(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
यद्य् अप्य् एते न पश्यन्ति
लोभोपहत-चेतसः।
कुल-क्षय-कृतं दोषं
मित्र-द्रोहे च पातकम्॥1.38॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।1.38।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।1.38।। अन्तिमश्लोकव्याख्या दृश्या।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।1.38।। No commentary.
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, ‘I will not fight.’ He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।1.35 1.44।। निहत्येत्यादि। आततायिनां हनने पापमेव कर्तृ। अतोऽयमर्थः पापेन तावदेतेऽस्मच्छत्रवो हताः परतन्त्रीकृताः। तांश्च निहत्यास्मानपि पापमाश्रयेत् +++(S omits पापम्)+++। पापमत्र लोभादिवशात् +++(S लोभवशात्)+++ कुलक्षयादिदोषादर्शनम् +++(S दोषदर्शनम्)+++। अत एव कुलादिधर्माणामुपक्षेपं +++(K कुलक्षयादि N क्षेपकम्)+++ करोति स्वजनं हि कथमित्यादिना।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
1.35 1.44 Nihatya etc. upto anususruma. Sin alone is the agent in the act of slaying these desperadoes. Therefore here the idea is this : These ememies of ours have been slain, i.e., have been take possession of, by sin. Sin would come to us also after slaying them. Sin in this context is the disregard, on account of greed etc., to the injurious conseences like the ruination of the family and the like. That is why Arjuna makes a specific mention of the [ruin of the] family etc., and of its duties in the passage ‘How by slaying my own kinsmen etc’. The act of slaying, undertaken with an individualizing idea about its result, and with a particularizing idea about the person to be slain, is a great sin. To say this very thing precisely and to indicate the intensity of his own agony, Arjuna says only to himself [see next sloka]:
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।1.38।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।1.38।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
1.38 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।1.38।। Sri Sankaracharya did not comment on this sloka.
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
1.38 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।1.38।। परेषामिवास्माकमपि प्रवृत्तिविस्रम्भः संभवेदिति चेन्नेत्याह कथमिति। कुलक्षयेति। कुलक्षये मित्रद्रोहे च दोषं प्रपश्यद्भिरस्माभिस्तद्दोषशब्दितं पापं कथं न ज्ञातव्यं तदज्ञाने तत्परिहारासंभवादतोऽस्मात्पापान्निवृत्त्यर्थं तज्ज्ञानमपेक्षितमिति पापपरिहारार्थिनामस्माकं न युक्ता युद्धे प्रवृत्तिरित्यर्थः।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।1.38।। ननु यद्यप्येते लोभात्प्रवृत्तास्तथापिआहूतो न निवर्तेत द्यूतादपि रणदपि इतिविजितं क्षत्रियस्य इत्यादिभिः क्षत्रियस्य युद्धं धर्मो युद्धार्जितं च धर्म्यं धनमिति शास्त्रे निश्चयाद्भवतां च तैराहूतत्वाद्युद्धे प्रवृत्तिरूचितैवेत्याशङ्क्याह अस्मात्पापाद्वन्धुवधफलकयुद्धरूपात्। अयमर्थः श्रेयःसाधनताज्ञानं हि प्रवर्तकं श्रेयश्च तद्यदश्रेयोऽननुबन्धि। अन्यथा श्येनादीनामपि धर्मत्वापत्तेः। तथाचोक्तम्फलतोऽपि च यत्कर्म नानर्थेनानुबध्यते। केवलप्रीतिहेतुत्वात्तद्धर्म इति कथ्यते।। इति ततश्चाश्रेयोनुबन्धितया शास्त्रप्रतिपादितेऽपि श्येनादाविवास्मिन्युद्धेऽपि नास्माकं प्रवृत्तिरुचितेति।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।1.38।। ननुआहूतो न निवर्तेत द्यूतादपि रणादपि इतिविजितं क्षत्रियस्य इति च युद्धादनिवृत्तिर्हिंसया च वृत्तिः क्षत्रियस्येष्टा तत्कथं युद्धान्निवृत्तिमिच्छसीत्याशङ्क्याह कथमिति। सा हि लोभमूलिका स्मृतिः कुलक्षयदोषविधिना बाध्यते। यथाऔदुम्बरीं स्पृष्ट्वोद्गायेत् इति स्पर्शनविधिना विरुद्धा सतीऔदुम्बरी सर्वा वेष्टयितव्या इति सर्ववेष्टनस्मृतिर्बाध्यते लोभमूलकत्वात्तद्वत्। नहि विधिमात्राद्यत्किंचित्कर्तव्यम्। श्येनादीनामधर्मरूपाणामप्यवश्यानुष्ठेयत्वापत्तेः। तस्माद्यत्फलतो न दुष्यति तदेव विहितं धर्मरूपमनुष्ठेयम्। यथोक्तम्फलतोऽपि च यत्कर्म नानर्थेनानुबध्यते। केवलं प्रीतिहेतुत्वात्तद्धर्म इति कथ्यते। इति। श्येनादिवत्पापानुबन्धित्वात् युद्धं त्याज्यमेवेत्यर्थः।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।1.38।। ननु स्वजनहिंसाकृतस्य दोषस्योभयेषां समानत्वाद्यथा ते पापं न पश्यन्ति तथा भवद्भिरपि न ज्ञेयमिति चेत्तग्राह यद्यपीति। लोभेनोपहतं चेतो येषां ते लोभोपहतचेतस्त्वादेते कुलक्षयकृतं दोषं मित्राणां द्रोहे च पातकं यद्यपि न पश्यन्ति तथाप्यस्माभिः कथं न ज्ञेयमिति परेणान्वयः।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।1.38 1.39।। Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।1.38।। ननु ये स्वजनत्वादिवधदोषमविचार्य प्रवृत्तास्ते निवृत्तमपि त्वां हनिष्यन्त्यतस्त्वमप्यविचार्यैवैतान्मारयेत्याशङ्क्याह यद्यप्येत इति द्वाभ्याम्। लोभेन उपहतं विभ्रंशितं चेतो मनो येषां ते एते धार्त्तराष्ट्राः कुलक्षयकृतं कुलक्षयकरणं दोषं यद्यपि न पश्यन्ति मित्रद्रोहे च यत्पातकं तन्न पश्यन्ति तथापि पातकं तु भविष्यत्येवेत्यर्थः।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।1.38।। No commentary.
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।1.38।। यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुये ये लोग कुलनाशकृत दोष और मित्र द्रोह में पाप नहीं देखते हैं।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।1.38 – 1.39।। यद्यपि लोभ के कारण जिनका विवेक-विचार लुप्त हो गया है, ऐसे ये (दुर्योधन आदि) कुल का नाश करने से होनेवाले दोष को और मित्रों के साथ द्वेष करने से होनेवाले पाप को नहीं देखते, (तो भी) हे जनार्दन! कुल का नाश करने से होनेवाले दोष को ठीक-ठीक जाननेवाले हमलोग इस पाप से निवृत्त होने का विचार क्यों न करें;
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।1.38।।**व्याख्या–‘यद्यप्येते न पश्यन्ति ৷৷. मित्रद्रोहे च
पातकम्’–**इतना मिल गया, इतना और मिल जाय; फिर ऐसा मिलता ही रहे–ऐसे धन,
जमीन, मकान, आदर, प्रशंसा, पद, अधिकार आदिकी तरफ बढ़ती हुई वृत्तिका नाम
‘लोभ’ है। इस लोभ-वृत्तिके कारण इन दुर्योधनादिकी विवेक-शक्ति लुप्त हो गयी
है, जिससे वे यह विचार नहीं कर पा रहे हैं कि जिस राज्यके लिये हम इतना
बड़ा पाप करने जा रहे हैं, कुटुम्बियोंका नाश करने जा रहे हैं, वह राज्य
हमारे साथ कितने दिन रहेगा और हम उसके साथ कितने दिन रहेंगे; हमारे रहते
हुए यह राज्य चला जायगा तो हमारी क्या दशा होगी; और राज्यके रहते हुए हमारे
शरीर चले जायेंगे तो क्या दशा होगी क्योंकि मनुष्य संयोगका जितना सुख लेता
है, उसके वियोगका उतना दुःख उसे भोगना ही पड़ता है। संयोगमें इतना सुख नहीं
होता जितना वियोगमें दुःख होता है। तात्पर्य है कि अन्तःकरणमें लोभ छा
जानेके कारण इनको राज्य-ही-राज्य दीख रहा है। कुलका नाश करनेसे कितना भयंकर
पाप होगा, वह इनको दीख ही नहीं रहा है।
जहाँ लड़ाई होती है, वहाँ समय, सम्पत्ति, शक्तिका नाश हो जाता है। तरह-तरह
की चिन्ताएँ और आपत्तियाँ आ जाती हैं। दो मित्रोंमें भी आपसमें खटपट मच
जाती है, मनोमालिन्य हो जाता है। कई तरहका मतभेद हो जाता है। मतभेद होनेसे
वैरभाव हो जाता है। जैसे द्रुपद और द्रोण–दोनों बचपनके मित्र थे। परन्तु
राज्य मिलनेसे द्रुपदने एक दिन द्रोणका अपमान करके उस मित्रताको ठुकरा
दिया। इससे राजा द्रुपद और द्रोणाचार्यके बीच वैरभाव हो गया। अपने अपमानका
बदला लेनेके लिये द्रोणाचार्यने मेरेद्वारा राजा द्रुपदको परास्त कराकर
उसका आधा राज्य ले लिया। इसपर द्रुपदने द्रोणाचार्यका नाश करनेके लिये एक
यज्ञ कराया, जिससे धृष्टद्युम्न और द्रौपदी–दोनों पैदा हुए। इस तरह
मित्रोंके साथ वैरभाव होनेसे कितना भयंकर पाप होगा, इस तरफ ये देख ही नहीं
रहे हैं!
विशेष बात
अभी हमारे पास जिन वस्तुओंका अभाव है, उन वस्तुओंके बिना भी हमारा काम चल
रहा है, हम अच्छी तरहसे जी रहे हैं। परन्तु जब वे वस्तुएं हमें मिलनेके बाद
फिर बिछुड़ जाती हैं, तब उनके अभावका बड़ा दुःख होता है। तात्पर्य है कि
पहले वस्तुओंका जो निरन्तर अभाव था, वह इतना दुःखदायी नहीं था, जितना
वस्तुओंका संयोग होकर फिर उनसे वियोग होना दुःखदायी है। ऐसा होनेपर भी
मनुष्य अपने पास जिन वस्तुओंका अभाव मानता है, उन वस्तुओंको वह लोभके कारण
पानेकी चेष्टा करता रहता है। विचार किया जाय तो जिन वस्तुओंका अभी अभाव है,
बीचमें प्रारब्धानुसार उनकी प्राप्ति होनेपर भी अन्तमें उनकी अभाव ही
रहेगा। अतः हमारी तो वही अवस्था रही, जो कि वस्तुओंके मिलनेसे पहले थी।
बीचमें लोभके कारण उन वस्तुओंको पानेके लिये केवल परिश्रम-ही-परिश्रम पल्ले
पड़ा, दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ा। बीचमें वस्तुओंके संयोगसे जो थोड़ा-सा सुख
हुआ है, वह तो केवल लोभके कारण ही हुआ है। अगर भीतरमें लोभ-रूपी दोष न हो,
तो वस्तुओंके संयोगसे सुख हो ही नहीं सकता। ऐसे ही मोहरूपी दोष न हो, तो
कुटुम्बियोंसे सुख हो ही नहीं सकता। लालचरूपी दोष न हो, तो संग्रहका सुख हो
ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि संसारका सुख किसी-न-किसी दोषसे ही होता है।
कोई भी दोष न होनेपर संसारसे सुख हो ही नहीं सकता। परन्तु लोभके कारण
मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता। यह लोभ उसके विवेकविचारको लुप्त कर देता
है।
**‘कथं न ज्ञेयमस्माभिः ৷৷৷৷ प्रपश्यद्भिर्जनार्दन’–**अब अर्जुन अपनी बात
कहते हैं कि यद्यपि दुर्योधनादि अपने कुलक्षयसे होनेवाले दोषको और
मित्रद्रोहसे होनेवाले पापको नहीं देखते, तो भी हमलोगोंको कुलक्षयसे
होनेवाली अनर्थ-परम्पराको देखना ही चाहिये [जिसका वर्णन अर्जुन आगे
चालीसवें श्लोकसे चौवालीसवें श्लोकतक करेंगे़]; क्योंकि हम कुलक्षयसे
होनेवाले दोषोंको भी अच्छी तरहसे जानते हैं और मित्रोंके साथ द्रोह-(वैर,
द्वैष-) से
होनेवाली पापको भी अच्छी तरहसे जानते हैं। अगर वे मित्र हमें दुःख दें, तो वह दुःख हमारे लिये अनिष्टकारक नहीं है। कारण कि दुःखसे तो हमारे पूर्वपापोंका ही नाश होगा, हमारी शुद्धि ही होगी। परन्तु हमारे मनमें अगर द्रोह–वैरभाव होगा, तो वह मरनेके बाद भी हमारे साथ रहेगा और जन्म-जन्मान्तर-तक हमें पाप करनेमें प्रेरित करता रहेगा, जिससे हमारा पतन-ही-पतन होगा। ऐसे अनर्थ करनेवाले और मित्रोंके साथ द्रोह पैदा करनेवाले इस युद्धरूपी पापसे बचनेका विचार क्यों नहीं करना चाहिये; अर्थात् विचार करके हमें इस पापसे जरूर ही बचना चाहिये। यहाँ अर्जुनकी दृष्टि दुर्योधन आदिके लोभकी तरफ तो जा रही है, पर वे खुद कौटुम्बिक स्नेह-(मोह-) में आबद्ध होकर बोल रहे हैं–इस तरफ उनकी दृष्टि नहीं जा रही है। इस कारण वे अपने कर्तव्यको नहीं समझ रहे हैं। यह नियम है कि मनुष्यकी दृष्टि जबतक दूसरोंके दोषकी तरफ रहती है, तबतक उसको अपना दोष नहीं दीखता ,उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारेमें यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्थामें वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारेमें भी कोई दूसरा दोष हो सकता है। दूसरा दोष यदि न भी हो तो भी दूसरोंका दोष देखना– यह दोष तो है ही। दूसरोंका दोष देखना एवं अपनेमें अच्छाईका अभिमान करना–ये दोनों दोष साथमें ही रहते हैं। अर्जुनको भी दुर्योधन आदिमें दोष दीख रहे हैं और अपनेमें अच्छाईका अभिमान हो रहा है (अच्छाईके अभिमानकी छायामें मात्र दोष रहते हैं), इसलिये उनको अपनेमें मोहरूपी दोष नहीं दीख रहा है।
***सम्बन्ध–***कुलका क्षय करनेसे होनेवाले जिन दोषोंको हम जानते हैं, वे दोष कौन-से हैं; उन दोषोंकी परम्परा आगेके पाँच श्लोकोंमें बताते हैं।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
1.38. Of course, these (Dhrtarastra’s sons), with their intellect overpowered by greed, do not see the evil conseences ensuing from the ruin of the family and the sin in cheating friends.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
1.38 1.39 O Janardana, although these people, whose hearts have become perverted by greed, do not see the evil arising from destroying the family and sin in hostility towards, friends, yet how can we who clearly see the evil arising from destroying the family remain unaware of (the need of) abstaining from this sin;
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
1.38 Although these men, blinded by greed, see no guilt in destroying their kin, or fighting against their friends,
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
1.38 Though these people, whose minds are overpowered by greed, see no evil in the destruction of a clan and no sin in treachery to friends,
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
1.38. Though they, with intelligence overpowered by greed, see no evil in the destruction of families, and no sin in hostility to friends,
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
1.38 यद्यपि though; एते these; न not; पश्यन्ति see; लोभोपहतचेतसः with intelligence overpowered by greed; कुलक्षयकृतम् in the destruction of families; दोषम् evil; मित्रद्रोहे in hostility to friends; च and; पातकम् sin.No Commentary.