(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
श्रद्धावान् अनसूयश् च
श्रृणुयाद् अपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाल्ँ लोकान्
प्राप्नुयात् पुण्यकर्मणाम्॥18.71॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाल्ँ लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।।18.71।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।18.71।। श्रद्धावान् अनसूयश्च यो नरः श्रृणुयाद् अपि तेन श्रवणमात्रेण सः अपि भक्तिविरोधिपापेभ्यो मुक्तः पुण्यकर्मणां मद्भक्तानां लोकान् समूहान् प्राप्नुयात्।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।18.71।। श्रद्धावाननसूयश्च इति चकारादत्रानुषक्तानामपि प्रागुक्तानां प्रणिपातपरिप्रश्नसेवानां ग्रहणम्। श्रृणुयात् इत्यनेन आचार्यसकाशादिति गम्यते। श्रूयते हि – तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् [मुं.उ.1।2।12] इति। आचार्याद्ध्येव विद्या विदिता साधिष्ठं प्रापत् [छां.उ.4।9।3] इति। एतेन स्वयं ग्रन्थनिरीक्षणमन्यायेनान्यस्माद्ग्रहणं च व्यवच्छिद्यते। सोऽपि इति विलम्बः सूच्यते। तेनभक्तिविरोधिभ्यो मुक्त इत्युक्तम्। अन्यथा विध्यन्तरवैयर्थ्यादिप्रसङ्ग इति भावः। अर्थज्ञानादिमतश्च कैमुत्यमपि शब्देन व्यञ्जितम्। प्रवचनपठनयोर्मोक्षैकान्तफलस्य पूर्वमुक्तत्वात् सहभावेनाग्र्यप्रायन्यायाच्छ्रवणेऽपि तादृशफलं भगवदभिप्रेतं स्वीकर्तुमुचितम्। नरककल्पस्वर्गादिप्राप्तेरनभिमतत्वान्मद्भक्तानांलोकान्समूहानित्युक्तम्। अत्र पाठश्रवणादिप्रीतो भगवान् स्वभक्तान् प्रापयति। भगवद्भक्तानां प्राप्तिर्हि योगोपदेशादिद्वारा मोक्षाय स्यात्।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
18.71 A man who, with faith and without cavilling, hears the Gita when faught by a alified teacher, he too is, by such hearing, released from all evil incompatible with devotional life. He shall reach the Lokas, i.e., the realms of the hosts of My devotees who have done virtuous acts, and who will facilitate the growth of devotion in these new arrivals and lead them ultimately to liberation.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।18.68 – 18.72।। य इदमित्यादि धनञ्जयेत्यन्तम्। भक्तिमिति – एतदेव मयि भक्तिकरणं यत् भक्तेष्वेतन्निरूपणम् +++(;N मद्भक्तेषु )+++। अभिधास्यति +++(S;;N मद्भक्तेष्वभि – )+++ ; आभिमुख्येन शास्त्रोक्तप्रक्रियया; धास्यति वितरिष्यति [ यः ] स मन्मयतामेति इति विधिरेवैष नार्थवादः। एवमन्यत्र।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
18.71 See Comment under 18.72
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।18.71।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।18.71।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।18.71।। –,श्रद्धावान् श्रद्दधानः अनसूयश्च असूयावर्जितः सन् इमं ग्रन्थं श्रृणुयादपि यो नरः; अपिशब्दात् किमुत अर्थज्ञानवान्; सोऽपि पापात् मुक्तः शुभान् प्रशस्तान् लोकान् प्राप्नुयात् पुण्यकर्मणाम् अग्निहोत्रादिकर्मवताम्।। शिष्यस्य शास्त्रार्थग्रहणाग्रहणविवेकबुभुत्सया पृच्छति। तदग्रहणे ज्ञाते पुनः ग्राहयिष्यामि उपायान्तरेणापि इति प्रष्टुः अभिप्रायः। यत्नान्तरं च आस्थाय शिष्यस्य कृतार्थता कर्तव्या इति आचार्यधर्मः प्रदर्शितो भवति –,
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।18.71।। तथा श्रोताको यह ( आगे बतलाया जानेवाला ) फल मिलता है –, जो मनुष्य; इस ग्रन्थको श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टिरहित होकर केवल सुनता ही है; वह भी पापोंसे मुक्त होकर; पुण्यकारियोंके अर्थात् अग्निहोत्रादि श्रेष्ठकर्म करनेवालोंके; शुभ लोकोंको प्राप्त हो जाता है। अपिशब्दसे यह पाया जाता है कि अर्थ समझनेवालेकी तो बात ही क्या है। शिष्यने शास्त्रका अभिप्राय ग्रहण किया या नहीं यह विवेचन करनेके लिये भगवान् पूछते हैं। इसमें पूछनेवालेका यह अभिप्राय है कि शास्त्रका अभिप्राय श्रोताने ग्रहण नहीं किया है – यह मालूम होनेपर; फिर किसी और उपायसे ग्रहण कराऊँगा।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
18.71 Yah narah, any man who; being sraddhavan, reverential; and anasuyah, free from cavilling; srnuyat api, might even hear this text-the word even suggests that one who knows the meaning (of the Scripture) hardly needs to be mentioned-; sah api, he too; becoming muktah, free from sin; prapnuyat, shall attain; subhan, the blessed, auspicious; lokan, worlds; punya-karmanam, of those who perform virtuous deeds, of those who perform rites like Agnihotra etc. In order to ascertaini whether or not the disciple has comprehended the meaning of the Scripture, the Lord asks (the following estion), the intention of the estioner beings, ‘If it is known that it has not been comprehended, I shall again make him grasp it through other means.’ Hery is shown the duty of the teacher that a student should be made to achieve his goal by taking the help of a different method.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।18.71।। प्रवक्तुरध्येतुश्च फलमुक्त्वा श्रोतुरिदानीं फलं कथयति – अथेति।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।18.71।। प्रवक्तुरध्येतुश्च फलमुक्त्वा श्रोतुरिदानीं फलं कथयति – श्रद्धावानिति। यो नरः कश्चिदप्यन्यस्योच्चैर्जपतः कारुणिकस्य सकाशात् श्रद्धावान् श्रद्धायुक्तस्तथा किमर्थमयमुच्चैर्जपत्यबद्धं वा जपतीति दोषदृष्ट्याऽसूयया रहितोऽनसूयश्च केवलं शृणुयादिमं ग्रन्थमपिशब्दात् किमुतार्थज्ञानवान् सोऽपि केवलाक्षरमात्रश्रोतापि मुक्तः पापैः शुभान् प्रशस्तान् लोकान् पुण्यकर्मणामश्वमेधादिकृतां प्राप्नुयात् ज्ञानवतस्तु किं वाच्यमिति भावः।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।18.71।। प्रवक्तुरध्येतुश्च फलमुक्त्वा श्रोतुरपि फलमाह – श्रद्धावानिति। शृणुयादपि अक्षरश्रवणं कुर्यादपि किमु वक्तव्यमादरेणार्थग्रहणं यः कुर्यात्स उक्तं फलं प्राप्नुयादिति। स्पष्टार्थः श्लोकः। तथाचोक्तं श्रीभागवते – वासुदेवकथाप्रश्नः पुरुषांस्त्रीन्पुनाति हि। वक्तारं प्रच्छकं श्रोतॄंस्तत्पादसलिलं यथा इति।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।18.71।। प्रवक्तुरध्येतुश्च फलमुक्त्वा श्रोतुरपि फलं कथयति। श्रद्धावान् श्रद्दधानोऽनसूयश्च पौरुषेयत्वात् श्रुतितो निकृष्टमिदमिति दोषदृष्टिरसूया तद्रहितः सन्निमं ग्रन्थं यो नरो यः कश्चिच्छ्रणुयादपि। नरशब्देनैतच्छ्रवणेनापि यो हीनो नासौ नरः किंतु पशुरिति सूचयति। सोऽपि मुक्तः पातकाद्रहितः पुण्यकर्मणामग्निहोत्राश्वमेधादिपुण्यकर्मवतां लोकान् शुभान्प्रशस्तान्प्राप्नुयात्। अपिशब्दात्किमुतार्थज्ञानवान्।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।18.71।। श्रद्धावानिति। स्पष्टार्थः।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।18.71।। एवंरूपज्ञानेनैकस्य पठतो योऽन्यः कश्चिच्छृणोति तस्यापि फलतीत्याह – श्रद्धावानिति। यो नरः श्रद्धावान्एतच्छ्रवणेनाहं कृतार्थो भविष्यामि इत्यत्यादरयुक्तः शृणुयादप्यर्थानवबोधेनापि स शुभान् मोक्षप्रापकान् लोकान् प्राप्नुयात्। च पुनः अनसूयः किमिति दम्भार्थमुच्चैः पाषण्डी पठतीत्याद्यसूयारहितः सम्यक् गीतां पठतीत्याद्यनुमोदते मनसि सोऽपि मुक्तः संसारात् पुण्यकर्मणां लोकान् स्वर्गादीन् प्राप्नुयात्।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।18.71।। अन्यस्य जपतो योऽन्यः कश्चिच्छृणोति तस्यापि फलमाह – श्रद्धावानिति। यो नरः श्रद्धायुक्तः केवलं श्रृणुयादपि श्रद्धावानपि कश्चित्किमर्थमुच्चर्जपति अबद्धं जपतीति वा दोषदृष्टिं करोति तद्व्यावृत्त्यर्थमाह। अनसूयश्च असूयारहितो यः श्रृणुयात्सोऽपि सर्वैः पापैर्मुक्तः सन् अश्वमेधादिपुण्यकृताल्ँ लोकान्प्राप्नुयात्।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।18.71।। गीता का विषय दूर से दर्शन करके केवल प्रशंसा करने योग्य नहीं है। गीतोपदिष्ट ज्ञान से पूर्णतया लाभान्वित होने के लिए साधक का व्यक्तित्व सभी स्तरों पर सुगठित होना आवश्यक है। इसलिए; भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ दो गुणों का विशेष रूप से उल्लेख करते हैं जिनसे सम्पन्न श्रोता को श्रवण का सर्वाधिक आनन्द प्राप्त होगा। श्रद्धावान् श्रद्धा का अर्थ अन्धविश्वास नहीं है। बुद्धि की वह क्षमता श्रद्धा है; जिसके द्वारा मनुष्य (1) शास्त्रीय शब्दों के सूक्ष्म आशय को समझ पाता है; (2) समझकर उनको धारण कर सकता है (3) उन्हें पूर्णतया आत्मसात् करने में समर्थ होता है और; (4) इस प्रकार; प्राप्त ज्ञान के अनुसार अपने जीवन को निर्मित कर सकता है। स्वाभाविक है कि श्रद्धावान् पुरुष गुरु के उपदेश से सर्वाधिक लाभान्वित होता है। अज्ञात वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उचित प्रमाण की आवश्यकता होती है और उस प्रमाण के सत्यत्व के विषय में विश्वास की भी। उस विश्वास के बिना ज्ञान की ओर प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। प्रमाण में यह विश्वास श्रद्धा कहलाता है। अनसुयु जैसा कि अनेक स्थानों पर कहा जा चुका है; अनसुयु का अर्थ है वह पुरुष जो गुणों में दोष नहीं देखता है। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि हिन्दू धर्म में दर्शनशास्त्र के अध्येताओं को समीक्षा या समालोचना करने की स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की गई है। इसका अभिप्राय केवल इतना ही है कि शास्त्र के श्रवण या अध्ययन के पूर्व ही हमें उसके विषय में पूर्वाग्रह नहीं बना लेने चाहिए। पूर्वाग्रहों से दूषित बुद्धि सत्य का यथार्थ ज्ञान कदापि नहीं प्राप्त कर सकती। उक्त दोनों गुणों से सम्पन्न श्रोता को सर्वाधिक लाभ होगा। वह पापों से मुक्त होकर पुण्यकर्मी लोगों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त करता है। इसका अर्थ यह है कि ऐसा श्रोता पुरुष अपनी वासनाओं से मुक्त होकर आंतरिक शांति और आनन्द का अनुभव करता है। आनन्द का साम्राज्य हमारे हृदय में ही स्थित है। उसकी प्राप्ति के लिए सुदूर स्थित कहीं स्वर्ग में जाने की आवश्यकता नहीं है। अभी और यहीं आनन्द की प्राप्ति होती है यह वेदान्त का सत्य वचन है। आचार्य का यह कर्तव्य है कि वह यह देखें कि शिष्य ने यथावत् ज्ञान ग्रहण किया है अथवा नहीं। यदि उपदिष्ट साधन मार्ग शिष्य की उन्नति के लिए अनुकूल या पर्याप्त नहीं है; तो आचार्य को ऐसे शिष्य की सहायता करनी चाहिए जिससे कि वह शिष्य अपना सन्तुलन प्राप्त कर सके। इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से पूछते हैं
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।18.71।। तथा जो श्रद्धावान् और अनसुयु (दोषदृष्टि रहित) पुरुष इसका श्रवणमात्र भी करेगा, वह भी (पापों से) मुक्त होकर पुण्यकर्मियों के शुभ (श्रेष्ठ) लोकों को प्राप्त कर लेगा।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।18.71।। श्रद्धावान् और दोषदृष्टिसे रहित जो मनुष्य इस गीता-ग्रन्थको सुन भी लेगा, वह भी सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर पुण्यकारियोंके शुभ लोकोंको प्राप्त हो जायगा।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।18.71।। व्याख्या – श्रद्धावाननसूयश्च৷৷. पुण्यकर्मणाम् – गीताकी बातोंको जैसा सुन ले; उसको प्रत्यक्षसे भी बढ़कर पूज्यभावसहित वैसाकावैसा माननेवालेका नाम श्रद्धावान् है; और उन बातोंमें कहीं भी; किसी भी विषयमें किञ्चिन्मात्र भी कमी न देखनेवालेका नाम अनसूयः है। ऐसा श्रद्धावान् और दोषदृष्टिसे रहित मनुष्य गीताको केवल सुन भी ले; तो वह भी सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर पुण्यकारियोंके शुभ लोकोंको प्राप्त कर लेता है। यहाँ दो बार अपि पद देनेका तात्पर्य है कि जो गीताका प्रचार करता है; अध्ययन करता है; उसके लिये तो कहना ही क्या है पर जो सुन भी लेता है; वह मनुष्य भी पापोंसे छूटकर शुभ लोकोंको प्राप्त हो जाता है।
मनुष्यकी वाणीमें प्रायः भ्रम; प्रमाद; लिप्सा और कारणापाटव – ये चार दोष होते हैं (टिप्पणी प₀ 992.2)। अतः मनुष्यकी वाणी सर्वथा निर्दोष नहीं हो सकती। परन्तु भगवान्की दिव्य वाणीमें इन चारोंमेंसे कोई भी दोष नहीं रह सकता क्योंकि भगवान् निर्दोषताकी परावधि हैं अर्थात् भगवान्से बढ़कर निर्दोषता किसीमें,कभी होती ही नहीं। इसलिये भगवान्के वचनोंमें किसी प्रकारके संशयकी सम्भावना ही नहीं है। अतः गीता सुननेवालेको कोई विषय समझमें कम आये; विचारद्वारा कोई बात न जँचे; तो समझना चाहिये कि इस विषयको समझनेमें मेरी बुद्धिकी कमी है; मैं समझ नहीं पा रहा हूँ – इस भावको दृढ़तासे धारण करनेपर असूयादोष मिट जाता है। भगवान्में अत्यधिक श्रद्धाविश्वासपूर्वक भक्ति होनेपर भी असूयादोष नहीं रहता। चैतन्य महाप्रभुका एक भक्त था। वह रोज गीताका पाठ करते हुए मस्त हो जाता था; गद्गद हो जाता था और रोने लगता था। वह शुद्ध पाठ नहीं करता था। उसके पाठमें अशुद्धियाँ आती थीं। उसके विषयमें किसीने चैतन्य महाप्रभुसे शिकायत कर दी किदेखिये प्रभु वह बड़ा पाखण्ड करता है पाठ तो शुद्ध करता नहीं और रोता रहता है। चैतन्य महाप्रभुने उसको अपने पास बुलाकर पूछा – तुम गीताका पाठ करते हो; तो क्या उसका अर्थ जानते हो उसने कहा – नहीं प्रभु फिर पूछा – तो फिर तुम रोते क्यों हो उसने कहा – मैं जब अर्जुन उवाच पढ़ता हूँ तो अर्जुन भगवान्से पूछ रहे हैं – ऐसा मेरेको प्रत्यक्ष दीखता है और जब मैं श्रीभगवानुवाच पढ़ता हूँ; तो भगवान् अर्जुनके प्रश्नोंका उत्तर दे रहे हैं – ऐसा मेरेको प्रत्यक्ष,दीखता है। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका आपसमें संवाद हो रहा है – ऐसा प्रत्यक्ष दीखता है परन्तु अर्जुन क्या पूछते हैं और भगवान् क्या उत्तर देते हैं; यह मेरी समझमें नहीं आता। मैं तो उन दोनोंके दर्शन करकरके राजी होता हूँ। उसकी ऐसी श्रद्धाभक्ति देखकर चैतन्य महाप्रभु बहुत प्रसन्न हुए। इस प्रकारकी श्रद्धाभक्तिवाला मनुष्य गीताको केवल सुन भी ले; तो उसकी मुक्तिमें कोई सन्देह नहीं रहता। वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर पुण्यकारियोंके शुभ लोकोंको प्राप्त हो जाता है।
यहाँ पुण्यकर्मणाम् पदसे सकामभावपूर्वक यज्ञ; अनुष्ठान आदि पुण्यकर्म करनेवालोंको नहीं लेना चाहिये क्योंकि भगवान्ने उनको ऊँचा नहीं माना है; प्रत्युत उनके बारेमें कहा है कि वे बारबार आवागमनको प्राप्त होते हैं (गीता 9। 21)। यहाँ उन पुण्यकर्मा भक्तोंको लेना चाहिये; जिनको भगवान्का प्रेमदर्शन आदिकी प्राप्ति होती है। ऐसे पुण्यकर्मा भक्तोंको अपनेअपने इष्टके अनुसार वैकुण्ठ; साकेत; गोलोक; कैलास आदि जिन दिव्य लोकोंकी प्राप्ति होती है; असूयादोषरहित श्रद्धावान् पुरुषको गीता सुननेमात्रसे उन लोकोंकी प्राप्ति हो जाती है।
सम्बन्ध – पूर्वश्लोकमें गीता सुननेका माहात्म्य बताकर अब अर्जुनकी क्या स्थिति है; क्या दशा है; आदि सब कुछ जानते हुए भी भगवान् भगवद्गीताश्रवणके माहात्म्यको सबके सामने प्रकट करनेके उद्देश्यसे आगेके श्लोकमें अर्जुनसे प्रश्न करते हैं।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
18.71. A man who would at least hear to [this] with faith and without indignation-he too, freed [from sins], will attain the auspicious worlds of men of meritorius acts.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
18.71 Any man who, being reverential and free from cavilling, might even hear (this), he too, becoming free, shall attain the blessed worlds of those who perform virtuous deeds.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
18.71 Yea, he who listens to it with faith and without doubt, even he, freed from evil, shalt rise to the worlds which the virtuous attain through righteous deeds.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
18.71 And the man who listens to it with faith and without cavilling, he too shall be released, and shall reach the auspicious realms of those who have performed virtuous deeds.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
18.71 Also the man who hears this, full of faith and free from malice, he, too, liberated, shall attain to the happy worlds of those of righteous deeds.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
18.71 श्रद्धावान् full of faith; अनसूयः free from malice; च and; श्रृणुयात् may hear; अपि also; यः who; नरः man; सः he; अपि also; मुक्तः liberated; शुभान् happy; लोकान् worlds; प्राप्नुयात् shall attain; पुण्यकर्मणाम् of those of righteous deeds.Commentary Liberated from sin.Punyakarmanam Of those who have done Agnihotra and such other sacrifices.He too Much more so who understands the teachings of the Gita; lives in its spirit and who practises the most valuable spiritual instructions contained in it.