(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं
त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तम् अवाप्तव्यं
वर्त एव च कर्मणि॥3.22॥+++(5)+++
(सं) मूलम् ...{Loading}...
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।3.22।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।3.22।।न मे सर्वेश्वरस्य अवाप्तसमस्तकामस्य सर्वज्ञस्य सत्यसंकल्पस्य त्रिषु लोकेषु देवमनुष्यादिरूपेण स्वच्छन्दतो वर्तमानस्य किञ्चिद् अपि कर्तव्यम् अस्ति यतः अनवाप्तं कर्मणा अवाप्तव्यं न किञ्चिद् अपि अस्ति अथापि लोकरक्षायै कर्मणि एव वर्ते।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।3.22।। मयाऽपि हि निरपेक्षेणैव लोकक्षोभे निष्प्रत्यवायेनापि परमकारुणिकतया लोकरक्षार्थं कर्मैव क्रियते त्वया तु सापेक्षेण सप्रत्यवायेन किम्पुनरित्युच्यतेन मे पार्थ इत्यादिश्लोकत्रयेण। मे इति पदेन कर्मवश्यचेतनान्तरव्यावृत्तो यथावस्थितो हीश्वरः परामृश्यत इत्यभिप्रायेण विलक्षणनित्यसिद्धविभूतिगुणपौष्कल्यस्य व्यञ्जनानि सर्वेश्वरस्येत्यादिविशेषणान्युक्तानि सर्वेश्वरस्येति। श्रुतिस्मृती हि ममैवाज्ञा सा चान्यैरनुवर्तनीया न हि मे नियन्त्रन्तरमस्ति यदधीनप्रत्यवायभयात् कुर्यामिति भावःअवाप्तसमस्तकामस्येति। न च मे सङ्कल्पमात्रादसाध्यमितः पूर्वमभिलाषदशामात्रापन्नं प्रयोजनमस्ति यदुपायतया कर्म कर्तव्यमिति भावः। सर्वज्ञस्य सत्यसङ्कल्पस्येति। नापि मे कर्मवश्यानां देवमनुष्यतिरश्चां सजातीयतयाऽवतीर्णस्यापि तेषामिव ज्ञानसङ्कोच इच्छाप्रतिघातो वाऽस्ति यन्निवृत्त्यर्थं कर्म कार्यमित्याशयः। त्रिषु लोकेषु इत्यत्रार्थसिद्धं विशेषमध्याहृत्याह देवमनुष्येति। उक्तं च भगवता पराशरेणसमस्तशक्तिरूपाणि तत्करोति जनेश्वरः। देवतिर्यङ्मनुष्याख्या चेष्टावन्ति स्वलीलया।। जगतामुपकाराय न सा कर्मनिमित्तजा। चेष्टा तस्याप्रमेयस्य व्यापिन्य व्याहतात्मिका वि.पु.6।7।7172 इति। नानवाप्तमवाप्तव्यम् इत्येतत्कर्तव्याभावेऽपेक्षितहेतुपरतया व्याख्याति यत इति। उत्तरश्लोकपर्यालोचनसिद्धं प्रयोजनमाह अथापि लोकरक्षायै इति। अथापि इति चकारस्यार्थः कर्मणि वर्त एवेत्युक्ते न कदाचिदपि कर्मणो विरम्य ज्ञानयोगमनुतिष्ठामीति फलितं तद्व्यञ्जनायोक्तं कर्मण्येव वर्ते इति। यद्वा प्रकरणौचित्यादेवकारोऽत्र भिन्नक्रमः।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
3.22 For Me, who is the Lord of all, who has all desires fulfilled, who is omniscient, whose will is always true, and who, at My own will, remains in the three worlds in the forms of gods, men and such other beings, there is nothing whatever to achieve. Therefore though there is for Me nothing ‘unacired’, i.e., nothing yet to be acired by work, I go on working for the protection of the world.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।3.21 3.22।। यद्यदाचरतीति। न मे इति। प्राप्तप्रापणीयस्य परिपूर्णमनसोऽपि कर्मप्रवृत्तौ लोकानुग्रहः प्रयोजनमित्यत्र श्रीभगवान् आत्मानमेव दृष्टान्तीकरोति।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
3.21-22 Yad yad acarati etc. Na me etc. The Bhagavat cities Himself as an example to illustrate the idea that to favour the world is the [only] purpose for such a person to exert in action, eventhough he has already attained whatever is to be attained, and is fully satisfied in his mind.
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।3.22।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka.
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।3.22।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।3.22।। न मे मम पार्थ न अस्ति न विद्यते कर्तव्यं त्रिषु अपि लोकेषु किञ्चन किञ्चिदपि। कस्मात् न अनवाप्तम् अप्राप्तम् अवाप्तव्यं प्रापणीयम् तथापि वर्ते एव च कर्मणि अहम्।।
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।3.22।। यदि इस लोकसंग्रहकी कर्तव्यतामें तुझे कुछ शंका हो तो तू मुझे क्यों नहीं देखता हे पार्थ तीनों लोकोंमें मेरा कुछ भी कर्तव्य नहीं है अर्थात् मुझे कुछ भी करना नहीं है क्योंकि मुझे कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त नहीं करनी है तो भी मैं कर्मोंमें बर्तता ही हूँ।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
3.22 O Partha, na asti, there is no; kartavyam, duty; kincana, whatsoever; me, for Me (to fulfill); even trisu lokesu, in all the three worlds. Why; There is na anavaptam, nothing (that remains) unachieved; or avaptavyam, to be achieved. Still varte eva, do I continue; karmani, in action.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।3.22।। कृतार्थस्यापि लोकसंग्रहार्थं विहितं कर्म कर्तव्यमित्युक्त्वा तत्रैव भगवन्तमुदाहरणत्वेनोपन्यस्यति यदीत्यादिना। अप्राप्तस्य प्राप्तये तवापि कर्तृत्वसंभवाद् न किंचिदपि विद्यते कर्तव्यमिति कथमुक्तमित्याशङ्क्याह नानवाप्तमिति। प्रतीकमुपादाय व्याख्यानद्वारा विद्यावतोऽपि कर्मप्रवृत्तिं संभावयति नेत्यादिना। अन्वयार्थं पुनर्नञोऽनुवादः। भगवतो नास्ति कर्तव्यमित्येतदाकाङ्क्षाद्वारा स्फोरयति कस्मादित्यादिना। प्रयोजनाभावे त्वयापि नानुष्ठेयं कर्मेत्याशङ्क्य लोकसंग्रहार्थं ममापि कर्मानुष्ठानमिति मत्वाह तथापीति।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।3.22।। अत्र चाहमेव दृष्टान्त इत्याह त्रिमिः हे पार्थ मे मम त्रिष्वपि लोकेषु किमपि कर्तव्यं नास्ति। यतोऽनवाप्तं फलं किंचिन्ममावाप्तव्यं नास्ति। तथापि वर्तएव कर्मण्यहम्। कर्म करोम्येवेत्यर्थः। पार्थेति संबोधयन् विशुद्धक्षत्रियवंशोद्भवस्त्वं शूरापत्यापत्यत्वेन चात्यन्तं मत्समोऽहमिव वर्तितुमर्हसीति दर्शयति।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।3.22।। कर्मणि वर्ते एव। अहं कर्म करोम्येवेत्यर्थः।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।3.22।। अहमिव त्वमपि लोकसंग्रहं कुर्वत्याशयेनाह नेति। त्रिषु लोकेषु मम कर्तव्यं किंचिदपि न विद्यते यस्मादनवाप्तमप्राप्तमवाप्तव्यं प्रापणीयं त्रिषु लोकेषु किंचिदपि मे नास्ति यद्यप्येवं तथापि कर्मणि वर्त एव। कर्म करोभ्येवेत्यर्थः। त्वयापि मत्संबन्धित्वान्मत्पक्षपात एव कर्तव्य इति सूचयन्नाह पार्थेति।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।3.22।। अत्र चाहमेव निदर्शनमित्याह न म इति त्रिभिः।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।3.22।। मयापि तथैव क्रियत इत्याह न मेपार्थेति। हे पार्थ परमानुगृहीत मे त्रिषु लोकेषु किञ्चन कर्त्तव्यं नास्ति न वा अनवाप्तं अवाप्तव्यं प्राप्तव्यं तथापि लोकसङ्ग्रहार्थमहं कर्मणि वर्त्ते कर्म करोमीत्यर्थः।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।3.22।। अत्र चाहमेव दृष्टान्त इत्याह त्रिभिः न मे पार्थेति। हे पार्थ मे कर्तव्यं नास्ति। यतस्त्रिष्वपि लोकेष्वनवाप्तमप्राप्तं सदवाप्तव्यं प्राप्यं नास्ति तथापि कर्मण्यहं वर्ते। कर्म करोम्येवेत्यर्थः।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।3.22।। पूर्णस्वरूप में स्थित योगेश्वर श्रीकृष्ण को तीनों लोकों में किसी वस्तु की इच्छा नहीं थी। यदि वे चाहते तो अपने स्वयं के लिये राज्य स्थापित कर उसमें सुख से रह सकते थे. परन्तु केवल कर्तव्य पालन का उत्तरदायित्व समझते हुए पाण्डवों के धर्म और न्याय संगत पक्ष का साथ देने के लिए ही वे युद्धभूमि में आये थे। बाल्यकाल से लेकर महाभारत युद्ध के क्षण तक उनका सम्पूर्ण जीवन अनासक्ति का ज्वलन्त उदाहरण हैं। यद्यपि उन्हें जीवन में प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्य नहीं थी तथापि वे सदैव कर्म में ही रत रहे मानो उनके लिए कर्म करना उत्साह और आनन्द से परिपूर्ण एक क्रीडा हो। इसी सन्दर्भ में भगवान कहते हैं
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।3.22।। यद्यपि मुझे त्रैलोक्य में कुछ भी कर्तव्य नहीं हैं तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य (अवाप्तव्यम्) वस्तु अप्राप्त नहीं है, तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूँ।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।3.22।। हे पार्थ! मुझे तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्तव्यकर्ममें ही लगा रहता हूँ।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।3.22।।**व्याख्या–‘न मे पार्थास्ति ৷৷. नानवाप्तमवाप्तव्यम्’–**भगवान् किसी एक लोकमें सीमित नहीं है। इसलिये वे तीनों लोकोंमें अपना कोई कर्तव्य न होनेकी बात कह रहे हैं। भगवान्के लिये त्रिलोकीमें कोई भी कर्तव्य शेष नहीं है; क्योंकि उनके लिये कुछ भी पाना शेष नहीं है। कुछ-न-कुछ पानेके लिये ही सब (मनुष्य, पशु ,पक्षी आदि) कर्म करते हैं। भगवान् उपर्युक्त पदोंमें बहुत विलक्षण बात कह रहे हैं कि कुछ भी करना और पाना शेष न होनेपर भी मैं कर्म करता हूँ !
अपने लिये कोई कर्तव्य न होनेपर भी भगवान् केवल दूसरोंके हितके लिये अवतार लेते हैं और साधु पुरुषोंका उद्धार, पापी पुरुषोंका विनाश तथा धर्मकी संस्थापना करनेके लिये कर्म करते हैं (गीता 4। 8)। अवतारके सिवाय भगवान्की सृष्टि-रचना भी जीवमात्रके उद्धारके लिये ही होती है। स्वर्गलोक पुण्यकर्मोंका फल भुगतानेके लिये है और चौरासी लाख योनियाँ एवं नरक पाप-कर्मोंका फल भुगतानेके लिये हैं। मनुष्य-योनि पुण्य और पाप–दोनोंसे ऊँचे उठकर अपना कल्याण करनेके लिये है। ऐसा तभी सम्भव है, जब मनुष्य अपने लिये कुछ न करे। वह सम्पूर्ण कर्म–स्थूल शरीरसे होनेवाली ‘क्रिया’, सूक्ष्म शरीरसे होनेवाला ‘चिन्तन’ और कारण शरीरसे होनेवाली ‘स्थिरता’ केवल दूसरोंके हितके लिये ही करे, अपने लिये नहीं। कारण कि जिनसे सब कर्म किये जाते हैं, वे स्थूल, सूक्ष्म और कारण–तीनों ही शरीर संसारके हैं, अपने नहीं। इसलिये कर्मयोगी शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि सम्पूर्ण सामग्रीको (जो वास्तवमें संसारकी ही है) संसारकी ही मानता है और उसे संसारकी सेवामें लगाता है। अगर मनुष्य संसारकी वस्तुको संसारकी सेवामें न लगाकर अपने सुख-भोगमें लगाता है तो बड़ी भारी भूल करता है। संसारकी वस्तुको अपनी मान लेनेसे ही फलकी इच्छा होती है और फलप्राप्तिके लिये कर्म होता है। इस तरह जबतक मनुष्य कुछ पानेकी इच्छासे कर्म करता है, तबतक उसके लिये कर्तव्य अर्थात् ‘करना’ शेष रहता है। गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो मालूम होता है कि मनुष्यमात्रका अपने लिये कोई कर्तव्य है ही नहीं। कारण कि प्रापणीय वस्तु (परमात्मतत्त्व) नित्यप्राप्त है और स्वयं (स्वरूप) भी नित्य है, जबकि कर्म और कर्म-फल अनित्य अर्थात् उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाला है। अनित्य-(कर्म और फल-) का सम्बन्ध नित्य-(स्वयं-) के साथ हो ही कैसे सकता है! कर्मका सम्बन्ध ‘पर’- (शरीर और संसार-) से है ‘स्व’ से नहीं। कर्म सदैव ‘पर’ के द्वारा और ‘पर’ के लिये ही होता है। इसलिये अपने लिये कुछ करना है ही नहीं। जब मनुष्यमात्रके लिये कोई कर्तव्य नहीं है, तब भगवान्के लिये कोई कर्तव्य हो ही कैसे सकता है!
कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषके लिये भगवान्ने इसी अध्यायके सत्रहवें-अठारहवें श्लोकोंमें कहा है कि उस महापुरुषके लिये कोई कर्तव्य नहीं है; क्योंकि उसकी रति, तृप्ति और संतुष्टि अपने-आपमें ही होती है। इसलिये उसे संसारमें करने अथवा न करनेसे कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा उसका किसी भी प्राणीसे किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। ऐसा होनेपर भी वह महापुरुष लोकसंग्रहार्थ कर्म करता है। इसी प्रकार यहाँ भगवान् अपने लिये कहते हैं कि कोई भी कर्तव्य न होने तथा कुछ भी पाना बाकी न होनेपर भी मैं लोकसंग्रहार्थ कर्म करता हूँ। तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञ महापुरुषकी भगवान्के साथ एकता होती है–‘मम साधर्म्यमागताः’ (गीता 14। 2)। जैसे भगवान् त्रिलोकीमें आदर्श पुरुष हैं (गीता 3। 23 4। 11), ऐसे ही संसारमें तत्त्वज्ञ पुरुष भी आदर्श हैं (गीता 3। 25)।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
3.22. O son of Prtha ! For Me, in the three worlds there is nothing that must be done; nor is there any thing unattained [so far] to be attained; and yet I exert in action.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
3.22 In all the three worlds, O Partha, there is no duty whatsoever for Me (to fulfil); nothing remains unachieved or to be achieved. [According to S. the translation of this portion is: There is nothing unattained that should be attained.-Tr.] (Still) do I continue in action.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
3.22 There is nothing in this universe, O Arjuna, that I am compelled to do, nor anything for Me to attain; yet I am persistently active.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
3.22 For me, Arjuna, there is nothing in all the three worlds which ought to be done, nor is there anything unacired that ought to be acired. Yet I go on working.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
3.22 There is nothing in the three worlds, O Arjuna, that should be done by Me, nor is there anything unattained that should be attained; yet I engage Myself in action.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
3.22 न not; मे my; पार्थ O Partha; अस्ति is; कर्तव्यम् to be done (duty); त्रिषु in the three; लोकेषु worlds; किञ्चन anything; न not; अनवाप्तम् unattained; अवाप्तव्यम् to be attained; वर्ते am; एव also; च and; कर्मणि in action.Commentary I am the Lord of the universe and therefore I have no personal grounds to engage. Myself in action. I have nothing to achieve as I have all divine wealth; as the wealth of the universe is Mine; and yet I engage Myself in action.Why do you not follow My example Why do you not endeavour to prevent the masses from following the wrong path by setting an example yourself If you set an example; people will follow you as you are a leader with noble alities.