(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
शुक्ल-कृष्णे गती ह्येते
जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्य् अनावृत्तिम्
अन्ययाऽऽवर्तते पुनः॥8.26॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययाऽऽवर्तते पुनः।।8.26।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।8.26।। शुक्ला गतिः अर्चिरादिका कृष्णा च धूमादिका। शुक्लया अनावृत्तिं यान्ति कृष्णया तु पुनः आवर्तन्ते। एते शुक्लकृष्णे गती ज्ञानिनां विविधानां पुण्यकर्मणां च श्रुतौ **शाश्वते मते।**तद्य इत्थं विदुर्ये चेमेऽरण्ये श्रद्धां तप इत्युपासते तेऽर्चिषमभिसंभवन्ति। (छा॰ उ॰ 5।10।1)अथ य इमे ग्रामे इष्टापूर्ते दत्तमित्युपासते ते धूममभिसम्भवन्ति (छा॰ उ॰ 5।10।3) इति।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।8.26।। उक्तमार्गद्वये श्रुतिप्रसिद्धिः प्रदर्श्यते – शुक्लकृष्णे इति श्लोकेन। अत्र शुक्लपक्षकृष्णपक्षान्वयाद्वा शुद्ध्यशुद्धिविवक्षया वा अभिमन्तृस्वरूपस्याभिमन्तव्ये आरोपादेर्वा गत्योः शुक्लकृष्णशब्दोपचारः। अत्राधिकृतवर्गद्वयविषयजगच्छब्दाभिप्रेतप्रदर्शनंज्ञानिनां विविधानां पुण्यकर्मणां चेति। इष्टापूर्ते,दत्तमित्युपासते इत्युक्ततत्तत्कर्मनिष्ठभेदानिप्रायेण विविधशब्दः। हिशब्देन श्रुतिप्रसिद्धिर्द्योतितेतिश्रुतावित्युक्तम्। शाश्वतत्वं प्रवाहरूपेणानाद्यनन्तत्वं व्यवस्थितत्वम्।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
8.26 The bright path is characterised by the terms ‘starting with light.’ The dark path is characterised by the ’terms starting with smoke.’ By the bright path a man goes to the plane of no-return, but he who goes by the dark path returns again. In the Sruti both the bright and dark paths are said to be eternal in relation to Jnanis and doers of good actions of many kinds. This is corroborated in the text: ‘Those who know this and those who worship with faith do Tapas in the forest etc., they go to the light’ (Cha. U., 5.10.1), and ‘But those who in the village perform Vedic and secular acts of a meritorious nature and the giving of alms - they pass to the smoke’ (ibid., 5.10.3).
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।8.26।। शुक्लकृष्णे इति। अनयोर्गर्त्योर्मध्यादाद्यया अनावृत्तिः मोक्षः अन्यया भोगः।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
8.26 Sukla-krsne etc. By the first of these two courses the non-return i.e., the liberation is attained, and by the other, the enjoyment [of the mundane life].
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।8.26।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।8.26।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।8.26।। –,शुक्लकृष्णे शुक्ला च कृष्णा च शुक्लकृष्णे ज्ञानप्रकाशकत्वात् शुक्ला तदभावात् कृष्णा एते शुक्लकृष्णे हि गती जगतः इति अधिकृतानां ज्ञानकर्मणोः न जगतः सर्वस्यैव एते गती संभवतः शाश्वते नित्ये संसारस्य नित्यत्वात् मते अभिप्रेते। तत्र एकया शुक्लया याति अनावृत्तिम् अन्यया इतरया आवर्तते पुनः भूयः।।
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।8.26।। शुक्ल और कृष्ण – ये दो मार्ग अर्थात् जिसमें ज्ञानका प्रकाश है – वह शुक्ल और जिसमें उसका अभाव है वह कृष्ण – ऐसे ये दोनों मार्ग जगत्के लिये नित्य – सदासे माने गये हैं क्योंकि जगत् नित्य है। यहाँ जगत्शब्दसे जो ज्ञानी और कर्मी उपर्युक्त गतिके अधिकारी हैं उन्हींको समझना चाहिये क्योंकि सारे संसारके लिये यह गति सम्भव नहीं है। उन दोनों मार्गोंमेंसे एक – शुक्लमार्गसे गया हुआ तो फिर लौटता नहीं है और दूसरे मार्गसे गया हुआ लौट आता है।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
8.26 Ete, these two; gati, courses; jagatah, of the world; which are sukla-krsne, white and black [The Northern Path (the path of the Gods), and the Southern Path (the Path of the Manes) respectively.]-white because it is a revealer of Knowlege, and black because there is absence of that (revelation); are hi, verily; mate, considered; sasvate, eternal, because the world is eternal. These two courses are possible for those who are alified for Knowledge and for rites and duties; not for everybody. This being so, ekaya, by the one, by the white one; yati, a man goes; anavrttim, to the State of Non-return; anyaya, by the other; avartate, he returns; punah, again.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।8.26।। आरोहावरोहयोरभ्यासवाचिना पुनःशब्देन संसारस्यानादित्वं सूच्यते। रात्र्यादौ मृतानां ब्रह्मविदामब्रह्मप्राप्तिशङ्कानिवृत्त्यर्थमभिमानिदेवताग्रहणाय मार्गयोर्नित्यत्वमाह – शुक्लेति। ,ज्ञानप्रकाशकत्वाद्विद्याप्राप्यत्वादर्चिरादिप्रकाशोपलक्षितत्वाच्च शुक्ला देवयानाख्या गतिस्तदभावाज्ज्ञानप्रकाशकत्वाभावाद्धूमाद्यप्रकाशोपलक्षितत्वादविद्याप्राप्यत्वाच्च कृष्णा पितृयाणलक्षणा गतिस्तयोर्गत्योः श्रुतिस्मृतिप्रसिद्ध्यर्थो हिशब्दः। जगच्छब्दस्य ज्ञानकर्माधिकृतविषयत्वेन संकोचे हेतुमाह – न जगत इति। अन्यथा ज्ञानकर्मोपदेशानर्थक्यादित्यर्थः। तयोर्नित्यत्वे हेतुमाह – संसारस्येति। मार्गयोर्यावत्संसारभावित्वे फलितमाह – तत्रेति। क्रममुक्तिरनावृत्तिः। भूयो भोक्तव्यकर्मक्षये शेषकर्मवशादित्यर्थः।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।8.26।। उक्तौ मार्गावुपसंहरति – शुक्ला अर्चिरादिगतिर्ज्ञानप्रकाशमयत्वात्। कृष्णा धूमादिगतिर्ज्ञानहीनत्वेन तमोमयत्वात्। ते एते शुक्लकृष्णे गती मार्गौ हि प्रसिद्धे सगुणविद्याकर्माधिकारिणोः जगतः सर्वस्यापि शास्त्रज्ञस्य शाश्वते अनादी मते संसारस्यानादि त्वात्। तयोरेकया शुक्लया यात्यनावृत्तिं कश्चित् अन्यया कृष्णया पुनरावर्तते सर्वोऽपि।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।8.26।। उक्तौ मार्गावुपसंहरति – शुक्लेति। शुक्ला ज्ञानहेतुत्वादर्चिरादिगतिः तदभावात्कृष्णा धूमादिगतिः। एकया शुक्लया। अन्यया कृष्णया।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।8.26।। शुक्ला ज्ञानप्रकाशहेतुत्वात्तदभावात्कृष्णा। एते शुक्लकृष्णे गती मार्गो जगतः उपासनायां कर्मणि चाधिकृतस्य,शाश्वते नित्ये अनादिरुपे मते अभिप्रेते संसारस्यानादित्वात्। तत्रैकया शुक्लया गत्या अनावृत्तिं याति अन्यया कृष्णया गत्या पुनर्भूयः आवर्तते।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।8.26।। उक्तं मार्गद्वयमुपसंहरति – शुक्लकृष्णे इति। शुक्लाऽर्चिरादिगतिः कृष्णा च धूमादिगतिः। उभयोः प्रकाशतमोमयत्वाद्भेदः।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।8.26।। एवं कालस्वरूपद्वयमुक्त्वोपसंहरति – शुक्ल इति। शुक्लकृष्णे पूर्वोक्ता शुक्ला इतरा कृष्णा एते गती ज्ञानप्रकाशकगमनात्मके जगतस्तत्तदधिकारिणः शाश्वते सनातने अनादी मते मन्मत इत्यर्थः। एकया पूर्वोक्तया अनावृत्तिं याति अन्यया कृष्णया पुनः वर्तते आवर्त्तते। अनेन प्रकारेण गमनादिना स्वरूपमत्रैव ज्ञेयमित्यर्थः।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।8.26।। उक्तौ मार्गावुपसंहरति – शुक्लेति। शुक्लाऽर्चिरादिगतिः प्रकाशमयत्वात् कृष्णा धूमादिगतिस्तमोमयत्वात्। एते गती मार्गौ ज्ञानकर्माधिकारिणो जगतः शाश्वतेऽनादी संमते संसारस्यानादित्वात्। तयोरेकया शुक्लया निवृत्तिं मोक्षं याति। अन्यथा कृष्णया तु पुनरावर्तते।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।8.26।। पूर्वोक्त देवयान और पितृयान को ही यहाँ क्रमशः शुक्लगति और कृष्णगति कहा गया है। लक्ष्य के स्वरूप के अनुसार यह उनका पुनर्नामकरण किया गया है। प्रथम मार्ग साधक को उत्थान के सर्वोच्च शिखर तक पहुँचाता है तो अन्य मार्ग परिणामस्वरूप पतन की गर्त में ले जाता है। इन्हीं दो मार्गों को क्रमशः मोक्ष का मार्ग और संसार का मार्ग माना जा सकता है। मानव की प्रत्येक पीढ़ी में जीवन जीने के दो मार्ग या प्रकार होते हैं भौतिक और आध्यात्मिक। भौतिकवादियों के अनुसार मानव की आवश्यकताएं केवल भोजन वस्त्र और गृह हैं। उनके मतानुसार जीवन का परम पुरुषार्थ वैषयिक सुखोपभोग के द्वारा शरीर और मन की उत्तेजनाओं को सन्तुष्ट करना ही है। केवल इतने से ही उनको सन्तोष हो जाता है। इससे उच्चतर तथा दिव्य आदर्श के प्रति न कोई उनकी रुचि होती है और न प्रवृत्ति। परन्तु अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाले विवेकीजन अपने समक्ष आकर्षक विषयों को देखकर लुब्ध नहीं हो जाते। उनकी बुद्धि अग्निशिखा के समान सदा उर्ध्वगामी होती है जो सतही जीवन में उच्च और श्रेष्ठ लक्ष्य की खोज में रमण करती है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये दोनों ही मार्ग सनातन हैं और अनादिकाल से इन पर चलने वाले दो भिन्न प्रवृत्तियों के लोग रहे हैं। व्यापक अर्थ की दृष्टि से इन दोनों का सम्मिलित रूप ही संसार है। परन्तु वेदान्त का सिद्धांत है कि जीव संसार दुःख से निवृत्त हो सकता है। यह ऋषियों का प्रत्यक्ष अनुभव है। एक साधक की दृष्टि से विचार करने पर इस श्लोक में सफल योगी बनने के लिए दिये गये निर्देश का बोध हो सकता है। कभीकभी साधना काल में मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण साधक विषयों की ओर आकर्षित होकर उनमें आसक्त हो जाता है। ऐसे क्षणों में न हमें स्वयं को धिक्कारने की आवश्यकता है और न आश्चर्य मुग्ध होने की। भगवान् स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य के मन में उच्च जीवन की महत्वाकांक्षा और निम्न जीवन के प्रति आकर्षण इन दोनों विरोधी प्रवृत्तियों में अनादि काल से कशिश चल रही है। धैर्य से काम लेने पर निम्न प्रवृत्तियों पर हम विजय प्राप्त कर सकते हैं। इन दो मार्गों तथा उनके सनातन स्वरूप को जानने का निश्चित फल क्या है
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।8.26।। जगत् के ये दो प्रकार के शुक्ल और कृष्ण मार्ग सनातन माने गये हैं । इनमें एक (शुक्ल) के द्वारा (साधक) अपुनरावृत्ति को तथा अन्य (कृष्ण) के द्वारा पुनरावृत्ति को प्राप्त होता है।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।8.26।। क्योंकि शुक्ल और कृष्ण – ये दोनों गतियाँ अनादिकालसे जगत्-(प्राणिमात्र-) के साथ सम्बन्ध रखनेवाली मानी गई हैं। इनमेंसे एक गतिमें जानेवालेको लौटना नहीं पड़ता और दूसरी गतिमें जानेवालेको लौटना पड़ता है।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।8.26।।**व्याख्या–‘शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते’–**शुक्ल और कृष्ण–इन दोनों मार्गोंका सम्बन्ध जगत्के सभी चर-अचर प्राणियोंके साथ है। तात्पर्य है कि ऊर्ध्वगतिके साथ मनुष्यका तो साक्षात् सम्बन्ध है और चर-अचर प्राणियोंका परम्परासे सम्बन्ध है। कारण कि चर-अचर प्राणी क्रमसे अथवा भगवत्कृपासे कभी-न-कभी मनुष्य-जन्ममें आते ही हैं और मनुष्यजन्ममें किये हुए कर्मोंके अनुसार ही ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगति होती है। अब वे ऊर्ध्वगतिको प्राप्त करें अथवा न करें, पर उन सबका सम्बन्ध ऊर्ध्वगति अर्थात् शुक्ल और कृष्ण-गतिके साथ है ही। जबतक मनुष्योंके भीतर असत् (विनाशी) वस्तुओंका आदर है, कामना है, तबतक वे कितनी ही ऊँची भोग-भूमियोंमें क्यों न चले जायँ, पर असत् वस्तुका महत्त्व रहनेसे उनकी कभी भी अधोगति हो सकती है। इसी तरह परमात्माके अंश होनेसे उनकी कभी भी ऊर्ध्वगति हो सकती है। इसलिये साधकको हरदम सजग रहना चाहिये और अपने अन्तःकरणमें विनाशी वस्तुओंको महत्त्व नहीं देना चाहिये। तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मप्राप्तिके लिये किसी भी लोकमें, योनिमें कोई बाधा नहीं है। इसका कारण यह है कि परमात्माके साथ किसी भी प्राणीका कभी सम्बन्ध-विच्छेद होता ही नहीं। अतः न जाने कब और किस योनिमें वह परमात्माकी तरफ चल दे– इस दृष्टिसे साधकको किसी भी प्राणीको घृणाकी दृष्टिसे देखनेका अधिकार नहीं है। चौथे अध्यायके पहले श्लोकमें भगवान्ने ‘योग’ को अव्यय कहा है। जैसे योग अव्यय है, ऐसे ही ये शुक्ल और कृष्ण – दोनों गतियाँ भी अव्यय, शाश्वत हैं अर्थात् ये दोनों गतियाँ निरन्तर रहनेवाली हैं, अनादिकालसे हैं और जगत्के लिये अनन्तकालतक चलती रहेंगी।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
8.26. For, these two bright and dark courses are considered to be perpetual for the world. One attains the non-return by the first of these, and one returns back by the other one.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
8.26 These two courses of the world, which are white and black, are verily considered eternal. By the one a man goes to the State of Non-return; by the other he returns again.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
8.26 These bright and dark paths out of the world have always existed. Whoso takes the former, returns not; he who chooses the latter, returns.*
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
8.26 The bright and the dark paths of the world are verily thought to be eternal; by the one (the bright path) a man goes not to return and by the other (the dark path) he returns.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
8.26 शुक्लकृष्णे bright and dark; गती (two) paths; हि verily; एते these; जगतः of the world; शाश्वते eternal; मते are thought; एकया by one; याति (he) goes; अनावृत्तिम् to nonreturn; अन्यया by another; आवर्तते (he) returns; पुनः again.Commentary The bright path is the path to the gods taken by the devotees. The dark path is of the manes taken by those who perform sacrifices or charitable acts with the expectation of rewards. These two paths are not open to the whole world. The bright path is open to the devotees and the dark one to those who are devoted to the rituals. These paths are as eternal as the Samsara.World here means devotees or people devoted to ritual.Pitriloka or Chandraloka is Svarga or heaven.