(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अभ्यासेऽप्य् असमर्थोऽसि
मत्-कर्म-परमो भव।
मद्-अर्थम् अपि कर्माणि
कुर्वन् सिद्धिम् अवाप्स्यसि॥12.10॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि।।12.10।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।12.10।। अथ एवं-विधस्मृत्यभ्यासे अपि असमर्थः असि
मत्कर्मपरमो भव मदीयानि कर्माणि आलय-निर्माणोद्यान-करण-प्रदीपारोपण-मार्जनाभ्युक्षणोपलेपन-पुष्पापहरण-पूजनोद्वर्तन-नाम-कीर्तन-प्रदक्षिण-नमस्कार-स्तुत्य्-आदीनि;
तानि अत्य्-अर्थ-प्रियत्वेन आचर।
अत्यर्थप्रियत्वेन मदर्थं कर्माणि कुर्वन् अपि अचिराद् अभ्यास-योग-पूर्विकां मयि स्थिरां चित्त-स्थितिं लब्ध्वा मत्-प्राप्तिरूपां सिद्धिम् अवाप्स्यसि।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।12.10।। चिराभ्यस्तेषु प्रत्यक्षेषु शीघ्रलभ्येषु भोग्येषु प्रसक्तस्य मनसो दुर्निग्रहत्वाद्गुणवति विशुद्धेऽपि त्वय्यभ्यासो न शक्यः कर्मस्वेव हि तेषुतेषु वासना ततः कर्मस्वेव मनः प्रवर्तेतेत्यर्जुनाभिप्रायमुन्नीय शीलितसजातीयमभ्यासोपायमुपदिशतिअभ्यासेऽपि इति। अथशब्दोऽत्रानुषक्तः। एवंविधत्वं निरतिशयप्रेमगर्भत्वम्। सर्वकर्म – [12।1118।2] इति परस्ताद्यज्ञादिकर्मणां पर्वान्तरत्वेन वक्ष्यमाणत्वादत्र चमत्कर्म इति विशेषतो निर्देशाच्च भगवदसाधारणं भक्त्यनन्तरङ्गंसततं कीर्तयन्तो माम् [9।14] इत्यादिभिः प्राक्प्रपञ्चितमितिहासपुराणभगवच्छास्त्रादिप्रसिद्धं कर्मात्र विवक्षितमित्यभिप्रायेणआलयनिर्माणेत्यादिकमुक्तम्। परमशब्दाभिप्रेतमाहतान्यत्यर्थप्रियत्वेनाचरेति। मामिच्छाप्तुम् [12।9] इति पूर्वश्लोकोक्ता प्राप्तिरेवात्रापि सिद्धिशब्देन विवक्षितेति तत्स्थानप्राप्त्या प्रतीयते। तत्र पूर्वप्रक्रियया परम्परयैवास्यापि कर्मणः साधकत्वमित्यपिशब्देन द्योत्यत इति ज्ञापनायाह – अभ्यासयोगपूर्विकामिति। तत्तत्कर्मणामतिपवित्रत्वात्प्रतिकर्म तच्चिन्तनाच्च तत्स्मृत्यभ्यासोऽचिरात्सिध्यतीत्यर्थसिद्धमित्यभिप्रायेणअचिरादित्युक्तम्।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
12.10 If you are incapable of practising remembrance in the above manner, then devote yourself to ‘My deeds.’ Such devotional acts consist in the construction of temples, laying out temple gardens, lighting up lamps therein, sweeping, sprinkling water and plastering the floor of holy shrines, gathering flowers, engaging in My worship, chanting My names, circumambulating My temples, praising Me, prostrating before Me etc. Do these with great affection. Even performing such works which are exceedingly dear to Me, you will, before long, get your mind steadily focused on Me as through the practice of repetitions, and will gain perfection through attaining Me.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।12.10।। अभ्यासेऽपीति।
अभ्यासोऽपि न शक्यते विघ्नाद्य् अभिभवात्;
अतस् तन्नाशाय कर्म पूजा-जप-स्वाध्याय-होमादीन् कुरु।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
12.10 Abhyase’pi etc. The constant practice too becomes impossible due to the predominance of the obstacles etc. In that case, in order to eradicate them, you should perform actions like worship, repetition [of the Lord’s name etc.], recitation [of scriptures], offering oblations, etc.
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।12.10।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।12.10।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।12.10।।
अभ्यासे अपि असमर्थः असि अशक्तः असि;
तर्हि मत्कर्मपरमः भव मदर्थं कर्म मत्कर्म तत्परमः मत्कर्मपरमः; मत्कर्मप्रधानः इत्यर्थः।
अभ्यासेन विना मदर्थमपि कर्माणि केवलं कुर्वन् सिद्धिं सत्त्व-शुद्धि-योग-ज्ञान-प्राप्ति-द्वारेण अवाप्स्यसि।।
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।12.10।। ( यदि तू ) अभ्यासमें भी असमर्थ है तो मेरे लिये कर्म करनेमें तत्पर हो – मदर्थकर्मका नाम मत्कर्म है; उसमें तत्पर हो अर्थात् मेरे लिये कर्म करनेको ही प्रधान समझनेवाला हो। अभ्यासके बिना केवल मेरे लिये कर्म करता हुआ भी तू अन्तःकरणकी शुद्धि और ज्ञानयोगकी प्राप्तिद्वारा परमसिद्धि प्राप्त कर लेगा।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
12.10 If asamarthah asi, you are unable; api, even; abhyase, to practise; then, bhava, be; mat-karma-paramah, intent on works for Me-works (karma) meant for Me (mat) are mat-karma-i.e., you be such that works meant for Me become most important to you. In the absence of Practice, api, even; kurvan, by undertaking; karmani, works alone; madartham, for Me; avapsyasi, you will attain; siddhim, perfection-by gradually aciring purification of mind, concentration and Knowledge.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।12.10।। द्वैताभिनिवेशादभ्यासाधीने योगेऽपि सामर्थ्याभावे पुनरुपायान्तरमाह – अभ्यासेऽपीति। अभ्यासयोगेन विना भगवदर्थं कर्माणि कुर्वाणस्य किं स्यादित्याशङ्क्याह – अभ्यासेनेति। सिद्धिर्ब्रह्मभावः। अपिरुक्तव्यवधिसूचनार्थः।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।12.10।। अभ्यासेऽपीति। मत्प्रीणनार्थं कर्म मत्कर्म श्रवणकीर्तनादिभागवतधर्मस्तत्परमस्तदेकनिष्ठो भव। अभ्यासासामर्थ्ये मदर्थं भागवतधर्मसंज्ञकानि कर्माण्यपि कुर्वन्सिद्धिं ब्रह्मभावलक्षणां सत्त्वशुद्धिं ज्ञानोत्पत्तिद्वारेणावाप्स्यसि।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।12.10।।अभ्यासेऽपीति। अभ्यासे पूर्वश्लोकोक्ते। मत्कर्मश्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् इति नवविधभजनात्मकं भगवत्प्रीत्यर्थं कर्म मत्कर्मशब्दितं तदेव परममावश्यकं यस्य तादृशो भव। कर्माणि श्रवणादीनि। सिद्धिं सत्वशुद्धिम्।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।12.10।। सर्वतश्चित्तमाहृत्यैकात्मालम्बने पुनः पुनः स्थापनेऽशक्तं प्रत्यपायान्तरमाह। अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि चेत् मदर्थमपि कर्म मत्प्रीत्यर्थं यत्कर्म तत्परमस्तत्प्रधानो भव। अभ्यासने विना मदर्थमपि केवलं कुर्वन् सिद्धिं ब्रह्मस्वभावं मोक्षं सत्त्वशुद्धियोगज्ञानप्राप्तिद्वारा प्राप्स्यसीत्यर्थः।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।12.10।। यदि पुनः अभ्यासेऽप्यसङ्गसाधनेऽसमर्थोऽसि तर्हि पूजायां मत्सेवापरो भव; सेवापूर्वं मदर्थं कर्माणि कुरु।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।12.10।। एवं चित्त-धारणार्थम् अभ्यासः साधनत्वेनोक्तस्, तत्-साधनम् अप्याह – अभ्यास इति।
अभ्यासे निरन्तरानुस्मरणे अपि चेत् असमर्थोऽसि तदा
मत्कर्मपरमः मत्-प्रीति-हेतु-पूजादि-रूपाणि यानि तद् अनुष्ठानम् एव परमम् उत्कृष्टं यस्य;
तादृशो भव।
एवं मदर्थं मत्-प्रीत्यर्थं; न तु फल-कामनया कर्माण्य् अपि कुर्वन् सिद्धिम् अभ्यास-सिद्धिं प्राप्स्यसि।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।12.10।। यदि पुनर्नैवं तत्राह – अभ्यास इति। अभ्यासेऽति यद्यशक्तोऽसि तर्हि मत्प्रीत्यार्थानि यानि कर्माण्येकादश्युपवासव्रतचर्यानामसंकीर्तनादीनि तदनुष्ठानमेव परमं यस्य तादृशो भव। एवंभूतानि कर्माण्यपि मदर्थं कुर्वन्मोक्षं प्राप्स्यसि।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।12.10।। आत्मविकास के विविध और विस्तृत उपायों का वर्णन करने के कारण ही हिन्दू धर्मशास्त्रों में पूर्णता है। उसमें बतायी गई साधनाओं का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से; जो कोई पुरुष जितना ही अधिक अध्ययन करेगा वह उतना ही इस अध्यात्म मार्ग की उपादेयता को दृढ़ विश्वास के साथ स्वीकार करेगा। हमारे महान् धर्म ग्रन्थों में कहीं भी इस प्रकार की धमकी नहीं दी गई है कि; इसे स्वीकार करो; अन्यथा नरक में जाओ। जो कोई भी पुरुष बौद्धिक निश्चय और वैज्ञानिक मूल्यांकन के लिए तत्पर है; वह हिन्दू जीवन पद्धति की श्रेष्ठता के प्रति पूर्णतया आश्वस्त हो जायेगा। यदि कोई साधक मानसिक दृष्टि से विक्षुब्ध और असंयमित है; तो वह अभ्यासयोग का पालन करने में समर्थ नहीं हो सकता। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण का यह उपदेश है कि ऐसे साधकों को ध्यानाभ्यास में व्यर्थ संघर्ष नहीं करते रहना चाहिए। बलपूर्वक मन को शान्त करने के कारण वे मानसिक दमन और निग्रह के शिकार हो सकते हैं। मनुष्य का आन्तरिक व्यक्तित्व फूल की एक अनखिली कली की अपेक्षा लक्षगुना अधिक कोमल है। उसके खिलने में शीघ्रता करने का अर्थ है उसकी सुन्दरता और सुरभि का नाश करना। निदिध्यासन में हमारा प्रयत्न तो केवल ऐसे अनुकूल वातावरण को निर्मित करने के लिए है; जिसमें हमारा आन्तरिक व्यक्तित्व शीघ्र किन्तु स्वत खिल उठे। स्वाभाविक है कि यदि कोई व्यक्ति एक प्रकार की साधना करने में असमर्थ है; तो उसके विकास के लिए अन्य उपाय बताना आवश्यक होता है। यदि साधक का मन पूर्वाजित वासनाओं के कारण यदाकदा ही तुच्छ विषयों की ओर जाता है; तो उसे संयमित करना कुछ सरल कार्य है। परन्तु यदि किसी पुरुष का मन इन विषयवासनाओं से पूर्ण है तथा अत्यन्त बहिर्मुखी है; तो उसका ध्यानाभ्यास केवल ध्यानाभास ही होगा भगवान् कहते हैं कि ऐसे पुरुष को ध्यान छोड़कर कर्म करना चाहिये। परन्तु वे कर्म ईश्वर के लिए अर्पण की भावना से होने चाहिये। यही; मत्कर्मपरमो भव वाक्य का अर्थ है। इस प्रकार के कर्मानुष्ठान से; अत्यन्त बहिर्मुखी प्रवृत्ति के पुरुष को भी अपने समस्त दैनिक कर्मों में ईश्वर का अखण्ड स्मरण बना रह सकता है। सभी पिता अपने नवजात शिशु के प्रति इसी पद्धति को ग्रहण कर उसका पालन करते हैं। प्रत्येक पुत्र का जन्म पिता के लिये एक अपरिचित शिशु के रूप में ही होता है। परन्तु कुछ ही दिनों में उस पिता का अपने शिशु के प्रति प्रेम बढ़ता जाता है। व्यतीत होते हुये समय के साथ उस प्रेम का परिणाम इतना विशाल हो जाता है कि वह पिता शब्दश अपने पुत्र में ही जीता है। इसका कारण यह है पुत्र के जन्म के पश्चात्; वह पिता जब कोई कर्म करता है या अनुभव प्राप्त करता है; तो वे सब मन की पार्श्वभूमि में स्थित पुत्र की स्मृति से भयभीत होते रहते हैं; और यही है पुत्र के प्रति अर्पण की भावना। योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ सामान्य पुरुषों के लिए अत्यन्त व्यावहारिक उपाय का उपदेश देते हैं। उनका उपदेश हममें से अत्यधिक बहिर्मुखी पुरुष के लिए भी आशा का संदेश देने वाला है। बहुसंख्यक साधकों के लिए यह; निश्चित ही; राजमार्ग है। जिस प्रकार किसी व्यवसाय संस्था प्रतिष्ठान का प्रतिनिधि व्यवहार में कहता है कि; हम वस्तु पूर्ति का प्रयत्न करेंगे; हम इन वस्तुओं का निर्माण कर रहे हैं; हम इसके लिए उत्तरदायी नहीं है इत्यादि। वह अपने प्रतिष्ठान के साथ तादात्म्य करके ऐसे व्यवहार करता है; मानो वह प्रतिष्ठान का प्रबन्धकर्ता या संचालक हो; जबकि वास्तव में वह एक प्रतिनिधि मात्र होता है। इसी प्रकार यदि हममें से कोई व्यक्ति निश्चयात्म्ाक रूप से स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर ईश्वर के ही संकल्प को अपने कर्मों के द्वारा पूर्ण करने का प्रयत्न करे; तो उसे सदैव ईश्वर का स्मरण बना रहेगा और वह स्वयं में कर्मकुशलता की अलौकिक शक्ति; संगठनसार्मथ्य और आत्मविश्वासपूर्ण साहस को पायेगा। प्राचीन वैदिक विद्या के विद्यार्थी को; जैसा कि अर्जुन था; इस सरल से प्रतीत होने वाले उपदेश को सुनकर उसके वास्तविक प्रभाव के विषय में संदेह हो सकता है। रूढ़िवादी लोग किसी मौलिक विचार को सन्देह की दृष्टि से ही देखते हैं; भले ही वह विचार उस युग के सबसे महान् जीवित पुरुष के द्वारा अथवा ईश्वर के अवतार के द्वारा ही क्यों न प्रतिपादित किया गया हो। इस कारण से; यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण साधकों को इस मार्ग के प्रभाव के प्रति आश्वस्त करते हुए कहते हैं कि; मेरे लिए कर्म करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त होओगे। लोकव्यवहार में भी जब हम चाय बनाने के उद्देश्य से जल को उबलने के लिए रखते हैं; तब किसी के प्रश्न करने पर हम यही कहते हैं कि; मैं चाय बना रहा हूँ। वस्तुस्थिति की दृष्टि से यह कथन असत्य है; परन्तु लक्ष्य की दृष्टि से पूर्ण सत्य है; क्योंकि एक बार जल के उबल जाने पर चाय बनाने में न परिश्रम की आवश्यकता होती है और न अधिक समय की। इसी प्रकार; ईश्वर को समस्त कर्म अर्पण करने की कला के द्वारा; हम अपने दैनिक; व्यावहारिक कर्म करते हुए भी मन में दैवी संस्कारों का विकास करते रहेंगे। इसा प्रक्रिया में हमारी पूर्वार्जित वासनाओं का क्षय़ भी होता रहेगा। इस प्रकार चित्त की शुद्धि प्राप्त हो जाने पर हम अभ्यासयोग के अधिकारी हो जायेंगे और शीघ्र ही पर्याप्त समता और सन्तुलन को प्राप्त कर सत्य आत्मा का ध्यान कर तत्स्वरूप बन जायेंगे। यदि कोई व्यक्ति इसे भी करने में असमर्थ हो; तो उसके लिए भी उपाय अगले श्लोक में बताते हैं
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।12.10।। यदि तुम अभ्यास में भी असमर्थ हो तो मत्कर्म परायण बनो; इस प्रकार मेरे लिए कर्मों को करते हुए भी तुम सिद्धि को प्राप्त करोगे।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।12.10।। अगर तू अभ्यास-(योग-) में भी असमर्थ है, तो मेरे लिये कर्म करनेके परायण हो जा। मेरे लिये कर्मोंको करता हुआ भी तू सिद्धिको प्राप्त हो जायगा।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।12.10।।व्याख्या–‘अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव’– यहाँ ‘अभ्यासे’ पदका अभिप्राय पीछेके (नवें) श्लोकमें वर्णित अभ्यासयोग से है। गीताकी यह शैली है कि पहले कहे हुए विषयका आगे संक्षेपमें वर्णन किया जाता है। आठवें श्लोकमें भगवान्ने अपनेमें मन-बुद्धि लगानेके साधनको नवें श्लोकमें पुनः ‘चित्तं समाधातुम्’ पदोंसे कहा अर्थात् ‘चित्तम्’ पदके अन्तर्गत मन-बुद्धि दोनोंका समावेश कर लिया। इसी प्रकार नवें श्लोकमें आये हुए अभ्यासयोगके लिये यहाँ (दसवें श्लोकमें) ‘अभ्यासे’ पद आया है। भगवान् कहते हैं कि अगर तू पूर्वश्लोकमें वर्णित अभ्यासयोगमें भी असमर्थ है, तो केवल मेरे लिये ही सम्पूर्ण कर्म करनेके परायण हो जा। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण कर्मों-(वर्णाश्रमधर्मानुसार) शरीरनिर्वाह और आजीविका-सम्बन्धी लौकिक एवं भजन, ध्यान, नाम-जप आदि पारमार्थिक कर्मों-) का उद्देश्य सांसारिक भोग और संग्रह न होकर एकमात्र भगवत्प्राप्ति ही हो। जो कर्म भगवत्प्राप्तिके लिये भगवदाज्ञानुसार किये जाते हैं, उनको ‘मत्कर्म’ कहते हैं। जो साधक इस प्रकार कर्मोंके परायण हैं, वे ‘मत्कर्मपरम’ कहे जाते हैं। साधकका अपना सम्बन्ध भी भगवान्से हो और कर्मोंका सम्बन्ध भी भगवान्के साथ रहे, तभी मत्कर्मपरायणता सिद्ध होगी।
साधकका ध्येय जब संसार (भोग और संग्रह) नहीं रहेगा, तब निषिद्ध क्रियाएँ सर्वथा छूट जायँगी; क्योंकि निषिद्ध क्रियाओंके अनुष्ठानमें संसारकी ‘कामना’ ही हेतु है (गीता 3। 37)। अतः भगवत्प्राप्तिका ही उद्देश्य होनेसे साधककी सम्पूर्ण क्रियाएँ शास्त्रविहित और भगवदर्थ ही होंगी।‘मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि’ – भगवान्ने जिस साधनकी बात इसी श्लोकके पूर्वार्धमें ‘**मत्कर्मपरमो भव’**पदोंसे कही है, वही बात इन पदोंमें पुनः कही गयी है। भाव यह है कि केवल परमात्माका उद्देश्य होनेसे उस साधककी और जगह स्थिति हो ही कैसे सकती है;
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
12.10. If you are incapable of doing a [steady] practice, then have, your chief aim, of performing actions for Me. Even by performing actions for Me, You shall attain success.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
12.10 If you are unable even to practise, be intent on works for Me. By undertaking works for Me as well, you will attain perfection. [Identity with Brahman.]
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
12.10 And if thou are not strong enough to practise concentration, then devote thyself to My service, do all thine acts for My sake, and thou shalt still attain the goal.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
12.10 If you are incapable of even this practice of repetition, then devote yourself to My deeds (service). For even by working for My sake, you will attain perfection.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
12.10 If thou art unable to practise even this Abhyasa Yoga, be thou intent on doing actions for My sake; even by doing actions for My sake, thou shalt attain perfection.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
12.10 अभ्यासे in practice; अपि also; असमर्थः not capable; असि (thou) art; मत्कर्मपरमः intent on doing actions for My sake; भव be; मदर्थम् for My sake; अपि also; कर्माणि actions; कुर्वन् by doing; सिद्धिम् perfection; अवाप्स्यसि thou shalt attain.Commentary Even if thou doest mee actions for My sake without practising Yoga thou shalt attain perfection. Thou shalt first attain purity of mind; then Yoga (concentration and meditation); then knowledge and then ultimately perfection (Moksha or liberation). Serving humanity with Narayana Bhava (feeling that one is serving the Lord in all) is also doing actions for the sake of the Lord. such service should go hand in hand with worship of God and meditation.If you are not able to practise the Yoga of meditation mentioned in verse 8 or the Yoga of constant practice mentioned in verse 9; hear the glorious stories connected with the Lord by attending religious discourses; conducted by the devotees of the Lord; sing Kirtan and the praises of the Lord.Practise the nine kinds of Bhagavata Dharma (the nine modes of devotion). viz.; (1) hearing the Lilas (glorious and divine sports) of the Lord (Sravana); (2) singing His Names (Kirtana); (3) constant remembrance of the Lord and constant repetition of His Names or Mantras (Smarana); (4) service of His feet (Padasevana); (5) offering flowers in worship (Archana); (6) doing prostrations to the Lord (Vandana); (7) becoming His servant (Dasya); (8) friendship with Him (Sakhya); and (9) doing total selfsurrender to the Lord (Atmanivedana). (Cf.III.19XI.55)