(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अथ चित्तं समाधातुं
न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यास-योगेन ततो
माम् इच्छाप्तुं धनञ्जय॥12.9॥+++(5)+++
(सं) मूलम् ...{Loading}...
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।12.9।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।12.9।।अथ सहसा एव मयि स्थिरं समाधातुं न शक्नोषि; ततः अभ्यासयोगेन माम् आप्तुम् इच्छ।
स्वाभाविकानवधिकातिशय-सौन्दर्य-सौशील्य-सौहार्द-वात्सल्य-कारुण्य-माधुर्य-गाम्भीर्यौदार्य-शौर्य-वीर्य-पराक्रम-सर्वज्ञत्व-सत्य-कामत्व-सत्य-संकल्पत्व-सर्वेश्वरत्व-सकल-कारणत्वाद्य्-असंख्येय-कल्याण-गुण-सागरे निखिल-हेय-प्रत्यनीके मयि
निरतिशय-प्रमे-गर्भ-स्मृत्य्-अभ्यास-योगेन
स्थिरं चित्त-समाधानं लब्ध्वा मां प्राप्तुम् इच्छ।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।12.9।। अथ शब्दादिविषयवासनाकृष्टचेतसोऽत्यन्तादृष्टपूर्वे त्वयि कथं स्थिरं चित्तसमाधानं शक्यं इत्यर्जुनाशयमुन्नीय तदुपायमुपदिशति – अथ चित्तमिति। कदाचिदप्यशक्यत्वेऽप्यनुपदेश्यत्वमेव; तदुपायोपदेशश्च व्यर्थः स्यादित्यत्राहसहसैवेति। स्थिरमिति क्रियाविशेषणम् मनसश्चलस्वभावत्वान्न तद्विशेषणत्वमुचित्तम्। अथेति प्रश्नार्थः यद्यर्थविश्रान्तो वा। तत इति साक्षाच्चित्तसमाधानाशक्तत्वादित्यर्थः। एवमुत्तरत्राप्यथततश्शब्दयोरर्थो ग्राह्यः। किंविषयोऽभ्यासः कथं च तस्यापि शक्यत्वं कथं वा तेन त्वत्प्राप्तिः,इत्यत्राहस्वाभाविकेति। इतरपरिहारहेतुभूतगुणवति तु विशेषेण सज्जन्त इत्यभिप्रायेण गुणगणग्रहणम्। अयमेवाभिप्रायोमद्गुणानुसन्धानकृत इत्यत्र व्यक्तो भविष्यति। तत्तद्गुणानां प्रत्येकं चित्ताकर्षकत्वप्रकारो यथासम्भवमनुसन्धेयः। सकलकारणत्ववचनं पितृत्वेन प्रीत्यर्थमाश्चर्यत्वार्थं च। गुणवत्यपि यत्किञ्चिद्दोषदर्शनेऽपि मात्रया विरज्येरन्निति तत्परिहाराय निखिलहेयप्रत्यनीकत्वोक्तिः। हिरण्यादिवद्विपरीताभ्यासपरिहारायनिरतिशयप्रेमगर्भेत्युक्तम्। आलम्बने पुनः पुनः स्थापनमभ्यासः स एव योगः। अभ्यासवैराग्याभ्यां चित्तनिरोधश्च योगानुशासनेऽस्मिन्नपि शास्त्रे पूर्वमेवोक्तः। अभ्यासमात्रस्याव्यवधानेन प्राप्तिहेतुत्वव्युदासायस्थिरं चित्तसमाधानं लब्ध्वेत्युक्तम्।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
12.9 Now, if you are unable to focus your mind immediately on Me in deep meditation, then seek to reach Me by the ‘practice of repetition (Abhyasa Yoga)’. By the repeated practice of remembrance full of immense love, concentrate your mind on Me the ocean of manifold attributes innate to Me like, beauty, affability, friendliness, affection, compassion, sweetness, majesty, magnanimity, heroism, valour, might, omniscience, freedom from wants, unfailing resolves, sovereignty over all, being the cause of all etc., and being antagonistic to all that is evil. All these attributes are of unlimited excellence in the Supreme Person.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।12.9।। अथेति।
तीव्र-तर-भगवच्-छक्ति-पातं +++(N adds समाधातुं आवेशयितुं obviously accepting the reading अथ चित्तं समाधातुं as found in the Vulgate )+++
+++(शक्तिपातचिरतर – )+++ चिर-तर-प्रसादित-गुरु-चरणानुग्रहं च विना दुर्लभ आवेश इत्य् अभ्यासः।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
12.9 Atha etc. to cause the mind [to enter into the Lord] is hard to achieve without the descent of the Lord’s Grace with greater force, and without the favour of the revered preceptors, pleased [by services etc.] for a considerable period of time. Hence, practice [is prescribed].
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।12.9।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।12.9।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।12.9।। –,अथ एवं यथा अवोचं तथा मयि चित्तं समाधातुं स्थापयितुं स्थिरम् अचलं न शक्नोषि चेत्;
ततः पश्चात् अभ्यासयोगेन; चित्तस्य एकस्मिन् आलम्बने सर्वतः समाहृत्य पुनः पुनः स्थापनम् अभ्यासः;
तत्पूर्वको योगः समाधान-लक्षणः,
तेन अभ्यासयोगेन मां विश्वरूपम् इच्छ प्रार्थयस्व
आप्तुं प्राप्तुं
हे धनंजय।।
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।12.9।। यदि इस प्रकार यानी जैसे मैंने बतलाया है उस प्रकार तू मुझमें चित्तको अचल स्थापित नहीं कर सकता; तो फिर हे धनंजय तू अभ्यासयोगके द्वारा – चित्तको सब ओरसे खींचकर बारंबार एक अवलम्बनमें लगानेका नाम अभ्यास है उससे युक्त जो समाधानरूप योग है; ऐसे अभ्यासयोगके द्वारा – मुझ – विश्वरूप परमेश्वरको प्राप्त करनेकी इच्छा कर।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
12.9 Atha, if, however; na saknosi, you are unable; samadhatum, to establish, in this way as I have described; cittam, the mind; sthiram, steadily, unwaveringly; mayi, on Me; tatah, then; O Dhananjaya, iccha, seek, pray; aptum, to attain; mam, Me, as the Cosmic person; abhyasa-yogena, through the Yoga of Practice. Practice consists in repeatedly fixing the mind on a single object by withdrawing it from everything else. The yoga following from this, and consisting in concentration of the mind, is abhyasa-yoga.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।12.9।। मतप्रदर्शनपूर्वकं भगवत्प्राप्तावुपायान्तरमाह – अथेत्यादिना। एकमालम्बनं स्थूलं प्रतिमादि समाधानं ततोऽभ्यन्तरे विश्वरूपे चित्तैकाग्र्यम्।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।12.9।। इदानीं सगुणब्रह्मध्यानाशक्तानामशक्तितारतम्येन प्रथमं प्रतिमादौ बाह्ये भगवद्ध्यानाभ्यासस्तदशक्तौ भागवतधर्मानुष्ठानं तदशक्तौ सर्वकर्मफलत्याग इति त्रीणि साधनानि त्रिभिः श्लोकैर्विधत्ते – अथेत्यादिना। अथ पक्षान्तरे। स्थिरं यथास्यात्तथा चित्तं समाधातुं स्थापयितुं मयि न शक्नोषि चेत्तत एकस्मिन्प्रतिमादावालम्बने सर्वतः समाहृत्य चेतसः पुनः पुनः स्थापनमभ्यासस्तत्पूर्वको योगः समाधिस्तेनाभ्यासयोगेन मामाप्तुमिच्छ यतस्व। हे धनंजय बहून् शत्रून् जित्वा धनमाहृतवानसि राजसूयाद्यर्थमेवं मनःशत्रुं जित्वा तत्त्वज्ञानधनमाहरिष्यसीति न तवाश्चर्यमिति संबोधनार्थः।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।12.9।। विश्वरूपधारणायामशक्तं प्रति प्राह – अथेति। मयि विश्वेश्वरे अथ यदि चित्तं समाधातुं निवेशितुमचलं धारयितुं न शक्नोषि ततस्तर्ह्यभ्यासयोगेन चित्तस्यैकस्मिन्नाभ्यन्तरे बाह्ये वा प्रतिमादावालम्बने सर्वतः समाहृत्य पुनःपुनःस्थापनमभ्यासस्तत्पूर्वको योगः समाधानलक्षणस्तेनाभ्यासयोगेन मां विश्वरूपमाप्तुं प्राप्तुमिच्छ प्रार्थयस्व हे धनंजय।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।12.9।। एतत्कर्तुमशक्तस्य स्वप्राप्तावुपायान्तरमाह। अथैवबुक्तप्रकारेण मयि चित्तमचलं यथा स्यात्तथा समाधातुं स्थापयितुमसमर्थोऽसि चेत्ततश्चित्तस्यैकस्मिन्नालम्बने आभ्यन्तरे बाह्ये वा प्रतिमादौ सर्वतः समाहृत्य पुनः पुनः स्थापनमभ्यासस्तत्पूर्वकोः योगः समाधानलक्षणस्तेन मां विश्वरुपमाप्तुं प्राप्तुं इच्छ प्रार्थयस्व। धनंजयेति संबोधयन् यथा धनुर्विद्याभ्यासबलाद्राजभ्यो धनं भीष्मादिभ्यो गोधनं जाहृतवानसि तथाभ्यासयोगेन मामप्याहर्तुं योग्योऽसीति।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।12.9।। अथेति पक्षान्तरे। मुख्यकल्पासम्भवेऽनुकल्पमुपदिशति। चेन्मयि चित्तं स्थिरं समाधातुं न शक्तोऽसि अनिषिद्धो योगो न निष्पद्यते तर्हि अभ्यासयोगेन तत्स्थिरीकृत्य मामाप्तुमिच्छ।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।12.9।। ननु मनश् चञ्जलत्वात् कथं त्वयि स्थिरं स्यात् अत आह – अथेति।
धनञ्जय इति सावधानार्थे सम्बोधनम्।
अथ चेत् मयि स्थिरं चित्तं समाधातुं न शक्नोषि समर्थो न भवसि;
तदा अभ्यासयोगेन मच्-छ्रवणानुस्मरणादि-रूपेण माम् आप्तुं प्राप्तुं इच्छ यतस्व।
विचार्य प्रयत्नपरो भवेत्यर्थः।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।12.9।। अत्राशक्तं प्रति सुगमोपायमाह – अथेति। स्थिरं यथाभवत्येवं मयि चित्तं धारयितुं यदि शक्तो न भवसि तर्हि विक्षिप्तं चित्तं पुनः प्रत्याहृत्य ममानुस्मरणलक्षणो योगाभ्यासस्तेन मां प्राप्तुमिच्छ प्रयत्नं कुरु।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।12.9।। आत्म विकास की जो साधना भगवान् ने पूर्व श्लोक में बतायी है वह अपरिवर्तनीय है। साधक को अपना मन भगवान् के चरणों में स्थिर करके बुद्धि के द्वारा उस सगुण रूप के पारमार्थिक स्वरूप को पहचानना चाहिए। इन दोनों प्रक्रियाओं का सम्पादन करने के लिए अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि और मन की एकाग्रता की आवश्यकता होती है। सम्भवत एक सामान्य पुरुष के समान अर्जुन को यह अनुभव हुआ कि इस मार्ग का सफलतापूर्वक अनुकरण करना उसके लिए असंभव ही है। करुणासागर भगवान् श्रीकृष्ण अपने शिष्य के मुख के भावों को समझकर यहाँ एक अन्य उपाय का वर्णन करते हैं। यदि तुम स्थिरतापूर्वक अपने चित्त को मुझमें समाहित नहीं कर सकते हो; तब एक उपाय यह है कि तुम अभ्यासयोग का पालन करो। इस अभ्यासयोग को पूर्व में इस प्रकार बताया गया था कि; जहाँ कहीं यह चंचल और अस्थिर मन विचरण करता है; उसे वहीं संयमित करके आत्मा के ही वश में लाना चाहिए। संक्षेप में; जब कभी कोई साधक अपने मन को चुने हुए ध्येय विषय में समाहित करना चाहता है; तो उसका चंचल मन ध्येय से हटकर विजातीय प्रवृत्तियों के प्रवाह में विचरण करने लगता है। यहाँ उपदेश यह दिया गया है कि जब कभी मन इस प्रकार विचरण करना प्रारम्भ करे साधक उसी क्षण उसके ध्यान को एकत्र कर पुन भगवान् के दिव्य रूप में स्थिर करने का प्रयत्न करे। प्रत्येक साधक को यह स्वीकार करना पड़ेगा कि ध्यानाभ्यास के समय; किसी एक अवधि तक भी; मन सर्वथा ध्येय वस्तु का ही चिन्तन करने में सफल नहीं होता है। कुछ ही क्षणों में मन का अपने कल्पना जगत् में विहार करना प्रारम्भ हो जाता है। उसका यह विहार करना अपने आप में इतनी बड़ी समस्या नहीं हैं; जितनी बड़ी वह बन जाती है; जब यह साधक भी मन के द्वारा अपहृत हुआ उसी कल्पना लोक में ले जाया जाता है। योगेश्वर श्रीकृष्ण केवल यही उपदेश देते हैं कि हमको अपने दिव्य पथ को त्यागकर मन के लुभाने में नहीं आना चाहिए। यत्रतत्र विचरण करने वाले उपद्रवी मन का ध्यान ध्येय बिन्दु में ही समाहित करने के लिए साधक में मन से अलग रहकर उसे साक्षीभाव से देखते रहने की क्षमता होनी चाहिए। मन के साथ तादात्म्य हो जाने पर तो जहाँ मन वहाँ हम; ऐसी स्थिति हो ही जायेगी। इसलिए; मन को संयमित करने के लिए साधक को मन से अलग होकर अपने में ही निहित उस क्षमता के साथ तादात्म्य करना चाहिए; जो मन से भी श्रेष्ठ है और उस पर शासन करके उसे अनुशासित कर सकती है। मन से श्रेष्ठ उसका शासक है; विवेक अर्थात् बुद्धि। बुद्धि की विवेकसार्मथ्य के द्वारा ही हम उससे निम्नतर मन को अनुशासित कर सकते हैं। यह उपाय उन लोगों को लिए बताया गया है जो पूर्व श्लोक में वर्णित विहंगम मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकते हैं। दीर्घकाल तक अभ्यासयोग की साधना करने पर हमारा मन इस प्रकार अनुशासित हो जायेगा कि हम आत्मविकास के साक्षात् साधन का अभ्यास करने में समर्थ हो जायेंगे; जिसका वर्णन पूर्व के श्लोक में किया गया है। यदि यह भी सम्भव न हो तो
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।12.9।। हे धनंजय ! यदि तुम अपने मन को मुझमें स्थिर करने में समर्थ नहीं हो, तो अभ्यासयोग के द्वारा तुम मुझे प्राप्त करने की इच्छा (अर्थात् प्रयत्न) करो।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।12.9।। अगर तू मनको मेरेमें अचलभावसे स्थिर (अर्पण) करनेमें समर्थ नहीं है, तो हे धनञ्जय ! अभ्यासयोगके द्वारा तू मेरी प्राप्तिकी इच्छा कर।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।12.9।।*व्याख्या–***अथ चित्तं समाधातुं ৷৷. मामिच्छाप्तुं धनञ्जय–**यहाँ ‘चित्तम्’ पदका अर्थ ‘मन’ है। परन्तु इस श्लोकका पीछेके श्लोकमें वर्णित साधनसे सम्बन्ध है, इसलिये ‘चित्तम्’ पदसे यहाँ मन और बुद्धि दोनों ही लेना युक्तिसंगत है।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
12.9. In case you are not able to cause your mind to enter completley into Me, then, O Dhananjaya ! seek to attain Me by the practice-Yoga.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
12.9 If, however, you are unable to establish the mind steadily on Me, then, O Dhananjaya, seek to attain Me through the Yoga of Practice.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
12.9 But if thou canst not fix thy mind firmly on Me, then, My beloved friend, try to do so by constant practice.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
12.9 If now you are unable to focus your mind on Me, then seek to reach Me, O Arjuna, by the practice of repetition.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
12.9 If thou art unable to fix thy mind steadily on Me, then by the Yoga of constant practice do thou seek to reach Me, O Arjuna.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
12.9 अथ if; चित्तम् the mind; समाधातुम् to fix; न not; शक्नोषि (thou) art able; मयि in Me; स्थिरम् steadily; अभ्यासयोगेन by the Yoga of constant practice; ततः them; माम् Me; इच्छ wish; आप्तुम् to reach; धनञ्जय O Arjuna.Commentary Abhyasa Yoga Abhyasa is constant practice to steady the mind and fix it on one point the practice of repeatedly withdrawing the mind from all sorts of sensual objects and fixing it again and again on one particular object or the Self. The constant effort to separate or detach oneself from the illusory five sheaths and identify oneself with the Atman is also Abhyasa. If you are not able to fix your mind and intellect wholly on the Lord all the time; then do it for some time at least. If your mind wanders much; try to fix it on the Lord through the continous practice of remembrance. Resort to the worship of the images of God; feeling His Living Presence in them. This will also help you.Why did Lord Krishna address Arjuna by the name Dhananjaya here Surely there is some significance. Arjuna conered many people and brought immense wealth for the Rajasuya Yajna performed by Yudhishthira. For such a man of great powers and splendour; it is not difficult to coner this mind; and obtain the spiritual wealth of knowledge of the Self. This is what Lord Krishna meant when He addressed Arjuna by the name Dhananjaya.