[[भोजप्रबन्धः Source: EB]]
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॥श्रीः॥
अथ
भाषाटीकासमेतः
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** श्रीगणेशाय नमः॥ स्वस्ति श्रीमहाराजाधिराजस्य भोजराजस्य प्रबंधः कथ्यते। आदौ धाराराज्ये सिंधुलसंज्ञो राजा चिरं प्रजाः पर्यपालयत्।तस्य वृद्धत्वे भोज इति पुत्रस्समजनि। स यदा पंचवार्षिकस्तदा पिता ह्यात्मनो जरां ज्ञात्वा मुख्यामात्यानाहूय अनुजं मुंजं महाबलमालोक्य पुत्रं चबालं वीक्ष्य विचारयामास। यदाहं राजलक्ष्मीभारधारणसमर्थं सोदरमपहाय राज्यं पुत्राय प्रयच्छामि तदा लोकापवादः। अथवा बालं मे पुत्रं मुंजोराज्यलोभाद्विषादिना मारयिष्यति। तदा दत्तमपिराज्यं वृथा। पुत्रहानिर्वंशोच्छेदश्च॥**
गणेशं गुरुगौरीशौ नत्वाश्रीगरुडध्वजम्।
भोजप्रबन्धशास्त्रस्य भाषाटीका विरच्यते॥
स्वस्ति श्रीयुत महाराजाधिराज भोज राजका प्रबंध(इतिहास) कहा जाता है। पहिले धारा (नगरी) केराज्यमें सिंधुलसंज्ञक राजा बहुतकालतक प्रजाको पालता गया। जिसके बुढापे में भोज ऐसा (नामवाला) पुत्र उत्पन्नगया। वह (पुत्र) जब पांच वर्षका गया तब (उसका) पिताअपनी वृद्धावस्था जानके मुख्य मंत्रियोंको बुलवा, छोटेभाई महाबली मुंज को देख और बालक पुत्रको देखकेविचार करता गया। कि जो मैं राज्यकी ऐश्वर्यकोधारण करनेमें समर्थ भाईको त्यागके राज्यको पुत्र के वास्तेदूंगा तो लोकापवाद (लोगोंमें निंदा ) होगा। अथवा मेरेबालक पुत्रको, मुंज राज्यके लोभसे विष आदि देकरमरवा डालेगा। तब दिया हुआभी राज्य वृथा होगा।और पुत्रकी हानि तथा वंशनाश होगा॥
लोभः प्रतिष्ठा पापस्य प्रसूतिर्लोभ एव च॥
द्वेषक्रोधादिजनको लोभः पापस्य कारणम्॥१॥
लोभ पापकी प्रतिष्ठा (मूल) है, लोभही पापकी उत्पत्तिहै और द्वेष (वैर) क्रोध आदियोंको उत्पन्न करनेवालालोभ, पापका हेतु है॥१॥
लोभात्क्रोधः प्रभवति क्रोधाद् द्रोहः प्रवर्त्तते॥
द्रोहेण नरकं याति शास्त्रज्ञोपि विचक्षणः॥२॥
लोभसे क्रोध होता है, क्रोधसे द्रोह होता है फिर द्रोह करनेसे शास्त्रको जाननेवाला पंडितभी नरकको जाता है॥२॥
मातरं पितरं पुत्रं भ्रातरं वा सुहृत्तमम्॥
लोभाविष्टो नरो हंति स्वामिनं वा सहोदरम्॥३॥
लोभसे भरा हुआ (आसक्त हुआ) नर, माता,पिता, पुत्र, भाई, अत्यंत मित्र, स्वामी, सहोदर भाई इन सबको मार डालता है॥३॥
** इति विचार्य राज्यं मुंजाय दत्त्वा तदुत्संगे भोजमात्मजं मुमोच। ततः क्रमाद्राजनि दिवंगते संप्राप्तराज्यसंपत्तिर्मुंजो मुख्यामात्यं बुद्धिसागरनामानं व्यापारमुद्रया दूरीकृत्य तत्पदे अन्यं स्थापयामास। ततो गुरुभ्यः क्षितिपालपुत्रं वाचयति। ततःक्रमेण सभायां ज्योतिःशास्त्रपारंगतः सकलविद्याचातुर्यवान् ब्राह्मणः समागमत्। राज्ञेस्वस्तीत्युक्त्वाउपविष्टः। स चाह देव लोकोयं मां सर्वज्ञं वक्ति तत्किमपि पृच्छ॥**
** **ऐसे विचारके राज्यको मुंजके वास्ते देके तिस मुंजकीगोदमें अपने पुत्र भोजको छोडता गया। फिर समयपायके वह राजा स्वर्गेमें पहुँच गया (परलोकवासीहो गया)। तब राज्य की ऐश्वर्यको अच्छी तरहसे प्राप्त हुआमुंज बुद्धिसागर नामक मुख्य मंत्रीको व्यापारमुद्रासेअर्थात उसके अधिकारसे उसे दूर करके उसके स्थानपरदूसरेको स्थित करता गया। फिर गुरुओंसे राजाके पुत्रके(भाग्यको) कहाता गया। फिर क्रमसे (समय पाके) ज्योतिःशास्त्र में पारंगत हुआ, संपूर्ण विद्याचातुर्यवाला (कोई)ब्राह्मण आता गया। सो, राजाके अर्थ ‘कल्याण हो’ ऐसेकहके बैठ गया। फिर वह बोला हे देव ! यह संसारमुझको सर्वज्ञ कहता है सो कुछ पूछो॥
कंठस्था या भवेद्विद्या सा प्रकाश्या सदा बुधैः॥
या गुरौ पुस्तके विद्या तया मूढः प्रवार्यते॥४॥
कंठमें स्थित विद्या हो सो विद्वज्जनोंने सदा प्रकाशकरनी चाहिये। जो गुरु विषें और पुस्तक विषें विद्याहै उस विद्यासे मूढ जन निवारण किया जाता है (रोकाजाता है)॥४॥
** इति राजानं प्राह। ततो राजापि विप्रस्याहंभावमुद्रया चमत्कृतां तद्वार्तां श्रुत्वा अस्माकं जन्मतआरभ्यैतत्क्षणपर्यंतं यद्यन्मयाचरितं यद्यत्कृतं तत्सर्वंवदसि यदि भवान्सर्वज्ञ एवेत्युवाच। ततो ब्राह्मणोपिराज्ञा यद्यत्कृतं तत्सर्वमुवाच गूढव्यापारमपि। ततोराजापि सर्वाण्यप्यभिज्ञानानि ज्ञात्वा तुतोष। पुनश्चपंचषट्पदानि गत्वा पादयोः पतित्वा इंद्रनीलपुष्परागमरकतवैडूर्यखचिता सिंहासने उपवेश्य राजा प्राह॥**
ऐसे राजाको बोला। तब राजाभी ब्राह्मणकी अहंकारपनेकी मुद्रासे चमत्कार की हुई ति/इस वार्ताको सुनके ऐसेकहता गया कि हमारा जन्मसे लेके अबतक मैंने जो २आचरण किया है जो २ काम किया है तिस संपूर्णको यदिआप कहते हैं तो सर्वज्ञही (संपूर्णवेत्ताही) हो। इससे अनंतर वह ब्राह्मणभी राजाने जो२ किया था तिस संपूर्ण गुप्तव्यवहारकोभीकहता गया। फिर राजाभीअभिज्ञानोंको(ब्राह्मण की सर्वज्ञताको) जानके प्रसन्न होता गया। फिरपांच छह पद (डंघ) चलके वह राजा तिसके चरणोंमेंगिरके इंद्रनीलमणि पुष्पराज मरकतमणि वैडूर्यमणिइन्होंसेजडित हुये सिंहासनपर उस ब्राह्मणको बिठाकर बोला।
मातेव रक्षति पितेव हिते नियुङ्क्ते।
कांतेव चाभिरमयत्यपनीय खेदम्॥
कीर्तिं च दिक्षु विमलां वितनोति लक्ष्मीं।
किं किन्न साधयति कल्पलतेव विद्या॥५॥
(विद्या) माता की तरह रक्षा करती है, पिताकी तरहअच्छे काममें लगाती है, स्त्रीकी तरह परिश्रमको (खेद को)दूर कर रमण कराती है। दिशाओं में कीर्तिको फैलातीहै, लक्ष्मीको बढाती है ऐसी यह विद्या कल्पवृक्षकीलताकी तरह क्या २ नहीं सिद्ध करती है, (अर्थात् सबकाम करती है)॥५॥
** ततो विप्रवराय दशाश्वानाजानेयान् ददौ। ततः सभायामासीनो बुद्धिसागरः प्राह राजानम्।देव भोजस्य जन्मपत्रिकां ब्राह्मणं पृच्छेति। ततोमुंजः प्राह। भोजस्य जन्मपत्रिकां विधेहीति। ततोऽसौ ब्राह्मण उवाच। अध्ययनशालाया भोजआनेतव्य इति। मुंजोपि ततः कौतुकादध्ययनशालामलंकुर्वाणं भोजं भटैरानाययामास। ततः साक्षात्पितरमिव राजानमानम्य सविनयं तस्थौ। ततस्तद्रूपलावण्य-मोहिते राजकुमारमंडले प्रभूतसौभाग्यं महीमंडलमागतं महेंद्रमिव साकारं मन्मथमिव मूर्तिमत् सौभाग्यमिव भोजं निरूप्य राजानंप्राह दैवज्ञः। राजन् भोजस्य भाग्योदयं वक्तुं विरिंचिरपि नालं कोहमुदरंभरिर्ब्राह्मणः। किंचित् तथापि वदामि स्वमत्यनुसारेण। भोजमितोध्ययनशालायां प्रेषय। ततो राजाज्ञया भोजे ह्यध्ययनशालां गते विप्रः प्राह॥**
फिर (राजा) विप्रवरके वास्ते उत्तम जातिमें होनेवाले दश अश्वों को देता गया। फिर सभामें बैठा हुआबुद्धिसागर (मंत्री) राजाको बोला। हे देव ! भोजकीजन्मपत्रिकाको ब्राह्मण से पूछो। फिर मुंज बोला। भोजकीजन्मपत्रीको विचारो।फिर यह कहता गया। कि पाठशालासे भोज बुलवाना चाहिये। तब मुंजराजा पाठशालाको विभूषित करते हुये भोजको शूर वीर करके (शूरवीरके द्वारा) आनंदसे बुलवाता गया। फिर (वह भोज)साक्षात् पिताको करता हो तै/वैसे प्रणाम कर विनयसेखड़ा हो गया। जिसके रूपकी छविसे राजकुमारका मंडल,(सभाके जन) मोहित हो गये, जैसे बहुत सौभाग्यवाले भूमंडलमें इंद्र प्राप्त हो गया हो और मूर्तिमान् कामदेव तथामूर्तिमान् सौभाग्य स्थित हो इस प्रकार स्थित हुये, भोजकोनिरूपण (कायम) करके (वह) दैवज्ञ राजाको बोला।हे राजन् ! भोजके भाग्योदय कहनेको ब्रह्माभी समर्थ नहींहै, पेट भरनेवाला मैं ब्राह्मण क्या हूं। तोभी अपनी बुद्विके अनुसार कछु कहता हूं। भोजको यहांसे पाठशालामें भेजो। फिर राजा की आज्ञासे भोज पाठशालामें चलागया, तब ब्राह्मण कहता गया॥
पंचाशत्पंच वर्षाणि सप्तमासदिनत्रयम्॥
भोजराजेन भोक्तव्यः सगौडी दक्षिणापथः॥६॥
पिचावन(५५) वर्ष, सात(७) महीने, तीन(३)दिन (इतना काल पर्यंत) गौड (बंगाला) देश सहित दक्षिणापथ (दक्षिणदिशाका मुलक) (इस) भोजराजकरकेभोगा जावेगा॥६॥
** इति तत्तदाकर्ण्य राजा चातुर्यादपहसन्निव सुमुखोपि विच्छायवदनोऽभूत्। ततो राजा ब्राह्मणंप्रेषयित्वा निशीथे स्वशयनमासाद्य एकाकी सन्व्यचिंतयत्। यदि राजलक्ष्मीर्भोजकुमारं गमिष्यतितदाहं जीवन्नपि मृतः॥**
इस प्रकार ति/जिन २ बातोंको सुनकर चतुराई से हँसतेहुएकी तरह सुंदर मुख बनाये रहाभी मुंज कांतिरहित होगया। फिर राजा ब्राह्मणको विदा करके अर्द्धरात्रीमें अपनी शय्या में प्राप्त होके चिंतवन करता गया। कि जोराज्यकी लक्ष्मी भोजकुमारको प्राप्त हो जावेगी तो मैंजीवता हुआही मरा हुआ हूं॥
तानींद्रियाण्यविकलानि तदेव नाम।
सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव॥
अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः क्षणेन।
सोप्यन्य एव भवतीति विचित्रमेतत्॥७॥
वेही स्वस्थ इंद्रिय हैं और वही नाम है, वही अखंडितबुद्धि, वही वचन रहता है परंतु द्रव्यकी गरमाई (ऐश्वर्य)से रहित हुआ वही निर्धन हुआ पुरुष क्षणमात्रमें अन्य(दूसरासा) हो जाता है यह आश्चर्य है॥७॥
** किंच—**
शरीरनिरपेक्षस्य दक्षस्य व्यवसायिनः॥
बुद्धिप्रारब्धकार्यस्य नास्ति किंचन दुष्करम्॥८॥
और ऐसा है—शरीर की अपेक्षा नहीं रखनेवालेको, चतुर निश्चयमनवालेको, बुद्धिसे कामको प्रारंभ करनेवालेको कुछभी दुष्कर (दुर्लभ) नहीं है॥८॥
असूयया हतेनैव पूर्वोपायोद्यमैरपि॥
कर्तॄणां गृह्यते सम्यक् सुहृद्भिर्मंत्रिभिस्तथा॥९॥
असूया करके हत होनेसे अर्थात् किसी प्रकारकी तर्कबोली लग जानेसे, (उद्यम करनेसे) और पहले किये हुए उपाय उद्यमों करके (इन हेतुओंके प्रभावसे) कर्त्तृअर्थात्कार्य करनेवाले राजा आदिकों की सम्यक् अर्थात् सबआज्ञा आदि मित्रजनों करके और मंत्रीलोगों करके अंगीकार की जाती है॥९॥
ततोद्य मे किं दुःसाध्यम्॥
फिर उद्यमविषेंमुझे क्या दुस्साध्य हैं॥
अतिदाक्षिण्ययुक्तानां शंकितानां पदे पदे॥
परापवादभीरूणां दूरतो यांति संपदः॥१०॥
अत्यंत चतुराईमें युक्त हुये, पद २ पर शंका करनेवाले,पराई निंदासे डरनेवाले पुरुषोंको दूरसेही संपत्ति प्राप्तहोती है॥१०॥
किंच—
आदानस्य प्रदानस्य कर्तव्यस्य च कर्मणः॥
क्षिप्रमक्रियमाणस्य कालः पिबति संपदः॥११॥
ग्रहण करनेलायक, देनेलायक, करनेके योग्य, ऐसे जोकाम हैं उन कामोंको शीघ्रही नहीं करे तो उसकी संपत्तिको काल नष्ट करता है अर्थात् इन कामोंको शीघ्र हीकर लेवे। फिर समय पायकर होने मुसकिल हैं॥११॥
अवमानं पुरस्कृत्य मानं कृत्वा च पृष्ठतः॥
स्वार्थं समुद्धरेत्प्राज्ञः स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता॥१२॥
अपमानको आगे कर मानको पीठ पीछे कर पंडितजन अपने मतलबको बना लेवे। कार्य बिगड़ जाना यहीमूर्खता है॥१२॥
न स्वल्पस्य कृते भूरि नाशयेन्मतिमान्नरः॥
एतदेवातिपांडित्यं यत्स्वल्पाद्भूरिसाधनम्॥१३॥
बुद्धिमान मनुष्य थोडेसे (कामके) वास्ते बहुत से(धनादिक) को नष्ट नहीं करे। यही अत्यंत बुद्धिमत्ता है,
कि जो थोडे (काम) से बहुत सिद्ध करना॥१३॥
जातमात्रं न यः शत्रुं व्याधिं वा प्रशमं नयेत्॥
अतिपुष्टांगयुक्तोपि स पश्चात्तेन हन्यते॥१४॥
जो जन्मतेही शत्रुको अथवा बिमारीको नहीं शांतकरता है वह अत्यंत पुष्ट शरीरवाला हो तोभी पीछे तिस(शत्रुसे वा बिमारी) से मारा जाता है॥१४॥
प्रज्ञागुप्तशरीरस्य किं करिष्यंति संहताः॥
हस्तन्यस्तातपत्रस्य वारिधारा इवारयः॥१५॥
बुद्धिसे शरीरकी रक्षा करनेवालोंके शत्रु क्या करेंगे।जैसे हाथमें छत्री लिये हुयोंको जलकी धारा कुछ नहींदुःख दे सक्ती हैं तैसे॥१५॥
अफलानि दुरंतानि समव्ययफलानि च॥
अशक्यानि च वस्तूनि नारभेत विचक्षणः॥१६॥
और जिनसे कुछ फल सिद्ध न हो, जो बडी मुसकिलसेपार पडें, जिनमें नफा नुकसान बराबर हो, जो बनने मेंनहीं आवे ऐसे कामोंका प्रारंभ पंडित जन नहीं करे॥१६॥
** ततश्चैवं विचिंतयन्नभुक्ते एव दिनस्य तृतीयेयामे एक एव मंत्रयित्वा वंगदेशाधीश्वरस्य महाबलस्य वत्सराजस्य आकारणाय स्वमंगरक्षकं प्राहिणोत्। स चांगरक्षको वत्सराजमुपेत्य प्राह। राजात्वामाकारयतीति। ततः स्वरथमारुह्य परिवारेण परिवृतस्समागतो रथादवतीर्य राजानमवलोक्य प्रणेपत्योपविष्टः। राजा च सौधं निर्जनं विधाय वत्सराजं प्राह॥**
फिर ऐसे चितवन करके वह मुंजराजा दिनकेतीसरे पहरमेंही अकेलाही सलाह करके वंगदेशका अधीश्वर महाबली वत्सराजको बुलानेके वास्ते अपने अंगरक्षक निजदूतको भेजता गया। उस अंगरक्षकनेवत्सराजको प्राप्त होके, राजा तुमको बुलाता हैऐसा कहा। फिर (वह वत्सराज) अपने रथ में सवार होकुटुंबके जनोंसे युक्त होके आता गया, रथसे उतर राजाको देख प्रणाम करके बैठ गया। फिर राजा महलकोमनुष्योंसे रहित करके (कचहरि बरखास करके) वत्सराजको कहता गया॥
राजा तुष्टोपि भृत्यानां मानमात्रं प्रयच्छति॥
ते तु संमानितास्तस्य प्राणैरप्युपकुर्वते॥१७॥
प्रसन्न हुआ राजा भृत्योंको मानमात्र (सत्कारमात्र)देता है, फिर सम्मानित किये हुए (मानेहुए) वे भृत्यअपने प्राणोंसे भी ति/इस राजाका उपकार करते हैं॥१७॥
** ततस्त्वया भोजो भुवनेश्वरीविपिने हृतव्यः प्रथमयामे निशायाः। शिरश्चांते पुरमानेतव्यमिति।स चोत्थाय नृपं नत्वाह॥**
इसलिये तैंने रात्री के पहले प्रहरमें यह भोज भुवनेश्वरीवन में मार देना योग्य है। शिरको जिनाने महल में
ले आना। फिर वह खडा होकर राजाको प्रणामकरेके बोला॥
** देवादेशाः प्रमाणम्। तथापि भवल्लालनात्किमपिवक्तुकामोस्मि। ततस्सापराधमिति मे वचःक्षंतव्यम्॥**
हे देव ! मैंने आपकी आज्ञा अंगीकार की है, तोभीलडानेसे कुछ कहा चाहता हूं। इससे यह अपराधसहित हैऐसे मेरे वचनकी क्षमा करनी चाहिये॥
भोजेद्रव्यं न सेना वा परिवारो बलान्वितः॥
परं पोत इवास्तेद्य स हंतव्यः कथं प्रभो॥१८॥
भोजके पास द्रव्य नहीं है, सेना नहीं है, बलयुक्तकुटुंब नहीं है, केवल अत्यंत दीन (गरीब) सरीखा हैहे प्रभो ! सो ऐसा भोज कैसे मारने योग्य है॥१८॥
पारंपर्य इवासक्तस्त्वत्पाद उदरंभरिः॥
तदधे कारणं नैव पश्यामि नृपपुंगव॥१९॥
फक्त पेटको भरनेवाला और मानो सदासे ऐसाहीसंप्रदाय हो, ऐसे परंपराकी तरह आपके चरणों में आसक्त है, हे नृपपुंगव ! इस वास्ते ति/इस भोजके मारने मेंमैंकछु कारण नहीं देखता हूं॥१९॥
** ततो राजा सर्वं प्रातः सभायां प्रवृत्तं वृत्तमकथयत्। स च श्रुत्वा हसन्नाह॥**
फिर राजा प्रातःकालमें सभामें हुआ संपूर्ण वृत्तांतकोकहता गया। फिर वह सुनके हँसता हुआ बोला॥
त्रैलोक्यनाथो रामोस्ति वसिष्ठो ब्रह्मपुत्रकः॥
तेन राजाभिषेके तु मुहूर्तः कथिता भवेत्॥२०॥
रामचंद्र त्रिलोकीके नाथ हैं, वसिष्ठ ब्रह्मा के पुत्र हैंति/जिनने राज्याभिषेक के वास्ते मुहूर्त कहा था॥२०॥
तन्मुहूर्तेन रामपि वनं नीतोऽवनीं विना॥
सीतापहारोप्यभवद्विरिंचिवचनं वृथा॥२१॥
जातः कोयं नृपश्रेष्ठ किंचिज्ज्ञ उदरंभरिः॥
यदुक्तया मन्मथाकारं कुमारं हंतुमिच्छसि॥२२॥
तिस मुहूर्त्तने रामचंद्रभी विनाही पृथ्वी (का राज्य)वनमें प्राप्त करि दिये, सीताका हरणभी हुआ, ब्रह्माकावचनभी झूठा गया है, हे नृपश्रेष्ठ ! कछुक जाननेवालापेटको भरनेवाला यह ब्राह्मण कौन है कि जिसके कहनेपर आप कामदेवसमान सुकुमार बालकको मारने कीइच्छा करते हो॥२१॥२२॥
किंच—
किन्नु मे स्यादिदं कृत्वा किन्नु मे स्यादकुर्वतः॥
इति संचिंत्य मनसा प्राज्ञः कुर्वीत वान वा॥२३॥
औरभी है—यह करके निश्चय मेरा क्या होगा, यहनहीं करनेसे मेरा क्या होगा, ऐसे मनकरके चितवनकरकेपंडितजन करे अथवा नहींभी करे। भावार्थ यह है किपंडितजन काम करने के फलको विचारकेही कामकरते हैं॥२३॥
उचितमनुचितं वा कुर्वता कार्यजातं।
परिणतिरवधार्या यत्नतः पंडितेन॥
अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्ते-।
र्भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः॥२४॥
योग्य अयोग्य संपूर्ण कार्यमात्रोंको करते हुए पंडितजनने उन कामोंका परिणाम अर्थात् इनके आखीरमेंक्या फल होगा, ऐसा विचार यतनसे करना चाहिये।जो काम अत्यंत जल्दी से किये जाते हैं, उनकी विपत्तिसेहृदयको दग्ध करनेवाला शल्यके समान दुःखदायीफल मिलता है॥२४॥
** किंच–**
येन सहासितमशितं हसितं कथितं चरहसि विस्रब्धम्॥
तं प्रति कथमसतामपिनिवर्त्तते चित्तमामरणात्॥२५॥
औरभी है कि जिसके साथ बैठना, खाना, हँसना, बोलना, एकान्त में विश्वास करना होता है; ति/जिससे दुष्टजनोंकाभीचित्त मरणपर्यंत कैसे हटता है॥२५॥
** किंच–अस्मिन्हते वृद्धस्य राज्ञस्सिंधुलस्य परमप्रीतिपात्राणि महावीरास्तवैवानुमते स्थिताः। तेत्वन्नगरमुल्लोलकल्लोलाः पयोधरा इव प्लावयिष्यंति।चिराद्वद्धमूलेपि त्वयि प्रायः पौराः भोजं भुवो भर्तारं भावयंति।**
औरभी है कि–इसके मार देनेसे वृद्ध सिंधुलराजाके परमप्रीतिपात्र महाशूरबीर जो कि तेरी आज्ञामें स्थित हैं, वेहीतुम्हारे नगरको ऐसे नष्ट कर देंगे जैसे दीखनेमें दारुण चंचल मेघ नगरको डबोके नष्ट करते हैं, बहुत दिनसेभी तुममजबूत जडवाले बन रहे हो (तोभी) विशेष करके पुरवासी लोग भोजके ऊपर पृथ्वीका भार मान रहे हैं॥
** किंच–**
सत्यपि सुकृतकर्मणि दुर्नीतिश्चेत्श्रियं हरत्येव॥
तैलैस्सदोपयुक्तांदीपशिखां विदलयति हि वातालिः॥२६॥
औरभी है–सुकृतकर्म होनेमेंभी जो दुर्नीति (खराबनीति) होवे तो वह लक्ष्मीकी शोभाको हरतीही हैं, जैसेतेलसे अच्छी तरह भरपूर हुईभी दीपककी शिखाको वायुका समूह नष्टही कर देता है॥२६॥
** देव, पुत्रवधः क्वापि न हिताय इत्युक्तं वत्सराजवचनमाकर्ण्य राजा कुपितः प्राह त्वमेव राज्याधिपतिः न तु सेवकः॥**
हे देव ! पुत्रका वध कहींभी भला नहीं है, ऐसेकहे हुए वत्सराज के वचनको सुनके राजा क्रोधकरकेबोला कि तूही राज्यका अधिपति है सेवक नहीं है॥
स्वाम्युक्ते यो न यतते स भृत्यो भृत्यपाशकः॥
तज्जीवनमपि व्यर्थमजागलकुचाविवेति॥२७॥
स्वामीके कहे हुयेमें जो यतन नहीं करता है वह भृत्यसब भृत्योंमें नीच है, उस नृत्यका जीवनाभी जैसे बकरीकेगलेमें कुचा (मांसग्रंथि) लटकती है तैसे वृथाही है॥२७॥
** ततो वत्सराजः कालोचितमालोचनीयमिति मत्वा तूष्णीं बभूव। अथ लंबमाने दिवाकरे उत्तुंगसौधोत्संगादवतरंतं कुपितमिव कृतांतं वत्सराजं वीक्ष्य समेता अपि विविधेन मिषेण स्वभवनानि प्रापुर्भीताः सभासदः। ततः स्वसेवकान्स्वागारपरित्राणार्थं प्रेषयित्वा रथं भुवनेश्वरीभवनाभिमुखं विधाय भोजकुमारोपाध्यायाकारणाय प्राहिणोदेकंवत्सराजः। स चाह पंडितम्। तात त्वामाकारयतिवत्सराज इति। सोपि तदाकर्ण्य वज्राहत इव भूताविष्ट इव ग्रहग्रस्त इव तेन सेवकेन करेण धृत्वानीतः पंडितः। तं च बुद्धिमान् वत्सराजः सप्रणाममित्याह। पंडित तात उपविश, राजकुमारं जयंतंअध्ययनशालाया आनयेति। आयांतं जयंतं कुमारं किमप्यधीतं पृष्ट्वानैपीत्। पुनः प्राह पंडितंविप्र भोजकुमारमानयेति। ततो विदितवृत्तांतोभोजः कुपितो ज्वलन्निव शोणितेक्षणः समेत्याह।आः पाप राज्ञो मुख्यकुमारं एकाकिनं मां राजभवनात् बहिरानेतुं तव का नाम शक्तिरिति वामचरणपादुकामादाय भोजेन तालुदेशे हतो वत्सराजः।ततो वत्सराजः प्राह। भोज वयं राजांदेशकारिणंइति बालं रथे निवेश्य खड्गमपकोशं कृत्वा जगामाशु महामायाभवनम्। ततो गृहीते भोजे लोकाःकोलाहलं चक्रुः। हुंभावश्व प्रवृत्तः। किं किमितिब्रुवाणा भटा विक्रोशत आगत्य सहसा भोजं वधाय नीतं ज्ञात्वा हस्तिशालामुष्ट्रशालां वाजिशालां रथशालां प्रविश्य सर्वान् जघ्नुः। ततः प्रतोलीषुराजभवनप्राकारवेदिकासु बहिर्द्वारविटंकेषु पुरसमीपेषु भेरीपटहसुरजमड्डुकडिंडिमनिनदाडंबरेणांबरंविडंबितमभूत्। केचिद्विमलासिना केचिद्विषेण केचित्कुंतेन केचित् पाशेन केचिद्वह्निना केचित्परशुना केचिद्भल्लेन केचित्तोमरेण केचित्प्रासेन केचिदंभसा केचिद्वारायां ब्राह्मणयोषितो राजपुत्रा राजसेवका राजानः पौराश्च प्राणपरित्यागं दधुः। ततःसावित्रीसंज्ञा भोजस्य जननी विश्वजननीव स्थितादासीमुखात् स्वपुत्रस्थितिमाकर्ण्य कराभ्यां नेत्रेपिधाय रुदती प्राह। पुत्र पितृव्येन कां दशां गमितोसि। ये मया नियमा उपवासाश्चत्वत्कृते कृताःतेऽद्य मे विफला जाताः। दशापि दिशामुखानि शून्यानि। पुत्र देवेन सर्वज्ञेन सर्वशक्तिना मृष्टाः श्रियः।पुत्र एनं दासीवर्गं सहसा विच्छिन्नशिरसं पश्येत्युक्त्वा भूमावपतत्। ततः प्रदीप्ते वैश्वानरे समुद्भूतधूमस्तोमेनेव मलीमसे नभसि पापत्रासादिव पश्चिमपयोनिधौ मग्ने मार्तंडमंडले महामायाभवनमासाद्य प्राह भोजं वत्सराजः। कुमार भृत्यानां दैवत,ज्योतिःशास्त्रविशारदेन केनचिद्ब्राह्मणेन तव राज्यप्राप्तावुदीरितायां राज्ञा भवद्वधो व्यादिष्ट इति।भोजः प्राह॥**
फिर वत्सराज समयके योग्य हो सो विचारना चाहियेऐसा मानके चुपका हो गया। इससे अनंतर सूर्य छिपनेलगा तब ऊंचे महैलसे उतरते हुए वत्सराजको क्रोधितहुए धर्मराजको बराबर देखके इकट्ठे हुएभी सब सभासदलोग अनेक मिसकरके अपने २ घरोंको जाते गये, औरभयभीत होते गये। फिर वह वत्सराज अपने सेवकोंकोअपने घरकी रक्षाके वास्ते भेजके रथको भुवनेश्वरी देवीकेमंदिरके सन्मुख खडा करके भोजको पढानेवाले पंडितकोबुलवानेके वास्ते एक दूतको भेजता गया। वह दूतपंडितको बोला। हे तात! तुमको वत्सराज बुलाताहै। वहभी तिस बातको सुनके वज्रसे हत हुएकीतरह भूत लगे हुएकी तरह ग्रहसे ग्रस्त हुएकी तरहतिस सेवक करके हाथमें पकडा हुआ पंडितआया।फिर बुद्धिमान् वत्सराज तिस पंडितकोप्रणाम करके यह बोला कि हे पंडितजी ! हे तात ! बैठो।राजाके पुत्र जयंतको अध्ययन शालासे बुलवाओ। फिरआये हुए जयंत कुमारको कुछ पठन पाठ पूछके उलटाभेजता गया। फिर पंडितको बोला कि हे विप्र ! भोजकोबुलाओ। फिर सब समाचारको जाननेवाला भोज क्रोधित हो जलते हुएकी तरह लालनेत्र किये हुए आकेबोला। अहो क्रोधकी बात है, हे पापी ! राजाके मुख्यकुमार अकेले मुझको राजभवन से बाहिर ले जाने कीतेरी क्या शक्ति है, ऐसे कह वायें चरणकी पादुका (खडाऊँ)को उठा तिस भोजने वत्सराजके शिर में मारी। फिर वत्सराज बोला। हे भोज ! हम राजाकी आज्ञा करनेवाले हैंऐसा कह बालकको रथमें बैठाके खड्गको म्यानमें बंदकरशीघ्रही देवीके भवनपर पहुंचा। फिर भोज पकडा गयातब लोग कोलाहलशब्द मचाने लगे। हूं हूं क्या है ऐसाभाव प्रवृत्त गया। क्या है ? क्या है ? ऐसे कहके पुकारते हुएशूरवीर योधा शीघ्रही आये भोजको मारने के वास्ते पकडाहै, ऐसा जानके हाथियों की शाला, ऊंटोंकी शाला, घोडोंकीशाला, इनमें प्रवेश हो सबों को मारते गये। फिर गलियों मेंराजभवन की खाही कोटके पास शहरके दरवाजोंके आगे पुरके समीपमें भेरी, ढोल, मृदंग डैरू, मड्ड, तंबूर इन्होंके शब्दकरके आकाश गूंज उठा। फिर कितेक जन पैनी तलवारसेकितेक विषसे कितेक भालासे कितेक फांसीसे कितेकअग्निसेकितेक फरसेसे कितेक बरछीसे कितेक तोमरसेकितेक खांडेसे कितेक जलसे कितेक पृथ्वीमेंही ब्राह्मणस्त्रीराजपूत राजा सेवक राजा इत्यादिक शहर के लोगअपने प्राणोंका घात करते गए। फिर सावित्री नामवालीविश्वकी माताकी तरह स्थित हुई भोजकी माता दासीकेमुखसे अपने पुत्रकी व्यवस्थाको सुनकर नेत्र र्मंचके रोतीहुई बोली। हे पुत्र ! तुह्मारे चाचाने तुमको किस दशाकोपहुंचाये (किस हालतको पहुंचाये) जो मैंने नियम व्रत तुम्हारे वास्ते किये थे वे अब मेरे निष्फल हो गये। दशदिशाओंके मुख शून्य हो गये हैं। हे पुत्र ! सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् देवने सब ऐश्वर्य नाश कर दी। हे पुत्र ! इसदासीसमूहको एकवार कटे हुए शिरवालियों को देखो ऐसेकहके पृथ्वीमें गिर पडी। फिर जलती हुई अग्नि विषें उठेहुए धूमके समूहसे जैसे अंधेरा हो ऐसे आकाश मलिनहो गया, और मानों पापके त्रास से पश्चिमके समुद्र में सूर्यडूब गया हो ऐसे दिन छिप जानेपर वत्सराज महामायाकेभवनपर पहुंच के भोजको बोला। हे कुमार ! हे भृत्योंके देव !ज्योतिःशास्त्र में निपुण हुए किसी ब्राम्हणने तुमको राज्यप्राप्ति होना कहा, तब राजाने आपका वध करना कहाहै। भोज बोला॥
रामे प्रव्रजनं वलेर्नियमनं पांडोः सुतानां वनं।
वृष्णीनां निधनं नलस्य नृपते राज्यात्परिभ्रंशनम्॥
पाकागारनिषेवणं च मरणं संचित्य लंकेश्वरे।
सर्वः कालवशेन नश्यति नरः को वा परित्रायते॥२८॥
रामचंद्रजीका वनवास, बलिराजाका बंधन, पांडवोंकावनवास, यादवों की मृत्यु, नलराजाका राज्यसे गिरनाऔर रसोईके स्थानकी सेवा करनी (रसोई बनानी),रावणका मरना इन्हों को देखो; सबही जन कालके वशसेनष्ट होते हैं, कौन रक्षा करता है॥२८॥
लक्ष्मीकौस्तुभपारिजातसहजस्सूनुस्सुधांभोनिधे-।
र्देवेन प्रणयप्रसादविधिना मूर्ध्ना धृतः शंभुना॥
अद्याप्युज्झति नैव दैवविहितं क्षैण्यं क्षपावल्लभः।
केनान्येन विलंघ्यते विधिगतिः पाषाणरेखा सखी॥२९॥
जो चंद्रमा, लक्ष्मी, कौस्तुभमणि, कल्पवृक्ष, इन्होंका सहज (सहोदर भाई) है और अमृतरूपी क्षीरसमुद्रका पुत्र हैऔर विनतिपूर्वक प्रसन्नतासे महादेवजीने मस्तकमें धारणकिया है ऐसा चंद्रमा अबभी दैवबलसे क्षीणभावको नहींत्यागता है। हमेशा कला क्षीण होती ही रहती है इसलिये पत्थरकी रेषाकी सखी (अर्थात् जैसे पत्थरपरलकचीर खोदी जाती है वह मिटती नहीं है ऐसी) विधाताकी गति (होनहार, भावी) अन्य किससे उल्लंघी जातीहै ? अर्थात् किसीसेभी नहीं हटती है॥२९॥
विकटोर्व्यामप्यटनं शैलारोहणमपांनिधेस्तरणम्॥
निगडं गुहाप्रवेशो विधिपरिपाकः कथं नु संतार्यः॥३०॥
विकट भूमीपर विचरना, पर्वतपर चढना, समुद्रकातिरना, कैद, गुहामें प्रवेश, यह सब विधाताका रचा हुआहै। इसको कैसे पार करें अर्थात् सब भोगनाही पडता है
अंभोधिः स्थलतां स्थलं जलधितां धूलीलवः शैलतां
मेरुर्मृत्कणतांतृणं कुलिशतां वज्रं तृणप्रायताम्॥
वह्निः शीतलतां हिमं दहनतामायाति यस्येच्छया
लीलादुर्ललिताद्भुतव्यसनिने देवाय तस्मै नमः॥३१॥
और जिसकी इच्छासे समुद्र स्थल (भूमि) हो जावे, स्थल (भूमी) जल हो जावे, धूलके कि/कणके पर्वत होजावें, सुमेरु पर्वत रजकिणके हो जावे, तृण वज्रसरीखे होजावें, वज्र तृण हो जावे, अग्नि शीतल हो जावे, पालागरम हो जावे, ऐसे लीलामात्र से अत्यंत मनोहर अद्भुतव्यसन करनेवाले देवके अर्थ नमस्कार है॥३१॥
** ततो वटवृक्षस्य पत्रे आदाय एकं पुटीकृत्य जंघांछुरिकया छित्त्वा तत्र पुटके रक्तमारोप्य तृणेन एकस्मिन् पत्रे कंचन श्लोकं लिखित्वा वत्सं प्राह। महाभाग एतत्पत्रं नृपाय दातव्यं त्वमपि राजाज्ञां विधेहीति। ततो वत्सराजस्यानुजो भ्राता भोजस्य प्राणपरित्यागसमये दीप्यमानमुखश्रियमवलोक्य प्राह।**
फिर वड/टके वृक्षके दो पत्ते लेके एक पत्तेका डोनाबना अपनी जांघको छुरीसे काटके तिस दोने में लोहूकोघालके तुनकेसे एक पत्तेपर कोई श्लोक लिखके वत्सराजको बोला। हे महाभाग ! यह पत्र राजाको देना, अबतुमभीराजाकी आज्ञाको करो। फिर वत्सराजका छोटाभाई प्राणोंके त्याग समयमें भीभोजके मुखको उज्वलकांतिवाला देखके बोला॥
एक एव सुहृद्धर्मो र्निधनेप्यनुयाति यः॥
शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यच्च गच्छति॥३२॥
एक धर्मही मित्र है, जो कि मरनेके बादभी संग चलताहै। अन्य संपूर्ण शरीर के साथही नष्ट हो जाता है॥३२॥
न ततो हि सहायार्थे माता भार्या च तिष्ठति॥
न पुत्रमित्रे न ज्ञातिर्धर्मस्तिष्टति केवलः॥३३॥
फिर शरीर नष्ट होनेके अनंतर माता स्त्री सहायकेवास्ते नहीं ठहरती हैं। पुत्र, मित्र, भाई, बंधु कोईभी नहींठहरते। केवल धर्म ठहरता है॥३३॥
बलवानप्यशक्तोसौ धनवानपि निर्धनः॥
श्रुतवानपि मूर्खश्च यो धर्मविमुखो जनः॥३४॥
जो धर्मसे विमुख है ऐसा यह नर बलवान है तोभीनिर्बल है। धनवान है तोभी निर्धन है। शास्त्रवेत्ता है तो भीमूर्ख है॥३४॥
इहैवनरकव्याधेश्चिकित्सां न करोति यः॥
गत्वा निरौषधस्थानं स रोगी किं करिष्यति॥३५॥
इसही लोक में जो नरकरूपी बिमारीका इलाज नहींकरता है, वह रोगी औषधरहित (नरकादि) स्थानमेंजाके क्या करेगा॥३५॥
जरां मृत्युं भयं व्याधिं यो जानाति स पंडितः॥
स्वस्थस्तिष्ठेन्निषीदेद्वा स्वपेद्वा केनचिद्धसेत्॥३६॥
जो वृद्धावस्था, मृत्यु, भय, रोग इन्होंको जानता हैवह पंडित है। स्वस्थ हुआ ठहरे। स्वस्थ हुआ आराम करे।स्वस्थ (खुशी) होके सोवे। अथवा किसीके संग हँसे॥३६॥
तुल्यजातिवयोरूपान् हृतान् पश्यत मृत्युना॥
नहि तत्रास्ति ते त्रासो वज्रवद्धृदयं तवेति॥३७॥
अपनी समान जातिवाले अपने समान उमर और रूपवालेको मृत्यु करके नाश किये हुउको देखो। तहांभीआपके त्रास (खेद) नहीं होता है। तुम्हारा हृदयवज्र के समान है॥३७॥
** ततो वैराग्यमापन्नो वत्सराजः भोजं क्षमस्वेत्युक्त्वा प्रणम्य तं च रथे निवेश्य नगराद्वहिर्घने तमसि गृहमागमय्य भूमिगृहांतरे निक्षिप्य भोजं ररक्ष।स्वयमेव कृत्रिमविद्याविद्भिः सुकुंडलं स्फुरद्वक्त्रं निमीलितनेत्रं भोजकुमारमस्तकं कारयित्वा तच्चादाय कनिष्ठो राजभवनं गत्वा राजानं नत्वा प्राह।श्रीमता यदादिष्टं तत्साधितमिति। ततो राजाच पुत्रवधं ज्ञात्वा तमाह वत्सराज खड्गप्रहारसमयेतेन पुत्रेण किमुक्तमिति। वत्सस्तत्पत्रमदात्।राजा स्वभार्याकरेण दीपमानीय तानि पत्राक्षराणि वाचयति॥**
फिर वैराग्यको प्राप्त हुआ वत्सराज भोजको प्रणामकर क्षमा करो ऐसे कहके नगरसे बाहिर बहुत अंधेराहोने के समय अपने घर में आके भौंहरामै ल्हको के भोज कीरक्षा करता गया। (फिर) आपही कृत्रिमविद्या जाननेवाले चित्रकारों करके सुंदर कुंडलवाला, चिमकते हुएमुखवाला, मींचे हुए नेत्रोंवाला, भोजकुमारका मस्तकबनवाके राजभवनमें जाके राजाको नमस्कार करके बोला।कि, श्रीमान् आपने जो कहा था सो सिद्ध किया है।फिर राजा पुत्रकी मृत्यु जानके तिसको बोला हे वत्सराज !तलवार मारनेके समय तिस पुत्रने क्या कहा, तब वत्सराजपत्रको देता गया। राजा अपनी स्त्रीके हाथसे दीपकमंगवाके तिन पत्रके अक्षरोंको वांचता है॥
मांधाता च महीपतिः कृतयुगालंकारभूतो गतः।
सेतुर्येन महोदधौ विरचितः क्वासौ दशास्यांतकः॥
अन्ये चापि युधिष्ठिरप्रभृतयो याता दिवं भूपते।
नैकेनापि समं गता वसुमती नूनं त्वया यास्यति॥३८॥
सत्ययुगका आभूषणरूप मांधाता राजा चला गया(नष्ट हो गया)। और जिसने समुद्रपर पूल बांधा, वहरावणको नष्ट करनेवाला (राम) कहाँ हैं। और हेभूपते ! अन्यभी युधिष्ठिर आदि राजा लोग स्वर्गमें पहुंचे।यह पृथ्वी एककेभी साथ नहीं गई। अब निश्चयहीतुह्मारे साथ चलेगी॥३८॥
** राजा च तदर्थं ज्ञात्वा शय्यातो भूमौ पपात।ततश्च देवीकरकमलचालितचैलांचलानिलेन ससंज्ञो भूत्वा देवि मां मा स्पृश हा हा पुत्रघातिनमितिविलपन् कुरर इव द्वारपालानानाय्य ब्राह्मणानानय-तेत्याह। ततः स्वाज्ञया समागतान् ब्राह्मणान्नत्वामया पुत्रो हतः तस्य प्रायश्चित्तं वदध्वमिति वदंतंते तमूचुः। राजन् सहसा वह्निमविशेति। ततःसमेत्य बुद्धिसागरः प्राह। यथा त्वं राजाधमस्तथैवअमात्याधमो वत्सराजः। तव किल राज्यं दत्त्वासिंधुलनृपेण तेन त्वदुत्संगे भोजः स्थापितः तच्चत्वया पितृव्येणान्यत्कृतम्॥**
राजा तिस अर्थको जानके शय्यासे पृथ्वीपर पडता गया। फिर रानीके हस्तं कमलसे हिलाये हुए दुपट्टा आदिवस्त्रकी पवन करके कुछ संज्ञाको प्राप्त हो, हे देवि ! हा हा पुत्रघाती मुझको स्पर्श मत करो, ऐसे कुररी पक्षीकीतरह विलाप करता हुआ राजा द्वारपालोंको बुलवाकेयह कहता गया कि ब्राह्मणोंको बुलालाओ। फिर अपनी आज्ञासे आये हुए ब्राह्मणोंको नमस्कार करके बोला,कि मैंने पुत्र मार दिया तिसका प्रायश्चित्त कहो। ऐसे कहते,हुए तिसको वे बोले। हे राजन ! शीघ्रही (एकदम)अग्निमें प्रवेश होना चाहिये। फिर वहां प्राप्त होके बुद्धिसागर बोला। जैसे तुम अधम राजा हो तैसेही वत्सराजमंत्रीभी अधम (नीच) है। क्योंकि सिंधुलराजाने तुमकोराज्य देके तुम्हारी गोद में भोज बैठाय दिया था, वहतुमने चाचाने मरवादिया॥
कतिपयदिवस स्थायिनि मदकारिणि यौ
वने दुरात्मानः॥विदधति तथापराधं
जन्म हि तेषां यथा वृथा भवति ॥३९॥
दुष्ट स्वभाववाले जन कितेक (थोडेसे) दिनोंतक ठहरनेवाले मदकारी यौवनमें ऐसा अपराध कर लेते हैं किजिससे उनका जन्मही वृथा हो जावे॥३९॥
संतस्तृणोत्सारणमुत्तमांगा-।
त्सुवर्णकोट्यर्पणमामनंति॥
प्राणव्ययेनापि कृतोपकाराः।
खलाः परे वैरमिवोद्वहंति॥४०॥
संतजन शिरके ऊपरसे तृणः (तृनके) को दूर करनेको करोडों सुवर्ण (महौर) देना मान लेते हैं। औरदुष्टजन, प्राणत्याग करके भी जो उपकार करते हैं उसकोभी वैरसरीखा मानते हैं॥४०॥
उपकारश्चापकारो यस्य व्रजति विस्मृतिम्॥
पाषाणहृदयस्यास्य जीवतीत्यभिधा सुधा॥४१॥
किये हुए उपकार और अपकार (तिरस्कार) जिसकेयाद नहीं रहते हैं। पत्थरसमान हृदयवालेका तिसेका ‘जीवना’ ऐसा नामही वृथा है॥४१॥
यथां कुरः सुसूक्ष्मोपि प्रयत्नेनाभिरक्षितः॥
फलप्रदो भवेत्काले तथा लोकः सुरक्षितः॥
जैसेबहुत छोटाभी अंकुर सुंदर जतनसे रक्षित कियाजावे तो समय पायके फल देनेवाला हो जाता है। ऐसे हीअच्छी तरह रक्षित किया हुआ जन कभी फलदायी होजाता है॥४२॥
हिरण्यधान्यरत्नानि धनानि विविधानि च॥
तथान्यदपि यत्किंचित्प्रजाभ्यः स्युर्महीभृताम्॥४३॥
सुवर्ण, धान्य, रत्न, अनेक प्रकारके धन तथा अन्यभी कुछ संपूर्ण वस्तु राजाओं के प्रजासे होती है॥४३॥
राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापपराः सदा॥
राजानमनुवर्तंते यथा राजा तथा प्रजाः॥४४॥
राजा धर्मवाला होवे तो धर्मवाली प्रजा रहती है।राजा पापी हो तो सब प्रजा पापमें लगी रहती है। राजाकेही अनुसार रहते हैं। जैसा राजा वैसी प्रजा॥४४॥
** ततो रात्रावेव वह्निप्रवेशननिश्चिते राज्ञि सर्वेसामंताः पौराश्च मिलिताः। पुत्रं हत्वा पापभयात्भीतो नृपतिर्वह्निं प्रविशतीति किंवदंती सर्वत्राजनि।ततो बुद्धिसागरो द्वारपालमाहूय न केनापि भूपालभवनं प्रवेष्टव्यमित्युक्त्वा नृपमंतःपुरे निवेश्य सभायामेकाकी सन् उपविष्टः। ततो राजमरणवार्तां श्रुत्वा वत्सराजः सभागृहमागत्य बुद्धिसागरं नत्वाशनैः प्राह। तात मया भोजराजो रक्षित इति। बुद्विसागरश्च कर्णे तस्य किमप्यकथयत्। तच्छ्रुत्वा वत्सराजश्च निष्क्रांतः। ततो मुहूर्तेन कोपि करकलितदंतींद्रदंतदंडो विरचितप्रत्ययजटाकलापः कर्पूरकरंबितभसितोद्वर्तितसकलतनुर्मूर्ति-मान्मन्मथइवस्फटिककुंडल मंडित कर्णयुगलः कौशेयकौपीनो मूर्तिमांश्चंद्रचूड इव सभां कापालिकः समागतः। तंवीक्ष्य बुद्धिसागरः प्राह। योगीन्द्र कुत आगम्यतेकुत्र ते निवेशश्च। कापालिके त्वयि यच्चमत्कारकारिकलाविशेष औषधविशेषोप्यस्ति। योगी प्राह॥**
फिर रात्रीमेंही राजाका अग्निमें प्रवेश होना निश्चयहो चुका, तब मंडलीक राजालोग शहरके आदमी ये सबमिलके (ऐसे कहते गये कि) पुत्रको मारके पापके भयसेडरता हुआ राजा अग्रिमें प्रवेश करता है, ऐसा चुरघा(वार्ता) सब जगह हो गया। फिर बुद्धिसागर मंत्रीद्वारपालोंको बुलवाके यह कहता गया कि, राजाके महेलमें किसीको नहीं आने देना, फिर आप राजाके जिनाने महलोंकी बैठक में जाके अकेलाही बैठ गया। फिर राजाकेमरणकी वार्त्ताको सुनके वत्सराज सभास्थान में आकेबुद्धिसागरको प्रणाम कर शनैः २ बोला। हे तात !मैंने भोजराज बंचा रख्खा है। तब बुद्धिसागर तिसकेकान में कुछ कहता गया। उस बात को सुनके वत्सराज चला गया। फिर एक मुहूर्त(२ घडी) में कोई हाथमें सुंदरहाथीदंतका दंड(छटी) लिये मीहडीसहित जटाको बनाये हुए, कपूरकी धूलीसहित सफेद भस्म लगाये हुएसंपूर्ण शरीरकी ऐसी शोभा बनी रही मानो मूर्तिमान्कामदेव आ गया हो ऐसा, और स्फटिकमणिके कुंडलोंसे विभूषित कानोंवाला रेशमी कौपीन धारण किये हुए कपाली लिये हुए इस प्रकार आया, जैसे मूर्तिमान् महादेव सभामें आ गया हो। तिसको देखके बुद्धिसागर बोला।हे योगीन्द्र ! कहांसे आये, तुम्हारा स्थान कहां है। तुम्हारी कपालीमें कुछ चमत्कारी कलाविशेष कोई औषध बूंटि है क्या ! योगी कहने लगा॥
देशे देशे भवनं भवने भवने तथैवभिक्षान्नम्॥
सरसि च नाद्यं सलिलं शिवशिवतत्त्वार्थयोगिनां पुंसाम् ॥४५॥
** **शिव २ ऐसा तत्व प्रयोजनवाले योगिजनोंको देश २ में घर है। घर२में भिक्षाका अन्न है और सरोवरमें तथानदीमें होनेवाला जल है अर्थात् ये सब वस्तु मिलजाती है॥४५॥
ग्रामे ग्रामे कुटी रम्या निर्झरे निर्झरे जलम्॥
भिक्षायां सुलभं चान्नं विभवैः किं प्रयोजनम्॥४६॥
ग्राम २ में रमणीक कुटी है, पर्वतके झिरने २ में जल है। भिक्षामें सुलभ अन्न है फिर विभव (ऐश्वर्य) मिलनेसे क्या प्रयोजन है॥४६॥
** देव अस्माकं नैको देशः। सकलभूमंडलं भ्रमामः। गुरूपदेशे तिष्ठामः। निखिलं भुवनतलं करतलामलकवत्पश्यामः। सर्पदष्टं विषव्याकुलं रोगग्रस्तं शस्त्रभिन्नशिरस्कं कालशिथिलितं तात तत्क्षणादेव विगतसकलव्याधिसंचयं कुर्म इति।राजापिकुड्यांतर्हित एव श्रुतसकलवृत्तांतः सभामागतः कापालिकं दंडवत्प्रणम्य योगींद्र-रुद्रकल्प परोपकारपरायण महापापिना मया हतस्य पुत्रस्य प्राणदानेन मां रक्षेत्याह। अथ कापालिकोपि राजन् मा भैषीः। पुत्रस्ते न मरिष्यति शिवप्रसादेन गृहमेष्यति परं स्मशानभूमौ बुद्धिसागरेण सह होमद्रव्याणि प्रेषयेत्यवोचत्। ततो राज्ञा कापालिकेन यदुक्तं तत्सर्वं तथा कुर्विति बुद्धिसागरः प्रेषितः।ततो रात्रौ गूढरूपेण भोजोपि तत्र नदीपुलिने नीतः। योगिना भोजो जीवित इति प्रथा च समभूत्। ततोगजेंद्रारूढो बंदिभिः स्तूयमानो भेरीमृदंगादिघोषैजगद्बधिरीकुर्वन् पौरामात्यपरिवृतो भोजराजो राजभवनमगात्। राजा च तमालिंग्य रोदिति। भोजोपि रुदंतं मुंजं निवार्य अस्तौषीत्। ततः संतुष्टोराजा निजसिंहासने तस्मिन्निवेशयित्वा छत्रचामराभ्यां भूषयित्वा तस्मै राज्यं ददौ। निजपुत्रेभ्यःप्रत्येकमेकैकं ग्रामं दत्त्वा परमप्रेमास्पदं जयंतं भोजनिकाशे निवेशयामास। ततः परलोकपरित्राणो मुंजोपि निजपट्टराज्ञीभिः सह तपोवनभूमिं गत्वा परं तपस्तेपे। ततो भोजभूपालश्च देवब्राह्मणप्रसादाद्राज्यं पालयामास।**
** इति भोजराजस्य राज्यप्राप्तिप्रबंधः॥**
हे देव ! हमारा एक देश नहीं है। हम संपूर्ण भूमंडलमें भ्रमते हैं। गुरुके उपदेशमें स्थित रहते हैं। संपूर्ण भूमंडलको हाथ में स्थित हुए आंमला फलकी तरह प्रत्यक्ष देखते हैं। हे तात ! सर्पसे डसे हुएको, विषसे व्याकुल हुएको, रोगसे पीडित हुएको शस्त्रसे कटे हुए शिरवालेको, कालसे शिथिल हुएको हम तत्काल संपूर्ण रोगसमूहोंसे रहित (आरोग्य) कर देते हैं ऐसा कहा। राजाभी भींतकी ओटमें स्थित हुआ सब वृत्तांतको सुनके सभामें आके कपालधारी योगीको प्रणाम कर, हे योगीन्द्र ! शिवसमान ! हे परोपकार करनेमें तत्पर ! महापापी मैंने पुत्र मारा है तिस पुत्रको जिवाके मेरी रक्षा करो। इससे अनंतर वह योगी बोला हे राजन् ! मत डरो। तुह्मारा पुत्र नहीं मरेगा, शिवजीकी कृपासे घरको आ जावेगा परंतु बुद्धिसागरकी साथ श्मशान भूमीमें होमकी सामग्री पहुंचा दो ऐसा कहा। फिर राजा ने योगीसे कहा गया सब काम किया, सब काम करनेके बाद बुद्धिसागरको भेजा। फिर रात्रीमें गुप्तरूप करके भोजभी नदी के स्थल में प्राप्त कर दिया। और योगीने भोजजिवादिया ऐसी प्रसिद्धि होती भई। फिर हाथीपर चढा हुआ बंदीजनों करके स्तुत किया हुआ मृदंग आदि बाजोंके शब्दसे जगृत्को बहिरा करता हुआ शहरके लोग मंत्रीइन सबोंसे युक्त हुआ भोजराज राजाके भवनमें आता गया। फिर राजा तिसको मिलके रोने लगा। भोजभी रोतेहुऐ मुंजको बंद करके स्तुति करता भया। इससे अनंतर प्रसन्न हुआ राजा अपने सिंहासनपर तिस भोजको बिठाके छत्र चंवरसे विभूषित करके तिसके वास्ते राज्य देता भया। और अपने पुत्रोंके वास्ते अलग२ एक२ ग्राम देके पंरमप्रेमके स्थान जयंतको भोजकी गोदमें बैठाता गया। फिर परलोकके भयसे रक्षित हुआ मुंजभी अपनी पटरानियोंसहित तपोवनभूमीको प्राप्त होके परम तपस्या करताभया। फिर भोजराजा देवता और ब्राह्मणोंकी कृपासे राज्य करता गया॥
इति श्रीभोजप्रबंधभाषाटीकायां भोजराजस्य राज्यप्राप्तिप्रबंधः॥
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** ततो मुंजे तपोवनं याते बुद्धिसागरं मुख्यामात्यं विधाय स्वराज्यं बुभुजे भोजराजभूपतिः। एवमतिक्रामति काले कदाचिद्राज्ञा क्रीडतोद्यानं गच्छताकोपि धारानगरवासी विप्रो लक्षितः। स च राजानं वीक्ष्य नेत्रे निमील्य आगच्छन् राज्ञा पृष्टः। द्विज त्वं मां दृष्ट्वा न स्वस्तीति जल्पसि विशेषेण लोचने निमीलयसि तत्र को हेतुरिति। विप्र आह। देवत्वं वैष्णवोऽसि विप्राणां नोपद्रवं करिष्यसि। ततस्त्वत्तो न मेभीतिः, किंतुकस्मैचित्किमपि न प्रयच्छसि तेन तव दाक्षिण्यमपि नास्ति। अतस्ते किमाशीर्वचसा। किं च ‘प्रातरेव कृपणमुखावलोकनात् परतोपि लाभहानिः स्यात्’इति लोकोक्त्या लोचने निमीलिते॥**
फिर मुंजभी तपोवनमें चला गया तब भोज राजा मुख्य मंत्री बुद्धिसागरको रखके अपने राज्यको भोगता गया। इस प्रकार बहुत काल बीत चुका, तब क्रीडास्थानके बगीचाको जाते हुए भोजराजने कोई धारानगरनिवासी ब्राह्मण देखा। वह ब्राह्मण राजाको देख नेत्रोंको मौंचके आता गया, तब राजाने पूछा। हे ब्राह्मण ! तुम मुझको देखके ‘स्वस्ति’ऐसे आशीर्वाद नहीं देते हो विशेषकरके आंख मींचते हो यहां क्या हेतु है ऐसा कहा। ब्राह्मण बोला। हे देव ! तुम वैष्णव हो ब्राह्मणों के उपद्रव नहीं करोगे इसलिये तुमसे मुझको डर नहीं है, परंतु किसीके वास्ते कुछभी नहीं देते हो इसलिये तुम्हारी उदारता (चतुराई) भी नहीं है।इसवास्ते आशीर्वाद देनेसे क्या है। औरभी है कि प्रातःकालमें कृपणका मुख देखनेसे अन्य किसीसेभी हानि होती है, ऐसी लोगों की कहावतसे मैंने नेत्र मींच लिये॥
** अपि च–**
प्रसादो निष्फलो यस्य कोपश्चापि निरर्थकः॥
नतं राजानमिच्छंति प्रजाः षंढमिव स्त्रियः ॥४७॥
औरभी है–जिसकी प्रसन्नता निष्फल रहे और क्रोधभी निरर्थक रहे तिस राजाको प्रजा ऐसे नहीं चाहती है कि जैसे नपुंसकको स्त्री नहीं चाहती है॥ ४७ ॥
अप्रगल्भस्य या विद्या कृपणस्य च यद्धनम्॥
यच्चबाहुबलं भीरोर्व्यर्थमेतत्त्रयं भुवि॥४८॥
विना भरखमकी विद्या और कृपणका धन, डरपोक आदमीकी भुजाओंका बल ये तीन वस्तु पृथ्वीपर व्यर्थ, (निष्फल) हैं॥४८॥
** देव मत्पिता वृद्धः काशीं प्रति गच्छन् मया शिक्षां पृष्टः तात मया किं कर्त्तव्यमिति।पित्रा चेत्थमभ्यर्धायि॥**
हे देव ! मेरा वृद्ध पिता काशीको जाता था, तब मैंने, उससे शिक्षा पूछी कि हे तात! मैंने क्या करना चाहिये। तब पिताने ऐसे कहा है॥
यदि तव हृदयं विद्वन् सुनयं स्वप्नेपि मास्म सेविष्ठाः॥
सचिवजितं षंढजितं युवतिजितं चैव राजानम्॥४९॥
विद्वन् ! जो तुम्हारा हृदय सुंदर नीतिवाला है तो मंत्रियोंसे जीता हुआ (वशमें हुआ), नपुंसकोंके वशमें हुआ, स्त्रियोंके वशमें हुआ ऐसे राजाको स्वप्नमेंभी नहीं सेवना॥४९॥
पातकानां समस्तानां द्वे परे तात पातके॥
एकं दुस्सचिवो राजा द्वितीयं च तदाश्रयः॥५०॥
सब पापोंमें दो पाप विशेष हैं एक दुष्टमंत्रियोंवाला राजा, दूसरा तिस राजाके आश्रय रहना॥ ५० ॥
अविवेकमतिर्नृपतिर्मंत्रिषु गुणवत्सु वक्रितग्रीवः॥
यत्र खलाश्च प्रबलास्तत्र कथं सज्जनावसरः॥५१॥
मूढे बुद्धिवाला राजा, गुणवान् मंत्रियोंमें टेढी ग्रीवा (टेढ़ी मुख) रखता है। जहां दुष्ट जन प्रबल हैं वहां सज्जन पुरुषको अवकाश कहां है॥ ५१ ॥
राजा संपत्तिहीनोपि सेव्यः सेव्यगुणाश्रयः॥
भवत्याजीवनं तस्मात्फलं कालांतरादपि॥५२॥
संपत्तिसे हीन हुआभी राजा जो सेवने योग्य गुणोंका स्थान हो वह सेवनाही चाहिये। उससे कालांतर में समय पायके आजीविका होती है। फल लगता है॥५२॥
** अदातुर्दाक्षिण्यं नहि भवति। देव पुरा कर्णदधीचिशिबिविक्रमप्रमुखाः क्षितिपतयो यथा परलोकमलंकुर्वाणाः निजदानसमुद्भूतदिव्यनवगुणैर्निवसंति महीमंडले तथा किमपरे राजानः॥**
** **दान नहीं करनेवालोंकी उदारता चतुराई नहीं है। हे देव ! पहले राजा कर्ण, दधीची, शिबि, विक्रम आदि राजा जैसे परलोकको विभूषित करते गये और अपने दानों कर करके उत्पन्न हुए नव गुणोंकरके निरंतर पृथ्वीपर वास करते हैं, तैसे क्या अन्य राजा हैं ?॥
देहे पातिनि का रक्षा यशो रक्ष्यमपातवत्॥
नरः पतति कायोपि यशःकायेन जीवति॥५३॥
अवश्य पडनेवाले देहमें क्या रक्षा करे जो कभी नहीं पडनेवाला है ऐसे यशकी रक्षा करे। मनुष्यकी मृत्यु होतीहै, शरीर गिर जाता है तबभी यशरूपी शरीर करके वह नर जीवता है॥५३॥
पंडिते चैव मूर्खे च बलवत्यपि दुर्बले॥
ईश्वरे च दरिद्रे च मृत्योस्सर्वत्र तुल्यता॥५४॥
पंडित, मूर्ख, बलवान्, दुर्बल, ईश्वर, दरिद्री इन सबों में मृत्यु बराबर हैं॥५४॥
निमेषमात्रमपि ते वयो गच्छन्न तिष्ठति॥
तस्माद्देहेष्वनित्येषु कीर्तिमेकामुपार्जयेत्॥५५॥
तुम्हारी अवस्था चली जाती है, क्षणमात्र भी नहींठहरती है। इसलिये अनित्य देहों विषें एक कीर्तिको संचित करे॥५५॥
जीवितं तदपि जीवितमध्ये।
गण्यते सुकृतिभिः किमु पुंसाम्॥
ज्ञानविक्रमकलाकुललज्जा-।
त्यागभोगरहितं विफलं यत्॥५६॥
** **जो ज्ञान विक्रम, कला, कुललज्जा, दान, भोग इन्हों करके रहित निष्फल है वह पुरुषोंका जीवनाभीक्या सुकृतिजनों करके जीवनमेंही गिना जाता है ? अर्थात् नहीं गिना जाता ॥५६॥
** राजापि तेन वाक्येन पीयूषपूरस्नात इव परब्रह्मणि लीन इव लोचनाभ्यां हर्षाश्रूणि मुमोच। प्राह च द्विजं विप्रवर शृणु॥**
राजाभी तिस वचन करके अमृतसे भरपूर हुए सरोवर में गोता लगाये हुएकी तरह, परब्रह्म में लीन हुएकीतरह नेत्रोंसे हर्षकी आंशु पटकता गया और बोलाभी, हे द्विज विप्रवर ! सुनो॥
सुलभाः पुरुषा लोके सततं प्रियवादिनः॥
अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः॥५७॥
निरंतर प्रिय वचन बोलनेवाले पुरुष संसारमें सुलभ (बहुत) हैं और जो प्रिय नहीं लगे ऐसे (अप्रिय) पथ्य(हितदाई) वचन कहने सुननेवाला दुर्लभ है॥ ५७ ॥
मनीषिणः संति न ते हितैषिणो।
हितैषिणः संति न ते मनीषिणः॥
सुहृच्च विद्वानपि दुर्लभो नृणां।
यथौषधं स्वादु हितं च दुर्लभम्॥५८॥
जो बुद्धिमान् (पंडित) है वे हितदायी नहीं है और जो हितकी इच्छावाले हैं वे बुद्धिमान् (प्रिय मीठे वचन बोलनेवाले) नहीं हैं मनुष्योंको विद्वान् मित्र मिलना दुर्लभ है। जैसे स्वादु औषध मिलना दुर्लभ है अर्थात् कडुईही होती है। तैसेही हितदायी कठोर वचनभी अच्छा है॥ ५८ ॥
इति विप्राय लक्षं दत्त्वा किं ते नामेत्याह। विप्रः स्वनाम भूमौ लिखति गोविंद इति। राजा वाचयित्वा विप्र प्रत्यहं राजभवनमागंतव्यं न ते कश्चिनिषेधः। विद्वांसः कवयश्च कौतुकात् सभामानेतव्याः। कोपि विद्वान् न दुःखभागस्तु एनमधिकारं पालयेत्याह। एवं गच्छत्सु कतिपयदिवसेषु राजा विद्वत्प्रियः दानवित्तेश्वर इति प्रथामगात्। ततो राजानं दिदृक्षवः कवयो नानादिग्भ्यः समागताः। एवं वित्तादिव्ययं कुर्वाणं राजानं प्रति कदाचित् मुख्यामात्येनेत्थमभ्यधायिं। देव राजानः कोशबलाः एव विजयिनो नान्ये॥
इस प्रकार कहा और तिस ब्राह्मणके अर्थ लाख रुपैये देके बोला कि तुम्हारा क्या नाम है। ब्राम्हणअपने नामको ‘गोविंद’ ऐसा पृथ्वीपर लिखता गया। तब राजा उस नामको वांचके बोला हे विप्र ! नित्य प्रति तुम राजभवन में आया करो, तुम्हारा कोई निषेध नहीं है। विद्वान कवि लोग हर्षपूर्वक सभा में लाने चाहिये। कोईभी विद्वान दुःख नहीं पावे यह अधिकार तुमको सौंपा गया है। इस प्रकार कितेक दिन बीत चुके, तब राजा विद्वानोंसे हित रखता है सब दानियों में शिरोमणि है ऐसी विख्याती होती गई। तब राजाको देखने के वास्ते अनेक दिशाओंसे कविलोग आते गये। ऐसे धनका खर्च करतेहुए राजाके प्रति कभी मुख्यमंत्रीने ऐसे कहा कि॥
स जयी वरमातंगा यस्य कस्यास्ति मेदिनी॥
कोशो यस्य स दुर्धर्षो दुर्गंयस्य स दुर्जयः॥ ५९ ॥
यह जयी अर्थात् विजय करनेवाला है कि जिसके बहुत उत्तम हाथियोंसे शोभित भूमि है, और जिसके पास खजाना है, वह दुर्धर्ष (किसीसे सहा नहीं जावे) है। जिसके दुर्ग (किला) है वह दुर्जय है (जीतने में नहीं आता है)॥ ५९ ॥
** देव लोकं पश्य**
हे देव! लोकको देखो॥
प्रायो धनवतामेव धने तृष्णा गरीयसी॥
पश्य कोटिद्वयासक्तं लक्षाय प्रवणं धनुः॥६०॥ इति ।
विशेषकरके धनवालोंकीही धनमें बहुत तृष्णा रहती है दो कोटिसे आसक्त हुये (भरपूर हुए) धनुषको लक्षकेवास्ते (निसान के वास्ते) नम्र हुए (नवा हुए) को देखो। भाव यह है कि इस श्लोक में दो अर्थ दिखाये हैं इसी प्रकार दो करोड रुपैयाँवालाभीलाखरुपयोंके वास्ते उद्यम करता है। धनुषमें दो कोटि (अग्रभाग) होते हैं बीचसे धनुष नवता है यहां लक्ष नाम निसानका लेना ॥६०॥
राजा च तमाह॥
** **ऐसे सुन राजासा तिसको बोला॥
**दानोपभोगवंध्या या सुहृद्भिर्या न भुज्यते॥
पुंसां समाहिता लक्ष्मीरलक्ष्मीः क्रमशो भवेत् ॥६१॥ **
जो दान उपभोगके वास्ते वंध्या है अर्थात् जिससे दान भोग नहीं होता और जो मित्रजनोंसे नहीं भोगी जाती है वह पुरुषोंकी संचित की हुई भी लक्ष्मी क्रमकरके अलक्ष्मी हो जाती है॥ ६१ ॥
** इत्युक्त्वा राजा तं मंत्रिणं निजपदाद्दूरीकृत्यतत्पदेन्यं दिदेश। आह च तम्॥**
ऐसे कहके राजा तिस मंत्रीको उसके निज अधिकारसे अलग करके तिसकी जगह दूसरेको स्थापित करता गया। और तिसको बोला॥
लक्षं महाकवेर्देयं तदर्धंविबुधस्य च॥
देयं ग्रामैकमर्थ्यस्य तस्याप्यर्धंतदार्थिनः॥६२॥
महाकविको लाख रुपैये देना, पंडितको पचास हजार देना चाहिये और जो अर्थको समझनेवाला हो उसको एक ग्राम इनाम देना, फिर जो तिस अर्थ समझनेवालेसे कहे हुए को समझनेवाला हो उसको उससे आधा द्रव्य देना॥ ६२ ॥
** यश्चमे अमात्यादिषु वितरणनिषेधमनाः स हंतव्यः। उक्तं च॥**
जो मेरे मंत्री आदिकों में दान करनेमें निषेध करनेका मन रक्खे वह मारने योग्य है। कहानी है॥
यद्ददाति यदश्नाति तदेव धनिनां धनम्॥
अन्ये मृतस्य क्रीडंति दारैरपि धनैरपि॥६३॥
जो देता है, जो भोगता है, वही धनवालोंका धन है।मरे हुए के धनको तथा स्त्रियोंको अन्यही भोगते हैं॥६३॥
प्रियः प्रजानां दातैव न पुनर्द्रविणेश्वरः॥
अगच्छन् कांक्ष्यते लोकैर्वारिदो न तु वारिधिः॥६४॥
दाता (देनेवाला) ही प्रजाका प्रिय है, धनेश्वर प्रिय नहीं है। लोगोंने मेघकीही ठहराव (स्थिति) चाहती है समुद्रकी स्थिति नहीं चाहती॥६४॥
संग्रहैकपरः प्रायः समुद्रोपि रसातले॥
दातारं जलदं पश्य गर्जंतं भुवनोपरि॥६५॥
विशेषकरके संग्रह करनेमें जो तत्पर है ऐसा समुद्र तो पृथ्वीपर पडा है और जल देनेवाले मेघको लोकके ऊपर गर्जते हुएको देखो॥६५॥
** एवं वितरणशालिनं भोजराजं श्रुत्वा कश्चित्कलिंगदेशात्कविरुपेत्य मासमात्रं तस्थौ। न च क्षोणींद्रदर्शनं भजति आहारार्थे पाथेयमपि नास्ति। ततः कदाचिद्राजा मृगयाभिलाषी बहिर्निर्गतः। स कविर्दृष्ट्वा राजानमाह॥**
इस प्रकार दान देनेमें समर्थ भोजराजको सुनके कोई कवि कलिंगदेशसे आके एक महीनातक ठहरता गया। परंतु राजाके दर्शन नहीं गये हैं, भोजनके वास्ते खर्चीभी नहींहै। तब कभी सिकार खेलने के वास्ते राजा बाहिर निकला तब वह कवि राजाको देखके बोला॥
दृष्टे श्रीभोजराजेंद्रे गलंति त्रीणि तत्क्षणात्॥
शत्रोः शस्त्रं कवेः कष्टं नीवीबंधों मृगीदृशाम्॥६६॥
श्रीभोजराज के दर्शन होतेही तिसी क्षणमें तीन वस्तु गिर पडती हैं। शत्रुका शस्त्र, कविका कष्ट, स्त्रियोंका नाड़ा (खुल जाता है)॥६६॥
** राजा लक्षं ददौ। ततस्तस्मिन्मृगयारसिके राजनि कश्चन पुलिंदपुत्रो गायति। तेन गीतमाधुर्येण तुष्टो राजा तस्मै पुलिंदपुत्राय पंचलक्षं ददौ। तदा कविः तद्दानमत्युन्नतं किरातपोतं च दृष्ट्वा नरेंद्रपाणिकमलस्थपंकजमिषेण राजानं वदति॥**
राजा लाख रुपैये देता गया। तब सिकार खेलनेमें रसिक हुए तिस राजाके विषे कोई पुलिंद नीच म्लेच्छ(जाति) का पुत्र गीत गाता था। तिस गीतकी माधुर्यतासे प्रसन्न हुआ राजा तिस पुलिंद (भील) के पुत्रके वास्ते पांच लाख रुपैये देता गया। तब वह कवि तिसके दानके बहुत घना देख और उस भील के बालकको देखके राजाके हाथमें स्थित हुए कमलकेमिसकरके राजाको बोला॥
एते गुणाः पंकज संतोपि न ते प्रकाशमायांति॥
यल्लक्ष्मीवसतेस्तव मधुपैरुपभुज्यते कोशः॥६७॥
हे कमल ! तेरे इतने गुण प्रकाश नहीं होते हैं, जो कि,लक्ष्मीका निवास (स्थान) काभी तेरा कोश (खजाना) मधुप अर्थात् भौहरों करके भोगा जाता है। भावराजाके पक्षमें यह है। लक्ष्मीके निवासका तेरा खजाना शहत पीनेवाले गंवारपालीही लेते हैं॥६७॥
** भोजस्तमभिप्रायं ज्ञात्वा पुनर्लक्षमेकं ददौ।ततो राजा ब्राह्मणमाह॥**
तिस अभिप्रायको जानके फिर तिस ब्राह्मणके वास्ते एक लाख देता गया। फिर राजा ब्राह्मणको बोला॥
प्रभुभिः पूज्यते विप्र कलैव न कुलीनता॥
कलावान् मान्यते मूर्ध्नि सत्सु देवेषु शंभुना॥६८॥
हे विप्र ! (प्रभु) स्वामीजनोंकरके कलाही पूजी जाती है कुलीनता नहीं पूजी जाती है। जैसे अन्य बहुतसेदेवतों के होने परभी शिवजीने कलावान् चंद्रमाही मस्तकपर धारण किया है॥६८॥
** एवं वदति भोजे कुतोपि पंचषाः कवयः समागताः। तान्दृष्ट्वा राजा विलक्षण इवासीत्। अद्यैव मया एतावद्वित्तं दत्तमिति। ततः कविस्तमभिप्रायं ज्ञात्वा नृपं पद्ममिषेण पुनः प्राह॥**
** **ऐसे भोज कह रहा था, तब कहींसे पांच छह कवि आते गये। तिनको देखके विलक्षणकी तरह हो गया कि,अबही मैंने इतना धन दिया है (ऐसे स्वभाव बदला)।तब तिस अभिप्रायको जानके फिरभी वह कवि कमलके मिससे राजाको बोला॥
किं कुप्यसि कस्मै वा नवसौरभसारायहि निजमधुने॥
यस्य कृते शतपत्रतेद्य प्रतिपत्रं मृग्यते भ्रमरैः॥६९॥
हे शतपत्र अर्थात् सो पत्रोंवाले कमल ! किसके वास्ते क्या कोप करता है। नवीन सुगंधि जिसमें सारवस्तु है ऐसे अपने मधुके वास्ते (क्या कोप करते हो)। जिस मधुके वास्ते अब तुह्मारा एक २ पत्र भ्रमरोंकरके ढूंढा जाता है॥६९॥
** ततः प्रभुं प्रसन्नवदनमवलोक्य प्रकाशेन प्राह॥**
इससे अनंतर राजाको प्रसन्नमुखवाला देखके फिर बोला॥
**न दातुं नोपभोक्तुं च शक्नोति कृपणः श्रियम्॥
किं तु स्पृशति हस्तेन नपुंसक इव स्त्रियम् ॥७०॥ **
कृपण पुरुष लक्ष्मीको दान नहीं कर सकता, भोग नहीं कर सकता है, किंतु हाथसे स्पर्शही कर लेता है। जैसे नपुंसक पुरुष स्त्रीको हाथसे स्पर्श कर लेता है॥७०॥
याचितो यः प्रहृष्येत दत्त्वा च प्रीतिमान् भवेत्॥
तं दृष्ट्वाप्यथवा श्रुत्वा नरः स्वर्गमवाप्नुयात्॥७१॥
जो प्रार्थना किया हुआ (मांगा हुआ) प्रसन्न होवे, दान देके प्रीति करे, मनुष्य तिसके दर्शनकरके अथवासुनके स्वर्गको पहुंचता है॥७१॥
** ततस्तुष्टो राजा पुनरपि कलिंगदेशवासिकवयेलक्षं ददौ। ततः पूर्वकविः पुरःस्थितान् षट् कवींद्रान्दृष्ट्वाह। हे कवयोत्र महासरस्सेतुभूमौवासी राजा यदा भवनं गमिष्यति तदा किमपि ब्रूतेति। ये च सर्वे महाकवयोपि सर्वं राज्ञः प्रथमचेष्टितं ज्ञात्वावर्त्तंत तेष्वेकः सरोमिषेण नृपं प्राह॥**
तब प्रसन्न हुआ राजा फिरभी कलिंगवासी तिस कविके वास्ते लाख रुपैये देता गया। फिर पहला वही कवि आगे खडे हुए तिन छह कवीन्द्रोंको बोला। हे कवियो ! यहां महासरोवरकी पुलकी भूमीपर वसनेवाला यह राजा जब घरको जावेगा तब कछु कहना। फिर जो वे सब महाकवि राजाके संपूर्ण पूर्व किए हुएको जानके खडे हुए थे उनमांहसे एक कवि सरोवर के मिससे राजाको बोला॥
आगतानामपूर्णानां पूर्णानामप्यगच्छताम्॥
यदध्वनि न संघट्टो घटानां तत्सरोवरम्॥७२॥
अपूर्ण अर्थात् खाली होके आये हुए और भरपुर होके नहीं जाते हुये घटोंका संघट्ट (मिलाप) जिसके मार्गमें नहीं होता है ऐसा सरोवर है। भाव यह है। आप ऐसे सरोवररूप हो कि तुम्हारे पास आके खाली घटरूप निर्धन कभी पूर्ण धन लेकेभी नहीं जाते हैं, और खालीभी नहींजाते हैं॥७२॥
** इति। तस्य राजा लक्षं ददौ। ततो गोविंदपंडितस्तान् कवींद्रान्दृष्ट्वा चुकोप। तस्य कोपाभिप्रायं ज्ञात्वा द्वितीयः कविराह॥**
ऐसा कहा, तिसके वास्ते राजा लाख रुपैये देता गया। फिर गोविंद कवीश्वर तिन कवियोंको देखके क्रोध करता गया। तब कोपके अभिप्रायको जानके दूसरा कवि बोला॥
कस्य तृषं न क्षिपयसि पिबति न कस्तव पयः प्रविश्यांतः॥
यदि सन्मार्गसरोवर नक्रो नक्रोडमधिवसति॥७३॥
हे श्रेष्ठमार्गवाले सरोवर ! जो तुम्हारी गोद में नाकू (मगर मच्छर) नहीं रहता, तो तुम किसकी तृषाको दूर नहीं करते हो और तुम्हारे भीतर (अंतःकरण में) प्रवेश होके जलको कौन नहीं पीवता॥७३॥
** राजा तस्मै लक्षद्वयं ददौ। तं च गोविंदपंडितंव्यापारपदाद्दूरीकृत्य त्वयापि सभायामागतव्यं परंतु केनापि दौष्ट्यं न कर्तव्यम्। इत्युक्त्वा ततस्तेभ्यः प्रत्येकं लक्षं दत्त्वा स्वनगरमागतः। ते च यथायथं गताः। ततः कदाचिद्राजा मुख्यामात्यं प्राह॥**
राजा तिस कविके वास्ते दो लाख रुपये देता गया। और तिस गोविंद कवि शिरोमणि कविताके प्रिय पंडितको व्यापारमुद्रा (अधिकार) से दूर करके तैंनेभी सभामें आना परंतु किसीसे ईर्षा नहीं करना। ऐसे कहके फिर अलग २ तिन्होंके वास्ते एक २ प्रति लाख २ रुपैयेदेके अपने नगर में आता गया। वे सब अपनी २ जगह पर गये। इससे अनंतर राजा मुख्य मंत्री को बोला॥
विप्रोपि यो भवेन्मूर्खः स पुराद्बहिरस्तु मे॥
कुंभकारोपि यो विद्वान् स तिष्ठतु पुरे ममेति॥७४॥
जो ब्राह्मणभी मेरे शहर में मूर्ख हो वह बाहिर निकल जाओ। और जो कुलारभी विद्वान् हो वह मेरे शहर में ठहरो॥७४॥
** अतः कोपि न मूर्खोभूद्धारानगरे। ततः क्रमेण पंचशतानि विदुषां वररुचिवाणमयूररेफणहरिशंकरकलिंगकर्पूरविनायकमदनविद्याविनोदकोकिलतारेंद्रमुखाः सर्वशास्त्रविचक्षणाः सर्वज्ञाः श्रीभोजराजसभामलंचक्रुः। एवं स्थिते कदाचिद्विद्वदवंदिते सिंहासनासीने कविशिरोमणौ कवित्वप्रिये विप्रप्रियबांधवे भोजेश्वरे द्वारपाल एत्य प्रणम्य व्यजिज्ञपत्। देव कोपि विद्वान् द्वारि तिष्ठतीति। अथ राज्ञा प्रवेशय तमिति आज्ञते सोपि दक्षिणेन पाणिना समुन्नतेन विराजमानो विप्रः प्राह॥**
इसवास्ते धारानगरी में कोई भी मूर्ख नहीं गया। फिर क्रमसे पांच सौ(५००) विद्वान् वररुचि, बाण, रेफण, हरिशंकर, कलिंग, कर्पूर, विनायक, मदन, विद्याविनोद, कोकिल, तारेन्द्र इत्यादि सर्व शाखवेत्ता सर्वज्ञ कविलोग श्रीभोजराजकी सभाको विभूषित करते गये। किसी समय इस प्रकारस्थित हुए विद्वत्समूहों करके वंदित हुए सिंहासनपर बैठेहुए कवियोंमें शिरोमणि तथा कविताके प्रिय रसिक औरविप्र प्रिय बांधवोंसे युक्त हुए भोजराजेश्वर के पास द्वारपालआके प्रणाम करके निवेदन करता गया। हे देव ! कोईविद्वान द्वारपर खडा है।फिर राजाने कहा उसे लाओऐसे आज्ञा गई तब दहिने हाथको ऊपरको उठाये हुआविराजमान हुआ वह ब्राह्मणभी बोला॥
राजन्नभ्युदयोस्तु शंकरकवे किं पत्रिकायामिदं।
पद्यं कस्य तवैव भोजनृपते पापठ्यतां पठ्यते॥
एतासामरविंदसुंदरदृशां द्राक् चामरांदोलना-।
दुद्वेल्लद्भुजल्लिकंकणझणत्कारः क्षणं वार्यताम् ॥७५॥
इस श्लोक में राजा और शंकरकवि इन दोनुवोंके प्रश्नोत्तरहैं ‘है राजन् ! (आपका) अभ्युदय हो (ऐश्वर्य बढो)हे शंकरकवे ! इस पत्रिकामें क्या है ? श्लोक (है) किसका हे भोजनृपते तुम्हाराही है। अच्छी तरह वांचो वांचते है।सुंदर कमल समान नेत्रोंवाली इन स्त्रियोंके चंवरढुलानेसे घुमाती हुई भुजारूप लताओंके कंकणोंकि झणत्कारशब्दको क्षणमात्र निवारण कीजिये (जरा बंदकीजिये)॥७५॥
यथा यथा भोजयशो विवर्धते।
सितां त्रिलोकीमिव कर्तुमुद्यतम्॥
तथा तथा मे हृदयं विदूयते।
प्रियालकालीधवलत्वशंकया॥७६॥
जैसे २ भोजका श्वेत यश बढता है मानों त्रिलोकीकोसफेद किया चाहता है। (ऐसा दीखता है) तैसे २ हीमेरी प्रियाकी अलकावलीकी श्वेत होनेकी शंका करके मेरेहृदयमें खेद होता है, अर्थात् आपके यशसे सभी जगत्श्वेत होनेसे मेरी स्त्रीकी अलकेंगी श्वेत होवेंगी॥७६॥
** ततो राजा शंकरकवये द्वादशलक्षं ददौ। सर्वे विद्वांसश्च विच्छायवदना बभूवुः। परं कोपि राजभयान्नावदत्। राजा च कार्यवशात् गृहं गतः। ततोविभूपालां सभां दृष्ट्वा विबुधगणस्तं निनिंद। अहोनृपतेरज्ञता किमस्य सेवया। वेदशास्त्रविचक्षणेभ्यःस्वाश्रयकविभ्यः लक्षमदात्। किमनेन वितुष्टेनापि।असौ च केवलं ग्राम्यः कविः शंकरः। किमस्य प्रागल्भ्यं इत्येवं कोलाहलरवेजाते कश्चिदभ्यगात्कनकमणिकुंडलशाली दिव्यांशुकप्रावरणो नृपकुमार इव मृगमदपंककलंकितगात्रो नवकुसुमसमभ्यर्चितशिराश्चंदनांगरागेण विलोभयन् विलास इव मूर्तिमान् कवितेव तनुमाश्रितः शृंगाररसस्य स्यंदइव सस्यंदो महेंद्र इव महीवलयं प्राप्तो विद्वान्। तंदृष्ट्वा सा विद्वत्परिषत् भयकौतुकयोः पात्रमासीत्।स च सर्वान्प्रणिपत्य प्राह। कुत्र भोजनृप इति।ते तमूचुरिदानीमेव सौधांतरगत इति। ततोसौ प्रत्येकं तेभ्यस्तांबूलं दत्त्वा गजेंद्रकुलगतः मृगेंद्र इवासीत्। ततः स महापुरुषः शंकरकविप्रदानेन कुपितान् तान् बुद्ध्वा प्राह। भवद्भिः शंकरकवये द्वादशलक्षाणि प्रदत्तानीति न मंतव्यम्। अभिप्रायस्तुराज्ञो नैव बुद्धः। यतः शंकरपूजने प्रारब्धे शंकरकवित्वेकेनैव लक्षेण पूजितः। किंतु तन्निष्टान् तन्नाम्ना विभ्राजितानेकादश रुद्रान् शंकरानपरान् सू/मूर्तान्प्रत्यक्षान् ज्ञात्वा तेषां प्रत्येकमेकैकं लक्षं तस्मैशंकरकवय एव शंकरमूर्तये प्रदत्तमिति राज्ञेोभिप्राय इति। सर्वेपि चमत्कृतास्तेन। ततः कोपिराजपुरुषः तद्विद्वत्स्वरूपं द्राग्राज्ञे निवेदयामास।राजा च स्वमभिप्रायं साक्षाद्विदितवंतं तं महेशमिव महापुरुषं मन्यमानः सभामभ्यगात्। स च स्वस्तीत्याह राजानम्। राजा च तमालिंग्य प्रणम्य निजकरकमलेन तत्करकमलमवलंब्यसौधांतरं गत्वाप्रोत्तुंगगवाक्ष उपविष्टः प्राह। विप्र भवन्नाम्ना कान्यक्षराणि सौभाग्यावलंबितानि। कस्य वा देशस्य भवद्विरहः सुजनानां बाधत इति। ततः कविर्लिखतिराज्ञो हस्ते कालिदास इति। राजा वाचयित्वा पादयोः पतति। ततस्तत्रासीनयोः कालिदास भोजराजयोरासीत्संध्या। राजा सखे संध्यां वर्णयेत्यवादीत्॥**
इससे अनंतर राजा तिस शंकरकविके वास्ते बारह लक्ष रुपैये देता गया। फिर संपूर्ण कवि कांतिरहित होगये। परंतु राजाके भयसे कोईभी नहीं बोला। राजा कार्यके वशसे घरमें चला गया। फिर राजासे रहित सभाकादेखके संपूर्ण पंडितसमूह तिसकी निंदा करते गये। अहो नृपतिकी मूर्खता है, इसकी सेवा करके क्या है। वेद शास्त्रके जाननेवाले अपने आश्रय रहनेवाले कवियों के वास्तेलाखही देता गया। इसके बहुत प्रसन्न होने से क्या है।यह तो केवल (फकत्) ग्राम्य (गंवारी) कवि शंकरहै। इसकी क्या भरखमाई है ऐसे कोलाहल शब्द हो रहाथा, तब ही कोई आता गया। सुवर्ण तथा मणिके कुंडलोंवाला, दिव्य वस्त्रोंको पहिने हुआ, राजकुमारकी तरह(शोभित), कस्तूरी की कीच से शोभित शरीरवाला, नवीनपुष्पोंकरके पूजित शिरवाला, चंदन लेपकी गंधकर के लुभाता हुआ, कामदेवकी तुल्य मूर्तिमान्, कविता के समान शरीरको धारण किये हुए, शृंगार रसके रथ की तरह, रथसहित इंद्रकी तरह भूमंडल में प्राप्त हुआ विद्वान् आया।तिस विद्वानको देखके वह विद्वानोंकी सभा भयऔर आश्चर्य का पात्र होगई। फिर वह कवि सबोंको प्रणाम करके बोला। भोजराजा कहां है। वेकवि तिसको कहते गये कि महलोंके भीतर गये हैं।फिर यह कवि तिन सबको एक २ को नागरपान देके,हस्तियों के कुल में प्राप्त हुए सिंहकी तरह बैठ गया। फिरवह महापुरुष शंकरकविके अर्थ दिये हुए प्रदानकर केकुपित हुए तिन्होंको जानके बोला। तुमने ऐसा नहींमानना चाहिये कि, शंकरकविके वास्ते बारह लक्ष रुपैयेदेदिये हैं। राजाका अभिप्राय नहीं जाना। क्योंकि शंकर(महादेवका) पूजन प्रारंभ करने में शंकरकवि तो एकहीलाखसे पूज दिया। किंतु, तैसीही निष्ठावाले तिस नामसेप्रकाशित हुए अन्य ग्यारह (११) रुद्रों को मूर्तिवाले प्रत्यक्षग्यारह शंकरों को जानके तिनको अलग २ एक २ कोलाख २ रुपैये देनेके अर्थ तिस शंकरकविकेही वास्तेबारह लाख रुपैये देदिये, ऐसा राजाका अभिप्राय है।ऐसे तिसने सब कवि आश्चर्ययुक्त कर दिये। फिर कोईराजपुरुष तिस विद्वान् के स्वरूपको राजाके वास्ते निवेदनकरता गया। फिर वह राजा अपने अभिप्रायको साक्षात्जाननेवाले तिस महापुरुषको महादेवकी तरह मानताहुआ सभामें आया। (भाव यह है कि, राजाका बारहलाख रुपैये देने का यही अभिप्राय था सो कविने कहदिया इससे बहुत आश्वर्य गया)। वह कवि राजाको‘स्वस्ति’(कल्याण हो) ऐसे कहता गया। राजा तिसकोमिलके प्रणाम कर अपने हस्तकमलसे तिसके हस्तकमलको स्पर्श करके राजभवन के भीतर प्राप्त हो ऊंचे झरोखेमें(बारी में) जाय बैठा पूछता गया। कि, हे विप्र ! आपकेनाम करके कौनसे अक्षर सौभाग्यको स्पर्श करते हैं।किस देशका तुमसे वियोग गया अर्थात् तुम कौन देशसेआये हो और वहांके सज्जनों को तुम्हारे आने में बाधाहोती होगी। फिर वह कवि राजाके हाथपर ‘कालिदास’ऐसे लिखता गया। फिर राजा वांचके तिसके चरणों मेंगिर पडा। फिर तहां बैठे हुए कालिदास और भोजराजाको संध्यासमय प्राप्त हो गई। राजा बोला हे मित्र ! संध्याका वर्णन करो॥
व्यसनिन इव विद्या क्षीयते पंकजश्री-।
र्गुणिन इव विदेशे दैन्यमायांति भृंगाः॥
कुनृपतिरिव लोकं पीडयत्यंधकारो।
धनमिव कृपणस्य व्यर्थतामेति चक्षुः॥७७॥
जैसे व्यसनी मनुष्य अर्थात् कामादिकमें आसक्तहुए मनुष्यकी विद्या क्षीण होती है इसी प्रकार कमलकीशोभा क्षीण होती है। जैसे गुणी लोक विदेशमें दीनताको प्राप्त होते हैं, इसी प्रकार भौंहरे दीनभावको प्राप्तहोते हैं। और जैसे दुष्ट राजा प्रजाको पीडा देता हैइसी प्रकार अंधेरा सबको पीडा देता है। जैसे कृपणमनुष्यका धन व्यर्थ है, इसी प्रकार नेत्र व्यर्थ होते हैं (ऐसी संध्या होती है )॥७७॥
** पुनश्च राजानं स्तौति कविः॥**
फिर कवि राजाकी स्तुति करता है।
उपचारः कर्तव्यो यावदनुत्पन्नसौहृदाः पुरुषाः॥
उत्पन्नसौहृदानामुपचारः कैतवं भवति॥७८॥
जबतक मित्रता उत्पन्न नहीं हुई तबतक कोई उपचार(आदर सत्कार) करना चाहिये। जिन्होंकी मित्रताउत्पन्न हो जावे उनको उपचार करना ठगपना है॥७८॥
दत्ता तेन कविभ्यः पृथ्वी सकलापिकनकसंपूर्णा॥
दिव्यां सुकाव्यरचनांक्रमं कवीनां च यो विजानाति॥७९॥
जो राजालोक कवियोंके क्रमको और दिव्य काव्यरचनाको जानता है तिसने सुवर्णसे भरी हुई संपूर्ण पृथ्वीकवियों के वास्ते दे दी॥७९॥
सुकवेः शब्दसौभाग्यं सत्कविर्वेत्ति नापरः॥
वंध्या न हि विजानाति परां दौर्हृदसंपदम्॥८०॥
उत्तमकविके शब्दों के सौभाग्यको श्रेष्ठकविही जानताहै। दूसरा नहीं जानता है। वंध्या स्त्री गर्भवतीकी अभिलाषाको नहीं जानती है॥८०॥
** इति। ततः क्रमेण भोजकालिदासयोः प्रीतिरजायत। ततः कालिदासं वेश्यालपटं ज्ञात्वा तस्मिन्सर्वे द्वेषं चक्रुः। न कोपि तं स्पृशति। अथ कदाचित् सभामध्ये कालिदासमालोक्य भोजेन मनसाचिंतितं, कथमस्य प्राज्ञस्यापि स्मरपीडाप्रमादइति। सोपि तदभिप्रायं ज्ञात्वा प्राह॥**
ऐसे कहा। फिर क्रमसे भोज और कालिदासकी प्रीतिहोती गई। पीछे कालिदासको वेश्या में आसक्त जानकेतिस विषें संपूर्ण विद्वान् द्वेष करते गये। कोईभी तिसको स्पर्श नहीं करता है। इससे अनंतर कभी सभाके मध्यमें कालिदास देखा तब भोजने मनसे चितवन किया किइस पंडितकोभी कामदेवकी पीडाका प्रमाद कैसे है। सोकविभी तिसके अभिप्रायको जानके बोला॥
चेतोभुवश्चापलताप्रसंगे।
का वा कथा मानुषलोकभाजाम्॥
यद्दाहशीलस्य पुरा विजेतु-।
स्तथाविधं पौरुषमर्धमासीत्॥८१॥
कामदेवकी चपलता के प्रसंग में मनुष्यलोकवासी जनोंकी क्या बात है। क्योंकि जो त्रिपुरासुरको जीतनेवालेमहादेव के (शरीर में) भी वही कामदेव दीखता हैं इससेआधा पुरुष हो गया है अर्थात् कामदेवकी बाधासे शिव,अर्धांग स्त्रीका रूप है॥८१॥
** ततस्तुष्टो भोजराजः प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ। ततःकालिदासः भोजं स्तौति॥**
तब प्रसन्न हुआ भोजराजा एक २ अक्षरके लाख २ रुपैयेदेता गया। फिर कालिदास भोजकी स्तुति करने लगा॥
महाराज श्रीमन् जगति यशसा ते धवलिते।
पयःपारावारं परमपुरुषीयं मृगयते॥
कपर्दी कैलासं करिवरमभौमं कुलिशभृत्।
कलानाथं राहुः कमलभवनो हंसमधुना ॥८२॥
हे महाराज श्रीमन् ! तुम्हारे यशसे जगत् सफेद होनेपर यह परमपुरुष विष्णु क्षीरसागरको ढूंढ रहा है। महादेव कैलासको ढूंढ रहा है। इंद्र ऐरावत हाथीको ढूंढ रहा हैराहु चंद्रमाको ढूंढ रहा है। अब ब्रह्माजी हंसको ढूंढरहा है। अर्थात् आपके यशसे सब वस्तु सफेददीखती है॥८२॥
** नीरक्षीरे गृहीत्वानिखिलखगततीर्याति नालीकजन्मा तक्रं धृत्वा तु सर्वानटति जलनिधींश्चक्रपाणिर्मुकुंदः॥ सर्वानुत्तुंगशैलान् दहति पशुपतिः फालनेत्रेण पश्यन् व्याप्ता त्वत्कीर्तिकांता त्रिजगति नृपते भोजराज क्षितींद्र॥८३॥**
हे भोजराज क्षितीन्द्र नृपति ! तुमारी कीर्तिरूप कांता(स्त्री) त्रिलोकीमें व्याप्त हो रही है (और पूर्वोक्त यशसेसब वस्तु श्वेत है इस वास्ते) ब्रह्मा तो जल और दूधकोलेके संपूर्ण पक्षिगणों के पास जाता है (हंसकी परीक्षाकरता है।) विष्णुभगवान् छाछ (तक्र) लेके सब समुद्रोंके पास फिरता है (दूधकी परीक्षा करता है) औरअपने तृतीय अग्निस्वरूप नेत्रोंसे देखता हुआ शिवजीसंपूर्ण ऊंचे २ पर्वतों को दग्ध करता है अर्थात् चांदी केपर्वत (कैलास ) की परीक्षा करता है॥८३॥
** विद्वद्राजशिखामणे तुलयितुं धाता त्वदीयं यशः।कैलासं च निरीक्ष्य तत्र लघुतां निक्षिप्तवान् पूर्तये॥उक्षाणं तदुपर्युमासहचरं तन्मूर्ध्नि गंगाजलं।**
तस्याग्रेफणिपुंगवं तदुपरि स्फारं सुधादीधितिम्८४
हे विद्वन् ! राजाओंके शिरोमणि भोजराज ! आपके यशको तोलनेके वास्ते ब्रह्माजी कैलासको देख पीछे वहांभीहलकापन देखके पूर्ति (पूरा करने) के वास्ते उस पर्वतमें नादिया बैलको प्राप्त करता गया जिसके ऊपर पार्वतीसहित महादेव बैठाये जिसके मस्तक पर गंगाजल जिसकेआगे शेषनाग है और जिसके ऊपर बहुतसी अमृतकीकिरणोंवाला चंद्रमा है (ये सब वस्तु बढाई हैं)॥८४॥
** स्वर्गाद्गोपाल कुत्र व्रजसि सुरमुने भूतले कामधेनोर्वत्सस्यानेतुकामस्तृणचयमधुना सुग्ध दुग्धं न तस्याः॥ श्रुत्वा श्रीभोजराजप्रचुरवितरणंव्रीडशुष्कस्तनी सा व्यर्थो हि स्यात् प्रयासस्तदपि तद1रिभिश्चर्वितं सर्वमुव्यम्॥८५॥**
औरभी संवाद है, हे गोपाल ! तू स्वर्गसे कहां जाता? हे सुरमुने ! अब कामधेनु के बछडेके वास्ते घास लानेको धरतीपर जाता हूँ। हे मुग्ध (भोले) ! क्यौं तिसकेदूध नहीं है ? (हाँ इसी तरह है कि) वह तो श्रीभोजराजके बहुत दानको सुनकर लाजके मारे शुष्कस्तनी हो गईहै। ठीक है, परन्तु यहभीतेरा यत्न (घास लानेका)वृथाही होगा, क्योंकि, सब धरतीके ऊपरका घासभी उस(भोजराज) के वैरियोंने चाव डाला है॥८५॥
तुष्टो राजा प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ। ततः कदाचित्श्रुतिस्मृतिसारं गताः केचिद्राजानं कवित्वप्रियंज्ञात्वा क्वचिन्नगराद्वहिः भुवनेश्वरीप्रसादेन कवित्वंकरिष्याम इत्युपविष्टाः। तेष्वनेन पंडितमन्येनएकश्चरणोपाठि। भोजनं देहि राजेंद्रेति। अन्येनापाठि। घृतसूपसमन्वितमिति। उत्तरार्द्धं न स्फुरति।ततो देवताभवनं कालिदासः प्रणामार्थमगात्। तंवीक्ष्य द्विजा ऊचुः। अस्माकं समयवेदविदामपिभोजः किमपि नार्पयति। भवादृशां हि यथेष्टं दत्ते।ततोस्माभिः कवित्वविधानधियात्रागतम्। चिरंविचार्य पूर्वार्धमभ्यधायि उत्तरार्धं कृत्वा देहि। ततोस्मभ्यं किमपि प्रयच्छतीत्युक्त्वा तत्पुरस्तदर्धमभाणि। स च तच्छ्रुत्वा, माहिषं च शरच्चंद्रचंद्रिकाधवलं दधीत्याह। ते च राजभवनं गत्वा दौवारिकानूचुः वयं कवनं कृत्वा समागता राजानं दर्शयतेति।ते च कौतुकात् हसंतो गत्वा राजानं प्रणम्य प्राहुः॥
फिर प्रसन्न हुआ राजा एक २ अक्षरको लाख २ रुपैये देता गया। इससे अनंतर किसी समय में श्रुतिस्मृतिकेजाननेवाले कितेक कविजन राजाको कवित्वप्रिय (कविताका सौक) जानके नगरसे बाहिर भुवनेश्वरी देवीकीप्रसन्नतासे कविता करेंगे ऐसे बैठते गये। जिन्होंमें इसएक आपको पंडित माननेवालेने एक चरण (श्लोकका एकपद) पढा। ‘भोजनं देहि राजेन्द्र’अर्थात् हे राजेन्द्र (हमको) भोजन दो, ऐसा कहा। दूसरेने पढा, घृत औरदालसे युक्त हो। ऐसे दो पद हो गये उत्तरार्द्ध नहीं बनसका। फिर कालिदासजी प्रणाम करने के वास्ते देवता केभवनमें जाते गये। तिसको देखके ब्राह्मण कहते गये।हमको संपूर्ण वेदोंको जाननेवालोंकोभी भोजराजा कुछभीनहीं देता है। और तुम्हारे सरीखोंको (यथेष्ट) जो चाहिये सो देता है। इस लिये कविता रचनेकी बुद्धि करकेहमने यहां आना किया। बहुत दिनतक विचार करकेश्लोकका पूर्वार्द्ध तो बनाया अब उत्तरार्द्ध बनाके दो।तब हमारे वास्ते (राजा) कछु देवेगा ऐसे कहके उननेयह आधा श्लोक तिसके आगे पढा। वह कालिदास तिसआधे श्लोकको सुनके (माहिपमिति) शरदऋतु के चंद्रमाकी समान सफेद, भैंसका दहीभी (उस भोजन में) दो,ऐसा कहता गया। इससे अनंतर वे कवि दरवाजे पर बैठेहुए द्वारपालोंको कहते गये कि हम कविता करके आयेराजाको दिखावो। वे (द्वारपाल) आनंदसे हँसते हुएराजाके पास जाके प्रणाम करके बोले॥
राजमापनिभैर्दन्तैः कटिविन्यस्तपाणयः॥
द्वारि तिष्टंति राजेंद्र च्छांदसाः श्लोकशत्रवः॥८६॥
हे राजेंद्र ! उडदों सरीखी कांतिवाले खरावदांतोंकेचिन्होंकरके उपलक्षित, कटिपर हाथ धरे हुए, ऐसे छांदस अर्थात् वेदपाठी श्लोकके शत्रु पंडित आये हैं॥८६॥
** इति। राज्ञा प्रवेशितास्ते दृष्टराजसंसदो मिलिताःसहैव कवित्वं पठंति स्म।राजा तच्छ्रुत्वा उत्तरार्धं कालिदासेन कृतमिति ज्ञात्वा विप्रानाह। येन पूर्वार्धंकारितं तन्मुखात्कवित्वं कदाचिदपि न करणीयम्।उत्तरार्द्धस्य किंचिद्दीयते न पूर्वार्धस्येत्युक्त्वा प्रत्यक्षरलक्षं ददौ। तेषु कालिदासं वीक्ष्य राजा प्राह।कवे उत्तरार्धं त्वया पठितमिति। कविराह॥**
फिर राजा करके बुलाये हुए वे, राजाका सभाको देखकेमिलके सब एकही वार कविताको पढते गये। राजा उसश्लोकको सुन उत्तरार्द्धको कालिदासने किये हुएको जानकेब्राह्मणों को बोला। जिसने पूर्वार्द्ध बनाया है उसके मुखसेकभी कविता नहीं करानी। उत्तरार्द्धका कुछ देतेहैंपूर्वार्द्धका कुछ नहीं देते हैं ऐसे कहके अक्षर २ के लाख २रुपैये देता गया। तिन्होंमें कालिदासको देखके राजाबोला। हे कवे ! उत्तरार्द्ध तैंने बनाया है। कवि बोला॥
अधरस्य मधुरिमाणं कुचकाठिन्यं दृशोश्च तैक्ष्ण्यं च॥
कवितायां परिपाकं ह्यनुभवरसिको विजानाति॥८७॥
स्त्रीके अधरामृतकी मिठाई, कुचाओंकी कठिनता,नेत्रोंकी तीक्ष्णता, कविताका परिपाक (भाव) इन सबवस्तुओंके स्वादको अनुभवरसिक अर्थात् जिसने स्वादचख रक्खा हो वही जानता है॥८७॥
** राजा च सुकवे सत्यं वदसि॥**
राजा बोला हे श्रेष्ठ कवि ! सत्य कहते हो॥
अपूर्वो भाति भारत्याः काव्यामृतफले रसः॥
चर्वणे सर्वसामान्ये स्वादुवित्केवलं कविः॥८८॥
सरस्वतीके(वाणीके) काव्यरूपी अमृतफलमें अपूर्व(अलौकिक दिव्य) रस मालूम होता है। चावनेमें सबको (समान) बराबर है और इस फलके स्वादकोजाननेवाला केवल कवि है॥८८॥
संचिंत्य संचिंत्य जगत् समस्तं।
त्रयः पदार्था हृदयं प्रविष्टाः॥
इक्षोर्विकारा मतयः कवीनां।
मुग्धांगनापांगतरंगितानि॥८९॥
संपूर्ण जगत्को वारंवार चितवन करके तीन पदार्थहृदय में बस गये हैं। ईंखके विकार (गुड शक्कर खांड आदि)कवियोंकी बुद्धि, मुग्धा यौवनवती स्त्रियों के कटाक्षोंकीलहरी ये तीन हैं, अर्थात् इन तीनोंके अनेक भेद होसक्ते हैं॥८९॥
** ततः कदाचिद्वारपालकः प्रणम्य भोजं प्राह।राजन् द्रविडदेशात् कोपि लक्ष्मीधरनामा कविर्द्वारमध्यास्त इति। राजा प्रवेशयेत्याह। प्रविष्टमिवसूर्यमिव विभ्राजमानं चिरादप्यविदितवृत्तांत प्रेक्ष्यराजा विचारयामास प्राह च॥**
फिर किसी समय द्वारपाल प्रणाम करके भोजराजकोबोला। हे राजन् ! कोई लक्ष्मीधर नामक कवि द्रविडदेश सेआया है द्वारपर खडा है। राजा बोला कि उसको लाओ,मानों साक्षात् सूर्यही सभामें प्रवेश होगया ऐसे प्रकाशित हुएको तथा बहुत बार में भी जिसका वृत्तांत नहीं जाना गया,ऐसेको देखकर राजा विचारता गया, और कहता गया॥
आकारमात्रविज्ञानसंपादितमनोरथाः॥
धन्यास्ते ये न शृण्वन्ति दीनाः क्वाप्यर्थिनां गिरः ॥९०॥
आकार (स्वरूप) मात्रके ज्ञान होनेसेही जो संपूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करतेहैं और याचकोंके दीन वचनोंको नहींसुनते हैं अर्थात् उनको धनाढ्य कर देते हैं वे धन्य हैं॥९०॥
** स चागत्य तत्र राजानं स्वस्तीत्युक्त्वा तदाज्ञयोःपविष्टः प्राह। देव इयं ते पंडितमंडिता सभा त्वं चसाक्षाद्विष्णुरसि। ततः किं नाम पांडित्यं मम तथापि किंचिद्वच्मि॥**
इससे अनंतर वह कवि आके राजाको ‘स्वस्ति’ऐसेआशीर्वाद देके बोलता गया। हे देव ! यह तेरी सभापंडितोंसे शोभित है, तुम साक्षात् विष्णु हो। इसलियेमेरा क्या पांडित्य है तोभी कछु कहता हूँ।
भोजप्रतापं तु विधाय धात्रा।
शेषैर्निरस्तैः परमाणुभिः किम्॥
हरेः करेभूत्पविरंबरे च।
भानुः पयोधेरुदरे कृशानुः॥९१॥
विधाताने भोजका प्रताप रचा फिर निरंतर अस्तहुए परमाणुवों करके क्या हो सक्ता है। ऐसा विचारकेइंद्रके हाथमें वज्र दिया, आकाशमें सूर्य बनाया, समुद्रकेउदरमें वडवानल अग्नि बनाया है॥९१॥
** इति। ततस्तेन परिषच्चमत्कृता। राजा च तस्यप्रत्यक्षरलक्षं ददौ। पुनः कविराह। देव मया सकुटुंबेनात्र निवासाशया समागतम्॥**
इससे अनंतर तिस कविने वह सभा चमत्कारयुक्तकर दी। राजाभी तिसके वास्ते एक २ अक्षर के लाख २रुपैये देता गया। फिर कवि बोला। हे देव ! मैंने यहां परअपने कुटुंबसहित यहां रहने की इच्छासे आगमन किया है।
क्षमी दाता गुणग्राही स्वामी पुण्येन लभ्यते॥
अनुकूलः शुचिर्दक्षः कविर्विद्वान्सुदुर्लभः॥इति ९२
क्षमावान्, दाता, गुणग्राही ऐसा स्वामी पुण्य करकेमिलता है।परंतु अनुकूल, पवित्र, चतुर, कवि, विद्वान्ऐसा स्वामी मिलना दुर्लभ है॥९२॥
** ततो राजा मुख्यामात्यं प्राहास्मै गृहं दीयतामिति। ततो निखिलमपि नगरं विलोक्य कमपि मूर्खममात्यो नापश्यत् यं निरस्य विदुषे गृहं दीयते।तत्र सर्वत्र भ्रमन् कस्यचित्कुविंदस्य गृहं वीक्ष्य कुविंदं प्राह। कुविंद गृहान्निःसर तव गृहं विद्वानेष्यतीति। ततः कुविंदो राजभवनमासाद्य राजानं प्रणम्यप्राह। देव भवदमात्यो मां मूर्खं कृत्वा गृहान्निःसारयतीति। त्वं तु पश्य मूर्खः पंडितो वेति॥**
फिर राजा मुख्य मंत्रीको बोला कि इसके वास्ते घर देना चाहिये। इससे अनंतर वह मंत्री संपूर्ण नगर को देखके किसीको भी मूर्ख नहीं देखता गया कि, जिसको निकालके उस विद्वान के वास्ते घर दिया जावे। तहां शहरमें श्रमता हुआ मंत्री किसी जुलाहे के घर को देखके (वस्त्र बुननेवाले) जुलाहेको बोला। हे कुविंद (जुलाहा) ! घरसें निकल तेरे घरमें विद्वान् पंण्डित आवेगा। फिर वह जुलाहा राजाकी सभा में प्राप्त हो राजाको प्रणाम करके बोला। हे देव ! तुम्हारा मंत्री मुझको मूर्ख करके घरसे निकालता है। सो तू देख (मैं) मूर्ख हूँ वा पंडित हूँ॥
काव्यं करोमि नहि चारुतरं करोमि।
यत्नात्करोमि यदि चारुतरं करोमि॥
भूपालमौलिमणिमंडितपादपीठ।
हे साहसांक कवयामि वयामि यामि॥९३॥
काव्य करता हूं बहुत सुंदर नहीं कर सकता हूं। जो बहुत सुंदर करता हूं तो यतनसे देरीमें कर सकता हूँ। हे भूपालोंके मस्तककी मणियों करके शोभितचरण और आसनवाले (उत्तम राजेन्द्र)! हे साहसांक (दंड देनेके लक्षणवाले) हे राजन्! मैं कविकी तरह आचरणकरता हूं तोभी अब जुलाहेका काम करता हूं अब जाता हूं॥९३॥
** ततो राजा त्वंकारवादेन वदंतं कुविंदं प्राह। ललिता ते पदपंक्तिः। कवितामाधुर्यंच शोभनं। परंतु कवित्वं विचार्य वक्तव्यमिति॥**
फिर राजा ‘तू’ऐसा एक वचन कहके बोलते हुए कुविंदको बोला। तेरे पदोंकी पंक्ति ललित (मनोहर) है। कवितामाधुर्य सुंदर है। परंतु कविताको विचारके कहना चाहिये॥
** ततः कुपितः कुविंदः प्राह। देव अत्रोत्तरं भाति किंतु न वदामि राजधर्मः पृथक् विद्वद्धर्मादिति। राजा प्राह अस्ति चेदुत्तरं ब्रूहीति। देव कालिदासादृतेन्यं कविं न मन्ये कोस्ति ते सभायां कालिदासादृते कवितातत्त्वविद्विद्वान्॥**
फिर क्रोधयुत हुआ कुविंद बोला। हे देव ! यहां उत्तर दीखता है परंतु मैं नहीं कहता, क्योंकि विद्वान् के धर्मसे राजधर्म अलगही है। राजा बोला यदि उत्तर है तो कहिये। हे देव ! कालिदासके बिना दूसरे कविको मैं नहीं मानता हूं, तेरी सभामें कालिदासके विना कविताके तत्वको जाननेवाला विद्वान कौन है ?॥
यत्सारस्वतवैभवं गुरुकृपापीयूषपाकोद्भवम्।
तल्लभ्यं कविनैव नैव हठतः पाठप्रतिष्ठाजुषाम्॥
कासारे दिवसं वसन्नपि पयःपूरं परं पंकिलं।
कुर्वाणः कमलाकरस्य लभते किं सौरभं सैरिभः॥९४॥
जो गुरुकी कृपारूप अमृतपाक से उत्पन्न हुआ सरस्वतीका (वाणीका) वैभव अर्थात् ऐश्वर्य है सो कविसेहीमिलाया जाता है। हठ करके पाठप्रतिष्ठाको सेवनेवालोंको नहीं मिल सकता। (जैसे) जलके भरे हुए सरोवरमें(जोहर में) सारे दिन पडा हुआ केवल कींच मंचाताहुआ भैंसा क्या सरोवरकी सुगंधिको ले सक्ता है। (नहींले सक्ता)॥९४॥
अयं मे वाग्गुंफो विशदपदवैदग्ध्यमधुरः।
स्फुरद्बंधो वंध्यः परहृदि कृतार्थः कविहृदि॥
कटाक्षो वामाक्ष्या दरदलितनेत्रांतगलितः।
कुमारे निःसारः स तु किमपि यूनः सुखयति॥९५॥
यह मेरा वाणीका रचनाविशेष ग्रंथ, उत्तम पदोंवालातथा कवियोंको मधुर लगनेवाला है। इसमें छंदबंधस्फुरते हुए हैं और यह अन्योंके हृदय में वंध्य अर्थात्वंध्या स्त्रीकी तरह है। कवियोंके हृदय में कृतार्थ होता है।जैसे नेत्रोंके कोइयोंके अंतर भागसे छुटा हुआ स्त्रीकाकटाक्ष कुमार अर्थात् बालक अवस्थावाले पुरुषविषेंनिःसार (निष्फल) है और वही कटाक्ष जवानको विलक्षण सुख देनेवाला है॥९५॥
** इति। विद्वज्जनवंदिता सीता प्राह॥**
फिर विद्वान्जनोंसे वंदित हुई सीता कहती गई॥
विपुलहृदयाभियोग्ये खिद्यति काव्येजडो न मौर्ख्ये स्वे॥
निंदति कंचुकमेवप्रायः शुष्कस्तनी नारी॥९६॥
मूर्खजन, बहुत उत्तम हृदय के योग्य काव्यविषें दुःखपाता है (नहीं समझने से उसकी निंदा करता है) औरअपनी मूर्खतासे दुःख नहीं पाता है। (जैसे कि) विशेषकरके सूखे स्तनोंवाली (छोटी कुचाओंवाली) स्त्री आंगीबनानेवाले दरजीकी निंदा करती है॥९६॥
** ततः कुविंदः प्राह॥**
फिर वह जुलाहा कवि कहता गया॥
बाल्ये सुतानां सुरतेंगनानां।
स्तुतौ कवीनां समरे भटानाम्॥
त्वंकारयुक्ता हि गिरः प्रशस्ताः।
कस्ते प्रभो मोहतरः स्मर त्वम्॥९७॥
बालकपने में पुत्रोंको और मैथुनसमय में स्त्रियोंको,स्तुति करने में कवियोंको, युद्ध करनेमें योद्धाओंको, त्वंकार (तू) ऐसे शब्दसे युक्त हुई वाणी श्रेष्ठ कही है। हेप्रभो ! तुम्हारे अत्यंत मोह कहांसे हुआ है स्मरण करो॥९७॥
** ततो राजा साधु भो कुविदेत्युक्त्वा तस्याक्षरलक्षं ददौ। मा भैषीरिति पुनः कुविंदं प्राह। एवं क्रमेणातिक्रांते कियत्यपि काले बाणः पंडितवरः परं राज्ञा मान्यमानोपि प्राक्तनकर्मतो दारिद्र्यमनुभवति। एवंस्थिते नृपतिः कदाचिद्रात्रावेकाकी प्रच्छन्नवेशः स्वपुरे चरन् बाणगृहमेत्यातिष्ठत्।तदा निशीथे बाणो दारिद्र्याद्वयाकुलतया कांतांवक्ति।देवि राजा कियद्वारं मम मनोरथमपूरयत्।अद्यापि पुनः प्रार्थितो ददात्येव। परंतु निरंतरप्रार्थनारसे मूर्खस्यापि जिह्वा जडीभवतीत्युक्त्वा मुहूर्तार्धं मौनेन स्थितः। पुनः पठति॥**
इससे अनंतर वह राजा हे कुविंद ! बहुत अच्छा कहाऐसे कहके एक २ अक्षरके लाख २ रुपैये देता गया।और डरो मत ऐसे कुविंदको (जुलाहेको) कहता गया।इसप्रकार क्रमसे कछुकं समय बीत गया जब बाणनामकपंडितवर राजा करके परम माना हुआभी था, परंतु पूर्वकर्मसे दरिद्री हो गया। इस प्रकार स्थिति हो गई तब राजाकिसी समय रात्रीमें अकेलाही अपने स्वरूपको ढककेअपने पुरमें विचरता हुआ बाणपंडित के घर के पास पहुंचके स्थित होता गया। तब रात्रीमें बाणपंडित दारिद्र्यसेव्याकुलता होनेसे स्त्रीको कहता है। हे देवि ! राजाअनेकवार मेरे मनोरथको पूर्ण करता गया। अबभी फिरप्रार्थना करने से कुछ देताही है। परंतु निरंतर प्रार्थनारस मेंमूर्खक भी जिह्वा जड (अचेत) हो जाती है, अर्थात्नित्य प्रति मांगा नहीं जाता ऐसे कहके एक घडीतकचुपका रहा। फिर पढता है।
हर हर पुरहर परुषं क्व हलाहलफल्गुयाचनावसोः॥
एकैव तव रसज्ञा तदुभयरसतारतम्यज्ञा॥९८॥
हे हरहर ! हे पुरहर अर्थात् त्रिपुरासुर के पुरोंको नष्टकरनेवाले महादेवजी !। हलाहल विष और निरर्थक विनाप्रयोजन याचना करनेका वचन इन दोनोंमें कौनसाकठोर है? तिन दोनोंके रसको कमज्यादेको जाननेवालीएकही तुह्मारी जिव्हा है। शिवजीने जहर भक्षण कियाऔर याचनाभी की है इससे शिवजी के प्रति वचन कहाअर्थात् निरर्थक याचना जहरसेभी बुरी है॥९८॥
देवि, दारिद्र्यस्यापरा मूर्तिर्याच्ञान द्रविणान्यति॥
अपि कौपीनवान् शंभुस्तथापि परमेश्वरः॥९९॥
हे देवि ! दारिद्रकी परम मूर्ति याच्ञा है। कछु धनकाअभावही (परमदरिद्ररूप) नहीं है। क्योंकि शिवजी कौपीनधारी नंगा रहनेवाला निर्धन है तौभी परमेश्वर है॥९९॥
सेवा सुखानां व्यसनं धनानां।
याच्ञागुरूणां कुनृपः प्रजानाम्॥
प्रणष्टशीलस्य सुतः कुलानां।
मूलावघातः कठिनः कुठारः॥१००॥
सुखोंकी जड़को काटनेवाला कठोर कुहाड़ा सेवा हैअर्थात् सेवा (टहैल) करनेवालेको सुख नहीं हो सक्ता औरधनोंकी जडको काटनेवाला व्यसन है, गुरुओं की जडकोकाटनेवाला परम कुहाडा याच्या (मांगना) है और प्रजाकी जडको नष्ट करनेवाला दुष्ट राजा है और जिसका शांतस्वभाव नहीं हो ऐसे जनका पुत्र कुलोंकी जड़को काटनेवाला परम कुहाडा कहा है॥१००॥
** तत्सत्यपि दारिद्र्ये राज्ञो वक्तुं मया स्वयमशक्यम्॥**
इसलिये दारिद्र्य हुए परभी मुझसे आपही राजा के आगे नहीं कहा जावे॥
गच्छन् क्षणमपि जलदो वल्लभतामेति सर्वलोकस्य॥
नित्यप्रसारितकरःकरोति सूर्योपि संतापम्॥१०१॥
क्षणमात्रमेंही गमन करता हुआ मेघ संपूर्ण लोगोंकाप्रिय होता है और नित्यप्रति किरणोंको फैलानेवालासूर्यसबको संताप करता है॥१०१॥
** किंच देवि, वैश्वदेवावसरे प्राप्ताः क्षुधार्ताः पश्चाद्यांतीति तदेव मे हृदयं दुनोति॥**
परंतु हे देवि ! वैश्वदेवकर्मके समयमें प्राप्त हुए अभ्यागत जन भूखे जाते हैं यही मेरे ह्वयको संताप होता है।
दारिद्र्यानलसंतापः शांतः सन्तोषवारिणा॥
याचकाशाविघातांतर्दाहः केनोपशाम्यते॥१०२॥
दारिद्र्यरूपी अग्निका संताप संतोषरूपी जलसे शांतहोता है। परंतु याचककी आशा विघात होनेका अंतर्दाहकिससे शांत किया जावे॥१०२॥
** राजा चैतत्सर्वं श्रुत्वा नेदानीं किमपि दातुं योग्यः। प्रातरेव बाणं पूर्णमनोरथं करिष्यामीति निष्क्रांतो राजा॥**
राजा इस संपूर्ण वृत्तांतको सुनके अब कुछभी देनायोग्य नहीं है। प्रातःकालही बाणपंडितको भरपूर मनोरथवाला करूंगा ऐसा विचार करके चल पड़ा॥
कृतो यैर्न च वाग्मी च व्यसनी तन्नं यैः पदम्॥
यैरात्मसदृशो नार्थी किं तैः काव्यैर्बलैर्धनैः॥१०३॥
जिन (काव्योंने) (मूर्खजन) चतुर नहीं किया औरजिन (बलोंकरके) व्यसनी (किसी बातको अत्यंत चांहकेदुःखी हुआ) पुरुष उसही ठिकानेपर नहीं पहुंचाया औरजिन (धनोंने) मांगनेवाले याचक जन अपने समान धनाढ्यनहीं किये उन काव्योंकरके और बलकरके तथा धनकर केक्या गया॥१०३॥
** एवं पुरे परिभ्रममाणे राजनि वर्त्मनि चोरद्वयं गच्छति। तयोरेकः प्राह शकुंतकः। सखे स्फारांधकारविततेपि जगत्यंजनवशात्सर्वं परमाणुप्रायमपिवसु सर्वत्र पश्यामि। परंतु संभारगृहानीतकनकजातमपि न मे सुखायेति। द्वितीयो मरालनामा चोरआह। आहृतं संभारगृहात् कनकजातमपि न हितमिति कस्माद्धेतोरुच्यते इति। ततः शकुंतकः प्राह।सर्वतो नगररक्षकाः परिभ्रमंति सर्वोपि जागरिष्यत्येषां भेरीपटहादीनां निनादेन। तस्मादाहृतं विभज्यस्वस्वभागागतं धनमादाय शीघ्रमेव गंतव्यमिति।मरालः प्राह। सखे त्वमनेन कोटिद्वयपरिमितमणिकनकजातेन किं करिष्यसीति। शकुंतः–एतद्धनं कस्मैचिद्द्विजन्मने दास्यामि। यथायं वेदवेदांगपारगोअन्यन्न प्रार्थयति। मरालः–सखे चारु॥**
इसप्रकार राजा घूम रहा था उसी समय मार्गमें दो चोरचले जाते थे। तिन्होंमें एक ‘शकुंतक’नामक चोर बोला। हे सखे ! बहुत घना अंधेराभी फैल रहा है तोभी (सिद्ध)अंजनके यशसे जगत् में मैं सब कुछ देखता हूं परमाणुमात्र द्रव्यकोभी सब जगह देखता हूँ। परंतु खजाने से लायाहुआ सुवर्णमात्रभी यह सब द्रव्य मेरे सुखके वास्ते नहींहै। दूसरा ‘मराल’ नामक चोर बोला कि, खजानेमांहसेलाया हुआ सुवर्णमात्र भी हित नहीं है, यह रुचि किसवास्ते होती है। फिर शकुंतक बोला सब जगह नगरके रक्षक सिपाही लोग घूम रहे हैं, और भेरी, ढोल आदिकेशब्दोंकरके सब जाग उठेंगे। इसलिये चोरे हुए धनकोवांटके अपने २ हिस्से में आये हुए धनको लेके शीघ्रहीगमन करना चाहिये। मराल बोला हे सखे। दो करोडपरिमाण सुवर्ण मणिका इस धनकरके क्या करोगे।शकुंत बोला इस धनको किसी ब्राह्मण के वास्ते दूंगा।उससे यह वेदवेदांग को जाननेवाला ब्राह्मण किसी दूसरेकी याचना नहीं करे। मराल बोला हे सखे ! बहुतअच्छा है।
ददतो युध्यमानस्य पठतः पुलकोथ चेत्॥
आत्मनश्च परेषां च तद्दानं पौरुषं स्मृतम्॥१०४॥
दान करते हुएके, युद्ध करते हुएके, पाठ करतेहुएके रोमांच खडे हो जावें। वही दान और पुरुषार्थकहा है॥१०४॥
** मरालः–अनेन दानेन तव कथं पुण्यफलं भविष्यतीति। अस्माकं पितृपैतामहोयं धर्मः यच्चौर्य्येणवित्तमानीयते। मरालः–शिरश्छेदमंगीकृत्यार्जितंद्रव्यं निखिलमपि कथं दीयते। शकुन्तः॥**
मराल बोला इस दान करके तुमको पुण्यका फल कैसेहोगा। (शकुंतक बोला) जो चोरीकरके धनं लायाजाता है यह हमारा पिता पितामह (दादा) का धर्मचला आता है। मरोल कहने लगा शिर कटने की जोखमको अंगीकार करके संचित किया हुआ संपूर्ण धन कैसे दिया जावेगा। शकुंत बोला॥
मूर्खो नहि ददात्यर्थं नरो दारिद्र्यशंकया॥
प्राज्ञस्तु वितरत्यर्थं नरो दारिद्र्यशंकया॥१०५॥
मूर्ख आदमी दरिद्रकी शंका करके धनका दान नहींकरता है। और बुद्धिमान मनुष्य तो दरिद्रकीही शंकाकरके धनका दान करता है अर्थात् दरिद्र आनेसे सबधन नष्ट हो जावेगा। दान करनाही मुख्य है॥१०५॥
किंचिद्वेदमयं पात्रं किंचित्पात्रं तपोमयम्॥
पात्राणामुत्तमं पात्रं शूद्रान्नं यस्य नोदरे॥१०६॥
जो वेदपाठी हो वह कछुक पात्र है और तपस्या करनेवालाभी कछु पात्र है परंतु जिसके उदरमें शूद्रका अन्ननहीं पहुंचता है वह सब पात्रोंमें उत्तम सत्पात्र है॥१०६॥
** शकुंतः अनेन वित्तेन किं करिष्यति भवान्।मरालः सखे काशीवासी कोपि विप्रबटुरत्रागात्।तेनास्मत्पितुः पुरः काशीवासफलं व्यावर्णितम्।ततोस्मत्तातः बाल्यादारभ्य चौर्यं कुर्वाणो दैववशात्स्वपापान्निवृत्तौ वैराग्यात्सकुटुंबः काशीमेष्यति।तदर्थमिदं द्रविणजातम्। शकुंतः–महद्भाग्यं तवपितुः। तथाहि॥**
शकुंत बोला इस द्रव्यसे तुम क्या करोगे। मरालकहने लगा हे मित्र ! काशीनिवासी कोई ब्राह्मणका बालक यहां आता गया। उसने मेरे पिताके आगे काशी मेंनिवास करनेका फल वर्णन किया है। तिससे हमारा पिताबालकअवस्थासे अबतक चोरी करता हुआभी दैवकेवशसे अपने पाप से निवृत्त हो वैराग्य होनेसे कुटुंबसहितकाशीजीमें जावेगा। तिसके वास्ते यह संपूर्ण धन है। शकुंतकहने लगा तेरे पिताका बहुत उत्तम भाग्य है, देखो॥
वाराणसीपुरीवासवासनावासितात्मना॥
किं शुना समतां याति वराकः पाकशासनः॥१०७॥
काशीपुरीमें वसनेकी वासना (इच्छा) से संयुक्तमनवाले कुत्ताकी बराबर भी क्या बिचारा गरीब इंद्र होसक्ता है? अर्थात इंद्रभी उस कुत्ता के समान नहीं॥१०७॥
ऊषरं कर्मसस्यानां क्षेत्रं वाराणसी पुरी॥
यत्र संलभ्यते मोक्षः समं चंडाल पंडितैः॥१०८॥
काशीपुरी कर्मरूपी बीजोंका ऊसर खेत है, अर्थात्सब कर्मोंका नाश करनेवाली है। क्योंकि, जिसमें चांडालऔर पंडित इन दोनों को भी समतासे मोक्ष होता है॥१०८॥
मरणं मंगलं यत्र विभूतिश्च विभूषणम्॥
कौपीनं यत्र कौशेयं सा काशी केन मीयते॥१०९॥
जहां मरना मंगलरूप है, विभूति आभूषणरूप है,कौपीन जहां रेशमी वस्त्रकी बराबर है उस काशीजीकीबराबरी कौन कर सकता है॥१०९॥
** एवमुभयोः संवादं श्रुत्वा राजा तुतोष। अचिंतयच्च मनसि कर्मणां गतिः। सर्वथैव विचित्रा उभयोरपि पवित्रा मतिरिति। ततो राजा विनिवृत्य भवनांतरे पितृपुत्रावपश्यत्। तत्र पिता पुत्रं प्राह।**
इदानींपरिज्ञातशास्त्रतत्त्वोपि नृपतिः कार्पण्येनकिमपि न प्रयच्छति। किंतु॥
ऐसे उन दोनोंके संवादको सुनके राजा प्रसन्न होतागया। और मनमें कर्मों की गतिको चितवन करतागया। सबतरह विचित्रता है, दोनोंकी बुद्धि पवित्र हैऐसा विचारा \। इससे अनंतर यहांसे हटके राजा दूसरे घरपर जाता गया, वहां पिता पुत्र को देखता गया। तहांपिता पुत्रको कहता है। अब शास्त्रके तत्वको जाननेवालाभी राजा कृपणताकरके कछु भी नहीं देता है। किंतु॥
अर्थिनि कवयति कवयति पठति च पठतिस्तवोन्मुखे स्तौति॥
पश्चाद्यामीत्युक्ते मौनीदृष्टिं निमीलयति॥११०॥
प्रयोजनवाले याचना करनेवाले कविता करनेवालेकीकविताके ऊपर कविता करता है। पढते हुए पर पढताहै,स्तुति करते हुए पर स्तुति करता है फिर मैं जाता हूं ऐसेकहनेपर चुपका होके नेत्र मीचलेता है॥११०॥
** राजा एतच्छ्रुत्वा तत्समीपं प्राप्य मैवं वदेतिस्वगात्रात्सर्वाभरणान्युत्तार्य दत्त्वा तस्मै ततो गृहमासाद्य कालांतरे सभामुपविष्टः कालिदासं प्राहसखे॥**
राजा इस बातको सुन तिसके पास जाके बोलाऐसे मत कहो, इस प्रकार कह अपने शरीरसे सब अभूषणोंको उतारके तिसके वास्ते देके फिर अपने घरमेंआके किसी समय में सभा में बैठ कालिदासको बोलाहे सखे !॥
कवीनां मानसं नौमि तरति प्रतिभां2भसा॥
ततः कविराह॥
यत्पोतेन पयांसीव भुवनानि चतुर्दश॥१११॥
मैं कवियोंके मनकी स्तुति करता हूं, जिन कवियोंकीप्रतिभा अर्थात् नवीन २ पदार्थको खोजनेवाली बुद्धि जलसे तिर जाती है \। तब कवि बोला। उसही बुद्धिरूप डोनीकरके चौदह भुवन ऐसे पार किये जाते हैं जैसे डोनीजलसे पार उतर जाती है॥१११॥
** ततो राजा प्रत्यक्षरमुक्ताफललक्षं ददौ। ततःप्रविशति द्वारपालः। देव कोपि कौपीनावशेषो विद्वान् द्वारि तिष्ठतीति। राजा प्रवेशय। ततः प्रवेशितःकविरागत्य स्वस्तीत्युक्तवानुक्त एवोपविष्टः प्राह॥**
** **इससे अनंतर वह राजा एक २ अक्षरके लाख २ मोंती देता गया। इससे अनंतर द्वारपाल सभामें आता है।हे देव ! कोई कौपीनमात्र धारण किये हुए विद्वान् द्वारपर खडा है। राजा बोला उसको भीतर लावो, फिर भीतरपहुंचाया तब वह कवि आके स्वस्ति ऐसे कहके आज्ञासे बैठ गया, और कहने लगा॥
इह निवसति मेरुः शेखरो भूधराणा-।
मिह हि निहितभाराः सागराः सप्त चैव॥
इदमतुलमनंतं भूतलं भूरि भूतो-।
द्भवधरणसमर्थंस्थानमस्मद्विधानाम्॥११२॥
इस जगह सब पर्वतोंका शिखररूप सुमेरु पर्वत बसता है। इस जगह संपूर्ण भारों सहित सात समुद्र बसते हैं। यह (तुम्हारा) स्थान अतुल अनंत भूखंडरूप है। बहुत प्राणियों की उत्पत्ति धारणको समर्थ है॥११२॥
** राजा महाकवे किं ते नाम अभिधत्स्व। कविःनामग्रहणं नोचितं पंडितानां, तथापि वदामो यदि जानासि॥**
राजा बोला हे महाकवे ! तुम्हारा क्या नाम है बताओ। कबि बोला नाम कहना पंडितोंको योग्य नहीं है, तोभी कहेंगे जो तुम जानते हो तो॥
नहि स्तनंधयी बुद्धिर्गंभीरं गाहते वचः॥
तलं तोयनिधेर्द्रष्टुं यष्टिरस्ति न वैणवी॥११३॥
चूंची पीनेवालों की बुद्धि गंभीर वचनकी थाहको नहीं जान सकती है। जैसे बांसकी लाठी समुद्रकी तलीको नहीं ढूंढ सकती है॥११३॥
** देवाकर्णय।**
हे देव ! सुनो॥
** च्युतामिंदोर्लेखां रतिकलहभग्नं च वलयं।**
समं चक्रीकृत्य प्रहसितमुखी शैलतनया॥
अवोचद्यं पश्येत्यवतु गिरिशः सा च गिरिजा।
स च क्रीडाचंद्रो दशनकिरणापूरिततनुः॥११४॥
पार्वती महादेव के रमणसमय में खेलक्रीडामें चंद्रमाकी कला गिर पडी और पार्वतीका कंगन टूट गया। तब दोनुवोंको बराबर करके चक्रकीतरह बनाके हंसते हुए मुखवाली पार्वतीजी जिसको देखो ऐसे कहती गई। वह दांतोंकी किरणों करके (चंद्रपक्ष में बत्तीस किरणों करके) पूरितशरीरवाला सो क्रीडाचंद्र और इसप्रकार वह शिवजी और पार्वती तुम्हारी रक्षा करो॥११४॥
** कालिदासः सखे क्रीडाचंद्र चिरादृष्टोसि। कथमीदृशी ते दशा मंडले मंडले विराजत्यपि राजनिबहुधनवति। क्रीडाचंद्रः॥**
कालिदास बोला हे सखे क्रीडाचंद्र! बहुत दिनोंमें देखे हो। तुम्हारी ऐसी दशा कैसे हो गई, मंडल २ में बहुत धनवान् राजा लोग विराजमान हुए परभी क्यों यह अवस्था गई। क्रीडाचंद्र बोला॥
धनिनोप्यदानविभवा गण्यंते धुरि महादरिद्राणाम्।
हंति न यतः पिपासामतः समुद्रोपि मरुरेव॥११५॥
जिनके दानरूप विभव नहीं है वे धनी लोगभी महादरिद्रियोंके अग्रभागमें गिने जाते हैं। जिससे तृषा दूर नहीं होवे वह समुद्रभी मरुस्थलही है॥११५॥
** किंच-**
उपभोगकातराणां पुरुषाणामर्थसंचयपराणां ।
कन्यामणिरिव सदने तिष्ठत्यर्थः परस्यार्थे ॥११६॥
औरभी है। जो लक्ष्मीका भोग नहीं कर सकते है और धनको संचय ही करते हैं उनके भवनमें जैसे कन्यारूप मणि हो तैसे परायेही वास्ते वह धन ठहर रहा है अर्थात् कन्याभी अन्यको विवाही जाती है। इसी तरह वह धनभी अन्यकाही है॥ ११६ ॥
सुवर्णमणिकेयूराडंबरैरन्यभूभृतः॥
कलयैव पदं भोज तेषामाप्नोति सारवित्॥११७॥
हे भोज ! अन्य राजा लोग तो सुवर्ण मणि, बाजूबंद इत्यादिक आडंबरों करके विराजमान रहते हैं और सारवेत्ता (उत्तम राजा) अपनी कला करके ही तिन्होंके पदको(स्थानको) प्राप्त होता है॥ ११७ ॥
सुधामयानीव सुधां गलंति।
विदग्धसंयोजनमंतरेण॥
काव्यानि निर्व्याजमनोहराणि।
वारांगनानामिव यौवनानि॥ ११८॥
कवियोंके काव्य अमृतरूप हैं अमृतको गिराते हैं और जिनमें कोई विदग्ध अक्षर न हो अथवा कोई रस अलंकार बिगडा हुआ न हो ऐसे वे काव्य मानों सुधामय अर्थात् अमृतस्वरूपही इसप्रकार अमृत रसको गिराते हैं। जैसे वेश्याओं के मनोहर निष्कपट हुए यौवन सभीको अमृतरस समान सुख देते हैं वे किसीसे कपट नहीं कंरते हैं॥११८॥
ज्ञायते जातु नामापि न राज्ञः कवितां विना॥
कवेस्तद्व्यतिरेकेण न कीर्तिः स्फुरति क्षितौ॥११९॥
कविताके विना राजाका नामभी कभी नहीं जानाजाता है और तिस राजाके विना कविकी कीर्त्तिभीपृथ्वी पर नहीं प्रकट होती है॥११९॥
** मयूरः–**
**ते वंद्यास्ते महात्मानस्तेषां लोके स्थिरं यशः॥
यैर्निबद्धानि काव्यानि ये च काव्ये प्रकीर्तिताः॥१२०॥ **
मयूर०॥
वे प्रणाम करने योग्य हैं, वे महात्मा हैं, उनहीका लोकमें स्थिर यश है कि जिन्होंने काव्य रचे हैं और जो काव्य में वर्णन किये गये हैं॥१२०॥
वररुचिः–
पदव्यक्तव्यक्तीकृतसहृदयाबंधललिते।
कवीनां मार्गेस्मिन् स्फुरति बुधमात्रस्य धिषणा॥
न च क्रीडालेशव्यसनपिशुनोयं कुलवधू-।
कटाक्षाणां पंथाः स खलु गणिकानामविषयः॥१२१॥
वररुचि ०॥
पदोंके प्रकट करने में हृदयका अभिप्रा/नाय प्रकट किया गया है जिसमें ऐसे मनोहर कवियोंके इस मार्गमें पंडितमात्रकी बुद्धि स्फुरती है। यह मार्ग क्रीडाका लेश का व्यसनका विरोधी नहीं है। किंतु कुलवधुओंके कटाक्षोंका मार्ग है और यह निश्वयही वेश्याओं का विषय नहीं है॥ १२१॥
** राजा क्रीडाचंद्राय विंशतिं गजेंद्रान् ग्रामपंचकं च ददौ। ततो राजानं कविः स्तौति॥**
राजा क्रीडा चंद्रके वास्ते बीस हाथी और पांच ग्राम इनाम देता गया। इससे अनंतर कवि राजाकी स्तुति करता है॥
कंकणं3 नयनद्वंदे तिलकं4 करपल्लवे।
अहो भूषणवैचित्र्यं भोजप्रत्यर्थियोषिताम्॥१२२॥
अहो आश्चर्य है कि भोजराजा के शत्रुओं की स्त्रियों केअद्भुत आभूषण हैं कि दोनों नेत्रों में कंकण (जलकी बूंद आंसू) है और हाथों में तिलक (तिलोदक) है॥१२२॥
** तुष्टो राजा पुनरक्षरलक्षं ददौ। ततः कदाचित्कोपि जराजीर्णसर्वांगसंधिः पंडितो रामेश्वरनामासभामभ्यगात् स चाह॥**
फिर प्रसन्न हुआ राजा अक्षर२ के प्रति एक २ लाख रुपैये देता गया। फिर किसी समय में कोईक वृद्धअवस्था से शिथिल अंगोंवाला (बूढा) पंडित रामेश्वरनामक सभांमें आता गया वह बोला॥
पंचाननस्य सुकवर्गेजमांसैर्नृपश्रिया।
पारणा जायते क्वापि सर्वत्रैवोपवासिनः॥१२३॥
सब जगहं उपवास व्रत करनेवाले निराहार रहनेवाले सिंहकी और श्रेष्ठ कविकी पारणा (भोजनतृप्ति) हाथी के मांससे और राजाकी ऐश्वर्यसेही होती है॥१२३॥
वाहानां पंडितानां च परेषामपरो जनः॥
कवींद्राणां गजेंद्राणां ग्राहको नृपतिः परः॥१२४॥
अन्य वाहनोंके और पंडितोंके ग्राहक तो अन्यही जन हो जाते हैं। कवीन्द्रोंका और हाथियों का ग्राहक तो उत्तम राजा होता है॥१२४॥
** एवं हि-**
सुवर्णैः पट्टचैलैश्च शोभा स्याद्वारयोषिताम्॥
पराक्रमेण दानेन राजंते राजनंदनाः॥१२५॥
ऐसेही है।सुवर्ण करके और रेशमी वस्त्रोंकरके वेश्याओंकी शोभा होती है। पराक्रम करके और दान करके राजकुमार शोभित होते हैं॥१२५॥
** इत्याकर्ण्य राजा रामेश्वरपंडिताय सर्वाभरणान्युत्तार्य लक्षद्वयं प्रायच्छत्। ततः स्तौति कविः॥**
ऐसे सुनके राजा संपूर्ण आभूषणों को उतारके रामेश्वपंडितके वास्ते दो लाख रुपैये देता गया। फिर वह कवि स्तुति करता है।
भोज त्वत्कीर्तिकांताया नभोभाले स्थितं महत्।
कस्तूरीतिलकं राजन् गुणाकर विराजते॥१२६॥
हे राजन् ! हे गुणाकर (गुणों की खान) !! तुह्मारीकीर्तिरूप कांता (स्त्री) का महान कस्तूरीका तिलक आकाशके मस्तकपर स्थित है अर्थात् तुम्हारी कीर्ति स्वर्गतक पहुंची है॥ १२६॥
बुधाग्रे न गुणान्ब्रूयात् साधु वेत्ति यतः स्वयम्॥
मूर्खापि च न ब्रूयात् बुधप्रोक्तान्न वेत्ति सः॥१२७॥
पंडितके आगे गुणों को नहीं कहे क्योंकि वह बुद्धिमान् आपही भले प्रकार से जानता है। और मूर्खके आगेभी गुणोंको नहीं कहे क्योंकि वह मूर्ख पंडित के कहे हुओंको नहीं जानता है॥ १२७॥
** तेन चमत्कृताः सर्वे। रामेश्वरकविः प्राह॥**
तिससे सब जन चमत्कारयुक्त हो गये। फिर रामेश्वरकवि बोला॥
ख्यातिं गमयति सुजनः सुकविर्विदधाति केवलं कार्यम्।
पुष्णाति कमलमंभो लक्ष्म्या तु रविर्वियोजयति॥ १२८॥
श्रेष्ठ जन विख्यातीको प्राप्त करता है और सुंदरकवि केवल कार्यको रचता है। कमलको जल बढाता है परंतु शोभासहित तो सूर्यही करता है॥ १२८॥
** ततस्तुष्टोराजा प्रत्यक्षरलक्षं ददौ। राजेंद्र कविः प्राह॥**
तिससे अनंतर प्रसन्न हुआ राजा एक २ अक्षरके लाख २ रुपैये देता गया। राजेंद्रको कवि बोला॥
कवित्वं न शृणोत्येव कृपणः कीर्तिवर्जितः॥
नपुंसकः किं कुरुते पुरःस्थितमृगीदृशा॥१२९॥
कीर्तिरहित हुआ कृपणजन कविताको नहीं सुनता है।आगे स्थित हुई स्त्री करके नपुंसक क्या करता है॥ १२९॥
सीता प्राह—
हता देवेन कवयो वराकास्ते गजा अपि।
शोभा न जायते तेषां मंडलेंद्रगृहं विना॥१३०॥
सीता बोली**—**जो दैवकरके हत हो जाते हैं ऐसे कवि और हस्ती, गरीब (दीन) हैं। राजाके घरके विना उनकी शोभा नहीं होती है॥ १३०॥
कालिदासः—
अदातृमानसं क्वापि न स्पृशति कवेर्गिरः।
दुःखायैवातिवृद्धस्य विलासास्तरुणीकृताः॥१३१॥
कालिदास०॥
कविकी वाणी कृपणके मनको स्पर्श नहीं करती है जैसे जवान स्त्रीके किये हुए हावभाव, विलास, अत्यंत वृद्धको दुःखके देनेवाले होते हैं॥१३१॥
** राजा प्रतिपंडितं लक्षं लक्षं दत्तवान्। ततः कदाचिद्राजा समस्तादपि कविमंडलाधिकं कालिदासमवलोक्य आयांतं परं वेश्यालोलत्वेन चेतसि खेदलवं चक्रे। तदा सीता विद्वद्वृन्दवंदिता तदभिप्रायं ज्ञात्वा प्राह। देव॥**
फिर राजा पंडित २ प्रति एक लाख रुपैये देतागया। तिससे अनंतर किसीसमय राजा संपूर्ण कविमंडलसे अधिक कालिदासको देखके आते हुए परमवेश्यागामीको विचारके अपने मनमें कछुक खेद करता गया। तब तिसके अभिप्रायको जानके विद्वज्जनोंसे वंदित हुई सीताजी बोली। हे देव !॥
दोषमपि गुणवति जने दृष्ट्वा गुणरागिणो न खिद्यंते।
प्रीत्यैव शशिनि पतितं पश्यति लोकः कलंकमपि॥
गुणवान् मनुष्यों में दोषकोभी देखके गुणके स्नेही जन खेद नहीं पाते हैं। जैसे चंद्रमाविषें परे हुए कलंकको सब लोक (सब संसार) प्रीति करकेही देखता है॥१३२॥
** तुष्टो राजा सीतायै लक्षं ददौ। तथापि कालिदासं यथापूर्वं न मानयति यदा तदा स च कालिदासो राज्ञोऽभिप्रायं विदित्वा तुलामिषेण प्राह॥**
प्रसन्न हुआ राजा सीताके वास्ते लाख रुपैये देता गया। ऐसे होनेपर भी जब वह राजा पहलेकी तरह कालिदासको नहीं मानने लगा, तब वह कालिदास राजाके अजिप्रायको जानके तुला (तराजू) के मिससे बोला॥
प्राप्य प्रमाणपदवीं को नामास्ते तुलेवलेपस्ते।
नयसि गरिष्टमधस्तात्तदितरमुच्चैस्तरां कुरुषे॥१३३॥
हे तराजू ! प्रमाण (मान) की पदवीको प्राप्त होके तेरे क्या अभिमान (गर्व) है गरिष्ठ अर्थात् महान् भारीको नीचे करती है और हलकेको ऊपर करती है॥१३३॥
** पुनराह—**
यस्यास्ति सर्वत्र गतिः स कस्मात्।
स्वदेशरागेण हि याति खेदम्॥
तातस्य कूपोयमिति ब्रुवाणाः।
** क्षारं जलं कापुरुषाः पिबंति॥१३४॥**
फिर बोला–जिसकी सब जगह गति है वह अपने देशके स्नेहसे खेदको क्यौं प्राप्त होता है। यह हमारा पिताका कूवा है ऐसे कहते हुए मूर्ख पुरुष खारे जलको पीते हैं॥१३४॥
** ततो राज्ञा कृतामवज्ञां मनसि विदित्वा कालिदासो दुर्मनाः निजवेश्म ययौ॥**
फिर राजासे किये हुए तिरस्कारको मनमें जानके कालिदास उदास होके अपने घर में गया॥
अवज्ञास्फुटितं प्रेम समीकर्तुं क ईश्वरः।
संधिंन याति स्फुटितं लाक्षालेपेन मौक्तिकम्॥१३५॥
तिरस्कारसे फटे हुए प्रेमको समान (अच्छे) करनेको कौन समर्थ है। फूटा हुआ मोती लाखके लेपसे नहीं जुढ सकता॥१३५॥
** ततो राजापि खिन्नः स्थितः। ततो लीलावती खिन्नं दृष्ट्वा राजानं विषादकारणमपृच्छत्। राजा च रहसि सर्वंतस्यै प्राह। सा च राजमुखेन कालिदासावज्ञां ज्ञात्वा पुनः प्राह। देव प्राणनाथ सर्वज्ञोसि।**
फिर राजा भी उदास हुआ स्थित हो गया। फिर लीलावती दुःखित राजाको देखके विषादके कारणको पूछती गई। फिर राजा एकांत में तिसके वास्ते सब वृत्तांतकहता गया। वहभी राजा के मुखसे कालिदास के तिरस्कारको सुनके फिर बोली। हे देव प्राणनाथ ! तुम सर्वज्ञ हो॥
स्नेहो हि वरमघटितो न वरं संजातविघटितस्नेहः।
हृतनयनो हि विषादी न विषादीभवति स खलु जात्यंधः॥१३६॥
विना किया हुआ स्नेह अच्छा है और पहले करके फिर स्नेह तोडना अच्छा नहीं। जैसे जिसके नेत्र नष्ट होजाते हैं वह दुःखी है। जो जन्म से अंधा हो वह दुःखी नहीं होता है॥१३६॥
** परंतु कालिदासः कोपि भारत्याः पुरुषावतारः।तत्सर्वभावेन संमानयैनं विद्वद्भ्यः पश्य॥**
परंतु कालिदास कोई सरस्वतीका पुरुष अवतार है। इस वास्ते सर्वभावसे इसको विद्वानोंकरके मनवाओ, देखो॥
दोषाकरोपि कुटिलोपि कलंकितोपि।
मित्रावसानसमये विहितोदयोपि॥
चंद्रस्तथापि हरवल्लभतामुपैति।
नैवाश्रितेषु गुणदोषविचारणा स्यात्॥१३७॥
दोषोंका (क्षीणता आदिका) स्थान भी है, भाव यह है कि चंद्रमाको दोषाकर अर्थात् क्षपाकर कहते हैं उसी-
लापि सभा स्वासनादुत्थिता सर्वे सभासदश्चचमत्कृताः। वैरिणश्चास्य विच्छायवदना बभूवुः। ततो राजा निजकरकमलेन अस्य करकमलमवलंब्य स्वासनदेशं प्राप्य तं च सिंहासने उपवेश्य स्वयं च तदाज्ञया तत्रैवोपविष्टः। ततो राजसिंहासनारूढे कालिदासे बाणकविर्दक्षिणं बाहुमुद्धृत्य प्राह॥
ऐसे विचारता हुआ सभा में आया। फिर दूरही आते हुए कालिदासको देखके राजा आनंद से आसन से खड़ा हो, हे सुकवे ! मेरे प्रियतम! अब कैसे विलंब किया ऐसे कहता हुआ पांच छह पैर (डंघ) सन्मुख चला गया। तब सब सभाके मनुष्य, अपने २ आसनोंसे खडे होते गये, सभापति लोग चमत्कारको प्राप्त हो गये। और इस कालिदासके वैरी लोग उदासमुखवाले हो गये। फिर राजा अपने हस्तकमल करके इसके हस्तकमलको पकड़के अपने आसनकी जगह प्राप्त हो तिस कविको सिंहासनपर बिठाके आपभी तिसकी आज्ञा पायके वहांही बैठ गया। इससे अनंतर कालिदास राजसिंहासनपर बैठ गया। तब बाण कवि अपनी दहिनी भुजा उठाके बोला॥
भोजः कलाविद्रुद्रो वा कालिदासस्य माननात्॥
विबुधेषु कृतो राजा येन दोषाकरोप्यसौ॥१४०॥
भोज कलाओंको जाननेवाला है अथवा रुद्र (महादेव) है।क्या जिसने दोषाकर (दोषों की खान) भीयह कालिदास पंडित ब्राह्मणों में राजा कर दिया (इसपक्ष में रुद्र नाम भयानकका लेना। महादेव पक्षमें दोषाकर नाम चंद्रमाका है। जैसे क्षपाकर कहते हैं। चंद्रमाभीब्राह्मणोंका राजा कहता है)॥१४०॥
** ततोस्य विशेषेण विद्वद्भिः सह वैरानलः प्रदीप्तः। ततः कैश्चिद्बुद्धिमद्भिः मंत्रयित्वा सर्वैरपि विद्वद्भिः भोजस्य तांबूलवाहिनी दासी धनकनकादिना संमानिता। ते च तां प्रत्युपायमूचुः। सुभगे अस्मत्कीर्तिमसौ कालिदासो गलयति। अस्मासु कोपि नैतेन कलासाम्यं प्रवहते। वत्से यथैनं राजा देशांतरं निःसारयति तद्भवत्या कर्तव्यमिति। दासी प्राह। भवद्भयो हारं प्राप्य मया युष्मत्कार्यं क्रियते तन्मम प्रथमं हारो दातव्य इति। ततः सा तांबूलवाहिनी तैर्दत्तं हारमादाय व्यचिंतयत्। तथाहि।बुधैरसाध्यं किं वास्ति। ततः समतिक्रामत्सु कतिपयवासरेषु दैवादेकाकिनि प्रसुप्ते राजनि चरणसंवाहनादि सेवामस्य विधाय तत्रैव कपटेन नेत्रे निमील्य सुप्ता। ततश्चरणचलनेन राजानमीषज्जागरूकं सम्यग्ज्ञात्वा प्राह। सखि मदनमालिनि स दुरात्मा कालिदासः दासीवेषेण अंतःपुरं प्राप्य लीलादेव्या सह रमते। राजा तच्छ्रुत्वा उत्थाय प्राह। तरंगवतिकिं जागर्षीति। साच निद्राव्याकुलेव न शृणोति।राजा च तस्या अपध्वनिं श्रुत्वा व्यचिंतयत्। इयं तरंगवती निद्रायां स्वप्नवशं गता वासनावशाद्देव्यादुश्चरितं प्राह। स च स्त्रीवेषेणांतःपुरमागच्छतीत्येतदपि संभाव्यते। को नाम स्त्रीचरितं वेदेति। ततश्वेत्थं विचार्य राजा परेद्युः प्रातरात्मनि कृत्रिम ज्वरं विधाय शयानः कालिदासं दासीमुखेन आनाय्य तदागमनानंतरं तयैव लीलादेवीं चानाय्य देवींप्रत्यवदत्। प्रिये इदानीमेव मया पथ्यं भोक्तव्यमिति। इत्युक्ते सापि तथैवेति पथ्यं गृहीत्वा राज्ञे रजतपात्रे दत्त्वा तत्र मुद्गदालीं प्रत्यवेषयत्। ततो राजापि तयोरभिप्रायं जिज्ञासमानः श्लोकार्थं प्राह॥**
इससे अनंतर विद्वानोंके संगमें वैररूप अन्गिप्रकट होता गया। फिर कितेक बुद्धिमानोंसे सलाह करके सबही विद्वानोंने भोजको पान वीडा देनेवाली दासी धन सुवर्ण आदिको करके मानी। वे सब तिस दासीके प्रति उपाय बताते गये। हे सुभगे ! हमारी कीर्तिको यह कालिदास खंडित करता है। हमारे विषें कोई भी इस कालिदासकी समान कलाधारी नहीं है। हे वत्से (हे पुत्रि) ! जैसे राजा इसको देशान्तरमें निकाल देवे वही तैंने करना चाहिये। दासी बोली। तुमसे हार लेके मुझसे तुम्हाराकार्य होवेगा, इसलिये पहले मुझको हार देना चाहिये (मोतियों के हारको भेट देनी चाहिये)। इससे अनंतरवह पानवीडी देनेवाली दासी तिनसे दिये हुए हारको लेके चितवन करती गई। तैसेही है। पंडितोंकरके क्या असाध्य है (क्या नहीं बन सकता है)। फिर कितनेदिन बीत गये तब दैवयोग से राजा अकेला सो रहा था तब यह दासी इस राजा के पैर दाबके सेवा करके तहांही कपटसे नेत्र मींचके सो गई। पैर पसारनेसे राजाको कछुक जागते हुएको जानके बोली हे सखी मदनमालिनि ! वह दुरात्मा कालिदास दासीका वेष करके जिनाना महैलमें जाके लीलादेवी (रानी) के संग रमण करता है। राजा इस बात सुनके बैठा होके बोला। हे तरंगवति ! क्या जागती हो। फिर वह नींद में व्याकुल हुईकी तरह नहीं सुनती है। राजा तिसकी बैंडनेकी आवाजको सुनके चितवन करता गया। यह तरंगवती निद्राके वशमें होरही है वासनाके वशसे रानीके दुश्वरित्रको कहती है। वह स्त्रीका वेश करके जिनाने महल में आता है। यहभी मालूम होता है। कौन है कि जो स्त्रियोंके चरित्रको जाने। फिर इसप्रकार विचारके राजा दूसरे दिन अपने में छलका ज्वर बनाके सोता गया; फिर कालिदास कविको दासीके द्वारा बुलवाके तिसी दासीसे लीलादेवीको बुलाके लीलादेवीको बोला। हे प्रिये ! अबही मैंने पथ्यभोजन लेना चाहिये, ऐसे कहा। तब वहभी अंगीकार करके पथ्यको ग्रहण करके चांदीके पात्रमें राजाके वास्ते तहां मूंगों की दाल परोसती गई। फिर राजाभी तिनका अभिप्राय जाननेकी इच्छा करता हुआ आधे श्लोकको बोलता गया॥
** मुद्गदाली गदव्याली कवींद्र वितुषाकथम्॥**
हे कवीन्द्र ! गदव्याली अर्थात् रोगको नष्ट करनेमें सर्पिणीरूप मूंग की दाल वितुषा (चोइयोंसे रहित) कैसे हो गई है॥
** इति। ततः कालिदासः देव्यां समीपवर्तिन्यामपि उत्तरार्धं प्राह॥**
ऐसे कहा। फिर रानी के समीपमें होनेपरभी कालिदासकवि उत्तरार्द्धं श्लोक कहता गया॥
** अंधोवल्लभसंयोगे जाता विगतकंचुकी॥१४१॥**
भोजन (भात) पतिके संयोगमें यह (दाल स्त्री) आंगी खोलती गई॥१४१॥
** देवी तच्छ्रुत्वा परिज्ञातार्थस्वरूपा सरस्वतीवतदर्थं विदित्वा स्मेरमुखी मनागिव प्रबभूव। राजाप्येतदृष्ट्वा विचारयामास। इयं पुरा कालिदासे स्त्रिह्यति अनेन एतस्यां समीपवर्तिन्यामपि इत्थमभ्यधायि। इयं च स्मेरमुखी बभूव। स्त्रीणां चरित्रं को वेद॥**
फिर रानी इस पदको सुन परिज्ञातार्थस्वरूपा सरस्वतीकी तरह तिस अर्थको जानके कछुक मुसकाती हुई स्थित रही। राजाभी इस बात को देखके विचारता गया। यह पहले कालिदाससे स्नेह करती है इसीवास्ते इसकविने इस रानीके समीप होने पर भी ऐसा कहा। और यह भी मंदमुसकानमुखवाली होती गई। स्त्रियोंके चारित्रको कौन जानता है।
अश्वप्लुतं वासवगर्जितं च।
स्त्रीणां च चित्तं पुरुषस्य भाग्यम्॥
अवर्षणं चाप्यतिवर्षणं च।
देवो न जानाति कुतो मनुष्यः॥१४२॥
घोडाकी कदम, इंद्रका गर्जना, स्त्रियोंका चित्त, पुरुषका भाग्य, नहीं वर्षना, ज्यादै वर्षना इनको देवताभी नहीं जानता है फिर मनुष्य क्या जान सके॥१४२॥
** किं त्वयं ब्राह्मणः दारुणापराधित्वेन हंतव्य इति। विशेषेण सरस्वत्याः पुरुषावतार इति विचार्य कालिदासं प्राह। कवे सर्वथा अस्मद्देशे न स्थातव्यं किं बहुनोक्तेन प्रतिवाक्यं किमपि न वक्तव्यम्। ततः कालिदासोपि वेगेनोत्थाय वेश्यागृहमेत्य तां प्रत्याह। प्रिये अनुज्ञां देहि मयि भोजः कुपितः स्वदेशे न स्थातव्यमित्युवाच। अहह॥**
किंतु दारुण अपराधी होने से यह ब्राह्मण मारने योग्य है। फिर विशेषकरके यह सरस्वतीका अवतार है (रानीके) इस वचनको विचारके कालिदासको कहता गया। हे कवे ! सर्वथा हमारे देशमें नहीं ठहरना, बहुत कहने से क्या है बदला का जुबाब कछुभी नहीं कहना।फिर कालिदासभी शीघ्र ही खडा हो वेश्याके घर में प्राप्तहो तिसको कहता गया। हे प्रिये ! अनुज्ञा दो (जानेकी इजाजत दो क्योंकि) मेरे पर कुपित हुआ भोज अपने देश में नहीं ठहरना चाहिये ऐसे कहता गया। अहह ! बडा खेद है॥
अघटितघटितानि घटयति घटितघटितानि दुर्घटीकुरुते।
विधिरेव तानि घटयति यानि पुमान्नैव चिंतयति॥१४३॥
विधाता विना होनी बातोंको होनहार कर देता है और होनहार बातोंको अनहोनी कर देता है। और जिनको पुरुष कभी चितवन नहीं करता है उनहीको करदेता है॥१४३॥
** किं च किमपि विद्वद्वृंदचेष्टितमेवेति प्रतिभाति। तथाहि॥**
किंच (लेकिन्) कछु विद्वानोंके समूहकाही यह सब चेष्टित (फरेव) दीखता है। ऐसाही है।
बहूनामल्पसाराणां समवायो दुरत्ययः।
तृणैर्विधीयते रज्जुर्बध्यंते तेन दंतिनः॥१४४॥
स्वल्पसारवालेभी बहुतोंका इकठ्ठा होना बडा मजबूत होता है। तृणोंकरके रस्सी बनाई जाती है फिर तिसही रस्सीसे हाथी बांधे जाते हैं॥१४४॥
** ततो विलासवती नाम वेश्या तं प्राह॥**
फिर विलासवती नामवाली वेश्या तिस कविको बोली॥
तदेवास्य परं मित्रं यत्र संक्रामति द्वयम्।
दृष्टे सुःखं च दुःखं च प्रतिच्छायेव दर्पणे॥१४५॥
इस प्राणीका वही परम मित्र है कि जिसके देखने मात्रसे सुखदुःख दोनों ही ऐसे दीखते हैं कि, जैसे दर्पण में मुखका प्रतिबिंब दीखता है (भाव यह है कि जो सुखदुःखका साथी हो वही परम मित्र है)॥१४५॥
** दयित मयि विद्यमानायां किं ते राज्ञा किं वाराजदत्तेन वित्तेन कार्यम्। सुखेननिःशंकं तिष्ठ मनुहांतःकुहर इति। ततः कालिदासः तत्रैव वसन् कतिपय दिनानि गमयामास। ततः कालिदासे गृहान्निर्गते राजानं लीलादेवी प्राह। देव कालिदासकविना साकं नितांतं निविडतमा मैत्री तदिदानीमनुचितं कस्मात्कृतं यस्य देशेप्यवस्थानं निषिद्धम्॥**
हे प्रिय ! जबतक मैं विद्यमान हूं राजाकरके तुझे क्या करना है और राजासे दिये हुए धन करके क्या है।सुखपूर्वक मेरे घर के भौंहरे में शंकारहित होके ठहर। तिससे अनंतर वह कालिदास तहांही वसता हुआ कितेक दिनोंको व्यतीत करता गया। फिर कालिदास घरसे निकल गया तब लीलादेवी कहती गई। हे देव ! कालिदास कविके संग आपकी बहुत गाढी मित्रता थी सो अब किस कारण से बिगाड दी कि जो कालिदास अब देशसे भी बाहिर निकाल दिया॥
इक्षोरग्रात्क्रमशः पर्वणि पर्वणि यथा रसविशेषः।
तद्वत्सज्जनमैत्री विपरीतानां च विपरीता॥१४६॥
ईंखके गंडेके अग्रभागके क्रमसे पोरी २ में जैसे ज्यादै रस होता है इसी तरह सज्जन पुरुषोंकी मित्रता बढती रहती है और विपरीत (दुष्ट) आदमियोंकी प्रीति विपरीत अर्थात् घटती जाती है॥१४६॥
शोकारातिपरित्राणं प्रीतिविस्रंभभाजनम्।
केन रत्नमिदं सृष्टं मित्रमित्यक्षरद्वयम्॥१४७॥
शोकरूपी शत्रुसे रक्षा करनेवाला, प्रीति और विश्वासका पात्र ऐसा मित्र यह दो अक्षरका रत्न किससे रचागया है॥१४७॥
** राजाप्येतल्लीलादेवीवचनमाकर्ण्य प्राह। देवि केनापि ममेत्यभिधायि तत्कालिदासो दासीवेषेण अंतःपुरमासाद्य देव्या सह रमत इति। मया चैतद्व्यापारजिज्ञासया कपटज्वरेणायं भवती च वीक्षितौ। ततः समीपवर्तिन्यामपि त्वय्युत्तरार्द्धमित्थं प्राह। तच्चाकर्ण्य त्वयापि कृतो हासः। ततश्च सर्वमेतद्दृष्ट्वा ब्राह्मणहननभीरुणा मया देशान्निःसारितः। त्वां च न दाक्षिण्येन हन्मीति। ततः हासपरा देवी चमत्कृता प्राह। निःशंकं देव अहमेव धन्या यस्यास्त्वं पतिरीदृशः। यत्त्वया भुक्तशीलायाः मम मनः कथमन्यत्र गच्छति यतः सर्वकामिनीभिरपि कांतोपभोगे स्मर्त्तव्योसि। अहह देव त्वं यदि मां सतीमसती वा अकृत्वा गमिष्यसि तर्ह्यहं सर्वथा मरिष्ये इति। ततो राजापि प्रिये सत्यं वदसीति। ततः सनृपतिः पुरुषैरहिमानयामास तप्तं लोहगोलकं कारयामास धनुश्च सज्जं चक्रे। ततो देवी स्नाता निजपातिव्रत्यानलेन देदीप्यमाना सुकुमारगात्री सूर्यमवलोक्य प्राह। जगच्चक्षुस्त्वं सर्वसाक्षी सर्वं वेत्सि॥**
राजाभीलीलादेवीके इस वचनको सुनके बोला। हेदेवि ! किसीने मेरे आगे यह कहा कि वह कालिदासदासीका वेष करके जिनाने महलों में प्राप्त होके रानीकेसंगमें रमण करता है ऐसा। मैंने इस बातकी सच्चावटजाननेके वास्ते ज्वरका छल करके यह और तुम दोनोंदेख लिये। फिर समीपमें तेरे स्थित होनेपरभी इस प्रकारउत्तरार्द्ध श्लोकको पढता गया। तिस पदको सुनके तैनेभीहास्य किया।फिर इस संपूर्ण वृत्तांतको देखके ब्राह्मण केमारनेका भय मानके वह कवि मैंने देशसे निकाल दिया।और तेरी चतुरा बुद्धिमत्ता बहुत है इससे तुझको नहींमारता हूं। इससे अनंतर हंसती हुई रानी चिंमकके बोलती गई। हे देव ! मैंही निःशंक हुई धन्य हूं कि जिसके तुम ऐसे पति हो। जो कि तुम्हारे करके मेरा स्वभाव वर्त्ता हुआ भोगा हुआ है तोभी मेरा मन अन्यजगह कैसेजाता है क्योंकि हे कांत ! तुम सबही स्त्रियों करके उपभोगसमय में याद किये जाते हो। अहो ! बडा खेदकि जो तुम मुझको सती पतिव्रता बनाये विना अथवाअसती (जार) बनाये विना जावोगे तो मैं सर्वथा मरजाऊंगी। फिर राजाभी कहने लगा हे प्रिये ! सत्य कहतीहो। फिर वह राजा पुरुषकरके सर्पको मंगवाता गयाऔर लोहाके गोलाको तपाता गया, धनुषको चढाके बाणयुक्त करता गया। फिर वह देवी रानी स्नान करकेअपने पतिव्रतापने के धर्मरूप अग्नि करके प्रदीप्त हुई सुकुमार अंगवाली सूर्य को देख के बोली। हे जगत् के चक्षु !तुम सबके साक्षी हो सब कुछ जानते हो॥
जाग्रति स्वप्नकाले च सुषुप्तौ यदि मे पतिः।
भोज एव परन्नान्यो मच्चिते भावितोपि न॥१४८॥
जाग्रत अवस्थामें और सुपनामें तथा अत्यंत नींद आते समय जो मेरा परम पति भोजही है दूसरा कोई मेरेचित्तमें भी नहीं आता है (तो तुम मेरे नियमको सच्चा दिखाओ)॥१४८॥
** इत्युक्त्वा ततो दिव्यत्रयं चक्रे। ततः शुद्धायामन्तःपुरे लीलावत्यां लज्जानतशिराः नृपतिः पश्चात्तापात्पुरो देवि क्षमस्व पापिष्ठंमां किं वदामीतिकथयामास। राजा च तदाप्रभृति न निद्राति न चभुंक्ते न केनचिद्वक्ति। केवलमुद्विग्नमनाः स्थित्वादिवानिशं प्रविलपति। किं नाम मम लज्जा किं नामदाक्षिण्यं क्वगांभीर्यंहाहा कवे कविकोटिमुकुटमणेकालिदास हा मम प्राणसम हा मूर्खेण किमश्राव्यंश्रावितोसि अवाच्यमुक्तोसीति प्रसुप्त इव ग्रहग्रस्तइव मायाविध्वस्त इव पपात। ततः प्रियाकरकमलसिक्तजलसंजातसंज्ञः कथमपि तामेव प्रियां वीक्ष्यस्वात्मनिंदापरः परमतिष्ठत्। ततो निशा निशानाथहीनेव दिनकरहीनेव दिनश्रीर्वियोगिनीव योषित्शक्ररहितेव सुधर्मा न भाति भोजभूपालसभा रहिता कालिदासेन। तदाप्रभृति न कस्यचिन्मुखे काव्यं न कोपि विनोदसुंदरं वचो वक्ति। ततो गतेषुकेषुचिद्दिनेषु कदाचिद्राकापूर्णेंदुमंडलं पश्यन् पुरश्चलीलादेवीमुखेंढुं वीक्ष्य प्राह॥**
इसप्रकार कहके फिर दिव्यत्रय करती गई अर्थात्सर्पसे नहीं डसी गई और अग्निसे दग्ध नहीं गई, बाणनहीं स्पर्श गया। ये पूर्वोक्त तीनों बातें दिव्य हो गईं।फिर महलके भीतर लीलावती शुद्ध हो चुकी तब लज्जा(सरम) से नीचेको मुख किये हुआ राजा पिछतावाकरके पहले कहता गया कि, हे देवी! मेरी, पापिष्ठकीक्षमा करो मैं क्या कहूं। तबसे लेके राजाको नींद नहींआई किसीसे कुछ कहता नहीं है। केवल उदास मनवाला होके रातदिन विलाप करता है। क्या मेरी लज्जाहै, क्या मेरी चतुराई है, क्या मेरा गंभीरपना (भरखमपना) है, हाहा हे कवे! हे कविकोटियों के मुकुटके मणिरूप !हे कालिदास ! हा मेरे प्राणकी समान हां, मूर्खने (मैंने)क्या नहीं सुनाने लायक तुमको सुनाया, नहीं कहने लायक कहा, इस प्रकार बैंड की तरह ग्रह से ग्रस्त हुऐकी तरहछलसे विध्वस्त हुऐकी तरह परता गया। फिर रानीकेहस्तकमलसे छिडके हुए जलसे चेत हुआ, तब किसी प्रकारसे तिस प्रियाको देखके चुपके बैठा हो गया। फिरचंद्रमासे हीन हुई रात्रीकी तरह और सूर्यसे हीन हुएदिनकी शोभाकी तरह वियोगिनी हुई स्त्रीकी तरह औरइंद्रसे रहित हुई सुधर्मा सभाकी तरह वह भोजराजाकीसभा कालिदाससे रहित हुई शोभित नहीं होती गई।तबसे आगे किसीके मुखमें काव्य-रचना नहीं रही, कोईभी विनोद सुंदर वचन नहीं कहता है। फिर कितेक दिनबीत चुके, तब पूर्णमासीकी रात्री में पूर्णमंडल चंद्रमाकोदेखता हुआ राजा लीलादेवीके मुखरूप चंद्रमाको देखकेकहता गया।
** तुलणं अणु अणुसरइ ग्लौसो सुहचंदस्स खुएदाये॥**
ऐसी आधे श्लोककी कविता करी।इसका अर्थ यहहै कि, यह चंद्रमा इस रानीके मुखरूपी चंद्रमा की बराबरी करता है॥
** कुत्र च पूर्णेपि चंद्रमसि नेत्रविलासाः कदावाचो विलसितम्। प्रातश्चोत्थितः प्रातर्विधीन्विधाय सभां प्राप्य राजा विद्वद्वरान्प्राह। अहो कवयः इयं समस्या पूर्यताम्। ततः पठति। ‘तुलणं अणुअणुसरइ ग्लौसोमुहचंदस्स खुएदाये॥ पुनराह।इयं चेत्समस्या न पूर्यते भवद्भिः मद्देशे न स्थातव्यमिति। ततो भीतास्ते कवयः स्वानि गृहाणिजग्मुः। चिरं विचारितेप्यर्थे कस्यापि नार्थसंगतिःस्फुरति। ततः सर्वैर्मिलित्वा वाणः प्रेषितः। ततः सभांप्राप्याह राजानम्। देव सर्वैर्विद्वद्भिरहं प्रेषितः। अष्टवासरानवधिमभिधेहि। नवमेति पूरयिष्यंति ते।न चेद्देशान्निर्गच्छंति ते। राजा अस्त्वित्याह। ततोबाणः तेषां विज्ञाप्य राजसंदेशं स्वगृहमगात्। ततोष्टौ दिवसाः अतीताः। अष्टमदिनरात्रौ मिलितेषुबाणः प्राह। अहो तारुण्यमदेन राजसन्मानमदेनकिंचिद्विद्यामदेन कालिदासो निःसारितोभवत्। समे भवंतः सर्व एव कवयः। विषमे स्थाने तु सएक एव कविः। तं निःसार्य इदानीं किं नाम महत्त्वमासीत्। स्थिते तस्मिन् कथमियमवस्थास्माकंभवेत्। तन्निःसारे या या बुद्धिः कृता सा भवद्भिरेव अनुभूयते॥**
ऐसे कभी पूर्णचंद्रमा विषें नेत्रोंका विलास गया फिरकभी (कालान्तरमें) वाणीका विलास गया। (यह कविताबनाई)। फिर राजा प्रातःकाल खडा हो प्रातःकालका नित्यकर्म कर सभा में प्राप्त हो ब्राह्मणों के समूहोंको कहतागया। अहो कविजनो! यह समस्या पूर्ण करनी चाहिये। फिरराजा पढता है। “तुलणं अणु अणुसरइ ग्लौसो मुहचंदस्सखुएदाये”फिर बोला कि जो यह समस्या तुमसे पूर्णनहीं की जावे तो मेरे देशमें मत ठहरो। फिर भयभीतहुए वे कवि अपने घरको जाते गये। बहुत कालतक अर्थविचारनेमेंभी किसीकीभी अर्थमें संगति नहीं स्फुरती है।फिर सबने मिलके बाणपंडित भेजा। वह सभामें प्राप्तहोके राजा को कहता गया। हे देव ! सबों ने मिलके मैंभेजा हूं। आठ दिनकी अवधि (मियाद) दो। नववें दिनवे समस्या पूर्ण करेंगे। नहीं तो तुलारे देशसे निकल जावेंगे। राजाने यह बात अंगीकार कर ली। फिर बाणकविराजाके संदेशको तिन कवियोंको सुनाके अपने घर आता गया। फिर आठ दिन बीत गये। आठवें दिन कीरात्रीमें सब मिले तब बाण कहता गया। अहो ! जवानीके मदसे, राजसन्मानके मदसे, कछु विद्याके मदसे, कालिदास निकाल दिया। साधारण बातमें तुम सबही कविहो। और विषमस्थानमें तो वह एकही कवि है। तिसकोनिकालके अब क्या बडप्पन गया है। तिसके रहनेपरहमारी ऐसी अवस्था क्यों होती। उसके निकालनेमें जो२ बुद्धि करी थी उसका स्वाद तुमनेही मिला है॥
सामान्यविप्रद्वेषे च कुलनाशो भवेत्किल॥
उमारूपस्य विद्वेषो नाशः कविकुलस्य हि॥१४९॥
साधारण ब्राह्मणों से वैर करने में भी निश्चयही कुलकानाश हो जाता है। क्योंकि कविलोग पार्वतीजीके रूपकाद्वेष (निंदा विसराहना) करेंगे तो उन कविकुलोंका नाशही होगा अर्थात् प्रशंसा करने लायकसे ईर्षा द्वेष करनेवालोंका नाशही होता है॥१४९॥
** ततः सर्वे गाढं कलहायंते स्म। मयूरादयश्चततस्ते सर्वान् कलहान्निवार्य सद्यः प्राहुः। अद्यैवावधिः पूर्णः कालिदासमंतरेण न कस्यचित्सामर्थ्यमस्ति समस्यापूरणे॥**
जिसके अनंतर संपूर्ण कवि अतिकलह करते गये।पीछे मयूरसे आदि लेकर सब कवि संपूर्ण जनोंको कलहसेनिवारण करके शीघ्र बोले। कि आजही अवधि पूर्ण होचुकी (क्योंकि) कालिदासके विना समस्यापूरण करनेमें किसीकी सामर्थ्य नहीं॥
संग्रामेषु भटेंद्राणां कवीनां कविमंडले॥
दीप्तिर्वा दीप्तिहानिर्वा मुहूर्त्तेनैव जायते॥१५०॥
योद्धाओं की युद्धभूमिमें और कवियोंकी कविमंडल मेंजीत अथवा हार दोही घडीमें दीख पडती है॥१५०॥
** यदि रोचते ततोद्यैव मध्यरात्रे प्रमुदितचंद्रमसिनिगूढमेव गच्छामः संपत्तिसंभारमादाय। यदि नगम्यते इवो राजसेवका अस्मान्बलान्निःसारयंति तदादेहमात्रेणैवास्माभिर्गतव्यम्। तदाद्य मध्यरात्रे गमिष्याम इति सर्वे निश्चित्य गृहमागत्य बलीवर्दव्यूढेषु शकटेषु संपद्भारमारोप्य रात्रावेव निष्कांताः। ततः कालिदासः तत्रैव रात्रौ विलासवतीसदनोद्याने वसन् पथि गच्छतां तेषां गिरं श्रुत्वा वेश्याचेटीं प्रेषितवान्। प्रिये पश्य क एते गच्छंतिब्राह्मणा इव। ततः सा समेत्य सर्वानपश्यत्। उपेत्यच कालिदासं प्राह॥**
जो तुम्हारी संमति होवे तो आजही अर्धरात्रपर चंद्रोदय हुए (अपना) संपूर्ण असवाब लेकर चुपके से हीचलें।और जो नहीं चलोगे (तो) कल राजाके सिपाहीहमारेको और बालकोंको निकास देंगे, तब तो हमारेकोशरीरमात्रही करके चलना पडेगा (अर्थात् असवाबनहीं लेने देंगे)।इसवास्ते आजही अर्धरात्रपर जायेंगे।ऐसे संपूर्ण निश्चय करके अपने २ घरोंमें आकर,बैलजुडे हुए छकडोंपर (अपना अपना) असवाब लादकररात्रिकोही निकल गए। तिसके अनंतर कवि कालिदासरात्रिमें वही विलासवती के बगीचामें छुपा हुआ रास्तेचलते हुए तिन कवियोंकी वाणीको सुनकर तहां वेश्याकी दासीको भेजता गया। कि हे प्रिये ! देख ये कौनजाते हैं, ब्राह्मणोंकी तरह (प्रतीत होते हैं)। पीछे वोहवहां जाकर संपूर्णेंको देखती गई और वापस आकरकालिदासको यह कहती गई॥
एकेन राजहंसेन या शोभा सरसोऽभवत्।
न सा बकसहस्त्रेण परितस्तीरवांसिना॥१५१॥
एक राजहंसकरके जो सरोवरकी शोभा होती है,सो चारों तरफ तीरपर बसनेवाले हजार बुगलोंकरके नहींहो सकती॥१५१॥
** सर्वे च बाणमयूरप्रमुखाः पलायंते नात्र संशयइति। कालिदासः प्रिये वेगेन वासांसि भवनादानययथा पलायमानान् विप्रान् रक्षामि॥**
संपूर्ण बाण मयूरसे आदि लेकर कवि भांगे जाते हैंइसमें संदेह नहीं। (ऐसे सुन) कालिदास कहने लगे किप्रिये ! जल्दी स्थानसे वस्त्र लावो, जिसवास्ते भागतेहुए ब्राह्मणोंकी रक्षा करूं॥
किं पौरुषं रक्षति यो न वार्तान्।
किं वा धनं नार्थिजनाय यत्स्यात्॥
सा किं क्रिया या न हितानुबद्धा।
किं जीवित सांधुविरोधि यद्वै॥१५२॥
(क्योंकि) जो पीडितों की रक्षा न करे उसका कुछबल नहीं। और जो अभ्यागत जनोंको न दिया वह कुछधन नहीं। और जो अपना हित करनेवाली न हुई वहकुछ किया नहीं। और जो साधुजनोंसे विरोध रख्खेवह कुछ जीवना नहीं ॥१५२॥
ततः स कालिदासश्चारवेषं विधाय खङ्गमुद्वहन्क्रोशार्धमुत्तरं गत्वा तेषामभिमुखमागत्य सर्वान्निरूप्य जयेत्याशीर्वचनमुदीर्य पप्रच्छ चारणभाषया।अहो विद्यावारिधयो भोजसभायां संप्राप्तमहत्त्वातिशयाः बृहस्पतय इव संभूय कुत्र जिगमिवो भवंतः। कचित्कुशलं वो राजा च कुशली। अस्माभिःकाशीदेशादागम्यते भोजदर्शनाय वित्तस्पृहया।ततः परिहासं कुर्वतः सर्वे निष्कांताः। ततस्तेषुकश्चित्तद्विरमाकर्ण्य तं च चारणं मन्यमानः कुतूहलेन विपश्चित्प्राह। अहो चारण शृणु त्वया पश्चादपि श्रोष्यत एव अतो मया अद्यैवोच्यते। राज्ञाकिलेभ्यो विद्वद्भयः पूरणाय समस्योक्ता तत्पूरणाशक्ताः कुपिता राज्ञा देशांतरे क्वचिज्जिगमिषव एतेनिश्चक्रमुः। चारणः राज्ञा का वा समस्या प्रोक्ता।ततः पठति स विपश्चित्। ‘तुलणं अणु अणुसरइ ग्लौसो सुहचंदस्स खुएदाये॥’ चारणः एतत्साध्वेव गूढार्थं एतत्पूर्णेदुमंडलं वीक्ष्य राज्ञापाठि।एतस्योत्तरार्धमिदं भवितुमर्हति॥
तिसके अनंतर कालिदास यह विचार कर और गुप्तगस्त करनेवाला बनकर खड्गलिये आधकोश अगाडीजाय और तिन संपूर्णोके सन्मुख आकर संपूर्णोंको खबरकर और जय ऐसे आशीर्वचन कहकर तिन्होंको चारणभाषासे पूछता गया। कि अहो विद्याके समुद्ररूप राजाभोजकी सभा में बृहस्पतिके तरह बहुत महत्व पानेवालेतुम संपूर्ण इकट्ठे होकर कहां कहां जाने की इच्छा करतेहो। कहो तुम्हारे कुशल है और राजाजी कुशलवाला हैऐसे कह फिर (कालिदास कहने लगा कि) धनकीवांछा करके राजा भोजके दर्शनके वास्ते मैं काशीसेआया हूं। पश्चात् सब कवि ठट्ठा करते हुए निकलगये। तिसके अनंतर तिन्होंमें कोई विद्वान तिसकी वाणीसुन और तिसको चारण मानता हुआ आश्वर्य से कहनेलगा। कि, हे चारण ! सुनो, तुम पीछे भी सुनोहीगे इसवास्तेमैं अभी कहता हूं। निश्चय यह वार्ता है कि राजाने इनविद्वानोंको पूरण करने के वास्ते समस्या कही सो तितकापूरण करने में असमर्थ हुए और राजासे क्रोधकर निकालेहुए कहीं देशांतर में जानेकी इच्छा करते हुए ये निकलआये। (ऐसे सुन) चारणरूप कालिदासने कहा किराजाने कौन समस्या तुमारेसे कही। ऐसे सुन वहविद्वान कहने लगा। ‘तुलणं अणु अणुसरइ ग्लौसो मुहचंदरस खुदाये॥’ चारण बोला कि यह ठीकही है। चंद्रमाका पूर्णमंडल देखकर यह गूढ अर्थवाली समस्या राजाने कही है। सो इसका उत्तरार्ध यह होने के योग्य है ॥
** अणुइदि बंणयदि कह अणुकिदि तस्स पडिपदि चंदस्स॥**
** सर्वे श्रुत्वा चमत्कृताः। ततश्चारणः सर्वान्प्रणिपत्य निर्ययौ। ततः सर्वे विचारयंति स्म अहो इयं साक्षात्सरस्वती पुंरूपेण सर्वेषां अस्माकं परित्राणायागता नायं भवितुमर्हति मनुष्यः। अद्यापि किमपि केनापि न ज्ञायते। ततः शीघ्रमेव गृहमासाद्यशकटेभ्यो भारमुत्तार्य प्रातः सर्वैरपि राजभवनं गंतव्यं नचेच्चारण एव निवेदयिष्यति। ततो झटिति गच्छाम इति योजयित्वा तथा चक्रुः। ततो राजसभांगत्वा राजानमालोक्य स्वस्तीत्युक्त्वा विविशुः। ततो बाणः प्राह। देव सर्वज्ञेन यत्त्वया पठ्यते तदीश्वर एव वेद। केमी वराका उदरंभरयः द्विजाः तथाप्युच्यते॥**
“अणुइदि वंणयदि कह अणुकिदि तस्स पडिपदि चंदस्स’ऐसे संपूर्ण सुन विस्मित हो गये (चौंक उठे) पश्चात् चारण संपूर्णेको नमस्कार कर जाता गया। पीछे संपूर्णऐसे विचारते गये कि अहो ! यह पुरुषरूप करके साक्षात्सरस्वती थी क्या हमारी संपूर्णोंकी रक्षाके वास्ते आईथी यह मनुष्य होने के योग्य नहीं। अबभी कुछ किसीनेनहीं जान लिया। तिसके अनंतर शीघ्रही घर आकरऔर छकडोंसे भार उतारकर (संमति कर) कहने लगेकि प्रातः कालमेंही संपूर्णोंको राजभवनमें चलना, नहीं तोयह पद चारणही कह जावेगा।इसवास्ते जल्दी चलेंगे ऐसे सलाह कर तैसेही करते गये। तिसके अनंतर राजसभा में जाकर और राजाको देखकर ‘स्वस्ति’ ऐसे आशीर्वाद देकर स्थित होते गये। पीछे बाण कवि कहनेलगा कि हे देव! जो तुम सर्वज्ञने कहा है तिसको तोईश्वरही जान सकता है। ये तुच्छ पेट भरनेवाले ब्राह्मणकैसे जानेंगे, परंतु फिरभी कहा जाता है॥
तुलणं5 अणु अणुसरइ ग्लौसो मुहचंदस्स खु एदाये॥
अणुइदि बंणयदि कह अणुकिदि तस्सपडिपदि चंदस्स॥१५३॥
(इसका अर्थ कहते हैं) इस रानीके मुखरूप चंद्रमाकी निश्चय यह चंद्रमा बराबरी करने लायक है। (यहइतना अर्थ राजाके पूर्वार्द्धका है। अब कालिदासका उतरार्द्ध कहते हैं) तहां ऐसे वर्णन किया है कि तिस प्रतिपदाके चंद्रमा की और तिस मुखरूप चंद्रमाकी बराबरीकैसे हो सक्ती है (अर्थात् मुख तो सर्वदा पूर्णचंद्रमा कीतुल्य है और प्रतिपदाको यह चंद्रमा एकही कलावाला रहजाता है फिर कैसे बराबरी कर सके)॥१५३॥
** राजा यथाव्यवसितस्थाभिप्रायं विदित्वा सर्वथाकालिदासो दिवसप्राप्यस्थाने निवसति। उपायैश्चसर्वं साध्यम्। ततो बाणाय रुक्माणां पंचदशलक्षाणिप्रादात्। संतोषमिषेणैव विद्वद्वृंदं स्वं स्वं सदनं प्रतिप्रेपितम्। गते च विद्वन्मंडले शनैर्द्वारपालायादिष्टंराज्ञा। यदि केचित् द्विजन्मान आयास्यति तदागृहमध्यमानेतव्याः। ततः सर्वमपि वित्तमादाय स्वगृहं गते बाणे केचित्पंडिता आहुः। अहो बाणेनानुचितं व्यधायि। यदसावपि अस्माभिः सह नगरान्निकांतोपि सर्वमेव धनं गृहीतवान्। सर्वथा भोजस्यवाणस्य रूपं ज्ञापयिष्यामः। यथा कोपि नान्यायं विधत्ते विद्वत्सु। ततस्ते राजानमासाद्य ददृशुः।राजा तान्प्राह एतत्स्वरूपं ज्ञातमेव भवद्भिर्यथार्थतया वाच्यम्। ततस्तैः सर्वमेव निवेदितम्। ततःराजा विचारितवान्। सर्वथा कालिदासश्चारणवेषेणमद्भयान्मदीयनगरमध्यास्ते। ततश्चांगरक्षकानादिदेश। अहो पलाय्यतां तुरंगाः। ततः क्रीडोद्यानप्रयाणे पटहध्वनिरभवत्। अहो इदानीं राजा देवपूजाव्यय इति शुश्रुमः। पुनरिदानीं क्रीडोद्यानं गमिप्यतीति व्याकुलाः सर्वे भटाः संभूय पश्चाद्यति।ततो राजा तैर्विद्वद्भिः सह अश्वमारुह्य रात्रौ यत्रचारणप्रसंगः समजनि तत्प्रदेशं प्राप्तः। ततो राजाचरतां चौराणां पदज्ञाननिपुणानाहूय प्राह। अनेनवर्त्मना यः कोपि रात्रौ निर्गतः तस्य पदानि अद्यापि दृश्यंते तानि पश्यंत्विति। ततो राजा प्रतिपंडितं लक्षं दत्त्वा तान्प्रेषयित्वा च स्वभवनमगात्।ते च पदज्ञा राजाज्ञया सर्वतश्चरंतोपि तमनवेक्षमाणा विमूढा इवासन्। ततश्च लंबमाने सवितरि कामपि दासीमेकं पदत्राणं त्रुटितमादाय चर्मकारवेश्मगच्छंतीं दृष्ट्वा तुष्टा इवासन्। ततस्तत् पदत्राणंतया चर्मकारकरे न्यस्तं वीक्ष्य तैश्व तस्य करान्मिषेणादाय रेणुपूर्णे पथि मुक्त्वा तदेव पदं तस्येतिज्ञात्वा तां च दासीं क्रमेण वेश्याभवनं विशंतीं वीक्ष्यतस्या मंदिरं परितो वेष्टयामासुः। ततश्च तैः क्षणेनभोजश्रवणपथविषयं अभिज्ञानवार्त्ता प्रापिता। ततोराजा सपौरः सामात्यः पद्भ्यामेव विलासवतीभवनमगात्। ततस्तच्छ्रुत्वा विलासवतीं प्राह कालिदासः। प्रिये मत्कृते किं कष्टं ते पश्य। विलासवतीप्राह सुकवे॥**
ऐसे सुन निश्चयके अभिप्रायको संपूर्ण प्रकारसे जानकर राजाने विचार किया कि एक दिनमें प्राप्त हो ऐसेस्थान में कालिदास वसता है। उपायोंकरके संपूर्ण सिद्धहोता है। तिसके अनंतर बाणके वास्ते पंदरह लाख रुपैयाराजा भोज देता गया। संतोषमिसकरकेही विद्वानोंकासमूह अपने अपने स्थानों में भेज दिया। जब विद्वानोंकीमंडली चली गई तब राजाने सहजसी द्वारपालको आज्ञा दई। कि जो कोई ब्राह्मण आवें तो हमारे स्थान में लाने।तिसके अनंतर संपूर्ण द्रव्यको लेकर जब बाणकवि घरचला गया तब कितनेक पंडित कहने लगे। कि अहोबाणकविने अनुचित किया। क्योंकि जिससे यहभी हमारे साथ नगरसे निकसा था इसवास्ते बराबर ही थे और संधनको यही ग्रहण करता गया। सबप्रकार से भोजकेआगे बाणकविके रूपको कहेंगे। जैसे कोई भी विद्वानोंविषे अन्याय न करे। तिसके अनंतर वे विद्वान् राजाकोप्राप्त होकर देखते गये। राजा तिनको कहने लगा कियह स्वरूप तो जानही लिया परंतु तुम यथार्थतासे वर्णनकरो। पश्चात् तिन विद्वानोंने संपूर्ण वृत्तांत निवेदन किया।पश्चात् राजा विचार करता गया। कि सब प्रकार से मेरेभयसे कालिदास चारण वेष करके मेरेही नगरमें स्थितहै \। पश्चात् राजा सेनापतियोंको हुकम देता गया कि।अहो घोडोंको दौडाओ। फिर बगीचोंमें चलनेके वास्तेढंढोरा वाजता गया। कि अहो अब राजा देवपूजा मेंलग रहा है ऐसे सुनते हैं। फिर अभी बगीचोंको जावेंगाइस प्रकार ढंढोरेकी ध्वनि सुनके व्याकुल हुए संपूर्ण योद्धालोक इकट्ठे होकर राजाके पीछे (संग २) चलने लगे।फिर राजा तिन विद्वानोंसहित घोडे पर सवार होकररात्रिमें जहां चारणका प्रसंग हुआ था तिस देशको प्राप्तहोता गया। पश्चात् राजा फिरते हुए चोरोंकी पैडोंकी जिन्हें पहचान होती है तिनको (खोजी लोगोंको) बुलाकर कहने लगा। कि इस मार्गकरके जो कोई रात्रिकोगया है तिसकी पैड अबभी दीखती है तिनको देखो।पश्चात् राजा पंडित २ प्रति लाख लाख रुपैये देकर औरतिनको घरोंको भेजकर आपभी अपने स्थानको जातेगये। और वे पैडों को जाननेवाले पुरुष चारों तरफ फिरतेहुएभी तिस पैढवाले मनुष्यको नहीं देखते हुए मूढों कीतरह होते गये। पश्चात् जब बहुत थोडा दिन रह गयातब टूटी जूतीको लिये हुए किसी एक दासीको चमारकेघर जाती हुई को देखकर प्रसन्नकी तरह होते गये। पश्चात्वह टूटी जूती तिसने चमार के हाथमें दी (फिर तिस जूंतीको) देखके तिन (खोजी लोगों) ने तिस (चमार)के हाथ से किसी मिसकरके लेके रेतवाले रास्तामें गेरकरऔर तिसकी पैडको जो पहले खोज मिला था उसीमेंमिला जानकर और तिस दासीको क्रमसे वेश्याके स्थानको गई हुई जानकर तिस वेश्याके स्थानको चारों तरफ सेबंदोबस्त में करते ये। तिसके अनंतर तिन्होंने क्षणमात्रमें यह पैडवालेके ज्ञानकी वार्ता राजा भोजके कानों मेंपहुंचा दई।तिसके अनंतर राजा भोज पुरके जन औरमंत्रियोंसहित पैदलही विलासवती स्थानको प्राप्त होतेगये। पश्चात् सो वृत्तान्त सुनकर कालिदास विलासवतीको कहने लगा। कि हे प्रिये ! मेरे वास्ते तुझे कैसा कष्ट प्राप्त हुआ तू देख।विलासवती कहने लगी कि हेश्रेष्ठ कवि ! सुन॥
उपस्थिते विप्लवएव पुंसां।
समस्तभावः परिमीयतेतः॥
अवाति वायौ नहि तूलराशे-
र्गिरेश्चकश्चित्प्रतिभाति भेदः॥१५४॥
पुरुषोंका नाश प्राप्त होत संतेही संपूर्ण भाव जान पडताहै। इसमें दृष्टान्त है कि जबतक पवन नहीं चले तबतक रुईके समूहका और पर्वतका भेद नहीं भान होताअर्थात् पवन नहीं चले तबलौं रुई का समूहभी पर्वतसरीखा दीखता है॥१५४॥
मित्रस्वजनबंधूनां बुद्धेर्वित्तस्य चात्मनः।
आपन्निकषपाषाणो जनो जानाति सारताम् ॥१५५॥
मित्र, स्वजन, बन्धु, बुद्धि, द्रव्य, आत्मा इन्होंकीसारताको विपतरूप कसोटीवाला जनही जान सकताहै॥१५५॥
अप्रार्थितानि दुःखानि यथैवायांति देहिनः।
सुखानि च तथा मन्ये दैन्यमत्रातिरिच्यते॥१५६॥
और शरीरधारियोंके बिना प्रार्थना किये दुःख जैसेआपही आ जाते हैं तैसे सुखभी आ जाते हैं। मैं तोयह मानती हूं यहां दीनताही विशेष है॥१५६॥
** सुकवे राज्ञा त्वयि मनाक् निराकृते वचसापि मयासहेदं दासीवृंदं प्रदीप्तवह्नौ पतिष्यति। कालिदासःप्रिये नैवं मंतव्यं मां दृष्ट्वा विकासीकृतास्यो भोजःपादयोः पतिष्यतीति। ततो वेश्यागृहं प्रविश्यभोजः कालिदासं दृष्ट्वा ससंभ्रममाश्लिष्य पादयोःपतति। स राजा पठति च॥**
हे सुकवे ! जो वचन करकेभी राजा तुम्हारा थोडासाभी निरादर कर देगा तो मेरे सहित यह दासीसमूह बलते हुए अग्निमें भस्म हो जावेगा। कालिदास कहने लगाकि हे प्रिये ! ऐसे नहीं मानना, मेरे को देखकर हँसता हुआराजा भोज चरणों में गिर जावेगा। तिसके अनंतर वेश्याके घरमें राजा भोज प्रविष्ट होकर और कालिदासको देखकर और संभ्रमसहित मिलकर चरणों में गिर गया। औरराजा भोज ऐसे कहनेभी लगा॥
गच्छतस्तिष्ठतो वापि जायतः स्वपतोपि वा।
मा भून्मनः कदाचिन्मे त्वया विरहितं कवे॥१५७॥
हे कवे ! चलते ठहरते जागते सोते मेरा मन कभी तुमसेदूर मत हो॥१५७॥
** कालिदासस्तच्छ्रुत्वा व्रीडावनताननस्तिष्ठति। राजा च कालिदासमुखमुन्नमय्याह॥**
कालिदास ऐसे सुनकर लज्जासे नीचेको मुख कर खड़ाहो गया। और राजा कालिदासके मुखको संमुखकरकहता गया।
कालिदास कलावास दासवच्चालितो यदि।
राजमार्गे व्रजन्नत्र परेषां तत्र का त्रपा॥१५८॥
हे कलाओंके स्थान कालिदास !राजमार्गमें चलताहुआ मैं जो दासकी तरह यहां बुला लिया तो इसमेंऔरोंको क्या लाज है॥१५८॥
धन्यां विलासिनीं मन्ये कालिदासो यदेतया।
निबद्धःस्वगुणैरेष शकुंत इव पंजरे॥१५९॥
मैं तो विलासिनी वेश्याको धन्यवाद देता हूं जिससे इसने यह गुणी कालिदास अपने गुणोंकर के ऐसे बांध लिया मानू पिंजरा में पक्षी॥१५९॥
** राजा नेत्रयोः हर्षाश्रु मार्जयति कराभ्यां कालिदासस्य। ततः तत्प्राप्तिप्रसन्नो राजा ब्राह्मणेभ्यःप्रत्येकं लक्षं ददौ। निजतुरगे च कालिदासमारोप्यसपरिवारः निजगृहं ययौ। कियत्यपि कालेतिक्रांतेराजा कदाचित्संध्यामालोक्य प्राह॥**
पश्चात् राजा कालिदासके नेत्रोंके आनंद आंसुओं कोअपने हाथोंसे पूंछता गया। तिसके अनंतर कालिदासकी प्राप्तिसे प्रसन्न हुवा राजा एक एक ब्राह्मणको लाखलाख रुपैये देता गया। फिर राजा अपने घोडेपर कालिदासको सवारकर परिवारसहित अपने घर आता गया।फिर कुछ काल चला गया तब राजा किसी समयमें संध्याको देखकर कहने लगा॥
** परिपतति पयोनिधौ पतंगः।
ततो बाणः प्राह–सरसिरुहामुदरेषु मत्तभृंगः॥
ततो महेश्वरकविः–उपवनतरुकोटरे विहंगः।
ततः कालिदासः–युवतिजनेषु शनैः शनैरनंगः॥१६०॥**
सूर्य समुद्र में पडता है। फिर श्लोकका दूसरा चरण बाणकवि कहने लगा। कि, हे राजन् ! सूर्य ऐसेही कमलपुष्पके बीच में मदोन्मत्त भौहरा पडता है। फिर महेश्वरकवि कहने लगा। सूर्य ऐसे अस्त होता है कि जैसेबगीचा के वृक्षोंके खरखोढरमें पक्षी पडता है। फिर कालिदास कहने लगा। कि, सूर्य ऐसे अस्त होता है जैसेस्त्रीजनों में शनैः शनैः कामदेव प्रवेश होता है। यह संध्यासमयंका वर्णन गया॥१६०॥
** तुष्टो राजा लक्षं लक्षं ददौ। चतुर्थचरणस्य लक्षद्वयंददौ। कदाचिद्राजा बहिरुद्यानमध्ये मार्गं प्रत्यागच्छंतं कमपि विप्रं ददर्श। तस्य करे चर्ममयं कमंडलुं वीक्ष्य तं चातिदरिद्रं ज्ञात्वा मुखश्रिया विराजमानं चावलोक्य तुरंगं तदग्रे निधायाह। विप्र चर्मपात्रं किमर्थं पाणौ वहसीति। स च विप्रः नूनं मुखशोभया मृदूक्तया च भोज इति विचार्याह। देवचदान्यशिरोमणौ भोजे पृथ्वीं शासति लोहताम्राभावः समजनि तेन चर्ममयं पात्रं वहामीति। राजाभोजे शासति लोहताम्राभावे को हेतुः। तदा विप्रःपठति॥**
ऐसे इन कवियों की कविताको सुन प्रसन्न हुआ राजा एकएक लाख रुपैये बिचले दो चरण बनानेवाले कवियोंकोदेता गया और चौथा चरण बनानेवाले कालिदास कविको दो लाख रुपैये देता गया। किसी समय राजा भोजबाहर बगीचा मार्गसे जाता था, तब आगेसे आते हुएकिसी ब्राह्मणको देखता गया। तिसके हाथमें चामकीडोली देखकर तिसको अति दरिद्री जानकर और मुखकीशोभासे विराजमान देखकर तिस ब्राह्मणके आगे घोडेकोथामकर कहने लगा। कि हे ब्राह्मण ! चर्मपात्र किस वास्तेहाथमें रखते हो। (ऐसे सुन) वह ब्राह्मण मुखशोभाकरके और कोमल उक्तिकरके राजा भोज है यह निश्चय समझकर कहने लगा। हे देव ! दाताओं में शिरोमणि राजाभोज पृथ्वीपाल होने पर लोहेतांबेका अभाव हो गया, इसवास्ते चर्मका पात्र रखता हूं। फिर राजा कहने लगा कि,भोज राजा होनेपर लोहे तांबेके अभावका क्या कारणहै। फिर ब्राह्मण कहने लगा कि॥
अस्य श्रीभोजराजस्य द्वयमेव सुदुर्लभम्॥
शत्रूणां श्रृंखलैर्लोहं ताम्रं शासनपत्रकैःश्रीः/श्च॥१६१॥
इस राजा भोजके (बहुत खरच होनेसे) में दो वस्तुबहुत दुर्लभ हो गई। शत्रुओंकी बेडियोंके वास्ते खरचा हो-
नेसे लोहा और इनाम पट्टा लिखनेसे तांबा॥१६१॥
** ततस्तुष्ट राजा प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ। कदाचिद्द्वारपालः प्राह। धारेंद्र दूरदेशादागतः कश्विद्विद्वान्द्वारि तिष्ठति तत्पत्नी च तत्पुत्राः सपत्नीकः। अतोतिपवित्रं विद्वत्कुटुंबं द्वारि तिष्ठतीति। राजाअहो गरीयसी शारदाप्रसादपद्धतिः। तस्मिन्नवसरेगजेंद्रपाल आगत्य राजानं प्रणम्य प्राह। भोजेंद्रसिंहलदेशाधीश्वरेण सपादशतं गजेंद्राः प्रेषिताःषोडश महामणयश्च। ततो बाणः प्राह॥**
तिसके अनंतर राजा प्रसन्न होके एक एक अक्षर प्रतिलाख लाख रुपैये देता गया। किसी समय में द्वारपालकहने लगा। हे धारानगरीके स्वामिन्! दूर देशसे आयाहुआ कोई विद्वान द्वारपर खडा है। और तिसकी स्त्रीखडी है और तिसके पुत्र हैं ऐसे सपत्नीक है। इस वास्ते अतिपवित्र विद्वानका कुंटुंब द्वारपर खडा है। (ऐसे सुन)राजा कहने लगा कि अहो सरस्वतीके प्रसादका मार्गबड़ा है। तिस अवसर में गजेन्द्रपाल आकर (और) राजाको नमस्कार करके कहने लगा। भोजेन्द्र ! सिंहल देशकेराजाने सवासौ (१२५) हस्ती भेजे हैं (और) सोलह महामणि भेजी हैं। तिसके अनन्तर बाण कवि कहने लगा॥
स्थितिः कवीनामिव कुंजराणां।
स्वमंदिरे वा नृपमंदिरे वा॥
गृहे गृहे किं मशका इवैते।
भवंति भूपालविभूषितांगाः॥१६२॥
हे राजन् ! कवियोंकी तरह हस्तियों की स्थिति अपनेमंदिरमें अथवा राजाके मन्दिर में शोभित है। (और) राजाओंकरके विभूषित हैं अंग जिन्होंके ऐसे ये कवि औरहस्ती घर घर मच्छरोंकी तरह किसवास्ते फिरते हैं॥१६२॥
** ततो राजा गजावलोकनाय बहिरगात्। ततस्तद्विद्वत्कुटुंबं वीक्ष्य चोलपंडितो राज्ञः प्रियोहमिति गर्वं दधार। यन्मया राजभवनमध्यं गम्यते। विद्वत्कुटुंबं तु द्वारपालज्ञापितमपि बहिरास्ते। तदाराजा तच्चेतसि गर्वं विदित्वा चोलपंडितं सौधांगणान्निस्सारितवान्। काशीदेशवासी कोपि तंडुलदेवनामा राज्ञे स्वस्तीत्युक्त्वातिष्ठत्। राजा च तं पप्रच्छ। सुमते कुत्र निवासः॥**
तिसके अनंतर राजा हस्तियों को देखनेके वास्ते बाहरआता गया। पश्चात् तिस विद्वान् को (और) विद्वान् के कुलको देखकर चोलपंडित ऐसे गर्वको धारण करता गयाकि मैं राजाको प्रिय हूं \। क्योंकि जिससे मैं राजा के महलोंमें जाता हूं। (और) विद्वान्का कुल तो द्वारपालका बताया हुआभी बाहर खडा है। तब राजा चोलपंडितके चित्तमें गर्वको जानकर तिसको महलके आंगनसे बाहर निकालता गया। फिर काशी देशमें बसनेवाला कोई
तंडुलदेव नामा विद्वान् राजाको ‘स्वस्ति’ऐसे आशीर्वाददेकर स्थित होता गया। राजाभी तिसको पूछता गया।कि हे सुमते हे विद्वन् ! तुलारा निवास कहां है॥
वर्त्तते यत्र सा वाणी कृपाणी रिक्तशाखिनः॥
श्रीमन्मालवभूपाल तत्र देशे वसाम्यहम्॥१६३॥
हे श्रीमन् ! हे मालवदेश के राजा ! जहां खाली हाथवाले जनके पास वाणी (वचन) ही तलवारके समानरहती है. अर्थात् तलवारकी तरह वचनसेही काट देते हैं,तहां (पूर्वदेश में) मैं वसता हूं॥१६३॥
** तुष्टो राजा तस्मै गजेंद्रसप्तकं ददौ। ततः कोपिविद्वानागत्य प्राह॥**
प्रसन्न हुआ राजा तिस विद्वान्को सात हस्ती देता गया। पश्चात् कोइक विद्वान् आकर कहने लगा।
तपसः संपदः प्राप्यास्तत्तपोपि न विद्यते॥
येन त्वं भोजकल्पद्रुर्द्दृग्गोचरमुपैष्यसि॥१६४॥
जिस तपकरके संपत् प्राप्त होती है सो तपतू भीनहीं है। जिससे तू भोजरूप कल्पवृक्ष हमारे नेत्रोंके आगेप्राप्त होगा॥१६४॥
** तस्मै राजा दशगजेंद्रान् ददौ। ततः कश्विद्ब्राह्मणपुत्रो भूंभारवं कुर्वाणोभ्येति। ततः सर्वे संभ्रांताःकथं भूभारवं करोषीति राज्ञा स्वदृग्गोचरमानीतःपृष्टः स प्राह॥**
(प्रसन्न होकर) राजा तिस विद्वान्को दश हस्ती देता गया। पश्चात् कोई ब्राह्मणपुत्र भूंभाशब्द (अर्थात्रोनेका शब्द) करता हुआ प्राप्त हुआ। पश्चात् सुनकर संपूर्ण संभ्रमको प्राप्त हुए और कहने लगे कि ऐसे भूंभाशब्दकिसवास्ते करता है, राजाने अपने नेत्रोंके आगे बुलायाऔर पूछा जब वह कहने लगा॥
देव त्वद्दानपाथोधौ दारिद्र्यस्य निमज्जतः॥
न कोपि हि करालंबं दत्ते मत्तेभदायक॥१६५॥
हे देव ! हे मत्तहस्तियों के देनेवाले ! तुम्हारे दानरूपसमुद्र में डूबते हुए दारिद्र्यको कोई हाथका सहारा नहींदेता है॥१६५॥
** ततस्तुष्ट राजा तस्मै त्रिंशत् गजेंद्रान् प्रादात्।ततः प्रविशति पत्नीसहितः कोपि विलोचनो विद्वान्स्वस्तीत्युक्त्वा प्राह॥**
पश्चात् प्रसन्न हुआ राजा तिसको तीस हस्ती देतागया। तिसके पश्चात् पत्नीसहित कोईक6 विलोचन विद्वान् ‘स्वस्ति’ कहकर कहने लगा॥
निजानपि गजान् भोजं ददानं प्रेक्ष्य पार्वती॥
गजेंद्रवदनं पुत्रं रक्षत्यद्य पुनः पुनः॥१६६॥
अब पार्वती अपने हस्तियों को दान करते हुए।भो-
जको देखकर हस्तिमुखवाले अपने पुत्रकी वारंवार रक्षाकरती है॥१६६॥
** ततो राजा सप्त गजान् तस्मै ददौ। ततो राजाविद्वत्कुटुंबं तदैव पुरतः स्थितं वीक्ष्य ब्राह्मणं प्राह॥**
पश्चात् राजा सात हस्ती तिसको देता गया। पश्चात्राजा अगाडी खडे विद्वान् के कुटुंबको उसीसमय देखकर ब्राह्मणको समस्या कहने लगा॥
** क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे॥**
महान् पुरुषों (बडों) की क्रियाकी सिद्धि शरीरमेंही होती है और सामग्रीमें नहीं होती॥
** वृद्धद्विजः प्राह॥**
फिर वृद्ध ब्राह्मण कहने लगा॥
घटो जन्मस्थानं मृगपरिजनो भूर्जवसनम्।
वने वासः कंदादिकमशनमेवंविधगुणः॥
अगस्त्यः पाथोधिं यदकृतकरांभोजकुहरे।
क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे॥१६७॥
जिसका जन्मस्थान तो घडा और मृग आदि कुंटुंबऔर जिसके वस्त्र भोजपत्र, वास वनमें, भोजन कंदआदि ऐसे गुणवाला अगस्त्य मुनि समुद्रका आचमनकरता गया। इसवास्ते बडोंकी क्रियासिद्धि शरीरमें अथवा बलमेंही होती है और सामग्री में नहीं होती॥१६७॥
** ततो राजा बहुमूल्यानपि षोडशमणीन् तस्मै ददौ।**
ततस्तत्पत्नीं प्राह राजा अंब त्वमपि पठ। देवी॥
पश्चात् राजा बहुत मूल्यवाली सोलह मणि तिस पंडितको देता गया। पश्चात् राजा तिस ब्राह्मणकी स्त्रीकोकहने लगा कि हे मात ! तूभी समस्या पूर्ण कर (ऐसेसुन) देवी कहने लगी॥
रथस्यैकं चक्रं भुजगनमिताः सप्ततुरगा।
निरालंबो मार्गश्चरणविकलः सारथिरपि॥
रविर्यात्येवांतं प्रतिदिनमपारस्य नभसः।
क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे॥१६८॥
सूर्यके रथकी पहियां तो एक और सात घोडे वेभीसर्पोंसे बांधे हुए, और आकाशमें मार्ग और पांगला सारथिऐसाभी सूर्य दिन २ प्रति अपार आकाशका अंत करजाता है। इसीवास्ते बडों की क्रियासिद्धि शरीर में या बलमेंही होती है। सामग्रीमें नहीं होती॥१६८॥
** राजा तुष्टः सप्तदश गजान् सप्त रथांश्च तस्यैददौ। ततो विप्रपुत्रं प्राह राजा। विप्रसुत त्वमपिपठ। विप्रसुतः॥**
फिर प्रसन्न हुआ राजा सतरह (१७) हस्ती औरसात (७) रथ तिस ब्राह्मणीको देता गया। फिरराजा ब्राह्मणके पुत्र को कहता गया हे विप्रपुत्र ! तूभीश्लोक पढ।ऐसे सुन ब्राह्मणका पुत्र कहने लगा॥
विजेतव्या लंका चरणतरणीयो जलनिधि-।
विपक्षः पौलस्त्यो रणभुवि सहायाश्च कपयः॥
पदातिर्मर्त्योसौ सकलमवधीद्राक्षसकुलम्।
क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे॥१६९॥
लंकापुरी जीतनी थी और समुद्र पैरोंसेही पार करनाथा फिर पुलस्त्य ऋषिका पुत्र रावण (महान शूर वीर)शत्रु था और तहां रणभूमीमें भी वानर सहायक थे फिरयह रामचंद्रजी पियादे और मनुष्यही थे तोभी संपूर्ण राक्षसोंके कुलको नष्ट करते गये। इस वास्ते महान् पुरुषोंकेशरीरमें या बलमेंही क्रिया की सिद्धि है (कार्यसिद्धि है)।कुछ सामग्री में नहीं॥१६९॥
** तुष्टो राजा विप्रसुताय अष्टादश गजेंद्रान् प्रादात्। ततः सुकुमारमनोज्ञनिखिलांगावयवालंकृतां शृंगाररसोपजातमूर्तिमिव चंपकलतामिव लावण्यगात्रयष्टिं विप्रस्नुषां वीक्ष्य नूनं भारत्याः कापि लीलाकृतिरियमिति चेतसि नमस्कृत्य राजा प्राह।मातस्त्वमप्याशिषं वद। विप्रस्नुषा देव शृणु॥**
ऐसे सुन राजा प्रसन्न होकर ब्राह्मणके पुत्रको अठारह हस्ती देता गया। तिसके अनन्तर कोमल सुंदर संपूर्ण अंग अवयवोंसे विभूषित शृंगाररससे उत्पन्न हुई मूर्तिकी तरह चंपाकी वेलकी तरह शोभारूप शरीरकी यष्टिकी तरह ऐसी ब्राह्मणकी पुत्रवधूको देखकर बोला किनिश्वय सरस्वतीकी यह कोई लीलाकी आकृति है ऐसे
चित्तमें नमस्कार कर राजा कहने लगा। हे मातः ! तभीआशीर्वाद कह।पंडितकी पुत्रवधू कहने लगी कि हे देव !सुनो॥
धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी चंचलदृशाम्।
दृशां कोणो बाणः सुहृदपि जडात्मा हिमकरः॥
स्वयं चैकोनंगः सकलभुवनं व्याकुलयति।
क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे॥१७०॥
जिसके पुष्प तो धनुष है और भौंरारूप ज्या (प्रत्यंचा)है और चंचलनेत्रवाली स्त्रियोंका नेत्रकोण तिसका बाण हैऔर जडात्मा चंद्रमा तिसका मित्र और आप अंगरहित है ऐसा अकेलाही कामदेव संपूर्ण भुवनको व्याकुलकर देता है।इसवार बडोंकी क्रियासिद्धि प्रतापमें ही हैऔर सामग्रीमें नहीं है॥१७०॥
** चमत्कृतो राजा लीलादेवीभूषणानि सर्वाण्यादायतस्यै ददौ। अनर्घ्यांश्च सुवर्णमौक्तिकवैडूर्यप्रवालांश्चप्रददौ। ततः कदाचित्सीमंतनामा कविः प्राह॥**
चमत्कृत हुआ राजा लीलादेवीका संपूर्ण आभूषणलेकर तिसको देता गया। और बहुत मूल्यवाले सुवर्णमोती मणि मूंगा तिसको देता गया। तिसके अनंतर किसीसमय में सीमंत नामा कवि कहता गया॥
पंथाः संसर दीर्घतां त्यज निजं तेजःकठोरं रखे।
श्रीमन्विंध्यगिरे प्रसीद सदयं सद्यःसमीपे भव॥
इत्थं दूरपलायनश्रमवतीं दृष्ट्वा निजप्रेयसीम्।
श्रीमन्भोज तव द्विषःप्रतिदिनं जल्पंति मूर्च्छंतिच॥
हे पंथाः (हे रास्ते) ! जल्दी आजा और दीर्घताको त्याग दे और हे सूर्य ! अपने तेजको त्याग दे, हे श्रीमन्विंध्यपर्वत ! दयासहित प्रसन्न हो और जल्दी नजदीकहो जा। ऐसे दूर भागने से श्रमवाली अपनी स्त्रियों को देखकर तुह्मारेशत्रु नित्य बकते हैं और मूर्छाको प्राप्त होतेहैं॥१७१॥
** तस्मिन्नेव क्षणे कश्चित्सुवर्णकारः प्रांतेषु पद्मरागमणिमंडितं सुवर्णभाजनमादाय राज्ञः पुरो मुमोच। ततो राजा सीमंतकविं प्राह। सुकवे इदंभाजनं कामपि श्रियं दर्शयति। ततः कविराह॥**
उसी समय कोई सुनार आया और पुष्परागमणिसे जडासुवर्णका थाल लाकर राजाको नजर करता गया। फिरराजा सीमंतकविको कहने लगा। कि हे कवे ! यह पात्रकोई विचित्र शोभा दे रहा है। ऐसे सुन कवि कहने लगा॥
धारेश त्वत्प्रतापेन पराभूतस्त्विषांपतिः।
सुवर्णपात्रव्याजेन देव त्वामेव सेवते॥१७२॥
हे देव ! हे धारेश ! तुह्मारे प्रताप करके सूर्यनारायणतिरस्कृत हुआ सुवर्णपात्रका मिस करके तुह्मारेको सेवनकिया चाहता है॥१७२॥
** ततस्तुष्टो राजा तदेव पात्रं मुक्ताफलैरापूर्य प्रा-**
दात्। कदाचिद्राजामृगयारसेन पुरः पलायमानं वराहं दृष्ट्वा स्वयमेकाकी तदा दूरं वनांतमासादितवान्। तत्र कंचन द्विजवरमवलोक्य प्राह। द्विज, कुत्रगंतासि। द्विजः धारानगरम्।भोजः। किमर्थम्।द्विजः। भोजं द्रष्टुं द्रविणेच्छया। स पंडिताय दत्तेअहमपि मूर्खं न याचे। भोजः। विप्र, तर्हि त्वं विद्वान्कविर्वा। द्विजः। महाभाग कविरहम्। भोजः।तर्हि किमपि पठ। द्विजः। भोजं विना मत्पदसरणिं न कोपि जानाति। राजा। ममाप्यमरवाणीपरिज्ञानमस्ति राजा च मयि स्निह्यति त्वद्गुणं च श्रावयिष्यामि। किमपि कलाकौशलं दर्शय। विप्रः। किंवर्णयामि। राजा। कलमानेतान्वर्णय।विप्रः॥
पश्चात् प्रसन्न हुआ राजा तिस सुवर्णके थालको मोतियोंसे भरकर तिस कविके वास्ते देता गया। किसी समय मेंराजा शिकारका शौक करके आगे भागते हुए सूवरको देखकर उससमय आप अकेला दूर वनको प्राप्त होता गया।तहां किसी ब्राह्मणको देखकर राजा कहने लगा।हे ब्राह्मण!कहां जावेगा। ब्राह्मण कहने लगा कि धारानगरको। फिरभोज कहने लगा। किसवास्ते। ब्राह्मण बोला द्रव्यकी इच्छाकरके, भोजको देखने को। राजा भोज तो पंडितकोही द्रव्य देता है। मैं भी मूर्खको नहीं याचता हूँ।भोज बोला। कि हे ब्राह्मण ! तुम कवि हो कि विद्वान्।
ब्राह्मण बोला। कि मैं कवि हूं। भोज कहने लगा।तो कुछ कहो। ब्राह्मण बोला। भोजके बिना मेरी पदोंकी पंक्तिका जाननेवाला कोई नहीं। राजा बोला। मेरेभी देववाणीका ज्ञान है और वह भोज राजा मेरेसे बहुतप्यार रखता है तुह्मारे गुणको मैं राजाको सुनाऊंगा। कुछविद्याकी चतुरता दिखावो। ब्राह्मण बोला। क्या वर्णनकरूं। राजा कहने लागा। कि इन कलमोंको अर्थात् खेतमेंखड़े हुए व्रीही (चावल धान्य विशेष) को वर्णन करो !ब्राह्मणने कहा॥
कलमाः पाकविनम्राः मूलतलाप्राणसुरभिकल्हाराः।
पवनाकंपितशिरसः प्रायः कुर्वंति परिमलश्लाघाम्॥
हे राजन् ! कलम (चावल) पाकसे नम्र हैं और जिनकी जडमें प्राणरहित सुगंधित कमल हैं ऐसे ये कलम व्रीही(चावल) धान्य पवनसे शिर हिलाते हुए कमलसुगंधिकी श्लाघा (प्रशंसा) करते हैं॥१७३॥
** राजा तस्मै सर्वाभरणान्युत्तार्य ददौ। ततः कदाचित्कुंभकारवधूः राजगृहमेत्य द्वारपालं प्राह। द्वारपाल राजा द्रष्टव्यः। स आह किं ते राज्ञा कार्यम्।सा चाह। न तेभिधास्यामि नृपाय एव कपयामि।स सभामागत्य प्राह। देव कुंभकार प्रिया काचिद्राज्ञोदर्शनाकांक्षिणी न वक्ति मत्पुरः कार्यं त्वत्पुरतः**
कथयिष्यति। राजा प्राह प्रवेशय। सा चागत्य नमस्कृत्य वक्ति॥
राजा तिस पंडितको अपने संपूर्ण गहने उतारकर देतागया। पश्चात् किसी समय में कोईक कुह्मारी राजाकेभवनमें आकर द्वारपालको कहने लगी। कि हे द्वारपाल !मेरेको राजाका दर्शन करा दो। द्वारपाल बोला कि तेराराजासे क्या काम है। कुह्मारी कहने लगी। कितेरेकोनहीं कहूंगी राजाकोही कहूंगी। द्वारपाल सभामें जाकरकहने लगा। हे देव ! कोई कुह्मारी आप राजाके दर्शनकीअभिलाषाकरती है और मेरे आगे कार्य नहीं कहती।हे राजन् ! आपके आगे कहेगी। राजा कहने लगा किभेजो। सो कुह्मारी आकर नमस्कार करके कहने लगी॥
देव मृत्खननाद्दृष्टं निधानं वल्लभेन मे।
स पश्यन्नेव तत्रास्ते त्वां ज्ञापयितुमभ्यगाम्॥१७४॥
हे देव ! मिट्टी खोदनेसे मेरे स्वामीको खजाना मिलाहै सो वह तो तिसको देखता हुआ वहीं स्थित है औरमैं अरज करने को आई हूं ॥१७४॥
** राजा च चमत्कृतो निधानकलशमानयामास।तद्द्वारमुत्पाट्य यावत्पश्यति राजा तावत्तदंतर्वर्तिद्रव्यं मणिप्रभामंडलमालोक्य कुंभकारं पृच्छति। किमेतत्कुंकार। स चाह॥**
राजा चमकता हुआ उस खजाने के कलशको मंगाता
गया। राजा ऊपरसे उघाड जो देखने लगा तब तिसकेबीच में मणिकांतिसे भूषित द्रव्यको देखकर कुह्मारकोपूंछने लगा। हे कुह्मार ! यह क्या बात है। कुह्मार कहने लगा॥
राजचंद्रं समालोक्य त्वां तु भूतलमागतम्।
रत्नश्रेणिमिषान्मन्ये नक्षत्राण्यभ्युपागमन्॥१७५॥
हे राजन् ! मैं तो यह मानता हूं कि तुह्मारेको राजारूप चंद्रमाको पृथ्वीमें आया हुआ देखकर रत्नोंके मिषकरके नक्षत्रोंकी पंक्ति तुह्मारेको प्राप्त हुई है॥१७५॥
** राजा कुंभकारमुखाच्छ्लोकं लोकोत्तरमाकर्ण्य चमत्कृतः तस्मै सर्वं ददौ। ततः कदाचिद्राजा रात्रावेकाकी सर्वतो नगरचेष्टितं पश्यन् पौरगिरमाकर्णयन् चचार। तदा क्वचिद्वैश्यगृहे वैश्यः स्वप्रियांप्राह। प्रिये राजा स्वल्पदानरतोपि उज्जयनीनगराधिपतेर्विक्रमार्कस्य दानप्रतिष्ठां कांक्षते सा किंभोजेन प्राप्यते। केश्चित्तंत्रपरायणैर्मयूरादिकविभिर्महिमानं प्रापितो भोजः। परंतु भोजो भोज एव।प्रिये शृणु॥**
राजा कुह्मारके मुखसे बहुत उत्तम (हदसे जियादे) श्लोक सुनकर विस्मित हुआ तिसको संपूर्ण धन देतागया। तिसके अनंतर किसी समय में राजा रातको अकेला चारों तरफसे नगरकी चेष्टाको देखता हुआ पुरवा-
सियोंकी वाणीको सुनता हुआ विचरता गया। तिससमय में कहीं वणियांके घर में वणियां अपनी प्रियाकोकहने लगा। हे प्रिये ! राजा भोज थोडा दान करताहुआभी उज्जैननगरीका स्वामी विक्रमादित्य केसा यशचाहता है, सो यश क्या भोजको मिल सकता है ? नहींमिल सकता। तंत्र में तत्पर कितनेक मयूर आदि कवियोंने राजा भोज महिमाको प्राप्तभी कर दिया है। परंतुभोज तो भौजही है। है प्रिये ! सुन॥
आबद्धकृत्रिमसटाजटिलांसाभित्ति-
रारोपितो यदि पदं मृगवैरिणः श्वा।
मत्तेभकुंभतटपाटनलंपटस्य
नादं करिष्यति कथं हरिणाधिपस्य॥१७६॥
जो कोई बनावट की कंधबाल कंधेके ऊपर बाल आदि बांधकर सिंहकी जगह कुत्तेको बांध देवे तौभीवह कुत्ता मत्तहस्ती के कुंभतटको फाडनेवाले सिंहका शब्दकैसे करेगा॥१७६॥
** राजा श्रुत्वा विचारितवान्। असौ सत्यमेव वदति। ततः पुनः पुनर्वदंतं शृणोति॥**
राजा (ऐसे) सुनकर विचारता गया। कि यहसत्यही कहता है। पीछे फिर फिर कहते हुएको सुनता गया।
आपन्न एव पात्रं देहीत्युच्चारणं न वैदुष्यम्॥
उपपन्नमेव देयं त्यागस्ते विक्रमार्क किमु वर्ण्य॥१७७॥
हे विक्रमादित्य राजन् ! आपका दान क्या वर्णनकिया जावे। क्योंकि किसी विपत्तिवाले दरिद्री पुरुषनेआपसे पात्र (लोटा आदि बरतन) मांग लिया तो उसमेंआपको बडा दुःख गया, फिर आपने उसके वास्ते पूर्णधन दिया कि जिससे उसको ऐसी ज्यादा विपत्तिनहीं रहे॥१७७॥
विक्रमार्क त्वया दत्तं श्रीमन् ग्रामशताष्टकम्।
अर्थिने द्विजपुत्राय भोजे त्वन्महिमा कुतः॥१७८॥
हे विक्रमादित्य श्रीमन् ! तुमने अभ्यागत ब्राह्मणकेपुत्रके वास्ते आठ सौ गांम दे दिये। इस वास्ते भोज में तुम्हारी महिमा कहांसे आवे॥१७८॥
प्राप्नोति कुंभकारोपि महिमानं प्रजापतेः।
यदि भोजोप्यवाप्नोति प्रतिष्ठां तव विक्रम॥१७९॥
जो कुह्मार ब्रह्माकी महिमाको प्राप्त होवे तो हे विक्रम ! भोज तुह्मारी प्रतिष्ठाको प्राप्त होवे॥१७९॥
** राजा लोके सर्वोपि जनः स्वगृहे निःशंकं सत्यंवदति। मया वा अन्येन वा सर्वथा विक्रमार्कप्रतिष्ठान शक्या प्राप्तुम्। ततः कदाचित्कश्चित्कविः राजद्वारं समागत्याह राजा द्रष्टव्य इति। ततः प्रवेशितो राजानं स्वस्तीत्युक्त्वा तदाज्ञयोपविष्टः पठति॥**
राजा कहने लगा लोकमें संपूर्ण जन अपने घरमें
निःशंक सत्य कहते हैं, मैं अथवा अन्य संपूर्ण प्रकारसेविक्रमादित्यकी प्रतिष्ठाको नहीं प्राप्त हो सकता। पश्चात्किसी समय में कोई कवि राजाके द्वारपर आकर कहनेलगा कि राजाको आशीर्वाद देना चाहता हूँ। पश्चात्वह कवि भीतर प्राप्त किया तब राजाको ‘स्वस्ति’ ऐसेकहकर राजाकी आज्ञासे बैठ गया और श्लोक पढने लगा॥
कविषु वादिषु भोगिषु देहिषु।
द्रविणवत्सु सतामुपकारिषु॥
धनिषु धन्विषु धर्मधनेष्वपि।
क्षितितले नहि भोजसमो नृपः॥१८०॥
कवि, वादी, भोगी, द्रव्यवान्, श्रेष्ठोंका उपकार करनेवाला, धनी, धनुषधारी, धर्मरूप, धनवाला इन शरीरधारियों में पृथ्वीतलमें भोजके समान और राजानहीं है॥१८०॥
** राजा तस्मै लक्षं प्रादात्। ततः कदाचिद्राजाक्रीडोद्यानं प्रस्थितो मध्येमार्गं कामपि मलिनांशुकं वसानां तीक्ष्णकरतपनकरविदग्धमुखारविंदांसुलोचनां लोचनाभ्यां आलोक्य पप्रच्छ॥**
राजा तिस कविको लक्ष रुपये देता गया। पश्चात्किसी समयमें राजा बगीचाको चला, तब मार्ग के बीच मेंमलिन वस्त्र ओढे और तीक्ष्ण सूर्य की किरणोंसे पसीनावाले मुखकमलवाली सुंदर नेत्रोंवाली ऐसी किसी स्त्रीकोनेत्रोंसे देखकर राजा पूछने लगा॥
‘का त्वं पुत्रि’। सा च तं श्रीभोजभूपालं मुखश्रियाविदित्वा तुष्टा प्राह–‘नरेंद्र लुब्धकवधूः’। हर्षसंभृतोराजा तस्याः पटुप्रबंधानुबंधेनाह–‘हस्ते किमेतत्’।सा चाह–‘पलम्’। राजाह–‘क्षामं किं’। सा चाह–‘सहजं ब्रवीमि नृपते यद्यादराच्छ्रूयते॥ गायंतित्वदरिप्रियाश्रुतटिनीतीरेषु सिद्धांगनाः। गीतं गानतृणं चरंति हरिणास्तेनामिषं दुर्लभम्॥१८१॥
हे पुत्र ! तू कौन है \। सोभी मुखकांतिकरके तिसकोराजा भोज जानकर प्रसन्न हुई कहने लगी–हे नरेंद्र ! पारधीकी स्त्री हूं \। ऐसा श्लोकचरण सुनकर तिसंकेसुंदर प्रबंध से प्रसन्न हुआ राजा कहने लगा॥ हाथमें यहक्या है। सो कहने लगी–मांस। फिर राजा कहने लगा थोडा क्यों है। सो कहने लगी–हे राजन् ! जो आदरसेसुनते हो तो मैं सत्य कहती हूं, तुम्हारे शत्रुओं की स्त्रियोंके आसुओंकी नदीके तीरपर सिद्धांगना गीत गाती हैं।तहां हिरण गानरूप तृण चरते हैं तिसकरके मांस दुर्लभहो रहा है। अर्थात् भूखे मृगोंका मांस सूख गया॥१८१॥
** राजा तस्यै प्रत्यक्षरं लक्षं प्रादात्। सर्वाभरणान्युत्तार्य तं च तुरगं ददौ। ततो गृहमागत्य गवाक्षे उपविष्टः। तत्र चासीनं भोजं दृष्ट्वा राजवर्त्मनिस्थित्वा कश्विदाह।देव सकलमहीपाल आकर्णय**
ऐसे सुन राजा तिस लुब्धकवधूको अक्षर अक्षर प्रतिलाख लाख रुपैये देता गया। और संपूर्ण आभूषण उतारकर देता गया और घोडा देता गया। फिर महलों मेंआकर झरोखेमें बैठ गया। तहां बैठे हुए भोजको देखकरकोई पुरुष राजमार्ग में स्थित होकर कहने लगा। हे देव !हे सकलमहीपाल ! सुनो॥
इतश्चतश्चद्भिर्विघटिततटः सेतुरुदरे।
धरित्री दुर्लंघ्या बहुलहिमपंको गिरिरयम्॥
इदानीं निर्वृत्ते करितुरगनीराजनविधौ।
न जाने यातारस्तव च रिपवः केन च पथा॥१८२॥
हे राजन् भोज ! अब आपकी सेना के हस्तीघोडोंकोजल पिलाना नहलाना और सब जगह सेनाकी सजावटहोने के समय आपके शत्रुलोग किस मार्गसे जायेंगे। यहनहीं जानता हूं। क्योंकि पुलोंके तटोंपर वा मध्यभागमेंअत्यंत भीड मच रही है।और पृथ्वी दुर्लंघ्य है (किसीजगह कर नहीं गया जावे है) और हिमालय पर्वतमेंबर्फ बहुत पंडती है॥१८२॥
** तुष्टो भोजो वर्त्मनि स्थितायैव तस्मै वंश्यान्पंच गजान् ददौ। कदाचिद्राजा मृगयारसपराधीनो हयमारुह्य प्रतस्थे॥**
ऐसे सुन प्रसन्न हुआ राजा मार्ग में स्थित हुएही तिसब्राह्मणको खानदान में होनेवाले पांच गज राजा देता गया।
किसी समय राजा शिकार के रससे पराधीन हुआ घोडेपर सवार हो जाता गया॥
ततो नदीं समुत्तीर्णं शिरस्यारोपितेंधनम्॥
वेषेण ब्राह्मणं ज्ञात्वा राजा पप्रच्छ सत्वरम्॥१८३॥
तिसके अनंतर सिरपर ईंधन धरे नदी तिरते हुए बाझणको वेषकरके पहचान कर राजा शीघ्र पूंछने लगा॥
** कियन्मानं जलं विप्र।
स आह–जानुदघ्नं नराधिप॥
स चमत्कृतो राजाह–ईदृशी किमव्यस्था ते।
स आह–न हि सर्वे भवादृशाः॥१८४॥**
हे ब्राह्मण ! जल कितना है। तिसने कहा कि–हेराजन् ! जानुदन्न अर्थात् गोडाप्रमाण। फिर राजा चमत्कृतहुआ बोला कि–तथापि तुहारी ऐसी अवस्था क्यों हैअर्थात ऐसा पढकर भी यह हाल क्यों है। सो कहने लगा–संपूर्ण तुम्हारे केसे नहीं अर्थात गुणके जाननेवालेनहीं॥१८४॥
** राजा प्राह कुतूहलात्। विद्वन् याचस्व कोशाधिकारिणं, लक्षं दास्यति मद्वचसा। ततो विद्वान्काष्ठं भूमौ निक्षिप्य कोशाधिकारिणं गत्वा प्राह।महाराजेन प्रेषितोहं। लक्षं मे दीयताम्। ततस्सहसन् आह। विप्र भवन्मूर्तिः लक्षं नार्हति। ततोविषादी स राजानमेत्याह। स पुनर्हसति देव नार्पयति। राजा कुतूहलादाह।लक्षद्वयं प्रार्थय दास्यति।**
पुनरागत्य विप्रो लक्षद्वयं देयमिति राज्ञोक्तमित्याह।पुनर्हसति। पुनरपि भोजं प्राप्याह। स पापिष्टो मांहसति नार्पयति। ततः कौतूहली लीलानिधिर्महींशासत् श्रीभोजराजः प्राह। विप्र लक्षत्रयं याचस्वअवश्यं स दास्यति। पुनरेत्य प्राह। राजा मे लक्षत्रयंदापयति। स पुनर्हसति। ततः क्रुद्धो विप्रः पुनरेत्याह। देव स नार्पयत्येव॥
राजा आनंदसे कहने लगा। हे विद्वन् ! खजानचीपास जाकर मांगो मेरे हुकमसे लाख रुपैये देगा। पश्चात्विद्वान् काष्टको भूमीपर गेरकर और खजानची के पासजाकर कहने लगा। कि, मैं महाराजका भेजा हूं। लाखरुपैये मेरेको दो। फिर वह खजानची हंसकर कहने लगा।हे ब्राह्मण ! तुम्हारी सूरत लाख रुपयोंके योग्य नहीं।पश्चात् विषादयुक्त हुआ वह ब्राह्मण राजाको प्राप्त होकरकहने लगा। कि, हे राजन् ! वह खजानची हंसा औररुपैया नहीं दिया। राजा फिर आनंद से कहने लगा। कि,दो लाख रुपैये मांगो देगा। फिर आकर ब्राह्मण कहनेलगा। दो लाख रुपैये दो राजाने कहा है। खजानची फिरहंसा। फिर भोजको प्राप्त होकर ब्राह्मण कहने लगा। वहखजानची पापी हंसता है और मेरे रुपैया नहीं दे रहा हैं। पश्चात् आनंदवाला क्रीडाका स्थान पृथ्वीको शिक्षा ब*वाला राजा भोज कहने लगा। हे ब्राह्मण ! तीन लाख रुपैया
रुपैया मांगो सो खजानची जरूर देगा। फिर आकर कहने लगा। राजा मेरेको तीन लाख रुपैये दिवाता है। ऐसेसुन फिर हँसा। पश्चात् क्रोधित हुआ ब्राह्मण फिर आकरराजाको कहने लगा। कि हे देव ! वह तो देताही नहीं॥
राजन्कनकधाराभिस्त्वयि सर्वत्र वर्षति।
अभाग्यच्छत्रसंछन्ने मयि नायांति बिंदवः॥१८५॥
हे राजन् ! सुवर्णकी धाराकरके आपके सब जगहवर्षते हुए अभाग्यरूप छत्रकरके ढका हुआ जो मैं हूंमेरे ऊपर बूंद नहीं आती है॥१८५॥
त्वयि वर्षति पर्जन्ये सर्वे पल्लविता द्रुमाः।
अस्माकमर्कवृक्षाणां पूर्वं पत्रेषु संक्षयः॥१८६॥
हे राजन् ! तुह्मारे मेघरूपके वर्षा करते हुए संपूर्णवृक्षोंके पत्र आ गये और हमारे आंक वृक्षरूपोंके तो पहलेपत्रभी नष्ट हो गये॥१८६॥
एकमस्य परमेकमुद्यमम्।
निस्त्रपत्वमपरस्य वस्तुनः॥
नित्यमुष्णमहसा निरस्यते।
नित्यमंधतमसं प्रधावति॥१८७॥
इस जीवके परम मुख्य तो एकही उपाय है कि लज्जा नहीं करना क्योंकि (देखो) हमेशे दिनकरके गरमाई (**प्रकाश) किया जाता है और और अंधेरा प्रतिदिन**भागता है, किसीको लज्जा नहीं आती है॥१८७॥
** ततो राजा प्राह-**
क्रोधं मा कुरु मद्वाक्याद्गत्वा कोशाधिकारिणम्।
लक्षत्रयं गजेंद्राश्च दश ग्राह्यास्त्वया द्विज॥१८८॥
फिर राजा बोला। हे ब्राह्मण ! क्रोध मत करो औरमेरे हुकुमसे खजानची पास जाओ तीन लाख रुपैये औरदश हस्ती ले लो॥१८८॥
** ततस्स्वांगरक्षकं प्रेषयति। ततः कोशाधिकारीधर्मपत्रे लिखति॥**
पश्चात् राजाने अरदलीका सिपाही भेज कर सब दिवा दिया। फिर खजानची धर्मपत्रपर लिखता गया॥
लक्षं लक्षं पुनर्लक्षं मत्ताश्च दश दंतिनः।
दत्ताः श्रीभोजराजेन जानुघ्नप्रभाषिणे॥१८९॥
लाख लाख फिर लाख ऐसे तीन वारके हुकुममेंतीन लाख रुपैये और दश हस्ती श्रीभोजराजाने (जानुदघ्न अर्थात्) गोडेप्रमाण जल है, ऐसा वचन कहनेवालेविद्वानको दिये॥१८९॥
** ततः सिंहासनमलंकुर्वाणे श्रीभोजनृपतौ द्वारपालआगत्य प्राह। राजन् कोपि शुकदेवनामा कविर्द्वारि वर्त्तते। राजा बाणं प्राह। पंडितवर सुकवे तत्त्वंविजानासि। बाणः। देव शुकदेवपरिज्ञानसामर्थ्याभिज्ञः कालिदास एव नान्यः। राजाह सुकवे सखे**
कालिदास किं विजानासि शुकदेवकविं। आह कालिदासः। देव॥
तिसके अनंतर सिंहासन पर बैठे हुए भोजराजाके द्वारपालने आकर कहा। कि, राजन् ! कोई शुकदेव नामाकवि द्वारपर खडा है। राजा बाणकविको कहने लगा। किहे पंडितवर ! हे सुकवे ! तिसको तुम जानते हो। बाणकवि कहने लगा। कि हे राजन् ! शुकदेव के ज्ञानको जाननेवाला कालिदासही है और नहीं। राजा कहने लगा किहे सुकवे ! हे सखे कालिदास ! तुम शुकदेव कविको जानतेहो। कालिदास कहने लगा। कि हे देव !॥
सुकविद्वितयं जाने निखिलेपि महीतले।
भवभूतिः शुकश्चायं वाल्मीकिस्त्रितयोनयोः॥१९०॥
संपूर्ण पृथ्वीतलमें श्रेष्ठ दो कवियों को जानता हूं। एक भवभूति दूसरा शुकदेव और इनके मध्य में तीसरा वाल्मीकि॥१९०॥
** ततो विद्वद्वृन्दवंदिता सीता प्राह॥**
पश्चात् विद्वद्वृन्दसे प्रणाम करी हुई सीता कहने लगी।
अपृष्टस्तु नरः किंचित् यो ब्रूते राजसंसदि।
न केवलमसन्मानं लभते च विडंबनाम्॥१९१॥
राजसभामें बिना पूछें जो मनुष्य कुछ कहता है सोकेवल असत्कारकोही नहीं प्राप्त होता किंतु दुःखकोभीप्राप्त होता है॥१९१॥
देव तथाप्युच्यते॥
परंतु हे राजन् ! फिरभी कहिये है॥
का सभा किं कविज्ञानं रसिकाः कवयश्च के।
भोज किं नाम ते दानं शुकस्तुष्यति येन सः॥१९२॥
हे भोजराजन् ! क्या यह सभा है, क्या कविज्ञान है,क्या रसिक कवि हैं ? राजन् ! क्या तेरा दान है कि, जिसकरके शुककवि प्रसन्न होवे॥१९२॥
** तथापि भवनद्वारमागतः शुकदेवः सभायामानेतव्य एव। तदा राजा विचारयति। शुकदेवसामर्थ्यं श्रुत्वा हर्षविषादयोः पात्रमासीत्। महाकविरवलोकित इति हर्षः, अस्मै सत्कविकोटिमुकुटमणये किं नाम देयमिति च विषादः। भवतु द्वारपालं प्रवेशय। तत आयांतं शुकदेवं दृष्ट्वा राजा सिंहासनादुदतिष्ठत। सर्वे पंडितास्तं शुकदेवं प्रणम्यसविनयमुपवेशयंति। स च राजानं सिंहासने उपवेश्य स्वयं तदाज्ञयोपविष्टः। ततश्शुकदेवः प्राह।देव धारानाथ श्रीविक्रमनरेंद्रस्य या दानलक्ष्मीःसा त्वामेव सेवते। देव मालवेंद्र एव धन्यो नान्ये भूभुजः। यस्य ते कालिदासादयो महाकवयः सूत्रणद्धाः पक्षिण इव निवसति। ततः पठति॥**
फिरभी महलोंके द्वारे आया हुआ शुकदेव कवि सभामें लाना योग्य है। तब राजा विचारने लगा। और
शुकदेवकी सामर्थ्य सुनकर राजाको आनंद और क्लेशदोनों होते गये। महाकविको देखूंगा, ऐसे तो आनंद,(और) श्रेष्ठकविकोटियों में मुकुटमणिरूप इस कविकोक्या देना चाहिये, यह विषाद होता गया। (राजा बोला)कुछ हो हे द्वारपाल ! कविको भेजो। पश्चात् आये हुएशुकदेवकविको देखकर राजा सिंहासन से उठता गया।संपूर्ण पंडित तिस शुकदेवको नमस्कार करके नम्रतायुक्तहुए बैठते गये। शुकदेव कवि राजाको सिंहासनपर बैठाकर आप राजाकी आज्ञासे बैठता गया। पश्चात् शुकदेव कहने लगा। हे देव धारानाथ ! श्रीविक्रमराजाकीजो दानलक्ष्मी है सो तुम्हारेकोही सेवती है। हे देव मालवेन्द्र ! तुम्हारेकोही धन्य है और राजाओंको नहीं। जिसतुम्हारे कालिदास आदि महाकविलोग सूत्रसे बांधे पक्षियोंकी तरह वसते हैं। तिसके अनंतर लोक पढा॥
प्रतापभीत्या भोजस्य तपनो मित्रतामगात्।
और्वो वाडवतां धत्ते तडित् क्षणिकतां गता॥१९॥
भोजके प्रताप के भयसे सूर्य तो मित्रताको प्राप्त होगया। समुद्र अभि वाडवताको प्राप्त हो गया। (अश्वताको प्राप्त हो गया।) बिजली क्षणिकताको प्राप्त होगई॥१९३॥
** राजा। तिष्ठ सुकवे नापरः श्लोकः पठनीयः॥**
राजा कहने लगा। हे कवे! ठहरो और श्लोक नहीं पढना
(अर्थात् एक श्लोककी दक्षिणाभी कठिनतासे दीजागी)।
सुवर्णकलशं प्रादाद्दिव्यमाणिक्यसंभृतम्।
भोजः शुकाय संतुष्टो दंतिनश्च चतुःशतम्॥१९४॥
राजा भोज प्रसन्न होकर शुकदेव कविको सुंदर मणियोंसे भरा सुवर्णका कलश देता गया और चार सौहस्ती देता गया॥१९४॥
** इति पुण्यपत्रे लिखित्वा सर्वं दत्त्वा कोशाधिकारी शुकं प्रस्थापयामास। राजा स्वदेशं प्रतिगतं शुकं ज्ञात्वा तुतोष। सा च परिषत् संतुष्टा।अन्यदा वर्षाकाले वासुदेवो नाम कविः कश्चिदागत्य राजानं दृष्टवान्। राजा सुकवे पर्जन्यं पठ।ततः कविराह॥**
ऐसे पुण्यपत्रपर लिखकर और संपूर्ण देकर खजानचीशुकदेवकविको भेजता अया। राजा अपने देशको गयेहुए शुकदेवकविको जानकर प्रसन्न होता गया। औरसजाभी प्रसन्न होती गई। फिर वर्षाकालमें कोई वासुदेवनाम कवि आकर राजाको देखता गया। राजा कहनेलगा हे सुकवे ! मेघका वर्णन करो। पश्चात् कवि कहने लगा॥
नो चिंतामणिभिर्न कल्पतरुभिर्नोकामधेन्वादिभि-।
र्नोदेवैश्च परोपकारनिरतैः स्थूलैर्न सूक्ष्मैरपि॥
अंभोदेन निरंतरं जलभरैस्तामुर्वरां सिंचता।
धौरेयेण धुरं त्वयाद्य वहता मन्ये जगज्जीवति॥१९५॥
निरंतर पराये उपकार में लगे हुए स्थूल तथा सूक्ष्मचिंतामणि, कल्पवृक्ष, कामधेनु आदि, और देवता, इनकरके कुछ नहीं, किंतु जलके भरे निरंतर पृथ्वीको सींचतेहुए जो मेघ हैं उनकरके और धुरको (भारको) बहते हुएतुम्हारे करके मैं मानता हूं कि जगत् जीवता है॥१९५॥
** राजा लक्षं ददौ। कदाचिद्राजानं निरंतरं ददानमालोक्य मुख्यामात्यो वक्तुमशक्तो राज्ञः शयनभवनभित्तौ व्यक्तान्यक्षराणि लिखितवान्॥**
राजा सुनकर लाख रुपैये देता गया। किसी समयराजाको निरंतर दान देते हुए देखकर कहने में असमर्थ मुख्य दीवान राजाके आरामस्थानके भींत/दीवारपर स्पष्टअक्षरोंसे यह चरण लिखता गया॥
** आपदर्थंधनं रक्षेत्,**
विपत्तिके वास्ते धनकी रक्षा करनी।
** राजा शयनादुत्थितो गच्छन् भित्तौ तान्यक्षराणि वीक्ष्य स्वयं द्वितीयचरणं लिंलेख।**
राजा शयनसे उठकर चलता हुआ भींतपर तिन अक्षरोंको देखकर आप दूसरे चरणको लिखता गया॥
** श्रीमतामापदः कुतः॥**
श्रीमानोंके आपत कैसी॥
** अपरेद्युरमात्यो द्वितीयं लिखितं दृष्ट्वा स्वयंतृतीयं लिलेख॥**
अगले दिन मंत्री दूसरे चरणको लिखा हुआ देखकरआप तीसरा यह लिखता गया॥
** सा चेदपगता लक्ष्मीः,**
कि, वह लक्ष्मी चली जावेगी तो ?
** परेद्यू राजा चतुर्थं लिखति॥**
अगले दिन राजा चौथे चरणको लिखता गया॥
** संचितार्थो विनश्यति॥१९६॥**
इकट्ठा किया धनभी नष्ट हो जाता है॥१९६॥
** ततः मुख्यामात्यो राज्ञः पादयोः पतति। देव क्षंतव्योयं ममापराधः। अन्यदा धाराधीश्वरमुपरि सौधभूमौ शयानं मत्वा कश्चिद्द्विजचोरः खातपातपूर्वं राज्ञः कोशगृहं प्रविश्य बहूनि विविधरत्नानि वैडूर्यादीनि हृत्वा तानि तानि परलोकऋणानि मत्वा तत्रैव वैराग्यमापन्नो विचारयामास॥**
पश्चात् मुख्य मंत्री राजाके चरणों में गिर गया। हेदेव ! मेरा अपराध क्षमा करना। एक समय धारानगरेशराजा भोज महलकी छतपर सोता था, अवसर जानकर कोई चोर ब्राह्मण सुरंघ लगाकर राजाके खजाने में प्रविष्टहोकर बहुत अनेक प्रकारके वैडूर्य आदि रत्न हरकरतिन सबैको परलोकका ऋण मानकर तहांही वैराग्यकोप्राप्त होकर विचार करता गया॥
यद्व्यंगाः कुष्ठिनश्चांधाः पंगवश्च दरिद्रिणः।
पूर्वोपार्जितपापस्य फलमश्नंति देहिनः॥१९७॥
अंगभंग, कुष्ठी, अंधा, पांगला, दरिद्री ये संपूर्ण पूर्व इकट्ठे किये पापके फलको प्राणी भोगते हैं॥१९७॥
** ततो राजा निद्राक्षये दिव्यशयनस्थितो विविधमणिकंकणालंकृतं दयितवर्गं दर्शनीयमालोक्यगजतुरगरथपदातिसामग्रीं च चिंतयन् राज्यसुखसंतुष्टः प्रमोदभरादाह॥**
पश्चात् राजाकी निद्रा दूर हुए पीछे सुंदर शय्यापरस्थित हुआ वह राजा भोज अनेक प्रकारके मणिकंकणोंसेअलंकृत देखने के योग्य दयितवर्गको (रानियों को) देखकरऔर हस्ती, घोडा, रथ, प्यादा सामग्रीको चितवन करताहुआ और राज्यसुखसे प्रसन्न हुआ आनंदके भारसेकहने लगा॥
चेतोहरा युवतयः सुहृदोनुकूलाः।
सद्बांधवाः प्रणयगर्भगिरश्व भृत्याः॥
वल्गंति दंतिनिवहास्तरलास्तुरंगाः।
चित्तको हरनेवाली मेरे स्त्री हैं और मित्र अनुकूलहैं, बांधव श्रेष्ठ हैं, नौकर नम्रवाणीवाले हैं, हस्ती शब्द करते हैं, घोडे बडे चंचल हैं॥
** इति चरणत्रयं राज्ञोक्तम्। चतुर्थचरणं राज्ञोमुखान्न निस्सरति तदा चोरेण श्रुत्वा पूरितम्॥**
ऐसे तीन चरण राजाने कहे। चौथा चरण इतने राजाके सुखसे नहीं निकसा तभी चोरने सुनकर पूर्ण करदिया कि॥
संमीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति॥१९८॥
नेत्र जब मींच गये अर्थात् मृत्यु आ गया तबकुछभी नहीं है॥१९८॥
** ततो ग्रंथितग्रंथो राजा चोरं वीक्ष्य तस्मै वीरवलयमदात्। ततस्तस्करो वीरवलयमादाय ब्राह्मणगृहं गत्वा शयानं ब्राह्मणमुत्थाप्य तस्मै दत्त्वाप्राह। विप्र एतद्राज्ञः पाणिवलयं बहुमूल्यं अल्पमूल्येन न विक्रेयम्। ततो ब्राह्मणः पण्यवीथ्यांतद्विक्रीयदिव्यभूषणानि पट्टदुकूलानि च जग्राह।ततो राजकीयाः केचन एवं चोरं मन्यमानाः राज्ञोनिवेदयंति। ततो राजनिकटे नीतः। राजा पृच्छति विप्र धार्यंपटमपि नास्ति अद्य प्रातरेव दिव्यकुंडलाभरणपट्टदुकूलानि कुतः। विप्रः प्राह॥**
पश्चात् श्लोक पूर्ण हुएको राजा जानकर और चौरको देखकर तिसको वीरकंकण देता गया। फिर वहचौर बीरकंकणको लेकर ब्राह्मणके वर जाय सोते बालणको जगाय तिसको देकर कहने लगा। ब्राह्मण ! यहराजाका कंकण बहुत मूल्य का है सो थोडे मूल्य में नहींबेचना \। पश्चात् ब्राह्मण तिसको बाजारमें बेचकर सुंदर
आभूषण, पाट, रेशमके वस्त्र खरीदता गया। पश्चात् राजाके कितनेक आदमी इस ब्राह्मणको चोर जानकर राजाके आगे आकर कहते गये। पश्चात् तिसको राजाकेपास लाये। राजा पूंछने लगा कि हे ब्राह्मण ! धारने योग्यवस्त्रभी नहीं थे आज प्रातःकालही सुंदर कुंडल आभूषणपाट वस्त्र रेशमीवस्त्र कहांसे आए। ब्राह्मण बोला॥
भेकैः कोटरशायिभिर्मृतमिव क्ष्मांतर्गतं कच्छपैः।
पाठीनैः पृथुपंकपीठलुठनाद्यस्मिन् मुहुर्मूर्च्छितम्॥
तस्मिन् शुष्कसरस्यकालजलदेनागत्य तच्चेष्टितं।
यत्राकुंभनिमग्नवन्यकरिणां यूथैः पयः पीयते॥१९९॥
जहां मेंडक मरोंकी तरह खर खोटरों में पडे थे औरकछवा पृथ्वी में पड रहा था और मच्छी करडी गारामेंलोटती मूर्छाको प्राप्त हो रही थी। ऐसे सूखे सरोवर विषे अकालमेघने आकर वर्षा करी तब वे संपूर्ण चेष्टा करने लग गए और बनके हस्तियों का समूह स्नान करके जलपीने लगे॥१९९॥
** तुष्टो राजा तस्मै वीरवलयं चोरप्रदत्तं निश्चित्यस्वयं च लक्षं ददौ। अन्यदा कोपि कवीश्वरःविष्ण्वाख्यो राजद्वारि समागत्य तैः प्रवेशितो राजानंदृष्ट्वा स्वस्तिपूर्वकं प्राह॥**
(ऐसे सुन) प्रसन्न हुआ राजा तिसको चौरने दियाहुआ कंकण जानकर आप लाख रुपैये देता गया।
एक समय में कोई विष्णुनामवाला कवीश्वर राजद्वारपरआया, फिर द्वारपालोंने भीतर प्राप्त किया राजाको देखकर स्वस्तिपूर्वक कहने लगा॥
धाराधीश धरामहेंद्रगणनाकौतूहली यामयं।
वेधास्त्वद्गणनां चकार खटिकाखंडेन रेखां दिवि॥
सैवेयं त्रिदशापगा समभवत्त्वत्तुल्यभूमीधरा-।
भावात्तत्त्यजति स्म सोयमवनीपीठे तुषाराचलः॥
हे धारानगरीके पति भोजराज ! पृथ्वी के महान् राजाओंकी गिनती करनेका आश्चर्यवाला ब्रह्माजी खडियाकेटुकडेसे आकाशमें आपके नामकी जो लकचीर खींचतागया वही तो यह आकाशवाहिनी गंगाजी हो गई। फिरपृथ्वीपर तुम्हारी बराबर कोई भी नहीं दीखा तब ब्रह्माजीने वह खडियाका टुकडा भूमीपर पटक दिया वही यहहिमाचल पर्वत गया है। खडियाभी श्वेत होती है हिमालय श्वेत पर्वत है॥२००॥
** राजा लोकोत्तरं श्लोकमाकर्ण्य किं देयमिति व्यचिंतयत्। तस्मिन्क्षणे तदीयकवित्वमप्रतिद्वंद्वमाकर्ण्य सोमनाथाख्यकवेर्मुखं विच्छायमभवत्। ततस्सदौष्ट्याद्राजानं प्राह। देवासौ सुकविर्भवति परमनेनन कदापि वीक्षितास्ति राजसभा। यतो दारिद्र्यवारिधिरयम्। अस्य च जीर्णमपि कौपीनं नास्ति।ततो राजा सोमनाथं प्राह॥**
राजा लोकोत्तर ऐसे श्लोकको सुनकर क्या देना चाहिये ऐसे चिंतन करता गया। तिस क्षणमें बहुत सुंदरतिसकी कविताको सुनकर सोमनाथ कविका मुख लज्जित होता गया। पश्चात् वह सोमनाथ खोटेपनसे राजाको कहने लगा। हे देव ! यह कवि तो सुंदर है परंतु इसनेकभी राजसभा नहीं देखी है। इसवास्ते यह दरिद्रका समुद्र है। इसके पुराना भी कौपीन नहीं। फिर राजा सोमनाथको कहने लगा॥
निरवद्यानि पद्यानि यद्यनाथस्य का क्षतिः।
भिक्षुणा कक्षनिक्षिप्तः किमिक्षुर्नीरसो भवेत्॥२०१॥
जो श्लोक सुंदर है तो इस अनाथकी क्या हानि है।क्योंकि जो ईंखका गंडा भिक्षुने कांखमें ले लिया तो क्यारसरहित हो जावेगा? (नहीं होवेगा )॥२०१॥
** ततः सर्वेभ्यः तांबूलं दत्त्वा राजा सभाया उदतिष्टत्। सर्वैरप्यन्योन्यमित्यभिधायि। अद्य विष्णुकवेः कवित्वमाकर्ण्य सोमनाथेन सम्यग्दौष्ट्यमकारि।ततः समुत्थिता विद्वत्परिषत्। ततो विष्णुकविरेकंपद्यं पत्रे लिखित्वा सोमनाथकविहस्ते दत्त्वा प्रणम्यगंतुमारभत। अत्र सभायां त्वमेव चिरं नंद। ततोवाचयति सोमनाथकविः॥**
पश्चात् संपूणों को पानकी वीडी देकर राजा उठतागया। संपूर्णोंने आपसमें यह कहा। कि आज विष्णुक-
विकी कविताको सुनकर सोमनाथने बहुत दुष्टता की।पश्चात् विद्वानोंकी सभा खडी हो गई। पश्चात् विष्णुकविएक श्लोक पत्रपर लिखकर सोमनाथकविके हाथमें देकरऔर नमस्कार करके जानेको मनोरथ करता गया। कियहां सभायें तुमही बहुतकाल प्रसन्न होकर वसो। पश्चात्सोमनाथकवि श्लोक वांचता गया॥
एतेषु हा तरुणमारुतधूयमान-।
दावानलैः कवलितेषु महीरुहेषु॥
अंभो न चेज्जलद मुंचसि मा विमुंच।
वज्रं पुनः क्षिपसि निर्दय कस्य हेतोः॥२०२॥
हे मेघ ! बडे खेदकी बात है तेज पवनकरके धमाहुआ दावानल तिसकरके ग्रास किये जो ये वृक्ष हैं तिनविपै जो जल नहीं छोड़ता है तो मत छोड। फिर हे निर्दयमेघ ! तू वज्रभी किसवास्ते छोडता है॥२०२॥
** ततः सोमनाथकविः निखिलामपि पट्टदुकूलवित्तहिरण्मयीं तुरंगमादिसंपत्तिं कलत्रवस्त्रावशेषंदत्तवान्। ततो राजा मृगयारसप्रवृत्तो गच्छन् तंविष्णुकविमालोक्य व्यचिंतयत्। मया अस्मै भोजनमपि न प्रदत्तम्। मामनादृत्य अयं संपत्तिपूर्णःस्वदेशं प्रति यास्यति। पृच्छामि विष्णुकवे कुतःसंपत्तिः प्राप्ता। कविराह॥**
पश्चात् सोमनाथ कवि संपूर्ण पाट रेशमके वस्त्र
द्रव्य, सुवर्ण आदि घोडा आदि, संपूर्ण संपत्ति, तिस कविके वास्ते देकर केवल स्त्रीवस्त्र अवशेष रखता गया।पश्चात् राजा शिकाररसमें प्रवृत्त हुआ चलता हुआ तिसविष्णुकविको देखकर चितवन करता गया। कि मैंइसको भोजनभी न दिया। (और) यह मेरा अनादरकर संपत्ति से पूर्ण हुआ अपने देशको जाता है। राजानेकहा कि हे विष्णुकवे ! मैं पूछता हूं यह संपत्ति कहां सेप्राप्त हुई । कवि कहने लगा॥
सोमनाथेन राजेंद्र देव त्वद्गुणभिक्षुणा।
अद्य शोच्यतमे पूर्णं मयि कल्पद्रुमायितम्॥२०३॥
हे देव ! हे राजेन्द्र !! तुम्हारे गुणोंका भिक्षु सोमनाथकविने मेरे दरिद्रीविषें कल्पवृक्षकी तरह वांछित फलदिया॥२०३॥
** राजा पूर्वं सभायां श्रुतस्य श्लोकस्य अक्षरलक्षं ददौ। सोमनाथेन च यावद्दत्तं तावदपि सोमनाथाय दत्तवान्। सोमनाथः प्राह॥**
राजाने जो पहले सभा में श्लोक सुना था उसके अक्षर२ प्रति लाख लाख रुपैये दिये और सोमनाथने जो विष्णुकविके वास्ते दिया था सो सोमनाथको देता गया।सोमनाथ कहने लगा।
किसलयानि कुतः कुसुमानि वा।
क्व च फलानि तथा वनवीरुधाम्॥
अयमकारणकारुणिको यदा।
न तरतीह पयांसि पयोधरः॥२०४॥
जब विनाकारण दया करनेवाला यह मेघ यहां जलनहीं छोड़ेगा तब बनके वेल वृक्षों के कहां पत्ते, कहां पुष्प,और कहां फल लगेंगे॥२०४॥
** ततो विष्णुकविः सोमनाथदत्तेन राज्ञा दत्तेनच तुष्टवान्। तदा सीमंतकविः प्राह॥**
पश्चात् विष्णुकवि सोमनाथका दिया हुआ औरराजाका दिया हुआ करके प्रसन्न होता गया। पश्चात् सीमंतकवि कहने लगा॥
वहति भुवनश्रेणीं शेषःफटाफलकस्थितां।
कमठपतिना मध्येपृष्टं सदा स च धार्यते॥
तमपि कुरुते क्रो/क्रीडाधीनं पयोनिधिरादरा।
दहह महतां निस्सीमानश्चरित्रविभूतयः॥२०५॥
शेपजी फणके एकदेशमें स्थित हुई भुवनपंक्तिकोधारण करते हैं और कच्छपजी सदा तिस शेषको पीठपरधारण करते हैं और तिस कच्छपको समुद्र आदरसे उदरमें गेर लेता है (अहह) बडे आनंदकी बात है किमहत्जनों की अपार विभूति हैं॥२०५॥
** कदाचित्सौधतले राजानमेत्य भृत्यः प्राह। देवअखिलेष्यपि कोशेषु यद्वित्तजातमस्ति तत्सर्वंदेवेन कविभ्यो दत्तम्। परंतु कोशगृहे धनलेशोपि**
नास्ति। कोपि कविः प्रत्यहं द्वारि तिष्ठति। इतःपरं कविर्विद्वान् वा कोपि राज्ञे न प्राप्य इतिमुख्यामात्येन देवसन्निधौ विज्ञापनीयमित्युक्तम्। राजा कोशस्थं सर्वं दत्तमिति जानन्नपि प्राह। अद्यद्वारस्थं कविं प्रवेशय। ततो विद्वानागत्य स्वस्तीतिवदन् प्राह॥
किसी समय महलके नीचे राजाको प्राप्त होकर नृत्यकहने लगा। हे देव ! संपूर्णभी खजानों के विषे जोद्रव्य था, सो संपूर्ण सरकारने कवियोंको दे दिया। परंतुखजाने में धनका लेशभी नहीं। कोई कवि दिन २ प्रतिद्वारपर खडा रहता है। इससे आगे कोई भी कवि विद्वान्राजाके पास नहीं जाने देना ऐसे मुख्यमंत्रीने कहा है कियह राजाको अरज कर दो। फिर राजा भोज, खजाने केसंपूर्ण द्रव्यको दिया यह जानता हुआभी कहने लगा।द्वारपर स्थित कविको अभी भेजो। इसके अनंतर कोईविद्वान आकर ‘स्वस्ति’ ऐसे बोलता हुआ कहने लगा।
नभसि निरवलंबे सीदता दीर्घकालं।
त्वदभिमुखविसृष्टोत्तानचंचूपुटेन॥
जलधर जलसारो दूरतस्तावदास्तां।
ध्वनिरपि मधुरस्ते न श्रुतश्वातकेन॥२०६॥
विनास्थानका आकाशविषे बहुतकालसे दुःख पाता हुआ और तेरे सन्मुख करा है चंचुपुट जिसने ऐसे पपी-
हाने हे जलधर ! तेरी मीठी वाणीभी नहीं सुनी। जलकीबूंद तो तावत् दूर रहो॥२०६॥
** राजा तदाकर्ण्य धिग्जीवितं यद्विद्वांसः कवयश्वद्वारमागत्य सीदंतीति। तस्मै विप्राय सर्वाण्याभरणान्युत्तार्थ ददौ। ततो राजा कोशाधिकारिणमाहूयाह। भांडारिक मुंजराजस्य तथा मे पूर्वेषां च येकोशास्संति तेषां मध्ये रत्नपूर्णान्कलशानानय।ततःकाश्मीरदेशान्मुचुकुंदकविरागत्य स्वस्तीत्युकृत्वा प्राह॥**
राजा ऐसे सुनकर विचारने लगा कि जीवना धिक्कारहै क्योंकि विद्वान और कवि द्वारपर आकर दुःख पातेहै। तिस ब्राह्मणको संपूर्ण गहना उतारकर राजा देतागया। पश्चात् राजा खजानचीको बुलाकर कहने लगा।हे भांडारिक ! मुंजराजाका अथवा मेरे पूर्वजों का जो खजाना है तिन्होंमांहसे रत्नके भरे कलशे लावो। पश्चात्काश्मीरदेश से मुचुकुंद कवि आकर और ‘स्वस्ति’ऐसेआशीर्वाद देकर कहने लगा॥
त्वद्यशोजलधौ भोज निमज्जनभयादिव।
सूर्येंदुबिंदुमिषतो धत्ते कुंभद्वयं नमः॥२०७॥
हे भोज ! तुम्हारे यशरूप समुद्र में डूबने के भयसे यहआकाश, सूर्य, चंद्रमाके मिससे दो बडे धारण करताहै ॥२०७॥
** राजा तस्मै प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ। पुनः कविराह॥**
राजा तिसकविको स्लोकके अक्षर अक्षर प्रति लाख वलाख रुपैये देता गया। फिर कवि कहने लगा॥
आसन् क्षणानि यावंति चातकाश्रूणि तेंबुदे॥
तावंतोपि त्वयोदार न मुक्ता जलबिंदवः॥२०८॥
हे मेघ ! तुमने बूंद गेरनेमें जितनी देर की है पपीहाके उतनीही आंसू पडी हैं सो हे उदारमेव ! तुमने आंसुओं कितनी भी जलबिंदु नहीं छोडी॥२०८॥
** ततस्स राजा तस्मै शततुरगानपि ददौ। ततोभांडारिको लिखति॥**
पश्चात् वह राजा तिसको सौ (१००) घोडेभी देता गया। पश्चात् खजानचीने धर्मपत्र में लिखा॥
मुचुकुंदाय कवये जात्यानश्वान् शतं ददौ॥
भोजः प्रदत्तलक्षोपि तेनासौ याचितः पुनः॥२०९॥
भोजराजाने श्लोकके अक्षरों प्रति लाख लाख रुपैये देभी दिये थे परंतु कविने जब राजा फिर जांचा तब सुंदर सौ घोडे मुचुकुंदकविको फिर देता गया॥२०९॥
** ततो राजा सर्वानपि वेश्म प्रेषयित्वांतर्गच्छति। ततो राज्ञश्चामरग्राहिणी प्राह॥**
पश्चात् राजा संपूर्णेंको घर भेजकर महलों में गए।पश्चात् राजाकी दासी चामर करनेवाली कहने लगी॥
** राजन्मुंजकुलप्रदीप सकलक्ष्मापालचूडामणे।**
युक्तं संचरणं तवाद्भुतमणिच्छत्रेण रात्रावपि॥
मा भूत्त्वद्वदनावलोकनवशाद्व्रीडाविनम्रः शशी।
मा भूच्चेयमरुंधती भगवती दुश्शीलताभाजनम्॥
हे राजन् ! हे मुंजकुलमें दीपकरूप ! हे संपूर्ण राजाओंके चूडामणिरूप ! तुह्मारे अद्भुतमणियोंवाले छत्रकरके रात्रिको चलना योग्यही है क्योंकि तुह्मारे मुखका देखना करके चंद्रमा लज्जाके वश हुआ नम्र मत हो और यह भगवती अरुंधती दुःशीलताका पात्र मत हो॥२१०॥
** राजा तस्यै प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ। अन्यदा कुंडिननगराद्गोपालो नाम कविरागत्य स्वस्तिपूर्वकं प्राह॥**
राजा तिस दासीको अक्षर २ प्रति लाख २ रुपैयेदेता गया। एक समय में कुंडिननगरसे गोपालनाम कवि आकर ‘स्वस्ति’पूर्वक कहने लगा॥
त्वच्चित्ते भोज निर्यातं द्वयं तृणकणायते।
क्रोधे विरोधिनां सैन्यं प्रसादे कनकोच्चयः॥२११॥
हे भोज ! तुम्हारे चित्तमें रचित दो वस्तु तृण और कणकी तरह आचरण करती हैं। तुम्हारे क्रोधमें शत्रुओंकी सेना तृणकी तरह आचरण करती है। और तुम्हारी प्रसन्नतामें सुवर्णका पर्वत कणकी तरह आचरण करता है॥२११॥
** राजा श्रुत्वापि तुष्टो न दास्यति। राजपुरुषैः सह चर्चां कुर्वाणस्तिष्ठति। ततः कविर्व्यचिंतयत्।**
किमु राज्ञा नाश्रावि। ततः क्षणेन समुन्नतमेवावलोक्य राजानं कविराह।
राजा श्लोकको सुनकर भी प्रसन्न हुआ, न कुछ दिया। अपने मंत्रियोंके साथ चर्चा करता स्थित रहा। पश्चात्कवि विचारता गया कि क्या राजाने नहीं सुना। पश्चात्क्षणमें स्वस्थ स्थित हुआ राजाको देखकर कवि कहनेलगा॥
हे पाथोद यथोन्नतं हि भवता दिग्व्यावृता सर्वतो।
मन्ये धीर तथा करिष्यसि खलु क्षीराब्धितुल्यं सरः॥
किं त्वेष क्षमते नहि क्षणमपि ग्रीष्मोष्मणा व्याकुलः।
पाठीनादिगणस्त्वदेकशरणस्तद्वर्ष तावत्कियत्॥
हे मेघ ! जैसे बढकर और दिशाओंको व्याप्त होकरस्थित है ऐसेही हे धीर ! निश्वय संपूर्ण पृथ्वी पर दुग्ध समुद्रकी तरह सरोवरको करेगा यह मैं जानता हूं। परंतु ग्रीष्मऋतुकी गरमी से व्याकुल हुआ और तू एक है आश्रय जिसका ऐसा, यह मीन आदि जीवसमूह इस दुःखको नहीं सह सकता है। इसवास्ते आदिमें कुछ तो वर्षा करो॥२१२॥
** राजा कविहृदयं विज्ञाय गोपालकवे दारिद्र्याग्निना नितांतं दग्धोसीति वदन् षोडश मणीननर्घ्यान् षोडश दंतींद्रांश्च ददौ। एकदा राजा धारानगरे विचरन् क्वचिच्छिवालये प्रसुप्तं पुरुषद्वयमप-**
इयत्। तयोरेको विगतनिद्रो वक्ति। अहो त्वं ममास्तरासन्न एवं कस्त्वं प्रसुप्तोसि जागर्षि नो वा। ततस्त्वपर आह। विप्रं प्रणतोस्मि अहमपि ब्राह्मणपुत्रः त्वामत्र प्रथमरात्रौ शयानं वीक्ष्य प्रदीप्ते च कमंडलूपवीतादिभिर्ब्राह्मणं ज्ञात्वा भवदास्तरासन्न एवाहं प्रसुप्तः। इदानीं त्वद्गिरमाकर्ण्यप्रबुद्धोऽस्मि। प्रथमः प्राह। वत्स यदि त्वं प्रणतोसि ततो दीर्घायुस्तव। वद कुत आगम्यते किंते नाम अत्र च किं कार्यम्। द्वितीयः प्राह। विप्रभास्कर इति नाम। पश्चिमसमुद्रतीरे प्रभासतीर्थसमीपे वसतिर्मम। तत्र भोजस्य वितरणं बहुभिर्व्यावर्णितं ततो याचितुमहमागतः। त्वं मम वृद्धत्वात्पितृकल्पोसि। त्वमपि वद। स आह। वत्सःशाकल्य इति मे नाम। मया एक शिलानगर्या आगम्यते भोजं प्रति द्रविणाशया। वत्स त्वयानुक्तमपि दुःखं त्वयि ज्ञायते। कीदृशं तद्वद्। ततो भास्करः प्राह। तात किं ब्रवीमि दुःखम्॥
राजा कविके हृदयको जानकर कहने लगा कि हे गोपालकवे ! तू दारिद्र्यअग्निकरके निरंतर दग्ध हो रहा है ऐसे कहता हुआ राजा तिस कविको बहुत मूल्यकी सोलह मणि देता गया, और सोलह अच्छे हस्ती देता गया। एक समय धारानगर में विचरता हुआ राजा कहीं शिवालय में
सोते हुए दो पुरुषोंको देखता गया। तिन्होंमें एक जागकरकहने लगा। अहो ! तू मेरे बिस्तर के नजदीकही कौन सोताजागता है या नहीं। पश्चात् दूसरा कहने लगा। हे ब्राह्मण !तुमको मैं नमस्कार करता हूं और मैं भी ब्राह्मणका पुत्रहूं, तुमको यहां प्रथम रात्रि में सोता देखकर और जलतादीपक देखकर और लोटा जनेऊ आदि करके ब्राह्मणजानकर तुम्हारे विस्तरके नजदीक सो गया। अब तुह्मारीवाणी सुनकर जागा हूँ। प्रथम ब्राह्मण कहने लगा। हे वत्स!जो तैंने नमस्कार करी इसवास्ते तेरी आयु बडी हो।कहो, कहां से आये, क्या तुम्हारा नाम है, यहां क्या कार्यहै। दूसरा ब्राह्मण कहने लगा। हे विप्र ! भास्कर मेरानाम है। पश्चिमसमुद्र के तीरमें प्रभासतीर्थकेनजदीक मेरीवसति है। तहां बहुतों करके वर्णन किये हुए भोजका दान सुनकर तहांसे याचना करने को आया हूं। तुमबड़े होनेसे मेरे पिताके समान हो। तुमभी कहो। सो कहने लगा। हे वत्स। मेरा शाकल्य नाम है।और एकशिला नगरीसे भोजके प्रति द्रव्यकी आशाकरके आया हूं। हे वत्स ! तेरा नहीं कहानी दुःख तेरेमांह जानिये है। सो क्या दुःख है कहो। पश्चात् भास्कर कहने लगा। हे तात ! क्या दुःख कहूँ॥
क्षुत्क्षामाः शिशवः शवा इव भृशं मंदाशया बांधवा।
लप्ता जर्जरघर्घरी जतुलवैर्नोमां तथा बाधते॥
गेहिन्या त्रुटितांशुकं घटयितुं कृत्वा सकाकु स्मितं।
कुप्यंती प्रतिवेश्म लोकगृहिणी सूचि यया याचिता॥
भूखसे अतिदुबले हुए बालक तो मुरदोंकी तरह होरहे हैं, और बांधव मेरी तरफ से मन चुराय रहे हैं औरफूटी घागर कलशा लाखके टुकडोंसे समार रक्खी है, दारिद्र्यसे मेरी ऐसी दशा होने पर भी मेरेको दुःख नहीं; परंतु फटे हुए वस्त्र सीमनेको घरघर जो सुई मांगनेको गईमेरी स्त्रीको गामकी स्त्री कटाक्षसे मंदहास करके कुपितहोती गई यह दुःख मेरेको मारता है॥२१३॥
** राजा श्रुत्वा सर्वाभरणान्युत्तार्य तस्मै दत्त्वा प्राह। भास्कर सीदंत्यतीव ते बालाः झटिति देशं याहि। ततः शाकल्यः प्राह॥**
राजा सुनकर संपूर्ण आभूषण उतारकर तिस ब्राह्मणको देकर कहने लगा। हे भास्कर ! तेरे बालक बहुत दुःख पाते हैं तुम जल्दी देशको जावो। पश्चात् शाकल्य कहने लगा॥
अत्युद्धता वसुमती दलितोरिवर्गः।
कोडीकृता बलवता वलिराजलक्ष्मीः॥
एकत्र जन्मनि कृतं यदनेन यूना।
जन्मत्रये तदकरोत्पुरुषः पुराणः॥२१४॥
इस जवान राजा भोजने पृथिवी उद्धृत कर दई (जैसेवाराह आदि अवतारोंसे उद्घार किया था तैसे) और
शत्रुवर्ग दलित कर दिया और बलिकी राजलक्ष्मी छीनलई ऐसे विष्णुके तीन जन्मोंके किये हुए कर्मको यह भोज एक जन्म विषेही करता गया॥२१४॥
** ततो राजा शाकल्याय लक्षत्रयं दत्तवान्। अन्यदा राजा मृगयारसेन विचरन् तत्र पुरस्समागतहरिण्यां बाणेन विद्धायामपि वित्ताशया कोपि कविराह॥**
पश्चात् राजा शाकल्यको तीन लाख रुपैये देता गया। एक समय राजा शिकार के रससे विचरता हुआ तहांआगे आई किसी हिरणीको बाणसे वींधेसतेंभी द्रव्यआशा करके कोई कवि कहने लगा॥
श्रीभोजे मृगयां गतेपि सहसा चापे समारोपिते-।
प्याकर्णांतगतेपि मुष्टिगलिते बाणेंऽगलनमग्नेपि च॥
स्थानान्नैव पलायितं न चलितं नोत्कंपितं नोत्प्लुतं।
मृग्या मद्वशगं करोति दयितं कामोयमित्याशया॥
श्रीभोज शिकारको प्राप्त होके तबभी और तत्कालबाण चढाया पीछेभी और कानपर्यंत खेंचा संतभी और मूंठीसे बाण छोढे पीछेभी और बाण अंगमें लगेपीछे भी यह मृगी इस आशा करके न तो स्थानसे भागी, न चली, न कंपी, न कूदी कि यह कामदेव है और प्रियको मेरे वश करता है। अर्थात् राजाका रूप कामदेव के समान मानके मोहित हो गई॥२१५॥
** राजा तस्मै लक्षत्रयं प्रयच्छति। अन्यदा सिंहासनमलंकुर्वाणे श्रीभोजनृपतौ द्वारपाल आगत्य प्राह। देव जाह्नवीतीरवासिनी काचन वृद्धब्राह्मणीविदुषी द्वारि तिष्ठति। राजा प्राह प्रवेशय। तत आगच्छंतीं राजा प्रणमति। सा तं चिरंजीवेत्युक्त्वाह।**
राजा तिस कविको तीन लाख रुपैये देता गया। एक दिन श्रीभोजराजा सिंहासन पर बैठा था तब द्वारपाल आकर कहने लगा। हे देव ! गंगाजीके तीरपर वसनेवाली कोई ब्राह्मणी पढी हुई द्वारपर खडी है। राजा कहने लगा आने दो। पश्चात् आती हुईको राजाने प्रणामकिया। सो ब्राह्मणी तिस राजाको ‘चिरंजीव’यह कहकरश्लोक कहने लगी॥
भोजप्रतापाग्निरपूर्व एष।
जागर्ति भूभृत्कटकस्थलीषु॥
यस्मिन् प्रविष्टे रिपुपार्थिवानां।
तृणानि रोहंति गृहांगणेषु॥२१६॥
यह भोजका प्रतापरूप अपूर्व अग्नि पर्वतोंके कटक स्थल विषें जाग रहा है जिस प्रतापरूप अन्गिप्रविष्ट हुए पश्चात् शत्रु राजाओंके घर के आंगणों में तृण जाम आये अर्थात् आपके प्रतापसे सब शत्रु नष्ट हो गये हैं। उनके घरोंमें घासजाम आया है॥२१६॥
** राजा तस्यै रत्नपूर्णं कलशं प्रयच्छति। ततोलिखति भांडारिकः॥**
राजा तिस ब्राह्मणीको रत्नोंसे पूर्ण हुआ कलश देता गया। पश्चात् खजानचीने धर्मपत्र पर लिखा कि॥
भोजेन कलशो दत्तस्सुवर्णमणिसंभृतः॥
प्रतापस्तुतितुष्टेन वृद्धायै राजसंसादि॥२१७॥
प्रतापकी स्तुति से प्रसन्न हुए भोजराजाने राजसभामें सुवर्णमणियों से भरा हुआ सुवर्णका कलश वृद्धाको दिया।
** अन्यदा दूरदेशादागतः कश्चिच्चोरो राजानं प्राह। देव सिंहलदेशे मया काचन चामुंडालये राजकन्या दृष्ट्वा। सा च मां दृष्ट्वा मालवदेशदेवस्य महिमानं बहुधा श्रुतं त्वमपि वदेति पप्रच्छ। मया च तस्या देवगुणा व्यावर्णिताः। सा चात्यंततोषाच्चंदनतरोर्निरूपमं गर्भखंडं दत्त्वा यथास्थानं प्रपेदे। देव गुणाभिवर्णनप्राप्तं तदेतद्गृहाण। एतत्प्रसृतपरिमलभरणे भृंगा भुजंगाश्च समायांति। राजा तद्गृहीत्वा तुष्टस्तस्मै लक्षं दत्तवान्। ततो दामोदरकविस्तन्मिषेण राजानं स्तौति॥**
एक समय दूरदेशसे आया हुआ कोई चोर राजाकोकहने लगा। हे देव ! सिंहलदेशमें देवीके भवनमें कोई मैंने राजकन्या देखी है। सो मेरे को देखकर यह पूंछने लगी कि मालवदेश के राजाकी महिमा बहुत प्रकारसे
सुनी है सो तूभी कह। हे देव! मैंने तिसके आगे गुणवर्णन कर दिये। पश्वात् वह अत्यंत आनंदसे चंदनवृक्षका सुंदर बीचका टुकडा देकर अपने स्थान में प्राप्त होती गई। हे देव ! आपके गुणवर्णनसे प्राप्त हुए इस चंदन को आपही ग्रहण करो। देखो इसकी फैली हुई सुंदर सुगंधिविषें भौंहरे और सर्प आते हैं। राजा तिसको ग्रहणकर प्रसन्न हो तिसको लाख रुपैये देता गया। पश्चात्दामोदरकवि तिस मिषकरके राजाकी स्तुति करने लगा॥
श्रीमच्चंदनवृक्ष संति बहवस्ते शाखिनः कानने।
येषां सौरभमात्रकं निवसति प्रायेण पुष्पश्रिया॥
प्रत्यंगं सुकृतेन तेन शुचिना ख्यातः प्रसिद्धात्मनाः।
योसौ गंधगुणस्त्वया प्रकटितः क्वासाविह प्रेक्ष्यते॥
हे श्रीमन् ! हे चंदनवृक्ष !! वनमें ऐसे वृक्ष बहुतसे हैं कि जिन्होंने पुष्पोंकरके सुगंध बसती है और जो यहगंधगुण तैंने प्रकट किया है सो तिस पवित्र सुकृतकर के प्रसिद्ध आत्माकरके आपके संपूर्ण अंगमें विख्यात है सो आप यहां किसको (परमोत्तमको) देखते हो॥२१८॥
** राजा स्वस्तुतिं बुद्ध्वालक्षं ददौ। ततो द्वारपाल आगत्य प्राह। देव काचित्सूत्रधारी स्त्रीद्वारि वर्तते। राजाह प्रवेशयः। ततस्सागत्य राजानं प्रणिपत्याह॥**
राजा अपनी स्तुति समझकर तिसको लाख रुपैये
देता गया। पश्चात् द्वारपाल आकर कहने लगा। हे देव ! कोई सुत्रधारी स्त्री (सूत बेचनेवाली) द्वारपर खडी है। राजा कहने लगा भेजो। सो आकर राजाको नमस्कार करके कहने लगी।
बलिः पातालनिलयोधः कृतश्चित्रमत्र किम्।
अधः कृतो दिवस्थोपि चित्रं कल्पद्रुमस्त्वया॥२१९॥
पाताल है स्थान जिसका ऐसा बलि तुमने नीचे करलिया, इसमें क्या विचित्र है। जो स्वर्ग में स्थित हुआ कल्पवृक्षभी तुमने नीचे कर लिया॥२१९॥
** राजा तस्यै प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ। ततः कदाचिन्मृगयापरिश्रांतः राजाक्वचित्सहकारतरोरधस्तात्तिष्ठति स्म। तत्र मल्लिनाथाख्यकविरागत्य प्राह॥**
राजा तिसको अक्षर अक्षर प्रति लाख लाख रुपैये देता गया। पश्वात् किसी समयमें राजा शिकारमें थकाहुआ कहीं आम वृक्षके नीचे बैठता गया। तहां मल्लिनाथ कवि आकर कहने लगा॥
शाखाशतशतवितताः।
संति कियंतो न कानने तरवः॥
परिमलभरमिलदलिकुल-।
दलितदलाः शाखिनो विरलाः॥२२०॥
सौ सौ शाखाओंका विस्तारवाले वृक्ष वनमें कितनेक नहीं हैं (अर्थात् बहुत हैं) परंतु सुगंधिभारसे मिला जो
भ्रमरकुल तिससे दलित हैं दल जिन्होंके ऐसे सुगंधिवाले वृक्ष बहुत कम हैं॥२२०॥
** ततो राजा तस्मै हस्तवलयं ददौ। तत्रैव आसीने राज्ञि कोपि विद्वानागत्य स्वस्तीत्युक्त्वा प्राह। राजन्, काशीदेशमारभ्य तीर्थयात्रया परिभ्राम्यते दक्षिणदेशवासिना मया। राजा त्वादृशां तीर्थवासिनां दर्शनात्कृतार्थोस्मि। स आह। वयं मांत्रिकाश्च। राजा विप्रेषु सर्वं संभाव्यते। राजा पुनः प्राह। विप्र मंत्रविद्यया यथा परलोकफलप्राप्तिः तथा किमिह लोकेप्यस्ति। विप्रः। राजन् सरस्वतीचरणाराधनाद्विद्यावाप्तिर्विश्वविदिता परं धनावाप्तिर्भाग्याधीना॥**
पश्चात् राजा तिसको हाथका कंकण देता गया। राजा तो तिसी जगह स्थित था और कोई विद्वान् आकर स्वस्ति ऐसे आशीर्वाद देकर कहने लगा। हे राजन् ! दक्षिणदेशमें रहनेवाला जो मैं हूं सो काशीसे लगाकर तीर्थयात्रा में भ्रमता हूं। राजा कहने लगा कि तुम्हारे सरीखे तीर्थवासियोंके दर्शनोंसे मैं कृतार्थ हो गया हूं। सो कहने लगा कि हम मांत्रिक हैं (मंत्र जाननेवाले हैं)। राजा कहने लगा कि महाराज! ब्राह्मणों में संपूर्ण बन सकती है। राजा फिर कहने लगा।हे ब्राह्मण! मंत्रविद्याकरके जैसे परलोकफलकी प्राप्ति है तैसे कुछ इस लोकविषैभी हैं ?।
ब्राह्मण बोला। राजन् ! सरस्वती के चरणोंके आराधनसे विद्याकी प्राप्ति जगत में विख्यात है, परंतु धनप्राप्ति भाग्यके आधीन है।
गुणाः खलु गुणा एव न गुणा भूतिहेतवः।
धनसंचयकर्तृृणि भाग्यानि पृथगेव हि॥२२१॥
गुण तो गुणही हैं। गुण संपत्ति के कारण नहीं हैं। धनका संचय करनेवाले भाग्य औरही है ॥२२१॥
** देव विद्यागुणा एव लोकानां प्रतिष्ठायै भवंति न तु केवलं संपदः। देव॥**
हे देव ! लोकोंके प्रतिष्ठाके वास्ते विद्यागुणही कहे हैं केवल संपत नहीं है। हे देव ! सुनो॥
आत्मायत्ते गुणग्रामे नैर्गुण्यं वचनीयता।
दैवायत्तेषु वित्तेषु पुंसां का नाम वाच्यता॥२२२॥
गुणोंका समूह इस जीवात्मा के आधीन है। फिर जो पुरुष गुण ग्रहण नहीं करते उनकी मूर्खताकी निंदा (तकरार) है और जो धन (द्रव्य) दैव (प्रारब्ध) के आधीन हैं उनके नहीं होने में (निर्धनकी) क्या निंदा (तकरार) है॥२२२॥
** देव, मंत्राराधनेनाप्रतिहता शक्तिः स्यात्। देव, एवं कुतूहलं यस्य। मया यस्य शिरसि करो निधीयते स सरस्वतीप्रसादेन अस्खलितविद्याप्रसारः स्यात्। राजा प्राह। सुमते महती देवताशक्तिः।**
ततो राजा कामपि दासीमाकार्य विप्रं प्राह। द्विजवर अस्या वेश्यायाः शिरसि करं निधेहि। विप्रस्तस्याः शिरसि करं निधाय तां प्राह। देवि यद्राजा ज्ञापयति तद्वद। ततो दासी प्राह। देवाहमद्य समस्तवाङ्मयजातं हस्तामलकवत्पश्यामि। देवादिश किं वर्णयामि। ततो राजा पुरः खङ्गं वीक्ष्य प्राह। खङ्गं मे व्यावर्णयेति। दासीप्राह॥
हे देव ! मंत्रोंका आराधन करके नहीं रुकनेवाली शक्ति हो जाती है। हे देव ! तिसका ऐसा आश्चर्यकि मैं जिसके शिरपर हाथ रख देता हूं, तिसके सरस्वतीकी कृपा करके अस्खलित विद्याका प्रसार हो जाता है। राजा कहने लगा ! हे सुमते ! देवताकी शक्ति बडीपश्चात् राजा किसी दासीको बुलाकर ब्राह्मणको कहने लगा। हे द्विजवर। इस वेश्याके शिरपर हाथ धरो। बाह्मणने तिसके शिरपर हाथ धरकर तिसको कहने लगा। हे देवि ! जो राजा हुकुम करे सो कह। तब दासी कहने लगी। हे देव ! मैं अब संपूर्ण वाणीमय शास्त्रको हाथमें आंवलेकी तरह देखती हूं। हे देव ! हुकुम दो क्या वर्णन करूं। पश्चात् राजा आगे खड्गको देखकर कहने लगा। मेरे खड्गका वर्णन कर। दासी कहने लगी॥
धाराधर त्वदसिरेषनरेंद्र चित्रं।
वर्षंति वैरिवनिताजनलोचनानि॥
कोशेन संगतमसंगतिराहवेऽस्य।
दारिद्र्यमभ्युदयति प्रतिपार्थिवानाम्॥२२३॥
हे धाराधर ! हे नरेन्द्र ! यह तुझारा खड्ग बडा विचित्रशत्रुओंकी स्त्रियोंके नेत्रोंको वर्षावता है। अर्थात्उनके नेत्रोंसे आंशू गिराता है। और युद्ध में कोशसे इसका संगम होना असंगत है। अर्थात् यह खड्ग युद्धभूमीमें मियानमें प्रवेश नहीं होता है। और संपूर्ण राजाओंके दारिद्र्य करता है॥२२३॥
** राजा तस्यै रत्नकलशाननर्ध्यान् पंच ददौ। ततस्तस्मिन् क्षणे कुतश्चित् पंच कवयः समाजग्मुः। तानवलोक्य ईषद्विच्छायमुखं राजानं दृष्ट्वा महेश्वरकविः वृक्षमिषेणाह॥**
राजा सुनकर इसको अमोले पांच कलश देता गया। पश्चात् तिसी क्षण में कहीं से पांच कवि आते गये। तिनको देखकर कुछेक शोभारहित मुखवाले राजाको देखकर महेश्वर कवि वृक्षका मिषकरके कहने लगा॥
किं जातोसि चतुष्पथे घनतरच्छायोसि किं छायया
छन्नश्चेत् फलितोसि किं फलभरैः पूर्णासि किं संवृतः।
हेसद्वृक्ष सहस्व संप्रति चिरं शाखाशिखाकर्षणं
क्षोभामोटनभंजनानि जनतस्स्वैरेव दुश्चेष्टितैः॥२२४॥
हे सद्वृक्ष ! चतुष्पथ (चौतर्फ) के मार्गमें किसवास्ते
जांमा है और घनछायावाला किसवास्ते हुआ है और छायाकरकेभी आच्छादित हो गया तो किसवास्ते फला है। और फलभरोंकरके किसवास्ते पूर्ण हुआ है। और जो ऐसा हो गया तो अब अपनीही खोटी चेष्टाओं कर के जनोंसे शाखा शिखाओंका खेंचना और क्रोधसे मोडना, तोडना आदि दुःखको बहुत काल तक सह॥२२४॥
** ततो राजा तस्मै लक्षं ददौ। ततस्ते द्विजवराः पृथक्पृथगाशीर्वचनमुदीर्य यथाक्रमं राजाज्ञया कंबल उपविश्य मंगलं चक्रुः। तत एकः पठति॥**
फिर राजा तिसको लाख रुपैये देता गया। तिसके अनंतर वे द्विजवर अलग अलग आशिर्वाद देकर और)राजाके हुकमसे यथाक्रम कंबलपर बैठकर मंगल करते गये। फिर (तिन्होंमें) एक पढने लगा॥
कूर्मः पातालगंगापयसि विहरतां तत्तटीरूढमुस्तामादत्ता-
मादिपोत्री शिथिलयतु फणामंडलं कुंडलींद्रः॥
दिङ्मातंगा मृणालीकवलनकलनां कुर्वतां पर्वतेंद्राः सर्वे
स्वैरं चरंतु त्वयि वहति विभो भोज देवीं धरित्रीम्॥२२५॥
हे भोज ! हे समर्थ ! तेरे पृथ्वीके धारण करते हुए कछवा तो पातालगंगा क्रीडा करो। (और) वराहावतार तिस गंगा के तटके जांमे हुए मोथिया खावो। (और) शेषजी फणामंडलको दूर करके आराम दो। (और)
दिक्हस्ती कमलग्रास करने में क्रीडा करो\। (और) पर्वतभी दूर हो जावो। (ऐसे) ये संपूर्ण यथेच्छ विचरो॥ २२५॥
** राजा चमत्कृतः तस्मै शताश्वान् ददौ। ततो भांडारिको लिखति॥**
राजा चमत्कृत हुआ तिसको सौ घोडे देता गया। फिर खजानची ने यह श्लोक लिखा॥
क्रीडोद्याने नरेंद्रेण शतमश्वा मनोजवा।
प्रदत्ताः कामदेवाय सहकारतरोरधः॥२२६॥
राजाने बगीचा में आमके वृक्षनीचे मनकेसा वेगवाले सौ घोड़े कामदेव कविको दिये॥२२६॥
** ततः कदाचिद्भोजो विचारयति स्म। मत्सदृशो वदान्यः कोपि नास्तीति। तद्गर्वं** विदित्वा मुख्यामात्यो विक्रमार्कस्य पुण्यपत्रं भोजाय प्रदर्शयामास। भोजस्तत्र पत्रे किंचित् प्रस्तावमपश्यत्। तथाहि विक्रमार्कः पिपासया प्राह॥
फिर किसी समय में भोज राजा विचार करता गया। कि मेरे सरीखा दातार (और) कोई भी नहीं। मुख्य मंत्री राजा भोजका ऐसा गर्व जानकर राजा विक्रमादित्यका पुण्यपत्र भोजको दिखाता गया। भोज तिस पत्रमें कुछ प्रस्ताव देखता गया। सो यह है कि विक्रमार्क प्यासयुक्त हुआ कहने लगा॥
** स्वच्छं सज्जनचित्तवल्लघुतरं दीनार्तिवच्छीतलम्।**
पुत्रालिंगनवत्तथैव मधुरं तद्वाल्यसंजल्पवत्॥
एलोशीरलवंगचंदनलसत्कर्पूरकस्तूरिका-।
जातीपाटलिकेतकैः सुरभितं पानीयमानीयताम्॥२२७॥
सज्जनके चित्तकी तरह स्वच्छ, दीनकी पीडाकी तरह हलका, पुत्रके मिलनेकी तरह ठंढा,बालअवस्थामें पुत्रके बोलनेकी तरह मधुर, इलायची, खस, लोंग,चंदन इन्होंसे शोभित और कपूर, कस्तूरी, मालती, पाटलिका, केतकी इन्होंसे सुगंधित ऐसा पानी लावो॥२२७॥
** ततो मागधः प्राह॥**
फिर मागध बोला॥
वक्त्रांभोजं सरस्वत्यभिवसति सदा शोण एवाधरस्ते
वाहुः काकुत्स्थवीर्यस्मृतिकरणपटुर्दक्षिणस्ते समुद्रः॥
वाहिन्यः पार्श्वमेताः कथमपि भवतो नैव मुंचंत्यभीक्ष्णं
स्वच्छे चित्ते कुतोभूत् कथय नरपते तेंबुपानाभिलाषः॥२२८॥
हे नरपते ! तुह्मारे मुखरूप कमलमें तो सदा सरस्वती बसती है। तुह्मारा होंठ शोणनद है। तुह्मारी दहनी भुजा श्रीरामचंद्रजीके वीर्यको स्मृति कराने में चतुर समुद्र है। और पसवाडामें ये बाहिनी सेना अथवा नंदी किसी समयमें तुमने त्यागतीही नहीं है। हे राजन् ! चित्त स्वच्छ होत संते जल पीनेकी अभिलापा तुह्मारे कैसे हुई॥२२८॥
** ततो विक्रमार्कः प्राह। तथाहि॥**
फिर विक्रमार्क कहने लगे। कि यह ठीकही है॥
अष्टौ हाटककोटयस्त्रिनवतिर्मुक्ताफलानां तुलाः।
पंचाशन्मधुगंधमत्तमधुपाः क्रोधोद्धता सिंधुराः॥
अश्वानामयुतं प्रपंचचतुरं वारांगनानां शतं।
दत्तं पांड्यनृपेण यौतकमिदं वैतालिकायार्प्यताम्॥
आठ कोटि सुवर्ण, तेरानवे (९३) तुला मोती, मदोन्मत्त और क्रोधमें भरे ऐसे पचास हस्ती, दश हजार घोडा और लीला करनेमें चतुर ऐसी सौ (१००) वेश्या यह इतना दाईजा पांड्यराजाने (विक्रमने) दिया है। सो वैतालिक के वास्ते अर्पण करो॥२२९॥
** ततो भोजः प्रथमत एव अद्भुतं विक्रमार्कचरित्रं दृष्ट्वा निजगर्वं तत्याज। ततः कदाचिद्धारानगरे रात्रौ विचरन् राजा कंचन देवालये शीतालुंब्राह्मणमित्थं पठंतमवलोक्य स्थितः॥**
तिसके अनंतर भोज प्रथमहीसे विक्रमार्कका अद्भुत चरित देखकर, अपने गर्व को त्यागता गया। फिर कभी धारानगरी में रातको विचरता हुआ राजा देवस्थानमें जाडासे व्याकुल हुआ ऐसे पढते हुए ब्राह्मणको देख स्थित हो गया॥
शीतेनाध्युषितस्य माघजलवच्चिंतार्णवे मज्जतः।
शांताग्नेःस्फुटिताधरस्य धमतः क्षुत्क्षामकुक्षेर्मम॥
निद्रा क्वाप्यवमानितेव दयिता संत्यज्य दूरं गता।
सत्पात्रप्रतिपादितेव कमला नो हीयते शर्वरी॥२३०॥
माघके जलकी तरह जाडेसे व्याप्त (और) चिंतासमुद्रमें डूबता हुआ शांतअग्निवाला कंपते होठोंवाला अग्निको धमनेवाला, भूखसे सूखा पेटवाला ऐसेकी मेरी निद्रा तिरस्कार करी स्त्रीकी तरह त्यागकर दूर चली गई (और) सत्पात्र की प्रतिपादन (संचित) करी लक्ष्मीकी तरह रात्रि नहीं क्षीण होती है॥२३०॥
** इति श्रुत्वा राजा प्रातस्तमाहूय पप्रच्छ। विप्र पूर्वेद्यू रात्रौ त्वया दारुणः शीतभारः कथं सोढः। विप्र आह॥**
ऐसे सुनकर राजा प्रातःकाल तिसको बुलाकर पूछता गया। कि हे विप्र ! कल रातको तैंने दारुण जाडा कैसे सहा। ब्राह्मण कहने लगा॥
रात्रौ जानुर्दिवा भानुः कृशानुः संध्ययोर्द्वयोः।
एवं शीतं मया नीतं जानुभानुकृशानुभिः॥२३१॥
रातको तनें गोडसे, (अर्थात् गोडोंमें शिर ल्हकोया) दिनमें सूर्यसे, (अर्थात् धूपमें बैठकर) दोनों संध्याओं में अभिकरके (अर्थात् तपकर) ऐसे गोडा, अग्नि, सूर्य, इन्हों करके मैंने जाडा वदित किया॥२३१॥
** राजा तस्मै सुवर्णकलशत्रयं प्रादात्। ततः कवी राजानं स्तौति॥**
राजा तिस ब्राह्मणको तीन सुवर्णके कलश देता गया। फिर कवि राजाकी स्तुति करने लगा॥
धारयित्वा त्वयात्मानं महात्यागधनायुषा।
मोचिता बलिकर्णाद्याः स्वयशोगुप्तवर्ष्मिणः॥२३२॥
हे राजन् ! आपने शरीर धारण करके, अपने यशकरके गुप्त किया है शरीर जिन्होंने ऐसे बलि कर्ण आदिमहद्दान, धन, आयु, इनसे छुटा दिये अर्थात् आपके दानधन आदिकरके बलि, कर्ण आदिकों का यश छिप गया है॥
** राजा तस्मै लक्षं ददौ। एकदा क्रीडोद्यानपालआगत्य एकमिक्षुदंडं राज्ञः पुरो मुमोच। तं राजाकरे गृहीतवान्। ततो मयूरकविः नितांतं परिचयवशात् आत्मनि राज्ञा कृतामवज्ञां मनसि निधायइक्षुमिषेणाह॥**
राजा तिसको लाख रुपैये देता गया। एक समयबागवान आकर एक ईखका गंडा राजाके आगे रखतागया। तिसको राजा हाथमें लेता गया। फिर मयूरकविनित्य आने जानेसे राजाने किये हुए तिरस्कारको अपनेमनमें रखकर ईखके गंडेके मिषसे कहने लगा।
कांतोसि नित्यमधुरोसि रसाकुलोसि।
किं चासि पंचशरकार्मुकमद्वितीयम्॥
इक्षो तवास्ति सकलं परमेकमूनं।
यत्सेवितो भजसि नीरसतां क्रमेण॥२३३॥
हे ईखका गंडा ! तू सुंदर है। नित्य मधुर है। रससेव्याप्त है \। तू सुंदर कामदेवका धनुष है। तेरेमें संपूर्ण गुणहैं। परंतु एक कसर है कि जिससे तू निरंतर क्रमसेसेवन किया हुआ नीरसताको भजता है (अर्थात्) पिछली पिछली पोरियोंमें रस कमकम आता है॥२३३॥
** राजा कविहृदयं ज्ञात्वा मयूरं संमानितवान्।ततः कदाचिद्रात्रौ सौधोपरि क्रीडापरो राजा शशांकमालोक्य प्राह॥**
राजा कविके हृदयको जानकर मयूरका संमान करतागया। फिर किसी समय राजा क्रीडामें तत्पर हुआ महलमें सोवे था सो चंद्रमाको देखकर कहने लगा॥
यदेतच्चंद्रांतर्जलदलवलीलां वितनुते।
तदाचष्टे लोकः शशक इति नो मां प्रति तथा॥
जो यह चंद्रमा के भीतर मेघके लेशकी लीला दीखती हैइसको मनुष्य सूसा कहते हैं सो मेरे को तैसे भान नहीं होता॥
** ततश्चाधोभूमौ सौधांतः प्रविष्टः कश्चिच्चोर आह॥**
फिर नीचे पृथ्वीपर महलोंमें बड़ा हुआ कोई चोरकहने लगा॥
अहं त्विंदु मन्ये त्वदरिविरहाक्रांततरुणी-।
कटाक्षोल्कापातव्रणकणकलंकांकिततनुम्॥२३४॥
मैं तो यह मानता हूं कि तेरे शत्रुओं के विरहसे दुःखि-
त जो उनकी स्त्री तिनका कटाक्षरूप जो वज्रपात तिसकेव्रणलेशके कलंककरके चिन्हित है शरीर जिसका ऐसाचंद्रमा है॥२३४॥
** राजा तत् श्रुत्वा प्राह। अहो महाभागाकस्त्वमर्धरात्रे कोशगृहमध्ये तिष्ठसीति। स आह। देवअभयं नो देहीति। राजा तथेति। ततो राजानं सचोरः प्रणम्य स्ववृत्तांतमकथयत्। तुष्टो राजा चोरायदश कोटीः सुवर्णस्याष्टोन्मत्तान् गजेंद्रांश्च ददौ।ततः कोशाधिकारी धर्मपत्रे लिखति॥**
राजा तिसको सुनकर कहने लगा। बडा आश्चर्य है हैमहाभाग ! तू कौन है जो अर्धरात्र में खजाने में बढ रहा।सो कहने लगा। कि हे देव ! मेरा कसूर माफ करो। राजाकहने लगा, माफ है। फिर वह चोर राजाको प्रणाम करकेअपना वृत्तांत कहता गया। फिर प्रसन्न हुआ राजा चोरको दश कोटी सुवर्ण महोर और आठ मदोन्मत्त हस्ती देता गया। फिर कोशाधिकारी धर्मपत्र में लिखता गया॥
तदस्मै चोराय प्रतिनिहत मृत्यु प्रतिभिये।
प्रभुः प्रीतः प्रादादुपरितनपादद्वयकृते॥
सुवर्णानां कोटीर्दश दशनकोटिक्षतगिरीन्।
गजेंद्रानप्यष्टौ मदमुदितकूजन्मधुलिहः॥२३५॥
जिसका मृत्युके समान भय नष्ट हो गया ऐसे इसचोरके वास्ते (केवल) श्लोक के पिछले दो चरण बनाने-
वालेके वास्ते प्रभु महाराज प्रसन्न होके दश करोड सुवर्ण(महोर) और दांतों के अग्रभागसे पर्वतोंको फोड देवेऐसे तथा जिनके मदपर मदोन्मत्त भौंहरे गूंज रहे ऐसे मदोन्मत्त आठ हस्ती देता गया॥२३५॥
** ततः कदाचित् द्वारपाल आगत्य प्राह। देव कौपीनावशेषो विद्वान् द्वारि वर्तत इति। राजा प्रवेशयेति। ततः प्रविष्टससकविर्भोजमालोक्य मे दारिद्र्यनाशो भविष्यतीति मत्वा तुष्टो हर्षाश्रूणि मुमोच। राजा तमालोक्य प्राह। कवे किं रोदिषि इति।ततः कविराह। राजन् आकर्णय गृहस्थितिम्॥**
फिर किसी समय में द्वारपाल आकर कहने लगा। हेंदेव ! एक कौपीन बांधे विद्वान् द्वारपर खड़ा है। राजाकहने लगा आने दो। फिर अंदर आया हुआ वह कविभोजको देखकर मेरे दारिद्र्यका नाश होगा यह मानकरप्रसन्न हुआ आनंदके आंसू छोडता गया। राजा तिसकोदेखकर कहने लगा। हे कवे ! किसवास्ते रोते हो। फिरकवि कहने लगा। हे राजन् ! मेरे घर की स्थिति सुनो॥
अये लाजा उच्चैः पथि वचनमाकर्ण्य गृहिणी।
शिशोः कर्णौ यत्नात्सुपिहितवती दीनवदना॥
मयि क्षीणोपाये यदकृत दृशावश्रुबहुले।
तदन्तः शल्यं मे त्वमसि पुनरुद्धर्तुमुचितः॥२३६॥
खील लो २ रस्तामें ऐसा ऊंचा वचन सुनकर अर्थात्
खील बेचनेवालेकी आवाज सुनकर दीनमुखवाली मेरीघरवाली जतनसे बालकके कानोंको ढकती गई (और)मेरेमें अपना क्षीण उपाय जानकर नेत्रों में आंसू ल्याती गई यह वृत्तांत मेरे हृदय में शल्य चुभाता गया। इस शल्यको तुम निकालने के योग्य हो॥२३६॥
** राजा शिव शिव कृष्ण कृष्णेत्युदीरयन् प्रत्यक्षरलक्षं दत्त्वा प्राह। सुकवे, त्वरितं गच्छ गेहं त्वद्गृहिणी खिन्नाभूदिति। ततः कदाचिन्मृगयापरिश्रांतो राजा कस्यचिन्महावृक्षस्य छायामाश्रित्य तिष्ठति स्म। तत्र शांभवदेवो नाम कविः कश्चिदागत्यराजानं वृक्षमिषेणाह॥**
राजा शिव शिव कृष्ण कृष्ण ऐसे कहता हुआ अक्षर२ प्रति लाख २ रुपैये देकर कहने लगा। हे सुकवे !जल्दी घरको जावो तेरी घरवाली बडी दुःखित है। फिरकिसी समय में शिकारसे थका हुआ राजा किसी बडेवृक्षकी छाया में बैठता गया। तहां शांभवदेव नाम कोईकवि आकर राजाको वृक्षमिसकरके कहने लगा॥
आमोदैर्मरुतो मृगाः किसलयोल्लासैस्त्वचा तापसाः।
पुष्पैः षट्चरणाः फलैः शकुनयो घर्मादिताश्छायया॥
स्कंधैर्गंधगजास्त्वयैव विहिताः सर्वे कृतार्थास्ततः।
त्वं विश्वोपकृतिक्षमोऽसि भवता भग्नापदोन्ये द्रुमाः॥
सुगंधिकरके पवन, पपिसियोंकरके मृग, वक्कलकरके
तपस्वी, पुष्पोंकरके औरे, फलोंकरके पक्षी, छायाकरकेघामसे पीडित जन, डाहलोंकरके गंधगज ऐसे तुह्मारेकरके ये संपूर्ण कृतार्थ हो गये हैं। इसवास्ते संपूर्णेकेउपकारके वास्ते तू समर्थ है और अन्य वृक्ष तुह्मारेकरकेभग्नविपत्वाले हैं॥२३७॥
** किंच—**
अविदितगुणापि सत्कविभणितिः कर्णेसुवमति मधुधाराम्॥
अनधिगतपरिमलापि च हरति दृशं मालतीमाला॥२३८॥
और कहते हैं। श्रेष्ठ कविकी उक्ति अर्थ नहीं जानहुएकेभी कानोंविषे मधुर धारा छोडती है। मालती की मालाविना सुगंधिवालीभी नेत्रोंको वशमें कर लेती है॥२३८॥
** ताभ्यां श्लोकाभ्यां चमत्कृतो राजा प्रत्यक्षरंलक्षं ददौ। अन्यदा श्रीभोजः श्रीमहेश्वरं नंतुं शिवालयमभ्यगात्। तदा कोपि ब्राह्मणो राजानं शिवसन्निधौ प्राह। देव॥**
तिन श्लोकोंकर के चमत्कृत हुआ राजा अक्षर २ प्रति लाख २ रुपैये देता गया। एक समय श्रीभोज राजाश्रीमहेश्वरको नमस्कारके वास्ते शिवालय में जाता गया।तब कोई ब्राह्मण महादेवजी के पास कहने लगा। हे देव !॥
अर्धं दानववैरिणा गिरिजयाप्यर्धं शिवस्याहृतं।
देवेत्थं जगतीतले पुरहराभावे समुन्मीलति॥
गंगा सागरमंबरं शशिकला नागाधिपः क्ष्मातलं।
सर्वज्ञत्वमधीश्वरत्वमगमत्त्वां मां तु भिक्षाटनम् ॥२३९॥
हे देव ! शिवका आधा अंग विष्णुने ले लिया (और)आधा गिरिजाने। ऐसे पृथ्वीतल शिव विना होतसंतेगंगा, सागरको चली गई (और) चंद्रकला आकाशको(और) नागाधिप पृथ्वीतलको और सर्वज्ञपन (ईश्वरपना)तुह्मारेको (और) भिक्षाटन मेरेको प्राप्त हो गया॥२३९॥
** राजा अक्षरलक्षं ददौ। ततः कदाचिद् द्वारपालआगत्य प्राह। देव कोपि विद्वान् द्वारि तिष्ठतीति।राजा प्रवेशयेति प्राह। ततः प्रविष्टो विद्वान् पठति॥**
राजा अक्षरोंके प्रति लाख लाख रुपैये देता गया।फिर किसी समय द्वारपाल आकर कहने लगा। हे देव !कोई विद्वान बाहर खड़ा है। राजा कहने लगा भेजो।फिर भीतर जाकर विद्वान् कहने लगा॥
क्षणमप्यनुगृण्हाति यं दृष्टिस्तेनुरागिणी।
ईर्ष्ययेव त्यजत्याशु तं नरेंद्र दरिद्रता॥२४०॥
हे नरेन्द्र ! तुह्मारी स्नेहकी दृष्टि जिसके क्षणमात्र भीअनुग्रह करती है तिसको दरिद्रता ईर्षाकी तरह शीघ्रहीत्याग देती है॥२४०॥
** राजा लक्षं ददौ। पुनरपि पठति कविः॥**
राजा तिसको लाख रुपैये देता गया। फिरभी कविपढने लगा॥
केचिन्मूलाकुलाशाः कतिचिदपि पुनः स्कंधसंबंध-
भाजश्छायां केचित्प्रपन्नाः प्रपदमपिपरे पल्लवानुन्नयंति॥
अन्ये पुष्पाणि पाणौ दधति तदपरे गंधमात्रस्य पात्रं
वाग्वल्ल्याः किंतुमूढाः फलमहह नहि द्रष्टुमप्युत्सहंते॥२४१॥
हे देव ! कितनेक पुरुष वृक्षके मूलकी (कंदकी) हीआशा करते हैं। कितनेक टहनियोंका संबंधही करतेहैं। कितनेक छायाकोही आश्रय करते हैं। कोई जडऔर पीपसीयों को ग्रहण करते हैं। अन्य पुष्पोंकोही हाथमें ग्रहण करते हैं। कोई गंधमात्र कोही ग्रहण करते हैं।परंतु बडा आश्चर्य है कि मूढ जन वाणीरूप वेलका फलदेखने की भी इच्छा नहीं करते हैं॥२४१॥
** एतदाकर्ण्य बाणः प्राह॥**
यह सुनकर बाण कवि कहने लगा॥
परिच्छिन्नः स्वादोमृतगुडमधुक्षौद्रपयसां।
कदाचिच्चाभ्यासाद्भजति ननु वैरस्यमधिकं॥
प्रियाबिंबोष्ठे वा रुचिरकविवाक्येप्यनवधि-।
र्नवानंदः कोपि स्फुरति तु रसोसौ निरुपमः॥२४२॥
अमृत, गुड़, शहद, मधु, दुग्ध इन्होंका स्वाद थोडाहीहै। कभी घटभी जाता है और बहुत सेवन करनेसे विरसताकोभी प्राप्त हो जाते हैं और प्रिया के बिंबोष्ठमें (अधरामृतमें) और रुचिर कविके वाक्यमें विना अवधिवाला आनंद
और यह उपमारहित कोई अलगही रस स्फुरता है निरालाही स्वाद है॥२४२॥
** ततो राजा लक्षं दत्तवान्। ततः कदाचित् सिंहासनमलंकुर्वाणे श्रीभोजे द्वारपाल आगत्य प्राह।देव वाराणसीदेशादागतः कोपि भवभूतिर्नाम कविर्द्वारि तिष्टतीति। राजा प्राह। प्रवेशयेति। ततःप्रविष्टः सोपि सभामगात्। ततः सभ्याः सर्वे तदागमनेन तुष्टा अभवन्। राजा च भवभूतिं प्रेक्ष्य प्रणमति स्म। स च स्वस्तीत्युक्त्वा तदाज्ञयोपविष्टोभवभूतिः प्राह। देव॥**
फिर राजा लक्ष रुपये देता गया। फिर किसी समयसिंहासनपर बैठे हुए भोजराजाको द्वारपाल आकर कहनेलगा। हे देव ! काशीदेशसे आया हुआ कोई भवभूतिनाम कवि द्वारपर खडा है। राजा कहने लगा। भीतरभेजो। फिर प्रविष्ट हुआ वह सभाको प्राप्त होता गया।फिर सभामें होनेवाले संपूर्ण तिसके आने से प्रसन्न होते गये। राजा भवभूतिको देखकर प्रणाम करता गया।वह भवभूति ‘स्वस्ति’ऐसे कहकर राजाकी आज्ञासेबैठाहुआ भवभूति कहने लगा। हे देव!॥
नानीयंते मधुनि मधुपाः पारिजातप्रसूनै-।
र्नाभ्यर्थ्यंते तुहिनरुचिनश्चंद्रिकायां चकोराः॥
अस्मद्वाङ्माधुरिमधुरमापद्य पूर्वावताराः।
सोल्लासाः स्युः स्वयमिह बुधाः किं मुधाभ्यर्थनाभिः॥
शहतपर (महेलके छत्तेपर) मक्खियोंको कोई बुलाके नहीं लाता है और चंद्रमाकी चांदणीविषे चकोरपक्षियोंका कुछ कल्पवृक्ष के पुष्पोंकरके आवाहन नहीं कियाजाता है किंतु ये सब आपही आते हैं इसीप्रकार हमारीवाणीके माधुरीके मिठासको प्राप्त हो के, इस सभा में पहलेके परिचित हुए पंडित लोग स्वयंही प्रफुल्लित हो जायेंगेवृथा प्रार्थना करने से क्या है॥२४३॥
** नास्माकं शिबिका न कापि कटकाद्यालंक्रियासत्क्रिया नोत्तुंगस्तुरगो न कश्चिदनुगो नैवांबरं सुंदरम्॥ किंतु क्ष्मातलवर्त्यशेषविदुषां साहित्यविद्याजुषांचेतस्तोषकरी शिरोगतिकरी विद्यानवद्यास्ति नः॥**
हे देव ! न तो हमारे पालकी और न कडूला आदिआभूपण, न सत्कार, न ऊंचा घोडा, न कोई नौकर,न सुंदर वस्त्र, (तो क्या है) कि साहित्यविद्याको सेवनकरनेवाले पृथ्वीतलमें होनेवाले संपूर्ण विद्वानों के चित्तको प्रसन्न करनेवाली मुकुटरूप, दोषरहित, श्रेष्ठ, विद्या है॥२४४॥
** इत्याकर्ण्य वाणपंडितपुत्रः प्राह। आः पापधाराधीशसभायामहंकारं मा कृथाः॥**
ऐसे सुनकर वाण पंडितका पुत्र कहने लगा। बडे खेदकी वार्ता है, हे पापिन् ! धाराधीश की सभा में अहंकारमत कर॥
निःश्वासोपि न निर्याति बाणे हृदयवर्त्मनि।
किं पुनः प्रकटाटोपपदबद्धा सरस्वती॥२४५॥
जब बाण (कवि या शर) हृदयमार्ग में प्राप्त हो जाता है तब ऊंचा श्वास भी नहीं निकलता है फिर प्रत्यक्षपाखंड आडंबर के पदोंकरके रची हुई वाणी (कविता)कहनी तो क्या हो सक्ती है॥२४५॥
** ततो भवभूतिः पराभवमसहमानः प्राह॥**
फिर भवभूति तिरस्कारको नहीं सहता हुआ कहने लगा॥
हठादाकृष्टानां कतिपयपदानां रचयिता।
जनः स्पर्धालुश्चेदहह कविना वश्यवचसा॥
भवेदद्य श्वो वा किमिह बहुना पापिनि कलौ।
घटानां निर्मातुस्त्रिभुवनविधातुश्च कलहः॥२४६॥
कितनेक पद कहींसे हठसे खेंचकर तिन्होंका रचनेवाला जन जो वश्यवचनवाले कविके साथ ईर्षा करे तो बढेआश्चर्य की बात है। यहां बहुत क्या कहै, इस पापी कलिकेविषै घटोंको रचनेवालेका (अर्थात् कुम्हारका) और त्रिलोकी रचनेवाले ब्रह्माका कलह आजकलमें जरूर होगा॥२४६॥
पुनराह—
कालिदासकवेर्वाणी कदाचिन्मद्गिरा सह।
कलयत्यद्य साम्यं चेद्भीता भीता पदे पदे॥२४७॥
फिर कहने लगा। कालिदास कविकी वाणी किसीसमयमें मेरी वाणीके साथ समताको भजती है। सोभी अबतो पदपदमें डरी डरीकी तरह समताको भजती है॥२४७॥
** ततः कालिदासः प्राह। सखे भवभूते महाकविरसि अत्र किमु वक्तव्यम्॥**
फिर कालिदास कहने लगा। हे सखे भवभूते ! तुममहाकवि हो, इसमें क्या कहना है॥
एषा धारेंद्रपरिषन्महापंडितमंडिता॥
आवयोरंतरं वेत्ति राजा वा शिवसन्निभः॥२४८॥
महापंडितोंसे भूषित यह भोजराजाकी सभा या शिवसदृश राजा हमारे तुलारे अंतरको जानता है॥२४८॥
** तच्छ्रुत्वा राजा प्राह। युवाभ्यां रत्यंतो वर्णनीयइति। भवभूतिः॥**
तिसको सुनकर राजा कहने लगा। तुमने मैथुनकाअंत वर्णन करना चाहिये। भवभूति कहने लगा॥
मुक्ताभूषणमिंदुबिंबमजनि व्याकीर्णतारं नभः।
स्मारं चापमपेतचापलमभूदिंदीवरे मुद्रिते॥
व्यालीनं कलकंठमंदरणितं मदानिलैर्मंदितं।
निष्पंदस्तबकाच चंपकलता साभून्न जाने ततः॥२४९॥
चंद्रबिंब (मुख) अलंकारोंसे रहित हो गया, जिधरउधर विखर गये हैं नक्षत्र (करधनीके मोती) जिसमेंऐसा तो आकाश (कमर) हो गया, कामदेवका धनुष(ह) चपलता रहित हो गया, नील कमल (नेत्र) मून्द गये, सुंदर कंठका शब्द बंद हो गया, मंद पवन मेंदित हो गया (अर्थात् श्वास लगा), और सुर्वण चंपक-
की वेल ( युवति ) तो निश्वल गुच्छों (स्तनों) वाली होगई उपरांत क्या हुआ वह नहीं जानता हूं॥२४९॥
** ततः कालिदासः प्राह॥**
फिर कालिदास कहने लगा॥
स्विन्नं मंडलमैंदवं विलुलितं स्रग्भारनद्धं तमः।
प्रागेव प्रथमानकैतकशिखालीलायितं सुस्मितम्॥
शांतं कुंडलतांडवं कुवलयद्वंद्वं तिरोमीलितं।
वीतं विद्रुमसीत्कृतं नहि ततो जाने किमासीदिति।
चंद्रमंडल (मुख) पसीनायुक्त हो गया, और इसकेपहिलेही पुष्पमालासे बंधा हुआ अंधकार (केशपाश)खुल गया, प्रसिद्ध केतकीकी शिखासमान हास्य हो गया,कुंडलोंका नृत्य शांत हो गया, नीलकमलों (नेत्रों) कायुग्म मूंद गया और मूंगों (होठों) का सत्कार शब्दजाता रहा। इससे उपरांत मैं नहीं जानता क्या होता गया॥२५०॥
** राजा कालिदासं प्राह। सुकवे भवभूतिना सहसाम्यं तव न वक्तव्यम्। भवभूतिराह। देव किमितिवारयसि। राजा सर्वप्रकारेण कविरसि। ततो बाणःप्राह। राजन् भवभूतिः कविश्चेत्कालिदासो वक्तव्योवा। राजा बाणकवे कालिदासः कविने किंतु पार्वत्याः कश्चिदवनौ पुरुषावतार एव। ततो भवभूति-**
राह। देव किमत्र प्राशस्त्यम् भवति। राजा प्राहभवभूते किसु वक्तव्यम् प्राशस्त्यं। कालिदासश्लोकेयतः कैतकशिखालीलायितं सुस्मितमिति पठितम्।ततो भवभूतिराह। देव पक्षपातेन वदसीति। ततःकालिदासः प्राह। देव अपख्यातिर्मा भूत् भुवनेश्वरीदेवतालयं गत्वा तत्सन्निधौ तां पुरस्कृत्य घटेसंशोधनीयं त्वया। ततो भोजः सर्वकविवृंदवेदितस्सन् भुवनेश्वरीदेवालयं प्राप्य तत्र तत्सन्निधौभवभूतिहस्ते घटं दत्त्वा श्लोकद्वयं च तुल्यपत्रद्वयेलिखित्वा तुलायां मुमोच। ततो भवभूतिभागेलघुत्वोद्भूतां ईषदुन्नतिं ज्ञात्वा देवी भक्तपराधीनासदसि तत्परिभवो मा भूदिति स्वावतंसकल्हारमकरंदं वामकरनखाग्रेण गृहीत्वा भवभूतिपत्रे चिक्षेप।ततः कालिदासः प्राह॥
राजा कालिदासको कहने लगा। हे सुकवे ! भवभूतिके साथ तुम्हारी समता नहीं कही जाती। भवभूति कहने लगा। हे देव ! ऐसे क्या विसराहते हो। राजा कहनेलगा, तुम संपूर्ण प्रकारसे कवि हो। फिर बाण कवि कहने लगा। हे राजन् ! जो भवभूति कवि है तो कालिदासको भी कहो। राजा कहने लगा हे वाण कवे ! कालिदास कवि नहीं है किंतु, पृथ्वी विषै कोई पार्वतीका पुरुपावतार है। फिर भवभूति कहने लगा। हे देव ! यहां
क्या श्रेष्ठता है। राजा कहने लगा हे भवभूते ! क्या श्रेष्ठताकहूं। कालिदासके श्लोक में जो “कैतकशिखालीलायितंसुस्मितं”यह कहा सो श्रेष्ठकविता है। फिर भवभूतिकहने लगा। हे देव ! पक्षपात करके कहते हो। फिरकालिदास कहने लगा। हे देव! किसीका वृथा तिरस्कार मतहो। इस वास्ते भुवनेश्वरी देवीके स्थान में जाकर तिसकेपास तिस कविताको अगाडी करके तुमने ताखडीमें संशोधन करना। फिर भोज संपूर्ण कविसमूहके कहने से(निवेदित हुआ) भुवनेश्वरी देवी के स्थान में प्राप्त होकरतहां देवीके समीप भवभूतिके हाथमें ताखडी देकर औरदो लोक तुल्यपत्रों में लिखकर ताखडीमें छोडता गया।फिर भवभूतिका पत्र हलकेपनसे कुछ ऊपरको गयाजानकर भक्तपराधीन देवीने विचारा कि सभामें इस मेरेभक्तका तिरस्कार मत हो इसवास्ते अपने मुकुटकमलकीरेणुको वाये हाथसे ग्रहण कर भवभूतिके पत्रपर गेरती गई।फिर कालिदास कहने लगा॥
अहो मे सौभाग्यं मम च भवभूतेश्च भणितं।
घटायामारोप्य प्रतिफलति तस्यां लघिमनि॥
गिरां देवी सद्यः श्रुतिकलितकल्हारकलिका-।
मधूलीमाधुर्यं क्षिपति परिपूर्त्यै भगवती॥२५१॥
अहो मेरे सौभाग्यको धन्य है जो मेरी और भवभूतिकी कविता ताखडीमें आरोपण करके भवभूतीकी
कविता में हलकापन होतसंते वाणियोंकी देवी भगवतीतात्काल मुकुटमें रक्खी कल्हारकलीकी धूली पूर्णकरनेके वास्ते गेरती गई॥२५१॥
** ततः कालिदासपादयोः पतति भवभूतिः।राजानं च विशेषज्ञं मनुते स्म। ततो राजा भवभूतिकवये शतमत्तगजान् ददौ। अन्यदा राजाधारानगरे रात्रावेकाकी विचरन् कांचन स्वैरिणींसंकेतं गच्छंतीं दृष्ट्वा पप्रच्छ। देवि, का त्वमेकाकिनी मध्यरात्रौ क्व गच्छसीति। ततश्चतुरा स्वैरिणीसा तं रात्रौ विचरंतं श्रीभोजं निश्चित्य प्राह॥**
फिर भवभूति कालिदासके चरणोंमें गिर गया। औरराजाकोभी बहुत जाननेवाला मानता गया। फिर राजाभवभूति कविको सौ (१००) मदोन्मत्त हस्ती देतागया। एक समय राजा धारानगर में अकेला विचरता हुआ किसी स्वैरिणी स्त्रीको संकेत स्थान में जाती हुईकोदेखकर पूंछता गया। कि हे देवी! तू कौन हैं औरअर्धरात्रमें अकेली कहां जाती है। फिर वह चतुरा स्वैरिणी स्त्री रात्रिमें विचरते हुए भोजको निश्चय कर कहने लगी॥
त्वत्तोपि विषमो राजन् विषमेषुः क्षमापते।
शासनं यस्य रुद्राद्या दासवन्मुर्ध्नि कुर्वते॥२५२॥
हे राजन् ! तुह्मारे सेजवर हुकमवाला कामदेव है। हे
पृथ्वीपते ! जिसके हुकमको रुद्र आदि देवताभी दासकीतरह मस्तकपर धारण करते हैं॥२५२॥
** ततस्तुष्ट राजा दोर्दंडादादाय अंगदं वलयं चतस्यै दत्तवान्। सा च यथास्थानं प्राप। ततो वर्त्मनि गच्छन् क्वचिद्गृहे एकाकिनीं रुदतीं नारीं दृष्ट्वा किमर्थमर्धरात्रौ रोदिति किं दुःखमेतस्या इतिविचारयितुमेकमंगरक्षकं प्राहिणोत्। ततोंगरक्षकःपुनरागत्य प्राह। देव मया पृष्टा यदाह तच्छृणु॥**
फिर प्रसन्न हुआ राजा अपनी भुजाओंसे निकालकरबाजूबंद और कंकण तिसको देता गया। वह अपने स्थानको प्राप्त होती गई। फिर मार्गमें चलता हुआ राजाकिसी घर में अकेली रोती हुई स्त्रीको देखकर राजा कहनेलगा, किसवास्ते अर्धरात्र में यह रोती है, इसको क्या दुःखऐसे विचार करता हुआ एक अपने चपडासीको भेजतागया। फिर चपडासी आकर कहने लगा। हे देव !मैंने पूंछी जब जो कहने लगी सो सुन॥
वृद्धो मत्पतिरेष मंचकगतः स्थूणावशेषं गृहं।
कालोयं जलदागमः कुशलिनी वत्सस्य वार्तापि नो॥
यत्नात्संचिततैलबिंदुघटिका भग्नेति पर्याकुला।
दृष्ट्वा गर्भभरालसां निजवधूं श्वश्रूश्चिरं रोदिति॥२५३॥
यह वृद्ध मेरा पति पलंगपर पडा है और घरमें अन्यकोई नहीं और वर्षाऋतुका यह समय और मेरे पुत्रकी
कुशलकी बातभी नहीं आई। सो जतनसे इकठ्ठी करीहुई तेलबूंदकी कूल्हडी (तेलका पात्र) फूट गई इस वास्तेव्याकुल हुई सासू, गर्भभारसे दुःखित हुई अपनी पुत्रवधूको देखकर बहुत रोती है॥२५३॥
** ततः कृपावारिधिः क्षोणीपालः तस्यै लक्षं ददौ।अन्यदा कोंकणदेशवासी विप्रो राज्ञे स्वस्तीत्युक्त्वाप्राह॥**
फिर कृपाको समुद्र राजा तिस स्त्रीको लाख रुपैयेदेता गया। एक समय कोंकण देशका वसनेवाला ब्राह्मणराजाको ‘स्वस्ति’ऐसे आशीर्वाद देकर कहने लगा॥
शुक्तिद्वयपुटे भोज यशोब्धौ तव रोदसी॥
मन्ये तदुद्भवं मुक्ताफलं शीतांशुमंडलम्॥२५४॥
हे राजन् भोज ! तेरे यशरूप समुद्रमें आकाश औरभूमिरूप, जो दो सीपियोंका पुट है तिसमें होनेवालेचंद्रमंडलको मोती मानता हूं॥२५४॥
** राजा तस्मै लक्षं ददौ। अन्यदा काश्मीरदेशात्कोपि कौपीनावशेषो राजनिकटस्थकवीन् कनकमाणिक्यपट्टदुकूलालंकृतान् आलोक्य राजानं प्राह।**
राजा तिसको लाख रुपैये देता गया। एक समयकाश्मीर देशसे कौपीनधारी कोई विद्वान आके सुवर्ण माणिक पाट रेशम से भूपित हुए राजाके पास होनेवालेकवियोंको देखकर राजा को कहने लगा॥
नो पाणी वरकंकणक्वणयतौ नो कर्णयोः कुंडलेक्षुभ्यत्क्षीरधिदुग्धमुग्धमहसी नो वाससी भूषणम्॥दंतस्तंभविकासिका न शिबिका नाश्वोपि विश्वोन्नतोराजन्राजसभासु भाषितकलाकौशल्य मेवास्ति नः॥
हे राजन् ! हमारे श्रेष्ठ कंकणोंके शब्दवाले हाथनहीं और कानों में कुंडल नहीं और दूधके समुद्रसरीखासफेत हमारे वस्त्र नहीं और हाथीदांत के समान प्रकाशवाली हमारे पालकी नहीं \। सबसे ऊंचा घोडा नहीं, परंतु राजसभा में कहने योग्य एक कविता कलाकौशल्यहमारे पास है॥२५५॥
ततस्तस्मै राजा लक्षं ददौ। अन्यदा राजा रात्रौ।चंद्रमंडलं दृष्ट्वा तदंतःस्थकलंकं वर्णयति स्म॥
फिर प्रसन्न हुआ राजा तिसको लाख रुपैये देता गया। एक समय राजा रात्रिको चंद्रमंडल को देखकर तिसके बीच में स्थित कलंकको वर्णन करता गया॥
अंकं केपि शशंकिरे जलनिधेः पंकं परे मेनिरे।
सारंगं कतिचिच्च संजगदिरे भूच्छायमैच्छन्परे॥
चंद्रमामें कोई कलंककी शंका करते हैं, कोई समुद्रकी कींच मानते हैं, कोई सारंग कहते हैं और कितनेकपृथ्वीकी छाया कहते हैं॥
** इति राजा पूर्वार्धं लिखित्वा कालिदासहस्ते ददौ।**
ततस्स तस्मिन्नेव क्षणे उत्तरार्धं लिखति कविः॥
ऐसे राजा पूर्वार्द्ध लिखकर कालिदासके हाथमें देतागया। फिर वह कवि उसी क्षणमें उत्तरार्ध लिखता गया॥
इंदौ यद्दलितेंद्रनीलशकलश्यामं दरीदृश्यते।
तत्सांद्रं निशि पीतमंधतमसं कुक्षिस्थमाचक्ष्महे॥
चंद्रमा में जो दलित इंद्रनील मणिके टुकडे किसी श्यामता दीखती हैं तिसको हम यह कहते हैं कि रात्रि में चंद्रमाने जो सघन अंधकार पिया सो यह वही भान होताहै॥२५६॥
** राजा प्रत्यक्षरं लक्षमुत्तरार्द्धस्य दत्तवान्। ततोराजा कालिदासकवितापद्धतिं वीक्ष्य चमत्कृतःपुनराह। सखे अकलंकं चंद्रमसं व्यावर्णयेति। ततः कविः पठति॥**
राजा उत्तरार्धका अक्षर २ प्रति लाख २ रुपैये देतागया। फिर राजा कालिदासकी कविता पद्धतिको देखकरचमत्कृत हुआ फिर कहने लगा। हे सखे ! कलंकरहितचंद्रमाका वर्णन करो। फिर कवि पढने लगा॥
लक्ष्मीक्रीडातडागो रतिधवलगृहं दर्पणो दिग्वधूनां
पुष्पं श्यामालतायास्त्रिभुवनजयिनो मन्मथस्यातपत्रम्॥
पिंडीभूतं हरस्य स्मितममरधुनीपुंडरीकं मृगांकज्योत्स्ना-
पीयूषवापी जयति सितवृषस्तारकागोलकस्य॥२५७॥
यह चंद्रमा लक्ष्मीके क्रीडाका तालाब है, और रतितिसका सुपेद घर है, दिगरूप वधूओंका सीसा है, श्यामावेलका पुष्प है, त्रिभुवनको जीतनेवाले कामदेवकाछत्र है, महादेवका पिंडीभूत मंदहास है, और आकाशगंगाका कमल है, और अपनी किरणोंको अमृतकी बावडीहै, तारागोलका सुपेद वृषभ है ऐसे (विचित्र) रूपोंसेचंद्रमा उत्कर्षकरके वर्तता है॥२५७॥
** राजा पुनः प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ। एकदा कश्चिद्दूरदेशादागतो वीणाकविराह॥**
राजा फिर अक्षरों प्रति लाख लाख रुपैये देता गया।एक समय कोई दूरदेश से आया हुआ वीणाकवि कहनेलगा॥
तर्कव्याकरणाध्वनीनधिषणो नाहं न साहित्यवि-।
न्नो जानामि विचित्रकाव्यरचनाचातुर्यमत्यद्भुतम्॥
देवी कापि विरिंचिवल्लभसुता पाणिस्थवीणाकल-।
क्वाणाभिन्नरवंतथापि किमपि ब्रूते मुखस्था मम॥
न्याय व्याकरणमार्गमें होनेवाली बुद्धिवाला मैं नहीं हूं।और न साहित्यको जानता और अत्यद्भुत विचित्र काव्यकी रचना मैं नहीं जानता, परंतु कोई ब्रह्माकी प्यारीपुत्री देवी (सरस्वती) मेरे मुखमें स्थित है फिरभी वहहाथ में होनेवाली वीणाका कल (मनोहर) शब्दसरीखा शब्दकहती है॥२५८॥
** राजा तस्मै लक्षं ददौ। बाणस्तस्य सुललितप्रबंधं श्रुत्वा प्राह। देव॥**
राजा तिसको लाख रुपैये देता गया। बाण कवि तिसके सुंदर प्रबंधको सुनकर कहने लगा। हे देव !॥
मातंगीमिव माधुरीं ध्वनिविदो नैव स्पृशंत्युत्तमां।
व्युत्पत्तिं कुलकन्यकामिव रसोन्मत्ता न पश्यन्त्यमी॥
कस्तूरीघनसारसौरभसुहृद्व्युत्पत्तिमाधुर्ययो।
र्योगः कर्णरसायनं सुकृतिनः कस्यापि संपद्यते २५९
ध्वनिको जाननेवाले इस कवितामें मदोन्मत्त हस्तिनीकीतरह माधुरी ध्वनिको नहीं स्पर्श करते हैं, और ये रसोन्मत्त कवि यहां कुलकन्याकी तरह उत्तम व्युत्पत्तिको नहीं देखते हैं। कस्तूरी कर्पूर कैसी सुगंधिवाला और कानों मेंरसायनरूप व्युत्पत्ति और मधुरताका जो संयोग है वहकानोंको रसायन कहा है सो यहां किसी (एकही) सुकृतिकोप्राप्त होता है॥२५९॥
** अन्यदा राजा सीतां प्रातः प्राह। देवि प्रभातंव्यावर्णयेति। सीता प्राह॥**
एक समय राजा सीताको प्रातःकाल कहता गया।हे देवि ! प्रभातका वर्णन कर। सीता कहने लगी॥
विरलविरलाः स्थूलास्ताराः कलाविव सज्जना।
मन इव मुनेस्सर्वत्रैव प्रसन्नमभून्नभः॥
अपसरति च ध्वांतं चित्तात्सतामिव दुर्जनो।
व्रजति च निशा क्षिप्रं लक्ष्मीर्निरुद्यमना इव॥२६०॥
कलियुगमें सज्जनकी तरह कोई कोई मोटा तारादीखता है और मुनिके मनकी तरह सारे आकाश प्रसन्नहो गया। और सज्जनों के चित्तसे दुर्जनकी तरह अंधेरादूर चला गया। निरुद्यमवालेकी लक्ष्मीकी तरह रात्रिजल्दी चली जाती है॥२६०॥
** राजा लक्षं दत्त्वा कालिदासं प्राह। सखे सुकवेत्वमपि प्रभातं व्यावर्णयेति। कालिदासः॥**
राजा लक्ष रुपैये सीताको देकर कालिदासको कहनेलगा। हे सखे हे सुकवे ! तुमभी प्रभातका वर्णन करो।कालिदास कहने लगा॥
अभूत्पिंगा प्राची रसपतिरिव प्राश्य कनकं।
गतच्छायश्चंद्रो बुधजन इव ग्राम्यसदसि॥
क्षणात्क्षीणास्तारा नृपतय इवानुद्यमपरा।
न दीपा राजंते विनयरहितानामिव गुणाः॥२६१॥
पारा जैसे सुवर्णको मिलकर पीला हो जाता है, ऐसेपूर्व दिशा पीली हो गई \। ग्रामीणोंकी (बाहरगांमवालों की)सभा में जैसे पंडित शोभाहीन हो जाता है ऐसे चंद्रमा शोभाहीन हो गया। उद्यमरहित राजा जैसे क्षीण हो जाताहै ऐसे तारे क्षणमात्रमें क्षीण हो गये। और नम्रतारहितों केगुणजैसे प्रकाश नहीं करते हैं ऐसे दीपक प्रकाश नहींकरते हैं॥२६१॥
** राजा तस्मै प्रत्यक्षरलक्षं ददौ। अन्यदा द्वारपा-**
ल आगत्य प्राह। देव कापि मालाकारपत्नी द्वारितिष्ठतीति। राजा प्रवेशयेति। ततः प्रवेशिता साच नमस्कृत्य पठति॥
राजा तिसको अक्षर २ प्रति लाख २ रुपैये देतागया। एकसमय द्वारपाल आकर कहने लगा। हे देव !कोई मालन द्वारपर खडी है। राजाने कहा आने दो।फिर वह मालिन भीतर जाकर नमस्कार करके श्लोक पढने लगी॥
समुन्नतघनस्तनस्तवकचुंबितुंबीफल-।
क्वणन्मधुरवीणया विबुधलोकलोलद्भ्रुवा॥
त्वदीयमपगीयते हरकिरीटकोटिस्फुर-।
त्तुपारकरकंदलीकिरणपूरगौरं यशः॥२६२॥
हे राजन् ! ऊंचे और घन जो गुच्छेरूप मेरे स्तन(कुचा) हैं उनको जिसके तूंबे चुंबते हैं ऐसी मधुर आवाजवाली वीणाकरके अर्थात् छातीके लगाई हुई बीनकरके और स्वर्गलोकवासी जनोंके ऊपर चंचल हुई भ्रुकुटीकरके मेरेसे आपकाही यश गाया जाता है। सो वह आपका यश, महादेवजीके मुकुटके अग्रभागमें रहनेवाले चंद्रमाकी किरणोंके समान भरपूर स्वच्छ गौर है॥२६२॥
** राजा अहो महती पदपद्धतिरिति तस्यै प्रत्यक्षरलक्षं ददौ। अन्यदा रात्रौ राजा धारानगरे विचरन् कस्यचिद्गृहेकामपि कामिनीमुलूखलपरायणां**
ददर्श। राजा तां तरुणीं पूर्णचंद्राननां सुकुमारांगींविलोक्य तत्करस्थं मुसलं प्राह। हे मुसल एतस्याःकरपल्लवस्पर्शेनापि त्वयि किसलयं नासीत् तर्हिसर्वथा काष्टमेव त्वमिति। ततो राजा एकं चरणंपठति स्म॥
राजा कहने लगा अहो इसके पदों की पद्धति बडीऐसे विचार अक्षर २ प्रति तिसको लाख रुपैये देता गया।एकसमय रात्रिको राजा धारानगर में विचरता हुआ किसीके घर में अन्न छडती हुई किसी स्त्रीको देखता गया।राजा जवान और पूर्ण चंद्रमा से मुखवाली और कोमलअंगोंवाली ऐसी तिस स्त्रीको देखकर और तिसके हाथमेंस्थित मूसलको देखकर तिसके प्रति कहने लगा। हेमुसल ! इस स्त्रीका हस्तकमल पत्रका स्पर्श करके भी जो तेरेपीपसी नहीं फूटी तो तूं सर्वथा काष्ठही है। फिर राजाएक चरण पढता गया॥
** मुसल किसलयं ते तत्क्षणाद्यन्न जातम्।**
हे मुसल ! जो तिसी क्षण तेरे पीपसी नहीं उत्पन्न हुई।
ततो राजा प्रातस्सभायां समागतं कालिदासंवीक्ष्य ‘मुसल किसलयं ते तत्क्षणाद्यन्न जातम्’इति पठित्वा सुकवे त्वं चरणत्रयं पठेत्युवाच। ततःकालिदासः प्राह॥
फिर राजा प्रातः काल सभामें आये हुए कालिदासको
देखकर यह पहले कहे श्लोकका चरण पढकर कहने लगाकि हे सुकवे ! तीन चरण तुम पढो। फिर कालिदास कहने लगे॥
जगति विदितमेतत्काष्टमेवासि नूनं।
तदपि च किल सत्यं कानने वर्धितोसि॥
नवकुवलयनेत्रीपाणिसंगोत्सवेस्मिन्।
मुसल किसलयं ते तत्क्षणाद्यन्न जातम्॥२६३॥
हे मुसल ! यह जगत् में विदितही है कि निश्चय तूकाष्ठही है और यहभी निश्चय सत्यही है कि तू वनमेंबढा है। नवकमलसरीखे नेत्रोंवाली स्त्रीके हाथके संगके इस उत्सव में तेरे तिसी क्षण में पीपसी नहीं उत्पन्न हुई॥२६३॥
** ततो राजा चरणत्रयस्य प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ। अन्यदा राजा दीर्घकालं जलकेलिं विधाय परिश्रांतस्तत्तीरस्थवटविटपिच्छायायां निषण्णस्तत्र कश्चित्कविरागत्य प्राह॥**
फिर राजा तीन चरणोंके अक्षर २ प्रति लाख लाखरुपैये देता गया। एक समय बहुतकालतक जलमेंक्रीडा करके थका हुआ राजा तिस सरोवरके तीरपरवटके वृक्ष की छाया में बैठ गया। तहां कोई कवि आकर कहने लगा॥
छन्नं सैन्यरजोभरेण भवतः श्रीभोजदेव क्षमा-।
रक्षादक्षिण दक्षिणक्षितिपतिः प्रेक्ष्यांतरिक्षं क्षणात्॥
निःशंको निरपत्रपो निरनुगो निर्बंधवो निःसुहृ।
न्निःस्त्रीको निरपत्यको निरनुजो निर्हाटको निर्गतः॥
हे भोजदेव ! हे क्षमारक्षामें चतुरं ! तुह्मारी सेनाकीरजके भारकरके आच्छादित आकाशको देखकर दक्षिणदेशका राजा क्षणमात्रमें शंकारहित, लज्जारहित, नौकररहित, बांधवरहित, सुहृदरहित, स्त्रीरहित, संतानरहित, छोटे भाईरहित, सुवर्णरहित, (खजाना रहित) ऐसाहुआ निकल गया॥२६४॥
** किंच-**
अकांडधृतमानसव्यवसितोत्सवैस्सारसै-।
रकांडपटुतांडवैरपि शिखंडिनां मंडलैः॥
दिशस्समवलोकिताः सरसनिर्भरप्रोल्लस-।
द्भवत्पृथुवरूथिनीरजनिभूरजः श्यामलाः॥२६५॥
और कहते हैं। विना अवसर मानस में निश्वय करउत्सववाले सारसोंकरके और विना अवसर सुंदर नांचनेवाले मयूरोंके मंडलोंकरके, रससे भरपूर प्रफुल्लित हुई आपकीबडी भारी सेनाकी, रात्री समान श्यामरूप धूली करकेकाली हुई दिशा देखी जाती हैं अर्थात् उनको मेघ आनेका समय दीखता है॥२६५॥
** ततो राजा लक्षद्वयं ददौ। तदानीमेव तस्य शा-**
खायामेकं काकं रटंतं प्रेक्ष्य कोकिलं चान्यशाखायांकूजंतं वीक्ष्य देवजयनामा कविराह॥
फिर राजा दो लाख रुपैये देता गया। उसी समयतिस वडकी शाखा में बोलते हुए काकको देखकर औरकोयलको दूसरी शाखा में बोलती हुई देखकर देवजय नामा कवि कहने लगा॥
नो चारू चरणौ न चापि चतुरा चंचुर्न वाच्यं वचो।
नो लीला चतुरा गतिर्न च शुचिः पक्षग्रहोयं तव॥
क्रूरकेंकृतिनिर्भरां गिरमिह स्थाने वृथैवोद्गिरन्।
मूर्ख ध्वांक्ष न लज्जसेप्यसदृशं पांडित्यमुन्नाटयन्॥
न तो सुंदर चरण, न चतुर चोंच, न कहने योग्यवचन, और न चतुर लीला, न तेरा सुंदर पक्ष ग्रह। क्रूर क्वां क्वां शब्दसे भरी वाणीको इस जगहपर वृथा कहताहुआ हे मूर्ख काक ! तू बुरा पांडित्य दिखाता हुआलज्जाको प्राप्त नहीं होता है॥२६६॥
** तत एनां देवजयकविना काकमिषेण विरचितांस्वगर्हणां मन्यमानस्तत्स्पर्धालुर्हरिशर्मा नाम कविःकोपेनेर्ष्यापूर्वं प्राह॥**
फिर देवजय कविने कागके मिषसे जो यह वाणी कही इस वाणी से अपनी निंदा मानता हुआ तिसकी स्पर्धाकरता हुआ हरिशर्मा नाम कवि कोपकरके ईर्षापूर्वक कहने लगा॥
तुल्यवर्णच्छदैः कृष्णः कोलिलैस्सह संगतः।
केन व्याख्ययते काकः स्वयं यदि न भाषते॥२६७॥
रंग और पांखकरके कोयलके समान काला औरकोयलोंके साथ मिला हुआ काग जो आप नहीं बोले तोकैसे जाना जावे॥२६७॥
** ततो राजा तयोर्हरिशर्मदेवजययोः अन्योन्यवैरंज्ञात्वा मिथ आलिंगनादिवस्त्रालंकारादिदानेन चमित्रत्वं व्यधात्। अन्यदा राजा यानमारुह्य गच्छन् वर्त्मनि कंचित्तपोनिधिं दृष्ट्वा तं प्राह। भवादृशानां दर्शनं भाग्यायत्तम्। भवतां क्व स्थितिः। भोजनार्थं के वा प्रार्थ्यन्त इति। ततः स राजवचनमाकर्ण्य तपोनिधिराह॥**
फिर राजा तिन हरिशर्म देवजयका आपसमें वैर जानकर आपस में मिलाप करा और वस्त्र आभूषणादि दान देकरमैत्री करता गया। एक समय राजा सवारीमें बैठकर मामें चलता हुआ किसी तपोनिधिको देखकर तिसको कहने लगा। तुम्हारे सरीखोंके दर्शन भाग्यके आधीन है।तुम्हारा रहना कहां। और भोजनके वास्ते किनकी प्रार्थनाकरिये है। फिर वह तपोनिधि राजाके वचनको सुनकरकहने लगा॥
फलं स्वेच्छालभ्यं प्रतिवनमखेदं क्षितिरुहां।
पयः स्थाने स्थाने शिशिरमधुरं पुण्यसरिताम्॥
मृदुस्पर्शा शय्या सुललितलतापल्लवमयी।
सहंते संतापं तदपि धनिनां द्वारि कृपणाः॥२६८॥
हे राजन् ! वनवनमें वृक्षोंके फल विनाही परिश्रम यथेच्छ मिलते हैं और पवित्र नदियोंका शिशिरऋतुसे मधुरहुआ जल जगह जगह मिलता है सुंदर वेलपत्तोंवाली कोमल स्पर्शवाली शय्या है (ऐसे अच्छा निर्वाहभी है) तौभी धनियों के द्वारपर जो कृपणलोग वसते हैं वे दुःख सहतेहैं अर्थात् धन पाके कृपण होना यही दुःख है॥२६८॥
** राजन् वयं कमपि नाभ्यर्थयामः न गृह्णीमश्चेति राजा तुष्टो नमति। तत उत्तरदेशादागत्य कश्चिद्राजानं स्वस्तीत्याह। तं च राजा पृच्छति।विद्वन् कुत्र ते स्थितिरिति। विद्वानाह॥**
हे राजन् ! हम कुछभी याचना नहीं करते न किसीसेकुछ ग्रहण करते ऐसे सुन राजा प्रसन्न हुआ नमस्कारकरता गया। फिर कोई उत्तरदेश से आकर राजाको‘स्वस्ति’ऐसे आशीर्वाद देकर कहने लगा। राजा तिसको पूंछने लगा । हे विद्वन् ! तुम्हारा रहना कहां। विद्वान् कहने लगा॥
यत्रांबु निंदत्यमृतमंत्यजाश्च सुरेश्वराः।
चिंतामणिश्च पापाणास्तत्र नो वसतिः प्रभो॥२६९॥
जहां जल अमृत की निंदा करता है और जहां नीचजातिके लोग इंद्रकी बराबरी करते हैं जहांके पत्थर (पा-
षाण) चिंतामणिकी निंदा करते हैं। हे प्रभो ! मैं तहांवसता हूँ॥२६९॥
** तदा राजा लक्षं दत्त्वा प्राह काशीदेशे का विशेषवार्त्तेति। स आह। देव इदानीं काचिदद्भुतवार्तातत्र लोकमुखेन श्रुता, देवा दुःखेन दीना इति।राजा देवानां कुतो दुःखं विद्वन्। स चाह॥**
तब राजा तिसको लाख रुपैये देकर कहने लगा काशीदेश में क्या विशेष वार्ता है। वह कहने लगा। हे देव! अबतहां कोई अद्भुत वार्ता मनुष्यों के मुखसे सुनी सो यह हैकि देवता दुःखकरके दीन हैं। राजा कहने लगा, कि हेविद्वन् ! देवताओंको क्या दुःख हैं। वह कहने लगा॥
निवासः क्वाद्य नो दत्तो भोजेन कनकाचलः।
इति व्यग्रधियो देवा भोज वार्तेति नूतना॥२७०॥
भोजने कनकाचल दान कर दिया, सो अब हमारानिवास (रहना) कहां होगा अर्थात् भोजने सब सुवर्णदान कर दिया और सुवर्णका जो सुमेरु पर्वत है वहांदेवताओंका वास है, सो इस कारणसे देवताओंकी बुद्धिव्याकुल हो गई। हे भोज! यह नवीन बात है॥२७०॥
** ततो राजा कुतूहलोत्त्या तुष्टः सन् तस्मैपुनर्लक्षं ददौ। ततो द्वारपालः प्राह। देव श्रीशैलादागतः कश्चिद्विद्वान् ब्रह्मचर्यनिष्ठो द्वारि वर्तत इति।राजा प्रवेशयेत्याह। तत आगत्य ब्रह्मचारी चिरं**
जीवेति वदति। राजा तं पृच्छति। ब्रह्मन् बाल्यएव कलिकालानुरूपं किं नाम व्रतं ते। अन्वहमुपवासेन कृशोसि। कस्यचित् ब्राह्मणस्य कन्यांतुभ्यं दापयिष्यामि। त्वं चेद्गृहस्थधर्ममंगीकरिष्यसीति। ब्रह्मचारी प्राह। देव त्वमीश्वरस्त्वयाकिमसाध्यम्॥
फिर आश्चर्यकी उक्ति से प्रसन्न हुआ राजा तिसकोफिर लाख रुपैये देता गया। फिर द्वारपाल कहने लगा।हे देव ! श्रीशैलसे आया हुआ कोई ब्रह्मचर्यनिष्ठ विद्वान्द्वारपर खडा है। राजा कहने लगा भेजो। फिर ब्रह्मचारीआकर ‘चिरंजीव’ ऐसे कहता गया। राजा तिसकोपूंछने लगा। हे ब्रह्मन् ! बालकअवस्थामेंही कलिकालकेअननुरूप अर्थात् कलियुगमें नहीं बनने लायक आपका कौनसा प्रसिद्ध व्रत है। क्योंकि आप दिन २ प्रतिउपवास करके कृश हो रहे हो। किसी ब्राह्मणकी कन्यामैं दिवाऊंगा। जो तुम गृहस्थ धर्मको अंगीकार करोगेतो। ब्रह्मचारी कहने लगा। कि हे देव ! तू ईश्वर है,तुमको कोई बात मुशकिल नहीं॥
सारंगाः सुहृदो गृहं गिरिगुहा शांतिः प्रिया गेहिनी।
वृत्तिर्वह्निलताफलैर्निवसनं श्रेष्ठं तरूणां त्वचः॥
त्वद्ध्यानामृतपूरमग्नमनसां येषामियं निर्वृति-।
स्तेषामिंदुकलावतंसयमिनां मोक्षेपि नो न स्पृहा॥
हे देव ! मेरे मित्र तो पशु पक्षी हैं, और पर्वतकी गुफाघर है, और प्यारी शांति घरवाली है। और अग्नि, फल,वेल, इन्होंकरके मेरी आजीवका है और वृक्षोंका वल्कलश्रेष्ठ वस्त्र है। तेरे ध्यानरूप अमृतपूरसे जिन्होंका मनभरा हुआ प्रसन्न है उन्हों के यही (गृहस्थ सुख) आनंद है।किंतु चंद्रकला है मुकुटमें जिसके ऐसे शिवके नेमवालोंके हमामोक्षमेंभी वांछा नहीं है॥२७१॥
** राजा उत्थाय पादयोः पतति आह च। ब्रह्मन्मया किं कर्त्तव्यमिति। स आह। देव वयं काशींजिगमिषवस्तत एकं विधेहि। ये त्वत्सदने पंडितवराः तान् सर्वानपि सपत्नीकान् काशीं प्रति प्रेषय।ततोहं गोष्टीतृप्तः काशीं गमिष्यामीति। राजा तथाचक्रे। ततस्सर्वे पंडितवरास्तदाज्ञया प्रस्थिताः।कालिदास एको न गच्छति स्म। तदा राजा कालिदासं प्राह। सुकवे त्वं कुतो न गतोसीति। ततःकालिदासोराजानं प्राह। देव सर्वज्ञोसि॥**
राजा उठकर चरणों में गिर गया और कहने लगा।हे ब्रह्मन् ! मैं ने क्या कर्तव्य है। वह कहने लगा। हे देव ! हम काशीजी जानेकी इच्छा करते हैं इसवास्ते एक बातकरो। जो तुम्हारे स्थान में पंडितवर हैं. खीसहित तिनपूर्णांको काशीजी में भेजो। फिर मैं गोष्ठी में तृप्त हुआकाशीजीको जाऊंगी। राजा फिर तैसेही करता गया। फिर
संपूर्ण पंडितवर तिसकी आज्ञाकरके काशीको चल पडे।एक कालिदास नहीं जाता गया। तब राजा कालिदासको कहने लगा। हे सुकवे ! तू किसवास्ते नहीं गया।फिर कालिदास राजाको कहने लगा। हे देव ! तुम तोसर्वज्ञ हो॥
ते यांति तीर्थेषु बुधा ये शंभोरवर्त्तिनः।
यस्य गौरीश्वरश्चित्ते तीर्थं भोज परं हि सः॥२७२॥
हे भोज ! जो पंडित महादेवजीसे दूर रहनेवाले हैंसो तीर्थोंके विषै जाते हैं। और जिसके चित्तमेंही गौरीश्वर है सो आपही परम तीर्थ है॥२७२॥
** ततो विद्वत्सु काशीं गतेषु राजा कदाचित्सभायां कालिदासं पृच्छति स्म। कालिदास अद्यकिमपि श्रुतं किं त्वयेति। स आह॥**
फिर जब विद्वान काशीको चले गये तब कदाचित्राजा सभामें कालिदासको पूंछता गया। कि हे कालिदास ! आज तैंने कुछ सुना क्या। वह कहने लगा।
मेरा मंदकंदरासु हिमवत्सानौ महेंद्राचले।
कैलासस्य शिलातलेषु मलयप्राग्भारभागेष्वपि॥
सह्याद्रावपि तेषु तेषु बहुशो भोज श्रुतं ते मया।
लोकालोकविचारचारणगणैरुद्गीयमानं यशः॥२७३
सुमेरुमें, मंदराचलकी गुफाओंमें, हिमाचलमें, महेंद्रा-
चलमें, कैलासकी शिलाओंमें, मलयाचलके प्राग्भारमें,सह्याद्रिमेंभी हे भोज ! तिन तिनों विषै बहुत वार लोकालोक में फिरनेवाले जो चारणगण हैं तिन्होंकरके गायाहुआ तुह्मारा यश मैंने सुना है॥२७३॥
** ततश्वमत्कृतो राजा प्रत्यक्षरलक्षं ददौ। ततःकदाचिद्राजा विद्वद्वृंदं निर्गतं कालिदासं च अनवरतवेश्यालंपटं ज्ञात्वाप्यचिंतयत्। अहह बाणमयूरप्रभृतयो मदीयामाज्ञां व्यदधुः। अयं च वेश्यालंपटतया ममाज्ञां नाद्रियते किं कुर्म इति। ततोराजा सावज्ञं कालिदासमपश्यत्। तत आत्मनि राज्ञोवज्ञां ज्ञात्वा कालिदासो बल्लालदेशं गत्वातद्देशाधिनाथं प्राप्य प्राह। देव मालवेंद्रस्यभोजस्यावज्ञया त्वद्देशं प्राप्तोहं कालिदासनामकविरिति। ततो राजा तमासने उपवेश्य प्राह। सुकवेभोजसभाया इहागतैः पंडितैस्समुदितः शतशस्तेमहिमा। सुकवे त्वां सरस्वतीं वदंति ततः किमपिपठेति। ततः कालिदास आह॥**
फिर चमत्कृत हुआ राजा अक्षर २ प्रति लाख२रुपैये देता गया। फिर किसी समय में राजा विद्वद्वृन्दकोगया हुआ जानकर और कालिदासको निरंतर वेश्यालंपटजानकर चिंतन करता गया। बडा खेद है, बाण मयूरआदि विद्वान् तो मेरी आज्ञाको मानते गये। और यह
वेश्यालंपट कालिदास मेरी आज्ञा को नहीं मानता गया क्याकरें। फिर राजा कालिदासको कसूरवाला देखता गया। फिरकालिदास अपने में राजाकी करी अवज्ञा मानकर बल्लालदेशको जाकर तिस देशके राजाको प्राप्त होकर कहनेलगा। हे देव ! मालवेन्द्र भोजराजाकी अवज्ञाकरकेतेरे देशको कालिदास नाम मैं कवि प्राप्त हुआ हूँ। फिरराजा तिसको आसनपर बैठायकर कहने लगा। हे सुकवे !भोजसमासे यहां आये हुए जो सैकडों पंडित हैं तिन्होंनेतुम्हारी श्लाघा कह रक्खी है। हे सुकवे ! तेरेको सरस्वतीकहते हैं, इसवास्ते कुछ पढो। फिर कालिदास कहने लगा॥
वल्लालक्षोणिपाल त्वदहितनगरे संचरंती किराती।
कीर्णान्यादाय रत्नान्युरुतरखदिरांगारशंकाकुलांगी॥
क्षिप्त्वा श्रीखंडखंडं तदुपरिमुकुलीभूतनेत्रा धमंती।
श्वासामोदानुपातैर्मधुकरनिकरैर्धूमशंकां बिभर्ति॥
हे बल्लालक्षोणिपाल ! तुह्मारे शत्रुओंके नगर में फिरतीहुई किराती (भीलनी) बिखरे हुए रत्नोंको लेकर फिरचंमके हुए बडे भारी खैरके अंगारोंकी शंका करके (अंगार जानके) व्याकुलअंगवाली हुई तिनके ऊपर चंदनका टुकडा गेरकर नेत्रोंको मींचकर धमती हुई किराती श्वासकी सुगंधकरके आये हुए भौरोंके समूहों करके धूमाकी शंकाकों धारण करती है॥२७४॥
** ततस्तस्मै प्रत्यक्षलक्षं ददौ। ततः कदाचि-**
द्बल्लालराजा कालिदासं पप्रच्छ। सुकवे एकशिलानगरीं व्यावर्णयेति। ततः कविराह॥
फिर तिसको अक्षर २ प्रति राजा लाख २ रुपैये देतागया। फिर किसी समय में बल्लालराजा कालिदासकोपूछता गया। हे सुकवे ! एकशिला नगरीको वर्णन करो।फिर कालिदास कहने लगा॥
अपांगपातैरपदेशपूर्वै-।
रेणीदृशामेकशिलानगर्याम्॥
वीथीषु वीथीषु विनापराधं।
पदे पदे श्रृंखलिता युवानः॥२७५॥
एक शिला नगरीमें मृगसरीखे नेत्रोंवाली स्त्रियोंके तिरस्कारपूर्वक कटाक्षोंकरके गली गलीयों में और पैड पैड़ोंमेंविना अपराध जवान लोग बेडियों में आगये॥२७५॥
** पुनश्च प्रत्यक्षलक्षं ददौ। कविः पुनश्च पठति॥**
फिरभी वह बल्लाल राजा अक्षर २ प्रति लाख२रुपैयेदेता गया। कवि फिर पढने लगा।
अंभोजपत्रायतलोचनाना-।
मंभोधिदीर्घास्विह दीर्घिकासु॥
समागतानां कुटिलैरपांगै-।
रनंगबाणैः प्रहता युवानः॥२७६॥
यहां समुद्रसरीखी बडी भारी बावडीयों में आई हुईकमलपत्रोंसरीखे बडे नेत्रोंवाली स्त्रियोंके कुटिल कटाक्ष-
रूप कामदेवके बाणोंकरके जवान मारे गये॥२७६॥
** पुनश्च बल्लालनृपः प्रत्यक्षलक्षं ददौ। एवंतत्रैव स्थितः कालिदासः। अत्रांतरे धारानगर्यांभोजं प्राप्य द्वारपालः प्राह। देव गुर्जरदेशात् माघनामा पंडितवर आगत्य नगराद्बहिरास्ते। तेन चस्वपत्नी राजद्वारि प्रेषिता। राजा तां प्रवेशयेत्याह।ततो माघपत्नी प्रवेशिता सा राजहस्ते पत्रं प्रायच्छत्। राजा तदादाय वाचयति॥**
फिर बल्लालदेशका राजा अक्षर २ प्रति लाख२ रुपैयेदेता गया। ऐसे तिसी जगह कालिदास स्थित होता गया।इस अवसर में धारानगरीमें भोजको प्राप्त होकर द्वारपालकहने लगा। हे देव ! गुर्जरदेश से माघनामा पंडितवरआकर नगरसे बाहर स्थित हो रहा है। और तिसनेअपनी स्त्री राजद्वारपर भेजी है। राजा कहने लगा कितिसको आने दो। फिर वह मावकी स्त्री वहां जाकरराजाके हाथमें पत्र देती गई। राजा तिसको लेकर वांचता गया॥
कुमुदवनमपश्रिश्रीमदंभोजषंडं।
त्यजति मुदमुलूकः प्रीतिमांश्चक्रवाकः॥
उदयमहिमरश्मिर्याति शीतांशुरस्तं।
हतविधिलसितानां ही विचित्रो विपाकः॥२७७॥
सूर्य उदयको प्राप्त होत संते और चंद्रमा अस्त को प्राप्त
होत संते कुमुदवन की शोभा बिगड गई। और कमलसमूहमें शोभा आ गई। उरलूका आनंद जाता रहा औरचकवा प्रसन्न हो गया (ऐसे) भाग्यहतोंका कर्म फलविचित्रही है॥२७७॥
** इति राजा तद्गतं प्रभातवर्णनमाकर्ण्य लक्षत्रयंदत्त्वा माघपत्नीमाह। मातरिदं भोजनाय दीयतेप्रातरहं माघपंडितम् आगत्य नमस्कृत्य पूर्णमनोरथं करिष्यामीति। ततः सा तदादाय गच्छंती याचकानां सुखात्स्वभर्तुः शारदचंद्रकिरणगौरान् गुणान्श्रुत्वा तेभ्य एव धनमखिलं भोजदत्तं दत्तवती।माघपंडितं स्वभर्तारमासाद्य प्राह। नाथ राज्ञाभोजेनाहं बहु मानिता धनं सर्वंयाचकेभ्यस्त्वद्गुणानाकर्ण्य दत्तवती। माघः प्राह। देवि साधु कृतं परमेते याचकाः समायति किल तेभ्यः किं देयमिति। ततो माघपंडितं वस्त्रावशेषं ज्ञात्वा कोप्यर्थी प्राह॥**
ऐसे राजा तिस पत्र में लिखे प्रभातवर्णनको सुनकरतीन लाख रुपैये माघकी स्त्रीको देकर कहने लगा। किहे मातः ! यह तेरेको भोजन के वास्ते दिये हैं और प्रातःकाल माघ पंडितके पास आकर नमस्कार करके पूर्णमनोरथ करूंगा। फिर वह माघपत्नी जब लेकर चलीऔर याचकों के मुखसे अपने भर्ताके शरदऋतुके चंद्रमाकीकिरणोंकेसे गुण सुने तब सुनकर भोजका दिया हुआ
संपूर्ण धन तिन्होंकोही देती गई। फिर अपने भर्ता माघपंडितको प्राप्त होकर कहने लगी। हे नाथ ! मैं राजाभोजको बहुत मानी (परंतु) तुम्हारे गुण सुनकर संपूर्णधन याचकों को दे दिया, माघ कहने लगा। हे देवि! अच्छाकिया, परंतु ये याचक आते हैं निश्चय इनके वास्ते क्यादेना चाहिये। फिर माघ पंडितको वस्त्रावशेष जानकरकोई याचक कहने लगा॥
आश्वास्य पर्वतकुलं तपनोष्णतप्त-।
मुद्दामदावविधुराणि च काननानि॥
नानानदीनदशतानि च पूरयित्वा।
रिक्तोसि यज्जलद सैव तवोत्तमश्रीः॥२७८॥
हे मेघ ! सूर्य की गरमी से तप्त हुए पर्वतकुलको आश्वासना (धीरज) कराके और वनोंको तेज दावाग्निसे शांतकरके और सैंकडो नद नदियों को पूर्ण करके जो तू रीताहुआ है सोही तेरी उत्तम शोभा है॥२७८॥
** इत्येतदाकर्ण्य माघः स्वपत्नीमाह। देवि॥**
यह सुनकर मात्र अपनी स्त्रीको कहने लगा। हे देवि !॥
अर्था न संति न च मुंचति मां दुराशा।
त्यागे रतिं वहति दुर्ललितं मनो मे॥
याञ्चा च लाघवकरी स्ववधे च पापं।
प्राणाः स्वयं व्रजत किं परिदेवनेन॥२७९॥
मेरे धन नहीं हैं और मेरेको खोटी आशा (तृष्णा) नहीं
त्यागती है और दुर्ललित मेरा मन त्यागमें प्रसन्नताकोप्राप्त होता हैं। और याचना लाघव करनेवाली है औरआप मरनेमें पाप लगता है। इसवास्ते विलाप करके क्याहै। मेरे प्राण आपही चले जावो॥२७९॥
दारिद्र्यानलसंतापश्शांतस्संतोषवारिणा।
याचकाशाविघातांतर्दाहः केनोपशाम्यतीति॥२८॥
दारिद्र्यरूप अग्निसे उत्पन्न हुआ ताप संतोषरूप जलसेशांत हो जाता है। परंतु याचकोंकी आशा भंग करकेजो भीतरका दाह है वह किससे शांत होवे अर्थात् किसीचीजकरकेभी नहीं शांत होवे॥२८०॥
** ततस्तदा माघपंडितस्य तामवस्थां विलोक्यसर्वे याचकाः यथास्थानं जग्मुः। एवं तेषु याचकेषुयथायथं गच्छत्सु माघः प्राह॥**
फिर तब माघ पंडितकी तिस अवस्थाको देखकरसंपूर्ण याचक अपने स्थानमें जाते गये। ऐसे वे याचकअपने अपने स्थानों में जब चले गये तब माघ कहने लगा॥
व्रजत व्रजत प्राणा अर्थिभिर्व्यर्थतां गतैः।
पश्चादपि च गंतव्यं क्वसोर्थः पुनरीदृशः॥२८१॥
प्राणं जाते हैं तो जावो जो याचक व्यर्थ चले गये।क्यों कि फिर इन प्राणोंको जाना तो है ही, फिर ऐसा प्रयोजन कौन है, जिसके वास्ते ये ठहर रहे हैं॥२८३॥
** इति विलपन् माघपंडितः परलोकमगात्।**
** ततो माघपत्नी स्वामिनि परलोकं गते सति प्राह॥**
ऐसे विलाप करता हुआ माघ पंडित परलोकको प्राप्तहोता गया। फिर जब स्वामी परलोक में चले गये तबमाघकी स्त्री कहने लगी॥
सेवंते स्म गृहे यस्य दासवद्भूभुजस्सदा॥
स स्वभार्यासहायोयं म्रियते माघपंडितः॥२८२॥
जिसके घरको राजा सदा दासकी तरह सेवन करतेहैं, अपनी भार्या है सहाय जिसको सो यह माघ पंडितमृत्युको प्राप्त होता है॥२८२॥
** ततो राजा माघं विपन्नं ज्ञात्वा निजनगराद्विप्रशतावृतो मौनी रात्रावेव तत्रागात्। ततो माघपत्नीराजानं वीक्ष्य प्राह। राजन् यतः पंडितवरस्त्वदेशंप्राप्तः परलोकमगात् ततोस्य कृत्यशेषं सम्यगाराधनीयं भवतेति। ततो राजा माघं विपन्नं नर्मदातीरं नीत्वा यथोक्तेन विधिना संस्कारमकरोत् तत्रच माघपत्नी वह्नौ प्रविष्टा। तयोश्च पुत्रवत् सर्वंचक्रे भोजः। ततो माघे दिवं गते राजा शोकाकुलो विशेषेण कालिदासवियोगेन च पंडितानां प्रवासेन कृशोभूद्दिने दिने बहुलपक्षशशीव। ततोमात्यैर्मिलित्वा चिंतितम्। बल्लालदेशे कालिदासोवसति। तस्मिन्नागते राजा सुखी भविष्यतीति !एवं विचार्यामात्यैः पत्रे किमपि लिखित्वा ततः**
पत्रं चैकस्यामात्यस्य हस्ते दत्त्वा प्रेषितम्। स कालक्रमेण कालिदासमासाद्य राज्ञोमात्यैः प्रेषितास्मीति नत्वा तत्पत्रं दत्तवान्। ततस्तत्कालिदासोवाचयति॥
फिर राजा माघको मरा हुआ जानकर सैंकडों बाह्मणोंसे युक्त हुआ मौनी राजा रात्रिकोही तहां आतागया। फिर माघपत्नी राजाको देखकर कहने लगी। हेराजन् ! जिससे पंडितवर तेरे देशको प्राप्त होकर परलोककोप्राप्त होता गया इसलिये इसका कृत्यशेष तुमने अच्छीतरह आराधन करना। फिर राजा मरे हुए माघको नर्मदाके तीर ले जाकर यथोक्त विधिकरके संस्कार करता गया,और तहां माघपत्नीभी अग्निमें प्रविष्ट होती गई। तिन्होंकी संपूर्ण क्रिया भोज राजा पुत्रकी तरह करता गया,अर्थात जैसे पिताकी क्रिया पुत्र करता है तैसे क्रिया करता गया। फिर जब माघ स्वर्गको चला गया तब शोकसेव्याप्त हुआ विशेषकरके कालिदास के वियोगसे औरपंडितोंके प्रवाससे (परदेशमें चले जानेसे) व्याकुल हुआराजा दिन दिनमें ऐसे कृश होता गया मानों कृष्णपक्ष मेंचंद्रमा। फिर मंत्रियोंने आपस में मिलकर सलाह करी। किबल्लालदेशमें कालिदास वसता है। वह आवे तो राजा सुखीहोवे। ऐसे विचारकर मंत्रियोंने पत्र में कुछ लिखकर एकमंत्री के हाथमें पत्र देकर तहां भेज दिया। वह कालक्रम
करके कालिदासको प्राप्त होकर राजाके मंत्रियोंने भेजाहूं ऐसे कहकर कालिदासको नमस्कार करके पत्र देताअया। फिर तिसको कालिदास वांचता गया॥
न भवति भवति न चिरं भवति चिरं चेत्फले विसंवादी।
कोपः सत्पुरुषाणांतुल्यः स्नेहेन नीचानाम्॥२८३॥
सत्पुरुषोंके कोप होता नहीं। जो होवे तो बहुत बारनहीं होता। जो बहुतवार होवे तो उसका फल अच्छाहोता है। इसवास्ते श्रेष्ठोंका कोपभी नीचों के स्नेहके समान होता है॥२८३॥
सहकारे चिरं स्थित्वा सलीलं बालकोकिल।
तं हित्वाद्यान्यवृक्षेषु विचरन्न विलज्जसे॥२८४॥
हे बालकोकिल ! लीलासहित आमके वृक्षपर बहुतठहरकर अब आमको त्यागकर और वृक्षोंपर विचरताहुआ तू लज्जित नहीं होता है क्या॥२८४॥
कलकंठ यथा शोभा सहकारे भवद्गिरः।
खदिरे वा पलाशे वा किं तथा स्याद्विचारयेति॥२८॥
हे सुंदर कंठवाले कोयल ! तेरी वानी की शोभा जैसीआमके वृक्षपर है वैसी खैर और ढाकपर क्या है ? सोऐसे विचार तो कर॥२८५॥
** ततः कालिदासः प्रभाते तं भूपालमापृच्छ्यमालवदेशमागत्य राज्ञः क्रीडोद्याने तस्थौ। ततो राजा च तत्रागतं ज्ञात्वा स्वयं गत्वा महता परिवारेण**
तमानीय संमानितवान्। ततः क्रमेण विद्वन्मंडलेच समायाते सा भोजपरिषत् प्रागिव रेजे। ततःसिंहासनमलंकुर्वाणं भोजं द्वारपाल आगत्य प्रणम्याह। देव कोपि विद्वान् जालंधरदेशादागत्य द्वार्यास्तइति। राजा प्रवेशयेत्याह। स च विद्वानागत्य सभायां तथाविधं राजानं जगन्मान्यान् कालिदासादीन् कविपुंगवान्वीक्ष्य बद्धजिह्वइवाजायत। सभायांकिमपि तस्य मुखान्न निस्सरति। तदा राज्ञोक्तं विद्वन् किमपि पठेति। स आह॥
फिर कालिदास प्रभात में तिस राजाको पूछकर औरमालवदेशमें आकर राजाके बगीचामें स्थित होता गया।फिर राजा तहां आये कालिदासको जानकर बहुतपरिवारसे आप जाकर और लाकर संमान करते गये। फिरकमकरके विद्वन्मंडल आया, पीछे वह भोजकी सभा पहलेकी तरह शोभाको प्राप्त होती गई। फिर सिंहासनपरबैठे राजा भोजको द्वारपाल आकर प्रणाम करके कहनेलगा। हे देव ! कोई विद्वान् जालंधरदेश से आकर बाहरखडा है। राजा कहने लगा आने दो। वह विद्वान् सभामें आकर तैसे बैठे राजाको और कालिदास आदि जगतके मान्य कविश्रेष्ठों को देखकर रुकी जिव्हावालेकीतरह होता गया। सभामें कुछ उसके मुखसे नहीं निकला।
तब राजाने कहा हे विद्वन्! कुछ कहो। वह कहने लगा॥
आरनालगलदाहशंकया।
मन्मुखादपगता सरस्वती॥
तेन वैरिकमलाकचग्रह।
व्यग्रहस्त न कवित्वमस्ति मे॥२८६॥
हे शत्रुओं की राजलक्ष्मी केशों को पकडने में व्यग्र(निरंतर संलग्न) हाथोंवाले भोजराज ! कांजी (खट्टा धान्यविशेष) की शंका करके (तकलीफसे) मेरे मुख से सरस्वती (वाणी) चली गई। इससे मेरे कविता नहीं है॥२८६॥
** राजा तस्मै महिषीशतं ददौ। अन्यदा राजा कौतुकाकुलस्सीतां प्राह। देवि सुरतं पठेति। सीता प्राह॥**
राजा तिस पंडितको सौ भैंस देता गया। एक समयराजा आश्चर्यके वश हुआ सीताको कहने लगा। हे देवि!सुरतको पढो। सीता कहने लगी॥
सुरताय नमस्तस्मै जगदानंदहेतवे।
आनुंपगि फलं यस्य भोजराज भवादृशः॥२८७॥
हे भोजराज ! जगत्के आनंदका हेतु तिस सुरत(मैथुन) को नमस्कार है। जिसका फल तुह्मारे सरीखोंका मिलाप॥२८७॥
** ततस्तुष्टो राजा तस्यै हारं ददौ। राजा ततो चामरग्राहिणीं वेश्यामवलोक्य कालिदासं प्राह। सुकवे वेश्यामेनां वर्णयेति। तामवलोक्य कालिदासः प्राह॥**
फिर प्रसन्न हुआ राजा रानीको हार देता गया !फिर राजा चमर लेनेवाली वेश्याको देखकर कालिदासकोकहने लगा। हे सुकवे ! इस वेश्याका वर्णन करो। तिसको देखकर कालिदास कहने लगा॥
कचभारात्कुचभारः कुचभाराद्भीतिमेति कचभारः।
कचकुचभाराज्जघनंकोऽयं चंद्रानने चमत्कारः॥२८८॥
हे चंद्रसे मुखवाली! यह क्या चमत्कार है कि कचभारसे कुचभार भयको प्राप्त होता है और कुचभारसे कचभार (केशों का भार) भय को प्राप्त होता है और कचकुचभारसे जहन(जांवोंका) तार भयको प्राप्त होता है अर्थात् येसब हिलते हैं सो मानो आपसके भयसे ही कांपते हैं॥२८८॥
** भोजस्तुष्टस्सन् स्वयमपि पठति॥**
फिर प्रसन्न हुआ राजा आपभी पढता गया॥
वदनात्पदयुगलीयं वचनादधरश्चदंतपंक्तिश्च।
कचतः कुचयुगलीयंलोचनयुगलं च मध्यतस्त्रसति॥२८९॥
इसके मुख से यह चरणोंकी जोडी (दोनों चरण)डरते हैं और वचनसे ओंठ तथा दांतोंकी पंक्ति डरती हैऔर केशोंसे ये दोनों कुचा डरती हैं और दोनों नेत्रकटिभागसे (कडिसे) डरते हैं ?॥२८९॥
** अन्यदा भोजो राजा धारानगरे एकाकी विचर-**
न् कस्यचिद्विप्रवरस्य गृहं गत्वा तत्र कांचन पतिव्रतां स्वांके शयानं भर्तारमुद्वहंतींपश्यन् ततः तस्याः शिशुस्सुप्तोत्थितः ज्वालायास्समीपमगच्छत्।इयं च पतिधर्मपरायणा स्वपतिं नोत्थापयामास।ततः शिशुं च वह्नौ पतंतं नागृह्नात्। राजा चाश्चर्यमालोक्यातिष्ठत्। ततस्सा पतिधर्मपरायणा वैश्वानरमप्रार्थयत्। यज्ञेश्वर त्वं सर्वकर्मसाक्षी सर्वधर्मान्जानासि मां पतिधर्मपराधीनां शिशुमगृह्णतीं चजानासि ततो मदीयशिशुमनुगृह्य त्वं मा दहेति। ततःशिशुर्यज्ञेश्वरं प्रविष्य तं च हस्तेन गृहीत्वार्धघटिकापर्यंतं तत्रैवातिष्टत् ततश्चारोदीत् प्रसन्नमुखश्चशिशुः सा च ध्यानारूढातिष्ठत्। ततो यदृच्छयासमुत्थिते भर्तरि सा झटिति शिशुं जग्राह। तं चपरमधर्ममालोक्य विस्मयाविष्टो नृपतिराह। अहोमम भाग्यं कस्यास्ति। यदीदृश्यः पुण्यस्त्रियोपिमन्नगरे वसंतीति। ततः प्रातः सभायामागत्य सिंहासन उपविष्टो राजा कालिदासं प्राह। सुकवे महदाश्चर्यं मया पूर्वेद्यू रात्रौ दृष्टमस्तीत्युक्त्वा राजापठति॥
** **एक समय राजा भोज धारानगर में एकला विचरताहुआ किसी बाह्मणके घरमें जाकर तहां अपनी गोद मेंसोते हुए भर्ताको लिये किसी पतिव्रताको देखता हुआ,
फिर तिसका बालक सोता हुआ उठकर अग्निके पासजाता गया। फिरभी यह पतिधर्ममें तत्पर स्त्री अपनेपतिको नहीं उठाती गई। फिर बालकको अग्रिमें पडतेहुए को नहीं ग्रहण करती गई। राजा आश्चर्यको देखकरठहरता गया। फिर वह पतिधर्म में तत्पर अग्निकी प्रार्थनाकरती गई।हे यज्ञेश्वर ! तू संपूर्ण कर्मों का साक्षी है, संपूर्णधर्मो को जानता है, मैं पतिधर्ममें पराधीन बालकको नहींग्रहण करती हुईको तुम जानो हो, इसवास्ते मेरे बालकपर अनुग्रह करके दग्ध मत कर। फिर बालक यज्ञेश्वरकोप्राप्त होकर तिसको हाथ करके ग्रहण करके आधी घटीपर्यंत तहां ठहरता गया, फिर रोता गया बालक प्रसन्नमुख रहता गया, पतिव्रता ध्यानमें स्थित होती गई। फिरजब स्वभावसे भर्ता उठा तब वह जल्दी बालकको ग्रहणकरती गई। तिस परमधर्मको देखकर आश्चर्ययुक्त राजाकहने लगा। अहो, मेरे केसा भाग्य किसका है। जिससेऐसी पुण्यस्त्री मेरे नगर में वसती है। फिर प्रातःकाल सभामें आकर सिंहासनपर बैठा राजा कालिदासको कहने लगा। हे सुकवे ! मैंने कल रात्रिको बडा आश्चर्य देखाऐसे कहकर राजा पढने लगा॥
** हुताशनश्चंदनपंकशीतल इति॥**
अग्नि चंदनकी कीचकेसा ठंढा हो गया॥
** कालिदासस्ततश्चरणत्रयं झटिति पठति॥**
फिर कालिदास तीन चरण जल्दी से पढता गया॥
सुतं पतंतं प्रसमीक्ष्य पावके।
न बोधयामास पतिं पतिव्रता॥
तदाभवत्तत्पतिभक्तिगौरवात्।
हुताशनश्चंदनपंकशीतलः॥२९०॥
पुत्रको अग्निमें पड़ा हुआ देखकर पतिव्रता स्त्री पतिको नहीं जगाती गई। तिससमय तिसके पतिभक्ति केगौरवसे अग्नि चंदनकी कींच की तरह ठंढी हो गई॥२९०॥
** राजा च स्वाभिप्रायमालोक्य विस्मितस्तमालिंग्य पादयोः पतति स्म। एकदा ग्रीष्मकाले राजाअंतःपुरे विचरन् धर्मतापतप्तः आलिंगनादिकमकुर्वन् ताभिः सह सरससल्ँलापाद्युपाचारमनुभूय तत्रैवसुप्तः। ततः प्रातरुत्थाय राजा सभां प्रविष्टः कुतूहलात् पठति॥**
राजा अपने अभिप्रायको देखकर आश्चर्ययुक्त हुआ,कालिदास से मिलकर चरणोंमें गिर गया। एक समयग्रीष्मकालमें राजा रणवासमें विचरता हुआ धूपकी गरमीसे तप्त हुआ आलिंगन आदि नहीं करता हुआ औररानियोंके साथ सरसवार्ता आदि उपचारके सुखको अनुभव करके वहीं सो गया। फिर प्रातःकाल राजा सभामेंप्रविष्ट हुआ आनंद से पढने लगा॥
** मरुढागमवार्तयापि शून्ये।**
** समये जाग्रति संप्रवृद्ध एव॥**
पवन आनेकी बातभी जहां नहीं ऐसे संप्रवृद्ध समयके प्रबल होनेपर,॥
** भवभूतिराह—**
उरगी शिशवे बुभुक्षवे स्वा-।
मदिशत्फूत्कृतिमाननानिलेन॥२९१॥
भवभूति बोला। सर्पिणी अपने भूखे बालकको मुखकी वायु करके अपनी फुंकार देती गई॥२९१॥
** राजा प्राह। भवभूते लोकोक्तिस्सम्यगुक्तेति।ततोपांगेन राजा कालिदासं पश्यति। ततस्स आह॥**
ऐसे सुन राजा कहने लगा हे भवभूते। लोकोक्तिअच्छी कही। फिर कटाक्षसे राजा कालिदासको देखनेलगा। फिर कालिदास कहने लगा॥
अबलासु विलासिनोन्वभूव।
न्नयनैरेव नवोपगूहनानि॥२९२॥
(ऐसी उस समयपर) विलासी (भोगी) पुरुषकेस्त्रियोंविषे नवीन मिलाप नेत्रोंकरकेही होते गये, अर्थात्विलासी पुरुष स्त्रियोंको नेत्रोंसेही देखके प्रसन्न होते गये।मिलने में गरमी मालूम होती गई॥२९२॥
** तदा राजा स्वाभिप्रायं ज्ञात्वा तुष्टः। कालिदासं विशेषेण सम्मानितवान्। अन्यंदा मृगयापरवशोराजा अत्यंतमार्तः कस्यचित्सरोवरस्य तीरे निबि-**
डच्छायस्य जंबूवृक्षस्य मूलमुपाविशत्। तत्र शयाने राज्ञि जंबोरुपरि बहुभिः कपिभिः जंबूफलानिसर्वाण्यपि चालितानि। तानि सशब्दं पतितानि पश्यन् घटिकामात्रं स्थित्वा श्रमं परिहृत्य उत्थायतुरंगमवरमारुह्य गतः। ततस्सभायां राजा पूर्वानुभूतकपिचलितफलपतनरवमनुकुर्वन् समस्यामाह।‘गुलुगुग्गुलुगुग्गुलु’तत आह कालिदासः॥
फिर राजा अपने अभिप्रायको जानकर प्रसन्न हो गया।और कालिदासको विशेषकरके मानता गया। एक समयशिकार के वशसे अत्यंत आकुल हुआ राजा सरोवर केतीरपर सघन छायावाले जामुनके वृक्षकी जडके पास बैठता गया। जब राजा लेटा (सोया ) तब जामन के ऊपर चढकर बहुतसे वानरोंने टहनी हिलाकर संपूर्ण जामनके फल गिरा दिये। तब तिन फलोंको शब्दसहित पडतेदेखकर एक घडी तहां ठहर खेदको दूर कर फिर उठकर बोडेपर सवार होकर राजा चला गया। फिर सभामेंराजा पहले देखे हुए जामन के फलों के पडनेका अनुकरणकरता हुआ समस्या कहने लगा। (गुलुगुग्गुलुगुग्गुलु)फिर कालिदास कहने लगा॥
जंबूफलानि पक्वानि पतंति विमले जले।
कपिकंपितशाखातो गुलुगुग्गुलुगुग्गुलु॥२९३॥
वानरोंकी कंपाई हुई जामनकी टहनियोंसे पके हुए
जामनके फल सुंदर जलमें पडे। तब शब्द हुआ किगुलुगुग्गुलुगुग्गुलु॥२९३॥
** राजा तुष्ट आह। सुकवे अदृष्टमपि परहृदयंकथं जानासि साक्षाच्छारदासीति मुहुर्मुहुः पादयोःपतति स्म। एकदा धारानगरे प्रच्छन्नवेषो विचरन्कस्यचिद्वृद्धब्राह्मणस्य गृहं राजा मध्याह्नसमये गच्छन् तत्र तिष्ठति स्म। तदा वृद्धविप्रो वैश्वदेवं कृत्वाकाकबलिं गृह्णन् गृहान्निर्गत्य भूमौ जलशुद्धायां निक्षिप्य काकमाह्वयति स्म तत्र हस्तविस्फालनेन हाहेतिशब्देन च काकास्समायाताः। तत्र कश्चित्काकस्तारं रारटीति स्म। तच्छ्रुत्वा तत्पत्नी तरुणी भीतेव हस्तं निजोरसि निधाय अये मातरिति चक्रंद।ततो ब्राह्मणः प्राह। प्रिये साधुशीले किमर्थं विभेषीति। सा प्राह। नाथ मादृशीनां पतिव्रतास्त्रीणांक्रूरध्वनिश्रवणं सह्यं वा। साधुशीले तथा भवेदेवेति विप्र आह। ततो राजा तच्चरितं सर्वं दृष्ट्वा व्यचिंतयत्। अहो इयं तरुणी दुश्शीला नूनम्। यतोनिर्व्याजं विभेति स्वपातिव्रत्यं स्वयमेव कीर्तयतिच। नूनमियं निर्भीता सती अत्यंतं दारुणं कर्मरात्रौ करोत्येव। एवं निश्चित्य राजा तत्रैव रात्रावन्तर्हित एवातिष्ठत्। अथ निशीथे भर्तरि सुप्ते सामांसपेटिकां वेश्याकरेण वाहयित्वा नर्मदातरिमन्नु-**
गच्छत्। राजाप्यात्मानं गोपयित्वानुगच्छति स्म।ततस्सा नर्मदां प्राप्य तत्र समागतानां ग्राहाणां मांसंदत्त्वा नदीं तीर्त्वा अपरतीरस्थेन शूलाग्रारोपितेनस्वमनोरमेण सह रमते स्म। तच्चरित्रं दृष्ट्वा राजा गृहंसमागत्य प्रातस्सभायां कालिदासमालोक्य प्राह।सुकवे शृणु॥
राजा प्रसन्न हुआ कहने लगा। हे सुकवे ! विना देखेपरहृदयको कैसे जानते हो, तुम साक्षात् सरस्वतीकाअवतार हो, ऐसे कहकर वारंवार चरणों में पड़ता गया। एकसमय राजा गुप्तरूप धारण कर धारानगर में विचरता हुआकिसी ब्राह्मणके घर जाकर मध्यान्हसमयमें तहां ठहरतागया। तब वृद्ध ब्राह्मण वैश्वदेव करके काकबलि ग्रहणकरता हुआ घरसे निकल कर शुद्ध भूमिमें जल गेरकरकाकोंको बुलाने लगा। तहां हाथ उठाकर आ आ शब्दकरके काक आ गये। तहां कोई काक ऊंचे शब्दसे रटनेलगा। तिसको सुनकर तिसकी जवान स्त्री डरी हुई की तरहअपनी छातीपर हाथ धरकर अये मा! ऐसे पुकारती गई।फिर ब्राह्मण कहने लगा। हे प्रिये ! हे साधुशीले ! किसवास्ते डरती हो। वह कहने लगी। हे नाथ ! मेरेसरीखेपतिव्रता स्त्रियोंको ऐसा क्रूर शब्द सुनना नहीं सहा जाता,हे साधुशीले ! तैसेही होगा, ऐसे ब्राह्मण कहने लगा।फिर राजा तिसका संपूर्ण चरित देखकर चिंतन करता
गया। अहो यह जवान स्त्री निश्चय खीटी है। जिससेडरनेका मिसकरके अपने पतिव्रत धर्मको आप कीर्तनकरती है। यह निश्चय डरी हुईकी तरह रात्रिको अत्यंतदारुण कर्म करती है। ऐसे निश्चय करके राजा रात्रिकोवहीं ल्हुका हुआ ठहरता गया। जब अर्धरात्रमें भर्तासो गया तब वह वेश्या के हाथ मांसकी पिटारी लेकरनर्मदा के तीरपर जाती गई। राजाभी अपने आपको गुप्तकरके पीछे जाता गया। फिर वह नर्मदाको प्राप्त होकर तहां आये हुए ग्राहोंको मांस देकर नर्मदाको तीरपर शूलों पर आरोपित जो अपना प्रिय तिसकेसाथ रमण करती गई। राजा तिस चरितको देखकर घरआकर प्रातःकाल सभामें कालिदासको देखकर कहनेलगा। हे सुकवे ! सुनो॥
** दिवा काकरुताद्भीता,
ततः कालिदास आह–रात्रौ तरति नर्मदाम्॥
ततस्तुष्टो राजा पुनःप्राह–तत्र संति जले ग्राहाः,
ततः कविराह–मर्मज्ञा सैव सुंदरी॥२९४॥**
दिनमें काकोंके शब्दकरके डरी। फिर कालिदास कहने लगा–रातको नर्मदाको तिरती गई। प्रसन्न हुआ राजाफिर कहने लगा–तहां जलमें ग्राह थे। फिर कवि कहनेलगा–वह सुंदरी मर्मको जाननेवाली है॥२९४॥
** ततो राजा कालिदासस्य पादयोः पतति। एक-**
दा धारानगरे विचरन् वेश्यावीथ्यां राजा कंदुकलीलातत्परां तद्भ्रमणवेगेन पादयोः पतितावतंसांकांचन सुंदरीं दृष्ट्वा सभायामाह। कंदुकं वर्णयंतुकवय इति। तदा भवभूतिराह॥
फिर राजा कालिदास के चरणों में गिर गया। एकसमय धारानगर में विचरता हुआ राजा वेश्याकी गलीमेंजाकर तहां खिन्नूके खेलमें तत्पर और तिसके भ्रमणकेवेगसे पैरोंमें पडी है माला जिसके ऐसी किसी सुंदरीकोदेखकर सभामें कहने लगा। हे कवियो ! खिन्नूका वर्णनकरो। फिर भवभूति कहने लगा॥
विदितं ननु कंदुक ते हृदयं।
प्रमदाधर संगमलुब्ध इव॥
वनिताकरतामरसाभिहतः।
पतितः पतितः पुनरुत्पतसि॥२९५॥
हे खिन्नू ! तेरा हृदय मैंने जान लिया तू स्त्रीके होठ केअमृतके लोभीकी तरह स्त्रीके हाथकमलसे ताडा हुआपड पडकर फिर उठता है॥२९५॥
** ततो वररुचिः प्राह॥**
फिर वररुचि कहने लगा॥
एकोपि त्रय इव भाति कंदुकोयं।
कांतायाः करतलरागरक्तरक्तः॥
भूमौ तच्चरणनखांशुगौरगौरः।
स्वःस्थस्तन्नयनमरीचिनीलनीलः॥२९६॥
एकसी यह खिन्नू तीनोंकी तरह समान हो रहाकि स्त्रीके हाथकी लालीसे लाल लाल भान होता है औरपृथ्वीपर तिसके नखोंकी किरणोंसे गौर गौर ज्ञान होताहै। और स्वःस्थ हुआ (आकाशमें गया हुआ) नेत्रोंकीछायासे नीला नीला भान होता है॥२९६॥
** ततः कालिदास आह॥**
फिर कालिदास कहने लगा॥
पयोधराकारधरो हि कंदुकः।
करेण रोषादभिहन्यते मुहुः॥
इतीव नेत्राकृतिभीतमुत्पलं।
स्त्रियाः प्रसादाय पपात पादयोः॥२९७॥
यह खिन्नू स्त्रीके कुचोंकेसा आकारवाला हैं इसवास्ते क्रोधसे वारंवार ताडियो है फिर नेत्राकारसे डरा हुआकमलभी स्वीकी प्रसन्नता के वास्ते उसके चरणों में पडतागया॥२९७॥
** तदा राजा तुष्टस्त्रयाणामक्षरलक्षं ददौ। विशेषेण चकालिदासमदृष्टावतंसकुसुमपतनबोद्धारं संमानितवान्। ततः कदाचिच्चित्रकर्मावलोकनतत्परो राजाचित्रलिखितं महाशेषं दृष्ट्वा सम्यग्लिखितमित्यवदत्। तदा कश्चिच्छिवशर्मा नाम कविः शेषमिषेण राजानं स्तौति॥**
फिर प्रसन्न हुआ राजा तीनों कवियोंको अक्षर २ प्रतिलाख २ रुपैये देता गया। नहीं देखे हुए शिरके मुकुटके पुष्पोंके पड़नेको जाननेवाले कालिदासको विशेषकरके मानता गया। फिर किसी समय में चित्रकर्म देखने में तत्परराजा चित्र लिखे महाशेषको देखकर अच्छा लिखा हैऐसे कहता गया। फिर कोई शिवशर्मा नाम कवि शेषकामिस करके राजाकी स्तुति करता गया॥
अनेके फणिनस्संति भेकभक्षणतत्पराः॥
एक एव हि शेषोयं धरणीधरणक्षमः॥२९८॥
मेंडक भक्षण तत्पर तो अनेक सर्प हैं परंतु पृथ्वीधारण करने में समर्थ एक शेषही है॥२९८॥
** तदानीं राजा तदभिप्रायं ज्ञात्वा तस्मै लक्षंददौ। कदाचिद्धेमंतकाले समागते ज्वलंतीं हसंतींसंसेवयन् राजा कालिदासं प्राह। सुकवे हसंतींवर्णयेति। ततः सुकविराह॥**
तब राजा तिसका अभिप्राय जानकर तिसको लाखरुपैये देता गया। किसी समय हेमंत कालमें बलती हुईसिगडीको सेवता हुआ राजा कालिदासको कहने लगा।हे सुकवे ! सिगडीका वर्णन करो। फिर सुकवि कहने लगा॥
** कविमतिरिव बहुलोहा सुघटितचक्रा प्रभातवेलेव॥ हरमूर्तिरिवहसंती भाति विधूमानलोपेता॥२९९॥**
कविकी बुद्धिकी तरह बहुलोहा याने बहुत लोहवाली (कविबुद्धिभी बहुलोहा याने बहुत तर्कवाली है),प्रभात वेलाकी तरह सुघटितचक्रा याने सुंदर घटितचक्रवाली (प्रभात वेलाभी सुघटितचक्रा याने संगत हैंचकवा चकवी जिसमें ऐसी है), धूमारहित अभिसे मुक्त,हसंती याने सिगडी (शिवकी मूर्ति भी हसंती याने हास्ययुक्त है) शोभती है॥२९९॥
** राजा अक्षरलक्षं ददौ। एकदा भोजराजोंतर्गृहे भोगार्हास्तुल्यगुणाश्चतस्रो निजांगना अपश्यत्। तासु च कुंतलेश्वरपुत्र्यां पद्मावत्यामृतुस्नानं,अंगराजस्य पुत्र्यां चंद्रमुख्यां क्रमप्राप्तिं, कमलानाम्न्यां च द्यूतपणजयलब्धप्राप्तिं, अग्रमहिष्यां चलीलादेव्यां दूतीप्रेषणमुखेनाह्वानं च एवं चतुरो गुणानें दृष्ट्वा तेषु गुणेषु न्यूनाधिकभावं राजाप्यचिंतयत्। तत्र सर्वत्र दाक्षिण्यनिधी राजराजः श्रीभोजस्तुल्यभावेन द्वित्रिघटिकापर्यंतं विचिंत्य विशेषानवधारणे निद्रां गतः। प्रातश्चोत्थाय कृताह्निकः सभामगात्। तत्र च सिंहासनमलंकुर्वाणः श्रीभोजः सकलविद्वत्कविमंडलमंडनकालिदासमालोक्यसुकवे इमां त्र्यक्षरोनतुरीयचरणां समस्यां शृणुइत्युक्त्वा पठति॥**
** **राजा अक्षर २ प्रति लाख २ रुपैये देता गया। एक
समय भोजराजा रनवासमें भोगके योग्य तुल्य गुणोंवालीऐसी चार अपनी अंगनाओंको देखता गया। तिन्होंकेमध्यमें कुंतलेश्वरकी पुत्री पद्मावतीमें ऋतुस्नान, औरअंगराजकी पुत्री चंद्रमुखी में क्रमप्राप्ति अर्थात् उसकाओसरा, और कमलनाम्नी राणीमें जूवाका जीतना, पट्टराणी लीलादेवी में दूती भेजना करके बुलाना, तिन्होंमेंचार गुण देखकर तिन गुणोंमें न्यून अधिकभाव राजाचिंतन करता गया। तहां चातुर्यका खजाना राजराजश्रीभोज सब रानियोंमें तुल्यभाव करके दो तीन घडी पर्यंतविचार कर विशेष नहीं निश्चय करके निद्राको प्राप्त होगया। प्रातःकाल उठकर नित्य नियम करके सभामेंप्राप्त होता गया। तहां सिंहासन पर बैठा राजा भोजसंपूर्ण विद्वान कवि मंडलका मंडनरूप कालिदासको देखकर हे सुकवे ! तीन अक्षरकम चौथे चरण की समस्याकोसुन, ऐसे कहकर पढने लगा॥
** अप्रतिपत्तिमूढमनसा द्वित्राः स्थिता नाडिकाः॥**
अयुक्तिसे मूढ है मन जिन्होंमें ऐसी दो तीन नाडिका(बडी) विचार में स्थित रही॥
** इति पठित्वा राजा कालिदासमाह। सुकवे एतत्समस्यापूरणं कुर्विति। ततः कालिदासस्तस्य हृदयं करतलामलकवत् प्रपश्यन् त्र्यक्षराधिकचरणत्रयविशिष्टां तां समस्यां पठति। देव॥**
ऐसे पढकर राजा कालिदासको कहने लगा। हे सुकवे !
इस समस्याको पूरण कर। फिर कालिदास राजा के हृदयको हाथमें आवलाकी तरह देख कर तीन अक्षर अधिकतीन चरणयुक्त तिस समस्याको पढने लगा। हे देव !॥
स्नाता तिष्ठति कुंतलेश्वरसुता वारोंगराजस्वसु-।
र्द्यूते रात्रिरियं कृता कमलया देवी प्रसाद्याधुना॥
इत्यंतः पुरसुंदरीजनगुणे न्यूनाधिकं ध्यायता।
देवेनाप्रतिपत्तिमूढमनसा द्वित्राः स्थिता नाडिकाः॥
कुंतलेश्वरकी पुत्री ऋतुसमय में न्हाई हुई है और अंगराजकी पुत्री चंद्रमुखी के क्रमप्राप्ति ओसरावाली है, औरकमलादेवीने जूवामें जीतके यह रात्री अपनी कर ली हैऔर लीलादेवीने दूतीद्वारा बुलवाया इससे वहभी अबप्रसन्न करनी ऐसे रानिवासमें रानियों के गुणोंका न्यूनअधिक भाव विचारते हुए देवने (भोजराजाने) अयुक्तिसे मूढ है चित्त जिन्हों में ऐसी दो तीन घडी विचारमेंस्थित रही (वदीत गई)॥३००॥
तदा राजा स्वहृदयमेव ज्ञातवतः कालिदासस्य पादयोः पतति स्म। कविमंडलं च चमत्कृतमजायत। एकदा राजा धारानगरे विचरन् क्वचित्पूर्णकुंभं धृत्वा समायांतींपूर्णचंद्राननां कांचिद्दृष्ट्वातत्कुंभजले शब्दं च कंचन श्रुत्वा नूनमेव तस्याःकंठग्रहेऽयं घटो रतिकूजितमिव कूजतीति मन्यमानःसभायां कालिदासं प्राह॥
फिर राजा अपने अभिप्रायको जानते हुए कालिदासकेचरणों में पडता गया। और कविमंडल चमत्कृत होतागया। एक समय राजा धारानगर में विचरता हुआ किसीजगह भरा हुआ घडा लिये आती हुई पूर्णचंद्रकेसा मुखवाली किसी स्त्रीको ‘देखकर और तिसके घडेके जलमें कोईशब्द सुनकर विचारा निश्वय यह स्त्री घटका कंठ पकड़रही है, यह घट रतिकूजितकी तरह शब्द करता है ऐसेमानता हुआ राजा सभामें कालिदासके प्रति कहने लगा।
** कूजितं रतिकूजितमिति॥**
कूजित जो है रतिकूजित होता है।
** कविराह–**
विदग्धे सुमुखे रक्ते नितंबोपरि संस्थिते।
कामिन्याश्लिष्टसुगले कूजितं रतिकूजितम्॥३०१॥
कवि कहने लगा। सुंदर पका हुआ, सुंदर मुखवाला,रक्त वर्णवाला, कटिके ऊपर स्थित, स्त्रीने पकडा सुंदर गलजिसका ऐसे घडेका शब्द रतिकूजित अर्थात् मैथुनसमयके शब्दकी तरह होता है॥३०१॥
तदा तुष्टो राजा प्रत्यक्षरलक्षं ददौ ननाम च। एकदा नर्मदायां महाहदे जालकैरेकः शिलाखंड ईषदुभ्रंशिताक्षरः कश्चिदृष्टः तैश्च परिचिंतितम्। इदमत्रलिखितमिव किंचिद्भाति नूनमिदं राजनिकटं नेयमिति बुद्ध्या भोजसदसि समानीतम्। तदाकर्ण्य
भोजः प्राह। पूर्वं भगवता हनूमता श्रीमद्रामायणंकृतं तदत्र ह्रदे नूतनैः प्रक्षेपितमिति श्रुतमस्ति।ततः किमिदं लिखितमित्यवश्यं विचार्यमिति लिपिज्ञानं कार्यं जतुपरीक्षयाक्षराणि परिज्ञाय पठति।तत्र चरणद्वयमानुपूर्व्याल्लब्धम्॥
फिर प्रसन्न हुआ राजा अक्षर २ प्रति लाख २ रुपैयेदेता गया और नमस्कार करता गया। एक समय नर्मदाके महाकुंडमें जालकों (जाली खोदने वाले कारीगरों) नेंकुछ बिगडे हैं अक्षर जिसके ऐसा शिलाका कोई टुकडादेखा तिन्होंने चिंतन किया कि यह यहां कुछ लिखितकी तरह भान होता है निश्चय यह राजाके पास ले जाना योग्य है, ऐसे विचार कर वह भोजराजाकी सभा मेंप्राप्त कर दिया। सो सुनकर भोज कहने लगा। पहलेभगवान् हनुमानजीने श्रीमद्रामायण किया है, वह यहाँकुंडविषै नवीनोंने गेर दिया ऐसे सुना है। फिर यह क्यालिखा है ऐसे अवश्य विचारना, ऐसे लिखितका ज्ञानकरना कि लाखकी परीक्षा करके अक्षरोंको जानकरपढने लगा। तहां दो चरण आनुपूर्वी से लब्ध हुए॥
अयि खलु विषमः पुराकृतानां।
भवति हि जंतुषु कर्मणां विपाकः॥
अयि मित्र ! पहले किये कर्मोंका फल जीवोंके निश्वय विषम है॥
** ततो भोजः प्राह। एतस्य पूर्वार्धं कथ्यतामिति।तदा भवभूतिराह॥**
फिर भोज कहने लगा। इसका पूर्वार्द्ध कहो। तबभवभूति कहने लगा॥
क्व नु कुलमकलंकमायताक्ष्याः।
क्व नु रजनीचरसंगमापवादः॥३०२॥
बडे नेत्रोंवाली सुंदर स्त्रीका कलंकरहित कुल कहां,फिर राक्षसजनोंके संगका अपवाद कहां॥ ३०२॥
** ततो भोजस्तत्र ध्वनिदोषं मन्वानस्तदेव पूर्वार्धमन्यथा पठति स्म॥**
फिर तहां ध्वनिदोष मानता हुआ भोज राजा तिसीपूर्वार्धको और तरह पढता भया॥
क्व जनकतनया के रामजाया।
क्वदशकंधरमंदिरे निवासः॥(३०२)॥
कहां जनकपुत्री और कहां रघुनाथजीकी स्त्री औरकहां रावणके मंदिरमें निवास॥(३०२)॥
** अयि खलु ०–० विपाकः। ततो भोजः कालिदासंप्राह। सुकवे त्वमपि कविहृदयं पठेति। स आह॥**
आगे वही पूर्व कहा उत्तरार्द्ध। अयि०। फिर भोजकालिदासको कहने लगा। हे सुकवे ! तुमभी कविकेहृदय को पढी। कालिदास कहने लगा।
शिवशिरसि शिरांसि यानि रेजुः।
शिव शिव तानि लुठति गृभ्रपादैः॥३०३॥
बडा खेद है ! बडा खेद है!! कि जौनसे रावणके शिरमहादेवजीके मस्तकपर शोभाको प्राप्त होते गये सोअब गिद्धोंके पावों करके गुरड़ते फिरते हैं॥३०३॥
** अयि खलु ०–० विपाकः। ततस्तस्य शिलाखंडस्य पूर्वपुटे जतुशोधनेन कालिदासः पठति। तमेवदृष्ट्वा राजा भृशं तुतोष। कदाचिद्भोजेन विलासार्थंनूतनगृहांतरं निर्मितम्। तत्र गृहांतरे गृहप्रवेशात्पूर्वमेकः कश्चिद्ब्रह्मराक्षसः प्रविष्टः। स च रात्रौ तत्रये वसंति तान् भक्षयति। ततो मांत्रिकान् समाहूयतदुच्चाटनाय राजा यतते स्म। स च आगच्छन्नेवमांत्रिकानेव भक्षयति। किं च स्वयं कवित्वादिकंपूर्वाभ्यस्तमेव पठन् तिष्ठति। एवं स्थिते तत्रैवरक्षसि राजा कथमस्य निवृत्तिरिति व्यचिंतयत्।तदा कालिदासः प्राह। देव नूनमयं राक्षसः सकलशास्त्रप्रवीणस्सुकविश्व भाति। अतस्तमेव तोषयित्वा कार्य साधयामि। मांत्रिकास्तिष्ठतु मम मंत्रपश्येत्युक्त्वा स्वयं तत्र रात्रौ गत्वा शेते स्म। ततःप्रथमय मे ब्रह्मराक्षसः समागतः। स च पूर्वं पुरुषंदृष्ट्वा प्रतियाममेकैकां समस्यां पाणिनिसूत्रमेव पठति। येनोत्तरं तद्धृदयंगतं नोक्तमयं न ब्राह्मणोऽतो हंतव्य इति निश्वित्य हंति। तदानीमपि पूर्ववदयमपूर्वःपुरुषः अतो मया समस्या पठनीया न चेद्वक्ति सदृ-**
शमुत्तरं तस्याः तदा हंतव्य इति बुद्धया पठति॥
फिर उत्तरार्द्ध वही कहना। फिर तिस शिलाके खंडकेपूर्वपुटमें लाखसे शोधन करके कालिदास पढने लगा।तब तहां कालिदासकाही किया पूर्वार्द्ध देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। किसी समय भोजने विलासके वास्तेनवीन कोई घर रचा। तहां घर के भीतर गृहप्रवेश से पहले कोई ब्रह्मराक्षस प्रविष्ट हो गया। रातको तहां कोईवास करे उसको वह भक्षण कर लेवे। फिर मंत्र जानने वालोंको बुलाकर उसके उच्चाटन के वास्ते राजा यतनकरता गया। वह ब्रह्मराक्षस आते हुएही मांत्रिकों कोभक्षण करता गया। और पहेले अभ्यास किया कवित्व आदि पढता हुआ ठहरता गया। ऐसे स्थित होतसंते वहीं राजा ऐसे चिंतन करता गया कि इसकी निवृत्ति कैसे होवे। फिर कालिदास कहने लगा। हे देव!निश्चय यह राक्षस संपूर्ण शास्त्रप्रवीण सुकवि भान होताहै \। इस वास्ते इसी को प्रसन्न करके कार्य सिद्ध करूंगा।मांत्रिक ठहरे। मेरे मंत्र को देखो ऐसे कहकर आप तहांजाकर रात्रिको सोता गया। फिर पहिले पहिले प्रहरमें ब्रह्मराक्षस आया वह पहले पुरुषको देखकर प्रहर २प्रति एक एक समस्या पाणिनिसूत्रवाली पढता गया।जिसने तिसके हृदयका उत्तर नहीं कहा तहां यह विचारकर कि यह ब्राह्मण नहीं इसवास्ते मारना ऐसे निश्चय
करके मार देता गया। तिस समय में भी पूर्वकी तरह यहअपूर्व पुरुष है इसवास्ते मैंने समस्या पढनी, जो तिसकायथार्थ उत्तर नहीं करे तो मार देना, यह विचार करसमस्या पढी॥
** सर्वस्य द्वे–इति॥**
संपूर्ण के दो वस्तु हैं॥
** तदा कालिदासः प्राह॥**
फिर कालिदासने कहा॥
** सुमतिकुमती संपदापत्तिहेतू॥**
सुमति, कुमति ये दो वस्तु संपत् और विपत्का कारण है॥
** ततस्स गतः। पुनरपि द्वितीययामे समागत्य पठति॥**
फिर वह सुन चला गया। फिर दूसरे प्रहरमें आकर पढने लग़ा॥
** वृद्धो यूना–इति॥**
वृद्धपुरुष, जवानके साथ॥
** तदा कविराह॥**
फिर कवि कहने लगा॥
** सह परिचयात्त्यज्यते कामिनीभिः, इति॥**
परिचय होनेसे स्त्रियोंकरके त्याग दिया जाता है॥
** तृतीययामे स राक्षसः पुनस्समागत्य पठति॥**
तीसरे प्रहरमें आकर वह राक्षस फिर पढने लगा।
** एको गोत्रे–इति॥**
गोत्रमें मुख्य॥
** ततः कविराह॥**
फिर कवि कहने लगा॥
** स भवति पुमान् यः कुटुंबं बिभर्ति॥**
सो पुरुष है जो कुटुम्बको धारण करे॥
** ततश्चतुर्थयामे आगत्य स राक्षसः पठति॥**
फिर चौथे प्रहरमें आकर वह राक्षस पढने लगा॥
** स्त्री पुंवच्च–इति॥**
स्त्री पुरुषकी तरह॥
** ततः कविराह॥**
फिर कवि कहने लगा॥
** प्रभवति यदा तद्धि गेहं विनष्टम्, इति॥३०४॥**
जब प्रभु हो जाती है तब वह घर नष्ट होता है॥
** ततस्स राक्षसो यामचतुष्टयेपि स्वाभिप्रायमेवज्ञात्वा तुष्टः प्रभातसमये समागत्य तमाश्लिष्यप्राह। सुमते, तुष्टोस्मि किं तवाभीष्टमिति। कालिदासः प्राह। भगवन्नेरद्गृहं विहायान्यत्र गंतव्यमिति।सोपि तथेति गतः। अनंतरं तुष्टो भोजः कविं बहुमानितवान्। एकदा सिंहासनमलंकुर्वाणे श्रीभोजे सकलभूपालशिरोमणौ द्वारपाल आगत्य प्राह। देव द-**
क्षिणदेशात्कोपि मल्लिनाथनामा कविः कौपीनावशेषो द्वारि वर्तते। राजा प्रवेशयेत्याह। ततः कविरागत्य स्वस्तीत्युक्त्वा तदाज्ञया चोपविष्टः पठति॥
फिर वह राक्षस चारों प्रहरोंमें अपना अभिप्राय जानकर प्रसन्न हुआ प्रातःकाल आकर कालिदास से मिलकरकहने लगा। हे सुमते ! मैं प्रसन्न हो गया क्या तुह्मारावांछित है? कालिदास कहने लगा। हे भगवन् ! इसघरको छोडकर और जगह चले जाओ। वह मानकरचला गया। प्रसन्न हुआ भोज कवि कालिदासकोबहुत मानता गया। एक समय संपूर्ण राजाओं में शिरोमणि श्रीभोजराजा सिंहासनपर बैठा हुआ था, तब द्वारपाल आकर कहने लगा। हे देव ! दक्षिणदेशसे कोई मल्लिनाथ कवि कौपीनावशेष द्वारपर खडा है। राजा कहनेलगा भेजो। फिर कवि आकर और ‘स्वस्ति’ऐसेआशीर्वाद देकर तिसकी आज्ञासे बैठकर पढने लगा॥
नागो भाति मदेन खं जलधरैः पूर्णेदुना शर्वरी।
शीलेन प्रमदा जवेन तुरगो नित्योत्सवैर्मंदिरम्॥
वाणी व्याकरणेन हंसमिथुनैर्नद्यः सभा पंडितैः।
सत्पुत्रेण कुलं त्वया वसुमती लोकत्रयं भानुना॥३०५॥
हस्ती मदकरके शोभाको प्राप्त होता है, आकाश मेघोंकरके, रात्रि पूर्णचंद्रमा करके, स्त्री शीलकरके, घोडा वेगकरके, मंदिर नित्य उत्सवों करके, वाणी व्याकरणकरके,
नदी हंसोंके जोडाकरके, सभा पंडितोंकरके, कुल सत्पुत्रकरके, हे राजन् ! पृथ्वी तुम्हारेकरके, तीनों लोकसूर्यनारायणकरके शोभाको प्राप्त होते हैं॥३०५॥
** ततो राजा प्राह। विद्वन् तवोद्देश्यं किमिति।ततः कविराह॥**
फिर राजा कहने लगा। हे विद्वन् ! तुम्हारा उद्देश्यक्या है? फिर कवि कहने लगा॥
अंबा कुप्यति न मया न स्नुषया सापि नांबया न मया।
अहमपि न तया न तयावद राजन् कस्य दोषोयम्॥
मेरी माता क्रोध करती है कुछ मेरेसे नहीं, और कुछपुत्रवधूसे भी नहीं, वह पुत्रवधूभी क्रोध करती है मेरे से नहींऔर मातासे भी नहीं, और मैं भी क्रोध करता हूं तिसमातासे नहीं, और तिस पुत्रवधूसेभी नहीं, सो हे राजन् !कहो किसका दोष है ?॥३०६॥
** इति। राजा च दारिद्र्यदोषं ज्ञात्वा कविं पूर्णमनोरथं चक्रे। एकदा द्वारपाल आगत्य राजानंप्राह। देव कविशेखरो नाम महाकविर्द्वारि वर्तते।राजा प्रवेशयेत्याह। ततः कविरागत्य स्वस्तीत्युक्त्वा पठति॥**
राजा दारिद्र्यदोष जानकर कविको पूर्णमनोरथ करता गया। एक समय द्वारपाल आकर राजाको कहनेलगा। हे देव ! कविशेखर नाम महाकवि द्वारपर स्थित
है! राजा कहने लगा भेजो। फिर कवि आकर ‘स्वस्ति’ऐसे आशीर्वाद देकर पढने लगा॥
राजन् दौवारिकादेव प्राप्तवानस्मि वारणम्॥
मदवारणमिच्छामि त्वत्तोहं जगतीपते॥३०७॥
हे राजन्! वारण (हाथी, या वर्जने) को तो मैं द्वारपालसेहीप्राप्त हो गया हूं। हे जगतीपते ! अब मदवारण (मत्त हस्तीया मेरा अवर्जन) की इच्छा तुमसे मैं करता हूं॥३०७॥
** तदा प्राङ्मुखस्तिष्ठन् राजातिसंतुष्टः तं प्राग्देशं सर्वं कवये दत्तं मत्वा दक्षिणाभिमुखोभूत्। ततःकविश्चिंतयति किमिदं राजा मुखं परावृत्य मां नपश्यतीति। ततो दक्षिणदेशे समागत्याभिमुखःकविः पठति॥**
फिर प्राङ्मुख राजा ठहरता हुआ अतिप्रसन्न हुआतिसको प्राग्देश (पूर्वदेश) संपूर्ण कविको दिया हुआ मानकरदक्षिणके सन्मुख होता गया। फिर कवि चिंतन करनेलगा यह क्या बात है राजा मुख फेरकर मेरेकोनहीं देखता है। फिर दक्षिणदेशमें आकर सन्मुख हुआकवि पढने लगा।
अपूर्वेयं धनुर्विद्या भवता शिक्षिता कथम्।
मार्गणौघस्समायाति गुणो याति दिगंतरम्॥३०८॥
हे राजन् ! यह अपूर्व धनुर्विद्या तुमने कहांसे सीखी जो बाणों का समूह तो आवे और ज्या आकाशको जावे॥३०८॥
** ततो राजा दक्षिणदेशमपि मनसा कवये दत्त्वास्वयं प्रत्यङ्मुखोभूत्। कविस्तत्रागत्य प्राह॥**
फिर राजा दक्षिणदेशको मनसे कविको दिया हुआमानकर आप पश्चिममुख होकर ठहरता गया। कवितहां आकर कहने लगा॥
सर्वज्ञ इति लोकोयं भवंतं भाषते मृषा।
पदमेकं न जानीषे वक्तुं नास्तीति याचके॥३०९॥
हे राजन् ! यह लोग जो तुम्हारेको सर्वज्ञ कहते हैंसो झूठ बोलते हैं, क्योंकि जिससे याचकके आगे ‘नहीं’यह पद तो कहना नहीं जानते हो॥३०९॥
** ततो राजा तमपि देशं कवेर्दत्तं मत्वा उदङ्मुखोभूत्। कविस्तत्रापि आगत्य प्राह॥**
फिर राजा तिस देशकोभी कविको दिया हुआ मानकर उत्तरकी तरफ मुख करके स्थित होता गया। फिरकवि तहां आकर कहने लगा।
सर्वदा सर्वदोसीति मिथ्या त्वं कथ्यसे बुधैः।
नारयो लेभिरे पृष्टं न वक्षः परयोषितः॥३१०॥
हे राजन् ! जो तुमको मनुष्य कहते हैं कि संपूर्णकालमें तुम संपूर्ण वस्तुओंके देनेवाले हो यह झूठी बातहै क्योंकि शत्रु तुम्हारी पीठको नहीं प्राप्त होता और परस्त्री तुम्हारी छातीको नहीं प्राप्त होती है॥३१०॥
** ततो राजा स्वां भूमिं कविदत्तां मत्वा उत्तिष्ठति**
स्म। कविश्च तदभिप्रायमज्ञात्वा पुनराह॥
फिर राजा अपनी भूमिको कविको दई हुई मानकर उठता गया। कवि तिस राजाके अभिप्रायको नहींजानकर फिर कहने लगा॥
राजन्कनकधाराभिस्त्वयि सर्वत्र वर्षति।
अभाग्यच्छत्रसंछन्ने मयि नायंति बिन्दवः॥३११॥
हे राजन् ! सुवर्णकी धाराओंकरके तुम्हारे सारे वर्षाकरते हुए अभाग्यरूप छत्रसे आच्छादित जो मैं हूं मेरेविषे बिंदु नहीं आती है॥३११॥
** तदा राजा चांतःपुरं गत्वा लीलादेवीं प्राह। देवि सर्वं राज्यं कवये दत्तं ततस्तपोवनं मया सहागच्छेति। अस्मिन्नवसरे विद्वान्द्वारि निर्गतः बुद्धिसागरेण वृद्धामात्येन पृष्टः। विद्वन् राज्ञा किं दत्तमिति। स आह। न किमपीति। तदामात्यः प्राहतत्रोक्तं श्लोकं पठं। ततः कविः श्लोकचतुष्टयंपठति। अमात्यस्ततः प्राह। सुकवे तव कोटिद्रव्यं दीयते परं राज्ञा यदत्र तव दत्तं भवति तत्पुनर्विक्रीयतामिति। कविस्तथा करोति। ततःकोटिद्रव्यं दत्त्वा कविं प्रेषयित्वा अमात्यो राजनिकटमागत्य तिष्ठति स्म। तदा राजा च तमाह।बुद्धिसागर राज्यमिदं सर्वं दत्तं कवये पत्नीभिः सह तपोवनं गच्छामि। तत्र तपोवने तवापेक्षा यदि**
मया सहागच्छेति। ततोमात्यः प्राह। देव तेन कविना कोटिद्रव्यमूल्येन राज्यमिदं विक्रीतम्। कोटिद्रव्यं च विदुषे दत्तमतो राज्यं भवदीयमेव भुंक्ष्वेति। तदा राजा च बुद्धिसागरं विशेषेण सम्मानितवान्। अन्यदा राजा मृगयारसेनाटवीमटन्ललाटं तपे तपने द्यूनदेहः पिपासापर्याकुलस्तुरगमारुह्य उदकार्थी निकटतटभुवमटन् तदलब्ध्वा परिश्रांतः कस्यचिन्महातरोरधस्तादुपविष्टः। तत्रकाचिद्वोपकन्या सुकुमारमनोज्ञसर्वांगा यदृच्छयाधारानगरं प्रति तकं विक्रेतुकामा तक्रभाण्डं चोद्रहंती समागच्छति। तां आगच्छन्तीं दृष्ट्वा राजापिपासावशादेतद्भांडस्थं पेयं चेत् पिबामीति बुद्ध्यापृच्छत्, तरुणि किमावहसीति। सा च तन्मुखश्रिया भोजं मत्वा तत्पिपासां च ज्ञात्वा तन्मुखावलोकनवशाच्छंदोरूपेणाह॥
फिर राजा रानिवासमें जाकर लीलादेवीको कहने लगा।हे देवि ! संपूर्ण राज्य कविको दे दिया, इसवास्ते तू तपोवनमें मेरे साथ आ। इसी अवसर में वह विद्वान द्वारपरआ गया। फिर बुद्धिसागर नाम बडे दीवानने पूंछा।हे विद्वन्! राजाने क्या दिया। वह कहने लगा। कुछ भीनहीं दिया। फिर मंत्री कहने लगा तहां कहा हुआश्लोक पढ। फिर कविने चारों श्लोक पढे। फिर मंत्री
कहने लगा। कि हे सुकवे ! तेरेको कोटि द्रव्य दियाहैपरंतु राजाने जो तेरेको यहां दिया है बेचा चाहो तोफिर उसको बेच दो। कवि तैसेही करता गया। फिरकोटि द्रव्य देकर कविको भेजकर मंत्री राजाके पासआकर स्थित होता गया। तब राजा तिस बुद्धिसागरकोकहने लगा। कि हे बुद्धिसागर ! यह संपूर्ण राज्य कविको दे दिया मैं रानियोंसहित तपोवनमें जाता हूं। तहांतपोवन में जो तेरी अपेक्षा है तो मेरे साथ आवो। फिरमंत्री कहने लगा। हे देव ! तिस कविने कोटिद्रव्य मूल्यलेकर यह राज्य बेच दिया। कोटिद्रव्य विद्वान्को देदिया इस वास्ते राज्य तुम्हाराही है भोगो। तब राजा बुद्धिसागरको विशेषकरके मानता गया। एक समय राजाशिकारका सौक (व्यसन) करके वनमें फिरता हुआ जबसूर्य मस्तकपर आ गया तब प्याससे व्याकुल हुआ घोडेपर चढकर जलके वास्ते पृथ्वीपर फिरता गया, जल नहींमिलनेसे थक गया, किसी बड़े वृक्षके नीचे बैठ गया। तहांकोमल सुंदर संपूर्ण अंगोंवाली कोई गोपकन्या स्वभावसेधारानगर में छाछ बेचनेके वास्ते छाछका घडा लियेआई। तिसको आती हुई देख राजाने प्यासके वशसेविचार किया कि जो इस पात्रमें पीने के योग्य वस्तु होतो पीऊं, बुद्धिसे पूछने लगा कि हे तरुणि ! इसमें क्या है।वह गोपकन्या मुखकी शोभाकर के भोजको मानकर और
राजाके प्यासभी जानकर तिसका मुख देखनेके वशसेछंदोरूप करके कहने लगी॥
हिमकुंदशशिप्रभशंखनिभं।
परिपक्वकपित्थसुगंधरसम्॥
युवतीकरपल्लवनिर्मथितं।
पिब हे नृपराज रुजापहरम्॥३१२॥
हे नृपराज ! बरफ, कुंद, चंद्रमा, इन्होंकेसी सफेदक्रांतिवाला और शंखकेसी कांतिवाला और पके हुए कैथकेसा सुगंधित रसवाला और जवान स्त्रीके हाथकमलसेमंथा हुआ रोगको शांत करनेवाला ऐसा पदार्थ पीवो॥३१२॥
** इति। राजा तच्च तक्रंपीत्वा तुष्टः तां प्राह। सुभ्रूः किं तवाभीष्टमिति। सा च किंचिदाविष्कृतयौवनामदपरवशा मोहाकुलनयना प्राह। देव मां कन्यामेवावेहि। सा पुनराह॥**
ऐसे राजा तिस छाछको पीकर प्रसन्न हुआ तिसकोकहने लगा। हे सुंदर कुटियोंवाली ! तेरा क्या मनोरथहै। फिर कुछ प्रकट हुआ है यौवन जिसका और मोहसेव्याकुल हैं नेत्र जिसके ऐसी मदके वशसे वह कहने लगी।हे देव ! मेरेको कन्याही जानो। फिर वह कहने लगी।
इंदु कैरविणीव कोकपटलीवांभोजिनीवल्लभं।
मेघं चातकमंडलीव मधुपश्रेणीव पुष्पव्रजम्॥
माकंद पिकसुंदरीव रमणीवात्मेश्वरं प्रोषितं।
चेतोवृत्तिरियं सदा नृपवर त्वां द्रष्टुमुत्कंठते॥३१३॥
हे नृपवर ! जैसे कुमोदिनी चंद्रमाको चन्द्रमाको समूह सूर्यको, पपीहोंकी मंडली मेघको, भौरोंकी पंक्तिपुष्पसमूहको कोयल पुष्परसको, स्त्री बहुत दिनके गयेस्वामीको ये संपूर्ण जैसे इन्होंको देखनेकी इच्छा करतेहैं ऐसे मेरे चित्तकी वृत्ति सदा तुम्हारे देखनेकी इच्छाकरती है॥३१३॥
** राजा चमत्कृतः प्राह। सुकुमारि त्वां लीलादेव्या अनुमत्या स्वीकुर्मः। इति धारानगरं नीत्वातां तथैव स्वीकृतवान्। कदाचिद्राजाभिषेके मदनशरपीडिताया मदिराक्ष्याः करतलगलितो हेमकलशस्सोपानपंक्तिषु रटन्नेव पपात। ततो राजा सभायामागत्य कालिदासं प्राह। सुकवे एनां समस्यांपूरय। ‘टटंटटंटंटटटंटटंटम्’। तदा कालिदासः प्राह॥**
राजा चमत्कृत हुआ कहने लगा। हे सुकुमारि ! तेरेको लीलादेवि अनुमती के साथ मैं अंगीकार करूंगा।ऐसे धारानगरको लाकर तिसको राजा तैसेही अंगीकारकरता गया। किसी समय राजाके स्नानके समयमेंकामदेवशरसे पीडित मतवाले नेत्रोंवाली स्त्रीके हाथसे सुवर्णका कलशा पैडियोंकी पंक्तियोंपर शब्द करता हुआपडता गया। फिर राजा सभामें आकर कालिदासको
कहने लगा। हे सुकवे ! इस समस्याको पूर्ण करो।‘टटंटटंटंटटटंटटंटम्‘। तब कालिदास कहने लगा॥
राजाभिषेके मदविव्हलाया।
हस्ताच्च्युतो हेमघटो युवत्याः॥
सोपानमार्गेषु करोति शब्दं।
टटंटटंटंटटटंटटंटम्॥३१४॥
राजाऽभिषेक में मदविव्हला जवान स्त्रीके हाथ सेसुवर्णका कलशा पडा। वह कलश पैडीमार्ग में प्राप्तहोकरशब्द करने लगा कि, टटंटटंटंटटटंटटंटम्॥३१४॥
** तदा राजा स्वाभिप्रायं ज्ञात्वाक्षरलक्षं ददौ।अन्यदा सिंहासनमलंकुर्वाणे श्रीभोजे कश्चिच्चोरःआरक्षकै राजनिकटं नीतः। राजा तं दृष्ट्वा कोयमित्यपृच्छत्। तदा आरक्षकाः प्राहुः। देव अनेनकुभिल्लकेन कस्मिंश्चिद्वेश्यागृहे घातपातमार्गेणद्रव्याणि अपहृतानीति। तदा राजा प्राह। अयंदंडनीय इति। ततो भुक्कुंडो नाम चोरः प्राह॥**
तब राजा अपने अभिप्रायको जानकर अक्षर २ प्रतिलाख २ रुपैये देता गया। एक समय राजा भोज सिंहासनपर बैठा हुआ था, तब कोई चौर राजदूतोंने राजाके पासप्राप्त किया। राजा तिसको देखकर यह कौन है ऐसेपूछता गया। तब राजदूत आकर कहने लगे। कि हेदेव ! इस कुभिल्लकने किसी वेश्याके घरसे पाड लगाकर
द्रव्य निकाल लिया। तब राजा कहने लगा। यह दंडदेनेके योग्य है। फिर भुक्कुंड नाम चौर कहने लगा॥
भट्टिर्नष्टो भारविश्चापि नष्टो।
भिक्षुर्नष्टो भीमसेनोपि नष्टः॥
भुक्कुंडोहं भूपतिस्त्वं हि राजन्।
भब्भापंक्तौ कालधर्मः प्रविष्टः॥३१५॥
हे राजन्। भट्टि, भारवि, भिक्षु, भीमसेन, ये संपूर्ण तोनष्ट हो गये और मैं तो भुक्कुंड और तू भूपति ऐसे भब्भापंक्तिमें कालधर्म प्रविष्ट हुआ है॥३१५॥
** तदा राजा प्राह। भो भुक्कुंड गच्छ गच्छ यथेच्छं विहर। कदाचिद्भोजो मृगयापर्याकुलः वनेविचरन् विश्रमाविष्टहृदयः कंचित्तटाकमासाद्यस्थितवान् श्रमात्प्रसुप्तः। ततोपरपयोनिधिकुहरंगतेभास्करे॥**
तब राजा कहने लगा। हे भुक्कुंड ! जावो जावो यथेच्छ विचरो। किसी समय भोजराजा शिकारके वश हुआबनमें विचरता हुआ विश्रामको जब चित्त चाहा तबकिसी सरोवरको प्राप्त होकर ठहरता गया और परिश्रमसेसोता गया। फिर जब सूर्य नारायण अस्तको प्राप्तहो गया॥
तत्रैवारोचत निशा तस्य राज्ञः सुखप्रदा।
चंचच्चंद्रकरानंदसंदोहपरिकंदला॥३१६॥
देदीप्यमान जो चंद्रमा की किरण तिनकरके जो आनंदसमूह तिसकरके दीप्त और सुखको देनेवाली ऐसी रात्रिराजाको तिसी जगह रुचती गई॥३१६॥
** ततः प्रत्यूषसमये नगरीं प्रति प्रस्थितो राजाचरमगिरिनितंबलंबमानशशांकबिंबम-वलोक्यसकुतूहलस्सभामागत्य तदा समीपस्थान् कवींद्रान्निरीक्ष्य समस्यामेकामवदत्॥**
फिर प्रभातसमय राजा नगरीको चल पडा, पश्चिमपर्वतरूप नितंबपर लंबमान चंद्रबिंबको देखकर आनंदसहित सभामें आकर और समीपमें स्थित कवीन्द्रोंको देखकर एक समस्याको कहता गया॥
** चरमगिरिनितंबे चंद्रबिंबं ललंबे॥**
पश्चिमपर्वतरूप नितंबपर चंद्रमाका बिंब लटकता गया॥
** तदा प्राह भवभूतिः॥**
तब भवभूति कहने लगा॥
** अरुणकिरणजालैरंतरिक्षे गतर्क्षे।**
सूर्यनारायणकी किरणजालोंकरके आकाशमें नक्षत्रदूर होत संते,॥
** ततो दंडी प्राह॥**
फिर दंडी कहने लगा।
** चलति शिशिरवाते मंदमंदं प्रभाते॥**
प्रभातसमय मंद मंद ठंढी पवन चलते हुए॥
** ततः कालिदासः प्राह॥**
फिर कालिदास कहने लगा॥
युवतिजनकदंबे नाथमुक्तोष्टबिंबे।
चरमगिरिनितंबे चंद्रबिंबं ललंबे॥३१७॥
हे नाथ ! स्त्रीजनों के समूह पतियोंने ओष्टबिंब त्यागेसंते पश्चिमपर्वतरूप नितंबमें चंद्रबिंब लटकता गया॥३१७॥
** ततो राजा सर्वानपि सम्मानितवान्। तत्र कालिदासं विशेषतः पूजितवान्। अथ कदाचिद्भोजो नगराद्बहिर्निर्गतः। नूतनेन तटाकांभसा बाल्यसाधितकपालशोधनादि चकार। तन्मूलेन कश्चन शफरशावःकपालं प्रविष्टो विकटकरोटिकानिकटघटितो विनिर्गतः। ततो राजा स्वपुरीमवाप। तदारभ्य राज्ञःकपाले वेदना जाता। ततस्तत्रत्यैर्भिषग्वरैः सम्यक्चिकित्सितापि न शांता। एवमहर्निशं नितरामस्वस्थे राज्ञि अमानुषविदितेन महारोगेण॥**
फिर राजा संपूर्ण कवियोंका सत्कार करता गया।तहां कालिदासको विशेषकरके पूजता गया। फिर किसीसमय भोज नगरसे बाहर निकला। नवीन तलावके जलकरके बाल अवस्था में किया हुआ कपालशोधन करता गया। तिस जलके साथ कोई मच्छी कपालमें वड गईऊपर कपालमें चढ निकल गई। फिर राजा अपनी पुरीमें
प्राप्त हो गया। उस दिनसे राजाके कपालमें पीडा होगई। फिर तहांके वैद्योंने अच्छी तरह चिकित्साभी करीपीडा नहीं शांत हुई। ऐसे दिन रात जब राजा अस्वस्थरहने लगा, वह महारोग मनुष्योंने नहीं जाना॥
क्षामक्षाममभूद्वपुर्गतसुखं हेमंतकालेब्जव-।
द्बक्त्रंनिर्गतकांति राहुवदनाक्राताब्जबिंबोपमम्॥
चेतः कार्यपदेषु तस्य विमुखं क्लीबस्य नारीष्विव।
व्याधिः पूर्णतरो बभूव विपिने शुष्के शिखावानिव॥
सुख रहित शरीर अतिकृश होता गया। जैसेहेमंतमें कमल कांतिरहित हो जाता है इसी प्रकार मुखकांतिरहित हो गया। जैसे राहुग्रस्त चंद्रबिंब। और कार्योंमें चित्त विमुख हो गया। नपुंसकका चित्त स्त्रियोंमेंजैसे। और व्याधि पूर्णतर होता गया। जैसे सूके वनमेंअग्नि प्रबल हो जाता है॥३१८॥
** एवमतीते संवत्सरेपि काले न केनापि निवारितस्तद्गदः। ततः श्रीभोजो नानाविधसमानौषधग्रसनरोगदुःखितमनास्समीपस्थं शोकसागरनिमग्नंबुद्धिसागरं कथमपि संमताक्षरामुवाच वाचम्।बुद्धिसागर इतः परमस्मद्विषये न कोपि भिषग्वरोवसतिमातनोतु। वाव्हटादिभेषजकोशान् निखिलान् स्रोतसि निरस्यागच्छ, मम देवसमागमसमयःसमागत इति। तच्छ्रुत्वा सर्वेपि पौरजनाः कवयश्च**
अवरोधसमाजाश्च विगलदस्रासारनयना बभूवुः।ततः कदाचिद्देवसभायां पुरंदरः सकलमुनिवृंदमध्यस्थं वीणामुनिमाह। मुने इदानीं भूलोके कानाम वार्तेति। ततो नारदः प्राह। सुरनाथ किमप्याश्चर्यंकिंतु धारानगरवासी श्रीभोजभूपालः रोगपीडितोनितरामस्वस्थो वर्तते। स तस्य रोगःकेनापि न निवारितः। तदनेन भोजनृपालेन भिषग्वरा अपि स्वदेशान्निष्कासिताः। वैद्यशास्त्रमपिअनृतमिति निरस्तमिति। एतदाकर्ण्य पुरुहूतस्समीपस्थौ नासत्याविदमाह। भोः स्वर्वैद्यौ कथमनृतंधन्वंतरीयं शास्त्रम्। तदा तावाहतुरमरेश देव नव्यलीकमिदं शास्त्रं किं त्वमरविदितेन रोगेण बाध्यतेसौ भोज इति। इंद्रः कोसाववार्यरोगः किं भवतोविदितः। ततस्तावूचतुः। देव कपालशोधने कृते भोजेन तदा प्रविष्टः पाठीनः तन्मूलोयं रोग इति। तदाइंद्रः स्मयमानमुखः प्राह। तदिदानीमेव युवाभ्यां गंतव्यं न चेदितः परं भूलोके भिषक्शास्त्रस्यासिद्धिर्भवेत्। न खलु सरस्वतीविलासस्य निकेतनं शास्त्राणामुद्धर्ता चेति। ततः सुरेंद्रादेशेन ता उभावपि धृतद्विजन्मवेषौ धारानगरं प्राप्य द्वारस्थं प्राहतुः। द्वारस्थ आवां भिषजौ काशीदेशादागतौ श्रीभोजायविज्ञापय तेनानृतमित्यंगीकृतं वैद्यशास्त्रमिति श्रु-
त्वा तत्प्रतिष्ठापनाय तद्रोगनिवारणाय चेति। ततोद्वारस्थः प्राह। भो विप्रौ न कोपि भिषक्प्रवरः प्रवेष्टव्य इति राज्ञोक्तम्। राजा तु केवलमस्वस्थो नायमवसरो विज्ञापनस्येति। तस्मिन्क्षणे कार्यवशाद्बहिर्निर्गतो बुद्धिसागरस्तौ दृष्ट्वा कौ भवंतावित्यपृच्छत्।ततस्तौ यथागतमूचतुः। ततो बुद्धिसागरेण तौ राज्ञःसमीपं नीत्वा ततो राजा ताववलोक्य मुखश्रियाअमानुषाविति बुद्ध्वाआभ्यां शक्यतेयं रोगो निचारितुमिति निश्चित्य तौ बहु मानितवान्। ततस्तावूचतुः। राजन्न भेतव्यं रोगो निर्गतः। किंतु कुत्रचिदेकांते त्वया भवितव्यमिति। ततो राज्ञापि तथाकृतम्। ततस्तावपि राजानं मोहचूर्णेन मोहयित्वाशिरःकपालमादाय तत्करोटिकापुटेस्थितं शफरकुलं गृहीत्वा कस्मिश्चिद्भाजने निक्षिप्य संधानकरण्या कपालं यथावदारचय्य संजीविन्या च तं जीवयित्वा तस्मै तददर्शयताम्। तदा तद्दृष्ट्वा राजा विस्मितः किमेतदिति तौ पृष्टवान्। तदा तावूचतुः।राजन् त्वया बाल्यादारभ्य परिचितकपालशोधनतस्संप्राप्तमिति। ततो राजा तावश्विनौ मत्वा तच्छोधनार्थमपृच्छत्। किमस्माकं पथ्यमिति। ततस्तावूचतुः॥
ऐसे वरस दिनका काल वदित होत संते सो रोग कि-
सीसे निवारण नहीं हुआ। फिर अनेक प्रकार की समानऔषध ग्रसनरोगसे दुःखित मनवाला श्रीभोजराजा शोकसागरमें डूबे हुए समीपमें स्थित बुद्धिसागरको कष्टसे सलाहवाली वाणी कहता गया। हे बुद्धिसागर ! इससे उपरांतइस विषय में कोई औषध नहीं जो रोगको दूर करे। बाव्हट आदि संपूर्ण औषध खजानेको जलमें डाल आवो,यह मेरा देवसमागम (अर्थात् मृत्युसमय) आ गया। ऐसेसुनकर संपूर्ण पुरवासी और कवि और रनिवास महारुदनकरने लगे। फिर किसी समय देवसभामें इंद्र संपूर्ण मुनिगणमेंस्थित वीणामुनि को अर्थात् नारदको कहने लगा। हेमुने ! अब पृथ्वीलोकमें क्या वार्ता हो रही है। फिरनारद कहने लगा। हे सुरनाथ ! और तो कुछ बात नहींपरंतु धारानगरवासी भोजराजा रोग से पीडित और निरंतरअस्वस्थ हो रहा है। राजाका वह रोग किसीने निवारणनहीं किया। इस वास्ते इस भोजराजाने वैद्यवरभी अपनेराज्यसे निकाल दिये। और वैद्यकशास्त्रभी झूठा है यहविचार कर गेर दिया। यह सुनकर इंद्र समीपमें स्थित अश्विनीकुमारौंको कहने लगा। हे स्वर्गके वैद्यो ! वैद्यशास्त्रकैसे झूठा हैं। तब वे कहने लगे हे अमरेश! हे देव! यहशास्त्र झूठा नहीं है परंतु यह भोज देवताओंके जाने हुएरोगसे पीडित है। निवारनके अयोग्य कौनसा यहरोग है और तुमने कैसे जाना है। फिर वे कहने लगे।
हे देव ! भोजने जब कपालशोधन किया तब मच्छी कपालमें बड़ गई तिसका यह रोग है। तब इंद्र हसताहुआ कहने लगा। तो अबही तुमने जाना चाहिये, नहींतो इससे अगाडी वैद्यशास्त्र की असिद्धि हो जावेगी। औरराजा सरस्वतीविलासके स्थानोंको और शास्त्रोंको नष्टकर देगा। फिर इंद्रकी आज्ञासे वे दोनों ब्राह्मणका रूपधारण कर धारानरको प्राप्त हो द्वारपालको कहते गये।कि हे द्वारस्थ! हम वैद्य हैं और काशीदेशसे आये हैं,श्रीभोजको खबर करो, राजाने वैद्यशास्त्र झूठा मान लियासो तिसके स्थापनके वास्ते और रोगनिवारण करनेके वास्ते हम आये हैं। फिर द्वारपाल कहने लगा। हे ब्राह्मणो! राजाने यह कह रक्खा है कि कोई वैद्यवर नहींआने देना। राजा बीमार है और यह अरज करनेकाअवसर नहीं है। उसी वक्त किसी कार्य के सबबसे बुद्धिसागर बाहर आ गया, तिनको देखकर पूछने लगाकि तुम कौन हो। फिर वे यथार्थ कहते गये। फिरबुद्धिसागरने वे राजाके पास प्राप्त करे फिर राजा तिनको देखकर और मुखशोभासे ये मनुष्य नहीं ऐसे मानकर और इनकरके रोग निवारण होगा ऐसे मानकरतिनका बहुत सत्कार करता गया। फिर अश्विनीकुमारकहने लगे। हे राजन् ! भय नहीं करना रोग चला गया।परंतु कहीं एकांत में तुम चलो। फिर राजा एकांतमें हो
गया। फिर वे राजाको मोहचूर्णसे मोहकर शिरका कपाल लेकर तिसकी करोटिके पुटमें स्थित जो मच्छीकुलतिसको ग्रहण करके किसी पात्रमें गेरकर संधानकरणीसेकपालको यथावत् स्थापन कर और संजीविनीविद्यासेजिवाय राजाको मच्छी दिखाते गये। तिस समय राजातिसको देखकर आश्चर्ययुक्त हुआ यह क्या है ऐसे तिनको पूछता गया। तब वे कहने लगे। हे राजन् ! तैंने बाल अवस्था से लेकर जो कपालशोधन किया उससे यह रोगप्राप्त हुआ। फिर राजा तिनको अश्विनीकुमार मानकरतिनके शोधनके वास्ते पूंछता गया। कि हमारेको पथ्यक्या है। फिर वे कहने लगे कि॥
अशीतेनांभसा स्नानं पयःपानं वराः स्त्रियः॥
एतद्वो मानुषाः पथ्यमिति,
गरम जलसे स्नान, दूधका पीना, श्रेष्ठ स्त्री, हे मनुष्यो !यह पथ्य है॥
** तत्रांतरे राजा मध्ये ‘मानुषा’इति संबोधनं श्रुत्वावयं चेन्मानुषाः कौ युवामिति तयोर्हस्तौ झटितिस्वहस्ताभ्यां अग्रहीत्। ततस्तत्क्षण एव तावंतर्धत्तां ब्रुवंतावेव कालिदासेन पूरणीयं तुरीयचरणमिति। ततो राजा विस्मितः सर्वानाहूय तद्वृत्तमब्रवीत्। तच्छ्रुत्वा सर्वेपि चमत्कृताः विस्मिताश्चबभूवुः। तत्कालिदासेन तुरीयचरणं पूरितम्॥**
इसके मध्य में जो राजाने मानुष संबोधन सुना तबसुनकर जो हम मानुष हैं तो तुम कौन हैं ? ऐसे कह राजाअपने हाथोंसे उनका हाथ शीघ्र पकडते गये। फिर तिसीक्षणमें वे अंतर्धान हो गये, ऐसे कहते हुएही कि चौथे चरणको कालिदास पूर्ण करे। फिर राजा अचरज मानता हुआ संपूर्णों को बुलाकर सो वृत्त कहता गया। यहबात सुनकर संपूर्ण चमत्कृत हो गये और आश्वर्ययुक्तभी होते गये। वह चौथा चरण कालिदासने पूर्ण किया।सो यह है कि॥
** स्निग्धमुष्णं च भोजनम्॥ इति ॥३१९॥**
और चिकना गरम भोजन पथ्य है॥३१९॥
** ततो भोजोपि कालिदासं लीलामानुषं मत्वापरं सम्मानितवान्। अथ भोजनृपालः प्रतिदिनंसंजातकदलत्कांतिर्ववृधे धाराधीशः कृष्णेतरपक्षेचंद्र इव। ततः कदाचित्सिंहासनमलंकुर्वाणे श्रीभोजे कालिदासभवभूतिदंडिबाणमयूरवररुचिप्रभृतिकवितिलककु-लालंकृतायां सभायां द्वारपाल एत्याह। देव कश्चित्कविर्द्वारि तिष्ठति। तेनेयं प्रेषितागाथासनाथा चीठिका देवसभायां निक्षिप्यतामितितां दर्शयति। राजा गृहीत्वा तां वाचयति॥**
फिर भोजराजाभी कालिदासको लीलामानुष मानकरअच्छा संमान करता गया। इसके अनंतर धाराधीश
भोजराजा दिन २ प्रति शुक्लपक्षके चंद्रमा की तरह बढतागया। फिर कीसी समय भोजराजा सिंहासनपर बैठा थाऔर कालिदास, भवभूति, दंडि, बाण, मयूर, वररुचिइन्होंसे आदि लेकर जो कवियोंमें तिलकरूप कवि वे सभामेंबैठे थे, तब द्वारपाल आकर कहने लगा। कि हे देव ! कोईकवि द्वारपर खडा है, तिसने यह गाथासहित चिट्ठी देकरकहा है। कि इसको राजाकी सभा में गेरकर दिखायो।राजा तिसको लेकर वांचने लगा॥
काचिद्बाला रमणवसतिं प्रेषयंती करंडं।
दासीहस्तात्सभयमलिखद्व्यालमस्योपरिस्थम्॥
गौरीकांतं पवनतनयं चंपकं चात्र भावं।
पृच्छत्याryo निपुणतिलको मल्लिनाथः कवींद्रः॥३२०॥
कोई जवान स्त्री परदेश में अपने स्वामीके पास दासीकेहाथ पिटारी भेजती हुई। उसपर भयसहित यह लिखतीगई कि पहले सर्प* लिखा, उसके ऊपर महादेवजी फिरहनूमान्जी फिर चंपा लिखी तो इसका अभिप्राय क्या
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* सर्प आदि चार पदार्थ लिखनेका भाष क्रमसे यह है कि,पिटारीमें रखे पुष्पके गंधको पवन ले जावे. इससे उसका भक्षक सर्प, मदन अपने बाण करनेके अर्थ ले इससे उसका शत्रु,शिवजी, सूर्य अपने किरणोंसे सुखावे इससे जन्मकालमें भक्ष्यबुद्धिसे सूर्यके ऊपर दौड़ते हुए हनुमानजी और मधुको भौंहराखा जावे इससे चंपाको लिखा। चंपापर भ्रमर नहीं जातायह प्रसिद्धही है।
है ? ऐसे श्रेष्ठ निपुणों में तिलक कवीन्द्र मल्लिनाथ पूंछताहै॥३२०॥
** तच्छ्रुत्वा सर्वापि विद्वत्परिषच्चमत्कृता। ततः कालिदासः प्राह। राजन्मल्लिनाथः शीघ्रमाकारयितव्यइति। ततो राजादेशात् द्वारपालेन स प्रवेशितकवीराजानं स्वस्तीत्युक्त्वा तदाज्ञयोपविष्टः। ततोराजा प्राह तं कवींद्रम्। विद्वन्मल्लिनाथकवे साधुरचिता गाथा। कालिदासः प्राह। किमुच्यते साध्विति। देशांतरगतकांतायाश्चारित्र्यवर्णनेन श्लाघनीयोसि विशिष्य तत्तद्भावप्रतिभटवर्णनेन। तदाभवभूतिः प्राह। विशिष्यते इयं गाथा पंक्तिकंठो7द्यानवैरिणो वातात्मजस्य वर्णनादिति। ततः प्रीतेन राज्ञा तस्मै दत्तं सुवर्णानां लक्षं पंच गजाश्च दशतुरगाश्च दत्ताः। ततः प्रीतो विद्वान् स्तौतिराजानम्॥**
तिसको सुनकर संपूर्ण विद्वानों की सभा चमत्कृत होगई। फिर कालिदास कहने लगा। हे राजन् ! मल्लिनाथकोजल्दी बुलाना चाहिये। फिर राजाके हुकमसे द्वारपालनेकवि भीतर प्राप्त कर दिया कवि राजाको ‘स्वस्ति’ ऐसे कहकर राजाके हुकमसे बैठ गया। फिर राजा तिस कवीन्द्रकोकहने लगा। हे विद्वन् मल्लिनाथ कवे! अच्छी गाथा
रची। कालिदास कहने लगा। क्या श्रेष्ठ बताते हो। देशांतरगत कांतका चरित्र वर्णन करके और सो सो भाववर्णन करके श्लाघा योग्यही है। भवभूति कहने लगा।यह गाथा विशेष है हनुमानजी के वर्णनसे। फिर प्रसन्नहुएराजाने तिसको लाख मोहर, पांच हाथी, दश घोडादिया।फिर प्रसन्न हुआ विद्वान् राजाकी स्तुति करनेलगा॥
देव भोज तव दानजलोघैः।
सोयमद्य रजनीति विशंके॥
अन्यथा तदुदितेषु शिलागो-।
भूरुहेषु कथमीदृशदानम्॥३२१॥
हे राजन् ! हे भोजदेव ! तुम्हारे दानके जलोंके समूहोंकरके (यहां तुह्मारे घरपर) यह रात्री है ऐसी मैं शंका करताहूँ। नहीं तो तहां उत्पन्न हुई शिला गौ वृक्ष उन्होंमें ऐसादान कैसे होवे अर्थात् दानके वास्ते सुवर्णशिला पड़ी हैंऔर और अनेक गौ हैं। फिर तिस दानके जल पडनेसेवृक्ष जांग रहे हैं ये कारण होनेपर रात्रीही दीखती है।ऐसा दान क्या होवे यह शंका है॥३२१॥
ततो लाकोत्तरं श्लोकं श्रुत्वा राजा पुनरपि तस्मैलक्षत्रयं ददौ। ततो लिखति स्म भांडारिकोधर्मपत्रे॥
फिर लोकोत्तर (विचित्र) श्लोक सुनकर राजा फिर-
भी तिसको तीन लाख रुपैये देता गया। फिर भांडारिकधर्मपत्र में लिखता गया॥
** प्रीतः श्रीभोजभूपस्सदसि विरहिणीगूढनर्मोक्तिपद्यं श्रुत्वा हेम्नां च लक्षं दश स च तुरगान् पंचनागानयच्छत्॥ पश्चात्तत्रैव सोयं वितरणगुणसद्वर्णनात् प्रीतचेता लक्षं लक्षं च लक्षं पुनरपि च ददौमल्लिनाथाय तस्मै॥३२२॥**
प्रसन्न हुआ श्रीभोज राजा सभामें विरहिणीकी गूढठठ्ठाकी उक्तिका श्लोक सुनकर मल्लिनाथकविको लाखमोहर, दश घोडा, पांच हस्ती देता गया। फिर तिसीजगह भोजराजा दानके श्रेष्ठ गुण वर्णन करनेसे प्रसन्न चितवाला तीन लाख रुपैये तिस मल्लिनाथकविको फिर देतागया॥३२२॥
** ततः कदाचिद्भोजराजः कालिदासं प्रतिप्राह। सुकवे त्वमस्माकं चरमग्रंथं पठ। ततःक्रुद्धो राजानं विनिंद्य कालिदासः क्षणेन तं देशंत्यक्त्वा विलासवत्या सह एकशिलानगरं प्राप।ततः कालिदासवियोगेन शोकाकुलस्तं कालिदासंमृगयितुं राजा कापालिकवेषं धृत्वा क्रमेण एकशिलानगरं प्राप। ततः कालिदासो योगिनं दृष्ट्वा तंसामपूर्वं पप्रच्छ। योगिन् कुत्र तेस्ति स्थितिरिति।योगी वदति। सुकवे अस्माकं धारानगरे वसतिरि-**
ति। ततः कविराह। तत्र भोजः कुशली किम्।ततो योगी प्राह। किं मया च वक्तव्यमिति। ततःकविराह। तत्रातिशयवार्त्तास्ति चेत्सत्यं कथयेति।तदा योगी प्राह। भोजो दिवं गत इति। ततःकविर्भूमौ निपत्य प्रलपति। देव त्वां विनास्माकंक्षणमपि भूमौ न स्थितिः। अतस्त्वत्समीपमहमागच्छामि इति कालिदासः बहुशो विलप्य चरमश्लोकं कृतवान्॥
फिर किसी समय भोजराजा कालिदासको कहने लगा।हे सुकवे ! तुम हमारे अंतसमयका ग्रंथ पढो। फिर क्रुधित कालिदास राजाकी निंदा करके और क्षणमात्रमें तिसदेशको त्यागकर विलासवती के साथ एकशिलानगरकोप्राप्त होता गया। फिर कालिदासके वियोगकरके शोकाकुल राजा तिस कालिदासको ढूंढने के वास्ते जोगीका रूपधारण करके क्रमसे एकशिलानगरको प्राप्त होता गया।फिर कालिदास योगीको देखकर तिसको साम उपाय सेपूंछने लगा। हे योगिन् ! तुम्हारी स्थिति कहां है। योगीकहने लगा \। हे सुकवे ! हमारा रहना धारानगरमें है। फिरकवि कहने लगा। तहां भोजराजा प्रसन्न है। फिर योगीकहने लगा \। मैं क्या कहूँ \। फिर कवि कहने लगा। तहांकीकोई अचरजकी वार्ता है तो सत्य कहो। तब योगी कहनेलंगा कि भोज स्वर्गको चला गया। फिर कवि पृथ्वीमें
पडकर विलाप करने लगा। कि हे देव! तुह्मारेविना हमारीक्षणमात्रभी पृथ्वीपर स्थिति नहीं।इसवास्ते मैं भी तुम्हारेही पास आऊं हूं ऐसे कालिदास बहुत विलाप करकेअंतका श्लोक रचता गया॥
अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती।
पंडिताः खंडिताः सर्वे भोजराजे दिवं गते॥३२३॥
आज भोजराजके स्वर्ग में जानेसे धारानगरी निराधारहो गई और विद्याभी निराश्रय हो गई और संपूर्ण पंडितखंडित हो गये॥३२३॥
** एवं यदा कविना चरमश्लोक उक्तस्तदैव स योगीभूतले विसंज्ञः पपात। ततः कालिदासस्तथाविधंतमवलोक्य अयं भोज एवेति निश्चित्य अहह महाराज तत्रभवताहं वंचितोस्मीत्यभिधाय झटिति तंश्लोकं प्रकारांतरेण पपाठ॥**
ऐसे जब कविने अंतका श्लोक पढा तब योगी बेचेतहोकर पृथ्वीपर पडता गया। फिर कालिदास तिसको तैसे देखकर और वह भोजही है ऐसे निश्चय करके कहने लगा अहह ! बडा खेद है महाराज तुमने मैं आदिमेंठग लिया, ऐसे जल्दी कहकर तिसी श्लोकको कालिदासऔर प्रकारसे पढता नया॥
अद्य धारा सदाधारा सदालंबा सरस्वती।
पंडिता मंडितास्सर्वे भोजराजे भुवं गते॥३२४॥
आज धारानगरी श्रेष्ठ आधारवाली हो गई। औरसरस्वती श्रेष्ठ आलंबवाली हो गई। और संपूर्ण पंडितमंडित हो गये। यह सब बात भोजराजा पृथ्वीपर आनेसे होती गई॥३२४॥
** ततो भोजस्तमालिंग्य प्रणम्य धारानगरं प्रतिययौं॥**
फिर भोज, कालिदाससे मिलकर नमस्कार करकेधारानगरीको आता गया॥
शैले शैलविनिश्चलं च हृदयं मुंजस्य तस्मिन्क्षणे।
भोजे जीवति हर्षसंचयसुधाधारांबुधौ मज्जति॥
स्त्रीभिः शीलवतीभिरेव सहसा कर्तुं तपस्सत्वरे।
मुंजे मुंचति राज्यभारमभजत्त्यागैश्च भोगैर्नृपः॥३२५॥
इति श्रीबल्लालपण्डितविरचितः श्रीमन्महाराजाधिराजस्य धारानगराधीश्वरस्य भोजराजस्य प्रबंधः समाप्तिमफाणीत्॥
मुंजने जो भोज मरवाय दिया था, फिर जब भोज जीगया था तब मुंजराजा (भोजका चाचा) आनंदसमूहरूप अमृतधाराके समुद्रमें डूब गया। फिर वह मुंज पर्वतसरीखा दृढहृदय करके शीलवती अपनी स्त्रियोंके साथशीघ्रही तप करनेको वनमें चला गया। जब मुंज राज्यभारको छोड़ गया, तब भोजराजा दान भोगोंकरके राज्यको सेवन करता गया॥३२५॥
इति श्रीवेरीनगरनिवासि–बुध–वसतिरामविरचितभाषाटीकायां भोजप्रबंधः समाप्तः॥
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यह भोजप्रबंधकी भाषाटीका जिलै-रोहतक, कसबैवेरीनिवासी पंडित वस्तीरामने बनाई है। इसका सबप्रकारका हक्क श्रीयुत श्रीकृष्णदासात्मज गंगाविष्णुजीसेठको दे दिया है।
नेत्रबाणाङ्कभूम्यब्दे वैशाखस्यासिते दले।
त्रयोदश्यां हिमकरे वारे चेयं समापिता॥१॥
सं० १९५२ वै० व० १३ सोमवार।
भाषाटीकासहितो
भोजप्रबन्धः
समाप्तः॥
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पुस्तक मिलनेका ठिकाना—
गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास,
‘लक्ष्मीवेंकटेश्वर’छापाखाना
कल्याण–मुंबई.
]
-
“तृणमपि भोजराजपराक्रान्तैःशत्रुभिर्वनवासिभिर्भक्षितम् ।” ↩︎
-
“प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा, इति रुद्रः।” ↩︎
-
“कंकणं उदकबिंदुः।” ↩︎
-
“तिलोदकम्।” ↩︎
-
“च्छाया–तुलनामन्वनुसरति ग्लौः सः मुखचंद्रस्य खल्वेतस्याः। अन्विति वर्ण्यते कथमनुकृतिस्तस्य प्रतिपदि चंद्रस्य॥” ↩︎
-
“जो पहले द्वारपर खडा हुआ था वह, यहां विलोचन उसका नाम समझो अथवा नेत्ररहित प्रज्ञाचक्षु था ऐसे जानो।” ↩︎
-
“पंक्तिकंठस्य रावणस्योद्यानमशोकवनं तस्य वैरिणः।” ↩︎