(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
+++(सञ्जय उवाच)+++
इत्यहं वासुदेवस्य
पार्थस्य च महात्मनः।
संवादम् इमम् अश्रौषम्
अद्भुतं रोमहर्षणम्॥18.74॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
सञ्जय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।।18.74।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।18.74।। संजय उवाच – इति एवं वासुदेवस्य वसुदेवसूनोः पार्थस्य च तत्पितृष्वसुः पुत्रस्य च महात्मनो महाबुद्धेः तत्पदद्वन्द्वम् आश्रितस्य इमं रोमहर्षणम् अद्भुतं संवादम् अहं यथोक्तम् अश्रौषं श्रुतवान् अहम्।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।18.74।। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय [1।1] इति प्रश्ने कृत्स्नं सङ्गमयतीत्याह – धृतराष्ट्रायेति। महात्मनः इत्युक्तं व्यनक्ति – तत्पदद्वन्द्वमाश्रितस्येति। कृष्णाश्रयाः कृष्णबलाः कृष्णनाथाश्च पाण्डवाः इति ह्यन्यत्रोक्तम्। अत्रचशिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् [2।7] इति। अद्भुतत्वातिशयाद्रोमहर्षणत्वम्। यथोक्तमश्रौषमिति – यथा ताभ्यामुक्तं; तत्र ममाश्रुतांशो नास्तीत्यर्थः। एतेन यथार्थदर्शित्वं व्यञ्जितम्। यद्वा यथा तव मयोक्तम्; एवमेव श्रुतवानस्मि; ततश्च यथादृष्टार्थवादित्वं व्यञ्जितं भवति।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
18.74 Sanjaya said Thus, in this way have I been hearing, this wondrous and thrilling dialogue, as it took place between Vasudeva, the son of Vasudeva, and His paternal aunt’s son Arjuna, who is a Mahatman, one possessed of a great intelligence, and who has resorted to the feet of Sri Krsna.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।18.74 – 18.78।। इत्यहमित्यादि मतिर्ममेत्यन्तम्। संजयवचनेन संवादमुपसंहरन एतदर्थस्य गाढप्रबन्धक्रमेण निरन्तरचिन्तासन्तानोपकृतनैरन्तर्यादेव चान्ते सुपरिस्फुटनिर्विकल्पानुभवरूपतामापाद्यमानं स्मरणमात्रमेव परब्रह्मप्रदायकम् इत्युच्यते। एवं भगवदर्जुनसंवादमात्रस्मरणादेव तत्त्वावाप्त्या +++(S; ,तत्त्वव्याप्त्या )+++ श्रीविजयविभूतय इति।
।। शिवम्।। अत्र संग्रहश्लोकः – भङ्क्त्वाऽज्ञानविमोहमन्थरमयीं सत्त्वादिभिन्नां धियं
प्राप्य स्वात्मविबोधसुन्दरतया +++(K स्वात्मविभूत – )+++ विष्णुं विकल्पातिगम्।
यत्किञ्चित् स्वरसोद्यदिन्द्रियनिजव्यापारमात्रस्थिते ( तो )
हेलातः कुरुते तदस्य सकलं संपद्यते शंकरम्।।।। इति श्रीमहामाहेश्वराचार्यवर्यराजानकाभिनवगुप्तपाद
विरचिते श्रीमद्भगवद्गीतार्थसंग्रहे अष्टादशोऽध्यायः।। [ आचार्यप्रशस्तिः ] श्रीमान् +++(S श्रीमत्कात्यायनो – )+++ कात्यायनोऽभूद्वररुचिसदृशः प्रस्फुरद्बोधतृप्त
स्तद्वंशालंकृतो यः स्थिरमतिरभवत् सौशुकाख्योऽतिविद्वान्।
विप्रः श्रीभूतिराजस्तदनु समभवत् तस्य सूनुर्महात्मा
येनामी सर्वलोकास्तमसि निपतिताः प्रोद्धृतता भानुनेव।।1।। तच्चरणकमलमधुपो
भगवद्गीतार्थसङ्ग्रहं व्यदधात्।
अभिनवगुप्तः सद्द्विज
लोटककृतचोदनावशतः +++(S लोठककृत – ;N लोककृत)+++।।2।। अत इयमयथार्थं वा
यथार्थमपि सर्वथा नैव।
विदुषामसूयनीयं
कृत्यमिदं बान्धवार्थं हि।।3।। अभिनवरूपा शक्ति
स्तद्गुप्तो यो महेश्वरो देवः।
तदुभयथामलरूपम् +++(; K; S तदुभययामल – )+++
अभिनवगुप्तं शिवं वन्दे।।4।। परिपूर्णोऽयं +++(This verse is given differently in different Mss. S परिपूर्णोऽयं गीतार्थसंग्रहः।
कृतिस्त्रिनयनचरणचिन्तनलब्ध
प्रसिद्धेश्श्रीमदभिनवगुप्तस्य। ; N; K अत इत्ययमर्थसंग्रहः। [ N substitutes this sentence with
परिपूर्णोऽयं श्रीमद्भगवद्गीतार्थसंग्रहः। ]
कृतिश्चेयं परमेश्वरचरण [ K adds सरोरुह ] चिन्तन
लब्धचिदात्मसाक्षात्काराचार्याभिनवगुप्तपादानाम्। )+++ श्रीमद्
भगवद्गीतार्थसंग्रहः [ सु ] कृतिः।
त्रिणयनचरण [ वि ] चिन्तन
लब्धप्रसिद्धेरभिनवगुप्तस्य।।5।।
।। इति शिवम्।।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
18.74 See Comment under 18.78
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।18.74।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।18.74।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।18.74।। –,इति एवम् अहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः संवादम् इमं यथोक्तम् अश्रौषं श्रुतवान् अस्मि अद्भुतम् अत्यन्तविस्मयकरं रोमहर्षणं रोमाञ्चकरम्।। तं च इमम् –,
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।18.74।। शास्त्रका अभिप्राय समाप्त हो चुका। अब कथाका सम्बन्ध दिखलानेके लिये संजय बोला –, इस प्रकार मैंने यह उपर्युक्त अद्भुत – अत्यन्त विस्मयकारक रोमाञ्च करनेवाला श्रीवासुदेव भगवान् और महात्मा अर्जुनका संवाद सुना।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
18.74 Aham, I; iti, thus; asrausam, heard; imam, this; samvadam, conversation, as has been narrated; vasudevasya, of Vasudeva; and mahatmanah, parthasya, of the great-soulded Partha; which is adbhutam, unie, extremely wonderful; and roma-harsanam, makes one’s hair stand on end.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।18.74।। शास्त्रार्थे समाप्ते सत्यस्यामवस्थायां संजयवचनं कुत्रोपयुक्तमिति तदाह – परिसमाप्त इति। वासुदेवस्य सर्वज्ञस्य सर्वेश्वरस्य कृतार्थस्य पार्थस्य पृथासुतस्यार्जुनस्य महात्मनोऽक्षुद्रबुद्धेः सर्वाधिकारिगुणसंपन्नस्य सम्यञ्चं वादं संवादं गुरुशिष्यभावेन प्रश्नप्रतिवचनाभिधानमिममनुक्रान्तमद्भुतं विस्मयकरं रोमाणि हृष्यन्ति पुलकीभवन्त्यनेनेति रोमहर्षणमाह्लादकं यथोक्तं श्रुतवानस्मीत्याह – इत्येवमिति।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।18.74।। समाप्तः शास्त्रार्थः। कथासंबन्धमिदानीमनुसंदधानः संजय उवाच – इत्यहमिति। अद्भुतं चेतसो विस्मयाख्यविकारकरं लोकेष्वसंभाव्यमानत्वात् लोमहर्षणं शरीरस्य रोमाञ्चाख्यविकारकरं तेनातिपरिपुष्टत्वं विस्मयस्य दर्शितं स्पष्टमन्यत्।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।18.74।। समाप्तः शास्त्रार्थः। इदानीं कथाप्रबन्धमेवानुवर्तयन्संजय उवाच – इतीति। अद्भुतं चेतसो विस्मयकरम्। रोमहर्षणं रोमाञ्चोद्भेदजनकम्। शेषं स्पष्टम्।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।18.74।। परिसमाप्तः कृष्णपार्थसंवादात्मकः शास्त्रार्थोऽथेदानीं कथासंबन्धप्रदर्शनार्थं संजय उवाच – इत्यहं वासुदेवस्य सर्वात्मनः सर्वज्ञस्य सर्वेश्वरस्य पार्थस्य पृथापुत्रस्य च महात्मनोऽक्षुद्रस्वभावस्य भगवदनुग्रहीतस्य सभ्यग्वांद संवादं गुरुशिष्यवचनेन प्रश्नप्रतिवचनाभिधानमिमं त्वां प्रत्युक्तं अद्भुतमत्यन्तविस्मयकरं रोमाणि हृष्यन्ति पुलकीभवन्त्यनेनेति रोमहर्षणं हर्षनिमित्तकरोमाञ्चकरं अश्रौषं श्रुतवानस्मि। अतिधन्यो वसुदेवो यद्गृहे स्वयं भगवानतीर्णः; पृथा च धन्या यस्याः पुत्रः परमभागवतो भगवदनुगृहीतः ध्वनितम्।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।18.74।। तदेवं धृतराष्ट्रं प्रति श्रीकृष्णार्जुनसंवादमुक्त्वा प्रस्तुतकथामनुसन्दधानः सञ्जय उवाच –,इत्यहमिति। उभयोः संवादमिममश्रौषम्।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।18.74।। एवं धृतराष्ट्रपृष्टश्रीकृष्णार्जुनसंवादं सफलमशेषतः कथयित्वा भगवति सासूयत्वात् धृतराष्ट्रस्य फलाभावकथनार्थं स्वस्य च तदग्रे कथनावश्यकत्वाय स्वस्य श्रवणानन्दभवनकारणज्ञापनाय स्तुतकथानुसन्धानेन सञ्जय उवाच – इतीति। इति अमुना प्रकारेण अहं त्वदीयत्वेन द्वेषसम्बन्धयुक्तोऽपि वासुदेवस्य मोक्षदातुः महात्मनो भगवद्भक्तस्य पार्थस्य च इमं मया पूर्वोक्तं संवादम् उत्तरप्रत्युत्तररूपं अद्भुतम्; अलौकिकं रोमहर्षणं रोमहर्षकरम् आनन्दोद्बोधकं अश्रौषं श्रुतवानस्मि।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।18.74।। तदेवं धृतराष्ट्रं प्रति श्रीकृष्णार्जुनसंवादं कथयित्वा प्रस्तुतां कथामनुसंदधानः संजय उवाच – इतीति। रोमहर्षणं रोमाञ्चकरं संवादमश्रौषं श्रुतवानहम्। स्पष्टमन्यत्।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।18.74।। गीतोपदेश का प्रारम्भ होने के पूर्व; अर्जुन ने कहा था; मैं युद्ध नहीं करूंगा। और; उपदेश की समाप्ति पर उसने; पूर्व श्लोक में; यह घोषणा की; मैं आपके वचन का पालन करूंगा। इस प्रकार रोग का उपचार पूर्ण हुआ और उसके साथ ही गीताशास्त्र की परिसमाप्ति होती है। इस सन्दर्भ में; ईसामसीह के कथन का स्मरण होता है। प्राणदण्ड की शूली को ढोते हुए वे जा रहे थे लोगों की व्यंगोक्तियों से क्षणभर के लिये वे अर्जुन की स्थिति में पहुंच गये। परन्तु; तत्काल मोह मुक्त होकर उन्होंने घोषणा की हे प्रभु आपकी इच्छा पूर्ण होगी। अर्जुन के और ईसामसीह के वाक्यों में कितनी साम्यता है। मैंने भगवान् वासुदेव और अर्जुन का संवाद सुना अध्यात्म की सांकेतिक भाषा के अनुसार वासुदेव का अर्थ है; सर्वव्यापी चैतन्यस्वरूप आत्मा तथा पार्थ का अर्थ है; जड़ उपाधियों से तादात्म्य किया जीव। जब यह जीव इस मिथ्या तादात्म्य का परित्याग कर देता है; तब वह अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करता है। आत्मानात्म के विवेक की कला ही गीताशास्त्र का प्रतिपाद्य विषय है। अद्भुत श्रीकृष्णार्जुन के संवाद रूप में श्रवण किये गये तत्त्वज्ञान को; संजय; अद्भुत और विस्मयकारी विशेषण देता है। सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा ग्राह्य होने के कारण कोई भी दर्शनशास्त्र आश्चर्यमय नहीं होता है। परन्तु गीता के तत्त्वज्ञान की अद्भुतता भी कुछ अपूर्व ही है। जो अर्जुन पूर्णतया विघटित और विखण्डित हो चुका था; वही अर्जुन इस ज्ञान को प्राप्त कर सुगठित; पूर्ण और शक्तिशाली बन गया। यह एक उदाहरण ही गीता की कल्याणकारी शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसी कारण गीता को एक अनन्य और अलौकिक आभा प्राप्त हुई है। गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य अपनी परिस्थितियों का स्वामी है; दास नहीं। उसमें स्वामित्व की यह क्षमता पहले से ही विद्यमान है। जब यह सत्य उद्घाटित किया जाता है; तब संजय के लिए यह स्वाभाविक है कि वह आनन्दविभोर होकर इसे अद्भुत कह उठे। महात्मा अर्जुन संजय इस श्लोक में अर्जुन को गौरवान्वित करता है; पार्थसारथि भगवान् श्रीकृष्ण को नहीं। भाव यह है कि यदि कोई छोटा बालक कठिन काम करके दिखाता है; तो वह स्तुति और अभिनन्दन का पात्र होता है। परन्तु वही कार्य कोई नवयुवक कर के दिखाये; तो उसमें कोई विशेष आश्चर्य की बात नहीं होती। इसी प्रकार; सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान भगवान् श्रीकृष्ण के लिए गीता का उपदेश देना बच्चों का खेल है; जबकि मोह और भ्रम में फँसे हुए अर्जुन का उस स्थिति से बाहर निकल कर आना; वास्तव में एक उपलब्धि है। उसका यह साहस और वीरत्व प्रशंसनीय है। संजय की सहानुभूति सदैव पाण्डवों के साथ ही थी। परन्तु वह धृतराष्ट्र का नमक खा रहा था; इसलिए अपने स्वामी के साथ निष्ठावान रहना उसका कर्तव्य था। उस समय की राजनीति के अनुसार केवल धृतराष्ट्र ही इस युद्ध को रोक सकता था और; इसलिए; संजय यथासंभव सूक्ष्म संकेत करता है कि अर्जुन पुन अपनी वीरतपूर्ण स्थिति में आ गया है; जिसका परिणाम होगा धृतराष्ट्र के एक सौ पुत्रों का विनाश; वृद्धावस्था में पुत्रवियोग की पीड़ा और असम्मान का कलंकित जीवन। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि लड़खड़ाते धृतराष्ट्र की अन्धता केवल नेत्रों की ही नहीं; वरन् मन और बुद्धि की भी थी; क्योंकि संजय के अनुनय विनय के नैतिक संकेतों का उस अन्ध राजा के बधिर कानों पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है। महर्षि वेदव्यास के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करते हुए संजय कहता है
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।18.74।। संजय ने कहा – इस प्रकार मैंने भगवान् वासुदेव और महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत और रोमान्चक संवाद का वर्णन किया।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।18.74।। सञ्जय बोले – इस प्रकार मैंने भगवान् वासुदेव और महात्मा पृथानन्दन अर्जुनका यह रोमाञ्चित करनेवाला अद्भुत संवाद सुना।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।18.74।।व्याख्या – इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः – सञ्जय कहते हैं कि इस तरह मैंने भगवान् वासुदेव और महात्मा पृथानन्दन अर्जुनका यह संवाद सुना; जो कि अत्यन्त अद्भुत; विलक्षण है और इसकी यादमात्र हर्षके मारे रोमाञ्चित करनेवाली है। यहाँ इति पदका तात्पर्य है कि पहले अध्यायके बीसवें श्लोकमें अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः पदोंसे सञ्जय श्रीकृष्ण और अर्जुनके संवादरूप गीताका आरम्भ करते हैं और यहाँ इति पदसे उस संवादकी समाप्ति करते हैं।
अर्जुनके लिये महात्मनः विशेषण देनेका तात्पर्य है कि अर्जुन कितने महान् विलक्षण पुरुष हैं; जिनकी आज्ञाका पालन स्वयं भगवान् करते हैं अर्जुन कहते हैं कि हे अच्युत मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कर दो (गीता 1। 21); तो भगवान् दोनों सेनाओंके बीचमें रथको खड़ा कर देते हैं (गीता 1। 24)। गीतामें अर्जुन जहाँजहाँ प्रश्न करते हैं; वहाँवहाँ भगवान् बड़े प्यारसे और बड़ी विलक्षण रीतिसे प्रायः विस्तारपूर्वक उत्तर देते हैं। इस प्रकार महात्मा अर्जुनके और भगवान् वासुदेवके संवादको मैंने सुना है।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् – इस संवादमें अद्भुत और रोमहर्षणपना क्या है शास्त्रोंमें प्रायः ऐसी बात आती है कि संसारकी निवृत्ति करनेसे ही मनुष्य पारमार्थिक मार्गपर चल सकता है और उसका कल्याण हो सकता है। मनुष्योंमें भी प्रायः ऐसी ही धारण बैठी हुई है कि घर; कुटुम्ब आदिको छोड़कर साधुसंन्यासी होनेसे ही कल्याण होता है। परन्तु गीता कहती है कि कोई भी परिस्थिति; अवस्था; घटना; काल आदि क्यों न हो; उसीके सदुपयोगसे मनुष्यका कल्याण हो सकता है। इतना ही नहीं; वह परिस्थिति बढ़ियासेबढ़िया हो या घटियासेघटिया; सौम्यसेसौम्य हो या घोरसेघोर विहित युद्धजैसी प्रवृत्ति हो; जिसमें दिनभर मनुष्योंका गला काटना पड़ता है; उसमें भी मनुष्यका कल्याण हो सकता है; मुक्ति हो सकती है (टिप्पणी प₀ 999)। कारण कि जन्ममरणरूप बन्धनमें संसारका राग ही कारण है (गीता 13। 21)। उस रागको मिटानेमें परिस्थितिका सदुपयोग करना ही हेतु है अर्थात् जो पुरुष परिस्थितिमें रागद्वेष न करके अपने कर्तव्यका पालन करता है; वह सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है (गीता 5। 3)। यही इस संवादमें अद्भुतपना है। भगवान्का स्वयं अवतार लेकर मनुष्यजैसा काम करते हुए अपनेआपको प्रकट कर देना औरमेरी शरणमें आ जा यह अत्यन्त गोपनीय रहस्यकी बात कह देना – यही संवादमें रोमहर्षण करनेवाला; प्रसन्न करनेवाला; आनन्द देनेवाला है।
सम्बन्ध – पारमार्थिक मार्गमें सच्चे साधकको जिसकिसीसे लाभ होता है; उसकी वहि कृतज्ञता प्रकट करता ही है। अतः सञ्जय भी आगेके तीन श्लोकोंमें व्यासजीकी कृतज्ञता प्रकट करते हैं।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
18.74. Sanjaya said Thus I have heard this wonderful and thrilling dailogue of Vasudeva and the mighty-minded son of Prtha.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
18.74 Sanjaya said I thus heard this conversation of Vasudeva and of the great-souled Partha, which is unie and makes one’s hair stand on end.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
18.74 Sanjaya told: “Thus have I heard this rare, wonderful and soul-stirring discourse of the Lord Shri Krishna and the great-souled Arjuna.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
18.74 Sanjaya said Thus have I heard this wondrous dialogue between Vasudeva and the great-minded Arjuna, which makes my hair stand on end.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
18.74 Sanjaya said Thus I have heard this wonderful dialogue between Krishna and the high-souled Arjuna, which causes the hair to stand on end.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
18.74 इति thus; अहम् I; वासुदेवस्य of Krishna; पार्थस्य of Arjuna; च and; महात्मनः highsouled; संवादम् dialogue; इमम् this; अश्रौषम् (I) have heard; अद्भुतम् wonderful; रोमहर्षणम् which causes the hair to stand on end.Commentary Wonderful because it deals with Yoga and transcendental spiritual matters that pertain to the mysterious immortal Self.Whenever good; higher emotions manifest themselves in the heart the hair stands on end. Devotees often experience this horripilation.