१३. तेरसकनिपातो

१३. तेरसकनिपातो

४७४. अम्बजातकं (१)
१.
अहासि [आहासि (?)] मे अम्बफलानि पुब्बे, अणूनि थूलानि च ब्रह्मचारि।
तेहेव मन्तेहि न दानि तुय्हं, दुमप्फला पातुभवन्ति ब्रह्मे॥
२.
नक्खत्तयोगं पटिमानयामि, खणं मुहुत्तञ्च मन्ते न पस्सं [खणं मुहुत्तं न मं तोसयन्ति (सी॰ पी॰)]।
नक्खत्तयोगञ्च खणञ्च लद्धा, अद्धाहरिस्सम्बफलं [अथाहरिस्सम्बफलं (सी॰ पी॰)] पहूतं॥
३.
नक्खत्तयोगं न पुरे अभाणि, खणं मुहुत्तं न पुरे असंसि।
सयं हरी [अथाहरी (सी॰ स्या॰ पी॰)] अम्बफलं पहूतं, वण्णेन गन्धेन रसेनुपेतं॥
४.
मन्ताभिजप्पेन पुरे हि [पुर’स्स (सी॰ पी॰), पुरेपि (स्या॰)] तुय्हं, दुमप्फला पातुभवन्ति ब्रह्मे।
स्वाज्ज न पारेसि जप्पम्पि मन्तं [जपम्पि मन्ते (सी॰ पी॰)], अयं सो को नाम तवज्ज धम्मो॥
५.
चण्डालपुत्तो मम सम्पदासि, धम्मेन मन्ते पकतिञ्च संसि।
मा चस्सु मे पुच्छितो नामगोत्तं, गुय्हित्थो अत्थं [मा तं (सी॰ स्या॰ पी॰)] विजहेय्य मन्तो [विजहेय्युमन्ता (स्या॰)]॥
६.
सोहं जनिन्देन जनम्हि पुट्ठो, मक्खाभिभूतो अलिकं अभाणिम्।
‘‘मन्ता इमे ब्राह्मणस्सा’’ति मिच्छा, पहीनमन्तो कपणो रुदामि॥
७.
एरण्डा पुचिमन्दा वा, अथ वा पालिभद्दका।
मधुं मधुत्थिको विन्दे, सो हि तस्स दुमुत्तमो॥
८.
खत्तिया ब्राह्मणा वेस्सा, सुद्दा चण्डालपुक्कुसा।
यम्हा धम्मं विजानेय्य, सो हि तस्स नरुत्तमो॥
९.
इमस्स दण्डञ्च वधञ्च दत्वा, गले गहेत्वा खलयाथ [बलयाथ (स्या॰), गलयाथ (क॰)] जम्मम्।
यो उत्तमत्थं कसिरेन लद्धं, मानातिमानेन विनासयित्थ॥
१०.
यथा समं मञ्ञमानो पतेय्य, सोब्भं गुहं नरकं पूतिपादम्।
रज्जूति वा अक्कमे कण्हसप्पं, अन्धो यथा जोतिमधिट्ठहेय्य।
एवम्पि मं त्वं खलितं सपञ्ञ [सपञ्ञा (पी॰)], पहीनमन्तस्स पुनप्पदाहि [पुन सम्पदाहि (स्या॰), पुनप्पसीद (सी॰ पी॰)]॥
११.
धम्मेन मन्तं [मन्ते (सी॰ स्या॰ पी॰)] तव सम्पदासिं, तुवम्पि धम्मेन [त्वम्पि धम्मेनेव (क॰)] परिग्गहेसि।
पकतिम्पि ते अत्तमनो असंसिं, धम्मे ठितं तं [पतिट्ठं (क॰)] न जहेय्य मन्तो॥
१२.
यो बाल मन्तं [बलमन्तं (क॰)] कसिरेन लद्धं, यं दुल्लभं अज्ज मनुस्सलोके।
किञ्चापि लद्धा जीवितुं अप्पपञ्ञो [किच्छा लद्धं जीविकं अप्पपञ्ञो (सी॰ स्या॰), कच्छापि लद्धा जीविकं अप्पञ्ञ (पी॰)], विनासयी अलिकं भासमानो॥
१३.
बालस्स मूळ्हस्स अकतञ्ञुनो च, मुसा भणन्तस्स असञ्ञतस्स।
मन्ते मयं तादिसके न देम, कुतो मन्ता गच्छ न मय्ह रुच्चसीति॥
अम्बजातकं पठमम्।

४७५. फन्दनजातकं (२)
१४.
कुठारिहत्थो [कुधारिहत्थो (क॰)] पुरिसो, वनमोगय्ह तिट्ठसि।
पुट्ठो मे सम्म अक्खाहि, किं दारुं छेतुमिच्छसि॥
१५.
इस्सो [इसो (सी॰), ईसो (स्या॰ पी॰)] वनानि चरसि, समानि विसमानि च।
पुट्ठो मे सम्म अक्खाहि, किं दारुं नेमिया दळ्हं॥
१६.
नेव सालो न खदिरो, नास्सकण्णो कुतो धवो।
रुक्खो च [रुक्खोव (सी॰ पी॰)] फन्दनो नाम, तं दारुं नेमिया दळ्हं॥
१७.
कीदिसानिस्स पत्तानि, खन्धो वा पन कीदिसो।
पुट्ठो मे सम्म अक्खाहि, यथा जानेमु फन्दनं॥
१८.
यस्स साखा पलम्बन्ति, नमन्ति न च भञ्जरे।
सो रुक्खो फन्दनो नाम, यस्स मूले अहं ठितो॥
१९.
अरानं चक्कनाभीनं, ईसानेमिरथस्स च।
सब्बस्स ते कम्मनियो, अयं हेस्सति फन्दनो॥
२०.
इति फन्दनरुक्खोपि, तावदे अज्झभासथ।
मय्हम्पि वचनं अत्थि, भारद्वाज सुणोहि मे॥
२१.
इस्सस्स [इमस्स (क॰ सी॰ क॰)] उपक्खन्धम्हा [उपखन्धम्हा (क॰ सी॰ पी॰ क॰)], उक्कच्च चतुरङ्गुलम्।
तेन नेमिं पसारेसि [परिहरेसि (सी॰ पी॰)], एवं दळ्हतरं सिया॥
२२.
इति फन्दनरुक्खोपि, वेरं अप्पेसि तावदे।
जातानञ्च अजातानं, इस्सानं दुक्खमावहि॥
२३.
इच्चेवं [इच्चेव (सी॰ पी॰)] फन्दनो इस्सं, इस्सो च पन फन्दनम्।
अञ्ञमञ्ञं विवादेन, अञ्ञमञ्ञमघातयुं॥
२४.
एवमेव मनुस्सानं, विवादो यत्थ जायति।
मयूरनच्चं नच्चन्ति, यथा ते इस्सफन्दना॥
२५.
तं वो वदामि भद्दं वो [भद्दन्ते (क॰)], यावन्तेत्थ समागता।
सम्मोदथ मा विवदथ [माविवदित्थ (सी॰ स्या॰ पी॰)], मा होथ इस्सफन्दना॥
२६.
सामग्गिमेव [सामग्यमेव (स्या॰ क॰)] सिक्खेथ, बुद्धेहेतं पसंसितम्।
सामग्गिरतो धम्मट्ठो, योगक्खेमा न धंसतीति॥
फन्दनजातकं दुतियम्।

४७६. जवनहंसजातकं (३)
२७.
इधेव हंस निपत, पियं मे तव दस्सनम्।
इस्सरोसि अनुप्पत्तो, यमिधत्थि पवेदय॥
२८.
सवनेन एकस्स पिया भवन्ति, दिस्वा पनेकस्स वियेति [विनेति (स्या॰), विहेति (पी॰), विगेति (क॰ अट्ठ॰)] छन्दो।
दिस्वा च सुत्वा च पिया भवन्ति, कच्चिन्नु मे पीयसि [पिय्यसि (सी॰ पी॰)] दस्सनेन॥
२९.
सवनेन पियो मेसि, भिय्यो चागम्म दस्सनम्।
एवं पियदस्सनो मे [एवं पियदस्सनो समानो (सी॰ स्या॰ पी॰)], वस हंस ममन्तिके [मम सन्तिके (सी॰ स्या॰ पी॰)]॥
३०.
वसेय्याम तवागारे, निच्चं सक्कतपूजिता।
मत्तो च एकदा वज्जे [वज्जा (सी॰ पी॰)], ‘‘हंसराजं पचन्तु मे’’॥
३१.
धिरत्थु तं मज्जपानं, यं मे पियतरं तया।
न चापि मज्जं पिस्सामि [पिविस्सामि (स्या॰), पायामि (सी॰ पी॰)], याव मे वच्छसी घरे॥
३२.
सुविजानं सिङ्गालानं, सकुणानञ्च [सकुन्तानञ्च (सी॰ स्या॰ पी॰)] वस्सितम्।
मनुस्सवस्सितं राज, दुब्बिजानतरं ततो॥
३३.
अपि चे मञ्ञती पोसो, ञाति मित्तो सखाति वा।
यो पुब्बे सुमनो हुत्वा, पच्छा सम्पज्जते दिसो॥
३४.
यस्मिं मनो निविसति, अविदूरे सहापि सो।
सन्तिकेपि हि सो दूरे, यस्मिं नाविसते [यस्मा विवसते (सी॰ स्या॰ पी॰)] मनो॥
३५.
अन्तोपि सो होति पसन्नचित्तो, पारं समुद्दस्स पसन्नचित्तो।
अन्तोपि सो होति पदुट्ठचित्तो, पारं समुद्दस्स पदुट्ठचित्तो॥
३६.
संवसन्ता विवसन्ति, ये दिसा ते रथेसभ।
आरा सन्तो संवसन्ति, मनसा रट्ठवड्ढन॥
३७.
अतिचिरं निवासेन, पियो भवति अप्पियो।
आमन्त खो तं गच्छाम [गच्छामि (स्या॰)], पुरा ते होम अप्पिया [होमि अप्पियो (स्या॰)]॥
३८.
एवं चे याचमानानं, अञ्जलिं नावबुज्झसि।
परिचारकानं सतं [सन्तानं (सी॰ स्या॰), सत्तानं (पी॰)], वचनं न करोसि नो।
एवं तं अभियाचाम, पुन कयिरासि परियायं॥
३९.
एवं चे नो विहरतं, अन्तरायो न हेस्सति।
तुय्हञ्चापि [वापि (स्या॰ पी॰ क॰)] महाराज, मय्हञ्च [वा (बहूसु)] रट्ठवड्ढन।
अप्पेव नाम पस्सेमु [पस्सेम (सी॰ स्या॰ पी॰)], अहोरतानमच्चयेति॥
जवनहंसजातकं ततियम्।

४७७. चूळनारदजातकं (४)
४०.
न ते कट्ठानि भिन्नानि, न ते उदकमाभतम्।
अग्गीपि ते न हापितो [हासितो (सी॰ स्या॰)], किं नु मन्दोव झायसि॥
४१.
न उस्सहे वने वत्थुं, कस्सपामन्तयामि तम्।
दुक्खो वासो अरञ्ञस्मिं, रट्ठं इच्छामि गन्तवे॥
४२.
यथा अहं इतो गन्त्वा, यस्मिं जनपदे वसम्।
आचारं ब्रह्मे [ब्रह्मं (क॰)] सिक्खेय्यं, तं धम्मं अनुसास मं॥
४३.
सचे अरञ्ञं हित्वान, वनमूलफलानि च।
रट्ठे रोचयसे वासं, तं धम्मं निसामेहि मे॥
४४.
विसं मा पटिसेवित्थो [पटिसेवित्थ (स्या॰ क॰)], पपातं परिवज्जय।
पङ्के च मा विसीदित्थो [पङ्को च मा विसियित्थो (क॰)], यत्तो चासीविसे चरे॥
४५.
किं नु विसं पपातो वा, पङ्को वा ब्रह्मचारिनम्।
कं त्वं आसीविसं ब्रूसि, तं मे अक्खाहि पुच्छितो।
४६.
आसवो तात लोकस्मिं, सुरा नाम पवुच्चति।
मनुञ्ञो [मनुञ्ञा (सी॰ स्या॰ पी॰)] सुरभी वग्गु, सादु [मधु (सी॰ स्या॰)] खुद्दरसूपमो [रसूपमा (सी॰ स्या॰ पी॰)]।
विसं तदाहु अरिया से, ब्रह्मचरियस्स नारद॥
४७.
इत्थियो तात लोकस्मिं, पमत्तं पमथेन्ति ता।
हरन्ति युविनो चित्तं, तूलं भट्ठंव मालुतो।
पपातो एसो अक्खातो, ब्रह्मचरियस्स नारद॥
४८.
लाभो सिलोको सक्कारो, पूजा परकुलेसु च।
पङ्को एसो च [एसोव (सी॰ स्या॰ पी॰)] अक्खातो, ब्रह्मचरियस्स नारद॥
४९.
ससत्था [महन्ता (स्या॰ क॰)] तात राजानो, आवसन्ति महिं इमम्।
ते तादिसे मनुस्सिन्दे, महन्ते तात नारद॥
५०.
इस्सरानं अधिपतीनं, न तेसं पादतो चरे।
आसीविसोति [आसीविसो सो (सी॰ पी॰)] अक्खातो, ब्रह्मचरियस्स नारद॥
५१.
भत्तत्थो भत्तकाले च [यं (सी॰ पी॰)], यं गेहमुपसङ्कमे।
यदेत्थ कुसलं जञ्ञा, तत्थ घासेसनं चरे॥
५२.
पविसित्वा परकुलं, पानत्थं [पानत्थो (स्या॰ पी॰)] भोजनाय वा।
मितं खादे मितं भुञ्जे, न च रूपे मनं करे॥
५३.
गोट्ठं मज्जं किराटञ्च [किरासञ्च (सी॰ स्या॰), किरासं वा (पी॰)], सभा निकिरणानि च।
आरका परिवज्जेहि, यानीव विसमं पथन्ति॥
चूळनारदजातकं चतुत्थम्।

४७८. दूतजातकं (५)
५४.
दूते ते ब्रह्मे [दूते ब्राह्मण (क॰)] पाहेसिं, गङ्गातीरस्मि झायतो।
तेसं पुट्ठो न ब्याकासि, दुक्खं गुय्हमतं [गुय्हं मतं (सी॰), तुय्हं मतं (स्या॰ क॰)] नु ते॥
५५.
सचे ते दुक्खमुप्पज्जे, कासीनं रट्ठवड्ढन।
मा खो नं तस्स अक्खाहि, यो तं दुक्खा न मोचये॥
५६.
यो तस्स [यो च तथा (पी॰)] दुक्खजातस्स, एकङ्गमपि भागसो [एकन्तमपि भासतो (सी॰ पी॰)]।
विप्पमोचेय्य धम्मेन, कामं तस्स पवेदय [पवेदये (सी॰)]॥
५७.
सुविजानं सिङ्गालानं, सकुणानञ्च वस्सितम्।
मनुस्सवस्सितं राज, दुब्बिजानतरं ततो॥
५८.
अपि चे मञ्ञती पोसो, ञाति मित्तो सखाति वा।
यो पुब्बे सुमनो हुत्वा, पच्छा सम्पज्जते दिसो॥
५९.
यो अत्तनो दुक्खमनानुपुट्ठो, पवेदये जन्तु अकालरूपे।
आनन्दिनो तस्स भवन्तिमित्ता [भवन्त’मित्ता (सी॰ पी॰)], हितेसिनो तस्स दुखी भवन्ति॥
६०.
कालञ्च ञत्वान तथाविधस्स, मेधावीनं एकमनं विदित्वा।
अक्खेय्य तिब्बानि [तिप्पानि (सी॰ स्या॰ पी॰)] परस्स धीरो, सण्हं गिरं अत्थवतिं पमुञ्चे॥
६१.
सचे च जञ्ञा अविसय्हमत्तनो, न ते हि मय्हं [नायं नीति मय्ह (सी॰ पी॰)] सुखागमाय।
एकोव तिब्बानि सहेय्य धीरो, सच्चं हिरोत्तप्पमपेक्खमानो॥
६२.
अहं रट्ठानि विचरन्तो, निगमे राजधानियो।
भिक्खमानो महाराज, आचरियस्स धनत्थिको॥
६३.
गहपती राजपुरिसे, महासाले च ब्राह्मणे।
अलत्थं सत्त निक्खानि, सुवण्णस्स जनाधिप।
ते मे नट्ठा महाराज, तस्मा सोचामहं भुसं॥
६४.
पुरिसा ते महाराज, मनसानुविचिन्तिता।
नालं दुक्खा पमोचेतुं, तस्मा तेसं न ब्याहरिं॥
६५.
त्वञ्च खो मे महाराज, मनसानुविचिन्तितो।
अलं दुक्खा पमोचेतुं, तस्मा तुय्हं पवेदयिं॥
६६.
तस्सादासि पसन्नत्तो, कासीनं रट्ठवड्ढनो।
जातरूपमये निक्खे, सुवण्णस्स चतुद्दसाति॥
दूतजातकं पञ्चमम्।

४७९. कालिङ्गबोधिजातकं (६)
६७.
राजा कालिङ्गो चक्कवत्ति, धम्मेन पथविमनुसासं [मनुसासि (स्या॰ क॰)]।
अगमा [अगमासि (स्या॰ क॰)] बोधिसमीपं, नागेन महानुभावेन॥
६८.
कालिङ्गो भारद्वाजो च, राजानं कालिङ्गं समणकोलञ्ञम्।
चक्कं वत्तयतो परिग्गहेत्वा [परिणेत्वा (पी॰)], पञ्जली इदमवोच॥
६९.
पच्चोरोह महाराज, भूमिभागो यथा समणुग्गतो [समनुगीतो (सी॰ स्या॰ पी॰)]।
इध अनधिवरा बुद्धा, अभिसम्बुद्धा विरोचन्ति॥
७०.
पदक्खिणतो आवट्टा, तिणलता अस्मिं भूमिभागस्मिम्।
पथविया नाभियं [पुथुविया अयं (सी॰), पठविया अयं (स्या॰), पुथविया’यं (पी॰)] मण्डो, इति नो सुतं मन्ते महाराज [सुतं महाराज (सी॰ स्या॰ पी॰)]॥
७१.
सागरपरियन्ताय, मेदिनिया सब्बभूतधरणिया।
पथविया अयं मण्डो, ओरोहित्वा नमो करोहि॥
७२.
ये ते भवन्ति नागा च, अभिजाता च कुञ्जरा।
एत्तावता पदेसं ते, नागा नेव मुपयन्ति॥
७३.
अभिजातो नागो [अभिजातो ते नागो (सी॰ पी॰ अट्ठ॰)] कामं, पेसेहि कुञ्जरं दन्तिम्।
एत्तावता पदेसो [पदेसो च (स्या॰ क॰)], सक्का [न सक्का (स्या॰)] नागेन मुपगन्तुं॥
७४.
तं सुत्वा राजा कालिङ्गो, वेय्यञ्जनिकवचो निसामेत्वा।
सम्पेसेसि नागं ञस्साम, मयं यथिमस्सिदं [यथा इदं (सी॰ स्या॰ पी॰)] वचनं॥
७५.
सम्पेसितो च रञ्ञा, नागो कोञ्चोव अभिनदित्वान।
पटिसक्कित्वा [पटिओसक्कित्वा (क॰)] निसीदि, गरुंव भारं असहमानो॥
७६.
कालिङ्गभारद्वाजो, नागं खीणायुकं विदित्वान।
राजानं कालिङ्गं, तरमानो अज्झभासित्थ।
अञ्ञं सङ्कम नागं, नागो खीणायुको महाराज॥
७७.
तं सुत्वा कालिङ्गो, तरमानो सङ्कमी नागम्।
सङ्कन्तेव रञ्ञे, नागो तत्थेव पति [पतितो (क॰)] भुम्या।
वेय्यञ्जनिकवचो, यथा तथा अहु नागो॥
७८.
कालिङ्गो राजा कालिङ्गं, ब्राह्मणं एतदवोच।
त्वमेव असि सम्बुद्धो, सब्बञ्ञू सब्बदस्सावी॥
७९.
तं अनधिवासेन्तो कालिङ्गं [कालिङ्गो (सी॰ स्या॰ पी॰)], ब्राह्मणो इदमवोच।
वेय्यञ्जनिका हि मयं, बुद्धा सब्बञ्ञुनो महाराज॥
८०.
सब्बञ्ञू सब्बविदू च, बुद्धा न लक्खणेन जानन्ति।
आगमबलसा [आगमपुरिसा (पी॰)] हि मयं, बुद्धा सब्बं पजानन्ति॥
८१.
महयित्वा सम्बोधिं [महायित्वान सम्बोधिं (सी॰ पी॰), पहंसित्वान सम्बोधिं (स्या॰), ममायित्वान तं बोधिं (क॰)], नानातुरियेहि वज्जमानेहि।
मालाविलेपनं अभिहरित्वा [मालागन्धविलेपनं आहरित्वा (सी॰ पी॰); पाकारपरिक्खेपं कारेसि। अथ राजा पायासि (सी॰ स्या॰ पी॰)] अथ राजा मनुपायासि [पाकारपरिक्खेपं कारेसि। अथ राजा पायासि (सी॰ स्या॰ पी॰)]॥
८२.
सट्ठि वाहसहस्सानि, पुप्फानं सन्निपातयि।
पूजेसि राजा कालिङ्गो, बोधिमण्डमनुत्तरन्ति [वरुत्तमेति (सी॰)]॥
कालिङ्गबोधिजातकं छट्ठम्।

४८०. अकित्तिजातकं (७)
८३.
अकित्तिं [अकत्तिं (क॰)] दिस्वा सम्मन्तं, सक्को भूतपती ब्रवि।
किं पत्थयं महाब्रह्मे, एको सम्मसि घम्मनि॥
८४.
दुक्खो पुनब्भवो सक्क, सरीरस्स च भेदनम्।
सम्मोहमरणं दुक्खं, तस्मा सम्मामि वासव॥
८५.
एतस्मिं ते सुलपिते, पतिरूपे सुभासिते।
वरं कस्सप ते दम्मि, यं किञ्चि मनसिच्छसि॥
८६.
वरं चे मे अदो सक्क, सब्बभूतानमिस्सर।
येन पुत्ते च दारे च, धनधञ्ञं पियानि च।
लद्धा नरा न [लद्धा नञ्ञानि (क॰)] तप्पन्ति, सो लोभो न मयी वसे॥
८७.
एतस्मिं ते सुलपिते, पतिरूपे सुभासिते।
वरं कस्सप ते दम्मि, यं किञ्चि मनसिच्छसि॥
८८.
वरं चे मे अदो सक्क, सब्बभूतानमिस्सर।
खेत्तं वत्थुं हिरञ्ञञ्च, गवस्सं दासपोरिसम्।
येन जातेन जीयन्ति, सो दोसो न मयी वसे॥
८९.
एतस्मिं ते सुलपिते, पतिरूपे सुभासिते।
वरं कस्सप ते दम्मि, यं किञ्चि मनसिच्छसि॥
९०.
वरं चे मे अदो सक्क, सब्बभूतानमिस्सर।
बालं न पस्से न सुणे, न च बालेन संवसे।
बालेनल्लाप [बालेना’लाप (?)] सल्लापं, न करे न च रोचये॥
९१.
किं नु ते अकरं बालो, वद कस्सप कारणम्।
केन कस्सप बालस्स, दस्सनं नाभिकङ्खसि॥
९२.
अनयं नयति दुम्मेधो, अधुरायं नियुञ्जति।
दुन्नयो सेय्यसो होति, सम्मा वुत्तो पकुप्पति।
विनयं सो न जानाति, साधु तस्स अदस्सनं॥
९३.
एतस्मिं ते सुलपिते, पतिरूपे सुभासिते।
वरं कस्सप ते दम्मि, यं किञ्चि मनसिच्छसि॥
९४.
वरं चे मे अदो सक्क, सब्बभूतानमिस्सर।
धीरं पस्से सुणे धीरं, धीरेन सह संवसे।
धीरेनल्लापसल्लापं, तं करे तञ्च रोचये॥
९५.
किं नु ते अकरं धीरो, वद कस्सप कारणम्।
केन कस्सप धीरस्स, दस्सनं अभिकङ्खसि॥
९६.
नयं नयति मेधावी, अधुरायं न युञ्जति।
सुनयो सेय्यसो होति, सम्मा वुत्तो न कुप्पति।
विनयं सो पजानाति, साधु तेन समागमो॥
९७.
एतस्मिं ते सुलपिते, पतिरूपे सुभासिते।
वरं कस्सप ते दम्मि, यं किञ्चि मनसिच्छसि॥
९८.
वरं चे मे अदो सक्क, सब्बभूतानमिस्सर।
ततो रत्या विवसाने [विवसने (सी॰ स्या॰ पी॰)], सूरियुग्गमनं [सुरियस्सुग्गमनं (सी॰ स्या॰ पी॰)] पति।
दिब्बा भक्खा पातुभवेय्युं, सीलवन्तो च याचका॥
९९.
ददतो मे [ददतो च मे (पी॰)] न खीयेथ, दत्वा नानुतपेय्यहम्।
ददं चित्तं पसादेय्यं, एतं सक्क वरं वरे॥
१००.
एतस्मिं ते सुलपिते, पतिरूपे सुभासिते।
वरं कस्सप ते दम्मि, यं किञ्चि मनसिच्छसि॥
१०१.
वरं चे मे अदो सक्क, सब्बभूतानमिस्सर।
न मं पुन उपेय्यासि, एतं सक्क वरं वरे॥
१०२.
बहूहि वतचरियाहि [वत्तचरियाहि (सी॰ स्या॰ क॰)], नरा च अथ नारियो।
दस्सनं अभिकङ्खन्ति, किं नु मे दस्सने भयं॥
१०३.
तं तादिसं देववण्णं [देववण्णिं (पी॰)], सब्बकामसमिद्धिनम्।
दिस्वा तपो पमज्जेय्य [दिस्वा तपो पमज्जेय्यं (सी॰ स्या॰ पी॰), दिस्वानहं पमज्जेय्यं (चरियापिटकट्ठकथा)], एतं ते दस्सने भयन्ति॥
अकित्तिजातकं सत्तमम्।

४८१. तक्कारियजातकं (८)
१०४.
अहमेव दुब्भासितं भासि बालो, भेकोवरञ्ञे अहिमव्हायमानो [मव्हयानो (सी॰ पी॰)]।
तक्कारिये सोब्भमिमं [सोब्भम्हि अहं (क॰)] पतामि, न किरेव साधु अतिवेलभाणी [साधूत्यतिवेलभाणी (क॰)]॥
१०५.
पप्पोति मच्चो अतिवेलभाणी, बन्धं वधं सोकपरिद्दवञ्च।
अत्तानमेव गरहासि एत्थ, आचेर यं तं निखणन्ति सोब्भे॥
१०६.
किमेवहं तुण्डिलमनुपुच्छिं, करेय्य सं [करेय्यासं (स्या॰), करेय्य स (क॰), भरेय्य सं (?)] भातरं काळिकायं [काळिकाय (स्या॰ क॰)]।
नग्गोवहं [नग्गोच’हं (?)] वत्थयुगञ्च जीनो, अयम्पि अत्थो बहुतादिसोव॥
१०७.
यो युज्झमानानमयुज्झमानो [युज्झमानेन अयुज्झमानो (क॰)], मेण्डन्तरं अच्चुपती कुलिङ्गो।
सो पिंसितो मेण्डसिरेहि तत्थ, अयम्पि अत्थो बहुतादिसोव॥
१०८.
चतुरो जना पोत्थकमग्गहेसुं, एकञ्च पोसं अनुरक्खमाना।
सब्बेव ते भिन्नसिरा सयिंसु, अयम्पि अत्थो बहुतादिसोव॥
१०९.
अजा यथा वेळुगुम्बस्मिं बद्धा [बन्धं (स्या॰ क॰)], अवक्खिपन्ती असिमज्झगच्छि।
तेनेव तस्सा गलकावकन्तं [गलया विकन्तुं (क॰), गलकं विकन्ता (स्या॰)], अयम्पि अत्थो बहुतादिसोव॥
११०.
इमे न देवा न गन्धब्बपुत्ता, मिगा इमे अत्थवसं गता मे [अत्थवसाभता इमे (सी॰ स्या॰ पी॰)]।
एकञ्च नं सायमासे पचन्तु, एकं पुनप्पातरासे [एकञ्च नं पातरासे (क॰ सी॰ पी॰)] पचन्तु॥
१११.
सतं सहस्सानि दुभासितानि, कलम्पि नाग्घन्ति सुभासितस्स।
दुब्भासितं सङ्कमानो किलेसो [किलिस्सति (?)], तस्मा तुण्ही किम्पुरिसा [किंपुरिसो (सी॰ स्या॰)] न बाल्या॥
११२.
या मेसा ब्याहासि [ब्याकासि (सी॰ स्या॰ पी॰)] पमुञ्चथेतं, गिरिञ्च नं [गिरिं वरं (क॰)] हिमवन्तं नयन्तु।
इमञ्च खो देन्तु महानसाय, पातोव नं पातरासे पचन्तु॥
११३.
पज्जुन्ननाथा पसवो, पसुनाथा अयं पजा।
त्वं नाथोसि [त्वं-नाथो’स्मि (सी॰ स्या॰ पी॰)] महाराज, नाथोहं भरियाय मे [अम्ह-नाथा मम भरिया (क॰ सी॰ स्या॰)]।
द्विन्नमञ्ञतरं ञत्वा, मुत्तो गच्छेय्य पब्बतं॥
११४.
न वे निन्दा सुपरिवज्जयेथ [सुपरिवज्जयाथ (स्या॰)], नाना जना सेवितब्बा जनिन्द।
येनेव एको लभते पसंसं, तेनेव अञ्ञो लभते निन्दितारं॥
११५.
सब्बो लोको परिचित्तो अतिचित्तो [परचित्तेन अतिचित्तो (सी॰ स्या॰), परचित्तेन अचित्तो (सी॰ अट्ठ॰)], सब्बो लोको चित्तवा सम्हि चित्ते।
पच्चेकचित्ता पुथु सब्बसत्ता, कस्सीध चित्तस्स वसे न वत्ते॥
११६.
तुण्ही अहू किम्पुरिसो सभरियो [अभाणी (क॰)], यो दानि ब्याहासि भयस्स भीतो।
सो दानि मुत्तो सुखितो अरोगो, वाचाकिरेवत्तवती नरानन्ति॥
तक्कारियजातकं अट्ठमम्।

४८२. रुरुमिगराजजातकं (९)
११७.
तस्स [कस्स (सी॰ पी॰)] गामवरं दम्मि, नारियो च अलङ्कता।
यो [को (सी॰ स्या॰ पी॰)] मेतं मिगमक्खाति [मक्खासि (स्या॰ क॰)], मिगानं मिगमुत्तमं॥
११८.
मय्हं गामवरं देहि, नारियो च अलङ्कता।
अहं ते मिगमक्खिस्सं, मिगानं मिगमुत्तमं॥
११९.
एतस्मिं वनसण्डस्मिं, अम्बा साला च पुप्फिता।
इन्दगोपकसञ्छन्ना , एत्थेसो तिट्ठते मिगो॥
१२०.
धनुं अद्वेज्झं [अदेज्झं (सी॰ पी॰), सरज्जं (क॰)] कत्वान, उसुं सन्नय्हुपागमि [सन्धायुपागमि (सी॰ पी॰)]।
मिगो च दिस्वा राजानं, दूरतो अज्झभासथ॥
१२१.
आगमेहि महाराज, मा मं विज्झि रथेसभ।
को नु ते इदमक्खासि, एत्थेसो तिट्ठते मिगो॥
१२२.
एस पापचरो पोसो, सम्म तिट्ठति आरका।
सोयं [सो हि (सी॰ स्या॰ पी॰)] मे इदमक्खासि, एत्थेसो तिट्ठते मिगो॥
१२३.
सच्चं किरेव माहंसु, नरा एकच्चिया इध।
कट्ठं निप्लवितं सेय्यो, न त्वेवेकच्चि यो नरो॥

१२४.
किं नु रुरु गरहसि मिगानं, किं पक्खीनं किं पन मानुसानम्।
भयञ्हि मं विन्दतिनप्परूपं, सुत्वान तं मानुसिं भासमानं॥
१२५.
यमुद्धरिं वाहने वुय्हमानं, महोदके सलिले सीघसोते।
ततोनिदानं भयमागतं मम, दुक्खो हवे राज असब्भि सङ्गमो॥
१२६.
सोहं चतुप्पत्तमिमं विहङ्गमं, तनुच्छिदं हदये ओस्सजामि।
हनामि तं मित्तदुब्भिं अकिच्चकारिं [हनामि मित्तद्दु’मकिच्चकारिं (सी॰ पी॰)], यो तादिसं कम्मकतं न जाने॥
१२७.
धीरस्स बालस्स हवे जनिन्द, सन्तो वधं नप्पसंसन्ति जातु।
कामं घरं गच्छतु पापधम्मो, यञ्चस्स भट्ठं तदेतस्स देहि।
अहञ्च ते कामकरो भवामि॥
१२८.
अद्धा रुरु अञ्ञतरो सतं सो [सतं’से (सी॰)], यो दुब्भतो [दुब्भिनो (स्या॰), दूभतो (पी॰)] मानुसस्स न दुब्भि।
कामं घरं गच्छतु पापधम्मो, यञ्चस्स भट्ठं तदेतस्स दम्मि।
अहञ्च ते कामचारं ददामि॥
१२९.
सुविजानं सिङ्गालानं, सकुणानञ्चवस्सितम्।
मनुस्सवस्सितं राज, दुब्बिजानतरं ततो॥
१३०.
अपि चे मञ्ञती पोसो, ञाति मित्तो सखाति वा।
यो पुब्बे सुमनो हुत्वा, पच्छा सम्पज्जते दिसो॥
१३१.
समागता जानपदा, नेगमा च समागता।
मिगा सस्सानि खादन्ति, तं देवो पटिसेधतु॥
१३२.
कामं जनपदो मासि, रट्ठञ्चापि विनस्सतु।
न त्वेवाहं रुरुं दुब्भे, दत्वा अभयदक्खिणं॥
१३३.
मा मे जनपदो आसि [मा मं जनपदो अहु (स्या॰)], रट्ठञ्चापि विनस्सतु।
न त्वेवाहं [न त्वेव (क॰ सी॰ क॰)] मिगराजस्स, वरं दत्वा मुसा भणेति॥
रुरुमिगराजजातकं नवमम्।

४८३. सरभमिगजातकं (१०)
१३४.
आसीसेथेव [आसिंसेथेव (सी॰ स्या॰ पी॰)] पुरिसो, न निब्बिन्देय्य पण्डितो।
पस्सामि वोहं अत्तानं, यथा इच्छिं तथा अहु॥
१३५.
आसीसेथेव पुरिसो, न निब्बिन्देय्य पण्डितो।
पस्सामि वोहं अत्तानं, उदका थलमुब्भतं॥
१३६.
वायमेथेव पुरिसो, न निब्बिन्देय्य पण्डितो।
पस्सामि वोहं अत्तानं, यथा इच्छिं तथा अहु॥
१३७.
वायमेथेव पुरिसो, न निब्बिन्देय्य पण्डितो।
पस्सामि वोहं अत्तानं, उदका थलमुब्भतं॥
१३८.
दुक्खूपनीतोपि नरो सपञ्ञो, आसं न छिन्देय्य सुखागमाय।
बहू हि फस्सा अहिता हिता च, अवितक्किता मच्चमुपब्बजन्ति [मच्चुमुपब्बजन्ति (क॰ सी॰ पी॰), मच्चुमुपपज्जन्ति (स्या॰ क॰) एत्थ ‘‘अवितक्कितापि फस्सो मच्चं जनं उपगच्छन्ती’’ति अत्थो]॥
१३९.
अचिन्तितम्पि भवति, चिन्तितम्पि विनस्सति।
न हि चिन्तामया भोगा, इत्थिया पुरिसस्स वा॥
१४०.
सरभं गिरिदुग्गस्मिं, यं त्वं अनुसरी पुरे।
अलीनचित्तस्स तुवं, विक्कन्तमनुजीवसि [तव, विक्कन्तं जीवितं लभि (क॰)]॥
१४१.
यो तं विदुग्गा नरका समुद्धरि, सिलाय योग्गं सरभो करित्वा।
दुक्खूपनीतं मच्चुमुखा पमोचयि, अलीनचित्तं तं मिगं [तमेव (स्या॰ क॰)] वदेसि॥
१४२.
किं त्वं नु [तुवन्नु (सी॰ पी॰)] तत्थेव तदा अहोसि, उदाहु ते कोचि नं [तं (क॰)] एतदक्खा।
विवट्टच्छद्दो नुसि सब्बदस्सी, ञाणं नु ते ब्राह्मण भिंसरूपं॥
१४३.
न चेवहं तत्थ तदा अहोसिं, न चापि मे कोचि नं [तं (क॰)] एतदक्खा।
गाथापदानञ्च सुभासितानं, अत्थं तदानेन्ति जनिन्द धीरा॥
१४४.
आदाय पत्तिं [पत्तं (स्या॰), पट्टिं (क॰)] परविरियघातिं, चापे सरं किं विचिकिच्छसे तुवम्।
नुन्नो [नुण्णो (क॰ सी॰ स्या॰), तुण्णो (क॰)] सरो सरभं हन्तु खिप्पं, अन्नञ्हि एतं वरपञ्ञ रञ्ञो॥
१४५.
अद्धा पजानामि अहम्पि एतं, अन्नं मिगो ब्राह्मण खत्तियस्स।
पुब्बे कतञ्च [पुब्बे च कतं (क॰)] अपचायमानो, तस्मा मिगं सरभं नो हनामि॥
१४६.
नेसो मिगो महाराज, असुरेसो दिसम्पति।
एतं हन्त्वा मनुस्सिन्द, भवस्सु अमराधिपो॥
१४७.
सचे च राजा [राज (सी॰ स्या॰ पी॰)] विचिकिच्छसे तुवं, हन्तुं मिगं सरभं सहायकं [सहायकं मे (सी॰ पी॰)]।
सपुत्तदारो नरवीरसेट्ठ [नरविरियसेट्ठ (सी॰ पी॰)], गन्त्वा [गन्ता (सी॰ पी॰ अट्ठ॰)] तुवं वेतरणिं यमस्स॥
१४८.
कामं अहं जानपदा च सब्बे, पुत्ता च दारा च सहायसङ्घा।
गच्छेमु तं वेतरणिं यमस्स, न त्वेव हञ्ञो मम पाणदो यो [पाणद’स्स (सी॰ स्या॰ पी॰)]॥
१४९.
अयं मिगो किच्छगतस्स मय्हं, एकस्स कत्ता विवनस्मि घोरे।
तं तादिसं पुब्बकिच्चं सरन्तो, जानं महाब्रह्मे कथं हनेय्यं॥
१५०.
मित्ताभिराधी चिरमेव जीव, रज्जं इमं धम्मगुणे [रज्जम्पिमं चस्स गणे (क॰)] पसास।
नारीगणेहि परिचारियन्तो, मोदस्सु रट्ठे तिदिवेव वासवो॥
१५१.
अक्कोधनो निच्चपसन्नचित्तो, सब्बातिथी याचयोगो भवित्वा [पाहुनके करित्वा (स्या॰), याचयोगो विदित्वा (क॰)]।
दत्वा च भुत्वा च यथानुभावं, अनिन्दितो सग्गमुपेहि ठानन्ति॥
सरभमिगजातकं दसमम्।
तेरसकनिपातं निट्ठितम्।
तस्सुद्दानं –
वरअम्ब कुठारि सहंसवरो, अथरञ्ञस्मिं दूतकपञ्चमको।
अथ बोधि अकित्ति सुतक्करिना, अथ रुरुमिगेनपरो सरभोति॥