(सं) विश्वास-प्रस्तुतिः ...{Loading}...
सीदन्ति मम गात्राणि
मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश् च शरीरे मे
रोमहर्षश् च जायते॥1.29॥
(सं) मूलम् ...{Loading}...
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।1.29।।
रामानुज-सम्प्रदायः
(सं) रामानुजः मूलम् ...{Loading}...
।।1.29।। अन्तिमश्लोकव्याख्या दृश्या।
(सं) रामानुजः वेङ्कटनाथः ...{Loading}...
।। 1.29।। अथाध्यायशेषस्य सङ्कलितार्थमाह स त्विति। तुशब्देन
पूर्वोक्तप्रकाराद्दुर्योधनात् वक्ष्यमाणप्रकारविशिष्टस्य पार्थस्य विशेषंस
कौन्तेयः इत्यनेनाभिप्रेतं द्योतयति।
बन्धुव्यपदेशमात्रयोग्यशत्रुवधानिच्छया विजयादिकं त्रैलोक्यराज्यावधिकमपि
तृणाय मन्यत इतिमहामना इत्युक्तम्। न काङ्क्षे विजयम् 1।31 इत्यादिकं हि
वदति। शत्रूणामप्यसौ दुःखं न सहत इतिपरमकारुणिकत्वोक्तिःकृपया परयाऽऽविष्टः
इति ह्युक्तम्। पितॄनथ पितामहान्आचार्याः पितरः पुत्राः 1।34
इत्याद्युक्तस्नेहविषयप्राचुर्यंदीर्घबन्धुशब्देनोक्तम् यद्वा बन्धुना
महापकारे कृतेऽपि स्वयं न शिथिलबन्धो भवतीति भावः। सर्वान्बन्धून्स्वजनं हि
1।37 इत्यादिकमिह भाव्यम्। आततायिपक्षस्थानामप्याचार्यादीनां
अहन्तव्यत्वानुसन्धानात् कुलक्षयादिजनिताधर्मपारम्पर्यदर्शनाच्चपरमधार्मिक
इत्युक्तिः। आततायिवधानुज्ञानमाचार्यादिव्यतिरिक्तविषयम् इत्यर्जुनस्य
भावः। सभ्रातृक इति नायमेक एवैवंविधः किन्तु सर्वेऽपि पाण्डवा इति भावः।
एतेनअस्मान्नःवयम्अस्माभिः इत्यादिभिरुक्तं संगृहीतम्। यद्वा न केवलं
स्वापकारमात्रानादरादेष बन्धुवधादिकमुपेक्षते अपितु
आसन्नतराचार्यादिस्थानीयबहुमतिस्नेहदयादिविषयधर्मराजद्रौपद्याद्यपकारेऽपीति
भावः। आचार्यादिवधदोषो भ्रातॄणामपि मा भूदित्यर्जुनाभिप्रायः।
हन्तव्यत्वसूचनायघ्नतोऽपि 1।35 इत्युक्तम्। तद्विवृणोति
भवद्भिरित्यादिना। जतुगृहदाहादिभिरित्यादिना आततायिशब्दोऽपि
व्याख्यातः। अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः। क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते
ह्याततायिनः।। मनुः 8।350.क्षे.23आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।
नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन मनुः8।351 इति हि स्मरन्ति।
आदिशब्देनासकृच्छब्देन चाततायित्वहेतवः प्रत्येकं बहुशः कृताः न
चेदानीमप्युपरतमिति दर्शितम्। अनुपरतिश्चघ्नतोऽपि 1।1।14 इति
वर्तमाननिर्देशेन सूचिता। भवद्भिरित्यनेन धृतराष्ट्रमपिमुह्यन्तमनुमुह्यामि
दुर्योधनममर्षणम् म.भा.1।1।145 इति पुत्रस्नेहवशादनुमन्तारं तत्तुल्यं
व्यपदिशति। एवं च दुर्योधनादीनां सर्वेषामप्यतिलोभोपहतचेतस्त्वादिना महामना
इत्युक्तविपरीतत्वमुक्तं भवति। शकुनिकर्णादिसहायानां धार्तराष्ट्रादीनां
हनिष्यमाणानामपि हतत्वनिश्चयेन शोकोत्पत्त्यर्थमुक्तंपरमपुरुषेति।
परमपुरुषः सहायो यस्येति विग्रहः परमपुरुषस्य सहायो निमित्तमात्रमिति वा।
वक्ष्यति हि मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् 11।33
इति अर्जुनश्च पूर्वं महाबलसहस्रेभ्योऽपि निरायुधस्य परमपुरुषस्य
सन्निधिमात्रमेव विजयहेतुतया निश्चित्य तमेव वव्रे।
स्नेहाद्यस्थानत्वसूचनायभवदीयान्विलोक्येत्युक्तम्। बन्धुस्नेहेनेत्यादि न
ह्यसौ दुर्योधनवत् बन्धुद्वेषनृशंसत्वप्रतिभटभयादिना विषण्णः नापि परेषां
गुणान्निवर्तते न च परमपुरुषसचिवस्य स्वस्य दौर्बल्यादिति भावः। सीदन्ति
1।28 इत्यादेःमनः 1।30 इत्यन्तस्यार्थः
अतिमात्रेत्यादिना संगृहीतः। सखीन् वयस्यान्। सुहृदः वयोविशेषानपेक्षया
हितैषिणः। सेनयोरुभयोरपि एकै स्यां सेनायामेते सर्वे प्रायशो विद्यन्त इति
भावः। समीक्ष्य शास्त्रलोकयात्रायुक्तमवलोक्येत्यर्थः। सर्वान्बन्धून् न
ह्यत्रानागतः कश्चिद्बन्धुरवशिष्यत इति भावः।
(सं) रामानुजः (Eng) आदिदेवानन्दः ...{Loading}...
1.26 - 1.47 Arjuna said - Sanjaya said Sanjaya continued: The high-minded Arjuna, extremely kind, deeply friendly, and supremely righteous, having brothers like himself, though repeatedly deceived by the treacherous attempts of your people like burning in the lac-house etc., and therefore fit to be killed by him with the help of the Supreme Person, nevertheless said, ‘I will not fight.’ He felt weak, overcome as he was by his love and extreme compassion for his relatives. He was also filled with fear, not knowing what was righteous and what unrighteous. His mind was tortured by grief, because of the thought of future separation from his relations. So he threw away his bow and arrow and sat on the chariot as if to fast to death.
अभिनवगुप्त-सम्प्रदायः
(सं) अभिनव-गुप्तः मूलम् ...{Loading}...
।।1.29।। No commentary.
(सं) अभिनव-गुप्तः (Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
1.12 1.29 Sri Abhinavgupta did not comment upon this sloka.
माध्व-सम्प्रदायः
(सं) मध्वः मूलम् ...{Loading}...
।।1.29।। Sri Madhvacharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
(सं) मध्वः जयतीर्थः ...{Loading}...
।।1.29।। Sri Jayatirtha did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.11.
शाङ्कर-सम्प्रदायः
(सं) शङ्करः मूलम् ...{Loading}...
1.29 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
(सं) शङ्करः (हि) हरिकृष्णदासः ...{Loading}...
।।1.29।। Sri Sankaracharya did not comment on this sloka.
(सं) शङ्करः (Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
1.29 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.
(सं) शङ्करः आनन्दगिरिः ...{Loading}...
।।1.29।। अङ्गेषु व्यथा मुखे परिशोषश्चेत्युभयं शोकलिङ्गमुक्तम् संप्रति वेपथुप्रभृतीनि भीतिलिङ्गान्युपन्यस्यति वेपथुश्चेति। रोमहर्षो रोम्णां गात्रेषु पुलकितत्वम्।
(सं) शङ्करः मधुसूदन-सरस्वती ...{Loading}...
।।1.29।। वेपथुः कम्पः। रोमहर्षः पुलकितत्वम्। गाण्डीवभ्रंशेनाधैर्यलक्षणं दौर्बल्यम्। त्वक्परिदाहेन चान्तःसन्तापो दर्शितः।
(सं) शङ्करः नीलकण्ठः ...{Loading}...
।।1.29।। सीदन्ति निश्चेष्टानि भवन्ति। रोमहर्षो रोमाञ्चः।
(सं) शङ्करः धनपतिः ...{Loading}...
।।1.29।। हे कृष्णेति संबोधयन् यल्लोकोपकाराय मदीयज्ञानापकर्षणं त्वयां तन्मया बुद्धमिति गूढाभिसंधि सूचयति। आत्मतत्त्वापरिज्ञानकृताहंकारममकारोत्थयोः शोकमोहयोः लिङ्गानि स्वस्मिन्दर्शयति सीदन्तीत्यादिना। मम युयुत्सुं स्वजनं दृष्ट्वा एते मरिष्यन्तीति शोकेनाविष्टस्य व्याकुलचित्तस्य गात्राण्यङ्गानि सीदन्ति शिथिलानि भवन्ति। वेपुथः कम्पः। रोमहर्षो रोमाञ्चः।
वल्लभ-सम्प्रदायः
(सं) वल्लभः मूलम् ...{Loading}...
।।1.28 1.30।। सीदन्ति इत्युपक्रम्यभ्रमतीव च मे मनः इत्यन्तं देहधर्माभिमानेन विषयदर्शनपूर्वकं स्वस्याश्रयो निवेदयतिनिमित्तानि इत्यादिना।
(सं) वल्लभः पुरुषोत्तमः ...{Loading}...
।।1.29।। वेपथुश्चेति एतत्सर्वं भवति।
संस्कृतटीकान्तरम्
(सं) श्रीधर-स्वामी ...{Loading}...
।।1.29।। किंच वेपथुश्चेति। वेपथुः कम्पः। रोमहर्षो रोमाञ्चः। स्रंसते निपतति। परिदह्यते सर्वतः संतप्यते।
हिन्दी-टीकाः
(हि) चिन्मयानन्दः ...{Loading}...
।।1.29।। मनसंभ्रम के कारण मानसिक रोगी के शरीर में उत्पन्न होने वाले
लक्षणों को यहाँ विस्तार से बताया गया है। जिसे संजय ने करुणा कहा थाउसकी
वास्तविकता स्वयं अर्जुन के शब्दों से स्पष्ट ज्ञात होती है। वह कहता है इन
स्वजनों को देखकर मेरे अंग कांपते हैं इत्यादि।
आधुनिक मनोविज्ञान में एक व्याकुल असन्तुलित रोगी व्यक्ति के उपर्युक्त
लक्षणों वाले रोग का नाम चिन्ताजनित नैराश्य की स्थिति दिया गया है।
(हि) तेजोमयानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
।।1.28 1.29।। अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण ! युद्ध की इच्छा रखकर उपस्थित हुए इन स्वजनों को देखकर मेरे अंग शिथिल हुये जाते हैं, मुख भी सूख रहा है और मेरे शरीर में कम्प तथा रोमांच हो रहा है।
(हि) रामसुखदासः अनुवादः ...{Loading}...
।।1.28 – 1.30।। अर्जुन बोले - हे कृष्ण! युद्ध की इच्छावाले इस कुटुम्ब-समुदाय को अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीर में कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है और मैं खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ।
(हि) रामसुखदासः टीका ...{Loading}...
।।1.29।।**व्याख्या–‘दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं
समुपस्थितम्’–अर्जुनको‘कृष्ण’**नाम बहुत प्रिय था। यह सम्बोधन
गीतामें नौ बार आया है। भगवान् श्रीकृष्णके लिये दूसरा कोई सम्बोधन इतनी
बार नहीं आया है। ऐसे ही भगवान्को अर्जुनका पार्थ’ नाम बहुत प्यारा था।
इसलिये भगवान् और अर्जुन आपसकी बोलचालमें ये नाम लिया करते थे और यह बात
लोगोंमें भी प्रसिद्ध थी। इसी दृष्टिसे सञ्जयने गीताके
अन्तमें‘कृष्ण’**और ‘पार्थ’नामका उल्लेख किया है‘यत्र
योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः’(18। 78)।
धृतराष्ट्रने पहले ‘समवेता युयुत्सवः’कहा था और यहाँ अर्जुनने
भी‘युयुत्सुं समुपस्थितम्’ कहा है; परन्तु दोनोंकी दृष्टियोंमें बड़ा
अन्तर है। धृतराष्ट्रकी दृष्टिमें तो दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं और
युधिष्ठिर आदि पाण्डुके पुत्र हैं–ऐसा भेद है; अतः धृतराष्ट्रने वहाँ
‘मामकाः’और ‘पाण्डवाः’ कहा है। परन्तु अर्जुनकी दृष्टिमें यह
भेद नहीं है; अतः अर्जुनने यहाँ ‘स्वजनम्’ कहा है, जिसमें दोनों
पक्षके लोग आ जाते हैं। तात्पर्य है कि धृतराष्ट्रको तो युद्धमें अपने
पुत्रोंके मरनेकी आशंकासे भय है, शोक है; परन्तु अर्जुनको दोनों ओरके
कुटुम्बियोंके मरनेकी आशंकासे शोक हो रहा है कि किसी भी तरफका कोई भी मरे,
पर वह है तो हमारा ही कुटुम्बी।
अबतक‘दृष्ट्वा’पद तीन बार आया है ‘दृष्ट्वा तु
पाण्डवानीकम्’(1। 2),‘व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्’(1।
20) और यहाँ ‘दृष्ट्वेमं स्वजनम्’(1। 28)। इन तीनोंका तात्पर्य है कि
दुर्योधनका देखना तो एक तरहका ही रहा अर्थात् दुर्योधनका तो युद्धका ही एक
भाव रहा; परन्तु अर्जुनका देखना दो तरहका हुआ। पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्रके
पुत्रोंको देखकर वीरतामें आकर युद्धके लिये धनुष उठाकर खड़े हो जाते हैं और
अब स्वजनोंको देखकर कायरतासे आविष्ट हो रहे हैं युद्धसे उपरत हो रहे हैं और
उनके हाथसे धनुष गिर रहा है।
**‘सीदन्ति मम गात्राणि ৷৷. भ्रमतीव च मे मनः’–**अर्जुनके मनमें युद्धके
भावी परिणामको लेकर चिन्ता हो रही है, दुःख हो रहा है। उस चिन्ता, दुःखका
असर अर्जुनके सारे शरीरपर पड़ रहा है। उसी असरको अर्जुन स्पष्ट शब्दोंमें
कह रहे हैं कि मेरे शरीरका हाथ, पैर, मुख आदि एक-एक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो
रहा है! मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है! सारा शरीर
थर-थर काँप रहा है! शरीरके सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर
रोमाञ्चित हो रहा है! जिस गाण्डीव धनुषकी प्रत्यञ्चाकी टङ्कारसे शत्रु
भयभीत हो जाते हैं, वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथसे गिर रहा है त्वचामें
सारे शरीरमें जलन हो रही है (टिप्पणी प₀ 22.1)। मेरा मन भ्रमित हो
रहा है अर्थात् मेरेको क्या करना चाहिये–यह भी नहीं सूझ रहा है! यहाँ
युद्धभूमिमें रथपर खड़े रहनेमें भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ! ऐसा लगता है कि
मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा! ऐसे अनर्थकारक युद्धमें खड़ा रहना भी एक
पाप मालूम दे रहा है।
***सम्बन्ध–*पूर्वश्लोकमें अपने शरीरके शोकजनित आठ चिह्नोंका वर्णन
करके अब अर्जुन भावी परिणामके सूचक शकुनोंकी दृष्टिसे युद्ध करनेका
अनौचित्य बताते हैं।
आङ्ग्ल-टीकाः
(Eng) शङ्करनारायणः ...{Loading}...
1.29. I am unable even to stand steady; and my mind seems to be confused; and I see adverse omens, O Kesava!
(Eng) गम्भीरानन्दः ...{Loading}...
1.29 And there is trembling in my body, and there is horripillation; the Gandiva (bow) slips from the hand and even the skin burns intensely.
(Eng) पुरोहितस्वामी ...{Loading}...
1.29 My limbs fail me and my throat is parched, my body trembles and my hair stands on end.
(Eng) आदिदेवनन्दः ...{Loading}...
1.29 My limbs are weakened, my mouth gets parched, my body trembles and my hairs stand erect.
(Eng) शिवानन्दः अनुवादः ...{Loading}...
1.29. My limbs fail and my mouth is parched, my body ivers and my hair stands on end.
(Eng) शिवानन्दः टीका ...{Loading}...
1.29 सीदन्ति fail; मम my; गात्राणि limbs; मुखम् mouth; च and; परिशुष्यति is parching; वेपथुः shivering; च and; शरीरे in body; मे my; रोमहर्षः horripilation; च and; जायते arises.No Commentary.