(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
दंष्ट्रा-करालानि च ते मुखानि
दृष्ट्वैव कालानल-सन्निभानि।
दिशो न जाने, न लभे च शर्म
प्रसीद देवेश जगन्-निवास॥11.25॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि
दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्म
प्रसीद देवेश जगन्निवास।।11.25।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।11.25।। युगान्तकालानलवत् सर्वसंहारे प्रवृत्तानि अतिघोराणि तव मुखानि दृष्ट्वा दिशो न जाने सुखं च न लभे। जगतां निवास देवेश ब्रह्मादीनाम् ईश्वराणाम् अपि परममहेश्वरं मां प्रति प्रसन्नो भव यथा अहं प्रकृतिं गतो भवामि; तथा कुरु इत्यर्थः। एवं सर्वस्य जगतः स्वायत्तस्थितिप्रवृत्तित्वं दर्शयन् पार्थसारथी राजवेषच्छद्मना अवस्थितानां धार्त्तराष्ट्राणां यौधिष्ठिरेषु अनुप्रविष्टानां च असुरांशानां संहारेण भूभारावतरणं स्वमनीषितं स्वेन एव करिष्यमाणं पार्थाय दर्शयामास। स च पार्थो भगवतः स्रष्टृत्वादिकं सर्वैश्वर्यं साक्षात्कृत्य तस्मिन् एव भगवति सर्वात्मनि धार्तराष्ट्रादीनाम् उपसंहारम् अनागतम् अपि तत्प्रसादलब्धेन दिव्येन चक्षुषा पश्यन् इदं प्रोवाच –
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।11.25।। अवयवान्तरेभ्यो मुखानामतिभीषणत्वव्यञ्जनायदंष्ट्रा इति श्लोकः स्वस्यातिभीतत्वप्रदर्शनेन प्रसादनार्थं च। सर्वसंहारे प्रवृत्तानीति कालानलसाधर्म्योक्तिः। कालाभिमानिरूपतया तद्व्यापारानुबन्धसूचनं च। अतिघोराणीतिदंष्ट्राकरालानि इत्यस्यार्थः। करालशब्दो दन्तुरत्वं; विकृतत्वं; भीषणत्वं वाऽऽह। जगन्निवासशब्दे बहुव्रीहिविवक्षायांइहैकस्थम् [11।7] इत्यादिप्रकृतसर्वाधारत्वानुवादो न स्यात् तत्पुरुषविवक्षायां तु प्रकृतैकार्थ्यमित्यभिप्रायेणाह – जगतां निवासेति। देवेशशब्देन तमीश्वराणां परमं महेश्वरम् [श्वे.उ.6।7] इति श्रुतिप्रसिद्धसर्वेश्वरेश्वरत्वं यथोपदेशं साक्षात्कृतमिति सूचितमित्यभिप्रायेणाहब्रह्मादीनामित्यादि। अनेन ब्रह्मादयोऽपि त्वां वीक्षितुं न शक्नुवन्ति; किमुताहं क्षुद्रजन्तुरित्यभिप्रेतमिति व्यञ्जयति। मां प्रतीति। किमर्जुने भगवतः क्रोधः येन प्रसादः प्रार्थ्यते इत्यत्र प्रसादफलमाहयथाहमिति।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
11.25 Looking at Your mouths, extremely terrifying and like cosmic fire at the end of the universe, and operating for the destruction of everything, I have lost the sense of recognising the arters of the sky, nor do I feel happy and peaceful. O Abode of all the worlds, O Lord of all the Devas, namely, O Overlord of even gods like Brahma! Be gracious unto me. The meaning is: ‘Do act in such a way that I may attain my natural condition. Arjuna’s charioteer (Parthasarathi), thus showing that all the worlds depend upon Him for their existence and activities, showed to the son of Prtha (Arjuna) that what He wanted to do, making Arjuna a mere instrument of His, was to lighten the burden of the earth through the destruction of all those who were of Asuric manifestations and who, in the guise of kings, were presenting themselves as the sons of Dhrtarastra and their followers. Many such embodiments of Asuras were present also in the ranks of Yudhisthira’s followers. And Arjuna, after having realised with the divine eyes, received through His grace, the complete manifestation of the Lord as the Creator etc., witnessed also the slaughter of the followers of the sons of Dhrtarastra etc., in that Lord Himself, who is the Self of all, even though it (the slaughter) had not happened actually according to human calculations. Arjuna continues:
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।11.25।। No commentary.
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
11.25 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।11.25।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।11.25।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।11.25।। –,दंष्ट्राकरालानि दंष्ट्राभिः करालानि विकृतानि ते तव मुखानि दृष्ट्वैव उपलभ्य कालानलसंनिभानि प्रलयकाले लोकानां दाहकः अग्निः कालानलः तत्सदृशानि कालानलसंनिभानि मुखानि दृष्ट्वेत्येतत्। दिशः पूर्वापरविवेकेन न जाने दिङ्मूढो जातः अस्मि। अतः न लभे च न उपलभे च शर्म सुखम्। अतः प्रसीद प्रसन्नो भव हे देवेश; जगन्निवास।। येभ्यो मम पराजयाशङ्का या आसीत् सा च अपगता। ,यतः –,
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।11.25।। क्योंकि –, दाढ़ोंसे युक्त भयंकर – विकराल आकृतिवाले और कालाग्निके समान अर्थात् प्रलयकालमें लोकोंको भस्मीभूत करनेवाली जो कालाग्नि है; उसके समान आपके मुखोंको देखकर मैं इन दिशाओंको पूर्व और पश्चिमके विवेकपूर्वक नहीं जानता हूँ अर्थात् मुझे दिग्भ्रम हो गया है। इसीसे ( आपके स्वरूपका दर्शन करते हुए भी ) मुझे विश्राम – सुख नहीं मिल रहा है; सो हे देवेश हे जगन्निवास आप प्रसन्न होइये।
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(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
11.25 Drstva eva, having merely seen; te, Your; mukhani, mouths; damstra-karalani, made terrible with (their) teeth; and kala-anala-sannibhani, resembling the fire of Dissolution is kalanala; similar to that; na jane, I have lost; the sense of disah, direction-I do not know the directions as to which is East or which is West; and hence, na labhe, find no; sarma, comfort. Therefore, prasida, be gracious; devesa, O Lord of gods; jagannivasa, O Abode of the Universe! ‘The apprehension which was there of my getting defeated by those offers, that too has cleared away, since-’
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।11.25।। दृश्यमानेऽपि भगवद्देहे परितोषाद्यभावे कारणान्तरं प्रश्नपूर्वकमाह – कस्मादिति। दृष्ट्वैवेत्येवकारेण प्राप्तिर्व्यावर्त्यते।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।11.25।। दंष्ट्रेति। दंष्ट्राभिः करालानि विकृतत्वेन भयंकराणि प्रलयकालानलसदृशानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव नतु तानि प्राप्य भयवशेन दिशः पूर्वापरादिविवेकेन न जाने। अतो न लभे च शर्म सुखं त्वद्रूपदर्शनेऽपि। अतो हे देवेश हे जगन्निवास; प्रसीद प्रसन्नो भव मां प्रति यथा भयाभावेन त्वद्दर्शनजं सुखं प्राप्नुयामिति शेषः।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।11.25।। कालानलः प्रलयाग्निस्तत्तुल्यानि। प्रसीद प्रसन्नः सुखदो भवेत्यर्थः।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।11.25।। दंष्ट्राभिः करानि विकृतानि प्रलयकालाग्निसदृशानि च दृष्टैव नतु प्राप्य दिशः पूर्वापरविवेकेन न जानामि। शर्म सुखं च न लभे अतो हे देवेश हे जगन्निवास; प्रसीद प्रसन्नो भव। तव देवेशत्वं जगन्निवासत्वं च प्रत्यक्षेण मयोपलब्धं यदर्थं मम प्रार्थना आसीदिति द्योतनार्थं संबोधनद्वयम्।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।11.25।। Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।11.25।। किञ्च भयाधिक्येन पुनर्विज्ञापयति – दंष्ट्राकरालानीति। हे देवेश सर्वपूज्य ते मुखानि दंष्ट्राभिः करालानि भयोत्पादकानि। च पुनः कालानलसन्निभानि प्रलयाग्निसन्निभानि दृष्ट्वैव भयाद्दिशो न जाने गत्वा प्राप्यस्थानं न जानामि। शर्म त्वदवलोकनरूपं च सुखं न लभे। अतो हे जगन्निवास जगत्पालक जगतः सुखस्थितिरूप प्रसन्नो भव प्राप्यं स्थानं दर्शयेति भावः।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।11.25।। किंच – दंष्ट्रेति। भो देवेश; तव मुखानि दृष्ट्वा भयावेशेन दिशो न जानामि। शर्म च सुखं न लभे। भो जगन्निवास प्रसन्नो भव। कीदृशानि मुखानि। दंष्ट्राभिः करालानि कालानलः प्रलयाग्निस्तत्सदृशानि।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।11.25।। जैसा कि श्लोक में वर्णन किया गया है; अर्जुन ऐसे भयंकर रूप को देखकर अपना धैर्य और सुख खो रहा है। सर्वभक्षी; सबको एक रूपकर देने वाले काल का यह चित्र है। जब दृष्टि के समक्ष ऐसा विशाल दृश्य उपस्थित हो जाता है; और वह भी इतने आकस्मिक रूप से; तो विशालता का उसका परिमाण ही विवेकशक्ति का मानो गला घोंट देता है और क्षणभर के लिए वह व्यक्ति संवेदनाशून्य हो जाता है। भ्रान्तिजन्य दुर्व्यवस्था की दशा को यहाँ इन शब्दों में व्यक्त किया गया है कि; मैं दिशाओं को नहीं जान पा रहा हूँ। बात यहीं पर नहीं समाप्त होती। मैं न धैर्य रख पा रहा हूँ और न शान्ति,को भी। आत्यन्तिक विस्मय की इस स्थिति में आश्चर्यचकित मानव यह अनुभव करता है कि उसकी शारीरिक शक्ति; मानसिक क्षमतायें और बुद्धि की सूक्ष्मदर्शिता अपने भिन्नभिन्न रूप में तथा सामूहिक रूप में भी वस्तुत महत्त्वशून्य साधन हैं। छोटा सा अहंकार अपने मिथ्या अभिमान के आवरण और मिथ्या शक्ति के कवच को त्यागकर पूर्ण विवस्त्र हुआ स्वयं को नम्र भाव से समष्टि की शक्ति के समक्ष समर्पित कर देता है। परम दिव्य; समष्टि शक्ति के सम्मुख जिस व्यक्ति ने पूर्णरूप से अपने खोखले अभिमानों की अर्थशून्यता समझ ली है; उसके लिए केवल एक आश्रय रह जाता है; और वह है प्रार्थना। इस श्लोक के अन्त में अर्जुन प्रार्थना करता है; हे देवेश हे जगन्निवास आप प्रसन्न हो जाइये। इस प्रार्थना के द्वारा व्यासजी यह दर्शाते हैं कि मान और दम्भ से पूर्ण हृदय वाले व्यक्ति के द्वारा कभी भी वास्तविक प्रार्थना नहीं की जा सकती है। जब व्यक्ति इस विशाल समष्टि विश्व में अपनी तुच्छता समझता है; केवल तभी वह सच्चे हृदय से स्वत प्रार्थना करता है। अर्जुन इस युद्ध में अपनी विजय के प्रति सशंक था। 21वें श्लोक से प्रारम्भ किये गये इस प्रकरण का मुख्य उद्देश्य अर्जुन को भावी घटनाओं का कुछ बोध कराना है। उसे युद्ध के परिणाम के प्रति आश्वस्त करते हुए; अब भगवान् सीधे ही सेनाओं के योद्धाओं को काल के मुख में प्रवेश करते हुए दिखाते हैं
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।11.25।। आपके विकराल दाढ़ों वाले और प्रलयाग्नि के समान प्रज्वलित मुखों को देखकर, मैं न दिशाओं को जान पा रहा हूँ और न शान्ति को प्राप्त हो रहा हूँ; इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न हो जाइए।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।11.25।। आपके प्रलयकालकी अग्निके समान प्रज्वलित और दाढ़ोंके कारण विकराल (भयानक) मुखोंको देखकर मुझे न तो दिशाओंका ज्ञान हो रहा है और न शान्ति ही मिल रही है। इसलिये हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होइये।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।11.25।।व्याख्या–‘दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि’– महाप्रलयके समय सम्पूर्ण त्रिलोकीको भस्म करनेवाली जो अग्नि प्रकट होती है; उसे संवर्तक अथवा कालाग्नि कहते हैं। उस कालाग्निके समान आपके मुख है, जो भयंकर-भयंकर दाढ़ोंके कारण बहुत विकराल हो रहे हैं। उनको देखनेमात्रसे ही बड़ा भय लग रहा है। अगर उनका कार्य देखा जाय तो उसके सामने किसीका टिकना ही मुश्किल है।
‘दिशो न जाने न लभे च शर्म’– ऐसे विकराल मुखोंको देखकर मुझे दिशाओंका भी ज्ञान नहीं हो रहा है। इसका तात्पर्य है कि दिशाओंका ज्ञान होता है सूर्यके उदय और अस्त होनेसे। पर वह सूर्य तो आपके नेत्रोंकी जगह है अर्थात् वह तो आपके विराट्रूपके अन्तर्गत आ गया है। इसके सिवाय आपके चारों ओर महान् प्रज्वलित प्रकाश-ही-प्रकाश दीख रहा है (11। 12), जिसका न उदय और न अस्त हो रहा है। इसलिये मेरेको दिशाओंका ज्ञान नहीं हो रहा है और विकराल मुखोंको देखकर भयके कारण मैं किसी तरहका सुख और शान्ति भी प्राप्त नहीं कर रहा हूँ।**‘प्रसीद देवेश जगन्निवास’–**आप सब देवताओंके मालिक हैं और सम्पूर्ण संसार आपमें ही निवास कर रहा है। अतः कोई भी देवता, मनुष्य भयभीत होनेपर आपको ही तो पुकारेगा! आपके सिवाय और किसको पुकारेगा; तथा और कौन सुनेगा; इसलिये मैं भी आपको पुकारकर कह रहा हूँ कि हे देवेश ! हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न होइये। भगवान्के विकराल रूपको देखकर अर्जुनको ऐसा लगा कि भगवान् मानो बड़े क्रोधमें आये हुए हैं। इस भावनाको लेकर ही भयभीत अर्जुन भगवान्से प्रसन्न होनेके लिये प्रार्थना कर रहे हैं।
***सम्बन्ध –***अब अर्जुन आगेके दो श्लोकोंमें मुख्य-मुख्य योद्धाओंका विराट्रूपमें प्रवेश होनेका वर्णन करते हैं।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
11.25. By merely seeing Your faces that are frightening with tusks and are looking like the fire of destruction, I do not know the arters and get no peace. Have mercy, O Lord of gods ! O Abode of the Universe !
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
11.25 Having merely seen Your mouths made terrible with (their) teeth and resembling the fire of Dissolution, I have lost the sense of direction and find no comfort. Be gracious, O Lord of gods, O Abode of the Universe.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
11.25 When I see Thy mouths with their fearful jaws like glowing fires at the dissolution of creation, I lose all sense of place; I find no rest. Be merciful, O Lord in whom this universe abides!
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
11.25 Viewing Your mouths, presenting awe-generating fangs and looking like the consuming fire of final destruction, I know not the arters of the globe nor do I find repose. Be gracious, O Lord of the Devas! O Abode of the universe!
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
11.25 Having seen Thy mouths fearful with teeth (blazing) like the fires of cosmic dissolution, I know not the four arters, nor do I find peace. Have mercy, O Lord of the gods, O abode of the universe.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
11.25 दंष्ट्राकरालानि fearful with teeth; च and; ते Thy; मुखानि mouths; दृष्ट्वा having seen; एव even; कालानलसन्निभानि blazing like Pralayafires; दिशः the four arters; न not; जाने know; न not; लभे do (I) obtain; च and; शर्म peace; प्रसीद have mercy; देवेश O Lord of the gods; जगन्निवास O abode of the universe.Commentary Jagannivasa The substratum of the universe.Kalanala The fires which consume the worlds during the final dissolution of the worlds (Pralaya). Time (Kala) is the consumer of all that is manifest.Diso no jane I do not know the four arters. I cannot distinguish the east from the west; nor the north from the south.