(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
रजसि प्रलयं गत्वा
कर्म-सङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस् तमसि
मूढ-योनिषु जायते॥14.15॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते।।14.15।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।14.15।।रजसि प्रवृद्धे मरणं प्राप्य फलार्थं कर्म कुर्वतां कुलेषु जायते तत्र जनित्वा स्वर्गादिफलसाधनकर्मसु अधिकरोति इत्यर्थः।तथा तमसि प्रवृद्धे मृतो मूढयोनिषु श्वसूकरादियोनिषु जायते सकलपुरुषार्थारम्भानर्हो जायते इत्यर्थः।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।। 14.15यदेति।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
14.15 (a) Meeting with death when Rajas is preponderant, one is rorn in the families of those who act for the sake of fruits for themselves. Being rorn in such families, he becomes alified to perform auspicious acts which constitute the way for attaining heaven and the like. (b) Similarly, one who dies when Tamas is preponderant is born in the wombs of beings lacking in intelligence, namely, in the wombs of dogs, pigs etc. The meaning is that he is rorn as one incapable of realising any human end.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।14.14 – 14.15।। यदेति। रजसीति। यदा समग्रेणैव जन्मना अनवरतसात्त्विकव्यापाराभ्यासात् सत्त्वं विवृद्धं भवति; तदा प्राप्तप्रलयस्य शुभलोकावाप्तिः। एवं जन्माभ्यस्तराजसकर्मणः प्रयाणात् विमिश्रोपभोगाय ( विशिष्टोपभोगाय S;N (विशिष्टोप) विमिश्रोपभोगाय) मानुष्यावाप्तिः +++(S;;N मानुष्याप्तिः)+++। तथा; तेनैव क्रमेण +++(S substitutes क्रमेण with प्रकारेण)+++ यदा समग्रेण जन्मना तामसमेव कर्म अभ्यस्यते तदा नरकतिर्यग्वृक्षादिदेहेषु उत्पद्यते। ये तु व्याचक्षते मरणकाले एव सत्त्वादौ विवृद्धे एतानि फलानि इति ते न सम्यक् शारीरेऽनुभवे प्रविष्टाः। यतः सर्वस्यैव सर्वथा अन्त्ये क्षणे मोह एवोपजायते। अस्मद्व्याख्यायां च संवादीनि इमानि; श्लोकान्तराणि,[च]।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
14.14-15 Yada etc. Rajasi etc. When the Sattva is predominantly on the increase on account of increase on account on account of incessantly practising actions of the Sattva throughout the entire life-at that [time] having met dissolution [of body], one attains the auspicious worlds. Likewise whosoever has practised throughout his life the activities of the Rajas, he, by his [last] journey attains manhood for mixed enjoyment. Likewise : i.e. in the same order, if one practises action of the Tamas alone by one’s entire life, then [on his death] he is rorn in the bodies of the hell, of the animals, of the trees and so on. Those, who explain [the passage under study to the effect] : ‘These results [are for him in whom] the Sattva etc., have predominantly increased only at the time of death’ - these commentators have not correctly entered into (grasped) the behaviour of the embodied. For, nothing but delusion arises, by all means at the last moment, without exception in the case of one and all. However, with regard to our explanation [given above] these passages and other verses (Ch. VIII, 5ff) speak in one voice.
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।14.15।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।14.15।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।14.15।। –,रजसि गुणे विवृद्धे प्रलयं मरणं गत्वा प्राप्य कर्मसङ्गिषु कर्मासक्तियुक्तेषु मनुष्येषु जायते। तथा तद्वदेव प्रलीनः मृतः तमसि विवृद्धे मूढयोनिषु पश्वादियोनिषु जायते।। अतीतश्लोकार्थस्यैव संक्षेपः उच्यते –,
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।14.15।। रजोगुणकी वृद्धिके समय मरनेपर कर्मसंगियोंमें अर्थात् कर्मोंमें आसक्त हुए मनुष्योंमें उत्पन्न होता है और वैसे ही तमोगुणके बढ़नेपर मरा हुआ मनुष्य मूढ़योनिमें अर्थात् पशु आदि योनियोंमें उत्पन्न होता है।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
14.15 Pralayam gatva, when one does; rajasi, while the ality of rajas predominates; jayate, he is born; karma-sangisu, among people attached to activity, among human beings having attachment to work. Tatha, similarly, in that very way; pralinah, when one dies; tamasi, while tamas predominates; jayate, he takes birth; mudha-yonisu, among the stupid species, such as animals etc. A summary of the idea of the preceding (three) verses is being stated:
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।14.15।। रजःसमुद्रेके मृतस्य फलविशेषं दर्शयति – रजसीति। जायते शरीरं गृह्णातीत्यर्थः। यथा सत्त्वे रजसि च प्रवृद्धे मृतो ब्रह्मलोकादिषु मनुष्यलोके च देवादिषु मनुष्येषु च जायते तथैवेत्याह – तद्वदिति।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।14.15।। रजसि प्रवृद्धे सति प्रलयं मृत्युं गत्वा प्राप्य कर्मसङ्गिषु श्रुतिस्मृतिविहितप्रतिषिद्धकर्मफलाधिकारिषु मनुष्येषु जायते। तथा तद्वदेव तमसि प्रवृद्धे प्रलीनो मृतो मूढयोनिषु पश्वादिषु जायते।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।14.15।। कर्मसङ्गिषु श्रौतस्मार्तकर्मानुष्ठातृषु मनुष्येषु। मूढयोनिषु तिर्यक्स्थावरचाण्डालादिषु।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।14.15।। रजःप्रवृद्धिकृतं फलविशेषमाह। रजसि प्रवृद्धे प्रलयं मरणं गत्वा प्राप्य देहभृत् कर्मसङ्गिषु कर्मासक्तियुक्तेषु मनुष्येषु जायते। यथा सत्त्वे रजसि च प्रवृद्धे मृतो देहभृत् ब्रह्मलोकादिषु मनुष्यलोके च देवादिषु मनुष्येषु च जायते। तथा तमसि प्रवृद्धे देही मूढानां पश्चादीनां योनिषु जायते उत्पद्यत इत्यर्थः।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।14.15।। रजसीति कर्मसङ्गिषु मध्यमलोकेषु जायते। तमसीति अधोयोनिषु नीचलोकेषु जायते।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।14.15।। किञ्चैवमेव रजसि प्रवृद्धे प्रलयं गत्वा मृत्युमवाप्य कर्मसङ्गिषु कर्मासक्तेषु तेषु नरेषु पुनस्तदाचरणेन तत्फलभोगार्थं जायते। तथा तमसि प्रवृद्धे प्रलीनो मृतो मूढयोनिष्वासुरेषु जायते।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।14.15।। किंच – रजसीति। रजसि प्रवृद्धे सति मृत्युं प्राप्य कर्मासक्तेषु मनुष्येषु जायते। तथा तमसि प्रवृद्धे सति प्रलीनो मृतो मूढयोनिषु पश्वादिषु जायते।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।14.15।। पूर्वोक्त सिद्धांत के अनुसार ही मरणकाल में रजोगुण के आधिक्य के प्रभाव से जीव कर्मासक्त मनुष्य लोक में जन्म लेता है। उसके लिए कर्म करने और फल भोगने के लिए यही अत्यन्त उपयुक्त क्षेत्र है। इसके विपरीत यदि तमोगुण के प्रवृद्ध हुए काल में जीव देह का त्याग करता है; तो उसके फलस्वरूप वह मूढ़योनि अर्थात् पशुपक्षी या वनस्पति जीवन को प्राप्त होता है। कुछ दार्शनिकों का यह मत है कि एक बार विकास के सोपान पर मनुष्यत्व को प्राप्त कर लेने के पश्चात् हमारा निम्न स्तर की योनियों में पतन नहीं होता। निसन्देह; यह सान्त्वना प्रदान करने वाला मत है परन्तु अनुभूत उपलब्ध तथ्यों के विरुद्ध होने से ग्राह्य नहीं हो सकता। वास्तविकता यह है कि प्रगति के लिए सर्वोत्तम परिस्थिति और वातावरण को उपलब्ध कराने के पश्चात् भी सभी मनुष्य समान रूप से उनका उपयोग करके गौरवमयी सांस्कृतिक प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होते। एक धनी मनुष्य का सामान्य बुद्धि का पुत्र; जीवन के प्रारम्भ से ही अनुकूल स्थिति को प्राप्त करता है तथापि प्राय यह देखा जाता है कि वह अपनी स्थिति का उचित उपयोग करने के स्थान पर प्रमाद और विलास का जीवन जीकर अपना सर्वनाश ही कर लेता है। बुद्धि से सम्पन्न होने पर भी हम में से कितने लोग विवेकपूर्ण आचरण करते हैं समाज के कुछ लोग तो पशुओं की ओर ईर्ष्या की दृष्टि से देखते हुए घोषणा भी करते हैं कि उनका जीवन श्रेष्ठतर और सुखी है कहने का तात्पर्य यह हुआ कि कुछ अल्पसंख्यक द्विपादों की दृष्टि से चतुष्पादों का जीवन उच्चतर विकास का है यदि किसी व्यक्ति का यही विचार हो; तो उसके लिए पशुजीवन निन्दनीय न होकर वरणीय होता है; जिसकी वह कामना करता है। मद्यपान न करने वाला एक संयमी पुरुष मधुशाला को दुखालय समझता है किन्तु एक मद्यपायी को वही स्थान सुख और शान्ति का विश्रामालय प्रतीत होता है। तामसिक प्रवृत्ति के लोगों के लिए पशुयोनि में जन्म लेना माने आनन्द प्राप्ति का अद्भुत अवसर है; जहाँ वे अपनी रुचि और प्रवृत्ति को पूर्णतया व्यक्त कर सकते हैं। इस प्रकार दर्शनशास्त्र की दृष्टि से देखने पर हमें बिना किसी सन्देह या संकोच के यह स्वीकार करना पड़ेगा कि तमोगुणी लोगों को पशु देह में ही पूर्ण सन्तोष का अनुभव होगा। अत यहाँ कहा गया है; तमोगुण के प्रवृद्ध हुए काल में मरण होने पर जीव मूढ़योनि में जन्म लेता है। प्रस्तुत प्रकरण का सारांश यही है कि
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।14.15।। रजोगुण के प्रवृद्ध काल में मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मासक्ति वाले (मनुष्य) लोक में वह जन्म लेता है तथा तमोगुण के प्रवृद्धकाल में (मरण होने पर) मूढ़योनि में जन्म लेता है।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।14.15।। रजोगुणके बढ़नेपर मरनेवाला प्राणी मनुष्ययोनिमें जन्म लेता है तथा तमोगुणके बढ़नेपर मरनेवाला मूढ़योनियोंमें जन्म लेता है।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।14.15।।व्याख्या – रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते – अन्तसमयमें जिसकिसी भी मनुष्यमें जिसकिसी कारणसे रजोगुणकी लोभ; प्रवृत्ति; अशान्ति; स्पृहा आदि वृत्तियाँ बढ़ जाती हैं और उसी वृत्तिके चिन्तनमें उसका शरीर छूट जाता है; तो वह मृतात्मा प्राणी कर्मोंमें आसक्ति रखनेवाले मनुष्योंमें जन्म लेता है। जिसने उम्रभर अच्छे काम; आचरण किये हैं; जिसके अच्छे भाव रहे हैं; वह यदि अन्तकालमें रजोगुणके बढ़नेपर मर जाता है; तो मरनेके बाद मनुष्ययोनिमें जन्म लेनेपर भी उसके आचरण; भाव अच्छे ही रहेंगे; वह शुभकर्म करनेवाला ही होगा। जिसका साधारण जीवन रहा है; वह यदि अन्तसमयमें रजोगुणकी लोभ आदि वृत्तियोंके बढ़नेपर मर जाता है; तो वह मनुष्ययोनिमें आकर पदार्थ; व्यक्ति; क्रिया आदिमें आसक्तिवाला ही होगा। जिसके जीवनमें काम; क्रोध आदिकी ही मुख्यता रही है; वह यदि रजोगुणके बढ़नेपर मर जाता है; तो वह मनुष्ययोनिमें जन्म लेनेपर भी विशेषरूपसे आसुरी सम्पत्तिवाला ही होगा। तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्यलोकमें जन्म लेनेपर भी गुणोंके तारतम्यसे मनुष्योंके तीन प्रकार हो जाते हैं अर्थात् तीन प्रकारके स्वभाववाले मनुष्य हो जाते हैं। परन्तु इसमें एक विशेष ध्यान देनेकी बात है कि रजोगुणकी वृद्धिपर मरकर मनुष्य बननेवाले प्राणी कैसे ही आचरणोंवाले क्यों न हों; उन सबमें भगवत्प्रदत्त विवेक रहता ही है। अतः प्रत्येक मनुष्य इस विवेकको महत्त्व देकर सत्सङ्ग; स्वाध्याय आदिसे इस विवेकको स्वच्छ करके ऊँचे उठ सकते हैं; परमात्माको प्राप्त कर सकते हैं। इस भगवत्प्रदत्त विवेकके कारण सबकेसब मनुष्य भगवत्प्राप्तिके अधिकारी हो जाते हैं।तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते – अन्तकालमें; जिसकिसी भी मनुष्यमें; जिसकिसी कारणसे तात्कालिक तमोगुण बढ़ जाता है अर्थात् तमोगुणकी प्रमाद; मोह; अप्रकाश आदि वृत्तियाँ बढ़ जाती हैं और उन वृत्तियोंका चिन्तन करते हुए ही वह मरता है; तो वह मनुष्य पशु; पक्षी; कीट; पतंग; वृक्ष; लता आदि मूढ़योनियोंमें जन्म लेता है। इन मूढ़योनियोंमें मूढ़ता तो सबमें रहती है; पर वह न्यूनाधिकरूपसे रहती है जैसे – वृक्ष; लता आदि योनियोंमें जितनी अधिक मूढ़ता होती है; उतनी मूढ़ता पशु; पक्षी आदि योनियोंमें नहीं होती। अच्छे काम करनेवाला मनुष्य यदि अन्तसमयमें तमोगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मरकर मूढ़योनियोंमें,भी चला जाय; तो वहाँ भी उसके गुण; आचरण अच्छे ही होंगे; उसका स्वभाव अच्छे काम करनेका ही होगा। जैसे; भरत मुनिका अन्तसमयमें तमोगुणकी वृत्तिमें अर्थात् हरिणके चिन्तनमें शरीर छूटा; तो वे मूढ़योनिवाले हरिण बन गये। परन्तु उनका मनुष्यजन्ममें किया हुआ त्याग; तप हरिणके जन्ममें भी वैसा ही बना रहा। वे हरिणयोनिमें भी अपनी माताके साथ नहीं रहे; हरे पत्ते न खाकर सूखे पत्ते ही खाते रहे; आदि। ऐसी सावधानी मनुष्योंमें भी बहुत कम होती है; जो कि भरत मुनिकी हरिणजन्ममें थी।सम्बन्ध – अन्तकालमें गुणोंके तात्कालिक बढ़नेपर मरनेवाले मनुष्योंकी ऐसी गतियाँ क्यों होती हैं – इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
14.15. By meeting death when the Rajas [is on the increase], he is born among those who are attached to action; likewise meeting death when the Tamas [is on the increase], he is born in the wombs of the duluded.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
14.15 When one dies while rajas predominates, he is born among people attached to activity. Similarly, when one dies while tamas predominates, he takes birth among the stupid species.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
14.15 When Passion prevails, the soul is reborn among those who love activity; when Ignorance rules, it enters the wombs of the ignorant.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
14.15 (a) Meeting with dissolution when Rajas is prevalent, one is born among those attached to work৷৷. (b) Similarly, one who has met with dissolution when Tamas prevails, is born in the womb of beings lacking in intelligence.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
14.15 Meeting death in Rajas, he is born among those who are attached to action; and dying in Tamas, he is born in the womb of the senseless.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
14.15 रजसि in Rajas; प्रलयम् death; गत्वा meeting; कर्मसङ्गिषु among those attached to action; जायते (he) is born; तथा so; प्रलीनः dying; तमसि in inertia; मूढयोनिषु in the wombs of the senseless; जायते (he) is born.Commentary Meeting with death in Rajas If he dies when Rajas is predominant in him; he is born among men who are attached to action. If he dies when Tamas is fully predominant in him; he takes birth in ignorant species such as cattle; birds; beasts or insects.He may take his birth amongst the dull and the stupid or the lowest grades of human beings. He need not take the body of an animal. This is the view of some persons.