(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अ-देश-काले यद् दानम्
अपात्रेभ्यश् च दीयते।
असत्-कृतम् अवज्ञातं
तत् तामसम् उदाहृतम्॥17.22॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्।।17.22।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।17.22।।अदेशकाले अपात्रेभ्यः च यद् दानं दीयते; असत्कृतं पादप्रक्षालनादिगौरवरहितम्; अवज्ञातं सावज्ञम्; अनुपचारयुक्तं यद् दीयते तत् तामसं उदाहृतम्। एवं वैदिकानां यज्ञतपोदानानां सत्त्वादिगुणभेदेन भेद उक्तः। इदानीं तस्य एव वैदिकस्य यज्ञादेः प्रणवसंयोगेन तत्सच्छब्दव्यपदेश्यतया च लक्षणम् उच्यते –
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।17.22।। अदेशः कलिङ्गकीकटादिः। अकालो रात्र्यादिः। अपात्राणि पङ्क्तिदूषकमूर्खतस्करकितवबन्दिवैतालिकादयः। सत्कृतं सत्करणं तद्रहितमसत्कृतम् तदाहपादप्रक्षालनेति। प्रतिग्रहीतृपुरुषावज्ञैव क्रियापर्यन्तप्रसारात्तद्विशेषणतया व्यपदिश्यत इत्यभिप्रायेणाऽऽहसावज्ञमिति। अवज्ञाया वाचिकादिविषयत्वमाहअनुपचारयुक्तमिति। शास्त्रप्रामाण्यानिश्चयेन सन्दिग्धपरलोकत्वात् पात्रेभ्यः स्वत्वोत्कर्षाभिमानोच्चासत्कारावज्ञे। देशादिसम्पत्तावप्यसत्कृतत्वादि परिहर्तव्यम्।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
17.22 That gift which is given to unworthy recipients at wrong place and time, without due respect, viz., without showing such signs of respect as cleansing the feet; with contempt, viz., with disdain and without courtesy - that is said to be of Tamasa nature. So far, the divisions due to differences of Gunas in respect of sacrifices, austerities and gifts as enjoined by the Vedas have been portrayed. Now is given the definition of Vedic sacrifices etc., according to their association with Pranava (i.e., the syllable Om), and as signified by the terms Tat and Sat.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।17.20 – 17.22।। दातव्यमित्यादि उदाहृतमित्यन्तम्। दातव्यमिति – दद्यादिति नियोगमात्रं पालनीयमिति दोषाभिसंधानाय +++(S येषामभिसन्धाय; दोषासन्धाय )+++। परिक्लिष्टं मितादिदोषात्। दानस्य चासत्करणं तत्संप्रदानाद्यसत्करणात्। एवं लौकिकानां सात्त्विकादित्रिप्रकाराशयानुसारेण क्रिया व्याख्याता।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
17.20-22 Datavyam etc. upto udahrtam. With the thought that ‘One must give’ : thinking that the [scriptural] injunction ‘One must give’ is to be obeyed in order to avoid sin. Very much vexed : because of the fault of [giving] very little. A gift is converted into a bad one by offending its recipient, and so on. Thus the activities of the worldly men are explained on the basis of their three-fold intentions born of the Sattva and so on. How do those persons perform actions, whose intellect has gone beyond the region, that is impassable because of the triad of the Strands ; Now that manner is described as -
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।17.22।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।17.22।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।17.22।। –,अदेशकाले अदेशे अपुण्यदेशे म्लेच्छाशुच्यादिसंकीर्णे अकाले पुण्यहेतुत्वेन अप्रख्याते संक्रान्त्यादिविशेषरहिते अपात्रेभ्यश्च मूर्खतस्करादिभ्यः; देशादिसंपत्तौ वा असत्कृतं च प्रियवचनपादप्रक्षालनपूजादिरहितम् अवज्ञातं पात्रपरिभवयुक्तं च यत् दानम्; तत् तामसम् उदाहृतम्।। यज्ञदानतपःप्रभृतीनां साद्गुण्यकरणाय अयम् उपदेशः उच्यते –,
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।17.22।। जो दान अयोग्य देशकालमें अर्थात् अशुद्ध वस्तुओं और म्लेच्छादिसे युक्त पापमय देशमें; तथा पुण्यके हेतु बतलाये हुए संक्रान्ति आदि विशेषतासे रहित कालमें और मूर्ख; चोर आदि अपात्रोंको दिया जाता है तथा जो अच्छे देशकालादिमें भी बिना सत्कार किये – प्रिय वचन; पादप्रक्षालन और पूजादि सम्मानसे रहित तथा पात्रका अपमान करते हुए दिया जाता है; वह तामस कहा गया हैं।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
17.22 Tat, that; danam, gift; yat, which; diyate, is given; adesakale, at an improper place and time-in an unholy place full of barbarians and impure things, etc.; at an improper time: which is not well known as productive of merit; without such specially as Sankranti etc.-; and apatrhyah, to undeserving persons, to fools, thieves and others;-and even when the place etc. are proper-asatkrtam, without proper treatment, without sweet words, washing of feet, worship, etc.; and avajnatam, with disdain, with insults to the recipient; is udahrtam, declared to be; tamasam, born of tamas. This advice is being imparted for making sacrifices, gifts, austerities, etc. perfect:
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।17.22।। राजसतामसदानविभजनं स्पष्टार्थम्।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।17.22।। अदेशेति। अदेशे स्वतो वा दुर्जनसंसर्गाद्वा पापहेतावशुचिस्थाने; अकाले पुण्यहेतुत्वेनाप्रसिद्धे यस्मिन् कस्मिंश्चिदशौचकाले वा; अपात्रेभ्यश्च विद्यातपोरहितेभ्यो नटविटादिभ्यो यद्दानं दीयते; देशकालपात्रसंपत्तावप्यसत्कृतं प्रियभाषणपादप्रक्षालनपूजादिसत्कारशून्यं अवज्ञातं पात्रपरिभवयुक्तं च तद्दानं तामसमुदाहृतम्।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।17.22।। असत्कृतं प्रियभाषणपादप्रक्षालनादिपूजासत्कारस्तद्रहितम्। अवज्ञातं पात्रपरिभवयुक्तम्। दानं प्रदेयं हिरण्यादि।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।17.22।। राजसं दानमुक्त्वा तामसं तदुदाहरति – अदेशकालेऽपुण्यदेशे म्लेच्छाशुच्यादिसंकीर्णे अकाले अपुण्यहेतुत्वेन प्रख्यातेऽशौचकाले संक्रान्यत्यादिविशेषरहिते वा अपात्रेभ्यश्च मूर्खनटतस्कादिभ्यो देशादिसंपत्तावपि प्रियवचनपादप्रक्षालनपूजादिसत्काररहितमवज्ञातं पात्रपरिभवयुक्तं च यद्दानं तद्दानं तामसमुदाहृतम्।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।17.22।। Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।17.22।। तामसमाह – अदेश इति। अदेशे कीकटादौ म्लेच्छादिसन्निधाने वा; अकाले अश्रद्धावस्थायामाशौचादौ; अपात्रेभ्यः गणिकाचारणबन्दिभ्यो यद्दानं दीयते तत्तामसं फलादिरहितमुदाहृतम्। च पुनः देशादिसम्पत्तौ पात्रेभ्योऽपि यत् असत्कृतं सत्कारपूजादिरहितं अवज्ञातं स्वरूपज्ञानपूर्वकतिरस्कारं यद्दीयते तदपि तथेत्यर्थः। एवं यज्ञादीनां त्रैविध्यनिरूपणेनैतत्त्रैविध्यरहितं निर्गुणमेव तत्सर्वं यज्ञादिकं कर्त्तव्यमिति ज्ञापितम्। तथाहि भगवदिच्छायां सत्यां तज्ज्ञानपूर्वकं भगवद्विभूतियागो भक्त्यङ्गत्वेन कार्यो युधिष्ठिरवत्यक्ष्ये विभूतीर्भवतः [भागः10।72।3] इत्यादिविज्ञापनपूर्वकम्। तपोऽपि भगवदर्थकसर्वसुखपरित्यागपूर्वकक्लेशादिसहनरूपे ज्ञानरूपं वा कार्यम्। दानं च भक्तिसिद्ध्यर्थं भगवद्भक्ताय वेदविदे ब्राह्मणाय दातव्यम्।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।17.22।। तामसं दानमाह – अदेशेति। अदेशे अशुचिस्थाने; अकाले अशौचसमये; अपात्रेभ्यो विटनटनर्तकादिभ्यो यद्दानं दीयते। देशकालपात्रसंपत्तावपि असत्कृतं पादप्रक्षालनादिसत्कारशून्यम्; अवज्ञातं तिरस्कारयुक्तं। एंवभूतं दानं तामसमुदाहृतम्।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।17.22।। संक्षेपत; सात्त्विक दान के जो सर्वथा विपरीत है वह दान तामस कहा जाता है। कुपात्र का अर्थ है मूर्ख; चोर; मद्यपानादि करने वाले लोग। यज्ञ; दान; तप आदि को सुसंस्कृत और सम्पूर्ण करने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण उपदेश देते हुए कहते हैं
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।17.22।। जो दान बिना सत्कार किये, अथवा तिरस्कारपूर्वक, अयोग्य देशकाल में, कुपात्रों के लिए दिया जाता है, वह दान तामस माना गया है।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।17.22।। जो दान बिना सत्कारके तथा अवज्ञापूर्वक अयोग्य देश और कालमें कुपात्रको दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।17.22।।व्याख्या – असत्कृतमवज्ञातम् – तामस दान असत्कार और अवज्ञापूर्वक दिया जाता है जैसे – तामस मनुष्यके पास कभी दान लेनेके लिये ब्राह्मण आ जाय; तो वह तिरस्कारपूर्वक उसको उलाहना देगा कि देखो पण्डितजी जब हमारी माताका शरीर शान्त हुआ; तब भी आप नहीं आये परन्तु क्या करें आप हमारे घरके गुरु हो इसलिये हमें देना ही पड़ता है इतनेमें ही घरका दूसरा आदमी बोल पड़ता है कि तुम क्यों ब्राह्मणोंके झंझटमें पड़ते हो किसी गरीबको दे दो। जिसको कोई नहीं देता; उसको देना चाहिये। वास्तवमें वही दान है। ब्राह्मणको तो और कोई भी दे देगा; पर बेचारे गरीबको कौन देगा पण्डितजी क्या आ गया; यह तो कुत्ता आ गया टुकड़ा डाल दो; नहीं तो भौंकेगा आदिआदि। इस प्रकार शास्त्रविधिका; ब्राह्मणोंका तिरस्कार करनेके कारण यह दान तामस कहलाता है।अदेशकाले यद्दानम् – मूढ़ताके कारण तामस मनुष्यको अपने मनकी बातें ही जँचती हैं जैसे – दान करनेके लिये देशकालकी क्या जरूरत है जब चाहे; तब कर दिया। जब किसी विशेष देश और कालमें ही पुण्य होगा; तो क्या यहाँ पुण्य नहीं होगा इसके लिये अमक समय आयेगा; अमुक पर्व आयेगा – इसकी क्या आवश्यकता अपनी चीज खर्च करनी है; चाहे कभी दो; आदिआदि। इस प्रकार तामस मनुष्य शास्त्रविधिका अनादर; तिरस्कार करके दान करते हैं। कारण कि उनके हृदयमें शास्त्रविधिका महत्त्व नहीं होता; प्रत्युत रुपयोंका महत्त्व होता है।अपात्रेभ्यश्च दीयते – तामस दान अपात्रको किया जाता है। तामस मनुष्य कई प्रकारके तर्कवितर्क करके पात्रका विचार नहीं करते जैसे – शास्त्रोंमें देश; काल और पात्रकी बातें यों ही लिखी गयी हैं कोई यहाँ दान लेगा तो क्या यहाँ उसका पेट नहीं भरेगा तृप्ति नहीं होगी जब पात्रको देनेसे पुण्य होता है; तो इनको देनेसे क्या पुण्य नहीं होगा क्या ये आदमी नहीं हैं क्या इनको देनेसे पाप लगेगा अपनी जीविका चलानेके लिये; अपना मतलब सिद्ध करनेके लिये ही ब्राह्मणोंने शास्त्रोंमें ऐसा लिख दिया है; आदिआदि।तत्तामसमुदाहृतम् – उपर्युक्त प्रकारसे दिया जानेवाला दान तामस कहा गया है।
शङ्का – गीतामें तामसकर्मका फल अधोगति बताया है – अधो गच्छन्ति तामसाः (14। 18) और रामचरितमानसमें बताया है कि जिसकिसी प्रकारसे भी दिया हुआ दान कल्याण करता है – **जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान।। (मानस 7। 103 ख)इन दोनोंमें विरोध आता है
समाधान – तामस मनुष्य अधोगतिमें जाते हैं – यह कानून दानके विषयमें लागू नहीं होता। कारण कि धर्मके चार चरण हैं –** सत्यं दया तपो दानमिति (श्रीमद्भा0 12। 3। 18)। इन चारों चरणोंमेंसे कलियुगमें एक ही चरण दान है – दानमेकं कलौ युगे (मनुस्मृति 1। 86)। इसलिये गोस्वामीजी महाराजने कहा – प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान।। (मानस 7। 103 ख)ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि किसी प्रकार भी दान दिया जाय; उसमें वस्तु आदिके साथ अपनेपनका त्याग करना ही पड़ता है। इस दृष्टिसे तामस दानमें भी आंशिक त्याग होनेसे दान देनेवाला अधोगतिके योग्य नहीं हो सकता।
दूसरी बात; इस कलियुगके समय मनुष्योंका अन्तःकरण बहुत मलिन हो रहा है। इसलिये कलियुगमें एक छूट है कि जिसकिसी प्रकार भी किया हुआ दान कल्याण करता है। इससे मनुष्यका दान करनेका स्वभाव तो बन ही जायगा; जो आगे कभी किसी जन्ममें कल्याण भी कर सकता है। परन्तु दानकी क्रिया ही बन्द हो जायगी; तो फिर देनेका स्वभाव बननेका कोई अवसर ही प्राप्त नहीं होगा। इसी दृष्टिसे एक संतने श्रद्धया देयमश्रद्धयादेयम् (तैत्तिरीय0 1। 11) – इस श्रुतिकी व्याख्या करते हुए कहा था कि इसमें पहले पदका अर्थ तो यह है कि श्रद्धासे देना चाहिये; पर दूसरे पदका अर्थ अश्रद्धया अदेयम् (अश्रद्धासे नहीं देना चाहिये) – ऐसा न लेकर अश्रद्धया देयम् (श्रद्धा न हो; तो भी देना चाहिये) – इस प्रकार लेना चाहिये।
दानसम्बन्धी विशेष बात
अन्न; जल; वस्त्र और औषध – इन चारोंके दानमें पात्रकुपात्र आदिका विशेष विचार नहीं करना चाहिये। इनमें केवल दूसरेकी आवश्यकताको ही देखना चाहिये। इसमें भी देश; काल; और पात्र मिल जाय; तो उत्तम बात और न मिले; तो कोई बात नहीं। हमें तो जो भूखा है; उसे अन्न देना है जो प्यासा है; उसे जल देना है जो वस्त्रहीन है; उसे वस्त्र देना है और जो रोगी है; उसे औषध देनी है। इसी प्रकार कोई किसीको अनुचितरूपसे भयभीत कर रहा है; दुःख दे रहा है; तो उससे उसको छुड़ाना और उसे अभयदान देना हमारा कर्तव्य है। हाँ; कुपात्रको अन्नजल इतना नहीं देना चाहिये कि जिससे वह पुनः हिंसा आदि पापोंमें प्रवृत्त हो जाय जैसे कोई हिंसक मनुष्य अन्नजलके बिना मर रहा है; तो उसको उतना ही अन्नजल दे कि जिससे उसके प्राण रह जायँ; वह जी जाय। इस प्रकार उपर्युक्त चारोंके दानमें पात्रता नहीं देखनी है; प्रत्युत आवश्यकता देखनी है।
भगवान्का भक्त भी वस्तु देनेमें पात्र नहीं देखता; वह तो दिये जाता है क्योंकि वह सबमें अपने प्यारे प्रभुको ही देखता है कि इस रूपमें तो हमारे प्रभु ही आये हैं। अतः वह दान नहीं करता; कर्तव्यपालन नहीं करता; प्रत्युत पूजा करता है – स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य (गीता 18। 46)। तात्पर्य यह है कि भक्तकी सम्पूर्ण क्रियाओंका सम्बन्ध भगवान्के साथ होता है।
कर्मफलसम्बन्धी विशेष बात
ग्यारहवेंसे बाईसवें श्लोकतकके इस प्रकरणमें जो सात्त्विक यज्ञ; तप और दान आये हैं; वे सबकेसब,दैवीसम्पत्ति हैं और जो राजस तथा तामस यज्ञ; तप और दान आये हैं; वे सबकेसब आसुरीसम्पत्ति हैं।
आसुरी सम्पत्तिमें आये हुए राजस यज्ञ; तप और दानके फलके दो विभाग हैं – दृष्ट और अदृष्ट। इनमें भी दृष्टके दो फल हैं – तात्कालिक और कालान्तरिक। जैसे – राजस भोजनके बाद तृप्तिका होना तात्कालिक फल है और रोग आदिका होना कालान्तरिक फल है। ऐसे ही अदृष्टके भी दो फल हैं – लौकिक और पारलौकिक। जैसे – दम्भपूर्वक दम्भार्थमपि चैव यत् (17। 12); सत्कारमानपूजाके लिये सत्कारमानपूजार्थम् (17। 18) और प्रत्युपकारके लिये प्रत्युपकारार्थम् (17। 21) किये गये राजस यज्ञ; तप और दानका फल लौकिक है और वह इसी लोकमे; इसी जन्ममें; इसी शरीरके रहतेरहते ही मिलनेकी सम्भावनावाला होता है (टिप्पणी प₀ 859)।
स्वर्गको ही परम प्राप्य वस्तु मानकर उसकी प्राप्तिके लिये किये गये यज्ञ आदिका फल पारलौकिक होता है। परन्तु राजस यज्ञ अभिसन्धाय तु फलम् (17। 12) और दान फलमुद्दिश्य वा पुनः (17। 21) का फल लौकिक तथा पारलौकिक – दोनों ही हो सकता है। इसमें भी स्वर्गप्राप्तिके लिये यज्ञ आदि करनेवाले (2। 42 – 43 9। 20 – 21) और केवल दम्भ; सत्कार; मान; पूजा; प्रत्युपकार आदिके लिये यज्ञ; तप और दान करनेवाले (17। 12। 18; 21) दोनों प्रकारके राजस पुरुष जन्ममरणको प्राप्त होते हैं (टिप्पणी प₀ 860.1)। परन्तु तामस यज्ञ और तप करनेवाले (17। 13; 19) तामस पुरुष तो अधोगतिमें जाते हैं – अधो गच्छन्ति तामसाः (14। 18); पतन्ति नरकेऽशुचौ (16। 16); आसुरीष्वेव योनिषु (16। 19) ततो यान्त्यधमां गतिम् (16। 20)।
जो मनुष्य यज्ञ करके स्वर्गमें जाते हैं; उनको स्वर्गमें भी दुःख; जलन; ईर्ष्या आदि होते हैं (टिप्पणी प₀ 860.2)। जैसे – शतक्रतु इन्द्रको भी असुरोंके अत्याचारोंसे दुःख होता है; कोई तपस्या करे तो उसके हृदयमें जलन होती है; वह भयभीत होता है। इसे पूर्वजन्मके पापोंका फल भी नहीं कह सकते क्योंकि उनके स्वर्गप्राप्तिके प्रतिबन्धकरूप पाप नष्ट हो जाते हैं – पूतपापाः (9। 20) और वे यज्ञके पुण्योंसे स्वर्गलोकको जाते है। फिर उनको दुःख; जलन; भय आदिका होना किन पापोंका फल है इसका उत्तर यह है कि यह सब यज्ञमें की हुई पशुहिंसाके पापका ही फल है।
दूसरी बात; यज्ञ आदि सकामकर्म करनेसे अनेक तरहके दोष आते हैं। गीतामें आया है – सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः (18। 48) अर्थात् धुएँसे अग्निकी तरह सभी कर्म किसीनकिसी दोषसे युक्त हैं। जब सभी कर्मोंके आरम्भमात्रमें भी दोष रहता है; तब सकामकर्मोंमें तो (सकामभाव होनेसे) दोषोंकी सम्भावना ज्यादा ही होती है और उनमें अनेक तरहके दोष बनते ही हैं। इसलिये शास्त्रोंमें यज्ञ करनेके बाद प्रायश्चित्त करनेका विधान है। प्रायश्चित्तविधानसे यह सिद्ध होता है कि यज्ञमें दोष (पाप) अवश्य होते हैं। अगर दोष न होते; तो प्रायश्चित्त किस बातका परन्तु वास्तवमें प्रायश्चित्त करनेपर भी सब दोष दूर नहीं होते; उनका कुछ अंश रह जाता है जैसे – मैल लगे वस्त्रको साबुनसे धोनेपर भी उसके तन्तुओंके भीतर थोड़ी मैल रह जाती है। इसी कारण इन्द्रादिक देवताओंको भी प्रतिकूलपरिस्थितिजन्य दुःख भोगना पड़ता है।
वास्तवमें दोषोंकी पूर्ण निवृत्ति तो निष्कामभावपूर्वक कर्तव्यकर्म करके उन कर्मोंको भगवान्के अर्पण कर देनेसे ही होती है। इसलिये निष्कामभावसहित किये गये कर्म ही श्रेष्ठ हैं। सबसे बड़ी शुद्धि (दोषनिवृत्ति) होती है – मैं तो केवल भगवान्का ही हूँ; इस प्रकार अहंतापरिवर्तनपूर्वक भगवत्प्राप्तिका उद्देश्य बनानेसे। इससे जितनी शुद्धि होती है; उतनी कर्मोंसे नहीं होती (टिप्पणी प₀ 860.3)। भगवान्ने कहा है – **सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
** जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।। (मानस 5। 44। 1)
तीसरी बात; गीतामें अर्जुनने पूछा कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पापका आचरण क्यों करता है तो उत्तरमें भगवान्ने कहा – काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः (3। 37)। तात्पर्य है कि रजोगुणसे उत्पन्न कामना ही पाप कराती है। इसलिये कामनाको लेकर किये जानेवाले राजस यज्ञकी क्रियाओंमें पाप हो सकते हैं।
राजस तथा तामस यज्ञ आदि करनेवाले आसुरीसम्पत्तिवाले हैं और सात्त्विक यज्ञ आदि करनेवाले दैवीसम्पत्तिवाले हैं परन्तु दैवीसम्पत्तिके गुणोंमें भी यदि राग हो जाता है; तो रजोगुणका धर्म होनेसे वह राग भी बन्धनकारक हो जाता है (गीता 14। 6)।
सम्बन्ध – सोलहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें दैवीसम्पत्ति मोक्षके लिये और आसुरीसम्पत्ति बन्धनके लिये बतायी है। दैवीसम्पत्तिको धारण करनेवाले सात्त्विक मनुष्य परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे जो यज्ञ; तप और दानरूप कर्म करते हैं; उन कर्मोंमें होनेवाली (भाव; विधि; क्रिया; आदिकी) कमीकी पूर्तिके लिये क्या करना चाहिये इसे बतानेके लिये भगवान् आगेका प्रकरण आरम्भ करते हैं।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
17.22. The gift which is given, at a wrong place, at a wrong time and to unworthy persons; and which is converted into a bad act and is disrespected - that is declared to be of the Tamas.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
17.22 The gift which is made at an improper place and time, and to undeserving persons, without proper treatment and with disdain, is declared to be born of tamas.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
17.22 And that which is given at an unsuitable place or time or to one who is unworthy, or with disrespect or contempt - such a gift is the result of Ignorance.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
17.22 That gift which is given at the wrong place and wrong time to unworthy recipients, without due respect and with contempt, is called the gift of Tamasa nature.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
17.22 The gift that is given at a wrong place and time, to unworthy persons, without respect or with insult is declared to be Tamasic.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
17.22 अदेशकाले at a wrong place and time; यत् which; दानम् gift; अपात्रेभ्यः to unworthy persons; च and; दीयते is given; असत्कृतम् without respect; अवज्ञातम् with insult; तत् that; तामसम् Tamasic; उदाहृतम् is declared to be.Commentary Adesakale At a wrong place and time At a place which is not holy; where irreligious people congregate and where beggars assemble; where wealth acired through illegal means such as gambling; theft; etc.; is distributed to gamblers; singers; fools; rogues; women of evil reputation and at a time which is not auspicious. But; this does not discourage giving alms or other charity to the poor and the needy. In their case these restrictions do not apply.Without respect; etc. Without pleasant speech; without the washing of feet or without worship; although the gift is made at a proper time and place.The donor does not give in good faith although he gets a worthy recipient. He never bends his head in worship. He does not offer him a seat. He treats him with contempt or disrespect.Lord Krishna says to Arjuna I have described that faith; charity; austerity; food; etc.; are invariably coloured by the three alities. There was no desire on My part to refer to the lower ones but to distinguish the highest purity it was necessary to point out the mark of the other two. When the two are set aside; the third is more clearly appreciated in the same way as if day and night are removed the twilight is seen better. Even so be avoiding passion and darkness; the third; viz.; purity or Sattva becomes vividly clear and purity which is the best can be easily realised. Thus in order to show thee the real nature of purity; I have described the other two; so that laying them aside; and resorting to the highest thou mayest attain the goal; viz.; Moksha.