(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सर्वकर्माणि मनसा
+++(नवद्वारपुरे)+++ संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
+++(रन्ध्रगणनया)+++ नव-द्वारे +++(शरीर-)+++पुरे देही
नैव कुर्वन् न कारयन्॥5.13॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।5.13।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।5.13।। आत्मनः प्राचीन-कर्म-मूल-देह-सम्बन्ध-प्रयुक्तम् इदं कर्मणां कर्तृत्वं, न स्वरूपप्रयुक्तम्
इति विवेकविषयेण मनसा सर्वाणि कर्माणि नवद्वारे
पुरे सन्यस्य वशी देही
स्वयं देहाधिष्ठान-प्रयत्नम् अकुर्वन् देहेन
न एव कारयन् सुखम् आस्ते।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।5.13।। नैव किञ्चित्करोमि इत्यादेःफले सक्तो निबध्यते 5।12 इत्यन्तस्य सङ्कलितार्थमुत्तरश्लोकसङ्गत्यर्थमाह अत इति। अनन्तरश्लोकार्थमाहअथेति। शरीराश्रितेन्द्रियप्राणेषु कर्तृत्वसन्न्यासाभिधानादनन्तरं तदाश्रये शरीर एव कर्तृत्वसन्न्यास उच्यत इति सङ्गतिः। शरीर कर्तृत्वसन्न्यासं प्रति करणतयोक्तस्य मनसः करणीभावानुगुणव्यापारं दर्शयितुंआत्मन इत्याद्युक्तम्। नहि देवादिदेहसम्बन्धमात्रकृतं पुण्यपापकर्तृत्वं तत्सम्बन्धमात्रस्याकर्मवश्येऽपि सद्भावात् अतःप्राचीनकर्ममूलेत्युक्तम्। मुख्यैः सप्तभिरर्वाक् द्वाभ्यां चात्र नवद्वारता पुरमेकादशद्वारम् कठो.2।5।1 इति श्रुतौ तु नाभिब्रह्मरन्ध्राभ्यां सहैकादशद्वारतोक्तिः। पुरे सन्न्यस्येति पुरस्य सन्न्यसनक्रियाधिकरणत्वेनान्वयः प्रकृतानुपयुक्त इति भावः। नवद्वारे पुरे इति निर्देशःसावयवत्वनिरवयवत्वसच्छिद्रत्वनिश्छिद्रत्वपृथुत्वाणुत्वस्वतन्त्रत्वपरतन्त्रत्वनियन्तृत्वनियन्तव्यत्वादिभिर्देहात्मनो विवेकस्य प्रदर्शनार्थः। स्वयमिति देहादिपारतन्त्र्यरहित इत्यर्थः यद्वा परिशुद्धेन स्वेन रूपेणेति भावः। वशी अभिमानबलात्काराद्यविषय इत्यर्थः। प्रयत्नाश्रयत्वशरीरस्पन्दनादिहेतुत्वयोरौपाधिकत्वात्नैव कुर्वन् इत्याद्युक्तम्। सुखमास्ते कर्तृत्वाभिमानप्रयुक्तक्लेशादिरहित आस्त इत्यर्थः। पुरमिव शरीरं पौरानिवेन्द्रियाणि सार्वभौममिव परमात्मानं भृत्यमिव स्वात्मानं पश्यतो भवति हि स्वास्थ्यम्। देहात्मभ्रमे हि पुरादिष्वासीनोऽहमिति मन्यते तन्निवृत्तौ च देह एव पुरस्थानीयो भवतीति भावः।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
5.13 The embodied self who is self-controlled, renounces all actions to the city of nine gates, i.e., the body with its sensory and motor functions which are nine in number. He discriminates that all actions are due to conjunction of the self with the body which is rooted in previous Karmas, and is not by Its own nature. [It means that the self merely rests in the body, without any identification with bodily activities.] Sri Krsna now teaches the natural condition of the self as It is:
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।5.13।। सर्वेति। यथा वेश्मान्तर्गतस्य पुंसो न गृहगतैर्जीर्णत्वादिभिः योगः एवं मम चक्षुरादिच्छिद्रगवाक्षनवकालंकृतदेहगेहगतस्य न तद्धर्मयोगः।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
5.13 Sarva - etc. [He would view as] : ‘Just as for a person within a house there is no connection with dilapidation etc., that are found in the house, in the same way for me too residing in the body-house beautified with nine windows in the form of openings like the eyes etc., there is no connection with its attributes.’ For -
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।5.13।। पुनः सन्न्यासशब्दार्थं स्पष्टयति सर्वकर्माणीति। मनसेति विशेषणादभिमानत्यागः।
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।5.13।। सर्वकर्माणि इत्यस्य स्वरूपेण कर्मत्यागोऽर्थ इति प्रतीतिनिवारणाय प्रतिपाद्यमाह पुनरिति। प्राक्कर्तृत्वाभिमानत्याग उक्तः इदानीं तु कारयितृत्वाभिमानत्यागोऽपीति स्पष्टनम्। स्वरूपेण कर्मत्याग एवोच्यत इत्येतन्निराचष्टे मनसेति। अन्यथा तद्व्यर्थं स्यादिति भावः।
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।5.13।। सर्वाणि कर्माणि सर्वकर्माणि संन्यस्य परित्यज्य नित्यं नैमित्तिकं काम्यं प्रतिषिद्धं च तानि सर्वाणि कर्माणि मनसा विवेकबुद्ध्या कर्मादौ अकर्मसंदर्शनेन संत्यज्येत्यर्थः आस्ते तिष्ठति सुखम्। त्यक्तवाङ्मनःकायचेष्टः निरायासः प्रसन्नचित्तः आत्मनः अन्यत्र निवृत्तसर्वबाह्यप्रयोजनः इति सुखम् आस्ते इत्युच्यते। वशी जितेन्द्रिय इत्यर्थः। क्व कथम् आस्ते इति आह नवद्वारे पुरे। सप्त शीर्षण्यानि आत्मन उपलब्धिद्वाराणि अवाग् द्वे मूत्रपुरीषविसर्गार्थे तैः द्वारैः नवद्वारं पुरम् उच्यते शरीरम् पुरमिव पुरम् आत्मैकस्वामिकम् तदर्थप्रयोजनैश्च इन्द्रियमनोबुद्धिविषयैः अनेकफलविज्ञानस्य उत्पादकैः पौरैरिव अधिष्ठितम्। तस्मिन् नवद्वारे पुरे देही सर्वं कर्म संन्यस्य आस्ते किं विशेषणेन सर्वो हि देही संन्यासी असंन्यासी वा देहे एव आस्ते तत्र अनर्थकं विशेषणमिति। उच्यते यस्तु अज्ञः देही देहेन्द्रियसंघातमात्रात्मदर्शी स सर्वोऽपि गेहे भूमौ आसने वा आसे इति मन्यते। न हि देहमात्रात्मदर्शिनः गेहे इव देहे आसे इति प्रत्ययः संभवति। देहादिसंघातव्यतिरिक्तात्मदर्शिनस्तु देहे आसे इति प्रत्ययः उपपद्यते। परकर्मणां च परस्मिन् आत्मनि अविद्यया अध्यारोपितानां विद्यया विवेकज्ञानेन मनसा संन्यास उपपद्यते। उत्पन्नविवेकज्ञानस्य सर्वकर्मसंन्यासिनोऽपि गेहे इव देहे एव नवद्वारे पुरे आसनम् प्रारब्धफलकर्मसंस्कारशेषानुवृत्त्या देह एव विशेषविज्ञानोत्पत्तेः। देहे एव आस्ते इति अस्त्येव विशेषणफलम् विद्वदविद्वत्प्रत्ययभेदापेक्षत्वात्।।
यद्यपि कार्यकरणकर्माणि अविद्यया आत्मनि अध्यारोपितानि संन्यस्यास्ते इत्युक्तम् तथापि आत्मसमवायि तु कर्तृत्वं कारयितृत्वं च स्यात् इति आशङ्क्य आह नैव कुर्वन् स्वयम् न च कार्यकरणानि कारयन् क्रियासु प्रवर्तयन्। किं यत् तत् कर्तृत्वं कारयितृत्वं च देहिनः स्वात्मसमवायि सत् संन्यासात् न संभवति यथा गच्छतो गतिः गमनव्यापारपरित्यागे न स्यात् तद्वत् किं वा स्वत एव आत्मनः न अस्ति इति अत्र उच्यते न अस्ति आत्मनः स्वतः कर्तृत्वं कारयितृत्वं च। उक्तं हि अविकार्योऽयमुच्यते (गीता 2.25) शरीरस्थोऽपि न करोति न लिप्यते (गीता 13.31) इति। ध्यायतीव लेलायतीव (बृ0 उ₀ 4.34) इति श्रुतेः।। किञ्च
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।5.13।। परंतु जो यथार्थ ज्ञानी है वह ( वशी जितेन्द्रिय पुरुष ) समस्त कर्मोंको मनसे छोड़कर अर्थात् नित्य नैमित्तिक काम्य और निषिद्ध इन सब कर्मोंको कर्मादिमें अकर्मदर्शनरूप विवेकबुद्धिके द्वारा त्यागकर सुखपूर्वक स्थित हो जाता है। मन वाणी और शरीरकी चेष्टाको छोड़कर परिश्रमरहित प्रसन्नचित्त और आत्मासे अतिरिक्त अन्य सब बाह्य प्रयोजनोंसे निवृत्त हुआ ( वह ) सुखपूर्वक स्थित होता है ऐसे कहा जाता है। वशी जितेन्द्रिय पुरुष कहाँ और कैसे रहता है सो कहते हैं नौ द्वारवाले पुरमें रहता है। अभिप्राय यह कि दो कान दो नेत्र दो नासिका और एक मुख शब्दादि विषयोंको उपलब्ध करनेके ये सात द्वार शरीरके ऊपरी भागमें हैं और मलमूत्रका त्याग करनेके लिये दो नीचेके अङ्गमें हैं इन नौ द्वारोंवाला शरीर पुर कहलाता है। शरीर भी एक पुरकी भाँति पुर है जिसका स्वामी आत्मा है उस आत्माके लिये ही जिनके सब प्रयोजन हैं एवं जो अनेक फल और विज्ञानके उत्पादक हैं उन इन्द्रिय मन बुद्धि और विषयरूप पुरवासियोंसे जो युक्त है उस नौ द्वारवाले पुरमें देही सब कर्मोंको छोड़कर रहता है। पू₀ इस विशेषणसे क्या सिद्ध हुआ संन्यासी हो चाहे असंन्यासी सभी जीव शरीरमें ही रहते हैं। इस स्थलमें विशेषण देना व्यर्थ है। उ₀ जो अज्ञानी जीव शरीर और इन्द्रियोंके संघातमात्रको आत्मा माननेवाले हैं। वे सब घरमें भूमिपर या आसनपर बैठता हूँ ऐसे ही माना करते हैं क्योंकि देहमात्रमें आत्मबुद्धियुक्त अज्ञानियोंको घरकी भाँति शरीरमें रहता हूँ यह ज्ञान होना सम्भव नहीं। परंतु देहादिसंघातसे आत्मा भिन्न है ऐसा जाननेवाले विवेकीको मैं शरीरमें रहता हूँ यह प्रतीति हो सकती है। तथा निर्लेप आत्मामें अविद्यासे आरोपित जो परकीय ( देहइन्द्रियादिके ) कर्म हैं उनका विवेकविज्ञानरूप विद्याद्वारा मनसे संन्यास होना भी सम्भव है। जिससे विवेकविज्ञान उत्पन्न हो गया है ऐसे सर्वकर्मसंन्यासीका भी घरमें रहनेकी भाँति नौ द्वारवाले शरीररूप पुरमें रहना प्रारब्धकर्मोंके अवशिष्ट संस्कारोंकी अनुवृत्तिसे बन सकता है क्योंकि शरीरमें ही प्रारब्धफलभोगका विशेष ज्ञान होना सम्भव है। अतः ज्ञानी और अज्ञानीकी प्रतीतिके भेदकी अपेक्षासे देहे एव आस्ते इस विशेषणका फल अवश्य ही है। यद्यपि कार्य करण और कर्म जो अविद्यासे आत्मामें आरोपित हैं उन्हें छोड़कर रहता है ऐसा कहा है तथापि आत्मासे नित्य सम्बन्ध रखनेवाले कर्तापन और करानेकी प्रेरकता ये दोनों भाव तो उस ( आत्मा ) में रहेंगे ही। इस शङ्कापर कहते हैं स्वयं न करता हुआ और शरीरइन्द्रियादिसे न करवाता हुआ अर्थात् उनको कर्मोंमें प्रवृत्त न करता हुआ ( रहता है )। पू₀ जैसे गमन करनेवालेकी गति गमनरूप व्यापारका त्याग करनेसे नहीं रहती वैसे ही आत्मामें जो कर्तृत्व और कारयितृत्व हैं वह क्या आत्माके नित्य सम्बन्धी होते हुए ही संन्याससे नहीं रहते अथवा स्वभावसे ही आत्मामें नहीं हैं उ₀ आत्मामें कर्तृत्व और कारयितृत्व स्वभावसे ही नहीं हैं क्योंकि यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। हे कौन्तेय यह आत्मा शरीरमें स्थित हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है। ऐसा कह चुके हैं एवं ध्यान करता हुआसा क्रिया करता हुआसा। इस श्रुतिसे भी यही सिद्ध होता है।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
5.13 Aste, he continues; sukham, happily; sannyasya, having given up; sarva-karmani, all actions-nitya, naimittika, kamya and nisiddha (prohibited actions); [See note on p. 128.-Tr.] manasa, mentally, through discriminating wisdom-i.e. having given up (all actions) by seeing inaction in action, etc. Freed from the activities of speech, mind and body, effortles, placid in mind, and devoid of all external wants which are different from the Self, he continues happily. This is what has been said. Where and how does the vasi, man of self-control, i.e. one who has his organs under control, remain; This is being answered: Nava-dvare pure, in the town with nine gates, of which seven [Two ears, two eyes nostrils, and mouth.] are in the head for one’s own experiences, and two are below for urination and defecation. As possessed of those gates, it is called the ’town with nine gates’. Being like a town, the body is called a town with the Self as its only master. And it is inhabited by the organs, mind, intellect and objects, like citizens, as it were, which serve its needs and which are productive of many results and experience. Renouncing all actions, the dehi, embodied one, resides in that town with nine gates. Objection: What is the need of this specification; For all embodied beings, be they monks or not, reside in bodies to be sure! That being so, the specification is needless. The answer is: The embodied one, however, who is unenlightened, who perceives merely the aggregate of the body and organs as the Self, he, in his totality, thinks, ‘I am in a house, on the ground, or on the seat.’ For one who experiences the body alone as the Self, there can certainly be no such conviction as, ‘I am in the body, like one’s being in a house.’ But, for one who realizes the Self as distinct from the aggregate of body etc. it becomes reasonable to have the conviction, ‘I am in the bdoy. It is reasonable that as a result of knowledge in the form of discriminating wisdom, there can be a mental renunciation of the actions of others, which have been ignorantly superimposed on the supreme Self. Even in the case of one in whom has arisen discriminating wisdom and who has renounced all actions, there can be, like staying in a house, the continuance in the body itself-the town with nine gates-as a conseence of the persistence of the remnants of the results of past actions which have started bearing fruit, because the awareness of being distinct (from the body) arises while one is in the body itself. Form the point of veiw of the difference between the convictions of the enlightened and the unenlightened persons, the alifying words, ‘He continues in the body itself’, do have a purpose to serve. Although it has been stated that one continues (in the body) by relinishing actions of the body and organs ignorantly superimposed on the Self, still there may be the apprehesion that direct or indirect agentship inheres in the Self. Anticipating this, the Lord says: na eva kurvan, without himself doing anything at all; and na karayan, not causing (others) to do, (not) inducing the body and organs to activity. Objection: Is it that the direct or indirect agentship of the embodied one inheres in the Self and ceases to be after renunciation, as the movement of a traveller ceases with the stoppage of his movement; Or, is it that they do not exist owing to the very nature of the Self; As to this, the answer is: The Self by Its nature has neither direct nor indirect agentship. For it was stated, ‘It is said that৷৷.This (Self) is unchangeable’ (2.25). ‘O son of Kunti, although existing in the body, It does not act, nor is It affected’ (13.31). And it is also stated in the Upanisad, ‘It seems to meditate, as it were; It seems to move, as it were’ (Br. 4.3.7).
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।5.13।। तर्हि फले सक्तिं त्यक्त्वा सर्वैरपि कर्तव्यमिति कर्मसंन्यासस्य निरवकाशत्वमित्याशङ्क्याऽविदुषः सकाशाद्विदुषो विशेषं दर्शयति यस्त्विति। सर्वकर्मपरित्यागे प्राप्तं मरणं व्यावर्तयति आस्त इति। वृत्तिं लभमानोऽपि शरीरतापेनाध्यात्मिकादिना तप्यमानस्तिष्ठतीति चेन्नेत्याह सुखमिति। कार्यकरणसंघातपारवश्यं पर्युदस्यति वशीति। आसनस्यापेक्षितमधिकरणं निर्दिशति नवेति। देहसंबन्धाभिमानाभासवत्त्वमाह देहीति। मनसा सर्वकर्मसंन्यासेऽपि लोकसंग्रहार्थं बहिः सर्वं कर्म कर्तव्यमिति प्राप्तं प्रत्याह नैवेति। तान्येव सर्वाणि कर्माणि परित्याज्यानि विशिनष्टि नित्यमिति। तेषां परित्यागे हेतुमाह तानीति। यदुक्तं सुखमास्त इति तदुपपादयति त्यक्तेति। जितेन्द्रियत्वं कायवशीकारस्याप्युपलक्षणम् द्वे श्रोत्रे द्वे चक्षुषी द्वे नासिके वागेकेति सप्त शीर्षण्यानि शिरोगतानि शब्दाद्युपलब्धिद्वाराणि। अथापि कथं नवद्वारत्वमधोगताभ्यां पायूपस्थाभ्यां सहेत्याह अर्वागिति। शरीरस्य पुरसाम्यं स्वामिना पौरैश्चाधिष्ठितत्वेन दर्शयति आमेत्यादिना। यद्यपि देहे जीवनत्वाद्देहसंबन्धाभिमानाभासवानवतिष्ठते तथापि प्रवासीव परगेहे तत्पूजापरिभवादिभिरप्रहृष्यन्नविषीदन्व्यामोहादिरहितश्च तिष्ठतीति मत्वाह तस्मिन्निति। विशेषणमाक्षिपति किमिति। तदनुपपत्तिमेव दर्शयति सर्वो हीति। सर्वसाधारणे देहावस्थाने संन्यस्य देहे तिष्ठति विद्वानिति विशेषणमकिंचित्करमिति फलितमाह तत्रेति। विशेषणफलं दर्शयन्नुत्तरमाह उच्यत इति। किमविवेकिनं प्रति विशेषणानर्थक्यं चोद्यते किं वा विवेकिनं प्रतीति विकल्प्याद्यमङ्गीकरोति यस्त्विति। अज्ञत्वं देहित्वेहेतुः। तदेव देहित्वं स्फुटयति देहेति। संघातात्मदर्शिनोऽपि देहे स्थितिप्रतिभासः स्यादिति चेन्नेत्याह नहीति। द्वितीयं दूषयति देहादीति। गृहादिषु देहस्यावस्थानेनात्मावस्थानभ्रमव्यावृत्त्यर्थं देहे विद्वानास्त इति विशेषणमुपपद्यते विवेकवतो देहेऽवस्थानप्रतिभाससंभवादित्यर्थः। ननु विवेकिनो देहावस्थानप्रतिभानेऽपि वाङ्मनोदेहव्यापारात्मनां कर्मणां तस्मिन्प्रसङ्गाभावात्तत्त्यागेन कुतस्तस्य देहेऽवस्थानमुच्यते तत्राह परकर्मणां चेति। ननु विवेकिनो दिगाद्यनवच्छिन्नबाह्याभ्यन्तराविक्रियब्रह्मात्मतां मन्यमानस्य कुतो देहेऽवस्थानमास्थातुं शक्यते तत्राह उत्पन्नेति। तत्र हेतुमाह प्रारब्धेति। यदि प्रारब्धफलं धर्माधर्मात्मकं कर्म तस्योपभुक्तस्य शेषादनुपभुक्ताद्देहादिसंस्कारोऽनुवर्तते तदनुवृत्त्या च तत्रैव देहे विशेषविज्ञानमवस्थानविषयमुपपद्यतेऽतो विवेकवतः संन्यासिनो देहेऽवस्थानव्यपदेशः संभवतीत्यर्थः। अविद्वत्प्रत्ययापेक्षया विशेषणासंभवेऽपि विद्वत्प्रत्ययापेक्षया विशेषणमर्थवदित्युपसंहरति देह एवेति। देहे स्वावस्थानविषयो विद्वत्प्रत्ययस्तदविषयश्चाविद्वत्प्रत्ययस्तयोरेवं भेदे विद्वत्प्रत्ययापेक्षया विशेषणमर्थवदित्युपसंहरन्नेव हेतुं विशदयति विद्वदिति। आरोपितकर्तृत्वाद्यभावेऽपि स्वगतकर्तृत्वादि दुर्वारमित्याशङ्कामनूद्य दूषयति यद्यपीत्यादिना। क्रियासु प्रवर्तयन्नास्त इति पूर्वेण संबन्धः। पूर्वस्यापि शतुरेवमेव संबन्धः। कर्तृत्वं कारयितृत्वं चात्मनो नेत्यत्र विचारयति किमिति। यत्कर्तृत्वं कारयितृत्वं च तत्किं देहिनः स्वात्मसमवायि सदेव संन्यासान्न भवतीत्युच्यते यथा गच्छतो देवदत्तस्य स्वगतैव गतिस्तत्स्थित्या त्यागान्न भवत्यथ वा स्वारस्येन कर्तृत्वं कारयितृत्वं चात्मनो नास्तीति वक्तव्यमाद्ये सक्रियत्वं द्वितीये कूटस्थत्वमित्यर्थः। द्वितीयं पक्षमाश्रित्योत्तरमाह अत्रेति। उक्तेऽर्थे वाक्योपक्रममनुकूलयति उक्तं हीति। तत्रैव वाक्यशेषमपि संवादयति शरीरस्थोऽपीति। स्मृत्युक्तेऽर्थे श्रुतिमपि दर्शयति ध्यायतीवेति। उपाधिगतैव सर्वा विक्रिया नात्मनि स्वतोऽस्तीत्यर्थः।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।5.13।। अशुद्धचित्तस्य केवलात्संन्यासात्कर्मयोगः श्रेयानिति पूर्वोक्तं प्रपञ्च्याधुना शुद्धचित्तस्य सर्वकर्मसंन्यास एव श्रेयानित्याह नित्यं नैमित्तिकं काम्यं प्रतिषिद्धं चेति सर्वाणि कर्माणि मनसाकर्मण्यकर्म यः पश्येत् इत्यत्रोक्तेनाकर्त्रात्मस्वरूपसम्यग्दर्शनेन संन्यस्य परित्यज्य प्रारब्धकर्मवशादास्ते तिष्ठत्येव। किं दुःखेन नेत्याह सुखमनायासेन आयासहेतुकायवाङ्मनोव्यापारशून्यत्वात्। कायवाङ्मनांसि स्वच्छन्दानि कुतो न व्याप्रियन्ते तत्राह वशी स्ववशीकृतकार्यकरणसंघातः। क्वास्ते। नवद्वारे पुरे। द्वे श्रोत्रे द्वे चक्षुषी द्वे नासिके वागेकेति शिरसि सप्त द्वे पायूपस्थाख्ये अध इति नवद्वारविशिष्टे देहे। देही देहभिन्नात्मदर्शी प्रवासीव परगेहेतत्पूजापरिभवादिभिरप्रहृष्यन्नविषीदन्नहंकारममकारशून्यस्तिष्ठति। अज्ञो हि देहतादात्म्याभिमानाद्देह एव नतु देही। सच देहाधिकरणमेवात्मनोऽधिकरणं मन्यमानो गृहे भूमावासने वाहमास इत्यभिमन्यते नतु देहेऽहमास इति भेददर्शनाभावात्। संघातव्यतिरिक्तात्मदर्शी तु सर्वकर्मसंन्यासी भेददर्शनाद्देहेऽहमास इति प्रतिपद्यते। अतएव देहादिव्यापाराणामविद्ययात्मन्यक्रिये समारोपितानां विद्यया बाधएव सर्वकर्मसंन्यास इत्युच्यते। एतस्मादेवाज्ञवैलक्षण्याद्युक्तं विशेषणं नवद्वारे पुर आस्त इति। ननु देहादिव्यापाराणामात्मन्यारोपितानां नौव्यापाराणां तीरस्थवृक्ष इव विद्यया बाधेऽपि स्वव्यापारेणात्मनः कर्तृत्वं देहादिव्यापारेषु कारयितृत्वं च स्यादिति नेत्याह नैव कुर्वन्न कारयन् आस्त इति संबन्धः।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।5.13।। एवमविद्वान्फलासक्त्यनासक्तिवशात्कर्मभिर्बध्यते न बध्यते चेत्युक्तम् विद्वांस्तु तद्विपरीत इत्याह सर्वकर्माणीति। वशी जितचित्तः समाधिस्थो योगी नवद्वारे नवैव पञ्चज्ञानेन्द्रियाणि षष्ठः प्राणस्तेनैव तत्प्रवर्त्यानां कर्मेन्द्रियाणां संग्रहः। बुद्ध्यहंकारचित्तानीति नव। एतानि द्वाराणीव पुरपतेर्जीवस्य भोगार्थं विषयप्रवेशस्थानानि यस्मिन्नवद्वारे शरीराख्ये पुरे विचित्रवासनाकल्पितानन्तविषयवति अनेकैः कर्मसचिवैरधिष्ठिते सुखदुःखादिनानापण्यवति मनसा सर्वद्वारोद्धाटनकुञ्चिकया सह सर्वाणि कर्माणि पुरपतिरिव राजकार्याणि संन्यस्य सुखं निर्विकल्पसंविन्मात्ररूपेणास्ते। कर्माणि क्षेत्रस्यैव धर्मो नत्वात्मन इति क्षेत्रे त्यक्तुं शक्यान्येव। तथाच श्रुतिःशरीरे पाप्मनो हित्वा इति। यत्र सुहार्दः सुकृतो मदन्ते विहाय रोगं तन्वा्ँस्वायाम् इति च। देही सन् देहाभिमानकाले। व्युत्थानेऽपीत्यर्थः। तदापि नैव कुर्वन्नास्ते नापि कारयन्नास्ते राजेवामात्येषु निहितभारः। समाधौ क्षेत्रेण सहात्मनः संबन्धाभावदर्शनात्। यद्वा नवद्वाराणि चक्षुःश्रोत्रनासाबिलद्वन्द्वानि षट् सप्तमं मुखं अधस्तने द्वे इति। अस्मिन्पक्षे इन्द्रियाणि परिचारका बुद्धिरमात्योऽहंकारो युवराज इत्यादिकमूह्यम्। विदुषः कर्मसंबन्ध एव नास्ति दूरे तत्फलासक्त्यनासक्ती इति भावः।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।5.13।। एवमशुद्धचित्तस्याविदुषः संन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यत इत्युपपादितम्। शुद्धचित्तः परमार्थदर्शी कथमास्त इत्यपेक्षायामाह सर्वेति। सर्वाणि नित्यं नैमित्तिकं काम्यं प्रतिषिद्धं चेति तानि कर्माणि मनसा विवेकबुद्य्धा कर्मादावकर्मदर्शनेन संत्यज्य सुखमास्ते दुःखहेतुसर्वव्यापारोपरभात्। यतः वशी जितेन्द्रियः। क्व आस्त इत्यत आह। नवद्वारे पुरे। द्वे श्रोत्रे नेत्रे नासिके मुखं चेति सप्त शिरसि अवाक् द्वे मूत्रपुरीषविसर्गार्थे। एवं नवद्वारयुक्ते पुरे नगरस्थानीये आत्मेकस्वामिके इन्द्रियाणि परिचारकाः बुद्धिरमात्योऽहंकारो युवराजो मनःशिल्पीत्येवंरुपैरिन्द्रियादिभिः पौरेरधिष्ठिते आस्ते। यतो देही देहाद्य्वतिरिक्तात्मदर्शी। यस्त्वज्ञः सतु देहात्मदर्शी गेहादावास्तेऽतो युक्तं विशेषणम्। यद्यप्येवं तथाप्यात्मसमवायित्वेन कर्तृत्वकारयितृत्वे तस्य स्यातामित्यत आह। नैव कुर्वन्स्वयं न च कारयन् कार्यकरणानि क्रियासु प्रवर्तयन्नास्त इति संबन्धः। यत्तु वशी विवेकवैराग्यसंपन्नो नवद्वारे पुरे मानुषे शरीरे सुखमास्त इति संबन्धः। यद्यपि नवद्वारं श्वमार्जारादिशरीरमपि भवति तथापि वशिशब्दसंयोगान्मानुषमिति लभ्यते। सुखमिति क्रियाविशेषणम्। अनेनान्तःकरणस्य हर्षशोकादयः परिणामा निराकृताः। वशीत्यत्र वैराग्योक्त्या रागाद्यपरपर्यायकामतदवस्थाविशेषक्रोधरूपावन्तःकरणपरिणामौ वारितौ। विवेकोक्त्या चाहंकारतन्निबन्धनममकाराध्यासौ चिन्तनात्मकचित्तपरिणामं च निराकृत्य विशुद्धचिदाकारतया बुद्धेरवस्थानमुक्तम्। ततश्च विशुद्धचिदाकारबुद्धिपरिणाम एव निष्कृष्टो वशिशब्देनोक्तः। किं कृत्वेत्यत आह। मनसा सह सर्वकर्माणि संन्यस्य त्यागेन ज्ञानमप्युपलक्ष्यते। ततश्च संन्यस्यात्मानं ज्ञात्वा सुखमास्त इति ज्ञेयम्। वशिनं विशिनष्टि अदेहीति। देहो लिङ्गशरीरं तद्रहितः। अयमाशयः षोडशकलात्मा हि पुरुषः। तत्र भूतेन्द्रियप्राणाः प्रवर्त्याः। प्रवर्तकमन्तःकरणम्। तच्च बुद्धिसंकल्पकतया। सर्वो हि बुद्य्धा निश्चित्य मनसा संकल्प्य प्रवर्तते। तत्र मनस्त्यागेन विज्ञानकर्मत्यागः संभवतीति क्वेदानीं लिङ्गदेहः। नहि शिरसि च्छिन्ने कबन्धो देहतां प्रतिपद्यते इति मनसेत्युक्तम्। बुद्धिस्तु सर्वाकारपरित्यागेन चिन्मात्र उपसंक्रान्ताहंकारदीनां तु कथापि विवेकेनोमन्मूलितेतीतरे व्याचख्युः। तत्रेदं वक्तव्यम् वशिशब्दयोगं विनापि सर्वकर्माणीत्यादेर्योगात् प्रकरणाच्च मानुषशरीरमेवोपलभ्यते। सर्वकर्माणि संन्यस्येत्यनेन निषिद्धादिमननरुपमानसकर्मत्यागे मनस्त्यागसिद्य्धा त्यागकरणस्यापेक्षितत्वेन च सहशब्दध्याहृत्य पृथङ्यनस्त्यागवर्तनमसंगतम्। किंच विवेकयुक्तमेव मनस्त्यागोऽतो विवेकयुक्तेन मनसा सर्वकर्माणि संन्यस्येत्येव युक्तम्। एतेन वशिशब्देन विवेकवैराग्ययुक्तत्ववर्णनं प्रत्युक्तम्। वशिशब्दस्य स्वतन्त्रवाचि त्वेन जितेन्द्रियत्वप्रतीत्या इतरोक्तार्थस्यार्थिकार्थत्वात्। यदप्यदेही लिङ्गशरीररहित इति तदपि न। भेदबोधकेनिप्रत्येन देहादितरात्मदर्शीति वर्णनस्यैव नवद्वारे पुरे आस्ते इत्यस्य योगेन स्वारसिकत्वेन प्रश्लेषेण क्लिष्टकल्पनाया अन्याय्यत्वात्। इमामेवारुचिं मनसि निधाय पक्षान्तरस्यैतद्य्वाख्यानकर्तृभिर्दर्शितत्वाच्चेति दिक्। यदप्यन्ते वशी जितचित्तः। समाधिस्थो योगी नवद्वारे नवैव पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि षष्ठः प्राणस्तेनैव तत्प्रवर्त्यानां कर्मेन्द्रियाणां संग्रहः। बुद्य्धहंकारचित्तानीति नवैतानि द्वाराणीव पुरपतेर्जीवस्य भोगार्थं विषयप्रवेशस्थानानि यस्मिन्नवद्वारे पुरे शरीराख्ये विचित्रवासनाकल्पितानन्तविषयवति अनेकैः कर्मसचिवैरधिष्ठिते सुखदुःखादिनानापण्यवति मनसा सर्वद्वारेद्धाटनकुञ्चिकया सह सर्वाणि कर्माणि पुरपतिरिव राज्यकार्याणि संन्यस्य सुखं निर्विकल्पसंविन्मात्ररुपेणास्ते इति तदपि असङ्गतमेव। चित्तस्य वृत्तिनिरोधरुपजयापेक्षया वस्त्रादित्यागवदितरत्यागाप्रसिद्य्धा मनसा सहेति सहशब्दाध्याहारेण वर्णनस्य पुनरुक्तिग्रस्तत्वात्। मृतशरीरस्य पुरस्य सत्त्वेऽपि परोक्तद्वाराणामभावेन नवद्वाराणि यस्मिन्नित्युक्तेरनुचितत्वात्। निर्विकल्पसमाधिस्थस्य भोगप्राप्तिद्वाराणां लयादहं देहाद्भिन्न इत्येतावन्मात्रभानस्याप्यभावात्। नवद्वारे पुरे आस्ते इत्यस्य वैयर्थ्यापत्तेश्चेतिदिक्।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।5.13।। अतो योगे मनसैव कर्मत्यागः बाह्यतः कर्म करणं चाभिप्रेतम् अन्यथा मिथ्याचार इति तत्त्वं स्पष्टयति सर्वकर्माणीति। योगे समभूतेन मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं यथा भवति तथा स्वयं नैव कुर्वन्मनसा त्यागात् इन्द्रियैरपि न कारयन्निति साङ्ख्याद्भेदोऽपि सूचितः।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।5.13।। एवं भगवद्भक्तो भगवदाज्ञया कर्म कुर्वन् सुखमाप्नोति अयुक्तस्तु फलाशया कर्म कुर्वन् बद्धो भवतीत्युक्तं तत्र अभक्तस्य सर्वकर्मत्याग एवोत्तम इत्यर्जुनमनस्याभासं प्राप्य त्यागेऽपि भक्तानामेव सुखं नेतरेषामित्याह सर्वकर्माणीति। वशी भगवद्वशे स्थितः सर्वकर्माणि सन्नयस्य त्यक्त्वा नवद्वारे पुरे श्रवणादिकरणसमर्थे देहे देही भगवदर्थं देहाभिमानवान् सुखमास्ते तिष्ठति। मनसा नैव कुर्वन् स्वार्थाहङ्काराभावान्न किञ्चित्कुर्वन्। न वा ममताभावादन्येभ्यः परोपकार उपदेशादिना कारयन् सुखमास्त इति भावः।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।5.13।। एवं तावच्चित्तशुद्धिशून्यस्य संन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यत इत्येतत्प्रपञ्चितम्। इदानीं शुद्धचित्तस्य संन्यासः श्रेष्ठ इत्याह सर्वकर्माणीति। वशी यतचित्तः। सर्वाणि कर्माणि विक्षेपकाणि मनसा विवेकयुक्तेन संन्यस्य सुखं यथा भवत्येवं ज्ञाननिष्ठः सन्नास्ते। क्वास्त इत्यत आह। नवद्वारे नेत्रे नासिके कर्णौ मुखं चेति सप्त शिरोगतानि अधोगते द्वे पायूपस्थरूपे इत्येवं नव द्वाराणि यस्मिंस्तस्मिन्पुरे पुरवदहंभावशून्ये देहे देही अवतिष्ठते। अहंकाराभावादेव स्वयं तेन देहेन नैव कुर्वन्ममकाराभावाच्च न कारयन्नित्यविशुद्धचित्ताद्ध्यावृत्तिरुक्ता। अविशुद्धचित्तो हि संन्यस्य पुनः करोति कारयति च। नत्वयं तथा। अतः सुखमास्त इत्यर्थः।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।5.13।। जगत् से पलायन करना संन्यास नहीं है। मिथ्या धारणाओं एवं अविवेकपूर्ण आसक्तियों का त्याग ही वास्तविक संन्यास है। जिस पुरुष की सम्पूर्ण इन्द्रियाँ एवं मन की प्रवृत्तियाँ स्वयं के वश में हैं और जिसके कर्म अहंकार और स्वार्थ से रहित होते हैं उसे ही अनिर्वचनीय आनन्द परम संतोष प्राप्त होता है। तब वह सुखपूर्वक शरीर रूपी नवद्वार नगरी में निवास करता है। नवद्वारयुक्त नगरी का रूपक उपनिषदों में प्रसिद्ध है। शरीर को उस नगरी के समान माना गया है जो प्राचीन काल में किलों की प्राचीर के अन्दर बसायी गयी होता थी। इस शरीर रूपी नगरी के नवद्वार हैं दो आँखें दो नासिका छिद्र दो कान मुँह जननेन्द्रिय तथा गुदेन्द्रिय। इस शरीर में जीवन व्यापार सुचारु रूप से चलने के लिए इनमें से समस्त अथवा अधिकांश द्वारों का होना आवश्यक है। जैसे एक राजा किले में रहकर अपने मंत्रियों द्वारा शासन करता है तब उसकी परिस्थिति मात्र से अधिकारीगण प्रेरणाशक्ति और अनुमति प्राप्त कर अपनाअपना कार्य करते है इसी प्रकार चैतन्य आत्मा स्वयं अकर्ता रहते हुये भी उसके केवल सान्निध्य से समस्त ज्ञानेन्द्रयाँ एवं कर्मेन्द्रियां स्वव्यापार मे व्यस्त रहती हैं। इस प्रसिद्ध रूपक का प्रयोग करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि संयमी एवं तत्त्वदर्शी पुरुष शरीर में सुख से रहते हुए उपाधियों के कार्य देखता रहता है परन्तु स्वयं न कर्म करता है और न उपाधियों से करवाता है। और
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।5.13।। सब कर्मों का मन से संन्यास करके संयमी पुरुष नवद्वार वाली शरीर रूप नगरी में सुख से रहता हुआ न कर्म करता है और न करवाता है।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।5.13।। जिसकी इन्द्रियाँ और मन वशमें हैं, ऐसा देहधारी पुरुष नौ द्वारोंवाले शरीररूपी पुरमें सम्पूर्ण कर्मोंका विवेकपूर्वक मनसे त्याग करके निःसन्देह न करता हुआ और न करवाता हुआ सुखपूर्वक (अपने स्वरूपमें) स्थित रहता है।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
5.13।।**व्याख्या–‘वशी देही’–**इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें ममता-आसक्ति होनेसे ही ये मनुष्यपर अपना अधिकार जमाते हैं। ममता-आसक्ति न रहनेपर ये स्वतः अपने वशमें रहते हैं। साङ्ख्ययोगीकी इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिमें ममता-आसक्ति न रहनेसे ये सर्वथा उसके वशमें रहते हैं। इसलिये यहाँ उसे ‘वशी’ कहा गया है।
जबतक किसी भी मनुष्यका प्रकृतिके कार्य (शरीर, इन्द्रियों आदि) के साथ किञ्चिन्मात्र भी कोई प्रयोजन रहता है, तबतक वह प्रकृतिके ‘अवश’ अर्थात् वशीभूत रहता है–‘कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः’ (गीता 3। 5)। प्रकृति सदैव क्रियाशील रहती है। अतः प्रकृतिसे सम्बन्ध बना रहनेके कारण मनुष्य कर्मरहित हो ही नहीं सकता। परन्तु प्रकृतिके कार्य स्थूल, सूक्ष्म और कारण–तीनों शरीरोंसे ममता-आसक्तिपूर्वक कोई सम्बन्ध न होनेसे साङ्ख्ययोगी उनकी क्रियाओंका कर्ता नहीं बनता। यद्यपि साङ्ख्ययोगीका शरीरके साथ किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं होता, तथापि लोगोंकी दृष्टिमें वह शरीरधारी ही दीखता है। इसलिये उसे **‘देही’**कहा गया है।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
5.13. Having renounced all actions by mind, a man of self-control, dwells happily in his body, a nine-win-dowed mansion, neither performing, nor causing others to perform [actions].
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
5.13 The embodied man of self-control, having given up all actions mentally, continues happily in the town of nine gates, without doing or causing (others) to do anything at all.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
5.13 Mentally renouncing all actions, the self-controlled soul enjoys bliss in this body, the city of the nine gates, neither doing anything himself nor causing anything to be done.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
5.13 The embodied self, mentally resigning all actions as belonging to the city of nine gates (i.e., the body) and becoming self-controlled, dwells happily, neither himself acting nor causing the body to act.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
5.13 Mentally renouncing all actions and self-controlled, the embodied one rests happily in the nine-gated city, neither acting nor causing others (body and senses) to act.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
5.13 सर्वकर्माणि all actions; मनसा by the mind; संन्यस्य having renounced; आस्ते rests; सुखम् happily; वशी the selfcontrolled; नवद्वारे in the ninegated; पुरे in the city; देही the embodied; न not; एव even; कुर्वन् acting; न not; कारयन् causing to act.Commentary All actions – (1) Nitya Karmas These are obligatory duties. Their performance does not produce any merit but their nonperformance produces demerit. Sandhyavandana; etc.; belong to this category.(2) Naimittika Karmas These Karmas are performed on the occurrence of some special events such as the birth of a son; eclipse; etc.(3) Kamya Karmas These are optional. They are intended for the attainment of some special ends (for getting rain; son; etc.)(4) Nishiddha Karmas These are forbidden actions such as theft; drinking liour; etc.(5) Prayaschitta Karmas Actions performed to neutralise the effects of evil actions or sins.The man who has controlled the senses renounces all actions by discrimination; by seeing inaction in action and rests happily in this body of nine openings (the ninegated city); because he is free from cares; worries; anxieties and fear and his mind is ite calm and he enjoys the supreme peace of the Eternal. In this ninegated city the Self is the king. The senses; the mind; the subconscious mind; and the intellect are the inhabitants or subjects.The ignorant wordly man says; I am resting in the easychair. The man of wisdom who has realised that the Self is distinct from the body which is a product of the five elements; says; I am resting in this body. (Cf.XVIII.17;50)