(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
लोभः प्रवृत्तिर् आरम्भः
कर्मणाम् अशमः स्पृहा।
रजस्य् एतानि जायन्ते
विवृद्धे भरतर्षभ॥14.12॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।14.12।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।14.12।।लोभः स्वकीयद्रव्यस्य अत्यागशीलता। प्रवृत्तिः प्रयोजनम् अनुद्दिश्य अपि चलनस्वभावता। **आरम्भः,**कर्मणां फलसाधनभूतानां कर्मणाम् आरम्भे उद्योगः। अशमः इन्द्रियानुपरतिः। स्पृहा विषयेच्छा। एतानि रजसि प्रवृद्धे जायन्ते। यदा लोभादयो वर्तन्ते; तदा रजः प्रवृद्धम् इति विद्याद् इत्यर्थः।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।14.12।। लोभः प्रवृत्तिः इत्यादौ स्पृहाशब्दपौनरुक्त्यपरिहाराय रूढिप्रकर्षसिद्धं लोभशब्दार्थमाह – स्वकीयद्रव्यस्यात्यागशीलतेति। आरम्भशब्दः साभिसन्धिकप्रवृत्तौ समग्रप्रयोगः। अत्रकर्मणाम् इति समभिव्याहारस्वारस्याच्च तत्सिद्धम्। अतोऽत्रारम्भशब्दो दृष्टादृष्टफलसाधनभूतकृषियज्ञादिविषयः। अतश्च प्रवृत्तिशब्दोऽत्र ततो व्यावृत्ततृणच्छेदाङ्गकम्पादिवृधाचेष्टाविषय इत्याह – प्रयोजनमनुद्दिश्यापि चलनस्वभावतेति। द्वाभ्यामपौनरुक्त्याय अशमोऽत्र प्रवृत्तिहेतुरिन्द्रियोद्रिक्ततेत्याह – इन्द्रियानुपरतिरिति। पूर्वश्लोकवदत्रापि गुणविवृद्धिलिङ्गोपदेशपरतामाह – यदेति।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
14.12 ‘Greed’ is the tendency not to spend one’s own property. ‘Activity’ is the disposition to be active devoid of any purpose. ‘Undertaking of works’ is engagement in works which yield fruits. ‘Unrest’ is absence of rest of sense-activities. ‘Longing’ is the desire for sense objects. These predominate when Rajas has increased. The meaning is that whenever greed etc., prevail, then one should know that Rajas has very much increased.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।14.11 – 14.13।। सर्वेत्यादि कुरुनन्दनेत्यन्तम्। सर्वद्वारेषु; सर्वेन्द्रियेषु। लोभादयः +++(S लोकादिकाः)+++ क्रमेणैव रजस्युद्रिच्यमाने जायन्ते। एवमप्रकाशादय क्रमेणैव तमोविवृद्धौ ( तमोवृद्धौ) आविर्भवन्ति।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
14.12 See Comment under 14.13
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।14.12।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।14.12।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।14.12।। –,लोभः परद्रव्यादित्सा; प्रवृत्तिः प्रवर्तनं सामान्यचेष्टा; आरम्भः कस्य कर्मणाम्। अशमः अनुपशमः; हर्षरागादिप्रवृत्तिः स्पृहा सर्वसामान्यवस्तुविषया तृष्णा – रजसि गुणे विवृद्धे एतानि लिङ्गानि जायन्ते हे भरतर्षभ।।
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।14.12।। उत्पन्न हुए रजोगुणके चिह्न ये होते हैं –, हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ लोभ – परद्रव्यको प्राप्त करनेकी इच्छा; प्रवृत्ति – सामान्यभावसे सांसारिक चेष्टा और कर्मोंका आरम्भ तथा अशान्ति – उपरामताका अभाव; हर्ष और रागादिका प्रवृत्त होना तथा लालसा अर्थात् सामान्यभावसे समस्त वस्तुओंमें तृष्णा – ये सब चिह्न रजोगुणके बढ़नेपर उत्पन्न होते हैं।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
14.12 O best of the Bharata dynasty, when the ality of rajas vivrddhe, becomes predominant; etani, these indications; jayante, come into being; lobhah, avarice, the desire to appropriate other’s possessions; pravrtih, movement in general; arambhah, undertaking;-of what;-karmanam, of actions; asamah, unrest, lack of tranillity-(i.e.) manifestation of joy, attachment, etc.; and sprha, hankering, desire in general for all things.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।14.12।। अतिशयेनोद्भूतस्य रजसो लिङ्गमाह – रजस इति। उपक्रमपर्यायस्यारम्भस्य विषयं पृच्छति – कस्येति। काम्यानि निषिद्धानि च लौकिकानि कर्माणि विषयत्वेन निर्दिशति – कर्मणामिति। अनुपशमो बाह्यान्तःकरणानामिति शेषः। लोभाद्युपलम्भाद्रजोवृद्धिर्बोद्धव्येति भावः।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।14.12।। महति धनागमे जायमानेऽप्यनुक्षणं वर्धमानस्तदभिलाषो लोभः। स्वविषयप्राप्त्यनिवर्त्य इच्छाविशेष इति यावत्। प्रवृत्तिर्निरन्तरं प्रयतमानता। आरम्भः कर्मणां बहुवित्तव्ययायासकराणां काम्यनिषिद्धलौकिकमहागृहादिविषयाणां व्यापाराणामुद्यमः। अशम इदं कृत्वेदं करिष्यामीति संकल्पप्रवाहानुपरमः। स्पृहा उच्चावचेषु परधनेषु दृष्टमात्रेषु येनकेनाप्युपायेनोपादित्सा। रजसि रागात्मके विवृद्धे एतानि रागात्मकानि लिङ्गानि जायन्ते। हे भरतर्षभ; एतैर्लिङ्गैर्विवृद्धं रजो जानीयादित्यर्थः।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।14.12।। लोभः प्राप्ताधिके गर्धः। प्रवृत्तिः अग्निहोत्रादौ। आरम्भो गृहादेः। कर्मणां अशमः सतामसतां वा कार्याणामनुपरमः। स्पृहा दृष्टे परधनादावुपादित्सा। रजसि विवृद्धे सति एतानि लिङ्गानि जायन्ते हे भरतर्षभ।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।14.12।। सत्त्वस्योद्भूतस्य चिह्नमुक्त्वा तथाभृतस्य रजसस्तदाह। लोभः स्वकीयधनादिबाहुल्येऽपि परद्रव्यादिषु लुब्धता,प्रवृत्तिः प्रवर्तनं सामान्यचेष्टा। आरम्भः काम्यनिषिद्धलौकिकिविषयाणां व्यापाराणामुद्यमः। अशमः हर्षरागादिप्रवृत्तेरनुपरमः। सर्वसामान्यवस्तुविषया तृष्णा स्पृहा। रजसि गुणे विवृद्धे एतते लिङ्गानि जायन्ते। लोभाद्युपलम्भाद्रजोविवृद्धिं विद्यादिति भावः। भरतेभ्यः ऋषभः श्रेष्ठस्त्वं रजसश्चिह्नान्याश्रजितुमयोग्योऽसीति सूचयन्नाह हे भरतर्षभेति।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।14.12।। लोभ इति। लोभस्तु कार्पण्यम्। प्रयोजनमनुद्दिश्यापि चलस्वभावता प्रवृत्तिः। आरम्भ उद्योगः कर्मणाम्।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।14.12।। एवं सत्त्वज्ञानमुक्त्वा रजोज्ञानरूपमाह – लोभ इति। लोभो भगवत्सेवार्थं स्वेच्छया दत्ताप्तव्यवहारयोगद्रव्ये सत्यपि लौकिकासक्त्या पुनर्द्रव्येच्छयेतस्ततो मनोधावनेन तद्यत्नादिकरणे प्रवृत्तिः क्रियाकरणम्। आरम्भः कर्मणां लौकिकस्वोपभोग्यवस्तुकरणम्; अशमः अशान्तिःप्रातरिदं कर्त्तव्यमद्येदं कृतं इत्यादिविचारेण चित्तोद्वेगः; स्पृहा स्वायोग्यवस्तुन्यपीच्छा; रजसि विवृद्धे एतानि जायन्ते। एतदुत्पत्तौ रजोविवृद्धिं विद्यादित्यर्थः। भरतर्षभ इति सम्बोधनं राज्याद्यर्थस्पृहाभावेनैतद्दोषराहित्याय।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।14.12।। किंच – लोभ इति। लोभो धनाद्यागमे बहुधा जायमानेऽपि पुनः पुनर्वर्धमानोऽभिलाषः; प्रवृत्तिर्नित्यं कुर्वद्रूपता; कर्मणामारम्भो गृहादिनिर्माणोद्यमः; अशमः इदं कृत्वा इदं करिष्यामीत्यादिसंकल्पविकल्पानुपरमः; स्पृहा उच्चावचेषु दृष्टमात्रेषु वस्तुष्वितस्ततो जिघृक्षा; रजसि प्रवृद्धे सति एतानि लिङ्गानि जायन्ते। एतैर्लिङ्गै रजोगुणस्य वृद्धिं विद्यादित्यर्थः।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।14.12।। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ रजोगुण के मुख्य लक्षणों की गणना करते हैं। जिस क्रम में उनका उल्लेख किया गया है; उसमें हम यह देखते हैं कि उत्तरोत्तर लक्षण पूर्व के लक्षण से उत्पन्न होता है। परद्रव्य की इच्छा का नाम है लोभ जो कभी सन्तुष्ट नहीं होता। लोभी पुरुष में आ जाती है प्रवृत्ति अर्थात् फिर वह क्रियाशील हो जाता है; शान्त नहीं बैठ सकता। लोभाधिक्य होने पर उसके किये गये कर्म स्वार्थपूर्वक ही होते हैं; जिनका निर्देश यहाँ कर्मों का आरम्भ इस शब्द से किया गया है। स्वार्थ और लोभ के वशीभूत पुरुष को शम अर्थात् शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। श्री शंकराचार्य अशम शब्द का अर्थ बताते हैं; हर्ष रागादि प्रवृत्ति। इसका अर्थ यह हुआ; कि ऐसा पुरुष सदैव इष्टानिष्ट की प्राप्ति होने पर हर्ष विषाद को प्राप्त होता रहता है; ऐसी स्थिति में उसे शान्ति कैसे मिल सकती है वह अपने ही कर्मों के फलस्वरूप स्वयं को ऐसी स्थिति में पाता है; जो उसे अधिकाधिक कटुतर क्रूरता; नीच अनैतिकता और हत्या जैसे अपराध करने में प्रवृत्त करती है उसकी आन्तरिक शान्ति को छिन्नभिन्न कर देती है। रजोगुण से अभिभूत यह पुरुष स्पृहा अर्थात् विषयोपभोग की लालसा के वश में भी आ जाता है। अप्राप्त वस्तुओं तथा लाभ को पाने की कभी न समाप्त होने वाली यह कामना ही स्पृहा कहलाती है। संक्षेप में; रजोगुण के स्पर्शजन्य रोग के प्रभाव से हमारा मानसिक व्यक्तित्व अपनी ही चंचल प्रवृत्तियों से उत्पीड़ित होता रहता है; जो अन्तहीन योजनाओं; थका देने वाले कर्मों; व्यथित करने वाली इच्छाओं पीड़ादायक लालसाओं; उन्मत्त करने वाले लोभ और व्यथापूर्ण व्याकुलताओं के रूप में व्यक्त होती हैं। जब ऐसा व्यक्ति समाज मे कार्य करता है तब उसके दुख उस तक ही सीमित नहीं रहते; वरन् स्पर्शजन्य रोग के समान; उसके आसपास के सहस्रों लोगों को भी व्यथित करते हैं।
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।14.12।। हे भरत-श्रेष्ठ ! रजोगुण के प्रवृद्ध होने पर लोभ, प्रवृत्ति (सामान्य चेष्टा) कर्मों का आरम्भ, शम का अभाव तथा स्पृहा, ये सब उत्पन्न होते हैं।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।14.12।। हे भरतवंशमें श्रेष्ठ अर्जुन ! रजोगुणके बढ़नेपर लोभ, प्रवृत्ति, कर्मोंका आरम्भ, अशान्ति और स्पृहा – ये वृत्तियाँ पैदा होती हैं।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।14.12।।**व्याख्या–‘लोभः’–**निर्वाहकी चीजें पासमें होनेपर भी उनको अधिक बढ़ानेकी इच्छाका नाम ‘लोभ’ है। परन्तु उन चीजोंके स्वाभाविक बढ़नेका नाम लोभ नहीं है। जैसे, कोई खेती करता है और अनाज ज्यादा पैदा हो गया, व्यापार करता है और मुनाफा ज्यादा हो गया, तो इस तरह पदार्थ, धन आदिके स्वाभाविक बढ़नेका नाम लोभ नहीं है और यह बढ़ना दोषी भी नहीं है।
**‘प्रवृत्तिः’–**कार्यमात्रमें लग जानेका नाम ‘प्रवृत्ति’ है। परन्तु राग-द्वेषरहित होकर कार्यमें लग जाना दोषी नहीं है; क्योंकि ऐसी प्रवृत्ति तो गुणातीत महापुरुषमें भी होती है (गीता 14। 22)। रागपूर्वक अर्थात् सुख, आराम, धन आदिकी इच्छाको लेकर क्रियामें प्रवृत्त हो जाना ही दोषी है।
**‘आरम्भः कर्मणाम्’–**संसारमें धनी और बड़ा कहलानेके लिये; मान, आदर, प्रशंसा आदि पानेके लिये नये-नये कर्म करना, नये-नये व्यापार शुरू करना, नयी-नयी फैक्टरियाँ खोलना, नयी-नयी दूकानें खोलना आदि ‘कर्मोंका आरम्भ’ है।
प्रवृत्ति और आरम्भ – इन दोनोंमें अन्तर है। परिस्थितिके आनेपर किसी कार्यमें प्रवृत्ति होती है और किसी कार्यसे निवृत्ति होती है। परन्तु भोग और संग्रहके उद्देश्यसे नये-नये कर्मोंको शुरू करना ‘आरम्भ’ है।
मनुष्यजन्म प्राप्त होनेपर केवल परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका ही उद्देश्य रहे, भोग और संग्रहका उद्देश्य बिलकुल न रहे – इसी दृष्टिसे भक्तियोग और ज्ञानयोगमें ‘सर्वारम्भपरित्यागी’ (12। 16 14। 25) पदसे सम्पूर्ण आरम्भोंका त्याग करनेके लिये कहा गया है। कर्मयोगमें कर्मोंके आरम्भ तो होते हैं, पर वे सभी आरम्भ कामना और संकल्पसे रहित होते हैं (गीता 4। 19)। कर्मयोगमें ऐसे आरम्भ दोषी भी नहीं हैं क्योंकि कर्मयोगमें कर्म करनेका विधान है और बिना कर्म किये कर्मयोगी योग(समता) पर आरूढ़ नहीं हो सकता (6। 3)। अतः आसक्तिरहित होकर प्राप्त परिस्थितिके अनुसार कर्मोंके आरम्भ किये जायँ, तो वे आरम्भ आरम्भ नहीं हैं, प्रत्युत प्रवृत्तिमात्र ही हैं क्योंकि उनसे कर्म करनेका राग मिटता है। वे आरम्भ निवृत्ति देनेवाले होनेसे दोषी नहीं हैं।
**‘अशमः’–**अन्तःकरणमें अशान्ति; हलचल रहनेका नाम अशम है। जैसी इच्छा करते हैं; वैसी चीजें (धन; सम्पत्ति; यश; प्रतिष्ठा आदि) जब नहीं मिलतीं; तब अन्तःकरणमें अशान्ति; हलचल होती है। कामनाका त्याग करनेपर यह अशान्ति नहीं रहती।
‘स्पृहा’– स्पृहा नाम परवाहका है जैसे – भूख लगनेपर अन्नकी; प्यास करनेपर जलकी; जाड़ा लगनेपर कपड़ेकी परवाह; आवश्यकता होती है। वास्तवमें भूख; प्यास और जाड़ा – इनका ज्ञान होना दोषी नहीं है; प्रत्युत अन्न; जल आदि मिल जाय – ऐसी इच्छा करना ही दोषी है। साधकको इस इच्छाका त्याग करना चाहिये क्योंकि कोई भी वस्तु इच्छाके अधीन नहीं है।
‘रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ’– जब भीतरमें रजोगुण बढ़ता है; तब उपर्युक्त लोभ; प्रवृत्ति आदि वृत्तियाँ बढ़ती हैं। ऐसे समयमें साधकको यह विचार करना चाहिये कि अपना जीवननिर्वाह तो हो ही रहा है; फिर अपने लिये और क्या चाहिये ऐसा विचार करके रजोगुणकी वृत्तियोंको मिटा दे; उनसे उदासीन हो जाय।
***सम्बन्ध–***बढ़े हुए तमोगुणके क्या लक्षण होते हैं– इसको आगेके श्लोकमें बताते हैं।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
14.12. Greed, exertion, undertaking of actions, unrest, and craving-these are born when the Rajas increases predominantly, O chief of the Bharatas !
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
14.12 O best of the Bharata dynasty, when rajas becomes predominant, these come into being: avarice, movement, undertaking of actions, unrest and hankering.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
14.12 O best of Indians! Avarice, the impulse to act and the beginning of action itself are all due to the dominance of Passion.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
14.12 Greed, activity, undertaking of work, unrest and longing - these arise, O Arjuna, when Rajas prevails.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
14.12 Greed, activity, the undertaking of actions, restlessness, longing these arise when Rajas is predominant, O Arjuna.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
14.12 लोभः greed; प्रवृत्तिः activity; आरम्भः the undertaking; कर्मणाम् of actions; अशमः restlessness; स्पृहा longing; रजसि in Rajas; एतानि these; जायन्ते arise; विवृद्धे having become predominant; भरतर्षभ O best of the Bharatas (or O Lord of the Bharatas).Commentary Greed Covetousness Desire to appropriate the property of others a desire to possess more wealth though one has sufficient already.Pravritti Action in general.Asamah Restlessness being agitated by joy; attachment; etc. I will do this and then I wil take up that action. After finishing the second; I will take up the third; and so on. There is no end to the continuity of desire; will and action. This is called Asama or restlessness.Spriha Thirsting or longing for all sensual objects in general.These are the characteristic marks that indicate that Rajas is predominant.Do not mistake Rajasic restlessness or Rajasic movements for Karma Yoga or divine activity. People may say that they are doing selfless service to the world; but if you analyse their motives,there will be the taint of personal desire in some form or other. Many persons cannot sit iet even for a moment. They think that moving about here and there or doing some action or other is to full of life. The Yogi or sage who sits still by calming the mind; who does nothing at all physically; is the most active man in the whole world whereas the man who runs here and there and who is always very busy does nothing at all. This may be paradoxical to you. Very few can comprehend the truth of this statement. Sattva is intense activity. A wheel that revolves very rapidly appears to be at rest. So is Sattva. So is a Sattvic man.