(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
दातव्यम् इति यद् दानं
दीयते ऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च
तद् दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥17.20॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्।।17.20।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।17.20।। फलाभिसन्धिरहितं दातव्यम् इति देशे काले पात्रे च अनुपकारिणे यद् दानं दीयते तद् दानं सात्त्विकं स्मृतम्।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।17.20।। राजसे दानेफलमुद्दिश्य इति विशेषणादत्र स्वर्गादिफलसङ्गनिवृत्तिरुक्ता। अनुपकारिणे इत्येतत् दृष्टफलाभिसन्धिरहिताभिप्रायम्। दातव्यम् इत्येतत्सात्त्विकतपःप्रभृतिष्विवाभिसन्ध्यन्तरव्युदासार्थमित्याह – फलाभिसन्धिरहितमिति। यद्यप्यत्र पात्रमेवार्थतोऽनुपकारित्वेन विशेष्यते; तथापि सम्प्रदानत्वद्रव्यप्रतिष्ठाधिकरणत्वयोर्विवक्षया चतुर्थीसप्तम्योः सह प्रयोगः। पात्रे सिद्धेऽनुपकारिणे तस्मा इति वाऽन्वयः। पात्रे दीयते; तच्चानुपकारिणे दीयत इति वा वाक्यभेदो ग्राह्यः। देशकालशब्दावत्र दानार्हतया चोदितपुण्यदेशकालविषयौ। पात्रं तुन विद्यया केवलया जन्मना (तपसा) वापि पात्रता। यस्य वृत्तमिमे चोक्ते तद्धि पात्रं प्रचक्षते [या.स्मृ.1।200] इत्यादिभिर्विवक्षितम्।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
17.20 Gifts given without thought of return of favours and with the feelings, ‘These gifts must be given,’ at the proper places and time to a worthy person who makes no return - such gifts are said to be Sattvika.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।17.20 – 17.22।। दातव्यमित्यादि उदाहृतमित्यन्तम्। दातव्यमिति – दद्यादिति नियोगमात्रं पालनीयमिति दोषाभिसंधानाय +++(S येषामभिसन्धाय; दोषासन्धाय )+++। परिक्लिष्टं मितादिदोषात्। दानस्य चासत्करणं तत्संप्रदानाद्यसत्करणात्। एवं लौकिकानां सात्त्विकादित्रिप्रकाराशयानुसारेण क्रिया व्याख्याता।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
17.20 See Comment under 17.22
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।17.20।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।17.20।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।17.20।। –,दातव्यमिति एवं मनः कृत्वा यत् दानं दीयते अनुपकारिणे प्रत्युपकारासमर्थाय; समर्थायापि निरपेक्षं दीयते; देशे पुण्ये कुरुक्षेत्रादौ; काले संक्रान्त्यादौ; पात्रे च षडङ्गविद्वेदपारग इत्यादौ; तत् दानं सात्त्विकं स्मृतम्।।
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।17.20।। अब दानके भेद कहे जाते हैं –, जो दान देना ही उचित है मनमें ऐसा विचार करके अनुपकारीको; जो कि प्रत्युपकार करनेमें समर्थ न हो; यदि समर्थ हो तो भी जिससे प्रत्युपकार चाहा न गया हो; ऐसे अधिकारीको दिया जाता है तथा जो कुरुक्षेत्र आदि पुण्यभूमिमें; संक्रान्ति आदि पुण्यकालमें और छहों अङ्गोंके सहित वेदको जाननेवाले ब्राह्मण आदि श्रेष्ठ पात्रको दिया जाता है वह दान सात्त्विक कहा गया है।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
17.20 Tat, that; danam, gift; is smrtam, referred to; as sattvikam, born of sattva; yat, which gift; is diyate, given; with the idea in mind datavyam iti, that it ought to be given without consideration; anupakarine, to one who will not serve in return, and even to oen who can; and dese, at the (proper) place-in holy places like Kuruksetra etc. ; kale, at the (proper) time-during Sankranti [During the passage of the sun or any planetary body from one zodiacal sign into another.-V.S.A.] etc.; and patre, to a (proper) person-to one who is versed in the Vedas together with their six branches, and such others.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।17.20।। क्रमप्राप्तं दानस्य गुणनिमित्तभेदमाह – इदानीमिति। दातव्यमित्येवं मनः कृत्वा दानमेव मया भाव्यं न फलमित्यभिसंधायेत्यर्थः।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।17.20।। इदानीं क्रमप्राप्तस्य दानस्य त्रैविध्यं दर्शयति त्रिभिः – दातव्यमित्यादिभिः। दातव्यमेव,शास्त्रचोदनावशादित्येवं निश्चयेन नतु फलाभिसन्धिना यद्दानं तुलापुरुषादि दीयते अनुपकारिणे,प्रत्युपकाराजनकाय; देशे पुण्ये कुरुक्षेत्रादौ; काले च पुण्ये सूर्योपरागादौ; पात्रे चेति चतुर्थ्यर्थे सप्तमी। कीदृशायानुपकारिणे दीयते पात्राय च विद्यातपोयुक्ताय; पात्रे रक्षकायेति वा। विद्यातपोभ्यामात्मनो दातुश्च पालनक्षम एव प्रतिगृह्णीयादिति शास्त्रादिति। तदेवंभूतं दानं सात्त्विकं स्मृतम्।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।17.20।। दातव्यमेवेति बुद्ध्या यद्दानं प्रदेयद्रव्यं दीयते न तु फलमुद्दिश्य दीयते। कस्मै अनुपकारिणे प्रत्युपकारासमर्थाय। देशे कुरुक्षेत्रादौ काले संक्रान्त्यादौ यद्दीयते तत्सात्त्विकमिति संबन्धः। यच्च पात्रे दानं समर्पणं तदपि सात्त्विकमिति योजना। अत्र आद्यो दानशब्दः कर्मणि व्युत्पन्नः प्रदेयद्रव्यवाची कर्मभूतः। तत्संयोगात्संप्रदाने चतुर्थ्यपेक्षा। द्वितीयस्तु भावव्युत्पन्नस्त्यागमात्रवाची। तेन तत्र पात्रभूते पुंसि न चतुर्थ्यपेक्षाकर्मणा यमभिप्रैति स संप्रदानम् इति हि पारिभाषिक्याः संप्रदानसंज्ञाया अत्र कर्मविभक्त्यभावेनाप्रवृत्तेः तेन पात्रे इति चतुर्थ्यर्थे सप्तमीति वा; पातृशब्दस्य चतुर्थीयमिति वा कल्पनं व्यर्थमेव। दानशब्दस्यावृत्त्या च देशकालानुपकारित्वविशिष्टे दानमित्येका कोटिः। पात्रे दानमित्यपरा। उभयसमुच्चये तु महान्गुण इति भावः।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।17.20।। एवं तपस्त्रैविध्यं विभज्य क्रमप्राप्तं दानत्रैविध्यं विभजन्नादौ सात्त्विकं दानमुदाहरति। दातव्यमित्येवं मनः कृत्वा यद्दानं देयवस्तु दीयतेऽनुपकारिणे प्रत्युपकारासमर्थायापि निरपेक्षं दीयते पुण्य देशे कुरुक्षेत्रादौ काले संक्रान्यत्यादौ पात्रे च यद्दानं समर्पणं षडङ्गविद्वेदपारगे इत्यादौ तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्। तथाच प्रथमदानशब्दः कर्मव्यत्पत्त्या देयवस्तुपरः। चकारनुकृष्टस्तु भावव्युत्पत्त्या समर्पणपरः। तेन यो देयद्रव्यवाची द्वितीयान्तस्तत्संयोगात्संप्रदाने चतुर्थ्यपेक्षा। द्वितीयस्तु त्यागवाची प्रथमान्तः। तेन तत्र पात्रभूते पुंसि न चतुर्थ्यर्थे सप्तमी। कीदृशायानुपकारिणे दीयते पात्राय च विद्यातपोयुक्ताय च पात्रे कर्मविभक्त्यभावेनाप्रवृत्तेः एतेन पात्रे चेति चतुर्थ्यर्थे सप्तमी। कीदृशायानुपकारिणे दीयते पात्राय च विद्यातपोयुक्ताय च पात्रे रक्षकायेति वा विद्यातपोभ्यामात्मनो दातुश्च पालनक्षमएव प्रतिगृह्णीयादिति शास्त्रादिति कल्पनं व्यर्थमेवेति बोध्यम्।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।17.20।। पूर्वप्रतिज्ञातं दानस्य त्रैविध्यमाह त्रिभिः – दातव्यमिति। सुबोधार्थः।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।17.20।। अथ पूर्वप्रतिज्ञातदानत्रैविध्यमाह – दातव्यमिति। धनं मूलमनर्थानां इत्यादिवाक्यैः सञ्चितानर्थकारित्वज्ञानपूर्वकदत्तेष्टभक्त्यादिसाधकत्वज्ञानेन दातव्यमिति ज्ञात्वा अनुपकारिणे प्रत्युपकारासमर्थाय दीनायसीदत्कुटुम्बेभ्यः इत्याद्युक्तधर्मविशिष्टाय यद्दानं दीयते; देशे कुरुक्षेत्रादौ ग्रहणादौ चकारेण अकाले विवाहाद्युपस्थितौ याचमानाय पात्रे वेदविशारदाय चकारेण अपात्रे बुभुक्षिताय यत्तद्दानं सात्त्विकं स्मृतं प्रसिद्धमित्यर्थः।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।17.20।। पूर्वं प्रतिज्ञातमेव दानस्य त्रैविध्यमाह – दातव्यमिति। दातव्यमित्येवं निश्चयेन यद्दानं दीयते; अनुपकारिणे,प्रत्युपकारासमर्थाय। देशे कुरुक्षेत्रादौ; काले ग्रहणादौ; पात्रे चेति देशकालादिसाहचर्यात्सप्तमी प्रयुक्ता। पात्रभूताय तपःश्रुतादिसंपन्नाय ब्राह्मणायेत्यर्थः। यद्वा पात्र इति चतुर्थ्येवैषा। पात्रे इति तृजन्तं। रक्षकायेत्यर्थः। स हि सर्वस्मादापद्गणाद्दातारं पातीति। यदेवंभूतं दानं तत्सात्त्विकम्।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।17.20।। दान को कर्तव्य समझकर दिये जाने पर वह सात्त्विक दान कहलाता है। दान का ग्रहणकर्ता ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो प्रत्युपकार करने में असमर्थ हो। इसी प्रकार दान देते समय देश; काल और पात्र की योग्यता का भी विचार करना चाहिए। जिस देश काल में जिस वस्तु का अभाव हो; वही देशकाल उस वस्तु के द्वारा प्राणियों की सेवा करने के लिए योग्य समझा जाता है जैसे अकालग्रस्त प्रान्त में अन्नदान। योग्य पात्र से तात्पर्य अनाथ; दुखी; असमर्थ तथा श्रेष्ठ आचरणों वाले विद्वान जनों से है। कुछ विद्वानों का यह मत है कि दान देने में देश कालादि का विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार एक वृक्ष अपने फलों को सभी वर्गों के लोगों को देता है; उसी प्रकार मनुष्य को अपने पास उपलब्ध वस्तुओं का दान करना चाहिए। अनेक लोगों को उपर्युक्त मत में विश्वास रखकर तदनुसार दान करने में कठिनाई अनुभव होगी। अत गीता का यह कथन उचित ही है कि मनुष्य को इस बात का विचार करना चाहिए कि उसका दान समाज के योग्य पुरुषों को प्राप्त हो रहा है अथवा नहीं।
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।17.20।। “दान देना ही कर्तव्य है” - इस भाव से जो दान योग्य देश, काल को देखकर ऐसे (योग्य) पात्र (व्यक्ति) को दिया जाता है, जिससे प्रत्युपकार की अपेक्षा नहीं होती है, वह दान सात्त्विक माना गया है।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।17.20।। दान देना कर्तव्य है – ऐसे भावसे जो दान देश, काल और पात्रके प्राप्त होनेपर अनुपकारीको दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।17.20।।व्याख्या – इस श्लोकमें दानके दो विभाग हैं –,(1) दातव्यमिति यद्दानं दीयते अनुपकारिणे और **(2) देशे काले च पात्रे च।**दातव्यमिति ৷৷. देशे काले च पात्रे च – केवल देना ही मेरा कर्तव्य है। कारण कि मैंने वस्तुओंको स्वीकार किया है अर्थात् उन्हें अपना माना है। जिसने वस्तुओंको स्वीकार किया है; उसीपर देनेकी जिम्मेवारी होती है। अतः देनामात्र मेरा कर्तव्य है – इस भावसे दान करना चाहिये। उसका यहाँ क्या फल होगा और परलोकमें क्या फल होगा – यह भाव बिलकुल नहीं होना चाहिये। दातव्य का तात्पर्य ही त्यागमें है। अब किसको दिया जाय तो कहते हैं – दीयतेऽनुपकारिणे अर्थात् जिसने पहले कभी हमारा उपकार किया ही नहीं; अभी भी उपकार नहीं करता है और आगे हमारा उपकार करेगा; ऐसी सम्भावना भी नहीं है – ऐसे अनुपकारी को निष्कामभावसे देना चाहिये। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जिसने हमारा उपकार किया है; उसको न दे; प्रत्युत जिसने हमारा उपकार किया है; उसे देनेमें दान न माने। कारण कि केवल देनेमात्रसे सच्चे उपकारका बदला नहीं चुकाया जा सकता। अतः उपकारीकी भी अवश्य सेवासहायता करनी चाहिये; पर उसको दानमें भरती नहीं करना चाहिये। उपकारकी आशा रखकर देनेसे वह दान राजसी हो जाता है।
देशे काले च पात्रे च (टिप्पणी प₀ 857) पदोंके दो अर्थ होते हैं –,(1) जिस देशमें जो चीज नहीं है और उस चीजकी आवश्यकता है; उस देशमें वह चीज देना जिस समय जिस चीजकी आवश्यकता है; उस समय वह चीज देना और जिसके पास जो चीज नहीं है और उसकी आवश्यकता है; उस अभावग्रस्तको वह चीज देना। ,(2) गङ्गा; यमुना; गोदावरी आदि नदियाँ और कुरुक्षेत्र; प्रयागराज; काशी आदि पवित्र देश प्राप्त होनेपर दान देना अमावस्या; पूर्णिमा; व्यतिपात; अक्षय तृतीया; संक्रान्ति आदि पवित्र काल प्राप्त होनेपर दान देना और वेदपाठी ब्राह्मण; सद्गुणीसदाचारी भिक्षुक आदि उत्तम पात्र प्राप्त होनेपर दान देना।देशे काले च पात्रे च पदोंसे उपर्युक्त दोनों ही अर्थ लेने चाहिये।तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् – ऐसा दिया हुआ दान सात्त्विक कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण सृष्टिकी जितनी चीजें हैं; वे सबकी हैं और सबके लिये हैं; अपनी व्यक्तिगत नहीं हैं। इसलिये अनुपकारी व्यक्तिको भी जिस चीज – वस्तुकी आवश्यकता हो; वह चीज उसीकी समझकर उसको देनी चाहिये। जिसके पास वह वस्तु पहुँचेगी; वह उसीका हक है क्योंकि यदि उसकी वस्तु नहीं है; तो दूसरा व्यक्ति चाहते हुए भी उसे वह वस्तु दे सकेगा नहीं। इसलिये पहलेसे यह समझे कि उसकी ही वस्तु उसको देनी है; अपनी वस्तु (अपनी मानकर) उसको नहीं देनी है। तात्पर्य यह है कि जो वस्तु अपनी नहीं है और अपने पास है अर्थात् उसको हमने अपनी मान रखी है; उस वस्तुको अपनी न माननेके लिये उसकी समझकर उसीको देनी है। इस प्रकार जिस दानको देनेसे वस्तु; फल और क्रियाके साथ अपना सम्बन्धविच्छेद होता है; वह दान सात्त्विक कहा जाता है।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
17.20. A gift which is given with the thought that ‘One must give’ and is given in a proper place, and at correct time to a worthy person, incapable of obliging in return-that gift is held to be of the Sattva.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
17.20 That gift is referred to as born of sattva which gift is given with the idea that it ought to be given, to one who will not serve in return, and at the (proper) place, (proper) time and to a (proper) person.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
17.20 The gift which is given without thought of recompense, in the belief that it ought to be made, in a fit place, at an opportune time and to a deserving person - such a gift is Pure.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
17.20 Gifts given with the feeling, that it is one’s own duty to give to one who makes no return, at the proper place and time to the deserving person - that is said to be Sattvika.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
17.20 That gift which is given to one who does nothing in return, knowing it to be a duty to give in a fit place and time to a worthy person, that gift is held to be Sattvic.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
17.20 दातव्यम् ought to be given; इति thus; यत् that; दानम् gift; दीयते is given; अनुपकारिणे to one who does no service (in return); देशे in a fit place; काले in time; च and; पात्रे to a worthy person; च and; तत् that; दानम् gift; सात्त्विकम् Sattvic; स्मृतम् is held to be.Commentary The gift should be given to one who cannot return the good or to one from whom no such return is expected.It is necessary to be in Kurukshetra or Varanasi or any part of the world that is eally sacred when one offes gifts. The time should be during solar or lunar eclips or an eally auspicious occasion.Worthy A pious person who is a Tapasvin; who is well versed in the scriptures (the Vedas and the,Vedangas); who is able to protect himself and the donor; etc.At such a time and such a place there shoule be a person worthy to receive the gift; a person who is the very incarnation of purity; the very abode of good conduct. A gift may be freely given to such a highly deserving person. The donor should not boast of his charity.