(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
पिताऽहम् अस्य जगतो
माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रम् ओंकार
ऋक् साम यजुरेव च॥9.17॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
पिताऽहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक् साम यजुरेव च।।9.17।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।9.17।।अस्य स्थावरजङ्गमात्मकस्य जगतः तत्र तत्र पितृत्वेन मातृत्वेन धातृत्वेन पितामहत्वेन च वर्तमानः अहम् एव। अत्र धातृशब्दो मातृपितृव्यतिरिक्ते उत्पत्तिप्रयोजके चेतनविशेषे वर्तते। यत् किञ्चिद् वेद वेद्यं पवित्रं पावनं तद् अहम् एव। वेदकश्च वेदबीजभूतः प्रणवः अहम् एव। ऋक्सामयजुरात्मको वेदश्च अहम् एव।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।9.17।। पिताऽहमस्य इत्यादौ न स्वस्वरूपेण पितृत्वादिकमिहोच्यते अपितु पितृत्वादिरूपेण प्रतिपन्नानां स्वान्तर्यामिकत्वम्। तथा सति हि प्रकृतसङ्गतिरित्यभिप्रायेणाहअस्येति। स्थावरेष्वपि तानि तानि कारणानीश्वरशरीराणीति तत्रापि तस्य पितृत्वादिव्यवहारः। धातृशब्दो हि स्रष्ट्टचेतनविशेषपरतया प्रसिद्धः ततश्चात्र पौनरुक्त्यमित्याशङ्क्याहअत्रेति। गोबलीवर्दन्यायादिति भावः। एकस्यैव सर्वपितृत्वाद्यभावात् प्रतिनियतप्रदर्शनायतत्रतत्रेत्युक्तम्। अत्रेति – पित्रादि समभिव्याहृतत्वादित्यर्थः। रुद्रेन्द्रादिसहपाठे हि चतुर्मुखपरतेति भावः। धात्वर्थभूतधारणादिद्वारोत्पत्तिप्रयोजकत्वम्। वेद्यत्वमात्रस्य सर्वसाधारण्यात् वेद्यपवित्रशब्दयोर्विशेषणविशेष्यभावेन अन्वयः सम्भवन्प्रतीयमानो बाधकाभावान्न त्याज्य इत्यभिप्रायेणाहयत्किञ्चिदिति। वेदनस्यानन्तरमभिधीयमानत्वात् पवित्रत्वसामर्थ्याच्चवेदवेद्यमित्युक्तम्। नपुंसकनिर्देशाद्विशेषकाभावाच्च अनुक्तसमस्तवेदवेद्यसङ्ग्रहविषयोऽयमिति ज्ञापनाययत्किञ्चिच्छब्दः। ,सङ्कोचकसंज्ञापरत्वव्युदासायपावनमित्युक्तम्। सम्प्रति सम्बन्धिनिर्देशमध्यपाताद्वेद्यप्रतिसम्बन्धिनिर्देशरूपत्वज्ञापनायवेदकश्चेत्युक्तम्। ऋक्सामयजुषां पृथगभिधानेऽपि तदनुप्रविष्टस्य प्रणवस्य पृथगुक्तिः किमभिप्रायेत्यत्राहवेदबीजभूत इति।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
9.17 Of the world consisting of mobile and immobile entities, I alone am the father, mother, creator and grandfather. Here the term Dhatr stands for one other than the parents who helps in the birth of a particular person. Whatever is known from theVedas as purifying, I alone am that. I am the Pranava, which originates knowledge and forms the seed of the Vedas. I am the Veda comprising Rk, Saman and Yajus.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।9.16 – 9.19।। ननु कर्म तावत् कारककलापव्याप्तभेदोद्रेकि कथमभिन्नं भगवत्पदं प्रापयतीति उच्यते – अहं क्रतुरिति अर्जुनेत्यनन्तम्। एकस्यैव निर्भागस्य ब्रह्मतत्त्वस्य परिकल्पित [भेदवत्] साधनाधीनं कर्म पुनरेकत्वं निर्वर्तयति क्रियायाः सर्वकारकात्मसाक्षात्कारेणावस्थाने भगवत्पदप्राप्तिं प्रत्यविदूरत्वात्। उक्तं च – सेयं क्रियात्मिका शक्तिः शिवस्य पशुवर्तिनी।
बन्धयित्री स्वमार्गस्था ज्ञाता सिद्ध्युपपादिका।। +++(Spk; III; 16)+++इति मयाप्युक्तम् – उपक्रमे यैव बुद्धिर्भावाभावानुयायिनी।
उपसंहृतिकाले सा भावाभावानुयायिनी।। इति। तत्र तत्र वितत्य विचारितचरमेतत् इतीहोपरम्यते +++(S omits इति)+++। तपाम्यहमित्यादि अद्वैतकथाप्रसङ्गेनोक्तम्।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
9.17 See Comment under 9.19
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।9.17।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।9.17।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।9.17।। –,पिता जनयिता अहम् अस्य जगतः; माता जनयित्री; धाता कर्मफलस्य प्राणिभ्यो विधाता; पितामहः पितुः पिता; वेद्यं वेदितव्यम्; पवित्रं पावनम् ओंकारः; ऋक् साम यजुः एव च।। किञ्च –,
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।9.17।। तथा –, मैं ही इस जगत्को उत्पन्न करनेवाला पिता और उसकी जन्मदात्री माता हूँ तथा मैं ही प्राणियोंके कर्मफलका विधान करनेवाला विधाता और पितामह अर्थात् पिताका पिता हूँ तथा जाननेके योग्य; पवित्र करनेवाला; ओंकार; ऋग्वेद; सामवेद और यजुर्वेद सब कुछ मैं ही हूँ।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
9.17 Asya, of this; jagatah, world; aham, I; am pita, the father; mata, the mother; dhata, ordainer, dispenser of the results of their actions to the creatures; (and the) pirtamahah, grand-father. I am the vedayam, knowable-that which has to be known; the pavitram, sanctifier; [Virtuous actions.] and the onkarah, syllable Om; eva ca, as also Rk, Sama and Yajus. [Brahman, which has to be known, is realizable through Om, regarding which fact the three Vedas are the authority. The ca (as also) is suggestive of the Atharva-veda.] Moreover,
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।9.17।। इतश्च भगवतः सर्वात्मकत्वमनुमन्तव्यमित्याह – किञ्चेति। पवित्रं पूयतेऽनेनेति व्युत्पत्त्या परिशुद्धिकारणं पुण्यं कर्मेत्याह – पावनमिति। वेदितव्ये ब्रह्मणि वेदनसाधनमोङ्कारस्तत्र प्रमाणमृगादि। चकारादथर्वाङ्गिरसो गृह्यन्ते।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।9.17।। किंच – अस्य जगतः सर्वस्य प्राणिजातस्य पिता जनयिता माता जनयित्री धाता पोषयिता तत्तत्कर्मफलविधाता वा पितामहः पितुः पिता वेद्यं वेदितव्यं वस्तु पूयतेऽनेनेति पवित्रं पावनं शुद्धिहेतुर्गङ्गास्नानगायत्रीजपादि। वेदितव्ये ब्रह्मणि वेदनसाधनमोङ्करः। नियताक्षरपादा ऋक्। गीतिविशिष्टा सैव साम। सामपदं तु गीतिमात्रस्यैवाभिधायकमित्यन्यत्। गीतिरहितमनियताक्षरं यजुः। एतत्ति्रविधं मन्त्रजातं,कर्मोपयोगि। चकारादथर्वाङ्गिरसोपि गृह्यन्ते। एवकारोऽहमेवेत्यवधारणार्थः।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।9.17।। धाता कर्मफलानां विकर्ता। वेद्यं वेदितव्यं ब्रह्म। पवित्रं पावनं तप आदिकम्।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।9.17।। किंचास्य प्रत्यक्षादिसन्निधापितस्य जगतः स्थावरजंगमात्मकस्याहं पितोत्पादयिता माता जनयित्री घाता कर्मफलस्य प्राणिभ्यो विधाता पितुः पुता पितामहः वेद्यं वेदितव्यं ब्रह्मादि तद्वेदनसाधनमपि अहमेवेत्याह – पवित्रमित्यादि। पूयतेऽनेनेति पवित्रं पावनं यज्ञदानादि। ऊँकारः प्रणवः। ऋक् ऋग्वेदः एवमग्रेऽपि। चकारादथर्वाङ्गिरसो गृह्यन्ते।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।9.17।। किञ्च ब्रह्मयज्ञे जगतो यजमानस्य पिताऽस्मि जनकः सोऽहम्। माता चाहम्। धाताऽन्वाधाता। यजमानश्चाहं ब्रह्मैव;ब्रह्मणा हुतं [4।24] इति पूर्वसूत्रितत्वात्। पितामहश्चाहं स्मार्त्ते श्राद्धे त्रयाणामुपदेशात्। तत्र वेद्यं यज्ञरूपं चाहमेव। पवित्रं शोधनं प्रायश्चित्तादिरूपमहम्। कार इति मन्त्राणामाद्युच्चार्यमाणः,प्रणवाख्योऽहम्। तत्र ऋक्साम यजुरेव च – ऋक् पादबद्धं वाक्यं; साम गीतियुक्तं वाक्यं; यजुः पादगीतिभ्यां रहितं वाक्यम्। चकारोऽथर्वाङ्गिरसां समुच्चायकः त्रयः सोऽहमेव।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।9.17।। किञ्च। अस्य जगतो मदात्मकस्य अहमेव पिता उत्पादकः। माता योनिः। धाता कर्मफलदाता। पितामहो ब्रह्मा। वेद्यं सर्वज्ञानादिसाधनैर्वेद्यवस्तु। पवित्रं पावनम्। कारः अक्षरात्मकब्रह्मबीजम्; ऋगादिः वेदत्रयात्मा।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।9.17।। किंच – पितेति। धाता कर्मफलविधाता; वेद्यं ज्ञेयं वस्तु; पवित्रं शोधकं प्रायश्चित्तात्मकं वा; ओंकारः प्रणवः; ऋग्वेदादयो वेदाश्च अहमेव; स्पष्टमन्यत्।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।9.17।। आत्मा कोई अस्पष्ट; अगोचर सत् तत्त्व नहीं कि जो भावरहित; संबंध रहित और गुण रहित हो। यह दर्शाने के लिए कि यही आत्मा ईश्वर के रूप में परम प्रेमस्वरूप है; परिच्छिन्न जगत् के साथ उसके सम्बन्धों को यहाँ दर्शाया गया है। मैं जगत् का पिता; माता; धाता और पितामह हूँ। माता; पिता और धाता इन तीनों से अभिप्राय यह है कि वह जगत् का एकमात्र कारण है और उसका कोई कारण नहीं है। यह तथ्य पितामह शब्द से दर्शाया गया है। परमात्मा स्वयं सिद्ध है। यहाँ विशेष बल देकर कहा गया है कि जानने योग्य एकमेव वस्तु (वेद्य) मैं हूँ। इस बात को सभी धर्मशास्त्रों में बारम्बार कहा गया है आत्मा वह तत्त्व है जिसे जान लेने पर; अन्य सब कुछ ज्ञात हो जाता है। आत्मबोध से अपूर्णता का; सांसारिक जीवन का और मर्मबेधी दुखों का अन्त हो जाता है। देहधारी जीव के रूप में जीने का अर्थ है; अपनी दैवी सार्मथ्य से निष्कासित जीवन को जीना। वास्तव में हम तो दैवी सार्मथ्य के उत्तराधिकारी हैं परन्तु अज्ञानवश जीव भाव को प्राप्त हो गये हैं। अपने इस परमानन्द स्वरूप का साक्षात्कार करना ही वह परम पुरुषार्थ है; जो मनुष्य को पूर्णतया सन्तुष्ट कर सकता है। सम्पूर्ण विश्व के अधिष्ठान आत्मा को वेदों में ओंकार के द्वारा सूचित किया गया है। हम अपने जीवन में अनुभवों की तीन अवस्थाओं से गुजरते हैं जाग्रत्; स्वप्न और सुषुप्ति। इन तीनों अवस्थाओं का अधिष्ठान और ज्ञाता (अनुभव करने वाला) इन तीनों से भिन्न होना चाहिए; क्योंकि ज्ञाता ज्ञेय वस्तुओं से और अधिष्ठान अध्यस्त से भिन्न होता है। इन तीनों अवस्थाओं से भिन्न उस तत्त्व को; जो इन को धारण किये हुये है; उपनिषद् के ऋषियों ने तुरीय अर्थात् चतुर्थ कहा है। इन चारों को जिस एक शब्द के द्वारा वेदों में सूचित किया गया है वह शब्द है । ओम् ही आत्मा है; जिसकी उपासना के लिए भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा श्रीमद्भागवत में वर्णित है। प्रणव के द्वारा लक्षित आत्मा ही वेद्य वस्तु है; जो पारमार्थिक सत्य है; जिसको कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष अथवा मौनरूप से वेदों में निर्देशित किया गया है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि मैं ऋग्वेद; सामवेद और यजुर्वेद हूँ। आगे कहते हैं –
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।9.17।। मैं ही इस जगत् का पिता, माता, धाता (धारण करने वाला) और पितामह हूँमैं वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ, पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।9.16 – 9.18।।****क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ। जाननेयोग्य पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत् का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।9.17।।व्याख्या–**[अपनी रुचि, श्रद्धा-विश्वासके अनुसार किसीको भी साक्षात् परमात्माका स्वरूप मानकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़ा जाय तो वास्तवमें यह सम्बन्ध सत्के साथ ही है। केवल अपने मन-बुद्धिमें किञ्चिन्मात्र भी संदेह न हो। जैसे ज्ञानके द्वारा मनुष्य सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें एक परमात्मतत्त्वको ही जानता है। परमात्माके सिवाय दूसरी किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया,आदिकी किञ्चिन्मात्र भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है – इसमें उसको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होता। ऐसे ही भगवान् विराट्रूपसे अनेक रूपोंमें प्रकट हो रहे हैं; अतः सब कुछ भगवान्-ही-भगवान् हैं– इसमें अपनेको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होना चाहिये। कारण कि ‘यह सब भगवान् कैसे हो सकते हैं;’ यह संदेह साधकको वास्तविक तत्त्वसे, मुक्तिसे वञ्चित कर देता है और महान् आफतमें फँसा देता है। अतः यह बात दृढ़तासे मान लें कि कार्य-कारणरूपे स्थूल-सूक्ष्मरूप जो कुछ देखने, सुनने, समझने और माननेमें आता है, वह सब केवल भगवान् ही हैं। इसी कार्यकारणरूपसे भगवान्की सर्वव्यापकताका वर्णन सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक किया गया है। ]
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
9.17. I am the father, the mother, the sustainer and the paternal-grandsire of this world; [I am] the sacred object of knowledge, the syullable Om, the Rk, the Saman, and the Yajus too.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
9.17 Of this world I am the father, mother, ordainer, (and the), grand-father; I am the knowable, the sancitifier, the syllable Om as also Rk, Sama and Yajus.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
9.17 I am the Father of the universe and its Mother; I am its Nourisher and its Grandfather; I am the Knowable and the Pure; I am Om; and I am the Sacred Scriptures.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
9.17 I am the father, mother, creator and grandfather of the universe. I am the purifier. I am the syllable Om and also Rk, Saman and the Yajus.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
9.17 I am the father of this world, the mother, the dispenser of the fruits of actions and the grandfather; the (one) thing to be known, the purifier, the sacred monosyllable (Om), and also the Rik-, the Sama-and the Yajur-Vedas.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
9.17 पिता father; अहम् I; अस्य of this; जगतः world; माता mother; धाता the dispenser of the fruits of actions; पितामहः grandfather; वेद्यम् the (one) thing to be known; पवित्रम् the purifier; ओंकारः the Omkara; ऋक् Rik; साम Sama; यजुः Yajus; एव also; च and.Commentary Dhata Supporter or sustainer by dispenser of the fruits of actions.Isvara or the Saguna Brahman is the father. MulaPrakriti or the primordial Nature is the mother. The pure Satchidananda Para Brahman (ExistenceKnowledgeBliss Absolute) is the grandfather.Vedyam The one thing to be known. This is the Supreme Being.Pavitram Purifier. I am of the form of a bath in the holy river Ganga and the Gayatri Japa which purify the aspirants externally and internally.Cha and. This includes the AtharvanaVeda also. (Cf.XIV.3)