ययिकेष्वपि कार्येषु सविभ्रमं भ्रूलता चवाल संनिहितेष्वपि मणिदर्पणेषु मुखमुत्खाते खड्गपट्टं वीक्षितुं व्यसनमासीत्। उत्सारितवीणाः स्त्रीजनविरुद्धा धनुर्ध्वनयः श्रुतावसुखायन्त। पञ्जरकेसरिषुचक्षुररमत। गुरुप्रणामेष्वपि स्तम्भितमिवशिरः कथमपि ननाम। सख्यश्चास्याः प्रमोदविस्फारितैर्लोचनपुटैरासन्नप्रसवमहोत्सवधियेव धवलयन्त्यो भवनं विकचकुमुदकमल- कुवलयपलाशवृष्टिमयं रक्षावलिविविमिवानवरतं विदधाना दिक्षु क्षणमपि न मुमुचुः पार्श्वम्। **

** आत्मोचितस्याननिपयपणाश्च महान्तो विविधौषधिधरा भिष-**

एतेनापत्यस्यासमुद्रक्षितीशत्वं सूचितम्। आत्ययिकेष्ववश्यकर्तव्येष्वपि। संहितेष्विति मणिदर्पणेषु रत्नमुकरेषु। उत्खातेविकोषे, एतेन गर्भस्य वीरत्वं ज्ञातम्। उत्सारिता निसारिता वीणा यैस्ते स्त्री जनविरुद्धा, सुर्वातजनानुचिता, धनुर्ध्वनयश्चापशब्दाः, श्रुतौकर्णेऽसुखायन्त सुस्वं व्यदधुः। सख्य इति। सख्योऽस्याः पार्श्वेन मुचुमुरित्यन्वयः। तान् विशिनष्टि। प्रमोदेनानंदेन वि- स्फारितैविकसितेर्लोचनपुटनयन पुटैः। अत्र पुटशब्दोऽलंकारार्थः। आसन्नस्य समीपागतस्यप्रसवमहोत्सवस्य धियेव बुव्येव। भवनं गृहं धवलयन्त्यः शुभ्रीकुर्वन्त्यः। महोत्सवेषु गृहशुभ्रीकरणं प्रसिद्धमेव, अनवरतं, सततं, विकचानां विकसितानां, कमलकुमुदकुवलयपलाशानां, वृष्टिमयं वृष्टिप्रचुरं’, रक्षाबलिं रक्षणार्थं क्रियमाणां पूजामिव दिक्षुसर्वत्र विदधानाः कुर्वाणाः। आत्मनः स्वस्योचितेषु योग्येषु स्थानेषु निषण्णा स्थिताः। विविधानामोषधीनां धरा धारका

जो भूधरा इवभुवोधृतिं चक्रुः। पयोनिधीनां हृदयानीव लक्ष्यासहागतानि ग्रीवापुत्रग्रन्थिषु प्रशस्तत्नान्यवध्यन्त।

** ततश्च प्राप्ते ज्येष्ठामूलीये मासि, बहुलासु बहुलपक्षद्वादश्यां, व्यतीतेप्रदोषसमये समारुरुक्षतिक्षपायौवने, सहसैवान्तःपुरे समुदपादि कोलाहलः स्त्रीजनस्य। निर्गत्य च ससंभ्रमं यशोवत्याः स्वयमेव हृदयनिर्विशेषा धात्र्याः सुता सुयात्रेति नाम्ना राज्ञः पादयोर्निपत्य ‘देव’ दिष्ट्या वर्धसेद्वितीयसुतजन्मना’ ‘इति व्याहरन्ती पूर्णपात्रं जहार।**

** अस्मिन्नेव च काले राज्ञःपरमसंमतः, शतशः संवादि-**

इत्युभयत्रापि समानम्। अथवा विविधा औषधयोयासु तथाभूता धरा भूमयी येषां ते। भिषजोवैद्याः। धृतिंधैर्यं धारणां च। प्रशस्तानि च तानि रत्नानि (पक्षेप्रशस्तानि रत्नानि येषु तथाभूतानि हृदयानि।

ततश्चेति ज्येष्ठामुलीयेज्येष्ठे ज्येष्ठामुलीयमिच्छन्ति मासमाषाढपूर्वजम्’ इति हारावली। बहुलासु कृत्तिकासु। ‘बहुलाः कृत्तिका’ इत्यमरः। लहुलपक्षद्वादश्यां, कृष्णापक्षद्वादश्यां, प्रदोषसमयेरजनीमुखे व्यतीतेऽतिक्रान्ते, क्षपाया, रात्रेर्यौवने, प्राभादुत्तरे भागे, समारुरुक्षत्यागते सति। स्त्रीजनस्य, युवतिवर्गस्य, कोलाहलः कलकल उद्‌पादि समभूत्। निर्गत्येति। यशोवत्या धात्र्याउपमाहः सुताहृदयान्निर्गतो विशेषो यस्यां सा सुयात्रेति नाम्ना स्वयमेव निर्गत्यातलेच्छया बहिरागत्य इति व्याहरन्ती इति निवेदयन्ती पूर्णरात्रंपूर्णानकम्।

अस्मिन्निति। परमसंमतोऽत्यंतमान्यः संवादितः प्रत्यक्षीकृतोऽतींद्रियादेशो भविष्यकथनं यस्य सः। संकलितं गणनं विद्यते

तातीन्द्रियादेशः, दर्शितप्रभावः संकलिती, ज्योतिषि सर्वासां ग्रहसंहितानां पारदृश्वः, सकलगणकमध्ये महितो हितश्च त्रिकालज्ञानभाग्भोजकस्तारको नाम गणकः समुपसृत्य विज्ञापितवान् – “देव! श्रूयताम्।मान्धाता किलैवंविधे व्यतीपातादिसर्वदोषाभिषङ्घरहितेऽहनि सर्वेषूच्चस्थानस्थितेष्वेवं ग्रहेष्वीदृशि लग्ने भेजे जन्म। अर्वाक्ततोऽस्मिन्नन्तराले पुनरेवंविधे योगे चक्रवर्त्तिजनने नाजनि जगति कश्चिदपरः। सप्तानां चक्रवर्तिनामग्रणरिश्चक्रवर्तिचिह्नानां महारत्नानां च भाजनं सप्तानां सागराणां पालयिता सप्ततन्तूनां सर्वेषां प्रवर्तयिता सप्तसप्तिसमः सुतोऽयं देवस्य जातःइति।

** अत्रान्तरे स्वयमेवानाध्माता अपि तारमधुरं शङ्खाविरेसुः।**

यस्य सः। ज्यातिष ज्योतिःशास्त्रे पारदृश्वा पारंगतः। दृशेः क्वनिप्। महितः पूज्यो भोजकः सूर्याराधको गणकविशेषो भागवत, इति प्रथितो वा। मांधाता सूर्यवंशस्थोयुवनाश्वस्य पुत्रोऽरीषाख्यस्यनृपतेः पिता। व्यतीपातदिदोषाणामभिषंगेन संबधेनरहितिवर्जिते। सर्वेषूच्चस्थानस्थितेषु ग्रहेषु। सर्वेषां ग्रहाणामेकदैवोच्चस्थानत्वमशक्यमिति ज्योतिर्विदोऽतोऽत्र शुभेषु महेष्वित्यर्थो ग्राह्यः। चक्रवर्तिनः सम्राजोजननमुत्पत्तिर्यस्मिंस्तादृशे योगे सुमुहूर्ते नाजनि। दीपजनेत्यनेन वैकल्पिकः कर्तरि चिण्। अग्रणीः श्रेष्ठः। ‘भाजनं पात्रम्। परिनायकः सेनापतिः। सप्ततन्तूनां यज्ञानां, प्रवर्तयिता प्रवर्तकः। सप्त सप्तयोऽश्वायस्य स सूर्यस्तेन समस्तुल्यः।

अत्रान्तरे इति। अनाध्माता अपूरितास्ता(मधुरमुच्चैर्मनोहरम्। क्षुभितस्य संचलितस्य जलनिधेः, समुद्रस्य, जलस्य, ध्वनिरिव,

अताडितोऽपि क्षुभितजलनिधिजलध्वनिधीरं जुगुञ्जाभिषेकदुन्दुभिः। अनाहतान्यपि मङ्गलतूर्याणि रेणुः। सर्वभुवनाभयघोषणापटह इव दिगन्तरेषु बभ्राम तूर्यप्रतिशब्दः,विधुतकेसरसटाश्च साटोपगृहीतहरितदूर्वापल्लवकवलप्रशस्तैर्मुखपुटैः समहेषन्त हृष्टा वाजिनः। सलीलमुत्क्षिप्तैर्हस्तपल्लवैर्नृत्यन्त इव श्रवणसुभगं जगर्जुर्गजाः। ववौ चाचिराच्चक्रायुधमुत्सृजन्त्या लक्ष्म्या निश्वास इव सुरामोदसुरभिर्दिव्यानिलः। यज्वनां मन्दिरेषु प्रदक्षिणशिखाकलापकथितकल्याणागमाः। प्रजज्वलुर-

धीरं यथास्यात्तथा जुगुंज दध्वान। मंगलतुर्याणिमंगलवादित्राणि। सर्वस्य, सकलस्य, भुवनस्य जगतोऽभयस्य घोषणाया उच्चैर्घुष्टस्य पटहो, ढक्केव। तूयोणा, वाद्यविशेषाणां प्रतिशब्दः, प्रतिध्वनिः,। विधूताः, कंपिताः, केसरसटाः, सटाग्राणि, येस्ते वाजिनो हयाः, साटोपं सगर्व, गृहीनानां, हरितानां, हरिद्वर्णानां दूर्वाणां कललैर्ग्रासैःनः प्रशस्तानि, विस्तृतानि, तैमु स्वपुटैः, समहेषन्त समहेषन्त। उत्क्षिप्तरुध्वं धृतेईस्तपल्लवैः, शुडादंडैर्नृत्यन्त,इव नर्तका, इव गजा, हस्तिनः, वया सुभगं श्रतिमनोहरं, जगर्जुःशब्दं चक्रुः, ववाविति। चक्रायुधं नारयणमचिरात्तामुत्सृजत्थास्त्यजेत्या लक्ष्म्या निवास इव। नूतनोत्पन्नं हर्षमाश्रयितुंहरिर्लक्ष्म्या त्यक्त इति तात्पर्यम्। सुराया मद्यस्यामोदेनाति निर्धारिगंधेन, सुरभिः सुगंधिदिव्यानिलः, स्वर्गीयो वायुः। यज्वानां, यज्ञकृतां, मंदिरेषु, गृहेषु, प्रदक्षिणेन, वर्तुलाकारा, शिखाकलापेन, ज्वालासमूहेन कथितः सूचितः कल्याणानां मंगलानामागम उत्पत्तिर्यैस्तेवैतानवन्हयोयज्ञाग्नयोऽनिधना इंधनरहिता एव। वेतानवन्हीनां प्रदक्षिणाशिखावलयेन ज्वलनं मंगलसूचकमिति कविसंप्रदायः। भुवस्तलादिति। तपनीयशृंखला सुवर्णनि-

निन्धना वैतानवह्नयः। भुवस्तलात्तपनीयशृङ्खलाबन्धबन्धुरकलशीकोशाः समुदगुर्महानिधयः। प्रहतमङ्गलतूर्यप्रतिशब्दनिभेन दिक्षु दिक्पालैरपि प्रमोद दक्रियतेन दिष्टवृद्धिकलकलः। तत्क्षण एव च शुक्लवाससो ब्रह्नमुखाः कृतयुगप्रजापतयैव प्रजावृद्धेये समुपतस्थिरे द्विजातयः। साक्षाद्धर्मं इव शान्त्युदकफलहस्तस्तस्थौ पुरः पुरोधाः। पुरातन्यः स्थितय इवादृश्यन्तागता बान्धववृद्धाः। प्रलम्बश्मश्रुजालजटिलाननानि बहलमलपङ्ककलङ्ककालकायानि नश्यतः कलिकालस्य बान्धवकुलानीवाकुलान्यधावन्त मुक्तानि बन्धनवृन्दानि। तत्कालापक्रान्तस्याधर्मस्य शिबिरश्रेणय इवालक्ष्यन्त लोकविलुण्ठिता

गडस्तस्यबंधेन बंधनेन, बंधुरो, मनोहरः, कलशोकोशी घटावरणं येषां ते महानिधयो द्रव्यसंचया भुवस्तलाद्भूपृष्टादुदगुर्बहिराजग्मुः। प्रहतानां ताडितानां मंगलतूर्याणां प्रतिशब्दस्य निभेन मिषेण दिष्टवृद्धिरानन्दवर्धनम्, तत्क्षणे। ब्रह्मा मुखे येषां ते (पक्ष) ब्रह्मवेदो मुखेयेषां। पुरातन्यः प्राचीनाः। प्रलंबेन लंबमानेन श्मश्रुजालेन मुखस्यकेशसमूहेन जटिलानि, व्याप्तान्थाननानि, मुखानि, येषां ते। बहलेन प्रभूनेन मलप कस्य कलंकन कालाः कृष्णवर्णाः कायाः येषां ते। एतेन तदानीं कारागृहिणां श्मश्रुच्छेदनं स्नानं च प्रतिबद्धमासीदिति गम्यते। आकुलान्युत्सुकानि गृहगमनत्वरयौत्सुक्यम्। बंधनवृंदानि बंधनकाराबासो विद्यते येषां ते बंधनाः तेषां वृंदानि, समूहाः। तत्काले धर्मस्वरूपस्य, हर्षस्योत्पत्तिकालेऽपकांतस्य पलायितस्याधर्मस्य शिविरश्रेणयो निवासगृहपंक्तय इव रिक्ता इत्यर्थः। ‘लोकैरानंदमग्नैर्जनैर्विलुंठिताश्चारिता बलाद् गृहीता विपणिवीथ्योबणिक्पथसमूहाः। एतेन तदानीं पुत्रोत्पत्याद्यभ्युदयकाले विपणे-

**विपणिवीथ्यः। विलसदुन्मुखवामनकबधिरवृन्दवेष्टिताः साक्षाज्जातमातृदेवता इव बहुबालकव्याकुला ननृतुर्वृद्धधात्र्यः। प्रावतत च विगतराजकुलस्थितिरधःकृतप्रतीहाराकृतिरपनीतवेत्रिवेत्रो निर्देषान्तःपुरप्रवेशः समस्वामिपरिजनो निर्विशेषबालवृद्धः समानशिष्टाशिष्टजनो दुर्ज्ञेयमत्तामत्तप्रविभागस्तुल्यकुल-युवतिवेश्यालापविलासः प्रनृत्तसकलकटकलोकः पुत्रजन्मोत्सवो महान्।

अपरेद्युरारभ्य सर्वाभ्यो दिग्भ्यः स्त्रीराज्यानीवावर्जि-**

विलुंठनपद्धतिरासीदिति गम्यते। प्राया नृपा वणिजां धनदातार इत्यपिकल्पनीयम्।विलसितां, शोभमानानां, खर्वाणां, बधिराणां, श्रोत्रविहीनानां, वृंदेः, समूहैर्वेष्टिता, वृद्धधात्र्याजरत्य उपमातृ‌का, बहुभिरनेकैर्यातकंवत्ले व्याकुला जातमातृदेवता अपत्यरक्षकदेवता इव ननृत्रुः। प्रसूतिगृह बहुबलपरिवृता देवी पाषाणखंडेतंडुलमयीरक्षार्थमधुनापि स्थाप्यते। प्रावर्ततेति-विगता नष्टा राजकुलस्य नृपगृहस्यस्थितिर्मयांदा यस्मिन्सः। अधःकृतातिरस्कृतावमानितत्यर्थः, प्रतीहारस्य दोवारिकस्याकृतिर्यस्मिन्सः। निर्दोषोऽनिवारिताऽन्तःपुर प्रवेशो यस्मिन् सः। समौस्वामिपरिजनौसव्यसवकौयस्मिन्सः। निर्गता विशेषां येभस्ते निर्विशेषास्तथा बालवृद्ध। यास्मन् सः दुर्जया ज्ञातुमशको मत्तामत्तयाः तोवातीबयाः प्रत्रिभाना यस्मिन् सः। तुल्यः, समानः, कुलयवतीना, वेश्वानां च विलासा यस्मिन् सः। कुत्तस्त्रियाप प्रमोदप्रमत्ता वश्या इव विलासान प्रकटयामासुरित्यर्थः। प्रनृत्ता, नृत्यासक्तः, सकलः, कटकलोकः, सैनिकवर्गो यस्मिन्सः।

अपरेद्युरिति। नृत्यन्ति सामन्तान्तः पुरसइस्त्राण्यदृश्यन्तेति-

तानि, असुरविवराणोवापावृतानि, नारायणावरोधानीव प्रचलितानि, अप्सरसामिव महीमवतीर्णानि कुलानि, परिजनेन पृथुकरण्डपरिगृहीताः स्नानीयचूर्णावकीर्णकुसुमाः सुमनःस्रजः, स्फटिकशिलाशकलशुल्ककर्पूरखण्डपूरिताः पात्रीः, कुङ्कुमाधिवासभाञ्जि भाजनानि च मणिमयानि, सहकारतैलतिम्यत्तनुखदिरकेसरजालजटिलानि चन्दनधवलपूगफलफालीदन्तुरदन्तशफरुकाणि, गुञ्जन्मधुकरकुलपीयमानपरिजातपारिमलानि पाट

संबंधःसर्वाभ्यो दिग्भ्यो निखिलाभ्य आशाभ्य आवर्जितान्यानीतानि स्त्रीराज्यानीव। अपावृतानि विमुक्तान्यसुरविवराणीव। पातालविवरान्नागकन्यान्वगताइमा इति कल्पना। नारायणस्य श्रीकृष्णस्यावरोधान्यन्तःपुराणि बहुसंख्याकत्वात्। परिजनेनेत्यस्य बिभ्राणेनेत्यनेन संबंधः। किं बिभ्राणेनेत्याह। पृथुषु महत्सु करंडेषु समङ्गेषु परिगृहीताः, स्थापिताः, स्नानीयचूर्णेनात्रकीर्णानि, व्याप्रानि कुसुमानि यासां ताः सुमनःस्त्रजः, पुष्पमालाः। स्फटिकस्य शित्ताशकलरित्र शिज्ञाखंडैरिव शुक्लैः शुभैः कर्पूरखंडेः, पुरिताः पात्रीभीजनानि। मणिमयानि रत्त्नमयाति। कुकुमस्य काश्मीरज- स्थाधिवासं संस्कारं भजन्ति तानि भाजनानि, पात्राणि। सहकार- तेलेनाम्म्रतैलेन तिम्यतामाद्रीणां तनूनां, सूक्ष्माणां, खदिरकेसराणां जालेन समूहेन जटिलानि व्याप्तानि। चन्दनमिव, धवलानि, शुत्राणि, पूगीफलानि फाल्यः कार्यामवस्त्राण्याच्छादनार्थं स्थापितानीत्यर्थस्ताभिर्दन्तुराणि नतोन्नतानि दन्तशफरुकाणि करिदन्तकृता; समुद्रकाः। गुंजत्ता सशब्देन मधुकरकुलेन भ्रमरसमूहेन पीयमानःप्रदृश्यमानः पारिजातस्य सुगन्धिव्यविशेषस्य परिमलो येषां तानि पाटलानीषद्रक्तानि पटलकानि पिटकानि।

लानि पोटलकानि (पटलकानि) च, सिन्दूरपात्राणि च, पिष्टातकपात्राणि च, बाललतालम्बमानविटकवीटकांश्च ताम्बूलवृक्षकान्बिभ्राणेनानुगम्यमानानि चरणनिकुट्टनरणितमणिनूपुरमुखरितदिङ्मुखानि नृत्यन्ति राजकुलमागच्छन्ति समन्तात्सामन्तान्तःपुरसहस्राण्यदृस्यन्त।

** शनैः शनैर्व्यजृम्भत च व्कचिन्नृत्तानुचितचिरन्तनशाली नकुलपुत्रकलोकलास्यप्रथितपार्थिवानुरागः, क्वचिदन्तःस्मितक्षितिपालापेक्षितक्षीबक्षुद्रदासीसमाकृष्यमाणराजवल्लभः,**

‘पटलं तिलके नेत्ररोगे छदिपि संचये। पिटके परिवारे च इति’ हैमः। सिन्दूरपात्राणि रक्तचूर्णपात्राणि। पिष्टातकस्य कृष्णवर्णस्थ सुगंधिद्रव्यस्य, पात्राणि। बाललतासु लंबमाना विटकवीटकाः पंचाशत्पर्णमयास्तांबूला येषां तान् तांबूलवृक्षान्। विभ्राणेन धारयता परिजनेन सेवकेनानुगम्यमानान्यनुस्त्रियमाणानि। चरणैः यन्निकुट्टनं ताडनं तेन रणितैः शब्दं विदधद्भिर्नुपुरैर्मुखरितानि शर्द्धायितानि दिङ्‌मुखानि यैस्तानि। राजकुलं, राजगृहम्।

शनैरिति। उत्सवामोद उत्सवस्य हर्षोव्यजुंभतावर्धत। क्वचिदेकत्र नृत्तस्य नर्तनस्यायोग्यश्चिरंतनः परं परागतः शालीनोऽधृष्टः कुलपुत्रकाणां लोकः समूहस्तस्य लास्येन नृत्येन प्रथितः स्पष्टः पार्थिव्यःपृथ्व्या ईश्वरस्य प्रतापवर्धनस्यानुरागः प्रेम यस्मिन्सः। अन्तः स्मितं हास्यं यस्य तेन क्षितिपालेन नृपेण उपेक्षितः अवज्ञां प्रापितः क्षीबया मत्तया क्षुद्रदास्यासमाकृष्यमाणो राजबल्लभो राजप्रियजनो यस्मिन्सः। नृपस्मितप्रेरिता क्षुद्रदासी राजवल्लभं समाकृष्टवतीत्यर्थः। मत्तानां कटककुट्टिनीनां सेनावश्यानां कंठेषु गलेषु लग्नानां समासक्तानां वृद्धानां जरठानामार्याणां श्रेष्ठानां

क्वचिन्मत्तकटककुट्टनीकण्ठलग्नवृद्धार्यसामन्तनृत्तनिर्भरहसितनरपतिः, क्वचित्क्षितिपाक्षिसंज्ञादिष्टदुष्ट-दासेरकगीतसूच्यमानसचिवचौर्यरतप्रपञ्चः, क्वचिन्मदोत्कटकुटहारिकापरिष्वज्यमान-जरत्प्रव्रजितजनितजनहासः, क्वचिदन्योन्यनिर्भरस्पर्धोद्धुरविकटचेटकारब्धावाच्यवचनयुद्धः, क्वचिन्नृपाबलाबलात्कारकृष्टनर्त्यमाननृत्तानभिज्ञान्तः पुरपालभावितभुजिष्यः, सपर्वत इव कुसुमराशिभिः, साधारगृह इव सीधुप्रपाभिः, सनन्दनवन इव पारिजातकामोदैः सनीहार इव कर्पूररेणुभिः, साट्टहास इव

सामन्तानां मंडलाधिपानां नृत्तेन निर्भरमतिशयितं हसितो नरपतिर्यस्मिन्सः। क्षितिपालेन नृपेणाक्षिसंज्ञया नेवसूचनया आदिष्ट आज्ञापितो दुष्टो दासेरको दास्याः पुत्रस्तेन गीतेन गानेन करणेन सृच्यमानः कथ्यमानः, सचिवस्य, चौर्यरतस्य गुप्रक्रीडाया अर्थात्पर नारीगमनस्य, यस्मिन्सः, प्रपंचो विस्तारो, उपरितनवर्णनेन तदानीं सचिवादयो न शुद्धाचाराः सेनायां च वेश्यास्थापनपद्धतिरासीदिति ज्ञायते। मदेनोत्कटया व्याप्तया कूटहारिकया कुम्भदास्या परिष्वज्यमान आलिंग्यमानो जरन्बृद्धः प्रव्रजितःसन्यासी तेन जनित उत्पादितो जनहासो लोकहास्यंयस्मिन्सः। अन्योऽन्यस्य परस्परस्यनिर्भरयाऽतिशयया स्पर्धया उद्धराउल्लासिताश्वेटका गायकवेश्यादीनांपरिचिताः जनास्तेषां पेटकेन समूहेनारब्धं प्रारधम् अवाच्य वचनैर्गालभिर्युद्धंबाक्कलहो यस्मिन्सः। पेटकः पुस्तकादीनांमंजूषायां कदंबक इति मेदनी। नृपाबलाभिः नृपतिदासीभिः काभिश्चित वलात्कारेषण हठन नर्त्यमाना नृत्यानभिज्ञाः नृत्यापरिचिताः अन्तःपुरपाला अन्तःपुररक्षकाः तैः भाविताः प्रोणिताः भुजिष्या दास्या यस्मिन्सः। सीधुप्रपाभिर्मद्यपानायशालाभिः सधारागृहइव,

पटहरवैः, सामृतमथन इव कलकलैः, सावर्त इव रासकमण्डलैः, सरोमाञ्चइव भूषणमणिकिरणैः, सपट्टबन्ध इव चन्दनलहलाटिकाभिः, सप्रसव इव प्रतिशब्दकैः, सप्ररोह इव प्रसाददानैरुत्सवामोदः ।

** स्कन्धावलम्बमानकेसरमालाः काम्बोजवाजिन इवास्कन्दन्तः, तरलतारका हरिणा इवोड्डीयमानाः, सगरसुता इव खनित्रैर्निर्दयैश्चरणाभिघातैर्दारयन्तो भुवम्, अनेकसहस्रसंख्या-**

धारागृहैर्यत्रगृहैः सहित इव कर्पूररेणुभिः कर्पूरपरागैः सनीहार इव हिममय इव। शैत्यशुभ्र-युतत्वात्कर्पूरस्याभयधर्मत्वात्। पटहानामानकानां रखैः, शत्रूः अट्टहासनाच्चैहोस्येन सहित इव कलकलैः कोलाहलेर मृतः मथनेन सहित इव। उच्चैःशद्बवत्वात्। रासकं गोपानां वर्तुलाकारोनृत्यविशेषः आवर्तेभ्रमिभिः सहित इवभूषण मणीनामलंकाररत्नानां किरणैर्मयूखैःसरोमाञ्च रोमांचैरोमोन्द्गमैः सहित इव। दन्तुराकारत्वादिति भावः। चंदनस्य मलयजस्य ललाटिकाभिर्ललाटालंकारैःपट्टबंधेन शिरोवेष्टनेन सहित इव। चंदनेन शुभ्रत्वाल्ललाटस्य। प्रतिशद्बकैः प्रतिध्वनिभिः। प्रसाददानैरनुग्रहदानैः सप्ररोह इव सांकुर इव। अनुग्रहेण दत्ताः पदार्था उत्सवामोदस्यांकुरा इति कल्पना।

स्कन्धेति-युवानश्चिक्रीडुरित्यन्वयः। तान्यूनो विशिनष्टि। स्कन्धेष्ववलंबमानाः केसरमालाः, बकुलस्रजःस्कन्धस्थाः केशा वा येषां ते। आस्कन्दन्त, उड्डीयमानाः, कांबोजवाजिनः, कांबोजाख्यस्य हिमवदुत्तरस्य काशमीरात्प्राचीनस्य, देशस्याश्वा इव। ‘आस्कन्दितकमित्यपि। उत्प्लुत्योत्प्लुत्य गमनं कोपादेवाखिलैः पदैः’ इति हैममाला। सगरपुत्राः खनित्रैरिव निर्दयैर्दयारहितैश्च रणाभिघातैः,

श्चिक्रीडुयुवानः। कथमपि तालावचरचारणचरणक्षोभंचक्षमेक्षमा,क्षितिपालकुमारकाणां च खेलतामन्योन्यास्फालैराभरणेषु मुक्ताफलानि फेलुः। सिन्दूररेणुना पुनरुत्पन्नहिरण्यगर्भगर्भशोणितशोणाशमिव ब्रह्नाण्डकपालमभवत्। पटवासपांसुपटलेन प्रकटितमन्दाकिनीसैकतसहस्रमिव शुशुभे नभस्तलम्। विप्रकीर्यमाणपिष्टातकपरागपिञ्जरितातपा भुवनक्षोभविशीर्णपितामहकःमलकिञ्जल्करजोराजिरञ्जित इव रेजुर्दिवसाः। संघट्टविघटितहारपतितमुक्ताफलपटलेषु चस्खाल लोकः।

स्थानस्थानेषु च मन्दमन्दमास्फाल्यमानालिङ्ग्यकेन शिञ्जान-

पादताडनैर्भुवं वसुधां दारयन्त इवखनन्त इव। अनेकसहस्रसंख्या धसंख्याता इत्यर्थः। क्षमा पृथ्वी तालैरवचरन्ति भ्रमन्ति ते च ते चारणा बंदिनस्तेषां चरणक्षोभं चक्षमे विषेहे। आभरेणेष्वलंकारेषु, अन्योन्यास्फालनैः परस्पर संघर्षणैः। पुनरुत्पन्नः पुनर्जातोहिरण्यगर्भो ब्रह्मा तस्यगर्भस्य भ्रूणस्य शोणितै रक्तैः शोणास्ताम्रा आशा दिशा यस्य तत् पटवासस्य पिष्टातस्य पांसून् रजसां पटलेन समूहेन प्रकटितंव्यक्तत्यया दर्शितं मन्दाकिन्याः स्वर्गगंगाया सैकतसहस्त्र पुलिनसहस्रंयेन तदिव। विप्रक्रीर्यमाणस्य क्षिप्यमाणस्य पिष्टातकस्यसुगन्धिद्रव्यविशेषस्य “अर्गजा’ इति भाषायां प्रसिद्धस्य परागैर्धूलिभिः पिंजरितः पीतवर्णीकृत आतपः प्रकाशो येषां ते दिवसा भुवनस्य जगतः क्षोभेन सञ्चलनेन विशीर्णस्य विदीर्णस्य पितामहकमलस्य ब्रह्मकमलस्य किंजल्करजसांपरागधूलीनां राजिभिः पंक्तिभिः रंजिता इव। सघट्टेन विघटितेभ्यस्त्रुटितेभ्यो हारेभ्यो मुक्तामालाभ्यः पतितेषु मुक्ताफत्तपटलेषु मौक्तिकसमृहेषु।

स्थानस्थानेष्विति। स्थानस्थानेष्वेवंविधैनातोर्थवाद्येनानुगम्य-

मंजुवेणुना झणझणायमानझल्लरीकेण ताड्यमानतन्त्री पटहिकेन, वाद्यमानानुत्तालालाबुवीणेन कलकांस्यकोशीव्कणितकाहलेन समकालदीयमानानुत्तालतालिकेनातोद्यवाद्येनानुगम्यमानाः, पदे पदे झणझणितभूषणरवैरपि सहृदयैरिवानुवर्तमानताललयाः, कोकिला इव मदकलकाकलीकोमलालापिन्यः, विटानां कर्णामृतान्यश्लीलरासकपदानि गायन्त्यः, समुण्डमालिकाः, सकर्णपल्लवाः, सचन्दनतिलकाः, समुच्छ्रिताभिर्वलयावलीवाचालाभिर्बाहुलतिकाभिः सवितारमिवालिङ्गयन्त्यः मकुंकु-

मानाः पण्यविलासिन्यःप्रानृत्यन्निति संबन्धः। मन्दं मन्दं शनैः शनैरास्फाल्यमान स्ताड्यमाना आलिंग्या लघुमृदङ्गाः (तबला) प्रसिद्धा यस्मिंस्तेन। शिंजाना मधुरं नदन्तः मन्जवोमनाज्ञा वेणवोमुरल्यो यस्मिंस्तेन। झणझणायमाना झणझणेतिशद्बंविदधत्यो झल्ल्यो (झांज) इति भाषायां प्रसिद्धायस्मिंस्तेन। ताड्यमानास्तंत्र्योबीणाः पटहि का लघ्वी भेर्यो यम्मिंस्तेन। वाद्यमाना अनुत्ताला मधुरशद्बाअलाबुवीणा यस्मिंस्तेन। कलंमधुरं कांस्यकोश्यां कांस्थमये वाद्यपृष्ठभागे क्वणितः सशद्वःकाहलः कर्णा’ इतिभाषायां प्रसिद्धो यस्मिंस्तेन। समकालं दीयमाना अनुत्तालाअनुत्कटा ताना यस्मिंतेन। आतोद्येवाद्यन चतुर्विधवाद्येनानुगम्यमानाः। पदे पदे इति। झणझणितानां तथा शब्दं विदधतां भूषणानामलंकाराणां रवैः शद्वैरपि सहृदयैर्गानाभिज्ञैरनुवर्तमानौ ताललयौ यासां ताः। मदेन कला मधुरा काकली कोमलध्वनिस्तयामधुरमालपन्ति गायन्ति ताः। विटानां स्वाश्रितानां नीचानां कर्णामृतानिकर्णयोः श्रोत्रयोरमृतसदृशान्यश्लीलान्यवाच्यानि रासकपदानि गोपनृत्यपदानि। समुण्डमालिका मुण्डे शिरसि पुष्ष-

प्रमृष्टिरुचिरकायाः काश्मीरकिशोर्य इव वल्गन्त्यः, नितम्बबिम्बलम्बिविकटकुरण्टकेशेखराः प्रदीप्ता इव रागाग्निना, सिंदूरच्छटाच्छुरितमुखमुद्राः, शासनपट्टपङ्क्तय इवाप्रतिहतशासनस्य कन्दर्पस्य, मुष्टिप्रकीर्यमाणकर्पूरपटवासपांसुला मनोरथसंचरणरथ्या इव यौवनस्य, उद्दामकुसुमदामताडिततरुणजनाः प्रतीहार्य इव तरुणमहोत्सवस्य, प्रचलत्पत्रकुण्डला

मालिकास्ताभिः सहिताः। समुच्छ्रिताभिरूर्ध्वंविधृताभिर्वलयानां कंकणानामवलीभिः, पंक्तिभिर्वाचालाभिर्वाचाटाभिर्बाहुलतिकाभिर्हस्तैः। लतिकाशब्दोबाडुकोमलतां व्यंजयति। कुङ्कमेन प्रमृष्टिः परिमार्जनं विलेपनमिति यावत् तया रुचिरः सुन्दरः कायः शरीरं यासां ताः। वल्गन्त्यो मनोहराः काश्मीरेषु बालिकाः कुङ्कमस्थलीषुलुंठनत्सुन्दरकाया दृश्यन्ते तद्वदिमा इति भावः। नितम्बबिंबेषुलंबते ते तदृशा विकटा विशालाः कुरण्टकशेखरा अम्लातपुष्पगुच्छा यासां ताः। रागाग्निनाऽनुरागवन्दिना प्रदीप्ताइव । अम्लातपुष्पाणां रक्तवर्णत्वात्। सिन्दूरछटाभीरक्तवर्णचूर्णसमूहैश्छुरिता व्याप्ता मुखमुद्रा यासां ताः। अतएव प्रतितमनिरोधं शासनमाज्ञा यस्य तस्य कन्दर्पस्य मदनस्य शासनपत्रस्याज्ञापत्रस्य पंक्तव इव। मुद्रितमुखत्वमुभयोः साधारण्यमिति भावः। अन्ञ्जलिभिः- हस्तसंपुटैः प्रकीर्यमयोन क्षिप्यमाणेन कर्पूरपटवासेन कर्पूरमिश्रितेन सुगन्धिचूर्णेन पांसुला धूलिव्याप्ताः कर्पूरचूर्णपांसुयुक्ता इत्यर्थः, यौवनस्य तारुण्यस्त्र मनोरथल्य स्पृहायाः संचरणस्य गमनस्य वीथ्यो मार्गा इव। मार्गा यथा वालुकाकव्याप्तास्तद्वदिमाः कर्पूरकाव्याप्ता इत्यर्थः। उद्दामं सातिशयं कुसुमदामभिः,

लसन्त्यो लता इव मदनचन्दनद्रुमस्य, ललितपदहंसकरवमुखराः समुल्लसन्त्यो वीचय इव शृङ्गाररससागरस्य, वाच्यावाच्यविवेकशून्या बालक्रीडा इव सौभाग्यस्य, घनपटहरवोत्कण्टकितगात्रयष्टयः केतक्य इव कुसुमधूलिमुद्गिरन्त्यः, आविष्टा इव नरेन्द्रवृन्दपरिवृताः, प्रीतय इव हृदयमपहरन्त्यः, गीतय इव रागमुद्दीपयन्त्यः, पुष्टय इवानन्दमुत्पादयन्त्यः, मदमपि मदयन्त्य इव, रागमपि

पुष्पस्रग्भिग्ताडितास्तरुणजनायाभिस्तस्तरुणामहोत्सवस्यतरुणस्य नूतनस्य शूनां त्रा महोत्सवस्य प्रतीहार्य इव। प्रतीहार्योऽपि स्वयष्टिभिर्जनांस्ताडयन्ति। प्रचलन्ति नृत्य वशाच्चचलानि पत्राकाराणि कुण्डलानि कर्णभूषणानि यासां ताः। (पक्षे) प्रचलन्ति पत्राण्येव कुण्डलानि पल्लवरूपाणिकर्याभूषणानि यासां ताः। ललितेषु रमणीयपु पदेषु चरणेषु ये इंसकाः नुपुरास्तेषां वेया शदून मुखराः सशब्दाः। यद्वा ललितानि पदाति यासां ताश्च ता हंसकरवमुत्वराश्च। (पक्ष) ललितपदानां इसकानां हंसानां रखेगा मुखराः। मो भाग्यम्य सुभगनाया व च्यावाच्य- यार्विकको विचारस्तेन शून्या बालकीडा इव। घनेन दृढेन पटहरवेणमेरीनिनादेन उत्कंटकिता समुद्रतरोमांचोगात्रयष्टयोयासां ताः। दिवसम् उत्फुल्लं प्रफुल्लमाननं मुखंयासां ताः। कमलिनीनां कमलरूपाणि मुखानि दिवसं विकसितानि भवन्ति कुमुदिन्य इव कैरविण्य इव रात्रावनुपजाता अनागता निद्रा यासांताः। कैरविण्य आसूर्योदयमसंकुचिता एतासामपि क्रीडासक्ततया निशायां निद्राभाव इति भावः।आविष्टा इव पिशाचग्रस्ता इव।

रञ्जयन्त्य इव, आनन्दमपि आनन्दयन्त्य इव, नृत्यमपि नर्तयमाना इव, उत्सवमप्युत्सकयंत्यइव, कटाक्षितेषु पिवंन्त्य इवापाङ्गशुक्तिभिः, तर्जनेषु संयमयंत्यइव नखमयूखपाशैः, कोपाभिनयेषु ताडयंत्य इव भ्रूलताविभागैः, प्रणयसंभाषणेषु वर्षन्त्य इव सर्वरसान्, चतुरचङ्क्रमणेषु विकिरंत्यइव विकारान्, पण्यविलासिन्यः प्रानृत्यन्।

** अन्यत्र वेत्रिवेत्रवित्रासितजनदत्तान्तरालाः ध्रियमाणधवलातपत्रवना वनदेवता इव कल्पतरुतलविचारिण्यः काश्चित्स्कन्धोभयपालीलम्बमानलम्बोत्तरीयलग्नहस्ता लीलादोलाधिरूढा इव प्रेङ्खन्त्यः, कैश्चित्कनककेयूरकोटिविपाट्यमानपट्टांशुकोत्तरङ्गा-**

नरेन्द्रवृन्देन भूपसमूहेन मांत्रिकसमूहेन वा परिवृता वेष्टिताः। मदमपि मदयन्त्य इव। मदेनान्या मत्तो भवति स तु इमा आश्रित्योन्मत्तः। रागोऽनुरागो हिंगुलादिश्च। रोगाऽन्यान् रंजयति इमास्तु तमपि रंजयन्ति। चतुरेषु मनोहरेषु चंक्रमणेषु वक्रगमनेषु।

अन्यत्रेति प्रारब्धं समारब्धं नृत्यं नर्तनं याभिस्ता राजमहिष्यो विलेसुश्चिक्रीडुः। कथंभूता इत्याह। वेत्रिभिः कञ्चुकिभिः कर्तृभिर्वेत्रैर्हस्तयष्टिभिः करणैर्वित्रासिताः पीडिताजनास्तैर्दत्तोऽन्तरा- लोऽवकाशो यासां ताः। ध्रियमाणमुह्यमानं धवलानां शुभ्राणामातपत्राणां छत्राय्यां वनं समूहो यासां ताः (वनशब्दो लक्षणया समूहवाची) कल्पतरूणां देववृक्षाणां तलेषु विचरन्ति तच्छीला वनदेवता इव। शुभ्रपर्णत्वात्कल्पतरूणां छत्रसाम्यम्। स्कन्धानामुभयपालीषुकोटिद्वयेषु लम्बमानानि लम्बानि दीर्घाण्युत्तरीयाणि प्रावारकास्तेषु लग्नाः संसक्ताः। लीलायाः क्रीडायाः दोलायामधिरूढा इव। प्रखंत्य इतस्ततो गच्छंत्यः। कनकस्य सुवरर्णस्य

स्तरङ्गिण्य इव तरच्चक्रवाकसीमन्त्यमानस्रोतसः, काश्चिदुद्धूयमानधवलचामरसटालग्न-त्रिकण्टकवलितविकटकटाक्षाः सरस्य इव हंसाकृष्यमाणनीलोत्पलवनाः, काश्चिच्चलच्चरणच्युतालक्तकारुणस्वेदशीकरसिच्यमानभवनहंसाः, संध्यारागरज्यमानेन्दुबिम्बा इव क्ॐउदीरजन्यः, काश्चित्कण्ठनिहितकाञ्चनकाञ्ची-

केयूराणामङ्गदानां कोटिभिरग्रभागैः पाख्यमानाः तरङ्गा इव पट्टांशुकानि पट्टांशुकतरङ्गाः तरङ्ग सदृशानि चञ्चलानि श्रेष्टवस्त्राणि यासां ताः। तरद्भिश्चक्रवाकैःसीमंत्यमानानि विभज्यमानानि, स्रोतांसि यासां तास्तरंगिण्या नद्य इत्र। कनकांगदानां चक्रवाकसाम्यंपाट्यमानवस्त्राणां द्विधाक्रियमाणप्रवाहसाम्यम्। उध्दूयमानासु वार्यमाणासु धवलासु शुभ्रासु चाम…सटासु चामराग्रेषु लग्नेन संसक्तेन त्रिकंटकेन कर्णाभरणेन वलिता वक्रीकृता विकटाः, विशालाः, कटाक्षाः, यासां ताः। ‘त्रिकटकस्तु त्र्यश्रः स्यात्त्रिभीरत्नैश्च भूषणम्’। हंसैराकृष्यमाणानि, नीजोत्पलवनानि, यासां ताः सरस्य इव। यथासरसीषुहंसाः कमलान्याकर्षन्तितद्वत्त सदृशैषुयुवतिषु हंसदृशाश्चामरसटाः कमलसदृशानि नयनान्याकषति। रत्नमयत्रिकटकपदोपादानेन हंसचबुर्व्यज्यते रक्तवर्णत्वादिति दिक्। चलद्भयश्चरणेभ्यश्चयुनैर्गजितैर लक्त के नामयणैस्ताम्रैः स्वेदशी- करैर्घर्मबिन्दुभिः सिच्यमाना भवनहंसाः, याभिस्ताः। संध्यारागेण रज्यमानमिंंदुबिंबं याभिस्ता रजन्यो रात्रय इव। चन्द्रसदृशान् श्वेतान् गृहहंसान् संध्यारक्तिम्नेवारुणितघर्मबिंदुभिर्ज्यौत्स्न्य इवेमा रंजयन्तीत्यर्थः। कामवागुरामदनजालानीव। प्रसारिनबाहुपाशस्य वागुरासाम्यम्। कंठेषु निहितेःस्थापितैः कांचनकांचीगुणैःसुवर्णमेखलादामभिरंचितानां नम्राणां कंचुकिनां कंचुकानि चूलिका

गुणाञ्चितकञ्चुकिविकाराकुञ्चितभ्रुवः कामवागुरा इव प्रसारितबाहुपाशा राजमहिष्यः प्रारब्धनृत्ता विलेसुः।

** सर्वतश्च नृत्यतः स्त्रैणस्य गलद्भिः पादालक्तकैररुणिता रागमयीव शुशोणक्षौणी। समुल्लसद्भिः स्तनमण्डलैर्मङ्गलकलशमय इव बभूव महोत्सवः। भुजलताविक्षेपैर्मृणालवलयमय इव रराज जीवलोकः। समुल्लसद्भिर्विलासस्मितैस्तडिन्मय इवाक्रियत कालः। चञ्चलानां चक्षुषामंशुभिः कृष्णसारमया इवासन्वासराः। समुल्लसद्भिः शिरीषकुसुमस्तबककर्णपूरैः शुकपिच्छमय इव हरितच्छायोऽभूदातपः। विस्रंसमानैर्धम्मिल्लतमालपल्वैः कज्जलमयमिवालक्ष्यतान्तरिक्षं। उत्क्षिप्तैर्हस्तकिसलयैः कमलिनीमय्य इव बभासिरे सृष्टयः माणिक्येन्द्रायुधानामर्चिषा चार्षिपत्रमया इव चकाशिरे रविमरीचयः। रणतामाभरणगणानां प्रतिशब्दकैः किङ्किणीमय्य इव शिशिञ्जिरे दिशः। जरत्योऽप्युन्मादिन्य इव रमण्यो रेणुः। वर्षीयांसोऽपि ग्रहगृहीता इव नापत्रेपिरे। विद्वांसोऽपि मत्ता इवात्मानं**

विद्यन्ते येषां तेषांस्तनानां विकारैराकुंचिताःसंकुचिता भ्रुवोभ्रूकुट्यो यासां ताः। वस्त्रधारणवेलायांकांचीगुणस्यकंठे धारणं स्त्रीसंप्रदायः। यद्वा कंचुकिनां प्रतिहारिणामित्यर्थोग्राह्यः।

सर्वतश्चेति।स्त्रैणस्यस्त्रीसमूहस्य।क्षाणी, पृथ्वी, शुशोण, रक्तवर्णा बभूव। विलासस्मितैर्लीलाहास्यैः कालः समयः कृष्णवर्णश्च। तडिन्मयइव विद्युन्मय इव। हास्यस्य शुभ्रत्वं कविसमयानुरूपमतः शुभ्रनडिन्मयत्वमुत्सवकालस्य वणितमनुचितमिवावभाति। सितायास्तडितो दुर्भिक्षत्वसूचकत्वात्। ‘दुर्भिक्षाय सिता भवेत्’ इति महाभाष्यवचनात्। विस्रंसमानैर्गलद्भिर्नृत्यवेशादिति

विसस्मरुः। निनर्तिषया मुनीनामपि मनांसि विपुस्पुलुः । सर्वस्वं च ददौ नरपतिः। दिशि दिशि कुबेरकोषा इवालुप्यन्त लोकेन द्रविणराशयः।
एवं च वृत्ते तस्मिन्महोत्सवे, शनैःशनैः पुनरप्यतिक्रामति काले, देवे चोत्तमाङ्गनिहितरक्षासर्षपे, समुन्मिषत्प्रतापाग्निफुलिङ्ग इव, गोरोचनापिञ्जरितवपुषि, समभिव्यज्यमानसहजक्षात्रतेजसीव, हाटकबद्धविकटव्याघ्रनखपङ्क्तिमण्डितग्रीवकेहृदयोद्भिद्यमानदर्पाङ्कुर इव, प्रथमाव्यक्तजल्पितेन सत्यस्य शनैःशनैकरोङ्कारमिवकुर्वाणे, मुग्धस्मितैः कुसुमैरिव मधुकरकुलानि बन्धुहृदयान्याकर्षति, जननीपयोधरकलशपयःसीकलरसेकादिव जायमानैर्विलासहसिताङ्कुरैर्दर्शनकैरर्लक्रियमाणमुखकमलके, चारि-

भावः। धम्मिलस्य संयतकशानाम्। माणिक्येन्द्रायुधानां शरीरे धृतरत्नोद्भूतेंद्रधनुषाम अचिषाप्रभया। किंकिणीमय्यः क्षुद्रघंटाप्रचुराः। शिशिंजिरे मधुर शब्दमकुर्वन्। निनर्तिषया नृत्येच्छया। नृत्यतेःसनि।

एवमिति। यशोवती राज्यश्रियं नारायणमूर्तिर्वसुधामिव गर्भेण आधत्तेति संबंधः। देवे चेत्यादीनां हर्ष इत्यनेन संबधः। उत्तमांगे मूर्धनि निहिता रक्षायैसर्षपायस्यतस्मिन्। अधुनापि शैत्यादिवातविकारपरिहरणाय सर्पपोपयागः क्रियते। समुन्मिषतः प्रज्वलिष्यतः प्रतापाग्नेर्यशोवन्हेर्विम्फुलिंग इव। सर्षपस्य विस्फुलिंगसाम्यम्। गोरोचनया, गोपित्तेन, पिजरितं, पिशंगीकृतं, वपुः, शरीरं, यस्य, तस्मिन् गोरोचनायाः क्षात्रतेजःसाम्यम्। पीतवर्णत्वात्। हाटके सुवर्णो, बद्धानां, खचितानां, विकटानां वक्राणां व्याघ्रनखानां पंक्त्या राज्या मंडिता, भूषिता, ग्रीवा कंधरा यस्य तस्मिन्। व्याघ्रनखानां वक्र-

त्र इवान्तः पुरस्त्रीकदम्बकेन पाल्यमाने, मन्त्र इव सचिवमण्डलेन रक्ष्यमाणे, वृत्त इव कुलपुत्रकलोकेनामुच्यमाने, यशसीवात्मवंशेन संवर्ध्यमाने, मृगपतिपोत इव रक्षिपुरुषशस्त्रपञ्जरमध्यगते, धात्रीकराङ्गुलिलग्ने पञ्चषाणि पदानि प्रयच्छति हर्षे, षष्ठं वर्षमवतरति च राज्यवर्धने देवी यशोवती गर्भेणाधत्त नारायणमूर्तिरिव वसुधां देवीं राज्यश्रियम्।
पूर्णेषु च प्रसवदिवसेषु दीर्घरक्तनालनेत्रामुत्पलिनीमिव सरसी, हंसमधुरस्वरां शरदमिव प्रावृट्, कुसुमसुकुमारावयवां वनराजिमिव मधुश्रीः, महाकनकावदातां वसुधारामिव द्यौः, प्रभावर्षिणीं रत्नजातिमिव वेला, सकलजननयनानन्दका-

त्वाद्दर्पांकुरसाम्यं, युक्तमेव। मुग्धैः सुंदरैः स्मितैर्हास्यःकुमुमैर्मधुकरकुलानीव भ्रमरसमूहा इव बंधुहृदयानि आप्तमनांस्याकर्षति। जनन्याः कलशाविवपयोधरौ, स्तनौ, तयोः, पयसा दुग्धस्य शीकरैः कणैः, सेकादिव सिंचनादिव, उदकसेचनादं कुरोप्तत्तिः दंतानां शुभ्रत्वाद्धसितां करत्त्वसाम्यवणनयुक्तमेव चारित्र पातिव्रत्यइव। मृगपतिपोत इव सि‌ंहशिशाविवरक्षिपुरुषाणांशस्त्राण्येवपजरस्तस्यमव्यंगते। धात्र्युपमाता।

पूर्णेष्विति देवीदुहितरं प्रसूतवतीति संबंधः। नालानि नाड्योनेत्रे च नालनेत्रं प्राण्यंगत्वादेकवद्भावः। दीर्घं महद् रक्तं ताम्रंनालनेत्रं यस्याः सा दुहिता ताम् (पक्षे) दीर्घाणि रक्तानि नालानि पद्मदंडा नेत्राणिमूलानि यस्यास्तामुत्पालिनींकमलिनीम्। हंस इव हंसैर्वामधुरः स्वरो यस्यास्ताम्। कुसुमानीव कुमान्येव वा गात्राणि यस्यास्तां वनराजिं वनपंक्तिम्। महाकनकतिलसुवर्णमिति शंकरः तदिवावदाता शुभ्रा। (पक्षे) महाकनकेनावदाता

रिणीं चन्द्रलेखामिव प्रतिपत्, सहस्रनेत्रदर्शनयोग्यां जयन्तीमिवशची, सर्वभूभृदभ्यर्थितां गौरीमिव मेना प्रसूतवती दुहितरम्यया द्वयोः सुतयोरपि स्तनयोरिवैकावलीलतया नितरामराजत।
अस्मिन्नेव तु काले देव्या यशोवत्या भ्राता सुतमष्टवर्षदेशीयमुद्भूयमानकुटिलकाकपक्षकशिखण्डं खण्डपरशुहुङ्काराग्निधूमलेखानुबद्धमूर्धानं मकरध्वजमिव पुनर्जातम्, एकेनेन्द्रनीलकुण्डलाशुश्यामलितेन शरीरार्धेनेतरेण च त्रिकण्टकमुक्ताफलालोकधवलितेन संपृत्तावतारमिव हरिहरयोर्दर्शयन्तम्, पीनप्रकोष्ठप्रतिष्ठितपुष्पलोहवलयं परशुराममिव क्षत्रक्षपणक्षीण-

वसुधारा धनवृष्टिः। भाग्याधिक्यसूचनाय दिवः सुवर्णवृष्टिः, पततोति हि प्रसिद्धिः। वेला समुद्र विकृतिः। शची इंद्राणी। भूभृद्भीराजिभिः पर्वतैश्च। गौरीमिवपार्वतीमिव। एकावलीलताएकयष्टिका मौक्तिकमाला।

अस्मिन्निति। देव्या यशोवत्याभ्राता स्वतनयं भंडिनामानं कुमारयोरनुचरमर्पितवानिति सबंधः। अष्टवर्षदेशीयम् ईषन्न्यृनान्पष्टवर्षाणि यम्यतम्। उद्धूयमानः, कंपमानः, काकपक्षकः, शिखा एव शिखंडोबर्होयस्य तम्। खण्डपरशाोःशिवस्य हुंकाराग्नेर्धूमलेखया धूमराज्याऽनुवद्धाऽनुगतोमूर्धा मस्तकं यस्य तं पुनर्जातंपुनरुद्भूतंमकरध्वमिव मदनमिव । कुमारस्य मदनसाम्यं शिखाया धूमलखासाम्यम्। इंद्रनील कुडत्नस्यांशुभिः किरणैः, श्यामलितेन, कृष्णीभूतेनात्रिकंटकस्य कर्णभूषणस्य मुक्ताभ नानामालोकेन कान्त्याधवलितं शुभ्रीकृतं तेन, संपृक्तावतारमेकीभूतावतारम्, एतेन तदा हरिहरयरेकावतारकल्पनाऽऽसीदिति गम्यते। पीने पुष्टे प्रकोष्ठे

परशुपाशचिह्नितं बालतां गतम्, कण्ठसूत्रग्रथितभङ्गुरप्रवालाङ्कुरं हिरण्यकशिपुमिवोरः काठिन्यखण्डितनरसिंहनखरखण्डंगृहीतजन्मान्तरम्, शैशवेऽपि सवाष्टम्भं बीजमिव वीर्यद्रुमस्य, भण्डिनामानमनुचरं कुमारयोरर्पितवान्।

** अवनिपतेस्तु तस्योपरि पुत्रयोस्तृतीयस्य नेत्रयोरिवेश्वरस्य तुल्यं दर्शनमासीत्। राजपुत्रावपि सकलजीवलोकहृदयानाददायिनी तेन प्रकृतिदक्षिणेन मधुमाधवाविव मलयमारुतेनोपेतौ नितरां रेजतुः। क्रमेणचापरेणेव भ्रात्रा प्रजानन्देन**

कूपरादधः प्रदेशे प्रतिष्ठितं पुष्पलोहस्य मणिविशेषस्यबलयं कटकं यस्य तम्। क्षत्रस्य क्षत्रियजातेः क्षपणेन नाशेन क्षीणस्य परशोरायुधविशेषस्यपाशो धाग्यारज्जुस्तेन चिन्हिता युक्तस्तम। पुष्पलोहवलयं परशुधारणपाशनीक्षितम्। कण्ठसूत्रग्रथितोभंगुरोवक्र प्रवालस्य रत्नविशेषस्यांकुरो यस्यतम्। उरः काठिन्यन बक्षादार्ढ्येनखंडितं नरसिः स्य नखराणां नवानांखडंयन तम्। गृहीतं जन्मान्तरमन्यज्जन्म येन तं हिरण्यकशिपुमित्र प्रल्हादपितरमिव। वक्राणां प्रबालां कुराणां नृतिहनग्वचिन्साम्यम्। शशवेपि बाल्यपि सावष्टंभं सगर्वम्। अतएव वीर्यद्रमस्य पराक्रमवृक्षस्य बीजमिव।

अवनीति। अवनिपतेस्तु तस्योपरि पुत्रयोस्तुल्यं दर्शनमालोकनमासीदिति संबंधः। कथमिव। ईश्वरस्यशंकरस्य तृतीयस्यापरि भालमस्थलोचनोपरि दर्शनं दृष्टिरिव। ईश्वरस्येति नृपविशेपणं च। राजपुत्रापि राज्य वर्जन्हर्षापिप्रकृतिदक्षिणेन निसर्गऋजुना तेन भंडिना रेजतुः शुशुभात। सकलजीवलोकस्य हृदयस्यानंदं दत्तरतौप्रकृतिदक्षिणेन स्वभावसरलेन निसर्गतो दाक्षिणात्येन च मलयमारुतेन वासंतानिलेनोपेत्रोमधुमाधवौचैत्रवैशाखाविव।

सह वर्धमानौ यौवनमवतेरतुः। स्थिरोरुस्तम्भौ च पृथुप्रकोष्ठौ दीर्घभुजार्गलौ विकटोरःकवाटौ प्रांशुशालाभिरामौ महानगरसंनिवेशाविव सर्वलोकाश्रयक्षमौ बभूवतुः।

** अथ चन्द्रसूर्याविव स्फुरज्ज्योत्स्नायशः प्रतापाक्रान्तभुवनावभिरामदुर्निरीक्ष्यौ, अग्निमारुताविव समभिव्यक्ततेजोबलावेकीभूतौ, शिलाकठिनकायबन्धौ हिमवद्विन्ध्याविवाचलौ, महावृषाविव कृतयुगयोग्यौ, अरुणगरुडाविव हरिवाहनविभक्तशरीरौ, इन्द्रोपेन्द्राविव नागेन्द्रगतौ, कर्णार्जुनाविव**

महतार्नगरयोःसन्निवेशाविव स्थाने इव सर्वलाकानामाश्रयस्याधारस्यक्षमौ समर्थौ। स्थिरौस्तम्भाविचोरूययौस्तौ(पक्षे) स्थिरा उरवो महान्तः स्तंभा ययोस्तौ। पृथू महान्तौप्रकोष्ठो कूर्मू राधा- भागौ ययोस्तो (पक्षे) पृथवो महान्तः प्रकोष्ठः कक्ष्या ययास्तौ। विकटं विशालमुरःकवाटं वक्षः फलि का ययोस्ती (पक्षे) विकटान्युर इव कवाटानि द्वाराणि ययोक्तौ। प्रांशु सालौवृत्तविशेषविवाभिरामौ सुन्दरौ(पक्षे) प्रांशुनोन्नतेन सालेन वप्रेणाभिरामौ।

अथेति। तौस्वल्पीयसापि कालेन द्वीपांतरेष्वप्ययद्वीपेष्वपि रुथाति प्रसिद्धिं जग्मतुरिति संबंधः। स्फुरन्ती ज्योत्स्नेव चन्द्रिकेव, यशः, कीर्तिः, प्रतापः, पराक्रमश्च ताभ्यामाक्रान्तं भुवनतलं याभ्यां तौ। अतएवाभिगमौ सुन्दरौदुर्निरीक्ष्यौदुखला कनीयौ। यशसा सुन्दरौ(प्रतापेन दुर्निरीक्ष्यावित्यर्थः) (पक्षे स्फुरज्जोत्स्नैवयशः प्रताप आतपश्च ताभ्यामाक्रान्तं भुवनतलं याभ्यां तौ। चन्द्रमसो ज्योत्स्न्याभिरामत्वं सूर्यस्यातपन दुर्निरीक्षत्वंच। समभिव्यक्ते तेजस्तैक्ष्ण्यं प्रकाशश्च बलं सामर्थ्यंच ययौस्तौ। अग्निमारुताविव बन्हिसमीरणाविवैकाभूतौपरस्परानुवर्तिनौ मिलि-

कुण्डलकिरीटधरौ, पूर्वापरदिग्भागाविव सर्वतेजस्विनामुदयास्तमयसंपादनसमर्थौ, अमान्ताविवातिमानेनासन्नवेलार्गलनिरोधसंकटे कुकुटीरके, तेजःपराङ्मुखी छायामपि जुगुप्समानौ, स्वात्मप्रतिबिम्बेनापि पादनखलग्नेन लज्जमानौ, शिरोरुहाणामपि भङ्गेन दुःखमवतिष्टमानौ, चूडामणिसंक्रान्तेनापि द्वितीयेनातपत्रेणापत्रपमाणौ, भगवति षण्मुखेऽपि स्वामिशब्देनासुखायमानश्रवणौ, दर्पणदृष्टेनापि प्रतिपुरुषेण दूयमाननयनौ, संध्याञ्जलिघटनेष्वपि शूलायमानोत्तमाङ्गौ

तौच। शिलेव शिलाभिर्वाकठिनः कायबधो देहबधो ययोस्तां। अचलौदृढा पर्वतौवा। हिमवान् हिमालयोविंध्याचलो विंध्याद्रिस्ताविव। महावृषाविव महान्तो बलीवर्दाविव कृतयुगस्य योग्यौ(पक्ष) कृत्नायुगस्य धुरोयोग्याऽव्ययनं याभ्यां तौ। अथवा वृषपक्षे कृते परिकल्पिते युगेधुरि योग्यावुचिताबित्यथः। हरिवाहनेनःश्वारोहणेन विभक्तं सुबद्धं सुपरिमाणं शरीरं ययोस्तौ। (पक्षे) हरिश्च हरिश्च हरी कृष्यादिनकरोतयार्बाहन यानंविभक्तं योजित शरीरं देहोययोस्ता। हरिवातार्कचंद्रोद्रयमोपेंद्रमरीचिषु। सिंहाश्वकपिभेकादिशुकलोलांतरेषुच’ इति विश्वः। वागन्द्र इव गजराज इव गतं गमनं ययोस्तौ। (पक्षे) नागेन्द्र ऐरावतः शेषराजश्च ता गर्दा प्राप्तो। कर्णाथ कुन्डले सूर्येण दत्त। अर्जुनस्य शिरांस किरीटो वृत्रन्ना बद्धः। सर्वतेजस्विनां वीराणामादित्यादीनां चाद‌योऽभ्युदय उद्गमनं चास्तो नाशस्तिराभवनं च तत्रसमर्थौ। अतिमानेनात्यंताभिमानेन महाप्रमाणतया चासन्नयाः समीपस्थाया बेलायाः समुद्रमर्यादाया अर्गलरूपाया निरोधेन प्रतिबंधन संकटे सहते। कुरेवपृथ्व्येव कुटीरकंछरद्गृहंतस्मिन् अमान्ताविवावर्तमा-

जलधरधृतेनापि धनुषा दोदूयमानहृद‌यौ, आलेख्य क्षितिपतिभिरप्यप्रणमद्भिः सतप्यमानचरणौ, परिमितमण्डलसंतुष्ट तेजःसवितुरप्यबहुमन्यमानौ, भूभृदपहतलक्ष्मीकं सागरमप्युपहसन्तौ, बलवन्तमकृनविग्रहं मारुतमपि निन्दन्तौ, हिमवतोऽपि चमरीबालव्यजनवीजितेन दह्यमानौ, जलधीनामपि शङ्खैःस्विद्यमानौ चतुःसमुद्राधिपतिमपरं प्रचेतसमप्यसहमानौ, अनपहृतच्छत्रानपि बिच्छायानवनिपालान्कुर्वाणौ, साधुष्वप्यसेवितप्रसन्नौ मुखेन

नाविव (समुद्रमर्यादितायां भुवि महामानवत्वेनातिष्ठन्ताविवेति तात्पर्यार्थः) शिरोरुहाणांकेशानामपि भंगन (कर्तनादाविति भावः चूडामणौ शिरोभुपणे संक्रातेनापि पतितेनापि आतपत्रेण छत्रेण लज्जमानौ (चूडामणिषु प्रतिविषितमपि द्वितीयमातपत्रमस‌मानावित्यर्थः) पण्मुखेपि, कातिकेयेपि, स्वामिशद्रभाजमस्वीकुर्वन्तावित्यर्थः। संध्यार्या संध्योपासने। अंजलिघटनेष्वपि, नमस्कारेष्वपि। दोदूयमानमतिशयेन पीड्यमानं हृदयं ययोस्तौ। आलेख्यनृपतिभिश्चित्रस्थाजभिरप्रणमद्भिरकृतनमस्कारैः संतप्यमानौ कुप्यन्तौ चरणौ पादौ ययोस्तौ, परिमितेन परिगणितेनाल्पेनेत्यर्थः, मंडलेन विषयेणबिंबेन च संतुष्टं सवितुः सूर्यस्यापि तेजोऽबहुमन्यमानौ भूभृतामंरियापहृता लक्ष्मीर्यम्य तं सागरमपि समुद्रमपि अकृतो विग्रदःतमरः। कायश्च येन तम्। मारुतस्य शरीराभावाद्रूपरहितस्पर्शवत्वरूपतल्लक्षणादृशरीरत्वस्य प्रतीतेः। धनपहृतमगृगीतमातपत्रं छत्रं येषां तानपि विच्छायान्मलिनान्। पराजयेनेति भावः। गृहीतातपत्रा अपि विच्छाया इति विरोधः। साधुष्वपि सदाचारेष्वप्य सेवितेन सेवया विना

मधु क्षरन्तौ, दुष्टराजवंशानूष्मणा दूरस्थितानपि म्लानिमानयन्तौ, अनुदिवसं शस्त्राभ्यासश्यामिकाकलङ्कितमशेषराजकप्रतापाग्निनिर्वपणमलिनमिव करतलमुद्वहन्तौ, योग्याकालेषु धीरैर्धनुर्ध्वनिभिरभ्यर्णोपभोगादिग्वधूभिरिवालपन्तौ, राज्यवर्धन इति हर्ष इति सर्वस्यामेव पृथिव्यामाविर्भूतशब्दप्रादुर्भावौ स्वल्पीयसैव कालेन द्वीपान्तरेष्वपि प्रकाशतां जग्मतुः।

** एकदा च तावाहूय भुक्तवानभ्यन्तरगतः पिता सस्नेहमवादीत् — “वत्सौ! प्रथमं राज्याङ्गं, दुर्लभाः सद्भृत्याः। प्रायेण परमाणव इव समवायेष्वनुगुणीभूय द्रव्यं कुर्वन्ति पार्थिव**

प्रसन्नौ मुखेन मधुक्षरन्तौमधुरं भाषमाणौ। साधुपूत्सवकालेष्वप्यसेविता प्रसन्ना मद्यं याभ्यां तथाभूतावपि मुखेन मधु क्षरन्ताविति विरोधः। अथवा साधुषु सतामुपरि असेवितप्रसन्नावपि अपीतमद्यावपि मुखेन मधु क्षरन्ताविति विरोधो ज्ञेयः।

दुष्टेति। ऊष्मणा दाहशक्त्या। तया समीपस्थो म्लानो भवति न तु दूग्स्थ इति विरोधः। शस्त्राणामभ्यासस्य श्यामलकया किणेन प्रथितेन कलंकितं मलिनम् अशेषस्य सकलस्य राजकस्य राजसमूहस्य प्रतापाग्नेः शौर्याग्रेर्निर्वपणेन शमनेन मलिनमिव। वन्हेः शमनेन शांतांगारेणहस्तो मलिनो भवति योग्याया अध्ययनस्य कालेषु। धीरैर्गभीरैर्धनुर्ध्वनिभिर्धनुःशद्वै अभ्यर्णोपभोगात्समीपागतो य उपभोगः सेवारूपस्तस्मात्। आविर्भूतः शद्वाप्रदुर्भावोनामप्रसिद्धिर्ययोस्तौ।

एकदेति। प्रायेण क्षुद्रा नीचा समवायेषु समूहेषु अर्थान्मंत्रिसभायामनुगुणीभूय प्रविश्य पार्थिवं नृपं द्रव्यं स्वकरक्री

क्षुद्राः क्रीडारसेन नर्तयन्तौमयूरतां नयन्ति बालिशाः। दर्पणमिवानुप्रविश्यात्मीयां प्रकृतिं संक्रामयन्ति पल्लविकाः। स्वप्ना इव मिथ्यादर्शनैरसद्बुद्धिं जनयन्ति विप्रलम्भकाः। गीतनृत्यहसितैरुन्मत्ततामावहन्त्युपेक्षिता विकारा इव वातिकाः, चातका इव तृष्णावन्तो न शक्यन्ते ग्रहीतुमकुलीनाः मानसे मीनमिव स्फुरन्तमेवाभिप्रायं गृह्णन्ति जालिकाः। यमपट्टिका इवाम्बरे चित्रमालिखन्त्युद्गीतकाः। शल्यं हृदये निक्षिपन्त्यतिमार्गणाः। यतः सर्वैरेभिर्देषाभिषङ्गैरसंगतौ बभुधैपधाभिः परीक्षितौ शुची विनीतौ विक्रान्तावभिरूपौ मालवराजपुत्रौ भ्रातरौ भुजाविव मे शरीरादव्यतिरिक्तौ कुमारगुप्तमाधवगुप्ता-

डनकं कुर्वन्ति (तन्मंत्रिपु स्वप्रवेशं कृत्वा नृपाद्धनं हरन्तीत्यर्थः। यथा परमाणवः सूक्ष्माः अवयवाः समवायेषु तादृशसंबंधष्वनुगुणीभूय घटकीभूय पार्थिवं पृथ्वीसंबंधि द्रव्यं कुर्वन्ति तद्वत्। बालिशा धूर्ताः कुमाराश्च। क्रीडारसेन नर्तयन्तो मयूरतां हास्यत्वम्, कुमाराश्च क्रीडायां मयूरान्नर्तयन्ति। पल्लविका विटाः किसलयानि च। अनुप्रविश्य चित्तं रंजयित्वा आक्रम्य च। आत्मीयां प्रकृति स्वीयं दौरात्म्यं शरीरं च, विप्रलंभका प्रतारका असच्छास्ननिर्मातारो वा वातिका धूर्ता वातजा विकारा वा । तृष्णावतोऽकुलीना ग्रहीतुंन शक्यन्ते तेषां तृष्णायाः कदापि शमनासंभवात् । चातका अपि कौ पृथ्व्यां लीना न भवन्ति खेचरत्वात्तेषाम्। जालिका मायाविनः कैवर्ताश्च। मानसेऽन्तःकरण सरोविशेषे च। स्फुरत्त्मुत्पद्यमानमेवाभिप्रायं स्फुरन्तं चलन्तं मीनं मत्स्यमिव। यमपट्टो धर्मराजप्रकृतियुतः पट्टो विद्यते येषां ते। उद्गीतका उच्चैर्गीतं गानं येषां ते।’ अंबरे आकाशे चित्रमालिखन्त्यसंभाव्यानर्थानारभंते। वस्त्रेच

वस्माभिर्भवतोरनुचरत्वार्थमिमौ निर्दिष्टौ,अनयोरुपरि भवद्भ्यामपि नान्यपरिजन समवृत्तिभ्यां भवितव्यम्, इत्युक्त्वा तयोराह्वानाय प्रतीहारमादिदेश।

न चिराद्द्वारदेशनिहितलोचनौ राज्यवर्धनहर्षौ प्रतीहारेण सह प्रविशन्तम्, अग्रतो ज्येष्ठमष्टादशवर्षवयसं नात्युच्चं नातिखर्वमतिगुरुभिः पदन्यासैरनेकनरपतिसंचरणचलां निश्चलीकुर्वाणमिवोर्वीम्, अनवरताभ्यस्तलङ्घनघनोपचयकठिनमांसमेदुरादूरुद्वयान्निष्पततेवानुल्वणजानुग्रन्थिप्रसूतेन तनुतरजङ्घाकाण्ड-युगलेन भासमानम्, उल्लिखितपार्श्वप्रकाशितक्रशिम्ना मन्दरमिव सुरासुररभसभ्रमितवासुकिकषणक्षीणेन मध्येन लक्ष्यमाणं अतिविस्तीर्णेनीरसा स्वामिसंभावनानामपरिमितानामवकाशमिव प्रयच्छन्तम्, प्रलम्बमानस्य भुजयुगलस्य

चित्रकर्माचरन्ति। अतिमार्गणा अत्यन्त याचकाः दृढ़ाः शराश्च। शल्यं विषाद शंकुं च। सर्वैर्दोषाभिषंगैर्दोषसंपर्कैः। उपधाभिर्भूत्यपरीक्षणोपायैः। अन्यपरिजनसमा इनरसेवकतुल्या वृत्तिर्वर्तनंतया।

** न चिरादित्ति** राज्यवर्धनहर्षौप्रतिहारेण सह प्रविशंतमग्रतोज्येष्ठं कुमारगुप्त पृष्ठतश्चतस्य कनीयांसं माधवगुप्तं दशतुरिति संबंधः। अष्टादश वर्षाणि वयो यस्य तं नातिग्वव नातिवामनं पादन्या सैश्चरणसंक्रमणेननेकेषां नरपतीनां संचरणेन गमनेन चलामुर्वी पृथ्वीं निश्चलीकुर्वाणं स्थिरीकुर्वाणमिव। अनवरतं सततमभ्यस्तेन कृतेन लंघनेनोडानेन गमनेन वा घनो दृढ़ उपचयो वृद्विर्यस्य तस्मादूरुद्वयादंकद्वयाद्। अनुल्वणाया अनुद्धताया जानुग्रंथः। प्रसूतेन जातेन। तनुतरेण सुक्ष्मेण जंघाकांडद्वयेन प्रसृतायुगलेन भासमानं शोभमानम्। उल्लिखिताम्यां तनूभूताम्यां

निभृतललितैर्विक्षेपैरतिदुस्तरं तरन्तमिव यौवनोदधिम्, वामकरकटकमाणिक्यमरीचिगञ्जरीजालिन्या समुद्भिद्यमानप्रतापानलशिखापल्लवयेव चापगुणकिणलेखयाङ्कितपीवरप्रकोष्ठम्, आलोहिनीमुच्चांसतटा-वलम्बिनीमस्त्रग्रहणव्रतविधृतां रौरवीमिव त्वचं कर्णाभरणमणेः प्रभां बिभ्राणम्, उत्कोटिकेयूरपत्रभङ्गपुत्रिकाप्रतिबिम्बगर्भकपोलं मुखं चन्द्रमसमिव हृदयस्थितरोहिणीकमुद्वहन्तम्, अचपलास्तमिततारकेणाधोमुखेन चक्षुषा शिक्षयन्तमिव लक्ष्मीलाभोत्तानितमुखानि पङ्कजवनानि विनयम्, स्वाम्यनुरागमिवाम्लातकमुत्तंसीकृतं शिरसा धारयन्तम्, निर्दयया कङ्कणभङ्गभीतसकलकार्मुकार्पितामिव नम्रतां प्रकाशयन्ततम्, शैशव एव निर्जितैरिन्द्रियैररिभिरिव संयतैः शोभमानम्, प्रणयिनीमिव विश्वासभूमिं कुलपुत्रतामनु-

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पार्श्वाभ्यां कक्षाधोभागाभ्यां प्रकाशितः प्रकटितः क्रशिमा कशता यस्य तेन मध्येन कटिना। सुरासुरैः, रभसेन वेगेन भ्रमितोवासुकिशेषराजस्तेन कषणं घषण तेन क्षीणेन मध्येनोपलक्ष्यमाणं मंदारमिव मंदारपर्वतमिव। अवकाश स्थलमिवप्रयच्छन्तं ददानम्। निभृक्तललितैर्गभीरमनाहरैःवामकरस्य सव्यहस्तस्य माणिक्यकटकस्य माणिक्यवलयस्य मरीचिमंजरीणां किरणानां जालं समूहोविद्यते यस्यास्त्वया चापकिणलेखया चापत्रणचिन्हरराज्या समुद्भिद्यमानस्योद्गच्छतःप्रतापानलस्य सिखापल्लवया शिखापल्लवेनेव। अस्त्रग्रहणंशस्त्रत्वीकारस्तस्य व्रते विधृतां शस्त्राध्ययन कालेंऽगीकृताम् रौरवींमृगसंबंधिनीम्। उत्कोटिकस्योर्ध्वाग्रभागस्य केयूरस्यांगदस्य पत्रभंगपुत्रिका रचनाविशेष उल्लिखिता शालभंजिका तस्याः प्रतिबिम्बंगर्भे मध्ये यस्य तादृशः कपोलो यस्य तन्मुखं हृदयस्थित

वर्तमानम्, तेजस्विनमपि शीलेनाह्लादकेन सवितारमिव शशिनान्तर्गतेन विराजमानम्, अचलानामपि कायकार्कश्येनगन्धनमिवाचरन्तम्, दर्शनक्रीतमानन्दहस्ते विक्रीणानमिव जनं सौभाग्येन कुमारगुप्तम्, पृष्ठतस्तस्य कनीयांसमतिप्रांशुतया गौरतया च मनः शिलाशेलमिव संचरन्तम्, अनुल्बणमालतीकुसुमशेखरनिभेन निर्जिगमिषता गुरुणा शिरसि चुम्बितमिव यशसा, परस्परविरुद्धयोर्विनययौवनयोश्चिरात्प्रथमसङ्गमचिह्नमिव भ्रूसङ्गतकेन कथयन्तम्, अतिधीरतया हृदयनिहितां स्वामिभक्तिमिव निश्चलां दृष्टिं धारयन्तम्, अच्छाच्छचन्दनरसानु-

रोहिणी यस्य तादृशं चंद्रमसमिवोद्वहता। चक्षुषाजातकचनम् लक्ष्म्यश्रिय लाभेनोत्तानितान्युपरि कृतानि मुखानि यैस्तानि। अम्लातकं ताम्रकरंटक पुष्पम्। अतएव तस्थानुरागसादृश्यम्। उत्तंसीकृतं शेखरतां नीतम्। निर्दयं दृढं यदाकर्षणं तेन भङ्गो नाशस्तस्य भीततया भीत्या सकलैः कामुकैधनुर्भिरर्पितां दत्तामिव। कायकार्कश्येन देहदार्ढ्येनाचलानां पर्वतानां गन्धनं मर्दनमिव। दर्शनेनावलोकनेन क्रीतमावर्जितं जनं सौभाग्येन तद्रूपमूल्येनानन्दहस्ते आनन्दरूपक्रेततुर्हस्ते विक्रीणानमिव। अवलोकनेनैव वश्यतां नीतमतएवक्रीतं जनमानन्दभाजं विदधात्यत आनन्दहस्ते विक्रीणीत इत्युक्तम्। विक्रीणान इति रूपं विपूर्वकात्क्रीणातेः “परिव्यवेभ्यः क्रियः” इत्यनेनात्मनेपदे शानचि निष्पन्नम्। तस्य कुमारगुप्तस्य। उन्नतत्वाद्गौरवणत्वाच्च मन शिलाशैलसाम्यम्। अनुल्बणस्याव्यक्तस्य मालतीकुसुमशेखरस्यनिभेन मिषेण निर्जिगमिषता बहिरागन्तुमिच्छुना गुरुणा महता यशसा शिरसि चुम्बितमिव। यशसः शुभ्रत्वाच्छे-

लेपशीतलं संनिहितहारोपधानं वक्षःस्थलमनन्तसामन्तसंक्रान्तिश्रान्तायाः श्रियो विशालं शशिमणिशिलापट्टशयनमिव बिभ्राणम्, चक्षुः कुरङ्गकैर्घोणावंशं वराहैःस्कन्धपीठं महिषैः प्रकोष्ठबन्धं व्याघ्रैः पराक्रमं केसरिभिर्गमनं मतङ्गजैर्मृगयाक्षपितशेषैर्भीतैरुत्कोचमिव दत्तं दर्शयन्तं माधवगुप्तं ददृशतुः।

** प्रविश्य च तौ दूरादेव चतुर्भिरङ्गैरुत्तमाङ्गेन च गां स्पृशन्तौ नमश्चक्रतुः। स्निग्धनरेन्द्रदृष्टिनिर्दिष्टामुचितां भूमिं भेजाते। मुहूर्तं च स्थित्वा भूपतिरादिदेश तौ – “अद्यप्रभृति भवद्भ्यां कुमारावनुवर्तनीयौऽ इति। “यथाज्ञापयति देवः’इति मेदिनीदोलायमानमौलिभ्यामुत्थाय राज्यवर्धनहर्षौ प्रणेमतुः।**

खरसाम्यम् (शेखरेचानुल्बणविशेषणेन तस्य विनीतत्वं व्यज्यते) भ्रमङ्गतकेन विनयेन भ्रोवोरन्तराल धृतैः केशैः। एतेन तदानींभ्रुकुट्योरन्तरालवर्तिनां केशानामच्छेदनरीतिर्मान्यजनेष्वासीदि ज्ञायते। इच्छाच्छस्यातिष्वच्छस्य चन्दनरसस्यानुलेपनेन शीतलं हिमं सन्निहितं स्थापितं हार एव मौक्तिकमा लेवोपधानमुपबों यस्य तत्। अनिन्तप्त्रसन्ख्येपु; साभन्तेषु, प्रतिभूपेषु, सन्त्र न्या सन्क्रमणेन श्रान्तायाः खिन्नायाः श्रिया राजलक्ष्म्या विशालं महत् शशिमणिशिलापट्टमेव चन्द्रकान्तशिलाखण्डमेव शयनम्। घोणा नासिकैव वशो वेणुरुन्नतत्वात्। उत्कोचमिव गुप्तोपहारमिव।

प्रविश्येति। चतुर्भिरंगैर्जानुभ्यां हस्ताभ्यांच। गां पृथ्वीम्। स्निग्धेन प्रेमवता नरेन्द्रेणनृपेण दृष्ट्या निर्दिष्टा दर्शितामुचितां सेवकयोग्याम्। मेदिन्यां पृथ्व्यांदोलायमानाभ्यां मस्तकाभ्याम्। निमेषोन्मेषाविव संकोचविकासाविव।

तौ च पितरम्। ततश्चारभ्य क्षणमपि निमेषोन्मेषाविव चक्षुर्गोचरादनपयान्तावुच्छ्वासनिःश्वासाविव नंक्तन्दिवमभिमुखस्थितौ भुजाविव सततपार्श्ववर्तिनौ कुमारयोस्तौ बभूवतुः।

** अथ राज्यश्रीरपि नृत्तगीतादिषु विदग्धासु सखीषु सकलासु कलासु च प्रतिदिवसमुपचीयमानपरिचया शनैः शनैरवर्धत। परिमितैरेव दिवसैर्यौनवनमारुरोह। निपेतुरेकस्यां तस्यां शरा इव लक्ष्यभुवि भूभुजां सर्वेषां दृष्टयः। दूतसंप्रेषणादिभिश्च तां ययाचिरे राजानः।**

** कदाचित्तु राजान्तःपुरप्रसादस्थितो बाह्यकक्ष्यावस्थितेन पुरुषेण स्वप्रस्तावागतां गीयमानामार्यामशृणोत्।**

“उद्वेगमहावर्ते पातयति पयोधरोन्नमनकाले।
सरिदिव तटमनुवर्षं विवर्धमाना सुता पितरम्’॥५॥

** तां च श्रुत्वा पार्श्वस्थितां महादेवीमुत्सारितपरिजनो**

अथेति—नृत्यं नर्तनं गीतं गानं चादि प्रमुखं यासां तासु विदग्धासु पण्डितासु सखीषुमनोहरासु सकलासु कलासुच। उयचीयमानो वर्धमानः यरिचयो यस्याः सा।

कदाचिदिति—बाह्य कक्ष्यायां प्रासादस्य बहिःप्रकोष्ठे।

उद्वेगेति। अनुवर्षंप्रतिहायनं प्रतिवर्षाकालं च। वर्धमाना सुता कन्या पयोधरयोः स्तनयोः पर्योधराणां मेघानां चोन्नमनस्योद्गमनस्य काले तारुण्ये वर्षाकाले च। पितरं जनकमुद्वेगस्य मानसपीडाया महत्यावर्ते आवर्तने (पक्षे) उद्वेग इव महावर्तेमहत्यंभसां भ्रमे पातयति। कथमिव सरिन्नदी तटं तीरमिव। ‘आवर्तश्चितने वारिभ्रमेचावर्तने पुमान्’ इति मेदि‌नी॥५॥

तांचेति। उत्सारिता दूरीकृताः परिजना येन सः। पार्श्वे

जगाद– “देवि! तरुणीभूता वत्सा राज्यश्रीः। एतदीया गुणवत्तेव क्षणमपि हृदयान्नापयाति मे चिन्ता। यौवनारम्भ एव च कन्यकानाभिन्धनीभवन्ति पितरः संतापानलस्य। हृदयमन्धकारयति मेदिवसमिव पयोधरोन्नतिरस्याः। केनापि कृता धर्म्या नाभिमता मे स्थितिरेयं यदङ्गसंभूतान्यङ्कलालितान्यपरित्याज्यान्यपत्यकान्यकाण्ड एवागत्यासंस्तुतैर्नीयन्ते। एतानि तानि खल्वङ्कनस्थानानि संसारस्य। सेयं सर्वाभिभाविनी शोकाग्नेदहिशक्तिर्यदपत्यत्वे समानेऽपि जातायां दुहितरि दूयन्ते सन्तः। एतद्रथं जन्मकाल एव कन्यकाभ्यः प्रयच्छन्ति सलिलमश्रुबिः साधवः। एत द्भयादकृतदारपरिग्रहाः परिहृतगृहवसतयः शून्यान्यरण्यान्यधिशेरते मुनयः। को हि नाम सहेत सचेतनो विरहमपत्यानां। यथा यथा समापतन्ति दूता वराणां वराकी लज्जमानेव चिन्ता तथा तथा नितरां प्रविशति मेहृदयं। किं क्रियते। तथापि गृहगतैरनुगन्तव्या एव लोकवृत्तयः। प्रायेण च सत्स्वप्यन्येषु वरगुणेष्वभिजनमेवानुरुध्यन्ते धीमन्तः। धरणीधराणां च मूर्ध्नि स्थितो माहेश्वरा पादन्यास इव सकलभुवननमस्कृतो मौखरीवंशः। तत्रापि तिलकभूतस्याव-

समीपे स्थिताम्। तरुणीभूता यौवनमापन्ना। एतदीयेति। हृदयादनपगमनमेव गुणवत्तायाश्चिन्तापायाश्च साम्यम्। पयोधरयोः स्तनयोर्मेघानां चोन्नतिः। धर्म्याधर्मेण प्राप्या।इयं स्थितिराचारो नाभिमता, न मान्या, अकांड एवातर्कितमेव। असंस्तुतैर परिचितैः। अंकनस्थानानि चिन्हस्थानानि। शून्यान्यरण्यानीति। बराकी दीना। गृहगतैर्गृहस्थैः। अभिजनं कुलम् धरणीधराणां नृपाणां पर्वतानां च। सकलेन भुवनेन नमस्कृतो वन्दितः। ग्रहपतिरिव सूर्य

न्तिवर्मणः सूनुरग्रजो ग्रहवर्मा नाम ग्रहपतिरिव गां गतः पितुरन्यूनो गुणैरेनां प्रार्थयते। यदि भवत्या अपि मतिरनुमन्यते ततस्तस्मै दातुमिच्छामिऽ इत्युक्तवति भर्तरि दुहितृस्नेहकातरतरहदया साश्रुलोचना महादेवी प्रत्युवाच – ‘आर्यपुत्र! संवर्धनमात्रोपयोगिन्यो धात्रीनिर्विशेषा भवन्ति खलु मातरः कन्यकानाम्। दाने तु प्रमाणमासां पितरः। केवलं कृपाकृतविशेषः सुदूरेण तनयस्नेहादतिरिच्यते दुहितृस्नेहः। यथायावज्जवीवमावयोरार्तितां प्रतिपद्यते तथार्यपुत्र एव जानाति’इति।

** राजा तु जातनिश्चयो दुहितृदानं प्रति समाहूय सुतावपि विदितार्थावकार्षीत्। शोभनेच दिवसे ग्रहवर्मणा कन्यां प्रार्थयितुं प्रेषितस्य पूर्वागतस्यैव प्रधानदूतपुरुषस्य करे सर्वराजकुलसमक्षं दुहितृदानललमपातयत्। जातमुदि**

इव। दुहितृस्नेहेन कन्याप्रेम्णा कातरं भीरु हृदयं यस्याःसा। धात्रीनिर्विशेषा धात्र्या निर्गतो विशेषो यस्याः सा। उपमातृसदृश इयर्थः। ‘धात्री जनन्यामलकी वसुमन्युपमातृषु’ इति मेदिनी। आर्तिता मनःपीडात्वम्।

राजेति। जातमुदीति। एव राजकुलमासीदिति संबंधः। उद्दामं सातिशयंदीयमानैस्तांबूलैः पटवातैःसुगंधिचूर्णैः कसुमैः पुष्पैश्च प्रसाधिता अलंकृताः सर्वेलाकाः यस्मिन्। सकलदेशेष्वादिश्यमानमाज्ञाप्यमानंशिल्पिसार्थानां कारुसमूहानामागमनंयस्मिस्तत् अवनितालपुरुषेराजसेवकैर्गृहीतः स्वीकृतः समग्रैःसकलैर्ग्राममीणैःग्राम्यैः जनैरानीयमान उपकरणसंभारः साधनसमूहो यस्मिंस्तत्। राज्ञां नृपाणां दौवारिकैर्द्वार-

कृतार्थंगते च तस्मिन्नासन्नेषु च विवाहदिवसेषूद्दामदीयमानताम्बूलपटवासकुसुमप्रसाधितसर्वलोकम्, सकलदेशादिश्यमानशिल्पिसार्थागमनम्, अवनिपालपुरुषगृहीतसमग्रग्रामीणानीयमानोपकरणसम्भारम्, राजदौवारिकोपनीयमानानेकनृपोपायनम्, उपनिमन्त्रितागतबन्धुवर्गसंवर्गण्वयग्रराजवल्लभम्, लब्धमधुमद-प्रचण्डचर्मकारकरपुटोल्लालितकोणपटुविघट्टनरणन्मङ्गलपटहम्, पिष्टपञ्चाङ्गुलमण्ड्यमानोलूखलमुकल-शिलाद्युपकरणम्, अशेषाशामुखाविर्भूतचारणपरम्परापूर्यमाणप्रकोष्ठप्रतिष्ठाप्यमानेन्द्राणीदैवतम्, सित-

रक्षकैरुपनीयमानान्यनेकानि नृपाणामुपायनान्युपहारा यस्मिंस्तत् उपनिमन्त्रितस्याहूतस्यागतस्य बन्धुवर्गस्याप्तसमूहस्य संवर्गणेस्वागते व्यग्रा। राजवल्लभायस्मिन लब्धस्याधिगतस्य मधुनो मद्यस्य मदेन प्रचण्डा भयंकराश्चर्मकारणः पादूकृतस्तैः करपुटैरुल्लात्तिताः कम्पिताः कृतसंस्कारा वाः कोणा मेरी इण्डास्तैर्यलड विवट्टनं ताडन तेन रान्न शब्दं विदधतो भेरीसमूहाः यस्मिंस्तत्। पिष्टस्य सुधाचूर्णस्य पञ्चांगुलं पिष्ट पञ्चांगुलम् (सुधालिप्तानामंगुलीनां पंचकमित्यर्थः) तेनमण्ड्यमानम् उलूखलमुसलशिलादि उपकरणं साधनं यस्मिंस्तत्। अद्य यावद् उलूखलादिचित्रीकरणपद्धितिर्विवाहे वर्तते। अशेषालामुखेभ्योऽखिलाभ्यो दिग्भ्य आविर्भूतया आगतया चारणांनां बन्दिनां परंपरया पूर्यमाणेव्याप्ते प्रकोष्ठेऽलिन्दे प्रतिष्ठाप्यमानः, इन्द्राणीदैवतं यस्मिन्। विवाहे शच्याः पूजनमावश्यकम्। सितैः शुभ्रैःकुसुमैः पुष्पैर्विलेपनैः अङ्गरागैर्वसनैर्वस्त्रैश्च सत्कृतैर्भूषितैः सूत्रधारैः

कुसुमविलेपनवसनसत्कृतैः सूत्रधारैरादीयमानविवाहवेदीसूत्रपातम्, उत्कूर्चककरैश्च सुधाकर्पूरस्कन्धै-रधिरोहिणीसमारूढैर्धवैर्धवलीक्रियमाणप्रासादप्रतोलीप्राकारशिखरम्, क्षुण्णक्षाल्य-मानकुसुम्भसंभाराम्भः-प्लवपूररज्यमानजनपादपल्लवम्, निरूप्यमाणयौतकयोग्यमातङ्गतुरह्गतरङ्गिताङ्गनम्, गणनाभियुक्त-गणकगणगृह्यमाणलग्नगुणम्, गन्धोदकवाहिमकरमुखप्रणालीपूर्यमाणक्रीडावापीसमूहम्, हेमकारचक्र-प्रक्रान्तहाटकघटनटाङ्कारवाचालितालिन्दकम्, उत्तापिताभिनवभित्तिपात्यमानबहलवालुकाकण्ठकालेपा-कुलालेपकलोकम्, चतुर-

स्थपतिभिरादीयमानो रच्यमानो विवाहवेद्याः सुत्रस्य परिमाणरज्वाःपातो रचनारम्भः यस्मिन्। उन्मुखाउर्ध्वमुखाः कूर्चकाः “कुंचला’ इति भाषायां प्रसिद्धाः करेषु येषां तैः सुधायाः कर्पराः कपालाः स्कन्धेषुयेषां तैः। अधिरोहिणीं सोपनमार्ग (शिढी) इति भाषायां प्रसिद्धामधिरूढैर्धवैः पुरुषैर्धवलीक्रियमाणानि प्रासादस्यराजगृहस्य प्रतोलीप्राकारस्य मार्गवप्रस्य शिखराणि यस्मिंस्तत्, क्षुण्याश्चूर्णीकृतः क्षाल्यमानः स्वच्छीक्रियमाणः कुसुम्भसमभारः काश्मीरजसमूहस्तस्यांमाप्लवेनोदकपूरेण रज्यमाना रक्तीक्रियमाणा जनानां पादपल्लवा यस्मिन् निरुप्यमाणा यौतक्रयोग्या दुहितृदानकाले जामात्रे दातुं योग्या मातङ्गा हस्तिनस्तुरङ्गा अश्वाश्च तैस्तरङ्गितमङ्गनं यस्य तत्। गणनायां सन्ख्यानेऽभियुक्तेन नियुक्तेन गणकगणेन मौहूर्तिकसमूहेन गृह्यमाणां लग्नस्य वेषादेर्गुणा यस्मिन्। गंधोदकंसुगन्धिवारि वहन्ति ताभिर्मकरस्य मुखं यासां ताभिः प्रणालीभिर्जलनिःसरणमार्गैः पूर्यमाणः क्रीडावापीसमूहः

चित्रकरचक्रवाललिख्यमानमङ्गल्यालेख्यम्, लेप्यकारकदम्बकक्रियमाणमृन्मयमीनकूर्ममकरनारिकेलकदली-पूगवृक्षकम्, क्षितिपालैश्च स्वयमावद्धकक्ष्यैः स्वाम्यर्पितकर्मशोभासंपादनाकुलैः सिन्दूरकुट्टिमभूमीश्च मसृणयद्भिर्विनिहितसरसातर्पणहस्तान्विन्यस्तालक्तकपाटलांश्च चूताशोकपल्लवलाञ्छितशिखरानुद्वाह-वितर्दिकास्तम्भानुत्तम्भयद्भिः प्रारब्धविविधव्यापारम्, आसूर्योदयाच्च प्रविष्टाभिः सतीभिः सुभगाभिः सुरूपाभिः सुवेशाभिरविध वाभिः सिन्दूररजोराजिराजितललाटाभिर्वधूवरगोत्रग्रहणगर्भाणि श्रुतिसुभगानि मङ्गलानि गायन्तीभिर्बहुविधवर्णकादिग्धाङ्गुलीभिर्ग्रीवासूत्राणि च चित्रयन्तीभिश्चि-

क्रीडायै निर्मितानां कूपानां समूहो यस्मिन्। हेमकारचक्रेण सुवर्णकारसमूहेन प्रक्रान्तं प्रारब्धं हाटकघटनं सौवर्णालंकारनिर्माणं तस्य टांकारगण शद्बेन वाचालितोऽलिन्दः प्रकोष्ठो यस्मिन्। उत्थापिताः समुच्छ्रिताः याः अभिनवाःनूतनाः भित्तयः तासुपात्यमानः बहुलाः वालुकानां कण्ठकानां कणाः यम्मिन्, एतादृशो, य, आलेपः तस्मिन् आकुलाः व्यग्राःआनेपकलोकाः, कारवः, यस्मिन्। चतुराणां चित्रकाराणांचक्रवालेन समूहेन लिख्यमानानि मांगल्यानि मङ्गलसम्बन्धीन्यालेख्यानि, चित्राणि, यस्मिन्। लेप्यकारकदम्बेनालेपकवर्गेण क्रियमाणा मृण्मयीमीना मत्स्याः कूर्मा नारिकेलकदलीपुगवृक्षाः यस्मिन्, क्षितिपालान्विशिनष्टि। आबद्धकक्ष्यैर्बद्धपरिकरैः। स्वामिनाऽर्पितस्य नृपेणाज्ञापितस्य कर्मणः शोभायाः, सम्पादन आकुलैः, सिन्दूरकुट्टिमभूमीः सिन्दूरप्रस्तरैभुवो मसृय्यायद्भिः श्लक्ष्णीकुर्वद्भिः।

त्रपत्रलतालेख्यकुशलाभिः कलशांश्चधवलिताञ्शीतलशाराजिरश्रेणीश्च मण्डयन्तीभिरभिन्नपुटकर्पासतूल-पल्लवांश्च वैवाहिककङ्कणोर्णासूत्रसंनाहांश्च रञ्जयन्तीभिर्बलाशनाघृतघनीकृतकुङ्कुमकल्कमिश्रितां-श्चाङ्गरागांल्ला-वण्यविशेषकृन्ति च मुखालेपनानि कल्पयन्तीभिः कक्कोलमिश्राः स्जातीफलाः स्फुरत्स्फीतस्फाटिककर्पूरशकलखचितान्तराला लवङ्गमाला रचयन्तीभिः समन्तात्सामन्तसीमन्तिनीभिर्व्याप्तम्, बहुविधभक्तिनिर्माणनिपुणपुराणपौरपुरन्ध्रिबध्यमानैर्बद्धैश्चाचारचतुरान्तः पुरजरतीजनितपूजाराजमान-रजकरज्यमानै रक्तैश्चोभयपटान्तलग्नपरिजनप्रेङ्खोलितैश्छायासु शोष्यमाणैः शुष्कैश्च कुटिलक्रमरूपक्रियमाणपल्लवपरभा-

विनिहिताः स्थापिताः सरसस्यार्द्रस्यातर्पणस्य चूर्णविशेषस्य हस्तायेषु तान्। उद्वाहस्य विवाहस्य वेद्याः स्तंभान् उत्तंभयद्भिरुवीकुर्वद्भिः” उदःस्थास्तंभोः पूर्वस्य’ इत्यनेन पूर्वसवर्णः। प्रविष्टाभिरित्यादीनां तृतीयान्तानां व्याप्तमित्यनेनान्वयः। सिंदूररजोराजिभिः कश्मीरजोधूलिसमुहैःराजितं शोभितं ललाट यासां ताभिः। अद्य यावद्विवाहादिमंगलेषु’ लेपमुत्तमांगेपु नार्यो विदधाति। बहुविधाभिर्वर्णकाभिर्विलेपनैर्दिग्धाभिरुपलिप्ताभिरंगुलीभिः करणैः। ग्रीवा सूत्राणि विवाहेबध्यमानानि मंगलसूत्राणि चित्रयन्तीभिः। तदा शालाया अजिर- श्रेणीरंगपंक्तीरित्यर्थः। शालाजिराण (शरावान्मृत्पात्राणीत्यर्थः) वैवाहिकस्य विवाहसंबंधिनः कंकणस्योर्णासुत्राणां मेषलोमसूत्राणां संनाहान रचनाः बलाशना पुष्पाख्योषधिविशेस्तत्पक्कं घृतं रक्षार्थ क्रियते। तेन घृतेन घनीकृतः कुंकुमकल्कस्तेन मिश्रितान्। स्फुरद्भिः प्रकाशमानैः स्फीतैर्बृहद्भिः स्फटिककपूरस्य कर्पूरविशेषस्य शकलैः खंडैःखचितमंतरालं यासां ताः। सर्वतो वासोभिर्वसनैः संछादितमिति सं-

गैरपरैराब्धकुङ्कुमंपंकस्थासकच्छुरणैरपरैरुद्भुजिष्यभज्यमानभङ्गुरोत्तरीयैः क्षौमैश्च बादरैश्च दुकूलैश्च लालातन्तुजैश्चांशुकैश्च नेत्रैस्च निर्मोकनिभैरकठोररम्भागर्भकोमलैर्निःश्वासहार्यैः स्पर्शानुमेयैर्वासोभिः सर्वतः स्फुरद्भिरिन्द्रायुधसहस्रैरिव संछादितम्, उज्ज्वलनिचोलकावगुण्ठ्यमानहंसकुलैश्च शयनीयैस्तारामुक्ताफलोपचीयमानैश्च कञ्चुकैरनेकोपायोगपाट्यमानैश्चापरिमितैः पट्टपटीसहैस्रराभितवरागकोमलदुकूलराजमानैश्च पट-

वंधः। बहुविधानां भक्तीनां रचनानां निर्माणे निपुणाभिः कुशलाभिः पुराणाभिः पुरातनीभिः पौरपुरंध्रोभिर्नागरिकप्रमदाभिर्बध्यमानैः आचारे चतुराभिरन्तः पुरजरनीनिवृद्धाभिर्जनितया पूजा राजमानः शोभमानैः रजकैर्निर्णजकै रज्यमानैः। उभयपटांते पटान्तद्वयेलग्नैःपरिजनैः प्रखोलितैश्चालितैः। कुटिलःक्रमो येषां तै रूपैःक्रियमाणः, पल्लवानां परभागः शोभा येषां तैः। आरब्धं कुंकमपंकस्य स्थासकानां रचनाविशेषाणां छुरणं लपनं येषु तैःउद्भुजरूर्ध्वहस्तर्भुजिष्यैर्विटैर्भज्यमानानि मुष्टिदानन समाक्रियमाणानि भंगुराणि वकाण्युत्तरीयाणि येषु तैः। क्षमैःक्षुमाविकारैः। बादरैः कार्पासैः। लालातंतुजेः कौशेयैः। नेत्रैर्वस्त्रविशेषः। निर्मोकाभः सर्पकंचु। सदृशैः। अकठोरः कोमलो रंभायाः कदल्या गर्भ इव मध्य इव कोमलानि तः मृदुभिः। निश्वासेन हर्ये हरणिये तिसूक्ष्मैरित्यर्थः) उज्वलेः स्वच्छैर्निचोलिकेरवगुंठयमानानि वेष्ट्यमानान्युपधानान्युपवर्हाणि येषां तः हंसतूल यनीयैर्हेसपक्षशय्याभिः। अथवा उज्यलेर्निचोल कैरवगुंठ्यमानानि पराजितानि हंसकलानि यैस्तैः। शुभ्रत्वाद्धंसा यैःपराजिता इत्यर्थः। ताराका रैर्मुक्ताफलैरुपचीयमानैः शोभमानैः कंचुकेश्चोलैः।स्तवरकनिवह उपरि स्थाप्यमानवस्त्रसमूहस्तेन निरंतरं दृढं छाद्यमा-

वितानैः स्तवरकनिवहनिरन्तरच्छाद्यमानसमस्तपटलैश्च मण्डपैरुच्चित्रनेत्रपटवेष्ट्यमानैश्च स्तम्भैरुज्ज्वलं रमणीयं चौत्सुक्यदं च मङ्गल्यं चासीद्राजकुलं ।

** देवी तु यशोवती विवाहोत्सवपर्याकुलहृदया हृदयेन भर्तरि, कुतूहलेन जामातरि, स्नेहेन दुहितरि, उपचारेण निमन्त्रितस्त्रीषु, आदेशेन परिजने, शरीरेण संचरणे, चक्षुषा कृताकृतप्रत्यवेक्षणेषु, आनन्देन महोत्सवे, एकापि बहुधा विभक्तेवाभवत्। भूपतिरप्युपर्युपरि विसर्जितोष्ट्रवामीजनितजामातृजोषः सत्यप्याज्ञासंपादनदक्षे मुखेक्षणपरे परिजने समं पुत्राभ्यां दुहितृस्नेहविवलवः सर्वं स्वयमकरोत्।**

** एवं च तस्मिन्नविधवामय इव भवति राजकुले, मङ्गलमय इव जायमाने जीवलोके, चारणमयेष्विव लक्ष्यमाणेषु दिङ्मुखेषु, पटहरवमय इव कृतेऽन्तरिक्षे, भूषणमय इव भ्रमति परिजने, बान्धवमय इव दृश्यमाने सर्गे, निर्वृतिमय इवोपलक्ष्यमाणे काले, लक्ष्मीमय इव विजृम्भमाणे महोत्सवे निधान इव सुखस्य, फल इव जन्मनः परिणाम इव पुण्यस्य, यौवन इव विभूतेः, यौवराज्य इव प्रीतेः, सिद्धिकाल इव मनोरथस्य वर्तमाने, गण्यमान इव जनाङ्गुलोभिः, आलोक्यमान इव मार्गध्वजैः, प्रत्युद्गम्यमान इव मड्गल्यवाद्यप्रतिश्बदकैः**

नानि समस्तपटलानि, सकलपरिच्छदा, गृहाच्छादनानि, यैस्तैर्मण्डपैः।उच्चित्रैरुपरिस्थितचित्रैर्नत्रपटैः पटविशेषैर्वेष्टमानैःः, स्तंभैरुज्ज्वलं , प्रकाशमानं राजकुलं राजप्रासादः।नेत्रं मंथगुणेवस्त्रभेदे मूलेद्रुमस्य च इति मदिनी।

देवीति – विवाहोत्सवेन पर्याकुलं व्याकुलं हृदयं यस्याः सा। बहुधाऽनेकप्रकारेण।उपर्युपरि वारंवारंविसर्जिताभिः, प्रेषिताभिरुष्ट्रावामीभिः कमेलकवडवाभिर्जनित उत्पादितोजामातुर्दोष आनंदोयेन सः।

** एवं चेति**– अविधवामयेऽविधवाप्रचुरे।प्राचुर्येमयट्। निर्वृतिमय

आहूयमान इव मौहूर्तिकैः, आकृष्यमाण इव मनोरथैः, परिष्वज्यमान इव वधूसखीहृदयैराजगाम विवाहदिवसः। प्रातरेव प्रतीहारैः समुत्सारितनिखिलानिबद्धलोकं विविक्तमक्रियत राजकुलम्।

** अथ प्रतीहारः प्रविश्य नृपसमीपं “देव! जामातुरन्तिकात्ताम्बूलदायकः पारिजातकनामा संप्ताप्तःइत्यभिधाय स्वाकारं युवानमदर्शयत्। राजा तु तं दूरादेव जामातृबहुमानाद्दर्शितादरः “बालक! कच्चित्कुशली ग्रहवर्माइति पप्रच्छ। असौ तु समाकर्मितनराधिपध्वनिर्धावमानः कतिचित्पदान्युपसृत्य प्रसार्य च बाहू सेवाचतुरश्चिरं वसुंधरायां निर्धाय मूर्धानमुत्थाय “देव! कुशलौ यथाज्ञापयस्यर्चयति च देवं नमस्कारेणऽ इति व्यज्ञापयत्। आगतजामातृनिवेदनागतं च तं ज्ञात्वा कृतसत्कारं राजा “यामिन्याः प्रथमे यामे विवाहकालात्ययकृतो यथा न भवति दोषःइति संदिश्य प्रतीपं प्राहिणोत्।**

** अथ सकलकमलवनलक्ष्मीं वधूमुख इव संचार्य समवसिते वासरे, विवाहदिवसश्रियः पादपल्लव इव रज्यमाने सवितरि, वधूवरानुरागलघूकृतप्रेमलज्जितेष्विव विघटमानेषु चक्रवाकमिथुनेषु, सौभाग्य-**

इव आनंदमय इव। मुखस्यनिधान इवेत्यादीनां वर्तमान इत्यनेनान्वयः। समृत्सारिता निःसारिताअनिबद्धले का अनिमंत्रिता जना यस्मात्तत्।

अथेति -यथा न भवति दोष इत्युक्त्वैव विरमणं नृपस्य विनयाधिक्यं व्यंजयति। अन्यथा। तथा कार्यमित्युक्तौजामाताज्ञापितः स्याद्। प्रतीपं प्राहिणोत्पुनरपि जामातुः सन्निधौप्रेषयामास।

अथेति - कमलानि सायं संकूचन्ति तेषां श्रीर्वधूमुखे निवेश्य बामरो गतोन्विति कल्पना। वधुवरयोरनुरागेण प्रेम्णा लघुकृतं तिरस्कृतं यत्प्रेम नेन लज्जितेष्विव। सायं चक्रवाकमिथुनानि वियुज्यन्ते वधुवरप्रेमाधिक्येन, जायमाना, लज्जा, कारणत्वेन प्रदर्शिता। कपोतस्यपारावतस्य कण्ठ इव कर्बुरे चित्र-

ध्वज इव रक्तांशुकसुकुमारवपुषि नभसि स्फुरति संध्यारागे, कपोतकण्ठकर्वुरे वरयात्रागमनरजसीव कलुषयति दिङ्मुखानि तिमिरे, लग्नसंपादनसज्ज इवोज्जिहाने ज्योतिर्गणे विवाहमह्गलकलश इवोदयशिखरिणा समुत्क्षिप्यमाणे वर्धमानधवलच्छाये ताराधिपमण्डले, वधूवदनलावण्यज्योत्स्नापरिपीततमसि प्रदोषे, वृथोदितमुपहसत्स्विव रजनिकरमुत्तानितमुखेसु कुमुदवनेष्वाजगाम मुहुर्मुहुरुल्लासितस्फारस्फुरितारुणचामरैमनोरथैरिवोत्थितरागाग्रपल्लवैः पुरौधावमानैः पादातैरुत्कर्णकटकहयप्रतिहेषितदीयमानस्वागतैरिव वाजिनां वृन्दैरापूरितदिग्विभागः, चलकर्णचामराणां चामीकरमयसर्वोपकरणानां वर्णकलम्बिनां बलिनां

वर्णेतमसि वरयात्रागमनस्यरजसीव भूलाविव दिङ्मुखानि कलुषयन्तिदिशां मंडलानि मलिनीकुर्वन्ति। अत्र तमसः कर्वुरत्वं संध्यारागसंबंधेन। लग्नस्य मुहूर्तस्य विवाहस्य च संपादने सज्ज इव बद्धपरिकर इव ज्योतिर्गणेनक्षत्रसमूहःउज्जिहान, उद्गच्छति। वर्धमाना धवला, छाया,कान्तिर्यस्य (पक्षे) वर्धमान इव, शरावइव, छाया यस्य, तेन च मंगलकलशसाम्यम्। स च मृगमयघटःसुधालिप्तः शुभ्रा भर्वात। वध्वावदनस्य मुखस्य लावण्येन कांत्या परिपीतंप्राशितंतमोऽधकारो यस्यतादृशि प्रदोषेरजनीमुखे। वृथोदितंव्यर्थमुद्गतम्। उद्गमनकार्यस्यतमोनाशनस्यवधूमुखेनैव संपादितत्वात। उल्लासितैरुपरि धृतैःस्पारं विशालं महदित्यर्थः स्फुरितं कम्पनं येषां तैरक्तैश्चामररुपलक्षितो ग्रहवर्मा आजगामेति संबंधः। कम्पितानां, ताम्रचामराणां, मनोरथस्य, नूतनपत्रमाम्यम्। उत्कर्णानामूर्ध्वकर्णानां कटकहयानों सेनाश्वानां प्रतिहेषितेन प्रतिशब्देन दीयमानं स्वागतंयेषां तैर्वाजिनामश्वानां, वृन्दैः, समूहैः। आपूरितो दिग्भागो यस्य सः। चलन्ति कर्णचामराणिकर्णे भूषणार्थंस्थापितानि चामराणि येषां,चामीकरमयं सुवर्णमयं सर्वोपकरणं सकलसाहिन्यमलंकारा वा येषाम्। वर्णकैराच्छादनवसनैर्लबन्ते भूमिं स्पृशन्ति ते वर्णकलम्बिन इति यथाकथंच्चिल्लाप-

घण्टाटाङ्कारिणां करिणां घटाभिः, घटयन्निव पुनरिन्दूदयविलीनमन्धकारम्, नक्षत्रमालामण्डितमुखीं करिणरिं निशाकर इव पौरन्दरीं दिशमारूढः, प्रकटितविविधविहगविरुतैस्तालावचरचारणैः पुरःसरैर्बालो वसन्त इवोपवनैः क्रियमागकोलाहलः, गन्धतैलावसेकसुगन्धिना तीपिकाचक्रवालालोकेन कुङ्कुमपटवासधूलिपटलेनेव पिञ्जरीकुर्वन्सकलं लोकम्, उत्फुल्लमल्लिकामुण्डमालामध्याध्यासितकुसुमशेखरेण शिरसा हसन्निव सपरिवेषक्षपाकर क्ॐउदीप्रदोषम्, आत्मरूपनिर्जितमकरकेतुकरापहृतेन नार्मुकेणेव कौसुमेन दाम्ना विरचितवैकक्षकविलासः, कुसुमसौरभगर्वभ्रान्तभ्रमरकुलकलकलप्रलापसुभगः पारिजात इव जातः श्रिया सह पुनरवतारितो मेदिनीम्, नववधूवदनावलोकनकुतूहलेनेव

नीयम्। घंटानां टांकारोविद्यते येषां तैः। घटयन्निवोत्पादयन्निव। नक्षत्रमालया, भूषणविशेषेण, यस्याम्ताम्(पक्षे) नक्षत्राणां, तारकाणां, मालया, पंक्त्या, मंडितं, मुखं, यस्याः। पौरंदरी, पूर्वा, दिशाम्। प्रकटितानि, विविधानि, विहगानां, विरुतानि, शब्दाः, येस्तैस्तालावचरे स्तालेष्ववचरन्ति, नृत्यन्ति, तैर्बन्दिभिः। यथा विहगविरुतिभिरुपवनैर्बालो वसन्तो, वसन्तारंभः, कोलाहलं, जनयति, तद्वद्वसंतसदृशोयं पक्षिशब्दं विदधद्भिर्बन्दिभिरुत्पादितकोलाहल इत्यर्थः। गन्धयुतस्य, सुगंधिनस्तैलस्यावशेकेन, सिंचनेन, सुगंधिना, सुरभिणा। चक्रवालं, समूहः। कुंकुमपटवामः, उत्फुल्लानां, विकसितानां मल्लिकानां, पुष्पविरोषाणां, मुंडमान्नाया, भालस्रजो मध्यं मध्यभागमध्यासितोऽधिष्ठितः, कुसुमरोखरो, यस्य, तेन शिरसा सपरिवेशः, समंडलश्चंद्रो यस्मिस्तं कौमुदीप्रशेषं चंडिकायुतं प्रशेषकालं हसन्निवमालायाः परिवेशमाम्यं चंद्रस्य च शेखरसाम्यम्। विरचितो वैकक्ष्यकस्य तिर्यगुरसिक्षिप्तस्योपवीतादेर्विलासः शोभा येन सः। कुसुमानां, सौरभस्य सुगं- धस्य गर्वेण भ्रांतानां, मूढानां, भ्रमराणां, कुलस्य, कलप्रतापेन, मधुरध्वनिना, सुभगो, मनोहरः। श्रिया सह जातो लक्ष्म्यासममुत्पन्नः पारिजातस्तत्संज्ञ-

कृष्यमाणहृदयः पतन्निव मुखेन प्रत्यासन्नलग्नो ग्रहवर्मा।

** राजा तु तमुपद्वारमागतं चरणाभ्यामेव राजचक्रानुगम्यमानः ससुतः प्रत्युज्जगाम। अवतीर्णं च तं कृतनमस्कारं मन्मथमिव माधवः प्रसारितभुजो गाढमालिलिङ्ग। यथाक्रमं परिष्वक्तराज्यवर्धनहर्षं च हस्ते गृहीत्वाभ्यन्तरं निन्ये। स्वनिर्विशेषासनदानादिना चैनमुपचारेणोपचचार।**

** न चिराच्च गम्भीरनामा नृपतेः प्रणयी विद्वान्द्विजनमा ग्रहवर्माणमुवाच – “तात! त्वां प्राप्य चिरात्खलु राज्यश्रिया घटितौ तेजोमयौ सकलजगद्गोयमानबुधकर्णानन्दकारिगुणगणौ सोमसूर्यवंशाविव पुष्यभूतिमुकरवंशौ। प्रथममेव कौस्तुभमणिरिव गुणैः स्थितोऽसि हृदये देवस्य। इदानीं तु शशीव सिरसा परमेश्वरेणासि वोढव्यो जातःइति।**

** एवं वदत्येव तस्मिन्नृपमुपसृत्य मौहूर्तिकाः “देव! समासीदति लग्नवेला। व्रजतु जामाता कौतुकगृहम्ऽ इत्यूचुः। अथ नरेन्द्रेण “उत्तिष्ठ, गच्छऽ इति गदितो ग्रहवर्मा प्रविश्यान्त पुरं जामातृदर्शनकुतूहलिनीनां स्त्रीणां पतितानि लोचनसहस्राणि विकचनीलकुवलयवनानीव लङ्घयन्नाससाद कौतुकगृहद्वारं। निवारितपरिजनश्च प्रविवेश।**

** अथ तत्र कतिपयाप्तप्रियसखीस्वजनप्रमदाप्रायपरिवाराम्, अरु-**

कवृक्षः, श्रिया राज्याश्रिया, राज्यलक्ष्म्या पुनर्मेदिनी पृथ्वीमवतारित आनीतः।

नातेति- सकलजगता गीयमानो बुधानां विदुषां कर्णयोः श्रोत्रयोर्बुधश्चंद्रपुत्रः कर्णः सूर्यात्मजस्तयोर्वा, आनंदकारी गुणगणो ययोस्तौ। हृदये, मनसि, वक्षसि च। देवस्य नृपतेर्विष्णोर्वा। परमेश्वरेण नृपेणहरेण च। एतेन जामातुः पूजनीयत्वं व्यज्यते। एवमिति - लंवयन्नाक्रममाणः। कौतुकगृहद्वारमुत्सवगृहस्य विवाहोत्सवगृहस्य द्वारम्।

अथेति -तत्र वधूमपश्यदिति संबंधः। अरुणांशुकेन लोहितवस्त्रेणाव-

णांशुकावगुण्ठितमुखीं प्रबातसंध्यामिव स्वप्रभया निष्प्रभान्प्रदीपकान्कुर्वाणां अतिसौकुमार्यशङ्कितेनेव यौवनेन नातिनिर्भरमुपगूढाम्, साध्वसनिरुध्य मानहृदयदेशदुःखमुक्तैर्निभृतायतैः स्वसितैरपयान्तं कुमारभावमिवानुशोचन्तीम्, अत्युत्कम्पिनीं पतनभियेव त्रपया निष्पन्दं धार्यमाणाम्, हस्ततामरसप्रतिपक्षमासन्नग्रहणं शशिनमिव रोहिणीं भयवेपमानमानसामवलोकयन्तीम्, चन्दनधवलतनुलताम्, ज्योत्स्नादानसंचितलावण्यात्कुमुदिनीगर्भादिव प्रसूताम्, कुमुमामोदनिर्हारिणीं वसन्तहृद्यादिव निर्गताम्, निःश्वासपरिमलाकृष्टमधुरकुला मलयमारुतादिवोत्पन्नम्, कृतकन्दर्पानुसरणां रतिमिव पुनर्जाताम्, प्रभालावण्यमदसौरभमाधुर्यैः कौस्तुभशशिमदिरापारिजातामृतप्रभवैः सर्व-

गुंठितमाच्छादितंमुखं यस्यास्ताम्। प्रभातसंध्या चारुणस्यानूरोरल्पैरंशुभिरंशुकैरवगुंठितमुखीभवति। नातिनिर्भरं नातिदृढमुपगूढामालिंगिताम्। अप्राप्तपूर्णयौवनां वयः संधौवर्तमानामित्यर्थः। साध्वसेन भयेन कंपेन वा निरुध्यमानेन हृदयदेशेन दुःखान्मुक्तैर्निभृतैर्गुप्तैरायतैर्दीर्घैः।अपयान्तं नश्यन्तं कुमारभावं बाल्यम्। तामरसप्रतिपक्षं, कमलसदृशमासन्नं प्राप्तंग्रहणं, स्वीकारो, यस्य तं हस्तं करमवलोकयन्तीम्। भयेन, वेपमानं, मानसं मनो, यस्यास्ताम्। आसन्नग्रहणं प्राप्तोपरागं, शशिनं, चंद्रमसमवलोकयन्तींरोहिणीं चन्द्रभार्यामिव। भर्तृग्रहणं दृष्ट्वा रोहिणी वेपते। विवाहे च कुमार्यो भर्तृभीत्या लज्जाधिक्येन वा वेपन्त इति हि प्रत्यक्षम्। वर्णितंचैतत्चन्दनेन धवला शुभ्रातनुलता, यस्या स्ताम्। ज्योत्स्नायाश्चंद्रिकाया, आदानेन, ग्रहणेन, संचितं, वर्द्धिनं, लावण्यं, कान्तिर्यस्यतस्मात्कुमुदिनीगर्भात्। शुभ्रा, तनुलता, कमलिन्याः, संजातान्वित्युत्प्रेक्षा। कृतकंदर्पानुसरणामुद्भूतमदनविकाराम् (पक्षे) मदनमनुयान्ताम्। प्रभादीनां कौस्तुभादिभिर्याथासंख्येनान्वयः। सर्वरत्नगुणैः कौस्तुभादीनां प्रभादिभिगुणैः, उपलक्षितां,सुरासुररुषा, देवासुरयोरुपरि, कोपेन, लक्ष्मीहरणजेनेत्यर्थः, रत्नाक-

रत्नगुणैरपराणिव सुरासुरस्षा रत्नाकरेण कल्पितां श्रियम्, स्निग्धेन बालिकालोकेन सितसिरणमरकतप्रभाहरितशाद्वलेन कपोलस्थलीतलेन विनोदयन्तीमिव हारिणीं लोचनच्छायाम्, अधोमुखं वरकौतुकालोकनाकुलं मुहुर्मुहुः कुतमुखन्नमनप्रयत्नं सखीजनं हृदयं च निर्भर्त्सयन्ती वधूमपश्यत्।

** प्रविशन्तमेव तं हृदयचौरं वध्वा समर्पितं जग्राह कन्दर्पः। परिहासस्मेरम्खीबिश्च नारीभिः कौतुकगृहे यद्यत्कार्यते जामताता तत्तत्सर्वमतिपेशलं चकार। कृतपरिणयानुरूपवेशपरिग्रहां गृहीत्वा करे वधूं निर्जगाम जगाम च नवसुधाधवला निमन्त्रितागतैस्तुषारशैलोपत्यकामिव त्र्यम्बकाम्बिकाविवाहाहूतैर्भूभृद्भिः परिवृताम्, सेकसुकुमारयवाङ्कुरदन्तुरैः पञ्चास्यैः कलशैः कोमलवर्णिकाविचित्रैरमित्र-**

रेण सागरेण, कल्पितां, श्रियं लक्ष्मीमिव। स्निग्धेन वन्सलेन बालिकाजनेन कन्यकाजनेन। सिताभिः, सिंदुवारस्य, निर्गुड्याः, कुसुममजरीभिः। हारिणीं मनोहरां हरिणसंबंधिनीं च। कौतुकालोकन आकुलमुत्सुकं हृदयं सखीजनं च निर्भर्त्सयन्ती तर्जयमानामिव। अथवा हेतुमण्यंतं हेतोरविवक्षयेति बोध्यम्।

प्रविशन्तमिति - हृदयचोरं हृदयहारकम् कंदर्पोजग्राह। यथा कंचित्स्तेनकोपि राजपुरुषादेर्हस्ते ददाति तद्वदिमं, वध्वार्पितं कंदर्पोजग्राहेत्यर्थः। अतिपेशलमतिमनोहरम्। कृतः परिणयम्य विवाहस्यानुरूपो योग्यो वेशपरिग्रहो नेपथ्यस्वाकारो ययाताम् वेदीं जगामेति - संबंधः, वेदीं विशिनष्टि। नवया नूतनया सुधया धवलाम्। भूभृद्धी राजभिः, पर्वतेश्च। तुषारशैलस्य हिमालयस्योपत्यकां समीपस्थभूमिम्। शुभ्रवर्णत्वं भूभृद्वेष्टितत्वं च तत्साम्यम्। सेकेन, सुकुमाराः, कोमला, यवांकुरास्तैरमिवमुखैः, पंचास्यैःविस्तृतमुखैःकोमलयावर्णिकया, शुभ्ररंगेण विचित्रैरमिमुखैः शत्रुवदनैश्च, शत्रुमुखाकाराणि (पात्राण्योसन्नित्यर्थः) मंगल्य-

मुखैश्च मङ्गल्यफलहस्ताभिरञ्जलिकारिकाभिरूद्भासितपर्यन्ताम्, उपाध्यायोपधीयमानेन्धनधूमायमानाग्नि-संधुक्षमाक्षणिकोपद्रष्टृद्विजाम्, उपकृशानुनिहितानुपहतहरितकुशां संनिहितदृषदजिनाज्य-स्रुवसमित्पूलीनिवहाम्, नूतनशूर्पार्पितश्यामलशमीपलाशमिश्रलाजहासिनीं वेदीम्। आरुरोह च तां दिवमिव सज्योत्स्नः शशी। समुत्ससर्प च वेल्लितारुणशिखापल्लवस्य शिखिनः कुसुमायुध इव रतिद्वितीयो रक्ताशोकस्य समीपम्। हुते च हुतभुजि प्रदक्षिणावर्तप्रवृत्ताभिर्वधूवदनविलोकनकुतूहलिनीभिरिव ज्वालाभिरेव सह प्रदक्षिणं बभ्राम। पात्यमाने च लाजाञ्जलौ नखमयूखधवलिततनुरदृष्टपूर्ववधूवररूपविस्मयस्मेर इवादृस्यत विभावसुः।

फलं हस्ते यासां ताभिः। अजालकारिकाभिः मृण्मयप्रतिमाभिः उद्भासितःशोभितः, पर्यन्तो यस्यास्ताम्। उपाध्यायेन गुरुणोपधीयमानैः, स्थाप्यमानौरध्वनैःसमिद्भिर्धूमायमानस्याग्नेः, संधुक्षणे प्रज्वलनेऽक्षणिका व्यग्राउपद्रष्टारः, साक्षिणः, छात्रा वा द्विजा ब्राह्मणाः यस्यांताम्। उपकृशानु, वह्नेःसमीपे निहिताः स्थापिताः, अनुपहताः, अनुपयुक्ताः (प्रत्यग्रा इत्यर्थः) हरितकुशा, हरिद्वर्णा दर्भा यस्यास्ताम्। दृशदश्मा, अजिनं मृगचर्मआज्यं, घृतं, सुक्, पात्रत्रिशेषः, समित्पूली एकत्र बद्धाः, समिधः। नूतनसूर्पेनवे प्रस्फोटनेऽर्पिताभिः श्यामलैः, कृष्णैःशमीपलाशैः शमीपर्णैर्मिश्रिताभिर्लाजाभिर्हसति ताम्। लाजानां शुभ्रत्वादस्यसाम्यम्। वेल्लिताश्चलिता-अरुणाः, ताम्राः, शिखापल्लवाः, अग्रपर्णानि, यस्यतस्य,शिखिनो, वन्हेः, (पक्षे) वेल्लिता-अरुणाः, शिखापल्लवाः, अग्रपर्णानि, यस्य तस्य रक्ताशोकस्य शिखिनो वृक्षस्य। दक्षिणावर्तेनापसव्यवर्तुलेन प्रवृत्ताभिः। नखमयूखैर्नखकिरणैर्धवलिता तनुर्यस्य सः। अदृष्टपूर्वेणानवलकितपूर्वेण बधूवरयो रूपेण जातो यो विस्मयः तेनाश्चर्येण स्मेरश्चकितइव। विभावसुर्वह्निः।

अत्रान्तरस्वच्छकपोलोदरसंक्रान्तमनलप्रतिबिम्बमिव निर्वापयन्ती स्थूलमुक्ताफलविकलबाष्प-बिन्दुसंदोहदशितदुर्दिना निर्वदनविकारं रुरोद वधूः। उदश्रुविलोचनानां च बान्धववधूनामुदपादि महानाक्रन्दः। परिसमापितवैवाहिकक्रियाकलापस्तु जामाता वध्वा स्मं प्रणनाम श्वशुरौ। प्रविवेश च द्वारपक्षलिखितरतिप्रतिदैवतं, प्रणयिभिरिव प्रथमप्रविष्टैरलिकुलैः कृतकोलाहलम्, अलिकुलपक्षपवनप्रेङ्खोलितैः कर्णोत्पलप्रहारभयप्रकम्पितैरिव मङ्गलप्रदीपैः प्रकाशितम्, एकदेशलिखितस्तबकितरक्ताशोकतरुतलभाजाधिज्यचापेन तिर्यक्कूणितनेत्रत्रिभागेण शरमृजूकुर्वता कामदेवेनाधिष्ठितम्, एकपार्श्वन्यस्तेन काञ्चनाचामरुकेणेतरपार्स्ववतिन्या च दान्तशफरुकधारिण्या कनकपुत्रिकया साक्षाल्लक्ष्म्येवोद्दण्डपुण्डरीकहस्तया सनाथेन सोपधानेन स्वास्तीर्णेन शयनेन शोभमानम्, शयनसिरोभागस्थितेन च कृतकुमुदशोभेन कुसुमायुधसाहायकायागतेन शशिनेव निद्राकलशेन राजतेन विराजमानं वासगृहम्।

अत्रान्तरे इति - स्वच्छकपोलोदरे स्वच्छं कपोलमध्ये, संक्रान्तं पतितमनलस्याग्नेः प्रतिबिंबम्। स्वच्छेत्यनेन बिबग्रहणयोग्यत्वम्। निर्वापयन्ती शमयन्ती। स्थूलमुक्ताफलानीव विमलाः स्वच्छा बाष्पबिन्दवस्तेषां संदोहेन समूहेन दर्शितं दुर्दिनं यया सा। निर्गता विकारा यस्मात्तादृशं वदनं यस्मिन्यथा तथा। वदनविकारदर्शनाभावस्तु भर्तृसांनिध्यात्। प्रविवेशेति - जामाता बासगृहं प्रविवेशेति संबंधः। द्वारपक्षेद्वारपार्श्वे लिखितं रतेर्मदनभार्यायाः प्रीतिदैवतमर्थान्मदनो यस्मिन्। एकदेशे, लिखितस्य, स्तबकितस्य, गुच्छयुतस्य, रक्ताशोकस्य, तलं भजति तेन ज्यामधिगतं चापं यस्यतेन। कूणितः, संकुचितो, नेत्रत्रिभागो, नेत्रापांगो यस्य तेन। एतेन लक्ष्यबद्धदृष्टित्वं दर्शितम्। कांचनाचामनकेन, सौवर्णष्ठीवनपात्रेण, दन्तशफरुकं, हस्तिदंतमयीं, पेटिकां, धारयति, तया।

तत्र च ह्रीताया नववधूकायाः पराङ्मुखप्रसुप्ताया मणिभित्तिदर्पणेषु मुखप्रतिबिम्बानि प्रथमालापाकर्णनकौतुकागतगृहदेवताननानीव मणिगवाक्षकेषु वीक्षमाणः क्षणदां निन्ये। स्थित्वा च श्वशुरकुले शीलेनामृतमिव श्वश्रूहृदये वर्षन्नभिनवाभिनवोपचारैरपुनरुक्तान्यानन्दमयानि दश दिनानि, दत्त्वा च राजदौवारिकमिव राजकुले रणरणकं यौतकनिवेदितानीव शम्बलान्यादाय हृदयानि सर्वलरोकस्य कथङ्कथमपि विसर्जितो नृपेण वध्वा सह स्वदेशमगमदिति।

इति श्रीबाणमट्टकृतेहर्षचरिते चक्रवर्तिजन्मवर्णनं
नाम चतुर्थ उच्छ्वासः।

तत्रेति - प्रथमालापस्य प्रथमभाषितस्याकर्णनस्य, श्रवणस्य, कौतुकादागतानां गृहदेवतानामाननानीव मुखानीव (अधुनापि गर्भाधानसंस्कारवेलायां वधूवरालापकुलिन्यः प्रमदाःनिगुह्यात्मानं तिष्ठन्नोति प्रसिद्धमेव) अपुनरुक्तानि नवानि। रणरणकं, मनस्तापम्। यौतके, कन्यादानकाले, दीयमानधने निवेदितानिव, समर्पितानीव, सर्वलोकस्य, हृदयानि, चेतांसि, कथं कथमपि, कष्टेन। अगमत्, गतवान्।

इति श्रीबाणभट्टकृतहर्षचरितव्याख्यायां “आशुतोषिण्यां”
चतुर्थ उच्छ्वासः।

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  1. “पद्यमिदं हलायुध वृत्तिकारेणमहाकविदण्डिना स्वसंदर्भकाव्यादर्शे अलेखि, केषुचिद–हर्षचरित पुस्तकेषु लभ्यते,न सर्वत्र।” ↩︎

  2. “ओंकारश्चाथ शब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा। कण्ठंभित्वा विनिर्यातौतस्मान्माङ्गलिकावुभौ॥” ↩︎

  3. “अस्तियद्यपि सर्वत्र नीरं नीरज मण्डितम्‌। रमते न मरालस्य मानसं मानसं विना॥” ↩︎

  4. “यत्र कस्य चिदारोपः परारोपण कारणम। तत्परंपरिताश्लिष्टाश्लिष्ट शब्द निबंधनम॥ इति साहित्यदर्पणे॥” ↩︎

  5. " काकोल काल कूटहलाः हलाः विषभेदा अमीनव – इति कोषः।" ↩︎

  6. “श्लोकेषष्ठं गुरूज्ञेयंसर्वत्र लघुपंचमम्‌। द्विचतुष्पादयोर्ह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः॥ श्रुतबोधे॥” ↩︎

  7. “अपारे काव्य संसारं कविरेवप्रजापतिः। यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते॥” ↩︎

  8. “रूपकं रूपिताद्रोपाद्विषये निरपन्हवे। साहित्यदर्पणे॥” ↩︎

  9. “गंधर्वःशरभो रामः सृमरो गवयो शशः — इत्यमरः।” ↩︎

  10. “नारदोऽश्रावयद्देवानसितो देवलः पितृन्। गंधर्वयक्षरक्तांसि श्रावयामास वैशुकः” ↩︎