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पुण्यश्लोक महाभागवत श्री मगनीराम जी बांगड
पुण्यश्लोक महाभागवत श्रीमगनीरामजी बांगड का जन्म डीडवाणा राजस्थान श्रीवैष्णव घराने में
श्रीमान् श्रेष्ठी श्रीरामप्रसादजी बांगड के यहां पुत्ररत्न के रूपमे हुआ।
आपके पितामह का नाम श्रीमान् श्रेष्ठि श्री रामनारायणदासजी बांगड था ।
उसकाल में उपलब्ध शिक्षा प्राप्तकर
दिनो दिन गुरुकृपा, भगवद्भक्तो सन्तजनों और विद्वानों के सहवास से सत्संग द्वारा
शास्त्रज्ञान एवं अनुभव मे बहुश्रुत होगए ।
भगवत्कथा के श्रवण मे आपकी अलौकिक निष्ठा और अभिरुचि थी ।
मनुष्य का जन्म केवल शारीरक बौद्ध एवं नैतिक आवश्यकता ओं को तृप्त करने में भी परिपूर्ण नहीं होजाता ।
यथार्थ में आध्यात्मिक प्रकाश प्राप्त करना
यह उसकी सब से बडी मावश्यकता है ।
उसकी प्राप्ति श्रीगुरुकृपाद्वारा ही संभव है ।
आपने उसकी प्राप्ति श्रीमदित्यादिविरुदभूषित शमदमदया-समतादिगुणगणार्णव जगद्गुरु श्रीमद्-रामानुजाचार्य श्री स्वामीजी महाराज श्री 1008 श्रीबालमुकुन्दाचार्यजी महाराज के श्री चरणों के आश्रित होकर,
उनकी कृपा से श्रीमन्नारायण के श्री चरणों मे आत्मसमर्पण किया ।
इस से एक आदर्श महाभागवत होकर मानवजीवनको सफल बनाया ।
श्रीगुरुकृपा से प्राप्त भगवद्भक्ति और श्रीवैष्णव भक्ति और भागवत दिनचर्या के प्रभाव से
आपकेलिए अर्थार्जन आदि का काल एवं भक्ति का काल भिन्नभिन्न न होकर
सब काल और सब धर्म भक्तिरूप होगऐ ।+++(4)+++
ऐसी भागवत जीवन कला का प्रतिपादन ही
श्रीरहस्यत्रयसार ग्रन्थ मे है ।
आपने सब शास्त्रों के सारभूत श्रीरहस्यप्रसार के उपदेशों को
आचरण में लाकर
यथार्थ में प्रपन्नों केलिए आदर्शभूत भागवतजीवन पद्धति से
अपना जीवन सफल किया ।
भागवत का पालन ही मुमुक्षों को दिनचर्या हैं ।+++(5)+++
17 वर्ष की अवस्था में आप डीडवाना से कलकत्ता पधारे ।
जगन्माता श्रीमहालक्ष्मी की आप पर अमित कृपा हुई ।
गुरुकृपा, भगवत्कृपा, भाग्य और पुरुषार्थ इन चारों के संमेलन से
आपकी गणना कुछ ही काल में धन-कुबेरों मे हुई ।+++(4)+++
40 वर्ष तक निरन्तर कर्मयोगरूप भगवत्कैंकर्य से सतत श्रियः पति का मुखोल्लास करते रहे ।
इस काल में भी आप सतत भगवद्भक्तों सन्तो विद्वानों और सत्पुरुषों के सत्संग द्वारा
आध्यात्म विद्या का श्रवण मनन करते रहे,
जिसके प्रभाव से अहंकार ममकार, मान, मद, मात्सर्य और असूया आदि प्राणिसुलभ दोषों से दूर रह सके ।
शास्त्रमर्यादा, भक्ति ज्ञान विराग श्रद्धा एवं अनासक्ति से संपन्न होकर
स्वस्वरूप ( आत्मस्वरूप ) के यथार्थ ज्ञाता होगए ।
प्राणिमात्र में भगवद्बुद्धि प्राप्त होजाने से
जो कोई भी किसी मनोरथ को लेकर अपके पास पहुंचा,
उसका अच्युत भाव से ‘अच्युतः प्रीयताम्’ कहकर सत्कार किया।+++(4)+++
आप भगवत्प्रेम शास्त्रमर्यादा सदाचार एवं भागवत जीवन की
साक्षात् मूर्ति थे ।
क्षणमात्रकाल भी आपने व्यर्थ नहीं जाने दिया ।
“सर्वभूतहिते रताः” होने के कारण
आपने अपने धनका सदुपयोग
प्राणिमात्र में भगवद्बुद्धि होने से
श्रियः पति की उपासना में किया ।+++(5)+++
अनेक प्राचीनमन्दिरों दिव्यदेशों धर्मशालाओं पाठशालाओं गोशालाओं एवं कूपों आदि के निर्माण
तथा उनके जीर्णोद्धार में किया ।+++(5)+++
श्रीपुष्कर राजका श्रीरमवैकुण्ठदिव्यदेश डीडवाना का दिव्य देश
तथा कलकत्ता का श्रीवैकुष्ठदिव्यदेश
आपकी गुरुनिष्ठा और श्रद्धा के मूर्तिमान् स्वरूप हैं ।
40 वर्ष तक निरन्तर कलकत्ता में
भगवत्कैंकर्य करते हुए मेवास करनेके अनन्तर
इस कैंकर्य के अपने प्रतिनिधि स्वरूप में
पुत्र और पौत्रों को देकर
आप श्रीपुष्कराज श्रीरमावैकुण्ठ में
श्रीवैकुण्ठनाथको संनिधि में
श्रीरहस्यत्रयसार आदिग्रग्थों का श्रवण और भगवच्चिन्तन करते हुए
आजीवन निवास किया ।+++(4)+++
संवत् 2007 की गुरुपूर्णिमा को आप
श्रीगुरुचरणो का ध्यान करते हुए
गुरुकृपासे श्रीवैकुण्ठ को प्राप्त कर
श्रीवैकुण्ठनाथको नित्य कैंकर्य में संमिलित होकर मुक्त होगए ।
“तेनैव धन्यः पुमान्” ।
“अनावृत्तिः शब्दात, अनावृत्तिः शब्दात्” ।
मितिवैशाखवदि 5 गुरुवार संवत् २०२५
अनिरुद्धाचार्य वेंकटाचार्य
मोहिनी महल, बंबर्ह गुजरात