(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
मा ते व्यथा, मा च विमूढ-भावो
दृष्ट्वा रूपं घोरम् ईदृङ्-ममेदम्।
व्यपेत-भीः प्रीत-मनाः पुनस् त्वं
तद् एव मे रूपम् इदं प्रपश्य॥11.49॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो
दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं
तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य।।11.49।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।11.49।। ईदृशघोररूपदर्शनेन ते या व्यथा; यः च विमूढभावो वर्तते; तद् उभयं मा भूत्; त्वया अभ्यस्तपूर्वम् एव सौम्यरूपं दर्शयामि; तद् एव इदं मम रूपं प्रपश्य।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।11.49।। दृष्ट्वा रूपंमा ते व्यथा मा च विमूढभावः इत्यत्र क्रियापदविशेषाश्रवणादेतद्रूपदर्शनेन व्यथा; तेन न च विमूढभाव इति प्रतीतिः स्यात्अभूत् इत्यध्याहारेऽपि एतद्रूपदर्शनस्य व्यथाद्यभावहेतुत्वप्रतीतिः स्यात् तद्वारणाय व्याचष्टेईदृशघोररूपदर्शनेनेत्यादिना। तदेवेदं मे रूपं पुनः पश्य इत्युक्त्या भीत्यादिहेतुभूतमेवेदं पुनः पश्येत्यर्थभ्रमः स्यात् अतस्तच्छब्दमन्यथा व्याचष्टे – अभ्यस्तपूर्वमेव सौम्यं रूपमिति। वर्तमानत्वात्तदेवेदंशब्देन रूपद्वयस्यैककालीनत्वभ्रमव्युदासाय वर्तमानसामीप्यपरं तदित्यभिप्रायेण –,दर्शयामीत्यध्याहृतम्। तथाचेदंशब्दः प्रदर्श्यमानपर इति भावः।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
11.49 Whatever fear and whatever perlexity have been caused to you by seeing My terrible form, may it cease now. I shall show you the benign form to which you were accustomed before. Behold now that form of Mine.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।11.49।। No commentary.
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
11.49 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।11.49।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।11.49।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।11.49।। –,मा ते व्यथा मा भूत् ते भयम्; मा च विमूढभावः विमूढचित्तता; दृष्ट्वा उपलभ्य रूपं घोरम् ईदृक् यथादर्शितं मम इदम्। व्यपेतभीः विगतभयः; प्रीतमनाश्च सन् पुनः भूयः त्वं तदेव चतुर्भुजं रूपं शङ्खचक्रगदाधरं तव इष्टं रूपम् इदं प्रपश्य।।संजय उवाच –,
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।11.49।। जैसा पहले दिखाया जा चुका है; वैसे मेरे इस घोर रूपको देखकर तुझे भय न होना चाहिये और विमूढभाव अर्थात् चित्तकी मूढावस्था भी नहीं होनी चाहिये। तू भयरहित और प्रसन्नमन हुआ वही अपना इष्ट यह शङ्खचक्रगदाधारी चतुर्भुजरूप फिर भी देख।
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(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
11.49 Ma te vyatha, may you have no fear; and ma vimudha-bhavah, may not there be bewilderment of the mind; drstva, by seeing, perceiving; idam, this rupam, form; mama, of Mine; idrk ghoram, so terrible, as was revealed. Vyapetabhih, becoming free from fear; and becoming prita-manah, gladdened in mind; punah, again; prapasya, see; idam, this; eva, very; tat, earlier; rupam, form; me, of Mine, with four hands, holding a conch, a discus and a mace, which is dear to you.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।11.49।। विश्वरूपदर्शनमेवं स्तुत्वा यद्यस्माद्दृश्यमानाद्बिभेषि तर्हि तदुपसंहरामीत्याह – मा ते व्यथेति। बहुविधमनुभूतत्वमभिप्रेत्येदृगित्युक्तमिदमिति प्रत्यक्षयोग्यत्वम्। तदेवेत्युक्तं इदमिति।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।11.49।। एवं त्वदनुग्रहार्थमाविर्भूतेन रूपेणानेन चेत्तवोद्वेगस्तर्हि – मात इति। इदं घोरं ईदृक् अनेकबाह्वादियुक्तत्वेन भयंकरं मम रूपं दृष्ट्वा स्थितस्य ते तव या व्यथा भयनिमित्ता पीडा सा माभूत्। तथा,मद्रूपदर्शनेऽपि यो विमूढभावो व्याकुलचित्तत्वपरितोषः सोपि माभूत्। किंतु व्यपेतभीरपगतभयः प्रीतमनाश्च सन् पुनस्त्वं तदेव चतुर्भुजं वासुदेवत्वादिविशिष्टं त्वया सदा पूर्वदृष्टं रूपमिदं विश्वरूपोपसंहारेण प्रकटीक्रियमाणं,प्रपश्य प्रकर्षेण भयराहित्येन संतोषेण च पश्य।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।11.49।। इदमतिदुर्लभदर्शनं रूपं दृष्ट्वापि चेद् व्यथसे तर्ह्युपसंहरामीदमित्याशयेनाह – मा ते इति। ममेदं ईदृक् घोरं रूपं दृष्ट्वा ते तव व्यथा माभूदिति शेषः। विमूढभावो मोहश्च ते माभूत्। व्यपेतभीर्निर्भयः प्रीतमनाश्च पुनस्त्वं भूत्वा तदेव यत्त्वया द्रष्टुं प्रार्थितं मे ममेदं रूपं प्रपश्य।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।11.49।। तव प्रसन्नतायै प्रदर्शितेन विश्वरुपेण तव व्यथादिकं चेत्तर्हि तदेव मे रुपं पश्येत्याह – मा त इति। ईदृक् घोरं ममेदं रुपं दृष्ट्वा तव व्यथा भयं माभूत। मा च विमूढभावो व्याकुलचित्तता। तथाच व्यपेतभीः व्यथारहितः प्रीतमनाश्च सन् तदेव स्वेष्टं चतुर्भुजं शङ्खचक्रगदापद्मधरं शयामघनं मम रुपमिदं मया प्रत्यक्षीकृतं प्रकर्षेण विश्वरुपदर्शनजनितव्यथादिनिवृत्त्यर्थं पश्य।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।11.49।। किञ्च मा ते व्यथादिर्भवतु। घोरमिदं रूपं; कालरूपत्वात्। तव पुष्टिमिश्रमर्यादाभक्तस्य भयावहमिति तदेव पूर्वं दृष्टभूतं ममेदं पश्य।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।11.49।। यदन्येन न शक्यस्ततः पूर्वोक्तभयाशङ्कादिरहितस्तदेव रूपं पश्येत्याह – मा त इति। ते व्यथा न दर्शयिष्यामीत्यादिरूपा माऽस्तु। च पुनः मम घोरं भयानकम्; ईदृक् सर्वग्रसनादिधर्मयुक्तम्; इदं परिदृश्यमानं दृष्ट्वा विमूढभावः मोहरूपो माऽस्तु। व्यपेतभीः विगतभयः प्रीतमनाः संस्तदेव पूर्वदृष्टमेव मे इदं रूपं प्रपश्य प्रकर्षेण यथाभिलाषं भक्तियुतः पश्येत्यर्थः।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।11.49।। एवमपि चेत्तवेदं रूपं घोरं दृष्ट्वा व्यथा भवति तर्हि तदेव रूपं दर्शयामीत्याह – मा त इति। ईदृगीदृशं मदीयं घोरं रूपं दृष्ट्वा ते व्यथा मास्तु। विमूढभावो विमूढत्वं च मास्तु। व्यपगतभयः प्रीतमनाश्च सन्पुनस्त्वं तदेवेदं मम रूपं प्रकर्षेण पश्य।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।11.49।। जब कभी अवसर प्राप्त होता है; व्यासजी की नाट्यप्रतिभा अपनी पूर्णता को पाने में कभी विफल नहीं होती। यहाँ ऐसे ही एक कलात्मक चित्र का उदाहरण प्रस्तुत है; जो गीतारूपी पटल पर व्यासजी ने शब्दों के द्वारा चित्रित किया है। अर्जुन के मानसिक विक्षेपों को यहाँ नाटकीय ढंग से भगवान् के इन शब्दों में दर्शाते हैं कि; तुम मेरे इस घोर रूप को देखकर भय और मोह को मत प्राप्त हो। भगवान् अपने मधुर वचनों एवं व्यवहार से अर्जुन को सांत्वना देते हुए उसके मन को पुन शान्त और प्रसन्न करते हैं। भगवान् पुन अपने मूलरूप को धारण करते हैं; जिसकी सूचना देते हुए वे कहते हैं कि; पुन मेरे उसी रूप को देखो। यह खण्ड जो भगवान् का अपने पूर्व के सौम्य और शान्त रूप में पुनर्प्रवेश का वर्णन करता है; उससे वेदान्त के विद्यार्थियों को किसी एक महावाक्य का तो स्मरण होना ही चाहिए। समष्टि के घोर विश्वरूप तथा श्रीकृष्ण के सौम्य दिव्य व्यष्टि रूप का एकत्व इस वाक्य द्वारा कि मेरा वही यह रूप,हैअत्यन्त सुन्दर प्रकार से दर्शाया गया है। वस्तुत जो परम सत्य श्रीकृष्ण की व्यष्टि उपाधि में व्यक्त हो रहा है; वही सत्य विराटरूप में भी है; जहाँ वह समस्त नामरूपों के अधिष्ठान के रूप में स्थित है। तरंगों का अधिष्ठान समुद्र है। यदि समुद्र शक्तिशाली; भयंकर घोर और विशाल है तो स्वयं तरंग लज्जालु और सौम्य; प्रिय तथा आकर्षक होती है। एक बार फिर दृश्य है हस्तिनापुर का; जहाँ राजभवन में अन्ध वृद्ध धृतराष्ट्र को संजय बताता है कि
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।11.49।। इस प्रकार मेरे इस घोर रूप को देखकर तुम व्यथा और मूढ़भाव को मत प्राप्त हो। निर्भय और प्रसन्नचित्त होकर तुम पुन: मेरे उसी (पूर्व के) रूप को देखो।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।11.49।। यह इस प्रकारका मेरा घोररूप देखकर तेरेको व्यथा नहीं होनी चाहिये और मूढ़भाव भी नहीं होना चाहिये। अब निर्भय और प्रसन्न मनवाला होकर तू फिर उसी मेरे इस (चतुर्भुज) रूपको अच्छी तरह देख ले।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।11.49।।**व्याख्या–‘मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्’–**विकराल दाढ़ोंके कारण भयभीत करनेवाले मेरे मुखोंमें योद्धालोग बड़ी तेजीसे जा रहे हैं, उनमेंसे कई चूर्ण हुए सिरोंसहित दाँतोंके बीचमें फँसे हुए दीख रहे हैं और मैं प्रलयकालकी अग्निके समान प्रज्वलित मुखोंद्वारा सम्पूर्ण लोगोंका ग्रसन करते हुए उनको चारों ओरसे चाट रहा हूँ – इस प्रकारके मेरे घोर रूपको देखकर तेरेको व्यथा नहीं होनी चाहिये, प्रत्युत प्रसन्नता होनी चाहिये। तात्पर्य है कि पहले (11। 45 में) तू जो मेरी कृपाको देखकर हर्षित हुआ था, तो मेरी कृपाकी तरफ दृष्टि होनेसे तेरा हर्षित होना ठीक ही था, पर यह व्यथित होना ठीक नहीं है।
अर्जुनने जो पहले कहा है –‘प्रव्यथितास्तथाहम्’ (11। 23) और ‘प्रव्यथितान्तरात्मा’ (11। 24)। उसीके उत्तरमें भगवान् यहाँ कहते हैं – ‘मा ते व्यथा। ‘,मैं कृपा करके ही ऐसा रूप दिखा रहा हूँ। इसको देखकर तेरेको मोहित नहीं होना चाहिये – ‘मा च विमूढभावः’। दूसरी बात; मैं तो प्रसन्न ही हूँ और अपनी प्रसन्नतासे ही तेरेको यह रूप दिखा रहा हूँ; परन्तु तू जो बार-बार यह कह रहा है कि ‘प्रसन्न हो जाओ; प्रसन्न हो जाओ’, यही तेरा विमूढ़भाव है। तू इसको छोड़ दे। तीसरी बात, पहले तूने कहा था कि मेरा मोह चला गया (11। 1), पर वास्तवमें तेरा मोह अभी नहीं गया है। तेरेको इस मोहको छोड़ देना चाहिये और निर्भय तथा प्रसन्न मनवाला होकर मेरा वह देवरूप देखना चाहिये।
तेरा और मेरा जो संवाद है, यह तो प्रसन्नतासे, आनन्दरूपसे, लीलारूपसे होना चाहिये। इसमें भय और मोह बिलकुल नहीं होने चाहिये। मैं तेरे कहे अनुसार घोड़े हाँकता हूँ, बातें करता हूँ, विश्वरूप दिखाता हूँ आदि सब कुछ करनेपर भी तूने मेरेमें कोई विकृति देखी है क्या (टिप्पणी प₀ 611.1) मेरेमें कुछ अन्तर आया है क्या; ऐसे ही मेरे विश्वरूपको देखकर तेरेमें भी कोई विकृति नहीं आनी चाहिये।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
11.49. Let there be no distress and no bewilderment in you by seeing this terrific and violent form of Mine; being free from fear, cheerful at heart, behold again this form of Mine which is the same [as before].
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
11.49 May you have no fear, and may not there be bewilderment by seeing this form of Mine so terrible Becoming free from fear and gladdened in mind again, see this very earlier form of Mine.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
11.49 Be not afraid or bewildered by the terrible vision. Put away thy fear and, with joyful mind, see Me once again in My usual Form."
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
11.49 You need not fear any more, nor be perplexed, looking on this awesome form of Mine. Free from fear and with a gladdened heart, behold again that other form of Mine.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
11.49 Be not afraid, nor bewildered on seeing such a teriible form of Mine as this; with thy fear dispelled and with a gladdened heart, now behold again this former form of Mine.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
11.49 मा not; ते thee; व्यथा fear; मा not; च and; विमूढभावः bewildered state; दृष्ट्वा having seen; रूपम् form; घोरम् terrible; ईदृक् such; मम My; इदम् this; व्यपेतभीः with (thy) fear dispelled; प्रीतमनाः with gladdened heart; पुनः again; त्वम् thou; तत् that; एव even; मे My; रूपम् form; इदम् this; प्रपश्य behold.Commentary Former form is the form with four hands with conch; discus; club or mace and lotus.The Lord was Arjuna in a state of terror. Therefore; He withdrew the Cosmic Form and assumed His usual gentle form. He consoled Arjuna and spoke sweet; loving words.