(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
+++(श्री भगवानुवाच)+++
पश्य मे पार्थ रूपाणि
शतशोऽथ सहस्रशः।
नाना-विधानि दिव्यानि
नाना-वर्णाकृतीनि च॥11.5॥+++(5)+++
(सं) मूलम् ...{Loading}...
श्री भगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।।11.5।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।11.5।। श्री भगवानुवाच – पश्य मे सर्वाश्रयाणि रूपाणि अथ शतशः सहस्रशः च नानाविधानि नानाप्रकाराणि दिव्यानि अप्राकृतानि नानावर्णाकृतीनि शुक्लकृष्णादिनानावर्णानि नानाकाराणि च पश्य।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।11.5।। अर्जुनस्य भगवत आत्मप्रदर्शने हेतुं प्रश्नादिप्रकारफलितमवस्थाविशेषं दर्शयन्पश्य इत्यादिभगवद्वाक्यस्य सङ्गतिमाहएवमिति। वक्ष्यमाणप्रकारमनुसन्धायाहसर्वाश्रयाणीति। बहुव्रीहित्वान्नपुंसकत्वम्। आदित्यमण्डलादीन्यनन्तान्यधिकरणानि। यद्वा; आश्रयशब्द उपचाराद्विवक्षाभेदेन वा आश्रितपरः। शतशः सहस्रशश्चेत्यनेन परव्यूहविभवाद्यवच्छेदक्रोडीकृतानन्ताप्राकृतविग्रहवत्त्वं दर्शितम्। यदेकादित्यमण्डलवर्ति रूपं; तत्समानमनन्तब्रह्माण्डेष्वादित्यमण्डलवर्त्यसङ्ख्यातं रूपम्। एवं श्रीविश्वरूपादिरूपान्तरेष्वपि। रूपं रूपं प्रतिरूपः [कठो.5।910] इत्यादिश्रुत्याऽयमप्यर्थो विवक्षित इति केचित्। यथा द्रक्ष्यसि; तथा करिष्यामीत्यभिप्रायेण पश्येत्युक्तिः। नानाविधानि इत्यनेन प्रत्येकंभूषणायुधलाञ्छनभुजसङ्ख्यादिप्रकारविशेषानन्त्यमत्र विवक्षितमित्याह – नानाप्रकाराणीति। अप्राकृतानीति – अत्र दिव्यशब्देन दिवि वर्तमानत्वादिकं न विवक्षितं; पृथिव्यादिव्याप्तेरपि वक्ष्यमाणत्वात्,द्रव्यवैलक्षण्यं चावश्यवक्तव्यमित्यभिप्रायः। वासुदेवादिषु चतुर्षु युगभेदेन सितरक्तपीतकृष्णरूपपरिवृत्तेरवतारान्तरेषु च तत्तत्फलार्थिध्यानानुगुण्याच्च नानावर्णत्वम्। आकृतिशब्देन सुरनरतिर्यगादिसमानसंस्थानविशेषो विवक्षित इत्यभिप्रायेणाह – नानाकाराणीति।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
11.5 The Lord said Behold My forms which are the foundation of all, hundreds upon thousands, varied and possessing manifold modes. They are divine, i.e., supernatural. They are multi-formed and multi-coloured like white, black etc. And they are of varied configurations. Behold that form!
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।11.5।। No commentary.
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
11.5 Sri Abhinavagupta did not comment upon this sloka.
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।11.5।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.,
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।11.5।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।11.5।। –,पश्य मे पार्थ; रूपाणि शतशः अथ सहस्रशः; अनेकशः इत्यर्थः। तानि च नानाविधानि अनेकप्रकाराणि दिवि भवानि दिव्यानि अप्राकृतानि नानावर्णाकृतीनि च नाना विलक्षणाः नीलपीतादिप्रकाराः वर्णाः तथा आकृतयश्च अवयवसंस्थानविशेषाः येषां रूपाणां तानि नानावर्णाकृतीनि च।।
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।11.5।। अर्जुन इस प्रकार प्रेरित हुए श्रीभगवान् बोले –, हे पार्थ तू मेरे सैकड़ोंहजारों अर्थात् अनेकों रूपोंको देख; जो कि नाना प्रकारके भेदवाले और दिव्य अर्थात् देवलोकमें होनेवाले – अलौकिक हैं तथा नाना प्रकारके वर्ण और आकृतिवाले हैं अर्थात् जिनके नील; पीत आदि नाना प्रकारके वर्ण और अनेक आकारवाले अवयव हैं; ऐसे रूपोंको देख।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
11.5 O son of Prtha, pasya, behold; me, My; rupani, forms; satasah, in (their) hundreds; atha, and; sahasrasah, in thousands, i.e. in large numbers. And they are nana-vidhani, of different kinds; divyani, celestial, supernatural; and nana-varna-akrtini, of various colours and shapes-forms which have different (nana) colours (varna) such as blue, yellow, etc. as also (different) shapes (akrtayah), having their parts differently arranged.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।11.5।। अर्जुनमतिभक्तं सखायं प्रार्थितप्रतिश्रवणेनाश्वासयितुमाह – एवमिति।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।11.5।। एवमत्यन्तभक्तेनार्जुनेन प्रार्थितः सन् श्रीभगवानुवाच – पश्येति। अत्र क्रमेण श्लोकचतुष्टयेऽपि पश्येत्यावृत्त्यात्यद्भुतरूपाणि दर्शयिष्यामि त्वं सावधानो भवेत्यर्जुनमभिमुखीकरोति भगवान्। शतशोऽथ सहस्रश इत्यपरिमितानि। तानि च नानाविधान्यनेकप्रकाराणि दिव्यान्यत्यद्भुतानि नाना विलक्षणा वर्णा नीलपीतादिप्रकारास्तथा आकृतयश्चावयवसंस्थानविशेषा येषां तानि नानावर्णाकृतीनि च मम रूपाणि पश्य। अर्हे लोट्। द्रष्टुमर्हो भव हे पार्थ।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।11.5।। एवं प्रार्थितः सन् भगवानुवाच – पश्येति। शतश इत्यादिनानन्तानीत्युक्तम्। नानावर्णानि नानाकृतीनि च।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।11.5।। एवं प्रेरितो भगवानुवाच। पश्य मम शतशोऽथ सहस्त्रशः असंख्यातानि रुपाणि नानाविधानि अनेकप्रकारणि दिव्यानि अप्राकृतानि नाना नीलपीतादिप्रकारा वर्णस्तथा आकृतयोऽवयवसन्निवेशविशेषा येषां तानि यतस्त्वं पृथापुत्रः मम प्रेमास्पदः सखा अतः पश्येत द्योतयन् संबोधयति हे पार्थेति।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।11.5।। एवं प्रार्थितः सन्नद्भुतमक्षरस्वरूपं दर्शयिष्यन्सावधानो भव इत्येवं अर्जुनमभिमुखीकरोति पश्येतिचतुर्भिः। पश्य मे पार्थ रूपाणि इति कूटस्थत्वादक्षरे स्वरूपे बहूनि रूपाणि सन्तीति बहुवचनम्।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।11.5।। एवं प्रार्थितः सन् तद्रूपं दर्शयिष्यन्नर्जुनं सावधानं करोति भगवान् – पश्येत्यादिचतुर्भिः। हे पार्थ भक्तपुत्र कृपया दर्शयामीति सम्बोधनम्। अन्यथा पुरुषोत्तमदर्शनतोऽन्यदर्शनेच्छायामेतद्रसानुभवमपि न कारयेदिति भावः। मे मम शतशः सहस्रशः असङ्ख्यातानि; शतशः सहस्रशः यावदिच्छसि तावद्वा; नानाविधानि नानाफलकारकाणि रूपाणि यस्य नानाविधान्यपि दिव्यानि अलौकिकानि क्रीडात्मकानि; न तु प्रदर्शनार्थमेव कृतानि च पुनः तथैव नानावर्णाकृतीनि नाना अनेके वर्णाः शुक्ललोहितादयः आकृतयः अवयवादिविशेषाश्च येषां तानि।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।11.5।। एवं प्रार्थितः सन्नत्यद्भुतं रूपं दर्शयिष्यन्सावधानो भवेत्येवमर्जुनमभिमुखीकरोति – श्रीभगवानुवाच। पश्येति चतुर्भिः। रूपस्यैकत्वेऽपि नानाविधत्वाद्रूपाणीति बहुवचनम्। अपरिमितान्यनेकप्रकाराणि देव्यान्यलौकिकानि मम रूपाणि पश्य। वर्णाः शुक्लकृष्णादयः। आकृतयोऽवयवसन्निवेशविशेषाः। नाना अनेकवर्णा आकृतयश्च येषां तानि नानावर्णाकृतीनि।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।11.5।। यदि समस्त आभूषण का मूल तत्त्व स्वर्ण है; तो विश्व का प्रत्येक आभूषण समष्टि स्वर्ण में उपलब्ध होना चाहिए। आभूषण में स्वर्ण को देखना अपेक्षत सरल है; क्योंकि वह इन्द्रियों के द्वारा किया जाने वाला दर्शन; है अर्थात् वह इन्द्रियगोचर है। परन्तु नाना आकार प्रकार तथा वर्णों के समस्त आभूषणों को समष्टि स्वर्ण में देख पाना अधिक कठिन है; क्योंकि वह बुद्धि द्वारा दिया जाने वाला दर्शन है अर्थात बुद्धिगम्य दर्शन है। इस बात को ध्यान में रखकर भगवान् के कथन को पढ़ने पर उनका अभिप्राय स्वत स्पष्ट हो जाता है। मेरे शतश और सहस्रश नाना प्रकार आकार तथा वर्णों के अलौकिक रूपों को देखो। भगवान् श्रीकृष्ण को अपना विराट् स्वरूप धारण करने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि अर्जुन को केवल इतना ही करना था कि अपने समक्ष स्थित रूप को वह देखे। परन्तु दुर्भाग्य से; द्रष्टव्य रूप को देखने के लिए उपयुक्त दर्शन का उपकरण उसके पास नहीं था; और इसलिए; अर्जुन उन सबको नहीं देख सका; जो भगवान् श्रीकृष्ण में पहले से ही विद्यमान था। सुदूर स्थित कोई नक्षत्र या किसी अन्य वस्तु को देखने के लिए दूरदर्शी यन्त्र का उपयोग किया जाता है। परन्तु उस यन्त्र की अक्षरेखा पर होने मात्र से वह वस्तु दिखाई नहीं दे सकती। उसे देखने के लिये दूरदर्शी यन्त्र को समायोजित करना पड़ता है; जिससे कि वह वस्तु सूक्ष्म निरीक्षक के दृष्टिपथ में आ जाये। इसी प्रकार श्रीकृष्ण ने स्वयं को विराट् रूप में परिवर्तित नहीं किया; परन्तु अर्जुन को केवल आन्तरिक समायोजन करने में सहायता प्रदान की जिससे कि वह भगवान् श्रीकृष्ण में विद्यमान विश्वरूप का अवलोकन कर सके। इसीलिये; भगवान् कहतें हैं कि; देखो। वे इस श्लोक में उन दर्शनीय वस्तुओं को गिनाते हैं। वे दिव्य रूप कौनसे हैं अगले श्लोक में बताते हैं
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।11.5।। श्रीभगवान् ने कहा – हे पार्थ ! मेरे सैकड़ों तथा सहस्रों नाना प्रकार के और नाना वर्ण तथा आकृति वाले दिव्य रूपों को देखो।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।11.5।। श्रीभगवान् बोले – हे पृथानन्दन ! अब मेरे अनेक तरहके, अनेक अनेक वर्णों और आकृतियोंवाले सैकड़ों-हजारों दिव्यरूपोंको तू देख।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।11.5।।व्याख्या–’**पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः’–**अर्जुनकी संकोचपूर्वक प्रार्थनाको सुनकर भगवान् अत्यधिक प्रसन्न हुए; अतः अर्जुनके लिये ‘पार्थ’ सम्बोधनका प्रयोग करते हुए कहते हैं कि तू मेरे रूपोंको देख। रूपोंमें भी तीन-चार नहीं, प्रत्युत सैकड़ों-हजारों रूपोंको देख अर्थात् अनगिनत रूपोंको देख। भगवान्ने जैसे विभूतियोंके विषय कहा है कि मेरी विभूतियोंका अन्त नहीं आ सकता, ऐसे ही यहाँ भगवान्ने,अपने रूपोंकी अनन्तता बतायी है।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
11.5. The Bhagavat said Behold, O son of Prtha, My divine forms in hundreds and in thousands and of varied nature and of varied colours and varied shapes.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
11.5 The Blessed Lord said O son of Prtha, behold My forms in (their) hundreds and in thousands, of different kinds, celestial, and of various colours and shapes.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
11.5 Lord Shri Krishna replied: Behold, O Arjuna! My celestial forms, by hundred and thousands, various in kind, in colour and in shape.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
11.5 The Lord said Behold My forms, O Arjuna, hundreds upon thousands, manifold, divine, varied in hue and shape.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
11.5 The Blessed Lord said Behold, O Arjuna, forms of Mine, by the hundreds and thousands, of different sorts, divine, and of various colours and shapes.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
11.5 पश्य behold; मे My; पार्थ O Partha; रूपाणि forms; शतशः by hundreds; अथ and; सहस्रशः by thousands; नानाविधानि of different sorts; दिव्यानि divine; नानावर्णाकृतीनि of various colours and shapes; च and.Commentary Divyani Divine supernatural.Satasah; Sahasrasah By the hundreds and thousands – countless.O Arjuna; I want you to behold the Cosmic Form. All beings and entities are there. The fat and the lean; the short and the tall; the red and the black; the active and the passive; the rich and the poor; the intelligent and the dull; the healthy and the sick; the noisy and the silent; those that are awake; those that are asleep; the beautiful and the ugly; and all grades of beings with their distinctive marks are all there. The blueness of the sky; the yellowness of the silk; the redness of the twilight; the blackness of the coal; the whiteness of the snow; and the greenness of the leaves will be seen by you. You will also behold the objects of various shapes.