(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
एतान् न हन्तुम् इच्छामि
घ्नतोऽपि मधु-सूदन।
अपि त्रैलोक्य-राज्यस्य
हेतोः किं नु मही-कृते॥1.35॥+++(5)+++
(सं) मूलम् ...{Loading}...
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते।।1.35।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।1.35।। अन्तिमश्लोकव्याख्या दृश्या।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।। 1.35।। No commentary.
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, ‘I will not fight.’ He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।1.35 1.44।। निहत्येत्यादि। आततायिनां हनने पापमेव कर्तृ। अतोऽयमर्थः पापेन तावदेतेऽस्मच्छत्रवो हताः परतन्त्रीकृताः। तांश्च निहत्यास्मानपि पापमाश्रयेत् +++(S omits पापम्)+++। पापमत्र लोभादिवशात् +++(S लोभवशात्)+++ कुलक्षयादिदोषादर्शनम् +++(S दोषदर्शनम्)+++। अत एव कुलादिधर्माणामुपक्षेपं +++(K कुलक्षयादि N क्षेपकम्)+++ करोति स्वजनं हि कथमित्यादिना।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
1.35 – 1.44 Nihatya etc. upto anususruma. Sin alone is the agent in the act of slaying these desperadoes. Therefore here the idea is this : These ememies of ours have been slain, i.e., have been take possession of, by sin. Sin would come to us also after slaying them. Sin in this context is the disregard, on account of greed etc., to the injurious conseences like the ruination of the family and the like. That is why Arjuna makes a specific mention of the [ruin of the] family etc., and of its duties in the passage ‘How by slaying my own kinsmen etc’. The act of slaying, undertaken with an individualizing idea about its result, and with a particularizing idea about the person to be slain, is a great sin. To say this very thing precisely and to indicate the intensity of his own agony, Arjuna says only to himself [see next sloka]:
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।1.35।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।1.35।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
1.35 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।1.35।। Sri Sankaracharya did not comment on this sloka.
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
1.35 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।1.35।। पृथिवीप्राप्त्यर्थं हि हननमेतेषामिष्यते न च तत्प्राप्तिः
समीहितेति कैमुतिकन्यायेन दर्शयति अपीति। नहि महदपि त्रैलोक्यलक्षणं
राज्यं लब्धुं स्वजनहिंसायै मनो मदीयं स्पृहयति पृथिवीप्राप्त्यर्थं
पुनर्बन्धुवधं न श्रद्दधामीति किं वक्तव्यमित्यर्थः। दुर्योधनादीनां
शत्रूणां निग्रहे प्रीतिप्राप्तिसंभवाद्युद्धं कर्तव्यमित्याशङ्क्याह
**निहत्येति।
**
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।1.35।। नन्वंन्यान्विहाय धार्तराष्ट्रा एव हन्तव्यास्तेषामत्यन्तक्रूरतरतत्तद्दुःखदातृणां वधे प्रीतिसंभवादित्यत आह धार्तराष्ट्रान्दुर्योधनादीन्भ्रातॄन्निहत्य स्थितनामस्माकं का प्रीतिः स्यात्। न कापीत्यर्थः। नहि मूढजनोचितक्षणमात्रवर्तिसुखाभासलोभेन चिरतरनरकयातनाहेतुर्बन्धुवधोऽस्माकं युक्त इति भावः। जनार्दनेति संबोधनेन यदि वध्या एते तर्हि त्वमेवैताञ्जहि प्रलये सर्वजनहिंसकत्वेऽपि सर्वपापासंसर्गित्वादिति सूचयति। ननुअग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते ह्याततायिनः।। इति स्मृतेरेतेषां च सर्वप्रकारैराततायित्वात्आतताययिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन।। इति वचनेन दोषाभावप्रतीतेर्हन्तव्या एव दुर्योधनादय आततायिन इत्याशङ्क्याह पापमेवेति। एतानाततायिनोऽपि हत्वा स्थितानस्मान्पापमाश्रयेदेवेति संबन्धः। अथवा पापमेवाश्रयेन्न किंचिदन्यद्दृष्टदृष्टं वा प्रयोजनमित्यर्थः। न हिंस्यात् इति धर्मशास्त्रात्आततायिनं हन्यात् इत्यर्थशास्त्रस्य दुर्बलत्वात्। तदुक्तं याज्ञवल्क्येन स्मृत्योर्विरोधे न्यायस्तु बलवान्व्यवहारतः। अर्थशास्त्रात्तु बलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थितिः।। इति। अपरा व्याख्या। ननु धार्ताराष्ट्रान्घ्नतां भवतां प्रीत्यभावेऽपि युष्मान्घ्नतां धार्तराष्ट्राणां प्रीतिरस्त्येवातस्ते युष्मान्हन्युरित्यत आह पापमेवेति। अस्मान्हत्वा स्थितानेतानाततायिनो धार्ताराष्ट्रान्पूर्वमपि पापिनः सांप्रतमपि पापमेवाश्रयेन्नान्यत्किंचित्सुखमित्यर्थः। तथा चायुध्यतोऽस्मान्हत्वैत एव पापिनो भविष्यन्ति नास्माकं कापि क्षतिः पापासंबन्धादित्यभिप्रायः।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।1.35।। हन्तुं इच्छापि मम न भवति किमुत हन्तृत्वमित्यर्थः। महीकृते पृथिव्यर्थे।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।1.35।। ननु स्वराज्यपरिपन्थिनामाततायिनां हननमेव युक्तंजिघांसन्तं जिघांसीयात् इति न्यायेनैतेषां हनने दोषाभावादित्याशङ्क्याह एतानिति। अपि त्रेलोक्यराज्यस्य हेतोर्घ्नातोऽप्येतानित्यन्वयः। पृथिवीप्राप्तयर्थं हि हननमेतेषामिष्यते नच तत्प्राप्तिः समीहितेति कैमुत्यन्यायेन दर्शयति अपीति। नहि महदपि त्रेलोक्यराज्यं लब्धुं स्वजनहिंसायै मनो मदीयं स्पृहयति पृथिवीप्राप्त्यर्थं पुनर्बन्धुवधं न श्रद्दध्यामिति किं वक्तव्यमित्यर्थ इति प्राञ्चः। मधोः सूदनेन त्वयापि स्वपुत्ररक्षणं कृतमिति कथमस्माभिः संबन्धिनाशः कर्तव्य इति ध्वनयन्संबोधयति मधुसूदनेति। यद्वा मधुरित्युपलक्षणं कैटभस्यापि। मधुकैटभयो रजस्तमसोः सूजनस्त्वं स्वभक्तं मां तदुभयात्मकेऽस्मिन्घोरे कर्मणि नियोजयितुं नार्हसीति सूचयन्नाह मधुसूदनेति। मधुसूदनेति संबोधयन् वैदिकमार्गप्रवर्तक्रत्वं भगवतः सूचयतीति केचित्।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।1.34 1.37।। Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।1.35।। ननु त्वत्सम्बन्धिनोऽपि ये युद्धार्थमुपस्थितास्तांश्चेत् त्वं न मारयिष्यसि तदा त एव त्वां मारयिष्यन्तीति चेत्तत्राह एतानिति। हे मधुसूदन मां घ्नतोऽपि एतानहं हन्तुं नेच्छामि। मधुसूदनेति सम्बोधनेन त्वत्सहायवन्तं मामेते मारयितुमेव न समर्था इति ज्ञाप्यते। त्रैलोक्यराज्यस्यापि हेतोस्तथाकर्तुं नेच्छामि किं पुनः महीकृते तथा करिष्यामि
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।। 1.35 ननु यदि कृपया त्वमेतान्न हंसि त्वामेते राज्यलोभेन हनिष्यन्त्येव। अतस्त्वमेवैतान्हत्वा राज्यं भुङ्क्ष्व तत्राह एतान्नेति सार्धेन। घ्नतोऽप्यस्मान्घातयतोऽप्येतांस्त्रैलोक्यराज्यस्यापि हेतोस्तत्प्राप्त्यर्थमप्यहं हन्तुं नेच्छामि। किं पुनर्महीमात्रप्राप्त्यर्थमित्यर्थः।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।1.35।। यह विचार कर कि संभवत उसने अपने पक्ष को श्रीकृष्ण के समक्ष अच्छी प्रकार दृढ़ता से प्रस्तुत नहीं किया है जिससे कि भगवान् उसके मत की पुष्टि करें अर्जुन व्यर्थ में त्याग की बातें करता है। वह यह दर्शाना चाहता है कि वह इतना उदार हृदय है कि उसके चचेरे भाई उसको मार भी डालें तो भी वह उन्हें मारने को तैयार नहीं होगा। अतिशयोक्ति की चरम सीमा पर वह तब पहुँचता है जब वह घोषणा करता है कि त्रैलोक्य का राज्य मिलता हो तब भी वह युद्ध नहीं करेगा फिर केवल हस्तिनापुर के राज्य की बात ही क्या है।
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।1.35।। हे मधुसूदन ! इनके मुझे मारने पर अथवा त्रैलोक्य के राज्य के लिये भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए कहना ही क्या है।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।1.34 – 1.35।। (टिप्पणी प₀ 24.1) आचार्य, पिता, पुत्र और उसी प्रकार पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा अन्य जितने भी सम्बन्धी हैं, मुझपर प्रहार करने पर भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, और हे मधुसूदन! मुझे त्रिलोकी का राज्य मिलता हो, तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वीके लिये तो (मैं इनको मारूँ ही) क्या;
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।1.35।।व्याख्या–[भगवान् आगे सोलहवें अध्यायके इक्कीसवें
श्लोकमें कहेंगे कि काम, क्रोध और लोभ–ये तीनों ही नरकके द्वार हैं।
वास्तवमें एक कामके ही ये तीन रूप हैं। ये तीनों सांसारिक वस्तुओं,
व्यक्तियों आदिको महत्त्व देनेसे पैदा होते हैं। काम अर्थात् कामनाकी दो
तरहकी क्रियाएँ होती हैं–इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टकी निवृत्ति। इनमेंसे
इष्टकी प्राप्ति भी दो तरहकी होती है–संग्रह करना और सुख भोगना। संग्रहकी
इच्छाका नाम ‘लोभ’ है और सुखभोगकी इच्छाका नाम ‘काम’ है। अनिष्टकी
निवृत्तिमें बाधा पड़नेपर ‘क्रोध’ आता है अर्थात् भोगोंकी, संग्रहकी
प्राप्तिमें बाधा देनेवालोंपर अथवा हमारा अनिष्ट करनेवालोंपर, हमारे शरीरका
नाश करनेवालोंपर क्रोध आता है जिससे अनिष्ट करनेवालोंका नाश करनेकी क्रिया
होती है। इससे सिद्ध हुआ कि युद्धमें मनुष्यकी दो तरहसे ही प्रवृत्ति होती
है –अनिष्टकी निवृत्तिके लिये अर्थात् अपने ‘क्रोध’ को सफल बनानेके लिये
और इष्टकी प्राप्तिके लिये अर्थात् ‘लोभ’ की पूर्तिके लिये। परन्तु अर्जुन
यहाँ इन दोनों ही बातोंका निषेध कर रहे हैं]
‘आचार्याः पितरः৷৷. किं नु महीकृते’––अगर हमारे ये कुटुम्बीजन अपनी
अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर मेरेपर प्रहार करके मेरा वध भी करना
चाहें, तो भी मैं अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर इनको मारना
नहीं चाहता। अगर ये अपनी इष्टप्राप्तिके लिये राज्यके लोभमें आकर मेरेको
मारना चाहें, तो भी मैं अपनी इष्टप्राप्तिके लिये लोभमें आकर इनको मारना
नहीं चाहता। तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध और लोभमें आकर मेरेको नरकोंका दरवाजा
मोल नहीं लेना है।
यहाँ दो बार अपि पदका प्रयोग करनेमें अर्जुनका आशय यह है कि मैं इनके
स्वार्थमें बाधा ही नहीं देता तो ये मुझे मारेंगे ही क्यों; पर मान लो कि
पहले इसने हमारे स्वार्थमें बाधा दी’ है ऐसे विचारसे ये मेरे शरीरका नाश
करनेमें प्रवृत्त हो जायँ तो भी (घ्नतोऽपि) मैं इनको मारना नहीं
चाहता। दूसरी बात इनको मारनेसे मुझे
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
1.35. By slaying Dhrtarastra’s sons what joy would be to go us, O Janardana;
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
1.35 O Madhusudana, even if I am killed, I do not want to kill these even for the sake of a kingdom extending over the three worlds; what to speak of doing so for the earth!
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
1.35 I would not kill them, even for three worlds; why then for this poor earth; It matters not if I myself am killed.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
1.35 These I would not slay, though they might slay me, even for the sovereignty of the three worlds - how much less for this earth O Krsna;
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
1.35. These I do not wish to kill, though they kill me, O Krishna, even for the sake of dominion over the three worlds; leave alone killing them for the sake of the earth.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
1.35 एतान् these; न not; हन्तुम् to kill; इच्छामि (I) wish; घ्नतःअपि even if they kill me; मधुसूदन O Madhusudana (the slayer of Madhu; a demon); अपि even; त्रैलोक्यराज्यस्य dominion over the three worlds; हेतोः for the sake of; किम् how; नु then; महीकृते for the sake of the earth.No Commentary.