(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
अहो बत महत् पापं
कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद् राज्य-सुख-लोभेन
हन्तुं स्वजनम् उद्यताः॥1.45॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।1.45।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।1.45।। अन्तिमश्लोकव्याख्या दृश्या।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।1.45।। No commentary.
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, ‘I will not fight.’ He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।1.45।। विशेषफलबुद्ध्या हन्तव्यादिविशेषबुद्ध्या च हनने महापातकमित्येतदेव संक्षिप्याभिधातुं
परितापातिशयसूचनायात्मगतमेवार्जुनो वचनमाह
अहो बतेति। वयमिति कौरवपाण्डवभेदभिन्नाः सर्व एवेत्यर्थः।
एवं सर्वेष्वविवेकिषु मम विवेकिनः किमुचितं उचितं तावद्युद्धान्निवर्तनम्
एतत्तूचिततरमित्याह
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
1.45 Aho bata etc. We denotes one and all who were divided [into the opposite campus] by the division among the Kauravas and the Pandavas. When every one is indiscriminate, what act is proper for me, while I am endowed with the faculty to discriminate; Of course, it is proper to turn back from the battle. Yet, says [Arjuna], what is much more proper is this [see next sloka]:
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।1.45।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।1.45।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
1.45 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।1.45।। Sri Sankaracharya did not comment on this sloka.
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
1.45 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।1.45।। यद्येवं युद्धे विमुखः सन्परपरिभवप्रतीकाररहितो वर्तेथास्तर्हि त्वां शस्त्रपरिग्रहरहितं शत्रुं शस्त्रपाणयो धार्तराष्ट्रा निगृह्णीयुरित्याशङ्क्याह यदीति। प्राणत्राणादपि प्रकृष्टो धर्मः प्राणभृतामहिंसेति भावः।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।1.45।। ननु तव वैराग्येऽपि भीमसेनादीनां युद्धोत्सुकत्वाद्बन्धुवधो भविष्यत्येव त्वया पुनः किं विधेयमित्यत आह प्राणादपि प्रकृष्टो धर्मः प्राणभृतामहिंसा पापानिष्पतेः तस्माज्जीवनापेक्षया मरणमेव मम क्षेमतरमत्यन्तं हितं भवेत्। प्रियतरम् इति पाठेऽपि सएवार्थः। अप्रतीकारं स्वप्राणत्राणाय व्यापारमकुर्वाणं बन्धुवधाध्यवसायमात्रेणापि प्रायश्चित्तान्तरहितं वा। तथाच प्राणान्तप्रायश्चित्तेनैव शुद्धिर्भविष्यतीत्यर्थः।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।। 1.45एतदेव विवृणोति द्वाभ्याम् **दोषैरिति।
**
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।1.45।। राज्यप्राप्तिसुखोपभोगलोभेन युद्धार्थमत्रागमनमपि शोचनीयमित्याह अहो इति। अहो बतेत्यत्यन्तखेदे। वयं महत्पापं कर्तुं व्यवसिता निश्चिताः। यद्राज्यसुखलोभेन स्वजनं हन्तुमुद्यताः युद्धोद्योगेनात्रागताः।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।1.45 1.46।। Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।1.45।। नन्वेतादृशी बुद्धिश्चेत्तदा पूर्वं कथं युद्धव्यवसायः कृतः इत्याशङ्क्य पूर्वमज्ञानात्कृतमिति पश्चात्तापं करोति अहो बतेति। बतेति खेदे। वयं महत्पापं कर्तुं व्यवसिताः अध्यवसायं कृतवन्त इत्यर्थः। पापस्वरूपमेवाह यद्राज्येति। यद्यस्मात्कारणाद्राज्यसुखलोभेन स्वजनं हन्तुमुद्यताः उद्यमं कृतवन्त इत्यर्थः। अहो इत्याश्चर्यम्। यतो राज्यसुखं तु स्वजनैः सहैव स्वजनार्थं वा तानेव हन्तुमुद्यता इत्याश्चर्यम्।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।1.45।। इस श्लोक में अर्जुन की बौद्धिक निराशा और मन की थकान स्पष्ट
दिखाई पड़ती है जो वास्तव में बड़ी दयनीय है। आत्मविश्वास को खोकर वह कहता
है अहो हम पाप करने को प्रवृत्त हो रहे हैं . इत्यादि। इस वाक्य से स्पष्ट
ज्ञात होता है कि परिस्थिति पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के स्थान पर
अर्जुन स्वयं उसका शिकार बन गया है। आत्मविश्वास के अभाव में एक कायर के
समान वह स्वयं को असहाय अनुभव कर रहा है।
मन की यह दुर्बलता उसके शौर्य को क्षीण कर देती है और वह उसे छिपाने के
लिये महान प्रतीत होने वाली युक्तियों का आश्रय लेता है। युद्ध के लक्ष्य
को ही उसने गलत समझा है और फिर धर्म के पक्ष पर स्वार्थ का झूठा आरोप वह
केवल अपनी कायरता के कारण करता है। शान्तिप्रियता का उसका यह तर्क अपनी
सार्मथ्य को पहचान कर नहीं वरन् मन की दुर्बलता के कारण है।
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।1.45।। अहो ! शोक है कि हम लोग बड़ा भारी पाप करने का निश्चय कर बैठे हैं, जो कि इस राज्यसुख के लोभ से अपने कुटुम्ब का नाश करने के लिये तैयार हो गये हैं।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।1.45।। यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि हमलोग बड़ा भारी पाप करने का निश्चय कर बैठे हैं, जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने स्वजनों को मारने के लिये तैयार हो गये हैं!
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
1.45।।व्याख्या–‘अहो बत ৷৷. स्वजनमुद्यताः’–ये दुर्योधन आदि
दुष्ट हैं। इनकी धर्मपर दृष्टि नहीं है। इनपर लोभ सवार हो गया है। इसलिये
ये युद्धके लिये तैयार हो जायँ तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। परन्तु हमलोग
तो धर्म-अधर्मको, कर्तव्य-अकर्तव्यको, पुण्य-पापको जाननेवाले हैं। ऐसे
जानकार होते हुए भी अनजान मनुष्योंकी तरह हमलोगोंने बड़ा भारी पाप करनेका
निश्चय–विचार कर लिया है। इतना ही नहीं, युद्धमें अपने स्वजनोंको मारनेके
लिये अस्त्र-शस्त्र लेकर तैयार हो गये हैं ! यह हमलोगेंके लिये बड़े भारी
आश्चर्यकी और खेद-(दुःख-) की बात है अर्थात् सर्वथा अनुचित बात है।
हमारी जो जानकारी है, हमने जो शास्त्रोंसे सुना है, गुरुजनोंसे शिक्षा पायी
है, अपने जीवनको सुधारनेका विचार किया है, उन सबका अनादर करके आज हमने
युद्धरूपी पाप करनेके लिये विचार कर लिया है–यह बड़ा भारी पाप है
–‘महत्पापम्’।
इस श्लोकमें **‘अहो’और ‘बत’–ये दो पद आये हैं।
इनमेंसे‘अहो’पद आश्चर्यका वाचक है। आश्चर्य यही है कि युद्धसे
होनेवाली अनर्थ-परम्पराको जानते हुए भी हमलोगोंने युद्धरूपी बड़ा भारी पाप
करनेका पक्का निश्चय कर लिया है! दूसरा‘बत’**पद खेदका, दुःखका वाचक है।
दुःख यही है कि थोड़े दिन रहेनेवाले राज्य और सुखके लोभमें आकर हम अपने
कुटुम्बियोंको मारनेके लिये तैयार हो गये हैं!
पाप करनेका निश्चय करनेमें और स्वजनोंको मारनेके तैयार होनेमें केवल
राज्यका और सुखका लोभ ही कारण है। तात्पर्य है कि अगर युद्धमें हमारी विजय
हो जायगी तो हमें राज्य, वैभव मिल मिल जायगा, हमारा आदर-सत्कार होगा, हमारी
महत्ता बढ़ जायगी, पूरे राज्यपर हमारा प्रभाव रहेगा, सब जगह हमारा हुक्म
चलेगा, हमारे पास धन होनेसे हम मनचाही भोग-सामग्री जुटा लेंगे, फिर खूब
आराम करेंगे, सुख भोगेंगे–इस तरह हमारेपर राज्य और सुखका लोभ छा गया है,
जो हमारे-जैसे मनुष्योंके लिये सर्वथा अनुचित है।
इस श्लोकमें अर्जुन यह कहना चाहते हैं कि अपने सद्विचारोंका, अपनी
जानकारीका आदर करनेसे ही शास्त्र, गुरुजन आदिकी आज्ञा मानी जा सकती है।
परन्तु जो मनुष्य अपने सद्विचारोंका निरादर करता है, वह शास्त्रोंकी,
गुरुजनोंकी और सिद्धान्तोंकी अच्छी-अच्छी बातोंको सुनकर भी उन्हें धारण
नहीं कर सकता। अपने सद्विचारोंका बार-बार निरादर, तिरस्कार करनेसे
सद्विचारोंकी सृष्टि बंद हो जाती है। फिर मनुष्यको दुर्गुण-दुराचारसे
रोकनेवाला है ही कौन; ऐसे ही हम भी अपनी जानकारीका आदर नहीं करेंगे, तो फिर
हमें अनर्थ-परम्परासे कौन रोक सकता है; अर्थात् कोई नहीं रोक सकता।
यहाँ अर्जुनकी दृष्टि युद्धरूपी क्रियाकी तरफ है। वे युद्धरूपी क्रियाको
दोषी मानकर उससे हटना चाहते हैं; परन्तु वास्तवमें दोष क्या है–इस तरफ
अर्जुनकी दृष्टि नहीं है। युद्धमें कौटुम्बिक मोह, स्वार्थभाव, कामना ही
दोष है, पर इधर दृष्टि न जानेके कारण अर्जुन यहाँ आश्चर्य और खेद प्रकट कर
रहे हैं, जो कि वास्तवमें किसी भी विचारशील, धर्मात्मा, शूरवीर क्षत्रियके
लिये उचित नहीं है।
[अर्जुनने पहले अड़तीसवें श्लोकमें दुर्योधनादिके युद्धमें प्रवृत्त होनेमें, कुलक्षयके दोषमें और मित्रद्रोहके पापमें लोभको कारण बताया; और यहाँ भी अपनेको राज्य और सुखके लोभके कारण महान् पाप करनेको उद्यत बता रहे हैं। इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन पापके होनेमें ‘लोभ’ को हेतु मानते हैं। फिर भी आगे तीसरे अध्यायके छत्तीसवें श्लोकमें अर्जुनने ‘मनुष्य न चाहता हुआ भी पापका आचरण क्यों कर बैठता है’–ऐसा प्रश्न क्यों किया; इसका समाधान है कि यहाँ तो कौटुम्बिक मोहके कारण अर्जुन युद्धसे निवृत्त होनेको धर्म और युद्धमें प्रवृत्त होनेको अधर्म मान रहे हैं अर्थात् उनकी शरीर आदिको लेकर केवल लौकिक दृष्टि है, इसलिये वे युद्धमें स्वजनोंको मारनेमें लोभको हेतु मान रहे हैं। परन्तु आगे गीताका उपदेश सुनते-सुनते उनमें अपने श्रेय–कल्याणकी इच्छा जाग्रत् हो गयी (गीता 3। 2)। इसलिये वे कर्तव्यको छोड़कर न करनेयोग्य काममें प्रवृत्त होनेमें कौन कारण है–ऐसा पूछते हैं अर्थात् वहाँ (3। 36 में) अर्जुन कर्तव्यकी दृष्टिसे, साधककी दृष्टिसे पूछते हैं। ]
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
1.45. Alas! What a great sinful act have we resolved to undertake ! For, out of greed for the joy of kingdom, we are striving to slay our own kinsfolk !
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
1.45 What a pity that we have resolved to commit a great sin by being eager to kill our own kith and kin, out of greed for the pleasures of a kingdom!
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
1.45 Alas, it is strange that we should be willing to kill our own countrymen and commit a great sin, in order to enjoy the pleasures of a kingdom.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
1.45 Alas! We have resolved to commit a great sin in that we are ready to slay our kith and kin out of desire for sovereignty and enjoyments.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
1.45. Alas! We are involved in a great sin, in that we are prepared to kill our kinsmen, through greed for the pleasures of a kingdom.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
1.45 अहो बत alas; महत् great; पापम् sin; कर्तुम् to do; व्यवसिताः prepared; वयम् we; यत् that; राज्यसुखलोभेन by the greed of pleasure of kingdom; हन्तुम् to kill; स्वजनम् kinsmen; उद्यताः prepared.No Commentary.