(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण
न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द
किं भोगैर् जीवितेन वा॥1.32॥+++(5)+++
(सं) मूलम् ...{Loading}...
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।।1.32।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।1.32।। अन्तिमश्लोकव्याख्या दृश्या।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।। 1.32।। No commentary.
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, ‘I will not fight.’ He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।1.30 1.34।। न च श्रेयोऽनुपश्यामीत्यादि। अमी आचार्यदयः इति विशेषबुद्ध्या +++(N शेषबुद्ध्या)+++ बुद्धौ आरोप्यमाणाः वधकर्मतया अवश्यं पापदायिनः। तथा भोगसुखादिदृष्टार्थमेतद्युद्धं क्रियते इति बुद्ध्या क्रियमाणं युद्धे +++(S युद्धेषु वध्य K युद्धेष्ववध्य )+++ वध्यहननादि तदवश्यं पातककारि इति पूर्वपक्षाभिप्रायः। अत एव स्वधर्ममात्रतयैव कर्माणि अनुतिष्ठ न विशेषधियेति उत्तरं दास्यते।
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
1.30 1.34 Na ca sreyah, etc., upto mahikrte. Those who are wrongly conceived as object of slaying, with the individualizing idea that ’these are my teachers etc.‘8 would necessarily generate sin. Similarly, the act of slaying even of those deserving to be slain in the battle-if undertaken with the idea that ‘This battle is to be fought for the apparent results like pleasures, happiness etc.’- then it generates sin necessarily. This idea lurks in the objection [of Arjuna]. That is why a reply is going to be given [by Bhagavat] as ‘You must undertake actions simply as your own duty, and not with an individualizing idea’.
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।1.32।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।1.32।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
1.32 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।1.32।। Sri Sankaracharya did not comment on this sloka.
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
1.32 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।1.32।। प्राप्तानां युयुत्सूनां हिंसया विजयो राज्यं सुखानि च लब्धुं
शक्यानीति कुतो युद्धादुपरतिरित्याशङ्क्याह न काङ्क्ष इति। किमिति
राज्यादिकं सर्वाकाङ्क्षितत्वान्न काङ्क्ष्यते तेन हि पुत्रभ्रात्रादीनां
स्वास्थ्यमाधातुं शक्यमित्याशङ्क्याह किमिति। राज्यादीनामाक्षेपे
हेतुमाह **येषामिति।
**
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।1.32।। ननु माभूददृष्टं प्रयोजनं दृष्टप्रयोजनानि तु विजयो राज्यं सुखानि च निर्विवादानीत्यत आह पूर्वत्र सुखं परतः फलाकाङ्क्षा ह्युपायप्रवृत्तौ कारणम्। अतस्तदाकाङ्क्षाया अभावात्तदुपाये युद्धे भोजनेच्छाविरहिण इव पाकादौ मम प्रवृत्तिरनुपपन्नेत्यर्थः। कुतः पुनरितरपुरुषैरिष्यमाणेषु तेषु तवानिच्छेत्यत आह किं न इति। भोगैः सुखैर्जीवितेन जीवितसाधनेन विजयेनेत्यर्थः। विना राज्यं भोगान् कौरवविजयं च वने निवसतामस्माकं तेनैव जगति श्लाघनीयजीवितानां किमेभिराकाङ्क्षितैरिति भावः। गोशब्दवाच्यानीन्द्रियाण्यधिष्ठानतया नित्यं प्राप्तस्त्वमेव ममैहिकफलविरागं जानासीति सूचयन्संबोधयति गोविन्देति। राज्यादीनामाक्षेपे हेतुमाह एतेन स्वस्य वैराग्येऽपि स्वीयानामर्थे यतनीयमित्यपास्तम्। एकाकिनो हि राज्याद्यनपेक्षितमेव। येषां तु बन्धूनामर्थे तदपेक्षितं त एते प्राणान्प्राणाशां धनानि धनाशां च त्यक्त्वा युद्धेऽवस्थिता इति न स्वार्थः स्वीयार्थो वायं प्रयत्न इति भावः। भोगशब्दः पूर्वत्र सुखपरतया निर्दिष्टोऽप्यत्र पृथक्सुखग्रहणात्सुखसाधनविषयपरः।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।। 1.32निमित्तानि लोकक्षयकराणि भूमिकम्पादीनि।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।1.32।। ननु युद्धेन शत्रूञ्जित्वा विजयराज्यादिश्रेयसो लाभस्यावश्यंभावात्किमिति नच श्रेयोऽनु पश्यामीत्युच्यते त्वयेति तत्राह न काङ्क्षे इति। हे कृष्णेति संबोधयन्वासुदेवे मनो यस्य जपहोमार्चनादिषु। तस्यान्तरायो मैत्रेयदेवेन्द्रत्वादिकं फलम्।। इति वचनात्स्वभक्त्यन्तरायात्मकस्य विजयराज्यादेः कर्षित्वमेव भक्तस्योपरि तवानुग्रहःयस्यानुग्रहमिच्छामि तस्य वित्तं हराभ्यहम् इति भगवद्वचनात्। तस्माद्विजयादेर्भवद्भक्त्यन्तरायत्वमालोच्यापि। तन्न काङ्क्ष इति ध्वनयति। ननु भवतां भागवतानां स्वार्थे विषये विरक्तानां मास्तु स्वार्थे विजयाद्याकाङ्क्षा स्वसंबन्धिनामर्थे तु तदाकाङ्क्षा युक्तेत्याशङ्क्य येषामर्थे विजयादिकमपेक्षितं ते त्वत्र मरिष्यन्तीति किमस्माकं पाण्डवानां तेनेत्याह किमित्यादिसार्धद्वयेन। नोऽस्माकं राज्येन किम्। तज्जन्य भोगैर्जीवितेन वा किम्। न किमपीत्यर्थः। राज्याद्यपेक्षया वने निवसतामस्माकं कन्दमूलादिना जीवनं स्वजनरक्षणं वरम्। यतः सर्वप्रकारेण स्वबन्धुरक्षणं कर्तव्यमिति स्वजनरक्षणेन लब्धगोविन्दनामा जगद्गुरुस्त्वमेव गोविन्दनाम्ना शंससीति ध्वनयन्संबोधयति हे गोविन्देति। गोशब्दावाच्यानीन्द्रियाण्यधिष्ठानतया नित्यं प्राप्तस्त्वमेव ममैहिकफलविरागं जानासीति संबोधनाशय इति केचित्।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।1.31 1.33।। Sri Vallabhacharya did not comment on this sloka.
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।1.32।। तद्विनाऽहं विजयं राज्यं च न काङ्क्षे तज्जनितानि सुखान्यपि। चकारेण भक्तावपि सुखानि न काङ्क्षे यतो भगवत्तोषहेतुस्ताप एवेति भावः। पुनर्विस्तरेण तदाकाङ्क्षित्वाभावः प्रपञ्चयति किं नो राज्येनेति। नः राज्येन किं भोगैर्वा किं जीवितेन वा किं हे गोविन्द त्वां विना एतैर्न किञ्चित्प्रयोजनमस्माकमिति भावः। गोविन्देति सम्बोधनेन यथा व्रजवासिनां त्वमिन्द्रो भूत्वा सुखभोगं कारितवान् तथैव भक्तानामुचितमिति भावो ज्ञाप्यते।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।1.32।। विजयादिकं फलं किं न पश्यसीति चेत्तत्राह न काङ्क्ष इति। एतदेव प्रपञ्चयति किं न इति सार्धाभ्याम्। यदर्थमस्माकं राज्यादिकमपेक्षितं त एते प्राणधनानि त्यक्त्वा त्यागमङ्गीकृत्य युद्धार्थमवस्थिताः। अतः किमस्माकं राज्यादिभिः कृत्यमित्यर्थः।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।1.32।। बुद्धि से पूर्णतया विलग होकर उसका भ्रमित मन एक पागल के समान
इधरउधर दौड़ता है और मूर्खतापूर्ण निष्कर्षों पर पहुँचता है। वह कहता है
मैं न विजय चाहता हूँ न राज्य और न सुख। यह सुविदित तथ्य है कि यदि उन्माद
(हिस्टीरिया) के रोगी को बोलने दिया जाय तो वह निषेध भाषा में ही रोग का
कारण बताने लगता है। उदाहरणार्थ किसी स्त्री पर उन्माद का दौरा पड़ने पर वह
प्रलाप में कहती है कि वह अपने पति से अभी भी प्रेम करती है पति का वह आदर
करती है और उनमें कोई आपसी मतभेद नहीं है इत्यादि तो इन वाक्यों द्वारा वह
स्वयं ही अपने रोग का वास्तविक कारण बता रही होती है।
इसी प्रकार अर्जुन यह जो सब वस्तुओं की अनिच्छा प्रकट कर रहा है उसी से हम
उसकी मनस्थिति का स्पष्ट कारण जान सकते हैं कि वह विजय चाहता था। वह शीघ्र
ही अपने एवं स्वजनों के लिये राज्य व सुख प्राप्त करने के लिये आतुर था।
परन्तु कौरवों की विशाल सेना और उनमें जानेमाने शूर वीर योद्धाओं को देखकर
उसकी आशा भंग हो गयी महत्त्वाकांक्षा ध्वस्त हो गयी और वह आत्मविश्वास भी
खोने लगा। इस प्रकार वह धीरेधीरे अर्जुनरोग रूपी विषाद की स्थिति में पहुँच
गया जिसके निवारण का विषय ही गीता का प्रतिपाद्य विषय है।
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।1.32।। हे कृष्ण ! मैं न विजय चाहता हूँ, न राज्य और न सुखों को ही चाहता हूँ। हे गोविन्द ! हमें राज्य से अथवा भोगों से और जीने से भी क्या प्रयोजन है;।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।1.32।। हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ, न राज्य चाहता हूँ और न सुखों को ही चाहता हूँ। हे गोविन्द! हमलोगों को राज्य से क्या लाभ; भोगों से क्या लाभ; अथवा जीने से भी क्या लाभ;
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।1.32।।**व्याख्या–‘न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि
च’–**मान लें युद्धमें हमारी विजय हो जाय, तो विजय होनेसे पूरी पृथ्वीपर
हमारा राज्य हो जायगा, अधिकार हो जायगा। पृथ्वीका राज्य मिलनेसे हमें अनेक
प्रकारके सुख मिलेंगे। परन्तु इनमेंसे मैं कुछ भी नहीं चाहता अर्थात् मेरे
मनमें विजय, राज्य एवं सुखोंकी कामना नहीं है।
**‘किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा’–**जब हमारे मनमें किसी
प्रकारकी (विजय, राज्य और सुखकी) कामना ही नहीं है, तो फिर कितना ही बड़ा
राज्य क्यों न मिल जाय, पर उससे हमें क्या लाभ; कितने ही सुन्दर-सुन्दर भोग
मिल जायँ, पर उनसे हमें क्या लाभ; अथवा कुटुम्बियोंको मारकर हम राज्यके सुख
भोगते हुए कितने ही वर्ष जीते रहें, पर उससे भी हमें क्या लाभ; तात्पर्य है
कि ये विजय, राज्य और भोग तभी सुख दे सकते हैं, जब भीतरमें इनकी कामना हो,
प्रियता हो, महत्त्व हो। परन्तु हमारे भीतर तो इनकी कामना ही नहीं है। अतः
ये हमें क्या सुख दे सकते हैं; इन कुटुम्बियोंको मारकर हमारी जीनेकी इच्छा
नहीं है; क्योंकि जब हमारे कुटुम्बी मर जायँगे, तब ये राज्य और भोग किसके
काम आयेंगे; राज्य, भोग आदि तो कुटुम्बके लिये होते हैं, पर जब ये ही मर
जायँगे, तब इनको कौन भोगेगा; भोगनेकी बात तो दूर रही, उलटे हमें और अधिक
चिन्ता, शोक होंगे!
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
1.32. For whose sake we seek kingdom, [its] pleasures and happiness, the very same persons stand arrayed to fight, giving up their life and wealth.
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
1.32 1.34 O Govinda! What need do we have of a kingdom, or what (need) of enjoyments and livelihood; Those for whom kingdom, enjoyments and pleasures ae desired by us, viz teachers, uncles, fathers-in-law, grandsons, brothers-in-law as also relatives-those very ones stand arrayed for battle risking their lives and wealth.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
1.32 Ah my Lord! I crave not for victory, nor for the kingdom, nor for any pleasure. What were a kingdom or happiness or life to me,
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
1.32 I desire no victory, nor empire, nor pleasures. What have we to do with empire, O Krsna, or enjoyment or even life ;
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
1.32. I desire not victory, O Krishna, nor kingdom, nor pleasures. Of what avail is dominion to us, O Krishna, or pleasures or even life;
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
1.32 न not; काङ्क्षे (I) desire; विजयम् victory; कृष्ण O Krishna; न not; च and; राज्यम् kingdom; सुखानि pleasures; च and; किम् what; नः to us; राज्येन by kindom; गोविन्द O Govinda; किम् what; भोगैः by pleasures; जीवितेन life; वा or.No Commentary.