(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
धूमेनाव्रियते वह्निर्
यथा ऽऽदर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्
तथा तेनेदम् आवृतम्॥3.38॥+++(5)+++
(सं) मूलम् ...{Loading}...
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथाऽऽदर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।3.38।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।3.38।।यथा धूमेन वह्निः आव्रियते यथा च आदर्शो मलेन यथा च उल्बेन आवृतो गर्भः तथा तेन कामेन इदं जन्तुजातम् आवृतम्। आवरणप्रकारम् आह
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।3.38।। वैरित्वप्रकार उच्यते धूमेनेति। तत्र यथेत्यन्तमेकं वाक्यम्। आदर्शो मलेन च इत्यत्र चकाराद्यथाशब्दोऽनुषक्त इति व्यञ्जनाययथा धूमेनेत्युक्तम्। पूर्वस्मिन् श्लोके क्रोधस्यापि कामावस्थान्तरत्वव्यपदेशादुत्तरत्र चकामरूपेणकामरूपम् 3।43 इति तस्यैवानुवृत्तेरत्रापि तच्छब्देन काम एव परामृश्यत इति व्यञ्जनायतेन कामेनेत्युक्तम्। इदमिति सामान्यनिर्देशेऽप्यचिद्ग्रहणासम्भवात्सर्वक्षेत्रज्ञग्रहणौचित्यादिदंशब्दस्य वक्ष्यमाणपरत्वादपि लोकप्रतीतिपरत्वस्वारस्याच्चयया क्षेत्रज्ञशक्तिः सा वेष्टिता इत्यादिवत् क्षेत्रज्ञानामावरणमिहोच्यत इत्यभिप्रायेणोक्तंइदं जन्तुजातमिति। जन्तुशब्देन शरीरित्वस्य विवक्षितत्वादावरणार्हत्वं दर्शितम्। नपुंसकनिर्देशस्य सामान्यविषयत्वेप्रदर्शनाय जातशब्दः। अनादिवासनानुबन्धित्वेन सहजत्वं निवृत्तस्यापि पुनः पुनरुपाधिवशादागमं स्वेच्छया निवर्तयितुमशक्यत्वं च दर्शयितुं दृष्टान्तत्रयोपादानम्।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
3.38 As a fire is enveloped by smoke, as a mirror by dust and as an embryo by the membrance, so are the embodied beings covered by this desire. Sri Krsna teaches the mode of this envelopement:
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।3.38।। धूमेनेति। दृष्टान्तत्रयेण दुरुपसर्गत्वम् +++(K दुरुपसर्पत्वम्)+++ अकार्यकरत्वं जुगुप्सास्पदत्वं च उक्तम्। अयमिति आत्मा।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
3.38 Dhumena etc. [The foe’s tripple nature viz.] being a mischivous appendage, himself creating mischieves, and being an object of disgust, is explained by the triad of these similes. He : the Self.
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।3.38।। कथं विरोधी सः इदमनेनावृतम्। यथा धूमेनाग्निरावृतः प्रकाशरूपोऽप्यन्येषां न सम्यग्दर्शनाय तथा परमात्मा। यथाऽऽदर्शो मलेनावृतोऽन्याभिव्यक्तिहेतुर्न भवति तथाऽन्तःकरणं परमात्मादेर्व्यक्तिहेतुर्न भवति कामेनावृतम्। यथोल्बेनावृत्य बद्धो भवति गर्भः तथा कामेनावृतो जीवः।
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।3.38।। ननु प्रश्नस्योत्तरं जातं किमुत्तरेण इत्यतः श्लोकद्वयस्य सङ्गतिमाह कथमिति। स कामः कथं मोक्षस्य विरोधी इति जिज्ञासायामाह धूमेनेत्यादिनेति शेषः। विवक्षितार्थस्यास्फुटत्वात् व्याख्याति इदमिति। ईश्वरान्तःकरणजीवलक्षणं वस्तुत्रयम्। केन किमिव इत्याकाङ्क्षायामाद्यं पादत्रयं व्याचष्टे यथेति। परमात्मा कामेनावृतः स्वयं सर्वज्ञोऽप्यन्यैर्न ज्ञायत इति शेषः। अन्यस्य मुखादेः। परमात्मादेः इत्यादिपदेन जीवो गृह्यते। बन्धापेक्षयाऽऽवरणस्य समानकर्तृकत्वम्। बद्धः सङ्कुचितो व्यापाराक्षम इति यावत्। उल्बो गर्भवेष्टनम्। कामेनावृतो जीवो नेश्वरादिज्ञाने क्षम इत्यर्थः।
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।3.38।। धूमेन सहजेन आव्रियते वह्निः प्रकाशात्मकः अप्रकाशात्मकेन यथा वा आदर्शो मलेन च यथा उल्बेन च जरायुणा गर्भवेष्टनेन आवृतः आच्छादितः गर्भः तथा तेन इदम् आवृतम्।। किं पुनस्तत् इदंशब्दवाच्यं यत् कामेनावृतमित्युच्यते
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।3.38।। यह काम किस प्रकार वैरी है सो दृष्टान्तोंसे समझाते हैं जैसे प्रकाशस्वरूप अग्नि अपने साथ उत्पन्न हुए अन्धकाररूप धूएँसे और दर्पण जैसे मलसे आच्छादित हो जाता है तथा जैसे गर्भ अपने आवरणरूप जेरसे आच्छादित होता है वैसे ही उस कामसे यह ( ज्ञान ) ढका हुआ है।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
3.38 Yatha, as; vahnih, fire, which is naturally bright; avriyate, is enveloped; dhumena, by smoke, which is born concomitantly (with fire) and is naturally dark; or as adarsah, a mirror; is covered malena, by dirt; ca, and; garbhah, a foetus; is avrtah, enclosed; ulbena, in the womb by the amnion; tatha, so; is idam, this; avrtam, shrouded; tena, by that. Again, what is that which is indicated by the word idam (this), and which is covered by desire; The answer is:
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।3.38।। उत्तरश्लोकमवतारयति कथमिति। अनेकदृष्टान्तोपादानं प्रतिपत्तिसौकर्यार्थम्। सहजस्य धूमस्य प्रकाशात्मकवह्निं प्रत्यावरकत्वसिद्ध्यर्थं विशिनष्टि अप्रकाशात्मकेनेति।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।3.38।। तस्य महापाप्मत्वेन वैरित्वमेव दृष्टान्तैः स्पष्टयति तत्र शरीरारम्भात्प्रागन्तःकरणस्यालब्धवृत्तिकत्वात्सूक्ष्मः कामः शरीरारम्भकेण कर्मणा स्थूलशरीरावच्छिन्ने लब्धवृत्तिकेऽन्तःकरणे कृताभिव्यक्तिः सन् स्थूलो भवति स एव विषयस्यचिन्त्यमानतावस्थायां पुनःपुनरुद्रिच्यमानः स्थूलतरो भवति स एव पुनर्विषयस्य भुज्यमानतावस्थायामत्यन्तोद्रेकं प्राप्तः स्थूलतमो भवति। तत्र प्रथमावस्थायां दृष्टान्तां यथा धूमेन सहजेनाप्रकाशात्मकेन प्रकाशात्मको वह्निराव्रियते। द्वितीयावस्थायां दृष्टान्तः यथादर्शो मलेनासहजेनादर्शोत्पत्त्यनन्तरमुद्रिक्तेन। चकारोऽवान्तरवैधर्म्यसूचनार्थः आव्रियत इति क्रियानुकर्षणार्थश्च। तृतीयावस्थायां दृष्टान्तः यथोल्बेन जरायुणा गर्भवेष्टनचर्मणातिस्थूलेन सर्वतो निरुध्यावृतः तथा प्रकारत्रयेणापि तेन कामेनेदमावृतम्। अत्र धूमेनावृतोऽपि बह्निर्दाहादिलक्षणं स्वकार्यं करोति। मलेनावृतस्त्वादर्शः प्रतिबिम्बग्रहणलक्षणं स्वकार्यं न करोति स्वच्छताधर्ममात्रतिरोधानात्। स्वरूपतस्तूपलभ्यतएव। उल्बेनावृतस्तु गर्भो न हस्तपादादिप्रसारणरूपं स्वकार्यं करोति न वा स्वरूपत उपलभ्यत इति विशेषः।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।3.38।। अस्य वैरित्वमेव विवृणोति धूमेनेत्यादिना। उल्बेन गर्भवेष्टनेन जरायुणा। तेन कामेन इदं वक्ष्यमाणं ज्ञानमावृतम्। आवरणीयस्य त्रैविध्यात्तदनुगुणं दृष्टान्तत्रयं ज्ञेयम्।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।3.38।। तस्य शत्रुत्वं स्पष्टयति। यथा धूमेन सहजेनाप्रकाशात्मकेनाग्निः प्रकाशात्मको यथावाऽऽदर्शो मलेनाव्रियते यथोल्बेन गर्भवेष्टनेन जरायुणा गर्भ आच्छादितस्तथा तेन कामेनेदं ज्ञानमावृतम्। प्रथमदृष्टान्तेनात्मस्वरुपप्रकाशात्मकत्वं द्वितीयेन यथावद्विषयस्वरुपप्रतिभानात्मकत्वं तृतीयेनोहापोहात्मकत्वं ज्ञानस्यावृतिमिति बोध्यम्।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।3.38।। कामस्य वैरित्वमाह धूमेनेति। आर्द्रेन्धनसंयोगजोपधिभूतेनैव सहजेन मलेनागन्तुकेन वा उल्बेन सर्वत आच्छादकेन गर्भवेष्टनचर्मणा गर्भ इवावृतं कामेन जगत्।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।3.38।। यतोऽयं वैरी ततोऽस्य ज्ञानमावर्त्तयति तेन मोहो भवतीत्याह धूमेनेति त्रयेण। यथा धूमेन वह्निराव्रियते मलेन आदर्श आब्रियते उल्बेन गर्भावेष्टनेन गर्भ आवृतः तथा तेन कामेन इदं ज्ञानमावृतम्। अत्र दृष्टान्तेषु वह्न्यादित्रयनिरूपणस्यायं भावः पूर्वदृष्टान्तेन भगवत्तापात्मकं ज्ञानं व्यज्यते द्वितीयेन सेवायोग्यस्वस्वरूपप्राप्तिरूपं ज्ञानं व्यज्यते तृतीयेन बीजभावोत्पत्त्यात्मकज्ञानं व्यज्यते।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।3.38।। कामस्य वैरित्वं दर्शयति धूमेनेति। यथा धूमेन सहजेन वह्निराव्रियत आच्छाद्यते यथा वाऽऽदर्शो मलेनागन्तुकेन यथा चोल्बेन गर्भवेष्टनचर्मणा गर्भः सर्वतो निरुध्यावृतः तथा प्रकारत्रयेणापि तेन कामेनावृतमिदम्।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।3.38।। यहाँ तीन दृष्टान्त यह समझाने के लिये दिये गये हैं कि किस प्रकार काम और क्रोध हमारे विचार की सार्मथ्य को आवृत कर देते हैं। शास्त्रों में इसे पुनरुक्ति दोष माना गया है। किन्तु गीता में यह दोष नहीं मिलता। भगवद्गीता में कहीं पर भी अनावश्यक या निरर्थक पुनरुक्ति नहीं है। इसे ध्यान में रखकर इस श्लोक को समझने का प्रयत्न करें तो ज्ञात होगा कि यहाँ दिये तीनों दृष्टान्तों में सूक्ष्म भेद है। वाच्यार्थ से कहीं अधिक अर्थ इस श्लोक में बताया गया है। जगत् की अनित्य वस्तुओं के साथ आसक्ति के कारण मनुष्य की विवेचन सार्मथ्य आच्छादित हो जाती है। हमारी आसक्तियाँ अथवा इच्छाएँ तीन भागों में विभाजित की जा सकती हैं। अत्यन्त निम्न स्तर की इच्छाएँ मुख्यत शारीरिक उपभोगों के लिये दूसरे हमारी महत्त्वाकांक्षाएँ हो सकती हैं सत्ता धन प्रसिद्धि और कीर्ति पाने के लिये। इनसे भिन्न तीसरी इच्छा हो सकती है आत्मविकास और आत्मसाक्षात्कार की। ये तीन प्रकार की इच्छाएँ गुणों के प्राधान्य से क्रमश तामसिक राजसिक और सात्त्विक कहलाती हैं। तीन दृष्टान्तों के द्वारा इन तीन प्रकार की इच्छाओं से उत्पन्न विभिन्न प्रकार के आवरणों को स्पष्ट किया गया है। जैसे धुयें से अग्नि अनेक बार धुयें से अग्नि की चमकती ज्वाला पूर्णत या अंशत आवृत हो जाती है। इसी प्रकार सात्त्विक इच्छाएँ भी अनन्त स्वरूप आत्मा के प्रकाश को आवृत सी कर लेती हैं। जैसे धूलि से दर्पण रजोगुण से उत्पन्न विक्षेपों के कारण बुद्धि पर पड़े आवरण को इस उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया गया है। धुएँ के आवरण की अपेक्षा दर्पण पर पड़े धूलि को दूर करने के लिये अधिक प्रयत्न की आवश्यकता होती है। बहते हुये वायु के एक हल्के से झोंके से ही धुआँ हट जाता है जबकि तूफान के द्वारा भी दर्पण स्वच्छ नहीं किया जा सकता। केवल एक स्वच्छ सूखे कपड़े से पोंछकर ही उसे स्वच्छ करना सम्भव है। धुँए के होने पर भी कुछ मात्रा में अग्नि दिखाई पड़ती है परन्तु धूलि की मोटी परत जमी हुई होने पर दर्पण में प्रतिबिम्ब बिल्कुल नहीं दिखाई पड़ता। जैसे गर्भाशय से भ्रूण तमोगुण जनित अत्यन्त निम्न पशु जैसी वैषयिक कामनाएँ दिव्य स्वरूप को पूर्णत आवृत कर देती हैं जिसे समझने के लिए यह भ्रूण का दृष्टांत दिया गया है। गर्भस्थ शिशु पूरी तरह आच्छादित रहता है और उसके जन्म के पूर्व उसे देखना संभव भी नहीं होता। यहाँ आवरण पूर्ण है और उसके दूर होने के लिये कुछ निश्चित काल की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार तामसिक इच्छाओं से उत्पन्न बुद्धि पर के आवरण को हटाने के लिए जीव को विकास की सीढ़ी पर चढ़ते हुए दीर्घकाल तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। इस प्रकार इन भिन्नभिन्न प्रकार की इच्छाओं से उत्पन्न विभिन्न तारतम्य में अनुभव में आने वाले आवरणों को स्पष्ट किया गया है। इस श्लोक में केवल सर्वनामों का उपयोग करके कहा गया है कि उसके द्वारा यह आवृत है। अब अगले श्लोक में इन दोनों सर्वनामों उसके द्वारा और यह को स्पष्ट किया गया है
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।3.38।। जैसे धुयें से अग्नि और धूलि से दर्पण ढक जाता है तथा जैसे भ्रूण गर्भाशय से ढका रहता है, वैसे उस (काम) के द्वारा यह (ज्ञान) आवृत होता है।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।3.38।। जैसे धुएँसे अग्नि और मैलसे दर्पण ढक जाता है तथा जैसे जेरसे गर्भ ढका रहता है, ऐसे ही उस कामके द्वारा यह ज्ञान ( विवेक) ढका हुआ है।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।3.38।।व्याख्या–’**धूमेनाव्रियते वह्निः’–**जैसे धुएँसे अग्नि ढकी रहती है, ऐसे ही कामनासे मनुष्यका विवेक ढका रहता है अर्थात् स्पष्ट प्रतीत नहीं होता।
विवेक बुद्धिमें प्रकट होता है। बुद्धि तीन प्रकारकी होती है–सात्त्विकी, राजसी और तामसी। सात्त्विकी बुद्धिमें कर्तव्य-अकर्तव्य ठीक-ठीक ज्ञान होता है, राजसी बुद्धिमें कर्तव्य-अकर्तव्यका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता और तामसी बुद्धिमें सब वस्तुओंका विपरीत ज्ञान होता है (गीता 18। 30 32)। कामना उत्पन्न होनेपर सात्त्विकी बुद्धि भी धुएँसे अग्निके समान ढकी जाती है, फिर राजसी और तामसी बुद्धिका तो कहना ही क्या है ! सांसारिक इच्छा उत्पन्न होते ही पारमार्थिक मार्गमें धुआँ हो जाता है। अगर इस अवस्थामें सावधानी नहीं हुई तो कामना और अधिक बढ़ जाती है। कामना बढ़नेपर तो पारमार्थिक मार्गमें अँधेरा ही हो जाता है। उत्पत्ति विनाशशील जड वस्तुओंमें प्रियता, महत्ता, सुखरूपता, सुन्दरता, विशेषता आदि दीखनेके कारण ही उनकी कामना पैदा होती है। यह कामना ही मूलमें विवेकको ढकनेवाली है। अन्य शरीरोंकी अपेक्षा मनुष्य-शरीरमें विवेक विशेषरूपसे प्रकट है; किन्तु जड पदार्थोंकी कामनाके कारण वह विवेक काम नहीं करता। कामना उत्पन्न होते ही विवेक धुँधला हो जाता है। जैसे धुँएसे ढकी रहनेपर भी अग्नि काम कर सकती है, ऐसे ही यदि साधक कामनाके पैदा होते ही सावधान हो जाय तो उसका विवेक काम कर सकता है। प्रथमावस्थामें ही कामनाको नष्ट करनेका सरल उपाय यह है कि कामना उत्पन्न होते ही साधक विचार करे कि हम जिस वस्तुकी कामना करते हैं, वह वस्तु हमारे साथ सदा रहनेवाली नहीं है। वह वस्तु पहले भी हमारे साथ नहीं थी और बादमें भी हमारे साथ नहीं रहेगी तथा बीचमें भी उस वस्तुका हमारेसे निरन्तर वियोग हो रहा है। ऐसा विचार करनेसे कामना नहीं रहती।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
3.38. As the fire is concealed by smoke and a mirror by dirt, and as the embryo is concealed by membrance-cover, so He is concealed by this (foe).
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
3.38 As fire is enveloped by smoke, as a mirror by dirt, and as a foetus remains enclosed in the womb, so in this shrouded by that.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
3.38 As fire is shrouded in smoke, a mirror by dust and a child by the womb, so is the universe enveloped in desire.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
3.38 As a fire is enveloped by smoke, as a mirror is covered by dust, and as an embryo is encased in the membrane, so is this (worldA) enveloped by it (desire).
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
3.38 As fire is enveloped by smoke, as a mirror by dust, and as an embryo by the amnion, so is this enveloped by that.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
3.38 धूमेन by smoke; आव्रियते is enveloped; वह्निः fire; यथा as; आदर्शः a mirror; मलेन by dust; च and; यथा as; उल्बेन by the amnion; आवृतः enveloped; गर्भः embryo; तथा so; तेन by it; इदम् this; आवृतम् enveloped.Commentary This means the universe. This also means knowledge. That means desire.