रामानन्दः

(श्री-वैष्णव-मताब्ज-भास्कर-प्रस्तावात्)

आनन्दभाष्यकार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी का संक्षिप्त-परिचय
प्रस्तोता—आनन्दभाष्यसिंहासनासीनजी

आनन्दभाष्यकार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी का अवतार माघकृष्ण सप्तमी विक्रम-सम्वत् १३५६ में अतिसमृद्ध वशिष्ठ गोत्रीय तीनप्रवरवाले शुक्लयजुर्वेदीय वाजसनेय शाखाध्यायी कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में प्रयागराज में हुआ था। आपके पिताजी का नाम पण्डित श्रीपुण्यसदनशर्माजी तथा माताजी का नाम श्रीमती सुशीलादेवी था दम्पती द्वारा सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी की प्रबल आराधना से प्राप्त आप एकमात्र सन्तान थे जन्मनाम ‘रामानन्द’ था। ‘रामानन्दः स्वयं रामः प्रादुर्भूतो महीतले’ इस आगम प्रमाण्य से मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामजी के अवतार होने से प्रारम्भ से ही आप सवजनों के आकर्षण के केन्द्र बने थे बाललीला व्याज से बालपन से ही सस्वर वेदगान करना आपकी लीला का एक अङ्ग बन गया था। प्रारम्भिक शिक्षा घर में ही पिताजी के पास सम्पन्न होने पर मनुस्मृति आदि स्मृति के नियमानुसार विक्रमसम्वत् १३६१ वसन्तपञ्चमी में सविधि यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न कराकर विशिष्टाध्ययन के लिये श्रीमठ जो श्रीसम्प्रदाय का ख्यातिप्राप्त आचार्यपीठ था में श्रीसम्प्रदाय के २१ वें आचार्य जगद्‌गुरु श्रीराघवानन्दाचार्यजी के छत्र छाया में वाराणसी पहुँचकर विधि विधान के साथ वेद वेदान्तों का अध्ययन कर उनमें कुछ समय में ही निष्णात हो गये। समस्त धर्मशास्त्र तथा नास्तिक दर्शनों का भी आचार्य चरण से सम्यक् अध्ययन कर सभी विषयों में पटुता प्राप्त कर ली थी परिणामतः शास्त्रार्थ कला में पारङ्गत होने से विपक्षियों को पराजित कर अपने सनातन श्रीवैष्णव धर्म में दीक्षित कर सन्मार्ग में अग्रसर करना आपश्री का व्यवसाय सा हो गया था। आपश्री के माता पिता ने गृह प्रत्यावर्तनार्थ आचार्यपीठ में आकर आग्रह किया पर आपने देश तथा धर्म की अति संकटापन्न स्थिति की ओर संकेत कर विरक्त जीवन व्यतीत करते हुये देश तथा धर्म की संरक्षण-सेवा करने की प्रबल इच्छा प्रकटकर जगदाचार्यजी से संन्यास दीक्षा लेने की अनुमति मांगी। पर्याप्त चर्चा विचारणा के पश्चात् माता पिता की प्रव्रज्या ग्रहणकर श्रीवैष्णव धर्मोद्धार की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर जगद्‌गुरु श्रीराघवानन्दाचार्यजी ने सविधि पञ्चसंस्कारपूर्वक १३८१ विक्रमसम्वत् वसन्तपञ्चमी के पुण्य पर्व पर २५ वर्ष की अवस्था में सविधि श्रीवैष्णवीय संन्यास दीक्षा प्रदानकर कषाय वस्त्र तथा त्रिदण्डधारण कराकर षडक्षर श्रीराममहामन्त्र द्वय मन्त्र चरममन्त्र आदि मन्त्रों तथा रहस्यों का उपदेश दिया। आपका विरक्त दीक्षानाम ‘रामानन्दः स्वयं रामः’ इस शास्त्रानुमोदित श्रीरामानन्दाचार्यजी ही रहा [[P11]] आचार्यश्री ने केवल पूर्व नामान्त में आचार्य शब्द जोडकर प्रसिद्ध कर दिया। देश तथा सनातन धर्म के रक्षा के उद्देश्य से आपने सत्सम्प्रदायाचार्यों तथा विशिष्टजनों की संस्था स्थापित की जिसके आचार्य आप ही थे अतः आप ‘जगद्‌गुरु’ इस महनीय उपाधि से अलंकृत किये गये वस्तुतः इस गरिमामय उपाधि के योग्य आप ही हैं।

आपकी शास्त्रीय तथा व्यवहारिक चातुरिका ही सुपरिणाम था कि एकसाथ में पारस्परिक वैमनस्य तथा यवनों का त्रास समित हुये। आचार्यश्री के समन्वयात्मक प्रचार तथा प्रयास ने समस्त देश में शान्ति तथा आत्मविश्वास का वातावरण जागरित किया परिणामतः गयासुद्दीन से सिकन्दर शाह तक के क्रूर शासकों के आतंक से हिन्दू प्रजा स्वस्थ व सुरक्षित रहसकी। आचार्य प्रवर के लोकोत्तर चमत्कारपूर्ण कार्यों का ही परिणाम है कि इस्लामों के बलात् धर्म परिवर्तनरूप वाढ अवरुद्ध हुआ नहीं तो भारतवर्ष का नकशा आज कुछ और ही होता। आपश्री का विक्रमसम्वत् १३९५ वसन्तपञ्चमी के पुण्य पर्व के दिन विशेष समारोह के साथ जगद्‌गुरु श्रीराघवानन्दाचार्यजी ने ३९ वर्ष की अवस्था में श्रीसम्प्रदाय के २२वें आचार्य के रूपमें अभिषेक किया, इसी प्रसङ्ग में समस्त धर्माचार्यों व जनता द्वारा ‘आचार्यसम्राट्’ की उपाधि से विभूषित किये गये आचार्यजी ने सनातन धर्म प्रचारार्थ तीर्थ यात्रा के बहाने से दिग्विजय यात्रा प्रारम्भ की। अंग-बंग तथा कलिंग आदि प्रदेशों में सभी ने सादर आपकी पूजा की। विजय नगर में महाराजा द्वारा आपकी पालकी वहन की गई तथा अभूतपूर्व स्वागत हुआ इसी उपलक्ष्य में विशिष्ट समारोह के साथ श्रीराममहायाग सम्पन्न हुआ। अनन्तर विजय यात्राक्रम में बोढाण पहुंचकर श्रीसम्प्रदाय के ९वें परमाचार्य जगद्‌गुरु श्रीपुरुषोत्तम आचार्यजी बोधायन के चरणपादुकाओं का सविधि पूजन सम्पन्नकर गिरनार पधारे वहाँ देवताओं द्वारा आपकी श्रीचरण पादुका प्राप्तकर प्रतिष्ठित की गई। वहां से द्वारका होकर विश्रामद्वारका में पधारकर एक माह तक विश्राम के व्याज से अपने परमाचार्य महर्षि श्रीबोधायनस्थापित श्रौतविशिष्टाद्वैतपीठ-आचार्यपीठ की व्यवस्था संचालन प्रणाली उत्तराधिकार नियुक्ति आदि की सुचारु निर्देशन के साथ वेदान्त दर्शन पर प्रवचन के द्वारा वेदान्त तत्त्व का प्रबल प्रचार करके आबू की ओर प्रस्थित हुये। रास्ते में श्रीकपिल जन्मभूमि में श्रौतविशिष्टाद्वैत रूपी वेदान्त गङ्गा की धरा में साधकों को अवगाहित कराते हुये आबू पहुँचे। आबू में सर्वेश्वर श्रीरघुनाथजी की प्रतिष्ठा प्रसङ्ग में गिरीनाथ महाचार्यजी की आकांक्षाओं को पूर्णतः प्रशमनकर प्रसङ्गोपात अद्वैतमत का भी शास्त्रीय प्रणाली से पूर्णतः खण्डन कर परमवैदिक विशिष्टाद्वैतसिद्धान्त का विजय ध्वज को फहराने के साथ शङ्खनाद करके समस्तजनों को त्रिविध तापों से मुक्तकर दिये। समस्त प्रदेशों में परिभ्रमण कर सद्धर्म सत्कर्म के सम्वर्धन के साथ सारे देश में भक्ति के लहर को प्रजागरित कर मानव मात्र को परमधामाभिमुखी बनाकर चैत्रशुक्ल ९ श्रीरामनवमी विक्रम सम्वत् १५३२ में अन्तर्धान हुये-लीलासम्वरण कर श्रीसाकेत पधारे। आचार्यजी के ब्रह्मसूत्र गीता तथा उपनि पदों यों तीनों प्रस्थानों पर प्रसाद गम्भीर परमवैदिक विशिष्टाद्वैतमत प्रतिपादक आनन्दभाष्य हैं। तथा सर्वशास्त्रसार और सर्व जनगम्य तथा सर्वजनोपकारक परिशिष्ट श्रीरामार्चनपद्धति के साथ श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर जो प्रस्थानत्रयानन्दभाष्यों का संक्षिप्त सार है। आचार्य प्रवर की अत्युत्कृष्ट कृति है। [[P12]]

दुर्दान्त यवन शासक द्वारा अत्याचार का प्रतीक हिन्दुओं पर लादा गया जजियाकर के विरुद्ध आचार्यजी ने धर्मयुद्ध छेडा। यौगिकशङ्खनाद द्वारा जगदाचार्यजी ने निग्रह शक्ति को आकाश मण्डल में प्रसारित करदिया परिणाम स्वरूप देश भर के मस्जिदों में मुल्ला मौलवियों की आवाज बन्द हो गई अतः सर्वत्र नवाज पढना बन्द हो गया। इस आपत्ति से बचने के लिये महम्मद तुगलक बादशाह ने मौलवियों के साथ काशी आचार्यपीठ में आकर श्रीकबीर दासजी को साथ में लेकर जगदाचार्य श्रीरामानन्दाचार्यजी के चरणों में प्रणिपात पूर्वक क्षमा याचना कर सशर्त जजियाकर को हटादिया।

जजिया-कर की १२ शर्ते निम्न हैं—१-हिन्दुओं पर जजिया कर न लगाया जाय। २- हिन्दुओं के धर्मस्थान मठ मन्दिर आदि के बनाने का प्रतिबन्ध उठा लिया जाय। ३-हिन्दू दुलहे को सवारी पर बैठकर मस्जिद के सामने से न जाने का कानून रद्द करदिया जाय। ४-हिन्दु धर्म के प्रचार-प्रसार में किसी प्रकार की रुकावट न डाली जाय। ५-गाय कि कुर्बानी बन्द हो जाय। ६-हिन्दुओं के धर्मग्रन्थों को जलाना और उसका प्रकाशन बन्द कराना रोका जाय। ७-हिन्दुओं के देव मन्दिरों को गिराकर उस जगह पर मस्जिद बनाना तथा हिन्दुओं को मस्जिद में प्रार्थना करने के लिये बाध्य करने का दुर्व्यवहार को रोका जाय। ८-मोहरम पर या कोई भी अन्य समय पर हिन्दुओं के उत्सवों को न रोका जाय। ९-शङ्ख बजाने का रोक को हटाया जाय। १०-किसी भी मेले या यात्रा में हिन्दुओं से कर न लिया जाय। ११-किसी भी स्त्री का सतीत्व भङ्ग न किया जाय। और १२-किसी हिन्दु को मुसलमान न बनाया जाय।

वि.सं. १४३२ में पचासेक हजार विटलाये गये हिन्दुओं को परावर्तन संस्कार (वैदिक संस्कार) द्वारा जगद्‌गुरुजी ने पुनः सनातन हिन्दु धर्मावलम्बी बनाये जो हठात् मुसलमान बनाये गये थे जिल्हें पण्डितवर्ग ने पुनः हिन्दु धर्म में लेने से मनाई करदी थी जिनमें वि.सं. १३८१ में बलात् अपने ३४ हजार राजपूत साथियों के साथ अयोध्या के राजा श्रीहरिसिंह को मुहम्मद तुगलक बादशाह ने मुसलमान बनाया था का भी समावेश है अपनी अलौकिक चमत्कृतिपूर्ण क्रियाकलापों द्वारा पूज्य आचार्य जी ने सभी को सर्वेश्वर श्रीरामजी की प्रपत्ति तथा देव दर्शन का मार्ग प्रशस्त किया जगदाचार्यजी की दिव्य घोषणाहै—

‘सर्वे प्रपत्तेर् अधिकारिणः सदा शक्ता अशक्ता पदयोर् जगत्-प्रभोः ।
अपेक्ष्यते तत्र कुलं बलं च नो न चापि कालो न च शुद्धतापि वै ॥’

(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर ४/५०) अर्थात् भगवत् प्रपत्ति मोक्ष का कारण है इस पर जिज्ञासा होती है कि इस प्रपत्ति का अधिकारी कौन है? इसके उत्तर में आचार्यजी कहते हैं कि हे सुरसुरानन्द! जगत्प्रभु सर्वेश्वर श्रीरामजी की शरणागति में सबको अधिकार है। चाहे वह बलवान् हो, बलहीन हो, उच्च कुल में उत्पन्न हो या नीच हो क्योंकि भगवान् परमकृपालु हैं अतः वे स्वप्रपत्ति में कुल तथा जाति आदि की अपेक्षा नहीं रखते हैं। इसलिये जीवमात्र प्रपत्ति का अधिकारी है।

जगद्गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी की इस घोषणा को इतिहासकारों ने स्वर्णाक्षरों में अङ्कित किया है जो घोषणानुसार अक्षरस चरितार्थ कर बता दिया है। उदाहरण के रूपमें श्रीकविर दासजी तथा श्रीरमादासजी (रैदास) जी प्रभृति जग जाहेर हैं। ऐसे जगदाचार्यजी चिराग लेकर [[P13]] अन्वेषण करने पर भी नहीं मिलेंगे। वस्तुतः जगद्गुरुत्व आप में ही अक्षरस चरितार्थ है।

विशिष्टाद्वैत—आचार्य प्रवर का सिद्धान्त है आपने ब्रह्मसूत्रों के आनन्दभाष्य में लिखा है ‘एवञ्चाखिलश्रुतिस्मृतीतिहासपुराणसामञ्जस्यादुपपत्तिबलाच्च विशिष्टाद्वैतमेवास्य ब्रह्ममीमांसाशास्त्रस्य विषयो न तु केवलाद्वैतम्’—(१/१/१) अतः आप अनादि वैदिक विशिष्टाद्वैतमत जिसका प्रथम प्रतिपादकाचार्य महर्षि बोधायन श्रीपुरुषोत्तमाचार्यजी थे के प्रबल प्रचारक-प्रसारक थे परिणामतः आपके ही नाम से इस श्रीसम्प्रदाय का नाम श्रीरामानन्द सम्प्रदाय प्रचलित हुआ। संक्षेपतः इस शब्द की व्युत्पत्ति या अर्थ यों है विशिष्टं च विशिष्टं च विशिष्टे विशिष्टयोः अद्वैतम् विशिष्टाद्वैतम् हैं। व्युत्पत्ति में दो वार विशिष्ट कहने का तात्पर्य यह है कि सूक्ष्मचित् तथा अचित् विशिष्ट यानी कारणावस्थापन्न सर्वेश्वर श्रीरामजी और स्थूलचित् तथा अचित् विशिष्ट यानी कार्यावस्थापन्न सर्वेश्वर परब्रह्म श्रीरामजी में एकता-एकरूपता यानी अभेद है परब्रह्म दो नहीं चित्-विशिष्ट-चित् विशेषण से युक्त तथा अचित्-विशिष्ट-अचित् विशेषण से युक्त होने से ही दो ब्रह्म की प्रतीति सी होती है वस्तुतः ब्रह्म में यानी कार्य कारणरूप परब्रह्म श्रीरामजी में अभेद है। इस श्रौतविशिष्टाद्वैतसिद्धान्त में परात्पर तत्त्व सर्वेश्वर श्रीरामजी है। श्रीरामाभिन्नरूपा सर्वेश्वरी श्रीसीताजी पराशक्ति के रूपमें समाराध्या है। श्रीलक्ष्मणादि श्रीरामजी की आज्ञा पालक शेष रूपमें हैं। शेषी मात्र सर्वेश श्रीरामजी हैं। अन्य सभी शेष हैं। इस श्रौतविशिष्टाद्वैतमतानुसार जीव तथा ब्रह्म अलग अलग तत्त्व हैं, एक नहीं। विशेष्य रूपतया श्रीरामजी हैं तो अन्य समस्त विशेषण रूपसे स्वीकृत हैं। इन तत्त्वों के विशेष जानकारी के लिये प्रस्थानत्रयों के आनन्दभाष्य तथा उन पर मेरी प्रकाशटीका श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर तथा मेरी प्रभा-किरण टीका और जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्य श्रीरामप्रपन्नाचार्य योगीन्द्र की तत्त्वत्रयसिद्धि और वेदार्थचन्द्रिका तथा मेरी उनकी टीका तत्त्वदीप और प्रकाश-किरण प्रभृति ग्रन्थों को पढ़ें यहां तो केवल दिग्दर्शन मात्र कराया गया है।

आचार्यश्री के भाष्य-प्रस्थानत्रय ब्रह्मसूत्र गीता तथा उपनिषदों के आनन्दभाष्य हैं—उनमें प्रतिपाद्य विषय—माया, जीव तथा परब्रह्म श्रीरामजी हैं।

यों ‘राम’ शब्द के अनन्त अर्थ होते हैं तथापि अतिसंक्षेप रूपसे ऐसा समझा जा सकता है—र-१-श्रीरामजी का प्रतिपादक २-श्रीरामजी प्रतिपाद्य तथा ३-श्रीराम जी जगत् के रक्षा करनेवाले हैं। अ-१-श्रीरामजी के अतिरिक्त अन्य किसी का भी यह जीव शेष नहीं है २-ब्रह्मादिदेवों का भी यह जीव शेष नहीं है ३-श्रीरामजी को छोडकर अन्य किसी का शेष बनना या मानना भूल है तथा स्वरूप विरोधी है। ४-आचार्य द्वारा ही श्रीरामजी की प्राप्ति होती है। म-जीव है जो र कारवाच्य श्रीराम जी का शेषभूत है अतः श्रीरामजी जैसे चाहें इस शेषरूप जीव का उपयोग कर सकते हैं।

जगदाचार्यजी से प्रबंधित श्रीसम्प्रदाय के इष्ट-श्रीसीतारामजी है। मन्त्र द्रष्टा ऋषि श्रीजानकीजी हैं मन्त्र षडक्षर तारक महामन्त्र ‘रां रामाय नमः’ है। यों तो जीव-अनन्त हैं तथापि १-नित्य २-मुक्त ३-बद्ध ४-मुमुक्षु तथा ५-कैवल्य प्रभेद से पांच प्रकार के है। परब्रह्म श्रीरामजी के साथ जीवात्मा का ९-प्रकार का सम्बन्ध है-१-शेष-शेषी २-नियम्य-नियामक ३-पिता-पुत्र ४-पति-पत्नी ५-आधार-आधेय ६-सेव्य-सेवक ७-शरीर-शरीरी ८-धर्म-धर्मी तथा [[P14]] ९-रक्ष्य-रक्षक। यह श्रीरामानन्दीय श्रीवैष्णवसम्प्रदाय के नाम से जगत विख्यात है। इसका धाम-नित्य दिव्य श्रीसाकेतधाम है यही श्रीअयोध्याजी के नाम से संसार में प्रसिद्ध है। क्षेत्र-नन्दिग्राम तथा परिक्रमा-श्रीचित्रकूट में कामदगिरि और मिथिला की है। सुखविलास श्रीचित्रकूट तथा तीर्थ-धनुषकोटि और गोत्र-अच्युत है विरक्तों का गृहस्थों का विरक्त सद्‌गुरु से दीक्षा लेने के बाद भी गोत्र नहीं बदलता है पहले का ही गोत्र रहता है। वर्ण-शुक्ल शाखा-अनन्त, मुक्ति-सायुज्य द्वार-श्रवण ऋषि-श्रीब्रह्माजी, मुनि-श्रीवशिष्ठजी, पार्षद देवता-श्रीहनुमानजी, वेद-ऋग्वेद, देवी-श्रीकमल में आसीन श्रीसीताजी, सिंहासन-शुद्धरत्न सिंहासन, वंश-सूर्यवंश, तिलक-ऊर्ध्वपुण्ड्र तथा माला-श्रीतुलसीजी की है। बडी जगह-बडी जगह पञ्च गङ्गाघाट काशी तथा आचार्य-प्रस्थानत्रयानन्दभाष्यकार जगद्‌गुरु श्रीरामानन्दाचार्यजी यतिसम्राट्जी एवं आचार्य पीठ-महर्षि श्रीबोधायन स्थापित विश्रामद्वारका हैं। और धर्म-श्रीसीतारामीय श्रीवैष्णव है आहार-हरिनाम है, ध्येय-श्रीसीतारामजी, तथा ज्ञेय-श्रीमद्वाल्मिकीय श्रीमद्रामायण (और श्रीतुलसी दासजीकृत श्रीरामायण) है। तत्त्वत्रय-१-कृपा स्वरूप माया २-जीव ३-सर्वेश्वर श्रीराम ब्रह्म हैं। रहस्यत्रय १-महामन्त्र (रां रामाय नमः) २-चरममन्त्र (सकृदेवप्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। अभयं सर्वभूतोभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम) तथा ३-द्वय मन्त्र-‘श्रीमद्रामचन्द्र चरणौ शरणं प्रपद्ये श्रीमते रामचन्द्राय नमः’ है। शरणागति मन्त्र ‘श्रीरामः शरणं मम’ तथा गायत्री-श्रीरामगायत्री ‘ॐ दाशरथाय विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि तन्नो रामः प्रचोदयात्’ है। [[P15]]