[[श्रीमन्महाभारतम् (शान्तिपर्वणि प्रथमो भागः) Source: EB]]
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PRINTED BY V. VENKATESWARA SASTRULU
OF V. RAMASWAMY SASTRULU & SONS
AT THE ‘VAVILLA’ PRESS, MADRAS.-1935.
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INTRODUCTION
chapters and 14525 stanzas only according to theSouthern Recension. Our remarks regarding thescheme of chapters and total number of stanzas inthe S’ānti Parvan according to the Principal Textprinted are held over for inclusion in Volume XVwhich completes the S’ānti Parvan.
All Manuscripts representative of the SouthernRecension of the S’ānti Parvan, agree in dividingthe S’ānti Parvan into two main sub-parvans, theRādharma Parvan and the Mokşa-dharma Parvan.The former Rājadharma Parvan includes theÃpaddharma section also according to the colophonsin all the Manuscripts. However, we know fromthe Parvasangraha Parvan of the Ādi Parvan(Southern Recension, Vol. I pp. 50-1) that theS’ānti Parvan consists of six sub-parvans—Abhi–şecanikaparvan (chapter 1–33 and 35–38) Cārvāka–nigraha parvan (chapter 34) Gṛhapravibhāgaparvan (chapter 39) Rājadharma Parvan (chapters40–120) Āpaddharma Parvan (chapters 121–148and Mokşadharma Parvan (chapters 149–339). Inediting the Principal Text of the Southern Recension, we have therefore divided the S’ānti Parvaninto the above six sub-parvans, so as to preserve intact the scheme of one hundred sub-parvans forthe entire Mahābhārata.
The distinguishing feature of the Southern Recension of the Rājadharma Parva of the S’anti
Parvan is that the Southern Recension Recension omits chapter xxvi of the Northern Recension wherein Yudhişthira praises to Arjuna the excellence of forest–life and narrates the tale of Yayāti-gitā.
The Presidency College,
P. P. S. SASTRI,
Madras.
Editor.
15-10-1935.
॥श्रीरस्तु॥
महाभारतस्य शान्तिपर्वणि प्रथमो भागः
तत्र
॥ विषयानुक्रमणिका ॥
आभिषेचनिकपर्व
| अध्यायः | |
| १ | गङ्गातीरे व्यासनारदादिभिः युधिष्ठिरसमीपागमनम् |
| नारदेन युधिष्ठिरं प्रति कुशलप्रश्नः | |
| युधिष्ठिरेण नारदं प्रति श्रीभगवद्भागवतानुग्रहेण विजयाशंसनपूर्वकं कर्णवधेन स्वमातृ दुःखकथनम् | |
| कर्णेन कुन्तीं प्रति स्वस्य दुर्योधनपक्षपातकारणकथनम् … | |
| युधिष्ठिरेण कुन्तीकर्णसंवादानुवादपूर्वकं कर्णवधेन स्वस्य दुःखाधिक्यकथनम् | |
| युधिष्ठिरेण नारदं प्रति कर्णस्य कुन्तीसदृशपादत्वादिकारणप्रश्नः | |
| २ | कर्णवृत्तान्तकथनम् |
| कर्णेन भीमार्जुनजिंगीषया द्रोणं प्रति ब्रह्मास्त्रयाचनेऽपि तेन तस्य तदनधिकारकारणकथनम् | |
| कर्णेन स्वस्य परशुरामं प्रति ब्राह्मण्यकथनपूर्वकमस्त्रग्रहणं; कस्यचिद्ब्राह्मणस्य यज्ञीयधेनुहननात् तस्माच्छापप्राप्तिश्च | |
| कर्णेन बहुधा प्रसाद्यमानस्यापि विप्रस्याप्रतिहतशापविषयीभवनपूर्वकं परशुरामसमोपगमनम् | |
| ३ | कर्णोत्सङ्गे परशुरामे निद्राणेसति केन चित् क्रिमिणा कर्णोरुभेदनम् |
शान्तिपर्वविषयानुक्रमणिका
| अध्यायः | |
| ३ | परशुरामदृष्टमात्रेण क्रिमिणा प्राणानुत्सृज्य राक्षसरूपप्राप्तिः क्रिमिणा परशुरामंप्रति स्वस्य नरकान्मोचनकथनपुरस्सरं स्वपूर्ववृत्तान्तकथनम् |
| यास्कनाम्ना क्रिमिणा पूर्वजन्मनि भृगुपत्न्यपहरणेन स्वस्य शापप्राप्तिकथनम् | |
| परशुरामेण कर्णं प्रति सक्रोधं जातिप्रश्ने कर्णेन स्वस्य ब्रह्मक्षत्रान्तरे जनिमत्वकथनम् | |
| परशुरामेण कर्णं प्रति कालविशेषे ब्रह्मास्त्राप्रतिभानरूपशापदानम् | |
| ४ | दुर्योधनेन कलिङ्गराजकन्यातिक्रमासहनम् |
| दुर्योधनेन कलिङ्गराजकन्यापहरणसमये युध्यतां राज्ञां कर्णेन तिरस्करणम् | |
| ५ | कर्णपराक्रमतुष्टेन जरासन्धेन मालिन्यास्यनगरदानेन तत्सम्माननम् |
| कर्णेनेन्द्रप्रार्थितकवचकुण्डलदानात् ब्राह्मणशापाञ्चक्षीणशक्तेः कर्णस्यार्जुनेन हननम् | |
| नारदेन बहुवञ्चकस्य कर्णस्याशोच्यत्वकथनम् | |
| ६ | कुन्त्या कर्णं प्रत्यनुशोचतो युधिष्टिरस्याश्वासनम् |
| युधिष्ठिरेण कुन्तीं प्रति सर्वयोषितां रहस्यभेदनरूपशापदानम् | |
| ७ | युधिष्ठिरेणार्जुनं प्रति सर्वज्ञातिक्षयेण परिशोचनपूर्वकं भैक्षाचरणाशंसनम् |
| युधिष्ठिरेणार्जुन प्रति सर्वविनाशकक्षत्रियाचरणस्य निन्दनपूर्वकं पृथिव्यादिभोगस्य तुच्छत्वकथनम् | |
| युधिष्ठिरेण युद्धे मृतानां प्रसुत्या तत्पितृमात्रादीनां वन्ध्यफलत्वचिन्तनेन शोचनम् | |
| युधिष्ठिरेण दुर्योधनप्रद्वेपविवेचनम् | |
| युधिष्ठिरेणार्जुनादीन् प्रति राज्यप्रशासननियमनपुरस्सर स्वस्य राज्यनैराश्येन वनप्रस्थानकथनम् |
शान्तिपर्वविषयानुक्रमणिका
| अध्यायः | |
| ८ | अर्जुनेन युधिष्ठिरं प्रति विस्तरेण नीत्यनुगुणं स्वाभिप्रायं प्रदर्श्य राज्यस्थितियाचनम् |
| ९ | युधिष्ठिरेणार्जुनं प्रति वानप्रस्थाश्रमस्यैव स्वात्यन्तप्रियत्वकथनम् |
| संसारस्यासारत्वनिरूपणम् | |
| १० | भीमसेनेनयुधिष्ठिरं प्रति क्षात्राचारस्य शास्त्रीयत्वं प्रदर्श्यकथंचिद्राज्यपरिपालनयाचनगर्भेण वचनेन तन्निन्दनम् |
| ११ | अर्जुनेन युधिष्ठिरं प्रतीन्द्रतापससंवादकथनपूर्वकं गृहस्थाश्रमस्य प्राशस्यकथनम्इन्द्रतापससंवादः |
| १२ | नकुलेन युधिष्ठिरं प्रति तत्वार्थकथनपूर्वकं राज्यपरिपालनयाचनम् |
| १३ | सहदेवेन युधिष्ठिरं प्रति प्राक्तनपथानतिलङ्घनयाचनम् |
| १४ | द्रौपद्या युधिष्ठिरं प्रति विस्तरेण राजधर्मकथनपूर्वकं यजनयाजनादिना राज्यसंरक्षणयाचनम् |
| १५ | अर्जुनेन युधिष्ठिरं प्रति दण्डोपायेन प्रजारक्षणस्य श्रेष्ठत्वकथनम् |
| १६ | भीमेन युधिष्ठिरं प्रति सकोपं पूर्ववृत्तस्मारणपूर्वकं च राजनीत्यनुसरणकथनम् |
| १७ | युधिष्टिरेण भीमं प्रति ज्ञानयोगकथनपूर्वकमैहिक भोगस्य क्षुद्रत्वोपदेशः |
| १८ | अर्जुनेन युधिष्ठिरं प्रति जनकतत्पत्नीसंवादकथनपूर्वकं प्रजापालनस्यः योग्यत्वोपदेशः |
| जनकतत्पत्नीसंवादः | |
| १९ | युधिष्ठिरेणार्जुनं प्रति तद्धीर्यश्लाघापूर्वकं तपोमहिमानुवर्णनेन राज्यभोगस्य तुच्छत्वकथनम् |
शान्तिपर्वविषयानुक्रमणिका
| अध्यायः | |
| २० | देवस्थानेन केनचिदर्जुनमतानुसारिणा युधिष्ठिरं प्रति इन्द्रबृहस्पतिसंवादकथनपुरस्सरं यागधर्मस्योत्कर्धप्रपञ्चनम् |
| इन्द्रबृहस्पतिसंवादः | |
| २१ | अर्जुनेन युधिष्ठिरं प्रति पुनरपि क्षत्रियधर्मकथनम् |
| २२ | शङ्खलिखितोपाख्यानकथनम् |
| २३ | राज्यपरिपालननियमनम् |
| २४ | सेनजिदुपाख्यानकथनम् |
| २५ | युधिष्ठिरेण व्यासं प्रति मृतानुस्मरणपूर्वकमनुशोचनम् |
| २६ | अश्मजनकसंवादनिरूपणम् |
| २७ | षोडशराजोपाख्यानकथनम् |
| २८ | नारदपर्वतोपाज्यानकथनम् |
| २९ | सुवर्णष्टीविचरितकथनम् |
| ३० | व्यासयुधिष्ठिरसंवादः |
| युधिष्ठिरेण व्यासं प्रतिज्ञात्यादिवर्धनानुशोचनम् | |
| क्षातधर्माचरणनियमनम् | |
| ३१ | पापकर्मणां तत्प्रायश्चित्तानां च निरूपणम् |
| प्रायश्चित्तानां स्वरूपनिरूपणम् | |
| ३२ | भक्ष्याभक्ष्यनिरूपणम् |
| दानपात्रापात्रनिरूपणम् | |
| ३३ | व्यासेन युधिष्ठिरं प्रति राजधर्मविज्ञानाय भीष्म समीपगमनचोदनम् |
| श्री भगवता भीप्ससमीपगमनशङ्कितं युधिष्ठिरं प्रति व्यासोक्ताचरणनियमनम् | |
| युधिष्ठिरेण सपरिवारं भीष्मं प्रति गन्तुं कुरुनगरप्रवेशः | |
| युधिष्ठिरादीनां कुरुनगरं प्रति प्रस्थानवर्णनम् |
शान्तिपर्वविषयानुक्रमणिका
चार्वाकनिग्रहपर्व
| अध्यायः | |
| ३४ | युधिष्ठिरादीनां कुरुनगरप्रवेशे जनैः द्रौपद्यादीन् प्रत्याशीर्वचनम् |
| युधिष्ठिरेण कुरुनगरे परिचर्याविधानम् | |
| भिक्षुरूपिणा चार्वाकेण युधिष्ठिरं प्रति छद्मना गर्हणम् | |
| युधिष्ठिरेण ब्राह्मणानां प्रसादनम् | |
| चार्वाकभस्मीकरणम् | |
| चार्वाकस्य पूर्ववृत्तकथनम् |
आभिषेचनिकपर्वशेषः
| अध्यायः | |
| श्रीभगवदादिभिर्युधिष्टिरस राज्येऽभिषेचनम् | |
| ब्राह्मणैः युधिष्टिरादीन् प्रत्याशीर्वचनम् | |
| ३६ | युधिष्ठिरेण ब्राह्मणान् प्रति स्वेवामनुग्राह्यत्वप्रार्थनम् |
| युधिष्ठिरेण स्वानुजादीनां तत्तदुचितकृत्येषु नियोजनम् | |
| ३७ | युधिष्ठिरेण ज्ञात्यादीनां श्राद्धकरणम् |
| युधिष्ठिरेण धर्मेण प्रजापरिपालनम् | |
| ३८ | युधिष्ठिरेण श्रीभगवतस्स्तुतिः |
गृहप्रविभागपर्व
| ३८ | युधिष्ठिरेण भ्रातृभ्यो दुर्योधनादिगृहप्रदानम् |
राजधर्मपर्व
| ४० | वैशम्पायनेन जनमेजयं प्रति युधिष्ठिरादीनां राज्यलाभानन्तरकृत्यकथनम् |
| युधिष्ठिरेण श्रीभगवति कृतज्ञतानुसन्धानम् | |
| ४१ | युधिष्ठिरेण ध्यानमास्थितं श्रीभगवन्तं प्रति ध्यानप्रश्नः |
| श्रीभगवता युधिष्ठिरं प्रति स्वस्य भीष्मगोचरध्यानकथनम् |
शान्तिपर्वविषयानुक्रमणिका
| अध्यायः | |
| ४१ | श्रीभगवता युधिष्ठिरं प्रति धर्मश्रवणाय भीष्मसमीपगमनचोदनम् |
| युधिष्ठिरप्रार्थितेन श्रीभगवता भीष्मसमीपप्रस्थानसन्नहनम् | |
| ४२ | भीष्मेण समयविशेषे स्वशरीरत्यागोद्यमनम् |
| भीष्मेण स्वनिर्याणसमये श्रीभगवतस्स्तवनम् | |
| भीष्मकृतः श्रीभगवतस्स्तवराजः | |
| भीष्मनिर्याणकथनम् | |
| ४३ | श्रीभगवदादिभिः कुरुक्षेत्रगमनम् |
| युधिष्ठिरेण श्रीभगवन्तं प्रति परशुरामचरितप्रश्नः | |
| ४४ | परशुरामचरितकथनम् |
| चरुव्यत्यासेन विश्वामित्रपरशुरामयोः ब्राह्मण्यक्षत्रियत्वविनिमयकथनम् | |
| परशुरामपराक्रमकथनम् | |
| भूम्या समुचितरक्षकाभावेन रसातलगमनम् | |
| भूम्या काश्यपं प्रति नामकथनपूर्वकं स्वसंरक्षकप्रार्थनम् | |
| काश्यपेन भूरक्षणायाभिमतराजाभिषेचनम् | |
| ४५ | श्रीभगवदादिभिः प्रणामादिपूर्वकं भीष्मोपसर्पणम् |
| श्रीभगवता भीष्मं प्रति कुशलप्रश्नः | |
| श्रीभगवता भीष्मप्रशंसनपूर्वकं युधिष्ठिरं प्रति धर्मकथनचोदनम् | |
| ४६ | भीष्मेण श्रीभगवतस्स्तवनम् |
| भीष्मेण श्रीभगवन्तं प्रति श्रेयः प्रार्थनम् | |
| श्रीभगवता भीष्मं प्रति श्रेयः प्रदानम् | |
| श्रीभगवता भीष्मं प्रति युधिष्ठिराय धर्मकथनचोदनम् | |
| ४७ | भीष्मेण श्रीभगवन्तं प्रति स्वशरीरापाटवकथनम् |
| श्रीभगवता भीष्मं प्रति शक्यादिप्रदानम् | |
| ४८ | श्रीभगवदादिभिः भीष्मं प्रति गमनाय सन्नहनम् |
शान्तिपर्वविषयानुक्रमणिका
| अध्यायः | |
| ४८ | श्रीभगवदादिभिः भीष्मसमीपगमनम् |
| ४९ | नारदेन पाण्डवान् प्रति भीष्माद्धर्मग्रहणचोदनम् |
| युधिष्ठिरचोदनया श्रीभगवता भीमं प्रति कुशलादिप्रश्नः | |
| भीष्मेण स्वस्यारोग्यदिव्यज्ञानादीनां भगवदधीनत्वकथनपूर्वकं धर्मकथनप्रतिज्ञानम् | |
| श्रीभगवता भीष्मे स्वानुग्रहफलप्रतिपादनम् | |
| भीष्मेण श्रीभगवन्तं प्रति युधिष्टिरस्य धर्मप्रष्टृत्वचोदनम् | |
| ५० | श्रीभगवता युधिष्ठिरस्य भीष्मसमीपगमनानुपपत्तिकारणकथनम् |
| भीष्मेण युधिष्टिरस्य निर्दोषत्वकथनपूर्वकं तेनैव धर्मस्य प्रष्टव्यत्यकथनम् | |
| भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति धर्मप्रश्नचोदनम् | |
| ५१ | युधिष्ठिरेण भीष्मं प्रति राजधर्मतत्त्वप्रश्नः |
| भीष्मेण राजधर्मकथनीप्रक्रमः | |
| ब्राह्मणानां प्राशस्त्यवर्णनम् | |
| राजभिः ब्राह्मणानां रक्षणीयत्वकथनपूर्वकं तेषामेव शिक्षाप्रकारकथनम् | |
| राज्ञां स्थितिप्रकारकथनम् | |
| राज्ञां गर्भिणीसादृश्यकथनपूर्वकं विपरीतसहवासादिजन्यदोपकथनम् | |
| राज्यकर्मनिरूपणम् | |
| राजधर्मकथनम् | |
| ५२ | युधिष्ठिरं प्रति पुनरपि राजधर्मकथनम् |
| श्रीभगवदादिभिः भीष्मसकाशात् स्वावासगमनम् | |
| ५३ | युधिष्ठिरेण भीष्मं प्रति राजोत्पत्त्यादिप्रश्नः |
| कृतयुगवृत्तान्तकथनम् | |
| देवैः ब्रह्माणमुद्दिश्य प्रार्थितधर्मवृत्तान्तकथनम् | |
| ब्रह्मणा देवान् प्रति दण्डनीतिकथनम् |
शान्तिपर्वविषयानुक्रमणिका
| अध्यायः | |
| ५३ | पृथुचरितकथनम् |
| ५४ | चातुर्वर्ण्यगोचरप्रश्नः |
| चातुर्वर्ण्यधर्मनिरूपणम् | |
| ब्राह्मणक्षत्रियधर्मकथनम् | |
| वैश्यधर्मकथनम् | |
| शूद्रधर्मकथनम् | |
| ब्राह्मणप्राशस्त्यकथनम् | |
| यागप्राशस्त्यकथनम् | |
| ५५ | चातुराश्रम्यधर्मकथनम् |
| ५६ | ब्राह्मणधर्मकथनम् |
| ५७ | ब्राह्मणपरित्याज्यधर्मकथनम् |
| अनुचितकर्मणां ब्राह्मणानां निन्द्यत्वकथनम् | |
| वर्णाश्रमधर्माणामेव सकललोकश्रेयः प्रदत्वकथनम् | |
| क्षत्रियादि धर्मकथनम् | |
| राजधर्माणां प्राशस्त्यकथनम् | |
| ५८ | धर्मनिश्चयं प्रति प्रमाणकथनम् |
| राजधर्मप्राशस्त्यकथनम् | |
| इन्द्रमान्धातृसंवादानुवादः | |
| ५९ | इन्द्रेण मान्धातारं प्रति राजधर्मकथनम् |
| ६० | वर्णाश्रमधर्मकथनम् |
| ६१ | राष्ट्राणामराजकत्वे दोषकथनम् |
| मनुचरितकथनम् | |
| राज्यस्य सुराज्ञा सनाथत्वे गुणनिरूपणम् | |
| ६२ | बृहस्पतिवसुमन् उपाख्यानम् |
| ६३ | राजनीतिकथनम् |
| राजनीतावङ्गिरसोऽभिमतवर्णनम् | |
| दण्डनीतिमहिमानुवर्णनम् | |
| कृतादियुगधर्मादिनिरूपणम् |
शान्तिपर्वविषयानुक्रमणिका
| अध्यायः | |
| ६४ | राजनीतेः षट्त्रिंशद्गुणवर्णनम् |
| ६५ | राजधर्मकथनम् |
| राजधर्माचरणानुशासनम् | |
| भीष्मेण युधिष्ठिरं धर्मेण राज्यपरिपालने फलनिरूपणम् | |
| ६६ | ऐलपौरूरसोपाख्यानम् |
| ब्राह्मणादीनां श्रेष्टयादिवर्णनम् | |
| वर्णाश्रमधर्मनिरूपणम् | |
| ६७ | राजा पुरोहितप्रतिष्ठापनकथनम् |
| पुरोहितलक्ष्णकृत्यादिकथनम् | |
| पुरोहितकर्मणीन्द्रं प्रति बृहस्पत्यभिमतकधनपूर्वकं याज्ञवल्क्यमतकथनम् | |
| ऐलकाश्यपसंवादः | |
| ६८ | युधिष्टिरेण ब्रह्मक्षत्रगोचरप्रश्नः |
| मुचुकुन्दोपाख्यानम् | |
| ६९ | राजवृत्तितत्फलप्रतिपादनम् |
| राज्यपरिपालनादधर्मशङ्का | |
| राज्यपालने युधिष्टिरस्यैव महाधार्मिकत्वनिरूपणम् | |
| राज्यपरिपालनानुशासनम् | |
| ७० | ब्राह्मणानासुचितकर्माचरणेन नामभेदकथनपूर्वकं क्षात्रवृत्तिकथनम् |
| ब्राह्मणानामनुचितकर्माचरणेन निकृष्टवर्णसाम्येन हेयत्वकथनम् | |
| मन्त्रग्रहणाधिकार्यनधिकारिनिरूपणम् | |
| ब्राह्मणानामत्यन्तादरणीयत्वकथनम् | |
| ७१ | केकराजोपाख्यानम् |
| ७२ | भीष्मेण आपद्धर्मकथनम् |
| ब्राह्मणादिभिः आपदि शस्त्रग्रहणाभ्यनुज्ञानम् | |
| ब्रह्मतेजोमहिमानुवर्णनम् |
शान्तिपर्वविषयानुक्रमणिका
| अध्यायः | |
| ७२ | राज्ञोऽरक्षकत्वे सदृष्टान्तोपपादनं नैरर्थक्य कथनम् |
| ७३ | ऋत्विङ्महर्त्विगादिलक्षणादिकथनम् |
| युधिष्ठिरेण शक्ताशक्तविषये शास्त्रप्रवृत्तिप्रश्नः | |
| यथाकथञ्चिदपि त्रिभिर्वर्णैः वैदिकधर्मानतिलङ्क | |
| नावश्यकत्वनिरूपणम् | |
| ७४ | राज्ञां मित्रामित्रलक्षणकथनम् |
| ७५ | श्रीभगवन्नारदसंवादानुवादः |
| ७६ | कालकवृष्णीयोपाख्यानम् |
| ७७ | अमात्यादिलक्षणकथनम् |
| राज्यभारस्य मन्त्र्यधीनत्वकथनम् | |
| ७८ | इन्द्रबृहस्पतिसंवादकथनम् |
| ७९ | राज्यपरिपालने सल्लक्षणामात्यस्थापनकथनम् |
| राज्ञामपराधानुरूपशिक्षाविधानानुवर्णनम् | |
| ८० | परदुर्गकर्माद्यनुवर्णनम् |
| ८१ | राज्यसंरक्षणप्रकारादिनिरूपणम् |
| ८२ | प्रजाभ्यः करग्रहणादिरीतिवर्णनम् |
| ८३ | राजानुष्ठेयधर्मापदेशः |
| ८४ | उचथ्यमान्धातृसंवादानुवादः |
| ८५ | वामदेववसुमनस्संवादानुवादः |
| वामदेवेन वसुमनसे धर्मोपदेशः | |
| ८६ | राज्ञा पराक्रमवत्तयायम्थातव्यत्वकथनम् |
| राजां युद्धरूपवर्णनम् | |
| राज्ञां युद्धधर्मकथनम् | |
| ८७ | राजभिरधर्मस्य वर्ज्यत्वकथनम् |
| राजवध्याधिकारिनिरूपणम् | |
| राजभिर्धर्मस्थानतिलङ्घयत्वकथनम् | |
| ८८ | युधिष्टिरेण युद्धधर्मस्य पापीयस्त्वप्रश्नः |
| युद्धस्य दुष्टनिग्रहशिष्टपरिपालनरूपतया धर्म्यत्व निरूपणम् |
शान्तिपर्वविषयानुक्रमणिका
| अध्यायः | |
| ८९ | सुदेवस्य स्वर्गप्राप्ताविन्द्वाम्बरीसंवादस्य प्रमाणतानिरूपणम् |
| इन्द्राम्बरीपसंवादानुवादः | |
| ९० | मैथिलतर्दनसङ्ग्रामे जनकेन स्वभटानां स्वर्गनरक सन्दर्शनेन युद्धविधानेन प्रोत्साहनम् |
| जनकराजयोधैः युद्धविधानकधनस् | |
| शूरस्यैव मान्यत्वकथनम् | |
| ९१ | विस्तरेण युद्धोपायकथनम् |
| ९२ | योधानां लक्षणादिनिरूपणम् |
| ९३ | सेनायाः जयसृचकलक्षणकथनम्युद्धे राजनीतिवर्णनम् |
| ९४ | राज्ञां युद्धे जयसिद्धाविन्द्रबृहस्पतिसंवादानुवादःइन्द्रबृहस्पतिसंवादानुवादः |
| ९५ | अर्थाद्युपपत्तिविरहेऽपि राज्ञां सुखजीविकायां कौसल्यकालकवृष्णीय संवादानुवादः |
| ९६ | राजां प्रत्यर्थिजयसिद्धौकौसल्य–कालकवृष्णीयसंवादस्य प्रामाण्यनिरूपणम् |
| ९७ | कौसल्यकालकवृष्णीयसंवादः |
| वैदेहेन कौसल्याय सबहुमानं कन्याप्रदानम् | |
| ९८ | गणवृद्धिप्रकारनिरूपणम् |
| ९९ | मातृपितृगुरुण प्रभावकथनम् |
| मातृपितृगुरुष्वप्रमादेन वृत्युपदेशः | |
| मातृपितृगुरूणामनुवर्तनेन महाफलनिदर्शनम् | |
| मातृपितृगुरुध्वन्यतमस्य प्राशस्त्यविशेषवर्णनम् | |
| मातृपितृगुरूणामवध्यत्वादिकथनम् | |
| मातृपितृगुरुमपर्यया तदितरेषामपि समचितत्वकधनम्… | |
| मातृपितृगुरूणां द्रोहे भ्रूणहत्यादिसाम्येन तन्निष्कृत्य भावप्रदर्शनम् |
शान्तिपर्वविषयानुक्रमणिका
| अध्यायः | |
| १०० | सत्यानृतयोः प्रकारकथनम् |
| धर्माचरणस्यावश्यकत्वकथनम् | |
| अधर्माचरणस्य वर्ज्यत्वकथनम् | |
| १०१ | दुर्गतितरणाधिकारिनिरूपणम् |
| १०२ | साध्वसाधुत्वनिश्चयरूपिण्याः परीक्षायास्साधने व्याघ्रगोमायुचरितकथनम् |
| १०३ | राज्ञां सुखावस्थानहेतुकथनम् |
| आलस्यस्यानर्थहेतुतायामुष्ट्रवृत्तान्तकथनम्आलस्यस्य फलनिरूपणम् | |
| १०४ | सरित्सागरसंवादानुवादपूर्वकं बलवच्छत्रुवशीकरणे विजयस्य प्राधान्यवर्णनम् |
| १०५ | सदसिं दूष्यमाणस्य विदुषो मार्दवे तत्सुकृतदुष्कृतप्राप्तिस्थानविवेचनम् |
| शान्तेन विदुषा दुर्जनवचनादिषूपेक्षावर्णनम् | |
| १०६ | युधिष्टिरेण भीष्मं प्रति राज्यहितगोचरप्रश्नः |
| राज्ञां राज्यनिर्वहणोपायकथनम् | |
| राज्ञो धार्मिकत्वे फलनिरूपणम् | |
| १०७ | दुष्कुलजातस्यामात्यत्वकल्पने द्वोषिवृत्तान्तकथनम् |
| मुनिवरेण शुनकस्य द्वीपित्वप्रापणम् | |
| मुनिवरेण शुनकस्य व्याघ्रताप्रापणम् | |
| १०८ | भीष्मेण मुनिवराच्छुनकस्य गजत्वप्राप्तिकथनम् |
| मुनिवरेण सिंहभावापन्नस्य शुनकस्य शरभत्वप्रापणम् | |
| शरभत्वमापन्नेन शुनकेन मुनिहननचिन्तनम् | |
| मुनिना स्वजिघांसुशरभावस्थं शुनकं प्रति शुनकत्वप्रापणम् | |
| १०९ | राज्येऽनुकूलमन्त्र्यादिस्थापनकथनम् |
| राज्यस्यासम्मन्त्रिकत्वे फलनिरूपणम् | |
| सद्वृत्तप्रशंसनम् | |
| मन्त्रिलक्षणादिकथनम् |
शान्तिपर्वविषयानुक्रमणिका
| अध्यायः | |
| ११० | राज्ये गुणवद्भृत्यादिस्थापनकथनम् |
| १११ | राज्यपरिपालनरीतिवर्णनम् |
| राजतन्त्रनिरूपणम् | |
| ११२ | युधिष्टिरेण भीष्मं प्रति दण्ड्याधिकारिदण्डस्वरूपादिप्रश्नः |
| दण्डस्य धर्म्यत्वप्रतिपादनम् | |
| दण्डस्य भगवद्रूपत्वकथनम् | |
| दण्डस्य बहुफलत्ववर्णनम् | |
| दण्डस्य बहुरूपत्वर्णनम् | |
| ११३ | वसुहोममान्धातृसंवादानुवादेन दण्डोत्पत्यादिकथनम् |
| वसुहोमवृत्तान्तश्रवणफलकथनम् | |
| ११४ | युधिष्टिरेण धर्मादिगोचरप्रश्नः |
| कामन्दारिष्टसंवादानुवादेन धर्मादि निरूपणम् | |
| धर्मादिपरित्यागे प्रायश्चित्तकथनम् | |
| ११५ | युधिष्टिरेण भीष्मं प्रति धर्मजिज्ञासुभिः तत्प्राप्त्यादि गोचरप्रश्नः |
| दुर्योधनाय धृतराष्ट्रकथितेन्द्रप्रसादसंवादानुवादेन शीलस्य धर्मादिकारणत्वकथनम् | |
| इन्द्रप्रङ्लादसंवादः | |
| ११६ | आशोत्पत्तिप्रश्नः |
| ऋषभसुमित्रचरितकथनेनाशावर्णनम् | |
| ११७ | ऋषिभिः स्वाश्रमे सुमित्रस्य पूजनम् |
| सुमित्रेण तापसान् प्रत्याशान्तरिक्षयोर्मध्ये कस्य महत्वमिति प्रश्नः | |
| ११८ | बदरिकाश्रमे ॠषभस्य तनुनामकमहर्षिणा सह संवादऋषभतनुसंवादः |
| वीरद्युम्नेन राज्ञा तनुं प्रत्याशापेक्षया ज्यायः किमिति प्रश्नः |
शान्तिपर्वविषयानुक्रमणिका
| अध्यायः | |
| ११८ | कृशेन मुनिना वोरद्युम्नं प्रति दुर्लभवस्तुनः आशाकार्श्यस्य च निरूपणम् |
| ११९ | यमगौतमसंवादानुवादेन मातापित्रोःपरिचरणस्यऋणापनोदकत्वकथनम् |
| १२० | धर्मरहस्यस्य दुर्जेयत्वकथनम् |
| आपद्यधर्मस्यापि धर्म्यत्वसम्भवकथनम् | |
| ब्रह्मस्ववर्जंपरपीडयाऽपि कोशसङ्ग्रहणस्य धर्म्यत्व कथनम् |
॥ शान्तिपर्वणि प्रथमसम्पुटविषयानुक्रमणिका समाप्ता ॥
॥श्रीः॥
॥ महाभारतम्॥
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॥ शान्तिपर्व॥
____
॥ प्रथमोऽध्यायः ॥
(आभिषेचनिकपर्व)
_____
गङ्गातीरे बन्धूनामुदकदानं कृतवन्तं युधिष्ठिरं प्रति व्यासनारदादिमहर्षीणां समागमनम्॥१॥ युधिष्ठिरेण तत्रनारदं प्रति कर्णवृत्तान्तकथनप्रार्थना॥२॥
वैशम्पायनः—
कृत्वोदकं ते सुहृदां सर्वेषां पाण्डुनन्दनाः।
विदुरो धृतराष्ट्रश्च सर्वाश्च भरतस्त्रियः॥१॥
तत्र ते सुमहात्मानो न्यवसन् कुरुसत्तमाः।
शौचं निर्वर्तयिष्यन्तो मासमात्रं बहिः पुरात्॥२॥
कृतोदकं तु राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
अभिजग्मुर्महात्मानस्सिद्धा ब्रह्मर्षिसत्तमाः॥३॥
द्वैपायनो नारदश्च देवलश्च महानृषिः।
देवस्थानश्च कण्वश्च तेषां शिष्याश्च सत्तमाः॥४॥
अन्ये च वेदविदुषः कृतप्रज्ञा द्विजातयः।
गृहस्थास्त्रातकास्सन्तो ददृशुः कुरुसत्तमम्॥५॥
तेऽभिगम्य महात्मानं पूजिताश्च यथाविधि।
आसनेषु महार्हेषु विविशुः परमर्षयः॥६॥
प्रतिगृह्य ततः पूजां तत्कालसदृशीं तदा।
पर्युपासन् यथान्यायं परिवार्य युधिष्ठिरम्॥७॥
पुण्ये भागीरथीतीरे शोकव्याकुलचेतसम्।
आश्वासयन्तो राजेन्द्र विप्राश्शतसहस्रशः॥८॥
नारदस्त्वब्रवीत् काले धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
सम्भाष्यमुनिभिस्सार्धंकृष्णद्वैपायनादिभिः॥९॥
नारदः—
पार्थस्य बाहुवीर्येण प्रसादान्माधवस्य च।
जिता सेयं मही कृत्स्ना धर्मेण च युधिष्ठिर॥१०॥
दिष्ट्या मुक्ताश्चसङ्ग्रामाद् अस्माल्लोकभयङ्करात्।
क्षत्रधर्मरतश्चासि कच्चिन्मोदसि पाण्डव॥११॥
कच्चिच्च निहतामित्रः प्रीणासि सुहृदो नृप।
कच्चिच्छ्रियमिमां प्राप्य न त्वां शोकः प्रवाधते॥१२॥
युधिष्ठिरः—
विजितेयं मही कृत्स्ना कृष्णबाहुबलाश्रयात्।
ब्राह्मणानां प्रसादाच्च भीमार्जुनबलेन च॥१३॥
इदं तु मे महद्दुःखं वर्तते हृदि नित्यदा।
कृत्वा ज्ञातिक्षयमिमं महान्तं घोरदर्शनम्॥१४॥
सौभद्रं द्रौपदेयांश्च घातयित्वा प्रियान् सुतान्।
जयोऽयमजयाकारो भगवन् प्रतिभाति भो॥१५॥
किं नु वक्ष्यति वार्ष्णेयी सुभद्रा मधुसूदनम्।
द्वारकावासिनी कृष्णम् इतः प्रत्यागतं हरिम्॥१६॥
द्रौपदी हतपुत्रेयं कृपणा हतवान्धवा।
अस्मत्प्रियहिते युक्ता भूयः पीडयतीव माम्॥१७॥
इदमन्यच्च भगवन् यत् त्वां वक्ष्यामि नारद।
मन्त्रसंवरणेनास्मि कुन्त्या दुःखेन योजितः॥१८॥
यस्स नागायुतप्राणो लोकेऽप्रतिरथो रणे।
सिंहविक्रान्तगामी च जितकाशी दृढव्रतः॥१९॥
आश्रयो धार्तराष्ट्राणां मानी तीव्रपराक्रमः।
अमर्षी नित्यसंरम्भी क्षेप्ताऽस्माकं रणे रणे॥२०॥
शीघ्रास्त्रश्चित्रयोधी च कृती चाद्भुतविक्रमः।
गूढोत्पन्नस्सुतः कुन्त्या भ्राताऽस्माकमसौ किल॥२१॥
तोयकर्मणि तं कुन्ती कथयामास मे तदा।
पुत्रं वीर्यगुणोपेतं कर्णं त्यक्तं जले पुरा॥२२॥
यं सूतपुत्रं लोकोऽयं राधेयं चाप्यमन्यत।
स सूर्यपुत्रः कुन्त्या वै भ्राताऽस्माकं च मातृतः॥२३॥
अजानता मया सङ्ख्ये राज्यलुब्चेन पातितः।
तन्मे दहति गात्राणि तूलराशिमिवानलः॥२४॥
न हि तं वेद पार्थोऽपि भ्रातरं श्वेतवाहनः।
नाहं न भीमो न यमौ स त्वस्मान् वेद तत्त्वतः॥२५॥
गता किल पृथा तस्य सकाशमिति नश्श्रुतम्।
अस्माकं शमकामा वै त्वं हि पुत्रो ममेत्यथ॥२६॥
पृथाया न कृतः कामस्तेन चापि महात्मना।
अतीवानुचितं मातर् अवोच इति सोऽब्रवीत्॥२७॥
न हि शक्ष्यामि सन्त्यक्तुं दुर्योधनमहं रणे।
अनार्यत्वं नृशंसत्वं कृतघ्नत्वं च मे भवेत्॥२८॥
युधिष्ठिरेण सन्धिं हि यदि कुर्यांंहि ते वचः।
भीतं रणे श्वेतवाहाद् इति मां मंस्यते जनः॥२९॥
सोऽहं निर्जित्य समरे विजयं सहकेशवम्।
सन्धास्ये धर्मराजेन पश्चादिति च सोऽब्रवीत्॥३०॥
तमवोचत्किल पृथा पुनः पृथुलवक्षसम्॥३०॥
पृथा—
चतुर्णामभयं देहि कामं युध्यस्व फल्गुनम्॥३१॥
युधिष्ठिरः—
सोऽब्रवीन्मातरं धीमान् वेपमानः कृताञ्जलिः॥३१॥
कर्णः—
प्राप्तान्विषह्यांश्चतुरो न हनिष्यामि ते सुतान्॥३२॥
पञ्चैव हि सुता देवि भविष्यन्ति तव ध्रुवाः।
सार्जुना वा हते कर्णे सकर्णा वा हतेऽर्जुने॥३३॥
युधिष्टिरः—
तं पुत्रगर्द्धनी भूयो माता पुत्रमथाब्रवीत्।॥३३॥
पृथा—
भ्रातॄणां स्वस्ति कुर्वीथा येषां स्वस्ति चिकीर्षसि॥३४॥
युधिष्ठिरः—
एवमुक्त्वा किल पृथा विसृज्य प्रययौ गृहान्।
सोऽर्जुनेन हतोवीरो भ्रात्रा भ्राता सहोदरः॥३५॥
न चैव निस्सृतो मन्त्रः पृथायास्तस्य वा मुने।
अथ वीरो महेष्वासः पार्थेनासौ निपातितः॥३६॥
अहं त्वज्ञासिषंपश्चात् स्वसोदर्यं द्विजोत्तम्।
पूर्वजं भ्रातरं कर्णं पृथाया वचनात् प्रभो॥३७॥
तेन मे दीर्यतेऽतीव हृदयं भ्रातृघातिनः।
कर्णार्जुनसहायोऽहं जयेयमपि वासवम्॥३८॥
सभायां विश्यमानस्य धार्तराष्ट्रैर्दुरात्मभिः।
सहसोत्पतितः कोपः कर्णं दृष्ट्वा प्रशाम्यति॥३९॥
यदाऽप्यस्य गिरो रूक्षाश्शृणोमि कटुकोदयाः।
सभायां गदतो द्यूते दुर्योधनहितैषिणः॥४०॥
तदा मे नश्यति क्रोधः पादौ तस्य निरीक्ष्य ह।
कुन्त्या हि सदृशौ पादौ कर्णस्येति मतिर्मम॥४१॥
सादृश्यहेतुमन्विच्छन् पृथायास्तस्य चैव हि।
कारणं नाधिगच्छामि कदाचिदपि चिन्तयन् ॥४२॥
कथं नु तस्य सङ्ग्रामे पृथिवी चक्रमग्रसत्।
कथं नु शप्तो भ्राता मे तत् त्वं वक्तुमिहार्हसि॥४३॥
श्रोतुमिच्छामि भगवंस् त्वत्तस्सर्वं यथातथम्।
भगवान् सर्वविद्विद्वाल्ँलोके वेद कृताकृतम्॥४४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि प्रथमोऽध्यायः ॥१॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि प्रथमोऽध्यायः॥१॥
[ अस्मिन्नध्याये ४४ श्लोकाः ]
॥ द्वितीयोऽध्यायः॥
ब्रह्मास्त्रलाभाय द्रोणमुपगतेन कर्णेन तेन त्रैवर्णिकान्यत्वकथनेनप्रत्याख्याने परशुराममेत्य स्वस्य ब्राह्मण्यकथनपूर्वकमस्त्रार्थं तदन्तेवासित्वपरिग्रहः ॥१॥ तत्रप्रमादेन विप्रगोवत्सघातिनः कर्णस्य विप्राच्छापप्राप्तिः॥२॥
वैशम्पायनः—
स एवमुक्तस्तु तदा नारदो वदतां वरः।
कथयामास तत् सर्वं यथा शप्तस्स सूतजः॥१॥
नारदः—
एवमेतन्महाराज यथा वदसि पाण्डव।
न कर्णार्जुनयोः किञ्चिद्अविपह्यं भवेद्रणे॥२॥
गुह्यमेतत्तु देवानां कथयिष्यामि ते नृप।
तन्निबोध महाराज यथावृत्तमिदं पुरा॥३॥
क्षत्रं स्वर्गं कथं गच्छेच् छस्त्रपूतमिति प्रभो।
सञ्चिन्त्य जनितस्तस्मात् कन्यागर्भो विसर्जितः॥४॥
स बालस्तेजसा युक्तस् सूतपुत्रत्वमागतः।
चकाराङ्गिरसां श्रेष्ठे धनुर्वेदं गुरौ तव॥५॥
स बलं भीमसेनस्य फल्गुनस्यास्त्रलाघवम्।
बुद्धिं च तव राजेन्द्र यमयोर्विनयं तथा॥६॥
सख्यं च वासुदेवेन बाल्ये गाण्डीवधन्वनः।
प्रजानामनुरागं च चिन्तयानो ह्यदह्यत॥७॥
स सख्यमगमद्वाल्ये राज्ञा दुर्योधनेन वै।
युष्माभिर्नित्यसङ्घृष्टो दैवाच्चापि स्वभावतः॥८॥
विद्याधिकमथालक्ष्य धनुर्वेदे धनञ्जयम्।
द्रोणं रहस्युपागम्य कर्णो वचनमब्रवीत्॥९॥
कर्णः—
ब्रह्मास्त्रं ज्ञातुमिच्छामि सरहस्यनिवर्तनम्।
अर्जुनेन समो युद्धे भवेयमिति मे मतिः॥१०॥
समः पुत्रेषु च स्नेहश् शिष्येषु च तव ध्रुवम्।
त्वत्प्रसादान्न मा ब्रूयुर् अकृतास्त्रं विचक्षणाः॥११॥
नारदः —
द्रोणस्तथोक्तः कर्णेन सापेक्षः फल्गुनं प्रति।
दौरात्म्यं चैव कर्णस्य विदित्वा तमुवाच ह॥१२॥
द्रोणः—
ब्रह्मास्त्रं ब्राह्मणो विद्याद् यथावच्चरितव्रतः।
क्षत्रियो वा तपस्वी यो नान्यो विद्यात् कथञ्चन॥१३॥
नारदः—
इत्युक्तोऽङ्गिरसां श्रेठम् आमन्त्र्य प्रतिपूज्य च।
जगाम सहसा राजन् महेन्द्रं पर्वतं प्रति॥१४॥
स तु राममुपागम्य शिरसाऽभिप्रणम्यं च।
ब्राह्मणो भार्गवोऽस्मीति गौरवेणाभ्यवन्दत॥१५॥
रामस्तं प्रतिजग्राह पृष्ट्वा गोत्रादि सर्वशः।
उष्यतां स्वागतं चेति प्रीतिमानभवत् तदा॥१६॥
तस्य कर्णस्य वसतो महेन्द्रे स्वर्गसम्मिते।
गन्धर्वै राक्षसैर्यक्षैर् देवैश्वासीत् समागमः॥१७॥
स तत्रेष्वस्त्रमकरोद् भृगुश्रेष्ठाद्यथाविधि।
प्रियश्चाभवदत्यन्तं देवदानवरक्षसाम्॥१८॥
स कदाचित् समुद्रान्ते विचरन्नाश्रमान्तिके।
एकः खड्गधनुष्पाणिः परिचक्राम सूतजः॥१९॥
सोऽग्निहोत्रप्रमत्तस्य कस्यचिद्ब्रह्मवादिनः।
जघानाज्ञानतः पार्थ होमधेनुं यदृच्छया॥२०॥
तद्ज्ञानकृतं मत्वा ब्राह्मणाय न्यवेदयत्।
कर्णः प्रसादयंश्चैनम् इदमित्यब्रवीद्वचः॥२१॥
अबुद्धिपूर्वं भगवन् धेनुरेषा हताऽभवत्।
मया तत्र प्रसादं मे कुरुष्वेति पुनः पुनः॥२२॥
तं स विप्रोऽत्रवीत् क्रुद्धो वाचा निर्भर्त्सयन्निव॥२२॥
विप्रः—
दुराचार यथार्हं त्वं फलं प्राप्नुहि दुर्मते।
येन विस्पर्धसे नित्यं यदर्थं घटसे सदा॥२३॥
युध्यतस्तेन ते पाप चक्रं भूमिर्ग्रसिष्यति॥२४॥
ततश्चक्रे महीग्रस्ते मूर्धानं ते विचेष्टतः।
पातयिष्यति विक्रम्य शत्रुर्गच्छ नराधम॥२५॥
यथेयं गौर्हता मूढ प्रमत्तस्य त्वया मम।
प्रमत्तस्यैवमेवान्यश् शिरस्ते पातयिष्यति॥२६॥
नारदः —
स तु प्रसादयामास ततस्तं द्विजमार्तवत्।
गोभिर्धनैश्च रत्नैश्च स चैनं पुनरब्रवीत्॥२७॥
विप्रः—
नेदं मद्वचनं कुर्याद् ब्रह्मलोकेऽपि चान्यथा।
गच्छ वा तिष्ट वा यद्वा कार्यं यत्तत् समाचर॥२८॥
नारदः—
इत्युक्तो ब्राह्मणेनाथ कर्णो दैन्यादधोमुखः।
राममभ्यागमद्भीतस् तदेव मनसा स्मरन्॥२९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्या शान्तिपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
॥८३॥आभिषेचनिकपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
[ अस्मिन्नध्याये २९ श्लोकाः ]
____
॥ तृतीयोऽध्यायः॥
कदाचनरामे कर्णोत्सङ्गे शिरो निधाय निद्राणे केनचित् कृमिणाकर्णस्योरुभेदनम्॥१॥तदूरोःप्रस्रुतरुधिरक्लेदात्मबुद्धेन रामेण कर्णस्यशापदानम्॥२॥ रामाज्ञया कर्णस्य स्वदेशगमनम्॥३॥
नारदः—
कर्णस्य बाहुवीर्येण प्रश्रयेण दमेन च।
तुतोष भृगुशार्दूलो गुरुशुश्रूषया तथा॥१॥
ततस्तुष्टो महातेजा ब्रह्मास्त्रं सनिवर्तनम्।
प्रोवाच सुमहाप्राज्ञस् स तपस्वी तपस्विने॥२॥
विदितास्त्रस्ततः कर्णो भ्रममाणो श्रमेगुरोः।
चकार च धनुर्वेदे यत्नमद्भुतविक्रमः॥३॥
ततः कदाचिद्रामस्तु चचाराश्रममन्तिकात्।
कर्णेन सहितो धीमान्उपवासेन कर्शितः॥४॥
सुष्वाप जामदग्न्यो वै विस्रम्भोत्पन्नसौहृदः।
तस्योत्सङ्गेसमाधाय शिरः क्लान्तमना भृगुः॥५॥
अथ कृमिश्श्लेष्ममयो मांसशोणितभोजनः।
दारुणो दारुणाकारः कर्णस्याभ्याशमागमत्॥६॥
स तस्योरुं समासाद्य बिभेद रुधिराशनः।
न चैनमशकत् क्षेप्तुं वक्तुंवाऽपि गुरोर्भयात्॥७॥
स दश्यमानोऽपि तथा कृमिणा तेन भारत।
गुरोः प्रबोधनाकाङ्क्षी तमुपैक्षत सत्तम्॥८॥
कर्णश्च वेदनां धैर्याद्असह्यां विनिगृह्य ताम्।
अकम्पयन्नव्यथयन् धारयामास भार्गवम्॥९॥
यदा स रुधिरेणाङ्गे परिस्पृष्टोऽभवद्गुरुः।
तदाऽबुध्यत तेजस्वी प्रबुद्धश्चैनमब्रवीत्॥१०॥
परशुरामः—
अहोऽस्म्यशुचितां प्राप्तः किमिदं च कृतं त्वया।
कथयस्व भयं त्यक्त्वा याथातथ्यं ममानघ॥११॥
नारदः—
तस्य कर्णस्तदाचष्ट कृमिणा परिभक्षणम्।
ददर्श रामस्तं चापि कृमिं सूकरसंस्थितम्॥१२॥
अष्टपादं तीक्ष्णदंष्ट्र सूचीभिः परिसंवृतम्।
रोमभिस्सन्निरुद्धाङ्गम् अलर्कं नाम नामतः॥१३॥
स दृप्रमात्रो रामेण कृमिःप्राणानवासृजत्।
तस्मिन्नेवास्त्रविक्लिन्ने तदद्भुतमिवाभवत्॥१४॥
ततोऽन्तरिक्षे ददृशे विश्वरूपः करालवान्।
राक्षसो लोहितग्रीवः कृष्णाङ्गो मेघवाहनः॥१५॥
स रामं प्राञ्जलिर्भूत्वा बभाषे पूर्णमानसः॥१५॥
राक्षसः—
स्वस्ति ते भृगुशार्दूल गमिष्येऽहं यथागतम्।
मोक्षितो नरकादस्मि भवता मुनिसत्तम्॥१६॥
भद्रं च तेऽस्तु वृद्धिश्च प्रियं मे भवता कृतम्।१७॥
नारदः—
तमुवाच महाबाहुर् जामदग्यः प्रतापवान्॥१७॥
रामः—
कस्त्वं कस्माच्च नरकं प्रतिपन्नो ब्रवीहि तत्॥१८॥
नारदः—
सोऽब्रवीदहमासं प्राक् यास्को नामास्मि नामतः।
पुरा देवयुगे तात भृगोस्तु सवया इव॥१९॥
सोऽहं भृगोर्हि दयितां भार्यामपहरं बलात्।
महर्षेरभिशापेन कृमिभूतोऽपतं भुवि॥२०॥
अब्रवीच्च स मां क्रोधात् तव पूर्वपितामहः।
मूत्रश्लेष्माशनः पाप निरयं प्रतिपत्स्यसे॥२१॥
शापस्यान्तो भवेद्ब्रह्मन्नित्येवं तमथाब्रवम्।
भविता भार्गवो राम इति मामब्रवीद्भृगुः॥२२॥
सोऽहमेनां दशां प्राप्तो यथा नकुशलस्तथा।
त्वया साधो समागम्य विमुक्तः पापयोनितः॥२३॥
एवमुक्त्वा नमस्कृत्य ययौ रामं महासुरः॥२३॥
रामः कर्णं तु सक्रोधम् इदं वचनमब्रवीत्॥२४॥
रामः—
अतिदुःखमिदं मूर्ख न जातु ब्राह्मणस्सहेत्।
क्षत्रियस्येव ते धैर्यं कामये सत्यमुच्यताम्॥२५॥
नारदः—
तमुवाच ततः कर्णश् शापाद्भीतः प्रसादयन्॥२५॥
कर्णः—
ब्रह्मक्षत्रान्तरे जातं सूतजं विद्धि भार्गव॥२६॥
राधेयः कर्ण इति मां प्रवदन्ति जना भुवि।
प्रसादं कुरु मे ब्रह्मन्नस्त्रलुब्धस्य भार्गव॥२७॥
पिता गुरुर्न सन्देहो वेदविद्याप्रदः प्रभुः ।
अतो भार्गव इत्युक्तं मया गोत्रं तवान्तिके॥२८॥
नारदः—
तमुवाच भृगुश्रेष्ठस् सरोषः प्रदहन्निव।
भूमौ निपतितं दीनं वेपमानं कृताञ्जलिम्॥२९॥
रामः—
यस्मान्मिथ्याप्रचीर्णोऽहम् अस्त्रहेतोरिह त्वया॥२९॥
तस्मादेतन्नु ते मूढ ब्रह्मास्त्रं प्रतिभास्यति।
अन्यत्र वधकालात्ते सदृशेन समेयुषः॥३०॥
अब्राह्मणे न हि ब्रह्म चिरं तिष्ठेत् कदाचन॥३१॥
गच्छेदानीं न ते स्थानम् अनृतस्येह विद्यते।
न त्वया सदृशो युद्धे भविता क्षत्रियो भुवि॥३२॥
नारदः—
एवमुक्तस्तु रामेण न्यायेनोपजगाम सः।
दुर्योधनमुपागम्य कृतास्त्रोऽस्मीति चाब्रवीत्॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि तृतीयोऽध्यायः॥३॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि तृतीयोऽध्यायः॥३॥
॥अस्मिन्नध्याये ३३ श्लोकाः॥
॥ चतुर्थोऽध्यायः॥
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दुर्योधनेन स्वयंवरमण्टपे कलिङ्गराजकन्याहरणम् ॥१॥ कर्णेन तमनुद्रुतवतां राज्ञां पराजयः ॥२॥
_____
नारदः—
कर्णस्तु समवाप्यैवम् अस्त्रं भार्गवनन्दनात्।
दुर्योधनेन सहितो मुमुदे भरतर्षभ॥१॥
ततः कदाचिद्राजानस् समाजग्मुस्स्वयंवरे।
कलिङ्गविषये राजन राज्ञश्चित्राङ्गदस्य च॥
महद्राजपुरं नाम नगरं तत्र भारत।
राजानश्शतशस्तत्र कन्यार्थे समुपागमन्॥३॥
श्रुत्वा दुर्योधनस्तत्र सहितान् सर्वपार्थिवान्।
रथेन काञ्चनाङ्गेन कर्णेन सहितो ययौ॥४॥
ततस्स्वयंवरे तस्मिन् नानादेश्या महारथाः।
समापेतुर्नृपतयः कन्यार्थे नृपसत्तम्॥५॥
शिशुपालो जरासन्धो भीष्मको वक्र एव च।
कपोतरोमा नीलश्च रुक्मी च दृढविक्रमः॥६॥
सृगालश्च महीपालस् त्रैलोक्याधिपतिश्च यः।
विशोकश्शतधन्वा च भोजो रामश्च नामतः॥७॥
एते चान्ये च बहवो दक्षिणां दिशमाश्रिताः।
म्लेच्छाश्चार्याश्च राजानः प्राच्योदीच्याश्च भारत॥८॥
काञ्चनाङ्गादिनस्सर्वे बद्धजाम्बूनद्स्रजः।
सर्वे भास्वरदेहाश्च व्याघ्रा इव बलोत्कटाः॥९॥
ततस्समुपविष्टेषु तेषु राजसु भारत।
विवेश रङ्गं सा कन्या धात्रीवर्षवरान्विता॥१०॥
ततस्संश्राव्यमाणेषु राज्ञां नामसु भारत।
अत्यक्रामद्धार्तराष्ट्रं सा कन्या वरवर्णिनी॥११॥
दुर्योधनस्तु कौरव्यो नामर्पयत् लाघवम्।
प्रत्यषेधत् स तां कन्याम् असत्कृत्य नराधिपान्॥१२॥
स्ववीर्यमदमत्तत्वाद् भीष्मद्रोणावुपाश्रितः।
रथमारोप्य तां कन्याम् आजुहाव नराधिपान्॥१३॥
तमन्वयाद्रथी खङ्गीबद्धगोधाङ्गुलित्रवान्।
कर्णश्शस्त्रभृतां श्रेष्ठः पृष्ठतः पुरुषर्षभ॥१४॥
ततो विमर्दस्सुमहान् आसीद्राज्ञां युयुत्सताम्।
सन्नह्यतां तनुत्राणि स्थान् योजयतामपि॥१५॥
तेऽभ्यधावन्त सङ्क्रुद्धाः कर्णदुर्योधनावुभौ।
शरवर्षाणि वर्षन्तो मेघाः पर्वतयोरिव॥१६॥
कर्णस्तेषामापतताम् एकैकेन क्षुरेण ह्।
शिरांसि सशरांश्चापान् न्यपातयत् भूतले॥१७॥
ततो विधनुषः कांश्चित् कांश्चिदुद्यतकार्मुकान्।
कांश्चिदुत्सृजतो बाणान् रथशक्तिगदास्तथा॥१८॥
लाघवादाकुलीकृत्य कर्णः प्रहरतां वरः।
हतसूतांश्च भूयिष्ठान् स विजिग्ये नराधिपान्॥१९॥
ते स्वयं त्वरयन्तोऽश्वान् याहि याहीति वादिनः।
व्यपेतास्तु रणं हित्वा राजानो भग्नमानसाः॥२०॥
दुर्योधनस्तु कर्णेन पाल्यमानोऽभ्ययाद्गृहान्।
धृष्टः कन्यामुपादाय नगरं नागसाह्वयम्॥२१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
[अस्मिन्नध्याये २१ श्लोकाः]
_____
॥ पञ्चमोऽध्यायः॥
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कर्णपराक्रसवर्णनम्॥
______
नारदः—
आविष्कृतबलं कर्णं दृष्ट्वा राजाऽथ मागधः।
आह्वयद्द्वैरथेनाजौ जरासन्धो महीपतिः॥१॥
तयोस्समभवद्युद्धं दिव्यास्त्रविदुषोर्द्वयोः।
युधि नानाप्रहरणैर् अन्योन्यमभिवर्षतोः॥२॥
क्षीणबाणौ विधनुषौ भग्नखड्गौ महीं गतौ।
बाहुभिस्समसज्जेताम् उभावतिबलान्वितौ॥३॥
विभेद सन्धि देहस्य जरया श्लेषितस्य च॥३॥
स विकारं शरीरस्य दृष्ट्वा नृपतिरात्मनः।
प्रीतोऽस्मीत्यब्रवीत् कर्णं वैरमुत्सृज्य भारत॥४॥
प्रीत्या ददौ स कर्णाय मालिनीं नगरीमनु।
अङ्गेषु नरशार्दूलस् स राजाऽऽसीत् सपत्नजित्॥५॥
पालयामास वर्णांस्तु कर्णः परबलार्दनः।
दुर्योधनस्यानुमते तवापि विदितं तदा॥६॥
एवं शस्त्रप्रतापेन प्रथितस्सोऽभवत् क्षितौ॥७॥
त्वद्धितार्थं सुरेन्द्रेण भिक्षितो वर्म कुण्डले॥७॥
स दिव्ये सहजे प्रादात् कुण्डले परमार्चिते।
सहजं कवचं चैव मोहितो देवमायया॥८॥
वियुक्तः कुण्डलाभ्यां च सहजेन च वर्मणा।
निहतो विजयेनाजौ वासुदेवस्य पश्यतः॥९॥
ब्राह्मणस्यापि शापेन रामस्य च महात्मनः।
कुन्त्याश्च वरदानेन मायया च शतक्रतोः॥१०॥
भीष्मावमानात् सङ्ख्यायांरथानामर्धकीर्तनात्।
शल्यतेजोवधाच्चापि वासुदेवनयेन च॥११॥
रुद्रस्य देवराजस्य यमस्य वरुणस्य च।
कुबेरद्रोणयोश्चैव कृपस्य च महात्मनः॥१२॥
अस्त्राणि दिव्यान्यादाय युधि गाण्डीवधन्वना।
हतो वैकर्तनः कर्णो दिवाकरसमद्युतिः॥१३॥
एवं शप्तस्तव भ्राता बहुभिश्चापि वञ्चितः।
न शोच्यस्सनरव्याघ्रो युद्धे हि निधनं गतः॥१४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
[अस्मिन्नध्याये १४॥श्लोकाः ]
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॥ षष्ठोऽध्यायः ॥
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कुन्त्या कर्णवधानुशोचिनो युधिष्ठिरस्याश्वासनम्॥१॥ युधिष्ठिरेणकुन्तींप्रति स्त्रीणां मन्त्रगोपनं मा भूदिति शापदानम्॥२॥
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वैशम्पायनः—
एतावदुक्त्वा देवर्षिर्विरराम स नारदः।
युधिष्ठिरस्तु राजर्षिर् दध्यौ शोकपरिप्लुतः॥१॥
तं दीनमानसं वीरम् अधोवदनमातुरम्।
निश्श्वसन्तं यथा नागं पर्यश्रुनयनं तथा॥२॥
कुन्ती शोकपरीताङ्गी दुःखोपहतचेतना।
अब्रवीन्मधुराभाषाकाले वचनमर्थवत्॥३॥
कुन्ती—
युधिष्ठिर महावाहो नैवं शोचितुमर्हसि।
जहि शोकं महाराज शृणु चेदं वचो मम ॥४॥
याचितस्स मया पूर्वं भ्राता ज्ञापयितुं तव।
भास्करेण च देवेन पित्रा धर्मभृतां वरः॥५॥
यद्वाच्यं हितकामेन सुहृदां भूतिमिच्छता।
तथा दिवाकरेणोक्तस् स्वप्नान्ते च ममाग्रतः॥६॥
न चैनमशकद्भानुर्अहं वा तोककारणैः।
पुरा प्रत्यनुनेतुं वा नेतुं वाऽप्येकतां त्वया॥७॥
ततः कालपरीतश्च वैरस्योद्धरणे रतः।
प्रतीपकारी युष्माकम् इति चोपेक्षितो मया॥८॥
वैशम्पायनः—
इत्युक्तो धर्मराजस्तु मात्रा बाष्पाकुलेक्षणः।
उवाच वाक्यं धर्मात्मा शोकव्याकुललोचनः॥९॥
युधिष्ठिरः—
भवत्या गृढमन्त्रत्वाद् वञ्चितास्स्म तदा भृशम्॥९॥
वैशम्पायनः—
शशाप च महातेजास् सर्वलोकेषु योषितः।
न गुह्यं धारयिष्यन्तीत्यतिदुःखसमन्वितः॥१०॥
स राजा पुत्रपौत्राणां सम्बन्धिसुहृदां तथा।
स्मरन्नुद्विग्नहृदयो बभूवाथ विचेतनः॥११॥
ततश्शोकपरीतात्माविधूम इव पावकः।
निर्वेदमकरोद्धीमान्राज्ये सन्तापपीडितः॥१२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि पष्ठोऽध्यायः॥६॥
॥८३॥ आभिषेवनिकपर्वणि पष्टोऽध्यायः॥६॥
[ अस्मिन्नध्याये १२॥श्लोकाः ]
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॥ सप्तमोऽध्यायः॥
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** युधिष्ठिरस्य परिशोचनम् ॥**
_____
वैशम्पायनः—
युधिष्टिरस्यधर्मात्मा शोकव्याकुलचेतनः।
शुशोच दुःखसन्तप्तस् स्मृत्वा कर्णं महारथम् ॥१॥
आविष्टो दुःखशोकाभ्यां निश्श्वसंश्च पुनः पुनः।
दृष्ट्वाऽर्जुनमुवाचेदं वचनं शोककर्शितः॥२॥
युधिष्टिरः—
यद्भैक्षमाचरिष्यामो वृष्ण्यन्धकपुरे वयम्।
ज्ञातीन्निष्पुरुषान्कृत्वा नेमां प्राप्स्याम दुर्गतिम्॥३॥
अमित्रा नस्समृद्धार्था वृत्तान्ताः कुरवः किल
आत्मानमात्मना हत्वा किं वयं फलमश्नुम्॥४॥
धिगस्तु क्षात्रमाचारं धिगस्तु वलमौरसम्।
धिगस्तु चार्थं येनेमाम् आपदं गमिता वयम्॥५॥
साधु क्षमा दमश्शौचम् अविरोधो विमत्सरः।
अहिंसा सत्यवचनं नित्यानि वनवासिनाम्॥६॥
वयं तु लोभान्मोहाच्च दम्भं मानं च संश्रिताः।
इमामवस्थामापन्ना राज्यक्लेशबुभुक्षया॥७॥
त्रैलोक्यस्याधिराज्येन नास्मान्कश्चित् प्रहर्षयेत्।
बान्धवान् निहतान्दृष्ट्वा पृथिव्यासामिषैषिभिः॥८॥
ते वयं पृथिवीहेतोर् अवध्यान् पृथिवीतले।
सम्परित्यज्य जीवामो हतार्था ह्तबान्धवाः॥९॥
आमिपे गृध्यमानानां श्वभिर्वैहि शुनां यथा।
आमिषंचैव नो नष्टम् आमिषस्य च भोजिनः॥१०॥
न पृथिव्या सकलया न सुवर्णस्य राशिभिः।
न गजाश्वेन सर्वेण ते त्याज्या य इमे हताः॥११॥
संयुक्ताः काममन्युभ्यां क्रोधामर्षसमन्विताः।
मृत्युयानं समारुह्य गता वैवस्वतक्षयम्॥१२॥
बहुकल्याणमिच्छन्त ईहन्ते पितरस्सुतान्।
तपसा ब्रह्मचर्येण वन्दनेन तितिक्षया॥१३॥
उपवासै स्तथेज्याभिर् व्रतकौतुकमङ्गलैः।
लभन्ते मातरो गर्भांस् तान् मासान् दश बिभ्रति॥१४॥
यदि स्वस्ति प्रजायन्ते जाता जीवन्ति वा यदि।
सम्भाविता जातबला विदध्युर्यदि नस्सुखम्॥१५॥
इह चामुत्र चैवेति कृपणाः फलहेतुकाः॥१५॥
तासामयं समारम्भो निर्वृत्तः केवलोऽफलः।
यदासां निहताः पुत्रा युवानो मृष्टकुण्डलाः॥१६॥
अभुक्त्वा पार्थिवान्भोगान् ऋणान्यनवदाय च।
पितृभ्यो दैवतेभ्यश्च गता वैवस्वतक्षयम्॥१७॥
यदैवैषां च पितरौ जातकर्मकराविव।
सञ्जातबालरूपेषु तदैव निहता नृपाः॥१८॥
संयुक्ताः काममन्युभ्यां क्रोधामर्षसमन्विताः।
न ते जयफलं किञ्चिद् भोक्तारो जातु कर्हिचित्॥१९॥
पाञ्चालानां कुरूणां च गता1 एव हि ये हताः।
न सकामा वयं ते च न चास्माभिर्न तैर्जितम्॥२०॥
न तैर्भुक्तेयमवनिर् न नार्यो गीतवादनम्।
नामात्य सुहृदां2 वाक्यं न च श्रुतवतां श्रुतम्॥२१॥
न रत्नानि परार्ध्यानि न भूमिद्रविणागमौ।
न च धर्म्यानिमाल्ँलोकान् प्रपद्याम स्वकर्मभिः॥२२॥
वयमेवास्य कालस्य विनाशे कारणं स्मृताः।
धृतराष्ट्रस्य पुत्रेण निकृतिप्रीतिसंयुताः॥२३॥
सदैव निकृतिप्रज्ञो द्वेष्टाविद्वेष तेजनः।3
मिथ्यावृत्तश्च सततम् अस्मास्वनपराधिषु॥२४॥
ऋद्धिमस्मासु तां दृष्ट्वा विवर्णो हरिणः कृशः।
धृतराष्ट्रस्य नृपतेस् सौबलेन निवेदितः॥२५॥
तं पिता पुत्रगृद्ध्रुत्वाद् अनुमेनेऽनये स्थितम्।
अनपेक्ष्यैव पितरं गाङ्गेयं विदुरं तथा॥२६॥
असंशयं त्वयं राजा यथैवाहं तथा गतः।
अनियम्याशुचिं लुब्धं पुत्रं कामवशानुगम्॥२७॥
पतितो यशसा दीप्तान्पातयित्वा सहोदरान्।
इमौ वृद्धौ च शोकाग्नौप्रक्षिप्यस सुयोधनः॥२८॥
अस्मत्प्रद्वेषसन्तप्तः पापबुद्धिस्सदैव हि॥२९॥
को हि बन्धुः कुलीनस्सस् तथा ब्रूयान् सुहृज्जनैः।
यथाऽस्मानुक्तवान् क्षुद्रो युयुत्सुर्वृष्णिसन्निधौ॥३०॥
आत्मनो हि वयं दोषाद् विनष्टाश्शाश्वतीस्समाः।
प्रदहन्तो दिशस्सर्वा भास्करस्येव तेजसा॥३१॥
सोऽस्माकं वैरपुरुषो दुर्वृत्तः प्रग्रहं गतः।
दुर्योधनकृते ह्येतत् कुलं नो विनिपातितम्॥३२॥
अवध्यानां वधं कृत्वा लोके प्राप्तास्स्म वाच्यताम्॥३२॥
कुलस्यास्यान्तकरणं दुर्मतिं पापकारिणम्।
राजा राष्ट्रपतिं कृत्वा धृतराष्ट्रोऽद्य शोचति॥३३॥
हताश्शूराः कृतं पापं विषयोऽसौ विनाशितः।
हत्वा नो विगतो मन्युश्शोको मां दारयत्ययम्4॥३४॥
धनञ्जयकृतं पापं कल्याणेनोपहन्यते।
त्यागवांश्च पुनः पापं नालं कर्तुमिति श्रुतिः॥३५॥
त्यागवाञ् जन्ममरणे नाप्नोतीति श्रुतिर्यदा।
त्यागेयदाकृतमतिर् ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥३६॥
स धनञ्जय निर्द्वन्द्वो मुनिर्ज्ञानसमन्वितः।
वनमामन्त्र्य वस्सर्वान्गमिष्यामि परन्तप॥३७॥
न हि कश्चिद्गृहेधर्मश शक्यः प्राप्तुमिति श्रुतिः।
परिग्रहवता नित्यं प्रत्यक्षमरिसूदन॥३८॥
मया निसृष्टं पापं हि परिग्रहमभीप्सता।
जन्मक्षयनिमित्तं च शक्यं प्राप्नुमिति श्रुतिः॥३९॥
स परिग्रहमुत्सृज्य कृत्स्नं राज्यं तथैव च।
गमिष्यामि विनिर्मुक्तो विशोको निर्ममः क्वचित्॥४०॥
प्रशासध्वमिमामुर्वीं क्षेमां निहतकण्टकाम्।
न ममार्थोऽस्ति राज्येन न भोगैःकुरुसत्तमाः॥४१॥
वैशम्पायनः—
एतावदुक्त्वा वचनं कुरुराजो युधिष्ठिरः।
व्युपारमत् ततः पार्थः कनीयान्प्रत्यभाषत॥४२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि सप्तमोऽध्यायः॥७॥
॥८३\।\। आभिषेचनिकपर्वणि सप्तमोऽध्यायः॥७॥
[ अस्मिन्नध्याये ४२॥ श्लोकाः ]
_____
॥ अष्टमोऽध्यायः॥
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युधिष्टिरं प्रत्यर्जुनवचनम् ॥
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वैशम्पायनः—
अथार्जुन उवाचेदम् अधिक्षिप्त इवाक्षमी।
अभिनीततरं वाक्यं दृढवादपराक्रमः॥१॥
दर्शयन्नैन्द्रमात्मानम् उपमुग्रपरन्तपः।
स्मयमानो महातेजास् सृक्किणी लेलिहन्निव॥२॥
अर्जुनः—
अहो दुःखमहो कृच्छ्रम्अहो वैक्लब्यमुत्तमम्।
यत् कृत्वाऽमानुषं कर्म त्यजेथाश्श्रियमुत्तमाम्॥३॥
शत्रून् हत्वा महीं लब्ध्वा स्वधर्मेणोपपादिताम्।
हतामित्रः कथं स त्वं त्यजेथा बुद्धिलाघवात्॥४॥
क्लीबस्य हि कुतो राज्यं दीर्घसूत्रस्य वा पुनः।
किमर्थं च महीपालान् अवधीः क्रोधमूच्छितः॥५॥
यो नाजिजीविषेद्भैक्षं कर्म येन च केनचित्।
समारम्भान्बुभूषेत हतस्वस्तिरकिञ्चनः॥६॥
स सर्वलोके न ख्यातो न पुत्रपशुसंहितः।
कापालीं नृप पापिष्ठां वृत्तिमासाद्य जीवति॥७॥
सन्त्यक्तराज्यमृद्धं त्वां लोकोऽयं प्रवदिष्यति॥७॥
सर्वारम्भान्समुत्सृज्य हतस्वस्तिरकिञ्चनः।
कस्मादाशंससे भैक्षंचर्तुं प्राकृतवद्विभो॥८॥
कस्माद्राजकुले जातो जित्वा कृत्स्नां वसुन्धराम्।
धर्मार्थावखिलौ हित्वा वनं मौढ्यात्प्रतिष्ठसे॥९॥
यदीमानि हर्वीषीह प्रमथिष्यन्त्यसाधवः।
भवता विप्रहीणत्वात्प्राप्तं त्वामिह किल्बिषम्॥१०॥
आकिञ्चन्यमहीनस्य मृत्यवे नहुषोऽब्रवीत्।
कृत्वा नृशंसे निधने धिगस्त्वधनतामिह॥११॥
आश्वस्तन्यमृषीणां हि विद्यते वेद तद्भवान्।
यं त्विमं धर्ममित्याहुर् धनादेव प्रवर्तते॥१२॥
धर्मंस हरते तस्य धनं हरति यस्य यः।
ह्रियमाणेधने राजन्वयं कस्य क्षमेमहि॥१३॥
अभिशस्तं प्रपश्यन्ति दरिद्रं पार्श्वतस्स्थितम्।
दारिद्र्यं पातकं लोके कस्तच्छंसितुमर्हति॥१४॥
पतितश्शोच्यते राजन्नधनश्चापि शोच्यते।
विशेषंनाधिगच्छन्ति पतितस्याधनस्य वा॥१५॥
अर्थेभ्यो हि प्रवृत्तेभ्यस् सम्भृतेभ्यस्ततस्ततः।
क्रियास्सर्वाः प्रवर्तन्ते पर्वतेभ्य इवापगाः॥१६॥
अर्थो धर्मश्च कामश्च सुखं चैव नराधिप।
प्राणयात्रा हि लोकस्य विनाऽर्थं न प्रसिद्ध्यति ॥ १७॥
अर्थेनापि विहीनस्य पुरुषस्याल्पचेतसः।
विच्छिद्यन्ते क्रियास्सर्वा ग्रीष्मे कुसरितो यथा॥१८॥
यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः।
यस्यार्थास्स पुमाल्ँलोके यस्यार्थास्स च पण्डितः॥१९॥
अधनेनार्थकामेन नार्थश्शक्योविवित्सता5।
अर्थैरर्थानिबध्यन्ते गजैरिव महागजाः॥२०॥
धर्मः कामश्च स्वर्गश्च हर्षः क्रोधश्श्रुतंदमः।
अर्थादेतानि सर्वाणि प्रवर्तन्ते नराधिप॥२१॥
धनात् कुलं प्रभवति धनाद्धर्मः प्रवर्तते।
नाधनस्यास्त्ययं लोको न परः पुरुषोत्तम् ॥२२॥
नाधनो धर्मकृत्यानि यथावदनुतिष्ठति।
धनाद्धि धर्मो निस्त्रौति शैलाद्गिरिनदी यथ॥२३॥
यः कृशाश्वः कृशगवः कृशभृत्यः कृशातिथिः।
स वै राजन् कृशो नाम न शरीरकृशः कृशः॥२४॥
अवेक्षस्व यथान्यायं पश्य देवासुरं यथा।
राजन्किमन्यज्ज्ञातीनां वधाद्गृध्यन्ति6देवताः॥२५॥
न चेद्धर्तव्यमन्यस्य कथं तद्वसु धारयेत्।
एतावानेव वेदेषु निश्चयः कविभिः कृतः॥२६॥
अध्येतव्या त्रयी विद्या भवितव्यं विपश्चिता।
सर्वथा धनमाहृत्ययष्टव्यं चापि यत्नतः॥२७॥
द्रोहाद्देवैरवाप्तानि दिवि स्थानानि सर्वशः।
इति देवा व्यवसिता वेदवादाश्च शाश्वताः॥२८॥
अधीयन्ते तपस्यन्ते यजन्ते याजयन्ति च।
कृत्स्नं तदेव श्रेयो हि यदप्याददतेऽन्यतः॥२९॥
न पश्यामोऽनपहृतं धनं किञ्चित् क्वचिद्वयम्॥३०॥
एवमेव हि राजानो यजन्ति पृथिवीमिमाम्॥
जित्वा ममत्वं ब्रुवते पुत्रा इव पितुर्धने ॥३१॥
राजर्षयो जितस्वर्गा धर्मो ह्येषां निरुच्यते7॥३१॥
यथैव पूर्णादुदधेस् स्यन्दन्त्यापो दिशो दश।
एवं राजकुलाद्वित्तं पृथिवीं प्रतितिष्ठति ॥३२॥
आसीदियं दिलीपस्य नृगस्य नहुषस्य च।
अम्बरीषस्य मान्धातुः पृथिवी सा त्वयि स्थिता ॥३३॥
स त्वां द्रव्यमयो यज्ञस् सम्प्राप्तस्सर्वदक्षिणः।
स8 चेन्न यजसे राजन्प्राप्तस्त्वं राज्यकिल्बिषम् ॥३४॥
येषां राजाऽश्वमेधेन यजते दक्षिणावता।
उपेत्य तस्यावभृथं पूतास्सर्वे भवन्ति ते ॥३५॥
विश्वरूपोमहादेवस् सर्वमेधे महामखे।
जुहाव सर्वभूतानि तथैवात्मानमात्मना ॥३६॥
शाश्वतोऽयं भूतिपथो नास्यान्तमनुशुश्रुम्।
महाजनपथं गन्ता मा राजन्कापथं गमः॥३७॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि अष्टमोऽध्यायः॥८॥
॥८३॥आभिषेचनिकपर्वणि अष्टमोऽध्यायः॥८॥
अस्मिन्नध्याये ३७॥श्लोकाः]
॥ नवमोऽध्यायः॥
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युधिष्ठिरस्य निर्वेदवचनम् ॥
युधिष्ठिरः—
मुहूर्तं तावदेकाग्रमनश्श्रोत्रान्तरात्मना।
धारयिष्यामि ते श्रुत्वा रोचते वचनं मम॥१॥
सार्थगम्यमहं मार्गं न जातु त्वत्कृते पुनः।
गच्छेयं तं गमिष्यामि हित्वा ग्राम्यसुखान्युत॥२॥
क्षेम्यश्चैकाकिना गम्यः पन्थाः कोऽस्तीति पृच्छ माम्।
अथवा नेच्छसि प्रष्टुम् अपृच्छन्नपि मे शृणु ॥३॥
हित्वा ग्राम्यसुखाचारं तप्यमानो महत्तपः।
अरण्ये फलमूलाशी चरिष्यामि मृगैस्सह ॥४॥
जुह्वानोऽग्निं यथाकालम् उभौ कालावुपस्पृशन्।
कृशपरिमिताहारश् चर्मचीरजटाधरः॥५॥
शीतवातातपसहः क्षुत्पिपासाश्रमक्षमः।
तपसा विधिदृष्टेन शरीरमुपशोषयन्॥६॥
मनःकर्णसुखा नित्यं शृण्वन्नुच्चावचा गिरः।
मुदितानामरण्येषु वदतां मृगपक्षिणाम्॥७॥
अजिघ्रन्पेशलान् गन्धान्फुल्लानां वृक्षवीरुधाम्।
नानारूपान्वने पश्यन्रमणीयन्वनौकसः॥८॥
वानप्रस्थजनस्यापि दर्शनं कूलवासिनः।
नाप्रियाण्याचरन्किञ्चित् किं पुनर्ग्रामवासिनाम्॥९॥
एकान्तशीली विमृशन्पक्वापक्वेनवर्तयन्।
पितॄंश्च देवान् वन्येन वाग्भिरद्भिश्च तर्पयन्॥१०॥
एवमारण्यशास्त्राणाम् उग्रमुग्रतरं विधिम्।
सेवमानःप्रतीक्षेऽहं देहस्यास्य समापनम्॥११॥
अथ वाऽकालिके9 चाहम् एकैकस्मिन्जनक्षये।
चरन्भैक्षंमुनिर्मुण्डः क्षपयिष्ये कलेवरम्॥१२॥
पांसुभिस्समभिध्वस्तश् शून्यागारप्रतिश्रयः।
वृक्षमूलनिकेतो वा त्यक्तसर्वप्रियाप्रियः॥१३॥
न शोचन्न प्रहृष्यंश्च तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः॥१४॥
आत्मारामः प्रसन्नात्मा10 जडान्धबधिराकृतिः।
अकुर्वाणः परैः किश्चित् संविदं जातु केनचित्॥१५॥
जङ्गमाजङ्गमान्सर्वान्अविहिसंश्च11तुर्विधान्।
प्रजास्सर्वास्ववस्थासु पतिः प्राणभृतां पतिः॥१६॥
न चाप्यवहसन् कञ्चिन्न कुर्वन् भ्रुकुटीः क्वचित्।
प्रसन्नवदनो नित्यं सर्वेन्द्रियसुसंयतः॥१७॥
अपृच्छन् कस्यचिन्मार्गं व्रजन्नान्येन केनचित्।
न देशं न दिशं काञ्चिद् गन्तुमिच्छन् विशेषतः॥१८॥
गमने निरपेक्षश्च पश्चादनवलोकयन्।
ऋजुः प्रणिहितो गच्छन्स्त्रीसंस्थापरिवर्जकः॥१९॥
स्वभावास्तु प्रयान्त्वग्रे भवन्त्वनशनान्यपि।
द्वन्द्वानि च विरुद्धानि तानि सर्वाण्यचिन्तयन्॥२०॥
अल्पं वा स्वादु वा भोज्यं पूर्वालाभेन जातुचित्।
अन्यानपि चरल्ँलाभान्अलाभे सप्त पूरयन्॥२१॥
विधूमे न्यस्तमुसले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने।
अतीतपात्रसञ्चारे काले विगतभिक्षुके॥२२॥
एककालं चरन् भैक्षं गृहाणि द्वे च पञ्च वा।
स्नेहपाशान्विमुच्याहं चरिष्यामि महीमिमाम्॥२३॥
न जिजीविषुवत् किञ्चिन्नमुमूर्षुवदाचरन्।
जीवितं मरणं चोभे नाभिनन्दन्न च द्विषन्॥२४॥
वास्यैकं तक्षतो वाहुं चन्दनेनैकमुक्षतः।
नाकल्याणं न कल्याणं ध्यायन्नुभयतस्तयोः॥२५॥
याः काश्विज्जीवता शक्यास् सर्वास्त्यक्तुं क्षमाः क्रियाः।
तास्सर्वास्समभित्यज्य निमेषादिष्ववस्थितः॥२६॥
तेषु नियमसक्तश्च त्यक्तसर्वेन्द्रियक्रियः।
सुपरित्यक्तसङ्कल्पस् सुनिर्णिक्तात्मकिल्बिषः॥२७॥
विमुक्तस्सर्वसङ्गेभ्यो व्यतीतस्सर्ववागुराः।
न वशे कस्यचित्तिष्ठन्सुधर्मा मातरिश्वनः॥२८॥
वीतरागश्चरन्नेवं तुष्टिं प्राप्स्यामि मानसीम्।
तृष्णया हि महत् पापम् अज्ञानादस्मि कारितः॥२९॥
कुशला12कुशलान्येवं कृत्वा कर्माणि मानवः।
कार्यकारणसंश्लिष्टंस्वजनं नाभिनन्दति॥३०॥
आयुषोऽन्ते प्रहायेदं क्षीणप्रायं कलेबरम्।
प्रतिगृह्णाति तत् पापं कर्तुः कर्मफलं तु यन्॥३१॥
एवं संसारचक्रेऽस्मिन्व्याविद्वे रथचक्रवत्।
समेति भूतग्रामोऽयं भूतग्रामेण कार्यवत्॥३२॥
जन्ममृत्युजराव्याधिवेदनाभिपरिप्लुतम्।
असारमिममस्वन्तं संसारं त्यजतस्सुखम्॥३३॥
दिवः पतत्सु देवेषु स्थानेभ्यश्च महर्षिषु।
को हि नाम भवेनार्थी भवेत् कारणतत्त्ववित्॥३४॥
कृत्वा हि विविधं कर्म तत्तद्विषयलक्षणम्।
पार्थिवो नृपतिस्स्वल्पैः कारणैरपि बाध्यते ॥३५॥
तस्मात् प्रज्ञामृतमिदं चिरान्मां पर्युपस्थितम्।
यत् प्राप्य प्रार्थयेत् स्थानम् अव्ययं शाश्वतं तथा॥३६॥
एतया सन्ततं वृत्त्या चरन्नेवम्प्रकारया।
देहं संस्थापयिष्यामि निर्भयं मार्गमास्थितः॥३७॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि नवमोऽध्यायः॥९॥
॥८३॥अभिषेचनिकपर्वणि नवमोऽध्यायः॥९॥
[अस्मिन्नध्याये ३७ श्लोकाः ]
॥ दशमोऽध्यायः॥
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युधिष्टिरं प्रति भीमसेनवचनम्॥
भीमसेनः—
श्रोत्रियस्येव ते राजन् मन्दकस्याविपश्चितः।
अनुवाकहता बुद्धिर् नैषातत्त्वार्थदर्शिनी॥१॥
आलस्ये कृतबुद्धेस्ते राजधर्मानसूयतः।
विनाशे धार्तराष्ट्राणां किं फलं भरतर्षभ॥२॥
भूतानुकम्पा कारुण्यम् आनृशंस्यं न विद्यते।
क्षात्रमाचरता मार्गम् अपि बन्धौ त्वनन्तरे॥३॥
यदीमां भवतो बुद्धिं विद्याम वयमीद्शीम्।
अस्त्रं नैवागमिष्यामो वधिष्यामः कथञ्चन॥४॥
भैक्षमेवाचरिष्यामश् शरीरस्याविमोक्षणात्।
न चेदं दारुणं युद्धम् भविष्यति महीक्षिताम्॥५॥
प्राणस्यान्नमिदं सर्वम् इति वै कवयो विदुः।
स्थावरं जङ्गमं चैव सर्वं प्राणस्य भोजनम्॥६॥
आददानस्य चेद्राज्यं ये केचित् परिपन्थिनः।
हन्तव्यास्ते कृतप्रज्ञाः क्षत्रधर्मविदो विदुः॥७॥
ते सदोषाहता स्माभिर् अन्नस्य परिपन्थिनः।
तान्हत्वा भुङ्क्ष्व धर्मेण युधिष्ठिर महीमिमाम्॥८॥
यथा हि पुरुषः खात्वा कूपमप्राप्य चोदकम्।
पङ्कदिग्धो निवर्तेत कर्मेदंनस्तथोपमम्॥९॥
यथाऽऽरुह्य महावृक्षम्अपहृत्य ततो मधु।
अप्राश्य मरणं गच्छेत् कर्मेदं नस्तथोपमम्॥१०॥
यथाऽन्नं क्षुधितो लब्ध्वा न भुञ्जीत यदृच्छया।
कामी च कामिनीं लब्ध्वाकर्मेदंनस्तथोपमम्॥११॥
यथा महान्तमध्वानम् आशया पुरुषो व्रजेत्।
स निराशो निवर्तेत कर्मेदंनस्तथोपमम्॥१२॥
यथा शत्रून्घातयित्वा पुरुषः कुरुसत्तम्।
आत्मानं घातयेत् पश्चात् कर्मेदं नस्तथोपमम् ॥१३॥
वयमेवात्र गर्ह्याहि यद्वयं मूढचेतसः।
त्वां राजन्ननुगच्छामो ज्येष्ठोऽयमिति भारत॥१४॥
वयं हि बाहुबलिनः कृतविद्या मनस्विनः।
क्लीबस्यवाक्ये तिष्ठामो यथैवाशक्तयस्तथा॥१५॥
दुर्गतीनगतीनस्मान्नष्टार्थानर्थसिद्धये।
कथं वै नानुपश्येयुर्जनाः पश्यन्ति यादृशम् ॥१६॥
आपत्काले हि संन्यासः कर्तव्य इति शिष्यते।
जरयाऽभिपरीतेन शत्रुभिर्व्यंसितेन च॥१७॥
तस्मादिह कृतप्रज्ञास् त्यागं न परिचक्षते।
धर्मव्यतिक्रमं चेमं मन्यन्ते सूक्ष्मदर्शिनः॥१८॥
कथं तस्मात्समुत्पन्नास् ततो जातास्तदाश्रयाः।
न चेमं दूषयेयुस्ते श्रद्धावानत्र गर्ह्यते॥१९॥
क्रियाविहीनैरधनैर् नास्तिकैरसम्प्रवर्तितम्।
वेदाभासमिवाज्ञानं सत्याभासमिवानृतम् ॥२०॥
न शक्यं मौढ्यमास्थाय विभ्रताऽऽत्मानमात्मना।
धर्मच्छद्म समास्थाय आसितुं न तु जीवितुम्॥२१॥
शक्यं13 पुनररण्येषु सुखमेकेन जीवितुम्।
अबिभ्रता पुत्रपौत्रान् देवर्षीनतिथीन् पितॄन्॥२२॥
नेमे मृगास्स्वर्गजितो न वराहा न पक्षिणः।
अथैतेन प्रकारेण पुण्यानाहुर्न ताञ्जनाः॥२३॥
यदि संन्यासतस्सिद्धिं राजन्कश्चिदवाप्नुयात्।
पर्वताश्च द्रुमाश्चैव क्षिप्रं सिद्धिमवाप्नुयुः॥२४॥
एते हि नित्यसंन्यासा दृश्यन्ते निरुपद्रवाः।
अपरिग्रहवन्तश्चसततं चाप्रभाषिणः॥२५॥
अथ चेदात्मभोग्येषु नान्येषां सिद्धिमश्नुते।
तस्मात् कर्मैव कर्तव्यं नास्ति सिद्धिरकर्मणः॥२६॥
औदका14स्सृष्टयश्चैव जन्तवस्मिद्धिमाप्नुयुः।
एषामात्मैव भर्तव्यो नान्यः कश्चन विद्यते॥२७॥
अवेक्षस्व यथा स्वैस्स्वैः कर्मभिर्व्यापृतं जगत्।
तस्मात् कर्मैव कर्तव्यं नास्ति सिद्धिरकर्मणः ॥२८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि दशमोऽध्यायः॥१०॥
॥८३॥आभिषेचनिकपर्वणि दशमोऽध्यायः॥१०॥
[ अस्मिन्नध्याये २८ श्लोकाः ]
॥ एकादशोऽध्यायः॥
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अर्जुनेन युधिष्टिरं प्रति गार्हस्थ्यस्य श्रैष्ट्योपपादनम्॥
अर्जुनः—
अत्रैवोदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
तापसैस्सह संवाद शक्रस्य भरतर्षभ॥१॥
केचिद्गृहान्परित्यज्य वनमभ्यागमन्द्विजाः।
अजातश्मश्रवो मन्दाः कुले जाताः प्रवव्रजुः॥२॥
धर्मोऽयमिति मन्वानास् समृद्धा धर्मचारिणः।
त्यक्त्वा गृहान्पितॄंश्चैव तानिन्द्रोऽन्वकृपायत॥३॥
स तान् बभाषे भगवान्पक्षी भूत्वा हिरण्मयः॥३॥
शकुनिः—
सुदुष्करं मनुष्यैस्तद् यत् कृतं विघसाशिभिः॥४॥
पुण्यं तद् वत कर्मैषांप्रशस्तं चैव जीवितम्।
संसिद्धास्ते गतिं मुख्यां प्राप्ताः कर्मपरायणाः॥५॥
ऋषयः—
अहो बतायं शकुनिर् विघसाशान्प्रशंसति।
अस्मान्नूनमयं शास्ति वयं हि विघसाशिनः॥६॥
1. ख—शक्यं पुनररण्येषु सुखमेतेन जीवितुम् ।
[अधिकः पाठः]
शकुनिः—
नाहं युष्मान् प्रशंसामि पङ्कदिग्धान्रजस्वलान्।
उच्छिष्टभोजिनो मन्दान्अन्ये तु विघसाशिनः॥७॥
ऋषयः—
इदं श्रेयः परमिति वयमेवममंस्महि। ।
शकुने ब्रूहि यच्छ्रेयो वयं ते श्रद्दधाम ते॥८॥
शकुनिः—
यदि मां नाभिशंसध्वं विभज्यात्मानमात्मना।
ततोऽहं वः प्रवक्ष्यामि याथातथ्यंहितं वचः॥९॥
तापसाः—
शृणुमस्ते वचस्तावत् पन्थानो विदितास्तव।
नियोगे15चैव धर्मात्मन्स्थातुमिच्छाम शाधि नः॥१०॥
शकुनिः—
चतुष्पदां गौः प्रवरा लोहानां काञ्चनं वरम्।
शब्दानां प्रवरो16 मन्त्रो त्राह्मणो द्विपदां वरः॥११॥
मन्त्रोऽयं जातकर्मादिर्ब्राह्मणस्य विधीयते।
जीवतोऽपि यथाकालं श्मशाननिधनान्तकः॥१२॥
कर्माणि वैदिकान्यस्य स्वर्गः पन्था ह्यनुत्तमः॥१२॥
अथ सर्वाणि कर्माणि मन्त्रसिद्धानि चक्षते।
आम्नायदृढवादीनि तथा सिद्धिरिहेष्यते॥१३॥
मासार्धमासा ऋतव आदित्यश्चन्द्रतारकाः।
ग्रसन्ते कर्म भूतानि तदिदं कर्मशंसिनाम्॥१४॥
सिद्धिक्षेत्रमिदं पुण्यम् अयमेवाश्रमो महान्॥१५॥
अथ ये कर्म निन्दन्तो मनुष्याः कापथं गताः।
मूढानामर्थहीनानां तेषामेनस्तु विद्यते॥१६॥
देववंशान्ब्रह्मवंशन्पितृवंशांश्च शाश्वतान्।
सन्त्यज्य मूढा वर्तन्ते ततो यान्त्यशुचीन् पथः॥१७॥
एतद्वोऽस्तुतपोयुक्तं तदानीमृषिचोदितम्।
तस्मात् तदध्यावसतस् तपस्वित्वमिहोच्यते॥१८॥
देववंशान् ब्रह्मवंशान् पितृवंशांश्च शाश्वतान्।
संविभज्य गुरोश्चर्यांतद्वैदुष्करमुच्यते॥१९॥
देवा वै दुष्करं कृत्वा विभूतिम् परमां गताः।
तस्माद्गार्हस्थ्यमुद्रो दुष्करं प्रब्रवीमि वः॥२०॥
तत्र श्रेष्ठाः प्रजास्सर्वा धृतिमूला न संशयः।
कुटुम्बविधिनाऽनेन यस्मिन्सर्वंप्रतिष्ठितम्॥२१॥
एतद्विदुस्तपोयुक्ता द्वन्द्वातीता विमत्सराः
एतस्माद्ववनम्ग्र्यंतु लोकेषु तप उच्यते॥२२॥
दुराधर्षं परं चैवं गच्छन्ति विघसाशिनः।
सायंप्रातर्विभज्यान्नं स्वकुटुम्बे यथाविधि॥२३॥
दत्त्वाऽतिथिभ्यो देवेभ्यः पितृभ्यस्स्वजनस्य च।
अवशिष्टानि येऽश्नन्ति तानाहुर्विघसाशिनः॥२४॥
तस्मात् स्वधर्ममास्थाय सुव्रतास्सत्यवादिनः।
लोकस्य गुरवो भूत्वा ते भवन्त्यनुपस्कृताः॥२५॥
त्रिदिवं प्राप्य शऋस्य स्वर्गलोके विमत्सराः।
वसन्ति शाश्वतान्वर्षाञ्जना दुष्करकारिणः॥२६॥
अर्जुनः—
ततस्ते तद्वचश्श्रुत्वा तस्य धर्मार्थसंहितम्।
उत्सृज्य नास्तिकमतिं गार्हस्थ्यं धर्ममाश्रिताः ॥२७॥
तस्मात् त्वमपि दुर्धर्ष धैर्यमालम्ब्य शाश्वतम्।
प्रशाधि पृथिवीं कृत्स्त्रां हतामित्रां नृपोत्तम्॥२८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकादशोऽध्यायः॥११॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि एकादशोऽध्यायः॥११॥
[अस्मिन्नध्याये २८ श्लोकाः]
_____
॥ द्वादशोऽध्यायः॥
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** युधिष्ठिरं प्रति नकुलवाक्यम्॥**
_____
वैशम्पायनः—
अर्जुनस्य वचश्श्रुत्वा नकुलो वाक्यमब्रवीत्।
राजानमिति सम्प्रेक्ष्य सर्वधर्मभृतां वरम्॥१॥
अनुरुध्य महाप्राज्ञो भ्रातुश्चित्तमरिन्दमः।
व्यूढोरस्को महाबाहुस् ताम्रास्यो मितभापिता॥२॥
नकुलः—
विशालयूपा देवानां सर्वेषामग्नयश्चिताः।
तस्माद्विद्धि महाराज देवान्कर्मावधिस्थितान्॥३॥
अनास्तिका नास्तिकानां प्राणादाःपितरश्च ये।
येऽपि कर्माणि कुर्वन्ति विधिं पश्यस्व भारत॥४॥
वेदवादापविद्धास्तु तान् विद्धि भृशनास्तिकान्॥४॥
न हि वेदोक्तमुत्सृज्य विप्रस्सर्वेषु कर्मसु।
देवयानेन नाकस्यपृष्ठमाप्नोति भारत॥५॥
अत्याश्रमानयं सर्वान्इत्याहुर्वेदनिश्चिताः।
ब्राह्मणाश्श्रुतिसम्पन्नास् तान्निबोध यथातथम्॥६॥
वित्तानि धर्मलब्धानि ऋतुमुख्येष्ववासृजन्॥
कृतात्मा समहाराज स वै त्यागी स्मृतो नरः॥७॥
अनवेक्ष्य सुखादानं तथैवोर्ध्वंप्रतिष्ठितः।
आत्मत्यागी महाराज स त्यागी तापसः प्रभो॥८॥
अनिकेतः परिपतन्वृक्षमूलशयो मुनिः।
अयाचकस्सदा योगी स लागी पार्थ भिक्षुकः॥९॥
क्रोधहर्षावनादृत्य पैशुन्यं च विशां पते।
विप्रो वेदानधीते यस् स त्यागी गुरुपूजकः॥१०॥
आश्रमांस्तुलया सर्वान्धृतानाहुर्मनीषिणः।
एकतस्ते त्रयो राजन् गृहस्थाश्रम एकतः॥११॥
समीक्षते तु योऽर्थं वै कामं धर्मंच भारत।
अयं पन्था महर्षीणाम् इयं लोकविदां गतिः॥१२॥
इति यः कुरुते भावं स यागी भरतर्षभ॥१३॥
नरः परित्यज्य गृहान्वनमेति विमूढ्यत्॥१३॥
यदा कामान्समीक्षेत् धर्मवैतंसिकोऽनृजुः।
अथैनं मृत्युपाशेन कण्ठे बध्नाति मृत्युराट्॥१४॥
अभिमानकृतं कर्म नैतत् फलवदुच्यते।
त्यागयुक्तं महाराज सर्वमेव महाफलम्॥१५॥
शमो दमस्तपो दानं सत्यं शौचमथार्जवम्।
यज्ञो धृतिश्च धर्मश्च नित्यप्राप्तोऽतिविस्तृतः॥१६॥
पितृदेवातिथिकृते समारम्भः प्रशस्यते॥१७॥
अत्रैव हि महाराज त्रिवर्गः केवलं फलम्॥१७॥
एतस्मिन्वर्तमानस्य विधौ विप्रैर्निषेविते।
त्यागिनः प्रसृतस्येह नोच्छित्तिर्विद्यते कचित्॥१८॥
असृजद्धि प्रजा राजन्प्रजापतिरकल्मषः।
मां यक्ष्यन्तीति शान्तात्मा यज्ञैर्विविधदक्षिणैः॥१९॥
वीरुधश्चैव वृक्षांश्च यज्ञार्थे च तथौषधीः।
पशूंश्चैव तथा मेध्यान्यज्ञार्थानि हवींषिच॥२०॥
गृहस्थाश्रमिणस्तच्च यज्ञकर्माविरोधकम्।
तस्माद्गार्हस्थ्यमेवेह दुःष्करं दुर्भरं तथा॥२१॥
तत्सम्प्राप्य गृहस्था ये पशुधान्यधनान्विताः।
न यजन्ते महाराज शाश्वतं तेषु किल्बिषम्॥२२॥
स्वाध्याययज्ञात्स्वृषयो ज्ञानयज्ञास्तथा परे।
अथापरे महायज्ञान्मनसैव वितन्वते॥२३॥
इदमन्यन्महाराज विद्वद्भिः कथितं मम॥२४॥
भूमिरग्निश्च वायुश्च न चापो न दिवाकरः।
नक्षत्राणि न चन्द्रश्च न दिशः काल एव च॥२५॥
शब्दस्पर्शश्च रूपं च न गन्धो न रसः क्वचित्।
न च सन्ति प्रमाणानि यैः प्रमेयं प्रसाध्यते॥२६॥
प्रत्यक्षमनुमानं च नोपमानमथागमः।
नार्थापत्तिर्न चैतिह्यं न दृष्टान्तो न संशयः॥२७॥
न क्वचिन्निर्णयो राजन्न धर्मोऽधर्म एव च।
तिर्यक् च स्थावरं चैव न देवा न च मानुषाः॥२८॥
वर्णाश्रमविभागाश्च न च कर्ता न कर्मकृत्।
न चार्थश्चविभूतिश्च न चार्थस्य विचेष्टितम्॥२९॥
तमोभूतमिदं सर्वम् अनालोकं जगन्नृप।
न चात्मा विद्यमानोऽपि मनसा योगमृच्छति॥३०॥
अचेतनं पुनस्त्वासीद् आत्मा एव सचेतनः।
ईश्वरश्चेतनस्त्वेकस् तेनेदं गहनीकृतम्॥३१॥
मन्त्राश्च चेतना राजन्न च देहेन योजिताः३१॥
ते च विश्वसृजो नाम ऋषयो मन्त्रदेवताः।
चैतन्यमीश्वरात्प्राप्य ब्रह्माण्डं तैर्विनिर्मितम्॥३२॥
इष्ट्वा विश्वसृजं यज्ञं निर्मितः प्रपितामहः।
सृष्टिस्तेन समारब्धा प्रसादादीश्वरस्य च॥३३॥
चैतन्यमीश्वरस्यैतद् येनेदं चेतनं जगत्।
योगेन च समाविष्टं जगनत्कृत्स्नं च शम्भुना॥३४॥
धर्मश्चार्थश्च कामश्च उक्तो मोक्षश्च सङ्क्षये।
ब्रह्मणः परमेशस्य ईश्वरेण यदृच्छया॥३५॥
अज्ञो जन्तुरनीशश्च भाजनं सुखदुःखयोः।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा॥३६॥
प्रधानं पुरुषश्चैव आत्मानं सर्वदेहिनाम्।
मनसा विषयश्चैव चेतनेन प्रयोजितः॥ ३७॥
सुखदुःखेन युज्यन्ते कर्मभिश्च प्रचोदिताः॥३८॥
वर्णाश्रमविभागश्च ईश्वरेण प्रवर्तितः।
सदेवासुरगन्धर्वं तेनेदं निर्मितं जगत्॥३९॥
त्वं चान्ये च महाभाग ईश्वरस्य वशे स्थिताः।
जीवन्ते च म्रियन्ते च न स्वतन्त्राः कथञ्चन॥४०॥
भित्त्वा भित्त्वा च भूतानि हत्वा सर्वमिदं जगत्।
यजते कर्मणा देवान्न स पापेन लिप्यते॥४१॥
हिंसात्मकानि कर्माणि सर्वेषां गृहमेधिनाम्।
देवतानामृषीणां च ते च यान्ति परां गतिम् ॥४२॥
पातिताश्शत्रवः पूर्वंसर्वत्र वसुधाधिपैः
प्रजानां हितकामैश्च आत्मनश्च हितैषिभिः॥४३॥
यदि तत्र भवेत् पापं कथं ते स्वर्गमास्थिताः।
न प्राप्ता नरकं राजन्वेष्टिताः पापकर्मभि॥४४॥
एवं स्वर्गसमापन्ना मार्गमातिष्ठतो नृप।
द्विजातेर्ब्रह्मभूतस्य स्पृहयन्ति दिवौकसः॥४५॥
स रत्नानि विचित्राणि सम्प्राप्तानि ततस्ततः।
मखेष्वनभिसन्त्यज्य नास्तिक्यमभिजल्पसे॥४६॥
कुटुम्बमास्थिते त्यागं न पश्यामि नराधिप।
राजसूयाश्वमेधेषु सर्वमेधेषु वा पुनः॥४७॥
ये चान्ये ऋतवस्तात ब्राह्मणैरुपशोभिताः।
तैर्यजस्व महीपाल शक्रो देवपतिर्यथा॥४८॥
राजा प्रमाददोषेण दस्युभिः परिमुच्यते।
अशरण्यः प्रजानां यस् स राजा कलिरुच्यते॥४९॥
अश्वान्गाश्चैव दासीश्च करेणूश्च स्वलङ्कृताः।
ग्रामाञ् जनपदांश्चैव क्षेत्राणि च गृहाणि च॥५०॥
अप्रदाय द्विजातिभ्यो मात्सर्याविष्टचेतसः।
वयं ते राजकलयो भविष्याम विशां पते॥५१॥
अदातारोऽशरण्याश्च राजकिल्बिषभागिनः।
दुःखानामेव भोक्तारो न सुखानां कदाचन॥५२॥
अनिष्ट्वाच महायज्ञैर् अकृत्वा च पितॄन्स्वधाम।
तीर्थेष्वनभिसन्त्यज्य प्रव्रजिष्यसि चेद्रथ॥५३॥
भिन्नाभ्र इव गन्तासि विलयं मारुतेरितः।
लोकयोरुभयोर्भ्रष्ट अन्तराले व्यवस्थितः॥५४॥
अन्तर्बहिश्च यत् किञ्चिन्मनोव्यासङ्गकारणम्।
परित्यज्य भवेत्त्यागी न यो हित्वा प्रतिष्ठते॥५५॥
एतस्मिन् वर्तमानस्य विधौ विप्रैर्निषेविते।
ब्राह्मणस्य महाराज नोच्छित्तिर्विद्यते क्वचित्॥५६॥
निहत्य शत्रूंस्तरसा समृद्धाञ्
शक्रोयथा दैत्यबलानि सङ्ख्ये।
कः पार्थ शोचेन्निरतस्तु धर्मे
पूर्वैः कृते पार्थिवमुख्यमुख्ये॥५७॥
क्षात्रेण युद्धेन पराक्रमेण
जित्वा महीं मन्त्रविद्भ्यः प्रदाय।
नाकस्य पृष्ठे हि नरेन्द्र गन्ता
न शोचितव्यं भवताऽद्य पार्थ५८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि द्वादशोऽध्यायः॥१२॥
॥८३॥आभिषेचनिकपर्वणि द्वादशोऽध्यायः॥१२॥
[अस्मिन्नध्याये ५८ श्लोकाः]
॥ त्रयोदशोऽध्यायः ॥
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** युधिष्ठिरं प्रति सहदेववचनम्।**
सहदेवः—
न बाह्यं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति भारत।
शारीरं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति वा न वा॥१॥
बाह्यद्रव्यविमुक्तस्य शारीरेषु च गृध्यतः।
यो धर्मों यत् सुखं वा स्याद् द्विषतां तत्तथाऽस्तु नः॥२॥
शारीरं द्रव्यमुत्सृज्य पृथिवीमनुशासतः।
यो धर्मों यत् सुखं वा स्यात् सुहृदां तत्तथाऽस्तु नः॥३॥
द्व्यक्षरस्तु भवेन्मृत्युस् त्र्यक्षरं ब्रह्म शाश्वतम्।
ममेति17 द्व्यक्षरो मृत्युर् न ममेति च शाश्वतम्॥४॥
जन्ममृत्यू18 “अ–क–ब्रह्ममृत्यू च राजन् द्वावात्मन्येव समाश्रिता। [पाठान्तरम् ] घ–जन्ममृत्यू तु राजा द्वौ वाचान्येन[पाठान्तरम्)”) तु राजन् द्वावात्मन्येव समाश्रितौ।
अदृश्यमानौ भूतानि योजयेतामसंशयम्॥५॥
अविनाशोऽस्य सत्त्वस्य नियतो यदि भारत।
हित्वा शरीरं भूतानां न हिंसा प्रतिपत्स्यत॥६॥
अथापि च सहोत्पत्तिस् सत्त्वस्य प्रलयस्तथा।
नष्टे शरीरे नष्टस्याद् वृथा तस्य क्रियापथः॥७॥
तस्मादेकान्तमुत्सृज्य पूर्वैः पूर्वतरश्च यः।
पन्था निषेवितस्सद्भिस् स निषेव्यो विजानता॥८॥
स्वायम्भुवेन मनुना तथाऽन्यैश्चक्रवर्तिभिः।
यद्ययं ह्यधमः पन्थाः कस्मात्तैस्तैर्निषेवितः॥९॥
कृतत्रेतादियुक्तानि गुणवन्ति च भारत।
युगानि बहुशस्तैश्च भुक्तेयमवनी नृप॥१०॥
लब्ध्वाऽपि पृथिवीं कृत्स्त्रां सहस्थावरजङ्गमाम्।
न भुङ्क्ते यो नृपस्सम्यक् किं फलं तस्य जीवितम्॥११॥
अथवा वसतो राजन वने वन्येन जीवतः।
द्रव्येषु यस्य ममता मृत्योराम्ये विवर्तते॥१२॥
बाह्यान्तराणां भूतानां स्वभावं पश्य भारत।
ये तु पश्यन्ति सद्भूतं मुच्यन्ते ते महाभयात्॥१३॥
भवान्पिता भवान् माता भवान् भ्राता भवान्गुरुः।
दुःखप्रलापानार्तस्यतन्मे क्षन्तुमिहार्हसि॥१४॥
तथ्यं वा यदि वाऽतथ्यं यन्मयैतत् प्रभाषितम्।
तद्विद्धि पृथिवीपाल भक्त्या भगवतो हरेः॥१५॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥
[ अस्मिन्न्ध्याये १५ श्लोकाः ]
॥ चतुर्दशोऽध्यायः॥
युधिष्टिरं प्रति द्रौपदीवचनम्।
वैशम्पायनः—
अव्याहरति कौन्तेये धर्मराजे युधिष्ठिरे।
भ्रातॄणां विविधांस्तांस्तान्विविधान् वेदनिश्चयान्॥१॥
महाभिजनसम्पन्ना श्रीमत्यायतलोचना।
अभ्यभाषत राजानं द्रौपदी योषितां वरा॥२॥
आसीनमृषभं राज्ञां भ्रातृभिः परिवारितम्।
सिंहशार्दूलसदृशैर् वारणैरिव यूथपम्॥३॥
अभिमानवती नित्यं विशेषेण युधिष्ठिरे।
लालिता सततं राज्ञा धर्माधर्मनिदर्शिनी॥४॥
आमन्त्रयित्वा सुश्रोणी साम्ना परमवल्गुना।
भर्तारमभिसम्प्रेक्ष्य ततो वचनमब्रवीत्॥५॥
द्रौपदी—
इमे ते भ्रातरः पार्थ शुष्यन्ते स्तोकका इव।
त्वां पश्यमानास्तिष्ठन्ति न चैनानभिनन्दसे॥६॥
नन्दयैतान् महाराज मत्तानिव महाद्विपान्।
उपपन्नेन वाक्येन सततं दुःखभागिनः॥७॥
कथं द्वैतवने राजन्पूर्वमुक्त्वा तथा वच।
भ्रातॄनेतांस्तुसहिताञ् शीतवातातपार्दितान्॥८॥
वयंदुर्योधनं हत्वा मृधे भोक्ष्याम मेदिनीम्।
सम्पूर्णां सर्वकामानाम् आहवे विजयैषिणः॥९॥
नृवीरांश्च रथान्हत्वा निहत्यच महाद्विषान्।
संस्तीर्य च रथैर्भूमिं ससादिभिररिन्दमाः॥१०॥
यजेम विविधैर्यज्ञैस् समृद्धैराप्तदक्षिणैः।
वनवासगतं दुःखं भविष्यति सुखाय नः॥११॥
इत्येतानेवमुक्त्वा त्वं स्वयं धर्मभृतां वर।
कथमद्य पुनर्वीर विनिहंसि मनांस्युत॥१२॥
न क्लीबोवसुधां भुङ्क्ते न क्लीबो राज्यमश्नुते।
न क्लीबस्य गृहे पुत्रा वित्तपाला इवासते॥१३॥
नादण्डः क्षत्रियो भाति नादण्डो भूमिमश्नुते।
नादण्डस्य प्रजा राजन्सुखमेधन्ति भारत॥१४॥
सदेवासुरगन्धर्वैर् अप्सरोभिर्विभूषितम्।
रक्षोभिर्गुह्यकैर्नागैर् मनुष्यैश्च विभूषितम्॥१५॥
त्रिवर्गेण च सम्पूर्णं त्रिवर्गस्यागमेन च।
दण्डेनाभ्याहृतं सर्वं जगद्भोगाय कल्पते॥१६॥
स्वायम्भुवं महीपाल आगमं शृणु शाश्वतम्।
विप्राणां विदितश्चायं तव चैव विशां पते॥१७॥
अराजके हि लोकेऽस्मिन्सर्वतो विद्रुते भयात्।
रक्षार्थमस्य लोकस्य राजानमसृजत् प्रभुः॥१८॥
महाकायं महावीर्यं पालने जगतः क्षमम्॥१८॥
अनिलाग्नियमार्काणाम् इन्द्रस्य वरुणस्य च।
चन्द्रवित्तेशयोश्चैव मात्रा निर्हृत्यशाश्वतीः॥१९॥
यस्मादेषां सुरेन्द्राणां सम्भवत्यंशतो नृपः।
तस्मादभिभवत्येषसर्वभूतानि तेजसा॥२०॥
तपत्यादित्यवच्चैव चक्षूंषि च मनांसि च।
न चैनं भुवि शक्नोति कश्चिदप्यभिवीक्षितुम्॥२१॥
सोऽग्निर्भवति वायुश्च सोऽर्कस्सोमश्च धर्मराट्।
स कुबेरस्स वरुणस् स महेन्द्रः प्रतापवान्॥२२॥
पितामहस्य देवस्य विष्णोश्शर्वस्य चैव हि।
ऋषीणां चैव सर्वेषां तस्मिंस्तेजः प्रतिष्ठितम्॥२३॥
बालोऽपि नावमन्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः।
महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति॥२४॥
एकमेव दहत्यग्निर् नरं दुरुपसर्पिणम्।
कुलं दहति राजाग्निस्
सपशुद्रव्यसञ्चयम्॥२५॥
धृतराष्ट्रकुलं दग्धं क्रोधोद्भूतेन वह्निना।
प्रत्यक्षमेतल्लोकस्य संशयो न हि विद्यते॥२६॥
कुलजो वृत्तसम्पन्नो धार्मिकश्चमहीपतिः।
प्रजानां पालने युक्तः पूज्यते दैवतैरपि॥२७॥।
कार्यं योऽवेक्ष्य शक्तिं च देशकालौ च तत्त्वतः।
कुरुते धर्म19सिद्धयर्थं वैश्वरूप्यं पुनः पुनः॥२८॥
तस्य प्रसादे पद्मा श्रीर् विजयश्च पराक्रमे।
मृत्युश्च वसति क्रोधे सर्वतेजोमयो हि सः॥२९॥
यस्तु द्वेष्टि सम्मोहात् स विनश्यति मानवः।
तस्य ह्याशु विनाशाय राजाऽपि कुरुते मनः॥३०॥
तस्माद्धर्मंयमिष्टेषु संव्यवस्यति पार्थिवः।
अनिष्टं चाप्यनिष्टेषु तद्धर्मं न विचालयेत्॥३१॥
तस्यार्थेसर्वभूतानां गोप्तारं धर्म्यमात्मजम्।
ब्रह्मतेजोमयं दण्डम् असृजत् पूर्वमीश्वरः॥३२॥
तस्य सर्वाणि भूतानि स्थावराणि चराणि च।
भयाद्भोगाय कल्पते धर्मान्न विचलन्ति च॥३३॥
देशकालौच शक्तिं च कार्यं चावेक्ष्य तत्त्वतः।
यथार्हतस्सम्प्रणयेन्नरेवन्यायवर्तिषु॥३४॥
स राजा पुरुषो दण्डस् स नेता शासिता च सः।
वर्णानामाश्रमाणां च धर्मप्रभुरथाव्ययः॥३५॥
दण्डश्शास्ति प्रजास्सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डस्सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः॥३६॥
सुसमीक्ष्य धृतो दण्डस् सर्वा रञ्जयति प्रजाः।
असमीक्ष्य प्रणीतस्तु विनाशयति सर्वशः॥३७॥
यदि न प्रणयेद्राजा दण्डं दण्ड्येष्वतन्द्रितः।
जले मत्स्यानिवाधक्ष्यन्दुर्बलान्बलवत्तराः॥३८॥
काकोऽद्याच्च पुरोडाशं श्वा चैवावलिहेद्धविः।
स्वामित्वं न क्वचिच्चस्यात् प्रपद्येताघरोत्तरम्॥३९॥
सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभस्तु शुचिर्नरः।
दण्डस्य हि भयात् सर्वं जगद्भोगायकल्पते॥४०॥
देवदानवगन्धर्वा रक्षांसि पतगोरगाः।
तेऽपि भोगाय कल्पन्ते दण्डेनैवाभिपीडिताः॥४१॥
दूष्येयुस्सर्ववर्णाश्च भिद्येरन्सर्वसेतवः।
सर्वलोकप्रकोपश्च भवेद्दण्डस्य विभ्रमात्॥४२॥
यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहा।
प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत् साधु पश्यति॥४३॥
आहुस्तस्य प्रणेतारं राजानं सत्यवादिनम्।
समीक्ष्यकारिणं प्राज्ञं धर्मकामार्थकोविदम्॥४४॥
तं राजा प्रणयन् सम्यक् स्वर्गायाभिप्रवर्तते।
कामात्मविषयी क्षुद्रो दण्डेनैव हि हन्यते॥४५॥
दण्डो हि सुमहातेजा दुर्धरश्चाकृतात्मभिः।
धर्माद्विचलितं हन्ति नृपमेव सबान्धवम् ॥४६॥
ततो दुर्गं च राष्ट्रं च लोकं च सचराचरम्।
अन्तरिक्षगतांश्चैव मुनीन् देवांश्च हिंसति॥४७॥
सोऽसहायेन मूढेन लुब्धेनाकृतबुद्धिना।
अशक्यो न्यायतो नेतुं विषयांश्चैव सेवता॥४८॥
शुचिना सत्यसन्धेन नीतिशास्त्रानुसारिणा।
दण्डःप्रणेतुं शक्यो हि सुसहायेन धीमता ॥४९॥
स्वराष्ट्रे न्यायवर्ती स्याद् भृशदण्डश्च शत्रुषु।
सुहृत्स्वजिह्मास्स्निग्धेषु ब्राह्मणेषु क्षमान्वितः॥५०॥
एवं वृत्तस्य राज्ञस्तु शिलोञ्छेनापि जीवतः।
विस्तीर्येत यशो लोके तैलबिन्दुरिवाम्भसि॥५१॥
अतस्तु विपरीतस्य नृपतेरकृतात्मनः।
संक्षिप्येत यशो लोके घृतबिन्दुरिवाम्भसि॥५२॥
देवदेवेन रुद्रेण ब्रह्मणा च महीपते।
विष्णुना चैव देवेन शक्रेण च महात्मना॥५३॥
लोकपालैश्च भूतैश्च पाण्डवैश्च महात्मभिः।
धर्माद्विचलिता राजन् धार्तराष्ट्रा निपातिताः॥५४॥
अधार्मिका दुराचारास् ससैन्या विनिपातिताः॥५५॥
तान् निहत्य न दोषस्ते स्वल्पोऽपि जगतीपते।
छलेन20 मायया वाऽथ क्षत्रधर्मेण वा नृप॥५६॥
मैत्रता सर्वभूतेषु दानमध्ययनं तपः।
ब्राह्मणस्यैष धर्मस्स्यान्न राज्ञां राजसत्तम् ॥५७॥
असतां प्रतिषेधश्च सतां च परिपालनम्
एवं राज्ञः परो धर्मस् समरे चापलायनम्॥५८॥
यस्मिन् क्षमा च क्रोधश्च दानादाने भयाभये।
निग्रहानुग्रहौ चोभौ स वै धर्मविदुच्यते॥५९॥
न सान्त्वेन न दानेन न श्रुतेन न चेज्यया।
त्वयेयं पृथिवी लब्धा न सङ्कोचेन वाऽप्युत॥६०॥
यत्तद्बलममित्राणां तथा वीरसमुद्यतम्।
हस्त्यश्वरथसम्पन्नं त्रिभिरङ्गैमहत्तरम्॥६१॥
रक्षितं द्रोणकर्णाभ्याम् अश्वत्थाम्ना कृपेण च।
तत्त्वया निहतं वीर तस्माद्भुङ्क्ष्व वसुन्धराम्॥६२॥
जम्बूद्वीपो महाराज नानाजनपदायुतः।
त्वया पुरुषशार्दूल दण्डेन मृदितः प्रभो॥६३॥
जम्बूद्वीपेन सदृशः क्रौञ्चद्वीपो नराधिप।
अपरेण महामेरुर्दण्डेन मृदितस्त्वया॥६४॥
उत्तरेण महामेरोश्शाकद्वीपेन संयुतः।
भद्राश्वः पुरुषव्याघ्र दण्डेन मृदितस्त्वया॥६५॥
द्वीपाश्च सान्तरद्वीपा नानाजनपदालयाः।
विगाह्य सागरं वीर दण्डेन मृदितास्त्वया॥६६॥
एतान्यप्रतिमानि त्वं कृत्वा कर्माणि भारत।
न प्रीयसे कथं राजन्पूज्यमानो द्विजातिभिः॥६७॥
स त्वं भ्रातॄनिमान् दृष्ट्वा प्रतिनन्दस्व भारत।
ऋषभानिव सम्पन्नान्गजेन्द्रान्गर्जितानिव॥६८॥
अमरप्रतिमास्सर्वे शत्रुसाहाः परन्तपाः।
एकैकोऽपि सुखायैषां मम स्यादिति मे मतिः॥६९॥
किं पुनः पुरुषव्याघ्राः पतयो मे नरर्षभाः।
समस्तानीन्द्रियाणीव शरीरस्य विचेष्टने॥७०॥
अनृतं मा ब्रवीच्छ्वश्रूस्सर्वज्ञा सर्वदर्शिनी।
युधिष्ठिरस्त्वां पाञ्चालिसुखे धास्यत्यनुत्तमे॥७१॥
हत्वा राजसहस्राणि बहून्याशुपराक्रमः।
तद्यर्थं सम्प्रपश्यामि मोहात् तव जनाधिप॥७२॥
येषामुन्मत्तको ज्येष्ठस् सर्वे तेऽव्यवमानिताः।
तवोन्मादेन राजेन्द्र सोन्मादास्सर्वपाण्डवाः॥७३॥
यदि हि स्युरनुन्मत्ता भ्रातरस्ते नराधिप।
बद्ध्वात्वां नास्तिकैस्सार्धं प्रशासेयुर्वसुन्धराम्॥७४॥
कुरुते मूढ एवं हि यश्श्रेयो नाधिगच्छति।
धूपैरञ्जनयोगैश्च नस्यकर्मभिरेव च॥७५॥
उन्मत्तिरपनेतव्या तव राजन्यदृच्छय।
साऽहं सर्वाधमा लोके स्त्रीणां भरतसत्तम् ॥७६॥
तथा विनिकृताऽमित्रैर् याऽहमिच्छामि जीवितुम्॥७६॥
धृतराष्ट्रसुता राजन्नियमुत्पथगामिनः।
तादृशानां वधे दोषंनाहं पश्यामि कर्हिचित् ॥७७॥
इमांश्चोशनसा गीताञ् श्लोकाञ् शृणु नराधिप ॥७८॥
आत्महन्ताऽर्थहन्ता च बन्धुहन्ता विपप्रदः।
आथर्वणेन हन्ता च यश्च भार्यां परामृशेत् ॥७९॥
निर्दोषंवधमेतेषां षण्णामप्याततायिनाम्।
ब्रह्मा प्रोवाच भगवान् भार्गवाय महात्मने॥८०॥
ब्रह्मक्षत्रविशां राजन्सत्पथे वर्तिनामपि।
प्रसह्यागारमागम्य हन्तारं गरदं तथा॥८१॥
अभक्ष्यापेयदातारम् अग्निदं च निशातयेत्।
मार्ग एषमहीपानां गोब्राह्मणवधेषु च॥८२॥
केशग्रहे च नारीणाम् अपि युध्येत् पितामहम्।
ब्रह्माणं देवदेवेशं किं पुनः पापकारिणम्॥८३॥
गोब्राह्मणार्थे व्यसने च राज्ञां
राष्ट्रोपमर्दे स्वशरीरहेतोः।
स्त्रीणां च विक्रुष्टरुतानि श्रुत्वा
विप्रोऽपि वध्येत महाप्रभावः॥८४॥
धर्माद्विचलितं विषं निहन्यादाततायिनम्।
तस्यान्यत्र वधं विद्वान् मनसाऽपि न चिन्तयेत् ॥८५॥
गोब्राह्मणवधे वृत्तं मन्त्र21त्राणार्थमेव च।
निहन्यात् क्षत्रियो विप्रं स्वकुटुम्बस्य चात्यये ॥८६॥
तस्करेण नृशंसेन धर्मात् प्रचलितेन च।
क्षत्रबन्धुः परं शक्त्या युध्येद्विप्रेण संयुगे॥८७॥
आततायिनमायान्तम् अपि वेदान्तगं रणे ।
जिघांसन्तं जिघांसीयान्न तेन भ्रूणहा भवेत्॥८८॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यश् शूद्रो वाऽप्यन्यजोऽथ वा।
न हन्याद्ब्राह्मणं शान्तं तृणेनापि कदाचन॥८९॥
ब्राह्मणायापगुर्येत स्पृष्टे गुरुतरं भवेत्।
वर्षाणां त्रिशतं पापः प्रतिष्ठां नाधिगच्छति ॥९०॥
सहस्राणि च वर्षाणि निहत्य नरके पतेत्।
तस्मै नैवापगुर्याद्धि नैव शस्त्रं निपातयेत्॥९१॥
शोणितं यावतः पांसून् गृह्णातीति हि धारणा।
तावतीस्स समाः पापो नरके परिवर्तते॥९२॥
त्वगस्थिभेदं विप्रस्य यः कुर्यात् कारयेत्वा।
ब्रह्महा स तु विज्ञेयः प्रायश्चित्ती नराधमः॥९३॥
श्रोत्रियं ब्राह्मणं हत्वा तथाऽऽत्रेयीं च ब्राह्मणीम्।
चतुर्विंशतिवर्षाणि चरेद्ब्रह्महणोव्रतम्॥९४॥
द्विगुणा ब्रह्महत्येयं सर्वैः प्रोक्तामहर्षिभिः22।
प्रायश्चित्तमकुर्वाणं कृताङ्कं विप्रवासयेत्॥९५॥
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं वा घातयेन्नृपः।
ब्रह्मघ्नं तस्करं चैव मा भूदेवं चरिष्यति॥९६॥
छित्त्वा हस्तौ च पादौ च नासिकोष्ठौ च भूपतिः।
ब्रह्मघ्नंचोत्तमं पापं नेत्रोद्धारेण योजयेत्॥९७॥
शूद्रस्यैष स्मृतो दण्डस् तद्वद्राजन्यवैश्ययोः।
प्रायश्चित्तमकुर्वाणं ब्राह्मणं विप्रवासयेत्॥९८॥
क्षत्रियं वैश्यशूद्रौ च शस्त्रेणैव तु घातयेत्।
ब्रह्मघ्नान् ब्राह्मणान् राजा कृताङ्कान्विप्रवासयेत्॥९९॥
विकलेन्द्रियांस्त्रिवर्णांश्चचण्डालैस्सह वासयेत्।
तैश्च यस्सम्पिबेत् कश्चित् स पिबन्ब्रह्महा भवेत्॥१००॥
प्रेतानां न च देयानि पिण्डदानानि केनचित्॥१००॥
कृष्णवर्णा विरूपा च निर्णीता लम्बमूर्धजा।
दुनोत्यदृष्टा कर्तारं ब्रह्महत्येति तां विदुः॥१०१॥
ब्रह्मघ्नेन पिबन्तश्च विप्रा देशाः पुराणि च।
अचिरादेव पीड्यन्ते दुर्भिक्षव्याधितस्करैः॥१०२॥
ब्राह्मणं पापकर्माणं विप्राणामाततायिनम्।
क्षत्रियं वैश्यशूद्रौ च नेत्रोद्धारेण योजयेत्॥१०३॥
दुर्बलानां बलं राजा बलिनो ये च साधवः।
बलिनां दुर्बलानां च पापानां मृत्युरिष्यते॥१०४॥
सदोषमपि यो हन्याद् अश्राव्य जगतीपते।
दुर्बलं बलवन्तं वा स पराजयमर्हति॥१०५॥
राजाज्ञां प्राड्विवाकंच नेच्छेद्यश्चापि निष्पतेत् ।
साक्षिणं साधुवाक्यं च जितं तमपि निर्दिशेत्॥१०६॥
बन्धनान्निष्पतेद्यच्च प्रतिभूर्न ददाति च।
कुलजश्च धनाढ्यश्च स पराजयमर्हति॥१०७॥
राजाज्ञ्या समाहूतो यो न गच्छेत् सभां नरः।
बलवन्तमुपाश्रित्य सायुधस्स पराजितः॥१०८॥
तं दण्डेन विनिर्जित्य महासाहसिकं नरम्।
वियुक्तदेहसर्वस्वं परलोकं विसर्जयेत्॥१०९॥
मृतस्यापि न देयानि पिण्डदानानि केनचित्।
दत्त्वा दण्डं प्रयच्छेत मध्यमं पूर्वसाहसम्॥११०॥
कुलस्त्रीव्यभिचारं च राष्ट्रस्य च विमर्दनम्।
ब्रह्महत्यां च चौर्यं च राजद्रोहं च पञ्चमम्॥१११॥
महान्ति पातकान्याहुः ऋषयः पातकानिह॥११२॥
युद्धादन्यत्र हिंसायां सुरापस्य च कीर्त्यते।
महान्तं गुरुतल्पे च मित्रद्रोहे च पातकम्॥११३॥
न कथञ्चिदुपेक्षेत महासाहसिकं नरम्।
सर्वस्वमपहृत्याशुततः प्राणैर्वियोजयेत्॥१४॥
त्रिषु वर्णेषु यो दण्डः प्रणीतो ब्रह्मणा पुरा।
महासाहसिकं विप्रं कृताङ्कं विप्रवासयेत्॥१५॥
साहस्रो वा भवेद्दण्डः काञ्चनो देहनिष्क्रियः।
चतुर्णामपि वर्णानाम् एवमाहोशना कविः॥१६॥
नारीणां बालवृद्धानां गोपतेश्च23 महामतिः।
पापानां दुर्विनीतानां प्राणान्तं च बृहस्पतिः॥११७॥
दण्डमाह महाभाग सर्वेषां चाततायिनाम् ॥११७॥
सर्वेषां पापबुद्धीनां पापं कर्मेह कुर्वताम्।
धृतराष्ट्रस्य पुत्राणां दण्डो निर्दोष इप्यते॥११८॥
सौबलस्य च दुर्बुद्धेः कर्णस्य च दुरात्मनः॥११९॥
पश्यतां चैव शूराणां याऽहं द्यूते सभां तदा।
रजस्वला समानीता भवतां पश्यतां नृप॥१२०॥
वाससैकेन संवीता भवेद् दोषेण भूपते॥१२०॥
मा भूद्धर्मविलोपस्ते धृतराष्ट्रकुलक्षयात्।
क्रोधाग्निना तु दग्धं च सपशुद्रव्यसञ्चयम्॥१२१॥
साऽहमेवंविधं दुःखं सम्प्राप्ता तव हेतुना।
आदित्यस्य प्रसादेन न च प्राणौर्वियोजिता॥१२२॥
रक्षिता देवदेवेन जगतः कालहेतुना।
दिवाकरेण देवेन विवस्त्रा न कृता तदा॥१२३॥
एतेषां यतमानानां उत्पतन्त्यनया नृप।
त्वं तु सर्वां महीं लब्ध्वा कुरुषे स्वयमापदम्॥१२४॥
यथाऽऽस्तां सम्मतौ राज्ञां पृथिव्यां राजसत्तमौ।
मान्धाता चाम्बरीषश्च तथा राजन् विराजसे॥१२५॥
प्रशाधि पृथिवीं देवीं प्रजा धर्मेण पालय।
सपर्वतवनद्वीपां मा राजन् विमनाश्च भूः॥१२६॥
यजस्व विविधैर्यज्ञैर्जुहुध्यग्नीन्प्रयच्छ।
पुराणि भोगान् वासांसि द्विजातिभ्यो नृपोत्तम॥१२७॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥
[अस्मिन्नध्याये १२७॥श्लोकाः]
______
॥ पञ्चदशोऽध्यायः ॥
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** युधिष्टिरं प्रत्यर्जुनवाक्यम् ॥**
______
वैशम्पायनः—
याज्ञसेन्या वचश्श्रुत्वा पुनरेवार्जुनोऽब्रवीत्।
अनुमान्य महाबाहुं ज्येष्ठं भ्रातरमीश्वरम्॥१॥
अर्जुनः—
दण्डश्शास्ति प्रजास्सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डस्सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः॥२॥
धर्मं संरक्षते दण्डस् तथैवार्थं नराधिप।
कामं संरक्षते दण्डस् त्रिवर्गो दण्ड उच्यते॥३॥
दण्डेन रक्ष्यते धान्यं धनं दण्डेन रक्ष्यते।
एतद्विद्वानुपादाय स्वभावं पश्य लौकिकम् ॥४॥
राजदण्डभयादेके नराः पापं न कुर्वते।
यमदण्डभयादेके24 परलोकभयादपि॥५॥
परस्परभयादेके नराः25 पापं न कुर्वते॥५॥
एवं सांसिद्धिके लोके सर्वं दण्डे प्रतिष्ठितम् ॥६॥
दण्डस्यैव भयाल्लोके न खादन्ति परस्परम्।
अन्धे तमसि मज्जेरन्यदि दण्डो न पालयेत्॥७॥
यस्माददान्तान् दमयेद् दुर्वृत्तान् दण्डययपि।
दमनाद्दण्डनाच्चैव तस्माद्दण्डं विदुर्बुधाः॥८॥
वाचि दण्डो ब्राह्मणानां क्षत्रियाणां भुजार्पणम्।
धनदण्डस्स्मृतो वैश्यो निर्दण्डश्शूद्र उच्यते॥९॥
असम्मोहाय मर्त्यानाम् अर्थसंरक्षणाय च।
मर्यादा स्थापिता लोके दण्डसंज्ञा विशां पते॥१०॥
यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति सूद्यतः।
प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत् साधुपश्यति॥११॥
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः।
दण्डस्यैव भयादेते मनुष्या वर्त्मनि स्थिताः॥१२॥
नाभीतो यजते राजन् नाभीतो दातुमिच्छति।
नाभीतःपुरुषः कश्चित् समये स्थातुमिच्छति॥१३॥
नाच्छित्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दारुणम्।
नाहत्वा26 मत्स्यघातीव प्राप्नोति महतीं श्रियम्॥१४॥
नाघ्नतः कीर्तिरस्तीह न वित्तं न पुनः प्रजाः॥१४॥
इन्द्रो वृत्रवधेनैव महेन्द्रस्समपद्यत।
माहेन्द्रं च गृहं लेभे लोकानां चेश्वरोऽभवत्॥१५॥
य एव देवा हन्तारस् ताल्ँलोकोऽर्चयते भृशम्।
हन्ता रुद्रस्तथा स्कन्द शक्रोऽग्निर्वरुणो यमः॥१६॥
हन्ता कालस्तथा वायुर् मृत्युर्वैश्रवणो रविः।
वसवो मरुतस्साध्या विश्वे देवाश्च भारत॥१७॥
एतान् देवान् नमस्यन्ति प्रतापप्रणता जनाः।
न ब्रह्माणं न धातारं न पूषाणं कथञ्चन॥१८॥
मध्यस्थान्सर्वभूतेषु दान्ताञ् शमपरायणान्।
यजन्ते मानवाः केचित् प्रशान्तान् सर्वकर्मसु॥१९॥
न हि पश्यामि जीवन्तं लोके कञ्चिदहिंसया।
सत्त्वैस्सत्त्वानि जीवन्ति दुर्बलैर्बलवत्तराः॥२०॥
नकुलो मूषिकानत्ति बिडालो नकुलं तथा।
बिडालमत्ति श्वा राजञ् श्वानं व्यालमृगस्तथा॥२१॥
तानत्ति पुरुषस्सर्वान् पश्य धर्मं यथा गतम्॥२२॥
प्राणस्यान्नमिदं सर्वं जङ्गमं स्थावरं च यत्।
विधानं दैवविहितं तत्र विद्वान् न मुह्यति॥२३॥
यथा सृष्टोऽसि राजेन्द्र तथा भवितुमर्हसि॥२३॥
विनीतक्रोधहर्षा हि दान्ता वनमुपाश्रिताः।
विना वधं न कुर्वन्ति तापसाः प्राणयापनम्॥२४॥
उदके बहवः प्राणाः पृथिव्यां च फलेषु च।
न च कश्चिन्न तान् हन्ति किमन्यत् प्राणयापनम्॥२५॥
सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्।
पक्ष्मणोर्विनिपातेन येषां स्यात् कालपर्ययः॥२६॥
ग्रामान्नि27ष्क्रम्य मुनयो विनीतक्रोधमत्सराः।
वने कुटुम्बधर्माणो दृश्यन्ते परिमोहिताः॥२७॥
भूमिं भित्त्वौषधीश्छित्त्वा वृक्षादीनप्यजान् पशून्।
मनुष्यास्तन्वते यज्ञांस् ते स्वर्गं प्राप्नुवन्ति च॥२८॥
दण्डनीत्यां प्रणीतायां सर्वे सिध्यन्त्युपक्रमाः।
कौन्तेय सर्वभूतानां तत्र मे नास्ति संशयः॥२९॥
दण्डश्चेन्नभवेल्लोके विनशिष्यन्निमाः प्रजाः।
जले मत्स्यानिवाधक्ष्यन् दुर्बलान् बलवत्तराः॥३०॥
सत्यं वतेदंब्रह्मणा पूर्वमुक्तो
दण्डः प्रजा रक्षति साधु नीतः।
पश्याग्नयः पूतिमांसस्य भीतास्
सन्तर्जिता दण्डभयाज्ज्वलन्ति॥३१॥
अन्धं तम इवेदं स्यान्न प्रज्ञायेत किञ्चन।
दण्डश्चेन्न भवेल्लोके विभजन्साध्वसाधुनी॥३२॥
ये हि सम्भिन्नमर्यादा नास्तिका वेदनिन्दकाः।
तेऽपि भावाय कल्पन्ते दण्डेनोपनिपीडिताः॥३३॥
सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्नरः।
दण्डस्य हि भयाद्भीतोभोगायापि प्रकल्पते॥३४॥
चातुर्वर्ण्याप्रमोहाय सुनीतिकरणाय च।
दण्डो हि विहितो धात्रा धर्मार्थों चापि रक्षितुम्॥३५॥
यदि दण्डान्न बिभियुर् वयांसि श्वापदानि च।
हन्युः पशून्मनुष्यांश्च यज्ञार्थानि हवींषि च॥३६॥
न ब्रह्मचार्यधीयीत न काल्यं दुहते च गौः।
न कन्योद्वहनं गच्छेद् यदि दण्डो न वर्तते॥३७॥
विश्वलोपः प्रवर्तेत भिद्येरन् सर्वसेतवः।
ममत्वं न प्रजानीयुर् यदि दण्डो न पालयेत्॥३८॥
न संवत्सरसत्राणि तिष्ठेयुरकुतोभयाः।
विधिवद्दक्षिणावन्ति यदि दण्डो न पालयेत्॥३९॥
चरेयुर्नाश्रमेधर्मंयथोक्तं विधिमाश्रिताः।
न विद्यां प्राप्नुयात् कश्चिद् यदि दण्डो न पालयेत्॥४०॥
नैवोष्ट्रा न बलीवर्दा नाश्वाश्वतरगर्दभाः।
युक्ता वहेयुर्यानानि यदि दण्डो न पालयेत्॥४१॥
न प्रेष्यावचनं कुर्युर् न बालो जातु कर्हिचित्।
तिष्ठेत् पितुर्मते धर्मो यदि दण्डो न पालयेत्॥४२॥
दण्डे स्थिताः प्रजास्सर्वा भयं दण्डं विदुर्बुधाः।
दण्डे स्वर्गो मनुष्याणां लोकोऽयं च प्रतिष्ठितः॥४३॥
न तत्र कपटं पापं वञ्चना वाऽपि दृश्यते।
यत्र दण्डस्सुविहितश् चरत्यरिविनाशनः॥४४॥
न तत्र पापं क्रूरं वा वञ्चना वा प्रवर्तते॥४५॥
हविश्व प्रलिहेदिष्टं दण्डश्चेन्नोद्यतो भवेत्।
लिहेत्काकः पुरोडाशं यदि दण्डो न पालयेत् ॥४६॥
यदि दण्डवतो राज्यं विहितं यद्यधर्मतः।
कार्यं तत्र न कार्यं च भुङ्क्ष्व भोगान् यजस्व च॥४७॥
सुखेन धर्मं श्रीमन्तश् चरन्ति शुचिवाससः।
संवसन्तः प्रियैर्दारैर्भुञ्जानाश्चान्नमुत्तमम्॥४८॥
अर्थेसर्वसमारम्भास् समायत्ता न संशयः।
स च दण्डे समायत्तः पश्य दण्डस्य गौरवम्॥४९॥
लोकयात्रार्थमेवेह धर्मप्रवचनं कृतम्।
अहिंसाऽसाघुहिंसेति श्रेयान् धर्मपरिग्रहः॥५०॥
नात्यन्तं गुणवत् किञ्चिन्न चाप्यत्यन्तनिर्गुणम्।
उभयं सर्वकार्येषु दृश्यते साध्वसाधु च॥५१॥
पशूनां वृषणं छित्त्वा ततो भिन्दन्ति नासिकाम्।
कृषन्ति बहवो राजन्बध्नन्ति दमयन्ति च॥५२॥
एवं पर्याकुले लोके विपथे जर्झरीकृते।
तैस्तैन्यायैर्महाराज पुराणं धर्ममाचरेत्॥५३॥
यज देहि प्रजा रक्ष स्वधर्ममनुपालय।
अमित्राञ्जहि कौन्तेय मित्राणि परिपालय॥५४॥
मा च ते निघ्नतश्शत्रून् मन्युर्भवतु पार्थिव।
न तत्र किल्बिषंकिञ्चिद्धन्तुर्भवति भारत॥५५॥
आततायी हि यो हन्याद्आततायिनमाहवे।
न तेन भ्रूणहा स स्यान्मन्युस्तं मन्युमृच्छति॥५६॥
अवध्यस्सर्वभूतानाम् अन्तरात्मा न संशयः।
अवध्ये चात्मनि कथं वध्यो भवति कर्हिचित्॥५७॥
यथा हि पुरुषश्शालां पुनः प्रविशते नवाम्।
एवं मृत्युपथं प्राहुर् ये जनास्तत्त्वदर्शिनः॥ ५८॥
एवं जीवश्शरीराणि तानि तानि प्रवर्तते।
देहानुत्सृजते राजन् प्रतिपत्स्यन्ति चापरान्॥५९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि पञ्चदशोऽध्यायः॥१५॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि पञ्चदशोऽध्यायः॥१५॥
[अस्मिन्नध्याये ५९ श्लोकाः]
_______
॥ षोडशोऽध्यायः॥
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युधिष्टिरं प्रति भीमवचनम्॥
_____
वैशम्पायनः—
अर्जुनस्य वचश्श्रुत्वा भीमसेनोऽत्यमर्षणः।
धैर्यमास्थाय तं ज्येष्ठं भ्राता भ्रातरमब्रवीत्॥१
भीमः—
राजन् विदितधर्मोऽसि न तेऽस्त्यविदितं भुवि।
उपशिक्षाम28 ते वृत्तं सर्वे29 चैव न शक्नुमः॥॥
न वक्ष्यामि न वक्ष्यामीत्येवं मे मनसि स्थितम्।
अतिदुःखात् तु वक्ष्यामि तन्निबोध जनाधिप॥३॥
भवतस्तु प्रमोहेन सर्वं संशयितं कृतम्।
विक्लबत्वं च नः प्राप्तम् अबलत्वं तथैव च॥४॥
कथं हि राजा लोकस्य सर्वशास्त्रविशारदः।
मोहमापद्यते धीमान् यथा कापुरुषस्तथा॥५॥
आगतिश्च गतिश्चापि लोकस्य विदिता तव।
आयत्यां च तदात्वे च न तेऽस्त्यविदितं प्रभो॥६॥
एवं गते महाराज राज्यं प्रति जनाधिप।
हेतुमात्रं तु वक्ष्यामि तदिहैकमनाश्शृणु॥७॥
द्विविधो जायते व्याधिश् शारीरो मानसस्तथ।
परस्परं तयोर्जन्म निर्द्वन्द्वं नोपलभ्यते॥८॥
शरीराज्जायते व्याधिर् मानसो नात्र संशयः।
मानसाज्जायते व्याधिश् शारीर इति निश्चयः॥९॥
शारीरमानसे दुःखे योऽतीते त्वनुशोचति।
दुःखेन लभते दुःखं द्वावनर्थौ प्रपद्यते॥१०॥
शीतोष्णे चैव वायुश्च त्रयश्शारीरजा गुणाः।
तेषां गुणानां साम्यं चेत् तदाहुस्स्वस्थलक्षणम्॥११॥
तेषामन्यतमोत्सेके विधानमुपदिश्यते॥११॥
उष्णेन वध्यते शीतं शीतेनोष्णं प्रशाम्यति॥१२॥
सत्त्वं रजस्तमश्चैव त्रयो वै मानसा गुणाः।
तेषां गुणानां साम्यं चेत् तदाहुस्स्वस्थलक्षणम्॥१३॥
तेषामन्यतमोत्सेके विधानमुपदिश्यते।
हर्षेण वध्यते शोको हर्षश्शोकेन वध्यते॥१४॥
कश्चित्30 सुखे वर्तमानो दुःखस्य स्मर्तुमिच्छति।
सर्वं न दुःखी दुःखस्य न सुखी च सुखस्य च॥१५॥
नादुःखी दुःखभावस्य नासुखी च सुखस्य च।
स्मर्तुमर्हति कौरव्य दिष्टं हि बलवत्तरम्॥१६॥
अथवा ते स्वभावोऽयं येन पाण्डव तुष्यसे॥१६॥
दृष्ट्वा सभागतां कृष्णाम् एकवस्त्रां रजस्वलाम्।
मिषतां पाण्डुपुत्राणां न तस्य स्मर्तुमिच्छसि॥१७॥
प्रव्राजनं च नगराद् अजिनैश्च निवासनम्।
महारण्यनिवासश्च न तस्य स्मर्तुमिच्छसि॥१८॥
जटासुरात् परिक्लेशं चित्रसेनेन चाहवम्।
सैन्धवाच्च परिक्लेशं कथं विस्मृतवानसि॥१९॥
पुनरज्ञातचर्यायां कीचकेन पदा वधम्।
बलिनो हि वयं राजन् देवैरपि सुदुर्जयाः॥२०॥
कथं भृत्यत्वमापन्ना विराटनगरे स्मर॥२१॥
यच्च ते द्रोणभीष्माभ्यां युद्धमासीदरिन्दम्।
आत्मनैकेन योद्धव्यं तत् ते युद्धमुपस्थितम्॥२२॥
यत्र नापि समैः कार्यं न मित्रैर्न च बन्धुभिः।
तस्मिन्ननिर्जिते31 युद्धे त्वं प्राणान् यदि मोक्ष्यसे॥२३॥
अन्यं देहं समास्थाय ततस्तैरिह योत्स्यसे।
तस्मादद्यैव गन्तव्यं युद्धाय भरतर्षभ॥२४॥
एतज्जित्वा महाराज कृतकृत्यो भविष्यसि॥२४॥
एतां बुद्धिं विनिश्चित्य भूतानामागतिं गतिम्।
पितृपैतामहं वृत्तं शाधि राज्यं यथोचितम्॥२५॥
दिष्ट्या दुर्योधनः पापो निहतस्सपदानुगः।
द्रौपद्याः केशपक्षस्य दिष्ट्या ते पदवीं गताः॥२६॥
यजस्व वाजिमेधेन विधिवद्दक्षिणावता।
वयं ते किङ्कराः पार्थ वासुदेवश्च वीर्यवान्॥२७॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि षोडशोऽध्यायः॥१६॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि षोडशोऽध्यायः॥१६॥
[ अस्मिन्नध्याये २७॥श्लोकाः ]
॥ सप्तदशोऽध्यायः॥
** भीमं प्रति युधिष्टिरवचनम्॥**
युधिष्ठिरः—
असन्तोषः प्रमादश्च मदो रागोऽप्रशान्तता।
बलं मोहोऽभिमानश्च अनुद्वेगश्च सर्वशः॥१॥
एभिः पाप्मभिराश्लिष्टो राज्यं त्वमभिकाङ्क्षसे।
निरामिषो विनिर्मुक्तः प्रशान्तात्मा सुखी भव॥२॥
य इमामखिलां भूमिं शिष्यादेको महीपतिः।
तस्याप्युदरमेवैकं किमिदं त्वं प्रशंससि॥३॥
नाह्ना पूरयितुं शक्यं न मासेन नरर्षभ।
अपूर्यां पूरयन्निच्छाम् आयुषाऽपि न शक्नुयात्॥४॥
यथेद्धः प्रज्वलत्यग्निर् असमिद्धः प्रशाम्यति।
अल्पाहारतयाऽग्निं त्वं शमयौदरमुत्थितम्॥५॥
जयोदरं पृथिव्या ते श्रेयो निर्जितया तया॥५॥
मानुषान् कामभोगांस्त्वम् ऐश्वर्यं च प्रशंससि॥६॥
अभोगिनोऽबलाश्चापि यान्ति स्थानमनुत्तमम्॥६॥
योगः क्षेमश्च राष्ट्रस्य धर्माधर्मौत्वयि श्रितौ।
मुच्यस्व महतो भारात् त्यागमेवाभिसंश्रय॥७॥
एकोदरकृते व्याघ्रो बहून् सत्त्वाञ् जिघांसति।
तमन्येऽप्युपजीवन्ति मन्दवेगतरा मृगाः॥८॥
विषयान् प्रतिसंहृत्य संन्यासे कुरुते मतिम्।
न च तुष्यन्ति राजानः पश्य बुद्ध्यन्तरं यथा॥९॥
पत्राहारैरश्मकुट्टैर् दन्तोलूखलिकैस्तथा।
अब्भक्षैर्वायुभक्षैश्च तैरयं नरको जितः॥१०॥
यश्चेमां पृथिवी सर्वां प्रशासेदखिलां नृपः।
तुल्याश्मकाञ्चनो यश्च स कृतार्थो न पार्थिवः॥११॥
सङ्कल्पेषु निरारम्भो निराशीर्निर्ममो भव।
विशोकं स्थानमातिष्ठ इह चामुत्र चाव्ययम्॥१२॥
निरामिषा न शोचन्ति शोचन्ति त्वामिषैषिणः।
परित्यज्यामिषं सर्वं मृषावादात् प्रमुच्यसे॥१३॥
पन्थानौ पितृयानश्च देवयानश्च विश्रुतौ।
ईजानाः पितृयानेन देवयानेन मोक्षिणः॥१४॥
तपसा ब्रह्मचर्येण स्वाध्यायेन च भाविताः।
विमुच्य देहान् वै यान्ति मृत्योरविषयं गताः॥१५॥
आमिषं बन्धनं लोके कर्मेहोक्तं तथाऽऽमिषम्।
ताभ्यां विमुक्तः पापाभ्यां पदमाप्नोति तत्परम्॥१६६॥
अपि गाथामिमां गीतां जनकेन वदन्त्युत।
निर्द्वन्द्वेन विमुक्तेन मोक्षं समनुपश्यता॥१७॥
अनन्तं बत मे वित्तं यस्य मे नास्ति किञ्चन।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किञ्चन दह्यते॥१८॥
प्रज्ञाप्रासादमारुह्य न शोचेच्छोचतो जनान्।
जगतीस्थानिवाद्रिस्थो मन्दबुद्धिर्नवेक्षते॥१९॥
दृश्यं पश्यति यः पश्यन् स चक्षुष्मान् स बुद्धिमान्।
अज्ञातानां च विज्ञानान्न पाठाद्बुद्धिरुच्यते॥२०॥
यस्तु मानं विजानाति बहुमानमियात् स वै॥२१॥
ब्रह्मभावे प्रभूतानां वैद्यानां भावितात्मनाम्।
यदा भूतपृथग्भावम् एकस्थमनुपश्यति॥२२॥
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥२२॥
ते जनास्तां गतिं यान्ति नाविद्वांसोऽविचेतसः।
नाबुद्धयो नातपसस् सर्वं बुद्धौ प्रतिष्ठितम्॥२३॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥
[अरिमन्नध्याये २३॥श्लोकाः ]
॥ अष्टादशोऽध्यायः ॥
अर्जुनेन युधिष्ठिरं प्रति जनकतद्भार्यासंवादकथनपूर्वक कर्तव्योपदेशः॥
वैशम्पायनः—
तूष्णीम्भूतं तु राजानं पुनरेवार्जुनोऽब्रवीत्।
सन्तप्तश्शोकदुःखाभ्यां राज्ञो वाक्शल्यपीडितः॥१॥
अर्जुनः—
कथयन्ति पुरावृत्तम् इतिहासमिमं जनाः।
विदेहराज्ञस्संवादं भार्यया सह भारत॥२॥
उत्सृज्य राज्यं भैक्षार्थं कृतबुद्धिं जनेश्वरम्।
विदेहराजमहिषीदुःखिता प्रत्यभाषत॥३॥
धनान्यपत्यं मित्राणि रत्नानि विविधानि च।
पन्थानं पावनं हित्वा जनकं मौढ्यमास्थितम्॥४॥
तं ददर्श प्रिया भार्या भैक्षवृत्तिमकिञ्चनम्।
धान्यमुष्टिमुपासीनं निरीहं गतमत्सरम्॥५॥
तमुवाच समागत्य भर्तारमकुतोभयम्।
क्रुद्धा मनस्विनी भार्या विविक्ते हेतुमद्वचः॥६॥
जनकभार्या —
कथमुत्सृज्य राज्यं स्वं धनधान्यसमाचितम्।
कापालीं वृत्तिमास्थाय धान्यमुष्टिमुपाससे॥७॥
प्रतिज्ञा ते वृथा राजन्विचेष्टा चान्यथा तव।
राज्यं महत् समुत्सृज्य स्वल्पे मुह्यसि पार्थिव॥८॥
नैतेनातिथयो राजन् देवर्षिपितरस्तथा।
शक्यमद्य त्वया भर्तुं मोघस्तेऽयं परिश्रमः॥९॥
देवतातिथिभिश्चैव पितृभिश्चैव पार्थिव।
सर्वैरेतैःपरित्यक्तः परिव्रजसि निष्क्रियः॥१०॥
यस्त्वं त्रैविद्यवृद्धानां ब्राह्मणानां सहस्रशः।
भर्ता भूत्वाऽथ लोकस्य सोऽद्यान्यैर्भूतिमिच्छसि॥११॥
श्रियं हित्वाऽद्य दीप्तां त्वं श्ववत् सम्प्रतिपत्स्यसे।
अपुत्रा जननी तेऽद्य कौसल्या पातिता त्वया॥१२॥
आश्रिता धर्मकामास्त्वां क्षत्रियाःपर्युपासते।
त्वदाशामभिकाङ्क्षन्तः कृपणाः फलहेतुकाः॥१३॥
तांश्च त्वं विफलान् कृत्वा कान्नु लोकान्गमिष्यसि।
राजन् संशयिते मोक्षे परतन्त्रेषु देहिषु॥१४॥
नैव तेऽस्ति परो लोको नापरः पापकर्मणः।
धर्म्यान्दारान् परित्यज्य यस्त्वमिच्छसि जीवितुम्॥१५॥
स्रजो गन्धानलङ्कारान् वासांसि विविधानि च।
किमर्थमभिसन्त्यज्य परिव्रजसि निष्क्रियः॥१६॥
निपानं सर्वभूतानां भूत्वा त्वं पावनं महत्।
अद्यावनिपतिर्भूत्वा सोऽद्यान्यान् पर्युपाससे॥१७॥
खादन्ति हस्तिनं न्यासे कव्यादा बहवोऽप्युत।
बहवः कृमयश्चैव किं पुनस्त्वामनर्थकम् ॥१८॥
य इमां कुण्डिकामात्रां त्रिविष्टब्धं च ते हरेत्।
वासश्चापहरेत्तस्मिन् कथं ते मानसं भवेत्॥१९॥
यस्त्वं सर्वं समुत्सृज्य धान्यमुष्टिरनुग्रहः १९॥
यदनेन कृतं सर्वं किमयं मम दीयते।
धान्यमुष्टेरिहार्थश्चेत् प्रतिज्ञा ते नशिष्यते॥२०॥
का वाऽहं तव को मे त्वं कोऽद्य ते मय्यनुग्रहः।
प्रशाधि पृथिवीं राजन् यत्र तेऽनुग्रहो भवेत्॥२१॥
प्रासादे शयनं यानं वासांस्याभरणानि च॥२२॥
श्रियां निराशैरधनैस् त्यक्तमित्रैरकिञ्चनैः।
सौखिकैस्सम्भृतो योऽर्थस् स सन्त्यजसि किं नु तम्॥२३॥
योऽत्यर्थं प्रतिगृह्णीयाद् यश्च दद्यात् सदैव हि।
तयोस्त्वमन्तरं विद्धि श्रेयानाभ्यां क उच्यते॥२४॥
सदैव याचमानेषु सत्सु डम्भविवर्जिषु।
एतेषु दक्षिणा दत्ता दानवानां32 विदुर्हुतम्॥२५॥
जातवेदा यथा राजन् न दग्ध्वा नोपशाम्यति।
सदैव याचमानो वै तथा शाम्यति नो द्विजः॥२६॥
सतां च वेदा अन्नं च लोकेऽस्मिन् प्रकृतिर्ध्रुवा।
अन्नदाता भवेदाता कुशास्त्रं मोक्षकाङ्क्षिणः॥२७॥
अन्नाद्गृहस्था लोकेऽस्मिन् भिक्षवस्तत एव च।
अन्नात् प्राणः प्रभवति अन्नदः प्राणदो भवेत्॥२८॥
गृहस्थेभ्योऽभिनिर्वृत्ता गृहस्थानेव चाश्रिताः।
प्रभवं च प्रतिष्ठां च ज्ञात्वा निन्दन्त आसते॥२९॥
त्यागं न विन्देद् भैक्षाशान्न मौढ्यान्न च याचनात्।
ऋजुस्तु योऽर्थं त्यजति तं मुक्तं विद्धि भिक्षुकम्॥३०॥
असक्तस्सक्तवद्गच्छन् निस्सङ्गो मुक्तबन्धनः।
समः पुत्रे च शत्रौ च स वै मुक्तो महीपते॥३१॥
परिव्रजन्ति येऽनर्था मुण्डाः काषायवाससः।
सिता बहुविधैः पाशैर् विचिन्वन्तो वृथामिषम्॥३२॥
त्रयीं च नामवार्तां च त्यक्त्वा पुत्रान् ब्रजन्ति ये।
त्रिविष्टब्धं च वासश्च प्रतिगृहन्त्यबुद्धयः॥३३॥
अनिष्कषायाः काषायम् ईहार्थमिति विद्धि तम्।
धर्मध्वजानां मुण्डानां वृत्त्यर्थमिति मे मतिः॥३४॥
काषायैरजिनैश्चीरैर् नग्नान् मुण्डाञ्जटाघरान्।
बिभ्रत् साधून महाराज यथा लोकाञ्जितेन्द्रियः॥३५॥
अग्न्याधेयानि गुर्वर्थान् कतून् सपशुदक्षिणान्।
ददात्यहरहः पूर्वं को नु धर्मतरस्ततः॥३६॥
अर्जुनः—
तत्त्वज्ञो जनको राजा लोकेऽस्मिन्निति गीयते।
सोऽध्यासीन्मोहसम्पन्नो मा मोहवशमन्वगाः॥३७॥
एवं धर्ममनुक्रान्ता सदा दानतपः पराः।
आनृशंस्यगुणैर्युक्ताः कामरागविवर्जिताः॥३८॥
प्रजानां पालने युक्ता दममुत्तममास्थिताः।
इष्ट्वा लोकमवाप्स्यामो ब्रह्मण्यास्सत्यवादिनः॥३९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः॥१८॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः॥१८ ॥
[आस्मिन्नध्याये ३९ श्लोकाः]
______
॥ एकोनविंशोऽध्यायः॥
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** अर्जुनं प्रति युधिष्टिरवचनम्॥**
_____
युधिष्ठिरः—
वेदाहं तात शास्त्राणि अपराणि पराणि च।
उभयं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च ॥१॥
अमूलानि33 च शास्त्राणि हेतुभिश्चित्रितानि च।
निश्चयश्चैष यन्मात्रो वेदाहं तं यथाविधि॥२॥
त्वं तु केवलशास्त्रज्ञो वीरव्रतमनुष्ठितः।
शास्त्रार्थं तत्त्वतो गन्तुं न समर्थः कथञ्चन॥३॥
शास्त्रार्थतत्वदर्शी च धर्मनिश्चयकोविदः।
तेनाप्येवं न वाच्योऽहं यदि धर्मं प्रपश्यसि॥४॥
भ्रातृसौहृदमास्थाय यदुक्तं वचनं त्वया।
न्याय्यं युक्तं च कौन्तेय प्रीतोऽहं तेन तेऽर्जुन॥५॥
महेश्वरसमं सत्त्वं ब्रह्मणा चैव यत् समम्।
वासुदेवसमं चैव न भूतं न भविष्यति॥६॥
तथा त्वं योधमुख्येषु सत्त्वं परममुच्यते॥६॥
बलमिन्द्रे च वायौ च बलं यच्च जनार्दने।
तद्बलं भीमसेने च त्वयि चार्जुन विद्यते॥७॥
त्वत्समश्चित्रयोधी च दूरपाती च पाण्डव ।
दिव्यास्त्रेण च सम्पन्नः को वाऽन्यस्त्वत्समो नरः॥८॥
युद्धधर्मेषु सर्वेषु क्रियाणां नैपुणेषु च।
न त्वया सदृशः कश्चित् त्रिषु लोकेषु विद्यते॥९॥
धार्मिकं धर्मयुक्तं च निश्शेषं ज्ञायते मया।
धर्मसूक्ष्मं च यद्वाच्यं तत्र दुष्प्रतरं त्वया ॥१०॥
धनञ्जय न मे बुद्धिम् अतिशङ्कितुमर्हसि॥११॥
युद्धशास्त्रविदेव त्वं न वृद्धास्सेवितास्त्वया।
समासविस्तरविदां न तेषां वेत्सि निश्चयम्॥१२॥
तपस्त्यागो विधिरिति निश्चयस्तात्धीमताम्।
परस्परं ज्याय एषाम् इति नैश्श्रेयसी मतिः॥१३॥
यत्त्वेतन्मन्यसे पार्थ न ज्यायोऽस्ति धनादिति।
अत्र ते वर्तयिष्यामि यथा नैतत् प्रधानतः॥१४॥
तपस्स्वाध्यायशीला हि दृश्यन्ते धार्मिका जनाः।
ऋषयस्तत्परा नाम येषां लोकास्सनातनाः॥१५॥
अजातश्मश्रवो धीरास् तथाऽन्ये वनवासिनः।
अरुणाः केतश्चैव स्वाध्यायेन दिवं गताः॥१६॥
उत्तरेण तु पन्थानम् आर्या विषयनिग्रहात्।
अबुद्धिजं तमस्त्यक्त्वा लोकांस्त्यागवतां गताः॥१७॥
दक्षिणेन तु पन्थानं यद् भास्वन्तं प्रपश्यसि।
एते क्रियावतां लोका ये श्मशानानि भेजिरे॥१८॥
अनिर्देश्या गतिस्सा तु यां प्रपश्यन्ति योगिनः।
तस्मात् त्यागः प्रधानेष्टस् स तु दुःखं प्रवेदितुम्॥१९॥
व्यनुसृत्य तु शास्त्राणि कवयस्समवस्थिताः।
अपीह स्यादपीह स्यात् सारासारदिदृक्षया॥२०॥
वेदवादानतिक्रम्य शास्त्राण्यारण्यकानि च।
विपाट्य कदलीस्कन्धं सारं दद्दशिरे न ते॥२१॥
अथैकान्तव्युदासेन शरीरे पाञ्चभौतिके।
इच्छाद्वेषसमायुक्तम् आत्मानं प्राहुरिङ्गितैः॥२२॥
अग्राह्यं चक्षुषा सत्त्वम् अनिर्देश्यं च तद्गिरा।
कर्महेतुपुरस्कारं भूतेषु परिवर्तते॥२३॥
कल्याणगोचरं कृत्वा मानं तृष्णां निगृह्य च।
कर्मसन्ततिमुत्सृज्य स्यान्निरालम्बनस्सुखी॥२४॥
तस्मिन्नेवं सूक्ष्मगम्ये मार्गे सद्भिर्निषेविते।
कथमर्थमनर्थाढ्यम् अर्जुनं त्वं प्रशंससि॥२५॥
पूर्वशास्त्रविदो ह्येव जनाः पश्यन्ति भारत।
क्रियासु निरता नित्यं दाने यज्ञे च कर्मणि॥२६॥
प्रभवन्ति दुरावर्ता हेतुमन्तोऽपि पण्डिताः।
दृढपूर्वश्रुता मूर्खा नैतदस्तीति वादिनः॥२७॥
अमृतस्यास्य मन्तारो वक्तारो जनसंसदि।
चरन्ति वसुधां कृत्स्त्रां वावदूका बहुश्रुताः॥२८॥
यान् वयं न विजानीमः कस्ताञ् ज्ञातुमिहार्हति।
एवं प्राज्ञा नराश्चापि बहवश्शास्त्रवित्तमाः॥२९॥
तपसा सुखमाप्नोति बुद्ध्या वै विन्दते महत्।
त्यागेन महदाप्नोति सदा कौन्तेय धर्मवित्॥३०॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥
॥८३॥आभिषेचनिकपर्वणि एकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥
[ अस्मिन्नध्याये ३० श्लोकाः ]
_____
॥ विंशोऽध्यायः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1700796288Screenshot2023-11-24085425.png"/>
युधिष्टिरं प्रति देवस्थानस्य वचनम्॥१॥ इन्द्रबृहस्पतिसंवादानुवादः॥२॥
_____
वैशम्पायनः—
अस्मिन् वाक्यान्तरे वाक्यं देवस्थानो महातपाः।
अभिनीततरं वाक्यम् इत्युवाच युधिष्ठिरम्॥१॥
देवस्थानः—
यद्वचः फल्गुनेनोक्तं न ज्यायोऽस्ति धनादिति।
अत्र ते वर्तयिष्यामि तदेकाग्रमनाश्शृणु॥२॥
अजातशत्रो धर्मेण कृत्स्ना ते पृथिवी जिता।
तां जित्वा न वृथा राजन् परित्यक्तुमिहार्हसि॥४॥
चतुष्पदा हि निश्श्रेणी ब्रह्मण्येषा प्रतिष्ठिता।
तां क्रमेण महाबाहो यथावज्जय पार्थिव॥५॥
तस्मात् पार्थ महायज्ञैर् यजस्व बहुदक्षिणैः॥४॥
स्वाध्याययज्ञास्त्वृषयो ध्यानयज्ञास्तथाऽपरे।
कर्मनिष्ठाश्च बुद्ध्यर्थास् तपोनिष्ठाश्च भारत॥५॥
वैखानसानां कौन्तेय वचनं श्रूयते यथा॥६॥
ईहते धर्महेतोर्यस् तस्यानीहा गरीयसी।
भूयान् दोषोऽस्य वर्तेत यस्तत् कर्म समाश्रयेत्॥७॥
कृच्छ्राच्च द्रव्यसंहारं कुर्वन्ति विधिकारणात्।
आत्मना मुषितो बुद्ध्या भ्रूणहत्यां न बुध्यते॥८॥
अनर्हते यद्ददाति न ददाति यदर्हते।
अर्हानर्हारिज्ञानाद् दानधर्मो हि दुष्करः॥९॥
इष्टाय सृष्टानि धनानि लोके
यथाऽऽदिष्टः पुरुषो रक्षिता च।
तस्मात् सर्वं यज्ञ एवोपयोज्यं
धनं ततोऽनन्तर एव कामः॥१०॥
यज्ञैरिन्द्रो विविधै रत्नवद्भिर्
देवान् सर्वानभ्ययाद्भूरितेजाः।
तेनेन्द्रो द्यां प्राप्य विभ्राजतेऽसौ
तस्माद्यज्ञे सर्वमेवोपयोज्यम्॥११॥
महादेवस्सर्वमेधे महात्मा
हुत्वाऽऽत्मानं देवदेवो बभूव।
विश्वान्देवान् व्याप्य विष्टभ्य कीर्त्या
विराजते द्युतिमान् कृत्तिवासाः॥१२॥
आवीक्षितः पार्थिवोऽभून्मरुत्तो
ऋद्ध्यामर्त्यो योऽयजद्देवराजम्।
यज्ञे यस्य श्रीस्स्वयं सन्निविष्टा
यस्मिन्भाण्डे काञ्चनं सर्वमासीत्॥१३॥
हरिश्चन्द्रः पार्थिवेन्द्रश्श्रुतस्ते
यज्ञैरिष्ट्वापुण्यकृद्वीतशोकः।
ऋद्ध्याशक्रं योऽजयन्मानुपस्संस्
तस्माद्यज्ञे सर्वमेवोपयोज्यम्34 ॥१४॥
अत्र चोदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
इन्द्रेण समये पृष्टो यदुवाच बृहस्पतिः॥१५॥
सन्तोषो वै स्वर्गसमस् सन्तोषः परमं सुखम्।
तुष्टेर्न35 किञ्चित् परतस् सा सम्यक् प्रतितिष्ठति॥१६॥
यदा संहरते कामान् कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
यदाऽऽत्मज्योतिरात्मान्तर् आत्मन्येव प्रसीदति॥१७॥
न बिभेति यदा चासौ यदा चास्मान्न बिभ्यति।
कामद्वेषौच जयति तदाऽऽत्मानं प्रपश्यति॥१८॥
यदाऽसौ सर्वभूतानां न द्रुह्यति न तुष्यति।
कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥१९॥
एवं कौन्तेय भूतानि तत्तद्धर्मं तथा तथा।
तदा तदा प्रशंसन्ति तस्माद्बुध्यस्व भारत॥२०॥
अन्ये शमं प्रशंसन्ति व्यायाममपरे जनाः।
नैतन्न चापरं केचिद् उभयं च तथाऽपरे॥२१॥
यज्ञमेके प्रशंसन्ति संन्यासमपरे जनाः।
नैकं न चापरं केचिद् उभयं च तथाऽपरे॥२२॥
दानमेके प्रशंसन्ति केचिश्चैव प्रतिग्रहम्।
केचित् सर्वं परित्यज्य तूष्णीं ध्यायन्त आसते॥२३॥
राज्यमेके प्रशंसन्ति प्रजानां परिपालनात्।
हित्वा हित्वा च जित्वा च केचिदेकान्तशीलिनः॥२४॥
एतत् सर्वं समालोक्य बुधानामेषनिश्चयः।
अद्रोहेणैव भूतानां यो धर्मस्स सतां मतः॥२५॥
अद्रोहस्सत्यवचनं संविभागो दमः क्षमा।
प्रजनं स्वेषु दारेषु मार्दवं ह्रीरचापलम्॥२६॥
एवं धर्मं प्रधानेष्टं मनुस्वायम्भुवोऽब्रवीत्।
तस्मादेतत् प्रयत्नेन कौन्तेय परिपालयेत्॥२७॥
यो हि राज्ये स्थितश्शश्वद् वशी तुल्यप्रियाप्रियः।
क्षत्रियो यज्ञशिष्टाशी राजा शास्त्रार्थतत्त्ववित्॥२८॥
असाधुनिग्रहरतस् साधूनां प्रग्रहे रतः।
धर्मवर्त्मनि संस्थाप्य प्रजा वर्तेत धर्मवित्॥२९॥
पुत्रसङ्क्रामितश्रीश्च वने वन्येन वर्तयेत्।
विधानमाश्रमाणां वै कुर्वन् कालमतन्द्रितः॥३०॥
य एवं वर्तते राजा राजधर्मविनिश्चितः।
तस्यायं च परश्चैव लोकस्स्यात् सफलो नृप॥३१॥
निर्वाणं हि सुदुष्प्रापं बहुविघ्नं च मे मतम्॥३१॥
एवं धर्ममनुक्रान्तास् सत्यदानतपः पराः।
आनृशंस्यगुणैर्युक्ताः कामक्रोधविवर्जिताः॥३२॥
प्रजानां पालने युक्ता धर्म36मुत्तममास्थिताः।
गोब्राह्मणार्थे युध्यन्तस् सम्प्राप्य गतिमुत्तमाम्॥३३॥
एवं रुद्रास्सवसवस् तथाऽऽदित्याः परन्तप।
साध्या राजर्षिसङ्घाश्चधर्म37मेतं समाश्रिताः॥३४॥
अप्रमत्तास्ततस्स्वर्गंप्राप्ताः पुण्यैस्स्वकर्मभिः॥३५॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि विंशोऽध्यायः॥२०॥
॥८३॥आभिषेचनिकपर्वणि विंशोऽध्यायः॥२०॥
[अस्मिन्नध्याये ३५ श्लोकाः ]
॥ एकविंशोऽध्यायः॥
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॥ युधिष्टिरं प्रत्यर्जुनवचनम् ॥
______
वैशम्पायनः—
अस्मिन् वाक्यान्तरे वाक्यं पुनरेवार्जुनोऽब्रवीत्।
निर्विण्णमनसं ज्येष्ठम् इदं भ्रातरमच्युतम्॥१॥
अर्जुनः–
क्षत्रधर्मेण धर्मज्ञ प्राप्य राज्यं सुदुर्लभम्।
जित्वा चारीन् नरश्रेष्ठ तप्यते किं भवान् भृशम् ॥२॥
क्षत्रियाणां महाराज सङ्ग्रामेनिधनं स्मृतम्।
विशिष्टं बहुभिर्यज्ञैः क्षत्रधर्ममनुस्मर॥३॥
ब्राह्मणानां जपस्त्यागः प्रेत्य धर्मविधिस्स्मृतः।
क्षत्रियाणां हि निधनं सङ्ग्रामेविहितं प्रभो ॥४॥
क्षात्रधर्मो महारौद्रश्शस्त्रधर्म इति स्मृतः।
वधश्च भरतश्रेष्ठ काले शस्त्रेण संयुगे॥५॥
ब्राह्मणस्यापि चेद्राजन् क्षत्रधर्मेण वर्ततः।
प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रं हि ब्रह्मसंहितम्॥६॥
न त्यागो न पुनर्यज्ञो न तपो मनुजेश्वर।
क्षत्रियस्य विधीयन्ते न परस्वोपजीवनम् ॥७॥
स भवान् सर्वधर्मज्ञो धर्मात्मा भरतर्षभ।
राजा मनीपी निपुणो दृष्टलोकपरावरः॥८॥
त्यक्त्वा सन्तापजं शोकं दंशितो भव कर्मणि।
क्षत्रियस्य विशेषेण हृदयं वज्रसंहितम्॥९॥
जित्वाऽरीन् क्षत्रधर्मेण प्राप्य राज्यमकण्टकम्।
विजितात्मा मनुष्येन्द्र यज्ञदानपरो भव॥१०॥
इन्द्रो वै ब्रह्मणः पुत्रः क्षत्रियः कर्मणाऽभवत्।
ज्ञातीनां पापवृत्तानां जघान नवतीर्नव॥११॥
तच्चास्य कर्म पूज्यं च प्रशस्तं च विशां पते।
तेन चेन्द्रत्वमापेदे देवानामिति नश्रुतिः॥१२॥
स त्वं यज्ञैर्बहुविधैर् यजस्व बहुदक्षिणैः।
यथैवेन्द्रो मनुष्येन्द्र चिराय विगतज्वरः॥
मा त्वमेवं गते किञ्चित् क्षत्रियर्षभ शोचथाः।
गतास्ते क्षत्रधर्मेण शस्त्रपूताः परां गतिम्॥१४॥
भवितव्यं तथा तच्च यद्वृत्तं भरतर्षभ।
दिष्टं हि राजशार्दूल न शक्यमतिवर्तितुम्॥१५॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकविंशोऽध्यायः॥२१॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि एकविंशोऽध्यायः॥२१॥
[ अस्मिन्नध्याये १५ श्लोकाः ]
______
॥ द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥
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व्यासेन युधिष्ठिरं प्रतिशङ्खलिखितोपाख्यानकथनपूर्वकं क्षात्रधर्मस्वीकरणचोदना॥
वैशम्पायनः—
एवमुक्तस्तु कौन्तेयो गुडाकेशेन भारत।
नोवाच किञ्चित् कौरव्यस् ततो द्वैपायनोऽब्रवीत्॥१॥
व्यासः—
बीभत्सोर्वचनं सौम्य सत्यमेतद्युधिष्ठिर।
शास्त्रदृष्टः परो धर्मस् स्मृतो गार्हस्थ्य आश्रमः॥२॥
स्वधर्मं चर धर्मज्ञ शास्त्रदृष्टं यथाविधि।
न38 हि गार्हस्थ्यमुत्सृज्य तवारण्यं विधीयते॥३॥
वयांसि पशवश्चैव भूतानि च जनाधिप।
गृहस्थैरेव धार्यन्ते तस्माच्छ्रेष्ठो गृहाश्रमः॥४॥
सोऽयं चतुर्णामेतेषाम् आश्रमाणां दुराचरः।
तं चराविमनाः पार्थ दुश्चरं दुर्बलेन्द्रियैः॥५॥
वेदज्ञानं हि ते कृत्स्नं तपश्च चरितं महत्।
पितृपैतामहं राज्यं धुर्यवद्वोढुमर्हसि॥६॥
तपो यज्ञस्तथा विद्या भैक्ष्यमिन्द्रियसंयमः।
ध्यानं विद्या समुत्थानं सन्तोषश्चश्रियं प्रति॥७॥
वेदज्ञानं तथा कृत्स्नं तपस्सुचरितं तथा।
तथा ह्येकान्तशीलत्वं तुष्टिर्दानं च शक्तितः॥८॥
ब्राह्मणानां महाराज चेष्टा संसिद्धिकारिका।
क्षत्रियाणां तु वक्ष्यामि त्वयाऽपि विदितं पुनः॥९॥
यज्ञो विद्या समुत्थानम् असन्तोषश्श्रियं प्रति।
दण्डधारणमुग्रत्वं प्रजानां परिपालनम्॥१०॥
वेदज्ञानं तथा कृत्स्नं तपस्सुचरितं महत्।
द्रविणं स्वार्जितं भूरि सम्यग्वै दण्डधारणम्॥११॥
एतानि लोके चत्वारि सुकृतानि विशां पते।
साधयन्ते परे लोके मानवानिति नश्श्रुतम्१२॥
एषां ज्यायश्च कौन्तेय दण्डधारणमुच्यते।
बलं हि क्षत्रिये नित्यं बले दण्डस्समाहितः॥१३॥
एताश्चेष्टाः क्षत्रियाणां राजन्संसिद्धिकारिकाः।
अपि गाथामिमां चात्र बृहस्पतिरगायत॥१४॥
भूमिरेतौ निगिरति सर्पौबिलशयाविव।
राजानं चाप्ययोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम्॥१५॥
सुद्युम्नश्चापि राजर्षिश्श्रूयते दण्डधारणात्।
प्राप्तवान् परमां सिद्धिं दक्षः प्राचेतसो यथा39॥१६॥
युधिष्टिरः—
भगवन् कर्मणा केन सुद्युम्नोवसुधाधिपः।
सिद्धिं परमिकां प्राप्तश्श्रोतुमिच्छामि तं नृपम्॥१७॥
व्यासः—
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
शङ्खश्च लिखितश्चास्तां भ्रातरौ संशितव्रतौ॥१८॥
तयोरावसथावास्तां रमणीयौ पृथक् पृथक्।
नित्यपुष्पफलैर्वृक्षैर् उपेतौ बाहुदामनु ॥१९॥
ततः कदाचिल्लिखितश् शङ्खस्याश्रममागमत्।
यदृच्छयाऽथ शङ्खोऽपि निष्क्रान्तोऽभवदाश्रमात्॥२०॥
सोऽभिगम्याश्रमं भ्रातुश् चङ्क्रमल्ँलिखितस्तदा।
फलानि शातयामास सम्यक् परिणतान्युत॥२१॥
तान्युपादाय विस्रब्धो भक्षयामास स द्विजः।
तस्मिंश्च भक्षयत्येव शङ्खोऽप्याश्रममागमत्॥२२॥
भक्षयन्तं तदा दृष्ट्वा शङ्खोभ्रातरमब्रवीत्॥२२॥
कुतः फलान्यवाप्तानि खादसे केन हेतुना॥२३॥
व्यासः—
सोऽब्रवीद्भ्रातरं ज्येष्ठम् उपस्पृश्याभिवाद्य च।
इत एव गृहीतानि मयेति प्रहसन्निव॥२४॥
तमब्रवीत्ततश्शङ्कस् तीव्रकोपसमन्वितः॥२४॥
शङ्खः—
स्तेयं त्वया कृतमिदं फलान्याददता स्वयम्॥२५॥
गच्छ राजानमासाद्य स्वकर्म प्रथयस्व वै।
अदत्तादानमेवं मे कृतं पार्थिवसत्तम्॥२६॥
स्तेनं मां त्वं विदित्वा च स्वधर्ममनुपालय।
शीघ्रं धारय चोरस्य मम दण्डं नराधिप॥२७॥
व्यासः—
इत्युक्तस्तस्य वचनात् सुद्युम्नं वसुधाधिपम्।
अभ्यगच्छन्महाभागो लिखितस्संशितव्रतः॥२८॥
सुद्युम्नोद्वारपालेभ्यश्श्रुत्वा लिखितमागतम्।
अभ्यगच्छत् सहामात्यः पद्भ्यामेव नराधिप॥२९॥
तमब्रवीत् समागम्य राजा ब्राह्मणसत्तमम्॥२९॥
सुद्युम्नः—
किमागमनमाचक्ष्व भगवन् कृतमेव तत्॥३०॥
व्यासः—
एवमुक्तस्स विप्रर्षीःराजानमिदमब्रवीत्॥३०॥
लिखितः—
प्रतिश्रुत्य करिष्येति श्रुत्वा तत् कर्तुमर्हसि॥३१॥
अनिसृष्टानि गुरुणा फलानि पुरुषर्षभ।
भक्षितानि मया राजंस् तत्र मां शाधि मा चिरम्॥३२॥
सुद्युम्नः—
प्रमाण चेन्मतो राजा भवतो दण्डधारणे।
अनुज्ञापयामि तथा हेतुस्स्याद्ब्राह्मणर्षभ॥३३॥
भगवानभ्यनुज्ञातश् शुचिकर्मा महाव्रतः।
ब्रूहि कामानतोऽन्यांस्त्वं करिष्यामि हि ते वचः॥३४॥
सञ्चोद्यमानो विप्रर्षिः पार्थिवेन महात्मना।
नान्यं च वरयामास तस्माद्दण्डादृते वरम्॥३५॥
ततस्स पृथिवीपालो लिखितस्य महात्मनः।
करौ प्रच्छेदयामास धृतदण्डो जगाम सः॥३६॥
स गत्वा भ्रातरं शङ्खम् आर्तरूपोऽब्रवीदिदम्॥३६॥
राजा।—
धृतदण्डस्य भगवन् मम त्वं क्षन्तुमर्हति॥
शङ्खः—
न कुप्ये तव धर्मज्ञ न त्वं दूषयसे मम।
सुनिर्मलं कुलं ब्रह्मन् अस्मिञ्जगति विश्रुतम्॥३८॥
धर्मस्त्वया हतो भूयांस् ततस्ते निष्कृतिः कृता॥३८॥
त्वं गत्वा बाहुदां शीघ्रं तर्पयस्व यथाविधि।
देवानृषीन् पितॄंश्चैव मा चाधर्मे मनः कृथाः॥३९॥
ब्रह्महत्यां सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमम्।
महान्ति पातकान्याहुस् संयोगं चैव तैस्सह॥४०॥
न स्तेयसदृशं ब्रह्मन् महापातकमस्ति हि।
जगत्यस्मिन् महाभाग ब्रह्महत्यासमं हि तत्॥४१॥
सर्वपातकिनां ब्रह्मन् दण्डश्शारीर उच्यते।
तस्करस्य विशेषेण नान्यो दण्डो विधीयते॥४२॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वाऽपि वैश्यश्शूद्रोऽथवा द्विज।
सर्वे कामकृते पापे हन्तव्या न विचारणा॥४३॥
राजभिर्धृतदण्डा वै कृत्वा पापानि मानवाः।
निर्मलास्स्वर्गमायान्ति सन्तस्सुकृतिनो यथा ॥४४॥
उद्धृतं नः कुलं ब्रह्मन्नाज्ञादण्डे धृते त्वयि ॥४५॥
व्यासः —
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा शङ्खस्य लिखितस्तदा।
अवगाह्यापगां पुण्याम् उदकार्थं प्रचक्रमे॥४६॥
प्रादुरास्तां करौ तस्य ततो जलजसन्निभौ।
ततस्स विस्मितो40 भ्रातुर् दर्शयामास तौ करौ॥४७॥
ततस्तमब्रवीच्छङ्खस् तपसेदंं कृतं मया।
मा च तेऽत्र विशङ्का भूद् दैवमत्र विधीयते॥४८॥
लिखितः—
किं नु नाहं त्वया पूतः पूर्वमेव महाद्युते।
यस्य ते तपसो वीर्यम् ईदृशं द्विजसत्तम॥४९॥
शङ्खः—
एवमेतन्मया कार्य नाहं दण्डधरस्तव।
स च पूंतो नरपतिस् त्वं चापि पितृभिस्सह॥५०॥
व्यासः—
स राजा पाण्डवश्रेष्ठ श्रेयानेतेन कर्मणा।
प्राप्तवान् परमां सिद्धिंं दक्षः प्राचेतसो यथा॥५१॥
एष धर्मः क्षत्रियाणां प्रजानां परिपालनम्।
उत्पथेभ्यो महाराज मा स्म शोके मनः कृथाः॥५२॥
भ्रातुरस्य हितं वाक्यं शृणु पाण्डव तत्त्वतः।
दण्ड एव हि राजेन्द्र क्षत्रधर्मो न मुण्डनम्॥५३॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥
[ अस्मिन्नध्याये ५३ श्लोकाः]
॥ त्रयोविंशोऽध्यायः॥
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** व्यासेन युधिष्ठिरं प्रति राजधर्मकथनपूर्वकं राज्यपालनचोदना॥ **
______
वैशम्पायनः—
पुनरेव महर्षिस्तंकृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्।
अजातशत्रुंकौन्तेयम् इदं वचनमर्थवत्॥१॥
व्यासः—
अरण्ये वसतां तात भ्रातॄणां ते तपस्विनाम्।
मनोरथा महाराज ये तत्रासन् युधिष्ठिर॥२॥
तानिमे भरतश्रेष्ठ प्राप्नुवन्तु महारथाः॥२॥
प्रशाधि पृथिवीं पार्थ ययातिरिव नाहुषः॥३॥
अरण्ये दुःखवसतिर्अनुभूता तपस्विभिः।
दुःखस्यान्ते नरव्याघ्रास् सुखान्यनुभवन्त्विमे॥४॥
धर्ममर्थं च कामं च भ्रातृभिस्सह भारत।
अनुभूय ततः पश्चात् प्रस्थास्यसि विशां पते॥५॥
अतिथीनां पितॄणां च देवतानां च भारत।
आनृण्यं गच्छ कौन्तेय ततस्स्वर्गं गमिष्यसि॥६॥
सर्वमेधाश्वमेधाभ्यां यजस्व कुरुपुङ्गव।
ततः पश्चान्महाराज गमिष्यसि परां गतिम्॥७॥
भ्रातॄंश्च सर्वान् ऋतुभिस् संयोज्य बहुदक्षिणैः।
सम्प्राप्य कीर्तिमतुलां पाण्डवेय गमिष्यसि॥८॥
विद्यते पुरुषव्याघ्र वचनं कुरुपुङ्गव।
शृणुष्व च यथा कुर्वन् धर्मान्न चलसे नृप॥९॥
आददानस्य विजयं विग्रहं च युधिष्ठिर।
समानधर्मकुशलास् स्थापयन्ति नरेश्वर॥१०॥
प्रत्यक्षमनुमानं च उपमानं तथाऽऽगमः।
अर्थापत्तिस्तथैतिह्यं संशयो निर्णयस्तथा॥११॥
आकारो हीङ्गितश्चैव गतिश्चेष्टा च भारत।
प्रतिज्ञा चैव हेतुश्च दृष्टान्तोपनयस्तथा॥१२॥
उक्तं निगमनं तेषां प्रमेयं च प्रयोजनम्।
एतानि साधनान्याहुर् बहुवर्गप्रसिद्धये॥१३॥
प्रत्यक्षमनुमानं च सर्वेषां योनिरिष्यते।
प्रमाणज्ञो हि शक्नोति दण्डनीतौ विचक्षणः॥१४॥
अप्रमाणवता नीतो दण्डो हन्यान्महीपतिम्॥१४॥
देशकालप्रतीक्षो यश् शत्रूस्तान् हर्षयेन्नृप।
शास्त्रजां बुद्धिमास्थाय संयुज्येतैनसा न सः॥१५॥
आददद् बलिषड्भागं यो राष्ट्रं नाभिरक्षति।
प्रतिगृह्णाति तत्पापं चतुर्थांशेन पार्थिवः॥१६॥
निबोध च यथाऽऽतिष्ठन् धर्मान्न चलते पथः।
निग्रहाद्धर्मशास्त्राणाम् अविरुद्धयन्नपेतभीः॥१७॥
कामक्रोधावनादृत्य पितेव समदर्शनः॥१८॥
दैवेनाभ्याहतो राजा कर्मकाले महायुते।
यन्न साधयते कर्म न तत्राहुर्व्यतिक्रमम्॥१९॥
तरसा बुद्धिपूर्वं वा निग्राह्या एव शत्रवः।
पापैस्सह न सन्दध्याद् राष्ट्रं पश्यन्न कारयेत्॥२०॥
शूरान् धर्मांश्च सत्कुर्याद् विद्वांसश्च युधिष्ठिर।
गोमिनो41 धनिनश्चैव परिपाल्या विशेषतः॥२१॥
व्यवहारेषु योक्तव्याः प्रष्टव्याश्च बहुश्रुताः।
प्रमाणज्ञा महीपाल न्यायशस्त्रावलम्विनः॥२२॥
वेदार्थतत्वविद्राजंस् तर्कशास्त्रबहुश्रुताः।
मन्त्रे च व्यवहारे च नियोक्तव्या विज्ञानता॥२३॥
तर्कशास्त्रकृता बुद्धिर् धर्मशास्त्रकृता च या।
दण्डनीतिकृता चैव त्रैलोक्यमपि साधयेत्॥२४॥
नियोज्या वेदतत्त्वज्ञा यज्ञकर्मसु पार्थिव।
वेदज्ञा ये च शास्त्रज्ञास् ते च राजन् सुबुद्धयः॥२५॥
आन्वीक्षकीत्रयीवार्तादण्डनीतिषु पारगाः।
ते तु सर्वत्र योक्तव्यास् ते च बुद्धेः परं गताः॥२६॥
गुणयुक्तेऽपि नैकस्मिन् विश्वसीत विचक्षणः॥२६॥
अरक्षिता दुर्विनीतो मानी स्तब्धोऽभ्यसूयकः।
एनसा युज्यते राजा दुर्दान्त इति चोच्यते॥२७॥
ये रक्ष्यमाणा हीयन्ते दैवेनाभ्याहता नृप।
तस्करैश्चापि मृद्यन्ते सर्वं तद्राजकिल्विषम्॥२८॥
सुमन्त्रिते सुनीते च न्यायतश्चोपपादिते।
पौरुषे कर्मणि कृते नास्त्यधर्मो युधिष्ठिर॥२९॥
विपद्यन्ते च कर्माणि सिद्धयन्त्यपि च देवताः।
कृते पुरुषकारे तु नैनस्स्पृशति पार्थिवम्॥३०॥
अत्र ते राजशार्दूलकथयिष्ये कथामिमाम्।
यद्वृत्तं पूर्वराजर्षेर् हयग्रीवस्य पार्थिव॥३१॥
शत्रून् हत्वा हतस्याजौ शूरस्याक्लिष्टकर्मणः।
असहायस्य वीरस्य निर्जितस्य युधिष्ठिर॥३२॥
यत् कर्म वै निग्रहे शात्रवाणां
योगश्चाग्र्यः पालने मानवानाम्।
कृत्वा कर्म प्राप्य कीर्तिं प्रयुद्धे
वाजिग्रीवो मोदते देवलोके॥३३॥
सन्त्यक्तात्मा समरे चाततायी
शस्त्रैश्छिन्नो दस्युभिर्युध्यमानः।
अश्वग्रीवः पुण्यशीलो महात्मा
संसिद्धात्मा मोदते देवलोके॥३४॥
धनुर्यूपो रशना ज्या शरस्स्रुक्
स्रुवः खड्गो रुधिरं यत्र चाज्यम्।
रथो वेदिः कामगो युद्धमग्निश्
चातुर्होत्रं चतुरो वाजिमुख्याः॥३५॥
हुत्वा तस्मिन् यज्ञवह्नावराती42
पाशान्मुक्त्वा राजसिंहस्तरस्वी।
प्राणान् हुत्वा चावभृथे रणेपु
वाजिग्रीवो मोदते देवलोके॥३६॥
राष्ट्रं43 रक्षन् बुद्धिपूर्वंनयेन
सन्त्यक्तात्मा यज्ञशीलो महात्मा।
सर्वाल्ँलोकान् व्याप्य कीर्त्या मनस्वी
वाजिग्रीवो मोदते देवलोके॥३७॥
दैवीं सिद्धिंं मानुषीं दण्डनीत्या
योगन्यायैः पालयित्वा महीं च।
तस्माद्राजा धर्मशीलो महात्मा
वाजिग्रीवो मोदते देवलोके॥३८॥
विद्वांस्यागी श्रद्दधानः कृतज्ञस्
त्यक्त्वा लोकं मानुषंकर्म कृत्वा।
मेधाविनां विदुषां सम्मतानां
तनुत्यजां लोकमाक्रम्य राज्ञाम्॥३९॥
सम्यग्वेदान् प्राप्य शास्त्राण्यधीत्य
सम्यग्राज्यं पालयित्वा महात्मा।
चातुर्वर्ण्यं स्थापयित्वा स्वधर्मे
वाजिग्रीवो मोदते देवलोके॥४०॥
वृत्तं44 यस्य श्लाघनीयं मनुष्यास्
सन्तो विद्वांसोऽर्हयन्त्यर्हणीयम्।
स्वर्गं जित्वा वीरलोकानवाप्य
सिद्धिं प्राप्तः पुण्यकीर्तिर्महात्मा॥४१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि त्रयोविंशोऽध्यायः॥२३॥
॥अस्मिन्नध्याये ४१॥श्लोकाः॥
॥ चतुर्विंशोऽध्यायः॥
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** व्यासेन युधिष्ठिरं प्रति सेनजिद्वचनानुवादपूर्वकं राजधर्मकथनम् ॥**
_____
वैशम्पायनः—
द्वैपायनवचश्श्रुत्वा कुपिते च धनञ्जये।
व्यासमामन्त्र्य कौरव्यः प्रत्युवाच युधिष्ठिरः॥१॥
युधिष्ठिरः—
न पार्थिवमिदं राज्यं न च भोगाः पृथग्विधाः।
प्रीणयन्ति मनो मेऽद्य शोको मां दारयत्ययम्॥२॥
श्रुत्वा वीरविहीनानां विपुत्राणां च योषिताम्।
परिदेवयमानानां न शान्तिं मनसा लभे॥३॥
वैशम्पायनः—
इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं व्यासो योगविदां वरः।
युधिष्ठिरं महाभागं धर्मज्ञो धर्मपारगः॥४॥
व्यासः—
न कर्मणा लभ्यते चिन्तया वा
नाप्यस्य कश्चित् पुरुषस्य दाता।
पर्याययोगाद्विहितं विधात्रा
कालेन सर्वं लभते मनुष्यः॥५॥
न बुद्धि शक्तया45ऽध्ययनेन शक्यं
प्राप्तुं विशेषं मनुजैरकाले।
मूर्खोऽपि चाप्नोति कदाचिदर्थान्
कालो हि सर्व पुरुषस्य दाता॥६॥
न भूरकालेषु फलं ददाति
शिल्पानि मन्त्राणि तथौषधानि।
तान्येव कालेन समाहितानि
सिद्ध्यन्ति चैधन्ति च भूतिकाले॥७॥
कालेन शीघ्रं प्रवहन्ति वाताः
कालेन वृष्टिर्जलदानुपैति।
कालेन पद्मोत्पलवत्य आपः
कालेन पुष्यन्ति नगा वनेषु॥८॥
कालेन कृष्णाश्च सिताश्च रात्र्यः
कालेन चन्द्र परिपूर्णरश्मिः।
नाकालतः पुष्पफलं द्रुमाणां
नाकालवेगास्सरितो वहन्ति ॥९॥
नाकालमत्ताः खगपन्नगाश्च
वनद्विपाश्शैलमृगाश्च लोके।
नाकालतस्स्त्रीषु भवन्ति गर्भा
नायान्त्यकाले शिशिरोष्णवर्षाः॥१०॥
नाकालतो म्रियते जायते वा
नाकालतो व्याहरते च बालः।
नाकालतो यौवनमभ्युपैति
नाकालतो रोहति बीजमुप्तम्॥११॥
नाकालतो भानुरुपैति योगं
नाकालतोऽस्तं गिरिमभ्युपैति।
नाकालतो वर्धते हीयते वा
चन्द्रस्समुद्रश्च महोर्मिमालः॥१२॥
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
गीतं सेनजिता राज्ञा दुःखार्तेन युधिष्ठिर॥१३॥
सर्वानेवैष पर्यायो मर्त्यान् स्पृशति दुस्तरः।
कालेन परिपक्वाश्च म्रियन्ते चापि मानवाः॥१४॥
घ्नन्ति चान्ये नरान् राजंस् तानप्यन्ये तथा नराः।
संज्ञेषा लौकिकी राजन् न निहन्ति न हन्यते॥१५॥
हन्तीति मन्यते कश्चिन्न हन्तीत्यपि चापरः।
स्वभावतस्तु नियतौ भूतानां प्रभवाप्ययौ ॥१६॥
नष्टे धने वा दारे वा पुत्रे पितरि वा मृते।
अहो दुःखमिति ध्यात्वा दुःखस्यापचितिं चरेत्॥१७॥
कथं मुह्यसि मूढस्सन् शोच्यान् किमनुशोचसि।
पश्य दुःखानि दुःखेषु भयेष्वतिभयान्यपि॥१८॥
आत्माऽपि चायं न मम सर्वाऽपि पृथिवी मम।
यथा मम तथा ह्येषाम् इति पश्यन् न मुह्यति॥१९॥
शोकस्थानसहस्राणि भय46स्थानशतानि च।
दिवसे दिवसे मूढम् आविशन्ति न पण्डितम्॥२०॥
एवमेतानि कालेन प्रियद्वेष्याणि भागशः।
जीवेषु परिवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च॥२१॥
दुःखमेवास्ति न सुखं तस्मात् तदुपलभ्यते
।
तृष्णार्तिप्रभवं दुःखं दुःखार्ति47प्रभवं सुखम् ॥२२॥
सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम्।
न नित्यं लभते दुःखं न नित्यं लभते सुखम्॥२३॥
सुखमेव हि दुःखान्तं कदाचि द्दुःखिन48स्सुखम्।
तस्मादेतद्द्वयं जह्याद् य इच्छेद्भूतिमात्मनः॥२४॥
यन्निमित्तं भवेच्छोकस् तापो वा दुःखमेव वा।
आयासो वा यतोमूलस् तदेकाङ्गमपि त्यजेत् ॥२५॥
सुखं वा यदि वा दुःखं प्रियं वा यदि वाऽप्रियम्।
प्राप्तं प्राप्तमुपासीत हृदयेनाविदूयता॥२६॥
ईषदप्यङ्ग दाराणां पुत्राणां वाऽऽचरन् प्रियम्।
ततो ज्ञास्यसि कः कस्य केन वा कथमेव वा॥२७॥
ये च मूढतमा लोके ये च बुद्धेः परं गताः।
त एव सुखमेधन्ते मध्यः क्लेशेन युज्यते॥२८॥
भीष्मः—
इत्यब्रवीन्महाप्राज्ञो युधिष्ठिर स सेनजित्।
परावरज्ञो लोकस्य स राजा सुखदुःखवित्॥२९॥
परदुःखेन यो दुःखी न स जातु सुखी भवेत्।
दुःखानां हि क्षयो नास्ति जायते ह्यपरावरम्॥३०॥
सुखं च दुःखं च भवाभवौ च
लाभालाभौ मरणं जीवितं च।
पर्यायतस्सर्वमिहाप्नुवन्ति
तस्मान्न मुह्येन्न च सम्प्रहृष्येत्॥३१॥
दीक्षां राज्ञां संयुगे धर्ममाहुर्
योगं राष्ट्रे दण्डनीतिं च सम्यक्।
वित्तत्यागं दक्षिणां चैव यज्ञे
सम्यग्दानं पावनानीति विद्यात्॥३२॥
रक्षन् राष्ट्रं बुद्धिपूर्वं नयेन
सन्त्यक्तात्मा यज्ञशीलो महात्मा।
सर्वाल्लोकान् धर्मदृष्ट्यावलोक-
न्नूर्ध्वं देहान्मोदते देवलोके॥३३॥
जित्वा सङ्ग्रामं पालयित्वा च राष्ट्रं
सोमं पीत्वा वर्धयित्वा प्रजाश्च।
युक्त्या दण्डं धारयित्वा प्रजानां
पश्चात् क्षीणायुर्मोदते देवलोके॥३४॥
यजन्ति यज्ञान् विजयन्ति राज्यं
रक्षन्ति राष्ट्राणि प्रियाणि चैषाम्॥३४॥
सम्यग्वेदान्49 सर्वशास्त्राण्यधीय
सम्यग्राष्ट्रं पालयित्वा प्रजाश्च।
चातुर्वर्ण्यं शास्त्रदृष्टया निवेश्य
पूतात्मा वै मोदते देवलोके॥३५॥
यस्य वृत्तं नमस्यन्ति स्वर्गस्थस्यापि मानवाः।
पौरजानपदामात्यास् स राजन् राजसत्तमः॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि चतुर्विंशोऽध्यायः॥ २४ ॥
[ अस्मिन्नध्याये ३६ श्लोकाः ]
______
॥ पञ्चविंशोऽध्यायः॥
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युधिष्टिरेण व्यासं प्रति निर्वेदवचनम्॥१॥ व्यासेन युधिष्ठिरं प्रतिराज्यपालनविधानम्॥२॥
युधिष्टिरः—
अभिमन्यौ हतेवाले द्रौपद्यास्तनयेषु च।
धृष्टद्युम्ने विराटे च द्रुपदे च महीपतौ॥१॥
वसुषेणे च धर्मज्ञे धृष्टकेतौ च चेदिषे।
तथाऽन्येषु नरेन्द्रेषु नानादेश्येषु संयुगे॥२॥
न विमुञ्चति मां शोको ज्ञातिघातिनमातुरम्।
राज्यकामुकमत्युग्रं स्ववंशोत्सादकारकम्॥३॥
यस्याङ्के क्रीडमानेन मया विपरिवर्तितम्।
स मया राज्यलुब्धेन गाङ्गेयो युधि पातितः॥४॥
यदा ह्येनं विघूर्णन्तं मदर्थं पार्थसायकैः।
तक्ष्यमाणं50 यथा वज्रैःप्रेक्षमाणं शिखण्डिनम्॥५॥
जीर्णंसिंहमिव प्राज्ञं नरसिंहं पितामहम्।
कीर्यमाणं शरैर्दीप्तैर्मे व्यथितं मनः॥६॥
प्राङ्मुखं सीमानं च रथात् पररथारुजम्।
घूर्णमानं यथा शैलं तदा मे कश्मलोऽभवत्॥७॥
यस्स बाणधनुष्पाणिर् योधयामास भार्गवम्।
बहून्यहानि कौरव्यः कुरुक्षेत्रे महामृधे॥८॥
समेतं पार्थिवं क्षत्रं वाराणस्यां नदीसुतः।
कन्यार्थमाह्वयद्वीरो रथेनैकेन संयुगे॥९॥
येन चोग्रायुधो राजा चक्रवर्ती दुरासदः।
दग्धश्शस्त्रप्रतापेन स मया युधि पातितः॥१०॥
स्वयं मृत्युं रक्षमाणः पाञ्चाल्यं यश्शिखण्डिनम्।
न बाणैः पातयामास सोऽर्जुनेन निपातितः॥११॥
यदैनं पतितं भूमावपश्यं रुधिरोक्षितम्।
तदैवाविशदत्युग्रो ज्वरो मां मुनिसत्तम्॥१२॥
येन संवर्धिता बाला येन स्म परिरक्षिताः।
स मया राज्यलुब्धेन पापेन गुरुघातिना॥१३॥
अल्पकालस्य राज्यस्य कृते मूढेन पातितः॥१३॥
आचार्यश्च महेष्वासस् सर्वपार्थिवपूजितः।
अभिगम्य रणे मिथ्या पापेनोक्तस्सुतं प्रति॥१४॥
तन्मे दहति गात्राणि यन्मां गुरुभाषत।
सत्यमाख्याहि राजंस्त्वं यदि जीवति मे सुतः॥
सत्यमामर्शयन् विप्रो मयि तत् परिपृष्टवान्॥१६॥
कुञ्जरं चान्तरं कृत्वा मिथ्योपचरितो मया।
सुभृशं राज्यलुब्धेन पापेन गुरुघातिना॥१७॥
सत्यकञ्चुकमामुच्य मयोक्तो गुरुराहवे।
अश्वत्थामा हत इति कुञ्जरे निहते मुने॥१८॥
कान् वा लोकान् गमिष्यामि कृत्वा तत् कर्म दारुणम्॥१८॥
अघातयं च यत् कर्णं समरेष्वपलायिनम्।
ज्येष्ठ भ्रातरमत्युग्रः को मत्तः पापकृत्तमः॥१९॥
अभिमन्युं च यद्बालं जातं सिंहमिवाद्रिपु।
प्रावेशयमहं लुब्धो वाहिनीं द्रोणपालिताम्॥२०॥
तदा प्रभृति वीभत्सुं न शक्नोम्यभिवीक्षितुम्।
कृष्णं च पुण्डरीकाक्षं किल्बिषी भ्रूणहा यथा॥२१॥
द्रौपदीं चाप्यदुःखार्हां पञ्चपुत्रविनाकृताम्।
शोचामि पृथिवीं हीनां पञ्चभिः पर्वतैरिव॥२२॥
सोऽहमागस्करः पापः पृथिवीनाशकारकः।
आसीन एवमेवेदं शोषयिष्ये कलेवरम्॥२३॥
प्रायोपविष्टं जानीध्वं मामद्य गुरुघातिनम्।
यथाऽन्यास्वपि जातीषु न भवेयं कुलान्तकृत्॥२४॥
न भोक्ष्ये न च पानीयम् उपयोक्ष्ये कथश्चन।
शोषयिष्ये प्रियान् प्राणान् इहस्थोऽहं तपोधन॥२५॥
यथेष्टं गम्यतां कामम् अनुजाने प्रसाद्य वः।
सर्वे मामनुजानीत त्यक्ष्यामीदं कलेबरम्॥२६॥
वैशम्पायनः—
तमेवं वादिनं पार्थं बन्धुशोकेन विह्वलम्।
मैवमित्यब्रवीद्व्यासो निगृह्यं मुनिसत्तमः॥२७॥
व्यासः—
अतिवेलं महाराज न शोकं कर्तुमर्हसि।
पुनरुक्तं तु वक्ष्यामि दिष्टमेतदिति प्रभो॥२८॥
संयोगाश्च वियोगाश्च जातानां प्राणिनां ध्रुवम्।
बुद्बुदा इव तोयेषु भवन्ति न भवन्ति च॥२९॥
सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्तास्समुच्छ्रयाः।
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्॥३०॥
सुखं दुःखान्तमालस्यं दुःखान्तं च सुखोदयम्।
विभूतिश्श्रीर्धृतिस्सिद्धिर् नादक्षे निवसन्त्युत॥३१॥
नालं सुखाय सुहृदो नालं दुःखाय शत्रवः।
न प्रतिज्ञाऽलमर्थानां न सुखानामलं धनम् ॥३२॥
यथा सृष्टोऽसि कौन्तेय धात्रा कर्म तथा कुरु।
अत एव हि सिद्धिस्ते नेशस्त्वं ह्यात्मनो नृप॥३३॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि पञ्चविंशोऽध्यायः॥२५॥
॥८३॥आभिषेचनिकपर्वणि पञ्चविंशोऽध्यायः॥२५॥
[ अस्मिन्नध्याये ३३॥ श्लोकाः]
॥ षड्विंशोऽध्यायः॥
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व्यासेन युधिष्टिरं प्रत्यश्मजनकसंवादानुवादपूर्वकं क्षात्रधर्मविधानम्॥
वैशम्पायनः—
ज्ञातिशोकाभितप्तस्य प्राणानिष्टांस्त्यजिष्यतः।
ज्येष्ठस्य पाण्डुपुत्रस्य व्यासश्शोकमपानुदन्॥१॥
व्यासः—
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
अश्मगीतं नरव्याघ्र तन्निबोध युधिष्ठिर॥२॥
अश्मानं ब्राह्मणं प्राज्ञं वैदेहो जनको नृपः।
संशयं परिपप्रच्छ दुःखशोकसमन्वितः॥३॥
जनकः—
आगमे यदि वाऽपाये ज्ञातीनां द्रविणस्य वा।
नरेण प्रतिपत्तव्यं कल्याणं कथमिच्छता॥४॥
अश्मा—
उत्पन्नमिममात्मानं नरस्यानन्तरं ततः।
तानि तान्यभिवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च॥५॥
तेषामन्यतरोत्पत्तौ यद्यदेवोपसेवते।
तत् तत्र चेतनामस्य हरत्यभ्रमिवानिलः॥६॥
अभिजातोऽस्मि सिद्धोऽस्मि नास्मि केवलमानुषः।
इत्येभिर्हेतुभितस्य त्रिभिश्चित्तं प्रसिच्यते॥७॥
सम्प्रसिक्तमना भोगान् विसृज्य पितृसञ्चितान्।
परिक्षीणः परस्वानाम् आदानं बहु मन्यते॥८॥
तमतिक्रान्तमर्यादमादानमसाम्प्रतम्।
प्रतिषेधन्ति राजानो लुब्धा मृगमिवेषुभिः॥९॥
तेषां परमदुःखानां बुद्ध्या भैषज्यमाचरेत्।
सर्वप्राणभृतां वृत्तं प्रेक्षमाणस्ततस्ततः॥१०॥
ये च विंशतिवर्षा वै त्रिंशद्वर्षाश्च मानवाः।
परेण ते वर्षशतान्न जीविष्यन्ति पार्थिव॥११॥
मानसानां पुनर्योनिर् दुःखानां चित्तविभ्रमः।
अनिष्टोपनिपातो वा तृतीयं नोपपद्यते॥१२॥
एवमेतानि दुःखानि तानि तानीह मानवम्।
विविधान्युपवर्तन्ते तथा संस्पर्शजान्यपि॥१३
जरामृत्यू हि भूतानां खादितारौ वृकाविव।
बलिनां दुर्बलानां च ह्रस्वानां महतामपि॥१४॥
न कश्चिज्जात्वतिकामेज् जरामृत्यू हि मानवः।
अपि सागरपर्यन्तां विजित्येमां वसुन्धराम्॥१५॥
पूर्वे51 वयसि मध्ये वा अन्तिमे वा जनाधिप।
अवर्जनीयास्तेऽर्था वै काङ्क्षिता ये ततोऽन्यथ॥१६॥
सुप्रियैर्विप्रयोगश्च सम्प्रयोगश्च विप्रियैः।
अर्थानर्थी सुखं दुःखं विधानमनुवर्तते॥१७॥
प्रादुर्भावश्च भूतानां देहत्यागस्तथैव च।
प्राप्तिव्यायामयोगश्च सर्वमेतत् प्रतिष्ठितम्॥१८॥
गन्धवर्णरसस्पर्शा निवर्तन्ते स्वभावतः।
तथैव सुखदुःखानाम् विधानमनुवर्तते॥१९॥
आसनं शयनं यानम् उत्थानं पानभोजनम्।
नियतं सर्वभूतानां कालेनैव भवत्युत॥२०॥
वैद्याश्चाप्यातुरास्सन्ति बलवन्तश्च दुर्बलाः।
स्त्रीमन्तचापरे षण्ढा विचित्रः कालपर्ययः॥२१॥
कुले जन्म तथा वीर्यम् आरोग्यं रूपमेव च।
सौभाग्यमुपभोगश्च भवितव्येन लभ्यते॥२२॥
सन्ति पुत्रास्सुबहवो दरिद्राणामनिच्छताम्।
बहूनामिच्छतां नास्ति समृद्धानां विचेष्टताम्॥२३॥
व्याधिरग्निर्बलं शस्त्रं बुभुक्षाश्चापदो विषम्।
जरा च मरणं जन्तोर् उच्चाच्च पतनं तथा॥२४॥
निर्याणं यस्य यदृष्टं तेन गच्छति हेतुना ॥२४॥
दृश्यते चाभ्यतिक्रामन् नातिक्रान्ते यथा पुनः।
दृश्यते च युवा चैव विनश्यत्यसुमान् नरः॥२५॥
दरिद्राश्च परिक्लिष्टाश् शतवर्षंजरातुराः।
अकिञ्चनाश्च दृश्यन्ते पुरुषाश्चिरजीविनः॥२६॥
समृद्धे च कुले जाता विनश्यन्ति पतङ्गवत्॥२७॥
प्रायेण श्रीमतां लोके भोक्तुं शक्तिर्न विद्यते।
दरिद्राणां तु भूयिष्ठं काष्ठमश्मा हि जीर्यते॥२८॥
अहमेतत् करोमीति मन्यते कालचोदितः।
यद्यदिष्टमसन्तोषाद् दुरात्मा क्षुद्रमाचरेत् ॥२९॥
मृगयाऽक्षास्स्त्रियः पानं प्रसङ्गा निन्दिता बुधैः।
दृश्यन्ते चात्र वहवस् सम्प्रसक्ता बहुश्रुताः॥३०॥
इति कालेन सर्वार्थान् ईप्सितानीप्सितानपि।
स्पृशन्ति सर्वभूतानि निमित्तं नोपलभ्यते ॥३१॥
वायुमाकाशमग्निं च चन्द्रादित्यावहःक्षपे।
ज्योतींषि सरितश्शैलान् कः करोति बिभर्ति च॥३२॥
शीतमुष्णं तथा वर्षं कालेन परिवर्तते।
एवमेव मनुष्याणां सुखदुःखे नरर्षभ॥३३॥
नौषधानि न शस्त्राणि52 न होमा न पुनर्जपाः।
त्रायन्ते मृत्युनोपेतं जरया चापि मानवम्॥३४॥
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ।
समेत्य च व्यपेयातां तद्वद्भूतसमागमः॥३५॥
ये च निष्परुपैर्नृत्तगीतवाद्यैरुपस्थिताः ।
ये चानाथाः परान्नादाः कालस्तेपु समक्रियः॥३६॥
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च।
संसारेषु व्यतीतेषु तानि तेषु तदा तदा॥३७॥
नैवास्य कश्चिद्भवति नायं भवति कस्यचित्।
पथि सङ्गतमेवेदं दारबन्धुसुहृज्जनैः॥३८॥
क्वासौ क्व च गमिष्यामि कोन्वहं किमिहास्थितः।
कस्मात् किमनुशोचेऽहम् इत्येवं स्थापयेन्मनः॥३९॥
अनित्ये प्रियसंवासे संसारे चक्रवद्गते।
नदृष्टपूर्वं प्रत्यक्षं परलोकं विदुर्बुधाः॥४०॥
आगमांस्त्वनतिक्रम्य श्रद्धातव्यं बुभूषता॥४०॥
कुर्वीत पितृदैवत्यं धर्मानपि समाचरेत्।
यजेत विधिवद्विद्वांस् त्रिवर्गं चाप्यनुव्रजेत्॥४१॥
सन्निमज्जेज्जगदिदं गम्भीरे शोकसागरे।
जन्ममृत्युजराग्राहे न कश्चिदवबुध्यते॥४२॥
आयुर्वेदमधीयन्तः केवलं स्वपरिग्रहम्।
दृश्यन्ते वहवो वैद्या व्याधिभिस्समभिप्लुताः॥४३॥
ते पिबन्तः कषायांश्च सर्पिषि विविधानिच।
न मृत्युमतिवर्तन्ते वेलामिव महोदधिः॥४४॥
रसायनविदश्चैव सुप्रयुक्तरसायनाः।
दृश्यन्ते जरया भग्ना नागा नागैरिवोत्तमैः॥४५॥
तथैव तपसोपेतास् स्वाध्यायाध्ययने रताः।
दातारो यज्ञशीलाश्च न तरन्ति जरान्तकौ॥४६॥
अहानि न निवर्तन्ते न मासा न पुनः क्षपाः।
जातानां सर्वभूतानां न पुनर्वै समागमः॥४७॥
सोऽयं विपुलमध्वानं कालेन ध्रुवमध्रुवः।
स्रोतसैव समभ्येति सर्वभूतनिषेवितम्॥४८॥
देहो वा जीविताद्व्येतिदेही वाऽप्येतिति देहतः।
पथि सङ्गतमेवेदं दारैरन्यैश्च बन्धुभिः॥४९॥
नायमत्यन्तसंवासो लभ्यते जातु केनचित्।
अपि स्वेन शरीरेण किमुतान्यत्र केनचित्॥५०॥
क्व नु तेऽद्य पिता राजन्क्वनु तेऽद्य पितामहाः।
न त्वं पश्यसि तानद्यन त्वां पश्यन्ति तेऽपिच॥५१॥
न चापि पुरुषो द्रष्टा स्वर्गस्य नरकस्य वा।
आगमस्तु सतां चक्षुर् नृपते तमिहाचर॥५२॥
चरितव्रतचर्यो हि प्रजायेत यजेत च।
पितृदेवमहर्षीणाम् आनृण्यायानसूयकः॥५३॥
स यज्ञशीलः प्रजने निविष्टः
प्राग्ब्रह्मचारी प्रविभक्तभैक्षः।
आराधयन्स्वर्गमिमं च लोकं
परं च मुक्त्वा हृदयव्यलीकम्॥५४॥
सम्यक स्वधर्मं चरतो नृपस्य
द्रव्याणि चाभ्याहरतो यथावत्।
प्रवृद्धचक्रस्य यशोऽभिवर्धेत्
सर्वेषु लोकेषु चराचरेषु॥५५॥
व्यासः—
इत्येवमाकर्ण्य विदेहराजो
वाक्यं समग्र परिपूर्णहेतु।
अश्मानमामन्त्र्य विशुद्धबुद्धिर्
ययौ गृहं स्वं प्रति शान्तशोक॥५६॥
तथा त्वमप्यद्य विमुच्य शोकम्
उत्तिष्ठ शक्रोपम हर्षमेहि।
क्षात्रेण धर्मेण मही जिता ते
तां भुङ्क्ष्व कुन्तीसुत माऽवमंस्थाः॥५७॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां सहितायां वैयासियां शान्तिपर्वणि षड्विंशोऽध्यायः॥२६॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि षड्विंशोऽध्यायः॥२६॥
[ अस्मिन्नध्याये ५७॥ श्लोकाः ]
______
॥ सप्तविंशोऽध्यायः ॥
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कृष्णेन युधिष्टिरं प्रति सृञ्जयाय नारदोक्तषोडशराजोपाख्यानकथनम् ॥
______
वैशम्पायनः—
अव्याहरति कौन्तेये धर्मपुत्रे युधिष्ठिरे।
गुडाकेशो हृषीकेशम् अभ्यभाषत पाण्डवः॥
अर्जुनः—
ज्ञातिशोकाभिसन्तप्तो धर्मराजः परन्तपः।
एषशोकार्णवे मग्नस् तमाश्वासय माधव॥२॥
सर्वे स्म ते संशयिताः पुनरेव जनार्दन।
अस्य शोकं महाप्राज्ञ प्रणाशयितुमर्हसि॥३॥
वैशम्पायनः—
एवमुक्तस्स गोविन्दो विजयेन महात्मना।
पर्यवर्तत राजानं पुण्डरीकेक्षणोऽच्युतः॥४॥
अनतिक्रमणीयो हि धर्मराजस्य माधवः।
बाल्यात् प्रभृति गोविन्दः प्रीत्या चाभ्यधिकोऽर्जुनात्॥५॥
सम्प्रगृह्य महाबाहुर्भुजं चन्द्ररूपितम्।
शैलस्तम्भोपमं शौरिर् उवाचाभिविनादयन्॥६॥
शुशुभे वदनं तस्य सुदंष्ट्रं चारुलोचनम्।
व्याकोचमिव सुस्पष्टं पद्मं सूर्यविबोधितम्॥७॥
श्रीभगवान्—
मा कृथाः पुरुषव्याघ्रत्वं शोकं गात्रशोषणम्।
न हि ते सुलभा भूयो निहता स्मिन् रणाजिरे॥८॥
स्वप्नलब्धा यथा लाभा वितथाः प्रतिबोधने।
तथा ते क्षत्रिया राजन् ये व्यतीता रणाजिरे॥९॥
सर्वे ह्यभिमुखाश्शूरा निहता रणशोभिनः।
नैषां कश्चित् पृष्ठतो वा पलायन् वाऽपिचाहतः॥१०॥
सर्वे त्यक्त्वाऽऽत्मनः प्राणान् युद्ध्वावीरा महारणे।
शस्त्रपूता दिवं प्राप्ता न ताञ् छोचितुमर्हसि॥११॥
‘क्षत्रधर्मरताश्शूरा53 वेदवेदाङ्गपारगाः।
प्राप्ता वीरगतिं पुण्यां न ताञ् शोचितुमर्हसि॥१२॥
अत्रैवोदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
सृञ्जयं पुत्रशोकार्तं यथाऽयं प्राह नारदः॥१३॥
नारदः—
सुखदुःखैरहं त्वं च प्रजास्सर्वाश्च सृञ्जय।
अवितृप्ता मरिष्यामस् तत्र का परिदेवना॥१४॥
महाभाग्यं पुरा राज्ञां कीर्त्यमानं मया शृणु।
गच्छावधानं नृपते ततो दुःखं प्रहास्यसि॥१५॥
मृतान्महानुभावांस्त्वं श्रुत्वैव पृथिवीपतीन्।
शैत्यमानय सन्तापं श्रृणु विस्तरशश्च मे॥१६॥
आवीक्षितं मरुत्तं च मृतं सृञ्जय शुश्रुम॥१६॥
यस्य सेन्द्रास्सवरुणा बृहस्पतिपुरोगमाः।
देवा विश्वसृजो राजन् यज्ञमीयुर्महात्मनः॥१७॥
यस्स्पर्धामानयच्छक्रंदेवराजं पुरन्दरम्।
शक्रप्रियैषिणं54 विद्वान् प्रत्याचष्ट बृहस्पतिम्55॥१८॥
संवर्तोयाजयामास यं पीडार्थं बृहस्पतेः॥१९॥
यस्मिन् प्रशासति महीं नृपतौ नृपसत्तम्।
अकृष्टपच्या पृथिवी विबभौ सस्यमालिनी॥२०॥
आवीक्षितस्य सत्रे वै विश्वे देवास्सभासदः।
मरुतः परिवेष्टारस् सदस्याश्च दिवौकसः॥२१॥
मरुद्गणा मरुत्तस्य यत् सोममपिबन्नुत।
देवान्मनुष्यान्गन्धर्वान्अत्यरिच्यन्त दक्षिणाः॥२२॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः॥२३॥
अयज्वानमदक्षिण्यम् अयि श्वैत्येत्युदाहरन्॥२३॥
सुहोत्रं चेद्वैतिथिनं मृतं सृञ्जय शुश्रुम्॥२४॥
यस्मै हिरण्यं ववृषे मघवान् परिवत्सरम्॥२४॥
सत्यनामा वसुमती यं प्राप्यासीज्जनाधिपम्।
हिरण्यमवहन्नद्यस् तस्मिञ्जनपदेश्वरे॥२५॥
मत्स्यान् कर्कटकान्, नक्रान् कच्छपाञ् शिंशुमारकान्।
नदीष्ववासृजद्राजन्मघवन्लोकपूजितः॥२६॥
हैरण्यान् पातितान् दृष्ट्वा मत्स्यान् मकरकच्छपान्।
सहस्रशोऽथ शतशस् ततोऽस्मयत वैतिथिः॥२७॥
तद्धिरण्यमपर्यन्तम् आवृतं कुरुजाङ्गले।
ईजानो वितते यज्ञे ब्राह्मणेभ्यस्त्वमन्यत॥२८॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रान् पुण्यतमस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः॥२९॥
शिबिमौशीनरं56 चैव मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
य इमां पृथिवीं सर्वां चर्मवत् समवेष्टत॥३०॥
महता रथघोषेण पृथिवीमनुनादय्न्।
एकच्छत्रां महीं चक्रे जैत्रेणैकरथेन यः॥३१॥
यावदस्य गवाश्वं स्याद् आरण्यैः पशुभिस्सह।
तावतीः प्रददौ गास्स शिबिरौशीनरोऽध्वरे॥३२॥
नोद्यन्तारं धुरं तस्य क्वचिन्मेने प्रजापतिः।
न भूतं न भविष्यं च सर्वराजसु सृञ्जय॥३३॥
अन्यत्रौशीनराच्छैव्याद् राजर्षेरिन्द्रविक्रमान्॥३४॥
अदक्षिणमयज्वानं पुत्रं संस्मृत्य मा शुचः॥३४॥
भरतं चैव दौष्यन्ति मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
शाकुन्तलं महात्मानं भूरिद्रविणचेतसम्57॥३५॥
योऽवध्नात् त्रिशतं58 वाजीन् देवेभ्यो यमुनामनु।
सरस्वतीं त्रिंशतो नु गङ्गामनु चतुर्दश॥३६॥
अश्वमेधसहस्रेण राजसूयशतेन च।
इष्टवान् स महातेजा दौष्ययन्तिर्भरतः पुरा ॥३७॥
भरतस्य तु यत् कर्म सर्वराजसु पार्थिव।
स्वं मर्त्या इव बाहुभ्यां नानुगन्तुमशक्नुवन्॥३८॥
सहस्रं यद्धयान् बध्नात् पुरा विद्यां वितत्य च।
सहस्रं यत्र पद्मानां कण्वाय भरतो ददौ॥३९॥
स59 चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतमस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः॥४०॥
रामं दाशरथिं चापि मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
योऽन्वकम्पत वै नित्यं प्रजाः पुत्रानिवौरसान्॥४१॥
नाधनो यस्य विषये नानर्थः कस्यचिद्भवेत्।
सर्वस्यासीत् पितृसमो रामो राज्यं यदाऽन्वशात्॥४२॥
कालवर्षी च पर्जन्यस् सस्यानि समवर्धयत्।
नित्यं सुवर्षमेवा60सीद् रामे राज्यं प्रशासति॥४३॥
प्राणिनो नाप्सु मज्जन्ति नानर्थे पावकोऽद्हत्।
न व्यालकाद् भयं चासीद् रामे राज्यं प्रशासति॥४४॥
नान्योन्येन61 विवादोऽभूत् स्त्रीणामपि कुतो नृणाम्।
धर्मनित्याः प्रजाश्चासन् रामे राज्यं प्रशासति॥४५॥
सन्तुष्टास्सर्वसिद्धार्था निर्भयास्स्वैरचारिणः।
नरास्सत्यव्रतधरा रामे राज्यं प्रशासति॥४६॥
नित्यपुष्पफलाश्चैव पादपा निरुपद्रवाः।
सर्वा द्रोणदुघा गावो रामे राज्यं प्रशासति॥४७॥
स चतुर्दश वर्षाणि वने प्रोष्यमहामनाः।
दशाश्वमेधानाजह्नेयथाविधि निरर्गलान्॥४८॥
युवा श्यामो लोहिताक्षो मातङ्ग इव यूथपः।
आजानुबाहुस्सुमुखस् सिंहस्कन्धो महाभुजः॥४९॥
दशवर्षसहस्राणि रामो राज्यमकारयत्॥५०॥
स59 चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रान् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः॥५१॥
भगीरथं च राजानं मृतं सृञ्जय शुश्रुम ॥५१॥
यस्येन्द्रो वितते यज्ञे सोमं पीत्वा मदोत्कटः।
असुराणां सहस्राणि बहूनि च सुरेश्वरः॥५२॥
अजयद्वाहुवीर्येण मघवाल्ँलोकपूजितः॥५३॥
यस्सहस्रं सहस्राणां कन्या हेमविभूषिताः।
ईजानो वितते यज्ञे दक्षिणा अत्यकालयत्॥५४॥
सर्वा रथगताः कन्या रथास्सर्वे चतुर्भुजः।
रथे रथे शतं नागाः पद्मिनो हेममालिनः॥५५॥
सहस्रमश्वा एकैकं हस्तिनं पृष्ठतोऽन्वयुः।
गवां सहस्रमश्वेऽश्वे सहस्रं गव्यजाविकम्॥५६॥
उपह्वरेनिवसतो यस्याङ्के निषसाद ह।
गङ्गा भागीरथी तस्मात् उर्वशी चाभवत् पुरा॥५७॥
भूरिदक्षिणमैक्ष्वाकं यजमानं भगीरथम्।
त्रिलोकपथगा गङ्गा दुहितृत्वमुपेयुषी॥५८॥
स59 चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया ।
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः॥५९॥
दिलीपं च महाप्राज्ञ मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
यस्य कर्माणि भूरीणि कथयन्ति मनीषिणः॥६०॥
य इमां वसुसम्पूर्णांवसुधां वसुधाधिपः।
ईजानो वितते यज्ञे ब्राह्मणेभ्यस्त्वमन्यत॥६१॥
यस्य वै यजमानस्य यज्ञे यज्ञे पुरोहितः।
सहस्रं वारणान्हैमान्दक्षिणा अत्यकालयत्॥६२॥
यस्य यज्ञे महानासीद्यूपश्श्रीमान् हिरण्मयः।
तं देवाः कर्म कुर्वाणाश्शक्रज्येष्ठा62 उपासत॥६३॥
चपाले यस्य सौवर्णे तस्मिन यूपे हिरण्मये।
ननृतुर्देवगन्धर्वाष्षट्सहस्राणि सप्तधा॥६४॥
अवादयत्तत्र वीणां मध्ये विश्वावसुस्स्वयम्।
सर्वभूतान्यमन्यन्त मम वागयतीत्ययम्॥६५॥
एतद्राज्ञोदिलीपस्य राजानो नानुचक्रिरे।
यद्योपाहेमसञ्छन्नाः क्षीवाः पथिषु शेरते॥६६॥
राजानं चित्रधन्वानं दिलीपमपराजितम्।
येऽपश्यन् सुमहात्मानं तेऽपि स्वर्गजितो नराः॥६७॥
त्रयश्शब्दा न जीर्यन्ते दिलीपस्य निवेशने।
स्वाध्यायशब्दो ज्याशब्दश् शब्दो वै दयितामिति॥६८॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः॥६९॥
मान्धातारं यौवनाश्वं मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
यं देवावश्विनौ गर्भं पितुः पार्श्वान्निरुहतुः॥७०॥
संवृद्धो युवनाश्वस्य जठरे यो महात्मनः।
पृषदाज्योद्भवश्श्रीमांस् त्रिलोकविजय नृपः॥७१॥
यं दृष्ट्वा पितुरुत्सङ्गे शयानं देवरूपिणम्।
अन्योन्यमब्रुवन् देवाः कमयं63 धास्यतीति वै॥७२॥
मामेवायं धास्यतीति तमिन्द्रो ह्यभ्युपपद्यत।
मांधातेति ततस्तस्य नाम चक्रे शचीपतिः॥७३॥
ततस्तु पयसो धाराः पुष्टिहेतोर्महात्मनः।
तस्यास्ये यौवनाश्वस्य पाणिरिन्द्रस्य चास्रवत्॥७४॥
तं पिबन् पाणिमिन्द्रस्य समामह्ना व्यवर्धत।
स आसीद्वादशसमो द्वादशाहेन वीर्यवान्॥७५॥
तमियं पृथिवी सर्वा एकाह्ना समपद्यत।
धर्मात्मानं महात्मानं शूरमिन्द्रसमं युधि॥७६॥
योऽनरण्यं च नृपतिं मरुत्तमसितं गयम्।
अङ्गं बृहद्रथं चैव मान्धाता समरेऽजयत्॥७७॥
यौवनाश्वो यदा चापं समरे प्रत्यपद्यत।
विष्फारैर्धनुषो देवा द्यौरभेदीति मेनिरे॥७८॥
यतस्सूर्य उदेति स्म यत्र च प्रतितिष्ठति।
सर्वं तद्यौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते॥७९॥
अश्वमेधशतेनेष्वा राजसूयशतेन च।
अददद्रोहितान् मत्स्यान् ब्राह्मणेभ्यो विशां पते॥८०॥
हैरण्यान् योजनोत्सेधान् आयतान् दशयोजनम्।
अतिरिक्तान् द्विजातिभ्यो व्यभजन्नितरे जनाः॥८१॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया64।
पुत्रान् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः॥८२॥
ययातिं नाहुषं चैव मृतं सृञ्जय शुश्रुम ॥८२॥
य इमां पृथिवीं सर्वां विजित्य सहसागराम्।
शम्यापातेनाध्यगच्छद् वेदीभिश्चित्रयन्महीम्॥८३॥
ईजानः क्रतुभिः पुण्यैः पर्यगच्छद्वसुन्धराम्॥८४॥
इष्ट्वाक्रतुसहस्रेण राजसूयशतेन च।
तर्पयामास विप्रेन्द्रांस् त्रिभिः काञ्चनपर्वतैः॥८५॥
व्यूढे दैवासुरे युद्धे हत्वा दैतेयदानवान्।
व्यभजत् पृथिवीं कृत्स्नां ययातिर्नहुपात्मजः॥८६॥
अन्त्येषु पुत्रान्निक्षिप्य यदुद्रुह्युपुरोगमान्।
पूरुंराज्येऽभिषिच्य स्वेसदारःप्राविशद्वनम्॥८७॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः॥८८॥
अम्बरीषंच नाभागं मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
यं प्रजा वव्रिरे पुण्यं गोप्तारं नृपसत्तमम्॥८९॥
यस्सहस्रं सहस्राणां राज्ञामयुतयाजिनाम्।
ईजानो वितते यज्ञे ब्राह्मणेभ्यस्त्वमन्यत॥९०॥
नैतत्तु पूर्वजाश्चक्रुर् न करिष्यन्ति चापरे।
इत्यम्बरीषेनाभागे अन्वमोदन्त दक्षिणाः॥९१॥
शतं राजसहस्राणि शतं राजशतानि च ।
सर्वेऽश्वमेधैरीजानास् तेऽन्वयु65र्दक्षिणायनम् ॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया66।
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः॥९३॥
शशबिन्दुं चैत्ररथं मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
यस्य भार्यासहस्राणां शतमासीन्महात्मनः॥९४॥
सहस्रं तु सहस्राणां यस्यासञ् शाशबिन्दवाः।
हिरण्यकवचास्सर्वे सर्वे चोत्तमधन्विनः॥९५॥
शतं कन्या राजपुत्रम् एकैकं पृष्ठतोऽन्वयुः।
कन्यां कन्यां शतं नागा नागं नागं शतं रथाः॥९६॥
रथं रथं शतं चाश्वा देशजा हेममालिनः।
अश्वमश्वं शतं गावो गां गां तद्वद्जाविकम्॥९७॥
एतद्धनमपर्यन्तम् अश्वमेधे महामखे।
शशबिन्दुर्महाराज ब्राह्मणेभ्यो ह्यमंसत्॥९८॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्वया।
पुत्रान् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः॥९९॥
गयं चाधूर्तरजसं मृतं सृञ्जय शु॒श्रुम।
यस्स वर्षशतं राजा हुतशिष्टाशनोऽभवत्॥१००॥
यस्मै वह्निर्वरान् प्रादात् ततो वव्रे वरान्गयः॥१००॥
गयः-
ददतो मे क्षयो मा भूद् धर्मे श्रद्धा च वर्धताम् ।
मनो मे रमतां सत्ये त्वत्प्रसादाद्भुताशन॥१०१॥
नारदः—
लेभे च कामान् सर्वांस्तान् पावकादिति नश्श्रुतम्॥१०२॥
दर्शेन पूर्णमासेन चातुर्मास्यैः पुनः पुनः।
अयजत् स महातेजास् सहस्रं परिवत्सरान्॥१०३॥
शतं गवां सहस्राणि शतमश्वशतानि च।
उत्थायोत्थाय वै प्रादात्सहस्रं परिवत्सरान्॥१०४॥
तर्पयामास सोमेन देवान्वित्तैर्द्विजानपि।
पितॄन् स्वधाभिः कामैश्च स्त्रियस्स्वाः पुरुषर्षभ॥१०५॥
सौवर्णां पृथिवीं कृत्वा दशव्यामां द्विरायताम्।
दक्षिणामददद्राजा वाजिमेधेमहामखे॥१०६॥
यावत्यस्सिकता राजन्गङ्गायां भरतर्षभ।
तावतीरेव गाः प्रादाद्आधूर्तरजसो गयः॥१०७॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।67
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः॥१०८॥
रन्तिदेवं च साङ्कृत्यं मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
सम्यगाराध्य यश्शक्रं वराल्ँलेभे महायशाः॥१०९॥
रन्तिदेवः—
अन्नं च नो बहु भवेद् अतिथींश्च लभेमहि।
श्रद्धा च नो मा व्यपगान्मा च याचिष्म कञ्चन॥११०॥
नारदः—
उपातिष्ठन्त पशवस् स्वयं तं संशितव्रतम्।
ग्राम्यारण्या महात्मानं रन्तिदेवं यशस्विनम्॥१११॥
महानदी चर्मराशेर् उत्क्लेदात्सुस्रुवे यतः।
ततश्चर्मण्वतीत्येवं विख्याता सा महानदी॥११२॥
ब्राह्मणेभ्योऽददान्निष्कान् सदसि प्रयतो नृपः।
तुभ्यं तुभ्यं निष्कमिति यदा क्रोशन्ति वै द्विजाः॥११३॥
सहस्रं तुभ्यमित्युक्त्वा ब्राह्मणान्प्रतिपद्य ते॥११३॥
अन्वाहार्योपकरणं द्रव्योपकरणं च यत्।
घटाः पात्र्यः कटाहानि स्थाल्यश्च पिठराणि च॥११४॥
नासीत् किञ्चिदसौवर्णं रन्तिदेवस्य धीमतः॥११५॥
साङ्कृते रन्तिदेवस्य यां रात्रिमवसन्गृहे।
आलभ्यन्त तदा गावस् सहस्राण्येकविंशतिः॥११६॥
तत्र स्म सूदाः कोशन्ति सुमृष्टमणिकुण्डलाः।
सूपं भूयिष्टमश्नीतनाद्यमांसं यथापुरम्॥११७॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।68
पुत्रान् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः॥११८॥
सगरं च महात्मानं मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
ऐक्ष्वाकं पुरुषव्याघ्रम् अतिमानुषविग्रहम्॥११९॥
पष्टिः पुत्रसहस्राणि यं यान्तं पर्यवारयन्।
नक्षत्रराजं वर्षान्ते व्यभ्रं ज्योतिर्गणा इव॥१२०॥
एकच्छत्रामही यस्य प्रतापाद69भवत् पुरा।
यो70ऽश्वमेधसहस्रेण तर्पयामास वै सुरान्॥१२१॥
यः प्रादात्कनकस्तम्भं प्रासादंसर्वकाञ्चनम्।
पूर्णं पद्मदलाकीर्णं स्त्रीणां शयनसङ्कुलम्॥१२२॥
द्विजातिभ्योऽभिरूपेभ्यः कामांश्च विविधान् बहून्।
यस्यादेशेन यद्वित्तं व्यभजन्त द्विजातयः॥१२३॥
खानयामास यः क्रोधात् पृथिवीं सागराङ्किताम्।
यस्य नाम्ना समुद्रश्च सागरत्वमुपागतः॥१२४॥
सचेन्ममार सृञ्जयचतुर्भद्रतरस्त्वया।71
पुत्रात् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः॥१२५॥
राजानं च पृथुं वैन्यं मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
यमभ्यषिश्चन् सम्भूय महारण्ये महर्षयः॥१२६॥
प्रथयिष्यति वै लोकान्पृथुरित्येव शब्दितः।
क्षताच्च नस्त्रायतीति72ततो हि क्षत्रियस्स्मृतः॥१२७॥
पृथुं वैन्यं प्रजा दृष्ट्वा रक्षस्वेति यदब्रुवन्।
ततो राजेति नामास्यअनुरागादजायत॥१२८॥
अकृष्टपच्या पृथिवी पुटके पुटके मधु।
सर्वा द्रोणदुघा गावो वैन्यस्यासन्प्रशासतः॥१२९॥
अरोगास्सर्वसिद्धार्था मनुष्या अकुतोभयाः।
तथा निकाममवसन्क्षेत्रेषु च गृहेषु च॥१३०॥
आपस्तस्तम्भिरे चास्य समुद्रमभियास्यतः।
शैलाश्चापाद्व्यदीर्यन्तध्वजभङ्गश्च नाभवत्॥१३१॥
हैरण्यांस्त्रिनरोत्सेधान्पर्वतानेकविंशतीन्।
ब्राह्मणेभ्यो ददौ राजा योऽश्वमेधे महामखे॥१३२॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रान् पुण्यतरश्चैव मा पुत्रमनुतप्यथाः॥१३३॥
किं वै राजन् ध्यायसे सृञ्जय त्वं
न वै तूष्णीं वाचमिमां शृणोषि।
न चेन्मोघं विप्रलप्तं73 मयेदं
पथ्यं मुमूर्षोरिवसम्यगुक्तम्॥१३४॥
सृञ्जयः —
शृणोमि ते नारद वाचमेतां
विचित्रार्थांस्रजमिव पुण्यगन्धाम्।
राजर्षीणां पुण्यकृतां महात्मनां
कीर्त्या युक्तानां शोकनिर्णाशनार्थाम्॥१३५॥
न चेन्मोघं विप्रलप्तं महर्षे
दृष्ट्वैवत्वां नारद वीतशोकः।
शुश्रूषेते वचनं ब्रह्मवादि्न्
न ते तृप्याम्यमृतस्येव पानात्॥१३६॥
अमोघदर्शिन् मम चेत्प्रसादं
सुताय दग्धस्य विभो प्रकुर्याः।
सुतस्य सञ्जीवनमद्य मे स्यात्
तव प्रसादात् सुतसङ्गमाप्नुयाम्॥१३७॥
नारदः—
यस्ते पुत्रश्शयितोऽयं विशोकस्
स्वर्णष्टीवीयमदात्पर्वतस्ते।
पुनस्तं ते पुत्रमहंं ददामि
हिरण्यनाभं वर्षसहस्रिणं च॥१३८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥
॥८३॥ अभिषेचनिकपर्वणि सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥
[ अस्मिन्नध्याये १३८ श्लोकाः ]
॥ अष्टाविंशोऽध्यायः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1702152099Screenshot2023-12-10013114.png"/>
**कृष्णेन युधिष्ठिरं प्रति नारदपर्वतोपाख्यानकथनम्॥ **
______
युधिष्टिरः—
स कथं काञ्चनष्ठीवी सृञ्जयस्य सुतोऽभवत्।
पर्वतेन किमर्थं च दत्तकेन ममार च॥१॥
यदा वर्षसहस्रायुस् तदा भवति मानवः।
कथमप्राप्तकौमारस् सृञ्जयस्य सुतो मृतः॥२॥
उताहो नाममात्रं च सुवर्णष्ठीविनोऽभवत्।
तथ्यं वा काञ्चनष्ठीवीत्येतदिच्छामि वेदितुम्॥३॥
श्रीभगवान्—
अत्र ते कथयिष्यामि यथावृत्तं नरेश्वर।
नारदः पर्वतश्चैव द्वावृषीलोकविश्रुतौ॥४॥
मातुलो भागिनेयश्च देवलोकादिहागतौ।
विहर्तुकामौ सम्प्रीत्या मानुषेषु पुनः प्रभू॥५॥
हविः पवित्रभोज्येन देवभोग्येन चैव हि।
नारदो मातुलस्तत्र भागिनेयस्तु पर्वतः॥६॥
तावुभौ तपसोपेताववनीतलचारिणौ।
भुञ्जानौ मानुषान्भोगान्यथावत् पर्यधावताम्॥७॥
प्रीतिमन्तौ मुद्रा युक्तौ समयं चैव चक्रतुः॥७॥
यो भवेद्धृदिसङ्कल्पश् शुभो वा यदि वाऽशुभः।
अन्योन्यस्य स आख्येयो मृषाशापोऽन्यथा भवेत्॥८॥
तौ तथेति प्रतिज्ञाय देवर्षी लोकपूजितौ।
सृञ्जयं श्चैत्य74मभ्येत्य राजानमिदमूचतुः॥९॥
नारदपर्वतौ—
आवां भवति वत्स्यावः कञ्चित् कालं हिताय ते।
यथावत् पृथिवीपाल आवयोः प्रगुणीभव॥१०॥
श्रीभगवान् —
तथेति कृत्वा राजा तौ सत्कृत्योपचचार ह॥११॥
ततः कदाचित्तौ राजा महात्मानौ तथा गतौ।
अब्रवीत् परमप्रीतस् सुतेयं देवरूपिणी॥१२॥
एकैव मम कन्यैषायुवां परिचरिष्यति।
दर्शनीयाऽनवद्याङ्गी शीलवृत्तसमन्विता॥१३॥
सुकुमारी कुमारी च पद्मकिञ्जल्कसुप्रभा75 ।
परं सौम्येयमित्युक्त्वा ताभ्यां राजा शशास ताम् ॥ १४॥
सृञ्जयः—
कन्ये विप्रावुपचर देववत् पितृवच्च ह॥१४॥
श्रीभगवान्—
सा तु कन्या तथेत्युक्त्वा पितरं धर्मचारिणी।
यथानिदेशं राज्ञस्तौ सत्कृत्योपचचार ह॥१५॥
तस्यास्तेनोपचारेण रूपेणाप्रतिमेन च।
नारदं76 हृच्छयस्तूर्णं सहसैवान्वपद्यत॥१६॥
ववृधे हि सदा तस्य हृदि कामो महात्मनः।
यथा शुक्लस्य पक्षस्य प्रवृत्तावुडुराट् छनैः॥१७॥
न च तं भागिनेयाय पर्वताय महात्मने।
शशंस मन्मथं तीव्रं ब्रीडमानस्स धर्मवित्॥१८॥
तपसा चेङ्गितैश्चैव पर्वतोऽथ बुबोधह।
कामार्तं नारदं क्रुद्धश् शशापैनमथो भृशम्॥१९॥
पर्वतः —
कृत्वा समयमव्यग्रोभवान् वै सहितो मया।
यो भवेद्धृदि सङ्कल्पश् शुभो वा यदि वाऽशुभः॥२०॥
अन्योन्यस्य तदाख्येयम् इति तद्वै मृषाकृतम्।
भवतो वचनं ब्रह्मंस् तस्मादेषव्रजाम्यहम्॥२१॥
न हि कामं प्रवर्तन्तं भवानाचष्टमे पुरा।
सुकुमार्या कुमार्या ते तस्मान्नैषक्षमाम्यहम्॥२२॥
ब्रह्मचारी गुरुर्यस्मात् तपस्वी ब्राह्मणश्च सन्।
अकार्पीस्समयभ्रंशम् आवाभ्यां यः कृतो मिथः॥२३॥
तस्माच्छप्स्यामि सङ्क्रुद्धो भवन्तं तं निबोध मे।
सुकुमारी तु ते भार्या भवितेयं न संशयः॥२४॥
वानरत्वं च ते कन्याविवाहात्प्रभृति प्रभो।
द्रक्ष्यन्तेवानराश्चान्ये77 स्वरूपेण विनाकृतम्॥२५॥
श्रीभगवान्—
स तद्वाक्यं तु विज्ञाय पर्वतं नारदस्तदा।
शशाप तमभिक्रुद्धो भागिनेयं स मातुलः॥२६॥
नारदः—
तपसा ब्रह्मचर्येण सत्येन च दमेन च।
युक्तोऽपि धर्मनित्यश्च स्वर्गे नो वासमाप्स्यसि॥२७॥
श्रीभगवान्—
तौ तु शप्तौ भृशं क्रुद्धौ परस्परममर्षणौ।
प्रतिजग्मतुरन्योन्यं78 क्रुद्धाविव गजोत्तमौ॥२८॥
पर्वतः पृथिवीं कृत्स्त्रां विचचार महामुनिः॥
पूज्यमानो यथान्यायं तेजसा स्वेन भारत॥२९॥
अथ तामलभत् कन्यां नारदस्सृञ्जयात्मजाम्।ध
धर्मेणविप्रप्रवरस् सुकुमारीमनिन्दिताम्॥३०॥
सा तु कन्या यथाशापं नारदं तं ददर्श ह।
पाणिग्रहणमन्त्राणां प्रयोगादेव वानरम् ॥३१॥
सुकुमारी च देवर्षिं वानरप्रतिमाननम्।
नैवावमन्यत तदा प्रीतिमत्येव चाभवत्॥३२॥
उपतस्थे च भर्तारं न चान्यं मनसाऽगमत्।
देवं मुनिं वा यक्षं वा पतित्वे पतिवत्सला॥३३॥
ततः कदाचिद्भगवान् पर्वतोऽनुचचार ह॥३४॥
वनं79 विरहितं किञ्चित् तत्रापश्यत् स नारदम्।
ततोऽभिवाद्य प्रोवाच पर्वतो नारदं तदा॥३५॥
पर्वतः—
भवान् प्रसादं कुरुतात् स्वर्गवासाय मे प्रभो॥३५॥
श्रीभगवान्—
तमुवाच ततो दृष्ट्वा नारदः पर्वतं तदा।
कृताञ्जलिमुपासीनं दीनं दीनतरस्वरम्॥३६॥
नारदः—
त्वयाऽहं प्रथमं शप्तो वानरस्त्वं भविष्यसि।
इत्युक्तेन मया पश्चाच् छप्तस्त्वमपि मत्सरान् ॥३७॥
अद्यप्रभृति नो वासं स्वर्गे नावाप्स्यसीति ह।
तव नैतद्धि सदृशं पुत्रस्थानो हि मे भवान्॥३८॥
श्रीभगवान्—
निवर्तयेतां तं शापम् अन्योन्यस्य तदा मुनी॥३९॥
श्रीसमृद्धं तदा दृष्ट्वा नारदं देवरूपिणम्।
सुकुमारी न सम्प्राप परपुंसि विशङ्कया॥४०॥
तां पर्वतस्ततो दृष्ट्वा प्रद्रवन्तीमनिन्दिताम्।
अब्रवीत् तव भर्तेष नात्र कार्या विचारणा॥४१॥
ऋषिः परमधर्मज्ञो नारदो भगवान् प्रभुः।
तवैवाभेद्यहृदयो मा भूत्ते संशयोऽत्र वै॥४२॥
साऽनुनीता बहुविधं पर्वतेन महात्मना।
शापदोषं च तं भर्तुश्श्रुत्वा सा प्रकृतिं गता॥४३॥
पर्वतोऽथ ययौस्वर्गं नारदोऽप्यगमद्गृहन्॥४३॥
प्रत्यक्षकर्म सर्वस्य नारदोऽयं महानृषिः।
एषवक्ष्यति ते पृष्टो यथावृत्तं नरेश्वर॥४४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि अष्टाविंशोऽध्यायः॥२८॥
॥८३॥ अभिषेचनिकपर्वणि अष्टाविंशोऽध्यायः॥२८॥
[अस्मिनध्याये ४४॥ श्लोकाः]
॥ एकोनत्रिंशोऽध्यायः॥
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नारदेन युधिष्टिरं प्रति सुवर्णष्टीविचरितवर्णनम्॥
______
वैशम्पायनः—
ततो धर्मसुतो राजा नारदं प्रत्यभाषत॥
युधिष्ठिरः—
भगवञ् छ्रोतुमिच्छामि सुवर्णष्ठीविसम्भवम्॥१॥
वैशम्पायनः—
एवमुक्तस्तु देवर्षिर् धर्मराजेन नारदः।
आचचक्षे यथावृत्तं सुवर्णष्टीविनं प्रति॥२॥
नारदः—
एवमेतन्महाराज यथाऽयं केशवोऽब्रवीत्।
तस्याः कथाया यच्छेषं तत्ते वक्ष्यामि पृच्छतः॥३॥
अहं च पर्वतश्चैव स्वस्रीयोमे महामुनिः।
वस्तुकामावभिगतौ सृञ्जयं जयतां वरम्॥४॥
तत्र सम्पूजितौ तेन विधिदृष्टेन कर्मणा।
सर्वकामैस्सुविहितौ निवसावोऽस्य वेश्मनि॥५॥
व्यतिक्रान्तासु वर्षासु समये गमनस्य च।
पर्वतो मामुवाचेदं काले वचनमर्थवत्॥६॥
पर्वतः—
आवामस्य नरेन्द्रस्य गृहे परमपूजितौ।
उपितौ समयं ब्रह्म॑श् चिन्त्यतामस्य साम्प्रतम्॥७॥
नारदः —
ततोऽहमब्रुवंराजन् पर्वतं शुभदर्शनम्॥७॥
सर्वमेतत्त्वयि विभो भागिनेयोपपद्यते।
वरेण च्छन्द्यतां राजा लभतां यद्यदिच्छति॥८॥
आवयोस्तपसा सिद्धिं प्राप्नोतु यदि मन्यसे॥९॥
तत आहूय राजानं सृञ्जयं जयतां वरम्।
पर्वतोऽनुमतं वाक्यम् उवाच कुरुनन्दन॥१०॥
पर्वतः—
प्रीतौ स्वो नृप सत्कारैर् भवता भूप सम्भृतैः।
आवाभ्यामभ्यनुज्ञातो वरं नृवर चिन्तय॥११॥
देवानामविहिंसायां यद् भवेन्मानुषेक्षमम्।
तद्गृहाण महाराज पूजार्हो नौ मतो भवान्॥१२॥
सृञ्जयः—
प्रीतौ भवन्तौ यदि हि कृतमेतावता मम।
एष एव परो लाभो निर्वृत्तो मे महाफलः॥१३॥
नारदः—
तमेवंवादिनंभूयः पर्वतः प्रत्यभाषत॥१३॥
पर्वतः—
शृणु राजन् सुसङ्कल्पं यत्ते हृदि चिरं स्थितम्॥१४॥
अभीप्ससि सुतं वीरं वीर्यवन्तं दृढव्रतम्।
आयुष्मन्तं महाभागं देवराजसमद्युतिम्॥१५॥
भविष्यत्येव ते कामो न त्वायुष्मान् भविष्यति।
देव राजाभिभूत्यर्थं80 सङ्कल्पो ह्येष ते हृदि॥१६॥
सुवर्णष्टीवनाच्चैव स्वर्णष्ठीवी भविष्यति।
रक्ष्यश्च देवराजाद्धि देवराजसमद्युतिः॥१७॥
नारदः—
तच्छ्रुत्वा सृञ्जयो वाक्यं पर्वतस्य महात्मनः।
प्रसादयामास तदा नैतदेवं भवेदिति॥१८॥
सृजयः —
आयुष्मान्मे भवेत् पुत्रो भवतोस्तपसा मुने॥१८॥
नारदः—
न च तं पर्वतः किञ्चिद् उवाचेन्द्रव्यपेक्षया॥१९॥
तमहं नृपतिं दीनम् अब्रवंपुनरेव च।
स्मर्तव्यो हि महाराज दर्शयिष्यामि ते स्मृतः॥२०॥
अहं ते दयितं पुत्रं प्रेतराजवशं गतम्।
पुनर्दास्यामि तद्रूपं मा शुचः पृथिवीपते॥२१॥
एवमुक्त्वा तु नृपतिंप्रयातौ स्वो यथेप्सितम्॥२१॥
सृञ्जयस्य81 च राजर्षेःकस्मिंश्चित् कालपर्यये।
जज्ञेपुत्रो महावीर्यस् तेजसा प्रज्वलन्निव॥२२॥
ववृधे च यथा काले सरसीव महोत्पलम्।
बभूव काञ्चनष्ठीवीयथार्थं नाम तस्य तत्॥२३॥
तदद्भुततमं लोके प्रथितं कुरुपुङ्गव।
बुबुधे तस्य देवेन्द्रो वरदानं मनीषिणोः॥२४॥
ततस्त्वभिभवाद्भीतोबृहस्पतिमते स्थितः।
कुमारस्यान्तरप्रेक्षी नित्यमेवाभ्यवर्तत82॥२५॥
स वज्रं चोदयामास दिव्यास्त्रं मूर्तिमत् स्थितम्।
व्याघ्रो भूत्वा जहीमं त्वं राजपुत्रमिति प्रभो॥२६॥
विवृद्धः किल वीर्येण मामेषोऽभिभविष्यति।
सृञ्जयस्य सुतो वज्र यथेमं पर्वतो ददौ॥२७॥
एवमुक्तस्तु शक्रेण वज्रः परपुरञ्जयः।
कुमारस्यान्तरप्रेक्षी नित्यमेवाभ्यवर्तत॥२८॥
सृञ्जयोऽपि सुतं प्राप्य देवराजसमद्युतिम्।
हृष्टस्सान्तःपुरो राजा वननित्योऽभवत्तदा॥२९॥
ततो भागीरथीतीरे कदाचिद्वननिर्झरे।
घात्रीद्वितीयो बालस्स क्रीडार्थं पर्यधावत॥३०॥
पञ्चवर्षकदेशीयो बालो नागेन्द्रविक्रमः।
सहसोत्पतितं व्याघ्रम् आससाद महाबलः॥३१॥
स बालस्तेननिष्पिष्टो वेपमानो नृपात्मजः।
व्यसुः पपात मेदिन्यां ततो धात्री विचुक्रुशे॥३२॥
हत्वा च राजपुत्रं स तत्रैवान्तरधीयत।
शार्दूलो देवराजस्य माययाऽन्तर्हितस्तदा॥३३॥
धात्र्यास्तु निनदं श्रुत्वा रुदन्त्याः परमार्तवत्।
अभ्यधावत तं देशं स्वयमेव महीपतिः॥३४॥
स ददर्श शयानं तं गतासुं पीतशोणितम्।
कुमारं विगतानन्दं निशाकरमिव च्युतम्॥३५॥
स तमुत्सङ्गमारोप्य परिपीडितवक्षसम्।
पुत्रं रुधिरसंसिक्तं पर्यदेवयदातुरः॥३६॥
ततस्ता मातरस्तस्य रुदन्त्यश्शोककर्शिताः।
अभ्यधावन्त तं देशं यत्र राजा स सृञ्जयः॥३७॥
ततस्स राजा सस्मार मामन्तर्गतमानसः।
तस्याहं चिन्तितं ज्ञात्वा गतवांस्तस्य दर्शनम्॥३८॥
समये तानि वाक्यानि श्रावितश्शोकलालसः।
यानि ते यदुवीरेण श्रावितानि महीपते॥३९॥
सञ्जीवितश्चापि मया वासवानुमते पुनः।
भवितव्यं तथा तद्वन्न तच्छक्यमतोऽन्यथा।४०॥
तत ऊर्ध्वं कुमारश्च स्वर्णष्टीवी महायशाः।
चित्तं प्रसादयामास पितुर्मातुश्च वीर्यवान्॥४१॥
कारयामास राज्यं च पितरि स्वर्गते भुवि।
वर्षाणामेकशतवत् सहस्रं भीमविक्रमः॥४२॥
तत इष्ट्वामहायज्ञैर् बहुभिर्भूरिदक्षिणैः।
तर्पयामास देवांश्च पितॄंश्चैव महायुतिः॥४३॥
उत्पाद्य च बहून्पुत्रान्कुलसन्तानकारिणः।
कालेन महता राजन् कालधर्ममुपेयिवान्॥४४॥
एवं राजेन्द्र सञ्जातं शोकमेव निवर्तय।
यथा त्वां केशवः प्राह व्यासश्च सुमहातपाः॥४५॥
पितृपैतामहं राज्यम् आस्थाय धुरमुद्वह।
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकोनत्रिंशोऽध्यायः॥२९॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि एकोनत्रिंशोऽध्यायः॥२९॥
[ अस्मिन्नध्याये ४६॥ श्लोकाः ]
॥ त्रिंशोऽध्यायः॥
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व्यासयुधिष्ठिरसंवादः॥१॥ युद्धे राज्ञां हननेन पापशङ्कया विषीदन्तं युधिष्ठिरं प्रति व्यासेन तत्त्वकथनपूर्वकं क्षत्रधर्मविधानम्॥२॥
वैशम्पायनः—
तूष्णीम्भूतं तु राजानं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
तपस्वी सर्वतत्त्वज्ञः कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्॥१॥
व्यासः—
प्रजानां पालनं धर्मो राज्ञां राजीवलोचन।
धर्मः प्रमाणं लोकस्य नित्यं धर्मोऽनुवर्त्यताम्॥२॥
अनुतिष्ठस्व तद्राजन् पितृपैतामहं पदम्।
ब्राह्मणेषु तु यो धर्मस् स नित्यो वेदनिश्चितः॥३॥
तत्प्रमाणं प्रमाणानां शाश्वतं भरतर्षभ।
तस्य धर्मस्य कृत्स्नस्यक्षत्रियः परिरक्षिता॥४॥
तथा यः प्रतिहन्त्यस्य शासनं विषये नरः।
स बाहुभ्यां विनिग्राह्यो लोकयात्राविघातकः॥५॥
प्रमाणमप्रमाणं यः कुर्यान्मोहवशं गतः।
भृत्यो वाऽप्यथ वा पुत्रस् तपस्वी वाऽपि कश्चन॥६॥
पापान्सर्वैरुपायैस्तान्नियच्छेत् पातयेत वा।
अतोऽन्यथा वर्तमानो राजा प्राप्नोति किल्बिषम्॥७॥
धर्मं विनश्यमानं हि यो न रक्षेत् स धर्महा।
ते त्वया धर्महर्तारो निहतास्सपदानुगाः॥८॥
स्वधर्मे वर्तमानस्त्वं किं नु शोचसि पाण्डव।
राजा निहन्याद्द्द्याच्च प्रजा रक्षेच्च धर्मतः॥९॥
युधिष्ठिरः—
न तेऽतिशङ्के वचनं यद्ब्रवीषि तपोधन।
अपरोक्षो हि ते धर्मस् सर्वधर्मभृतां वर॥१०॥
मया त्ववध्या बहवो घातिता राज्यकारणात्।
तानि कर्माणि मामद्य पचन्ति च दहन्ति च॥११॥
व्यासः—
ईश्वरो वा भवेत् कर्ता पुरुषो वाऽपि भारत83।
नापरो वर्तते लोके कर्मजं वा फलं नृषु॥१२॥
ईश्वरेण नियुक्ता हि साध्वसाधु च भारत।
कुर्वन्ति पुरुषाः कर्म फलमीश्वरगामि तत्॥१३॥
यथा हि पुरुषश्छिन्द्याद् वृक्षं परशुना वने।
छेत्तुरेव भवेत् पापं परशोर्न कथञ्चन॥१४॥
अथवा तदुपादानात् प्राप्नुयात् कर्मणः फलम्।
शास्त्रकर्मकृतं पापं पुरुषे तन्न विद्यते॥१५॥
न चैतदिष्टं कौन्तेय यदन्येन कृतं फलम्।
प्राप्नुयादिति तस्माच्च ईश्वरे तन्निवेशय॥१६॥
यथाऽत्र पुरुषः कर्ता कर्मणोश्शुभपापयोः।
नापरो विद्यते तस्माद् एवमप्यशुभं कुतः॥१७॥
नेह कश्चित् क्वचिद्राजन् दिष्टात् प्रतिनिवर्तते।
दण्डशस्त्रकृतं पापं पुरुषे तन्न विद्यते॥१८॥
यदि वा मन्यसे राजन् हरौ सर्वं प्रतिष्ठितम्।
एवमप्यशुभं कर्म न भूतं न भविष्यति॥१९॥
अथोपपत्तिर्लोकस्य कर्तव्या शुभपापयोः।
अभिपन्नतमं लोके राज्यमुद्यतदण्डनम्॥२०॥
तथाऽपि लोके कर्माणि समावर्तन्त भारत।
शुभाशुभफलं चेमे प्राप्नुवन्तीति मे मतम्॥२१॥
एवं पश्य शुभादेशं कर्मणस्तत्फलं ध्रुवम्।
त्यज तद् राजशार्दूल मैवं शोके मनः कृथाः॥२२॥
स्वधर्मे वर्तमानस्य सापवादेऽपि भारत।
एवमात्मपरित्यागस्84 तव राजन्न शोभनम्॥२३॥
विहितानीह कौन्तेय प्रायश्चित्तानि कर्मणाम्।
शरीरवांस्तानि कुर्याद्अशरीरः पराभवेत्॥२४॥
तद्राजञ्जीवमानस्त्वं प्रायश्चित्तं करिष्यसि।
प्रायश्चित्तमकृत्वा वै प्रेत्य तप्तासि भारत॥२५॥
युधिष्टिरः—
हताः पुत्राश्च पौत्राश्च भ्रातरः पितरस्तथा।
श्वशुरा गुरवश्चैव मातुलास्सपितामहाः॥२६॥
क्षत्रियाश्च महाभागास् सम्बन्धिसुहृदस्तथा।
वयस्या भागिनेयाश्च ज्ञातयश्च पितामह॥२७॥
बहवश्च मनुष्येन्द्रा नानादेशसमागताः।
घातिता राज्यलुब्धेन मयोग्रेण पितामह॥२८॥
तांस्तादृशानहं हत्वा धर्मनित्यान् महीक्षितः।
असकृत् सोमपान्वीरान् कि प्राप्स्यामि तपोधन॥२९॥
दह्याम्यनिशमद्याहं चिन्तयानः पुनः पुनः।
हीनां पार्थिवसिंहैस्तैश् श्रीमद्भिः पृथिवीमिमाम्॥३०॥
दृष्ट्वा ज्ञातिवधं घोरं हतांश्च शतशः परान्।
कोटिशश्च नरानद्य परितप्स्ये पितामह॥३१॥
का नु तासां वरस्त्रीणाम् अवस्था हि भविष्यति।
विहीनानां तु तनयैः पतिभिर्भ्रातृभिस्तथा॥३२॥
अस्मानन्तकरान् घोरान् पाण्डवान् वृष्णिसंहितान्।
आक्रोशन्त्यः कृशा दीना निपतन्त्यश्च भूतले॥३३॥
अपश्यन्त्यः पितॄन् भ्रातॄन्पतीन् पुत्रांश्च योषितः।
त्यक्त्वा प्राणान् प्रियान् सर्वान् गमिष्यन्ति यमक्षयम्॥३४॥
वत्सलत्वाद्द्विजश्रेष्ठ तत्र मे नास्ति संशयः।
व्यक्तं सौक्ष्म्याच्च धर्मस्य प्राप्स्यामस्त्रीवधं वयम्॥३५॥
ते वयं सुहृदो हत्वा कृत्वा पापमनन्तकम्।
नरके प्रपतिष्यामो ह्यधश्शिरस एव हि॥३६॥
शरीराणि त्यजिष्यामस् तपसोग्रेण सत्तम।
आश्रमाणां विशेषांस्त्वं ममाचक्ष्व पितामह॥३७॥
वैशम्पायनः—
युधिष्ठिरस्य तद्वाक्यं श्रुत्वा द्वैपायनस्तदा।
परीक्ष्य निपुणं बुद्ध्या ऋषिःप्रोवाच पाण्डवम्॥३८॥
व्यासः—
मा विषादं कृथा राजन्क्षत्रधर्ममनुस्मरन्।
स्वधर्मेण हता ह्येतेक्षत्रियाः क्षत्रियर्षभ॥३९॥
काङ्क्षमाणाश्श्रियं कृत्स्नांपृथिव्यां च महद्यशः।
कृतान्तविधिसंयुक्ताः कालेन मरणं गताः॥४०॥
न त्वं हन्ता न भीमोऽयं नार्जुनो न यमावपि।
कालः पर्यायधर्मेण प्राणानादत्त देहिनाम्॥४१॥
न यस्य मातापितरौ नानुग्राह्यो हि85 कश्चन।
कर्मसाक्षी प्रजानां यस् तेन कालेन संहृताः॥५०॥
हेतुमात्रमिदं तस्य कालस्य मनुजर्षभ।
युद्ध्यन्ति भूतैर्भूतानि तदस्य परमेश्वरम्॥५१॥
कर्म मूर्त्यात्मकं विद्धि साक्षिणं शुभपापयोः।
सुखदुःखफलोदर्कः काले काले फलप्रदः॥५२॥
तेषामपि महाबाहो कर्माणि परिचिन्तय।
विनाशहेतुकानि त्वं यैस्ते कालवशं गताः॥५३॥
आत्मनश्च विजानीहि नियमव्रतशीलताम्।
यदा त्वमीदृशं कर्म विधिनाऽऽक्रम्य कारितः॥५४॥
त्वष्ट्रेव विहितं यन्त्रं यथा चेष्टयितुर्वशे।
कर्मणा कालयुक्तेन तथेदंभ्राम्यते जगत्॥५५॥
पुरुषस्य हि दृष्ट्वेमम् उत्पत्तिमनिमित्ततः।
यदृच्छया विनाशं च शोकहर्षावनर्थकौ॥५६॥
व्यलीकं चापि यत्तत्र चित्तवैतंसिकं तव।
तदर्थमिष्यते राजन् प्रायश्चित्तं तदाचर॥५७॥
इदं तु श्रूयते पार्थ युद्धे दैवासुरे पुरा।
असुरा भ्रातरो ज्येष्ठा यवीयांसस्तथा सुराः॥५०॥
तेषामपि श्रीनिमित्तं महानासीत् समुच्छ्रयः।
युद्धं वर्षसहस्राणि द्वात्रिंशदभवत् किल॥५१॥
एकार्णवां महीं कृत्वा रुधिरेण परिप्लुताम्।
जघ्नुर्देत्यांस्तथा देवास् त्रिदिवं चापि लेभिरे॥५२॥
तथैव पृथिवीं लब्ध्वा ब्राह्मणा वेदपारगाः।
संश्रिता दानवानां च साह्यार्थं दर्पमोहिताः॥५३॥
सालावृका इति ख्यातास् त्रिषु लोकेषुभारत।
अष्टाशीतिसहस्राणि ते चापि विबुधैर्हताः॥५४॥
धर्मव्युच्छित्तिमिच्छन्तो येऽधर्मस्य प्रवर्तकाः।
हन्तव्यास्ते दुरात्मानो देवैर्दैत्या इवोद्धताः॥५५॥
एकं हत्वा यदि कुलं शिष्टानां स्यादनामयम्।
कुले वा यदि वा राज्ये न तद्वृत्तोपघातकम्॥५६॥
अधर्मरूपो धर्मो हि कश्चिदस्ति नराधिप।
धर्मरूपो ह्यधर्मश्च तच्च ज्ञेयं विपश्चिता॥५७॥
तस्मात् संस्तम्भयात्मानं श्रुतवानसि पाण्डव।
देवैः पूर्वकृतं मार्गम् अनुयातोऽसि पाण्डव॥५८॥
न हीदृशा गमिष्यन्ति नरकं पार्थिवर्षभ।
तस्मात्86 संस्तम्भयात्मानं श्रुतवानसि पार्थिव॥५९॥
भ्रातॄनाश्वासयैतांस्त्वं सुहृदश्च परन्तप॥५९॥
यो हि पापसमारम्भे कार्ये तद्भावभावितः।
कुर्वन्नपि तथैव स्यात् कृत्वा च निरपत्रपः॥६०॥
तस्मिंस्तत् किल्बिषं कर्म समस्तमिति शब्दितम्।
प्रायश्चित्तं न तस्यास्ति ह्रासो वा पापकर्मणः॥६१॥
त्वं तु शुक्लाभिजातीयः परदोषेण कारितः।
अनिच्छमानः कर्मेदं कृत्वा च परितप्यसे॥६२॥
अश्वमेधो महायज्ञः प्रायश्चित्तमुदाहृतम्।
तमाहर महाराज विपाप्मैवंभविष्यसि॥६३॥
मरुद्भिस्सह जित्वाऽरीन् मघवान् पाकशासनः।
एकैकं ऋतुमाहृत्य शतकृत्वश्शतऋतुः॥६४॥
धूतपाप्मा जितस्वर्गोलोकान् प्राप्य सुखोदयान्।
मरुद्गणवृतश्शक्रश् शुशुभे शोभयन् दिशः॥६५॥
स्वर्गे लोके महीयन्तम् अप्सरोभिश्शचीपतिम्।
ऋषयःपर्युपासन्त देवाश्च विबुधेश्वरम्॥६६॥
सेयं त्वामनुसम्प्राप्ता विक्रमेण वसुन्धरा।
निर्जिताश्च महीपाला विक्रमेण त्वयाऽनघ॥६७॥
तेषां पुराणि राष्ट्राणि दत्वा राजन्सुहृद्वृतः।
भ्रातॄन्पुत्रांश्च पौत्रांश्च स्खे स्वे राज्येऽभिषेचय॥६८॥
बालानपि च गर्भस्थान् सान्त्वानि समुदाचरन्।
रञ्जयन्प्रकृतीस्सर्वाः परिपाहि वसुन्धराम्॥६९॥
कुमारो नास्ति येषां च कन्यास्तत्राभिषेचय।
कामाशयो हि स्त्रीवर्गश्शोकमेवं प्रहास्यति॥७०॥
एवमाश्वासनं कृत्वा सर्वराष्ट्रेषुभारत।
यजस्व वाजिमेधेन यथेन्द्रो विजये पुरा॥७१॥
न शोच्यास्ते महात्मानः क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभ।
स्वकर्मभिर्गता नाशं कृतान्तबलमोहिताः॥७२॥
अवाप्तः क्षत्रधर्मस्ते प्राप्तं राज्यमकण्टकम्।
चर स्वधर्मं कौन्तेय श्रेष्ठो यः प्रेत्यभाविकः॥७३॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि त्रिंशोऽध्यायः॥३०॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि त्रिंशोऽध्यायः॥३०॥
[अस्मिन्नध्याये ७३॥श्लोकाः]
______
॥ एकत्रिंशोऽध्यायः॥
व्यासेन युधिष्ठिरं प्रति प्रायश्चित्तप्रयोजकपापकर्मणां प्रायश्चित्तानांच कथनम्॥१॥ व्यासेन युधिष्ठिरं प्रति पापानांप्रायश्चित्तादिकथनम्॥
______
युधिष्ठिरः—
कानि कर्माणि कृत्वेह प्रायश्चित्तीयते नरः।
किं कृत्वा चैव मुच्येत तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
व्यासः—
अकुर्वन् विहितं कर्म प्रतिषिद्धानि चाचरन्।
प्रायश्चित्तीयते ह्येवं नरो मिथ्या च वर्तयन्॥२॥
सूर्येणाभ्युदितो यश्च ब्रह्मचारी भवत्युत।
तथा सूर्याभिनिर्मुक्तः कुनखी श्यावदन्नपि॥३॥
परिवित्तिः परिवेत्ता ब्रह्मेज्यायाश्च दूषकः।
दिधिषूपतिस्तथा यस्स्याद् अग्नेदिधिषुरेव च॥४॥
अवकीर्णोतथा यश्च द्विजातिवधकारकः।
अतीर्थे ब्राह्मणे त्यागी तीर्थे चाप्रतिपादकः॥५॥
ग्रामयाजी च कौन्तेय राज्ञो वा परिविक्रयी।
यश्चाग्नीनपविध्येत87 तथैव ब्रह्मविक्रयी॥६॥
एतान्येनांसि88 सर्वाणि व्युत्क्रान्तसमयश्च सः॥६॥
अकार्याणि तु वक्ष्यामि यानि तानि निबोध मे।
लोकवेदविरुद्धानि तान्येकाग्रमनाश्शृणु॥७॥
स्वधर्मस्य परित्यागः परधर्मस्य च क्रिया।
अयाज्ययाजनं चैव अभक्ष्यस्य च भक्षणम्॥८॥
शरणागतसन्त्यागो भृत्यस्याभरणं तथा।
रसानां विक्रयश्चापि तिर्यग्योनिवधस्तथा॥९॥
आधानादीनि कर्माणि शक्तिमान्न करोति यः।
अप्रयच्छंश्च सर्वाणि नित्यदेयानिभारत॥१०॥
दक्षिणानामदानं च ब्राह्मणस्वाभिमर्शनम्।
सर्वाण्येतान्यकार्याणि प्राहुर्धर्मविदस्तथा॥११॥
पित्रा विभजते पुत्रो यश्च स्याद्गुरुतल्पगः।
अप्रजोऽयं नरव्याघ्र भवत्यधार्मिको नरः॥१२॥
उक्तान्येतानि कर्माणि विस्तरेणेतरेण च।
यानि कुर्वंश्च पापानि प्रायश्चित्तीयते नरः॥१३॥
एतान्येव तु कर्माणि क्रियमाणानि मानवैः।
येषु येषु निमित्तेषुन लिप्यन्तेऽथ89 ताञ् शृणु॥१४॥
प्रगृह्य शस्त्रमायान्तम् अपि वेदान्तगं रणे।
जिघांसन्तं जिघांसीयान्न तेन ब्रह्महा भवेत्॥१५॥
अपि चाप्यत्र कौन्तेय मन्त्रो वेदेषु पठ्यते।
वेदप्रमाणविहितं धर्मंहि प्रब्रवीमि ते॥१६॥
अपेतं ब्राह्मणं वृत्ताद् यो हन्यादाततायिनम्।
न तेन ब्रह्महा स स्यान्मन्युस्तन्मन्युमृच्छति॥१७॥
प्राणात्यये तथा ज्ञानाद् आचम्य मदिरामपि।
अचोदितो धर्मपरःपुनस्संस्कारमर्हति॥१८॥
एतत् ते सर्वमाख्यातं कौन्तेयाभक्ष्यभक्षणम्।
प्रायश्चित्तविधानेन सर्वमेतेन शुद्धयति॥१९॥
गुरुतल्पं हि गुर्वर्थं न दूषयति मानवम्।
उद्दालकश्श्वेतकेतुं जनयामास शिष्यतः॥२०॥
स्तेयं कुर्वन् हि गुर्वर्थम् आपत्स्वपि न पातकी॥२१॥
बहुशः कामचारेण न चेद्यस्स्म्प्रवर्तते।
अन्यत्र ब्राह्मणस्वेभ्य आददानो न दुष्यति॥२२॥
स्वयंप्रकाशिता यश्च न स पापेन लिप्यते॥२२॥
प्राणत्राणेऽनृतं वाच्यम् आत्मनो वा परस्य वा।
गुर्वर्थेस्त्रीषुचैव स्याद् विवाहकरणे नृप॥२३॥
नावर्तते व्रतं स्वप्ने शुक्रमोक्षे कथञ्जन।
आज्यहोमस्समिद्धेऽग्नौ प्रायश्चित्तं विधीयते॥२४॥
पारिवित्त्यंतु पतिते नास्ति प्रव्रजितेऽपि वा।
भिक्षुके पारदार्ये च न तद्धर्मस्य दूषकम्॥२५॥
वृथा पशुसमालम्भं नैव कुर्यान्न कारयेत्।
अनुग्रहः पशूनां हि संस्कारो विधिचोदितः॥२६॥
अनर्हे ब्राह्मणे दत्तम् अज्ञानात्तन्न दूषकम्।
सकारणं तथा तीर्थे नित्यं वा प्रतिपादनम्॥२७॥
स्त्रियास्तथाऽभिचारिण्या निष्कृतिस्स्याददूषिका।
अपि सा पूयते90 तेन न तु भर्ताप्रदुष्यते॥२८॥
तत्त्वं ज्ञात्वा तु सोमस्य विक्रयस्स्याददोषवान्।
असमर्थस्य भृत्यस्य विसर्गस्स्याददोषवान्॥२९॥
वनदाहो गवामर्थे क्रियमाणो न दूषकः।
उक्तान्येतानि कर्माणि यानि कुर्वन्न दुष्यते॥३०॥
प्रायश्चित्तानि वक्ष्यामि विस्तरेण च भारत।
यानि कृत्वा नरः पृतो भविष्यति नराधिप34॥३१॥
तपसा कर्मभिश्चैव प्रदानेन च भारत।
पुनाति पापं पुरुषः पूतश्चेन्नप्रवर्तते॥३२॥
एककालं तु भुञ्जानश् चरन्भैक्षं स्वकर्मकृत्।
कपालपाणिः खट्वाङ्गी ब्रह्मचारी सदोत्थितः॥३३॥
अनसूयुरधश्शायी कर्म लोके प्रकाशयन्।
पूर्णेर्द्वादशभिर्वर्षैर्ब्रह्महा विप्रमुच्यते॥३४॥
षड्भिर्वर्षैःकृच्छ्रभोजी ब्रह्महा पूयते नरः।
मासे मासे प्रलम्बस्तु त्रिभिर्वर्षैर्विमुच्यते॥३५॥
संवत्सरेण मासाशी पूयते नात्र संशयः।
तथैवोपरमन्59राजन्स्वल्पेनापि प्रमुच्यते॥३६॥
ऋतुनाऽप्यश्वमेधेन पूयते नात्र संशयः॥३७॥
ये चास्यावभृथे स्नान्ति केचिदेवंविधा नराः।
ते सर्वे धूतपाप्मानो भवन्तीति परा श्रुतिः॥३८॥
ब्राह्मणार्थे हतोयुद्धे मुच्यते ब्रह्महत्यया॥३८॥
गवां शतसहस्रं तु पात्रेभ्यः प्रतिपादयन्।
मुच्यते ब्रह्महत्यायास् सर्वपापेभ्य एव च॥३९॥
कपिलानां सहस्राणि यो दद्यात्पञ्चविंशतिम्
दोग्ध्रीणां स च पापेभ्यस् सर्वेभ्योऽपि प्रमुच्यते॥४०॥
गोसहस्रं सवत्सानां दोग्ध्रीणां प्राणसंशये।
साधुभ्यो वै दरिद्रेभ्यो दत्त्वा मुच्येत किल्बिषात्॥४१॥
शतं वै यस्तु काम्भोजान् ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति।
नियतेभ्यो महाराज स च पापात् प्रमुच्यते॥४२॥
मनोरथं तु यो दद्याद् एकस्मै पुरुषर्षभ।
न कीर्तयेच्च तद् दत्त्वा स च पापात् प्रमुच्यते॥४३॥
सुरापानं तु यः कुर्याद् वह्निवर्णां पिबेन्नरः।
स पावयत्यथात्मानम् इह लोके परत्र च॥४४॥
मरुप्रपातं प्रपतञ् ज्वलनं वा समाविशन्।
महाप्रस्थानमातिष्ठन्मुच्यते सर्वकिल्बिषात्॥४५॥
बृहस्पतिसवेनेष्ट्वा सुरापो ब्राह्मणः पुनः।
समितिं ब्राह्मणैर्गच्छेद् इतीयं ब्राह्मणी श्रुतिः॥४६॥
उदपानं शिवं कुर्यात् सुरां पीत्वा विमत्सरः।
पुनर्न च पिबेद्राजन्संस्कृतस्स च शुध्यते॥४७॥
गुरुतल्पी शिलां तप्ताम् आयसीमाभिसंविशेत्।
पाणावाधाय वा शेफं प्रव्रजेदूर्ध्वदर्शनः॥४८॥
शरीरस्य विमोक्षेण मुच्यते कर्मणोऽशुभात्।
अनृतेनोपवक्ता91 च प्रतिरोद्धा गुरोस्तथा॥४९॥
उपहृत्य प्रियं तस्मै मनसः प्रीतिकारकम्।
अवकीर्णनिमित्तं च ब्रह्महत्याव्रतं चरेत्॥५०॥
खरचर्मवासाण्षण्मासांस् ततो मुच्येत किल्बिषात्॥५१॥
स्तेनस्तस्याप्यपहरेत्92 तस्मै दद्यात्समं वसु।
विविधेनाभ्युपायेन स्तेनो मुच्येत किल्बिषात्॥५२॥
कृच्छ्राद्द्वादशरात्रेण स्वभ्यस्तेन दशापरम्।
परिवित्ती भवेत् पूतः परिवेत्ता च भारत ॥५३॥
निवेश्यं तु पुनस्तेन भवेत्तारतयापितॄन्।
नतु स्त्रिया भवेद्दोषोन तु सा तेन लिप्यते॥५४॥
भाजनं पूतिनाऽशुद्धं चातुर्मास्यं विधीयते।
स्त्रियस्तेन विशुध्यन्ति इति धर्मविदो विदुः॥५५॥
स्त्रियस्त्वाशङ्किताः पापे नोपगम्या विजानता।
रजसा ता विशुध्यन्ति भस्मना भाजनं यथा॥५६॥
चतुष्पात् सकलो धर्मो ब्राह्मणानां विधीयते।
पादोन इष्टो राजन्ये तथा धर्मो विधीयते॥५७॥
तथा वैश्ये च शूद्रे च पादः पादो विधीयते।
विद्यादेवंविधे तेषां गुरुलाघवनिर्णयम्॥५८॥
तिर्यग्योनिवधं कृत्वा द्रुमांश्च्छित्त्वोत्तरान् बहून्।
त्रिरात्रं वायुभक्षस्स्यात् कर्म च प्रथयन्नरः॥५९॥
अगम्यागमने राजन् प्रायश्चित्तं विधीयते।
आर्द्रवस्त्रेण षण्मासान् विभाव्यं भस्मशायिना॥६०॥
एवमेव तु सर्वेषाम् अकार्याणां विधिर्भवेत्।
ब्रह्मणोक्तेन विधिना दृष्टान्तागमहेतुना॥६१॥
सावित्रीमप्यधीयानश् शुचौ देशे मिताशनः।
अहिंस्रो मन्दकं जल्पन्मुच्यते सर्वकिल्बिषात्॥६२॥
अहस्सु सततं तिष्ठन्नभ्याकाशं निशास्स्वपन्।
त्रिरहर्निशायां च सवासा जलमाविशेत्॥६३॥
स्त्रीशूद्रपतितांश्चापि नाभिभाषेत वाग्यतः।
पापान्यज्ञानतः कृत्वा मुच्येदेवंव्रतोद्विजः॥६४॥
एवं शुभाशुभं प्रेत्य लभते भूतसाक्षिकम्।
अतिरिच्येत्तयोर्यत्तुतत्कर्ता लभते फलम्॥६५॥
तस्माद्दानेन तपसा कर्मणा वा फलं शुभम।
वर्धयेदशुभं कृत्वा यथा स्यादतिरेकवान्॥६६॥
कुर्याच्छुभानि कर्माणि निमित्ते पापकर्मणाम्।
दद्याच्च नित्यं वित्तानि तथा मुच्येत किल्बिषात्॥६७॥
अनुरूपं हि पापस्य प्रायश्चित्तमुदाहृतम्।
महापातकवर्जं तु प्रायश्चित्तं विधीयते॥६८॥
भक्ष्याभक्ष्येषु सर्वेषु वाच्यावाच्ये तथैव च।
अज्ञानज्ञानयो राजन्विहितान्यविजानतः॥६९॥
जानता तु कृतं पापं गुरु सर्वं भवत्युत।
अज्ञानात् स्खलिते दोषेप्रायश्चित्तं विधीयते॥७०॥
शक्यते विधिना पापं यथोक्तं न व्यपाहतुम्।
आस्तिके श्रद्दधाने च विधिरेषविधीयते॥७१॥
नास्तिका श्रद्दधानेषुपुरुषेषु कदाचन।
दम्भदोषप्रधानेषु विधिरेषन शिष्यते॥७२॥
शिष्टाचारश्च दिष्टश्च धर्मो धर्मविदां वर।
सेवितव्यो नरव्याघ्र प्रेत्यचेह हितेप्सुना॥७३॥
स राजन् मोक्ष्यते पापात्तेन पूर्वेण हेतुना।
त्राणार्थं वा वधे तेषाम् अथवा नृपकर्मणा॥७४॥
अथवा ते घृणा काचित् प्रायश्चित्तं चरिष्यसि।
मा चैवानार्यजुष्टेन मृत्युना निधनं गमः॥७५॥
वैशम्पायनः—
एवमुक्तो भगवता धर्मराजो युधिष्ठिरः।
चिन्तयित्वा मुहूर्तं तु प्रत्युवाच तपोधनम्॥७६॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायांवैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकत्रिंशोऽध्यायः॥३१॥
॥८३॥आभिषेचनिकपर्वणि एकस्त्रिंशोऽध्यायः॥३१॥
[ अस्मिन्नध्याये ७६ श्लोकाः ]
______
॥ द्वात्रिंशोऽध्यायः॥
व्यासेन युधिष्ठिरं प्रति भक्ष्याभक्ष्यपात्रापात्रविवेचनम्॥
युधिष्टिरः—
किं भक्ष्यं किमभक्ष्यं च किञ्च देयं प्रशस्यते।
किश्व पात्रमपात्रं वा तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
व्यासः—
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
सिद्धानां चैव संवादं मनोश्चैव प्रजापतेः॥२॥
महर्षयो व्रतपरास् समागम्य पुरा प्रभुम्।
धर्म पप्रच्छुरासीनम् आदिकाले प्रजापतिम्॥३॥
महर्षयः—
कथमन्नं कथं दानं गम्यागम्याः कथं स्त्रियः।
कार्याकार्यं च नस्सर्वं शंस वै त्वं प्रजापते॥४॥
व्यासः—
तैरेवमुक्तो भगवान् मनुस्स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥४॥
मनुः —
शुश्रूषध्वं यथावृत्तं धर्मं व्याससमासतः॥५॥
अदत्तस्यानुपादानं दानमध्ययनं तपः।
अहिंसा सत्यमक्रोधः क्षमा धर्मस्य लक्षणम्॥६॥
स चैव धर्मस्सोऽधर्मो देशकाले प्रतिष्ठितः।
आदान93मनृतं हिंसा धर्मो ह्यात्यन्तिकस्स्मृतः॥७॥
द्विविधावप्युभावेतौ धर्माधर्मो विजानताम्।
अप्रवृत्तिः प्रवृत्तिश्च द्वैविध्यं लोकवेदयोः॥८॥
अप्रवृत्तेरमर्त्यत्वं मर्त्यत्वं कर्मणः फलम्॥८॥
अशुभस्याशुभं विद्याच् छुभस्य शुभमेव च।
एतयोश्चोभयोस्स्यातां शुभाशुभतया तथा॥९॥
दैवं च दैवयुक्तं च प्राणश्च प्रलयश्च ह।
अप्रेक्षापूर्वकारणाद् अशुभानां शुभं फलम्॥१०॥
ऊर्ध्वं भवति सन्देहाद् इहारिष्टार्थमेव वा।
अप्रेक्षापूर्वकरणात् प्रायश्चित्तं विधीयते॥११॥
क्रोधमोहकृते चैव दृष्टान्तागमहेतुभिः।
शरीराणामुपक्लेशो मनसश्च प्रियाप्रिये॥१२॥
तदौषधैश्च मन्त्रैश्च प्रायश्चित्तैश्च शाम्यति॥१३॥
जातिश्रेण्यधिवासानां94 कुलधर्मांश्च शाश्वतान्।
वर्जयेन्न हि ते धर्मा एषां धर्मो न विद्यते॥१४॥
दश वा वेदशास्त्रज्ञास् त्रयो वा धर्मपाठकाः।
यद्ब्रूयुः कार्य उत्पन्ने स धर्मों धर्मसंशये॥१५॥
अनुष्णा मृत्तिका चैव तथा चैव पिपीलिकाः।
श्लेष्मातकस्तथा विप्रैर् अभक्ष्यं विषमेव च॥१६॥
अभक्ष्या ब्राह्मणैर्मत्स्याश्शकलैर्ये विवर्जिताः।
चतुष्पात् कच्छपादन्यो मण्डूका जलजाश्च ये॥१७॥
भासा हंसास्सुपर्णाश्च चक्रवाकाः प्लवावृकाः95।
मद्गवश्चैव गृध्राश्च काकोलूकास्तथैव च॥१८॥
क्रव्यादादंष्ट्रिणस्सर्वे चतुष्पात् पक्षिणश्च ये।
येषां चोभयतो दन्ताश् चतुर्दंष्ट्राश्च सर्वशः॥१९॥
एडकानां मृगोष्ट्राणां सूकराणां गवामपि।
मानुषीणां खरीणां च न पिबेद्राह्मणः पयः॥२०॥
प्रेतान्नं सूतकान्नं च यच्च किञ्चिदनिर्दशम्।
अभोज्यं चाप्यपेयं च धेनोर्दुग्धमनिर्दशम्॥२१॥
तक्ष्णश्चमविकतुश्च पुश्चल्या रजकस्य च।
चिकित्सकस्य यच्चान्नम् अभोज्यं रक्षिणस्तथा॥२२॥
गणग्रामाभिशस्तानां रङ्गस्त्रीजीविनश्च ये।
परिवित्तीनामपुंसां च पुंसि द्यूतविदां तथा॥२३॥
वाद्यमानादृतंचान्नं शुक्तं96[]97पर्युषितं च यत्।
सुरानुगतमुच्छिष्टम् अभोज्यं शोषितं च यत्॥२४॥
पिष्टमांसेक्षुशाकानाम् आविकापयसस्तथा।
सक्तु धानाः करम्भाश्च नोपभोज्याश्चिरं स्थिताः॥२५॥
पायसं कुसरं मांसम् अपूपं च वृथा कृतम्।
अभोज्यं चाप्यभक्ष्यं च ब्राह्मणैगृहमेधिभिः॥२६॥
देवानृषीन् मनुष्यांश्च पितृन्भृत्यांश्च98 देवताः।
पूजयित्वा ततः पश्चाद् गृहस्थो भोक्तुमर्हति॥२७॥
यथा प्रव्राजितोभिक्षुस् तथैव स्वे गृहे वसेत्।
एवंवृत्तः प्रियैर्दारैस्संवसन् धर्ममाप्नुयात्॥२८॥
न दद्याद्यशसे दानं न भयान्नोपकारिणे।
न नृत्यगीतशीलेषु हासकेषु च धर्मतः॥२९॥
न मत्ते चैव नोन्मत्ते न स्तेने न नपुंसके।
न वाग्धीने विवर्णे वा नाङ्गहीने न वामने॥३०॥
न दुर्जने दौष्कुलेवा व्रतैर्वाये न संस्कृताः।
अश्रोत्रिये च यद्दानं ब्राह्मणे ब्रह्मवर्जिते॥३१॥
असम्यक् चैव यद्दानम् असम्यक् चप्रतिग्रहः।
उभयोस्स्यादनर्थाय दातुरादातुरेव च॥३२॥
यथा खदिरमालम्ब्यशिलां वाऽप्यर्णवं तरन्।
मज्जेत मज्जतां तद्वद् दाता यश्च प्रतीच्छति॥३३॥
काष्ठैरार्द्रैर्यथावह्निर् अवदीर्णो न दीप्यते।
तपस्वाध्यायचारित्रैर् एवं हीनः प्रतिग्रही॥३४॥
कपाले यद्वदापस्स्युश्श्वदृतौवा यथा पयः।
आश्रयस्थानदोषेण वृत्तहीने तथा श्रुतम्॥३५॥
निर्मन्त्रो निर्व्रतोयस्स्याद् अशास्त्रज्ञोऽनसूयकः।
अनुक्रोशात् प्रदातव्यं हीनेष्वेवं नरेषु च॥३६॥
न वा देयमनुक्रोशाद् दीनायापगुणाय तु।
आप्ताचरित इत्येव धर्म इत्येव वा पुनः॥३७॥
निष्कारणं स्मृतं दत्तं ब्राह्मणे ब्रह्मवर्जिते।
न फलेत्पात्रदोषेण न मेऽत्रास्ति विचारणा॥३८॥
यथा दारुमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः।
ब्राह्मणश्चनधीयानस् त्रयस्ते नामधारकाः॥३९॥
यथा षण्ढोऽफलस्स्त्रीपु यथा गौर्गवि चाफला।
शकुनिर्वाऽप्यपक्षस्स्यान्निर्मन्त्रो ब्राह्मणस्तथा॥४०॥
ग्रामस्थानं यथा शून्यं यथा कूपश्च निर्जलः।
यथा हुतमनग्नौच तथैव स्यान्निराकृतौ॥४१॥
देवतानां पितॄणां च हव्यकव्यविनाशनः।
सर्वथाऽर्थहरो मूर्खो न लोकान्प्राप्तुमर्हति॥४२॥
एतत्ते कथितं सर्वं यथावृत्तं युधिष्ठिर।
समासेन महद्ध्येतच् छ्रोतव्यं भरतर्षभ॥४३॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः॥३२॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः॥३२॥
[ अस्मिन्नाध्याये ४३ श्लोकाः ]
॥ त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥
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व्यासेन भीष्ममुखाद्राजधर्मादिश्रवणे आदिष्टस्य युधिष्टिरस्य कृष्णाद्याज्ञया धृतराष्ट्रादिभिस्सह कुरुनगरप्रवेशः॥
______
युधिष्टिरः—
श्रोतुमिच्छामि भगवन् विस्तरेण महामुने।
राजधर्मान्द्विजश्रेष्ठ चातुर्वर्ण्यस्य चाखिलान्॥१॥
आपत्सु च यथा नीतिः प्रणेतव्या द्विजोत्तम्।
धर्म्यमालम्ब्य पन्थानं विजयेयं कथं महीम्॥२॥
प्रायश्चित्तकथा ह्येषाभक्ष्याभक्ष्यसमन्विता।
कौतूहलानुप्रवणा हर्षं जनयतीव मे॥३॥
धर्मचर्या च राज्यं च नित्यमेव विरुध्यते।
येन मुह्यति मे चेतश् चिन्तयानस्य नित्यशः॥४॥
वैशम्पायनः—
तमुवाच महातेजा व्यासो वेदविदां वरः।
नारदं समभिप्रेक्ष्य सर्वं जानन पुरातनम्॥५॥
व्यासः—
श्रोतुमिच्छाऽस्ति चेद्धर्मं निखिलेन नराधिप।
प्रेहि भीष्मंमहाबाहो कुरुवृद्धं पितामहम्॥६॥
॥ त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1702734076Screenshot2023-12-16191057.png"/>
व्यासेन भीष्ममुखाद्राजधर्मादिश्रवणे आदिष्टस्य युधिष्टिरस्य कृष्णाद्याज्ञया धृतराष्ट्रादिभिस्सह कुरुनगरप्रवेशः॥
______
युधिष्टिरः—
श्रोतुमिच्छामि भगवन् विस्तरेण महामुने।
राजधर्मान्द्विजश्रेष्ठ चातुर्वर्ण्यस्य चाखिलान्॥१॥
आपत्सु च यथा नीतिः प्रणेतव्या द्विजोत्तम्।
धर्म्यमालम्ब्य पन्थानं विजयेयं कथं महीम्॥२॥
प्रायश्चित्तकथा ह्येषाभक्ष्याभक्ष्यसमन्विता।
कौतूहलानुप्रवणा हर्षं जनयतीव मे॥३॥
धर्मचर्या च राज्यं च नित्यमेव विरुध्यते।
येन मुह्यति मे चेतश् चिन्तयानस्य नित्यशः॥४॥
वैशम्पायनः—
तमुवाच महातेजा व्यासो वेदविदां वरः।
नारदं समभिप्रेक्ष्य सर्वं जानन पुरातनम्॥५॥
व्यासः—
श्रोतुमिच्छाऽस्ति चेद्धर्मं निखिलेन नराधिप।
प्रेहि भीष्मंमहाबाहो कुरुवृद्धं पितामहम्॥६॥
यस्य नाविदितं किञ्चिज्ज्ञेयं ज्ञेयेषुद्श्यते॥१५॥
स ते वक्ष्यति धर्मज्ञो धर्मसूक्ष्मार्थतत्त्ववित्।
तमभ्येहि पुरा प्राणान् स विमुञ्चति धर्मवित्॥१६॥
वैशम्पायनः—
एवमुक्तस्तु कौन्तेयो दीर्घप्रज्ञो महामतिः।
उवाच वदतां श्रेष्ठं व्यासं सत्यवतीसुतम्॥१७॥
युधिष्टिरः—
वैशसं सुमहत् कृत्वा ज्ञातीनां रोमहर्षणम्।
आगस्कृत् सर्वलोकस्य पृथिवीनाशकारकः॥१८॥
घातयित्वा छलेनाजौ तमेवाजिह्मयोधिनम्।
उपसम्प्रष्टुमर्हामि तमहं केन हेतुना॥१९॥
वैशम्पायनः—
ततस्तं नृपतिश्रेष्ठं चातुर्वर्ण्यहितेप्सया।
पुनरेव महाबाहुर्यदुश्रेष्ठोऽब्रवीद्वचः॥२०॥
श्रीभगवान्—
नेदानीमतिनिर्बन्धं शोके त्वं कर्तुमर्हसि।
यदाह भगवान् व्यासस् तत् कुरुष्व नृपोत्तम्॥२१॥
ब्राह्मणास्त्वां महाबाहो भ्रातरश्च महौजसः।
पर्जन्यमिव धर्मान्ते नाथमाना उपासते॥२२॥
हतशिष्टाश्च राजानः कृत्स्नं चैतत् समागतम्।
चातुर्वर्ण्यं महाराज राष्ट्रं ते कुरुजाङ्गलम्॥२३॥
प्रियार्थमपि चैतेषां ब्राह्मणानां महात्मनाम्।
नियोगादस्य च गुरोर् व्यासस्यामिततेजसः॥२४॥
सुहृदामस्मदादीनां99 द्रौपद्याश्च परन्तप।
कुरु प्रियममित्रघ्नलोकस्य च हितं कुरु॥२५॥
वैशम्पायनः—
एवमुक्तस्स कृष्णेन राजा राजीवलोचनः।
हितार्थं सर्वलोकस्य समुत्तस्थौ महामनाः॥२६॥
सोऽनुनीतो भगवता विष्टरश्रवसा स्वयम्।
द्वैपायनेन च तथा देवस्थानेन जिष्णुना॥२७॥
एतैश्चान्यैश्च बहुभिर् अनुनीतो युधिष्ठिरः।
व्यजहान्मानसं दुःखं सन्तापं च महायशाः॥२८॥
श्रुतवाक्यश्श्रुतनिधिश्श्रुतश्राव्यविशारदः।
व्यासस्य मनसा शान्तिम् अगमत् पाण्डुनन्दनः॥२९॥
स तैः परिवृतो राजा नक्षत्रैरिव चन्द्रमाः।
धृतराष्ट्रं पुरस्कृत्य पुरं स्म प्रविवेश ह॥३०॥
प्रविविक्षुस्स धर्मज्ञः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
अर्चयामास देवांश्च ब्राह्मणांश्च सहस्रशः॥३१॥
ततो नवं रथं शुभ्रं कम्बलाजिनसंवृतम्।
युक्तं षोडशभिस्त्वश्वैः पाण्डुरैश्शुभलक्षणैः॥३२॥
मन्त्रैरभ्यर्चितं पुण्यैस् स्तूयमानश्च वन्दिभिः।
आरुरोह यथा देवस् सोमोऽमृतमयं रथम्॥३३॥
जग्राह रश्मीन् कौन्तेयो भीमो भीमपराक्रमः ।
अर्जुनः पाण्डुरं छत्रं धारयामास भानुमत्॥३४॥
ध्रियमाणं तु तच्छत्रं पाण्डुरं राजमूर्धनि।
शुशुभे तारके राजन् सितमभ्रमिवाम्बरे॥३५॥
चामरव्यजने तस्य वीरौ जगृहतुस्तदा।
चन्द्ररश्मिप्रभे दिव्ये माद्रीपुत्रावलङ्कृते॥३६॥
ते पञ्च रथमास्थाय भ्रातरस्समलङ्कृताः।
भूतानीव समस्तानि राजन् ददृशिरेतदा॥३७॥
आस्थाय तु रथं शुभ्रं युक्तमश्वैर्मनोजवैः।
अन्वगात् पृष्ठतो राजन् युयुत्सुः पाण्डवाग्रजम्॥३८॥
रथं हेममयं शुभ्रं सैन्यसुग्रीवयोजितम्।
सह सात्यकिना कृष्णस् समास्थायान्वयात् कुरून्॥३९॥
नरयानेन तु ज्येष्ठः पिता पार्थस्य भारत।
अग्रतो धर्मराजस्य गान्धारीसहितो ययौ॥४०॥
कुरुस्त्रियश्च तास्सर्वाः कुन्ती कृष्णा च माधवी।
यानैरुच्चावचैर्जग्मुर् विदुरेण पुरस्कृताः॥४१॥
ततो रस्थाश्च बहुला नागाश्च समलङ्कृताः।
पादाताश्च हयाश्चान्ये पृष्ठतस्समनुव्रजन्॥४२॥
ततो वैतालिकैस्सूतैर् मागधैश्च सुभाषितैः।
स्तूयमानो ययौ राजा नगरं नागसाह्वयम्॥४३॥
तत् प्रयाणं महाराज बभूवाप्रतिमं भुवि।
आकुलाकुलमुत्सृष्टं हृष्टपुष्टजनायुतम्॥४४॥
पाण्डुरेण100 च माल्येन पताकाभिश्च वेदिभिः।
नगरं101 राजमार्गश्च यथावत् समलङ्कृतम्॥४५॥
अभियाने तु पार्थस्य नरैर्नगरवासिभिः।
संवृतो राजमार्गोऽभूद् धूपनैश्च प्रधूपितः॥४६॥
अथ पूर्णैश्च गन्धानां नागपुष्पैः प्रियङ्गुभिः।
माल्यदामभिरालम्बै राजवेश्माभिसंवृतम्॥४७॥
कुम्भाश्च नगरद्वारि वारिपूर्णा नवा दृढाः।
अन्यास्सुमनसश्चापि स्थापितास्तत्र तत्र ह॥४८॥
तथा ह्यलङ्कृतंद्वारं नगरं पाण्डुनन्दनः।
स्तूयमानश्शुभैर्वाक्यैः प्रविवेश सुहृदृतः॥४९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥३३॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि त्रयर्स्त्रिशोऽध्यायः॥३३॥
[ अस्मिन्नध्याये ४९ श्लोकाः ]
______
॥चतुस्त्रिंशोऽध्यायः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1702737505Screenshot2023-12-16200806.png"/>
राजमार्गे नागरैः स्तूयमानस्य युधिष्ठिरस्य राजगृहमेत्य सभाप्रवेशः॥१॥तत्रयुधिष्ठिरं निन्दतश्चार्वाकराक्षसस्य ब्राह्मणैर्हुंकारेण भस्मीकरणम्॥२॥ कृष्णेन युधिष्टिरं प्रति चार्वाकराक्षसस्य पूर्ववृत्तकथनम्॥३॥
______
(चार्वाकनिग्रहपर्व )
______
वैशम्पायनः—
प्रवेशनं तु पार्थानां जनानां पुरवासिनाम्।
दिदृक्षूणां सहस्राणि समाजग्मुर्बहून्यपि॥१॥
स राजमार्गश्शुशुभे समलङ्कृतचत्वरः।
यथा चन्द्रोदये राजन्वर्धमानो महोदधिः॥२॥
गृहाणि राजमार्गेषु रत्नवन्ति बहून्यपि।
प्राकम्पन्निव भारेण स्त्रीणां पूर्णानि सर्वशः॥३॥
ताश्शनैरिव सव्रीडं प्रशशंसुर्युधिष्ठिरम्।
भीमसेनार्जुनौ चैव माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ॥४॥
स्त्रियः—
धन्या त्वमसि पाञ्चालि या त्वं पुरुषसत्तमान्।
उपतिष्ठसि कल्याणि महर्षीनिव गौतमी॥५॥
तव कर्माण्यमोघानि व्रतचर्या च भामिनि॥५॥
वैशम्पायनः—
इति कृष्णां महाराज प्रशशंसुस्तदा स्त्रियः॥
प्रशंसावचनैस्तासां मिथश्शब्दैश्च भारत।
प्रीतिजैश्च तदा शब्दैः पुरमासीत् समाकुलम्॥७॥
तमतीत्य यथायुक्तं राजमार्गंयुधिष्ठिरः।
अलङ्कृतं शोभमानम् उपायाद्राजवेश्म ह॥८॥
ततः प्रकृतयस्सर्वाः पौरा जानपदास्तथा।
ऊचुश्श्रोत्रसुखा वाचस् समुपेत्य ततस्ततः॥९॥
जनाः—
दिष्ट्या जयसि राजेन्द्र शत्रूञ् छत्रुनिषूदन्।
दिष्ट्या राज्यं पुनः प्राप्तं धर्मेण च बलेनच॥१०॥
भव नस्त्वं महाराज राज्याय शरदां शतम्।
प्रजाः पालय धर्मेण यथेन्द्रस्त्रिदिवं नृप॥११॥
वैशम्पायनः—
एवं राजकुलद्वारि मङ्गलैरभिपूजितः।
आशीर्वादान्द्विजैरुक्तान्प्रतिगृह्य समन्ततः॥१२॥
प्रविश्य भवनं राजा देवराजगृहोपमम्।
श्रुत्वा विजयसंयुक्तं रथात् पश्चादवातरत्॥१३॥
प्रविश्याभ्यन्तरं राजा दैवतान्यभिगम्य च।
पूजयामास गन्धैश्च माल्यै रत्नैश्च सर्वशः॥१४॥
निश्चक्राम ततश्श्रीमान् पुनरेव महायशाः।
ददर्श ब्राह्मणांश्चैव सोऽभिरूपानवस्थितान्॥१५॥
स संवृतस्तदा विप्रैर् आशीर्वादविवक्षुभिः।
शुशुभे विमलश्चन्द्रस् तारागणवृतो यथा॥१६॥
तान् सुसम्पूजयामास कौन्तेयो विधिवद्द्विजान्॥१६॥
धौम्यं गुरुं पुरस्कृत्य ज्येष्ठं पितरमेव च।
प्रविवेश सभां राजा सुधर्मां वासवो यथा॥१७॥
सुमनोमोदकै रत्नैर् हिरण्येन च भूरिणा।
गोभिर्वस्त्रैश्च राजेन्द्र विविधैश्च किमिच्छकैः॥१८॥
ततः पुण्याहघोषोऽभूद् दिवं स्तब्ध्वेव भारत।
सुहृदां हर्षजननः पुण्यश्श्रुतिसुखावहः॥१९॥
हंसवन्नेदुषां राजन् द्विजानां तत्र भारत।
शुश्रुवे वेदविदुषां पुष्कलार्थपदाक्षरः॥२०॥
ततो दुन्दुभिनिर्घोषश् शङ्खानां च रवोमहान्।
जयं प्रवदतां तत्र स्वनः प्रादुरभून्नृष॥२१॥
निश्शब्दे च स्थिते तत्र ततो विप्रजने पुनः।
राजानं ब्राह्मणच्छद्माचार्वाको राक्षसोऽब्रवीत्॥२२॥
तत्र दुर्योधनसखो भिक्षुरूपेण संवृतः।
साङ्ख्यश्शिखी त्रिदण्डी च धृष्टो विगतसाध्वसः॥२३॥
वृतस्सर्वैस्तथा विप्रैर् आशीर्वादविवक्षुभिः।
परस्सहस्रै राजेन्द्र तपोनियमसंस्थितैः॥२४॥
सुदुष्टः पापमाशंसुः पाण्डवानां महात्मनाम्।
अनामन्त्र्यैव तान् विप्रान्इत्युवाच महीपतिम्॥२५॥
चार्वाकः—
इमे प्राहुर्द्विजास्सर्वे समारोप्यवचो मयि॥२६॥
धिग्भवन्तं कुरुपतिं ज्ञातिघातिनमाहवे।
किं ते राज्येन कौन्तेय कृत्वेमं ज्ञातिसङ्क्षयम्॥२७॥
घातयित्वा गुरूंश्चैव मृतं श्रेयो न जीवितम्॥२७॥
वैशम्पायनः—
इति ते तद् द्विजाश्श्रुत्वा तस्य दुष्टस्य रक्षसः।
विव्यथुश्चुक्रुशुश्चैव तस्य वाक्यप्रधर्षिताः॥२८॥
ततस्ते ब्राह्मणास्सर्वे स च राजा युधिष्ठिरः।
व्रीडिताः परमोद्विग्नास् तूष्णीमासन् विशां पते॥२९॥
युधिष्टिरः—
प्रसीदन्तु भवन्तो मे प्रणतस्याभियाचतः।
प्रत्यापन्नव्यसनिनं न मां बाधितुमर्हथ॥३०॥
वैशम्पायनः—
ततो राजन् ब्राह्मणास्ते सर्व एव विशां पते ।
ऊचुर्नैषद्विजोऽस्माकम् अन्यस्तु तव पार्थिव॥३१॥
जज्ञुश्चैवं महात्मानस् ततस्तं ज्ञानचक्षुषा।
ब्राह्मणा वेदविद्वांसस् तपसा विमलीकृताः॥३२॥
ब्राह्मणाः—
एषदुर्योधनसखो विश्रुतो ब्रह्मराक्षसः।
परिव्राजकरूपेण हितं तस्य चिकीर्षति॥३३॥
न वयं ब्रूम धर्मात्मन् व्येतु ते भयमीदृशम्।
उपतिष्ठतु कल्याणं भवन्तं भ्रातृभिस्सह॥३४॥
वैशम्पायनः—
ततस्ते ब्राह्मणास्सर्वे हुङ्कारैः क्रोधमूच्छिताः।
निर्भर्त्सयन्तश्शुचयो निजघ्नुः पापराक्षसम्॥३५॥
स पपात विनिर्दग्धस् तेजसा ब्रह्मवादिनाम्।
महेन्द्राशनिनिर्दग्धः पादपोऽङ्कुरवानिव॥३६॥
पूजिताश्च ययुर्विप्रा राजानमभिनन्द्य तम्।
राजा च हर्षमापेदे पाण्डवस्ससुहृज्जनः
॥३७॥34
ततस्तत्र तु राजानं तिष्ठन्तं भ्रातृभिस्सह।
उवाच देवकीपुत्रस् सर्वदर्शी जनार्दनः॥३८॥
श्रीभगवान् —
ब्राह्मणस्तात लोकेऽस्मिन् अर्चनीयतमास्सदा।
एते भूमिचरा देवा वाग्विषास्सुप्रसादकाः॥३९॥
पुरा कृतयुगे तात चार्वाको नाम राक्षसः।
तपस्तेपे महाबाहो वदर्यांबहुवार्षिकम्॥४०॥
वरेण च्छन्द्यमानश्च ब्रह्मणा च पुनः पुनः।
अभयं सर्वभूतेभ्यो वरयामास भारत॥४१॥
द्विजावमानादन्यत्र प्रादाद्वरमनुत्तमम्।
अभयं सर्वभूतेभ्यस् ततस्तस्मै जगत्प्रभुः॥४२॥
स तु लब्धवरः पापो देवानमितविक्रमः।
राक्षसस्तापयामास तीव्रकर्मा महाबलः॥४३॥
ततो देवास्समेत्याथ ब्रह्माणमिदमब्रुवन्।
वधाय रक्षसस्तस्य बलविप्रकृतास्तदा॥४४॥
तानुवाचाव्ययो देवान् विहितं तत्र वै मया।
यथाऽस्य भविता मृत्युर् अचिरेण दिवौकसः॥४५॥
राजा दुर्योधनो नाम सखाऽस्य भविता नृपः।
तत्स्नेहेनाववद्धोऽसौ ब्राह्मणानवमंस्यते॥४६॥
तत्रैनं रुषिता विप्रा विप्रकारप्रधर्षिताः।
धक्ष्यन्ति वाग्बलाः पापं ततो नाशं गमिष्यति॥४७॥
स एषनिहतश्शेते ब्रह्मदण्डेन राक्षसः।
चार्वाको नृपतिश्रेष्ठ मा शुचो भरतर्षभ॥४८॥
हतास्ते क्षत्रधर्मेण ज्ञातयस्तव पार्थिव।
स्वर्गताश्च महात्मानो वीराः क्षत्रियपुङ्गवाः॥४९॥
स त्वमातिष्ठ कार्याणि मा ते भूद्बुद्धिरन्यथा।
शत्रूञ्जहि प्रजा रक्ष द्विजांश्च परिपूजय॥५०॥
इति श्रीमहाभारतेशतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि चतुस्त्रिंशोऽध्यायः॥३४॥
॥८४॥ चार्वाकनिग्रहपर्वणि प्रथमोऽध्यायः॥१॥
[आस्मिन्नध्याये ५०॥श्लोकाः]
चार्वाकनिग्रहपर्व समाप्तम्
॥ पञ्चत्रिंशोऽध्यायः॥
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कृष्णादिभिर्युधिष्टिरस्य राज्येऽभिषेचनम्॥
______
(आभिषेचनिकपर्वशेषः)
______
वैशम्पायनः—
ततः कुन्तीसुतो राजा गतमन्युर्गतज्वरः।
काञ्चने प्राङ्मुखो मृष्ठे न्यषीदत् परमासने॥१॥
तमेवाभिमुखौ पीठं प्रमृष्टं काञ्चनं शुभम्।
सात्यकिर्वासुदेवश्च निषीदतुररिन्दमौ॥२॥
मध्ये कृत्वा तु राजानं भीमसेनार्जुनावुभौ।
निषीदतुर्महात्मानौ श्लक्ष्णयोर्मणिपीठयोः॥३॥
दान्ते शय्यासने शुभ्रे जाम्बूनदविभूषिते।
पृथाऽपि सहदेवेन सहास्ते नकुलेन च॥४॥
विदुरस्सहधौम्यश्च धृतराष्ट्रश्च कौरवः।
निषेदुर्ज्वलनाकारेष्वासनेषु पृथक् पृथक्॥५॥
युयुत्सुस्सञ्जयश्चैव गान्धारी च यशस्विनी।
धृतराष्ट्रो यतो राजा ततस्सर्व उपाविशन्॥६॥
तत्रोपविष्टो धर्मात्मा श्वेतास्सुमनसस्स्पृशन्।
स्वस्तिकानक्षतान् भूमिं सुवर्णं रजतं मणीन्॥७॥
ततः प्रकृतयस्सर्वाः पुरस्कृत्य पुरोधसम्।
ददृशुर्धर्मराजानम् आदाय बहुमङ्गलम्॥८॥
पृथिवीं च सुवर्णं च रत्नानि विविधानि च।
आभिषेचनिकं भाण्डं सर्वसम्भारसम्भृतम्॥९॥
काञ्चनौदुम्बरास्तत्र राजताः पृथिवीमयाः।
पूर्णकुम्भास्सुमनसो लाजा बर्हींषिगोरसाः॥१०॥
शमीपिप्पलपालाशसमिधो102 मधुसर्पिषी।
स्रुव औदुम्बरश्शङ्खस् तथा हेमविभूषितः॥११॥
दाशार्हेणाभ्यनुज्ञातस् तत्र धौम्यः पुरोहितः।
प्रागुदक्प्रवणे वेदीं लक्षणेनोपलिप्य च॥१२॥
व्याघ्रचर्मोत्तरे श्ल्क्ष्णेसर्वतोभद्र आसने।
दृढपादप्रतिष्ठाने हुताशनसमत्विषि॥१३॥
उपवेश्य महात्मानं कृष्णां च द्रुपदात्मजाम्।
जुहाव पावकं धीमान् विधिमन्त्रपुरस्कृतम्॥१४॥
तत उत्थाय दाशार्हश् शङ्खमादाय पूरितम्।
अभ्यषिश्चत् पतिं पृथ्व्याः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्॥१५॥
धृतराष्ट्रश्चराजर्षिस् सर्वाः प्रकृतयस्तथा॥१५॥
ततोऽनुवादयामासुः पटहानकदुन्दुभीन्॥१६॥
धर्मराजोऽपि तत् सर्वं प्रतिजग्राह धर्मतः।
पूजयामास तांश्चापि विधिवद्भूरिदक्षिणः॥१७॥
ततो निष्कसहस्रेण ब्राह्मणान् स्वस्त्यवाचयन्।
वेदाध्ययनसम्पन्नाञ् शीलवृत्तसमन्वितान्॥१८॥
ते प्रीताब्राह्मणा राज्ञस् स्वस्त्यूचूर्जनमेजय।
हंसा इव च नर्दन्तः प्रशशंसुर्युधिष्ठिरम्॥१९॥
ब्राह्मणाः—
युधिष्ठिर महाबाहोदिश्ष्ट्याजयसि पार्थिव।
दिष्ट्यास्वधर्मं प्राप्तोऽसि विक्रमेण महाद्युते॥२०॥
दिष्ट्या गाण्डीवधन्वा च भीमसेनश्च पाण्डवः।
त्वं चापि कुशली राजन् माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ॥२१॥
मुक्ता वीरक्षयात् तस्मात् सङ्गामान्निहतद्विषः।
क्षिप्रमुत्तरकार्याणि कुरु कार्याणि पाण्डव॥२२॥
वैशम्पायनः—
ततः प्रतर्पितस्सद्भिर् धर्मराजो युधिष्ठिरः।
प्रतिपेदे महाराज्यं सुहृद्भिस्सह भारत॥२३॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि पञ्चविंशोऽध्यायः॥३५॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि चतुस्त्रिंशोऽध्यायः॥३४॥
[ अस्मिन्नध्याये२३ श्लोकाः ]
॥षट्त्रिंशोऽध्यायः॥
युधिष्ठिरेण भीमार्जुनादीनां तत्तद्योग्ययौवराज्याद्यधिकारेषु नियोजनम्॥
______
वैशम्पायनः—
प्रकृतीनां तु तद्वाक्यं देशकालोपबृंहितम्।
श्रुत्वा युधिष्ठिरो राजा उत्तरं प्रत्यभाषत ॥१॥
युधिष्ठिरः—
धन्याः पाण्डुसुता नूनं येषां ब्राह्मणपुङ्गवाः।
तथ्यान् वा यदि वाऽतथ्यान् गुणानाहुस्समागताः॥२॥
अनुग्राह्या वयं नूनं भवतामिति मे मतिः।
यत्रैवं गुणसम्पन्नान् अस्मान् ब्रूथ विमत्सराः॥३॥
धृतराष्ट्रो महाराजः पिता नो दैवतं परम्।
शासनेऽस्य प्रिये चैव स्थेयं मत्प्रियकाङ्क्षिभिः॥४॥
एतदर्थं हि जीवामि कृत्वा ज्ञातिवधं महत्।
अस्य शुश्रूषणं कार्यं मया नित्यमतन्द्रिणा॥५॥
यदि वाऽहमनुग्राह्यो भवतां सुहृदां ततः॥
धृतराष्ट्रे यथापूर्वं वृत्तिं वर्तितुमर्हथ॥६॥
एषनाथो हि जगतो भवतां च मया सह।
अस्य प्रसादे पृथिवी पाण्डवास्सर्व एव ह॥७॥
एतन्मनसि कर्तव्यं भवद्भिर्वचनं मम॥७॥
वैशम्पायनः—
अनुज्ञाप्य च राजानं यथेष्टं गम्यतामिति।
पौरजानपदान् सर्वान् विसृज्य कुरुनन्दनः॥८॥
यौवराज्येन कौरव्यं भीमसेनमयोजयत्॥९॥
मन्त्रे च निश्चये तस्मिन् पाङ्गुण्यस्य103 विचिन्तने।
विदुरं बुद्धिसम्पन्नं प्रीतिमान् स समादिशत्॥१०॥
कृताकृतपरिज्ञाने तथाऽऽयव्ययचिन्तने।
सञ्जयं योजयामास दृढं वृद्धैर्गुणैर्युतम्॥११॥
वलस्य परिमाणे च भक्तवेतनयोस्तथा ।
नकुलं प्रादिशद्राजा कर्मणां चान्ववेक्षणे॥१२॥
परचक्रोपरोधे च दृप्तानामवमर्दने।
युधिष्ठिरो महाराज फल्गुनं व्यादिदेश ह॥१३॥
द्विजानां देवकार्येषु कार्ये वन्येषु चैव ह।
धौम्यं पुरोधसां श्रेष्ठं व्यादिदेश परन्तपः॥१४॥
सहदेवं समीपस्थं नित्यमेव समादिशत् ।
तेन गोप्यो हि नृपतिस् सर्वावस्थो विशां पते॥१५॥
यान् यानमात्यान् योग्यांश्च येषु येष्वथ कर्मसु।
तांस्तांश्च तेषुयुयुजे प्रीयमाणो महीपतिः॥१६॥
विदुरं सञ्जयं चैव युयुत्सुं च महीपतिः।
अब्रवीत् परमप्रीतो धर्मात्मा धर्मवत्सलः॥१७॥
युधिष्टिरः—
उत्थायोत्थाय यत् कार्यम् अस्य राज्ञः पितुर्मम।
सर्वं भवद्भिः कर्तव्यम् अप्रमत्तैर्यथा मम॥१८॥
पौरजानपदानां च यानि कार्याणि नित्यशः।
राजानं समनुप्राप्य तानि कार्याणि धर्मतः॥१९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि षट्त्रिंशोऽध्यायः॥३६॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि पञ्चत्रिंशोऽध्यायः॥३५॥
[अस्मिन्नध्याये १९ श्लोकाः]
_____
॥ सप्तत्रिंशोऽध्यायः॥
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युधिष्टिरेण ज्ञातिप्रभृतीनाम्मौर्ध्वंदेहिकरणपूर्वकं तदीयादीनां परिपालनम्॥
वैशम्पायनः—
ततो युधिष्ठिरो राजा ज्ञातीनां ये हतामृधे।
श्राद्धानि कारयामास तेषां पृथगुदारधीः॥१॥
धृतराष्ट्रो ददौ राजा पुत्राणामौर्ध्वदेहिकम्।
सर्वकामगुणोपेतम् अन्नं गाश्च धनानि च॥२॥
रत्नानि च विचित्राणि महार्हाणि महायशाः॥२॥
युधिष्ठिरस्तु द्रोणस्य कर्णस्य च महात्मनः।
द्रौपदेयाभिमन्यूनां हैडिम्बस्य च रक्षसः॥३॥
विराटप्रभृतीनां च सुहृदामुपकारिणाम्।
द्रुपदद्रौपदेयानां द्रौपद्या सहितो ददौ॥४॥
ब्राह्मणानां सहस्राणि पृथगेकैकमुद्दिशन्।
धनै रत्नैश्च गोभिश्च वस्त्रैश्च समतर्पयन्॥५॥
ये चान्ये पृथिवीपाला येषांनास्ति सुहृज्जनः।
उद्दिश्योद्दिश्य तेषां च चक्रे राजौर्ध्वदैहिकम्॥६॥
सभाः प्रपाश्च विविधास् तटाकानि च पाण्डवः।
सुहृदां कारयामास सर्वेषामौर्ध्वदैहिकम्॥७॥
स तेषामनृणो भूत्वा गत्वा लोकेष्ववाच्यताम्।
कृतकृत्योऽभवद्राजा प्रजा104 धर्मेण पालयन्॥८॥
धृतराष्ट्रं यथापूर्वं गान्धारीं विदुरं तथा।
सर्वांश्च कौरवामात्यान् भृत्यांश्च समपूजयत्॥९॥
याश्च तत्र स्त्रियः काश्चिद्धतवीरा हतात्मजाः।
सर्वास्ताः कौरवो राजा सम्पूज्यापालयत् प्रजाः॥१०॥
दीनान्धकृपणानां च गृहाच्छादनभोजनैः।
आनृशंस्यपरो राजा चकारानुग्रहं प्रभुः॥११॥
स विजित्य महीं कृत्स्नाम् आनृण्यं प्राप्य वै नृषु।
निस्सपत्नस्सुखी राजा विजहार युधिष्ठिरः॥१२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि सप्तत्रिंशोऽध्यायः॥३७॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि षट्त्रिंशोऽध्यायः॥३६॥
॥अस्मिन्नध्याये १२॥श्लोकाः॥
॥ अष्टात्रिंशोऽध्यायः॥
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** युधिष्टिरेण नामशतकेन श्रीकृष्णस्तवनम्॥**
______
वैशम्पयनः—
अभिषिक्तो महाप्राज्ञो राज्यं प्राप्य युधिष्ठिरः।
दाशार्हं पुण्डरीकाक्षम् उवाच प्राञ्जलिश्शुचिः॥१॥
युधिष्टिरः—
तव कृष्ण प्रसादेन वलेन च नयेन च।
बुद्ध्या च यदुशार्दूल तथा विक्रमणेन च॥२॥
पुनः प्राप्तमिदं राज्यं पितृपैतामहं मया ॥२॥
नमस्ते पुण्डरीकाक्ष पुनःपुनररिन्दम्॥३॥
त्वामेकमाहुः पुरुष त्वामाहुस्सर्वतो गतिम्।
नामभिस्त्वां बहुविधैस् स्तुवन्ति प्रयता द्विजाः॥४॥
विश्वकर्मन् नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन् विश्वसम्भव।
विष्णो जिष्णो हरे शर्व वैकुण्ठ पुरुषोत्तम्॥५॥
अदित्यास्सप्तरात्रं त्वं पुराणो गर्भतां गतः।
पृश्रिगर्भस्त्वमेवैकस् त्रियुगं त्वां वदन्त्यपि॥६॥
शुचिश्रवा हृषीकेशो घृतार्चिर्हंसउच्यते।
नृचक्षुश्शम्भुरेकस्त्वं मृदुर्दामोदरोऽपि च॥७॥
वरुणोऽग्निर्बृहद्भानुर्वृषणस्तार्क्ष्यलक्षणः।
अनीकसाहः पुरुषश्शिपिविष्ट उरुक्रमः॥८॥
वाचीष्ट उग्रसेनानीस् सत्यो वाजसनिर्गुहः।
अच्युतश्च्यवनोरीणां सङ्कृतिःप्रकृतिर्विभुः॥९॥
ऊर्ध्वात्मा त्वं त्वमेवादिर्वृषपर्वा वृषाकपिः।
सिन्धुर्विधूर्मिस्त्रिककुप् त्रिधामा त्रिबृदच्युतः॥१०॥
सम्राड्विराट् स्वराट् चैव स्वराड्भूतमयो भवः।
विभूभूरभिभूः कृष्णः कृष्णवर्मा त्वमेव च॥११॥
स्विष्टकृद्धिपगावर्तःकपिलस्त्वं च वामनः।
यज्ञो ध्रुवः पतङ्गश्च जयत्सेनस्त्वमुच्यसे॥१२॥
शिखण्डी महिषोबभ्रुर् दिविस्पृक् त्वं पुनर्वसुः।
सुबभ्रु रुक्षायुग्मस्त्वं सुषेणो दुन्दुभिस्तथा॥१३॥
गभस्तिनेमिश्श्रीवत्सः पुष्करश्शुष्मधारणः।
ऋभुर्विभुस्सर्वसूक्ष्मस् त्वं धरित्री च पठ्यसे॥१४॥
तपोनिधिस्त्वं ब्रह्मा त्वं पवित्रं धाम धन्व च।
हिरण्यगर्भः पुरुषस् स्वधा स्वाहा च केशवः॥१५॥
योनिस्त्वमस्य प्रलयश्च कृष्ण
त्वमेवेदं सृजसि विश्वमग्रे।
विश्वं चेदं त्वद्वशे विश्वयोने
नमोऽस्तु ते शार्ङ्गचक्रासिपाणे॥१६॥
वैशम्पायनः—
एवं स्तुतो धर्मराजेन कृष्णस्
सभामध्ये प्रीतिमान्पुष्कराक्षः।
तमभ्यनन्दद्भारतं पुष्कलाभिर्
वाग्भिर्ज्येष्ठं पाण्डवं यादवाग्र्यः॥१७॥
एतन्नामशतं विष्णोर्धर्मराजेन कीर्तितम्।
यः पठेच्छृणुयाद्वाऽपि सर्वपापैः प्रमुच्यते॥१८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि अष्टात्रिंशोऽध्यायः॥३८॥
॥८३॥ आभिषेचनिकपर्वणि सप्तत्रिंशोऽध्यायः॥३७॥
[ अस्मिन्नध्याये १८ श्लोकाः ]
[ आभिषेचनिकपर्व समाप्तम् ]
॥ एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥
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** युधिष्ठिराज्ञयाभीमादिभिश्चतुर्भिर्योधनादिगृहपरिग्रहः॥**
(गृहप्रविभागपर्व)
वैशम्पायनः—
ततो विसर्जयामास सर्वास्ताः प्रकृतीनृपः।
विविशुश्चाभ्यनुज्ञाता यथास्वानि गृहाणि ते॥१॥
ततो युधिष्ठिरो राजा भीमं भीमपराक्रमम्।
सान्त्वयन्नब्रवीच्छ्रीमान्105 अर्जुनं यमजौ तथा॥२॥
युधिष्टिरः—
शत्रुभिर्विविधैश्शस्त्रैः क्षतदेहा महारणे।
श्रान्ता भवन्तस्सुभृशं तापिताश्शोकमन्युभिः॥३॥
अरण्ये दुःखवसतिर् मत्कृते पुरुषोत्तमाः।
भवद्भिरनुभूता च यथा कापुरुषैस्तथा॥४॥
यथासुखं यथाजोषंजयोऽयमनुभूयताम्।
विश्रान्ताल्ँलव्धविश्वासाञ् श्वस्समेतास्मि वः पुनः॥५॥
वैशम्पायनः—
ततो दुर्योधनगृहं प्रासादैरुपशोभितम्।
बहुरत्नसमाकीर्णंदासीदाससमाकुलम्॥६॥
धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातो भ्रात्रा दत्तं वृकोदरः ।
प्रतिपेदे महावाहुर् मन्दरं मघवानिव॥७॥
यथा दुर्योधनगृहं तथा दुश्शासनस्य तु।
प्रासादमालासंयुक्तं हेमतोरणसंयुतम्॥८॥
दासीदाससुसम्पूर्णं प्रभूतधनधान्यवत्।
प्रतिपेदे महाबाहुर्अर्जुनो राजशासनात्॥९॥
दुर्मर्षणस्य भवनं दुश्शासनगृहाद्वरम्।
कुबेरभवनप्रख्यं मणिहेमविभूषितम्॥१०॥
नकुलाय महार्हायकर्शिताय महाहवे।
ददौ प्रीत्या महाबाहुर् धर्मसूनुर्युधिष्ठिरः॥११॥
दुर्मुखस्य तु वेश्माग्र्यं श्रीमत् कनकभूषितम्।
पूर्णपद्मदलाक्षीणां स्त्रीणां शयनसङ्कलम्॥१२॥
प्रददौ सहदेवाय सन्ततं प्रियकारिणे॥१२॥
मुमुदेतच्च लब्ध्वास कैलासं धनदो यथा॥१३॥
युयुत्सुर्विदुरश्चैव सञ्जयश्च महामतिः।
सुधर्मा चैव धौम्यश्च यथा स्वाञ् जग्मुरालयान्॥१४॥
सह सात्यकिना शौरिर् अर्जुनस्य निवेशनम्।
विवेश पुरुषव्याघ्रोव्याघ्रो गिरिगुहामिव॥१५॥
तत्र भक्ष्यान्नपानैस्ते समुपेतास्सुखोषिताः।
सुखप्रबुद्धा राजानम् उपतस्थुर्युधिष्ठिरम्॥१६॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥३९॥
॥८५॥गृहप्रविभागपर्वणि प्रथमोऽध्यायः॥१॥
[अस्मिन्नध्याये १६ श्लोकाः]
[गृहप्रविभागपर्व समाप्तम्]
______
॥ चत्वारिंशोऽध्यायः॥
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** युधिष्टिरेण कृष्णमेत्य सुखशयनादिप्रश्नपूर्वकं तत्स्तुतिः॥**
______
(राजधर्मपर्व)
जनमेजयः —
राज्यं प्राप्य महातेजा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
यदन्यदकरोद्विप्र तन्मे वक्तुमिहार्हसि॥१॥
भगवान् वा हृषीकेशस् त्रैलोक्यस्य परो गुरुः।
ऋषेयदकरोद्वीरस् तच्च व्याख्यातुमर्हसि॥२॥
वैशम्पायनः—
शृणु राजेन्द्र तत्त्वेन कीर्त्यमानं मयाऽनघ।
वासुदेवं पुरस्कृत्य यदकुर्वत पाण्डवाः॥३॥
प्राप्य राज्यं महातेजाः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
वर्णान् संस्थापयामास नयेन विनयेन च॥४॥
ब्राह्मणानां सहस्रं च स्नातकानां महात्मनाम्।
सहस्रनिष्कैरेकैकं तर्पयामास पाण्डवः॥५॥
तथाऽनुजीविनो भृत्यान् संश्रितानतिथीनपि।
कामैस्सन्तर्पयामास कृपणांस्तार्किकानपि॥६॥
पुरोहिताय धौम्याय प्रादादयुतशस्स गाः।
धनं सुवर्णं रजतं वासांसि विविधानि च॥७॥
कृपाय च महाराज पितृवत् तमतर्पयत्।
विदुराय महातेजाः पूजां चक्रे यतव्रतः॥८॥
भक्ष्यान्नपानैर्विविधैर् वासोभिश्शयनासनैः।
सर्वान् सन्तोषयामास संश्रितान् ददतां वरः॥९॥
लब्धप्रशमनं कृत्वा स राजा राजसत्तम्।
युयुत्सोर्धार्तराष्ट्रस्य पूजां चक्रे महायशाः॥१०॥
धृतराष्ट्रायतद्राज्यं गान्धार्यैविदुराय च।
निवेश्य स्वस्थवद्राजन्नास्ते राजा युधिष्ठिरः॥११॥
तथा सर्वं स नगरं प्रसाद्य जनमेजय।
वासुदेवं महात्मानम् अभ्यगच्छत् कृताञ्जलिः॥१२॥
ततो महति पर्यङ्के मणिकाञ्चनभूषिते।
ददर्श कृष्णमासीनं नीलं मेराविवाम्बुदम्॥१३॥
जाज्वल्यमानं वपुषा दिव्याभरणभूषितम्।
पीतकौशेयसंवीतं हैमेनोपहितं मणिम्॥१४॥
कौस्तुभेनाप्युरस्स्थेन मणिनाऽभिविराजितम्।
उद्यतेवोदयं शैलं सूर्येणाप्नं किरीटिनम्॥१५॥
नौपम्यं विद्यते तस्य त्रिषुलोकेषु किञ्चन॥१५॥
सोऽभिगम्य महात्मानं विष्णुं पुरुषसत्तमम्।
उवाच मधुरं राजा स्मितपूर्वमिदं तदा॥१६॥
युधिष्टिरः—
सुखेन ते निशा कच्चिद् व्युष्टा बुद्धिमतां वर।
कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रसन्नानि तवाच्युत॥१७॥
तव ह्याश्रित्य तां देवीं बुद्धिं बुद्धिमतां वर।
वयं राज्यमनुप्राप्ताः पृथिवी च वशे स्थिता॥१८॥
भवत्प्रसादाद्भगवंस् त्रिलोकातिगविक्रम।
जयं प्राप्ता यशश्चाग्र्यंन धर्मात् प्रच्युता वयम्॥१९॥
वैशम्पायनः—
तं तथा भाषमाणं तु धर्मराजं युधिष्ठिरम्।
नोवाच भगवान्किञ्चिद् ध्यानमेवान्वपद्यत॥२०॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि चत्वारिंशोऽध्यायः॥४०॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि प्रथमोऽध्यायः॥१॥
[ अस्मिन्नध्याये २०॥श्लोकाः]
॥ एकचत्वारिंशोऽध्यायः॥
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** कृष्णेन युधिष्टिरं प्रति धर्मश्रवणाय भीष्मसमीपगमनचोदना॥१॥तथा युधिष्टिरप्रार्थनया स्वस्यापि तत्रगमनाय दारुकेण रथसंयोजनम्॥**
______
युधिष्टिरः—
किमिदं परमाश्चर्यं ध्यायस्यमितविक्रम।
कच्चिल्लोकत्रयस्यास्य स्वस्ति लोकपरायण॥१॥
इन्द्रियाणिमनश्चैव बुद्धौ संवेशितानि ते।
चतुर्थं ध्यानमार्गं त्वम् आलम्ब्य पुरुषर्षभ॥२॥
अपक्रान्तो यतो जीवस् तेन मे विस्मितं मनः॥२॥
निगृहीतो हि वायुस्ते पञ्चकर्मा शरीरगः।
इन्द्रियाणि च सर्वाणि मनसि स्थापितानि ते॥३॥
सर्वे चैव गुणा देव क्षेत्रज्ञे ते निवेशिताः॥४॥
नेङ्गन्ति चैव रोमाणि यथा बुद्धिस्तथा मनः।
कुड्यकाष्ठशिलाभूतो निरीहश्चासि माधव॥५॥
यथा दीपो निवातस्थो निरिङ्गो ज्वलतेऽच्युत।
तथाऽसि भगवन्देव निश्चलो योगनिश्चयान्॥६॥
यदि श्रोतुमिहार्हामिन रहस्यं च मे हृदि।
छिन्धि मे संशयं देव प्रपन्नायाभियाचते॥७॥
त्वं हि कर्ता विकर्ता च त्वं क्षरश्चाक्षरश्च ह।
अनादिनिधनो ह्याद्यस् त्वमेकः पुरुषोत्तम्॥८॥
त्वं प्रपन्नाय भक्ताय शिरसा प्रणताय च।
ध्यानस्यास्य यथातत्त्वं ब्रूहि धर्मभृतां वर॥९॥
वैशम्पायनः—
ततस्स्वगोचरे न्यस्य मनोबुद्धीन्द्रियाणि106 च।
स्मितपूर्वमुवाचेदं भगवान्वासवानुजः॥१०॥
श्रीभगवान्—
शरतल्पगतो भीष्मश् शाम्यन्निव हुताशनः।
मां ध्याति पुरुषव्याघ्रस् ततो मे तद्गतं मनः॥११॥
यस्य ज्यातलनिर्घोषंविस्फूर्जितमिवाशनेः।
न सहेद्देवराजोऽपि तमस्मि मनसा गतः॥१२॥
येनाभिद्रुत्य तरसा समस्तं राजमण्डलम्।
उढास्तिस्रः पुरा कन्यास् तमस्मि मनसा गतः॥१३॥
त्रयोविंशतिरात्रं107 यो योधयामास भार्गवम्।
न च रामेण निस्तीर्णस् तमस्मि मनसा गतः॥१४॥
यं गङ्गा गर्भविधिना धारयामास भारतम्।
वसिष्ठशिष्यं तं तात गतोऽस्मि मनसा नृप॥१५॥
दिव्यास्त्राणि महातेजा यो धारयति बुद्धिमान्।
साङ्गांश्च चतुरो वेदांस् तमस्मि मनसा गतः॥१६॥
रामस्य दयितं शिष्यं जामदग्यस्य पाण्डव।
आधारं सर्वविद्यानां तमस्मि मनसा गतः॥१७॥
एकीकृत्येन्द्रियग्रामं मनस्संयम्य मेधया।
शरणं मामुपागच्छत् ततो मे तद्गतं मनः॥१८॥
स हि भूतं च भव्यं च भवच्च पुरुषर्षभः।
वेत्ति धर्मविदां श्रेष्ठस् ततो मे तद्गतं मनः॥१९॥
तस्मिन् हि पुरुषव्याघ्रेशान्ते भीष्मे महात्मनि।
भविष्यति मही पार्थनष्टचन्द्रेव शर्वरी॥२०॥
तद्युधिष्ठिर गाङ्गेयं भीष्मं भीमपराक्रमम्।
अभिगम्योपसङ्गृह्य पृच्छ यत्ते मनोगतम्॥२१॥
चातुर्विद्यं चातुर्होत्रं चातुराश्रम्यमेव च।
चातुर्वर्ण्यं च धर्म्यं च पृच्छ त्वं पृथिवीपते॥२२॥
तस्मिन्नस्तमिते भीष्मेकौरवाणां धुरन्धरे।
ज्ञानान्यल्पीभविष्यन्ति तस्मात्त्वां चोदयाम्यहम्॥२३॥
वैशम्पायनः—
तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य तथ्यं वचनमुत्तमम्।
सास्रकण्ठस्स धर्मज्ञो जनार्दनमुवाच ह॥२४॥
युधिष्टिरः—
यद्भवानाह भीष्मस्य प्रभावं प्रति माधव।
तथैव नात्र सन्देहो विद्यते मम माधव॥२५॥
महाभाग्यं च भीष्मस्य प्रभावश्च महात्मनः।
श्रुतं मया कथयतां ब्राह्मणानां महात्मनाम्॥२६॥
भवांश्च कर्ता लोकानां यद्ब्रवित्यरिसूदन।
तथा तदवबुध्येयं वाक्यं यादवनन्दन॥२७॥
यदि त्वनुग्रहकृता बुद्धिस्ते मयि माधव।
त्वामग्रतः पुरस्कृत्य भीष्मं पश्यामहे वयम्॥२८॥
आवृत्ते भगवत्यर्के स हि लोकान् गमिष्यति।
त्वद्दर्शनं महाबाहो तस्मादर्हति कौरवः॥२९॥
तव ह्याद्यस्य देवस्य क्षरस्यैवाक्षरस्य च।
दर्शनं तस्य लाभस्स्यात् त्वं हि ब्रह्ममयो निधिः॥३०॥
वैशम्पायनः—
श्रुत्वैवं धर्मराजस्य वचनं मधुसूदनः।
पार्श्वस्थं सात्यकिं प्राह रथो मे युज्यतामिति॥३१॥
सात्यकिस्तु परिक्रम्य केशवस्य समीपतः।
दारुकं प्राह कृष्णस्य युज्यतां रथ इत्युत॥३२॥
स सात्यकेराशुवचो निशम्य
रथोत्तमं काञ्चनभूषिताङ्गम्।
समागमत् स्वर्णमयैर्विहङ्गैर्
विभूषितं हेमपिनद्धचक्रम्॥३३॥
दिवाकरांशुप्रभमाशुगामिनं
विचित्रनानामणिरत्नभूषितम्।
नवोदितं सूर्यमिव प्रभासितं
विचित्रतार्क्ष्यध्वजिनं पताकिनम्॥३४॥
सुग्रीवसैन्यप्रमुखैर्वराश्चैर्
मनोजवैः काञ्चनभूषिताङ्गैः।
संयुक्तमावेदयदच्युताय
कृताञ्जलिर्दारुकोराजसिंह॥३५॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकचत्वारिंशोऽध्यायः॥४१॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः॥४२॥
[अस्मिन्नध्याये ३५ श्लोकाः ]
॥ द्विचत्वारिंशोऽध्यायः॥
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वैशम्पायनेन जनमेजयं प्रति भीष्मकृतकृष्णस्तवराजानुवादपूर्वकंभीष्मस्य शरीरत्यागप्रकारकथनम् ॥
जनमेजयः—
शरतल्पे शयानस्तु भारतानां पितामहः।
कथमुत्सृष्टवान् देहं कं च योगमधारयन्॥१॥
वैशम्पायनः—
श्रृणुष्वावहितो राजञ् शुचिर्भूत्वा समाहितः।
भीष्मस्य कुरुशार्दूल देहोत्सर्गं महात्मनः॥२॥
प्रवृत्तमात्रे त्वयनम् उत्तरेण दिवाकरे।
शुक्लपक्षस्य चाष्टम्यांमाघमासस्य पार्थिव॥३॥
प्राजापत्ये च नक्षत्रे मध्यं प्राप्ते दिवाकरे।
समावेशयदात्मानम् आत्मन्येव समाहितः॥४॥
विकीर्णांशुरिवादित्यो भीष्मश्शरशतैश्चितः।
शिश्ये परमया लक्ष्म्या वृतो ब्राह्मणसत्तमैः॥५॥
व्यासेन देवश्रवसा नारदेन सुरर्षिणा।
तथा जैमिनिना चापि पैलेन च महात्मना॥६॥
शाण्डिल्यगौतमाभ्यां च भारद्वाजेन धीमता।
देवस्थानेन वात्स्येन तथाऽश्मेन सुमन्तुना॥७॥
एतैश्चान्यैर्मुनिगणैर् महाभागैर्महात्मभिः।
श्रद्धादमपुरस्कारैर् वृतश्चन्द्र इव ग्रहैः॥८॥
भीष्मस्तु पुरुषव्याघ्रः कर्मणा मनसा गिरा।
शरतल्पगतः कृष्णं प्रदध्यौ प्राञ्जलिश्शुचिः॥९॥
स्वरेणाथ सुपुष्टेन तुष्टाव मधुसूदनम्।
योगेश्वरं पद्मनाभं विष्णुं जिष्णुं जगत्पतिम्॥१०॥
अनादिनिधनं जिष्णुम् आत्मयोनिं सनातनम्।
कृताञ्जलिश्शुचिर्भूत्वा वाग्विदां प्रवरः प्रभुः॥११॥
भीष्मः परमधर्मात्मा वासुदेवमथास्तुवन्॥११॥
भीष्मः—
आरिराधयिषुःकृष्णं वाचं जिगदिषामि याम्।
तया व्याससमासिन्या प्रीयतां पुरुषोत्तमः॥१२॥
शुचिं शुचिपदं हंसं तत्परं परमेष्टिनम्।
युङ्क्त्वा सर्वात्मनात्मानं तं प्रपद्ये प्रजापतिम्॥१३॥
अनाद्यन्तं परं ब्रह्म न देवा नर्षयो विदुः।
एकस्तद्वेद भगवान्धाता नारायणो हरिः॥१४॥
नारायणादृषिगणास् तथा सिद्धमहोरगाः।
देवा देवर्षयश्चैव यं विदुर्दुःखभेषजम्॥१५॥
देवदानवगन्धर्वा यक्षरक्षोमहोरगाः।
यं न जानन्ति को ह्येष कुतो वा भगवानिति॥१६॥
यमाहुर्जगतः कोशं यस्मिंश्च निहिताः प्रजाः।
यस्मिल्ँलोकास्स्फुरन्त्येते जाले शकुनयो यथा॥१७॥
यस्मिन् विश्वानि भूतानि तिष्ठन्ति प्रविशन्त्यपि।
गुणभूतानि भूतेशे सूत्रे मणिगणा इव॥१८॥
यं च विश्वस्य कर्तारं जगतस्तस्थुषःपतिम्।
वदन्ति जगतोऽध्यक्षम् अध्यात्मपरिचिन्तकाः॥१९॥
यस्मिन् नित्ये तते तन्तौ सर्वं स्रगिव तिष्ठति।
सदसद्ग्रथितंविश्वं विश्वाङ्गेविश्वकर्मणि॥२०॥
हरिं सहस्रशिरसं सहस्रचरणेक्षणम्।
सहस्रबाहुमकुटं सहस्रवदनोज्वलम्॥२१॥
प्राहुर्नारायणं देवं यं विश्वस्य परायणम्।
अणीयसामणीयांसं स्थविष्टं च स्थवीयसाम्॥२२॥
गरीयसां गरिष्ठं च श्रेष्ठं च श्रेयसामपि।
यं वाकेष्वनुवाकेषु108निपत्सूपनिषत्सु च॥२३॥
गृणन्ति सत्यकर्माणं109 सत्यं सत्येषु सामसु।
चतुर्भिश्चतुरात्मानं सत्त्वस्थास्सात्वतां पतिम्॥२४॥
यं दिव्यैः परमर्चन्ति गुह्यैःपरमनामभिः।
यं देवं देवकी देवी वसुदेवादजीजनत्॥२५॥
गोप्तारं ब्रह्मणो ह्यस्य110 दीप्तमग्निमिवारणिः॥२६॥
यमनन्यो व्यपेताशीर् आत्मानं वीतकल्मषम्।
इष्ट्वाऽनन्त्याय गोविन्दं पश्यत्यात्मानमात्मनि॥२७॥
पुराणे पुरुषंप्रोक्तं ब्रह्म प्रोक्तं युगादिषु।
क्षये सङ्कर्षणं प्रोक्तं तमुपास्यमुपास्महे॥२८॥
यमेकं बहुधाऽऽत्मानं प्रादुर्भूतमधोक्षजम्।
तं ये शक्ताः क्रियावन्तो यजन्ते सर्वकामदम्॥२९॥
ऋतमेकाक्षरं ब्रह्म यत्तत् सद्सतः परम्।
अनादिमध्यपर्यन्तं न देवा नर्षयोविदुः॥३०॥
यं सुरासुरगन्धर्वास् ससिद्धर्षिमहोरगाः।
प्रयता नित्यमर्चन्ति परमं दुःखभेषजम्॥३१॥
अनादिनिधनं देवम् आत्मयोनिं सनातनम्।
अप्रतर्क्यमवज्ञेयं हरिं नारायणं विभुम्॥३२॥
॥अथ भीष्मस्तवराजः॥
अतिवाय्विन्द्रकर्माणम् अतिसूर्याग्नितेजसम्।
अतिबुद्धीन्द्रियात्मानं तं प्रपद्ये प्रजापतिम्॥३३॥
यं वै विश्वस्य कर्तारं जगतस्तस्थुषांपतिम्।
वदन्ति जगतोऽध्यक्षम् अक्षरं परमं पदम्॥३४॥
हिरण्यवर्णंं111 यं गर्भम् अदितिर्दैत्यनाशनम्।
एकं द्वादशधा जज्ञे तस्मै सूर्यात्मने नमः॥३५॥
शुक्ले देवान्पितॄन कृष्णे तर्पयत्यमृतेन यः।
यश्च राजा द्विजातीनां तस्मै सोमात्मने नमः॥३६॥
हुताशनमुखैर्देवैर्धार्यते सकलं जगत्।
हविः प्रथमभोक्ता यस् तस्मै होत्रात्मने112 नमः॥३७॥
महतस्तमसः पारे पुरुषं ह्यतितेजसम्।
यं ज्ञात्वा मृत्युमत्येति तस्मै ज्ञेयात्मने नमः॥३८॥
यं बृहन्तं महत्युक्थे यमग्नौ यं महाध्वरे।
यं विप्रसङ्घा गायन्ति तस्मै गेया113ख - देवा")त्मने नमः॥३९॥
पादाङ्गंसन्धिपर्वाणं स्वरव्यञ्जनभूषणम्।
यमाहुरक्षरं विप्रास् तस्मै वागात्मने नमः॥४०॥
ऋग्यजुस्सामधामानं दशार्धहविराकृतिम्।
यस्सप्ततन्तुं तन्वन्ति तस्मै यज्ञात्मने नमः॥४१॥
यस्सुपर्णो यजुर्नाम च्छन्दोगात्रस्त्रिषुच्छिराः।
रथन्तरबृहत्पक्षस् तस्मै स्तोत्रात्मने नमः॥४२॥
यस्सहस्रसवे सत्रे जज्ञे विश्वसृजामृषिः।
हिरण्यपक्षश्शकुनिस् तस्मै तार्क्ष्यात्मने नमः॥४३॥
यश्चिनोति सतां सेतुम् ऋतेनामृतयोनिना।
धर्मार्थव्यवहाराङ्गैस् तस्मै सत्यात्मने नमः॥४४॥
यं पृथग्धर्मचरणाः पृथग्धर्मफलैषिणः।
पृथग्धर्मैस्समर्चन्ति तस्मै धर्मात्मने नमः॥४५॥
यं तं व्यक्तस्थमव्यक्तं विचिन्वन्ति महर्षयः।
क्षेत्रे क्षेत्रज्ञमासीनं तस्मै क्षेत्रात्मने नमः॥४६॥
यं दृगात्मानमात्मस्थं वृतं षोडशभिर्गुणैः।
प्राहुस्सप्तदशं साङ्ख्यास् तस्मै साङ्ख्यात्मने नमः॥४७॥
यं विनिद्रा जितश्वासास् सन्तुष्टास्संयतेन्द्रियाः।
ज्योतिः पश्यन्ति युञ्जानास् तस्मै योगात्मने नमः॥४८॥
अपुण्यपुण्योपरमे यं पुनर्भवनिर्भयाः।
शान्तास्संन्यासिनो यान्ति तस्मै मोक्षात्मने नमः॥४९॥
यस्याग्निरास्यं द्यौर्मूर्धा खं नाभिश्चरणौ क्षितिः।
सूर्यश्चक्षुर्दिशश्श्रोत्रं तस्मै लोकात्मने नमः॥५०॥
युगेष्वावर्तते योंशैर्मासर्त्वयनहायनैः।
सर्गप्रलययोः कर्ता तस्मै कालात्मने नमः॥५१॥
योऽसौ युगसहस्रान्ते प्रदीप्तार्चिर्विभावसुः।
सम्भक्षयति भूतानि तस्मै घोरात्मने नमः॥५२॥
सम्भक्ष्य सर्वभूतानि कृत्वा चैकार्णवं जगत्।
बालस्स्वपिति यश्चैकस् तस्मै मायात्मने नमः॥५३॥
सहस्रशिरसे तस्मै पुरुषायामितात्मने।
चतुस्सद्रमपयसि योगनिद्रात्मने नमः॥५४॥
अजस्य नाभावध्येकंयस्मिन् विश्वं प्रतिष्ठितम्।
पुष्करं पुष्कराक्षस्य तस्मै पद्मात्मने नमः॥५५॥
यस्य केशेषु जामूता नद्यस्सवाङ्गसन्धिषु।
कुक्षौ समुद्राश्चत्वारस् तस्मै तोयात्मने नमः॥५६॥
यस्मात् सर्वाः प्रवर्तन्ते सर्गप्रलयविक्रियाः।
यस्मिंश्चैव प्रलीयन्ते तस्मै हेत्वात्मने नमः॥५७॥
अकार्यस्सर्वकार्येषु धर्मकार्यार्थमुद्यतम्।
वैकुण्ठस्य हि तद्रूपं तस्मै कार्यात्मने नमः॥५८॥
ब्रह्म वक्त्र भुजौ क्षत्रं कृत्स्नमूरुदर विशः।
पादौ यस्याश्रिताश्शूद्रास् तस्मै वर्णात्मने नमः॥५९॥
अन्नपानेन्धनमयो रसप्राणविवर्धनः।
यो धारयति भूतानि तस्मै प्राणात्मने नमः॥६०॥
विषयेवर्तमानानां यं तं वैषयिकैर्गुणैः।
प्राहुर्विषयगोप्तारं तस्मै गोप्त्रात्मने नमः॥६१॥
अप्रमेयशरीराय सर्वतो बुद्धिचक्षुषे।
अपारपरिमाणाय तस्मै दिव्यात्मने नमः॥६२॥
परः कालात्परो यज्ञात्परस्सद्सतश्च यः।
अनादिरादिर्विश्वस्य तम्मै विश्वात्मने नमः॥६३॥
वैद्युतो जाठरश्चैव पावकश्शुचिरेव च।
दहनस्सर्वभक्षाणां तस्मै वह्न्यात्मने नमः॥६४॥
रसातलगतश्श्रीमान्अनन्तो भगवान् प्रभुः।
जगद्वारयते योऽसौ तस्मै शेषात्मने नमः॥६५॥
ज्वलनार्केन्दुताराणां ज्योतिषांदिव्यमूर्तिनाम्।
यस्तेजयति तेजांसि तस्मै तेजात्मने नमः॥६६॥
आत्मज्ञानमिदं सर्वं ज्ञात्वा पञ्चस्ववस्थितम्।
यं ज्ञानेनाधिगच्छन्ति तस्मै ज्ञानात्मने नमः॥६७॥
साङ्ख्यैर्योगैर्विनिश्चित्य साध्यैश्च परमर्षिभिः।
यस्य तु ज्ञायते तत्त्वं तस्मै गुह्यान्मने नमः॥६८॥
जटिने114 इण्डिने नित्यं लम्बोदरशरीरिणे।
कमण्डलुनिषङ्गाय तस्मै ब्रह्मात्मने नमः॥६९॥
यो जातो वसुदेवेन देवक्यां यदुनन्दनः।
शङ्खचक्रगदापाणिर्वासुदेवात्मने नमः॥७०॥
शिरः115 कपालमालाय व्याघ्रचर्मनिवासिने।
भस्मदिग्धशरीराय तस्मै रुद्रात्मने नमः॥७१॥
यो मोहयति भूतानि स्नेहपाशानुबन्धनैः।
सर्गस्य116 रक्षणार्थाय तस्मै मोहात्मने नमः॥७२॥
चैतन्यं सर्वतो नित्यं सर्वप्राणिहृदिस्थितम्।
सर्वातीततरं सूक्ष्मं तस्मै सूक्ष्मात्मने नमः॥७३॥
पञ्चभूतात्मभूताय भूतादिनिधनाय च।
अक्रोधद्रोहमोहाय तस्मै शान्तात्मने नमः॥७४॥
यस्मिन्117सर्वं यतस्सर्वं यस्सर्वं सर्वतश्च यः।
यश्च सर्वमयो देवस् तस्मै सर्वात्मने नमः॥७५॥
यश्शेते क्षीरपर्यङ्के दिव्यनागविभूषिते।
फणासहस्ररचिते तस्मै निद्रात्मने नमः॥७६॥
विश्वे च मरुतश्चैवरुद्रादित्याश्विनावपि।
वसवस्सिद्धसाध्याश्च तस्मै देवात्मने नमः॥७७॥
अव्यक्तबुद्ध्यहङ्कारमनोबुद्धीन्द्रियाणि च।
तन्मात्राणि विशेषाश्च तस्मै तत्वात्मने नमः॥७८॥
भूतं भव्यं भविष्यञ्चभूतादिप्रभवाप्ययः।
योऽग्रजस्सर्वभूतानां तस्मै भूतात्मने नमः॥७९॥
यं हि सूक्ष्मं विचिन्वन्ति परं सूक्ष्मविदो जनाः।
सूक्ष्मात् सूक्ष्मं च यद्ब्रह्म तस्मै सूक्ष्मात्मने नमः॥८०॥
मत्स्यो भूत्वा विरिञ्चाय येन वेदास्समाहृताः।
रसातलगतश्शीघ्रं तस्मै मत्स्यात्मने नमः॥८१॥
मन्दराद्रितो येन प्राप्ते ह्यमृतमन्थने।
अतिकर्कशदेहाय तस्मै कूर्मात्मने नमः॥८२॥
वाराहं रूपमास्थाय महीं सवनपर्वताम्।
उद्धरत्येकदंष्ट्रेणतस्मै क्रोडात्मने नमः॥८३॥
नारसिंहवपुः कृत्वा सर्वलोकभयङ्करम्।
हिरण्यकशिपुं जघ्ने तस्मै सिंहात्मने नमः॥८४॥
पिङ्गेक्षणसटं यस्य रूपं दंष्ट्रानखैर्युतम्।
दानवेन्द्रान्तकरणं तस्मै दृप्तात्मने नमः॥८५॥
वामनं रूपमास्थाय बलिं संयम्य मायया।
त्रैलोक्यं क्रान्तवान्यस्तु तस्मै कान्तात्मने नमः॥८६॥
जमदग्निसुतो भूत्वा रामश्शस्त्रभृतां वरः।
महीं निःक्षत्रियां चक्रे तस्मै रामात्मने नमः॥८७॥
त्रिस्सप्तकृत्वो यश्चैको धर्मे व्युत्क्रान्तिगौरवात्।
जधान क्षत्रियान्सङ्ख्ये तस्मै क्रोधात्मने नमः॥८८॥
रामो दाशरथिर्भूत्वा पुलस्त्यकुलनन्दनम्।
जधान रावणं सङ्ख्ये तस्मै क्षत्रात्मने नमः॥८९॥
यो हली मुसली श्रीमान् नीलाम्बरधरस्स्थितः।
रामाय रौहिणेयाय तस्मै भोगात्मने नमः॥९०॥
शङ्खिने चक्रिणे नित्यं शार्ङ्गिणे पीतवाससे।
वनमालाधरायैव तस्मै कृष्णात्मने नमः॥९१॥
वसुदेवसुतश्श्रीमान् क्रीडितो नन्दगोकुले।
कंसस्य निधनार्थाय तस्मै क्रीडात्मने नमः॥९२॥
वासुदेवत्वमागम्य118 यदोर्वंशसमुद्भवः।
भूभारहरणं चक्रे तस्मै कृष्णात्मने नमः॥९३॥
सारथ्यमर्जुनस्याजौ कुर्वन्गीतामृतं ददौ।
लोकत्रयोपकाराय तस्मै ब्रह्मात्मने नमः॥९४॥
दानवांस्तु वशे कृत्वा पुनर्बुद्धत्वमागतः।
सर्गस्य रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नमः॥९५॥
हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्छान्यस्तुरगाननः119।
धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नमः॥९६॥
तारामये कालनेमिं हत्वा दानवपुङ्गवम्।
ददौ राज्यं महेन्द्राय तस्मै साङ्ख्यात्मने120 नमः॥९७॥
यस्सर्वप्राणिनां121 देहे साक्षिभूतो ह्यवस्थितः।
अक्षरः क्षरमाणानां तस्मै साक्ष्यात्मने नमः ॥९८॥
नमोऽस्तु ते महादेव नमस्ते भक्तवत्सल।
सुब्रह्मण्य नमस्तेऽस्तु प्रसीद परमेश्वर॥९९॥
अव्यक्तं व्यक्तरूपेण व्याप्तं सर्वं त्वया विभो॥९९॥
नारायणं सहस्राक्षं सर्वलोकमहेश्वरम्।
हिरण्यनाभं यज्ञाङ्गम् अमृतं विश्वतोमुखम्॥१००॥
प्रपद्ये86 पुण्डरीकाक्षं प्रपद्ये122 पुरुषोत्तमम् ॥१०१॥
सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम् ।
येषांहृदिस्थो देवेशो मङ्गलायतनं हरिः१०२॥॥
मङ्गलं भगवान् विष्णुर् मङ्गलं मधुसूदनः।
मङ्गलं पुण्डरीकाक्षोमङ्गलं गरुडध्वजः॥१०३॥
विश्वकर्मन् नमस्तेस्तु विश्वात्मन् विश्वसम्भव।
अपवर्गस्थभूतानां पञ्चानां परमास्थित॥१०४॥
नमस्ते त्रिषु लोकेषु नमस्ते परतस्त्रिषु।
नमस्ते दिक्षु सर्वासु त्वं हि सर्वपरायणम्॥१०५॥
नमस्ते भगवन्विष्णो लोकानां प्रभवाप्यय।
त्वं हि कर्ता हुपीकेशस् संहर्ता वाऽपराजितः॥१०६॥
तेन पश्यामि ते दिव्यान् भावान् हि त्रिषु वर्त्मसु॥१०६॥१०६॥
तच्च पश्यामि तत्त्वेन यत्ते रूपं सनातनम्॥१०७॥
दिवं ते शिरसा व्याप्तंपद्भ्यां देवी वसुन्धरा।१०७॥
विक्रमेण त्रयो लोकाः पुरुशोऽसि सनातनः॥१०८॥
व्यक्ताव्यक्तस्वरूपेणव्यानं सर्वं त्वया विभो।
अव्यक्तं ब्राह्मणं रूपं व्यक्तमेतच्चराचरम्॥१०९॥
अतसीपुष्पसङ्काशं पीतवाससमच्युतम्।
ये नमस्यन्ति गोविन्दं न तेषां विद्यते भयम्॥११०॥
नारायणपरं ब्रह्म नारायणपरं तपः।
नारायणपरं सत्यं नारायणपरं परम्॥१११॥
यथा विष्णुमयं सत्यं यथा विष्णुमयं हविः।
यथा विष्णुमयं सर्वं पाप्मा मे नश्यतां तथा॥११२॥
तस्य यज्ञवराहस्य विष्णोरमिततेजसः।
प्रणामं येऽपि कुर्वन्ति तेषामपि नमो नमः॥११३॥
त्वां प्रपन्नाय भक्ताय गतिमिष्टां जिगीषते।
यच्छ्रेयः पुण्डरीकाक्ष तद्ध्यायस्वसुरोत्तम्॥११४॥
इति विद्यातपोयोनिर् अयोनिर्विष्णुरीडितः।
वाग्यज्ञेनार्चितो देवः प्रीयतां मे जनार्दनः॥११५॥
वैशम्पायनः—
एतावदुक्त्वा वचनं भीष्मस्तद्गतमानसः।
नम इत्येव कृष्णाय प्रणाममकरोत् तदा॥११६॥
तस्मिन्नुपरते वाक्ये ततस्ते ब्रह्मवादिनः।
भीष्मं वाग्भिर्वाप्पगलास्123 तमानर्चुर्महामतिम्॥११७॥
ते स्तुवन्तश्च विप्रेन्द्राः केशवं पुरुषोत्तमम्।
भीष्मं च शनकैस्सर्वे प्रशशंसुः पुनः पुनः॥११८॥
अधिगम्य च योगेन भक्तिं भीष्मस्य माधवः।
त्रैलोक्यदर्शनं ज्ञानं दिव्यं दत्त्वा ययौ हरिः॥११९॥
विदित्वा भक्तियोगं तं भीष्मस्य पुरुषोत्तमः।
सहसोत्थाय तं दृष्टो यानमेवान्वपद्यत॥१२०॥
केशवस्सात्यकिश्चैव रथेनैकेन जग्मतुः।
अपरेण महात्मानौ युधिष्ठिरधनञ्जयौ॥१२१॥
भीमसेनो यमौ चोभौ रथमेकं समास्थिताः।
कृपो युयुत्सुस्मृतश्च सञ्जयश्चापरं रथम्॥१२२॥
ते रथैर्नगराकारैः प्रयाताः पुरुषर्षभाः।
नेमिघोपेण महता कम्पयन्ते वसुन्धराम्॥१२३॥
ततो गिरः पुरुषवरस्तवेरिता
द्विजेरिताः पथिषु मनाक् स शुश्रुवे।
कृताञ्जलिं प्रणतमथापरं जनं
स केशिहा मुदितमनाभ्यनन्दत॥१२४॥
इति स्मरन्पठति च शार्ङ्गधन्वनश्
शृणोति वा यदुकुलनन्दनस्तवम्।
स चक्रभृत्प्रतिहतसर्वकिल्विषो
जनार्दनं प्रविशति देहसङ्क्षये॥१२५॥
यं योगिनः प्राणवियोगकाले
यत्नेनचित्ते विनिवेशयन्ति।
स तं पुरस्ताद्धरिमीक्षमाणः
प्राणाञ्जहौप्राप्तफलो हि भीष्मः॥१२६॥
स्तवराजसमाप्तोऽयं विष्णोरद्भुतकर्मणः।
गाङ्गेयेन पुरा गीतो महापातकनाशनः॥१२७॥
इमं नरस्स्तवराजं मुमुक्षुः
पठञ् शुचिः कलुषितकल्मषापहम्।
अतीत्य लोकानमलान्सनातनान्
पदंस गच्छत्यमृतं महात्मनः॥१२८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि द्विचत्वारिंशोऽध्यायः॥४२॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि तृतीयोऽध्यायः॥३॥
[ अस्मिन्नध्याये १२८ लोकाः ]
______
॥ त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः॥
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कृष्णयुधिष्ठिरादीनां कुरुक्षेत्रं प्रति गमनम्॥१॥ युधिष्ठिरेण कृष्णंप्रति परशुरामचरित्रकथनप्रार्थना॥२॥
वैशम्पायनः—
ततस्स च हृषीकेशस् स च राजा युधिष्ठिरः।
कृपादयश्च ते सर्वे चत्वारः पाण्डवाश्च ते॥१॥
रथैस्तैर्नगरप्रख्यैः पताकाध्वजशोभितैः।
ययुराशु कुरुक्षेत्रं वाजिभिश्शीघ्रगामिभिः॥२॥
तेऽवतीर्य कुरुक्षेत्रे केशमज्जास्थिसङ्कुले।
देहन्यासः कृतो यत्र क्षत्रियैस्तैर्महारथैः॥३॥
गजाश्वदेहास्थिचयैः पर्वतैरिव सञ्चितैः।
नरशीर्षकपालैश्च हंसैरिव च सर्वशः॥४॥
चितासहस्रैर्निचितं वर्मशस्त्रसमाकुलम्।
आपानभूमिं कालस्य तदा भुक्तोज्झितामिव॥५॥
भूतसङ्घानुचरितं रक्षोगणनिषेवितम्।
पश्यन्तस्ते कुरुक्षेत्रं ययुराशुमहारथाः॥६॥
गच्छन्नेव महाबाहुस् सर्वं यादवनन्दनः।
युधिष्ठिराय प्रोवाच जामदग्न्यस्य विक्रमम्॥७॥
श्रीभगवान्—
अमी रामह्रदाः पञ्च दृश्यन्ते पार्थ दूरतः।
येषु सन्तर्पयामास पूर्वान्क्षत्रियशोणितैः॥८॥
त्रिस्सप्तकृत्वो वसुधां कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।
इहेदानीं ततो रामः कर्मणो विरराम ह॥९॥
युधिष्ठिरः—
त्रिस्सप्तकृत्वः पृथिवी कृता निःक्षत्रिया पुरा।
रामेणेति यदात्थत्वम् अत्र मे संशयो महान्॥१०॥
क्षत्रबीजं यथा दुग्धं रामेण यदुपुङ्गव।
कथं भूयस्समुत्पत्तिः क्षत्रस्यामितविक्रम॥११॥
महात्मना भगवता रामेण यदुनन्दन।
कथमुत्सादितं क्षत्रं कथमृद्धिगतं पुनः॥१२॥
महाभारतयुद्धे हि कोटिशः क्षत्रिया हताः।
तथाऽभूच्च मही कीर्णा क्षत्रियैर्वदतां वर॥१३॥
एतन्मे छिन्धि वार्ष्णेय संशयं तार्क्ष्यकेतन।
आगमो हि परः कृष्ण त्वत्तो नो वासवानुज॥१४॥
वैशम्पायनः —
ततो व्रजन्नेव गदाग्रज प्रभुश्
शशंसतस्मै निखिलेन तत्त्वतः।
युधिष्ठिरायाप्रतिमौजसे तथा
यथाऽभवत् क्षत्रियसङ्कुला मही॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायांवैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः॥४३॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
[अस्मिन्नध्याये १५ श्लोकाः ]
______
॥ चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥
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कृष्णेन युधिष्ठिरं प्रति परशुरामचरितकथनम्॥
श्रीभगवान्—
शृणु कौन्तेय रामस्य मया यावत् परिश्रुतम्।
महर्षीणां कथयतां कारणं तस्य जन्म च॥१॥
यथा च जामदग्न्येन कोटिशः क्षत्रिया हताः।
सम्भूता राजवंशेषु ये भूयां भारते हताः॥२॥
जहोरुजह्नुस् तनयो वल्लभस्तस्य चात्मजः।
कुशिको नाम धर्मज्ञस् तस्य पुत्रो महीपतिः॥३॥
उग्रंतपस्समातिष्ठन्सहस्राक्षसमो विभुः।
पुत्रं लभेयममितं त्रिलोकेश्वरमित्युत॥४॥
तमुग्रतपसं दृष्ट्वा सहस्राक्षः पुरन्दरः।
समर्थं पुत्रजनने स्वयमेवैत्य भारत॥५॥
पुत्रत्वमगमद्राजंस् तस्य लोकेश्वरेश्वरः।
गाधिर्नामाभवत् पुत्रः कौशिकः पाकशासनः॥६॥
तस्य कन्याऽभवद्राजन्नाम्ना सत्यवती विभो।
तां गाधिर्भृगुपुत्राय ऋचीकाय ददौ प्रभुः॥७॥
ततस्तया हि कौन्तेय भार्गवः कुरुपुङ्गव।
पुत्रार्थं श्रपयामास चरुं गाधेस्तथैव च॥८॥
आहूय चाह तां भार्याम् ऋचीको भार्गवस्तदा॥८॥
ऋचीकः—
उपयोज्यश्चरुरयं त्वया मात्रा च भामिनी॥९॥
तस्या जनिष्यते पुत्रो दीप्तिमान्क्षत्रियर्षभः।
अजय्यः क्षत्रियैर्लोके क्षत्रियर्षभसूदनः॥१०॥
तवापि पुत्रं कल्याणि श्रुतिमन्तं तपोन्वितम्।
शमात्मकं द्विजश्रेष्ठंचरुरेषविधास्यति॥११॥
श्रीभगवान् —
इत्येवमुक्त्वा तां भार्यां ऋचीको भृगुनन्दनः।
तपस्यभिरतो धीमाञ् जगामारण्यमेव च॥१२॥
एतस्मिन्नेव काले तु तीर्थयात्रापरो नृपः।
गाधिस्सदारस्सम्प्राप्त ऋचीकस्याश्रमं प्रति॥१३॥
चरुद्वयं गृहीत्वा तु राजन्सत्यवती तदा।
भर्त्रादत्तं प्रसन्नेन मात्रे हृष्टा न्यवेदयत्॥१४॥
माता तु तस्याः कौन्तेय दुहित्रे स्वं चरुं ददौ।
तस्याश्चरुमथाज्ञातम् आत्मसंस्थं चकार ह॥१५॥
अथ सत्यवती गर्भं क्षत्रियान्तकरं तदा।
धारयामास दीप्तेन वपुषा घोरदर्शनम्॥१६॥
तामृचीकस्तदा दृष्ट्वा ध्यानयोगेन भारत।
अब्रवीद्भृगुशार्दूलस् स्वां भार्यां वरवर्णिनीम्॥१७॥
ऋचीकः—
मात्राऽसि व्यंसिता भद्रे चरुव्यत्यासहेतुना।
तस्माज्जनिष्यते पुत्रः क्रूरकर्मा महाबलः॥१८॥
जनयिष्यति माता ते ब्रह्मभूतं तपोधनम्।
विश्वं हि ब्रह्म तपसा मया तत्र समर्पितम्॥१९॥
श्रीभगवान् —
सैवमुक्ता महाभागा भर्त्रासत्यवती तदा ।
पपात शिरसा तस्मै वेपन्ती चाब्रवीदिदम्॥२०॥
सत्यवती—
नार्होऽसि भगवन्नद्य वक्तुमेवंविधं वचः।
ब्राह्मणाषशदं पुत्रं प्राप्स्यसीति महामुने॥२१॥
ऋचीकः—
नैवं सङ्कल्पितः कामो मया भद्रे तथा त्वयि।
उग्रकर्मा भवेत् पुत्रश्चरुव्यत्यासकारणात्॥२२॥
सत्यवती—
इच्छल्ँलोकानपि मुने सृजेथाः किं पुनर्मम्।
शमात्मकमृजुं पुत्रं लभेयं तपतां वरम्॥२३॥
ऋचीकः—
नोक्तपूर्वं मया भद्रे स्वैरेष्वप्यनृतं124 वचः।
किमुताग्निंसमाधाय मन्त्रवच्चरुसाधने॥२४॥
सत्यवती—
काममीदृ्ग्भवेत् पौत्रो मा मैवं तनयः प्रभो।
शमात्मकमृजुं पुत्रं लभेयं जपतां वर॥२५॥
ऋचीकः —
पुत्रे नास्ति विशेषो मे पौत्रे वा वरवर्णिनि।
यथा त्वयोक्तं तु वचस् तथा भद्रे भविष्यति॥२६॥
श्रीभगवान् —
ततस्सत्यवती पुत्रं जनयामास भार्गवम्।
तपस्यभिरतं दान्तं125 जमदग्निं शमात्मकम्॥२७॥
विश्वामित्रं च दायादंगाधिः कुशिकनन्दनः।
प्राप ब्रह्मर्षिसमितं विश्वेन ब्रह्मणा युतम्॥२८॥
ऋचीको जनयामास जमदग्निं तपोनिधिम्॥२८॥
सोऽपि पुत्रं ह्यजनयज् जमदग्निस्सुदारुणम्।
सर्वविद्यान्तगं श्रेष्ठं धनुर्वेदस्य पारगम् ॥२९॥
रामं क्षत्रियहन्तारं प्रदीप्तमिव पावकम्॥३०॥
एतस्मिन्नेव काले तु कृतवीर्यात्मजो बली।
अर्जुनो नाम तेजस्वी क्षत्रियो हैहयान्वयः॥३१॥
दत्तात्रेयप्रसादेन126 राजा बाहुसहस्रवान्।
अजयत् पृथिवीं सर्वां सप्तद्वीपां सपर्वताम्॥३२॥
सबाह्वस्त्रबलेनाजौधर्मेण परमेण च।
तृषितेन च कौरव्य भिक्षितश्चित्रभानुना॥३३॥
सहस्रबाहुर्विक्रान्तः प्रादाद्भिक्षामथाग्ननये।
ग्रामान्पुराणि राष्ट्राणि पट्टणान्यटवीस्तथा॥३४॥
जज्वाल तस्य वाणेद्धचित्रभानुर्दिघक्षया॥३४॥
स तस्य पुरुषेन्द्रस्य प्रभावेण महौजसः।
ददाह कार्तवीर्यस्य शैलानपि धरामपि ॥३५॥
स शून्यमाश्रमारण्यं वरुणस्यात्मजस्य तत्।
ददाह पवनेनेद्धश् चित्रभानुस्सहैहयः॥३६॥
आपतन्तं ततो रोषाच्छशापार्जुनमच्युत।
दग्धे श्रमे महाराज कार्तवीर्येण वीर्यवान्॥३७॥
वरुणात्मजः—
त्वया न वर्जितं मोहाद् यस्माद्वनमिदम् मम।
दग्धं तस्माद्रणे रामो बाहूंस्ते च्छेत्स्यतेऽर्जुन॥३८॥
श्रीभगवान्—
अर्जुनस्तु महाराज बली नित्यं शमात्मकः।
ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च दाता शूरश्च भारत॥३९॥
तस्य पुत्रास्सुबलिनश्शापेनासन्पितुर्वधे।
निमित्तमवलिप्तास्ते नृशंसाश्चैव नित्यदा॥४०॥
जमदग्नेस्तु धेन्वास्ते वत्समानिन्युरच्युत।
अज्ञातं कार्तवीर्यस्य हेहयेन्द्रस्य धीमतः॥४१॥
ततोऽर्जुनस्य वाहून्स चिच्छेद रुषितोऽनघ।
प्रत्याजहार तं वत्सं जामदग्न्यस्त्वमाश्रमम्॥४२॥
अर्जुनम्य स्तुतास्तेऽथ सम्भूयाबुद्धयस्तदा।
गत्वाऽऽश्रममसम्बुद्धा जमदग्नेर्महात्मनः॥४३॥
अपातयन्त भल्लाग्नैश्शिरः कायान्नराधिप॥४४॥
समित्कुशार्थं रामस्य निर्गतस्य महात्मनः।
प्रत्यक्षं राममातुश्च तथैवाश्रमवासिनाम्॥४५॥
श्रुत्वा रामस्तमर्थं च क्रुद्धः कालानलोपमः।
धनुर्वेदेऽद्वितीयो हि दिव्यास्त्रैस्समलङ्कृतः॥४६॥
चन्द्रबिम्बार्धसङ्काशं परशुं गृह्य भार्गवः।
ततः पितृवधामर्षाद् रामः परममन्युमान्॥४७॥
निःक्षत्रियां प्रतिश्रुत्यमहीं शस्त्रमगृह्णत॥४७॥
ततस्स भृगुशार्दूलः कार्तवीर्यस्य वीर्यवान्।
विक्रम्य निजघानाशु पुत्रान् पौत्रांस्तथैव च॥४८॥
स हेहयसहस्राणि हत्वा परममन्युमान्।
महीं सागरपर्यन्तां चकार रुधिरोक्षिताम्॥४९॥
स तथा सुमहातेजाः कृत्वा निःक्षत्रियां महीम्।
कृपया परयाऽऽविष्टो वनमेव जगाम ह॥५०॥
ततो वर्षसहस्रेषु समतीतेषु केषुचिन्त्।
कोपं सम्प्राप्तवांस्तीव्रंप्रकृत्या कोपनः प्रभुः॥५१॥
विश्वामित्रस्य पौत्रस्तु रैभ्यपुत्रो महातपाः।
परावसुर्महाराज क्षिप्त्वाऽहंजनसंसदि॥५२॥
परावसुः—
ये ते ययातिपतने यज्ञे सन्तस्समागताः।
प्रतर्दनप्रभृतयो राम किं क्षत्रिया न ते॥५३॥
मिथ्याप्रतिज्ञो राम त्वं कत्थसे जनसंसदि।
भयात्क्षत्रियवीराणां पर्वतं समुपाश्रितः५४॥
श्रीभगवान्—
स पुनः क्षत्रियशतैः पृथिवीमनुसन्तताम्।
परावसोस्तु तच्छ्रुत्वा शस्त्रं जग्राहभार्गवः॥५५॥
ततो ये क्षत्रिया राजञ् शतशस्तेन विर्जिताः।
ते विवृद्धा महावीर्याः पृथिवीपतयोऽभवन्॥५६॥
स पुनस्ताञ्जघानाशु बालानपि नराधिप।
गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ता पुनरेवाभवत् तदा॥५७॥
जातं जातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह।
अरक्षंश्चसुतान्कांश्चित् तदा क्षत्रिययोषितः॥५८॥
त्रिसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।
दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददात्ततः॥५९॥
क्षत्रियाणां तु शेषार्थं करेणोद्दिश्य काश्यपः।
स्रुक्प्रग्रहवता राजञ्छ्रीमान्वाक्यमथाब्रवीत्॥६०॥
काश्यपः —
गच्छ पारं समुद्रस्य दक्षिणस्य महामुने।
न ते मद्विषये राम वस्तव्यमिह कर्हिचित्॥६१॥
पृथिवी दक्षिणा दत्ता वाजिमेधे ममत्वया।
पुनरस्याः पृथिव्या हि दत्त्वाऽऽदातुमनीश्वरः॥६२॥
श्रीभगवान्—
ततश्शूर्पाकरोद्देशं सागरस्तस्य निर्ममे।
सन्त्रासाज्जामदग्यस्य सोऽपरान्तमहीतलम्॥६३॥
काश्यपस्तु महाराज प्रतिगृह्य महीमिमाम्।
कृत्वा ब्राह्मणसंस्थां वै प्रविवेश महावनम्॥६४॥
तत्र शूद्राश्च वैश्याश्च यथा स्वैरप्रचारिणः।
अवर्तन्त द्विजाग्र्याणां दारेषु भरतर्षभ॥६५॥
अराजके जीवलोके दुर्बला बलवत्तरैः।
वध्यन्ते न च वित्तेषु प्रभुत्वमिह कस्यचित्॥६६॥
ब्राह्मणा मद्यपाः127 केचिन्मूर्खाः पण्डितमानिनः।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याश् शूद्राश्चोत्पथगामिनः॥६७॥
परस्परं समाश्रित्य घातयन्त्यपथे स्थिताः॥६८॥
स्वधर्मं ब्राह्मणास्त्यक्त्वा पाषण्डांश्च समाश्रिताः।
चौरिकानृतमायाश्च सर्वे चैव प्रकुर्वते॥६९॥
स्वधर्मस्थान्द्विजन्हत्वा तथाऽऽश्रमनिवासिनः॥६९॥
वैश्यास्सत्पथसंस्थाश्च शूद्रोये चैव धार्मिकाः।
तान्सर्वान्घातयन्ति स्म दुराचारास्सुनिर्भयाः॥७०॥
यज्ञाध्ययनशीलांश्च आश्रमस्थांस्तपस्विनः॥७१॥
गोबालवृद्धनारीणां नाशं कुर्वन्ति चापरे।
आन्वीक्षकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिः प्रवर्तते॥७२॥
व्रात्यतां समनुप्राप्ता बहवो हि द्विजातयः।
अधरोत्तरापचारेण म्लेच्छभूताश्च सर्वशः॥७३॥
ततः कालेन पृथिवी प्रविवेश रसातलम्।
अरक्ष्यमाणा विधिवत् क्षत्रियैर्धर्मरक्षिभिः॥७४॥
तां128 दृष्ट्वा द्रवतीं तत्र सन्त्रासात्स महामनाः।
ऊरुणा धारयामास काश्यपः पृथिवीं ततः॥७५॥
निमज्जन्ती ततो राजंस् तेनोर्वीति मही स्मृता॥७५॥
रक्षणं च समुद्दिश्य प्रायाचत्पृथिवी तदा।
प्रसाद्य काश्यपं देवी क्षत्रियान्बाहुशालिनः॥७६॥
पृथिवी—
सन्ति ब्रह्मन् मया गुप्ता नृषुक्षत्रियपुङ्गवाः।
हेहयानां कुले जातास् ते रक्षन्तु महामुने॥७७॥
अस्ति कौरवदायादो विदूरथसुतः प्रभो।
ऋक्षैस्संवर्धितो विप्र ऋक्षवत्यथपर्वते॥७८॥
तथाऽनुकम्पमानेन यज्वनाऽनन्यतेजसा।
पराशरेण दायादस् सौदासस्याभिरक्षितः॥७९॥
सर्वकर्माणि कुरुते तस्यर्षे शूद्रवद्धि सः।
सर्वकर्मेत्यभिख्यातस् स मां रक्षतु पार्थिवः॥८०॥
शिबिपुत्रो महातेजा गोपतिर्नाम नामतः।
वने संरक्षितो गोभिस् सोऽभिरक्षतु मां मुने॥८१॥
प्रतर्दनस्य पुत्रस्तु वत्सो नाम महाबलः।
वत्सैर्स्संवर्धितो गोष्ठे स मां रक्षतु पार्थिवः॥८२॥
दधिवाहनपुत्रस्तु पौत्रो दिविरथस्य च।
अङ्गस्स गौतमेनापि गङ्गाकूलेऽभि129रक्षितः॥८३॥
बृहद्रथो महातेजा भूमिर्भूतिपरिष्कृतः।
गोलाङ्गूलैर्महाराजो गृध्रकूटेऽभिरक्षितः॥८४॥
मरुत्तस्यान्ववाये तु चतुर्वर्षानृपा स्त्रियः।
मरुत्पतिसमा वीर्ये समुद्रेणाभिरक्षिताः॥८५॥
एते क्षत्रियदायादास् तत्र तत्र परिश्रुताः।
सम्यङ्मामभिरक्षन्तु ततस्स्थास्यामि निश्चला॥८६॥
एतेषां पितरश्चैव तथैव च पितामहाः।
मदर्थं निहता युद्धे रामेणाक्लिष्टकर्मणा॥८७॥
तेषां शोकप्रणाशो वै मया कार्यो न संशयः।
न ह्यहं कामये नित्यम् अविक्रान्तेन रक्षणम् ॥८८॥
श्रीभगवान् —
ततः पृथिव्या निर्दिष्टान्समानीयाथ काश्यपः।
अभ्यषिञ्चन्महीपालान्क्षत्रियन्वीरसम्मतान्॥८९॥
तेषां पुत्रांश्च पौत्रांश्च येषां वंशाः प्रतिष्ठिताः॥९०॥
एवमेतत् पुरावृत्तं यन्मां पृच्छसि पाण्डव॥९०॥
वैशम्पायनः—
एवं ब्रुवन्नेव यदुप्रवीरो
युधिष्ठिरं धर्मभृतां वरिष्ठम्।
रथेन तेनाभिययौ यथाऽर्को
विशन्प्रभाभिर्भगवांस्त्रिलोकीम्॥९१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४४॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
[ अस्मिन्नध्याये ९१॥श्लोकाः ]
॥ पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः॥
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कृष्णेन भीष्मप्रशंसनपूर्वकं तं प्रति युधिष्टिराय धर्मोपदेशचोदना॥
वैशम्पायनः—
ततो रामस्य तत् कर्म श्रुत्वा राजा युधिष्ठिरः।
विस्मयं परमं गत्वा प्रत्युवाच जनार्दनम्॥१॥
युधिष्टिरः—
अहो रामस्य वार्ष्णेय शक्रस्येव महात्मनः।
विक्रमो येन वसुधा क्रोधाग्निः क्षत्रिया कृता॥२॥
गोभिस्समुद्रेण तथा गोलाङ्गूलर्क्षवानरैः।
गुप्ता रामभयोद्विग्नाः क्षत्रियाणां कुलोद्वहाः॥३॥
अहो धन्यो नृलोकोऽयं सभाग्याश्च नरा भुवि।
यत्र कर्मेदृशं सम्यक् द्विजाग्र्यैः कृतमच्युत॥४॥
वैशम्पायनः—
कथयन्तौ कथां तात तावच्युतयुधिष्ठिरौ।
जग्मतुर्यत्र गाङ्गेयश्शरतल्पगतः प्रभुः॥५॥
ततस्ते ददृशुर्भीष्मंशरप्रस्तरशायिनम्।
सुरश्मिमालासंवीतं सायंसूर्यसमप्रभम्॥६॥
उपास्यमानं मुनिभिर् देवैरिव शतक्रतुम्।
देशे परमधर्मिष्ठे नदीमोघवतीमनु॥७॥
दूरादेव समालोक्य कृष्णो राजा च धर्मजः।
चत्वारः पाण्डवाश्चैव ते च शारद्वतादयः॥८॥
अवस्कन्द्य च वाहेभ्यस् संयम्य प्रचलं मनः।
एकीकृत्येन्द्रियग्रामम् उपतस्थुर्महामुनीन्॥९॥
अभिवाद्य तु गोविन्दस् सात्यकिस्ते च कौरवाः।
व्यासादींस्तानृषीन्पश्चाद् गाङ्गेयमुपस्थिरे॥१०॥
तपोवृद्धिं ततः पृष्ट्वा गाङ्गेयं यदुपुङ्गवः।
परिवार्य ततस्सर्वे निषेदुः पुरुषर्षभाः॥११॥
ततो निशाम्य गाङ्गेयं शाम्यमानमिवानलम्।
किञ्चिद्दीनमना भीष्मम् इति होवाच केशवः॥१२॥
श्रीभगवान्—
कच्चिज्ज्ञानानि ते भीष्मप्रसन्नानि यथापुरम्।
कञ्चिन्न व्याकुला चैव बुद्धिस्ते वदतां वर॥१३॥
शराभिघातदुःखार्तं कच्चिद्गात्रं न दूयते।
मानसादपि दुःखाद्धि शारीरं बलवत्तरम्॥१४॥
वरदानात् पितुः कामं छन्दमृत्युरसि प्रभो।
शन्तनोधर्मशीलस्यनन्वेतदिहकारणम्॥१५॥
सुसूक्ष्मोऽपीह देहे वै शल्यो जनयते रुजम्।
किंषुनश्शरसङ्घातैश् चितस्य तव पार्थिव॥१६॥
कामं नैतत्तवाख्येयं प्राणिनां प्रभवाप्ययौ।
भवानुपदिशेच्छ्रेयो देवानामपि भारत॥१७॥
यच्चभूतं भविष्यं च भवच्च पुरुषर्षभ।
सर्वं तज्ज्ञानवृद्धस्य तव पाणाविहाहृतम्॥१८॥
संसारस्येह भूतानां धर्मस्य च फलोदयः ।
विदितस्ते महाप्राज्ञ त्वं हि धर्ममयो निधिः॥१९॥
न हि राज्ये स्थितं कञ्चित् समग्राङ्गमरोगिणम्।
स्त्रीसहस्रैः परिवृतं पश्यामेहोर्ध्वरेतसम्॥२०॥
स पाण्डवेयस्य मनस्समुत्थितं
नरेन्द्र शोकं व्यपकर्ष मेधया।
भवद्विधा ह्युत्तमबुद्धिविस्तरा
विमुह्यमानस्य जनस्य शान्तये॥३८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः॥४५॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि षष्टोऽध्यायः॥६॥
[ अस्मिन्नध्याये ३८ श्लोकाः ]
______
॥ षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥
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भीष्मेण कृष्णं प्रति स्तुतिपूर्वकं श्रेयःप्रार्थना॥१॥ कृष्णेन भीष्मायश्रेयःप्रदानपूर्वकं तं प्रति धर्मकथनचोदना॥२॥
______
वैशम्पायनः—
श्रुत्वा तु वचनं भीष्मोवासुदेवस्य धीमतः।
किञ्चिदुन्नाम्य वदनं प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्॥१॥
भीष्मः—
नमस्ते भगवन्कृष्ण लोकानां प्रभवाप्यय।
त्वं हि कर्ता हृषीकेश महर्ता चापराजितः॥२॥
विश्वकर्मन् नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन्विश्वसम्भव।
अपवर्गस्थ130 भूतानां पञ्चानां परतस्स्थित॥३॥
नमस्ते त्रिषुलोकेषुनमस्ते परतस्त्रिषु।
योगेश्वर नमस्तेऽस्तु त्वं हि सर्वपरायणः॥४॥
मत्संश्रितं यदात्थ त्वं वचः पुरुषसत्तम्।
तेन पश्यामि ते दिव्यान्भावांस्त्रिषु च वर्त्मसु॥५॥
तच्च पश्यामि तत्त्वेन यत्ते रूपं सनातनम्।
सप्त मार्गा निरुद्धास्ते वायोरमिततेजसः॥६॥
दिवं ते शिरसा व्याप्तं पद्भ्यां देवी वसुन्धरा।
दिशो भुजा रविश्चक्षुर् वीर्ये शक्रःप्रतिष्ठितः॥७॥
अतसीपुष्पसङ्काशं पीतवाससमच्युतम्।
वपुर्ह्यनुमिमीमस्ते मेघस्येव सविद्युतः॥८॥
त्वां प्रपन्नाय भक्ताय गतिमिष्टां जिगीषवे।
यच्छ्रेयः पुण्डरीकाक्ष तद्ध्यायस्व सुरोत्तम्॥९॥
श्रीभगवान् —
यतः खलु परा भक्तिर् मयि ते पुरुषर्षभ।
ततो मया वपुर्दिव्यं तव राजन्विदर्शितम्॥१०॥
न ह्यभक्ताय राजेन्द्र भक्तायानृजवे न च।
दर्शयाम्यहमात्मानं न चादान्ताय भारत॥११॥
भवांश्च मम भक्तश्चनित्यं चार्जवमास्थितः।
दमे तपसि सत्ये च दाने च निरतश्शुचिः॥१२॥
अर्हस्त्वं भीष्म मां द्रष्टुं तपसा स्वेन पार्थिव।
तव ह्युपस्थिता लोका येभ्यो नावर्तसे पुनः॥१३॥
पञ्चाशतं षट् च कुरुप्रवीर
शेषंदिनानां तव जीवितस्य।
ततश्शुभैः कर्मफलोदयैस्त्वं
समेष्यसे भीष्म विमुच्य देहम्॥१४॥
एते हि देवा वसवो विमाना–
न्यास्थाय सर्वे ज्वलिताग्निकल्पाः।
अन्तर्हितास्त्वां प्रतिपालयन्ति
काष्ठां प्रपद्यन्तमुद्क्पतङ्गम्॥१५॥
व्यावृत्तमात्रे भगवत्युदीचीं
सूर्ये जगत्कालवशं प्रपन्ने।
गन्तासि लोकान्पुरुषप्रवीर
नावर्तते यानुपलभ्य विद्वान॥१६॥
अमुं च लोकं त्वयि भीष्मयाते
ज्ञानानि सर्वाणि पराभविष्यन्।
अतस्तुसर्वे तव सन्निकर्षं
समागता धर्मविवेचनाय॥१७॥
तज्ज्ञातिशोकोपहतश्रुताय
सत्याभिसन्धाय युधिष्ठिराय।
प्रब्रूहि धर्मार्थसमाधियुक्तं
तथ्यं वचोऽस्यापनुदेच्छ्रमं तत्॥१८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४६॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि सप्तमोऽध्यायः॥७॥
[अस्मिन्नध्याये १८ श्लोकाः ]
______
॥ सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः॥
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भीष्मेण कृष्णं प्रति स्वस्य शस्त्रसञ्छिन्नशरीरतया धर्मकथनापाटवप्रकटनम् ॥१॥ कृष्णेन भीष्माय शरीरदार्ढ्यादिप्रदानम्॥२॥ ततःसायं सर्वेषां स्वस्वस्थानगमनम्॥३॥
______
वैशम्पायनः—
ततः कृष्णस्य तद्वाक्यंधर्मार्थसहितं हितम्।
श्रुत्वा शान्तनवः कृष्णं प्रत्युवाच कृताञ्जलिः॥१॥
भीष्मः—
लोकनाथ महाबाहो शिव नारायणाच्युत।
तव वाक्यमुपश्रुत्य हर्षेणास्मिपरिप्लुतः॥२॥
किञ्चाहमभिधास्यामि वाक्पते तव सन्निधौ।
यदा वचोगतं सर्वं तव वाचि समाहितम्॥३॥
यद्धि किञ्चित् कृतं लोके कर्तव्यं क्रियते च यत्।
त्वत्तस्तन्निस्सृतं देव लोको बुद्धिमयो हि ते॥४॥
कथयेद्देवलोकं यो देवराजसमीपतः।
धर्मकामार्थमोक्षाणां कोऽर्थं ब्रूयात् तवाग्रतः॥५॥
शराभिघातव्यथितं मनो मे मधुसूदन।
गात्राणि चावसीदन्ति न च बुद्धिः प्रसीदति॥६॥
न च मे प्रतिभा काचिद् अस्ति किञ्चित् प्रभाषितुम्।
पीड्यमानस्य गोविन्द विषानलसमैश्शरैः॥७॥
प्रजहाति बलं वै मा प्राणासन्त्वरयन्ति च।
मर्माणि परितप्यन्ते भ्रान्तं चेतस्तथैव च॥८॥
दौर्बल्यात्सज्जते वाङ्मे स कथं वक्तुमुत्सहे।
साधु मे त्वं प्रसीदस्व दाशार्हकुलनन्दन॥९॥
तत् क्षमस्व महाबाहो न ब्रूयांकिञ्चिदच्युत।
त्वत्सन्निधौ च सीदेद्धि वाचस्पतिरपि ब्रुवन्॥१०॥
न दिशस्सम्प्रजानामि नाकाशं न च मेदिनीम्।
केवलं तव वीर्येण तिष्ठामि मधुसूदन॥११॥
स्वयमेव भवांस्तस्माद् धर्मराजस्य यद्धितम्।
तद्ब्रवीत्वाशु सर्वेषाम् आगमानां समागमम्॥१२॥
कथं त्वयि स्थिते कृष्ण शाश्वते लोककर्तरि।
प्रब्रूयान्मद्विधः कश्चिद् गुरौ शिष्य इव स्थिते॥१३॥
श्रीभगवान्—
उपपन्नमिदं वाक्यं कौरवाणां धुरन्धरे।
महावीर्ये महासत्वे स्थिरे सर्वार्थदर्शिनि॥१४॥
यच्च मामात्थ गाङ्गेय वाणघातरुजं प्रति।
गृहाणात्र वरं भीष्म मत्प्रसादकृतं विभो॥१५॥
न ते ग्लानिर्न ते मूर्च्छान तापो न च ते रुजा।
प्रभविष्यन्ति गाङ्गेय क्षुत्पिपासे न चाप्युत॥१६॥
ज्ञानानि च समग्राणि प्रतिभास्यन्ति तेऽनघ ।
न च ते क्वचिदासक्तिर् बुद्धेः प्रादुर्भविष्यति॥१७॥
सत्त्वस्थं च मनो नित्यं तव भीष्म भविष्यति।
रजस्तमोभ्यां निर्मुक्तं घनैर्मुक्त इवोडुराट्॥१८॥
यद्यच्च धर्मसंयुक्तम् अर्थयुक्तमथापि च।
चिन्तयिष्यसि तत्राग्र्या बुद्धिस्तव भविष्यति॥१९॥
इमं च राजशार्दूल भूतग्रामं चतुर्विधम्।
चक्षुर्दिव्यं समाश्रित्य द्रक्ष्यस्यमितविक्रम॥२०॥
चतुर्विधं प्रजाजालं संयुक्तो ज्ञानचक्षुषा।
भीष्मं द्रक्ष्यसि तत्त्वेन जले मीन इवामले॥२१॥
वैशम्पायनः—
ततस्ते व्याससहितास् सर्व एव महर्षयः।
ऋग्यजुस्सामसंयुक्तैर् वचोभिः कृष्णमार्चयन्॥२२॥
ततस्सर्वार्तवं दिव्यं पुष्पवर्षंनभस्स्थलात्।
पपात यत्र वार्ष्णेयस् सगाङ्गेयस्सपाण्डवः॥२३॥
वादित्राणि च दिव्यानि जगुश्चाप्सरसां गणाः।
न चाहितमनिष्टं च किञ्चित् तत्र व्यदृश्यत॥२४॥
ववौ शिवस्सुखो वायुस् सर्वगन्धवहश्शुचिः।
शान्तायां दिशि शान्ताश्चप्रावदन्मृगपक्षिणः॥२५॥
ततो मुहूर्ताद्भगवान्सहस्रांशुदिवाकरः।
दहन्वनमिवैकान्ते प्रतीच्यां प्रत्यदृश्यत॥२६॥
ततो महर्षयस्सर्वे समुत्थाय जनार्दनम्।
भीष्मं चामन्त्रयाञ्चक्रूराजानं च युधिष्ठिरम्॥२७॥
ततः प्रणाममकरोत्केशवः पाण्डवस्तथा।
सात्यकिस्सञ्जयश्चैव स च शारद्वतः कृपः॥२८॥
ततस्ते धर्मनिरतास् सम्यक् तैरपि पूजिताः।
श्वस्समेप्याम इत्युक्त्वा यथेष्टं त्वरिता ययुः॥२९॥
तथैवामन्त्र्य गाङ्गेयं केशवस्ते च पाण्डवाः।
प्रदक्षिणमुपावृत्य स्थानारुरुहुश्शुभान्॥३०॥
ततो रथैः काञ्चनदन्तकूबरैर्
महीधराभैस्समदैश्च दन्तिभिः।
हयैस्सुपर्णैरिव चाशुगामिभिः
पदातिभिश्चात्तशरासनादिभिः॥३१॥
ययौ स्थानां पुरतो हि सा चमूस्
तथैव पश्चादतिमात्रकारिणी।
पुरश्च पश्चाच्च यथा महानदी
पुरर्क्षवन्तं गिरिमेत्य नर्मद॥३२॥
ततः पुरस्ताद्भगवान्निशाकरस्
समुत्थितस्तामभिहर्षयंश्चमूम्।
दिवाकरापीतरसास्तथौषधीः
पुनस्स्वकेनैव गुणेन योजयन्॥३३॥
ततः पुरं सुरपुरसन्निभद्युति
प्रविश्य ते यदुवरपाण्डवास्तदा।
यथोचितान्भवनवरान्समाविशन्
कुमान्विता मृगपतयो गुहा इव॥३४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः॥४७॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि अष्टमोऽध्यायः॥८॥
[ अस्मिन्नध्याये ३४ श्लोकाः ]
॥ अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः॥
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अपरेद्युः प्रभाते कृष्णयुधिष्टिरादिभिर्धर्मश्रवणाय भीष्मसमीपगमनम् ॥
______
वैशम्पायनः—
ततः प्रविश्य भवनं प्रशिश्ये मधुसूदनः।
याममात्रावशेषायां यामिन्यां प्रत्यबुध्यत॥१॥
स ध्यानपदमाश्रित्य सर्वज्ञानानि माधवः।
अवलोक्य ततः पश्चाद् दध्यौ ब्रह्म सनातनम्॥२॥
सूतास्स्तुतिपुराणज्ञा रक्तकण्ठास्सुशिक्षिताः।
अस्तुवन्विश्वकर्माणं वासुदेवं प्रजापतिम्॥३॥
पठन्ति पाणिस्वनिनो गाथा गायन्ति गायकाः।
शङ्खानकमृदङ्गाश्च प्रावाद्यन्त सहस्रशः॥४॥
वीणापणववेणूनां स्वनश्चापि मनोरमः।
प्रभास इव विस्तीर्णश्शुश्रुवे तस्य वेश्मनि॥५॥
ततो युधिष्ठिरस्यापि राज्ञो मङ्गलसंयुताः।
उच्चेरुर्मथुरा वाचो गीतवादित्रबृंहिताः॥६॥
तत उत्थाय दाशार्हस् स्नातः प्राञ्जलिरच्युतः।
जप्त्वा गुह्यं महाबाहुर्अग्नीनाश्रित्य तस्थिवान्॥७॥
ततस्सहस्रं विप्राणां चतुर्वेदविदां तथा।
गवां सहस्रेणैकैकं वाचयामास माधवः॥८॥
मङ्गलालम्भनं कृत्वा आत्मानमवलोक्य च।
आदर्शेविमले कृष्णस् ततस्सात्यकिमब्रवीत्॥९॥
श्रीभगवान् —
गच्छ शैनेय जानीहि गत्वा राजनिवेशनम्।
अपि सज्जो महातेजा भीष्मं द्रष्टुं युधिष्ठिरः॥१०॥
वैशम्पायनः—
ततः कृष्णस्य वचनान् सात्यकिस्त्वरितो ययौ ।
उपगम्य च राजानं युधिष्ठिरमभाषत॥११॥
सात्यकिः—
युक्तो रथवरो राजन्वासुदेवस्य धीमतः।
समीपमापगेयस्य प्रयास्यति जनार्दनः॥१२॥
भवत्प्रतीक्षः कृष्णोऽसौ धर्मराज महाद्युते॥
यदत्रानन्तरंकृत्यं तद्भवान्कर्तुमर्हत॥१३॥
युधिष्टिरः—
युज्यतां मे रथवरः फल्गुनाप्रतिमद्युते्॥१३॥
न सैनिकैश्च यातव्यं यास्यामो वयमेव हि।
न च पीडयितव्यो मे भीष्मो धर्मभृतां वरः॥१४॥
अतः पुरवराश्चापि निवर्तन्तु धनञ्जय।
अद्यप्रभृति गाङ्गेयः परं गुह्यं प्रवक्ष्यति॥१५॥
अतो नेच्छामि कौन्तेय पृथग्जनसमागमम्॥१६॥
वैशम्पायनः—
स तद्वाक्यमथाज्ञाय131 कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः।
युक्तं रथवरं तस्मा आचचक्षे नरर्षभः॥१७॥
ततो युधिष्ठिरो राजा यमौ भीमार्जुनावपि।
भूतानीव समस्तानि ययुः कृष्णनिवेशनम्॥१८॥
आगच्छत्स्वथ कृष्णोऽपि पाण्डवेषु महात्मसु।
शैनेयसहितो धीमान् रथमेवान्वपद्यत॥१९॥
रथस्थास्संविदं कृत्वा सुखां पृष्ट्वा च शर्वरीम्।
मेघघोषेरथवरैः प्रययुस्ते महारथाः॥२०॥
मेघपुष्पं बलाहं च सैन्यं सुग्रीवमेव च।
दारुकश्चोदयामास वासुदेवस्य वाजिनः॥२१॥
ते हया वासुदेवस्य दारुकेण प्रचोदिताः।
गां खुराग्रैस्तथा राजल्ँलिखन्तः प्रययुस्तदा॥२२॥
ते ग्रसन्त इवाकाशं वेगवन्तो महावलाः।
क्षेत्रं धर्मस्य कृत्स्त्रस्य कुरुक्षेत्रमवातरन्॥२३॥
ततो ययुर्यत्र भीष्मश् शरतल्पगतः प्रभुः।
आस्ते ब्रह्मर्षिभिस्सार्धं ब्रह्मा देवगणैर्यथा॥२४॥
ततोऽवतीर्य गोविन्दो रथात् स च युधिष्ठिरः।
भीमो गाण्डीवधन्वा च यमौ सात्यकिरेव च॥२५॥
ऋषीनभ्यर्चयन्ति स्म करानुद्यम्य दक्षिणान्॥२६॥
स तैः परिवृतो राजा नक्षत्रैरिव चन्द्रमाः।
अभ्याजगाम गाङ्गेयं ब्रह्माणमिव वासवः॥२७॥
शरतल्पे शयानं तम् आदित्यं पतितं यथा।
ददर्श स महावाहुं भयादागतसाध्वसः॥२८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः॥४८॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि नवमोऽध्यायः॥९॥
[ अस्मिन्नध्याये २८ श्लोकाः ]
॥ एकोनपञ्चाशोऽध्यायः॥
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कृष्णेन भीष्मं प्रति धर्मकथनचोदना॥
______
जनमेजयः—
धर्मात्मनि महासत्वे सत्यसन्धे जितात्मनि।
देवव्रते महाभागे शरतल्पगते प्रभौ॥१॥
शयाने वीरशयने भीष्मे शन्तनुनन्दने।
गाङ्गेये पुरुषव्याघ्रेपाण्डवैः पर्युपसिते॥२॥
काः कथास्समवर्तन्त तस्मिन् वीरसमागमे।
हतेषु सर्वसैन्येषु शंस तन्मे महामुने॥३॥
वैशम्पायनः—
शरतल्पगते भीष्मेकौरवाणां पितामहे।
आजग्मुर्ऋषयस्सिद्धा नारदप्रमुखा नृप ॥४॥
हतशिष्टाश्च राजानो युधिष्ठिरपुरोगमाः।
धृतराष्ट्रश्च कृष्णश्च भीमार्जुनयमास्तथा॥५॥
तेऽभिगम्य महात्मानं भारतानां पितामहम्।
अन्वशोचन्त गाङ्गेयम् आदित्यं पतितं यथा॥६॥
मुहूर्तमिव च ध्यात्वा नारदो देवदर्शनः।
उवाच पाण्डवान्सर्वान् हतशिष्टांश्चपार्थिवान्॥७॥
नारदः—
आचष्टे132 प्राप्तकालं च भीष्मोऽयमनुयुज्यताम्।
अस्तमेति च गाङ्गेयो भानुमानिव भारत॥८॥
वैशम्पायनः—
अयं प्राणानुत्सिसृक्षुस् तं सर्वमनुपृच्छत।
कृत्स्नान्हि विविधान्धर्मांश् चातुर्वर्ण्यस्य वेत्तव्यम्॥९॥
एषःवृद्धः पराल्ँलोकान्सम्प्राप्नोति तनुत्यजाम्।
तत् क्षिप्रमनुयुञ्जीध्वं संशयान्मनसि स्थितान्॥१०॥
वैशम्पायन :—
एवमुक्ता नारदेन भीष्ममीयुर्नराधिपाः।
प्रष्टुंचाशक्नुवन्तस्ते वीक्षाञ्चक्रुः परस्परम्॥११॥
अथोवाच हृषीकेशं धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः॥११॥
युधिष्टिरः—
नान्यस्त्वद्देवकीपुत्र शक्तः प्रष्टुं पितामहम्।
प्रव्याहर यदुश्रेष्ठं त्वमग्रे मधुसूदन॥१२॥
त्वं हि नस्तात सर्वेषां सर्वधर्मविदुत्तमः॥१३॥
वैशम्पायन :—
एवमुक्तः पाण्डवेन भगवान् केशवस्तदा।
अभिगम्य दुराधर्षं प्रत्याहारयदच्युतः॥१४॥
श्रीभगवान्—
कच्चित् सुखेन रजनी व्युष्टा ते राजसत्तम्।
विस्पष्टलक्षणा बुद्धिः कच्चिच्चोपस्थिता तव॥१५॥
कच्चिज्ज्ञानानानि सर्वाणि प्रतिभान्ति च तेऽनघ।
न ग्लायते च हृदयं न च ते व्याकुलं मनः॥१६॥
भीष्मः—
दाहो मोहश्श्रमश्चैव क्लमो ग्लानिस्तथा रुजा।
तव प्रसादाद्वार्ष्णेय सद्यो व्यपगतानि मे॥१७॥
यच्च भूतं भविष्यच्च भवच्च परमद्युते।
तत्सर्वमनुपश्यामि पाणौ फलमिवाहितम्॥१८॥
वेदोक्ताश्चैव ये धर्मा वेदान्तनियताश्च ये।
तान् सर्वान्सम्प्रपश्यामि वरदानात् तवाच्युत॥१९॥
शिष्टैश्च धर्मो यः प्रोक्तस् स च मे हृदि वर्तते।
देशजातिकुलानां च धर्मज्ञोऽस्मि जनार्दन॥२०॥
चतुर्ष्वाश्रमधर्मेषुयोऽर्थस्स च हृदि स्थितः।
राजधर्मांश्च सकलान्अवगच्छामि केशव॥२१॥
यत्र यत्र च वक्तव्यं तद्वक्ष्यामि जनार्दन।
तव प्रसादाद्धि शुभा मनो मे बुद्धिराविशत्॥२२॥
त्वामेव चास्मिसंवृत्तस् त्वद्नुध्यानबृंहितः।
वक्तुं श्रेयस्समर्थोऽस्मि त्वत्प्रसादाज्जनार्दन॥२३॥
स्वयं किमर्थं तु भवाञ् श्रेयो न प्राह पाण्डवान्।
किं ते विवक्षितं चात्र तदाशु वद माधव॥२४॥२४॥
श्रीभगवान्—
यशसश्श्रेयसश्चैव मूलं मां बिद्धि कौरव।
मत्तस्सर्वे हि निर्वृत्ता भावास्सदसदात्मकाः॥२५॥
शीतांशुश्चन्द्र इत्युक्ते तेन को विस्मयिष्यति।
तथैव यशसा पूर्णेमयि को विस्मयिष्यति॥२६॥
प्रथेयं तु मया भूयो यशस्तव महाद्युते।
ततो मे विपुला बुद्धिस् त्वयि भीष्मसमाहिता॥२७॥
यावद्धि पृथिवीपाल पृथिवी स्थास्यति ध्रुवा।
तावत्तवाक्षयाकीर्तिर् लोकाननुचरिष्यति॥२८॥
यच्च त्वं वक्ष्यसे भीष्म पाण्डवायानुपृच्छते।
वेदप्रवादा इव ते स्थास्यन्ति पृथिवीतले॥२९॥
यश्चैतेन प्रमाणेन योक्ष्यत्यात्मानमात्मना।
स फलं सर्वपुण्यानां प्रेत्य चानुभविष्यति॥३०॥
एतस्मात्कारणाद्भीष्म मतिर्दिव्या मया हि ते।
दत्ता यशो विप्रथेत कथं भूय इति प्रभो॥३१॥
यावद्धि प्रथते लोके पुरुषस्य यशो भुवि।
तावत्तस्याक्षयाकीर्तिर् भवतीति विनिश्चितम्॥३२॥
राजानो हतशिष्टास्त्वां राजन्नभित आसते।
स्वधर्माननुयुङ्क्षन्तस् तेभ्यः प्रब्रूहि भारत॥३३॥
भवान् हि च वयोवृद्धश् श्रुताचारसमन्वितः।
कुशलो राजधर्माणां पूर्वेषामपरे च ये॥३४॥
जन्मप्रभृति ते किञ्चिद् वृजिनं न ददर्श ह।
ज्ञातारं मनुधर्माणां त्वां विदुस्सर्वपार्थिवाः॥३५॥
तेभ्यः पितेव पुत्रेभ्यो राजन्ब्रूहि परन्तप।
ऋषयश्च हि देवाश्च त्वया नित्यमुपासिताः॥३६॥
तस्माद्वक्तव्यमेवेह त्वया पश्याम्यशेषतः।
धर्मं शुश्रूषमाणेभ्यः पृष्टेन च सता पुनः॥३७॥
वक्तव्यं विदुषानित्यं धर्ममाहुर्मनीषिणः।
अप्रतिब्रुवतः कष्टो दोषोहि भविता प्रभो॥३८॥
तस्मात्पुत्रैश्च पौत्रेश्च धर्मान्पृष्ठान्सनातनान्।
विद्वञ् जिज्ञासमानेभ्यः प्रब्रूहि भरतर्षभ॥३९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकोनपञ्चाशोऽध्यायः॥४५॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि दशमोऽध्यायः॥१०॥
[अस्मिन्नध्याये ३९ श्लोकाः ]
॥ पञ्चाशोऽध्यायः॥
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कृष्णेन भीष्मंप्रति युधिष्ठिरस्यतदनुपसर्पणकारणाभिधानम्१॥ भीष्मेणस्वाज्ञयोपसृत्याभिवादयन्तं युधिष्ठिरं प्रति धर्मप्रश्नानुज्ञानम् ॥२॥
______
वैशम्पायनः—
अथाब्रवीन्महातेजा वाक्यं कौरवनन्दनः॥१॥
भीष्मः—
हन्त धर्मान्प्रवक्ष्यामि दृढे वाङ्मनसे मम।
तव प्रसादाद्गोविन्द भूतात्मा ह्यसि शाश्वतः॥१॥
युधिष्ठिरस्तु मां राजा धर्मान् समनृपृच्छतु।
एवं प्रीतो भविष्यामि धर्मान्वक्ष्यामि चाखिलान्॥२॥
यस्मिन्राजर्षभे जाते धर्मात्मनि महात्मनि।
अहृष्यनृषयस्सर्वे स मां पृच्छतु पाण्डवः॥३॥
सर्वेषां133 दीप्तयशसां कुरूणां धर्मचारिणाम्।
यस्य नास्ति समः कश्चित् स मां पृच्छतु पाण्डवः॥४॥
धृतिर्दमो134 ब्रह्मचर्यं क्षमा धर्मश्च नित्यदा।
यस्मिन्नोजश्च तेजश्च स मां पृच्छतु पाण्डवः॥५॥
सत्यं दानं तपश्शौचं शान्तिर्दाक्ष्यमसम्भ्रमः।
यस्मिन्नेतानि सर्वाणि स मां पृच्छतु पाण्डवः॥६॥
यो न कामान्न संरम्भान्न भयान्नार्थकारणात्।
कुर्यादधर्मं धर्मात्मा स मां पृच्छतु पाण्डवः॥७॥
सम्बन्धिनोऽतिथीन्भृत्यान्संश्रितोपाश्रितांश्चयः।
सम्मानयति सत्कृत्य स मां पृच्छतु पाण्डवः॥८॥
सत्यनित्यः क्षमानित्यो ज्ञाननित्योऽतिथिप्रियः।
यो ददाति सतां नित्यं स मां पृच्छतु पाण्डवः॥९॥
इज्याध्ययननित्यश्च135 धर्मे च निरतस्सदा।
शान्तश्श्रुतरहस्यश्च स मां पृच्छतु माधव॥१०॥
श्रीभगवान्—
लोकस्य कदनं कृत्वा लोकनाथश्च पाण्डवः।
अभिशापभयाद्भीतो भवन्तं नोपसर्पति॥११॥
पूज्यमानांश्च भक्तांश्च गुरुन्सम्बन्धिबान्धवान्।
अर्घार्हानिषुभिर्हत्वा भवन्तं नोपसर्पति॥१२॥
भीष्मः—
ब्राह्मणानां यथा धर्मो दानमध्ययनं तपः।
क्षत्रियाणां तथा कृष्ण समरे देहपातनम्॥१३॥
पितॄन पितामहान्पुत्रान्गुरुन्सम्बन्धिबान्धवान्।
मिथ्याप्रवृत्तान्यस्सङ्ख्येनिहन्याद्धर्म एव सः॥१४॥
समयत्यागिनोलुब्धान् गुरूनपिच केशव।
निहन्ति समरे पापान्क्षत्रियो यस्स धर्मवित्॥१५॥
ये59 लोभान्न समीक्षेरन्धर्मसेतुं सनातनम्।
निहन्ति यस्तान्समरे क्षत्रियस्सच धर्मवित्॥१६॥
लोहितोदां136 केशतृणां गजशैलां ध्वजद्रुमाम्।
महीं करोति युद्धेषु क्षत्रियो यस्स धर्मवित्॥१७॥
आहूतेन रणे नित्यं योद्धव्यं क्षत्रबन्धुना।
धर्म्यं स्वर्ग्यं च लोक्यं च युद्धं हि मनुरब्रवीत्॥१८॥
वैशम्पायनः—
एवमुक्तस्तु भीष्मेण धर्मराजो युधिष्ठिरः।
विनीतवदुपागम्य तस्थौ सन्दर्शनेऽग्रतः॥१९॥
अथास्य पादौजग्राह भीष्मश्चापि ननन्द तम्।
मूर्ध्निचैनमुपाघ्राय निषीदेत्यब्रवीत्तदा ॥२०॥
तमुवाचाथ गाङ्गेयो वृषभस्सर्वधन्विनाम्।
भीष्मः—
पृच्छ मां तात विस्रब्धो माभैस्त्वंंकुरुसत्तम॥२१॥
**इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि पञ्चाशोऽध्यायः॥५०॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि एकादशोऽध्यायः॥११॥
[ अस्मिन्नध्याये २१॥श्लोकाः ] **
॥ एकपञ्चाशोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्टिराय राजधर्मकथनम्॥
______
वैशम्पायनः—
प्रणिपत्य हृषीकेशम् अभिवाद्य पितामहम्।
अनुमान्य गुरून् सर्वान् पर्यपृच्छद्युधिष्ठिरः॥१॥
युधिष्टिरः—
राजा वै परमो धर्म इति धर्मविदो विदुः।
महान्तमेतं भारं हि मन्ये तद्ब्रूहि भारत॥२॥
राजधर्मान्विशेषेण कथयस्व पितामह।
सर्वस्य जीवलोकस्य राजधर्मः परायणम्॥३॥
त्रिवर्गो हि समासक्तो राजधर्मेषु कौरव।
मोक्षधर्मश्च विस्पष्टस् सकलोऽत्र समाहितः॥४॥
यथा हि रश्मयोऽश्वस्य द्विरदस्याङ्कुशो यथा।
नरेन्द्रधर्मो लोकस्य तथा प्रग्रहणं स्मृतम्॥५॥
अत्र वै सम्प्रमूढे तु धर्मे राजषिसेविते।
त्रैलोक्यसंस्था137 न भवेत् सर्वं च व्याकुलीभवेत्॥६॥
उदयन् हि यथा सूर्यो नाशयत्यखिलं तमः।
राजधर्मस्तथा लोक्याम् आक्षिपत्यशुभां मतिम्॥७॥
तदग्रेराजधर्माणाम् अर्थतत्त्वंपितामह।
प्रब्रूहि भरतश्रेष्ठ त्वं हि बुद्धिमतां वरः॥८॥
आगमश्च परस्त्वत्तस् सर्वेषां नः परन्तप।
भवन्तं हि परं बुद्धौ वासुदेवोऽनुमन्यते॥९॥
भीष्मः—
नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे।
ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान् वक्ष्यामि शाश्वतान्॥१०॥
शृणु कार्त्स्येनमत्तस्त्वं राजधर्मान् युधिष्ठिर।
निरुच्यमानान्नियतान् यच्चान्यदपि वाञ्छसि॥११॥
आदावेव कुरुश्रेष्ठ राज्ञा रञ्जनमिच्छता।
देवतानां द्विजानां च वर्तितव्यं यथाविधि॥१२॥
दैवतान्यर्चयित्वा हि ब्राह्मणांश्च कुरुद्वह।
आनृण्यं याति धर्मस्य लोकेन च समर्च्यते॥१३॥
उत्थाने138 च सदा पुत्र प्रयतेथा युधिष्ठिर।
न ह्युत्थानाहते दैवं राज्ञामर्थप्रसिद्धये॥१४॥
साधारणं द्वयं ह्येतद् दैवमुत्थानमेव च।
पौरुषंहि परं मन्ये दैवं निश्चित्य मुह्यते॥१५॥
विपन्ने च समारम्भे सन्तापं मा स्म वै कृथाः।
घटेतैवं सदा तात राज्ञामेषपरो नयः॥१६॥
न हि राज्यादृते किञ्चिद् राज्ञांवै सिद्धिकारकम्।
सत्ये हि राजा निरतः प्रेत्य चेह च नन्दति॥१७॥
ऋषीणामपि राजेन्द्र सत्यमेव पराक्रमः139।
तथा राज्ञः परं सत्यान्नान्यदाश्वासकारकम्॥१८॥
गुणवाञ् शीलवान्दान्तो मृदुदण्डो जितेन्द्रियः।
सुदर्शस्स्थूललक्ष्यश्च न भ्रश्येत सदा श्रियः॥१९॥
आर्जवं सर्वकार्येषु श्रयेथाः कुरुनन्दन।
आर्जवेन सदा युक्ता मोदन्ते ऋषयो दिवि॥२०॥
पुनर्नयविचारेण त्रयीसंवरणेन च॥२०॥
मृदुर्हि राजा सततं लङ्घयो भवति सर्वतः।
तीक्ष्णाच्चोद्विजतेलोकस् तस्मादुभयमाचरेत्॥२१॥
अदण्ड्याश्चैव ते नित्यं विप्रास्स्युर्ददतांवर \।
भूतमेतत् परं लोके ब्राह्मणा नाम पाण्डव॥२२॥
मनुना चात्र राजेन्द्र गीतौ श्लोकौमहात्मना।
धर्मेषु स्वेषु कौरव्य हृदि तौकर्तुमर्हसि॥२३॥
अद्भ्योऽग्निर्ब्रह्मतःक्षत्रम्अश्मनो लोहमुत्थितम्।
तेषां सर्वगतं तेजस् स्वासु योनिषु शाम्यति॥२४॥
अयो हन्ति यदाऽश्मानम् अग्निरापो निहन्ति च।
ब्रह्म च क्षत्रियो द्वेष्टि तदा सीदन्ति ते त्रयः॥२५॥
एवं कृत्वा महाराज नमस्या एव ते द्विजाः।
भौमं ब्रह्म द्विजश्रेष्ठा धारयन्ति शमान्विताः॥२६॥
एवं चैव महाराज लोकयात्राविघातकाः।
निग्राह्या एव बाहुभ्यां ब्राह्मणास्ते नरेश्वर॥२७॥
श्लोकाश्चोशनसा गीताः पुरा तात महर्षिणा।
तान् निबोध महाराज त्वमेकाग्रमना नृप॥२८॥
उद्यम्य शस्त्रमायान्तम् अपि वेदान्तगं रणे।
निगृह्णीयात्स्वधर्मेण धर्मापेक्षी नराधिपः॥२९॥
विनश्यमानं धर्मं हि यो रक्षति स धर्मवित्।
न तेन भ्रूणहा स स्यान्मन्युस्तन्मन्युमृच्छति॥३०॥
एवं चैव नरश्रेष्ठ रक्ष्या एव द्विजातयः।
स्वापराद्धानपि हि तान् विषयान्ते समुत्सृजेत्॥३१॥
अभिशस्तमपि ह्येषां पीडयेन्न विशां पते।
ब्रह्मघ्नेगुरुतल्पे च भ्रूणहे च तथैव च॥३२॥
राजद्विष्टस्य विप्रस्य विषयान्ते विवासनम् ।
विधीयते न शारीरं भयमेषां कथञ्चन॥३३॥
विहिताश्च नरास्ते स्युर् भक्तिमन्तो द्विजेषुये।
न शोकः परमा तुष्टी राज्ञां भवति सञ्चयात्॥३४॥
दुर्गेषु च महाराज षट्सु ये शास्त्रनिश्चिताः।
सर्वदुर्गेषु मन्यन्ते नरदुर्गं सुदुर्गमम्॥३५॥
तस्मान्नित्यं दया कार्या चातुर्वर्ण्ये विपश्चिता।
धर्मात्मा सत्यवाक्चैव राजा रञ्जयति प्रजाः॥३६॥
न च क्षान्तेन ते भाव्यं नित्यं पुरुषसत्तम्।
सुधर्षोहि मृदू राजा क्षमावानिव कुञ्जरः॥३७॥
बार्हस्पत्ये च शास्त्रे च श्लोकोऽयं निहितः प्रभो।
अस्मिन्नर्थे निगदितस् तन्मे निगद्तश्श्रृणु॥३८॥
क्षममाणं नृपं नित्यं नीचः परिभवेज्जनः।
हस्तियन्ता गजस्येव शिर एवारुरुक्षति॥३९॥
तस्मान्नैव मृदुर्नित्यं तीक्ष्णो वाऽपि भवेन्नृपः।
वसन्तेऽर्क इव श्रीमान् न शीतो न च घर्मदः॥४०॥
प्रत्यक्षेणानुमानेन तथौपम्यागमैरपि।
परीक्ष्यास्ते महाराज स्वेपरे चैव सर्वदा॥४१॥
व्यसनानि च सर्वाणि त्यजेथा भूरिदक्षिण।
न चैतानि प्रयुञ्जीथास् सङ्गं तु परिवर्जय॥४२॥
व्यसनी हि नृलोकेऽस्मिन् परिभूतो भवत्युत।
उद्वेजयति लोकं च140 योऽतिद्वेषीमहीपतिः॥४३॥
भवितव्यं सदा राज्ञा गर्भिणीसहधर्मिणा।
कारणं च महाराज श्रृणु येनेदमुच्यते॥४४॥
यथा हि गर्भिणी हित्वा स्वं प्रियं मनसोऽनुगम्।
गर्भस्य हितमाधत्ते तथा राज्ञाऽप्यसंशयम्॥४५॥
वर्तितव्यं कुरुश्रेष्ठ नित्यं धर्मानुवर्तिना।
स्वं प्रियं समभित्यज्य यद्यल्लोकहितं भवेत्॥४६॥
न तस्य त्यज्यते धैर्यंकदाचिदपि पाण्डव \।
धीरस्य स्पष्टदण्डस्य न ह्याज्ञा प्रतिहन्यते॥४७॥
परिहासश्च भृत्यैस्ते न नित्यं वदतां वर।
कर्तव्यो राजशार्दूल दोषमत्र हि मे शृणु॥४८॥
अवमन्यन्ति भर्तारं सहर्षमुपजीविनः।
स्वे स्थाने नावतिष्ठन्ते लङ्घयन्ति च तद्वचः॥४९॥
प्रेष्यमाणा विकल्पते गुह्यं चाप्यनुयुञ्जते॥५०॥
अयाच्यं चैव याचन्ते भोज्यान्याहारयन्ति च॥५०॥
क्रुध्यन्ति च प्रदीप्यन्ति अधितिष्ठन्ति भूमिपम्।
उत्कोचैर्वञ्चनाभिश्च कार्याणि घ्नन्ति चास्य ते॥५१॥
जर्झरं चास्य विषयं कुर्वन्ति प्रतिरूपकैः।
स्त्रीरक्षिभिः प्रसज्जन्ते तुल्यवेषा भवन्ति च॥५२॥
वातनं ष्ठीवनं चैवकुर्वते चास्य सन्निधौ।
निर्लज्जं राजशार्दूल व्याहरन्ति च दुर्वचः॥५३॥
दन्तिनं वा हयं चापि रथं वानृपसम्मतम्।
अधिरोहन्त्यवज्ञाय सहर्षाः पार्थिवे मृदौ॥५४॥
इदं ते दुष्कृतं राजन्निदं ते दुर्विचेष्टितम्141।
इत्येवं सुहृदो नाम ब्रुवते परिषद्गताः॥५५॥
क्रुद्धे चास्मिन् हसन्त्येव न च हृप्यन्ति पूजिताः।
सङ्घर्षशीलाश्च तदा भवन्त्यन्योन्यकारणात् ॥५६॥
विस्रंसयन्ति मन्त्रं च विवृण्वन्ति च दुष्कृतम्।
हेलयन्तश्च कुर्वन्ति सावज्ञास्तस्यशासनम्॥५७॥
अलङ्काराणि भोज्यं च तथा स्नानानुलेपने।
हेलयाना नरव्याघ्र स्वस्थास्तस्योपशृण्वते॥५८॥
निन्दन्तस्वानधीकारान् सन्त्यजन्त्येव भारत।
न वृत्या परितुष्यन्ति राजदेयं हरन्ति च ॥५९॥
क्रीडितुं तेन चेच्छन्ति ससूत्रेणेव पक्षिणा।
अस्मत् प्रणेयो राजेति लोके चैव वदन्त्युत॥६०॥
नृपतौ मार्दवोपेते हर्षुले च युधिष्ठिर।
एते चैवापरे चैव दोषाः प्रादुर्भवन्ति च॥६१॥142
नित्योद्युक्तेन वै राज्ञा भवितव्यं युधिष्ठिर।
न प्रशस्यस्तु राजा हि नारीवोद्यमवर्जितः॥६२॥
भगवानुशना चाह श्लोकमत्र विशां पते।
तदिहैकमना राजन्वदतस्तं निबोध मे॥६३॥
द्वावेव ग्रसते भूमिस् सर्पौविलशयाविव।
राजानं चाप्ययोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम्॥६४॥
तदेतन्नरशार्दूल हृदि त्वं कर्तुमर्हसि।
सन्धेयानभिसन्धत्स्व विरोध्यांश्च विरोधय॥६५॥
सप्ताङ्गे यश्च ते राज्ये विपरीतं समाचरेत्।
गुरुर्वायदि वा मित्रं प्रतिहन्तव्य एव सः॥६६॥
मरुत्तेन हि राज्ञाऽऽसीद् गीतश्श्लोकः पुरातनः।
राज्याधिकारे राजेन्द्र बृहस्पतिमतः पुरा॥६७॥
गुरोरण्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः।
उत्पथं प्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते॥६८॥
बाहोः पुत्रेण राजेन्द्र सगरेण च धीमता।
असमञ्जस्सुतो ज्येष्ठस् व्यक्तः पौरहितैषिणा॥६९॥
असमञ्जस्सरय्वां वै पौराणां बालकान्नृप।
न्यमजयदतः पुत्रो निर्भय स विवासितः॥७०॥
ऋषिणोद्दालकेनापि श्वेतकेतुर्महातपाः।
मिथ्या विप्रानुपचरन् सन्त्यक्तो दयितस्सुतः॥७१॥
लोकरञ्जनमेवात्र राज्ञो धर्मस्सनातनः।
सत्यस्य रक्षणं चैवव्यवहारस्य चार्जवम्॥७२॥
न हिंस्यात् परवित्तानि देयं काले च दापयेत्।
विक्रान्तस्सत्यवाक् क्षान्तो नृपो न चलते पथः॥७३॥
गुप्तमन्त्रोजितक्रोधश्शास्त्रार्थकृतनिश्चयः।
धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च सततं रतः॥७४॥
त्रय्या संवृतमन्त्रश्च राजा भवितुर्मति।
वृजिनस्य नरेन्द्राणानान्यत् संवरणात् परम्॥७५॥
चातुर्वर्ण्यं चधर्माश्च रक्षितव्या महीक्षिता।
धर्मसङ्कररक्षा हि राज्ञां धर्मम्सनातनः॥७६॥
न विश्वसेच्चनृपतिर् न चाव्यर्थंन143 विश्वसेत् ।
षाड्गुण्यगुणदोषांश्च नित्यं बुद्ध्याऽवलोकयेत्॥७७॥
अच्छिद्रदर्शी नृपतिर् नित्यमेव प्रशस्यते।
त्रिवर्गे विदितार्थश्र युक्ताचारपथश्च यः॥७८॥
कोशस्योपार्जनरतिर् यमवैश्रवणोपमः।
वेत्ता च दशवर्गस्य स्थानवृद्धिक्षयात्मनः॥७९॥
अभृतानां भवेद्भर्ता भृतानां चैव रक्षकः।
नृपतिस्सुमुखो नित्यं स्मितपूर्वाभिभाषिता॥८०॥
उपासिता च वृद्धानां जिततन्द्रिरलोलुपः।
सतां वृत्ते स्थितमतिस् सतां ह्याचारदर्शनः॥८१॥
न चाददीत वित्तानि सतां हस्तात्कथञ्चन।
असद्भ्यस्तु समादाय सद्भ्यस्सम्प्रतिपादयेत्॥८२॥
स्वयं हर्ता च दाता च वश्यात्मा वश्यसाधनः।
काले दाता च भोक्ता च शुद्धाचारस्तथैव च॥८३॥
शूरान् भक्तानसंहार्यान्, कुले जातानरोगिणः।
शिष्टाञ्शिष्टानुसम्बन्धान्मानिनो जनमानिनः॥८४॥
विद्याविदो लोकविदः परलोकान्ववेक्षकान्।
धर्मे च निरतान् साधून्अचलानचलानिव॥८५॥
सहायान् सततं कुर्याद् राजा भूरिपुरस्कृतान्॥८६॥
तैस्तु तुल्यो भवेद्भोगैश्छत्रमात्राज्ञयाऽधिकः।
प्रत्यक्षा च परोक्षा च वृत्तिश्चास्य सदा भवेत्॥८७॥
एवं कुर्वन् नरेन्द्रो हि न खेदमिह विन्दति॥८७॥
सर्वातिशङ्की नृपतिर् यश्च सर्वहरो भवेत्।
स क्षिप्रमनृजुर्लुब्धस् स्वजनेनैव बाध्यते॥८८॥
विशुद्धः पृथिवीपालो लोकस्यानुग्रहे रतः।
न पतत्यरिभिर्ग्रस्तः पतितश्चाधितिष्ठति॥८९॥
अक्रोधनोऽथाव्यसनी मृदुदण्डो जितेन्द्रियः।
राजा भवति भूतानां विश्वास्यो हिमवानिव॥९०॥
प्राज्ञो न्यायगुणोपेतः पररन्ध्रेषु लालसः।
सुदर्शस्सर्ववर्णानां नयापनयवित् तथा॥९१॥
क्षिप्रकारीजितक्रोधस् सुप्रसादोमहामनाः।
अरोगप्रकृतिर्युक्तः क्रियावानविकत्थनः॥९२॥
आरब्धान्येव कार्याणि न पर्यवसितान्यपि।
यस्य राज्ञः प्रदृश्यन्ते स राजा राजसत्तमः॥९३॥
पुत्रा इव पितुर्गेहे विषयेयस्य मानवाः।
निर्भया विचरिष्यन्ति स राजा राजसत्तमः॥९४॥
अगूढविभवा यस्य नरा राष्ट्रनिवासिनः।
नयापनयवेत्ता यस् स राजा राजसत्तमः॥९५॥
स्वधर्मनिरता यस्य जना विषयवासिनः।
असङ्घातरता दान्ताः पाल्यमाना यथाविधि॥९६॥
वश्या नेया विनीताश्च न च सङ्घर्षशीलिनः।
विषये दानरुचयो नरा यस्य स पार्थिवः॥९७॥
न यस्य कूटप्रशमो न माया न च मत्सरः।
विषये भूमिपालस्य तस्य धर्मस्सनातनः॥९८॥
यस्सत्करोति ज्ञानानि श्रेयान् पौरहिते रतः।
सतां वर्त्मानुगस्त्यागी स राजा स्वर्गमर्हति॥९९॥
यस्य चारश्च मन्त्रश्चनित्यं चैव कृताकृतौ।
न ज्ञायेते च रिपुभिस् स राजा राज्यमर्हति॥१००॥
श्लोकद्वयं पुरा गीतं भार्गवेण महात्मना।
आख्याते राजचरिते राजानं प्रति भारत॥१०१॥
राजानं प्रथमं विन्देत्ततो भार्यां ततो धनम्।
राजन्यसति लोकेऽस्मिन्कुतो भार्या कुतो धनम्॥१०२॥
तद्राजन् राजसिंहानां नान्यो धर्मस्सनातनः।
ऋते रक्षां सुविस्पष्टां रक्षा लोकस्य धारणम्॥१०३॥
प्राचेतसेन मनुना श्लोकौ चैतावुदाहृतौ।
राजधर्मेषु राजेन्द्र ताविहैकमनाश्शृणु॥१०४॥
षडिमान् पुरुषो जह्याद् भिन्नां नावमिवार्णवे।
अप्रवक्तारमाचार्यम् अनधीयानमृत्विजम्॥१०५॥
अरक्षितारं राजानं भार्यांचाप्रियवादिनीम्।
ग्रामकामं च गोपालं वनकामं च नापितम्॥१०६॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकपञ्चाशोऽध्यायः॥५१॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि द्वादशोऽध्यायः॥१२॥
[अस्मिन्नध्याये १०६॥ श्लोकाः]
॥ द्विपञ्चाशोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्टिराय प्रथमदिने राजधर्मकथनम् ॥१॥ ततः सायंकृष्णादीनां स्वस्वावासगमनम्॥२॥
वैशम्पायनः—
एतावदुक्त्वा भूयोऽपि भीष्मः कुरुपितामहः।
उवाच वचनं धीमान् सर्वतस्सारसङ्ग्रहम्॥१॥
भीष्मः—
एतत्ते राजधर्माणां नवनीतं युधिष्ठिर।
बृहस्पतिर्हि भगवान् नान्यं धर्मं प्रशंसति॥२॥
विशालाक्षश्च भगवान् काव्यश्चैव महातपाः।
सहस्राक्षो महेन्द्रश्च तथा प्राचेतसो मनुः॥३॥
भरद्वाजश्च भगवांस् तथा गौरशिरा मुनिः।
राजशास्त्रप्रणेतारो ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः॥४॥
रक्षामेव प्रशंसन्ति धर्मं धर्मभृतां वर।
राज्ञां राजीवताम्राक्ष साधनं चात्र मे शृणु॥५॥
चारश्चप्रणिधिश्चैव काले दानममत्सरः।
युक्त्या दानं न चादानम् अयोगेन युधिष्ठिर॥६॥
सतां सङ्ग्रहणं शौर्यंदाक्ष्यं सत्यं प्रजाहितम्।
अनार्जवैरार्जवैश्च शत्रुपक्षाविवर्धनम्॥७॥
साधूनामपरित्यागः कुलीनानां च धारणम्।
निचयश्च निचेयानां सेवासु महतामपि॥८॥
बलानां हर्षणं नित्यं प्रजानामन्ववेक्षणम्।
कार्येष्वखेदःकोशस्य तथैव च विवर्धनम्॥९॥
पुरगुप्तिरविश्वासः पौरसङ्घातभेदनम्।
केतनानां च जीर्णानाम् अवेक्षा चैव सीदताम्॥१०॥
विविधस्य च दण्डस्य प्रयोगः कालचोदितः।
अरिमध्यस्थमित्राणां यथावच्चान्ववेक्षणम्॥११॥
उपजापश्च कृत्यानाम् आत्मनः परिमर्शनात्144।
अविश्वासस्स्वयं चैव परस्याश्वासनं तथा॥१२॥
नीतिवर्त्मानुसारेण नित्यमुत्थानमेव च।
रिपूणामनवज्ञानं नित्यं चान्यायवर्जनम्॥१३॥
उत्थानं च नरेन्द्राणां बृहस्पतिरभाषत॥१३॥
राजधर्मस्य यन्मूलं लोकांश्चात्र निबोध मे॥१४॥
उत्थानेनामृतं लब्धम् उत्थानेनासुरा हताः।
उत्थानेन सुरेन्द्रेण श्रेष्ठ्यं प्राप्तं दिवीह च॥१५॥
उत्थानवीरः पुरुषो वाग्धीरानधितिष्ठति।
उत्थानधीरं वाग्धीरा रमयन्त उपासते॥१६॥
उत्थानहीनो राजा हि बुद्धिमानपि नित्यशः।
सुधर्षणीयश्शत्रूणां भुजङ्ग इव निर्विषः॥१७॥
न च शत्रुरवज्ञेयो दुर्बलोऽपि बलीयसा।
अल्पोऽपि हि दहत्यग्निर्विषमल्पं हिनस्ति च॥१८॥
एकाश्वेनापि सम्भूतश् शत्रुर्दुर्गं समाश्रितः।
सर्वं145 तापयते देशम् अपि राज्ञस्समृद्धिनः॥१९॥
राज्ञो रहस्यं यद्वाक्यं जयार्थेलोकसङ्ग्रहः।
हृदि यच्चास्य जिह्मं146 स्यात् कारणार्थं च यद्भवेत्॥२०॥
यच्चास्य कार्य वृजिनं मार्दवेनैव धार्यते।
रञ्जनार्थाय लोकस्य धर्मिष्ठामाचरेत् क्रियाम्॥२१॥
राज्यं हि सुमहत्तत्र दुर्धार्यमकृतात्मभिः।
न शक्यं मृदुना वोढुम् आपातस्थानमुल्बणम्॥२२॥
राज्यं सर्वामिषंनित्यम् आर्जवेनैव धार्यते।
तस्मान्मिश्रेण सततं वर्तितव्यं युधिष्ठिर॥२३॥
यद्यप्यस्य विपत्तिस्स्याद् रक्षमाणस्य वै प्रजाः।
सोऽप्यस्य विमलो धर्म एवंवृत्ता हि भूमिपाः॥२४॥
एषते राजधर्माणां लेशस्समनुवर्णितः।
भूयस्ते यत्र सन्देहस् तद्ब्र्हि कुरुनन्दन॥३५॥
वैशम्पायनः—
ततो व्यासश्च भगवान्देवस्थानोऽश्मएव च।
वासुदेवः कृपश्चैव सात्यकिस्सञ्जयस्तथा॥२६॥
साधु साध्विति संहृष्टा घुष्यमाणैरिवाननैः।
अस्तुवंस्ते नरव्याघ्रंभीष्मं धर्मभृतां वरम्॥२७॥
ततो दीनमना भीष्मम् उवाच कुरुनन्दनः।
नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां पादौ तस्य शनैस्स्पृशन्॥२८॥
युधिष्ठिरः—
गत्वेदानीं श्वस्सन्देहं प्रवक्ष्यामि पितामह।
उपैति सविता ह्यस्तं रसमापीय पार्थिवम्॥२९॥
वैशम्पायन :—
ततो द्विजातीनभिवाद्य केशवः
कृपश्च ते चैव युधिष्टिरादयः।
प्रदक्षिणीकृत्य महानदीसुतं
ततो रथानारुरुहुर्मुदा युताः॥३०॥
दृषद्वती चाप्यवगाह्य सुव्रताः
कृतोदकार्थाः कृतजप्यमङ्गलाः।
उपास्य सन्ध्यां विधिवत् परन्तपास्
ततः पुरं ते विविशुर्गजाह्वयम्॥३१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि द्विप्पञ्चाशोऽध्यायः॥५२॥
॥८६॥\। राजधर्मपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥
[ अस्मिन्नध्याये ३१ श्लोकाः ]
॥ त्रिपञ्चाशोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति राजोत्पत्तेर्ब्रह्मकृतदण्डनीतिग्रन्थप्रतिपाद्यार्थानां पृथुराजचरितादीनां च कथनम् ॥
______
वैशम्पायनः—
ततः कल्यं समुत्थाय कृतपौर्वाह्निकक्रियाः।
ययुस्ते नगराकारै रथैः पाण्डवयादवाः॥१॥
प्रतिपद्य कुरुक्षेत्रं भीष्ममासाद्य चानघम्।
सुखं च रजनीं पृष्ट्वा गाङ्गेयं रथिनां वरम्॥२॥
व्यासादीनभिवन्द्यर्षीन्सर्वैस्तैश्चाभिनन्दिताः।
निषेदुरभितो भीष्मं परिवार्य समन्ततः॥३॥
ततो राजा महातेजा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्भीष्मं प्रतिपूज्य यथाविधि॥४॥
युधिष्ठिरः—
य एषराजन्राजेति शब्दश्चरति भारत।
कथमेष समुत्पन्नस् तन्मे ब्रूहि पितामह॥५॥
तुल्यपाणिभुजग्रीवस् तुल्यबुद्धीन्द्रियात्मकः।
तुल्यदुःखसुखात्मा च तुल्यदृष्टिशिरोधरः॥६॥
तुल्यशुक्रास्थिमज्जा च तुल्यमांसासृगेव च।
निश्श्वासोच्छ्वासतुल्यश्च तुल्यप्राणशरीरवान्॥७॥
समानजन्ममरणस् समस्सर्वैर्गुणैर्नृणाम्।
विशिष्टद्धीञ्शूरांश्च कथमेकोऽधितिष्ठति॥८॥
कथमेको महीं कृत्स्नां शूरवीरार्यसङ्कुलाम्।
रक्षत्यपि च लोकोऽस्य प्रसादमभिवाञ्छति॥९॥
एकस्य तु प्रसादेन कृत्स्नो लोकः प्रसीदति।
व्याकुले चाकुलस्सर्वो भवतीति विनिश्चयः॥१०॥
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं त्वत्तो हि भरतर्षभ।
सर्वं तन्मे यथातत्त्वं प्रब्रूहि वदतां वर॥११॥
नैतत् कारणमत्यल्पं भविष्यति विशां पते।
यदेकस्मिञ्जगत् सर्वं देववद्याति सन्नतिम्॥१२॥
भीष्मः —
नियतस्त्वं नरश्रेष्ठ शृणु सर्वमशेषतः।
यथा राज्यं समुत्पन्नम् आदौ कृतयुगेऽभवत्॥१३॥
नैव राज्यं न राजाऽऽसीन्न च दण्डो न दाण्डिकः।
धर्मेणैव प्रजास्सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्१४॥
पालयानास्तथाऽन्योन्यं नरा धर्मेण भारत।
दैन्यं परस्परं जग्मुस् ततस्तान्मोह आविशत्॥१५॥
ते मोहवशमापन्ना मानवा मनुजर्षभ।
प्रतिपत्तिविमोहाच्च धर्मस्तेषामनीनशत्॥१६॥
नष्टायां प्रतिपत्तौ तु मोहवश्यास्तदा नराः।
लोभस्य वशमापन्नास्सर्वे भरतसत्तम॥१७॥
अप्राप्तस्याभिमर्शं तु कुर्वन्तो मनुजास्ततः।
कामो नामापरस्तत्र समपद्यत वै प्रभो॥१८॥
तांस्तु कामाभिसन्तप्तान्रागो नामाभिसंस्पृशत्।
रक्ताश्च नाभ्यजानन्त कार्याकार्ये युधिष्ठिर॥१९॥
अगम्यागमनं चैव वाच्यावाच्यं तथैव च।
भक्ष्याभक्ष्यं च राजेन्द्र दोषादोषंच नात्यजन्॥२०॥
विप्लुतेनरलोकेऽस्मिस् ततो ब्रह्म ननाश ह।
नाशाच्च ब्रह्मणो राजन् धर्मोनाशमथागमत्॥२१॥
नष्टेब्रह्मणि धर्मे च देवास्त्रासमथागमन्।
ते त्रस्ता नरशार्दूल ब्रह्माणं शरणं ययुः॥२२॥
प्रपद्य भगवन्तं ते देवं147 लोकपितामहम्।
ऊचुः प्राञ्जलयस्सर्वे दुःखवेगसमाहताः॥२३॥
देवाः—
भगवन् नरलोकस्थं ग्रस्तं ब्रह्म सनातनम्।
लोभमोहादिभिर्भावैस् ततो नो भयमाविशत्॥२४॥
ब्रह्मणश्च प्रणाशेन धर्मो व्यनशदीश्वर॥२४॥
ततस्तु समतां याता मर्त्यैस्त्रिभुवनेश्वराः॥२५॥
अधोभिवर्षास्तु वयं भौमास्तूर्ध्वप्रवर्षिणः।
क्रियाव्युपरमात्तेषां ततोऽगच्छाम संशयम्॥२६॥
अत्र निश्श्रेयसं यन्नस् तद्ध्यायस्व पितामह।
त्वत्प्रसादात् समुत्थोऽसौ प्रभावो नो भवत्वयम्॥२७॥
भीष्मः—
तानुवाच सुरान् सर्वान् स्वयम्भूर्भगवांस्ततः॥२७॥
ब्रह्मा—
श्रेयोऽहं चिन्तयिष्यामि व्येतु वो भीस्सुरोत्तमाः॥२८॥
भीष्मः—
ततोऽध्यायसहस्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम्।
यत्र धर्मस्तथैवार्थः कामश्चैवानुवर्णितः॥२९॥
त्रिवर्ग इति विख्यातो गण एव स्वयम्भुवा।
चतुर्थो मोक्ष इत्येव पृथगर्थः पृथग्गुणः॥३०॥
मोक्षस्यापि त्रिवर्गोऽन्यः प्रोक्तस्सत्त्वं रजस्तमः।
स्थानं वृद्धिः क्षयश्चैव त्रिवर्गश्चैव दण्डजः॥३१॥
आत्मादेशश्च कालश्चप्युपायाः कृत्यमेव च।
सहायाः कारणं चैव षड्वर्गो नीतिजस्स्मृतः॥३२॥
त्रयी चान्वीक्षिकी चैव वार्ता च भरतर्षभ।
दण्डनीतिश्च विपुला विद्यास्तत्र निदर्शिताः॥३३॥
अमात्यलिप्सा प्रणिधी राजपुत्रस्य लक्षणम्।
चारश्च विविधोपायः प्रणिधिश्च पृथग्विधः॥३४॥
साम चैव प्रदानं च भेदो दण्डश्च पाण्डव।
उपेक्षा पञ्चमी चात्र कार्त्स्येनसमुदाहृता॥३५॥
मन्त्रश्च वर्णितः कृत्स्त्रो मन्त्रभेदास्तथैव च।
विभ्रमश्चैव मन्त्रस्य सिद्ध्यसिद्ध्योश्चयत् फलम्॥३६॥
सन्धिश्च विविधाभिख्यो हीनो मध्यस्तथा समः।
भयसत्कार वित्ताख्यः148 कार्त्स्न्येन
परिवर्णितः॥३७॥
यात्राकालाश्च चत्वारस् त्रिवर्गस्य च विस्तरः।
विजयो धर्मयुक्तश्च तथाऽर्थविजयश्च ह ॥३८॥
आसुरश्चैव विजयः कार्त्स्न्येन परिवर्णितः।
लक्षणं पञ्चवर्गस्य द्विविधं चात्र वर्णितम्॥३९॥
प्रकाशश्चाप्रकाशश्च दण्डोऽथ परिशब्दितः।
प्रकाशोऽष्टविधस्तत्र गुह्यस्तु बहुविस्तरः॥४०॥
रथा नागा हयाश्चैव पादाताश्चैव पाण्डव।
विष्टिर्नावश्चराश्चैव देशिका इति चाष्टमः॥४१॥
अङ्गान्येतानि कौरव्य प्रकाशानि बलस्य तु॥४१॥
जङ्गमाजङ्गमाश्चोक्ताश चूर्णयोगा विषादयः।
स्पर्शे चाभ्यवहार्ये चाप्युपांशुर्विविधस्स्मृतः॥४२॥
क्रीडापूर्वे रणे द्यूते विस्रम्भेण समन्वितम्।
उक्तं कैतव्यमित्येतद् उपायो नवमो बुधैः॥४३॥
उपेक्षा सर्वकार्येषु कर्मणां करणेषु च।
अनिष्टानां समुत्थाने त्रिवर्गो नश्यते यया॥४४॥
इन्द्रजालादिका माया वाग्जीवनकुशीलवैः।
सुनिमित्तैदुर्निमित्तैर् उत्पातैश्च समन्वितम्॥४५॥
डम्भो लिङ्गं समाश्रित्य शत्रुवर्गे प्रयुज्यते॥४६॥
शाठ्यंनिश्चेष्टता प्रोक्ता चित्तदोषप्रदूषिका।
अरिर्मित्रमुदासीन्इत्येतेऽप्यनुवर्णिताः॥४७॥
कृत्स्त्रो मार्गगुणश्चैव तथा भूमिगुणश्च ह।
आत्मरक्षणमाश्वासस् स्पर्शानां चान्ववेक्षणम्॥४८॥
कल्पना विविधाश्चापि नृनागरथवाजिनाम्।
व्यूहाश्च विविधाभिख्या विचित्रं युद्धकौशलम्॥४९।
उत्पाताश्च निपाताश्च सुयुद्धं सुपलायनम्।
शास्त्राणां पालनं ज्ञानं तथैव भरतर्षभ॥५०॥
बलव्यसनमुक्तं च तथैव बलहर्षणम्।
पीडा चापदकालश्च भयकालश्च पाण्डव॥५१॥
तथा ख्यातविधानं च योगस्सञ्चारएव च।
चोराटविलैश्चोग्रैःपरराष्ट्रस्य पीडनम् ॥५२॥
अग्निदैर्गरदैश्चैव प्रतिरूपककारकैः।
श्रेणिमुख्योपतापेन विविधच्छेदनेन च॥५३॥
दूषणेन च नागानाम् आतङ्कजननेन च।
आराधनेन भक्तस्य पत्युश्चोपग्रहेण च॥५४॥
सप्ताङ्गस्य च राज्यस्य ह्रासवृद्धिसमीक्षणम्।
दूतसामर्थ्ययोगश्च राष्ट्रस्य च विवर्धनम्॥५५॥
अरिमध्यस्थमित्राणां सम्यक् चोक्तं प्रपञ्चनम्।
अवमर्दः प्रतीघातस् तथैव च वलीयसाम्॥५६॥
व्यवहारस्सुसूक्ष्मश्च तथा कण्टकशोधनम्।
श्रमो149 व्यायामयोगश्च योगद्रव्यस्य सञ्चयः॥५७॥
अभृतानां च भरणं भृतानां चान्ववेक्षणम्।
अन्तकाले प्रदानं च व्यसनेष्वसङ्गिता150॥५८॥
तथा राजगुणाश्चैव सेनापतिगुणास्तथा।
करणस्य च कर्तुश्च गुणदोषास्तथैव च॥५९॥
दुष्टेङ्गितं च विविधं वृत्तिश्चैवानुजीविनाम्।
शङ्कितत्वं च सर्वस्य प्रमादस्य च वर्जनम्॥६०॥
अलभ्यलिप्सा लब्धस्य तथैव च विवर्धनम्।
प्रदानं च विवृद्धस्य पात्रेभ्यो विधिवत् तथा॥६१॥
विसर्गोऽर्थस्य धर्मार्थम् अर्थार्थं कामहेतुकम्।
चतुर्थो व्यसनाघाते तथैवात्रानुवर्णितम्॥६२॥
क्रोधजानि तथोग्राणि कामजानि तथैव च।
दशोक्तानि कुरुश्रेष्ठ व्यसनान्यत्र चैव ह॥६३॥
मृगयाऽक्षास्तथा पानं स्त्रियश्च भरतर्षभ।
कामजान्याहुराचार्याः प्रोक्तानीह स्वयम्भुवा॥६४॥
वाक्पारुष्यं तथोग्रत्वं दण्डपारुष्यमेव च।
आत्मनो निग्रहस्त्यागो ह्यर्थदूषणमेव च॥६५॥
यन्त्राणि विविधान्येव क्रियास्तेषां च वर्णिताः॥६५॥
अवमर्दः प्रतीघातः केतनानां च भञ्जनम्।
चैत्यद्रुमाणामामर्दो रोधः कर्मान्तनाशनम्॥६६॥
उपस्करोऽथ वमनं तथोपास्या च वर्णिता॥६७॥
पणवानकशङ्खानां भेरीणां च युधिष्ठिर।
उपार्जनं च द्रव्याणां परमर्म च तानि षट्॥६८॥
लब्धस्य च प्रशमनं सतां चैवाभिपूजनम्।
विद्वद्भिरेकीभावश्च जपहोमविधिज्ञता॥६९॥
मङ्गलालम्भनं चैव शरीरस्य प्रतिक्रिया।
आहारयोजनं चैव नियमास्तिक्यमेव च॥७०॥
एतेन च तथा स्थेयं सत्यत्वं मधुरा गिरः।
उत्तमानां समानानां151 क्रियाः केतनजास्तथा॥७१॥
प्रत्यक्षाश्च परोक्षाश्च सर्वाधिकरणेष्वेथ।
वृत्तिर्भरतशार्दूल नियं चैवान्ववेक्षणम्॥७२॥
अदण्ड्यता च विप्राणां युक्त्यादण्डनिपातनम्।
अनुजीविस्वजातिभ्यो गुणेभ्यश्च समुद्भवः॥७३॥
रक्षणं चैव पौराणां स्वराष्ट्रस्य विवर्धनम्।
मण्डलस्था च या चिन्ता राजन्द्वादशराजिका॥७४॥
त्रिस्सप्ततिमतिश्चैव प्रोक्ता या च स्वयम्भुवा।
देशजातिकुलानां च धर्मस्समनुवर्णितः॥७५॥
धर्मश्चार्यश्च कामश्च मोक्षश्चात्रानुवर्णितः॥७५॥
उपायाश्चार्थलिप्सा च विविधा भूरिदक्षिणाः।
मूलकर्मक्रिया चात्र मायायोगश्च वर्णितः॥७६॥
दूषणं स्रोतसामत्र वर्णितं च स्थिराम्भसाम्॥७७॥
धैर्यैरुपायैर्लोकश्चन चलेदार्यवर्त्मनः।
तत् सर्वं राजशार्दूल नीतिशास्त्रेऽनुवर्णितम्॥७८॥
एतत् कृत्वा शुभं शास्त्रं ततस्स भगवान् प्रभुः।
देवानुवाच संहृष्टस् सर्वाञ्छक्रपुरोगमान्॥७९॥
उपकाराय लोकस्य त्रिवर्गस्थापनाय च।
नवनीतं सरस्वत्या बुद्धिरेषाप्रभाषिता॥८०॥
दण्डेन सहिता ह्येषालोकरक्षणकारिका।
निग्रहानुग्रहरता लोकाननुचरिष्यति॥८१॥
दण्डेन नीयते चेयं दण्डं नयति चाप्युत।
दण्डनीतिरिति प्रोक्ता ब्रील्ँलोकानवपत्स्यते॥८२॥
पाङ्गुण्यगुणसारैषास्थास्यत्यग्रेमहात्मसु।
धर्मार्थकाममोक्षाश्च सकला ह्यत्र शब्दिताः152॥८३॥
ततस्तां भगवान् नीतिं पूर्वं जग्राह शङ्करः।
बहुरूपो विशालाक्षश् शिवस्स्थाणुरूमापतिः॥८४॥
अनादिनिधनो देवश्चैतन्यादिसमन्वितः।
ज्ञानानि च वशे यस्य तारकादीन्यशेषतः॥८५॥
अणिमादिगुणोपेतम् ऐश्वर्यं न च कृत्रिमम्।
तुष्ट्यर्थं ब्रह्मणः पुत्रो ललाटादुत्थितः प्रभुः॥८६॥
अरुदत् सस्वनं घोरं जगतः प्रभुरव्ययः।
जायमानः पिता पुत्रे पुत्रः पितरि चैव हि॥८७॥
बुद्धिं विश्वसृजे दत्त्वा ब्रह्माण्डं येन निर्मितम्।
यस्मिन हिरण्मयो हंसश् शकुनिस्समपद्यत॥८८॥
कर्ता सर्वस्य लोकस्य ब्रह्मा लोकपितामहः।
स देवस्सर्वभूतात्मा महादेवस्सनातनः॥८९॥
असङ्ख्यातसहस्राणां रुद्राणां स्थानमव्ययम्॥८९॥
युगानामायुषोह्रासं विज्ञाय भगवाञ् शिवः।
सञ्चिक्षेपततश्शास्त्रं महार्थं ब्रह्मणा कृतम्॥९०॥
वैशालाक्षमिति प्रोक्तं तदिन्द्रः प्रत्यपद्यत।
दशाध्यायसहस्राणि सुब्रह्मण्यो महातपाः॥९१॥
मघवानपि तच्छास्त्रं देवान् प्राप्य महेश्वरात्।
प्रजारञ्जनमन्विच्छन्सञ्चिक्षेप पुरन्दरः॥९२॥
सहस्रैः पञ्चभिस्तात यदुक्तं बाहुन्तिकम्॥९३॥
अध्यायानां सहस्रैस्तु त्रिभिरेव बृहस्पतिः।
सञ्चिक्षेपेश्वरो बुद्ध्या बार्हस्पत्यं यदुच्यते॥९४॥
अध्यायानां सहस्रेण काव्यस्सङ्क्षेपमब्रवीत्।
तच्छास्त्रममितप्रज्ञो योगाचार्यो महायशाः॥९५॥
एवं लोकानुरोधेन शास्त्रमेतन्महर्षिभिः।
सङ्क्षिप्तमायुर्विज्ञाय लोकानां ह्रासि पाण्डव॥९६॥
अथ देवास्समागम्य विष्णुमूचुः प्रजापतिम्।
एको योऽर्हति मर्त्येभ्यश श्रेष्टं तं वै समादिश॥९७॥
ततस्सञ्चिन्त्य भगवान्देवो नारायणः प्रभुः।
तैजसं वै विरजसं सोऽसृजन्मानसं सुतम्॥९८॥
विरजास्तु महाभागः प्रभुत्वं भुवि नैच्छत।
न्यासायैवाभवद्बुद्धिः प्रणीता तस्य पाण्डव॥९९॥
कीर्तिमांस्तस्य पुत्रोऽभूत् सोऽपि मर्त्याधिकोऽभवत्।
कर्दमस्तस्य पुत्रोऽभूत्सोऽप्यतप्यन्महत्तपः॥१००॥
प्रजापतेः कर्दमस्य अनङ्गो नाम वीर्यवान्।
प्रजानां रक्षिता साधुर् दण्डनीतिविशारदः॥१०१॥
अनङ्गपुत्रोऽतिबलो नीतिमानभिगम्य वै।
अभिपेदे महाराज्यम् अथेन्द्रियवशोऽभवत्॥१०२॥
प्राप्य नारीं महाभागां रूपिणीं काममोहितः।
सौभाग्येन च सम्पन्नां गुणैश्चानुत्तमां153 सतीम्॥१०३॥
मृत्योस्तु दुहिता राजन् सुनीथा नाम नामतः।
प्रख्याता त्रिषुलोकेषुया सा वेनमजीजनत्॥१०४॥
तं प्रजासु विधर्माणं रागद्वेषवशानुगम्।
मन्त्रपूतैः कुशैर्जघ्नुर् ऋषयो ब्रह्मवादिनः॥१०५॥
ममन्थुर्दक्षिणं चोरुम् ऋषयस्तस्य भारत।
मन्त्रवत्तस्य सञ्जज्ञे ह्रस्वकः पुरुषोऽशुचिः॥१०६॥
दग्धस्थूणाप्रतीकाशो राक्षसः कृष्णमूर्धजः।
निषीदेत्येवमूचुस्ते ऋषयो ब्रह्मवादिनः॥१०७॥
तस्मान्निपादास्सम्भूताः क्रूराश्शैलवनाश्रयाः।
ये चान्ये विन्ध्यनिलया म्लेच्छाश्शतसहस्रशः॥१०८॥
भूयोऽस्य दक्षिणं पाणिं ममन्थुस्ते महर्षयः।
ततः पुरुष उत्पन्नो रूपेणेन्द्र इवापरः॥१०९॥
कवची बद्धनिस्त्रिंशस् सशरस्सशरासनः।
वेदवेदाङ्गविच्चैव धनुर्वेदस्य पारगः॥११०॥
तं दण्डनीतिस्सकला श्रिता राजन्नरोत्तमम्॥११०॥
ततस्स प्राञ्जलिर्वैन्यो महर्षीस्तानुवाच ह॥११०॥
वैन्यः—
सुसूक्ष्मा मे समुत्पन्ना बुद्धिर्धर्मार्थदर्शिनी।
अनया किं मया कार्यं तन्मे तत्त्वेन शंसत॥११२॥
यन्मां भवन्तो वक्ष्यन्ति कार्यमर्थसमन्वितम्।
तदहं वः करिष्यामि नात्र कार्या विचारणा॥११३॥
भीष्मः—
तमूचुस्तत्र देवाश्च ते चैव परमर्षयः॥११३॥
ऋषयः —
नियतो यत्र धर्मो वै तमशङ्कस्समाचर।
प्रियाप्रिये परित्यज्य समस्सर्वेषु जन्तुषु॥११४॥
कामं क्रोधं च लोभं च मानं चोत्सृज्य दूरतः॥११५॥
यश्च धर्मात् प्रचलितो लोके कश्चन मानवः।
निग्राह्यस्ते स्वबाहुभ्यां शश्वद्धर्ममवेक्षता॥११६॥
प्रतिज्ञामधिरोहस्व मनसा कर्मणा गिरा।
पालयिषाम्यहं भौमं ब्रह्म इत्येव चासकृत्॥११७॥
यश्चात्र धर्मान्इत्युक्तो दण्डनीतिव्यपाश्रयः।
तमशङ्कः करिष्यामि स्ववशो न कदाचन॥११८॥
अदण्ड्या मे द्विजाश्चेति प्रतिजानीष्वचाभि भो।
लोकं च सङ्करात् कृत्स्नं त्राताऽस्मीति परन्तप॥११९॥
भीष्मः—
वैन्यस्तु तानुवाचेदं देवानृषिपुरोगमान्॥११९॥
वैन्यः—
ब्राह्मणा मे सहायाश्चेद् एवमस्तु सुरर्षभाः॥१२०॥
भीष्मः—
एवमस्त्विति वैन्यस्तु तैरुक्तो ब्रह्मवादिभिः॥१२०॥
पुरोधाश्चाभवत्तस्य शुक्रो ब्रह्ममयो निधिः।
मन्त्रिणो वालखिल्यास्तु सारस्वत्यो गणो ह्यभूत्॥१२१॥
महर्षिभगवान् गर्गस् तस्य सांवत्सरोऽभवत् ॥१२२॥
आत्मनाऽष्टम इत्येव श्रुतिरेषांपरा नृप॥१२२॥
उत्पन्नौ वन्दिनौ चास्य तौ पूर्वी सूतमागधौ॥१२३॥
समतां वसुधायाश्च स सम्यगुद्पादयत्।
वैषम्यं परमं भूमेर् इति नः परमा श्रुतिः॥१२४॥
स विष्णुना च देवेन शक्रेण विबुधैश्च ह।
ऋषिभिश्च प्रजापाल्ये ब्रह्मणा चाभिषेचितः॥१२५॥
तं साक्षात् पृथिवी भेजे रत्नान्यादाय वाऽपि च।
सागरस्सरितां भर्ता हिमवांश्चाचलोत्तमः॥१२६॥
शक्रश्च धनमक्षय्यं प्रादात् तस्मै युधिष्ठिर।
रुक्मं चापि महामेरुस् स्वयं कनकपर्वतः॥१२७॥
यक्षराक्षसभर्ता च भगवान् नरवाहनः।
धर्मे चार्थे च कामे च समर्थं प्रददौ धनम्॥१२८॥
हया रथाश्च नागाश्च कोटिशः पुरुषास्तथा।
प्रादुर्बभूवुर्वैन्यस्य चिन्तयानस्य पाण्डव॥१२९॥
न जरा न च दुर्भिक्षं नाधयो व्याधयः कुतः॥१२९॥
सरीसृपेभ्यरस्तेनेभ्यो न चान्येभ्यः कदाचन।
भयमासीत् ततस्तस्य पृथिवी सस्यमालिनी॥१३०॥
तेनेयं पृथिवी दुग्धा सस्यानि दश सप्त च।
यक्षराक्षसनागानाम् ईप्सितं यस्य यस्य यत्॥१३१॥
तेन धर्मोत्तरश्चायं कृतो लोको महात्मना।
रञ्जिताश्च प्रजास्सर्वास् तेन राजेति कथ्यते॥१३२॥
ब्राह्मणानां क्षतत्राणात् ततः क्षत्रिय उच्यते।
प्रथिता धनतश्चेयं पृथिवी साधुभिस्स्मृता॥१३३॥
स्थापनं चाकरोद्विष्णुस् स्वयमेव सनातनः।
नातिवर्तिष्यते कश्चिद् राजंस्त्वामिति भारत॥१३४॥
ततस्स भगवान् विष्णुर् आविवेश च पार्थिवान्।
देववन्नरदेवानां नमतीदं जगत्ततः॥१३५॥
दण्डनीत्या च सततं रक्षितारं नरेश्वरम् ।
न स्म धर्षयते कश्चिन्नित्यशश्चारुदर्शनम्॥१३६॥
शुभं हि कर्म राजेन्द्र शुभत्वायोपकल्पते॥१३७॥
आत्मना करणैश्चेहसमस्येह महीक्षितः।
को हेतुर्यद्वशे तिष्ठेल्लोको दैवादृते नृणाम्॥१३८॥
विष्णोर्ललाटात् कमलं सौवर्णमभवत् तदा।
श्रीस्सम्भूता ततस्तस्मिन्देवी धर्मस्यपाण्डव॥१३९॥
श्रियस्सकाशादर्थश्च जातो धर्मस्यपाण्डव।
अथ धर्मस्तथैवात्र श्रीश्च राज्ये प्रतिष्ठिता॥१४०॥
स्वकृतस्य क्षयाच्चैव स्वर्लोकादेत्य मेदिनीम्।
पार्थिवो जायते तात दण्डनीतिविशारदः॥१४१॥
माहात्म्येन च संयुक्तो वैष्णवेन नरो भुवि ।
बुद्ध्या भवति संयुक्तो माहात्म्यं चाधिगच्छति॥१४२॥
स्थापनादथ चेद्देवैर्न कश्चिदतिवर्तते।
तिष्ठेदेकस्य तु वंशे तं चैवानुविधीयते॥१४३॥
शुभं हि कर्म राजेन्द्र शुभत्वा154योपकल्पते।
तुल्यस्यैकस्य येनायं लोको वचसि तिष्ठति॥१४४॥
योऽस्य वै मुखमद्राक्षीत् सोऽस्य सर्वो वशानुगः।
सुभगं चार्थवन्तं च रूपवन्तं च पश्यति॥१४५॥
महत्त्वात् तस्य दण्डस्य नीतिर्विस्पष्टलक्षणा।
नयश्चायश्च विपुलो येन सर्वमिदं ततम्॥१४६॥
आगमश्च पुराणानां महर्षीणां च सम्भवः।
तीर्थवंशाश्च वंशाश्च क्षत्रियाणां युधिष्ठिर॥१४७॥
सकलं चातुराश्रम्यं चातुर्होत्रं तथैव च।
चातुर्वेद्यं तथैवात्र चातुर्वर्ण्यं च वर्णितम्॥१४८॥
इतिहासोपवेदाश्च न्यायः कृत्स्नश्च वर्णितः।
तपो ज्ञानमहिंसा च सत्यं दानममत्सरः॥१४९॥
वृद्धोपसेवा दाक्ष्यं च शौचमुत्थानमेव च।
सर्वभूतानुकम्पा च सर्वमेवात्र वर्णितम्॥१५०॥
भुवि वाचोगतं यच्च तच्च सर्वं समर्पितम्।
तस्मिन्पैतामहे शास्त्रे पाण्डवेय न संशयः॥१५१॥
ततो जगति राजेन्द्र ततस्संशब्दितो बुधैः।
देवाश्च नरदेवाश्च तुल्या इति विशां पते॥१५२॥
एतत् ते सर्वमाख्यातं महत्त्वं प्रति राजसु।
कार्त्स्येनभरतश्रेष्ठ किमन्यदिह वर्तताम्॥१५३॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यांसशान्तिपर्वणि त्रिपञ्चाशोऽध्यायः॥५३॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥
[ अस्मिन्नध्याये १५३ श्लोकाः ]
______
॥ चतुःपञ्चाशोऽध्यायः॥
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** भीष्मेण युधिष्टिरं प्रतिचातुर्वर्ण्यधर्मकथनम् ॥**
______
वैशम्पायनः—
ततः पुनस्स गाङ्गेयम् अभिवाद्य पितामहम्\।
प्राञ्जलिर्नियतो भूत्वा पर्यपृच्छद्युधिष्ठिरः॥१॥
युधिष्टिरः—
के धर्मास्सर्ववर्णानां चातुर्वर्ण्यस्य के पृथक्।
चतुर्णामाश्रमाणां च राजधर्माश्च के मताः२॥
केन स्म वर्धते राष्ट्रं राजा केन च वर्धते।
केन पौराश्च भृत्याश्च वर्धन्ते भरतर्षभ॥३॥
कोशो दण्डश्च दुर्गश्च सहाया मन्त्रिणस्तथा।
ऋत्विक्पुरोहिताचार्यान् कीदृशान् वर्जयेन्नृपः॥४॥
केषुविश्वसितव्यं स्याद् राज्ञा कस्याञ्चिदापदि।
कुतो वाऽऽत्मा दृढं रक्ष्यस् तन्मे ब्रूहि पितामह॥५॥
द्वैधीभावेन भूतानां शपथः कीदृशो भवेत्।
अधर्मस्य फलं यच्च शपथस्य विलङ्घने ॥६॥
सर्वमेतद्यथातत्त्वं व्यवहारं च तादृशम्।
समासव्यासयोगेन कथयस्व पितामह॥७॥
भीष्मः—
नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे।
ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान् वक्ष्यामि शाश्वतान्॥८॥
अक्रोधस्सत्यवचनं संविभागश्च सर्वशः।
प्रजनं स्वेषु दारेषु शौचमद्रोह एव च॥९॥
आर्जवं भृत्यभरणं त एते सार्ववर्णिकाः॥९॥
ब्राह्मणस्य तु यो धर्मस् तत्ते वक्ष्यामि केवलम्॥१०॥
दममेव महाराज धर्ममाहुस्सनातनम्।
स्वाध्यायोऽध्यापनं चैव तत्र कर्म समाप्यते॥११॥
तं चेद्वित्तमुपागच्छेद् वर्तमानं स्वकर्मणि।
अकुर्वाणं हि कर्माणि शान्तं प्रज्ञानकल्पितम्॥१२॥
कुर्वीतापत्यसन्तानम्अथो दद्याद्यजेत च ।
संविभज्य हि भोक्तव्यं धनं सद्भीरितीष्यते॥१३॥
परिनिष्ठितकर्मा हि स्वाध्यायेनैव वै द्विजः।
कुर्यादन्यन्न वा कुर्यान्मैत्रो ब्राह्मण उच्यते॥१४॥
क्षत्रियस्यापि यो धर्मस् तं ते वक्ष्यामि भारत॥१४॥
दद्याद्राजा न याचेत यजेत न तु याजयेत्॥१५॥
नाध्यापयेदधीयीत प्रजाश्च परिपालयत्।
नित्योद्युक्तो दस्युवधे रणे कुर्यात् पराक्रमम्॥१६॥
ये तु ऋतुभिरीजानाश् श्रुतवन्तश्च पार्थिवाः।
ये चाहवे विजेतारस् त एषां लोकजित्तमाः॥१७॥
अविक्षतेन देहेन समराद्यो निवर्तते।
क्षत्रियो नास्य तत् कर्म प्रशंसन्ति पुराविदः॥१८॥
एवं हि क्षत्रबन्धूनां धर्ममाहुः प्रधानतः।
नास्य कृत्यमिदं किञ्चिद् अन्यद्दस्युनिवर्हणात्॥१९॥
दानमध्ययनं यज्ञो राज्ञां क्षेमो विधीयते।
तस्माद्राज्ञा विशेषेण योद्धव्यं धर्मलिप्सुना॥२०॥
स्वेषु धर्मेष्ववस्थाप्य प्रजास्सर्वा महीपतिः।
धर्मेण सर्वकृयानि समनिष्ठानि कारयेत्॥२१॥
परिनिष्ठितकृत्यस्स्यान्नृपतिः परिपालनात्।
कुर्यादन्यन्न वा कुर्याद् ऐन्द्रो राजन्य उच्यते॥२२॥
वैश्यस्यापि हि यो धर्मस् तं ते वक्ष्यामि भारत॥२२॥
दानमध्ययनं यज्ञश्शौचेन धनसञ्चयः।
पितृवत् पालयेद्वैश्यो युक्तस्सर्वान्पशुनिह॥२३॥
विकर्म वर्जयेदन्यत् कर्म यद्यत् समाचरेत्।
रक्षया स हि तेषां वै महत् सुखमवाप्नुयात्॥२३॥
प्रजापतिर्हि वैश्याय सृष्ट्वा परिददौ पशून्।
ब्राह्मणाय च राज्ञे च सर्वाः परिददे प्रजाः॥२५॥
तस्य वृत्तिं प्रवक्ष्यामि यच्च तस्योपजीवनम्॥२६॥
षण्णामेकां पिबेद्धेनुं शतस्य मिथुनं हरेत्।
लये च सप्तमो भागस् तथा शृङ्गे तथा खुरे॥२७॥
यस्यास्य सर्वबीजानाम् एषासांवत्सरी भृतिः॥२७॥
न च वैश्यस्य कामस्स्यान्न रक्षेयं पशूनिति।
वैश्ये चेच्छति नान्येन रक्षितव्याः कथञ्चन॥२८॥
शूद्रस्यापि च यो धर्मस् तं ते वक्ष्यामि भारत॥२९॥
प्रजापतिर्हि वर्णानां दासं शूद्रमकारयत्।
तेषां155 शुश्रूषणाच्चैव महत्सुखमवाप्नुयात्॥३०॥
शूद्र एतान् परिचरेत् त्रीन्वर्णाननसूयकः।
सञ्चयांश्च न कुर्वीत जातु शूद्रः कथञ्चन॥३१॥
पापीयान् हि धनं लब्ध्वा वशे कुर्याद्गरीयसः।
राज्ञा वा समनुज्ञातः कर्म कुर्वीत धार्मिकः॥३२॥
तस्य वृत्तिं प्रवक्ष्यामि यस्य तस्योपजीवनम्।
अवश्यं भरणीयो हि वर्णानां शूद्र उच्यते॥३३॥
पात्रं वेष्टनमौशीरम्156 उपानद्व्यजनानि च।
यातयामानि शूद्राय देयानि परिचारिणे॥३४॥
अधार्याणि विशीर्णानि वसनानि द्विजातिभिः।
शूद्रायैव प्रदेयानि तस्य धर्मधनं हि तत्॥३५॥
यश्च कश्चिद्द्विजातीनां शूद्रश्शुश्रूषुराव्रजेत्।
कल्प्यां तेन तु तस्याहुर् वृत्ति धर्मविदो जनाः॥३६॥
देयः पिण्डोऽनपत्याय भर्तव्यौ वृद्धदुर्बलौ।
शूद्रेण न हि भर्तव्यो भर्ता157 कस्याश्चिदापदि ॥३७॥
अतिरेकेण भर्तव्यो भर्ता द्रव्यपरिक्षये।
न हि स्वमस्ति शूद्रस्य भर्तृहार्यधनो ह्यसौ॥३८॥
उक्तस्त्रयाणां वर्णानां यज्ञस्त्रय्येव भारत।
स्वाहाकारनमस्कारौ मन्त्रशूद्रे न हीष्यते॥३९॥
तस्माच्छूद्रः158 पाकयज्ञैर् यजेताव्रतवान् स्वयम्।
पूर्णपात्रमपासाहुः पाकयज्ञस्य दक्षिणाम्॥४०॥
शूद्रः पैलवनो नाम सहस्राणां शतं ददौ।
ऐन्द्राग्नेन विधानेन दक्षिणामिति नश्श्रुतम्॥४१॥
यतो हि सर्ववर्णानां यज्ञस्तस्यैव भारत159॥४१॥
अग्रे सर्वेषु यज्ञेषु श्रद्धायज्ञो विधीयते।
दैवतं हि परं श्रद्धा पवित्रं यजतां च तत्॥४२॥
दैवतं परमं विप्रास् स्वेन स्वेन परस्परम्।
अयजन्निह सत्रैस्ते160 तैस्तैः कामैस्सनातनैः॥४३॥
संसृष्टा ब्राह्मणैरेव त्रिषुवर्णेषु सृष्टयः।
देवानामपि ये देवा यद्ब्रूयुस्तेपरं हि तत्॥४४॥
तस्माद्वर्णैस्तु धर्मशास् संसृज्यन्ते न काम्यया॥४५॥
ऋग्यजुस्सामवित् पूज्यो नित्यं स्याद्दैवतं द्विजः।
अनृग्यजुरसामा तु प्राजापत्य उपद्रवः॥४६॥
यज्ञो मनीशषयातात सर्ववर्णेषु भारत॥४६॥
नास्य यज्ञहणो देवा ईहन्ते नेतरे जनाः।
तस्मात् सर्वेषु वर्णेषु श्रद्धायज्ञो विधीयते॥४७॥
स्वं दैवतं ब्राह्मणास्स्वेन नित्यं
परान् वर्णानयजन्नैवमासीत्।
अधरोवितानस्त्वथ तत्र सृष्टस्
तस्माद्विद्वांसस्त्रिषुवर्णेषु दृष्टाः॥४८॥
तस्माद्वर्णा बहवो जातिधर्मास्
संसृज्यन्ते तस्य विपाक एषः।
एकं साम यजुरेकमृगेका
विप्रश्चैको नियतस्तेषु दृष्टः॥४९॥
अत्र गाथाः पुरा गीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
वैखानसानां राजेन्द्र मुनीनां यष्टुमिच्छताम्॥५०॥
उदितेऽनुदिते वाऽपि श्रद्दधानो जितेन्द्रियः।
वह्निं जुहोति धर्मेण श्रद्धा वै कारणं महत्॥५१॥
यत् स्कन्नमस्य तत् पूर्वं यदस्कन्नं तदुत्तरम्।
बहूनियज्ञरूपाणि नानाकर्मफलानि च॥५२॥
तानियस्स विजानाति ज्ञाननिश्चित श्चयः।
द्विजातिश्श्रद्धयोपेतस् स यष्टुं पुरुषोऽर्हति॥५३॥
स्तेनो वा यदि वा पापो यदि वा पापकृत्तमः।
यष्टुमिच्छति यज्ञं यस् साधुमेव वदन्ति तम्॥५४॥
ऋषयस्तं प्रशंसन्ति साधु चैतदसंशयम्।
सर्वथा सर्ववर्णैश्च यष्टव्यमिति निश्चयः॥५५॥
न हि यज्ञसमं किञ्चित् त्रिषुलोकेषु विद्यते॥५६॥
तस्माद्यष्टव्यमित्याहुः पुरुषेणानसूयुना।
श्रद्धापवित्रमाश्रित्य यथाशक्ति प्रयच्छता॥५७॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि चतुःपञ्चाशोऽध्यायः॥५४॥
॥८३॥राजधर्मपर्वणि पञ्चदशोऽध्यायः॥१५॥
[अस्मिन्नध्याये ५० श्लोकाः]
॥ पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति आश्रमचतुष्टयधर्मकथनम्॥
भीष्मः—
आश्रमाणां महाबाहो शृणु सत्यपराक्रम।
चतुर्णां नामधेयानि कर्माणि च युधिष्ठिर॥१॥
वानप्रस्थं भैक्षचर्यां तथा गार्हस्थ्यमाश्रमम्।
ब्रह्मचर्याश्रमं प्राहुश् चतुर्थं ब्राह्मणेरितम्॥२॥
चूडाकरणसंस्कारं द्विजातित्वमवाप्य च।
आधानादीनि कर्माणि प्राप्य वेदानधीत्यच॥३॥
सदारो वाऽप्यदारो वा विनीतस्संयतेन्द्रियः।
वानप्रस्थाश्रमं गच्छेत् कृतकृत्यो गृहाश्रमात्॥४॥
तत्रारण्यकशास्त्राणि समधीत्यस धर्मवित्।
ऊर्ध्वरेताः प्रजा हित्वा गच्छत्यक्षरसात्मताम्॥५॥
एतान्येव निमित्तानि मुनीनामूर्ध्वरेतसाम्।
कर्तव्यानीह विप्रेण राजन्नादौ विपश्चिता॥६॥
चरितब्रह्मचर्यस्य ब्राह्मणस्य विशां पते।
भैक्षचर्यास्वधीकारः प्रशस्तो देहमोक्षणे॥७॥
यत्रास्तमितशायी161 स्यान्निरग्निरनिकेतनः।
यथालब्धोऽपजीवी स्यान्मुनिर्दान्तो जितेन्द्रियः॥८॥
निराशीर्निर्नमस्कारो निर्भारो निर्विकारवान्।
विप्रः क्षेमाश्रमं प्राप्तो गच्छत्यक्षरसाम्यताम्॥९॥
अधीत्य वेदान्कृतसर्वकृत्यस्
सन्तानमुत्पाद्य सुखानि भुक्त्वा।
समाहितः प्रचरेद्दुश्चरं तं
गार्हस्थ्यधर्मंमुनिधर्मदृष्टम्॥१०॥
स्वदारतुष्टस्त्वृतुकालगामी
नियोगसेवी न शठो न जिह्मः।
मिताशनो दैवपरः कृतज्ञस्
सत्यो मृदुश्चानृशंसः क्षमावान्॥११॥
दान्तो विधेयो हव्यकव्याप्रमत्तो
ह्यन्नस्य दाता सततं द्विजेभ्यः।
अमत्सरी सर्वलिङ्गप्रदाता
वैताननित्यश्च गृहाश्रमी स्यात्॥१२॥
अथात्र नारायणगीतमाहुर्
महर्षयस्तात महानुभावाः।
महार्थमत्यर्थतपःप्रयुक्तं
तदुच्यमानं हि मया निबोध॥१३॥
सत्यार्जवं चातिथिपूजनं च
धर्मस्तथाऽर्थश्च रतिस्स्वदारे।
निषेव्यमाणानि सुखानि लोके
ह्यस्मिन् परे चैव मतं ममैतत्॥१४॥
भरणं पुत्रदाराणां वेदानां चानुपालनम्।
सेवतामाश्रमं श्रेष्ठं वदन्ति परमर्षयः॥१५॥
एवंविधो ब्राह्मणो यज्ञशीलो
गार्हस्थ्यमध्यावसते यथावत्।
गृहस्थवृत्तिं प्रविगाह्य सम्यक्
स्वर्गे विशुद्धं फलमश्नुते सः॥१६॥
तस्य देहं परित्यज्य इष्टकामाः क्षमा मताः।
आनन्त्यायोपकल्पन्ते सर्वतोक्षिशिरोमुखाः॥१७॥
वसन्नेको जपन्नेकस् सर्वान्वेदान्युधिष्ठिर।
एकस्मिन्नेव चाचार्ये शुश्रूषुर्मलपङ्कवान्॥१८॥
ब्रह्मचारी व्रती नित्यं नित्यं दीक्षापरो वशी।
गुरुच्छायानुगो नित्यम् अधीयानस्सुयन्त्रितः॥१९॥
अविचाल्यव्रतोपेतं कृत्यं कुर्वन् वशे सदा162।
शुश्रूषां सततं कुर्वन् गुरोस्सम्प्रणतेन च ॥२०॥
षट्कर्मस्वनिवृत्तश्च न प्रवृत्तश्च सर्वतः।
नाचरत्यधिकारेण सेवते द्विषतो न च॥२१॥
एषोश्रमपदस्तात ब्रह्मचारिण इष्यते॥२१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः॥५५॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि षोडशोऽध्यायः॥१६॥
[अस्मिन्नध्याये २१॥ श्लोकाः ]
______
॥ षट्पञ्चाशोऽध्यायः॥
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** युधिष्टिरं प्रति भीष्मेण ब्राह्मणधर्मकथनम्॥**
______
युधिष्टिरः—
पुनश्शिवान्महोदर्कान्अहिंस्राल्ँलोकसम्मतान्।
ब्रूहि धर्मान्सुखोपायान् मद्विधानां सुखावहान्॥१॥
भीष्मः—
ब्राह्मणस्येह चत्वार आश्रमा विहिताः प्रभो।
वर्णा स्तनानुवर्तन्ते163 त्रयो भरतसत्तम्॥२॥
उक्तानि कर्माणि बहू्नि राजन्
स्वर्ग्याणि राजन्यपरायणानि।
शास्त्रस्य सर्वस्य विधौ स्मृतानि
क्षात्रे हि सर्वं विहितं परं यत्॥३॥
क्षात्राणि वैश्यानि च सेवमानश्
शौद्राणि कर्माणि च ब्राह्मणस्सन्।
अस्मिल्ँलोके निन्दितोमन्दचेताः
परे च लोके निरयं प्रयाति॥४॥
या संज्ञा विहिता लोके दासे शुनि वृके पशौ।
विकर्मणि स्थिते विप्रे तां संज्ञां कुरु पाण्डव॥५॥
षट्कर्मसम्प्रवृत्तस्य आश्रमेषु चतुर्ष्वपि।
सर्वधर्मोपपन्नस्य तद्भूतस्य कृतात्मनः॥६॥
ब्राह्मणस्य विशुद्धस्य तपस्यभिरतस्य च।
निराशिषोवदान्यस्य लोका ह्यक्षरसंज्ञकाः॥७॥
यो यस्मिन्कुरुते कर्म यादृशं येन च प्रभो।
तादृशं तादृशेनैव सगुणं प्रतिपद्यते॥८॥
वृद्ध्या कृषिवणिकत्वेन जीवसञ्जीवनेन च।
वेत्तुमर्हसि राजेन्द्र स्वाध्यात्मगुणितेन च॥९॥
कालसञ्चोदितः काले कालपर्यायनिश्चितः।
उत्तमाधममध्यानि कर्माणि कुरुतेऽवशः॥१०॥
अन्तवन्ति प्रदानानि परं श्रेयस्कराणि च।
अकर्मविहितो लोको ह्यक्षरस्सर्वतोमुखः॥११॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि षट्पञ्चाशोऽध्यायः॥५६॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥
[अस्मिन्नध्याये ११ श्लोकाः]
______
॥ सप्तपञ्चाशोऽध्यायः॥
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भीष्मः—
भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति ब्राह्मणैस्त्याज्यधर्मकथनम् ॥१॥ तथा क्षत्रियादिधर्मकथनपूर्वकं राजधर्मप्रशंसनम्॥२॥
______
ज्याकर्षणं शत्रुनिबर्हणं च
कृषिर्वाणिज्या पशुपालनं च।
शुश्रूषणं चापि तथार्थहेतोर्
अकार्यमेतत् परमं द्विजस्य॥१॥
सेव्यं तु ब्रह्म षट्कर्म गृहस्थेन मनीषिणा।
कृतकृत्यस्य चारण्ये वासो विप्रस्य शस्यते॥२॥
राजप्रेष्यं कृषिधनं जीवनं च वणिक्क्रिया।
कौटिल्यं कौलटेयं च ब्राह्मणस्य विगर्हितम्॥३॥
शूद्रो राजन् भवति ब्रह्मबन्धुर्
दुश्चारित्रो यश्च धर्मादपेतः।
वृषलीपतिः पिशुनो नर्तनश्च
ग्रामप्रेष्यो यश्च भवेद्विकर्मा॥४॥
एवंविधो ब्राह्मणः कौरवेन्द्र
वृत्तापेतो यो भवेन्मन्दचेताः।
जपन् वेदानजपंश्चापि राजन्
समश्शूर्द्रैर्दासवच्चोपभोज्यः॥५॥
एते सर्वे शुद्रसमा भवन्ति
राजन्नेतान्वर्जयेद्देवकृत्ये॥५॥
निर्मर्यादे वाक्छले क्रूरवृत्ते
हिंसाकामे त्यक्तवृत्तस्स्वधर्मे।
हव्यं कव्यं यानि चान्यानि राजन्।
देयान्यदेयानि भवन्ति तस्मिन्॥६॥
तस्माद्धर्मोविहितो ब्राह्मणस्य
दमश्शौचं चार्जवं चापि राजन्।
तथापिविप्रस्याश्रमास्सर्व एव
पुरा राजन् ब्रह्मणा सन्निसृष्टाः॥७॥
यस्स्याद्दान्तस्सोमपा आर्यशीलस्
सानुक्रोशस्सर्वसहो निराशीः।
ऋजुर्मृदुरनृशंसः क्षमावान्
स वै विप्रो नेतरः पापकर्मा॥८॥
विप्रं वैश्यं राजपुत्रं च राजन्
लोकास्सर्वेसंश्रिता धर्मकामाः।
तस्माद्वर्णाञ्जातिधर्मेषु सत्ताञ्
जेतुं विष्णुर्नेच्छेतेपाण्डुपुत्र॥९॥
लोकाश्चायंसर्वलोकस्य न स्याच्
चातुर्वर्ण्यं वेदवादाश्च न स्युः।
सर्वाश्चेज्यास्सर्वलोकक्रियाश्च
सद्यस्सर्वे चाश्रमाश्चैव न स्युः॥१०॥
यश्च त्रयाणां वर्णानाम् इच्छेदाश्रमसेवनम्।
कर्तुमाश्रमदृष्टांश्च धर्मास् ताञ् शृणु पाण्डव॥११॥
शुश्रूषोःकृतकार्यस्य कृतसन्तानकर्मणः।
अभ्यनुज्ञाप्य राजानं शूद्रस्य जगतीपते॥१२॥
अल्पान्तरगतस्यापि देशधर्मगतस्य वा।
आश्रमा विहितास्सर्वे वर्जयित्वा निराशिपम्॥१३॥
भैक्षचर्यां न चैवाहुस् तस्य तद्धर्मवादिनः॥
तथा वैश्यस्य राजेन्द्र राजपुत्रस्य चैव ह॥१४॥
कृतकृत्यो वयोतीतो राज्ञः कृतपरिश्रमः।
वैश्यो गच्छेदनुज्ञातो नृपेणाश्रमसंश्रयम्॥१५॥
वेदानधीत्यधर्मेण राजशास्त्राणि चैव ह।
सन्तानादीनि कर्माणि कृत्वा सोमं निषेव्य च॥१६॥
पालयित्वा प्रजास्सर्वा धर्मेण वदतां वर।
राजसूयाश्वमेधादीन्मखानन्यांस्तथैव च॥१७॥
आनयित्वा यथाचारं विप्रेभ्यो दत्तदक्षिणः।
सङ्ग्रामे विजयं प्राप्य तथाऽल्पं यदि वा बहु॥१८॥
स्थापयित्वा प्रजापालः पुत्रं राज्ये च पाण्डव।
अन्यगोत्रं प्रशस्तं वा क्षत्रियं क्षत्रियर्षभ॥१९॥
अर्चयित्वा पितृृञ् श्राद्धैः पितृयज्ञैर्यथाविधि।
देवान्यज्ञैर्ऋषिन्वेदैर् अर्चयित्वा च यत्नतः॥२०॥
अन्तकाले च सम्प्राप्ते य इच्छेदाश्रमान्तरम् ।
सो नु पूर्वाश्रमान्राजन्गत्वा सिद्धिमवाप्नुयात् ॥२१॥
राजर्षित्वेन राजेन्द्र भैक्ष्यचर्याद्यसेवया।
अपेतगृहधर्माऽपि164 चरेजीवितकाम्यया॥२२॥
न चैतन्नैष्ठिकं कर्म त्रयाणां भूरिदक्षिण।
चतुर्णां राजशार्दूल प्राहुराश्रमवासिनाम्॥२३॥
वाह्वायत्तं क्षत्रियैर्मानवानां
लोकश्रेष्ठं धर्ममासेवमानैः।
सर्वे धर्मास्सोपधर्मास्त्रयाणां
राज्ञो धर्मं नीतिशास्त्रं165 शृणोमि॥२४॥
यथा राजन्हस्तिपदे पदानि
संलीयन्ते सर्वसत्त्वोद्भवानि।
एवं धर्मान् राजधर्मेषु सर्वान्
सर्वावस्थान् सम्प्रलीनान्निबोध॥२५॥
अल्पाश्रयानल्पफलान्वदन्ति
धर्मानन्यन्धर्मविद्स्सदैव।
महाश्रयं बहुकल्याणरूपं
क्षात्रं धर्मं नेतरं प्राहुरार्याः॥२६॥
सर्वे धर्मोराजधर्मप्रधानास्
सर्वे वर्णाः पाल्यमाना भवन्ति।
सर्वे धर्मा राजधर्मेषु दृष्टास्
सर्वा विद्या राजधर्मेषु चोक्ताः॥२७॥
सर्वे भोगा राजधर्मेषु राजंस्
त्यागं चाहुर्धर्ममग्र्यंपुराणम्॥२८॥
मज्जेत्त्रयी दण्डनीतौ हतायां
सर्वे धर्माः प्राद्रवेयुर्विरुद्धाः।
सर्वे धर्माश्चाश्रमाणां हतास्स्युः
क्षात्रे नष्टे राजधर्मे प्रविष्टाः॥२९॥
सर्वे166 भोगा राजधर्मेषु दृष्टास्
सर्वा दीक्षा राजधर्मेषुचोक्ताः।
सर्वा विद्या राजधर्मेषु युक्तास्
सर्वे लोका राजधर्मे प्रविष्टाः॥३०॥
तस्माद्धर्मो167 राजधर्माद्विशिष्टो
नान्यो लोके विद्यतेऽजातशत्रो॥३०॥
सर्वाण्येतानि कर्माणि क्षात्रे भरतसत्तम्।
भवन्ति जीवलोकश्च क्षत्रधर्मे प्रतिष्ठितः॥३१॥
यथा जीवः प्रकृतौ साध्यमानो
धर्मश्रुतीनामुपपीडनाय।
एवं धर्मा राजधर्मैर्वियुक्तास्
सञ्चिन्त्यन्ते नाद्रियन्ते स्वधर्माः॥३२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि सप्तपञ्चाशोऽध्यायः॥५७॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः॥१८॥
[अस्मिन्नध्याये ३२॥ श्लोकाः] ॥
______
॥ अष्टपञ्चाशोऽध्यायः॥
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भीष्मेणयुधिष्ठिरं प्रति राजधर्मप्रशंसकेन्द्रमान्धातृसंवादानुवादः॥
भीष्मः—
चातुराश्रमधर्माश्च राजधर्माश्च पाण्डव।
लोकवेदोत्तराश्चैव168 धर्माः क्षात्रे समर्पिताः॥१॥
अप्रत्यक्षं बहुफलं धर्ममाश्रमवासिनाम् ।
प्ररूपयन्ति तद्भावम् आगमैरेव शाश्वतम्॥२॥
अपरे वचनैः पुण्यैर् वादिनो लोकनिश्चयम्।
अनिश्चयज्ञाधर्माणाम् अदृष्टान्ते परे रताः॥३॥
प्रत्यक्षं फलभूयिष्ठम् आत्मसाक्षिकमच्छलम्।
सर्वलोकहितं धर्मं क्षत्रियेषु प्रतिष्ठितम्॥४॥
धर्माश्रमाध्यवसिनां ब्राह्मणानां युधिष्ठिर।
यथा त्रयाणां वर्णानां सङ्ख्यातोपश्रुतिः पुरा॥५॥
अनुलोमा राजधर्मा लोके सुचरितैरिह।
उदाह्रियन्ते राजेन्द्र यथा विष्णुं महौजसम्॥६॥
सर्वभूतेश्वरं देवं ब्राह्मं नारायणं पुरा।
जग्मुस्सुबहवश्शूरा राजानो दण्डनीतये॥७॥
एकैकमात्मनः कर्म तुलयित्वाऽऽश्रमे पुरा।
राजानः पर्युपासन्त दृष्टान्तवचने स्थिताः॥८॥
साध्या देवा वसवश्चाश्विनौ च
रुद्राश्च विश्वे मस्तां गणाश्च।
सृष्टाः पुरा चाहिदेवेन देवाः
क्षात्रे धर्मे वर्तयन्ति स्म सिद्धाः॥९॥
अत्र ते वर्तयिष्यामि धर्ममर्थविनिश्चये।
निर्मर्यादे वर्तमाने दानवैकार्णवेपुरा॥१०॥
अनादिनिधनं देवं शिवं नारायणं प्रभुम्।
स राजा राजशार्दूल मान्धाता परमेश्वरम् ॥१२॥
जगाम शिरसा यज्ञे पादौ विष्णोर्महात्मनः।
दर्शयामास तं विष्णू रूपमास्थाय वासवम्॥१३॥
स पार्थिवो नृपैस्सार्धम् अर्चयामास तं प्रभुम्॥१३॥
तस्य पार्थिवसङ्घस्य तस्य चैव महात्मनः।
संवादोऽयं महानासीद् विष्णुं प्रति महामते॥१४॥
इन्द्रः—
किमिन्यसे धर्मभृतां वरिष्ठ
यं द्रष्टुकामोऽसि तमप्रमेयम्।
अनन्तमायामिततत्त्ववीर्यं
नारायणं ह्यादिदेवं पुराणम्॥१५॥
नासौ देवो विश्वरूपो मया हि
शक्यो द्रष्टुं ब्रह्मणा वाऽपि साक्षात्।
येऽन्ये कामास्तव राजन्हृदिस्था
तांस्ते दास्ये त्वं हि मर्त्येषु राजा॥१६॥
सत्ये स्थितो धर्मपरो जितेन्द्रियश्
शूरो दृढं प्रीतिकरस्सुराणाम्।
बुद्ध्याभक्त्या चोत्तमश्श्रद्धया च
ततस्तेऽहं दद्मि वरं यथेष्टम्॥१७॥
मान्धाता—
असंशयं भगवानादिदेवो
वक्ष्यामि त्वां शिरसा सम्प्रसाद्य।
त्यक्त्वा भोगान्धर्मकामो ह्यरण्यम्
इच्छे गन्तुं सत्पथं साधुजुष्टम्॥१८॥
क्षात्राद्धर्माद्विपुलादप्रमेया–
ल्लोकाः प्राप्तास्स्थापितं स्वं यशश्च।
धर्मो योऽसावादिदेवान् प्रवृत्तो
लोकज्येष्टं169 तं न जानामि कर्तुम्॥ १९॥
इन्द्रः—
असैनिका170 धर्मपराश्च सर्वे
परां गतिं न नयन्ते171 ह्ययुक्ताः ।
क्षात्रो धर्मो ह्यादिदेवानुसृष्टः
पश्चादन्ये शेषभूतास्तु धर्माः॥२०॥
शेषास्सृष्टा ह्यन्तवन्तो ह्यनन्तास्
सुप्रस्थानः क्षात्रधर्मो विशिष्टः।
अस्मिन् धर्मे सर्वधर्माः प्रविष्टाः
क्षात्रं धर्मं श्रेष्ठतमं वदन्ति॥२१॥
कर्मणैव पुरा देवा ऋषय श्चामितौजसः172।
त्रातास्सर्वेप्रसह्यारीन् क्षत्रधर्मेण विष्णुना॥२२॥
यदि ह्यसौ भगवान् नाहनिष्यद्
रिपून सर्वान् वसुमानप्रमेयः।
न च ब्रह्मा नैव लोकादिकर्ता
सन्तो धर्माश्चादिधर्माश्च न स्युः॥२३॥
इमामुर्वीं नाजयद्विक्रमेण
देवश्रेष्ठस्सासुरामादिदेवः।
चातुर्वर्ण्यं चातुराश्रम्यधर्मास्
सर्वे न स्युर्ब्राह्मणानां विनाशात्॥२४॥
न स्युर्माश्शतशश्शाश्वतास्ते
क्षात्रेण धर्मेण पुनः प्रवृत्ताः।
युगे युगे ह्यादिधर्माः प्रवृत्ता
लोकज्येष्टं क्षात्रधर्मं वदन्ति॥२५॥
आत्मत्यागस्सर्वभूतानुकम्पा
लोकज्ञानं पालनं मोक्षणं च।
विषण्णानां मोक्षणं पीडितानां
क्षात्रे धर्मे विद्यते पार्थिवानाम्॥२६॥
निर्मर्यादाः काममन्युप्रवृत्ता
भीता राज्ञो नाधिगच्छन्ति पापम्।
शिष्टाचान्ये सर्वधर्मोपपन्नास्
साध्वाचारास्साधुधर्मं वदन्ति॥२७॥
पुत्रवत् पाल्यमानानि धर्मलिङ्गानि पार्थिवैः।
लोके सर्वाणि भूतानि चरन्त्यत्र न संशयः॥२८॥
सर्वधर्मपरं क्षात्रं लोकज्येष्ठं सनातनम्।
शश्वदक्षरपर्यन्तम् अक्षरं सर्वतोमुखम्॥२९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायांवैयासिक्यां शान्तिपर्वणि अष्टपञ्चाशोऽध्यायः॥५८॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि एकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥
[अस्मिन्नध्याये २९॥ श्लोकाः]
॥ एकोनषष्टितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेणयुधिष्टिरं प्रति इन्द्ररूपहरिणा मान्धातारं प्रत्युक्तराजधर्मादिकथनम्॥
______
इन्द्रः—
एवंवीर्यस्सर्वधर्मोपपन्नः
क्षात्रश्श्रेष्ठस्सर्वधर्मेषु धर्मः।
पाल्यो युष्माभिर्लोकपालैरुदारैर्
विपर्यये स्यादभवः प्रजानाम्॥१॥
भूसंस्कारं173 धर्मसंस्कारयोग्यं
दीक्षाचर्यां पालनं च प्रजानाम्।
विद्याद्राज्ञस्सर्वभूतानुकम्पां
देहत्यागं चाहवे धर्ममग्र्यम्॥२॥
त्यागं ज्येष्ठं मुनयो वै वदन्ति
सर्वज्येष्ठं यच्छरीरं त्यजन्ति।
नित्यं व्यक्तं राजधर्मेषु सर्वं
प्रत्यक्षं ते भूमिपालास्तथैते॥३॥
बहुश्रुत्या गुरुशुश्रूषयावा174
परस्य वा संहननाद्वदन्ति।
नित्यं धर्मं क्षत्रियो ब्रह्मचारी
चरेदेको ह्याश्रमं धर्मकामः॥४॥
सामान्यार्थेव्यवहारे प्रवृत्ते
प्रियाप्रिये वर्जयंश्चैव यत्नात्।
चातुर्वर्ण्यस्थापनात् पालनाच्च
तैस्तैयोगैर्नियमैरौषधैश्च ॥५॥
सर्वोद्योगै175राश्रमं धर्म्यमाहुः
क्षत्रं श्रेष्ठं सर्वधर्मोपपन्नम्।
स्वं स्वं धर्मं येन चरन्ति वर्णास्
तांस्तान् वर्णान् ये यथा स्थापयन्ति॥६॥
निर्मर्यादेनित्यमर्थे विनष्टे
न सा चिन्ता पशुभूते मनुष्ये।
यथा नींस्तिस्र्गत्यत्यर्थयोगाच्
छ्रेयांस्तस्मादाश्रमःक्षत्रियाणाम्॥७॥
त्रैविद्यानां या गतिर्ब्राह्मणानां
ये चैवोक्तास्स्वाश्रमा ब्राह्मणानाम्।
एतत् सर्वंक्षत्रियस्याहुरग्र्यम्
अन्यत् कुर्वञ् छूद्रवत्तत्र वर्ज्यः॥८॥
चातुराश्रम्यधर्माश्च वेदवादाश्च पार्थिव।
ब्राह्मणैरनुगन्तव्या नान्यो विद्यात्कथञ्चन॥९॥
अन्यथा वर्तमानस्य न सा वृत्तिः प्रकल्प्यते।
कर्मणा त्यज्यते धर्मो यथैव श्वा तथैव सः॥१०॥
यो विकर्मस्थितो विप्रो न स सन्मानमर्हति।
कर्म स्वमप्रयुञ्जानम् अविश्वास्यं हि तं विदुः॥११॥
एते वर्णास्सर्वधर्मैश्च हीना
उत्क्रोष्टव्याः क्षत्रियैरेव धर्मे।
तस्माच्छ्रेष्ठोराजधर्मो न चान्यो
वीर्यश्रेष्ठा राजधर्मा मता मे॥१२॥
मान्धाता—
यवनाः किराता गान्धाराश्चीनाश्शबरबर्बराः।
शकास्तुहारा गुह्याश्च पल्लवाश्चान्ध्रमद्रकाः॥१३॥
उष्ट्राः पुलिन्दा आरट्टाः काचा म्लेच्छाश्चसर्वशः।
ब्रह्मक्षत्रप्रसूताश्च वैश्याश्शूद्राश्च मानवाः॥१४॥
कथं धर्मं चरिष्यन्ति सर्वे विषयवासिनः।
मद्विधैश्च कथं स्थाप्यास् सर्वे ते दस्युजीविनः॥१५॥
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं मघवंस्त्वं ब्रवीहि मे।
त्वं बन्धुभूतो ह्यस्माकं क्षत्रियाणां सुरेश्वर॥१६॥
इन्द्रः—
मातापित्रोर्हि शुश्रूषा कर्तव्या सर्वदस्युभिः।
आचार्यगुरुशुश्रूषा तथैवाश्रमवासिनाम्॥१७॥
भूमिपानां च शुश्रूषा कर्तव्या सर्वदस्युभिः।
देशधर्मक्रियाश्चापि तेषां धर्मो विधीयते॥१८॥
पितृयज्ञास्तथा कूपाः प्रपाश्च शयनानि च।
दानानि च यथाकालं दातव्यानि द्विजातिषु॥१९॥
अहिंसा सत्यमक्रोधो वृत्तिर्दायानुपालनम्।
भरणं पुत्रदाराणां शौचमद्रोह एव च॥२०॥
दक्षिणा सर्वयज्ञानां दातव्या धर्ममिच्छता।
पाकयज्ञा महार्थाश्चदातव्यास्सर्वदस्युभिः॥२१॥
एतान्येवम्प्रकाराणि विहितानि पुराऽनघ।
सर्वलोकस्य कर्माणि कर्तव्यानीह पार्थिव॥२२॥
मान्धाता—
दृश्यन्ते मानुषे लोके सर्ववर्णेषु दस्यवः।
लिङ्गान्तरे वर्तमाना आश्रमेषु तथैव च॥२३॥
इन्द्रः—
विनष्टायां दण्डनीयां राजध विनाकृते।
सम्प्रमुह्यन्ति भूतानि राजदौरात्म्यतोऽनघ॥२४॥
असङ्ख्याता भविष्यन्ति भिक्षवो लिङ्गिनस्तथा।
आश्रमाणां विकल्पाश्च वृत्तेऽस्मिन वै कृते युगे॥२५॥
अश्रुण्वानःपुराणानां धर्माणां शतशो नराः।
उत्पथं प्रतिपत्स्यन्ते काममन्युसमीरिताः॥२६॥
यदा निवर्त्यते पापो दण्डनीत्या महामते।
तदा धर्मो न चलते सम्भूतश्शाश्वतः पुरा॥२७॥
सर्वलोकगुरुं चैव राजानं योऽवमन्यते।
न तस्य दत्तं न कृतं न श्रुतं फलति क्वचित्॥२६॥
मानवानामधिपतिं देवरूपं महाद्युतिम्।
देवाश्च बहुमन्यन्ते धर्मकामं जनेश्वरम्॥२७॥
प्रजापतिर्हि भगवान् यस्सर्वमसृजज्जगत् ।
स प्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थं धर्माणां क्षत्रमिच्छति॥३०॥
प्रवृत्तस्य हि धर्मस्य बुद्ध्या यस्स्मरते गतिम्।
स च नान्यश्च पूज्यश्च स च क्षत्रे प्रतिष्ठितः॥३१॥
भीष्मः —
एवमुक्त्वा स भगवान्मरुद्गणवृतः प्रभुः।
जगाम भवनं विष्णुर्अक्षरं शाश्वतं परम्॥३२॥
एवं प्रवर्तिते धर्मे पुरा सुचरितेऽनघ।
कः क्षत्रमतिवर्तेत चेतयानो बहुश्रुतः॥३३॥
अन्यायेन प्रवृत्तानि निवृत्तानि तथैव च।
अन्तरा विलयं यान्ति यथा पथि विचक्षुषः॥३४॥
आदौ प्रवर्तिते चक्रे तथैवादिपरायणे।
वर्तस्व पुरुषव्याघ्र संविजानामि तेऽनघ॥३५॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकोनपष्टितमोऽध्यायः॥५९॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि विंशोऽध्यायः॥२०॥
॥अस्मिन्नध्याये ३५ श्लोकाः॥
______
॥ षष्टितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्टिरं प्रति वर्णाश्रमधर्मकथनम्॥
युधिष्टिरः—
श्रुता मे कथिताः पूर्वं चत्वारो मानवाश्रमाः।
व्याख्यानमेषामाचक्ष्व पृच्छतो मे पितामह॥१॥
भीष्मः —
विदितास्सर्व एवेह धर्मास्तव युधिष्ठिर।
यथा मम महाबाहो विदितास्साधुसम्मताः॥२॥
यत्तु लिङ्गान्तरगतं पृच्छसे मां युधिष्ठिर।
धर्मं धर्मभृतां श्रेष्ठ तन्निबोध नराधिप॥३॥
सर्वान्येतानि कौन्तेय विद्यन्ते भरतर्षभ।
साध्वाचारप्रवृत्तानां चातुराश्रमकर्मणाम्॥४॥
अकामद्वेषसंयुक्तो दण्डनीया युधिष्टिर।
समदर्शी च भूतेषु भैक्षाश्रमपदो भवेत्॥५॥
वेत्ति दानानि सर्गं च निग्रहानुग्रहौतथा।
यथोक्तवृत्तो वीरस्य दीक्षाश्रमपदो भवेत्॥६॥
ज्ञातिसम्बन्धिमित्राणि176 व्यापन्नानियुधिष्ठिर।
समभ्युद्धरमाणस्य दीक्षाश्रमपदो भवेत्॥७॥
आह्निकं पितृयज्ञांश्च भूतयज्ञान् समानुषान् ।
कुर्वतः पार्थ विपुलान् वन्याश्रमपदो भवेत्॥८॥
संविभागाच्च भूतानाम् अतिथीनामथार्चनात्।
देवयज्ञैश्च कौन्तेय वन्याश्रमपदो भवेत्॥९॥
पालनात् सर्वभूतानां स्वराष्ट्रपरिपालनात्।
दीक्षा बुद्धिमतां राज्ञां वन्याश्रमपदो भवेत् ॥१०॥
लोकमुख्येषु सत्कारं लिङ्गमुख्येषु चानघ।
कुर्वतस्तस्य कौन्तेय वन्याश्रमपदो भवेत्॥११॥
मर्दनं सर्वराष्ट्राणां शिक्षार्थी राजसत्तम।
कुर्वतः पुरुषव्याघ्रवन्याश्रमपदो भवेत्॥१२॥
वेदाध्ययननित्यत्वं क्षमाऽथाचार्यपूजनम्।
तथोपाध्यायशुश्रूषाब्रह्माश्रमपदो भवेत्॥१३॥
आह्निकाञ्जपमानस्यदेवान्पूजयतस्सदा।
धर्मेण पुरुषव्याघ्र वन्याश्रमपदो भवेत्॥१४॥
वानप्रस्थेषु विप्रेषु त्रैविद्येषु च भारत।
प्रयच्छतोऽर्थानविपुलान् वन्याश्रमपदो भवेत्॥१५॥
मृत्युर्वारक्षणं वेति यस्य राज्ञो विनिश्चयः।
प्राणद्यूतेव्यवस्थाप्य ब्रह्माश्रमपदो भवेत्॥१६॥
अजिह्मशठं मार्गं वर्तमानस्य भारत।
सर्वदा सर्वभूतेषुब्रह्माश्रमपदो भवेत्॥१७॥
सर्वभूतेष्वनुक्रोशं कुर्वतस्तव भारत।
आनृशंस्ये177 प्रवृत्तस्य नियतः पुण्यसञ्चयः॥१८॥
बालवृद्धेषु कौरव्य सर्वावस्थं युधिष्ठिर।
अनुक्रोशक्रिया पार्थ धर्म एव सनातनः॥१९॥
बालातुरेषु भूतेषु परित्राणं कुरुद्रह।
शरणागतेषु भूतेषु परं कारुण्यमाचर॥२०॥
भरणं सर्वभूतानां रक्षणं चापि सर्वशः।
अर्हपूजात्मपूजां च कुर्वन्गार्हस्थ्यमावसेत्॥२१॥
ज्येष्ठानुज्येष्ठपत्नीनां भ्रातॄणां पुत्रनप्तृणाम्।
निग्रहानुग्रहौ पार्थ गार्हस्थ्यममितं तपः॥२२॥
साधूनामर्चनीयानां पूजासु विदितात्मनाम्।
पालनं पुरुषव्याघ्रगृहाश्रमपदो भवेत्॥२३॥
आश्रमस्थानि सर्वाणि यस्य वेश्मनि भारत।
भुञ्जते विपुलं भोज्यं तद्गार्हस्थ्यं युधिष्ठिर॥२४॥
यस्स्थितः पुरुषो धर्मे धात्रा सृष्टे यथार्थवत् ।
आश्रमाणां स सर्वेषांफलमाप्नोत्यनुत्तमम्॥२५॥
यस्मिन्न नश्यति गुणः कौन्तेय पुरुषे सदा।
आश्रमस्थं तमप्याहुर्नरश्रेष्ठं युधिष्ठिर॥२६॥
स्थानमानं वयोमानं कुलमानं तथैव च।
कुर्वन् वसति सर्वेषु178 ह्याश्रमेषु युधिष्ठिर॥२७॥
देशधर्माश्च कौन्तेय कुलधर्मांस्तथैव च।
पालयन् पुरुषव्याघ्रराजा भवति सोश्रमी॥२८॥
कुलेऽतिभूतिं भूतानाम् उपहारानथापि च।
अर्हयन् पुरुषव्याघ्र साधूनां च सदाश्रमे॥२९॥
देशधर्मकृतं चापि यो धर्म प्रत्यवेक्षते ।
सर्वलोकस्य कौन्तेय राजा भवति सोश्रमी॥३०॥
ये धर्मकुशला लोके धर्मं कुर्वन्ति भारत।
पालिता यस्य विषये पादांशस्तस्य भूपतेः॥३१॥
धर्मारामान् धर्मपरान् ये न रक्षन्ति मानवान्।
पार्थिवाः पुरुषव्याघ्र तेषां पापं हरन्ति ते॥३२॥
ये च रक्षासहायास्स्युःपार्थिवानां युधिष्ठिर।
ते चैवांशहरास्सर्वे धर्मे परकृतेऽनघ॥३३॥
सर्वाश्रमपदेष्वाहुर्गार्हस्थ्यं दीप्तनिर्णयम्।
पावनं पुरुषव्याघ्र यद्वयं पर्युपास्महे॥३४॥
आत्मोपमस्तु भूतेषु यो वै भवति मानवः।
न्यस्तदण्डो जितक्रोधस् स प्रेय लभते सुखम्॥३५॥
धर्मोच्छ्रिता सत्यजला शीलयष्ट्रिर्दमध्वजा।
त्यागवाताध्वगाशीघ्रा नौस्तया सन्तरिष्यति॥३६॥
यदा सर्वत्र निर्मुक्तः कामो नास्य हृदि स्थितः।
यदा सत्यान्वितो वृत्तैस् तदा ब्रह्म समश्नुते॥३७॥
सुप्रसन्नस्तु भावेन योगेन च नराधिप।
धर्मं पुरुषशार्दूल प्राप्स्यसे पालने रतः॥३८॥
वेदाध्ययनशीलानां विप्राणां साधुकर्मणाम्।
पालने यत्नमातिष्ठ सर्वलोकस्य चानघ॥३९॥
यं वने चरते धर्मम् आश्रमेषु नराधिप।
रक्षया शतभागेन तद्धर्मं प्राश्नुते नृपः॥४०॥
एषते विविधो धर्मः पाण्डवश्रेष्ठ कीर्तितः।
युधिष्ठिर त्वमेतं वै पूर्वं दृष्टं सनातनम्॥४१॥
चातुराश्रममेकाग्रंचातुर्वर्ण्यं च पाण्डव।
धर्मं पुरुषशार्दूल प्राप्स्यसेपालने रतः॥४२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि षष्टितमोऽध्यायः॥६०॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि एकविंशोऽध्यायः॥२१॥
[अस्मिन्नध्याये ४२श्लोकाः]
______
॥ एकषष्टितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्टिरं प्रति लोकस्य सराजकत्वाराजकत्वाभ्यां गुणदोषनिरूपणम्॥
युधिष्टिरः—
चातुराश्रम्यमुक्तं मे चातुर्वर्ण्यं तथैव च।
राष्ट्रस्य यत् कृत्यतमं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
भीष्मः—
राष्ट्रस्य यत् कृत्यतमं राज्ञ एवाभिषेचनम्।
अनिन्द्रमबलं राष्ट्रं दस्यवोऽभिभवन्त्युत्॥२॥
अराजकेषु राष्ट्रेषुन धर्मो व्यवतिष्ठते।
परस्परं च खादन्ते सर्वथा धिगराजकम्॥३॥
इन्द्रमेव प्रणमते यद्राजानमिति श्रुतिः।
यथैवेन्द्रस्तथा राजा सम्पूज्यो भूतिमिच्छता॥४॥
नाराजकेषुराष्ट्रेषुवस्तव्यमिति वैदिकम्।
नाराजकेषु राष्ट्रेषु हव्यं वहति पावकः॥५॥
अथ चेदभिवर्तेत राज्यार्थं बलवत्तरः।
अराजकाणि राष्ट्राणि हृतराज्यानि वा पुनः॥६॥
प्रत्युद्गम्याभिपूज्यस्स्याद् एतदत्रसुमन्त्रितम्।
न हि राज्यात् प्राप्ततरम् अस्ति किञ्चिदराजकात्॥७॥
स चेत् समनुपश्येत समग्रं कुशलं भवेत्।
बलवान् वै प्रकुपितः कुर्यान्निश्शेषतामिह॥८॥
भूयांसं लभते क्लेशं या गौर्भवति दुर्दुघा।
अथ वा सुदुधा या गौस् तां नैव विनयन्त्यपि॥९॥
यदतप्तं प्रणमते न तत् सन्तापयन्त्युत्।
यत् स्वयं नमते दारु नैव तन्नमयन्त्यपि॥१०॥
एतयोपमया धीरस् सन्नमेत बलीयसे।
इन्द्राय स प्रणमते नमते यो बलीयसे॥११॥
तस्माद्राजैव कर्तव्यस् सततं भूतिमिच्छता।
न धनार्थो न दारार्थस् तेषां येषामराजकम्॥१२॥
ह्रियतेहि चरन् पापं परवित्तमराजके।
यदस्य तद्धरन्त्यन्येतदा राजानमिच्छति॥१३॥
पापा ह्यपि सदा क्षेमं न लभन्ते कथञ्चन।
एकस्य तु द्वौ हरतो द्वयोश्च बहवोऽपरे॥१४॥
अदासः क्रियते दासो ह्रियन्ते च बलात्स्त्रियः।
एतस्मात् कारणाद्देवाः प्रजापालं प्रचक्रिरे॥१५॥
राजा चेन्न भवेल्लोके पृथिव्या दण्डधारकः।
जले मत्स्यानिवाभक्ष्यन् दुर्बलं बलवत्तराः॥१६॥
अराजकाः प्रजाः पूर्वं विनेशुरिति नश्श्रुतम्।
परस्परं भक्षयन्तो मत्स्या मत्स्यानिवाबलान्॥१७॥
तास्समेत्य मिथश्चक्रुस् समयानिति नश्श्रुतम्॥१७॥
यः क्रूरो दण्डपरुषोयश्च स्यात् पारदारिकः।
यश्च नस्समयं भिन्द्यात् त्याज्या नस्तादृशा इति॥१८॥
विश्वासनार्थं सर्वेषां वर्णानामविशेषतः।
तास्तथा समयं कृत्वा समयेनावतस्थिरे॥१९॥
सहितास्तास्समाजग्मुर्असुखार्ताः पितामहम्।
अनीश्वरा विनश्यामो भगवन्नीश्वरं दिश॥२०॥
सम्भूय यं पूजयेम यश्च नः परिपालयेत्।
ताभ्यो मनुं व्यादिदेश मनुर्नाभिननन्द ताः॥२१॥
मनुः—
बिभेति कर्मणः क्रूराद्राज्यं हि भृशदुष्करम्।
विशेषतो मनुष्येषु मिथ्यावृत्तेषु नित्यदा॥२२॥
भीष्मः—
तमब्रुवन् प्रजा मा भैर् विधास्यामो धनं तव।
पशूनामपि पञ्चांशं हिरण्यानां तथैव च॥२३॥
धान्यस्य दशमं भागं दद्मते कोशवर्धनम्॥२४॥
मुख्येन शस्त्रपत्रेण ये मनुष्याः प्रधानतः।
भवन्तं तेऽनुयास्यन्ति महेन्द्रमिव देवताः॥२५॥
स त्वं जातबलो राजन् दुष्प्रधर्षः प्रतापवान्।
सुखे धास्यसि नस्सर्वान्कुबेरइव नैरृतान्॥२६॥
यं च धर्मं चरिष्यन्ति प्रजा राज्ञा सुरक्षिताः।
चतुर्थं तस्य धर्मस्य त्वत्संस्थं नो भविष्यति॥२७॥
तेन धर्मेण महता सुखलब्धेन भावितः।
पाह्यस्मान्सर्वतो राजन्देवानिव शतक्रतुः॥२८॥
विजयं याहि निर्याहि प्रतपन् रश्मिमानिव।
मानं विधम शत्रूणां धर्मंजनय नस्सदा॥२९॥
स निर्ययौ महातेजा बलेन महता वृतः।
महाभिजनसम्पन्नस् तेजसा प्रज्वलन्निव॥३०॥
तस्य तां महिमां दृष्ट्वा महेन्द्रस्येव देवताः।
अथ तत्रसिरे सर्वे स्वेस्वे धर्मे दधुर्मनः॥३१॥
वर्णिनश्चाश्रमाश्चैव म्लेच्छास्सर्वे च दस्यवः॥३१॥
ततो महींपरिययौ पर्जन्य इव वृष्टिमान्।
शमयन् सर्वपापान्स स्वकर्मसु च योजयन्॥३२॥
एवं ये भूतिमिच्छेयुः पृथिव्यां मानवाः क्वचित्।
कुर्यू राजानमेवाग्रे प्रजानुग्रहकारणात्॥३३॥
नमस्येयुश्च त भक्त्या शिष्या इव गुरुं सदा।
देवा इव सहस्राक्षं नरा राजानमन्तिकात्॥३४॥
सत्कृतं स्वजनेनेह परोऽपि बहुमन्यते।
स्वजनेन त्ववज्ञातं परे परिभवन्त्युत॥३५॥
राज्ञः परैः परिभवस् सर्वेषामसुखावहः॥३६॥
तस्माच्छत्रं179च पत्रं च वासांस्याभरणानि च।
भोजनानि च पानानि राज्ञे दद्युर्गृहाण्युत्॥३७॥
आसनान्यथ शय्याश्च सर्वोपकरणानि च॥
गुप्तात्मा स्याद् दुराधर्षस् स्मितपूर्वाभिभाषिता।
आभाषितश्च मधुरं प्रत्याभाषेत मानवान्॥३८॥
कृतज्ञो दृढभक्तिस्स्यात्संविभागी जितेन्द्रियः।
ईक्षितः प्रतिवीक्षेत मृदु चर्जु च वल्गु च॥३९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकषष्टितमोऽध्यायः॥६१॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥
[अस्मिन्नध्याये ३९॥श्लोकाः]
______
॥ द्विषष्टितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेणयुधिष्टिरं प्रति वसुमनसे बृहस्पत्युक्तराजगुणानुवर्णनम्॥
______
युधिष्टिरः—
किमाहुर्दैवतं विप्रा राजानं भरतर्षभ।
मनुष्याणामधिपतिं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
भीष्मः —
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
बृहस्पतिं वसुमना यथा पप्रच्छ भारत॥२॥
राजा वसुमना नाम कौसल्यो धीमतां वरः।
महर्षिं परिपप्रच्छ कृतप्रज्ञो बृहस्पतिम्॥३॥
सर्वं वैनयिकं कृत्वा विनयज्ञो बृहस्पतिम्।
दक्षिणानन्तरो भूत्वा प्रणम्य विधिपूर्वकम्॥४॥
विधिं पप्रच्छ राज्यस्य सर्वलोकहितं परम्।
प्रजानां हितमन्विच्छन् धर्ममूलं180 विशां पते॥५॥
वसुमनाः—
केन भूतानि वर्धन्ते क्षयं गच्छन्ति केन वा।
कमर्चन्तो महाभागास् सुखमक्षय्यमाप्नुयुः॥६॥
एतन्मे शंस देवर्षे धर्मकामार्थसंशयम्॥६॥
भीष्मः—
एवं पृष्टो महाप्राज्ञः कौसल्येनामितौजसा।
राजसत्कारमव्यग्रोराज्यस्य च विवर्धनम्॥७॥
दण्डनीतिं समाश्रित्य शशंसास्मैबृहस्पतिः॥८॥
बृहस्पतिः—
राजमूलो महाराज धर्मो लोकस्य लक्ष्यते।
प्रजा राजभयादेव न खादन्ति परस्परम्॥९॥
राजा ह्येवाखिलं लोकं समुदीर्णं समुत्सुकम्।
प्रसादयति धर्मेण प्रसाद्य च विरोचते॥१०॥
यथा ह्यनुदये राजन् भूतानि शशिसूर्ययोः।
अन्धे तमसि मज्जेर न्नगोपाः181 पशवो यथा ॥११॥
यथा चानुदके मत्स्यान् आदाना विहङ्गमाः।
विहरेयुर्यथाकामम् अभिसृत्य पुनः पुनः॥१२॥
विमथ्यातिक्रमेयुश्च निहन्युश्च परस्परम्।
अभावमचिरेणैव गच्छेयुर्नात्र संशयः॥१३॥
एवमेव विना राज्ञा विनश्येयुरिमाः प्रजाः।
अन्धे तमसि मज्जेरन्नगोपाः पशवो यथा॥१४॥
हरेयुर्बलवन्तो हि दुर्बलानां परिग्रहान्।
हन्युर्व्यायच्छमानांश्च राजा यदि न पालयेत्॥१५॥
ममेदमिति लोकेऽस्मिन् न भवेत् स्वपरिग्रहः।
न दारा न च पुत्रस्स्यान्न धनं न परिग्रहः॥१६॥
विधिलोपः प्रवर्तेत यदि राजा न पालयेत् ॥१६॥
यानं वस्त्राण्यलङ्कारान्रत्नानि विविधानि च।
हरेयुस्सहसा पापा यदि राजा न पालयेत्॥१७॥
मातरं पितरं वृद्धम् आचार्यमतिथिं गुरुम्।
अश्नीयुरपि हिंस्युर्वा यदि राजा न पालयेत्॥१८॥
अन्धांश्च क्रोशतो हिंस्युर् लोकोऽयं दस्युवद्भवेत्182।
पतेद्बहुविधं138 राज्यं यदि राजा न पालयेत्॥१९॥
पतेद्बहुविधं शस्त्रं बहुधा धर्मचारिषु।
अधर्मः प्रगृहीतस्स्याद् यदि राजा न पालयेत्॥२०॥
बधबन्धपरिक्लेशो नित्यमर्थवतां भवेत्।
ममत्वं च न विद्येयुर् यदि राजा न पालयेत्॥२१॥
न योनिपोषोवर्तेत न कृषिर्न वणिक्पथः।
मज्जेद्धर्मस्त्रयी न स्याद्यदि राजा न पालयेत्॥२२॥
न यज्ञास्सम्प्रवर्तेरन्विधिवत् स्वाप्तदक्षिणाः।
न विवाहास्समाजो वा यदि राजा न पालयेत्॥२३॥
न वृषास्स्म्प्रपद्येरन्न मथ्येरंश्च गर्भस्राः183।
घोषाःप्रणाशं गच्छेयुर् यदि राजा न पालयेत्॥२४॥
त्रस्तमुद्विग्नहृदयं हाहाभूतमचेतनम्।
क्षणेन विनशेत् सर्वं यदि राजा न पालयेत्॥२५॥
न184 संवत्सरसत्राणि तिष्ठेयुरकुतोभयाः।
विधिवद्दक्षिणावन्ति यदि राजा न पालयेत्॥२६॥
ब्राह्मणाश्चतुरो वेदान् नाधीयीरंस्तपस्विनः।
विद्यास्त्राता व्रतस्त्राता यदि राजा न पालयेत्॥२७॥
न भवेद्धर्मसंसेवी मोह विप्रहतो जनः।
कर्ता स्वस्थेन्द्रियो गच्छेद् यदि राजा न पालयेत्॥२८॥
हस्तो हस्तं परिमृशेद् भिद्येरन् सर्वसेतवः।
भयात्विद्रवेत् सर्वं यदि राजा न पालयेत्॥२९॥
अनयास्सम्प्रवर्तेरन भवेद्वै वर्णसङ्करः।
दुर्भिक्षमाविशेद्राष्ट्रं यदि राजा न पालयेत्॥३०॥
विवृत्य हि यथाकामं गृहद्वाराणि शेरते।
मनुष्या रक्षिता राज्ञासमन्तादकुतोभयाः॥३१॥
नाक्रुष्टुं सहते कश्चित् कुतो हस्तस्य लङ्घनम्।
यदि राजा मनुष्येषु त्राता भवति धार्मिकः॥३२॥
स्त्रियश्च पुरुषा मार्गंमार्गं सर्वालङ्कारभूषिताः।
निर्भयाः प्रतिपद्यन्ते यदि रक्षति भूमिपः॥३३॥
धर्ममेव प्रपद्यन्ते न हिंसन्ति परस्परम्।
अनुगृह्णन्ति चान्योन्यं यदा रक्षति भूमिपः॥३४॥
यजन्ते च महायज्ञैस् त्रयो वर्णाः पृथग्विधाः।
युक्ताश्चाधीयते वेदान् यदा रक्षति भूमिपः॥३५॥
वार्तामूलो ह्ययं लोकस् तया वै धार्यते जगत्।
तत् सर्वं वर्तते सम्यग्यदा रक्षति भूमिपः॥३६॥
यदा राजा धुरं श्रेष्ठाम् आदाय वहति प्रजाः।
महता बलयोगेन185 तदा लोको न सीदति॥३७॥
यस्याभावेन भूतानाम् अभावस्स्यात् समन्ततः।
भावे च भावो नित्यं स्यात् कस्तं न प्रतिपूजयेत्॥३८॥
तस्य यो बहते भारं सर्वलोकसुखावहम्।
तिष्ठेत् प्रियहिते राज्ञउभौ लोकाविमौ जयेत्॥३९॥
यस्तस्य पुरुषः पापं मनसाऽप्यनुचिन्तयेत्।
असंशयमिह क्लिष्टःप्रेत्यापि नरकं व्रजेत्॥४०॥
न हि जात्ववमन्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः।
महती देवता ह्येषानररूपेण तिष्ठति॥४१॥
कुरुते पञ्चरूपाणि कालयुक्तानि यस्सदा।
भवत्यग्निस्तथाऽऽदित्यो मृत्युर्वैश्रवणो यमः॥४२॥
यदा ह्यासीदतः पापान्दहत्युग्रेण तेजसा।
मिथ्योपचरितो राजा तदा भवति पावकः॥४३॥
यदा पश्यति चारेण सर्वभूतानि भूमिपः।
क्षेमं च कृत्वा व्रजति तदा भवति भास्करः॥४४॥
अश्नुचींस्तुयदा क्रुद्धः क्षिणोति शतशो नरान्।
सपुत्रपौत्रान् सामात्यांस्तदा भवति सोऽन्तकः॥४५॥
यदा त्वधार्मिकान्सर्वांस् तीक्ष्णैर्दण्डैर्नियच्छति।
धार्मिकांश्चानुगृह्णाति भवत्यथ यमस्तदा॥४६॥
यदा तु धनधाराभिस् तर्पयत्युपकारिणम्।
आच्छिनत्ति च वित्तानि विविधान्यपकारिणाम्॥४७॥
श्रियं ददाति कस्मैचित् कस्माच्चिदपकर्षति।
तदा वैश्रवणो राजा लोके भवति भूमिपः॥४८॥
तस्योपदेशे स्थातव्यं दक्षेणाक्लिष्टकर्मणा।
धर्ममाकाङ्क्षता लोके ईश्वरस्यानसूयता॥४९॥
न हि राज्ञः प्रतीपानि कुर्वन् सुखमवाप्नुयात्।
पुत्रो भ्राता वयस्यो वा यद्यप्यात्मसमो भवेत्॥५०॥
कुर्यात् कृष्णगतिश्शेषंज्वलितोऽनिलसारथिः।
न तु राज्ञाऽभिपन्नस्य शेषःक्वचन दृश्यते186॥५१॥
तस्य सर्वाणि रक्ष्याणि दूरतः परिवर्जयेत्।
मृत्योरिव जुगुप्सेत राजस्वहरणान्नरः॥५२॥
वध्येदभिमृशन्सद्यो मृगः कूटमिव स्पृशन्।
आत्मस्वमिव संरक्षेद् राजस्वमिह बुद्धिमान्॥५३॥
महान्तं नरकं घोरम्अप्रतिष्ठमचेतसः।
पतन्ति चिररात्राय राजवित्तापहारिणः॥५४॥
राजा भोजो विराट् सम्राट् क्षत्रियो भूपतिर्नृपः।
य एभिस्स्तूयते शब्दः कस्तं नार्चितुमर्हति॥५५॥
तस्माद्बभूषुर्नियतो जितात्मा संयतेन्द्रियः।
मेधावी धृतिमान् दक्षस् संश्रयेत महीपतिम्॥५६॥
कृतज्ञं187 प्राज्ञमक्षुद्रं दृढभक्तिं जितेन्द्रियम्।
धर्मनित्यं स्थितं स्थाने188 मन्त्रिणं पूजयेन्नरः189॥५७॥
दृढभक्तिं जित190प्रज्ञं धर्मज्ञं संयतेन्द्रियम्।
शूरमक्षुद्रकर्माणं प्रसिद्धं जनमाश्रयेत्॥५८॥
राजा प्रगल्भं पुरुषंकरोति
राजा भृशं बृंहयते मनुष्यम्।
राजाभिपन्नस्य कुतस्सुखानि
राजाऽभ्युपेतं सुखिनं करोति॥५९॥
राजा प्रजानां प्रथमं शरीरं
प्रजाश्च राज्ञोऽप्रतिमं शरीरम्।
राज्ञा विहीना न भवन्ति देशा
देशैर्विहीना न नृपा भवन्ति॥६०॥
राजा प्रजानां हृदयं गरीयो
राजा प्रतिष्ठा सुखमुत्तमं च।
यमाश्रिता लोकमिमं परं च
जयन्ति सम्यक् पुरुषा नरेन्द्र॥६१॥
नराधिपश्चाप्यनुशिष्य मेदिनी।
इमेन सत्येन च सौहृदेन।
महद्भिरष्ट्वाऋतुभिर्महायशास्
त्रिविष्टपे स्थानमुपैति सत्कृतः191॥६२॥
भीष्मः—
स एवमुक्तोऽङ्गिरसा कौसल्यो राजसत्तमः।
प्रयत्नात् कृतवान् वीरः प्रजापालनमुत्तमम्॥६३॥
इतिश्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि द्विषष्टितमोऽध्यायः॥६२॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि त्रयोर्विशोऽध्यायः ॥२३॥
[ अस्मिन्नध्याये ६३ ॥श्लोकाः॥]
॥ त्रिषष्टितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्टिरं प्रति राजनीतिकथनम् ॥१॥ भीष्मेण युधिष्टिरं प्रति कृतादियुगचतुष्टयगुणनिरूपणम्॥२॥
______
युधिष्ठिरः—
पार्थिवेन विशेषेण किं कार्यमवशिष्यते।
कथं रक्ष्या जनपदाः कथं वध्याश्च शत्रवः॥१॥
कथं चारान्प्रयुञ्जीत वर्णान् विश्वासयेत् कथम्।
कथं भृत्यान् कथं दारान्कथं पुत्रांश्च भारत॥ २॥
भीष्मः—
राजवृत्तं महाराज शृणुष्वावहितोऽखिलम्।
यत् कार्यं पार्थिवेनादौ पार्थिव प्रकृतेन192 वा॥३॥
आत्मा जेयस्सदा राज्ञा ततो जेयाश्च शत्रवः।
अजितात्मा नरपतिर् विजयेत कथं रिपून्॥४॥
एतावानात्मविजयः पञ्चवर्गविनिग्रहः।
जितेन्द्रियो नरपतिर् बाधितुं शक्नुयाद्रिपून्॥५॥
न्यसेच्च गुल्मान् दुर्गेषु सन्धौ च कुरुनन्दन।
नगरोपवने चैव पुरोद्याने तथैव च॥६॥
संस्थानेषु च सर्वेषु पु्टेषु नगरस्य च193।
मध्ये च नरशार्दूल तथा राजनिवेशने॥७॥
प्रणिधींश्च ततः कुर्याज् जडान्धबधिराकृतीन्।
पुरुषान् परीक्षितान्, राज्ञः194 क्षुत्पिपासाश्रमक्षमान्॥८॥
अमात्येषु च सर्वेषु मित्रेषुत्रिविधेषुच।
पुत्रेषु च महाराज प्रणिदध्यात् समाहितः॥९॥
पुरे जनपदे चैव तथा सामन्तराजसु।
यथा न विद्युरन्योन्यं प्रणिधेयास्तथा हि ते॥१०॥
चारांश्च विद्यात् प्रहितान् परेण भरतर्षभ।
आपणेषु विवाहेषु समवायेषु वीथिषु॥११॥
आरामेषु तथोद्याने पण्डितानां समागमे।
वेशेषु195 चत्वरे चैव सभास्वावसथेषु च॥१२॥
एवं विहन्याच्चारेण पर द्वारं196 विचक्षणः।
चारे च विहतं सर्वं हतं भवति भारत॥१३॥
यदा तु हीनं नृपतिर् विद्यादात्मानमात्मना।
अमात्यैस्सह सम्मन्त्र्य सन्धिं कुर्याद् बलीयसा ॥१४॥
विद्वांसः क्षत्रिया वैश्या ब्राह्मणाश्च बहुश्रुताः।
दण्डनीतौ तु निष्पन्ना मन्त्रिणः पृथिवीपते॥१५॥
प्रष्टव्यो ब्राह्मणः पूर्वं नीतिशास्त्रस्य तत्त्ववित्।
पश्चात् पृच्छेत भूपालः क्षत्रियं नीतिकोविदम्॥१६॥
वैश्यशूद्रौ तथा भूयश्शास्त्रज्ञो हितकारिणौ॥१६॥
अज्ञायमानो हीनस्तु सन्धिं कुर्यात् परेण वै।
लिप्सेद्वा कञ्चिदेवार्थं त्वरमाणो विचक्षणः॥१७॥
गुणवन्तो महोत्साहा धर्मज्ञासावश्च ये।
सन्दधीत नृपस्तैश्च राष्ट्रं धर्मेण पालयन्॥१८॥
उच्छिद्यमानमात्मानं ज्ञात्वा राजा महामतिः।
पूर्वापकारिणो हन्याल्लोकद्विष्टांश्च सर्वशः॥१९॥
यो नोपकर्तुं शक्नोति नापकर्तुं महीपतेः।
अशक्यरूपश्चोद्धर्तुम् उपेक्षेत् तादृशं नृपः॥२०॥
यात्रां यायादविज्ञातम् अनाक्रान्तमनन्तरम्।
व्यासक्तं च प्रमत्तं च दुर्बलं च विचक्षणः॥२१॥
यात्रामाज्ञापयेद्वीरः कल्यः पुष्टबलस्सुखी।
पूर्वं कृत्वा विधानं च यात्रायां नगरे तथा॥२२॥
अन्तःपुरे च राष्ट्रे च अध्यक्षेषु च सर्वशः।
न च वध्यो भवेदस्य नृपो यश्च न वीर्यवान्॥२३॥
हीनश्च बलवीर्याभ्यां कर्शयेत्197 तं परं रिपुम्॥२४॥
राष्ट्रं च पीडयेत् तस्य शस्त्राग्निविषमूर्च्छनैः।
अमात्यवल्लभानां च विवादांस्तस्य कारयेत्॥२५॥
वर्जनीयं सदा युद्धं राज्यकामेन धीमता।
उपायैस्त्रिभिरादानम् अर्थस्याह बृहस्पतिः॥२६॥
सान्त्वेनानुप्रदानेन भेदेन च नराधिप।
यमर्थं शक्नुयात्प्राप्तुं तेन तुष्येत पण्डितः॥२७॥
आददीत बलिं चैव प्रजाभ्यः कुरुनन्दन।
षड्भागममितप्रज्ञस् तासामेवाभिगुप्तये॥२८॥
दशाधर्मगतेभ्यो198 यद् वसु बह्वल्पमेव वा।
तन्नाददीत सहसा पौराणां रक्षणाय वै॥२९॥
यथा पुत्रास्तथा पौरा द्रष्टव्यास्ते न संशयः।
भक्तिश्चैषु न कर्तव्या व्यवहारप्रदर्शने॥३०॥
सूतं च विन्यसेद्राजा प्राज्ञं सर्वार्थदर्शिनम्।
व्यवहारेषु सततं तत्र राज्यं प्रतिष्ठितम्॥३१॥
आकरे लवणे शुल्के बलेनागवने तथा।
न्यसेदमात्यान्नृपतिस् स्वाप्तान् वा पुरुषान्हितान्॥३२॥
सम्यग्दण्डधरो नित्यं राजा धर्ममवाप्नुयात्।
नृपस्य सततं धर्मस् सम्यग्दण्डः प्रशस्यते॥३३॥
वेदवेदाङ्गवित् प्राज्ञस् सुतपस्वी नृपो भवेत्।
दानशीलश्च सततं यज्ञशीलश्च भारत॥३४॥
एते गुणास्समस्तास्स्युर् नृपस्य सततं स्थिताः199।
व्यवहारस्य लोपेन कुतस्स्वर्गः कुतो जयः॥३५॥
यदा तु पीडितो राजा भवेद्राज्ञा बलीयसा।
त्रिधा तु कृत्वा मित्राणि विधानमुपकल्पयेत्॥३६॥
घोषान् न्यसेत मार्गेषु ग्रामानुत्थापयेदपि।
प्रवेशयेच्च तान् सर्वाञ् शाखानगरकेष्वपि॥३७॥
ये दुर्गाश्चैव गुप्ताश्च देशास्तेषु प्रवेशयेत्।
धनिनो बलमुख्याश्चेत् सान्त्वयित्वा पुनः पुनः॥३८॥
सस्याभिहारं कुर्वीत स्वयमेव नराधिपः।
असम्भवे प्रवेशस्य दाहयेदग्निना भृशम्॥३९॥
क्षेत्रस्थेषु च सर्वेषु शत्रोरुपजपेन्नरान्।
विनाशयेद्वा तत् सर्वं बलेनाथ स्वकेन वै॥४०॥
नदीमार्गेषु च तथा सङ्क्रमानवसादयेत्।
जलं निस्रावयेत् सर्वम् अनिस्राव्यं च दूषयेत्॥४१॥
तदात्वेनायतीभिश्च निर्वषेद्भूम्यनन्तरम्।
प्रतिघातं परस्यादौ युद्धकालेऽप्युपस्थिते॥४२॥
दुर्गाणां त्वभितो राजा मूलच्छेदं प्रयोजयेत्।
सर्वेषांक्षुद्रवृक्षाणां चैत्यवृक्षान् विसर्जयेत्200॥४३॥
प्रवृद्धानां दृमाणां च शाखां प्रच्छेदयेत् तथा।
चैत्यानां सर्वथा वर्ज्यम् अपि पत्रस्य पातनम्॥४४॥
देवाना माश्रमा201श्च्चैत्या यक्षराक्षसभोगिनाम्।
पिशाचपन्नगानां च गन्धर्वाप्सरसामपि॥४५॥
रौद्राणां चैव भूतानां तस्मात् तान् परिवर्जयेत्॥४५॥
श्रूयतेहि निकुम्भेन सौदासस्य बलं हतम्।
महेश्वरगणेशेन वाराणस्यां नराधिप॥४६॥
प्रकुण्डं कारयेत् सम्यग्आकाशमवनिं तदा।
आपूरयेच्च परिखास् स्थाणुनक्रझषाकुलाः॥४७॥
कुलिकद्वारकाणि स्युर् उच्छ्वासार्थेपुरस्य च।
तेषांच द्वारवद्गुप्तिःकार्या सर्वात्मना भवेत्॥४८॥
द्वारेषु च गुरुण्येव यन्त्राणि स्थापयेत् सदा।
आरोपयेच्छतघ्नीश्च स्वाधीनाश्चैव कारयेत्॥४९॥
काष्ठानि निर्हरेच्चैव तथा कूपांश्च खानयेत्।
संशोधयेत् तथा कूपान कृतान् पूर्वं पयोभिः॥५०॥
तृणच्छन्नानि वेश्मानि पङ्केनाथ प्रलेपयेत्।
निर्वपेच्च तृणं मासे चैत्रे वह्निभयात् पुरा॥५१॥
नक्तमेव च भक्तानि पाचयेत नराधिपः।
न दिवाऽग्निर्ज्वलेद्गेहेवर्जयित्वाऽग्निहोत्रिणाम्॥५२॥
यथासम्भवशैलानि चेष्टकानि च कारयेत्।
मृण्मयानि च कुर्वीत ज्ञात्वा देशे बलाबलम्॥५३॥
कर्मारारिष्टशालासु ज्वलेदग्निस्सुरक्षितः।
गृहाणि च प्रवेश्याथ विचेय202स्याद्धुताशनः॥५४॥
महादण्डश्च तस्य स्याद् यस्यार्ग्नैदिवा भवेत्।
प्रघोषयेदथैवं च रक्षणार्थं पुरस्य वै॥५५॥
भिक्षुकांश्च यतींश्चैव क्लीबोन्मत्तान् कुशीलवान्।
बाह्यान्कुर्यान्नरश्रेष्ठ दोषाय स्युर्हि ते शठाः॥५६॥
चत्वारेष्वथ तीर्थेषु सभास्वावसथेषु च।
यथार्थवर्णं प्रणिधिं कुर्यात् सर्वत्र पार्थिवः॥५७॥
विशालान् राजमार्गांश्च कारयेत नराधिपः।
प्रपाश्च विपणीश्चैव यथोद्देशं समादिशेत्॥५८॥
भाण्डागारायुधागारान् धान्यागारांश्च सर्वशः।
अश्वागारान् गजागारान् बलाधिकरणानि च॥५९॥
परिघाश्चैव कौरव्य प्रतोलीसङ्कटानि च।
न जातु कश्चित् पश्येत्गुह्यमेतद्युधिष्ठिर॥६०॥
अथ सन्निचयं कुर्याद् राजा परबलार्दितः।
तैलं मधु घृतं सस्यम् औषधानि च सर्वशः॥६१॥
अङ्गारकुशमुञ्जानां पालाशशरपर्णिनाम्।
यवसेन्धनदुग्धानां कारयेत च सञ्चयान्॥६२॥
आयुधानां च सर्वेषां शक्त्यृष्टिप्रासचर्मणाम्।
सञ्चयानेवमादीनां कारयेत नराधिपः॥६३॥
औषधानि च सर्वाणि मूलानि च फलानि च।
चतुर्विधांश्च वैद्यान्वैसङ्गृह्णीयाद्विशेषतः॥६४॥
नटाश्च नर्तकाश्चैव मल्ला मायाविनस्तथा।
शोभयेयुः पुरवरं मोदयेयुश्च सर्वशः॥६५॥
यतश्शङ्का भवेच्चापि भृत्यतो वाऽथ मन्त्रितः।
पौरेभ्यो नृपतेर्वाऽथ स्वाधीनान्कारयेत तान्॥६६॥
कृते कर्मणि राजा तान्पूजयेद्धनसञ्चयैः।
माननेन यथार्हेण सान्त्वेन विविधेन च॥६७॥
निर्वेदयित्वा तु परं हत्वा वा कुरुनन्दन।
गतानृण्यो भवेद्राजा यथा शास्त्रेषु दर्शनम्॥६८॥
राज्ञा सप्तैव रक्ष्याणि तानि चैव निबोध मे॥६९॥
आत्माऽमात्यश्चकोशश्च दण्डो मित्राणि चैव ह।
तथा जनपदश्चैव पुरं च कुरुनन्दन॥७०॥
एतत् सप्तात्मकं राज्यं परिपाल्यं प्रयत्नतः॥७०॥
षाड्गुण्यंच त्रिवर्गं च त्रिवर्गपरमं तथा।
यो वेत्ति पुरुषव्याघ्र स भुङ्क्ते पृथिवीमिमाम्॥७१॥
षाड्गुण्यमिति यत् प्रोक्तं तन्निबोध युधिष्ठिर।
सन्धायासनमित्येव यात्रासन्धानमेव च॥७२॥
विगृह्यासनमित्येवं यात्रां सम्परिगृह्य च।
द्वैधीभावस्तथाऽन्येषां संश्रयोऽथ परस्य च॥७३॥
त्रिवर्गश्चापि यः प्रोक्तस् तमिहैकमनाश्शृणु ॥७४॥
क्षयस्स्थानं च वृद्धिश्च त्रिवर्गः परमस्तथा।
धर्मश्चार्थश्च कामश्च त्रिवर्गो वै सनातनः॥७५॥
मन्त्रश्चैव प्रभावश्च उत्साहश्चैव तान्त्रिकः।
शक्तित्रयं समाख्यातं त्रिवर्गस्य ततः परम्॥७६॥
कार्यं च कारणं चैव कर्ता चपरिकीर्तितः।
एतत् परतरं विद्युस् त्रिवर्गादपि भारत॥७७॥
सर्वेषां च क्षये राजन्यस्त्रिवर्गस्सनातनः।
सत्त्वं रजस्तमश्चैव त्रिवर्गः कारणं स्मृतम्॥७८॥
तेनात्यन्तविमुक्तश्च मुक्तः पुरुष उच्यते॥७८॥
कार्यस्य सर्वथा नाशो मोक्ष इत्यभिधीयते॥७९॥
तेन मोक्षपरश्चैव देवदेवः पितामहः।
तुष्ट्यर्थस्य त्रिवर्गस्य रक्षामाह नराधिप॥८०॥
जगतो लौकिकी यात्रा यत्र नित्यं प्रतिष्ठिता।
धर्मोऽर्थश्चैव कामश्च सेवितव्यास्स्वकालतः॥८१॥
सेवा धर्मस्य कर्तव्या सततं भूतितत्परैः।
पुरुषैर्नरशार्दूल तन्मूलास्सर्वथा क्रियाः॥८२॥
धर्मेण च महीपालश् चिरं रक्षति मेदिनीम्।
यः कश्चिद्धार्मिको राजा स विपन्नोऽपि भूपतिः॥८३॥
अर्थकामविहीनोऽपि चिरं पालयते महीम्॥८३॥
अस्मिन्नर्थेऽपि द्वौ श्लोकौगीतावङ्गिरसास्वयम्।
यादवीपुत्र भद्रं ते श्रोतुमर्हसि तावपि॥८४॥
कृत्वा कार्याणि203 धर्मेण सम्यक् सम्पाल्य मेदिनीम्।
पालयित्वा तथा पौरान्परत्र सुखमेधते॥८५॥
किं तस्य तपसा राज्ञः किञ्च तस्याध्वरैः कृतैः।
सुपालिताः प्रजा यस्य सर्वधर्मदेव सः॥८६॥
श्लोकाश्चोशनसा गीतास् तान् निबोध युधिष्ठिर॥८७॥
दण्डनीतेश्च यन्मूलं त्रिवर्गस्य च भूपते।
भार्गवाङ्गिरसं कर्म षोडशाङ्गं च यद्बलम्॥८८॥
विषं माया च दैवं च पौरुषंचार्थसिद्धये।
प्रागुदक्प्रवणं दुर्गं समासाद्य महीपते॥८९॥
त्रिवर्ग यत्र सम्पूर्णम् उपादाय तमुद्वहेत्॥८९॥
षट्पञ्च च विनिर्जित्य दश चाष्टौ च भूपतिः।
त्रिवर्गैर्दशभिर्युक्तस् सुरैरपि न जीर्यते॥९०॥
न बुद्धिं परिगृह्णीतस्त्रीणां मूर्खजनस्य च।
दैवोपहतबुद्धीनां ये चवेदै204र्विवर्जिताः॥९१॥
न तेषां शृणुयाद्राजा बुद्धिस्तेषांपराङ्मुखी॥९२॥
स्त्री प्रधानानि राज्यानि विद्वद्भिर्वर्जितानि च।
मूर्खामात्यप्रतप्तानि शुष्यन्ते जलबिन्दुवत्॥९३॥
विद्वांसः प्रथिता ये च ये चाप्तारसर्वकर्मसु।
युद्धेषु दृष्टकर्माणस् तेषां च शृणुयान्नृपः॥९४॥
दैवं पुरुषकारं च त्रिवर्गं च समाश्रितः।
दैवतानि च विप्रांश्च प्रणम्य विजयी भवेत्॥९५॥
युधिष्टिरः—
दण्डनीतिश्च राजा च समस्तौ तावुभावपि।
तत्र किं कुर्वतस्सिद्धिस् तन्मे ब्रूहि पितामह॥९६॥
भीष्मः—
माहात्म्यं दण्डनीत्यास्तु साध्यं शब्दैस्सहेतुकैः।
शृणु मे शंसतो राजन् यथावदिह भारत॥९७॥
दण्डनीतिस्स्वधर्मेषु चातुर्वर्ण्यं नियच्छति।
प्रयुक्ता स्वामिना सम्यग् अधर्मेभ्यश्च यच्छति॥९८॥
चातुर्वर्ण्येस्वधर्मस्थे मर्यादानामसङ्करे।
दण्डनीतिकृते क्षेमे प्रजानामकुतोभये॥९९॥
सोमे प्रयत्नं कुर्वन्ति त्रयो वर्णा यथाविधि।
तस्मादेव मनुष्याणां सुखं विद्धि समाहितम्॥१००॥
कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम्।
इति ते संशयो माभूद्राजा कालस्य कारणम्॥१०१॥
दण्डनीयां यदा राजा सम्यक् कार्त्स्न्येनवर्तते।
भवेत् कृतयुगे धर्मो नाधर्मो विद्यते क्वचित्॥१०२॥
सर्वेषामेव वर्णानां नाधर्मे रमते मनः॥१०२॥
योगक्षेमाः प्रवर्तन्ते प्रजानां नात्र संशयः।
वैदिकानि च कर्माणि भवन्त्यधिगुणान्युत॥१०३॥
ऋतवश्चसुखास्सर्वे भवन्त्यथ निरामयाः।
प्रसीदन्ति नराणां च स्वरवर्णमनांसि च॥१०४॥
व्याधयो न भवन्त्यत्र नाल्पायुर्हश्यते नरः।
विधवा न भवन्त्यत्र नृशंसो नात्र जायते॥१०५॥
अकृष्टपच्या पृथिवी भवन्त्योषधयस्तथा।
त्वक्पत्रफलमूलानि वीर्यवन्ति भवन्ति च॥१०६॥
अधर्मो विद्यते नात्र धर्म एव तु केवलः।
इति कार्तयुगानेतान्गुणान् विद्धि युधिष्ठिर॥१०७॥
दण्डनीत्या यदा राजा त्रीनंशाननुवर्तते।
चतुर्थमंशमुत्सृज्य तदा त्रेता प्रवर्तते॥१०८॥
अधर्मस्य चतुर्थांशस् त्रीनंशाननुवर्तते।
कृष्टपच्यैव पृथिवी भवन्त्योषधयस्तथा॥१०९॥
अर्धं त्यक्त्वा यदा राजा नीत्यर्धमनुवर्तते।
ततस्तु द्वापरं नाम स कालस्सम्प्रवर्तते॥११०॥
अशुभस्ययदा त्वर्धंद्वावंशावनुवर्तते।
कृष्टपच्यैव पृथिवी भवत्यर्ध205कला तथा॥१११॥
दण्डनीतिं परित्यज्य यदा कार्त्स्न्येन भूपतिः।
प्रजाः क्लिश्नात्ययोगेन प्रवर्तेत तदा कलिः॥११२॥
कलावधर्मो भूयिष्ठो धर्मो भवति न क्वचित्।
सर्वेषामेव वर्णानां स्वधर्माच्च्यवतेमनः॥११३॥
शुद्रा भैक्षेण जीवन्ति ब्राह्मणाः परिचर्यया।
योगक्षेमस्य नाशाच्च वर्तन्तेवर्ण206सङ्कराः॥११४॥
वैदिकानि च कर्माणि भवन्ति विगुणान्युत।
ऋतवो न सुखास्सर्वे भवन्त्यामयिनस्तथा॥११५॥
ह्रसन्ति च मनुष्याणां स्वरवर्णमनांस्युत।
व्याधयश्च भवन्त्यत्र म्रियन्ते चाशतायुषः॥११६॥
विधवाश्च भवन्त्यत्र नृशंसा जायते प्रजा।
क्वचिद्वर्षतिपर्जन्यः क्वचित् सस्यंप्ररोहति॥११७॥
रसास्सर्वेक्षयं यान्ति यदा नेच्छति भूमिपः।
प्रजास्संरक्षितास्सम्यग् दण्डनीत्या समाहिताः॥११८॥
राजा कृतयुगस्रष्टा त्रेताया द्वापरस्य च।
युगस्य च चतुर्थस्य राजा भवति कारणम्॥११९॥
कृतस्य करणाद्राजा स्वर्गमत्यन्तमश्नुते।
त्रेतायाः करणाद्राजा स्वर्गं नात्यन्तमश्नुते॥१२०॥
प्रवर्तनाद्द्वापरस्य यथाभागमुपाश्नुते।
कलेः प्रवर्तनाद्राजा पापमत्यन्तमश्नुते॥१२१॥
ततो वसति दुष्कर्मा नरके शाश्वतीस्समाः।
प्रजानां कल्मषे मग्नोऽकीर्तिं पापं च विन्दति॥१२२॥
योगक्षेमाः प्रवर्तन्ते प्रजानां नात्र संशयः॥१२३॥
दण्डनीतिं पुरस्कृत्य क्षत्रियेण विजानता।
लिप्सितव्यमलब्धं च लब्धं रक्ष्यं च भारत॥१२४॥
एष207एव परो धर्मो यद्राजा दण्डनीतिमान्॥१२४॥
तस्माद्धर्मेण कौरव्य प्रजाः पालय नीतिमान्।
एवंवृत्तः प्रजा रक्षन् स्वर्गं जेतासि दुर्जयः॥१२५॥
इति श्री महाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि त्रिषष्टितमोऽध्यायः॥६३॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥
[ अस्मिन्नध्याये १२५॥ श्लोकाः ]
॥ चतुष्षष्टितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेणयुधिष्टिरं प्रति राजनयानुवर्णनम् ॥
______
युधिष्ठिरः—
केन वृत्तेन वृत्तज्ञ वर्तमानो महीपतिः।
सुखेनार्थान्सुखोदर्कान् इह च प्रेत्य चाश्नुते॥१॥
भीष्मः—
इयं गुणानां षड्त्रिंशी षट्त्रिंशद् द्विगुणान्विता208।
यान्गुणांस्तु गुणोपेतः कुर्वन् गुणमवाप्नुयात्॥२॥
चरेद्धर्मं नरः कोपं मुञ्चेत् स्नेहं209 न नास्तिकः।
अनृशंसश्चरेदर्थं चरेत् काममनुद्धतः॥३॥
प्रियं ब्रूयान्नकृपणश्शूरस्स्यान्न विकत्थनः।
दाता नापात्रवर्षी स्यात् प्रगल्भस्यादनिष्ठुरः॥४॥
सन्दधीत न चानार्यैर् विगृह्णीयाच्च शत्रुभिः।
नानाप्तैश्चारयेच्चारं कुर्यात् कार्यं न लीलया॥५॥
प्रहरेन्न त्वविज्ञाय हत्वा शत्रून्न शेषयेत्।
सान्त्वयेन्न च शत्रूंश्च गृह्णीयान्नैव चाक्षिपेत्॥६॥
सेवेत प्रणयं हित्वा दक्षस्स्यान्न त्वकालवित्।
क्रोधं कुर्याच्चनाकस्मान्मृदुस्स्यान्नापराधिषु॥७॥
अर्थान् ब्रूयान्न चासत्सु गुणान् ब्रूयान्न चात्मनः।
आदद्याच्च न साधुभ्यो नासत्पुरुषमाश्रयेत्॥८॥
नापरीक्ष्य नयेद्दण्डं न च मन्त्रं प्रकाशयेत्।
विसृजेन्न च लुब्धेभ्यो विश्वसेन्नापकारिषु॥९॥
अनीर्ष्यो गुप्तदारस्स्यान्नोग्रस्स्यान्न घृणी नृपः।
स्त्रीश्चा सेवेत नात्यर्थं मृष्टं भुञ्जीत नाहितम्॥१०॥
अस्तब्धः पूजयन्मान्यान् गुरून्सेवेदमायया।
अर्चेद्देवानदम्भेन श्रियमिच्छेदकुत्सिताम्॥११॥
एवं चरस्व राज्यस्थो यदि श्रेय इहेच्छसि।
अतोऽन्यथा नरपतिर् भयं गच्छत्यनुत्तमम्॥१२॥
इति सर्वान् गुणानेतान् यथोक्तान्योऽनुवर्तते।
अनुभूयेह भद्राणि प्रेय स्वर्गे महीयते॥१३॥
वैशम्पायनः—
इदं वचश्शान्तनवस्य शुश्रुवान्
युधिष्ठिरः पार्थिवमुख्यसंवृतः।
तदा ववन्दे च पितामहं नृपो
यथोक्तमेवं च चकार बुद्धिमान्॥१४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायांवैयासिक्यां शान्तिपर्वणि चतुष्पष्टितमोऽध्यायः॥६४॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि पञ्चविंशोऽध्यायः॥२५॥
[अस्मिन्नध्याये १४ श्लोकाः ]
॥ पञ्चषष्टितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्टिरं प्रति राजधर्मकथनम् ॥
______
युधिष्ठिरः—
कथं राजा प्रजा रक्षन् नातिबन्धेन युज्यते॥
धर्मे च नापराध्नोति तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
भीष्मः—
समासेनैव ते तात धर्मान् वक्ष्यामि निश्चितान्।
विस्तरेण हि धर्माणां न जात्वन्तमवाप्नुयात्॥२॥
धर्मनिष्ठाञ् श्रुतवतो वेदवृत्तसमाहितान्।
अर्चितान्वासयेथास्त्वं गृहे गुणवतो द्विजान्॥३॥
प्रत्युत्थायोपसङ्गृह्य चरणावभिवाद्य च।
अथ सर्वाणि कुर्वीथाः कार्याणि सपुरोहितः॥४॥
धर्मकार्याणि निर्वर्त्यमङ्गलानि प्रयुज्य च।
ब्राह्मणान्वाचयेथास्त्वम्210 अर्थसिद्धिजयाशिषः॥५॥
आर्जवेनैवसम्पन्नो धृत्या बुद्ध्या च भारत।
धर्मार्थौपरिगृह्णीयात्कामक्रोधौ विवर्जयेत्॥६॥
कामक्रोधौ पुरस्कृत्य योऽर्थं राजाऽनुतिष्ठति।
न च धर्मं न चाप्यर्थं प्रतिगृह्णाति बालिशः॥७॥
मा स्म लुब्धांश्च मूर्खांश्च कामादर्थेषु योजयेत्।
अलुब्धान्बुद्धिसम्पन्नान् सर्वकर्मसु योजयेत्॥८॥
मूर्खो ह्यधिकृतोऽर्थेषु कार्याणामविशारदः।
प्रजाः क्लिश्नात्ययोगेन कामद्वेषसमन्वितः॥९॥
बलिषष्ठेन शुल्केन दण्डेनाथापराधिनाम्।
शास्त्रनीतेन लिप्सेथा वेतनेन धनागमम्॥१०॥
दापयित्वा करं धर्म्यं राष्ट्रं नीत्या यथाविधि।
अथैषां कल्पयेद्राजा योगक्षेममतन्द्रितः॥११॥
गोपायितारं दातारं धर्मनित्यमतन्द्रितम्।
अकामद्वेषसंयुक्तम् अनुरज्यन्ति मानवाः॥१२॥
तस्माद्धर्म्येण लाभेन लिप्सेथास्त्वं धनागमम्।
धर्मार्थौच ध्रुवौ तस्य योऽपि शास्त्रधनो भवेत्॥१३॥
अपशास्त्रधनो राजा सञ्चयं नाधिगच्छति।
अस्थाने चास्य तद्वित्तं सर्वमेव विनश्यति॥१४॥
अर्थमूलं हि हिंसां च कुरुते स्वयमात्मनः।
करैरशास्त्रदृष्टैर्हिलोभात् सम्पीडयन् प्रजाः॥१५॥
ऊधश्छिन्द्याद्धि यो धेन्वाः क्षीरार्थी न लभेत् पयः।
एवं राष्ट्रमयोगेन पीडितं न च वर्धते॥१६॥
यवसोदकमादाय सान्त्वेन विनयेन च।
यो हि दोग्ध्रीमुपास्ते च स नित्यं विन्दते पयः॥१७॥
एवं राष्ट्रमुपायेन भुञ्जानो लभते फलम्॥१७॥
अथ राष्ट्रमुपायेन भुज्यमानं सुरक्षितम्।
जनयत्यतुलां नित्यं कोशवृद्धिं युधिष्ठिर॥१८॥
दोग्ध्री धान्यं हिरण्यं च मही राज्ञा सुरक्षिता।
नित्यं स्वेभ्यः परेभ्यश्च तृप्ता माता यथा पयः॥१९॥
मालाकारोपमो राजन्भव माऽऽङ्गारिकोपमः।
तथा युक्तश्चिरं राष्ट्रं भोक्तुं शक्ष्यसि पालयन्॥२०॥
परचक्राभियानेन यदि ते स्याद्धनक्षयः।
अथ साम्नैव लिप्सेथा धनमब्राह्मणेषु यत्॥२१॥
मा स्म ते ब्राह्मणं दृष्ट्वा धनिनं प्रचलेन्मनः।
अन्त्यायामप्यवस्थायां किमु स्फीतस्य भारत॥२२॥
धनानि तेभ्यो दद्यास्त्वं यथाशक्ति यथार्हतः।
सान्त्वयन्परिरक्षंश्च स्वर्गमेप्यसि दुर्जयम्॥२३॥
एवं धर्म्येण वृत्तेन प्रजास्त्वं परिपालय।
स्वयं पुण्यं यशोऽनन्तं प्राप्स्यसे कुरुनन्दन॥२४॥
धर्मेण व्यवहारेण प्रजाः पालय पाण्डव।
युधिष्ठिर तथायुक्तो नाधिबन्धेन योक्ष्यसे॥२५॥
एष एव परो धर्मो यद्राजा रक्षति प्रजाः।
भूतानां हि यदा धर्मो रक्षणे हि दया परा॥२६॥
तस्मादेतत् परं धर्मं मन्यन्ते धर्मकोविदाः।
यद् राजा रक्षणे युक्तो भूतेषु कुरुते दयाम्॥२७॥
यदह्ना कुरुते पापम् अरक्षन्भयतः प्रजाः।
राजा वर्षसहस्रेण तस्यान्तं नाधिगच्छति॥२८॥
यदह्नाकुरुते पुण्यं प्रजा धर्मेण पालयन्।
दशवर्षसहस्राणि तस्य भुङ्क्ते फलं दिवि॥२९॥
स्विष्टसस्वधीतस्सुतपा लोकाञ्जयति यावतः।
क्षणेन तानवाप्नोति लोकान् धर्मेण पालयन्॥३०॥
एवं धर्मं प्रयत्नेन कौन्तेय परिपालय।
इह पुण्यफलं लब्ध्वा नानुबन्धेन योक्ष्यसे॥३१॥
स्वर्गे च लोके महतीं श्रियं प्राप्स्यसि पाण्डव।
अविप्लवश्चधर्माणाम् ईदृशानां सुराजसु॥३२॥
तस्माद्राजैवनान्योऽस्ति यो महत् फलमाप्नुयात्॥३३॥
स्वराज्यमृद्धिमत् प्राप्य प्रजा धर्मेण पालय।
इन्द्रं तर्पय सोमेन कामैश्च सुहृदो जनान्॥३४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि पञ्चषष्टितमोऽध्यायः॥६५॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि षड्विंशोऽध्यायः॥२६॥
[ अस्मिन्नध्याये ३४ श्लोकाः ]
_______
षट्षष्टितमोऽध्यायः
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भीष्मेण युधिष्टिरं प्रति ब्राह्मणस्य श्रैष्ठ्योपपादनपूर्वकं चातुर्वर्ण्यधर्मकथनम्।ऐलवायुसंवादानुवादश्च॥
______
युधिष्टिरः—
कीदृशोब्राह्मणो राज्ञां कार्याकार्यविचारणे।
क्षेमं211 कर्तुं समर्थो वा तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
भीष्मः—
य एव तु सतो रक्षेद् असतश्च निवर्हयेत्।
स एव राज्ञा कर्तव्यो राजन्राजपुरोहितः॥२॥
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
पुरूरवस ऐलस्य संवादं मातरिश्वना212 ॥
ऐलः—
कुतस्विद्ब्राह्मणो जातो वर्णा वाऽथ कुतस्त्रयः।
कस्माच्च भवति श्रेयान् एतद्वायो प्रचक्ष्वमे॥४॥
वायुः—
ब्राह्मणो मुखतस्सृष्टो ब्रह्मणा राजसत्तम्।
बाहुभ्यां क्षत्रियस्सृष्ट ऊरुभ्यां वैश्य उच्यते॥५॥
वर्णानां परिचर्यार्थं त्रयाणां भरतर्षभ।
वर्णश्चतुर्थः पश्चात्तु शूद्रः पद्भ्यां विनिर्मितः॥६॥
ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिवीमन्वजायत।
ईश्वरस्सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुप्तये॥७॥
सर्वस्वं ब्राह्मणस्येदं यत् किञ्चिदिह दृश्यते।
धर्मयुक्तं प्रशस्तं च जगत्यस्मिन् नृपात्मज॥८॥
ततः पृथिव्यां गोप्तारं213 क्षत्रियं दण्डधारकम्।
द्वितीयं वर्णमकरोत् प्रजानामनुगुप्तये॥९॥
वैश्यस्तु धनधान्येन त्रीन् वर्णान् बिभृयादिमान्।
शूद्रो ह्येनान् परिचरेद् इतिब्रह्मानुशासनम्॥१०॥
ऐलः—
द्विजस्य क्षत्रबन्धोर्वा कस्येयं पृथिवी भवेत्।
धर्मतस्सह वित्तेन सम्यग्वायो प्रचक्ष्व मे॥
वायुः—
विप्रस्य सर्वमेवैतद् यत् किञ्चिज्जगतीगतम्।
धनं धान्यं हिरण्यं च स्त्रियो रत्नानि वाहनम्॥१२॥
मङ्गलं च प्रशस्तं च यच्चान्यदपि विद्यते।
ज्येष्टेनाभिजनेनेह तं धर्मं कुशला विदुः॥१३॥
स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च।
गुरुर्हि सर्ववर्णानां ज्येष्टश्श्रेष्ठश्च वै द्विजः॥१४॥
पत्यलाभे यथैव स्त्री देवरं कुरुते पतिम्।
आनन्तर्यात् तथा क्षत्त्रं पृथिवी कुरुते पतिम्॥१५॥
एषते प्रथमः कल्प आपद्यन्यो भवेद्यतः॥१५॥
भीष्मः —
यदि स्वर्गे परं स्थानं धर्मतः परिमार्गय॥
यः कश्चिद्विजयेद् भूमिं ब्राह्मणाय निवेदयेत्।१६॥
श्रुतवृत्तोपपन्नाय धर्मज्ञाय तपस्विने॥१७॥
स्वधर्मपरितृप्ताय यो न वित्तपरो भवेत्।
यो राजानं नयेद्बुध्यासर्वतः परिपूर्णया॥१८॥
ब्राह्मणो हि कुले जातः कृतप्रज्ञो विनीतवान्।
श्रेयो नयति राजानं ब्रुवंश्चित्रां सरस्वतीम्॥१९॥
राजा चरति यं धर्मं ब्राह्मणेन विदर्शितम्।
शुश्रूषुरनहंवादी क्षत्रधर्मव्रते स्थितः॥२०॥
यावता सत्कृतप्रज्ञश्214 चरन् धर्मेऽवतिष्ठति।
तस्य धर्मस्य सर्वस्य भागी राजपुरोहितः॥२१॥
एवमेव प्रजास्सर्वा राजानमभिसंश्रिताः।
ब्राह्मणं च सुविद्वांसं राजशास्त्रविपश्चितम्॥२२॥
सम्यग्वृत्तास्स्वधर्मस्था न कुतश्चिद्भयान्विताः।
राष्ट्रेचरन्ति यं धर्मं राज्ञा साध्वभिरक्षिताः॥२३॥
चतुर्थं तस्य तं धर्मं राजा भागं हि विन्दति॥२३॥
देवा मनुष्याः पितरो गन्धर्वोरगराक्षसाः।
यज्ञमेवोपजीवन्ति नास्ति यष्टा ह्यराजके॥२४॥
इतो दत्तेन जीवन्ति देवताः पितरस्तथा।
राजन्येवास्य धर्मस्य योगक्षेमः प्रतिष्ठितः॥२५॥
छायायामप्सु वायौ च सुखमुष्णेऽधिगच्छति।
अग्नौ वाससि सूर्ये215 च सुखं शीतेऽधिगच्छति॥२६॥
शब्दे स्पर्शे तथा रूपे गन्धे च रमते मनः।
तेषु सर्वेषु भोगेषु भीतो न लभते सुखम्॥२७॥
अभयस्यैव यो दाता तस्यैव सुमहत् फलम्।
न हि प्राणसमं दानं त्रिषु लोकेषु विद्यते॥२८॥
इन्द्रो राजा यमो राजा धर्मो राजा तथैव च।
राजा बिभर्ति भूतानि216 राज्ञा सर्वमिदं धृतम्॥२९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि षट्षष्टितमोऽध्यायः॥६६॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥
[ अस्मिन्नध्याये २९॥श्लोकाः ] वादश्च
______
॥ सप्तषष्टितमोऽध्यायः ॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति पुरोहितलक्षणादिवर्णनम्। ऐलकाश्यपसंवादानुवादश्च
______
युधिष्टिरः—
राज्ञा पुरोहितः कार्यः कीदृशो वर्णतो भवेत्।
पुरोधा यादृशः कार्यः कथयस्व पितामह॥१॥
भीष्मः—
गौरो वा लोहितो वाऽपि श्यामो वा नीरुजस्सुखी।
अक्रोधनो ह्यचपलस् सर्वतश्च जितेन्द्रियः॥२॥
राज्ञा पुरोहितः कार्यो भवेद्विद्वान् बहुश्रुतः।
उभौ समीक्ष्य धर्मार्थावप्रमेयावनन्तरम्॥३॥
धर्मात्मा धर्मविद्येषां राज्ञां राजन पुरोहितः।
तेषामर्थश्च कामश्च धर्मश्चेति विनिश्चयः॥४॥
श्लोकांश्चोशनसागीतांस्तान् निबोध युधिष्ठिर।
उच्छिष्टस्स भवेद्राजा यस्य नास्ति पुरोहितः॥५॥
रक्षसामसुराणां च पिशाचोरगपक्षिणाम्।
शत्रूणां च भवेद्वध्यो यस्य नास्ति पुरोहितः॥६॥
ब्रह्मत्वं सर्वयज्ञेषु कुर्वीताथर्वणो द्विजः।
राज्ञश्चाथर्ववेदेन सर्वकर्माणि कारयेत्॥७॥
ब्रूयात्कार्याणि217 सततं महोत्पाता नि यानि च218।
इष्टमङ्गलयुक्तानि तथाऽऽन्तःपुरिकाणि च॥८॥
गीतवृत्ताधिकारेषु सम्मतेषु महीपतेः।
कर्तव्यं करणीयं वै वैश्वदेवबलिस्तथा॥९॥
पक्षसन्धिषु कुर्वीत महाशान्तिं पुरोहितः ।
रौद्रहोमसहस्रं च स्वस्य राज्ञः प्रियं हितम्॥१०॥
राज्ञः पापमलास्सप्त यानृच्छति पुरोहितः।
अमात्याश्च कुकर्माणो मन्त्रिणश्चाप्युपेक्षकाः॥११॥
चौर्यमव्यवहारश्च व्यवहारोपसेविनाम्।
अदण्ड्यदण्डनं चैव दण्ड्यानां चाप्यदण्डनम्॥१२॥
हिंसा चान्यत्र सङ्ग्रामाद् यज्ञाच्च मल उच्यते।
कुभृत्यैस्तु प्रजानाशस् सप्तमस्तु महामलः॥१३॥
रौद्रैहोमैर्महाशान्त्या घृतकम्बलकर्मणा।
भृग्वाङ्गिरोविधिज्ञो वै पुरोधा निर्णुदेन्मलान्॥१४॥
एतान् हित्वा दिवं याति राजा सप्त महामलान्।
सामात्यस्सपुरोधाश्च प्रजानां पालने रतः॥१५॥
एतस्मिन्नेव कौरव्य पौरोहित्ये महामते।
श्लोकानाहमहेन्द्रस्य गुरुदेवो बृहस्पतिः॥१६॥
तान् निबोध महाभाग महीपालहिताञ् शुभान्।
ऋग्वेदे सामवेदे च यजुर्वेदे च वाजिनाम्॥१७॥
न निर्दिष्टानि कर्माणि त्रिषुस्थानेषु भूभृताम्।
शान्तिकं पौष्टिकं चैव अनिष्टानां च शातनम्॥१८॥
शतास्ते याज्ञवल्क्येन यज्ञानां हितमीहता।
ब्रह्मिष्ठानां वरिष्ठेन ब्रह्मणसम्मते विभोः॥१९॥
बह्वृचोसामगं चैव वाजिनं च विवर्जयेत्॥१९॥
बह्वृचो राष्ट्रनाशाय राजनाशाय सामगः।
अध्वर्युर्बलनाशाय प्रोक्तो वाजसनेयकः॥२०॥
अब्राह्मणेषु वर्णेषु मन्त्रान् वाजसनेयकान्।
शान्तिके पौष्टिके चैव नित्यं कर्मणि वर्जयेत्॥२१॥
ब्राह्मणस्य महीपस्य सर्वथा न विरोधिनः।
वेदाश्चत्वार इत्येते ब्राह्मणा ये च तद्विदुः॥२२॥
पौरोहित्ये प्रमाणं तु ब्राह्मणश्च महीपतेः।
जात्या न क्षत्रियः प्रोक्तः क्षतत्राणं करोति यः॥२३॥
चातुर्वर्ण्यबहिष्ठोऽपि स एव क्षत्रियस्स्मृतः।
भार्गवाङ्गिरसैर्मन्त्रैस् तेषां कर्म विधीयते॥२४॥
वैतानं कर्म यच्चैवगृह्यकर्म च यत् स्मृतम्।
द्विजातीनां त्रयाणां तु सर्वकर्म विधीयते॥२५॥
राजधर्मप्रवृत्तानां हितार्थं त्रीणि कारयेत्।
शान्तिकं पौष्टिकं चैव तथाऽभिचरणं च यत्॥२६॥
अग्निष्टोममुखैर्यज्ञैर् दूषिता भूपकर्मभिः।
न सम्यक् फलमृच्छन्ति ये यजन्ति द्विजातयः॥२७॥
पौरोहित्यं तु कुर्वाणा नाशं यास्यन्ति भूभृताम्।
यज्ञकर्माणि कुर्वाणा ऋत्विजस्तु विरोधिनः॥२८॥
ब्रह्मक्षत्रविशस्सर्वे पौरोहित्ये विवर्जिताः।
तदभावे च पारक्यं निर्दिष्टं राजकर्मसु ॥२९॥
ऋषिणा याज्ञवल्क्येन तत् तथा न तद्न्यथा ॥३०॥
भार्गवाङ्गिरसां वेदे कृतविद्यष्षडङ्गवित्।
यज्ञकर्मविधिज्ञश्च विधिज्ञः पौष्टिकेषु च॥३१॥
अष्टादशविकल्पानां विधिज्ञश्शान्तिकर्मणाम्।
सर्वरोगविहीनश्च संयतस्संयतेन्द्रियः॥३२॥
श्वित्रकुष्टक्षयक्षीणैर् ग्रहापस्मारदूषितैः।
अशस्तैर्वातदुष्टैश्च दूरस्थैस्संवदेन्नृपः॥३३॥
रोगिणं ऋत्विजं चैव वर्जयेच्च पुरोहितम्॥३३॥
न चान्यस्य कृतं येन पौरोहित्यं कदाचन।
यस्य याज्यो मृतश्चैव भ्रष्टः प्रव्रजितोऽथवा॥३४॥
युद्धे पराजितश्चैव सर्वांस्तान्वर्जयेन्नृपः॥३५॥
नक्षत्रस्यानुकूल्येन यस्सञ्जातो नरेश्वरः।
राजशास्त्रविनीतश्च श्रेयान्राज्ञःपुरोहितः॥३६॥
अथान्यानां219 निमित्तानाम् उत्पातानामथार्थवित्।
शत्रुपक्षक्षयज्ञश्च श्रेयान् राज्ञः पुरोहितः॥३७॥
वाजिनं तद्भावे च चरकाध्वर्यवानथ।
बह्वृंचसामगं चैव नीतिशास्त्रकृतश्रमान्॥३८॥
कृतिनोऽथर्वणो वेदे स्थापयेत्तु पुरोहितान्॥३८॥
हिंसालिङ्गा हि निर्दिष्टा मन्त्रा वैतानिकैर्द्विजैः।
न तानुच्चारयेत् प्राज्ञः क्षात्रधर्मविरोधिनः॥३९॥
प्रजागुणाः पुरोधाश्च पुरोहितगुणाः प्रजाः।
राजा वै सगुणो येषां कुशलं तेषु सर्वतः॥४०॥
उभौ प्रजा वर्धयेते देवान् पूर्वापरान् पितॄन्।
यौ भवेतां स्थितौधर्मे श्रद्धेयौ सुतपस्विनौ॥४१॥
परस्परस्य सुहृदौ सम्मतौसमचेतसौ।
ब्रह्मक्षत्रियसम्मानात् प्रजास्सुखमवाप्नुयुः॥४२॥
विमाननात्तयोरेव प्रजा नश्येयुरेव हि।
ब्रह्म क्षत्रं हि सर्वासां प्रजानां मूलमुच्यते॥४३॥
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
ऐलकाश्यपसंवादं तं निबोध युधिष्ठिर॥४४॥
ऐलः—
यदा हि ब्रह्म प्रजहाति क्षत्रं
क्षत्रं यदा वा प्रजहाति ब्रह्म।
अन्वग्बलं कतमेऽस्मिन्भजन्ते
तथा बलंकतमेऽस्मिन्ह्रियन्ते220॥४५॥
काश्यपः—
द्विधा हि राष्ट्रं भवति क्षत्रियस्य
ब्रह्म क्षत्रं यत्र विरुध्यतीह।
अन्वग्बलं दस्यवस्तद्भजन्ते
तथा बलं तद् ध्रियन्ते च सन्तः॥४६॥
नैषा मुक्षा221 वर्धते जातु गेहे
नाधीयते तत् प्रजा नो यजन्ते।
अपध्वस्ता दस्युभूताश्चरन्ति
ये ब्राह्मणान् क्षत्रियास्सन्त्यजन्ति॥४७॥
एतौ नित्यं सुसंयत्तावितरेतरधारिणौ।
क्षत्रं वै ब्रह्मणो योनिर् योनिः क्षत्रस्य वै द्विजः॥४८॥
उभौ च तौनित्यमभिप्रपन्नौ
सम्प्रापतुर्महतींश्रीप्रतिष्ठाम् ।
तयोस्सन्धिर्भिद्यते चेत् परेण
ततस्सर्वं भवति हि सम्प्रमूढम्॥४९॥
नात्र प्लवं222लभते पारगामी
महोदधौ नौरिव सम्प्रभिन्ना।
चातुर्वर्ण्यभवति हि सम्प्रमूढं
ततः प्रजाः क्षयसंस्था भवन्ति॥५०॥
ब्रह्मवृक्षो रक्ष्यमाणो मधु हेम च वर्षति।
अरक्ष्यमाणस्सततं मांसं चापं च वर्षति॥५१॥
अब्रह्मचारी चरणादपेतो
यदा ब्रह्माब्रह्मणस्त्राणमिच्छेत्।
आश्चर्यतो223 वर्षति तत्र देवस्
तत्राभीक्ष्णं दुष्प्रभाश्चाविशन्ति॥५२॥
स्त्रियं हत्वा ब्राह्मणं वाऽपि पापस्
सभायां यो लभते साधुवादम्।
राज्ञस्सकाशे न बिभेति चापि
ततो भयंज्ञायते224 क्षत्रियस्य॥५३॥
पापैः पापे क्रियमाणेऽतिवेलं
ततो रुद्रो जायते देव एषः।
पापैः पापान्सञ्जनयन्ति रुद्रस्
ततस्सर्वान् साध्वसाधून्हिनस्ति॥५४॥
ऐलः—
कुतो रुद्रः कीदृशश्चापि रुद्रस्
सत्त्वैस्सत्वं दृश्यते वध्यमानम्।
एतद्विद्वन् काश्यप मे प्रचक्ष्व
यतो रुद्रो जायते रुद्र एषः॥५५॥
काश्यपः—
आत्मा रुद्रो हृदये मानवानां
स्वकं देहं परदेहं च हन्ति।
वातोत्पातैस्सदृशं रुद्रमाहुर्
देवं जीमूतैस्सदृशं रूपमस्य॥५६॥
ऐलः—
न वै वातं प्रवृणोतीह कश्चि–
न्न जीमूतो वर्षति तत्र देवः।
नैवं युक्तो दृश्यते मानवेषु
कामद्वेषान्मुच्यते वध्यते वा॥५७॥
काश्यपः—
यथैकगेहाज्जातवेदाः प्रदीप्तः
कृत्स्नं गेहंदहते स त्वरावान्।
विमोहनं कुरुते देव एष
ततस्सर्वं स्पृश्यते पुण्यपापैः॥५८॥
ऐलः—
यदि दण्डस्स्पृशते पुण्यपापैः
पुण्ये पापे क्रियमाणेऽविशेषात्।
कस्य हेतोस्सुकृतं नाम225 कुर्याद्
दुष्कृतं वा कस्य हेतोर्न कुर्यात्॥५९॥
काश्यपः—
असन्त्यागात् पापकृतामपापस्226
तुल्यो दण्डस्स्पृशते मिश्र227भावात्।
शुष्केणार्द्रंदह्यते सम्प्रयोगा–
न्न मैत्री स्यात् पापकृद्भिः कदापि॥६०॥
ऐलः—
साध्वसाधून्धारयतीह भूमिस्
साध्वसाधूंस्तापयतीह सूर्यः।
साध्वसाधूंश्चालयतीह वायुर्
आपस्तथा साध्वसाधून्वहन्ति॥६१॥
काश्यपः—
एवमस्मिन्वर्तते तात लोके
नामुत्रैवं वर्तते राजपुत्र।
प्रेत्यैतयोरन्तरावान् विशेषो
यो वै पुण्यं चरते यश्च पापम्॥६२॥
पुण्यस्य लोको मधुमान् घृतार्चिर्
हिरण्यज्योतिरमृतस्य नाभिः।
तत्र प्रेत्य मोदते धर्मचारी
न तत्र मृत्युर्न जरा न दुःखम्॥६३॥
पापस्य लोको निरयोऽप्रकाशो
नित्यं दुःखं शोकभूयिष्ठ एव।
तत्रात्मानं शोचति पापकर्मा
बह्वीस्समाः प्रतपन्नप्रतिष्ठः॥६४॥
मिथो भेदाद्ब्राह्मणक्षत्रियाणां
प्रजा दुःखं दुस्सहं चाविशन्ति।
एवं ज्ञात्वा कार्य एवेह विद्वान्
पुरोहितो नैकविद्यो नृपेण॥६५॥
तं चैव लब्ध्वाऽभिषिञ्चेत् तथा धर्मो विधीयते।
अग्रं228 हिब्राह्मणाः प्रोक्तास् सर्वस्यैवेह धर्मतः॥६६॥
पूर्वं हि ब्राह्मणस्सृष्ट इति ब्रह्म229विदो विदुः।
ज्येष्ठेनाभिजनेनास्य प्राप्तं सर्वं यदुत्तमम्॥६७॥
तस्मान्मान्यश्च पूज्यश्च ब्राह्मणः प्रसृताग्रभुक्।
सर्वं श्रेष्ठं विशिष्टं च निवेद्यं तस्य धीमतः॥६८॥
अवश्यमेतत् कर्तव्यं राज्ञा बलवताऽपि च।
ब्रह्म वर्धयति क्षत्रं क्षत्रतो ब्रह्म वर्धते॥६९॥
राज्ञस्सर्वस्य चान्यस्य स्वामी राज्ञः पुरोहितः॥७०॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि सप्तषष्टितमोऽध्यायः॥६७॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि अष्टाविंशोऽध्यायः॥२८॥
[ अस्मिन्नध्याये ७० श्लोकाः ]
______
॥ अष्टषष्टितमोऽध्यायः॥
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** भीष्मेण युधिष्टिरं प्रति मुचुकुन्दचरितदृष्टान्तीकरणेन क्षत्रस्य ब्रह्माधीनत्वसमर्थनम्॥**
______
युधिष्ठिरः—
ब्रह्मक्षत्रस्य सामर्थ्यं कथितं ते पितामह।
पुरोहितप्रभावश्च लक्षणं च पुरोधसः॥१॥
इदानीं श्रोतुमिच्छामि ब्रह्मक्षत्रविनिर्णयम्।
ब्रह्म क्षत्रं हि सर्वस्य कारणं जगतः परम्॥२॥
योगक्षेमो हि राष्ट्रस्य ताभ्यामायत्त एव हि।
योगक्षेमो हि राष्ट्रस्य राजन्यायत्त उच्यते॥३॥
भीष्मः—
योगक्षेमो हि राज्ञश्च230 समायत्तः पुरोहिते॥३॥
यत्रादृष्टं भयं ब्रह्म प्रजानां शमयत्युत।
दृष्टं च राजा वाहुभ्यां तद्राष्ट्रं सुखमेधते॥४॥
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
मुचुकुन्दस्य संवादं राज्ञो वैश्रवणस्य च॥५॥
मुचुकुन्दो विजित्यैतां पृथिवीं पृथिवीपतिः।
जिज्ञासमानस्स बलम् अभ्ययादलकाधिपम्॥६॥
ततो वैश्रवणो राजा रक्षांस्यवसृजत् तदा।
ते बलान्यथ मृद्नन्तः प्रचरन्त्यथ नैर्ऋताः॥७॥
स हन्यमाने सैन्ये स्वे मुचुकुन्दो नराधिपः।
गर्हयामास विद्वांसं पुरोहितमरिन्दम्॥८॥
तत उग्रं तपस्तप्त्वा वसिष्ठो धर्मवित्तमः।
रक्षांस्युवधीत् तत्र पन्थानं चाप्यविन्दत॥९॥
ततो वैश्रवणो राजा मुचुकुन्दमगर्हयत्।
वध्यमानेषु सैन्येषु वचनं चेदमब्रवीत्॥१०॥
कुबेरः—
बलवन्तस्त्वया पूर्वे राजानस्सपुरोहिताः।
न चैनं समवर्तन्त यथा त्वमिह वर्तसे॥११॥
ते खल्वपि कृतास्त्राश्च बलवन्तश्च भूमिपाः।
आगम्य पर्युपासन्ते मामीशं सुखदुःखयोः॥१२॥
यद्यस्ति बाहुवीर्यं ते तद्दर्शयितुमर्हसि।
किं ब्राह्मणबलेन त्वम् अतिमात्रेण वर्तसे॥१३॥
भीष्मः—
मुचुकुन्दस्ततः क्रुद्धः प्रत्युवाच धनेश्वरम्।
न्यायपूर्वमसंरब्धम् असम्भ्रान्तमिदं वचः॥१४॥
मुचुकुन्दः—
ब्रह्मक्षत्रमिदं सृष्टम् एकयोनि स्वयम्भुवा।
पृथग्बलविधानं च तल्लोकं परिरक्षति॥१५॥
तपोमन्त्रबलं नित्यं ब्राह्मणेषु प्रतिष्ठितम्।
अस्त्रबाहुबलंनित्यं क्षत्रियेषु प्रतिष्ठितम्॥१६॥
ताभ्यां सम्भूय कर्तव्यं प्रजानां परिपालनम्।
तथाऽपि मां प्रवर्तन्तं किं गर्हस्यलकाधिप॥१७॥
भीष्मः—
ततोऽब्रवीद्वैश्रवणो राजानं सपुरोहितम्॥१८॥
कुबेरः—
नाहं राज्यमनिर्दिष्टं कस्मैचिद्विदधाम्युत।
नाच्छिन्दे वाऽप्यनिर्दिष्टम् इति जानीहि पार्थिव॥१९॥
प्रशाधिपृथिवीं वीर मद्दत्तामखिलामिमाम्॥१९॥
मुचुकुन्दः—
नाहं राज्यं भवद्दत्तं भोक्तुमिच्छामि पार्थिव।
बाहुवीर्यार्जितं राज्यम् अश्नीयामिति कामये॥२०॥
भीष्मः—
ततो वैश्रवणो राजा विस्मयं परमं ययौ।
एवं यो ब्रह्मविद्राजा ब्रह्मपूर्वं प्रवर्तते॥२१॥
स भुङ्क्ते विजितामूर्वींयशश्च महदश्नुते॥२२॥
नित्योदको ब्राह्मणस्स्यान्नित्यशस्त्रश्च क्षत्रियः।
तयोर्हिसर्वमायत्तं यत् किञ्चिज्जगतीगतम्॥२३॥
यशश्च तेजश्च महीं च कृत्स्नां
प्राप्नोषि231 राजन्विपुलां च कीर्तिम्।
प्रधानधर्मं नृपते नियच्छ
तथा च धर्मस्य चतुर्थमंशम्॥२४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि अष्टषष्टितमोऽध्यायः॥६८॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि एकोनत्रिंशोऽध्यायः॥२॥
[अस्मिन्नध्याये २४ श्लोकाः]
॥ एकोनसप्ततितमोऽध्यायः॥
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राज्यस्वीकारे अधर्माशङ्किनं युधिष्टिरं प्रति भीष्मेण तस्य धार्मिकत्वसमर्थनेन तद्विधानम् ॥
______
युधिष्टिरः—
यया वृत्या महीपालो विवर्धयति मानवान्।
पुण्याल्ँलोकाञ्जयति च तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
भीष्मः—
दानशीलो भवेद्राजा यज्ञशीलश्च भारत।
उपवासतपश्शीलः प्रजानां पालने रतः॥२॥
सर्वाश्चैव प्रजा नित्यं राजा धर्मेण पालयेत्।
उत्थानेन प्रदानेन पूजयेच्चापि धार्मिकान्॥३॥
राज्ञाहि पूजितोधर्मस् ततस्सर्वत्र पूज्यते।
यद्यदाचरते राजा तत् प्रजानां स्म रोचते॥४॥
नित्यमुद्यतदण्डश्च भवेन्मृत्युरिवारिषु।
निहन्यात् सर्वतो दस्यून् न राज्ञो दस्युषु क्षमा॥५॥
यं हि धर्मं चरन्तीह प्रजा राजसुरक्षिताः।
चतुर्थं तस्य धर्मस्य राजा भागं च विन्दति॥६॥
यदधीते यद्यजते यद्ददाति यदर्चति।
राजा चतुर्थभाक् तस्य प्रजा धर्मेण पालयेत्॥७॥
यद्राष्ट्रेऽकुशलं किञ्चिद् राज्ञोऽरक्षयतः प्रजाः।
चतुर्थं तस्य पापस्य राजा भारत विन्दति॥८॥
अप्याहुस्सर्वमेवेति भूयोऽर्धमिति निश्चयः।
कर्मणा पृथिवीपाल नृशंसोऽनृतवागपि॥९॥
तादृशात् किल्बिषाद्राजा शृणु येन प्रमुच्यते॥९॥
प्रत्यार्तुमशक्तस्याद् वनं चोरैर्हृतं यदि।
स्वात् कोशात्तत्प्रदेयं स्याद् अशक्तेनोपजीवता॥१०॥
सर्ववर्णैस्सदा रक्ष्यं ब्रह्मस्वं ब्राह्मणैस्तथा।
न स्थेयं विषये तेन योऽपकुर्याद्द्विजातिषु॥११॥
ब्रह्मस्वे रक्ष्यमाणे हि सर्वं भवति रक्षितम्।
तेषां प्रसादे निर्वृत्ते कृतकृत्यो भवेन्नृपः॥१२॥
पर्जन्यमिव भूतानि महाद्रुममिव द्विजाः।
नरास्तमुपजीवन्ति नृपं सर्वार्थसाधकम्॥१३॥
न हि कामात्मना राज्ञा सततं शठबुद्धिना।
नृशंसेनातिलुब्धेन शक्याः पालयितुं प्रजाः॥१४॥
युधिष्टिरः—
नाहं राज्यसुखान्वेषी राज्यमिच्छाम्यपि क्षणम्।
धर्मार्थं रोचयेद् राज्यं धर्मश्चात्र न विद्यते॥१५॥
तदलं मम राज्येन यत्र धर्मो न विद्यते।
वनमेव गमिष्यामि तस्माद्धर्मचिकीर्षया॥१६॥
तत्र मेध्येष्वरण्येषु न्यस्तदण्डो जितेन्द्रियः।
धर्ममाराधयिष्यामि मुनिर्मूलफलाशनः॥१७॥
भीष्मः—
वेदाहं तव या बुद्धिर् आनृशंस्यगुणैव सा।
न च नित्यं नृशंसेन शक्यं धर्ममुपासितुम्॥१८॥
सर्वदा त्वां मृदुं प्राज्ञम् अत्यार्यमतिधार्मिकम्।
क्लीबंधर्मघृणायुक्तं न लोको बहुमन्यते॥१९॥
राजधर्ममवेक्षस्व पितृपैतामहोचितम्।
नैतद्राज्ञामथो वृत्तं यथा त्वं स्थातुमिच्छसि॥२०॥
न हि वैक्लब्यसंसृष्टम् आनृशंस्यमिहास्थितः।
प्रजापालनसम्भूतं प्राप्तो धर्मफलं ह्यसि॥२१॥
न ह्येतामाशिषंपाण्डुर् न च कुन्त्यभ्यभाषत।
विचित्रवीर्योधर्मात्मा चित्रवीर्यो नराधिपः॥२२॥
शन्तनुश्च महीपालस् सर्वक्षत्रस्य पूजितः।
तवैतां प्राज्ञतां तात यया चरसि मेधया॥२३॥
शौर्यं बलं च सत्त्वं च पिता तव सदाऽब्रवीत्।
महत्त्वं बलमौदार्यं भवतः कुन्त्यभ्यभाषत॥२४॥
नित्यं स्वाहा स्वधा नित्यम् उभे मानुषदैवते।
पुत्रेष्वाशासते नित्यं पितरो दैवतानि च॥२५॥
दानमध्ययनं यज्ञं प्रजानां परिपालनम्।
धर्म्यमेवमधर्म्यं वा जन्मनैवाभ्यजायथाः॥२६॥
कुले धुरि च युक्तानां वहतांभारमीदृशम्।
सीदतामपि कौन्तेय कीर्तिर्न परिहीयते॥२७॥
समन्ततो विनीतो यो वहत्यस्खलितो हि सः।
निर्दोषकर्मवचनात् सिद्धिः कर्मण एव वा॥२८॥
नैकान्ते विनिपातेऽपि विहरेदिह कश्चन।
धर्मी गृही च राजा वा ब्रह्मचार्यथवा द्विजः॥२९॥
अल्पं तु सारभूयिष्ठं यत् कर्मो232दारमेव तत्।
कृतमेवाकृताच्छ्रेयोन पापीयो ह्यकर्मणः॥३०॥
यदा कुलीनो धर्मज्ञः प्राप्नोत्यैश्वर्यमुत्तमम्।
योगक्षेमस्तथा राज्ञः कुशलायैव कल्पते॥३१॥
दानेनान्यद् बलेनान्यद् अन्यत् सूनृतया गिरा।
सर्वतः परिगृह्णीयाद् राज्यं प्राप्येह धार्मिकः॥३२॥
यं हि वैद्यकुले जाता अवृत्तिभयपीडिताः।
प्राप्य तृप्ताः प्रतिष्ठन्ति धर्मे कोऽभ्यधिकस्ततः॥३३॥
युधिष्टिरः—
किं न्वतः परमं स्वर्गं का न्वतः प्रीतिरुत्तमा।
किं न्वतः परमैश्वर्यं ब्रूहि मे यदि पश्यसि॥३४॥
भीष्मः—
यस्मिन् भयार्दितास्सन्तः क्षेमं विन्दन्त्यपि क्षणम्।
स स्वर्गजित्तमोऽस्माकं सत्यमेतद्ब्रवीमि ते॥३५॥
त्वमेव प्रीतिमांस्तस्मात् कुरूणां कुरुसत्तम्।
भव राजा जय स्वर्गं सतो रक्षासतो जहि॥३६॥
अनु त्वां तात जीवन्तु सुहृदस्साधुभिस्सह।
पर्जन्यमिव भूतानि स्वादुद्रुममिवाण्डजाः॥३७॥
धृष्टं शूरं प्रहर्तारम् अनृशंसं जितेन्द्रियम्।
वत्सलं संविभक्तारम् उपजीवन्तु बान्धवाः॥३८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकोनसप्ततितमोऽध्यायः॥६९॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि त्रिंशोऽध्यायः॥३०॥
[ अस्मिन्नध्याये ३८॥श्लोकाः ]
॥ सप्ततितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्टिरं प्रति ब्राह्मणानां निषिद्धकर्मकथनम् राजधर्मकथनं च॥
______
युधिष्टिरः—
व्याख्याता क्षत्रधर्मेण वृत्तिरापत्सु भारत।
कार्पण्याद्वैश्यवृत्त्या तु जीवतु ब्राह्मणो न वा॥१॥
स्वकर्मण्यपरे युक्तास् तथैवान्ये विकर्मणि।
तेषां विशेषमाचक्ष्व ब्राह्मणानां पितामह॥२॥
भीष्मः—
अभावे क्षत्रधर्माणां वैश्यधर्मेण वर्तयेत्।
कृषिगोरक्ष्यमास्थाय व्यसने वृत्तिसङ्क्षये॥३॥
विद्यालक्षणसम्पन्नास् सर्वत्राम्नायदर्शिनः।
एते ब्रह्मसमा राजन्ब्राह्मणाः परिकीर्तिताः॥४॥
ऋत्विगाचार्यसम्पन्नास् स्वेषु कर्मस्ववस्थिताः।
एते देवसमा राजन्ब्राह्मणानां भवन्त्युत॥५॥
ऋत्विक् पुरोहितो दूतो मन्त्री चार्थानुशासकः।
एते क्षेत्रसमा राजन्ब्राह्मणानां भवन्त्युत॥६॥
गोऽजाविमहिषाणां च वडवानां च पोषकाः।
वृत्यर्थमभिपद्यन्ति तान्वैश्यान् सम्प्रचक्षते॥७॥
ऐश्वर्यकामा ये चापि सामिषार्थाश्च भारत।
निग्रहानुग्रहरतास्तान द्विजान्क्षत्रियान्विदुः॥८॥
अश्वारोहा गजारोहा रथिनोऽथ पदातयः।
एते वैश्यसमा राजन् ब्राह्मणानां भवन्त्युत॥९॥
जन्मकर्मविहीना233 ये कदर्या ब्रह्मबन्धवः।
एते शुद्रसमा राजन्ब्राह्मणानां भवन्त्युत॥१०॥
अश्रोत्रियास्सर्व एते सर्वे चानाहिताग्नयः।
तान् सर्वान् धार्मिको राजा बलिं विष्टिं च234 कारयेत्॥११॥
आह्वायका देवलका नक्षत्रग्रामयाजकाः।
एते ब्राह्मणचाण्डाला महापथिकपञ्चमाः॥१२॥
म्लेच्छदेशास्तु ये केचित् पापैरध्युषिता नरैः।
गत्वा तु ब्राह्मणस्तांश्च चण्डालःप्रेत्य चेह च॥१३॥
व्रात्यान्म्लेच्छांश्च शूद्रांश्च याजयित्वा द्विजाधमः।
अकीर्तिमिह सम्प्राप्य नरकं प्रतिपद्यते॥१४॥
महाबृन्दसमुद्राभ्यां पर्यायेणैकविंशतिम्।
ब्राह्मणो ऋग्यजुस्साम्नां मूढः कृत्वा तु विप्लवम्॥१५॥
कल्पमेकं कृमिस्सोऽथ नानाविष्ठासु जायते॥१५॥
व्रात्येम्लेच्छे तथा शूद्रे तस्करे पतितेऽशुचौ।
कुदेशे च सुरापे च ब्रह्मघ्ने वृषलीपतौ॥१६॥
अनधीतिषु सर्वत्र भुञ्जाने यत्र तत्र वा।
बालस्त्रीवृद्धहन्तुश्च मातापित्रोर्गुरोस्तथा॥१७॥
मित्रद्रुहि कृतघ्ने च गोघ्नेचैव कथञ्चन।
पुत्रघातिनि शत्रौ च न मन्त्रान् योजयेद्द्विजः॥१८॥
स तेषां विप्लवः प्रोक्तो मन्त्रविद्भिस्सनातनैः॥१९॥
यदि विप्रो विदेशस्थस् तीर्थयात्रां गतोऽथ वा।
यदि भीतः प्रपन्नो वा कुदेशं शौचवर्जितम्॥२०॥
सुसंयतश्शुचिर्भूत्वा मन्त्रानुच्चारयेद्द्विजः।
आर्तश्चोच्चारयेन्मन्त्रम् आर्तत्राणपरोऽथवा॥२१॥
तत्त्ववित्तरते235 पापं शीलवान् संयतेन्द्रियः।
हीनेष्वपि प्रयुञ्जानो नासौ विप्लावकस्मृतः॥२२॥
क्रूरकर्मा विकर्मा वा कर्मभिर्वञ्चितोऽथ वा।
तत्त्ववित्तरते पापं शीलवान्संयतेन्द्रियः२३॥
एतेभ्यो बलिमादद्याद्वीतकोशो महीपतिः।
ऋते ब्रह्मसमेभ्यश्च236 देवकल्पेभ्य एव च२४॥
अब्राह्मणानां वित्तस्य स्वामी राजेति नश्श्रुतिः।
ब्राह्मणानां च ये केचिद् विकर्मस्था इति श्रुतिः॥२५॥
प्रागुक्तांश्चाप्यनुक्तांश्च सर्वांस्तान्दापयेत् करान्॥२५॥
विकर्मस्थास्तु नोपेक्ष्या विप्रा राज्ञा कथञ्चन्।
नियम्यास्संविभज्याश्च धर्मानुग्रहकाम्यया॥२६॥
यस्य स्म विषयेराज्ञस् स्तेनो भवति वै द्विजः।
राज्ञ एवापराधं तं मन्यन्ते तद्विदो जनाः॥२७॥
अवृत्या यो भवेत् स्तेनो वेदवित् स्नातकस्तथा।
राज्ञा राजन्स भर्तव्य इति धर्मविदो विदुः॥२८॥
स चेन्नापि निवर्तेत कृतवृत्तिः परन्तप।
स निर्वासयितव्यस्स्यात् तस्माद्देशात् सबान्धवः॥२९॥
यज्ञश्श्रुतमपैशुन्यम् अहिंसाऽतिथिपूजनम्।
दमस्सत्यं तपो दानम् एतद्ब्राह्मणलक्षणम्॥३०॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि सप्ततितमोऽध्यायः॥७०॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि एकत्रिंशोऽध्यायः॥३१॥
[ अस्मिन्नध्याये ३०श्लोकाः ]
॥ एकसप्ततितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्टिरं प्रति केकयराजोपाख्यानकथनम्॥
युधिष्टिरः—
केषां प्रभवते राजा वित्तस्य भरतर्षभ।
कया च वृत्त्या वर्तेत तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
भीष्मः—
अब्राह्मणानां वित्तस्य स्वामी राजेति वैदिकम्।
ब्राह्मणानां च ये केचिद् विकर्मस्था भवन्त्युत॥२॥
विकर्मस्थो हि नोपेक्ष्यो भवेद् राज्ञा कथञ्चन।
इति राज्ञः पुरावृत्तम् अभिजल्पन्ति साधवः॥३॥
यस्य स्म विषये राज्ञस् स्तेनो भवति वै द्विजः।
राज्ञ एवापराधं तं मन्यन्ते किल्बिषं नृप॥४॥
अभिशस्तमिवात्मानं मन्यन्ते तेन कर्मणा।
तस्माद्राजर्षयस्सर्वे ब्राह्मणानन्वपालयन्॥५॥
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
गीतं केकयराजेन ह्रियमाणेन रक्षसा॥६॥
केकयानामधिपतिं रक्षो जग्राह दारुणम्।
स्वाध्यायेनान्वितं राजन्नरण्ये संशितव्रतम्॥७॥
राजा—
नास्ति स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः।
नानाहिताग्निर्नायज्वा मामकान्तरमाविभः॥८॥
न च मे ब्राह्मणोऽविद्वान् नाव्रती नाप्यसोमपः।
द्विजातिर्विषये मह्यं मामकान्तरमाबिभः॥९॥
नानाप्तदक्षिणैर् यजन्ते विषये मम।
नाधीते चाव्रतीकश्चिन्मामकान्तारमाबिभः॥१०॥
अध्यापयन्त्यधीयन्ते यजन्ते याजयन्त्यपि।
ददति प्रतिगृह्णन्ति षट्सुकर्मस्ववस्थिताः॥११॥
पूजितास्संविभक्ताश्च ऋषयस्सत्यवादिनः।
ब्राह्मणा मे स्वकर्मस्था मामकान्तरमाबिभः॥१२॥
न याचन्ते प्रयच्छन्ति सत्यधर्मपरायणाः।
नाध्यापयन्त्यधीयन्ते यजन्ते याजयन्ति न॥१३॥
ब्राह्मणान्परिरक्षन्ति सङ्गामेष्वपलायिनः।
क्षत्रिया मे स्वकर्मस्था मामकान्तरमाबिभः॥१४॥
कृषिगोरक्षवाणिज्यम् उपजीवन्त्यमायया।
अप्रमत्ताः क्रियावन्तस् सुवृत्तास्सत्यवादिनः॥१५॥
संविभागं दमं शौचं सौहृदं च व्यपाश्रिताः।
तथा वैश्यास्स्वकर्मस्था मामकान्तरमाबिभः॥१६॥
त्रीन् वर्णानुपतिष्ठन्ते यथावदनसूयकाः।
मम शूद्रास्स्वकर्मस्था मामकान्तरमाविभः॥१७॥
कृपणानाथबृद्धाना दुर्बलातुरयोषिताम्।
संविभक्ताऽस्मि सर्वेषां मामकान्तरमाविभः॥१८॥
कुलानुरूपधर्माणां प्रस्थितानां यथाविधि।
अव्युच्छेत्ताऽस्मि सर्वेषां मामकान्तरमाविभः॥१९॥
तपस्विनो मे विषयेपूजिताः परिपालिताः।
संविभक्ताश्च सत्कृत्य मामकान्तरमाविभः॥२०॥
नासंविभज्य भोक्ताऽस्मि न विशामि परस्त्रियम्।
स्वतन्त्रो जातु न क्रीडे मामकान्तरमाविभः॥२१॥
नाब्रह्मचारी भिक्षाशी भिक्षुर्वाऽब्रह्मचर्यवान्।
नानृत्विजा हुतं मेऽस्ति मामकान्तरमाबिभः॥२२॥
कृतं राज्यं मया सर्वं राज्यस्थेनापि कार्यवत्।
नाहं व्युत्क्रमितस्सत्यान्मामकान्तरमाविभः॥२३॥
नावजानाम्यहं बृद्धान् न वैद्यान्न तपस्विनः।
राष्ट्रेस्वपति जागर्मि मामकान्तरमाविभः॥२४॥
शुक्लकर्माऽस्मि सर्वत्र न दुर्गतिभयं मम।
धर्मचारी गृहस्थश्च मामकान्तरमाबिभः॥२५॥
वेदाध्ययनसम्पन्नस् तपस्वी सत्यधर्मवित्।
स्वामी सर्वस्य राज्यस्य स्वामी मम पुरोहितः॥२६॥
दानेन दिव्यानभिवाञ्छामि लोकान्
सत्येनाथ ब्राह्मणानां च गुप्ल्या।
शुश्रूषया चापि गुरुनुपैमि
न मे भयं विद्यते राक्षसेभ्यः॥२७॥
न मे राष्ट्रेविधवा ब्रह्मबन्धुर्
न ब्राह्मणः कृपणो नोत चोरः।
न पापकारी न च पापवक्ता
न मे भयं विद्यते राक्षसेभ्यः॥२८॥
न मे शस्त्रैरनिर्भिन्नम् अङ्गं द्व्यङ्गुलमन्तरम्।
धर्मार्थं युध्यमानस्य मामकान्तरमाबिभः॥२९॥
गोब्राह्मणे च राष्ट्रे च नित्यं स्वस्त्ययनं नराः।
आशंसन्ते हि राष्ट्रेमे मामकान्तरमाबिभः॥३०॥
राक्षसः नारीणां व्यभिचाराच्चअन्यायाच्च महीक्षिताम्।
विप्राणां कर्मदोषाच्च प्रजानां जायते भयम्॥३१॥
अवृष्टिर्मारकोरोगस्237 सततं क्षुद्भयानि च।
विग्रहश्चसदा तस्मिन् देशे भवति दारुणः॥३२॥
यक्षरक्षः पिशाचेभ्यो नासुरेभ्यः कथञ्चन।
भयमुत्पद्यते तत्र यत्र विप्रास्सुसंयताः॥३३॥
गन्धर्वाप्सरसस्सिद्धाः पन्नगाश्च सरीसृपाः।
मानवान् न जिघांसन्ति यत्र नार्यः पतिव्रताः॥३४॥
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या यत्र शूद्राश्चधार्मिकाः।
नानावृष्टिभयं तत्र न दुर्भिक्षं न विभ्रमः॥३५॥
धार्मिको यत्र भूपालो न तत्रास्ति पराभवः।
उत्पाता न च दृश्यन्ते न दिव्या न च मानुषाः॥३६॥
यस्मात् सर्वास्ववस्थासु धर्ममेवान्ववेक्षसे।
तस्मात् प्राप्नुहि कैकेय गृहान् स्वस्ति व्रजाम्यहम्॥३७॥
येषां गोब्राह्मणा रक्ष्याः प्रजा रक्ष्याश्च केकय।
न रक्षोभ्यो भयं तेषां कुत एव तु पातकम्॥३८॥
येषां पुरोगमा विप्रा येषां ब्रह्मबलं बलम्।
सुरक्षितास्तथा विप्रास् ते वै स्वर्गजितो नृपाः॥३९॥
भीष्मः—
तस्माद्द्विजातीन्रक्षेत ते रक्षन्तीह रक्षिताः।
आशीरेषांभवेद्राजन्राज्ञां सम्यक् प्रवर्तताम्॥४०॥
तस्माद्राज्ञा विशेषेण विकर्मस्था द्विजातयः।
नियम्यास्संविभज्याश्च प्रजानुग्रहकारणात्॥४१॥
एवं यो वर्तते राजा पौरजानपदेष्वपि।
अनुभूयेह भद्राणि प्राप्नोतीन्द्रसलोकताम्॥४२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकसप्ततितमोऽध्यायः॥७१॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः॥३२॥
[ अस्मिन्नध्याये ४२ श्लोकाः ]
______
॥ द्विसप्ततितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्टिरं प्रति ब्राह्मणादीनामापद्धर्मकथनम्॥
______
युधिष्टिरः—
व्याख्याता क्षत्रधर्मेण वृत्तिरापत्सु भारत।
कथञ्चिद्वैश्यधर्मेण जीवेद्वा ब्राह्मणो न वा॥१॥
भीष्मः—
अशक्तः क्षत्रधर्मेण वैश्यधर्मेण वर्तयेत्।
कृषिं गोरक्ष्यमास्थाय व्यसने वृत्तिसङ्क्षये॥२॥
युधिष्टिरः—
कानि पण्यानि विक्रीणन्स्वर्गलोकान्न हीयते।
ब्राह्मणो वैश्यधर्मेण वर्तयन् भरतर्षभ॥३॥
भीष्मः—
सुरा लवणमित्येतत् तिलान् केसरिणः पशून्।
वृषभान् मधुमांसं च कृतान्नं च युधिष्ठिर॥४॥
सर्वास्ववस्थास्वेतानि ब्राह्मणः परिवर्जयेत्।
एतेषां238 विक्रयात् तात ब्राह्मणो नरके पतेत्॥५॥
अजोऽग्निवरुणो मेषस् सूर्योऽश्वः पृथिवी विराट्।
धेनुर्यज्ञश्च सोमश्च न विक्रेयाः कथञ्चन॥६॥
पक्वेनामस्य निमयं न प्रशंसन्ति साधवः।
निमयेत् पक्वमामेन भोजनार्थाय भारत॥७॥
वयं सिद्धमशिष्यामो भवान्साधयतामिदम्।
एवं समीक्ष्य समयं नाधर्मोऽस्ति कथञ्चन॥८॥
अत्र ते वर्तयिष्यामि यथा धर्मस्सनातनः।
व्यवहारप्रवृत्तानां तं निबोध युधिष्ठिर॥९॥
भवतेऽहं ददानीदं भवानेतत् प्रतीच्छतु।
उचिते वर्तते धर्मो न बलात् सम्प्रवर्तते॥१०॥
इत्येवं सम्प्रवर्तन्ते व्यवहाराः पुरातनाः।
ऋषीणामितरेषां च साधु चैतदसंशयम्॥११॥
युधिष्टिरः—
अथ राजन् प्रजास्सर्वाश्शस्त्रमाददते यदा।
व्युत्क्रमन्ते च धर्मेभ्यः क्षत्रस्य क्षीयते बलम्॥१२॥
तदा त्राता हि को नु स्यात् को धर्मः किं परायणम्।
एतं मे संशयं ब्रूहि विस्तरेण पितामह॥१३॥
भीष्मः —
दानेन तपसा यज्ञैर् अद्रोहेण दमेन च।
ब्राह्मणप्रमुखा वर्णाः क्षेममिच्छेयुरात्मनः॥१४॥
तेषां ये वेदबलिनस् त उत्थाय समन्ततः।
राजो बलं वर्धयेयुर् महेन्द्रस्येव देवताः॥१५॥
राज्ञो हि क्षीयमाणस्य ब्रह्मैबाहुः परायणम्।
तस्माद्ब्रह्मबलेनैव समुत्थेयं विजानता॥१६॥
यदा तु विजयी राजा क्षेमं राष्ट्रेषु सन्दधेत्।
तदा वर्णा यथाधर्मं निविशेयुस्स्वकर्मसु॥१७॥
निर्मर्यादे प्रवृत्ते तु दस्युभिस्सङ्करे कृते।
सर्वे वर्णा न दुष्येयुश् शस्त्रवन्तो युधिष्ठिर॥१८॥
युधिष्टिरः—
अथ चेत् सर्वथा क्षत्रं ब्राह्मणान् प्रतिबाधते।
कस्तत्र ब्राह्मणांस्त्राता को धर्मः किं परायणम्॥१९॥
भीष्मः—
तपसा ब्रह्मचर्येण शस्त्रेण च बलेन च।
अमायया मायया वा नियन्तव्यं तदा भवेत्॥२०॥
क्षत्रस्यातिप्रवृत्तस्य ब्राह्मणेषु विशेषतः।
ब्रह्म वै सन्नियन्तृ स्यात् क्षत्रं हि ब्रह्मसम्भवम्॥२१॥
अद्भ्योऽग्नितर्ब्रह्मतःक्षत्रम् अश्मनो लोहमुत्थितम्।
तेषां सर्वगतं तेजस् स्वस्वयोनिषु शाम्यति॥२२॥
यदा छिनत्त्ययोऽश्मानम् अग्निश्चापोऽभिहन्ति च।
क्षत्रं च ब्राह्मणं द्वेष्टेि तदा शाम्यन्ति ते त्रयः॥२३॥
तस्माद्ब्रह्मणि शाम्यन्ति क्षत्रियाणां युधिष्ठिर।
समुदीर्णान्यजेयानि तेजांसि च बलानि च॥२४॥
युधिष्टिरः—
ब्रह्मवीर्ये मृदूभूते क्षत्रवीर्ये च दुर्बले।
दुष्टेषु सर्ववर्णेषुब्राह्मणान्प्रति भारत॥२५॥
ये तत्र युद्धं कुर्वन्ति त्यक्त्वा जीवितमात्मनः।
ब्राह्मणान् परिरक्षन्ति तेषां लोका भवन्ति के॥२६॥
भीष्मः —
ब्राह्मणान्परिरक्षन्तो धर्ममात्मानमेव च।
मनस्विनो मन्युमन्तः पुण्याल्ँलोकान् व्रजन्त्यमी॥२७॥
ब्राह्मणार्थं हि सर्वेषां शस्त्रग्रहणमिष्यते॥२७॥
अतिस्विष्टं स्वधीतानां लोकानतितपस्विनाम्।
अनाशकाग्न्याहितानां शूरा यान्ति परां गतिम्॥२८॥
एष एवात्मनस्त्यागो नान्यं धर्मंविदुर्बुधाः।
तेभ्यो नमश्च भद्रं ते ये शरीराणि जुह्वति॥२९॥
ब्रह्मद्विषो जिघांसन्तस् तेषां नोऽस्तु सलोकता॥३०॥
ब्रह्मलोकजितस्सर्वान् वीरांस्तान्मनुरब्रवीत्।
यथाऽश्वमेधावभृथे स्नाताःपूता भवन्त्युत॥३१॥
दुष्कृतस्सुकृतश्चैव तथा शस्त्रहता रणे॥३१॥
भवत्यधर्मो धर्मो हि धर्मोऽधर्मो भवत्युत्त।
कारणाद्देशकालस्य देशः कालस्स तादृशः॥३२॥
मैत्राः क्रूराणि कुर्वन्तो जयन्ति स्वर्गमुत्तमम्।
धर्म्याः पापानि कुर्वाणा गच्छन्ति परमां गतिम्॥३३॥
युधिष्ठिरः—
ब्राह्मणस्त्रिषुलोकेषुशस्त्रं गृह्णन्न दुष्यति।
आत्मत्राणे दस्युदोषेसर्वस्वहरणे तथा॥३४॥
अभ्युद्यते दस्युबले क्षत्रार्थे वर्णसङ्करे।
सम्प्रमूढेषु वर्णेषु यदन्योऽभिभवेद्बली॥३५॥
ब्राह्मणो यदि वा वैश्यश् शूद्रो वा राजसत्तम्।
दस्युभ्यो यः प्रजा रक्षेद् दण्डं धर्मेण धारयेत्॥३६॥
कार्य कुर्यान्न वा कुर्यात् स वार्यो वा भवेन्न वा॥३७॥
भीष्मः—
न स्म शस्त्रं गृहीतव्यम् अन्यत्र क्षत्रबन्धुतः॥३७॥
अपारे यो भवेत् पारम् अप्लवे यः प्लवो भवेत्।
शूद्रो वा यदि वा ह्यन्यस् सर्वथा मानमर्हति॥३८॥
यमाश्रित्य नरा राजन् वर्तयेयुर्यथासुखम्।
अनाथास्तप्यमानाश्च दस्युभिः परिपीडिताः॥३९॥
तमेव पूजयेरंस्ते प्रीता स्वमिव बान्धवम्।
महद्भ्यभीष्टं कौरव्य कर्ता सम्मानमर्हति॥४०॥
किमनडुहा यो न वहेत् किं धेन्वा वाऽप्यदुग्धया ।
वन्ध्यया भार्यया कोऽर्थः कोऽर्थो राज्ञाऽप्यरक्षता॥४१॥
यथा दारूमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः।
यथा ह्यदक्षः पुरुषः पथि क्षेत्रं यथोपरम्॥४२॥
यथा ब्रह्मानधीयानो द्विजो राजाऽप्यरक्षकः।
मेघो न वर्षते यश्च सर्व एव निरर्थकाः॥४३॥
नित्यं यस्तु सतो रक्षेद् असतश्च निबर्हयेत्।
स एव राजा कर्तव्यस् तेन सर्वमिदं धृतम्॥४४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि द्विसप्ततितमोऽध्यायः॥७२॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥३३॥
[अस्मिन्नध्याये ४४ ॥श्लोकाः]
॥ त्रिसप्ततितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्टिरं प्रति ऋत्विग्लक्षणादिकथनम्॥
युधिष्टिरः—
क्वसमर्थाः कथंशीला ऋत्विजस्स्युः पितामह।
कथंविधाश्च राजेन्द्र तद्ब्रूहि वदतां वर॥१॥
भीष्मः—
श्रुतिकर्मपरो राजन्ऋत्विक् तस्य विधीयते।
छन्दस्सामादि विज्ञाय द्विजानां श्रुतमेव च॥२॥
वेदैकरतयो नित्यं धीमन्तः प्रियवादिनः।
परस्परस्य सुहृद्स् सम्मतास्समदर्शिनः॥३॥
आनृशंस्यं सत्यवाक्यम् अहिंसा दम आर्जवम्।
अद्रोहो नातिमानश्च ह्रिस्तितिक्षा दमश्शमः॥४॥
यस्मिन्नेतानि दृश्यन्ते स पुरोहित उच्यते॥४॥
ह्री239मान्सत्यधृतिर्दान्तो भूतानामविहिंसकः।
अकामद्वेषसंयुक्तस् त्रिभिश्शुक्लैस्समन्वितः॥५॥
अहिंसको ज्ञानतृप्तस् स ब्रह्मासनमर्हति॥६॥
एते महर्त्विजस्तात सर्वे मान्या यथातथम्॥६॥
युधिष्ठिरः—
यदिदं वेदवचनं दक्षिणासु विधीयते।
इदं देयमिदं देयं न क्वचिद्व्यवतिष्ठते॥७॥
देयं प्रति धनं शास्त्रम् आपद्धर्मो न शास्त्रतः।
आज्ञा शास्त्रस्य घोरेयं न शक्तिं समवेक्षते॥८॥
श्रद्धामालम्ब्य यष्टव्यम् इतीयं वैदिकी श्रुतिः।
मिथ्योपेतस्य यज्ञस्य किमु श्रद्धा करिष्यति॥९॥
भीष्मः—
न वेदानां240 परिभवान्न शाठ्येन न मायया।
कश्चिन्महदवाप्नोति मा ते भूद्बुद्धिरीहशी॥१०॥
यज्ञानां दक्षिणा तात241 मन्त्राणां परिबर्हणम्।
न मन्त्रा दक्षिणाहीनास् तारयन्ति कथञ्चन॥११॥
शक्तिस्तु पूर्णपात्रेण सम्मिता नावमा भवेत्।
अवश्यं तात यष्ट्रव्यं त्रिभिर्वर्णैर्यथाबलम्॥१२॥
सोमो राजा ब्राह्मणानाम् इत्येषावैदिकी श्रुतिः।
तं च विक्रेतुमिच्छन्ति न तथा वृत्तिरिष्यते॥१३॥
तेन क्रीतेन धर्मेण ततो यज्ञः प्रवर्तते।
इत्येवं धर्ममाख्यातम् ऋषिभिर्धर्मकोविदैः॥१४॥
पुमान् यज्ञश्च सोमश्च न्यायवृत्तो यदा भवेत्।
अन्यायवृत्तः पुरुषो न परस्य न चात्मनः॥१५॥
शरीरं यज्ञपात्राणि इत्येषा श्रूयते श्रुतिः।
तानि136 सम्यक् प्रणीतानि ब्राह्मणानां महात्मनाम्॥१६॥
तपो यज्ञादपि श्रेष्ठम् इत्येषापरमा श्रुतिः।
तत् ते तपः प्रवक्ष्यामि विद्वंस्तदपि मे शृणु॥१७॥
अहिंसा सत्यवचनम् आनृशंस्यं दमो घृणा।
एतत् तपो विदुर्विप्रा न शरीरस्य शोषणम्॥१८॥
अप्रामाण्यं च वेदानां शास्त्राणां चातिलङ्घनम्।
अव्यवस्था च सर्वत्र तद्वै नाशनमात्मनः॥१९॥
निबोध दशहोतॄणां विधानं पार्थ यादृशम्।
चित्तिस्स्रुक् चित्तमाज्यं च पवित्रं ज्ञानमुत्तमम्॥२०॥
न शाठ्यं न च जिह्मत्वं कालो देशश्च ते दश।
सर्वं जिह्मंमृत्युपदम् आर्जवं ब्रह्मणः पदम्॥२१॥
एतावाञ् ज्ञानविषयः किं प्रलापः करिष्यति॥२२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायांवैयासिक्यांलशान्तिपर्वणि त्रिसप्ततितमोऽध्यायः॥७३॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि चतुस्त्रिंशोऽध्यायः॥३४॥
[ अस्मिन्नध्याये २२ श्लोकाः ]
॥ चतुस्सप्ततितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेणयुधिष्ठिरं प्रति मित्रामित्रलक्षणकथनम्॥
______
युधिष्ठिरः—
यदप्यल्पतरं कर्म तदप्येकेन दुष्करम्।
पुरुषेणासहायेन किमु राज्यं पितामह॥१॥
किंशीलः किंसमाचारो राज्ञो यस्सचिवो भवेत्।
कीदृशे विश्वसेद्राजा कीदृशे वा न विश्वसेत्॥२॥
भीष्मः—
चतुर्विधानि मित्राणि राज्ञां राजन्भवन्त्युत।
सहार्थो भजमानश्च सहजः कृत्रिमस्तथा॥३॥
धर्मात्मा पञ्चमं मित्रं स तु नैकस्य न द्वयोः।
यतो धर्मस्ततो वा स्यान्मध्यस्थो वा ततो भवेत्॥४॥
यो यस्यार्थो न रोचेत न तं तस्य प्रकाशयेत्॥४॥
मित्राणां प्रकृतिर्नास्ति त्वमित्राणां च भारत।
उपकाराद्भवेन्मित्रम् अपकाराद्भवेदरिः॥५॥
यस्यैव हि मनुष्यस्य नरो मरणमिच्छति।
तस्य पर्यागते काले पुनर्जीवितुमिच्छति॥६॥
धर्माधर्मेण राजानश् चरन्ति विजिगीषवः।
चतुर्णां मध्यमौश्रेष्ठौ नित्यं शङ्क्यौतथाऽपरौ॥७॥
सर्वे नित्यं शङ्कितव्याः प्रत्यक्षं कार्यमात्मनः॥८॥
न हि राज्ञा प्रमादो वै कर्तव्यो मित्ररक्षणे।
प्रमादिनं हि राजानं लोकाः परिभवन्त्युत॥९॥
असाधुस्साधुतामेति साधुर्भवति दारुणः।
अरिस्तु मित्रं भवति मित्रं चापि प्रदुष्यति॥१०॥
अनित्यचित्तः पुरुषस् तस्मिन्को जातु विश्वसेत्।
तस्मात् प्रधानं यत् कार्यं प्रत्यक्षं तत् समाचरेत्॥११॥
एकान्तेन हि विश्वासः कृत्स्नो धर्मार्थनाशकः।
अविश्वासश्च सर्वत्र मृत्युर्नापि विशिष्यते॥१२॥
अकालमृत्युर्विश्वासोऽविश्वसन्हि विपद्यते।
यस्मिन् करोति विश्वासम् इच्छतस्तस्य जीवति॥१३॥
तस्माद्विश्वसितव्यं च शङ्कितव्यं च केषुचित्।
एषानीतिगतिस्तात लक्ष्मीश्चैषासनातनी॥१४॥
यं मन्येत ममाभावाद् एनमर्थागमस्242स्पृशेत्।
तस्मान्नित्यं शङ्कितव्यं तममित्रं विदुर्बुधाः॥१५॥
क्षेत्राद्यस्योदकं पार्थ क्षेत्रमन्यस्य गच्छति।
न तत्रानिच्छतस्तस्य भिद्येरन्सर्वसेतवः॥१६॥
तथैवात्युदकाद्भीतस् तस्य भेदनमिच्छति।
यमेवंलक्षणं विद्युस् तममित्रं विदुर्बुधाः॥१७॥
यस्समृद्ध्यान तृप्येत क्षये दीनतरो भवेत्।
एतदुत्तममित्रस्य निमित्तमभिचक्षते॥१८॥
यन्मन्येत ममाभावाद् अस्याभावो भवेदिति।
तस्मिन् कुर्वीत विश्वासं यथा पितरि वै तथा॥१९॥
तं शक्त्यावर्धमानं च सर्वतः परिबृंहयेत्॥१९॥
नित्यं क्षताद्धारयति यो धर्मेष्वपि कर्मसु।
क्षयाद्भीतं विजानीयाद् उत्तमं मित्रलक्षणम्॥२०॥
ये यस्य क्षयमिच्छन्ति ते तस्य रिपवस्स्मृताः॥२१॥
व्यसनान्नित्यभीतो वै समृद्ध्यान च तृप्यति।
यत् स्यादेवंविधं मित्रं तदात्मसममुच्यते॥२२॥
रूपवर्णस्वरोपेतस् तितिक्षुरनसूयकः।
कुलीनश्शीलसम्पन्नस् स ते स्यात् प्रत्यनन्तरः॥२३॥
मेधावी स्मृतिमान्दक्षः प्रकृत्या चानृशंस्यवान्।
यो मानितोऽमानितो वा न सन्तुष्येत् कथञ्चन॥२४॥
ऋत्विग्वा यदि वाऽऽचार्यस् सखा वाऽत्यन्तसत्कृतः।
गृहे वसेदमात्यस्ते स स्यात् परमपूजितः॥२५॥
संविद्याः परमं मित्रं प्रकृतिं चार्थधर्मयोः॥२४॥
विश्वासस्ते भवेत् तत्र यथा पितरि वै तथा॥२६॥
नैव द्वौ न त्रयः कार्या न मृष्येरन् परस्परम्।
एकार्थहेतुभूतानां भेदो भवति सर्वदा॥२७॥
कीर्तिप्रधानो यश्च स्याद् यश्च स्यान्समये स्थितः।
समर्थोऽन्यांश्च न द्वेष्टि समर्थान् कुरुते च यः॥२८॥
यो न कामाद्भयात् क्रोधाल्लोभाद्वा धर्ममुत्सृजेत्।
दक्षः पर्याप्तवचनस् स ते स्यात् प्रत्यनन्तरः॥२९॥
कुलीनश्शीलसम्पन्नस् तितिक्षुरनसूयकः।
स्थिरश्चार्यश्च विद्वांश्च प्रतिपत्तिविशारदः॥३०॥
एते ह्यमात्याः कर्तव्यास् सर्वकर्मस्ववस्थिताः॥३०॥
पूजितास्संविभक्ताश्च सुसहायास्स्वनुष्ठिताः।
कृत्स्नमेते विनिक्षिप्ताः प्रतिरूपेषु कर्मसु॥३१॥
युक्ता महत्सु कार्येषु श्रेयांस्युत्पादयन्त्युत्॥३२॥
एते कर्माणि कुर्वन्ति स्पर्धमाना मिथस्सदा।
अनुतिष्ठन्ति चैवार्थान्आतिष्ठन्तः परस्परम्॥३३॥
ज्ञातिभ्यो बिभियाच्चैव मृत्योरिव यतस्तदा।
युवराजश्च राजर्धिंज्ञातिर्न सहते सदा॥३४॥
ऋजोर्मृदोर्वदान्यस्य ह्रीमतस्सत्यवादिनः।
नान्यो ज्ञातेर्महाभाग विनाशमभिनन्दति॥३५॥
अज्ञातयोऽप्यसुखदा ज्ञातयोऽपि सुखावहाः।
अज्ञातिमन्तं पुरुषंपरे परिभवन्त्युत॥३६॥
निकृतस्य परैरन्यैर् ज्ञातिरेव परायणम्।
नान्यैर्निकारं सहते ज्ञातिरर्ज्ञातैःकदाचन॥३७॥
आत्मानमिव जानाति निकृतं बान्धवं परैः।
तेषुसन्ति गुणाश्चैव नैर्गुण्यं चैव लक्ष्यते॥३८॥
नाज्ञातिरनुगृह्णाति नाज्ञातिवृद्धिमश्नुते।
उभयं ज्ञातिमत्स्वेषुदृश्यते साध्वसाधु च॥३९॥
तान् मानयेत्पूजयेच्च वाचा नित्यं च कर्मणा।
कुर्याच्च प्रियमेतेभ्यो नाप्रियं किञ्चिदाचरेत्॥४०॥
विश्वस्तवदविश्वस्तस् तेषु वर्तेत सर्वदा।
न हि दोषोगुणो वेह निस्पृहस्स्वेषु दृश्यते॥४१॥
तस्यैवं वर्तमानस्य पुरुषस्याप्रमादिनः।
अमित्रास्सम्प्रसीदन्ति ततो मित्रं भवत्युत॥४२॥
य एवं वर्तते नित्यं ज्ञातिसम्बन्धिमण्डले।
मित्रेष्वमित्रेष्वैश्वर्ये चिरं यशसि तिष्ठति॥४३॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि चतुस्सप्ततितमोऽध्यायः॥७४॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि पञ्चत्रिंशोऽध्यायः॥३५॥
[ अस्मिन्नध्याये ४३ श्लोकाः ]
॥ पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति कृष्णनारदसंवादानुवादः॥
______
युधिष्ठिरः—
एवमग्राह्यकेतस्मिञ् ज्ञातिसम्बन्धिमण्डले।
मित्रेष्वमित्रेष्वपि च कथं भावो विभाव्यते॥१॥
भीष्मः—
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
वासुदेवस्य संवादं महर्षेर्नारदस्य च ॥२॥
श्रीभगवान् —
नासुहृत् परमं मन्त्रं नारदार्हति वेदितुम्।
अपण्डितो वाऽपि सुहृत् पण्डितो वाऽप्यनात्मवान्॥३॥
स ते सौहृदमास्थाय किञ्चिद्वक्ष्यामि नारद।
कृत्स्नां बुद्धिं च ते प्रेक्ष्य सम्पृच्छे त्रिदिवङ्गम्॥४॥
दास्यमैश्वर्यवादेन ज्ञातीनां वै करोम्यहम्।
अर्धभोक्ताऽस्मि भोगानां वाग्दुरुक्तानि च क्षमे॥५॥
अरणीमग्निकामो वा मथ्नाति हृदयं मम।
वाचा दुरुक्तं देवर्षे तन्मां दहति नित्यदा॥६॥
बलं सङ्कर्षणे नित्यं सौकुमार्यं पुनर्गदे।
रूपेण मत्तः प्रद्युम्नस् सोऽसहायोऽस्मि नारद॥७॥
अन्ये हि सुमहाभागा बलवन्तो दुरासदाः।
नित्योत्थानेन सम्पन्ना नारदान्धकवृष्णयः॥८॥
यस्य न स्युर्न वै स स्याद् यस्य स्युः कृच्छ्रमेव तत्।
द्वयोरेनं प्रचरिते वृणोम्येकतरं न च॥९॥
स्यातां यस्याहुकाक्रूरौ किं नु कष्टतरं ततः।
यस्य चापि न तौ स्यातां किं नु दुःखतरं ततः॥१०॥
सोऽहं कितवमातेव द्वयोरपि महामुने।
नैकस्य जयमाशंसे द्वितीयस्य पराजयम्॥११॥
ममैवं क्लिश्यमानस्य नारदोभयदर्शनात्।
वक्तुमर्हसि यच्छ्रेयो ज्ञातीनामात्मनस्तथा॥१२॥
नारदः—
आपदो द्विविधाः कृष्ण बाह्याश्चाभ्यन्तराश्च ह।
प्रादुर्भवन्ति वार्ष्णेय स्वकृता यदि वाऽन्यतः॥१३॥
सेयमात्मोद्भवा तुभ्यम् आपत् कृच्छ्रा स्वकर्मजा।
अक्रूरभोजप्रभवास् सर्वे ह्येते तदन्वयाः॥१४॥
अर्थहेतोर्हि कामाद्वा वीर भीभत्सयाऽपि वा।
आत्मना प्राप्तमैश्वर्यम् अन्यत्र प्रतिपादितम्॥१५॥
कृतमूलमिदानीं तद् राजशब्दसहायवत्।
न शक्यं पुनरादातुं वान्तमन्नमिव स्वयम्॥१६॥
बभ्रूग्रसेनतो राज्यं शक्यं प्राप्तं कथञ्चन।
ज्ञातिभेदभयात् कृष्ण त्वया वाऽपि विशेषतः॥१७॥
तच्च सिध्येत् प्रयत्नेन कृत्वा कर्म सुदुष्करम्।
महद्भयं क्षयं वा स्याद् विनाशो वा पुनर्भवेत्॥१८॥
अनायसेन शस्त्रेण मृदुना हृदयच्छिदा।
जिह्वामुद्धर सर्वेषां परिमृज्यानुमृज्य च॥१९॥
श्रीभगवान्—
अनायसं मुने शस्त्रं मृदु विद्यामहं कथम्।
येनैषामुद्धरे जिह्वां परिमृज्यानुमृज्य च॥२०॥
नारदः—
शक्त्याऽन्नदानं सततं तितिक्षा दम आर्जवम्।
यथार्हंप्रतिपूजा च शस्त्रमेतदनायसम्॥२१॥
ज्ञातीनां वक्तुकामानां गुरूणि च लघूनि च।
गिरा त्वं हृदयं वाचं शमयस्व मनांसि च॥२२॥
नामहापुरुषः कश्चिन्नानात्मा नासहायवान्।
महतीं धुरमादाय समुद्यम्योरसा वहेत्॥२३॥
सर्व एव243 गुरुं भारम् अनङ्गान् वहते समे।
दुर्गे प्रतीतस्सुगवो भारं वहति दुर्वहम्॥२४॥
भेदाद्विनाशस्सङ्घानां सङ्घमुख्योऽपि केशव।
यथा त्वां प्राप्य नोत्सीदेद्अयं सङ्घस्तथा कुरु॥२५॥
नान्यत्र244 बुद्धिक्षान्तिभ्यां नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात्।
नान्यत्र धनसन्त्यागाद् गुणास्तिष्ठन्ति पूरुषे॥२६॥
धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वपक्षोद्भावनं शुभम्।
ज्ञातीनां न विनाशस्स्याद् यथा कृष्ण तथा कुरु॥२७॥
आयत्यां च तदात्वे च न तेऽस्त्यविदितं प्रभो।
षाड्गुण्यस्य विधानेन यात्रा यानविधौ तथा॥२८॥
माधवाः कुकुरा भोजास् सर्वे चान्धकवृष्णयः।
त्वय्यायत्ता महाबाहो लोके लोकेश्वराश्च ये॥२९॥
त्वद्बुद्धिं समुपासन्ते ऋषयश्चापि माधव॥२९॥
त्वं गुरुस्सर्वभूतानां जानीषेत्वं परां गतिम्।
त्वामासाद्य यदुश्रेष्ठम् एधन्ते यादवास्सुखम्॥३०॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः॥७५॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि षट्त्रिंविंशोऽध्यायः॥ ३६॥
[ अस्मिन्नध्याये ३०॥ श्लोकाः ]
॥ षट्सप्ततितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेणयुधिष्ठिरं प्रत्यमात्यपरीक्षार्थं कालकवृष्णीयोपाख्यानकथनम्॥
______
भीष्मः —
एषा ते प्रथमा वृत्तिर्द्वितीयां शृणु भारत।
यः कश्चिद्वेदयेदर्थं राज्ञा रक्ष्यस्स मानवः॥१॥
ह्रियमाणममात्येन भृत्यो वा यदि वा हृतः245।
यो राजकोशंनश्यन्तम् आचक्षीत युधिष्ठिर॥२॥
श्रोतव्यं तस्य च रहो रक्ष्यश्चमात्यतो भवेत्।
अमात्यं चोपहर्तारं246 भूयिष्ठं घ्नन्ति भारत॥३॥
राजकोशस्य गोप्तारं राजकोशविलोपकाः।
समेत्य सर्वे बाधन्तेस विनश्यत्यरक्षितः॥४॥
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
मुनिः कालकवृष्णीयः कौसल्यं यदुवाच ह॥५॥
कौसल्यानामाधिपत्यं सम्प्राप्ते क्षेमदर्शिनि।
मुनिः कालकवृष्णीय आजगामेति नश्श्रुतम्॥६॥
स काकंपञ्जरे बद्ध्वाविषयं क्षेमदर्शिनः।
सर्वं पर्यचरद्व्यक्तं प्रवृत्यर्थं पुनः पुनः॥७॥
अधीये वायसीं विद्यां शंसन्ति मम वायसाः।
अनागतमतिक्रान्तं यच्च सम्प्रति वर्तते॥८॥
इति राष्ट्रेपरिपतन्बहुभिः पुरुषैस्सह।
सर्वेषां राजयुक्तानां दुष्कृतं परिदृष्टवान्॥९॥
स बुद्ध्वातस्य राष्ट्रस्य व्यवसायं हि सर्वशः।
राजयुक्तापचारांश्च247 सर्वान्बुद्ध्वाततस्ततः॥१०॥
तमेव काकमादाय राजानं द्रष्टुमागमत्।
सर्वज्ञोऽस्मीति वचनं ब्रुवाणरसंशितव्रतः॥११॥
स स्म कौसल्यमागम्य राजामात्यैरलङ्कृतम्।
प्राह काकस्य वचनाद् अमुत्रेदं त्वया कृतम्॥१२॥
असौ च सम्यग् जानीते राजकोशस्त्वया हृतः।
एवमाख्याति काकोऽयं तच्छीघ्रमनुगम्यताम्॥१३॥
अथान्यानपि स प्राह राजकोशहृतान् सदा।
न चास्य किञ्चिदनृतं वचनं श्रूयते क्वचित्॥१४॥
तेन विप्रकृतास्सर्वे राजयुक्ताः कुरूद्वह।
तमतिक्रम्य सुप्तं तु निशि काकमपोथयन्॥१५॥
वायसं तु विनिर्भिन्नं दृष्ट्वा बाणेन पञ्जरे।
पूर्वाह्नेब्राह्मणो वाक्यं क्षेमदर्शिनमब्रवीत्॥१६॥
मुनिः—
राजान मभयं याचे प्रभुं प्राणधनेश्वरम्।
अनुज्ञातस्त्वया ब्रूयां वचनं भवतो हितम्॥१७॥
मित्रार्थमुपसन्तप्तो भक्त्या सर्वात्मनाऽऽगतः।
ह्रियते हि महार्थश्च पुरुषो विक्रमीत्यपि248॥१८॥
सम्बुबोधयिषुर्मित्रं सदश्वमिव सारथिः।
अपि मन्युप्रसक्तो हि प्रसज्येतेति कारणम्॥१९॥
तथा विभज्य सुहृदा क्षन्तव्यं संविजानता।
ऐश्वर्यमिच्छता नित्यं पुरुषेण बुभूषता॥२०॥
भीष्मः—
तं राजा प्रत्युवाचेदं यन्मां किञ्चिद् भवान् वदेत्।
कस्मादहं न क्षमेयम् आकाङ्क्षन्नात्मनो हितम्॥२१॥
ब्राह्मण प्रतिजाने ते प्रब्रूहि यदिहेच्छसि॥
करिष्यामि हि ते वाक्यं यन्मां विप्र प्रवक्ष्यसि॥२२॥
मुनिः—
विद्वान् नयानपायांश्च भयाख्यातॄन् भयानि च।
भक्त्या वृत्तिं समाख्यातुं भवतोऽन्तिकमागतः॥२३॥
प्रागेवोक्तं तु दोषाय आचार्यैर्नृपसेवनम्।
आगतेः कुगतिर्ह्येषाया राज्ञा सह जीविका॥२४॥
आशीविषैश्च तस्याहुस् सङ्गमं यस्य राजभिः।
बहुमित्राश्च राजानो बह्वमित्रास्तथैव च॥२५॥
तेभ्यस्सर्वेभ्य एवाहुर्भयं राजोपसेविनाम्।
तथाऽस्य राजतो राजन्मुहूर्तादागतं भयम्॥२६॥
नैकान्तेनाप्रमादो हि शक्यः कर्तुं महीपतौ।
न तु प्रमादः कर्तव्यः कथञ्चिद्भूतिमिच्छता॥२७॥
प्रमादात् स्खलते बुद्धिस् स्वलतो नास्ति जीवितम्।
अग्निं दीप्तमुपासीत राजानमुपशिक्षितः॥२८॥
आशीविषमिव क्रुद्धं प्रभुं प्राणधनेश्वरम्।
यत्नेनोपचरेन्नित्यं नाहमस्मीति मानवः॥२९॥
दुर्व्याहृताच्छङ्कमानो दुस्स्थिताद्दुरनुष्ठितात्।
दुरासदाद्दुर्वृजिनाद् इङ्गिताध्यायितादपि॥३०॥
देवतेव हि सर्वार्थान्कुर्याद्राजा प्रसादितः।
वैश्वानर इव क्रुद्धस् समूलमपि निर्देहेत्॥३१॥
इति राजन् प्राह यच्च वर्तते च तथैव तत्।
अथ भूयांसमेवार्थं करिष्यामि पुनः पुनः॥३२॥
ददात्यस्मद्विधोऽमात्यो बुद्धिसाहाय्यमापदि।
वायसस्त्वेव मे राजन्नन्तकायाभिसंहितः॥३३॥
न च मेऽत्र भवान् भक्तो न च येषां भवान् प्रियः।
हिताहितांस्तु बुद्ध्येथा मा परोक्षमतिर्भव॥३४॥
ये त्वादानपरा ये च वसन्ति भवतो गृहे।
अभूतिकामा भूतानां तादृशैर्मेऽतिसंहितः॥३५॥
यो वा तव विनाशेन राज्यमिच्छत्यनन्तरम्।
आन्तरैरभिसंधाय राज्ञस्सिद्ध्यन्ति चान्यथा॥३६॥
तेषामहं भयाद्राजन्गमिष्याम्यन्यमाश्रमम्।
तैर्हि मे सन्धितो बाणः काके निपतितः प्रभो॥३७॥
छद्मना मम काकश्चगमितो यमसादनम्।
दृष्टंह्येतन्मया राजन्पुरा दीर्घेण चक्षुषा॥३८॥
बहुनक्रझषग्राहां तिमिङ्गिलगणायुताम्।
काकेन बालिशेनेमाम् अतार्षमहमापगाम्॥३९॥
स्थाण्वश्मकण्टकवत्व्याघ्रसिंहगजाकुलाम्।
दुरासदां दुष्प्रधर्षांगुहां हैमवतीमिव॥४०॥
अग्निना तामसं दुर्गं नौभिराप्यं च गम्यते।
राजदुर्गावतरणे नोपायं पण्डिता विदुः॥४१॥
गहनं भवतो राज्यम् अन्धकारं तमोवृतम्।
नेह विश्वसितुं शक्यं भवताऽपि कुतो मया॥४२॥
अतो नायं शुभो वासस् तुल्ये सदसती त्विह।
वधो ह्येवेह सुकृते दुष्कृते नैव संशयः॥४३॥
न्यायतो दुष्कृते घातस् सुकृते स्यात् कथं वधः।
नेह युक्तं स्थिरं स्थातुं जवेनोत नशेद्बुधः॥४४॥
सीता नाम नदी राजन्प्लवो यस्यां निमज्जति।
तयोपमामिमां मन्ये वागुरां सर्वघातिनीम्॥४५॥
मधुप्रपातो हि भवान् भोजनं विषसंयुतम्।
असतामिव ते भावो वर्तते न सतामिव॥४६॥
आशीविषैः परिवृतः कूपस्त्वमसि पार्थिव॥४६॥
दुर्गतीर्था बृहत्कूला कावेरी चोरसंवृता।
नदी मधुरपानीया यथा राजंस्तथा भवान्॥४७॥
श्वगृध्रगोमायुवृतोराजहंससमो249 ह्यसि॥४८॥
यथाऽऽश्रित्य महावृक्षं कक्षस्संवर्धते महान्।
ततस्तं संवृणोत्येव तमतीत्य च वर्धते॥४९॥
तेनैवोपेन्धनेनेमं दावो दहति दारुणः।
तथोपमा ह्यमात्यास्ते राजस्तान् परिशोधय॥५०॥
भवतैव कृता राजन्भवता परिपालिताः।
भवन्तं पर्यवज्ञाय जिघांसन्ति भवत्प्रियान्॥५१॥
उषितं शङ्कमानेन प्रमादं परिरक्षता।
अन्तस्सर्प इवागारे वीरपत्न्याइवालये॥५२॥
शीलं जिज्ञासमानेन राज्ञस्साहसजीविनः॥५२॥
कच्चिजितेन्द्रियो राजा कच्चिदस्यान्तरा जिताः।
कच्चिदासां प्रियो राजा कच्चिद्राज्ञः प्रजाः प्रियाः॥५३॥
जिज्ञासुरिह सम्प्राप्तस् तवाहं राजसत्तम्।
तस्य मे रोचसे राजन्क्षुधितस्येव भोजनम्॥५४॥
अमात्या मे न रोचन्ते वितृष्णस्य यथोदकम्।
भवतोऽर्थकृदित्येवं मयि ते दोषमादधन्॥५५॥
विद्यते कारणं नान्यद् इति मे नास्ति संशयः॥५६॥
न हि तेषामहं द्रोग्धा तत्तेषां द्रोहवद्गतम्।
अग्रे हि दुर्हृदो हेयं250 भग्नपृष्ठादिवोरगात्॥५७॥
राजा—
भूयसा परिहारेण सत्कारेण च भूयसा।
पूजितो ब्राह्मणश्रेष्ठ भूयो मम गृहे वस॥५८॥
ये त्वां ब्राह्मण नेच्छन्ति न मे वत्स्यन्ति ते गृहे।
भवतैव हि तज्ज्ञेयं यदिदानीमनन्तरम्॥५९॥
यथा स्यात् सुधृतो दण्डो यथा च सुकृतो भवेत्।
तथा समीक्ष्य भगवञ् श्रेयसे विनियुङ्क्ष्व माम् ॥६०॥
मुनिः—
अदर्शयन्निमं दोषम् एकैकं दुर्बलं कुरु।
ततः कारणमाज्ञाय पुरुषं जहि साधु च॥६१॥
एकदोषाहि बहवो मृद्रीयुरपि कण्टकान्॥६१॥
अर्थेसर्वं जगद्बद्धम्अर्थेन च निबध्यते।
अर्थे दर्पो मनुष्याणां तस्मादर्थं विरेचय251॥६२॥
एकेनैकस्य दोषेण तद्विरुद्धं प्रचोदय।
स तस्य दोषानुद्भाव्य तस्यार्थं ग्राहयिष्यति॥६३॥
सामपूर्वं च केषाञ्चिद् भेदेन च परस्परम्।
वैरं कारय भूपाल पश्चाद्दण्डं प्रयोजय॥६४॥
बिल्वेन च यथा बिल्वम् आकारं छाद्य बुद्धिमान्।
अशुद्धं सचिवं राजन्नशुद्धेनैव नाशय॥६५॥
मन्त्रिभेदभयाद्राजंस्तस्मादेतद्ब्रवीमि ते॥६६॥
वयं तु ब्राह्मणा नाम मृदुदण्डाः कृपालयाः ।
स्वस्ति चेच्छामभवतः परमं च यथाऽऽत्मनः॥६७॥
राजन्नात्मानमाचक्षे सम्बन्धी भवतो ह्यहम्।
मुनिः252 कालकवृष्णीय इत्येवमभिसंज्ञितः॥६८॥
पितुस्सखा177 च भवतस् सम्मतस्सत्यसङ्गरः॥६८॥
व्यापन्ने भवता राज्ये राजन्पितरि संस्थिते।
सर्वान् कामान् परित्यज्य तपस्तप्तं तदा मया॥६९॥
स्नेहात् त्वां प्रब्रवीम्येतन्मा भूयो विभ्रमेदिति॥७०॥
उभे दुःखसुखे दृष्ट्वा प्राप्य राज्यं यदृच्छया।
राज्येनामात्यसार्थेन कथं राजन् प्रमाद्यसे॥७१॥
भीष्मः—
ततो राजकुले नन्दी सञ्जज्ञे भूयसी पुनः।
पुरोहितकुले चैव सम्प्राप्ते ब्राह्मणर्षभे॥७२॥
एकच्छन्त्रां महीं कृत्वा कौसल्याय यशस्विने।
मुनिः कालकवृष्णीय ईजे ऋतुभिरुत्तमैः॥७३॥
इदं तद्वचनं श्रुत्वा कौसल्योऽप्यशिषन्महीम्।
तथा च कृतवान् राजा यथोक्तं तेन धीमता॥७४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि षट्सप्ततितमोऽध्यायः॥७६॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥३७॥
[ अस्मिन्नध्याये ७४ लोकाः ]
______
॥ सप्तसप्ततितमोऽध्यायः॥
** भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति मन्त्र्यादिलक्षणकथनम्॥**
युधिष्ठिरः—
सभासदसहायाश्च सुहृदश्च विशां पते।
परिच्छदास्तथाऽमात्याः कीदृशास्स्युः पितामह॥१॥
भीष्मः—
ह्रीनिषेधारसदाऽऽसन्नास् सत्यलज्जासमन्विताः।
शक्ताः कथयितुं दान्तास् ते तव स्युस्सभासदः॥२॥
अमात्याश्चातिशूराश्च ब्रह्मण्याश्च बहुश्रुताः।
सन्तुष्टाश्चापि कौन्तेय महोत्साहाश्च कर्मसु॥३॥
एतान् सहायाल्ँलिप्सेथास् सर्वास्वापत्सु भारत॥३॥
कुलीनः पूजितो नित्यं न हि शक्तिं निगूहते।
प्रसन्नमप्रसन्नं वा पीडितं हृतमेव वा॥४॥
आवर्तयति भूयिष्ठं तदेकोऽप्यनुपालितः॥५॥
कुलीना देशजाः प्राज्ञाः कृपावन्तो बहुश्रुताः।
प्रगल्भास्वनुरक्ताश्च ते तव स्युः परिच्छदाः॥६॥
दौष्कुलेयाश्च लुब्धाश्च नृशंसा निरपत्रपाः।
ते त्वां जातु न सेवेयुर् यावत्ते खङ्गपाणयः॥७॥
अर्थ्यमानैश्च सत्कारैर्भोगैरुच्चावचैः प्रियान्।
यानर्थभाजो मन्येथास् ते ते स्युस्सुखभागिनः॥८॥
अभिन्नवृत्ता विद्वांसस् सद्वृत्ताश्चरितव्रताः।
न त्वां नित्यार्थिनो जह्युर् अक्षुद्रास्सत्यवादिनः॥९॥
अनार्या ये न जानन्ति समयं मन्दचेतसः।
तेभ्यः परिजुगुप्सेथा ज्ञायेथास्समयच्युतान्॥१०॥
नैकमिच्छेद्गणंहित्वा स्याच्चेदन्यतरग्रहः।
यस्त्वेको बहुभिश्श्रेयान्कामं तेन गणं त्यजेत्॥११॥
श्रेयसो लक्षणं चैतद्विक्रमो यस्य दृश्यते।
कीर्तिप्रधानो यश्च स्यात् समये यश्च तिष्ठति॥१२॥
समर्थान्पूजयेद्यस्तु समृद्धे स्पर्धेते न यः।
न च कामाद्भयात् क्रोधाल्लोभाद्वा धर्ममुत्सृजेत्॥१३॥
अमानी सत्यवाक् शक्तोजितात्मा253 मान्यमानिता।
स ते मन्त्रसहायस्स्यात् सर्वावस्थं परीक्षितः॥१४॥
कुलीनः कुलसम्पन्नस् तितिक्षुर्दक्ष आत्मवान्।
शूरः कृतज्ञस्सत्यज्ञश्श्रेयसः पार्थ लक्षणम्॥१५॥
तस्यैवं वर्तमानस्य पुरुषस्य विजानतः।
अमित्रास्सम्प्रसीदन्ति तथा मित्रीभवन्त्यपि॥१६॥
अत ऊर्ध्वममात्यानां परीक्षेत गुणागुणान्।
संयतात्मा कृतज्ञश्च भूतिकामश्च भूमिपः॥१७॥
सम्बद्धः पुरुषैरार्यैर् अभिजातैस्स्वदेशजैः।
आगतै254स्स्वव्यतीहारैस् सर्वतस्सुपरीक्षितैः॥१८॥
यौनाधौवास्तथा मौलास्255 तथा चाप्यनुपस्कृताः।
कर्तव्या भूतिकामेनपुरुषेण बुभूषता॥१९॥
एषां वैनयिकी बुद्धिः प्रकृत्या चैव शोभना।
तेजो धैर्यं क्षमा शौचम् अनुरागस्थितिः पुरा256॥२०॥
परीक्षितगुणान् नित्यं प्रौढभावान्257 धुरन्धरान्।
पञ्चोपधाव्यतीतांश्च कुर्याद्राजाऽर्थकारिणः॥२१॥
पर्याप्तवचनान् धीरान्प्रतिपत्तिविशारदन्।
कुलीनान् सत्यसम्पन्नान् इङ्गितज्ञाननिष्ठुरान्॥२२॥
देशकालविधानज्ञान्भर्तृकार्यहितैषिणः।
नित्यमर्थेषु सर्वेषु राजन् कुर्वीत मन्त्रिणः॥२३॥
हीनतेजोभिसम्पृक्तो नैव जातु व्यवस्यति।
अवश्यं जनयत्येव सर्वकार्येषु संशयान्॥२४॥
एवमल्पशृतोमन्त्री कल्याणाभिजनोऽप्युत।
धर्मकामार्थसंयुक्तं नालं मन्त्रं परीक्षितुम्॥२६॥
तथैवानभिजातोऽपि काममस्तु बहुश्रुतः।
अनायक इवाचक्षुर्मुह्यत्यूह्येषु कर्मसु॥२७॥
यो वाऽप्यस्थिरसङ्कल्पो बुद्धिमानागतागमः।
उपायज्ञोऽपि नालं स कर्म यापयितुं चिरम्॥२८॥
केवलात् पुनराचारात्258 कर्मणो नोपपद्यते।
परिमर्शो विशेषाणाम् अश्रुतस्येहदुर्मतेः॥२९॥
मन्त्रिण्यननुरक्ते तु विश्वासो नेह विद्यते।
तस्मादननुरक्ताय नैव मन्त्रं प्रकाशयेत्॥३०॥
व्यथयेद्धि स राजानं मन्त्रिभिस्सहितोऽनृजुः।
मारुतोपहितैश्छिद्रैः प्रविश्याग्निरिव द्रुमम्॥३१॥
सङ्क्रुद्ध्यत्येकदास्वामी स्थानाच्चैवापकर्षति।
वाचा क्षिपति संरब्धः पुनः पश्चात् प्रसीदति॥३२॥
न तान्यननुरक्तेन शक्यानीह तितिक्षितुम्।
मन्त्रिणां च भवेत् क्रोधो विष्फूर्जितमिवाशनेः॥३३॥
यस्तु संहरते तानि भर्तुः प्रियचिकीर्षया।
समानसुखदुःखं तं पृच्छेदर्थेषु मानवम्॥३४॥
अनृजुस्त्वनुरक्तोऽपि सम्मितश्चेतरैर्गुणैः।
राज्ञः प्रज्ञानुरक्तोऽपि न मन्त्रं श्रोतुमर्हति॥३५॥
योऽमित्रैस्सह सम्बद्धो न पौरान्बहुमन्यते।
स सुहृत् तादृशो राज्ञो न मन्त्रं श्रोतुमर्हति॥३६॥
अविद्वानशुचिस्स्तब्धश् शत्रुसेवी विकत्थनः।
असुहृत् क्रोधनो लुब्धो न मन्त्रं श्रोतुमर्हति॥३७॥
आगस्कृच्चानुरक्तोऽपि काममस्तु बहुश्रुतः।
सत्कृतस्संविभक्तोऽपि न मन्त्रं श्रोतुमर्हति॥३८॥
यस्स्वल्पेनापि दोषेण सकृदाचरितोभवेत्।
पुनरन्यैर्गुणैर्युक्तो न मन्त्रं श्रोतुमर्हति॥३९॥
विधर्मतो259 विप्रकृतः पिता यस्याभवत् पुरा।
सत्कृतस्स्थापितस्सोऽपि न मन्त्रं श्रोतुमर्हति॥४०॥
कृतप्रज्ञश्च मेधावी बुधो जानपदश्शुचिः।
सर्वकर्मसु यश्शुद्धस् स मन्त्रं श्रोतुमर्हति॥४१॥
ज्ञानविज्ञानसम्पन्नः प्रकृतिज्ञः परात्मनोः।
सुहृदात्मसमो राज्ञस् स मन्त्रं श्रोतुमर्हति॥४२॥
सत्यवाक्244 शीलसम्पन्नो गम्भीरस्सत्रपो मृदुः।
पितृपैतामहो यस्स्यात् स मन्त्रं श्रोतुमर्हति॥४३॥
सन्तुष्टस्सम्मतस्सद्भिश्शौण्डीरो द्वेष्यवाचकः।
मन्त्रवित् कालविच्छूरस् स मन्त्रं श्रोतुमर्हति॥४४॥
सर्वलोकमिमंशुक्लस्260 सान्त्वेन कुरुते वशम्।
मन्त्रस्तस्मै प्रयोक्तव्यो दण्डमाधित्सताऽप्युत॥४५॥
पौरजानपदा यस्मिन् विश्वासं धर्मतो गताः।
योद्धा नये विपश्चिच्च स मन्त्रं श्रोतुमर्हति॥४६॥
तस्मात्सर्वैर्गुणैरेतैर् उपपन्नास्सुपूजिताः।
मन्त्रिणः प्रकृतिज्ञास्स्युस् त्र्यवरा महदीप्सवः॥४७॥
स्वासु प्रकृतिषु च्छिद्रं लक्षयेरन् परस्य च।
मन्त्रिणो मन्त्रमूलं हि राज्ञो राज्यं विवर्धते॥४८॥
नास्य च्छिद्रं परः पश्येच् छिद्रे तु परमन्वियात्।
गूहेत्कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद्विवरमात्मनः॥४९॥
मन्त्रग्राहा हि राज्यस्य मन्त्रिणो ये मनीषिणः।
मन्त्रसंहननो राजा मन्त्राङ्गानीतरे जनाः॥५०॥
राज्यं प्रणिधिमूलं हि मन्त्रसारं प्रचक्षते।
स्वामिनं चानुवर्तन्ते वृत्यर्थमिह मन्त्रिणः॥५१॥
संविनीय मदक्रोधौ मानमीर्ष्यांच निर्वृताः।
नित्यं पञ्चोपधातीतैर् मन्त्रयेत् सह मन्त्रिभिः॥५२॥
तेषां त्रयाणां त्रिविधं विमर्शं
बुद्ध्येत बुद्धिं विनिवेश्य तत्र।
स्वनिश्चयं तं परनिश्चयं च
निदर्शयेदुत्तममन्त्रकाले॥५३॥
धर्मार्थकामज्ञमुपेत्य पृच्छेद्
युक्तो गुरुं ब्राह्मणमुत्तमार्थान्।
निष्टा कृताऽनेन यदा सहस्स्यात्
तं तत्र मार्गं प्रणयेदसक्तम्॥५४॥
एवं सदा मन्त्रयितव्यमाहुर्
ये मन्त्रतत्त्वार्थविनिश्चयज्ञाः।
तस्मात्त्वमेवं प्रणयेस्सदैव
मन्त्रं प्रजासङ्ग्रहणे समर्थम्॥५५॥
न वामनाः कुब्जकिरातखञ्जा
नान्धा जडास्त्रैणनपुंसकाश्च।
न चात्र तिर्यक् च पुरो न पश्चा–
न्नोर्ध्वंन चाधः प्रचरेत कश्चित्॥५६॥
आरुह्य पापस्तु तथैव शून्यं
स्थलं प्रकाशं कुशकाशहीनम्।
वागङ्गदोषान्परिहृत्य तन्त्रं
सम्मन्त्रयेन्मन्त्रमहीन कालम्261॥५७॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि सप्तसप्ततितमोऽध्यायः॥७७॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि अष्टाविंशोऽध्यायः॥३८॥
[ अस्मिन्नध्याये ५७ श्लोकाः ]
______
॥ अष्टसप्ततितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति इन्द्रबृहस्पतिसंवादानुवादः॥
भीष्मः—
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
बृहस्पतेश्च संवादम् इन्द्रस्य च युधिष्ठिर॥१॥
इन्द्रः—
किंस्विदेकपदं ब्रह्मन् पुरुषस्सम्यगाचरन्।
प्रमाणं सर्वभूतानां यशश्चैवाप्नुयान्महत्॥२॥
बृहस्पतिः—
सान्त्वमेकपदंशक्र262पुरुषस्सम्यगाचरन्।
प्रमाणं सर्वभूतानां यशश्चैवाप्नुयान्महत्॥३॥
एतदेकपदं शक्र262सर्वलोकसुखावहम्।
आचरन्सर्वभूतेषु प्रियो भवति सर्वदा॥४॥
यो हि नाभाषते किञ्चित् सततं भ्रुकुटीमुखः।
द्वेषयो भवति भूतानां स सान्त्वमिह नाचरन्॥५॥
यस्तु पूर्वमभिप्रेक्ष्य पूर्वमेवाभिभाषते।
स्मितपूर्वाभिभाषी च तस्य लोकः प्रसीदति॥६॥
दानमेव हि सर्वत्र सान्त्वेनानभिकल्पितम्।
न प्रीणयति भूतानि निर्व्यञ्जनमिवाशनम्॥७॥
आददन्नपि भूतानां मधुरामीरयन् गिरम्।
सर्वलोकमिमं शक्र263सान्त्वेन कुरुते वशे॥८॥
तस्मात् सान्त्वं प्रयोक्तव्यं दण्डमाघित्सतामपि।
प्रीतिं च जनयत्येवं न चास्योद्विजते जनः॥९॥
सुकृतस्य हि सान्त्वस्य लक्ष्णस्य मधुरस्य च।
सम्यगासेव्यमानस्य तुल्यं जातु न विद्यते॥१०॥
भीष्मः—
इत्युक्तः कृतवान् सर्वं तथा शक्रःपुरोधसा।
तथा त्वमपि कौन्तेय सम्यगेतत् समाचर॥११॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि अष्टसप्ततितमोऽध्यायः॥७८॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥३९॥
[अस्मिन्नध्याये ११ श्लोकाः]
॥ एकोनाशीतितमोऽध्यायः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1705974655Screenshot2023-11-23101537.png"/>
** भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति अमात्यलक्षणादिकथनम्॥**
______
युधिष्ठिरः—
कथंस्विदिह राजेन्द्र पालयन् पार्थिवः प्रजाः।
प्रैति धर्मं विशेषेण कीर्ति चाप्नोति शाश्वतीम्॥१॥
भीष्मः—
व्यवहारेण शुद्धेन प्रजापालनतत्परः।
प्राप्य धर्मं च कीर्तिं च लोकानाप्नोत्यसौ शुचिः॥२॥
युधिष्ठिरः—
कीदृशं व्यवहारं तु कैश्च व्यवहरेन्नृपः।
एतत् पृष्टो महाप्राज्ञ यथावद्वक्तुमर्हसि॥३॥
ये चैते पूर्वकथिता गुणास्ते पुरुषं प्रति।
नैकस्मिन्पुरुषेह्येते विद्यन्त इति मे मतिः॥४॥
भीष्मः—
एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि बुद्धिमान्।
दुर्लभः पुरुषः कश्चिद् एभिर्युक्तो गुणैश्शुभैः॥५॥
किं नु सङ्क्षेपतश्शीलं प्रयत्नेनेहदुर्लभम्।
वक्ष्यामि तु यथाऽमात्यान् यादृशांश्च करिष्यसि॥६॥
चतुरो ब्राह्मणान् वैद्यान् प्रगल्भान् स्नातकाञ् शुचीन्।
क्षत्रियान् दश चाष्टौ च बलिनश्शस्त्रपाणयः॥७॥
वैश्यान् वित्तेन सम्पन्नान् एकविंशतिनित्यशः।
त्रिंशच्छूद्रान् विनीतांश्च शुचीन् कर्मणि पूर्वके॥८॥
अष्टाभिश्च गुणैर्युक्तं सूतं पौराणिकं चरेत्।
पञ्चाशद्वर्षवयसं प्रगल्भमनसूयकम्॥९॥
मतिस्मृतिसमायुक्तं विनीतं समदर्शिनम्।
कार्ये विवदमानानां शक्तमर्थेष्वलोलुपम्॥१०॥
विवर्जितानां व्यसनैस् सुघोरैस्सप्तभिर्भृशम्।
अष्टानां मन्त्रिणां मध्ये मन्त्रं राजोपधारयेत्॥११॥
ततस्सम्प्रेषयेद्राजा राष्ट्रिकायोपदर्शयेत्।
अनेन व्यवहारेण द्रष्टव्यास्ते प्रजास्सदा॥१२॥
न चापि गूढं द्रव्यं ते ग्राह्यं कार्योपघातकम्।
कार्ये खलु विपन्ने तु यो धर्मस्तं च पीडयेत्॥१३॥
विद्रवेत च राष्ट्रं ते श्येनात् पक्षिगणा इव।
परिवेपेत च सदा नौर्विशीर्णेव सागरे॥१४॥
प्रजाः पालयतोऽसम्यग् अधर्मेणैव भूपतेः।
हार्दं भयं संवदन्ति स्वर्गं चास्य निरुध्यते॥१५॥
अथ यो धर्मतः पाति राजाऽमात्योऽथवाऽऽत्मजः।
धर्मासने सन्नियुक्तो धर्ममूलो नरर्षभ॥१६॥
स्वर्गं याति महीपालो नियुक्तैस्सचिवैस्सह॥१६॥
कार्येष्वधिकृतास्सम्यग् अवर्तन्तो नृपानुगाः।
आत्मानं पुरतः कृत्वा यान्त्यधस्सहपार्थिवाः॥१७॥
बलात्कृतानां बहुभिः कृपणं बहुजल्पताम्।
नाथो वै भूमिपो नित्यम् अनाथानां नृणां भवेत्॥१८॥
यतस्साक्षिबलं साधु द्वेधा वाद264कृतं भवेत्।
असाक्षिकमनाथं265 वा परीक्ष्यं तद्विशेषतः॥१९॥
अपराधानुरूपं तु दण्डं पापेषु धारयेत्।
वियोजयेद्धनैर्लुब्धान्दरिद्रान्वधबन्धनैः॥२०॥
विनयेच्चापि दुर्वृत्तान्प्रहारैरपि पार्थिवः।
सान्त्वेनोपप्रदानेन शिष्टांश्च परिपालयेत्॥२१॥
राज्ञो वधं चिकीर्षेद्यश्चित्रस्तस्य वधो भवेत्॥२२॥
आजीविकस्य स्तेनस्य वर्णसङ्करकस्य च।
सम्यक् प्रणयतो दण्डं भूमिपस्य विशां पते॥२३॥
युक्तस्य वा नास्त्यधर्मो धर्म एव हि शाश्वतः॥२३॥
कामकारेण दण्डं तु यः कुर्यादविचक्षणः।
स इहाकीर्तिसंयुक्तो मृतो नरकमश्नुते॥२४॥
न परस्यापराधेन परेषांदण्डमर्पयेत्।
आगमानुगमं कृत्वा बध्नीयान्मोचयेत वा॥२५॥
न तु हन्यान्नृपो जातु दूतं कस्याञ्चिदापदि॥२६॥
दूतस्य हन्ता निरयम् आविशेत् सचिवैस्सह॥२६॥
यथोक्तवचनं दूतं क्षत्रधर्मरतो नृपः।
यो हन्यात् पितरस्तस्य भ्रूणहत्यामवाप्नुयुः॥२७॥
कुलीनश्शीलसम्पन्नो वाग्मी दक्षः प्रियंवदः।
यथोक्तवादी स्मृतिमान्दूतस्स्यात् सप्तभिर्गुणैः॥२८॥
एतैरेव गुणैर्युक्तः प्रतीहारोऽस्य रक्षिता।
शरीरेण च नीरूक्षो गुणैरेतैस्समन्वितः॥२९॥
धर्मशास्त्रार्थतत्त्वज्ञस् सन्धिविग्रहिको भवेत्।
मतिमान् स्मृतिमान् धीमान् रहस्ये परिनिष्ठितः॥३०॥
कुलीनस्सत्यसम्पन्नश् शुक्लोऽमात्यः प्रशस्यते।
एतैरेव गुणैर्युक्तस् तथा सेनापतिर्भवेत्॥३१॥
व्यूहयन्त्रायुधीयानां तत्त्वज्ञो विक्रमान्वितः।
वर्षशीतोष्णवातानां सहिष्णुः पररन्ध्रवित्॥३२॥
विश्वासयेत् परांश्चैव विश्वसेच्चन कस्यचित्।
पुत्रेष्वपि हि राजेन्द्र विश्वासो न प्रशस्यते॥३३॥
एतच्छास्त्रार्थतत्त्वं तु मयाऽऽख्यातं तवानघ।
अविश्वासो नरेन्द्राणां गुह्यं परममप्युत॥३४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकोनाशीतितमोऽध्यायः॥७९॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि चत्वारिंशोऽध्यायः॥४०॥
॥ अस्मिन्नध्याये ३४॥ श्लोकाः॥
______
॥ अशीतितमोऽध्यायः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706187339Screenshot2024-01-21052141.png"/>
** भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति पुरलक्षणादिकथनम्॥**
______
युधिष्ठिरः—
कथंविधं पुरं राजा स्वयमावस्तुमर्हति।
कृतं वा कारयित्वा वा तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
भीष्मः —
यत्र कौन्तेय वस्तव्यं सपुत्र भ्रातृ266बन्धुना।
न्याय्यं तत्र परिप्रष्टुं गुप्तिं वृत्तिं च भारत॥२॥
तस्मात् ते वर्तयिष्यामि दुर्गकर्म विशेषतः।
श्रुत्वा तथा विधातव्यम् अनुष्ठेयं च यत्नतः॥३॥
षड्विधं दुर्गमास्थाय पुराण्यभिनिवेशयेत्।
सर्वसम्पत्प्रधानं च बाहुल्यं वाऽप्यसम्भवे॥४॥
धन्वदुर्गं महीदुर्गं गिरिदुर्गं तथैव च।
मनुष्यदुर्गमब्दुर्गं वनदुर्गं च तानि षट्॥५॥
यत् पुरं दुर्गसम्पन्नं धान्यायुधसमन्वितम्।
दृढप्राकारपरिखं हस्त्यश्वरथसङ्कुलम्॥६॥
विद्वांसश्शिल्पिनो यत्र निचयाश्च सुसञ्चिताः।
धार्मिकश्च जनो यत्र दाक्ष्यमुत्तममास्थितः॥७॥
ऊर्जस्विनरनागाश्वंचत्वरापणशोभितम्।
प्रसिद्धव्यवहारं च प्रशान्तमकुतोभयम्॥८॥
सुप्रभं सानुनादं च सुप्रशस्तनिवेशनम्।
शूराढ्यंप्राज्ञसम्पूर्णं ब्रह्मघोषानुनादितम्॥९॥
समाजोत्सवसम्पन्नं सदापूजितदैवतम्।
वश्यामात्यबलो राजा तत् पुरं स्वयमाविशेत्॥१०॥
तत्र कोशं बलंमित्रं व्यवहारं च वर्धयेत्।
पुरे जनपदे चैव सर्वदोषान् निवर्तयेत्॥११॥
भाण्डागारायुधागारं प्रयत्नेनाभिवर्धयेत्।
निचयान् वर्धयेत् सर्वांस् तथा यन्त्रकटङ्कटान्॥१२॥
काष्ठलोहतुषाङ्गारदारूपाषाणसञ्चयान्।
मज्जास्त्रेहेन267 सक्षौद्राण्यौषधान्यगदानि च॥१३॥
शणं सर्जरसं धान्यम् आयुधानि शरांस्तथा।
चर्म स्नायुं तथा वेत्रं मुञ्ज बिल्वाजिनान्वितान्268॥१४॥
आरामांश्चोदपानांश्च प्रभूतसलिलान् वरान्॥१४॥
निरोद्धव्यास्सदा राज्ञा क्षीरिणश्च महीरुहाः॥१५॥
सत्कृताश्चप्रयत्नेन आचार्यर्त्विक्पुरोहिताः।
महेष्वासास्स्थपतयस् सांवत्सरचिकित्सकाः॥१६॥
प्राज्ञा मेधाविनो दक्षा दान्ताश्शूरा बहुश्रुताः।
कुलीनास्सत्त्वसम्पन्ना युक्तास्सर्वेषु कर्मसु॥१७॥
पूजयेद्धार्मिकान्राजा निगृह्णीयादधार्मिकान्।
नियुञ्ज्याच्च प्रयत्नेन सर्ववर्णान् स्वकर्मसु॥१८॥
बाह्यमाभ्यन्तरं चैव पौरजानपदं जनम्।
चारै269स्सुविदितं कृत्वा ततः कर्म प्रयोजयेत्॥१९॥
चार मन्त्रं च270 कोशं च दण्डं चैव विशेषतः।
अनुतिष्ठेत् स्वयं राजा सर्वं ह्यत्र प्रतिष्ठितम्॥२०॥
उदासीनारिमित्राणां सर्वमेव चिकीर्षितम्।
पुरे जनपदे चैव ज्ञातव्यं ज्ञानचक्षुषा॥२१॥
ततस्तथा विधातव्यं सर्वमेवाप्रमादतः।
भक्तान्पूजयता नित्यं द्विषतश्च निगृह्णता॥२२॥
यष्टव्यं ऋतुभिर्नित्यं दातव्यं चाप्यपीडया।
प्रजानां रक्षणं कार्यंन कार्यं कर्म गर्हितम्॥२३॥
कृपणानाथवृद्धानां विधवानां च योषिताम्।
योगक्षेमं च वृत्तिं च नित्यमेव प्रकल्पयेत्॥२४॥
आश्रमेषु यथाकामं चेलभोजनभाजनम्।
स्वयं तूपहरेद्राजा सत्कृत्यानवमत्य271 च॥२५॥
आत्मानं सर्वकार्याणि तापसे राज्यमेव च।
निवेदयेत् प्रयत्नेन तिष्ठेत् प्रह्वश्च नित्यदा॥२६॥
सर्वार्थत्यागिनं राजा कुले जातं बहुश्रुतम्।
पूजयेत् तादृशं दृष्ट्वा शयनासनभोजनैः॥२७॥
तस्मिन् कुर्वीत विश्वासं राजा कस्याञ्चिदापदि।
तापसेषुहि विश्वासं नाधिकुर्वन्ति दस्यवः॥२८॥
तस्मिन् निधीनाधीत पुनः प्रत्यादीत च ।
न चाप्यभीक्ष्णं सेवेत भृशं वा प्रतिपूजयेत्॥२९॥
अन्यः कार्यस्स्वराष्ट्रेषुपरराष्ट्रेषुचापरः।
अटवीष्वपरः कार्यस् सामन्तनगरेऽपरः॥३०॥
तेषु सत्कारसम्पन्नं संविभागं च कारयेत्।
परराष्ट्राटवीष्वेषु यथात्मविषये तथा॥३१॥
ते कस्याञ्चिदवस्थायां शरणं शरणार्थिने।
राज्ञे दद्युर्यथाकामं तापसास्संशितव्रताः॥३२॥
एषते लक्षणोद्देशस् सङ्क्षेपेण प्रकीर्तितः।
यादृशं नगरं राजा स्वयमावस्तुमर्हति॥३३॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि अशीतितमोऽध्यायः॥८०॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि एकचत्वारिंशोऽध्यायः॥४१॥
[ अस्मिन्नध्याये ३३ श्लोकाः ]
______
॥ एकाशीतितमोऽध्यायः॥
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** भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति राष्ट्रगुप्तिप्रकारादिकथनम्॥**
______
युधिष्ठिरः—
राष्ट्रगुप्तिं च मे राजन्राष्ट्रस्यैव च सङ्ग्रहम्।
सम्यग्जि272ज्ञासमानाय प्रब्रूहि भरतर्षभ।१॥
भीष्मः—
राष्ट्रगुप्तिं273 च ते सम्यग् राष्ट्रस्यैव तु सङ्ग्रहम्।
हन्त ते सम्प्रवक्ष्यामि तत्त्वमेकमनाश्शृणु॥२॥
ग्रामस्याधिपतिः कार्यो दशग्रामपतिस्तथा।
विंशत्त्रिंशच्छतेशं च सहस्रस्य च कारयेत्॥३॥
ग्रामेयान् ग्रामदोषांश्च ग्रामिकः परिपालयेत् \।
तानाचक्षीत्दशिने दशिको विंशिने पुनः॥४॥
विंशाधिपस्तु तत् सर्वं वृत्तं जानपदे जने।
ग्रामाणां शतपालाय सर्वमेतन्निवेदयेत्॥५॥
यानि ग्रामिकभोज्यानि ग्रामिकस्तान्युपाश्नुते।
दशिकेन विभक्तव्यो दशिना विंशतिस्तथा॥६॥
ग्रामं ग्रामशमाध्यक्षो भोक्तुमर्हति सत्कृतः॥६॥
तदा तद् भरतश्रेष्ठ सुस्फीतं जनसङ्कुलम्।
तत्र ह्यनेकमायत्तं राज्ञो भवति भारत॥७॥
शाखानगरमर्हस्तु सहस्रपतिरुत्तमम्।
धान्यहैरण्यभोगेन भोक्तुं राष्ट्रीयसंज्ञितः॥८॥
तेषां यद् ग्रामकृत्यं स्याद् राष्ट्रकृत्यं च यद्भवेत्।
धर्मज्ञस्सचिवः कश्चित् तदवेक्षेदतन्द्रितः॥९॥
नगरे नगरे वा स्याद् एकस्सर्वार्थचिन्तकः।
उच्चस्स्थाने घोररूपो नक्षत्राणामिवग्रहः॥१०॥
स च तान् सम्परिक्रामेत् सर्वानेव सदा सदा।
तेषां वृत्ति परिणयेत् सम्यग्राष्ट्रेषुतच्चरैः॥११॥
जिघांसवः पापकामाः परस्वादायिनश्शठाः।
तत्तद्रक्षास्वधिकृतास् तेभ्यो रक्षेदिमाः प्रजाः॥१२॥
विक्रयं ऋयमध्वानं भक्तं च सपरिव्ययम्।
योगक्षेमं च सम्प्रेक्ष्य वणिजां कारयेत् करान्॥१३॥
उत्पत्तिं चानुवृत्तिं च फलं सम्प्रेक्ष्य चासकृत्।
शिल्पं प्रति करानेवं शिल्पिनः प्रति कारयेत्॥१४॥
उच्चावचाः274 करन्यायाः पूर्वराज्ञां युधिष्ठिर।
यथा यथा न हीयेयुस् तथा कुर्यान्महीपतिः॥१५॥
फलं कर्म च सम्प्रेक्ष्य तथा सर्वं प्रकल्पयेत्।
फलं कर्म च निर्हेतु न कश्चित् सम्प्रवर्तयेत्॥१६॥
यथा राजा च कर्ता च स्यातां कर्मणि भागिनौ।
समवेक्ष्य तथा राज्ञा प्रणेयास्सततं कराः॥१७॥
नोच्छिन्द्यादात्मनो मूलं परेषां वाऽतितृष्णया।
ईहाद्वाराणि संरुध्य राजा संवृतदर्शनः॥१८॥
प्रद्विषन्त्यपरिख्यातं राजानमतिवादिनम्।
प्रद्विष्टस्य कुतश्श्रेयोऽसंवृतो लभते श्रियम्॥१९॥
वत्सौपम्येन275 दोग्धव्यं राष्ट्रमक्षीणबुद्धिना।
ततो वत्सो जातबलः पीडां सहति भारत॥२०॥
न कर्म कुरुते वत्सो दुग्धेऽत्यर्थं युधिष्ठिर।
राष्ट्रमप्यतिदुग्धं हि न कर्म कुरुते महत्॥२१॥
यो राष्ट्रमनुगृह्णाति परिगृह्य स्वयं नृप।
सञ्जातमुपजीवानो लभते276 सुमहत् फलम्॥२२॥
आपदर्थं च निचयान् राजान इह चिन्वते।
राष्ट्रं ते कोशभूतं स्यात् कोशो वेश्मग्रहस्तथा॥२३॥
पौरजानपदान् सर्वान्संश्रितोपाश्रितांस्तथा।
यथाशक्त्यनुकम्पेत सर्वानन्तचरानपि॥२४॥
बाह्यं जनं भोजयित्वा भोक्तव्यो मध्यमस्सुखम्।
एवं न सम्प्रकुप्यन्ते जनास्सुखितदुःखिताः॥२५॥
प्रागेव तु धनादानाद् अनुभाष्य पुनः पुनः।
सन्निपात्य स्वविषयं भयं राष्ट्रेप्रदर्शयेत्॥२६॥
इयमापत् समुत्पन्ना परचक्रभयं महत्।
अपि नान्ताय कल्पेत वेणोरिव फलागमः॥२७॥
अरयो मां समुत्थाय बहुभिर्दस्युभिस्सह।
भृशमात्मवधायैव राष्ट्रमिच्छन्ति बाधितुम्॥२८॥
अस्यामाषदि घोरायां सम्प्राप्ते दारुणे भये।
परित्राणाय भवतां प्रार्थयिष्ये धनानि च॥२९॥
प्रति प्रदास्ये भवतां सर्वं चाहं भयक्षये।
नारयः प्रतिदास्यन्ति यद्धरेयु277र्बलादितः॥३०॥
कलत्रमादिं कृत्वा च सर्वस्वं विनशेदिति।
शरीरपुत्रदारार्थम् अर्थसञ्चय इष्यते॥३१॥
नन्दामि वः प्रभावेण पुत्राणामिव चोदये।
यथाशक्त्यनुगृह्णामि राष्ट्रस्यापीडनाय च॥३२॥
आपत्स्वेव निवोढव्यं भवद्भिस्सङ्गतैरिह।
न वः प्रियतरं कार्यं धनं कस्याञ्चिदापदि॥३३॥
इति वाचा मधुरया श्लक्ष्णया सोपचारया।
स्वरश्मीनभ्यवसृजेद् योगमाधाय कालवित्॥३४॥
प्रचारं भृत्यभरणं व्ययं गोग्रामतो भयम्।
योगक्षेमं च सम्प्रेक्ष्य गोमिनः कारयेत् करान्॥३५॥
उपेक्षिता हि नश्येयुर्278")गोमिनोऽरण्यवासिनः।
तस्मात् तेषु विशेषेण मृदुपूर्वं समाचरेत्॥३६॥
सान्त्वे नापेक्षणं279 दानम् अवेक्षा280 चाप्यभीक्ष्णशः।
गोमिनां पार्थ कर्तव्यस् संविभागः प्रियाणि च॥३७॥
अजस्रमुपभोक्तव्यं281 फलं गोमिषु सर्वशः।
प्रभावयति282 राष्ट्रं च व्यवहारं कृषिं तथा॥३८॥
तस्माद्गोमिषुयत्नेन प्रीतिं कुर्याद्विचक्षणः।
दयावानप्रमत्तश्च करान् सम्प्रणयेन्मृदून्॥३९॥
सर्वत्र क्षेमचरणं सुलभं नाम गोमिभिः।
न ह्यतस्सदृशं किञ्चिद् धनमस्ति युधिष्ठिर॥४०॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकाशीतितमोऽध्यायः॥८१॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि द्विचत्वारिंशोऽध्यायः॥४२॥
[अस्मिन्नध्याये ४०॥ श्लोकाः]
॥ द्व्यशीतितमोऽध्यायः॥
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**भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति प्रजाभ्यः करग्रहणादिप्रकारकथनम्॥ **
______
युधिष्ठिरः—
यदा राजा समर्थोऽपि कोशार्थी स्यान्महामते।
कथं प्रवर्तेत करस् तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
भीष्मः—
यथादेशं यथाकालम् अपि चैवं यथाबलम्।
अनुशिष्यात् प्रजा राजा धर्मात्मा तद्धिते रतः॥२॥
यथा तासां च मन्येत श्रेय आत्मन एव च।
तथा सर्वाणि धर्माणि राष्ट्रेराजा प्रवर्तयेत्283॥३॥
मधुदोहं दुहेद्राष्ट्रं भ्रमरान्न प्रतापयेत्।
वत्सापेक्षी दुहेच्चैव स्तनांश्चापि न कुट्टयेत्॥४॥
जलूकावत् पिबेद्राष्ट्रं मृदुनैव नराधिपः।
व्याघ्रीवापि वहेत्पुत्रान् न दंशेन्न च पीडयेत्॥५॥
यथा बिडालकः कर्णं आखुः पादत्वचं यथा।
अतीक्ष्णेनाभ्युपायेन तथा राष्ट्रं समापिबेत्॥६॥
अल्पेनाल्पेन देयेन वर्धमानं प्रदापयेत्।
ततो भूयस्ततो भूयः क्रयवृद्धिं समाचरेत्॥७॥
दमयन्निव दम्यानां शश्वद्वारं विवर्धयेत्।
मृदुपूर्वं प्रयत्नेन पाशमभ्यवहारयेत्॥८॥
असत्पाशावकीर्णास्ते भविष्यन्ति हि दुर्मदाः284।
उचितेनैव भोक्तव्यास् ते भविष्यन्त्ययत्नतः॥९॥
तस्मात् सर्वसमारम्भो दुर्लभः पुरुषं प्रति।
यथामुख्यान्सान्त्वयित्वा भोक्तव्या इतरे जनाः॥१०॥
ततस्तान् भेदयित्वाऽथ परस्परविवर्जितान्।
भुञ्जीत सान्त्वयित्वेह यथाकालमयत्नतः॥११॥
न चास्थाने न चाकाले करानेभ्यो निपातयेत्।
आनुपूर्व्येण सान्त्वेन यथाकालं यथाविधि॥१२॥
उपायान् प्रब्रवीम्येतान् न मे माया विवक्षिता।
अनुपायेन दमयन् प्रकोपयति वा जनम्॥१३॥
पानागारनिवेशांश्च वेशप्रापणिकांस्तथा।
कितवान्कुशीलवांश्चैव ये चान्ये केचिदीदृशाः॥१४॥
नियम्यास्सर्व एवैते ये राष्ट्रस्योपघातकाः।
राष्ट्रस्यैते प्रवर्तन्ते बाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः॥१५॥
न केनचिद्याचितव्यः कश्चित् किञ्चिदनापदि।
इति व्यवस्था भूतानां पुरस्तान्मनुना कृता॥१६॥
सर्वे तथा न जीवेयुर् न कुर्युः कर्म चोदितम्285।
सर्व एव त्रयो लोका न भवेयुरसंशयम्॥१७॥
प्रभुर्नियमने राजा य एतान् न नियच्छति।
भुङ्क्ते स तस्य पापस्य चतुर्भागमिति श्रुतिः॥१८॥
नियन्तव्यास्तु ते राज्ञा पापा ये स्युस्सदा नराः॥१८॥
कृतपापस्त्वसौ राजा य एतान् न नियच्छति।
तथा कृतस्याधर्मस्य चतुर्भागमुपाश्नुते॥१९॥
स्थानान्येतानि संयम्य प्रसङ्गो भूतिनाशनः।
कोऽतिप्रसक्तः पुरुषःकिमकार्यं विवर्जयेत्॥२०॥
आपद्येव तु याचेरन्येषांनास्ति परिग्रहः।
दातव्यं धर्मतस्तेभ्यस् त्वनुक्रोशाद्दयार्थिना॥२१॥
मा ते राष्ट्रे याचनका भवेयुर्मा च दस्यवः।
उपादातार एवैते नैते भूतस्य भावकाः286॥२२॥
ये भूतान्यनुगृह्णन्ति वर्धयन्ति च ये प्रजाः।
ते ते राष्ट्रेप्रवर्तन्तां मा भूतानां प्रबाधकाः॥२३॥
दण्डार्हास्तेमहाराज धनादानप्रयोजनाः।
प्रयोगं कारयेथास्ते यथा दद्युःकरांस्तथा॥२४॥
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं यच्चान्यत् किञ्चिदीदृशम्।
पुरुषैः कारयेद्राजा बहुभिस्सह कर्मभिः॥२५॥
न रक्षेत् कृषिगोरक्ष्यं वाणिज्यं चाप्यनुष्ठितः।
संशयं लभते किञ्चित् तेन राजा विगर्ह्यते॥२६॥
धनिनः पूजयेन्नित्यं धनाच्छादनभोजनैः।
वक्तव्यमनुगृह्णीध्वं प्रजास्सह मयेत्यथ॥२७॥
अङ्गमेतन्महाराज्ञो धनिनो नाम भारत।
ककुदं सर्वभूतानां धनस्थो नात्र संशयः॥२८॥
प्राज्ञश्शूरो धनाढ्यश्च स्वामी धार्मिक एव च।
तपस्वी सत्यवादी च बुद्धिमांश्चापि रक्षति॥२९॥
तस्मादेतेषु सर्वेषु प्रीतिमान् भव पार्थिव।
सत्यमार्जवमक्रोधम् आनृशंस्यं च पालय॥३०॥
एवं दण्डं च कोशं च मित्रं भूमिं च लप्स्यसे।
सत्यार्जवपरो राजा मित्रकोशबलान्वितः॥३१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि द्व्यशीतितमोऽध्यायः॥८२॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः॥४३॥
[ अस्मिन्नध्याये ३१॥श्लोकाः ]
______
॥ त्र्यशीतितमोऽध्यायः॥
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** भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति राजनीतिकथनम्॥**
______
भीष्मः—
वनस्पतीन् भक्ष्यफलान् न च्छिन्द्युर्विषये तव।
ब्राह्मणानां मूलफलं धर्ममाहुर्मनीषिणः॥१॥
ब्राह्मणेभ्योऽतिरिक्तं यद् भुञ्जीरन्नितरे जनाः।
न ब्राह्मणोपरोधेन चरेद्न्यः कथञ्चन॥२॥
विप्रश्चेत्त्यागमातिष्ठेद् आख्याया वृत्तिकर्शितः।
परिकल्पितवृत्तिस्स्यात् सदारश्च नराधिप॥३॥
सचेन्नोपरि वर्तेत वाच्यो ब्राह्मणसंसदि।
तस्मिन्निदानीं मर्यादाम् अयं लोकः करिष्यति॥४॥
असंशयं निवर्तेत न चेत् त्यक्ष्यत्यतः परम्।
पुरा परोक्षं वक्तव्यम् एतत् कौन्तेय शासनम्॥५॥
आहुरेवं जना ब्रह्मन् न चैतच्छ्रद्दधाम्यहम्।
निमन्त्र्यश्च भवेद्भोगैर्अवृत्त्या भेदमाचरेत्॥६॥
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं भूतानामिह जीवनम्।
ऊर्ध्वं चैतत् त्रयी विद्या सा भूतान् भावयत्युत॥७॥
अस्यां प्रयतमानायां ये स्युस्तत्परिपन्थिनः।
दस्यवस्तद्वधायैव ब्रह्मा क्षत्रमथाब्रवीत्॥८॥
शत्रूञ् जहि प्रजा रक्ष यजस्व ऋतुभिर्नृप।
युध्यस्व समरे धीरो भूत्वा कौरवनन्दन॥९॥
संरक्ष्यं रक्षते राजा यस्स राजन्यसत्तमः।
ये केचित् तं न रक्षन्ति तैरर्थो नास्ति कश्चन॥१०॥
सदैव राज्ञा बोद्धव्यं सर्वलोकाद्युधिष्ठिर।
तस्माद्धेतोर्हि भुञ्जीत मनुष्यानेव मानवः॥११॥
आन्तरेभ्यः परान्रक्षेत् परेभ्यः पुनरान्तरान्।
परान्परेभ्यस्स्वन्स्वेभ्यस् सर्वान्रक्षस्व नित्यदा॥१२॥
आत्मानं सर्वतो रक्षन् राजन्रक्षस्व मेदिनीम्।
आत्ममूलमिदं सर्वम्आहुर्हि विदुषोजनाः॥१३॥
किं स्विच्छिद्रं को नु सङ्गो कि मे स्विद् विनिपातितम्।
कुतो ममास्रवेद्दोष इति नित्यं विचिन्तयेत्॥१४॥
अतीतदिवसे287 वृत्तं प्रशंसन्ति न वा पुनः।
आप्तैश्चारैरनुमतैः पृथिवीमनुचारयेत्॥१५॥
जानीत यदि मे वृत्तं प्रशंसन्ति न वा पुनः।
कच्चिद्रोचेज्जनपदे कच्चिद्राष्ट्रेच मे यशः॥१६॥
धर्मज्ञानां धृतिमतां सङ्ग्रामेष्वपलायिनाम्।
राष्ट्रं च येऽनुजीवन्ति केचिद्राजानुजीविनः॥१७॥
अमात्यानां च सर्वेषां मध्यस्थानां च सर्वशः।
ये न चानुप्रशंसेयुर्निन्देयुरथ वा पुनः॥१८॥
सर्वान्सुपरिणीतांस्तन्कारयेथा युधिष्ठिर॥१८॥
एकान्तेन हि सर्वेषांन शक्यं तात रोचितुम्।
मित्रामित्रमथो मध्यं सर्वभूतेषु भारत॥१९॥
युधिष्टिरः—
तुल्य शील288बलानां हि तथाऽन्यैर्बहुभिर्गुणैः।
कथं स्यादधिकः कश्चित् स च भुञ्जीत मानवान्॥२०॥
भीष्मः—
यच्चराअचरानद्युर्अदंष्ट्रान्दंष्ट्रिणस्तथा।
आशीविषाइव क्रुद्धा भुजङ्गान् भुजगा इव॥२१॥
एतेभ्यश्चाप्रमत्तस्स्यात् संयुक्तश्च युधिष्ठिर।
भारुण्डसदृशा ह्येते निपतन्ति प्रमादतः॥२२॥
कच्चित् ते वणिजो राष्ट्रे नोद्विजन्ते करार्दिताः।
क्रीणन्ते बहु चाल्पेन कान्तारकृतनिश्रमाः॥२३॥
कच्चित् कृषिकरा राष्ट्रं न त्यजन्त्यतिपीडिताः।
ये वहन्ति धुरं राज्ञां संवहन्तीतरानपि॥२४॥
इतो दत्तेन जीवन्ति देवताः पितरस्तथा।
मानुषोरगरक्षांसि वयांसि पशवस्तथा॥२५॥
एषा ते राष्ट्रगुप्तिश्च राष्ट्रवृत्तिश्च भारत।
प्रोक्तोद्दिश्यैतमेवार्थं भूयो वक्ष्यामि पार्थिव॥२६॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि त्र्यशीतितमोऽध्यायः॥८३॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४४॥
[ अस्मिन्नध्याये २६ ॥श्लोकाः ]
______
॥ चतुरशीतितमोऽध्यायः॥
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** भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति उचथ्यमान्धातृसंवादानुवादः॥**
______
भीष्मः—
यानङ्गिराः क्षत्रधर्मान्उचथ्यो ब्रह्मवित्तमः।
मान्धात्रे यौवनाश्वाय प्रीतिमानभ्यभाषत॥१॥
स यथाऽनुशशासैनम्उचथ्यो ब्रह्मवित्तमः।
तत् तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि निखिलेन युधिष्ठिर॥२॥
उचथ्यः—
धर्माय राजा भवति न कामकरणाय च।
मान्धातरभिजानीहि राजा लोकस्य रक्षिता॥३॥
राजा चरति चेद्धर्मं देवभूयाय कल्पते।
स चेदधर्मं चरति नरकायैव गच्छति॥४॥
धर्मे तिष्ठन्ति भूतानि धर्मो राजनि तिष्ठति।
तं राजा साधु289 यश्शास्ति स राजा श्रियमश्नुते॥५॥
राजापराधाल्लक्ष्मीवान्मान्धातः पापउच्यते।
वेदाश्च धर्मा गच्छन्ति धर्मो नास्तीति चोच्यते॥६॥
अधर्मे वर्तमानानाम्अर्थसिद्धिः प्रदृश्यते।
तदेव मङ्गलं सर्वो लोकस्समनुवर्तते॥७॥
उच्छिद्यते धर्मवृत्तम्अधर्मो वर्तते महान्।
एव290माहुर्दिवारात्रं यदा पापो न वार्यते॥८॥
इदं मम इदं नेति साधूनां तात धर्मतः।
नैव व्यवस्था भवति यदा पापो न वार्यते॥९॥
वध्यानामिव291 सर्वेषां मनो भवति केवलम्।
मनुष्याणां महाराज यदा पापो न वार्यते॥१०॥
नैव भार्या न पशवो न क्षेत्रं न निवेशनम्।
प्रहश्येत मनुष्याणां यदा पापो न वार्यते॥११॥
देवाः पूजां न विन्दन्ति न स्वधां पितरस्तदा।
नापि पूज्यन्त्यतिथयो यदा पापो न वार्यते॥१२॥
न वेदानधिगच्छन्ति व्रतवन्तो द्विजातयः।
न यज्ञांस्तन्वते विप्रा यदा पापो न वार्यते॥१३॥
उभौ लोकावभिप्रेत्य राजानमसृजंस्तथा।
मुनयोऽथ महद्भूतम् अयं धर्मो भविष्यति॥१४॥
धर्मो यस्मिन्विराजेत तं राजानं प्रचक्षते।
यस्मिन् विलीयते धर्मस् तं देवा वृषलं विदुः॥१५॥
वृषोहि भगवान्धर्मो यस्तस्य कुरुते लयम्।
वृषलंतं विदुर्देवास् तस्माद्धर्मं न लोपयेत्॥१६॥
धर्मे वर्धति वर्धन्ति सर्वभूतानि भारत।
तस्मिन ह्रसति हीयन्ते तस्माद्धर्मान्विवर्धयेत्॥१७॥
धनानि स्रौति धर्मस्तु धारणाद्वेति निश्चयः।
मानवानां मनुष्येन्द्र स [सीमान्त292करस्स्मृतः॥१८॥
प्रसवार्थं हि भूतानां धर्मस्सृष्टस्स्वयम्भुवा।
तस्मात् प्रवर्त293येद्धर्मंप्रजानुग्रहकारणात्॥१९॥
तस्माद्धि राजशार्दूल धर्मश्रेष्ठ इति स्मृतः।
स राजा यः प्रजाश्शास्ति स सुहृद्भरतर्षभ॥२०॥
कामक्रोधावनादृत्य धर्मनेवानुपालयेत् ।
धर्मश्श्रेयस्करतमो राज्ञां भरतसत्तम्॥२१॥
धर्मस्य ब्राह्मणो योनिस् तस्मात् तं पूजयेत् सदा।
ब्राह्मणानां च मान्धातः कुर्यात् कामानमत्सरी॥२२॥
तेषां ह्यकामकरणाद् राज्ञस्सञ्जायते भयम्।
मित्राणि च नृपश्रेष्ठ तथाऽमित्रीभवन्त्यपि॥२३॥
ब्राह्मणान्हि सदाऽसूयन् बाल्याद्वैरोचनो बलिः।
अथास्माच्छ्रीरपाक्रामद् अन्यस्मिन् वै प्रतापिनि॥२४॥
ततस्तस्मादपाक्रम्य साऽगच्छत् पाकशासनम्॥२४॥
अथ सोऽन्वतपत् पश्चाच्छ्रियं दृष्ट्वा पुरन्दरे॥२५॥
एतत् फलमसूयाया अवमानस्य चाभि भो।
तस्माद्बुध्यस्व मान्धातर् मा त्वां जह्यात् प्रतापिनी॥२६॥
दर्पो नाम श्रियः पुत्रोऽधर्माज्जात इति श्रुतिः।
तेन देवासुरा राजन् नीतास्सुबहवो वशम्॥२७॥
राजर्षयश्च बहवस् तथा बुध्यस्व पार्थिव॥२७॥
राजा भवति तं जित्वा दासस्तेन पराजितः॥२८॥
स यथा दर्पसहितम्अधर्मं न निषेवते।
तथा वर्धस्व मान्धातश्चिरं चेत् स्थातुमिच्छसि॥२९॥
मत्तात् प्रमत्तादुन्मत्तात् पौगण्डाच्च विशेषतः।
निन्दितादसदाचाराद् दुर्हृदां चापि सेवनात्॥३०॥
निगृहीतादमात्याच्च स्त्रीभ्यश्चैव विशेषतः।
पर्वताद्विषमावृक्षाद्धस्तिनोऽश्वात्सरीसृपात्॥३१॥
एतेभ्योऽनित्ययुक्तस्स्या न्नक्तकार्यं294 च वर्जयेत्॥३१॥
अत्याशां चातिमानं च दम्भं क्रोधं च वर्जयेत्॥३२॥
अवज्ञातासु च स्त्रीषुक्लीबेषुस्वैरिणीषुच।
परभार्यासु कन्यासु मैथुनं नाचरेन्नृप॥३३॥
कुलेषु पापरक्षांसि जायन्ते वर्णसङ्करात्।
अपुमांसोऽङ्गहीनाश्च स्थूलजिह्वा विचेतसः॥३४॥
एते चान्ये च जायन्ते यदा राजा प्रमाद्यति।
तस्माद्राज्ञा विशेषेण वर्तितव्यं प्रजाहिते॥३५॥
क्षत्रियस्य प्रमत्तस्य दोषस्सञ्जायते महान्।
अधर्मास्सम्प्रवर्धन्ते प्रजासङ्करकारकाः॥३६॥
अशीते विद्यते शीतं शीते शीतं न विद्यते।
अतिवृष्टिरनावृष्टिर् व्याधिश्चाविशते प्रजाः॥३७॥
नक्षत्राण्युपतिष्ठन्ति ग्रहा घोरास्तथा गते।
उत्पाताश्चात्र दृश्यन्ते बहवो राजनाशनाः॥३८॥
अरक्षितात्मा यो राजा प्रजाश्चापि न रक्षति।
प्रजाश्च तेन क्षीयन्ते ताश्च सोऽनु विनश्यति॥३९॥
द्वावाददाते ह्येकस्य द्वयोश्च बहवोऽपरे।
कुमार्यः प्रविलीयन्ते तमाहुर्नृपदूषकम्॥४०॥
ममैतदिति नैतच्च मनुष्येष्ववतिष्ठते।
त्यक्तधर्मो यदा राजा प्रमादमनुतिष्ठति॥४१॥34
कालवर्षी च पर्जन्यो धर्मचारी च पार्थिवः।
सम्पद्यदेषाभवति संविभक्तसुखप्रजाः॥४२॥
यो न जानाति निर्हर्तुंवस्त्राणां रजको मलम्।
रत्नानि वा शोधयितुं यथा नास्ति तथैव सः॥४३॥
एवमेतद्द्विजेन्द्राणां क्षत्रियाणां विशामपि।
शूद्राश्चतुर्थावर्णानां नानाकर्मस्ववस्थिताः॥४४॥
कर्म शुद्रे कृषिर्वैश्ये दण्डनीतिस्तु राजनि।
ब्रह्मचर्यं तपो मन्त्रास् सर्वं चैव द्विजातिषु॥४५॥
तेषां यः क्षत्रियो वेद पात्राणामिव शोधकः।
शीलदोषान्विनिर्हर्तुं स पिता स प्रजापतिः॥४६॥
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिश्च भरतर्षभ।
राजवृत्तानि सर्वाणि राजैव युगमुच्यते॥४७॥
चातुर्वर्ण्यं तथा वेदाश् चातुराश्रम्यमेव च।
सर्वमेतत् प्रमुह्येत यदा राजा प्रमाद्यति॥४८॥
अग्नित्रेता136 त्रयी विद्या यज्ञाश्च सहदक्षिणाः।
सर्व एव प्रमुह्यन्ते यदा राजा प्रमाद्यति॥४९॥
राजैव कर्ता भूतानां राजैव च विनाशकः।
धर्मात्मा यस्स कर्ता स्याद् अधर्मात्मा विनाशकः॥५०॥
राज्ञो भार्याश्च पुत्राश्च बान्धवास्सुहृदस्तथा।
समेत्य सर्वे शोचन्ति यदा राजा प्रमाद्यति॥५१॥
हस्तिनोऽश्वाश्च गावश्चाप्युष्ट्राश्वतरगर्दभाः।
अधर्मवृत्ते नृपतौ सर्वे शोचन्ति पार्थिव॥५२॥
दुर्बलानां295 बलं सृष्टं धात्रा मान्धातरुच्यते।
सुबलं तं महद्भूतं यस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम्॥५३॥
यश्च भूतं सम्भजते भूता ये च तदन्वयाः।
अधर्मास्ते हि नृपतौ सर्वे सीदन्ति पार्थिव॥५४॥
दुर्बलस्य च यच्चक्षुर् मुनेराशीविषस्य च।
अविपह्यतमंमन्ये मा स्म दुर्बलमासदः॥५५॥
दुर्बलांस्तात मन्येथा नित्यमेव विमानितान्।
मा त्वां दुर्बलचक्षूंषि प्रद्हेयुस्सबान्धवम्॥५६॥
न हि दुर्बलदग्धस्य कुले किञ्चित् प्ररोहति।
आमूलान्निर्दहत्येव मा स्म दुर्बलमासदः॥५७॥
अबलं वै बलाच्छ्रेयो यच्चातिबलवद्बलम्।
बलस्याबलदग्धस्य न किञ्चिदवशिष्यते॥५८॥
विमानितो हतः क्लिष्टस् त्रातारं चेन्न विन्दति।
अमानुपकृतस्तत्र दण्डो हन्ति नराधिपम्॥५९॥
मा स्म तात बलस्थस्त्वं भुञ्जीथा दुर्बलं जनम्।
मा त्वां दुर्बलचक्षूंषि प्रदहेयुस्सबान्धवम्॥६०॥
यानि मिथ्याभिशप्तानां पतन्यश्रूणि रोहताम्।
तानि पुत्रान् पशून् घ्नन्ति तेषां मिथ्याभिशंसिनाम्॥६१॥
यदि नात्मनि पुत्रेषु न चेत् पौत्रेषु नप्तृषु।
न हि पापं कृतं कर्म सद्यः फलति गौरिव॥६२॥
यत्राबलो वध्यमानस् त्रातारं नाधिगच्छति।
मोहाद् दैवकृतस्तत्र दण्डः पतति दारुणः॥६३॥
युक्ता यदा जानपदा भिक्षन्ते ब्राह्मणा इव।
अभीक्ष्णं भिक्षुरूपेण राजानं घ्नन्तितादृशाः॥६४॥
राज्ञो यदा जनपदं बहवो राजपूरुषाः।
अनयेनोपवर्तन्ते तद्राज्ञः किल्बिषंमहत्॥६५॥
यदा युक्त्या नयन्त्यर्थान् कामादर्थवशेन च।
कृपणं याचमानानां तद्राज्ञो वैशसं महत्॥६६॥
महान वृक्षो जायते वर्धते च
तं चैव भूतानि समाश्रयन्ति।
यदा वृक्षश्छिद्यते दह्यते वा
तदाश्रया अनिकेता भवन्ति॥६७॥
यदाऽस्य राष्ट्रेधर्ममग्रेचरन्ति
संस्कारं वा राजपुत्र ब्रुवाणाः।
तैश्चाधर्मश्चरितो धर्ममोहात्
तूर्णं जह्यात् सुकृतं दुष्कृतं च॥६८॥
यत्र पापा ज्ञायमानाश्चरन्ति
सभां कलिर्विन्दति यत्र राज्ञः।
यत्र राजा शास्ति नरानशक्त्या296
न तद्राज्यं वर्धते भूमिपस्य॥६९॥
यश्चामात्यान् मानयित्वा यथा हि
मन्त्रे च युद्धे च नृपोऽनुयुञ्ज्यात्।
विवर्धते तस्य राज्यं नृपस्य
भुङ्क्ते महीं चाप्यखिलां चिराय॥७०॥
अत्रापि सुकृतं चैव वाचं चैव सुभाषिताम्।
समीक्ष्य पूजयेद्राजा धर्ममाप्नोत्यनुत्तमम्॥७१॥
संविभज्य यथा भुङ्क्ते न चान्यानवमन्यते।
निहन्ति बलिनं दृप्तं स राज्ञो धर्म उच्यते॥७२॥
यत्र297 सर्वं परित्राति वाचा कायेन कर्मणा।
पुत्रन्यासे न मृष्येत स राज्ञो धर्म उच्यते॥७३॥
संविभज्य यथा भुङ्क्ते नृपतिर्यदि पार्थिव।
दुर्बलानां बलं चैव स राज्ञो धर्म उच्यते॥७४॥
यदा शरणिकं298 राजा पुत्रवत् परिरक्षति।
भिनत्ति न च मर्यादां स राज्ञो धर्म उच्यते॥७५॥
यदाप्तदक्षिणैर्यज्ञैर्297 यजेत श्रद्धयान्वितः।
कामद्वेषावनाश्रित्य स राज्ञो धर्म उच्यते॥७६॥
कृपणानाथवृद्धानां यदार्तिमपकर्षति।
हर्षं सञ्जनयन्नॄणां स राज्ञो धर्म उच्यते॥७७॥
सत्यं पालयते गुप्त्यानित्यं भूमिं प्रयच्छति।
पूजयत्यतिथीन् नित्यं स राज्ञो धर्म उच्यते॥७८॥
निग्रहानुग्रहौतात् यत्र स्यातां प्रतिष्ठितौ।
अस्मिल्ँलोके परे चैव राजा प्राप्नोति तत्फलम्॥७९॥
यमो राजा धार्मिकाणां मान्धातः परमेश्वरः।
संयच्छन् यमवत् प्राणान्असंयच्छंस्तु पापकः॥८०॥
ऋत्विक्पुरोहिताचार्यान् सत्कृत्यानवमत्य च।
यदा सम्यक् प्रगृह्णाति स राज्ञो धर्म उच्यते॥८१॥
यतो यच्छति भूतानि सर्वाण्येवाविशेषतः।
तस्य राज्ञाऽनुकर्तव्यं यन्तव्या विधिवत् प्रजाः॥८२॥
सहस्राक्षेण राजा हि सर्वदैवोपमीयते।
स पश्यति हि यं धर्मं स धर्मः पुरुषर्षभ॥८३॥
अप्रमादेन शिक्षेथाः क्षमां बुद्धिं धृतिं मतिम्॥८३॥
भूतानां तत्त्वजिज्ञासा साध्वसाधु च सर्वदा।
सङ्ग्रहस्सर्वभूतानां दानं च मधुरा च वाक्॥८४॥
पौरजानपदाश्चैव गोप्तव्याश्च प्रजा यथा॥८५॥
न जात्वदक्षो नृपतिः प्रजाश्शक्नोति रक्षितुम्।
भारो हि सुमहांस्तात राज्यं नाम सुदुर्वहम्॥८६॥
तद्दण्डविन्नृपः प्राज्ञस् सर्वं शक्नोति रक्षितुम्।
न हि शक्यमदण्डेन क्लीबेनाबुद्धिनाऽपि वा॥८७॥
अभिरूपैः कुले जातैर् दक्षैर्भक्तैर्बहुश्रुतैः।
सर्वं बुद्ध्या परीक्षेथास् तापसाश्रमिणामपि॥८८॥
ततस्त्वं सर्वभूतानां धर्मं वेत्स्यसि वै परम्।
स्वदेशे परदेशे वा न ते धर्मो नशिष्यति॥८९॥
धर्मे चार्थे च कामे च धर्म एवोत्तरो भवेत्।
अस्मिल्ँलोके परे चैव धर्मवित् सुखमेधते॥९०॥
त्यजन्ति दारान् प्राणांश्च मनुष्याः प्रतिपूजिताः॥९०॥
सङ्ग्रहश्चैव भूतानां दानं च मधुरा च वाक्।
एतेभ्यश्चैव मान्धातस् सततं मा प्रमाद्यथाः॥९१॥
अप्रमादश्व शौचं च तात भूतिकरं महत्।
अप्रमत्तो भवेद्राजा छिद्रदर्शी परात्मनोः॥९२॥
नास्य च्छिद्रं परः पश्येच् छिद्रे तु परमन्वियात्॥९३॥
एतद्वृत्तं वासवस्य यमस्य वरुणस्य च।
राजर्षीणां च सर्वेषां तत् त्वमप्यनुपालय॥९४॥
तत् कुरुष्व महाराज वृत्तं राजर्षिसेवितम्।
आतिष्ठ दिव्यं पन्थानम् अह्नाय पुरुषर्षभ॥९५॥
धर्मवृत्तं हि राजानं प्रेत्य चेह च भारत।
देवर्षिपितृगन्धर्वाः कीर्तयन्त्यमितौजसः॥९६॥
भीष्मः—
स एवमुक्तो मान्धाता तेनोचथ्येन भारत।
कृतवानविशङ्कस्तद् एकः प्राप च मेदिनीम्॥९७॥
भवानेवं तथा सर्वं मान्धातेव महीपतिः।
धर्मं कृत्वा महीं रक्षन् स्वर्गं स्थानमवाप्स्यसि॥९८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि चतुरशीतितमोऽध्यायः॥८४॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः॥४५॥
[ अस्मिन्नध्याये ९८ श्लोकाः]
______
॥ पञ्चाशीतितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति वामदेववसुमनस्संवादानुवादः॥ १॥ भीष्मेणयुधिष्ठिरं प्रति वसुमनसे वामदेवोक्तराजधर्मकथनम्॥ २॥
______
युधिष्ठिरः—
कथं धर्मे स्थातुमिच्छन् राजा वर्तेत भारत।
पृच्छामि त्वां कुरुश्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
भीष्मः —
अत्राप्युदाहरन्तीमम्इतिहासं पुरातनम्॥
गीतं दृष्टार्थतत्त्वेन वामदेवेन भारत299॥२॥
राजन् वसुमना नाम कौसल्यो बलवाञ् शुचिः।
महर्षिंपरिपप्रच्छ वामदेवं यशस्विनम्॥३॥
वसुमनाः—
धर्मार्थसहितं वाक्यं भगवन्ननुशाधि माम्।
येन वृत्तेन वै तिष्ठन् न च्यवेयं स्वधर्मतः॥४॥
भीष्मः—
तमव्रवीद्वामदेवस् तेजस्वी जपतां वरः।
मेघवर्णमुपासीनं ययातिमिव नाहुपम्॥५॥
वामदेवः—
धर्ममेवानुवर्तस्व न धर्माद्विद्यते परम्।
धर्मे स्थिता हि राजानो जयन्ति पृथिवीमिमाम्॥६॥
अर्थसिद्धेः परं धर्मं मन्यते यो महीपतिः।
ऋतां च कुरुते बुद्धिं स्वधर्मेण विरोचते॥७॥
अधर्मदर्शी यो राजा बलादेव प्रवर्तते।
क्षिप्रमेवापयातोऽस्माद् उभौ प्रथममध्यमौ॥८॥
असत्पापिष्ठसचिवो वध्यो लोकस्य धर्महा।
सहैव परिवारेण क्षिप्रमेवावसीदति॥९॥
अर्थानामननुष्ठाता कामचारी विकत्थनः।
अपि सर्वां महीं लब्ध्वा क्षिप्रमेव विनश्यति॥१०॥
अथादधानः कल्याणम् अनसूयुर्जितेन्द्रियः।
वर्धते मतिमान्राजा स्रोतोभिरिव सागरः॥११॥
न पूर्णोऽस्मीति मन्येत धर्मतः कामतोऽर्थतः।
बुद्धितो मन्त्रतश्चापि सततं वसुधाधिप॥१२॥
एतेष्वेव हि सर्वेषु लोकयात्रा प्रतिष्ठिता।
एतानि शृण्वल्ँलभते यशः कीर्तिं श्रियं प्रजाः॥१३॥
एवं यो धर्मसंरम्भी धर्मार्थपरिचिन्तकः।
अर्थान्परीक्ष्यारभते तद् ध्रुवं महदश्नुते॥१४॥
अदाता ह्यनभिस्नेहो दण्डेनावर्तयन्प्रजाः।
साहसप्रकृती राजा क्षिप्रमेव विनश्यति॥१५॥
अथ पापं कृतं बुद्ध्या न च पश्यति बुद्धिमान्।
अकीर्त्याऽभिसमायुक्तो भूयो निरयमश्नुते॥१६॥
ततो न याचितुर्दातुश् शुक्लवर्णस्य वेदिनः।
व्यसनं स्वमिवोत्पन्नं विजिघांसन्ति मानवाः॥१७॥
यस्य नास्ति गुरुर्धर्मेन चान्याननुपृच्छति।
सुखतन्त्रार्थलाभेषु300 न चिरं महदश्नुते॥१८॥
गुरुप्रधानो धर्मेषु स्वयमर्थानवेक्षिता \।
धर्मप्रधानो लाभेषुस चिरं महदश्नुते॥१९॥
यत्राधर्मं प्रणयते दुर्बले बलवत्तरः।
तां वृत्तिमुपजीवन्ति ये भवन्ति तदन्वयाः॥२०॥
राजानमनुवर्तन्ते तं पापाभिप्रवर्तकम्।
अविनीतमनुष्यं तत् क्षिप्रं राष्ट्रं विनश्यति॥२१॥
यद्वृत्तमुपजीवन्ति प्रकृतिस्थस्य मानवाः।
तदेव विषमस्थस्य स्वजनोऽपि न मृष्यते॥२२॥
साहसप्रकृतिर्यश्च कुरुते किञ्चिदुल्बणम्।
अशास्त्रलक्षणो राजा क्षिप्रमेव विनश्यति॥२३॥
सद्वृत्ताचरितां वृत्तिं क्षत्रियो नानुवर्तते।
जितानामजितानां च क्षत्रधर्मादपैति सः॥२४॥
द्विषन्तं कृतकल्याणं गृहीत्वा नृपतिं रणे।
यो न मानयति द्वेषात् क्षत्रधर्मादपैति सः॥२५॥
शक्तस्301स्यात् सुमुखो राजा कुर्यात् तारणमापदि।
प्रियो भवति भूतानां न च विभ्रश्यते श्रियः॥२६॥
अप्रियं यस्य कुर्वीत भूयस्तस्य प्रियं चरेत्।
अचिरेण प्रियस्स स्याद्योऽप्रिये प्रियमाचरेत्॥२७॥
मृषावादंपरिहरेत् कुर्यात् प्रियमयाचितः।
श्रेयसो लक्षणं चैतद् विक्रमो यत्र दृश्यते॥२८॥
कीर्तिप्रधानो यश्च स्यात् समये यश्च तिष्ठति।
समर्थान् पूजयेद्यश्च न च स्पर्धेत यश्च तैः॥२९॥
न च कामान्न संरम्भान्न द्वेषाद्धर्ममुत्सृजेत्।
अमाययैव वर्तेत न च सत्यं त्यजेद्बुधः॥३०॥
दमं धर्मं च शीलं च क्षत्रधर्मं प्रजाहितम्॥३०॥
नापि तृप्येत प्रश्नेन नाभिभाविगिरं सृजेत्।
न त्वरेत न चासूयेत् तथा सङ्गृह्यते परः॥३१॥
प्रिये नातिभृशं हृष्येन्नाप्रिये वाऽतिसंज्वरेत्।
न मुह्येदर्थकृच्छ्रेषु प्रजानां हितमाचरेत्॥३२॥
यः प्रियं कुरुते नित्यं गुणतो वसुधाधिपः।
तस्य कर्माणि सिद्धयन्ति न च सन्त्यज्यते श्रियः॥३३॥
निवृत्तं प्रतिकूलेभ्यो वर्तमानमनुप्रिये।
भक्तं भजेत नृपतिस् तद्वै वृत्तं सतामिह॥३४॥
अप्रकीर्णेन्द्रियं राजा ह्यत्यन्तानुगतं शुचिम्।
शक्तं302 चैवानुरक्तं च युञ्ज्यान्महति कर्मणि॥३५॥
एवमेव गुणैर्युक्तो यो न रक्षति भूमिपम्।
भर्तुरर्थेष्वसूयन्तं न तं युञ्जीत कर्मणि॥३६॥
मूढमैन्द्रियकं लब्धम् अनार्यचरितं शठम्।
अनतीतोपधं हिंस्रं दुर्बुद्धिमबहुश्रुतम्॥३७॥
व्यक्तोपात्तं मद्यभक्तं द्यूतस्त्रीमृगयाप्रियम्।
कार्ये महति युञ्जानो हीयते नृपतिश्श्रिया॥३८॥
रक्षितात्मा तु यो राजा रक्ष्यान्यश्चापि रक्षति।
प्रजाश्च तस्य वर्धन्ते सुखं च महदश्नुते॥३९॥
ये केचिद्भूमिपतयस् सर्वांस्तानन्ववेक्षयेत्।
सुहृद्भिरनभिख्यातैस् तेन राजन् न रिष्यते॥४०॥
अपकृत्य बलस्थेन दूरस्थोऽस्मीति नाश्वसेत्।
श्येनानुचरितैर्ह्येतेनिपतन्ति प्रमाद्यतः॥४१॥
दृढमूलस्त्वदुष्टात्मा विदित्वा बलमात्मनः।
अबलानभियुञ्जीत न त्वेव बलवत्तरान्॥४२॥
विक्रमेण महीं लब्ध्वा प्रजा धर्मेण पालयन्।
आहवे निधनं कुर्याद् राजा धर्मपरायणः॥४३॥
मरणान्तमिदं सर्वं नेह किञ्चिदनामयम्।
तस्माद्धर्मे स्थितो राजा प्रजा धर्मेण पालयेत्॥४४॥
रक्षाधिकरणं युद्धं तथा धर्मानुशासनम्।
मन्त्रं वित्तं सुखं काले पञ्चभिर्वर्धते मही॥४५॥
एतानि यस्य गुप्तानि स राजा राजसत्तम्।
सततं वर्तमानोऽत्र राजा भुङ्क्ते महीमिमाम्॥४६॥
नैतान्येकेन शक्यानि सान्तयेनान्ववेक्षितुम्।
एतेष्वाप्तान्प्रतिष्ठाप्य राजा भुङ्क्ते महीं चिरम्॥४७॥
दातारं संविभक्तारम् आर्जवोपगतं शुचिम्।
असन्त्यक्तमनुष्यं च तं जनः कुरुते प्रियम्॥४८॥
यस्तु नैश्श्रेयसं श्रुत्वा ज्ञानेन प्रतिपद्यते।
आत्मनो मतमुत्सृज्य तं लोकोऽनुविधीयते॥४९॥
योऽर्थकामस्य वचनं प्रातिकूल्यान्न मृष्यते303।
शृणोति प्रतिकूलानि विमानादचिरादिव॥५०॥
अग्राह्यचरितां वृत्तिम् अत्यन्तं यो न बुध्यते।
जितानामजितानां च क्षत्रधर्मादपैति सः॥५१॥
मुख्यानमात्यानुत्सृज्य विहीनान् कुरुते प्रियान्।
स तैर्व्यसनमागम्य साधुमार्गं न विन्दति॥५२॥
यः कल्याणगुणाञ् ज्ञातीन्द्वेषान्नातिबुभूषते।
अदृढात्मा दृढक्रोधो नास्यार्थो रमतेऽन्तिके॥५३॥
अथ यो गुणसम्पन्नान् हृदयस्याप्रियानपि।
प्रियेण कुरुते वश्यांश्चिरं यशसि तिष्ठति॥५४॥
नाकाले प्रणयेदर्थान् नाप्रिये जातु संज्वरेत्।
प्रिये नातिभृशं हृष्येद् युज्येदारोग्यकर्मणि॥५५॥
के नानुरक्ता राजानः के दयां समुपाश्रिताः।
मध्यस्थदोषाःके चैषाम् इति नित्यं विचिन्तयेत्॥५६॥
न जातु बलवान्भूत्वा दुर्बले विश्वसेद्बुधः।
भारुण्डसदृशा ह्येतेनिपतन्ति प्रमाद्यतः॥५७॥
अपि सर्वैर्गुणैर्युक्तं भर्तारं प्रियवादिनम्।
अभिद्रुह्यति पापात्मा तस्माद्धि विजयेज्जनान्॥५८॥
भीष्मः—
एतद्राजोपनिषद् ययातिस्त्वाह नाहुषः।
मनुष्य विजये304 युक्तो हन्ति शत्रून्सबान्धवान्34॥५९॥
वामदेवः—
अयुद्धेनैव विजयं वर्धयेद्वसुधाधिपः।
जघन्यमाहुर्विजयं यद्युद्धेन नराधिप॥६०॥
न चाप्यलब्धंलिप्सेत मूले नातिदृढे सति।
न हि दुर्बलमूलस्य राज्ञो लाभो विवर्धते॥६१॥
यस्य स्फीतो जनपद्स् सम्पन्नप्रियराजकः।
सन्तुष्टपुष्टसचिवो दृढमूलस्स पार्थिवः॥६२॥
योधा यस्य सुसन्तुष्टास् स्वनुरक्तास्सुपूजिताः।
अल्पेनापि स दण्डेन महीं जयति भूमिपः॥६३॥
दण्डो हि बलवान् यत्र तत्र साम प्रयुज्यते।
प्रदानं सामपूर्वं च भेदमूलं प्रशस्यते॥६४॥
त्रयाणां विफलं कर्म यदा पश्येत भूमिपः।
रन्ध्रंज्ञात्वा ततो दण्डं प्रयुञ्जीताविचारयत्॥६५॥
अभिभूतो यदा शत्रुश्शत्रुभिर्बलवत्तरैः।
उपेक्षा तत्र कर्तव्या वध्यता बलिनां बलम्॥६६॥
दुर्बलो हि महीपालो यदा भवति भारत।
उपेक्षा तत्र कर्तव्या चतुर्णामविरोधिनी॥६७॥
उपायः पञ्चमस्सोऽपि सर्वेषां बलवत्तरः॥६८॥
भार्गवेण च गीतानां श्लोकानां कोसलाधिप।
विज्ञाय तत्वं तत्त्वज्ञ तत्त्वतस्तत् करिष्यसि॥६९॥
यदि रक्षःपिशाचेन हन्यते यत्र कुत्रचित्।
उपेक्षा तत्र कर्तव्या वध्यतां बलिनां बलम्॥७०॥
दुर्बलो हि महीपालश्शत्रूणां शत्रुमुद्धरेत्।
पादलग्नं करस्थेन कण्टकेनैव कण्टकम्॥७१॥
शठानां सचिवानां च म्लेच्छानां च महीपते।
एषउक्त उपायानाम् उपेक्षा बलवत्तमा॥७२॥
अश्मना नाशयेल्लोहं लोहेनाश्मानमेव तु।
बिल्वानीवापरैर्बिल्वैर्म्लेच्छान् म्लेच्छैःप्रसादयेत्॥७३॥
दासानां च प्रदृप्तानाम्एतदेवेह कारयेत्।
चण्डालम्लेच्छजातानां दण्डेन च निवारणम्॥७४॥
शठानां दुर्विनीतानां पूर्वमुक्तं समाचरेत्॥७४॥
अन्याश्शठाश्च सचिवास् तथा कुब्राह्मणादयः।
उपायैः पञ्चभिस्साम्यैश्चतुर्वर्गविरोधिनः॥७५॥
पौरजानपदा यस्य स्वनुरक्ता अपीडिताः।
राष्ट्रकर्मकरा ह्येते राष्ट्रस्य च विरोधिनः॥७६॥
दुर्विनीता विनीताश्च सर्वे साध्याः प्रयत्नतः॥७७॥
चण्डालम्लेच्छजात्याश्च पाषण्डाश्च विकर्मिणः।
बलिनश्चाश्रमाञ्चैव तथा गायकनर्तकाः॥७८॥
यस्य59 राष्ट्रेवसन्त्येते धान्योपचयकारिणः।
आयवृद्धौ सहायाश्च दृढमूलस्स पार्थिवः॥७९॥
सधनो धान्यवान् यश्च दृढमूलस्स पार्थिवः॥७९॥
प्रभावकालावधिकऔयदा मन्येत चात्मनः।
तदा लिप्सेत मेधावी परभूमिधनान्युत॥८०॥
भोगेपूदयमानस्य भूतेषु च दयावतः।
वर्धते त्वरमाणस्य निचयो रक्षितात्मनः॥८१॥
तक्षयात्मानमेवैष वनं परशुना यथा।
यस्सम्यग्वर्तमानेषु स्वेषु मिथ्या प्रवर्तते॥८२॥
न च द्विषन्तः क्षीयन्ते राज्ञस्तस्य च निघ्नतः।
क्रोधं नियन्तुं यो वेद तस्य द्वेष्टा न विद्यते॥८३॥
यदार्यजनविद्विष्टं कर्म तन्नाचरेद्बुधः।
यत् कल्याणमभिध्यायेत् तत्रात्मानं नियोजयेत्॥८४॥
नैनमन्येऽपि जानन्ति नात्मना परितप्यते।
कृत्यशेषेण यो राजा सुखान्यनुबुभूषते॥८५॥
इदं वृत्तं मनुष्येषु वर्तयेद्यो महीपतिः।
उभौ लोको विनिर्जित्य विजये सम्प्रतिष्ठति॥८६॥
भीष्मः—
इत्युक्तो वामदेवेन स तथा कृतवान्नृपः।
तथा कुर्वंस्त्वमप्येतल्लोकौजेता न संशयः॥८७॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि पञ्चाशीतितमोऽध्यायः॥८५॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४६॥
[ अस्मिन्नध्याये ८७॥श्लोकाः]
[ वामदेवगीता समाप्ता ]
______
॥ षडशीतितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति युद्धधर्मकथनम्॥
______
युधिष्ठिरः—
अथ यो विजिगीषेत क्षत्रियः क्षत्रियं रणे।
कस्तत्र विजयो धर्म एतं पृष्टो वदस्वमे॥१॥
भीष्मः—
ससहायोऽसहायो वा राष्ट्रमागम्य भूमिपः।
ब्रूयादहं वो राजेति रक्षिष्यामि च वस्सदा॥२॥
मम धर्मबलिं दत्त किं वा मां प्रतिवक्ष्यथ।
ते चेत्त305मागतं तत्र वृणीयुः कुशलं भवेत्॥३॥
ते चेमं क्षत्रियास्सन्तो विरुध्येरन्कदाचन।
सर्वोपायैर्नियन्तव्याविकर्मस्था नराधिप।४॥
अशस्त्रं क्षत्रियं ज्ञात्वा शस्त्रं गृह्णात्यथापरः।
त्राणायाप्यसमर्थं तं मन्यमानमतीव च॥५॥
युधिष्ठिरः—
अथ यः क्षत्रियो राजा क्षत्रियं प्रत्युपाव्रजेत्।
कथं स प्रतियोद्धव्यस् तन्मे ब्रूहि पितामह॥६॥
भीष्मः—
नासन्नद्धो नाकवचो योद्धव्यः क्षत्रियो रणे।
एक एकेन भाव्यश्च विसृजस्व क्षिपामि वा॥७॥
स चेत् सन्नद्ध आगच्छेत् सन्नद्रव्यं तदा भवेत्।
स चेत् ससैन्य आगच्छेत् ससैन्यस्तमथाह्वयेत्॥८॥
स चेन्निकृत्या युध्येत निकृत्या प्रतियोधयेत्।
अथ चेद्धर्मतो युध्येद् धर्मेणैव निवारयेत्॥९॥
नाश्वेन रथिनं यायाद् उदियाद्रथिनं रथी।
व्यसने न प्रहर्तव्यो न भीताय जिताय वा॥१०॥
तेषु लिप्तो न कर्णी स्याद् असतामेतदायुधम्।
यथार्थमेव योद्धव्यं न क्रुद्ध्येत जिघांसतः॥११॥
नास्त्येकस्य गजो युद्धे गजश्चैकस्य विद्यते।
न पदातिर्गजं युध्येन्न गजेन पदातिनम्॥१२॥
हस्तिना योधयेन्नागं कदाचिच्छिक्षितो हयः।
दिव्यास्त्रबलसम्पन्नः कामं युध्येत सर्वदा॥१३॥
नागे भूमौ समे चैव रथेनाश्वेन वा पुनः॥१३॥
रामरावणयोर्युद्धे हरयो वै पदातयः।
लक्ष्मणश्च महाभागस् तथा राजन्विभीषणः॥१४॥
रावणस्यान्तकाले च रथेनैन्द्रेण राघवः।
निजधान दुराचारं रावणं पापकारिणम्॥१५॥
दिव्यास्त्रबलसम्पन्ने सर्वमेतद्विधीयते।
देवासुरेषु युद्धेषु दृष्टमेतत् पुरातनैः॥१६॥
साधूनां तु मिथो भेदे साधुश्चेद्व्यसनी भवेत्।
सप्राणो नाभिहन्तव्यो नानपत्यः कथञ्चन॥१७॥
भग्नशस्त्रो विपन्नश्च छिन्नज्यो हतवाहनः।
चिकित्स्यस्यात् स्वविषये प्राप्येव स्वगृहं भवेत्॥१८॥
नाव्रणश्चापि मोक्तव्य एष धर्मस्सनातनः॥१९॥
तस्माद्धर्मेण योद्धव्यम् इति स्वायम्भुवोऽब्रवीत्।
सत्सु नित्यस्सतां धर्मस् तमास्थाय न नाशयेत्॥२०॥
यो वै जयत्यधर्मेण क्षत्रियोऽधर्म306कारकः।
आत्मानमात्मना हन्ति पापो निकृतिजीवनः॥२१॥
कर्म चैतदसाधूनां साधून्योऽसाधुना जयेत्।
धर्मेण निधनं श्रेयो न जयः पापकर्मणा॥२२॥
नाधर्मश्चरितो राजन्सद्यः फलति गौरिव।
मूलान्यस्य प्रशाखाश्च दहन्समनुगच्छति॥२३॥
पापेन कर्मणा वित्तं लब्ध्वा पापः प्रहृष्यति।
स वर्धमानस्तेनैव पापः पापे प्रसज्यते॥२४॥
न धर्मोऽस्तीति मन्यन्ते शुचीनपहसन्ति च॥२४॥
अश्रद्दधानभावाच्च विनाशमुपगच्छति।
स बद्धो वारुणैः पाशैर् अमर्त्यैरवमन्यते॥२५॥
महाद्दतिरिवाध्मातस् स्वकृतेनैव वर्धते।
ततस्समूलो ह्रियते नदीकूल इव द्रुमः॥२६॥
अथैनमभिनिन्दन्ति भिन्नं कुम्भमिवाश्मनि।
तस्माद्धर्मेण विजयं कोशं लिप्सेच्च भूमिपः॥२७॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि षडशीतितमोऽध्यायः॥८६॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥४७॥
[अस्मिन्नध्याये २७॥ श्लोकाः ]
______
॥ सप्ताशीतितमोऽध्यायः॥
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** भीष्मेण युधिष्टिरं प्रति राजधर्मकथनम्॥**
______
भीष्मः—
नाधर्मेण महीं जेतुं लिप्सेत पृथिवीपतिः।
अधर्माद्विजयं लब्ध्वा को नु मन्येत भूमिपः॥१॥
अधर्मयुक्तो विजयो न ध्रुवोऽस्वर्ग्यएव च।
पातयत्येव राजानं महीं च भरतर्षभ॥२॥
विशीर्णकवचं चैव तवास्मीति च वादिनम्।
कृताञ्जलिं न्यस्तशस्त्रं गृहीत्वा न विहिंसयेत्॥३॥
बलेन विजितो यश्च न स वध्येत307 भूमिपः।
संवत्सरं सम्प्रणयेत् तस्माज्जातः पुन308र्भवेत्॥४॥
न च संवत्सरं कन्यास् स्प्रष्टव्यास्सहसा हृताः।
एवमेव धनं सर्वं यच्चान्यत् सहसा हृतम्॥५॥
न तु वध्ये धनं तिष्ठेल्लिप्सेयुर्ब्राह्मणादयः।
युञ्जीरन् वाऽप्यनडुहः क्षन्तव्यं वा पुनर्भवेत्॥६॥
राज्ञाराजैव योद्धव्यस् तथा धर्मो विधीयते।
नान्यो राजानमभ्यस्याद् अराजन्यः कथञ्चन॥७॥
अनीकयोस्संहतयोर् यदीयाद्ब्राह्मणोऽन्तरा।
शान्तिमिच्छन्नुभयतो न योद्धव्यं तदा भवेत्॥८॥
मर्यादां शाश्वती भिन्द्याद् ब्राह्मणं योऽतिलङ्घयेत्।
अथ चेल्लङ्घयेदेको मर्यादां क्षत्रियब्रुवः॥९॥
अमन्त्रेयस्तदूर्ध्वं स्याद् अनादेयश्च संसदि॥९॥
या तु धर्मविलोपेन मर्यादाभेदनेन च।
तां वृत्तिं नानुवर्तेत विजिगीषुर्महीपतिः॥१०॥
धर्मलब्धाद्धि विजयात् को लाभो ह्यधिको भवेत्॥११॥
सहसा नम्यभूतानि क्षिप्रमेव प्रसादयेत्।
सान्त्वेन भेददानेन स राज्ञः परमो नयः॥१२॥
युज्यमानस्य योगेन स्वराष्ट्रादभितापिताः।
अमित्रान् पर्युपासीरन्व्यसनौघप्रतीक्षिणः॥१३॥
अमित्रोपग्रहं चास्य ते कुर्युः क्षिप्रमापदि।
अतुष्टास्सर्वतो राजन्राजध्वंसनकाङ्क्षिणः॥१४॥
नामित्रो विनिकर्तव्यो नातिच्छेद्यः कथञ्चन।
जीवितं ह्यप्रतिच्छन्नस् सन्त्यजेदेकदा नरः॥१५॥
अल्पेनापि च संयुक्तस् तुष्यते नापराधिनः।
शुद्धजीवितमेवापि तादृशो बहुमन्यते॥१६॥
यस्य स्फीतो जनपदस् सम्पन्नः प्रियराजकः।
सन्तुष्टभृत्यसचिवो दृढमूलस्स पार्थिवः॥१७॥
ऋत्विक्पुरोहिताचार्या ये चार्याश्श्रुतिसम्मताः।
पूजार्हाःपूजिता यस्य स वै लोकविदुच्यते॥१८॥
एतेनैव हि वृत्तेन महीं प्राप्य नरोत्तमः।
अन्येऽपि चैव विजयं विजिगीषन्ति पार्थिवाः॥१९॥
भूमिवर्जं पुरं राजा जित्वाराजानमाहवे।
अपि चास्यौषधीशश्वद् आजहार प्रतर्दनः॥२०॥
अग्निहोत्राण्यल्पशेषंतेषां भाजनमेव च।
आजहार दिवोदासस् ततो विप्रकृतोऽभवत्॥२१॥
सराजकानि राष्ट्राणि नाभागो दक्षिणां ददौ।
अन्यत्र श्रोत्रियस्वाच्च तापसस्वाच्च भारत॥२२॥
उच्चावचानि वृत्तानि धर्मज्ञानां युधिष्ठिर।
आसन्राज्ञां पुराणानां सर्वं हि मम रोचते॥२३॥
सर्वविद्यातिरेकाद्वा जेतुमिच्छेन्महीपतिः।
न मायया न दम्भेन य इच्छेद्भूतिमात्मनः॥२४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि सप्ताशीतितमोऽध्यायः॥८७॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः॥४८॥
[ अस्मिन्नध्याये २४ श्लोकाः ]
______
॥ अष्टाशीतितमोऽध्यायः॥
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** भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति सयुक्तिकं युद्धस्य धर्म्यत्वसमर्थनम्॥**
______
युधिष्टिरः—
क्षत्रधर्मान्न पापीयान्धर्मोऽस्ति भरतर्षभ।
अभियाने च युद्धे च राजा हन्ति महाजनम्॥१॥
कथं स्म कर्मणा केन लोकाञ्जयति पार्थिवः।
विद्वञ् जिज्ञासमानाय प्रब्रूहि भरतर्षभ॥२॥
भीष्मः—
निग्रहेण च पापानां साधूनां प्रग्रहेण च।
यज्ञैर्दानैश्च राजानो भवन्ति शुचयोऽमलाः॥३॥
उपरुन्धन्ति309 राजानो भूतानि विजयार्थिनः।
त एव विजयं प्राप्य वर्धयन्ति पुनः प्रजाः॥४॥
अपविध्यन्ति पापानि दानयज्ञतपोबलाः।
अनुग्रहेण भूतानां पुण्यमेषां प्रवर्धते।५॥
यथैव क्षेत्रनिर्वाहो निर्दहेत्क्षेत्रमेकदा।
हिनस्ति धान्यकक्षं च न च धान्यं विनश्यति॥६॥
एवं शस्त्राणि मुञ्चन्तो घ्नन्त्यवध्याननेकधा।
तस्यैषा निष्कृतिर्दृष्टा भूतानां भावनं पुनः॥७॥
यो भूतानि सदाऽनर्थाद्भयात् क्लेशाच्च रक्षति।
दस्युभ्यः प्राणदाता च धनदस्सुखदो विराट्॥८॥
स सर्वयज्ञैरीजानो राजा वाऽभयदक्षिणैः।
अनुभूयेह भद्राणि प्राप्नोतीन्द्रसलोकताम्॥९॥
ब्राह्मणार्थेसमुत्पन्ने योऽभिनिष्पत्ययुध्यति।
आत्मानं यूपमुच्छ्रिय सयज्ञोऽनन्तदक्षिणः॥१०॥
अभितो विकिरञ् शत्रून्प्रतिगृह्णञ्शरांस्तु यः।
न तस्मात् त्रिदशाश्श्रेयो भूतं पश्यन्ति किञ्चन॥११॥
तस्य यावन्ति शस्त्राणि त्वचं भिन्दन्ति संयुगे।
तावतस्सोऽश्नुते लोकान् सर्वकामदुहोऽक्षयान्॥१२॥
यदस्य रुधिरं गात्राद् आहवेषु प्रवर्तते।
सह तेनैव स्रावेण सर्वपापैः प्रमुच्यते॥१३॥
यानि दुःखानि सहते प्राणानामभिपातने।
न तपोऽस्ति ततो भूय इति धर्मविदो विदुः॥१४॥
पृष्ठतो भीरवस्सङ्ख्ये वध्यन्ते धर्मपूरूषाः।
शूराच्छरणमिच्छन्तः पर्जन्यादिव जीवितम्॥१५॥
यदि शूरं तथा क्षेमे प्रतीक्षेरंस्तथा भये।
प्रतिरूपं जनाः कुर्युर् न च तद्वर्तते तथा॥१६॥
यदि ते कृतमाज्ञाय नमस्कुर्युस्सदैव तम्।
युक्तं चार्यं च कुर्युस्तेन च तद्वर्तते तथा॥१७॥
पुरुषाणां समानानां दृश्यते समनन्तरम्।
सङ्ग्रामेऽनीक वेलायाम्310 उत्कृष्टेषु पतत्सु च॥१८॥
पतत्यभिमुखं शूरः परा311ठ्भीरुः पलायते।
आस्थाय स्वर्गसोपानं सहायान्विषमे त्यजन्॥१९॥
मा स्म तांस्तादृशांस्तात जनिष्ठाः पापपूरुषान्॥१९॥
ये सहायान् रणे हित्वा स्वस्तिमन्तो गृहान् ययुः।
अस्वस्ति तेभ्यः कुर्वन्ति देवा इन्द्रपुरोगमाः॥२०॥
त्यागे नीच स्सहायानां312 स्वन्प्राणांस्त्रातुमिच्छति॥२१॥
तं हन्युः काष्ठलोहैर्वा दहेयुर्वा कथञ्चन।
पशुवन्मारयेयुर्वा क्षत्रिया ये स्युरीदृशाः॥२२॥
अधर्मः क्षत्रियस्यैषयश्शय्यामरणो भवेत्।
विसृजञ्श्रेष्मपित्तानि कृपणं परिदेवयेत्॥२३॥
अविक्षतेन देहेन प्रलयं योऽधिगच्छति।
क्षत्रियो नास्य तत् कर्म प्रशंसन्ति पुराविदः॥२४॥
न गृहे मरणं तात क्षत्रियस्य प्रशस्यते।
शौण्डीराणामशौण्डीरम् अधर्मं कृपणं तु तत्॥२५॥
इदं कृच्छ्रमहो दुःखं पापीय इति निष्टनन्।
प्रतिध्वस्तमुखः पृतिस् स्वजनान् बहु शोचयन्॥२६॥
अरोगाणां स्पृहयते मुहुर्मृत्युमपीच्छति॥२६॥
धीरो दृप्तोमनस्वी च नेदृशं मृत्युमर्हति॥२७॥
रणेषु कदनं कृत्वा सुहृद्भिः प्रतिपूजितः।
तीक्ष्णैश्शस्त्रैस्सुविश्लिष्टः क्षत्रियो मृत्युमर्हति॥२८॥
शूरो हि सत्त्वमन्युभ्याम् आविष्ठो युध्यते भृशम्।
कृत्यमानानि गात्राणि परैर्नैवावबुध्यते॥२९॥
स सङ्ख्येनिधनं प्राप्य प्रशस्तं लोकपूजितम्।
स्वधर्मं विपुलं प्राप्य शक्रस्यैति सलोकताम्म्॥३०॥
सर्वो योधः परं सत्त्वम्आतिष्ठंस्त्यक्तजीवितः।
सम्प्राप्नोतीन्द्रसालोक्यं शूरः पृष्ठमदर्शयन्॥३१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि अष्टाशीतितमोऽध्यायः॥८८॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि एकोनपञ्चाशोऽध्यायः॥४९॥
[ अस्मिन्नध्याये ३१ श्लोकाः ]
______
॥ एकोननवतितमोऽध्यायः॥
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** भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति सुदेवस्ययुद्धेनदेवलोकप्राप्तिप्रतिपादकेन्द्राम्बरीषसंवादानुवादः॥**
______
युधिष्ठिरः—
के लोका युध्यमानानां शूराणामनिवर्तिनाम्।
भवन्ति निधनं प्राप्य तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
भीष्मः—
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
अम्बरीषस्य संवादम्इन्द्रस्य च युधिष्ठिर॥२॥
अम्बरीषो हि नाभागस् स्वर्गं जित्वा सुदुर्जयम्।
ददर्श सुरलोकस्थं स शक्रं सचिवैस्सह॥३॥
सर्वतेजोमयं दिव्यं विमानवरमास्थितम्।
उपर्युपरि गच्छन्तं स्थानं सेनापतिं शुभम्॥४॥
स दृष्ट्वोपरि गच्छन्तं सेनापतिमुदारधीः।
शूरस्थानमनुप्राप्तं सुदेवं नाम नामतः॥५॥
ऋद्धिं दृष्ट्वा सुदेवस्य विस्मितः प्राह वासवम्॥५॥
अम्बरीषः—
सागरान्तां मही कृत्स्नाम् अनुशास्य यथाविधि।
चातुर्वर्ण्यं यथाशास्त्रं प्रवृत्तो धर्मकाम्यया॥६॥
ब्रह्मचर्येण घोरेण आचार्यकुलसेवया \।
वेदानधीय धर्मेण राजशास्त्रं च केवलम्॥७॥
अतिथीनन्नदानेन पितॄंश्च स्वधया तथा।
ऋत्विक्सहायो दीक्षाभिर् देवान् यज्ञैरनुत्तमैः॥८॥
क्षत्रधर्मे स्थितो भूत्वा यथाशास्त्रं यथाविधि।
उदीक्षमाणः पृतनां जयामि युधि वासव॥९॥
देवराज सुदेवोऽयं मम सेनापतिः पुरा।
आसीद्योधःप्रशान्तात्मा सोऽयं कस्मादतीत्य माम्॥१०॥
विमानं सूर्यसङ्काशम् आस्थितो मोदते दिवि॥११॥
नानेन ऋतुभिर्मुख्यैर् इष्टं नैव द्विजातयः।
तर्पिता विधिवच्छक्रसोऽयं कस्मादतीत्य माम्॥१२॥
ऐश्वर्यमीदृशं313 प्राप्तस् सर्वदेवैस्सुदुर्लभम्॥१२॥
शक्रः—
यदनेन कृतं कर्म प्रत्यक्षं ते महीपते।
पुरा पालयतस्सम्यक् पृथिवीं धर्मतो नृप॥१३॥
शत्रवो निर्जितास्सर्वे ये तवाहितकारिणः॥१४॥
संयमो वियमश्चैव सुयमश्च महाबलः।
राक्षसा दुर्जया लोके त्रयस्ते युद्धदुर्मदाः॥१५॥
पुत्रास्ते शतशृङ्गस्य राक्षसस्य महीपतेः॥१५॥
अथ तस्मिञ् शुभे काले तव यज्ञं वितन्वतः।
अश्वमेधं महायागं देवानां हितकाम्यया॥१६॥
तस्य ते खलु विघ्नार्थम् आगता राक्षसास्त्रयः॥१७॥
कोटीशतपरीवारां राक्षसानां महाचमूम्।
परिगृह्य ततस्सर्वाः प्रजा बन्दीकृतास्तव॥१८॥
विह्वलाश्च प्रजास्सर्वास् सर्वे च तव सैनिकाः।
निराकृतस्त्वया चासीत् सुदेवस्सैन्यनायकः॥१९॥
तत्रामात्यवचश्श्रुत्वा निरस्तस्सर्वकर्मसु॥१९॥
श्रुत्वा तेषां वचो भूयस् सोपधं वसुधाधिष।
सर्वसैन्यसमायुक्तस् सुदेवः प्रेरितस्त्वया॥२०॥
राक्षसानां वधार्थाय दुर्जयानां नराधिप॥२१॥
नाजित्वा राक्षसीं सेनां पुनरागमनं तव।
बन्दीमोक्षमकृत्वा च न चागमनमिष्यते॥२२॥
सुदेवस्तद्वचश्श्रुत्वा प्रस्थानमकरोन्नृप।
सम्प्राप्तश्च स तं देशं यत्र बन्दीकृताः प्रजाः॥२३॥
पश्यति स्म महाघोरां राक्षसानां महाचमूम्।
दृष्ट्वा सञ्चिन्तयामास सुदेवो वाहिनीपतिः॥२४॥
नेयं शक्या चमूर्जेतुम् अपि सेन्द्रैस्सुरासुरैः॥२४॥
नाम्बरीषःकलामेकाम् एषां क्षपयितुं क्षमः।
दिव्यास्त्रबलभूयिष्ठः किमहं पुनरीदृशः॥२५॥
ततस्सेनां पुनस्सर्वां प्रेषयामास पार्थिव314।
यत्र त्वं सहितस्सर्वैर् मन्त्रिभिस्सोपधैर्नृप॥२६॥
ततो रुद्रं महादेवं प्रपन्नो जगतः पतिम्।
श्मशाननिलयं देवं तुष्टाव वृषभध्वजम्॥२७॥
स्तुत्वा शस्त्रं समादाय स्वशिरश्छेत्तुमुद्यतः।
कारुण्याद्देवदेवेन गृहीतस्तस्य दक्षिणः॥२८॥
सपाणिस्सह शस्त्रेण दृष्ट्वा चेदमुवाच ह॥२९॥
रुद्रः—
किमिदं साहसं पुत्र कर्तुकामो वदस्व मे॥२९॥
इन्द्रः—
सउवाच महादेवं शिरसा त्ववनीं गतः॥३०॥
सुदेवः—
भगवन् वाहिनीमेनां राक्षसानां सुरेश्वर।
अशक्तोऽहं रणे जेतुं तस्मात् त्यक्ष्यामि जीवितम्॥३१॥
गतिर्भव महादेव ममार्तस्य जगत्पते॥३१॥
नागन्तव्यमजित्वा च मामाह जगतीपतिः।
अम्बरीषो महादेव क्षारितस्सचिवैस्सह॥३२॥
इन्द्रः—
तमुवाच महादेवस् सुदेवं पतितं क्षितौ।
अधोमुखं महात्मानं सत्वानां हितकाम्यया॥३३॥
धनुर्वेदं समाहूय सगणं सहविग्रहम्।
रथनागाश्वकलिलं दिव्यास्त्रसमलङ्कृतम्॥३४॥
रथं च सुमहाभागं येन तत् त्रिपुरं हतम्।
धनुः पिनाकं खङ्गं च रौद्रमस्त्रं च शङ्करः॥३५॥
निजघानासुरान् सर्वान् येन देवस्त्रियम्बकः।
उवाच च महादेवस् सुदेवं वाहिनीपतिम्॥३६॥
रुद्रः—
रथादस्मात् सुदेव त्वं दुर्जयस्तु सुरासुरैः।
मायया मोहितो भूमौ न पदंकर्तुमर्हसि॥३७॥
अत्रस्थस्त्रिदशान् सर्वाञ् जेष्यसे सर्वदानवान्॥३८॥
राक्षसाश्च पिशाचाश्च न शक्ता द्रष्टुमीदृशम्।
रथं सूर्यसहस्राभं किमु योद्धुं त्वया सह॥३९॥
इन्द्रः—
स जित्वा राक्षसान् सर्वान्कृत्वा वन्दीविमोक्षणम्315।
घातयित्वा च तान् सर्वान् बाहुयुद्धे त्वयं हृतः॥४०॥
वियमं प्राप्य भूपाल वियमश्च निपातितः॥४०॥
तस्य विक्रमतस्तात् सुदेवस्य बभूव ह।
सङ्क्रामयज्ञस्सुमहान् यश्चान्यो युध्यते नरः॥४१॥
सन्नद्धोदीक्षितस्सर्वो योधः प्राप्य चमूमुखम्।
युद्धयज्ञाधिकारस्थो भवतीति विनिश्चयः॥४२॥
अम्बरीषः—
कानि यज्ञे हवींष्यत्र किमाज्यं का च दक्षिणा।
ऋत्विजश्चात्र के राजंस् तन्मे ब्रूहि शतक्रतो॥४३॥
इन्द्रः—
ऋत्विजः कुञ्जरास्तत्र वाजिनोऽध्वर्यवस्तथा।
हवींषि परमांसानि रुधिरं चाज्यमुच्यते॥४४॥
सृगालगृध्रकाकोलास् सदस्यास्तत्र सत्रिणः।
आज्यशेषं पिबन्त्येते हविः प्राश्नन्ति चाध्वरे॥४५॥
प्रासतोमरसङ्घाताः खड्गशक्तिपरश्वथाः।
ज्वलन्तो निशिताः पीतास् स्रुचस्तस्याथ सत्रिणः४६॥
चापवेगायतस्तीक्ष्णः परकायप्रभेदनः।
ऋजुस्सुनिशितः पीतस् सायकोऽस्य स्रुवो महान्॥४७॥
द्वीपिचर्माभिनद्धस्तु नागदन्तकृतत्सरुः।
हस्तिहस्तचरः खड्गस् स्क्यो भवेत् तत्र संयुगे॥४८॥
ज्वलितैर्निशितैः पीतैः प्रासशक्तिपरश्वथैः।
शैक्यायसमयैस्तीक्ष्णैर् अभिघातो भवेद्बहु॥४९॥
आवेद्धाद्यत्तु रुधिरं सङ्ग्रामे स्यन्दते भुवः।
साऽस्य पूर्णाहुतिर्होत्रैस्समृद्धा सर्वकामधुक्॥५०॥
छिन्धि भिन्धीति यस्यैतच् छ्रूयते वाहिनीमुखे।
सामानि सामगास्तस्य गायन्ति यमसादने॥५१॥
हविर्धानं तु तस्याहुः परेषां वाहिनीमुखम्॥५२॥
कुञ्जराणां हयानां च वर्मिणां च समुच्चयः।
अग्निश्श्येनचितो नाम यज्ञस्यैते विधीयते॥५३॥
उत्तिष्ठते कबन्धोऽत्र सहस्रे पतिते तु यः।
स यूपस्तस्य शूरस्य खादिरोऽष्टाश्रिरुच्यते॥५४॥
इलोपहूतं क्रोशन्ति कुञ्जरास्त्वङ्कुशेरिताः।
ज्यावुष्टतलतालेन वषट्कारेण पार्थिव॥५५॥
उद्गाताऽत्र हि सङ्ग्रामे त्रिसामा दुन्दुभिर्नृप॥५५॥
ब्रह्मस्वेह्रियमाणे च त्यक्त्वा युध्येत् प्रियां तनुम्।
आत्मानं यूपमुच्छ्रित्य स यज्ञोऽनन्तदक्षिणः॥५६॥
भर्तुरर्थेतु यश्शूरो निष्क्रामेद्वाहिनीमुखात्।
भयान्नोपरि वर्तेत तस्य लोका यथा मम॥५७॥
द्वीपिचर्मावृतैः59 खड्गैर्बाहुभिः परिघोपमैः।
यस्य वेदिरुपस्तीर्णा तस्य लोका यथा मम॥५८॥
यस्तु नापेक्षते कञ्चित् सहायं विषमे स्थितः।
विगाह्य वाहिनीमध्ये तस्य लोका यथा मम॥५९॥
यस्य तोमरसङ्घट्टाभेरीमण्डूककच्छपा।
शरास्थिशर्करा दुर्गा मांसशोणितकर्दमा॥६०॥
असिचर्मप्लवा घोरा केशशैवलशाड्वला।
अश्वनागरथैश्चापि सञ्छिन्नैः कृतसङ्क्रमा॥६१॥
पताकाध्वजवानीरा हतवाहनवारणा।
शोणितोदकसम्पूर्णादुस्तरा कातरैजनैः॥६२॥
हतनागमहानक्रापरलोकवहाऽशवा।
यष्टिखड्गमहामीना कङ्कगृध्रवलप्लवा॥६३॥
पुरुषादानुचरिता भीरूणां कश्मलावहा।
नदी योधस्य सङ्ग्रामे तदस्यावभृथं नृप॥६४॥
वेदिर्यस्य त्वमित्राणां शिरोभिर्व्यवकीर्यते।
अश्वस्कन्धैर्गजस्कन्धैस् तस्य लोका यथा मम॥६५॥
पत्नी शालाकृता यस्य परेषां वाहिनीमुखम्।
हविर्धानं स्ववाहिन्यास् तदस्याहुर्मनीषिणः॥६६॥
सदस्याश्चोत्तरा योधा निराग्नीध्रस्योत्तराऽथ दिक्।
शत्रुसेनाकलत्रस्य सर्वलोका न316 दूरतः॥६७॥
यस्य तूभयतो व्यूहे भवत्याकाशमग्रतः।
सा वेदिस्स्यात्तथा यज्ञैर् नित्यं व्यूहास्त्रयोऽग्नयः॥६८॥
यस्तु योधः परावृत्तस् सन्त्रस्तो हन्यते परैः।
अप्रतिष्ठस्स नरकं याति नास्त्यत्र संशयः॥६९॥
यस्य शोणितवेगेन नदी स्यात् सम्परिप्लुता।
केशमांसास्थिसम्पूर्णा स गच्छेत् परमां गतिम्॥७०॥
यस्तु सेनापतिं हत्वा तद्यानमधिरोहति।
स विष्णुविक्रमः क्रामी बृहस्पतिसवः क्रतुः॥७१॥
नायकं वा प्रमाणं वा यो वा स्यात् तत्र पूजितः।
जीवग्राहं प्रगृह्णाति तस्य लोका यथा मम॥७२॥
आहवे तु हतं शूरं न शोचेत कदाचन।
अशोच्यो हि हतश्शूरस् स्वर्गलोके महीयते॥७३॥
न ह्यन्येनोदकं तस्य न स्नानं नाप्यशौचकम्।
हतस्य कर्तुमिच्छन्ति तस्य लोकं शृणुष्व मे॥७४॥
वराप्सरस्सहस्राणि शूरमायोधने हतम्।
त्वरमाणानि धावन्ति मम भर्ता भवेदिति॥७५॥
एतत् तपश्च धर्मश्च पुण्यं चैव सनातनम्।
चत्वार आश्रमास्तस्य यो युद्धे न पलायते॥७६॥
वृद्धबालं न हन्तव्यं न च स्त्री नैव हि द्विजाः।
तृणपूर्णमुखश्चैव तवास्मीति च यो वदेत्॥७७॥
अहं वृत्रं बलं पाकंमहाकायं विरोचनम्।
दुरावारं च नमुचिं शतमायं च शम्बरम्॥७८॥
विप्रचित्तिं च दैतेयं दनोः पुत्रांश्च सर्वशः।
प्राह्लादि वै प्रचित्तिं च हत्वा देवाधिपो317ऽभवम्॥७९॥
भीष्मः—
इत्येतच्छक्रवचनं निशम्य प्रतिपूज्य च।
योधानामात्मनस्सिद्धिम् अम्बरीषोऽभिपन्नवान्॥८०॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकोननवतितमोऽध्यायः॥८९॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि पञ्चाशोऽध्यायः॥५०॥
[अस्मिन्नध्याये ८०॥ श्लोकाः
______
॥ नवतितमोऽध्यायः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706846651Screenshot2023-11-22183041.png"/>
** भीष्मेणयुधिष्ठिरं प्रति जनकराजेन स्वयोधानां स्वर्गनरकप्रदर्शनेनयुद्धे प्रोत्साहनकथनम्॥**
______
भीष्मः—
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
प्रतर्दनो मैथिलश्च सङ्ग्रामं यस्य चक्रतुः॥१॥
यज्ञोपवीती सङ्ग्रामे मैथिलो जनकाधिपः ।
योधानुद्धर्पयामास तन्निबोध युधिष्ठिर॥२॥
जनको मैथिलो राजा महात्मा सर्वधर्मवित्।
योधानां दर्शयामास स्वर्गं नरकमेव च॥३॥
जनकः—
अभीतानामिमे लोका भास्वन्तो हन्त पश्यत।
पूर्णान् गन्धर्वकन्याभिस् सर्वकामदुहोऽक्षयान्॥४॥
इमे पलायमानानां नरकाः पर्युपस्थिताः।
अकीर्तिश्शाश्वती चैव पतितव्यमनन्तरम्॥५॥
तान् दृष्ट्वारीन् विजयत भूत्वा सन्त्यागबुद्धयः।
नरकस्याप्रतिष्ठस्य मा भूत वशवर्तिनः॥६॥
त्यागमूलं हि शूराणां स्वर्गद्वारमनुत्तमम्॥६॥
भीष्मः—
इत्युक्तास्ते नृपतिना योधाः परपुरञ्जयाः।
व्वजयन्त रणे शत्रून् हर्षयन्तो जनेश्वरम्॥७॥
तस्मात् त्यक्तात्मना नित्यं स्थातव्यं रणमूर्धनि॥८॥
गजानां रथिनां मध्ये गजानामनुसादिनः।
सादिनामन्तरे स्थाप्यं पादातमपि दंशितम्॥९॥
एवं यो व्यूहते राजा स नित्यं जयते रिपून्।
तस्मादेतद्विधातव्यं नित्यमेव युधिष्ठिर॥१०॥
स्वर्गे सुकृतमिच्छन्तस् सुयुद्धेनातिमन्यवः।
क्षोभयेयुरनीकानि सागरं मकरा इव॥११॥
हर्षयेयुर्विकीर्णाश्च व्यवस्थाप्य परस्परम्।
तेषां च भूमिं रक्षेयुर् भग्नान् नात्यनुसारयेत्॥१२॥
पुनरावर्तमानानां निराशानां च जीविते।
न वेगस्सुसहो राजंस् तस्मान्नात्यनुसारयेत्॥१३॥
न हि प्रहर्तुमिच्छन्ति शूराः प्रद्रवतो भयात्।
तस्मात् पलायमानानां कुर्यान्नात्यनुसारणम्॥१४॥
चराणामचरास्त्रस्ता अदंष्ट्रा दंष्ट्रिणामपि।
अपाणयः पाणिमतां नराश्शूरस्य कातराः॥१५॥
समानपृष्ठोदरपाणिपादाः
पश्चाच्छूरं भीरवोऽनुव्रजन्ति।
अतो भयार्ताः प्रणिपत्य भूयः
कृत्वाऽञ्जलीनुपतिष्ठन्ति शूरान्॥१६॥
शूरबाहुषुलोकोऽयं सर्वो लम्बति पुत्रवत्।
तस्मात् सर्वेषु लोकेषु शूरस्सम्मानमर्हति॥१७॥
न हि शौर्यात् परं किञ्चित् त्रिषुलोकेषु विद्यते।
शूरस्सर्वं पालयति शूरे सर्वं प्रतिष्ठितम्॥१८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि नवतितमोऽध्यायः॥१०॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि एकपञ्चाशोऽध्यायः॥५१॥
[अस्मिन्नध्याये १८ श्लोकाः]
______
॥ एकनवतितमोऽध्यायः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706860426Screenshot2023-11-23074104.png"/>
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति युद्धकरणप्रकारादिकथनम्॥
_____
युधिष्ठिरः—
कथं जयार्थिनस्सेनां नयन्ति318 भरतर्षभ।
ईषद्धर्मं प्रपीड्यापि तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
भीष्मः—
सन्त्येव हि स्थिता धर्मे उपपत्त्या तथा परे।
साध्वाचारतया केचित् तथैवौषयिका अपि॥२॥
उपायधर्मान्वक्ष्यामि संसिद्धानर्थसिद्धये।
दुर्मर्यादा दस्यवस्तु भवन्ति परिपन्थिनः॥३॥
तेषां प्रतिविघातार्थं प्रवक्ष्याम्यथ नैगमम्।
कार्याणां सम्प्रसिद्ध्यर्थं तानुपायान् निबोध मे॥४॥
उभे प्रज्ञे वेदितव्ये ॠज्वी वक्राच भारत।
जानन् वक्रां न सेवेत प्रतिबाधेत चागताम्॥५॥
अमित्राण्येव राजानं भेदेनोपचरन्त्युत।
तान् राजनिकृतीञ् जानन् यथाऽमित्रान् निबाधते॥६॥
गजानां पार्श्वचर्माणि गोवृषाजगराणि च।
शल्यकण्टकलोहानि तनुत्राणि मतानि च॥७॥
पीतानि चैव शस्त्राणि सन्नाहाः पीतलोहकाः।
नानारञ्जनरक्तास्स्युः पताकाः केतवश्च ते॥८॥
ऋष्टयस्तोमराः खड्गा निशिताश्च परश्वथाः।
फलकान्यसिचर्माणि प्रतिकल्प्यान्यनेकशः॥९॥
सुविनीतानि पत्राणि योधाश्च कृतनिश्रमाः।
चैत्रे वा मार्गशीर्षे वा सेनायोगः प्रशस्यते॥१०॥
पक्वसस्या हि पृथिवी भवत्यम्बुमती तदा।
नैवातिशीतो नात्युष्णःकालो भवति भारत॥११॥
तस्मात् तदा योजयेत परेषांव्यसनेषु वा।
एते हि योगास्सेनानां प्रशस्ताः परबाधने॥१२॥
उदवांस्तृणवान्मार्गस् समो गम्यः प्रशस्यते।
चारैस्सुविदिताभ्याशः कुशलैर्वनगोचरैः॥१३॥
न ह्यरण्यानि शक्यन्ते गन्तुं मृगगणैरिव।
तस्मात् सेनासु तानेव योजयन्ति जयार्थिनः॥१४॥
आवासस्तोयवान् मार्गः पर्याकाशः प्रशस्यते॥१४॥
परेषांसर्पाणां319 प्रतिघातस्तथा भवेत्।
आकाशं हि वनाभ्याशं मन्यन्ते गुणवत्तरम्॥१५॥
बहुभिर्गुणजातैस्तु ये युद्धकुशला जनाः॥
उपन्यासोऽपसर्पाणां पदातीनां च गूहनम्।
हतशत्रुप्रतीघातम् आपदर्थं परायणम्॥१७॥
सप्तर्षीन्पृष्ठतः कृत्वा युध्येयुरचला इव।
अनेन विधिना शत्रूञ् जिगीषेच्चापि दुर्जयानन्॥१८॥
यतो वायुर्यतस्सूर्यो यतस्सोमस्ततो जयः।
पूर्वं पूर्वं ज्याय एषां सन्निपाते युधिष्ठिर॥१९॥
अकर्दमामनुदकाम् अमर्यादामलोष्टकाम्॥
अश्वभूमिं प्रशंसन्ति ये युद्धकुशला जनाः॥२०॥
समा निरुदकाकाशा रथभूमिः प्रशस्यते।
नीचद्रुमा महाकक्षा सोदका हस्तियोधिनाम्॥२१॥
बहुदुर्गा महावृक्षा वेणुवेत्रतिरस्कृता।
पदातीनां क्षमा भूमिः पर्वतोपवनानि च॥२२॥
पदातिबहुला सेना दृढा67 भवति भारत।
रथाश्वबहुला सेना सुदिनेषु प्रशस्यते॥२३॥
पदातिनागबहुला प्रावृट्काले प्रशस्यते।
गुणानेतान् प्रसङ्ख्याय देशकालौप्रयोजयेत्॥२४॥
एवं320 सञ्चिन्त्य यो याति तिथिनक्षत्रपूजितः।
विजयं लभते नित्यं सेनां सम्यग्विचारयन्॥२५॥
प्रसुप्तांस्तृषिताञ्छ्रान्तान् प्रकीर्णान् नाभिघातयेत्॥ २५॥
मोक्षे प्रयाणे चलने पानभोजनकालयोः।
अतिक्षिप्तान् व्यतिक्षिप्तान् विहतान् प्रतनूकृतान्॥२६॥
अविस्रब्धान्कृतारम्भन्उपन्यासप्रतापितान्।
बहिश्चरानुपन्यासान् कृत्वा वेश्मानुसारिणः॥२७॥
परिचर्यावरोद्धारो ये च केचन वल्गिनः॥२८॥
अनीकं ये प्रभिन्दन्ति भिन्नं संस्थापयन्ति च।
समानाशनपानास्ते कार्या द्विगुणवेतनाः॥२९॥
जातिगोत्रं च विज्ञाय कर्म चानुत्तमं शुभम्।
समानदेहरक्षास्ते कार्या द्विगुणवेतनाः॥३०॥
त्रिगुणं चतुर्गुणं चैव वेतनं तेषु कारयेत्॥३०॥
दशाधिपतयः कार्याश् शताधिपतयस्तथा।
ततस्सहस्राधिपतिं कुर्याच्छूरमतन्द्रिणम्॥३१॥
यथामुख्यान् सन्निपात्यवक्तव्यं संशयामहे।
यथा जयार्थं सङ्ग्रामे न जह्याम परस्परम्॥३२॥
इहैव ते निवर्तन्तां ये च केचन भीरवः।
न घातयेयुः प्रदरं कुर्वाणास्तुमुले सति॥३३॥
आत्मानं च स्वपक्षं च पालयन् हन्ति संयुगे॥३४॥
द्रव्यनाशो वधोऽकीर्तिर् अयशश्च पलायने।
अमनोज्ञासुखा वाचः पुरुषस्य पलायतः॥३५॥
प्रविध्वस्तोष्ठदन्तस्य न्यस्तशस्त्रायुधस्य च।
हित्वा पलायमानस्य सहायान्प्राणसंशये॥३६॥
अमित्रैरनुबद्धस्य द्विषतामस्तु नस्तथा॥३६॥
मनुष्यापशदा ह्येते ये भवन्ति पराङ्मुखाः।
राशिवर्धनमात्रास्ते नैव ते प्रेत्य नो इह्॥३७॥
अमित्रा हृष्टमनसः प्रत्युद्यान्ति पलायिनम्।
जयिनस्सुहृदस्तात मङ्गलैर्वन्दनेन च॥३८॥
यस्य स्म व्यसने राजन्ननुमोदन्ति शत्रवः।
तदसह्यतमं दुःखं मन्यन्ते मरणादपि॥३९॥
श्रियं जानीत धर्मस्य मूलं सर्वसुखस्य च।
या भीरूणां परा ख्यातिश् शूरस्तामधिगच्छति॥४०॥
ते वयं स्वर्गमिच्छन्तस् सङ्ग्रामे त्यक्तजीविताः।
जयन्तो वध्यमाना वा प्राप्तुमर्हाम्सद्गतिम्॥४१॥
एवं संशप्तशपथास् समभित्यक्तजीविताः।
अमित्रवाहिनीं वीराः प्रतिगाहन्त्यभीरवः॥४२॥
अग्रतः पुरुषानीकम् असिचर्मवतां भवेत्।
पृष्ठतश्शकटानीकं कलत्रं मध्यतस्तथा॥४३॥
परेषांप्रतिघातार्थं पदातीनां च गृहनम्।
अपि चास्मिन् परे गृध्रा भवेयुर्ये पुरोगमाः॥४४॥
ये पुरस्तादभिमतास् सत्त्ववन्तो मनस्विनः।
ते पूर्वमभिवर्तेयुस् तानन्वमितरे जनाः॥४५॥
अपि बोद्धर्पणं कुर्याद् भीरूणामिह यत्नतः।
स्कन्धदर्शनमात्रं तु तिष्ठेयुर्वा समीपतः॥४६॥
संहतान्योधयेदल्पन्कामं विस्तारयेद्बहून्।
सूचीमुखमनीकं स्वाद्अल्पानां बहुभिस्सह॥४७॥
सम्प्रयुद्धे निकृष्टे वा सत्यं वा यदि वाऽनृतम्।
प्रगृह्य बाहून्क्रोशेयुर् हन्तभग्नाःपरे इति॥४८॥
आसन्नं नो मित्रबलं प्रहरध्वमभीतवत्।
शब्दयन्तो निधावेयुः कुर्वन्तो भैरवं रवम्॥४९॥
क्ष्वेडान्किलकिलाशब्दान् क्रकचान्गोविपाणकान्।
भेरीमृदङ्गपणवान् नादयेयुश्च जर्झरान्॥५०॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि एकनवतितमोऽध्यायः॥९१॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि द्विपञ्चाशोऽध्यायः॥५२॥
[ अस्मिन्नध्याये ५०॥श्लोकाः ]
॥ द्विनवतितमोऽध्यायः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706944835Screenshot2023-12-11140637.png"/>
भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति योधलक्षणादिकथनम्॥
______
युधिष्ठिरः—
किंशीलाः किंसमुत्थानाः कथंरूपाश्च भारत।
किंसन्नाहाः कथंशस्त्रा जनारस्युस्संयुगे नृपाः॥१॥॥
भीष्मः—
यथाचरितमेवात्र शस्त्रं पत्रं विधीयते।
आचाराद्धीह पुरुषस् तथा कर्मसु वर्तते॥२॥
गान्धारास्सिन्धुसौवीरा नखरप्रासयोधिनः।
अभीतवत् सुबलिनस् तद्बलं सर्वपारगम्॥३॥
सर्वशस्त्रेषु कुशलाश्शस्त्रवन्तो ह्युशीनराः।
प्राच्या मातङ्गयुद्धेषु कुशलाश्शठयोधिनः॥४॥
तथा यवनकाम्भोजा मधुरामभितश्चये।
एतेऽश्वयुद्धकुशला दाक्षिणात्याऽसिचर्मिणः॥५॥
सर्वत्र शूरा जायन्ते महासत्त्वा महाबलाः॥५॥
आवन्तिका महाशूराश् चतुरङ्गे च मालवाः।
एकोऽपि हि सहस्रस्य तिष्ठत्यभिमुखो रणे॥६॥
प्रायो देशास्समुद्दिष्टा लक्षणानि च मे शृणु॥७॥
सिंहशार्दूलवाङ्नेत्रास् सिंहशार्दूलगामिनः।
पारावतकुलिङ्गाक्षास् सर्वे शूराः प्रमाथिनः॥८॥
मृगस्वरा द्वीपिनेत्रा ऋषभाक्षास्तथा परे।
प्रमाथिनश्च मन्दाश्च कोधनाः किङ्किणीस्वनाः॥९॥
मेघस्वनाः क्रूरमुखाः केचिच्च कलनिस्वनाः।
जिह्मनासाश्च321 मेघाश्च दूरगा दूरपातिनः॥१०॥
बिडालकुब्जास्स्तब्धाक्षास् तनुकेशास्तनुत्वचः।
शीघ्राश्चपलचित्ताश्चते भवन्ति दुरासदाः॥११॥
गौरा निमीलिताः केचिन्मृदुप्रकृतयो जनाः।
तुरङ्गगतिनिर्घोषास् ते नराः पारयिष्णवः॥१२॥
सुसंहताः प्रतनवो व्यूढोरस्कास्सुसंशिताः।
प्रवादितेषु नृत्यन्ति हृप्यन्ति कलहेषु च॥१३॥
गम्भीराक्षा निसृष्टाक्षाः पिङ्गका भ्रुकुटीमुखाः।
नकुलाक्षास्तथा चैते सर्वे शूरास्तनुत्यजः॥१४॥
जिह्माक्षाः प्रललाटाश्च निर्मांसहनवोऽव्यथाः।
वक्रबाह्वङ्गुलीसक्थाः कृशा धमनिसन्तताः॥१५॥
प्रवेपन्तेहि वेगेन साम्पराये ह्युपस्थिते।
वारणा इव सम्मत्तास् ते भवन्ति दुरासदाः॥१६॥
दीप्तस्फुटितकेशान्तास् स्थूलपार्श्वहनूमुखाः।
उन्नतांसाः पृथुग्रीवा विकटास्स्थूलपिण्डिकाः॥१७॥
उद्वन्धा इव सुग्रीवा विनता विहगा इव।
पिण्डशीर्षाहिवक्त्राश्च पृषदंशमुखास्तथा॥१८॥
उग्रस्वरा मन्युमन्तो युद्धेष्वारावसारिणः।
अधर्मज्ञावलिताश्च घोरा रौद्रप्रदर्शनाः॥१९॥
त्यक्तात्मानस्सर्व एते उदग्राह्यनिवर्तिनः।
पुरस्कार्यास्सदा सैन्यैर् हन्यन्ते घ्नन्ति चापि ते॥२०॥
अधार्मिका भिन्नवृत्तास् साध्वेवैषां पराभवः।
एवमेव प्ररूप्यन्ते राज्ञो ह्येते ह्यभीक्ष्णशः॥२१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि द्विनवतितमोऽध्यायः॥९२॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि त्रिपञ्चाशोऽध्यायः॥५३॥
[ अस्मिन्नध्याये २१ श्लोकाः ]
______
॥ त्रिनवतितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति सेनाया जयचिह्नानां राजनीतेश्च कथनम्॥
______
युधिष्ठिरः—
जयिन्याः कानि रूपाणि भवन्ति भरतर्षभ।
पृतनायाः प्रशस्तानि तानीहेच्छामि वेदितुम्॥१॥
भीष्मः—
जयिन्याः यानि रूपाणि भवन्ति भरतर्षभ।
पृतनायाः प्रशस्तानि तानि वक्ष्यामि सर्वशः॥२॥
दैवे पूर्वं हि कुरुते मानुषेकालचोदिते।
तद्विद्वांसोऽनुपश्यन्ति ज्ञानदीर्घेण चक्षुषा॥३॥
प्रायश्चित्तविधिं चात्र जपहोमांश्च तद्विदः।
मङ्गलानि च कुर्वन्ति शमयन्त्यहितान्यपि॥४॥
उदीर्णमनसो योधा वाहनानि च भारत।
यस्यां भवन्ति सेनायां ध्रुवं तस्या जयो भवेत्॥५॥
अन्वेव वायवो वान्ति तथैवेन्द्रधनूंषि च।
अनुप्लुवन्ते मेघाश्च तथाऽऽदित्यस्य रश्मयः॥६॥
गोमायवश्चानुलोमबला गृध्राश्च सर्वशः।
आचरेयुर्यदा सेनां सा हि सिद्धिरनुत्तमा॥७॥
प्रसन्नभाः पावक ऊर्ध्वरश्मिः
प्रदक्षिणावर्तशिखो विधूमः।
पुण्या गन्धाश्चाहुतीनां भवन्ति
जयस्यैतद्भाविनो रूपमाहुः॥८॥
शस्त्रैः पत्रैः कवचैः केतुभिश्च
स्वभानुभिर्मुखवर्णैश्च यूनाम्।
भ्राजिष्मती दुष्प्रतिवीक्षणीया
येषां चमूस्तेऽभिभवन्ति शत्रून्॥९॥
इष्टा मृगाः पृष्ठतो वामतश्च
सम्प्रस्थितानां च गमिष्यतां च।
जिघांसतां दक्षिणतसिद्धिमाहुर्
ये त्वग्रतस्ते प्रतिषेधयन्ति॥१०॥
माङ्गल्यशब्दाञ् शकुना वदन्ति
हंसाः क्रौञ्चाश्शतपत्रास्सहर्षाः।
हृष्टा योधास्सत्ववन्तो भवन्ति
जयस्यैतद्भाविनो रूपमाहुः॥११॥
गम्भीरशब्दाश्च322 महास्वनाश्च
शङ्खाश्च भेर्यश्च नदन्ति यत्र।
युयुत्सवश्चाप्रतिमा भवन्ति
जयस्यैतद्भाविनो रूपमाहुः॥१२॥
शुश्रूषव133श्वानभिमानिनश्च
परस्परं सौहृदमास्थिताश्च।
येषांयोधाश्शौर्यमनुष्ठिताश्च
जयस्यैतद्भाविनो रूपमाहुः॥१३॥
शब्दास्स्पर्शास्तिथा गन्धा विचरन्ति मनः प्रियाः।
धैर्यं चाविशते योधान्विजयस्य मुखं हि तत्॥१४॥
शब्दोवामः प्रस्थितस्य दक्षिणश्च विविक्षतः।
पश्चात् संसाधयत्येनं पुरस्तात् प्रतिषेधति॥१५॥
संहत्य महतीं सेनां चतुरङ्गां युधिष्ठिर।
साम्रैवावर्तयन्पूर्वं प्रयतेथास्ततो युधि॥१६॥
जघन्य एषविजयो य सामभाषणम्।
यदृच्छया युधि जयो दैवेनेति विचारणा॥१७॥
आपगेव महावेगा त्रस्ता मृगगणा इव।
दुर्निवार्यतमा चैव प्रभग्ना महती चमूः॥१८॥
भग्ना इत्येव भज्यन्ते विद्वांसोऽपि न कारणम्।
उदारसारा महती रुरुसङ्घोपमा चमूः॥१९॥
परस्परज्ञास्संहृष्टास् त्यक्तप्राणास्सुनिश्चिताः।
अपि पञ्चशतं शूरा मृद्नन्ति परवाहिनीम्॥२०॥
अपि वा पञ्च षट्सप्त संहिताः कृतनिश्चयाः।
कुलीनाः पूजितास्सम्यग् विजयन्तीह शात्रवान्॥२१॥
सन्निपातो323 न गन्तव्यश् शक्ये सति कथञ्चन।
सान्त्वभेदप्रदानानां युद्धमुत्तर324मुच्यते॥२२॥
संसर्पेण हि सेनाया भीरुनाविशते भयम्।
यज्ञादिव325 प्रज्वलिताद् इयं स्वित् क्षपयिष्यति॥२३॥
अभिप्रयातां समितिं ज्ञात्वा ये प्रतियान्त्यथ।
तेषां स्पन्दन्ति गात्राणि योधानां विषयस्य च॥२४॥
विषयोव्यथते राजन्सर्वस्सस्थाणुजङ्गमः।
शस्त्रप्रतापतप्तानांमज्जास्सीदन्ति देहिनाम्॥२५॥
तेषां सान्त्वं क्रूरमिश्रं प्रणेतव्यं पुनः पुनः।
सम्पीड्यमाना हि परैर् योगमायान्ति सर्वशः॥२६॥
आन्तराणां च भेदार्थं चरानभ्यवचारयेत्।
यश्च तस्मात् परो राजा तेन सिद्धिः326 प्रशस्यते॥२६॥
न हि तस्यान्यथा पीडा शक्या कर्तुं तथाविधा।
यथा साध्यममित्रेण मित्रेण परिबाधनम्327॥२८॥
क्षमा वैसाध्वमायाना नहिं साधु सदा क्षमा।
क्षमायाश्चाक्षमायाश्च विद्धि पार्थ प्रयोजनम्॥२९॥
विजित्य क्षममाणस्य यशो राज्ञो विवर्धते।
महापराधेह्यप्यस्मिन् विश्वसन्त्यपि शत्रवः॥३०॥
कर्शयित्वा तु मन्यन्तं क्षमा साध्वीति शाम्बराः।
असन्तप्तं तु यद्दारु प्रत्येति प्रकृतिं पुनः॥३१॥
नैतत् प्रशंसन्त्याचार्या न चैतत् साधु दर्शनम्।
अक्लेशेनाविनाशेन नियन्तव्यास्स्वपुत्रवत्॥३२॥
द्वेष्यो भवति भूतानाम् उम्रो राजा युधिष्ठिर।
मृदुमप्यवमन्यन्ते तस्मादुभयभाग्भवेत्॥३३॥
प्रहरिष्यन् प्रियं ब्रूयात् प्रहरन्नपि भारत।
प्रहृत्य च प्रियं ब्रूयाच्छोचन्निव रुदन्निव॥३४॥
न मे प्रिया ये स्म हतास् सम्प्रदृष्टाः परेऽपि च।
न च कत्थित328मेवाग्र्यम् उच्यमानं पुनः पुनः॥३५॥
अहो जीवितमाकाङ्केन्नेदृशोवधमर्हति।
सुदुर्लभासत्पुरुषास्सङ्ग्रामेष्वपलायिनः॥३६॥
कृतं ममाप्रियं तेन येनायं निहतो मृधे।
इति वाचा वदन हन्तॄन् पूजयेत रहोगतान्॥३७॥
हन्तॄणां च हतानां च पूजां कुर्याद्यथार्थतः।
क्रोशेद्बाहुंप्रगृह्यापि चिकीर्षञ्जनसङ्ग्रहम्॥३८॥
एवं सर्वास्ववस्थासु सान्त्वपूर्वं समाचरेत्।
प्रियो भवति भूतानां धर्मज्ञो वीतभीर्नृपः॥३९॥
विश्वासं चात्र गच्छन्ति सर्वभूतानि भारत।
विश्वस्तश्शक्यते भोक्तुंयथाकालं समुत्थितः॥४०॥
तस्माद्विश्वासयेद्राजा सर्वभूतान्यमायया।
सर्वतः परिरक्षेच्च यो महीं भोक्तुमिच्छति॥४१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि त्रिनवतितमोऽध्यायः॥९३॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि चतुःपञ्चाशोऽध्यायः॥५४॥
[अस्मिन्नध्याये ४१ श्लोकाः]
॥ चतुर्णवतितमोऽध्यायः॥
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** भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति शत्रुजयोपायादिप्रतिपादकेन्द्रबृहस्पतिसंवादानुवादः॥**
______
युधिष्ठिरः—
कथं मृदुः कथं तीक्ष्णो महापक्षे च भारत।
अरौ वर्तेत नृपतिस् तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
भीष्मः—
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
बृहस्पतेश्च संवादम् इन्द्रस्य च युधिष्ठिर॥२॥
बृहस्पतिं273 देवपतिर् अभिवाद्य कृताञ्जलिः।
उपसङ्गम्य पप्रच्छ वासवः परवीरहा॥३॥
इन्द्रः—
अहितेषु कथं ब्रह्मन् प्रवर्तेयमतन्द्रितः।
असमुच्छिद्य चैवैतान्नियच्छेयमुपायतः॥४॥
सेनयोर्व्यतिषङ्गे चजयस्साधारणो भवेत्।
किं कुर्वाणं न मां जह्याज् ज्वलिता श्रीः प्रतापिनी329॥५॥
भीष्मः—
ततो धर्मार्थकामानां कुशलःप्रतिभानवान्।
राजधर्मविधानज्ञः प्रत्युवाच पुरन्दरम्॥६॥
बृहस्पतिः—
न जातु कलहेनेच्छेन्नियन्तुमपकारिणम्।
बालसंसेवितं चैतद् यदमर्षोयदक्षमा॥७॥
न शत्रुर्विवृतः कार्यो वधमस्याभिकाङ्क्षता॥७॥
क्रोधं बलममर्षं च नियम्यात्मानमात्मनि।
अमित्रमुपसेवेत विश्वस्तवदविश्वसन्॥८॥
प्रियमेव वदेन्नित्यं नाप्रियं किञ्चिदाचरेत्।
विरमेच्छुष्कवैरेभ्यः कर्णजापं च वर्जयेत्॥९॥
यथा वैतंसिको युक्तो द्विजानां सदृशस्वरः।
तान् द्विजान् कुरुते वश्यांस् तथा युक्तो महीपतिः॥१०॥
वशं चोपनयेच्छत्रून्निहन्याच्च पुरन्दर॥११॥
न नित्यं परिभूयारीन्सुखं स्वपिति वासव।
जागर्त्येव हि दुष्टात्मा सङ्कटेऽग्निरिवोत्थितः॥१२॥
न सन्निपातः कर्तव्यस् सामान्ये विजये सति।
विश्वास्यैवोपसम्मान्यो वशे कृत्वा रिपुं प्रभो॥१३॥
सम्प्रधार्य सहामात्यैर्मन्त्रविद्भिर्महात्मभिः।
उपेक्षमाणो330 विज्ञातो हृदयेनापराजितः॥१४॥
अथास्य प्रहरेत् काले विधेर्विचलितो यदा।
दण्डं च दूषयेदस्य पुरुषैराप्तकारिभिः॥१५॥
आदिमध्यावसानज्ञान्प्रच्छन्नं च विचारयेत्।
बलानि दूषयन्तोऽस्य जानन्तश्च प्रमाणतः॥१६॥
भेदेनोपप्रदानेन संसृजेदौषधैस्तथा।
न त्वेव खलु संसर्गं रोचयेदरिभिस्सह331॥१७॥
दीर्घकालमपि क्षान्त्वा निग्राह्या एव शत्रवः।
कालकाङ्क्षी च यत्तस्सन्नुपासीत्शचीपते॥१८॥
तथा प्रियं च वक्तव्यं यथा विस्रम्भमाप्नुयात्।
न सद्योऽरीन्विनिर्हन्याद्स्रष्टव्यो332 विजयो ध्रुवः॥१९॥
भूयश्शक्यं घटयति नवं च कुरुते व्रणम्।
प्राप्ते च प्रहरेत् काले न च संवर्तते पुनः॥२०॥
हन्तुकामस्य देवेन्द्र पुरुषस्य रिपुं प्रति॥२०॥
यं हि कालो व्यतिक्रामेत् पुरुषंकालकाङ्क्षिणम्।
दुर्लभस्स पुनर्भूयः कालः कर्म चिकीर्षतः॥२१॥
औजस्यं जनयेदेव सङ्गृह्णन् साधुसम्मतान्।
कालेन साधयेत् कृत्यम् अप्राप्तो न हि पीडयेत्॥२२॥
विहाय कामं क्रोधं च तथाऽहङ्कारमेव च।
युक्तो विवरमन्विच्छेद् अहितानां सदा नृपः॥२३॥
मार्दवं333 दण्ड आलस्यं प्रमादश्च सुरोत्तम।
मायाश्च विहिताश्शक्रशातयन्त्यविचक्षणम्॥२४॥
निहत्यैतानि चत्वारि मायां प्रतिविधाय च।
ततश्शक्नोति शत्रूणां प्रहर्तुमविचारयन्॥२५॥
यदेवैतेन शक्येत गुह्यं कर्तुं तदाचरेत्।
यच्छन्ति सचिवा गुह्यं मिथो विध्वंसयन्त्यपि॥२६॥
अशक्यं मित्रकृत्यं वा334 तदाऽन्यैस्संविदं चरेत्॥२७॥
ब्रह्मदण्डमदृष्टेषु दृष्टेषु चतुरङ्गिणीम्।
भेदं च प्रथमं विद्यात् तूष्णीं दण्डं तथैव च॥२८॥
काले प्रयोजयेद्राजा तस्मिंस्तस्मिंस्तदा तदा॥२८॥
प्रणिपातं च गच्छेत काले शत्रोर्गरीयसः।
युक्तोऽस्य वधमन्विच्छेद् अप्रमत्तः प्रमाद्यतः॥२९॥
प्रणिपातेन दानेन वाचा मधुरया ब्रुवन्।
अमित्रमुपसेवेत न च जातु विशङ्कयेत्॥३०॥
स्थानानि शङ्कितानां तु नित्यमेव विसर्जयेत्।
न च तेष्वाश्वसेद्द्रग्ध्वाजाग्रतीहनिराकृताः॥३१॥
न ह्यतो दुष्कृतं कर्म किञ्चिदस्ति सुरोत्तम॥३२॥
यथा विविध335वृत्तानाम् ऐश्वर्यममराधिप।
तथा विविधशीलानाम् अपि सम्भव उच्यते॥३३॥
प्रयतेद्योगमास्थाय मित्रामित्रानधारयन्॥३३॥
मृदुमप्यवमन्यन्ते तीक्ष्णादुद्विजते जनः।
मा तीक्ष्णो मा मृदुर्भूस्त्वं तीक्ष्णो भव मृदुर्भव॥३४॥
यथा वप्रे वेगवति सर्वतरसम्प्लुतोदके।
नित्यं विचरणाद्बाधस् तथा राज्यं प्रमाद्यतः॥३५॥
न बहूनुपरुध्येत यौगपद्येन शात्रवान्।
साम्रा दानेन भेदेन दण्डेन च पुरन्दर॥३६॥
एकैकमेषांनिष्पेषेच् छिष्टेषु निपुणं चरेत्।
न तु शक्तोऽपि मेधावी सर्वानेवाचरेद्बुधः॥३७॥
यदा स्यान्महती सेना हयनागरथाकुला।
पदातियन्त्रबहुला स्वनुरक्ताऽक्षसङ्गिनी॥३८॥
यदा बहुविधां वृद्धिं मन्येत प्रतियोगतः।
काले विहृत्यप्रहरेद्अरीणामविचारयन्॥३९॥
न साम दण्डोपनिषत् प्रशस्यते
न मार्दवं शत्रुषु यात्रिकं सदा।
न सस्यघातो न च सङ्करक्रिया
न चापि भूयः प्रकृतेर्विचारणा॥४०॥
मायाविभेदानुपसर्जनानि
वाचं तथैव प्रथमं प्रयोगात्।
आप्तैर्मनुष्यैरपचारयेत
पुरेषु राष्ट्रेषु च सम्प्रयुक्तम्॥४१॥
पुराऽपिचैताननुसृत्य भूमिपाः
पुरेषुभागान्निखिलाञ् जयन्ति।
परेषुनीतिं नियतां यथाविधि
प्रयोजयन्तो बलवृत्रसूदन॥४२॥
प्रदाय गृढानि वसूनि नाम
प्रच्छिद्य भोगानपहाय च स्वान्।
दुष्टास्स्वदोषैरिति कीर्तयित्वा
पुरेषुराष्ट्रेषु च योजयन्ति॥४३॥
तथैव चान्यैरिति शास्त्रवेदिभिस्
स्वलङ्कतैश्शास्त्रविधानलिङ्गितैः।
सुशिक्षितैर्भाष्यकथाविशारदैः
परेषुकृत्यानुपधारयस्व॥४४॥
कानि लिङ्गानि दुष्टस्य भवन्ति द्विजसत्तम।
कथं दुष्टं विजानीयाद् एतत् पृष्टो ब्रवीहि मे॥४५॥
बृहस्पतिः—
परोक्षमगुणानाह सद्गुणानभ्यसूयति।
परैर्वा कीर्यमानेषु तूष्णीमास्ते पराङ्मुखः॥४६॥
तूष्णीम्भावे तु विज्ञातं तच्चेद्भवति दारुणम्।
निश्वासं चोष्ठसन्दंशंशिरसश्च प्रकम्पनम्॥४७॥
करोत्यभीक्ष्णं संसृष्टम् असंसृष्टं चभाषते।
अभीक्ष्णवद्विकुरुते पृष्ट्वा वा नाभिभाषते॥४८॥
पृथगेत्य समश्नाति नेदमद्य यथाविधि।
आसने शयने याने भावा लक्ष्या विशेषतः॥४९॥
आर्तिरार्तौप्रिये प्रीतिर् एतावन्मित्रलक्षणम्।
विपरीतं तु बोद्धव्यम् अरिलक्षणमेव तत्॥५०॥
एतान्येव यथोक्तानि बुध्येत त्रिदशाधिप।
पुरुषाणां प्रदुष्टानां स्वभावो बलवत्तरः॥५१॥
इति दुष्टस्य विज्ञानम् उक्तं ते सुरसत्तम।
निशाम्य शास्त्रतत्त्वार्थं यथावदमरेश्वर॥५२॥
भीष्मः—
स तद्वचश्शत्रुनिबर्हणे रतस्
तथा चकारावितथं बृहस्पतेः।
चकार लोकान्विजयाय चारिहा
भावं तु भूतान्यनयत् पुरन्दरः॥५३॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि चतुर्णवतितमोऽध्यायः॥१४॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः॥५५॥
[ अस्मिन्नध्याये ५३॥ श्लोकाः ]
______
॥ पञ्चनवतितमोऽध्यायः ॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति कौसल्यकालकवृष्णीय संवादानुवादः॥
______
युधिष्ठिरः—
धार्मिकोऽर्थानसम्प्राप्य राजाऽमात्यैः प्रबाधितः336।
च्युतः कोशाच्चदण्डाच्चसुखमिच्छन् कथं चरेत्॥१॥
भीष्मः—
अत्रायं क्षेमदर्शीय इतिहासोऽनुगीयते।
यत् तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि तन्निबोध युधिष्ठिर॥२॥
क्षेमदर्शी नृपसुतो यत्र क्षीणबलःपुरा।
मुनिं कालकवृष्णीयम् आजगामेति नश्श्रुतिः॥३॥
तं पप्रच्छोपसङ्गृह्य कृच्छ्रामापदमास्थितः॥३॥
राजा—
अर्थेष्वभागी पुरुष ईहमानः पुनः पुनः।
अलब्ध्वा मद्विधो राज्यं राजा किं कर्तुमर्हति॥४॥
अन्यत्र मरणाद्दैन्याद् अन्यत्र परसंश्रयात्।
क्षुद्रादन्यत्र चाचारात् तन्ममाचक्ष्व सर्वदा॥५॥
व्याधिना चाभिपन्नस्य मानसेनेतरेण वा।
बहुश्रुतः कृतप्रज्ञस् त्वद्विधश्शरणं भवेत्॥६॥
निर्विद्य हि नरः कामान्नियम्य सुखमेधते।
त्यक्त्वा प्रीतिं च शोकं च लब्ध्वा बुद्धिमयं वसु॥७॥
सुखमर्थाश्रयं येषाम् अनुशोचामि तानहम्।
मम ह्यार्थास्सुबहवो नष्टास्स्वप्नगता इव॥८॥
दुष्करं बत कुर्वन्ति महतोऽर्थांस्त्यजन्ति ये।
वयमेतान्परित्यक्तुम् असतोऽपि न शक्नुमः॥९॥
इमामवस्थां सम्प्राप्तं दीनमार्तं श्रियश्च्युतम्।
यदन्यत् सुखमस्तीह तद्ब्रह्मन्ननुशाधि माम्॥१०॥
भीष्मः—
कौसल्येनैव337मुक्तस्तु राजपुत्रेण धीमता।
मुनिः कालकवृष्णीयः प्रत्युवाच महाद्युतिः॥११॥
कालकवृष्णीयः—
पुरस्तादेव ते बुद्धिर् इयं कार्या विजानतः।
अनित्यं सर्वमेवैतद् अहं च मम चास्ति यत्॥१२॥
यत् किञ्चिन्मन्यतेऽस्तीति सर्वं नास्तीति विद्धि तत्।
एवं न व्यथते प्राज्ञः कृच्छ्रामप्यापदं गतः॥१३॥
यद्धि भूतं भविष्यच्च ध्रुवं तन्न भविष्यति।
एवं विदितवेद्यस्त्वम् अनर्थेभ्यः प्रमोक्ष्यसे॥१४॥
ये च पूर्वसमारम्भा ये च पूर्वतरे परे।
सर्वं नास्तीति ते चैव तज्ज्ञात्वा को नु सञ्ज्वरेत्॥१५॥
भूत्वा च न भवत्येव न भूत्वा च भवत्युत।
शोके338 न ह्यस्ति सामर्थ्यं शोचेत स कथं नरः॥१६॥
आत्मनोऽध्रुवतां पश्यंस् तांस्त्वं किमनुशोचसि।
बुद्ध्या चैवानुबुद्ध्यस्स्वध्रुवं हि न च विद्यते॥१७॥
क नु तेऽद्य पिता राजन् क नु तेऽद्य पितामहः।
न त्वं पश्यसि तानद्य न त्वां पश्यन्ति तेऽपि वा॥१८॥
अहं च त्वं च नृपते शत्रवस्सुहृदश्च ते।
अवश्यं न भविष्यामस् सर्वं च न भविष्यति॥१९॥
ये च विंशतिवर्षा वै त्रिंशद्वर्षाश्च मानवाः।
अर्वागेव हि ते सर्वे मरिष्यन्ति शरच्छतात्॥२०॥
अपि चेन्महतो वित्ताद् विप्रयुज्येत पूरुषः।
नैतन्ममेति तन्मत्वा कुर्वीत प्रियमात्मनः॥२१॥
अनागतं यन्न ममेति विद्याद्
अतिक्रान्तं यन्न ममेति विद्यात्।
दिष्टं वलीय इति मन्यमानास्
ते पण्डितास्तत् सतां वृत्तमाहुः॥२२॥
अनाढ्याश्चापि जीवन्ति राज्यं चाप्यनुशासते।
बुद्धिपौरुषसम्पन्नास् त्वया तुल्याधिका जनाः॥२३॥
न च त्वमिव शोचन्ति तस्मात् त्वमपि मा शुचः।
किं न त्वं तैर्नरैश्श्रेयांस् तुल्यो वा बुद्धिपौरुषात्॥२४॥
राजा—
यादृच्छिकमुपासीत राज्यमित्येव चिन्तयेत्।
ह्रियते सर्वमेवेदं कालेन महता द्विज॥२५॥
तस्यैव ह्रियमाणस्य स्रोतसेव तपोधन।
फलमेतत् प्रपश्यामि यथालब्धेन वर्धयेत्॥२६॥
मुनिः—
अनागतमतीतं च याथातथ्यविनिश्चयात्।
नानुशोचसि कौसल्य सर्वार्थेषु तथा भव॥२७॥
अवाप्यान् कामयेत् स्वार्थान् नानवाप्यान् कथञ्चन।
प्रत्युत्पन्नाननुभवन् मा शुचस्त्वमनागतान्॥२८॥
यथालब्धोपपन्नार्थस् तथा कौसल्य रंस्यसे।
कञ्चिच्छुद्धस्वभावेन श्रिया हीनो न शोचसि॥२९॥
पुरस्ताद्भूतपूर्वत्वाद्धीनभोग्योऽपि दुर्मतिः।
धातारं गर्हयेन्नित्यं लब्धार्थांश्च न मृष्यते॥३०॥
अनर्हानपि चैवान्यान् मन्यते श्रीमतो जनान्।
एतस्मात् कारणादेव दुःखं भूयोऽनुवर्तते॥३१॥
ईर्ष्यादिच्छेदसम्पन्ना राजन्पुरुषमानिनः।
कश्चित् त्वं न तथा प्राज्ञ मत्सरी कोसलाधिप॥३२॥
सहस्व श्रियमन्येषां यद्यपि त्वयि नास्ति सा।
अन्यत्रापि सतीं लक्ष्मीं कुशला भुञ्जते नराः ॥३३॥
अभिविष्यन्दते देही श्रीभूतश्च द्विषज्जनात्॥३४॥
श्रियं च पुत्रपौत्रं च मनुष्या धर्मचारिणः।
त्यागधर्मविदो धीरास् स्वयमेव त्यजन्त्युत॥३५॥
त्यक्तं स्वायम्भुवे वंशे शुभेन भरतेन च।
नानारत्नसमाकीर्णं राज्यं स्फीतमिति श्रुतम्॥३६॥
तथाऽन्यैर्भूमिपालैश्च व्यक्तं राज्यं महोदयम्॥३६॥
त्यक्त्वा राज्यानि सर्वे च वने वन्यफलाशनाः।
गताश्च तपसः पारं दुःखस्यान्तं च भूमिपाः॥३७॥
बहुसङ्गोत्सुकं दृष्ट्वा विवित्सासाधनेन च।
तथाऽन्ये सन्त्यजन्त्येनां मत्वा परमदुर्लभाम्॥३८॥
त्वं पुनः प्राज्ञरूपस्सन्कृपणं परितप्यसे।
अकाम्यान्कामयानोऽर्थान्पराधीनानुपद्रवन्॥३९॥
तां बुद्धिमनुविज्ञाय त्वमेवैनान् परित्यज॥४०॥
अनर्थाचार्थरूपेण ह्यर्थाश्चानर्थरूपिणः।
अर्था एव हि केषाञ्चिद्धननाशा भवन्त्युत॥४१॥
अनित्यं तत् सुखं मत्वा श्रियमन्यो न लिप्सते।
रममाणश्श्रिया कश्चिन्नान्यच्छ्रेयोऽभिमन्यते॥४२॥
तथा तस्येहमानस्य संरम्भोऽपि विनश्यति।
कृच्छ्राल्लब्धमभिप्रेतं यथा कौसल्य नश्यति॥४३॥
तदा339[पाठान्तरम्]") निर्विद्यते सोऽर्थात् परिभग्नक्रमो नरः।
अनित्यां तां श्रियं मत्वा श्रियं वा कः परीप्सति॥४४॥
धर्ममेके हि पश्यन्ति कल्याणाभिजना नराः।
परत्र सुखमिच्छन्तो निर्विद्येयुश्च लौकिकाः॥४५॥
जीवितं सन्त्यजन्त्येके धनलोभपरा नराः।
जीवितार्थं न मन्यन्ते पुरुषा हि धनादृते॥४६॥
पश्य चैषां कृपणतां पश्य चैषामबुद्धिताम्।
अध्रुवे जीविते मोहाद् येऽर्थतृष्णामुपाश्रिताः॥४७॥
सञ्चये च विनाशान्ते मरणान्ते च जीविते।
संयोगे विप्रयोगान्ते को न विप्रणयेन्मनः॥४८॥
धनं वा पुरुषो राजन्पुरुषं वा पुनर्धनम्।
अवश्यं विजहात्येव तद्विद्वान् को नु सञ्ज्वरेत्॥४९॥
अन्यत्रोपनता ह्याषत् पुरुषं तोषयत्युत।
तेन शान्ति न लभते नाहसेवेति कारणात्॥५०॥
अन्येषामपि नश्यन्ति सुहृदश्चधनानि च।
पश्य बुद्ध्या मनुष्याणां तुल्यामापदमात्मनः॥५१॥
नियम्य सर्वं सङ्गच्छ इन्द्रियाणि मनस्तथा॥५१॥
प्रतिषिध्यानवाप्येषु दुर्लभेष्वहितेषु च।
प्रतिकृष्टेषु भाग्येषु विप्रकृष्टेष्वसम्भवे॥५२॥
प्रज्ञानतृप्तो विक्रान्तस् त्वद्विधो नानुशोचति॥५३॥
अल्पमिच्छन्नचपलो मृदुर्दान्तस्सुसंस्थितः।
ब्रह्मचर्योपपन्नश्च त्वद्विधो नैव मुह्यति॥५४॥
न त्वेव जाल्मीं कापालीं वृत्तिमेषितुमर्हसि।
नृशंसवृत्तिं पापिष्टां दुःखां कापुरुषोचिताम्॥५५॥
अपि मूलफलाहारो रमस्वैको महावने।
वाग्यतरसङ्गृहीतात्मा सर्वभूतदयान्वितः॥५६॥
सदृशं पण्डितस्यैतद् ईषादण्डेन हस्तिना।
यदेको रमतेऽरण्ये यच्चाप्यल्पेन तुष्यति॥५७॥
महाहृदसङ्क्षुभितो ह्यात्मनैव प्रसीदति।
एवं नरस्स्वात्मनैव कृतप्रज्ञः प्रसीदति॥५८॥
एतदेवं गतस्याहं सुखं पश्यामि केवलम्।
अलं भवेच्छ्रियो राजन् हीनस्य सचिवादिभिः॥५९॥
दैवे प्रतिनिविष्टे च किंश्रेयो मन्यते भवान्॥५९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि पञ्चनवतितमोऽध्यायः॥९५॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि षट्पञ्चाशोऽध्यायः॥५६॥
[ अस्मिन्नध्याये ५९ ॥ श्लोकाः ]
______
॥ षण्णवतितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति राज्ञां शत्रुजयोपायप्रतिपादककौसल्यकालकवृष्णीयसंवादानुवादः॥
______
मुनिः—
शृणु सर्वमशेषेण यत् ते वक्ष्यामि तत्त्वतः॥ ॥
अथवा पौरुषंकिञ्चित् क्षत्रियात्मनि पश्यसि।
ब्रवीम्यहं ततो नीतिं राज्यस्य प्रतिपत्तये॥१॥
तां चेच्छक्ष्यस्यनुष्ठातुं कर्म चैव करिष्यसि।
आहरिष्यसि चेत् कर्म महतोऽर्थानवाप्स्यसि॥२॥
राज्यं वा राज्यमात्रं वा महतीं वा पुनश्श्रियम्।
यद्येतद्रोचते राजन् पुनर्ब्रूहि ब्रवीमि ते॥३॥
राजा—
ब्रवीतु भगवान् नीतिम् अभिपन्नोऽस्म्यधीहि भोः।
अमोघ एव मेऽद्यास्तु त्वया सह समागमः॥४॥
मुनिः—
हित्वा मानं च दम्भं च क्रोधहर्षौभयं तथा।
प्रत्यमित्रं निषेवस्व प्रणिपत्य कृताञ्जलिः॥५॥
तमुत्तमेन शौचेन कर्मणा वाऽवधारय॥६॥
दातुमर्हति ते वृत्तिम् वैदेहस्सत्यविक्रमः।
प्रमाणं सर्वभूतेषु ग्रहणं च गमिष्यसि340॥७॥
ततस्सहायान् सोत्साहाल्ँलप्स्यसेऽव्यसनाञ् शुचीन्।
वर्तमानस्स्वशास्त्रे वै संयतात्मा जितेन्द्रियः॥८॥
अभ्युद्धरति चात्मानं प्रसादयति च प्रजाः॥८॥
तेनैव त्वं धृतिमता श्रीमता चापि सत्कृतः।
प्रमाणं सर्वभूतेषु गत्वा च ग्रहणं महत्॥९॥
ततस्सुहृद्गणं लब्ध्वा मन्त्रयित्वा सुमन्त्रितम्।
सान्त्वेन भेदयित्वाऽरीन् बिल्वं विल्वेन शातय॥१०॥
परैर्वा संविदं कृत्वा बलमप्यस्य पातय॥११॥
अलभ्या ये शुभा भावास् स्त्रियश्चाच्छादनानि च।
शय्यासनानि यानानि महार्हाणि गृहाणि च॥१२॥
पक्षिणो मृगजातानि रसगन्धाः फलानि च।
तेष्वेवावर्जयेथास्त्वं यथा नश्येत् स्वयं परः॥१३॥
यद्येवं प्रतिषेद्धव्यो यद्युपेक्षणमर्हति।
सदैव राजशार्दूल विदुषा हितमिच्छता॥१४॥
न जातु विवृतः कार्यश् शत्रुस्सुनयमिच्छता॥१४॥
वसस्व पुरमामित्रं विषये मित्रसम्मतः।
भजस्व श्वेतकाकीयैर् मित्रधर्ममनर्थकैः॥१५॥
आरम्भानस्य महतो दुष्करान्सम्प्रयोजय।
नदीबन्धविवादांश्च बलवद्भिर्विरुध्यताम्॥१६॥
उद्यानानि महार्हाणि शयनान्यासनानि च।
प्रीतिभोगमुखेनैव कोशमस्य विरोचय॥१७॥
यज्ञदाने प्रशंसास्मैब्राह्मणाननुवर्तय।
ते त्वा प्रियं करिष्यन्ति तच्छेत्स्यन्ति वृका इव॥१८॥
असंशयं पुण्यशीलःप्राप्नोति परमां गतिम्।
त्रिविष्टपे पूज्यतमं स्थानं प्राप्नोति शाश्वतम्॥१९॥
कोशक्षये त्वमित्राणां वशं कौसल्य गच्छति।
उभयत्र प्रसक्तेऽस्य धर्मे चाधर्म एव च॥२०॥
फलार्थी मूलमुच्छिद्यात् तेन जीवन्ति शत्रवः।
निन्दाऽस्मै मानुषं कर्म दैवमस्योपवर्णय॥२१॥
असंशयं दैवपरःक्षिप्रमेव विनश्यति।
याजयैनं विश्वजिता सर्वस्वेन वियुज्यताम्॥२२॥
ततो गच्छत्वसिद्धार्थः पीडयानो महाजनम्।
त्यागधर्मविदं पुण्यं किञ्चिदस्योपवर्णय॥२३॥
अपि त्यागं वुभूषेत किञ्चिद्गच्छेदनामयम्।
सिद्धेनौषधिभोगेन सर्वसत्वविनाशिना॥२४॥
गजानश्वान् मनुष्यांश्च कृतकैरुपघातय॥२५॥
एते चान्ये च बहवो दम्भयोगास्सुचिन्तिताः।
शक्या विनिहताः कर्तुं न क्लीबेन नृपात्मज॥२६॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहिताया वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि षण्णवतितमोऽध्यायः॥९६॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि सप्तपञ्चाशोऽध्यायः॥५७॥
[अस्मिन्नध्याये २६ श्लोकाः]
॥सप्तनवतितमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति कालकवृष्णीयनिदेशेन कौसल्यस्य पुनाराज्यप्राप्त्यादिकथनम्॥
राजा—
न निकृत्या न दम्भेन ब्रह्मन्निच्छामि जीवितुम्।
नाधर्मयुक्तानिच्छेयम् अर्थान्सुमहतोऽप्यहम्॥१॥
पुरस्तादेव भगवन् मयैतदपवर्जितम्।
येन पापं न शङ्केत यद्वा कृत्स्नं हितं भवेत्॥२॥
आनृशंस्थेन धर्मेण लोके ह्यस्मिञ्जिजीविषे।
नाहमेतदलं कर्तुं नैतन्मय्युपपद्यते॥३॥
मुनिः—
उपपन्नस्त्वमेतेन यथा क्षत्रिय भाषसे।
प्रकृत्याऽभ्युपपन्नोऽस्मि बुद्ध्या341 चाद्भुतदर्शनः॥४॥
उभयोरेव साह्यार्थे यतिष्ये तव तस्य च।
संश्लेषं वा करिष्यामि शाश्वतं ह्यनपायिनम्॥५॥
त्वादृशं हि कुले जातम् अनृशंसं बहुश्रुतम्।
अमात्यं को न कुर्वीत राज्यप्रणयकोविदम्॥६॥
यस्त्वं प्रव्राजितो राज्याद् व्यसनं चोत्तमं गतः।
अनृशंसेन वृत्तेन क्षत्रियेच्छसि जीवितुम्॥७॥
आगन्ता मद्गृहंतात वैदेहस्सत्यविक्रमः।
यथाऽहं तं नियोक्ष्यामि तत् करिष्यत्यसंशयम्॥८॥
भीष्मः—
तत आहूय वैदेहं मुनिर्वचनमब्रवीत्॥८॥
मुनिः—
अयं राजकुले जातो विदिताभ्यन्तरो मम।
आदर्श इव शुद्धात्मा शारदश्चन्द्रमा इव॥९॥
नास्मिन् पश्यामि वृजिनं सर्वतो मे परीक्षितः।
तेन ते सन्धिरेवास्तु विश्वसास्मिन्यथा मयि॥१०॥
न राज्यमनमात्येन शक्यं शास्तुममित्रहन्॥११॥
अमात्यश्शुद्ध एव स्याद् बुद्धिसम्पन्न एव च।
तस्माच्चैव भयं राज्ञः पश्य राज्यस्य योजनम्॥१२॥
धर्मात्मनः क्वचिल्लोके नान्याऽस्ति गतिरीदृशी।
तदा स राजपुत्रोऽयं सतां मार्गमनुष्ठितः॥१३॥
असङ्गॄहीतस्त्वेवैषत्वया धर्मपुरोगम।
संसेव्यमानश्श्त्रूंस्तेगृह्णीयान्महतो गणान्॥१४॥
यद्यत् सम्प्रतियुद्ध्येत स्वधर्मं क्षत्रियस्य तत्।
जिगीषमाणस्त्वां युद्धे पितृपैतामहे पदे॥१५॥
त्वं चापि यदि बुद्ध्येथा342 विजिगीषुर्व्रतेस्थितः।
अयुद्ध्वैवनियोगान्मे देशे वैदेहके स्थितः॥१६॥
स त्वं धर्ममवेक्षस्व त्यक्त्वा लोकमसाम्प्रतम्।
न च कामान्न च द्रोहात् स्वधर्मं हातुमर्हसि॥१७॥
नैव नित्यं जयस्तात नैव नित्यं पराजयः।
तस्माज्जयश्च भोक्तव्यो भोक्तव्यश्च पराजयः॥१८॥
आत्मन्यपि च संदृश्यावुभौ जयपराजयौ।
निश्शेषकारिणां तेषां निश्शेषकरणाद्भयम्॥१९॥
भीष्मः—
इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं वचनं ब्राह्मणर्षभम्।
प्रतिपूज्याभिसत्कृत्य पूजार्हमनुमान्य च॥२०॥
वैदेहः—
यथा यान्महाप्राज्ञो यथा ब्रूयाद्बहुश्रुतः।
श्रेयस्कामो यथा ब्रूयाद् उभयोरेव तत् क्षमम्॥२१॥
यथा वचनमुक्तोऽस्मि करिष्यामीह तत् तथा।
एतद्धि343 परमं श्रेयो नात्र कार्या विचारणा॥२२॥
भीष्मः—
ततः कौसल्यमाहूयवैदेहो वाक्यमब्रवीत्॥२२॥
वैदेहः—
धर्मतो बुद्धितश्चैव बलेन च जितं मया।
सोऽहं त्वया त्वात्मगुणैर् जितः पार्थिवसत्तम॥२३॥
आत्मानमनवज्ञाय जितवद्वर्तते भवान्॥२४॥
नावमन्ये च ते बुद्धिं नावमन्ये च पौरुषम्।
नावमन्ये जितमिति जितवद्वर्तते भवान्॥२५॥
यथावत् पूजितो राजन् गृहं गन्तासि मद्गृहात्॥२५॥
भीष्मः—
ततस्सम्पूज्य तौ विप्रंविश्वस्तौ जग्मतुर्नृप॥२६॥
वैदेहस्त्वथ कौसल्यं प्रवेश्य गृहमञ्जसा।
पाद्यार्थ्यमधुपर्कैस्तं पूजयामास भूमिपम्॥२७॥
ददौ दुहितरं चास्मै रत्नानि विविधानि च।
एषराज्ञां परो धर्मस् समौ जयपराजयौ॥२८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां शान्तिपर्वणि सप्तनवतितमोऽध्यायः॥९७॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि अष्टपञ्चाशोऽध्यायः॥५८॥
॥अस्मिन्नध्याये २८ श्लोकाः॥
______
॥ अष्टनवतितमोऽध्यायः॥
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** भीष्मेणयुधिष्ठिरं प्रति गणवृद्धिप्रकारादिकथनम्॥**
______
युधिष्ठिरः—
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
धर्मवृत्तं च वृत्तिश्च वृत्युपायाः फलानि च॥१॥
राज्ञां वृत्तिश्च कोशश्च कोशसञ्जननं जयः।
अमात्यगुणवृद्धिश्च प्रकृतीनां च वर्धनम्॥२॥
षाड्गुण्यगुणकल्पश्च सेनानीतिस्तथैव च।
दुष्टस्य च परिज्ञानम् अदुष्टस्य च लक्षणम्॥३॥
समहीनाधिकानां च यथावल्लक्षणोच्चयः।
मध्यमस्य च तुष्ट्यर्थंयथा स्थेयं विवर्धता॥४॥
क्षीणसङ्ग्रहवृत्तिश्च यथावत् परिकीर्तिता।
लघुनाऽऽदेशरूपेण ग्रहयोगेन भारत॥५॥
विजिगीषोस्तथा वृत्तम् उक्तं चैव विशेषतः।
गणानां वृत्तिमिच्छामि श्रोतुं मतिमतां वर॥६॥
यथा गणाः प्रवर्तन्ते न भिद्यन्ते च भारत।
अरींश्च विजिगीषन्ति सुहृदः प्राप्नुवन्ति च॥७॥
भेदमूलो विनाशो हि गणानामुपलभ्यते।
मन्त्रसंवरणं दुःखं बहूनामिति मे मतिः॥८॥
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं निखिलेन परन्तप।
यथा च ते न भिद्येरंस् तच्च मे ब्रूहि भारत॥९॥
भीष्मः—
गणानां च कुलानां च राज्ञां च भरतर्षभ।
वैरसन्दीपनावेतौ लोभामर्षौतथैव च॥१०॥
लोभमेको विवृणुते ततोऽमर्षमनन्तरम्।
ततो ह्यमर्षसंयुक्तावन्योन्य जयिताशययौ344॥११॥
चारमन्त्रबलाधानैस् सामदानविभेदनैः।
क्षयव्ययभयोपायैः कर्शयन्तीतरेतरम्॥१२॥
तत्र दानेन भिद्यन्ते गणास्सङ्घातवृत्तयः।
भिन्ना विमनसस्सर्वे गच्छन्त्यविशं भयात्॥१३॥
भेदाद् गणा विनश्यन्ति भिन्नास्सूपजयाः परैः।
तस्मात् सङ्घातयोगेषु प्रयतेरन् गणास्तदा॥१४॥
अर्था ह्येवाधिगम्यन्ते सङ्घातबलपौरुषात्।
बाह्याश्च मैत्रीं कुर्वन्ति तेषु सङ्घातवृत्तिषु॥१५॥
ज्ञानवृद्धान् प्रशंसन्ति शुश्रूषन्तः परस्परम्।
विनिवृत्तातिसन्धानास् सुखमेधन्ति सर्वशः॥१६॥
धर्मिष्ठान् व्यवहारांश्च स्थापयन्ति च शाश्वतान्।
यथावत् सम्प्रपश्यन्ते विवर्धन्ते गणोत्तमाः॥१७॥
पुत्रान् भ्रातॄन्निगृह्णन्तो विवर्धन्ते गणोत्तमाः345॥१७॥
चारमन्त्रविधानेषु346मन्त्रसन्निचयेषु च।
नित्ययुक्ता महाबाहो गणा वर्धन्ति सत्तमाः॥१८॥
राज्ञां चारान्महोत्साहान् कर्मसु स्थिरपौरुषान्।
मानयन्तस्सदा युक्ता विवर्धन्ते गणा नृप॥१९॥
द्रव्यवन्तश्च शूराश्च शस्त्रज्ञाश्शास्त्रपारगाः।
कृच्छ्रास्वापत्सु सम्मूढान्गणा उत्तारयन्ति ते॥२०॥
क्रोधो लोभो347 भयं दण्डः कर्शनं निग्रहो वधः।
नयत्यरिवशं सद्यो गणान् भरतसत्तम॥२१॥
तस्मान्मानयितव्यास्ते गणमुख्याः प्रधानतः।
लोकयात्रा समायत्ता भूयसी तेषुभारत॥२२॥
मन्त्रगुप्तिः प्रधानेषुचारश्चामित्रकर्शन।
न गणः कृत्स्नशो मन्त्रं श्रोतुमर्हति भारत॥२३॥
गणमुख्यैस्तु सम्बुध्य कार्यं गणहितं मिथः॥२४॥
पृथग्गणस्य भिन्नस्य विमतस्य ततोऽन्यथा।
अर्थाः प्रत्यवसीदन्ति तथाऽनर्था भवन्ति च॥२५॥
तेषामन्योन्यभिन्नानां स्वशक्तिमनुतिष्ठताम्।
निग्रहः पण्डितैः कार्यः क्षिप्रमेव प्रधानतः॥२६॥
कुलेषु कलहा जाताः कुलवृद्धैरुपेक्षिताः।
गोत्रस्य नाशं कुर्वन्ति गणसम्भेदकारकाः॥२७॥
आभ्यन्तरं भयं रक्ष्यं सुरक्ष्यं बाह्यतो भयम्।
अभ्यन्तराद्वयं जातं सद्यो मूलानि कृन्तति॥२८॥
अकस्माल्लोभमोहाद्वा क्रोधाद्वाऽपि348 स्वभावजात् \।
अन्योन्यं नाभिभाषन्ते तत् पराभवलक्षणम्॥२९॥
जाया च सदृशस्सर्वे कुलेन सदृशास्तथा।
न तु शौर्येण बुद्धया वा रूपद्रव्येण वा समाः॥३०॥
भेदाच्चैवप्रदानाच्चनाम्यन्ते रिपुभिर्गणाः।
तस्मात् सङ्घातमेवाहुर्गणानां शरणं महत्॥३१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि अष्टनवतितमोऽध्यायः॥९८॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि एकोनषष्टितमोऽध्यायः॥९९॥
[ अस्मिन्नध्याये ३१ श्लोकाः ]
॥एकोनशततमोऽध्यायः॥
भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति मातृपितृगुरुमहिमानुवर्णनम्॥
युधिष्ठिरः—
महानयं धर्मपथो बहुशाखश्च भारत।
किंस्विदेव हि धर्माणाम् अनुष्ठेयतमं मतम्॥१॥
किं कार्यं सर्वभूतानां गरीयो भवतो मतम्।
यथाऽयं पुरुषो धर्मम् इह च प्रेत्य चाश्नुयात्॥२॥
भीष्मः—
मातापित्रोर्गुरूणां च पूजा बहुमता मम।
अत्र वर्तन् नरो लोकान् यशश्च महदद्भुते॥३॥
यदेते ह्यनुजानीयुस् स धर्म इति निश्चयः॥३॥
एत एव त्रयो वेदा एत एवाश्रमादयः।
एत एव त्रयो लोका एत एव त्रयोऽग्नयः॥४॥
पिता ह्यग्निर् गार्हपत्यो माताऽग्निदक्षिणस्स्मृतः।
गुरुराहवनीयोऽग्निस् साऽग्नित्रेता गरीयसी॥५॥
त्रिष्वप्रमाद्यन्नेषु त्वं त्रील्ँलोकानपि जेष्यसि।
पितृवृत्त्या त्विमं लोकं मातृवृत्त्या तथा परम्॥६॥
ब्रह्मलोकं गुरोर्वृत्त्या नित्यमेव तरिष्यसि॥७॥
सम्यगेतेषु वर्तस्व त्रिषुलोकेषुभारत।
यशः प्राप्स्यसि भद्रं ते धर्मं च सुमहाफलम्॥८॥
नैतानतिशयीथास्त्वंनात्यश्नीथा न दूषयेः।
नित्यं परिचरेश्चैव तद्वै सुकृतमुत्तमम॥९॥
कीर्तिं पुण्यं यशो लोकान्प्राप्स्यसे त्वं जनाधिप॥९॥
सर्वे तस्याहता लोका यस्यैते त्रय आदृताः।
अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफलाः क्रियाः॥१०॥
नैवायं न परो लोको न यशस्तस्य भारत।
अमानिता नित्यमेव यस्यैते गुरवस्त्रयः॥११॥
न चास्मिन्न परे लोके यशस्तस्य प्रकाशते॥१२॥
यदन्यदपि कल्याणं पारत्रं समुदाहृतम्॥
तेभ्य एव स्म तत् सर्वं कृत्यं यन्निसृजाम्यहम्॥१३॥
तदासीन्मे शतगुणं सहस्रगुणमेव च।
तस्मान्मे सम्प्रकाशन्ते त्रयो लोका युधिष्ठिर॥१४॥
दशैव तु सदाऽऽचार्यश् श्रोत्रियानधितिष्ठति।
दशाचार्यानुपाध्याय उपाध्यायान् पिता दश॥१५॥
पितॄन्दश तु मातैका सर्वां वा पृथिवीमपि।
गुरुत्वेनाभिभवति नास्ति मातृसमो गुरुः॥१६॥
गुरुर्गरीयान्पितृतो मातृतश्चेति मे मतिः।
उभौ हि मातापितरौ जन्मनाऽभ्युदयुञ्जतः॥१७॥
शरीरमेतौ सृजतः पिता माता च भारत।
आचार्यसृष्टा या जातिस् सा सम्यगजरामरा॥१८॥
न वध्या हि सदा माता पिता चाप्युपचारिणौ ॥१८॥
न स दुष्यति तत् कृत्वा न च ते दूषयन्ति तम्।
धर्माय यतमानानां विदुर्देवास्सहर्षिभिः॥१९॥
य आवृणोत्यवितथेन कर्मणा
ऋतं ब्रुवन्नमृतं सम्प्रयच्छन्।
तं मन्येथाः पितरं मातरं च
तस्मै न द्रुह्येत्349 कृतमस्य जानन्॥२०॥
विद्यां श्रुत्वा ये गुरुं नाद्रियन्ते
प्रत्युत्पन्ना मनसा कर्मणा वा।
तेषां पापं भ्रूणहत्याविशिष्टं
तस्मान्नान्यः पापकृदस्ति लोके॥२१॥
यथैव ते गुरुभिर्भावनीयास्
तथैव तेषां गुरवोऽभ्यर्चनीयाः॥२२॥
तस्मात् पूजयितव्यास्ते संविभज्याश्च यत्नतः।
गुरवोऽर्चयितव्यास्ते पुराणं धर्ममिच्छता॥२३॥
येन प्रीणन्ति पितरस् तेन प्रीतः प्रजापतिः।
प्रीणाति जननी येन पृथिवी तेन पूजिता॥२४॥
येन प्रीणात्युपाध्यायस् तेन स्याद्ब्रह्म पूजितम् ।
मातृतः पितृतश्चैव तस्मात् पूज्यतमो गुरुः॥२५॥
ऋषयश्चैव देवाश्च प्रीयन्ते पितृभिस्सह।
पूज्यमानेषु86 गुरुषुतस्मात् पूज्यतमो गुरुः॥२६॥
न च केन च वृत्तेन ह्यवज्ञेयो गुरुर्भवेत्।
न च माता न च पिता तादृशो यादृशो गुरुः॥२७॥
न तेऽवमानमर्हन्ति न तेषां दूषयेत् कृतम्।
गुरूणामेव सत्कारं विदुर्देवास्सहर्षिभिः॥२८॥
उपाध्यायं पितरं मातरं च
ये द्रुह्यन्ते मनसा कर्मणा वा।
तेषां पापं भ्रूणहत्याविशिष्टं
तस्मान्नान्यः पापकृदस्ति लोके॥२९॥
भृतो भर्तारं यो न बिभर्ति पुत्रस्
स्वयोनिजः पितरं मातरं च।
पापं तस्य भ्रूणहत्याविशिष्टं
तस्मान्नान्यः पापकृदस्ति लोके॥३०॥
मित्रद्रुहः कृतघ्नस्य स्त्रीघ्नस्य पिशुनस्य च।
चतुर्णामपि चैतेषां निष्कृतिं नानुशुश्रुम350॥३१॥
एतत् सर्वं मनुनिर्देशदृष्टं
यत् कर्तव्यं पुरुषेणेह किञ्चित्।
एतच्छ्रेयो नान्यदस्माद्विशिष्टं
सर्वान् धर्माननुसृत्यैतदुक्तम्॥३२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकाया संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि एकोनशततमोऽध्यायः॥९९॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि षष्टितमोऽध्यायः॥६०॥
[ अस्मिन्नध्याये ३२ श्लोकाः ]
॥ शततमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति सत्यानृतविवेचनम्॥
युधिष्ठिरः—
कथं धर्मे स्थातुमिच्छन् नरो वर्तेत भारत।
तत्त्वं जिज्ञासमानाय प्रब्रूहि भरतर्षभ॥१॥
सत्यं चैवानृतं चोभे लोकानावृत्य तिष्ठतः।
तयोः किमाचरेद्राजन् पुरुषो धर्मनिश्चयः॥२॥
किंस्वित् सत्यं किमनृतं किंस्विद्धर्मं सनातनम्।
कस्मिन् काले वदेत् सत्यं कस्मिन् वाऽप्यनृतं वदेत्॥३॥
भीष्मः—
सत्यस्य वचनं साधु न सत्याद्विद्यते परम्।
यत्तुलोके सुदुर्ज्ञेयं तत् ते वक्ष्यामि भारत॥४॥
भवेत् सत्यं न वक्तव्यं वक्तव्यमनृतं भवेत्।
यत्रानृतं भवेत् सत्यं सत्यं वाऽप्यनृतं भवेत्॥५॥
तादृशोवध्यते पापो यत्र सत्यमनिश्चितम्।
सत्यानृते विनिश्चित्य ततो भवति धर्मवित्॥६॥
अप्यनार्योऽकृतप्रज्ञः पुरुषोऽप्यति351दारुणः।
सुमहत्प्राप्नुयात् पुण्यं बलाकोऽण्डवधादिव॥७॥
किमाश्चर्यंच यन्मूढो धर्मकामोऽप्यधर्मवित्।
सुमहत् प्राप्नुयात् पापं गङ्गायामिव कौशिकः॥८॥
तादृशोऽयमनुप्रश्नो यत्र धर्मस्सुदुर्विदः।
दुष्करं चापि सङ्ख्यातुं तर्केणात्र व्यवस्यति॥९॥
प्रभवार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्।
यस्म्यादहिंसासंयुक्तस् स धर्म इति निश्चयः॥१०॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस् तपो दानं दमो मतिः।
अनसूयाऽप्यमात्सर्यम् अनीर्ष्याशीलमेव च॥११॥
एषधर्मः कुरुश्रेष्ठ कथितः परमेष्ठिना।
ब्रह्मणा देवदेवेन अयं चैव सनातनः॥१२॥
अस्मिन् धर्मे स्थितो राजन्नरो भद्राणि पश्यति।
श्रौतो वधात्मको धर्म अहिंसा परमार्थिका352॥१३॥
धारणाद्धर्ममित्याहर्धर्मेण च धृताः प्रजाः।
यस्स्याद्धरणसंयुक्तस् स धर्म इति निश्चयः॥१४॥
अहिंसार्थाय353भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्।
यस्स्यादहिंसासंयुक्तस् स धर्म इति निश्चयः॥१५॥
श्रुतिं धर्मं वदन्त्यन्ये मानान्याहुः परे जनाः।
न हि तं स्वभ्यसूयामो न हि सर्वं विधीयते॥१६॥
येऽन्यायेन जिगीषन्तो धनमिच्छन्ति कर्हिचित्।
तेभ्यस्तु न तदाख्येयं स धर्म इति निश्चयः॥१७॥
अकूजनेन चेन्मोक्षो न तु क्रूजेत् कथञ्चन।
अवश्यं कूजितव्यं वा शङ्केरन् वाऽप्यकूजनात्॥१८॥
येऽन्ये354 चाप्यनृतं कुर्युः कुर्यादेव विचारणम्।
श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं सत्यादिति विचारितम्॥१९॥
अक्षयेभ्यो वधं राजन् कुर्यादेवाविचारयन्।
अबुध्वाऽनुशये दोषं श्रेयस्तत्रानृतं भवेत्॥२०॥
न स्तेनैस्सह सम्बन्धान्मुच्यते शपथादपि।
श्रेयस्तत्रानृतं वक्तुं सत्यादिति हि धारणा॥२१॥
यः पापैस्सह सम्बन्धान्मुच्यते शपथादपि।
न च तेभ्यो धनं दद्याच् छक्ये सति कथञ्चन॥२२॥
पापेभ्यो हि धनं दत्तं दातारमपि पीडयेत्॥२२॥
स्वशरीरोपरोधेन धनमादातुमिच्छतः।
सत्यसम्प्रतिपत्त्यर्थं यद्ब्रूयुस्साक्षिणः क्वचित्॥२३॥
अनुक्त्वा यत्र तद्वाच्यं सर्वे तेऽनृतवादिनः॥
प्राणात्यये विवाहे च वक्तव्यमनृतं355 भवेत्।
अर्थस्य रक्षणार्थ वा परेषां धर्मकारणात्॥२५॥
परेषां धर्म356माकाङ्क्षन्न च स्याद्धर्मभिक्षुकः।
प्रतिश्रुत्य न दातव्यं श्वः कार्यस्तु बलात्कृतः॥२६॥
यः कश्चिद्धर्मसमयात् प्रच्युतो दम्भजीवनः।
दण्डेनैव स हन्तव्यस् तं पन्थानं समाश्रितः॥२७॥
कथं357 स्वधर्ममुत्सृज्य तमिच्छेदुपजीवितुम्॥२७॥
सर्वोपायैर्नियन्तव्यः पापैर्निकृतिजीवितः।
च्युतस्सदैव धर्मेभ्यो धनवान् मद358माश्रितः॥२८॥
धनमित्येव पापानां सर्वेषामिह निश्चयः॥२९॥
अविवाह्या ह्यसम्भोज्या निकृत्या निरयं गताः।
च्युता देवमनुष्येभ्यो यथा प्रेतास्तथैव ते॥३०॥
धनादानादुःखतरं जीवितं धिक् प्रयोजनम्।
इदं न रोचतां धर्म इति वाच्यं प्रयत्नतः॥३१॥
न कश्चिदस्ति पापानां धर्म इत्येषनिश्चयः।
तथाविधं च यो हन्यान्न स पापेन लिप्यते॥३२॥
स्वकर्मणा हतं हन्ति हत एव स हन्यते।
तेषु यस्समयं कश्चित् कुर्वीत हतबुद्धिषु॥३३॥
यथा काकास्तथैव श्वा तथैवोषधिजीविनः।
ऊर्ध्वं देहविमोक्षान्ते भवन्त्येतासु योनिषु॥३४॥
यस्मिन् यथा वर्तति यो मनुष्यस्
तस्मिंस्तथा वर्तितव्यस्सधर्मः।
मायाचारो मायया बाधितव्यस्
साध्वाचारस्साधुनैवाभ्युपेयः॥३५॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि शततमोऽध्यायः॥१००॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि एकषष्ठितमोऽध्यायः॥६१॥
[ अस्मिन्नध्याये ३५ श्लोकाः ]
______
॥ एकाधिकशततमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति दुर्गातितरणोपायकथनम्॥
______
युधिष्ठिरः—
क्लिश्यमानेषु भूतेषु तैस्तैर्भावैः पृथक् पृथक्।
दुर्गाण्य359तितरेद्येन तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
भीष्मः—
आश्रमेषु यथोक्तेषु यथोक्तं ये द्विजातयः।
वर्तन्ते संयतात्मानो दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥२॥
ये दम्भान्न जपन्ति स्म येषां वृत्तिरसंवृता।
विषयांश्च न360 गृह्णन्ति दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥३॥
प्रत्यूचुर्नोच्यमाना361 ये न हिंसन्ति च हिंसिताः।
न प्रयच्छन्ति न च362 ते दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥४॥
स्वेषुदारेषु वर्तन्ते न्यायलब्धेष्वृतावृतौ।
अग्निहोत्रपरास्सन्तो दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥५॥
वासयन्त्यतिथीन् नित्यं नित्यं ये वाऽनसूयकाः।
नित्यं स्वाध्यायशीलाच दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥६॥
मातापित्रोश्च ये वृत्तिं वर्तन्ते धर्मकोविदाः।
वर्जयन्ति दिवास्वप्नं दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥७॥
ये न लोभान्नयन्त्यर्थान् राजानो रजसा वृताः।
विषयान् परिरक्षन्तो दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥८॥
आहवेषु च ये शूरास् त्यक्त्वा मृत्युकृतं भयम्।
धर्मेण जयमिच्छन्ति दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥९॥
ये पापानि न कुर्वन्ति कर्मणा मनसा गिरा।
निक्षिप्य दण्डं भूतेषु दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥१०॥
ये वदन्तीह सत्यानि प्राणत्यागेऽप्युपस्थिते।
प्रमाणभूता भूतानां दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥११॥
कर्माण्यकुत्सनार्थानि येषां वाचश्च सूनृताः।
येषामर्थाश्च साध्वर्था दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥१२॥
अनध्यायेपु ये विप्रास् स्वाध्यायं नैव कुर्वते।
तपोनित्यास्सुमनसो दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥१३॥
ये363 तपश्च तपस्यन्ति कौमारब्रह्मचारिणः।
विद्यावेदव्रतस्त्राता दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥१४॥
ये च संज्ञान्तरजसस् संशान्तमनसश्च ये।
सत्त्वेस्थिता महाभागा दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥१५॥
येषां न कश्चित् त्रसति न त्रसन्ति हि कस्यचित्।
येषामात्मसमो लोको दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥१६॥
परश्रिया न तप्यन्ति364 ये सन्तः पुरुषर्षभ365।
ग्राम्यादन्नान्निवृत्ताश्च दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥१७॥
सर्वान् देवान् नमस्यन्ति सर्वधर्मांश्च शृण्वते।
ये श्रद्दधानाश्शान्ताश्चदुर्गाण्यतितरन्ति ते॥१८॥
ये न मानित्वमिच्छन्ति मानयन्ति च ये परान्।
मान्यमानान्366 नमस्यन्ति दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥१९॥
ये367 च श्राद्धानि कुर्वन्ति तिथ्यां तिथ्यां प्रजार्थिनः।
सुविशुद्धेन मनसा दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥२०॥
ये रोषंसन्नियच्छन्ति क्रुद्धान् संशमयन्ति च।
न च रुष्यन्ति भृत्यानां दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥२१॥
मधु मांसं च ये नित्यं वर्जयन्तीह मानवाः।
जन्मप्रभृति मद्यं च दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥२२॥
यात्रार्थं भोजनं येषांसन्तानार्थं च मैथुनम्।
वाक्सत्यवचनार्थं च दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥२३॥
ईश्वरं सर्वभूतानां जगतः प्रभवाप्ययम्।
भक्ता नारायणं देवं दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥२४॥
य एषपद्मरक्ताक्षः पीतवासा महाभुजः।
सुहृद्भ्राता च मित्रं च सम्बन्धी च तवाच्युतः॥२५॥
य इमान् सकलाल्ँलोकांश्चर्मवत् परिवेष्टयेत्।
इच्छन् प्रभुरचिन्त्यात्मा गोविन्दः पुरुषोत्तमः॥२६॥
स्थितः प्रियहिते नित्यं स एषपुरुषर्षभः।
राजंस्तव यदुश्रेष्ठो वैकुण्ठः पुरुषोत्तमः॥२७॥
य एनं संश्रयन्तीह भक्त्या नारायणं हरिम्।
ते तरन्तीह दुर्गाणि न मेऽत्रास्ति विचारणा॥२८॥
अस्मिन्नर्पितकर्माणस् सर्वभावेन भारत।
कृष्णे कमलपत्राक्षे दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥२९॥
लोकरक्षार्थमुत्पन्नम् अदित्यां काश्यपात्मजम्।
देवमिन्द्रं नमस्यन्ति दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥३०॥
ब्रह्माणं लोककर्तारं ये नमस्यन्ति सत्पतिम्।
यष्टव्यं ऋतुभिर्देवं दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥३१॥
यं विष्णुरिन्द्रश्शम्भुश्चब्रह्मा लोकपितामहः।
स्तुवन्ति विविधैस्स्तोत्रैर् देवदेवं महेश्वरम्॥३२॥
तमर्चयन्ति ये शश्वद् दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥३२॥
दुर्गातितरणं ये च पठन्ति श्रावयन्ति च।
कथयन्ति च विप्रेभ्यो दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥३३॥
इति कृत्यसमुद्देशः कीर्तितस्ते मयाऽनघ।
तरते येन दुर्गाणि परत्रेह च मानवः॥३४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि एकशततमोऽध्यायः॥१०१॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि द्विषष्टितमोऽध्यायः॥६२॥
[अस्मिन्नध्याये ३४॥ श्लोकाः]
______
॥ द्व्यधिकशततमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति परीक्षायाः सौम्यासौम्यत्वनिर्धारणसाधनताप्रतिपादकव्याघ्रगोमायुचरितकथनम्॥
______
युधिष्ठिरः—
असौम्यास्सौम्यरूपेण सौम्याश्चासौम्यरूपिणः।
तादृशान्पुरुषांस्तात कथं विद्यामहे वयम्॥१॥
भीष्मः—
अत्राप्युदाहरन्तीमम्इतिहासं पुरातनम्।
व्याघ्रगोमायुसंवादं तं निबोध युधिष्ठिर॥२॥
पुरिकायां पुरि पुरा श्रीमत्यां पौरिको नृपः।
परहिंसापरः क्रूरो बभूव पुरुषाधमः॥३॥
स त्वायुषि परिक्षीणे जगामानीप्सितां गतिम्।
गोमायुत्वं च सम्प्राप्तो दूषितः पूर्वकर्मणा॥४॥
संस्मृत्य पूर्वजातिं स्वां निर्वेदं परमं गतः।
न भक्षयति मांसानि परैरुपहृतान्यपि॥५॥
अहिंस्रस्सर्वभूतेषु सत्यवाक् सुदृढव्रतः।
चकार च यथाकालम् आहारं पतितैः फलैः॥६॥
पर्णाहारः कदाचिच्च नियमव्रतवानपि।
कदाचिदुदकेनापि वर्तयन्ननुयन्त्रितः॥७॥
श्मशाने तस्य चावासो गोमायोस्सम्मतोऽभवत्।
जन्मभुम्यनुरोधाच्च नान्यं वासमरोचयत्॥८॥
तस्य शोकममृष्यन्तस् ते सर्वे सहजातयः।
चालयन्ति स्म तां बुद्धि वचनैः प्रश्रयोत्तरैः॥९॥
गोमायवः—
वसन् पितृवने रौद्रे शौचं लम्भितुमिच्छसि।
इयं विप्रतिपत्तिस्ते यदा त्वं पिशिताशनः॥१०॥
तत् समानो भवास्माभिर् भक्ष्यं दास्याम ते वयम्।
भुङ्क्ष्व शौचं परित्यज्य यद्धि भुक्तं तदस्ति ते॥११॥
भीष्मः—
इति तेषां वचश्श्रुत्वाप्रत्युवाच समाहितः।
मधुरैःप्रश्रितैर्वाक्यैर्हेतुमद्भिरनिष्ठुरैः॥१२॥
गोमायुः—
अप्रमाणा प्रसूतिर्मेशीलतः क्रियते कुलम्।
प्रार्थयामि च तत् कर्म येन विस्तीर्यते यशः॥१३॥
श्मशाने यदि वासो मे समाधिर्मे निशाम्यताम्।
आत्मा फलति कर्माणि नाश्रमो धर्मलक्षणम्॥१४॥
आश्रमे यो द्विजं हन्याद्दान दद्यादनाश्रमे।
किं नु तत् पातकं368 न स्यात् तद्वा दानं वृथा भवेत्॥१५॥
भवन्तस्स्वार्थलोभेन केवलं भक्षणे रताः।
अनुबन्धेषु ये दोषास् तान् न पश्यन्ति मोहिताः॥१६॥
अप्रत्ययकृतां गर्ह्याम् अर्थापनयदूषिताम्।
इह चामुत्र चानिष्टांतस्मादृतिं न रोचये॥१७॥
भीष्मः—
तं शुचि पण्डितं मत्वा शार्दूलःख्यातविक्रमः ।
कृत्वाऽऽत्मसदृशींपूजां साचिव्येऽवरयत् स्वयम्॥१८॥
शार्दूलः—
सौम्य विज्ञातरूपस्त्वं गच्छ यात्रां मया सह।
त्रियन्तामिप्सिता भोगाः परिहाराश्च पुष्कलाः॥१९॥
तीक्ष्णा इति वयं ख्याता भवन्तं ज्ञापयामहे।
मृदुपूर्वं प्रशाधि त्वं श्रेयश्चापि गमिष्यसि॥२०॥
भीष्मः—
अथ सम्पूज्य तद्वाक्यं मृगेन्द्रस्य महात्मनः।
गोमायुः प्रश्रितं वाक्यं बभाषेकिञ्चिदानतः॥२१॥
गोमायुः—
सदृशं मृगराजेन्द्र तव वाक्यं मदन्तरे।
यत् सहायान् मृगयसे धर्मार्थकुशलाञ् शुचीन्॥२२॥
न शक्यं ह्यनमायेन महत्त्वमनुशासितुम्।
दुष्टामात्येन वा वीर शरीरपरिपन्थिना॥२३॥
सहायाननुरक्तांस्तु सहितानुपसंहितान्।
परस्परमसन्तुष्टान् विजिगीषूनलोलुपान्॥२४॥
तानतीतोपधान्प्राज्ञान्हिते युक्तान्मनस्विनः369।
पूजयेथा महाभागान्यथा भ्रातॄन् यथा पितॄन्॥२५॥
न त्वेव मम सन्तोषाद् रोचतेऽन्यन्मृगाधिप।
न कामये सुखान् भोगान् ऐश्वर्यं वा त्वदाश्रयम्॥२६॥
न च योक्ष्यति मे शीलं न भृत्यैः पुनरानतैः।
ते त्वां बिभेदयिष्यन्ति दुःखशीला मदन्तरे॥२७॥
संश्रयश्लाघनीयस्त्वम् अन्येषामपि भास्वताम्।
कृतात्मा सुमहाभागः पापकेष्वप्यदारुणः॥२८॥
दीर्घदर्शी महोत्साहो मूलरक्षो महाबलः।
कृते चामोघकर्ताऽसि भागैश्च370 समलङ्कृतः॥२९॥
किंतु स्वेनास्मि सन्तुष्टो दुःखा वृत्तिरनुष्ठिता।
सेवायाश्चापि नाभिज्ञस् स्वच्छन्देन वनेचरः॥३०॥
प्राज्ञोपक्रोशदोषाश्च सर्वे संश्रयवासिनाम्।
वनचर्या तु निस्सङ्गानिर्भया निरवग्रहा॥३१॥
नृपेण ह्रियमाणस्य यत् तिष्ठति भयं हृदि।
न तत् तिष्ठति शिष्टानां वने मूलफलाशिनाम्॥३२॥
पानीयं वां निरायासं स्वाद्वन्नंवा गुणोत्तमम्।
विचार्य खलु पश्यामि तत् सुखं यत्र निर्वृतिः॥३३॥
अपराधैर्न तावन्तो भृत्याश्शस्ता नराधिपैः।
उपघातैर्यथा भृत्या दूषिता निधनं गताः॥३४॥
यदि वा ते दया कार्या371 मृगेन्द्र यदि मन्यसे।
समयं कृतमिच्छामि वर्तितव्यं यथात्वयि372॥३५॥
मदीया माननीयास्ते श्रोतव्यं च हितं वचः।
कल्पिता या च मे वृत्तिस् सा भवेत् त्वयि सुस्थिरा॥३६॥
न मन्त्रणीयमन्यैस्ते सचिवैस्सह373 कर्हिचित्।
नीतिमन्तः परीप्सन्तो वृथा ब्रूयुः परे मयि॥३७॥
एक एकेन सङ्गम्य रहो ब्रूयां हितं वचः।
न च ते ज्ञातिकार्येषु प्रष्टव्योऽस्मि हिताहिते॥३८॥
मया सम्मन्त्र्य पश्चाच्चन हिंस्यास्सचिवास्त्वया।
मदीयानां च कुपितो मा त्वं दण्डं निपातयेः॥३९॥
भीष्मः —
एवमस्विति तेनासौ मृगेन्द्रेणाभिपूजितः।
प्राप्तवान् मतिसाचिव्यं गोमायुर्व्याघ्रचोदितः॥४०॥
तं तथा सत्कृतं दृष्ट्वा युज्यमानं च कर्मसु।
प्राद्विषन् कृतसङ्घाताः पूर्वभृत्या मुहुर्मुहुः॥४१॥
मित्रबुद्ध्या च गोमायुं सान्त्वयित्वा प्रवेश्य च।
दोषेषु समयान्नेतुम् इच्छन्त्यशुभबुद्धयः॥४२॥
अन्यथा ह्युचितं पूर्वं परद्रव्यापहारिणः।
अशक्ताः किञ्चिदाहर्तुं द्रव्यं गोमायुयन्त्रिताः॥४३॥
व्युत्थानं चात्र काङ्क्षद्भिः कथाभिः प्रतिलोभ्यते।
धनेन महता चैव बुद्धिरस्य विलोभ्यते॥४४॥
न चापि स महाप्राज्ञस् तस्माद्धैर्याच्चचाल ह॥४४॥
अथास्य समयं कृत्वा विनाशाय स्थिताः परे॥४५॥
ईप्सितं च मृगेन्द्रस्य मांसं यत् तत्र संस्कृतम्।
अपनीय स्वयं तच्च तैर्न्यस्तं तस्य वेश्मनि॥४६॥
यदर्थं वाऽप्यपहृतं येन यच्चैव मन्त्रितम्।
तस्य तद्विदितं सर्वं कारणार्थं च मर्षितम्॥४७॥
समयोऽ यं374 कृतस्तेन साचित्र्यमुपगच्छता \।
नोपघातस्त्वया कार्यो राजन् मैत्रीमिहेच्छता॥४८॥
इति375 तस्य च मन्त्रस्य स्थित्यर्थं तदुपेक्षितम्॥४८॥
भोजने तूपहर्तव्ये यन्मांसं तन्न दृश्यते।
मृगराजेन चाज्ञप्तं मृग्यतां चोर इत्युत॥४९॥
कृतकैश्चापि तन्मांसं मृगेन्द्राय निवेदितम्।
सचिवेनापनीतं ते विदुषा प्राज्ञमानिना॥५०॥
सरोषस्त्वथ शार्दूलश्श्रुत्वा गोमायुचापलम्।
बभूव विमना राजन्376 वधंचाप्यभ्यरोचयत्॥५१॥
छिद्रं तु तस्य ते दृष्ट्वा प्राहुस्ते पूर्वमन्त्रिणः॥५२॥
व्याघ्रमन्त्रिणः—
सर्वेषामेव सोऽस्माकं वृत्तिभङ्गेषु वर्तते॥५२॥
इदं तस्येदृशं कर्म बालेभ्यो न च लक्ष्यते377।
श्रुतश्च स्वामिना पूर्वं यादृशो नैषतादृशः॥५३॥
वाङ्मात्रेणैव धर्मिष्ठस् स्वभावेन तु दारुणः।
धर्मच्छद्माह्ययं पापो वृथाचारपरिग्रहः॥५४॥
कार्यार्थं भोजनाद्येषु378 व्रतेषु कृतवाञ् श्रमम्॥५५॥
भीष्मः—
मांसापनयनं श्रुत्वा व्याघ्रस्तेषां च तद्वचः।
आज्ञापयामास तदा गोमायुर्वध्यतामिति॥५६॥
गोमायोर्व्यसनं श्रुत्वा शार्दूलजननी ततः।
मृगराजं हितैर्वाक्यैस् सम्बोधयितुमागमत्॥५७॥
शार्दूलजननी—
पुत्र नैतत्त्वया ग्राह्यं कपटारम्भसंयुतम्।
धर्म सङ्घर्षजैर्दोषैर्379दूष्यतेऽशुचिभिश्शुचिः॥५८॥
नोच्छ्रितं सहते कश्चित् प्रक्रिया वैरकारिका।
शुचेरपि हि युक्तस्य दोष एव निपात्यते॥५९॥
लुब्धानां शुचयो द्वेष्याः कातराणां तरस्विनः।
मूर्खाणां पण्डिता द्वेष्यादरिद्राणां महाधनाः॥६०॥
अधार्मिकाणां धर्मिष्ठा विरूपाणां सुरूपिणः॥६०॥
बहवोऽपण्डिता मूर्खा लुब्धा मायोपजीविनः।
आहुर्दोषमदोषस्य बृहस्पतिमतेरपि॥६१॥
सुन्यस्तं ते गृहे मांसं यदद्यापहृतं तव।
नेच्छते दीयमानं च साधु तावद्विधीयताम्॥६२॥
असत्यास्सत्यसङ्काशास् सत्याश्चासत्यदर्शनाः।
दृश्यन्ते विविधा भावास् तेषु युक्तं परीक्षणम॥६३॥
तलवदृश्यते व्योम खद्योतो हव्यवाडिव।
न चैवास्ति तलं व्योम्नि खद्योते न हुताशनः॥६४॥
तस्मात् प्रत्यक्षदृष्टेऽपि युक्तमर्थपरीक्षणम्।
परीक्ष्य ज्ञापयन्नर्थान् न पश्चात् परितप्यते॥६५॥
न दुष्करमिदं380 पुत्र यत् प्रभुर्घातयेत् परम्।
श्लाघनीया यशस्या च लोके प्रभवतां क्षमा॥६६॥
स्थापितोऽयं त्वया पुत्र स मन्त्रेष्वपि विश्रुतः।
दुःखेन साध्यते पात्रं धार्यतामेषवै सुहृत्॥६७॥
दूषितं परदोषैर्हिगृह्णीते योऽन्यथा शुचिम्।
स्वयं स्वदूषितामात्यः क्षिप्रमेव विनश्यति॥६८॥
एतस्मादरिसङ्घाताद् गोमायोः381 कश्चिदागतः।
धर्मात्मा तेन चाख्यातं यथैतत् कपटं कृतम्॥६९॥
भीष्मः —
ततो विज्ञातचारित्रस् सत्कृत्य स विमोक्षितः।
परिष्वक्तश्चसस्नेहं मृगेन्द्रेण पुनः पुनः॥७०॥
अनुज्ञाय मृगेन्द्रं तु गोमायुर्नीतिशास्त्रवित्।
तेनामर्षेण सन्तप्तः प्रायमासितुमैच्छत॥७१॥
गोमायुं तु स शार्दूलस् स्नेहात् प्रसृतलोचनः।
न्यवारयत धर्मिष्ठं पूजया प्रतिपूजयन्॥७२॥
तं स गोमायुरालोक्य स्नेहादागतसम्भ्रमः।
बभाषेप्रणतो वाक्यं बाष्पसन्दिग्धया गिरा॥७३॥
गोमायुः—
पूजितोऽहं त्वया पूर्वं पश्चाच्चैव विमानितः।
परेषामास्पदं नीतो वक्तुं नार्होऽस्म्ययं त्वया॥७४॥
असन्तुष्टश्च्युतस्स्थानाद् अस्मात् प्रत्यवरोपितः।
स्वयं चोपद्रुता भृत्या ये चाप्यपहृताः परैः॥७५॥
परिक्षीणाश्च लुब्धाश्च क्रुद्धा भाराभिपीडिताः।
हृतस्वा मानिनो ये च त्यक्तोपात्ता महेप्सवः॥७६॥
संलालिताश्च ये केचिद् व्यसनौघप्रतीक्षिणः।
अन्तर्हितास्सोपहृतास् ते सर्वेऽपरसाधनाः॥७७॥
अवमानेन युक्तस्य स्थापितस्य च मे पुनः।
कथं यास्यसि विश्वासम् अहमेष्यामि वा कथम्॥७८॥
समर्थ इति सङ्गृह्य स्थापयित्वा परीक्ष्य च।
कृतं च समयं भित्त्वा382 त्वयाऽहमवमानितः॥७९॥
प्रथमं यस्समाख्यातश् शीलवानिति संसदि।
न वाच्यं तस्य वैगुण्यं प्रतिज्ञां परिरक्षता॥८०॥
एवं चाप्यमतस्येह विश्वास मे न यास्यसि।
त्वयि चापेतविश्वासे ममोद्वेगो भविष्यति॥८१॥
शङ्कितस्त्वमहं भीतः परे च्छिद्रानुसारिणः।
अस्निग्धाश्चैव दुस्तोषाःकर्म चैतद्बहुच्छलम्॥८२॥
दुःखेन श्लिष्यते भिन्नं श्लिष्टं दुःखेन भिद्यते।
भिन्नश्लिष्टे ततु याप्रीतिर् न सा स्नेहेन वर्धते॥८३॥
कच्चित् तव हिते भर्तुर् दृश्यते परमात्मनः।
कार्यापेक्षाः प्रवर्तन्ते भावस्निग्धास्सुदुर्लभाः॥८४॥
सुदुःखं पुरुषज्ञानं चित्तं येषांचलाचलम्।
समर्थो वाऽप्यशक्तो वा शतेष्वेकोऽधिगम्यते॥८५॥
अकस्मात् प्रक्रिया नृणाम् अकस्माच्चापकर्षणम्।
शुभाशुभे महत्त्वं च प्रहर्तुं बुद्धिलाघवम्॥८६॥
भीष्मः—
एवं बहुविधं सान्त्वम् उक्त्वा धर्मार्थहेतुमत्।
प्रसादयित्वा राजानं गोमायुर्वनमभ्यगात्॥८७॥
अगृह्यानुनयं तस्य मृगेन्द्रस्य तु बुद्धिमान्।
गोमायुःप्रायमासीनस् त्यक्त्वा देहं दिवं ययौ॥८८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि द्व्यधिकशततमोऽध्यायः॥१०२॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि त्रिषष्टितमोऽध्यायः ॥६३॥
[ अस्मिन्नध्याये ८८॥ श्लोकाः]
______
॥त्र्यधिकशततमोऽध्यायः॥
भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति अलसताया अनर्थहेतुताव्यापकोष्ट्रचरिताभिधानम्॥
______
युधिष्ठिरः—
किं पार्थिवेन कर्तव्यं कृत्वा किंस्वित् सुखी भवेत्।
तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन सर्वधर्मभृतां वर॥१॥
भीष्मः —
हन्त तेऽहं प्रवक्ष्यामि शृणु कार्यविनिश्चयम्।
यथा375 राज्ञेह कर्तव्यं यच्च कृत्वा सुखी भवेत्॥२॥
श्रुत्वैवं वर्तितव्यं स्म यथेदमनु शुश्रुम383।
उष्ट्रस्य सुमहद्वृत्तं तन्निबोध युधिष्ठिर॥३॥
जातिस्मरो महानुष्ट्रः प्रजापतिकुलोद्भवः।
तपस्सुमहदातिष्ठद्अरण्ये संशितव्रतः॥४॥
तपसस्तस्य चान्ते वै प्रीतिमानभवद्विभुः।
वरेण च्छन्दयामास ततश्चैनं पितामहः॥५॥
उष्ट्रः—
भगवंस्त्वत्प्रसादान्मेदीर्घा ग्रीवा भवेदियम्।
योजनानां शतं साग्रम् इच्छेयं चरितुं विभो॥६॥
भीष्मः—
एवमस्त्विति तेनोक्तं वरदेन महात्मना।
उपलभ्य वरं श्रेष्ठं प्रायादुष्ट्रस्स्वकं वनम्॥७॥
स चकार तदाऽऽलस्यं वरदानात् सुदुर्मतिः।
चरितुं चापि नेयेषदुरात्मा कालमोहितः॥८॥
स कदाचित् प्रसार्यैव तां ग्रीवां शतयोजनाम्।
चचार शान्तहृदयो वातश्चागात्ततो महान्॥९॥
स गुहायां शिरो ग्रीवां निधाय पशुरात्मनः।
वातवर्षमथाभ्यागात् सुमहत् प्लावयज्जगत्॥१०॥
अथ शीतपरीताङ्गो जम्बुकःक्षुच्छ्रमान्वितः384।
सदारस्तां गुहामाशुप्रविवेश जलार्दितः॥११॥
सदृष्ट्वा मांसजीवी तं सुभृशं क्षुच्छ्रमान्वितः385।
अभक्ष्यत तां ग्रीवाम् उष्ट्रस्य भरतर्षभ॥१२॥
यदा त्वबुध्यतात्मानं भक्ष्यमाणं स वै पशुः।
तदा सङ्कोचने यत्नम् अकरोद्भृशदुःखितः॥१३॥
यावदूर्ध्वमघश्चैव ग्रीवां सङ्क्षिपते पशुः।
तावत्तेन सदारेण जम्बुकेन स भक्षितः॥१४॥
स हत्वा भक्षयित्वा च उष्ट्रं तं जम्बुकस्तदा।
विगते वातवर्षे च निश्चक्राम गुहोदरात्॥१५॥
एवं दुर्बुद्धिना प्राप्तम् उष्ट्रेण निधनं पुरा।
आलस्यस्य क्रमात् पश्य महान्तं दोषमात्मनः॥१६॥
त्वमप्येवंविधं त्यक्त्वा योगेन नियतेन्द्रियः॥
प्रवृत्तं बुद्धिमूलं हि विजयं मनुरब्रवीत्॥१७॥
बुद्धिश्रेष्ठानि कर्माणि बाहुमध्यानि भारत।
तानि जङ्घाजघन्यानि भारप्रत्यवराणि च॥१८॥
राज्यं तिष्ठति दक्षस्य सङ्गृहीतेन्द्रियस्य च।
गुप्तं मन्त्रं श्रुतवतस् सुसहायस्य चानघ॥१९॥
असहायवतो ह्यर्था न तिष्ठन्ति कदाचन।
परीक्षितसहायस्य तिष्ठन्तीह युधिष्ठिर॥२०॥
सहाययुक्तेन मही शक्या कृत्स्ना प्रशासितुम्॥२०॥
इदं हि सद्भिः कथितं विधिज्ञैः
पुरा महेन्द्रप्रतिमप्रभाव।
मयाऽपि चोक्तं तव शास्त्रदृष्ट्या
त्वमप्रमत्तः प्रचरस्व राजन्॥२१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि त्र्यधिकशततमोऽध्यायः॥१०३॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि चतुष्षष्टितमोऽध्यायः॥६४॥
[ अस्मिन्नध्याये २१॥श्लोकाः ]
॥चतुरधिकशततमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति बलवच्छत्रुवशीकरणे विनयस्योपायतायांदृष्टान्ततया सरित्सागरसंवादानुवादः
______
युधिष्ठिरः—
राजा राज्यमनुप्राप्य दुर्बलो भरतर्षभ।
अमित्रस्याभिवृद्धस्य कथं तिष्ठेदसाधनः॥१॥
भीष्मः —
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
सरितां चैव संवा समुद्रस्य च भारत॥२॥
सुरारिनिलयश्शश्वत् समुद्रस्सरितां पतिः।
पप्रच्छ सरितस्सर्वास् संशयं जातमात्मनः॥३॥
समुद्रः—
समूलशाखान् पश्यामि निहतान् कायिनो द्रुमान्।
युष्माभिरभिपूर्णाभिर् अन्यांस्तत्र न वेतसान्॥४॥
अल्पकायश्चाल्पसारो वेतसः कूलजश्च यः।
अविज्ञाय न शक्यो वा किञ्चिद्वा तेन वः कृतम्॥५॥
तदहं श्रोतुमिच्छामि सर्वासामेव वो मतम्।
यथा कूलानि चेमानि हित्वा386 नानीयते वशम्॥६॥
भीष्मः—
ततः प्राह नदी गङ्गा वाक्यमुत्तरमर्थवत्।
हेतुमद्ग्राहकं चैव सागरं सरितां पतिम्॥७॥
गङ्गा—
तिष्ठन्त्येते यथास्थानं नगा ह्येकनिकेतनाः।
ततस्त्यजन्ति तत् स्थानं प्रातिलोम्यादचेतसः॥८॥
वेतसो वेगमायान्तं दृष्ट्वा नमति नेतरे।
स च वेगे ह्यतिक्रान्ते स्थानमापद्यते पुनः॥९॥
कालज्ञस्समयज्ञश्च सदा वश्यश्च नोद्रुमः।
अनुलोमवृत्तिरस्तब्धस् तेन त्वां नैति वेतसः॥१०॥
मारुतोदकवेगेन ये नमन्त्युन्नमन्ति च।
ओषध्यः पादपा गुल्मा न ते यान्ति पराभवम्॥११॥
भीष्मः—
यो हि शत्रोर्विवृद्धस्य प्रभोर्वधविनाशने।
पूर्वं न सहते वेगं क्षिप्रमेव विनश्यति॥१२॥
सारासारं बलं वीर्यम् आत्मनो द्विषतश्चयः।
जानन्विचरते प्राज्ञो न स याति पराभवम्॥१३॥
एवमेव यदा विद्वान्मन्यते विपुलं बलम्।
संश्रयेद्वैतसीं वृत्तिम् एतत् प्रज्ञान387लक्षणम्॥१४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहिताया वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि चतुरधिकशततमोऽध्यायः॥१०४॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि पञ्चषष्ठितमोऽध्यायः॥६५॥
[अस्मिन्नध्याये १४ श्लोकाः]
______
॥पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति सभायां दुष्टदुर्भाषणे तत्तितिक्षायागुणत्वप्रतिपादनम्॥
______
युधिष्ठिरः—
विद्वान् मूढ प्रगल्भेन388 मृदुस्तीक्ष्णेन भारत।
आक्रुश्यमानस्सदसि कथं कुर्यादरिन्दम॥१॥
भीष्मः—
श्रूयतां पृथिवीपाल यथैषोऽर्थोऽवगम्यते।
सदा सचेतास्सहते नरस्येहाल्पचेतसः॥२॥
आक्रुश्य दूष्यमाणश्च सुकृतं तस्य विन्दति।
दुष्कृतं चात्मनो मर्षी तस्मिन्नेव प्रमार्जति॥३॥
गर्हितं तमुपेक्षेत वाश्यमानमिवातुरम्।
लोके विद्वेषमापन्नो विफलं प्रतिपद्यते॥४॥
इति स्म श्लाघते नित्यं तेन पापेन कर्मणा॥४॥
इदमुक्तो मया कश्चित् सर्वतो जनसंसदि।
स तत्र व्रीडितश्शुष्को मृतकल्पो भविष्यति॥५॥
श्लाघन्नश्लाघनीयेन कर्मणा निरपत्रपः।
उपेक्षितव्यो दान्तेन तादृशः पुरुषाधमः॥६॥
यद्यद्ब्रूयादल्पमतिस् तत्तदस्यसहेत् तदा॥७॥
प्रकृत्या हि प्रशंसन्वा निन्दन्वा किं करिष्यति।
वने काक इवाबुद्धिर् वाश्यमानो निरर्थकम्॥८॥
यदि वाग्भिः प्रयोगस्यात्प्रयोज्यः पापकर्मणा।
वागेवार्थो भवेत्तस्य न ह्येवार्थो जिघांसतः॥९॥
निषेकं वै परस्यासावाचष्टे वृत्तचेष्तया।
मयूर इव कौपीनं389 नृत्यं सन्दर्शयन्निव॥१०॥
यस्यावाच्यं न लोकेऽस्मिन्नाकार्यं वाऽपि किञ्चन।
वाचं तेन न सन्दध्याच् छुचिस्संश्लिष्टकर्मणा॥११॥
प्रत्यक्षं गुणवादी यः परोक्षं तु विनिन्दकः।
स मानवश्श्ववल्लोके390 नष्टलोकपरायणः॥१२॥
तादृग्दिनशतं चापि यद्ददाति जुहोति च।
परोक्षेणापवादेन तं नाशयति तत्क्षणम्॥१३॥
तस्मात् प्राज्ञो नरस्सद्यस् तादृशं पापचेतसम्।
वर्जयेन्मतिमान् वर्ज्यं सारमेयमिवामिषम्॥१४॥
परिवादं ब्रुवाणो हि दुरात्मा वै महाजने।
प्रकाशयति दोषान् स्वान् सर्पःफणमिवोन्नतम्॥१५॥
तं पापगुणकर्माणं प्रतिकर्तुं य इच्छति।
भस्मकूट इवाबुद्धिः स्वरो रजसि मज्जति॥१६॥
मनुष्यशाखामृगमप्रशान्तं
जनापवादे सततं निविष्टम्।
महान्तमुन्मत्तमिवोन्नदन्तं
त्यजेच्च तं श्वानमिवातिरौद्रम्॥१७॥
अनार्यजुष्टेपथि वर्तमानं
दमादपेतं विनयाच्च पापम्।
अनिर्वृत्तं नियमभूतिकामं
धिगस्तु तं पापमतिं मनुष्यम्॥१८॥
प्रत्युच्यमानस्त्वथ भूय एव
निशाम्य मा भूस्त्वमथार्तरूपः।
उच्चस्य नीचेन हि सम्प्रयोगं
विगर्हयन्ति स्थिरबुद्धयो ये॥१९॥
क्रुद्धो दशेद्वाऽपि च ताडयेद्वा
स पांसुभिर्वा विकिरेत्तृणैर्वा।
विवृत्य दन्तानभिभीषयेद्वा
सिद्धं हि मूढे कुपिते नृशंसे॥२०॥
विगर्हणां वाऽपि दुरात्मना कृतां
सहेत यस्संसदि दुर्जनानाम्।
पठेदिदं वाऽपि निदर्शनं सदा
न वाङ्मयं स लभति किञ्चिदप्रियम्॥२१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः॥१०५॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि षट्षष्टितमोऽध्यायः॥६६॥
[ अस्मिन्नध्याये २१ श्लोकाः]
______
॥षडधिकशततमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति राज्ञां सहायसम्पादनस्यावश्यकतादिप्रतिपादनम्॥
______
युधिष्ठिरः—
पितामह महाप्राज्ञ संशयो मे महानयम्।
सञ्छेत्तव्यस्त्वया राजन्भवान् कुलकरो हि नः॥१॥
पुरुषाणामयं तात दुर्वृत्तानां दुरात्मनाम्।
कथितो वाक्यसञ्चारस् ततो विज्ञापयामि ते॥२॥
यद्धितं राज्यतन्त्रस्य मूलस्य391 च सुखोदयम्।
आयत्यां च तदात्वे च क्षेमवृद्धिकरं च यत्॥३॥
पुत्रपौत्राभिरामं च राष्ट्रवृद्धिकरं च यत्।
अन्नपाने शरीरे च हितं यत्तद्ब्रवीहि नः॥४॥
अभिषिक्तोहि यो राजा राज्यस्थो मित्रसंवृतः।
सुसुहृत्समवेतो वा स कथं रञ्जयेत् प्रजाः॥५॥
यो ह्यसत्प्रग्रहरतिस् स्नेहरागबलात्कृतः।
इन्द्रियाणामनीशत्वाद् असज्जनविभूषकः॥६॥
तस्य भृत्या विमुखतां यान्ति सर्वे कुलोद्गताः।
न च भृत्यबलैरर्थैस् राजा सम्प्रयुज्यते॥७॥
एतान्मे चिन्तयानस्य राजधर्मान् दिवानिशम्।
बृहस्पतिसमो बुद्ध्या भवाञ् शंसितु392मर्हति॥८॥
शासिता पुरुषव्याघ्रत्वं नः कुलहिते रतः।
क्षत्ता चैको महाप्राज्ञो यो नश्शंसति सर्वदा॥९॥
त्वत्तः393 कुलहितं वाक्यं श्रुत्वा राज्यहितोदयम्।
अमृतस्याव्ययस्येव394 तृप्तस्स्वप्स्याम्यहं सुखम्॥१०॥
कीदृशास्सन्निकर्षस्था भृत्यास्सर्वगुणान्विताः।
कीदृशैः किङ्कुलीनैर्वा सह यात्रा विधीयते॥११॥
न ह्येको भृत्यरहितो राजा भवति रक्षिता।
राज्यं चेदं जनस्सर्वस् तत्कुलीनः प्रशासति॥१२॥
न च प्रशासितुं शक्यं395 राज्यमेकेन भारत॥१२॥
असहायवता तात नैवार्थाः केचिदप्युत।
लब्धुं लब्धा अपि सदा रक्षितुं भरतर्षभ॥१३॥
भीष्मः—
यम्य भृत्यजनस्सर्वो ज्ञानविज्ञानकोविदः।
हितैषीकुलजस्स्निग्धस् स राज्यफलमश्नुते॥१४॥
मन्त्रिणो यस्य कुलजाअसंहार्या स्सुखोषिताः396।
नृपतेर्मतिमाप्स्यन्ते सत्पथज्ञानकोविदाः॥१५॥
अनागतविधातारः कालज्ञानविशारदाः।
अतिक्रान्तमशोचन्तस् स राज्यफलमश्नुते॥१६॥
समदुःखसुखा यस्य सहायाः प्रियकारिणः।
अर्थचिन्तापस्तभ्यास् स राज्यफलमश्नुते॥१७॥
यस्य नार्तो जनपद्स् सन्निकर्षगतस्सदा।
अक्षुद्रस्सत्पथालम्बी स राजा राज्यभाग्भवेत्॥१८॥
कोशस्य397 पटलं यस्य कोशवृद्धिकरैर्नृपः।
आप्तस्तुष्टैश्च पुष्टैश्च सङ्गतस्स नृपोत्तमः॥१९॥
गो398ष्टागारमसंहार्यैर् आप्तैस्सञ्चयतत्परैः।
पात्रभूतैर्लुब्धैश्च पाल्यमानं गुणी भवेत्॥२०॥
व्यवहारश्च नगरे यस्य धर्मफलोदयः।
दृश्यते शङ्खलिखितस् स धर्मफलभाङ्नृपः॥२१॥
सङ्गृहीतमनुष्यश्च यो राजा राजधर्मवित्।
षड्भागं परिगृह्णन् स धर्म्यं फलमुपाश्नुयात्॥२२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि षडधिकशततमोऽध्यायः॥१०६॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि सप्तषष्टितमोऽध्यायः॥६७॥
[ अस्मिन्नध्याये २२॥श्लोकाः ]
॥सप्ताधिकशततमोऽध्यायः॥
केनचिन्मुनिवरेण द्वीपिभये सति द्वीपित्वं प्रापितस्य स्वीयशुनःपुनर्व्याघ्राद्भये सति व्याघ्रीकरणम्॥
युधिष्ठिरः—
न सन्ति कुलजा यत्र सहायाः पार्थिवस्य तु।
अकुलीनाश्च कर्तव्या न वा भरतसत्तम॥१॥
भीष्मः—
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
निदर्शनं परं लोके सज्जनाचरितं सदा॥२॥
अस्यैवार्थस्य सदृशं यच्छ्रुतं मे तपोवने।
जामदग्न्यस्यरामस्य यदुक्तमृषिसत्तमैः॥३॥
वने महति कस्मिंश्चिद् अमनुष्यनिषेविते।
ऋषिर्मूलफलाहारो नियतो नियतेन्द्रियः॥४॥
दीक्षादमपरिश्रान्तस् स्वाध्यायपरमश्शुचिः।
उपवासविशुद्धात्मा सततं सत्पथे स्थितः॥५॥
तस्य सन्दृश्य सद्भावम्उपविष्टस्य धीमतः।
सर्वे सत्त्वास्समीपस्था भवन्ति वनचारिणः॥६॥
सिंहा व्यावास्सशरभा मत्ताश्चैव महागजाः।
द्वीपिनः खड्गभल्लूका ये चान्ये भीमदर्शनाः॥७॥
ते सुखप्रश्नदास्सर्वे भवन्ति क्षतजाशनाः।
तस्यर्षेशिष्यवच्चैव चित्तज्ञाः प्रियकारिणः॥८॥
उक्त्वा च ते सुखप्रश्नं सर्वे यान्ति यथासुखम्।
ग्राम्यस्त्वेकः पशुस्तत्रनाजहाच्च महामुनिम्॥९॥
भक्त्याऽनुरक्तस्सततम् उपवासकृशोऽबलः।
फलमूलोत्तराहारश्शान्तश्शिष्याकृतिर्यथा॥१०॥
तस्यर्षेरूपविष्टस्य पादमूले महामतेः।
मनुष्यवद्गतो भावं स्नेहबद्धोऽभवद्भृशम्॥११॥
ततोऽभ्ययान्महारौद्रो द्वीपी क्षतजभोजनः।
श्वार्थमत्यर्थमुद्धृष्टः क्रूरः काल इवान्तकृत्॥१२॥
लेलिह्यमानस्तृषितः पुच्छास्फोटनतत्परः।
व्यादितास्यः क्षुधा मत्तः प्रार्थयानस्तदामिषम्॥१३॥
तंदृष्ट्वा क्रूरमायान्तं जीवितार्थी जनाधिप।
प्रोवाच श्वा मुनिं तत्र यत्तच्छृणु विशां पते॥१४॥
शुनकः—
श्व399शत्रुर्भगवन्नेष द्वीपी मां हन्तुमिच्छति।
त्वत्प्रसादाद्भयंन स्याद् अस्मान्मम महामुने॥१५॥
मुनिः—
न भयं द्वीपिनःकार्यं मृत्युतस्ते कथञ्चन।
एप स्व400रूपरहितो द्वीपी भवतु पुत्रक॥१६॥
भीष्मः—
ततश्श्वा द्वीपितां नीतो जाम्बूनदनिभाकृतिः।
चित्राङ्गो विस्फुरो वने वसति निर्भयः॥१७॥
ततोऽभ्ययान्महारौद्रो व्यादितास्यः क्षुधान्वितः।
द्वीपिनं लेलिहन्वक्त्रंव्याघ्रोरुधिरलालसः॥१८॥
व्याघ्रं दृष्ट्वा क्षुधाऽऽसन्नं दंष्ट्रिणं वनचारिणम्।
द्वीपी जीवितरक्षार्थम् ऋषिं शरणमन्वियात्॥१९॥
ततस्संवासजं स्नेहम् ऋषिणा कुर्वता सदा।
स द्वीपी व्याघ्रतां नीतो रिपुभ्यो बलवत्तरः॥२०॥
ततो दृष्ट्वा स शार्दूलो नाभ्यघ्नत्तं विशां पते॥२०॥
स तु श्वा व्याघ्रतां प्राप्य बलवान पिशिताशनः।
न मूलफलभोगेषु स्पृहामप्यकरोत् तदा॥२१॥
यथा मृगपतिर्नित्यं प्रकाङ्क्षति वनौकसः \।
तथैव स महाराज व्याव्रस्समभवत् तदा॥२२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि सप्ताधिकशततमोऽध्यायः॥१०७॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि अष्टषष्टितमोऽध्यायः॥६८॥
[ अस्मिन्नध्याये २२॥श्लोकाः ]
______
॥अष्टाधिकशततमोऽध्यायः॥
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मुनिवरेण व्याघ्रीकृतस्य स्वीयशुनो गजाद्भये सति गजत्वप्रापणम्॥१॥पुनः सिंहाद्भये सिंहीकृतस्य तस्यैव शरभाद्भये शरभीकरणम्॥२॥दुष्टभावेनात्मजिघांसोस्तस्य पुनः श्वभावप्रापणम्॥३॥
______
भीष्मः—
व्याघ्रश्चोटजमूलस्थस् तृप्तस्सुप्तोहतैर्मृगैः।
नागश्चागात् तमुद्देशं मत्तो मेघ इवोत्थितः॥१॥
प्रभिन्नकरटः प्रांशुः पद्मैर्विततमस्तकः।
सुविषाणो महाकायो मेघगम्भीरनिस्स्वनः॥२॥
तं दृष्ट्वा कुञ्जरं मत्तम् आयान्तं मदगर्वितम्\।
व्याघ्रो दन्तिभयात् त्रस्त ऋषिं शरणमाययौ॥३॥
ततोऽनयत् कुञ्जरतां व्याघ्रंतमृषिसत्तमः।
महामेघोपमं दृष्ट्वा स भीतो ह्यभवद्गजः॥४॥
ततः कमलपण्डानि सल्लकीगहनानि च।
व्यचरत् स मुदा युक्तः पद्मरेणुविभूषितः॥५॥
कदाचिद्रममाणस्य हस्तिनस्सुसुखं तदा।
ऋषेस्तस्योटजस्थस्य कालोऽगच्छदिवानिशम्॥६॥
अथाजगाम तं देशं केसरी केसरारुणः।
गिरिकन्दरजो भीमस् सिंहो नागकुलान्तकः॥७॥
तं दृष्ट्वा सिंहमायान्तं नागस्सिंहभयार्दितः।
ऋषिंशरणमादे वेपमानो भयातुरः॥८॥
स ततस्सिंहतां नीतो गजेन्द्रो मुनिना तदा।
तं च नागणयत् सिंहं तुल्यजातिसमन्वयात्॥९॥
दृष्ट्वा च सोऽनशत्सिंहो वन्यो हिंसन्नवाग्बलः।
स चाश्रमेऽवसत् सिंहस् तस्मिन्नेव वने सुखी॥१०॥
न चान्ये क्षुद्रपशवस् तपोवनसमीपतः।
प्रादृश्यन्त भयात् त्रस्ता जीविताकाङ्क्षिणस्तथा॥११॥
कदाचित् कालयोगेन सर्वप्राणिविहिंसकः।
बलवान् क्षतजाहारो नानासत्त्वभयङ्करः॥१२॥
अष्टपादूर्ध्वनयनश्श् शरभो वनगोचरः।
सिंहं संहर्तुमागच्छन्मुनेस्तस्य निवेशने॥१३॥
तं दृष्ट्वा शरभं यान्तं सिंहः परभयातुरः।
ऋषिं शरणमापेदेवेपमानः कृताञ्जलिः॥१४॥
तं मुनिश्शरभं चक्रे बलोत्कटमरिन्दम।
ततस्स शरभो वन्यो मुनेश्शरभमग्रतः॥१५॥
दृष्ट्वा बलिनमत्युग्रंद्रुतं सम्प्राद्रवद्नवद्वनम्॥१५॥
एवं स शरभस्थाने न्यस्तो वै मुनिना तदा।
मुनेः पार्श्वगतो नित्यं शरभस्मुखमाप्तवान्॥१६॥
ततस्तु शरभवस्तास् सर्वे मृगगणा वनात्।
दिशस्सम्प्राद्रवन्राजन्भयाज्जीवितकाङ्क्षिणः॥१७॥
शरभोऽप्यतिसन्तुष्टो नित्यं प्राणिवधे रतः।
फलमूलाशनं दान्तं नैच्छत् स पिशिताशनः॥१८॥
ततः क्षुद्रसमाचारो बलेन च समन्वितः।
इयेषतं मुनिं हन्तुम् अकृतज्ञः कृतान्वयः॥१९॥
चिन्तयामास च तदा शरभश्श्वानपूर्वकः॥२०॥
अस्य प्रभावात् सम्प्राप्तो वाङ्मात्रेण तु केवलम्।
शरभत्वं सुदुष्प्रापं सर्वभूतभयङ्करम्॥२१॥
अन्येऽप्यत्र भयत्रस्तास् सन्ति हस्तिभयार्दिताः।
मुनिमाश्रित्य जीवन्तो मृगाः पक्षिगणास्तथा॥२२॥
तेषामपि कदाचिच्चशरभत्वं प्रयच्छति।
सर्वसत्त्वोत्तमं लोके बलं यत्र प्रतिष्ठितम्॥२३॥
पक्षिणामप्ययं दद्यात् कदाचिद्गारुडं बलम्॥२३॥
यावदन्यस्य401 सम्प्रीतः कारुण्यं च समाश्रितः।
न ददाति बलं तुष्टस् सत्त्वस्यान्यस्य कस्यचित्॥२४॥
तावदेनमहं विप्रं वधिष्यामि च शीघ्रतः॥२५॥
स्थातुं मया शक्यमिह मुनिघातान्नसंशयः॥२५॥
ततस्तेन तपश्शक्त्या विदितो ज्ञानचक्षुषा।
विज्ञाय च महाप्राज्ञश्शुनि शापं प्रयुक्तवान्॥२६॥
मुनिः—
अहमग्निप्रभो नाम मुनिर्भृगुकुलान्वयः।
मनसा निर्दहेत्सर्वं जगत् सन्धारयामि च॥२७॥
मम वश्यं जगत् सर्वं देवा यच्चचराचरम्।
सन्ति देवाश्च मे भीतास् स्वधर्मं न त्यजन्ति ये॥२८॥
स्वधर्माच्च्यावितान्सर्वान्वाङ्मात्रेणापि निर्दहे402॥२९॥
किमङ्ग त्वं मया नीतश् शरभत्वमनामयम्।
क्रूरस्स सर्वभूतेषु हीनाश्चाशुचिरेव च॥३०॥
श्वा त्वं द्वीपित्वमापन्नो द्वीपी व्याघ्रत्वमागतः।
व्याघ्रोनागो मदपरो नागसिंहत्वमागतः॥३१॥
सिंहोऽतिबलसंयुक्तो भूयश्शरभतामयाः।
मया स्नेहपरीतेन न विमृष्टः कुलान्वयः॥३२॥
यस्मादेवं महापाप मां त्वं हिंसितुमिच्छसि।
तस्मात्स्वयोनिमापन्नश् श्चैव त्वं403 हि भविष्यसि॥३३॥
भीष्मः—
ततो404 मुनिजनद्वेषाद् दुरात्मा प्राकृतोऽधमः।
ऋषिणाशरभश्श्प्तस्स्वरूपं पुनरागमनत्॥॥३४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि अष्टाधिकशततमोऽध्यायः॥१०८॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि एकोनसप्ततितमोऽध्यायः ॥६९॥
[ अस्मिन्नध्याये ३४ श्लोकाः]
॥नवाधिकशततमोऽध्यायः॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति सचिवादिगुणवर्णनम्॥
______
भीष्मः—
स श्वा प्रकृतिमापन्नः परं दैन्यमुपागमत्।
ऋषिणा हुङ्कृतः पापस् तपोवनबहिष्कृतः॥१॥
एवं राजा मतिमता विदित्वा शीलशौचताम्।
आर्जवं प्रकृतिं सत्त्वं कुलं वृत्तं श्रुतं दमम्॥२॥
अनुक्रोशं बलं वीर्यं प्रभावं प्रशमं क्षमाम्।
भृत्या ये मन्त्रिणो योग्यास् स्युस्स्थाप्यास्सुपरीक्षिताः॥३॥
नापरीक्ष्य महीपालःप्रकर्तुं भृत्यमर्हति।
अकुलीनजनाकीर्णो न राजा सुखमेधते॥४॥
कुलीनः प्राकृतो राजंस् तत्कुलीनतथा सदा।
न पापे कुरुते बुद्धिं निन्द्यमानोऽप्यनागसम्॥५॥
अकुलीनस्तु पुरुषः प्राकृतस्साधुसङ्क्षयात्।
दुर्लभैश्वर्यतां प्राप्तो निन्दितश्शत्रुतां व्रजेत्॥६॥
काकश्श्वानोऽकुलीनश्च बिडालसर्प एव च।
अकुलीना च या नारी तुल्यास्ते परिकीर्तिताः॥७॥
लोकपालास्सदोद्विग्नाः पश्यन्त्यकुलजान् यथा।
नारी वा पुरुषं वाऽथ शीलं तत्रापि कारणम्॥८॥
दुष्कुलीना च या स्त्री च दुष्कुलीनश्च यः पुमान।
अहिंसाशीलसंयोगाद् धर्मश्चाऽऽकुलतां405 व्रजेत्॥९॥
धर्मं प्रति महाराज श्लोकानाह बृहस्पतिः।
श्रृणु सर्वान् महीपाल हृदि तांश्च करिष्यसि॥१०॥
असितं सितकर्माणं यथा दान्तं तपस्विनम्।
वृत्तस्थमपि चण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः॥११॥
यदि घातयते कश्चित् पापसत्त्वं प्रजाहिते।
सर्वसत्त्वहितार्थाय न तेनासौ विहिंसकः॥१२॥
द्वीपिनं शरभं सिंहं व्याघ्रं कुञ्जरमेव च।
महिषंच वराहं च सूकरं वानपन्नगान्॥१३॥
गोब्राह्मणहितार्थाय बालस्त्रीरक्षणाय च।
वृद्धातुरपरित्राणे यो हिनस्ति स धर्मवित्॥१४॥
ब्राह्मणः पापकर्मा च म्लेच्छो वा धार्मिकश्शुचिः।
श्रेयांस्तत्र भवेन्म्लेच्छो ब्राह्मणः पापकर्मकृत्॥१५॥
दुष्कुलीनः कुलीनो वा यः कश्चिच्छीलवान्नरः।
प्रकृतिं तस्य विज्ञाय स्थिरां वा यदि वाऽस्थिराम्॥१६॥
शीलं वाऽनुत्तमं कर्म कुर्याद्राजा समाहितः॥१६॥
नियुञ्जीत महीपालो दुर्वृत्तं पापकर्मसु॥१७॥
कुलीनं शिक्षितं प्राज्ञं ज्ञानविज्ञानकोविदम्।
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञं सहिष्णुं तेजनं406 तथा॥१८॥
कृतज्ञं बलवन्तं च दान्तं क्षान्तं जितेन्द्रियम्।
अलुब्धं लब्धसन्तुष्टं स्वामिमित्रबुभूषकम्॥१९॥
सचिवं देशकालज्ञंसर्वसङ्ग्रहणे रतम्।
संस्कृतं युक्तवचनं हितैषिणमतन्द्रितम्॥२०॥
युक्ताचारं स्वविषये सन्धिविग्रहकोविदम्।
शस्तं407 त्रिवर्गवेत्तारं पौरजानपदप्रियम्॥२१॥
सेनाव्यूहनतत्त्वज्ञं यात्रासेनाविशारदम्।
इङ्गिताकारतत्त्वज्ञं बलहर्षणकोविदम्॥२२॥
हस्तिशिक्षाश्वतत्त्वज्ञं सर्वसङ्ग्रहणे रतम्।
प्रगल्भं दक्षिणं दान्तं बलिनं युक्तमन्त्रिणम्॥२३॥
चोक्षं चोक्षजनाकीर्णं सुवेषं सुखदर्शनम्।
नायकं नीतिकुशलं गुणैष्षड्भिस्समन्वितम्॥२४॥
अस्तब्धं प्रश्रितं शक्तं मृदुवादिनमेव च।
धीरं शूरं महर्धीकं408 देशकालोपपादकम्॥२५॥
सचिवं यः प्रकुरुते न चैनमवमन्यते॥२५॥
तस्य विस्तीर्यते राज्यं ज्योत्स्ना ग्रहपतेरिव॥२६॥
एतैरेव गुणैर्युक्तो राजा शास्त्रविशारदः।
एष्टव्यो धर्मपरमःप्रजापालनतत्परः॥२७॥
धीरोऽमर्षी शुचिश्शीघ्रः काले पुरुषकारवित्।
सुश्रषुश्श्रुतवाञ् श्रोता ऊहापोहविशारदः॥२८॥
मेधावी धारणायुक्तो यथान्यायोपपादकः।
दान्तस्सदा प्रियाभाषी क्षमावांश्च विपर्यये॥२९॥
नातिच्छेत्ता स्वयङ्कारी सुखादुस्सुखदर्शनः।
आर्तहस्तप्रदो नित्यम् आप्तामात्यो नये रतः॥३०॥
नाहंवादी न निर्द्वन्द्वो409नयत्किञ्चनकारकः।
कृते कर्मण्यमोघानां कर्ता भृत्यजनप्रियः॥३१॥
सङ्गृहीतजनोऽस्तब्धः प्रसन्नवदनस्सदा।
त्राता भृत्यजनापेक्षी जितक्रोधो महामनाः॥३२॥
युक्तदण्डो न निर्दण्डो धर्मकार्यानुशासकः।
चारनेत्रः परापेक्षी धर्मार्थकुशलस्सदा॥३३॥
राजा गुणशताकीर्ण एष्टव्यस्तादृशो भवेत्॥३३॥
योधाश्चापि मनुष्येन्द्र सर्वैर्गुणगणैर्युताः॥३४॥
अन्वेष्टव्यास्सुपुरुषास् सहाया राज्यकारिणः।
न विमानयितव्याश्च राज्ञा वृद्धिमभीप्सता॥३५॥
योधास्समरशौण्डीराः कृतज्ञाश्शस्त्रकोविदाः।
धर्मशास्त्रसमायुक्ताः पदातिजनसंवृताः॥३६॥
अर्थमानविवृद्धाश्च रथचर्याविशारदाः।
इष्वस्त्रकुशला यस्य तस्यैव नृपतेर्मही॥३७॥
ज्ञातीनामनवज्ञानं भृत्येष्वशठता सदा।
नैपुण्यं चार्थचर्यासु यस्यैते तस्य सा मही॥३८॥
आलस्यं चैव निद्रा च व्यसनान्यतिहास्यता।
यस्यैतानि न विद्यन्ते तस्यैव सुचिरं मही॥३९॥
वृद्धसेवी महोत्साहो वर्णानां चैव रक्षिता।
धर्मचर्यास्सदा यस्य तस्येयं सुचिरं मही॥४०॥
नीतिमार्गानुसरणं नित्यमुत्थानमेव च।
रिपूणामनवज्ञानं तस्येयं सुचिरं मही॥४१॥
उत्थानं चैव दैवं च तयोर्नानात्वमेव च।
मनुना वर्णितं पूर्वं वक्ष्ये शृणु तदेव हि॥४२॥
उत्थानं हि नरेन्द्राणां बृहस्पतिरभापत।
नयानयविधानज्ञस् सदा भव कुरुद्वह॥४३॥
दुर्हृदांछिद्रदर्शी यस् सुहृदामुपकारवान्।
विशेषविच्च भृत्यानां स राज्यफलमश्नुते॥४४॥
सर्वसङ्ग्रहणे युक्तो नृपो भवति यस्सदा।
उत्थानशीलो मन्त्राढ्यस् स राजा राजसत्तमः॥४५॥
शक्या चाश्वसहस्रेण वीरारोहेण भारत।
सङ्गृहीतमनुष्येण कृत्स्ना जेतुं वसुन्धरा॥४६॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायांवैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि नवाधिकशततमोऽध्यायः॥१०९॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि सप्ततितमोऽध्यायः॥७०॥
[ अस्मिन्नध्याये ४६ श्लोकाः]
॥दशाधिकशततमोऽध्यायः॥
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति भृत्यानां स्वस्वयोग्यतानुसारेणाधिकारेस्थापनादेर्भृत्यलक्षणादीनां च कथनम्॥
भीष्मः—
तस्माद् गुणयुतान् भृत्यान्स्वस्थाने यो नरेश्वरः।
नियोजयति कृत्येषु स राज्यफलमश्नुते॥१॥
न वा स्वस्थानमुत्क्रम्य प्रमाणमपि सत्कृतम्।
आरोप्यचापि स्वस्थानम् उत्क्रम्यान्यत्प्रपद्यते॥२॥
स्वजातिगुणसम्पन्नास् स्वेषु धर्मेष्वववस्थिताः।
प्रकर्तव्यास्त्वया भृत्या स्वस्थाने प्रक्रियाक्षमाः॥३॥
अनुकूलानि कर्माणि भृत्येभ्यो यः प्रयच्छति।
स भृत्यगुणसम्पन्नं राजा फलमुपाश्नुते॥४॥
शरभश्शरभस्थाने सिंहस्सिंह इवोच्छ्रितः॥
व्याघ्रोव्याघ्रइव स्थाप्यो द्वीपी द्वीपी यथा तथा॥५॥
कर्मस्विहानुरूपेषु न्यस्या भृत्या यथाविधि।
प्रतिलोमा न भृत्यास्ते स्थाप्याः कर्मफलैषिणा॥६॥
यः प्रमाणमतिक्रम्य प्रतिलोमं नराधिपः।
भृत्यान् स्थापयतेऽबुद्ध्या स न रञ्जयति प्रजाः॥७॥
न बालिशा न च क्षुद्रा नाप्राज्ञा नाजितेन्द्रियाः।
नाकुलीना जनाः पार्श्वे स्थाप्या राज्ञा गुणैषिणा॥८॥
साधवः कुलजाश्शूरा ज्ञानवन्तोऽनसूयकाः।
अक्षुद्राश्शुचयो दक्षास् स्युर्नराः परिपार्श्वतः॥९॥
उद्भूतास्तत्पराः क्षान्ताश्चोक्षाः प्रकृतिजाश्शुभाः।
स्वे स्वे स्थानेऽनुपाकृष्टास् ते स्यू राज्ञो बहिश्चराः॥१०॥
सिंहस्य सततं पार्श्वे सिंह एव जनो भवेत्।
सिंहस्सिंहेनसहितस् सिंहवद्विन्दते फलम्॥११॥
यस्तु सिंहश्श्वभिः कीर्णस् सिंहकर्मफले रतः।
न स सिंहफलं भोक्तुं शक्तश्श्वभिरूपासितः॥१२॥
एवमेतैर्मनुष्येन्द्र शूरैः प्राज्ञैर्बहुश्रुतैः।
कुलीनैस्सह शक्येत कृत्स्ना जेतुं वसुन्धरा410॥१३॥
नावैद्यो नानृजुः पार्श्वे नाप्राज्ञो नामहायशाः।
सङ्ग्राह्यो वसुधापालैर् भृत्यो भृत्यवतां वर॥१४॥
बाणवद्विसृता यान्ति स्वामिकार्यपरा नराः।
ये भृत्याः पार्थिवहितास् तेषु सान्त्वं सदा चरेत्॥१५॥
कोशश्च सततं रक्ष्यो यत्नमास्थाय राजभिः।
कोशमूला हि राजानः कोशवृद्धिपरो भव॥१६॥
गोष्ठागारं च ते नित्यं स्फीतैर्धान्यैस्सुसञ्चितैः।
सदा त्वरत्सु संन्यस्तधनधान्यपरो भव॥१७॥
नित्ययुक्ताश्च ते युक्ता411 भवन्तु रणकोविदाः।
वाजिनां चात्र412योगेषु वैशारद्यमिहेष्यते॥१८॥
ज्ञातिबन्धुधनावेक्षी413 मित्रसम्बन्धिसत्कृतः।
पौरकार्यहितापेक्षी भव कौरव्य414 नित्यदा॥१९॥
एषातेनैष्ठिकी बुद्धिः प्रज्ञा चाभिहिता मया।
श्वा ते निदर्शनं तात किं भूयश्श्रोतुमिच्छसि॥२०॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि दशाधिकशततमोऽध्यायः॥११०॥
॥८६॥ राजधर्मपर्वणि एकसप्ततितमोऽध्यायः॥७९॥
[ अस्मिन्नध्याये २० श्लोकाः ]
॥ एकादशाधिकशततमोऽध्यायः॥
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** भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति प्रजापालनप्रकारादिकथनम्॥**
युधिष्ठिरः—
राजवृत्तान्यनेकानि त्वया प्रोक्तानि भारत।
पूर्वैः पूर्वनियुक्तानि राजधर्मार्थवेदिभिः॥१॥
तदेव विस्तरेणोक्तं पूर्ववृत्तं सनातनम्।
प्रणयं राजधर्माणां प्रब्रूहि भरतर्षभ॥२॥
भीष्मः—
रक्षणं सर्वभूतानाम् इति क्षात्रं परं मतम्।
तद्यथा रक्षणं कुर्यात् तथा शृणु नराधिप॥३॥
यथा बर्हाणि चित्राणि बिभर्तिभुजगाशनः।
तथा बहुविधं राजा रूपं कुर्वीत धर्मवित्॥४॥
तैक्ष्ण्यं मृदुत्वमादानं सत्यमार्जवमेव च।
मध्यस्थस्सत्त्वमातिष्टंस् तथैव सुखमृच्छति॥५॥
यस्मिन्नर्थे यथैव स्यात् तद्वर्णं रुपमाविशेत्।
बहुरूपस्य राज्ञो हि सूक्ष्मोऽप्यर्थो न सीदति॥६॥
नित्यं रक्षितमन्त्रस्याद् यथा मूकश्शरच्छिखी।
श्लक्ष्णाक्षरगतश्श्रीमान्भवेच्छास्त्रविशारदः॥७॥
आयव्ययेषु युक्तस्म्याज् जलप्रस्रवणेष्विव।
शैलाद्वर्पोदकानीव द्विजान सिद्धान् समाश्रयेत्॥८॥
आत्मार्थं हि सदा राजा कुयीद्वर्मविदुत्तमम्415।
नित्यमुद्यतदण्डस्याद् आचारे चाप्रमाद्वान्॥९॥
लोके चायव्ययौ दृष्ट्वा वृक्षावृक्षमिव व्रजेत्॥९॥
आज्ञावान् स्वस्य यूथ्येषु भौमानि चरणैः किरन्।
जातपक्षपरिस्पन्दो रक्षेद्वैकल्यमात्मनः॥१०॥
दोषान् विवृणुयाच्छत्रोः परपक्षांश्च सूदयेत्\।
काननेष्विव पुष्पाणि बहिरर्थान समाचरेत्॥११॥
उच्छ्रितानाश्रयेन् स्कीतान् नरेन्द्रानचलोपमान्।
श्रयेच्छायामिव ज्ञातिं गुप्तं शरणमाश्रयेत्॥१२॥
प्रावृपीवासितग्रीवो माद्येत निशि निर्जने\।
मायूरेण गुणेनेव स्त्रीभिरारक्षितचरेन्॥१३॥
न जह्याच तनुत्राणं रक्षेदात्मानमात्मना।
चारभूमिष्विव ततान् पाशांश्च परिवर्जयेत्॥१४॥
प्रक्रीडेच्चापि तां भूमिं प्रणश्येद्ग्रहणेपुनः॥१५॥
एवं मयूरधर्मेण वर्तयन् सततं नरः।
अन्यान् क्रुद्धानभिपह416त्ये जिह्मगतयोऽहिताः॥१६॥
नासूयेच्चावगर्ह्याणि417 सन्निवासान्निवासयेत्।
सदा वर्हिसमं कामं प्रसक्तं कृतमाचरेत्॥॥१७॥
सर्वतश्चाददत् प्रज्ञां पतङ्गान् गहनेष्विव॥१७॥
एवं मयूरवद्राजा स्वराष्ट्रं परिपालयेत्।
आत्मवृद्धिकरी नीतिं विदधीत विचक्षणः॥१८॥
आत्मसंयमनं बुद्ध्या परबुद्ध्या विचारणम्।
बुद्ध्या चातिगुणप्रातिर् एतच्छास्त्रनिदर्शनम॥१९॥
परं विश्वासयेत् साम्ना स्वशक्तिं नोपलक्षयेत्।
आत्मनः परिमर्शेन बुद्धिं बुद्ध्या विचारयेत्॥२०॥
सान्त्वयोगमतिः प्राज्ञः कार्याकार्यविचारकः।
निगूढबुद्धेर्धीरस्य वक्तव्ये वक्ष्यते तथा॥२१॥
सन्निकृष्टं तथा प्राज्ञो यदि बुद्ध्या वृहस्पतिः।
स्वभावयतनं कार्णायसमिवोदके॥२२॥
अनुयुञ्जीत सत्यानि सर्वाण्येव महीपतिः।
आगमैरुपदिष्टानि स्वस्य चैव परस्य च॥२३॥
मृदुं क्रूरं तथा प्राज्ञं शूरं चार्थविधानवित्।
स्वकर्मणि नियुञ्जीत ये चान्ये वचनाधिकाः॥२४॥
अप्यदृष्टान्यनेकानि स्वानुरूपेषु कर्मसु।
सर्वांस्ताननुवर्तेत स्वरांस्तन्त्रीरिवायताः॥२५॥
धर्माणामविरोधेन सर्वेषां प्रियमाचरेत्।
ममायमिति राजा यस् स पर्वत इवाचलः॥२६॥
व्यवहारं समादाय सूर्यो रश्मीनिवायुतम्।
धर्ममेवाभिरक्षेत कृत्वा तुल्ये प्रियाप्रिये॥२७॥
कुलप्रकृतिदेशानां धर्मज्ञान् मृदुभाषिणः।
मध्ये वयसि निर्दोषान्हिते युक्ताञ्जितक्लमान॥२८॥
अलुब्धाञ् शिक्षितान् दान्तान् धर्मेषु परिनिष्ठितान्।
स्थापयेत् सर्वकार्येषु राजा सर्वार्थदक्षिणः॥२९॥
एतेनैव प्रकारेण कृत्यानामागतिं गतिम्।
युक्त्या समनुतिष्टेत तुष्टचारैः पुरस्कृतः॥३०॥
अमोघक्रोधहर्षस्य स्वयं कृत्यानुदर्शिनः।
आत्मप्रत्ययकोशम्य वसुधेयं वसुन्धरा॥३१॥
व्यक्तश्चानुग्रहो यस्य यथोक्तचापि निग्रहः।
गुप्तात्मा गुप्तराष्ट्रश्च स राजा राजधर्मवित्॥३२॥
नित्यं राष्ट्रमवेक्षेत गोभिस्सूर्य इवातपन।
चाराश्चानुचरान् विद्युस् तथा बुद्ध्या स्वयं चरेत्॥ ३३॥
कालप्राप्तमुपाद्यान्नार्थं राजा प्रसूचयेत्।
अहन्यहनि सन्दुह्यान्महीं गामिव बुद्धिमान्॥॥३४॥
यथा क्रमेण पुष्पेभ्यश् चिनोति मधु षट्पदः।
तथा द्रव्यमुपादाय राजा कुर्वीत सञ्चयम्॥३५॥
यद्धि गुप्तावशिष्टं स्यात् तद्धितं धर्मकामयोः।
सञ्चयादविसर्गी स्याद् राजा शास्त्रविदात्मवान्॥ ३६॥
नाल्पमर्थं परिभवेन्नावमन्येत शात्रवान्।
बुद्ध्याऽनुवुद्ध्य चात्मानं न चावुद्धेषु विश्वसेत्॥३७॥
धृतिदोक्ष्यं संयमो भूतिरात्मा
धैर्यं शौर्यं देशकालाप्रमादाः।
अल्पस्य वा महतो वा विवृद्धौ
धनस्यैतान्यष्ट समिन्धनानि॥३८॥
अग्निरोको वर्धते ह्याज्यसिक्तो
वीजंचैकं बहुसाहस्रमेति।
क्षयोदयौ विपुलौ सन्नियम्यौ
तस्मादल्पं नावमन्येत वित्तम॥३९॥
बालोऽबालस्स्थविरो वा रिपुर्यस्
सदा प्रमत्तं पुरुपं निहन्यान्।
कालेनान्यस्तम्य मूलं हरेत
कालज्ञानं पार्थिवानां वरिष्ठम॥४०॥
हरेत् कीर्तिं धर्ममस्योपरुन्ध्याद्
अर्थे विघ्नं वीर्यमस्योपहन्यान्।
रिपुर्द्वेष्टा दुर्बलो वा वली वा
तस्माच्छत्रोर्नैव विभ्येद्यथाऽऽत्मा॥॥४१॥
क्षयं शत्रोरसञ्चरन् पालयन वाऽ-
प्युभावर्थौसहितौ धर्मकामौ।
अतश्चान्यन्मतिमान् सन्दिधीत
तस्माद्राजा बुद्धिमन्तं श्रयेत॥४२॥
बुद्धिर्दीप्ताधनवन्तं हिनस्ति
बलं बुद्ध्या वर्धते पाल्यमानम्।
शत्रुर्बुद्ध्या सीदते पीड्यमानो
बुद्धिःपूर्वं कर्म यन्नप्रशस्तम॥४३॥
विद्या तपो वा विपुलं धनं वा
सर्वं ह्येतव्द्यवसायेन शक्यम्।
यथाऽऽत्मानं प्रार्थयन्नर्थ्यमानैश्
श्रियः पात्रं पूरयतेऽप्यनल्पम्॥४४॥
तस्माद्राजा प्रगृहीतः प्रजासु
मूलं लक्ष्म्यास्सर्वतो ह्याददीत।
दीर्घ कालं ह्यरिभिः पीड्यमानो
व्युण्यात् सम्पद्व्यवसायेन शक्त्या॥॥४५॥
ब्रह्मायत्तं निवसति देहवत्सु
तस्माद्विद्याव्द्यवसायं प्रभूतम्।
यत्रासते मतिमन्तो मनस्विनश
शको विष्णुर्यत्र सरस्वती च॥४६॥
वसन्ति भूतानि च यत्र नित्यं
तस्माद्विद्वान नावमन्येत देहम्।
लुब्धं हन्यान् सम्प्रदानाद्धि नित्यं
लुब्धस्तृप्तिं परवित्तस्य नैति॥४७॥
सर्वो लुब्धस्सर्वगुणोपभोगे
योऽर्थहीनः कामधर्मो हिनस्ति॥४८॥
धनं भोज्यं पुत्रदारान समृद्धिं
सर्वं लुब्धः प्रार्थयते परेपाम्।
लुब्धे दोपारसम्भवन्तीह सर्वे
तस्माद्राजा न प्रगृह्णीत लुब्धान्॥४९॥
सन्दर्शने सत्पुरुपं जघन्यमपि चोदयेत्।
आरम्भान् द्विपतः प्राज्ञः पापास्तु प्रसूदयेत्॥५०॥
धर्मान्वितेषु विज्ञाता मन्त्रगुप्तिश्च पाण्डव।
आप्तो राजन् कुलीनश्र्च पर्याप्तो राष्ट्रसङ्गहे॥॥५१॥
विधिप्रयुक्तान् नरदेवधर्मान्
उक्तान समासेन निबोध बुद्ध्या।
इमान विदध्याद्नुसृत्य यो वै
राजा महीं पालयितुं स शक्तः॥५२॥
सुनीतिजं यस्य विधानजं सुखं
धर्मप्रणीतं विधिवत् प्रसिद्ध्यति।
न निन्दिता तस्य गतिर्महीपते
स विन्दते राष्ट्रजमुत्तमं सुखम्॥५३॥
धनैर्विशिष्टान् मतिशीलपूजितान्
गुणोपपन्नान युधि दृष्टविक्रमान्।
गुणेषु युक्तानचिरान्महात्मवांस्
ततोऽभिसन्धाय निहन्ति शात्रवान्॥५४॥
पश्येदुपायान् विविधेषु कर्मसु
न चानुपायेषु मतिं निवेशयेन् ।
श्रियं समृद्ध विपुलं धनं यशो
न दोषदर्शी पुरुपस्समनुते॥५५॥
प्रीतिप्रवृत्तिं विनिवर्तनं च
सुहृत्सु विज्ञाय विचार्य चोभयोः।
यदेव मित्रं गुरुभारमाहवे
तदेव सुस्निग्धमुदाहरेद्र्धः॥॥५६॥
एतान् मयोक्तां स्मर418 राजधर्मान्
नृणां च गुप्तौ मतिमादधत्स्व।
अवास्य से पुण्यफलं मुखेन
सर्वो हि लोको नृप धर्ममूलः ॥५७॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि एकादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १११ ॥
॥ ८६ ॥ राजधर्मपर्वणि द्विसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७२ ॥
[ अस्मिन्नध्याये ५७श्लोकाः]
॥ द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति दण्डस्वरूपादिकथनम् ॥॥
युधिष्टिरः -
अयं पितामहेनोक्तो राजधर्मस्सनातनः।
कीदृशश्च महाइण्डस् सर्व दण्डे प्रतिष्ठितम्॥१॥
देवतानामृषीणां च पितृणां च महात्मनाम्।
यक्षरक्षः पिशाचानां मर्त्यानां च विशेषतः॥२॥
सर्वेषां प्राणिनां लोके तिर्यक्ष्वपि निवासिनाम्।
सर्वस्यापि महातेजा दण्डश्रेयानिति प्रभो॥३॥
इत्येतदुक्तं भवता सर्वं दण्डे चराचरम्॥३॥
पश्यतां लोक आयत्तं ससुरासुरमानुपम्\।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तत्त्वेन भरतर्षभ॥४॥
को दण्डः कीदृशो दण्ड कि रूपः किम्परायणः।
किमात्मकः419 कथम्भूतः कति मूर्तिः कथं प्रभुः॥५॥
जागर्ति च कथं दण्डः प्रजासु विहितात्मकः।
कच पूर्वापरमिदं जागर्ति परिपालयन्॥६॥
कश्च विज्ञायते420 पूर्वः को वरो दण्डसंज्ञितः।
किंसंस्थश्चाभवद्दण्डः का चास्य गतिरिष्यते॥७॥
भीष्मः -
शृणु कौरव्य यो दण्डो व्यवहारो यथैव सः।
यस्मिन् हि सर्वमायत्तं स धर्म इति केवलः॥८॥
धर्मस्यार्थेमहीपाल व्यवहार इतीप्यते।
तस्य लोपाः421 कथं न स्युर् लोकेशवह महात्मनः॥९॥
इत्यर्थं व्यवहारम्य व्यवहारत्वमिप्यते।
अपि चैतत् पुरा राजन मनुना प्रोक्तमादितः॥ १०॥
सुप्रणीतेन इण्डेन प्रियाप्रियसमात्मना।
प्रजा रक्षति यस्सम्यग् धर्म एव हि केवलः॥११॥
यथोक्तमेतद्वचनं प्रागेव मनुना पुरा।
जन्म चोक्तं वसिष्टेन ब्रह्मणो वचनं महत्॥१२॥
प्रागिदं वचनं प्रोक्तम् अतः प्राग्वचनं विदुः।
व्यवहारस्य चाख्यानाडू व्यवहार इहोच्यते॥१३॥
दण्डात् त्रिवर्गस्सततं सुप्रणीतान् प्रवर्तते।
दैवं हि परमो दण्डो रूपतोऽग्निरिवोत्थितः॥१४॥
नीलोत्पलदलश्यामश चतुर्दश्चतुर्भुजः।
अप्टपादेकनयनश्422 शङ्कुकर्णोर्ध्वरोमवान्॥१५॥
जटी द्विजिह्वस्ताम्रास्यो मृगराजतनुच्छदः।
एतद्रूपं बिभर्त्र्युग्र दण्डो नियं दुरावरः॥॥१६॥
असिर्गदा धनुश्शक्तिस् त्रिशूलं मुद्रश्शरः\।
मुसलं परशुश्चक्रं प्रासदण्डर्ष्टितोमराः॥१७॥
सर्वप्रहरणीयानि यानि यानीह कानिचित्।
दण्ड एव हि धर्मात्मा423 लोके चरति मूर्तिमान्॥१८॥
छिन्दन् भिन्दन्, रूजन् कृन्तन् दारयन् पाटयंस्तथा।
घातयन्त्रभिधावंश्च दण्ड एवं चरत्युत॥१९॥
असिर्विशसनो धर्मस् तीक्ष्णवर्मा दुरासदः।
श्रीगर्भो विजयश्शास्ता व्यवहारः प्रजागरः॥२०॥
शास्त्रं ब्राह्मणमन्त्राश्च शास्ता प्रवचनं परम्।
धर्मपालोरो गोपस् सत्यगो नित्यको गृहः॥२१॥
असङ्गो रुद्रतनयो मनुर्येष्ठशिशङ्करः।
नामान्येतानि दण्डस्य कीर्तितानि युधिष्ठिर॥२२॥
दण्डो हि भगवान् विष्णुर् यज्ञो नारायणः प्रभुः।
शश्वद्रूपं महद्विभ्रन्महान् पुरुप उच्यते॥२३॥
तथोक्ता ब्रह्मकन्येति लक्ष्मीर्नीतिस्सरस्वती।
दण्डनीतिर्जगद्धात्री दण्डो हि बहुविग्रहः॥२४॥
अर्थानर्थौ सुखं दुःखं धर्माधर्मौ बलाबले।
दौर्भाग्यं भागधेयं च पुण्यापुण्ये गुणागुणौ॥२५॥
कामाकामावृतुर्मासश् शर्वरी दिवसः क्षणः।
अप्रसा424दः प्रसादश्च हर्षशोकौ दमश्शमः॥२६॥
दैवं पुरुषकारश्च मोक्षामोक्षौ भयाभये।
हिंसाहिंसे तपो यज्ञस् संयमोऽथ विषामृते॥२७॥
अन्तश्चादिश्च मध्यं च कृतानां च प्रपञ्चनम्।
मदप्रमोददर्षाश्च दम्भो धैर्य नयानयो॥२८॥
अशक्तिश्शक्तिरित्येवं मानस्तम्भौ व्ययाव्ययौ।
विनयश्च विसर्गश्च कालाकालौ च कौरव॥२९॥
अनृतं चाज्ञता सत्यं श्रद्धाश्रद्धे तथैव च।
क्लीवता व्यवसायश्च लाभालाभौ जयाजयौ॥३०॥
तीक्ष्णता मृदुताऽत्युग्रम् आगमानागमो तथा।
विराद्धिश्चैवराद्विश्चकार्याकार्ये बलाबले॥३१॥
असूया चानसूया च धर्मचर्या तथैव च।
अपत्रपानपत्रपे श्रीश्च सम्पद्विपश्चर् ह॥३२॥
तेजः कर्माणि पाण्डित्यं वाक्शक्तिर्बुद्धितत्त्वतः।
एवं दण्डस्य लोकेऽस्मिञ् जागर्ति बहुरूपता॥॥३३॥
न स्याद्यदिह दण्डो हि प्रमश्रेयुः परस्परम्\।
भयाद्दण्डस्य नान्योन्यं नन्ति चैव युधिष्ठिर॥३४॥
दण्डेन रक्ष्यमाणा हि राजन्नहरहः प्रजाः\।
राजानं वर्धयन्तीह तस्माद्दण्डः परायणम्॥३५॥
व्यवस्थापयते नित्यम् इमं लोकं नरेश्वर।
सत्ये व्यवस्थितो425 धर्मो ब्राह्मणेष्ववतिष्ठते।३६॥
धर्मे युक्ता द्विजश्रेष्ठा देवयुक्ता भवन्ति च।
बभूव यज्ञो देवेभ्यो यज्ञः प्रीणाति देवताः॥३७॥
प्रीताश्च देवता लोकम् इन्द्रे प्रतिददत्त।
अन्नं ददाति शक्रश्चाचाप्यनुगृह्णन्त्रिमाः प्रजाः॥३८॥
प्राणाञ्च सर्वभूतानां नित्यमन्ने प्रतिष्ठिताः।
तस्मान् प्रजाः प्रतिष्ठन्ति दण्डो जागर्ति तासु च॥ ३९॥
एवम्प्रयोजनश्चैव दण्डः क्षत्रियतां गतः।
नित्यं प्रजास्स जागर्ति नित्यं सुविहितोऽक्षरः॥४०॥
ईश्वरः पुरुषः प्राणस् सत्त्वं वृत्तं प्रजापतिः ।
भूतात्मा जीव इत्येवं नामभिः प्रोच्यतेऽष्टभिः॥ ४१॥
आयत्तं दण्डमेवास्मै ध्रुवमैश्वर्यमेव च।
बलं नयैश्च संयुक्तस् सदा पञ्चविधात्मकम्॥४२॥
मूलमाहुर्धनामात्याः प्रज्ञा चोक्ता धनानि च।
आहार्य चाष्टकं द्रव्ये बलमन्ययुधिष्ठिर॥४३॥
हस्तिनोऽश्वा रथाः पत्तिर नावो विष्टिस्तथैव च।
देशिकाञ्चारिकाश्चैव तद्ष्टाङ्गं बलं स्मृतम्॥४४॥
अथ चाङ्गस्य युक्तस्य रथिनो हस्तियायिनः।
अश्वारोहाःपदाताश्च मन्त्रिणो रथिकाच ये ॥४५॥
भिक्षुकाःप्राडिवाकाश्च मौहूर्ता दैवचिन्तकाः।
कोशो426 मित्राणि धान्यं च सर्वोपकरणानि च॥४६॥
सप्तप्रकृति चाष्टाङ्गं शरीरमिह तं विदुः।
राज्यस्य दण्ड एवान्तो दण्डः प्रभव एव च॥४७॥
ईश्वरेण प्रसन्नेन कारणान् क्षत्रियस्य च।
दण्डो दत्तस्सदा गोता दण्डो हीदं सनातनम्॥४८॥
राजा पूज्यतमो नान्यो यथा धर्मस्तथाऽऽन्मभिः॥४९॥
ब्रह्मणो लोकरक्षार्थं स्वधर्मस्थापनाय च।
भर्तृप्रत्यय उत्पन्नो व्यवहारस्तथाविधः॥५०॥
तस्याद्य सहितो दृष्टो भर्तृप्रत्ययलक्षणः।
ज्ञेयोऽन्यम्स नरेन्द्रस्थो दण्डः प्रत्यय एव च॥५१॥
व्यवहारस्तु वेदात्मा वेदप्रत्यय उच्यते।
एवं च नरशार्दूल शिष्टोक्तश्च तथाऽपरः॥॥५२॥
उक्तो यश्चापि दण्डोऽसौ भर्तृप्रत्ययलक्षणः।
ज्ञेयो नस्स नरेन्द्रस्थो दण्डः प्रत्यय एव च॥५३॥
दण्डप्रत्ययदृष्टोऽपि व्यवहारात्मकस्स्मृतः।
व्यवहारस्ततो यश्च स वेदविषयात्मकः427॥५४॥
यश्च वेदप्रसूतात्मा स धर्मो गुणदर्शनः।
धर्मप्रत्यय उद्दिष्टो यश्च धर्मः कृतात्मभिः॥५५॥
व्यवहारः प्रजागोता ब्रह्मदृष्टो युधिष्ठिर।
चीन धारयति लोकान वै सत्यात्मा भूतिवर्धनः॥५६॥
यश्च दण्डस्स दृष्टो नो व्यवहारस्सनातनः\।
व्यवहारश्च यो दृष्टस् स वेद इति नश्श्रुतिः॥५७॥
यश्च वेदस्स नो धर्मो यच धर्मस्स सत्पथः॥
ब्रह्मा पितामहः पूर्वं भगवांश्च प्रजापतिः॥५८॥
सर्वलोकान् हि सर्वेपां ससुरासुररक्षसाम्।
समनुष्योरगवतां कर्ता चैव स भूतकृत्॥५९॥
ततो नो व्यवहारोऽयं भर्तृप्रत्ययलक्षणः।
तस्मादिदमवोचाम व्यवहारनिदर्शनम्॥६०॥
माता पिता च भ्राता च भार्या चाथ पुरोहितः।
नादण्ड्यो विद्यते राज्ञो यस्स्वधर्मे न तिष्ठति॥॥६१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११२ ॥
॥ ८६ ॥ राजधर्मपर्वणि विसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७३ ॥
[ अस्मिन्नध्याये ६१ श्लोकाः ]
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॥ त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥
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भीष्मेण युधिष्टिरं प्रति वसुहोममान्धातृसंवादानुवादपूर्वकं दण्डोत्पत्त्यादिकथनम्
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भीष्मः -
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
अङ्गेषु राजा द्युतिमान वसुहोम इति श्रुतः॥१॥
स राजा धर्मनित्यस्सन् सह देव्या महायशाः।
मुञ्जष्पृष्ठं428 जगामाथ देवर्पिगणसेवितम्॥२॥
अत्र शृङ्गे हिमवतो वसतिं समुपागमत्।
यत्र मुञ्जवटे रामो जटाहरणमादिश429त्॥३॥
तदादि च महाप्राज्ञ ऋषिभिस्संशितव्रतैः।
मुखपृष्ठ इति प्रोक्तस् स देशो रुद्रसेवितः॥४॥
स तत्र बहुभिर्युक्तस् तदा श्रुतिमयैर्गुणैः।
ब्राह्मणानामनुमतो देवर्णिसदृशोऽभवत्॥५॥॥
तं कदाचिदीनात्मा सखा शक्रस्य मानितः।
अभ्यगच्छन्महीपालो मान्धाता शत्रुकर्शनः॥६॥
सोपसृत्य तु मान्धाता वसुहोमं नराधिपम्।
दृष्ट्वा प्रकृष्टं तपमा विनयेनोपतिष्ठते ॥७॥
वसुहोमोऽपि वै राज्ञो गामर्थ्य च न्यवेदयत्।
सप्ताङ्गस्य तु राज्यस्य पप्रच्छ कुशलाव्ययौ॥८॥
सद्भिराचरितं पूर्वं यथावदनुयायिनम्।
अत्रवीद्वसुहोमस्तं राजन् किं करवाणि ते॥९॥
सोऽब्रवीत् परमप्रीतो मान्धाता राजसत्तमः।
वसुहोमं महाप्राज्ञम् आसीनं कुरुनन्दन॥१०॥
मान्धाता-
बृहस्पतेर्मतं राजन्नधीतं सकलं त्वया।
तथैवौशनसं शास्त्रं विज्ञातं430 ते नरेश्वर॥११॥
तदहं श्रोतुमिच्छामि दण्ड उत्पद्यते कथम्
किं वाऽस्य पूर्वं जागर्ति किं वा परममुच्यते॥१२॥
कथं क्षत्रियसंस्थञ्च दण्डस्मम्प्रत्यवस्थितः।
हि मे तद्यथातत्त्वं ददाम्याचार्यवेतनम्॥१३॥
वसुहोमः-
शृणु राजन् यथा दण्डस् सम्भूतो लोकसङ्ग्रहः।
प्रजाविनयरक्षार्थं धर्मस्यात्मा सनातनः॥१४॥
ब्रह्मा यियक्षुर्भगवान् सर्वलोकपितामहः।
ऋत्विजो नात्मनस्तुल्यान् ददर्शति हि नश्श्रुतम्॥१५॥
स गर्भ भगवान् देवो वर्षपूगानधारयत्।\।
अथ पूर्णे सहस्रे तु स गर्भःक्षुवतोऽपतत431॥१६॥॥
स क्षुपो432 नाम सम्भूतः प्रजापतिररिन्दमः।
ऋत्विगासीन्महाराज यज्ञे तस्य महात्मनः॥१७॥
तस्मिन् प्रवृत्ते सत्रे तु ब्रह्मणः पार्थिवर्षभ।
इष्टरूपप्रचारत्वाद् दण्डस्सोऽन्तर्हितोऽभवन्॥१८॥
तस्मिन्नन्तर्हिते चापि प्रजानां सङ्करोऽभवत्।
नैव कार्य न चाकार्य भोज्याभोज्यं न विद्यते॥१९॥
पेयापेये कुतसिद्धिर हिंसन्ति च परस्परम्।
गम्यागम्यं तदा नासीत् स्वं परस्वं च वै समम्॥२०॥
परस्परं विदुम्पन्ते सारमेया इवामियम्।
अवलान् वलिनो जन्नुर् निर्मर्याद्मवर्तत ॥२१॥
ततः पितामहो विष्णुं भगवन्तं सनातनम् ।
सम्पूज्य वरदं देवं महादेवमथाब्रवीत्॥॥२२॥
ब्रह्मा—
तत्र साध्वनुकम्पां वै कर्तुमर्हसि शङ्कर।
अयं विष्णुस्सखा तुभ्यं धर्मस्य परिरक्षणे॥२३॥
त्वं हि सर्वविधानज्ञस् सत्त्वानां त्वं गतिः परा।
सङ्करो न भवेदत्रयथा तद्वै विधीयताम्॥२४॥
वसुहोमः-
ततस्स भगवान् ध्यात्वा तदा शूलवरायुधः।
देवदेवो महादेवः कारणं जगतः परम्॥२५॥
ब्रह्मविष्ण्विन्द्रसहितस् सर्वेश्च ससुरासुरैः।
लोकसन्धारणार्थं च लोकसङ्करनाशनम्॥२६॥
आत्मानमात्मना दण्डम् असृजद् देवसत्तमः॥२६॥
तस्माच्च धर्मचरणानीति देवी सरस्वतीम्।
असृजद्दण्डनीतिं वै त्रिषु लोकेषु विश्रुताम्॥२७॥
यथाऽसौ नीयते दण्डस् सततं पापकारिषु।
दण्डस्य नयनात् सा हि दण्डनीतिरिहोच्यते॥२८॥
भूयस्स भगवान् ध्यात्वा चिरं शूलधरः प्रभुः।
असृजत् सर्वशास्त्राणि महादेवो महेश्वरः॥२९॥
दण्डनीतेःप्रयोगार्थं प्रमाणानि च सर्वशः।
विद्याश्चतस्त्रः कूटस्थास् तासां भेदविकल्पनाः॥३०॥
अङ्गानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः।
पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या होताश्चतुर्दश॥३१॥
आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्चेति ते त्रयः।
अर्थशास्त्रं चतुर्थं तु विद्या ह्यष्टादशैव तु॥३२॥
दश चाष्टौ चविख्याता एता धर्मस्य संहिताः।
एतासामेव विद्यानां व्यासमाह महेश्वरः॥॥३३॥
शतानि त्रीणि शास्त्राणां महातन्त्राणि सप्ततिम्।
व्यास एव तु विद्यानां महादेवेन कीर्तितः॥३४॥
तन्त्र पाशुपत नाम पाञ्चरात्र च विश्रुतम्।
योगशास्त्रं च विख्यातं तन्त्रं लोकायतं तथा॥३५॥
तन्त्रं ब्रह्मकुलं नाम तर्कविद्या दिवौकसाम्।
सुखदुःखार्थजिज्ञासा कारकं433 चेति विश्रुतम्॥३६॥
तर्कविद्यास्तथा चाौ स चोक्तो न्यायविस्तरः\।
दश चाष्टौ च विज्ञेयाः पौराणा यज्ञसंहिताः॥३७॥
पुराणाश्च प्रणीताञ्च तावदेव हि संहिताः।
धर्मशास्त्राणि तद्वच्च एकार्थानीति नान्यथा॥३८॥
एकार्थानि पुराणानि वेदाश्चैकार्थसंहिताः।
नानार्थानि च सर्वाणि तर्कशास्त्राणि शङ्करः॥३९॥
प्रोवाच भगवान् देवः कालज्ञानानि यानि च।
चतुष्पष्टिप्रमाणानि आयुर्वेदं च सोत्तरम्॥॥४०॥
अष्टाङ्गानि च कल्पानां दण्डनीतिं च शाश्वतीम्।
गान्धर्वमितिहासं च नानाविस्तरमुक्तवान्॥४१॥
इत्येताश्शङ्करप्रोक्ता विद्यारशब्दार्थसंयुताः।
पुनर्भेदसहस्रं च तासामेव तु विस्तरः॥४२॥
ऋषिभिर्देवगन्धर्वैस् सविकल्पस्सविस्तरः।
शश्वदभ्यस्यते लोके वेद एव च सर्वशः॥४३॥
वेदाश्चतस्रस्सङ्क्षिप्ता वेदवादाश्च ते स्मृताः।
एतासां पारगो यश्च स चोक्तो वेदपारगः॥४४॥
वेदानां पारगो रुद्रो विष्णुरिन्द्रो बृहस्पतिः।
शक्रस्स्वायम्भुवञ्चैव मनुः परमधर्मवित्॥४५॥
ब्रह्मा च परमो देवस् सदा सर्वैस्सुरासुरैः।
शर्वस्यानुग्रहाचैत्र व्यासो वै वेदपारगः॥४६॥
अहं शान्तनवो भीष्मः प्रसादान्माधवस्य च।
शङ्करस्य प्रसादाच ब्रह्मणश्च कुरुद्रह॥४७॥
वेदपारग इत्युक्तो याज्ञवल्क्यश्च सर्वशः॥४८॥
कल्पे कल्पे महाभागैर् ऋपिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।
ऋषिपुत्रैर्ऋषीकैश्च भिद्यन्ते मिश्रकैरपि ॥४९॥
शिवेन ब्रह्मणा चैव विष्णुना च विकल्पिताः।
आदिकल्पे पुनश्चैव भिद्यन्ते साबुभिः पुनः॥५०॥॥
इदानीमपि विद्वद्भिर् भिद्यन्ते च विकल्पकैः।
पूर्वजन्मानुसारेण बहुधेयं सरस्वती॥५१॥
भूयस्स भगवान् ध्यात्वा चिरं शूलवरायुधः।
तस्य तस्य निकायस्य चकारैकैकमीश्वरम्॥५२॥
देवानामीश्वरं चक्रे देवं दशशतेक्षणम्।
यमं वैवस्वतं चापि पितॄणामकरोत् पतिम्॥५३॥
अपां तथा सुराणां च विद्धे वरुणं प्रभुम्।
धनानां रक्षसां चैव कुवेरमपि चेश्वरम्॥५४॥
पर्वतानां पति मेरुं सरितां च महोदधिम्।
मृत्युं प्राणेश्वरमथो तेजसां च हुताशनम्॥५५॥
रुद्राणामपि चेशानं गोतारं विदधे प्रभुम्434।
महात्मानं विशालाक्षं महादेवं सनातनम्॥५६॥
दश चैकश्च ये रुद्रास् तस्यैते मूर्तिसम्भवाः।
नानाम्पधरो देवस् स एव भगवाञ् शिवः॥५७॥
वसिष्टमीशं विप्राणां वसूनां जातवेदसम्।
तेजसां भास्करं चक्रे नक्षत्राणां निशाकरम्॥५८॥
वीरुधां वसुमन्तं च भूतानां च प्रभुं वरम्।
कुमारं द्वादशभुजं स्कन्दं राजानमादिशत्॥॥५९॥
कालं सर्वेशमकरोत् संहारविनयात्मकम्।
मृत्योश्चतुर्विभागस्य दुःखस्य च सुखस्य च॥६०॥
ईश्वरो देवदेवस्तु राजराजो धनेश्वरः।
सर्वेपामेव मद्राणां शूलपाणिरिति श्रुतिः॥६१॥
ईश्वरश्चोदनः435 कर्ता पुरुषःकारणं शिवः।
विष्णुर्ब्रह्मा शशी सूर्यश् शक्रो देवाश्च सान्वयाः॥६२॥
सृजते ग्रसते चैतत् तमोभूतमिदं यदा।
अज्ञातं च जगत् सर्वं तदा होको महेश्वरः॥६३॥
तमेव ब्रह्मणः पुत्रम् अनुजानन क्षुवं ददौ।
प्रजानामधिपं श्रेष्ठं सर्वधर्मवतामपि॥६४॥
महादेवस्ततस्तस्मिन वृत्ते यज्ञे समाहितः।
दण्डं धर्मस्य गोप्तारं सत्कृतं विष्णवे ददौ॥६५॥
विष्णुरङ्गिरसे प्रादा अङ्गिरा मुनिसत्तमः।
प्रादादिन्द्रमरीचिभ्यां मरीचिभृंगवे ददौ॥६६॥
भृगुर्ददावृषिभ्यस्तु तद्दण्डं धर्मसंहितम्।
ऋपयो लोकपालेभ्यो लोकपालाःक्षुवाय436 च॥६७॥
क्षुवस्तु437 मनवे प्रादादू आदित्यतनयाय तु।
पुत्रेभ्यश्श्राद्धदेवस्तु सूक्ष्मधर्मार्थकारणात्॥६८॥
विभज्य दण्डः कर्तव्यो दण्डे तु नयमिच्छता।
दुर्वाचा निग्रहो दण्डो हिरण्यं बाह्यतः क्रिया॥॥६९॥
व्यङ्गत्वं च शरीरस्य वधो वाऽनल्पकारणात्।
शरीरपीडा कार्या तु स्वदेशाच विवासनम्॥७०॥
तं ददौ सूर्यपुत्राय मनवे रक्षणात्मकम्।
आनुपूर्व्याच्च दण्डोऽसौ प्रजा जागर्ति पालयन्॥७१॥
इन्द्रो जागर्ति भगवान् इन्द्रादग्निर्विभावसुः।
अर्जागर्ति वरुणो वरुणाच प्रजापतिः॥७२॥
प्रजापतेस्ततो धर्मो जागर्ति विनयात्मकः।
धर्माच्च ब्रह्मणः पुत्रो व्यवसायस्सनातनः॥७३॥
व्यवसायात्ततस्तेजो जागर्ति परिपालयत्।
ओपव्यस्तेजसस्तस्माद् ओषधीभ्यश्च पर्वताः॥७४॥
पर्वतेभ्यश्च जागर्ति रसो रसगुणादपि।
जागर्ति निऋतिदेवी ज्योतीपि निरृतीमनु॥७५॥
देवाःप्रसूता ज्योतिर्भ्यस् ततो ह्यशिराः प्रभुः।
ब्रह्मा पितामहस्तस्माज् जागर्ति प्रभुरव्ययः॥७६॥
पितामहान्महातेजा जागर्ति भगवाञ् शिवः।
विश्वे देवारिशवाच्चापि विश्वेभ्य ऋषयस्ततः॥७७॥
ऋषिभ्यो भगवान् सोमस् सोमाद्देवारसनातनाः।
देवेभ्यो ब्राह्मणा लोके जाग्रतीत्युपधारय॥७८॥
ब्राह्मणेभ्यस्तु राजन्या लोकान् रक्षन्ति धर्मतः।
स्थावरं जङ्गमं चैव क्षत्रियेभ्यस्सनातनम्॥७९॥
प्रजा जाग्रति लोकेऽस्मिन् दण्डो जागर्ति तासु च।
सर्वसङ्क्षेपको दण्डः पितामहसुतः प्रभुः॥८०॥
जागर्ति काल438ःपूर्व च मध्ये चान्ते च भारत\।
ईशस्सर्वस्य कालो हि महादेवः प्रजापतिः॥८१॥
देवदेवरिशवश्शर्वो जागर्ति सततं प्रभुः।
कपर्दी शङ्करो रुद्रो भवस्स्थाणुरूमापतिः॥॥८२॥
इत्येषदण्डो व्याख्यातस् तथौपव्यस्तथाऽपरे।
भूमिपालो यथान्यायं वर्तेतानेन धर्मवित्॥८३॥
भीष्मः -
इतीदं वसुहोमस्य योऽऽत्मवाञ् शृणुयान्मतम्।
श्रुत्वा तु सम्यग् वर्तेत स लोकानाप्नुयान्नृपः॥८४॥
इति ते सर्वमाख्यातं यो दण्डो मनुजर्षभ।
नियन्ता सर्वलोकस्य धर्माकान्तस्य भारत॥॥८५॥
वसुहोमाच्छ्रतं राज्ञा मान्धात्रा भूभृता पुरा।
मयाऽपि कथितं पुण्यम् आख्यानं प्रथितं तथा॥८६॥
इति श्रीमहाभारते शतसाहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११३ ॥
॥ ८६ ॥ राजधर्मपर्वणि चतुरसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७४ ॥
[ अस्मिन्नध्याये ८६ श्लोकाः ]
॥ चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः ॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति धर्मादिनिरूपणपूर्वकं कामन्दारिष्टसंवादानुवादेन धर्मत्यागिनः प्रायश्चित्तप्रकारादिकथनम्॥
युधिष्टिरः-
तात धर्मार्थकामानां श्रोतुमिच्छामि निश्चयम्।
लोकयात्रा हि कार्येन त्रिवेतेषु प्रतिष्ठिता॥१॥
धर्मार्थकामाः किम्मूलाः प्रभवः प्रलयश्च कः।
अन्योन्यं चानुपज्जन्ते वर्तन्ते वा कथं पृथक्॥२॥
भीष्मः -
य एते स्युस्सुमनसो लोकसंस्थार्थनिश्चये।
कामप्रभवसंस्थासु मज्जन्ते च त्रयस्सदा॥३॥
धर्ममूलोऽर्थ इत्युक्तःकामोऽर्थफलमुच्यते।
सङ्कल्पमूलास्ते439 सर्वे सङ्कल्पो विपयात्मकः॥॥४॥
विषयश्चापि कार्येन सर्वभूभारसिद्धये।
मूलमेति त्रिवर्गस्य निवृत्तिर्मोक्ष उच्यते॥५॥
धर्मश्शरीरसङ्गुप्तिर् धर्मार्थश्चार्थ उच्यते440।
कामो रतिफलश्चात्र सर्वे सुखफलास्स्मृताः॥६॥
सन्निकृष्टश्चरेदेतान् न चैतान मनसा त्यजेत्।
विमुक्तस्तपसा सर्वान्, धर्मादीन् कामनैष्ठिकान्॥७॥
श्रेष्ठबुद्धिवर्गस्य उदयं प्राप्नुयात् क्षणात्।
बुद्ध्या बुद्धा इहार्थेन तदहा तु निकृष्टया॥८॥
अपध्यानमलो धर्मो मलोऽर्थस्य विनिग्रहः।
सम्प्रमोहमलःकामो भूयस्तद्गुणवर्धितः॥९॥
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
अरिष्ट्रस्य च संवा कामन्दस्य च भारत॥१०॥
कामन्दमृषिमासीनम् अभिवाद्य नराधिप।
अङ्गोऽरिप्रोऽनुपप्रच्छ कृत्वा समयमव्ययम्॥११॥
अरिष्टः-
यः पापं कुरुते राजा कामलोभबलात्कृतः।
प्रत्यापन्नस्य तस्यर्षे किं स्यात् पापप्रणाशनम्॥१२॥
अधर्मं धर्म इति यो मोहादाचरते नृपः।
तं चापि प्रथितं लोके कथं राजा निवर्तयेत्॥१३॥
कामन्दः-
धर्मार्थी यस्समुत्सृज्य काममेवानुवर्तते।
स धर्मार्थपरित्यागात् प्रज्ञानाशमिहर्च्छति॥॥१४॥
प्रज्ञानाशात्मको मोहस् तथा धर्मार्थनाशकः।
तस्मान्नास्तिकता चैव दुराचारश्च जायते॥१५॥
दुराचारान् यदा राजा प्रदुष्टान् न नियच्छति।
तस्मादुद्विजते लोकस् सर्पाद्वेश्मगतादिव॥१६॥
तं प्रजा नानुरज्यन्ते न विप्रा न च साधवः।
ततस्सङ्ङ्क्षयमाप्नोति तथा वध्यत्वमेव च॥१७॥
अपध्वस्तस्त्ववमतो दुःखं जीवति जीवितम्।
जीवते यद् पध्वस्तश् शुद्धं मरणमेव तत्॥१८॥
तस्यैतदादुराचार्याः पापस्य परिवर्जनम्।
सेवितव्या त्रयी विद्या सत्कारो ब्राह्मणेषु च॥१९॥
महामना भवेद्ध में विवदेन्न महाचलैः।
ब्राह्मणांश्चापि सेवेत क्षमायुक्तान् मनस्विनः॥२०॥
जपेदुदकशीलस्स्यात् सुमुखो न च नास्तिकः।
धर्मान्वितान् सम्प्रणयेद् वहिष्कृत्यैव दुष्कृतम्॥॥२१॥
प्रसादयेन्मधुरया वाचा वाडव्यथ कर्मणा।
इत्यस्तीति वदेन्नित्यं पूर्वेपां कीर्तयेद् गुणान्॥२२॥
अपापो ह्येवमाचारःक्षिप्रं बहुमतो भवेत्।
पापान्यपीह कृच्छ्राणि शमयेन्नेह संशयः॥२३॥
गुरवो हि परं धर्मं यं ब्रूयुत्तं तथा कुरु।
गुरुणां हि प्रसादाद्वै श्रेयः परमवाप्स्यसि॥२४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः ॥११४॥
॥८६ ॥ राजधर्मपर्वणि पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः॥ ७५ ॥
॥ अस्मिन्नध्याये २४ श्लोकाः ॥
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॥ पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति दुर्योधनाय धृतराष्ट्रप्रोक्तेन्द्रप्रह्लादकथानुवादपूर्वकं शीलस्य धर्मादिकारणत्वप्रतिपादनम्॥
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युधिष्ठिरः -
इमे जना मनुष्येन्द्र प्रशंसन्ति जनाधिप।
धर्मस्य शीलमेवादौ ततो मे संशयो महान्॥१॥
यदि चेच्छयमस्माभिर् ज्ञातुं धर्मभृतां वर।
श्रोतुमिच्छामि तत् सर्वं यथैतदुपलभ्यते॥२॥॥
कथं नु प्राप्यते शीलं श्रोतुमिच्छामि भारत।
किंलक्षणं च तत् प्रोक्तं ब्रूहि मे वदतां वर॥३॥
भीष्मः -
पुरा दुर्योधनेनेदं धृतराष्ट्रीय मानद।
आख्यातं तप्यमानेन श्रियं दृष्ट्वा तवागताम्॥४॥
इन्द्रप्रस्थे महाराज तव सभ्रातृकम्य च।
सभायां चापहसनं तत् सर्वं शृणु भारत॥५॥
भवतस्तां सभां दृष्ट्वा समृद्धिं चाप्यनुत्तमाम्।
दुर्योधनस्तदा दृष्ट्वा सर्व पित्रे न्यवेदयन्॥६॥
स श्रुत्वा धृतराष्ट्रश्च दुर्योधनवचस्तदा।
अब्रवीत् कर्णसहितं दुर्योधनमिदं वचः॥७॥
धृतराष्ट्रः-
किमर्थं तप्यमे पुत्र श्रोतुमिच्छामि तत्वतः।
श्रुत्वा त्वामनुशिष्यामि यदि सम्यगू भविष्यति॥८॥
यदा त्वां महदैश्वर्य प्राप्तं परपुरञ्जय।
किङ्करा भ्रातरस्सर्वे मित्रसम्बन्धिबान्धवाः॥९॥
आच्छादयसि प्रावारान अनामि पिशितौदनम्।
आजानेया वहन्ति त्वां कस्माच्छोचसि पुत्रक॥१०॥
दुर्योधनः-
दश तात सहस्राणि स्नातकानां महात्मनाम्।
भुञ्जते रुक्मपात्रीभिर् युधिष्ठिरनिवेशने॥॥११॥
दृष्ट्वा सभां च तां दिव्यां दिव्यपुष्पफलान्विताम्।
अश्वांस्तित्तिरिकल्मापान रत्नानि विविधानि च॥१२॥
दृष्ट्वा तां पाण्डवेयानाम् ऋद्विमिन्द्रोपमां शुभाम्।
अमित्राणां सुमहतीम् अनुशोचामि मानद॥१३॥
धृतराष्ट्रः-
यदीच्छसि श्रियं तात यादृशीं तां युधिष्ठिरे।
विशिष्टां वा नरश्रेष्ठ शीलवान् भव पुत्रक ॥१४॥
शीलेन हि त्रयो लोकाश् शक्या जेतुं न संशयः।
न हि किञ्चिदसाध्यं स्याल्लोके शीलवतां सताम्॥१५॥
एकरात्रेण मान्धाता व्यहेण जनमेजयः।
सप्तरात्रेण नाभागः पृथिवीं प्रतिपेदिवान॥१६॥
एते हि पार्थिवास्सर्वे शीलवन्तो यशोन्विताः।
ततस्तेषां गुणक्रीता वसुधा स्वयमागता॥१७॥
अत्राप्युदाहरन्तीमम इतिहासं पुरातनम्।
नरदेव पुरा वृत्तं शीलमाश्रिय भारत॥१८॥
प्रह्लादेन हृतं राज्यं देवेन्द्रस्य महात्मनः।
शीलमाश्रिय दैत्येन त्रैलोक्यं च वशीकृतम्॥१९॥
ततो बृहस्पतिं शऋः प्राञ्जलिस्समुपस्थितः।
उवाच सुमहाप्राज्ञश श्रेय इच्छामि वेदितुम्॥॥२०॥
ततो बृहस्पतिस्तस्मै ज्ञानं नैश्रेयसं परम्।
कथयामास भगवान् देवेन्द्राय कुरूद्रह॥॥२१॥
एतावच्छ्रेय इत्येव बृहस्पतिरभाषत।
इन्द्रस्तु भूयः पप्रच्छ कि विशेषो भवेदिति॥२२॥
बृहस्पतिः-
विशेषोऽस्ति महांस्तात भार्गवस्य महात्मनः।
तत्रागमय भद्रं ते भूय एव सुरोत्तम॥२३॥
धृतराष्ट्रः-
आत्मनस्तु ततश्श्रेयो भार्गवस्सुमहायशाः।
ज्ञानमागमयत् प्रीत्या पुनस्स परमद्युतिः॥२४॥
तेनापि समनुज्ञातो भार्गवेण महात्मना।
श्रेयोऽस्तीति परं भूयश क्रमाह शचीपतिः॥२५॥
भार्गवस्त्वथ धर्मज्ञः प्रह्लादस्यमहात्मनः।
ज्ञानमस्ति विशेषेणेत्युक्तो हुश्च सोऽभवत्॥२६॥
स तत्र ब्राह्मणो भूत्वा प्रह्लाद पाकशासनः।
स्तुत्वा प्रोवाच मेधावी श्रेय इच्छामि वेदितुम्॥२७॥
प्रह्लादस्त्वत्रवीद्विप्रंक्षणो नास्ति द्विजोत्तम।
त्रैलोक्यराज्यसक्तस्यततो नोपदिशामि ते॥॥२८॥
ब्राह्मणत्ववन्नित्यंयस्मिन् काले क्षणो भवेत्।
तत्रोपदेष्टुमिच्छामि यदि कार्यान्तरं भवेत्॥२९॥
ततः प्रीतोऽभवद्राजा प्रहादो ब्रह्मवादिने।
तथेत्युक्त्वा ददौ काले ज्ञानतत्वं द्विजे तदा॥३०॥
ब्राह्मणोऽपि यथान्यायं गुरुवृत्तिमनुत्तमाम्।
चकार सर्वभावेन यद्यच्च मनसेच्छति॥३१॥
पृष्टश्च तेन बहुशः प्राप्तं कथमरिन्दम।
त्रैलोक्यराज्यं धर्मज्ञ कारणं तद्ब्रवीहि मे॥३२॥
प्रह्लादः -
नासूयामि द्विजान् विप्र राजाऽस्मीति कथञ्चन।
काम्यानि वदतां तात संयच्छामि वहामि च॥३३॥
ते विधाःप्रभाषन्ते संयच्छन्ति च मां सदा।
तेषां कार्यपथे सक्तं शुश्रूषुमनहङ्कृतम्॥३४॥
धर्मात्मानं जितक्रोधं नियतं संयतेन्द्रियम्।
समासिञ्चन्ति शास्त्रज्ञाः क्षौद्रं मध्विव मक्षिकाः॥३५॥
सोऽहं वागन्यपुष्टानां मधूनां परिलेहिता।
स्वजात्यानधितिष्ठामि नक्षत्राणीव चन्द्रमाः॥३६॥
एतत् पृथिव्याममृतम् एतच्चक्षुरनुत्तमम्।
यद्राह्मणमुखे हव्यम् एतच्छ्रुत्वाएतच्छत्वा प्रवर्तते॥॥३७॥
धृतराष्ट्रः-
एतावच्छ्रेय इत्याह प्रह्लादो ब्रह्मवादिनम्।
शुश्रूपितस्तेन सदा दैत्येन्द्रो वाक्यमब्रवीत्॥३८॥
प्रह्लादः -
यथावद्द्रुवृत्त्या ते प्रीतोऽस्मि द्विजसत्तम।
वरं वृणीष्व भद्रं ते प्रदाताऽस्मि न संशयः॥३९॥
धृतराष्ट्रः-
कृतमित्येव दैत्येन्द्रम् उवाच द्विजसत्तमः।
प्रह्लादस्त्वत्रवीत् प्रीतो गृह्यतां वर इत्युत॥४०॥
ब्राह्मणः-
यदि राजन प्रसन्नस्त्वं ममेच्छसि च यद्धितम्।
भवतश्शीलमिच्छामि प्राप्तुमेष वरो मम॥४१॥
धृतराष्ट्रः-
ततः प्रीतस्स दैत्येन्द्रो भयमस्याभवन्महत्।
वरे प्रदिष्टे विप्रेण नाल्पचेताऽयमित्युत॥४२॥
एवमस्त्विति तं प्राह प्रह्लादो विस्मितस्तदा।
अपाकृत्य441 तु विप्राय वरं दुःखान्वितोऽभवत्॥४३॥
दत्ते वरे गते विप्रे चिन्ताऽऽसीन्महती ततः।
प्रह्लादस्तु महाराज निश्चयं न च जग्मिवान्॥४४॥
तस्य चिन्तयतस्तावच् छायाभूतं महाद्युतेः।
तेजो विग्रहवत्तात शरीरमजहात् तदा॥॥४५॥
तमपृच्छन्महाराजःप्रह्लाद को भवानिति।
प्रत्याह तव शिष्योऽस्मि442 त्यक्तो गच्छाम्यहं त्वया॥४६॥
तस्मिन् द्विजोत्तमे राजन वत्स्याम्यहमरिन्दम।
योऽसौ शिष्यत्वमागम्य त्वयि नित्यं समाहितः॥४७॥
इत्युक्त्वाऽन्तर्हितं तद्वै शक्रं चैवाविशत् प्रभो॥४७॥
तस्मिंस्तेजसि याते तु तादृग्रूपस्ततोऽपरः।
शरीरान्निस्सृतस्तस्य को भवानिति सोऽब्रवीत्॥४८॥
धर्मं प्रह्लाद मां विद्धि यत्र चासौ द्विजोत्तमः\।
तत्र यास्यामि दैत्येन्द्र यतश्शीलं ततो वयम्॥४९॥
ततोऽपरो महातेजास् तेजसा प्रज्वलन्निव\।
शरीरान्निर्गतस्तस्य प्रह्लादस्य महात्मनः॥५०॥
को भवानिति पृष्टश्च तमाह स महाद्युतिः।
सत्यमस्म्यसुरेन्द्राग्र्य यास्येऽहं धर्ममन्वितः॥५१॥
तस्मिन्ननुगते धर्मं पुरुषे पुरुषोऽपरः।
निश्चक्राम ततः पश्चात् पृष्टश्चाहमहाद्युतिः॥५२॥
वृत्तं प्रह्लाद मां विद्धि यतस्सत्यं ततोऽस्म्यहम्।
तस्मिन्443 गते महाश्वेतश् शरीरात्तस्य निर्ययौ॥५३॥
प्टष्टश्चाह बलं विद्धि यतो वृत्तं ततोऽस्म्यहम्।
इत्युक्त्वा प्रययौ तत्र यतो वृत्तं नराधिप॥॥५४॥
ततः प्रभामयी देवी शरीरात् तस्य निर्ययौ।
तामपृच्छत् स दैत्येन्द्रस् सा श्रीरित्येनमत्रवीत्॥५५॥
उपिताऽस्मि सुखं नित्यं त्वयि सत्यपराक्रम।
त्वया त्यक्ता गमिष्यामि बलं यत्र ततोऽस्म्यहम्॥५६॥
ततो भयं प्रादुरासीत् प्रह्लादस्यमहात्मनः।
अपृच्छत च तां भूयः क यासि कमलालये॥५७॥
त्वं हि सत्यव्रता देवी लोकस्य परमेश्वरी।
कश्चासौ ब्राह्मण श्रेष्ठस् तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्॥५८॥
श्रीः-
स शक्रो ब्रह्मचारी च त्वत्तश्चैवोपशिक्षितः।
त्रैलोक्ये ते यदैश्वर्यं तेन तत्ते हुतं महन्॥५९॥
शीलेन हि त्रयो लोकास् त्वया धर्मज्ञ निर्जिताः।
तद्विज्ञाय महेन्द्रेण तव शीलं हृतं प्रभो॥६०॥
धर्मस्सयं तथा वृत्तं बलं चैव तथाऽप्यहम्।
शीलमूला महाराज तथा नास्त्यत्र संशयः॥६१॥
भीष्मः -
एवमुक्त्वा गता श्रीस्तु ते च सर्वे युधिष्ठिर।
दुर्योधनस्तु पितरं भूय एवाब्रवीत् तदा॥॥६२॥
दुर्योधनः-
शीलं समधिगच्छामि वेत्तुं कौरवनन्दन\॥
प्राप्यते च यथा शीलं तं चोपायं ब्रवीहि मे॥६३॥
धृतराष्ट्रः-
सोपायःपूर्वमुद्दिष्टः प्रह्लादेन महात्मना।
सङ्क्षेपतस्तु शीलस्य श्रृणु प्राप्तिं जनाधिप॥६४॥
अद्रोहस्सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा।
अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतत् प्रशस्यते॥६५॥
यदन्येषां हितं न स्याद् आत्मनः कर्म पौरुषम्।
अपत्रपेत वा येन न तत् कुर्यात् कथञ्चन॥६६॥
कर्ता कर्म तथा कुर्याद् येनाध्येत संसदि।
शीलं समासेनैतत् ते कथितं कुरुसत्तम॥६७॥
यद्यप्यशीला नृपते प्राप्नुवन्ति श्रियं कचित्।
न भुञ्जते चिरं तात समूलाच पतन्ति ते॥६८॥
एतद्विदित्वा तत्त्वेन शीलवान् भव पुत्रक।
यदीच्छसि श्रियं तात सुविशिष्टां युधिष्ठिरात् ॥॥६९॥
अधिकामपि राजेन्द्र ततस्त्वं शीलवान् भव॥७०॥
भीष्मः -
एतत् कथितवान् पुत्रेधृतराष्ट्रो महीपतिः ।
एतत् कुरुष्व राजेन्द्र ततः प्राप्स्यसि तत्फलम्॥७१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११५ ॥
॥ ८६ ॥ राजधर्मपर्वणि पट्सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७६ ॥
[ अरिमन्नध्याये ७१ श्लोकाः ]
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॥ षोडशाधिकशततमोऽध्यायः ॥
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आशानिरूपणं प्रार्थितेन भीष्मेण तदुपोद्धाततया ऋषभसुमिवचरितकीर्तनारम्भः॥१॥ मृगयासक्तेन सुमित्रेण निजशरानुवेधे शरेण सह वनं प्रविष्टं मृगंप्रत्यनुधावनम्॥२॥
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युधिष्टिरः-
शीलं प्रधानं पुरुषे कथितं ते पितामह।
कथमाशा समुत्पन्ना का च सा प्रब्रवीहि मे॥१॥
संशयस्तु महानेप समुत्पन्नः444 पितामह।
छेत्ता च तस्य नान्योऽस्ति त्वत्तः परपुरञ्जय॥२॥
पितामहाशा महती ममासीत् तु सुयोधने।
प्राप्ते युद्धे तु यद्युक्तं तत् कर्ताऽयमिति प्रभो॥३॥
सर्वस्याशा सुमहती पुरुपस्योपजायते।
तस्यां विन्यमानायां दुःखं मृत्युर्न संशयः॥॥४॥
सोऽहं हताशो दुर्बुद्धिः कृतस्तेन दुरात्मना।
धार्तराष्ट्रेण राजेन्द्र पश्य मन्दात्मतां मम॥५॥
आशां बृहत्तरीं मन्ये पर्वतादपि समात्।
आकाशादपि वा राजन अप्रमेयाऽथ वा पुनः॥६॥
एषाचैव कुरुश्रेष्ठ दुविंचिन्त्या सुदुर्लभा।
दुर्लभत्वाच्च पश्यामि किमन्यद्दुर्लभं ततः॥७॥
भीष्मः -
अत्र ते वर्तयिष्यामि युधिष्ठिर निवोध मे।
इतिहासं सुमित्रस्य निर्वृत्तमृपभस्य च॥८॥
सुमित्रो नाम राजर्षिर् हैहयो मृगयां गतः।
ससार च मृगं विवा बाणेनानतपर्वणा॥९॥
स मृगो बाणमादाय ययावतिपराक्रमः।
स च राजा वली तूर्णं ससार मृगमन्तिकात्॥१०॥
ततो निम्नं स्थलं चैव समृगोऽद्रवदाशुगः।
मुहूर्तमिव राजेन्द्र समेन स पथाऽगमत्॥११॥
ततस्स राजा तारुण्याद् औरसेन बलेन च।
चचार445 बाणासनभृत् सखड्गो हंसवत् तदा॥॥१२॥
ततो नदा446त्नदीश्चैव पलवलानि वनानि च।
अतिक्रम्याभ्यतिक्रम्य ससारैव वनेचरः॥१३॥
स तु447 तावन्मृगो राजन्नासाद्यासाद्य पार्थिवम्।
पुनरभ्येति जवनो जवेन महता ततः॥१४॥
स तस्य वाणैर्बहुभिस् समभ्यस्तो वनेचरः।
प्रक्रीडन्निव राजेन्द्र पुनरभ्येति चान्तिकम्॥१५॥
तस्य मर्मच्छिदं घोरं सुमित्रोऽमित्रकर्शनः।
समाधाय शरं श्रेष्ठं कार्मुकान्निरवासयत्॥१६॥
पुनश्च जवमास्थाय जवनो मृगयूथपः।
तस्य वाणपथं त्यक्त्वा तस्थिवान प्रहसन्निव॥१७॥
तस्मिन्निपतिते वाणे भूमौ प्रज्वलिते तदा।
प्रविवेश मृगोऽरण्यं मृगं राजाऽव्यभिद्रवन्॥१८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि षोडशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११६॥
॥ ८६ ॥ राजधर्मपर्वणि सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७७ ॥
[ अस्मिन्नध्याये १८ श्लोकाः]
॥ सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः॥
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तापसैः स्वाश्रममुपागतस्य सुमित्रस्य पूजनम्॥१॥ ततः सुमित्रेण तापसान् प्रति आशान्तरिक्षयोर्ज्यायस्तरं किमिति प्रश्नः ॥ २ ॥
भीष्मः—
प्रविश्य तु महारण्यं तापसानामथाश्रमम्।
आससाद ततो राजा श्रान्तश्चोपाविशन तदा॥१॥
तं कार्मुकधरं दृष्ट्वा श्रमाते क्षुधितं तदा।
समेत्य ऋषयस्तस्मै चक्रुः पूजां यथाविधि॥२॥
स पूजामृपिभित्तां प्रतिगृह्य नराधिपः।
अपृच्छत् तापसान सर्वांस् तपोवृद्धिमनुत्तमाम्॥३॥
ते तस्य राज्ञो वचनं प्रतिगृह्य तपोधनाः।
ऋपयो राजशार्दूलम् अपृच्छंस्तत् प्रयोजनम्॥॥४॥
ऋपयः -
केन भद्र विनाऽर्थेन तपोवनमुपागतः।
पदातिवद्धनिस्त्रिंशो धन्वी वाणी जनेश्वर॥५॥
एतदिच्छाम विज्ञातुं कुतः प्राप्तोऽसि मानद।
कस्मिन् कुले तु जातस्त्वं किन्नामा चासि ब्रूहि नः॥६॥
भीष्मः -
ततस्स राजा सर्वेभ्यो द्विजेभ्यः पुरुषर्षभ।
आचख्यौ तद्यथावृत्तं परिचर्यां च भारत॥॥७॥
सुमित्रः -
हेहयानां कुले जातस् सुमित्रोऽमित्रकर्शनः।
चरामि मृगयूथानि बाणैर्निन्नन् सहस्रशः॥८॥
बलेन महता ब्रह्मन सामात्यस्सावरोधकः।
मृगस्तु विद्रो बाणेन मया सरति शल्यवान्॥९॥
तं द्रवन्तमनुप्राप्तो वनमेतद्यदृच्छया।
भवत्सकाशं श्रीर् हताशश्श्रमकर्शितः॥१०॥
किं नु दुःखमतोऽन्यद्वै यदहं श्रमकशितः।
भवतामाश्रमं प्राप्तो हताशो भ्रष्ट्रलक्षणः॥११॥
न राजलक्षणत्यागः पुनरस्य तपोधनाः।
दुःखं करोति मे तीव्रं यदाऽऽशा विहतामम॥१२॥
हिमवान् वा महाशैलस् समुद्रो वा महोदधिः।
महत्त्वान्नानुपद्येत रोदस्योरन्तरं यथा॥१३॥
आशायास्तपसि श्रेष्ठास् तथा नान्तमहं गतः।
भवतां विदितं सर्व सर्वज्ञा हि तपोधनाः॥१४॥
भवन्तस्सुमहाभागास् तस्मात् पृच्छामि संशयम्॥१४॥
आशावान् पुरुषो यस्स्याद् अन्तरिक्षमथापि वा।
किं नु ज्यायस्तरं लोके महत्त्वे प्रतिभाति वः॥१५॥
एतदिच्छामि तत्त्वेन श्रोतुं किमपि दुर्लभम् ॥१६॥
यदि गुह्यं न वो नित्यं मम ते मा चिरम्।
न हि गुह्यतमं श्रोतुम् इच्छामि द्विजपुङ्गवाः ॥१७॥
भवत्तपोविघातो वा येन स्याद्विरमे ततः।
यदि वाऽस्ति कथायोगो योऽयं प्रश्नो मयेरितः॥१८॥
एतत् कारणसामग्र्यं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः।
भवन्तो हि तपोनित्या ब्रूयुरेतत् समाहिताः॥१९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५७॥
॥८६ ॥राजधर्मपर्वणि अष्टसप्ततितसोऽध्यायः ॥ ७८ ॥
[ अस्मिन्नध्याये १९ श्लोकाः ]
॥
अष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥
बदरिकाश्रमं गतस्य अपभस्य तनुनामकेन महर्षिणा सह संवादः ॥१॥ वने नष्टपुत्रान्वेषणवशात्तत्रोपागतेन-वीरद्युम्नेन राज्ञा तनुं प्रति आशाया ज्यायः किमिति प्रश्नः ॥२॥ कृशेन मुनिना वीरद्युम्ननृपं प्रति दुर्लभवस्तुनः कृशतराशायाश्च प्रतिपादनम् ॥ ३॥
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भीष्मः -
ततस्तेषां समेतानाम् ऋपीणामृषिसत्तमः।
ऋषभो हेहयाधीशं448 स्मयन्नेवमथाब्रवीत् ॥१॥
पुराऽहं राजशार्दूल तीर्थान्यनुचरन् प्रभो।
समासादितवान् दिव्यं नरनारायणाश्रमम्॥॥२॥
यत्र सा बदरी रम्या सरो वैहायसं तथा।
यत्र चाश्वशिरा राजन् वेदान पठति शाश्वतान्॥३॥
तस्मिन सरसि कृत्वाऽहं विधिवत्तर्पणं
पितॄणां देवतानां च तत्राश्रममियां तदा ॥४॥
रेमातेऽरजसौ यत्र नरनारायणावृपी।
अदूरादाश्रमात् किञ्चिद् वासार्थमगमं ततः॥५॥
तत्र चीराजिनवरं कृशमुचमतीव च।
अद्राक्षमृपिमायान्तं तनुं नाम तपोनिधिम्॥६॥
अन्यैनरैर्महावाहो वपुपाऽप्रतिमं तदा।
कृशता चापि राजपे न दृष्टा तादृशी मया॥७॥
शरीरमपि राजेन्द्र तनु कानिष्ठिकासमम्।
ग्रीवा बाहू तथा पादौ केशाश्चाद्भुतदर्शनाः॥८॥
शिरः कायानुरूपं च कर्णी नेत्रे तथैव च।
तस्य वाक् चैव चैा च सामान्ये राजसत्तम॥९॥
दृष्ट्वाऽहं तं कृशं विषं भीतःपरमदुर्मनाः।
पाठौ तस्याभिवाद्याथ स्थितः प्राञ्जलिरग्रतः॥१०॥
निवेद्य नाम गोत्रं च तथा कार्यं नरर्षभ।
प्रदिष्टेचासने तेन शनैरहमुपाविशम्॥॥११॥
ततस्स कथयामास धर्मार्थसहिताः कथाः।
ऋषिमध्ये महाराज तत्र धर्मभृतां वरः॥१२॥
तस्मिंस्तु कथयत्येव राजा राजीवलोचनः।
उपायाज्जवनैरश्वैस् सबलस्सावरोधनः॥१३॥
स्मरन् पुत्रमरण्येषु नष्टं परमदुर्मनाः।
भूरिद्युम्नपिताधीमान् नृपश्रेष्ठो महायशाः॥१४॥
इह द्रक्ष्यामि तं पुत्रं द्रक्ष्यामीहेति भारत।
एवमाशाकृशो राजा चरन् वनमिदं पुरा॥१५॥
दुर्लभस्स मया द्रष्टुं भूय एव च धार्मिकः।
एकःपुत्रो महारण्ये नष्ट इत्यसकृत् तदा॥१६॥
न स शक्यो मया द्रष्टुम् आशा च महती मम।
तया परीतगात्रोऽहं मुमूर्षुर्नात्र संशयः॥१७॥
एतच्छ्रुत्वा तु भगवांस् तनुर्मुनिवरोत्तमः।
अवाक्शिरा ध्यानपरो मुहूर्तमवतस्थिवान्॥१८॥
तमनुध्यातमालक्ष्य राजा परमदुर्मनाः।
उवाच वाक्यं दीनात्मा मन्दमन्दमिवासकृत्॥१९॥
राजा-
दुर्लभं किं नु विप्रर्षे आशायाश्चैव किं महत्।
ब्रवीतु भगवानेतद् यदि गुह्यं न चेत् तदा॥॥२०॥
तनुः—
महर्षिर्भगवांस्तात पूर्वमासीद्विमानितः।
बालिशां बुद्धिमास्थाय मन्दभाग्यतयाऽऽत्मनः॥२१॥
अर्थयन् कलशं राजन् काञ्चनं वल्कलानि च।
निर्विणस्स तु राजर्पिर निराशस्समपद्यत॥२२॥
ऋषभः
एवमुक्तोऽभिवाद्याथ तमृपिं लोकसत्कृतम्।
श्रान्तो न्यपदद्धर्मात्मा यथा त्वं नरसत्तम॥२३॥
अर्घ्यंततस्समानीय पाद्यं चैव महायशाः।
आरण्यकेन विधिना राज्ञे सर्व न्यवेदयत्॥२४॥
ततस्तमृपयस्सर्वे परिवार्य नरर्षभम्।
उपाविशन् पुरस्कृत्य सप्तर्पय इव ध्रुवम्॥२५॥
अपृच्छंश्चैव तं तत्र राजानमपराजितम्।
प्रयोजनमिदं सर्वम् आश्रमस्य प्रवेशने449 ॥२६॥
राजाः -
वीर्यम् इति ख्यातो राजाऽहं दिनु विश्रुतः।
भूरिद्यनं सुतं नष्टम् अन्वेष्टुंवनमागतः॥२७॥
एकःपुत्रस्स विप्राग्य वाल एव च सोऽनघः।
न दृश्यते वने ह्यस्मिंस् तमन्वेष्टुं चराम्यहम्॥॥२८॥
ऋषभः-
इत्युक्ते तेन वचने राज्ञा मुनिरधोमुखः।
तूष्णीमेवाभवत्तत्र न च प्रत्युक्तवान नृपम्॥२९॥
स हि तेन पुरा विप्रो राज्ञा नात्यर्थमानितः।
आशाकृशश्च राजेन्द्र तपो दीर्घ समास्थितः॥३०॥
प्रतिग्रहमहं राज्ञां न करिष्ये कथञ्चन।
अन्येषां चैव वर्णानाम् इति कृत्वा धियं तदा॥३१॥
आशा हि पुरुपं वालम् आलापयति तस्थुषी।
तामहं व्यपनेष्यामि इति कृत्वा व्यवस्थितः॥३२॥
राजा-
आशायाःकिं च वृत्तं वै किञ्चेह भुवि दुर्लभम्।
ब्रवीतु भगवानेतत् त्वं हि धर्मार्थदर्शिवान॥३३॥
ऋषभः-
ततस्संस्मृत्य तत् सर्वं स्मारयिष्यन्निवात्रवीत्।
राजानं भगवान विप्रस् तपः कृशतनुस्तदा॥३४॥
ऋषिः-
कृशत्वेन तदा राजन्नाशायास्सदृशीन च।
तस्या वै दुर्लभत्वाच्च पार्थिवः प्रार्थितो मया॥३५॥
राजा-
कृशाकृशे मया ब्रह्मन् गृहीते वचनात्तव।
दुर्लभत्वं च तस्यैव वेदवाक्यमिवाद्विजे॥॥३६॥
संशयस्तु महाप्राज्ञ सञ्जातो हृदये मम।
तन्मे सत्तम तत्त्वेन वक्तुमर्हसि पृच्छतः॥३७॥
त्वत्तः कृशतरं किं नु ब्रवीतु भगवानिदम्।
यदि गुह्यं न ते विप्र लोके किञ्चैव दुर्लभम्॥३८॥
ऋषिः-
दुर्लभोऽप्यथवा नास्ति योऽर्थी धृतिमवाप्नुयात्।
सुदुर्लभतरस्तात योऽर्थिनं नावमन्यते॥३९॥
संश्रुत्य नोपक्रियते परं शक्त्या यथार्थतः।
भक्त्या यस्सर्वभूतेषु साऽऽशा कृशतरी मया॥४०॥
नृशंसेषु च या सक्ता कृतन्नेष्वलसेषु च।
अपकारिपु या सक्ता साऽऽशा कृशतरी मता॥४१॥
एकपुत्रः पिता पुत्रे न वा प्रोपितेऽपि वा।
प्रवृत्ति यो न जानाति साइडशा कृशतरी मता450॥४२॥
प्रदानकाङ्क्षिणीनां च कन्यानां वयसि स्थिते।
श्रुत्वा कथास्तथा तास्तास् साऽऽशा कृशतरी मता॥४३॥
प्रसवे53 चैव नारीणां पुत्राणां पुत्रकारिता451।
तथा नरेन्द्र धनिनां साऽऽशा कृशतरी मता॥४४॥
ऋषभः -
एतच्छ्रुत्वा ततो राजन स राजा सावरोधनः।
संस्पृश्य शिरसा पादौ निपपात द्विजपभे॥४५॥
राजा-
प्रसाद ये त्वां भगवन पुत्रेणेच्छामि सङ्गमम्।
वृणीष्व च वरान् विप्र यानिच्छसि यथाविधि॥४६॥
ऋषभः-
अब्रवीचैव तद्वाक्यं राजा राजीवलोचनः॥४६॥
राजा -
सत्यमेतद्यथा विप्र यथोक्तं नान्यथा मृपा॥४७॥
ऋषभः-
ततः प्रहस्य भगवांस् ततो धर्मभृतां वरः।
पुत्रमस्यानयत्452 क्षिप्रं तपसा च श्रुतेन च॥४८॥
तं समानाय्य पुत्रं तु ततो लभ्य च भूपतिः।
आत्मानं दर्शयामास धर्म धर्मभृतां वरः॥॥४९॥
स दर्शयित्वा चात्मानं दिव्यमद्भुतदर्शनम्।
विपाप्मा विगतक्रोधश् चचार वनमन्तिकात्॥५०॥
एतद्दृष्टं मया राजंस् त्वत्तश्च वचनं श्रुतम्।
आशामपानय त्वं च ततः कृशतरीमिमाम्॥५१॥
भीष्मः -
स तथोक्तस्तदा राजन्नृपभेण महात्मना।
सुमित्रोऽपानयत् क्षिप्रम् आशां कृशतरी तदा॥५२॥
एवं त्वमपि कौन्तेय श्रुत्वा वाणमिमां मम।
स्थिरो भव महाराज हिमवानिव निश्चलः॥५३॥
त्वं हि श्रुत्वा च दृष्ट्वा च कृच्छ्रेष्वर्थेषु तेविह।
श्रुत्वा मम महाराज न सन्तनुमिहानि॥५४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८ ॥
॥ ८६ ॥ राजधर्मपर्वणि एकोनाशीतितमोऽध्यायः ॥ ७९ ॥
[ अस्मिन्नध्याये ५४ लोकाः]
॥ एकोनविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
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यमेन गौतमं प्रति मातापित्रोः परिचर्यायास्तहणापनोदनीपायत्वकथनम् ॥
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युधिष्टिरः-
नामृतस्येव पर्याप्तिर् ‘यथाऽस्ति453 ब्रुवति त्वयि।
तस्मात् कथय भूयोऽपि त्वं ममेह पितामह॥१॥॥
भीष्मः -
अत्राप्युदाहरन्तीमम इतिहासं पुरातनम्।
गौतमस्य च संवाई यमस्य च महात्मनः॥२॥
पारियात्रं गिरिं प्राप्य गौतमस्याश्रमो महान\।
वसते गौतमो यत्र तपसा दुग्धकिल्विपः॥३॥
पनि वर्षसहस्राणि सोडत प्यौतमस्तपः।
तमुग्रतपसा युक्तं भावितं तपसा मुनिम्॥४॥
उपयातो नरव्यात्र लोकपालो यमस्तदा।
तमपश्यत् सुतपसं स मुनिगतमस्तदा॥५॥
स तं विदित्वा ब्रह्मर्पिर यममागतमोजसा।
प्राञ्जलिःप्रणतो भूत्वा उपसृतस्तपोधनः॥६॥
तं धर्मराजो दृष्ट्वैव नमस्कृत्य द्विजोत्तमम् ।
न्यमन्त्रयत धर्मेण क्रियतां किमिति ब्रुवन ॥७॥
गौतमः-
मातापितृभ्यामानृण्यं गत्वा सुखमवाप्नुयात् ।
कथं च लोकानाप्नोति पुरुषो दुर्लभाञ् शुभान ॥८॥
यमः -
तपश्शौचवता नित्यं सत्यधर्मरतेन च ।
मातापित्रोरहरहः पूजनं कार्यमञ्जसा ॥९॥
अश्वमेधश्च यद्रव्यो बहुभिस्स्वानदक्षिणैः ।
तेन लोकानवाप्नोति पुरुषोऽद्भुतदर्शनान् ॥१०॥
इति श्रीमहाभारते शतसाहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि एकोनविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११९ ॥
॥ ८६ ॥ राजधर्मपर्वणि अशीतितमोऽध्यायः ॥ ४० ॥
[ अस्मिन्नध्याये १० श्लोकाः ]
————
॥ विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥
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भीष्मेण युधिष्टिरं प्रति राज्ञा ब्रह्मस्ववर्ज आपदि प्रजापीडनेनापि कोशवृद्धेरवश्यं कर्तव्यत्वोक्तिः ॥
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युधिष्टिरः -
मित्रैः प्रहीयमानस्य वह्नमित्रस्य का गतिः।
राज्ञस्सइङ्क्षीणकोशस्य बलहीनस्य भारत॥१॥
दुष्टामात्यसहायस्य श्रुतमन्त्रस्य सवेशः।
राज्यात् प्रच्यवमानस्य गतिमन्यामपश्यतः॥२॥
परचक्राभियातस्य दुर्बलस्य बलीयसा\।
असंविहितराष्ट्रस्य देशकालावजानतः॥३॥॥
अप्राप्यं च भवेन् सान्त्वं भेदो वाऽप्यतिपीडनान्
जीवितं चार्थहेतोच तत्र किं सुकृतं भवेत्॥४॥
भीष्मः-
गुह्यं मा धर्ममप्राक्षीर अतीव भरतर्षभ।
प्रवक्तुं नोत्सहे पृष्ठो धर्ममेतं युधिष्ठिर॥५॥
धर्मो ह्यणीयान वचनाद् बुद्धेश्च भरतर्षभ।
श्रुत्वौपम्यं454 सदाचारैस् सानुर्भवति स क्वचित्॥६॥
कर्मणा बुद्धिपूर्वेण भवयायो न वा पुनः।
तादृशोऽयमनुप्रश्नस् तद्यायस्व स्वया धिया॥७॥
उपायं धर्मबहुलं यात्रार्थ शृणु भारत।
नाहमेतादृशे धर्मे बुभूपे धर्मकारणात्॥८॥
दुःखादान इव ह्येष स्यात् तु पश्चात् क्षमो मम।
अनुगम्य गतीनां हि सर्वासामेव निश्चयम्॥९॥
यथा यथा हि पुरुषो नित्यं शास्त्रमवेक्षते।
तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते॥१०॥
अविज्ञानादयोगश्च पुरुषस्योपजायते।
अविज्ञानादयोगो हि योगे भूतिमुखं परम्॥११॥
अशङ्कमानो वचनम् अनसूयन्निदं शृणु।
राज्ञः कोशल्यादेव जायते वलसङ्क्षयः॥१२॥
कोशं सञ्जनयेद्राजा नित्यमेभ्यो यथावलम्।
कालं प्राप्यानुगृहीयाद् एप धर्मोऽत्र साम्प्रतम्॥१३॥
उपायधर्म प्राध्यैनं पूर्वराचरितं जनैः।
अन्यो धर्मस्समर्थानाम् आपत्स्वन्यच भारत॥१४॥
प्रकार्यं प्रोच्यते धर्मो वृत्तिर्धर्मे गरीयसी।
धर्म प्राप्य यथान्यायं अवलीयान् न निन्दति॥१५॥
तस्माद्धर्मस्योपचितिर् एकान्तेन न विद्यते।
तस्मादापद्यधर्मोऽपि श्रूयते धर्मलक्षणः॥१६॥
अधर्मो जायते यस्मिन्निति वै कवयो विदुः।
अनन्तरं क्षत्रियस्य तत्र किं विचिकित्ससे॥१७॥
यथाऽस्य धर्मो न ग्लायेन्नेयाच्छब्रुवशं यथा।
तत् कर्तव्यमिहेत्याहुर् नात्मानमवसादयेत्॥१८॥
स स्वात्मनैव धर्मस्य न परस्य न चात्मनः।
सर्वोपायैरुज्जिहीपेंद् आत्मानमिति निश्चयः॥१९॥
तत्र धर्मविस्तात निश्चयो धर्मनैपुणैः।
उद्यमाज्जीवनं455 क्षात्रे बाहुवीर्यादिति श्रुतिः॥२०॥
क्षत्रियो वृत्तिसंरोधे कस्मान्नादातुमर्हति।
अन्यत्र तापसस्वाच्च श्रोत्रियस्वाच्च भारत॥२१॥
तथा च ब्राह्मणस्सीदन्नयाज्यमपि याजयेन्।
अभोज्यमपि चाश्नीयान् तथैतन्नात्र संशयः॥२२॥
पीडितस्य किमद्वारम् उत्पथेनार्दितस्य च।
अद्वारतःप्रवति यदा भवति पीडितः॥२३॥
तस्य कोशबलग्लान्यां सर्वलोकपराभवः।
भैक्षचर्या न विहिता न च विशूद्रजीविका॥२४॥
स्वधर्मानन्तरा वृत्तिर् याऽन्यामनुपजीवतः।
जहतः प्रथमं कल्पम् अनुकल्पेन जीवनम्॥२५॥
आपद्गतेन धर्माणाम अन्यायेनोपजीवनम्।
अपि ह्येतद्राह्मणेषु दृष्टं वृत्तिपरिक्षये॥२६॥
क्षत्रिये संशयः कस्माद् इत्येतन्निश्चितं सदा॥२६॥
आददीत विशिप्रेभ्यो नावसीदेत् कथ़ञ्चन॥२७॥
आर्तानां रक्षितारं च प्रजानां क्षत्रियं विदुः।
तस्मात् संरक्षता कार्यम् आदानं क्षत्रबन्धुना॥२८॥
अन्यत्रापि विहिंसाया वृत्तिर्नेहास्ति कस्यचित्॥२८॥
अप्यरण्यसमुत्थस्य चैकस्य घरतो मुनेः।
न शङ्कलिखितां वृत्तिं शक्यमास्थाय जीवितुम्॥२९॥
विशेषतः कुरुश्रेष्ठ प्रजापालनमीप्सता\।
परद्रव्यम्य456 हरणं राज्ञा राष्ट्रेण चापदि॥३०॥
नित्यमेव हि कर्तव्यम् एप धर्मम्सनातनः॥३१॥
राजा राष्ट्रं यथा यावद् द्रव्योधैः परिरक्षति।
राष्ट्रेण राजा नित्यं च परिरक्ष्यस्तथा भवेत्॥३२॥
कोशंदण्डं बलं मित्रं यद्न्यदपि सञ्चितम्।
न कुर्वीतान्तरं राजा राष्ट्र परिगते क्षुधा॥३३॥
बीजं भक्तेन सन्तार्यम् इति धर्मविदो विदुः।
अत्रैतच्छुम्वरस्याहुर् महामायस्य दर्शनम्॥३४॥
धिक् तस्य जीवितं रात्र राष्ट्रं यस्यावसीदति।
अवृत्या तन्मनुष्योऽपि यो वेदौशनसं वचः॥३५॥
राजः कोशवलं मूलं कोशमूलं पुनत्रैलम।
तन्मूलं सर्वधर्माणां धर्ममूलाः प्रजा457 ध्रुवम्॥३६॥
नान्यानपीडयित्वेह कोशरशक्यः कुतो बलम्।
तदर्थं पीडयित्वा च न दोषं प्राप्तुमर्हति॥३७॥
अकार्यमपि458 कार्यार्थ क्रियते यत्र कर्मसु।
एतस्मिन कारणे राजा न दोषं प्राप्तुमर्हति॥३८॥
अर्थार्थमन्यद्भवति विपरीतमथापरम्।
अनर्थार्थमश्राप्यन्यत् तत्सर्वार्थकारणम्॥३९॥
एवं बुद्ध्या सम्प्रपश्येन्मेधावी कार्य दर्शनम459॥३९॥
यज्ञार्थमन्यद्भवति यज्ञोऽन्यार्थस्तथा परः।
यज्ञम्यान्यार्थमेवान्यत् तत् सर्वंह्यर्थसाधकम्460॥४०॥
उपमामत्र वक्ष्यामि तत्त्वधर्मप्रकाशिनीम्॥४१॥
यूपं छिन्दन्ति यज्ञार्थं तत्र ये परिपन्थिनः।
द्रुमाः केचन सामन्ता ध्रुवं छिन्दन्ति तानपि॥४२॥
ते चापि निपतन्तोऽन्यान्निघ्नन्त्यपि वनस्पतीन्॥४२॥
एवं कोशस्य महतो ये नराः परिपन्थिनः।
न तानहत्वा पश्यामि सिद्धिमत्र परन्तप॥४३॥
धनेन जयते लोकम्इमं चामुं च भारत।
सत्यं च धर्मवचनं यथा नास्यधनस्तथा॥४४॥
सर्वोपायैरादीत धनं यज्ञप्रयोजनम्।
न तुल्यदोषस्स्यादेवं कार्याकार्येषु भारत॥४५॥
नोभौ सम्भवतो राजन्कथञ्चिदपि भारत।
न ह्यरण्येषु पश्यामि धनवृद्धानहं क्वचित्॥४६॥
यदिदं दृश्यते वित्तं पृथिव्यामिह किञ्चन।
ममेदंस्यान्ममेदं स्याद्इति यन्मन्यते जनः॥४७॥
न च राज्ञस्समोधर्मः कश्चिदस्ति कथञ्चन।
धर्मस्संशब्दितोराज्ञाम्आपदर्थस्ततोऽन्यथा॥४८॥
ज्ञानेन कर्मणा चान्येतपसा461 च तपस्विनः।
वृद्ध्या दाक्ष्येण चैवान्ये चिन्वन्ति धनसञ्चयान्॥४९॥
अधनं दुर्बलं प्राहुर्धनेन बलवान्भवेत्।
सर्व बलवतः462 प्राप्यं सर्वं तरति कोशवान्॥५०॥
कोशो धर्मश्च कामश्च परलोकस्तथा ह्ययम्॥५१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
शान्तिपर्वणि विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः॥१२०॥
॥८६॥राजधर्मपर्वणि एकाशीतितमोऽध्यायः॥८१॥
[अस्मिन्नध्याये ५१ श्लोकाः ]
॥राजधर्मपर्व समाप्तम्॥
॥ शान्तिपर्वणि प्रथमसम्पुटे ५०५३ ॥ श्लोकाः ॥
______
अतः परं शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वभविष्यति।
तस्यायमाद्यश्लोकः—
युधिष्टिरः—
क्षीणस्य दीर्घसूत्रस्य सानुक्रोशम्य बन्धुषु।
परिशङ्कितमुख्यस्य दुष्टमन्त्रस्य भारत॥१॥
**॥ श्रीः ॥
महाभारतशान्तिपर्वस्थानामशुद्धानां शोधनम्**
[TABLE]
]
-
“1. ख – हता” ↩︎
-
“2. क च समिता कध्ये खसहितो कथ्यं न च” ↩︎
-
“1. ख - विद्वेषिजीवनः घ- जीवनः” ↩︎
-
“1. क घ - अन्धयत्ययम् खमा धर्मयत्ययम्” ↩︎
-
“1. अ - विधित्सितुम्” ↩︎
-
॑ “1. क घ - दृक्ष्यन्ति ख दृध्यन्ति” ↩︎
-
“1. क – न रुभ्यते ख घ - निरुध्यते” ↩︎
-
“2. अतं” ↩︎
-
“1. मातृकासु ‘वैकालिके वाहम्’ इति वर्तते; उदीच्यपाठस्तु’वैकोऽहमेकाहम्’ इति” ↩︎
-
“2. ख घ - प्रशान्तात्मा” ↩︎
-
“क- अहिंस्त्रांश्च” ↩︎
-
“अ - अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“क ख घ - नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“घ - औदनाः” ↩︎
-
“क घ - नियोगाश्चैव” ↩︎
-
“क घ -प्रणवं” ↩︎
-
“घ - इदमर्धंनास्ति” ↩︎
-
अ–क–ब्रह्ममृत्यू%20च%20राजन्%20द्वावात्मन्येव%20समाश्रिता।%20%5Bपाठान्तरम्%20%5D%20%C2%A0%20%C2%A0%20घ–जन्ममृत्यू%20तु%20राजा%20द्वौ%20वाचान्येन%C2%A0%5Bपाठान्तरम् ↩︎
-
“क – कर्म” ↩︎
-
" क- घ – बलेन" ↩︎
-
“घ-आत्म” ↩︎
-
“क च - मनीषिभिः” ↩︎
-
“अन्घ - गोः पाते च” ↩︎
-
“अ - अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“क-पापाः” ↩︎
-
" अ क घ - अर्धत्रयंनास्ति" ↩︎
-
“क - गृहानि” ↩︎
-
" घ - उपेक्ष मा च ते " ↩︎
-
“अ - सदैव न च” ↩︎
-
“ख – कश्चिद्दुः खे वर्तमानः सुखस्य स्मर्तुमृच्छति। [ अधिकः पाठः ]” ↩︎
-
" ख - आत्मनैकेन योद्धव्यं तत्ते युद्धमुपस्थितम् ।[अधिकः पाठः]" ↩︎
-
“ख—दावाग्नाविवदुर्हृतम् घ—दावाग्नाविव दुष्कृतम्” ↩︎
-
" ख घ - आमूलानि" ↩︎
-
सर्वेषु%20कोशेषु%20अत्रैवाध्यायसमाप्तिर्दृश्यते “सर्वेषु कोशेषु अत्रैवाध्यायसमाप्तिर्दृश्यते” ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎
-
“कच-तुष्टौतुख-तुष्टेन” ↩︎
-
“ख- घ - दम” ↩︎
-
“ख - शर्म घ-शम " ↩︎
-
ख—गृहिणं%20हि%20सदा%20देवाः%20पितरोऽतिथयस्तथा।%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0भृत्याश्चैवोपलिप्स्यन्ते%20तान्%20भरस्व%C2%A0महीपते॥%C2%A0%5Bअधिकः%20पाठः%5D “ख—गृहिणं हि सदा देवाः पितरोऽतिथयस्तथा। भृत्याश्चैवोपलिप्स्यन्ते तान् भरस्वमहीपते॥[अधिकः पाठः]” ↩︎
-
सर्वेषु%20कोशेषु%20अत्रैवाध्यायसमाप्तिर्दृश्यते। “सर्वेषु कोशेषु अत्रैवाध्यायसमाप्तिर्दृश्यते।” ↩︎
-
" क ख घ - विस्मयो” ↩︎
-
“अ-क - योगिनो” ↩︎
-
“क ख - न्नाजि घ-न्वाजि” ↩︎
-
" ख – अर्धद्वयं नास्ति" ↩︎
-
“ख — ख जित्वा सङ्ग्रामान् पालयित्वा स्वराष्ट्रं सोमं पीत्वा तर्पयित्वा द्विजाग्र्यान्। युक्त्या दण्डं धारयित्वा प्रजानां युद्धे क्षोणे मोदते देवलोके॥[अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“क- शास्त्रा” ↩︎
-
" अ - हर्ष" ↩︎
-
" घ - सुखार्ति" ↩︎
-
“अ-दुःखत” ↩︎
-
" ख - अर्धद्वयं नास्ति " ↩︎
-
“क-धक्ष्यमाणं” ↩︎
-
“ख - सुख वा यदि वा दुःखं भूतानां प्रत्युपस्थितम्। प्राप्तव्यमेव तैस्सर्वं परिहारो न विद्यते ॥[अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“क घ शास्त्राणि” ↩︎
-
" अ-क-घ - शक्राप्रियैषिणं" ↩︎
-
॑ “अ-क ख - बृहस्पतिः” ↩︎
-
%20%C2%A0ख—%C2%A0%20%20अयज्वानमदाक्षिण्यं%20श्वैत्य%20संशाम्य%20मा%20शुचः।%20अङ्गं%20बृहद्रथं%20चैव%20मृतं%20सृञ्जय%20शुश्रुम॥%20%20यस्सहस्रं%20सहस्राणां%20श्वेतानश्वानवासृजत्॥%20%20सहस्रं%20च%20सहस्राणां%20कन्या%20हेमविभूषिताः।%20ईजानो%20वितते%20यज्ञे%20दक्षिणा%20अत्यकालयत्॥%20%20शतं%20शतसहस्त्राणां%20वृषाणां%20हेममालिनाम्।%20गवां%20सहस्रानुचरा%20दक्षिणा%20अत्यकालयत्॥%20%20अङ्गस्य%20यजमानस्य%20तदा%20विष्णुपदे%20गिरौ।%20अमाद्यदिन्द्रस्सोमेन%20दक्षिणाभिर्द्विजातयः॥%20%20यस्य%20यज्ञेषु%20राजेन्द्र%20शतसंख्येषु%20वै%20पुरा।%20देवान्%20मनुष्यान्%20गन्धर्वान्%20अत्यरिच्यन्त%20दक्षिणाः॥%20%20न%20जातो%20जनिता%20वाऽन्यः%20पुमान्%20कस्तत्%20प्रदास्यति।%20यदङ्गः%20प्रददौ%20वित्तं%20सोमसंस्थासु%20सप्तसु॥%20%20स%20चेन्ममार%20सृञ्जय%20चतुर्भद्रतरस्त्वया।%20पुलात्%20पुण्यतरस्तुभ्यं%20मा%20पुत्रमनुतप्यथाः%20॥%20%5B%20अधिकः%20पाठः%20%5D " ख— अयज्वानमदाक्षिण्यं श्वैत्य संशाम्य मा शुचः। अङ्गं बृहद्रथं चैव मृतं सृञ्जय शुश्रुम॥ यस्सहस्रं सहस्राणां श्वेतानश्वानवासृजत्॥ सहस्रं च सहस्राणां कन्या हेमविभूषिताः। ईजानो वितते यज्ञे दक्षिणा अत्यकालयत्॥ शतं शतसहस्त्राणां वृषाणां हेममालिनाम्। गवां सहस्रानुचरा दक्षिणा अत्यकालयत्॥ अङ्गस्य यजमानस्य तदा विष्णुपदे गिरौ। अमाद्यदिन्द्रस्सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः॥ यस्य यज्ञेषु राजेन्द्र शतसंख्येषु वै पुरा। देवान् मनुष्यान् गन्धर्वान् अत्यरिच्यन्त दक्षिणाः॥ न जातो जनिता वाऽन्यः पुमान् कस्तत् प्रदास्यति। यदङ्गः प्रददौ वित्तं सोमसंस्थासु सप्तसु॥ स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया। पुलात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः ॥ [ अधिकः पाठः ]" ↩︎
-
“ख – तेजसम् " ↩︎
-
" क ख घ - त्रिंशतो” ↩︎
-
ख–अर्धद्वयं%20नास्ति “ख–अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎ ↩︎
-
“ख– सुसुखमेवा घ-सुषुममेवा” ↩︎
-
ख–आसन्%20वर्षसहस्राश्च%20तथा%20पुत्रसहस्रिणः%20।%20%C2%A0%20%C2%A0अरोगास्सर्वसिद्वार्थी%20रामे%20राज्यं%20प्रशासति%20॥%20%5Bअधिकः%20पाठः%5D “ख–आसन् वर्षसहस्राश्च तथा पुत्रसहस्रिणः । अरोगास्सर्वसिद्वार्थी रामे राज्यं प्रशासति ॥ [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“क ख घ - शकश्रेष्ठाउपासते” ↩︎
-
“क ख घ - किमयं” ↩︎
-
“ख - अयं पादोऽनन्तरश्च न स्तुः " ↩︎
-
“क ख - घ - ययु” ↩︎
-
ख—अयं%20पादोऽनन्तरश्च%20न%20स्तः “ख—अयं पादोऽनन्तरश्च न स्तः” ↩︎
-
ख–अयं%20पादोऽनन्तरश्च%20न%20स्तः%C2%A0 “ख–अयं पादोऽनन्तरश्च न स्तः” ↩︎ ↩︎
-
ख–अयं%20पादोऽनन्तरश्च%C2%A0न%20स्तः “ख–अयं पादोऽनन्तरश्चन स्तः” ↩︎
-
“क-घ - प्रसादाद ख- प्रभावाद " ↩︎
-
“क ख घ - सो” ↩︎
-
%20ख–अयं%20पादोऽनन्तरश्च%20न%20स्तः " ख–अयं पादोऽनन्तरश्च न स्तः” ↩︎
-
“क ख घ – त्रास्यतीति” ↩︎
-
“क-घ - लब्धख- लुब्धं” ↩︎
-
“अ-क-घ-चैद्य” ↩︎
-
“क ख घ - सन्निभा” ↩︎
-
" क - नारदः” ↩︎
-
“क घ - मानवाश्चान्ये " ↩︎
-
अ–क–घ–नास्तीदमर्धम्%20%C2%A0 “अ–क–घ–नास्तीदमर्धम् " ↩︎
-
%C2%A0अ–क–घ–अर्धद्वयं%20नास्ति “अ–क–घ–अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“ख घ - राजविभूत्यर्थं” ↩︎
-
ख—सृञ्जयश्च%20यथाकामं%20प्रविवेश%20स्वकं%20गृहम्।%20%5Bअधिकः%20पाठः%20%5D “ख—सृञ्जयश्च यथाकामं प्रविवेश स्वकं गृहम्। [अधिकः पाठः ]” ↩︎
-
“क ख घ - बभूव बलवृतहा” ↩︎
-
॑ “क घ - पार्थिव ख- पाण्डव” ↩︎
-
अ–शुभाशुभफलं%20चेमे%20प्राप्नुवन्तीति%20मे%20मतम्। “अ–शुभाशुभफलं चेमे प्राप्नुवन्तीति मे मतम्।” ↩︎
-
“क ख घ - ऽस्ति” ↩︎
-
ख़–नास्तीदमर्धम् “ख़–नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
ख–स्त्रीशूद्रवधको%20यश्च%20पूर्वापूर्वस्तु%20गर्हितः।%20वृथा%20पशुसमालम्भी%20वनदाहस्य%20कारकः।%20अनृतेनोपवक्ता%20च%20प्रतिषेद्वा%20गुरोस्तथा।%20यश्चाग्नीनपविध्येत%20तथैव%20ब्रह्मविक्रयी॥%20%5Bअधिकः%20पाठः%5D “ख–स्त्रीशूद्रवधको यश्च पूर्वापूर्वस्तु गर्हितः। वृथा पशुसमालम्भी वनदाहस्य कारकः। अनृतेनोपवक्ता च प्रतिषेद्वा गुरोस्तथा। यश्चाग्नीनपविध्येत तथैव ब्रह्मविक्रयी॥ [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“क ख घ - लुम्पन्त्यथ” ↩︎
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“क- सूयते ख-घ-दूयते” ↩︎
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ख–कर्मभ्यो%20विप्रमुच्यन्ते%20यतास्संवत्सरं%20स्त्रियः।%20महाव्रतं%20चरेद्यस्तु%20दद्यात्%20सर्वस्वमेव%20वा॥%20गुर्वर्थोवा%20हतो%20युद्धे%20स%20मुच्येत्%20कर्मणोऽशुभात्॥%20%5B%20अधिकः%20पाठः%20%5D “ख–कर्मभ्यो विप्रमुच्यन्ते यतास्संवत्सरं स्त्रियः। महाव्रतं चरेद्यस्तु दद्यात् सर्वस्वमेव वा॥ गुर्वर्थोवा हतो युद्धे स मुच्येत् कर्मणोऽशुभात्॥ [ अधिकः पाठः ]” ↩︎
-
ख—परदारोपसेवी%20च%20परस्यापहरेद्वसु।%20संवत्सरव्रतं%20तीर्त्वा%C2%A0तथा%20मुच्येत%20किल्बिषात्॥%20%5B%20अधिकः%20पाठः%20%5D “ख—परदारोपसेवी च परस्यापहरेद्वसु। संवत्सरव्रतं तीर्त्वातथा मुच्येत किल्बिषात्॥ [ अधिकः पाठः ]” ↩︎
-
“क ख घ - अदानं” ↩︎
-
%20अ—%20उपवासेनैकरात्रं%C2%A0दण्डोत्सर्गे%20नराधिपः।%C2%A0%20विशुद्ध्येदात्मशुच्यर्थं%20त्रिरात्रं%C2%A0तु%20पुरोहितः॥%C2%A0%20%20क्षयं%20शोकं%20प्रकुर्वाणो%20न%20म्रियेत%20यदा%20नरः।%20शस्त्रादिभिरूपाविष्टस्%C2%A0त्रिरात्रं%C2%A0तत्र%C2%A0निर्दिशेत्॥%C2%A0%C2%A0%5Bअधिकः%20पाठः%5D " अ— उपवासेनैकरात्रंदण्डोत्सर्गे नराधिपः। विशुद्ध्येदात्मशुच्यर्थं त्रिरात्रंतु पुरोहितः॥ क्षयं शोकं प्रकुर्वाणो न म्रियेत यदा नरः। शस्त्रादिभिरूपाविष्टस्त्रिरात्रंतत्रनिर्दिशेत्॥[अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“क घ —बका वृकाः ख— वाकान्धका वृकाः” ↩︎
-
" क—शूक्तंख-घ-भुक्तं” ↩︎
-
“क – शूक्तं” ↩︎
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“ख— भ्रातॄंश्चघ —पुत्रांश्च” ↩︎
-
“क-ख-घ—सुहृदां चास्मदीयानां” ↩︎
-
ख—अभियाने%20तु%20पार्थस्य%20नरैर्नगरवासिभिः।%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0नगरं%20राजमार्गश्च%20यथावत्समलङ्कृतम्॥ “ख—अभियाने तु पार्थस्य नरैर्नगरवासिभिः। नगरं राजमार्गश्च यथावत्समलङ्कृतम्॥” ↩︎
-
ख—संवृतो%20राजमार्गोऽभूद्%20धूपनैश्च%20प्रधूपितः॥%20%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20अर्धत्रयमिदं%20मूलपाठाद्%C2%A0व्यत्यासेन%20पतितम्%C2%A0 “ख—संवृतो राजमार्गोऽभूद् धूपनैश्च प्रधूपितः॥ अर्धत्रयमिदं मूलपाठाद्व्यत्यासेन पतितम्” ↩︎
-
ख–शमीपलाशसमिधः%20पृथक्%20च%20मधुसर्पिषो।%20%C2%A0%20%C2%A0%20घ–शमीपलाशपालाशसमिधो%20मधुसर्पिषी॥ “ख–शमीपलाशसमिधः पृथक् च मधुसर्पिषो। घ–शमीपलाशपालाशसमिधो मधुसर्पिषी॥” ↩︎
-
“क ख पङ्गणस्य” ↩︎
-
घ–इतष्षट्%C2%A0पादा%20न%20सन्ति “घ–इतष्षट्पादा न सन्ति” ↩︎
-
“1. क ख घ - द्धीमान्” ↩︎
-
घ–इतष्षट्रपादा%20न%20सन्ति “घ–इतष्षट्रपादा न सन्ति” ↩︎
-
घ–एकीकृतेन्द्रियग्रामं%20त्रयोविंशतिरालयः%20।%C2%A0%5Bपाठान्तरम्%20%5D “घ–एकीकृतेन्द्रियग्रामं त्रयोविंशतिरालयः ।[पाठान्तरम् ]” ↩︎
-
" क घ - वा यज्ञाख्यमन्त्रेषु " ↩︎
-
“क घ गृह्णन्ति सत्यधर्माणं ख- गृणन्ति सत्यधर्माणं” ↩︎
-
“घ - भौमस्य ब्रह्मणो गुप्त्यै” ↩︎
-
“क-घ-गर्भं” ↩︎
-
“घ - भोक्त्रात्मने” ↩︎
-
“क घ - वेदा (गेया ↩︎
-
अ—नास्तीदमर्धचतुष्टयम् “अ—नास्तीदमर्धचतुष्टयम्” ↩︎
-
अ–क–घ—अर्धद्वयंनास्ति “अ–क–घ—अर्धद्वयंनास्ति” ↩︎
-
" ख - सर्वस्य” ↩︎
-
अ–क–घ–अर्धद्वयंनास्ति “अ–क–घ–अर्धद्वयंनास्ति” ↩︎
-
अ–क–घ—अर्धद्वयं%20नास्ति “अ–क–घ—अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“क ख घ- म्लेच्छांस्तुरगवाहनः” ↩︎
-
“क- सख्यात्मनेघ-सङ्ख्यात्मने” ↩︎
-
अ–क–घ—अर्धद्वयं%20नास्ति ↩︎
-
" क - त्वामहं पुरुषोत्तम" ↩︎
-
“घ - भीष्मवाक्यगलद्बाष्पास्” ↩︎
-
“क ख घ - स्वप्नेष्वप्यनृतं " ↩︎
-
॑ “अ-शान्तं” ↩︎
-
क–ख–घ—नास्तीदमर्धम् “क–ख–घ—नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
%20घ—क्षत्रिया%20वैश्याः " घ—क्षत्रिया वैश्याः” ↩︎
-
क–घ–नास्तीदमर्धम् “क–घ–नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“क ख घ - गङ्गायामभि” ↩︎
-
“घ— श्च” ↩︎
-
॑ “क ख घ - तद्वाक्यमाज्ञाय ततः” ↩︎
-
“अ-ख-आचक्षे” ↩︎
-
%20अ–क–घ–अर्धद्वद्वयं%20नास्ति " अ–क–घ–अर्धद्वद्वयं नास्ति" ↩︎
-
घ%20—%20सर्वेषां%20दीप्तयशसां%20कुरूणां%20धर्मचारिणाम्।%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0यस्य%20नास्ति%20समः%20कश्चित्%20स%20मां%20पृच्छतु%20पाण्डवः॥%20%5Bअधिकः%20पाठः%5D “घ — सर्वेषां दीप्तयशसां कुरूणां धर्मचारिणाम्। यस्य नास्ति समः कश्चित् स मां पृच्छतु पाण्डवः॥ [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“अ-लोकस्य संस्था” ↩︎
-
“ख घ - परं धनम्” ↩︎
-
“क- ख- घ— चाप्यति” ↩︎
-
“घ- दुष्टचेष्टितम्” ↩︎
-
सर्वेषु%20कोशेषु%20अलैवाध्यायसमाप्तिर्दृश्यते “सर्वेषु कोशेषु अलैवाध्यायसमाप्तिर्दृश्यते” ↩︎
-
“अ—च” ↩︎
-
“क ख घ - परदर्शनात्” ↩︎
-
" क ख घ - तं तं" ↩︎
-
“घ — यश्चाप्यजिह्वं” ↩︎
-
“ख —देव घ —देवा” ↩︎
-
“क ख घ — चिन्ताख्यः” ↩︎
-
“ख- घ - शमो” ↩︎
-
“घ - व्यसनेषु प्रसङ्गिता” ↩︎
-
“क ख घ - समाजानां” ↩︎
-
सर्वेषु%20कोशेषु%20अवैवाध्यायसमाप्तिर्दृश्यते “सर्वेषु कोशेषु अवैवाध्यायसमाप्तिर्दृश्यते” ↩︎
-
“क-घ-मतां” ↩︎
-
“क ख ध - महत्त्वा” ↩︎
-
%20ख—तस्माच्छृद्रस्य%20वर्णानां%20परिचर्या%20विधीयते%20।%5B%20अधिकः%20पाठः%20%5D " ख—तस्माच्छृद्रस्य वर्णानां परिचर्या विधीयते ।[ अधिकः पाठः ]" ↩︎
-
“घ —वेष्टनकं चीरं” ↩︎
-
“घ - द्विजः” ↩︎
-
" क ख - घ —ताभ्यां" ↩︎
-
“क ख घ – श्रद्धा यज्ञो विधीयते” ↩︎
-
“कघ—यज्ञस्ते” ↩︎
-
अ—नास्तीदमर्धम् “अ—नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“ख- घ - घसेत् सदा” ↩︎
-
“अ – स्तान्नानुवर्तन्ते” ↩︎
-
“घ - धर्मोऽपि” ↩︎
-
“ख- घ-शास्त्रे” ↩︎
-
क–ख–घ%C2%A0%20अर्धद्वयं%20नास्ति “क–ख–घ अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
ख–सर्वे%20त्यागा%20राजधर्मेषु%20दृष्टास्%20सर्वा%20दीक्षा%20राजधर्मेपु%20दृष्टाः।%20योगा%20राजधर्मेपु%20चोक्तास्%20सर्वे%20धर्मा%20राजधर्मे%20प्रविष्टाः॥सर्वे%C2%A0%20%5Bअधिकः%20पाठः%5D “ख–सर्वे त्यागा राजधर्मेषु दृष्टास् सर्वा दीक्षा राजधर्मेपु दृष्टाः। योगा राजधर्मेपु चोक्तास् सर्वे धर्मा राजधर्मे प्रविष्टाः॥सर्वे [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“क ख - घ – लोकालोकोत्तराश्चैव” ↩︎
-
घ–नास्त्यर्धम् ↩︎
-
घ–पश्चादन्ये%20शेषभूतास्तु%20धर्माः ↩︎
-
“क ख - यतन्ते” ↩︎
-
“क ख - घ – श्च महौजसः” ↩︎
-
%20घ–अर्धद्वयं%20नास्ति " घ–अर्धद्वयं नास्ति" ↩︎
-
“क ख घ - बाहुश्रुत्यं गुरुशुश्रूषणं वा” ↩︎
-
“क ख - सर्वैर्योगै” ↩︎
-
%20ख–अर्धद्वयं%20नास्ति " ख–अर्धद्वयं नास्ति" ↩︎
-
“क ख घ - धर्मेषु” ↩︎
-
“घ—च्छस्त्रं” ↩︎
-
“अ - शीलं” ↩︎
-
“न्नपश्यन्तः परस्परम्” ↩︎
-
“घ - दस्युसाद् " ↩︎
-
“क - गर्गराः” ↩︎
-
अ–अर्धचतुष्टयं%20नास्ति “अ–अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“ख - बलवेगेन” ↩︎
-
“अ-विद्यते” ↩︎
-
" घ–क्षत्रज्ञं” ↩︎
-
" ख घ– ज्ञाने" ↩︎
-
“ख–न्नृपः” ↩︎
-
“ख– कृत” ↩︎
-
“ख—सत्कृतम्” ↩︎
-
“अ — प्राकृतेन” ↩︎
-
“घ —पुरेषुनगरस्य वा” ↩︎
-
“क घ — प्राज्ञः” ↩︎
-
“घ—देशेषु” ↩︎
-
“ख—द्वाराघ—चारं” ↩︎
-
“क ख घ —कर्शयन्तं” ↩︎
-
“ख-हतेभ्यो” ↩︎
-
“अ—स्थिराः” ↩︎
-
“ख घ — विवर्जयेत्” ↩︎
-
“ख घ —माश्रया” ↩︎
-
“अ-ख —विधेयः” ↩︎
-
“ख – कर्माणि” ↩︎
-
“क- घ — देवै” ↩︎
-
“ख - भवत्यल्प” ↩︎
-
“क घ - सर्व” ↩︎
-
ख—लोकस्य%20सीमन्तकरी%20मर्यादा%20लोकभावनी।%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20सम्यङ्नीता%20दण्डनीतिर्%C2%A0यथा%20माता%20यथा%20पिता॥%20%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20%C2%A0%20यस्यां%20भवन्ति%20भूतानि%20तद्विद्धि%20भरतर्षभ।%20%5B%20अधिकः%20पाठः%5D%C2%A0 “ख—लोकस्य सीमन्तकरी मर्यादा लोकभावनी। सम्यङ्नीता दण्डनीतिर्यथा माता यथा पिता॥ यस्यां भवन्ति भूतानि तद्विद्धि भरतर्षभ। [ अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“ख घ— त्रिगुणान्विता” ↩︎
-
“ख- घ - कोपं” ↩︎
-
“घ — नर्चयेथास्” ↩︎
-
" ख-क्षमःघ-क्षमं" ↩︎
-
“घ - मातरिश्वनः” ↩︎
-
“अ-यन्तारं” ↩︎
-
“अ - सत्कृतः प्राज्ञः” ↩︎
-
“घ - वा शशिसुर्ये च” ↩︎
-
“अ - भीतानि” ↩︎
-
" ख - गर्ह्याणि" ↩︎
-
“ख घ - न्यघानि च” ↩︎
-
“ख घ - अधन्यानां” ↩︎
-
“ख घ - ध्रियन्ते” ↩︎
-
“अ-मर्थो” ↩︎
-
“अ - पूर्वं” ↩︎
-
“ख - घ - आश्चर्यभूता” ↩︎
-
“ख घ - जायते” ↩︎
-
“क ख – तत्कस्य हेतोस्सुकृन्नामघ– तत्कार्त्स्न्यहेतोस्सुकृतं नाम” ↩︎
-
“ख घ - मपापांस्” ↩︎
-
“अ- क- घ - मित्र” ↩︎
-
“अ-अग्र्या” ↩︎
-
“ख घ – धर्म” ↩︎
-
॑ “घ - राष्ट्रस्य” ↩︎
-
“ख-घ – प्राप्नोति” ↩︎
-
“ख – स्वकर्मो” ↩︎
-
अ–क–घ–अर्धद्वयं%20नास्ति%C2%A0 “अ–क–घ–अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“घ - व्युष्टिं च” ↩︎
-
ख–घ–नास्तीदमर्धम्%C2%A0 “ख–घ–नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“घ - एतेषां च समेभ्यश्च” ↩︎
-
“ख - दोषस्” ↩︎
-
“क ख - घ - एतस्य” ↩︎
-
" ख— श्री" ↩︎
-
“ख घ - देवानां” ↩︎
-
" क घ - दक्षिणास्तात" ↩︎
-
“घ - यं मन्येत महाभागा नैनमर्थागमः” ↩︎
-
“ख घ - सर्वमेव” ↩︎
-
अ–क–घ–अर्धचतुष्टयं%20नास्ति “अ–क–घ–अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎ ↩︎
-
“क- घ—चाहृतः” ↩︎
-
“ख —हन्तारं” ↩︎
-
“क घ—युक्तोपचारांश्च” ↩︎
-
“घ - पुरुषे विक्रमत्यपि” ↩︎
-
" क ख - राजहंसोपमो" ↩︎
-
“ख घ - योऽहं” ↩︎
-
“क ख घ - विरोचय” ↩︎
-
“ख घ - द्विजः” ↩︎
-
“घ —मितात्मा” ↩︎
-
घ–अयं%20पादो%20नास्ति “घ–अयं पादो नास्ति” ↩︎
-
“अ क - यौनास्स्रौवास्तथा मौखाः” ↩︎
-
“ख - क्षितिः” ↩︎
-
“क - घ - भारान्” ↩︎
-
“ख घ - केवलान् पुनराचारान्” ↩︎
-
%20अ–क–घ%20अर्धद्वयं%20नास्ति%C2%A0 " अ–क–घ अर्धद्वयं नास्ति" ↩︎
-
“ख – शक्यं घ-शुकं” ↩︎
-
“घ - कालः” ↩︎
-
" घ - शत्रुं" ↩︎
-
“अ-क - द्वेषाद्वाद” ↩︎
-
क–घ—अर्धद्वयं%20नास्ति “क–घ—अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“अ - ज्ञाति” ↩︎
-
“ख- मज्जास्नेहवसा” ↩︎
-
" ख - बल्बजदंध्वनान्घ- बिल्वजधन्वनात्" ↩︎
-
“क घ - द्वारैः ?” ↩︎
-
" घ - कर्म च" ↩︎
-
अ–क–घ–इतोऽर्धत्रयं%20नास्ति “अ–क–घ–इतोऽर्धत्रयं नास्ति” ↩︎
-
घ–नास्तीदमर्धम् “घ–नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
%20अ–पौरजानपदान्%20सर्वान्%20संश्रितोषाश्रितांस्तथा।%20%5Bअधिकः%20पाठः%5D " अ–पौरजानपदान् सर्वान् संश्रितोषाश्रितांस्तथा। [अधिकः पाठः]" ↩︎
-
“ख— वत्सोपमेन” ↩︎
-
“ख — विन्दते” ↩︎
-
“घ - नानयं प्रतिदास्यन्ति बन्धयेयु” ↩︎
-
“क ख — ऽभिगच्छेयुः (हि गच्छेयुः ↩︎
-
“ख घ - नावेक्षणं” ↩︎
-
“ख - अपेक्षा” ↩︎
-
“अ-मुपयोक्तव्यं” ↩︎
-
“अ - प्रभावयन्ति” ↩︎
-
“अ- राजा राष्ट्रेषु वर्तयेत्” ↩︎
-
“अ - दुर्दमाः” ↩︎
-
“क-घ - चोदिताः” ↩︎
-
“घ - पात्रकाः” ↩︎
-
ख–घ—नास्तीदमर्धम् “ख–घ—नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“अ-बाहु” ↩︎
-
“क घ - साधुभि ख- साधुभिश्शास्तः” ↩︎
-
“ख - भय” ↩︎
-
“अ क घ–अर्धद्वयं नास्ति ख—नैव भार्यामधिगच्छन्ति व्रतवन्तो द्विजातयः। न यज्ञांस्तन्वते विप्रा यदा पापो न वार्यते। अधिकः पाठः " ↩︎
-
“ख घ - सीमन्त” ↩︎
-
“ख – र्ध” ↩︎
-
“अ-क-न्न तत्कार्यं” ↩︎
-
%C2%A0ख–अर्धचतुष्टयं%20नास्ति “ख–अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“ख - नास्ति नरा न शक्या” ↩︎
-
“क- शाराणिकं ख- शाराण्यकं घ-चारानिकं राज्ञा” ↩︎
-
“ख - धीमता” ↩︎
-
“ख – तन्त्रोऽर्थलाभेषु घ - भागेषु” ↩︎
-
“क- घ - शक्यः” ↩︎
-
“ख-घ - भक्तं” ↩︎
-
“क ख घ - मुच्यते” ↩︎
-
“क - घ - विषये” ↩︎
-
॑ " ख- घ - चोक्त” ↩︎
-
“घ - जय " ↩︎
-
“ख – तं युध्येत” ↩︎
-
“ख- पुमान्” ↩︎
-
“अ-क - उपरुध्यन्ति” ↩︎
-
“क ख घ - वेधाया” ↩︎
-
“ख- पुरात्” ↩︎
-
“घ - विहायान्यान्” ↩︎
-
%20घ–विमानं%20सूर्यसङ्काशम्%20आस्थितो%20मोदते%20दिवि।%20%5Bअधिकः%20पाठः%5D " घ–विमानं सूर्यसङ्काशम् आस्थितो मोदते दिवि। [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“क- घ - पार्थिवः” ↩︎
-
“अ क - कृत्वा बन्दीविमोक्षणम्” ↩︎
-
“क - घ - स्वर्गलोको न” ↩︎
-
“घ - देवाधिको” ↩︎
-
“ख - जयन्ति” ↩︎
-
“क घ - कर्पाणां” ↩︎
-
अ–क–घ%C2%A0अर्धत्रयं%20नास्ति “अ–क–घअर्धत्रयं नास्ति” ↩︎
-
“ख— जङ्घनासानुजङ्घाश्च” ↩︎
-
%20ख–अर्धत्रयं%20नास्ति " ख–अर्धत्रयं नास्ति” ↩︎
-
अ–अर्धद्वयं%20नास्ति%C2%A0%20%C2%A0 ↩︎
-
“क-घ-मुत्तम” ↩︎
-
“ख - वज्रादिव” ↩︎
-
“अ - सन्धिः” ↩︎
-
“अ-क-घ - परिसाधनम्” ↩︎
-
“ख- कत्थन” ↩︎
-
“ख घ- प्रदीपिनी” ↩︎
-
%20अ–क–घ%20–अर्धत्रयं%20नास्ति " अ–क–घ –अर्धत्रयं नास्ति" ↩︎
-
“घ— पादोऽयं नास्ति” ↩︎
-
“क-घ-सृष्टस्य ख - भ्रष्टस्य” ↩︎
-
" ख—अदाक्ष्यं" ↩︎
-
“ख – अशक्या मित्रकृत्यावा घ-अशक्यमित्रकृत्या वा” ↩︎
-
“ख - विवृत” ↩︎
-
“घ - प्रसाधितःख - प्रशाधितः” ↩︎
-
“ख - कौसलेनैव” ↩︎
-
“ख घ - लोके” ↩︎
-
“क- घ - तदानीं विन्दते सोऽर्थान् परिभग्नतमो नरः।१ } [पाठान्तरम्] ख - तदानीं विन्दते सोऽर्थात्परिभग्नतमो नरः। ↩︎
-
“क-घ - गमिष्यति” ↩︎
-
" ख - भक्त्या” ↩︎
-
“ख – युध्येथा” ↩︎
-
“अर्धत्रयं नास्ति” ↩︎
-
“ख - जनिताशयौ” ↩︎
-
“ख – वनेच निरतास्तदा” ↩︎
-
“ख - विनीतानां च गृह्णन्तो विवर्धन्ते गुणोत्तमाः। [ अधिकः पाठः ]” ↩︎
-
“अ-भेदो " ↩︎
-
“अ-क घ - मोहाद्वापि” ↩︎
-
“घ - दुह्येत्ख-दुष्येत्” ↩︎
-
“ख-घ-शुश्रुमः” ↩︎
-
“ख-घ– ऽप्यस्ति” ↩︎
-
" ख घ - परमार्थिकः” ↩︎
-
“ख घ - अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“अ-क-घ - अर्धत्रयंनास्ति” ↩︎
-
“घ – अयं पादोऽनन्तरश्च न स्तः” ↩︎
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“अ - सिद्धि” ↩︎
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“ख- अर्धत्रयंनास्ति” ↩︎
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“क- घ - धर्म” ↩︎
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“घ - मार्गाण्य” ↩︎
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“ख - विषमांश्च नि” ↩︎
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“ख – अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
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“घ - वचनं” ↩︎
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“अ- अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
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“ख घ - तप्यन्ते” ↩︎
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“अ-पुरुषर्षभाः” ↩︎
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“क घ - मानमान्यान्” ↩︎
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“अ क घ - अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
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" ख - पावनं तत्" ↩︎
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“अ - न तु प्रिये” ↩︎
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“अ-क-भोगैश्व” ↩︎
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“तन्मया कार्यं” ↩︎
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“ख - विधि” ↩︎
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“ख घ - मन्त्रिभिस्सह” ↩︎
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“ख - घ - यः” ↩︎
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“क- घ - राजा” ↩︎
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“ख - बाल्येभ्यो न च रक्ष्यते” ↩︎
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“अ-क - भोजनार्थेषु” ↩︎
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“ख घ - सङ्कर्षजैर्” ↩︎
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“घ - दुष्करं मित्रवधं” ↩︎
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“क घ - गोमायुः” ↩︎
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“ख घ - हित्वा” ↩︎
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“ख घ- शुश्रुमः” ↩︎
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“घ- क्षुत्समन्वितः " ↩︎
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“घ- क्षुत्समन्वितः” ↩︎
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“क- घ - भित्त्वा” ↩︎
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“घ - प्राज्ञस्य” ↩︎
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" घ - प्रकल्पेन” ↩︎
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“क ख घ - कौलीनं” ↩︎
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“ख - घ - मानवश्च स्वर्लोके” ↩︎
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“ख– कुलस्य” ↩︎
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“घ- शासितु” ↩︎
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“अ- नास्तीदमर्धम्” ↩︎
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“अ -क- घ - अर्धत्रयंनास्ति” ↩︎
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“ख घ - प्रशास्तुं शक्यं हि” ↩︎
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“ख - स्सहोषिताः” ↩︎
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“ख – कोशाक्षX नरैःघ-काशाक्षXनृपैः” ↩︎
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“ख- को” ↩︎
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“ख घ - स्व” ↩︎
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“घ - श्व” ↩︎
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“अ-क - दयावान् यस्य” ↩︎
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“ख घ– निर्दहेत्” ↩︎
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“पुनःश्वानो” ↩︎
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“ख - श्वापूर्वं द्वीप्यसि व्याघ्रो गजसिंहस्तथाऽष्टपात्। निजेन च प्रभावेण पुनः श्वानो भविष्यसि। [अधिकः पाठः ]” ↩︎
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“क - धर्माञ्चकुलतां ख— धर्माश्च कुलतां घ - योगाः धर्मश्चाकुलतां” ↩︎
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“ख – धर्मिणं” ↩︎
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“क- शुचि घ-शुचिं” ↩︎
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" ख – श्लक्ष्णंघ- श्लक्ष्णंमधुकरं" ↩︎
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“घ - निस्पन्दो” ↩︎
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“ख - जेतुं कृत्स्नां वसुन्धराम्” ↩︎
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॑ “ख - भृत्या " ↩︎
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" ख-च प्र” ↩︎
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“क घ –धनापेक्षी ख-जनापेक्षी” ↩︎
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“क घ - कौरव” ↩︎
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" ख – धर्म द्विजोत्तमम्" ↩︎
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“ख - नतिद्वेपान्” ↩︎
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“ख- द्वालबर्हाणि” ↩︎
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" अ-चर" ↩︎
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" घ - किमात्मा किमयं भूतः + प्रभः J-39" ↩︎
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“घ-प्रजायते” ↩︎
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“ख - लोपः कथं न स्यात्” ↩︎
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" ख -अष्टपालैक" ↩︎
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“ख- सर्वात्मा” ↩︎
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“ख - अप्रमादः प्रसादश्व” ↩︎
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“ख घ - ह्यवसितो” ↩︎
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" ख – कोशमन्त्राणि" ↩︎
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“ख -देव घ-देव” ↩︎
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“. घ - जगाम हिमवत्पृष्टे” ↩︎
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“ख घ - जटाभरणमाविशत्” ↩︎
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“ख घ - विदितं” ↩︎
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“ख - क्षुभितो” ↩︎
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“ख घ - क्षुवो” ↩︎
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“. ख कारणं” ↩︎
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“. ख- प्रभुः” ↩︎
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“ख - श्वेतनः” ↩︎
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" ख घ - क्षुपाय तु" ↩︎
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“ख - घ - क्षुपस्तु” ↩︎
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“. घ - कालकालाच J-40” ↩︎
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“अ क अर्धलयं नास्ति” ↩︎
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“ख - इष्यते” ↩︎
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“अ - उपाकृत्य” ↩︎
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“ख - झूलोऽस्मि” ↩︎
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“अ क - अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
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" ख - ममोत्पन्नः" ↩︎
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“ख घ-ससार” ↩︎
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“घ - ऽन्वगाश्न” ↩︎
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“ख- अर्धवयं नास्ति” ↩︎
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“ख - नाम विप्रर्धिः स्मयन्निदमथाब्रवीत्” ↩︎
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" सर्वेषु कोशेषु अवाध्यायसमाप्तिर्दृश्यते" ↩︎
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“अ-क- स्व-मया” ↩︎
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“क ख - वृद्धि” ↩︎
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" ख - अर्धवयं नास्ति" ↩︎
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" ख - ममास्ति" ↩︎
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“ख- श्रुत्वा वाक्यं” ↩︎
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“ख - उद्यमं जीवनं क्षले” ↩︎
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“ख- परम्पराभिहरणं” ↩︎
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“ख – पुनः प्रजाः” ↩︎
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" अ क घ - अर्धद्वयं नास्ति" ↩︎
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" क- दर्शनः" ↩︎
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“ख-यज्ञ” ↩︎
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“ख-तपस्यम्ये” ↩︎
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“घ - बलवता” ↩︎