(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
नियतं +++(ममत्व-)+++सङ्ग-रहितम्
अ-राग-द्वेषतः कृतम्।
अ-फल-प्रेप्सुना कर्म
यत् तत् सात्त्विकम् उच्यते॥18.23॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।18.23।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।18.23।।नियतं स्ववर्णाश्रमोचितं सङ्गरहितं कर्तृत्वादिसङ्गरहितम्; अरागद्वेषतः कृतं कीर्तिरागाद् अकीर्तिद्वेषात् च न कृतम्; अदम्भेन कृतम् इत्यर्थः अफलप्रेप्सुना अफलाभिसन्धिना कार्यम् इति एव कृतं यत् कर्म तत् सात्त्विकम् उच्यते।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।18.23।। अधिकार्यंशेनेति – अविभक्तत्वविभक्तत्वादिविशेषितकर्माधिकारिस्वरूपानुसन्धानेनेत्यर्थः। विशिष्टे कर्मणि विशेषणतयाऽधिकारिणोंऽशत्वोक्तिः। यद्यपि सङ्गशब्दो विभज्य फलसङ्गकर्तृत्वत्यागप्रतिपादने विशेषविषयः; तथापिसङ्गरहितम् इत्यत्र सङ्कोचकाभावादपेक्षितत्वाच्च कण्ठोक्तफलप्रेप्सातिरिक्तसामान्यविषय इत्याहकर्तृत्वादिसङ्गरहितमिति। आदिशब्देन ममता गृह्यते। मुक्तसङ्गोऽनहंवादी [18।26] इत्यादिकथितः कर्तृधर्म इह तद्द्वारा कर्मविशेषणत्वेन योजितः। ब्रह्मणि रागात्संसारद्वेषाच्च क्रियमाणस्य कर्मणः कथमरागद्वेषतः कृतत्वं इत्यत्राऽऽह – कीर्तिरागादकीर्तिद्वेषाच्चेति। सङ्गशब्दपुनरुक्तिश्चानेन परिहृता। अकारस्यासमस्तत्वविवक्षया वा फलितत्वोक्तिविवक्षया वान कृतमित्युक्तम्। तपो दम्भेन चैव यत् [17।18] इत्याद्युक्तप्रतिषेधार्थमिदमित्यभिप्रायेणाऽऽह – अदम्भेनेति। कार्यमित्येवेति सात्त्विकत्यागस्मारणम्।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
18.23 ‘Obligatory act’ is that which is appropriate to one’s own station and stage of life. Doing it ‘without attachment’ means devoid of attachment to agency etc., and ‘without desire or aversion’ means that it is not done through desire to win fame and aversion to win notoriety, i.e., is performed without ostentation - when obligatory works are performed in the above-mentioned way by one who is not after their fruits, they are said to be Sattvika.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।18.23 – 18.25।। नियतमित्यादि तामसमुच्यते इत्यन्तम्। नियतम् – कर्तव्यमिति। क्लेशैः अविद्याद्यैः बहुलं +++(S बहुलैः )+++ व्याप्तम्। मोहात् अभिनिवेशमयात्।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
18.23 See Comment under 18.25
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।18.23।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।18.23।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।18.23।। –,नियतं नित्यं सङ्गरहितम् आसक्तिवर्जितम् अरागद्वेषतःकृतं रागप्रयुक्तेन द्वेषप्रयुक्तेन च कृतं रागद्वेषतःकृतम्; तद्विपरीतम् अरागद्वेषतःकृतम्; अफलप्रेप्सुना फलं प्रेप्सतीति फलप्रेप्सुः फलतृष्णः तद्विपरीतेन अफलप्रेप्सुना कर्त्रा कृतं कर्म यत्; तत् सात्त्विकम् उच्यते।।
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।18.23।। अब कर्मके तीन भेद कहे जाते हैं –, जो कर्म नियत – नित्य है तथा सङ्ग – आसक्तिसे रहित है और फल न चाहनेवाले पुरुषद्वारा बिना रागद्वेषके किया गया है; वह सात्त्विक कहा जाता है। जो कर्म रागसे या द्वेषसे प्रेरित होकर किया जाता है; वह रागद्वेषसे किया हुआ कहलाता है और जो उससे विपरीत है वह बिना रागद्वेषके किया हुआ है। जो कर्ता कर्मफलको चाहता है; वह कर्मफलप्रेप्सु अर्थात् कर्मफलकी तृष्णावाला होता है और जो उससे विपरीत है वह कर्मफलको न चाहनेवाला है।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
18.23 Niyatam, the daily obligatory; karma, action; yat, which; is krtam, performed; sanga-rahitam, without attachment; araga-dvesatah, without likes or dislikes; aphala-prepsuna, by one who does not hanker for rewards, by an agent who is the opposite of one who is desirous of the fruits of action; tat, that (action); ucyate, is said to be; sattvikam, born of sattva.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।18.23।। त्रिविधं कर्म वक्तुमनन्तरश्लोकत्रयमित्याह – अथेति। तत्र सात्त्विकं कर्म निरूपयति – नियतमिति।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।18.23।। तदेवमौपनिषदानामद्वैतात्मदर्शनं सात्त्विकमुपादेयं मुमुक्षुभिर्द्वैतदर्शिनां तु नित्यविभु परस्परविभिन्नात्मदर्शनं राजसमनित्यपरिच्छिन्नात्मदर्शनं च तामसं हेयमुक्तं; संप्रति त्रिविधं कर्मोच्यते – नियतमिति। नियतं यावदङ्गोपसंहारासमर्थानामपि फलावश्यंभावव्याप्तं नित्यमिति यावत्। सङ्गोऽहमेव महायाज्ञिक इत्याद्यभिमानरूपोऽहंकारापरपर्यायो राजसो गर्वविशेषस्तेन शून्यं सङ्गरहितं यावदज्ञानं तु कर्तृत्वभोक्तृत्वप्रवर्तनोऽहंकारोऽनुवर्तत एव सात्त्विकस्यापि तद्रहितस्य तत्त्वविदो न कर्माधिकार इत्युक्तमसकृत्। रागो राजसन्मानादिकमनेन लप्स्य इत्यभिप्रायः; द्वेषः शत्रुमनेन पराजेष्य इत्यभिप्रायस्ताभ्यां न कृतमरागद्वेषतः कृतमफलप्रेप्सुना फलाभिलाषरहितेन कर्त्रा यत्कृतं कर्म यागदानहोमादि तत्सात्त्विकमुच्यते।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।18.23।। अथ कर्मत्रैविध्यमाह – नियतमित्यादिना। नियतं नित्यम् सङ्गरहितमभिमानवर्जितम्। राग इष्टे प्रीतिर्द्वेषोऽनिष्टेऽप्रीतिस्ताभ्यां कृतमिष्टानिष्टप्राप्तिपरिहारार्थं कृतं रागाद्वेषतः कृतं तदन्यदरागद्वेषतः कृतं निष्काममित्यर्थः। फल्गु च लीयते चेति फलं क्रियया प्राप्यमनात्मवस्तु तदन्यदफलमनागन्तुकं परिपूर्णमविनाशि आत्मतत्त्वं तत्प्रेप्सुना कृतंविविदिषन्ति यज्ञेन इति श्रुत्या आत्मलाभार्थं यज्ञादेर्विनियोगात्। तत्कर्म सात्त्विकमुच्यते।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।18.23।। एवं ज्ञानत्रैविध्यं विभज्य कर्मत्रैविध्यं विभजन्नादौ सात्त्विक कर्मोदाहरति। नियतं नित्यमवश्यकर्तव्यतया विहितं सङ्गरहितमासक्तिवर्जितमभिनिवेशशून्यमरागद्वेषतः कृतं रागो विषयप्रेप्साकारणभूता रञ्जनात्मिका चित्तवृत्तिः तत्प्रयुक्तेन द्वेषप्रयुक्तेन च कृतं रागद्वेषतः कृतं तद्विपरीतमरागद्वेषतः कृतं फलं प्रेपसतीति फलप्रेप्सुः फलतृष्णः तद्विपरीतेनाऽफलप्रेप्सुना कर्त्रा यत्कर्म कृतं तत्सात्त्विकमुच्यते। फल्गु च लीयते चेति फलं क्रियया प्राप्यं अनात्मवस्तु तंदन्यदफलमनागन्तुकं परिपूर्णमविनाशि आत्मतत्त्वं तत्प्रेप्सुना कृतंविविदिषन्ति यज्ञेन इति श्रुत्या आत्मलाभार्थं यज्ञादेर्विनियोगादित्यन्ये। आचार्यैस्तु कामेप्सुनेत्युत्तराननुरोधक्लिष्टकल्पनाग्रस्तोऽयं पक्ष इत्यभिप्रेत्योपेक्षितः।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।18.23।। इदानीमनुष्ठेयकर्मणो गुणतस्त्रैविध्यमाह – नियतमिति। श्रुतौ स्ववर्णाश्रमोदितं कर्त्तृत्वादिसङ्गरहितं रागद्वेषौ कीर्त्यकीर्त्तिविषयौ तदभावतः कृतमिति ममत्वपरित्यागपूर्वकं अफलप्रेप्सुना यत्कृतं कर्म तत्सात्त्विकम्।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।18.23।। एवं ज्ञानस्वरूपमुक्त्वा त्रिविधकर्मरूपमाह – नियतमिति। नियतं नित्यं; सङ्गरहितम् अज्ञानासक्तिरहितम्; अरागद्वेषतः कृतं संसारानुरागेण शत्रुमारणाद्यर्थं द्वेषेण रहितम्; अफलप्रेप्सुना फलानभिलाषेण भगवत्तोषहेतुत्वेन कृतं कर्म (यत्) तत् सात्त्विकमुच्यते।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।18.23।। इदानीं त्रिविधं कर्माह – नियतमिति त्रिभिः। नियतं नित्यतया विहितं; सङ्गरहितमभिनिवेशशून्यं; अरागद्वेषतः पुत्रादिप्रीत्या वा शत्रुद्वेषेण वा यत्कृतं न भवति फलं प्राप्तुमिच्छतीति फलप्रेप्सुस्तद्विलक्षणेन निष्कामेण कर्त्रा यत्कृतं कर्म,तत्सात्त्विकमुच्यते।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।18.23।। त्रिविध कर्मों में सात्त्विक कर्म सर्वश्रेष्ठ है; जो कर्ता के मन में शान्ति तथा उसके कर्मक्षेत्र में सामञ्जस्य उत्पन्न करता है। प्राय मनुष्य फल में आसक्त होकर अपने व्यक्तिगत राग और द्वेष से प्रेरित होकर कर्म करता है। परन्तु यहाँ कहा गया है कि नियत अर्थात् कर्तव्य कर्म को अनासक्त भाव से तथा राग द्वेष से रहित होकर करने पर ही वह सात्त्विक कर्म कहलाता है। सात्त्विक पुरुष कर्म को इसीलिए करता है; क्योंकि कर्म कर्तव्य है और वही ईश्वर की पूजा है। ऐसी भावना और प्रेरणा से युक्त होने पर मनुष्य अपनी ही सामान्य कार्यकुशलता एवं श्रेष्ठता से कहीं अधिक ऊँचा उठ जाता है। अर्पण की भावना से किये गये कर्मों में राग और द्वेष का प्रश्न ही नहीं उठता। समस्त साधु सन्तों का सेवाकार्य इस तथ्य का प्रमाण है। अनेक अवसरों पर हम भी इसी भावना से कर्म करते हैं। ऐसा विशिष्ट उदाहरण; उस अवसर का है जब हमारे पैर में कोई चोट लग जाती है। उस समय हम झुक कर पैर को देखने लग जाते हैं और शरीर के समस्त अंग उसकी सेवा में जुट जाते हैं। इस सेवा कार्य में हम यह नहीं कह सकते कि हमें अपने पैर से अन्य अंगों की अपेक्षा अधिक प्रेम है। मनुष्य अपने सम्पूर्ण शरीर में निवास करता है और उसके लिए शरीर के सभी अंग समान होते हैं। इसी प्रकार; जो सात्त्विक पुरुष एकमेव अद्वितीय; सच्चित्स्वरूप सर्वव्यापी परमात्मा को आत्मस्वरूप में पहचान लेता है; तो उस पुरुष के लिए कोढ़ी और राजकुमार; स्वस्थ और अस्वस्थ; दरिद्र और सम्पन्न ये सभी लोग अपने आध्यात्मिक शरीर के विभिन्न अंगों के समान ही प्रतीत होते हैं। ऐसा पुरुष अनुप्राणित आनन्द और कृतार्थता की भावना से जगत् की सेवा करता है। इस प्रकार; सात्त्विक कर्मों की पूर्णता उनके करने में ही होती है। फलप्राप्ति का विचार भी उसमें उत्पन्न नहीं होता है।
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।18.23।। जो कर्म (शास्त्रविधि से) नियत और संगरहित है, तथा फल को न चाहने वाले पुरुष के द्वारा बिना किसी राग द्वेष के किया गया है, वह (कर्म) सात्त्विक कहा जाता है।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।18.23।। जो कर्म शास्त्रविधिसे नियत किया हुआ और कर्तृत्वाभिमानसे रहित हो तथा फलेच्छारहित मनुष्यके द्वारा बिना राग-द्वेषके किया हुआ हो, वह सात्त्विक कहा जाता है।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।18.23।।व्याख्या – नियतं सङ्गरहितम् ৷৷. सात्त्विकमुच्यते – जिस व्यक्तिके लिये वर्ण और आश्रमके अनुसार जिस परिस्थितिमें और जिस समय शास्त्रोंने जैसा करनेके लिये कहा है; उसके लिये वह कर्म नियत हो जाता है। यहाँ नियतम् पदसे एक तो कर्मोंका स्वरूप बताया है और दूसरे; शास्त्रनिषिद्ध कर्मका निषेध किया है।
सङ्गरहितम् पदका तात्पर्य है कि वह नियतकर्म कर्तृत्वाभिमानसे रहित होकर किया जाय। कर्तृत्वाभिमानसे रहित कहनेका भाव है कि जैसे वृक्ष आदिमें मूढ़ता होनेके कारण उनको कर्तृत्वका भान नहीं होता; पर उनकी भी ऋतु आनेपर पत्तोंका झड़ना; नये पत्तोंका निकलना; शाखा कटनेपर घावका मिल जाना; शाखाओंका बढ़ना; फलफूलका लगना आदि सभी क्रियाएँ समष्टि शक्तिके द्वारा अपनेआप ही होती हैं ऐसे ही इन सभी शरीरोंका बढ़नाघटना; खानापीना; चलनाफिरना आदि सभी क्रियाएँ भी समष्टि शक्तिके द्वारा अपनेआप हो रही हैं। इन क्रियाओँके साथ न अभी कोई सम्बन्ध है; न पहले कोई सम्बन्ध था और न आगे ही कोई सम्बन्ध होगा। इस प्रकार जब साधकको प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है; तो फिर उसमें कर्तृत्व नहीं रहता। कर्तृत्व न रहनेपर उसके द्वारा जो कर्म होता है; वह सङ्गरहित अर्थात् कर्तृत्वाभिमानरहित ही होता है। ,यहाँ साङ्ख्यप्रकरणमें कर्तृत्वका त्याग मुख्य होनेसे और आगे अरागद्वेषतः कृतम् पदोंमें भी आसक्तिके त्यागकी बात आनेसे यहाँ सङ्गरहितम् पदका अर्थ कर्तृत्वअभिमानरहित लिया गया है (टिप्पणी प₀ 905)।अरागद्वेषतः कृतम् पदोंका तात्पर्य है कि रागद्वेषसे रहित हो करके कर्म किया जाय अर्थात् कर्मका ग्रहण रागपूर्वक न हो और कर्मका त्याग द्वेषपूर्वक न हो तथा कर्म करनेके जितने साधन (शरीर; इन्द्रियाँ; अन्तःकरण आदि) हैं; उनमें भी रागद्वेष न हो।अरागद्वेषतः पदसे वर्तमानमें रागका अभाव बताया है और अफलप्रेप्सुना पदसे भविष्यमें रागका अभाव बताया है। तात्पर्य यह है कि भविष्यमें मिलनेवाले फलकी इच्छासे रहित मनुष्यके द्वारा कर्म किया जाय अर्थात् क्रिया और पदार्थोंसे निर्लिप्त रहते हुए असङ्गतापूर्वक कर्म किया जाय तो वह सात्त्विक कहा जाता है। इस सात्त्विक कर्ममें सात्त्विकता तभीतक है; जबतक अत्यन्त सूक्ष्मरूपसे भी प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है। जब प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद हो जाता है; तब यह कर्म अकर्म हो जाता है।
सम्बन्ध – अब राजस कर्मका वर्णन करते हैं।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
18.23. The object that has been acired with determination, without attachment and without desire or hatred, by one who does not crave to reap the fruit [of his action] - that is declared to be of the Sattva (Strand).
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
18.23 The daily obligatory action which is performed without attachment and without likes or dislikes by one who does not hanker for rewards, that is said to be born of sattva.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
18.23 An obligatory action done by one who is disinterested, who neither likes nor dislikes it, and gives no thought to the consequences that follow, such an action is Pure.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
18.23 That obligatory act is said to be Sattvika which is done without attachment, without desire or aversion, by one who seeks no fruit.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
18.23 An action which is ordained, which is free from attachment, and which is done without love or hatred by one who is not desirous of any reward that action is declared to be Sattvic.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
18.23 नियतम् ordained; सङ्गरहितम् free from attachment; अरागद्वेषतः without love or hatred; कृतम् done; अफलप्रेप्सुना by one not desirous of the fruit; कर्म action; यत् which; तत् that; सात्त्विकम् Sattvic (pure); ुच्यते is declared.Commentary Niyatam Ordained Obligatory. One is not excited to perform an obligatory action through love or hatred.This is a pure act. The performer of such pure action experiences great joy. He does his duty or any other work wholeheartedly not caring for the reward but offering it willingly at the feet of the Lord. He works in accordancw with the dictates of the scriptures. Now I will explain to thee; O Arjuna; the nature of action which is Rajasic or passionate. Do thou listen to Me with rapt attention.