(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यच् चापि सर्वभूतानां
बीजं तद् अहम् अर्जुन।
न तद् अस्ति विना यत् स्यान्
मया भूतं चराचरम्॥10.39॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।10.39।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।10.39।।सर्वभूतानां सर्वावस्थावस्थितानां तत्तदवस्थाबीजभूतं प्रतीयमानम् अप्रतीयमानं च यत् तद् अहम् एव। चराचरसर्वभूतजातं मया आत्मतया अवस्थितेन विना यत् स्यात् न तद् अस्तिअहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशायस्थितः। (गीता 10।20) इति प्रक्रमात्न तदस्ति विनायत्स्यान्मया भूतं चराचरम्। इति अत्र अपि आत्मतया अवस्थानम् एव विवक्षितम्। सर्ववस्तुजातं सर्वावस्थं मया आत्मभूतेन युक्तं स्याद् इत्यर्थः। अनेन सर्वस्य अस्य सामानाधिकरण्यनिर्देशयस्य आत्मतया अवस्थितिः एव हेतुः इति प्रकटयति।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।10.39।। सर्वभूतानां बीजम् इति न प्रधानादिमात्रमुच्यते; तस्य साक्षात्सर्वभूतबीजत्वाभावात् नापि व्रीह्यादिलक्षणं बीजं; तस्य सर्वभूतशब्दसङ्गृहीतेषु जङ्गमेष्वनन्वयात् ततश्चाविशेषेण तत्तत्कार्यावस्थद्रव्यापेक्षया तत्तत्कारणावस्थोपादानद्रव्यमात्रमिह विवक्षितमित्यभिप्रायेणाहसर्वावस्थेति। एतेन प्राकृतनैमित्तिकसृष्ट्यादेःअहमादिश्च [10।20] इत्यादिनोक्तत्वादिह नित्यसृष्टिहेतुभूततत्तद्द्रव्यशरीरकत्वेन तद्धेतुत्वमपि प्रदर्शितम्। यच्चापि इत्यनेनाभिप्रेतमाहप्रतीयमानमप्रतीयमानं चेति। अप्रतीयमानमनुमानादिवेद्यमित्यर्थः। न तदस्ति इत्यादौ स्वव्यतिरिक्तासत्त्वादिविधिपरत्वभ्रमव्युदासायाविनाभावार्थतोक्तिः उपक्रमविरोध्युपसंहारो नोदेतुमलमित्यभिप्रायेणाहभूतजातमिति। आत्मतयावस्थितेन अविनाभावमुपपादयतिअहमात्मेति। व्यतिरेकोक्तिफलितमन्वयविशेषं दर्शयतिसर्वमिति। उपक्रमोपसंहारयोरविनाभावकथनस्य भगवदभिप्रेतं प्रयोजनमाहअनेनेति। क्वचित्क्वचिद्द्रव्यव्यतिरिक्तैः सामानाधिकरण्यमपि तदाश्रयद्रव्यस्य भगवच्छरीरत्वादिति प्रागेव प्रपञ्चितमस्माभिः।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
10.39 Of all beings, in whatever condition they may exist, whether manifest or not, I alone am that state. Whatever host of beings are said to exist, they do not exist without Me as their Self. In the statement, ‘Nothing that moves or does not move exists without Me’, it is taught that the Lord exists as the Self, as said in the beginning: ‘I am the Self, seated in the hearts of all beings’ (10.20). The purport is that the entire host of beings in every state, is united with Me, their Self. By this He makes it clear that He, being the Self of all things, is the ground for His being denoted by everything in co-ordinate predication.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।10.19 – 10.42।। हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन; निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति; तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो – 41) इत्यनेनाभिधाय; पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन –,विष्टभ्याहमिदं – एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो – 42) इति। उक्तं हि – पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।। इति – RV; X; 90; 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं +++(S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ; N – विचित्ररूपै – )+++ सकलस्य +++(S;N सकलमस्य)+++ विषयतां यातीति।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
10.39 See Comment under 10.42
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।10.39।। मया विना यद्भूतं स्यात् तन्नास्ति। विश्वरूप अनन्तगते अनन्तभाग अनन्तग अनन्त अनादे इत्यादि मोक्षधर्मे [म.भा.शां.अ.338]।
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।10.39।। न तदस्ति विना इत्यत्र पदानां व्यवहितत्वादन्वयमाह – मयेति। भगवतोऽनन्तै रूपैः सर्वपदार्थव्यापित्वे प्रमाणमाह – विश्वेति। विश्वं रूपं प्रतिमा यस्यासौ विश्वरूपः। अनन्तानां गतिराश्रयोऽनन्तगतिः। अनन्ता भागा अवतारा यस्यासावनन्तभागः। अनन्तान्पदार्थान् गतः अनन्तगः। अनन्तः कालाद्यपरिच्छिन्नः।
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।10.39।। –,यच्चापि सर्वभूतानां बीजं प्ररोहकारणम्; तत् अहम् अर्जुन। प्रकरणोपसंहारार्थं विभूतिसंक्षेपमाह – न तत् अस्ति भूतं चराचरं चरम् अचरं वा; मया विना यत् स्यात् भवेत्। मया अपकृष्टं परित्यक्तं निरात्मकं शून्यं हि तत् स्यात्। अतः मदात्मकं सर्वमित्यर्थः।।
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।10.39।। हे अर्जुन सर्वभूतोंका जो बीज अर्थात् उत्पत्तिका कारण है; वह मैं हूँ। प्रकरणका उपसंहार करनेके लिये समस्त विभूतियोंका सार कहते हैं – ऐसा वह चर या अचर कोई भी भूत प्राणी नहीं है जो मेरे बिना हो। क्योंकि जो मुझसे रहित होगा वह सत्तारहित – शून्य होगा; अतः यह सिद्ध हुआ कि सब कुछ मेरा ही स्वरूप है।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
10.39 Ca, moreover; O Arjuna, yat api, whatsoever; is the bijam, seed, the source of growth ; sarva-bhutanam, of all beings; tat, that I am. As a conclusion of the topic the Lord states in brief His divine manifestations: Na tat asti bhutam, there is no thing; cara-acaram, moving or non-moving; yat, which; syat, can exist; vina maya, without Me. For whatever is rejected by Me, from whatever I withdraw Myself will have no substance, and will become a non-entity. Hence the meaning is that everything has Me as its essence.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।10.39।। जाड्यमात्रप्रतिबिम्बितं चैतन्यं बीजम्। किमिति स्थावरं जङ्गमं वा त्वदतिरेकेण न भवति तत्राह – मयेति। तस्यापि स्वरूपेण सत्त्वमाशङ्क्योक्तं – शून्यं हीति। आत्मनोऽपकर्षादित्यर्थः। मयैव सच्चिदानन्दस्वरूपेण सर्वस्य सिद्धेरित्यतःशब्दार्थः।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।10.39।। यदपि च सर्वभूतानां प्ररोहकारणं बीजं तन्मायोपाधिकं चैतन्यमहमेव। हे अर्जुन; मया विना यत्स्याद्भवेच्चरमचरं वा भूतं वस्तु तन्नास्त्येव। यतः सर्वं मत्कार्यमेवेत्यर्थः।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।10.39।। सर्वभूतानां बीजमित्यनेन सर्वभूतानि मद्विभूतिरिति दर्शितम्; तदेवोपपादयति – न तदस्तीति। मया विना भूतां किमपि नास्ति। उपादेयस्योपादानमन्तरेण स्थित्यसंभवात्।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।10.39।। बीजं प्ररोहकारणम्। एतन्मद्विभूतिज्ञानमन्तःकरणशोधकमिति सचयन्नाह – हे अर्जुनेति। प्रकृतपसंहरन्विभूतिसंक्षेपमाह – नेति। स्थावरजंगमं भूतं मयाविना यद्भवेत् तन्नास्ति मया त्यक्तस्य निरात्मकस्य शून्यत्वापत्तेर्मदात्मकं सर्वमित्यर्थः।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।10.39।। यच्चापीति। अन्यत् किं वाच्यं मया विना किमपि नास्तीत्याह – न तदस्ति विना मयेति। मत्प्रकृतिद्वयकार्यभूततया तथेति भावः।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।10.39।। यदिति। यत्सर्वभूतानां बीजमुत्पत्तिकारणं तदपि अहमेव। अपिशब्देन योनिस्तद्रूपं चाऽहमेवेति व्यञ्जितम्। यत् चराचरं भूतं तज्जातं तन्मया विना किञ्चिन्नास्ति।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।10.39।। यदिति। यदपि च सर्वभूतानां बीजं प्ररोहकारणं तदहम्। तत्र हेतुः मया विना यत्स्याद्भवेत् तच्चराचरं भूतं नास्त्येवेति।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।10.39।। मैं समस्त भूतों का बीज हूँ स्थूल विषयों तथा सूक्ष्म भावनाओं और विचारों के अनुभूयमान जगत में आत्मा के स्वरूप; स्थान एवं कार्य को दर्शाने वाले उपर्युक्त वर्णनात्मक वाक्यों तथा उपमाओं के द्वारा निरन्तर यह सूचित किया गया है कि आत्मा ही सम्पूर्ण सृष्टि का स्रोत है। भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से; महर्षि व्यास; इस सारभूत सत्य को बारम्बार विविध प्रकारों से प्रतिपादित कराते हैं; जिससे कि गीता का कोई मन्दबुद्धि विद्यार्थी भी इसकी उपेक्षा न कर सके। साधकों को मननचिन्तन करने के लिए बीज और वृक्ष का दृष्टान्त एक अक्षय विषय है। भूमि में बीजारोपण करने के पश्चात् अनुकूल परिस्थितियों में बीज में स्थित अव्यक्त जीवन तत्त्व स्वत व्यक्त हो सकता है। वह अंकुरित बीज शीघ्र ही विकसित होकर कल्पनातीत ऊँचाई का वृक्ष बन जाता है; और तत्पश्चात् ऐसा प्रतीत हो सकता है; मानो उस वृक्ष का अपने कारणभूत बीज से कोई संबंध ही न हो। निरन्तर होने वाले परिवर्तन रूपी घन के प्रहारों से शोकाकुल हुए; केवल अनित्य जगत् को देखने वाले पुरुषों को ही सम्भवत; इस संसार में सृष्टि के कारणभूत दिव्य; अनन्त आनन्दस्वरूप सत्य का स्मरण कराने वाली कोई वस्तु ही दिखाई नहीं देती है। विश्व की बीजावस्था; बीज में वृक्ष की अव्यक्त अवस्था के तुल्य है। अनुकूल परिस्थितियों को पाकर बीज से अंकुर फूटकर ऊपर की ओर तने का रूप ले लेता है; और उसी प्रकार भूमि के अन्दर उसका मूल उतनी गहराई तक पहुँचता है। नाम और रूपमय यह सम्पूर्ण विश्व जब अपनी अव्यक्त अवस्था में होता है; तब वह उपनिषदों के अनुसार; प्रलय की स्थिति कहलाती है। यह समष्टि प्रलय का सिद्धांत व्यष्टि की दृष्टि से विचार करने पर बुद्धिगम्य हो जाता है। हमारी सुषुप्ति अवस्था में; हमारे व्यक्तिगत स्वभाव; चरित्र; क्षमता; शिक्षा; संस्कृति; सद्व्यवहार आदि सब अव्यक्त स्थिति में विद्यमान रहते हैं। संक्षेप में; निद्रावस्था में हमारे व्यक्तित्व की विशेषताएं बीजाव्ास्था में रहती हैं। विश्राम काल के अन्तराल के बाद; जब ये वासनाएं स्वयं को व्यक्त करने के लिए अधीर हो उठती हैं; तब यदि अनुकूल परिस्थितियां प्राप्त हो जायें; तो वे पूर्णरूप से व्यक्त होती हैं। इसी प्रकार; समष्टि मन की विश्राम की अवस्था में सम्पूर्ण जीवों की वासनाओं के साथ यह विश्व बीजावस्था में विद्यमान रहता है। यह एक अत्यन्त सुन्दर एवं तत्त्वबोधक उदाहरण हमारे प्राचीन ऋषियों ने दिया है। गर्भावस्था से; कालान्तर में अनुकूल परिस्थितियों में; यह अव्यक्त सृष्टि व्यक्त होती है और उसकी इस प्रथम अभिव्यक्ति को ऋषियों ने सुन्दर नाम दिया है हिरण्यगर्भ। इस अपूर्व और अद्भुत शब्द का पाश्चात्य विद्वानों ने गोल्डन एग अर्थात् स्वर्णअण्ड कहकर अनुवाद करके अनजाने ही हमारे धर्मशास्त्र की निन्दा की है और; इस प्रकार; उसके सौन्दर्य को भी कलुषित कर दिया है। वस्तुत; इस शब्द का अर्थ है; चराचर जगत् का गर्भ। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण समष्टि कारण शरीर अर्थात् समस्त प्राणियों की वासनाओं के साथ तादात्म्य करके; सर्वज्ञ ईश्वर के रूप में कहते हैं कि वे वह महान् बीज हैं; जिससे यह संसार वृक्ष फलीभूत हुआ है तथा भविष्य में भी असंख्य बार ऐसा ही होता रहेगा। लौकिक अनुभव यह है कि बीज से वृक्ष की उत्पत्ति होने की प्रक्रिया में स्वत बीज का नाश हो जाता है। अत; भगवान् के कथन से गीता का कोई विद्यार्थी यह न समझ ले कि इस विश्व की उत्पत्ति में स्वयं भगवान् नष्ट हो जाते हैं इस प्रकार की विपरीत धारणा की निवृत्ति के लिए; श्रीकृष्ण कहते हैं; ऐसा कोई चर या अचर भूत नहीं है; जो मेरे बिना रहता है। परमात्मा का बीजत्व ऐसे ही है; जैसे समुद्र तरंगों का बीज है। तरंगों की उत्पत्ति और विकास समुद्र से भिन्न स्थान पर नहीं होते। जहाँ समुद्र नहीं; वहाँ तरंगों का भी अस्तित्व नहीं हो सकता। उसी प्रकार; असंख्य तरंगों की उत्पत्ति में स्वयं समुद्र कभी नष्ट नहीं होता। यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उस अविद्या से प्रकट होता है; जो मानों सत्य को आच्छादित कर देती है। इस अविद्या का अस्तित्व और उसकी भ्रमोत्पादक शक्ति ये दोनों ही प्रक्षेपित जगत् के स्रोतभूत ब्रह्म में ही स्थित होते हैं। यह आत्म अज्ञान ही सृष्टि का कारण है। चैतन्य आत्मा के बिना यह अविद्या और अविद्याजनित हमारे संसार के दुख प्रकाशित नहीं होते और हमें उनका भान तक नहीं होता। जैसे तरंगों का जनक; धारक और पोषक जल ही है; वैसे ही चैतन्य आत्मा इस संसार वृक्ष का जनक और पोषक है। यदि हमसे यह कहा जाता है कि कोई दस आभूषण स्वर्ण से बने हैं तथा स्वर्ण के बिना उनका अस्तित्व नहीं हो सकता है; तो स्पष्ट है कि वर्तमान में भी वे आभूषण स्वर्ण रूप ही हैं। इसी प्रकार; भगवान् यहाँ कहते हैं कि वे इस संसार बीज के वृक्ष हैं इस आंशिक कथन में वे इस बात को भी जोड़ते हैं कि मेरे बिना कोई भूतवस्तु नहीं रह सकती। इसलिए यह विश्व भगवत्स्वरूप ही है। अब तक किये गये सम्पूर्ण विवेचन का उपसंहार; भगवान् अगले तीन श्लोकों में करते हैं
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।10.39।। हे अर्जुन ! जो समस्त भूतों की उत्पत्ति का बीज (कारण) है, वह भी में ही हूँ, क्योंकि ऐसा कोई चर और अचर भूत नहीं है, जो मुझसे रहित है।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।10.39।। हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज है, वह बीज मैं ही हूँ; क्योंकि मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।10.39।।**व्याख्या–‘यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदमहर्जुन’–**यहाँ भगवान् समस्त विभूतियोंका सार बताते हैं कि सबका बीज अर्थात् कारण मैं ही हूँ। बीज कहनेका तात्पर्य है कि इस संसारका निमित्त कारण भी मैं हूँ और उपादान कारण भी मैं हूँ अर्थात् संसारको बनानेवाला भी मैं हूँ और संसाररूपसे बननेवाला भी मैं हूँ। भगवान्ने सातवें अध्यायके दसवें श्लोकमें अपनेको ‘सनातन बीज’, नवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें ‘अव्यय बीज’ और यहाँ केवल ‘बीज’ बताया है। इसका तात्पर्य है कि मैं ज्योंकात्यों रहता हुआ ही संसाररूपसे प्रकट हो जाता हूँ और संसाररूपसे प्रकट होनेपर भी मैं उसमें ज्यों-का-त्यों व्यापक रहता हूँ।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
10.39. Further, O Arjuna, I am that which is the seed of all beings; there is no being, whether moving or non-moving, that could exist without Me.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
10.39 Moreover, O Arjuna, whatsoever is the seed of all beings, that I am. There is no thing moving or non-moving which can exist without Me.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
10.39 I am the Seed of all being, O Arjuna! No creature moving or unmoving can live without Me.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
10.39 I am also that which is the seed of all beings, O Arjuna. Nothing that moves or does not move, exists without Me.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
10.39 And whatever is the seed of all beings, that also am I, O Arjuna; there is no being, whether moving or unmoving, that can exist without Me.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
10.39 यत् which; च and; अपि also; सर्वभूतानाम् among all beings; बीजम् seed; तत् that; अहम् I; अर्जुन O Arjuna; न not; तत् that; अस्ति is; विना without; यत् which; स्यात् may be; मया by Me; भूतम् being; चराचरम् moving or unmoving.Commentary I am the primeval seed from which all creation has come into existence. I am the seed of everything. I am the Self of everything. Nothing can exist without Me. Everything is of My nature. I am the essence of everything. Without Me all things would be mere void. I am the soul of everything.