(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
+++(श्री भगवानुवाच)+++
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं
रूपं परं दर्शितम् आत्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वम् अनन्तम् आद्यं
यन् मे त्वद्-अन्येन न दृष्टपूर्वम्॥11.47॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
श्री भगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं
रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं
यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।11.47।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।11.47।। श्रीभगवानुवाच – यत् मे तेजोमयं तेजोराशिं विश्वं सर्वात्मभूतम् अनन्तम् अन्तरहितम् प्रदर्शनार्थम् इदम्; आदिमध्यान्तरहितम्; आद्यं मद्व्यतिरिक्तस्य कृत्स्नस्य आदिभूतं त्वदन्येन केन अपि न दृष्टपूर्वं रूपं तद् इदं प्रसन्नेन मया मद्भक्ताय ते दर्शितम् आत्मयोगात् आत्मनः सत्यसंकल्पत्वयोगात्। अनन्यभक्तिव्यतिरिक्तैः सर्वैः अपि उपायैः यथावद् अवस्थितः अहं द्रष्टुं न शक्य इति आह –
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।11.47।। तेजोमयम् इत्यत्र मयटः प्राचुर्यार्थत्वमभिप्रेत्याहतेजसां राशिमिति। विश्वात्मभूतमिति विश्वव्यापकमित्यर्थः। अचेतनस्य हि नात्मत्वं सम्भवति। अनादिमध्यान्तम् [11।19] इति पूर्वमुक्तत्वात्अनन्तम् इत्येतदितरोपलक्षणमित्याह – प्रदर्शनार्थमिदमिति। आद्यम् इत्यत्र प्रतिसम्बन्धिविशेषानिर्देशात्कृत्स्नस्यादिभूतमित्युक्तम्। त्वदन्येन इत्यनेनार्थसिद्धमाहकेनापीति। प्रसादस्य निर्हेतुकत्वे वैषम्यनैर्घृण्यप्रसङ्गात्;ते इत्यनेनाभिप्रेतं प्रसादहेतुमाहमदभक्ताय त इति। योगशब्दस्य ध्यानपरत्वभ्रमव्युदासाय व्याचष्टेआत्मनः सत्यसङ्कल्पत्वयोगादिति।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
11.47 The Lord said The ’luminous’ form of Mine is a mass of luminosity. It is ‘universal’ i.e., constitutes the Self of the universe. It is ‘infinite’, endless. This is illustrated by describing it as having no beginning, middle or end. It is ‘primeval,’ namely, it constitutes the foundation of all beings other than Myself. It has nevr been seen before by any one other than you. Such a form is now revealed to you, who are My devotee, by Me who am gracious, by My own Yoga, namely, by the power of willing the truth associated with Me. Sri Krsna proceeds to say, ‘It is not possible that I can be realised as I am, through any means except exclusive Bhakti.’
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।11.47।। No commentary.
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
11.47 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।11.47।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।11.47।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।11.47।। –,मया प्रसन्नेन; प्रसादो नाम त्वयि अनुग्रहबुद्धिः; तद्वता प्रसन्नेन मया तव हे अर्जुन; इदं परं रूपं विश्वरूपं दर्शितम् आत्मयोगात् आत्मनः ऐश्वर्यस्य सामर्थ्यात्। तेजोमयं तेजःप्रायं विश्वं समस्तम् अनन्तम् अन्तरहितं आदौ भवम् आद्यं यत् रूपं मे मम त्वदन्येन त्वत्तः अन्येन केनचित् न दृष्टपूर्वम्।। आत्मनः मम रूपदर्शनेन कृतार्थ एव त्वं संवृत्तः इति तत् स्तौति –,
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।11.47।। अर्जुनको भयभीत देखकर; विश्वरूपका उपसंहार करके प्रिय वचनोंसे धैर्य देते हुए श्रीभगवान् बोले –, हे अर्जुन प्रसन्न हुए मुझ परमात्माने – तुझपर जो अनुग्रहबुद्धि है उसका नाम प्रसाद है उससे युक्त मुझ परमेश्वरने – अपने ऐश्वर्यकी सामर्थ्यसे यह परम श्रेष्ठ तेजोमय – तेजसे परिपूर्ण अनन्त – अन्तरहित सबसे पहले होनेवाला अनादि विश्वरूप तुझे दिखाया है; जो मेरा रूप तेरे सिवा पहले और किसीसे भी नहीं देखा गया।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
11.47 Prasannena, out of grace-grace means the intention of favouring you; O Arjuna, idam, this; param, supreme; tejomayam, abundantly radiant; visvam, Cosmic, all-comprehensive; anantam, infinite, limitless; adyam, primeval-that which existed in the beginning; rupam, form, the Cosmic form; yat which form; me, of Mine; na drsta-purvam, has not been seen before; tvat-anyena, by anyone other than you; daristam, has been shown; tava, to you; maya, by Me-who am racious, being possessed of that (intention of favouring you); atma-yogat, through the power of My own Yoga, through the power of My own Godhood. ‘You have certainly got all your ends accomplished by the vision of the form of Mine who am the Self [The word atmanah (who am the Self) does not occur in some editions.-Tr.] .’ Saying so, He eulogizes that (vision):
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।11.47।। अर्जुनेन स्थाने हृषीकेशेत्यादिनोक्तस्य भगवतो वचनमवतारयति – अर्जुनमिति। भगवत्प्रसादैकोपायलभ्यं तद्दर्शनमित्याशयेत्यानाह – मयेति।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।11.47।। इतीति। एवमर्जुनेन प्रसादितो भयबाधितमर्जुनमुपलभ्योपसंहृत्य विश्वरूपमुचितेन वचनेन तमाश्वासयत् त्रिभिः – मयेत्यादिना। हे अर्जुन; माभैषीः। यतो मया प्रसन्नेन त्वद्विषयकृपातिशयवता इदं विश्वरूपात्मकं परं श्रेष्ठं रूपं तव दर्शितमात्मयोगात् असाधारणान्निजसामर्थ्यात्। परत्वं विवृणोति। तेजोमयं तेजःप्रचुरं विश्वं समस्तमनन्तमाद्यं च यन्मम रूपं त्वदन्येन केनापि न दृष्टपूर्वं पूर्वं न दृष्टम्।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।11.47।। एवमर्जुनेन प्रार्थितस्तं स्तुवन्भगवानुवाच – मयेति त्रिभिः। हे अर्जुन; प्रसन्नेन मया तव तुभ्यमिदं परं रूपं दर्शितम्। आत्मयोगात्स्वसामर्थ्यात्। करुणया नतु तद्दर्शनेऽधिकारोऽस्ति। तथाच प्रागुक्तम् कर्मण्येवाधिकारस्ते इति। तेजोमयं चिद्रूपं दिव्यं विश्वं विश्वात्मकं आद्यमनादि अनन्तं च यत् रूपं त्वदन्येन कदाचिदपि न पूर्वं दृष्टं दृष्टपूर्वम्।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।11.47।। अर्जुनं भीतमुपलक्ष्य विश्वरुपं तिरोधाय प्रियवचसा आश्वसयन् श्रीभगवानुवाच – मया प्रश्न्नेन त्वय्यनुग्रहबुद्धिमता इदं परं पारमेश्वरं रुपं तव दर्शितं। यतस्त्वं फलाभिसंधिरहितत्वात् शुद्धो मद्भक्त इति ध्वनयन्संबोधयति हेऽर्जुनेति। आत्मनो योगैश्वर्यस्य सामर्थ्योत्तेजोमयं तेजःप्रायं विश्वं समस्तं सर्वात्मकं अनन्तमन्तविधुरं आदिभवमाद्यं सर्वादौ सत् यन्मे विश्वरुपमिदं त्वदन्येन केनजित्पर्वं न दृष्टम्।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।11.47।। श्रीभगवानुवाच – मयेति त्रिभिः। मया सर्वमूलरूपेण स्वयं भगवतांऽशिना कृष्णेन स्वोपनिषत्प्रतिपाद्यस्वरूपेण द्विभुजेन लावण्यजलधिना महामनोरमेन गुणातीतेन सर्ववेदान्तवेद्यचरणेन परतत्त्वेन स्वाश्रितवात्सल्यकरुणावरुणालयेनाचिन्त्यैश्वरयोगेन प्रसन्नेन स्वात्मयोगबलात् परमुत्तमेततदक्षरं विश्वरूपं दर्शितम्। अनेन सदानन्दरूपे श्रीकृष्णे तस्मिन् द्विभुज एवेदं सामर्थ्यं यत्स्वरूपान्तरदर्शनमिति मूलरूपतयाऽवतारित्वादिति ज्ञापितम्। इत्थमेवोक्तभियुक्तैः – नान्यावतारे सामर्थ्यं यत्कृष्णतनुदर्शनम्। श्रीकृष्ण एव सामर्थ्यं यद्रूपान्तरदर्शनम् इति।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।11.47।। एवं प्रार्थितोऽर्जुनमाश्वासयन् स्वरूपं दर्शयामास; तत्र पूर्वमाश्वासनमाह – श्री भगवानुवाच मयेति। हे अर्जुन मया सर्वदा त्वयि प्रसन्नेन आत्मयोगात् स्वकीयत्वयोगाच्च तव परं इच्छया इदं रूपं दर्शितम्। कीदृशं तेजोमयं; विश्वं विश्वात्मकम्; अनन्तमन्तरहितम्; आद्यं सनातनं; यत् मे रूपं त्वदन्येन त्वां,विना केनाऽपि दृष्टपूर्वं न। तादृशं रूपं त्वदिच्छया दर्शितमित्यर्थः।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।11.47।। एवं प्रार्थितः सन् तमाश्वासयन् श्रीभगवानुवाच – मयेति त्रिभिः। हे अर्चुन; किमिति बिमेषि। यतो मया प्रसन्नेन कृपया तवेदं परमुत्तमं रूपं दर्शितम्। आत्मनो मम योगाद्योगमायासामर्थ्यात्। परत्वमेवाह। तेजोमयं विश्वं विश्वात्मकनन्तमाद्यं च यन्मम रूपं त्वदन्येन त्वादृशाद्भक्तादन्येन न पूर्वं दृष्टं तत्।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।11.47।। स्वयं भगवान् यहाँ स्वीकार करते हैं कि उनके विश्वरूप का दर्शन कर पाना कोई सभी भक्तों का विशेषाधिकार नहीं है। असीम कृपा के सागर भगवान् श्रीकृष्ण के विशेष अनुग्रह के रूप में अर्जुन इस विरले लाभ का आनन्द अनुभव कर सका है। वे यह भी विशेष रूप से कहते हैं कि; यह मेरा तेजोमय अनन्त विश्वरूप तुम्हारे पूर्व किसी ने नहीं देखा है। इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि गीता के रचियता महर्षि व्यास; यहाँ किसी नये दर्शन की स्थापना और व्याख्या कर रहे हैं; जिसकी सत्यता वे भगवान् से प्रमाणित कराना चाहते है। इस कथन का अभिप्राय केवल इतना ही है कि सार्वभौमिक एकता का यह बौद्धिक परिचय या अनुभव किसी व्यक्ति को उन परिस्थितियों में नहीं हुआ; जैसे कि अर्जुन को युद्धभूमि पर हुआ था। बिखरा हुआ मन; थका हुआ शरीर और मानसिक रूप से पूर्णतया विचलित यह थी अर्जुन की विषादपूर्ण दयनीय दशा। विविध नामरूपमय सृष्टि की अनेकता में एकता को देख समझ सकने के लिए बुद्धि की एकाग्रता की जो अनुकूल स्थिति आवश्यक होती है; उससे अर्जुन मीलों दूर था। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने अलौकिक योगशक्ति के प्रभाव से उसे आवश्यक दिव्यचक्षु प्रदान करके; संयोग के एक शान्त क्षण में; उसे विश्वरूप का दर्शन करा दिया। भगवान् अपने अभिप्राय को अगले श्लोक में स्पष्ट करते हैं
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।11.47।। हे अर्जुन! तुम पर प्रसन्न होकर मैंने अपनी योगशक्ति (आत्मयोगात्) के प्रभाव से यह अपना परम तेजोमय, सबका आदि और अनन्त विश्वरूप तुझे दर्शाया है, जिसे तुम्हारे पूर्व किसी ने नहीं देखा है।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।11.47।। श्रीभगवान् बोले – हे अर्जुन ! मैंने प्रसन्न होकर अपनी सामर्थ्यसे यह अत्यन्त श्रेष्ठ, तेजोमय, सबका आदि और अनन्त विश्वरूप तुझे दिखाया है, जिसको तुम्हारे सिवाय पहले किसीने नहीं देखा है।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।11.47।।**व्याख्या –‘मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं दर्शितम्’–**हे अर्जुन ! तू बार-बार यह कह रहा है कि आप प्रसन्न हो जाओ (11। 25; 31; 45), तो प्यारे भैया ! मैंने जो यह विराट्रूप तुझे दिखाया है, उसमें विकरालरूपको देखकर तू भयभीत हो गया है, पर यह विकरालरूप मैंने क्रोधमें आकर या तुझे भयभीत करनेके लिये नहीं दिखाया है। मैंने तो अपनी प्रसन्नतासे ही यह विराट्रूप तुझे दिखाया है। इसमें तेरी कोई योग्यता, पात्रता अथवा भक्ति कारण नहीं है। तुमने तो पहले केवल विभूति और योगको ही पूछा था। विभूति और योगका वर्णन करके मैंने अन्तमें कहा था कि तुझे जहाँ-कहीं जो कुछ विलक्षणता दीखे, वहाँ-वहाँ मेरी ही विभूति समझ। इस प्रकार तुम्हारे प्रश्नका उत्तर सम्यक् प्रकारसे मैंने दे ही दिया था। परन्तु वहाँ मैंने,(अथवा पदसे) अपनी ही तरफसे यह बात कही कि तुझे बहुत जाननेसे क्या मतलब; देखने, सुनने, समझनेमें जो कुछ संसार आता है, उस सम्पूर्ण संसारको मैं अपने किसी अंशमें धारण करके स्थित हूँ। दूसरा भाव यह है कि तुझे मेरी विभूति और योगशक्तिको जाननेकी क्या जरूरत है; क्योंकि सब विभूतियाँ मेरी योगशक्तिके आश्रित हैं और उस योगशक्तिका आश्रय मैं स्वयं तेरे सामने बैठा हूँ। यह बात तो मैंने विशेष कृपा करके ही कही थी। इस बातको लेकर ही तेरी विश्वरूप-दर्शनकी इच्छा हुई और मैंने दिव्यचक्षु देकर तुझे विश्वरूप दिखाया। यह तो मेरी कोरी प्रसन्नता-ही-प्रसन्नता है। तात्पर्य है कि इस विश्वरूपको दिखानेमें मेरी कृपाके सिवाय दूसरा कोई हेतु नहीं है। तेरी देखनेकी इच्छा तो निमित्तमात्र है।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
11.47. The Bhagavat said Being gracious towards you, I have shown you, O Arjuna, this supreme form, as a result of [Your] concentration on the Self; this form of Mine full of splendour universal , unending and primal, has been never seen before by anybody other than your-self.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
11.47 The Blessed Lord said Out of grace, O Arjuna, this supreme, radiant, Cosmic, infinite, primeval form-which (form) of Mine has not been seen before by anyone other than you, has been shown to you by Me through the power of My own Yoga.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
11.47 Lord Shri Krishna replied: My beloved friend! It is only through My grace and power that thou hast been able to see this vision of splendour, the Universal, the Infinite, the Original. Never has it been seen by any but thee.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
11.47 The Lord said By My grace, O Arjuna this Supreme Form, luminous, universal, infinite, primal, never seen before by anyone but you, has been revealed to you through My own free will.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
11.47 The Blessed Lord said O Arjuna, this Cosmic Form has graciously been shown to thee by Me by My own Yogic power; full of splendour, primeval, and infinite, this Cosmic Form of Mine has never been seen before by anyone other than thyself.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
11.47 मया by Me; प्रसन्नेन gracious; तव to thee; अर्जुन O Arjuna; इदम् this; रूपम् form; परम् supreme; दर्शितम् has been shown; आत्मयोगात् by My own Yogic power; तेजोमयम् full of splendour; विश्वम् universal; अनन्तम् endless; आद्यम् primeval; यत् which; मे of Me; त्वत् from thee; अन्येन by another; न not; दृष्टपूर्वम् seen before.Commentary Lord Krishna eulogises the Cosmic Form because Arjuna should be regarded to have achieved all his ends by seeing this Cosmic Form.It is also an inducement to all spiritual aspirants to strive to attain this sublime vision. What they should do is explained by the Lord in verse 53 to 55.