६० एकसट्ठिम परिच्छेद

एकसट्ठिम परिच्छेद

सङ्खत्थलिपुराभिगमनो

१.
सुत्वा द्वे भातरो अञ्ञे, जेट्ठस्सो परतिंसदा।
खिप्पं सरट्ठा आगम्म, कारेसुं अन्तिमं विधिं॥
२.
अथ कित्तिसिरिमेघो, रट्ठं जेट्ठस्स भातुनो।
अत्ताधीनं करित्वान, आमन्तिय कणिट्ठकं॥
३.
दत्वा रट्ठद्वयं अञ्ञं, वत्थुं तत्थेव आदिसि।
सो’पि जेट्ठस्स भातुस्स, वचनं सम्पटिच्छिय॥
४.
समादाय कुमारञ्च, देविञ्च रतनावलिं।
धीतरो द्वे च गन्तान, महा नामहुलं पुरं॥
५.
समग्गा निवसं तत्थ, कुमारस्स सिखामहं।
कारेत्वा परिहारेन, वड्ढेसि महता सदा॥
६.
ततो सो देविया जेट्ठं-धीतरं मित्तनामिकं।
दातुकामो सपुत्तस्स, सहामच्चेहि मन्तयि॥
७.
कालिङ्गन्वयसम्भूता, पायेनखलु भूमिपा।
सामिभावं गता अस्मिं, लङ्कादीपम्ही भूयसो॥
८.
कालिङ्गगोत्त सम्भूत, गजबाहुस्स दातवे।
गूळरूपेन देवी’यं, यदि पेसेय्य धीतरं॥
९.
भिय्यो विवाहसम्बद्धो, बलवा सो भविस्सति।
मय्हं एसो निरालम्बो, पुत्तो हेहीति सब्बथा॥
१०.
तस्मा मे सुनूनो एसा, दातुं युत्ता कुमारिका।
एवं सति वतम्हाकं, वड्ढिये’व सिया ‘‘इति’’॥
११.
देवीपि सुत्वा तं सब्ब-मादिच्चन्वय मण्डना।
सब्बथा तमनिच्छन्ति, इदमाह महीपतिं॥
१२.
घातेत्वा सकले यक्खे, कुमारो विजयव्हयो।
लंकादीपमिमं’कासि, मनुस्सावासकं सदा॥
१३.
ततो पभुति अम्हाकं, घटेसुं विजयन्वयं।
कालिङ्गवंसजेहेव, सम्बन्धं कत्व पुब्बकं॥
१४.
अञ्ञभूपाल सम्बन्धो, सुतपुब्बो पिनत्थिनो।
सोमवंस समुम्भूते, ठपेत्वा धरणिस्सरे॥
१५.
तुय्हं जातोति अम्हाकं, सम्बन्धो सो कथं सिया।
अरियन्वय सम्भूत, कुमारेन सहामुना॥
१६.
एवं सो देविया ताय, नेकसो वारयन्तिया।
पसय्हसक पुत्थस्स, तं कुमारिमदापयि॥
१७.
सो अनेकगुणोदार- भरियानुगतो ततो।
रञ्जयन्तो जने सब्बे, जनकसन्तिके वसि॥
१८.
एकवीसतिं वस्सानि, रज्जं विक्कम बाहुसो।
अनुभोत्वा यथाकम्मं, कायभेदा गतो परं॥
१९.
ततो गजभुजो ठितं, सम्पन्नबलवाहनं।
रज्जं हत्थगतं कत्वा, पुलत्तिनगरे वसी॥
२०.
ततो कित्तिसिरीमेघ, सिरीवल्लभ भूमिपा।
वुत्तन्त मेतं विञ्ञाय, एवं समनुचिन्तयुं॥
२१.
तस्स विक्कम बाहुस्स, वुद्धभावेन नेकधा।
मूलरज्जाधिपच्चं तं, अम्मं निन्दाकरं न हि॥
२२.
तदत्थजस्स बालस्स, मूलरज्जं पसासनो।
उपेक्खणं पनम्हाकं, नेवानुच्छविकं वत॥
२३.
ते सोयाव सरज्जम्हि, बद्धमूलो भविस्सति।
पसय्ह ताव तं रज्जं, वट्टति गण्हितुं इति॥
२४.
वेलक्कार बलं सब्बं, भिन्दिंसु धन दानतो।
ठपेत्वा सेवके केचि, तस्सब्भन्तरिके तदा॥
२५.
गजबाहु महीपाले, विरत्ता रट्ठवासिनो।
उभिन्नं राजूनं दूते, पेसयुं नेकसो ततो॥
२६.
रज्जं साधेत्वा दस्साम, एकीभूता मयं पन।
उपत्थम्भकभावो’व, कातब्बो केवलं इति॥
२७.
ततो द्वे भातुका सेनं, सकं सन्नय्ह वेगसा।
उभतो मुखतो तस्स, रट्ठमज्झमुपागमुं॥
२८.
पहिणिंसु च ते दूते, ततो गजबोहुव्हयो।
भूमिपालो निजामच्चे, सन्निपातिय मन्तयि॥
२९.
वेळक्कारबलं सब्ब-मुजुपच्चत्तिकं अहु।
राजानो द्वे च नो रट्ठं, सङ्गामत्थमुपागता॥
३०.
पठमं तेसु पक्खस्स, एकस्स बलिनो भुसं।
मुखभङ्गे कते खिप्पं, ततो अञ्ञे सुसाधिया॥
३१.
इति निच्छिय सेनङ्गं, सब्बमादाय अत्तनो।
सिरिवल्लभराजाभि-मुखं युद्धा’युपागमि॥
३२.
सिरिवल्लभराजापि, सङ्गाम महिभिंसनं।
पातो पट्ठाय सायन्ह-कालं याव पवत्तयं॥
३३.
असक्कुणन्तो’भिभवं, विधातुं तस्स कञ्चिपि।
ततोव सो निवत्तित्वा, सकं रट्ठं गतो लहुं॥
३४.
गजबाहुस्सगोकण्ण-सचिवेन पराजितो।
अगा रट्ठं सकं कित्ति-सिरिमेघो’पि भूपति॥
३५.
गजबाहुनरिन्दोपि, सङ्गामे तम्हि किञ्चिपि।
परिहानिमसम्पत्तो, पुना’गम्म पुरन्तिकं॥
३६.
बलनाथे विनिग्गय्ह, सापराधे बहू बली।
रट्ठं वूपसमेत्वान, पावेक्खि नगरं सकं॥
३७.
रट्ठे सके सकेयेव, ततो पभूति भूमिपा।
अञ्ञोञ्ञमित्ते सम्बन्धं, विधाय विहरिंसु ते॥
३८.
ततो परक्कमभुजो, धरणी पालनन्दनो।
मेधावीनेकसिप्पेसु, सिक्खमानो सुसाधुकं॥
३९.
विचारक्खमपञ्ञत्ता , किच्चा किच्चेसु नेकसो।
अच्चुळारासयत्ता च, महाभागत्तनेन च॥
४०.
अत्तनो मातुभगिनी, सहवास सुखम्हि च।
अलग्गमानसोनेक, बलाकीळारसेसु च॥
४१.
सूरभावादिसंयुत्ता, राजपुत्ता तु मादिसा।
पच्चन्ते ईदिसे देसे, कथं नाम वसिस्सरे॥
४२.
जातदेसञ्च मे दानि, युवराजपभोगियं।
गमिस्सामीति निग्गञ्छि, तम्हा परिजनत्थितो॥
४३.
कमेन सन्तिकं सङ्ख-नायकत्थलिसञ्ञिनो।
गामस्सागा अहिं कित्ति-सिरिमेघो निसम्म तं॥
४४.
अभावा रज्ज दायाद-समानस्स’त्रजस्स मे।
एकाकी’हन्ति यो चित्त-सन्तापो सन्ततं गतो॥
४५.
जेट्ठंव भातरं मय्हं, तं देहपटिबिम्बकं।
दट्ठुं मे सत्ततं पुञ्ञं, महन्तमुदितंतिच॥
४६.
पामुज्जवेगवसगो, नगरं तं मनोहरं।
अलङ्कारा पयित्वान, तोरणादीहि नेकधा॥
४७.
गन्त्वा पटिपथंयेव, बलोघपरिवारितो।
नरिन्दो तिथिनक्खत्त-विसेसे सुभसम्मते॥
४८.
अनञ्ञसाधारणतं, सम्पत्तेहि गुणेहि च।
लक्खणेहि च सब्बेहि, कल्याणेयि सुसंयुतं॥
४९.
दिस्वा कुमारं सन्तुट्ठो, आलिङ्गित्वान पेमतो।
उरे कत्वान चुम्बित्वा, मत्थकम्हि पुनप्पुनं॥
५०.
जनस्स बलतो तस्स, पस्सतो लोचनेहि सो।
सन्तोस अस्सुधारायो, वस्सापेन्तो निरन्तरं॥
५१.
मनुञ्ञमेक मारुय्ह, वाहनं सह सूनुना।
भेरिनि देन पूरेन्तो, दिसा दस समन्ततो॥
५२.
पविसित्वा पुरं तत्थ, अलङ्कारे मनोरमे।
दस्सयन्तो सपुत्तस्स, पाविसि राजमन्दिरं॥
५३.
लद्धा ततो कञ्चुकी-सुपकार,
वगादिनेके परिचारके सो।
नानागुणा राधितमानसस्स,
वसीसकासे पितुनो सुखेन॥
सुजनप्पसादसंवेगत्थाय कते महावंसे
सङ्खत्थलिपुराभिगमनो नाम
एकसट्ठिमो परिच्छेदो।