(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
महर्षीणां भृगुर् अहं
गिराम् अस्म्य् एकम् अक्षरम्।
यज्ञानां जप-यज्ञो ऽस्मि
स्थावराणां हिमालयः॥10.25॥+++(5)+++
(सं) मूलम् ...{Loading}...
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।10.25।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।10.25।। महर्षीणां मरीच्यादीनां भृगुः अहम् अर्थाभिधायिनः शब्दा गिरः; तासाम् एकम् अक्षरं प्रणवः अहम् अस्मि यज्ञानाम् उत्कृष्टः जपयज्ञः अस्मि; पर्वतमात्राणां हिमवान् अहम्।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।10.25।। देवर्षीणां मुनीनाम् [10।2637] इत्यादेर्वक्ष्यमाणत्वादत्र महच्छब्देन विशेषणाच्चमहर्षीणाम् इति ऋषिगणविशेषो विवक्षित इत्यभिप्रायेणमरीच्यादीनामित्युक्तम्। गिराम् इति न शब्दमात्रं विवक्षितम् समुद्रघोषादिषु तत्प्रयोगाभावात्। अत एव नाक्षरमात्रम्अक्षराणामकारोऽस्मि [10।33] इति पृथग्वक्ष्यमाणत्वाच्च। तत एवएकमक्षरम् इत्यप्यकारव्यतिरिक्तविषयम्। ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म [8।13] इत्यादिषु प्रणवेऽप्येकशब्दविशेषितोऽक्षरशब्दः प्रयुक्त इत्यभिप्रायेणाह – अर्थाभिधायिन इति। अर्थाभिधायिषु प्रणवस्योत्कर्षः सर्वोत्कृष्टार्थाभिधायित्वादिना शङ्कुना पर्णानामिव सर्वासां वाचां प्रणवेन सन्तृण्णत्वश्रुतेश्च [छां.उ.2।23।3] यज्ञेषु जपयज्ञस्य प्राशस्त्यमन्यत्र सिद्धंविधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणैः [मनुः2।85] इति। किञ्चकुर्याद्धृतपशुं (वापि) कुर्यात्पिष्टपशुं तथा। न त्वेव तु वृथा हन्तुं पशुमिच्छेत्क(दाचन) थञ्चन [मनुः5।37] इतिपशुयज्ञैः कथं हिंस्रैर्मादृशो यष्टुमर्हति। हिंसात्मकैस्तु किं तस्य यज्ञैः कार्यं महात्मनः। प्रस्वापे च प्रबोधे च पूजितो येन केशवः इत्यादिवचनबलादहिंसात्मकयज्ञानर्हाणां हिंसात्मकयज्ञानुज्ञानम्। तत्रापि विधितः प्रवृत्तेः अपकारानभिसन्धानादुपकारश्रुतेर्देवताप्रीणनत्वाच्च न प्रत्यवायः। फलार्थिनां तु तत्फलमल्पमस्थिरं दुःखमिश्रं च। अहिंसात्मकास्तु यज्ञा विशिष्टाधिकारिसाध्याः भगवतोऽतिप्रीणनत्वादपवर्गप्रत्यासन्नाः। अत एव ह्युपरिचरादयः पिष्टपशुभिरिष्टवन्तः। एवमितरेषु यज्ञेषु हिंसादिप्रसङ्गोऽधिकारिविशेषादिना विषयव्यवस्थापनमित्यादिर्महान् क्लेशः जपयज्ञे तु तत्प्रसङ्गाभावादव्याक्षेपेणार्थप्रतीत्या सबीजयोगद्वारा समाधौ सहसा निवेशनाच्च यज्ञान्तरेभ्यो जपयज्ञः प्रशस्ततमः सर्वाश्रमसाधारण्यात्जप्ये(नैव) नापि तु संसिद्ध्येद्ब्राह्मणो नात्र संशयः। कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते [मनुः2।87] इति विधुरादेरपि सिद्धिहेतुत्वाच्च। पर्वतविशेषाणां पूर्वमुक्तत्वात् (23) वृक्षाणां वक्ष्यमाणत्वाच्च (26) तदुभयव्यवच्छेदार्थं हिमवतः शैलराजत्वप्रसिद्ध्यनुरोधार्थं चोक्तंपर्वतमात्राणामिति।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
10.25 Of great seers like Marici etc., I am Bhrgu. Words are sounds that convey meaning. Of such words, I am the single-lettered word Pranava (Or Om). Of the sacrifices, I am the sacrifice of Japa (sacred formula silently repeated) which is the most prominent form of sacrificial offerings. Of immovables or mountains, I am the Himalaya.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।10.19 – 10.42।। हन्त ते कथयिष्यामीत्यादि जगत्स्थित इत्यन्तम्। अहमात्मा (श्लो. 20) इत्यनेन,व्यवच्छेदं वारयति। अन्यथा स्थावराणां हिमालय इत्यादिवाक्येषु हिमालय एव भगवान् नान्य इति व्यवच्छेदेन; निर्विभागत्वाभावात् ब्रह्मदर्शनं खण्डितम् अभविष्यत्। यतो यस्याखण्डाकारा व्याप्तिस्तथा चेतसि न उपारोहति; तां च [यो] जिज्ञासति तस्यायमुपदेशग्रन्थः। तथाहि उपसंहारे ( उपसंहारेण) भेदाभेदवादं,यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वम् (श्लो – 41) इत्यनेनाभिधाय; पश्चादभेदमेवोपसंहरति अथवा बहुनैतेन – विष्टभ्याहमिदं – एकांशेन जगत् स्थितः (श्लो – 42) इति। उक्तं हि – पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।। इति – RV; X; 90; 3प्रजानां सृष्टिहेतुः सर्वमिदं भगवत्तत्त्वमेव तैस्तेर्विचित्रै रूपैर्भाव्यमानं +++(S तत्त्वमेतैस्तैर्विचित्रैः रूपैः ; N – विचित्ररूपै – )+++ सकलस्य +++(S;N सकलमस्य)+++ विषयतां यातीति।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
10.25 See Comment under 10.42
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।10.25।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।10.25।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।10.25।। –,महर्षीणां भृगुः अहम्। गिरां वाचां पदलक्षणानाम् एकम् अक्षरम् ओंकारः अस्मि। यज्ञानां जपयज्ञः अस्मि; स्थावराणां स्थितिमतां हिमालयः।।
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।10.25।। महर्षियोंमें मैं भृगु हूँ; वाणीसम्बन्धी भेदोंमें – पदात्मक वाक्योंमें एक अक्षर – ओंकार हूँ; यज्ञोंमें जपयज्ञ हूँ और स्थावरोंमें अर्थात् अचल पदार्थोंमें हिमालय नामक पर्वत हूँ।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
10.25 Maharsinam, among the great sages, I am Bhrgu, Giram, of words, of utterances, in the form of words; I am the ekam, single; aksaram, syllable Om. Yajnanam, among rituals; I am the japa-yajnah, rituals of Japa. Sthavaranam, of the immovables, I am the Himalaya.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।10.25।। एकमित्योंकारस्य ब्रह्मप्रतीकत्वेन तदभिधानत्वेन च प्रधानत्वमुच्यते। जपयज्ञस्य यज्ञान्तरेभ्यो हिंसादिराहित्येन प्राधान्यमुपेत्याह – यज्ञानामिति। शिखरवतामुच्छ्रितानां पर्वतानां मध्ये मेरुरहमित्युक्तेऽपि स्थितिशीलानां तेषामेव हिमवान्पर्वतराजोऽस्मीत्यर्थभेदं गृहीत्वाह – स्थितिमतामिति।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।10.25।। महर्षीणां सप्त ब्रह्मणां मध्ये भृगुरतितेजस्वित्वादहम्। गिरां वाचां पदलक्षणानां मध्ये एकमक्षरं पदमोंकारोऽहमस्मि। यज्ञानां मध्ये जपयज्ञो हिंसादिदोषशून्यत्वेनात्यन्तशोधकोऽहमस्मि। स्थावराणां स्थितिमतां मध्ये हिमालयोऽहम्। शिखरवतां मध्ये हि मेरुरहमित्युक्तमतः स्थावरत्वेन शिखरवत्त्वेन चार्थभेदाददोषः।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।10.25 – 10.26।। एकमक्षरमोंकाराख्यम्। जपयज्ञो हिंसाशून्यत्वात्। स्थावराणां स्थितिमताम्।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।10.25।। गिरां वाक्यपदलक्षणानां एकमक्षरर्मोकारोऽस्मि। स्थावराणां स्थितिमताम्।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।10.25।। महर्षीणामिति। भृगुरहं ब्रह्मानन्दजनको भक्तिनिर्द्धारकश्चेत्यतो मद्विभूतिः। अक्षरमेकं सर्वबीजं प्रणवरूपोऽस्मि।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।10.25।। महर्षीणां सर्ववेदात्मको भृगुरस्मि। गिरां पदात्मकानां मध्ये एकाक्षरम् कारात्मकमहमस्मि। यज्ञानां कर्मणां मध्ये जपयज्ञोऽस्मि। स्थावराणामचलानां हिमालयोऽस्मि।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।10.25।। महर्षीणामिति। गिरां वाचां पदात्मिकानां मध्य एकमक्षरमोंकाराख्यं पदमस्मि। यज्ञानां श्रौतस्मार्तानां मध्ये जपरूपो यज्ञोऽहमस्मि।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।10.25।। मैं महर्षियों में भृगु हूँ इसी अध्याय में बताये हुए सप्तऋषियों में भृगु ऋषि प्रमुख हैं। भृगु मनु के पुत्र माने गये हैं जो मानव धर्मशास्त्र का वर्णन करते हैं। मैं शब्दों में एकाक्षर ओंकार हूँ शब्द अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए ध्वनि के संकेतक हैं। एक वक्ता अपने मन के भावों को शब्दों के द्वारा व्यक्त कर उन्हीं भावों को श्रोताओं के मन में उत्पन्न करता है। इस प्रकार; टमाटर शब्द एक पदार्थ का संकेतक है; जिसके उच्चारण से टमाटर से परिचित लोगों के मन में समान आकार की वृत्ति उत्पन्न होती है। यदि वक्ता यह पाता है कि इस शब्द के उच्चारण से श्रोताओं को अर्थ का बोध नहीं हुआ है; तो फिर वह अनेक वाक्यों के द्वारा उस वस्तु का वर्णन करके अर्थ बोध कराता है। जिस सीमा तक वह वक्ता; टमाटर के रूप; रंग; स्वाद और अन्य गुणों के संबंध में श्रोता के मन में चित्र को स्पष्ट करेगा; उस सीमा तक श्रोताओं को उसके प्रतिपाद्य विषय का ज्ञान होगा। इस प्रकार; सामान्यत कोई भी भाषा ऐसे शब्दों से पूर्ण होती है; जो हमारे अनुभवों और विचारों को व्यक्त कर सकती है और अन्यों को बोध कराने में सहायक होती है। यदि सामान्य शब्द किसी लौकिक परिच्छिन्न वस्तु को दर्शाता है; तो ऋषियों ने एक ऐसे शब्द की कल्पना की जो नित्य वस्तु का सूचक या वाचक हो। वह शब्द है ; जिसे ओंकार या प्रणव भी कहते हैं। वेदमन्त्रों में प्रणवमन्त्र महानतम है तथा आध्यात्मिक जगत् में आज तक साधकों के ध्यान के लिए आलम्बन के रूप में इस शब्द प्रतीक का उपयोग किया जाता है। मैं यज्ञों में जपयज्ञ हूँ जप एक सार्वभौमिक आध्यात्मिक साधना है। किसी एक मन्त्र के जप की सहायता से साधक अपने मन में एक इष्ट देवता की अखण्ड वृत्ति बनाये रखता है। कर्म भक्ति या ज्ञान के मार्ग में भी साधक का प्रयत्न यही होता है कि मन में एक सजातीय वृत्ति प्रवाह बना रहे चाहे वह कर्मकाण्ड की पूजा के द्वारा हो या ध्यान साधना से। इस प्रकार; सभी साधनाओं में; किसीनकिसी रूप में; सजातीय वृत्ति की पुनरावृत्ति का अभ्यास किया जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मन्त्र जप अपने आप में एक स्वतन्त्र साधना है; किन्तु किसीनकिसी रूप में वह अन्य साधन मार्गों का भी अन्तरतम केन्द्र है। इस प्रकार; यहाँ जपयज्ञ का प्रशंसा की गई है; क्योंकि वह सभी साधनों का केन्द्र होने के साथसाथ अपने आप में एक स्वतन्त्र साधन मार्ग भी है। अखण्ड आत्मस्मरण ही पूर्णत्व का अनुभव और बुद्धि की परम शान्तिसमाधि का क्षण है। मैं स्थावरों में हिमालय हूँ स्थावर का अर्थ है जड़; अचेतन वस्तु। पर्वत किसे कहते हैं मिट्टी और चट्टानें; पेड़ और पौधे; पशु और पक्षी जो प्रकृतिक शक्तियों के वैभव के साथ मिले होते है। जैसे सूंसूं आवाज करता हुआ तूफान; मेघों को चीर कर जाती हुई विद्युत्; शान्त घाटियों से गरजकर बहती जाती नदियाँ; शान्त झील और सरोवर; नील वर्ण आकाश व गिरि शिखरों को स्नेहपूर्वक अपने हृदयों में प्रतिबिम्बित करते निस्तब्ध जलाशय इन सबका संयुक्त रूप है पर्वत। भगवान् कहते हैं; समस्त पर्वतों में मैं हिमालय हूँ। निश्चय ही वह हिमालय को उसके विशेष गुण के कारण अधिक गौरव और दिव्य प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं। जग्ात् के सभी पर्वतों से सर्वथा विपरीत; भारत में; हिमालय के ऐसे गुप्त शिखर हैं; जहाँ बैठकर मनुष्य ने अपने विचारों की उड़ानों के द्वारा बुद्धि के परे तत्त्व का अनुभव करने के लिए अपने प्रयोग में वह सफलता पायी है; जो प्राणियों के इतिहास में उसके पूर्व किसी ने नहीं पायी थी। इससे भी सन्तुष्ट न होकर; भगवान् श्रीकृष्ण और अधिक उत्साह के साथ; अन्य सुन्दर उदाहरणों के द्वारा; अपने अनन्त वैभव को; सांसारिक बुद्धि के योद्धा मित्र अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।10.25।। मैं महर्षियों में भृगु और वाणी (शब्दों) में एकाक्षर ओंकार हूँ। मैं यज्ञों में जपयज्ञ और स्थावरों (अचलों) में हिमालय हूँ।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।10.25।। महर्षियोंमें भृगु और वाणियों-(शब्दों-) में एक अक्षर अर्थात् प्रणव मैं हूँ। सम्पूर्ण यज्ञोंमें जपयज्ञ और स्थिर रहनेवालोंमें हिमालय मैं हूँ।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।10.25।।**व्याख्या–‘महर्षीणां भृगुरहम्’–**भृगु, अत्रि, मरीचि आदि महर्षियोंमें भृगुजी बड़े भक्त, ज्ञानी और तेजस्वी हैं। इन्होंने ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश– इन तीनोंकी परीक्षा करके भगवान् विष्णुको श्रेष्ठ सिद्ध किया था। भगवान् विष्णु भी अपने वक्षःस्थलपर इनके चरणचिह्नको ‘भृगुलता’ नामसे धारण किये रहते हैं। इसलिये भगवान्ने इनको अपनी विभूति बताया है।
‘गिरामस्म्येकमक्षरम्’– सबसे पहले तीन मात्रा-वाला प्रणव प्रकट हुआ। फिर प्रणवसे त्रिपदा गायत्री, त्रिपदा गायत्रीसे वेद और वेदोंसे शास्त्र, पुराण आदि सम्पूर्ण वाङ्मय जगत् प्रकट हुआ। अतः इन सबका कारण होनेसे और इन सबमें श्रेष्ठ होनेसे भगवान्ने एक अक्षर– प्रणवको अपनी विभूति बताया है। गीतामें और जगह भी इसका वर्णन आता है जैसे –‘प्रणवः सर्ववेदेषु’ (7। 8) –‘सम्पूर्ण वेदोंमें प्रणव मैं हूँ;’‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।। ‘ (8। 13) ‘जो मनुष्य – इस एक अक्षर प्रणवका उच्चारण करके और भगवान्का स्मरण करके शरीर छोड़कर जाता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है;’‘तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः। प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्’ (17। 24) वैदिक लोगोंकी शास्त्रविहित यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ प्रणवका उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं। ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ – मन्त्रोंसे जितने यज्ञ किये जाते हैं, उनमें अनेक वस्तु-पदार्थोंकी, विधियोंकी,आवश्यकता पड़ती है और उनको करनेमें कुछ-न-कुछ दोष आ ही जाता है। परन्तु जपयज्ञ अर्थात् भगवन्नामका जप करनेमें किसी पदार्थ या विधिकी आवश्यकता नहीं पड़ती। इसको करनेमें दोष आना तो दूर रहा, प्रत्युत सभी दोष नष्ट हो जाते हैं। इसको करनेमें सभी स्वतन्त्र हैं। भिन्न-भिन्न सम्प्रदायोंमें भगवान्के नामोंमें अन्तर तो होता है, पर नामजपसे कल्याण होता है – इसको हिन्दू, मुसलमान, बौद्ध, जैन आदि सभी मानते हैं। इसलिये भगवान्ने जपयज्ञको अपनी विभूति बताया है।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
10.25. Of the great seers, I am Bhrgu; of the words, I am the Single-syllable (Om); of the sacrifices [performed with external objects], I am the sacrifice of muttering prayer; of the immovables, I am the Himalayan range.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
10.25 Among the great sages I am Bhrgu; of words I am the single syllable (Om) [Om is the best because it is the name as well as the symbol of Brahman.]. Among rituals I am the ritual of Japa [Japa, muttering prayers-repeating passages from the Vedas, silently repeating names of deities, etc. Rituals often involve killing of animals. But Japa is free from such injury, and hence the best.] of the immovables, the Himalaya.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
10.25 Of the great seers I am Bhrigu, of words I am Om, of offerings I am the silent prayer, among things immovable I am the Himalayas.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
10.25 Of the great seers, I am Bhrgu. Of words, I am the single-lettered word Om. Of sacrifices, I am the sacrifice of Japa. Of immovable things I am the Himalayas.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
10.25 Among the great sages I am Bhrigu; among words I am the one syllable (Om); among sacrifices I am the sacrifice of silent repetition; among the immovable things I am the Himalayas.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
10.25 महर्षीणाम् among the great Rishis; भृगुः Bhrigu; अहम् I; गिराम् among words; अस्मि (I) am; ऐकम् the one; अक्षरम् syllable; यज्ञानाम् among sacrifices; जपयज्ञः the sacrifice of silent repetition; अस्मि (I) am; स्थावराणाम् among immovable things; हिमालयः Himalayas.Commentary Manu has said Whatever else the Brahmana may or may not do; he attains salvation by Japa (silent repetition of a Mantra) alone.Bhrigu is one of the mindborn of the Creator.Himalaya The highest mountain range in the world.Japayajna There is neither injury nor loss in this Yajna. Therefore; it is regarded as the best of all Yajnas.