(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यदा संहरते चायं
कूर्मो ऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्
तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥2.58॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.58।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।2.58।।यदा इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थान् स्प्रष्टुम् उद्युक्तानि
तदा एव कूर्मः अङ्गानि इव इन्द्रियार्थेभ्यः सर्वशः प्रतिसंहृत्य मन
आत्मनि एव स्थापयति सोऽपि स्थितप्रज्ञः।
एवं चतुर्विधा ज्ञाननिष्ठा पूर्वपूर्वोत्तरोत्तरनिष्पाद्या इति
प्रतिपादितम्। इदानीं ज्ञाननिष्ठाया दुष्प्रापतां तत्प्राप्त्युपायं च आह
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।2.58।। अथ यतमानसंज्ञाख्या प्रथमा दशोच्यते इत्याह ततोऽर्वाचीनदशेति। प्रसक्तप्रतिषेधार्थमाह
स्प्रष्टुमुद्युक्तानीति। तेन वार्धकरोगादिप्रयुक्ताशक्तिसुषुप्त्यादिकृतनिवृत्तिव्यवच्छेदः। तदैवेति भोगानन्तरनिवृत्तिव्युदासः। कूर्मोऽङ्गानीव इत्यनेनेन्द्रियाणां सङ्कल्पविशेषमात्रनियाम्यत्वमुच्यते। सर्वश इति विलोकनभाषणविलासपरिहासादिनिवृत्तिपरः विषयदोषदर्शनादिहेतुप्रकारपरो वा। प्रतिसंहृत्य इत्यनेनेन्द्रियनिरोधस्यात्ममननाङ्गता दर्शिता। अत्र च ज्ञाननिष्ठावस्थाविशेषप्रकरणे सुषुप्त्यादिविलक्षणव्यापारोपरतिः तत्साध्यात्मगोचरमनोवस्थापनपर्यन्ता विवक्षितेत्याह मन आत्मनीति।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
2.58 When one is able to draw the senses away from the sense-objects on every side when the senses try to contact the sense-objects, just as a tortoise draws in its limbs, and is capable of fixing his mind on the self - he too is of firm wisdom. Thus there are four stages of devotion to knowledge, each stage being perfected through the succeeding stage. Now Sri Krsna speaks of the difficulty of the attainment of firm devotion to knowledge and the means of that attainment.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।2.60।। यदा संहरते इति। न चास्य पाचकवद्योगरूढत्वम्। यदा यदा किलायमिन्द्रियाणि संहरते आत्मन्येव कूर्म इवाङ्गानि क्रोडीकरोति विषयेभ्यः विषयान्निवार्य +++(S विषयेभ्यः विषयार्थस्यैव विषयान्निवार्य)+++ तदा तदा स्थिरप्रज्ञः। यद्वा इन्द्रियार्थेभ्यः प्रभृति इन्द्रियाणि आत्मनि संहरते विषयेन्द्रियात्मकं +++(K न्द्रियादिकम्)+++ सर्वम् +++(N आसन्नं instead सर्वम्)+++ आत्मसात्कुरुते।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
2.58 Yada samharate etc. the nomenclature is not an expression having a composite of both the forces of etymological and traditional meanings, like the word pankaja ‘a lotus’. But it has only the etymological force like the word pacaka ‘a cook’. Whenever he (the sage) withdraws just in his own self-just as a tortoise keeps its limbs in its bossom-from the sense-objects i.e., warding off from the sense-objects, then and then [only] he is man-of-stabilized-intellect. Or [the passage may mean :] Whenever he withdraws, within his own Self, [all], beginning from the sense-objects upto sense-organs i.e., when he approprites in his own Self all in the form of sense-objects and sense-organs. But, how is it that the nomenclature ‘a man-of-stabilized-intellect’ does not hold good in the case of an ascetic ; It is answered-
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।2.57 2.58।। सर्वत्रानभिस्नेहत्वाच्छुभाशुभं प्राप्य नाभिनन्दति न द्वेष्टि।
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।2.58।।यदा संहरत इति।
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
।।2.58।।
यदा संहरते सम्यगुपसंहरते च अयं ज्ञाननिष्ठायां प्रवृत्तो यतिः
कूर्मः अङ्गानि इव यथा कूर्मः भयात् स्वान्यङ्गानि उपसंहरति
सर्वशः सर्वतः एवं ज्ञाननिष्ठः इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः
सर्वविषयेभ्यः उपसंहरते। तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता इत्युक्तार्थं
वाक्यम्।।
तत्र विषयाननाहरतः आतुरस्यापि इन्द्रियाणि कूर्माङ्गानीव संह्रियन्ते न तु
तद्विषयो रागः स कथं संह्रियते इति उच्यते
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।2.58।। तथा
जब यह ज्ञाननिष्ठामें स्थित हुआ संन्यासी कछुएके अङ्गोंकी भाँति अर्थात् जैसे कछुआ भयके कारण सब ओरसे अपने अङ्गोंको संकुचित कर लेता है उसी तरह सम्पूर्ण विषयोंसे सब ओरसे इन्द्रियोंको खींच लेता है भलीभाँति रोक लेता है तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित होती है। इस वाक्यका अर्थ पहले कहा हुआ है।
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
2.58 And besides, yada, when; ayam, this one, the sannyasin practising steadfastness in Knowledge; samharate, fully withdraws; [‘Fully’ suggests absolute firmness in withdrawal, and ‘withdraws’ suggests full control over the organs] indriyani, the senses; indriya-arthhyah, from all the objects of the senses; iva, as; kurmah, a tortoise; sarvasah, wholly (withdraws); angani, its limbs, from all sides out of fear; when the man engaged in steadfastness to Knowledge withdraws thus, then tasya, his; prajna, wisdom; pratisthita, remains established (the meaning of this portion has already been explained). As to that, [That is , so far as the phenomenal world is concerned.] the organs of a sick person, too, cease to be active when the refrains from sense-objects; they get fully withdrawn like the limbs of a tortoise. but not so the hankering for those objects. How that (hankering) gets completely withdrawn is being stated:
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।2.58।। जिज्ञासोरेव कर्तव्यान्तरं सूचयति किञ्चेति। इन्द्रियाणां
विषयेभ्यो वैमुख्यस्य प्रज्ञास्थैर्ये कारणत्वादादौ जिज्ञासुना
तदनुष्ठेयमित्याह यदेति। मुमुक्षुणा मोक्षहेतुं प्रज्ञां
प्रार्थयमानेन सर्वेभ्यो विषयेभ्यः सर्वाणीन्द्रियाणि विमुखानि
कर्तव्यानीति श्लोकव्याख्यानेन कथयति यदेत्यादिना। उपसंहारः
स्ववशत्वापादनं तस्य च सम्यक्त्वमतिदृढत्वम्। अयमिति
प्रकृतस्थितप्रज्ञग्रहणं व्यावर्तयति ज्ञाननिष्ठायामिति।
इन्द्रियोपसंहारस्य प्रलयरूपत्वं व्यावर्त्य संकोचात्मकत्वं दृष्टान्तेन
दर्शयति कूर्म इति। दृष्टान्तं व्याकरोति यथेति।
दार्ष्टान्तिके योजयन्ज्ञाननिष्ठापदं तत्र प्रवर्तयति एवमिति।
इन्द्रियाणां विषयेभ्यो वैमुख्यकरणं प्रज्ञास्थैर्यहेतुरित्युक्तमुपसंहरति
**तस्येति।
**
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।2.58।। इदानीं किमासीतेति प्रश्नस्योत्तरं वक्तुमारभते भगवान् षड्भिः श्लोकैः तत्र च प्रारब्धकर्मवशाद्व्युत्थानेन
विक्षिप्तानीन्द्रियाणि पुनरुपसंहृत्य समाध्यर्थमेव स्थितप्रज्ञस्योपवेशनमिति दर्शयितुमाह अहं व्युत्थितः सर्वशः सर्वाणीन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः शब्दादिंभ्यः सर्वेभ्यः। च पुनरर्थे। यदा संहरते पुनरुपसंहरति संकोचयति। तत्र दृष्टान्तः कूर्मोऽङ्गानीव तदा तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठितेति स्पष्टम्। पूर्वश्लोकाभ्यां व्युत्थानदशायामपि सकलताभसवृत्त्यभाव उक्तः अधुना तु पुनः समाध्यवस्थायां सकलवृत्त्यभाव इति विशेषः।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।2.58।। किमासीतेत्यस्योत्तरमाह यदेति। इन्द्रियार्थेभ्यः शब्दादिविषयेभ्यः प्रारब्धकर्मवशेन व्युत्थितोऽपि योगी द्वैतदर्शनादुद्विग्नः सन् निरोधसंस्कारप्राबल्यात्प्रीत्या समाधिमनुतिष्ठन्नेवास्ते इत्यर्थः। शेषं स्पष्टम्।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।2.58।। विचारादिनेन्द्रियनिग्रहार्थं स्थितप्रज्ञस्योपवेशनमिति तृतीयप्रश्नस्योत्तरं वक्तुं जितेन्द्रियत्वम्। तस्य लक्षणमाह यदेति। यथा कूर्मः कमठो भयादङ्गन्युपसंहरति तथा यदा ज्ञाननिष्ठो यतिः शब्दादिविषयेभ्यः इन्द्रियाण्युपसंहरति तदा तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।2.58।। किमासीत इत्यस्योत्तरमाह चतुर्भिः। यदेति विषयेभ्य इन्द्रियाणि संहरते प्रत्याहृत्यास्ते। अनायासेनैकत्र संहारे दृष्टान्तः अङ्गानि करचरणादिनि यथा स्वभावतः कूर्मः संहरते तद्वत्।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।2.58।। कथं तिष्ठेत् इत्यत्रोत्तरमाह यदा संहरत इति। यदा अयं सर्वशः सर्वत्र इन्द्रियार्थेभ्य इन्द्रियभोग्येभ्य इन्द्रियाणि संहरते तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता भवतीत्यर्थः। अत्र दृष्टान्तमाह कूर्मोऽङ्गानीवेति। यथा कूर्मः करचरणाद्यङ्गानि स्वभावादपकर्षति। कूर्मदृष्टान्तेन भोग्यदर्शनात् स्वत एवेन्द्रियनिवृत्तिः स्वभावतः स्यात् तथा संहरणं कर्त्तव्यं नित्यमिन्द्रियनियमं कुर्वंस्तिष्ठेदित्यर्थः।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।2.58।। किंच यदेति। यदा चायं योगी इन्द्रियार्थेभ्यः सकाशादिन्द्रियाणि संहरते प्रत्याहरति। अनायासेन संहारे दृष्टान्तः। अङ्गानि करचरणादीनि कूर्मो यथा स्वभावेनैवाकर्षति तद्वत्।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।2.58।। ज्ञानी पुरुष के आत्मानन्द समत्व और अनासक्त भाव का वर्णन करने के
पश्चात् इस श्लोक में इन्द्रियों पर उसके पूर्ण संयम का वर्णन किया गया है।
अत्यन्त उपयुक्त उपमा के द्वारा उसके लक्षण को यहाँ स्पष्ट किया गया है।
जैसे कछुवा किसी प्रकार के संकट का आभास पाकर अपने अंगों को समेट कर स्वयं
को सुरक्षित कर लेता है वैसे ही ज्ञानी पुरुष में यह क्षमता होती है कि वह
अपनी इच्छा से इन्द्रियों को विषयों से परावृत्त तथा उनमें प्रवृत्त भी कर
सकता है।
वेदान्त के प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रिया के अनुसार अन्तकरण की चैतन्य
युक्त वृत्ति इन्द्रियों के माध्यम से बाह्य देश स्थित विषय का आकार ग्रहण
करती हैं और तब उस विषय का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इस प्रक्रिया को
कठोपनिषद् में इस प्रकार कहा गया है कि मानों चैतन्य का प्रकाश मस्तकस्थ
सात छिद्रों (दो नेत्र दो कान दो नासिका छिद्र और मुख) के द्वारा बाहर किरण
रूप में निकलकर वस्तुओं को प्रकाशित करता है। इस प्रकार एक विशेष इन्द्रिय
द्वारा एक विशिष्ट वस्तु प्रकाशित होती है जैसे आँख से रूप रंग और कान से
शब्द। भौतिक जगत् में हम विद्युत का उदाहरण ले सकते हैं जो सामान्य बल्ब
में प्रकाश के रूप में व्यक्त होकर वस्तुओं को प्रकाशित करती है और वही
विद्युत क्षकिरण नलिका से गुजर कर स्थूल शरीर को भेदकर आंतरिक अंगों को भी
प्रकाशित कर सकती है जो सामान्यत प्रत्यक्ष नहीं होते।
इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से सम्पूर्ण
बाह्य जगत् का ज्ञान प्राप्त करता है। इन्द्रियों द्वारा निरन्तर प्राप्त
होने वाली विषय संवेदनाओं के कारण मन में अनेक विक्षेप उठते रहते हैं।
नेत्रों के अभाव में रूप से उत्पन्न विक्षेप नहीं होते और बधिर पुरुष को
अपनी आलोचना सुनाई नहीं पड़ती जिससे कि उस के मन में क्षोभ हो यही बात अन्य
इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी है। भगवान् कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष में यह
क्षमता होती है कि वह स्वेचछा से इन्द्रियों को विषयों से परावृत्त कर सकता
है।
इन्द्रिय संयम की इस क्षमता को योगशास्त्र में प्रत्याहार कहते हैं जिसे
योगी प्राणायाम की सहायता से प्राप्त करता है। ईश्वर की रूप माधुरी में
प्रीति होने के कारण भक्त के मन में विषयजन्य विक्षेपों का अभाव स्वाभाविक
रूप से ही होता है वेदान्त में इसे उपरति कहते हैं जिसे जिज्ञासु साधक अपने
विवेक के बल पर विषयों की परिच्छिन्नता और व्यर्थता एवं आत्मा के
आनन्दस्वरूप को समझकर प्राप्त करता है।
रोग अथवा किसी अन्य कारण से विषयोपभोग न करने वाले पुरुष से विषय तो दूर हो जाते हैं परन्तु उनका स्वाद नहीं। इस स्वाद की भी निवृत्ति किस प्रकार हो सकती है सुनो
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।2.58।। कछुवा अपने अंगों को जैसे समेट लेता है वैसे ही यह पुरुष जब सब ओर से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से परावृत्त कर लेता है; तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।2.58।। जिस तरह कछुआ अपने अङ्गोंको सब ओरसे समेट लेता है, ऐसे ही जिस कालमें यह कर्मयोगी इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे समेट लेता (हटा लेता) है, तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
2.58।।व्याख्या–‘यदा संहरते ৷৷. प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’– यहाँ
कछुएका दृष्टान्त देनेका तात्पर्य है कि जैसे कछुआ चलता है तो उसके छः अङ्ग
दीखते हैं–चार पैर, एक पूँछ और एक मस्तक। परन्तु जब वह अपने अङ्गोंको छिपा
लेता है, तब केवल उसकी पीठ ही दिखायी देती है। ऐसे ही स्थितप्रज्ञ पाँच
इन्द्रियाँ और एक मन–इन छहोंको अपने-अपने विषयसे हटा लेता है। अगर उसका
इन्द्रियों आदिके साथ किञ्चिन्मात्र भी मानसिक सम्बन्ध बना रहता है, तो वह
स्थितप्रज्ञ नहीं होता।
यहाँ **‘संहरते’**क्रिया देनेका मतलब यह हुआ कि वह स्थितप्रज्ञ विषयोंसे
इन्द्रियोंका उपसंहार कर लेता है अर्थात वह मनसे भी विषयोंका चिन्तन नहीं
करता।
इस श्लोकमें ‘यदा’ पद तो दिया है, पर ‘तदा’ पद नहीं दिया है।
यद्यपि ‘यत्तदोर्नित्यसम्बन्धः’ के अनुसार जहाँ ‘यदा’ आता है,
वहाँ ‘तदा’ का अध्याहार लिया जाता है अर्थात् ‘यदा’ पदके
अन्तर्गत ही ‘तदा’ पद आ जाता है, तथापि यहाँ ‘तदा’ पदका प्रयोग
न करनेका एक गहरा तात्पर्य है कि इन्द्रियोंके अपने-अपने विषयोंसे सर्वथा
हट जानेसे स्वतःसिद्ध तत्त्वका जो अनुभव होता है, वह कालके अधीन, कालकी
सीमामें नहीं है। कारण कि वह अनुभव किसी क्रिया अथवा त्यागका फल नहीं है।
वह अनुभव उत्पन्न होनेवाली वस्तु नहीं है। अतः यहाँ कालवाचक ‘तदा’ पद
देनेकी जरूरत नहीं है। इसकी जरूरत तो वहाँ होती है, जहाँ कोई वस्तु किसी
वस्तुके अधीन होती है। जैसे आकाशमें सूर्य रहनेपर भी आँखें बंद कर लेनेसे
सूर्य नहीं दीखता और आँखें खोलते ही सूर्य दीख जाता है, तो यहाँ सूर्य और
आँखोंमें कार्य-कारणका सम्बन्ध नहीं है अर्थात् आँखें खुलनेसे सूर्य पैदा
नहीं हुआ है। सूर्य तो पहलसे ज्यों-का-त्यों ही है। आँखे बंद करनेसे पहले
भी सूर्य वैसा ही है और आँखें बंद करनेपर भी सूर्य वैसा ही है। केवल आँखें
बंद करनेसे हमें उसका अनुभव नहीं हुआ था। ऐसे ही यहाँ इन्द्रियोंको
विषयोंसे हटानेसे स्वतःसिद्ध परमात्मतत्त्वका जो अनुभव हुआ है, वह अनुभव
मनसहित इन्द्रियोंका विषय नहीं है। तात्पर्य है कि वह स्वतः सिद्ध तत्त्व
भोगों-(विषयों-) के साथ सम्बन्ध रखते हुए और भोगोंको भोगते हुए भी वैसा ही
है। परन्तु भोगोंके साथ सम्बन्धरूप परदा रहनसे उसका अनुभव नहीं होता, और यह
परदा हटते ही उसका अनुभव हो जाता है।
***सम्बन्ध–***केवल इन्द्रियोंका विषयोंसे हट जाना ही स्थितप्रज्ञका लक्षण नहीं है इसे आगेके श्लोकमें बताते हैं।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
2.58. When he withdraws all his sense-organs from sense-objects, just as a tortoise does all of its own limbs, then he is declared to be a man-of-stabilized-intellect.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
2.58 And when this one fully withdraws the senses from the objects of the senses, as a tortoise wholly (withdraws) the limbs, then his wisdom remains established.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
2.58 He who can withdraw his senses from the attraction of their objects, as the tortoise draws his limbs within its shell - take it that such a one has attained Perfection.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
2.58 When one is able to draw his senses from the objects of sense on every side, as a tortoise draws in its limbs, then his wisdom is firmly set.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
2.58 When, like the tortoise which withdraws on all sides its limbs, he withdraws his senses from the sense-objects, then his wisdom becomes steady.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
2.58 यदा when; संहरते withdraws; च and; अयम् this (Yogi); कूर्मः tortoise; अङ्गानि limbs; इव like; सर्वशः everywhere; इन्द्रियाणि the senses; इन्द्रियार्थेभ्यः from the senseobjects; तस्य of him; प्रज्ञा wisdom प्रतिष्ठिता is steadied.Commentary Withdrawal of the senses is Pratyahara or abstraction. The mind has a natural,tendency to run towards external objects. The Yogi again and again withdraws the mind from the objects of the senses and fixes it on the Self. A Yogi who is endowed with the power of Pratyahara can enter into Samadhi even in a crowded place by withdrawing his senses within the twinkling of an eye. He is not disturbed by tumultuous sounds and noises of any description. Even on the battlefield he can rest in his centre; the Self; by withdrawing his senses. He who practises Pratyahara is dead to the world. He will not be affected by the outside vibrations. At any time by mere willing he can bring his senses under his perfect control. They are his obedient servants or instruments.