(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
आचार्याः पितरः पुत्रास्
तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः
श्यालाः सम्बन्धिनस् तथा +++(उपस्थिताः)+++॥1.34॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।1.34।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।1.34।। अन्तिमश्लोकव्याख्या दृश्या।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।।1.34।। No commentary.
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, ‘I will not fight.’ He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।1.30 1.34।। न च श्रेयोऽनुपश्यामीत्यादि। अमी आचार्यदयः इति विशेषबुद्ध्या +++(N शेषबुद्ध्या)+++ बुद्धौ आरोप्यमाणाः वधकर्मतया अवश्यं पापदायिनः। तथा भोगसुखादिदृष्टार्थमेतद्युद्धं क्रियते इति बुद्ध्या क्रियमाणं युद्धे +++(S युद्धेषु वध्य K युद्धेष्ववध्य )+++ वध्यहननादि तदवश्यं पातककारि इति पूर्वपक्षाभिप्रायः। अत एव स्वधर्ममात्रतयैव कर्माणि अनुतिष्ठ न विशेषधियेति उत्तरं दास्यते।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
1.30 1.34 Na ca sreyah, etc., upto mahikrte. Those who are wrongly conceived as object of slaying, with the individualizing idea that ’these are my teachers etc.‘8 would necessarily generate sin. Similarly, the act of slaying even of those deserving to be slain in the battle-if undertaken with the idea that ‘This battle is to be fought for the apparent results like pleasures, happiness etc.’- then it generates sin necessarily. This idea lurks in the objection [of Arjuna]. That is why a reply is going to be given [by Bhagavat] as ‘You must undertake actions simply as your own duty, and not with an individualizing idea’.
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।1.34।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।1.34।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
1.34 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।1.34।। Sri Sankaracharya did not comment on this sloka.
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
1.34 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।1.34।।मातुला इति। श्याला भार्याणां भ्रातरो धृष्टद्युम्नप्रभृतयः।
वध्येष्वपि स्वराज्यपरिपन्थिष्वाततायिषु कृपाबुद्ध्या
स्वधर्माद्युद्धात्पूर्वोक्तमोहादिवशात्प्रच्युतिं प्रदर्शयति
**एतानिति।**जिघांसन्तं जिघांसीयात् इति न्यायादेतेषां हिंसा न
दोषायेत्याशङ्क्याह **घ्नतोऽपीति।
**
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।1.34।। येषामर्थे राज्याद्यपेक्षितं तेऽत्र नागता इत्याशङ्क्य तान्विशिनष्टि स्पष्टम्। ननु यदि कृपया त्वमेतान्न हंसि तर्हि त्वामेते राज्यलोभेन हनिष्यन्त्येव अतस्त्वमेवैतान्हत्वा राज्यं भुङ्क्ष्वेत्यत आह त्रैलोक्यराज्यस्यापि हेतोः तत्प्राप्त्यर्थमपि अस्मान्घ्नतोऽप्येतान्न हन्तुमिच्छामि इच्छामपि न कुर्यामहं किं पुनर्हन्याम् महीमात्रप्राप्तये तु न हन्यामिति किमु वक्तव्यमित्यर्थः। मधुसूदनेति संबोधयन्वैदिकमार्गप्रवर्तकत्वं भगवतः सूचयति।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।1.34।। स्याला इति स्यालशब्दो दन्त्यादिः। वि जामातुरुत वाघा स्यालात् इति मन्त्रवर्णात्। स्याल्लाजानावपतीति वा लाजा लाजतेः स्यं शूर्पं स्यतेः इति यास्कः।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।1.34।। तान्विशिनष्टि आचार्या इति। मातुला जननीभ्रातरः। भार्याभ्रातारः स्यालाः। स्पष्टमन्यत्।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।1.34 1.37।। Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।1.34।। तान् सर्वान्नामभिर्गणयति आचार्या इति। एते राज्यभोगे नियुक्तास्ते त्वत्र मरणार्थमुपस्थितास्तन्मारणानन्तरं स्वस्यानपेक्षितत्वात् राज्यभोगसुखादिभिर्न किञ्चित्कार्यमित्यर्थः।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।1.34।। ननु यदि कृपया त्वमेतान्न हंसि त्वामेते राज्यलोभेन हनिष्यन्त्येव। अतस्त्वमेवैतान्हत्वा राज्यं भुङ्क्ष्व तत्राह एतान्नेति सार्धेन। घ्नतोऽप्यस्मान्घातयतोऽप्येतांस्त्रैलोक्यराज्यस्यापि हेतोस्तत्प्राप्त्यर्थमप्यहं हन्तुं नेच्छामि। किं पुनर्महीमात्रप्राप्त्यर्थमित्यर्थः।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।1.34।। एक ही क्षत्रिय परिवार के लोगों के बीच होने जा रहे इस गृहयुद्ध
के विरुद्ध अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण को अन्य तर्क भी देता है। भावाविष्ट
अर्जुन अपने कायरतापूर्ण पलायन के लिये अनेक तर्क देकर अपने विचार को उचित
सिद्ध करना चाहता है जबकि भाग्य से प्राप्त कर्तव्य करने से वास्तव में वह
दूर भाग रहा है।
उसने जो कुछ पहले कहा था उसी को वह दोहराता रहता है क्योंकि श्रीकृष्ण अपने
गूढ़ मौन द्वारा उसके तर्क स्वीकार नहीं कर रहे थे। भगवान् के अधरों की
तीक्ष्ण मुस्कान अर्जुन को लज्जित कर रही थी। वह अपने मित्र एवं सारथि
श्रीकृष्ण की अपने विचारों के प्रति स्वीकृति और सहमति चाहता था परन्तु न
तो उनकी दृष्टि के भाव से और न ही उनके शब्दों से उसे इच्छित सहमति मिल रही
थी।
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।1.34।। वे लोग गुरुजन, ताऊ, चाचा, पुत्र, पितामह, श्वसुर, पोते, श्यालक तथा अन्य सम्बन्धी हैं।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।1.34 – 1.35।। (टिप्पणी प₀ 24.1) आचार्य, पिता, पुत्र और उसी प्रकार पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा अन्य जितने भी सम्बन्धी हैं, मुझ पर प्रहार करने पर भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, और हे मधुसूदन! मुझे त्रिलोकी का राज्य मिलता हो, तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिये तो (मैं इनको मारूँ ही) क्या;
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।1.34।।व्याख्या –[भगवान् आगे सोलहवें अध्यायके इक्कीसवें
श्लोकमें कहेंगे कि काम, क्रोध और लोभ–ये तीनों ही नरकके द्वार हैं।
वास्तवमें एक कामके ही ये तीन रूप हैं। ये तीनों सांसारिक वस्तुओं,
व्यक्तियों आदिको महत्त्व देनेसे पैदा होते हैं। काम अर्थात् कामनाकी दो
तरहकी क्रियाएँ होती हैं–इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टकी निवृत्ति। इनमेंसे
इष्टकी प्राप्ति भी दो तरहकी होती है –संग्रह करना और सुख भोगना। संग्रहकी
इच्छाका नाम ‘लोभ’ है और सुखभोगकी इच्छाका नाम ‘काम’ है। अनिष्टकी
निवृत्तिमें बाधा पड़नेपर ‘क्रोध’ आता है अर्थात् भोगोंकी, संग्रहकी
प्राप्तिमें बाधा देनेवालोंपर अथवा हमारा अनिष्ट करनेवालोंपर, हमारे शरीरका
नाश करनेवालोंपर क्रोध आता है, जिससे अनिष्ट करनेवालोंका नाश करनेकी क्रिया
होती है। इससे सिद्ध हुआ कि युद्धमें मनुष्यकी दो तरहसे ही प्रवृत्ति होती
है –अनिष्टकी निवृत्तिके लिये अर्थात् अपने ‘क्रोध’ को सफल बनानेके लिये
और इष्टकी प्राप्तिके लिये अर्थात् ‘लोभ’ की पूर्तिके लिये। परन्तु अर्जुन
यहाँ इन दोनों ही बातोंका निषेध कर रहे हैं]
**‘आचार्याः पितरः৷৷. किं नु महीकृते’–अगर हमारे ये कुटुम्बीजन अपनी
अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर मेरेपर प्रहार करके मेरा वध भी करना
चाहें, तो भी मैं अपनी अनिष्ट-निवृत्तिके लिये क्रोधमें आकर इनको मारना
नहीं चाहता। अगर ये अपनी इष्टप्राप्तिके लिये राज्यके लोभमें आकर मेरेको
मारना चाहें, तो भी मैं अपनी इष्ट-प्राप्तिके लिये लोभमें आकर इनको मारना
नहीं चाहता। तात्पर्य यह हुआ कि क्रोध और लोभमें आकर मेरेको नरकोंका दरवाजा
मोल नहीं लेना है।
यहाँ दो बार‘अपि’**पदका प्रयोग करनेमें अर्जुनका आशय यह है कि मैं इनके
स्वार्थमें बाधा ही नहीं देता तो ये मुझे मारेंगे ही क्यों; पर मान लो कि
‘पहले इसने हमारे स्वार्थमें बाधा दी है’ ऐसे विचारसे ये मेरे शरीरका नाश
करनेमें प्रवृत्त हो जायँ, तो भी (घ्नतोऽपि) मैं इनको मारना नहीं
चाहता। दूसरी बात, इनको मारनेसे मुझे
त्रिलोकीका राज्य मिल जाय, यह तो सम्भावना ही नहीं है, पर मान लो कि इनको
मारनेसे मुझे त्रिलोकीका राज्य मिलता हो तो भी (अपि त्रैलोक्यराज्यस्य
हेतोः) मैं इनको मारना नहीं चाहता।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
1.34. O slayer-of-Mandhu (Krsna)! I do not desire to slay these men-even though they slay me-even for the sake of the kingdom of the three worlds-what to speak for the sake of the [mere] earth.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
1.32 1.34 O Govinda! What need do we have of a kingdom, or what (need) of enjoyments and livelihood; Those for whom kingdom, enjoyments and pleasures ae desired by us, viz teachers, uncles, fathers-in-law, grandsons, brothers-in-law as also relatives-those very ones stand arrayed for battle risking their lives and wealth.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
1.34 Teachers, fathers and grandfathers, sons and grandsons, uncles, father-in-law, brothers-in-law and other relatives.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
1.34 Teachers, fathers, sons and also grandfathers, uncles, fathers-in-law and grandsons, brothers-in-law and other kinsmen—
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
1.34. Teachers, fathers, sons and also grandfathers, maternal uncles, fathers-in-law, grandsons, brothers-in-law and other relatives,-
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
1.34 आचार्याः teachers; पितरः fathers; पुत्राः sons; तथा thus; एव also; च and; पितामहाः grandfathers; मातुलाः maternal uncles; श्वशुराः fathersinlaw; पौत्राः grandsons; श्यालाः brothersinlaw; सम्बन्धिनः relatives; तथा as well as.No Commentary.