[[श्रीमन्महाभारतम् (द्रोणपर्वणि प्रथमो भागः) Source: EB]]
[
॥ श्रीरस्तु ॥
महाभारतस्य द्रोणपर्वणि प्रथमभागः
तत्र
॥ विषयानुक्रमणिका ॥
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द्रोणाभिषेकपर्व
[TABLE]
| अध्यायः | |
| ४ | भीष्मेण कर्ण प्रति युद्धकरणप्रोत्साहनम् |
| कर्णेन युद्धगमनपूर्वकं महाव्यूह निर्माणम् | |
| ५ | दुर्योधनेन कर्ण प्रति सेनानायकाधिकारिप्रश्नः |
| कर्णेन द्रोणस्य सैनापत्यकरणानुज्ञानम् | |
| दुर्योधनेन द्रोणं प्रति सैनापत्यपरिग्रहयाचनम् | |
| द्रोणेन सैनापत्याभिषेकप्राप्तिः | |
| ६ | द्रोणेन युद्धगमनवेलायां योधैः कर्णपराक्रमवर्णनम् |
| द्रोणपराक्रमवर्णनम् | |
| ७ | युधिष्ठिराज्ञया तत्पैनिकैः द्रोणनिवारणम् |
| पाण्डवैः दुर्वारद्रोणावरणम् | |
| सङ्ग्रहेण द्रोणनिधनकथनम् | |
| द्रोणहननेन पाण्डवैः जयाशंसनम् | |
| ८ | द्रोणमरणेन धृतराष्ट्रेण शोचनम् |
| ९ | द्रोणमरणश्रवणेन धृतराष्ट्रस्य भूमौ पतनम् |
| मूर्छितस्य धृतराष्ट्रस्य जलसेचनेन समुद्बोधनम् | |
| धृतराष्ट्रेण युद्धकथनचोदनम् | |
| १० | धृतराष्ट्रेण भक्यतिशयेन भगवञ्चरितकथनम् |
| धृतराष्ट्रेण पुनर्युद्धकथनचोदनम् | |
| ११ | द्रोणेन दुर्योधनं प्रति वरप्रार्थनचोदनम् |
| दुर्योधनेन युधिष्ठिरस्य जीवतस्सत एव ग्रहणवरणम् | |
| दुर्योधनेन युधिष्ठिरवधाभाषं प्रति कारणप्रतिपादनम् | |
| द्रोणेनार्जुनासन्निधाने युधिष्ठिरग्रहणकथनम् | |
| १२ | युधिष्ठिरेण द्रोणचिकीर्षितस्य स्वग्रहणस्यार्जुनादीन् प्रतिकथनम् |
| अर्जुनेन स्वसमवधानकाले युधिष्ठिरं प्रति तद्ग्रहणा- | |
| शक्यत्वकथनेन सान्त्वनम् | |
| कुरुपाण्डवानां युद्धारम्भः | |
| द्रोणपराक्रमवर्णनम् |
| अध्यायः | |
| १३ | द्रोणपराक्रमः |
| द्वैरथयुद्धवर्णनम् | |
| अभिमन्युपराक्रमः | |
| १४ | शल्यभीमाभ्यां गदायुद्धोपक्रमः |
| भीमेन गदया शल्यपराजयः | |
| १५ | वृषसेनपराक्रमः |
| वृषसेनशतानीकयोर्युद्वम् | |
| द्रोणेन युधिष्ठिररणाय सारथिचोदनम् | |
| द्रोणयुधिष्ठिरयोयुद्धम् | |
| विराटादिभिः युधिष्टिरस्य परितो वर्तनम् | |
| दुर्योधनसैनिकैः युधिष्टिरहरणकल्पनयोञ्चैर्घोषः | |
| युधिष्ठिरहरणशङ्कितेनार्जुनेन निस्तुलं परसैन्यप्रधर्षणम् | |
| सूर्यास्तमनवेलायामर्जुनेन शिबिरं प्रति स्वसैन्यप्रापणम् | |
| संशप्तकवघपर्व | |
| १६ | द्रोणेन युधिष्ठिरग्रहणीपायकथनम् |
| संशप्तकैरर्जुनविजये शपथकरणम् | |
| अर्जुनेन युधिष्ठिररक्षां प्रति सत्यजितं नियोज्य | |
| संशप्तकयुद्धाय गमनम् | |
| १७ | अर्जुनस्य संशप्तकैस्सह युद्धम् |
| १८ | संशप्तकयुद्धम् |
| १९ | द्रोणेन सुपर्णव्यूहनिर्माणम् |
| धृष्टद्युम्नेन द्रोणेन ग्रहणं शङ्कमानं युधिष्टिरं प्रति सान्त्वनम् | |
| सङ्कुलयुद्धवर्णनम् | |
| २० | युधिष्ठिरं जिघृक्षतो द्रोणस्य सत्यजिता निरोधः |
| द्रोणेन सत्यजिति हते युधिष्ठिरेण पलायनम् | |
| द्रोणेन पुनर्युधिष्ठिरजिघृक्षया पाञ्चालादिभिर्युद्धम् | |
| द्रोणेन पाञ्चालादीनां हननम् |
| अध्यायः | |
| २१ | दुर्योधनेन कर्णं प्रति द्रोणपराक्रमप्रशंसनेन |
| भीमाद्यवज्ञानम् | |
| कर्णेन भीमादीनां प्रशंसनम् | |
| २२ | स्थानामश्वभ्वज्जवर्णनस् |
| युधिष्ठिरादीनां चापवर्णनम् | |
| २३ | धृतराष्ट्रेण पाण्डवप्रशंसनपूर्व स्वपुत्रादीन् प्रतिशोचनम् |
| धृतराष्ट्रेण युद्धकथनचोदना | |
| २४ | इन्द्रयुद्धवर्णनम् |
| २५ | कुरुपाण्डवयुद्धम् |
| भगदत्तपराक्रमवर्णनम् | |
| २६ | भगवता संशप्तकवधे प्रयतनम् |
| अर्जुनेन संशप्तकहननम् | |
| २७ | अर्जुनेन सुशर्मणो युद्धाय कृष्णं प्रति रथपरिवर्तनचोदनम् |
| अर्जुनस्य भगदत्तेन साकं युद्धकरणम् | |
| २८ | भगदत्तेनार्जुनं प्रति वैष्णवाह्यप्रयोगः |
| अर्जुनं प्रति भगदत्तप्रयुक्तस्यास्त्रस्य भगवतास्वोरसि धारणम् | |
| अर्जुनेन भगवन्तं प्रति स्वपराभवप्रतिप्रादनम् | |
| भगवताऽर्जुनं प्रति भगदत्ते वैष्णवानसमागमप्रकारकथनम् | |
| भगवता स्वस्य चतुर्मूतित्वकथनपूर्वकं मूर्तिक्रमेण | |
| कार्यवैलक्षण्यकथनम् | |
| भगवता एकया स्वमूर्त्या भूमिं प्रत्यजय्यनरकाख्यपुत्रप्रदानादिकथनम् | |
| अर्जुनेन भगदप्तवधः | |
| २९ | अर्जुनेन गान्धारादिहननम् |
| अर्जुनाय नानाविधगदादिसन्निपातः |
| अध्यायः | |
| २९ | अर्जुनेन परप्रयुक्तास्त्राणां प्रत्यस्त्रेण वारणम् |
| ३० | कुरुपाण्डवैः द्रोणद्यूतकरणपूर्वकं युद्धाचरणम् |
| नीलाश्वत्थाम्नोर्युद्धम् | |
| अवस्थाम्ना नीलस्य वधः | |
| ३१ | सङ्कुलयुद्धवर्णनम् |
| अभिमन्युवधपर्व | |
| ३२ | युधिष्ठिराग्रहणेन दुर्योधनेन दैन्यकथनम् |
| द्रोणेन भगवद्भक्षितस्यार्जुनस्याजय्यत्वकथनपूर्वकं | |
| कस्यचिन्महारथस्य हननप्रतिज्ञा | |
| द्रोणरचितचक्रव्यूहस्याभिमन्युना भेदनम् | |
| अभिमन्योः वधस्य सङ्ग्रहेण कथनं च | |
| ३३ | जनमेजयेन पाण्डवानां महिमानुवर्णनपूर्वकमभिमन्योर्वधप्रश्नः |
| वैशम्पायनेनाभिमन्युवधगोचरसञ्जयसंवादानुवादः | |
| ३४ | द्रोणेन पद्मव्यूहरचना |
| युधिष्ठिरेणाभिमन्युं प्रति पद्मव्यूहमेदनचोदना | |
| युधिष्ठिर भीमाभ्यामभिमन्योः पद्मव्यूह भेदनप्रोत्साहनम् | |
| ३५ | अभिमन्योस्सारथेश्च संवादः |
| अभिमन्युना स्वपराक्रमकीर्तनम् | |
| अभिमन्युयुद्धवर्णनम् | |
| ३६ | अभिमन्युपराक्रमवर्णनम् |
| ३७ | अभिमन्युपराक्रमवर्णनम् |
| ३८ | द्रोणेनाभिमन्युपराक्रमश्लाघनम् |
| दुर्योधनेनाभिमन्युवधाय कर्णादिचोदनम् | |
| दुश्शासनेन सगर्वभाषणम् | |
| अभिमन्युदुश्शासनयोर्युद्धम् |
| अध्यायः | |
| ३९ | अभिमन्युना परकृतोपद्रवस्मरणकथनपूर्वकं |
| दुशासनपराजयः | |
| अभिमन्युना कर्णपराजयः | |
| ४० | अभिमन्युपराक्रमवर्णनम् |
| ४१ | जयद्रथमहिमानुवर्णनम् |
| जयद्रथेन रुद्रात् पाण्डवनिरोधवरप्राप्तिः | |
| ४२ | जयद्रथविक्रम वर्णनम् |
| जयद्रथेन व्यूहं पिधाय पाण्डवादिनिरोधः | |
| ४३ | अभिमन्युना पद्मव्यूह प्रधर्षणम् |
| ४४ | अभिमन्युना क्षत्रियैः सहीभूय युद्धकरणम् |
| अभिमन्युना दुर्योधनपराजयः | |
| ४५ | अभिमन्युना दुर्योधनपुत्रस्य लक्ष्मणस्य शिरश्छेदः |
| ४६ | अभिमन्युपराक्रमवर्णनम् |
| अभिमन्युना बृहद्धलवधः | |
| ४७ | अभिमन्युना द्रोणादिभिर्युद्धविधानम् |
| द्रोणेनाभिमन्युपराक्रम लाघनम् | |
| द्रोणेनाभिमन्यार्वेमुख्यसमये प्रहरणचोदनम् | |
| कर्णादिभिरभिमन्योर्विरथीकरणम् | |
| अभिमन्योः भगवत्सादृश्यवर्णनम् | |
| अभिमन्युना गदाप्रहारमसहमानेन भूमौ पतनम् | |
| अभिमन्युपतनेन कौरवाणां सन्तोषवर्णनम् | |
| युधिष्ठिरेण स्वयोधानां धैर्यवचनेन संस्तम्भनम् | |
| युद्धभूमिवर्णनम् | |
| ४८ | युधिष्ठिरेणाभिमभ्युमनुशोच्य विलापः |
| ४९ | व्यासयुधिष्ठिरसंवादः |
| अकम्पनोपास्थानकथनम् | |
| ५० | ब्रह्मरुद्रसंवादः |
| ब्रह्मणा लोकसंहाराय मृत्युदेवीसर्जनम् |
| अध्यायः | |
| ५१ | नारदेनाकम्पनं प्रति मृत्युब्रह्मसंवादकथनेनशोकापनोदनम् |
| ५२ | षोडशराजकीयाय्यानकथनम् |
| ५३ | सुहोत्रचरितकथनम् |
| ५४ | अङ्गराजगुणवर्णनम् |
| ५५ | शिबिमहिमानुवर्णनम् |
| ५६ | श्रीरामदिव्यप्रभाववर्णनम् |
| ५७ | भगीरथचरितवर्णनम् |
| ५८ | दिलीपप्रभावकथनम् |
| ५९ | मान्धातृचरितवर्णनम् |
| ६० | ययातिचरितकीर्तनम् |
| ६१ | अम्बरीषोपाय्यानकथनम् |
| ६२ | शशबिन्दूपाय्यानकथनम् |
| ६३ | गयोपाय्यानकथनम् |
| ६४ | रन्तिदेवचरितवर्णनम् |
| ६५ | भरतचरितकथनम् |
| ६६ | पृथुचरित्रकथनम् |
| ६७ | परशुरामप्रभाववर्णनम् |
| ६८ | नारदसृञ्जयसंवादः |
| व्यासेन युधिष्टिरमाश्वास्य स्वावासगमनस् | |
| ६९ | सञ्जयेनाभिमन्युवधवृत्तान्तस्य विस्तरेण कथनम्अर्जुनेनोत्पातशंसनम् |
| अर्जुनेन भगवन्तं प्रति स्वानिष्टदर्शनशंसनम् | |
| अर्जुनेन स्वभ्रातॄन् पुतांश्च वीक्ष्य तद्वैवर्ण्यकारणप्रश्नपूर्वमभिमन्युवृत्तान्तप्रश्नः | |
| अर्जुनेनाभिमन्युवधश्रवणेन बहुप्रकारं विलपनम् | |
| भगवता तत्त्वोपदेशपूर्वमर्जुनसमाश्वासनम् | |
| अर्जुनेन स्वकीयान् प्रति पराक्रमादिशून्यत्वमभिसन्धाय गर्हणम् |
द्रोणपर्वविषयानुक्रमणिका
प्रतिज्ञापर्व
| अध्यायः | |
| ६९ | युधिष्टिरेणाभिमन्युवधप्रकारकथनम् |
| अर्जुनेन पुलवधं स्मारं स्मारं निस्संज्ञं विलपनम् | |
| अर्जुनेन श्व एव जयद्रथवधं प्रतिज्ञाय शपथप्रकारकथनम् | |
| अर्जुनप्रतिज्ञानन्तरं भगवता सह सर्वैरपि युद्धसन्नाहविधानम् | |
| ७० | अर्जुनाञ्चकितेन जयद्रथेन द्रोणादिभ्योऽभययाचनम् |
| दुर्योधनेन जयद्रथं प्रत्यभयप्रदानम् | |
| द्रोणेन जयद्रथं प्रत्यभयविधानम् | |
| ७१ | भगवताऽर्जुनं प्रति द्रोणादिभिः जयद्रथरक्षणप्रतिज्ञादिकथनम् |
| अर्जुनेन षण्णां महारथानामर्धांशेनापि स्वतुल्यत्वाभावकथनम् | |
| अर्जुनेन स्वपराक्रमख्यापनम् | |
| ७२ | नरनारायणयोः क्रोधेन देवादीनां स्थितिप्रकारः |
| भगवता सुभद्भासमाश्वासनम् | |
| ७३ | सुभद्रया पुत्रमनुस्मृत्य विलपनम् |
| सुभद्रया स्वपुत्रस्य सद्गतिप्राप्त्याशासनम् | |
| भगवता सस्नुषां सुभद्रां प्रत्याश्वासनम् | |
| भगवताऽर्जुनेन रुद्रं प्रति बलिप्रदापनम् | |
| भगवताऽपि कार्यबाहुल्यात् तत्कर्तव्यत्वविचिन्तनम् | |
| जनैः अर्जुनप्रतिज्ञायाः साफल्यप्रार्थनम् | |
| भगवता दारुकेण भाषणम् | |
| भगवताऽर्जुने निरवग्रहानुग्रहसद्भावप्रदर्शनम् | |
| ७४ | भगवताऽर्जुनं प्रति समाश्वासनम् |
| अर्जुनेन स्वप्रतिज्ञाभङ्गाशङ्कनम् | |
| अर्जुनेन भगवता सह पाशुपतास्त्रलाभाय स्वप्नेकैलासगमनम् |
| अध्यायः | |
| भगवताऽर्जुनेन च कैलासे परमशिवसन्दर्शनम् | |
| ७४ | भगवताऽर्जुनेन च शिवस्य शरणवरणम् |
| ईश्वरेण कुशलप्रश्नकरणम् | |
| भगवताऽर्जुनेन चेश्वरस्तुतिः | |
| ईश्वरेण धनुषः शराणां चानयनाय सरः प्रति नरनारायणप्रेषणम् | |
| नरनारायणाभ्यां सरसि नागदर्शनम् | |
| नरनारायणाभ्यां शतरुद्रीयजपेन धनुश्शरत्वरूपावस्थयोः नागयोर्लाभः | |
| अर्जुनेन सरसि बाणविमोचनेन सुप्रीतादीश्वरात्पाशुपतास्त्रग्रहणम् | |
| ७५ | युधिष्ठिरेण नित्यकर्माद्याचरणम् |
| युधिष्ठिरेण भगवन्तं प्रति कुशलप्रश्नः | |
| युधिष्ठिरेण स्वेषां सुखदुःखयोः भगवदधीनत्वकथनम् | |
| भगवता युधिष्ठिरं प्रति समाश्वासनम् | |
| ७६ | युधिष्ठिरेणार्जुनं प्रति जयाशीर्वचनम् |
| अर्जुनेन स्वीयैरसह सैन्धवयुद्धाय निर्गमनम् | |
| भगवतः युद्धसन्नाहसंरम्भवर्णनम् | |
| अर्जुनेन सात्यकिं प्रति युधिष्ठिररक्षणचोदनम् | |
| जयद्रथवधपर्व | |
| ७७ | धृतराष्ट्रेणाभिमन्युहननानन्तरं स्वपुत्रान् प्रत्यनुशोच्या- |
| नन्तरकालीनयुद्धकधनचोदनम् | |
| ७८ | सञ्जयेन धृतराष्ट्रोपालम्भः |
| सञ्जयेन पुनर्युद्धकथनम् | |
| द्रोणेन शकटव्यूहनिर्माणम् | |
| ७९ | अर्जुनेन युद्धभूमिप्रवेशः |
| दुर्मर्षणेन स्ववीर्यकथनम् | |
| अर्जुनपराक्रमवर्णनम् |
| अध्यायः | |
| ८० | अर्जुनदुश्शासनयोर्युद्धम् |
| अर्जुनेन दुश्शासनपराजयः | |
| द्रोणार्जुनयोस्संवादपूर्वकं युद्धकथनम् | |
| अर्जुनेन द्रोणोत्सर्जनपूर्व जयद्रधवधाय व्यूहान्तः प्रवेश…. | |
| ८१ | अर्जुनेनाचार्यगौरवाद्रोणं प्रति बाणैरपीडनम् |
| वरुणेन श्रुतायुधस्यावभ्यत्ववरदानम् | |
| श्रुतायुधस्य वधः | |
| सुदक्षिणस्य वधः | |
| ८२ | श्रुतायुः प्रभृतीनां वधः |
| ८३ | दुर्योधनेन द्रोणमेत्य जयद्रथरक्षणयाचनम् |
| दुर्योधनेन द्रोणोपालम्भनम् | |
| द्रोणेन दुर्योधनसमाश्वसनेत भगवदादीनां | |
| प्रभावकथनम् | |
| द्रोणेन कवचबन्धनपूर्वकमर्जुनजयाय दुर्योधनप्रेषणम् | |
| द्रोणेन दुर्योधनं प्रत्यनेकधा मङ्गलाशं सनम् | |
| द्रोणेन स्वस्य वर्मागमनप्रकारकथनम् | |
| ८४ | राज्ञां द्वन्द्वयुद्धवर्णनम् |
| ८५ | द्रोणष्टष्टद्युम्नयोथुद्धम् |
| ८६ | द्रोणसात्यक्यो युद्धम् |
| अर्जुनेन भगवता सह सैन्धवं प्रति गमनम् | |
| आवन्त्ययुद्धवर्णनम् | |
| अर्जुनेनावन्त्यपराजयः | |
| अर्जुनपराक्रमवर्णनम् | |
| भगवदाज्ञयार्जुनेन हयाप्यायनाय शरैःसरोनिर्माणम् | |
| ८७ | भगवता तुरगाणां स्पाद्विमोचनम |
| भगवतोऽर्जुनस्य च पराक्रमप्रशंसनम् |
| अध्यायः | |
| ८७ | भगवता स्वपाणिभ्यां तुरगाणां सम्मार्जनादिनाश्रमापनादनम् |
| भगवता सार्जुनेन तुरगैर्योजिते रथे समारोहणम् | |
| कौरवसैनिकसमाक्रोशवर्णनम् | |
| अर्जुनेन सैन्धवं प्रति दुर्वारगमनम् | |
| ८८ | युद्धभूमौ भगवतोऽर्जुनाश्च परेषां भीतिवर्णनम् |
| भगवता सहार्जुनस्य दर्शनेन सैन्धववधस्यनिश्चयवर्णनम् | |
| सैन्धवरक्षणाय दुर्योधनस्य निर्गमनम् | |
| ८९ | भगवताऽर्जुनं प्रति दुर्योधनदुश्चरितानुस्मरणपूर्वतद्वधाय चोदनम् |
| अर्जुनस्य संरम्भेण दुर्योधनपराजयवर्णनम् | |
| अर्जुनं प्रति दुर्योधनस्य वीरवादः | |
| ९० | दुर्योधनेन युध्यतोऽर्जुनस्य बाणादीनां भगवतावैफल्यवर्णनम् |
| अर्जुनेन दुर्योधनकवचस्य भगवतश्च महिमानुवर्णनम् | |
| अर्जुनेन दुर्योधनपराजयः | |
| ९१ | अर्जुनयुद्धवर्णनम् |
| ९२ | स्थानां ध्वजवर्णनम् |
| ९३ | द्रोणयुद्धवर्णनम् |
| ९४ | सङ्कलयुद्धवर्णनम् |
| भीमेनालम्बुसपराजयः | |
| ९५ | घटोत्कचेनालम्बुसपराजयः |
| ९६ | द्रोणसात्यक्योयुद्धवर्णनम् |
| युधिष्ठिरेण सात्यकिरक्षणाय धृष्टद्युम्नचोदनम् | |
| युधिष्ठिरेणार्जुनविषये विपदश्शङ्कनम् | |
| युधिष्ठिरेणार्जुनोदन्तपरिज्ञानाय सात्यकिचोदनम् | |
| ९७ | सात्यकिनाऽर्जुनोक्तस्य युधिष्ठिररक्षणवचनस्य पुनःकथनम् |
| अध्यायः | |
| ९७ | सात्यकिना स्वेन सर्वात्मना युधिष्ठिरापरित्याज्यत्वकथनम् |
| युधिष्ठिरेण भीमादीनां स्वरक्षकत्वकथनपूर्व सात्यकिचोदनम् | |
| ९८ | सायकिना युधिष्ठिरवचनादर्जुनसमीपगमनम् |
| सात्यकिना भोमं प्रति युधिष्ठिररक्षणनियोजनम् | |
| ९९ | सात्यकियुद्धवर्णनम् |
| सात्यकिना द्रोणवजैमिनरैर्युद्धविधानम् | |
| १०० | धृतराष्ट्रेण स्वसैन्यपराजयेन शोचनम् |
| धृतराष्ट्रेण स्वपुतेषु दैन्यानुचिन्तनम् | |
| धृतराष्ट्रेणार्जुनस्य जयद्रथवधोद्यमनप्रकारप्रभः | |
| सञ्जयेन धृतराष्ट्रोपालम्भनम् | |
| कृतवर्मपराक्रमकथनम् |
॥ द्रोणपर्वणि प्रथमसम्पुटविषयानुक्रमणिका समाप्ता॥
॥ श्रीः ॥
॥ महाभारतम् ॥
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॥ द्रोणपर्व ॥
(द्रोणाभिषेकपर्व)
॥ प्रथमोऽध्यायः ॥
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धृतराष्ट्रेण सञ्जयं प्रति भीष्मपातानन्तरीयकदुर्योधनादिवृत्तान्तप्रश्नः ॥१॥ सञ्जयेन योधानां शरणत्वेन कर्णाह्वाने कथिते धृतराष्ट्रस्य कर्णवृत्तान्तप्रश्नः ॥२॥
जनमेजयः —
तमप्रतिमसत्त्वौजोवलवीर्यपराक्रमम्।
हतं देवव्रतं श्रुत्वा पाञ्चाल्येन शिखण्डिना॥१
धृतराष्ट्रस्तदा राजा शोकव्याकुललोचनः।
किमचेष्टत विप्रर्षे हते पितरि वीर्यवान्॥२
यस्य पुत्रो हि भगवन् भीष्मद्रोणमुखै रथैः।
पराजित्य महेष्वासान् पाण्डवान् राज्यमिच्छति॥३
तस्मिन् हते तु भगवन् केतौ सर्वधनुष्मताम्।
यदचेष्टत कौरव्यस् तन्मे ब्रूहि द्विजोत्तम् ॥४
वैशम्पायनः—
श्रुत्वा भीमस्य निधनम् अप्रहृष्टमना भृशम्।
पुत्राणां जयमाकाङ्क्षन् विललाप सुदुःखितः॥५
निहतं पितरं श्रुत्वा धृतराष्ट्रो जनाधिपः।
लेभे न शान्तिं कौरव्यश् चिन्ताशोकपरायणः॥६
तस्य चिन्तयतो दुःखम् अनिशं कौरवस्य तत्।
आजगाम विशुद्धात्मा पुनर्गावल्गणिस्तदा॥७
व्यासप्रसादाद्विज्ञाय सर्ववृत्तान्तमुत्तमम्।
सैनिकानां च सर्वेषां सेनयोरुभयोरपि॥८
शिविरान् सञ्जयं प्राप्तं निशि नागाह्वयं पुरम्।
आम्बिकेयो महाराज धृतराष्ट्रोऽन्वपृच्छत॥९
धृतराष्ट्रः—
सङ्काल्य तु महात्मानं भीष्मं भीमपराक्रमम्।
किमचेष्टन्परं तात कुरवः कालचोदिताः॥१०
¹त1स्मिस्तु निहते वीरे भीष्मे युवि महौजसि।
कस्य स्म कुरवोऽस्मार्षुर्निमग्नाश्शोकसागरे॥११
तदुदीर्णंमहत् सैन्यं त्रैलोक्यस्यापि सञ्जय।
भयमुत्पादयेत् तीव्रं पाण्डवानां महात्मनाम्॥१२
देवव्रते तु निहते कुरुणामृपये तदा।
किमकुर्वन् नृपतयस् तन्ममाचक्ष्व सञ्जय॥१३
सञ्जयः–
शृणु राजन्नेकमना वचनं ब्रुवतो मम।
यत्ते पुत्रास्तदाऽकार्षुर्हते देवव्रतेमृवे॥१४
निहते तु तदा संख्ये भीष्मे सत्यपराक्रमे।
तावकाः पाण्डवेयाश्च प्रवदन्तः पृथक् पृथक्॥१५
विस्मिताश्च प्रहृष्टाश्चक्षत्रधर्मं निशाम्य ते।
श्रुत्वा धर्मानुपादाय प्रणिपत्य महात्मने॥१६
शयनं कल्पयामासुर् भीष्मायामिततेजसे।
सोपधानं नरव्याघ्र शरैस्सन्नतपर्वभिः॥१७
विधाय रक्षां भीष्माय प्रणिपत्य पितामहम्।
अ2नुमान्य3 च गाङ्गेयं कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्॥१८
क्रोधसंरक्तनयनास् समवेत्य परस्परम्।
पुनर्युद्धाय सञ्जग्मुः क्षत्रियाः कालचोदिताः॥१९
ततस्तूर्यनिनादैश्च भेरीणां च महास्वनैः।
तावकानामनीकानि परेषां चापि निर्ययुः॥२०
¹त4स्मिन्नहनि राजेन्द्र पतिते शन्तनोस्सुते।
अमर्पवशमापन्नाःकालोपहतचेतसः॥२१
अनादृत्य वचः पथ्यं गाङ्गेयस्य महात्मनः।
निर्ययुर्भरतश्रेष्ठाश् शस्त्राण्यादाय सर्वशः॥२२
मोहात्तव च पुत्रस्य वधाच्छान्तनवस्य च।
कौरवा मृत्युनाऽऽज्ञप्नास् सहितास्सर्वराजभिः॥२३
अजा इव वने गोपान् विना श्वापदसङ्कुले।
कर्ण कर्णेति चाक्रुश्यशेषाभारत तावकाः॥२४
भृशमुद्विममनसो हीना देवव्रतेन ते॥२४॥
पतिते भरतश्रेष्ठेबभूव कुम्वाहिनी।
द्यौरिवाषेतनक्षत्रा हीनंखमिव भानुना॥२५॥
विपन्नसस्येव मही वाक्चैवासंस्कृता यथा।
आसुरीव रणे सेना निगृहीते पुरा बलौ॥२६॥
विधवा तु यथा नारी शुष्कतोयेव निम्नगा।
वृकैरिव वने रुद्धापृषतीहतयूथपा॥२७॥
यथा सिंहे विनिष्क्रान्तेपर्वतस्येव कन्दरा॥२८
सा सेना भरतश्रेष्ठे पतिते जाह्नवीसुते।
विष्वग्वातहता क्षुब्धा नौरिवासीन्महार्णवे॥२९
बलिभिः पाण्डवैर्दृप्तैर्लब्धलक्षैर्भृशार्दिता।
सा तथा निहता सेना व्याकुलाश्वरथद्विपा॥३०
विषण्णभूयिष्ठनरा कृपणा द्रष्टुरावभौ ॥३०॥
तस्यां हृप्ता नृपतयस् सैनिकाञ्च पृथग्विधाः।
पाताल इव मज्जन्तो हीना देवव्रतेन ते॥३१॥
कर्णस्य कुरवोऽस्मार्पुस् स हि देवव्रतोपमः॥३२
सर्वशस्त्रभृतां श्रेष्ठं रोचमानमिवानलम्।
बन्धुमापद्गतस्येव तेषामासीद्गतं मनः॥३३
चुक्रुशुः कर्ण कर्णेति शेषाभारत पार्थिवाः।
राधेयं हितमस्माकं सूतपुत्रं तनुत्यजम्॥३४
स हि नायुध्यत तदा दशाहान्येक एव च।
सामात्यवान्धवः कर्णस् सेनां तु समचूचुदत्॥३५
भीष्मेण हि महावाहुस् सर्वक्षत्रस्य पश्यतः।
रथेषु गण्यमानेषु वलविक्रमशालिषु॥३६
सङ्ख्यातोऽर्धरथः कर्णो दोपानुक्त्वा महारथः॥३६॥
स्थातिरथसङ्खयायांयोऽग्रणीश्शूर उत्तमः।
पितृवित्ताम्बुदेवेशान् अपि योद्धुं समुत्सहेत्॥३७॥
स च तेनैव कोपेन राजन् गाङ्गेयमुक्तवान्॥३८
कर्णः—
त्वयि युध्यति कौरव्यनाहं योत्स्ये कथश्चन॥३८॥
त्वया तु पाण्डवेयेषु निहनेषु महामृधे।
दुर्योधनमनुज्ञाप्य वनं यास्यामि कौरव॥३९॥
हते वा युधि पार्थेस्तु त्वयि स्वर्गं समेयुषि।
हन्तास्म्येकरथेनैव कृत्स्नान् यान् मन्यसे रथान्॥४०॥
सञ्जयः—
एवमुक्त्वा महातेजा दशाहान्येक एव सः।
नायुध्यत तदा कर्णः पुत्रस्य तव सम्मते॥४१॥
भीष्मस्त्वमितविक्रान्तः पाण्डवेयस्य पार्थिव।
जघान समरे योधान् असंख्येयपरराक्रमान्॥४२॥
तस्मिंस्तु निहते शूरे तव पुत्रा महारथम्।
कर्णं राजंस्तदा जग्मुस् तर्तुकामा इव प्लवम्॥४३॥
तावकास्तव पुत्राश्च सहिताम्सर्वराजभिः।
हा कर्ण इति चकन्दुः कालोऽयमिति चाव्रुवन्॥४४॥
जामदग्न्याभ्यनुज्ञातम् अस्त्रैर्दुर्वारपौरुपम्।
अगमन्नो मनः कर्णं वन्धूनात्ययिकेष्विव॥
¹स5 हि शक्तो रणे राजंस् त्रातुमस्मान् महाभयात्।
त्रिदशानिव गोविन्दस् सततं स्मासुराद्भयात् ॥४६॥
वैशम्पायनः—
तथा तु सञ्जये कर्णं कीर्तयाने पुनः पुनः।
अशीतमिव निश्वस्य धृतराष्ट्रोऽव्रवीदिदम्॥४७॥
धृतराष्ट्रः—
यत् तद्वैकर्तनं कर्णम् अगमद्वो मनस्तदा।
अप्यरक्षत् स राधेयस् सूतपुत्रस्तनुत्यजः॥४८॥
अपि तन्न मृषा कार्पीद् युधिसत्यपराक्रमः।
सम्भग्नानां तदाऽऽर्तानां त्रस्तानां त्राणमिच्छताम्॥४९॥
अपि तत् पूरयाञ्चक्रे धनुर्धरवरो युधि।
यत्तद्विनिहते भीष्मे कौरवाणां महाव्रते॥५०॥
तत् खण्डं पूरयन् कर्णः परेपामादधद्भयम्।
कृतवान् मम पुत्राणां जयाशां सफलामपि॥५१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि प्रथमोऽध्यायः ॥१॥
॥६५॥ द्रोणाभिषेकपर्वणि प्रथमोऽध्यायः ॥१॥
[ अस्मिन्नध्याये५१॥ श्लोकाः]
॥ द्वितीयोऽध्यायः ॥
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** कर्णेन पाण्डवोच्छेदनपूर्वकं दुर्योधनाय राज्यदानं प्रतिज्ञाय युद्धायाभियानम्॥**
सञ्जयः—
श्रुत्वा तु कर्णः पुरुपेन्द्रमच्युतं
निपातितं शान्तनवं रिपुघ्नम्।
अथोपायात् तूर्णममिवघाती
धनुर्धराणां प्रवरः क्षितौ रुषा॥१
हतं भीष्मं चातिरथिर्विदित्वा
भिन्नां नावं वारिधावत्यगाधे।
सोदर्यवव्यसनात्सूतपुत्रस्
सन्तारयिष्यंस्तव पुत्रसेनाम्॥२
ह6ते तु भीमे रथसत्तमे तदा
निमज्जतीं नावमिवार्णवे कुरून्।
पितेव पुत्रांस्त्वरितोऽभ्यगात्तदा
संतारयिष्यंस्तव पुत्रस्य सेनाम्॥३
सम्मृज्य दिव्यं धनुराततज्यं
स रामदत्तं रिपुसङ्घहन्ता।
वाणांश्च कालानलवायुकल्पान्
उल्लालयन् वाक्यमिदं वभाषे ॥४॥
कर्णः—
यस्मिन् धृतिर्धर्मदमौ वलं ह्रीस्
सत्यं च दानं च पराक्रमश्च।
शस्त्राणि दिव्यान्यथ संनतिश्रीर्
धीश्चापि भीष्मे नियतास्सदैव ॥५॥
ब्रह्माद्विषघ्नेसततं कृतज्ञे
सनातनी चान्द्रमसीव लक्ष्मीः।
स चेत् प्रशान्तः परवीरहन्ता
सर्वानन्यानातुरानद्यमन्ये ॥६॥
नेह ध्रुवं किश्चन जातु विद्यते
अस्मिल्ँलोके कर्मणोऽनित्ययोगात्।
सूर्योदये को हि विमुक्तसंशयो
भावं कुर्वीताद्य महाव्रते हते ॥७॥
वसुप्रभावे वसुवीर्यसम्भवे
गते वसूनेव वसुंधराधिपे।
वसू7नि7 पुत्रांश्च वसुंधरां तथा
कुरूंश्चशोचध्वमिमां च वाहिनीम् ॥८॥
सञ्जयः—
महाप्रभावे वरदे निपातिते
लोकज्येष्ठे शान्तनवेऽमितौजसि।
पराजितेषु भरतेषु दुर्मनाः
पराजितो निश्वसन्नध्यवर्तयत्॥९
इदं तु राधेयवचो निशम्य ते
सुताश्च राजंस्तव सैनिकाश्च ये।
परस्परं चुक्रुशुरम्बु चार्तिजं
तदाऽश्रु नेत्रैर्मुमुचुहिं शब्दवत्॥१०
प्रवर्तमाने तु महारवे तदा।
महारथानां च म समुत्थिते।
अथाब्रवीद्धर्षकरं वचस्तदा
रथर्पभान् सर्वमहारथर्षभः॥११
कर्णः—
जगत्यनित्ये सततं प्रभाविते
विचिन्तयन्नस्थिरमद्य लक्षये।
भवत्सु तिष्ठस्विह पातितो रणे
गिरिप्रकाशः कुरुपुङ्गवः परैः॥१२
निपातिते शान्तनवे नरर्पभे
दिवाकरे भूतलमाश्रिते यथा।
न पार्थिवास्सोढुमलं धनञ्जयं
गिरिप्रवोढारमिवानिलं द्रुमाः ॥१३
हतप्रधानं त्विदमार्तमातुरं
परैरभिग्रस्तमनाथवद्द्रुतम्।
मया कुरूणां परिपाल्यमाहवे
वलं तथा तेन महात्मना यथा ॥१४
समाहितं चात्मनि भारमीदृशं
जगत् तथाऽनित्यमहं च लक्षये।
निपातितं चाहवशौण्डमाहवे
कथं नु कुर्यामहमाहवे भयम् ॥१५
अहं हि तं कुरुवृषभं महाबलं
प्रधावितं यमसदनं विचिन्तयन्।
यशः परं जगति विभाव्य वर्तये
परैर्हतस्स इव भवामि वा पुनः॥१६
युधिष्ठिरो धृतिमतिसत्यसत्त्ववान्
वृकोदरो गजशततुल्यविक्रमः।
अथार्जुनस्त्रिदशवरात्मजो यतो
न तद्बलं सुजयमिहामरैरपि ॥१७
यमौ रणे यत्र यमोपमौ चले
समात्यकिर्यत्र च देवकीसुतः।
स तद्वलं कः पुरुषोऽभ्युपेयिवान्
निवर्तते मृत्युमुखादिवासकृत् ॥१८
तपोऽभ्युदीर्णं तपसैव धार्यते
वलं वलेनाप्यरिणा मनस्विना।
मनश्च मे शत्रुनिवारणे ध्रुवं
स्वरक्षणे चाचलवव्द्यवस्थितम् ॥१९॥
एवं तेषां जानमानः प्रभावं
गन्ता चाहंतज्जयायैव सूत।
मित्रद्रोहो मर्पणीयो न मे स्यात्
भग्ने सैन्ये यस्सहायस्समित्रम् ॥२०॥
आहुर्ह्येतत् सत्पुरुषस्य कर्म
त्यक्त्वा प्राणान् योधयेद्यत्सपत्नैः।
सर्वान् शत्रूनाहवेऽहं हनिष्ये
तैर्वा हतो मृत्युयोकं गमिष्ये ॥२१॥
विप्रक्रुष्टेरुदितस्त्रीकुमारे
पराजिते पौरुषेधार्तराष्ट्रे।
मया कार्यं साह्यमद्यैव सूत
तस्माच्छत्रून्धार्तराष्ट्रस्य जेष्ये ॥२२॥
कुरून् रक्षन् पाण्डुपुत्राञ्जिघांसंस्
त्यक्त्वा प्राणाननुयास्यामि भीष्मम्।
सर्वान् वाऽहं शत्रुसङ्घान् विजित्य
तस्मै दास्ये धार्तराष्ट्राय राज्यम् ॥२३॥
निबध्यतां मे कवचं विचित्रं
हैमं चित्रं मणिमत् स्वावभासि।
शिरस्त्राणं चार्कसमानभासं
धनुश्शरांश्चापि विपाग्निकल्पान्॥२४॥
उपासङ्गान् षोडश योजयन्तु
धनूंषिदिव्यानि समाहरन्तु।
असीञ् शतघ्नीश्च गदाश्च गुर्वीश्
शङ्खं च जाम्बूनदचित्रनाभम् ॥२५॥
स्फीतां रौक्मीं नागकक्ष्यां विचित्रां
छत्रं श्वेतं ध्वजमिन्दीवराभम्।
श्लक्ष्मणैर्वस्त्रैर्विप्रमृज्यानस्व
चित्रां मालां तत्र वध्वा सजालाम् ॥२६॥
अश्वानग्र्यान् पाण्डराभ्रप्रकाशान्
पुष्ठान् स्नातान् वेदपृताभिरद्भिः।
तप्तैर्भाण्डैः काञ्चनैग्भ्युपेतान्
शीघ्रं शीघ्रान् सूतपुत्रानयस्व॥२७॥
रथं चाग्र्यंहेममालावनद्धं
रत्नैश्चित्रं चन्द्रसूर्यप्रकाशैः।
दिव्यैर्युक्तं सम्प्रहारोपपन्नैर्
वाहैर्युक्तं तूर्णमावर्तयस्व ॥२८॥
चित्राणि चापानि च वेगवन्ति
ज्याश्चोत्तमास्संहननोपपन्नाः।
तूणानि पूर्णानि च मर्मभिद्भिर्
आसज्य तत्रावरणानि चैव ॥२९॥
प्रायात्रिकं चानय सर्वमाशु
पूर्णं कान्त्या वीरकांस्यं च हैमम्।
आनीय मालामवलम्ब्य चाङ्गे
प्रवादयित्वा विजयाय भेरीम् ॥३०॥
प्रयाहि सूताशु यतः किरीटी
वृकोदरो धर्मसुतो यमौ च।
तान् वा हनिष्यामि समेत्य सङ्ख्ये
भीष्माय वैष्यामि हतो द्विषद्भिः॥३१
यत्र राजा सत्यधृतिर्युधिष्ठिरस्
समास्थितो भीमसेनार्जुनौ तौ।
वासुदेवस्सात्यकिस्मृञ्जयाश्च
यमौ पाञ्चालाः केकयाश्चैव सर्वे॥३२
तिष्ठेन्मृत्युस्सर्वहरोऽभिरक्षन्,
कथं प्रमत्तस्समरे किरीटिनम्।
तं वा हनिष्यामि समेत्य सङ्ख्ये
यास्यामि वा भीष्ममुखो यमाय॥३३
सञ्जयः—
न त्वेव चाहं न गमिष्यामि तेषां
मध्ये शूराणां तच्च सत्यं ब्रवीमि।
मित्रद्रुहो दुर्बलभक्तयो ये
पापात्मनो मम न स्युस्सहायाः॥३४
सञ्जयः—
तं सिद्धिमन्तं दृढमुत्तमं रथं
सुकूवरं हेमपरिष्कृतं शुभम्।
पताकिनं वातजवैर्हयोत्तमैर्
युतं समास्थाय ययौ जयाय ॥३५
सम्पूज्यमानः कुरुभिर्महात्मा
रथर्षभः पाण्डरवाजिवाहः।
ययौ तदायोधनमुग्रधन्वा
यत्रावसानं भरतर्षभस्य॥३६
वरूथिना महता सध्वजेन
सुवर्णमुक्तामणिवज्रशालिना।
सदश्वयुक्तेन रथेन कर्णो
मृधे घनेनार्क इवावभासे॥३७
हुताशनाभस्म हुताशनप्रभे
शुभाश्शुभे सर्वधनुर्धरे रथे।
स्थितो रराजातिभृशं महारथो
यथा विमाने सुरराडवस्थितः॥३८
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
॥६५॥ द्रोणाभिषेकंपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
[ अस्मिन्नाध्याये३८ श्लोकाः ]
द्रोणपर्वणि–द्रोणाभिषेकपर्व
॥ तृतीयोऽध्यायः॥
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कर्णेन भीष्ममेत्य युद्धानुज्ञायाचनम्॥
सञ्जयः—
शरतल्पे महात्मानं शयानमपराजितम्।
महावातसमुत्थेन समुद्रमिव शोषितम्॥१
उत्साद्य चाखिलामुर्वी सर्वक्षत्रान्तकं गुरुम्।
दिव्यैरम्बैर्महेष्वासं पातितं सव्यसाचिना॥२
जयाशां धार्तराष्ट्राणां सम्भग्नां शर्म वर्म नः।
अपाराणामिव द्वीपम् अगाधे गाधमिच्छताम्॥३
स्रोतसा यामुनेनेव शरौघेण परिप्लुतम्।
महान्तमिव मैनाकम् इन्द्रेणेव च पातितम्॥४
नभश्च्युतमिवादित्यं शक्रस्येवामृतं हृतम्।
शतक्रतोरिवाचिन्त्यं सहस्राक्षस्य निर्जयम्॥५
मोहनं सर्वलोकस्य युधि भीष्मं निपातितम्।
ककुदं सर्वसैन्यानां लक्ष्यं सर्वधनुष्मताम्॥६
धनञ्जयशरव्याप्तं वृद्धं कुरुपितामहम्।
तं वीरशयने श्रेष्ठे शयानं पुरुपर्पभम्॥७
कर्णस्त्वतिरथं दृष्ट्वाभरतानां पितामहम्।
प्रस्कन्द्य स रथात्पूर्णं शोकमोहपरिप्लुतः॥८
पद्म्भामेव जगामात वापव्याकुललोचनः॥८॥
अभिवाद्याञ्जलिं कृत्वा वन्दमानोऽभ्यभाषत॥९
कर्णः—
कर्णोऽहमस्मि भद्रं ते अद्य मां वदभारत।
पुण्यया क्षेमया वाचा चक्षुषाचावलोकय॥१०
न नूनं सुकृतस्येह फलं कश्चित समनुते।
यत्र धर्मपरो वृद्धश् शेते भुवि भवानिह॥११
कोशसञ्जनने मन्त्रे व्यूहे प्रहरणेषु च।
नाहमन्यं प्रपश्यामि कुरूणां कुरुसत्तम॥१२
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो यः कुस्ता रयेद्भयात्।
सोऽस्मांस्त्वमप्लवे हित्वा पितृलोकं गमिष्यसि॥१३
अद्यप्रभृति सङ्क्रुद्धाव्याघ्रा इव मृगक्षयम्।
पाण्डवा भरतश्रेष्ठ करिष्यन्ति कुमक्षयम्॥१४
अद्य गाण्डीवघोषेण वीर्यज्ञास्सव्यसाचिनः।
कुरवस्मन्त्रमिष्यन्ति वज्रघोपादिवासुराः॥१५
अद्य गाण्डीवमुक्तानाम् अशनीनामिव स्वनः।
निपातः शरधाराणां कुरून् सन्त्रासयिष्यति ॥१६
अग्नेरिव समिद्धस्य महाज्वाला वने द्रुमान्।
धार्तराष्ट्रान् प्रवक्ष्यन्ति तथा बाणाः किरीटिनः॥१७
येन येन प्रवहति वायुरग्निर्महावने।
तेन तेन प्रदहति भगवान् वायुतेजसा॥१८
यादृगग्निस्समिद्धो हि तादृक् पार्थो धनञ्जयः।
तादृगेव हि कौन्तेयो दवाग्निरिव पर्वते॥१९
यथा वायुर्नरव्याघ्र तथा कृष्णो न संशयः।
निर्दहन्तमनीकानि प्रवक्ष्यति जनार्दनः॥२०
सूर्यचन्द्रप्रकाशस्य8पूर्यमाणस्य विष्णुना।
नदतः पाञ्चजन्यस्य रसतो गाण्डिवस्य च॥२१
श्रुत्वा सर्वाणि भूतानि वित्रस्यन्त्यमितौजसः॥२१॥
कपिध्वजस्य चापस्य रथस्यामित्रकार्शिनः।
शब्दं सोढुं न शक्ष्यन्ति त्वामृते सर्वपार्थिवाः॥२२॥
को ह्यर्जुनं रणे योद्धुं त्वदन्यः पार्थिवोऽर्हति।
यस्य दिव्यानि कर्माणि प्रवदन्ति मनीषिणः॥२३॥
अमानुपश्च सङ्ग्रामस् त्र्यम्बकेण च धीमतः।
तस्माच्चैव वरः प्राप्तो दुष्प्रापश्चाकृतात्मभिः॥२४॥
को9 हि शक्तो रणे जेतुं पूर्व यो न जितस्वया।
जितो हि च रणे रामो भवता रणशालिना॥२५॥
क्षत्रियान्तकरो घोरो देवदेवेन पूजितः॥२६॥
अहं ह्येकः पाण्डवं युद्धशौण्डम्
अमृष्यमाणो भवताऽनुशिष्टः।
आशीविषं दृष्टिविषो यथोरगश्
शक्ष्याम्येनं ह्यस्त्रवलेन हन्तुम् ॥२७॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
॥६५॥ द्रोणाभिषेकपर्वणि तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
[ अस्मिन्नध्याये २० श्लोकाः ]
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॥ चतुर्थोऽध्यायः॥
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भीष्मानुज्ञातस्य कर्णस्ययुद्धायागमनम्॥
सञ्जयः—
तस्य लालपितं श्रुत्वा वृद्धः कुरुपितामहः।
देशकालोचितं वाक्यं भीष्मः शान्तनवोऽब्रवीत्॥१
भीष्मः—
समुद्र इव सिन्धूनां ज्योतिषामिव भास्करः।
सत्यस्य च यथा सन्तो वीजानामिव चोर्वरा ॥२॥
पर्जन्य इव भूतानां प्रतिष्ठा सुहृदां भवान्।
बान्धवास्त्वाऽनुजीवन्तु स्वादुवृक्षमिवाण्डजाः॥३
मानहा10 भव शत्रूणां मित्राणां हर्षवर्धनः।
कौरवाणां भव गतिर् यथा विष्णुर्दिवौकसाम्॥४
स्ववाहुबलवीर्येण धार्तराष्ट्रप्रियैषिणा।
कर्ण राजपुरं गत्वा काम्भोजा निहतास्त्वया॥५
गि11रिव्रजगताश्चापि12 नग्नजित्प्रमुखा नृपाः।
अम्बष्ठाश्च विदेहाश्च गान्धाराश्च जितास्वया॥६
हिमवद्दुर्गनिलयाः किराता रणकर्कशाः।
दुर्योधनस्य वशगास् त्वया कर्ण कृताः पुरा॥७
उत्कला मेखलाः पुण्ड्राः कलिङ्गाद्याश्च संयुगे।
निपादाश्च त्रिगर्ताश्च वाह्रीकाश्च जितास्त्वया॥८
तत्र तत्र च सङ्ग्रामे दुर्योधनहितैषिणा।
बहवो निर्जिताः कर्ण त्वयाऽर्णवसमौजसा॥९
यथा दुर्योधनस्तात सज्ञातिकुलबान्धवः।
तथा त्वमपि सर्वेषां कौरवाणां गतिर्भव॥१०
शिवेनाभिवदामि त्वां गच्छ युध्यस्व शत्रुभिः।
अनुशास्य कुरून् सर्वान् धत्स्व दुर्योधने जयम् ॥११
भवान् पौत्रसमोऽस्माकं यथा दुर्योधनस्तथा।
तवापि धर्मतस्सर्वे यथातस्य वयं तथा॥१२
यौनान् संवन्धकालो के विशिष्टस्मङ्गमस्मताम्।
सद्भिस्सङ्गममिच्छन्ति तस्मान् प्राजाः परैरपि॥१३
स सत्यसङ्गरोभूत्वा ममैतदिति निश्चितम्।
कुरूणां पालय वलं यथा दुर्योधनस्तथा॥१४
यथा च कुरवो युद्धे योधयन्ति स्म पाण्डवान्।
तथा कर्ण त्वया कार्यं दुर्योधनहितैषिणः॥१५
सञ्जयः—
निशम्य वचनं तस्य चरणावभिवाद्य च।
ययौ वैकर्तनः कर्णस् तूर्णमायोधनं प्रति॥१६
सोऽभिवीक्ष्य नरौघाणां स्थानमप्रतिमं महत्।
व्यूढप्रहरणोरस्कं सैन्यं तत् समबृंहयत्॥१७
अथोपसि महेष्वासो व्यादिश्य रथिनोऽयुतम्।
वारणांस्तत्प्रमाणेन चकार तदनन्तरम्॥१८
सादिनोऽथ पदातींश्च यथाशास्त्रं बृहस्पतेः।
स्थापयामास च ततः पुत्राणां ते जये धृतः॥१९
ततः पक्षौ प्रपक्षौ च विधाय भरतर्षभ।
पक्षकोटी पुनर्द्वाभ्यांपञ्चाद्द्वाभ्यामबृंहयत् ॥२०
एवमेतं महाव्यूहं कर्णेन विहितं पुनः।
प्रेक्षणीयममन्यन्त राजानः कुरुभिस्सह ॥२१
नृत्यन्तमिव तं व्यूहं दिधक्षन्तमिवाहितान्।
कृतं बृहस्पत्युशनसोर् मते कर्णेन दुर्जयम् ॥२२
बलं व्यूहशरीरस्य सारानीकं परस्परम्।
द्रोणं दृष्ट्वा महेष्वासं युद्धाय समुपस्थितम् ॥२३
क्ष्वेडितास्फोटिताक्रुष्टैस् सिंहनादरवैरपि।
धनुशब्दैश्च विविधैः कुरवस्समपूजयन् ॥२४
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥
॥६५॥ द्रोणाभिषेकपर्वणि चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥
[ अस्मिन्नध्याये २४ श्लोकाः ]
महाभारतम्
॥ पञ्चमोऽध्यायः॥
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दुर्योधनष्टेन कर्णेन तं प्रति द्रोणस्य सैनापत्यकरणविधानम्॥ १॥
दुर्योधनेन द्रोणं प्रति सैनापत्यस्वीकारप्रार्थना॥ २॥ दुर्घोधनेन द्रोणस्य
सैनापत्येऽभिषेचनम्॥ ३॥ द्रोणयुद्धवर्णनम्॥ ४॥
सञ्जयः—
रथस्थं13 पुरुषव्याघ्रंदृष्ट्वा कर्णमवस्थितम्।
हृष्टो दुर्योधनो राजा कर्णं वचनमब्रवीत्॥१
दुर्योधनः—
सनाथमिव मेऽत्यर्थं भवता पालितं बलम्।
मन्ये किन्तु तदेतद्वै यद्धितं तत् प्रधार्यताम्॥२
कर्णः—
ब्रूहि14तत् पुरुषव्याघ्र त्वं हि प्राज्ञतमो नृषु।
यथा चार्थपतिः कृत्यं पश्यते न तथेतरः॥३
वयं15 सर्वे तव वचश् श्रोतुकामा नरेश्वर।
तस्यायं हि भवान् वाक्यं यादिति मतिर्मम॥४
दुर्योधनः—
भीष्मस्सेनाप्रणेताऽऽसीद् वयसा विक्रमेण च।
श्रुतेन च सुसम्पन्नस् सर्वेर्योधगणैस्सह॥५
तेनातिरथिना कर्ण घ्नता शत्रुगणान् मम।
सुयुद्धेन दशाहानि पालितास्म महात्मना॥६
तस्मिन्नसुकरं कर्म कृतवत्यास्थिते दिवम्।
कं नु सेनाप्रणेतारं मन्यसे तदनन्तरम्॥७
ऋते तु नायकं सेना मुहूर्तं नावतिष्ठते।
आहवेषुविशेषेण भ्रष्टनेत्रेष्विवाञ्जनम्॥८
आहवेप्वाहवश्रेष्ठ नेतृहीनेव नौर्जले॥८॥
यथा ह्यकर्णधारा नौ रथश्चासारथिर्यथा।
द्रवेद्यथेष्टं तद्वत् स्याद् ऋते सेनापतेर्बलम्॥९॥
स भवान् वीक्ष्य सर्वेषु मामकेषु महात्मसु।
पश्य सेनापतिं युक्तम् अनुशास्तु भवानिह॥१०॥
यं हि सेनाप्रणेतारं भवान् वक्ष्यति संयुगे।
तं वयं सहितास्सर्वे प्रकरिष्याम नायकम्॥११॥
कर्णः—
सर्व एव महात्मान इमे पुरुषसत्तमाः।
सेनापतित्वमर्हन्ति नात्र कार्या विचारणा॥१२॥
कुलसंहननज्ञानवलविक्रमबुद्धिभिः।
युक्ताः कृतज्ञा ह्रीमन्त आहवेष्वनिवर्तिनः॥१३॥
युगपन्न तु ते शक्याः कर्तुं सर्वे पुरस्सराः।
एक एवात्र कर्तव्यो यस्मिन वैशेषिका गुणाः॥१४॥
अन्योन्यस्पर्धिनां तेषां यद्येकं त्वं करिष्यसि।
शेषा विमनसोऽयर्थं न योत्स्यन्तीह भारत॥१५॥
अयं तु सर्वसैन्यानाम् आचार्यस्स्थविरो गुरुः।
युक्तस्मेनापतित्वाय द्रोण शस्त्रभृतां वरः॥१६॥
को हि तिष्ठति सङ्ग्रामे द्रोणे ब्राह्मणपुङ्गवे।
सेनापतिरिहान्योऽस्माच् छुक्राङ्गिरसदर्शनात्॥१७॥
न16 च स ह्यस्ति योधस्ते सर्वराजसु भारत।
यो द्रोणं समरं यान्तम् अनुयास्यति संयुगे॥१८॥
एषसेनाप्रणेतृणाम् एप शत्रभृतां वरः।
एषबुद्धिमतां श्रेष्ठो ब्राह्मणस्स्थविरो गुरुः॥१९
एनं दुर्योधनाचार्यम् आशु सेनापतिं कुरु।
जिगीषन्तोऽसुरान् सङ्खयेकार्तिकेयमिवामराः ॥२०॥
सञ्जयः—
कर्णस्य वचनं श्रुत्वा राजा दुर्योधनस्तदा।
सेनामध्यगतं द्रोणम् इदं वचनमब्रवीत्॥२१॥
दुर्योधनः—
वर्णश्रैष्ठ्यात् कुलोत्पत्त्या श्रुतेन वयसा धिया।
वीर्याद्दाक्ष्यादधृष्यत्वाद्अर्थज्ञानान्नयान्वयात्॥२२॥
तपसा च कृतज्ञत्वाद् वृद्धस्सर्वगुणैस्तथा।
युक्तो भवत्समो गोप्ता राज्ञामन्यो न विद्यते॥२३॥
स भवान् पातु नस्सर्वान विबुधानिव वासवः॥२४
त्व17या18 नेत्रा पराञ्जेतुम् इच्छामो द्विजसत्तम्।
रुद्राणामिव कापालिर् वसूनामिव पावकः॥२५
कुवेर इव यक्षाणां मरुतामिव वासवः।
वसिष्ठ इव विप्राणां तेजसामिव भास्करः॥२६
पितृणामिव धर्मोऽथ आदित्यानामिवाम्बुराट्।
नक्षत्राणामिव शशी वीरुधामंशुमानिव॥२७
सर्वेषामिव लोकानां विश्वस्य च यथा क्षयः।
विश्वोत्पत्तिस्थितिलये श्रेष्ठो नारायणः प्रभुः॥२८
एवं सेनाप्रणेतृणां मम सेनापतिर्भव॥२८॥
एकादशेमा वशगा अक्षौहिण्यस्तवानघ।
ताभिश्शत्रून् प्रतिव्यूह्य जहीन्द्रो दितिजानिव॥२९॥
प्रयातु स भवानग्ने देवानामिव पावकिः।
अनुयास्यामहे त्वाऽऽजौ सौरभेया इवर्षभम्॥३०॥
उग्रधन्वा महेष्वासो दिव्यं विष्फारयन् धनुः।
दृष्ट्वा भवन्तं सङ्ग्रामे नार्जुनः प्रसहिष्यते॥३१॥
ध्रुवं युधिष्ठिरं सङ्ख्ये ससैन्यं सहवान्धवम्।
जेतास्मि पुरुषव्याघ्र भवान् सेनापतिर्यदि॥३२॥
सञ्जयः—
एवमुक्ते ततो द्रोणे जयेत्यूचुर्नराधिपाः।
सिंहनादेन संहृष्टा हर्षयन्तस्तवात्मजम् ॥३३॥
वेगिताश्च मुदायुक्ता वर्धयन्तो द्विजोत्तमम्।
दुर्योधनं पुरस्कृत्य प्रार्थयन्तो महद्यशः ॥३४॥
द्रोणः—
वेदान् पडङ्गान् वेदाहम् अर्थविद्यां च मानवीम्।
त्रैय्यम्बकमथेष्वस्त्रं अस्त्राणि विविधानि च॥३५॥
ये चाप्युक्ता मयि गुणा भवद्भिर्जयकाङ्क्षिभिः।
चिकीर्षस्तानहं सत्यान् योधयिष्यामि पाण्डवान् ॥३६॥
सञ्जयः—
एवमुक्तोऽभ्यनुज्ञातश् चक्रे सेनापतिं तदा।
द्रोणं तव सुतो राजन् विधिदृटेन कर्मणा॥३७॥
तथाऽभिपिषिचुर्द्रोणं दुर्योधनमुखा नृपाः।
स्वस्तिवादरवैश्चान्यैश् श्लक्ष्णैश्चान्यैर्मनोरमैः॥३८॥
यथा सेनापतिं स्कन्दं पुरा शक्रमुखास्सुराः॥३९
ततो वादित्रघोषेण सह पुंसां महात्मनाम्।
प्रादुरासीत्ततो द्रोणे कृते सेनापतौ रवः॥४०
ततः पुण्याहघोषेण साशीर्वादस्वनेन च।
सूतमागववन्दीनां संस्तवैर्गीतमङ्गलैः॥४१
जयशब्दैर्मनोज्ञैश्च नर्तनैस्तत्र तं प्रति।
सत्कृत्य विधिवद् द्रोणं जितान्, मन्यन्त पाण्डवान्॥४२
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥
॥६५॥ द्रोणाभिषेकपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥
{ अन्निध्याये ४२ श्लोकाः}
महाभारतम्
॥ षष्ठोऽध्यायः ॥
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** सञ्जयेन धृतराष्ट्रं प्रति द्रोणपराक्रमवर्णनम्॥**
सञ्जयः—
सैनापत्यं तु सम्प्राप्य भारद्वाजो महारथः।
युयुत्सुव्युर्ह्य19सैन्यानि प्रायात्तव सुतैस्सह॥१
सैन्धवश्च कलिङ्गश्च विकर्णश्च तवात्मजः।
दक्षिणं पक्षमास्थाय समतिष्ठन्त दंशिताः॥२
प्रपक्षं शकुनिस्तेषांप्रवरैर्हयसादिभिः।
ययौगान्धारकैस्सार्वंविमलप्रामयोधिभिः॥३
कृपश्च कृतवर्मा च चित्रसेनो विविंशतिः।
दुशासनमुखा यत्तास् सव्यं पक्षमपालयन्॥४
तेषां पक्षप्रपक्षाश्च सुदक्षिणपुरस्सराः।
ययुरश्वैर्महावेगैश् शकाञ्च यवनैस्सह॥५
अङ्गास्त्रिगर्तास्साम्वष्ठाः प्रतीच्योकीच्यवासिनः।
शिवयः शूरसेनाश्च मल्लाश्च मलदैस्सह॥६
सौवीराः कितवाः प्राच्या दाक्षिणात्याञ्च सर्वशः।
तवात्मजं पुरस्कृत्य सूतपुत्रस्य पृष्ठतः॥७
हर्षयन् सर्वसैन्यानि बलेषु बलमादधत्।
ययौ वैकर्तनः कर्णः प्रमुखः सर्वधन्विनाम्॥८
तस्य दीप्तो महाकायस् स्वान्यनकाति हर्षयन्।
हस्तिकक्ष्यो महाकेतुर् वभौ सूर्यसमद्युतिः॥९
न भीष्मव्यसनं कश्चिद् दृष्ट्वा कर्णममन्यत॥९॥
विशोकास्समपद्यन्त राजानः कुरुभिस्सह।
हृष्टाश्च बहवो योधास् तत्र जल्पन्ति संयुगे॥१०॥
योधाः—
न हि कर्णं रणे दृष्ट्वा जये स्थास्यन्ति पाण्डवाः॥११
कर्णो हि समरे शक्तोजेतुं देवानपि ध्रुवम्।
किं पुनः पाण्डवान् युद्धे हीनवीर्यपराक्रमान्॥१२
भीष्मेण समरे पार्थाः पालिता वलशालिना।
तांस्तु कर्णः शरैस्तीक्ष्णैर् नाशयिष्यत्यसंशयम्॥१३
सञ्जयः—
एवं ब्रुवन्तस्तेऽन्योन्यं हृष्टरूपा विशां पते।
राधेयं पूजयन्तञ्च प्रशंसन्तञ्च निर्ययुः॥१४
अस्माकं शकटव्यूहो द्रोणेन विहितोऽभवत्।
परेषांक्रौञ्च एवासीद् व्यूहो राजन् महात्मनाम्॥१५
प्रीयमाणेन विहितो धर्मराजेन मारिष॥१५॥
व्यूहप्रमुखतस्तेषां आस्थितौ भरतर्षभ।
वानरध्वजमुच्छ्रिय विष्वक्सेनधनञ्जयौ॥१६॥
ककुदं सर्वसैन्यानां लक्ष्म सर्वधनुष्मताम्।
आदित्यपथगः केतुः पार्थस्यामिततेजसः॥ १७॥
दीपयामास तत् सैन्यं पाण्डवस्य महात्मनः।
यथा प्रज्वलितस्सूर्यो युगान्ते वै वसुन्धराम् ॥१८॥
अस्यतामर्जुनश्श्रेष्ठो गाण्डीवं धनुषांवरम्।
वासुदेवश्च भूतानां चक्राणां च सुदर्शनम् ॥१९॥
चत्वार्येतानि तेजांसि वहञ् श्वेतहयो रथः।
परेषामग्रतस्तस्थौ कालचक्रमिवोद्यतम् ॥२०॥
एवमेतौ महात्मानौ बलसागरगावुभौ।
तावकानां मुखं कर्णः परेषां तु धनञ्जयः ॥२१॥
यौ तौ जाताभिसंरम्भौ परस्परवधैषिणौ।
दृष्ट्वाऽन्योन्यं रणे कोपात् पेततुः कर्णपाण्डवौ ॥२२॥
सम्प्रयाते तु सहसा भारद्वाजे महारथे।
सिंहनादेन महता वसुधा समकम्पत॥२३॥
ततस्तुमुलमाकाशम् आवृणोत् सदिवाकरम्।
वातोद्धतं रजस्तीव्रं कौशेयनिकरोपमम्॥२४॥
अनभ्रेवर्षति व्योम्नि मांसास्थिरुधिराण्युत।
गृध्राः कङ्का वलश्येना वायसाश्च सहस्रशः॥२५॥
उपर्युपरि सेनां ते तदा पर्यपतन् नृप॥२६
गोमायवश्च प्राक्रोशन् भैरवा दारुणस्वराः।
अकार्पुरसव्यं च पृतनां बहुशस्तव॥२७
चिखादिषन्तो मांसानि पिपासन्तश्च शोणितम्॥२७॥
अपतन् दीप्यमानाञ्च निर्घाताश्च सुदारुणाः।
उल्का20 ज्वलन्त्यस्सेनां ते उचैरावृत्य सर्वशः॥२८॥
परिवेषोमहांश्चैव सविद्युत् स्तनयित्नुमान्।
भास्करस्याभवद्राजन् प्रयाते वाहिनीपतौ॥२९॥
एते चान्ये च बहवः प्रादुरासन् सुदारुणाः॥
उत्पातास्तव सेनायां प्रयाते सत्यविक्रमे॥३०॥
ततः प्रववृते युद्धं तुमुलं रोमहर्षणम्।
कुरुपाण्डवयोधानां शब्देनानादयज्जगत्॥३१॥
ते त्वन्योन्यं समारब्धाः पाण्डवास्सह कौरवैः।
प्रत्यघ्नन्निशितैर्वाणैर् जयगृद्ध्राःप्रमन्यवः॥३२॥
स पाण्डवानां महतीं महेष्वासो महाद्युतिः।
वेगनाभ्यद्रवत् सेनां किरञ् शरशतैश्शितैः॥३३॥
द्रोणमभ्यागतं दृष्ट्वा पाण्डवास्सहसृञ्जयैः।
प्रत्यगृह्वंस्तदा राजञ् छरवर्षैःपृथक् पृथक्॥३४॥
सङ्क्षोभ्यमाणा द्रोणेन भिद्यमाना च सा चमूः।
व्यशीर्यतसपाञ्चाला वातेनेव वलाहकाः॥३५॥
बहून्यपि विकुर्वाणो दिव्यान्यत्राणि संयुगे।
अपीडयत् क्षणेनैव द्रोणः पाण्डवसृञ्जयान्॥३६॥
ते हन्यमाना द्रोणेन वासवेनेव दानवाः।
पाञ्चालास्समकम्पन्त धृष्टद्युम्नपुरोगमाः॥३७॥
ततो दिव्यास्त्रविच्छूरो याज्ञसेनिर्महाबलः।
अच्छिनच्छरवर्षेण द्रोणानीकमनेकधा॥३८॥
द्रोणस्य शरवर्षाणि शरवर्षेण पार्षतः।
सन्निवार्य ततस्सर्वान् कुरुनभ्यपतद्बली॥३९॥
सङ्गृह्य तु ततो द्रोणस् समवस्थाप्य चाहवे।
स्वमनीकं महाबाहुः पार्षतं समभिद्रवत्॥४०॥
स तु वाणमयं वर्षम् असृजत् पार्षतं प्रति।
मघवान् समभिक्रुद्धस् सहसा दानवेष्विव॥४१॥
ते कम्प्यमाना द्रोणेन वाणैः पाण्डवसृञ्जयाः।
पुनः पुनरभज्यन्त सिंहेनेवेतरे मृगाः॥ ४२॥
अथ पर्यपतद्द्रोणः पाण्डवानामनीकिनीम्।
अलातचक्रवद्राजंस् तदद्भुतमिवाभवत् ॥४३॥
खचरनगरकल्पं कल्पितं शास्त्रदृष्ट्या
पवनचलपताकं ह्रादिनं वल्गिताश्वम्।
स्फटिकविमलकेतुं तापनं शात्रवाणां
रथवरमधिरूढश्शत्रुसेनां जगाहे॥४४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि षष्टोऽध्यायः ॥६॥
॥ ६५ ॥ द्रोणाभिषेकपर्वणि पष्ठोऽध्यायः ॥६॥
[ अस्मिन्नध्याये ४४॥ श्लोकाः ]
॥ सप्तमोऽध्यायः ॥
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द्रोणनिधनकथनम्॥
सञ्जयः—
तथा द्रोणमरीन् घ्रन्तं साश्वसूतरथद्विषान्।
व्यथिताः पाण्डवा राजन् न चैनं प्रत्यवारयन्॥१
ततो युधिष्ठिरो राजा धृष्टद्युम्नधनञ्जयौ।
अब्रवीत् सर्वतो यत्नात् कुम्भयोनिर्निवार्यताम्॥२
तत्रैनमर्जुनश्चैव धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः।
ये चान्ये पार्थिवा राजन् पाण्डवस्यानुसैनिकाः॥३
पर्यगृह्णस्ततस्तत्र समागच्छन् महारथाः॥३॥
केकया भीमसेनश्च सौभद्रश्च घटोत्कचः।
युधिष्ठिरो यमौ मात्स्यो द्रुपदश्चात्मजैस्सह॥४॥
द्रौपदेयाश्च संहृष्टा धृष्टकेतुस्ससात्यकिः।
चेकितानश्च सङ्क्रुद्धो युयुत्सुश्च महारथः॥५॥
ये चान्ये पार्थिवा राजन् पाण्डवस्यानुयायिनः।
बलवीर्यानुरूपाणि चक्रुः कर्माण्यशेषतः॥६॥
सम्भिद्यमानां तां दृष्ट्वा पाण्डवैर्वाहिनीं रणे।
व्यावृत्य चक्षुषी कोषाद् भारद्वाजोऽन्ववैक्षत॥७॥
स तीव्रं वेगमास्थाय विष्वग्वात इवोत्थितः।
व्यधमत् पाण्डवानीकं महाभ्राणीव मारुतः॥८॥
स्थानश्वान् नरान् नागान्अभ्यधावत् समन्ततः।
चचारोन्मत्तवद्रोणो वृद्धोऽपि तरुणो यथा॥९॥
तस्य शोणितदिग्वाङ्गाश् शोणाः पवनरंहसः।
आजानेया हया राजन्नभ्रमन् वै शिवं पुनः॥१०॥
तमन्तकमिव क्रुद्धम् आपतन्तं यतव्रतम्।
दृष्ट्वा सम्प्राद्रवन् योधाः कौन्तेयस्य ततस्ततः॥११॥
तेषां प्राद्रवतां भीमः पुनरावर्ततामपि।
वीक्षतां तिष्ठतां चासीच् छब्दः परमदारुणः॥१२॥
शूराणां हर्षजननो भीरूणां भयवर्धनः।
द्यावापृथिव्योर्विवरं समालम्वत स स्वनः॥१३॥
ततः पुनरपि द्रोणो नाम विश्राव्य चात्मनः।
अकरोद्रौद्रमात्मानं किरञ्छरशतैः परान्॥१४॥
स तथा पाण्डवेयस्य तान्यनीकानि भारत।
कालवन्न्यहनद्द्रोणो युवेव स्थविरो बली॥१५॥
उत्कृय तु शिरांस्युग्रो वाहूनपि सुभूषणान्।
कृत्वा शून्यान् रथोपस्थान् उदक्रोशन्महारवान् ॥१६॥
तस्य हर्षप्रणादेन वाणवर्षेण चाभि भो।
अकम्पन्त रणे योधा मूत्रं चापि प्रसुस्रबुः ॥१७॥
द्रोणस्य रथघोषेण मौर्वीनिष्पेषणेन च।
धनुशब्देन चाकाशे शब्दस्समभवन्महान् ॥१८॥
अथास्य धनुषो बाणा निस्सरन्तस्सहस्रशः।
व्याप्य सर्वा दिशः पेतुर् नागाश्वरथपत्तिषु ॥१९॥
तं कार्मुकमहावेगम् अस्त्रज्वलितपावकम्।
द्रोणमावारयाञ्चक्रुः पाञ्चालाः पाण्डवैस्सह ॥२०॥
सनागरथपत्त्यश्वान् प्राहिणोद्यमसादनम्।
अचिरादकरोद्द्रोणो महीं शोणितकर्दमाम् ॥२१॥
तन्वता परमास्त्राणि शरान् सततमस्यता।
द्रोणेन विहितं दिक्षु वाणजालमदृश्यत ॥२२॥
पदातिषु स्थाश्वेषु वारणेषु च सर्वशः।
तस्य विद्युदिवाभ्रेषु चरन् केतुरदृश्यत ॥२३॥
स केकयानां प्रवरांश्च पञ्च
पाञ्चालराजं च शरैः प्रमथ्य।
युधिष्ठिरानीकमदीनसत्त्वो
द्रोणोऽभ्ययात् कार्मुकवाणपाणिः ॥२४॥
तं भीमसेनश्च धनञ्जयश्च
शिनेश्च नप्ता द्रुपदात्मजश्च।
तथाऽऽर्जुनिः काशिपतिश्च शैब्यो
हृष्टा नदन्तो व्यकिरञ् छरौघैः ॥२५॥
तेषां शरा द्रोणशरैर्निकृत्ता
भूमावदृश्यन्त विवर्तमानाः।
श्रेणीकृतास्संयति मोघवेगा
द्वीपेनदीनामिव काशरोहाः ॥२६॥
ते द्रोणबाणासनविप्रमुक्ताः
पतत्रिणः काञ्चनचित्रपुङ्गाः।
भित्त्वा शरीराणि गजाश्वयूनां
जग्मुर्महीं बर्हिणवर्हवाजाः॥२७॥
सा योधसङ्घैश्च रथैञ्च भूमिश्
शरैर्विभिन्नैर्गजवाजिभिश्च।
प्रच्छाद्यमाना सहसा वभूव
समावृता द्यौरिव लोहिताभ्रैः॥२८॥
शैनेयभीमार्जुनवाहिनीपाञ्
छैब्याभिमन्यू च सकाशिराजौ।
अन्यांश्च वीरान् सहसा प्रमृद्राद्
द्रोणस्सुतानां तव भूतिकामः॥२९॥
एतानि चान्यानि च भारतेन्द्र
कर्माणि कृत्वा समरे महान्ति।
प्रताप्य लोकानिव कालसूर्यो
द्रोणो गतस्स्वर्गमितो हि राजन्॥३०॥
एवं रुक्मरथश्शूरो हत्वा शतसहस्रशः।
पाण्डवानां रणे योधान् पातेन निपातितः॥३१॥
अक्षौहिणीमभ्यधिकां शूराणामनिवर्तिनाम्।
निहत्य पश्चाद्युतिमान् अगच्छत् परमां गतिम्॥ ३२॥
पाण्डवैस्सहपाञ्चालैर् अशिवैः क्रूरकर्मभिः।
हतोरुक्मरथो राजन् कृत्वा कर्म सुदुष्करम् ॥३३॥
हाहा धिगिति भूतानां शब्दस्समभवन्महान् ॥३४॥
देवाश्च पितरश्चैव पूर्वे ये चास्य मानवाः।
दद्दशुर्निहतंतत्र भारद्वाजं महारथम् ॥३५॥
पाण्डवास्तु जयं लब्ध्वा सिंहनादान् प्रचक्रिरे।
ततो निनादो भूतानाम् आकाशे समपद्यत ॥३६॥
सैन्यानां च ततो राजन्नाचार्ये निहते युधि।
धरां व्योम दश दिशः प्रदिशश्चान्वनादयत्॥३७
तेन नादेन महता समकम्पत मेदिनी॥३७॥
विचित्रजाम्बूनदभूषितध्वजं
महारथं रुक्मरथं निपातितम्।
निशम्य कश्चिद्धि न हर्षमेयिवान्
ऋते मृधे द्रुपदसुतात् ससृञ्जयात्॥३८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि सप्तमोऽध्यायः॥ ७॥
॥६५॥ द्रोणाभिषेकपर्वणि सप्तमोऽध्यायः॥७॥
[ अस्मिन्नध्याये ३८॥ श्लोकाः]
द्रोणपर्वणि–द्रोणाभिषेकपर्व
॥ अष्टमोऽध्यायः॥
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द्रोणमरणश्राविणो धृतराष्ट्रस्य तद्गुणानुवर्णनपूर्वकं शोचनम्॥
धृतराष्ट्रः—
किं कुर्वाणं रणे द्रोणं जघ्नुःपाण्डवसृञ्जयाः।
तथा निपुणमस्त्रेषु सर्वशस्त्रभृतामपि॥१
रथः पर्यपतद्वाऽस्य धनुर्वाऽशीर्यतास्यतः।
प्रमत्तो वाऽभवद्रोणोयथा मृत्युमुपेयिवान्॥२
कथं तु पार्षतस्तात शत्रुभिर्दुष्प्रदर्षणम्।
किरन्तमिपुसङ्घस्तान् रुक्मपुङ्खाननेकशः॥३
क्षिप्रहस्तं द्विजश्रेष्ठं कृतिनं चित्रयोधिनम्।
दूरेषुपातिनं दान्तम् अस्त्रयुद्धे च पारगम्॥४
पाञ्चालपुत्रो न्यहनद् इष्वासवरमच्युतम्।
कुर्वाणं दारुणं कर्म रणे यत्तं महाबलम्॥५
व्यक्तं दिष्टं हि बलवत् पौरुषादिति मे मतिः।
यत्र द्रोणो हतश्शूरः पार्वतेन दुरात्मना॥६
शस्त्रं चतुर्विधं शूरे यस्मिन् नित्यं प्रतिष्ठितम्।
तमिष्वासवराचार्यं द्रोणं शंससि मे हृतम्॥७
श्रुत्वा हतं रुक्मरथं वैयाघ्रपरिवारणम्।
जातरूपपरिष्कारं नाद्य शोकमपानुदे॥८
न नूनं परदुःखेन कश्चिन्म्रियति सञ्जय।
यत्र द्रोणं रणे श्रुत्वा हतं जीवामि न म्रिये॥९
अश्मसारमयं नूनं सुदृढं हृदयं मम।
श्रुत्वा च निहतं द्रोणं शतधेदं न दीर्यते॥१०
ब्राह्मे वेदे तथेष्वस्त्रे यमुपासन् गुणार्थिनः।
ब्राह्मणा राजपुत्राश्च स कथं मृत्युना ह्तः॥११
शोषणं सागरस्येव मेरोः पर्यसनं यथा।
पतनं भास्करस्येव न मृष्ये द्रोणपातनम् ॥१२
दुष्टानां प्रतिरोद्धाऽऽसीद् धार्मिकाणां तु रक्षिता।
अत्याक्षीत् स नृपस्यार्थे प्राणानपि सुदुस्त्यजान् ॥१३
मन्दानां मम पुत्राणां जयाशा यस्य विक्रमे।
बृहस्पत्युशनस्तुल्यो बुद्ध्या स निहतः कथम्॥१४
सर्वेषां तु गुणानां यस् स्थितिरासीन्महाद्युतिः।
मृत्युर्यद्वशगस्तिष्ठेत् स कथं मृत्युना हतः॥१५
ते हि शोणा बृहन्तोऽश्वाश छन्ना जालैर्हिरण्मयैः।
रथे वातजवा युक्तास् सर्वशब्दातिपातिनः॥१६
बलिनो21 घोषिणो दान्तास् सैन्धवास्साधुवाहिनः।
दृढास्सङ्ग्राममध्ये तु कच्चिदासन् न विह्वलाः॥१७
वारणारवगा युद्धे शङ्खदुन्दुभिघोषिणः।
ज्याक्षेपशरवर्षाणां मुख्यानां च सहिष्णवः॥१८
आशंसन्तः पराञ्जेतुं जितश्वासा जितव्यथाः।
हयाः पराजिताश्शीघ्रा भारद्वाजरथोद्वहाः॥ १९
ते22 च रुक्मरथे युक्ता नरवीरसमास्थिताः।
कथं नात्यचरञ् शीघ्रं पाण्डवानामनीकिनीम्॥२०
तं तु रुक्मरथं दृष्ट्वा विद्रवन्ति स्म शत्रवः।
दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणं सङ्गतास्सर्वतः परे॥२१
जातरूपपरिष्कारम् आस्थितो रथमुत्तमम्।
भारद्वाजः किमकरोच् छूरस्सङ्क्रन्दनो यथा॥२२
विद्यास्त्वस्योपजीवन्ति सर्वलोकधनुर्भृतः।
स सत्यसन्धो बलवान् द्रोणः किमकरोद्युधि॥२३
दिवि शक्रमिव श्रेष्ठं महामात्रं धनुर्भृताम्।
के तु तं रौद्रकर्माणं युद्धे प्रत्युद्ययू रथाः॥२४
के तु रुक्मरथं दृष्ट्वा प्राद्रवन्ति स्म पाण्डवाः।
दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणं सेनां क्षिण्वन्तमव्ययाम्॥२५
उताहो सर्वसैन्येन धर्मराजस्सहानुजः।
पाञ्चालप्रग्रहोद्रोणं सर्वतः पर्यवारयत्॥२६
नूनमावारयत् पार्थो रथिनोऽन्यानजिह्मगैः।
ततो द्रोणं तदाऽरौत्सीत् पार्षतः क्रूरकर्मकृत्॥२७
न ह्यन्यं परिपश्यामि हन्तारं तस्य शुष्मिणः।
धृष्टद्युम्नाद्दते पापात् पाल्यमानात् किरीटिना॥२८
उताहो सर्वसैन्येन धर्मराजस्सहानुजः।
उत्सृज्य सर्वसैन्यानि द्रोणमेवाभिदुद्रुवे॥२९
तैर्वृतस्सर्वतः क्षुद्रैः पाञ्चालापशदैस्तदा।
केकयैश्चेदिकारुशैर्मत्स्यैरन्यैश्च भूमिपैः॥३०
व्याकुलीभूतमाचार्यं23 पिपीलैरुरगं यथा।
कर्मण्यसुकरे युक्तं जघानैकं सहायवान्॥३१
योऽधीत्य चतुरो वेदान् सर्वानाख्यानपञ्चमान्।
ब्राह्मणानां24 प्रतिष्ठाऽऽसीत् स्रोतसामिव सागरः॥३२
दृप्तानां प्रतिषेद्धा च चक्षुरासीदचक्षुषाम्।
अमर्षीचावलिप्तेषु धार्मिकेषु च धार्मिकः॥३३
स कथं ब्राह्मणो वृद्धश् शस्त्रेण वधमाप्तवान्।
अमर्षिणो मर्षितवान् क्लिश्यमानो मयाऽसकृत्॥३४
अनर्हमाणान् कौन्तेयान् कर्मणस्तस्य तत् फलम्॥३४॥
यस्य कर्मानुवर्तन्ते लोके सर्वधनुर्भृतः।
सत्यसन्धस्सत्यधृतिश् श्रीकामैर्निहतः कथम्॥३५॥
दिवि शक्र इव श्रेष्ठो महासत्त्वो महाबलः।
स कथं निहतः पार्थैः क्षुद्रमत्स्यैस्तिमिर्यथा॥३६॥
क्षिप्रहस्तो महाबाहुः दृढवर्माऽरिमर्मभित्।
न ह्यस्य जीविताकाङ्क्षी विषयं प्राप्य जीवति॥३७॥
यं द्वौ न जहतुश्शब्दौ जीवमानं कदाचन।
ब्राह्मश्च वेदकामानां ज्याशब्दश्च धनुष्मताम् ॥३८॥
अस्त्रं चतुष्पात् सकलं यस्मिन्नासीत् प्रतिष्ठितम्।
तमिष्वासवराचार्यं द्रोणं जघ्रुःकथं रथाः॥३९॥
नाहं मन्ये हृतं द्रोणं स हि लोकमयोत्स्यत्।
को हि शक्तो रणे जेतुम् अनाधृष्ययशोबलम् ॥४०॥
ब्रह्मकल्पो भवेद्ब्राह्मेक्षात्रे नारायणोपमः।
ब्रह्मक्षत्रे च यस्यास्तां वशे स्थाणोरिवाखिले ॥४१॥
सर्वान् हि मामकान् वीरान् सहाश्वरथकुञ्जरान्।
युधिष्ठिरस्य तपसा हतान् मन्यामहे कुरुन् ॥४२॥
केऽरक्षन् दक्षिणं चक्रं के सव्यं के च पृष्ठतः।
पुरस्तात् के च वीरस्य युध्यमानस्य संयुगे ॥४३॥
के नु तत्र तनुं त्यक्त्वा प्रतीपं मृत्युमाव्रजन्।
द्रोणस्य समरे वीराः केऽकुर्वन्त परां धृतिम् ॥४४॥
एतदार्येण कर्तव्यं कृच्छ्रास्वापत्सु सञ्जय।
यथाशक्ति च युद्ध्येत द्विषद्भिस्वांश्च पालयेत् ॥४५॥
कच्चिन्नैनंभयात् क्षुद्राः पार्थेभ्यः प्रददुरणे।
गोप्तृभिस्तैस्समुत्सृष्टः कञ्चिन्नैषपरैर्हतः ॥४६॥
धृष्टद्युम्नं प्रपश्यामि निघ्नन्तमिव ब्राह्मणम्।
वार्यमाणं रणे तात द्रौणिनाऽमिततेजसा ॥४७॥
मुह्यते मे मनस्तात मा तावत् किञ्चिदुच्यताम्।
भूयस्तु लब्धसंज्ञस्सन् परिप्रक्ष्यामि सञ्जय ॥४८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि अष्टमोऽध्यायः ॥८॥
॥६५॥ द्रोणाभिषेकपर्वणि अष्टमोऽध्यायः ॥८॥
[अस्मिन्नध्याये ४८॥ श्लोकाः]
॥ नवमोऽध्यायः ॥
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** द्रोणमरणश्रवणेन मूर्छितस्य धृतराष्ट्रस्य परिचारिकाभिर्जलसेचनादिना समुद्बोधनम् ॥१॥ धृतराष्ट्रेण सञ्जयं प्रति युद्धकथनचोदना ॥२॥**
वैशम्पायनः—
एवं पृष्ट्वा सूतपुत्रं हृच्छोकेनार्दितो भृशम्।
जये निराशः पुत्राणां धृतराष्ट्रोपतत् क्षितौ ॥१॥
तं विसंज्ञं निपतितं सिषिचुः परिचारिकाः।
जलेनात्यन्तशीतेन जीवन्त्यः पुण्यगन्धिना॥२
पतितं चैनमाज्ञाय समस्ता भरतस्त्रियः।
परिवव्रुर्महात्मानं संस्पृशन्त्यश्च पाणिभिः॥३
उत्थाप्य चैनं शनकै राजानं पृथिवीतलात्।
आसनं प्रापयामासुर् वाष्पकण्ठ्यो वराङ्गनाः ॥४
आसनं प्राप्य राजा तु मूर्छयाऽभिपरिप्लुतः।
निश्चेष्टोऽतिष्ठत तदा वीज्यमानस्समन्ततः॥५
स लब्ध्वा शनकैस्संज्ञां वेपमानो मुहुर्मुहुः।
पुनर्गावल्गणिं सूतं पर्यवृच्छद्यथातथम्॥६
धृतराष्ट्रः—
यस्सदोद्यन्निवादित्यस् तेजसा प्रणुदेत् तमः।
आयादजातशत्रुर्वा कस्तं द्रोणमवारयत्॥७
प्रभिन्नमिव मातङ्गं तथा क्रुद्धं तरस्विनम्।
असक्तमनसं दृप्तं प्रतिद्विरदघातिनम्॥८
वाशितासङ्गमे यान्तम् अजय्यं प्रतियूथपैः।
अतीत्यान्यान् रणे वीरान् वीरः पुरुषसत्तमः॥९
स ह्येको हि महाबाहुर् निर्दहेद्धोरचक्षुषा।
कृत्स्नं दुर्योधनबलं धृतिमान् सत्यसङ्गरः॥ १०
चक्षुष्मन्तं25 जये सक्तम् इष्वासवररक्षितम्।
दान्तं लोके बहुमतं कस्तं द्रोणमपानुदत्॥११
के दुष्प्रधर्षं राजानम् इष्वासवरमच्युतम्।
समासेदुर्नरव्याघ्रं मदीया वै युधिष्ठिरम्॥१२
तरसैवाभिपद्याथ यो वै द्रोणमुपाद्रवत्।
तं भीमसेनमायान्तं के वीराः पर्यवारयन्॥१३
स यदा जलदप्रख्यो रथघोषेण वीर्यवान्।
पर्जन्य इव वीभत्सुस् तुमुलामशनीं सृजन्॥१४
विसृजञ्छरवर्षाणि वर्षाणि मधवानिव।
इषुसम्बामाकाशं कुर्वन् कपिवरध्वजः॥१५
अवस्फूर्जन् दिशस्सर्वा रथनेमिस्वनेन च।
चापविद्युन्महामेघो रथबृन्दवलाहकः॥१६
नेमिस्वनाभिस्तनितः क्षुरसङ्घातनिस्वनः।
रोषनिर्मितजीमूतो मनोभिप्रायसर्वगः॥१७
मर्मातिगः क्षुरधरस् तुमुलश्शोणितोदकैः।
दिशश्चप्रदिशस्सर्वा मानवैरास्तृणोन्महीम्॥ १८
गदासिविद्युत्कलिलश् शात्रवाणां भयङ्करः।
युद्धेऽभिवर्षन् कौन्तेयो गृध्रपत्रैश्शिलाशितैः॥ १९
गाण्डीवं धनुरादाय क्व तदा प्रत्यवस्थितः॥१९॥
कञ्चिद्गाण्डीवशब्देन न प्रणश्यति मे बलम्॥२०
यंदा वो भैरवं कुर्वन्नर्जुनो भृशमत्यगात्।
वातो26 मेघानिवाविध्य बलवान् भीमविक्रमः॥२१
को हि शक्तो रणे जेतुं मानवः पार्थमीक्षितुम्॥२१॥
कञ्चिन्नापानुदत् प्राणान् इषुभिर्वो धनञ्जयः।
वायुर्मेघानिवादित्यात् रेणूनिव महावलः॥२२॥
को हि गाण्डीवधन्वानं नरस्सोढुं रणेऽर्हति।
यत् सेनास्समकम्पन्त यद्वीरानस्पृशद् भयम्॥२३॥
के तत्र न जहुर्द्रोणं के क्षुद्राः प्राद्रवन् भयात्।
क वा तत्र तनुं त्यक्त्वा प्रतीपं मृत्युमाव्रजन्॥२४॥
अमानुषाणां जेतारं युद्धेष्वपि धनञ्जयम्॥२५
न वै वेगं सिताश्वस्य प्रसहिष्यति मानवः।
गाण्डीवस्य च निर्घोषं प्रावृड्जलदनिस्स्वनम्॥२६
विष्वक्सेनो यत्र यन्ता यत्र योद्धा धनञ्जयः।
अजय्यं तं रथं मन्ये देवैरपि सवासवैः॥२७
सुकुमारो युवा वीरो दर्शनीयश्च पाण्डवः।
मेधावी निपुणो धीमान् युद्धे सत्यपराक्रमः॥२८
तं स्थानां रथं वीरं सदा युद्धेषु दुर्जयम्।
नकुलं पाण्डवश्रेष्ठं के वीराः पर्यवारयन्॥२९
आशीविषइव क्रुद्धस् सहदेवो यद्भ्ययात्।
अमोघवाणसिद्धेपुश् शत्रुभिर्युधि दुर्जयः॥३०
आरावं तुमुलं कुर्वन व्यययन् भैरवान् रणे।
यदाऽभ्ययात् तदा द्रोणं के वीरास्तमवारयन्॥३१
यस्स सौवीरराजस्य प्रसह्यमहतीं चमूम्।
आदत्त महिषी भोज्यां कन्यां सर्वाङ्गशोभनाम्॥ ३२
सत्यं धृतिश्च शौर्यं च ब्रह्मचर्यं च केवलम्।
सर्वाणि युयुवानेऽस्मिन् नित्यानि पुरुषर्षभे॥३३
वलिनं सत्यकर्माणम् अभीतमपराजितम्।
वासुदेवसमं युद्धे वासुदेवादनन्तरम्॥३४
युक्तं धनञ्जयहिते ममानर्थाय कल्पितम्।
पार्थेन सममस्त्रेषु कस्तं द्रोणादवारयत्॥ ३५
वृष्णीनां प्रवरं शूरं शूरं सर्वधनुष्मताम्।
रामेण सममस्रेषु यशसा विक्रमेण च॥३६
सत्यं वृतिश्च शौर्यं च ब्रह्मचर्यमनुत्तमम्।
यस्मिन् नित्यानि सन्ति स्म वीरे सत्यपराक्रमे॥ ३७
तमेवं गुणसम्पन्नं दुर्वारमपि दैवतैः।
समासाद्य महेष्वासंके वीराः पर्यवारयन्॥३८
पाञ्चालेपूत्तमं वीरम् उत्तमाभिजनप्रियम्।
नित्यमुत्तमकर्माणम् उत्तमौजसमाहवे॥३९
युक्तं धनञ्जयहिते ममानर्थार्थमुत्थितम्।
यमवैश्रवणादित्यमहेन्द्रवरुणोपमम्॥४०
महारथं समाख्यातं द्रोणा योद्यन्तमाहवे।
त्यजन्तं तुमुले प्राणान् सात्यकिं के न्यवारयन्॥४१
एकोऽपसृत्य चेदिभ्यः पाण्डवान् यस्समाश्रितः।
धृष्टकेतुं समायान्तं द्रोणात् कस्समवारयत्॥४२
योऽवधीत् केतुमान् वीरो राजपुत्रं सुदर्शनम्।
अपरान्ते गिरिद्वारे कस्तं द्रोणादवारयत्॥४३
स्त्रीपुंसोः पुरुषव्याघ्र यस्स वेद गुणागुणान्।
शिखण्डिनं याज्ञसेनिम् अस्यन्तमपराजितम्॥४४
देवव्रतस्य समरे हेतुं मृत्योर्महात्मनः।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं के शूराः पर्यवारयन्॥४५
यस्मिन्नभ्यधिका वीरे गुणास्सर्वे धनञ्जयात्।
यस्य शस्त्राणि दिव्यानि ब्रह्मचर्यं च नित्यशः॥४६
वासुदेवसमं वीर्ये धनञ्जयसमं बले।
तेजसाऽऽदित्यसङ्काशं बृहस्पतिसमं मतौ॥४७
अभिमन्युं महात्मानं व्यात्ताननमिवान्तकम्।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं के वीराः पर्यवारयन्॥४८
तरुणस्तरणिप्रख्यस् सौभद्रः परवीरहा।
यदाऽभ्ययात् स तं द्रोणं तदाऽऽसीद्वो मनः कथम्॥ ४९
द्रौपदेया नरव्याघ्रास् समुद्रमिव सिन्धवः।
यद्द्रोणमाद्रवन् सङ्ख्चे के वीरास्तानवारयन्॥५०
येऽपि द्वादश वर्षाणि क्रीडामुत्सृज्य बालकाः।
अस्त्रार्थमवसन् भीष्मे विभ्रतो व्रतमुत्तमम्॥५१
क्षत्रञ्जयः क्षत्रदेवः क्षत्रधर्मा च मानदः।
धृष्टद्युम्न्नात्मजान् वीरान् कस्तान् द्रोणादद्वारयत्॥५२
यस्माद्विशिष्टं सङ्ग्रामे न चामन्यन्त वृष्णयः।
चेकितानं महेष्वासं कस्तं द्रोणादवारयत्॥ ५३
वार्धक्षेमिः कलिङ्गानां यः कन्यामाहरद्युधि।
अनाधृष्टिरदीनात्मा कस्तं द्रोणादवारयत्॥५४
केकया भ्रातरः पञ्च धार्मिकास्सत्यविक्रमाः।
इन्द्रगोपसवर्णाश्च रुक्मवर्णायुधध्वजाः॥५५
मातृष्वसृसुता वीराः पाण्डवानां जयैषिणः।
तान् द्रोणं हन्तुमायातान् के वीराः पर्यवारयन्॥ ५६
यं योधयन्तो राजानो नाजयन् वारणावते।
षण्मासानभिसंरब्धा जिघांसन्तो युधां पतिम्॥५७
धनुष्मतां वरं वीरं सत्यसन्धं जितेन्द्रियम्।
द्रोणात् कस्तं नरव्याघ्रं युयुत्सुं समवारयत्॥५८
यः पुत्रं काशिराजस्य वाराणस्यां महारथम्।
समरे स्त्रीपु गृध्यन्तं भल्लेनापाहरद्रयात्॥५९
धृष्टद्युम्नं महेष्वासं पार्थानां मन्त्रधारणम्।
युक्तं दुर्योधनानर्थे सृष्टं द्रोणवधाय च॥६०
निर्दहन्तं रणे द्रोणं वारयन्तं च सर्वशः।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं के वीराः पर्यवारयन्॥६१
उत्सङ्ग इव संवृद्धं द्रुपद्स्यास्त्रवित्तमम्।
शैखण्डिनं क्षत्रगुप्तं के तु द्रोणावारयन्॥६२
य इमां पृथिवीं सर्वां चर्मवत् समवेष्टयत्।
महता रथवंशेन मुख्यारिघ्नो महारथः॥६३
दशाश्वमेधानाजह्नेसमाप्तवरदक्षिणान्।
निरर्गलान् सर्वमेधान् पुत्रवत् पालयन् प्रजाः॥६४
विसृष्टा दक्षिणा यस्य गङ्गाजलमवारयत्।
तावतीर्गा ददौ धीमान् उशीनरसुतोऽध्वरे॥६५
न पूर्वे नापरे चक्रुर् इदं केचन मानवाः।
इति सञ्चुक्रुर्देवाः कृते कर्मणि दुष्करे॥६६
पश्यामस्त्रिषु लोकेषु न च स्थास्नुचरिष्णु च।
जातं वापि जनिष्यद्वा न च सम्प्रति वर्तते ॥६७
अन्यमौशीनराच्छैब्याद् धुरो वोढारमित्युत ॥६७॥
गतिं यस्य न यास्यन्ति मनुष्या लोकवासिनः।
तस्य नप्तारमायान्तं के वीराः पर्यवारयन् ॥६८॥
द्रोणायाभिमुखं यान्तं व्याचाननमिवान्तकम्।
विराटस्य स्थानीकं मात्स्यस्यामित्रघातिनः ॥६९॥
प्रेप्सन्तं समरे द्रोणं के वीराः पर्यवारयन् ॥७०
सद्यो वृकोदराज्जातो महावलपराक्रमः।
मायावी राक्षसो घोरो यस्मान्मम महद्भयम् ॥७१
पार्थानां जयकामं तं पुत्राणां मम कण्टकम्।
घटोत्कचं महाकाय हैडिम्बं को न्यवारयत् ॥७२
पितुर्यमाहुः पितरं वासुदेवं द्विजातयः।
स एषनियतः कृष्ण आपदर्थं धनञ्जये॥७३
सन्नह्यतेयथाऽनर्थे धार्तराष्ट्रस्य सञ्जय।
स्थातारं नाधिगच्छामि प्रत्यनीके महौजसि॥७४
सङ्कर्षणगदौचोभौ प्रद्युम्नोऽथ विडूरथः।
अंशावहश्च साम्बश्च वृष्णिवीराः प्रहारिणः॥७५
एते वै सहितास्तत्र पाण्डवार्थे जिगीषवः।
केशवो यत्र तत्रैते यत्रैते तत्र केशवः॥७६
अर्जुनः केशवस्यात्मा कृष्णश्चात्मा किरीटिनः॥७६॥
अर्जुने तु जयो नित्यं कृष्णे कीर्तिश्च शाश्वती।
प्राधान्यादपि भूयांसो ह्यमेयाः केशवे गुणाः॥७७
मोहात् तु वशिनं कृष्णं न सर्वो वेत्ति माधवम्।
मोहितो देवपाशेन मृत्युपाशपुरस्कृतः॥७८॥
न वेद कृष्णं दाशार्हम् अर्जुनं जयतां वरम्॥७९
आदिदेवौ महात्मानौ नरनारायणावुभौ।
मनसाऽपि हि दुर्धर्षौसेनामेतां तरस्विनौ॥८०
नाशयेतामिहेच्छन्तौ मानुषत्वात् तु नेच्छतः ॥८०॥
युगस्येव विपर्यासो भूतानामिव मोहनम्।
इति मां प्रतिभात्येतद् भीष्मद्रोणनिपातनम्॥८१॥
लोकस्य स्थविरौ वीरौ मन्त्रज्ञौ मन्त्रधारिणौ।
भीष्मद्रोणौ हतौ युद्धे मनुष्यान् मोहयिष्यतः॥८२॥
यां तां श्रियमसूयामि पुरा दृष्ट्वा युधिष्ठिरे।
अद्य तामनुजानामि भीष्मद्रोणौ यदा हतौ॥८३॥
अथवा मत्कृते प्राप्तः कुरूणामेष सङक्षयः।
पकानां27 हि वधे सूत वज्रायन्ते तृणान्यपि॥ ८४॥
एते चान्ये च बहवो येषामर्थाय सञ्जय।
त्यक्तारस्संयुगे प्राणान् किं तेषामजितं युधि ॥८५
येषां च पुरुषव्याघ्रश् शार्ङ्गधन्वा व्यपाश्रयः।
हितार्थी चैव पार्थानां कथं तेषां पराजयः॥८६॥
लोकानां गुरुरत्यन्तं लोकनाथस्सनातनः।
नारायणो रणे नाथो दिव्यो दिव्यात्मवान् प्रभुः ॥८७॥
यस्य दिव्यानि कर्माणि प्रवदन्ति मनीषिणः।
तान्यहं कीर्तयिष्यामि भक्त्या स्थैर्यार्थमात्मनः ॥८८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि नवमोऽध्यायः ॥९॥
॥६५॥ द्रोणाभिषेकपर्वणि नवमोऽध्यायः ॥९॥
[ अस्मिन्नध्याये ८८ ॥ श्लोकाः ]
॥ दशमोऽध्यायः ॥
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धृतराष्ट्रेण प्रसङ्गाद्भक्त्युद्रेकेण श्रीकृष्णचरित्रानुकीर्तनम् ॥१॥ धृत
राष्ट्रेण बहुधा विचिन्त्य सञ्जयं प्रति युद्धकथनचोदना ॥२॥
धृतराष्ट्रः—
शृणु दिव्यानि कर्माणि वासुदेवस्य सञ्जय।
कृतवान् यानि विश्वात्मा यथा नान्यः पुमान् क्वचित् ॥१
संवर्धता गोपकुले वालेन च महात्मना।
विख्यापितं बलं बाल्ये त्रिषु लोकेषु सञ्जय॥२
पूतनां शकटं हत्वा केशिनं चैव वाजिनम्।
ऋषभं धेनुकं चैव अरिष्टं च महाबलम्॥३
गवां मोक्ता महाबाहुर् धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्।
चाणूरं मुष्टिकं चैव रङ्गमध्ये निहत्य च॥४
तथा कंसो महाराजो जरासन्धेन पालितः।
विक्रमेणैव कृष्णेन सानुवन्धाश्रयो हतः॥५
सुनामा नाम विक्रान्तस् समग्राक्षौहिणीपतिः।
भोजराजस्य मध्यस्थो भ्राता कंसस्य वीर्यवान्॥६
बलदेवद्वितीयेन कृष्णेना मित्रघातिना।
तरस्वी समरे दग्धस् ससेनश्शूरसेनराट्॥७
दुर्वासा नाम विप्रश्चतथा परमकोपनः।
आराधितस्सदारेण स चास्मै प्रददौ वरम्॥८
तथा गान्धारराजस्य सुतां वीरस्स्वयंवरे।
निर्जित्य पृथिवीपालान् अवहत् पुरुषर्षभः॥९
अमृष्यमाणा राजानो ऽवहञ् जात्या हया इव।
रथे वैवाहिके युक्ताः प्रतोदेन कृतव्रणाः॥१०
जरासन्धं महाराजम् उपायेन जनार्दनः।
परेण घातयामास समग्राक्षौहिणीपतिम् ॥११
चेदिराजं च विक्रान्तं राजसेनापतिं वली।
अर्घ्येविवदितं वीरं जधान परवीरहा॥१२
सौभं दैत्यपुरं खस्थं साल्वगुप्तं दुरासदम्।
समुद्रकुक्षौ विक्रम्य पातयामास माधवः॥ १३
अङ्गान् बङ्गान् कलिङ्गांश्च मागधान् काशिकोसलान्।
वत्सगर्भकरुशांश्च पुण्ड्रांश्चाथाजयद्रणे॥१४
आवन्त्यान् दाक्षिणात्यांश्च पार्वतीयान् कशेरुकान्।
काश्मीरकानौरभकान् पिशाचांच समन्दकान्॥१५
काम्भोजान् मालवांश्चैव चोलान् पाण्ड्यांश्च माधवः।
त्रिगर्तान् मगधांश्चैव दरदांश्चैव दुर्जयान्॥१६
नानादिग्भ्यश्च सम्प्राप्तान् आन्ध्रान्, म्लेच्छगणानपि।
जितवान् पुण्डरीकाक्षो यवनांश्च सहानुगान्॥१७
प्रविश्य मकरावासं यादोभिरभिसंवृतम्।
जिगाय वरुणं युद्धे सलिलान्तर्गतं पुरा॥१८
युधि पञ्चजनं हत्वा पातालतलवासिनम्।
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो दिव्यं शङ्खमवाप्तवान्॥ १९
खाण्डवे पार्थसहितस् तोषयित्वा हुताशनम्।
आग्नेयमस्त्रं दुर्धर्षं चक्रं लेभे महाबलः॥२०
वैनतेयं समारुह्य त्रासयित्वाऽमरावतीम्।
महेन्द्रभवनाद्वीरः पारिजातमुपानयत्॥२१
तच्च मर्षितवाञ् शक्रोजानंस्तस्य पराक्रमम्।
राज्ञां चाप्यजितं कञ्चित् कृष्णेनेह न शुश्रुम॥२२
अस्यां यन्महदाश्चर्यं सभायां मम सञ्जय।
कृतवान् पुण्डरीकाक्षस् तदन्यः कः करिष्यति॥२३
यच्च भक्त्या प्रपन्नोऽहम् अद्राक्षं कृष्णमीश्वरम्।
तन्मे सुविदितं सर्वं प्रत्यक्षमिव चागमात्॥ २४
नान्तो विक्रमयुक्तस्य बुद्ध्वा युक्तस्य वा पुनः।
कर्मणशक्यते गन्तुं हृषीकेशस्य सञ्जय॥२५
तथा गदञ्च साम्वञ्च प्रद्युम्नोऽथ विदूरथः।
आशावहोऽनिरुद्धश्च चारुदेष्णस्तसारणः॥ २६
उल्मुको निशठञ्चैव विवभ्रुश्चैव वीर्यवान्।
पृथुश्च विपृथुश्चैव समक्रोधाश्च सञ्जय॥२७
एते वै बलवन्तश्च वृष्णिवीराः प्रहारिणः।
कथञ्चित् पाण्डवानीकं श्रयेयुस्समरे स्थिताः॥ २८
आहूता वृष्णिवीरेण केशवेन महात्मनः॥२८॥
ततस्संशयितं सर्वं भवेदिति मतिर्मम॥ २९
नागायुतवलो वीरः कैलासशिखरोपमः।
वनमाली हली रामो यत्र तत्र जनार्दनः॥३०॥
एक एव द्विधाभूतो दृश्यते मानुषैर्भुवि॥ ३०॥
पितॄणामपि यः पूर्वो वेदेषु परिपठ्यते।
सोऽपि कृच्छ्रेषु पार्थानां योत्स्यतेऽर्थाय केशवः॥३१॥
स8 यदा तात संनह्येत् पाण्डवार्थाय केशव।
न तदा प्रत्यनीकोऽन्यो भविता तस्य कश्चन॥३२॥
यदि स्म कुरवस्सर्वे जयेयुर्नाम पाण्डवान्।
वार्ष्णेयोऽर्थाय तेषां वै गृह्णीयाच्छस्त्रमुत्तमम्॥३३॥
ततस्सर्वान् नरव्याघ्रान् हत्वा नारायणो रणे।
कौरवांश्च महाबाहुः कुन्त्यै दद्यात् स मेदिनीम्॥३४॥
यस्य यन्ता हृषीकेशो योद्धा यस्य धनञ्जयः।
रथस्य तस्य कस्सङ्ख्ये प्रत्यनीको भवेद्रथः॥३५॥
न केनचिदुपायेन कुरूणां दृश्यते जयः।
तस्मान्मे सञ्जयाचक्ष्व यथा युद्धमवर्तत्॥३६॥
अर्जुनः केशवस्यात्मा कृष्णश्चात्मा किरीटिनः।
अर्जुने तु जयो नित्यं कृष्णे कीर्तिश्च शाश्वती॥३७॥
प्राधान्येन तु भूयिष्ठा अमेयाः केशवे गुणाः॥३८
मोहात् तु वशिनं कृष्णं न सर्वो वेत्ति माधवम्।
मोहितो देवपाशेन वैष्णवेन समावृतः॥३९॥
न वेद कृष्णं दाशार्हम् अर्जुनं चैव पाण्डवम्।
पूर्वदेवौ महात्मानौ नरनारायणावुभौ ॥४०
एकात्मानौ द्विधाभूतौ दृश्येते मानवैर्भुवि ॥४०॥
मनसाऽपि हि दुर्धर्षौसेनामेतां यशस्विनौ।
नाशयेतामिहेच्छन्तौ मानुषत्वाच्च नेच्छतः॥४१॥
युगस्येव विपर्यासो लोकानामिव मोहनम्।
भीष्मस्य च वधस्तात द्रोणस्य च महात्मनः॥४२॥
न ह्येव ब्रह्मचर्येण न वेदाध्ययनेन च।
न28 क्रियाभिर्न शस्त्रेण मृत्योरध्वनि मुच्यते॥४३॥
लोकसम्भावितौ वीरौ कृतास्त्रौ युद्धदुर्मदौ।
भीष्मद्रोणौ तौ श्रुत्वा किं नु जीवामि सञ्जय॥४४॥
यां तां श्रियमसूयामः पाण्डवस्य महात्मनः।
अद्य तामनुजानीमो भीष्मद्रोणवधेन ह॥४५॥
तथा च मत्कृते प्राप्तः कुरूणामेष सङ्क्षयः॥४६
पक्कानां हि वधे सूत वज्रायन्ते तृणान्यपि॥४६॥
अनन्तमिदमैश्वर्यं काले प्राप्तो युधिष्ठिरः।
यस्य कोपान्महेष्वासौ भीष्मद्रोणौ निपातितौ॥४७॥
प्राप्तः प्रकृतितो धर्मो नाधर्मो मानवान् प्रति।
क्रूरस्सर्वविनाशाय कालोऽयं नातिवर्तते॥४८॥
अन्यथा चिन्तिता ह्यर्था नरैराशापरायणैः।
अन्यथैव हि गच्छन्ति दैवादिति मतिर्मम॥४९॥
तस्मादपरिहार्येऽर्थे सम्प्राप्तं कृच्छ्रमुत्तमम्।
अवारणीयं निश्चित्य यथाभूतं प्रचक्ष्व मे ॥५०॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि दशमोऽध्यायः॥१०॥
॥६५॥ द्रोणाभिषेकपर्वणि दशमोऽध्यायः॥१०॥
[ अस्मिन्नध्याये ५०॥ श्लोकाः ]
॥ एकादशोऽध्यायः॥
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द्रोणचोदितेन दुर्योधनेन युधिष्ठिरस्य जीवग्राहं ग्रहणवरणम् ॥१॥
द्नोणेन अर्जुनासन्निधाने तद्ग्रहणे प्रतिज्ञाते दुर्योधनेन तदुद्धोषणम् ॥२॥
सञ्जयः—
शुश्रूषस्व स्थिरो भूत्वा शंसतो मम भारत।
हन्त ते कथयिष्यामि सर्वं प्रत्यक्षदर्शिवान्॥१॥
यथा सत्यपरो द्रोणस् सादितः पाण्डुसृञ्जयैः।
सेनापतित्वं सम्प्राप्य द्रोणो हर्षभुपेयिवान् ॥२॥
मध्ये सैन्यस्य राजानम् इदं वचनमब्रवीत् ॥२॥
द्रोणः—
यत् कौरवाणामृपभाद्आपगेयादनन्तरम्।
सैनापत्ये त्वया राजन्नद्य सत्कृतवानहम्॥३॥
अनुरूपं फलं तस्य कर्मणो लभ्यतां त्वया।
सदृशं कर्मणस्तस्य फलमाप्नुहि पार्थिव॥४॥
करोमि कामं कं तेऽद्य प्रवृणीष्व यमिच्छसि॥५॥
सञ्जयः—
ततो दुर्योधनो राजा कर्णदुश्शासनादिभिः।
सम्मन्त्र्योवाच दुर्धर्षम् आचार्यं जयतां वरम्॥६॥
दुर्योधनः—
ददासि चेद्वरं मह्यं जीवग्राहं युधिष्ठिरम्।
गृहीत्वा रथिनां श्रेष्ठं मत्सकाशमिहानय॥७॥
इच्छेयं वै महात्मानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
भ्रातॄणां पश्यतामेव जीवग्राहेण मे द्विज॥८॥
प्रीणाम्यनेन29 कार्येण ससुहृज्जनवान्धवः॥
सञ्जयः—
त30तः31 कुरूणामाचार्यश् श्रुत्वा पुत्रस्य ते वचः।
सेनां प्रहर्षयन् सर्वाम् इदं वचनमब्रवीत्॥९॥
द्रोणः—
धन्यः कुन्तीसुतो राजन्, यस्य ग्रहणमिच्छसि।
न वैधं तस्य दुर्धर्ष वरमद्य प्रयाचसे ॥१०॥
किमर्थं च नरव्याघ्र न वधं तस्य काङ्क्षसे ॥११
नाशंससे क्रियामेतां मयि दुर्योधन ध्रुवम्।
आहोस्विद्धर्मराजस्य द्वेष्टा कश्चिन्न विद्यते ॥१२
तमिच्छसि त्वं जीवन्तं कुलं रक्षसिं चात्मनः॥१२॥
अथवा भरतश्रेष्ठ निर्जित्य युधि पाण्डवान्।
राज्यांशं प्रति दत्त्वा च सौभ्रात्रं कर्तुमिच्छसि ॥१३॥
धन्यः कुन्तीसुतो राजा सुजातं तस्य धीमतः।
अजातशत्रुता यस्य येन संस्न्निह्यते भवान् ॥१४॥
सञ्जयः—
द्रोणेन चैवमुक्तस्य तव पुत्रस्य भारत।
सहसा निस्सृतो भावो यस्तु नित्यं हृदि स्थितः ॥१५॥
नाकारो गूहितुं शक्यो बृहस्पतिसमैरपि।
तस्मात् तव सुतो राजन् प्रष्टो वाक्यमब्रवीत् ॥१६॥
दुर्योधनः—
वधे कुन्तीसुतस्याजावाचार्य नजयो मम।
हते युधिष्ठिरे पार्थस् सर्वानस्मान् वधिष्यति ॥१७॥
नैव शक्यो रणे सर्वैर् निहन्तुममरैरपि॥१८॥
यदि सर्वे हनिष्यन्ते पाण्डवास्ससुता मृधे।
ततः कृत्स्नं वशे कृत्वा निश्शेषं नृपमण्डलम्॥१९॥
ससागरवनां स्फीतां विजित्य वसुधामिमाम्।
विष्णुर्दास्यति कृष्णायै कुन्त्यै वा पुरुषोत्तमः॥२०॥
यद्येष चैषां शेषस्यात् स एवास्मान्न शेषयेत्।
सत्यप्रतिज्ञेत्वानीते पुनर्द्यूतेन निर्जिते॥२१॥
तस्मिञ् जीवति चानीते ह्युपायैर्वहुभिः कृतैः।
पुनरेष्यन्त्यरण्यानि कौन्तेयास्तमनुव्रताः॥२२॥
सोऽयं मम जयो नित्यो दीर्घकालं भविष्यति।
अतो न वधमिच्छामि धर्मराजस्य कर्हिचित्॥२३॥
सञ्जयः—
तस्य जिह्ममभिप्रायं ज्ञात्वा द्रोणोऽर्थतत्त्ववित्।
तं वरं सान्तरं तस्मै ददौ सञ्चिन्त्य बुद्धिमान्॥२४॥
द्रोणः—
न चेत् कुन्तीसुतं पार्थं पालयेदर्जुनो युधि।
मन्येऽहं पाण्डवश्रेष्ठम् आनीतं वशमात्मनः॥२५॥
न हि पार्थो रणे यत्तश् शक्यो देवासुरैरपि।
प्रत्युद्यातुमतस्तात् नैतस्माद्धर्षयाम्यहम् ॥२६॥
असंशयं स शिष्यो मे मत्पूर्वश्शस्त्रकर्मणि।
तरुणस्सुकृती युक्त एकायनगतश्च सः॥२७
अस्त्राणीन्द्राच्च रुद्राच्च भूयांसि समुपात्तवान्।
अमर्षितश्चते राजन् सततं मर्षयाम्यहम्॥२८
स त्वपक्रम्यतां युद्धाद् येनोपायेन शक्यते।
अपनीते ततः पार्थे धर्मराजो जितस्त्वया॥२९
ग्रहणं हि यथा तस्य धर्मराजस्य मन्यसे।
अनेनैवाभ्युपायेन ध्रुवं ग्रहणमेष्यति ॥३०
अहं गृहीत्वा राजानं सत्यवादिनमाहवे।
आनयिष्यामि ते राजन् वशमद्य न संशयः॥३१
यदि स्थास्यति सङ्ग्रामे मुहूर्तमपि पाण्डवः।
अपनीते नरव्याघ्रे कुन्तीपुत्रे धनञ्जये॥३२
फल्गुनस्य समक्षं तु न हि शक्यो युधिष्ठिरः।
ग्रहीतुं समरे राजन् सेन्द्रैरपि सुरासुरैः ॥३३
सञ्जयः—
एवमुक्ते तदा तस्मिन् युद्धे देवासुरोषमे।
सान्तरं तु प्रतिज्ञाते राज्ञो द्रोणेन निग्रहे॥३४
गृहीतमेवामन्यन्त तव पुत्रास्सुवालिशाः॥३४॥
ततो दुर्योधनश्चापि ग्रहणं पाण्डवस्य तत्।
स्कन्धावारेषु सर्वेषु यथास्थानेषु मारिष॥३५॥
सैन्यस्थानेषु सर्वेषु घोषयामास पार्थिवः॥३६
पाण्डवेषु च सापेक्षं द्रोणं जानाति ते सुतः।
ततः प्रतिज्ञास्थैर्यार्थं स तु मन्त्रो बलीकृतः॥३७
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि एकादशोऽध्यायः॥ ११॥
॥६५॥ द्रोणाभिषेकपर्वणि एकादशोऽध्यायः॥ ११॥
[ अस्मिन्नध्याये ३७ श्लोकाः ]
॥ द्वादशोऽध्यायः॥
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** अर्जुनेन द्रोणप्रतिज्ञाभीतस्य युधिष्ठिरस्य समाश्वासनम्॥१॥
युद्धारम्भो द्रोणपराक्रमश्च ॥२॥**
सञ्जयः—
ततस्ते सैनिकाश्श्रुत्वा तं युधिष्ठिरनिग्रहम्।
सिंहनादरवांश्चक्रुर् बाणशङ्खरवैस्सह॥१॥
ततस्सर्वं यथावृत्तं धर्मराजेन भारत।
आप्तैश्चारैः परिज्ञातं भारद्वाजचिकीर्षितम्॥२॥
ततस्सर्वान् समानीय भ्रातॄन् सैन्यांश्च भारत।
अब्रवीद्धर्मराजो वै धनञ्जयमिदं वचः॥३॥
युधिष्ठिरः—
श्रुतं ते पुरुषव्याघ्र द्रोणस्य च चिकीर्षितम्।
यथा तन्न भवेत् सत्यं तथा नीतिर्विधीयताम्॥४
सान्तरं तु प्रतिज्ञातं द्रोणेनामित्रघातिना।
तच्चान्तरममोघेषौ त्वयि तेन समाहितम्॥५
तत् त्वमद्य महावाहो युध्यस्व मदनन्तरम्।
यथा दुर्योधनः कामं नेमं द्रोणावाप्नुयात्॥६
अर्जुनः—
यथा न मे वधः कार्य आचार्यस्य कथञ्चन।
तथा तव परित्यागो न मे राजंश्विकीर्षितः॥७
अद्यैव पाण्डव प्राणान् उत्सृजेमहं युधि।
प्रतियाताऽहमाचार्यं त्वां न जह्यांकथञ्चन॥८
त्वां निगृह्याहवे राजन् धार्तराष्ट्रो यमिच्छति।
न स तं जीवलोकेऽस्मिन् कामं32 प्राप्ता कथञ्चन॥९
प्रपतेद्दचौस्सनक्षत्रा पृथिवी शकलीभवेत्।
न त्वां द्रोणो निगृह्णीयाज् जीवमाने मयि ध्रुवम्॥१०
यदि तस्य रणे साह्यं कुरुते वज्रभृत् स्वयम्।
विष्णुर्वा सहितो देवैर् न त्वां प्राप्ता ह्यसौरणे॥११
मयि जीवति राजेन्द्र न भयं कर्तुमर्हसि।
द्रोणादस्त्रभृतां श्रेष्ठात् सर्वशस्त्रभृतामपि॥१२॥
न स्मराम्यनृतं प्रोक्तं न स्मरामि पराजयम्।
न स्मरामि प्रतिश्रुत्य विस्मृत्य मनसाऽकृतम्॥१३॥
सञ्जयः—
ततश्शङ्खाश्च भेर्यश्च मृदङ्गाश्च सहस्रशः।
प्रावाद्यन्त महाराज पाण्डवानां निवेशने॥१४॥
सिंहनादश्व सञ्जातः पाण्डवानां महात्मनाम्।
धनुर्ज्यातलशब्दश्च गगनस्पृक् सुभैरवः॥१५॥
तं श्रुत्वा शङ्खनिर्घोषं पाण्डवेयस्य धीमतः।
त्वदीयेष्वपि सैन्येषु वादित्राण्यभिजघ्निरे॥१६॥
ततो व्यूढानि सैन्यानि तव तेषां च भारत।
शनैरुपेयुरन्योन्यं योत्स्यमानानि संयुगे॥१७॥
ततः प्रववृते युद्धं तुमुलं रोमहर्षणम्।
पाण्डवानां कुरूणां च द्रोणपाञ्चालयोरपि॥१८॥
यतमानाः प्रयत्नेन द्रोणानीकविशातने।
न शेकुस्सृञ्जया राजंस् तद्धि द्रोणेन पालितम्॥१९॥
तथैव तव पुत्रस्य रथोदाराः प्रहारिणः।
न शेकुः पाण्डवीं सेनां पाल्यमानां किरीटिना॥२०॥
ते सेने स्तिमिते आस्तां काङ्क्षमाणे परस्परम्।
समासक्ते यथा नक्तं वनराजी सुपुष्पिते॥२१॥
ततो रुक्मरथो राजन्नर्केणेव विराजता।
वरूथिना विनिष्पत्य व्यचरत् पृतनान्तरे॥२२॥
तमुद्यन्तं रथेनैकम् आशुकारिणमाहवे।
अनेकमिव सन्त्रासान्मेनिरे पाण्डुसृञ्जयाः॥२३॥
तेन मुक्ताश्शरा घोरा विचेरुस्सर्वतोदिशम्।
त्रासयन्तो महाराज पाण्डवेयस्य वाहिनीम् ॥२४॥
मध्यंदिनमनुप्राप्तो गभस्तिशतसंवृतः।
यथाऽदृश्यत धर्मांशुस् तथा द्रोणोऽप्यदृश्यत॥२५॥
न चैनं पाण्डवेयानां कश्चिच्छक्नोति भारत।
वीक्षितुं समरे क्रुद्धं महेन्द्रमिव दानवाः॥२६॥
मोहयित्वा ततस्सेनां भारद्वाजः प्रतापवान्।
धृष्टद्युम्नबलं तूर्णं व्यधमन्निशितैश्शरैः॥२७॥
स दिशस्सर्वतो गत्वा संवृत्य खमजिह्मगैः।
पार्षतो यत्र तत्रैनाम् अभिनत् पाण्डवाहिनीम्॥२८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि द्वादशोऽध्यायः ॥१२॥
॥६५॥ द्रोणाभिषेकपर्वणि द्वादशोऽध्यायः॥१२॥
[ अस्मिन्नध्याये २८ श्लोकाः ]
** ॥ त्रयोदशोऽध्यायः ॥**
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** द्रोणयुद्धं द्वैरथयुद्धमभिमन्युपराक्रमश्च ॥**
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सञ्जयः—
ततस्स पाण्डवानीके जनयंस्तुमुलं भयम्।
व्यधमत् पाण्डवान् द्रोणो दहन् कक्षमिवानलः॥१॥
निर्दहन्तमनीकानि साक्षादग्निमिवोत्थितम्।
दृष्ट्वा रुक्मरथं सङ्ख्येसमकम्पन्त सृञ्जयाः॥२॥
सततं चास्यमानस्य धनुषोऽस्याशुकारिणः।
ज्याघोषश्शुश्रुवेऽत्यर्थं विष्फूर्जितमिवाशनेः॥३॥
रथिनस्सादिनः पत्तीन् द्विपान् द्विपगतानपि।
द्रोणचापविनिर्मुक्ताः प्रमथ्नन्ति स्म सायकाः॥४॥
नानद्यमानः पर्जन्यस् साशनिः शुचिसङ्क्षये।
अश्मवर्षमिवावर्षत् परेषामादधद्भयम्॥५॥
व्यचरत् स दिशस्सर्वास् सेनां विक्षोभयन्मुहुः।
वर्धयामास सन्त्रासं शत्रूणामतिमानुषम्॥६॥
तस्य विद्युदिवाभ्रेषु चापं हेमपरिष्कृतम्।
भ्राजमानं रथे तस्मिन् दृश्यते स्म महाभयम्॥७॥
स वीरस्सत्यवाक् प्राज्ञो धर्मनित्यो दुरासदः।
युद्धकाले प्रयत्नेन रौद्रींप्रास्यन्दयन्नदीम्॥८॥
अमर्षशैलप्रभवां शरवेगमहारवाम्।
बलौघैस्सर्वतः पूर्णां वीरवृक्षापहारिणीम्॥९॥
शोणितोदां रथावर्तां हस्त्यश्वकृतरोधसम्।
कवचद्वीपसंयुक्तां मांसपङ्कसमाकुलाम्॥१०॥
मेदोमज्जास्थिसिकताम्33 उष्णीषचयफेनिलाम्।
सङ्ग्रामरजसा पूर्णाम् अत्युग्रां वीरसेविताम्॥११॥
नरनागाश्वसम्भूतां शरवेगौधवाहिनीम्।
शरीरदारुसङ्घाटां भुजनागसमाकुलाम्॥१२॥
मत्त34द्विपोपलवतीं निस्त्रिशझषसेविताम्।
रथनागह्नदोपेतां नानाभरणनीरजाम्॥१३॥
महारथशतावर्तां भूमिरेणूर्मिमालिनीम्।
महावीर्यवतां सङ्ख्ये सुतरां भीरुदुस्तराम्॥१४॥
शरीरशतसम्बाधां35 गृध्रकङ्कनिषेविताम्।
महारथसहस्राणि नयन्तीं यमसादनम्॥१५॥
शूरव्यालमृगाकीर्णां36 प्राणिवारिजसेविताम्।
छिन्नच्छत्रमहाहंसां मुद्गरोडुपसङ्कुलाम्॥१६॥
चक्रकूर्मगदानक्रां37 शरशङ्कुझषाकुलाम्।
बलगृध्रसृगालानां घोरैस्सेङ्घैर्निषेविताम्॥१७॥
नदीं प्रास्यन्दयद्द्रोणः केशशैवलशाद्वलाम्॥१७॥
सा ततः प्राणिनस्सङ्ख्येद्रोणेन बलिना कृता।
उवाह शतशो राजन् परलोकाय वाहिनी॥१८॥
शरीरशतसम्बाधा क्रव्याद्गणसङ्कुला।
बभूव सा नदी राजन् भीरूणां घोरदर्शना॥१९॥
तर्जयन्तमनीकानि तानि तानि नरर्षभ।
सर्वतोऽभ्यद्रवन् द्रोणं युधिष्ठिरपुरोगमाः॥२०॥
तानपि प्राद्रवञ् शूरास् तावका जितकाशिनः।
प्रत्यगृह्णंस्ततो राजन् तदाऽभूद्रोमहर्षणम्॥२१॥
यतमानस्तु शकुनिस् सहदेवमुपाद्रवत्।
सादियन्तृध्वजयं विव्याधनिशितैश्शरैः॥२२॥
तस्य माद्रीसुतः केतुं धनुस्सूतं हयानपि।
नातिक्रुद्धश्शरैछित्त्वा षष्ट्याविव्याध सौवलम्॥२३॥
भित्त्वा च शरवर्षेण शकुनिं प्रत्यवारयत्॥२४॥
गदां गृहीत्वा शकुनिः प्रचस्कन्द रथोत्तमात्।
स तस्य गदयाराजन् सूतमापातयद्रथात्॥२५॥
विरथौरथिनां श्रेष्ठौ गदाहस्तौ महाबलौ।
चिक्रीडतू रणे राजन् सशृङ्गाविव पर्वतौ॥२६॥
द्रोणः पाञ्चालदायादं विव्याध दशभिश्शरैः॥२६॥
तयोस्तत्र महाराज बाणवर्षैः प्रकाशितम्।
खद्योतैरिव चाकाशं प्रदोषे पुरुषर्षभ॥२७॥
विविंशतिं भीमसेनो विंशत्या निशितैश्शरैः।
विद्ध्वानाकम्पयद्वीरस् तदद्भुतमिवाभवत्॥२८॥
विविंशतिस्तु प्रहसन् व्यश्वकेतुशरासनम्।
चक्रे तं सर्वसैन्यानि प्रहृष्टान्यभ्यपूजयन्॥२९॥
स तन्न ममृषे भीमस् शत्रोर्विजयमाहवे।
तस्याश्वान्38 गदया दान्तान् सैन्धवान् समपोथयत् ॥३०॥
भूरिश्रवा रणे राजन् याज्ञसेनिंमहारथम्।
महता सायकौघेन च्छादयामास हृष्टवत्॥३१॥
शिखण्डी तु ततः क्रुद्धस् सौमदत्तिं महाहवे।
छादयामास नाराचैस् तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत्॥३२॥
ऋक्षचर्मपिनद्धौ तु चऋतुस्तौ खरस्वनम्।
बाह्यमाभ्यन्तरं25 मार्गं सम्प्लवन्तौयशस्विनौ॥३३॥
ददृशाते महात्मानौ सपक्षाविव पर्वतौ।
पिशिताशनसंयुक्तौ वाहैरुलवण पातिभिः39॥३४॥
बृहत्पताकातूणीरौ घोररूपौ भयानकौ।
कालमेघाविव गतौ लोकानाभर्त्स्य गर्जनैः॥३५॥
रथघोषेण महताऽप्यास्थितौ स्यन्दनोत्तमौ।
बृहत्पताकातूणीरौ पैशाचैर्वाहनैर्युतौ ॥३६॥
राक्षसौ रौद्रकर्माणो हैडिम्बालम्बसौ रणे।
चक्रातेऽत्यद्भुतं युद्धं परस्परवधैषिणौ॥३७॥
मायाशतसृजौ हप्तौ मायाभिरितरेतरम्।
अन्तर्धानेन द्रष्टॄणां भृशं विस्मयकारिणौ ॥३८॥
चेकितानोऽनुविन्देन युयुधे त्वतिभैरवम्।
यथा देवासुरे युद्धे बलिशको महारणे॥३९॥
लक्ष्मणः क्षत्रदेवेन विमर्दमकरोन्महत्।
यथा विष्णुः पुरा राजन हिरण्याक्षेण संयुगे॥४०॥
शल्यस्तु नकुलं शूरं स्वस्त्रीयं प्रियमात्मनः।
विव्याध प्रहसन् वाणैर् लीलया कोपयन्निव॥४१॥
तस्याश्वानातपत्रं च ध्वजं सूतमथो धनुः।
निपातयित्वा नकुलो दध्मौ शङ्खं मुदाऽन्वितः॥४२॥
धृष्टकेतुः कृपेणास्ताञ् छित्त्वा बहुविधाञ् छरान्।
कृपं विव्याधसप्तत्या ध्वजं चास्य त्रिभिश्शरैः॥४३॥
तं कृपश्शरवर्षेण महता समवाकिरत्।
निहत्य ताञ् शरान् क्षिप्रं धृष्टकेतुरपोथयत्॥४४॥
सात्यकिः कृतवर्माणं नाराचेन स्तनान्तरे।
विद्ध्वाविव्याध सप्तत्या पुनरन्यैस्स्मयन्निव40॥४५॥
तं भोजसप्तसप्तत्या विद्ध्वासुनिशितैश्शरैः।
नाकम्पयत शैनेयं वीरो वायुर्यथाऽचलम्॥४६॥
सेनापतिस्सुशर्माणं भृशं मर्मण्यताडयत्।
स41 चापि तं तोमरेण जत्रुदेशेऽभ्यताडयत्॥४७॥
वीरं वैकर्तनं कर्णं विराटः प्रत्यवारयत्।
सह मात्स्यैर्महावीर्यैस् तद्द्भुतमिवाभवत्॥४८॥
तत्राद्भुतमपश्याम सूतपुत्रस्य लाघवम्।
तत् सैन्यं वारयामास शरैस्सन्नतपर्वभिः॥४९॥
द्रुपदस्तु स्वयं राजा भगदत्तेन सङ्गतः।
तयोर्युद्धं42 महाराज चित्ररूपमिवाभवत्॥५०॥
श्रोतॄणां वीक्षितॄणां च मोहकारणमाहवे।
भूतानां त्रासजननं चक्रातेऽस्त्रविशारदौ॥५१॥
ततः प्रजविताश्वेन विधिवत् कल्पितेन च।
रथेनाभ्यद्रवद्राजन् सौभद्रं पौरवो नदन्॥५२॥
तेनाभियातस्त्वरितश् शतमन्योस्सुतात्मजः।
तस्मिंश्चक्रेमहामन्युम् अभिमन्युररिन्दमः॥५३॥
पौरवस्त्वथ सौभद्रं शरव्रातैरवाकिरत्।
तस्यार्जुनिर्धनुश्चित्रं ध्वजं चोर्व्यामपातयत्॥५४॥
सौभद्रः पौरवं त्वन्यैर् विद्ध्वासप्तभिरायसैः।
पञ्चभिस्तस्य विव्याध हयान् सूतं च सायकैः॥५५॥
ततस्संहर्षयन् सेनां सिंहवद्विदन् मुहुः।
समाधत्तार्जुनिस्तूर्णं पौरवान्तकरं शरम् ॥५६॥
द्वाभ्यां शराभ्यां हार्दिक्यश् चकर्त सशरं धनुः॥५७॥
तदुत्सृज्य धनुश्शीर्णं सौभद्रः परवीरहा।
उद्बबर्हशितं खड्गम् आद्धानश्शरावरम्॥५८॥
स तेनानेकतारेण चर्मणा कृतहस्तवत्।
भ्रान्तासिना चरन् मार्गान् दर्शयन् वीर्यमात्मनः॥५९॥
भ्रमितं पुनरुद्धान्तम् आधूतं पुनरुच्छ्रितम्।
चर्मनिस्त्रिंशयो राजन् निर्विशेषमदृश्यत ॥६०॥
स पौरवरथस्येषाम् आलत्य सहसा नदन्।
पौरवं रथमास्थाय केशपक्षे परामृशत्॥६१॥
जधानास्य पदा सूतम् असिनाऽपातयद्भुजम्।
विक्षोभ्याम्भोनिधिं तार्क्ष्यस् तं नागमिव चाग्रहीत्॥६२॥
तमाकुलितकेशान्तं ददृशुस्सर्वपार्थिवाः।
उक्षाणमिव सिंहेन पात्यमानमचेतनम्॥६३॥
तमार्जुनिवशं प्राप्तं कृष्यमाणमनाथवत्।
पौरवं पातितं दृष्ट्वा नामृष्यत जयद्रथः ॥६४॥
स बर्हिणमहावाजं किङ्किणीशतजालवत्।
चर्म चादाय खड्ङ्गं च दन् पर्यपतद्रथात्॥६५॥
प्रासपट्टसनिस्त्रिशान् सौभद्रेणाहितेरितान्।
अपश्याम महाराज विधूतानसिचर्मणा॥६६॥
दर्शयन् सर्वसैन्यानां स्वबाहुबलमात्मवान्।
उत्पपात रथात् तूर्णं श्येनवनिपपात ह॥६७॥
ततस्सैन्धवमालोक्य कार्ष्णिः पौरवमुत्सृजन्।
दुद्राव सहसा खङ्गं चर्म चातिरथः पुनः॥६८॥
वृद्धक्षत्रस्य दायादं पितुरत्यन्तवैरिणम्।
ससाराभिमुखश्शूरश् शार्दूल इव कुञ्जरम्॥६९॥
तौ परस्परमाप्लुत्यखड्गदन्तनखायुधौ।
हृष्टवत् सम्प्रजह्राते व्याघ्रकेसरिणाविव॥७०॥
सम्पातेष्वभिपातेषु निपातेष्वसिचर्मणाम्।
न तयोरन्तरं कश्चिद् ददर्श नरसिंहयोः॥७१॥
अवक्षेपोऽसिनिर्ह्रादश् शस्त्रान्तरविवर्जनम्।
बाह्वन्तरनिपातश्च निर्विशेषमदृश्यत॥७२॥
बाह्यमाभ्यन्तरं मार्गं सम्पतन्तौ यशखिनौ।
ददृशाते महात्मानौ सपक्षाविव पर्वतौ॥७३॥
ततो विक्षिपतः खङ्गं सौभद्रस्य यशस्विनः।
शरावरणपक्षान्ते प्रजहार जयद्रथः ॥७४॥
रुक्मपक्षान्तरे सक्तस् तस्मिंश्चर्मणि भाखरे।
सिन्धुराजकरोद्धूतस् सोऽभज्यत महानसिः॥७५॥
भग्नमाज्ञाय निस्त्रिंशम् अवप्लुल्य पदानि षट्।
सोऽदृश्यत निमेषेण स्वरथं पुनरास्थितः॥७६॥
ततश्चर्म च खङ्गं च समुत्सृज्य महारथः।
ननादार्जुनदायादः प्रेक्षमाणो जयद्रथम् ॥७७॥
सिन्धुराजं परित्यज्य सौभद्रः परवीरहा।
तापयामास तत् सैन्यं गगनं भास्करो यथा॥७८॥
तं कार्ष्णिंसमरान्मुक्तम् अभिज्ञाय रथे स्थितम्।
सहसा सर्वराजानः परिवब्रुस्समन्ततः॥७९॥
तस्य सर्वायसीं शल्यश् शक्तिं कनकभूषिताम्।
प्रजहार भुजाग्रेण दीप्तामग्निशिखामिव॥८०॥
तामवप्लुत्यजग्राह विकोशं कृतवानसिम्।
वैनतेयो यथा कार्ष्णिःं पतन्तीमुरगाङ्गनाम्॥८१॥
तस्य लाघवमाज्ञाय सत्त्वं चामिततेजसः।
सहितास्सर्वराजानस् सिंहनादमथानदन्॥८२॥
ततस्तामेव शल्याय सौभद्रः परवीरहा।
प्रजहार महाशक्तिं वैडूर्यविकृतां स्थिराम्॥८३॥
सा कार्षिणभुजनिर्मुक्ता सहसा भुजगोपमा।
जघान सूतं शल्यस्य रथाच्चैनमपातयत्॥८४॥
ततो विराटद्रुपदौ धृष्टकेतुर्युधिष्ठिरः।
सात्यकिः केकया भीमो धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ॥८५॥
यमौ च द्रौपदेयाश्च साधु साध्विति चुक्रुशुः॥८५॥
साधुवादाश्च विविधास् सिंहनादाश्च पुष्कलाः।
प्रादुरासन् हर्षयन्तस् सौभद्रमपराजितम्॥८६॥
परिवव्रुस्स्म ते सर्वे पाण्डवानां महारथाः।
हर्षयन्तञ्च सौभद्रं रोषयन्तस्सुतांश्च ते ॥८७॥
तन्नामृष्यन्त पुत्रास्ते शत्रोर्विजयलक्षणम्॥८८॥
अथैनं सहितास्सर्वे समन्तान्निशितैश्शरैः।
अभ्याकिरन्महाराज तोयदा इव पर्वतम्॥
तेषां तु प्रियमन्विच्छन् सूतस्य तु पराभवात्।
आर्तायनिरमित्रघ्नः क्रुद्धस्सौभद्रमभ्ययात्॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिकद्रोणपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥
॥६५॥ द्रोणाभिषेकपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥
[ अस्मिन्नध्याये ९० लोकाः ]
॥ चतुर्दशोऽध्यायः ॥
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भीमेन गदायुद्धे शल्यपराजयः ॥
धृतराष्ट्रः—
बहूनि सुविचित्राणि द्वन्द्वयुद्धानि सञ्जय।
त्वयोक्तानि निशम्याहं स्पृहयामि सचक्षुताम् ॥१॥
न हि देवासुरं युद्धम् ईद्दग्रूपं भवेदिति।
चिन्तयामि च युद्धानि श्रुत्वा घोराणि सञ्जय॥२॥
आश्चर्यभूतं लोकेऽस्मिन् कथयिष्यन्ति मानवाः।
कुरूणां पाण्डवानां च युद्धं देवासुरोपमम्॥३॥
न हि मे तृप्तिरस्तीह शृण्वतो युद्धमद्भुतम्।
तस्मादार्तायनेयुद्धं सौभद्रस्य च शंस मे॥४॥
सञ्जयः—
सादितं प्रेक्ष्य यन्तारं शल्यस्सर्वायसीं गदाम्।
समुत्क्षिप्यानदच्छीघ्रं37 प्रचस्कन्द रथोत्तमात् ॥५॥
सौभद्रोऽप्यशनिप्रख्याम् आदाय स्वरथाद् गदाम्।
एह्येहीत्याह्वयच्छल्यं यत्राद्भीमेन वारितः ॥६॥
वारयित्वा तु सौभद्रं भीमसेनः प्रतापवान्।
शल्यमासाद्य समरे तस्थौ मेरुरिवाचलः ॥७॥
तथैव मद्रराजोऽपि भीमं दृष्ट्वा महागदम्।
ससाराभिमुखस्तूर्णं43 शार्दूल इव कुञ्जरम् ॥८॥
तं दीप्तमिव कालाग्निं पाशहस्तमिवान्तकम्।
जवेनाभ्यपतद्भीमः प्रगृह्य महतीं गदाम् ॥९॥
ततस्तूर्यनिनादश्च शङ्खानां च सहस्रशः।
सिंहनादश्चसञ्जज्ञे भेरीणां च महास्वनः ॥१०॥
पश्यतां शतशो ह्यासीद् अन्योन्यगतचेतसाम्।
पाण्डवानां कुरूणां च साधु साध्विति निस्स्वनः ॥११॥
न44 हि मद्राधिपादन्यस् सर्वराजसु भारत।
सोढुमुत्सहते वेगं भीमसेनस्य संयुगे॥१२॥
तथा मद्राधिपस्यापि गदावेगं महात्मनः।
सोढुमुत्सहते लोके युधि कोऽन्यो वृकोदरान् ॥१३॥
पट्टैर्जाम्बूनदैर्बद्धा वभूव जनहर्षणी।
अग्निज्वालेव चाविद्धा भीमेन महती गदा ॥१४॥
साग्निदीप्ता महारौद्रा गढ़ा सा शुशुभे तदा।
तथैव चरतो मार्गान् मण्डलानि च भागशः ॥१५॥
विद्युद्गर्भप्रतीकाशा शल्यस्य शुशुभे गदा ॥१५॥
तौ वृषाविव नर्दन्तौ मण्डलानि विचेरतुः।
आवर्जितगदाशृङ्गावुभौ शल्यवृकोदरौ ॥१६॥
कोपताम्रेक्षणौ वीरौ शत्रुसङ्घविमर्दनौ।
महामात्रौ महोत्साहौ गदायुद्धविशारदौ ॥१७॥
मण्डलावर्तवेगेषु गदाप्रहरणेषु च।
निर्विशेषमभूद्युद्धं तयोः पुरुषसिंहयोः ॥१८॥
ताडिता भीमसेनेन शल्यस्य महती गदा ।
साग्निज्वाला महारौद्रा गदाचूर्णममुञ्चत ॥१९॥
तथैव भीमसेनस्य द्विषताऽभिहता गदा।
वर्षाप्रदोषे खद्योतैर् वृतो वृक्ष इवाबभौ ॥२०॥
गदा क्षिप्ता तु समरे मद्रराजेन धीमता।
आकाशं दीपयन्ती सा पावकं चासृजद्वहु॥२१॥
तथैव भीमसेनेन प्रेषिता शत्रुघातिना।
भीमरूपा महावेगा गदा शल्यं रणेऽतुदत्॥२२॥
त्रासयामास तत् सैन्यं महावेगोप्रदर्शना॥२३॥
ते गदानां गदे श्रेष्ठे समासाद्य परस्परम्।
तथा विसृजतां वह्निं नागकन्ये इवोज्ज्वले॥२४॥
पुनश्शल्येन भीमस्य गदाग्राद्गदया हृतात्।
सङ्घर्षणादुत्थितोऽग्निर् दीपयामास मेदिनीम्॥२५॥
पुनश्च45 भीमसेनेन शल्यस्य महती गदा।
ताडिता सहसा राजन् विससर्जाथ पावकम्॥२६॥
नखैरिव महाव्याघ्रौ दन्तैरिव महागजौ।
तौ विचेरतुरासाद्य गदाग्राभ्यां परस्परम्॥२७॥
तौ गदाग्राहतैर्गात्रैः क्षणेन रुधिरोक्षितौ।
ददृशाते महात्मानौ किंशुकाविव पुष्पितौ॥२८॥
शुश्रुवुर्दिक्षु सर्वासु तयोः पुरुषसिंहयोः।
गदासङ्घातसंहादाश् शक्राशनिरवा इव॥२९॥
गदया मद्रराजेन सव्यदक्षिणमाहतः।
न46 स स्म विव्यथे भीमो भिद्यमान इवाचलः॥३०॥
तथा भीमगदावेगैस् ताड्यमानो महाबलः।
हसन् मद्राधिपस्तस्थौ वज्रैर्गिरिरिवाहतः॥३१
आपेततुर्गदामार्गात् समुच्छ्रितमहागदौ।
पुनरावृत्तमार्गस्थौ मण्डलानि विचेरतुः ॥३२॥
अथाप्लुत्य पदान्यष्टौ सन्निपत्य गजाविव।
सहसा लोहदण्डाभ्याम् अन्योन्यमभिजघ्नतुः ॥३३॥
तौ परस्परवेगाच्च गदाभ्यां च दृढाहतौ।
युगपत् पेततुर्वीरौक्षिताविन्द्रध्वजाविव॥३४
तथा विह्वलगात्रं तं निश्वसन्तं पुनः पुनः।
शल्यमभ्यपतत् तूर्णं कृतवर्मा महारथः॥३५
दृष्ट्वा47 चैनं महाराज गदयाऽभिनिपीडितम्।
वेष्टमानं महाराज मूर्च्छयाऽभिपरिप्लुतम्॥३६
ततस्सगदमारोप्य मद्राणामधिपं रथम्।
अपोवाह रणाद्राजन् कृतवर्मा महारथः॥३७
भूमौ निपतितो वीरो निमेषात् पुनरुत्थितः।
भीमसेनो महाबाहुर गदापाणिरदृश्यत॥३८
ततो मद्राधिपं दृष्ट्वा धार्तराष्ट्राः पराङ्मुखम्।
सनागरथपत्त्यश्वास् समकम्पन्त मारिष ॥३९
ते पाण्डवैरर्द्यमानास् तावका जितकाशिभिः।
भीता दिशो व्यकीर्यन्त वायुनुन्ना यथा घनाः॥४०॥
निर्जित्य धार्तराष्ट्रांस्ते पाण्डवेया महारथाः।
व्यरोचन्त रणे राजन् दीप्यमाना इवाग्नयः॥४१॥
अथ मड्डुकभेरिमहामुरजाः
पणवानकदुन्दुभिझर्झरिभिः।
विनदन्ति भृशं सह शङ्खरवैर्
विविधैश्च नरोत्तम सिंहरवैः॥४२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः॥ १४॥
॥६५॥ द्रोणाभिषेकपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥
[ अस्मिन्नध्याये ४२ श्लोकाः ]
॥ पञ्चदशोऽध्यायः॥
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द्रोणेन युधिष्टिरग्रहणोद्यमे अर्जुनेन तद्भङ्गः॥
सञ्जयः—
तद्बलंसुमहद्दीर्णं त्वदीयं प्रेक्ष्य वीर्यवान्।
दधारैको रणे पाण्डून् वृषसेनोऽस्त्रमायया॥१
शरा दश दिशो मुक्ता वृषसेनेन तेजसा।
प्रविचेरुर्विनिर्भिद्य नरवाजिरथद्विपान्॥२॥
तस्य दीप्ता महाबाणा विनिश्चेरुस्सहस्रशः।
भानोरिव महाराज दीप्यमाना गभस्तयः॥३॥
तेनार्दिता48 महाराज रथिनस्सादिनस्तथा।
निपेतुरुर्व्यासहसा वातनुन्ना इव द्रुमाः॥४॥
हयौघांश्च गजौघांच रथौघांश्च समन्ततः।
तापयन् दहशे राजञ् समरेऽथ सहस्रशः॥५॥
कर्णात्मजं रणे दृष्ट्वा विचरन्तमभीतवत्।
राजानस्साहितास्सर्वे परिवब्रुस्समन्ततः॥६॥
नाकुलिस्तु49 शतानीको वृषसेनं समभ्ययात्।
विव्याध चैनं दशभिर् नाराचैर्मर्मभेदिभिः॥७॥
तस्य कर्णसुतश्चापं छित्त्वा केतुमपातयत्॥७॥
तं भ्रातरमभीप्सन्तो द्रौपदेयास्समभ्ययुः।
कर्णात्मजं शरव्रातैश् चक्रुश्चादृश्यमञ्जसा॥८॥
तान् नदन्तोऽभ्यधावन्त द्रोणपुत्रमुखा रथाः।
छादयन्तो50 महाराज द्रौपदेयान् महारथान्॥९॥
शरैर्नानाविधैस्तूर्णं पर्वताञ् जलदा इव॥१०॥
तान् पाण्डवाः प्रत्यगृह्णंस् त्वरिताः पुत्रगृद्धिनः।
पाञ्चालास्सृञ्जया मात्स्याः केकयाश्चोद्यतायुधाः॥११॥
तद्युद्धमभद्धोरं सुमहाद्भुतदर्शनम्।
त्वदीयैः पाण्डुपुत्राणां देवानामिव दानवैः॥१२॥
एवमुत्तमसंरम्भा युयुधुः कुरुपाण्डवाः।
परस्परमुदीक्षन्तः परस्परकृतागसः॥१३॥
तेषां दद्दशिरे कोपाद् वपूंष्यमिततेजसाम्।
युयुत्सूनामिवाकाशे पतत्रिवरभोगिनाम्॥१४॥
भीमकर्णकृपद्रोणद्रौणिपार्षतसात्यकैः।
बभासे51 स रणोद्देशः कालसूर्यैरिवोदितैः॥१५॥
प्रजानां सङ्क्षये घोरे यथा सूर्योदयो भवेत्।
शूराणामुयस्तद्वत् स आसीत् पुरुषर्षभ॥१६॥
तदाऽऽसीत् तुमुलं युद्धं निघ्नतामितरेतरम्।
महारथानां बलिनां दानवानां यथाऽमरैः॥१७॥
ततो युधिष्ठिरानीकम् उदीर्णार्णवनिस्स्वनम्।
त्वदीयमवधीत् सैन्यं सम्प्रद्रुतमहारथम् ॥१८॥
तत् प्रभग्नं बलं दृष्ट्वा शत्रुभिर्भृशमर्दितम्।
अलं द्रुतेन वश्शूरा इति द्रोणोऽभ्यभाषत॥१९॥
भारद्वाजममर्षश्च विक्रमश्च समाविशत्॥१९॥
समुद्धृत्य निषङ्गाच्चधनुर्ज्यामवमृज्य च।
महाशरधनुष्पाणिर् यन्तारमिदमब्रवीत्॥२०॥
द्रोणः-
सारथे याहि यत्रैष पाण्डरेण विराजता।
प्रियमाणेन च्छत्रेण राजा तिष्ठति धर्मराट्॥२१॥
तदेतद्दीर्यते सैन्यं धार्तराष्ट्रमनेकधा।
एतत् संस्तम्भयिष्यामि प्रतिवार्य युधिष्ठिरम्॥२२॥
न हि मामभिवर्षन्ति संयुगे तात पाण्डवाः।
मात्स्यपाञ्चालराजानस् सर्वे च सहसोमकाः॥२३॥
अर्जुनो मत्प्रसादाद्धि महास्त्राणि52 समाप्तवान्।
न मामुत्सहते तात न भीमो न च सात्यकिः॥२४॥
मत्प्रसादाद्धि बीभत्सुः परमेष्वासतां गतः।
ममैवास्त्रं विजानाति धृष्टद्युम्नोऽपि पार्षतः॥२५॥
नायं संरक्षितुं कालः प्राणांस्तात् जयैषिणा।
याहि स्वर्गं पुरस्कृत्य यशसे च जयाय च॥२६॥
सञ्जयः—
एवं सञ्चोदितो यन्ता द्रोणमभ्यवहत् ततः।
तदाऽश्वहृदयेनाश्वान् अभिमन्त्र्याशु हर्षयन्॥२७॥
रथेन सवरूथेन भास्वरेण विराजता॥२८
तं करूशाश्च मत्स्याश्च चेदयश्च ससात्त्वताः।
पाण्डवाश्च सपाञ्चालास् सहिताः पर्यवारयन्॥२९॥
ततश्शोणहयः क्रुद्धश् चतुर्दन्त इव द्विपः।
प्रविश्य पाण्डवानीकं युधिष्ठिरमभिद्रवत्॥३०॥
तमविध्यच्छितैर्बाणैः कङ्कपत्रैर्युधिष्ठिरः।
तस्य द्रोणो धनुश्छित्वा तं द्रुतं समभिद्रवत्॥३१॥
चक्ररक्षः कुमारस्तु पाञ्चालानां यशस्करः।
दधार द्रोणमायान्तं वेलेवोद्धूतमर्णवम्॥३२॥
स शूरमार्यव्रतिनं शस्त्रास्त्रकृतनिश्रमम्।
वारयद्द्रोणमायान्तं वेलेव मकरालयम्॥३३॥
द्रोणे निवारिते तेन सुकुमारेण मारिष।
सिंहनादरवश्वासीत् साधु साध्विति च स्वनः॥३४॥
सुकुमारस्ततो द्रोणं सायकेन महाहवे।
विव्याधोरसि सङ्क्रुद्धस्सिंहनादमथाकरोत्॥३५॥
संवार्य तु रणे द्रोणस् सुकुमारं महारथः।
शरैरनेकसाहस्रैः कृतहस्तो जितक्लमः॥३६॥
स शूरमार्यव्रतिनंकृतास्त्रं कृतनिस्वनम्।
चक्ररक्षमवामृद्गात् सुकुमारं रथर्षभम् ॥३७॥
स मध्यं प्राप्य सेनायास् सर्वास्समचरद्दिशः।
तव सैन्यस्य गोप्ताऽऽसीद् भारद्वाजो महारथः॥३८॥
शिखण्डिनं द्वादशभिर् विंशत्या चोत्तमौजसम्।
नकुलं पञ्चभिर्विद्ध्वासहदेवं च सप्तभिः ॥३९॥
युधिष्ठिरं द्वादशभिर् द्रौपदेयांस्त्रिभिस्त्रिभिः।
सात्यकिं पञ्चभिर्विद्ध्वाविराटं नवभिश्शरैः ॥४०॥
व्यक्षोभयद्रणे53 मुख्यान् अथ योधानभिद्रवन्॥४०॥
युगन्धरस्ततो राजन् भारद्वाजं महारथम्।
वारयामास सङ्क्रुद्धो बेलेबोद्वृत्तमर्णवम् ॥४१॥
युधिष्ठिरं स विद्ध्वाऽथ शरैस्सन्नतपर्वभिः।
युगन्धरं तु भल्लेन रथनीडादपाहरत् ॥४२॥
तं विजित्य महातेजा भारद्वाजो महामनाः।
अभ्यवर्तत सम्प्रेप्सुः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥४३॥
ततो विराटद्रुपदौ केकयास्सात्यकिश्शलः।
व्याघ्रदत्तश्च पाञ्चाल्यस् सिंहसेनश्च वीर्यवान् ॥४४॥
एते चान्ये च बहवः परीप्सन्तो युधिष्ठिरम्।
आवब्रुस्तस्य पन्थानं किरन्तस्सायकान् बहून् ॥४५॥
त्वरितस्सिंहसेनस्तु द्रोणं विद्ध्वामहारथम्।
प्राणदत् सहसा नादं रोषयंश्च महारथान्॥४६॥
व्याघ्रदत्तश्च पाञ्चाल्यो द्रोणं विव्याध मार्गणैः।
पञ्चाशद्भिस्ततो राजंस् ततस्ते चुक्रुशुर्जनाः॥४७॥
ततो विष्फार्य नयने धनुर्ज्यामवमृज्य च।
तलशब्दं महत् कृत्वा क्रुद्धस्तान् समभिद्रवत्॥ ४८॥
ततस्तत् सिंहसेनस्य शिरः कायात् सकुण्डलम्।
व्याघ्रदत्तस्य चाक्रम्य भल्लाभ्यामाहरद्वली॥४९॥
तान् प्रमृज्य शरव्रातैः पाण्डवानां महारथान्।
युधिष्ठिरसमभ्याशे तस्थौ मृत्युरिवान्तकः॥५०॥
तत आसीन्महाञ् शब्दो राजन् यौधिष्ठिरे बले।
हृतो राजेति योधानां समीपस्थे यतव्रते॥५१॥
जजल्पुस्सैनिकास्तत्र दृष्ट्वा द्रोणस्य विक्रमम्॥५२
सैनिकाः—
अद्य राजा धार्तराष्ट्रः पाण्डवं सन्निगृह्य च।
आगमिष्यति नो मूलं धृतराष्ट्रं प्रहर्षयन्॥५३
सञ्जयः—
एवं सञ्जल्पतां तेषां पाण्डवानां महारथः।
प्रायाज्जवेन कौन्तेयो रथघोषेण नादयन्॥५४
शोणितोदां महारौद्रीं कृत्वा विशसने नदीम्।
शूरास्थिचयसङ्कीर्णां प्रेतकूलापहारिणीम्॥५५॥
तां शरौघमहावर्तां प्रासमत्स्यसमाकुलाम्।
नदीमुत्तीर्य वेगेन कुरून् विद्राव्य पाण्डवः॥५६॥
ततः किरीटी सहसा द्रोणानीकमभिद्रवत्।
छादयन्निपुजालेन महता मोहयन्निव॥५७॥
शीघ्रमभ्यस्यतो बाणान् सन्दधानस्य चानिशम्।
नान्तरं दद्दशे कश्चित् कौन्तेयस्य यशस्विनः॥५८॥
न दिशो नान्तरिक्षं च न द्यौर्नैव च मेदिनी।
अदृश्यन्त महाराज बाणभूतमिवाभवत्॥५९॥
नादृश्यत तदा राजंस् तत्र किञ्चन संयुगे।
बाणान्धकारे बलिना कृते गाण्डीवधन्वना॥६०॥
च सूर्ये चास्तमनुप्राप्ते रजसा चाभिसंवृते।
नाज्ञायत तदा शत्रुर् नंसुहृन्न च कञ्चन॥६१॥
ततोऽपहारं चक्रुस्ते द्रोणदुर्योधनादयः॥६१॥
तान् विदित्वा भृशं त्रस्ता न युद्धमनसः परान्।
स्वान्यनीकानि बीभत्सुश् शनकैरपहारयत्॥६२॥
ततोऽभितुष्टुवुः पार्थं प्रहृष्टाः पाण्डसृञ्जयाः।
पाञ्चालाश्च मनोज्ञाभिर् वाग्भिस्सूर्यमिवर्धयः॥६३॥
एवं स्वशिबिरं प्रायाज् जितशत्रुर्धनञ्जयः।
पृष्ठतस्सर्वसैन्यानां मुदितस्सहकेशवः॥६४॥
म54
सारगल्लर्कसुवर्णरूप्यैर्
वज्रप्रवालैस्स्फटिकैश्च जुष्टे।
तस्मिन् रथे पाण्डुसुतो रराज
नक्षत्रचित्रे वियतीव चन्द्रः॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां
संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि पञ्चदशोऽध्यायः॥ १५॥
॥६५॥ द्रोणाभिषेकपर्वणि पञ्चदशोऽध्यायः॥१५॥
[ अस्मिन्नध्याये ६५॥श्लोकाः ]
(द्रोणाभिषेकपर्व समाप्तम्)
॥ द्रोणयुद्धे प्रथमापहारः समाप्तः॥
॥ षोडशोऽध्यायः॥
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(संशप्तकवधपर्वं)
** संशप्तकैराहूतस्यार्जुनस्य युधिष्ठिररक्षणे सत्यजितं नियोज्य तान् प्रति युद्धाय गमनम्॥**
सञ्जयः—
ते सेने शिबिरं गत्वा न्यविशेतां यथातथम्।
यथान्यायं55 यथागुल्मं यथाभागं च सर्वशः॥१॥
कृत्वाऽपहारं सैन्यानां द्रोणः परमदुर्मनाः।
दुर्योधनमिदं वाक्यं सब्रीडमिदमब्रवीत् ॥२॥
द्रोणः—
उक्तमेतन्मया पूर्वं न तिष्ठति धनञ्जये।
शक्यो ग्रहीतुं समरे देवैरपि युधिष्ठिरः॥३॥
इति तद्वचनं सत्यं जानीध्वं साधु संयुगे।
माऽतिशङ्कीर्वचो मह्यम् अजय्यौ कृष्णपाण्डवौ॥४॥
अपनीते तु योगेन केनचिच्छ्रेतवाहने।
तत एष्यति ते राजन् वशमद्य युधिष्ठिरः॥५॥
कश्चिदाह्नियतां सङ्ख्ये देशमन्यमितोऽर्जुनम्।
तमजित्वा न कौन्तेयो निवर्तेत कथञ्चन॥६॥
एतस्मिन्नन्तरे शून्यं धर्मराजमहं नृपम्।
ग्रहीष्यामि चमूं भित्त्वा धृष्टद्युम्नस्य पश्यतः॥७॥
अर्जुनेन परित्यक्तो न चेत् त्रासात् पलायति।
मामुपायान्तमालोक्य गृहीतमिति विद्धि तम्॥८॥
क्षोभयित्वा बलं तेषां पाण्डवानां महात्मनाम्।
तमानेष्यामि सगणं वशं तव न संशयः॥९॥
यदि स्थास्यति सङ्ग्रामे मुहूर्तमपि भारत।
यद्यपेष्यति सन्त्रासाद् ग्रहणात् तद्विशिष्यते॥१०॥
सञ्जयः—
द्रोणस्य तु वचश्श्रुत्वा त्रिगर्ताधिपतिस्ततः।
भ्रातृभिस्सहितो राजन्निदं वचनमब्रवीत्॥११॥
त्रैगर्तः—
वयं विनिकृता राजन् सदा गाण्डीवधन्वना।
अनागसोऽपि चाकस्मात् प्रेष्याः प्रभवता यथा॥१२॥
ते वयं स्मरमाणास्तान् विप्रकारान् पृथग्विधान्।
क्रोधाग्निना दह्यमाना ह्यशेष्म बहुलास्समाः॥१३॥
स नो दिव्यास्त्रसम्पन्नश् चक्षुर्विषयमागतः॥१३॥
यदि कुर्याम तत् कर्म यच्चिकीर्षाम हृद्गतम्।
भवतश्च प्रियं तत् स्याद् अस्माकं च यशस्करम्॥१४॥
अद्यास्त्वनर्जुना भूमिर् अत्रिगर्ताऽथवा पुनः।
वयमेनं हनिष्यामो निकृष्यायोधनाद्वहिः॥१५॥
सत्यं ते प्रतिजानीमो नैतन्मिथ्या भविष्यति॥१६॥
सञ्जयः—
एवं सत्यरथश्चोक्त्वा सत्यवर्मा च भारत।
सत्यवर्माऽपि सत्येषुस् सत्यधर्मा च भारत॥१७॥
सहिता भ्रातरः पञ्च रथानामयुतेन च।
न्यवर्तन्त महाराज कर्तुं समयबन्धनम् ॥१८॥
मालवास्तुण्डिकेराञ्च रथानामयुतैस्त्रिभिः।
सुशर्मा च नरव्याघ्रस् त्रैगर्तः प्रस्थलाधिपः॥१९॥
मच्चिल्लकैर्लिलिन्ध्रैश्चसहितो मद्रकैरपि।
स्थानामयुतेनैवम् अगमद्भातृभिस्सह॥२०॥
मलदाश्च करूशाश्च दरदाश्च महारथाः।
तङ्कणाश्च परादाश्च युगपत् ते समागताः॥२१॥
नानाजनपदेभ्यश्च रथानामयुतं पुनः।
समुच्छ्रितं विशिष्टानां संशप्तानां समागतम्॥२२॥
ततो ज्वलनमाधाय हुत्वा सर्वे पृथक् पृथक्।
जगृहुः कुशचीराणि चित्राणि कवचानि च॥२३॥
ते च बद्धतनुत्राणा घृताक्ताः कुशचीरिणः।
मौर्वीमेखलिनो वीरास् सहस्रशतदक्षिणाः॥२४॥
यज्वानः पुत्रिणस्सर्वे कृतकृत्यास्तनुत्यजः।
योक्तुकामास्तदाऽऽत्मानं यशसा विक्रमेण च॥२५॥
ब्रह्मचर्यश्रुतसुतैः क्रतुभिश्चाप्तदक्षिणैः।
प्राप्ताल्ँलोकान् सुयुद्धेन क्षिप्रमेव यियासवः॥२६॥
ब्राह्मणांस्तर्पयित्वा च निष्कं दत्वा पुनः पुनः।
गाश्च वासांसि च पुनस् समाभाष्य परस्परम्॥२७॥
द्विजमुख्यैस्समुदितैः कृतस्वस्त्ययनाशिषः।
मुदिताश्च प्रहृष्टाश्च जलं संस्पृश्य निर्मलम्॥२८॥
ते ज्वालयित्वा ज्वलनम् उपागम्य रणव्रतम्।
तस्मिन्नग्नौततश्चक्रुः प्रतिज्ञां दृढनिश्चयाम्॥२९॥
शृण्वतां सर्वभूतानाम् अत्युच्चैर्वाक्यमीरयन्।
धृत्याऽर्जुनवधे शूराः प्रतिज्ञामथ चक्रिरे॥३०॥
संशप्तकाः—
अनृतस्य च ये लोका ये56 लोका ब्रह्मघातिनाम्।
पानपस्य च ये लोका गुरुदाररतस्य च॥३१॥
ब्रह्मस्वहारिणां चैव राजपिण्डापहारिणाम्।
शरणागतं च त्यजतां याचमानाभिघातिनाम्॥३२॥
अगारदाहिनां चापि ये च गां निम्नतामपि।
अतिचारिणां च ये लोका ये च ब्रह्मद्विषामपि॥३३॥
भार्यां चाप्यृतुकालेषु ये लोका नाभिगच्छताम्।
श्राद्धसङ्गतिकानां च ये चाप्यात्मापहारिणाम्॥३४॥
क्लीबेन सान्व्यमानानां ये दीनानुसारिणाम्।
न्यासापहारिणां ये च श्रुतं नाशयतां च च ये॥३५॥
नास्तिकानां च ये लोका येऽग्निमातृपितृत्यजाम्।
सस्यमाक्रमतां ये च प्रत्यादित्यं प्रमेहताम्॥३६॥
तानाप्नुयामहे लोकान् ये च पापकृतामपि ॥३६॥
यद्यहत्वा निवर्तेम वयं सङ्ख्ये धनञ्जयम्।
तेन चाभ्यर्दितास्त्रासाद् यद्यास्याम पराङ्मुखाः॥३७॥
यद्यप्यसुकरं कर्म लोके कुर्याम संयुगे।
इष्टान् पुण्यकृतां लोकान् प्राप्नुयाम सुवर्चसः॥३८॥
सञ्जयः—
एवमुक्त्वा ततो राजंस् तेऽभ्यवर्तन्त संयुगम्।
आह्वयन्तो महाबाहुँ पितृजुष्टां दिशं प्रति॥३९॥
आहूतस्तैर्नरव्याघ्रः पार्थः परपुरञ्जयः।
धर्मराजमिदं वाक्यम् अपदान्तरमब्रवीत्॥४०॥
अर्जुनः—
एष वै भ्रातृभिस्सार्धं सुशर्माऽऽह्वयते रणे।
वधार्थंसगणस्यास्य मामनुज्ञातुमर्हसि॥४१॥
आहूतो न निवर्तेयम् इति मे व्रतमाहितम्।
संशप्तकाश्च ते राजन्नाह्वयन्ते महामृधे॥४२॥
न शक्नोमि च संसोढुम् आह्वानं भरतर्षभ।
सत्यं ते प्रतिजानेऽहं हतान् विद्धि परान् युधि ॥४३॥
न ह्यर्जुनो रणे राजन् मिथ्या किञ्चित् प्रवक्ष्यति।
हतांस्त्रिगर्तकान् पश्य मा स्म ते कश्मलं भवेत् ॥४४॥
युधिष्ठिरः—
अश्रौषीस्तात तत् प्रोक्तं यद्द्रोणस्य चिकीर्षितम्।
यथाऽनृतं तस्य भवेत् तथा नीतिर्विधीयताम्॥४५॥
द्रोणो हि बलवाञ् शूरः कृतास्त्रश्चजितश्रमः।
प्रतिज्ञातं च तस्यैतद् ग्रहण में महारथ॥४६॥
अर्जुनः—
सर्वथा न निवर्तेयम् आहूतोऽहं परन्तप।
त्रिगर्तो भ्रातृभिस्सार्धं स मामाह्वयते भृशम्॥ ४७॥
तवापि तु रणे रक्षा विहिता मे जनाधिप।
निरपेक्षो गमिष्यामि वधायैषां दुरात्मनाम्॥४८॥
एष वै सत्यजिद्राजन्नद्य त्वां रक्षिता युधि।
ध्रियमाणे च पाञ्चाल्ये नाचार्यः काममाप्स्यति॥४९॥
हते तु पुरुषव्याघ्रे सत्यजित्यनिवर्तिनि।
परैरपि सहामात्यैर् न स्थातव्यं कथञ्चन॥५०॥
सञ्जयः—
अनुज्ञातस्ततो राज्ञापरिष्वक्तस्तथैव च।
ततो दृष्टश्च बहुधा आशिषा चैव योजितः॥५१॥
वधायैव ततः पार्थस् त्रिगर्तानां बलं ययौ।
क्षुधितः क्षुद्विघातार्थं सिंहो मृगगणानिव॥५२॥
ततो दौर्योधनं सैन्यं मुदा परमया युतम्।
ग्रहणे धर्मराजस्य कृतोत्साहं महामृधे ॥५३॥
ततोऽन्योन्यं तु ते सेने समाजग्मतुरञ्जसा ॥५४॥
वेगेन शङ्खानापूर्य हर्षयुक्ते महास्वने।
गङ्गासरय्वौ वेगेन प्रावृषीवोल्वणोदके॥५५॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि षोडशोऽध्यायः ॥१६॥
॥६६॥ संशप्तकवधपर्वणि प्रथमोऽध्यायः ॥१॥
[ अस्मिन्नध्याये ५५ श्लोकाः]
॥ सप्तदशोऽध्यायः ॥
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अर्जुनस्य संशप्तकैस्सह युद्धम्॥
सञ्जयः—
ततस्संशप्तका राजन् समे देशे व्यवस्थिताः।
व्यूढानीकै रथैरेव चन्द्रार्धाख्यैर्मुदा युताः॥१
ते किरीटिनमायान्तं दृष्ट्वा हर्षेण मारिष।
अतीव सम्प्रहृष्टास्ते ह्युपलक्ष्य धनञ्जयम्॥२
उदकोशन् नरव्याघ्राश् शब्देनापूरयन् दिशः॥२॥
स दिशः प्रदिशस्सर्वा नभश्चैव समावृणोत्।
आवृतत्वाच्च लोकस्य महानासीत् प्रतिस्वनः॥३॥
अतीव सम्प्रहृष्टांस्ताञ् ज्ञात्वा तत्र धनञ्जयः।
किञ्चिदभ्युत्स्मयन् कृष्णम् इदं वचनमब्रवीत्॥४॥
अर्जुनः—
देवकीपुत्र पश्येमान् मुमूर्षूनद्य संयुगे।
भ्रातृंस्त्रैगर्तकानेतान् रोदितव्ये प्रहृष्यतः॥५॥
अथवा हर्षकालोऽयं त्रैगर्तानां न संशयः॥६॥
कुनरैर्दुरवापान् हि लोकान् प्राप्स्यन्ति संयुगे।
मया हता हि सङ्ग्रामे लोकान् प्राप्स्यन्ति पुष्कलान्॥७
सञ्जय
:—
एवमुक्त्वा हृषीकेशं महाबाहुस्ततोऽर्जुनः।
आससाद ततो व्यूढां त्रैगर्तानामनीकिनीम्॥८॥
स देवदत्तमादाय शङ्खं हेमपरिष्कृतम्।
दध्मौ वेगेन महता घोषेणापूरयन् दिशः॥९॥
तेन शब्देन वित्रस्ता संशप्तकवरूथिनी।
निश्चेष्टा विस्मिता57 सङ्ख्ये अश्मसारमयी यथा॥१०॥
सा सेना भरतश्रेष्ठ निश्चेष्टा शुशुभे तदा।
चित्रे पटे यथा न्यस्ता कुशलैश्शिल्पिभिर्नरैः॥११॥
स्वनेन तेन सैन्यानां दिवमावृण्वता तदा।
सम्वना पृथिवी सर्वा तथैव च महोदधिः॥१२॥
स्वनेन58 सर्वसैन्यानां कर्णास्तु बधिरीकृताः॥१२॥
वाहास्तेषां विवृत्ताक्षास् स्तब्धकर्णशिरोधराः।
विष्टब्धचरणा मूत्रं रुधिरं च प्रसुस्रुवुः॥१३॥
ततो व्युपारमच्छब्दः प्रहृष्टास्ते ततोऽभवन्॥१४॥
उपलभ्य ततस्संज्ञां पर्यवस्थाप्य वाहिनीम्।
युगपत् पाण्डुपुत्राय चिक्षिपुः कङ्कपत्रिणः॥१५॥
ततोऽर्जुनस्सहस्राणि दश पञ्चैव चाशुगान्।
अनागतानेव शरैश् चिच्छेदाशुपराक्रमः॥१६॥
ततोऽर्जुनं शरव्रातैर् दशभिर्दशभिः पुनः।
प्रत्यविध्यत पार्थस्तान् अविध्यत त्रिभिस्त्रिभिः॥१७॥
एकैकस्तु ततः पार्थं पुनर्विव्याध पञ्चभिः।
स च तानपि विव्याध द्वाभ्यां द्वाभ्यां पराक्रमी॥१८॥
भूय एव तु संरब्धास् तेऽर्जुनं सहकेशवम्।
आपूरयञ् शरैस्तीक्ष्णैस् तटाकमिव वृष्टिभिः॥१९॥
ततश्शरसहस्राणि प्रपतन्त्यर्जुनं प्रति।
भ्रमराणामिव व्राताः फुल्लद्रुमगणान् वने॥२०॥
ततस्सुबाहुरतु शरैर् अद्रिसारमयैर्दृढैः।
अविध्यद्दशभिर्वाणैः किरीटे सव्यसाचिनः॥२१॥
तैः किरीटी किरीटस्थैरुक्मपुङ्खैरजिह्मगैः।
शातकुम्भमयापीडो बभौ यूप इवोच्छ्रितः॥२२॥
हस्तावापं सुबाहोस्तु स तु भल्लेन पाण्डवः।
चिच्छेद तं चैव पुनश् शरवर्षैरवाकिरत्॥२३॥
ततस्सुशर्मा दशभिस् सुरथश्च किरीटिनम्।
सुधन्वा च सुबाहुश्च सुबाणश्च समर्पयत्॥२४॥
तांश्च सर्वान् पृथग्बाणैर् वानरप्रवरध्वजः।
प्रत्यविष्यद्वजांस्तेषां भल्लैश्चिच्छेद वीर्यवान्॥२५॥
सुधन्वनो धनुश्छित्वा हयांश्च जवनाञ् शरैः।
अथास्य सशिरस्त्राणं शिरः कायादपाहरत्॥२६॥
जहार पार्थस्सैन्येषु सहस्रे द्वे च योधिनाम्।
तस्मिन् निपतिते वीरे त्रस्तास्तस्य पदानुगाः॥२७॥
भूयिष्ठं प्रतिरुद्धा ये हतैर्योधैर्यशस्विनः।
विदुद्रुवुस्तदा योधा यत्र दौर्योधनं बलम्॥२८॥
ततो जघान सङ्क्रुद्धो वासविस्तां महाचमूम्।
शरजालैरविच्छिन्नैस् तमस्सूर्य इवांशुभिः॥२९॥
ततो बाणैर्बले तस्मिन् प्रविलीने समन्ततः।
सव्यसाचिनि सङ्क्रुद्धेत्रैगर्तान् मृत्युराविशत्॥३०॥
ते हन्यमानाः पार्थेन शरैस्सन्नतपर्वभिः।
मुमुहुश्च मुहुस्त्रस्तास्सिंहं मृगगणा इव॥३१॥
ततस्त्रिगर्तराट् क्रुद्धस् तानुवाच महारथान्॥३१॥
सुशर्माः—
अलं द्रुतेन वश्शूरा न भयं कर्तुमर्हथ॥३२॥
शप्त्वा च शपथान् घोरान् सर्वसैन्यस्य पश्यतः।
गत्वा दौर्योधनं सैन्यं किं नु वक्ष्यथ मुख्यगाः॥३३॥
नापहास्याः कथं लोके कर्मणाऽनेन संयुगे।
भवेम सहितास्सर्वे निवर्तध्वं महारथाः॥३४॥
सञ्जयः—
एवमुक्तास्ततो राजन् विक्रोशन्तो मुहुर्मुहुः।
शङ्खान् प्रदध्मुस्ते वीरा हर्षयन्तः परस्परम्॥३५॥
ततस्ते संन्यवर्तन्त संशप्तकगणाः पुनः।
नारायणाश्च गोपाला कृत्वा मृत्युं निवर्तनम्॥३६॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः ॥१७॥
॥६६॥ संशप्तकवधपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
[असिन्नध्याये ३६ श्लोकाः]
महाभारतम्
॥ अष्टादशोऽध्यायः॥
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अर्जुनस्य संशप्तकैः सह युद्धम्॥
सञ्जयः—
दृष्ट्वा च संनिवृत्तांस्तान् संशप्तकगणान् पुनः।
वासुदेवं महात्मानम् अर्जुनः प्रत्यभाषत॥१॥
अर्जुनः—
चोदयाश्वान् हृषीकेश संशप्तकगणान् प्रति।
नैते हास्यन्ति सङ्ग्रामं जीवन्त इति मे मतिः॥२॥
पश्य चास्त्रवलं मह्यं बाहोरिष्वसनस्य च।
अद्य ह्योको गणानेतान् हन्यां रुद्रः पशूनिव॥३॥
सञ्जयः—
एवं ब्रुवाणं बीभत्सुं केशवश्शत्रुवाहिनीम्।
प्रावेशयत दुर्धर्षो यत्र यत्रैच्छदर्जुनः॥४॥
स रथो भ्राजतेऽत्यर्थम् उद्यमानो महाह्यैः।
उद्यमानमिवाकाशे विमानं पाण्डरैर्घनैः॥५॥
मण्डलानि ततश्चक्रे गतप्रत्यागतानि च।
यथा शक्ररथो राजन् युद्धे देवासुरे पुरा॥६॥
अथ नारायणाः क्रुद्धा विविधायुधपाणयः।
छादयन्तश्शरव्रातैर् परिवव्रुर्धनञ्जयम्॥७॥
अदृश्यं तं मुहूर्तेन चक्रुस्ते भरतर्षभ।
कृष्णेन सहितं युद्धे कुन्तीपुत्रं धनञ्जयम्॥८॥
क्रुद्धस्तु फल्गुनस्सङ्ख्येद्विगुणीकृतविक्रमः।
गाण्डीवमनुसम्मृज्य तूणी संस्पृश्य चाहवे॥९॥
स बद्ध्वाभ्रुकुटिं वक्रे क्रोधस्य प्रतिलक्षणम्।
देवदत्तं महाशङ्खं पूरयामास पाण्डवः॥१०॥
ततोऽस्त्रमरिसङ्घघ्नं त्वाष्ट्रमभ्यस्यदर्जुनः।
ततो रूपसहस्राणि प्रादुरासन् पृथक् पृथक्॥११॥
अर्जुनप्रतिरूपैस्तैर् नानारूपैर्विमोहिताः।
अन्योन्यमर्जुनं मत्वा परस्परमथाघ्नत॥१२॥
अयमर्जुनोऽयं गोविन्द इमौ यादवपाण्डवौ।
इति ब्रुवाणास्सम्मूढा जघ्नुरन्योन्यमञ्जसा॥१३॥
अन्योन्यं समरे जघ्नुस् तावका भरतर्षभ।
मोहिताः परमास्त्रेण पाण्डवेन महात्मना॥१४॥
रुधिरोक्षितगात्रास्ते प्रेक्षमाणाः परस्परम्।
अशोभन्त रणे योधाः पुष्पिता इव किंशुकाः॥१५॥
रुधिरोत्पीडनास्ते तु रुधिरेण समुक्षिताः।
चन्दनस्य रसेनेव व्यभ्राजन्त रणाजिरे॥१६॥
ततः प्रहस्य बीभत्सुर् व्याक्षिपद्गाण्डिवं भृशम्।
न्यहनत् ताञ् छरैस्तीक्ष्णैस् तमस्सूर्य इवांशुभिः॥१७॥
हतावशिष्टास्ते भूयः परिवार्य धनञ्जयम्।
साश्वध्वजरथं चक्रुर् अदृश्यं शरवृष्टिभिः॥१८॥
ततश्शरसहस्त्राणि विप्रमुक्तानि भस्मसात्।
कृत्वा ततस्तु तान् वीरान् अनयद्यमसादनम्॥१९॥
ततः प्रहस्य वीभत्सुर् लिलिन्ध्रान् मालवानपि।
मच्चिल्लकांस्त्रिगर्तांश्च यौधेयांश्चार्दयच्छरैः॥२०॥
ते हन्यमाना वीरेण क्षत्रियाः कालचोदिताः।
व्यसृजञ् छरवर्षाणि पार्थे नानाविधानि च॥२१॥
ततो न चार्जुनस्तत्र न रथो नापि केशवः।
प्रत्यदृश्यन्त घोरेण शरवर्षेण संवृताः॥२२॥
ततस्ते लब्धलक्षत्वाद् अन्योन्यमभिचुक्रुशुः।
हतौ कृष्णाविति प्रीताश् शङ्खान् दध्मुश्च ते तदा॥२३॥
भेरीमृदङ्गशब्दांश्च चक्रुर्वीराः प्रहृष्टवत्।
सिंहनादरवांचोग्रान् प्रचक्रुस्तत्र मारिष॥२४॥
ततः प्रसिष्विदे कृष्णः खिन्नश्चार्जुनमब्रवीत्॥२४॥
श्रीभगवान्—
क्वासि पार्थ न पश्यामि कच्चिज्जीवसि शत्रुहन्॥२५॥
सञ्जयः—
तस्य तन्मानुषं भावं भावज्ञोज्ञाय पाण्डवः।
वायव्यास्त्रेण तैरस्तां शरवृष्टिमपाहरत्॥२६॥
संशप्तकरथव्रातान् साश्वद्विपरथायुतान्।
उवाह भगवान् वायुश् शुष्कपर्णचयानिव॥२७॥
उह्यमानास्तु ते राजन् बह्वशोभन्त वायुना।
प्रलीनाः पक्षिणः काले वृक्षेभ्य इव मारिष॥२८॥
तांस्तथा व्याकुलीकृत्य त्वरमाणो धनञ्जयः।
जघान निशितैर्वाणैस् सहस्राणि शतानि च ॥२९॥
शिरांसि भल्लैरहद् वाहूनपि च सायुधान्।
हस्तिहस्तोपमाश्चोरुश् शरैरुर्व्यामपातयत्॥३०॥
पृष्ठच्छिन्नान् विचरणान् विमस्तिष्केक्षणाङ्गुलीन्।
नानाङ्गावयवैर्हीनांश् चकारारीन् धनञ्जयः॥३१॥
गन्धर्वनगराकारान् विधिवत् कल्पितान् स्थान्।
शरैर्विशकलीकुर्वंश् चक्रे व्यश्वरथध्वजान्॥३२॥
मुण्डतालवनानीव तत्र तत्र चकाशिरे।
छिन्नध्वजरथव्राताः केचिद्योधाः क्वचित् क्वचित्॥३३॥
सोत्तरायुधिनो नागास् सपताकाङ्कुशध्वजाः।
पेतुश्शक्राशनिहता द्रुमवन्त इवाचलाः॥३४॥
चामरापीडकधरास् स्रस्तांत्रनयनासवः।
सारोहास्तुरगाः पेतुः पार्थवाणहताः क्षितौ॥३५॥
विप्रविद्धासिनाराचाश् छिन्नवर्मर्ष्टिशक्तयः।
पत्तयश्छिन्नवर्माणः कृपणं शेरते हताः॥३६॥
तैर्हतैर्हन्यमानैश्च पतद्भिः पतितैरपि।
कूजद्भिर्निष्टनद्भिश्च क्रूरं विशसनं बभौ॥३७॥
रजश्च सुमहद्भूतं शान्तं लोहितवृष्टिभिः।
मही चाप्यभवद्दुर्गा कबन्धायुतसङ्कुला॥३८॥
तद्बभौरौद्रबीभत्सं बीभत्सोर्यानमाहवे।
आक्रीडमिव रुद्रस्य घ्नतः कालात्यये पशून्॥३९॥
ते वध्यमानाः पार्थेन व्याकुलाश्वरथा द्विपाः।
तमेवाभिमुखाः क्षीणाश्शकस्यातिथितां गताः॥४०॥
सा भूमिर्भरतश्रेष्ठ निहतैस्तैर्महारथैः।
आस्तीर्णा सम्बभौ सर्वा प्रतैरिव सचेतनैः॥४१॥
एतस्मिन्नन्तरे चैव प्रमत्ते सव्यसाचिनि।
व्यूढानीकस्ततो द्रोणो युधिष्ठिरमभिद्रवत्॥४२॥
तं प्रत्यगृह्वंस्त्वरिता व्यूढानीकेन पाण्डवाः।
युधिष्ठिरं परीप्सन्तस् तदाऽऽसीत् तुमुलं महत्॥४३
॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः ॥१८॥
॥६६॥ संशप्तकवधपर्वणि तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
[अस्मिन्नध्याये ४३ श्लोकाः ]
॥ एकोनविंशोऽध्यायः॥
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सङ्कुलयुद्धवर्णनम्॥
सञ्जयः—
परिणम्य निशां तां तु भारद्वाजो महारथः।
बहुधोक्त्वा ततो राजन् वचनं वै सुयोधनम् ॥१॥
विधाय गोप्तृृन् पार्थस्य संशप्तकगणैस्सह्।
निष्क्रान्ते च रणं पार्थेसंशप्तकवधं प्रति ॥२॥
व्यूढानीकस्ततो द्रोणः पाण्डवानां महाचमूम्।
अभ्ययाद्भरतश्रेष्ठ धर्मराजजिघृक्षया ॥३॥
व्यूढां दृष्ट्वा सुपर्णेन भारद्वाजस्य तां चमूम्।
मण्डलार्धेन तं व्यूहं प्रत्यव्यूहयुधिष्ठिरः ॥४॥
मुखं चासीत् सुपर्णस्य भारद्वाजो महारथः।
शिरो दुर्योधनो राजा सोदर्यैस्सानुगैर्वृतः॥५
चक्षुषी कृतवर्मा च गौतमश्चास्यतां वरः।
भूतवर्मा क्षेमधन्वा करम्भश्च सुवीर्यवान्॥६
कलिङ्गासिंहलाः प्राच्याश् शूरा भीराः कशेरुकाः।
शका यवनकाम्भोजास् तथा हंसपथाश्च ये॥७
ग्रीवायां शूरसेनाश्च दरदा मद्रकेकयाः।
रथाश्वगजपत्त्योघास् तस्थुः परमदंशिताः॥८
भूरिश्रवाश्शलदशल्यस् सोमदत्तोऽथ बाह्लिकः।
अक्षौहिण्या वृताश्शूरा दक्षिणं पक्षमाश्रिताः॥९
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ काम्भोजश्च सुदक्षिणः।
वामं पक्षं समाश्रित्य स्थिता द्रोणसुताग्रगा॥१०.
पृष्ठे कलिङ्गास्साम्बष्ठामागधाः पौण्ड्रमद्रकाः।
गान्धाराशकुनिप्राग्र्याः पार्वतीया वसातयः॥११
पुच्छे वैकर्तनः कर्णस् सपुत्रज्ञातिवान्धवः।
महत्या सेनया तस्थौ नानाजनसमृद्धया॥१२
जयद्रथो भीमरथस् संयातिरसञ्जयो जयः।
भूमिञ्जयश्च पृषतो निशठश्च महाबलः॥१३
वृता बलेन महता ब्रह्मलोकपुरस्कृताः।
व्यूहस्य परितो राजन् स्थिता युद्धविशारदाः॥१४
द्रोणेन विहितो व्यूहः पत्त्यश्वरथकुञ्जरैः।
वातोद्धूतार्णवाकारः प्रवृत्त इव लक्ष्यते॥१५
तस्य पक्षप्रपक्षेभ्यो निष्कामन्ति युयुत्सवः।
सविद्युत्स्तनिता मेघा दिवि दिग्भ्य इवोष्णगे॥१६
तस्य प्राग्ज्योतिषो मध्ये विधिवत् कल्पितं गजम्।
आस्थितोऽभूत् स भगवान् अंशुमानुदयं यथा॥१७
माल्यदामवता राजञ् श्वेतच्छत्रेण वीर्यवान्।
कृत्तिकायोगयुक्तेन पौर्णमास्यामिवेन्दुना॥१८
नीलाञ्जनचयप्रख्यो मदान्धो द्विरदो बभौ।
अभिवृष्ट्या महामेघैर् यथा स्यात् पर्वतो महान्॥१९
नानानृपतिभिर्वीरैर् विविधायुधभूषणैः।
समन्वितः पार्वतीयैश् शक्रो देवगणैरिव॥२०
ततो युधिष्ठिरः प्रेक्ष्य व्यूहं तमतिमानुषम्।
अजय्यमरिभिस्सङ्घये पार्षतं वाक्यमब्रवीत्॥२१
युधिष्ठिरः—
ब्राह्मणस्य वशं नाद्य गच्छेयं पुरुषर्षभ।
पारावताश्व भद्रं ते तथा नीतिर्विधीयताम्॥२२
धृष्टद्युम्नः
—
द्रोणस्य यतमानस्य वशं नैष्यसि सुव्रत।
अहमावारयिष्यामि द्रोणमद्य सहानुगः॥२३
मयि जीवति कौन्तेय नोद्वेगं कर्तुमर्हसि।
न हि द्रोणो रणे शक्तो विजेतुं मां कथञ्चन॥२४
सञ्जयः—
एवमुक्त्वा किरन् वाणान् द्रुपदस्यात्मजो बली।
पारावतसवर्णाश्वस् स्वयं द्रोणमभिद्रवत् ॥२५
अनिष्टदर्शनं दृष्ट्वा धृष्टद्युम्नमुपस्थितम्।
क्षणेनैवाभवद्द्रोणो नातिहृष्टमना इव॥२६
स हि जातो महाराज द्रोणस्य निघनं प्रति।
मर्त्यधर्मतया तस्माद् भारद्वाजो व्यमुह्यत॥२७
नाशकत् तत्र तं किञ्चिद् अनीकं प्रतिवीक्षितुम्॥२७॥
ततः किरन्निषूंस्तीक्ष्णान् द्रुपदस्य वरूथिनीम्।
भारद्वाजो ययौ तूर्ण पार्षतं वर्जयन युधि॥२८॥
द्रुपदस्य महत् सैन्यं दारयामास ब्राह्मणः॥२९
तं तु सम्प्रेक्ष्य ते पुत्रो दुर्मुखश्शत्रुकर्शनः।
प्रियं चिकीर्षुर्द्रोणस्य धृष्टद्युम्नमवारयत्॥३०
स सम्प्रहारस्तुमुलस् सुघोरस्समपद्यत।
पार्षतस्य च शूरस्य दुर्मुखस्य च संयुगे॥३१
पार्षतश्शरजालेन क्षिप्रं प्रच्छाद्य दुर्मुखम्।
भारद्वाजं शरौघेण महता समवाकिरत्॥३२
द्रोणमावारितं दृष्ट्वा भृशं यत्तस्तवात्मजः।
नानालिङ्गैश्शरव्रातैःपार्षतं समयोधयत्॥३३
तयोर्विषक्तयोस्सङ्खये पाञ्चालकुरुपुत्रयोः।
अभवत्59 तुमुलं युद्धं परस्परवधैषिणोः॥३४
द्रोणो यौधिष्ठिरं सैन्यं व्यधमद्बहुधा शरैः।
अनिलेन यथाऽभ्राणि विच्छिन्नानि समन्ततः॥३५
तथा सैन्यानि पाण्डूनां दृश्यन्ते स्म क्वचित् क्वचित् ॥३५॥
मुहूर्तमिव तद्युद्धम् आसीन्मधुरदर्शनम्।
तत उन्मत्तवद्राजन् निर्मर्यादमवर्तत॥३६॥
नैव खं न दिशो भूमिर् बभासे न च भास्करः।
नैव स्वे न परे राजन् व्यज्ञायन्त परस्परम्॥३७॥
अनुमानेन संज्ञाभिर् युद्धं तत् समवर्तत॥३८
चूडामणिषु निष्केषु भूषणेष्वसिचर्मसु।
तेषामादित्यवर्णाभा मरीच्यः प्रचकाशिरे॥३९
तत्प्रकीर्णपताकानां रथवाजिनृहस्तिनाम्।
बलाकासदृशाभं तद् ददृशे रूपमाहवे॥४०
नरानेव नरा जघ्नुर् जघ्नुरुग्रा हया हयान्।
रथिनो रथिनो जघ्नुर् वारणा वरवारणान् ॥४१॥
समुच्छ्रितपताकानां द्विपानां परमद्विपैः।
क्षणेन तुमुलो घोरस् सङ्ग्रामस्समजायत ॥४२॥
तेषां संसक्तगात्राणां कर्षतामितरेतरम्।
दन्तसङ्घातसङ्घर्षात् सधूमोऽग्निरजायत ॥४३॥
विप्रकीर्णपताकास्ते विषाणजनिताग्नयः।
बभुराकाशमावार्य स विद्युत इवाम्बुदाः ॥४४॥
विक्षरद्भिर्नद॒द्भिश्च निपतद्भिश्च वारणैः।
सम्बभूव मही कीर्णा मेघैर्द्यौरिव वार्षिकी॥४५॥
तेषामाहन्यमानानां वाणतोमरवृष्टिभिः।
वारणानां रणे जज्ञे मेघानामिव सम्प्लवः॥४६॥
तोमराभिहताः केचिद् बाणैश्च परमद्विषाः।
वित्रस्तास्सर्वशब्दानां शब्दमेवापरेऽसृजन्॥४७॥
विषाणाभिहताः केचित् केचित् तत्र गजा गजैः।
चक्रुरार्तस्वरं घोरम् उत्पातजलदा इव॥४८॥
प्रतीपं ह्रियमाणाञ्च वारणा वरवारणैः।
उन्मथ्य पुनराजह्रुः प्रेषिताः परमाङ्कुशैः॥४९॥
महामात्रा महामात्रैस् ताडिताश्शरतोमरैः।
गजेभ्यः पृथिवीं जग्मुर् मुक्तप्रहरणाङ्कुशाः॥५०॥
निर्मनुष्याश्च मातङ्गा विनदन्तस्ततस्ततः।
छिन्नाभ्राणीव सम्पेतुस् सम्प्रमथ्य परस्परम्॥५१
हताः परिपतन्ति स्म यन्त्रिताः पतिता भुवि।
दिशो जग्मुर्महानागा वायुना खचरा इव॥५२
ताडितास्ताड्यमानाश्च तोमरर्ष्टिपरश्वथैः।
पेतुरार्तस्वनं कृत्वा परा विशसने गजाः॥५३
तेषां शैलोपमैः कायैर् निपतद्भिस्समन्ततः।
आहता सहसा भूमिश् चकम्पे च ननाद च॥५४॥
सादितैस्सगजारोह्रैस् सपताकैस्सतोमरैः।
तैर्गजैश्शुशुभे भूमिर्विकीर्णैरिव पर्वतैः ॥५५
गजैर्गात्रवरैः क्षुण्णा विषाणैश्च निपातिताः।
गजा38 निपतितारोहा विकीर्णाङ्कुशतोमराः॥५६॥
क्रौञ्चवन्निनदन्तोऽन्ये नाराचाभिहता गजाः।
परान् स्वांश्च न जानन्तः परिपेतुर्दिशो दश॥५७॥
गजाश्वरथसङ्घानां शरीरौघैस्समावृता।
वभूव पृथिवी राजन् मांसशोणितकर्दमा ॥५८॥
प्रमथ्य60च विषाणाग्रैस् समुत्क्षिप्य च वारणैः।
सचक्राश्च विचक्राश्च रथैरेव रथा हताः॥५९॥
रथाश्च रथिभिर्हीना निर्मनुष्याश्च वाजिनः।
हतारोहाश्चमातङ्गा दिशो जग्मुश्शरातुराः॥६०॥
जघान पितरं पुत्रः पिता पुत्रमताडयत्।
इत्यासीत् तुमुलं युद्धं न प्रज्ञायत् किञ्चन ॥६१॥
आगुल्फेभ्यश्च सीदन्ति नरा लोहितकर्दमे।
दीप्यमानैः परिक्षिप्ता दावैरिव महाद्रुमाः ॥६२॥
शोणितैस्सिच्यमानानि शस्त्राणि कवचानि च।
छत्राणि च पताकाञ्च सर्वं रक्तमदृश्यत ॥६३॥
हयौघाश्च61 रथौघाश्च गजौघाश्च निपातिताः।
निकृत्ताः पुनरुत्पत्य तुरगा रथनेमिभिः ॥६४॥
सगजौघमहावेगः परासुनरशैवलः।
रथौघतुरगावर्तः प्रबभौ सैन्यसागरः ॥६५॥
तं वारणमहानौभिर् योधा जयघनैषिणः।
अवगाह्यावमज्जन्तो नैव मोहमकुर्वत ॥६६॥
शरवर्षाभिवृष्टेषु योधेष्वाहतलक्ष्मसु।
न तेषु चिन्तनं लेभे कश्चिदाहतलक्षणम् ॥६७॥
वर्तमाने महायुद्धे घोररूपे भयानके।
मोहयित्वा परान् द्रोणो युधिष्ठिरमभिद्रवत् ॥६८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि एकोनविंशोऽध्यायः ॥१९॥
॥६६॥ संशप्तकवधपर्वणि चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥
[ अस्मिन्नभ्याये ६८ श्लोकाः]
॥ विंशोऽध्यायः ॥
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** युधिष्ठिरं जिघृक्षतो द्रोणस्य सत्यजिता निरोधः ॥१॥ द्रोणेन सत्यजिति निहते भयाद्युधिष्टिरस्यापयानम् ॥ २॥ पुनर्युधिष्ठिरं जिघृक्षणा द्रोणेन पाञ्चाल्यादीनां हननम् ॥ ३॥**
सञ्जयः—
ततो युधिष्ठिरो द्रोणं दृष्ट्वाऽन्तिकमुपागतम्।
महता शरवर्षेण प्रत्यगृह्णादभीतवत् ॥१॥
ततो हलहलाशब्द आसीद्यौधिष्ठिरे बले।
जिघृक्षति महासिंहे गजानामिव यूथपम् ॥२॥
दृष्ट्वा द्रोणं तथा वीरस् सत्यजित् सत्यविक्रमः।
युधिष्ठिरं परिप्रेप्सुर् आचार्यं समुपाद्रवत् ॥३॥
तत आचार्यपाञ्चालौ युद्धायाभिसमीयतुः।
विक्षोभयन्तौ तौ सेने इन्द्रवैरोचनाविव ॥४॥
ततस्स सत्यजित् तीक्ष्णैर् दशभिर्मर्मभेदिभिः।
अविध्यच्छीघ्रमाचार्य62 सूतं च दशश्शिरैः॥५
आचार्यस्तस्य वै चापं चिच्छेद त्रिभिराशुगैः॥५॥
स शीघ्रमादाय तदा धनुरन्यत् प्रतापवान्।
द्रोणमभ्यहनद्भल्लैस् त्रिंशद्भिर्मर्मभेदिभिः॥६॥
ज्ञात्वा सत्यजितं द्रोणं ग्रसमानमिवाहवे।
वृकश्शरशतैस्तीक्ष्णैः63 इत्यारभ्य प्रहरन्तमभीतवत् (श्लो 391/2) इत्यन्तं नास्ति") पाञ्चाल्यो द्रोणमार्दयत्॥७॥
सञ्छाद्यमानं समरे द्रोणं दृष्ट्वा महारथम्।
चुक्रुशुः पाण्डवा राजन् वस्त्राणि दुवुवुश्च ह ॥८॥
वृकस्तु परमक्रुद्धो द्रोणं षष्ट्या स्तनान्तरे।
विव्याध बलवद्राजंस् तदद्भुतमिवाभवत्॥९॥
द्रोणस्तु शरवर्षेण च्छाद्यमानो महारथः।
वेगं चक्रे महाघोरं क्रोधादुद्वृत्य चक्षुषी॥१०॥
ततस्सत्यजितश्चापं छित्त्वा द्रोणो वृकस्य च।
षड्भिस्ससूतं सरथं शरैर्द्रोणोऽवधीद्वृकम्॥११॥
अथान्यद्धनुरादाय सत्यजिद्वेगवत्तरम्।
साश्वं ससूतं विशिखैर् द्रोणं विव्याध सध्वजम्॥१२॥
स तत्रममृषे द्रोणः पाञ्चाल्येनार्दनं रणे।
ततस्तस्य विनाशाय सत्वरं व्यसृजच्छरान्॥१३॥
हयान् ध्वजं धनुर्यष्टिम् उभौ च पार्ष्णिसारथी।
अवाकिरत् ततो द्रोणश् शरैश्शतसहस्रशः॥१४॥
स तथा भिद्यमानेषु कार्मुकेषु पुनः पुनः।
पाञ्चाल्यः परमास्त्रज्ञश् शोणाश्वं समयोधयत्॥१५॥
स सत्यजितमालोक्य ततस्तूर्णं महाहवे।
अर्धचन्द्रेण चिच्छेद शिरस्तस्य महात्मनः॥१६॥
तस्मिन् हतेमहामात्रे पाञ्चालानां रथर्षभे।
अपायाज्जवनैरश्वैर् द्रोणाद्भीतो युधिष्ठिरः॥१७॥
पाञ्चालाः केकया मात्स्याश् चेदिकारूशकोसलाः।
युधिष्टिरमभीप्सन्तो हृष्टा द्रोणमुपाद्रवन्॥१८॥
ततो युधिष्ठिरं प्रेप्सुर् आचार्यश्शत्रुपूगहा।
व्यधमत् तान्यनीयकानि तूलराशिमिवानलः॥१९॥
निर्दहन्तमनीकानि तानि तानि पुनः पुनः।
द्रोणं मात्स्यावरजश् शतानीकोऽभ्यवर्तत॥२०॥
सूर्यरश्मिप्रतीकाशैः कर्मारपरिमार्जितैः।
षड्भिस्ससूतं सहयं द्रोणं विद्ध्वाननाद च॥२१॥
तस्य नानदतो द्रोणश् शिरः कायात् सकुण्डलम्।
क्षुरेणैवाहरद्द्रोणस् ततो मात्स्याः प्रदुद्रुवुः॥२२॥
मात्स्याञ्जित्वाऽजयञ्चेदीन् कारुशान् केकयानपि।
पाञ्चालान् सृञ्जयान् पार्थान् भारद्वाजः पुनः पुनः॥२३॥
तं दहन्तमनीकानि क्रुद्धमग्निं यथा वनम्।
दृष्ट्वारुक्मरथं वीरं समकम्पन्त सृञ्जयाः॥२४॥
उभाभ्यां सन्दधानस्य धनुषोऽस्याशुकारिणः।
ज्याघोषो निघ्नतोऽमित्रान् दिक्षु सर्वासु शुश्रुवे॥२५॥
नागानश्वान् पदातींश्च तथोभौ पाणिसारथी।
रौद्रा हस्तवता मुक्ताः प्रमथ्नन्ति स्म सायकाः॥२६॥
नानद्यमानः पर्जन्यो विष्वग्वातो हिमात्यये।
अश्मवृष्टिमिवावर्षत् परेषां भयमादधत् ॥२७॥
सर्वा दिशस्समचरत् सेनां सङ्क्षोभयन् मुहुः।
बली शूरो महेष्वासो मित्राणामभयङ्करः॥२८॥
तस्य विद्युदिवाभ्रेषु चापं हेमपरिष्कृतम्।
दिक्षु सर्वास्वपश्याम द्रोणस्यामित्रघातिनः॥२९॥
स शूरस्सत्यवान् प्राज्ञो बलवान् सत्यविक्रमः।
महानुभावः कालान्ते रौद्रीं प्रावर्तयन्नदीम्॥३०॥
कवचोर्मिरथावर्तां मर्त्यकूलापहारिणीम्।
गजाश्वमकराकीर्णाम् असिमीनां दुरासदाम्॥३१॥
वीरास्थिशर्करां दुर्गांभेरीमण्डूककच्छपाम्।
चर्मवर्मप्लवां घोरां केशशैवलशाद्वलाम्॥३२॥
शरौघिणीं धनुस्त्रोतां बाहुपन्नगसङ्कुलाम्।
मनुष्यशीर्षपाषाणां शक्तिमीनां गदाकुलाम्॥३३॥
उष्णीषफेनविततां निष्कीर्णान्त्रसरीसृपाम्।
वीरापहारिणीं रौद्रां मांसशोणितकर्दमाम् ॥३४॥
हस्तिग्रहां ध्वजनगां क्षत्रियाणां निमज्जनीम्।
क्रूरां शरीरसङ्घाटां सादिनक्रां दुरत्ययाम्॥३५॥
द्रोणः प्रावर्तयत् तत्र नदीमन्तकगामिनीम्॥३६॥
तं दहन्तमनीकानि रथोदाराः प्रगल्भवत्।
सर्वतोऽभ्यद्रवन् द्रोणं कुन्तीपुत्रपुरोगमाः ॥३७॥
तांस्तु शूरान् महेष्वासांस् तावकाऽभ्युद्यतायुधाः।
राजानो राजपुत्राश्च सर्वतः पर्यवारयन् ॥३८॥
स सत्यसन्धश्शोणाश्वः प्रभिन्न इव कुञ्जरः।
अभ्यतीत्य रथानीकं वृषसेनं समभ्ययात् ॥३९॥
ततो राजानमासाद्य प्रहरन्तमभीतवत्।
अविध्यन्नवभिः क्षेमं स हतः प्रापतद्रथात् ॥४०॥
स मध्यं प्राप्य सैन्यानां सर्वास्तु व्यचरद्दिशः।
त्राता ह्यभवदन्येषां न त्रातव्यः परन्तपः ॥४१॥
शिखण्डिनं द्वादशभिर् विंशत्या चोत्तमौजसम्।
वसुदानं तु भल्लेन रथनीलादपाहरत् ॥४२॥
युधामन्युं चतुष्षष्ट्या सात्यकिं त्रिंशता शरैः।
विद्ध्वारुक्मरथं प्रेप्सुः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ॥४३॥
ततो युधिष्ठिरः क्षिप्रं कितवो राजसत्तमः।
अपायाजवनैरवैः पाञ्चाल्यो द्रोणमभ्ययात् ॥४४॥
सरथं सधनुष्कं तु साश्वयन्तारमक्षिणोत्।
स हतः प्रापतद्भूमौ रथाज्ज्योतिरिवम्बरात् ॥४५॥
तं हत्त्वा विबभौ द्रोणः कुरुभिः परिवारितः॥४५॥
तावकास्तु महाराज जयं लब्ध्वा महारणे।
पाण्डवेयान् रणे जघ्नुर्द्रवतस्तान् समन्ततः ॥४६॥
वार्धक्षेमिस्तु वार्ष्णेयो द्रोणं विद्ध्वाशरोत्तमैः।
नवभिश्चावनीपालः पुनर्विव्याध पञ्चभिः ॥४७॥
चित्रसेनस्ततो द्रोणं पाञ्चालस्त्वर्दयच्छरैः।
पुनर्विव्याघसङ्क्रुद्धस् सेनाबिन्दुश्च पञ्चभिः॥४८॥
सुवर्मा पञ्चभिश्चैव धृष्टद्युम्नश्च पञ्चभिः।
शिखण्डी61 नवभिर्बाणैश् चेकितानश्च पञ्चभिः ॥४९॥
सात्यकिश्च चतुष्पष्टया राजन विव्याधसायकैः॥५०॥
सुचित्रो दशभिर्वाणैर् द्रोणं विद्ध्वाऽनदद्बली।
तं द्रोणस्समरे राजञ् शरवर्षैरवाकिरत्64॥५१॥
अपातयत् ततो द्रोणस् सुचित्रं सहसारथिम् ॥५१॥
साश्वश्च समरे राजन् हतो वै प्राप्तत् क्षितौ।
पात्यमानो महाराज वभौज्योतिरिवाम्बरारात् ॥५२॥
तस्मिन् हतेराजपुत्रे पाञ्चालानां रथर्षभे।
घ्नतद्रोणं घ्नत द्रोणम् इत्यासीन्निरस्वनो महान्॥५३॥
तांस्तथा भृशसंविग्नान्पाञ्चालान् मत्स्यकेकयान्।
सृञ्जयान् पाण्डवेयांश्च द्रोणो व्यक्षोभयद्बलात् ॥५४॥
सात्यकिं चेकितानं च धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ।
वार्धक्षेमिंचित्रसेनं सेनाविन्दुं सुवर्चसम् ॥५५॥
एतांश्चान्यांश्च सुबहून् नानाजनपदेश्वरान्।
सर्वान् द्रोणोऽजययुद्धे कुरुभिः परिवारितः॥५६॥
ते दानवा इवेन्द्रेण वध्यमाना महात्मना।
पाञ्चालाः केकया मात्स्यास् समकम्पन्त भारत॥५७॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि विंशोऽध्यायः॥२०॥
॥६६॥ संशप्तकवधपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
[ अस्मिन्नध्याये ५७॥ श्लोकाः ]
महाभारतम्
॥ एकविंशोऽध्यायः ॥
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** द्रोणपराक्रमहृष्टेन दुर्योधनेन कर्णं संबोध्य भोमसेनाद्यवज्ञाने कृते कर्णेन भीमादीनां प्रशंसनपूर्वकमनवज्ञेयत्वकथनम् ॥**
धृतराष्ट्रः—
भारद्वाजेन भग्नेषु पाण्डवेषु महात्मसु।
पाञ्चालेषु च सर्वेषु कच्चिन्नान्यो न्यवर्तत॥१॥
योद्धुं युद्धे मतिं कृत्वा क्षत्रियाणां यशस्करीम्।
असेवितां कापुरुषैस् सेवितां पुरुषर्षभैः॥२॥
स एष पुरुषव्याघ्रो यो भग्नेषु निवर्तते।
अहो नासीत् पुमान् कश्चिद् द्रोणं दृष्ट्वा व्यवस्थितम्॥३॥
जृम्भमाणमिव व्याघ्रं प्रभिन्नमिव कुञ्जरम्।
त्यजन्तमाहवे प्राणान् सन्नद्धं चित्रयोधिनम् ॥४॥
महेष्वासं रथव्याघ्रं द्विषतां भयवर्धनम्।
भारद्वाजं स्थानीके शूरं दृष्ट्वा व्यवस्थितम् ॥५॥
के वीरास्संन्यवर्तन्त तन्ममाचक्ष्व सञ्जय ॥५॥
सञ्जयः—
तान् दृष्ट्वा चलितान् सङ्खये प्रणुन्नान् द्रोणसायकैः।
पाञ्चालान् पाण्डवान् मात्स्यान् सृञ्जयांश्च सकेकयान्॥६॥
द्रोणचापप्रमुक्तेन शरौघेणासुहारिणा।
सिन्धोरिव महौघेन ह्रियमाणान् यथा प्लवान्॥७॥
कौरवास्सिंहनादेन नानावाद्यरवेण च।
स्थद्विपनरांश्चैव सर्वतः पर्यवारयन्॥८॥
तान् पश्यन् सैन्यमध्यस्थो राजा स्वजननिर्जितान्।
दुर्योधनोऽब्रवीत् कर्णं प्रहृष्टः प्रहसन्निव॥९॥
दुर्योधनः—
पश्य राधेय पाञ्चालान् प्रणुन्नान् द्रोणमायकैः।
सिंहेनेव65 मृगानस्त्रैस्त्रासितान् दृढधन्वना॥१०॥
नैते जातु पुनर्योद्धुम् ईहिष्यन्तीति मे मतिः।
तथाहि भग्ना द्रोणेन वातेनेव महाद्रुमाः॥११॥
अर्धमानाश्शरैरेते रुक्मपुङ्खैर्महात्मना।
पथा नैकेन गच्छन्ति घूर्णमाना इतस्ततः॥१२॥
सन्निरुद्धाश्च कौरव्यैर् द्रोणेन च विशेषतः।
एतेऽद्य मण्डलीभूताः पावकेनेव कुञ्जराः॥१३॥
भ्रमरैरिव चाविष्टा द्रोणस्य निशितैश्शरैः।
अन्योन्यमवलीयन्ते पलायनपरायणाः॥१४॥
एष भीमो दृढक्रोधो हीनः पाण्डवसृञ्जयैः।
मदीयैरावृतो वीरैः कर्ण नन्दयतीव माम्॥१५॥
व्यक्तं द्रोणमयं लोकम् अद्य पश्यति दुर्मतिः।
निराशो जीविते नूनं राज्येऽपि न च पाण्डवः॥१६॥
कर्णः—
नैव जातु महातेजा जीवन्नाहवमुत्सृजेत्।
न चेमान् पुरुषव्याघ्र सिंहनादान् सहिष्यते॥१७॥
न चापि पाण्डवा युद्धे भज्येरन्निति मे मतिः।
शूराश्चबलवन्तश्च कृतास्त्रायुद्धदुर्मदाः॥१८॥
विषाग्निद्यूतसङ्केशान् वनवासं च पाण्डवाः।
स्मरमाणा न हास्यन्ति सङ्ग्राममिति मे मतिः॥१९॥
आवृतोऽपि महाबाहुर् अमितौजा वृकोदरः।
वरान् वरान् हि कौन्तेयो रथोदारान् वधिष्यति॥२०॥
असिना धनुषा शक्त्या रथैर्नागैर्हयैर्नरैः।
आयसेन च दण्डेन प्राप्तान् प्राप्तान् हनिष्यति॥२१॥
त इमे विनिवर्तन्ते सात्यकिप्रवरा रथाः।
पाञ्चाला66: केकया मात्स्याः पाण्डवाश्च विशेषतः॥ २२॥
शूराश्च बलबन्तश्च कृतास्त्रायुद्धदुर्मदाः।
विशेषतश्च भीमेन संरब्धेनाभिचोदिताः॥२३॥
तं द्रोणमभिवर्तन्ते सिंहं मोहान्मृगा इव।
वृकोदरं परीप्सन्तस् सूर्यं कृष्णघना इव॥२५॥
समरेषुतु निर्दिष्टाः पाण्डवाः कृष्णबान्धवाः।
पाञ्चालाः केकया मात्स्याः पाण्डवेयाश्च सर्वशः॥२६॥
शूराञ्च बलवन्तश्च विक्रान्ताञ्च महारथाः।
हीमन्तश्शत्रुमरणे निपुणाः पुण्यलक्षणाः॥२७॥
बहवः पार्थिवा राजंस् तेषां वशगता रणे।
माऽवंमस्थाः पाण्डवांस्त्वं नारायणपुरोगमान्॥२८॥
एकायनगतास्त्वेते पीडयेयुर्यथा वृकम्।
अरक्ष्यमाणं शलभा यथा दीपं मुमूर्षवः॥२९॥
असंशयं कृतास्त्राश्च पर्याप्ताश्चारिनिग्रहे।
अतिभारं त्विमं मन्ये भारद्वाजे समाहितम्॥३०॥
ते शीघ्रमनुगच्छामो यत्र द्रोणो व्यवस्थितः।
काका इव महानागं मा च हन्युर्महारथम्॥३१॥
सञ्जयः—
कर्णस्य तु वचश्श्रुत्वा राजा दुर्योधनस्तथा।
भ्रातृभिस्सहितो वीरैः प्रायाद्द्रोणरथं प्रति॥३२॥
तत्र नादो महानासीद् एकं द्रोणं जिघांसताम्।
पाण्डवानां निवृत्तानां नानावर्णैर्हयोत्तमैः॥३३
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि एकविंशोऽध्यायः॥ २१॥
॥६३॥संशप्तकवधपर्वणि षष्टोऽध्यायः॥६॥
[ अस्मिन्नध्याये ३३ श्लोकाः ]
॥ द्वाविंशोऽध्यायः॥
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** रथानामश्वध्वजवर्णनम् ॥**
धृतराष्ट्रः—
सर्वेषामेव मे ब्रूहि चिह्नान्यश्वांश्च सञ्जय॥
तानहं श्रोतुमिच्छामि विस्तरेण पृथक् पृथक्।
ये द्रोणमभिवर्तन्ते क्रुद्धं भीमपराक्रमम्॥१॥
दूयते मे मनस्तात द्रोणं प्रति परन्तपम्।
श्रुत्वा भीष्मस्य निधनं तद्वदेतद्भविष्यति॥२॥
सञ्जयः—
ऋश्यवर्णान् हयान् दृष्ट्वा व्यायच्छन्तं वृकोदरम्।
रजताश्वस्ततश्शूरश्शैनेयस्संन्यवर्तत॥३॥
दर्शनीयास्तु काम्भोजास् शुकपत्रतनुच्छदाः।
वहन्तो नकुलं युद्धे तावकाञ् शीघ्रमत्ययुः॥४॥
कृष्णास्तु मेघसङ्काशास् सहदेवं हयोत्तमाः।
भीमवेगा नरव्याघ्रम् अवहन् पाण्डवं हयाः॥५॥
हेमोत्तमप्रतिच्छन्नैर् हयैर्वातसमैर्जवे।
अभ्यवर्तन्त सैन्यानि सर्वाण्येव युधिष्ठिरम् ॥६॥
राज्ञस्त्वनन्तरं राजा पाञ्चालो द्रुपदोऽभवत्।
जातरूपमयच्छत्रस् सर्वैस्तैरभिरक्षितः ॥७॥
ललामैर्हरिभिर्युक्तस् सर्वशब्दक्षमैर्युधि।
राजमध्ये महेष्वासश्शान्तारिर्निरवर्तत ॥८॥
तं विराटोऽन्वयात् पश्चात् सह शूरैर्महारथैः॥९॥
केकयाश्च शिखण्डी च धृष्टकेतुस्तथैव च।
स्वैस्स्वैस्सैन्यैः परिवृता मत्स्यराजानमन्वयुः॥१०॥
तस्य पाटलपुष्पाणां तुल्यवर्णा हयोत्तमाः।
वहन्तस्समशोभन्त मात्स्यस्य मित्रघातिनः ॥११॥
इन्द्रगोपकवर्णाश्वा भ्रातरः पञ्च केकयाः।
जातरूपा इवाभान्ति ते सर्वे लोहितध्वजाः ॥१२॥
वर्षन्त इव जीमूताः प्रत्यदृयन्त दंशिताः ॥१२॥
आम्रपल्लववर्णास्तु सुधन्वानं महौजसम्।
दत्तास्तुम्बुरुणा दिव्याश् शिखण्डिनमुदावहन्॥१३॥
तथा द्वादशसाहस्राः पाञ्चालानां महारथाः।
तेषां तु पट्सहस्राणि ये शिखण्डिनमन्वयुः॥१४॥
पुत्रं तु शिशुपालस्य नरसिंहस्य मारिष।
आक्रीडन्तो वहन्ति स्म सारङ्गशबला हयाः॥१५॥
धृष्टकेतुस्तु चेदीनाम् ऋषभोऽतिबलान्वितः।
काम्भोजैश्शबलैरश्वैर् अभ्यवर्तत संयुगे॥१६॥
बृहत्क्षत्रं तु कैकेयं सुकुमारं हयोत्तमाः।
पलालधूमवर्णाभास् सैन्धवास्तमुदावहन्॥१७॥
मल्लिकाक्षाः पद्मवर्णा बाह्लिजातास्वलङ्कृताः।
शूरं शिखण्डिनः पुत्रम् क्षत्रदेवमुदावहन्॥१८॥
युवानमवहन् युद्धे क्रौञ्चवर्णा67 हयोत्तमाः।
काश्यस्याभ्यवहन् पुत्रं सुकुमारं यशस्विनम्॥१९॥
श्वेतास्तु प्रतिविन्ध्यं तं कृष्णग्रीवा हयोत्तमाः।
युवानमवहन् युद्धे यन्तुः प्रेष्यकरा हयाः॥२०॥
सुतसोमं तु योधाग्र्यंभीमपुत्रं महाबलम्।
ऊर्णापुष्पसमा वर्णैर् अवहन् वाजिनो रणे॥२१॥
सहस्रसोमप्रतिमा हुयाः कनकभूषणाः।
वीरं तमवहन् युद्धे हेषमाणास्समन्ततः॥२२॥
नाकुलिं तु शतानीकं सालपुष्पसमा इव।
आदित्यतैजसप्रख्या ज्वलन्तो ह्यवहन् हयाः॥२३॥
काञ्चनापीडनैर्गात्रैर् मायूरग्रीवसन्निभाः।
द्रौपदेयं नरव्याघ्रं श्रुतकर्माणमावहन्॥२४॥
श्रुतकीर्तिं श्रुतनिधि द्रौपदेयं हयोत्तमाः।
ऊहुः पार्थसमं युद्धे चाषपत्रनिभा विभुम्॥२५॥
यमाहुरध्यर्धगुणं पार्थात् कृष्णाञ्च संयुगे।
सोऽभिमन्युः पिशङ्गैस्तु भृशमश्वैर्न्यवर्तत॥२६॥
एकस्तु धार्तराष्ट्रेभ्यः पाण्डवान् यस्समाश्रितः।
तं बृहन्तो महाकाया युयुत्सुमवहन्हयाः॥२७॥
ये68 तु पुष्करसारस्य तुल्यवर्णा हयोत्तमाः॥२८
पलालकाण्डवर्णास्तु वार्धक्षेमिं तरस्विनम्।
ऊहुस्सुतुमुले युद्धे हया हृष्टारस्वलङ्कृताः॥२९
कुमारं69 शितिपादास्तु रुक्मचित्रैरुरश्छदैः।
सौचित्तिमवहन् युद्धे यन्तुः प्रेष्यकरा हयाः॥३०
रुक्मपुष्पावकीर्णास्तु कौशेयसदृशा हयाः।
सुवर्णमालिनः क्षान्ताश् श्रेणिमन्तमुदावहन्॥३१
रुक्ममालाधराशुभ्रा हेमवर्णास्वलङ्कृताः।
काशिराजं हयश्रेष्ठाश् श्लाघनीयमुदावहन्॥३२
योऽश्रूयत धनुर्वेदे ब्राह्मे वेदे च पारगः।
ह्रीमान् सत्यधृतिश्शूरो द्रोणं प्रेप्सुः परन्तपः॥३३
यस्स पाञ्चालसैन्यानां द्रोणमंशमकल्पयत्।
पारावतसवर्णाश्वा धृष्टद्युम्नमुदावहन्॥३४
तमन्वयात् सत्यधृतिस् सौविन्दो युद्धदुर्मदः।
श्रेणिमान् वसुदानश्च पुत्रः काश्यस्य चाभिभूः॥३५
ययुः परमकान्भोजैर् जवनैर्हेममालिभिः।
भीषयन्तो द्विपत्सैन्यं यमवैश्रवणोपमाः॥३६
श्वेतपुष्करसारस्य38 तुल्यवर्णा हयोत्तमाः।
जवे श्येनसमाश्चित्रास् सुदामानमुदावहन्॥३७
शशलोहितवर्णास्तु पाण्डुरोद्गतराजयः।
पाञ्चाल्यं गोपतेः पुत्रं सिंहसेनमुदावहन्॥३८
इन्द्रायुधसवर्णास्तु कुन्तिभोजमुदावहन्।
आपत्सु न विषीदन्तो मातुलं सव्यसाचिनः॥३९
अन्तरिक्षसवर्णास्तु तारकाभिश्चिता इव।
राजानं रोचमानं ते हयाश्शङ्खमुदावहन्॥४०
कर्बुराश्शितिपादास्तु हेमजालपरिच्छदाः।
जारासन्धिं हयश्रेष्ठास् सहदेवमुपावहन्॥४१
प्रभद्रकास्तु पाञ्चालाः षट्सहस्राउदायुधाः।
नानावर्वणैर्हयैश्श्रेष्ठैर्हेमरूप्यमणिध्वजैः॥४२
शरव्रातैर्निरुन्धन्तश् शत्रून् विततकार्मुकाः।
समानमृत्यवो भूत्वा धृष्टद्युम्नं समन्वयुः॥४३
वभ्रुकौशेयवर्णास्तु सुवर्णवरमालिनः।
ऊहुरग्लानमनसश् चेकितानं हयोत्तमाः ॥४४
पाञ्चालानां रथश्रेष्ठो निवृत्तो जनमेजयः।
तस्य सर्षपपुष्पाणां तुल्यवर्णा हयोत्तमाः॥४५
माषवर्णास्तु जवना बृहन्तो हेममालिनः।
दधिष्पृष्ठाञ्चन्द्रमुखाः पाञ्चालमवहन हयाः॥४६
योधाश्च मद्रकाश्चैव शरकाण्डनिभा हयाः।
पद्मकिञ्जलकवर्णाभा दण्डधारमुदावहन्॥४७
हेममालास्तु बिभ्राणाश् चक्रवाकोदरोपमाः।
कोसलाधिपतेः पुत्रं सुक्षत्रं वाजिनोऽवहन्॥४८
शबलास्ते बृहन्तोऽश्वा दान्ता जाम्बूनदस्रजः।
युद्धे सत्यधृतिं क्षैमिम् अवहन्नतिशोभनाः॥४९
एकवर्णेन सर्वेण ध्वजेन कवचेन च।
अश्वैश्च धनुषा चैव शुक्लैश्शुक्लो न्यवर्तत ॥५०॥
समुद्रसेनपुत्रं तु समुद्रारुणसप्रभम्।
अश्वाश्शशाङ्कसदृशाश् चन्द्रदेवमुदावहन् ॥५१॥
नीलोत्पलसवर्णाश्च तपनीयविभूषिताः।
शैब्यं चित्ररथं युद्धे चित्रमालाऽवहन् हयाः॥५२॥
कलायपुष्पवर्णास्तु श्वेतलोहितराजयः।
रथसेनं हयश्रेष्ठास् समूहुर्युद्धदुर्मदम्॥५३॥
यं तु सर्वमनुष्येषु प्राहुश्शूरतरं बुधाः।
तं पटच्चरहन्तारं शुकवर्णाऽवहन् हयाः॥५४॥
चित्रायुधं चित्रमाल्यं चित्रवर्मरथध्वजम्।
ऊहुः किंशुकपुष्पाणां तुल्यवर्णा हयोत्तमाः॥५५॥
एकवर्णेन सर्वेण ध्वजेन कवचेन च।
धनुषा रथवाहैश्च नीलैर्नीलोऽभ्यवर्तत॥५६॥
ये तु पुष्करपर्णस्य तुल्यवर्णा हयोत्तमाः।
ते रोचमानस्य सुतं हेमरूपमुदाहवन्॥५७॥
नानारूपै रत्नचित्रैर् वरूथध्वजकार्मुकैः।
वाजिभिश्च पताकाभिश् चित्रैश्चित्रो न्यवर्तत॥५८॥
योधाश्च मद्रकाश्चैव शरकाण्डनिभा हयाः।
श्वेताण्डाःकुक्कुटाण्डाश्च दण्डधारमुदावहन्॥५९
आरकूटसवर्णाश्वा राङ्कवास्तरणाः पृथक्।
अवहन् योधमुख्यानाम् अयुतानि चतुर्दश॥६०
नानारूपेण रूपेण नानामुखमुखा हयाः।
स्थच्छत्रध्वजं वीरं घटोत्कचमुदावहन्॥६१
भारतानां70 समेतानाम् उत्सृज्यैको बलानि यः।
गतो युधिष्ठिरं भक्त्या त्यक्त्वा सर्वस्वमीसितम्॥ ६२
लोहिताक्षं महाबाहुं युयुत्सुं मकरध्वजम्।
महासत्त्वा वहन्त्यश्वास् सौवर्णे स्यन्दने स्थितम्॥६३
सर्ववर्णास्तु धर्मज्ञम् आपदर्थं युधिष्ठिरम्।
राजश्रेष्ठं हृयश्रेष्ठा हृप्यन्तः पृष्ठतो ययुः ॥६४
वर्णैश्वोच्चा वचप्रख्यैस् सदश्वानां प्रभद्रकाः।
संन्यवर्तन्त71 युद्धाय बहवो देवरूपिणः॥६५
ते यत्ता भीमसेनेन सहिताः काञ्चनप्रभाः।
प्रत्यक्ष्यन्त राजेन्द्र सेन्द्रा इव दिवौकसः॥६६
अत्यरोचत तान् सर्वान् धृष्टद्युम्नस्समागतान्।
अतिसर्वाणि सैन्यानि भारद्वाजो व्यरोचत॥६७
अतीव72 शुशुभे यस्य ध्वजः कृष्णाजिनोत्तरः।
कमण्डलुर्महाराज जातरूपमयश्शुभः॥६८
ध्वजं तु भीमसेनस्य वैडूर्यमणिरोचनम्।
भ्राजमानं महासिंह राजतं दृष्ट्वानहम्॥६९
ध्वजं तु कुरुराजस्य पाण्डवस्य महात्मनः।
दृष्टवानाम सौवर्ण सोमं ग्रहगणान्वितम्॥७०
मृदङ्गौ चात्र विमलौ दिव्यौ नन्दो पनन्दको।
यन्त्रेणाहन्यमानौ च सुखनौ हर्षवर्धनौ॥७१
शरभं मृष्टसौवर्णंनकुलस्य महाध्वजम्।
अपश्याम रणे व्याघ्रं भीमयानमवस्थितम्॥७२
हंसस्तु राजतश्श्रीमान् ध्वजे घण्टापताकवान्।
सहदेवस्य दुर्धर्षो द्विषतां शोकवर्धनः॥७३
पञ्चानां द्रौपदेयानां प्रतिमा स्थभूषणाः।
धर्ममारुतशक्राणाम् अश्विनोश्च महात्मनोः॥७४
अभिमन्योः कुमारस्य शार्ङ्गपक्षी हिरण्मयः।
रथोद्धतरजोलोलजैत्रचामीकरोल्वणः॥७५
घटोत्कचस्य राजेन्द्र रथे गृध्रो व्यरोचत॥७५॥
अश्वाश्च रोमशास्तस्य रावणस्य पुरा यथा॥७६
माहेन्द्रं तु धनुर्दिव्यं धर्मराजे युधिष्ठिरे।
वायव्यं भीमसेनस्य धनुर्दिव्यमभूमहत्॥७७
त्रैलोक्यरक्षणार्थाय ब्रह्मणा सृष्टमद्भुतम्।
यद्दिव्यमक्षयं चैव गाण्डीवं फल्गुनस्य च॥७८
वैष्णवं नकुलस्याथ सहदेवस्य चाश्विनम्।
घटोत्कचस्य पौलस्त्यं धनुर्दिव्यं भयानकम्॥७९
रौद्रं कौबेरमानेयं याम्यं गिरिशमेव च।
पञ्चानां द्रौपदेयानां धनूरत्नं महत्तरम्॥८०
रौद्रं धनुर्वरश्रेष्ठं यल्लेभे रोहिणीसुतः।
तत्तुष्टः प्रददौ रामस् सौभद्राय महात्मने॥८१
एतांश्चान्यांश्च सुबहून् ध्वजांश्चापांश्च तोषितान्।
दहशुस्तत्र शूराणां द्विषतां शोकवर्धनान्॥८२
तद्भुतमसम्बाधं महापुरुषसेवितम्।
द्रोणानीकं महाराज पटे चित्रमिवार्पितम्॥८३
श्रूयन्ते नामगोत्राणि शूराणां संयुगे सताम्।
द्रोणमाद्रवतां राजन् स्वयंवर इवाबभौ॥73८४
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि द्वाविंशोऽध्यायः॥ २२॥
॥ ६६॥ द्रोणाभिषेकपर्वणि सप्तमोऽध्यायः॥ ७॥
[ अस्मिन्नध्याये ८४ श्लोकाः ]
———–
॥ त्रयोविंशोऽध्यायः ॥
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धृतराष्ट्रेण पुत्रान् प्रति शोचनपूर्वकं सञ्जयं प्रति युद्धकथनचोदना॥
धृतराष्ट्रः—
व्यथयेयुरिमे सेनां देवानामपि सञ्जय।
आहवे ये न्यवर्तन्त भीमसेनपुरोगमाः॥१
सम्प्रयुक्तः किलैवायं दिष्ठे भवति पूरुषः।
तस्मिन्नेव च सन्दृश्या दृश्यन्तेऽर्थाः पृथग्विधाः॥२
दीर्घं विप्रोषितः कालम् अरण्येषु जटाजिनी।
अज्ञातश्चैव लोकस्य विजहार युधिष्ठिरः॥३
स एव महतीं सेनां समावर्तयदाहवे।
किमन्यद्दैवसंयोगान्मम पुत्राभवाय च॥४
युक्त एव हि भाग्येन ध्रुवमुत्पद्यते नरः।
स तथाऽऽकृष्यते तेन न यथा स्वयमिच्छति॥५
द्यूतव्यसनमासाद्य क्लेशितो हि युधिष्ठिरः।
स पुनर्भाग्ययोगेन नारायणमुपाश्रितः॥६
अर्धं मे केकया लब्धाः काशयः कोसलास्तथा।
चेदीनां चार्धमपरे तमेव समुपाश्रिताः॥७
पृथिवीं भूयसी तात मम पार्थस्य नो तथा।
इति मामब्रवीत् सूत मन्दो दुर्योधनस्तथा॥८
तस्य सेनासमूहस्य मध्ये द्रोणोऽभिवीक्षितः।
निहतः पार्षतेनाजौ किमन्यद्भागधेयतः॥९
मध्ये राज्ञां महावाहुं सदा युद्धाभिनन्दिनम्।
ब्रह्मास्त्रविदुषं द्रोणं कथं मृत्युरुपेयिवान्॥१०
समनुप्राप्तकृच्छ्रोऽहं सम्मोहं परमं गतः।
भीष्मद्रोणौ हतौ श्रुत्वा नाहं जीवितुमुत्सहे॥११
यन्मां क्षत्ताऽब्रवीत् तात प्रपश्यन् पुत्रगृद्धिनम्।
दुर्योधनेन तत् प्राप्तं सर्वं सूत मया सह॥१२
नृशंसं तु परं तात त्यक्त्वा दुर्योधनं यदि।
पुत्रशेषस्तु रक्ष्यस्स्यान्न सर्वमरणं भवेत्॥१३
यो हि धर्मं परित्यज्य भवत्यर्थपरो नरः।
अस्माच्च हीयते लोकात् क्षुद्रभावं च गच्छति॥१४
अस्य चाप्यद्य राष्ट्रस्य कृतोत्सेधस्य सञ्जय।
अवशेषं न गच्छामि कुरूणामीदृशे सति॥१५
अर्थस्य त्ववशेषस्य धुर्ययोरभ्यतीतयोः।
यो दीर्घमन्वजीविष्ट क्षेमेण पुरुषोत्तमः॥१६
व्यक्तमेतद्धि मे शंस यथा युद्धमवर्तत।
केऽयुध्यन् के ह्यपाकर्षन के क्षुद्राः प्राद्रवन् भयात्॥१७
धनञ्जयं च मे शंस यद्यचक्रे रथर्षभः।
तस्माद्वयं नो भूयिष्ठं भ्रातृव्याणां भयङ्करात्॥१८
यदासीत् संनिवृत्तेषु पाण्डवेषु च सञ्जय।
मम सेनावशेषस्य सन्निपातस्सुदारुणः॥१९
मामकानां च ये शूरास् तत्र तान् समवारयन्॥१९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
॥ ६६ ॥ संशप्तकवधपर्वणि अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
[ अस्मिन्नध्याये १५॥ श्लोकाः ]
————–
॥ चतुर्विंशोऽध्यायः॥
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** द्वन्द्वयुद्धवर्णनम्॥**
सञ्जयः—
महद्भैरवमासीन्नस् सन्निवृत्तेपु पाण्डुषु।
दृष्ट्वा द्रोणं छादितं तैस् तं भास्करमिवाम्बुदैः॥१
तैश्चोत्थितं रजस्तीव्रम् अवचक्रे चमूं तव।
ततो हतममंस्याम द्रोणं दृष्टिपथे हते॥२
तांस्तु शूरान् महेष्वासान क्रूरं कर्म चिकीर्षतः।
दृष्ट्वा दुर्योधनस्तूर्णं स्वसैन्यं समचूचुदत्॥३
दुर्योधनः—
यथाशक्ति यथोत्साहं यथासत्वं नराधिपाः।
वारयध्वं यथायोगं पाण्डवानामनीकिनीम्॥४
सञ्जयः—
ततो दुर्मर्षणो भीमम् अभ्ययात् तनयस्तव।
आरादृृष्ट्वा किरन् बाणैर् इच्छन् द्रोणस्य जीवितम्॥५
बाणैरेवावतस्तार क्रुद्धो नित्यमिवाहितम्।
तं च भीमोऽर्दयद्बाणैस् तदाऽऽसीत् तुमुलं महत्॥६
त ईश्वरसमादिष्टाः प्राज्ञाश्शूराः प्रहारिणः।
वाह्यं कृत्वा मृत्युभयं युयुधुः पाण्डवैस्सह॥७
कृतवर्मा शिनेः पुत्रं द्रोणं प्रेप्सुं विशां पते।
पर्यवारयदायान्तं शूरं समरशोभिनम्॥८
तं शैनेयश्शरव्रातैः क्रुद्धः क्रुद्धं तदाऽकिरत्।
कृतवर्मा च शैनेयं मत्तो मत्तमिव द्विपम्॥९
सैन्धवः क्षत्रधर्माणम् आपतन्तं शरौघिणम्।
उग्रधन्वा महेष्वासं यत्तो द्रोणावारयत्॥१०
क्षत्रधर्मा74 सिन्धुपतेश् छित्त्वा केतनकार्मुके।
नाराचैर्दशभिः क्रुद्धस् सर्वमर्मस्वताडयत्॥११
अथान्यद्धनुरादाय सैन्धवः कृतहस्तवत्।
विव्याध क्षत्रधर्माणं मनोगतिभिराशुगैः॥१२
युयुत्सुं पाण्डवार्थाय रोचमानं महाहवे।
सुबाहुभ्रातरं शूरं यान्तं द्रोणादवारयत्॥१३
सुबाहोस्सधनुर्बाणावस्यतः परिघोपमौ।
युयुत्सुश्शितपीताभ्यां क्षुराभ्यामच्छिनद्भुजौ॥१४
राजानं पाण्डवश्रेष्ठं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
वेलेव सागरं क्षुब्धं मद्रराट् समवारयत्॥१५
तं धर्मराजो बहुभिर् मर्मभिद्भिरवाकिरत्॥१५॥
मद्रेशस्तं चतुष्षष्ट्या शरैर्विद्ध्वाऽनद्भृशम्॥१६
तस्य नानदतः केतुम् उच्चकर्त सकार्मुकम्।
क्षुराभ्यां पाण्डवश्रेष्ठस् तत उच्चुक्रुशुर्जनाः॥१७
तथैव राजा राजानं बाह्निको द्रुपदं शरैः।
आद्रवन्तं सहानीकं सहानीको न्यवारयत्॥१८
तयुद्धमभवद्धोरं क्रुद्धयोस्सहसेनयोः।
यथा महायूथपयोर् द्विपयोस्सहयूथयोः॥१९
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ विराटं मात्स्यमार्च्छताम्।
सहसेनं यथेन्द्रानी पुरा बलिमिवाध्वरे॥२०
तदुत्पिञ्जलकं युद्धम् आसीद्देवासुरोपमम्।
मत्स्यैस्सार्धमवन्तीनाम् अभीताश्वरथद्विपम्॥२१
नाकुलिस्तु शतानीकश् श्रुतवर्माणमाहवे।
अस्यन्तमिषुसङ्घानि द्रोणप्रेप्सुमवारयत्॥२२
ततो नकुलदायादस् त्रिभिर्भल्लैस्समाहितैः।
चक्रे विबाहुशिरसं श्रुतवर्माणमाहवे॥२३
श्रुतकीर्तिं तु भैमेयम् आपतन्तं शरौघिणम्।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं विविंशतिरवारयत्॥२४
श्रुतकीर्तिस्तु सङ्क्रुद्धस् सुपीताजिह्मगैश्शरैः।
विविंशतिं शरैर्विद्धा न न्यवर्तत दंशितः॥२५
साल्वो भीमरथश्शूरं श्रुतसेनं महाहवे।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं शरौघेण न्यवारयत्॥२६
स तु भीमरथं साल्वं मनोगतिभिरायसैः।
षड् भिस्साश्वनियन्तारम् अनयद्यमसादनम्॥२७
सुतसोमं समायान्तं मयूरसदृशैर्हयैः।
चित्रसेनो महाराज तव पुत्रो न्यवारयत्॥२८
तमार्जुनिश्शरैश्चक्रे पितृव्यं जर्झरच्छविम्।
शरैश्च द्रौपदीपुत्रश् चित्रसेनं समावृणोत्॥२९
किरन्तं शरजालानि प्रभिन्नमिव कुञ्जरम्।
श्रुतकर्माणमायान्तं दौश्शासनिरवारयत्॥३०
तौ पेततुश्च दुर्धर्षो परस्परवधैषिणौ।
पितॄणामर्थसिद्धयर्थं चक्राते युद्धमुत्तमम्॥३१
प्रतिष्ठन्तं75 तु पितुश्शास्त्रे प्रतिविन्ध्यं तमायसैः।
द्रौणिर्मानं पितुः कुर्वन्नाततायिनमर्दयत्॥३२
तं क्रुद्धं प्रतिविव्याध प्रतिविन्ध्यशितैःशरैः।
सिंहलाङ्गललक्ष्माणं पितुरर्थे व्यवस्थितम्॥३३
प्रवपन्निव बीजानि बीजकाले कृषीवलः।
द्रौणायनिद्रौपदेयं शरजालैरवाकिरत्॥३४
यस्तु शूरतमो राजन्नुभयोस्सेनयोस्स्मृतः।
तं पटच्चरहन्तारं लक्ष्मणस्समवारयत्॥३५
लक्ष्मणेष्वसनं छित्त्वा लक्ष्मणं चापि मारिष।
लक्ष्मणे शरजालानि विसृजन बह्वशोभत॥३६
ततोऽभिमन्युः कर्माणि कुर्वन्तं चित्रयोधिनम्।
आर्जुनिः कृतिनं शूरं लक्ष्मणं समयोधयत्॥३७
स सम्प्रहारस्तुमुलस् तयोरासीन्महात्मनोः।
श्रोतॄणामीक्षितॄणां च भृशं प्रीतिविवर्धनः॥३८
तव पौत्रौ च दुर्धर्षौ परस्परवधैषिणौ।
पितृणामर्थसिद्धयर्थं चक्राते युद्धमद्भुतम्॥३९.
विकर्णस्तु महाप्राज्ञो याज्ञसेनिं शिखण्डिनम्।
पर्यवारयदायान्तं युवानं समरे युवा॥४०
ततस्तमिपुजालेन याज्ञसेनिस्समावृणोत्।
विधूय तद्बणजालं बभौ तव सुतो वली॥४१
अङ्गदोऽभिमुखश्शूरम् उत्तमौजसमाहवे।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं वत्सदन्तैरव किरत्॥४२
अङ्गदो निशितैर्वाणैः76 पुनरेनमवाकिरत्॥४२॥
स सम्प्रहारस्तुमुलस् तयोरासीन्महात्मनोः।
श्रोतृणामीक्षितॄणां च तयोश्च प्रीतिवर्धनः॥४३॥
अङ्गदंपञ्चभिर्वाणैर् अविध्यत् स परन्तपः॥४४
ततस्समभवद्युद्धम् अन्योन्यमितरेतरम्।
वीराणां जयकाङ्क्षाणां अतीव बलपौरुषात्॥४५
दुर्मुखस्तु महेष्वासो वीरं पुरुजितं बली।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं कुन्तिभोजमवारयत्॥४६
स दुर्मुखं भ्रुवोर्मध्ये नाराचेनाहनशम्।
तस्य तद्विबभौ वक्रं सनालमिव पङ्कजम्॥४७
कर्णस्तु केकयान् भ्रातून पञ्च लोहितकध्वजान्।
द्रोणायाभिमुखं याताञ् शरौघेण न्यवारयत्॥४८
त एनं भृशसङ्क्रुद्धाश् शरब्रातैरवाकिरन्।
स एतां छादयामास शरजालैः पुनः पुनः॥४९
न वै कर्णो न ते पञ्च दहशुशरसंवृताः।
सावलूतध्वजरथाः परस्परशराचिताः॥५०
पुत्रास्ते दुर्जयश्चैव जयश्च विजयश्च ह।
नीलकाश्यजयाम् शूरांस् त्रयस्त्रीन् समवारयन्॥५१
तयुद्धमभवद्धोरं वीक्षितृप्रीतिवर्धनम्।
सिंहव्याघ्रतरक्षूणां यथेभमहिषर्षभैः॥५२
क्षेमधूर्तिबृहन्तौ तु सानुगौ प्रवरौ युधि।
द्रोणायाभिमुखं यातौ शल्यपुत्रो न्यवारयत्॥५३
तयोस्समेतयोर्युद्धम् अत्यद्भुतमिवाभवत्।
सिंहस्य द्विपमुख्याभ्यां प्रभिन्नाभ्यां यथा वने॥५४
राजानं तु तथाऽम्बष्ठम् एकं युद्धाभिनन्दिनम्।
चेदिराजस्स्वया शक्त्या क्रुद्धो द्रोणावारयत्॥५५
तमम्बष्ठोऽस्थिभेदिन्या निरविध्यच्छलाकया।
स त्यक्त्वा सशरं चापं रथा पपात ह॥५६
वार्धक्षेमिं तु वार्ष्णेयं कृपश्शारद्वतशरैः।
अक्षुद्रः क्षुद्रकैर्बाणैः क्रुद्धरूपमवारयत्॥५७
युध्यन्तौ कृपवार्ष्णेयौ येऽपश्यंश्चित्रयोधिनौ।
ते युद्धसक्तमनसो नान्यैर्युयुधिरे नृपाः॥५८
सौमदत्तिस्तु राजानं मणिमन्तमतन्द्रितम्।
पर्यवारयदायान्तं यशो द्रोणस्य वर्धयन्॥५९
स सौमदत्तेस्त्वरितं छित्त्वा केतनकार्मुके।
पुनः पताकां सूतं च छत्रं चापातयद्रथात्॥६०
अवय रथात् तूर्ण यूपकेतुररिन्दमः।
साश्वसूतध्वजं चैव निचकर्त वरासिना॥६१
अथ स्वरथमास्थाय धनुरादाय चापरम्।
स्वयं यच्छन् हयान् राजन् व्यधमत् पाण्डुवाहिनीम्॥६२
मुसलैर्मुद्गरैश्चक्रैर्भिण्डिपालैः परश्वथैः।
पांसुवाताग्निसलिलैर् भस्मलोष्टतृणद्रुमैः॥६३
आरुजन् प्ररुजन् भञ्जन् निनन् विद्रावयन् क्षिपन्।
सेनां विभीषणोऽभ्येति द्रोणप्रेप्सुर्घटोत्कचः॥६४
तं तु नानाप्रहरणैस् तस्य युद्धविशेषणैः।
राक्षसो राक्षसं क्रुद्धं क्रुद्धोऽभ्यन्नदलम्बुसः॥६५.
तयोस्तदभवयुद्धं रक्षोप्रामणिमुख्ययोः।
तादृग्यादृक् पुरावृत्तं शम्बरामरराजयोः॥६६
भारद्वाजस्तु77 सेनान्यं धृष्टद्युम्नं महारथम्।
तमेव राजन्नायान्तम् अतिक्रम्य परान् रिपून्॥६७
महता शरजालेन किरन्तं शत्रुवाहिनीम्।
अवारयन्महाराज सामात्यं सपदानुगम्॥६८
अथान्ये पार्थिवा राजन बहुत्वान्नातिकीर्तिताः।
समसज्जन्त सर्वे ते यथायोगं यथाबलम्॥६९
हयैर्हयास्तथा जग्मुः कुञ्जरैरेव कुञ्जराः।
पदातयः पदातीभी रथैरेव महारथाः॥७०
अकुर्वन्नार्यकर्माणि तत्रैव पुरुषर्षभाः।
कुरुवीर्यानुरूपाणि संस्पृष्टाश्च परस्परम्॥७१
एवं द्वन्द्वशतान्यासन रथवारणवाजिनाम्।
पदातीनां च भद्रं ते तव तेषां च सङ्कुले॥७२
नैतादृशो दृष्टपूर्वश् सङ्ग्रामो नैव च श्रुतः।
द्रोणस्याभावभावेषु प्रसक्तानां परस्परम्॥७३
इदं घोरमिदं चित्रम् इदं रौद्रमिति प्रभो।
तत्र युद्धान्न्यवर्तन्त पुतनानां बहूनि च॥७४
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि चतुर्विंशोऽध्यायः॥ २४॥
\।\। ६६॥ संशप्तकवधपर्वणि नवमोऽध्यायः॥ ९॥
[ अस्मिन्नध्याये ७४ श्लोकाः ]
———–
॥ पञ्चविंशोऽध्यायः॥
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भगदत्तपराक्रमवर्णनम्॥
———-
धृतराष्ट्रः—
तेष्वेवं33 सन्निवृत्तेषु प्रत्युद्यातेषु भागशः।
कथं युयुधिरे पार्था मामकाञ्च तरस्विनः॥१
किमर्जुनश्चाप्यकरोत् तत्र तात प्रतापवान्।
संशप्तका वा पार्थस्य किमकुर्वत सञ्जय॥२
सञ्जयः—
तथा तेषु निवृत्तेषु प्रत्युद्यातेषु भागशः।
स्वयमभ्यद्रवद्भीमं नागानीकेन ते सुतः॥३
सुपर्ण इव नागेन वृषभेणेव चर्षभः।
समाहूतस्स्वयं राजंस् तथा नाग इवाद्रवत्॥४
स युद्धकुशलः पार्थो बाहुवीर्येण चात्मनः।
अभिनत् कुञ्जरानीकम् अचिरेणैव पाण्डवः॥५
ते गजा गिरिसङ्काशाश् क्षरन्तोऽतिमदा मदम्।
भीमसेनस्य नाराचैर विमदा विमुखीकृताः॥६
विधमेदभ्रजालानि पश्चाद्वातो यथा तथा।
व्यधमत् तान्यनीकानि नागानां मारुतिश्शरैः॥७
स तेषु विसृजन् बाणान् भीमो नागेष्वशोभत।
भुवनेष्विव सर्वेषु गभस्तीनुदितो रविः॥८
ते भीमबाणैश्शतशस् संस्यूता विबभुर्गजाः।
गभस्तिभिरिवार्कस्य व्योम्नि नानावलाहकाः॥९
तदा गजानां कदनं कुर्वाणमनिलात्मजम्।
क्रुद्धो दुर्योधनोऽभ्येत्य प्रत्यविध्यच्छितै शरैः॥१०
ततः क्षणेन क्षितिपं क्षतजप्रतिमेक्षणम्।
क्षयं निनीषुर्निशितैर् भीमो विव्याध पत्रिभिः॥११
स शराचितसर्वाङ्गः क्रुद्धो विव्याध पाण्डवम्।
नाराचैरर्करश्म्याभैर् भीमसेनं स्मयन्निव॥१२
तस्य नागं मणिमयं रत्नचित्रध्वजे स्थितम्।
भल्लाभ्यां कार्मुकं चैव क्षुराभ्यामहनद्वली॥१३
दुर्योधनं पीड्यमानं दृष्ट्वा भीमेन मारिष।
चुक्षोभयिपुरभ्यागाद् अङ्गो मातङ्गमास्थितः॥१४
तमापतन्तं मातङ्गम् अम्बुदप्रतिमस्वनम्।
कुम्भान्तरे भीमसेनो नाराचेनार्पयद्भृशम्॥१५
तस्य कार्य विनिर्भिद्य न्यमज्जद्धरणीतले॥१५॥
ततः पपात द्विरदो वज्राहत इवाचलः॥१६
तस्यावर्जितनागस्य म्लेच्छस्यातिपतिष्यतः।
शिरश्चिच्छेद भल्लेन क्षिप्रकारी वृकोदरः॥१७
तस्मिन् निपतिते वीरे सम्प्राद्रवत सा चमूः।
सम्भ्रान्ताश्वद्विपरथा पदातीनवमृद्रती॥१८
तेष्वनीकेषु सर्वेषु विद्रवत्सु समन्ततः।
प्राग्ज्योतिषस्ततो भीमं कुञ्जरेणाभ्युपाद्रवत्॥१९
येन78 नागेन मघवा विजिग्ये दैत्यदानवान्।
स नागप्रवरो भीमंसहसा समुपाद्रवत्॥२०
श्रवणाभ्यामथोभाभ्याम् आयतेन करेण च।
व्यावृत्तनयनः क्रुद्धस् सम्यग्यन्त्रा विचोदितः॥२१
ततस्सर्वस्य सैन्यस्य नादस्समभवन्महान्।
हा हा विनिहतो भीमः कुञ्जरेणेति मारिष॥२२
तेन नादेन विस्ता पाण्डवानामनीकिनी।
सहसाऽभ्यद्रवद्राज॑स् तत्र यत्र वृकोदरः॥२३
ततो युधिष्ठिरो राजा हतं मत्वा वृकोदरम्।
भगदतं सपाञ्चालस् सर्वतः पर्यवारयत्॥२४
सरथैः पृतनाश्रैष्ठैःपरिवार्य समन्ततः।
कीर्यते विशिखैस्तीक्ष्णैश् शतशोऽथ सहस्रशः॥२५.
स विधातं पृषत्कानाम् अङ्कुशेन समाचरन्।
क्षणेन पाण्डुपाञ्चालान् व्यधमत् पर्वतेश्वरः॥२६
तद्द्भुतमपश्याम भगदत्तस्य संयुगे।
तथा वृद्धस्य चरितं कुञ्जरेण रणे स्वयम्॥२७
ततो राजा दशार्णानां प्राग्ज्योतिषमुपाद्रवत्।
गिरिप्रख्येन नागेन श्रीमताऽभिविराजता॥२८
तयोर्युद्धं समभवन्नागयोर्भीमरूपयोः।
सपक्षयोर्दुमवतोर् धरणीधरयोरिव॥२९
प्राग्ज्योतिषपतेर्नागस् सन्निवृत्त्यापमृज्य च।
पार्श्वे दशार्णाधिपतेर् गत्त्वानागमयोधयत्॥३०
तोमरैस्सूर्यरम्याभैर् भगदत्तो हि सप्तभिः।
जघान द्विरदभ्रष्टं शत्रुं प्रचलितासनम्॥३१
परिच्छाद्य तु राजानं भगदत्तं युधिष्ठिरः।
स्थानीकेन सर्वेण सर्वतस्समवारयत्॥३२
स कुञ्जरस्थो रथिभिश् शुशुभे सर्वतो वृतः।
किरन्निपुसहस्राणि रस्मीनिव दिवाकरः॥३३
मण्डलं सर्वतशिष्टं रथिनामुग्रधन्विनाम्।
किरतां शरवर्षाणि स नागः प्रत्यवर्तत॥३४
ततः प्राग्ज्योतिषो राजा परिगृह्य गजोत्तमम्।
प्रेषयामास सहसा सात्यकाय विशां पते॥३५
आपतन्तं तु सम्प्रेक्ष्य नागं सात्वतपुङ्गवः।
अविष्यत् पञ्चभिर्वाणैश शितैराशीविषोपमैः॥३६
शिनेः पुत्रस्य तु रथं परिगृह्य स नागराट्।
समाचिक्षेप वेगेन युयुधानस्तु पुप्लुवे॥३७
बृहतस्सैन्धवान् दान्तान् समुत्थाप्य तु सारथिः।
तस्थौ सात्यकिमासाद्य सोऽत्यतिष्ठद्रथं पुनः॥३८
स तु लब्ध्वाऽन्तरं नागस् त्वरितो रथमण्डलात्।
निष्पतन् सततं सर्वान् परिचिक्षेप पार्थिवान्॥३९
ते त्वायुगतिना तेन प्रास्यमाना रथर्षभाः।
तमेकं द्विरदं सङ्घ ये मेनिरे शतशो गजान्॥४०
ते गजस्थेन काल्यन्ते भगदत्तेन पार्थिवाः।
ऐरावतस्थेन यथा देवराजेन दानवाः॥४१
तेषां प्रद्रवतां सङ्ख्ये पाञ्चालानामितस्ततः।
रथवाजिगजैश्शब्दस् सुमहान् समजायत॥४२
भगदत्तेन समरे काल्यमानेषु पाण्डुषु।
प्राग्ज्योतिषमभिक्रुद्धः पुनर्भीमरसमभ्ययात्॥४३
तस्याभिद्रवतो वाहान् हस्तमुक्तेन वारिणा।
सिक्त्वा व्यद्रावयन्नागस् ते पार्थमवहन् हयाः॥४४
ततस्समभ्ययात् तूर्णं सुपर्वा पार्वतीसुतः।
समुञ्चञ् शरवर्षाणि रथस्थोऽन्तकसन्निभः॥४५
सशस्त्रं तं सुपर्वाणं शरेणानतपर्वणा।
जघान पर्वतपतिः प्रेषयन् वै यमक्षयम्॥४६
तस्मिन् निपतिते वीरे सौभद्रो द्रौपदीसुतः।
चेकितानो धृष्टकेतुर् युयुत्सुञ्चार्दयञ् शरैः॥४७
त एवं शरधाराभिर् धाराभिरिव तोयदाः।
ववर्षुभैरवं नादं विनदन्तो जिघांसवः॥४८
ततः पार्ष्ण्यङ्कुशाङ्गुष्ठैः कृतिना चोदितो द्विपः।
प्रसारितकरः प्रायात् स्तब्धकर्णेक्षणो द्रुतम्॥४९
सोऽधिष्ठाय पदा वाहान् युयुत्सोस्सूतमारुजत्॥४९॥
पुत्रस्तु तव सम्भ्रान्तस् सौभद्रस्याप्लुतो रथम्॥५०
स कुञ्जरस्थो विसृजन्निपूनरिषु पार्थिवः।
बभौ रश्मीनिवादित्यो भुवनेषु समासृजन॥५१
तमार्जुनिर्द्वादशभिर् युयुत्सुर्दशभिश्शरैः।
त्रिभिस्त्रिभिर्द्रौपदेया धृष्टकेतुश्च विव्यः॥५२
चेकितानश्चतुष्षष्टया सोत्तरायाधिकं पुनः।
प्रत्यविध्यच्छरैस्सर्वान् भगदत्तस्त्रिभिस्त्रिभिः॥५३
सोऽपि वीरार्पितैर्बाणैर् आचितो द्विरदो वभौ।
संस्यूत इव सूर्यस्य रश्मिभिर्जलदो महान॥५४
स यन्तुश्शिल्पयत्नाभ्यां प्रेषितोऽरिशराहतः।
परिचिक्षेप तान् नागस् स रिपून् सव्यदक्षिणम्॥५५
गोपाल इव दण्डेन यथा पशुगणान् वने।
सङ्कालयति तां सेनां भगदत्तस्तथा मुहुः॥५६
क्षिप्रं श्येनाभिपन्नानां वायसानामिव स्वनः।
बभूव पाण्डवेयानां तथा विद्रवतां स्वनः॥५७
रजश्च सुमहद्राजन्नन्तरिक्षं समाचिनोत्।
अभिधावति कौन्तेयं सञ्चोददिवार्जुनम्॥५८
स नागराट् प्रवलवलोद्धतो द्रुतं
पुरा सपक्षाद्रिवरो यथाऽद्रवत्।
भयं महाद्रिपुषु समादधद्भृशं
वणिग्गणानां क्षुभितो यथाऽर्णवः॥५९
तथा ध्वनिर्द्विरदरथाश्वमानवैर्
भयान्नदद्भिर्जनितोऽतिभैरवः।
क्षितिं वियद् द्यां प्रदिशो दिशस्तथा
समानवेगाःप्रतिसस्वनुर्भृशम्॥६०
स तेन नागप्रवरेण पार्थिवो
भृशं जगाहे द्विषतां वरूथिनीम्।
पुराऽभिगुप्तां विबुधैर्महाहवे
विरोचनो देववरूथिनीमिव॥६१
भृशं ववौ ज्वलनसखो वियद्रजस्
समावृणोन्मुहुरभितञ्च सैनिकान्।
तमेकनागं शतशो यथा गजान्
समन्ततो द्रुतमभिकाङ्क्षते जनः॥६२
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
॥ ६६ ॥ संशप्तकवधपर्वणि दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
[ अस्मिन्नध्याये ६२ श्लोकाः ]
———–
॥ षड्विंशोऽध्यायः॥
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अर्जुनेन संशप्तकानांहननम्॥
——–
सञ्जयः—
यन्मां पार्थस्य कर्माणि सङ्ग्रामे परिपृच्छसि।
शृणु राजन यथा पार्थश् चकार कदनं महत्॥१
रजो दृष्ट्वा समुद्भूतं श्रुत्वा च जननिस्स्वनम्।
भगदत्ते विकुर्वाणे कौन्तेयः कृष्णमब्रवीत्॥२
अर्जुनः—
यथा प्राग्ज्योतिषो राजा गजेन मधुसूदन।
त्वरमाणोऽतिक्रान्तो ध्रुवं तस्यैष निस्स्वनः॥३
इन्द्रादनवमस्सङ्घ ये गजयानविशारदः।
प्रथमो वा द्वितीयो वा पृथिव्यामिति मे मतिः॥४
स चापि द्विरद् श्रेष्ठस् सदाऽप्रतिगजो भुवि।
सर्वशब्दातिगरसङ्ख्ये कृतवर्मा जितक्लमः॥५
सहशस्त्रनिपातानाम् अग्निस्पर्शस्य चानघ।
स पाण्डवबलं सर्वम् अद्यैको नाशयिष्यति॥६
सिंहनादं महत् कृत्वा धनुर्बाणरवैस्सह।
विद्राव्यमाणं सम्पश्य हतभूयिष्ठनायकम्॥७
दृष्ट्वा विनद्यसहसा मम सेनां प्रमृद्रति॥७॥
न चावाभ्यां पुमानन्यश् शक्तरसम्प्रतिबाधितुम्।
त्वरमाणस्ततो याहि यत्र प्राग्ज्योतिषो नृपः॥८॥
शक्रसख्यं द्विपबलं वयसा च विनिर्जितम्।
अद्यैव प्रेषयिष्यामि बलहन्तुः प्रियातिथिम्॥९॥
सञ्जयः—
कृष्णस्तु वचनात् तस्य प्रययौ यत्र तद्बलम्।
काल्यन्ते भगदत्तेन पाञ्चालास्सह पाण्डवैः॥१०॥
तं प्रयान्तं ततः पश्चाद् आह्वयन्तो महारथाः।
संशप्तकास्समारोहन् सहस्राणि चतुर्दश॥११॥
दशैव तु सहस्राणि त्रिगर्तानां नराधिप।
चत्वारिंशत् सहस्राणि वासुदेवस्य येऽनुगाः॥१२॥
दीर्यमाणां चमूं दृष्ट्वा भगदत्तेन संयुगे।
आहूयमानस्य च तैर् अभवद्वै मनोद्विधा॥१३॥
किं नु निश्श्रेयसं कृत्यं भवेदत्रेत्यचिन्तयत्।
न चैव विनिवर्तेयं पालयेयं च पाण्डवान्॥१४॥
तथा बुद्ध्या विचार्यैतद् असकृत् कुरुनन्दनः।
अकरोत् परमां बुद्धिं संशप्तकवधे स्थिराम्॥१५॥
स सन्निवृत्तस्सहसा कपिप्रवरकेतनः।
एको रथसहस्राणां बहूनां वासवी रणे॥१६॥
सा हि दुर्योधनस्यासीन्मतिः कर्णस्य चोभयोः।
अर्जुनस्य वधोपाये या वै द्वैधमकल्पयत्॥१७॥
स तु संवर्तयामास द्वैधीभावेन पाण्डवः।
वधे संशप्तकाख्यानाम् अकरोत् तां मृषाऽनघ॥१८॥
ततशरसहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च।
व्यसृजन्नर्जुने क्रुद्धास् संशप्तकरथर्षभाः॥१९॥
ततो नैवार्जुनोपेन्द्रौ न रथस्साश्वकेतनः।
दृश्यते शरवर्षेण प्रबलेन समावृतः॥२०॥
ततस्तेन शरौघेण महता च समावृतः।
नाशकन्नाम बीभत्सुर अमित्रान् प्रतिवाधितुम्॥२१॥
यदा मोहमिव प्राप्तः प्रस्विन्नश्चाच्युतोऽभवत्।
ततो79 जनार्दनः पार्थं प्रत्युवाच हसन्निव॥२२॥
श्रीभगवान्—
वज्रमस्रं80 तु सन्धाय जहि संशप्तकानिह॥२३
सञ्जयः—
तस्तानहितान् पार्थो वज्रेणात्रेण जन्निवान्॥२३॥
शतशः पाणयच्छिन्नास् सेपुज्यातलकार्मुकाः।
केतनानि हयास्सूता रथिनाश्चापतन् क्षितौ॥ २४॥
द्रुमाचलाग्राम्बुधरैस् समरूपास्सुकल्पिताः।
हतारोहाःक्षितौ पेतुर् द्विपाः पार्थशराहताः॥२५॥
विप्रविद्धकशावल्गाश् छिन्नभाण्डप्रकीर्णकाः।
सारोहास्तुरगाःपेतुर् मथिताः पार्थमार्गणैः॥२६॥
सर्ष्टिचर्मासिनखरास् समुद्गरपरश्वथाः।
सञ्छिन्ना बाहवः पेतुर् नृणां भलैः किरीटिना॥२७॥
बालादित्याम्बुजेन्दूनां तुल्यरूपाणि मारिष।
सच्छिन्नान्यर्जुनशरैश् शिरांस्युर्वीं प्रपेदिरे॥२८॥
सारोहालङ्कृतैस्सैन्यैः81 पत्रिभिः प्राणभोजनैः।
नानालिङ्गैस्सदाऽमित्रान् क्रुद्धोऽभ्यन्नद्धनञ्जयः॥२९॥
क्षोभयन्तं तदा सेनां द्विरदं नलिनीमिव।
धनञ्जयं भूतगणास् साधु साध्वित्यपूजयन्॥३०॥
दृष्ट्वा तु कर्म पार्थस्य वासवस्येव माधवः।
विस्मयं परमं गत्वा तलमाहत्य पूजयत्॥३१॥
ततस्संशप्तकान् हत्वा भूयिष्ठं ये व्यवस्थिताः।
भगदत्ताय याहीति वासुदेवमचोदयत्॥३२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि षड्विंशोऽध्यायः॥ २६॥
॥ ६६॥ संशप्तकवधपर्वणि एकादशोऽध्यायः॥ ११॥
[ अस्मिन्नध्याये ३२॥ श्लोकाः ]
॥ सप्तविंशोऽध्यायः॥
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भगदत्तार्जुनसमागमः॥
———
सञ्जयः—
तत्रासौ बलवान् कृष्णस् तानश्वान् वै मनोजवान्।
अप्रैषीद्धेमसञ्छन्नान् द्रोणानीकाय पाण्डरान्॥१
तं प्रयान्तं कुरुश्रेष्ठ स्वांस्त्रातुं द्रोणता पितान्।
सुशर्मा भ्रातृभिस्सार्धं युद्धार्थी पृष्ठतोऽन्वयात्॥२
ततश्श्वेतहयः कृष्णम् अब्रवीत् समितिञ्जयः॥२॥
अर्जुनः—
एष मां भ्रातृभिस्सार्धं सुशर्माऽऽह्वयतेऽच्युत।
दीर्यते82 चोत्तरेणैव सैन्यं नश्शत्रुकर्शन॥३॥
द्वैधीभूतं83 मनो मेऽद्य कृतं गतकै रिदम्॥४
किं नु संशप्तकान् हन्मि स्वान् वा रक्षामि चार्दितान्।
इति वेत्थ हृदि द्वैधं तत्र किं सुकृतं भवेत्॥५
सञ्जयः—
एवमुक्तस्तु दाशार्हस् स्यन्दनं पर्यवर्तयत्।
येन त्रिगर्ताधिपतिः पाण्डवं प्रति चाह्वयत्॥६
ततोऽर्जुनस्सुशर्माणं विद्ध्वासप्तभिराशुगैः।
तस्य ध्वजं धनुश्चैव क्षुराभ्यां समकृन्तत॥७
ततस्त्रिगर्ताधिपतेर् भ्रातरं षड्भिरायसैः।
साश्वं ससूतं त्वरितः प्रेषयद्वै यमक्षयम्॥८
निर्मुक्तोरगसङ्कशां सुशर्मा शक्तिमायसीम्।
चिक्षेपार्जुनमुद्दिश्य वासुदेवं च तोमरम्॥९
शक्तिं त्रिभिश्शरैछित्त्वा तोमरं त्रिभिरर्जुनः।
सुशर्माणं शरव्रातैर् मोहयित्वा न्यवर्तत॥१०
तं वासवमिवायान्तं वासविं भूरिवर्षिणम्।
राजस्तावकसैन्यानां नोग्रं कश्चिन्न्यवारयत्॥११
ततो धनञ्जयो बाणैस् त्वदीयान् रथसत्तमान्।
प्रायाद्विनिघ्नन् कौरव्यान् दहन कक्षमिवानलः॥१२
तस्य वेगमसह्यं तु कुन्तीपुत्रस्य धीमतः।
नाशक्नुवंस्ते संसोढुं स्पर्शमग्नेरिव प्रजाः॥१३
संवेष्टयन्ननीकानि शरवर्षेण पाण्डवः।
सुपर्ण इव नागेन्द्रम् आयात् प्राग्ज्योतिषं प्रति॥१४
नासीत् तथागते जिष्णौ भारतानामनामयम्।
स्वेषां क्षेमकरे सङ्ख्ये द्विषतामघवर्धने॥१५
तथैव तव पुत्रस्य राजन् दुर्द्युतदेविनः।
कृते क्षत्रियनाशाय धनुरादाय चार्जुनः॥१६
ततो विक्षोभ्यमाणा सा पुत्रस्य तव वाहिनी।
व्यशीर्यत तदा राजन नौरिवासाद्य पर्वतम्॥१७
ततो रथसहस्राणि न्यवर्तन्त धनुष्मताम्।
मरणाय मतिं कृत्वा आत्मनोवाऽर्जुनस्य वा॥१८
व्यपेतहृदयत्रासम् आपद्धर्मार्थको विदम्।
आर्च्छत् पार्थो गुरुं भारं सर्वलोकमहारथः॥१९
यथा नलवनं नागः प्रभिन्नष्षाष्ट्रिहायनः।
मृगीयात् तद्वदायत्तः पार्थोऽमृगाचमूं तव॥२०
तस्मिन् प्रमृदिते सैन्ये भगदत्तो महारथः।
तेन नागेन सहसा धनञ्जयमुपाद्रवत्॥२१
तं84 रथेन नरव्याघ्रः प्रत्यगृहादथार्जुनः॥२१॥
स सन्निपातस्तुमुलो बभूव रथनागयोः॥२२
कल्पिताभ्यां85 यथाशास्त्रं रथेन च गजेन च।
सङ्ग्रामे चेतुर्वीरौ भगदत्तधनञ्जयौ॥२३
ततो जीमूतसङ्काशान्नागादिन्द्र इवाभिभूः।
अभ्यवर्षच्छरौघेण भगदत्तो धनञ्जयम्॥२४
ततस्तु शरवर्षं तं शरवर्षेण वासविः।
अप्राप्तमेव चिच्छेद भगदत्तस्य वीर्यवान्॥२५
ततः प्राग्ज्योतिषो राजा शरवर्षे निवारिते।
संरक्तनयनो रोषात् पार्थं पु86नरवाकिरत्॥२६
स तथा शरवर्षेण पार्थ समभिहत्य वै।
चोदयामास तं नागं वधायाच्युतपार्थयोः॥२७
तमापतन्तं द्विरदं दृष्ट्वा क्रुद्धमिवान्तकम्।
चक्रेऽपसव्यं त्वरितं स्यन्दनेन जनार्दनः॥२८
सम्प्राप्तमपि नेयेष परावृत्तं महाद्विपम्।
सरोषो मृत्युसात्कर्तुं स्मरन् धर्मं धनञ्जयः॥२९
स तु नागो द्विपरथान् हयांश्चारुज्य मारिष।
प्राहिणोन्मृत्युलोकाय ततश्चुक्रोध फल्गुनः॥३०
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
॥ ६६ ॥ संशप्तकवधपर्वणि द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
[अस्मिन्नध्याये ३० श्लोकाः]
———-
॥ अष्टाविंशोऽध्यायः ॥
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अर्जुनेन सगजस्य भगदत्तस्य वधः ॥
धृतराष्ट्रः
—
तथा क्रुद्धः किमकरोद् भगदत्तस्य पाण्डवः।
प्राग्ज्योतिषो वा पार्थस्य तन्मे शंस यथातथम्॥१
सञ्जयः—
प्राग्ज्योतिषेण संसक्तावुभौ दाशार्हपाण्डवौ।
मृत्योरिवान्तिकं प्राप्तौ सर्वभूतानि मेनिरे॥२
महता शरवर्षेण ववर्ष बलवान् रणे।
भगदत्तो द्विपस्कन्धात् कृष्णयोस्स्यन्दनस्थयोः॥३
अथ कार्ष्णायसैर्वाणैः पूर्णकार्मुकनिस्सृतैः।
अविध्यदेवकीपुत्रं हेमपुङ्खैश्शिलाशितैः॥४
अग्निस्पर्शसमास्तीक्ष्णा भगदत्तेन चोदिताः।
निर्भिद्य देवकीपुत्रं ते सुद्धा ययुः क्षितिम्॥५
तस्य पार्थो धनुछित्त्वा परिवापं निहत्य च।
लालयन्निव राजानं भगदत्तमयोधयत्॥६
सोऽर्करश्मिनिकाशानि तोमराणि चतुर्दश।
प्रेषितानि च बीभत्सुस् त्रिधैकैकमशातयत्॥७
ततो नागस्य तद्वर्म व्यधमत् पाकशासनिः॥७॥
शरजालेन स बभौ व्यभ्रः पर्वतराडिव॥८
ततः प्राग्ज्योतिषश्शक्तिं हेमदण्डामयस्मयीम्।
व्यसृजद्वासुदेवाय त्रिधा तामर्जुनोऽच्छिनत्॥९
ततश्छत्रं ध्वजं चैव च्छित्त्वा राज्ञोऽर्जुनश्शरैः।
विव्याध दशभिस्तूर्णम् उत्स्मयन् पर्वताधिपम्॥१०
सोऽतिविद्धोऽर्जुनशरैस् सुपुङ्खैः कङ्कपत्रिभिः।
भगदत्तस्तु सङ्क्रुद्धः पाण्डवस्य नराधिपः॥११
व्यसृजत् तोमरं मूर्ध्नि श्वेताश्वस्योन्ननाद च।
तेनार्जुनस्य समरे किरीटं परिवर्तितम्॥१२
परिवृत्तं किरीटं तं व्यधयन्नेव फल्गुनम्।
सुदृष्टः क्रियतां लोक इति राजैनमब्रवीत्॥१३
एवमुक्ता तु बीभत्सुं शरवर्षेण पार्थिवः।
अभ्यवर्षत् स गोविन्दं धनुरादाय वीर्यवान्॥१४
तस्य पार्थो धनुरिछत्त्वा तूणीरान् सन्निकृत्य च।
त्वरमाणो द्विसप्तत्या सर्वमर्मस्वताडयत्॥१५
विद्धस्ततोऽतिव्यथितो वैष्णवास्त्रमुदीरयन्।
अभिमन्त्र्याङ्कुशंक्रुद्धो व्यसृजत् पाण्डवं प्रति॥१६
विसृष्टं भगदत्तेन तदस्त्रं सर्वघातकम्।
उरसा प्रतिजग्राह पार्थ सञ्छाद्य केशवः॥१७
वैजयन्त्यभवन्माला तदस्त्रंकेशवोरसि।
पद्मकोशविचित्रा च सर्वर्तुकुसुमोत्करा॥१८
तथा पद्माभिशोभिन्या वायुकम्पितलोलया।
शोभतेऽभ्यधिकं शौरिर् अतसीपुष्पसन्निभः॥१९
केशवः केशिमथनश् शार्ङ्गधन्वाऽरिमर्दनः।
सन्ध्याभ्रैरिव सञ्छन्नः प्रावृट्काले नगोत्तमः॥२०
तमर्जुनः क्लान्तमनाः केशवं प्रत्यभाषत॥२०॥
अर्जुनः—
अयुध्यमानस्तुरगान् संयन्तास्मि जनार्दन।
इत्युक्त्वा पुण्डरीकाक्ष प्रतिज्ञां त्वं न रक्षसि॥२१॥
यद्यहं व्यसनी हि स्याम् अशक्तः प्रतिवारणे।
ततस्त्वयैव कार्यं स्यान्न तु कार्यं मयि स्थिते॥२२॥
सवाणस्सधनुश्चाहं ससुरासुरमानवान्।
शक्तो लोकानिमाञ्जेतुं तवैव विदितं हि तत्॥२३॥
सञ्जयः—
ततोऽर्जुनं वासुदेवः प्रत्युवाचार्थवद्वचः॥२४
श्रीभगवान् —
शृणु गुह्यमिदं पार्थ यथावृत्तं पुरातनम्॥२४॥
येयं लोकधरा देवी सर्वभूतधरा धरा।
सकामा लोककर्तारं नारायणमुपस्थिता॥२५॥
स सङ्गम्य तथा सार्धं प्रीतस्तस्य वरं ददौ।
सा वव्रे विष्णुसदृशं पुत्रमस्त्रं च वैष्णवम्॥२६॥
बभूव च सुतस्तस्या नरको नाम विश्रुतः।
अस्त्रं च वैष्णवं तस्मै ददौ नारायणस्स्वयम्॥२७॥
तदेतन्नरकस्यासीद् अस्त्रं सर्वाहितान्तकम्।
तस्मात् प्राग्ज्योतिषं प्राप्तं सर्वशस्त्रविघातनम्॥२८॥
नास्यावध्योऽस्ति लोकेऽस्मिन् मदन्यः कश्चिदर्जुन।
तस्मान्मया कृतं ह्येतन्मा ते भूद्बुद्धिरन्यथा॥२९॥
सञ्जयः—
अनुनीय तु दाशार्हः पाण्डवं त्वरितोऽब्रवीत्॥३०
श्रीभगवान्—
जहि प्राग्ज्योतिषं क्षिप्रं वाक्यशेषं च मे शृणु॥३०॥
चतुर्मूर्तिरहं पार्थ लोकत्राणार्थमुद्यतः।
आत्मानं प्रविभज्येह विधानमिदमादधे॥३१॥
एका मूर्तिस्तपर्याश्चर्यां कुरुते मे भुवि स्थिता।
अपरा पश्यति जगत् कुर्वाणं साध्वसाधु च॥३२॥
अपरा कर्म कुरुते मानुषं लोकमाश्रिता।
शेते चतुर्थमूर्तिस्तु निद्रां वर्षसहस्रिकाम्॥३३
याऽसौ वर्षसहस्रान्ते मूर्तिरुत्तिष्ठते मम।
वराय वराञ् श्रेष्ठांस् तस्मिन् काले ददाति सा॥३४॥
तं तु कालमनुप्राप्तं विदित्वा पृथिवी पुरा।
प्रायाचत87 वरं पार्थ नरकार्थाय तच्छृणु॥३५॥
देवानामसुराणां चाप्यवध्यस्तनयोऽस्तु मे।
एवं वरं वृणे देव तव नाथ ममास्त्विति॥३६॥
एवं वरमहं श्रुत्वा जगत्या भरतर्षभ।
अमोघमस्त्रं प्रायच्छं परमं वैष्णवं पुरा॥३७॥
एतदस्ममोघं मे भविष्यति वसुन्धरे।
नरकस्याभिरक्षार्थं नैनं कश्चिद्वधिष्यति॥३८॥
अनेनास्त्रेण ते गुप्तस् सुतः परबलार्दनः।
भविष्यति दुराधर्षस् सर्वलोकेषु सर्वदा॥३९॥
तथेत्युक्त्वा तु सा देवी कृतकार्या वसुन्धरा।
स चाप्यासीदुराधर्षो नरक शत्रुतापनः॥४०॥
तस्मात् प्राग्ज्योतिषं प्राप्तं तदस्त्रं वेत्थ मामकम्॥४१
नास्यावध्योऽस्ति लोकेऽस्मिन् मदन्यः कश्चिदर्जुन।
तन्मया त्वत्कृते ह्येतदन्यथैवोपनिर्मितम्॥४२
वियुक्तं88 परमास्त्रेण जहि पार्थ महासुरम्॥४२॥
अवध्योऽयं89 महास्त्रेण भगदत्तस्सुरासुरैः।
यथाऽहं नरकं लोकहितार्थमहनं पुरा॥४३॥
सञ्जयः—
एवमुक्तस्ततः पार्थः केशवेन महात्मना।
भगदत्तं शितैर्बाणैस् सहसा समवाकिरत्॥४४॥
ततस्सन्धाय विशिखं दीप्यमानमिवानलम्।
अविध्यदर्जुनो नागं कुम्भयोरन्तरे भृशम्॥४५॥
अभ्यगात्90 स शरोऽत्युग्रो वल्मीकमिव पन्नगः॥४६
स तु विष्टभ्य गात्राणि दन्ताभ्यामवनीं गतः।
नदन्नार्तस्वनं प्राणान् उत्ससर्ज महाद्विपः॥४७
ततश्चन्द्रार्धतुल्येन शरेणामित्रकर्शनः।
बिभेद हृदयं राज्ञो भगदत्तस्य पाण्डवः॥४८
स भिन्नहृदयो राजा भगदत्तः किरीटिना।
मुक्ता शरासनं बाहू प्रसार्यान्वपतद्गजात्॥४९
पपात पततस्तस्य शिरसः पूर्वमंशुकम्।
नालताडनविभ्रष्टं पलाशं नलिनादिव॥५०
स हेममाली तपनीयभाण्डात्
पपात नागागिरिसन्निकाशात्।
सुपुष्पितो मारुतवेगभग्नो
महीधराग्रादिव कर्णिकारः॥५१
निहत्य तं नरपतिमिन्द्र विक्रमं
सहायमिन्द्रस्य स इन्द्रसम्भवः।
ततोऽपरांस्तव जयकाङ्क्षिणो रणे
बभञ्ज वायुर्बलवानिव द्रुमान्॥५२
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
॥ ६६॥ संशप्तकवधपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
[ अस्मिन्नध्याये ५२ श्लोकाः]
॥ एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥
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** अर्जुनयुद्धवर्णनम् ॥**
सञ्जयः—
प्रियमिन्द्रस्य सततं सखायममितौजसम्।
हत्वा प्राग्ज्योतिषं पार्थः प्रदक्षिणमवर्तत॥१
ततो गान्धारराजस्य पुत्रौ परपुरञ्जयो।
अभ्येतामर्जुनं सङ्ख्ये विसृजन्तमजिह्मगान्॥२
तौ समेत्यार्जुनं वीरौ पूर्व पश्चाच धन्विनौ।
अविध्येतां महावेगैर निशितैराशुगैभृशम्॥३
वृषकस्य हयान् सूतं धनुश्छत्रं रथं ध्वजम्।
तिलशो व्यधमत् पार्थस् सौबलस्य शितैश्शरैः॥४
ततोऽर्जुनश्शरत्रातैर् नानाप्रहरणान् युधि।
गान्धारानाकुलीकुर्वन् अचलप्रमुखान् पुनः॥५
ततः पञ्चशतान् वीरान् गान्धारानुद्यतायुधान्।
प्राहिणोन्मृत्युलोकाय क्रुद्धो बाणैर्धनञ्जयः॥६
हताश्वात् तु रथात् तूर्णम् अवतीर्य महामतिः।
आरुरोह रथं भ्रातुश चान्यदादाय कार्मुकम्॥७
तावेकरथमारूढा भ्रातरौ वृषकाचलौ।
शरवर्षेण बीभत्सुम् अविध्येतां पुनः पुनः॥८
स्थालौ91 तव महात्मानौ राजानौ वृषकाचलौ।
भृशं विजन्नतुः पार्थम् इन्द्रं वृत्रबलाविव॥९
लब्धलक्षौ92 तु गान्धारौ जन्नतुः पाण्डवं पुनः।
नैदाघवार्षिको मेघौ लोकं धर्माम्बुभिर्यथा॥१०
तौ स्यालौ तव दुर्धर्षौसमाने स्यन्दने स्थितौ।
संस्पृशन्तौ तदाऽन्योन्यं जघानैकेषुणाऽर्जुनः॥११
तौ रथात् सहसा वीरौ लोहिताक्षौ महाभुजौ।
निहतौ पेततुर्भूमौ सोदर्यावेकलक्षणौ॥१२
तयोदेहौ रथाद्भूमिं गतौ बन्धुजनव्यथौ।
यशो दश दिशः पुण्यं विकिरन्तौ स्वमुत्तमम्॥१३
दृष्ट्वा तौ निहतौ सङ्घये मातुलावपलायिनौ।
सर्वे मुमुचुरश्रणि पुत्रास्तव विशां पते॥१४
तौ हतौ भ्रातरौ दृष्ट्वा मायाशतविशारदः।
कृष्णौ सम्मोहयन् मायां विदधे शकुनिस्ततः॥१५
असल चेया घनाश्मानश् शतघ्नीश्च सकिङ्किणीः।
गदापरिघनिस्त्रिंशशूलमुद्गरपट्टसाः॥१६
शक्त्यृष्टिप्रासनखरमुसलानि परश्वथाः।
क्षुराः क्षुरप्रनालीका वत्सदन्ता स्त्रिसन्धयः॥१७
कुन्तप्रासमहाशक्त्यो विविधान्यायुधानि च।
आपेतुस्सर्वतो दिग्भ्यः प्रदिग्भ्यश्चार्जुनं प्रति॥१८
खरोष्ट्रमहिषास्सिंहा व्याघ्रास्सृमरभल्लुकाः।
ऋक्षास्सालावृका गृध्राःकपिश्वानसरीसृपाः॥१९
विविधानि च रक्षांसि विक्षिप्तान्यर्जुनं प्रति।
सद्धान्यभिधावन्ति विविधानि वयांसि च॥२०
ततो दिव्यास्त्रविच्छ्ररः कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः।
विसृजन्निषुजालानि प्रहसंस्तान्यताडयत्॥२१
ते हन्यमानाश्शूरेण प्रवरैस्सायकैर्दृढैः।
विरुवन्तो महारावान् विनेशुस्सर्वतो हताः॥२२
ततस्तमः प्रादुरभूद् अर्जुनस्याभितो रथम्।
तस्माच्च तमसो वाचः क्रूराः पार्थमभर्त्सयन्॥२३
तत्तमोऽस्त्रेण महता ज्यौतिषेणार्जुनोऽवधीत्॥२३॥
हते तस्मिञ्जलौघास्तु प्रादुरासन् भयानकाः॥२४
अम्भसस्तस्य नाशार्थम् आदित्यास्त्रमथार्जुनः।
प्रायुङ्क्ताम्भस्तथास्त्रेण प्राशुष्यत् तेन शोषितम्॥२५
एवं बहुविधा मायास् सौबलस्य कृताः कृताः।
जघानास्त्रबलेनाशु प्रहसन्नर्जुनोऽब्रवीत्॥२६
अर्जुनः—
दुद्यूतदेविन गान्धारे नाक्षान् क्षिपति गाण्डिवम्।
ज्वलितान्निशितांस्तीक्ष्णाञ् शरान् क्षिपति गाण्डिवम्॥ २७
सञ्जयः—
तथा हतासु मायासु त्रस्तोऽर्जुनशराहतः।
अपायाजवनैरवैश् शकुनिः प्राकृतो यथा॥२८
ततोऽर्जुनोऽस्त्रविच्छौर्य दर्शयन्नात्मनोऽरिषु।
अभ्यवर्षच्छरौघेण कौरवाणामनीकिनीम्॥२९
सा वध्यमाना पार्थेन पुत्रस्य तव वाहिनी।
द्वैधीभूता महाराज गङ्गेवासाद्य पर्वतम्॥३०
द्रोणमेवान्वपद्यन्त केचित् तत्र नरर्षभाः।
केचिदुर्योधनं राजंस् ताड्यमानाः किरीटिना॥३१
तत एनं न पश्यामि तीव्रेण रजसा वृते।
गाण्डीवस्य च निर्घोषश तो दक्षिणतो मया॥३२
शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषम् वादित्राणां93 च निस्स्वनम्।
गाण्डीवस्य तु निर्घोषो व्यतिक्रम्यास्पृशद्दिवम्॥३३
ततः पुनर्दक्षिणतस् सङ्गामे चित्रयोधिनः।
सुयुद्धमर्जुनस्यासद् अहं च द्रोणमन्वगाम्॥३४
नानाविधान्यनीकानि त्वदीयानि विशां पते।
अर्जुनो व्यधमत् काले दिव्यभ्राणीव मारुतः॥३५
तं वासवमिवायान्तं भूरिवर्षं शरौघिणम्।
महेष्वासं नरव्याघ्रं नोग्रंकश्चिद्वारयत्॥३६
ते हन्यमानाः पार्थेन त्वदीया व्यथिता भृशम्।
स्वानेव बहवो जघ्नुर् विद्रवन्तस्ततस्ततः॥३७
अर्जुनेनेषवो मुक्ताः कङ्कपत्रास्तनुच्छिदः।
शलभा इव सम्पेतुस् संवृण्वाना दिशो दश॥३८
तुरगं रथिनं नागं पदातिमपि मारिष।
विनिर्भिद्य क्षितिं जग्मुस् सुपुङ्खाकर्दमं यथा॥३९
न च द्वितीयं व्यसृजत् कुञ्जराश्वनरेषु च।
व्यक्तमेकशरारुग्णा निपेतुस्ते गतासवः॥४०
हतैर्मनुष्यैस्तुर गैश्च सर्वतश्
शराभिमृष्टश्च गजैर्निपातितैः।
सृगालगोमायुवलाभिनादितं
विचित्रमायोधशिरो बभूव ह॥४१
पिता सुतं त्यजति सखा सखायं
तथैव पुत्रः पितरं शरातुरम्।
स्वरक्षणे कृतमनसस्तदा नरास्
त्यजन्ति वाहानपि पार्थपीडिताः॥४२
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि एकोनत्रिंशोऽध्यायः॥ २९॥
॥ ६६॥ संशप्तकवधपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः॥ १४॥
[ अस्मिन्नध्याये ४२ श्लोकाः]
——-
द्रोणपर्वणि - संशप्तकवधपर्व
॥ त्रिंशोऽध्यायः॥
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** अश्वत्थाम्ना नीलस्य वधः॥**
धृतराष्ट्रः—
तेष्वनीकेषु भनेषु पाण्डपुत्रेण सञ्जय।
चलितानां द्रुतानां च कथमासीन्मनांसि वः॥१
अनीकानां प्रभग्नानाम् अधिष्ठानमपश्यताम्।
दुष्करं प्रतिसन्धानं तन्ममाचक्ष्व सञ्जय॥२
सञ्जयः—
ते तथा हतभूयिष्ठास् तव प्रियहितैषिणः।
सर्वे प्रवीरा लोकस्य रक्षणे द्रोणमभ्ययुः॥३
समुद्यतेषु94 शस्त्रेषु सम्प्राप्ते च युधिष्ठिरे।
अकुर्वन्नार्यकर्माणि भैरवे सत्यविक्रमाः॥४
अन्तरं भीमसेनस्य प्रापतन्नमितौजसः।
सात्यकस्य च वीरस्य धृष्टद्युम्नस्य पार्थिवाः॥५
द्रोणं95 द्रोणमिति क्रुद्धाः पाञ्चालास्समचोदयन्।
मा द्रोणमिति ते पुत्रास् स्वसैन्यं समचोदयन्॥६
पाण्डवा96 द्रोणमित्येवं मा द्रोणमिति चापरे।
पाण्डवानां कुरूणां च द्रोणूद्यतमवर्तत॥७
यं यं प्रमथते द्रोणः पाण्डवानां रथव्रजम्।
तत्र तत्र स पाञ्चालो धृष्टद्युम्नो विधीयते॥८
तेषां भाग्यविपर्यासे सङ्ग्रामे भैरवे सति।
वीरास्समासदन वीरान नागच्छन् भीरवः परान्॥९
अकम्पनीयाश्शत्रूणाम् अभवंस्तत्र पाण्डवाः।
अकम्पयन्ननीकानि स्मरन्तः क्लेशमात्मनः॥१०
ते ह्यमर्षवशं प्राप्ता ह्रीमन्तस्सत्वचोदिताः।
त्यक्त्वा प्राणानवर्तन्त निघ्नन्तो द्रोणमाहवे॥११
अयसामिष सङ्घातश शिलानामिव चाभवत्।
दीव्यतां तुमुले युद्धे प्राणैरमिततेजसाम्॥१२
नानुस्मरन्ति सङ्ग्रामं वृद्धाश्चापि तथाविधम्।
ये97 पूर्वदेवदेवानाम् अपश्यन् पूर्वमद्भुतम्॥१३
प्रकम्पते च पृथिवी तत्र वीरावसादने।
विवर्तता जनौघेन महता भारपीडिता॥१४
बलौघस्य च भीमस्य दिवं स्तब्ध्वेव निस्स्वनः।
अजातशत्रो98ःक्रुद्धस्य पुत्रस्य तव चाभवत्॥१५
समासाद्य च पाण्डूनाम् अनीकानि सहस्रशः।
द्रोणेन चरता सङ्ख्ये प्रभग्नान्यमितैश्शरैः॥१६
तेषु प्रमथ्यमानेषु द्रोणेनाद्भुतकर्मणा।
पर्यवारयदासाद्य द्रोणं सेनापतिस्स्वयम्॥१७
तद्युद्धमभवद्धोरं द्रोणपाञ्चालयोः प्रभो।
नैव तस्योपमा काचिच् छक्या वक्तुं विशेषतः॥१८
ततो नीलोऽनलप्रख्यः प्रादहत् कुरुवाहिनीम्।
शरस्फुलिङ्गश्चापार्चिश शुष्ककक्षमिवानलः॥१९
तं दहन्तमनीकानि द्रोणपुत्रः प्रतापवान्।
पूर्वाभिभाषी सुश्लक्ष्णम् इदं वचनमब्रवीत्॥२०
अश्वत्थामा—
नील किं बहुभिर्दग्धैस् तव योधैश्शताधिकैः।
मयैकेनैव युध्यस्व सङ्क्रुद्धःप्रहराशुगैः॥२१
सञ्जयः
—
तं पद्मनिकराकारं पद्मपत्रनिभेक्षणम्।
व्याकोचपद्माभमुखो नीलो विव्याध पत्रिभिः॥२२
तेनातिविद्धः प्रहसन् द्रौणिर्भल्लैस्त्रिभिश्शितैः।
धनुर्ध्वजं च छत्रं च द्विषतस्संन्यकृन्तत॥२३
सोत्प्लुत्य स्यन्दनात् तस्मान्नीलश्चर्मवरासिधृक्।
द्रौणायनेश्शिरः कायाद्धर्तुमैच्छत् पतत्तिवत्॥२४
तस्योद्यतासेश्वरतश् शिरः कायात् सकुण्डलम्।
भल्लेनापाहरद्द्रौणिस् स्मयमान इवानघ॥२५
सम्पूर्णचन्द्राभमुखः पद्मपत्रनिभेक्षणः।
प्रांशुरुत्पलपत्राभो निहतो न्यपतद्भुवि॥२६
ततः प्रविव्यथे सेना पाण्डवी भृशमातुरा।
आचार्यपुत्रेण हते नीले ज्वलिततेजसि॥२७
ते यतन्ते यथाशक्त्या पाण्डवानां रथर्षभाः।
कथं नो वासवित्रायाच् छत्रुभ्य इति मारिष॥२८
दक्षिणेन तु पक्षेण कुरुते कदनं बली।
संशप्तकावशेषस्य नारायणबलस्य च॥२९
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि विंशोऽध्यायः॥ ३०॥
॥ ६६॥ संशप्तकवधपर्वणि पञ्चदशोऽध्यायः॥ १५॥
[ अस्मिन्नध्याये २९ श्लोकाः ]
द्रोणपर्वणि - संशप्तकवधपर्व
॥ एकत्रिंशोऽध्यायः॥
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** सङ्कुलयुद्धवर्णनम्॥**
सञ्जयः—
प्रतिघातं तु सैन्यानां नामृष्यत वृकोदरः।
अभिनद्वाहिकं षष्ट्या शरैः कनकभूषणैः॥१
तस्य द्रोणशितैर्बाणैस् तीक्ष्णधारैस्सुतेजनैः।
जीवितान्तमभिप्रेप्सुर् मर्मण्यभ्यहनवली॥२
कर्णो द्वादशभिर्वाणैर् अश्वत्थामा च सप्तभिः।
षष्टया दुर्योधनो राजा त एनं समवारयन्॥३
भीमसेनोऽपि तान् सर्वान् प्रत्यविध्यन्महाबलः।
द्रोणं पञ्चाशता भल्लैः कर्णं षट्त्रिंशता शरैः॥४
दुर्योधनं द्वादशभिर् द्रौणिमष्टाभिराशुगैः।
आरावं तुमुलं कुर्वन् नाभ्यवर्षत् स तान् पुनः॥५
तस्मिन् संत्यजति प्राणान् मृत्युसाधारणं गते।
अजातशत्रुस्वान् वीरान् भीमं त्रातेत्यचोदयत्॥६
तेऽगच्छन् भीमसेनस्य समीपममितौजसः।
सौभद्रो युयुधानश्च माद्रीपुत्रौ च भ्रातरौ॥७
ते समेत्य तु संयत्तास् समन्तात् पुरुषर्षभाः।
महेष्वासवरैर्गुप्तं द्रोणानीकं विभित्सवः॥८
समापेतुर्नरव्याघ्रा भीमप्रभृतयो रथाः।
तान् प्रत्यगृह्णादव्यग्रो द्रोणोऽपि रथिनां वरः॥९
प्रत्यदृश्यन्त पार्थानां स्वेषामपि महारथाः।
बाह्यं मृत्युभयं कृत्वा तावकान् पाण्डवा ययुः ॥१०
सादिनस्सादिनोऽभ्यन्नन्नभ्यन्नन् रथिनो रथान्।
असिशक्त्यृष्टिसङ्घातैर् युद्धं चासीत् परश्वथैः ॥११
प्रवृद्धमासीत्तयुद्धं प्रततं रोमहर्षणम्॥११॥
कुञ्जराणां तु सम्पाते आसङ्गस्तुमुलोऽभवत्॥१२
अपतन् कुञ्जरादन्ये यादन्ये प्रदुद्रुवुः।
नरा बाणेन संविद्धा रथादन्येऽपतन् क्षितौ॥१३
सम्ममर्द रथाच्चापि पतितस्यापि वर्त्मनि।
शिरः प्रध्वंसयामास वक्षस्याक्रम्य कुञ्जरः॥१४
अपरेऽप्यपरान् मृद्रन् वारणाः पतितान् नरान्।
विषाणैर्धरणीं गत्वा रुवन्तो भैरवान् रवान्॥१५
नरानन्ये विषाणार् लग्नासृग्भिः क्षतैः परैः।
भ्रमन्ति रुषिता नागा मृगन्तश्शतशो नरान्॥१६
कांस्यायसतनुत्राणान् नराश्वरथकुञ्जरान्।
पतितान् पोथयाञ्चक्रुर् वारणाः परवारणाः॥१७
गृध्रपत्राधिवासांसि शयनान्यत्र पार्थिवाः।
हीमन्तः कालसम्प्राप्तास् सुदुःखमधिशेरते॥१८
हन्ति स्माथ पिता पुत्रं रथेन ह्यतिवर्तिना।
पुत्रस्तु पितरं मोहान्निर्मर्यादमवर्तत॥१९
अक्षो भग्नो ध्वजश्छिन्नस् छत्रमुर्व्यां निपातितम्।
युगाधं छिन्नमादाय प्राद्रवन्त हयाः क्वचित्॥२०
सासिर्निपतितो बाहुशू शिरछिन्नं सकुण्डलम्।
गजेनाक्षिप्य बलिना रथस्सञ्चूर्णितः क्षितौ॥२१
रथिना ताडितो नागो नाराचेनापतत् क्षितौ।
सारोहः पतितो वाजी गजेनापीडितो भृशम्॥२२
निर्मर्यादं महद्युद्धं प्रावर्तत सुदारुणम्॥२२॥
हा99 तात हा पुत्र सखे कासि तिष्ठ व धावसि।
प्रहराहर हन्तास्मि नदक्ष्वेडितगर्जितैः॥२३॥
इत्येवमुच्चैरत्यर्थं श्रूयन्ते विविधा गिरः॥२४
नरस्याश्वस्य नागस्य समन्तादतिशोणितम्।
उपाशाम्यद्रजो भौमं भीरून् कश्मलमाविशत्॥२५
आसीत् केशपरामर्शो मुष्टियुद्धं च दारुणम्।
नखैर्दन्तैश्च शूराणाम् अद्वीपे द्वीपमिच्छताम्॥२६
तत्राच्छिद्यत शूरस्य सखड्गो बाहुरुद्यतः।
सधनुश्चापरस्यापि सशरस्साङ्कुशस्तथा॥२७
प्राक्रोशदन्यमन्यत्र तमन्योऽभिमुखोऽद्रवत्।
ततः प्राप्तस्स चाप्यन्यश् शिरः कायादपाहरत्॥२८
भीतश्चान्य उदक्रोशद् अन्यो भीत उपाद्रवत्।
असम्प्राप्तस्य100 तं देशम् अन्यो जीवितमाददे॥२९
गिरिशृङ्गोमञ्चित्रो बाणैश्चित्रैर्निपातितः।
मातङ्गो न्यपतद्भूमौ नदीरोध इवोष्णगे॥३०
तथैव रथिनं नागः क्षरन् गिरिरिव व्रजन्।
बलेनापातयद्भूमौ सहाश्वं सह सारथिम्॥३१
शूरान् प्रहरतो दृष्ट्वा कृतास्त्रान् रुधिरोक्षितान्।
बहूनत्याविशन्मोहो भीरून् हृदयदुर्बलान्॥३२
सर्वमा विनमभवन्न प्राज्ञायत किञ्चन।
सैन्येन रजसा ग्रस्ते निर्मर्यादमवर्तत॥३३
ततस्सेनापतिश्शीघ्रम् अयं काल इति ब्रुवन्।
निर्यातेति101 च तानेवं त्वरयामास पाण्डवान्॥३४
कुर्वाणाशासनं तस्य पाण्डवा बाहुशालिनः।
सरो हंसा इवापेतुर् नन्तो द्रोणरथं प्रति॥३५.
प्रतिगृह्णीत102 जहि तच् छिन्धि भिन्धि हताहत।
इति शब्दो महानासीद् आचार्यस्य रथं प्रति॥३६
ततो103 द्रोणः कृपः कर्णस् स च राजा जयद्रथः।
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ शल्यश्चैतानवारयन्॥३७
अवार्यकर्मसंरब्धा104 दुर्निवार्या निवारिताः।
शूरत्वान्न जहुद्रणं पाञ्चालास्सह पाण्डवैः॥३८
ततो द्रोणो भृशं क्रुद्धो व्यसृजच्छतशइशरान्।
चेदिपाञ्चालपाण्डूनां कुर्वन् विशसनं महत्॥३९
तस्य ज्यातलनिर्घोषश शुश्रुवे दिक्षु मारिप।
वज्ञसङ्काशनिदस् त्रासयन् सृञ्जयान् बहून्॥४०
एतस्मिन्नन्तरे जिष्णुर हत्वा संशप्तकान् पुनः।
अभ्ययात् तत्र यत्र स्म द्रोणः पाण्डून् विमृति॥ ४१
तां शरौघमहावर्ता शोणितौघवहां नदीम्।
तीर्णस्संशप्तकान् हत्वा प्रत्यदृश्यत फल्गुनः॥४२
तस्य लक्ष्मीवतो लक्ष्म सूर्यप्रतिमतेजसः।
दीप्यमानमपश्याम तेजसा वानरध्वजम्॥४३
संशप्तकसमुद्रं तम् उच्छोष्यास्त्रगभस्तिभिः।
स पाण्डवयुगान्तार्कः कुरूनभ्यागमज्जवात्॥४४
स ददाह कुरून् सर्वान् अर्जुनश्शस्त्रतेजसा।
युगान्ते सर्वभूतानि धूमकेतुरिवोत्थितः॥४५
तेन बाणसहस्रौघैर् गजाश्वरथयोधिनः।
ताड्यमानाः क्षितिं जम्मुर् मुक्तशस्त्रशरासनाः॥४६
केचिदार्तस्वरं चक्रुर् विनेदुरपरे पुनः।
पार्थबाणहताः केचिन्निपेतुच गतासवः॥४७
तेषामुत्पतितान् कांश्चित् पतितांश्च पराक्रमात्।
निजधानार्जुनो योधान् योधव्रतमनुस्मरन्॥४८
ते च जीर्णरथाश्वेमाः प्रायशश्च पराङ्मुखाः।
कुरवः कर्ण कर्णेति हा हा चेति विचुक्रुशुः॥४९
तमाधिरथिराक्रन्दं विज्ञाय शरणैषिणाम्।
मा भैष्टेति प्रतिश्रुत्य ययावभिमुखोऽर्जुनम् ॥५०
स भारतरथश्रेष्ठस् सर्वभारतहर्षणः।
प्रादुश्चक्रे तदाऽऽग्नेयम् अस्त्रमस्त्रविदां वरः॥५१
तस्य दीप्तशरौघस्य दीप्तचापरथस्य च।
वारुणेन तदस्त्रेण विदुधाव धनञ्जयः॥५२
अस्त्रमस्त्रेण105 संवार्य प्राणदद्विसृजञ् शरान्॥५२॥
धृष्टद्युम्नश्च भीमञ्च सात्यकिञ्च महारथः।
विव्यधुः कर्णमासाद्य त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः॥५३॥
अर्जुनास्त्रं तु राधेयस् संवार्य शरवृष्टिभिः।
तेषां त्रयाणां चापानि चिच्छेद विशिखैस्त्रिभिः॥ ५४॥
ते निकृत्तायुधाश्शूरा निर्विषा इव पन्नगाः।
अथ शक्तीस्समुत्क्षिप्य भुजैर्स्सिहा इवानदन्॥५५॥
ता भुजाग्रैर् विनिर्मुक्ता निर्मुक्तभुजगोपमाः।
दीप्यमाना महाशक्त्यो जग्मुराधिरथिं प्रति ॥५६॥
ता निकृत्य शरैस्तीक्ष्णैस् सिंहनादं चकार ह।
ननाद बलवान् कर्णः पार्थाय विसृजञ् शरान् ॥५७॥
अर्जुनश्चापि राधेयं विद्ध्वासप्तभिरायसैः।
कर्णादवरजं बाणैर् जघान निशितैस्त्रिभिः॥५८॥
ततश्शत्रुञ्जयं हत्वा पार्थषषड्भिरजिह्मगैः।
जहार सद्यो भल्लेन द्विधा तस्य शिरो रथात्॥५९॥
पश्यतां धार्तराष्ट्राणाम् एवमेते किरीटिना।
प्रमुखे सूतपुत्रस्य सोदर्या निहतास्त्रयः॥६०॥
ततो भीमस्तदाप्लुत्यस्वरथाद्वैनतेयवत्।
जघान सूतपुत्रस्य बान्धवान् दश पञ्च च॥६१॥
पुनस्स्वरथमास्थाय धनुरादाय वीर्यवान्।
विव्याध दशभिः कर्णं सूतमश्वांश्वपञ्चभिः॥६२॥
धृष्टद्युम्नोऽप्यसिवरं चर्म चादाय भास्वरम्।
जघान चन्द्रवर्माणं बृहत्क्षत्रं च नैषधम्॥६३॥
ततस्स्वरथमास्थाय पाञ्चाल्योऽन्यच्छरासनम्।
आदाय कर्णं विव्याध त्रिसप्तत्या नदञ् शरैः॥६४॥
शैनेयोऽप्यन्यदादाय धनुरिन्द्रसमद्युतिः।
सूतपुत्रं चतुष्षष्ट्या विद्ध्वासिंह इवोन्नदन्॥६५॥
भल्लाभ्यां साधु मुक्ताभ्यां छित्त्वा कर्णस्य कार्मुकम्।
पुनः कर्णं त्रिभिर्वाणैर् बाह्वोरुरसि चार्पयत्॥६६॥
ततो दुर्योधनो राजा द्रोणश्चैव जयद्रथः।
निमज्जमानं राधेयम् उज्जह्रुस्समरार्णवात्॥६७॥
धृष्टद्युम्नश्च भीमश्चसौभद्रोऽर्जुन एव च।
नकुलस्सहदेवश्च सात्यकिं जुगुपुस्तदा106॥६८॥
एवमेष महारौद्रः क्षयार्थं सर्वधन्विनाम्।
तावकानां परेषां च त्यक्त्वा प्राणानभूद्रणः॥६९॥
पदातिरथनागाश्वैर् गजाश्वरथपत्तयः।
रथिनो नागपत्त्यश्वैर् गजाः पत्तिरथध्वजैः॥७०॥
अश्वैरश्वा गजैर्नागा रथिनो रथिमिस्सह।
सम्पन्नास्समदृश्यन्त पत्तयश्चापि पत्तिभिः॥७१॥
एवं सुकलिलं युद्धम् आसीत् क्रव्यादहर्षणम्।
सह भीतैरभीतानां यमराष्ट्रविवर्धनम्॥७२॥
संरम्भेणाभिसंसृज्य निघ्नतामितरेतरम्।
कुरूणां पाण्डवानां च द्रोणार्जुनसमागमे॥७३॥
ततो हता नररथवाजिकुञ्जरैर्
अनेकशो द्विपरथपत्तिवाजिभिः।
गजैर्गजा37 रथिभिरुदायुधा रथैर्
हयैर्हयाः पत्तिगणाश्च पत्तिभिः॥७४॥
स्थैर्द्वपा द्विरदवरैर्महारथा
हयैर्नरा वररथिभिश्च वाजिनः।
विपोथिता गजहयपादताडनैर्
भृशाकुला रथमुखनेमिभिर्हयाः॥७५॥
तथा वरैर्बहुकरणैर्वरायुधैर्
हता गजाः107 प्रतिभयदर्शनाः क्षितिम्।
निरस्तजिह्वादशनेक्षणाः क्षितौ
क्षयं गताः खण्डितवर्मभूषणाः॥७६॥
प्रमोदने श्वापदपक्षिरक्षसां
जनक्षये वर्तति तत्र दारुणे।
महाबलास्ते कुपिताः परस्परं
निषूदयन्तः प्रचरन्त्युदायुधाः॥७७॥
महाबले क्षुब्धमहार्णवोपमे
महेन्द्रसद्मातिथितां यियासवः।
तथा बले भृशमथिते परस्परं
निरीक्षमाणे रुधिरौघसंवृते ॥७८॥
दिवाकरेऽस्तं गिरिमास्थिते शनैर्
उभे प्रयाते शिबिराय भारत॥७९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि एकत्रिंशोऽध्यायः ॥३१॥
॥६६॥ संशप्तकवधपर्वणि षोडशोऽध्यायः ॥१६॥
[ अस्मिन्नध्याये ७९ श्लोकाः ]
॥ समाप्तं च संशप्तकवधपर्व।
॥ द्रोणयुद्धे द्वितीयापहारः समाप्तः ॥
द्रोणपर्वणि — अभिमन्युवधपर्व
॥ द्वात्रिंशोऽध्यायः॥
( अभिमन्युवधपर्व )
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युधिष्ठिरस्याग्रहणात् दुर्मनायमानं दुर्योधनं प्रति द्रोणेन कस्यचिन्महारथस्य हननप्रतिज्ञा ॥१॥ सञ्जयेन धृतराष्ट्रं प्रति सङ्क्षेपतोऽभिमन्युवधकथनम्॥२॥
सञ्जयः—
पूर्वमस्मासु भग्नेषु फल्गुनेनामितौजसा।
द्रोणे च मोघसङ्कल्पे रक्षिते च युधिष्ठिरे॥१॥
सर्वे विशस्त्रकवचास् तावका युधि निर्जिताः।
रजस्वला भृशोद्विग्नावीक्षमाणा दिशो दश॥२॥
अपहारं शनैः कृत्वा भारद्वाजस्य सम्मते।
लब्धलक्षैः परैर्मिन्ना भृशावहसिता रणे॥३॥
श्लाघमानेषु भूतेषु फल्गुनस्यामितैर्गुणैः।
केशवस्य तु सौहार्दे कीर्त्यमानेऽर्जुनं प्रति ॥४॥
अभिशस्ता इवाभान्ति ध्यानमूकत्वमागताः॥
४॥
ततो दुर्योधनो राजा द्रोणं दीनोऽभ्यभाषत ॥५॥
प्रणयादतिमानाच्च द्विषद्वृद्ध्या च दुर्मनाः।
शृण्वतां सर्वसैन्यानां संरब्धो द्रोणमब्रवीत् ॥६॥
दुर्योधनः—
नूनं वयं वध्यपक्षे भवतो ब्रह्मवित्तम।
तथा हि नाग्रहीः प्राप्य समीपेऽद्य युधिष्ठिरम्॥७॥
इच्छतो न हि मुच्येत चक्षुर्विषयगो रिपुः।
जिघृक्षतो रक्ष्यमाणस् ससुरैरपि पाण्डवैः॥८॥
वरं दत्त्वा मम प्रीतः पश्चाद्विकृतवानसि।
आशाभङ्गं न कुर्वन्ति आर्या भक्तस्य सत्तम॥९॥
सञ्जयः—
ततोऽप्रीतस्तथोक्तस्तु भारद्वाजोऽब्रवीद्वचः॥९॥
द्रोणः—
नार्हसे माऽन्यथा ज्ञातुं घटमानं तव प्रिये॥१०॥
ससुरासुरगन्धर्वास् सयक्षोरगराक्षसाः।
नालं पार्थं रणे जेतुं पाल्यमानं किरीटिना॥११॥
विश्वसृग्यत्रगोविन्दः पृतनायां तथाऽर्जुनः।
तत्र कस्तद्बलं क्रामेद् अन्यत्र त्र्यम्बकात् प्रभो॥१२॥
सत्यं तु व ते ब्रवीम्यद्य न ते जात्वन्यथा भवेत्।
अद्यैषां प्रवरं वीरं पातयिष्ये महारथम्॥१३॥
चक्रव्यूहं विधास्यामि अभेद्यममरैरपि।
योगेन केनचित् साधु सोऽर्जुनस्त्वपनीयताम्॥१४॥
अजितं न च नासह्यं तस्य युद्धेऽस्ति किञ्चन।
तेन108 ह्यवाप्तं सकलम् अस्त्रग्रामं समन्ततः॥१५॥
सञ्जयः—
द्रोणेन व्याहृते त्वेवं संशप्तकगणाः पुनः।
आह्वयन्नर्जुनं सङ्ख्ये दक्षिणामभितो दिशम्॥१६॥
तत्रार्जुनस्याथ परैस् सार्धं समभवद्रणः।
तादृशो109 यादृशो नान्यश् श्रुतो दृष्टोऽपि वा पुनः॥१७॥
तत्र द्रोणेन विहितो व्यूहो राजन् व्यरोचत।
चरन् मध्यंदिने सूर्यो निर्दहन्निव दुर्द्दशः॥१८॥
तं चाभिमन्युर्वचनात् पितुर्ज्येष्ठस्य धर्मवित्।
बिभेद दुर्भिदं सङ्ख्ये ‘चक्रव्यूहमभीतवत्110॥१९॥
स कृत्वा दुष्करं कर्म हत्वा वीरान् सहस्रशः।
राजपुत्रशतं हत्वा कौसल्यं च बृहद्बलम् ॥२०॥
महारथं शल्यपुत्रं लक्ष्मणं च तव प्रियम्।
षड्भिर्वीरैस्सुसंयुक्तो दौश्शासनिवशं गतः ॥२१
निहतः पुरुषव्याघ्रस् सुतो गाण्डीवधन्वनः॥२१॥
वयं परमसंहृष्टाः पाण्डवाश्शोककर्शिताः।
सौभद्रे निहते राजन्नपहारमकुर्वत॥२२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः॥३२॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि प्रथमोऽध्यायः॥१॥
[ अस्मिन्नध्याये २२॥ श्लोकाः]
॥त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥
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जनमेजयः—
समरोद्युक्तकर्माणः कर्मभिर्व्यञ्जितश्रमाः।
सकृष्णाः पाण्डवाः पञ्च देवैरपि दुरासदाः॥१॥
शश्वत् कर्मान्वयैर्बुद्धया प्रकृत्या यशसा श्रिया।
न भूतो भविता वाऽपि कृष्णस्य सदृशः पुमान्॥२॥
सत्यधर्मतपोदानैर् द्विजपूजादिभिर्गुणैः।
सदेहस्त्रिदिवं प्राप्तो राजा किल युधिष्ठिरः॥३॥
युगान्ते चान्तकश्चैव जामदग्न्यश्च कीर्तिमान्।
रणस्थो भीमसेनश्च कथ्यन्ते सदृशास्त्रयः॥४॥
प्रतिज्ञाकर्मदक्षस्य रणे गाण्डीवधन्वनः।
उपमां नाधिगच्छामि पार्थस्य सदृशीं क्षितौ॥५॥
गुरुवात्सल्यमत्यन्तं नैभृत्यं विनयो दमः।
नकुलेऽप्याभिरूप्यं च शौर्यं च नियतानि षट् ॥६॥
श्रुतगाम्भीर्यमाधुर्यसत्त्वरूपपराक्रमैः।
सदृशो देवयोर्वीरस् सहदेवः किलाश्विनोः ॥७॥
ये च कृष्णे गुणास्स्फीताः पाण्डवेयेपु ये गुणाः।
अभिमन्यौ किलैकस्था दृश्यन्ते ते गुणाश्शुभाः ॥८॥
युधिष्ठिरस्य धैर्येण कृष्णस्य चरितेन च।
कर्मणा भीमसेनस्य सदृशं भीमकर्मणः ॥९॥
धनञ्जयस्य रूपेण विक्रमेण शुभेन च।
विनये सहदेवस्य सदृशं नकुलस्य च ॥१०॥
अभिमन्युं द्विजश्रेष्ठ सौभद्रमपराजितम्।
श्रोतुमिच्छामि कार्त्त्न्येन कथमायोधने हृतः ॥११॥
वैशम्पायनः—
अभिमन्युं हतं श्रुत्वा धृतराष्ट्रो जनेश्वरः।
विस्तरेण महाराज पर्यपृच्छत् स सञ्जयम् ॥१२॥
धृतराष्ट्रः—
पुत्रं पुरुषसिंहस्य सञ्जयाप्राप्तयौवनम्।
रणे निपतितं श्रुत्वा दृढं मे दूयते मनः॥१३॥
दारुणः क्षत्रधर्मोऽयं विहितो धर्मकर्तृभिः।
यत्र राज्येप्सवश्शूरा वाले शस्त्रमपातयन्॥१४॥
बालमत्यन्तसुखिनं प्रहरन्तमभीतवत्।
कृतास्त्रा बहवो जघ्नुर् ब्रूहि गावल्गणे कथम्॥१५॥
बिभित्सता तदाऽनीकं सौभद्रेणामितौजसा।
चिक्रीडितं यथा सङ्ख्ये तन्ममाचक्ष्व सञ्जय॥१६॥
सञ्जयः—
यन्मां पृच्छसि सङ्ग्रामे सौभद्रं विनिपातितम्।
तत् तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि शृणु राजन् समाहितः॥१७॥
विक्रीडितं कुमारस्य यथाऽनीकं बिभित्सतः॥१७॥
दवाग्न्यभिपरीतानां भूरिगुल्मतृणद्रुमे।
वनौकसामिवारण्ये त्वदीयानामभूद्भयम्॥१८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥३३॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
[ अस्मिन्नध्याये १८॥ श्लोकाः ]
॥ चतुस्त्रिंशोऽध्यायः॥
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द्रोणेन पद्मव्यूहरचना॥१॥ युधिष्ठिरेणाभिमन्युं प्रति पद्मव्यूहभेदनचोदना॥२॥
सञ्जयः—
पद्मव्यूहो महाराज आचार्येण रणे कृतः।
तत्र पद्मोपमास्सर्वे राजानस्स्मनिवेशिताः॥१॥
केसराणि च पद्मस्य सुकुमाराणि भारत।
कुमारा राजलोकस्य निक्षिप्ताः केसरोपमाः॥२॥
कर्णिकास्थो महाराज तस्य दुर्योधनोऽभवत्॥२॥
कर्णदुश्शासनकृपैर् वृतो राजा महारथैः।
देवराजोपमश्श्रीमाञ्श्वेतच्छत्राभिसंवृतः॥३॥
चामरव्यजनोत्क्षेपैस् समुद्यन्निव भास्करः।
प्रमुखे तस्य शूरस्य111 द्रोणोऽवस्थितसायकः॥४॥
सिन्धुराजस्तथाऽतिष्ठद् गिरिर्मेरुरिवाचलः ॥५॥
सिन्धुराजस्य पार्श्वस्था अश्वत्थामपुरोगमाः।
सुतास्तव महाराज त्रिंशत् त्रिदशविक्रमाः ॥६॥
शकुनिः कृतवर्मा च शल्यो भूरिश्रवाश्शलः।
पार्श्वतस्सिन्धुराजस्य व्यराजन्त महारथाः॥७॥
सङ्घाता राजपुत्राणां सर्वेषामभवंस्तदा।
कृताभिसमयाश्चासन् सुवर्णकवचध्वजाः॥८॥
रक्ताम्बरधरास्सर्वे सर्वे कनकभूषणाः।
सर्वे112 रक्तपताकाश्च सर्वे कनकमालिनः॥९॥
तेषां दशसहस्राणि बभूवू रथधन्विनाम्।
पौत्रं तव पुरस्कृत्य लक्ष्मणं प्रियदर्शनम्॥१०॥
अन्योन्यसमदुःखास्ते अन्योन्यसमसाहसाः।
अन्योन्यमन्ववर्तन्त अन्योन्यकृतनिश्रमाः॥११॥
तदनीकमनाधृष्यं भारद्वाजेन रक्षितम्।
पार्थास्समभ्यधावन्त भीमसेनपुरोगमाः॥१२॥
सात्यकिस्सात्त्वतश्चैव113 धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः।
कुन्तिभोजश्च विक्रान्तो द्रुपदश्च महारथः॥१३॥
दुर्जयः क्षत्रधर्मा च बृहत्क्षत्रश्च वीर्यवान्।
चेदिपो114 धृष्टकेतुश्च माद्रीपुत्रौ घटोत्कचः॥१४॥
युधामन्युश्च पाञ्चाल्यश् शिखण्डी चापराजितः।
उत्तमौजाश्च दुर्धर्षो विराटश्च महारथः॥१५॥
द्रौपदेयाश्च दुर्धर्षाश् शैशुपालिश्च वीर्यवान्।
केकयाश्च100 महावीर्यास् सृञ्जयाश्च सहस्रशः॥१६॥
एते चान्ये च बहवस् सगणा युद्धदुर्मदाः।
सहसा स्माभ्यवर्तन्त भारद्वाजयुयुत्सवः॥१७॥
समीपे115 वर्तमानांस्तान् भारद्वाजोऽपि वीर्यवान्।
असम्भ्रान्तश्शरौघेण महता प्रत्यवारयत्॥१८॥
महौघस्सलिलस्येव गिरिमासाद्य दुर्भिदम्।
तं तु ते नाभ्यवर्तन्त वेलामिव जलाशयाः॥१९॥
पीड्यमानाश्शरैस्तीक्ष्णैर् द्रोणचापविनिस्सृतैः।
नाशक्नुवन् मुखे स्थातुं भारद्वाजस्य पाण्डवाः॥२०॥
तदद्भुतमपश्याम द्रोणस्य भुजयोर्वलम्।
यदेनं नाभ्यवर्तन्त पाञ्चालाः पाण्डवैस्सह॥२१॥
तमायान्तमभिक्रुद्धो द्रोणं दृष्ट्वा युधिष्ठिरः।
बहुधा चिन्तयामास द्रोणस्य प्रतिवारणम्॥२२॥
अशक्यं तु तदाऽन्येन भेत्तुं मत्त्वा युधिष्ठिरः।
अविषह्यं गुरुं भारं सौभद्रे समवासृजत्॥२३॥
वासुदेवादनवमं फल्गुनाच्चामितौजसम्।
अब्रवीत् परवीरघ्नम् अभिमन्युमिदं वचः॥२४॥
युधिष्ठिरः—
एत्य नो नार्जुनो गर्हेद् यथा तात तथा कुरु।
द्रोणानीकस्य न वयं विद्मो भेदं कथञ्चन॥२५॥
त्वं वाऽर्जुनो वा कृष्णो वा भिन्द्यात् प्रद्युम्न एव वा।
द्रोणानीकं महाबाहो पञ्चमोऽन्यो न विद्यते॥२६॥
अभिमन्यो वरं तात याचे त्वां दातुमर्हसि।
पितृभ्यो मातुलेभ्यश्च सैन्येभ्यश्चैव भारत॥२७॥
धनञ्जयो हि नस्तात गर्हयेदेत्य संयुगात्।
क्षिप्रमस्त्रं समादाय द्रोणानीकं विशातय॥२८॥
अभिमन्युः—
द्रोणस्य दृढमव्यग्रम् अनीकप्रवरं महत्।
पितॄणां सिद्धिमन्विच्छन्नवगाहे भिनद्मि च॥२९॥
उपदिष्टो हि मे पित्रा योगोऽनीकस्य भेदने।
नोत्सहे प्रतिनिर्गन्तुम् अहं कस्याञ्चिदापदि॥३०॥
युधिष्ठिरः—
भिन्धि व्यूहं युधि श्रेष्ठ द्वारं सञ्जनयस्व नः।
वयं त्वाऽनुगमिष्यामो येन त्वं पुत्र यास्यसि॥३१॥
धनञ्जयस्य प्रतिमं त्वा यान्तं तात संयुगे।
प्रणिधाय गतास्सर्वे अनुयास्याम पृष्ठतः॥३२॥
भीमः—
अहं त्वामनुयास्यामि धृष्टद्युम्नश्च सात्यकिः।
पाश्वालाः केकया मात्स्यास् तथा सर्वे प्रभद्रकाः॥३३॥
सकृद्भिन्नं त्वया व्यूहं तत्र तत्र त्वया सह।
वयं प्रध्वंसयिष्यामो निघ्नमानाः परान वरान्॥३४॥
अभिमन्युः—
अहमेकःप्रवेक्ष्यामि द्रोणानीकं सुदुर्भिदम्।
पतङ्ग इव सङ्क्रुद्धो ज्वलन्तं जातवेदसम्॥३५॥
तत् कर्माद्य करिष्यामि क्षमं यद्वंशयोर्द्वयोः।
मातुलस्य च मे प्रीतिं करिष्यामि पितुश्च मे॥३६॥
शिशुनैकेन समरे द्विषत्सैन्यानि वै मया।
अद्य द्रक्ष्यन्ति राजानः काल्यमानानि सङ्घशः॥३७॥
युधिष्ठिरः—
एवं ते भाषमाणस्य बलं सौभद्र वर्धताम्।
यस्त्वमुत्सहसे भेत्तुं द्रोणानकं सुदुर्भिदम्॥३८॥
रक्षितं पुरुषव्याघ्रैर् महेष्वासैर्महारथैः।
साभ्यरुद्रमरुत्कल्पैर् वस्वव्यादित्यविक्रमैः॥३९॥
सञ्जयः—
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा स यन्तारमचोदयत्।
सुमित्राश्वान् रणे क्षिप्रं द्रोणानीकाय चोदय॥४०॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां सहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि चतुस्त्रिंशोऽध्यायः॥३४॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि तृतीयोऽध्यायः॥३॥
[ अस्मिन्नाध्याये ४० श्लोकाः ]
॥ पञ्चत्रिंशोऽध्यायः॥
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अभिमन्युयुद्धवर्णनम्॥
सञ्जयः—
सौभद्रस्तु वचश्श्रुत्वा धर्मराजस्य भारत।
अचोदयच्चयन्तारं द्रोणानीकाय भारत॥१॥
तेन सञ्चोद्यमानस्तु याहि याहीति सारथिः।
प्रत्युवाच ततो राजन्नभिमन्युमिदं वचः॥२॥
सुमितः—
अतिभारोऽयमायुष्मन्नाहितस्त्वयि पाण्डवैः।
सम्प्रधार्यासकृद्बुद्ध्या ततस्त्वं योद्धुमर्हसि॥३॥
द्रोणो हि कृतवान् यत्नं शस्त्रास्त्रकृतनिश्रमः।
त्वं तु बालस्स बलवान् सङ्ग्रामाणामकोविदः॥४॥
सञ्जयः—
ततोऽभिमन्युः प्रहसंस् तं सारथिमथाब्रवीत्॥४॥
अभिमन्युः—
विस्मयः को हि मे द्रोणे समग्र क्षत्र एव वा।
व्यवसायो हि मे योद्धुं रणोत्सवसमुद्यतः॥५॥
ऐरावतगतं शक्रं सहामरगणं रणे।
अथवा रुद्रमीशानं सर्वभूतगणैर्वृतम्॥६॥
युध्येयमद्य समरे न मे क्षत्रेऽस्ति विस्मयः॥७॥
यच्चैतत् पश्यसे सूत सयोधाश्वरथद्विपम्।
तन्ममाद्य द्विषत्सैन्यं कलां नार्हति षोडशीम्॥८॥
अपि तं विष्णुमजितं मातुलं प्राप्य संयुगे।
पितरं चार्जुनं लोके न भीर्मामुपसर्पति॥९॥
नाहं पार्थेन जातस्तु न च जातस्सुभद्रया ।
यदि मे संयुगे कश्चिज् जीवमानस्य जीवति॥१०॥
यदि चैकरथेनाहं समग्रं क्षत्रमण्डलम्।
न कुर्मि शतधा युद्धे न भवाम्यर्जुनात्मजः॥११॥
सञ्जयः—
एवमप्युच्यमानस्स सारथिस्तं पुनः पुनः।
वीर ते तेन मा युद्धम् इति सौभद्रमब्रवीत्॥१२॥
अभिमन्युस्तु तां वाचं कदर्थीकृत्य सारथेः।
याहीत्येवाब्रवीदेनं द्रोणानीकाय मा चिरम्॥१३॥
ततस्सञ्चोदयामास हयानाशु त्रिहायनान्।
नातिहृष्टमनास्सूतो हेमभाण्डपरिच्छदान्॥१४॥
ते प्रेषितास्सुमित्रेण द्रोणानीकाय वाजिनः।
द्रोणमभ्यद्रवन् राजन् महावेगा महाबलाः॥१५॥
तं तु दृष्ट्वा प्रयान्तं तु सर्वे द्रोणमुखा रथाः।
अभ्यवर्तन्त कौरव्याः पाण्डवाश्च तमन्वयुः॥१६॥
सकर्णिकारप्रवरोच्छ्रितध्वजस्
सुवर्णवर्माऽऽर्जुनिरर्जुनाद्वरः।
युयुत्सया द्रोणमुखान् महारथान्
समासदत् सिंहशिशुर्यथा द्विपान्॥१७॥
ते विंशतिपदे यत्तास् सम्प्रहारमकुर्वत।
आसीद्गाङ्ग इवावर्तोमुहूर्तमुदधेरिव॥१८॥
शूराणां युध्यमानानां निघ्नतामितरेतरम्।
सङ्ग्रामस्तुमुलो राजन् प्रावर्तत सुदारुणः॥१९॥
विमथ्यमाने सङ्ग्रामे तस्मिन्नतिभयङ्करे।
द्रोणस्य मिषतो व्यूहं भित्त्वा व्यचरदार्जुनिः॥२०॥
तदभेद्यमनाघृष्यं द्रोणानीकं सुदुर्जयम्।
भित्त्वाऽऽर्जुनिरसम्भ्रान्तो विवेशाचिन्त्यविक्रमः॥२१॥
तं प्रविष्टमरातिघ्नंजिघांसन्तस्सहस्रशः।
रथाश्वेभपदात्योघाः परिवव्रुरुदायुधाः॥२२॥
ततो वादित्रनिनदैः क्ष्वेडितोत्क्रुष्टगर्जितैः।
फीट्कारैस्सिंहनादैश्चतिष्ठ तिष्ठेति निस्स्वनैः॥२३॥
घोरैर्हलहलाशब्दैर् मा गास्तिष्टेति मामिति।
असावहममुष्येति प्रवदन्ति महीक्षितः॥२४॥
बृंहितैश्शिञ्जितैर्हासः खुरनेमिस्वनैरपि।
ते नादयन्तो बहुधा ह्यभिदुद्रुवुरार्जुनिम्॥२५॥
तेषामापततां वीरश् शीघ्रं शीघ्रमथो दृढम्।
क्षिप्रं तानहनद्यातान् मर्मज्ञो मर्मभेदिभिः॥२६॥
ते हन्यमाना हि तथा नानालिङ्गैश्शितैश्शरैः।
अभिपेतुस्तमेवाजौ शलभा इव पावकम्॥२७॥
ततस्तेषां शरीरैश्च शरीरावयवैश्च सः।
संतस्तार क्षितिं क्षिप्रं कुशैर्वेदिमिवाध्वरे॥२८॥
बद्धगोधाङ्गुलित्राणान् सशरासनसायकान्।
सासिचर्माङ्कुशाभीशून्सतोमरपरश्वथान्॥२९॥
गदाखड्गहुलप्रासान् सर्ष्टितोमरपट्टसान्।
सभिण्डिपालपरिघान् सशक्तिनखरान् परान्॥३०॥
सप्रतोदमहाशङ्खान् सकुन्तान् सकचग्रहान्।
समुद्गरक्षेपणीयान् सपाशान् परिघोषमान्॥३१॥
सकेयूराङ्गदान् बाहून् पुण्यगन्धानुलेपनान्।
स चिच्छेदाऽऽर्जुनिर्वृत्तांस् त्वदीयानां सहस्रशः॥३२॥
तैस्स्फुरद्भिर्मही भाति बृहद्भिर्लोहितोक्षितैः।
पञ्चास्यैः पन्नगैश्छिन्नैर् गरुडेनेव मारिष॥३३॥
सुनासाननकेशान्तैर् अव्रणैश्चारुकुण्डलैः।
सन्दष्टौष्ठपुटैः क्रोधाद् असृगत्तैस्समन्ततः॥३४॥
चारुस्रङ्मकुटोष्णीषैर् मणिरत्नविराजितैः।
विनालनलिनाकारैर् दिवाकरशशिप्रभैः॥३५॥
हितप्रियंवदैःकाले बहुभिः पुण्यगन्धिभिः।
द्विषच्छिरोभिर्जगतीम् अवतस्तार फाल्गुनिः॥३६॥
गन्धर्वनगराकारान् विधिवत् कल्पितान् रथान्।
समास्थितान् योधवरैर् दान्ताश्वान् साधुसारथीन्॥३७॥
विपताकाध्वजच्छत्रान् वितूणीरायुधानपि।
विसूताश्वरथाभीशून्116 विशातायोक्रदण्डकान्॥३८॥
वीषामुखान् वित्रिदण्डान् ध्वस्तावस्करबन्धुरान्।
विजङ्घकूबराक्षांश्च विनेमींश्च व्यरानपि॥३९॥
विचक्रोपस्करोपस्थान् विकीर्णान् बन्धुरानपि।
प्रशातितोपकरणान् हतयोधान् सहस्रशः॥४०॥
शरैर्विशकलीकुर्वन् दिक्षु सर्वास्वादृश्यत॥४०॥
पुनर्द्विपान् द्विपारोहान् वैजयन्त्यङ्कुशध्वजान्।
तूणीन् वर्माण्यथो कक्ष्या ग्रैवेयान् रक्तकम्बलान्॥४१॥
घण्टाकर्णान् विषाणाग्रान् क्षुरमालाः पदानुगान्।
शरैर्निकृत्य सौभद्रस् शात्रवाणामशातयत्॥४२॥
वनायुजान् पार्वतीयान् काम्भोजारट्टबाह्लिकान्।
स्थिरवालधिकर्णाक्षाञ् जवनान् साधुवाहिनः॥४३॥
स्वारुढाञ् शिक्षितैर्योधैश् शक्त्यृष्टिप्रासपाणिभिः।
विध्वस्तचामरकुथान् विप्रविद्धप्रकीर्णकान्॥४४॥
निरस्तजिह्वादशनान् निष्कीर्णान्त्रयकृत्प्लिहान्।
हतारोहान् भिन्नभाण्डान् ऋव्यादगणमोदनान्॥४५॥
निकृत्तवर्मकदलीञ् शकृन्मूत्रासृगाप्लुतान्।
निपातयन्नश्ववरांस् तावकान् सोऽत्यरोचत॥४६॥
एको विष्णुरिवाचिन्त्यः कृतवान् कर्म दुष्करम्॥४७
तथा विमथितं तेन चतुरङ्गवलं महत्।
न्यहनत् तान् पदात्योघांस् त्वदीयानपि भारत॥४८॥
एवमेकेन ते सेनां सौभद्रेणाचितां शरैः।
भृशं विप्रहतां दृष्ट्वा स्कन्देनेवासुरींचमूम्॥४९॥
त्वदीयास्तव पुत्राश्च वीक्षमाणा दिशो दश।
संशुष्कास्याश्चलन्नेत्राः प्रस्विन्ना रोमहर्षिणः॥५०॥
पलायनकृतोत्साहा निरुत्साहा द्विषज्जये।
गोत्रनामभिरन्योन्यं क्रन्दन्तो जीवितैषिणः॥५१॥
हतान् भ्रातॄन पितॄन् पुत्रान् प्रियान् सम्बन्धिबान्धवान्।
उत्सृज्योत्सृज्य गच्छन्ति सौभद्रशरपीडिताः॥५२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि पञ्चविंशोऽध्यायः॥३५॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
[ अस्मिन्नध्याये ५२ श्लोकाः ]
॥ षट्त्रिंशोऽध्यायः॥
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अभिमन्युपराक्रमवर्णनम्॥
सञ्जयः—
तां प्रभग्नांचमूं दृष्ट्वा सौभद्रेणामितौजसा।
दुर्योधनो भृशं क्रुद्धस् स्वयं सौभद्रमभ्ययात्॥१॥
ततो राजानमावृत्तं सौभद्रेण युयुत्सया।
द्रोणो दृष्ट्वाऽब्रवीद्वीरान् पर्याप्नुत नराधिपम्॥२॥
पुराऽभिमन्युर्लक्षं नः पश्यतां हन्ति वीर्यवान्।
अभिद्रवत मा भैष्ट क्षिप्रं रक्षत कौरवम्॥३॥
कृतज्ञानबलोत्सेधास् सुहृदो जितकाशिनः।
त्रास्यमाना भयाद्वीराः परिवव्रुस्तवात्मजम्॥४॥
द्रोणो द्रौणिः कृपः कर्णः कृतवर्मा च सौबलः।
बृहद्वलो मद्रराजो भूरिर्भूरिश्रवाश्शलः॥५॥
पौरवो वृषसेनश्च विसृजन्तश्शराञ् शितान्।
सौभद्रं शरवर्षेण घ्नन्तो लोकमहारथाः॥६॥
सम्मोहयित्वा सङ्ग्रामे दुर्योधनममोचयन्॥६॥
आस्याद्ग्रासमिवाक्षिप्तं ममृषे नार्जुनात्मजः॥७॥
ताञ् शरौघेण महता साश्वसूतान् महारथान्।
विमुखीकृत्य सौभद्रस् सिंहनादमथानदत्॥८॥
तस्य नादं ततश्श्रुत्वा सिंहस्येवामिषैषिणः।
नामृष्यन्त सुसंरब्धाः पुनर्दोणमुखा रथाः॥९॥
तदैनं कोष्ठकीकृत्य रथवंशेन मारिष।
व्यसृजन्निषुजालानि नानालिङ्गानि सङ्घशः॥१०॥
तान्यन्तरिक्षे चिच्छेद पौत्रस्तव शितैश्शरैः।
तांश्चैव प्रतिविव्याध तद्द्भुतमिवाभवत्॥११॥
ततो रथाः पदात्योघाः कुञ्जरास्सादिनश्च ह।
कोपितास्तेन शूरेण शरैराशीविषोपमैः॥१२॥
परिवव्रुर्जिघांसन्तस् सौभद्रमपलायितम्॥१२॥
समुद्रवदपर्यन्तं त्वदीयं तद्बलार्णवम्।
दधारैकोऽर्जुनिर्बाणैर् वेलेवोद्वृत्तमर्णवम्॥१३॥
धीराणां युध्यमानानां निघ्नतामितरेतरम्।
अभिमन्योः परेषां च नासीत् कश्चित् पराङ्मुखः॥१४॥
विमथ्यमाने सङ्ग्रामे तस्मिन्नतिभयङ्करे।
दुष्षहो नवभिर्वाणैर् अभिमन्युमविध्यत॥१५॥
दुश्शासनो द्वादशभिर् कृपश्शारद्वतस्त्रिभिः।
द्रोणस्तु सप्तदशभिश् शरैराशीविषोपमैः॥१६॥
विविंशतिस्तु विंशत्या कृतवर्मा च सप्तभिः।
‘बृहद्बलस्तथाऽष्टाभिर्117 अश्वत्थामा च पञ्चभिः॥१७॥
भूरिश्रवास्त्रिभिर्बाणैर् मद्रेशष्षड्भिराशुगैः।
द्वाभ्यां शराभ्यां शुकुनिस् त्रिभिर्दुर्योधनो नृपः ॥ १८॥
स तु तान् प्रतिविव्याध त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः।
नृत्यन्निव महारङ्गे चापहस्तो रणाजिरे॥१९॥
ततोऽभिमन्युस्सङ्क्रुद्धस् ताङ्यमानस्तवात्मजैः।
विदर्शयिष्यन् सुमहच् छिक्षाबलकृतं बलम्॥२०॥
गरुडानिलरंहोभिर् यन्तुः प्रेष्यकरैर्हयैः।
अभ्यद्रवत तं कार्षिणम् अश्मकेन्द्रः कृतत्वरः॥२१॥
अश्वांश्चाश्मकदायाद्स् त्वरमाणोऽभ्यवारयत्।
विव्याध चैनं दशभिर् बाणैस्तिष्ठेति चाब्रवीत्॥२२॥
तस्याभिमन्युर्दशभिर् बाणैस्सूतं हयान् ध्वजम्।
वाहू धनुशिशरश्चोर्व्यां स्मयमानोऽभ्यपातयत्॥२३॥
ततस्तस्मिन् हतेवीरे सौभद्रेणाश्मकेश्वरे।
सञ्चचाल बलं तुभ्यं पलायनपरायणम्॥२४॥
ततः कर्णः कृपो द्रोणो द्रौणिर्गान्धारराट् शलः।
शल्यो भूरिश्रवाः क्राथस् सोमदत्तो विविंशतिः॥२५॥
वृषसेनस्सुषेणश्चकुण्डभेदी प्रमर्दनः।
बृन्दारको118 लिलीन्ध्रश्च प्रबाहुर्दीर्घलोचनः॥२६॥
दुर्योधनश्च सङ्क्रुद्धश् शरवर्षैरवाकिरन् ॥२७॥
सोऽतिविद्धो महेष्वासैर् अभिमन्युरजिह्मगैः।
शरमादत्त कर्णाय परकायावभेदनम् ॥२८॥
तस्य भित्त्वा तनुत्राणं कर्ण निर्भिद्य चाशुगः।
प्राविशद्धरणीं राजन् वल्मीकमिव पन्नगः॥२९॥
स तेन विप्रकारेण व्यथितो विह्वलन्निव।
सञ्चचाल तथा कर्णः क्षितिकम्पे यथाऽचलः॥३०॥
अथान्यैर्निशितैर्बाणैस् सुषेणं दीर्घलोचनम्।
कुण्डभेदिं च सङ्क्रुद्धस् त्रिभिस्त्रीन् न्यहनद्बली॥३१॥
कर्णस्तु33 पञ्चविंशत्या नाराचानां समर्पयत्।
अश्वत्थामा च सप्तत्या कृतवर्मा च सप्तभिः॥३२॥
स शराचितसर्वाङ्गः क्रुद्धश्शक्रात्मजात्मजः।
विचरन् दृश्यते सैन्ये पाशहस्त इवान्तकः॥३३॥
स शल्यं शरवर्षेण समीपस्थमिवाकिरत्।
उदक्रोशन्महाबाहुस् तव सैन्यानि भीषयन्॥३४॥
ततस्स विद्धोऽस्त्रविदा मर्मभेदिभिराशुगैः।
शल्यो राजन् रथोपस्थे निषसाद मुमोह च॥३५॥
तं हि दृष्ट्वा तथा विद्धं सौभद्रेण यशस्विना।
सम्प्राद्रवञ्चमूस्सर्वा भारद्वाजस्य पश्यतः॥३६॥
प्रेक्षन्तस्तं महेष्वासं रुक्मपुङ्खैस्समर्पितम्।
त्वदीया व्यपलायन्त मृगास्सिंहार्दिता इव॥३७॥
सौभद्रशरनिर्भिन्नास् समरेऽमरविक्रमाः॥३७॥
एवं शल्यो विमृदितस् तव पौत्रेण भारत॥३८॥
विपुलबलयशास्सुपूज्यमानस्
सुरमुनिचारणसिद्धसाध्यसङ्घैः ।
अवनितलगतैश्च भूतसङ्घैर्
अतिविबभौ हुतभुग्यथाऽऽज्यसिक्तः ॥३९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥३६॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥
[ अस्मिन्नध्याये ३९ श्लोकाः]
॥ सप्तत्रिंशोऽध्यायः ॥
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** अभिमन्युपराक्रमबर्णनम्**
धृतराष्ट्रः—
तथा प्रमथमानं तं महेष्वासमजिह्मगैः।
आर्जुनिं मामकास्सङ्ख्ये कस्तत्र समवारयत्॥१
सञ्जयः—
शृणु राजन् कुमारस्य रणे विक्रीडितं महत्।
बिभित्सतो स्थानीकं भारद्वाजेन रक्षितम् ॥२॥
मद्रेशं सादितं दृष्ट्वा सौभद्रेणाशुगैश्शरैः।
शल्यावरजः क्रुद्धः किरन् बाणान् समभ्ययात् ॥३॥
आर्जुनिंदशभिर्विद्वासाश्वयन्तारमाशुगैः।
उदक्रोशन्महाशब्दंतिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत्॥४॥
तस्याऽऽर्जुनिश्शिरोग्रीवं पाणिपादं धनुर्हयान्।
छत्रं ध्वजं नियन्तारं त्रिवेणुं चाप्युपस्करम्॥५॥
चक्रे युगेषां तूणीरान् अनुकर्षं च सायकैः।
पताकां चक्रगोप्तारौ सर्वोपकरणानि च॥६॥
व्यधमल्लाघवात् तस्य ददृशे नात्र कश्चन॥६॥
स पपात क्षितौ क्षीणः प्रविद्धाभरणाम्बरः।
वायुनेव महाचैत्यस् समूलश्चोरुवेदिकः॥७॥
अनुगाश्चास्य वित्रस्ता विद्रुतास्सर्वतोदिशम्॥८॥
तत् तु कर्मार्जुनेर्दृष्ट्वा प्रणेदुस्सर्वतोदिशम्।
स्वरेण सर्वभूतानि साधु साध्विति भारत॥९॥
शल्यभ्रातर्यथारुग्णे हताश्वास्तव सैनिकाः।
कुलाधिवासनामानि श्रावयन्तो यथाऽऽर्जुनिम्॥१०
अभ्यद्रवन् सुसङ्क्रुद्धा विविधायुधपाणयः।
रथैरश्वैर्गजैरन्यैः पादाताश्च मदोत्कटाः॥११॥
बाणशब्देन महता खुरनेमिस्वनेन च।
हुङ्कारैः क्ष्वेडितोत्कृष्टैस् सिंहनादैस्सगर्जितैः॥१२॥
ज्यातलत्रस्वनैश्चैव गर्जन्तोऽर्जुननन्दनम्।
व्रुवाणाश्च न नो जीवन् मोक्ष्यसे जीवितादिति॥१३॥
तांस्तथाऽऽद्रवतो दृष्ट्वा सौभद्रः प्रहसन्निव।
यो योऽस्मै प्रहरत् पूर्वं तं तं विव्याध पत्रिभिः॥१४॥
सन्दर्शयिष्यन्नस्त्राणि चित्राणि च लघूनि च।
आर्जुनिस्समरे शूरो मृदुपूर्वमयोधयत्॥१५॥
वासुदेवादुपादत्त यदस्त्रं यद्धनञ्जयात्।
सर्वं सन्दर्शयत् कार्पिणःकृष्णाभ्यामविशेषतः॥१६॥
दूरमस्यन् गुरुं भारं साधयंश्च पुनः पुनः।
संदधद्विसृजंश्चेपून् निर्विशेषमदृश्यत॥१७॥
चापमण्डलमेवास्य स्फुरदेव प्रकाशते।
तमो घ्नतस्सुदीप्तस्य सवितुर्मण्डलं यथा॥१८॥
ज्याशब्दश्शुश्रुवे तस्य तलशब्दश्च भारत।
महाशनिमुचः काले नीरदस्येव निस्स्वनः॥१९॥
हृीमानमर्षी सौभद्रो मानकृत् प्रियदर्शनः।
सम्मिमानयिषुर्वीरान् इष्वासांश्चाप्ययुध्यत॥२०॥
मृदुर्भूत्वा महाराज दारुणस्तमपद्यत।
वर्षाव्यतीतो भगवाञ् शरदीव दिवाकरः॥२१॥
शरान् विपाठान् विशिखान् स्वर्णपुङ्खाञ्शिलाशितान्।
सहस्रशोऽमुचत् क्रुद्धो गभस्तीनिव भास्करः॥२२॥
क्षुरप्रैर्वत्सदन्तैश्च विपाठैश्च महायशाः।
नाराचैरर्धनाराचैर् भल्लैरञ्जलिकैरपि॥२३॥
अभ्यद्रवद्रथानीकं भारद्वाजस्य पश्यतः॥२३॥
तत् सैन्यमभवत् सर्वं विमुखं शरपीडितम्॥२४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहिताय वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि सप्तविंशोऽध्यायः ॥३७॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि षष्टोऽध्यायः ॥६॥
[ अस्मिन्नध्याये २४ श्लोकाः ]
॥अष्टात्रिंशोऽध्यायः॥
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दुश्शासनाभिमन्युसमागमः ॥
धृतराष्ट्रः—
द्वैधीभवति मे चित्तं शुचा तुष्ट्या च सञ्जय।
यत् सैन्यं मम पुत्रस्य मम पौत्रः प्रबाधते॥१॥
विस्तरेणैव मे शंस सर्वंगावल्गणे कथम्।
चिक्रीडितं कुमारस्य स्कन्दस्येवासुरैस्सह॥૨॥
सञ्जयः—
हन्त ते वर्तयिष्यामि119 विमर्दुमतिदारुणम्।
एकस्य च बहूनां च रणे चिक्रीडितं महत्॥३॥
अभिमन्युर्महोत्साहः कृतोत्साहानरिन्दमान्।
रथस्थो रथिनस्सर्वांस् तावकानभ्यधावत॥४॥
द्रोणं कर्णं कृपं शल्यं द्रौणिं भोजं बृहद्धलम्।
दुर्योधनं सौमदत्तिं शकुनिं सुबलात्मजम्॥५॥
नानानृपान् नृपसुतान्सैन्यानि विविधानि च।
अलातचक्रवत् सर्वांश् चरन् वाणैरवाकिरत्॥६॥
निघ्नन्नमित्रान् सौभद्रः परमास्त्रः प्रतापवान्।
प्रत्यदृश्यत तेजस्वी दिक्षु सर्वासु भारत॥७॥
तद्दृष्ट्वा चरितं तस्य सौभद्रस्यामितौजसः।
समकम्पन्त सैन्यानि त्वदीयानां पुनः पुनः॥८॥
अथाब्रवीन्महाप्राज्ञो भारद्वाजो महारथः।
हर्षेणोत्फुल्लनयनः कृपमाभाष्य सस्मितम्॥९॥
घट्टयन्निव मर्माणि पुत्रस्योच्चैस्तवाभिभोः।
अभिमन्युं तदा दृष्ट्वा रणे वीरं कृत व्रतम्120॥१०॥
द्रोणः—
एष गच्छति सौभद्रः पार्थानामग्रतो युवा।
नन्दयन् सुहृदस्सर्वान् राजानं च युधिष्ठिरम्॥११॥
नकुलं सहदेवं च भीमसेनं च पाण्डवम्।
सम्बन्धिबान्धवांश्चान्यान् मध्यस्थान् सुहृदस्तथा॥१२॥
नास्य युद्धे समं मन्ये कञ्चिदन्यं धनुर्धरम्।
इच्छन् हन्यादिमां सेनां किमर्थमिह नेच्छति॥१३॥
सञ्जयः—
द्रोणस्याप्रियसंयुक्तं श्रुत्वा वाक्यं तवात्मजः।
भृशाभिमन्युस्संरब्धो द्रोणं दृष्ट्वा स्मयन्निव॥१४॥
ततो दुर्योधनः कर्णम् अब्रवीत् प्रहसन्निव।
दुश्शासनं मद्रराजं तांस्तांश्चान्यान् महारथान्॥१५॥
दुर्योधनः—
सर्वमूर्धावसिक्तानाम् आचार्यों ब्रह्मवित्तमः।
अर्जुनस्य सुतं मूढंन121 हिनस्ति न चेच्छति॥१६॥
न122 ह्यस्य समरे मुच्येद् अन्तकोऽप्याततायिनः।
किमङ्ग पुनरेवान्यो मर्त्यस्सत्यं ब्रवीमि वः॥१७॥
अर्जुनस्य सुतं चैष शिष्यत्वादभिरक्षति।
पुत्राश्शिष्याञ्च दयितास् तद्पत्यं च धर्मिणास्॥१८॥
संरक्ष्यमाणा द्रोणेन मन्यन्ते वीर्यमात्मनः।
आत्मसम्भावितं मूढं सम्प्रमनीत मा चिरम्॥१९॥
सञ्जयः—
एवमुक्तास्तु राजानस् सात्त्वतीपुत्रमभ्ययुः।
संरब्धास्तं जिघांसन्तो भारद्वाजस्य सम्मताः॥२०॥
दुःशासनस्तु संरब्धं ज्ञात्वा भ्रातरमग्रजम् ।
तान् निवर्त्य रथोदारान् अथ भ्रातरमब्रवीत्॥२१॥
दुश्शासनः—
अहमेनं हनिष्यामि राजन् सत्यं ब्रवीमि ते ।
मिषतां पाण्डवेयानां पाञ्चालानां च पश्यताम् ॥२२॥
ग्रसिता ह्यस्मि सौभद्रं स्वर्भानुरिव भास्करम् ॥२२॥
सञ्जयः—
उत्क्रुश्यचाब्रवीद्राजन् कुरुराजमिदं वचः॥२३॥
दुश्शासनः—
श्रुत्वा कृष्णौ मया ग्रस्तं सौभद्रमतिमानिनौ ।
गमिष्यतः प्रेतलोकं जीवलोकान्न संशयः॥२४॥
तौ श्रुत्वा तु मृतौ व्यक्तं पाण्डोः क्षेत्रोद्भवास्सुताः ।
सुहृद्गणास्तदेकामाः क्लैब्यात् त्यक्ष्यन्ति जीवितम्॥२५॥
तस्मादस्मिन् हते शत्रौ हतास्सर्वेऽहितास्तव ।
शिवेन ध्याहि मां राजन्नेष हन्मि रिपुं तव॥२६॥
सञ्जयः—
एवमुक्त्वा ततो राजन् पुत्रो दुःशासनस्तव।
सौभद्रमभ्ययात् क्रुद्धश्शरवर्षैरवाकिरत्॥२७॥
तमभिक्रुद्धमायान्तं धार्तराष्ट्रमरिन्दमम्।
अभिमन्युश्शरै राजन्, षड्विंशत्या समर्पयत्॥२८॥
दुश्शासनस्तु सङ्क्रुद्धः प्रभिन्न इव कुञ्जरः।
अभिमन्युं च सौभद्रम् अभिमन्युश्च तं तथा॥२९॥
तौ मण्डलानि चित्राणि रथाभ्यां सव्यदक्षिणम्।
चरमाणावयुध्येतां रथशिक्षाविशारदौ॥३०॥
अथ पणवमृदङ्गदुन्दुभीनां
क्रकचमहानकभेरिझर्झरीणाम्।
निनदमतिभृशं जनाः प्रचक्रुर्
लवणजलोद्भवसिंहनादमिश्रम्॥३१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि अष्टात्रिंशोऽध्यायः ॥३८॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि सप्तमोऽध्यायः ॥७॥
[ अस्मिन्नध्याये ३१ श्लोकाः ]
॥ एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥
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अभिमन्युना कर्णदुश्शासनपराजयः॥
सञ्जयः—
ततस्समभवद्युद्धं तयोः पुरुषसिंहयोः॥१॥
तस्मिन् काले महाबाहुस् सौभद्रः परवीरहा।
सशरं कार्मुकं छित्त्वा लाघवेन व्यपातयत्॥१॥
दुश्शासनं शरैर्घोरैस्सन्ततक्ष समन्ततः॥२॥
शरविक्षतगात्रं तु प्रत्यमित्रमवस्थितम्।
अभिमन्युर्महाराज दुशासनमथाब्रवीत्॥३॥
अभिमन्यु :—
दिष्ट्या पश्यामि सङ्ग्रामे मानिनं शत्रुमागतम्।
निष्ठुरं त्यक्तधर्माणम् आक्रोशनपरायणम्॥४॥
यत् सभायां त्वया राज्ञो धार्तराष्ट्रस्य पश्यतः।
कोपितः परुषैर्वाक्यैर् धर्मराजो युधिष्ठिरः॥५॥
जयोन्मादेन संरब्धं बह्वबद्धं प्रभाषितम्।
अक्षकूटं समाश्रित्य सौबलेन दुरात्मना॥६॥
परवित्तापहारस्य क्रोधस्याप्रतिमस्य च।
लोभस्य ज्ञानहीनस्य कृत्स्त्रस्यापनयस्य च॥७॥
पितॄणां मम राज्यस्य दुर्जयस्योग्रधन्विनाम्।
तत् त्वामिदमनुप्राप्तं तस्य कोपान्महात्मनः॥८॥
सद्यः कृतस्याधर्मस्य फलमाप्स्यसि123 दुर्मते।
पतितास्म्यद्य पाप त्वां सर्वसैन्यस्य पश्यतः॥९॥
अद्याहमनृणस्तस्य कोपस्य भविता रणे ॥९॥
अमर्षितायाः कृष्णायाः काङ्क्षितस्य च मे पितुः।
अद्य तातस्य भीमस्य भवितास्म्यनृणो भुवि ॥१०॥
न हि मे मोक्ष्यसे जीवन यदि नोत्सृजसे रणम्॥११॥
सञ्जयः—
एवमुक्त्वा महाबाहुर् वाणं दुश्शासनान्तकम्।
सन्दधे परवीरघ्नःकालाग्निसमवर्चसम्॥१२॥
तेन तं जत्रुदेशे वै विद्ध्वापरपुरञ्जयः।
अथैनं पञ्चविंशत्या पुनरन्यैस्समर्पयत्॥१३॥
शरैरभिसमस्पर्शेर्124 आकर्णसमचोदितैः।
स गाढविद्धो व्यथितस् स्यन्दनोपस्थ आविशत्॥१४॥
दुरशासनो महाराज कश्मलोपहतो भृशम्॥१४॥
सारथिस्त्वरमाणस्तु दुरशासनमचेतनम्।
रणमध्यादपोवाह सौभद्रशरपीडितम्॥१५॥
पाण्डवा द्रौपदेयाश्च विराटस्सह सृञ्जयैः।
पाञ्चालाः केकयाश्चैव सिंहनादमथानदन्॥१६॥
वादित्राणि च सर्वाणि नानालिङ्गानि हृष्टवत्।
प्रवादयन्तस्संहृष्टाः पाण्डूनां तत्र सैनिकाः॥१७॥
स्मयमानास्स्म पश्यन्ति सौभद्रस्य विचेष्टितम्।
अत्यन्तवैरिणं दृष्ट्वा दृप्तं शत्रुं पराजितम्॥१८॥
धर्ममारुतशक्राणां प्रतिमाश्चाश्विनोश्शुभाः।
धारयन्तो125 रथाग्र्येषु द्रौपदेया महारथाः॥१९॥
सात्यकिश्चेकितानश्च धृष्टद्युम्न्नशिखण्डिनौ।
केकया धृष्टकेतुश्च पाञ्चालाः मत्स्यसृञ्जयाः॥२०॥
पाण्डवाश्च मुदा युक्ता युधिष्ठिरपुरोगमाः।
अभ्यद्रवन्त संहृष्टा द्रोणानीकं बिभित्सवः॥२१॥
अथाभवन्महद्युद्धं त्वदीयानां परैस्सह।
जयमाकाङ्क्षमाणानाम् अतिघोरमभीतवत्॥२२॥
अथ दुर्योधनो राजा राधेयमिदमब्रवीत्॥२३॥
दुर्योधनः—
पश्य दुश्शासनं वीरम् अभिमन्युवशं गतम्।
प्रतपन्तमिवादित्यं निघ्नन्तं क्षत्रियर्षभान्॥२४॥
सौभद्रमाभंतस्त्रातुम् अभिधावन्ति पाण्डवाः॥२४॥
सञ्जयः—
ततः कर्णश्शरैस्तीक्ष्णैर् अभिमन्युं महारथम्।
अभ्यवर्षत् सुसङ्क्रुद्धः पुत्रस्य प्रियकृत् तव॥२५॥
तस्य चानुचरांस्तीक्ष्णैर् विष्टभ्य परमेषुभिः।
अवज्ञापूर्वकं कर्णस् सौभद्रं प्रत्यविध्यत॥२६॥
अभिमन्युस्तु राधेयं त्रिसप्तत्या शिलाशितैः।
अविष्यत् त्वरितो राजन् द्रोणं प्रेप्सुर्महारथः॥२७॥
तं तथा नाशकत् कश्चिद् द्रोणाद्वारयितुं रणे।
आरुजन्तं रथश्रेष्ठान् वज्रहस्तमिवासुरान्॥૨૮॥
ततः कर्णो जयप्रेप्सूराजन् सैन्ये पराजिते।
सौभद्रं शतशोऽविध्यत् परमास्त्राणि दर्शयन्॥२९॥
सोऽस्रैरस्त्रविदां श्रेष्ठो रामशिष्यः प्रतापवान्।
समेत्य शत्रुं दुर्धर्षम् अभिमन्युमपीडयत्॥३०॥
स तथा पीड्यमानस्तु राधेयेनास्त्रवृष्टिभिः।
समरेऽमरसङ्काशस् सौभद्रो न विषीदति॥३१॥
ततश्शिलाशितैस्तीक्ष्णैर् भल्लैस्सन्नतपर्वभिः।
छित्त्वा धनूंषि वीराणाम् आर्जुनिः कर्णमर्दयत्॥३२॥
तस्मै चिक्षेप निशितं शरं परमसंहितम्।
स ध्वजं कार्मुकं चास्य छित्त्वा भूमौ न्यपातयत्॥ ३३॥
ततः कृच्छ्रगतं दृष्ट्वा कर्णं कर्णादनन्तरः।
सौभद्रमभ्ययात् तूर्णं दृढमायम्य कार्मुकम्॥३४॥
तत उच्चुक्रुशुस्सर्वे पार्थासानुचरास्तथा।
वादित्राण्यथ सञ्जघ्नुस् सौभद्रं चापि तुष्टुवुः॥३५॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥ ३९॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि अष्टमोऽध्यायः॥८॥
[ अस्मिन्नध्याये ३५॥ श्लोकाः ]
॥ चत्वारिंशोऽध्यायः॥
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** अभिमन्युपराक्रमवर्णनम्॥**
सञ्जयः—
सोऽभ्यगच्छद्धनुष्पाणिर् ज्यां विकर्षन पुनः पुनः।
तयोर्महात्मनोस्तूर्णं रथान्तरमवापतत्॥१॥
सोऽविध्यद्दशभिर्बाणैर् अभिमन्युं दुरासदम्।
सच्छत्रध्वजयन्तारं साश्वमाशु स्मयन्निव॥२॥
पितृपैतामहं कर्म कुर्वाणमपराजितम्।
दृष्ट्वाऽर्पितं शरैःकार्ष्णिंत्वदीया हृषिताऽभवन्॥३॥
तस्याभिमन्युरायम्य स्मयन्नेव महारथः।
शिरः प्रच्यावयमास स स्थात् प्रापतद्भुवि॥४॥
कर्णिकारमिवोद्भूतं वातेन पतितं भुवि।
कर्णानुजं च सम्प्रेक्ष्य तावका व्यथिताऽभवन्॥५॥
भ्रातरं निहतं दृष्ट्वा कर्णश्वासीत् पराङ्मुखः॥५॥
विमुखीकृत्य कर्णं तु सौभद्रः कङ्कपत्रिभिः।
अन्यांश्च परमेष्वासांस् तूर्णं कर्णमुपाद्रवत्॥६॥
ततस्तंद्विततं जालं हस्त्यश्वरथपत्तिमत्।
झषः क्रुद्ध इवाभिन्दद् अभिमन्युर्महायशाः॥७॥
कर्णस्तु बहुभिर्बाणैर अर्द्यमानोऽभिमन्युना।
अपायाज्जवनैरश्वैस् ततोऽनीकमभज्यत॥८॥
तिष्ठ कर्ण महेष्वास कृप दुर्योधनेति च।
द्रोणस्य क्रोशतो राजंस् तदनीकमभज्यत॥९॥
शलभौरिव चाकाशं धाराभिरिव संवृतम्।
अभिमन्योश्शरैश्छन्नं न प्राज्ञायत किञ्चन॥१०॥
तावकानां तु योधानां वध्यतां निशितैश्शरैः।
नान्यत्र सैन्धवाद्राजन् कश्चित् तत्रावतिष्ठति॥११॥
सौभद्रस्तु ततश्शङ्खं प्रध्माय रणमूर्द्धनि।
शीघ्रमभ्यपतत् सेनां भारती पितृनन्दनः ॥१२॥
स कक्षेऽग्निरिवोत्सृष्टो निर्दहंस्तरसा रिपून्।
मध्ये भारतसैन्यानाम् आर्जुनिः पर्यवर्तत॥१३॥
रथाश्वनागमनुजान् निर्दहन् निशितैश्शरैः।
सम्प्रविश्याकरोद्भूमिं कबन्धगणसङ्कुलाम्॥१४॥
सौभद्रचापप्रभवैर्निकृत्ता126 स्तव सैनिकाः।
स्वानेवाभिमुखान् घ्नन्तः प्राद्रवञ्जीवितार्थिनः॥१५॥
ते घोरा रौद्रकर्माणो विपाठा पृथवश्शिताः।
निघ्नन्तो रथनागाश्वाञ् जग्मुराशु वसुन्धराम्॥१६॥
सायुधास्साङ्गुलित्राणास् सखड्गास्सगदा रणे।
दृश्यन्ते बाहवश्छिन्ना हेमाभरणभूषिताः॥१७॥
ऋष्ट्यश्चापानि खड्गाश्च शरीराणि शिरांसि च।
सकुण्डलानि स्रग्वीणि भूमावासन् सहस्रशः॥१८॥
अवस्करैरधिष्ठानैर् ईषादण्डकबन्धुरैः।
अक्षैर्विमथितैश्चित्रैर्भग्नैश्च बहुधा रथैः ॥१९॥
शक्तिचापायुधैश्चान्यैः पतितैश्च महाध्वजैः।
निहतैः क्षत्रियैश्शूरैः कुञ्जरैश्च विशां पते॥२०॥
अगम्यकल्पा पृथिवी वीक्षिताऽऽसीत् सुदारुणा॥२१
वध्यतां राजपुत्राणां नदतां च तदा रणे।
प्रादुरासीन्महाशब्दः क्रन्दतामितरेतरम्॥२२॥
स शब्दः खं नरव्याघ्र सहसाऽभिव्यनादयत्।
क्षिप्रमभ्यपतत् सैन्यं निघ्नन्नश्वरथद्विपान्॥२३॥
कक्षमग्निरिवोत्सृष्टो ‘निर्दहन्नरिवाहिनीम्127।
मध्ये भारतसैन्यानाम् आर्जुनिः प्रत्यदृश्यत॥२४॥
स दिशो विचरन् सर्वाः प्रदिशश्वाहितान् रुजन्।
तं तदा नानुपश्यामस् स्वसैन्ये रजसाऽऽवृते॥२५॥
आददानं गजाश्वानां नृणामायूंषि भारत।
क्षणेन चाभिपश्यामस् सूर्यं मध्यंदिने यथा॥२६॥
अभिमन्युं महाराज प्रतपन्तं द्विषद्गणान्॥२६॥
स वासवसमस्सङ्ख्ये वासवस्यात्मजात्मजः।
अभिमन्युमहाराज सेनामध्ये व्यरोचत॥२७॥
यथा पुरा वह्निसुतस् सुरसैन्येषु वीर्यवान्॥२८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि चत्वारिंशोऽध्यायः॥४०॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि नवमोऽध्यायः॥९॥
[ अस्मिन्नध्याये २८ श्लोकाः ]
द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्व
॥ एकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥
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** सञ्जयेन धृतराष्ट्रं प्रति अभिमन्युमनुगतानाजयद्रथेन निरोधकथनम् ॥१॥ तथा जयद्रथस्य रुद्रात् पाण्डवनिरोधरूपवरलाभकथनम् ॥**
धृतराष्ट्रः—
बालमत्यन्तसुखिनं प्रहरन्तमभीतवत्।
युद्धेषु128 कुशलं वीरं कुलपुत्रं तनुत्यजम्॥१
॥
गाहमानमनीकानि किशोराश्वैस्त्रिहायनैः।
अस्ति यौधिष्ठिरात् सैन्याद् एकोऽप्यनुपतन्129रथी ॥२
॥
सञ्जयः—
युधिष्ठिरो भीमसेनश् शिखण्डी सात्यकिर्यमौ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च द्रुपदः केकयास्तथा ॥३
॥
धृष्टकेतुश्च संरब्धो मत्स्याश्चान्वपतन् रणे ॥३
॥
अन्वधावन् परीप्सन्तो व्यूढानीकाः प्रहारिणः ॥४
॥
तान् दृष्ट्वा द्रवतश्शूरांश्त्वदीया विमुखाऽभवन् ॥४
॥
ततस्तद्विमुखं दृष्ट्वा तव सूनोर्महद्वलम्।
जामाता तव तेजस्वी विष्टम्भयिपुराद्रवत् ॥५॥
सैन्धवस्य तु यो राज्ञः पुत्रो राजा जयद्रथः।
स पुत्रगृद्धिनः पार्थान् सहसैन्यानवारयत्॥६॥
उग्रधन्वा महेष्वासो दिव्यमस्त्रमुदीरयन्।
वार्धक्षत्रिरवासेधत् प्रभिन्नानिव कुञ्जरान्॥७॥
धृतराष्ट्रः—
अतिभारमहं मन्ये सैन्धवे सञ्जयाहितम्।
यदेकः पाण्डवान् क्रुद्धान्, पुत्रगृध्नूनवारयत् ॥८॥
अत्यद्भुतमहं मन्ये बलं शौर्यं च सैन्धवे।
तस्य प्रब्रूहि मे रूपं कर्म चोग्रंमहात्मनः ॥९॥
किं दत्तं हुतमिष्टं वा स्वधीतमथवा तपः।
दमो वा ब्रह्मचर्यं वा सूत यच्चास्य सत्तम् ॥१०॥
देवं कतममाराध्य विष्णुमीशानमब्जजम्।
सिन्धुराट् तनये सक्तान् क्रुद्धः पार्थानवारयत् ॥११॥
नैवं कृतं महत् कर्म भीष्मेणाज्ञासिषं तथा।
सिन्धुराट् तनयस्त्वेको यथा पार्थानवारयत् ॥१२॥
सञ्जयः—
द्रौपदीहरणे यत् तद् भीमसेनेन निर्जितः।
मानात् स तप्तवान् राजन् वरार्थी सुमहत् तपः ॥१३॥
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः प्रियेभ्यस्सन्निवर्त्य सः।
क्षुत्पिपासातपसहः कृशो धमनिसन्ततः॥१४॥
देवमाराधयच्छर्वं गृणन् ब्रह्म सनातनम्॥१५॥
भक्तानुकम्पी भगवांस् तस्मिंश्चक्रे ततो दयाम्॥१५॥
तस्य चाल्पेन कालेन नियमेन सुतोषितः।
प्रीतो महेश्वरस्तस्मै वरं चेमं ददौ तथा॥१६॥
स तु वव्रे वरं तत्र पाण्डवेयानहं रणे।
वारयेयं रथेनैकस् समस्तानिति भारत॥१७॥
एवमुक्तस्तु130 देवशो जयद्रथमथाब्रवीत्॥१८
महेश्वरः—
ददामि ते वरं सौम्य विना पार्थं जयद्रथ ।
वारयिष्यसि सङ्ग्रामे चतुरः पाण्डुनन्दनान्॥१९॥
सञ्जयः
—
एवमस्त्विति देवेशम् उक्त्वाऽऽगात्131 स्वपुरं तदा।
तेनोक्तस्तमृते132 पार्थं जयं तस्मै वरं ददौ ॥२०॥
एकाहमिति राजेन्द्र तत्रैवादर्शनं ययौ ॥२०॥
स तेन वरदानेन परमास्त्रबलेन च।
एकस्संवारयामास पाण्डवानामनीकिनीम्॥२१॥
तस्य ज्यातलघोषेण क्षत्रियान् भयमाविशत्।
परेषां तव सैन्यस्य हर्षः परमकोऽभवत्॥२२॥
दृष्ट्वा तं क्षत्रिया भारं सैन्धवे महदर्पितम्।
उत्क्रुश्याभ्यद्रवन् राजन् येन यौधिष्ठिरं बलम्॥२३॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि एकचत्वारिंशोऽध्यायः॥४१॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि दशमोऽध्यायः॥१०॥
[ अस्मिन्नध्याये २३॥ श्लोकाः ]
॥ द्विचत्वारिंशोऽध्यायः॥
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** जयद्रथेन रुद्रवरात् व्यूहपथं पिधाय पाण्डवादिनिरोधः॥**
सञ्जयः—
यन्मां पृच्छसि सौहार्दात् सिन्धुराजस्य विक्रमम्।
शृणु तत् स यथा राजन् क्रुद्धान् पार्थानवारयत् ॥१॥
तमूहुस्सारथेर्वश्यास् सैन्धवं साधुवाहिनः।
विकुर्वाणा बृहन्तोऽश्वाश् श्वसनोपमरंहसः ॥२॥
गन्धर्वनगराकारम् विधिवत् कल्पितं रथम्।
तस्य त्वशोभयत् केतुर् वाराहो राजतो महान् ॥३॥
श्वेतच्छत्रपताकाभिश चामरव्यजनेन च।
स बभौ युद्धलिङ्गैस्तैश्चारुश्च प्रत्यरोचत॥४॥
मुक्तावज्रैस्समणिभिर् भूषितं तदयस्मयम्।
वरूथं विवभौ तस्य ज्योतिर्भिः खमिवाचितम्॥५॥
स विष्फार्य महचापं किरन्निषुगणान् बहून्।
तत्खण्डं पूरयामास यदार्जुनिरदारयत् ॥६॥
स सात्यकिं त्रिभिर्वाणैर् अष्टभिश्च वृकोदरम्।
धृष्टद्युम्नं पुनष्षष्टया विराटं दशभिश्शरैः॥७॥
द्रुपदं पञ्चभिस्तीक्ष्णैर् दशभिश्च शिखण्डिनम्।
केकयान् पञ्चविंशत्या द्रौपदेयांस्त्रिभिस्त्रिभिः॥८॥
युधिष्ठिरं तु सप्तत्या विद्ध्वाशिष्टानपानुदत्।
इषुजालेन महता तदद्भुतमिवाभवत्॥९॥
अथास्य शितपीतेन भल्लेनोद्दिस्य कार्मुकम्।
चिच्छेद133 प्रहसन् राजा धर्मपुत्रः प्रतापवान्॥१०॥
अक्ष्णोर्निमेषमात्रात् तु सोऽन्यदादाय कार्मुकम्।
विव्याध दशभिः पार्थं तांश्चैवान्यांस्त्रिभिस्त्रिभिः॥११॥
तस्य109 तल्लाघवं ज्ञात्वा भीमो भल्लैस्त्रिभित्रिभिः।
धनुर्ध्वजं च च्छत्रं च क्षितौ क्षिप्रमपातयत्॥१२॥
सोऽन्यदादाय बलवत् सज्यं कृत्वा महद्धनुः।
भीमस्योन्माथयत् केतुं धनुरश्वांश्च मारिष॥१३॥
स हताश्वादवप्लुत्य च्छिन्नधन्वा रथोत्तमात्।
सत्यकस्याप्लुतो यानं गिर्यग्रमिव केसरी ॥१४॥
ततस्त्वदीयास्संहृष्टास् साधु साध्विति चुक्रुशुः।
सिन्धुराजस्य तत् कर्म प्रेक्ष्य श्रद्धेयमुत्तमम्॥१५॥
सङ्क्रुद्धान् पाण्डवानेको यद्दधारास्त्रतेजसा।
तत् तस्य कर्म भूतानि सर्वाण्येवाभ्यपूजयन् ॥१६॥
सौभद्रेण हतैः पूर्वंसोत्तरायुधिभिर्द्विपैः।
पाण्डूनामावृतः पन्थास् सैन्धवेन च धन्विना॥१७॥
यतमानास्तु ते वीराः पाञ्चाला मत्स्यकेकयाः।
पाण्डवाश्चान्वपद्यन्त प्रत्येकं चैव सैन्धवम्॥१८॥
यो यो हि यतते भेत्तं द्रोणानीकं तवाहितः।
तं तं देवाद्वरं प्राप्य सैन्धवः प्रत्यवारयत्॥१९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायांसंहितार्या वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥४२॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि एकादशोऽध्यायः ॥११॥
[ अस्मिन्नभ्याये १९ श्लोकाः ]
द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्व
॥ त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः॥
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अभिमन्युपराक्रमवर्णनम्॥
सञ्जयः—
सैन्धवेन निरुद्धेषु जयगृद्धिषु पाण्डुषु।
सुघोरमभवद्युद्धं134 त्वदीयानां परैस्सह॥१॥
प्रविश्य त्वार्जुनिस्सेनां सत्यसन्धो दुरासदाम्।
व्यक्षोभयत तेजस्वी सागरं मकरो यथा॥२॥
तं तथा शरजालेन च्छादयन्तमरिन्दमम्।
यथा प्रधानास्सौभद्रम् अभ्ययुः कुरुसत्तमाः॥३॥
तेषां तस्य च सम्मर्दो दारुणस्समपद्यत।
सृजतां शरवर्षाणि संसक्तममितौजसाम्॥४॥
रथव्रातेन संयुक्तस् तैरमित्रैरथार्जुनिः।
वृषसेनस्य यन्तारं हत्वा चिच्छेद कार्मुकम्॥५॥
तं च विव्याध बलवांस् तस्य चाश्वानजिह्मगैः।
वातायमानैस्तैरश्वैर् निस्संज्ञोऽपहृतो रणात्॥६॥
तेनान्तरेणाभिमन्योर्यन्ता निस्सारयद्रथम्।
रथव्रजास्ततो हृष्टास् साधु साध्विति चुक्रुशुः॥७॥
तं तु सिंहमिव क्रुद्धं प्रमथ्नन्तं शररैरीन्।
आरादायान्तमालोक्य वसातिस्सोऽभ्ययाद्रुतम्॥८॥
सोऽभिमन्युं शरैष्षष्ट्या रुक्मपुङ्खैरवाकिरत्।
अब्रवीच्चन मे जीवञ् जीवतो वीर मोक्ष्यसे॥९॥
तमयस्मयवर्माणम् इषुणा त्वाशुपातिना।
हृदि विव्याध सौभद्रस् स पपात ममार च॥१०॥
वसातिं निहतं दृष्ट्वा क्रुद्धाः क्षत्रियपुङ्गवाः।
परिवव्रुस्तदा राजंस् तव पौत्रं जिघांसवः॥११॥
विष्फारयन्तश्चापानि नानारूपाण्यनेकशः।
तद्युद्धमभवद्रौद्रं सौभद्रस्यारिभिस्सह॥१२॥
तेषां शरान् सेष्वसनाञ् शरीराणि शिरांसि च।
सकुण्डलानि स्रग्वीणि क्रुद्धश्चिच्छेद फाल्गुनिः॥१३॥
सखङ्गास्साङ्गुलित्राणास् सपट्टसपरश्वथाः।
अदृश्यन्त भुजाछिन्ना नानाभरणभूषिताः॥१४॥
स्रग्भिराभरणैर्वस्त्रैर् पतितैर्विविधैर्ध्वजैः।
वर्मभिश्चर्मभिर्हारैर् मुकुटैश्छत्रचामरैः॥१५॥
अवस्करैरधिष्ठानैर्135 ईषादण्डकबन्धुरैः।
चक्रैर्विमथितैरक्षैर भग्नैश्चबहुधा शरैः॥१६॥
पादातैरनुकर्षैश्च रथिसारथिवाजिभिः।
रथैश्च भग्नैर्नागैश्च पादातैश्चास्तृता मही॥१७॥
निहतैः क्षत्रियैश्शूरैर् नानाजनपदेश्वरैः।
जयगृद्ध्रैर्हतैर्भूमिर् दारुणा प्रियदर्शना॥१८॥
दिशो विचरतस्तस्य सर्वाश्च प्रदिशस्तथा।
रणेऽभिमन्योः क्रुद्धस्य रूपमन्तरधीयत॥१९॥
काञ्चनं यद्धि तस्यासीद् वर्म चाभरणानि च।
धनुषश्च शराणां च तत् तदेवावदृश्यते॥२०॥
तं तदा नाशकद्द्रष्टुंचक्षुर्भ्यां कश्चिदाहवे।
आददानं136 शरैर्योधान् मध्ये सूर्यमिव स्थितम्॥२१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥४३॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि द्वादशोऽध्यायः ॥१२॥
[ अस्मिन्नध्याये २१ श्लोकः]
महाभारतम्
॥ चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः॥
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अभिमन्योः पराक्रमेण दुर्योधनपराजयः॥
सञ्जयः—
आददानस्तु शूराणाम् आयूंष्यभवदार्जुनिः।
अन्तकस्सर्वभूतानां साक्षात् काल इवागतः॥१॥
स शक्रसमविक्रान्तश् शक्रसूनोस्सुतो बली।
अभिमन्युस्तदाऽनीकं लोलयन् बह्वशोभत॥२॥
प्रविश्यैव तु राजेन्द्र क्षत्रियाणां यमोपमः।
सत्यश्रवसमादत्त व्याघ्रो मृगमिवोल्बणम्॥३॥
सत्यवसि चाक्षिप्ते त्वरमाणा महारथाः।
प्रगृह्य विविधं शस्त्रम् अभिमन्युमभिद्रवन्॥४॥
अहंपूर्वमहंपूर्वम् इति क्षत्रियपुङ्गवाः।
स्पर्धमाना इवायान्ति जिघांसन्तोऽर्जुनात्मजम्॥५॥
क्षत्रियाणामनीकानि प्रद्रुतान्यभिधावताम्।
अग्रसत् तिमिरासाद्य क्षुद्रमत्स्यानिवार्णवे॥६॥
ये ये समागतास्तस्य समीपमनिवर्तिनः।
न ते प्रतिनिवर्तन्ते समुद्रादिव सिन्धवः॥७॥
महाग्राहगृहीतेव वातवेगभयार्दिता।
सन्त्रस्ता137 वाहिनी तुभ्यं नौरिवासीन्महार्णवे ॥८॥
अथ रुक्मरथो नाम मद्रेश्वरसुतो बली ।
त्रस्तामाश्वासयन्सेनाम् अत्रस्तो वाक्यमब्रवीत् ॥९॥
रुक्मरथः—
अलं त्रासेन वश्शूरास् स मामेषोऽभिवर्तते ।
अहमेनं ग्रहीष्यामि जीवग्राहं न संशयः ॥१०॥
सञ्जयः—
एवमुक्त्वा स सौभद्रम् अभिदुद्राव वीर्यवान् ।
सुकल्पितेन महता स्यन्दनेन विराजता ॥११॥
सोऽभिमन्युं त्रिभिर्वाणैर् विद्ध्वावक्षस्यस्थानदत् ।
त्रिभिश्च दक्षिणे बाहौ सव्ये च निशितैस्त्रिभिः ॥१२॥
सोऽभिमन्युस्ततस्तस्य छित्त्वा प्रणदतो बली \।
तस्य सेष्वसनं सव्यं दक्षिणं च ससायकम् ॥१३॥
भुजौ शिरश्च स्वक्षिभ्रुक्षितौ क्षिप्रमपातयत् ॥१३॥
दृष्ट्वा रुक्मरथं राजन् पुत्रं शल्यस्य मानिनम् \।
जीवग्राहं जिघृक्षन्तं सौभद्रेण निपातितम् ॥१४॥
सङ्ग्रामदुर्मदा राजन् राजपुत्राः प्रहारिणः ।
वयस्याश्शल्यपुत्रस्य सुवर्णविकृतध्वजाः ॥१४॥
अतिमात्राणि चापानि विकर्षन्तो महाबलाः ।
आर्जुनि रथवंशेन समन्तात् पर्यवारयन् ॥१६॥
शूरैश्शिक्षावलोपेतैस् तरुणैरत्यमर्षिभिः ।
दृष्ट्वैकंसमरे शूरं सौभद्रं परिवारितम् ॥१७॥
छाद्यमानं शरव्रातैर् हृष्टो दुर्योधनोऽभवत् ॥१८॥
वैवस्वतस्य भवनं गतमेनममन्यत ॥१८॥
सुवर्णपुङ्खैरिषुभिर् नानालिङ्गैस्त्रिभिस्त्रिभिः ।
अदृश्यमार्जुनिं चक्रुर् निमेषात् ते नृपात्मजाः ॥१९॥
ससूताश्वध्वजं तस्य स्यन्दनं तं च मारिष।
आचितं प्रत्यपश्याम श्वाविधं शललैरिव ॥२०॥
स गाढमिषुभिर्विद्धस् तोत्रैर्गज इव श्वसन् ।
गान्धर्वीमस्त्रमायां च रथमायां च योजयन् ॥२१॥
येऽर्जुनेन तपस्तप्त्वा गन्धर्वेभ्यस्समाहृते ।
तुम्बुरुप्रमुखैर्दत्ते ताभ्यां तान् मोहयद्रिपून् ॥२२॥
एकस्तु शतधा राजन् दृश्यते स्म सहस्रधा ।
अलातचक्रवत् क्षिप्रं भ्रमन्नस्त्राण्यदर्शयत् ॥२३॥
रथचर्यास्त्रमायाभ्यां मोहयित्वा परन्तपः ।
बिभेद शतधाऽनीकं क्षत्रियाणां भयं दधत् ॥२४॥
भीतानीकाञ्च दिङ्मूढा भूयस्सन्त्रस्तचेतसः ।
भल्लैरुत्कृत्तशिरसः परलोकमथाविशन्॥२५॥
प्राणाः प्राणभृतां सङ्ख्ये प्रेषिता निशितैश्शरैः।
राजन् प्रयान्त्यमुं लोकं शरीराण्यवनिं ययुः॥२६॥
धनूंष्यश्वान् नियन्तृृंश्च ध्वजान् बाहूंश्च साङ्गदान्।
शिरांसि च शितैर्बाणैस् तेषां चिच्छेद फाल्गुनिः॥२७॥
चूतारामो यथा भग्नः पञ्चवर्षः फलोपगः।
राजपुत्रशतं तद्वत् सौभद्रेण निपातितम्॥२८॥
क्रुद्धाशीविषसङ्काशान्सुकुमारान् सुखोचितान्।
एकेन निहतान् दृष्ट्वा भीतो दुर्योधनोऽभवत्॥२९॥
रथिनः कुञ्जरानश्वान् पदातींश्चावमर्दितान्।
दृष्ट्वा दुर्योधनः क्षिप्रम् उपायात् तममर्षितः॥३०॥
तयोः क्षणमिवापूर्वस् सङ्ग्रामस्समभून्नृप।
अथाभवत् ते विमुखः पुत्रश्शरशतार्दितः॥३१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४४॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥
[अस्मिन्नध्याये ३१॥ श्लोकाः]
॥ पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः॥
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अभिमन्युना दुर्योधनसूनोर्लक्ष्मणस्य वधः॥
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धृतराष्ट्रः—
यथा वदसि मे सूत एकस्य बहुभिस्सह।
सङ्ग्रामं तुमुलं घोरं जयं चैव महात्मनः ॥१॥
अश्रद्धेयमिवाश्चर्यं सौभद्रस्याथ विक्रमम्।
किंतु नात्यद्भुतं तेषां धर्मो येषां व्यपाश्रयः॥२॥
दुर्योधने तु विमुखे राजपुत्रशते हते।
सौभद्रे प्रतिपत्तिं कां प्रत्यपद्यन्त मामकाः॥३॥
सञ्जयः—
संशुष्कास्याश्चलन्नेत्राः प्रस्विन्ना रोमहर्षणाः।
पलायनकृतोत्साहा निरुत्साहा द्विषज्जये॥४॥
हतान् भ्रातॄन पितॄन पुत्रान् सम्बन्धीन् बान्धवानपि।
उत्सृज्योत्सृज्य गच्छन्ति त्वरयन्तो हयद्विषान्॥५॥
तां प्रभग्नां च दृष्ट्वा द्रोणो द्रौणिर्बृहद्बलः।
कृषो दुर्योधनः कर्णः कृतवर्माऽथ सौबलः॥६॥
अभिद्रुतास्सुसङ्क्रुद्धास् सौभद्रमपलायिनम् ॥७॥
तेऽपि पौत्रेण ते राजन् प्रायशो विमुखीकृताः।
सौभद्रेण महाराज शक्रप्रतिमतेजसा॥७॥
एकस्तु सुखसंवृद्धो बाल्याद्दर्पाच्च निर्भयः।
इष्वस्त्रकुशलश्शूरो लक्ष्मणोऽर्जुनिमभ्ययात्॥८॥
तमन्वगेवास्य पिता पुत्रगर्ध्यन्ववर्तत।
अनुदुर्योधनं चान्ये सन्निवृत्ता महारथाः॥९॥
तं तु वै सिषिचुर्वाणैर् मेघा गिरिमिवाम्बुभिः।
स च तान् प्रममाथैको विष्वग्वातो यथाऽम्बुदान्॥१०॥
अत्यन्तसुखसंवृद्धं दैवैरपि दुरासदम्।
आससाद रणे कार्ष्णिर् मत्तो मत्तमिव द्विपम्॥११॥
सिंहशाबो वने यद्वत् पुण्डरीकशिशुं यथा॥१२॥
लक्ष्मणेन तु सङ्गम्य सौभद्रःशुभलक्षणः।
शरैस्सुनिशितैश्चैव बाह्वोरुरसि चार्पयत्॥१३॥
समक्रुध्यन्महाबाहुर् दण्डाहत इवोरगः।
पौत्रस्तव महाबाहुस् तव पौत्रमभाषत॥१४॥
अभिमन्युः—
सुदृष्टः क्रियतां लोको यमलोकं गमिष्यसि।
पश्यतां पार्थिवानां138 च नयामि यमसादनम्॥१५॥
सजयः—
एवमुक्त्वा ततो भल्लं सौभद्रः परवीरहा।
उद्बबर्हमहाबाहुर् निर्मुक्तोरगसन्निभम्॥१६॥
स तस्य भुजनिर्मुक्तो लक्ष्मणस्य सुदर्शनम्।
सुनासं सुभ्रु केशान्तं शिरोऽहार्षीत् सकुण्डलम्॥१७॥
पौत्रस्तु तव दुर्धर्षं लक्ष्मणं प्रियदर्शनम्।
पितुस्समीपे तिष्ठन्तं प्राहिणोद्यमसादनम्॥१८॥
अत्यन्तसुखसंवृद्धं धनेश्वरसुतोपमम्।
लक्ष्मणं निहतं दृष्ट्वा हाहेत्युच्चुक्रुशुर्जनाः॥१९॥
ततो दुर्धोधनः क्रुद्धः प्रिये पुत्रे निपातिते।
घ्नतैनमिति चुक्रोश क्षत्रियान् क्षत्रियर्षभः॥२०॥
ततो द्रोणः कृपः कर्णो द्रोणपुत्रो बृहद्बलः।
कृतवर्मा च हार्दिक्यष् षड्रथाःपर्यवारयन्॥२१॥
स तान् विद्ध्वाशितैर्बाणैर् विमुखीकृत्य चार्जुनिः।
वेगेनाभ्यद्रवत् क्रुद्धस् सैन्धवं च महाबलम्॥२२॥
आवव्रुस्तस्य पन्थानं गजानीकेन दंशिताः।
कलिङ्गाश्च निषादाश्च क्राथपुत्रश्च139 वीर्यवान्॥२३॥
तैर्नदद्भिर्यथाऽऽदित्यो घनाच्छन्नो विशां पते॥२३॥
ततस्तत् कुञ्जरानीकं व्यधमद्धृष्टमार्जुनिः।
यथा खिलान् नित्यगतिर् जलदाञ् शतशोऽम्बरे॥२४॥
ततः क्राथं140 शरव्रातैर् आर्जुनिस्समवारयत्॥२५॥
अथेतरे सन्निवृत्ताः पुनर्द्रोणमुखा रथाः।
परमास्त्राणि धून्वानास् सौभद्रमभिदुद्रुवुः॥२६॥
तान् निवार्यार्जुनिर्बाणैःक्राथपुत्रमपोथयत्141।
शरौघेणाप्रमेयेण त्वरमाणो जिघांसया॥२७॥
सधनुर्बाणकेयूरौ बाहू समकुटं शिरः।
छत्रं ध्वजं नियन्तारम् अश्वांश्चास्य न्यपातयत्॥२८॥
कुलशीलश्रुतधनैः कान्त्या शस्त्रबलेन च।
युक्ते तस्मिन् हते शूराः प्रायशो विमुखाऽभवन्॥२९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायांवैयासिक्यां द्रोणपर्वणि पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः॥४५॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥
[अस्मिन्नध्याये २९ श्लोकाः]
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॥ षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥
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अभिमन्युपराक्रमवर्णनम्॥
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धृतराष्ट्रः—
तथा प्रविष्टं तरुणं सौभद्रं रथिनां वरम्।
कुलानुरूपकर्माणं सङ्ग्रामेष्वपलायिनम्॥१॥
आजानेयैस्सुबहुभिर् यान्तमश्चैस्त्रिहायनैः।
प्लवमानमनीकानि के वीराः पर्यवारयन्॥२॥
सञ्जयः—
अभिमन्युः प्रविश्यैव तावकान् निशितैश्शरैः।
अकरोद्विमुखान् सर्वान् बलवान् पाण्डवात्मजः॥३॥
पुनर्द्रोणः कृपः कर्णो द्रौणिस्सहबृहद्बलः।
कृतवर्मा च हार्दिक्यष्षड्रथाःपर्यवारयन्॥४॥
दृष्ट्वा तु सैन्धवे भारम् अतिमात्रं समाहितम्।
सैन्यं तव महाराज युधिष्ठिरमुपाद्रवत्॥५॥
सौभद्रमितरे वीरा रथव्याघ्रास्त्वयोधयन्।
तालमात्राणि चापानि विकर्षन्तो वधैषिणः॥६॥
तांस्तु सर्वान् महेष्वासान् सर्वविद्यासु निष्ठितान्।
व्यष्टम्भयद्रणे बाणैर् मुहूर्तमिव भारत॥७॥
द्रोणं पञ्चाशता विद्ध्वात्रिंशता च बृहद्बलम्।
अशीत्या कृतवर्माणं कृपं षष्ट्या शितैश्शरैः॥८॥
रुक्मपुङ्खैः प्रसन्नाग्रैर् आकर्णमभिनिस्सृतैः।
अविध्यद्दशभिर्बाणैर् अश्वत्थामानमार्जुनिः॥९॥
कर्णं च कर्णिना कर्णे पीतेन निशितेन च।
फाल्गुनिर्द्विषतां मध्ये विव्याध परमेषुणा॥१०॥
पातयित्वा कृपस्याश्वान् उभौ च पार्ष्णिसारथी।
अथैनं दशभिर्बाणैः प्रत्यविध्यत् स्तनान्तरे॥११॥
ततो बृन्दारकं वीरं कुरूणां कीर्तिवर्धनम्।
पुत्राणां तव शूराणां पश्यतामवधीत् पुनः॥१२॥
तं द्रौणिः पञ्चविंशत्या क्षुद्रकाणां समर्पयत्।
परंपरममित्राणाम् आरुजन्तमभीतवत्॥१३॥
स तु बाणैश्शितैस्तूर्णं प्रत्यविध्यत मारिष।
पश्यतां धार्तराष्ट्राणाम् अश्वत्थामानमार्जुनिः॥१४॥
तं द्रौणिर्विशिखैष्षष्ट्या तीक्ष्णधारैस्सुतेजनैः।
उग्रैर्नाकम्पयद्विद्ध्वामैनाकमिव पर्वतम्॥१५॥
स तु द्रौणिं त्रिसप्तत्या तिर्यग्धारैर्महायशाः।
प्रत्यविध्यन्महारङ्गे बलवानाप्तकारिणम्॥१६॥
तस्मिन् द्रोणश्शितान् बाणान् पुत्रगृध्नुर्न्यपातयत्।
अश्वत्थामा पुनष्षष्टिं परीप्सन् पितरं वधात्॥१७॥
कर्णो द्वात्रिंशतं भल्लान् कृतवर्मा चतुर्दश।
बृहद्बलस्तु पञ्चाशत् कृपश्शारद्वतो दश॥१८॥
तांस्तु प्रत्यक्षिपत् सर्वान् दशभिर्दशभिश्शरैः।
वध्यमानस्स सौभद्रो रुद्रः क्रुद्धः पशूनिव॥१९॥
तं कोसलानामधिपं कर्णिनापातयद्रथात्।
तस्याश्वानार्जुनिश्चापं सूतं चापातयत् क्षितौ॥२०॥
कोसलानामधिपतिर् विरथः खड्गचर्मधृक्।
इयेष चार्जुनेः कायाच् छिरो हर्तुं सकुण्डलम्॥२१॥
कोसलानां तु भर्तारं राजपुत्रं बृहद्बलम्।
हृद्यविध्यत् पृषत्केन स छिन्नहृदयोऽपतत्॥२२॥
अभज्यन्त सहस्राणि दश राजन् महात्मनाम्।
सृजतामशिवा वाचः खङ्गकार्मुकधारिणाम्॥२३॥
तथा बृहद्बलं हत्वा सौभद्रो व्यचरद्रणे।
व्यष्टम्भयन्महेष्वासान् मोहयन्निव भारत॥२४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४६॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि पञ्चदशोऽध्यायः॥१५॥
[अस्मिन्नध्याये २४ श्लोकाः]
॥ सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः॥
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द्रोणादिभिः षड्भिरभिमन्योविरथीकरणम् ॥१॥ अभिमन्युवधः ॥२॥युद्धभूमिवर्णनम् ॥३॥
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सञ्जयः—
ततः कर्णं समासाद्य रणे विव्याध फाल्गुनिः।
शरैः पञ्चाशता चैनम् अविध्यत् कोपयन्निव॥१॥
प्रतिविव्याध राधेयस् तावद्भिरथ तं पुनः।
शरैर्विकृत्तसर्वाङ्गो142 बह्वशोभत भारत॥२॥
कर्णं चाप्यकरोद्युद्धे रुधिरौघपरिप्लुतम्।
कर्णस्त्वतिबभौ तस्मात् शरैश्चित्रैरभिप्लुतः143॥३॥
सन्ध्यानुगतपर्यन्तश् शरदीव दिवाकरः॥३॥
तौ तदा शरचित्राङ्गौरुधिरेण समुक्षितौ।
बभतुः कर्णसौभद्रौ पुष्पिताविव किंशुकौ॥४॥
अथ कर्णस्य सचिवान् षड्रथांश्चित्रयोधिनः।
साश्वसूतध्वजरथान् सौभद्रो ह्यहनद्बली॥५॥
अथेतरान् महेष्वासान् दशभिर्दशभिश्शरैः।
प्रत्यविध्यदवित्रस्तस् तदद्भुतमिवाभवत् ॥६॥
मागधस्य पुनः पुत्रं हत्वा षड्भिरजिह्मगैः।
साश्वं ससूतं तरुणम् अश्मकेतुमपोथयत् ॥७॥
मार्तिकावतकाम्भोजं पुनः कुञ्जरकेतनम्।
क्षुरप्रेण समुन्मथ्य नानाद विसृजञ् शरान् ॥८॥
तस्य दौश्शासनिर्विद्ध्वा चतुर्भिश्चतुरो हयान्।
सूतमेकेन विव्याध दशभिश्चार्जुनात्मजम् ॥९॥
ततो दौश्शासनिं कार्ष्णिर् विद्ध्वासप्तभिराशुगैः।
संरम्भरक्तनयनो वाक्यमुच्चैरथाब्रवीत् ॥१०॥
अभिमन्युः—
पिता तवाहवं त्यक्त्वा गतः कापुरुषो यथा।
दिष्ट्या त्वमपि जानीषे योद्धुं न त्वद्य मोक्ष्यसे ॥११॥
सञ्जयः—
एतावदुक्त्वा वचनं कर्मारपरिमार्जितम्।
नाराचं विससर्जास्मै तं द्रौणिस्त्रिभिरच्छिनत् ॥१२॥
तस्यार्जुनिर्धनुश्छित्त्वा शल्यं त्रिभिरताडयत्।
तं शल्यो दशभिर्बाणैर् गृध्रपत्रैरताडयत् ॥१३॥
तस्यार्जुनिर्धनुश्छित्त्वा उभौ च पार्ष्णिसारथी।
तं विव्याधायसैष्षड्भिस् सोपाक्रामद्रथान्तरम् ॥१४॥
शत्रुञ्जयं चन्द्रकेतुं मेघवेगं सुवर्चसम् ।
सूर्यभासं च पञ्चैतान् हत्वा विव्याध सौबलम् ॥१५॥
तं सौबलस्त्रिभिर्विद्ध्वा दुर्योधनमथाब्रवीत्॥१६॥
सौबलः—
सर्व एनं प्रमृद्नीम पुरैकैकं हिनस्ति नः॥१६॥
सञ्जयः—
अथाब्रवीत् ततो द्रोणं कर्णो वैकर्तनो रणे॥१७॥
कर्णः—
परान् सर्वान् प्रमथ्नाति ब्रूह्यस्य वधमाशु नः॥१७॥
सञ्जयः—
ततो द्रोणो महेष्वासस् सर्वांस्तान् प्रत्यभाषत॥१८॥
द्रोणः—
नास्य बाणान्तरं कश्चित् कुमारस्य प्रपश्यति ।
अस्यतो विवरं चास्य चरतस्सर्वतो दिशम्॥१९॥
शीघ्रतां नरसिंहस्य पाण्डवस्येव पश्यत ।
धनुर्मण्डलमेवास्य रथमार्गेषु दृश्यते॥२०॥
सन्दधानस्य विशिखान् प्रशीघ्रं चैव मुञ्चतः ।
आरुजन्निव मे प्राणान् मोहयन्निव सैनिकान्॥२१॥
सङ्घर्षयति मां वीरस् सौभद्रः परवीरहा ।
अभिमानं दधात्येप सौभद्रो विचरन् रणे॥२२॥
अन्तरं यस्य संरब्धा न पश्यन्ति महारथाः।
अस्यतो लघुहस्तस्य दिशस्सर्वा महेषुभिः॥२३॥
न विशेषं प्रपश्यामि रणे गाण्डीवधन्वनः॥२३॥
सजयः—
अथ कर्णः पुनर्द्रोणम् आहार्जुनिशराहतः॥२४॥
कर्णः—
स्थातव्यमिति तिष्ठामि पीड्यमानोऽभिमन्युना॥२४॥
तेजस्विनः कुमारस्य शराः परमदारुणाः।
क्षिपन्ति144 हृदयं मेऽद्य तोत्रास्तु145 द्विरदं यथा॥२५॥
सञ्जयः—
तमाचार्योऽब्रवीत् कर्णं शनकैः प्रहसन्निव॥२६॥
द्रोणः—
अभेद्यं कवचं चास्य युवा च लघुविक्रमः॥२६॥
उपदिष्टं मयाऽप्यस्य पितुः कवचधारणम्।
तदेष निखिलं वेत्ति युवा परपुरञ्जयः॥२७॥
शक्यं नास्य146 धनुश्छेत्तुं ज्यां वा बाणैस्समाहितैः।
अस्यतो लघुहस्तस्य तथोभौ पार्ष्णिसारथी॥२८॥
एतत् कुरु महेष्वास राधेय यदि शक्यते।
अथैनं विमुखीकृत्य ततः प्रहरणं कुरु॥२९॥
सधनुष्को न शक्योऽयम् अपि जेतुं सुरासुरैः।
विरथं विधनुष्कं च कुरुष्वैनं यदीच्छसि॥३०
पुरस्स्थितेन केनापि दुश्शको जेतुमार्जनिः॥३१॥
सञ्जयः—
तदाचार्यवचश्श्रुत्वा कर्णो वैकर्तनस्त्वरन्।
अस्यतो लघुहस्तस्य पृष्ठतो धनुराच्छिनत्॥३२॥
अश्वानस्यावधीद्द्रोणो गौतमः पार्ष्णिसारथी।
शेषास्तं च्छिन्नधन्वानं शरवर्षैरवाकिरन्॥३३॥
त्वरमाणास्तदा काले विरथं षण्महारथाः।
शरवर्षेण महता बालमेकमवाकिरन्॥३४॥
स च्छिन्नधन्वा विरथो147 हताश्वो हतसारथिः।
खड्गचर्मधरश्शीघ्रम् उत्पपात विहायसम्॥३५॥
बललाघवशिक्षाभिः कैशिकानां148 च शिक्षया।
भृशं क्रुद्धोऽर्जुनिर्व्याम्नि व्यचरत् पक्षिराडिव॥३६॥
मयि149 किं निपतेदेष सासिरित्यूर्ध्वदृष्टयः।
विव्यधुस्तं महेष्वासं विवरे च्छिद्रदर्शिनः॥३७॥
तस्य द्रोणोऽच्छिनन्मुष्टौ खड्गं मणिमयत्सरुम्।
राधेयो निशितैर्बाणैर् व्यधमच्चर्म सुप्रभम् ॥३८॥
व्यसिचर्मेषुपूर्णाङ्गस् सोऽन्तरिक्षात् पुनः क्षितिम्।
आस्थितश्चक्रमुद्यम्य द्रोणं क्रुद्धोऽभ्यधावत॥३९॥
स चक्रपाणिर्बलदीप्तगात्रो
बभावतीवोन्नतपत्रिणां सहः।
रणेऽभिमन्युर्बलवान् सुभद्रजस्
स वासुदेवानुकृतिं विकुर्वन् ॥४०॥
स्रुतरुधिरकृताङ्गरागवक्त्रं
भ्रुकुटिपुटाकुटिलातिसिंहनादम्।
वपुरमितबलं रणेऽभिमन्योर्
नृपबलसंहननेऽप्यतिप्रणुन्नम्॥४१॥
विष्णोस्स्वसुर्नन्दकरस् स विष्ण्वायुधभूषणः।
रराजातिरथो रङ्गे स विष्णुरिव फाल्गुनिः ॥४२॥
मारुतोद्धूतकेशान्तम् उद्यतासुकरायुधम्।
अभिमन्योर्वपुर्युद्धे सुरैरपि निरीक्षितम् ॥४३॥
यदि पाणितलादेतच् चक्रं मुञ्चेत फाल्गुनिः।
वरदानान्मातुलस्य विष्णोश्चक्रमिवापतेत्॥४४॥
तच्चक्रं भृशमुद्विग्नास् सञ्चिच्छिदुरनेकधा।
स्वरथात् तुमुलात् कार्ष्णिस् स्वां जग्राह पुनर्गदाम्॥४५॥
विधनुस्स्यन्दनासिस्तैर् विचक्रश्चारिमिः कृतः।
अभिमन्युर्गदापाणिर् अश्वत्थामानमभ्ययात् ॥४६॥
गदां समुद्यतां दृष्ट्वा ज्वलन्तीमशनीमिव।
अपाक्रामद्रथोपस्थाद् विक्रमांस्त्रीन् रथर्षभः॥४७॥
तस्याश्वान् गदया हत्वा तथोभौ पार्ष्णिसारथी।
शराचिताङ्गस्सौभद्रस् श्वाविदेव स्म दृश्यते॥४८॥
ततस्सुबलदायादं कोपवेगमपोथयत्।
जघान150 चास्यानुचरान् गान्धारान् सप्तविंशतिम्॥४९॥
पुनर्बहून् वसातीयाञ् जघानातिरथान् दश।
केकयानां स्थान् सप्त हत्वा दश सकुञ्जरान्॥५०॥
दौश्शासने रथं साश्वं गदया समपोथयत्॥५०॥
ततो दौश्शासनिः क्रुद्धो गदामुद्यम्य मारिष।
अभिदुद्राव सौभद्रं तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत्॥५१॥
तावुद्यतगदौ वीरावन्योन्यवधकाङ्क्षिणौ।
भ्रातृव्यौ सम्प्रजह्राते पुरेव त्र्यम्बकान्तकौ॥५२॥
तावन्योन्यं गदाग्राभ्यां ताडितौ पतितौ क्षितौ।
इन्द्रध्वजाविवोत्सृष्टौ शत्रुमध्ये परन्तपौ॥५३॥
तापयित्वा महीपालान्कुरूणां कीर्तिवर्धनः।
देवकल्पो महेष्वासः क्षत्रं दुग्ध्वा महायशाः॥५४॥
गदावेगेन महता व्यायामेन च मोहितः।
विमना न्यपतद्भूमौ सौभद्रः परवीरहा ॥५५॥
अभिमन्युर्हतो राजन्नेको बहुभिराहवे।
क्षोभयित्वा चमूं सर्वां नलिनीमिव कुञ्जरः ॥५६॥
अशेत निहतो वीरो व्याधैर्वनगजो यथा ॥५७॥
तं तथा पतितं वीरं तावकाः पर्यवारयन्।
वनं दग्ध्वा यथा शान्तं पावकं शिशिरात्यये ॥५८॥
विमृद्य तरुशृङ्गाणि सन्निवृत्तमिवानिलम्।
अस्तं गतमिवादित्यं तप्त्वा भारत वाहिनीम् ॥५९॥
उपप्लुतं यथा सोमं संशुष्कमिव सागरम्।
पूर्णचन्द्राभवदनं काकपक्षवृतालिकम्151॥६०॥
तं भूमौ पतितं दृष्ट्वा तावकास्ते महारथाः।
मुदा परमया युक्तास् सिंहवद्व्यनदन मुहुः॥६१॥
आसीत् परमको हर्षस् तावकानां विशां पते।
इतरेषां तु वीराणां नेत्रेभ्यः प्रापतज्जलम्॥६२॥
अतिक्रोशन्ति भूतानि ह्यन्तरिक्षे विशां पते।
तं दृष्ट्वा पतितं वीरं च्युतं चन्द्रमिवाम्बरात्॥६३॥
द्रोणकर्णमुखैष्षड्भिर् धार्तराष्ट्रैर्महारथैः।
एकोऽयं निहतस्सङ्ख्ये नैतद्धर्म्यं मतं हि नः॥६४॥
तस्मिंस्तु निहते वीरे बह्वशोभत मेदिनी।
द्यौर्यथा पूर्णचन्द्रेण नक्षत्रगणमालिनी॥६५॥
रुक्मपुङ्खैश्च संस्तीर्णा रुधिरौघपरिप्लुता।
उत्तमाङ्गैश्च वीराणां भ्राजमानैस्सकुण्डलैः॥६६॥
विचित्रैश्च परिस्तोमैः पताकाभिश्च संवृता।
चामरैश्च कशाभिश्च प्रविद्धैश्चाम्बरोत्तमैः॥६७॥
रथाश्वनरनागानाम् अलङ्कारैश्च सुप्रभैः।
खड्गैस्सुनिशितैः पीतैर् निर्मुक्तैरुरगैरिव॥६८॥
चापैश्च बहुभिश्छिन्नैश् शक्त्यृष्टिप्रासतोमरैः।
विविधैरायुधैश्चान्यैस् संवृता भूरशोभत॥६९॥
निष्टनद्भिरतीवार्तैर्उद्वमद्रुधिरस्रवैः।
नरैः पतद्भिः पतितैर् हेमभाण्डपरिच्छदैः152॥७०॥
वाजिभिश्चापि निर्जीवैश्153 श्वसद्भिश्शोणितोक्षितैः।
सारोहैर्विषमा भूमिस् सौभद्रेण निपातितैः॥७१॥
साङ्कुशैस्समहामात्रैस् सवर्मायुधकेतुभिः।
पर्वतैरिव विध्वस्तैर् विशिखोन्मथितैर्गजैः॥७२॥
पृथिव्यामनुकीर्णैश्च व्यश्वसारथियोधिभिः।
ह्रदैरिवप्रक्षुभितैर् हतनागै रथोत्तमैः॥७३॥
पदातिसङ्घैश्च हतैर् विविधायुधभूषणैः।
भीरूणां त्रासजननी घोररूपाऽभवन्मही॥७४॥
तं दृष्ट्वा पतितं भूमौ चन्द्रार्कसदृशद्युतिम्।
तावकानां परा प्रीतिर् आसीत् पाण्डुषु च व्यथा॥७५॥
अभिमन्यौ हते राजञ् शिशुकेऽप्राप्तयौवने।
सम्प्राद्रवच्चमूस्सर्वा धर्मराजस्य मारिष॥७६॥
दीर्यमाणं बलं दृष्ट्वा सौभद्रे विनिपातिते।
अजातशत्रुस्स्वान् वीरान् इदं वचनमब्रवीत्॥७७॥
युधिष्ठिरः—
स्वर्गमेष गतश्शूरो यो हतो न पराङ्मुखः।
संस्तम्भयत मा भैष्ट जेप्यामो वै वयं परान्॥७८॥
इत्येभ्यो दुःखनीतेभ्यो महाप्राज्ञो महाद्युतिः।
धर्मराजो युधि श्रेष्ठो ब्रुवन् दुःखमपानुदन्॥७९॥
युद्धे ह्याशीविषाकारान् राजपुत्रान् बहून् रणे।
पूर्वं निहत्य सङ्ग्रामे पश्चादार्जुनिरन्वगात् ॥८०॥
हत्वा दशसहस्राणि कौसल्यं च बृहद्बलम्।
कृष्णार्जुनसमः कार्ष्णिश् शक्रसद्म गतो ध्रुवम् ॥८१॥
नराश्वरथमातङ्गान् निहत्य च सहस्रशः।
अतृप्यन्नेव सङ्ग्रामाद् अगच्छत् पुण्यलोकजित् ॥८२॥
सञ्जयः—
वयं तु प्रवरान् हत्वा तेषां तैश्शरपीडिताः।
निवेशायाभ्युपायामस् सायाह्ने रुधिरोक्षिताः ॥८३॥
निरीक्षमाणास्तु वयं परस्यायोधनं शनैः।
अपायाम महाराज ग्लानिं प्राप्ता विचेतसः ॥८४॥
ततो निशाया दिवसस्य चाशिवश्
शिवारुतैस्संधिरवर्तताद्भुतः।
कुशेशयापीडनिभे दिवाकरे
विलम्बमानेऽस्तमुपेत्य पर्वतम्॥८५॥
शरासिशक्त्यृष्टिवरूथचर्मणां
विभूषणानां च समाक्षिपन् प्रभाम्।
दिवं च भूमिं च समानयन्निव
प्रियां तनूं स्वां रविरेति पावकीम् ॥८६॥
महाभ्रकूटाचलशृङ्गसन्निभैर्
अनेकपैर्वज्रहतैरिवाद्रिभिः।
सवैजयन्त्यङ्कुशवर्मयन्तृभिर्
निपातितैर्निष्टनतीव गौश्चिता ॥८७॥
हतेश्वरैश्चूर्णितचक्रकूबरैर्
हताश्वसूतैर्विपताककेतुभिः।
महारथैर्भग्नविचूर्णितैर्मही
पुरैरिवामित्रहतैश्चिता बभौ ॥८८॥
गजाश्वबृन्दैस्सहसादिभिर्हतैः
प्रविद्धभाण्डाभरणैः पृथग्विधैः।
निरस्तजिह्वादशनान्त्रलोचनैर्
धरा वभौ घोरविरूपदर्शिभिः ॥८९॥
प्रविद्धवर्माभरणायुधाम्बरा
विपन्नहस्त्यश्वरथानुगा नराः।
महार्हशय्यास्तरणोचितास्सदा
क्षितावनाथा इव शेरते हताः ॥१०॥
दिनक्षये हि श्वशृगालवायसा
वलास्सुपर्णाश्च वृकास्तरक्षवः।
वयांस्यसृक्पास्त्वथ रक्षसां गणाः
पिशाचसङ्घाश्च नदन्ति भैरवम् ॥११॥
त्वचो विभिन्दन्ति पिबन्त्यसृग्वसां
वमन्ति मज्जां पिशितान्यदन्ति च।
वपा विलुम्पन्ति हसन्ति भान्ति च
प्रकर्षमाणाः कुणपान्यनेकशः॥१२॥
शरीरसङ्घाटवहा ह्यसृग्जला
रथोडुपा कुञ्जरशैलसङ्कटा।
मनुष्यशीर्षोपलमांसकर्दमा
प्रविद्धनानाविधशस्त्रमालिनी॥१३॥
भयावहा वैतरणीव दुस्तरा
प्रवर्तिता योधवरैस्तदा नदी।
उवाह मध्येन रणाजिरं भृशं
भयानका दीनमृतप्रवाहिनी॥१४॥
पिबन्ति च स्नान्ति च तत्र दुर्दृशाः
पिशाचसङ्गाविविधास्सभैरवाः।
सुनन्दिताः प्राणभृतां भयङ्करास्
समानभक्ताश्श्वसृगालपक्षिणः॥९५॥
तथा तदायोधनमुग्रदर्शनं
निशामुखे पितृपतिराष्ट्रसन्निभम्154।
निरीक्षमाणाश्शनकैर्मुहुर्नरास्
समुत्थितोरुण्डगणाभिसङ्कुलम् ॥९६॥
अपेतविध्वस्तमहार्हभूषणं
निपातितं शक्रसमं महारथम्।
रणेऽभिमन्युं ददृशुस्तदा जना
यथोढहव्यं सदसीव पावकम् ॥९७॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः॥४७॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि षोडशोऽध्यायः॥१६॥
[अस्मिन्नध्याये ९७ श्लोकाः]
॥ अष्टाचत्वारिंशोऽध्यायः॥
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युधिष्ठिरस्याभिमन्युमनुशोच्य विलापः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1707135946क.png"/>
सञ्जयः—
निहते पाण्डवास्तत्र सौभद्रे रथयूथपे।
विमुक्त्तरथसन्नाहास् सर्वे निक्षिप्तकार्मुकाः॥१
उपोपविष्टा राजानः परिवव्रुर्युधिष्ठिरम्।
तदेव दुःखं ध्यायन्तस् सौभद्रगतमानसाः॥२
ततो युधिष्ठिरस्तत्र विललाप सुदुःखितः।
अभिमन्यौ हते वीरे भ्रातुः पुत्रे महारथे॥३
युधिष्ठिरः—
एष155 जित्वा कृपं शल्यं राजानं च सुयोधनम्।
द्रोणं द्रौणिं महेष्वासं तथैवान्यान् महारथान्॥४
द्रोणानीकमसम्बाधं मम प्रियचिकीर्षया।
हत्वा शत्रुगणान् वीरान् एष शेते निपातितः॥५
कृतास्त्रान् युद्धकुशलान् महेष्वासान् महारथान्।
कुलशीलगुणैर्युक्ताञ् छूरान् विख्यातपौरुषान्॥६
द्रोणेन विहितं व्यूहम् अभेद्यममरैरपि।
अदृष्टपूर्वमस्माभिः पद्मं चक्रायुधप्रियः॥७॥
भित्त्वाऽनीकं156 प्रविष्टोऽसौ गोमध्यमिव केसरी॥७॥
चिक्रीडितं रणे तेन निघ्नता वै परान् वरान्॥८॥
यस्य शूरा महेष्वासाः प्रत्यनीकगता रणे।
प्रभग्ना विनिवर्तन्ते कृतास्त्रा युद्धदुर्मदाः॥९॥
अत्यन्तवैरी चास्माकं येन दुश्शासनश्शरैः।
क्षिपन्नभिमुखस्सङ्ख्ये निस्संज्ञो विमुखीकृतः॥१०॥
स कथं प्राप्य दुष्प्रापं द्रोणानीकमहार्णवम्।
शूरग्राहाकुलं भीमं तीर्त्वा चैनमभीतवत्॥११॥
प्राप्तो दौश्शासनिं पापं यातो वैवस्वतक्षयम्॥११॥
किंस्विद्वक्ष्यामि सौभद्रे निहते चार्जुनं प्रति॥१२॥
किं वा सुभद्रां वक्ष्यामि प्रियं पुत्रमपश्यतीम्।
हतवत्सां157 यथा धेनुं तद्दर्शनकृतोन्मुखीम्॥१३॥
किंस्विद्वक्ष्याम्यपेतार्थम् अक्लिष्टमसमञ्जसम्।
तावुभौ प्रतिवक्ष्यामि प्रियं पुत्रमपश्यतौ॥१४॥
अहं ह्येवं सुभद्रायाः केशवार्जुनयोरपि।
प्रियकामो जयाकाङ्क्षी कृतवानिदमप्रियम्॥१५॥
न लुब्धो बुध्यते दोषान् मोहाल्लोभात् प्रवर्तते।
मधु लिप्सुर्हि नाद्राक्षं प्रपातमिदमीदृशम्॥१६॥
योऽसौ भोज्ये पुरस्कार्यो धनेषु वसनेषु च।
भूषणेषु च सोऽस्माभिर् बालो युधि पुरस्कृतः॥१७॥
कथं हि बालस्तरुणो युद्धानामविशारदः।
सदश्व इव सम्बाधे विषमे क्षेममर्हति॥१८॥
नो चेद्धि वयमप्येवं महीमनुशयीमहि।
बीभत्सोः कोपदीप्तस्य दग्धाः क्रूरेण158 चक्षुषा॥१९॥
अलुब्धो मतिमाञ् श्रीमान्क्षमावान्159 रूपवान् बली।
वपुष्मान् नयकृद्वीरः प्रियस्सत्यपराक्रमः॥२०॥
श्लाघन्तेयस्य विबुधाः कर्मभिर्भीमकर्मणः।
निवातकवचान् योऽघ्नत् कालकेयांश्च वीर्यवान्॥२१॥
महेन्द्रशत्रवो येन हिरण्यपुरवासिनः।
अक्ष्णोर्निमेषमात्रेण पौलोमास्सगणा हताः॥२२॥
परेभ्योह्यभयार्थिभ्यो यो दद्यादभयं प्रभुः।
तस्यास्माभिर्न च कृतं पुत्रत्राणं भयादिह॥२३॥
भयं तु सुमहत् प्राप्तं धार्तराष्ट्रबलं महत्।
पार्थः पुत्रवधात् क्रुद्धश् शात्रवाञ् शमयिष्यति॥२४॥
क्षुद्रः क्षुद्रसहायश्च स्वपक्षक्षयमातुरः।
व्यक्तं दुर्योधनो दृष्ट्वा शोचन्हास्यति जीवितम्॥२५॥
न मे जयः प्रीतिकरो न राज्यं
न चामरत्वं न सुरैस्सलोकता।
इमं समीक्ष्याप्रतिवार्यपौरुषं
निपातितं देववरात्मजात्मजम्॥२६॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि अष्टाचत्वारिंशोऽध्यायः॥४८॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥
[अस्मिन्नध्याये २६ श्लोकाः]
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॥ एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥
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युधिष्ठिराश्वासनाय व्यासेन तं प्रति अकम्पनोपाख्यानकथनोपक्रमः॥
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सञ्जयः—
एवं विलपमाने तु कुन्तीपुत्रे युधिष्ठिरे।
कृष्णद्वैपायनस्तत्र160 प्रादुर्भूतो महानृषिः॥
अथ दृष्ट्वा महात्मानं पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः।
मुक्तासनो दीनमनाः पूजां चक्रे महात्मनः॥
तं समर्च्य यथान्यायम् उपातिष्ठद्युधिष्ठिरः।
अब्रवीच्छोकसन्तप्तो भ्रातुः पुत्रवधेन सः॥३॥
युधिष्ठिरः—
अधर्मयुद्धे बहुभिः परिवार्य महारथैः।
युध्यमानो महेष्वासैस् सौभद्रो निहतो रणे॥४॥
बालश्चाबालबुद्धिश्च161 वीरश्च परवीरहा।
अनुपायेन सङ्ग्रामे युध्यमानो विनाशितः॥५॥
मयाऽपि चोक्तस्सङ्ग्रामे द्वारं सञ्जनयस्व नः।
प्रविष्टे च परांस्तस्मिन् सैन्धवेन स्म वारिताः॥६॥
ननु नाम समं युद्धम् एष्टव्यं युद्धजीविना।
इदं च विषमं युद्धम् ईदृशं बहुभिः कृतम्॥७॥
तेनास्मि भृशसन्तप्तश् शोकबाष्पसमाकुलः।
शमं नैवाधिगच्छामि चिन्तयानः पुनः पुनः॥८॥
सञ्जयः—
तं तथा विलपन्तं वै शोकोपहतचेतसम्।
उवाच भगवान् व्यासो युधिष्ठिरमिदं वचः॥९॥
व्यासः—
युधिष्ठिर महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद।
व्यसनेषु न मुह्यन्ति पुरुषा पुरुषर्षभ॥१०॥
स्वर्गमेष162 गतश्शूरश् शत्रून् हत्वा रणे बहून्।
अबालसदृशं कर्म कृत्वा वै पुरुषर्षभः॥११॥
अनतिक्रमणीयो हि विधिरेष सनातनः।
देवदानवगन्धर्वा मृत्युं गच्छन्ति भारत॥१२॥
युधिष्ठिरः—
य इसे पृथिवीपालाश् शेरते पृथिवीतले।
निहताः पृतनामध्ये मृतसंज्ञा महाबलाः ॥१३॥
एकैकशो भीमबला नागायुतशतोपमाः।
इषुवेगबलाश्चान्ये163 वायुवेगबलास्तथा ॥१४॥
नैषां पश्यामि हन्तारं प्राणिनां संयुगे क्वचित्॥१४॥
विक्रमेणोपपन्ना हि तेजोबलसमन्विताः।
अथ चेमे महाप्राज्ञाश् शेरते च गतायुषः ॥१५॥
मृता इति च शब्दोऽयं वर्तते च गतायुषाम् ॥१६॥
इमे भृता महीपालाः प्रायशो भीमविक्रमाः।
राजपुत्राश्च164 संरब्धा वैश्वानरसमप्रभाः॥१७॥
तत्र मे संशयः प्राप्तः कुतस्संज्ञा मृता इति।
कस्य मृत्युः कुतो मृत्युः केन मृत्युरिमाः प्रजाः॥१८॥
हरत्यमरसङ्काश तन्मे ब्रूहि पितामह॥१८॥
सञ्जयः—
तं तथा परिपृच्छन्तं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
आश्वासनमिदं वाक्यम् उवाच भगवानृषिः॥१९॥
व्यासः—
अत्राप्युदाहरन्तीमम् इतिहासं पुरातनम्।
अकम्पनस्य कथितं नारदेन पुरा नृप॥२०॥
स चापि राजा राजेन्द्र पुत्रव्यसनमुत्तमम्।
अप्रसह्यतमं लोके प्राप्तवानिति नश्श्रुतम्॥२१॥
तत् तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि मृत्योः प्रभवमुत्तमम्।
ततस्त्वं मोक्ष्यसे दुःखाद् देहबन्धनसंश्रयात्165॥२२॥
पुरावृत्तमिदं तात मम कीर्तयतश्शृणु।
धर्म्यमाख्यानमायुष्यं शोकघ्नं पुष्टिवर्धनम्॥२३॥
पुरा कृतयुगे तात राजा ह्यासीदकम्पनः।
स166 शत्रुवशमापन्नो मध्ये सङ्ग्राममूर्धनि॥२४॥
योधयामास167 बलवान् बद्धश्चासीदकम्पनः॥२५॥
तस्य168 पुत्रो हरिर्नाम नारायणसमद्युतिः।
श्रीमान् कृतास्त्रो मेधावी युधि शक्रसमो बली॥२६॥
स शत्रुभिः परिवृतो बहुधा रणमूर्धनि।
योधयामास तान् सर्वान् सर्वास्त्रकुशलो बली॥२७॥
वर्षन् बाणसहस्राणि शत्रुष्वमितविक्रमः।
पदातिरथनागाश्वान् प्रममाथ महाबलः॥२८॥
तदुदीर्णं बलं सर्वं हत्वाऽरीनरिसूदनः।
त्रिविष्टपं यथा शक्रः प्रविवेश पुरोत्तमम्॥२९॥
स दृष्ट्वा पितरं युद्धे तदवस्थं महाद्युतिः।
अचिन्तयित्वा मरणं शत्रुमध्येऽविशत् सुतः॥३०॥
स शरैराचितश्चित्रैर् गदाभिर्मुसलैरपि।
मृद्गन् रथिसहस्राणि रथांश्च हयवारणान्॥३१॥
परानीकं विभिद्याजौ मोक्षयित्वा च तं नृपम्।
पुनरेवाकरोद्युद्धं शत्रुमध्यगतो बली॥३२॥
ततस्ते रथिनस्सर्वे समेत्य पुनराहवे।
जघ्नुस्तं परिवार्यैकं तोमरैरिव कुञ्जरम्॥३३॥
स कर्म दुष्करं कृत्वा सङ्ग्रामे शत्रुतापनः।
शत्रुभिर्नितशेते पृतानायां युधिष्ठिर॥३४॥
द्विषद्भिर्निहतं दृष्ट्वा प्रियं पुत्रमकम्पनः।
अमर्षजनितक्रोध आहवात् सहसाऽऽगतः॥३५॥
स169 राजा प्रेतकृत्यानि तस्य कृत्वा शुचाऽन्वितः।
शोचन्नहनि रात्रौ च न लेभे सुखमात्मनः॥३६॥
तस्य शोकं विदित्वा तु पुत्रव्यसनसम्भवम्।
अथाजगाम देवर्षिर् नारदोऽस्य समीपतः॥३७॥
स तु राजा महाभागो दृष्ट्वा देवर्षिमागतम्।
पूजयित्वा यथान्यायं कथामकथयत् तदा ॥३८॥
तदस्मै सर्वमाचष्ट यथावृत्तं युधिष्ठिर।
शत्रुभिर्निर्जितं सङ्ख्ये पुत्रस्य च वधं तथा॥३९॥
अकम्पनः—
मम पुत्रो महावीर्य इन्द्रविष्णुसमद्युतिः।
शत्रुभिर्बहुभिस्सङ्ख्ये पराक्रम्य हतो युधि ॥४०॥
शृणोमि प्राणिनां चापि मृत्युः प्रभवते किल।
क एष बलवान् मृत्युः किंवीर्यबलपौरुषः॥४१॥
एतदिच्छामि तत्त्वेन कथितं द्विजसत्तम्॥४१॥
व्यासः—
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा नारदो भगवान् ऋषिः।
आख्यानमिदमाचष्ट पुत्रं शोकापहं महत् ॥४२॥
नारदः—
राजञ् शृणु ममेदं त्वम् आख्यानं बहुविस्तरम्।
यथावृत्तं श्रुतं चैव मयाऽपि वसुधाधिप ॥४३॥
प्रजास्सृष्ट्वा महाराज प्रजासर्गे पितामहः।
असंहृतं महातेजा दृष्ट्वा जगदिदं प्रभुः ॥४४॥
तस्य चिन्ता समुत्पन्ना संहारं प्रति पार्थिव।
चिन्तयन्नाससादैव संहारं वसुधाधिप ॥४५॥
तस्य रोषान्महाराज मुखेभ्योऽग्निरजायत।
तेन सर्वा दिशो व्याप्तास् सर्वान् देशान् दिधक्षता ॥४६॥
ततो भुवं दिवं चैव सर्वं ज्वालाभिरावृतम्।
चराचरं जगत् सर्वं ब्रह्मणः परवीरहन् ॥४७॥
कोपो दहति भूतानि जङ्गमानि ध्रुवाणि च।
महता कोपवेगेन त्रासयन्निव वीर्यवान् ॥४८॥
ततो हरो जटी स्थाणुर् निशाचरपतिश्शिवः।
जगाम शरणं देवं ब्रह्माणं परवीरहन् ॥४९॥
तस्मिन् निपतिते स्थाणौ प्रजानां हितकाम्यया।
अब्रवीत् परमो देवो ज्वलन्निव महाद्युतिः170॥५०॥
ब्रह्मा—
किं कुर्मि कामं कामारे कामार्होऽसि मतो मम।
करिष्येते प्रियं कामं ब्रूहि स्थाणो यदिच्छसि ॥५१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि एकोनपञ्चाशोऽध्यायः॥४५॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः॥१८॥
[ अस्मिन्नध्याये ५१॥श्लोकाः ]
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॥ पञ्चाशोऽध्यायः॥
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ब्रह्मरुद्रसंवादः॥१॥ब्रह्मणा प्रजासंहाराय मृत्युदेवीसर्जनम्॥२॥
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स्थाणुः—
प्रजासर्गनिमित्तत्वात् कृतो यत्नस्त्वया प्रभो।
त्वया विसृष्टा वृद्धास्तु भूतग्रामाः पृथग्विधाः॥१॥
तास्तथैव पुनः क्रोधात् प्रजा नश्यन्ति सर्वशः।
ता दृष्ट्वा मम कारुण्यं प्रसीद भगवन् प्रभो॥२॥
ब्रह्मा—
न क्रुध्ये न च मे काम एतदेवं भवेदिति।
पृथिव्या हितकामात् तु ततो मां मन्युराविशत् ॥३॥
इयं सन्ना सदा देवी भारतो मामचूचुदत्।
संहारार्थं महादेव भारेणाभिहता सती॥४॥
ततो वै नाधिगच्छामि बुद्ध्या बहु विचारयन्।
संहारमप्रमेयात्मंस् ततो मां मन्युराविशत् ॥५॥
स्थाणुः—
संहारार्थं प्रसीदस्व मा क्रुधो विबुधाधिप ।
मा प्रजास्स्थावराश्चैव जङ्गमाश्च व्यनीनशः॥६॥
तव प्रसादाद्भगवन्निदं जातं त्रिधा जगत्।
अनागतमतीतं च यच्च सम्प्रति वर्तते ॥७॥
भगवन् क्रोधसन्दीप्तः क्रोधादग्निस्समुत्थितः।
स दहत्यश्मकूटानि द्रुमांश्च सरितस्तथा॥८॥
पल्वलानि171 च सर्वाणि सर्वं चैव तृणोलपम्।
स्थावरं जङ्गमं चैव निश्शेषं कुरुते जगत्॥९॥
तदेतद्भस्मसाद्भूतं सर्वं जगदनाविलम्।
प्रसीद भगवन् देव रोषो न स्याद्वरो मम॥१०॥
सर्वे विनष्टास्तप्यन्ते सर्वे देवाः कथञ्चन।
तस्मान्निवर्ततां तेजस् त्वयि वैतत् प्रलीयताम् ॥११॥
उपायमन्यं सम्पश्य प्रजानां हितकाम्यया।
यथेमे प्राणिनस्सर्वे निवर्तेरंस्तथा कुरु ॥१२॥
अभावं नैव गच्छेयुर् उत्पन्नप्रजनाः प्रजाः।
भवता हि नियुक्तोऽहं प्रजानां पालने प्रभो ॥१३॥
दया ते न ममोत्पन्ना प्रजासु विबुधेश्वर ॥१३॥
यन्मया नाथवच्चेदं जगत् स्थावरजङ्गमम्।
प्रपद्ये हि गुरुं देवं तस्मादेतद्ब्रवीम्यहम् ॥१४॥
नारदः—
श्रुत्वा तु वचनं स्थाणोर् नित्यं निहितपालनः।
तेजस्संवेष्टयामास पुनरेवान्तरात्मनि ॥१५॥
ततोऽग्निमुपसंहृत्य भगवाल्ँलोकसत्कृतः।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कल्पयामास वै प्रभुः॥१६॥
उपसंहृतवान् ब्रह्मा तमग्निं रोषजं तथा।
प्रादुर्बभूव विश्वेभ्यः खेभ्यो नारी महामनाः ॥१७॥
कृष्णरक्ताम्बरधरा रक्तजिह्वास्यलोचना।
कुण्डलाभ्यां च राजेन्द्र तप्ताभ्यां समलङ्कृता॥१८॥
सा172विनिर्गत्य वै खेभ्यो दक्षिणां दिशमाश्रयत्।
स्मयमानेव चावेक्षद् देवौ विश्वेश्वरावुभौ॥१९॥
तामाह्वयत् तदाऽचिन्त्यो लोकादिनिधनेश्वरः॥२०॥
तां तु तत्र तदा देवीं ब्रह्मा लोकपितामहः।
उक्तवान् मधुरं वाक्यं सान्त्वयित्वा पुनः पुनः॥२१॥
मृत्यो इति महीपाल जहि चेमाःप्रजा इति ॥२१॥
प्रादुर्भूता मया रोषात् त्वं हि संहारबुद्धिना।
तस्मात् संहर सर्वास्त्वं प्रजास्सजडपण्डिताः॥२२॥
अविशेषेण चैव त्वं प्रजास्संहर भामिनि।
मम त्वं हि नियोगेन तत्र यो ह्यवाप्स्यसि ॥२३॥
नारदः—
एवमुक्ता तु सा तेनमृत्युः कमललोचना।
दध्यौ173चात्यर्थमबला प्रापतंश्चाश्रुबिन्दवः ॥२४॥
पाणिभ्यां प्रतिजग्राह तान्यश्रूणि पितामहः।
सर्वभूतहितार्थाय तां चाप्यन्वनयद्भृशम् ॥२५॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां द्रोणपर्वणि पञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५०॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि एकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥
[अस्मिन्नध्याये २५॥ श्लोकाः]
॥ एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥
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नारदेन मृत्युब्रह्मसंवादकथनेन अकम्पनस्य शोकपरिहरणम् ॥१॥ व्यासेनाकम्पनोपाख्यानकथनात् युधिष्ठिरस्यशोकापनोदनम् ॥२॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1707227122क.png"/>
नारदः—
विनीय दुःखमबला आत्मन्येव प्रजापतिम्।
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा लतेवानिलकम्पिता॥१॥
मृत्युः—
त्वया सृष्टा कथं नारी मादृशी वदतां वर।
क्रूरं कर्माहितं कुर्यां मूढेव किमु जानती ॥२॥
बिभेम्यहमधर्माय प्रसीद भगवन् प्रभो ॥२॥
प्रियान् पुत्रान् वयस्यांश्च भ्रातॄन् मातॄःपितॄन् पतीन्।
अनुध्यास्यन्ति ये देव मृतांस्तेषां बिभेम्यहम् ॥३॥
कृपणाऽश्रुपरिक्लेदात् पतेयं शाश्वतीस्समाः ॥४॥
तेभ्योऽतिबलवद्भीता शरणं त्वाऽहमागता।
यमस्य सदनं देव प्रजा रोद्धुं न चोत्सहे ॥५॥
प्रसादये त्वा वरद मूर्ध्ना देववर प्रभो।
एकमिच्छामि174 मे कामं त्वत्तो लोकपितामह ॥६॥
इच्छेयं त्वत्प्रसादाद्वै तपस्तप्तुं प्रजेश्वर।
प्रदिशेमं वरं देवं त्वं मह्यं भगवन् प्रभो ॥७॥
त्वयोक्ताऽहं गमिष्यामि धेनुकाश्रममुत्तमम्।
तत्र तप्स्ये तपस्तीव्रं तवैवाराधने रता ॥८॥
न हि शक्ष्यामि देवेश प्राणान् प्राणभृतां प्रियान्।
हर्तुं विलपमानानाम् अधर्मं चापि रक्षितुम् ॥९॥
ब्रह्मा—
मृत्यो सङ्कल्पिता मे त्वं प्रजासंहरणे तु वै।
गच्छ संहर सर्वास्त्वं प्रजा मा ते विचारणा॥१०॥
भविता त्वेतदेवं हि नैतज्जात्वन्यथा भवेत्।
तस्मादनिन्दिता काले कुरुष्व वचनं मम॥११॥
नारदः—
एवमुक्ता भगवता प्राञ्जलिश्चाप्यवाङ्मुखी।
संहारे नाकरोद्बुद्धिं प्रजानां हितकाम्यया ॥१२॥
तूष्णीमासीत् तदा देवः प्रजानामीश्वरेश्वरः।
प्रसादं चागमत् क्षिप्रम् आत्मन्येव पितामहः॥१३॥
स्मयमानश्च देवेशो लोकान् सर्वानवैक्षत।
लोकाश्चासन् यथापूर्वं दृष्टास्तेनापमन्युना॥१४॥
निवृत्तरोषे तस्मिंस्तु भगवत्यपराजिते।
सा कन्याऽपि जगामाथ समीपात् तस्य धीमतः ॥१५॥
अपसृत्याप्रतिश्रुत्य प्रजासंहरणं तथा ।
त्वरमाणा च राजेन्द्र मृत्युर्धेनुकमभ्ययात् \।\।१६
सा तत्र परमं तीव्रं चचार तप उत्तमम् ।
समानामेकपादेन तस्थौ पद्मानि षोडश \।\।१७
पञ्च चान्यानि कारुण्यात् प्रजानामभयैषिणी ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यः प्रियेभ्यस्सन्निवार्य सा \।\।१८
ततस्त्वेकपदेनैव पुनरन्यानि सप्त वै ।
तस्थौ पद्मानि षट् चैव सप्त पञ्चैव वै नृप \।\।१९
तत्र वर्षायुतं तात मृगैस्सह चचार सा \।\।१९॥
पुनर्गत्वा ततो गङ्गां पुण्यां शीतजलां शिवाम् \।
अप्सु वर्षसहस्राणि सप्त चैकं च साऽवसत् \।\।२०॥
तं पारयित्वा नियमं गङ्गायां वीतकल्मषा \।
सा पुनः कौशिकीं पुण्यां जगाम नियमैर्वृताम् \।\।२१॥
तत्र वायुजलाहारा चचार नियतं पुनः \।\।२२
पञ्चगङ्गे च सा पुण्ये कन्या वैतंसिकेषु च ।
तपोविशेषैर्विविधैः कर्शयद् देहमात्मनः ॥२३
ततो गत्वा महाभाग महामेरुं च केवलम् ।
तस्थावश्मेव निश्चेष्टाप्राणायामपरायणा \।\।२४
ततो हिमवतो मूर्ध्नि यत्र देवाः पुराऽयजन ।
तत्राङ्गुष्ठेन सा तस्थौ निखर्वं परमङ्गना ॥२५
पुष्करेष्वथ गोकर्णे नैमिशे मलदेषु च ।
अकर्शयत् स्वकं देहं नियमैर्मनसः प्रियैः ॥२६
अनन्यदेवता नित्यं दृढभक्ता पितामहे ।
तस्थौ पितामहं चैव तोषयामास यत्नतः ॥२७
ततस्तामब्रवीत् प्रीतो लोकानां प्रभवोऽव्ययः \।\।२७॥
ब्रह्मा—
मृत्यो किमिदमत्यर्थं तपांसि चरसीति ह \।\।२८
नारदः—
ततोऽब्रवीत् पुनर्मृत्युर् भगवन्तं पितामहम् \।\।२८॥
मृत्युः—
नाऽहं हन्यां प्रजा देव स्वस्थाश्च कोशतीः प्रभो ।
एतदिच्छामि सर्वेश त्वत्तो वरमहं प्रभो ॥२९॥
अधर्मभयभीताऽस्मि ततोऽहं तप आस्थिता ।
भीताया मे महाभाग प्रदेहि वरमव्ययम् \।\।३०
आर्ता चानागसी च त्वा याचामि भव मे गतिः ॥ ३१
नारदः—
तामब्रवीत् ततो देवो भूतभव्यभविष्यकृत् ॥३१॥
ब्रह्मा—
अधर्मो नास्ति ते मृत्यो संहरन्त्या इमाः प्रजाः ।
मया चोक्तं मृषा भद्रे भविता न कथञ्चन \।\।३२॥
तस्मात् संहर कल्याणि प्रजास्सर्वाश्चतुर्विधाः ।
धर्मस्सनातनश्च त्वां सर्वथाऽनुप्रवेक्ष्यति \।\।३३॥
शर्वः कालो यमश्चैव सहाया व्याधयश्च ते ।
अहं च विबुधाश्चैव पुनर्दास्याम ते वरान् \।\।३४॥
यैस्त्वं युक्ता भयान्मुक्ता विरजाः ख्यातिमेष्यसि \।\।३५
नारदः—
सैवमुक्ता महाराज कृताञ्जलिरिदं प्रभुम् ।
पुनरेवाब्रवीद्वाक्यं प्रसाद्य शिरसा तदा\।\।३६
मृत्युः—
यद्येतदेवं कर्तव्यं धर्मतो नास्त्यतो भयम् ।
तवाज्ञा मूर्ध्नि मे न्यस्ता यत् तु वक्ष्यामि तच्छृणु \।\।३७
लोभः क्रोधो ह्यसूयेर्ष्यामोहो द्रोहश्च देहिनाम् ।
अप्रियान्योन्यजनिता देहान् भिन्द्यःपृथग्विधाः \।\।३८
ब्रह्मा—
तथा भविष्यते मृत्यो साधु संहर वै प्रजाः ।
अधर्मस्ते न भविता तथा दास्यामि तेऽभयम् \।\।३९
यान्यबिन्दूनि करे तवासंस्
ते व्याधयः प्राणिनां देहजास्स्युः ।
ते मारयिष्यन्ति नरान् गतासून्
नाधर्मस्ते भविता मा स्म भैषीः\।\।४०
धर्मो मृत्यो मारणे प्राणिनां ते
त्वं वै धर्मस्त्वं हि सर्वस्य चेशा ।
धर्मो भूत्वा धर्मनित्या धरित्री
तस्मात् प्राणान् सर्वथेमान् नियच्छ॥४१
पाप्मा तथा नो भविता कदाचिद्
एवं मया वै विनियुज्यसे त्वम् ।
सर्वेषां वै प्राणिनां कामरोषौ
संत्यज्य त्वं संहर सर्वजीवान् \।\।४२
येषां धर्मास्ते भविष्यन्त्यनन्ताः
मिथ्यावृत्तान् मारयिष्यत्यधर्मः ।
तेनात्मानं प्लावयस्व व्यपेक्षं
पापात्मानो मज्जयिष्यन्त्यसन्तः ॥४३
तस्मात् कामं रोषमप्यागतं त्वं
संत्यज्योभौ संहर सर्वजीवान् ॥४३॥
नारदः—
सा चैवमुक्ता मृत्युसंज्ञापदेशाच्
छापाद्भीता वाढमित्यब्रवीत् तम् ।
सा च प्राणान् प्राणिनां प्रायणान्ते
कामक्रोधौ संहरत्येव हित्वा ॥४४॥
मृत्युस्त्वेषां व्याधयस्तत्प्रसूता
व्याधी रोगैयुज्यते येन देहः ।
सर्वेषां च प्राणिनां प्रायणान्ते
प्राणा गत्वा सन्निवृत्तास्तथैव ॥४५॥
एवं मृत्युः प्राणिनां तत्र गत्वा
भूत्वा देवी मर्त्यतां याति भूयः ॥४६
वायुर्भीमो भीमनादो महौजा
भेत्ता देहान् प्राणिनां देहभूतः ।
नैवावृत्तिं नातिवृत्तिं कदाचित्
प्राप्नोत्युग्रोऽनन्ततेजोविशिष्टः ॥४७
सर्वे देवा मर्त्यसंज्ञाविशिष्टास्
सर्वे मर्त्या देवसंज्ञा विशिष्टाः।
तस्मात् पुत्रं मा शुचो राजसिंह
स्वर्गं प्राप्तो मोदते त्वत्तनूजः ॥४८
नित्यं रम्यान् वीरलोकानवाप्य
त्यक्त्वा दुःखं सङ्गतः पुण्यकद्भिः \।
एवं मृत्युर्देवसृष्टा प्रजानाम्
काले प्राप्ते संहरत्येव जन्तून् ॥४९
रोगा ह्येते व्याधयो देहजाश्च
स्वयं कृताः प्राणहराः प्रजानाम् ।
‘आत्मानं175 वै देहिनो घ्नन्ति सर्वे
नैतान् मृत्युर्दण्डपाणिर्हिनस्ति \।\।५०
तस्मान्मृतान् नानुशोचन्ति धीरास्
तत्त्वं ज्ञात्वा निश्चयं ब्रह्मसृष्टम् \।\।५०॥
व्यासः—
एतच्छ्रुत्वाऽर्थवद्वाक्यं नारदेन प्रभाषितम् ।
उवाचाकम्पनो राजा सखायं नारदं तदा \।\।५१॥
अकम्पनः—
व्यपेतशोकः प्रीतोऽस्मि भगवन्नृषिसत्तम ।
श्रुत्वेतिहासं त्वत्तोऽद्य कृतार्थोऽस्म्यभिवादये \।\।५२॥
व्यासः-
तथोक्तो नारदस्तेन राज्ञा देवर्षिसत्तमः ।
जगाम नन्दनं शीघ्रम् अशोकवनमात्मनः ॥५३॥
पुण्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्गीयं धर्म्यमेव च ।
अस्येतिहासस्य सदा श्रवणं श्रावणं तथा \।\।५४॥
एवमर्थं हि संश्रुत्य ज्ञात्वा चैव स पाण्डव ।
क्षत्रधर्मं च विज्ञाय शूराणां च परां गतिम् \।\।५५॥
सम्प्राप्तो हि महावीर्यस् स्वर्गलोकं महारथः ॥५६
अभिमन्युः परान् हत्वा प्रमुखे सर्वधन्विनाम् \।
युध्यमानो महेष्वासांस् त्यक्तात्माऽभिमुखो रणे \।\।५७
असिना गया शक्त्या धनुषा च महारथः ।
तस्मात् परां धृतिं कृत्वा भ्रातृभिस्सह पाण्डव॥५८
अप्रमत्तस्सुसंरब्धो राजन् युध्यस्व शत्रुभिः \।\।५८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकार्या संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि एकपञ्चाशोऽध्यायः ॥ ५१ ॥
॥ ६७ ॥ अभिमन्युवधपर्वणि विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
[ अस्मिन्नध्याये ५८॥ श्लोकाः ]
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॥ द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥
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व्यासेन युधिष्ठिरं प्रति षोडशराजकीयाख्यानकथनप्रारम्भः ॥ १ ॥
नारदेन सञ्जयं प्रति मरुत्तराजचरितकथनम् ॥ २ ॥
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सञ्जयः—
श्रुत्वा मृत्योस्समुत्पत्ति कर्माण्यनुपमानि च ।
धर्मराजः पुनर्व्यासं प्रसाद्योत्तरमब्रवीत् \।\।१
युधिष्ठिरः—
सुरुचः पुण्यकर्माणश्शक्रप्रतिमविक्रमाः ।
पूर्व राजर्षयो ब्रह्मन् कियन्तो मृत्युना हताः ॥२
भूय एव तु मा तथ्यैर् वचोभिरुपबृंहय ।
राजर्षीणां पुराणानां समाश्वासय कर्मभिः ॥३
कियन्त्यो दक्षिणा दत्ताः काश्च दत्ता महात्मभिः ।
राजर्षिभिः पुण्यकृद्भिस् तद्भवान् प्रनवीतु मे ॥४
व्यासः—
अन्येऽपि यज्वनां लोका अन्ये चापि तपस्विनाम्
क्षमावतां च त्रील्लोकाञ् शूरा गच्छन्ति भारत \।\।५
क्षत्रियस्य तु सङ्ग्रामे शत्रून् हत्वा हृतस्य वा ।
फलमयन्तमित्याहुर् धर्मशास्त्रविदो जनाः ॥६
वेदविद्याव्रतस्त्राता यज्वानः पुत्रिणश्च ये ।
तेभ्यः परार्ध्या यज्वानो यज्वभ्यश्च तनुत्यजः \।\।७
सं वीरो यज्वनो नित्यं क्षत्रियानार्जुनिर्गतः ।
लोकान् पुण्यतमानिष्टान् इति विद्धि विशां पते ॥८
सर्वेषां नृपसिंहानां शृणु यज्ञान नृपोत्तम \।
तानतिकम्य गच्छन्ति स्वर्गकामास्तनुत्यजः \।\।९
युधिष्ठिरः—
सर्वेषां यज्वनां यज्ञाञ् श्रोतुमिच्छामि सुव्रत ।
दक्षिणाश्चानुरूपेभ्यो दत्ता राजर्षिसत्तमैः \।\।१०
व्यासः—
‘शैब्यस्य176 नृपतेः पुत्रस् सृञ्जयो नाम भूमिपः ।
सखायौ तस्य चाभूताम् ऋषी पर्वतनारदौ ।११
तौ कदाचिद्गृहं तस्य प्रविष्टौ तद्दिदृक्षया ।
विधिवच्चार्चितौतेन प्रीतौ तत्रोषतुस्सुखम् \।\।१२
तं कदाचित् सुखासीनं ताभ्यां सह शुचिस्मिता ।
दुहिताऽभ्यागमत् कन्या सृञ्जयं वरवर्णिनी \।\।१३
नारदः—
कस्येयं त्वायतापाङ्गीसर्वलक्षणसंयुता ।
उषा स्विद्भास्स्विदर्कस्य ज्वलनस्य शिखा त्वियम् \।\।१४
ह्रिदश्रीः कीर्तिर्धृतिस्सिद्धिस् तुष्टिश्चन्द्रमसः प्रभा ॥१४॥
व्यासः—
एवं ब्रुवाणं देवर्षिं नृपतिस्सृञ्जयोऽब्रवीत् \।\।१५
सञ्जयः—
ममेयं भगवन् वत्सा वर्या वरमभीप्सति \।\।१४॥
व्यासः—
नारदस्त्वव्रवीदेनं देहि मह्यमिमां नृप ।
भार्यार्थे त्वं महच्छ्रेयः प्राप्तुं चेदिच्छसेऽनघ \।\।१६
ददानीत्येव सुप्रीतः प्राञ्जलिः प्राह नारदम् ॥१७
एवमुक्ते नृपतिना क्रोधपर्याकुलेक्षणः ।
पर्वतस्तु सुसङ्क्रुद्धो नारदं वाक्यमब्रवीत् ॥१८
पर्वतः—
पूर्वं ममेमां मनसा विद्धि भार्या वृतामृषे ।
यस्मादवोचस्त्वं177 तस्मात् स्वर्गमार्गं न गच्छसि \।\।१९
व्यासः—
एवमुक्तो नारदस्तं प्रत्युवाचोत्तरं वचः ॥१९॥
नारदः—
मनोवाम्बुद्धिसम्भाषास् सत्यं तोयमथाग्नयः ।
पाणिग्रहणमन्त्राश्च प्रथितं दारलक्षणम् \।\।२०॥
न त्वेषां निश्चिता निष्ठा त्वया सा मनसा स्मृता ॥२१
एवं विद्वांस्तु मां यस्माद् अनुव्याहृतवानसि \।
तस्मात् त्वमपि न स्वर्ग गमिष्यसि मया विना \।\।२२
व्यासः—
अन्योन्यमेवमुक्त्वा तु यथासत्कृतमूषतुः ॥२२॥
सृञ्जयोऽहर्षयद्विप्रान् स्नानाच्छादनभोजनैः ।
पुत्रकामः परं शक्त्या यत्नेनाहरहश्शुचिः \।\।२३॥
तस्य प्रसन्ना विप्रेन्द्राः कदाचित् पुत्रदर्शिनः \।\।२४
तपस्स्वाध्यायनिरता वेदवेदाङ्गपारगाः।
सहिता नारदं प्राहुर् देह्यस्मै वरमीप्सितम्॥२५
तथेत्युक्त्वा द्विजेभ्यश्च सृञ्जयं नारदोऽब्रवीत्॥२५॥
नारदः—
वरं वृणीष्व भद्रं ते यादृशं पुत्रमिच्छसि ॥२६
व्यासः—
तथोक्तः प्राञ्जली राजा पुत्रं वव्रे गुणान्वितम् ।
यशस्विनं कीर्तिमन्तं दर्शनीयमनिन्दितम् ॥२७
सृजयः—
यस्य मूत्रं पुरीषं च स्वेदःक्लेदश्च काञ्चनम् ।
सर्वं भवेत् प्रसादाद्वै तादृशं तनयं वृणे ॥२८
व्यासः—
तथा भविष्यतीत्युक्ते जज्ञे तस्येप्सितस्सुतः ।
काञ्चनस्याकरश्श्रीमान् प्रसादाच्चसुकाङ्क्षितः ॥२९
अपतत् तस्य नेत्राभ्यां रुदतस्तस्य नेत्रजम् ।
मूत्रं पुरीषं स्वेदश्च सर्वं भवति काञ्चनम् ॥३०
सुवर्णष्ठीविरित्येव तस्य नामाऽभवत् कृतम् ॥३०॥
तस्मिन् वरप्रदानेन प्रवृद्धस्त्वमितैर्धनैः ।
कारयामास नृपतिस् सौवर्णं सर्वमीप्सितम ॥३१॥
गृहप्राकारदुर्गाणि ब्राह्मणावसथान्यपि ।
शय्यासनानि यानानि स्थालीपिठरभाजनम् \।\।३२॥
तस्य स्म राज्ञस्तद्वेश्म बाह्याश्चाभ्यन्तराश्चये ।
सर्वं तत् काञ्चनमयं कालेन परिवर्धितम् \।\।३३॥
अथ दस्युगणाश्श्रुत्वा दृष्ट्वा चैव तथाविधम् ।
अशुभं तस्य नृपतेस् समारब्धाश्चिकीर्षितुम् \।\।३४॥
कश्चित् तत्राब्रवीद्राज्ञः पुत्रं गृह्णीम वै वयम् ।
सोऽस्याकरः काञ्चनस्य तस्मिन् यत्नं च कुर्महे \।\।३५॥
ततस्ते दस्यवो लुब्धाः प्रविष्टा नृपतेर्गृहम् ।
राजपुत्रं ततो जह्नुस् सुवर्णष्ठीविनं बलात् ॥३६॥
गृह्यैनमनुपायज्ञा नयित्वाऽथ वनं ततः ।
हत्वा विशस्य नापश्यन् पश्य सुलुब्धा वसु किञ्चन ॥ ३७॥
तस्य प्राणैर्वियुक्तस्य नष्टं तत् काञ्चनं परम् ।
दस्यवश्च तदाऽन्योन्यं जग्मुस्त्यक्त्वा विचेतसः \।\।३८॥
हत्वा परस्परं क्रुष्टाः कुमारं चाद्भुतप्रभम् ।
असम्भाव्यं गता घोरं नरकं मोघकारिणः \।\।३९॥
तं दृष्ट्वा निहतं पुत्रं वरदत्तं महातपाः ।
विललाप सुदुःखार्तो बहुधा करुणं नृपः \।\।४०॥
विलपन्तं निशम्याथ पुत्रशोकहतं नृपम् ।
प्रत्यदृश्यत देवर्षिर् नारदो नृपसन्निधौ \।\।४१॥
उवाच चैनं दुःखार्त विलपन्तमचेतसम् ।
सृञ्जयं नारदो यद्यत् तन्निबोध युधिष्ठिर \।\।४२॥
नारदः—
त्यज शोकं महाराज वैक्लब्यं178त्यज बुद्धिमन् ।
न मृतश्शोचतो जीवेन्मुह्यतो वा जनाधिप \।\।४३॥
त्यज मोहं नृपश्रेष्ठ न हि मुह्यन्ति त्वद्विधाः ।
धीरो भव महाराज ज्ञानवृद्धोऽसि मे मतः \।\।४४॥
कामानामवितृप्तस्त्वं सृञ्जयेह मरिष्यसि ।
यस्य ते ये वयं गेहे अशनादा उपास्महे \।\।४५॥
आविक्षितं मरुत्तं च मृतं सृञ्जय शुश्रुमः179 ।
संवर्तोयाजयामास स्पर्धया यं बृहस्पतेः ॥४६॥
यस्मै राजर्षये प्रादात् सुप्रीतो भगवान् भवः ।
हैमं हिमवतः पादे यियक्षोर्विविधैस्सवैः ॥४७॥
यस्य सेन्द्रास्सवरुणा बृहस्पतिपुरोगमाः ।
देवा विश्वसृजस्सर्वे यज्ञानाहुर्महात्मनः ॥४८॥
यज्ञवाटश्च सौवर्णास् सर्वे चान्ये परिच्छदाः ॥४९
महानसेषु यस्यान्नं मनोभिप्रायगं शुचि ।
कामं बुभुजिरे विप्रास् सर्वे चान्नार्थिनो जनाः॥५०
पयो दधि घृतं क्षौद्रं भक्ष्यं भोज्यं च शोभनम्॥५०॥
यस्य यज्ञेषु सर्वेषु वासांस्याभरणानि च।
ईप्सितान्युपतिष्ठन्ति प्रसृतान् वेदपारगान्॥५१॥
मरुतः परिवेष्टारो मरुत्तस्यावसन् गृहे।
आविक्षितस्य क्षत्ताऽग्निर् विश्वेदेवास्सभासदः॥५२॥
यस्य वीर्यवतो राजन् सुवृष्ट्या सस्यसम्पदः।
हविर्भिस्तर्पिता येन सम्यक् क्लृप्ता दिवौकसः॥५३॥
ऋषीणां च पितॄणां च देवानामुपजीविनाम्।
ब्रह्मचर्यश्रुतसुतैर् धर्मैर्दानेन चानृणः॥५४॥
शयनासनयानानि स्वर्णराशींश्च दुस्त्यजान्।
तत् सर्वममितं वित्तं दत्त्वा विप्रेभ्य ईप्सितम्॥५५॥
स्पर्धमानस्स शक्रेण प्रजाः कृत्वा निरामयाः।
श्रिया विनिर्जिताल्ँलोकान् गतः कामदुहोऽक्षयान्॥५६॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः॥५७॥
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधिश्वैत्येत्युदाहरत्॥५८
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५२॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि एकविंशोऽध्यायः॥२१॥
[अस्मिन्नध्याये ५८ श्लोकाः]
॥त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥
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नारदेन सृञ्जयं प्रति सुहोत्रचरित्रकीर्तनम्॥
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नारदः—
सुहोत्रं पार्थिवं चापि मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
एकवीरमनाधृष्यम् अमित्रगणमर्दनम्180॥१
यः प्राप्य राज्यं धर्मेण ऋत्विङ्मन्त्रिपुरोहितान्।
सम्मान्य चात्मनश्श्रेयः पृष्ट्वा तेषां मते स्थितः॥२
प्रजानां पालनं धर्मो दानमिज्या द्विषज्जयः।
एतत् सुहोत्रो विज्ञाय धर्म्यमैच्छद्धनागमम्॥३
धर्मेणाराधयद्देवान् बाणैश्शत्रूनजीजयत्।
सर्वाण्यपि181 च भूतानि स्वगुणैरन्वरञ्जयत्॥४
सोऽभुङ्क्तेमां वसुमतीं म्लेच्छाटविकवर्जिताम्।
तस्मै ववर्ष पर्जन्यो हिरण्यं परिवत्सरम्॥५
हिरण्योदास्तथा नद्यस् सुहोत्रस्य महात्मनः॥५॥
यस्मिन् कूर्मान कर्कटकान् मत्स्यांश्च विविधान् बहून्।
कामान् वर्षति पर्जन्यो रूप्याणि विविधानि च॥६॥
सौवर्णान्यप्रमेयानि वाप्यः क्रोशसुसम्मिताः॥७
स तत्र शतसाहस्रान् नक्रान् मकरकच्छपान्।
सौवर्णान् पतितान् दृष्ट्वा ततोऽस्मयत वै मिथः॥८
तद्धिरण्यमपर्यन्तं राजर्षिः कुरुजाङ्गले।
ईजानो वितते यज्ञे ब्राह्मणेभ्यो ह्यमन्यत॥९
सोऽश्वमेधसहस्रेण राजसूयशतेन च।
पुण्यैः क्षत्रिययज्ञैश्च प्रभूतवरदक्षिणैः॥१०
काम्यनैमित्तिकाजस्नैर् इष्ट्वेष्टां गतिमाप्तवान्॥१०॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।
पुत्रात् पुण्यतमस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः॥११॥
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधिश्वैत्येत्युदाहरत्॥१२
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५३॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥
[अस्मिन्नध्याये १२ श्लोकाः]
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॥चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥
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नारदेन सृञ्जयं प्रति अङ्गराजगुणवर्णनम्॥
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नारदः—
अङ्गं च पौरवं वीरं मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
यस्सहस्रं सहस्राणां श्वेतानश्वानवासृजत्॥१
तस्याश्वमेधे राजर्षेस् सर्वे देवास्समाययुः॥१॥
शिक्षाक्षरविधिज्ञानां नासीत् सङ्ख्या वपश्चिताम्॥२
वेदविद्याव्रतस्नाता वदान्याः प्रियदर्शनाः182 \।
सुभक्षाच्छादनगृहास् सुशय्यासनवाहनाः॥३
नटनर्तकगन्धर्वैः प्लवकैर्वर्धमानकैः।
नियोधकैश्च क्रीडन्तस् तत्रोपुः परमार्चिताः॥४
यज्ञे यज्ञे यथाकालं दक्षिणास्सोऽत्यकालयत्॥
द्विपान् दशसहस्राख्यान् अददात् काञ्चनावृतान्।
सध्वजान् सपताकांश्च सवरूधान् सुकल्पितान्॥५
सहस्रं च सहस्राणां कन्या हेमविभूषिताः।
चतुर्युजरथारूढास् सगृहक्षेत्रगोधनाः॥६
शतं शतसहस्राणि स्वर्णमालानथर्षभान्।
गवां सहस्रानुचरान् दक्षिणास्सोऽत्यकालयत्॥७
हेमशृङ्ग्यो रौप्यखुरास् सवत्साः कांस्यदोहनाः।
दासीदासखरोष्ट्रं च प्रादाच्छागाविकं बहु॥८
रत्नानां विविधान् कूटान् विविधानन्नपर्वतान्।
तत् सर्वं वितते यज्ञे दक्षिणामत्यकालयत्॥९॥
अत्रापि गाथा गायन्ति ते पुराणविदो जनाः॥१०
अङ्गस्य183 यजमानस्य अपि विष्णुपदे वयम्।
अमाद्यदिन्द्रस्सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः॥११
देवमानुषगन्धर्वाश् चात्यरोचन्त दक्षिणाः॥११॥
अङ्गस्य यजमानस्य स्वधर्मानुगताश्शुभाः।
गुणोत्तरास्ते क्रतवस् तत्रासन् सर्वकामदाः॥१२॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया॥१३
पुत्रात् पुण्यतमस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधि श्वैत्येत्युदाहरत्॥१४
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५४॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि त्रयोविंशोऽध्यायः॥२३॥
[अस्मिन्नध्याये १४ श्लोकाः ]
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॥पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥
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नारदेन सृञ्जयं प्रति शिबिवैभवशंसनम्॥
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‘नारदः—
शिबिमौशीनरं चापि मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
य इमां पृथिवीं सर्वां चर्मवत् पर्यवेष्टयत्॥१
साद्रिद्वीपार्णववनां रथघोषेण नादयन्॥१॥
स शिबिर्यष्टुमन्विच्छन् मुख्यस्सर्वसपत्नजित्॥२
यज्ञैर्बहुविधैरिष्टं184 तेनापर्याप्तदक्षिणैः।
अविहिंस्य जनानन्यान् अवाप वसु पुष्कलम्॥३
सर्वमूर्धावसिक्तानां सम्मतस्सोऽभवद्युधि।
अजयच्चाश्वमेधैर्यो विजित्य पृथिवीमिमाम्॥४
निरर्गलांसराड्यूथान्निष्ककोटिं सहस्रशः।
बिभर्ति दक्षिणा यस्य गङ्गायास्स्रोत आवृणोत्॥५
हस्त्यश्वपशुभिर्धान्यैर् मृगैर्गोजाविभिस्तथा।
विविधैः पृथिवीं पूर्णां शिविर्ब्राह्मणसात्करोत्॥६
यावन्त्यो185 वर्षतो धारा यावन्त्यो186 दिवि तारकाः।
तावतीरददाद्गावै शिबिरौशीनरोऽध्वरे॥७
नोद्यन्तारं धुरं तस्य किञ्चिदन्यं प्रजापतिः।
भूतं भव्यं भविष्यं वा ह्यध्यगच्छन्नरेश्वरम्॥८
तस्यासन् विविधा यज्ञास् सर्वकामैस्समन्विताः।
हेमयूपासनगृहा हेमप्राकारतोरणाः॥९
शुचिस्वाद्वन्नपानाश्च ब्राह्मणाः प्रयुतायुताः।
नानाभक्ष्योच्चयतटाः पयोदधिमधुह्रदाः॥१०
तस्यासन् यज्ञवाटेषु नद्यश्शुभ्रान्नपर्वताः।
पिबताश्नत खाध्वम् इति यत्रोच्यते जनैः॥११
तस्मै प्रादाद्वरान् रुद्रस् तुष्टः पुण्येन कर्मणा।
अक्षयं च ददौ वित्तं श्रद्धां कीर्तिं ततोऽव्ययाम्॥१२
यथार्थमेवं भूतानां प्रियत्वं स्वर्गमुत्तमम्।
एताल्ँलब्ध्वा वरानिष्टाञ् शिविः काले दिवं गतः॥१३
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया॥१३॥
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधि श्वैत्येत्युदाहरत्॥१४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५५॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥
[अस्मिन्नध्याये १४॥ श्लोका]ः ]
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॥षट्पञ्चाशोऽध्यायः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1705396597त.png"/>
सृञ्जयं प्रति नारदेन राममहिमानुवर्णनम्॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1705396577क.png"/>
नारदः—
रामं दाशरथिं चापि मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
यं प्रजा अन्वमोदन्त माता पुत्रमिवौरसम्॥१
असङ्ख्येयागुणा यस्मिन्नासन्नमिततेजसि॥१॥
यश्चतुर्दशवर्षाणि निदेशात् पितुरच्युतः।
वने वनितया सार्धम् अवसल्लक्ष्मणानुगः॥२॥
जघान च जनस्थाने राक्षसान् मनुजाधिपः।
तपस्विजनरक्षार्थं सहस्राणि चतुर्दश॥३॥
तत्रैव वसतस्तस्य रावणो नाम राक्षसः।
जहार भार्या वैदेहीं सम्मोह्यनं सहानुजम्॥४॥
रामां हृतां राक्षसेन भार्यां श्रुत्वा जटायुषः।
आतुरश्शोकसन्तप्तोऽगच्छद्रामो हरीश्वरम्॥५॥
तेन रामस्सुसङ्गम्य वानरैश्च महाबलैः।
आजगामोदधेः पारं सेतुं कृत्वा महार्णवे॥६॥
तत्र हत्वा तु पौलस्त्यान् ससुहृद्गणबान्धवान्।
मायाविनं महाघोरं रावणं लोककण्टकम्॥७॥
सुरासुरैरवध्यं187 तं देवब्राह्मणकण्टकम्।
जघान स महाबाहुः पौलस्त्यं सगणं रणे॥८॥
हत्वा तत्र रिपुं सङ्ख्ये भार्यया सह सङ्गतः।
लङ्केश्वरं च चक्रे स धर्मात्मानं विभीषणम्॥९॥
भार्यया सह संयुक्तस् ततो वानरसेनया।
अयोध्यामागतो वीरः पुष्पकेण विराजता॥१०॥
तत्र राजन्प्रविष्टस्स अयोध्यायां महायशाः।
मातॄर्वयस्यान् सचिवान ऋत्विजस्सपुरोहितान्॥११॥
शुश्रूषमाणस्सततं मन्त्रिभिश्चाभिषेचितः॥१२
विसृज्य हरिराजानं हनुमन्तं सहाङ्गदम्॥१२॥
भ्रातरं भरतं वीरं शत्रुघ्नं चैव लक्ष्मणम्।
पूजयन् परया प्रीत्या वैदेह्या चाभिपूजितः॥१३॥
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च।
चतुस्सागरपर्यन्तां पृथिवीमन्वशासत॥१४॥
अश्वमेधशतैरीजे ऋतुभिर्भूरिदक्षिणैः।
यश्च विप्रप्रसादेन सर्वकामानवाप्य च॥१५॥
सम्प्राप्य विधिवद्राज्यं सर्वभूतानुकम्पनः।
सर्वद्वीपानवष्टभ्य प्रजा धर्मेण पालयन्॥१६॥
स निरर्गलजान् मुख्यान् अश्वमेघशतं प्रभुः।
आजहारामरेशस्य हविषाऽर्चां च सर्वदा॥१७॥
अन्यैश्च विविधैर्यज्ञैर् दक्षिणानुगुणोदितैः॥१८
क्षुत्पिपासेऽवधीद्रामस्188 सर्वं राज्यं प्रशासति।
आधिमप्यवधीद्रामः189 सर्वरोगांश्च देहिनाम्॥१९
सततं गुणसम्पन्नो दीप्यमानस्स्वतेजसा ।
अति सर्वाणि भूतानि रामो दाशरथिर्बभौ ॥२०
ऋषीणां देवतानां च मानुषाणां च तेजसा ।
पृथिव्यां सह वासोऽभूद् रामे राज्यं प्रशासति ॥२१
नाहीयन्त तदा प्राणाः प्राणिनां न तदा व्यथा ।
प्राणापानौ समावास्तां रामे राज्यं प्रशासति ॥२२
दीर्घायुषः प्रजास्सर्वा युवानो न भृतास्तदा ।
वेदैश्चतुर्भिस्सम्पन्नाः प्राप्नुवन्ति दिवं द्विजाः \।\।२३
हव्यं कव्यं च विधिवत् पूर्तानि हुतमेव च ॥२३॥
अदंशमशका देशा नष्टव्यालसरीसृपाः ।
नाप्सु प्राणभृतो मग्ना नाकार्यैर्ज्वलनोऽदहत् \।\।२४॥
अधर्मरुचयो लुब्धा मूर्खा वा नाभवंस्तदा ।
शिष्टेष्टजुष्टकर्माणस् सर्वे वर्णास्तदाऽभवन् \।\।२५॥
स्वधामूर्जं च रक्षोभिर् जनस्थाने प्रणाशिते ।
प्रादान्निहत्य रक्षांसि पितृदेवेभ्य ईश्वरः \।\।२६॥
अप्यत्र गाथा गायन्ति ये पुराणविदो जनाः ॥२७
सहस्रपुत्राः पुरुषा दशवर्षशतायुषः ।
न च ज्येष्ठाः कनिष्ठेभ्यस् तदा श्राद्धानि कुर्वते \।\।२८
न तस्करा वा व्याधिर्वा विविधोपद्रवाः क्वचित् ।
अनावृष्टिभयं चात्र दुर्भिक्षो व्याधयः क्वचित् \।\।२९
सर्वं प्रसन्नमेवासीद् अत्यन्तसुखसंयुतम् ।
एवं लोकोऽभवत् सर्वो रामे राज्यं प्रशासति ॥३०
श्यामो190 युवा लोहिताक्षो मातङ्गानामिवर्षभः ।
आजानुबाहुस्सुमुखस् सिंहस्कन्धो महाभुजः \।\।३१
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च ।
सर्वभूतमनःकान्तो रामो राज्यमकारयत् ॥३२
रामो रामो राम इति प्रजानामभवन् कथाः ।
रामभूतं जगदभूद् रामे राज्यं प्रशासति ॥३३
चतुर्विधाः प्रजा रामस् स्वर्गं नीत्वा दिवं गतः ।
आत्मेच्छया प्रतिष्ठाप्य राजवंशानिहाष्टधा \।\।३४
स191 चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया \।\।३४॥
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः ।
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधि श्वैयेत्युदाहरत् \।\।३५॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि षट्पञ्चाशोऽध्यायः॥५६॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि पञ्चविंशोऽध्यायः॥२५॥
[अस्मिन्नध्याये ३५॥ श्लोकाः]
॥समपञ्चाशोऽध्यायः॥
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नारदेन192 सृञ्जयं प्रति भगीरथचरित्रकथनम्॥
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नारदः—
भगीरथं च राजानं मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
परित्राणाय पूर्वेषां येन गङ्गाऽवतारिता॥१
यस्येन्द्रो बाहुवीर्येण प्रीतो राज्ञो महात्मनः।
सोऽश्वमेधशतैरीजे समाप्तवरदक्षिणैः॥२
हविर्मन्त्रान्नसम्पन्नैर् देवानामादधान्मुदम्॥२॥
यस्येन्द्रो193 वितते यज्ञे सोमं पीत्वा मदोत्कटः॥३
असुराणां सहस्राणि बहूनि च सुरेश्वरः।
अजयद्बाहुवीर्येण भगवाल्ँलोकपूजितः॥४
येन भागीरथी गङ्गा ऋषिभिस्सर्वतो वृता॥४॥
यस्सहस्रं सहस्राणां कन्या हेमविभूषिताः।
राजन्यान्194 राजपुत्रांश्च ब्राह्मणेभ्यो ह्यमन्यत॥५॥
सर्वा रथगताः कन्या रथास्सर्वे चतुर्युजः।
रथे रथे शतं नागाः पद्मिनो हेममालिनः॥६॥
सहस्रमाश्वाश्चैकैकं कं गजानां पृष्ठतोऽन्वयुः।
अश्वेऽश्वे गोसहस्रं तु तथैव च अजाविकम्॥७॥
तेन क्रान्ता जनौघेन दक्षिणाभिश्च भूयसा।
उपह्वरेऽतिव्यथिता तस्याङ्के निषसाद ह॥८॥
ततो भागीरथी गङ्गा ह्यूर्ध्वगा ह्यभवत् पुरा।
दुहितृत्वं गता राज्ञः पुत्रीवच्चोपपादिता॥९॥
तत्र गाथां जगुः प्रीता गन्धर्वास्सूर्यवर्चसः।
पितृदेवमनुष्याणां शृण्वतां वल्गुवादिनः॥१०॥
भगीरथं याजमानम् ऐक्ष्वाकं भूरिदक्षिणम्।
गङ्गा समुद्रगा देवी वव्रे पितरमीश्वरम् ॥११॥
सेन्द्रैस्सवरुणैर्देवैर्195 यस्य यज्ञास्स्वलङ्कृताः।
सम्यक् परिगृहीताश्च शान्तविघ्ना निरामयाः॥१२॥
यो यद्यदिच्छते विप्रो यच्च यस्यात्मनः प्रियम्।
तत् तद्भगीरथः प्रादात् तत्र तत्रानघो वशी॥१३॥
नादेयं ब्राह्मणेष्वासीद् अस्य किञ्चित् प्रियं धनम्॥१४
यश्च विप्रप्रसादेन ब्रह्मलोकं गतो नृपः॥१४॥
येन यातास्त्वभिमुखा दिशमद्यापि पादपाः।
आनतास्तस्थुरिच्छन्तस् तमन्वागन्तुमीश्वरम्॥१५॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया॥१६
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधि श्वैयेत्युदाहरत्॥१७
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि सप्तपञ्चाशोऽध्यायः॥५७॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि षड्विंशोऽध्यायः॥२६॥
[अस्मिन्नध्याये १७ श्लोकाः]
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॥अष्टपञ्चाशोऽध्यायः॥
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नारदेन सृञ्जयं प्रति दिलीपप्रभाववर्णनम्॥
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नारदः—
दिलीपं चापि राजेन्द्र मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
यस्य यज्ञशतेष्वासन् प्रयुतायुतशो द्विजाः॥१
वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञा यज्वानः पुत्रपौत्रिणः।
स्वच्छन्दाः पुण्यगन्धाश्च सुभक्षा हेममालिनः॥२
यस्य कर्माणि भूरीणि कथयन्ति मनीषिणः॥२॥
य इमां पृथिवीं पूर्णां वसुधां वसुधाधिपः।
ईजानो वितते196यज्ञे ब्राह्मणेभ्योऽभ्युपाहरत्॥३॥
यस्य197 वै यजमानस्य यज्ञे यज्ञे पुरोहितः।
सहस्रं वारणान हैमं दक्षिणा अत्यकालयत्॥४॥
दिलीपस्य च यज्ञेषु कृतः पन्था हिरण्मयः।
सौवर्णं198 चाभवत् सर्वं सदा परमभास्वरम्॥५॥
रसानां चाभवन् कुल्याः कण्ठदघ्नास्समन्ततः।
सहस्रायामका यूपास् तस्य चासन् हिरण्मयाः॥६॥
तत् कर्म बहु कुर्वाणास् सेन्द्रा देवास्समुच्छ्रयन्।
चषालप्रचषालेषु तस्मिन् यूपे हिरण्मये॥७॥
नृत्यन्त्यप्सरसो यत्र षट्सहस्राणि सप्त च॥८
अवादयच्च तत्रास्य प्रीत्या विश्वावसुस्स्वयम्।
सर्वभूतान्यमोदन्त मम199 वादयतीति तम्॥९
इत्थं दिलीपस्य नृपा यज्ञान् नान्येऽनुचक्रिरे।
यद्दोषा हेमसञ्छन्ना मर्त्याः पथिषु शेरते॥१०
तदेव चाद्भुतं मन्ये अन्यैरसदृशं नृपैः॥१०॥
यस्याप्ययुध्यमानस्य चक्रे न परिमर्दनम्॥११
राजानं चोग्रधन्वानं दिलीपं सत्यवादिनम्।
येऽपश्यन् भूरिदक्षिण्यं तेऽपि स्वर्गमितो गताः॥१२
इमे शब्दा न जीर्यन्ते दिलीपस्य निवेशने।
स्वाध्यायशब्दो ज्याशब्दः पिबताश्नीत खादत॥१३
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया॥१३॥
पुत्रात्200 पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधि श्वैत्येत्युदाहरन्॥१४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायांवैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि अष्टपञ्चाशोऽध्यायः॥५८॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥
[अस्मिन्नध्याये १४॥ श्लोकाः]
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॥एकोनषष्टितमोऽध्यायः॥
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नारदेन सृञ्जयं प्रति मान्धातृचरिताभिधानम्॥
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नारदः—
मान्धाताचेद् यौवनाश्वस् त्रैलोक्यविजयी मृतः॥
यं देवावश्विनौ गर्भे पितुः पार्श्वान्निरूहतुः॥१
मृगयां विचरन् राजा तृषितश्श्रान्तवाहनः।
धूमं दृष्ट्वाऽगमत् सत्रं पृषदाज्यं पिबच्च सः॥२
तं दृष्ट्वा युवनाश्वस्य जठरे रविसन्निभम्।
गर्भं निरूहतुर्देवावश्विनौ भिषजां वरौ॥३
तं दृष्ट्वा पितुरुत्सङ्गे शयानं देववर्चसम्।
ममैवायं धयत्वङ्गम् इति ह स्माह वासवः॥४
देवेन्द्रस्य ततोऽङ्गुष्ठात् प्रादुरासीत् पयोऽमृतम्॥४॥
तद्भूत् तेन नाम्नाऽस्य मान्धातेति प्रचक्रिरे॥५.
मां धयत्विति कारुण्याद् यदिन्द्रोऽप्यन्वकम्पत।
तस्मान्मान्धातरित्येवं नाम तस्याभवत् कृतम्॥६
ततस्स धारां पयसो घृतस्य च महात्मनः।
तस्यास्ये यौवनाश्वस्य पाणिरिन्द्रस्य चास्रवत्॥७
स पिबन् पाणिमिन्द्रस्य सममह्नाच वर्धते।
सोऽभवद्द्वादशसमो द्वादशाहेन वीर्यवान्॥८
इमां च पृथिवीं कृत्स्नाम् एकाह्नाऽप्यजयच्च सः।
धर्मात्मा धृतिमान् वीरस् सत्यसन्धो जितेन्द्रियः॥९
जनमेजयं सुधन्वानं गयं पूरुं बृहद्रथम्।
असितं चैव नाभागं मांधाता मानुषाञ् जयत्॥१०
यावत् सूर्य उदेति स्म यावच्च प्रतितिष्ठति।
तत् सर्वं यौवनाश्वस्य मांधातुः क्षेत्रमुच्यते॥११
सोऽश्वमेधशतेनेष्ट्वा राजसूयशतेन201 च।
अददाद्रोहितानश्वान् ब्राह्मणेभ्यो विशां पतिः॥१२
हैरण्यान् योजनोत्सेधान् आयतान् दशयोजनम्॥१२॥
बहुप्रकारान्सुस्वादून् भक्ष्यभोज्यान्नपर्वतान्।
अतिरिक्तान् ब्राह्मणेभ्यो भुञ्जते स्मेतरे जनाः॥१३॥
भक्ष्यान्नपाननिचयान् सुशुचीनन्नपर्वतान्॥१४
घृतहदास्सूपपङ्का दधिफेना गुडोच्चयाः।
ता ऊहुस्सर्वतो नद्यो दधिक्षीरवहाश्शिषाः॥१५
देवासुरा नरा यक्षा गन्धर्वोरगराक्षसाः।
विप्राश्चैवामितगुणा यस्य यज्ञानुपावसन्॥१६
ब्रह्मणे ब्रह्मपुत्राय प्रादाद्योऽति विपश्चिते।
समुद्रान्तां वसुमतीं वसुपूर्णां महामतिः॥१७
स तां ब्राह्मणसात्कृत्वा जगाम स्वान् गृहान् प्रति॥१७॥
राजा हि विविधैरिष्ट्वा यज्ञैर्विविधदक्षिणैः।
गतः पुण्यतमाल्ँलोकान् प्राप्यातियशसा दिशः॥१८॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया॥१९
पुत्रात् पुण्यतमस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधि श्वैत्येत्युदाहरत्॥२०
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि एकोनषष्टितमोऽध्यायः॥५९॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि अष्टाविंशोऽध्यायः॥२८॥
[अस्मिन्नध्याये २० श्लोकाः]
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॥षष्टितमोऽध्यायः202॥
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नारदेन सृञ्जयं प्रति ययातिचरितकीर्तनम्॥
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नारदः—
ययातिं नाहुषं चापि मृतं सृञ्जय शुश्रुम॥
य इमां पृथिवीं जित्वा ससमुद्रां सपर्वताम्।
शम्याप्रासेन निर्माय वेदीस्सन्नतदक्षिणाः॥१॥
ईजानः क्रतुभिः पुण्यैः पर्यगच्छत् प्रदक्षिणम्॥२
इष्ट्वा क्रतुसहस्रेण हयमेधशतेन203 च।
पौण्डरीकसहस्रेण वाजपेयशतेन च॥३
अतिरात्रसहस्रेण चातुर्मास्यैश्च कामतः।
अग्निष्टोमैश्च विविधैस् सत्रैर्नित्याप्तदक्षिणैः॥४
अब्राह्मणानां वित्तं यत् पृथिव्यामस्ति किञ्चन।
तत् सर्वं परिसङ्ख्याय स तद् ब्राह्मणसात् करोत्॥५
सरस्वती पुण्यतमा नदीनां
तथा समुद्रास्सरितोऽद्रयश्च।
ईजानाय पुण्यतमाय राज्ञे
घृतं पयो दुदुहुर्नाहुषाय॥६
व्यूढे देवासुरे युद्धे जित्वा दैत्यान्सदानवान्।
वर्णेभ्यो व्यभजत् सर्वां चतुर्भ्यः पृथिर्वामिमाम्॥७
यज्ञैर्बहुविधैरिष्ट्वा प्रजामुत्पाद्य चोत्तमाम्।
देवयान्यां चौशनस्यां शर्मिष्ठायां च धर्मतः॥८
देवारण्येषु रम्येषु विजहार सहप्रियः।
आत्मनः कामचारेण द्वितीय इव वासवः॥९
यदा नाध्यगमत् सोऽन्तं कामानां सर्वधर्मवित्।
ततो गाथामिमां गीत्वा सदारः प्राविशद्वनम्॥१०
यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवस्स्त्रियः।
नालमेकस्य तत् सर्वम् सन्तोषं परमं सुखम्॥११
एवं कामान् परित्यज्य ययातिर्धृतिमानथ।
पूरुं राज्ये प्रतिष्ठाप्य प्रविष्टो वनमीश्वरः॥१२
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया॥१२॥
पुत्रात् पुण्यतमस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधि श्वैत्येत्युदाहरत्॥१३॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि पष्टितमोऽध्यायः॥६०॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि एकोनत्रिंशोऽध्यायः॥२९॥
[अस्मिन्नध्याये १३॥ श्लोकाः]
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॥एकषष्टितमोऽध्यायः॥
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नारदेन सृञ्जयं प्रत्यम्बरीषविभवाभिधानम्॥
नारदः—
नाभागमम्बरीषं च मृतं सृञ्जय शुश्रूम॥
यं सहस्रं सहस्राणां राज्ञामयुतयोधिनाम्।
जिगीषमाणास्सङ्ग्रामे समन्ताद्वैरिणोऽभ्ययुः॥१॥
शस्त्रमुच्चावचं घोरं सृजन्तश्चाशिवा गिरः॥२
बललाघवशिक्षाभिस् तेषां शस्त्रबलेन च।
छित्त्वाऽयुतगजाञ्जित्वा204 नाभागस्तु गतव्यथः॥३
त एनं मुक्तसन्नाहा नाथन्ते जीवितैषिणः।
शरण्यमीयुरशरणं तव स्म इति वादिनः॥४
स तु तान् वशगान् कृत्वा जित्वा चेमां वसुन्धराम्।
ईजे यज्ञशतैरिष्टैर् यथा शक्रस्तथाऽनघ॥५.
तस्य यज्ञेषु विप्रेन्द्राः प्रहृष्टाः परमार्चिताः।
बुभुजुस्सर्वसम्पन्नम् अन्नमन्ये जनास्तथा॥६
मोदकान् कारिकापूपान् धाना वटकशष्कुलीः205।
करम्भान् पृथुकामन्धान् अन्यानि सुकृतानि च॥७
सूपाढ्योरण्ड्रकान् यूषान् रागषाडबपानकान्।
निभृतानि सुयुक्तानि स्वादूनि सुरभीणि च॥८
घृतं मधु पयस्तोयं दधीनि रसवन्ति च।
फलं मूलं च सुस्वादु द्विजास्तत्रोपभुञ्जते॥९
मदनीयानि पानानि विदंशानात्मनः प्रियान्।
पपुस्तत्र यथाकामं पानकाश्शीतकाः206 परम्॥१०
तत्र स्म गाथा गायन्ति क्षीबा हृष्टाः पठन्ति च।
नाभागस्तवसंयुक्ता ननृतुश्च सहस्रशः॥११
तेषु यज्ञेषु नाभागो दक्षिणा अत्यकालयत्।
राज्ञां शतसहस्राणि प्रयुतायुतवाजिनाम्207॥१२
हिरण्यकवचान् सर्वान् सर्वांश्चोत्तमधन्विनः।
हिरण्यस्यन्दनारूढान् सानुयात्रपरिच्छदान्॥१३
ईजानो वितते यज्ञे दक्षिणा अत्यकालयत्॥१३॥
मूर्धावसिक्तांश्च नृपान् राजपुत्रशतानि च।
सदण्डकोशविषयान् ब्राह्मणेभ्यो ह्यमंसत॥१४॥
नेह पूर्वे तथा चक्रुः कर्तारो वा न चापरे।
यदम्बरीषो नृपतिः करोत्यमितदक्षिणः॥१५॥
इत्येवमन्वमोदन्त प्रीतास्सुरमहर्षयः॥१६
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया॥१६॥
पुत्रात् पुण्यतमस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधि श्वैयेत्युदाहरत्॥१७॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायांवैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि एकषष्टितमोऽध्यायः॥६१॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि त्रिंशोऽध्यायः॥३०॥
[अस्मिन्नध्याये १७॥श्लोकाः]
॥द्विषष्टितमोऽध्यायः॥
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नारदेन सृञ्जयं प्रति शशिबिन्दुयशोनुवर्णनम्॥
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नारदः—
शशिबिन्दुं च राजेन्द्रं मृतं सृञ्जय शुश्रुम॥
य ईजे विविधैर्यज्ञैश् श्रीमान् सत्यपराक्रमः।
तस्य भार्यासहस्राणां शतमासीन्महात्मनः॥१॥
एकैकस्यां च भार्यायां पुत्रजन्म तथाऽभवत्।
सहस्रं तु सहस्रं तु तस्यां तस्यां महात्मनः॥२॥
शशिबिन्दुकुमारास्ते सर्वे नियुतदक्षिणाः।
राजानः क्रतुभिर्मुख्यैर् ईजाना वेदपारगाः॥३॥
हिरण्यकवचास्सर्वे सर्वे चोत्तमधन्विनः।
सर्वेऽश्वमेधैरीजानाः कुमाराश्शाशिबिन्दवाः॥४॥
तानश्वमेधे यज्ञेन्द्रे ब्राह्मणेभ्योऽददात् पिता।
शतं शतं रथगता एकैकं पृष्ठतोऽन्वयुः॥५॥
राजपुत्रांस्तदा208") कन्या रमणीयास्स्वलङ्कृताः॥६
कन्यां कन्यां शतं नागा नागे नागे शतं रथाः॥६॥
रथे रथे शतं चाश्वा जविनो209 हेममालिनः।
अश्वे ह्यश्वे गोसहस्रं गवां पञ्चाप्यजाविकम्॥७॥
एतद्धनमपर्यन्तम् अश्वमेधमहामखे।
शशिबिन्दुर्महाभागो ब्राह्मणेभ्योऽन्वमंसत॥८॥
वृक्षाश्च यूपा यावन्त अश्वमेधे हि शब्दिताः।
ते तथैव पुनश्चान्ये तावन्तः काञ्चनाऽभवन्॥९॥
भक्ष्यान्नपाननिचयाः पर्वताः क्रोशमुच्छ्रिताः।
तस्याश्वमेधे निर्वृत्ते राज्ञश्शिष्टास्त्रयोदश॥१०॥
तुष्टपुष्टजनाकीर्णां शान्तविघ्नां निरामयाम्।
शशिबिन्दुरिमां भूमिं चिरं भुक्त्वा दिवं गतः॥११॥
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया॥१२
पुत्रात् पुण्यतमस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधि श्वैत्येत्युदाहरत्॥१३
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि द्विषष्टितमोऽध्यायः॥६२॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि एकत्रिंशोऽध्यायः॥३१॥
[अस्मिन्नध्याये १३ श्लोकाः]
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॥त्रिषष्टितमोऽध्यायः॥
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नारदेन सृञ्जयं प्रति गयगुणानुवर्णनम्॥
नारदः—
गयं चाधूर्तरजसं मृतं सृञ्जय शुश्रुम॥
यो वै वर्षशतं राजा हुतशिष्टाशनोऽभवत्।
तस्मै ह्यग्निर्वरं प्रादात् ततो वव्रे वरं गयः॥१॥
गयः—
तपसा ब्रह्मचर्येण व्रतेन च दमेन च।
गुरूणां च प्रसादेन वेदानिच्छामि वेदितुम्॥२॥
स्वधर्ममविहिंसां च धर्ममिच्छामि चाक्षयम्॥३
पात्रेषु ददतस्सा मे श्रद्धा भवतु नित्यशः।
अनन्यासु सवर्णासु सुप्रजस्त्वं च मे भवेत्॥४
अन्नं स्वादु दुहेन्मह्यं धर्मे मे रमतां मनः।
अविघ्नं चास्तु मे नित्यं धर्मकार्येषु पावक॥५
नारदः—
तथा भविष्यतीत्युक्त्वा तत्रैवान्तरधीयत॥५
गयो ह्यवाप्य तत् सर्वं धर्मेणाराधयञ्जगत्।
स दर्शपूर्णमासाभ्यां कालेष्वाग्रयणेन च॥६
चातुर्मास्यैश्च विधिवद् इष्टिभिश्चाप्तदक्षिणैः।
अयजच्छ्रद्धया राजा परिसंवत्सराञ् शतम्॥७
दशनागसहस्राणि शतमश्वशतानि च।
शतं निष्कसहस्राणि गवां चाप्ययुतानि षट्॥८
उत्थायोत्थाय सम्प्रादात् परिसंवत्सराञ् शतम्॥९
नक्षत्रेषु च सर्वेषु ददन्नक्षत्रदक्षिणाः।
ईजे च विविधैर्यज्ञैर् यथा शर्वोऽङ्गिरा यथा॥१०
सौवर्णां पृथिवीं कृत्वा य इमां मणिशर्कराम्।
ब्राह्मणेभ्योऽददाद्राजा सोऽश्वमेधे महामखे॥११
जाम्बूनदमया यूपास् सर्वे चान्ये परिच्छदाः।
गयस्यासन् वरप्राप्त्या सर्वभूतमनोहराः॥१२
सर्वकामसमृद्धं च प्रादादन्नं गयस्तदा।
ब्राह्मणेभ्यः पितृभ्यश्च सर्वभूतेभ्य एव च॥१३
समुद्रद्वीपशैलेषु नदीनदवनेषु च।
नगरेषु च राष्ट्रेषु दिवि व्योमनि210 योऽवसत्॥१४
भूतग्रामा बहुविधा विस्मिता यज्ञसम्पदा।
गयस्य सहशो यज्वा नास्त्यन्य इति तेऽब्रुवन्॥१५
षट्त्रिंशद्योजनायामा त्रिंशद्योजनविस्तृता।
पश्चात् पुरश्चतुर्विंशा वेदिरासीद्धिरण्मयी॥१६
गयस्य यजमानस्य मुक्तावज्रमणिस्तृता॥१६
तां प्रादाद् ब्राह्मणेभ्यो वै वासांस्याभरणानि च।
यथोक्ता दक्षिणाश्चान्या विप्रेभ्यो भूरिदक्षिणाः॥१७
यत्र भोजनशिष्टस्य पर्वताः पञ्चविंशतिः।
कुल्याश्च क्षीरवाहिन्यो रसानां चाभवंस्तदा॥१८
वस्त्राभरणगन्धानां राशयश्च पृथग्विधाः॥१९
यस्य प्रसादाच्च211गयस् त्रिषु लोकेषु विश्रुतः।
वटश्चाक्षय्यकरणः पुण्यं ब्रह्मसरश्च तत्॥२०
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।२०
पुत्रात् पुण्यतमस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधिश्वैयेत्युदाहरत्॥२१
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां सहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि त्रिषष्टितमोऽध्यायः॥६३॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः॥३२॥
[अस्मिन्नध्याये २१॥ श्लोकाः ]
॥चतुष्पष्टितमोऽध्यायः॥
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नारदेन सृञ्जयं प्रति रन्तिदेवचरित्रकीर्तनम्॥
नारदः—
साङ्कृतिं रन्तिदेवं च मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
यस्य विंशतिसाहस्रा आसन् सूदा महात्मनः॥१
गृहानभ्यागतान् विप्रान् अतिथीन् परिवेषकाः।
पक्वंपक्वंदिवारात्रं वरान्नममृतोपमम्॥२
न्यायेनाधिगतं वित्तं येनाक्षय्यं नगोपमम्।
वेदानधीत्य धर्मेण यश्चक्रे द्विजतावशे॥३
उपस्थिताश्च पशवस् स्वयं यं संशितव्रतम्।
बहवस्स्वर्गमिच्छन्तो विधिवत् सत्रयाजिनम्॥४
नदी महानसाद्यस्य प्रवृत्ता चर्मराशिभिः।
तस्माच्चर्मण्वती नाम ख्याता पुण्या सरिद्वरा॥५
ब्राह्मणेभ्योऽददान्निष्कान् ब्राह्मणेभ्यः प्रताम्यति।
तुभ्यं निष्कं तव निष्कम् इति सम्प्रतिभाषते॥६
तुभ्यं तुभ्यमिति प्रादान्निष्कान् निष्कान् सहस्रशः।
ततः पुनस्समाश्वास्य निष्कानेव प्रयच्छति॥७
अल्पं दत्तं मयाऽद्येति निष्ककोटिं प्रदाय सः।
एकाह्नाताम्यति ततः क्वाद्य विप्रा इति ब्रुवन्॥८
सहस्रशश्च सौवर्णान् वृषभान् गोशतानुगान्।
अध्यर्धमासमददाद् ब्राह्मणेभ्यश्शतं समाः॥९
अग्निहोत्रोपकरणं द्रव्योपकरणं212 च यत्।
पात्रं213 शरावकं भाण्डं स्थालीः पिठरमेव च॥१०
शयनासनयानानि प्रासादांश्च गृहाणि च।
सूक्ष्मभाण्डाश्च विविधा दृश्यान्यनुपमानि च॥११
सर्वं सौवर्णमेवासीद् रन्तिदेवस्य धीमतः॥११
तत्रस्म गाथा गायन्ति ये पुराणविदो जनाः।
रन्तिदेवस्य तां दृष्ट्वा समृद्धिमतिमानुषीम्॥१२
नैतादृशं दृष्टपूर्वं कुबेरसदनेष्वपि।
धनं चापूर्यमाणं तत् किं पुनर्मानुषेष्विति॥१३
व्यक्तं वस्वोकसारेयम् इत्युचूस्तस्य विस्मिताः॥१४
साङ्कृते रन्तिदेवस्य यां रात्रिमतिथिर्वसेत्।
आलभ्यन्त तदा गावस् सहस्राण्येकविंशतिः॥१५
तत्र स्म सूदाः क्रोशन्ति सुमृष्टमणिकुण्डलाः।
सूपभूयिष्ठमश्नीत नाद्य मांसं यथापुरम्॥१६
रन्तिदेवस्य यत् किञ्चित् सौवर्णमभवत् तदा।
तत् सर्वं वितते यज्ञे ब्राह्मणेभ्यो ह्यमन्यत॥१७
प्रत्यक्षं तस्य हव्यानि प्रतिगृह्णन्ति देवताः।
कव्यानि पितरः काले सर्वान् कामान् द्विजोत्तमाः॥१८
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया॥१८
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधिश्वैयेत्युदाहरत्॥१९
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायांवैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि चतुष्षष्टितमोऽध्यायः॥६४॥
॥६७॥ अभिमन्युवधपर्वणि त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥३३॥
[अस्मिन्नभ्याये १९॥श्लोकाः]
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॥पञ्चषष्टितमोऽध्यायः॥
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नारदेन सृञ्जयं प्रति भरतचरितकथनम्॥
नारदः—
दौष्यन्तिं भरतं चापि मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
कर्माण्यसुकराण्यन्यैः कृतवान् यश्शिशुर्वने॥१
हिमावदातान् यस्सिंहान् नस्वदंष्ट्रायुधान् बली।
निर्वीर्यांस्तरसा कृत्वा विचकर्ष बबन्ध च॥२
क्रूरांश्चोग्रबलान् व्याघ्रान्214 दमयित्वाऽकरोद्वशे।
मनश्शिला इव शिलाः प्रभङ्क्त्वाऽञ्जनकाशिनीः॥३
व्यालान् द्विपांश्चातिबलांस् त्रिप्रभिन्नान घनोपमान्।
क्रीडमानस्सुसङ्क्रुद्धो दमयित्वा विमुञ्चति॥४
सुवर्ष्मणां मन्युमतां बलिनां युद्धशालिनाम्।
महिषाणां सुशृङ्गाणां शतान्यमयद्बलात्॥५
शरभान् सृमरान् खड्गान् नानासत्त्वानि चाप्यथ।
कृच्छ्रप्राणान् वने बद्ध्वादमयित्वाऽव्यवासृजत्॥६
तं सर्वदमनेत्याहुस् तद्विदस्तेन कर्मणा॥६
तं215 प्रत्यषेधज्जननी मा सत्त्वानि व्यनीनशः॥७
सोऽश्वमेधशतेनेजे यमुनामनु वीर्यवान्।
त्रिंशता च सरस्वत्या गङ्गामनु चतुश्शतैः॥८
सोऽश्वमेधसहस्रेण राजसूयशतेन च।
पुनरीजे महायज्ञैस् समाप्तवरदक्षिणैः॥९
अग्निष्टोमातिरात्राणाम् उक्थ्यविश्वजितां च सः।
चातुर्मास्येष्टिसत्राणां216 सहस्रैश्च सुसम्मतैः॥१०
इष्ट्वा शाकुन्तलो राजा तर्पयित्वा द्विजान धनैः।
सहस्रं यत्र पद्मानां कण्वाय भरतो ददौ॥११
जाम्बूनदस्य शुद्धस्य कनकस्य महायशाः॥११
यस्य यूपाश्शतव्यामाः परिणाहेन काञ्चानाः।
सहस्रव्याममुद्विद्धास् सेन्द्रैर्देवैस्समुच्छ्रिताः॥१२
स्वलङ्कृतान् भ्राजमानान् सर्वरत्नमनोरमान्।
हिरण्मयांश्च द्विरदान् उष्ट्रानश्वानजाविकान्॥१३
दासीदासं धनं धान्यं गास्सवत्साः पयस्विनीः।
ग्रामान् गृहाणि क्षेत्राणि विविधांश्च परिच्छदान्॥१४
कोटीशतायुतं चैव ब्राह्मणेभ्यो ह्यमंसत।
चक्रवर्ती ह्यदीनात्मा जेता युद्धेऽजितः परैः॥१५
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया॥१६
पुत्रात् पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधिश्वैत्येत्युदाहरत्॥१७
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि पञ्चषष्टितमोऽध्यायः॥६५॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि चतुस्त्रिंशोऽध्यायः॥३४॥
[अस्मिन्नध्याये १७ श्लोका]ः ]
॥षट्षष्टितमोऽध्यायः॥
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नारदेन सृञ्जयं प्रति पृथुचरित्रकथनम्॥
नारदः—
वैन्यं पृथुं च राजानं मृतं सृञ्जय शुश्रुम।
यमभ्यषिञ्चन् सम्मन्त्र्य राजसूये महर्षयः॥१
अयं नः प्रथयिष्येत सर्वानित्यभवत् पृथुः।
क्षतान्नस्त्रास्यते नित्यम् इति च क्षत्रियोऽभवत्॥२
पृथुं वैन्यं प्रजा दृष्ट्वा रक्तास्स्मेति यदब्रुवन्।
ततो राजेति नामास्य अनुरागादजायत॥३
अकृष्टपच्या पृथिवी ह्यासीद्वैन्यस्य कामधुकू।
सर्वाः कामदुघागावः पुटके पुटके मधु॥४
आसन् हिरण्मया वृक्षास् सुखस्पर्शास्सुगन्धिनः।
तेषां चीराणि संवीताः प्रजास्तेष्वेव शेरते॥५
फलान्यमृतकल्पानि मूलानि च मधूनि च।
तेषामासीत् तदाऽऽहारो निराहारोऽपि नाभवत्॥६
अरोगास्सर्वसिद्धार्था मनुष्या अकुतोभयाः।
निवसन्ति यथाकामं वृक्षेषु च गृहेषु च॥७
प्रविभागो न राष्ट्राणां पुराणामभवत् तदा।
यथासुखं यथारम्यं तथैव मुदिताः प्रजाः॥८
तस्य संस्तम्भयन्नापस् समुद्रमभियास्यतः।
पर्वताश्चावलीयन्त ध्वजभङ्गश्च नाभवत्॥९
तं वनस्पतयश्शैला देवासुरनरोरगाः।
सप्तर्षयः पुण्यजना गन्धर्वाप्सरसोऽपि च॥१०
पितरश्च सुखासीनम् अभिगम्येदमब्रुवन्॥१०
प्रजाः—
सम्राडसि क्षत्रियोऽसि राजा गोप्ताऽसि पाहि नः
देह्यस्मभ्यं महाराज प्रभुस्सन्नीप्सितान् वरान्।११
यैर्वयं शाश्वतं तृप्ता वर्तयिष्यामहे सुखम्॥१२
नारदः—
विज्ञापितः प्रजाभिस्तु प्रजानां हितकाम्यया।
धनुर्गृह्य पृषत्कांश्च वसुधामाद्बली॥१३
ततो वैन्यभयाद्राजन् गौर्भूत्वा प्राद्रवन्मही।
तां पृथुर्धनुरादाय द्रवन्तीमन्वसारयत्॥१४
सा लोकान् ब्रह्मलोकादीन् गत्वा वैन्यभयार्दिता।
सा ददर्शाग्रतो वैन्यं कार्मुकोद्यतपाणिनम्॥१५
ज्वलद्भिर्विशिखैर्बाणैर् दीप्ततेजस्समद्युतिम्।
महायोगं महात्मानं दुर्धर्षममरैरपि॥१६
अलभन्ती परित्राणं वैन्यमेवान्वपद्यत।
कृताञ्जलिपुटा राजन् पूज्यं लोकैस्त्रिभिस्तदा॥१७
उवाच चैनं नाधर्म्यं स्त्रीवधं कर्तुमर्हसि।
कथं धारयिता चासि प्रजा राजन् मया विना॥१८
पृथुः—
एकस्यार्थाय यो हन्याद् आत्मनो वा परस्य वा।
एकं प्राणान् बहून् वाऽपि प्राणिनां नास्मि पातकम्॥१९
यस्मिंस्तु निहते भद्रे बहवस्सुखमेधते।
तस्मिन् हतेऽशुभं217 नास्ति पातकं नोपभुज्यते॥२०
सोऽहं पालनिमित्तत्वाद् वधिष्यामि वसुन्धरे।
यदि चेद्वचनाद्य न करिष्यसि मे प्रियम्॥२१
त्वां निहत्य तु बाणेन मच्छासनपराङ्मुखीम्।
आत्मानं प्रथयित्वाऽहं प्रजा धारयिता स्वयम्॥२२
सुखं वचनमास्थाय मम धर्मभृतां वरे।
सञ्जीवय प्रजा नित्यं शक्ता ह्यसि वसुन्धरे॥२३
दुहितृत्वं च मे गच्छ एवमेतन्महाशरम्।
नियच्छेयं त्वदर्थाय उद्यतं घोरदर्शनम्॥२४
भूमिः—
सर्वमेतन्महाराज विधास्यामि परन्तप।
वत्सं त्वं पश्य राजन् वै क्षरेयं येन वत्सला॥२५
समां च कुरु सर्वत्र मां वै धर्मभृतां वर।
यथा विष्यन्दमानं वै क्षीरं सर्वत्र भावये॥२६
नारदः—
तत उत्सारयामास शिलाजालानि सर्वशः।
पृथुर्वैन्यस्तदा राजा तेन शैला विवर्धिताः॥२७
न हि पूर्वनिसर्गे वै विषमे वसुधातले।
प्रविभागः पुराणां वा ग्रामाणां वा महीपते॥२८
न सस्यानि न गोरक्ष्यं न कृषिर्न वणिक्पथः।
वैन्यात् प्रभृति राजेन्द्र सर्वस्यैतस्य सम्भवः॥२९
यत्र यत्र च साम्यं तु भूमावासीत् किलानघ।
तत्र तत्र प्रजास्तात निवासमभिरोचयन्॥३०
कृच्छ्रेणैव महाराज इत्येवमनुशुश्रुम॥३०
तथेत्युक्त्वा पुनर्वैन्यो गृहीत्वाऽऽजगवं धनुः।
शरांश्चाप्रतिमान् घोरांश्चिन्तयित्वाऽब्रवीन्महीम्॥३१॥
पृथुः—
एह्येहि वसुधे क्षिप्रं क्षरैभ्यः काङ्क्षितं पयः।
मच्छासनातिगां वै त्वां प्रमथिष्याम्यहं शरैः॥३२॥
नारदः—
तथोक्ता साऽत्मनः श्रेयश् चिन्तयित्वाऽब्रवीत् पृथुम्॥३३
भूमिः—
वत्सं पात्राणि दोग्धॄंश्च क्षीराणि च समादिश।
ततो दास्याम्यहं भद्र सर्वं यस्य यथेप्सितम्॥३४
दुहितृत्वे च मां वीर सङ्कल्पयितुमर्हसि॥३४
नारदः—
तथेत्युक्त्वा पृथुस्सर्वं विधानमकरोद्वशी।
ततो भूतनिकायास्ते विराजं दुदुहुस्तदा॥३५
तं वनस्पतयः पूर्वम् उपतस्थुर्दुधुक्षवः।
साऽतिष्ठद्वत्सला वत्सं दोग्धॄन् पात्राणि चेच्छती॥३६
वत्सोऽभूत् पुष्पितस्सालः पर्णो दोग्धा द्विजद्रुमः।
छिन्नप्ररोहणं दुग्धं पात्रमौदुम्बरं शुभम॥३७
उदयः पर्वतो वत्सो मेरुर्दोग्धा महागिरिः।
रत्नान्योषधयो दुग्धं पात्रमश्ममयं तथा॥३८
देवानां वत्स इन्द्रोऽभूत् पात्रं दारुमयं तथा।
दोग्धा च सविता देवो दुग्धमोजस्करं प्रियम्॥३९
असुरा दुदुहुर्मायाम् अयःपात्रे तु तामथ।
दोग्धा द्विमूर्धा शुक्रोऽभूद् वत्साश्चासीद्विरोचनः॥४०
कृषिं च सस्यं च नरा दुदुहुर्धरणीतले।
स्वायम्भुवो मनुर्वत्सस् तेषां दोग्धाऽभवत् पृथुः॥४१
अलाबुपात्रेषु विषं नागैर्दुग्धा वसुन्धरा
धृतराष्ट्रोऽभवद्दोग्धा तेषां वत्सस्तु तक्षकः॥४२
सप्तर्षिभिर्ब्रह्म दुग्धं तपश्चाक्लिष्टकर्मभिः।
दोग्धा बृहस्पतिः पात्रं छन्दो वत्सस्तु सोमराट्॥४३॥
अन्तर्धानं चामपात्रे दुग्धं पुण्यजनैर्विराट्।
दोग्धा वैश्रवणस्तेषां वत्स आसीत् कुबेरकः॥४४
पुण्यगन्धं पद्मपात्रे गन्धर्वाप्सरसोऽदुहन्।
वत्सश्चित्ररथस्तेषां दोग्धा वसुरपि प्रभुः॥४५
स्वधां रजतपात्रेषु दुदुहुः पितरस्स्म ताम्।
वत्सोऽत्र वत्सरस्तेषां यमो दोग्धा तथाऽन्तकः॥४६
एवं निकायैस्तैर्दुग्धा पयांसीष्टानि सा विराट्।
यैवर्तयन्ति ते रुद्राः पृथुं वैन्यं च सर्वशः॥४७
स यज्ञैर्विविधैरिष्ट्वा पृथुर्वैन्यः प्रतापवान्।
सन्तर्पयित्वा भूतानि सर्वकामैर्मनःप्रियैः॥४८
हैरण्यानकरोद्राजा ये केचित् पार्थिवा भुवि।
तान् ब्राह्मणेभ्यः प्रायच्छद् अश्वमेधे महामखे॥४९॥
स षष्टिं गोसहस्राणि षष्टिं नागशतानि च।
सौवर्णानकरोद्राजा ब्राह्मणेभ्यश्च तान ददौ॥५०
य इमां पृथिवीं सर्वां मणिरत्नविभूषिताम्।
कृत्वा हिरण्मयीं राजा ब्राह्मणेभ्यो ह्यमंसत॥५१
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया॥५२
पुत्रात् पुण्यतमस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधिश्वैत्येत्युदाहरत्॥५३
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि षट्षष्टितमोऽध्यायः॥६६।
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि पञ्चत्रिंशोऽध्यायः॥३५॥
[अस्मिन्नध्याये ५३ श्लोकाः]
॥सप्तषष्टितमोऽध्यायः॥
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सृञ्जयं प्रति नारदेन परशुरामप्रभाववर्णनम्॥
नारदः—
रामो महातपाश्शूरो वीरो लोकनमस्कृतः।
जामदग्न्यो महाराज अवितृतो मरिष्यति॥१
यश्चास्त्रमनुपर्येति भूमिं कुर्वन् विपांसुलाम्।
न चासीद्विक्रिया यस्य प्राप्य श्रियमनुत्तमाम्॥२
जामदग्न्यो न ते राजन कच्चिच्छ्रोत्रमुपागतः॥२
येनैकेन पुरा राजन् क्रुद्धेन हतबन्धुना।
भृगुभिस्ताम्यमानेन त्राहि रामेति विस्वरम्॥३
त्रिस्सप्तकृत्वो भूमिर्यत् कृता निःक्षत्रिया पुरा॥४
यः क्षत्रियपरामृष्टे वत्सः पितरि चुक्रुधे।
ततोऽवधीत् कार्तवीर्यम् अजितं समरे परैः॥५
क्षत्रियाणां चतुष्षष्टिम् अयुतान्यरिसङ्घहा।
सरस्वत्यां समेतानि एकेन धनुषाऽवधीत्॥६
ब्रह्मद्विषां वधे यस्मिन् सराष्ट्राणि चतुर्दश।
पुनरन्यानि जग्राह दन्तक्रूरे जघान ह॥७
सहस्रं मुसलेनाघ्नत् सहस्रमसिनाऽवधीत्।
उद्बन्धितं सहस्रं च सहस्रमुदके कृतम्॥८
दन्तान् भङ्क्त्वा सहस्रं च भिन्नकर्णांस्तथाऽकरोत्।
ततस्सप्तसहस्राणि कणधूपमपाययत्॥९
शिष्टान् बध्वा च हत्वा च तेषां मूर्ध्न्यभिहत्य च॥९
गुणावतीमुत्तरेण खाण्डवं दक्षिणेन च।
शेरते शतसाहस्रा हैहयास्समरे हताः॥१०
सगजास्सरथा वीरा रामेणैकेन निर्जिताः॥११
राम रामेत्यभिक्रुष्टो ब्राह्मणैः क्षत्रियार्दितैः।
निजघ्ने शतसाहस्रान् रामः परशुना तदा॥१२
नामृष्यत वचस्त्राहीत्यार्तैर्भृशमुदीरितम्।
भृशं रामाभिधावेति यदाऽऽक्रन्दन् द्विजोत्तमाः॥१३
ततः काश्मीरदरदान् कुन्तिक्षुद्रकमालवान्।
अङ्गवङ्गकलिङ्गेन्द्रान् विदेहांस्ताम्रलिप्तकान्॥१४
आहावाहान्218 कुहावरान् ङ—कुम्भाषहानू घ—कुहाचहान् “) वीतिहोत्रांस् त्रिगर्तान् मार्तगायनान्219।
शिबीनन्यांश्च राजेन्द्र देशे देशे सहस्रशः॥१५
निजघान शितैर्बाणैर् जामदग्न्यः प्रतापवान्॥
कोटीशतसहस्राणि क्षत्रियाणामथावधीत्॥१६
इन्द्रगोपकवर्णस्य वन्धुजीवनिभस्य च।
रुधिरस्य परीवाहान् पूरयित्वा सरांसि च॥१७
सर्वानष्टादश द्वीपान् वशमानीय भार्गवः।
ईजे क्रतुशतैः पुण्यैस् समाप्तवरदक्षिणैः॥१८
वेदीमष्टतलोत्सेधां सौवर्णां विधिनिर्मिताम्।
सर्वरत्नशतैः पूर्णां पताकाध्वजमालिनीम्॥१९
ग्राम्यारण्यैः पशुगणैस् सम्पूर्णां च महीमिमाम्।
शतं शतसहस्राणि द्विपेन्द्रान् हेमभूषितान्॥२०
रामस्य जामदग्न्यस्य प्रतिजग्राह कश्यपः॥२०
निर्दस्युं पृथिवीं कृत्वा शिष्टेष्टजनवत्सलः।
काश्यपाय ददौ रामो हयमेधे महामखे॥२१
त्रिस्सप्तकृत्वः पृथिवी येन निःक्षत्रिया कृता॥२२
इष्ट्वा क्रतुशतैस्तैस्तैः ब्राह्मणेभ्यो ह्यमंसत॥२२
स काश्यपस्य वचनाद् उत्सार्य सरितां पतिम्।
इषुणेषुमतां श्रेष्ठो महेन्द्रगिरिमाविशत्॥२३
ब्राह्मणो ब्राह्मणश्रेष्ठः कुर्वन् ब्राह्मणशासनम्।
अध्यावसद्गिरिश्रेष्ठं महेन्द्रमकुतोभयः॥२४
एवं गुणशतैर्युक्तो भृगूणां कीर्तिवर्धनः।
जामदग्न्यो ह्यतियशाश् चतुर्भद्रतरस्त्वया220॥२५॥
पुत्रात्221 पुण्यतरस्तुभ्यम् मा पुत्रमनुतप्यथाः।
अयज्वानमदक्षिण्यम् अधिश्वैत्येत्युदाहरत्॥२६॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहियायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि सप्तषष्टितमोऽध्यायः॥६७॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि षट्त्रिंशोऽध्यायः॥३६॥
[अस्मिन्नध्याये २६॥ श्लोकाः]
[षोडशराजकथाः समाप्ताः]ः]
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॥अष्टषष्टितमोऽध्यायः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1705562326त.png"/>
युधिष्ठिरं समाश्वास्य व्यासस्य स्वाश्रमगमनम्॥
व्यासः—
पुण्यं222 यशस्यमाख्यानं श्रुत्वा षोडशराजकम्।
अव्याहरन् नरपतिस् तूष्णीमासीत् स सृञ्जयः॥१
तमब्रवीत् तदा दीनं नारदो भगवानृषिः॥१॥
नारदः—
कच्चिन्मया व्याहृतं यद्धृदये तत् स्थितं तव।
आहोस्विदन्ततो नष्टं श्राद्धं शूद्रापताविव॥२
व्यासः-—
स एवमुक्तः प्रत्याह प्राञ्जलिस्सृञ्जयस्तदा॥३
समयः-—
पुत्रशोकापहं श्रुत्वा धन्यमाख्यानमुत्तमम्।
राजर्षीणां223 पुराणानां यज्वनां दक्षिणावताम्॥४
विस्मयेन हते शोके तमसीवार्कतेजसा।
विपाप्माऽस्म्यनु मां शाधि यदात्थ करवाणि तत्॥५
नारदः-—
दिष्ट्याऽपहतशोकस्त्वं वृणीष्व यदिहेच्छसि।
तत् ते सम्पत्स्यते सर्वं न मृषावादिनो वयम्॥६
सञ्जयः-—
पावितोऽहमनेनैव प्रसन्नो यद्भवान् मम।
प्रसन्नो यस्य भगवान् न तस्यास्तीह दुर्लभम्॥७
नारदः-—
पुनर्ददामि ते पुत्रं दस्युभिर्निहतं वृथा।
उद्धृत्य नरकात् कष्टात् पशुवत् प्रोक्षितं224 यथा॥८
व्यासः-—
प्रादुरासीत् ततः पुत्रस् सृञ्जयस्याद्भुतप्रभः।
दत्तः प्रसन्नेन तदा ऋषिणा दिव्यवर्चसा॥९
ततस्सङ्गस्य पुत्रेण प्रीतिमानभवन्नृपः।
ईजे च क्रतुभिर्मुख्यैस् समाप्तवरदक्षिणैः॥१०
अकृतास्त्रश्च हीनश्च न च सन्नाहकोविदः।
अयज्वा चानपत्यश्च ततो जीवायितः पुनः॥११
शूरो वीरः कृतास्त्रश्च प्रमथ्यारीन् सहस्रशः।
अभिमन्युर्गतस्स्वर्गं सङ्ग्रामेऽभिमुखो हतः॥१२
ब्रह्मचर्येण याल्ँलोकान् प्रजया च श्रुतेन च।
इष्टैश्च क्रतुभिर्यान्ति तान् सौभद्रो गतोऽक्षयान्॥१३
विद्वांसः कर्मभिः पुण्यैर् लभन्ते स्वर्गमुत्तमम्।
न तु स्वर्गादयं लोकः काम्यते स्वर्गवासिभिः॥१४
तस्मात् स्वर्गं गतो राजन्नर्जुनस्य सुतो वशी।
नेहानीयति नह्यस्य किञ्चिद्प्राप्यमीहितम्॥१५
एवं ज्ञात्वा स्थिरो भूत्वा मा शुचो धैर्यमाप्नुहि।
जीवन् हि पुरुषश्शोच्यो न तु स्वर्गं गतोऽनघ॥१६
स शोचानो ह्यघायुश्च अघमेवानुवर्तते।
तस्माच्छोकं परित्यज्य श्रेयसि प्रयतेद्बुधः॥१७
प्रहर्षं प्रीतिमानन्दं सुखमुत्सिक्तचित्तताम्।
एतदाहुर्बुधाश्शौचम् अशौचं शोक उच्यते॥१८
एवं विद्वन् समुत्तिष्ठ सुमना भव मा शुचः।
श्रुतस्ते सम्भवो मृत्योस् तपांस्यनुपमानि च॥१९
सर्वभूतसमत्वं च ब्रह्मणा चापि चोदितम्।
सृञ्जयस्य तु पुत्रोऽसौ मृतस्सञ्जीवितश्श्रुतः॥२०
एवं विद्वन् महाराज मा शुचस्साधयाम्यहम्॥२०
सञ्जयः—
एतावदुक्त्वा भगवांस् तत्रैवान्तरधीयत॥२१
वागीशाने भगवति व्यासे व्यक्तनभःप्रभे।
गते मतिमतां श्रेष्ठे समावास्य युधिष्ठिरम्॥२२
सर्वेषां पार्थिवेन्द्राणां महेन्द्रप्रतिमौजसाम्।
न्यायाधिगतवित्तानां श्रुत्वा यज्ञेषु सम्पदः॥२३
सम्पूज्य मनसा विद्वान् निश्शोकोऽभूद्युधिष्ठिरः।
पुनश्चाचिन्तयद्दीनः किंस्विद्वक्ष्ये धनञ्जयम्॥२४
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि अष्टषष्टितमोऽध्यायः॥६८॥
॥६७॥अभिमन्युवधपर्वणि सप्तत्रिंशोऽध्यायः॥३७॥
[अस्मिन्नध्याये २४ श्लोकाः]
(अभिमन्युवधपर्व समाप्तम् )
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॥एकोनसप्ततितमोऽध्यायः॥
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अभिमन्युमनुशोच्यार्जुनस्य विलापः॥१॥ युधिष्ठिरेणार्जुनं प्रत्यभिमन्युनिधनप्रकारकथनम्॥२॥ अर्जुनेन सशपथं जयद्रथवधप्रतिज्ञा॥३॥
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(प्रतिज्ञापर्व)
धृतराष्ट्रः—
अथ संशप्तकैस्सार्धं युध्यमाने धनञ्जये ।
अभिमन्यौ हते चापि बाले बलवतां वरे॥१
महर्षिसत्तमे याते युधिष्ठिरपुरोगमाः ।
पाण्डवाः किमथाऽकार्षुश् शोकेन हतचेतसः॥२
कथं संशप्तकेभ्यो वा निवृत्तो वानरध्वजः ।
केन वा कथितस्तस्य प्रशान्तस्सुतपावकः॥३
एतन्मे शंस तत्त्वेन सर्वमेवेह सञ्जय॥३
सञ्जयः—
शृणु राजन् यथा तेभ्यो निवृत्तः कृष्णसारथिः ।
ततस्सर्वाणि सैन्यानि दहन् कृष्णगतिर्यथा॥४
सम्प्रयातेऽस्तमादित्ये संध्याकाल उपस्थिते ।
आयातस्यात्मशिबिरं निमित्तैरघशंसिभिः॥५
यच्चासीन्मानसं तस्य यच्च कृष्णेन भाषितम् ।
यथा च कथितस्तस्य निहतस्सुतपावकः॥६
विस्तरेणैव मे सर्वं ब्रुवतश्शृणु मारिष॥७
तस्मिन् महति निर्वृत्ते घोरे प्राणभृतां क्षये।
आदित्येऽस्तं गते श्रीमान् सन्ध्याकाल उपस्थिते॥८
व्यपयातेपु सैन्येषु वासाय भरतर्षभः।
हत्वा संशप्तकव्रातान दिव्यैरस्त्रैः कपिध्वजः॥९
आयात् स्वशिबिरं जिष्णुर् जैत्रमास्थाय तं रथम्॥९
गच्छन्नेव च गोविन्दं सन्नकण्ठोऽभ्यभाषत॥१०
अर्जुनः—
किं नु मे हृदयं त्रस्तं वाक्यं सज्जति केशव।
स्पन्दन्तेऽङ्गान्यनिष्टानि गात्रैस्सीदामि चाच्युत॥११
अनिष्टं चैव मे क्लिष्टं हृदयान्नापसर्पति।
भूम्यां दिवि तथाऽत्युग्राउत्पातास्त्रासयन्ति माम्॥१२
बहुप्रकारा दृश्यन्ते सर्व एवाघशंसिनः॥१२
अपि स्वस्ति भवेद्राज्ञस् सामात्यस्य गुरोर्मम॥१३
श्रीभगवान्—
व्यक्तं शिवं सहभ्रातुर् धर्मराजस्य पाण्डव।
मा शुचः किञ्चिदेवान्यत् तत्रानिष्टिं भविष्यति॥१४
सञ्जयः—
ततस्सन्ध्यामुपास्यैव वीरौ वीरावसादने।
कथयन्तौ रणे वृत्तं प्रयातौ रथमास्थितौ॥१५
ततस्स्वशिबिरं प्राप्तौ हतामित्रौ हतद्विषौ।
वासुदेवार्जनौ चैव कृत्वा कर्म सुदुष्करम्॥१६
ध्वस्ताकारमिवालेख्यं संवीक्ष्य शिबिरं स्वकम्।
बीभत्सुरब्रवीत् कृष्णम् अस्वस्थहृदयस्तदा॥१७
अर्जुनः—
नाद्य नर्दन्ति तूर्याणि मङ्गलानि जनार्दन।
मिश्रा दुन्दुभिनिर्घोषैश् शङ्खा आडम्बरैस्सह॥१८
वीणा न साधु वाद्यन्ते शम्यातालरवैस्सह।
मङ्गलानि च गीतानि नाद्य गान्ति पठन्ति च॥१९
स्तुतिमङ्गलसंयुक्ता ममानीकेषु वर्तिनः225।
योधाश्चापि च मां दृष्ट्वा निवर्तन्ते ह्यधोमुखाः॥२०
कर्माणि च यथापूर्वं कृत्वा नाभिवदन्ति माम्॥२०
अपि स्वस्ति भवेदद्य भ्रातृभ्यो मम माधव॥२१
न हि शुद्ध्यति मे भावो दृष्ट्वा स्वजनमाकुलम्।
अपि पाञ्चालराजस्य विराटस्य च मानद॥२२
सर्वेषां चैव योघानां सामग्र्यं स्यान्ममाच्युत॥२२॥
न च माऽभ्येति सौभद्रः प्रहृष्टैर्भ्रातृभिस्सह।
रणादायान्तमुचितं प्रत्युद्याति हसन्निव॥२३॥
सञ्जयः-—
एवं सङ्कथयन्तौ तौ प्रविष्टौ शिबिरं स्वकम्।
ददृशाते भृशास्वस्थान् पाण्डवान् नष्टचेतसः॥२४॥
दृष्ट्वा भ्रातॄंश्च पुत्रांश्च दुःखितान् नष्टचेतसः।
अपश्यंस्तत्र सौभद्रम् इदं वचनमब्रवीत्॥२५॥
अर्जुनः-—
मुखवर्णोऽप्रसन्नो वस् सर्वेषामेव दृश्यते।
न चाभिमन्युं पश्यामि न च मामभिनन्दथ॥२६॥
श्रुतो यथा मे द्रोणेन पद्मव्यूहो विनिर्मितः।
न च वस्तस्य भेत्ताऽस्ति अभिमन्युमृते शिशुम्॥२७॥
नोपदिष्टश्च मे तस्य भित्त्वाऽनीकस्य निर्गमः।
कच्चिन्न बालो युष्माभिः परानीकं प्रवेशितः॥२८॥
भित्वाऽनीकं नरव्याघ्रः परेषां बहुभिर्युधि।
कच्चिन्न निहतश्शेते सौभद्रः परवीरहा॥२९॥
लोहिताक्षं महाबाहुं जातं सिंहमिवाद्रिषु।
उपेन्द्रसदृशं ब्रूत कथमायोधने हतः॥३०॥
सुकुमारं महोत्साहं वासवस्यात्मजात्मजम्।
सदा मम प्रियं ब्रूत कथमायोधने हतः॥३१॥
वार्ष्णेयदायितं शूरं मया सततलालितम्।
अम्बायाश्च प्रियं नित्यं कोऽवधीत् कालचोदितः॥३२॥
सदृशो वृष्णिसिंहस्य केशवस्य महात्मनः।
विक्रमश्रुतमाहात्म्यैः कथमायोधने हतः॥३३॥
सुभद्रायाः प्रियं नित्यं द्रौपद्याः केशवस्य च।
यदि पुत्रं न पश्यामि यास्यामि यमसादनम्॥३४॥
महोत्साहं226 महावीर्यं दीर्घराजीवलोचनम्।
यदि227 पुत्रं न पश्यामि यास्यामि यमसादनम्॥३५॥
मृदुकुञ्चितकेशान्तं बालं बालमृगेक्षणम्।
मत्तद्विरदविक्रान्तं सालपोतमिवोद्गतम्॥३६॥
स्मिताभिभाषिणं दान्तं गुरुप्रेष्यकरं सदा।
बालं चाबालकर्माणं प्रियोद्यं वीतमत्सरम्॥३७॥
भक्तानुकम्पिनं दान्तं न च दीनानुसारिणम्।
कृतज्ञं ज्ञानसम्पन्नं कृतास्त्रमनिवर्तिनम्॥३८॥
युद्धाभिनन्दिनं नित्यं द्विषतामघवर्धनम्।
स्वेषां प्रियहिते युक्तं पितॄणां जयगर्द्धिनम्॥३९॥
न च पूर्वप्रहर्तारं सङ्ग्रामे नष्टसम्भ्रमम्।
यदि पुत्रं न पश्यामि यास्यामि यमसादनम्॥४०॥
सुनसं सुललाटं तं सुभ्व्रक्षिदशनस्मितम्।
अपश्यतस्तद्वदनं का शान्तिर्हृदयस्य मे॥४१॥
तन्त्रीस्वनसुखं रम्यं पुंस्कोकिलसमध्वनिम्।
अशृण्वतस्स्वनं तस्य का शान्तिर्हदयस्य मे॥४२॥
रूपं228 चाप्रतिरूपं तत् त्रिदशैरपि दुर्लभम्।
अपश्यतो हि वीरस्य का शान्तिर्हृदयस्य मे॥४३॥
अभिवादनदक्षं तं पितॄणां वचने रतम्।
नह्यहं यदि पश्यामि का शान्तिर्हृदयस्य मे॥४४॥
सुकुमारस्सदा वीरो महार्हशयनोचितः।
भूमावनाथवच्छेते नूनं नाथवतां वरः॥४५॥
शयानं समुपासन्ते यं पुरा परमस्त्रियः।
तमद्य विप्रविद्धाङ्गम् उपासन्तेऽशिवाश्शिवाः॥४६॥
यः पुरा बोध्यते सुप्तस् सूतमागधवन्दिभिः।
तमद्य बोधयिष्यन्ति श्वापदा विरुतैः खरैः॥४७॥
छत्रच्छायासमुचितं तस्य तद्वदनं शुभम्।
नूनमद्य रजोध्वस्तं रणे रेणुः करिष्यति॥४८॥
हा पुत्रकावितृप्तस्य सततं पुत्रदर्शने।
मन्दपुण्यस्य कालेन यथा मे नीयसे बलात्॥४९॥
साऽद्य संयमनी नूनं सतां सुकृतिनां गतिः।
स्वभाभिमण्डिता229 रम्या त्वयाऽत्यर्थं विराजिता॥५०॥
नूनं वैवस्वतश्च त्वां वरुणश्च प्रियातिथिम्।
शतक्रतुर्धनेशश्च प्राप्तमर्चन्त्यभीरुकम्॥५१॥
सञ्जयः—
एवं विलप्य बहुलं भिन्ना नौरिव सागरे।
दुःखेन महताऽविष्टो युधिष्ठिरमभाषत॥५२॥
अर्जुनः—
कथं त्वयि च भीमे च धृष्टद्युम्ने च जीवति।
सात्यके शक्रविक्रान्ते सौभद्रो निहतः परैः॥५३॥
कच्चित् स कदनं कृत्वा परेषां पाण्डुनन्दनः।
स्वर्गतोऽभिमुखस्सङ्ख्ये युध्यमानो महारथैः॥५४॥
स नूनं बहुभिर्युक्तैर् युध्यमानो महारथैः।
असहायस्सहायार्थं मामनुध्यातवान् ध्रुवम्॥५५॥
पीड्यमानश्शरैर्बालस् तात साध्वभिधाव माम्।
इति विप्रलपन् मन्ये नृशंसैर्बहुभिर्हतः॥५६॥
अथवा मत्प्रसूतश्च स्वत्रीयो माधवस्य च।
सुभद्रायां च सम्भूतस् स नैवं वक्तुमर्हति॥५७॥
वज्रायसाश्मभिस्तुल्यं हृदयं सुदृढं मम।
अपश्यतो दीर्घबाहुं रक्ताक्षं यन्न दीर्यते॥५८॥
कथं बाले महेष्वासे नृशंसा मर्मभेदिनः।
स्वस्त्रीये वासुदेवस्य मम पुत्रेऽक्षिपञ् शरान्॥५९॥
यो मां नित्यमदीनात्मा प्रत्युद्गम्याभिनन्दति।
उपयान्तं रिपून् हत्वा सोऽद्य मां किं न पश्यति॥६०॥
नूनं230 स पातितश्शेते धरण्यां रुधिरोक्षितः।
शोभयन् मेदिनीं गात्रैर् भूम्यां चन्द्र इवोदितः॥६१॥
श्रुत्वा200 निपतितं शूरम् अनघं कृतलाघवम्।
सुभद्रा वक्ष्यते किं माम् अभिमन्युमपश्यती॥६२॥
द्रौपदीं चापि दुःखार्तां किं वा वक्ष्यामि तामहम्॥६३
हृष्टानां धार्तराष्ट्राणां सिंहनादो मया श्रुतः।
युयुत्सुश्चापि कृष्णेन श्रुतो वीरानुपालभन्॥६४
अशक्नुवन्तः231 पार्थस्य बालं हत्वा महाबलम्।
किं न लज्जन्त्यधर्मज्ञाः पार्थिवा दृश्यतां बलम्॥६५
किं तयोर्विप्रियं कृत्वा केशवार्जुनयोर्मृधे।
सिंहवन्नदथ प्रीताश् शोककाल उपस्थिते॥६६
आगमिष्यति वः क्षिप्रं फलं पापस्य कर्मणः।
अधर्मो हि कृतस्तीव्रः कथं स्यादफलश्चिरम्॥६७
समयः-—
इति तान् परिभाषन् वै कुन्त्याः232 पुत्रो महाद्युतिः।
अपायाच्छस्त्रमुत्सृज्य कोपाद्दुःखसमन्वितः॥६८
श्रीभगवान्—
किमर्थमेतन्नाख्यातं त्वया पार्थ रणे मम।
अधक्ष्यं तानहं सर्वांस् तत्र क्रूरान महारथान्॥६९
सञ्जयः—
निगृह्य वासुदेवस्तं शोकाधिभिरभिप्लुतम्।
मैवमित्यब्रवीत् कृष्णस् तीव्रशोकसमन्वितम्॥७०
श्रीभगवान्—
सर्वेषामेव पन्था वै शूराणां कुरुनन्दन।
क्षत्रियाणां233 विशेषेण येषां नश्शस्त्रजीविका॥७१
एषा वै युध्यमानानां शूराणां कुरुनन्दन।
विहिता धर्मशास्त्रज्ञैर् गतिर्मतिमतां वर॥७२
ध्रुवं युद्धे हि मरणं शूराणामनिवर्तिनाम्।
गतः पुण्यकृताल्ँलोकान् अभिमन्युर्न संशयः॥७३
एतद्वै सर्ववीराणां काङ्क्षितं भरतर्षभ।
सङ्ग्रामेऽभिमुखा मृत्युं प्राप्नुयामेति भारत॥७४
स तु वीरान् रणे हत्वा राजपुत्रान् महारथान्।
वीराणां काङ्क्षितं मृत्युं प्राप्नोत्यभिमुखो रणे॥७५
मा शुचो नृवरश्रेष्ठ एवमेव पुरातनः।
धर्मकृद्भिः कृतो धर्मः क्षत्रियाणां रणे क्षयः॥७६
इमे ते भ्रातरस्सर्वे दीना वै भ्रातृवत्सलाः।
त्वयि शोकसमाविष्टे नृपाश्च सुहृदस्तव॥७७
एतान् वै वचसा साम्ना समाश्वासय मानद।
विदितं वेदितव्यं ते न शोकं कर्तुमर्हसि॥७८
सञ्जयः—
एवमाश्वासितः पार्थः कृष्णेनाद्भुतकर्मणा।
ततोऽब्रवीत् तदा भ्रातॄन सर्वान् पार्थस्सगद्गदम्॥७९
अर्जुनः—
स दीर्घबाहुः पृथ्वंसो दीर्घराजीवलोचनः।
अभिमन्युर्यथा वृत्तश् श्रोतुमिच्छाम्यहं तथा॥८०
सनागस्यन्दनहयान् सङ्ग्रामे निहतान् मया।
क्षिप्रं द्रक्ष्यन्ति ते नूनं मम पुत्रं निहत्य वै॥८१
कथं च वः कृतास्त्राणां सर्वेषां शस्त्रपाणिनाम्।
सौभद्रो निधनं गच्छेद् वज्रिणाऽपि समागतः॥८२
यद्येवमहमज्ञास्यम् अशक्तान् मम रक्षणे।
सूनोः पाण्डवपाञ्चालान् अगोप्स्यं तं महारणे॥८३
कथं च वो रथस्थानां शरवर्षाणि मुञ्चताम्।
सौभुद्रो निधनं नीतः कदर्थीकृत्य वः परैः॥८४
अहो वः पौरुषं नास्ति न च वोऽस्ति पराक्रमः।
यत्राभिमन्युस्समरे पश्यतां वो निपातितः॥८५
आत्मानमेव गर्हेयं यदहं वै सुदुर्बलान्।
युष्मानाज्ञाय निर्यातो भीरूनकृतनिश्रमान्॥८६
आहोस्विद्भूषणार्थानि वर्मपत्रायुधानि च।
वाचश्च वदतां सत्सु मम पुत्रमरक्षताम्॥८७
सञ्जयः—
एवमुक्त्वा ततो वाक्यम् अतिष्ठद्वै वरासिमान्234।
न संशक्ष्यन्ति बीभत्सुं केचन प्रतिवीक्षितुम्॥८८
तमन्तकमिवायान्तं निश्श्वसन्तं पुनः पुनः।
महेन्द्रमिव तिष्ठन्तं वज्रोद्यतमहाभुजम्॥८९
पुत्रशोकाभिसन्तप्तम् अश्रुपूर्णमुखं तदा।
न भाषितुं शक्नुवन्ति द्रष्टुं वाऽपि तदाऽर्जुनम्॥९०
अन्यत्र वासुदेवाद्धि ज्येष्ठाद्वै पाण्डुनन्दनात्॥९०
सर्वावस्थास्वपि हितावर्जुनस्य मनोनुगौ।
बहुमानात् प्रियत्वाच्च तावेनं वक्तुमर्हतः॥९१
ततस्तं पुत्रशोकेन भृशं पीडितमानसम्।
राजीवलोचनं क्रुद्धं राजा वचनमब्रवीत्235॥९२
युधिष्ठिरः—
त्वयि याते महाबाहो संशप्तकवधं प्रति।
यतते राजमिस्मार्धम् आचार्योग्रहणे मम॥९३
व्यूढानीकं ततो द्रोणं यतमानं महामृधे।
प्रतिव्यूह्य सहानीकाः प्रत्यरुध्म वयं बलम्॥९४
स वार्यमाणस्सङ्ग्रामे मयि चापि सुरक्षिते।
अस्मानप्यहनत् क्रुद्धः पीडयन्निशितैश्शरैः॥९५
निपीड्यमाना द्रोणेन द्रोणानीकं न शक्नुमः।
प्रतिवीक्षितुमप्याजौ भेत्तुं हि कुत एव नः॥९६
ततस्तमप्रतिरथम् अहं सौभद्रमब्रवम्।
द्रोणानीकमिदं भिन्द्धि द्वारं सञ्जनयस्व नः॥९७
स तदा चोदितोऽस्माभिस् सदश्व इव वीर्यवान्।
असह्यमर्पितं भारं वोढुमेवोपचक्रमे॥९८
तव चैवोपदेशेन वीर्येण च समन्वितः।
प्राविशत् तद्बलं बालस् सुपर्ण इव सागरम्॥९९
तेऽन्वयाम वयं वीरं सात्वतीपुत्रमाहवे।
प्रवेष्टुकामास्तेनैव येन स प्राविशच्चमूम्॥१००
ततस्सैन्धवको राजा क्षुद्रस्तात जयद्रथः।
वरदानेन रुद्रस्य सर्वान् नः प्रत्यवारयत्॥१०१
ततो द्रोणः कृपः कर्णो द्रौणिश्च सबृहद्बलः।
कृतवर्मा च तं वीरं षड्रथाः पर्यवारयन्॥१०२
परिवार्य च तैः क्षुद्रैर् युधि बालो महारथैः।
यतमानः परं शक्त्या बहुभिर्विरथीकृतः॥१०३
ततो दौश्शासनिः पापस् तथा तैर्विरथीकृतम्।
संशयं परमं प्राप्तं पदातिनमवस्थितम्॥१०४
गदाहस्तोऽभ्ययात् तूर्णं जिघांसुरपराजितम्॥१०५
गदिनं त्वथ तं दृष्ट्वा वासवस्यात्मजात्मजः।
स जग्राह गदां वीरो गदायुद्धविशारदः॥१०६
गदामण्डलमार्गस्थौ सर्वक्षत्रस्य पश्यतः।
तौ सम्प्रजह्रतुर् वीरावन्योन्यस्यान्तरैषिणौ॥१०७
तावन्योन्यं गदाग्राभ्यां ताडितौ युद्धदुर्भदौ।
इन्द्रध्वजाविवोत्सृष्टौ गतसत्त्वौ महीं गतौ॥१०८
स तु हत्वा सहस्राणि द्विपाश्वरथपत्तिनाम्।
राजपुत्रशतं चाग्र्यं वीरांश्चालक्षितान् बहून्॥१०९
बृहद्बलं च राजानं स्वर्गेण समयोजयत्॥१०९
गतस्सुकृतिनां लोकान् ये च स्वर्गजितां शुभाः॥११०
अदीनस्त्रासयञ् छत्रून् नन्दयित्वा च बान्धवान्।
असकृन्नाम विश्राव्य पितॄणां मातुलस्य च॥१११
वीरो दिष्टान्तमापन्नश् शोचयन् बान्धवान् बहून्॥१११॥
ततस्स्म शोकसन्तप्ता भवताऽद्य समेयुषः॥११२
एतावदेव निर्वृत्तम् अस्माकं शोकवर्धनम्।
स चैवं पुरुषव्याघ्रस् स्वर्गलोकमवाप्तवान्॥११३
सञ्जयः—
ततोऽर्जुनो वचश्श्रुत्वा धर्मराजेन भाषितम्।
व्यथितो न्यपतद्भूमौ दुःखार्तस्स मुमोह च॥११४
विषण्णवदनास्सर्वे परिगृह्य धनञ्जयम्।
नेत्रैरनिमिपैर्दीनाःप्रत्यपश्यन् परस्परम्॥११५
प्रतिलभ्य ततस्संज्ञां वासविः क्रोधमूर्च्छितः।
कम्पमानो ज्वरेणेव निश्श्वसंश्च पुनः पुनः॥११६
पाणि पाणौ विनिष्पिष्य दन्तान् कटकटाप्य च।
त्रिशिखां भ्रुकुटीं कृत्वा क्रोधसंरक्तलोचनः॥११७
उन्मत्त इव रोषेण स्मयन् वचनमब्रवीत्॥११७
अर्जुनः—
सत्यं वः प्रतिजानामि श्वो हन्तास्मि जयद्रथम्।
न चेद्वधभयात् त्रस्तो धार्तराष्ट्रान् प्रहास्यति॥११८
न च मां शरणं गच्छेत् कृष्णं वा पुरुषोत्तमम्।
भवन्तं वा महाराज वो हन्तास्मि जयद्रथम्॥११९
मयि विस्मृतसौहार्दं दुर्योधनहिते रतम्।
पापं बालवधे हेतुं वो हन्तास्मि जयद्रथम्॥१२०
रक्षमाणाश्च तं सङ्ख्ये ये मां योत्स्यन्ति केचन।
राजन् द्रोणमुखांस्तांस्तान् वारयिष्याम्यहं शरैः॥१२१
एवं यदि न सङ्ग्रामे कुर्यां श्वः पुरुषोत्तम।
मा स्म पुण्यकृतां लोकान् प्राप्नुयां सदनुष्ठिताम्॥१२२
ये लोका मातृघातीनां ये लोकाः पितृघातिनाम्।
ये गुरोर्दारगामीनां पिशुनानां च या गतिः॥१२३
पायसं पयसाऽन्नं वा शाकं कृसरमेव वा।
संयावापूपमांसानि ये च लोका वृथाऽश्नताम्॥१२४
साधून् निन्दयतां चापि ये चापि परिवादिनाम्।
ये च निक्षेपहारीणां ये च विश्वासघातिनाम्॥१२५॥
भुक्तपूर्वां स्त्रियं चापि निन्दतामघशंसिनाम्।
ब्राह्मणान् निघ्नतां ये च ये च गोघातिनामपि॥१२६
अदत्त्वा236 देवताभ्यश्च अतिथिभ्यस्तथैव च।
तानिहैवोपगच्छेयं न चेद्धन्यां जयद्रथम्॥१२७
येऽध्यापयन्त्यनध्याये संश्रुतं वाऽपि ब्राह्मणम्।
कालद्रव्यमितिं237 कृत्वा योऽध्यापयति मूढधीः॥१२८॥
भृतकस्स तु विज्ञेयस् सर्वकर्मबहिष्कृतः।
तस्य या गतिरुद्दिष्टा तत्पङ्क्त्या भुञ्जतस्तदा॥१२९
अवमन्यमानो यान याति वृद्धान् साधून गुरूंस्तदा238।
संस्पृशन्239 ब्राह्मणं गां च पदाऽग्निं चापि यो व्रजेत्॥१३०॥
योऽप्सु मूत्रं पुरीषं वा श्लेष्माणं वाऽपि मुञ्चति।
गच्छेयं तां गतिं कृच्छ्रां न चेद्धन्मि जयद्रथम्॥१३१
नग्नस्य स्नायमानस्य या च वन्ध्याऽतिथेर्गतिः।
उत्कोचकानृतानां च वञ्चकानां च या गतिः॥१३२
सूचकात्मापहारीणां या च मिथ्याभिशंसिनाम्।
भृत्यैस्सन्दृश्यमानानां पुत्रदाराश्रितैस्तथा॥१३३
असंविभज्य क्षुद्राणां या गतिर्मृष्टमश्नताम्।
तां गच्छेयं गतिं घोरां न चेद्धन्मि जयद्रथम्॥१३४
संश्रितं चापि यस्त्यक्त्वा साधु सद्वचने रतम्।
नैनं भरति दुष्टात्मा निन्दते चोपकारिणम्॥१३५
अर्हते प्रतिवेश्याय श्राद्धं यो न ददाति ह।
अनर्हते च यो दद्याद्वृषलीपतयेऽपि च॥१३६
मद्यपो भिन्नमर्यादः कृतघ्नो भर्तृनिन्दकः।
तेषां गतिमियां क्षिप्रं न चेद्धन्मि जयद्रथम्॥१३७
धर्मादपेता ये चान्ये ये चात्रापरिकीर्तिताः।
ये मया कीर्तिताश्चात्र तेषां गतिमवाप्नुयाम्॥१३८
यदि व्युष्टामिमां रात्रिं श्वो न हन्यां जयद्रथम्।
इमां चाप्यपरां भूयः प्रतिज्ञां मे निबोधत॥१३९
इहैव च प्रवेक्ष्यामि ज्वलितं जातवेदसम्।
गाण्डीवहस्तो राज्ञां च समक्षं पृथिवीपते॥१४०
अनस्तमित आदित्ये न चेद्धन्मि जयद्रथम्॥१४१
असुरसुरमनुष्याः पक्षिणो वोरगा वा
पितृरजनिचरा वा ब्रह्मदेवर्षयो वा।
चरमचरमपीदं यत् परं चापि तस्मात्
तदपि मम रिपुं तं रक्षितुं नेह शक्ताः॥१४२
यदि विशति रसातलं तदग्र्यं
वियदपि देवपुरं दितेः पुरं वा।
निशितशरवरैरहं प्रसह्य
शृणुत हि सिन्धुपतेश्शिरो हरिष्ये॥१४३
सञ्जयः—
एवमुक्त्वा विचिक्षेप गाण्डीवं सव्यदक्षिणम्।
तस्य सर्वमतिक्रम्य धनुश्शब्दोऽस्पृशद्दिवम्॥१४४
अर्जुनेन प्रतिज्ञाते पाञ्चजन्यं जनार्दनः।
प्रदध्मौ तत्र सङ्क्रुद्धो देवदत्तं धनञ्जयः॥१४५
स पाञ्चजन्योऽच्युतवक्रवायुना
भृशं सुपूर्णोदरनिस्सृतध्वनिः।
जगत् सपातालवियद्दिगीश्वरं
प्रकम्पयामास युगात्यये यथा॥१४६
ततो वादित्रनिर्घोषाः प्रादुरासन् सहस्रशः।
सिंहनादाश्च वीराणां प्रतिज्ञाते महात्मना॥१४७
अनृत्यदिव गाण्डीवं शरास्तूणीगता मुदा।
निराक्रामन्निव तदा स्वयमेव मृधैषिणः॥१४८
भीमसेनस्तु संहृष्टः प्रत्यभाषत भारत।
धनञ्जयमभिप्रेक्ष्य हर्षगद्गदया गिरा॥१४१
भीमः—
प्रतिज्ञोद्भवशब्देन कृष्णशङ्खस्वनेन च।
निहतो धार्तराष्ट्रोऽयं सानुबन्धस्सुयोधनः॥१५०
अथ मृदिततमाग्र्यदाममाल्यं
तव सुतशोकमयं च रोषजातम्।
व्यपनुदति महाप्रभावमेत-
न्नरवर वाक्यमिदं महार्थमिष्टम्॥१५१
सञ्यजः—
अथ शङ्खैश्चभेरीभिः पणवैस्सैनिकास्तथा।
ससूतमागधा जिष्णुं स्तुतिभिस्समपूजयन्॥१५२
तदा भीमं बलं सर्वं तेन नादेन मोहितम्।
तावकं तन्महाराज विषण्णं समपद्यत॥१५३
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि एकोनसप्ततितमोऽध्यायः॥६९॥
॥६८॥प्रतिज्ञापर्वणि प्रथमोऽध्यायः॥१॥
[अस्मिन्नध्याये १५३ श्लोकाः ]
॥सप्ततितमोऽध्यायः॥
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अर्जुनप्रतिज्ञाश्रवणचकितस्य जयद्रथस्य द्रोणदुर्योधनाभ्यामाश्वासनम्॥
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सञ्जयः—
श्रुत्वा तु तं महाशब्दं पाण्डूनां पुत्रगृद्धिनाम्।
चारैः प्रवेदितस्त्रस्तस् समुत्थाय जयद्रथः॥१
शोकसम्मूढहृदयो दुःखेनाभ्याहतो भृशम्।
मज्जमान इवागाधे विपुले शोकसागरे॥२
जगाम समितिं राज्ञां सैन्धवो विमृशन् बहु॥२
स तेषां नरदेवानां सकाशे पर्यदेवयत्।
अभिमन्युपितुर्भीतस् सव्रीडो वाक्यमब्रवीत्॥३
जयद्रथः—
पाण्डोः क्षेत्रे यस्तु जातश् शक्रेण किल कामिना।
स निनीषति दुर्बुद्धिर् मां किलैकं यमक्षयम्॥४
स्वस्ति वोऽस्तु गमिष्यामि स्वगृहं जीवितेप्सया॥५
अथवा स्थ प्रतिबलास् त्रातुं मां क्षत्रियर्षभाः।
पार्थेन पार्थिवा वीरास् तद्ददध्वं ममाभयम्॥६
द्रोणदुर्योधनकृपाः कर्णमद्रेशबाह्लिकाः।
दुश्शासनादयश्शक्तास् त्रातुमप्यन्तकार्दितम्॥७
किमङ्ग पुनरेकेन फल्गुनेन जिघांसता।
न त्रास्यन्ति भवन्तो मां समस्ताः पतयः क्षितेः॥८
प्रतिज्ञां पाण्डवेयानां श्रुत्वा मम महद्भयम्।
सीदन्ति मम गात्राणि मुमूर्षोरिव पार्थिवाः॥९
वधो नूनं प्रतिज्ञातो मम गाण्डीवधन्वना।
तथा हि हृष्टाः कोशन्ति शोककालेऽपि पाण्डवाः॥१०
तन्न देवा न गन्धर्वा नासुरा न च पन्नगाः।
शक्नुवन्त्यन्यथा कर्तुं कुत एव नराधिपाः॥११
तस्मान्मामनुजानीध्वं भद्रं वः पुरुषर्षभाः।
अदर्शनं गमिष्यामि न मां द्रक्ष्यन्ति पाण्डवाः॥१२
सञ्जयः—
एवं विलपमानं तं भयव्याकुलचेतसम्।
आत्मकार्यगरीयस्त्वाद् राजा दुर्योधनोऽब्रवीत्॥१३
दुर्योधनः—
न भेतव्यं नरव्याघ्र को हि त्वा पुरुषर्षभम्।
मध्ये क्षत्रियवीराणां तिष्ठन्तं प्रार्थयेत् पुमान्॥१४
एषां हि नरदेवानां मत्तमातङ्गगामिनाम्।
सङ्घातमुपयातानाम् अपि बिभ्येत् पुरन्दरः॥१५
अहं वैकर्तनः कर्णश्चित्रसेनो विविंशतिः।
भूरिश्रवाश्शलश्शल्यो वृषसेनो दुरासदः॥१६
पुरुमित्रो जयो भोजः काम्भोजो बाह्लिकः कृपः।
सत्यव्रतो महाबाहुर् विकर्णो दुर्मुखस्सहः॥१७
दुश्शासनस्सुबाहुश्च कालिङ्गश्चाप्युदायुधः।
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ द्रौणिश्च सह सौबलः॥१८
मायावी बलवाञ् छूरो राक्षसश्चाप्यलम्बुसः।
इमे च त्वाऽभिगोप्स्यन्ति सैन्येन महता वृताः॥१९
त्वं चापि रथिनां श्रेष्ठस् स्वयं शूरोऽसि पार्थिवः।
कथं च पाण्डवेयेभ्यो भयं पश्यसि सैन्धव॥२०
अक्षौहिण्यो महावीर्य मदीयास्तव रक्षणे।
यत्ता योत्स्यन्ति मा भैषीस् सैन्धव व्येतु ते भयम्॥२१
सञ्जयः—
एवमाश्वासितो राज्ञा पुत्रेण तव सैन्धवः।
दुर्योधनेन सहितो द्रोणं रात्रावुपागमत्॥२२
उपसङ्गृह्य चरणौ द्रोणस्य स विशां पतिः।
उपोपविश्य प्रणतः पर्यपृच्छदिदं वचः॥२३
अर्जुनस्यात्मनश्चार्थे विशेषं पर्यपृच्छत।२३
जयद्रथः—
निमित्ते दूरपातित्वे लघुत्वे दृढवेधने।
ब्रवीतु भगवान् मह्यं विशेषं फल्गुनस्य च॥२४
विद्याविशेषमाचार्य ज्ञातुमिच्छामि तत्त्वतः।
अर्जुनस्यात्मनश्चैव यथातत्त्वं ब्रवीहि मे॥२५
द्रोणः—
सममाचार्यकं तात तव चैवार्जुनस्य च।
योगाद्दुःखोचितत्वाञ्च तस्मात् त्वधिकोऽर्जुनः॥२६
न तु ते बुद्धिसन्त्रासः पार्थात् कार्यः कथञ्चन।
अहं हि रक्षिता तात भयात् त्वां वो न संशयः॥२७॥
न हि मद्बाणगुप्तस्य प्रभवन्त्यमरा अपि।
विधास्यामि च तं व्यूहं यं पार्थो न तरिष्यति॥२८
तस्माद्युध्यस्व मा भैस्त्वं स्वधर्ममनुपालय।
पितृपैतामहं मार्गम् अनुयाहि महारथ॥२९
अधीता विधिवद्वेदा अग्नयस्सुहुतास्त्वया।
इष्टं च बहुभिर्यज्ञैर् न ते मृत्युभवं भयम्॥३०
दुर्लभं मानुषैर्मन्दैर् महाभाग्यमवाप्य तु।
भुजवीर्यार्जिताल्ँलोकान् दिव्यान् प्राप्स्यस्यनुत्तमान्॥३१॥
कुरवः पाण्डवाश्चैव वृष्णयोऽन्ये च मानवाः।
अहं च सह पुत्रेण अध्रुवा इति लक्ष्यताम्॥३२
पर्यायेण वयं सर्वे कालेन बलिना हताः।
परलोकं गमिष्यामस् स्वैस्स्वैः कर्मभिरन्विताः॥३३
तपस्तप्त्वा तु याल्ँलोकान प्राप्नुवन्ति यशस्विनः ।
क्षत्रधर्माश्रिता वीराः क्षत्रियाः प्राप्नुवन्ति तान्॥३४
सञ्जयः—
एवमाश्वासितो राजा भारद्वाजेन सैन्धवः ।
व्यपानुदद्भयं पार्थाद् युद्धाय च मनो दधे॥३५
ततः प्रहर्षस्सैन्यानां तस्य चासीद्विशां पते ।
वादित्राणां ध्वनिश्चोग्रस् सिंहनादरवैस्सह॥३६
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि सप्ततितमोऽध्यायः॥७०॥
॥६८॥प्रतिज्ञापर्वणि द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
[अस्मिन्नध्याये ३६॥श्लोका]ः ]
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॥एकसप्ततितमोऽध्यायः॥
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श्रीकृष्णेनार्जुनं प्रति द्रोणादिभिः जयद्रथरक्षणप्रतिज्ञादिकथनम्॥१॥ अर्जुनेन श्रीकृष्णं प्रति स्वसामर्थ्यकथनम्॥२॥
सञ्जयः—
प्रतिज्ञाते तु पार्थेन सिन्धुराजवधेतदा ।
वासुदेवो महाबुद्धिर् धनञ्जयमभाषत॥१
श्रीभगवान्—
भ्रातॄणां पार्थिवानां च त्वया मध्ये प्रतिश्रुतम्।
सैन्धवं श्वोऽस्मि इन्तेति तत् साहसमिदं कृतम्॥२
असम्मन्त्र्य मया सार्धम् अतिभारोऽयमुद्यतः।
कथं सर्वस्य लोकस्य नापहास्या भवेमहि॥३
धार्तराष्ट्रस्य शिबिरे ये तु प्रणिहिताश्चराः।
त इमे समनुप्राप्ताः प्रवृत्तिं कथयन्ति नः॥४
संश्रुते सिन्धुराजस्य वधे गाण्डीवधन्वना।
सिंहनादस्सवादित्रस् सुमहानिह तैश्श्रुतः॥५
तेन शब्देन वित्रस्ता धार्तराष्ट्रास्सबान्धवाः।
नाकस्मात् सिंहनादोऽयम् इति सर्वे व्यवस्थिताः॥६
सुमहांश्चात्र सम्बाधः कौरवाणां महाभुज।
आसीन्नराश्वपत्तीनां रथघोषश्चभैरवः॥७
अभिमन्योर्वधं श्रुत्वा भृशमार्तो धनञ्जयः।
रात्रौ निर्यास्यति क्रोधाद् इति सर्वे व्यवस्थिताः॥८
तैश्चारेभ्य इयं कृत्स्ना श्रुता सत्यवतस्तव।
प्रतिज्ञा सिन्धुराजस्य वधे राजीवलोचन॥९
ततो विचेतसस्सर्वे त्रस्ताः क्षुभितमानसाः।
आसन240् सुयोधनामात्यास् स च राजा जयद्रथः॥१०
अथोत्थाय सहामात्यैर् दीनस्स्वशिबिरात् किल।
आयात् सौवीरसिन्धूनाम् ईश्वरो राजसंसदम्॥११
सम्मन्त्र्य काले सामात्य आत्मनश्श्रेयसीं क्रियाम्।
सुयोधनमिदं वाक्यम् उक्तवान् राजसंसदि॥१२
जयद्रथः—
ममासौ पुत्रहन्तेति वोऽभियास्यति माऽर्जुनः।
प्रतिश्रुतश्च सेनाया मध्ये तेन वधो मम॥१३
तं न देवा न गन्धर्वा नासुरोरगराक्षसाः।
उत्सहन्तेऽन्यथा कर्तुं यदुक्तं सव्यसाचिना॥१४
ते मा रक्षत सङ्ग्रामे मूर्ध्नि मा वो धनञ्जयः।
पादं कृत्वाऽऽप्नुयाल्लक्ष्मीं युक्तं प्रतिविधीयताम्॥१५
अथ रक्षा न मे सम्यक् क्रियते कुरुनन्दन।
अनुजानीहि मां राजन् यास्यामि स्वगृहानहम्॥१६
श्रीभगवान्—
अवाक्शिरास्त्वेवमुक्तो241 विमनास्ससुयोधनः।
तप्ताभिशप्तवत्पार्थ242 ध्यानमेवान्वपद्यत॥१७
तमार्तमभिसम्प्रेक्ष्य राजा स किल सैन्धवः।
सानैवात्महितं वाक्यं सापेक्षमिदमुक्तवान्॥१८
जयद्रथः—
नाहं पश्यामि भवतां तथा राजन् धनुर्धरम्।
योऽर्जुनस्यास्त्रमस्त्रेण प्रतिहन्यान्महामृधे॥१९
वासुदेवसहायस्य गाण्डीवं धुन्वतो रणे।
अर्जुनस्याग्रतो योद्धुं बिभियादपि देवराट्॥२०
महेश्वरोऽपि पार्थेन श्रूयते युधि तोषितः।
पदातिना महावीर्यो गिरौ हैमवते तदा॥२१
दानवानां सहस्राणि हिरण्यपुरवासिनाम्।
जघानैकरथेनैव देवराजप्रचोदितः॥२२
समायुक्तो हि कौन्तेयो वासुदेवेन धीमता।
सामरानपि लोकांस्त्रीन् निहन्यादिति मे मतिः॥२३
सोऽहमिच्छाम्यनुज्ञातुं रक्षितुं वा महाभुज।
द्रोणेन सहपुत्रेण वीरेण यदि मन्यसे॥२४
श्रीभगवान्—
स राज्ञा स्वयमाचार्यो भृशमाक्रन्दितोऽर्जुन।
संविधानं च विहितं मन्त्रयित्वा नरर्षभैः॥२५
कर्णो भूरिश्रवा द्रौणिर् वृषसेनश्च दुर्जयः।
कृपश्च मद्रराजञ्च षडेतेऽस्य पुरोगमाः॥२६
शकटः पद्मपश्चार्थो व्यूहो द्रोणेन कल्पितः।
पद्मकर्णिकमध्यस्थस् सूचीपाशे जयद्रथः॥२७
स्थास्यते रक्षितो वीरैस् सिन्धुराड्युद्धदुर्मदैः॥२७
धनुष्यस्त्रे च वीर्ये च प्राणे चैव तथा रथे।
अविषह्यतमास्त्वेते निश्चिताः पार्थ षड्रथाः॥२८
एतानजित्वा सगणान् नैव प्राप्यो जयद्रथः॥२९
तेषामेकैकशो वीर्यं षण्णां त्वमनुचिन्तय।
सहिता हि नरव्याघ्रा न शक्या जेतुमञ्जसा॥३०
मन्त्रयिष्याम भूयस्तु भूतिमात्महिताय वै।
मन्त्रज्ञैस्सचिवैस्सार्धं सुहृद्भिः कार्यसिद्धये243॥३१
अर्जुनः—
षड्रथान्धार्तराष्ट्रेषु मन्यसे यान् बलाधिकान्।
तेषां वीर्यं ममार्धेन न तुल्यमिति मे मतिः॥३२
अस्त्रैरस्त्राण्यहं तेषां मिषतां मधुसूदन।
पश्यतस्ते244 निहन्तास्मि यदि ते वज्रधारिणः॥३३
द्रोणस्य मिषतश्चाहं सगणस्य विपश्चितः।
मूर्धानं सिन्धुराजस्य छेत्स्यामि निशितैश्शरैः॥३४
यस्य साध्याश्च रुद्राश्च साश्विनौ वसुभिस्सह।
मरुतश्च महेन्द्रेण विश्वे देवास्तथाऽसुराः॥३५
पितरस्सिद्धगन्धर्वास् सुपर्णास्सागराद्रयः।
द्यौर्वियत् पृथिवी चैव दिशश्च सदिदीश्वराः॥३६
ग्राम्यारण्यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च।
त्रातारस्सिन्धुराजस्य भविष्यन्ति जनार्दन॥३७
एभिर्बाणैश्च निहतं मया द्रक्ष्यसि संयुगे।
सत्येन ते शपे कृष्ण तथैव धनुरालभे॥३८
यस्य गोप्ता महेष्वासो द्रोणः पापस्य दुर्मतेः।
तमेव प्रथमं द्रोणम् अभियास्यामि संयुगे॥३९
तस्मिन् युद्धमिदं बद्धं मन्यते यत् सुयोधनः।
तस्मात् तस्यैव सेनाग्रं भित्त्वा यास्यामि सैन्धवम्॥४०
द्रष्टा श्वोऽसि महेष्वासान् रथिनस्तिग्मतेजसः।
मया निपातितान् संख्ये वज्रैरिव गिरिव्रजान्॥४१
नरनागाश्वदेहेभ्यो विस्रविष्यति शोणितम्।
पतद्भ्यः पतितेभ्यश्च मया न्यस्तैरिशतैश्शरैः॥४२
गाण्डीवप्रभवा बाणा मनोऽनिलसमा जवे।
नृनागाश्वान् विदेहासून् कर्तारश्च सहस्रशः॥४३
शक्राद्भीष्मात् कृपाद्द्रोणाद् देवाद्रुद्राच्च यन्मया।
उपात्तमस्त्रं तद्धोरं द्रष्टारो युधि शत्रवः॥४४
ब्राह्मेणास्त्रेण चास्त्राणि हन्यमानानि संयुगे।
मया द्रक्ष्यसि सर्वेषां सैन्धवस्याभिरक्षिणाम्॥४५
शरवेगसमुत्कृत्तैश् शिरोभिश्चारुकुण्डलैः।
मया द्रक्ष्यसि विस्तीर्णां कीर्यमाणां च मेदिनीम्॥४६
क्रव्यादांस्तर्पयिष्यामि शातयिष्यामि शात्रवान्।
सुहृदो नन्दयिष्यामि क्षुद्रं हत्वा जयद्रथम्॥४७
बह्वागस्कृत्245 कुसम्बन्धी पापदेशसमुद्भवः।
मया सैन्धवको राजा हतस्स्वांस्त्रासयिष्यति॥४८
सर्वे क्षीरान्नभोक्तारः पापाचारा नराधमाः।
मया सराजका बाणैश् छिन्ना नश्यन्ति सैन्धवाः॥४९
तथा प्रभाते कर्तास्मि यथा कृष्ण सुयोधनः।
नान्यं धनुर्धरं लोके मंस्यते मत्समं भुवि॥५०
गाण्डीवं च धनुर्दिव्यं योद्धारं च धनञ्जयम्।
यन्तारं246च हृषीकेशं कोऽतिवर्तेत संयुगे॥५१
यथा हि लक्ष्म वै चन्द्रे समुद्रे च यथा जलम्।
एवमेतां प्रतिज्ञां मे ध्रुवां विद्धि जनार्दन॥५२
माऽवमंस्था ममास्त्राणि माऽवमंस्थाश्च गाण्डिवम्।
माऽवमंस्था इमौ बाहू माऽवमंस्था धनञ्जयम्॥५३
गाण्डीवं च धनुर्दिव्यं योद्धा चाहं जनार्दन।
त्वं तु यन्ता हृषीकेश किं न स्यादजितं मया॥५४
यथा हि यात्वा सङ्ग्रामं न जितो वै जयामि च।
तेन सत्येन सङ्ग्रामे हतं विद्धि जयद्रथम्॥५५
ध्रुवं वै ब्राह्मणे ब्रह्म ध्रुवं साधुषु सन्नतिः।
श्रीर्ध्रुवाऽपि च दक्षेषु ध्रुवो नारायणे जयः॥५६
त्वं च माधव सर्वं तत् तथा प्रतिविधास्यसि।
यथा रिपूणां मिषतां प्रमथिष्यामि सैन्धवम्॥५७
सञ्जयः—
एवमुक्त्वा हृषीकेशं स्वयमात्मानमात्मना।
सन्दिदेशार्जुनो विद्वान् वासविः केशवं प्रभुम्॥५८
अर्जुनः—
यथा प्रभातां रजनीं कल्पितस्स्याद्रथोत्तमः।
तथा कार्यं त्वया कृष्ण प्रतिज्ञा स्याद्यथा ध्रुवा॥५९
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि एकसप्ततितमोऽध्यायः॥७१॥
॥६८॥प्रतिज्ञापर्वणि तृतीयोऽध्यायः॥३॥
[अस्मिन्नध्याये ५९ श्लोकाः]
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॥द्विसप्ततितमोऽध्यायः॥
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श्रीकृष्णेन सुभद्रासमाश्वासनम्॥
सञ्जयः—
तां निशां भृशसन्तप्तौ निश्श्वसन्ताविवोरगौ।
वासुदेवार्जुनौ वीरौ न स्वप्नमुपलेभतुः॥१
नरनारायणौ क्रुद्धौ ज्ञात्वा देवास्सवासवाः।
व्यथिताश्चिन्तयामासुः किंस्विदेतद्भविष्यति॥२
ववुश्च247 दारुणा वाता रूक्षा घोराभिशंसिनः।
सकबन्धस्तथाऽऽदित्ये परिधिस्समदृश्यत॥३
उल्काशन्यश्च निष्पेतुस् सनिर्घातास्सविद्युतः।
चचाल चापि पृथिवी सशैलवनकानना॥४
चुक्षुभुश्च महाराज सागरा मकरालयाः।
प्रतिस्रोतःप्रवृत्तास्तु गन्तुं वै निम्नगास्तदा॥५
गजाश्वनरनाशार्थं प्रवृत्तमधरोत्तरम्।
क्रव्यादानां प्रमोदार्थं यमराष्ट्रविवृद्धये॥६
वाहनानि शकृन्मूत्रं मुञ्चन्ति च रुदन्ति च।
दीनाश्च पार्थिवास्सर्वे नाशंसुर्जयमात्मनः॥७
एवं सा व्यथिता सेना त्वदीया भरतर्षभ।
श्रुत्वा महाबलस्योग्रां प्रतिज्ञां सव्यसाचिनः॥८
अथ कृष्णं महाबाहुर् अब्रवीत् पाकशासनिः॥८
अर्जुन ः—
आश्वासय सुभद्रां त्वं भगिनीं स्नुषया सह।
श्वश्रूस्नुषे भृशायस्ते विशोके कुरु माधव॥९
साम्ना सत्येन युक्तेन वचसाऽऽश्वासय प्रभो॥१०
सञ्जयः—
ततोऽर्जुनगृहं गत्वा वासुदेवस्सुदुर्मनाः।
भगिनीं शोकसन्तप्ताम् आश्वासयत दुःखिताम्॥११
श्रीभगवान्—
वार्ष्णेयि शोकं मा कार्षीः कुमारं प्रति सस्नुषा।
सर्वेषां प्राणिनां भीरु निष्ठैषा कालनिर्मिता॥१२
कुले जातस्य वीरस्य क्षत्रियस्य विशेषतः।
सदृशं मरणं ह्येतन्मा शोचीरात्मजस्य ते॥१३
दिष्ट्या महारथो वीरः पितुस्तुल्यपराक्रमः।
क्षात्रेण विधिना प्राप्तो वीराभिलषितां गतिम्॥१४
जित्वा च बहुशश्शत्रून् प्रेषयित्वा च मृत्यवे।
गतः पुण्यकृताल्ँलोकान् सर्वकामदुहोऽक्षयान्॥१५
तपसा ब्रह्मचर्येण प्रज्ञया च श्रुतेन च।
सन्तो यां गतिमिच्छन्ति प्राप्तस्तां तव पुत्रकः॥१६
वीरसूर्वीरपत्नी त्वं वीरश्वशुररबान्धवा।
मा शुचस्तनयं भद्रे गतस्स परमां गतिम्॥१७
स्वाध्याययुक्तं ब्राह्मणी याचितारं
गौर्वोढारं शीघ्रगन्तारमश्वा।
दासं शूद्रा कर्मकरं तु वैश्या
शूरं सूते त्वद्विधा राजपुत्री॥१८
ध्रुवं प्राप्स्यत्यसौ पापस् सैन्धवो बालघातकः।
अधर्मस्यास्य तु फलं ससुहृद्गणबान्धवः॥१९
अस्यां निशायां व्युष्टायां निर्दयः पापकर्मकृत्।
मोक्ष्यते न हि पार्थस्य प्रविष्टोऽप्यमरावतीम्॥२०
श्वश्शिरः पादमूलं ते सैन्धवस्याहृतं ध्रुवम्।
पद्भ्यां प्रमथितासि त्वं विशोका भव मा रुदः॥२१
क्षत्रधर्मं पुरस्कृत्य गतश्शूरस्सतां गतिम्।
वयं च प्राप्नुयामेह ये चान्ये शस्त्रजीविनः॥२२
व्यूढोरस्को महाबाहुर् अनिवर्ती रिपुप्रणुत्।
गतस्तव वरारोहे पुत्रस्स्वर्गं जहि ज्वरम्॥२३
अनुजातः पितुः पक्षं मातृपक्षं च वीर्यवान्।
सहस्रशो रिपून् हत्वा यातश्शूरो महारथः॥२४
आश्वासय वधूं भद्रे मा सुचः क्षत्रिया ह्यसि।
श्वः200 प्रियं सुमहच्छ्रुत्वा विशोका भवितासि हि॥२५
यत् पार्थेन प्रतिज्ञातं तत् तथा न तदन्यथा।
चिकीर्षितं हि ते भर्तुर् न भवेज्जातु निष्फलम्॥२६
यदि समनुजपन्नगाः पिशाचा
रजनिचरास्सगणास्सुरासुराश्च।
रणगतमभियान्ति सिन्धुराजं
न स भविता सह तैरपि प्रभाते॥२७
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि द्विसप्ततितमोऽध्यायः॥७२॥
॥६८॥ प्रतिज्ञापर्वणि चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
[अस्मिन्नध्याये २७ श्लोकाः]
॥त्रिसप्ततितमोऽध्यायः॥
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अभिमन्युमनुशोच्य विलपन्त्याःसुभद्रायाः कृष्णेनाश्वासनम्॥१॥ श्रीकृष्णेन रात्रावर्जुनेन त्र्यम्बकाय बलिप्रदापनम्॥२॥ कृष्णदारुकसंभाषणम्॥३॥
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सञ्जयः—
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य केशवस्य महात्मनः।
सुभद्रा पुत्रशोकार्ता विललाप सुदुःखिता॥१
सुभद्रा—
हा पुत्र मम मन्दायाः कथं संयुगमेयिवान्।
निधनं प्राप्तवांस्तात पितुस्तुल्यपराक्रमः॥२
कथमिन्दीवराभासं सुदंष्ट्रं चारुलोचनम्248।
मुखं ते दृश्यते वत्स कुण्ठितं रणपांसुभिः॥३
नूनं शूरं निपतितं त्वां पश्यन्त्यनिवर्तिनम्।
सुशिरोग्रीवबाह्वंसं व्यूढोरस्कं तनूदरम्॥४
चारूपचितसर्वाङ्गं स्वक्षं शस्त्रक्षताचितम्।
भूतानि त्वां निरीक्षन्ते भूमौ चन्द्रमिवोदितम्॥५
शयनीयं पुराऽध्युष्य स्पर्ध्यास्तरणसंवृतम्।
भूमावद्य कथं शेषे विप्रविद्धविभूषणः॥६
योऽन्वास्यसे पुरा वीर वरस्त्रीभिर्महाभुजः।
कथमन्वास्यसे सोऽद्य शिवाभिः पतितो मृघे॥७
यस्स्तूयसे पुरा हृष्टैस् सूतमागधवन्दिभिः।
सोऽद्य क्रव्याद्गणैर्घोरैर् विनदद्भिरुपास्यसे॥८
पाण्डवेषु249 च नाथेषु वृष्णिवीरेषु चाभि भो।
पाञ्चालेषु च वीरेषु हतः केनास्यनाथवत्॥९
यत्र250 त्वं केशवे नाथे सत्यनाथो यथा हतः॥९
अतृप्तदर्शना पुत्र दर्शने तव चानघ।
मन्दभाग्या गमिष्यामि व्यक्तमद्य यमक्षयम्॥१०
विशालाक्षं सुकेशान्तं चारुहासं सुगन्धि च।
तव पुत्र कथं वक्रं भूयो द्रक्ष्यामि निर्व्रणम्॥११
धिग्बलं भीमसेनस्य धिक् पार्थस्य धनुष्मतः।
धिग्बलं वृष्णिवीराणां पाञ्चालानां च धिग्बलम्॥१२॥
धिक्केकयांस्तथा मत्स्यांस् चेदिपाण्डवसृञ्जयान्।
ये त्वां रणगतं वीरं नारक्षन् विनिपातितम्॥१३
स्वस्त्रीयं वासुदेवस्य पुत्रं गाण्डीवधन्वनः।
कथं त्वाऽतिरथं वीरं पश्याम्यद्य निपातितम्॥१४
अद्य पश्यामि पृथिवीं शून्यामिव गतद्विषम्।
अभिमन्युमपश्यन्ती शोकव्याकुललोचना॥१५
साक्षान्मघवतः पौत्रं पुत्रं गाण्डीवधन्वनः।
स्वस्त्रीयं वासुदेवस्य तं गृध्राः पर्युपासते॥१६
हा दृष्टो वीर नष्टश्च रम्य स्वप्न इवासि मे।
अहो सत्यं हि मानुष्यं जलबुद्बुदवच्चलम्॥१७
इमां ते तरुणीं भार्यां पुत्राधिभिरभिप्लुताम्।
उत्तरामुत्तमां जात्या सुशीलां प्रियभाषिणीम्॥१८
शनकैः परिरभ्यैनां स्नुषां मम यशस्विनीम्।
सुकुमारीं विशालाक्षीं पूर्णचन्द्रनिभाननाम्॥१९
बालपल्लवतन्वङ्गीं मत्तमातङ्गगामिनीम्।
बिम्बाधरोष्ठीमबलाम् अभिमन्यो प्रहर्षय॥२०
त्वया विना कथं पुत्र जीर्णां पतितमानसाम्।
इमां सन्धारयिष्यामि वृषभादिव धेनुकाम्॥२१
अहो251 ह्यकाले प्रस्थानं कृतवानसि पुत्रक।
विहाय फलकाले मां प्रगृद्धां तव दर्शने॥२२
नूनं गतिः कृतान्तस्य प्राज्ञैरपि सुदुस्तरा।
यत्र त्वं केशवे नाथे सत्यनाथो यथा हतः॥२३
यज्वनां दानशीलानां ब्राह्मणानां कृतात्मनाम्।
चरितब्रह्मचर्याणां पुण्यतीर्थावगाहिनाम्॥२४
कृतज्ञानां वदान्यानां गुरुशुश्रूषिणामपि।
सहस्रदक्षिणानां च या गतिस्तामवाप्नुहि॥२५
या गतिर्युध्यमानानां शूराणामनिवर्तिनाम्।
अपराङ्मुखानां समरे तां गतिं व्रज पुत्रक॥२६
गोसहस्रप्रदातॄणां252 क्रतुदानां च या गतिः।
वैदेशिकानां चाभिमतं ददतां या गतिर्भवेत्॥२७
ब्रह्मचर्येण यां यान्ति मुनयस्संशितव्रताः253।
एकपत्न्यश्च यां यान्ति तां गतिं व्रज पुत्रक॥२८
राज्ञां सुचरितैर्या च गतिर्भवति शाश्वती।
चरमाश्रमिणां पुण्यैस् सेवितानां पुरस्स्थितैः॥२९
दीनानुकम्पिनां या च सततं संविभागिनाम्।
पैशुन्याच्च निवृत्तानां तां गतिं व्रज पुत्रक॥३०
व्रतिनां254 धर्मशीलानां गुरुशुश्रूषणामपि।
अमोघातिथिनां चैव या च तां व्रज पुत्रक॥३१
ऋतुकाले स्वकां पत्नीं गच्छतां वा मनीषिणाम्।
अनन्यदारसेवीनां तां गतिं व्रज पुत्रक॥३२
साम्ना ये सर्वभूतानि गच्छन्ति गतमत्सराः।
अदारुणानां क्षमिणां या गतिस्तामवाप्नुहि॥३३
मधुमांसनिवृत्तानां मदाद्दम्भात् तथाऽनृतात्।
परोपतापादन्यायात् तां गतिं व्रज पुत्रक॥३४
यज्वानस्सर्व255धर्मज्ञा256 ज्ञानतृप्ता जितेन्द्रियाः।
यां गतिं साधवो यान्ति तां गतिं व्रज पुत्रक॥३५
सञ्जयः—
एवं विलपतीं दीनां सुभद्रां शोककर्शिताम्।
उपागच्छत पाञ्चाली उत्तरासहितां तदा॥३६
सा प्रकामं रुदित्वा च विलप्य च सुदुःखिता।
उन्मत्तवत् तदा राजन् विसंज्ञा पतिता क्षितौ॥३७
सोपचारस्तु कृष्णस्तां दुःखितां भृशदुःखितः।
सिक्त्वाऽम्भसा समाश्वास्य तत् तदुक्त्वा हितं वचः॥३८॥
विसंज्ञकल्पां रुदतीम् अपविद्धां प्रवेपतीम्।
भगिनीं पुण्डरीकाक्ष इदं वचनमब्रवीत्॥३९
श्रीभगवान्—
मानुशोचीस्सुभद्रे त्वं स्रुषां चाश्वासयोत्तराम्।
गतोऽभिमन्युः प्रथितां गतिं क्षत्रियपुङ्गवः॥४०
ये चान्ये च कुले सन्तः पुरुषाणां वरानने।
सर्वे न तां गतिं यान्ति याऽभिमन्योर्यशस्विनः॥४१
कुर्याम तद्वयं कर्म कुर्युर्यत् सुहृदश्च नः।
कृतवान् यादृगद्यैकस् तव पुत्रो महारथः॥४२
सञ्जयः—
एवमाश्वास्य भगिनीं द्रौपदीमपि चोत्तराम्।
पार्थस्यैव महाबाहुः पार्श्वमायादरिंदमः॥४३
ततोऽभ्यनुज्ञाय गृहं कृष्णं चान्यांश्चा पार्थिवान्।
विवेशान्तःपुरं राजा तेऽपि जग्मुस्स्वमालयम्257॥४४
ततोऽर्जुनस्य शिबिरं प्रविश्याप्रतिमं भुवि।
स्पृष्ट्वाऽम्भः पुण्डरीकाक्षस् स्थण्डिले शुभलक्षणे॥४५
सन्तस्तार शुभां शय्यां दर्भैर्वैदूर्यसन्निभैः॥४६
ततो माल्येन विधिवल्लाजैर्गन्धैस्सुमङ्गलैः।
अलञ्चाकार तां शय्यां परिवार्यायुधोत्तमैः॥४७
ततस्स्पृष्टोदकं पार्थं विनीतपरिचारकम्।
नैत्यकं दर्शयाञ्चक्रे नैशं त्रैयम्बकं बलिम्॥४८
ततः प्रीतमनाः पार्थो गन्धैर्माल्यैश्च माधवम्।
अलङ्कृत्योपहारं च नैशमस्मै न्यवेदयत्॥४९
साधु साध्विति गोविन्दः फल्गुनं वाक्यमब्रवीत्॥४९॥
श्रीभगवान्—
सुप्यतां पार्थ भद्रं ते कल्याणाय व्रजाम्यहम्॥५०
सञ्जयः—
स्थापयित्वा ततो द्वास्थान् आप्तान् नानायुधान् नरान्।
दारुकानुगतश्श्रीमान् विवेश शिबिरं स्वकम्॥५१
शिश्ये च शयने शुभ्रे बहुकार्य् विचिन्तयन्॥५१
न पाण्डवानां शिबिरे कश्चित् सुष्वाप तां निशाम्।
प्रजागरस्सर्वजनं ह्याविवेश विशां पते॥५२
पुत्रशोकाभिभूतेन प्रतिज्ञातं महात्मना।
श्वस्सिन्धुराजस्य वधः कार्यो गाण्डीवधन्वना॥५३
तत् कथं नु महाबाहुर् वासविः परवीरहा।
प्रतिज्ञां सफलां कुर्याद् इति ते समचिन्तयन्॥५४
जनाः—
कष्टं हीदं व्यवसितं पाण्डवेनामितौजसा।
पुत्रशोकाभिभूतेन प्रतिज्ञा महती कृता॥५५
भ्रातरश्चापि भूयिष्ठा मित्राणि विपुलानि च।
धृतराष्ट्रस्य पुत्रेण सर्वतस्संनिवेशिताः॥५६
स258 हत्वा सैन्धवं सङ्ख्ये पुनरेतु259 जयी सुखी।
स हत्वाऽरिगणं संख्ये पारयित्वा महाव्रतम्॥५७
यद्यस्ति सुकृतं किञ्चिद् अस्माकं हन्तु सैन्धवम्॥५८
जित्वा सर्वान् रिपून् पार्थस् त्रातु नोऽस्मान् महाभयात्॥५८॥
एवमाशंसमानास्ते केचित् तस्थुरुपश्रुतिम्।
श्रुत्वा चेष्टं सुमनसो व्यक्तमाशंसिरे जयम्॥५९
भविता नः कथं कृत्यम् इदमित्यब्रुवञ्जनाः॥६०
जना ः—
अहत्वा सिन्धुराजं हि धूमकेतुं प्रवेक्ष्यति।
न शक्यमनृतां कर्तुं प्रतिज्ञां विजयेन हि॥६१
महद्धि साहसं पार्थः कृतवाञ् छोकमोहितः॥६१
धर्मपुत्रः कथं राजा करिष्यति सहानुगः।
अर्जुने हि जयस्तेषाम् आयत्तो जीवितानि च॥६२
यदि नस्सुकृतं किञ्चिद् यदि दत्तमथो हुतम्।
फलेन तस्य सर्वस्य स जयत्वर्जुनो रिपून्॥६३
सञ्जयः—
एवं260 कथयतां तेषां जयमाशंसतामपि।
कृच्छ्रेण सा महाराज रजनी ह्यत्यवर्तत॥६४
रजन्यामर्धयामायां प्रतिबुद्धो जनार्दनः।
स्मृत्वा प्रतिज्ञां पार्थस्य दारुकं प्रत्यभाषत॥६५
श्रीभगवान्—
अर्जुनेन प्रतिज्ञातं पार्थेन हतबन्धुना।
जयद्रथमहं हन्ता श्वोभूत इति दारुक॥६६
ततो दुर्योधनश्श्रुत्वा मन्त्रयिष्यति मन्त्रिभिः।
यथा जयद्रथं पार्थो न हन्यादित्यसंशयम्॥६७
अक्षौहिण्यश्च तास्सर्वा रक्षिष्यन्ति न संशयः।
द्रोणश्च सहपुत्रेण ये चान्ये प्रवरा रथाः॥६८
महावीर्यस्सहस्राक्षो दैत्यदानवसङ्घजित्।
सोऽप्येनं नोत्सहेद्धन्तुं संख्ये द्रोणेन रक्षितम्॥६९
अहं तु श्वस्तथा कर्ता यथा कुन्तीसुतोऽर्जुनः।
अप्राप्तेऽस्तं यथाऽऽदित्ये हन्ता पापं जयद्रथम्॥७०
न हि द्वारा न मित्राणि न पुत्रज्ञातयोऽपि वा।
नान्यः कश्चित् प्रियतरो मर्त्यः पार्थाद्धनञ्जयात्॥७१
विनाऽर्जुनमिमं लोकं मुहूर्तमपि दारुक।
नोत्सहे वीक्षितुं सूत सत्यमेव ब्रवीमि ते॥७२
अहं तु ध्वजिनीस्सर्वास् सहयास्सरथद्विपाः।
अर्जुनार्थं हनिष्यामि सकर्णास्ससुयोधनाः॥७३
अद्य पश्यन्तु मे वीर्यं त्रयो लोका महामृधे।
धनञ्जयार्थं समरे पराकान्तस्य दारुक॥७४
अद्य राजसहस्राणि राजपुत्रशतानि च।
साश्वद्विपरथान्याजौ विद्रविष्यन्ति दारुक॥७५
अद्य चक्रप्रमथितां द्रक्ष्यसि त्वं तु वाहिनीम्।
मया क्रुद्धेन समरे पाण्डवार्थे निपातिताम्॥७६
अद्य ज्ञास्यन्ति त्रिदशास् सासुरास्सचराचराः।
वासुदेवस्य तां प्रीतिं पाण्डवेष्वनपायिनीम्॥७७
यस्तान् द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्ताननु स मामनु।
इति सङ्कल्प्यतां बुद्ध्या शरीरार्धंममार्जुनः॥७८
यथा तु त्वं प्रमातायाम् अस्यां निशि रथोत्तमम्।
कल्पयित्वा समीपं मे आगच्छसि तथा कुरु॥७९
गदां कौमोदकीं दिव्यां शक्तिं चक्रं धनुश्शरान्।
आरोपय रथे सूत सर्वोपकरणानि च॥८०
स्थानं च कल्प्यतां तत्र रथोपस्थे ध्वजस्य मे।
वैनतेयस्य वीरस्य समरेष्वमिशोभिनः॥८१
छन्नाञ् जाम्बूनदैर्माल्यैर् अर्कज्वलनसन्निभैः।
विश्वकर्मकृतैर्दिव्यैर् अश्वानपि च भूषय॥८२
वलाहकं मेघपुष्पं सैन्यं सुग्रीवमेव च।
युक्त्वा वाजिवरांस्तत्र कवची तिष्ठ दारुक॥८३
पाञ्चजन्यस्य निर्घोषं पर्जन्यनिनदोपमम्।
श्रुत्वा भैरवमत्यर्थं जवेनैवोपयाहि माम्॥८४
श्वस्सदेवास्सगन्धर्वास् सयक्षाप्सरसोऽसुराः।
ज्ञास्यन्ति लोकास्सर्वे मां सुहृदं सव्यसाचिनः॥८५
एकाह्नाऽहममर्षाच्च सर्वदुःखानि चाभि भो।
भ्रातुः पैतृष्वसेयस्य व्यपनेष्यामि दारुक॥८६
सर्वोपायैर्यतिष्यामि यथा बीभत्सुराहवे।
पश्यतां धार्तराष्ट्राणां हनिष्यति जयद्रथम्॥८७
यस्य यस्य च बीभत्सुर् वधे यत्नं करिष्यति।
आशंसे261स रणे तं तं तत्र तत्र हनिष्यति॥८८
दारुकः—
ध्रुव एव जयस्तस्य न तस्यास्ति पराजयः।
यस्य त्वं पुरुषव्याघ्र सारथ्यमुपजग्मिवान्॥८९
एवं चैतत् करिष्यामि यथा मामनुभाषसे।
सुप्रभातामिमां रात्रिं जयार्थं विजयस्य च॥९०
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि त्रिसप्ततितमोऽध्यायः॥१३॥
॥६८॥प्रतिज्ञापर्वणि पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
[अस्मिन्नध्याये ९०॥ श्लोकाः]
॥चतुस्सप्ततितमोऽध्यायः॥
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अर्जुनस्य स्वप्ने कृष्णेन सह कैलासगमनम्॥१॥तथा स्तुत्या रुद्रप्रसादनम्॥२॥ अर्जुनेन स्वप्ने शंकरात् पाशुपतास्त्रमुपलभ्य कृष्णेन सह पुनः शिबिरं प्रत्यागमनम्॥३॥
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सञ्जयः—
धार्तराष्ट्रस्य तं मन्त्रं स्मरन्नेव धनञ्जयः।
प्रतिज्ञामात्मनो रक्षन् मुमोहाचिन्त्यविक्रमः॥१
तं तु शोकेन संतप्तं स्वप्ने कपिवरध्वजम्।
आससाद महातेजा ज्वलन् वै गरुडध्वजः॥२
प्रत्युत्थानं तु कृष्णस्य सर्वावस्थासु फल्गुनः।
न लोपयति धर्मात्मा भक्त्या प्रेम्णा च नित्यशः॥३
प्रत्युत्थाय स गोविन्दं स्वं तस्मै चासनं ददौ।
नासने च तथा बुद्धिं बीभत्सुर्व्यदधात् स्वयम्॥४
ततः कृष्णो महातेजा जानल्ँलोकस्य निश्चयम्।
कुन्तीपुत्रमिदं वाक्यम् आसीनस्स्थितमब्रवीत्॥५
श्रीभगवान्—
मा विषादे मनः पार्थ कृथाः कालो हि दुर्जयः।
कालस्सर्वाणि भूतानि नियच्छति भवाभवे॥६
किमर्थं च विषादस्ते तद्ब्रूहि द्विपदां वर।
न शोच्यं विदुषां श्रेष्ठ शोकः कार्यविनाशनः॥७
शोचन् नन्दयते शत्रून् कर्शयत्यपि बान्धवान्।
क्षीयते च नरस्तस्मान्न त्वं शोचितुमर्हसि॥८
सञ्जयः—
तथोक्तो वासुदेवेन बीभत्सुरपराजितः।
बभाषे हि तदा विद्वान् इदं262 वचनमर्थवत्॥९
अर्जुनः—
मया प्रतिज्ञा महती जयद्रथवधे कृता।
श्वोहन्तास्मि दुरात्मानं पुत्रघ्नमिति केशव॥१०
मत्प्रतिज्ञाविघातार्थं धार्तराष्ट्रैः किलाच्युत।
पृष्ठतस्सैन्धवः कार्यस् सर्वैर्गुप्तो महारथैः॥११
दश चैका तथा कृष्ण अक्षौहिण्यस्मुदुर्जयाः।
प्रतिज्ञायां च हीनायां कथं जीवेत मद्विधः॥१२
दुःखापायस्य मे वीर विकाङ्क्षा परिवर्तते।
द्रुतं च याति सविता तत एतद्ब्रवीम्यहम्॥१३
सञ्जयः—
शोकस्थानं तु तद्बुध्वा पार्थस्य द्विजकेतनः।
संस्पृश्याम्भस्ततः कृष्णः प्राङ्मुखस्समवस्थितः॥१४
इदं वाक्यं महातेजा बभाषे पुष्करेक्षणः263।
हितार्थं पाण्डुपुत्रस्य सैन्धवस्य वघे धृतः॥१५
श्रीभगवान्—
पार्थ पाशुपतं नाम महास्त्रं तत् सनातनम्।
येन दैत्या मृधे सर्वे निहताशूलपाणिना॥१६
यदि तद्विदितं तेऽद्य श्वो हन्तासि जयद्रथम्॥१६
अथ ज्ञातुं प्रपद्यस्व मनसा वृषभध्वजम्।
तं देवं मनसा ध्यायन् जोषमास्स्व धनञ्जय॥१७
ततस्तस्य प्रसादात् त्वं भक्त्या प्राप्स्यसि तन्महत्॥१८
सञ्जयः—
ततः कृष्णवचश्श्रुत्वा संस्पृश्याम्भो धनञ्जयः।
भूमावासीत्264 समापन्नो जगाम मनसा शिवम्॥१९
ततः प्रणिहिते ब्राह्मे मुहूर्ते शुभलक्षणे।
आत्मानमर्जुनोऽपश्यद् गगने सहकेशवम्॥२०
ज्योतिर्भिश्च समाकीर्णंसिद्धगन्धर्वसेवितम्॥२०
वायुवेगगतिः पार्थः खं भेजे सहमाधवः॥२१
केशवेन गृहीतस्स दक्षिणे विभुना भुजे।
प्रेक्षमाणो बहून् भावाञ् जगामाद्भुतदर्शनान्॥२२
उदीच्यां दिशि धर्मात्मा सोऽपश्यच्छ्वेतपर्वतम्॥२२
कुबेरस्य विहारं च नलिनीं पद्मभूषिताम्।
सरिच्छ्रेष्ठां च तां गङ्गां वीक्षमाणो बहूदकाम्॥२३
सदा पुष्पफलैर्वृक्षैर् उपेतां स्फटिकोदकाम्।
सिंहव्याघ्रसमाकीर्णां नानामृगगणाकुलाम्॥२४
पुण्याश्रमवतींरम्यां मनोज्ञां द्विजशोभिताम्।
मन्दरस्य प्रदेशांश्च किन्नरोद्गीतनादितान् ॥२५
हेमरूप्यमयैरशृङ्गैर् नानौषधिविभूषितान्।
तथा मन्दारवृक्षैश्च पुष्पितैरुपशोभितान्॥२६
स्निग्धाञ्जनचयाकारं सम्प्राप्तः कालपर्वतम्।
पुण्यं हिमवतः पादं मणिमन्तं च पर्वतम्॥२७
ब्रह्मतुङ्गनदीं चान्यां नानाजनपदानपि।
सुशृङ्गं शतशृङ्गं च शय्यानागं तथैव च॥२८
पुण्यमश्वशिरस्थानं स्थानमाथर्वणस्य च।
पृषदंशं च शैलेन्द्रं महामन्दरमेव च॥२९
अप्सरोभिस्समाकीर्णं विहारैश्चोपशोभितम्।
तांश्च शैलान्व्रजन् पार्थः प्रेक्षते सहकेशवः॥३०
शुभैः प्रस्रवणैर्जुष्टां हेमधातुविभूषिताम्॥
चन्द्ररश्मिपरीताङ्गीं पृथिवीं पुरमालिनीम्॥३१
समुद्रांश्चाद्भुताकारान् पश्यन् सुबहुलाद्भुतान्।
विय्यद्द्यां पृथिवीं चैव पश्यन् विष्णुपदे व्रजन्॥३२॥
विस्मितस्सह कृष्णेन क्षिप्तो बाण इवात्यगात्॥३३
ग्रहनक्षत्रसोमानां सूर्याग्न्योश्च समत्विषम्।
प्रेक्षते स्म तदा पार्थो ज्वलन्तमिव पर्वतम्॥३४
समापन्नस्तु तं देशं शैलाग्रे समवस्थितम्।
तपोनित्यं महात्मानम् अपश्यद्वानरध्वजः॥३५
सहस्रमिव सूर्याणां दीप्यमानं स्वतेजसा।
शूलिनं जटिलं शीर्णवल्कलाजिनवाससम्॥३६
नयनानां सहस्रैश्च विचित्राङ्गं महौजसम्।
पार्वत्या सहितं देवं भूतसङ्गैश्च भास्वरम्॥३७
गीतवादित्रसंवादैस् तालनर्तनलासितैः।
बल्गितास्फोटितोत्क्रुष्टैः पुण्यैर्गन्धैश्च सेवितम्॥३८
स्तूयमानं स्तवैर्दिव्यैर् ऋषिभिर्ब्रह्मवादिभिः।
गोप्तारं सर्वलोकानाम् इष्वासवरमच्युतम्॥३९
वासुदेवस्तु तं दृष्ट्वा जगाम शिरसा क्षितिम्।
पार्थेन सह धर्मात्मा गृणन् ब्रह्म सनातनम्॥४०
लोकादि विश्वकर्माणम् अजमीशानमव्ययम्।
तमसः परमं ज्योतिः खं वायुर्ज्योतिषां गतिम्॥४१
स्रष्टारं वारिधाराणां265 भुवश्च प्रकृतिं पराम्।
देवदानवयक्षाणां मनुष्याणां च शासकम्॥४२
योगिनां परमं ब्रह्म व्यक्तं वेदविदां निधिम्।
परावरस्य स्रष्टारं प्रतिहर्तारमेव च॥४३
कालकेयं महात्मानं शक्रसूर्यगुणोदयम्।
ववन्दतुस्तदा कृष्णौ वाङ्मनोबुद्धिकर्मभिः॥४४
यं प्रपश्यन्ति विद्वांसस् सूक्ष्माध्यात्मनिदर्शनात्।
तमजं कारणात्मानं जग्मतुश्शरणं भवम्॥४५
अर्जुनश्चापि तं देवं भूयो भूयोऽप्यवन्दत।
ज्ञात्वैवं सर्वलोकादिं भूतं भव्यं भवत्प्रभुम्॥४६
शरण्यं200 शरणं देवम् ईशानं परमेश्वरम्।
जगाम जगतां नाथम् अर्जुनस्सजनार्दनः॥४७
ततस्तावागतौ दृष्ट्वा नरनारायणावुभौ।
सुप्रसन्नमनाश्शर्व उवाच प्रहसन्निव॥४८
श्रीशिवः—
स्वागतं वां नरव्याघ्रौ विक्लबं च न तिष्ठताम्।
किं च वामीप्सितं वीरौ मनसा क्षिप्रमुच्यताम्॥४९
केन कार्येण सम्प्राप्तौ युवां तत्साधने रतौ।
व्रियतामात्मनश्श्रेयस्266 तत् सर्वं च ददानि वाम्॥५०
सञ्जयः—
ततस्तद्वचनं श्रुत्वा प्रत्युत्थाय कृताञ्जली।
वासुदेवार्जुनौ शर्वं तुष्टावतुरविह्नलौ॥५१
कृष्णार्जुनौ—
नमो भवाय शर्वाय रुद्राय वरदाय च।
पशूनां पतये नित्यम् उग्राय च कपर्दिने॥५२
कुमारगुरवे नित्यं नीलग्रीवाय वेधसे।
विलोहिताय धूम्राय व्यालयज्ञोपवीतिने॥५३
महादेवाय भीमाय त्र्यम्बकाय शिवाय च।
ईशानाय मखघ्नाय नमोऽस्त्वन्तकघातिने॥५४
नित्यं नीलशिखण्डाय शूलिने दैत्यघातिने।
हन्त्रे गोप्त्रे त्रिनेत्राय व्याधाय वसुरेतसे॥५५
अचिन्त्यायाम्बिकामर्त्रे सर्वदेवस्तुताय च।
वृषध्वजाय मुण्डाय जटिने ब्रह्मचारिणे॥५६
तपसे तप्यमानाय ब्रह्मण्यायामिताय च।
विश्वात्मने विश्वसृजे विश्वमावृत्य तिष्ठते॥५७
नमो नमोऽस्तु सेव्याय भूतानां प्रभवे सदा।
अभिगम्याय काम्याय स्तुत्यायार्याय सर्वदा॥५८
ब्रह्मवक्राय कान्ताय शङ्कराय शिवाय च।
नमोऽस्तु वाचस्पतये प्रजानां पतये नमः॥५९
नमो267 विश्वस्य पतये पशूनां पतये नमः।
नमस्सहस्रशिरसे सहस्रभुजमन्यवे॥६०
सहस्रनेत्रपादाय नमोऽसङ्ख्येकर्मणे।
नमो हिरण्यवर्णाय हिरण्यकवचाय च॥६१
नमोऽस्तु देवदेवाय महाभूतधराय च।
भक्तानुकम्पिने नित्यं सिध्यतां नो वरः प्रभो॥६२
सञ्जयः—
एवं268 स्तुत्वा महादेवं वासुदेवस्सहार्जुनः।
अर्जुनाय ददौ बुद्धिं तस्मिन्नस्त्रे यदीप्सितम्॥६३
ततः पार्थः प्रसन्नात्मा प्राञ्जलिर्वृषभध्वजम्।
ददर्शोत्फुल्लनयनस् समस्तं तेजसां निधिम्॥६४
तं चोपहारं स्वकृतं नैशं नैत्यकमात्मनः।
ददर्श त्र्यम्बकाभ्याशे वासुदेवे निवेदितम्॥६५
ततोऽभिपूज्य मनसा कृष्णं शर्वं च पाण्डवः।
इच्छाम्यहं दिव्यमस्त्रम् इत्यभाषत शङ्करम्॥६६
ततः पार्थस्य विज्ञाय वरार्थं वचनं विभुः।
वासुदेवार्जुनौ वीरौ स्मयमानोऽभ्यभाषत॥६७
श्रीशिवः—
सरोऽमृतमयं दिव्यम् अभ्याशे शत्रुसूदनौ।
तत्र मे तद्धनुर्दिव्यं शराश्च निहिताश्शुभाः॥६८
येन देवारयस्सर्वे मया युधि निषूदिताः।
तद्वामेतद्द्वयं कृष्णौ तदिहानयत द्रुतम्॥६९
सञ्जयः—
तथेत्युक्त्वा तु तं देवं शर्वं पारिषदैस्सह।
प्रस्थितौ तत् सरो दिव्यं दिव्याश्चर्यशतायुतम्॥७०
निर्दिष्टं यद्वृषाङ्केण पुण्यं सर्वार्थसाधकम्।
तज्जग्मतुरसम्भ्रान्तौ नरनारायणावृषी॥७१
ततस्तौ तत्सरो गत्वा सूर्यमण्डलवर्चसम्।
नागमन्तर्जले घोरं ददृशातेऽच्युतार्जुनौ॥७२
द्वितीयं चापरं नागं सहस्रशिरसं वरम्।
वमन्तं विपुला ज्वाला ददृशातेऽग्निवर्चसम्॥७३
ततः कृष्णश्च पार्थश्च संस्पृश्याम्भः कृताञ्जली।
तौ नागावुपतस्थाते नमस्यन्तौ वृषध्वजम्॥७४
गृणन्तौ वेदविदुषौ तद्ब्रह्म शतरुद्रियम्।
अप्रमेयप्रमाणं तौ गत्वा सर्वात्मना भवम्॥७५
ततस्तौ रुद्रमाहात्म्याद्धित्वा रूपं महोरगौ।
धनुर्बाणश्च शत्रुघ्नौ तद्द्व न्द्वंसमपद्यत॥७६
ततो जगृहतुः प्रीतौ धनुर्बाणं च सुप्रभम्।
जग्मतुश्च महात्मानौ ददृशाते महात्मने॥७७
ततः पार्श्वे वृषाङ्कस्य ब्रह्मचारी व्यवर्तत।
पिङ्गाक्षस्तपसा श्रेष्ठो बलवान्नीललोहितः॥८८
स सङ्गृह्य धनुर्घोरं तस्थौ स्थानं समाहितः।
व्यपाकर्षच्च विधिवत् सशरं धनुरुत्तमम्॥७९
तस्य पूर्णां च मुष्टिं च स्थानं चालक्ष्य पाण्डवः।
श्रुत्वा मन्त्रं भवप्रोक्तं जग्राहाचिन्त्यविक्रमः॥८०
सरस्येव च तं बाणं मुमोचातिबलः पुनः।
चिक्षेप च पुनर्वीरस् तस्मिन् सरसि तद्धनुः॥८१
ततः प्रीतं भवं ज्ञात्वा प्रीतिमानर्जुनस्तदा।
वरमारण्यके दत्तं शङ्करस्य च दर्शनम्॥८२
मनसा चिन्तयामास तन्मे सम्पद्यतां भव॥८२
तस्य तन्मतमाज्ञाय प्रीतः प्रादाद्वरं भवः॥८३
तत् तु पाशुपतं घोरम् अवाप्यास्त्रं महेश्वरात्।
संहृष्टरोमा दुर्धर्षः कृतं कार्यममन्यत॥८४
ततोऽर्जुनहृषीकेशौ पुनः पुनररिंदमौ।
ववन्दतुश्च संहृष्टौ शिरोभ्यां तौ महेश्वरम्॥८५
अनुज्ञातौ269 क्षणे तस्मिन भवेनार्जुनकेशवौ।
प्राप्तौ स्वशिबिरं वीरौ मुदा परमया युतौ॥८६
तथा भवेनानुमतौ महासुरनिपातिनौ।
इन्द्राविष्णू पुरा प्रीतौ जम्भस्य वधकाङ्क्षिणौ॥८७
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि चतुस्सप्ततितमोऽध्यायः॥७४॥
॥६८॥प्रतिज्ञापर्वणि षष्ठोऽध्यायः॥६॥
[अस्मिन्नध्याये ८० श्लोकाः]
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॥पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः॥
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श्रीकृष्णस्य कृताह्निकं युधिष्ठिरं प्रत्यागमनम्॥१॥ जयद्रथवधस्य दुष्करत्वाशङ्किनो युधिष्ठिरस्य कृष्णेन समाश्वासनम्॥२॥
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सञ्जयः—
तयोस्संवदतोरेव कृष्णदारुकयोस्तदा।
साऽत्यगाद्रजनी राजन्नथ राजा स्म बोध्यते॥१
पठन्ति पाणिध्वनिका मागधास्स्तवगायकाः।
वैतालिकाश्च सूताश्च स्तुवन्ति पुरुषर्षभम्॥२
नर्तकाश्चापि नृत्यन्ति गान्ति गीतानि गायकाः।
कुरुवंशस्तवार्थानि मधुरं रक्तकण्ठिनः॥३
मृदङ्गर्झरीभेर्यः पणवानकगोमुखा।
आडम्बराणि शङ्खाश्च दुन्दुभ्यश्च महास्वनाः॥४
एवमेतानि सर्वाणि तथाऽन्यान्यपि भारत।
वादयन्ति स्म गम्भीरं कुशलास्साधुशिक्षिताः॥५
स मेघसमनिर्घोषो दिविस्पृङ्निस्वनो महान्।
तं पार्थिववरं सुप्तं प्रत्यबोधयतानघ॥६
प्रतिबुद्धस्सुखं तस्मान्महार्हशयनोत्तमात्।
उत्थायावश्यकार्याणि कृत्वा स्नानगृहं ययौ॥७
शुक्लाम्बरधरास्नातास् तरुणाष्टोत्तरं शतम्।
स्नापकाः काञ्चनैः कुम्भैः पूर्णैस्समुपतस्थिरे॥८
भद्रासने सूपविष्टः परिधायाम्बरं लघु।
उत्सादितः कषायेण वलवद्भिस्सुशिक्षितैः॥९
सस्नौ चन्दनसंयुक्तैस् स्नानीयैरभिमन्त्रितैः॥९
आप्लुतस्साधिवासेन जलेन ससुगन्धिना।
राजहंसनिभं गृह्य उष्णीषं शिथिलार्पितम्॥१०
जलक्षयनिमित्तं वै वेष्टयामास मूर्धनि॥११
हरिणा चन्दनेनाङ्गम् उपलिप्य महाभुजः।
स्रग्वी चाक्लिष्टवासाश्च प्राञ्जलिः प्राङ्मुखस्स्थितः॥१२
कृत्वेन्द्रियाणामैकाग्र्यं मनसश्च महामनाः।
जजाप जप्यं कौन्तेयस् सतां मार्गमनुष्ठितः॥१३
ततोऽग्निशरणं वीरः प्रविवेश समाहितः॥१३
विविधाभिः पवित्राभिर् आहुतीभिर्हुताशनम्।
मन्त्रपूताभिरर्चित्वा निश्चक्राम ततः पुनः॥१४
द्वितीयां च नरव्याघ्र कक्ष्यां निष्क्रम्य पाण्डवः।
तत्र वेदविदो विद्वान् अपश्यद् ब्राह्मणाञ् शुचीन्॥१५॥
दान्तान् वेदव्रतस्त्रातान् स्नातानवभृथेषु च।
अष्टौ चैषां सहस्रं च सहस्रानुचरान् नृप॥१६
अक्षतैस्सुमनोभिश्च स्वस्ति वाच्याथ मोदकैः।
तान् द्विजान्दधिसर्पिर्भ्यांफलैश्चेष्टैस्सुमङ्गलैः॥१७
प्रादात् काञ्चनमेकैकं निष्कं विप्राय पाण्डवः।
अलङ्कृतं चाश्वशतं वासांसीष्टाश्च दक्षिणाः॥१८
पुनर्गाः कपिला दोग्ध्रीस् सर्षभाः पाण्डुनन्दनः।
हेमशृङ्गा रूप्यखुरा दत्त्वा चक्रे प्रदक्षिणम्॥१९
स्वस्तिकान्168 वर्धमानांश्च नन्द्यावर्तांश्च काञ्चनान्।
सुमनोलाजकुम्भांश्च ज्वलितं च हुताशनम्॥२०
पूर्णान्यक्षतपात्राणि रोचना रुचिरास्तथा।
स्वलङ्कृताश्शुभाः कन्या दधिसर्पिर्मधूदकम्॥२१
मृगपक्षिपशून् पुण्यांस् तत्र मङ्गलपूजितान्।
दृष्ट्वा स्पृष्ट्वा च कौन्तेयः कक्ष्यां बाह्यां विनिर्ययौ॥२२॥
ततस्तस्य महाभागास् तिष्ठतः परिचारकाः।
सौवर्णं सर्वतोभद्रं मुक्तावैदूर्यमण्डितम्॥२३
परार्ध्यास्तरणास्तीर्णम् सोत्तरच्छदमृद्धिमत्।
विश्वकर्मकृतं दिव्यम् उपजह्नुर्वरासनम्॥२४
तत्र तस्योपविष्टस्य भूषणानि महात्मनः।
उपजह्नुर्महार्हाणि प्रेष्याशशुभ्राश्च सर्वशः॥२५
युक्ताभरणवेषस्य कौन्तेयस्य महात्मनः।
रूपमासीन्महाराज द्विषतां शोकवर्धनम्॥२६
पाण्डरैश्चन्द्ररश्म्याभैर् हेमदण्डैश्च चामरैः।
दोधूयमानश्शुशुभे विद्युद्भिरिव तोयदः॥२७
संस्तूयमानस्सूतैश्च वन्द्यमानश्च वन्दिभिः।
उद्गीयमानो गन्धर्वैर् आस्ते स्म कुरुनन्दनः॥२८
ततो मुहूर्तमासीच्च वन्दिनां निनदो महान्।
रथानां नेमिघोषश्च खुरघोषश्च वाजिनाम्॥२९
ह्लादश्च गजघण्टानां शङ्खानां च रवो महान्।
नराणां पदशब्दश्च मेदिनीं कम्पयन्निव॥३०
ततः क्षत्ता समासाद्य जानुभ्यां भूतले स्थितः।
शिरसा वन्दनीयं तम् अभिवाद्य जगत्पतिम्॥३१
कुण्डली बद्धनिस्त्रिंशस् सन्नद्धः प्राञ्जलिर्युवा।
न्यवेदयद्धृषीकेशम् उपयातं महात्मने॥३२
अभिप्रणम्य शिरसा द्वास्स्थो धर्मात्मजाय तु॥३३
तमब्रवीत् ततो राजा स्वागतेनैव माधवः॥३३
युधिष्ठिरः—
प्रवेश्यतां270 समीपं मे किमर्थं प्रविलम्बसे।
आसनं च मधुघ्नाय दीयतां परमार्चितम्॥३४
सञ्जयः—
ततः प्रवेश्य वार्ष्णेयम् उपवेश्य वरासने।
सत्कृत्य सत्कृतस्तेन पर्यपृच्छद्युधिष्ठिरः॥३५
युधिष्ठिरः—
सुखेन रजनी व्युष्टा कच्चित् ते मधुसूदन।
कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रसन्नानि महामते॥३६
वासुदेवोऽपि तद्युक्तं प्रत्युवाच युधिष्ठिरम्॥३७
* सर्वेषु कोशेषु अत्रैवाध्यायसमाप्तिर्दृश्यते।
श्रीभगवान्—
दर्शनादेव ते सौम्य न किञ्चिदशुभं मम॥३७
सञ्जयः—
ततो वै प्रकृतीस्सर्वा न्यवेदयदुपस्थिताः।
अनुज्ञातस्ततः क्षत्ता प्रावेशयत तं जनम्॥३८
प्रकृतिं भीमसेनं च धृष्टद्युम्नं च सात्यकिम्।
शिखण्डिनं चेकितानं धृष्टकेतुं यमावपि॥३९
केकयान् सृञ्जयान् मात्स्यान् पाञ्चालांश्चापि राजकान्।
युयुत्सुं चैव कौरव्यम् द्रौपदेयान्घटोत्कचम्॥४०
एतांश्च सुहृदश्वान्यान् दर्शयामास पाण्डवम्॥४१
अनुज्ञाताश्च पार्थेन स्वासीना आसनेषु ते।
सर्वेष्वथ परार्ध्येषु यथार्हं वन्द्य पाण्डवम्॥४२
एकस्मिन्नासने वीरावुपविष्टौ महाबलौ।
कृष्णश्च युयुधानश्च वेद्यामिव हुताशनौ॥४३
ततो युधिष्ठिरस्तेषां शृण्वतां मधुसूदनम्।
अब्रवीत् पुण्डरीकाक्षं सत्यं पथ्यं प्रियं वचः॥४४
युधिष्ठिरः—
भवन्तं वयमाश्रित्य सहस्राक्षमिवामराः।
प्रार्थयामो जयं चैव शाश्वतानि सुखानि च॥४५
त्वं हि राज्यविनाशं च द्विषद्भिश्चापि निष्क्रियाः।
क्लेशांश्च विविधान् कृष्ण सर्वं तदुपवेत्थ नः॥४६
त्वयि सर्वेश सर्वेषाम् अस्माकं भक्तवत्सल।
सुखमायत्तमत्यन्तं शत्रूणां च पराजयम्॥४७
स तथा कुरु वार्ष्णेय यथा त्वयि मतं मम।
अर्जुनस्य यथा सत्या प्रतिज्ञा च चिकीर्षिता॥४८
स भवांस्तारयत्वस्माद् दुःखामर्षमहार्णवात्।
पारं तितीर्षतामद्य प्लवोऽस्माकं भवाच्युत॥४९
न हि तत् कुरुते योधःकार्तवीर्यसमोऽपि यः।
युधि यत् कुरुषे कृष्ण सारथ्यं त्वं समास्थितः॥५०
श्रीभगवान्—
समग्रेष्वपि लोकेषु न ह्यन्योऽस्ति तथाविधः।
शरासनघरः कश्चित् सत्यं यादृग् धनञ्जयः॥५१
वीर्यवानस्त्रसम्पन्नः पराक्रान्तो महाबलः।
युद्धशौण्डस्सदाऽमर्षी तेजस्वी विगतक्लमः॥५२
स युवा वृषभस्कन्धो दीर्घबाहुर्महाभुजः।
सिंहद्विरदविक्रान्तो द्विषतः प्रमथिष्यति॥५३
अहं च तत् करिष्यामि यथाऽसौ रथिनां वरः।
धार्तराष्ट्रस्य सैन्यानि धक्ष्ययग्निरिवाश्रयम्॥५४
अत्यन्तं पापकर्माणं रौद्रं सैन्धवकं नृप।
शरैर्गाण्डीव निर्मुक्कैर् निशितैर्धक्ष्यतेऽर्जुनः॥५५
अद्य काकाश्च गृद्धाश्च श्येना गोमायवो वलाः।
भक्षयिष्यन्ति मांसानि ये चाप्यन्ये च पक्षिणः॥५६
यद्यस्य लोका गोप्तारस् ससुरासुरमानवाः।
राजधानी यमस्याद्य हतो यास्यति दुर्मतिः॥५७
निहत्य सैन्धवं जिष्णुर अद्य त्वामनुयास्यति।
विशोको विज्वरो राजन भव शान्तिपुरस्कृतः॥५८
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः॥५॥
॥६८॥प्रतिज्ञापर्वणि सप्तमोऽध्यायः॥७॥
[अस्मिन्नध्याये ५८ श्लोकाः]ः]
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॥षट्सप्ततितमोऽध्यायः॥
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जयद्रथं प्रति गच्छताऽर्जुनेन युधिष्ठिररक्षणाय सात्यकिं प्रति चोदना॥
सञ्जयः—
तथा सम्भाषतां तेषां प्रादुरासीद्धनञ्जयः।
दिदृक्षुर्भरतश्रेष्ठं राजानं ससुहृद्गणम्॥१
तं प्रविष्टं शुभां कक्ष्याम् अभिवन्द्याग्रतस्स्थितम्।
समुत्थायासनात् प्रेम्णा सस्वजे पाण्डवोऽर्जुनम्॥२
मूर्ध्नि चैनमुपाघ्राय परिमृज्य च पाणिना।
आशिषः परमाः प्रोच्य स्मयमानोऽभ्यभाषत॥३
बुधिष्ठिरः—
व्यक्तमर्जुन सङ्ग्रामे ध्रुवस्तव जयो महान्।
तादृग्रूपा हि ते च्छाया प्रसन्नश्च जनार्दनः॥४
सञ्जयः—
तमब्रवीत् ततो जिष्णुर् महदाश्चर्यमुत्तमम्।
दृष्टवानस्मि भद्रं ते केशवस्य प्रसादजम्॥५
ततस्तत् कथयामास यथादृष्टं धनञ्जयः।
आश्वसनार्थं सुहृदां त्र्यम्बकेण समागमम्॥६
ततश्शिरोभिरवनिंस्पृष्ट्वा सर्वे सुविस्मिताः।
नमस्कृत्य वृषाङ्काय साधु साध्वित्यथाब्रुवन्॥७
अनुज्ञातास्ततस्सर्वे सुहृदो धर्मसूनुना।
त्वरमाणास्सुसन्नद्धास् तुष्टा युद्धाय निर्युयुः॥८
अभिवाद्य तु राजानं युयुधानाच्युतार्जुनाः।
हृष्टा विनिर्ययुस्ते वै युधिष्ठिरनिवेशनात्॥९
रथेनैकेन दुर्धर्षौ युयुधानजनार्दनौ।
जग्मतुस्सहितौ वीरावर्जुनस्य निवेशनम्॥१०
तत्र गत्वा हृषीकेशः कल्पयामास शास्त्रवित्।
रथं271 महारथस्याजौ वानरर्षभलक्षणम्॥११
स मेघसमनिर्घोषस् तप्रकाञ्चनभूषणः।
बभौ रथवरः क्लृप्तश् शिशुर्दिवसकृद्यथा॥१२
ततः पुरुषशार्दूलस् सज्जं सर्वं न्यवेदयत्।
रथं पुरुषसिंहस्य सध्वजं सपताकिनम्॥१३
स तु लोके वरः पुंसां किरीटी हेमवर्मधृक्।
बाणी बाणासनी वाहं प्रदक्षिणमवर्तत॥१४
अथ विद्यावयोवृद्धैः क्रियावद्भिर्जितेन्द्रियैः।
स्तूयमानो जयाशीर्भिर् आरुरोहार्जुनो रथम्॥१५
जैत्रैस्साङ्ग्रामिकैर्मन्त्रैः पूर्वमेव रथोत्तमम्।
अभिमन्त्रितमर्चिष्मान् उदयं भास्करो यथा॥१६
स रथे रथिनां श्रेष्ठः काञ्चने काञ्चनावृतः।
विबभौ बहुलार्चिष्मान् मेराविव दिवाकरः॥१७
अन्वारूढौ ततः पार्थं तत्र गोविन्दसात्यकौ।
शर्यातियज्ञं गच्छन्तं यथा च्यवनमश्विनौ॥१८
अथ जग्राह गोविन्दो रथरश्मीन् रथर्षभः।
मातलिर्वासवस्येव वृत्रं हन्तुं प्रयास्यतः॥१९
स ताभ्यां शुशुभे पार्थो रथप्रवरमास्थितः।
सहितो बुधशुक्राभ्यां तमो निघ्नन् यथा शशी॥२०
सैन्धवस्य वधप्रेप्सुः प्रयातश्शत्रुपूगहा।
सहाम्बुपतिमित्राभ्यां यथेन्द्रस्तारकामये॥२१
ततो वादित्रघोषैश्च मङ्गलैश्च शुभैस्स्तवैः।
प्रयान्तमर्जुनं संख्ये मागधाश्चापि तुष्टुवुः॥२२
सजयाशीस्सुपुण्याहस् सूतमागधनिस्स्वनैः।
युक्तो वादित्रघोषेण तेषां प्रीतिकरोऽभवत्॥२३
तमनुप्रवणो वायुः पुण्यगन्धश्शिवश्शुचिः।
ववौ संहर्षयन् पार्थं द्विषतश्चापि शोषयन्॥२४
प्रादुरासन्निमित्तानि बहूनि विजयाय च।
पाण्डवानां त्वदीयानां विपरीतानि मारिष॥२५
ततस्सम्प्रेक्ष्य तत् सर्वं विजयस्वं प्रदक्षिणम्।
सैन्येषु सात्यकं सत्यम् इदं वचनमब्रवीत्॥२६
अर्जुनः—
युयुधानाद्य मे युद्धे दृश्यते विजयो ध्रुवः।
तथा हीमानि लिङ्गानि मनोज्ञानि भवन्ति मे॥२७
सोऽहं तत्र गमिष्यामि यत्र यातो जयद्रथः।
गच्छ त्वं रक्ष राजानं त्वं हि तुल्यो मया रणे॥२८
यथैव272 च परं कृत्यं सैन्धवस्य वधे धृतम्।
तथैव हि परं कृत्यं धर्मराजस्य रक्षणम्॥२१
स त्वमद्य महाबाहो राजानं परिपालय।
यथैव हि मया गुप्तस् त्वया गुप्रस्तथा भवेत्॥३०
त्वयि चाहं पराश्वस्तः प्रद्युम्ने वा महारथे।
शक्नुयां सैन्धवं हन्तुम् अनपेक्षो नरर्षभ॥३१
मय्यपेक्षा न कर्तव्या गोप्ताऽयं मम केशवः।
राज्ञ एव परा गुप्तिः कार्या सात्यक सर्वदा॥३२
न हि यत्र महाबाहुर् वासुदेवो व्यवस्थितः।
किञ्चिद्व्यापद्यते तत्र यत्राहमपि च ध्रुवम्॥३३
सञ्जयः—
एवमुक्तस्तु पार्थेन सात्यकः परवीरहा।
तथेत्युक्त्वाऽगमत् तत्र यत्र राजा युधिष्ठिरः॥३४
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि षट्सप्ततितमोऽध्यायः॥७६॥
॥६८॥ प्रतिज्ञापर्वणि अष्टमोऽध्यायः॥८॥
[अस्मिन्नध्याये ३४ श्लोकाः]
[प्रतिज्ञापर्वसमाप्तम्]
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॥सप्तसप्ततितमोऽध्यायः॥
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(जयद्रथवधपर्व)
धृतराष्ट्रेण पुत्रान् प्रति शोचनपूर्वकं सञ्जयं प्रत्यभिमन्युनिधनानन्तरीमकयुद्धकथनचोदना॥
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धृतराष्ट्रः—
श्वोभूते किमकुर्वन्त दुःखशोकसमन्विताः।
अभिमन्यौ हते तत्र कैर्वाऽयुध्यन्त पाण्डवाः॥१
जानन्तस्तस्य कर्माणि कुरवस्सव्यसाचिनः।
कथं नु किल्बिषं चक्रुः प्रतिगृह्य धनञ्जयम्॥२
पुत्रशोकाभिसन्तप्तं क्रुद्धं मृत्युमिवान्तकम्।
आयान्तं पुरुषव्याघ्रं कथं ददृशुराहवे॥३
कपिराजध्वजं क्रुद्धं धून्वानं गाण्डिवं धनुः।
दृष्ट्वा पुत्रपरिद्यूनं किमकुर्वत मे सुताः॥४
किं नु सञ्जय सङ्ग्रामे वृत्तं दुर्योधनाप्रियम्।
परिदेवो महानद्य श्रूयते हि गृहे गृहे॥५
भूयाञ् शब्दानतीत्यान्याञ् शब्दस्सैन्धववेश्मनि।
पौराणिकानां तूर्याणां शङ्खदुन्दुभिघोषवान्॥६
सूतमागधवन्दीनां नर्तकानां च निस्स्वनः।
सोऽद्य न श्रूयते शब्दस् सूतपुत्र यथा पुरम्॥७
शब्दो नानाविधोऽभीक्ष्णम् अभवद्यत्र मे श्रुतः।
दीनानामद्य तं शब्दं न शृणोमि समीरितम्॥८
निवेशने सत्यधृतेस् सोमदत्तस्य सञ्जय।
आसीनोऽहं पुरा तात शब्दमश्रौषमुत्तमम्॥९
तदद्य हीनपुण्योऽहं हीनस्वरविनादितम्।
निवेशनं गतोत्साहं विकृतं तात लक्षये॥१०
विविंशतेर्दुर्मुखस्य273 चित्रसेनविकर्णयोः।
अन्येषां च सुतानां मे तथा न श्रूयते ध्वनिः॥११
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या यं शिष्याः पर्युपासते।
द्रोणपुत्रं महेष्वासम् अद्याहं तं न लक्षये॥१२
वितण्डालापसल्ँलापैर् हेतुवादिकवन्दिकैः।
गीतैश्च विविधैरिष्टै रमते यो दिवानिशम्॥१३
उपास्यमानो बहुभिः कुरुपाण्डवसात्त्वतैः।
श्लक्ष्णस्तस्य गृहे शब्दो नाद्य द्रौणेर्यथा पुरम्॥१४
द्रोणपुत्रं महेष्वासं गायका नर्तकाश्च ये।
अत्यर्थमुपतिष्ठन्ति तेषां न श्रूयते ध्वनिः॥१५
विन्दानुविन्दयोश्चास्मिन200् शिबिरे यो महाध्वनिः।
श्रूयते274 सोऽद्य न तथा केकयानां च वेश्मनि॥१६
नित्यं275 प्रमुदितानां च तालगीतस्वनो महान्॥
नृत्यतां श्रूयते तात गणानां सोऽद्य न स्वनः॥१७
सप्ततन्तून् वितन्वाना यमुपासन्ति याजकाः।
सौमदत्तिं श्रुतधनास् तेषां न श्रूयते ध्वनिः॥१८
ज्याघोषो ब्रह्मघोषश्च तोमरासिरथध्वनिः।
द्रोणस्यासीदविरतो गृहे तं न शृणोम्यहम्॥१९
नानादेशसमुत्थानां गीतानां योऽभवत् स्वनः।
वादित्रघोषितानां च सोऽद्य न श्रूयते ध्वनिः॥२०
यदाप्रभृत्युपलव्याच् छान्तिमिच्छञ्जनार्दनः।
आगतस्सर्वभूतानाम् अनुकम्पार्थमच्युतः॥२१
ततोऽहमब्रुवं तात मन्दं दुर्योधनं तथा।
वासुदेवेन तीर्थेन तात संशाम्य पाण्डवैः॥२२
कालप्राप्तमहं मन्ये नैनं दुर्योधनात्यगाः।
संशाम्य भ्रातृभिस्तैस्तु क्षत्रियानभिपालय॥२३
शमं चेद्याचमानं त्वं प्रत्याख्यास्यसि केशवम्।
हितार्थमपि जल्पन्तं अवाप्स्यसि पराजयम्॥२४
प्रत्याचष्ट स दाशार्हम् ऋषभं सर्वसात्त्वताम्।
अनुनीयाभिजल्पन्तम् अनयान्नान्वपद्यत॥२५
कर्णदुश्शासनमते सौबलस्य च दुर्मतेः।
प्रत्याख्यातो महाबाहुः कुलान्तकरणेन मे॥२६
नित्यं दुश्शासनस्यैव कर्णस्य च मते द्वयोः।
अन्ववर्तत हित्वा मां कृष्टः कालेन दुर्मतिः॥२७
न ह्यहं युद्धमिच्छामि विदुरो द्रोण एव वा।
बाह्लीकस्सोमदत्तो वा भीष्मो द्रौणायनिस्तथा॥२८
शलो भूरिश्रवाश्चैव पुरुमित्रो विविंशतिः।
जयः कृपो वा धर्मात्मा न चान्ये मम बान्धवाः॥२९
एतेषां मतमास्थाय यदि वत्स्यति पुत्रकः।
एतेभ्यश्च मदूर्ध्वं च अभोक्ष्यद्वसुधामिमाम्॥३०
शुद्धा मधुरसम्भाषा ज्ञातिमध्ये प्रियंवदाः।
कुलीनाश्चाभिजाताश्च सुखं जीवन्ति मानवाः॥३१
धर्मापेक्षी नरस्तात सर्वत्र लभते सुखम्।
प्रेत्यभावे च कल्याणं प्रसादात् प्रतिपद्यते॥३२
अलमर्धं पृथिव्यास्ते सहामात्यस्य मा द्रुहः।
तेषामपि समुद्रान्ता पितृपैतामही मही॥३३
न च त्वाऽभिभविष्यन्ति हित्वा धर्म पृथात्मजाः।
नियुज्यमानास्स्थास्यन्ति पाण्डवा धर्मवर्त्मनि॥३४
सन्ति नो ज्ञातयस्तात येषां श्रोष्यन्ति पाण्डवाः।
शल्यस्य सोमदत्तस्य भीष्मस्य च महात्मनः॥३५
द्रोणस्याथ विकर्णस्य बाह्लीकस्य कृपस्य च।
अन्येषां चैव वृद्धानां भरतानां महात्मनाम्॥३६
त्वदर्थं ब्रुवतां तात न जहुर्वचनानि ते॥३६
कं वा त्वं मन्यसे तेषां यस्त्वां ब्रूयादतोऽन्यथा।
कृष्णो धर्मं न सञ्जह्यात् सर्व एते तदन्वयाः॥३७
मयाऽपि चोक्तास्ते सर्वे वचनं धर्मसंहितम्।
नान्यथा वै करिष्यन्ति धर्मात्मानो हि पाण्डवाः॥३८॥
इत्यहं विलपंस्तात बहुशः पुत्रमुक्तवान्।
न हि मे श्रुतवान् मूढो मन्ये कालस्य पर्ययम्॥३९
वृकोदरार्जुनौ वीरौ वृष्णिवीरश्च सात्यकिः।
उत्तमौजाश्च पाञ्चालो युधामन्युश्च दुर्जयः॥४०
धृष्टद्युम्नश्च दुर्धर्षश् शिखण्डी चापराजितः।
अश्मकाः केकयाश्चैव क्षत्रधर्माऽथ सौमकिः॥४१
चैद्यश्च चेकितानश्च पुत्रः काश्यस्य चाभिभूः।
द्रौपदेया विराटश्च द्रुपदश्च महारथः॥४२
यमौ च पुरुषव्याघ्रौ मन्त्री च मधुसूदनः।
क एताञ्जातु युध्येत अस्मिल्ँलोके जिजीविषुः॥४३
दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणास् संहरेयुररिन्दमाः।
अन्यो दुर्योधनात् कर्णाच् छकुनेश्चापि सौबलात्॥४४
दुश्शासनचतुर्थानां नान्यं पश्यामि पञ्चमम्॥४५
येषां वचनकृत् स स्याद् विष्वक्सेनो रथे स्थितः।
सन्नद्धश्चार्जुनो योद्धा तेषां नास्ति पराजयः॥४६
तथा मम विलापानां नेह दुर्योधनस्स्मरेत्।
हतौ हि पुरुषव्याघ्रौभीमद्रोणौ समाहितौ॥४७
तेषां विदुरवाक्यानाम् उक्तानां दीर्घदर्शनान्।
दृष्ट्वेमां फलनिर्वृत्तिं मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः॥४८
सेनां दृष्ट्वाऽभिभूतां मे शैनेयेनार्जुनेन च।
शून्यान् दृष्ट्वा रथोपस्थान मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः॥४९
हिमात्यये यथा कक्षं शुष्कं वातेरितो महान्।
अग्निर्दहेत् तथा सेनां मामिकां स धनञ्जयः॥५०
आचक्ष्व मे पुनस्सर्वं कुशलो ह्यसि सञ्जय।
यदोपयातास्सायाह्ने कृत्वा पार्थस्य किल्बिषम्॥५१
अभिमन्यौ हते तात कथमासीन्मनो हि वः॥५१
विजानंस्तस्य कर्माणि युधि गाण्डीवधन्वनः।
अपकृत्य महत् तात सोढव्यं च महात्मनः॥५२
किं नु दुर्योधनः कृत्यं किं कर्णः कृत्यमब्रवीत्।
दुश्शासनस्सौबलश्च तेषामेवं गते सति॥५३
सर्वेषां समवेतानां पुत्राणां मम सञ्जय।
यद्वृत्तं276 तात सङ्ग्रामे मन्दस्यापनयैर्भृशम्॥५४
लोभानुगस्य दुर्बुद्धेः क्रोधेन विकृतात्मनः।
राज्यकामस्य मूढस्य रागोपहतचेतसः॥५५
दुर्नीतं वा सुनीतं वा तन्ममाचक्ष्व सञ्जय॥५६
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायांसंहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि सप्तसप्ततितमोऽध्यायः॥७॥
॥६९॥जयद्रथवधपर्वणि प्रथमोऽध्यायः॥१॥
[अस्मिन्नध्याये ५६ श्लोकाः]
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॥अष्टसप्ततितमोऽध्यायः॥
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सञ्जयेन धृतराष्ट्रोपालम्भपूर्वकं युद्धकथनोपक्रमः॥१॥द्रोणेन शकटव्यूहनिर्माणम्॥२॥
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सञ्जयः—
हन्त277 ते कथयिष्यामि सर्वं प्रत्यक्षदर्शिवान्।
शुश्रूषस्व स्थिरो भूत्वा तव ह्यपनयो महान्॥१
गतोदके सेतुबन्धो यादृक् तादृगयं तव।
विलापो निष्फलो राजन् न तु शक्यमशोचितुम्॥२
अनतिक्रमणीयो हि कृतान्तस्य कृतो विधिः।
मा शुचो भरतश्रेष्ठ तवैवापनयो महान्॥३
यदि त्वं हि पुरा द्यूतात् कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
न्यवारयिष्यः278 प्रीतात्मा नाभविष्यज्जनक्षयः॥४
युद्धकाले पुनः प्राप्ते तथैव भरतर्षभ279।
निवर्तयेथाः280 पुत्रांश्चन त्वां व्यसनमाव्रजेत्॥५
दुर्योधनं चाविधेयं बध्नीयास्त्वं पुरा यदि।
अवेक्ष्य कौरवान् राजन् प्राप्स्यसे सुमहद्यशः॥६
तन् ते बुद्धिव्यतीचारम् उपलप्स्यन्ति तं जनाः।
पाञ्चाला वृष्णयश्चैव ये चान्येऽपि जनाधिपाः॥७
स कृत्वा पितृकर्म त्वं पुत्रं संस्थाप्य राजसु।
वर्तेथा यदि धर्मेण न त्वां व्यसनमाव्रजेत्॥८
त्वं तु प्राज्ञतमो लोके हित्वा धर्म सनातनम्।
दुर्योधनस्य कर्णस्य शकुनेश्चान्वगा मतम्॥९
तत् ते विलपितं राजन् मया सर्वं निशामितम्।
अर्थे निविशमानस्य विषमिश्रं यथा मधु॥१०
न तथा मन्यते कृष्णो न च राजा युधिष्ठिरः।
न भीष्मो वै न च द्रोणो यथा त्वं मन्यसे नृप॥११
व्यजानन्त यदा तु त्वां लुब्धं धर्मप्रवादिनम्।
तदा प्रभृति कृष्णस्त्वां न281 तथा बहुमन्यते॥१२
अर्थे282 निविशमानांश्च पुरा पार्थानुपेक्षसे।
तस्यानुबन्धः प्राप्तस्त्वां पुत्राणां राज्यकामुकम्॥१३
पितृपैतामहं राज्यम् अपवृत्तं त्वयाऽनघ॥१३
अथ पार्थैर्जितां कृत्स्त्नांपृथिवीं प्रतिपद्यथाः।
पाण्डुनाऽधिष्ठितं राज्यं कौरवाणां यशस्तथा॥१४
एतच्चाप्यधिकं भूयः पाण्डवैर्धर्मचारिभिः॥१५
तेषां तत् तादृशं कर्म त्वामासाद्य सुनिष्फलम्।
पैत्र्याद्धि भ्रंशिता राज्यात् त्वयैवामिषगृद्धिना॥१६
यत् पुनर्युद्धकाले तु पुत्रं गर्हयसे नृप।
बहुधा व्याहरन् दोषान् न तदद्योपपद्यते॥१७
न हि रक्षन्ति राजानो युध्यन्तो जीवितं रणे।
चमूं विगाह्य पार्थानां क्षत्रिया जयकाङ्क्षिणः॥१८
यत्तां कृष्णार्जुनोपेतां ससत्यकवृकोदराम्।
कोऽत्र तां प्रतियुध्येत चमूमन्यत्र कौरवात्॥१९
येषां गोप्ता गुडाकेशो येषां मन्त्री जनार्दनः।
येषां च सात्यकिर्गोप्ता येषां गोप्ता वृकोदरः॥२०
को हि तान् विषहेद्योद्धुं मर्त्यधर्मा धनुर्धरः।
अन्यत्र कौरवेयेभ्यो ये वा तेषां पदानुगाः॥२१
यावत् तु शक्यते कर्तुम् अनुरक्तैर्जनाधिप।
क्षत्रधर्मरतैश्शूरैस् तावत् कुर्वन्ति कौरवाः॥२२
यथा तु पुरुषव्याघ्रैर् युद्धं परमसङ्कटम्।
कुरूणां पाण्डवैस्सार्धं तत् सर्वं शृणु तत्त्वतः॥२३
* सर्वेषु कोशेषु अत्रैवाध्यायसमाप्तिर्दृश्यते।
तस्यां निशायां व्युष्टायां द्रोणशशस्त्रभृतां वरः।
स्वान्यनीकानि283 सर्वाणि प्राक्रामद् व्यूहितुं ततः॥२४
शूराणां गर्जतां राजन्सङ्क्रुद्धानां284 मनीषिणाम्।
श्रूयन्ते स्म गिरश्चात्रपरस्परमवेक्षताम्॥२५
विष्फाल्य धनुरुद्यम्य केयूरमवमृज्य च।
विनिश्श्वसन्तः प्राक्रोशन् क्वेदानीं स धनञ्जयः॥२६
विकोशान् सुत्सरूनन्ये कृतधारान् समाहितान्।
पीतानाकाशसङ्काशान् असीनुच्चिक्षुपुर्जनाः॥
चरन्तस्त्वसिमार्गांश्च शरमार्गांश्च शिक्षिताः।
दृश्यन्ते कुञ्जरैश्चान्ये वाजिभिश्च युयुत्सवः॥
सघण्टाश्चन्दनादिग्धास् स्वर्णवज्रविभूषिताः।
समुत्क्षिप्य गदाश्चान्ये पर्यपृच्छन्त पाण्डवम्॥
अन्ये बलमदोन्मत्ताः परिघैर्बाहुशालिनः।
चक्रुस्सम्बाधमाकाशम् उच्छ्रितेन्द्रध्वजोपमैः॥
नानाप्रहरणैश्चान्ये नानारञ्जितवाससः।
सङ्ग्राममनसश्शूरास् तत्र तत्र व्यवस्थिताः॥
क्वार्जुनः क्व च गोविन्दः क्व च मानी वृकोदरः।
क्व च ते सुहृदस्तेषाम् आह्वयानास्तदा रणे॥३२
ततश्शङ्खमुपाध्माय त्वरयन् वाजिनस्स्वयम्।
इतस्ततस्तान् रचयन् द्रोणश्चरति वेगितः॥३३
तेष्वनीकेषु सर्वेषु स्थितेष्वाहवशोभिषु।
भारद्वाजो महाराज जयद्रथमथाब्रवीत्॥३४
द्रोणः—
त्वं चैव सौमदत्तिश्च कर्णश्चैव महारथः।
अश्वत्थामा च शल्यश्च वृषसेनः कृपस्तथा॥३५
शतं चाश्वसहस्राणां रथानामयुतानि षट्।
द्विरदानां285 प्रभिन्नानां सहस्राणि चतुर्दश॥३६
पदातीनां सहस्राणां सहस्राण्यपि पञ्च च।
योजनेषु त्रिमात्रेषु मम सैन्यस्य पृष्ठतः॥३७
तत्र स्थितं न सोढुं त्वां अलं लोकास्सदेवताः।
किं पुनः पाण्डवास्सर्वे समाश्वसिहि सैन्धव॥३८
सञ्जयः—
एवमुक्तस्समाश्वस्तस् सिन्धुराजो जयद्रथः।
सम्प्रायात् सह गान्धारैर् वृतस्तैश्च महारथैः॥३९
वर्मिभिस्सादिभिर्यत्तैः286 प्रासपाणिभिरास्थितैः॥३९
चामरापीडनास्सर्वे जाम्बूनदविभूषिताः।
जयद्रथस्य राजेन्द्र योधास्साधुप्रहारिणः॥४०
ते चैव सप्रसाहस्रास् द्विसाहस्राश्च सैन्धवाः॥४१
मत्तानामधिरूढानाम् हस्त्यारोहैर्विशारदैः।
हस्तिनां भीमरूपाणाम् वर्मिणां रौद्रकर्मिणाम्॥४२
अध्यर्धेन सहस्रेण पुत्रो दुर्मर्षणस्तव।
अग्रतस्सर्वसैन्यानां योत्स्यमानो व्यवस्थितः॥४३
ततो दुश्शासनश्चैव विकर्णश्च तवात्मजौ।
सिन्धुराजार्थसिद्ध्यर्थम् अग्रीनीके व्यवस्थितौ॥४४
दीर्घो द्वादशगव्यूतिः पश्चार्धे पञ्चविस्तृतः।
व्यूहस्स शकटो नाम भारद्वाजेन निर्मितः॥४५
नामानृपतिभिर्वीरस् तत्र तत्र व्यवस्थितैः।
रथाश्वगजपत्त्योघैर् द्रोणेन विहितस्स्वयम्॥४६
पश्चार्धे तस्य पद्मस्तु गर्भव्यूहः पुनः कृतः।
सूचीपद्मस्य मध्यस्थो दृढव्यूहो जयद्रथः॥४७
एवमेतं महाव्यूहं व्यूह्य द्रोणो व्यवस्थितः।
सूचीमुखे महेष्वासः कृतवर्मा व्यवस्थितः॥४८
अनन्तरं च काम्भोजो जलसन्धश्च वीर्यवान्।
दुर्योधनस्सहामात्यस् तदनन्तरेमव च॥४९
ततश्शतसहस्राणि योधानामनिवर्तिनाम्।
व्यवस्थितानि सर्वाणि शकटे सूचिरक्षिणाम्॥५०
तेषां पृष्ठगतो राजन् बलेन महता वृतः।
जयद्रथस्ततो राजा सूचीपार्श्वे व्यवस्थितः॥५१
शकटस्य तु राजेन्द्र भारद्वाजो मुखे स्थितः।
नात्र तस्याभवद्भेदो जुगोपैनं ततस्स्वयम्॥५२
श्वेतवर्माम्बरोष्णीषो व्यूढोरस्को महाभुजः।
धनुर्विष्फारयन् द्रोणस् तस्थौ क्रुद्ध इवान्तकः॥५३
तस्य सैन्यस्य सर्वस्य नेता गोप्ता च वीर्यवान्॥५३
पताकिनं शोणहयं वेदीकृष्णाजिनध्वजम्।
द्रोणस्य रथमालोक्य प्रहृष्टाः कुरवोऽभवन्॥५४
सिद्धचारणसङ्घानां विस्मयस्सुमहानभूत्।
द्रोणेन विहितं दृष्ट्वा व्यूहं क्षुब्धार्णवोपमम्॥५५
सशैलसागरवनां नानाजनपदाकुलाम्।
ग्रसेद्व्यूहः क्षितिं सर्वाम् इति भूतानि मेनिरे॥५६
बहुरथमनुजाश्वपत्तिनागं
प्रतिभयनिस्स्वनमद्भुताभ्ररूपम्।
अहितहृदयमेदिनं महान्तं
शकटमवेक्ष्य कृतं ननन्द राजा॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि अष्टसप्ततितमोऽध्यायः॥७८॥
॥६८॥जयद्रथवधपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
[अस्मिन्नध्याये ५७॥श्लोकाः]
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॥एकोनाशीतितमोऽध्यायः॥
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अर्जुनस्य रणाङ्गणप्रवेशः॥१॥अर्जुनयुद्धवर्णनम्॥२॥
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सञ्जयः—
व्यूढेषु तव सैन्येषु समुत्कृष्टेषु मारिष।
नाद्यमानासु भेरीषु मृदङ्गेष्वानकेषु च॥१
अनीकानां च संह्लादे वादित्राणां च निस्स्वने।
प्रध्माणितेषु शङ्खेषु सन्नादे रोमहर्षणे॥२
प्रगृहीतेषु शस्त्रेषु भारतेषु युयुत्सुषु।
रौद्रे मुहूर्ते सम्प्राप्ते सव्यसाची व्यदृश्यत॥३
बलानां वायसानां च पुरस्तान् सव्यसाचिनः।
पिशितासृग्मुजां सङ्घाः प्रलीयन्ते सहस्रशः॥४
मृगाश्च घोरसंनादाश् शिवाश्चाशिवदर्शनाः।
दक्षिणेन प्रयातानाम् अस्माकं नेदुरध्वनि॥५
लोकक्षये महाराज यादृशास्तादृशा हि ते।
अशिवा धार्तराष्ट्राणां शिवाः पार्थस्य संयुगे॥६
सनिर्घाता ज्वलन्त्यश्च पेतुरुल्कास्सहस्रशः।
चचाल च मही सर्वा भये घोरे समुत्थिते॥७
विष्वग्वातास्सनीहारा नीचैश्शर्करकर्षिणः।
ववुरायाति कौन्तेये सङ्ग्रामे समुपस्थिते॥८
नाकुलिस्तु शतानीको धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः।
पाण्डवानामनीकानि प्राज्ञौ तौ व्यूहतुस्तदा॥९
ततो रथसहस्रेण द्विरदानां शतेन च।
त्रिभिरश्वसहस्रैश्च पदातीनां शतैश्शतैः॥१०
अध्यर्धमात्रे धनुषां सहस्रे तनयस्तव।
अग्रतस्सर्वसैन्यानां स्थित्वा दुर्मर्षणोऽब्रवीत्॥११
दुर्मर्षणः—
अद्य गाण्डीवधन्वानं समरे युद्धदुर्मदम्।
अहमावारयिष्यामि वेलेव मकरालयम्॥१२
अद्य पश्यन्तु सङ्ग्रामे धनञ्जयममर्षणम्।
विषक्तं मयि दुर्धर्षं भिन्नं कुम्भमिवाश्मनि॥१३
सञ्जयः—
ततोऽर्जुनो287 महाराज महात्मा महतां पतिः।
महारथसमाख्यातो महेष्वासो व्यवस्थितः॥१४
कक्षाग्निरिव दुस्स्पर्शस् सवज्रइव वासवः।
दण्डपाणिरिवासह्यो मृत्युः कालप्रचोदितः॥१५
शूलपाणिरिवाक्षोभ्यो वरुणः पाशवानिव।
युगान्ताग्निरिवार्चिष्मान् दिधक्षुस्स्थाणुजङ्गमम्॥१६
क्रोधामर्षबलोपेतो निवातकवचान्तकः।
युद्धे जेता स्थितस्सत्ये पारयिष्यन् महाव्रतम्॥१७
आमुक्तकवचः खड्गी जाम्बूनदकिरीटवान्।
शुभ्रवर्माम्बरधरस्त्वङ्गदी चारुकुण्डलः॥१८
रथप्रवरमास्थाय नरो नारायणानुगः।
विधून्वन् गाण्डिवं सङ्ख्ये बभौ सूर्य इवोदितः॥१९
अग्रानीकस्य सोऽध्यर्ध इषुपाते धनञ्जयः।
व्यवस्थाप्य रथं सज्जं शङ्खं प्राध्मापयत् प्रभुः॥२०
अथ कृष्णोऽप्यसम्भ्रान्तः पार्थेन सह वीर्यवान्।
प्राध्मापयत् पाञ्चजन्यं शङ्खप्रवरमोजसा॥२१
तयोश्शङ्खप्रणादेन288 तव सैन्यं विशां पते।
संहृष्ठरोममुद्विग्नं महद्भयमभूत् तदा॥२२
यथा289 त्रस्यन्ति भूतानि सर्वाण्यशनिनिस्स्वनात्।
तथा290 शङ्खप्रणादेन वित्रेसुस्तव सैनिकाः॥२३
प्रसुस्रुवुश्शकृन्मूत्रं वाहनानि च सर्वशः।
तथा प्रबलमुद्विग्नं महद्बलमभून् तव॥२४
सीदन्ति स्म नरा राजञ् शङ्खशब्देन भारत।
विसंज्ञाश्चाभवन् केचित् केचिद्राजन् वितत्रसुः॥२५
ततः कपिर्महानादं सह भूतैर्ध्वजालयैः।
अकरोद्व्याददे चास्यं भीषयंस्तव सैनिकान्॥२६
ततरश्शङ्खाश्च भेर्यश्च मृदङ्गाश्चानकैस्सह।
पुनरेवाभ्यहन्यन्त तव सैन्यप्रहर्षणाः॥२७
नानावादित्रसंह्रादैः क्ष्वेडितास्फोटिताकुलैः।
सिंहनादैस्समुत्क्रुष्टैस् समाहूय परस्परम्॥२८
तस्मिन् सुतुमुले शब्दे भीरूणां भयवर्धने।
अतीव हर्षाद्दाशार्हम् अब्रवीत् पाकशासनिः291॥२९
अर्जुनः—
चोदयाश्वान्292 हृषीकेश यत्र दुर्मर्षणस्थितः।
एतद्भित्त्वा293गजानीकं प्रवेक्ष्याम्यरिवाहिनीम्॥३०
सञ्जयः—
एवमुक्तो महाबाहुः केशवस्सव्यसाचिना।
समचूचुददश्वांस्तान्यत्र दुर्मर्षणस्थितः॥३१
स सम्प्रहारस्तुमुलस् सम्प्रवृत्तस्सुदारुणः।
एकस्य च बहूनां च कटुको रोमहर्षणः॥३२
शरवर्षेण महता पर्जन्य इव वृष्टिभिः।
परानवाकिरत् पार्थः पर्वतानिव वारिदः॥३३
ते चापि रथिनस्सर्वे त्वरिताः कृतहस्तवत्।
अवाकिरन् बाणजालैस् ततः कृष्णधनञ्जयौ॥३४
ततः294 क्रुद्धो महाबाहुर् वार्यमाणः परैर्युधि।
शिरांसि रथिनां पार्थः कायेभ्योऽपातयत् क्षितौ॥३५
उद्भ्रान्तनयनैर्वक्रैर् अमर्षाद्भुकुटीकृतैः।
तथैव क्रोधदष्टोष्ठैर् अवाकीर्यत मेदिनी॥३६
पुण्डरीकवनानीव निरस्तानि समन्ततः।
विनिकीर्णानि योधानां वदनानि चकाशिरे॥३७
सुवर्णचित्राभरणास् संसिक्तारुधिरेण च।
संसक्ता इव दृश्यन्ते मेघसङ्घास्सविद्युतः॥३८
शिरसां पततां राजञ् शब्दोऽभूत् पृथिवीतले।
कालेन परिपक्वानां तालानां पततामिव॥३९
कबन्ध उत्थितः कश्चिद् विष्फार्य सशरं धनुः।
कश्चित् सुनिशितं खङ्गं भुजेनोद्यम्य तिष्ठति॥४०
गृहीत्वाऽन्यस्य केशेषु शिरो नृत्यति चापरः॥४०
पतितानि न जानन्ति शिरांसि पुरुषर्षभाः।
अमृष्यमाणाः कौन्तेयं सङ्ग्रामे जयगर्द्धिनः॥४१
हयानामुत्तमाङ्गैश्च हस्तिहस्तैश्च मेदिनी।
बाहुभिश्च शिरोभिश्च वीराणां समकीर्यत॥४२
अयं पार्थः कुतः पार्थः पार्थोऽयमिति सर्वशः।
तिष्ठ पार्धैहि मां पार्थ क्व यासीति च जल्पताम्॥४३
तव सैन्यस्थयोधानां पार्थभूतमिवाभवत्॥४४
अन्योन्यमपि चाजघ्नुर् आत्मानमपि चापरे।
पार्थभूतममन्यन्त जनाः कालेन मोहिताः॥४५
निष्टनन्तो विरुधिरा विसंज्ञा गाढवेदनाः।
शयाना बहवो वीराः कीर्तयन्तश्च बान्धवान्॥४६
सभिण्डिपालास्सप्रासास् समुद्रपरश्वथाः।
सतोमरास्सनिर्यूहा सशरास्सशरासनाः॥४७
सहासिचर्मावरणास् सहस्ताभरणाङ्गदाः।
महाभुजगसङ्काशा बाहवः परिधोपमाः॥४८
उद्वेष्टन्ति विचेष्टन्ति संवेष्टन्ति च सर्वशः।
वेगं कुर्वन्ति संरब्धा निकृत्तास्सव्यसाचिना॥४९
यो यस्स्म समरे पार्थं प्रतिसंरभते नरः।
तस्य तस्यान्तको बाणश्शरीरमुपसर्पति॥५०
यत् तस्य यतमानस्य क्षिप्रमाक्षिपतश्शरान्।
लाघवात् पाण्डुपुत्रस्य व्यस्मयन्तापरे जनाः॥५१
नृत्यतो रथमार्गेषु धनुर्व्यायच्छतस्तदा।
न कश्चित् तत्र पार्थस्य ददर्शान्तरमण्वपि॥५२
हस्तिनं293 हस्तियन्तारम् अश्वमश्वप्रयायिनम्।
अभिनत् पाण्डवो बाणैरथिनं च ससारथिम्॥५३
आवर्तमानमावृत्तं युध्यमानं च पाण्डवः।
प्रमुखे वर्तमानं च न कञ्चिन्न हिनस्ति सः॥५४
यथोदयानस्समये सूर्यो हन्ति महन् तमः।
तथाऽर्जुनो महानीकं व्यधमत् कङ्कपत्रिभिः॥४४
हस्तिभिः पतितैर्भिन्नैस्तव सैन्यमदृश्यत।
आदिकाले यथा भूमिर् विनिक्षिप्तमहीधरा॥५६
यथा मध्यंदिने सूर्यो दुष्प्रेक्ष्यः प्राणिभिस्सदा295।
तथा धनञ्जयः क्रुद्धो दुष्प्रेक्ष्यो युधि शत्रुभिः॥५७
तत् तथा तव पुत्रस्य सैन्यं युधि परन्तप।
प्रहृतं द्रुतमाविग्नम् अतीव शरपीडितम्॥५८
मारुतेनेव महता मेघानीकमुदीरितम्।
प्रकाल्यमानं तत् सैन्यं न शक्नोति स्म चेष्टितुम्॥५९
प्रतोदैश्चापकोटीभिः फीट्कारैस्साधुवादितैः।
कशापार्ष्ण्यभिघातैश्च वाग्भिरुग्राभिरेव च॥६०
चोदयन्तो हयांस्तूर्णं पलायन्ते स्म तावकाः।
सादिनो रथिनश्चैव पत्तयश्चार्जुनार्दिताः॥६१
पार्ष्ण्यङ्गुष्ठाङ्कुशैर्नागं चोदयन्तस्तथाऽपरे।
शरैस्सम्मोहिताश्चान्ये तमेवाभिमुखा ययुः॥६२
तव योधा महोत्साहा विभ्रान्तमनसस्तदा॥६२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि एकोनाशीतितमोऽध्यायः॥७९॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वण तृतीयोऽध्यायः॥३॥
[अस्मिन्नध्याये ६२॥ श्लोकाः]
॥अशीतितमोऽध्यायः॥
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अर्जुनेन दुश्शासनपराजयः॥१॥अर्जुनस्य व्यूहमुखस्थेन द्रोणेन कञ्चित्कालं युद्ध्वातमपहाय न्यूहप्रवेशः॥२॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1707551711क.png"/>
धृतराष्ट्रः—
तस्मिन् प्रभन्ने सैन्याग्रे हन्यमाने किरीटिना।
को नु तत्रार्जुनं युद्धे वीरः प्रत्युदियाद्रथी॥१
आहोस्विच्छकटव्यूहं प्रविष्टा मोघनिश्चयाः।
द्रोणमाश्रित्य तिष्ठन्ति प्राकारमकुतोभयाः॥२
सञ्जयः—
तथाऽर्जुनेन सम्भग्ने तस्मिंस्तव महाबले।
हतवीरे हतोत्साहे पलायनकृतक्षणे॥३
पाकशासनिनाऽभीक्ष्णं वध्यमाने शरोत्तमैः।
न कश्चित् तत्र सङ्ग्रामे शशाकार्जुनमीक्षितुम्॥४
ततस्तु शतशो राजन् दृष्ट्वा सैन्यं तथागतम्।
दुरशासनो भृशं क्रुद्धो युद्धायार्जुनमभ्ययात्॥५
सकाञ्चनविचित्रेण कवचेन समावृतः।
जाम्बूनदशिरस्त्राणश् शूरस्तीव्रपराक्रमः॥६
नागानीकेन महता प्रसन्निव महीमिमाम्।
दुश्शासनो महाराज सव्यसाचिनमावृणोत्॥७
युवराजो बलश्लाघीपिङ्गलः प्रियदर्शनः।
स मुहूर्तं प्रतिभयो दारुणस्समपद्यत॥८
ह्रादेन गजघण्टानां ज्याक्षेपनिनदेन च।
शङ्खतूर्यप्रणादेन निनदेन च दन्तिनाम्॥९
द्यावापृथिव्योर्विवरं सान्तर्देशं समावृणोत्॥९
तान् दृष्ट्वाऽऽपततो नागान् शिक्षितैस्साधु चोदितान्।
गृहीतहस्तान् संरब्धान् सपक्षानिव पर्वतान्॥१०
सिंहनादेन महता नरसिंहो धनञ्जयः।
तस्याचलघनप्रख्यं पताकाशतसङ्कुलम्॥११
गजानीकममित्राणाम् अभितो व्यधमच्छरैः॥१२
महोर्मिणमिवोद्धूतं श्वसनेन महार्णवम्।
किरीटी तद्नवजानीकं प्राविशन्मकरो यथा॥१३
खमाश्रित इवादित्यः प्रतपन् युगसङ्क्षये।
ददृशे दिक्षु सर्वासु पार्थः परपुरञ्जयः॥१४
खुरशब्देन चाश्वानां नेमिशब्देन तेन च।
तेन चोत्क्रुष्टशब्देन ज्यानिनादेन तेन च॥१५
नानावादित्रशब्देन पाञ्चजन्यस्वनेन च।
देवदत्तस्य घोषेण गाण्डीवनिनदेन च॥१६
मन्द्रवगतरा नागा बभूवुकास्तचेतसः॥१६
शरव्रा तमये सत्रे वितते सव्यसाचिना।
ते गजास्समसीदन्त मग्नाः पङ्कार्णवेष्विव॥१७
युगपच्च समाविष्टैश् शरैर्गाण्डीवधन्वनः।
अनेकशतसाहस्रैर् द्रुमा मधुकरैरिव॥१८
पुङ्खावशिष्टैर्बहुभिश्शोणितोत्पीडवाहिनः।
आरावं परमं कृत्वा सपताकायुधध्वजाः॥१९
सोत्तरायुधिनः पेतुश्छिन्नपक्षा इवाद्रयः॥२०
अपरे दन्तवेष्टेषु कुम्भेष्वक्षिकरेषु च।
शरैस्समर्पिता नागाः क्रौञ्चवद्व्यनदन् मुहुः॥२१
गजस्कन्धगतानां च पुरुषाणां किरीटिना।
छिद्यन्ते चोत्तमाङ्गानि भल्लैस्सन्नतपर्वभिः॥२२
सकुण्डलानां पततां शिरसां पृथिवीतले।
पद्मानामिव सम्पातैः पार्थश्चक्रे निवेदनम्॥२३
यन्त्रबद्धा विकवचा व्यंसाश्च रुधिरोक्षिताः।
भ्रममाणेषु नागेषु मनुष्यास्तु ललम्बिरे॥२४
केचिदेकेन बाणेन सुमुक्तेन सुपत्रिणा।
द्वौ त्रयश्च विनिर्भिन्ना निपेतुः पृथिवीतले॥२५
अपरे मदसंरब्धा मातङ्गाः पर्वतोपमाः।
पेतुः पृथिव्यां निहता वज्ररुग्णा इवाचलाः॥२६
अतिविद्धाश्च नाराचैर् वमन्तो रुधिरं मुखैः।
सारोहा न्यपतन्नुर्व्यां द्रुमवन्त इवाचलाः॥२७
ततोऽर्जुनो भृशं क्रुद्धः प्रदहन्निव तेजसा।
ववर्ष शरवर्षाणि योधानामनिवर्तिनाम्॥२८
मौर्वीं धनुर्ध्वजं चैव युगमक्षमवस्करम्।
रथिनां कुट्टयामास भल्लैस्सन्नतपर्वभिः॥२९
न सन्दधानश्चापस्य न विमुञ्चन् न चोद्यमन्।
मण्डलेनैव धनुषा नित्यं पार्थस्स्म दृश्यते॥३०
अतिविद्धाश्च नाराचैर् वमन्तो रुधिरं मुखैः।
मुहूर्तान्न्यपतन्नन्ये296 वारणा वसुधातले॥३१
उत्थितान्यगणेयानि कबन्धानि समन्ततः।
अदृश्यन्त महाराज तस्मिन् परमसङ्कुले॥३२
सचापास्साङ्गुलित्राणास् सखड्गास्सगदा रणे।
अदृश्यन्त भुजाश्छिन्ना हेमाभरणभूषिताः॥३३
अवस्करैरधिष्ठानैर् ईषादण्डकबन्धुरैः।
चक्रैर्विमथितैरक्षैर् भग्नैश्चबहुधा युगैः॥३४
चर्मचापधरैश्चैव व्यवकीर्णैस्ततस्ततः।
स्रग्भिराभरणैर्वस्त्रैः पतितैश्च महाध्वजैः॥३५
निहतैर्वारणैरश्वैः क्षत्रियैश्च महाबलैः।
अदृश्यत297 मही तत्र दारुणाप्रियदर्शना॥३६
दुश्शासनबलं सर्वं वध्यमानं किरीटिना।
सम्प्राद्रवन्महाराज व्यथितं हतनायकम्॥३७
एवं बले द्रुते याति राजपुत्रं महारथम्।
विव्याध दशभिर्बाणैस् तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत्॥३८
अर्जुनः—
जीवितेन कथं गन्ता दुरुक्तं यावदद्य ते।
तद्वाक्यसदृशं कर्म कुरु त्वं यदि मन्यसे॥३९
सञ्जयः—
एवमुक्त्वा ततो राजन् पार्थः पार्थिवमर्दनः।
भृशं क्रुद्धो महाराज अविध्यत् तनयं तव॥४०
ततो दुश्शासनस्त्रस्तस् सहानीकश्शरार्दितः।
द्रोणं त्रातारमाकाङ्क्षञ्शकटव्यूहमभ्यगात्298॥४१
सञ्जयः—
दुश्शासनबलं हत्वा सव्यसाची परन्तपः।
सिन्धुराजं परीप्सन् वै द्रोणानीकमुपाद्रवत्॥४२
स तु द्रोणं समासाद्य व्यूहस्य प्रमुख स्थितम्।
कृताञ्जलिरिदं वाक्यं कृष्णस्यानुमतेऽब्रवीत्॥४३
अर्जुनः—
शिवेन ध्याहि मां ब्रह्मन् स्वस्ति चैव वदस्व मे।
तव प्रसादादिच्छामि प्रवेष्टुं दुर्भिदां चमूम्॥४४
भवान् पितृसमो मह्यं धर्मराजसमोऽपि च।
धौम्यकृष्णसमश्चैव सत्यमेतद्ब्रवीमि ते॥४५
अश्वत्थामा यथा तात रक्षणीयस्तवाऽनघ।
तथाऽहमपि ते रक्ष्यस् सदैव द्विजसत्तम॥४६
भवत्प्रसादादिच्छेयं सिन्धुराजानमाहवे।
निहन्तुं द्विपदां श्रेष्ठ प्रतिज्ञां रक्ष मे प्रभो॥४७
सञ्जयः—
एवमुक्तस्तदाऽऽचार्यःप्रत्युवाचार्जुनं स्मयन्॥४७
द्रोणः—
मामजित्वा न बीभत्सो शक्यं प्राप्तुं जयद्रथम्॥४८
सञ्जयः—
एतावदुक्त्वा तं द्रोणश् शरवर्षैरवाकिरत्।
सरथाश्वध्वजं बाणैः प्रहरन् सहसारथिम्॥४९
ततोऽर्जुनश्शरब्रातान् द्रोणस्यावार्य सायकैः।
द्रोणमभ्यर्दयद्बाणैर् घोररूपैर्महत्तरैः॥५०
विव्याध च रणे द्रोणम् अनुमान्य विशां पते।
क्षत्रधर्म समास्थाय नवभिस्सायकोत्तमैः॥५१
तस्येषूनिषुभिश्छित्त्वा द्रोणो विव्याध तावुभौ।
विषाग्निज्वलनप्रख्यैर् इषुभिः कृष्णपाण्डवौ॥४२
इयेष पाण्डवस्तस्य छेत्तुं बाणैश्शरासनम्॥५२
तस्य चिन्तयतस्त्वेव फल्गुनस्य महात्मनः।
द्रोणश्शरैरसम्भ्रान्तो ज्यां चिच्छेदाशु वीर्यवान्॥५३
विव्याध च हयानस्य ध्वजं सारथिमेव च।
अर्जुनं च शरैर्द्रोणस् स्मयमानोऽभ्यवाकिरत्॥५४
एतस्मिन्नन्तरे पार्थस् सज्यं कृत्वा महद्धनुः।
विशेषयिष्यन्नाचार्यं सर्वास्त्रविदुषां वरम्॥५५
गृहीत्वा षट्शतान्बाणान् मुमोचैकमिव द्रुतम्॥५६
पुनस्सप्तशतानन्यान् सहस्रं तिग्मतेजसः।
चिक्षेपायुतशश्चान्यांस्तेऽघ्नन् द्रोणस्य तां चमूम्॥५७
तैस्सम्यगस्तैर्बलिना कृतिना चित्रयोविना।
मनुष्यवाजिमातङ्गा विद्धाः पेतुर्गतासवः॥५८
विसूताश्वध्वजाः पेतुस् सञ्छिन्नायुधजीविताः।
रथिनो रथमुख्येभ्यस् सरथा बाणपीडिताः॥५९
चूर्णिताः क्षतसर्वाङ्गा वज्रानिलहुताशनैः।
तुल्यरूपा द्विपाः पेतुर् गिर्यग्राम्बुदवर्ष्मणः॥६०
पेतुरश्वसहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च।
हंसा हिमवतः पृष्ठे वारिविप्रहता इव॥६१
रथाश्वद्विपपत्त्योघास् सलिलौघा इवाद्भुताः।
युगान्तादित्यरश्म्याभैः पाण्डवस्य शरैर्हताः॥६२
तत् पाण्डवादित्यशरांशुजालं
कुरुप्रवीरान् युधि निष्टपन्तम्।
स द्रोणमेघश्शरवर्षवेगैः
प्रच्छादयन् मेघ इवार्करश्मीन्॥६३
अथात्यर्थं विसृष्टेन द्विषतामसुभोजिना।
वक्षस्यभ्याहनद्द्रोणो नाराचेन धनञ्जयम्॥६४
स विह्वलितसर्वाङ्गः क्षितिकम्पे यथाऽचलः।
धैर्यमास्थाय बीभत्सुर् द्रोणं विव्याध सप्तभिः॥६५
द्रोणस्तु पञ्चभिर्बाणैर् वासुदेवमताडयत्।
अर्जुनं च त्रिसप्तत्या ध्वजं चास्य त्रिभिश्शरैः॥६६
विशेषयिष्यञ् शिष्यं च द्रोणो राजन् पराक्रमी।
अदृश्यमर्जुनं चक्रे निमेषाच्छरवृष्टिभिः॥६७
प्रसक्तान् गच्छतोऽपश्यन् भारद्वाजस्य सायकान्।
मण्डलीकृतमेवास्य धनुश्चादृश्यताद्भुतम्॥६८
तेऽभ्ययुस्समरे राजन् वासुदेवधनञ्जयौ।
द्रोणसृष्टास्सुबहवः कङ्कपत्रपरिच्छदाः॥६९
तत्राद्भुतमपश्याम शिलानामिव सर्पणम्।
यद्द्रोणं तरसा पार्थो वृद्धं बालोऽपि नातरत्॥७०
चिन्तयामास वार्ष्णेयो दृष्ट्वा द्रोणस्य विक्रमम्।
नातिवर्तिष्यते ह्येनं वेलामिव महार्णवः॥७१
ततः पार्थं समुद्विग्नं लक्ष्य चिन्तयतेऽच्युतः।
द्रोणस्य चापि विक्रान्तं दृष्ट्वा मधुनिषूदनः॥७२
इत्यब्रवीद्वासुदेवो धनञ्जयमुदारधीः॥७२
श्रीभगवान्—
पार्थपार्थ महाबाहो न नः कालात्ययो भवेत्।
द्रोणमुत्सृज्य गच्छामो ब्राह्मणोऽसौ गतक्लमः॥७३
सञ्जयः—
तं पार्थश्चाब्रवीत् कृष्णं यथेष्टमिति केशवम्॥७४
ततः प्रदक्षिणं कृत्वा द्रोणं प्रायान्महाभुजः।
परिवृत्तश्च बीभत्सुर् गच्छन्नस्यञ् शिताञ् शरान्॥७५
ततोऽब्रवीत् स्मयन् द्रोणः क्वेदं पाण्डव गम्यते।
ननु नाम रणे शत्रून् अजित्वा त्वं प्रतिष्ठसे॥७६
अर्जुनः—
गुरुर्भवान्न मे शत्रुशू शिष्यः पुत्रसमोऽस्मि ते।
न चास्ति स पुमाल्ँलोके यस्त्वां क्रुद्धमभिद्रवेत्॥७७
सञ्जयः—
एवं ब्रुवाणो बीभत्सुर् जयद्रथवधोत्सुकः।
त्वरायुक्तो महाबाहुस् त्वत्सैन्यं ममुपाद्रवत्॥७८
तं चक्ररक्षौ पाञ्चाल्यौ युधामन्यूत्तमौजसौ।
अन्वयातां महात्मानौ विशन्तं तावकीं चमूम्॥७९
ततो जयो महाराज कृतवर्मा च सात्त्वनः।
काम्भोजश्च श्रुतायुश्च धनञ्जयमवारयन्॥८०
तेषां दशसहस्राणि रथानामनुयायिनाम्।
अभीषाहाश्शूरसेनाश्299 शिवयोऽथ वसातयः॥८१
मच्छिल्लिका300 लिलिन्ध्राश्च केकया मद्रकास्तथा।
नारायणाश्च गोपालाः काम्भोजानां च ये गणाः॥८२
कर्णेन विजिताः पूर्वं सङ्ग्रामे शूरसम्मताः।
भारद्वाजं पुरस्कृत्य हृष्टात्मानोऽर्जुनं प्रति॥८३
पुत्रशोकाभिसन्तप्तं क्रुद्धं मृत्युमिवान्तकम्।
त्यजन्तं तुमुले प्राणान् सन्नद्धं चित्रयोधिनम्॥८४
गाहमानमनीकानि मातङ्गमिव यूथपम्।
महेष्वासं पराक्रान्तं नरव्याघ्रमवारयन्॥८५
ततः प्रववृते युद्धं तुमुलं रोमहर्षणम्।
अन्योन्यं वै प्रार्थयतां योधानां जयगर्ध्निनाम्॥८६
जयद्रथवधप्रेप्सुम् आयान्तं पुरुषर्षमम्।
न्यवारयन्त सहिताः क्रिया व्याधिमिवोत्थितम्॥८७
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैद्यासिक्यां
द्रोणपर्वणि अशीतितमोऽध्यायः॥८०॥
॥६९॥जयद्रथवधपर्वणि चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
[अस्मिन्नधायाये ८० श्लोकाः]
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॥एकाशीतितमोऽध्यायः॥
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अर्जुनेन श्रुतायुधसुदक्षिणथोर्वधः॥
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सञ्जयः—
सन्निरुद्धस्तु तैः पार्थो महाबलपराक्रमैः।
द्रुतं समनुयातश्च द्रोणेन रथिनां वरः॥१
किरन्निपुगणांस्तीक्ष्णान् स्वरश्मीनिव भास्करः।
तापयामास तत् सैन्यं देहं व्याधी रुजन्निव॥२
अश्वो विद्धो रथो विद्धस् सारोहःपातितो गजः।
छत्राणि चापविद्धानि रथाश्चकैर्विनाकृताः॥३
विद्रुतानि च सैन्यानि शरार्तानि301 समन्ततः।
इत्यासीत् तुमुलं युद्धं न प्राज्ञायत किञ्चन॥४
तेषामायच्छतां सङ्ख्ये परं पारमिवेच्छताम्।
अर्जुनो ध्वजिनीं राजन्नभीक्ष्णं समकम्पयत्॥५
सत्यां चिकीर्षमाणस्तु प्रतिज्ञां सत्यसङ्गरः।
अभ्यद्रवद्रथश्रेष्ठं शोणाश्वंश्वेतवाहनः॥६
तं द्रोणः पञ्चविंशत्या मर्मज्ञो मर्मभेदिभिः।
अन्तेवासिनमाचार्यः पाण्डवं समपीडयन्॥७
तं तु तूर्णतरं पार्थो द्रोणं शस्त्रभृतां वरम्।
अभ्यधावदिपूनस्यन्निपुवेगविघातकान्॥८
तस्याशु क्षिपतो भल्लान् भल्लैस्सन्नतपर्वभिः।
प्रत्यविध्यत् स्मयन् द्रोणो ब्राह्ममन्त्रमुदीरयन्॥९
तदद्भुतमपश्याम द्रोणस्याचार्यकं युधि।
यतमानो युवा नैनं प्रत्यविध्यद्यदर्जुनः॥१०
क्षरन्निव महामेघो वारिधारास्सहस्रशः।
द्रोणमेघः पार्थशैलं ववर्ष शरवृष्टिभिः॥११
अर्जुनश्शरवर्षं तच् छरवर्षेण वीर्यवान्।
अवारयदसम्भ्रान्तो न त्वाचार्यमपीडयत्॥१२
द्रोणस्तु पञ्चविंशत्या श्वेतवाहनमर्दयत्।
वासुदेवं च सप्तत्या बाह्वोरुरसि चाशुगैः॥१३
पार्थस्तु प्रहसन् धीमान् आचार्यं स शरौघिणम्।
क्षपयन् वा यथाशक्त्या न स्म वारयते युधि॥१४
अथ तौ वध्यमानौ तु द्रोणेन रथिसत्तमौ।
अवर्जयेतां दुर्धर्षौयुगान्ताग्निमिवोल्बणम्॥१५
वर्जयन्निशितान् बाणान् द्रोणचापविनिस्सृतान्।
किरीटमाली त्वरितो भोजानीकमथाविशत्॥१६
सोऽन्तरा कृतवर्माणं काम्भोजं च सुदक्षिणम्।
अभ्ययाद्वर्जयन्द्रोणं मैनाकमिव302 पर्वतम्॥१७
ततो भोजो नरव्याघ्रं दुर्धर्षं कुरुसत्तमम्।
अविध्यत् तूर्णमव्यग्रोदशभिः कङ्कपत्रिभिः॥१८
तमर्जुनश्शितेनाजौ303 राजन् विव्याध पत्रिणा।
पुनर्बाणैस्त्रिभिश्चान्यैर् मोहयन्निव सात्त्वतम्॥१९
भोजस्तु प्रहसन पार्थं वासुदेवं च माधवम्।
एकैकं पञ्चविंशत्या सायकानां समर्पयत्॥२०
तस्यार्जुनो धनुश्छित्त्वा विव्याधैनं त्रिसप्तभिः।
शरैरग्निशिखाकारैस् सङ्क्रुद्धाशीविषोपमैः॥२१
अथान्यद्धनुरादाय304 कृतवर्मा महाबलः।
पञ्चभिस्सायकैस्तूर्णं विव्याधोरसि भारत॥२२
पुनश्च निशितैर्बाणैः पार्थं विव्याध पञ्चभिः॥२२॥
तं पार्थो नवभिर्बाणैर् आजघान स्तनान्तरे॥२३
विषक्तं दृश्य कौन्तेयं कृतवर्मरथं प्रति।
चिन्तयामास वार्ष्णेयो न नः कालात्ययो भवेत्॥२४
ततः कृष्णोऽब्रवीत् पार्थं कृतवर्माणि मा दयाम्।
कार्पीस्सम्बन्धकं कृत्वा प्रमथ्यैनं व्रजाहितान्॥२५
ततस्स कृतवर्माणं मोहयित्वाऽर्जुनश्शरैः।
अभ्ययाज्जवनैरश्वैः काम्भोजानामनीकिनीम्॥२६
अमर्पितस्तु हार्दिक्यः प्रविष्टे श्वेतवाहने।
विधून्वन् सशरं चापं पाञ्चालाभ्यां समागतः॥२७
चक्ररक्षौ तु पाञ्चाल्यावर्जुनस्य पदानुगौ।
पर्यवारयदायान्तौ कृतवर्मा रथेषुभिः॥२८
तावविध्यत् ततो भोजस् सर्वपारशवैश्शरैः।
त्रिभिरेव युधामन्युं चतुर्भिश्चोत्तमौजसम्॥२९
तावप्येनं विव्यधतुर् दशमिर्दशभिश्शरैः।
सञ्चिच्छिदतुरप्यस्य ध्वजं कार्मुकमेव च॥३०
अथान्यद्धनुरादाय हार्दिक्यः क्रोधमूर्च्छितः।
कृत्वा विधनुषौ वीरौ शरवर्षैरवाकिरत्॥३१
तावन्ये धनुषी सज्ये कृत्वा भोजं विदेरतुः।
तेनान्तरेण बीभत्सुर् विवेशामित्रवाहिनीम्॥३२
न लेभाते तुतौ द्वारं वारितौ कृतवर्मणा।
धार्तराष्ट्रेष्वनीकेषु यतमानौ महारथौ॥३३
अनीकानि तु संमृदंस् त्वरितरश्वेतवाहनः।
नावधीत् कृतवर्माणं प्राप्य चारिनिषूदनः॥३४
तं तु दृष्ट्वा तथाऽऽयान्तं शूरो राजा श्रुतायुधः।
अभ्यद्रवन् सुसङ्क्रुद्धो विधून्वानो महद्धनुः॥३५
स पार्थ त्रिभिरानर्च्छत् सप्तत्या च जनार्दनम्।
क्षुरप्रणे सुतीक्ष्णेन पार्थकेतुमताडयत्॥३६
तमर्जुनो नवत्या तु शराणां नतपर्वणाम्।
आजघान भृशं क्रुद्धस्तोत्रैरिव महाद्विपम्॥३७
स तन्न ममृषे राजा पाण्डवेयस्य विक्रमम्।
अथैनं सप्तसप्तत्या नाराचानां समर्पयत्॥३८
तस्यार्जुनो धनुश्छित्त्वा शरावापं च मारिष।
आजघानोरसि क्रुद्धस् सप्तभिर्नतपर्वभिः॥३९
अथान्यद्धनुरादाय स राजा क्रोधमूर्च्छितः।
वासविं नवभिर्बाणैर् बाह्वोरुरसि चार्पयत्॥४०
ततोऽर्जुनस्स्मयन्नेव श्रुतायुधमरिन्दमम्।
शरैरनेकसाहस्रैः पोथयामास भारत॥४१
अश्वांश्चास्यावधीत्305 तूर्णं सारथिं च महाबलः।
विव्याध चैनं सप्तत्या नाराचानां महाबलः॥४२
हताश्वं रथमुत्सृज्य स तु राजा श्रुतायुधः।
अभ्यद्रवद्रणे305 पार्थं गदामुद्यम्य वीर्यवान्॥४३
वरुणस्यात्मजो वीरस् स तु राजा श्रुतायुधः।
बेण्णा सा जननी यस्य शीततोया महानदी॥४४
तस्य माताऽब्रवीद्राजन् वरुणं पुत्रकारणात्॥४४॥
बेण्णा—
अवध्योऽयं भवेल्लोके शत्रूणां तनयो मम॥४५
सञ्जयः—
वरुणस्त्वब्रवीत् प्रीतो ददाम्यस्मै वरं हितम्।
दिव्यमस्त्रं सुतस्तेऽयं येनावध्यो भविष्यति॥४६
नास्ति चाप्यमरत्वं वै मानुष्यस्य कथञ्चन।
सर्वेणावश्यमर्तव्यं जातेन सरितां वरे॥४७
दुर्धर्षस्त्वेष शत्रूणां रणेषु भविता सदा।
अस्त्रस्यास्य प्रभावेन व्येतु ते मानसो ज्वरः॥४८
इत्युक्त्वा वरुणः प्रादाद्गदां मन्त्रपुरस्कृताम्।
यामासाद्य दुराधर्षस् सर्वलोके श्रुतायुधः॥४९
उवाच चैनं भगवान् पुनरेव जलेश्वरः।
अयुध्यति न मोक्तव्या त्वय्येव निपतेदिति॥५०
न चाकरोत् स तद्वाक्यं काले प्राप्ते श्रुतायुधः।
स306 तया वीरघातिन्या जनार्दनमताडयत्॥५१
प्रतिजग्राह तां कृष्णः पीनेनांसेन वीर्यवान्।
नाकम्पयत शौरिं सा विन्ध्यं गिरिमिवाचलम्॥५२
ततोऽर्जुनः क्षुरप्राभ्यां भुजौ परिघसन्निभौ।
विव्याध पाण्डवश्शीघ्रं जलेश्वरसुतस्य वै॥५३
सा ज्वलन्ती महोल्केव समासाद्य जनार्दनम्।
प्रत्यागता महावेगा कृत्येव दुरघिष्ठिता॥५४
जघान च स्थितं सङ्ख्ये श्रुतायुधममर्षणम्॥५४॥
स पपात हतो भूमौ विशिरा विभुजो बली।
सम्भग्न इव वातेन बहुशाखो वनस्पतिः॥५५॥
सा विस्फुरन्ती ज्वलिता वज्रवेगसमा गदा।
हत्वा श्रुतायुधं भीमा जगतीमन्वपद्यत॥५६॥
हाहाकारो महानासीत् सैन्यानां तव भारत।
स्वेनास्त्रेण हतं दृष्ट्वा श्रुतायुधममर्षणम्॥५७॥
अयुध्यमानाय हि सा केशवाय नराधिप।
क्षिप्ता श्रुतायुधेनाथ तस्मात् तमवधीद्गदा॥५८॥
यथोक्तं वरुणेनाजौ तथा स निधनं गतः।
व्युसुश्चाप्यपतद्भूमौ पश्यतां सर्वधन्विनाम्॥५९॥
पतमानस्स विबभौ वेण्णायास्सुप्रियस्सुतः।
सम्भग्न307इव वातेन बहुशाखो वनस्पतिः॥६०॥
ततस्सर्वाणि सैन्यानि सैन्यमुख्याश्चसर्वशः।
प्राद्रवन्त हतं दृष्ट्वा श्रुतायुधमरिन्दमम्॥६१॥
ततः काम्भोजराजस्य पुत्रो वीरस्सुदक्षिणः।
अभ्ययाज्जवनैरश्वैः308 फल्गुनं शत्रुसूदनम्॥६२॥
तस्य पार्थश्शरान् सप्त प्रेषयामास भारत।
ते तं वीरं विनिर्भिद्य प्राविशन् धरणीतलम्॥६३॥
सोऽतिविद्धश्शरैरुग्रैर् गाण्डीवप्रेषितैर्मृधे।
अर्जुनं प्रतिविव्याध दशभिः कङ्कपत्रिभिः॥६४॥
वासुदेवं त्रिभिर्विद्ध्वा पुनः पार्थं च पञ्चभिः॥६५
तस्य पार्थो धनुश्छित्त्वा केतुं चिच्छेद मारिष।
भल्लाभ्यां पृथुतीक्ष्णाभ्यां तं च विव्याध पाण्डवः॥६६
स तु पार्थं त्रिभिर्विद्ध्वा सिंहनादमथानदत् ॥६६॥
सर्वपारशवीं चैव शक्तिं शूरस्सुदक्षिणः।
सघण्टां प्राहिणोद्धोरां क्रुद्धो गाण्डीवधन्वने॥६७॥
सा ज्वलन्ती महोल्केव समासाद्य महारथम्।
सविष्फुलिङ्गा निर्भिद्य निपपात महीतले॥६८॥
तं चतुर्दशभिः पार्थो नाराचैः कङ्कपत्रिभिः।
साश्वध्वजधनुस्सूतं विव्याधाचिन्त्य309विक्रमः॥६९॥
रथं चान्यैस्सुबहुभिश्चक्रे विशकलं शरैः310॥७०
सुदक्षिणं च काम्भोजं मोघसङ्कल्पविक्रमम्।
बिभेद हृदि बाणेन पृथुधारेण पाण्डवः॥७१
स भिन्नवर्मा स्रस्ताङ्गः प्रभ्रष्टमकुटाङ्गदः।
पपाताभिमुखश्शूरो मुक्तयन्त्र इव ध्वजः॥७२
गिरेश्शिखरजश्श्रीमान् सुशाखस्सुप्रतिष्ठितः।
सम्भग्न इव वातेन कर्णिकारो हिमात्यये॥७३
विकीर्णः पतितो राजा प्रसार्य विपुलौ भुजौ।
धारयन्नग्निसङ्काशां शिरसा काञ्चनीं स्रजम्॥७४
शेते विनिहतो भूमौ काम्भोजस्तरुणो विभुः।
सुदर्शनीयस्ताम्राक्षो भिन्नो हिमगिरिर्यथा॥७५
पुत्रः काम्भोजराजस्य श्रीमान् पार्थेन पातितः।
शोचयन् सर्वभूतानि केशवं च सहार्जुनम्॥७६
ततस्सैन्यानि सर्वाणि व्यद्रवन्त सुतस्य ते।
हतं श्रुतायुधं दृष्ट्वा काम्भोजं च सुदक्षिणम्॥७७
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि एकाशीतितमोऽध्यायः॥८१॥
॥६९॥जयद्रथवधपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
[अस्मिन्नध्याये ७७ श्लोका]ः ]
॥द्व्यशीतितमोऽध्यायः॥
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अर्जुन श्रुतायुप्रभृतीनां वधः॥
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सञ्जयः—
सुदक्षिणे हते राजन् वीरे चैव श्रुतायुधे।
जवेनाभ्यद्रवन् पार्थं कुपितास्सैनिकास्तव॥१
अभीषहाश्शूरसेनाश् शिबयोऽथ वसातयः।
अभ्यवर्षंस्ततो राजञ् शरवर्षैर्धनञ्जयम्॥२
तेषां षष्टिशतान् वर्यान् अहनत् पाण्डवश्शरैः।
ते स्म भीताः पलायन्ते सिंहेनेवार्दिता311गजाः॥३
ते निवृत्य पुनः पार्थं सर्वतः पर्यवारयन्।
रणे सपत्नान् निघ्नन्तं वज्रहस्तमिवासुराः॥४
तेषामापततां तूर्णं गाण्डीवप्रेषितैश्शरैः।
उच्चकर्त शिरांस्युग्रो नालेभ्य इव पङ्कजान्॥५
शिरोभिः प्रपतद्भिस्तैर् अन्तरिक्षं समावृतम्।
अभ्रच्छायेव तत्रासीद् ध्वाङ्ङ्क्षगृध्रबलैः पुनः॥६
तेषु तूत्साद्यमानेषु क्रोधामर्षसमन्वितौ।
श्रुतायुश्चाश्रुतायुश्च धनञ्जयमयुध्यताम्॥७
श्लाघिनौ स्पर्धिनौवीरौ कुलजौ बाहुशालिनौ।
तावेनं शरवर्षाभ्यां सव्यदक्षिणमस्यताम्॥८
त्वरायुक्तौ महराज प्रार्थयन्तौ महद्यशः।
अर्जुनस्य वधप्रेप्सू पुत्रार्थे तव धन्विनौ॥९
तावर्जुनं सहस्रेण शराणां नतपर्वणाम्।
पूरयामासतुः क्रुद्धौ तटाकं जलदो यथा॥१०
श्रुतायुस्तु ततः क्रुद्धस् तोमरेण धनञ्जयम्।
आजघान सुतीक्ष्णेन पीतेन निशितेन च॥११
सोऽतिविद्धो बलवता शत्रुणा शत्रुकर्शनः।
जगाम परमं मोहं मोहयन् केशवं रणे॥१२
एतस्मिन्नेव काले तु अश्रुतायुर्महाबलः।
शूलेन भृशतीक्ष्णेन ताडयामास पाण्डवम्॥१३
क्षते क्षारं हि स ददौ पाण्डवस्य रणाजिरे।
पार्थोऽपि भृशमाविद्धो ध्वजयष्टिमशिश्रियत्॥१४
ततस्सर्वस्य सैन्यस्य तावकस्य विशां पते।
सिंहनादो महानासीद्धतं मत्वा धनञ्जयम्॥१५
कृष्णश्च भृशसन्तप्तो दृष्ट्वा पार्थं विचेतसम्।
आश्वासयत हृद्याभिर्वाग्भिस्तत्र धनञ्जयम्॥१६
ततस्तौ312रथिनां श्रेष्ठौ लब्धलक्षौ धनञ्जयम्।
वासुदेवं च वार्ष्णेयं शरवर्षैस्समन्ततः॥१७
सचक्रकूबरं साश्वं सध्वजं स पताकिनम्।
अदृश्यं चक्रतुर्युद्धे तदद्भुतमिवाभवत्॥१८
प्रत्याश्वस्तस्तु बीभत्सुश् शनकैरिव भारत।
प्रेतराजपुरं प्राप्य पुनः प्रत्यागतो यथा॥१९
सञ्छन्नं शरजालेन रथं दृष्ट्वा सकेशवम्।
शत्रू च प्रमुखे दृष्ट्वा दीप्यमानाविवानलौ॥२०
प्रादुश्चके ततः पार्थ ऐन्द्रमस्त्रं महारथः।
तस्मादासन् सहस्राणि शराणां नतपर्वणाम्॥२१
हत्वा तु तौ महेष्वासौ ताभ्यां सृष्टांश्च सायकान्।
विचेरुराकाशगताः पार्थचापविनिस्सृताः॥२२
प्रतिहत्य शरांस्तूर्णं शरवेगेन पाण्डवः।
प्रतस्थे तत्र तत्रैव योधयन् वै महारथान्॥२३
तौ च फल्गुनबाणौघैर् विबाहुशिरसौ कृतौ।
वसुधामन्वपद्येतां वातनुन्नाविव द्रुमौ॥२४
श्रुतायुषश्च निधनं वधश्चैवाश्रुतायुषः।
लोकविस्मापनमभूत् समुद्रस्येव शोषणम्॥२५
तयोः पदानुगान् हत्वा पुनः पञ्चशतान् रथान्।
अत्यगाद्भारतीं सेनां निघ्नन्पार्थो स्थान् वरान्॥ २६
श्रुतायुषश्च निधनं प्रेक्ष्य चैवाश्रुतायुषः।
नियुतायुर्हि सङ्क्रुद्धो दीर्घायुश्चैव भारत॥२७
पुत्रौ तयोरथ श्रेष्ठौ तौ प्रधावतुरर्जुनम्।
किरन्तौ विविधान् बाणान् पितुर्व्यसनकर्शितौ॥२८
तावर्जुनो मुहूर्तेन शरैस्सन्नतपर्वभिः।
अप्रेषयत् सुसङ्क्रुद्धो यमस्य सदनं प्रति॥२९
लोडयन्तमनीकानि द्विपं पद्मसरो यथा।
नाशक्नुवन् धारयितुं पार्थं क्षत्रियपुङ्गवाः॥३०
अङ्गास्तु गजसङ्घैश्च पाण्डवं प्रत्यवारयन्।
क्रुद्धास्सहस्रशो म्लेच्छाश् शिक्षिता हस्तिसादिनः ॥३१
दुर्योधनसमादिष्टाः कुञ्जरैः पर्वतोपमैः।
प्राच्याश्च दाक्षिणात्याश्च कलिङ्गप्रमुखा गणाः ॥३२
तेषामापततां शीघ्रं गाण्डीवप्रेषितैश्शरैः।
निचकर्त शिरांस्युग्रैःबाहूनपि च सायुधान् ॥३३
तैश्शिरोभिर्मही कीर्णा बाहुभिश्च सहाङ्गदैः।
बभौ कनकपाषाणैर् उरगैरिव चावृता ॥३४
बाहवो विशिखैछिन्नाश् शिरांस्युन्मथितानि च।
च्यवमानान्यदृश्यन्त द्रुमेभ्य इव पक्षिणः॥३५
शरैस्सहस्रशो विद्धा द्विपाः प्रस्रुतशोणिताः।
व्यदृश्यन्ताद्रयः काले गैरिकप्रस्रुता इव ॥३६
निहताश्शेरते स्मान्ये बीभत्सोर्निशितैश्शरैः।
गजपृष्ठगता म्लेच्छा नानाविकृतदर्शनाः ॥३७
नानावेषधरा राजन् नानाशस्त्रौघसंवृताः।
रुधिरेणानुलिप्ताङ्गा भान्ति चित्रैश्शरैर्हताः॥३८
शोणितं निर्वमन्तश्च द्विपाः पार्थशराहताः।
सहस्रशश्छिन्नगात्रास् सारोहास्सपदानुगाः॥३९
चुक्रुशुश्च निषेदुश्च बभ्रुमुश्चापरे दिशः।
भृशं त्रस्ताश्च बहवस् स्वानेव ममृदुर्गजाः॥४०
सोत्तरायुधिनश्चैव313 ये चान्ये तीक्ष्णसम्मताः।
वसन्त्यसुरमाया ये सुघोरा घोरचक्षुषः॥४१
यवनाः पारदाश्चैव शकाश्चैव सहस्रशः।
गोयोनिप्रभवा म्लेच्छाः कालकल्पाः प्रहारिणः ॥४२
ऊर्वाभिसारा दरदाः गरदाश्च सबाह्लिकाः।
ते न शक्यास्समाख्यातुं वृताश्शतसहस्रशः॥४३
तेषां वृष्टिस्तथाऽप्यासीच् छलभानामिवायतिः॥४३
अभ्रच्छायामिव शरैस् सद्यः कृत्वा धनञ्जयः ।
मुण्डार्धमुण्डाञ्जटिलान् अशुचीन् नीलवाससः॥४४
म्लेच्छानशातयत् पार्थःपिशाचानस्त्रमायया॥४५
शरैस्तु शतशो विद्धास् ते सङ्घास्सङ्गचारिणः।
प्राद्रवन्त रणे भीता गिरिगह्वरवासिनः॥४६
गजाश्वसादिनो म्लेच्छाः पत्तयश्च शरैर्हताः।
वलकङ्कवृकैः पीता वमन्तो रुधिरं हताः॥४७
पत्त्यश्वरथनागैश्च प्रच्छन्नां रथसङ्कुलाम्।
शरवर्षप्लवां घोरां केशशैवलशाद्वलाम् ॥४८
प्रावर्तयन्नदीमुग्रां शोणितौघतरङ्गिणीम्।
शिरस्त्राणक्षुद्रमत्स्यां युगान्ते कालसम्मिताम् ॥४९
अकरोद्गजसम्बाधां नदीमुत्तरशोणिताम्।
देहेभ्यो राजपुत्राणां नागाश्वरथसादिनाम् ॥५०
यथा314 स्थलं वा निम्नं वा न स्याद्वर्षति वासवे।
तथाऽऽसीदाप्लुता धात्री रुधिरेण विशां पते ॥५१
षट्सहस्रान् वरान् वीरान् पुनर्देशशतान् वरान्।
प्राहिणोन्मृत्युलोकाय क्षत्रियान् क्षत्रियर्षभः ॥५२
शरैस्सहस्रशो विद्धा विधिवत् कल्पिता द्विपाः ।
शेरते भूमिमासाद्य शैला वज्रहता इव ॥५३
स वाजिरथमातङ्गान् निघ्नन् व्यचरदर्जुनः।
प्रभिन्न इव मातङ्गो निघ्नन् नलवनं महत्॥५४
भूरिद्रुमलतागुल्मं शुष्केन्धनतृणोच्चयम्।
निर्दहेदनलोऽरण्यं यथा वायुसमीरितः ॥५५
सेनारण्यं तव तथा कृष्णानिलसमीरितः।
शरार्चिरदहत् क्रुद्धः पाण्डवोऽग्निर्धनञ्जयः ॥४६
शून्यान्315 कुर्वन् रथोपस्थान् निघ्नन् पत्त्यश्वकुञ्जरान्।
अनृत्यदिव सम्बाधे चापहस्तो धनञ्जयः ॥५७
वज्रकल्पैश्शरैर्भूमिं कुर्वन्नुत्तरशोणिताम् ॥५७
ततः प्रावर्तत नदी शोणितस्य तरङ्गिणी।
नराश्वद्विपकायेभ्यः पर्वतेभ्य इवापगा ॥५८
अस्थिशर्करसम्बाधा ध्वजवृक्षा रथह्रदा।
सञ्छिन्नशीर्षपाषाणा हस्तिहस्तमहा ग्रहा॥५९
मांसमज्जास्थिपङ्काढ्या हताश्वमकराकुला।
योधगोमायुसङ्कीर्णा316 कबन्धशतसङ्कुला॥६०
उष्णीषफेनसञ्छन्ना शरघोरझषाकुला॥६१
रुद्रस्याक्रीडसदृशीं भूमिं कुर्वन् विभीषणाम्।
प्राविशद्भारतीं सेनां सङ्क्रुद्धो वै धनञ्जयः॥६२
तं श्रुतायुस्तथाऽम्बष्ठस् त्वरमाणोऽभ्यवारयत्॥६२
तस्यार्जुनश्शरैस्तीक्ष्णैः कङ्कपत्रपरिच्छदैः।
न्यपातयद्धयाञ्317 शीघ्रं यतमानस्य मारिष॥६३
धनुश्चास्यापरैश्छित्त्वा शरैः पार्थो व्यतिक्रमत्॥६४
अम्बष्ठस्तु गदां गृह्य क्रोधपर्याकुलेक्षणः।
आससाद रणे पार्थं केशवं च महारथम्॥६५
ततस्स प्रहसन् वीरो गदामुद्यम्य भारत।
रथमालम्ब्य गदया केशवं समताडयत्॥६६
गया ताडितं दृष्ट्वा केशवं परवीरहा।
अर्जुनो भृशसङ्क्रुद्धस् त्वम्बष्ठं प्रति भारत॥६७
शरैरनेकसाहस्रैस् सगदं गदिनां वरम्।
छादयामास समरे मेघस्सूर्यमिवोदितम्॥६८
तथाऽपरैश्शरैश्चापि गदां तस्य महात्मनः।
अचूर्णयत् तदा पार्थस् तदद्भुतमिवाभवत्॥६९
अथ तां पतितां दृष्ट्वागृह्यान्यां महतीं गदाम्।
अर्जुनं वासुदेवं च पुनः पुनरताडयत्॥७०
वासविस्तु क्षुरप्राभ्यां सगदावुद्यतौ भुजौ।
चिच्छेदेन्द्रध्वजाकारौ शिरश्चान्येन पत्रिणा॥७१
स पपात हतो राजन् वसुधामनुनादयन्।
इन्द्रध्वज इवोत्सृष्टो यन्त्रनिर्मुक्तबन्धनः॥७२
अम्बष्ठे तु तदा भग्ने तव सैन्यमभज्यत॥७२
रथानीकावगाढं च वारणाश्वनरैर्वृतम्।
आददानं शरैः प्राणान् गजाश्वनरसादिनाम्॥
नान्वपश्याम बीभत्सुं घनैस्सूर्यमिवावृतम्॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि द्य्वशीतितमोऽध्यायः॥८२॥
॥६९॥जयद्रथवधपर्वणि षष्ठोऽध्यायः॥६॥
[अस्मिन्नध्याये ७४ श्लोकाः]
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॥त्र्यशीतितमोऽध्यायः॥
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अर्जुनाद्भितेन दुर्योधनेन द्रोणमेत्य तदुपालम्भपूर्वकं जयद्रथं प्रतिशोचनम्॥१॥द्रोणेन दुर्योधनस्यमन्त्रोच्चारणपूर्वकं कवचमाबध्यार्जुनेन सह युद्धाय प्रेषणम्॥२॥
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सञ्जयः—
ततः प्रविष्टे कौन्तेये सिन्धुराजजिघांसया।
द्रोणानीकं विनिर्भिद्य भोजानीकं सुदुस्तरम्॥१
काम्भोजस्य च दायादे हते राजन् सुदक्षिणे।
श्रुतायुषि च विक्रान्ते निहते सव्यसाचिना॥२
विद्रुतेष्वनीकेषु विध्वस्तेषु समन्ततः।
प्रभग्नं सर्वतो दृष्ट्वा पुत्रस्ते द्रोणमभ्ययात्॥३
त्वरन्नेकरथेनैव समेत्य द्रोणमब्रवीत्॥३
दुर्योधनः—
गतस्स पुरुषव्याघ्रः प्रमथ्येमां महाचमूम्॥४
तत्र कार्यं समीक्षस्व ब्रह्मन् निःश्रेयसं हितम्।
अर्जुनस्य विघाताय दारुणेऽस्मिञ्जनक्षये॥५
यथा स पुरुषव्याघ्र न हन्येत जयद्रथः।
तथा विधत्स्व भद्रं ते त्वं हि नः परमा गतिः॥६
असौ धनञ्जयाग्निर्हि कोपमारुतचोदितः।
सेनाकक्षं दहति नः कक्षमग्निरिवोत्थितः \।\।७
अतिक्रान्ते तु कौन्तेये तव सैन्यं परंतप।
जयद्रथस्य गोप्तारस् संशयं परमं गताः॥८
स्थिरा बुद्धिर्नरेन्द्राणाम् आसीद्बुद्धिमतां वर।
नातिक्रमिष्यति द्रोणं जातु जीवन् धनञ्जयः \।\।९
योऽसौ पार्थो ह्यतिक्रान्तो मिषतस्ते महाद्युते।
सर्वं ह्यद्यातुरं मन्ये नेदमस्ति बलं मम॥१०
जानामि त्वां महाभाग पाण्डवानां हिते रतम् \।
ततो मुह्यामि च ब्रह्मन् कार्यवत्तां विचिन्तयन्॥११
यथाशक्ति च ते ब्रह्मन् वर्तयन् वृत्तिमुत्तमाम्।
प्रीणामि च यथाशक्ति तच्च त्वं नावबुध्यसे॥१२
अस्मानपि सदा भक्तान् नेच्छसे शत्रुकर्शन।
पाण्डवान् सततं प्रीणास्यस्माकमहिते रतान्॥१३
न ह्यहं त्वां विजानामि वचसा318 ललितं सदा।
हृदयेन भृशं तीक्ष्णं मधुदिग्धमिव क्षुरम्॥१४
अस्मानेवोपजीवंस्त्वम्319 अस्माकं विप्रिये रतः।
नह्यहं320त्वां विजानामि सर्पं मण्डूकराविणम्॥१५
नादास्यच्चेद्वरं मह्यं भवान् पाण्डवनिग्रहे।
नावारयिष्यं गच्छन्तम् अहं सिन्धुपतिं गृहान्॥१६
मया त्वाशंसमानेन त्वत्तस्त्राणमबुद्धिना।
आश्वासितस्सिन्धुपतिर् मोहाद्दत्तश्च मृत्यवे॥१७
यमदंष्ट्रान्तरं प्राप्तो ह्यपि मुच्येत मानवः।
नार्जुनस्य वशं प्राप्तो मुच्येत हि जयद्रथः॥१८
स तथा कुरु शोणाश्व यथा मुच्येत सैन्धवः।
मम चार्तप्रलापानां मा क्रुधः पाहि सैन्धवम्॥१९
द्रोणः—
नाभ्यसूयामि ते वाक्यम् अश्वत्थाम्नाऽसि मे समः।
तथ्यं तु ते प्रवक्ष्यामि तज्जुषस्व विशां पते॥२०
सारथिः प्रवरः कृष्णश् शीघ्राश्चास्य हयोत्तमाः।
अल्पं च विवरं कृत्वा तूर्णं याति धनञ्जयः॥२१
किं न पश्यसि बाणौघान् क्रोशमात्रे किरीटिनः।
पश्चाद्रथस्य पतितान् क्षिप्ताञ् शीघ्रं हि गच्छतः॥२२
न चाहं शीघ्रयानेऽद्य समर्थो वयसाऽधिकः।
सेनामुखे च पार्थानाम् एतद्बलमुपस्थितम्॥२३
युधिष्ठिरश्च मे ग्राह्यो मिषतां सर्वधन्विनाम्।
एवं मया प्रतिज्ञातं क्षत्रमव्ये महाभुज॥२४
धनञ्जयेन चोत्सृष्टः प्रमुखे वर्तते मम।
तस्माद्व्यूहमुखं हित्वा नाहं यास्यामि फल्गुनम्॥२५
तुल्याभिजनकर्माणं शत्रुमेकं सहायवान्।
गत्वा योधय मा भैस्त्वं त्वं ह्यस्य जगतः पतिः॥२६
राजा शूरः कृती दक्षो वैरमुत्पाद्य पाण्डवैः।
वीरस्स्वयं प्रयाह्याशु यत्र यातो धनञ्जयः॥२७
दुर्योधनः—
कथं त्वामप्यतिक्रान्तस् सर्वशस्त्रभृतां वरम्321।
धनञ्जयो मया शक्य आचार्य प्रतियोधितुम्॥२८
अपि शक्यो रणे जेतुं वज्रहस्तः पुरंदरः।
नार्जुनस्समरे शक्यो जेतुमिच्छन् कथञ्चन॥२९
येन भोजश्च हार्दिक्यो भवांश्च त्रिदशोपमः।
शस्त्रप्रतापेन जितौ श्रुतायुश्च निबर्हितः॥३०
सुदक्षिणश्च निहतस् स च राजा श्रुतायुधः।
श्रुतायुश्चाश्रुतायुश्चम्लेच्छाश्चबहवो हताः॥३१
तं कथं पाण्डवं सङ्ख्ये दहन्तमहितान् बहून्।
प्रतियोत्स्यामि दुर्धर्षं तन्ममाचक्ष्व सत्तम॥३२
क्षमं चेन्मन्यसे युद्धं मम तेनाद्य शाधि माम्।
परवानस्मि भवतः प्रेष्यवद्रक्ष मे यशः॥३३
द्रोणः—
सत्यं वदसि कौरव्य दुराधर्षो धनञ्जयः।
अहं तु तत् करिष्यामि यथैनं प्रसहिष्यसि॥३४
अद्भुतं चाद्य पश्यन्तु लोके सर्वधनुर्धराः।
विषक्तं त्वयि कौन्तेयं वासुदेवस्य पश्यतः॥३५
एष ते कवचं राजंस् तथा बध्नामि काञ्चनम्।
यथा न बाणा नास्त्राणि प्रभविष्यन्ति322 ते रणे॥३६
यदि त्वा सासुरगणास् सयक्षोरगपक्षिणः।
योधयन्ति त्रयो लोकास् तरसा नास्ति ते भयम्॥३७
न कृष्णो न च कौन्तेयो न323 च रुद्रस्सनातनः।
शरमर्पयितुं शक्तः कवचे तव कौरव॥३८
स त्वं कवचमास्थाय क्रुद्धमद्य रणेऽर्जुनम्।
त्वरमाणस्स्वयं याहि न त्वाऽसौ विषहिष्यति॥३९
सञ्जयः-—
एवमुक्त्वा त्वरन् द्रोणस् स्पृष्ट्वाऽम्भो वर्म भास्वरम्।
आबबन्धाद्भुततमं जपन्324 मन्त्रं यथाविधि॥४०
रणाय महते राजन् विजयाय325 सुतस्य ते।
विसिष्मापयिषुर्लोकान् विद्यया ब्रह्मवित्तमः॥४१
द्रोणः—
करोतु स्वस्ति ते ब्रह्मा स्वस्ति कुर्वन्तु ब्राह्मणाः।
सरीसृपाश्च ये श्रेष्ठास् तेभ्यस्ते स्वस्ति भारत॥४२
ययातिर्नहुषश्चैव धुन्धुमारो भगीरथः।
तुभ्यं राजर्षयस्सर्वे स्वस्ति कुर्वन्तु सर्वतः॥४३
स्वस्ति तेऽस्त्वेकपादेभ्यो बहुपादेभ्य एव च।
स्वस्त्यस्त्वपादकेभ्यश्च नित्यं तव महारणे॥४४
स्वाहा स्वधा शची चैव स्वस्ति कुर्वन्तु ते सदा।
लक्ष्मीररुन्धती चैव कुर्यातां स्वस्ति तेऽनघ॥४५
असितो देवलश्चैव विश्वामित्रस्तथाऽङ्गिराः।
वसिष्ठः काश्यपश्चैव स्वस्ति कुर्वन्तु ते नृप॥४६
धाता विधाता लोकाश्च दिशश्च सदिगीश्वराः।
स्वस्ति तुभ्यं प्रयच्छन्तु कार्तिकेयश्च षण्मुखः॥४७
येन देवास्सकृद्भग्नास् सङ्ग्रामे तारकामये।
धृतास्स चाहतश्शूरो ह्यवध्यो देवतागणैः॥४८
विवस्वान् कुरुतां स्वस्ति तथा वैवस्वतो यमः।
पार्षदा वशगा यस्य स्वस्ति तुभ्यं प्रयच्छतु॥४९
दिशागजाश्च चत्वारः क्षितिः खं गगनं ग्रहाः।
दिशश्च326 विदिशश्चैव सिद्धा लोकहिते रताः॥५०
स्वस्ति कुर्वन्तु ते सत्यं मन्त्रेणानेन संस्तुताः॥५०
अधस्ताद्धरणीं योऽसौ सदा धारयते नृप।
स शेषः पन्नगश्रेष्ठस् स्वस्ति तुभ्यं प्रयच्छतु॥५१
गान्धारे327 युधि विक्रम्य निर्जिते पाकशासने।
पुरा वृत्रेण दैत्येन भिन्नदेहास्सहस्रशः॥५२
हृततेजोबलाश्शीघ्रम् ऊचुस्सेन्द्रा दिवौकसः।
ब्रह्माणं शरणं गत्वा वृत्राद्भीता महासुरात्॥४३
देवाः—
प्रमर्दितानां वृत्रेण देवानां देवसत्तम।
गतिर्भव सुरश्रेष्ठ पाहि नो महतो भयात्॥५४
द्रोणः—
अथ पार्श्वे स्थितं विष्णुं शक्रादींश्च तथा सुरान्।
ब्रह्मा पथ्यमिदं वाक्यं जगाद जगतां पतिः ॥५५
ब्रह्मा—
रक्ष्या हि सततं देवास् सहेन्द्रास्सद्विजातयः।
त्वष्टुस्सुदुर्धरं तेजस् तेन वृत्रो विनिर्मितः ॥५६
त्वष्ट्रा महत् तपस्तप्त्वा वर्षायुतशतं तदा।
वृत्रो विनिर्मितो देवाः प्राण्यानुज्ञां महेश्वरात् ॥५७
शङ्करस्य प्रसादाद्वै हन्याद्देवरिपुर्बली।
नागत्वा शङ्करस्थानं भगवान् दृश्यते हरः ॥५८
वृत्रं हनिष्यथ सुराः क्षिप्रं गच्छेम मन्दिरम्।
यत्रास्ते तपसां योनिर् यज्ञान्तकविनाशनः ॥५९
पिनाकी सर्वभूतेशो भगनेत्रनिपातनः ॥६०
द्रोणः—
तं देवास्सहिता गत्वा ब्रह्मणा सह मन्दिरम्।
अपश्यंस्तपसो राशिं सूर्यकोटिसमप्रभम् ॥६१
सोऽब्रवीत् स्वागतं देवा ब्रूत किं करवाण्यहम्।
अमोघं दर्शनं मह्यं कामप्राप्तिरतोऽस्तु वः॥६२
एवमुक्तास्तु ते सर्वे प्रत्यूचुस्तं दिवौकसः॥६२॥
देवाः—
हृतौजसां नो वृत्रेण गतिर्भव दिवौकसाम्।
मूर्तिमीक्षस्व नो देव प्रहारैर्जर्जरीकृताम्॥६३
शरणं त्वां प्रपन्नास्स्म गतिर्भव महेश्वर॥६४
ईश्वरः—
विदितं मे यथा देवाः कृत्येयं सुमहाबला।
त्वष्टुस्तेजोद्भवा घोरा दुर्निवार्याऽकृतात्मभिः॥६५
अवश्यं तु मया कार्यं साह्यं सर्वदिवौकसाम्॥६५॥
ममेदं गात्रजं शक्र कवचं गृह्य भास्वरम्।
बधानैनं तु मन्त्रेण मानसेन ममैव तु॥६६
द्रोणः—
इत्युक्त्वा वरदः प्रादाद्वर्म तन्मन्त्रमेव च।
स तेन वर्मणा गुप्तः प्रायाद्वृत्रचमूं प्रति॥६७
नानाविधैस्तु शस्त्रौघैः पात्यमानैस्सहस्रशः।
न सन्धिश्शक्यते भेत्तुं वर्मबन्धस्य तस्य तु॥६८
स तेन वर्मणा गुप्तो वृत्रं देवरिपुं तदा।
जघान समरेऽभीतश्शक्रोदेवाग्रणीस्तदा॥६९
स तन्मन्त्रमयं बन्धं वर्म चाङ्गिरसे ददौ॥७०
अङ्गिराश्चाह पुत्रस्य मन्त्रज्ञस्य बृहस्पतेः।
बृहस्पतिरथोवाच अग्निवेश्याय धीमते॥७१
अग्निवेश्यो मम प्रादात् तेन बध्नामि वर्म ते।
तवाद्य देहरक्षार्थं मन्त्रेण नृपसत्तम॥७२
सञ्जयः—
एवमुक्त्वा ततो द्रोणस् तव पुत्रं महाद्युतिः।
पुनरेव वचःप्राह शनैराचार्यपुङ्गवः॥७३
द्रोणः—
ब्रह्मसूक्तेन328 बध्नामि कवचं तव पार्थिव।
हिरण्यगर्भेण यथा बद्धं विष्णोस्तु वैशसे॥७४
यथा च ब्रह्मणा बद्धं सङ्ग्रामे तारकामये।
शक्रस्य कवचं दिव्यं तथा बध्नाम्यहं तव॥८५
सञ्जयः—
बद्ध्वा तु कवचं तस्य मन्त्रेण विधिपूर्वकम्।
प्रेषयामास राजानं युद्धाय महते द्विजः॥७६
स संयत्तो महाबाहुर् आचार्येण महात्मना।
प्रस्थितस्सहसा राजन् यत्र यातो धनञ्जयः॥७७
ततो रथसहस्रेण त्रिगर्तानां प्रहारिणाम्।
तथा दन्तिसहस्रेण मत्तानां वीर्यशालिनाम्॥७८
अश्वानां नियुतेनैव तथाऽन्यैश्च महारथैः।
वृतः प्रायान्महाबाहुर् अर्जुनस्य रथं प्रति॥७९
नानावादित्रघोषेण नानाजनपदायुतः।
तव319पुत्रः प्रयातस्तु यथा वैरोचनिस्तथा॥८०
ततश्शब्दो महानासीत् सैन्यानां तव भारत।
अगाधं प्रस्थितं दृष्ट्वा समुद्रमिव कौरवम्॥८१
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि त्र्यशीतितमोऽध्यायः॥८३॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वणि सप्तमोऽध्यायः॥७॥
[अस्मिन्नध्याये ८१ श्लोकाः]
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॥चतुरशीतितमोऽध्यायः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706868554त.png"/>
राज्ञां द्वन्द्वीभूय युद्धाय समागमः॥१॥ राज्ञां द्वन्द्वयुद्धवर्णनम्॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706868637क.png"/>
सञ्जयः—
प्रविष्टयोर्महाराज पार्थवार्ष्णेययो रणे।
दुर्योधने प्रयाते च पृष्ठतः पुरुषर्षभम्॥१
जवेनाभ्यपतन् द्रोणं महता निस्स्वनेन च।
पाण्डवास्सोमकैस्सार्धं ततो युद्धमवर्तत॥२
तद्युद्धमभवत् तीव्रं तुमुलं रोमहर्षणम्।
पाञ्चालानां कुरूणां च व्यूहस्य पुरतोऽद्भुतम्॥३
राजन् कदाचिन्नास्माभिर् दृष्टं तादृङ् न च श्रुतम्।
यादृङ्मध्यगते सूर्ये युद्धमासीद्विशां पते॥४
धृष्टद्युम्नमुखाः पार्था व्यूढानीकाः प्रहारिणः।
सैन्यं तव कुरुश्रेष्ठ शरवर्षैरवाकिरन्॥५
वयं द्रोणं पुरस्कृत्य सर्वशस्त्रभृतां वरम्।
पार्षतप्रमुखान् पार्थान् अभिवर्षाम सायकैः॥६
महामेघाविवोदीर्णौ मिश्रवातौ हिमात्यये।
सेनाग्रे ते प्रकाशेते रुचिरे रत्नभूषिते॥७
समेत्य ते महासेने चक्रतुर्वेगमुत्तमम्329।
जाह्नवीयमुने नद्यौ प्रावृषीवोल्बणोदके॥
नानाशस्त्रपुरोवातः पत्त्यश्वरथसंवृतः।
गदाविद्युन्महारौद्रस् सङ्ग्रामजलदो महान्॥९
भारद्वाजानिलोद्धूतश् शरधारास्सहस्रशः।
अभ्यवर्षन् महारौद्रं पाण्डुसैन्याग्निमुत्थितम्॥१०
समुद्रमिव धर्मान्ते महाघोरो महानिलः।
व्यक्षोभयदनीकानि पाण्डवानां द्विजोत्तमः॥११
तेऽपि सर्वप्रयत्नेन द्रोणमेव समाद्रवन्।
बिभित्सन्तो स्थानीकं वार्योघाः प्रबला इव॥१२
वारयामास तान् द्रोणो वार्योघानचलो यथा।
पाण्डवान् समरे क्रुद्धान् पाञ्चालांश्च सकेकयान्॥१३
पर्यवर्तन्त राजानः कुर्वाणास्तव शासनम्।
महाबला रणे शूराः पाञ्चालानन्ववारयन्॥१४
ततो रणे नरव्याघ्रः पार्षतः पाण्डवैस्सह।
सञ्जघाना सकृद्दोणं बिभित्सुररिवाहिनीम्॥१५
यथैव शरवर्षाणि द्रोणो वर्षति संयुगे।
तथैव शरवर्षाणि धृष्टद्युम्नोऽप्यवर्षत॥१६
सनिस्त्रिंशपुरोवातश् शक्तिप्रासर्ष्टिसंवृतः।
ज्याविद्युच्चापनिर्ह्रादो धृष्टद्युम्नबलाहकः॥१७
शरधाराम्बुवर्षाणि व्यसृजत् सर्वतो दिशम्।
निघ्नंस्तत्र नराश्वौघान् पातयामास वाहिनीम्॥१८
यं यमार्च्छच्छरैद्रोणः पाण्डवानां रथब्रजम्।
तस्मात् तस्माच्छरैर्द्रोणम् अपाकर्षत पार्षतः॥१९
तथा तु यतमानस्य द्रोणस्य युधि मारिष।
धृष्टद्युम्नं समासाद्य त्रिधा सैन्यमभिद्यत॥२०
भोजमेकेऽभ्यवर्तन्त जलसन्धं तथाऽपरे।
पाण्डवैर्हन्यमानाश्च द्रोणमेवापरे ययुः॥२१
सङ्घाते यतते द्रोणस् सैन्यस्य रथिनां वरः।
व्यधमच्चास्य सैन्यानि धृष्टद्युम्नो महारथः॥२२
धार्तराष्ट्रास्तथा भूता वध्यन्ते पाण्डसृञ्जयैः।
अगोपाः पशवोऽरण्ये बहुभिश्श्वापदैरिव॥२३
कालस्सङ्ग्रसते योधान् धृष्टद्युम्नेन मोहितान्।
सङ्ग्रामे तुमुले तस्मिन्निति सम्मेनिरे जनाः॥२४
कुनृपस्य यथा राष्ट्रं व्याधिदुर्भिक्षतस्करैः।
द्राव्यते तद्वदापन्ना पाण्डवैस्तव वाहिनी॥२५
अर्करश्मिविभिन्नेषु शस्त्रेषु कवचेषु च।
चक्षूंषि प्रत्यहन्यन्त सैन्ये च रजसा वृते॥२६
त्रिधा भूतेषु सैन्येषु वध्यमानेषु पाण्डवैः।
अमर्षितस्ततो द्रोणः पाञ्चालान् व्यधमच्छरैः॥२७
मृद्नतस्तान्यनीकानि निघ्नतश्शात्रवान् रणे।
बभूव रूपं द्रोणस्य कालाग्नेरिव दीप्यतः॥२८
रथनागहयांश्चापि पत्तीश्चापि विशां पते।
एकैकेनेषुणा सङ्ख्ये निर्बिभेद महारथः॥२९
पाण्डवानां तु सैन्येषु नास्ति राजन् स मानवः।
अधारयत यो बाणान् द्रोणचापच्युतान् प्रभो॥३०
तत् पच्यमानमर्केण द्रोणसायकतापितम्।
बभ्राम पार्षतं सैन्यं तत्र तत्रैव भारत॥३१
वध्यमानं330 तु तत् सैन्यं भारद्वाजेन सर्वतः।
शरैरग्निशिखाकारैर् दह्यते भरतर्षभ॥३२
तथैव पार्षतेनापि काल्यमानं बलं तव।
विद्रुतं सर्वतः क्षीणं शुष्कं वनमिवाग्निना॥३३
वध्यमानेषु सैन्येषु द्रोणपार्षतसायकैः।
त्यक्त्वा प्राणान् परं शक्त्या युध्यन्ते स्वर्गलिप्सवः॥३४
तावकानां परेषां च युध्यतां भरतर्षभ।
नासीत् कश्चिन्महाराज योऽजहात् संयुगं भयात्॥३५
भीमसेनं तु कौन्तेयं सोदर्याः पर्यवारयन्।
विविंशतिश्चित्रसेनो विकर्णश्च महारथः॥३६
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ क्षेमधूर्तिश्च पौरवः।
त्रयाणां तव पुत्राणां त्रय एवानुयायिनः॥३७
बाह्लीकराजस्तेजस्वी कुलपुत्रांस्तनुत्यजः।
सहसेनस्सहामात्यो द्रौपदेयानवारयत्॥३८
शैब्यो गोपायनो राजा योधैर्दशशतोत्तरैः।
काश्यस्याभिभुवः पुत्रं पराक्रान्तमवारयत्॥३९
अजातशत्रुं कौन्तेयं ज्वलन्तमिव पावकम्।
मद्राणामीश्वरश्शल्यो राजा राजानमावृणोत्॥४०
दुरशासनस्त्ववस्थाप्य स्वमनीकममर्षणः।
सात्यकिं प्रययौ क्रुद्धश् शूरो रथवरं युधि॥४१
तेनैव हस्त्यनीकेन सन्नद्धकवचध्वजः।
चतुश्शतैर्महेष्वासैश् चेकितानमवारयत्॥४२
शकुनिस्तु सहानीको माद्रीपुत्राववारयत्।
सगान्धारैस्सप्तशतैश चापशक्तिवरासिभिः॥४३
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ विराटं मात्स्यमार्च्छताम्।
प्राणांस्त्यक्त्वा महेष्वासौ मित्रार्थेऽभ्युत्थितौ युधि॥४४
शिखण्डिनं याज्ञसेनं युवानममितौजसम्।
बाह्लीकः प्रतिसंरब्धः पराक्रान्तमवारयत्॥४५
धृष्टद्युम्नं तु पाञ्चाल्यं क्रूरैस्सार्धं प्रभद्रकैः।
आवन्त्यस्सह सौवीरैः क्रुद्धरूपमवारयत्॥४६
घटोत्कचं331 तथा शूरं राक्षसं क्रूरकर्मकृत्।
अलम्बुसोऽद्रवत् तूर्णं क्रुद्धमायान्तमाहवे॥४७
अलम्बुसं राक्षसेन्द्रं कुन्तिभोजो महाबलः।
सैन्येन महता युक्तः क्रुद्धरूपमवारयत्॥४८
सैन्धवः पृष्ठतस्त्वासीत् सर्वसैन्यस्य भारत।
रक्षितः परमेष्वासैःकृपप्रभृतिभी रथैः॥४९
तस्यास्तां चक्ररक्षौ द्वौ सैन्धवस्य बृहत्तमौ।
द्रौणिर्दक्षिणतो राजन् सूतपुत्रश्च वामतः॥५०
पृष्ठगोपास्तु तस्यासन् सौमदत्तिपुरोगमाः।
कृपश्च वृषसेनश्च शलश्शल्यश्च दुर्जयः॥५१
नीतिमन्तो महेष्वासास् सर्वशस्त्रविशारदाः।
सैन्धवस्य रथस्यैव रक्षार्थंयुयुधुस्तदा332॥५२
राजन् सङ्ग्राममाश्चर्यं शृणु कीर्तयतो मम।
कुरूणां पाण्डवानां च यथा युद्धमवर्तत॥५३
भारद्वाजं समासाद्य व्यूहस्य प्रमुखे स्थितम्।
योधयन्ति रणे पार्था द्रोणानीकबिभित्सया॥५४
रक्षमाणस्स्वकं व्यूहं द्रोणोऽपि सह सैनिकैः।
अयोधयद्रणे पार्थान् प्रार्थयानो महद्यशः॥५५
विन्दानुविन्दावावन्त्यौविराटं दशभिश्शरैः।
आजघ्नत् रणे क्रुद्धौ तव पुत्रहितैषिणौ॥५६
विराटश्च महाराज तावुभौ समरे स्थितौ।
पराक्रान्तौ पराक्रम्य योधयामास सानुगौ॥५७
तेषां समभवद्युद्धं दारुणं रोमहर्षणम्333।
सिंहस्य द्विपमुख्याभ्यां प्रभिन्नाभ्यां यथा वने॥५८
बाह्लीकं रभसं युद्धे याज्ञसेनिर्महाबलः।
आजघ्ने विशिखैरुग्रैर् घोरैर्मर्मास्थिभेदिभिः॥५९
बाह्लीको याज्ञसेनिं तु शरैस्सन्नतपर्वभिः।
आजघान334 भृशं क्रुद्धो नवभिर्नतपर्वभिः॥६०
तद्युद्धमभद्धोरं शरशक्त्यष्टिसङ्कुलम्।
भीरूणां त्रासजननं शूराणां हर्षवर्धनम्॥६१
आवन्त्यौ भ्रातरौ शूरौ धृष्टद्युम्नमयुध्यताम्।
साल्वको बिल्वकश्चोभौ यथा विष्णुं कृते युगे॥६२
तेषां तत्र शरैर्मुक्तैर् अन्तरिक्षं दिशस्तथा।
अभवत् संवृतं सर्वं न प्रज्ञायत किञ्चन॥६३
शैब्यो335 गोपायनो युद्धे काश्यपुत्रं महारथम्।
सहसा योधयामास गजः प्रतिगजं यथा॥६४
बाह्लीकराजस्सङ्क्रुद्धो द्रौपदेयान् महारथान्।
मनः पञ्चेन्द्रियाणीव शुशुभे योधयन् रणे॥६५
अयोधयंस्ते च भृशं तं शरौघैस्समन्ततः।
इन्द्रियाणि यथा देहं शश्वद्देहवतां वर॥६६
वार्ष्णेयं सात्यकिं युद्धे पुत्रो दुश्शासनस्तव।
आजघ्ने सायकैस्तीक्ष्णैर् नवभिर्दशभिस्तथा॥६७
सोऽतिविद्धो बलवता महेष्वासेनधन्विना।
ईषन्मूर्च्छां जगामाथ सात्यकिस्सत्यविक्रमः॥६८
समाश्वस्तस्तु वार्ष्णेयस् तव पुत्रं महारथम्।
विव्याध दशभिस्तूर्णं सायकैः कङ्कपत्रिभिः॥६९
तावन्योन्यं दृढं विध्वा ह्यन्योन्यशरपीडितौ।
रेजतुस्संयुगे राजन् पुष्पिताविव किंशुकौ॥७०
अलम्बुसस्तु सङ्क्रुद्धः कुन्तिभोजशरातुरः।
अशोभत भृशं लक्ष्म्या पुष्पाढ्य इव किंशुकः॥७१
कुन्तिभोजं ततो रक्षो विद्ध्वाबहुभिरायसैः।
अनदद्भैरवं नादं वाहिन्याः प्रमुखे तव॥७२
ततस्तौ समरे शूरौ योधयन्तौ परस्परम्।
ददृशुस्सर्वसैन्यानि शक्रजम्भौ यथा पुरा॥७३
शकुनिं रभसं युद्धे कृतवैरं च भारत।
माद्रीपुत्रौ सुसङ्क्रुद्धौ शरैरर्दयतां भृशम्॥७४
तन्मूलस्सुमहान् राजन्नवर्तत जनक्षयः॥७४
त्वया सञ्जनितोऽत्यर्थं कर्णेन च विवर्धितः।
रक्षितस्तव पुत्रैश्च क्रोधमूलो हुताशनः॥७५
य इमां पृथिवीं सर्वां दग्धुं राजन् समन्ततः।
शकुनिः पाण्डुपुत्राभ्यां कृतस्स विमुखश्शरैः॥७६
नाभिजानाति कर्तव्यं युद्धे किञ्चित् पराक्रमम्॥७७
विमुखं चैनमालोक्य माद्रीपुत्रौ महारथौ।
ववर्षतुः पुनर्बाणैर् यथा मेघौ महीधरम्॥७८
स वध्यमानो बहुभिश् शरैस्सन्नतपर्वभिः।
सम्प्रायाज्जवनैरश्वैर द्रोणानीकाय सौबलः॥७९
घटोत्कचस्तथा शूरो राक्षसं तमलम्बुसम्।
अभ्ययाद्रभसं युद्धे वेगमास्थाय मध्यमम्॥८०
तयोर्युद्धं महाराज चित्ररूपमिवाभवत्।
यादृशं हि पुरावृत्तं रामरावणयोर्मृधे॥८१
ततो युधिष्ठिरो राजा मद्रराजानमाहवे।
विद्ध्वा पञ्चशतैर्बाणैः पुनर्विव्याध सप्तभिः॥८२
ततः प्रववृते युद्धं तयोरत्यन्तमद्भुतम्।
यथा पूर्वं महाराज शम्बरामरराजयोः॥८३
विविंशतिश्चित्रसेनो विकर्णश्च महारथः।
अयोधयन् भीमसेनं महत्या सेनया वृताः॥८४
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि चतुरशीतितमोऽध्यायः॥८४॥
॥६९॥जयद्रथवधपर्वणि अष्टमोऽध्यायः॥८॥
[अस्मिन्नध्याये ८४ श्लोकः]
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॥पञ्चाशीतितमोऽध्यायः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706873514त.png"/>
द्रोणधृष्टद्युम्नयोर्युद्धम्॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706873572क.png"/>
सञ्जयः—
तथा तस्मिन् प्रवृत्ते तु सङ्ग्रामे रोमहर्षणे।
कौरवेयांस्त्रिधा भूतान् पाण्डवास्समुपाद्रवन्॥१
जलसन्धं महाबाहुंभीमसेनोऽभ्यवर्तत॥१
युधिष्ठिरस्सहानीकः कृतवर्माणमाहवे।
किरन् स शरवर्षाणि रोचमान इवांशुमान्॥२
धृष्टद्युम्नो महाराज द्रोणमभ्यद्रवद्रणे॥३
ततः प्रववृते युद्धं त्वरतां सर्वधन्विनाम्।
कुरूणां पाण्डवानां च क्रुद्धानामितरेतरम्॥४
सङ्क्षये तु तथाभूते वर्तमाने महाभये।
द्वन्द्वीभूतेषु सैन्येषु युध्यमानेष्वभीतवत्॥५
द्रोणः पाञ्चालपुत्रेण बली बलवता सह।
व्यपासृजत् पृषत्कौघांस् तदद्भुतमिवाभवत्॥६
पुण्डरीकवनानीव विध्वस्तानि समन्ततः।
चक्राते द्रोणपाञ्चाल्यौ नृणां शीर्षाण्यनेकशः॥७
विकीर्णानि च वीराणाम् अनीकेषु समन्ततः।
वस्त्राभरणशस्त्राणि ध्वजवर्मायुधानि च॥८
सुवर्णचित्राभरणास् संसिक्ता रुधिरेण च।
कोविदारा इवाभान्ति पुष्पितास्तत्र भारत॥९
तावकास्समरे योधाः पाण्डवेयाश्च विक्षताः॥९
कुञ्जरांश्च नरानन्ये पातयन्ति स्म पत्रिभिः।
तालमात्राणि चापानि विकर्षन्तो महारथाः॥१०
असिचर्माणि चापानि शिरांसि कवचानि च।
विप्रकीर्णानि दृश्यन्ते सम्प्रहारे महात्मनाम्॥११
उत्थितान्यगणेयानि कबन्धानि समन्ततः।
अदृश्यन्त महाराज तस्मिन् परमसङ्कुले॥१२
गृध्राः कङ्का बलाश्श्येना वायसा जम्बुकास्तथा।
बहुशः पिशिताशाश्च तत्रादृश्यन्त मारिष॥१३
भक्षयन्तश्च मांसानि पिबन्तश्चापि शोणितम्।
विलुम्पमानाः केशांश्च मज्जाश्च बहुधा नृप॥१४
कर्षन्तश्च शरीराणि शरीरावयवांस्तथा।
नराश्वगजसङ्घानां शिरांसि च ततस्ततः॥१५
कृतास्त्रा रणशिक्षाभिर् दीक्षिताश्शरमालिनः।
रणे जयं प्रार्थयाना भृशं युयुधिरे जनाः॥१६
असिमार्गान् बहुविधान् विचेरुश्चापरे रणे॥१७
यष्टिभिश्शक्तिभिः प्रासैश् शूलतोमरपट्टसैः।
गदाभिः परिघैश्चान्यैर् व्यायतैश्च भुजैरपि।१८
अन्योन्यं न्यहनन् क्रुद्धा युद्धरङ्गगता नराः॥१८
रथिनो रथिभिस्सार्धम् अश्वारोहाश्च सादिभिः।
मातङ्गाश्चैव मातङ्गैः पदाताश्चैव पत्तिभिः॥१९
क्षीबा इवान्ये चोन्मत्ता रङ्गेष्वेव च वारणाः।
उच्चुक्रुशुरथान्योन्यं जघ्नुरन्योन्यमेव च॥२०
वर्तमाने महायुद्धे निर्मर्यादे विशां पते।
धृष्टद्युम्नो हयानश्वैर् द्रोणस्यामिश्रयत् स्वकैः॥२१
ते हयास्साध्वशोभन्त मिश्रिता वातरंहसः।
पारावतसवर्णाश्च रक्तशोणाश्च मारिष॥२२
पारावतसवर्णास्ते रक्तशोणैर्विमिश्रिताः।
हयाश्शुशुभिरे राजन् मेघा इव सविद्युतः॥२३
धृष्टद्युम्नस्तु सम्प्रेक्ष्य द्रोणमभ्याशमागतम्।
असिचर्माददे वीरो धनुरुत्सृज्य भारत ॥२४॥
चिकीर्षुर्दुष्करं कर्म पार्षतः परवीरहा ।
ईषायास्समतिक्रम्य द्रोणस्य रथमाविशत् ॥२५॥
अतिष्ठयुगपालीषु युगसन्नहनेषु च।
जघनांसेषु चाश्वानां तत् सैन्यं समपूजयत् ॥२६॥
खड्नेन चरतस्तस्य शोणाश्वानवितिष्ठतः।
न ददर्शान्तरं द्रोणस् तदद्भुतमिवाभवत् ॥२७॥
यथा श्येनस्य चरतो द्रुतमामिषगृद्धिनः।
तथैवासीदभिसरस् तस्य द्रोणं जिघांसतः ॥२८॥
ततरिशतशरेणास्य शतचन्द्रमपातयत् ॥२९॥
द्रोणो द्रुपदपुत्रस्य खङ्गं च दशभिश्शरैः।
हयांश्चैव चतुष्षष्ट्या शराणां जन्निवान् बली ॥३०॥
ध्वजं छत्रं च भल्लाभ्यां तथा तौ पाष्णिसारथी ॥३०॥
अथास्मै त्वरितो बाणम् अपरं जीवितान्तकम्।
धृष्टद्युम्नाय चिक्षेप शचीपतिरिवाशनिम् ॥३१॥
तं चतुर्दशभिर्बाणैर् बाणांश्चिच्छेद सात्यकिः।
प्रस्तमाचार्यमुख्येन धृष्टद्युम्नममोचयत् ॥३२॥
सिंहेनेव मृगं प्रस्तं नरसिंहेन संयुगे ।
द्रोणाद्वै मोचयामास पाञ्चायं शिनिपुङ्गवः ॥३३॥
सायकं प्रेक्ष्य गोतारं पाञ्चालस्य महाहवे ।
प्रमुखे त्वरितो द्रोण षड्विंशत्या समर्पयत् ॥३४॥
ततो द्रोणं शिनेर्नता प्रसन्तमिव सृञ्जयान् ।
प्रत्यविध्यच्छितैर्बाणैष् षडिशत्या स्तनान्तरे ॥३५॥
ततस्सर्वे रथात् तूर्णं पालाला जयगृद्धिनः ।
सात्वताभिसृते द्रोणे धृष्टद्युम्नमचोदयन् ॥३६॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि पञ्चाशीतितमोऽध्यायः ॥८५॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वणि नवमोऽध्यायः ॥९॥
[अस्मिन्नध्याये ३६॥ श्लोकाः]
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॥षडशीतितमोऽध्यायः॥
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द्रोणसात्यक्योर्बुद्धम् ॥१॥ अर्जुनेन रणाङ्गणे हयाप्यायनाय शरैः सरोनिर्माणम् ॥२॥ तथा शरमयवेश्म निर्माणम् ॥३॥
धृतराष्ट्रः
—
बाणे तस्मिन् निकृत्ते तु धृष्टद्युम्ने च मोक्षिते ।
तेन वृष्णिप्रवीरेण युयुधानेन संयुगे ॥१॥
अमर्षितो महेष्वासस् सर्वशस्त्रभृतां वरः।
रथव्याघ्रं शिनेः पौत्रं द्रोणः किमकरोधि ॥२॥
सञ्जयः—
सम्प्रतक्रोधविषो व्यादितास्य इवान्तकः336 ।
तीक्ष्णधारेषुदशनशू शितनाराचदंष्ट्रवान् ॥३॥
संरम्भामर्षंताम्राक्षो महाहिरिव निश्वसन् ।
नरवीर : प्रमुदितैश शोणैर श्वैर्महाजवैः ॥४॥
उत्पतद्भिरिवाकाशं पतद्भिरिव सर्वतः ।
रुक्मपुङ्खाञ् शरानस्यन् युयुधानमुपाद्रवत् ॥५॥
शरपातमहावर्षं रथघोषवलाहकम् ।
कार्मुकैरावृतं राजन् नाराचबहुविद्युतम् ॥६॥
शक्तिखड्गाशनिधरं क्रोधवेगसमन्वितम् ।
मेघमनावार्य हयमारुतचोदितम् ॥७॥
दृष्ट्वाभिपतन्तं तं शूरः परपुरञ्जयः ।
उवाच सूतं शैनेयः प्रहसन् युद्धदुर्मदः ॥८॥
सात्यकिः—
एतं वै ब्राह्मणं क्रूरं स्वकर्मण्यनवस्थितम् ।
आश्रयं धार्तराष्ट्राणां धर्मराजभयावहम् ॥९॥
शीघ्रं प्रजवितैर श्वैः प्रत्युद्याहि प्रहृष्टवत् ।
आचार्य राजपुत्राणाम् एवं युद्धाभिनन्दिनम् ।१०॥
सञ्जयः—
एवमुक्तस्ततस्तस् सात्यकस्यावहद्रथम् ॥१०॥
ततो रजतसङ्काशा माधवस्य हयोत्तमाः।
द्रोणस्याभिमुखाश्शीघ्रम् अवहन् वातरंहसः ॥११॥
इषुजालावृतं घोरम् अन्धकारमनन्तकम्।
अनाधृष्यमिवान्येषां शूराणामभवत् तदा ॥१२॥
तयोश्शीघ्रास्त्रविदुषोर् द्रोणसात्यकयोस्तदा।
नान्तरं शरवृष्टीनां दृश्यते नरसिंहयोः ॥१३॥
प्रावृषीवेन्द्रमुक्तानाम्337 अशनीनामिव स्वनः ॥१४॥
नाराचैरतिविद्धानां शराणां रूपमाबभौ।
आशीविषविदष्टानां सर्पाणामिव भारत ॥१५॥
तयोर्ज्यातलनिर्घोषश श्रूयते युध्यमानयोः।
अजस्रं शैलशृङ्गाणां वज्रेणान्यतामिव ॥१६॥
उभौ तौ हि रथौ राजस् ते चाश्वास्तौ च सारथी।
रुक्मपुङ्खैश्शरैश्छिन्नाशू चित्ररूपा बभुस्तदा १७॥
निर्मलानाम जियानां नाराचानां विशां पते।
निर्मुक्ताशीविषाभानां सम्पातोऽभूत् सुदारुणः ॥१८॥
उभयोः पतितेच्छत्रे पतितौ च महाध्वजौ।
निकृन्ततोश्शरैस्तीक्ष्णैर् द्रोणसात्यकयोस्तदा ॥१९॥
उभौ रुधिरसंसिक्तावुभौ च विजयैषिणौ।
स्रवद्भिश्शोणितं गात्रैः प्रस्रुताविव वारणौ ॥२०॥
अन्योन्यमभ्यविध्येतां जीवितान्तकरैश्शरैः ॥२०॥
गर्जिताक्रुष्टसन्नादाश् शङ्खदुन्दुभिनिस्स्वनाः।
उपारमन् महाराज व्याजहार न कश्चन ॥२१॥
तूष्णींभूतान्यनीकानि योधा युद्धादुपारमन्।
ददर्श द्वैरथं ताभ्यां जातकौतूहलो जनः ॥२२॥
रथिनो हस्तियन्तारो हयारोहाः पदातयः।
सर्वतः परिवार्योभौ प्रतताक्षा हि वीक्षिरे ॥२३॥
हस्त्यनीकानि तिष्ठन्ति तथाऽनीकानि वाजिनाम् ।
तिष्ठन्ति रथवाहिन्यः प्रतिव्यूहे व्यवस्थिताः ॥२४॥
मुक्ताविद्रु मचित्रैश्च मणिकाञ्चनभूषितैः।
ध्वजैराभरणैश्चित्रैः कवचैश्च हिरण्मयैः ॥२५॥
वैजयन्तीपताकाभिः परिस्तोमैश्च कम्बलैः।
निर्मलैर्निशितैश्शस्खैर हयानां च प्रकीर्णकैः ॥२६॥
जातरूपमयीभिश्च राजतीभिश्च मूर्धनि।
गजानां कुम्भमालाभिर् दन्तैश्च पृथिवी सदा ॥२७॥
सबलाका338 सखद्योता सैरावतशतहदा ।
अदृश्यतोष्णपर्यन्ते मेघानामिव वागुरा ॥२८॥
अपश्यन्नस्मदीयाश्च ते च यौधिष्ठिरास्तदा।
तद्युद्धं युयुधानस्य द्रोणस्य च महात्मनः ॥२९॥
विमानस्थास्तदा देवा ब्रह्मसोमपुरोगमाः।
सिद्धचारणाञ्च विद्याधरमहोरगाः ॥३०॥
गन्धर्वा दानवा यक्षा राक्षसाप्सरसः खगाः।
गतप्रत्यागताक्षेपैश् चित्रैश्शस्त्रविघातनैः ॥३१॥
विविधैर्विस्मयं जग्मुस् तयोः पुरुषसिंहयोः ॥३२॥
हस्तलाघवमस्त्रेषु दर्शयन्तौ महारथौ।
अन्योन्यमतिशूरौ तौ समरे द्रोणसात्यकौ ॥३३॥
ततो द्रोणस्य वार्ष्णेयो बाणांश्चिच्छेद संयुगे।
पत्रिभिस्सुदृढैराशु धनुश्चैव महीपते ॥३४॥
निमेषान्तरमात्रेण भारद्वाजोऽपरं धनुः।
सज्यं चकार तच्चाशु चिच्छेदास्य स सात्यकिः ॥३५॥
तत आशु पुनद्रणो धनुर्हस्तो व्यतिष्ठत।
सज्यं सज्यं पुनश्चापं चिच्छेद निशितैश्शरैः ॥३६॥
ततोऽस्य संयुगे द्रोणो दृष्ट्वा कर्मातिमानुषम् ।
युयुधानस्य राजेन्द्र मनसैतद चिन्तयत् ॥३७॥
एतदत्रबलं रामे कार्तवीर्ये धनञ्जये ।
भीष्मे च पुरुषव्याघ्रे सात्यके चाशुविक्रमे ॥३८॥
तं चास्य मनसा द्रोणः पूजयामास विक्रमम् ।
लाघवं वृष्णिवीरस्य वासवस्येव दृश्य सः ॥३९॥
तुष्टुवुर्लाघवं339 तस्य देवास्साग्निपुरोगमाः।
सिद्धचारणसङ्घाश्च साधु साध्विति चुक्रुशुः ॥४०॥
न तस्य लघुतामन्येऽलक्षयञ् शीघ्रकारिणः ॥४०॥
देवास्तु युयुधानस्य गन्धर्वाच विशां पते।
सिद्धचारणसङ्घाश्च विदुणस्य कर्म तत् ॥४१॥
अथाऽन्यद्धनुरादाय द्रोणशशस्त्रभृतां वरः।
युयुधानं नरव्याघ्रं योधयामास भारत ॥४२॥
तस्यास्त्राण्यस्वमायाभिः प्रहसञ् छिनिपुङ्गवः।
निजघ्ने निशितैर्बाणैस् तदद्भुतमिवाभवत् ॥४३॥
तस्यातिमानुषं कर्म दृष्ट्वाऽन्यैरसमं रणे।
युक्तं योगेन योगज्ञाः पूजयन्ति स्म तावकाः ॥४४॥
यदस्त्रमस्यति द्रोणस् तदेवास्यति सात्यकिः।
असम्भ्रान्तस्तदाचार्यो योधयत्यरिसूदनः ॥४५॥
ततः क्रुद्धो महाराज धनुर्वेदस्य पारगः।
आग्नेयं युयुधानस्य दिव्यमस्त्रमुदैरयत् ॥४६॥
तदानेयं महाराज रिपुन्नमुपलक्ष्य सः।
अस्रं दिव्यं महेष्वासो वारुणं समुदैरयत् ॥४७॥
हाहाकारो महानासीद् दृष्ट्वा दिव्यास्त्रधारिणौ ।
न चेरुञ्च तदाऽऽकाशे भूतान्याकाशगान्यपि ॥४८॥
अस्त्रे ते वारुणानेये यदा बाणैस्समाहिते।
न340 तदा व्यभिषज्येते व्यावर्तदथ भास्करः ॥४९॥
ततो युधिष्ठिरो राजा भीमसेनश्च पाण्डवः।
नकुलस्सहदेवश्च पर्यरक्षन्त सात्यकिम् ॥५०॥
धृष्टद्युम्नमुखैस्सार्धं विराटः केकयैस्सह।
मात्स्यसाल्वेयसेनाञ्च द्रोणमभ्ययुरञ्जसा ॥५१॥
दुश्शासनं पुरस्कृत्य राजपुत्रास्सहस्रशः।
द्रोणमभ्यवपद्यन्त सपत्नैः परिवारितम् ॥५२॥
ततो युद्धमभूद्राजंस् तव तेषां च धन्विनाम् ।
रजसा संवृते लोके शरजालसमाकुले ॥५३॥
सर्वमाविद्धमभवन्न प्राज्ञायत किञ्चन ।
सैन्येन रजसा ध्वस्ते निर्मर्यादमवर्तत ॥५४॥
तेनान्तरेण पार्थस्तु रणे जित्वा महारथान् ।
अतिक्रान्तस्तदा युद्धं कृत्वा पर्यवतस्थिवान् <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706159415Screenshot2023-05-17160630.png"/>341 ॥५५॥
वर्तमाने तदा युद्धे द्रोणस्य सह पाण्डुभिः ।
परिवर्तमान आदित्ये तत्र सूर्ये च रश्मिभिः ॥५६॥
रजसा कीर्यमाणाञ्च मन्दीभूताञ्च कौरवाः ॥५७॥
तिष्ठतां युध्यमानानां पुनरावर्ततामपि ।
जयतां भज्यमानानां जगाम तदहश्शनैः ॥५८॥
तथा तेषु विषक्तेषु सैन्येषु जयगृद्धिषु ।
अर्जुनो वासुदेवश्च सैन्धवायैव जग्मतुः ॥५९॥
रथमार्गप्रमाणं तु कौन्तेयो निशितैश्शरैः ।
चकार यं च पन्थानं ययौ तेन जनार्दनः ॥६०॥
यत्र यत्र रथो याति पाण्डवस्य महात्मनः ।
तत्र तत्रैव दीर्यन्ते सेनास्तव विशां पते ॥६१॥
रथशिक्षां तु दाशाहों दर्शयामास वीर्यवान् ।
उत्तमाधममध्यानि मण्डलानि विदर्शयन् ॥६२॥
ते नु नामाङ्किता बाणाः कालज्वलनसन्निभाः ।
स्नायुबद्धास्सुपर्वाणः342 पृथवः प्रियदर्शनाः ॥६३॥
वैणवायस्मयशरास् स्वायता विविधाननाः ।
रुधिरं विहगैस्सार्धं प्राणिनां पपुराहवे ॥६४॥
रथे स्थितोऽग्रतः क्रोशे यानस्यत्यर्जुनश्शरान् ।
रथे क्रोशमतिक्रान्ते पतन्तो नन्ति शात्रवान् ॥६५॥
तार्क्ष्यमारुतरंहोभिर् वाजिभिस्साधुवाहिभिः ।
यथाऽगच्छद्धृषीकेशः कृत्स्नं विस्मापयञ् जगत् ॥६६॥
न तथा गच्छति रथस् तपनस्य विशां पते ।
न343 शऋस्य न रुद्रस्य न च वैश्रवणस्य च ॥६७॥
नान्यस्य समरे राजन् गतपूर्वस्तथा रथः ।
यथा ययावर्जुनस्य मनोभिप्रायशीघ्रगः ॥६८॥
प्रविश्य तु रणे राजन् केशवः परवीरहा ।
सेनामध्ये हयांस्तूर्णं चोदयामास भारत ॥६९॥
ततस्तस्य रथौघस्य मध्यं प्राप्य हयोत्तमाः ।
कृच्छ्रेण रथमूहुस्ते क्षुत्पिपासाश्रमान्विताः ॥७०॥
क्षताश्च344 बहुभिश्शखैर युद्धशौण्डैरनेकशः ।
मण्डलानि विचित्राणि विचेरुस्ते मुहुर्मुहुः ॥७१॥
हतानां वाजिनागानां स्थानां च नरैस्सह।
उपरिष्टादतिक्रान्ताश शैलाभानां सहस्रशः ॥७२॥
श्रमेण महता युक्तास् ते हया वातरंहसः।
मन्दवेगगता राजन् संवृत्तास्तत्र संयुगे ॥७३॥
एतस्मिन्नन्तरे वीरावावन्त्यौ भ्रातरौ नृप ।
सहसैन्यौ तमाछेतां पाण्डवं श्रान्तवाहनम् ॥७४॥
तावर्जुनं चतुष्षष्टया सप्तत्या च जनार्दनम्।
शराणां च शतेनाश्वान् अविध्येतां मुदाऽन्वितौ ॥७५॥
तावर्जुनो महाराज नवभिर्नतपर्वभिः।
आजघान रणे क्रुद्धो मर्मज्ञो मर्मभेदिभिः ॥७६॥
ततस्तौ तु शरौघेण बीभत्सुं सहकेशवम्।
छादयेतां सुसंरब्धौ सिंहनादं च चक्रतुः ॥७७॥
तयोस्तु धनुषी मुष्टौ भल्लाभ्यां श्वेतवाहनः।
चिच्छेद समरे तूर्ण भूय एव धनञ्जयः ॥७८॥
अथान्यैर्विशिखैस्तूर्ण ध्वजौ च कनकोज्वलौ ॥७८॥
अथान्ये345 धनुषी राजन् प्रगृह्य समरे तथा ।
पाण्डवं भृशङ्कवावर्दयामास तुश्शरैः ॥७९॥
तौ तु शस्त्रभृतां श्रेष्ठश शरैस्सन्ताड्य भारत।
धनुषी चिच्छिदे तूर्ण भूय एव धनञ्जयः ॥८०॥
अथान्यै र्दशभिस्तूर्ण346 हेमपुङ्खैश्शिलाशितैः।
जघानाश्वांस्तथा सूतं पाणि च संपदानुगम् ॥८१ ॥
ज्येष्ठस्य तु क्षुरप्रेण शिरः कायान्यकृन्तत।
स पपात हतः पृथ्व्यां वातरुग्ण इव द्रुमः ॥८२॥
विन्दं तु निहतं दृष्ट्वा अनुविन्दः प्रतापवान्।
हताश्वं रथमुत्सृज्य गदां गृह्य महाबलः ॥८३॥
अभ्यद्रवत् स सङ्ग्रामे भ्रातुर्वधमनुस्मरन्।
गदया गदिनां श्रेष्ठो नृत्यन्निव महारथः ॥८४॥
अनुविन्दस्स गढ्या ललाटे मधुसूदनम्।
स्पृष्ट्वा नाकम्पयत् क्रुद्धो मैनाकमिव पर्वतम् ॥८५॥
तत्रार्जुनश्शरैष्षड्भिर् ग्रीवां पादौ भुजौ शिरः।
निचकर्त स तु च्छिन्नः पपाताद्रिचयो यथा ॥८६॥
ततस्तौ निहतौ दृष्ट्वा तयो राजन् पदानुगाः।
अभ्यद्रवन्त सङ्कद्धाः किरन्तरशतशश्शरान् ॥८७॥
तानर्जुनश्शरैस्तूर्ण निहत्य भरतर्षभ।
व्यरोचत यथा वहिर दावं दग्ध्वा हिमात्यये ॥८८॥
तयोस्सेनामतिक्रम्य कृच्छ्रान्निन्नन् धनञ्जयः।
विबभौ जलदान हित्वा दिवाकर इवोदितः ॥८९ ॥
तं दृष्ट्वा कुरवस्त्रस्ताः प्रहृष्टाश्चाभवन् पुनः।
अभ्यद्रवन्त पार्थं च समन्ताद्भरतर्षभ ॥९०॥
श्रान्तं चैनं समालक्ष्य ज्ञात्वा दूरे च सैन्धवम्।
सिंहनादेन महता सर्वतः पर्यवारयन् ॥९१॥
तांस्तु दृष्ट्वा सुसंरब्धान् उत्स्मयन् पुरुषर्षभः।
शनकैरिव दाशार्हम् अर्जुनो वाक्यमब्रवीत् ॥९२॥
अर्जुनः—
शरार्दिताश्च कान्ताश्च हया दूरे च सैन्धवः।
किमिहानन्तरं कार्य लाघिष्ठं तव रोचते ॥९३॥
ब्रूहि कृष्ण यथातत्त्वं त्वं हि प्राज्ञतमस्सदा।
भवन्नेत्रा रणे शत्रून् विजेष्यन्ति हि पाण्डवाः ॥॥९४॥
मम त्वनन्तरं कृत्यं यदेतत् त्वं निबोध मे।
हयान् विमुच्य हि सुखं विशल्यान् कुरु माधव ॥९५॥
सञ्जयः—
एवमुक्तस्तु पार्थेन केशवः प्रत्युवाच तम् ॥९६॥
श्रीभगवान्—
ममाप्येतन्मतं पार्थ यदिदं ते प्रभाषितम् ॥९६॥
अर्जुनः—
अहं हि वारयिष्यामि सर्वसैन्यानि केशव।
त्वमप्यत्र यथान्यायं कुरु कार्यमनन्तरम् ॥९७॥
सञ्जयः—
सोऽवतीर्य रथोपस्थाद् असम्भ्रान्तो धनञ्जयः।
गाण्डीवं धनुरादाय तस्थौ गिरिरिवाचलः ॥९८॥
तमभ्यधावन् क्रोशन्तः क्षत्रिया जयकाङ्क्षिणः।
इदं छिद्रमिति ज्ञात्वा धरणीस्थं धनञ्जयम् ॥९९॥
त एनं रथवंशेन समन्तात् पर्यवारयन् ॥१००॥
विकर्षन्तश्च ते चापान विसृजन्तश्च सायकान् ।
विचित्राणि च शस्त्राणि क्रुद्धास्तत्र व्यदर्शयन् ॥१०१॥
छादयन्तश्शरैः पार्थ मेघा इव दिवाकरम् ।
अद्रवंश्चापि वेगेन क्षत्रिया भरतर्षभम् ॥१०२॥
रथसिंह रथोदारा सिंहं मत्ता इव द्विपाः ॥१०२॥
तत्र पार्थस्य भुजयोर महलमदृश्यत।
यत्क्रुद्धा बहुलास्सेनास् सर्वतः पर्यवारयन् ॥१०३॥
अस्राणि संवार्य द्विषतां सर्वतोऽभिभूः।
इषुभिर्बहुभिस्तूर्ण सर्वानेव समावृणोत् ॥१०४॥
तत्रान्तरिक्षे बाणानां प्रगाढानां विशां पते।
सङ्घर्षेण महार्चिष्मान् पावकस्समजायत ॥१०५॥
तत्र तैश्च महेष्वासैशू श्वसद्भिज्ञशोणितोक्षितैः।
हयैर्नागैश्च सम्भिन्नैर् नद॒द्भिश्चारिकर्शन ॥१०६॥
संरब्धवारिभिर्वीरैः प्रार्थयद्भिर्जयं मृधे।
एकस्यैर्बहुभिः क्रुद्धैर् ऊमेव समजायत ॥१०७॥
शरोर्मिणं गजावर्तम् अश्वनक्रं दुरत्ययम्।
पदातिमत्स्यमुद्भूतं शङ्खदुन्दुभिनिस्वनम् ॥१०८॥
असङ्घ चेयमपारं च रजोनीरमतीव च।
उष्णीषकमठच्छन्नं पताका फेनमालिनम् ॥१०९॥
रथसागरमक्षोभ्यं मातङ्गाङ्गशिलाचितम्।
वेलाभूतस्तदा पार्थः पत्रिभिस्समवारयत् ॥११०॥
ततो जनार्दनसङ्ख् ये प्रियं पुरुषसत्तमम्।
असम्भ्रान्तं महाबाहुम् अर्जुनं वाक्यमब्रवीत् ॥१११॥
श्रीभगवान्—
उदपानमिहाश्वानां नाल्पमस्ति रणेऽर्जुन।
परीप्सन्ते जलं चेमे पेयं न त्ववगाहनम् ॥११२॥
सञ्जयः—
इदमस्तीत्यसम्भ्रान्तो ब्रुवन्नत्रेण मेदिनीम्।
अभिहत्यार्जुनश्चक्रे वाजिपानं सरशुभम् ॥११३॥
शरवंशं शरस्थूणं शरच्छादनमद्भुतम् ।
शरवेश्माकरोत् पार्थस् त्वष्टेवाद्भुतकर्मकृत् ॥११४॥
ततः प्रहस्य गोविन्दस् साधु साध्वित्यथाब्रवीत् ।
शरवेश्मनि पार्थेन कृते तस्मिन् महारणे ॥११५॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि षडशीतितमोऽध्यायः ॥८६॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वणि दशमोऽध्यायः ॥१०॥
[अस्मिन्नध्याये ११५॥ श्लोकाः]
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706779039Screenshot2023-12-26160236.png"/>
॥सप्ताशीतितमोऽध्यायः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706779058Screenshot2024-01-09190011.png"/>
श्रीकृष्णेनार्जुननिर्मितसरसि स्नापनादिनाऽऽप्यायितानां तुरगाणां पुना रथे योजनम् ॥१॥ पुना रथमारूढयोः कृष्णार्जुनयोर्जयद्रथं प्रतिगमनम् ॥२॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706779039Screenshot2023-12-26160236.png"/>
सञ्जयः—
सलिले जानते तस्मिन् कौन्तेयेन महात्मना ।
निवारिते द्विषत्सैन्ये कृते च शरवेश्मनि ॥१॥
वासुदेवो रथात् तूर्णम् अवतीर्य महाद्युतिः ।
मोचयामास347 तुरगान् विनुन्नान् कङ्कपत्रिभिः ॥२॥
सिद्धचारणसङ्घानां सैनिकानां च विस्मयात् ।
अदृष्टपूर्वं तद्दृष्ट्वा साधुवादास्समुत्थिताः ॥३॥
पदातिनं तु कौन्तेयं युध्यमानं नरर्षभाः ।
नाशक्नुवन्नभिप्राप्तुं तद्द्भुतमिवाभवत् ॥४॥
आपतत्सु रथौघेषु प्रभूतगजवा जिषु ।
न348 सम्भ्रमं तदा पार्थो गतवान् पुरुषर्षभः ॥५॥
व्यसृजन्त शरौघांस्ते पाण्डवं प्रति पार्थिवाः ।
न चाव्यथत धर्मात्मा वासविः परवीरहा ॥६॥
स तानि शरजालानि गदाः प्रासांश्च वीर्यवान् ।
समन्तादूसते पार्थस् सरितस्सागरो यथा ॥७॥
अस्त्रवेगेन महता पार्थो बाहुबलेन च ।
सर्वेषां पार्थिवेन्द्राणाम् अग्रसत् ताञ् शरोत्तमान् ॥८॥
तत् तु पार्थस्य विक्रान्तं वासुदेवस्य चोभयोः ।
अपूजयन् महाराज कौरवाः परमाद्भुतम् ॥९॥
कौरवाः—
किञ्चाद्भुततरं लोके भविता चाथवाप्यभूत् ।
यदश्वान् पार्थगोविन्दौ पाययामासतू रणे ॥१०॥
भयं विपुलमस्मासु धत्तामति महारथौ ।
तेजो विश्वोमं विस्रम्भाद्रणमूर्धनि ॥११ ॥
सञ्जयः—
दधारैको349 रणे पार्थो बेलोवृत्तमिवामर्णवम् ॥११ ॥
पार्थस्य शरसञ्छन्ने तस्मिन् वेश्मनि भारत \।
आकाशमिव350 सम्प्राप्य विचेरुस्तत्र पक्षिणः ॥१२॥
न चैनं युधि तिष्ठन्तं तव सैन्येषु मारिष \।
अभ्यद्रवत सङ्कद्धः पुमान् कश्चित् तु तावकः ॥१३॥
सर्वे विमनसो भूत्वा तव योधा विशां पते ।
सम्प्रेक्ष्य तत्र गोविन्दं पाण्डवं च धनञ्जयम् ॥१४॥
अथोत्स्मयन्351 हृषीकेशस् स्त्रीमध्य इव भारत ।
अर्जुनेन कृते सङ्ख्ये शरगर्भगृहे विभो ॥१५॥
उपावर्तयदव्यग्रस् तानश्वान् पुष्करेक्षणः।
मिषतां351 सर्वसैन्यानां त्वदीयानां विशां पते ॥१६॥
उपावृत्योत्थितानश्वान् पाणिभ्यां पुष्करेक्षणः।
सम्मार्जयद्रणे राजन् पश्यतां सर्वयोधिनाम्॥१७॥
तेषां श्रमं च ग्लानिं च वमथुं वेपथुं व्रणान् ।
सर्वाण्यपानुदत् कृष्णः कुशलो ह्यश्वकर्मणि ॥१८॥
शल्यानुद्धृत्य पाणिभ्यां परिमृज्य च तान् हयान्।
उपावृत्तान् यथाकामम् पाययामास वारि च ॥१९॥
ततो लब्धोदकान स्नाताञ् जग्धान्नान् विगतकुमान्।
योजयामास संहृष्टः पुनरेव रथोत्तमे ॥२०॥
स तं रथवरं शौरिस् सर्वशस्त्रभृतां वरः।
समास्थाय महातेजास् सार्जुनः प्रययौ तदा ॥२१॥
योजयित्वा हयांस्तत्र विधिदृष्टेन कर्मणा।
रणे चचार गोविन्दस् तृणीकृत्य महारथान् ॥२२॥
रथं रथवरस्याजौ युक्तं लब्धोदकैर्हयैः।
दृष्ट्वा कुरुबलश्रेष्ठाः पुनर्विमनसोऽभवन् ॥२३॥
विनिश्श्वसन्तस्ते राजन् भन्नदंष्ट्रा इवोरगाः।
धिगहोऽघिगतः पार्थः कृष्णश्चेत्यब्रुवन् पृथक् ॥२४॥
सैनिकाः—
सर्वक्षत्रस्य मिषतो रथेनैकेन दंशितौ।
बालः क्रीडनकेनेव कदर्शीकृत्य नो बलम् ॥२५॥
क्रोशतां यतमानानाम् असंसक्तौ परन्तपौ।
दर्शयित्वात्मनो वीर्यं प्रयात सर्वराजसु ॥२६॥
यथा दैवासुरे युद्धे तृणीकृत्य च दानवान् ।
इन्द्राविष्णू पुरा राजञ् जम्मस्य वधकाङ्क्षिणौ ॥२७॥
सञ्जयः—
तौ प्रयातौ पुनर्दृष्ट्वा तवाऽन्ये सैनिका ब्रुवन् ॥२८॥
सैनिकाः—
त्वरध्वं कुरवस्सर्वे वधे कृष्ण किरीटिनोः ॥२८॥
रथं युङ्क्त्वा तु दाशार्हो मिषतां सर्वधन्विनाम्।
जयद्रथाय यात्येष कदर्थीकृत्य नो रणे ॥२९॥
सञ्जयः—
तत्र केचिन्महाराज समभाषन्त पार्थिवाः।
अष्टपूर्व सङ्ग्रामे तद्दृष्ट्वा महदद्भुतम् ॥३०॥
सैनिकाः—
सर्वसैन्यानि राजा च धृतराष्ट्रोऽत्ययं गतः।
दुर्योधनापराधेन क्षत्रम् कृत्स्नं352 च मेदिनी ॥३१॥
विलयं समनुप्राप्ता तच्च राजा न बुध्यते ॥३२॥
सञ्जयः—
इत्येवं क्षत्रियास्तत्र ब्रुवन्त्यन्ये च भारत ॥३२॥
सैनिकाः—
सिन्धुराजस्य यत् कृत्यं गतस्य यमसादनम् ।
तत् करोतु वृथादृष्टिर् धार्तराष्ट्रोऽनुपायवित् ॥३३॥
सञ्जयः—
ततश्शीघ्रतरं प्रायात् सैन्धवं प्रति पाण्डवः।
विवर्तमाने तिग्मांशौ हृष्टैः पीतोदकैयैः ॥३४॥
गाहमानो हानीकानि तूर्णमश्वानचोदयत्।
बलाकवर्ण दाशार्हः पाञ्चजन्यं व्यनादयत् ॥३५॥
तं प्रयान्तं महाबाहुं सर्वशस्त्रभृतां वरम्।
नाशक्नुवन् धारयितुं योधाः क्रुद्धमिवान्तकम् ॥३६॥
विद्राव्य तु ततस्सैन्यं पाण्डवश्श्वेतवाहनः।
यथा मृगगणान् सिंहस् सैन्धवार्थे व्यलोलयत् ॥३७॥
कौन्तेयेनाग्रतस्सृष्टा न्यपतन् पृष्ठतश्शराः।
तूर्णात् तूर्णतरं ह्यश्वास् तेऽवहन् वातरंहसः ॥३८॥
वातोद्धत पताकान्तं रथं जलद निस्वनम्।
घोरं कपिध्वजं दृष्ट्वा विषण्णा बहवोऽभवन् ॥३९॥
दिवाकरेऽथ रजसा सर्वतस्संवृते भृशम्।
शरार्ताश्च रणे योधा न कृष्णौ शेकुरीक्षितुम् ॥४०॥
ततो नृपतयः क्रुद्धाः परिवव्रुर्धनञ्जयम्।
क्षत्रिया339 बहवश्चान्ये जयद्रथवधैषिणम् ॥४१॥
बलेषु353 म्रियमाणेषु वीक्ष्य तं पुरुषर्षभम् ।
दुर्योधनोऽभ्ययात् पार्थ त्वरमाणस्सहानुगः ॥४२॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि सप्ताशीतितमोऽध्यायः ॥८७॥
॥६९॥ जयद्रथववपर्वणि एकादशोऽध्यायः ॥११॥
[अस्मिन्नध्याये ४२ ॥ श्लोकाः]
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706176407Screenshot2023-12-26160236.png"/>
॥अष्टाशीतितमोऽध्यायः॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706176423Screenshot2024-01-09130841.png"/>
जयदर्थं यियासोरर्जुनस्य दुर्योधनेन निरोधः ॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706176407Screenshot2023-12-26160236.png"/>
सञ्जयः—
संसन्त354 इव राजानस् तावकानां भयान्नृप।
तौ दृष्ट्वा समतिक्रान्तौ वासुदेवधनञ्जय ॥१॥
सर्वे तु प्रतिसंरब्धा हीमन्तस्सत्वचोदिताः।
स्थिरीभूता महात्मानः प्रत्यगच्छन् धनञ्जयम् ॥२॥
ये गताः पाण्डवं युद्धे क्रोधामर्षसमन्विताः।
तेऽद्यापि न निवर्तन्ते सिन्धवरसागरादिव ॥३॥
असन्तस्तु355 निवर्तन्ते देवेभ्य356 इव नास्तिकाः।
नरकं भजमानास्ते प्रत्यपद्यन्त किल्बिषम् ॥४॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706177955Screenshot2023-05-17160608.png"/>357तावतीत्य रथानीकं विमुक्तौ पुरुषर्षभौ ।
दहशाते यथा राहोर् आस्यान्मुक्तौ प्रभाकरी ॥५॥
मत्स्या इव महाजालं विदार्य विगतज्वरौ ।
तथा कृष्णावद्दश्येतां सेनाजालं विदार्य तत् ॥६॥
विमुक्तौ शस्त्रसम्बाधाद् द्रोणानीकमहार्णवात् ।
अदृश्येतां महात्मानौ कालसूर्याविवोदितौ ॥७॥
अस्त्रसम्बाधनिर्मुक्तौ विमुक्तौ शत्रसङ्कटात् ।
अदृश्येतामसम्बाधे शस्त्रसम्बाधकारिणौ ॥८॥
विमुक्तौ ज्वलनस्पर्शाज् झषास्यान्मकराविव।
व्यक्षोभयेतां358 सेनां तौ समुद्रं मकराविव ॥९॥
तावकास्तव पुत्राश्च द्रोणानीकस्थयोर्द्वयोः ।
नेमौ तरिष्यतो द्रोणम् इति चक्रुस्तदा मतिम् ॥१०॥
ते तु दृष्ट्वा व्यतिक्रान्तौ ज्वलन्ताविव पावकौ।
नाशशंसुर्महाराज सिन्धुराजस्य जीवितम् ॥११॥
आशा बलवती राजन् पुत्राणामभवत् तव।
द्रोणहार्दिक्ययोः कृष्णौ न मोक्ष्येते इति प्रभो ॥१२॥
तामाशां विफलां कृत्वा निस्तीण तो परन्तपौ ॥१२॥
द्रोणानीकं सुदुर्धर्षं भोजानीकं च दुस्तरम् ।
अथ दृष्ट्वा व्यतिक्रान्तौ ज्वलिताविव पावकौ ॥१३॥
निराशास्सिन्धुराजस्य जीवितं नाशशंसिरे ॥१४॥
मिथञ्च समभाषेताम् अतीतो भयवर्धनौ ।
जयद्रथवधे यत्तौ शूरौ कृष्णधनञ्जयौ ॥१५॥
असौ मध्ये कृतष्षड्भिर् धार्तराष्ट्रैर्महारथैः ।
चक्षुर्विषयसम्प्राप्तो न नौ मोक्ष्यति सैन्धवः ॥१६॥
यद्यस्य समरे गोप्ता शो देवैस्समागतः ।
तथाऽप्येनं हनिष्याव इति कृष्णावभाषताम् ॥१७॥
इति कृष्णौ महाबाहू मिथः कथयतस्तदा ।
सिन्धुराजमवेक्षन्तौ तत्पुत्रास्तव शुश्रुवुः ॥१८॥
अतीत्य मरुधन्वेषु तपान्ते तृषितौ गजौ ।
पीत्वा वारि समाश्वस्तौ तथैवास्तामरिन्दमौ ॥१९॥
व्याघ्रसिंहसमाकीर्णम् अतिक्रम्येव पर्वतम् ।
वणिजाविव359 दृश्येतां होनमृत्यू जरातिगौ ॥२०॥
तथा हि मुखवर्णोऽयम् अनयोरिति मेनिरे ।
तावका दृश्य मुक्तौ तौ विक्रोशन्ति स्म सर्वतः ॥२१॥
द्रोणादाशीविषाकाराज् ज्वलितादिव पावकात्।
निराशास्सिन्धुराजस्य360 जीवितं नाशशंसिरे ॥२२॥
अन्येभ्यः पार्थिवेभ्यश्च भास्वन्ताविव भास्करौ।
तौ मुक्तौ सागरप्रख्याद् द्रोणानीकादरिन्दमौ ॥२३॥
अदृश्येतां मुदा युक्तौ समुत्तीर्यार्णवं यथा ॥२३॥
शस्त्रौघान्महतो मुक्तौ द्रोणहार्दिक्यरक्षितात्।
रोचमानावश्येताम् इन्द्राग्न्योस्सदृशौ गुणैः ॥२४॥
उदीर्णरुधिरौ कृष्णौ भारद्वाजस्य सायकैः।
शितैश्शरैर्व्यरोचेतां कर्णिकारैरिवाचलो ॥२५॥
द्रोणग्राहहदान्मुक्तौ शक्त्यष्टिविषकण्टकात्।
अयोमुसलसम्बाधात् क्षत्रियप्रवराम्भसः ॥२६॥
ज्याघोषतल निदाद् गदानित्रिंशविद्युतः।
द्रोणास्त्रमेघान्निर्मुक्तौ सूर्येन्द्र तिमिरादिव ॥२७॥
बाहुभ्यामिव सन्तीर्णौ सिन्धुषष्ठास्समुद्रगाः।
तपान्ते सरितः पूर्णा महामाहसमाकुलाः ॥२८॥
महाशैलोच्चयां घोरां लवयित्वा महानदीम्।
निस्तीर्णावध्वगौ यद्वत् तद्वत् तौ तारितौ रणे ॥२९॥
इति कृष्णौ महाभागौ यशसा लोकविश्रुतौ।
सर्वभूतान्यमन्यन्त द्रोणास्त्रबलविस्मयात् ॥३०॥
जयद्रथं समीपस्थं समीक्षन्तौ जिघांसया।
रुरुं निपाने लिप्सन्तौ व्याघ्रवत् तावतिष्ठताम् ॥३१॥
यथा हि मुखवर्णोऽयम् अनयोरिति मेनिरे।
तव योधा महाराज हतमाहुर्जयद्रथम् ॥३२॥
लोलिताक्षौ महाबाहू संयत्तौ कृष्णपाण्डवौ।
सिन्धुराजमभिप्रेक्ष्य हृष्टौ निनदतुर्मुहुः ॥३३॥
शौरेरमीशुहस्तस्य पार्थस्य च धनुष्मतः।
तयोरासीत् प्रीतिराजन्361 सूर्यपावकयोरिव ॥३४॥
हर्ष एवं तयोरासीद् द्रोणानीकात् प्रमुक्तयोः।
समीपे सैन्धवं दृष्ट्वा श्येनयोरामिषं यथा ॥३५॥
तौ तु सैन्धवमालोक्य वर्तमानमिवान्तिके।
सहसा पेततुः क्रुद्धौ क्षिप्रं श्येनाविवामिषे ॥३६॥
तौ तु दृष्ट्वा व्यतिक्रान्तौ हृषीकेशधनञ्जयौ।
सिन्धुराजस्य रक्षार्थ पराक्रान्तस्सुतस्तव ॥३७॥
द्रोणेन बद्धकवचो राजा दुर्योधनस्तदा।
ययावेकरथेनाजौ हयसंस्कारवित् प्रभो ॥३८॥
कृष्णपार्थी महेष्वासौ व्यतिक्रम्य तु ते सुतः।
अग्रतः पुण्डरीकाक्षं प्रतीयाय नराधिपः ॥३९॥
जयद्रथस्य362 रक्षार्थं प्रतीयाय नराधिप ॥४०॥
ततस्सैन्यानि सर्वाणि वादित्राणि प्रहृष्टवत् ।
अवादयन्नतिकान्ते पुत्रे तव धनञ्जयम् ॥४१॥
सिंहनादरवाश्चासन् शङ्खशब्द विमिश्रिताः।
दृष्ट्वा दुर्योधनं तत्र कृष्णयोः प्रमुखे स्थितम् ॥४२॥
ये च ते सिन्धुराजस्य गोप्तारः पावकोपमाः।
तेऽप्य हृष्यन्त समरे दृष्ट्वा पुत्रं तवाभि भो ॥४३॥
दृष्ट्वा दुर्योधनं कृष्णस् त्वतिक्रान्तं सहानुगम्।
अब्रवीदर्जुनं राजन प्राप्तकालमिदं वचः ॥४४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि अष्टाशीतितमोऽध्यायः ॥८८॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वणि द्वादशोऽध्यायः ॥१२॥
[अस्मिन्नध्याये ४४॥श्लोकाः]
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॥एकोननवतितमोऽध्यायः॥
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दुर्योधने निरुन्धाने कृष्णेन तदुष्कृतानुस्मरणपूर्वकमर्जुनं प्रति तद्वधचोदना ॥ १ ॥
अर्जुनं प्रति दुर्योधनस्य वीरवादः ॥ २॥
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श्रीभगवान्—
सुयोधनमतिक्रान्तम् एनं पश्य धनञ्जय।
आपतमिमं मन्ये नास्यत्र सदृशो रथः ॥१॥
दूरपाती महेष्वासः कृतास्त्रो युद्धदुर्मदः।
दृढहस्तश्चित्रयोधी363 धार्तराष्ट्रो महारथः ॥२॥
अत्यन्तसुखसंवृद्धो मानितश्च महारथैः।
कृती च सततं पार्थ नित्यं द्वेष्टि च पाण्डवान् ॥३॥
तेन युद्धमहं मन्ये प्राप्तकालमरिन्दम।
अत्र वो द्यूतमायत्तं विजयस्येतरस्य वा ॥४॥
अत्र कोपविषं पार्थ विमुञ्च चिरसम्भृतम् ।
एष मूलं ह्यनर्थानां पाण्डवानां महात्मनाम् ॥५॥
एष प्राप्तस्तवाक्षेपे पश्य साफल्यमात्मनः ।
कथं हि राजा राज्यार्थी त्वया गच्छेत संयुगम् ॥६॥
दिष्टया त्विदानी सम्प्राप्त एष ते बाणगोचरम् ।
यथैष जीवितं जह्यात् तथा कुरु धनञ्जय ॥७॥
ऐश्वर्यमदसम्मूढो नैष दुःखमुपेयिवान् ।
न च ते संयुगे वीर्यं जानाति पुरुषर्षभ ॥८॥
त्वां हि लोकास्त्रयः पार्थ ससुरासुरमानवाः।
नोत्सहन्ते रणे जेतुं किमुतैकस्सुयोधनः ॥९॥
दिष्टया स समरे प्राप्तस् तव पार्थ स्थान्तिकम्।
जोनं वै महाबाहो यथा वृत्रं पुरन्दरः ॥१०॥
एष धनथें सततं पराक्रान्तस्तवानघ।
निकृत्या धर्मराजं च द्यते वञ्जितवानयम् ॥११॥
बहूनि सुनृशंसानि कृतान्येतेन मानद।
युष्मासु पापमतिना अपापेष्वपि नित्यदा ॥१२॥
तमनार्थ सदा क्षुद्र परुषं कामचारिणम्।
आर्या युद्धे मतिं कृत्वा जहि पार्थाविचारयन् ॥१३॥
निकृत्या राज्यहरणं वनवासं च पाण्डव।
परिक्लेशं च कृष्णाया हृदि कृत्वा पराक्रमम् ॥१४॥
दिष्ट चैष तव बाणानां गोचरे परिवर्तते।
विघाते तव कार्यस्य दिष्टया च चरतेऽग्रतः ॥१५॥
दिष्ट चा जानाति सङ्ग्रामे योद्धव्यं हि त्वया सह।
दिष्टया हि सफलाः पार्थ सर्वे कामाश्च कामद ॥१६॥
तस्माज्जहि रणे पार्थ धार्तराष्ट्रं कुलाधमम् ।
यथेन्द्रेण हतः पूर्वं जम्भो दैवासुरे मृधे ॥१७॥
अस्मिन् हते त्वया सैन्यम् अनाथं भिद्यतामिदम् ।
वैरस्य दिष्ट चाऽवभृथं मूलं छिन्धि दुरात्मनः ॥१८॥
सजयः—
तं तथेत्यब्रवीत् पार्थः कृत्यरूपमिदं मम ।
सर्वसैन्यमनादृत्य गच्छ यत्र सुयोधनः ॥१९॥
येनैतदीर्घमध्वानं भुक्तं राज्यमकण्टकम्।
ततोऽप्यस्य व्यतिक्रम्य च्छिन्द्यां मूर्धानमाहवे ॥२०॥
अपि तस्या अनर्हायाः परिक्लेशस्य माधव।
कृष्णायारशक्नुयां हन्तुं पदवीं कलहस्य च ॥२१॥
अप्यहं तानि दुःखानि पूर्ववृत्तानि माधव ।
दुर्योधनं रणे हत्वा प्रतिमोक्ष्ये कथञ्चन ॥२२॥
इत्येवंवादिनौ हृष्टौ कृष्णौ श्वेतान् हयोत्तमान् ।
प्रेषयामासतुरसङ्घ ये प्रेप्सन्तौ तं नराधिपम् ॥२३॥
तयोस्समीपं सम्प्राप्य पुत्रस्ते भरतर्षभ।
न चकार भयं प्राप्ते भये महति मारिष ॥२४॥
तदस्य क्षत्रियाः कर्म सर्व एवाभ्यपूजयन्।
यदर्जुन हृषीकेशौ प्रत्युद्यातोऽविचारयन् ॥२५॥
ततस्सर्वस्य सैन्यस्य तावकस्य विशां पते।
महान् नादो ह्यभूत् तत्र दृष्ट्वा राजानमाहवे ॥२६॥
तस्मिञ्जनसमुन्नादे प्रवृत्ते भैरवे सति।
कदर्थीकृत्य ते पुत्रः प्रत्यमित्रमवारयत् ॥२७॥
आवारितस्तु कौन्तेयस् तव पुत्रेण संयुगे।
संरम्भमगमद्भूयस् स च तस्मिन् परन्तपः॥२८॥
तौ दृष्ट्वा प्रतिसंरब्धौ दुर्योधनधनञ्जयौ।
अभ्यर्वेक्षन्त राजानो भीमवेगास्समन्ततः ॥२९॥
दृष्ट्वा तु पार्थ संरब्धं वासुदेवं च मारिष।
प्रहसन्नेव पुत्रस्ते योद्धुकामस्समाह्वयत् ॥३०॥
ततः प्रहृष्टो दाशार्हः पाण्डवश्च धनञ्जयः।
व्याक्रोशेतां महात्मानौ दध्मतुश्चाम्बुजोत्तमौ ॥३१॥
तौ दृष्टरूपौ सम्प्रेक्ष्य कुरवस्तत्र सर्वशः।
निराशास्समपद्यन्त पुत्रस्य तव जीविते ॥३२॥
शोकमीयुः परं चैव कुरवस्सर्व एव हि।
अमन्यन्त च पुत्रं ते वैश्वानर मुखे हुतम् ॥३३॥
तथा च दृष्ट्वा योधास्ते प्रहृष्टौ कृष्णपाण्डवौ ।
हतो राजा हतो राजेत्यूचुरेव भयार्दिताः ॥३४॥
जनस्य सन्निनादं तं श्रुत्वा दुर्योधनोऽब्रवीत् ॥३४॥
दुर्योधनः—
व्येतु वो भी रणे कृष्णौ प्रेषयिष्यामि मृत्यवे ॥३५॥
सञ्जयः
—
इत्युक्त्वा सैनिकान् सर्वाञ् जयापेक्षी नराधिपः।
पार्थमाभाष्य संरम्भाद् इदं वचनमब्रवीत् ॥३६॥
दुर्योधनः—
पार्थ यच्छिक्षितं तेऽस्त्रं दिव्यं मानुषमेव च।
तदर्शय मयि क्षिप्रं यदि जातोऽसि पाण्डुना ॥३७॥
यद्वलं तव वीर्यं च केशवस्य तथैव च।
तत् कुरुष्व मयि क्षिप्रं पश्यामस्तव पौरुषम् ॥३८॥
अस्मत्परोक्षं कर्माणि प्रवदन्त्यद्भुतानि ते।
स्वामिसत्कारभूतानि364 यानि तानीह दर्शय ॥३९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि एकोननवतितमोऽध्यायः ॥८९॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥
[अस्मिन्नध्याये ३९ श्लोकाः]
॥नवतितमोऽध्यायः॥
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अर्जुनेन दुर्योधनपराजयः ॥
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सञ्जयः—
एवमुक्त्वाऽर्जुनं राजा त्रिभिर्मर्मातिगैश्शरैः।
प्रत्यविध्यन्महावेगैश् चतुर्भिश्चतुरो हयान् ॥१॥
वासुदेवं च दशभिः प्रत्यविध्यत् स्तनान्तरे।
प्रतोदं चास्य बाणेन छित्त्वा भूमावपातयत् ॥२॥
तं चतुर्दशभिः पार्थश् चित्रपुङ्खैश्शिलाशितैः।
अविध्यत् तूर्णमव्यग्रो देहाद्भश्यन्त वर्मणः ॥३॥
तेषां172 वैफल्यमालोक्य पुनर्नव च पञ्च च ।
प्राहिणोन्निशितान् बाणांस् ते ह्यभ्रश्यन्त वर्मणः ॥४॥
श्रीभगवान्
—
अष्टपूर्वं पश्यामि शिलानामिव सर्पणम्।
त्वया सम्प्रेषिताः पार्थ नार्थं कुर्वन्ति पत्रिणः ॥५॥
पश्य गाण्डीवतो बाणांस तथैव भरतर्षभ।
अष्टाविंशच्छितान् बाणांस् तान् वै प्रेक्ष्य स निष्फलान्।
अब्रवीत् परवीरघ्नः कृष्णोऽर्जुनमिदं वचः ॥६॥
मुष्टिश्च ते यथापूर्व भुजयोश्च बलं तव ॥७॥
विधेर्वशादयं कालः प्राप्तस्स्याद्य पश्चिमः।
तव चैवास्य शत्रोच तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः ॥८॥
विस्मयो मे महान् पार्थ तव दृष्ट्वा शरानिमान्।
सङ्ग्रामे पततो व्यर्थान् दुर्योधनरथं प्रति ॥९॥
वज्राशनिसमा घोराः परकायावभेदिनः ।
शराः कुर्वन्ति ते पार्थ पार्थिवेऽद्य विडम्बनाम् ॥१०॥
अर्जुनः—
द्रोणेन नियतं कृष्ण धार्तराष्ट्र निवेशितम्।
अन्ते विहितमत्राणाम् एतत्कवचधारणम् ॥११॥
अस्मिन्नन्तर्हितं कृष्ण त्रैलोक्यमपि वर्मणि।
एको द्रोणो हि वेदैतद् अहं तस्माच्च सत्तमात् ॥१२॥
न शक्यमेतत् कवचं बाणैर्भेत्तुं कथञ्चन।
अपि वज्रेण गोविन्द स्वयं मघवता युधि ॥१३॥
जान॑स्त्वमपि वै कृष्ण मां वै मोहय से कथम्।
यद्वृत्तं त्रिषु लोकेषु वर्तते यच्च केशव ॥१४॥
तथा भविष्यद्यञ्चैव तत् सर्वं विदितं तव।
न त्विदं वेद तत् कश्चिद् यथा त्वं मधुसूदन ॥१५॥
एष दुर्योधनः कृष्ण द्रोणेन विहितामिमाम्।
तिष्ठत्यभीतवत् सङ्घचे बिभ्रत् कवचधारणाम् ॥१६॥
यत्365 तत्र विहितं कार्यं नैष तद्वेत्ति माधव।
स्त्रीवदेष बिभनां युक्तां कवचधारणाम् ॥१७॥
पश्य बाह्वोर्बलं मेऽद्य धनुषश्च जनार्दन ।
पराजयिध्ये कौरव्यं कवचेनाभिरक्षितम् ॥१८॥
इदमप्यङ्गिराः प्रादात् सुरेशायास्त्रमुत्तमम्।
पुनर्ददौ सुरपतिर् मह्यं वर्मसुसङ्ग्रहम् ॥१९॥
दैवं यद्यस्य वतद् ब्रह्मणा वा स्वयं कृतम्।
नैव गोप्स्यति दुर्बुद्धिं वर्म बाणहतं मया ॥२०॥
सञ्जयः—
एवमुक्त्वाऽर्जुनो बाणान् अभिमन्त्र्य व्यकर्षत।
विकृष्यमाणानेवैतान् धनुर्मध्यगताञ् शरान् ॥२१॥
तानस्यात्रेण चिच्छेद द्रौणिस्सर्वास्त्रघातिना ॥२१॥
तान् निकृत्तानिषून दृष्ट्वा दूरतो ब्रह्मवादिना।
न्यवेदयत् केशवाय विस्मितइश्वेतवाहनः ॥२२॥
अर्जुनः—
नैतदस्त्रं मया शक्यं द्विः प्रयोक्तुं जनार्दन।
अस्त्रं मामेव हन्याद्धि पश्याद्या स्त्रबलं मम ॥२३॥
ततो दुर्योधनः कृष्णौ नवभिर्नतपर्वभिः।
शरैर विध्यत रणे त्वरयाऽऽशीविषोपमैः ॥२४॥
भूय एवाभ्यवर्षच्च स रणे कृष्णपाण्डवौ ।
शरवर्षेण महता ततोऽहृष्यन्त तावकाः ॥२५॥
चक्रुर्वादित्रनिनदान् सिंहनादवांस्तदा ॥२६॥
ततः क्रुद्धो रणे पार्थस् सृकिणी परिलेलिहुन् ।
नापश्यत ततोऽस्याङ्गं यन्न स्यार्मरक्षितम् ॥२७॥
ततोऽस्य निशितैर्बाणैर् ज्वलनार्कानिलोपमैः ।
हयांश्चकार निर्देहांस् तथोभौ पाष्णिसारथी ॥२८॥
धनुरस्याच्छिनत् क्षिप्रं हस्तावापं च वीर्यवान् ।
रथं च शकलीकर्तुं सव्यसाची प्रचक्रमे ॥२९॥
दुर्योधनं तु बाणाभ्यां तीक्ष्णाभ्यां विरथीकृतम् ।
अविध्यद्धस्ततलयोर् उभयोरर्जुनस्तदा ॥३०॥
तं कृच्छ्रामापदं प्राप्तं दृष्ट्वा परमधन्विनः ।
समुत्पेतुः परीप्सन्तो धनञ्जयशरार्दितम् ॥३१॥
ते रथैर्बहुसाहस्रैः कल्पितैः कुञ्जरैर्हयैः ।
पदात्योघाश्च संरब्धाः परिवर्धनञ्जयम् ॥३२॥
अथ नार्जुनगोविन्दौ रथो वाऽपि व्यदृश्यत ।
अस्त्रवर्षेण महता शरौघैश्चापि संवृताः ॥३३॥
तताऽर्जुनोऽस्त्रवर्षेण व्यधमत् तां वरूथिनीम् ।
तत्र व्यङ्गाः कृताः पेतुश् शतशोऽथ रथद्विपाः ॥३४॥
ते हता हन्यमानाञ्च न्यगृहंस्तं रथोत्तमम् ।
स रथस्स्तम्भितस्तस्थौ क्रोशमात्रं समन्ततः ॥३५॥
ततोऽर्जुनं वृष्णिवीरस् त्वरितो वाक्यमब्रवीत् ॥३५॥
श्रीभगवान्—
धनुर्विष्फारयात्यर्थम् अहं प्रध्मामि366 चाम्बुजम् ॥३६॥
सञ्जयः—
ततो विष्फार्य बलवद् गाण्डीवं न्यहनद्रिपून् ।
महता शरवर्षेण तलशब्देन चार्जुनः ॥३७॥
पाञ्चजन्यं च बलवद् दध्मौ तारेण केशवः।
रजसा ध्वस्तपक्ष्माक्षः प्रस्विन्नवदनो भृशम् ॥३८॥
तेनाच्युतोष्ठयुगपूरितमारुतेन
शङ्खान्तरोदर विवृद्धविनिस्सृतेन ।
नादेन सासुरवियत्सुरलोकपालम्
उद्विग्नमीश्वरजगत् स्फुटतीव सर्वम् ॥३९॥
तस्य शङ्खस्य नादेन धनुषो निरस्वनेन च।
निस्सत्त्वाच सत्त्वाच क्षितौ पेतुस्तदा जनाः ॥४०॥
तैर्विमुक्तो रथो रेजे वाय्वीरित इवानलः।
जयद्रथस्य गोप्तारस् ततः क्षुब्धास्सहानुगाः ॥४१॥
ते दृष्ट्वा सहसा पार्थ गोप्तारस्सैन्धवस्य तु ।
चक्रुर्नादान् महेष्वासाः कम्पयन्तो वसुन्धराम् ॥४२॥
बाणशब्दरवांचोप्रान् विमिश्राञ् शङ्खनिस्स्वनैः ।
प्रादुश्चक्रुर्महात्मानस् सिंहनादरवानपि ॥४३॥
तं श्रुत्वा निनदं घोरं तावकानां समुत्थितम् ।
प्रदध्मतुश्शङ्खवरौ वासुदेवधनञ्जयौ ॥४४॥
तेन शब्देन महता पूरितेयं वसुन्धरा ।
सशैला सार्णवद्वीपा सपाताला विशां पते ॥४५॥
स शब्दो भरतश्रेष्ठ व्याप्य सर्वा दिशो दश।
प्रतिसवान तत्रैव कुरुपाण्डवयोर्बले॥४६॥
तावका रथिनस्तत्र दृष्ट्वा कृष्णधनञ्जयौ।
तेन शब्देन महता सर्वसैन्येषु पार्थिवाः॥४७॥
सम्भ्रमं परमं प्राप्तास् त्वरमाणा महारथाः ॥४७॥
अथ कृष्णौ महाभागौ तावका दृश्य दंशिताः।
अभ्यद्रवन् युधां श्रेष्ठास् तदद्भुतमिवाभवत् ॥४८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्विकार्या संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि नवतितमोऽध्यायः ॥९०॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
[अस्मिन्नध्याये ४८॥ श्लोकाः]
॥एकनवतितमोऽध्यायः॥
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अर्जुनस्य भूरिश्रवःप्रभृतिभिरष्टभिर्युद्धम् ॥
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सञ्जयः—
तावकारत्व भिसम्प्रेक्ष्य वृष्ण्यन्धककुरूत्तमौ ।
अत्वरंस्तौ जिघांसन्तस् तथैव विजयः परान् ॥१॥
सुवर्णचित्रैर्वैयाघ्रैस् स्वनवद्भिर्महारथैः।
दीपयन्तो दिशस्सर्वा ज्वलद्भिरिव पावकैः ॥२॥
रुक्मपुङ्खैश्च दुष्प्रेक्ष्यैः कार्मुकैः पृथिवीपते।
कूजद्भिरतुलान् नादान रोषितैरुरगैरिव ॥३॥
भूरिश्रवाश्शलः कर्णो वृषसेनो जयद्रथः।
कृपश्च मद्रराजश्च द्रौणिश्च रथिनां वरः ॥४॥
ते पिबन्त इवाकाशम् अश्वैरष्टौ महाजवैः।
व्यनादयन् दश दिशो वैयाघ्रै हेमचन्द्रकैः॥५॥
ते दंशितास्सुसंरब्धा रथैर्मेघौघनिस्स्वनैः।
समावृण्वन् दिशस्सर्वाः पार्थश्च विशिखैस्सह ॥६॥
कौतूहलाद्धयाश्चित्रा वहन्तश्च महारथान् ।
व्यशोभन्त तदाऽऽकाशे दीपयन्तो दिशो दश ॥७॥
आजानेयैर्महावेगैर नानादेशसमुद्भवैः।
पार्वतीयैर्नदीजैश्च सैन्धवैश्च हयोत्तमैः ॥८॥
कुरुयोधवरा राजंस तव पुत्रमभीप्सवः।
धनञ्जयरथं शीघ्रं सर्वतस्समुपाद्रवन् ॥९॥
प्रगृह्य च महाशङ्खान् दध्मुः पुरुषसत्तमाः।
पूरयन्तो दिशः खं च पृथिवीं च ससागराम् ॥१०
तथैव दध्मतुशौ वासुदेवधनञ्जयौ ।
प्रवरौ सर्वयोधानां सर्वशङ्खवरौ भुवि ॥११॥
देवदत्तं च कौन्तेयः पाञ्चजन्यं च केशवः ॥११॥
शब्दस्तु देवदत्तस्य धनञ्जयसमीरितः।
पृथिवीमन्तरिक्षं च दिशञ्चैव समावृणोत् ॥१२॥
तथैव पाञ्चजन्योऽपि वासुदेवसमीरितः।
सर्वशब्दानतिक्रम्य पूरयामास रोदसी ॥१३॥
तस्मिंस्तदा वर्तमाने दारुणे नादसङ्कले।
भीरूणां त्रासजनने शूराणां हर्षवर्धने ॥१४॥
प्रवादितासु भेरीषु झर्झरेवानकेषु च।
मृदङ्गेषु च राजेन्द्र वाद्यमानेष्वनेकशः ॥१५॥
महारथसमाख्याता दुर्योधनहितैषिणः।
अमृष्यमाणास्तं शब्दं क्रुद्धाः परमधन्विनः ॥१६॥
कर्णादयो महेष्वासास् स्वसैन्य परिरक्षिणः।
अमर्पिता महाशङ्खान् दध्मुर्वीरा महारथाः ॥१७॥
कृते प्रतिकरिष्यन्तः केशवस्यार्जुनस्य च ॥१८॥
बभूव तव तत् सैन्यं शङ्खशब्दे समीरिते।
उद्विग्ननरनागाश्वम् अस्वस्थमपि चाभि भो ॥१९॥
तत् प्रहृष्टजनाबाधं भेरीशङ्खनिनादितम्।
बभूव भृशमुद्विमं निर्घातैरिव संवृतम् ॥२०॥
स शब्दस्सुमहान् राजन् दिशस्सर्वा विनादयन्।
त्रासयामास तत् सैन्यं युगान्त इव संवृतम् ॥२१॥
ततो दुर्योधनोऽष्टौ च राजानस्ते महारथाः।
जयद्रथस्य रक्षार्थं पाण्डवं पर्यवारयन् ॥२२॥
ततो द्रौणिस्त्रिसप्तत्या वासुदेवमताडयत्।
अर्जुनं च त्रिभिर्भल्लैर् ध्वजमश्वांश्च पञ्चभिः ॥२३॥
तमर्जुनः पृषत्कानां शतैष्षड्भिरताडयत्।
अत्यर्थमिव सङ्क्रुद्धः प्रतिविद्धे जनार्दने ॥२४॥
कर्ण द्वादशभिर्विवा वृषसेनं त्रिभिस्तदा।
शल्यस्य367 सशरं चापं मुष्टौ चिच्छेद वीर्यवान् ॥२५॥
गृहीत्वा215 धनुरन्यत् तु शल्यो विव्याध पाण्डवम् ॥ २५॥
भूरिश्रवास्त्रिभिर्बाणैर हेमपुङ्खैश्शिलाशितैः।
कर्णो द्वाविंशता चैव वृषसेनश्च पञ्चभिः ॥२६॥
जयद्रथ स्त्रिसप्तत्या कृपश्च दशभिश्शरैः।
मद्रराजश्च दशभिर् विव्यधुः फल्गुनं रणे ॥२७॥
ततश्शराणां षष्टया तु द्रौणिः पार्थमवाकिरत्।
वासुदेवं च सप्तत्या पुनः पार्थ च सप्तभिः ॥२८॥
प्रहसंस्तु नरव्याघ्रश् श्वेताश्वः कृष्णसारथिः।
प्रत्यविध्यत तान् सर्वान् दर्शयन् पाणिलाघवम् ॥२९॥
कर्ण द्वादशभिर्विया वृषसेनं त्रिभिश्शरैः।
शल्यस्य सशरं चापं मुष्टिदेशे यकृन्तत ॥३०॥
सौमदत्ति त्रिभिर्विवा शल्यं च नवभिश्शरैः।
शरैराशीविषाकारद्रौणि विव्याध चाष्टभिः ॥३१॥
गौतमं पञ्चविंशत्या सैन्धवं च शतेन ह।
पुनद्रौणि च विंशत्या शराणां सोऽभ्यताडयत् ॥३२॥
भूरिश्रवास्तु सङ्कद्धः प्रतोदं चिच्छिदे हरेः।
अर्जुनं च त्रिसप्तत्या बाणानामाजघान ह ॥३३॥
ततश्शरशतैस्तीक्ष्णैस् तानरीन् श्वेतवाहनः।
प्रत्यविध्यत् सुसङ्क्रुद्ध महावातो घनानिव ॥३४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्रिकार्या संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि एकनवतितमोऽध्यायः ॥११॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥
[अस्मिन्नध्याये ३४॥ श्लोकाः]
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॥ द्विनवतितमोऽध्यायः॥
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सञ्जयेन स्थानां ध्वजवर्णनम्॥
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धृतराष्ट्रः—
ध्वजान् बहुविधाकारान् भ्राजमानानतिश्रिया।
पार्थानां मामकानां च तान ममाचक्ष्व सञ्जय ॥१॥
सञ्जयः—
ध्वजान् बहुविधाकाराञ् शृणु तेषां महात्मनाम् ।
रूपतो वर्णतश्चैव नामतश्च निबोध मे ॥२॥
तेषां तु रथमुख्यानां रथेषु विविधा ध्वजाः।
प्रत्यदृश्यन्त राजेन्द्र ज्वलिता इव पावकाः ॥३॥
काञ्चनाः काञ्चनापीडाः काञ्चनस्रगलङ्कृताः।
काञ्चनानीव शृङ्गाणि काञ्चनस्य महागिरेः ॥४॥
अनेकवर्णा368 विविधा ध्वजाः परमशोभनाः।
ते ध्वजास्संवृतास्तेषां पताकाभिस्समन्ततः ॥५॥
नानावर्णविचित्राभिश् शोभन्ते सर्वतो दिशः॥५॥
पताकाश्च ततस्तास्तु श्वसनेन समीरिताः।
नृत्यमानाः प्रदृश्यन्ते रङ्गमध्ये यथा स्त्रियः ॥६॥
इन्द्रायुधसवर्णाभाः पताका भरतर्षभ।
दोधूयमाना रथिनां शोभयन्ति महारथान् ॥७॥
सिंहलाङ्गूल उभास्यो ध्वजो वानरलक्षणः।
धनञ्जयस्य सङ्ग्रामे प्रत्यदृश्यत भारत ॥८॥
स वानरध्वजो राजन् पताकाभिरलङ्कृतः।
त्रासयामास तत् सैन्यं ध्वजो गाण्डीवधन्वनः ॥९॥
तथैव सिंहलाङ्गलं द्रोणपुत्रस्य भारत।
ध्वजाप्रे प्रत्यपश्याम बालसूर्यसमप्रभम् ॥१०॥
काञ्चनं पवनोद्धृतं शऋध्वजसमधुति।
नन्दनं कौरवेयाणां द्रौणेर्लक्षणमुच्छ्रितम् ॥११॥
हस्तिकक्ष्या पुनमी बभूवातिरथेर्ध्वजे।
खं चाहवे महाराज ददृशे पूरयन्निव ॥॥१२॥
पताकी काञ्चनस्त्रग्वी ध्वजः कर्णस्य संयुगे ।
नृत्यतीव रथोपस्थे श्वसनेन समीरितः ॥१३॥
आचार्यस्य च पाण्डूनां ब्राह्मणस्य यशस्विनः।
गोवृषो गौतमस्यासीत् कृपस्य च परिष्कृतः ॥१४॥
स तेन भ्राजते राजन् गोवृषेण महारथः।
त्रिपुरघ्नरथो यद्वद् गोवृषेण विराजता ॥१५॥
मयूरो345 वृषसेनस्य काञ्चनो मणिरत्नवान्।
व्याहरन्निव चातिष्ठत् सेनामभिशोभयन् ॥१६॥
तेन तस्य रथो भाति मयूरेण महात्मनः।
यथा स्कन्दरथो राजन् मयूरेण विराजता ॥१७॥
मद्रराजस्य शल्यस्य ध्वजाग्रेऽग्निशिखामिव।
सौवर्णी प्रत्यपश्याम सीतामप्रतिमां शुभाम् ॥१८॥
सा सीता राजते तस्य रथमास्थाय मारिष।
सर्वबीजविरूदेव यथा सीता श्रिया वृता ॥१९॥
वराहस्सिन्धुराजस्य राजतोऽभिविराजते।
ध्वजाने लोहिताङ्गाभो हेमजालपरिष्कृतः ॥२०॥
शुशुभे केतुना तेन राजतेन जयद्रथः।
यथा दैवासुरे युद्धे पुरा पूषा स्म शोभते ॥२१॥
सौमदत्तेः पुनर्यूपो यज्ञशीलस्य धीमतः।
ध्वजस्सूर्य इवाभाति रथे चात्र प्रदृश्यते ॥२२॥
स यूपः काञ्चनो राजन् सौमदत्तेर्विराजते ।
राजसूये ऋतुश्रेष्ठे यथा यूपस्समुच्छ्रितः ॥२३॥
शल्यस्य तु महाराज राजते द्विरदो महान् ।
केतनः काञ्चनस्तत्र मयूखैरिव शोभितः ॥२४॥
स ध्वजोऽशोभयत् सैन्यं तावकं भरतर्षभ ।
यथा श्वेतो महानागो देवराजचमूं तथा ॥२५॥
नागो मणिमयो राज्ञो ध्वजः केतनसंवृतः।
किङ्किणीशतनिदो भ्राजजैत्रे महारथे ॥२६॥
व्यभ्राजत भृशं राजन पुत्रस्तव विशां पते ।
ध्वजेन महता सङ्ख्ये कुरूणामृषभस्तदा ॥२७॥
नवैते तव वाहिन्याम् उच्छ्रिताः परमध्वजाः।
व्यदीपयंस्ते369 पृतनां युगान्तादित्यसन्निभाः ॥२८॥
दशमस्त्वर्जुनस्यासीद् एक एव महाकपिः।
अदीव्यदर्जुनस्तेन हिमवानिव शम्भुना ॥२९॥
ततश्चित्राणि शुभ्राणि सुमहान्ति महारथाः।
कार्मुकाण्याददुस्तूर्णम् अर्जुनार्थं परंतपाः ॥३०॥
तथैव धनुरायच्छत् पार्थश्शत्रुविनाशनम्।
धनुस्तद् गाण्डीवं दिव्यं राजन् दुर्मन्त्रिते तव ॥३१॥
तवापराधाद्राजेन्द्र बहुधा निहता नराः।
नानादेशसमाहूतास् सहयास्सरथद्विपाः ॥३२॥
तेषामासीव्यतिक्षेपो गर्जतामितरेतरम्।
दुर्योधनमुखानां च पाण्डूनामृषभस्य च ॥३३॥
तत्राद्भुतं परं चक्रे कौन्तेयः कृष्णसारथिः।
यदेको बहुभिस्सार्धं समागच्छदभीतवत् ॥३४॥
अशोभत महाबाहुर गाण्डीवं विक्षिपन् धनुः।
जिगीषुस्तान् रथश्रेष्ठान् जिघांसुश्च जयद्रथम् ॥३५॥
ततोऽर्जुनो महाराज शरैर्मुक्तैरसहस्रशः।
अदृश्यानकरोद्योघांस् तावकाञ् शत्रुतापनः ॥३६॥
ततस्तेऽपि महाभागास् सर्वे पार्थ महारथाः।
अदृश्यं समरे चक्रुस् सायकौघैस्समन्ततः ॥३७॥
संवृते नरसिंहे तैः कुरूणामृषभेऽर्जुने ।
महानासीत् समुद्धतस् तस्य सैन्यस्य निरस्वनः ॥३८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि द्विनवतितमोऽध्यायः ॥१२॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वणि पञ्चदशोऽध्यायः ॥१५॥
[अस्मिन्नध्याये ३८॥ श्लोकाः]
॥त्रिनवतितमोऽध्यायः॥
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द्रोणयुधिष्ठिरयोर्युद्धम् ॥
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धृतराष्ट्रः—
अर्जुने सैन्धवं याते भारद्वाजेन संवृताः ।
पाञ्चालाः कुरुभिस्सार्धं किमकुर्वत सञ्जय ॥१॥
सञ्जयः—
अपराहें महाराज सङ्ग्रामे रोमहर्षणे ।
पाञ्चालानां कुरूणां च द्रोणे युद्धमवर्तत ॥२॥
पावाला हि जिघांसन्तो द्रोणं संहृष्टचेतसः।
अभ्यमुञ्चन्त गर्जन्तश् शरवर्षाणि भूरिशः ॥३॥
ततस्सुतुमुलस्तेषां सङ्ग्रामोऽवर्तताद्भुतः।
पाञ्चालानां कुरूणां च घोरो दैवासुरोपमः ॥४॥
सर्वे द्रोणरथं प्राप्य पाञ्चालाः पाण्डवैस्सह।
तदनीकं बिभित्सन्तो महास्त्राणि व्यदर्शयन् ॥५॥
द्रोणस्य रथपर्यन्तं रथिनो रथमास्थिताः।
कम्पयन्तोऽभ्यवर्तन्त वेगमास्थाय मध्यमम् ॥६॥
तमभ्ययागृहत्क्षत्रः केकयानां महारथः।
प्रवमन्निशितान्351 बाणान् महेन्द्राशनिसन्निभान् ॥७॥
तं तु प्रत्युदियाच्छीघ्रं क्षेमधूर्तिर्महारथः ।
विमुञ्चन् निशितान् बाणाञ् शतशोऽथ सहस्रशः ॥८॥
धृष्टकेतुश्च चेदीनाम् ऋषभोऽतिबलोदितः ।
त्वरितोऽभ्यद्रवद् द्रोणं महेन्द्र मिव शम्बरः॥९॥
तमापतन्तं सहसा व्यादितास्यमिवान्तकम् ।
वीरधन्वा महेष्वासस् त्वरमाणस्समभ्ययात्॥१०॥
युधिष्ठिरं महाराज जिगीषुं समुपस्थितम् ।
सहानीकं स्मयन् द्रोणो न्यवारयंत तदूली॥११॥
नकुलं रभसा युद्धे पराक्रान्तं पराक्रमी।
अभ्यगच्छत् समायान्तं विकर्णस्ते सुतः प्रभो॥१२॥
सहदेवं तथाऽऽयान्तं दुर्मुखश्शत्रुकर्शनः।
शरैरनेकसाहस्रैस् समवारयदायुगैः॥१३॥
सात्यकिं तु नरव्याघ्रं व्याघ्रदत्तस्त्ववाकिरत् ।
शरैस्सुनिशितैरुयैः कम्पयन् वै मुहुर्मुहुः ॥१४॥
द्रौपदेयान् नरव्याघ्रान मुञ्चतस्सायकोत्तमान् ।
संरब्धान् रथिनां श्रेष्ठस् सौमदत्तिरवारयत् ॥१५॥
भीमसेनमथायान्तं घोररूपो भयानकः।
प्रत्यवारयदायान्तम् आर्यटङ्गिर्महारथः ॥१६॥
तयोस्समभवद्युद्धं नरराक्षसयोर्मृधे।
यादशं वै पुरावृत्तं रामरावणयोर्नृप ॥१७॥
ततो युधिष्ठिरो द्रोणं नवत्या नतपर्वणाम्।
आजघ्ने भरतश्रेष्ठस् सर्वमर्मसु भारत ॥१८॥
तं द्रोणः पञ्चविंशत्या निजधान स्तनान्तरे।
रोषितो भरतश्रेष्ठ कौन्तेयेन महात्मना ॥१९॥
अदृश्यं समरे चक्रे राजानं सायकोत्तमैः।
साश्वसूतध्वजं द्रोणः पश्यतां सर्वधन्विनाम् ॥२०॥
ताञ् शरान् द्रोणमुक्तान स्म शरवर्षेण पाण्डवः।
न्यवारयत धर्मात्मा दर्शयन् हस्तलाघवम् ॥२१॥
ततो द्रोणो भृशं क्रुद्धो धर्मराजस्य संयुगे ।
चिच्छेद सहसा धन्वी धनुस्तस्य महात्मनः ॥२२॥
अथैनं छिन्नधन्वानं त्वरमाणो महारथः।
शरैरनेकसाहस्रैः पूरयामास सर्वतः ॥२३॥
अदृश्यं दृश्य राजानं भारद्वाजस्य सायकैः।
सर्वभूतान्यमन्यन्त हतमेव370 युधिष्ठिरम् ॥२४॥
केचिञ्चैनममन्यन्त तथा वै विमुखीकृतम्।
हृतो राजेति राजेन्द्र ब्राह्मणेन यशस्विना ॥२५॥
स कृच्छ्रं परमं प्राप्तो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
त्यक्त्वा तत् कार्मुकं छिन्नं भारद्वाजेन संयुगे ॥२६॥
आददेऽन्यद्धनुर्दिव्यं भारघ्नं वेगवत्तरम् ॥२६॥
ततस्तान् सायकान् सर्वान् द्रोणमुक्तान् सहस्रशः।
चिच्छेद समरे वीरस् तदद्भुतमिवाभवत् ॥२७॥
छित्वा च ताञ् शरान् राजन् क्रोधसंरक्तलोचनः ।
शक्तिं जग्राह समरे गिरीणामपि दारिणीम् ॥२८॥
हेमदण्डां महाघोषाम् अष्टघण्टां भयावहाम् ।
समुत्क्षिप्य च तां हृष्टो ननाद बलवद्वली ॥२९॥
तां रणे सर्वभूतानि त्रासयन्तीमिव प्रभो ।
शक्तिं समुद्यतां दृष्ट्वा धर्मराजेन संयुगे ॥३०॥
स्वस्ति द्रोणाय सहसा सर्वसैन्यान्यथाब्रुवन् ॥३१॥
सा राजभुजनिर्मुक्ता निर्मुक्तोरगसन्निभा ।
प्रज्वालयन्ती गगनं दिशश्च विदिशस्तथा ॥३२॥
द्रोणानीकमनुप्राप्ता कालरात्रीव भारत।
कन्येवोरगराजस्य दीप्तास्या पन्नगी यथा ॥३३॥
तामापतन्तीं सहसा प्रेक्ष्य371 द्रोणो विशां पते।
प्रादुश्चक्रे ततो ब्राह्मम् अस्त्रमस्त्रविदां वरः ॥३४॥
तदस्खं भस्मसात् कृत्वा तां शक्ति घोरदर्शनाम् ।
जगाम स्यन्दनं तूर्णं पाण्डवस्य यशस्विनः ॥३५॥
ततो युधिष्ठिरो राजा द्रोणास्त्रं तत् समुद्यतम् ।
अशामयन्महाप्राज्ञो ब्रह्मास्त्रेणैव भारत॥३६॥
स विव्याध रणे द्रोणं पञ्चभिर्नतपर्वभिः।
क्षुरप्रेण च तीक्ष्णेन चिच्छेदास्य महद्धनुः॥३७॥
तदपास्य धनुश्छिन्नं द्रोणः क्षत्रियमर्दनः।
गदां चिक्षेप सहसा धर्मपुत्राय मारिष ॥३८॥
तामापतन्ती372 सहसा गदां दृष्ट्वा युधिष्ठिरः।
गदामेवाग्रहीत् क्रुद्धश् चिक्षेप च परंतपः ॥३९॥
ते गदे सहसा मुक्ते समासाद्य परस्परम्।
सङ्घर्षात् पावकं मुक्त्वा समेयातां महीतले ॥४०॥
ततो द्रोणो भृशं क्रुद्धो धर्मराजस्य मारिष।
चतुर्भिनिशितैर्जघ्ने हयांस्तीक्ष्णैश्शरोत्तमैः ॥४१॥
धनुश्चैकेन बाणेन चिच्छेदेन्द्रध्वजोपमम्।
केतुमेकेन चिच्छेद पाण्डवं चार्दयत् त्रिभिः ॥४२॥
हताश्वात् तद्र्थात् तूर्णम् अबप्लुत्य युधिष्ठिरः।
तस्थावूर्ध्वभुजो राजा व्यायुधो भरतर्षभ॥४३॥
विरथं तं समालोक्य व्यायुधं च विशेषतः ।
द्रोणो व्यामोहयच्छी सर्वसैन्यानि चाभि भो ॥४४॥
मुञ्चभिषुगणांस्तीक्ष्णालहस्तो दृढव्रतः ।
अभिदुद्राव राजानं सिंहो द्विपमिवोन्मदम् ॥४५॥
तमभिद्रुतमालोक्य द्रोणेनामित्रघातिना।
हाहेति सहसा शब्दः पाण्डूनां समजायत ॥४६॥
हृतो राजा हृतो राजा भारद्वाजेन मारिष।
इत्यासीच्च महाञ् शब्दः पाण्डुसैन्येषु सर्वतः ॥४७॥
ततस्त्वरितमारुह्य सात्यकेश्च373 रथं नृप।
अपायाजवनैरवैः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥४८॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकाया संहितायां वैया सिक्यां
द्रोणपर्वणि विनवतितमोऽध्यायः ॥९३॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः ॥१७॥
[अस्मिन्नध्याये ४८ श्लोकाः]
॥चतुर्नवतितमोऽध्यायः॥
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सङ्कलयुद्धवर्णनम् ॥१॥ द्रौपदेयैः शलवधः ॥२॥ भीमसेनेनालम्बुसपराजयः ॥३॥
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सञ्जयः—
बृहत्क्षत्रमथायान्तं केकयं दृढविक्रमम् ।
क्षेमधूर्तिर्महाराज विव्याधोरसि मार्गणैः ॥१॥
बृहत्क्षत्रस्तु तं राजा नवत्या नतपर्वभिः।
आजम्ने त्वरितो युद्धे द्रोणानीकविभित्सया ॥२॥
क्षेमधूर्तिस्तु संरब्धः केकयस्य महात्मनः।
धनुश्चिच्छेद भल्लेन पीतेन निशितेन च ॥३॥
अथैनं374 छिन्नधन्वानं शितेन नतपर्वणा।
विव्याध हृदये तूर्ण प्रवरं सर्वधन्विनाम् ॥४॥
अथान्यद्धनुरादाय बृहत्क्षत्रो हसन्निव ।
व्यश्वसूतध्वजं चक्रे क्षेमधूर्ति महारथम् ॥५॥
ततोऽपरेण भल्लेन पीतेन निशितेन च ।
जहार नृपतेः कायाच् छिरो ज्वलितकुण्डलम् ॥६॥
तच्छिन्नं सहसा तस्य शिरः कुचितमूर्धजम् ।
सकिरीटं महीं प्राप्य बभौ ज्योतिरिवाम्बरात् ॥७॥
निहत्य रणे हृष्टो बृहत्क्षत्रो375 महारथः।
सहयोऽभ्यपतत् तूर्ण तावकं पाण्डकारणात् ॥८॥
धृष्टकेतुमथाऽऽयान्तं द्रोणहेतोः पराक्रमी।
वीरधन्वा महेष्वासो वारयामास भारत ॥९॥
तौ परस्परमासाद्य शरदंष्ट्रौ तरखिनौ।
शरैरनेकसाहस्रैर् अन्योन्यमभिजघ्नतुः ॥१०॥
तावुभौ नरशार्दूलौ युयुधाते परस्परम्।
महावने तीव्रमदौ वारणाविव यूथपौ ॥१९॥
गिरिगह्वरमासाद्य शार्दूलाविव रोषितौ।
तावुभौ नरशार्दूलौ पीडयन्तौ परस्परम् ॥१२॥
तयुद्धमासीत् तुमुलं प्रेक्षणीयं विशां पते।
सिद्धचारणसङ्घानां विस्मयाद्भुतदर्शनम् ॥१३॥
वीरधन्वा ततः क्रुद्धो धृष्टकेतोश्शरासनम्।
द्विधा चिच्छेद भल्लेन प्रहसन्निव भारत ॥१४॥
तदुत्सृज्य धनुश्छिन्नं चैद्यो राजा महायशाः।
शक्ति जग्राह विपुलां रुक्मदण्डामयस्मयीम् ॥१५॥
तां तु शक्तिं महावीय महतीमथ भारत।
चिक्षेप सहसा यत्तो वीरधन्वरथं प्रति ॥१६॥
स तथा वीरघातिन्या शक्त्या त्वभिहतो भृशम् ।
निर्भिन्न हृदयस्तूर्ण निपपात रथान्महीम्॥१७॥
तस्मिन् विनिहते वीरे गर्तानां महारथे ।
बलं तेऽभज्यत विभो पाण्डवेयैस्समन्ततः॥१८॥
सहदेवे ततष्षष्टिं सायकान् दुर्मुखोऽक्षिपत् ।
ननाद च महानादं तर्जयन् पाण्डवं रणे॥१९॥
माद्रेयस्तु ततः क्रुद्धो दुर्मुखं दशभिश्शरैः।
भ्राता भ्रातरमायत्तो विव्याध प्रहसन्निव॥२०॥
तं रणे रभसं दृष्ट्वा सहदेवं महाबलम् ।
दुर्मुखो नवभिर्बाणैस् ताडयामास भारत॥२१॥
दुर्मुखस्य तु भल्लेन च्छित्वा376 केतुं महाबलः।
जघान चतुरो वाहांश् चतुर्भिर्निशितैश्शरैः ॥२२॥
अथापरेण भल्लेन पीतेन परवीरहा।
चिच्छेद सारथेः कायाच् छिरो ज्वलितकुण्डलम् ॥२३॥
क्षुरप्रेण च तीक्ष्णेन कौरव्यस्य महद्धनुः।
सहदेवो रणे च्छित्वा तं च विव्याध पञ्चभिः ॥२४॥
हताश्व तु रथं त्यक्त्वा दुर्मुखो विमनास्तदा।
आरुरोह रथं राजन् निरमित्रस्य भारत ॥२५॥
सहदेवस्तु सङ्क्रुद्धो निरमित्रं महाहवे ।
जघान पृथुधारेण भल्लेन परवीरहा ॥२६॥
स पपात रथोपस्थान्निरमित्रो जनेश्वरः।
त्रिगर्तराजस्य सुतो व्यथयंस्तव वाहिनीम् ॥२७॥
हत्वा तं तु महाबाहुस् सहदेवो व्यरोचत।
यथा दाशरथी रामः खरं हत्वा महाबलम् ॥२८॥
हाहाकारो महानासीत् त्रिगर्तानां जनेश्वर।
राजपुत्रं हतं दृष्ट्वा निरमित्रं महाबलम् ॥२९॥
नकुलस्ते सुतं वीरो विकर्णं पृथुलोचनम्।
मुहूर्ताजितवान् सङ्ख्ये तदद्भुतमिवाभवत् ॥३०॥
सात्यकिं व्याघ्रदत्तस्तु शरैस्सन्नतपर्वभिः।
चक्रेऽदृश्यं साश्वसूतं सध्वजं पृतनान्तरे ॥३१॥
तान् निवार्य शराञ् शूरश् शैनेयः कृतहस्तवत्।
साश्वसूतध्वजं बाणैर् व्याघ्रदत्तमपातयत् ॥३२॥
कुमारे निहते तस्मिन् मागधस्य सुते प्रभो।
मागधास्सर्वतो यत्ता युयुधानमयोधयन् ॥३३॥
विसृजन्तश्शरांश्चैव345 तोमरांश्च सहस्रशः।
भिण्डिपालांस्तथा प्रासान् मुसलान मुद्ररानपि ॥३४॥
अयोधयन् रणे वीरास् सात्वतं युद्धदुर्मदम् ॥३४॥
तांस्तु सर्वान् स बलवान् सात्यकिर्युद्धदुर्मदः।
नातिकृच्छ्राद्धसन्नेव विजिग्ये पुरुषर्षभ ॥३५॥
मागधान् द्रवतो दृष्ट्वा हतशेषान् समन्ततः।
अभज्यत बलं तत् ते युयुधानशरार्दितम् ॥३६॥
नाशयित्वा रणे सैन्यं त्वदीयांस्तु समन्ततः।
विघ्न्वानो धनुरश्रेष्ठं व्यभ्राजत महायशाः ॥३७॥
यथा दैत्यचमूं हत्वा शको राजन् व्यरोचत ॥३८॥
भज्यमानं बलं सर्व सात्वतेन महात्मना ।
नाभ्यद्रवत युद्धाय त्रासितं दीर्घबाहुना ॥३९॥
ततो द्रोणो भृशं क्रुद्धस् सहसोहृत्य चक्षुषी ।
सात्यकिं सत्यकर्माणं स्वयमेवाभिदुद्रुवे <MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706512051Screenshot2023-05-17160608.png"/>257॥४०॥
द्रौपदेयान् महेष्वासान् सौमदत्तिर्महारथः।
एकैकं पञ्चभिर्विवा पुनर्विव्याध सप्तभिः ॥४१॥
ते377 पीडिता भृशं तेन रौद्रेण सहसा प्रभो ।
सम्मूढा नैव विविदुर मृधे कृत्यं हि किञ्चन ॥४२॥
नाकुलिश्च शतानीकस् सौमदत्ति नरर्षभम् ।
द्वाभ्यां विवाऽनदद्धृष्टश् शराभ्यां शत्रुतापनः ॥४३॥
तथेतरे रणे यत्तास् त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः।
विव्यधुस्समरे तूर्णं सौमदत्तिममर्षणम् ॥४४॥
स तान् प्रति महाराज चिक्षिपे पञ्च सायकान् ।
एकैकं हृदि चाजन्ने एकैकेन महायशाः ॥४५॥
ततस्ते378 भ्रातरः पञ्च शरैर्विद्धा महात्मना।
परिवार्य रथैवी॑रं विव्यधुस्सायकैर्भृशम् ॥४६॥
आर्जुनिस्तु हयांस्तस्य चतुर्भिर्निशितैश्शरैः।
प्रेषयामाससङ्क्रुद्धो को यमस्य सदनं प्रति ॥४७॥
भैमसेनिर्धनुरिछत्त्वा सौमदत्तेर्महात्मनः।
ननाद बलवन्नादं विव्याध निशितैश्शरैः ॥४८॥
यौधिष्ठिरो ध्वजं च्छित्वा तस्य भूमावपातयत् ।
नाकुलिश्चास्य यन्तारं रथनीडादपातयत् ॥४९॥
साहदेविस्तु तं मत्वा भ्रातृभिर्विमुखीकृतम् ।
क्षुरप्रेण शिरो राजन् निचकर्त महाहवे ॥५०॥
तच्छिरो न्यपतद्भूमौ तपनीयविभूषितम् ।
भासयत्तद्रणोद्देशं बालसूर्यसमप्रभम् ॥५१॥
सौमदत्ते शिशरो दृष्ट्वा निपतत्तन्महात्मनः ।
वित्रस्तास्तावका राजन् प्रदुद्रुवुरनेकधा ॥५२॥
अलम्बुसस्तु समरे भीमसेनं महाबलम्।
योधयामास सङ्क्रुद्धो लक्ष्मणं रावणिर्यथा ॥५३॥
सम्प्रयुद्धौ ततो दृष्ट्वा तावुभौ भीमराक्षसौ।
विस्मयस्सर्वभूतानां भयं चासीत् सुदारुणम् ॥५४॥
आर्यशृङ्गं तदा भीमो नवभिर्निशितैश्शरैः।
विव्याध प्रहसन् राजन् राक्षसेन्द्रमर्षणम् ॥५८॥
तद्रक्षस्समरे विद्धं नादं कृत्वा भयावहम्।
अभ्यद्रवत् ततो भीमं ये च तस्य पदानुगाः ॥५६॥
स भीमं पञ्चभिर्विद्रा शरैस्सन्नतपर्वभिः।
भीमानुगाञ्379 जघानाशु रथांत्रिंशदरिन्दमः ॥५६॥
पुनश्चतुश्शतान् हत्वा भीमं विव्याध पत्रिणा ॥५७॥
सोऽतिविद्धस्तदा भीमो राक्षसेन महाबलः।
निषसाद रथोपस्थे मूर्च्छयाऽभिपरिप्लुतः ॥५८॥
प्रतिलभ्य ततस्संज्ञां मारुतिः क्रोधमूच्छितः ।
विकृष्य कार्मुकं घोरं भारसाधनमुत्तमम् ॥५९॥
अलम्बुसं शरैस्तीक्ष्णैर् अर्दयामास भारत ॥६०॥
स विद्धो दशभिर्बाणैर् नीलाञ्जनचयोपमः।
शुशुभे सर्वतो राजन् प्रफुल्ल380 इव किंशुकः ॥६९॥
स विध्यमानस्समरे भीमचापच्युतैश्शरैः ।
स्मरन् भ्रातृवधं चैव पाण्डवेन महात्मना ॥६२॥
घोरं रूपमथो कृत्वा भीमसेनमभाषत ॥६२॥
अलम्बुसः—
तिष्ठेदानीं रणे पार्थ पश्य मेऽद्य पराक्रमम् ॥६३॥
बको नाम सुदुर्बुद्धे राक्षसप्रवरो बली ।
परोक्षं मम तद्वृत्तं यन्मे भ्राता हतस्त्वया ॥६४॥
सञ्जयः—
एवमुक्त्वा ततो भीमम् अन्तर्धानं गतस्तदा।
महता शरवर्षेण भृशं तं समवाकिरत् ॥६५॥
भीमस्तु समरे राजन्नदृश्ये राक्षसे तदा।
आकाशं पूरयामास शरैस्सन्नतपर्वभिः ॥६६॥
स वध्यमानो भीमेन निमेषाद्रथमास्थितः।
जगाम धरणीं क्षुद्रः खं चैव सहसाऽगमत् ॥६७॥
उच्चावचानि रूपाणि स चकार बहूनि च।
उच्चावचास्तथा वाचो व्याजहार समन्ततः ॥६८॥
तेन381 पाण्डवसैन्यानां मृदिता युधि वारणाः।
हयाश्च बहवो राजन् पत्तयश्च समन्ततः ॥६९॥
रथेभ्यो रथिनस्तत्र पेतू राक्षससायकैः ॥६९॥
शोणितोदां रथावर्ता हस्ताहां ध्वजाकुलाम्।
छत्रहंसां मज्जपङ्कां बाहुपन्नगसङ्कुलाम् ॥७०॥
वहन्ती सृञ्जयांश्चैव पाञ्चालानथ बाह्रिकान्।
नदी प्रवर्तयामास रक्षोगणसमाकुलाम् ॥७१॥
तं तथा समरे राजन् विचरन्तमभीतवत् ।
पाण्डवा भृशसंविग्नाः प्रापश्यंस्तस्य विक्रमम् ॥७२॥
तावकानां तु सैन्यानां प्रहर्षस्समजायत ॥७३॥
ततो382 वादित्रनिनदस् सुमहान् समजायत।
प्रहर्षयन् रणे रक्षः पाण्डवांश्च व्यमोहयत् ॥७४॥
तंश्रुत्वा निनदं घोरं तव सैन्येषु पाण्डवाः।
नामृष्यन्त यथा नागास् तलशब्दं समीरितम् ॥७६॥
ततः क्रोधाभिताम्राक्षो निर्दहन्निव भारत ।
सन्दधे त्वाष्ट्रमस्त्रं स स्वयं त्वष्टेव मारिष॥७६॥
ततश्शरसहस्राणि प्रादुरासन् समन्ततः ॥७६॥
तैश्शरैस्तव सैन्यस्य विद्रवस्सुमहानभूत् ॥७७॥
तदस्त्रं प्रेषितं तेन भीमसेनेन संयुगे ।
राक्षसस्य महामायां हत्वा राक्षसमर्दियत् ॥७८॥
स वध्यमानो बहुधा भीमसेनेन राक्षसः।
सन्त्यज्य संयुगे भीमं द्रोणानीकमथाव्रजत् ॥७९॥
तस्मिंस्तु निर्जिते राजन राक्षसेन्द्रे महात्मना।
व्यनादयन् सिंहनादैः पाण्डवास्सर्वतो दिशम् ॥८०॥
अपूजयन् मारुतिं च संहृष्टास्तं महाबलम् ।
प्रादमिव दैतेया यथा शक्रं मरुद्गणाः ॥८१॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि चतुर्नवतितमोऽध्यायः ॥१४॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः ॥१८॥
[ अस्मिन्नध्याये ८१ श्लोकाः]
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॥पञ्चनवतितमोऽध्यायः॥
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घटोत्कचेनालम्बुसवधः ॥
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सञ्जयः—
किरन्तं शरवर्षाणि रोषा होणं महामृधे ।
वित्रासयन्तं तां सेनां कौन्तेयानां महीपते ॥१॥
दृष्ट्वा ततो महेष्वासो निघ्नन्तं च रथान् भृशम् ।
घटोत्कचो महाबाहू रणायाभिजगाम ह ॥२॥
पिशाचवदनैर्युक्तं रथं काञ्चनभूषितम् ।
समास्थाय महाराज नानाप्रहरणैर्वृतम् ॥३॥
दंशितस्तपनीयेन कवचेन सुवर्चसा।
भूषणैराचिताङ्गञ्च नदन्निव च तोयदः ॥४॥
हैडिम्बेसुद्धोद्रोणमभ्यद्रवली ॥४॥
तमभ्यधावदायान्तं क्रुद्धरूपमलम्बुसः ।
ऋक्षचर्मपरिक्षिप्तं रथमास्थाय दंशितः ॥५॥
रक्तोष्ठवदनः प्रांशुः कल्पवृक्ष इव स्थितः ।
क्षिपञ्छतन्त्री विपुलां मुसलोपमतोमरान् ॥६॥
मुसुण्ठीर्बहुलाश्चैव त्रिशूलानपि पट्टसान् ।
कर्पराञ्छतधारांश्च पिनाकान् विविधांस्तथा ॥७॥
चक्राणि च क्षुरप्राणि क्षेपणीश्च कटङ्कटान् ।
नाराचान् विविधानस्यन् सकङ्कोलूकवायसान् ॥८ ॥
चिक्षेप धनुरादाय निनदन भैरवान् वान् ॥९॥
तं रौद्रं क्रूरमायान्तं दृष्ट्वा कालमिवागतम् ।
प्राद्रवयसविना सा राजन् पाण्डवाहिनी ॥१०॥
सात्यकिस्तु रथव्याघ्रो दृष्ट्वा तं राक्षसं युधि ।
अभ्ययादमरप्रख्यो भ्रामयित्वा महद्धनुः ॥११॥
अभ्यद्रवञ्च तद्रक्षस् तिष्ठ तिष्ठति चाब्रवीत्।
अलम्बुसं राक्षसेन्द्रं सोऽस्त्रवर्षैरवाकिरत् ॥१२॥
ततः पाण्डवसैन्यानि विद्रुतान्यथ भारत।
निरीक्ष्याभ्यद्रवत् तूर्णं त्वरमाणो घटोत्कचः ॥१३॥
चिक्षेप च गदाश्शक्तीस् तोमरानथ पट्टसान्।
हेम चित्रत्सरूनुग्रान् खड्गानाकाशसप्रभान् ॥१४॥
अन्योन्यमारादालोक्य राक्षसौ तौ महाबलौ।
भैरवं नेदतुर्नादान् सतोयाविव तोयदौ ॥१५॥
ततः प्रववृते युद्धं तयो राक्षससिंहयोः।
याहगेव382 पुरा वृत्तं रामरावणयोर्मृधे ॥१६॥
स शक्तीश्च पिनाकांश्च वज्रान् खड्गान् परश्वथान् ।
अन्योन्यममितदा व्यसृजता मुभौ ॥१७॥
आकृष्यमाणे धनुषि तयोर्बाहुबलेन च।
यन्त्रेणेव तदा राजन भृशं नादान् प्रचऋतुः ॥१८॥
अलम्बुसस्ततश्चक्रं कृतान्तज्वलनप्रभम्।
घटोत्कचाय चिक्षेप यत्नमास्थाय वीर्यवान् ॥१९॥
तद्भैमसेनिस्सम्प्रेक्ष्य चक्रं वेगवदन्तरे ।
गया ताडयामास तद्दीर्ण शतधाऽभवत् ॥२०॥
ततोऽग्निचूर्णैस्सहसा चक्रघातविनिस्सृतैः।
दंशकैरिव सा सेना पतद्भिर्भृशसङ्कुला ॥२१॥
ततः प्रतिहते चक्रे स वीरो रोषसङ्कुलः।
ग्राहिणोत् तरसा तूर्णं शक्तीर्दशशतं तदा ॥२२॥
ज्वलन्तीश्च किरन्तीश्च ज्वालामालास्समन्ततः।
युगान्तोल्कानिभास्तीक्ष्णा हेमदण्डा महास्वनाः ॥२३॥
तापतन्तीरसम्प्रेक्ष्य राक्षसस्य घटोत्कचः।
अर्धचन्द्रैः प्रचिच्छेद नाराचैः कङ्कपत्रिभिः ॥२४॥
ततो रोषपरीताङ्गः प्रमुमोच स राक्षसः।
शरवर्षं महाघोरं घटोत्कचरथं प्रति ॥२५॥
तयोरप्रतिमं युद्धम् आसीद्राक्षससिंहयोः।
मुञ्चतोर्विविधा मायाश् शक्रशम्बरयोरिव ॥२६॥
अलम्बुसो383 भृशं क्रुद्धो घटोत्कचमताडयत् ॥२६॥
घटोत्कचस्तु विंशत्या नाराचानां स्तनान्तरे।
अलम्बुसमथो विवा सिंहवद्व्यनदन्मुहुः ॥२७॥
तथैव राक्षसो राजन् हैडिम्बं युद्धदुर्मदम् ।
विद्धा विवाऽनदद्धृष्टः पूरयन् खं समन्ततः ॥२८॥
तथा तौ भृशसङ्क्रुद्धौ राक्षसेन्द्रौ महाबलौ ।
निर्विशेषमयुध्येतां मायाभिरितरेतरम् ॥२९॥
मायाशतसृजौ हप्तौ मोहयन्तौ परस्परम्।
मायायुद्धेषु कुशलौ मायायुद्धमयुध्यताम् ॥३०॥
यां यां घटोत्कचो मायां माययाऽदर्शययुधि।
तां तामलम्बुसो राजन् माययैवाभिजन्निवान्384 ॥ ३१॥
तं तथा युध्यमानं तु मायायुद्धविशारदम्।
अलम्बुसं राक्षसेन्द्रं दृष्ट्वाऽक्रुध्यन्त पाण्डवाः ॥३२॥
तत एनं भृशं क्रुद्धास् सर्वतः परिवारिताः।
अभ्यद्रवन्त संरब्धा भीमसेनादयो नृप ॥३३॥
त385 एनं कोष्ठकीकृत्य रथवंशेन मारिष।
सर्वतो व्यकिरन बाणैर् उल्काभिरिव कुञ्जरम् ॥३४॥
स तेषामस्त्र वेगं तं प्रतिहत्यास्त्रमायया।
तस्माद्रथ जान्मुक्तो वनदाहादिव द्विपः॥३५॥
स386 विष्फार्य धनुर्घोरम् इन्द्रायुधसमस्वनम् ।
मारुतिं पञ्चविंशत्या भैमसेनिं च पञ्चभिः ॥३६॥
युधिष्ठिरं त्रिभिर्विद्धा सहदेवं च पञ्चभिः ।
नकुलं च त्रिसप्तत्या द्रौपदेयांश्च मारिष ॥३७॥
पञ्चभिः पञ्चभिर्विद्धा घोरं नादं चकार ह ॥३८॥
तं भीमसेनो नवभिस् सहदेवश्च पञ्चभिः।
युधिष्ठिरशतेनैव राक्षसं प्रत्यविध्यत ॥३९॥
नकुलश्च चतुष्षष्टया द्रौपदेयास्त्रिभित्रिभिः ॥३९॥
हैडिम्बो राक्षसं विद्धा युद्धे पञ्चाशता शरैः ।
पुनर्विव्याध सप्तत्या ननाद च महाबलः ॥४०॥
सोऽतिविद्धो महेष्वासैस् सर्वतस्तैर्महारथैः ।
प्रतिविव्याध तान् सर्वान् पञ्चभिः पञ्चभिरशरैः ॥ ४१॥
सङ्क्रुद्धं राक्षसं युद्धे प्रतिक्रुद्धस्तु राक्षसः ।
हैडिम्बो राक्षसश्रेष्ठश शरैर्विव्याध सप्तभिः ॥४२॥
सोऽतिविद्धो बलवता राक्षसेन्द्रो महाबलः ।
व्यसृजत् सायकांस्तूर्णं स्वर्णपुङ्खाञ् शिलाशितान् ॥४३॥
ते शरा नतपर्वाणो भैमसेनि विनिर्भिदुः ।
रुषिताः पन्नगा यद्वद् योधमुख्यान् महाबलान् ॥४४॥
ततस्ते पाण्डवा राजन् समन्तान्निशितैश्शरैः ।
छादयामासुरुद्विग्ना हैडिम्बश्च घटोत्कचः ॥४५॥
स विध्यमानस्समरे पाण्डवैर्जितकाशिभिः ।
नाभ्यपद्यत कर्तव्यम् आर्यटङ्गिर्महाबलः ॥४६॥
घटोत्कचं महाराज शरवर्षैरवाकिरत्।
दग्धाद्रिकूटसदृशं तमञ्जनचयोपमम् ॥४७॥
घटोत्कचोऽप्यसम्भ्रान्तश शरवर्षं महत्तरम्।
अलम्बुसवधप्रेप्सुर मुमोचाग्निरिव ज्वलन् ॥४८॥
अलम्बुसरथाच्चोग्राद् घटोत्कचरथादपि।
शराः प्रादुर्भवन्ति स्म द्विरेफा इव खादिशः ॥४९॥
अभ्रच्छायेव रचिता बाणैस्तत्र नरेश्वर।
न स्म विज्ञायते किञ्चिद् अन्धकारे कृते शरैः ॥५०॥
तत आकर्णकृष्टेन भल्लेन च घटोत्कचः।
अलम्बुसस्य चिच्छेद शिरो यन्तुर्महाबलः ॥५१॥
ततोऽपरैर्वेगवद्भिः क्षुरैस्तस्य घटोत्कचः।
अक्षमीषां युगं चैव चिच्छेद युधि ताडयन् ॥५२॥
अवस्कन्द्य रथात् तूर्णं कैम्मीरिः क्रोधमूच्छितः।
तस्मिन् मायामयं घोरम् अस्त्रवर्ष ववर्ष ह ॥५३॥
घटोत्कचोऽप्याशु रथात् प्रस्कन्द्य सममेव च।
मायास्त्रेणैव मायास्त्रं व्यधमत् समरे रिपोः ॥५४॥
हैडिम्बेनार्द्यमानस्तु युधि सोऽलम्बुसो दृढम् ।
अन्तर्हितो महाराज घटोत्कचमयोधयत् ॥५५॥
अन्तर्धानगतं दृष्ट्वा तत्र तत्र घटोत्कचः ।
गदया ताडयामास वेगवत्या महाबलः ॥५६॥
उत्पपात ततो व्योम्नि प्रहारपरिपीडितः ।
अलम्बुसो राक्षसेन्द्रस् सहसा पक्षिराडिव ॥५७॥
घटोत्कचोऽप्यसम्भ्रान्तः खड्गपाणिरथोत्पतत् ।
ततो वेगेन महता विवर्षिषुरिवाम्बुदः ॥५८॥
तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य कैम्मीरी राक्षसोत्तमः ।
अभिदुद्राव387 वेगेन सिंहस्सिहमिव स्थितम् ॥५९॥
दक्षिणेनासिमुद्यम्य वक्षः प्रच्छाद्य वर्मणा ।
अभिदुद्राव वेगेन वेगवन्तं घटोत्कचः ॥६०॥
तावुभौ वेगसंरब्धावलम्बुसघटोत्कचौ ।
अन्योन्यस्य तथैवोरू समाजन्नतुरञ्जसा ॥६१॥
अन्योन्यस्याभिघातेन तयो राक्षससिंहयोः ।
शैलेनाभिहतस्येव शैलस्याभून्महास्वनः ॥६२॥
ततोऽपसृत्य सहसा पुनरापेततुर्भृशम् ।
चरन्तावसिमार्गांस्तान् विविधान् राक्षसोत्तमौ ॥ ६३॥
तयोर्गात्रेषु388 पतितावसी भिन्नौ निपेततुः।
वेगोत्सृष्टे मघवता वज्रे शैलतटेष्विव ॥६४॥
ततस्सैन्यानि दहशुस् तशुद्धमतिदारुणम्।
युद्धं तयो राक्षसयोर आमिषे श्येनयोरिव ॥६५॥
ततो लोहितरक्ताक्षावुभौ तौ राक्षसोत्तमौ।
अथैक्ष्येतां तु शार्दूलो सन्ध्यारक्ताविवाम्बुदौ ॥६६॥
चक्राते श्येनवचैव मण्डलानि सहस्रशः ।
उभौ निशिहस्तौ तौ सपक्षाविव पक्षिणौ ॥६७॥
ततो भ्राम्य तु तं खङ्गं पाण्योः किम्मीरनन्दनः।
चिक्षेपास्य शिरो हर्तुं स च तस्य घटोत्कचः ॥६८॥
तावसी युगपदीप्तौ समेत्य विपुलौ भुवि।
पतितौ तौ तु बाहुभ्यां राक्षसौ समसज्जताम् ॥६९॥
शीर्षाघातांसघातच परस्परमथाहतौ।
पुनर्विमिश्रित वीरौ व्यायुध्येते मुहुर्मुहुः ॥७०॥
भैमसे निरथोत्क्षिप्य समाविध्य पुनः पुनः।
निष्पिपेष क्षितौ क्षिप्रं पूर्णकुम्भमिवाश्मनि ॥७१ ॥
बललाघवसम्पन्नस्365 सम्पन्नो विक्रमेण च।
भैम से निरथ क्रुद्धस् सर्वसैन्यस्य पश्यतः ॥७२॥
असृक्क्षरितसर्वाङ्गश् चूर्णितास्थि विभूषणः।
घटोत्कचेन निष्पिष्टो हतस्सालकटङ्कटः ॥७३॥
पाण्डवानां389 ततस्सेना तं दृष्ट्वा विनिपातितम्।
ननादं सुमहानादं हर्षवेगसमाप्लुता ॥७४ ॥
ततस्तु निपपाताशु गतासुर्भुवि राक्षसः \।
शिखरं पर्वतस्येव वज्रवेगेन पातितम् ॥७५॥
पतता तेन महता रथिनां दन्तिनां दश ।
तव सैन्ये महाराज निहतास्सुबृहत्तया ॥७६॥
ततो घटोत्कचो हत्वा तद्रक्षो वृत्रसन्निभम् ।
पुनस्स रथमास्थाय विजिगीषुर्ननाद ह ॥७७॥
ततस्सुमनसः390 पार्था हते तस्मिन् निशाचरे ।
चुक्रुशुस्सिंहनादांश्च वासांस्यादुधुवुञ्च ह ॥७८॥
तावकास्तु हृतं दृष्ट्वा राक्षसेन्द्रं महाबलम् ।
अलम्बुसं भीमरूपं विशीर्णमिव पर्वतम् ॥७९॥
हाहाकारमकुर्वन्त सैन्यानि च विशां पते ॥८०॥
जनाश्चैनं दहशिरे रक्षः कौतूहलान्विताः ।
यदृच्छया निपतितं भूमावङ्गारकं यथा ॥८१॥
घटोत्कचस्तु तं हत्वा रक्षो बलवतां वरः ।
मुमोद बलवद्राजन् बलं हत्वेव वासवः ॥८२॥
स391 पूज्यमानः पितृभिस्तबान्धवैर्
घटोत्कचः कर्मणि दुष्करे कृते ।
रिपुं निहत्याभिननन्द वै तदा
ह्यलम्बुस पक्कमलम्बुसं यथा ॥८३॥
ततो निनादस्सुमहान् समुत्थितस्
सशङ्खनानाविधघोषनाद्वान् ।
निशम्य तं प्रत्यनदंस्तु कौरवास्
ततो ध्वनिर्भुवनमनाद्यद्भृशम् ॥८४॥
ततोऽभिगम्य राजानं धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम् ।
स्वकर्मावेदयन्मूर्ध्ना साञ्जलिर्निपपात ह ॥८५॥
मूर्ध्न्युपाघ्राय तं ज्येष्ठः परिष्वज्य च पाण्डवः।
प्रीतोऽस्मीत्यब्रवीद्राजन् हर्षादुत्फुल्ललोचनः ॥८६॥
घटोत्कचेन निष्पिष्टे मृते सालकटङ्कटे।
बभूवुर्मुदितास्सर्वे हते तस्मिन् निशाचरे ॥८७॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकार्या संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि पञ्चनवतितमोऽध्यायः ॥१५॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वणि एकोनविंशोऽध्यायः ॥१९॥
[अस्मिन्नध्याये ८७ श्लोकाः]
॥ षण्णवतितमोऽध्यायः ॥
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रणाङ्कणे पाञ्चजन्यस्वने श्रुते अश्रुते च गाण्डीवघोषे अर्जुनस्य विपदमाशङ्कमानेन युधिष्ठिरेण सात्यकि प्रति अर्जुनवृत्तान्तपरिज्ञानाय गमनचोदना ॥१॥
अर्जुनं प्रति गच्छेति युधिष्टिरचोदितेन सात्यकिना तं प्रति स्वस्थार्जुनेन तद्रक्षणाय नियोगाभिधानपूर्वक स्वेन तस्यापरित्याज्यत्वकथनम् ॥ २॥
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धृतराष्ट्रः—
भारद्वाजं कथं युद्धे युयुधानो व्यपोथयत् ।
सञ्जयाचक्ष्व तत्वेन कौतूहलमतीव मे ॥१॥
सञ्जयः—
शृणु राजन् महाश्चर्य सङ्ग्रामं रोमहर्षणम् ।
द्रोणस्य392 पाण्डवैस्सार्धं युयुधानपुरोगमैः ॥२॥
वध्यमानं बलं दृष्ट्वा युयुधानेन मारिष ।
अभ्यद्रवत् स्वयं द्रोणस् सात्याकं सत्यविक्रमः ॥३॥
तमापतन्तं सहसा भारद्वाजं महारथम् ।
सात्यकिः पञ्चविंशत्या क्षुद्रकाणां समर्पयत् ॥४॥
द्रोणोऽपि युधि विक्रान्तो युयुधानं समाहितम् ।
अविध्यत् पञ्चभिस्तूर्ण हेमपुङ्खैश्शिलाशितैः ॥५॥
ते मे भित्त्वा सुदृढं द्विषद्रुधिरभोजनाः।
अभ्ययुर्धरणी राजन् वल्मीकमिव पन्नगाः ॥६॥
तं दीर्घबाहुस्सङ्क्रुद्धस् तोत्रार्दित इव द्विपः।
द्रोणं पञ्चाशताऽविध्यन्नाराचैरग्निसन्निभैः ॥७॥
भारद्वाजो रणे विद्धो युयुधानेन सत्वरम्।
सात्यकिं नवभिर्बाणैर् यतमानमविध्यत ॥८॥
ततः क्रुद्धो महेष्वासो भूय एव महारथः।
सात्वतं पीडयामास व्रातेन नतपर्वणाम् ॥९॥
स वध्यमानस्समरे भारद्वाजेन सात्यकिः।
नाभ्यपद्यत कर्तव्यं किञ्चिदेव विशां पते ॥१०॥
विषण्णवदनश्चापि युयुधानोऽभवन्नृप।
भारद्वाजं रणे दृष्ट्वा विकिरन्तं शराञ् शितान् ॥११॥
तं तु सम्प्रेक्ष्य ते पुत्रास् सैनिकाच विशां पते ।
प्रहृष्टमनसो भूत्वा सिंहवव्यनदन् मुहुः ॥१२॥
तं श्रुत्वा निनदं घोरं पीड्यमानं च माधवम्।
युधिष्ठिरोऽब्रवीद्राजन् सर्वसैन्यानि भारत ॥१३॥
युधिष्ठिरः—
एष वृष्णिवरो वीरस् सात्यकिस्सत्यविक्रमः।
ग्रस्यते युधि वीरेण आदित्य इव राहुणा ॥१४॥
आगच्छताभिद्रवत सात्यकिर्यत्र युध्यते ॥१४॥
सञ्जयः—
धृष्टद्युम्नं च पाञ्चाल्यम् इदमाह जनेश्वरः ॥१५॥
युधिष्ठिरः—
द्रोणं वारय सुक्षिप्रं सात्यकि मा वर्धाद्विजः।
अभिद्रव द्रुतं द्रोणं किन्नु तिष्ठसि पार्षत ॥१६॥
न पश्यसि भयं घोरं द्रोणान्नस्समुपस्थितम् ॥१६॥
असौ द्रोणो महेष्वासो युयुधानेन संयुगे।
क्रीडते सूत्रबद्धेन पक्षिणा बालको यथा ॥१७॥
तत्रैव सर्वे गच्छन्तु भीमसेनमुखा रथाः।
त्वं चापि तत्र संरब्धो युयुधानस्य कारणात् ॥१८॥
पृष्ठतोऽनुगमिष्यामि त्वामहं सहसैनिकः।
सात्यकिं मोक्षयस्वाद्य यमदंष्ट्रान्तरं गतम् ॥१९॥
सञ्जयः—
एवमुक्त्वा ततो राजा सर्वसैन्येन पाण्डवः।
अभ्यद्रवद्रणे द्रोणं युयुधानस्य कारणात् ॥२०॥
तत्रारावो महानासीद् द्रोणमेकं युयुत्सताम्।
पाण्डवानां च भद्रं ते सृञ्जयानां च सर्वशः ॥२१॥
ते समेत्य नरव्याघ्रा भारद्वाजं महारथम्।
अभ्यवर्षञ् शरैस्तीक्ष्णैः कङ्कबर्हिणवाजितैः ॥२२॥
स्मयन्नेव तु तान् वीरो द्रोणः प्रत्यग्रहीत् स्वयम्।
अतिथीनागतान् यद् आसनेनोदकेन च ॥२३॥
तर्पितास्ते शरैस्तस्य भारद्वाजस्य धन्विनः।
आतिथेयं गृहं प्राप्य तन्तेऽतिथयो यथा ॥२४॥
भारद्वाजं च ते युद्धे नाशकन् प्रतिवीक्षितुम्।
मध्यंदिनमनुप्राप्तं सहस्रांशुमिव प्रभो ॥२५॥
तांस्तु सर्वान् महेष्वासान् द्रोणशस्त्रभृतां वरः।
अतापयच्छरत्रातैर् गभस्तिभिरिवांशुमान्॥२६॥
वध्यमाना रणे राजन् पाण्डवास्सृञ्जयास्तथा।
त्रातारं नाध्यगच्छन्त पङ्के सन्ना यथा द्विपाः ॥२७॥
तस्य द्रोणस्य दृश्यन्ते प्रभवन्तो महाशराः।
गभस्तय इवार्कस्य प्रभवन्तस्समन्ततः ॥२८॥
तस्मिन्369 द्रोणेन निहताः पाञ्चालाः पञ्चविंशतिः।
महारथसमाख्याता धृष्टद्युम्नस्य सम्मताः ॥२९॥
पाञ्चालेष्वथ393 शूरेषु केकयेषु च मानवाः।
द्रोणं स्म दहशुश्शूरा विनिघ्नन्तं वरान् वरान् ॥३०॥
केकयानां शतं हत्वा विद्राव्य च समन्ततः।
द्रोणस्तस्थौ महाराज व्यात्तानन इवान्तकः ॥३१॥
पाञ्चालान् सृञ्जयान् मात्स्यान् केकयान् पाण्डवानपि।
द्रोणोऽजयन्महाबाहुशू शतशोऽथ सहस्रशः ॥३२॥
तेषां समभवच्छब्दो वध्यतां द्रोणसायकैः।
वनौकसामिवारण्ये दह्यतां धूमकेतुना ॥३३॥
तत्र देवास्सगन्धर्वाः पितरश्चाब्रुवन् नृप ॥३४॥
देवादयः—
एते द्रवन्ति पाञ्चालाः पाण्डवाश्च सकेकयाः ॥३४॥
तं तथा समरे द्रोणं निघ्नन्तं सायकै रणे।
तं चाप्यभिययुः केचिद् अपरे नैव विव्यधुः ॥३५॥
वर्तमाने तथा रौद्रे तस्मिन् वीरवरक्षये ।
अशृणोत् सहसा पार्थः पाञ्चजन्यस्य निस्स्वनम् ॥ ३६॥
पूरिते वासुदेवेन शङ्खराजे महात्मना।
युध्यमानेषु वीरेषु सैन्धवस्य च रक्षिषु ॥३७॥
नदत्सु धार्तराष्ट्रषु विजयस्य रथं प्रति।
गाण्डीवस्य च निर्घोषे विप्रनष्टे तथैव च ॥३८॥
कश्मलाभिहतो राजा चिन्तयामास पाण्डवः ॥३९॥
युधिष्ठिरः—
न नूनं स्वस्ति पार्थस्य यथा नदति शङ्खराट्।
कौरवाच यथा हृष्टा विनदन्ति मुहुर्मुहुः ॥४०॥
व्यक्तमद्य विनश्यन्ते सर्वलोकमहारथाः<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706523634Screenshot2023-05-17160608.png"/>341 ॥४०॥
सञ्जयः—
श्रुत्वा तु निनदं घोरं पाञ्चजन्यस्य मारिष ।
चिन्तयित्वा भृशं राजा व्याकुलेनान्तरात्मना ॥४१॥
अजातशत्रुश्शैनेयम् अभ्यभाषत सात्यकिम्।
बाष्पगद्गदया वाचा मुह्यमानो मुहुर्मुहुः ॥४२॥
कृत्यस्यानन्तरापेक्षी शैनेयं शिनिपुङ्गवम् ॥४३॥
युधिष्ठिरः—
योऽयं394 धर्मः पुरा सृष्टस् सद्भिशैनेय शाश्वतः।
साम्पराये सुहृत्कृत्ये तस्य कालोऽयमागतः ॥४४॥
सर्वेष्वपि च योधेषु चिन्तयञ्शिनिपुङ्गव।
त्वत्तस्सुहृत्तमं कञ्चिन्नाभिजानामि सात्वत ॥४५॥
प्रियः प्रीतमना नित्यं यश्च नित्यमनुव्रतः ।
स कार्ये साम्पराये वा नियोज्य इति मे मतिः ॥४६॥
यथा हि केशवो नित्यं पाण्डवानां परायणम् ।
तथा त्वमपि वार्ष्णेय कृष्णतुल्यपराक्रमः ॥४७॥
त्वयि भारं समाधास्ये त्वं तं वोढुमिहार्हसि।
अभिप्रायं च मे नित्यं न वृथा कर्तुमर्हसि ॥४८॥
स त्वं भ्रातुर्वयस्यस्य गुरोरपि च संयुगे।
कुरु कृच्छ्रे सहायार्थम् अर्जुनस्य महामृधे ॥४९॥
त्वं हि सत्यव्रतश्शूरो मित्राणामभयङ्करः।
लोके विख्यायसे शूर कर्मभिस्सत्यवागिति ॥५०॥
यो हि शैनेय मित्रार्थे युध्यमानस्तनुं त्यजेत् ।
पृथिवीं च द्विजातिभ्यो यो दद्यात् सममेव तत् ॥५१॥
श्रुताश्च बहवोऽस्माभी राजानो ये दिवं गताः।
दत्त्वेमां पृथिवीं कृत्स्त्रां ब्राह्मणेभ्यो यथाविधि ॥५२॥
दीयमाना च बहुभिर् दास्यते च मुहुर्मही।
न तु कश्चिद्रणे प्राणान् मित्रार्थे व्यक्तवाहि ॥५३॥
एवं त्वामपि धर्मात्मन् प्रयाचेऽहं कृताञ्जलिः ॥५३॥
पृथिवीदानतस्तुल्यं अधिकं वा फलं विभो ॥५४॥
एक एव सदा कृष्णो मित्राणामभयङ्करः।
रणे त्यजति च प्राणान् द्वितीयस्त्वं च सात्यके ॥५५॥
शूरस्य युध्यमानस्य युद्धात् प्रार्थयतो यशः।
शूर एव सहायस्स्यान्नेतरः प्राकृतो जनः ॥५६॥
ईदृशे हि परामदें वर्तमाने च माधव।
त्वदन्यो हि रणे गोप्ता विजयस्य न विद्यते ॥५७॥
व कर्माणि विजयस्तव माधव।
मम सञ्जनयन् हर्ष पुनः पुनरकीर्तयत् ॥५८॥
लध्वस्त्रश्चियोधी च तथा लघुपराक्रमः।
प्राज्ञस्सर्वास्त्रविच्छूरो न च मुह्यति संयुगे ॥५९॥
महोरस्को महास्कन्धो महाबाहुर्महाहनुः।
महाबलो महावीर्यो महात्मा स महारथः ॥६०॥
शिष्यो मम सखा चैव प्रियोऽस्याहं प्रियश्च मे।
सत्यकेन सहायेन प्रमथिष्याम्यहं कुरुन् ॥६१॥
अस्मदर्थं च राजेन्द्र सन्नोद्यदि केशवः।
रामो वाऽप्यनिरूद्धो वा प्रद्युम्नो वा महारथः ॥६२॥
गदो वा सारणो वाऽपि साम्बो वा सह वृष्णिभिः।
सहायार्थ महाराज सङ्ग्रामोत्तममूर्धनि ॥६३॥
तथाऽध्येनं नरव्याघ्रं शैनेयं सत्यविक्रमम्।
साहाय्ये विनियोक्ष्यामि नास्ति मेऽन्यो हि तत्समः ॥६४॥
इति द्वैतवने तात मामुवाच धनञ्जयः।
परोक्षांस्त्वद्गुणांस्तथ्यान् कथयामास संसदि ॥६५॥
६५तस्य त्वमेव सङ्कल्पं न वृथा कर्तुमर्हसि।
धनञ्जयस्य वार्ष्णेय मम भीमस्य चोभयोः ॥६६॥
यच्चापि तीर्थं विचरन्नगच्छद् द्वारकां प्रति।
तत्राहमपि ते भक्तिम् अर्जुनं प्रति दृष्टवान् ॥६७॥
तत् ते सौहार्दमस्मासु यथा शैनेय लक्षितम्।
तथा त्वमस्मान् भजसे वर्तमानानुपद्रवे ॥६८॥
सौहार्दस्य च भक्तस्य सख्यस्याचार्यकस्य च ।
सम्भावनायाः पार्थस्य कुलीनत्वस्य माधव ॥६९॥
सत्त्वस्य च महाबाहो अनुकम्पार्थमेव च ।
अनुरूपं महेष्वास कर्म कर्तुं त्वमर्हसि ॥७०॥
सुयोधनो हि सहसा गतो द्रोणेन दंशितः।
पूर्वमेव च यातास्ते कौरवाणां महारथाः ॥७१॥
सुमहान् निनदश्चैव श्रूयते हि रणं प्रति।
स शैनेय जवेनाशु गन्तुमर्हसि माधव ॥७२॥
भीमसेनो वयं चैव समस्तास्सह सैनिकाः।
द्रोणमावारयिष्यामो यदि त्वां प्रतियोत्स्यते ॥७३॥
पश्य शैनेय सैन्यानि द्रवमाणानि संयुगे।
महांञ्च तुमुलश्शब्दो दीर्यमाणा च भारती ।७४॥
महावातसमुद्धतस् समुद्र इव पर्वसु।
धार्तराष्ट्रबलं तात विक्षतं सव्यसाचिना ॥७५॥
रथैश्च परिधावद्भिर् मनुष्यगजवाजिभिः।
सैन्यं रजस्समुद्धृतम् एतत् सम्प्रति दृश्यते ॥७६॥
संवृतस्सिन्धुसौवीरैर नखरप्रासयोधिभिः।
अत्यन्तापचितश्शूरैः फल्गुनः परवीरहा ॥७७॥
नैतलम संवार्य शक्यो जेतुं जयद्रथः।
एते हि सैन्धवस्यायें सर्वे संत्यक्तजीविताः ॥७८॥
शरशक्तिध्वजवरं हयनागसमाकुलम्।
पश्यैतद्धार्तराष्ट्राणाम् अनीकं च दुरासदम् ॥७९॥
शृणु दुन्दुभिनिर्घोष शङ्खशब्दांश्च पुष्कलान्।
सिंहनादरवांश्चैव रथनेमिस्वनांस्तथा ॥८०॥
नागानां शृणु शब्दांच पत्तीनां च सहस्रशः।
सादिनां द्रवतां शब्दं शृणु कम्पयतां महीम् ॥८१॥
पुरस्तत् सैन्धवानीकं द्रोणानीकस्य पृष्ठतः।
बहुत्वं हि नरव्याघ्र देवेन्द्रमपि दूषयेत् ॥८२॥
अपर्यन्ते बले मनः प्रजह्यादपि जीवितम्।
तस्मिंश्च निहते युद्धे कथं जीवेत मादृशः ॥८३॥
सर्वथा समनुप्राप्तस् स कृच्छ्रं बत जीवितुम् ॥८३॥
अभ्रश्यामो गुडाकेशो दर्शनीयञ्च पाण्डवः।
लवचित्रयोधी च प्रविष्टस्त्वत्र भारतीम् ॥८४॥
सूर्योदये महाबाहुर दिवसञ्चाविर्तते ॥८५॥
तन्न जानामि वार्ष्णेय यदि जीवति वा न वा ।
कुरूणां सुमहत् सैन्यं सागरप्रतिमं शुभम् ॥८६॥
एक एव च बीभत्सुः प्रविष्टस्तत्र भारतीम्।
अविषह्यां महावेगैस् सुरैरपि महामृधे ॥८७॥
न च मे वर्तते बुद्धिर् युद्धेऽन्यत्र धनञ्जयात्।
द्रोणो हि सहसा युद्धे मम पीडयते बलम् ॥८८॥
प्रत्यक्षं ते महाबाहो यथा स चरति द्विजः ॥८८॥
युगपत् समवेतानां कार्याणां त्वं विचक्षणः।
महार्थं लघुसंयुक्तम् ईहसे कच्चिदच्युत ॥८९॥
तस्य मे सर्वकार्येषु कार्यमेतन्मतं सदा।
अर्जुनस्य परित्राणं कर्तव्यमिति संयुगे ॥९०॥
नाहं शोचामि दाशार्ह गोप्तारं जगतः प्रभुम् ॥९१॥
स हि शक्तो रणे तात त्री लोकानपि सङ्गतान् ।
विजेतुं पुरुषव्याघ्र सत्यमेतद्रवीमि ते ॥९२॥
किंपुनर्धार्तराष्ट्रस्य बलमेतत् सुदुर्बलम् ॥९२॥
अर्जुनस्त्वेष वार्ष्णेय पीडितो बहुभिर्युधि।
प्रजात् समरे प्राणांस् तस्माद्विन्दामि कश्मलम् ॥९३॥
तस्य त्वं पदवीं गच्छ गच्छेयुस्त्वादृशा रथाः।
तादृशस्येशे काले माशैरभिनोदिताः ॥९४॥
सुहृदो वै सुहृत्कृत्ये परमास्थाय विक्रमम्।
सुहृदः पदमन्विच्छन् न व्यवेत कथञ्चन ॥९५॥
ननु सत्यक वृष्णीनां द्वावेवातिरथौ स्मृतौ।
प्रद्युम्नश्च महाबाहुस् त्वं च सत्यक विश्रुतः ॥९६॥
अस्त्रे नारायणसमस् सङ्कर्षणसमो बले।
वीरतायां नरव्याघ्र धनञ्जयसमो ह्यसि ॥९७॥
भीष्मद्रोणावतिक्रान्तं सर्वयुद्धविशारदम्।
त्वामद्य पुरुषास्सर्वे लोके नित्यं प्रचक्षते ॥९८॥
सदेवासुरगन्धर्वान् सकिन्नरमहोरगान्।
योधयेत् स जगत् सर्वं विजयेत रिपून् बहून् ॥९९॥
इति ब्रुवन्ति लोकेषु जनास्तव गुणान् सदा ॥१००॥
समागमेषु जल्पन्ति पृथगेव च सर्वदा।
नासाव्यं विद्यते लोके सत्यकस्येति माधव ॥१०१॥
तत् त्वां यदिह वक्ष्यामि तत् कुरुष्व नरर्षभ ॥१०१॥
सम्भावना हि पार्थस्य मम भीमस्य चोभयोः॥
नान्यथा तन्महाबाहो सम्प्रकर्तुमिहार्हसि ॥१०२॥
परित्यज्य प्रियान् प्राणान् रणे विचर वीरवत्।
न हि शैनेय दाशार्हा रणे रक्षन्ति जीवितम् ॥१०३॥
अयुद्धमनवस्थानं सङ्ग्रामे च पलायनम्।
एष भीरुगतो मार्गो नैव दाशार्हसेवितः ॥१०४॥
अर्जुनस्ते गुरुर्वृत्तो धर्मात्मा शिनिपुङ्गव।
वासुदेवो गुरुश्चैव अर्जनस्य तवैव च ॥१०५॥
कारणद्वयमेतद्धि जानंस्त्वामहमब्रुवम्।
माऽवमंस्था वचो मेऽद्य गुरोस्तव गुरुर्ह्यहम् ॥१०६॥
वासुदेवमतं चैतन्मम चैवार्जुनस्य च।
व्यक्तं ब्रवीमि वार्ष्णेय याहि यत्र धनञ्जयः ॥१०७॥
एतद्वचनमास्थाय मम सत्यपराक्रम।
प्रविशैतलं तात धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः ॥१०८॥
प्रविश्य च यथान्यायं सङ्गम्य च महारथैः ।
यथार्हमात्मनः कर्म रणे सत्यक दर्शय ॥१०९॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहिताय वैयासिक्या
द्रोणपर्वणि षण्णवतितमोऽध्यायः ॥१६॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वणि विंशोऽध्यायः ॥ २०॥
[अस्मि नभ्याये १०९॥श्लोकाः]
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सप्तनवतितमोऽध्यायः॥
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युधिष्टिरेण भीमादिभिः स्वस्थ रक्षणकथनपूर्वकं पुनः सात्यकेरर्जुनं प्रतिगमने नियोजनम् ॥
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सञ्जयः—
प्रीतियुक्तं च हृद्यं च माननीयं च सर्वशः।
कालयुक्तं च चित्रं च स्वधिया चाभिभाषितम् ॥१॥
धर्मराजस्य तद्वाक्यं निशम्य शिनिपुङ्गवः।
सात्यकिर्भरतश्रेष्ठ प्रत्युवाच युधिष्ठिरम् ॥२॥
सात्यकिः—
श्रुतं ते गदतो वाक्यं सर्वमेतन्मयाऽच्युत।
न्याययुक्तं च सत्यं च फल्गुनार्थे यशस्करम् ॥३॥
एवंविधे तथा काले मादृशं प्रेक्ष्य सत्तम ।
वक्तुमर्हसि राजेन्द्र यथा पार्थं तथैव माम् ॥४॥
न मे धनञ्जयस्यार्थे प्राणा रक्ष्याः कथञ्चन।
त्वत्प्रयुक्तः पुनरहं किं न कुर्या विशां पते ॥५॥
त्रील्लोकान् वारयेयं च सदेवासुरमानुषान् ।
त्वत्प्रयुक्तो नरेन्द्रेन्द्र किंपुनस्तान् सुदुर्बलान् ॥६॥
दुर्योधनबलं त्वद्य योधयेयं समन्ततः ।
विजेष्ये च तथा राजन् सत्यमेतद्रवीमि ते ॥७॥
कुशली कुशलं सङ्घये समासाद्य धनञ्जयम्।
हते जयद्रथे पापे पुनरेष्यामि संसदम् ॥८॥
अवश्यं तु मया सर्व विज्ञाप्यस्त्वं नराधिप ।
धनञ्जयस्य यद्वाक्यं वासुदेवस्य चोभयोः ॥९॥
दृढं त्वभिहितश्चाहम् आचार्येण पुनः पुनः।
मध्ये सर्वस्य सैन्यस्य वासुदेवस्य शृण्वतः ॥१०॥
अद्य माधव राजानम् अप्रमत्तोऽनुपालय।
आर्या युद्धे मतिं कृत्वा यावद्धन्मि जयद्रथम् ॥११॥
त्वयि चाहं महाबाहो प्रधुम्ने वा महारथे।
राजगोपे हनिष्यामि निरपेक्षो जयद्रथम् ॥१२॥
स395 एवं सुविनिक्षिप्तो निक्षेपस्सव्यसाचिना ।
भारद्वाजभयं तेऽद्य मन्यते वै धनञ्जयः ॥१३॥
जानासि हि रणे द्रोणं रभसं श्रेष्ठसम्मतम्।
प्रतिज्ञा चापि ते नित्यं श्रुता द्रोणस्य माधव ॥१४॥
ग्रहणं396 धर्मराजस्य भारद्वाजोऽपि गृध्यति।
शक्तचापि रणे द्रोणो निगृहीतुं युधिष्ठिरम् ॥१५॥
एवं त्वयि समाधाय धर्मराजं नरोत्तमम्।
अहमद्य गमिष्यामि सैन्धवस्य वधाय हि ॥१६॥
स त्वमद्य रणे यत्तो रक्ष माधव पाण्डवम्।
रक्षणे धर्मराजस्य ध्रुवो हि विजयो मम ॥१७॥
जयद्रथमहं382 हत्वा ध्रुवमेष्यामि माधव।
न धर्मराजं द्रोणश्चेन्निगृहीयाद्रणे बलात् ॥१८॥
निगृहीते नरश्रेष्ठे भारद्वाजेन माधव।
सैन्धवस्य382 वधो न स्यान्ममाप्रीतिस्तथा भवेत् ॥१९॥
एवंगते नरश्रेष्ठे पाण्डवे सत्यवादिनि।
अस्माकं गमनं व्यक्तं व्यर्थमेव भवेधुधि ॥२०॥
यदि द्रोणो युधि क्रुद्धो निगृह्णीयाधुधिष्ठिरम् ॥२०॥
स त्वमद्य महाबाहो प्रियार्थं मम माधव।
जयार्थं च यशोर्थं च रक्ष राजानमाहवे ॥२१॥
स भवान् मयि निक्षेपो निक्षिप्तस्सव्यसाचिना।
भारद्वाजाद्वयं नित्यं पश्यमानेन ते प्रभो ॥२२॥
तस्यापि च महाबाहो सत्यं पश्यामि संयुगे।
नान्यं हि प्रतियोद्धारं रौक्मिणेयाते प्रभो ॥२३॥
मां चासौ मन्यते युद्धे भारद्वाजस्य धीमतः ॥२४॥
सोऽहं सम्भावनां चैवम् आचार्यवचनं च तत् ।
पृष्ठतो नोत्सहे कर्तुं न त्वां त्यक्ष्यामि पाण्डव ॥२५॥
आचार्यो लघुहस्तश्च अवध्यकवचावृतः।
उपलभ्य369 रणे क्रीडेद् यथा शकुनिना शिशुः ॥२६॥
यदि काणिर्धनुष्पाणिर् इह स्यान्मकरध्वजः।
तस्मै त्वां विसृजेयं वै स त्वां रक्षेद्यथाऽर्जुनः ॥२७॥
कुरु त्वमात्मनो गुप्तिं कस्ते गोप्ता गते मयि।
यः प्रतीयाद्रणे द्रोणं यावद्रच्छामि पाण्डवम् ॥२८॥
मा हि ते भयमद्यास्तु राजन्नर्जुनसम्भवम् ।
न हि जातु महाबाहुर भारमुद्यम्य सीदति ॥२९॥
ये च सौवीरका योधास् तथा सैन्धवपौरवाः।
उदीच्या दाक्षिणात्याश्च ये चान्येऽपि महारथाः ॥३०॥
ये च कर्णमुखा राजन रथोदाराः प्रकीर्तिताः।
धनञ्जयस्य क्रुद्धस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥३१॥
उद्युक्ता पृथिवी राजन् ससुरासुरमानवा।
सराक्षसगणा चैव सकिन्नरमहोरगा ॥३२॥
जङ्गमस्थावरैस्सार्धं नालं पार्थस्य संयुगे ॥३२॥
एतज्ज्ञात्वा महाराज व्येतु ते भीर्धनञ्जये ॥३३॥
यत्र कृष्णौ महेष्वासौ गतौ पुरुषसत्तमौ ।
न तत्र कर्मणो व्यापत्कथञ्चिदपि कद्यते ॥३४॥
दैवं कृतास्त्रतां योगम् अमर्षं शौर्यमाहवे।
कृतज्ञतां दयां चापि भ्रातुस्त्वमपि चिन्तय ॥३५॥
मयि चाप्यसहाये ते गच्छमानेऽर्जुनं प्रति।
द्रोणे चित्रास्त्रतां सङ्ख्ये राजंस्त्वमनुचिन्तय ॥३६॥
आचार्यो हि भृशं राजन् निग्रहे तव गृध्यति।
प्रतिज्ञामात्मनो रक्षन् सत्यां कर्तुं च भारत ॥३७॥
कुरुष्वाद्यात्मनो गुप्तिं कस्ते गोप्ता भवेदिह।
प्रत्ययो397 न हि मे पार्थ यावद्रच्छामि पाण्डवम् ॥३८॥
तर्ह्यहं त्वाय कौरव्य विनिक्षिप्ते महारथे।
कश्चित् प्रयास्यामि सत्यमेतद्रवीमि ते ॥३९॥
न पश्यामि रथं कञ्चिद् यस्ते गोप्ता भवेदिह।
शक्तं यं मन्यसे राजन् गोतारं प्रति पाण्डव ॥४०॥
एतद्विचार्य बहुशो बुद्ध्या बुद्धिमतां वर ।
दृष्ट्वा श्रेयः परं बुद्ध्या ततो राजन् प्रशाधि माम् ॥४१॥
युधिष्ठिरः—
एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि माधव ।
न तु मे शुद्धयते भावशू श्वेताश्वं प्रति मारिष ॥४२॥
करिष्ये च परं यत्नम् आत्मनो रक्षणं प्रति ।
गच्छ त्वं समनुज्ञातो यत्र यातो धनञ्जयः ॥४३॥
आत्मसंरक्षणं398 सङ्ख्ये गमनं चार्जुनं प्रति ।
विचायँतहुयं बुद्ध्या गमनं तत्र रोचये ॥४४॥
गच्छ त्वं समनुज्ञातो यत्र यातो धनञ्जयः ।
ममापि रक्षणं भीमः करिष्यति महाबलः ॥४५॥
पार्षतच ससोदर्यः पार्थिवाञ्च महारथाः।
द्रौपदेयाश्च मां तात रक्षिष्यन्ति न संशयः ॥४६॥
केकया भ्रातरः पञ्च राक्षसश्च घटोत्कचः।
विराटो द्रुपदश्चैव शिखण्डी च महारथः ॥४७॥
घृष्टकेतुश्च बलवान् कुन्तिभोजश्च मातुलः।
नकुलस्सहदेवश्च382 पाञ्चालास्सृञ्जयास्तथा ॥
एते समाहितास्तात रक्षिष्यन्ति न संशयः ॥४८॥
न द्रोणस्सह सैन्येन कृतवर्मा च संयुगे।
समासादयितुं शक्तौ न च मां धर्षयिष्यतः ॥४९॥
धृष्टद्युम्नस्तु समरे द्रोणं क्रुद्धं परन्तपः।
धारयिष्यति विक्रम्य वेलेव मकरालयम् ॥५०॥
यत्र स्थास्यति सङ्ग्रामे पार्षतः परवीरहा।
न द्रोणस्य बलं तात क्रमेत् तत्र कथञ्चन ॥५१॥
एष द्रोणविनाशाय समुत्पन्नो हुताशनात्।
कवची स शरी खड्गी वर्मी च वरभूषणः ॥५२॥
एष द्रोणं रणे क्रुद्धं वारयेत स वै प्रभो।
पाञ्चालस्सहितस्सर्वैः पाण्डवानां च धन्विभिः ॥५३॥
विन्धो गच्छ शैनेय मा कार्षीमयि सम्भ्रमम्।
धृष्टद्युम्नो रणे क्रुद्धं स द्रोणं वारयिष्यति ॥५४॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि सप्तनवतितमोऽध्यायः ॥१७॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वणि एकविंशोऽध्यायः ॥२१॥
[अस्मिन्नध्याये ५४॥ श्लोकाः]
॥अष्टनवतितमोऽध्यायः॥
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सात्यकेः युधिष्टिररक्षणे भीमं नियोज्यार्जुनदर्शनाय प्रस्थानम्॥
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सञ्जयः—
धर्मराजस्य तद्वाक्यं निशम्य शिनिपुङ्गवः।
पार्थाच्च भयमाशंसन् परित्यागान्महीपतेः॥१॥
अपवाद ह्यात्मनश्च लोकाद्रक्षन् विशेषतः।
न मां भीत इति ब्रूयात् प्रयान्तं फल्गुनं प्रति ॥२॥
निश्चित्य बहुधैवं स सात्यकिर्युद्धदुर्मदः।
नातिव्यक्तमिवाभाव्य धर्मराजं महायशाः ॥३॥
शोकगद्दया वाचा शोकोपहतचेतनः।
यथेदानीमिति ध्यात्वा धर्मराजमथाब्रवीत् ॥४॥
सात्यकिः—
कृतां चेन्मन्यसे रक्षां स्वस्ति तेऽस्तु विशां पते।
अनुयास्यामि बीभत्सुं करिष्ये वचनं तव ॥५॥
न हि मे पाण्डवात् कश्चित् त्रिषु लोकेषु विद्यते ।
यो मे प्रियतरो राजन् सत्यमेतद्रवीमि ते ॥६॥
यथा382 हि मे गुरोर्वाक्यं विशिष्टं द्विपदां वर ।
तथा तवापि वचनं विशिष्टतरमेव मे ॥७॥
प्रिये हि तव वर्तेते भ्रातरौ कृष्णपाण्डवौ ।
तयोः प्रिये स्थितं चैव विद्धि मां राजसत्तम ॥८॥
त्वदाज्ञां शिरसाऽऽदाय पाण्डवार्थमहं प्रभो।
भेत्स्यामि दुर्भिदं सैन्यं प्रयास्ये राजसत्तम ॥९॥
द्रोणानीकं विशाम्येष क्रुद्धो झष इवार्णवम् ।
तत्र यामि च यत्रासौ राजन् राजा जयद्रथः ॥१०॥
यत्र सेनां समाश्रित्य भीतस्तिष्ठति पाण्डवात् ।
गुप्तो रथवरश्रेष्टैर् द्रोणिकर्णकृपादिभिः ॥११॥
इतस्त्रियोजनं मन्ये तमध्वानं विशां पते।
यत्र तिष्ठति बीभत्सुर जयद्रथवघोद्यतः ॥१२॥
त्रियोजनगतस्यापि तत्र यास्याम्यहं पदम् ।
आसैन्धववधाद्राजन् सुदृढेनान्तरात्मना ॥१३॥
अनादिष्टस्तु399 गुरुणा को नु युध्येत मानवः।
आदिष्टश्च त्वया राजन् को न युध्येत मादृशः ॥१४॥
अभिजानामि तं देशम् इतः पूर्ण त्रियोजनम्।
यत्र तिष्ठति राजाऽसौ सैन्धवो बालघातकः ॥१५॥
सागरप्रतिमं सैन्यं गर्जन्तमिव सागरम् ।
हुलशक्तिरथप्रासगदाशक्त्यष्टितोमरम् ॥१६॥
इष्वासवरसम्बाधं क्षोभयित्वा व्रजाम्यहम् ॥१६॥
यदेतत्कुञ्जरानीकं सहस्रमनुपश्यसि ॥१७॥
कुलमाञ्जनकं नाम मत्ता हैमवतास्स्थिताः।
आस्थिता बहुभिम्लेच्ढैर् युद्धशौण्डैः प्रहारिभिः ॥१८॥
नागा नगनिभाव क्षरन्त इव तोयदाः।
नैते जातु निवर्तेरन् प्रेषिता हस्तिसादिभिः ॥१९॥
अन्यत्र हि वधादेषां नास्ति राजन् पराजयः।१९॥
अथ यान् रथिनो राजन समन्तादनुपश्यसि।
एते रुक्मरथा नाम राजपुत्रा महारथाः ॥२०॥
रथेष्वस्त्रेषु निपुणा नागेषु च विशां पते।
धनुर्वेदे गताः पारं मुष्टियुद्धे च कोविदाः ॥२१॥
गदायुद्धविशेषज्ञा नियुद्धकुशलास्तथा।
खड्गप्रहरणे युक्तास् सम्पाते चासिचर्मणोः ॥२२॥
शूराच कृतविद्याश्च स्पर्धन्ते च परस्परम्।
नित्यं च समरे राजन् जिगीषन्तो रणे स्थिताः॥ २३॥
कर्णेन विहिता राजन् दुश्शासनमनुव्रताः।
एतानेव रथोदारान् वासुदेवः प्रशंसति ॥२४॥
सततं प्रियकामा हि कर्णस्यैते वशे स्थिताः।
तस्यैव वचनाद्राजन् निवृत्ताइश्वेतवाहनात् ॥२५॥
ते न क्षता न च श्रान्ता दृढावरणकार्मुकाः।
मदर्थं विष्ठिता नूनं धांर्तराष्ट्रस्य शासनात् ॥२६॥
एतान् प्रमथ्य सङ्ग्रामे प्रियार्थं तव कौरव ।
प्रयास्यामि ततः पश्चात् पदवीं सव्यसाचिनः ॥२७॥
यांस्त्वेतानपरान् राजन् नागान् सप्तशतानिह ।
प्रेक्षसे वर्मसञ्छन्नान् किरातैस्समधिष्ठितान् ॥२८॥
किरातराजो यान् प्रादाद् गृहीतस्सव्यसाचिना ।
अलङ्कृत्य तदा प्रेष्यान् इच्छञ्जीवितमात्मनः ॥२९॥
आसन्ने ते पुरा राजंस् तव कर्मकरा दृढम् ।
त्वामेवाद्य युयुत्सन्ते पश्य कालस्य पर्ययम् ॥३०॥
तेषामेते महावीर्याः किराता युद्धदुर्मदाः।
हस्तिशिक्षावदाताश्च सर्वे चैवाग्नियोनयः ॥३१॥
एते विनिर्जितास्सर्वे सङ्ग्रामे सव्यसाचिना ।
मदर्थं युध्यता यत्तास् सुयोधनवशे स्थिताः ॥३२॥
एतान् हत्वा शरै राजन् किरातान युद्धदुर्मदान् ।
सैन्धवस्य वधे यत्तम् अनुयास्यामि पाण्डवम् ॥३३॥
एते हि सुमहानागा अञ्जनस्य कुलोद्भवाः ।
कर्कशाश्च विनीताश्च प्रभिन्नकरटामुखाः ॥३४॥
जाम्बूनदमयैरेते भूषणैस्समकङ्कृताः।
लब्धलक्षा रणे राजन्नैरावतसमा युधि ॥३५॥
आस्थिता दस्युभिस्तीक्ष्णैश् शूरैरुत्तमपार्वतैः।
कर्कशैः प्रवरैर्योधैः कांस्यायसतनुच्छदैः ॥३६॥
सन्ति गोयोनयश्चात्र सन्ति वारणयोनयः।
मक्षिकायोनयश्चान्ये382 तथा वानरयोनयः ॥३७॥
अनीकमसतामेतद् धूमवर्णमुदीर्यते ।
म्लेच्छानां पापकर्तॄणां हिमव दुर्गवसिनाम् ॥३८॥
एतद्दुर्योधनो लब्ध्वा सम नागमण्डलम् ।
भीष्मं द्रोणं कृपं कर्णम् आवन्त्यमथ सैन्धवम् ॥३९॥
द्रौणि च सौमदत्तिं च पाण्डवानति मन्यते ॥४०॥
कृतार्थमथ चात्मानं मन्यते कालचोदितः ॥४०॥
ते च सर्वे तु सम्प्राप्ता मम नाराचगोचरम् ।
न भविष्यन्ति कौन्तेय यद्यपि स्युर्मनोजवाः ॥४१॥
तेन सम्भाविता नित्यं परवीर्योपजीविना ।
विनाशमुपयास्यन्ति मच्छरौघनिपीडिताः400 ॥४२॥
य एते रथिनो राजन् दृश्यन्ते काञ्चनध्वजाः।
एते दुर्वारणा नाम काम्भोजा यदि ते श्रुताः॥४३॥
शूराश्च कृतविद्याश्च धनुर्वेदे च निष्ठिताः।
संहताश्व भृशं होते अन्योन्यस्य हितैषिणः ॥४४॥
अक्षौहिण्यश्च401 संरब्धा धर्मराजाद्य भागशः।
यत्ता मदर्थं तिष्ठन्ति कुरुवीराभिरक्षिताः ॥४५॥
अप्रमत्ता महाराज मामेव प्रत्युपस्थिताः।
तांस्त्वहं प्रतिधक्ष्यामि तृणानीव हुताशनः ॥४६॥
तस्मात् सर्वानुपासङ्गान् सर्वोपकरणानि च ।
रथे कुर्वन्तु मे राजन् यथावद्रथकल्पकाः ॥४७॥
अस्मिंस्तु खलु सङ्ग्रामे ग्राह्यं विविधमायुधम् ।
यथोपदिष्टमाचार्यैः कार्यः पञ्चगुणो रथः ॥४८॥
काम्भोजैर्हि समेष्यामि तीक्ष्णैराशीविषोपमैः।
नानाशस्त्रसमावापैर विविधान्तरभेदिभिः ॥४९॥
किरातैश्च समेष्यामि विषकल्पप्रहारिभिः।
पादातैस्सततं402 राजन् दुर्योधनहितैषिभिः ॥५०॥
शकैश्चापि समेष्यामि शऋतुल्यबलैस्सह।
अभिकल्पैर्दुराधर्षैः प्रदीप्तैरिव पावकैः ॥५१॥
तथाऽन्यैर्विविधैर्घोरैः कालकल्पैर्दुरासदैः।
समेष्यामि रणे राजन् बहुभिर्युद्धदुर्मदैः॥५२॥
त्रियोजनगतस्याहं पदवीं सव्यसाचिनः।
यास्यामि रथिनां श्रेष्ठं प्रवरं च धनुष्मताम् ॥५३॥
सूर्योदयगतस्याहं पाण्डवस्य गतिं चरन् ।
अपराहं गते सूर्ये गमिष्यामि न संशयः ॥५४॥
तस्मान्मे345 वाजिनो मुक्तान् विश्रान्तांश्च विचक्षणैः।
उपावृत्तांश्च पीतांश्च पुनर्युञ्जन्तु मे रथे ॥५५॥
सञ्जयः—
तस्य सर्वानुपासङ्गान् सर्वोपकरणानि च।
रथे चास्थापयद्राजा शस्त्राणि विविधानि च ॥५६॥
ततस्तान् सर्वतो मुक्ता सदश्वांश्चतुरो जनाः।
रसवत् पाययामासुः पानं परमहर्षणम् ॥५७!
पीतोपवृत्तान् स्त्रातांच जग्धान्नान् समलङ्कृतान्।
विनीतशल्यांस्तुरगांशू365 चतुरो हेममालिनः ॥५८॥
तान् युक्तान् रूप्यवर्णाभान् विनीताञ् शीघ्रगामिनः।
संहृष्टमनसो व्यग्रान् विधिवत् कल्पिते थे ॥५९॥
युक्ते ध्वजेन सिंहेन हेमकेसरमालिना।
संवृते केतकैर्हेमैर् मणिविद्रुमचित्रितैः ॥६०॥
पाण्डराभ्रप्रकाशाभिः पताकाभिरलङ्कृते ।
हेमदण्डोद्धृतच्छत्रे बहुशस्त्रपरिच्छदे ॥६१॥
योजयामास विधिवद्धेमभाण्डविभूषितान् ॥६२
दारुकस्यानुजो भ्राता सूतस्तस्य प्रियस्सखा ।
न्यवेदयद्रथं युक्तं वासवस्येव मातलिः ॥६३॥
ततस्त्रातश्शुचिर्भूत्वा कृतकौतुकमङ्गलः ।
स्नातकानां सहस्राणां प्रतिनिष्काण्यदापयत् ॥६४॥
ततस्समधुपर्काम्भः पीत्वा कैरातकं मधु ।
लोहिताक्षो बभौ तत्र मदविह्वललोचनः ॥६५॥
आलभ्य वीरः कांस्यं च हर्षेण महता वृतः।
द्विगुणीकृततेजोभिः प्रज्वलन्निव पावकः ॥६६॥
उत्सङ्गे धनुरादाय सशरं रथिनां वरः।
आशीर्वादैः403 परिष्वक्तस् सात्यकिश्श्रीमतां वरः ॥६७॥
कृतस्वस्ययनो विषैः कवची समलङ्कृतः।
लाजैर्गन्धैस्तथा माल्यैः कन्याभिरभिनन्दितः ॥६८॥
युधिष्ठिरस्य चरणावभिवाद्य कृताञ्जलिः।
तेन मूर्धन्युपात्रातः कृतस्वस्त्ययनोऽपि च ॥६९॥
आशिषो विपुलाश्रुत्वा धर्मराजमुखोद्गताः।
हर्षेण महता युक्तस् त्वारुरोह रथोत्तमम् ॥७०॥
ततस्ते वाजिनो हृष्टास् सुपुष्टा वातरंहसः ।
आजानेया जैत्रमूहुर् विकुर्वाणाञ्च सैन्धवाः ॥७१ ॥
यथा शत्ररथं राजन्नूहुस्ते हरयः पुरा ॥७१ ॥
तथैव भीमसेनोऽपि धर्मराजेन चोदितः।
सत्यकेन सह प्रायाद् अभिवाद्य युधिष्ठिरम् ॥७२॥
सन्नद्धं त्वनुगच्छन्तं भीमं प्रेक्ष्य स सात्यकिः।
अभिनन्द्याब्रवीद्वीरः प्रहर्षणमिदं वचः ॥७३॥
सात्यकिः—
त्वं भीम रक्ष राजानम् एतत् कार्यतमं हि ते ।
अहं भित्त्वा प्रवेक्ष्यामि कालपक्कमिदं बलम् ॥७४ ॥
आयत्यां च तदात्वे च श्रेयो राज्ञो हि रक्षणम् ।
जानीषे मम वीर्यं त्वं तव चाहमरिन्दम ॥७५॥
तस्माद्भीम निवर्तस्व मम चेदिच्छसि प्रियम् ॥७६॥
सञ्जयः
—
इत्युक्तस्सात्यकिं प्राह व्रज त्वं कार्यसिद्धये ।
अहं राज्ञः करिष्यामि रक्षां पुरुषसत्तम ॥७७॥
एवमुक्तः404 प्रत्युवाच भीमसेनं स माधवः ॥७७॥
सात्यकिः—
गच्छ गच्छ द्रुतं पार्थ ध्रुवोऽद्य विजयो मम।
यन्मे स्निग्धोऽनुरक्तञ्च त्वमद्य वशगस्स्थितः ॥७८॥
निमित्तानि च धन्यानि यथा भीम वदन्ति मे ॥७९
निहते सैन्धवे पापे पाण्डवेन महात्मना ।
परिष्वजिष्ये राजानं धर्मात्मानं न संशयः ॥८०॥
अप्रमादश्च ते कार्यो द्रोणं प्रति महारथम् ॥८०॥
सञ्जयः—
एतावदुक्त्वा भीमं तु विसृज्य च महामनाः।
सम्प्रेक्षत्405 तावकं सैन्यं सिंहो मृगगणानिव ॥८१ ॥
तं दृष्ट्वा प्रतिवीक्षन्तं सैन्यं तव जनाधिप।
भूय एवाभवन्मूढं असकृच्चाप्यकम्पत ॥८२॥
ततः406 प्रयातस्सहसा तव सैन्यं स सात्यकिः।
दिक्षुरर्जुनं राजन् धर्मराजस्य शासनात् ॥८३॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि अष्टनवतितसोऽध्यायः ॥१८॥
॥ ६९ ॥ जयद्रथवधपर्वणि द्वाविंशोऽध्यायः ॥२२॥
[अस्मिन्नध्याये ८३॥ श्लोकाः]
॥एकोनशततमोऽध्यायः॥
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अर्जुनं गच्छतः सात्यकेः कृतवर्मणा सह युद्धम्॥
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सञ्जयः—
प्रयाते तव सैन्यं तु युयुधाने युयुत्सया \।
धर्मराजो महाराज स्वेनानीकेन संवृतः ॥१॥
प्राया होणरथप्रेक्षी युयुधानस्य पृष्ठतः ॥१॥
ततः पाञ्चालराजस्य पुत्रस्सङ्ग्रामदुर्मदः ।
प्रयाते215 माधवे राजन्निदं वचनमब्रवीत् ॥२॥
प्राक्रोशत्382 पाण्डवानीके वसुदामा च पार्थिवः ॥३॥
वसुदामा—
आगच्छत प्रहरत द्रुतं विपरिधावत ।
यथा सुखेन गच्छेत सात्यकिर्युद्धदुर्मदः ॥४॥
महारथा हि बहवो यतिष्यन्तेऽस्य निर्जये ॥४॥
सञ्जयः—
सेनापतिवचत्वा पाण्डवेयास्समन्ततः ।
अभ्युद्ययुमहाराज407 तव सैन्यं समन्ततः ॥५॥
जहि प्रहर गृह्णीहि विध्य विद्रावयाद्रव।
इति ब्रुवन्तो वेगेन समासेदुर्बलं तव ॥६॥
वयं प्रतिजिगीषन्तस् तत्र तान् समभिद्रुताः।
वाणशब्दरवान् कृत्वा विमिश्राञ् शङ्खनिस्वनैः ॥७॥
युयुधानरथं दृष्ट्वा तावका अभिदुद्रुवुः।
ततशब्दो महानासीद् युयुधानरथं प्रति ॥८॥
प्रकम्प्यमाना महती तव पुत्रस्य वाहिनी ।
सात्वतेन महाराज शतधाऽभिव्यदीर्यत ॥९॥
तस्यां विदीर्यमाणायां शिनेः पौत्रो महारथः।
सप्त वीरान् महेष्वासान् अग्रानीकेष्वपोथयत् ॥१०॥
ते जिता मृद्यमानाश्च प्रकृष्टा दीर्घबाहुना।
आयोधनं जहुर्वीरा दृष्ट्वा तमतिपौरुषम् ॥११॥
स्थैर्विमथिताक्षैश्च भग्नयन्त्रैश्च मारिष।
चर्विमथितैरिछन्र ध्वजैश्च विनिपातितैः ॥१२॥
अनुकर्षैः पताकाभिश शिरस्त्राणैस्सकुण्डलैः।
बाहुभिश्चन्दनादिग्धैस् सकेयूरैर्विशां पते ॥१३॥
हस्तिहस्तोपमैश्चापि भुजगाभोगसन्निभैः ।
ऊरुभिः पृथिवी च्छन्ना नराणां पृथिवीपते ॥१४॥
शशाङ्कसदृशाकारैश शिरोभिश्चारुकुण्डलैः।
पतितैर्वृषभाक्षाणां बभौ भारत मेदिनी ॥१५॥
गजैश्च बहुधा च्छिन्नैश् शयानैः पर्वतोपमैः।
रराजातिभृशं भूमिर् विकीर्णैरिव पर्वतैः ॥१६॥
तपनीयमयैर्योर्मुक्ताजालविभूषितैः।
उरश्छदैर्विचित्रैश्च व्यरोचन्त तुरङ्गमाः ॥१७॥
गतसत्वा महीं प्राप्ताः प्रभृष्टा दीर्घबाहुना ॥१८॥
नानाविधानि सैन्यानि तव हत्वा तु सात्वतः।
प्रविष्टस्तावकं सैन्यं द्रावयित्वा चमूं तव ॥१९॥
ततस्तेनैव मार्गेण येन यातो धनञ्जयः।
इयेष सात्यकिर्गन्तुं ततो द्रोणेन वारितः ॥२०॥
भारद्वाजं समासाद्य युयुधानस्तु मारिष।
नात्यवर्तत संरुद्धो वेलामिव जलाशयः ॥२१॥
निगृह्य तु रणे द्रोणो युयुधानं महारथम्।
विव्याध निशितैर्बाणैः पञ्चभिर्मर्मभेदिभिः ॥२२॥
सात्यकिस्तु रणे द्रोणं राजन् विव्याध सप्तभिः।
रुक्मपुङ्खैशिलाधौतैः कङ्कबर्हिणवाजितैः ॥२३॥
तं. षड्भिस्सायकैद्रोणस् साश्वयन्तारमर्पयत् ॥२३॥
सतं न ममृषे द्रोणं युयुधानो महारथः।
सिंहनादं ततः कृत्वा द्रोणं विव्याध सात्यकिः ॥२४॥
दशभिस्सप्तभिश्चान्यैषू षड्भिरटाभिरेव च।
युयुधानः पुनद्रणं विव्याध दशभिश्शरैः ॥२५॥
एकेन सारथिं चास्य चतुर्भिश्चतुरो हयान्।
ध्वजमेकेन बाणेन युधि विव्याध मारिष ॥२६॥
तं द्रोणस्साश्वयन्तारं सरथध्वजमायुगैः।
त्वरन्365 प्रच्छादयद्वाणैश शलभानामिव ब्रजैः ॥२७॥
तथैव युयुधानोऽपि द्रोणं बहुभिराशुगैः।
प्रच्छादयदसम्भ्रान्तस् त्वरमाणो महारथः ॥२८॥
द्रोणस्तु परमक्रुद्धस् सात्यकिं परवीरहा।
अवाकिरच्छितैर्बाणैर् वासुदेवपराक्रमम् ॥२९॥
तं यथा शरजालेन प्रच्छाद्य महता पुनः।
द्रोणः प्रहस्य शैनेयम् इदं वचनमब्रवीत् ॥३०॥
द्रोणः—
तवाचार्यो रणं हित्वा यातः कापुरुषो यथा ।
योधयन्तं हि हित्वाऽसौ मां प्रदक्षिणतो बली ॥३१॥
त्वं न मे युध्यमानस्य जीवन सत्यक मोक्ष्यसे ।
यदि मां त्वं रणे हित्वा न यास्याचार्यवहृतम् ॥३२॥
सात्यकिः—
धनञ्जयस्य पदवीं धर्मराजस्य शासनात् ।
गच्छामि स्वस्ति ते ब्रह्मन् न मे कालात्ययो भवेत् ॥ ३३॥
सञ्जयः—
एवमुक्त्वा तु शैनेय आचार्य परिवर्जयन् ।
प्रयातस्सहसा राजन् सारथिं चेद्मब्रवीत् ॥३४॥
सात्यकिः—
द्रोणः करिष्यते यत्नं सर्वथा मम वारणे ।
यत्तो याहि रणे सूत शृणु चेदं वचोऽपरम् ॥३५॥
एतदालोक्यते सैन्यम् आवन्त्यानां महाप्रभम्।
अभेद्यमरिभिर्वीरैस्339 सुमहद्भिर्महलम् ॥३६॥
अस्यानन्तरतश्चैतद् बाह्रीकानां महद्बलम् ।
तदनन्तरमेवैतद् दाक्षिणात्यं महद्रलम् ॥३७॥
बाहिकाभ्य (शसंयुक्तं कर्णस्यापि महदूलम् ॥३८॥
अन्योन्येन च सैन्यानि भिन्नान्येतानि सारथे।
अन्योन्यं समुपाश्रित्य न त्यक्ष्यन्ति रणाजिरम् ॥३९॥
एतदन्तरमासाद्य चोयाश्वान् प्रहृष्टवत् ।
मध्यमं जवमास्थाय वह मामत्र सारथे ॥४०॥
बाहिका यत्र दृश्यन्ते नानाप्रहरणोद्यताः ।
दाक्षिणात्याच बहुशस् सूतपुत्रपुरोगमाः ॥४१॥
हस्त्यश्वरथसम्बाधं यत्रानीकं विलोक्यते ।
नानादेशसमुत्यैश्च पदातिभिरधिष्ठितम् ॥४२॥
ततश्शक्यो महाव्यूहो भेत्तुं स सहसा रणे ।
तं देशं त्वरिता यामो मृगन्तो युधि शात्रवान् ॥४३॥
तत्रैते सम्प्रहृष्टत्वान्नास्मान् प्रति युयुत्सवः ॥४३॥
अयुध्यमानो बहुभिर् एकं प्राप्य सुदुर्बलम् ।
बलं प्रमथ्य गच्छामि मिषतां सर्वधन्विनाम् ॥४४॥
सव्यतो याहि यत्रोत्रं कर्णस्य सुमहद्बलम् ।
यते परमक्रुद्धा दाक्षिणात्या महारथाः ॥४५॥
एतान् विजित्य सङ्गामे ततो यामो धनञ्जयम् ॥४६॥
सञ्जयः—
युयुधानवचरश्रुत्वा युयुधानस्य सारथिः ।
यथोक्तमगमद्राजन् वर्जयन् द्रोणमाहवे ॥४७॥
तं द्रोणोऽनुययौ क्रुद्धो विकिरन्निशिताञ् शरान् ।
युयुधानं महाबाहुं गच्छन्तमनिवर्तिनम् ॥४८॥
सच सैन्यं महद्भित्या दाक्षिणात्यबलं च तत् ।
कर्णस्य सैन्यं सुमहन्निहत्य च शितैश्शरैः ॥४९॥
प्राविशन्महती सेनाम् अपर्यन्तां स सात्यकिः ॥४९॥
सात्यको हि ततस्सैन्यं द्रावयन् स समन्ततः ॥५०॥
विद्रुते408 तु बले तस्मिन् भन्ने भारत भारते ।
अमर्षी कृतवर्मा तु सात्यकिं पर्यवारयत् ॥५१॥
तमापतन्तं विशिखैषु षड्भिराहत्य सात्यकिः ।
चतुर्भिश्चतुरोऽस्याश्वान् आजघानाशु वीर्यवान् ॥५२॥
ततः पुनष्षोडशभिर् नतपर्वभिराशुगैः।
सात्यकिः कृतवर्माणं प्रत्यविध्यत् स्तनान्तरे ॥५३॥
स तुद्यमानो विशिखैर बहुभिस्तिग्मतेजनैः ।
सात्वतेन महाराज कृतवर्मा न चक्षमे ॥५४॥
स वत्सदन्तं सन्धाय जिह्मगानलसन्निभम् ।
आयम्य राजन्नाकर्ण विव्याधोरसि सात्यकिम् ॥५५॥
स तस्य देहावरणं भिवा देहं च सात्यकेः ।
स पत्रपुः पृथिवीं विवेश रुधिरोक्षितः ॥५६॥
अथास्य बहुभिर्वाणैर् आच्छिनत् परमास्त्रवित् ।
स मार्गणगणं चापं कृतवर्मा महारथः ॥५७॥
विव्याध च रणे राजन् सात्यकिं सत्यविक्रमः।
दशभिर्विशिखैस्तीक्ष्णैर् अभिक्रुद्धस्स्तनान्तरे ॥५८॥
ततः प्रकीर्णे धनुषि शक्त्या शक्तिमतां वरः।
अभ्यन्नदक्षिणं बाहुं सात्यकिः कृतवर्मणः ॥५९॥
ततोऽन्यत् सुदृढं वीरो धनुरादाय वीर्यवान्।
व्यसृजद्विशिखांस्तूर्ण शतशोऽथ सहस्रशः ॥६०॥
सरथं कृतवर्माणं सायकैः पर्यवाकिरत् ॥६०॥
छायित्वा रणे राजन् हार्दिक्यं तु स सात्यकिः।
अथास्य भल्लेन शिरशू सारथेस्समकृन्तत ॥६१॥
स पपात हतस्सूतो हार्दिक्यस्य महारथात्।
ततस्ते यन्तरि हते प्राद्रवंस्तुरगा भृशम् ॥६२॥
अथ भोजस्त्वसम्भ्रान्तो निगृह्य तुरगान् स्वयम्।
तस्थौ शरधनुष्पाणिस् तत् सैन्यं प्रत्यपूजयत् ॥६३॥
स मुहूर्तमिवाश्वस्य सदश्वानभ्यचूचुदत् ।
व्यपेतभीर मित्राणाम् आदधत् सुमहद्भयम् ॥६४॥
सात्यकिं नाभ्ययात् तस्मात् स तु भीममुपाद्रवत् ॥६५॥
युयुधानोऽपि राजेन्द्र भोजानीकमतिक्रमन्।
प्रययौ त्वरितस्तूर्णं काम्भोजानां महाचमूम् ॥६६॥
स तत्र बहुभिश्शूरैस् सन्निरुद्धो महारथैः ।
न चचाल महाराज सात्यकिस्सत्यविक्रमः ॥६७॥
सन्धाय च चमूं द्रोणो भोजे भारं निवेश्य च ।
अभ्यधावद्रणे यत्तो युयुधानं युयुत्सया ॥६८॥
तथा तमनुधावन्तं युयुधानस्य पृष्ठतः।
न्यवारयन्त सङ्क्रुद्धाः पाञ्चाला वै बृहत्तमाः ॥६९॥
समासाद्य तु हार्दिक्यं रथिनां प्रवरं रथम् ॥६९॥
पाञ्चाला विगतोत्साहा भीमसेनपुरोगमाः।
विक्रम्य वारिता राजन वीरेण कृतवर्मणा ॥७०॥
यतमानांस्तु तान् सर्वान् द्विषतो गतचेतसः।
अभितस्ताञ् शरौघेण क्लान्तरूपानवारयत् ॥७१॥
निगृहीतास्तु भोजेन भोजानीकेप्लवो रणे।
अतिष्ठाहवे वीराः प्रतीप्सन्तो महद्यशः ॥७२॥
हार्दिक्यं समरे यत्ता न शेकुः प्रतिवीक्षितुम् ॥७३॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि एकोनशततमोऽध्यायः ॥९९॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वणि योविंशोऽध्यायः ॥२३॥
[अस्मिन्नध्याये ७३ श्लोकाः]
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॥ शततमोऽध्यायः ॥
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धृतराष्ट्रस्य स्वसैन्यपराजयश्रवणेन शोचनम् ॥१॥ सञ्जयेन तदुपालम्भपूर्वकं कृतवर्मंपराक्रमकथनम् ॥२॥
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धृतराष्ट्रः—
एवं बहुगुणं सैन्यम् एवं प्रविचितं परम्।
व्यूढमेवं यथान्यायम् एवं बहु च सञ्जय ॥१॥
नित्यं पूजितमस्माभिर् अभिरामं च नस्सदा।
प्रौढमत्यद्भुताकारं पुरस्तादृष्टविक्रमम् ॥२॥
नातिवृद्धमबालं च न कृशं न च पीवरम् ।
लघुवृत्तायतप्रायं सारयोधसमन्वितम् ॥३॥
आत्तसन्नाह सम्पन्नं बहुशस्त्रपरिग्रहम् ।
अस्त्रग्रहणविद्यासु बह्वीषु परिनिष्ठितम् ॥४॥
आरोहे पर्यवस्कन्दे सरणे सोत्तरशते ।
सम्यक् प्रहरणे याने व्यपयाने च कोविदम् ॥५॥
नागेष्वश्वेषु बहुशो रथेषु च परीक्षितम् ।
चर्मनिस्त्रिंशयुद्धे च नियुद्धे च विशारदम् ॥६॥
परीक्ष्य च यथान्यायं वेतनेनोपपादितम् ॥६॥
न गोष्टया नोपकारेण न सम्बन्धनिमित्ततः ।
नानाभृतं नान्यभृतं मम सैन्यं बभूव ह ॥७॥
कुलीनाभिजनोपेतं तुष्टपुष्टमनुद्धतम् ।
कृतमानोपचारं च यशस्वि च मनस्वि च ॥८॥
सचिवैश्चापरैर्मुख्यैर् बहुभिर्मुख्यकर्मभिः ।
लोकपालोपमैस्तात पालितं नरसत्तमैः ॥९॥
बहुभिः पार्थिवैर्गुप्तम् अस्मत्प्रियचिकीर्षुभिः ।
अस्मानभिसृतैः कामात् सबलैस्सपदानुगैः ॥१०॥
महोदधिमिवापूर्णम् आपगाभिस्समन्ततः ।
अपक्षैः पक्षिसङ्काशै रथैरश्चैश्च संवृतम् ॥११॥
योधाक्षय्यजलं भीमं वाहनोर्मितरङ्गिणम् ।
क्षेपण्यसिगदाशक्तिशरत्रातझषाकुलम् ॥१२॥
ध्वजाग्रमणिसम्बावम् रत्नपट्टसुसंवृतम् ।
वाहनैः परिधावद्भिर् वायुवेगैर्विकल्पितम् ॥१३॥
द्रोणगम्भीरपातालं कृतवर्ममहाह्रदम् ।
जलसन्धमहाग्राहं कर्णचन्द्रोदयोद्धतम् ॥१४॥
गते सैन्यार्णवं भिवा तरसा पाण्डवर्षभे ।
सञ्जयकरथेनैव युयुधाने च मामकम् ॥१५॥
तत्र शेषं न पश्यामि प्रविष्टे सव्यसाचिनि ।
सात्वते च रथोदारे मम सैन्यस्य सञ्जय ॥१६॥
तौ तत्र समतिक्रान्तौ दृष्ट्वा वीरौ तरस्विनौ ।
सिन्धुराजं च सम्प्रेक्ष्य गाण्डीवस्यैव गोचरम् ॥१७॥
किं तदा कुरवः कृत्यं विदधुः कालचोदिताः ॥१८॥
दारुणैकायने काले कथं वा प्रतिपेदिरे ॥१८॥
प्रस्तान् हि कौरवान् मन्ये मृत्युना चाभिसङ्गतान् ।
विक्रमोऽपि रणे तेषां न तथा दृश्यतेऽद्य वै ॥१९॥
अक्षतौ संयुगे तत्र प्रविष्टौ कृष्णपाण्डवौ ।
न च वारयिता कश्चिमम सैन्येऽस्ति सञ्जय ॥२०॥
मृताच बहवो योधाः परीक्ष्यैव तु सञ्जय ।
वेतनेन यथायोग्यं प्रियवादेन चापरे ।२१॥
अकारणभृतस्तत्र मम सैन्ये न विद्यते ।
कर्मणा ह्यनुरूपेण लभ्यते भक्तवेतनम् ॥२२॥
न409 च योद्धाऽभवत् कश्चिन्मम सैन्येषु सञ्जय ।
नाल्पदानभृतस्तात न कोऽप्यभृतकोऽपि वा ॥२३॥
पूजितो हि यथाशक्त्या दानमानासनैर्मया ।
तथा पुत्रैश्च मे तात ज्ञातिभिश्च तथैव च ॥२४॥
ते चावाप्य च सङ्ग्रामे निर्जितास्सव्यसाचिना ।
शैनेयेन च संमृष्टाः किमन्यद्भागधेयतः ॥२५॥
रक्ष्यते यश्च सङ्ग्रामे ये च सञ्जय रक्षिणः।
एकस्साधारणः पन्था रक्ष्येण सह रक्षिणाम् ॥२६॥
अर्जुनं समरे दृष्ट्वा सैन्धवस्याग्रतस्थितम् ।
पुत्रो मम भृशं मूढः किं कार्यं प्रत्यपद्यत ॥२७॥
सात्यकिं च रणे दृष्ट्वा प्रविशन्तमभीतवत् ।
किं नु दुर्योधनः कृत्यं प्राप्तकालममन्यत ॥२८॥
सर्वशक्त्याऽधिकौ सेनां प्रविष्टौ रथसत्तमौ ।
दृष्ट्वा कां वै धृति युद्धे प्रत्यपद्यन्त मामकाः ॥२९॥
दृष्ट्वा तु कृष्णं वार्ष्णेयम् अर्जुनार्थे व्यवस्थितम् ।
शिनीनामृषभं चैव मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥३०॥
दृष्ट्वा सेनां व्यतिक्रान्तां सात्वतेनार्जुनेन च ।
द्रवतस्तु कुरून् दृष्ट्वा मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥३१॥
विद्रुतान्410 रथिनो दृष्ट्वा निरुत्साहान् द्विषजये ।
पलायनकृतोत्साहान् मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥३२॥
शून्यान् कृतान् रथोपस्थान् सात्यकेनार्जुनेन च ।
हतांश्च योधान् संदृश्य मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥३३॥
व्यश्वनागरथान्411 दृष्ट्वा तत्र धीरान् सहस्रशः।
धावतञ्च रणे व्यग्रान् मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥३४॥
विवीरांश्च रथेभाश्वान् विरथांश्च कृतान् नरान्।
तत्र सात्यकिपार्थाभ्यां मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥३५॥
पत्तिसङ्घान् रणे दृष्ट्वा धावमानांश्च सर्वशः।
निराशा विजये सर्वे मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥३६॥
द्रोणस्य समतिक्रान्तावनी कमपराजितौ।
क्षणेन दृष्ट्वा तौ वीरौ मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः ॥३७॥
सम्मूढोऽस्मि भृशं तात श्रुत्वा कृष्णधनञ्जयौ।
प्रविष्टौ मामकं सैन्यं सात्वतेन सहाक्षतौ ॥३८॥
ततः प्रविष्टे पृतनां शिनीनां प्रवरे रथे।
भोजानीकं व्यतिक्रान्ते कथमासन् हि कौरवाः ॥३९॥
तथा द्रोणेन सहसा निगृहीतेषु पाण्डुषु ।
कथं युद्धमभूत् तेषां तन्ममाचक्ष्व सञ्जय ॥४०॥
द्रोणो हि बलवाञ् शूरः कृतास्त्रो दृढविक्रमः।
पाञ्चालास्तं महेष्वासं प्रत्ययुध्यन् कथं रणे ॥४१॥
बद्धवैरास्तथा द्रोणे भारद्वाजवधैषिणः।
भारद्वाजस्तथा तेषु दृढवैरो महाबलः ॥४२॥
अर्जुनश्चापि यचक्रे सिन्धुराजवधं प्रति ।
तन्मे सर्व समाचक्ष्व कुशलो ह्यसि सञ्जय ॥४३॥<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1706627641Screenshot2023-05-17160608.png"/>257
सञ्जयः—
आत्मापराधसम्भूतं व्यसनं भरतर्षभ ।
प्राप्य प्राकृतवद्धीर न त्वं शोचितुमर्हसि ॥४४॥
तव निर्गुणतां मत्वा पक्षपातं सुतेषु च ।
द्वैधीभावं पृथग् धर्मे पाण्डवेषु च मत्सरम् ॥४५॥
आर्तप्रलापांच बहून् मनुजाधिपसत्तम ।
सर्वलोकस्य तत्त्वज्ञस् सर्वलोकगुरुः प्रभुः ॥४६॥
वासुदेवस्ततो युद्धं कुरूणामकरोन्महत् ।
आत्मापराधात् सुमहान् प्राप्तस्ते विपुलः क्षयः ॥४७॥
न हि ते सुकृतं किञ्चिद् आदौ मध्ये च भारत \।
दृश्यते पृष्ठतश्चैव त्वन्मूलो हि पराजयः ॥४८॥
तस्मादद्य स्थिरो भूत्वा ज्ञात्वा लोकस्य निर्णयम् ।
शृणु युद्धं यथावृत्तं घोरं देवासुरोपमम् ॥४९॥
प्रविष्टे तव सैन्यं तु शैनेये सत्यविक्रमे ।
भीमसेनमुखाः पार्थाः प्रतीयुर्वाहिनीं तव ॥५०॥
आगच्छतस्तान् सहसा क्रुद्धरूपान सहानुगान् ।
दधारैको रणे पाण्डून कृतवर्मा महारथः ॥५१ ॥
यथोद्वृत्तं वारयते वेलेव सलिलार्णवम् ।
पाण्डसैन्यं तथा सङ्ख्ये हार्दिक्यस्समवारयत् ॥५२॥
तत्राद्भुतममन्यन्त हार्दिक्यस्य पराक्रमम् ।
यद्नं सहिताः पार्था नातिकामंस्तु संयुगे ॥५३॥
ततो भीमस्त्रिभिर्विवा कृतवर्माणमायसैः।
प्रदध्मौ वारिजं तत्र हर्षयन् सर्वपाण्डवान् ॥५४ ॥
सहदेवस्तु विंशत्या धर्मराजस्तु पञ्चभिः।
नकुलस्तु शतेनैव हार्दिक्यं विव्यधुश्शरैः ॥५५॥
द्रौपदेयास्त्रसप्तत्या सप्तभिश्च घंटोत्कचः।
धृष्टद्युम्नस्त्रिभिर्बाणैः कृतवर्माणमर्पयत् ॥५६॥
विराटः पञ्चदशभिर् द्रुपदश्चैव पञ्चभिः।
शिखण्डी चैव हार्दिक्यं भित्त्वा पञ्चभिरायसैः ॥५७॥
पुनर्विव्याध विंशत्या सायकानां हसन्निव ॥५८॥
कृतवर्मा ततो राजन् सर्वतस्तान् महारथान।
एकैकं पञ्चभिर्विद्धा भीमं विव्याध पञ्चभिः ॥५९॥
धनुर्ध्वजं च संयत्तो रथाद्भूमावपातयत् ॥५९॥
अथैनं छिन्नधन्वानं त्वरमाणो महारथः।
आजघानोरसि क्रुद्धस् सप्तत्या निशितैश्शरैः॥६०॥
स गाढविद्धो बलवान हार्दिक्यस्य शरोत्तमैः ।
प्रचचाल रथोपस्थे क्षितिकम्पे यथाऽचलः ॥६१॥
भीमसेनं तथा दृष्ट्वा धर्मराजपुरोगमाः ।
विसृजन्तश्शरान् घोरान् कृतवर्माणमर्दयन् ॥६२॥
तं तथा कोष्ठकीकृत्य रथवंशेन मारिष ।
विव्यधुस्सायकैर्हृष्टा रक्षार्थ मारुतेमृधे ॥६३॥
प्रतिलभ्य ततस्संज्ञां भीमसेनो महाबलः ।
शक्ति जग्राह समरे स्वर्णदण्डामयस्मयीम् ॥६४॥
चिक्षेप च रथात् तूर्णं कृतवर्मरथं प्रति ॥६५॥
सा भीमभुजनिर्मुक्ता निर्मुक्तोरगसन्निभा ।
कृतवर्माणमभितः प्रज्वलन्ती छुपाद्रवत् ॥६६॥
तामापतन्तीं सहसा युगान्ताग्निसमप्रभाम् ।
द्वाभ्यां शराभ्यां हार्दिक्यो निचकर्त त्रिधा तदा ॥६७॥
सा छिन्ना सहसा भूमौ शक्तिः कनकभूषणा ।
द्योतयन्ती दिशो राजन् महोल्केव दिवच्युता ॥६८॥
शक्तिं विनिहतां दृष्ट्वा भीमक्रोध वैभृशम् ॥६८॥
ततोऽन्यद्धनुरादाय वेगवत् सुमहास्वनम् ।
भीमसेनो रणे यत्तो हार्दिक्यं समवारयत् ॥६९॥
अथैनं पञ्चभिर्बाणैर् आजधान स्तनान्तरे।
भीमो भीमबलो राजंस् तव दुर्मन्त्रितेन ह ॥७०॥
भोजस्तु क्षतसर्वाङ्गो भीमसेनेन संयुगे।
रक्ताशोक इवोत्फुल्लो व्यभ्राजत रणाङ्कणे ॥७१॥
ततः क्रुद्धस्त्रिभिर्बाणैर् भीमसेनं त्वरान्वितः।
आहत्य रभसो युद्धे तान् सर्वान् प्रत्यविध्यत ॥७२॥
त्रिभिस्त्रिभिर्महेष्वासो यतमानान् महारथान् ॥७३॥
तेऽपि तं प्रत्यविध्यन्त सप्तभिस्सतभित्रशरैः ॥७३॥
शिखण्डिनः क्षुरप्रेण धनुरिछत्वा महारथः।
पुनर्विव्याध समरे प्रहसन्निव सात्वतः ॥७४॥
शिखण्डी तु ततः क्रुद्धश छिन्ने धनुषि सत्वरम्।
असिं जग्राह समरे शतचन्द्रं च भास्वरम् ॥७५॥
भ्रामयित्वा ततश्चर्म चामीकरविभूषितम् ।
तमसिं प्रेषयामास कृतवर्मरथं प्रति ॥७६॥
स तस्य सशरं चापं छित्त्वा राजन् महानसिः।
अभ्यगाद्धरणीं राजंश च्युतं ज्योतिरिवाम्बरात् ॥७७॥
एतस्मिन्नेव काले तु त्वरमाणा महारथाः।
विव्यधुस्सायकैस्तूर्ण कृतवर्माणमाहवे ॥७८॥
अथान्यद्धनुरादाय त्यक्त्वा तच्च महद्धनुः।
विशीर्ण भरतश्रेष्ठ हार्दिक्यः परवीरहा ॥७९॥
विव्याध पाण्डवान् भूयस् त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः ॥८०॥
शिखण्डिनं च विव्याध त्रिभिः पञ्चभिरेव च ॥८०॥
धनुरन्यत् समादाय शिखण्डी तु महायशाः।
अवारयत् कूर्मनखैर आशुगैर्हदिकात्मजम् ॥८१ ॥
ततः क्रुद्धो महाराज हृदिकस्यात्मसम्भवः।
अभिदुद्राव वेगेन याज्ञसेनि महारथम् ॥८२॥
भीष्मस्य समरे राजन् मृत्योर्हेतुं महात्मनः।
विदर्शयन् बलं घोरं शार्दूल इंव कुञ्जरम् ॥८३॥
तौ दिशागजसङ्काशौ ज्वलन्ताविव पावकौ।
समासेतुरन्योन्यं शरसङ्घैररिन्दमौ ॥८४॥
विधून्वानौ धनुश्श्रेष्ठे सन्दधानौ च सायकान् ।
विसृजन्तौ च शतधा गभस्तीनिव भास्करौ ॥८५॥
तापयन्तौ शरैस्तीक्ष्णैर् अन्योन्यं तौ महारथौ ।
युगान्तप्रतिमौ वीरौ रेजतुर्भास्कराविव ॥८६॥
कृतवर्मा सरभसं याज्ञसेनं महारथम् ।
विध्वा ततस्त्रसत्या पुनर्विव्याध सप्तभिः ॥८७॥
स गाढविद्धो व्यथितो रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं मूर्च्छया च परितः ॥८८॥
तं विषण्णं रणे दृष्ट्वा तावका भरतर्षभ ।
हार्दिक्यं पूजयामासुर वासांस्यादुधुवुश्च ह ॥८९॥
शिखण्डिनं तथा ज्ञात्वा हार्दिक्यशरपीडितम् ।
अपोवाह रणाद्यन्ता त्वरमाणो महारथम् ॥९०॥
सादितं तु रथोपस्थे तत्र दृष्ट्वा शिखण्डिनम्।
परिवत्र रथैस्तूर्ण कृतवर्माणमाहवे ॥९१॥
तत्राद्भुतं परं चक्रे कृतवर्मा महारथः ।
यदेकस्समरे पार्थान् वारयामास संयुगे ॥९२॥
पार्थाञ्जित्वाऽजयञ्चेदीन् पाञ्चालान् सृञ्जयानपि।
केकयांश्च महावीर्यान् कृतवर्मा महारथः ॥९३॥
ते वध्यमानास्समरे हार्दिक्येन स्म पाण्डवाः।
इतश्वेतश्च धावन्तो न हि जग्मुर्वृतिं क्वचित् ॥९४॥
जित्वा पाण्डुसुतान् युद्धे भीमसेनपुरोगमान् ।
हार्दिक्यस्स मरेऽतिष्ठद् विधूम इव पावकः ॥९५॥
ते द्राव्यमाणास्समरे हार्दिक्येन महारथाः।
विमुखास्समपद्यन्त शरवृष्टिभिराहताः ॥९६॥
इति श्रीमहाभारते शतसहस्त्रिकायां संहितायां वैयासिक्यां
द्रोणपर्वणि शततमोऽध्यायः ॥१००॥
॥६९॥ जयद्रथवधपर्वणि चतुर्विंशोऽध्यायः ॥२४॥
[अस्मिन्नध्याये ९६ ॥ श्लोकाः]
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अतः परं जयद्रथवधपर्वणि एकशततमाध्याये आद्यश्श्लोकः
सञ्जयः—
शृणुष्वैकमना राजन् यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।
द्राव्यमाणे बले तस्मिन् हार्दिक्येन महात्मना ॥ इति ॥
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
Printed by V. Venkateswara Sastrulu of
V. Ramaswamy Sastrulu & Sons, at the ‘Vavilla’ Press, Madras.
॥श्रीः॥
महाभारतद्रोणपर्वस्थानामशुद्धानां शोधनम्
| अशुद्धम् | शोधनम् |
| अश्वव्रवर्तयत् | अश्ववर्तयत् |
| दुर्धोधनेन | दुर्धोधनेन |
| सनामध्य | सनामध्य |
| वेगना | वेगेना |
| प्रसुत्रवुः | प्रसुस्रुवुः |
| क वा | के वा |
| द्रोणाभिषेकपर्व | संशप्तकवधपर्व |
| गोपाला कृत्वा | गोपालाः कृत्वा |
| द्रोणमायकैः | द्रोणसायकैः |
| सङ्केशान् | सङ्केलृशान् |
| कान्भोजैर् | काम्भोजैर् |
| मुदाहवन् | मुदावहन् |
| धृष्टद्युम्न | धृष्टद्युम्न |
| रणमूर्द्धनि | रणमूर्धनि |
| शूरांश् त्वदीया | शूरांस्त्वदीया |
| दुर्धोधनः | दुर्योधनः |
| नानाद | नानाद |
| श्वारिमिः | श्वारिभिः |
| तमलोकात्परं सञ्जयपदामुद्रणं, | तमलोकात्परं,तन्मुद्रणं च प्रामादिकम् ॥ |
| अशुद्धम् | शोधनम् |
| करिष्येते | करिष्ये ते |
| पश्य इति पदपातः | प्रामादिकः |
| नास्मि | नास्ति |
| यैवर्तयन्ति | यैर्वर्तयन्ति |
| सौभुद्रो | सौभद्रो |
| सदनुष्ठिताम् | सदनुष्ठितान् |
| स्मार्धम् | स्सार्धम् |
| स्तीर्णम् | स्तीर्णं |
| त्वां अलं | त्वाम् अलं |
| सिनिर्यूहा | सनिर्व्यूहास् |
| क्षुरप्रणे | क्षुरप्रेण |
| प्रतिज्ञापर्व | जयद्रथवधपर्व |
| „ | „ |
| शक्त्यष्टि | शक्त्यृष्टि |
| मिवामर्णवम् | मिवर्नवम् |
| न्नतिकान्ते | न्नतिकान्ते |
| क्षुद्र | क्षुद्रं |
| त्रयोदश॥१३॥ | चतुर्दश ॥१४॥ |
| चतुर्दश ॥१४॥ | पञ्चदश ॥१५॥ |
| पञ्चदश ॥१५॥ | षोडश ॥१६॥ |
| अर्जनस्य | अर्जुनस्य |
| शक्त्यष्टि | शक्त्यृष्टि |
]
-
“अ क ख ग घ - भयमुत्पादयत् तीव्र पाण्डवानां महवलम्। तदुदोणं महत् सैन्यं त्रैलोक्यस्यापि भीषणम्। भीष्मतः कोरवेयाणाम् अभियास्यन्ति के नुनः॥ [अधिकः पाठः अनन्वितश्च]” ↩︎
-
“अ- नास्त्यर्धद्वयम्” ↩︎
-
“नास्त्यर्धद्वयम्” ↩︎
-
“1. अ-ध-ङ - अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“1. अ- नास्त्यर्धद्वयम्” ↩︎
-
“1. क-अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“1. अ क ख ग घ - अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“1. अ क ख ग घ - नास्तीदमर्धद्वयम्” ↩︎
-
“2. अ-ग- अर्धषट्कं नास्ति” ↩︎
-
“3. ङ - अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“1. ड अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“2. ड-रथस्थः” ↩︎
-
“3. अ- नास्त्यर्धद्वयम्” ↩︎
-
“1. अ- नास्तीदमर्धद्वयम् ग -अर्चा ह्यसौ सहायस्ते सर्वराजमु भारत। यो द्रोणं समरे यान्तम् अनुयास्यति संयुगे॥ [पाठान्तरम् ] ङ. - नवसंस्थानयाधास्ते सर्वराजमु भारत। यो द्रोणं समरे यान्तम् अनुयास्यति संयुगे॥ [पाठान्तरम् ]” ↩︎
-
“1. ख - घ - भवन्नेत्राः,क - अर्धत्रयं नास्ति " ↩︎
-
“1. ख - घ - भवन्नेत्राः,क - अर्धत्रयं नास्ति” ↩︎
-
“1. ङ-युधिष्ठिरस्य” ↩︎
-
“1. ङ-अर्धपञ्चकं नास्ति " ↩︎
-
“1. ख - अर्धत्रयं नास्ति " ↩︎
-
“2. ख इदमर्धं नास्ति” ↩︎
-
“1. ङ - अर्धद्वयं नास्ति " ↩︎
-
“2. क- नास्त्यर्धद्वयम्” ↩︎
-
“1. क - अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“1. अ-ग - नास्त्यर्धपञ्चकम्” ↩︎
-
“1. अ-अर्धपञ्चकं नास्ति” ↩︎
-
“1. ङ- गृहीत्वा रथिनां श्रेष्ठं मत्सकाशमिहानय।” ↩︎
-
" 2. अ- अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“2. अ- अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“1. ख - कामं प्राप्ताह्यसौ रणे मध्ये अर्धचतुष्टयं नास्त्रि” ↩︎
-
“2. उत्तमाङ्गोत्पलवतीं, 3. अ- अर्धषट्रकं नास्ति” ↩︎
-
“4. क-ङ अर्धद्वयंनास्ति” ↩︎
-
“5. अ-ख - ङ-नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“2. घ - वर्षिभिः” ↩︎
-
“1. ख - अयमनन्तरश्च पादौ न स्तः” ↩︎
-
“2. अ-ख - ङ- नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“3. क- नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“2. ख – अर्धत्रयं नास्ति” ↩︎
-
“3. अ- अर्धपञ्चकं नास्ति” ↩︎
-
“1. घ - नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
" 2. ख- अर्धत्रयं नास्ति " ↩︎
-
“1. ख - अर्धचतुष्टयं नास्ति " ↩︎
-
“1. अ- नास्तीदमर्धम् " ↩︎
-
“2. ङ - अर्धपञ्चकं नास्ति " ↩︎
-
“3. ङ- अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“1. ड- अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“1. अ-क - इतोऽर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“1. घ - अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“1. क ज्वलन्मणिस्यूतसुवर्ण, ङ–मसारगल्वर्कसुवर्ण” ↩︎
-
“2. अ -क ध - नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“1. ख – ये च ब्रह्मद्विषामपि मध्ये अर्धपञ्चकं नास्ति” ↩︎
-
“1. ख - विष्ठिता” ↩︎
-
“1. ख - व्यूढानीकास्तु ते सर्वे पृथिव्यां समराणवे। [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“1. अ-ख घ ङ-नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“2. ङ- अर्धचतुष्टयं नास्ति " ↩︎
-
“1. ङ-अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“2. ख वृतश्शरशतैः (श्लो-7 1/2 ↩︎
-
“1. क- पादचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“1. क- नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“1. अ-क ख ग घ - अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“1. ख - इतः पादषट्रकं नास्ति” ↩︎
-
“1. ङ-कोश एकस्मिन्नेवेदमर्धं दृश्यते” ↩︎
-
“2. अ - अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“1. क – कोश एकस्मिवेदमर्धचतुष्टयं वर्तते नान्यत्र” ↩︎
-
“2. अ- घ - नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“1. इतः अभ्यायसमाप्तिपर्यन्तग्रन्थाः क ग - कोशयोरेव दृश्यन्ते *क अत्राध्यायसमाप्तिर्दृश्यते” ↩︎
-
“* क- कोशे नात्राध्यायसमाप्तिर्दृश्यते” ↩︎
-
“1. क- अर्धवयं नास्ति” ↩︎
-
“1. ख - इतः षोडशार्धानि नोपलभ्यन्ते” ↩︎
-
“2. अ- अर्धचतुष्टयं त्रुटितम् 1. ख - इदमर्धं नास्ति” ↩︎
-
“1. क-ग - कोशयोरेव दशार्धानीमानि वर्तन्ते” ↩︎
-
“1. क - अर्धद्वयं गलितम्” ↩︎
-
“1. अ - ख ग घ ङ- नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“2. क – कोशएकस्मिन्नेवेदमधं वर्तते।” ↩︎
-
“1. ध - ङ- अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“1. अ-क- नास्तीदमर्धम् " ↩︎
-
“2. ध नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“1. अ - अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“2. ख— उभयोः पुरुषव्याघ्र गजेन च रथेन च। [पाठान्तरम् ]” ↩︎
-
“1. ङ- अभ्यद्भवगणे” ↩︎
-
“1. घ - इतोऽर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
" 1. ख- नालमस्त्रेण संयुक्तो भगदत्तस्सुरासुरैः” ↩︎
-
“2. ख इदमर्धंनास्ति” ↩︎
-
“3. अ-क-ग-घ-ड–तस्याददानस्य धनुर्द्धिपं वज्र इवाचलम्। [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“1. इ-अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“2. अ-ड- नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“1. ख - अयं पादोऽनन्तरश्च न स्तः ।” ↩︎
-
“1. अ- अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“2. ध - नास्त्यर्धद्वयम्” ↩︎
-
“1. ख पाण्डवाद्रोणमित्येव न द्रोण ङ- पाण्डवान् याम इत्येव” ↩︎
-
“2. घ - नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“1. घ - इदमप्यर्धं नास्ति” ↩︎
-
“1. ख अर्धषट्कं नास्ति” ↩︎
-
“2. ख ड - नित्याभित्वरितानेव,ध– नित्याभित्वरितंनैष” ↩︎
-
“1. डगृहीत छिन्धि भिन्धीति हन शोषय पोषय।” ↩︎
-
“2. ङ - अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“3. ख-अनार्य” ↩︎
-
“1. ध – अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“1. ह-जग्मुरञ्जसा” ↩︎
-
“2. क-ग-भटा” ↩︎
-
“1. अ- अर्धपञ्चकं नास्ति” ↩︎
-
“3. ख - अयं पादः उपरितनमर्धं अनन्तरश्च पादः न सन्ति” ↩︎
-
“1. ग - व्यूहस्य” ↩︎
-
“1. ख - इदमर्धं नास्ति” ↩︎
-
“2. ङ अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“3. ख- अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“2. ख- अर्धषटकं नास्ति” ↩︎
-
“ङ अर्धत्रयं नास्ति” ↩︎
-
“1. ख–स सुरार्पितसर्वाश्च क्रुद्धश्शक्रात्मजात्मजः।” ↩︎
-
“1. ङ - नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“1. ख-ततोऽहं संप्रवक्ष्यामि ङ- ऽहं प्रवक्ष्यामि घ-संप्रवक्ष्यामि” ↩︎
-
“1. गख-व्रणम्” ↩︎
-
“1. घ ख संप्रमश्चत मा चिरम्” ↩︎
-
“2. खच अर्धषट्रकं नास्ति” ↩︎
-
“1. क- इतः पादचतुष्टयं नास्ति " ↩︎
-
“2. क - इदमर्धं नास्ति” ↩︎
-
“1. ख ङ व्यनदंस्ते” ↩︎
-
“1. ख घ ङ : परमेषुभिः” ↩︎
-
“1. ख व - निर्दहंस्तरसा रिपून्” ↩︎
-
“1. ख - युद्धेष्वकुशलं” ↩︎
-
“2. अ क - एको नान्वपतनथी ग - एको नान्वपतद्वथी घ- एकोऽप्यन्वपतद्वथी” ↩︎
-
“1. अ-ख - घ - ड - इमानि षडर्धांनि न सन्ति” ↩︎
-
“2. ग - ऽयुभ्यत पाण्डवान्” ↩︎
-
“3. क- नास्त्यjर्धंद्वयमिदम्” ↩︎
-
“1. ख - अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“1. घ - इतः त्रयोदशाधनि न सन्ति” ↩︎
-
“1. ख-अर्धपञ्चकं नास्ति” ↩︎
-
“1. ख – सादयन्तं” ↩︎
-
“ख-घ-ङ—समकम्पत सेना ते वित्रस्ता नौरिवार्णवे।” ↩︎
-
“घ—बान्धवानां त्वां” ↩︎
-
“अ-क्रोध ग- क्रोथ घ-कथ ख- कपि” ↩︎
-
“ङ-व—क्रुद्धः ख—कायः” ↩︎
-
“घ—कथं पुत्रमयोधयत्” ↩︎
-
“ख – शरैर्विचित्रघ—स वै विचित्र ङ—शरैर्विध्वस्त” ↩︎
-
“क-ख-ड—श्चित्रेऽसृगाप्लुतः घ–श्चित्रासृगाप्लुतः” ↩︎
-
" क - क्षिण्वन्ति” ↩︎
-
“ख—पौत्राःपौत्रमर्थंयथा ग—पौरोः पौत्रमुखं यथा घ—पौत्रास्तु द्विरदं यथा” ↩︎
-
“ङ—तावद्धनुश्छेत्तुं ख—चास्य धनुश्छित्वा” ↩︎
-
“ख-घ—विरथः स्वधर्ममनुपालयन्” ↩︎
-
“ग—कैशि क-ख ङ- कैशिकानां च विद्यया अ-कौशिकानां घ- कौशिकस्य न विद्यया” ↩︎
-
“ङ—मयूखा न्निपतेदेष घ—मयि खान्निपतेदेष” ↩︎
-
“घ—अर्धचतुष्टयं नास्ति 2. ख-घ—सौभद्रश्चापि तं रणे” ↩︎
-
“क-ख-घ—वृतालकम्” ↩︎
-
“क-ख-ग-घ-ङ—अवनी स्वधिकं बभौ” ↩︎
-
“क-ख-ग-घ-ङ – निहतैर्हेमभाण्डपरिच्छदैः” ↩︎
-
“क—वर्धनम्” ↩︎
-
“अ-क-ग—एष कर्ण” ↩︎
-
“ख घ - द्रोणानीकमसम्बाधं मम प्रियचिकीर्षया । [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“घ—अर्धत्रयं नास्ति” ↩︎
-
“ख—कृपण घ—कृष्णस्य” ↩︎
-
“ख-ध-ङ—सत्यवान्” ↩︎
-
“ङ-अर्ध त्रयं नास्ति” ↩︎
-
“ख-घ-ङ—बालश्च बालबुद्धिश्च” ↩︎
-
“घ – अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“ग – भीमवेगबलाश्चान्ये ङ—देहवेगबलाश्चान्ये क-ध—ओघवेगबलाश्चान्ये ख—दर्पवेगबला” ↩︎
-
“अ—नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“अ – देव ख-घ-त्स्ने” ↩︎
-
“ङ—नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“अ-ख-घ-ङ—नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
" ग–ववर्ष शरवर्षाणि शत्रुष्वमितविक्रमः । पदातिरथनागाश्वान् प्रममाथ महाबलः ॥ तदुदीर्णं बलं सर्वंहत्वाऽरीनरिसुदनः। त्रिविष्टपं यथा शक्रः प्रविवेश पुरोत्तमम् ॥ [पुनरुक्तोऽधिकः पाठः]” ↩︎
-
“ख-घ-ङ—मुनिः” ↩︎
-
“ख—इतोऽर्धषट्रकं नास्ति” ↩︎
-
“घ—प्रारुदद्भृशसंविग्ना ख— दध्यौतं चार्थमबला” ↩︎
-
“ख-घ-ङ—एतदि” ↩︎
-
“ख-रोगास्तां वै देहिनो घ्नन्ति सर्वे” ↩︎
-
" क-घ-ख—चैद्यस्य G - 19” ↩︎
-
“ख-ङ—पाचरस्तस्मात्” ↩︎
-
" ख—इतः षट् पादा न सन्ति” ↩︎
-
“क—शुश्रूम” ↩︎
-
“ख—मित्राणां गुणवर्धनम्” ↩︎
-
“अ – नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“ख—पुण्यदर्शनाः” ↩︎
-
“ख-ङ- अर्धस्वयं नास्ति” ↩︎
-
“ख-घ-ङ—तेन यज्ञैर्बहुविधैरिष्टं पर्याप्तदक्षिणैः ।” ↩︎
-
“क-ख—यावत्यो” ↩︎
-
" क-ख—यावत्यो” ↩︎
-
“ख—अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
" ङ—अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“ख—दीर्घायुषः प्रजा रामे युवानो न मृतास्तदा । [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
" ग—अत्रापि गाथा गायन्ति ये पुराणविदो जनाः। [अधिकः पाठः] / ख—इतः अर्धषट्कं नास्ति” ↩︎
-
“ख— इदमर्धंनास्ति” ↩︎
-
“घ – कोशे भगीरथचरितं तावत् दिलीपचरितादनन्तरं विद्यते” ↩︎
-
“ख-घ-ङ—इदमर्धत्रयं नास्ति” ↩︎
-
" ख—अर्धत्रयं नास्ति” ↩︎
-
“ख—अर्धाष्टकं नास्ति” ↩︎
-
“ख—विविधैर्यज्ञैः” ↩︎
-
“ख-घ-ङ—अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“अ-क-ग—नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“ख—साधु वादयतीति तम्” ↩︎
-
“ख—नरमेधशतं तथा” ↩︎
-
“घ-ङ-कोशयोःअयमध्यायाोनास्ति” ↩︎
-
“ख-अयं पादोऽनन्तरश्च न स्तः” ↩︎
-
“ख—चक्रायुध ङ–चक्रायुधगजाञ्छित्त्वा क-ग - सिंहो यथा गजाञ्जित्वा” ↩︎
-
“ख-व-वाडवशष्कुलीन्” ↩︎
-
“क-ग—पानपागीतवादितैः ख—पानपाशितगानितैः घ—गीतकाः” ↩︎
-
“ख—योधिनाम ग—याजिनाम्” ↩︎
-
“अ—राजपुत्रास्तु कन्यानां नागे नागे शतं रथः । (अर्धद्वयस्थानेऽर्धमेकमिदं वर्तते ↩︎
-
“अ—जीविनो ख-ङ—बलिनो घ—पालिनो” ↩︎
-
“क-ख-ग—व्योम्नि च घोषयत् ख—येऽवसन्” ↩︎
-
“क-ग—प्रभावाञ्च” ↩︎
-
“क-ग-गृहो” ↩︎
-
“क-घ-ङ—पात्र्यश्शरावकुम्भाश्च” ↩︎
-
“ख-ग-घ-ङ-ल् छमयित्वा” ↩︎
-
“क-ग—वाजपेयेष्टिसखाणां” ↩︎
-
“क-ग-त्वघं ख–सुखं चास्ति पातकं नैव निद्यते घ-सुखं नास्ति” ↩︎
-
“ग—कुम्भा ख—(क ↩︎
-
“ङ—मातकावतान् क-ख-ग—मार्तिकावतान्” ↩︎
-
" क-ग-घ—अवितृप्तो मरिष्यति” ↩︎
-
“क-ग—त्वया चतुर्भद्रतरः पुत्रात् पुण्यतमस्तव। अयज्वानमदाक्षिण्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः॥ ख - एते चतुर्भद्रतरास्तव पुत्राधिकास्तथा। मृता नरवरश्रेष्ठा मरिष्यन्ति च सृञ्जय । [ पाठान्तरम् ]” ↩︎
-
“ख – पुण्यं यशस्यमायुष्यं। क-ग—पुण्यमाख्यानमायुष्यं” ↩︎
-
“ख-घ-इदमादि अर्धपञ्चकं नास्ति” ↩︎
-
“अ-ख-ग—प्रेषितं” ↩︎
-
“ख—वाग्मिनः घ—वन्दिनः” ↩︎
-
“क–ङ—अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“स्व—इदमर्धं नास्ति” ↩︎
-
“अ- अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“क-ग-ङ—सुधा ख-घ—स्वधा” ↩︎
-
“घ–अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“ख—इदमधं नास्ति” ↩︎
-
“क-ख–घ—वैश्यापुत्रो महामतिः” ↩︎
-
“क–ख—अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“ङ—वरासनम् क-ग—पराधिमान्” ↩︎
-
“सर्वेषु कोशेषु अत्रैवाध्यायसमाप्ति दृश्यते ।” ↩︎
-
“क-ख-घ - नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“क-घ-ङ- अर्धत्रयं नास्ति” ↩︎
-
“ख-घ—अत्रइदमादि अर्धाष्टकं नास्ति उपरि वर्तते ।” ↩︎
-
" घ—वृथाश्नतां गतिं यामि न चेद्धन्मि जयद्रथम् । [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“घ—नास्तीदमर्धम्, घ—सुमहांश्चात्र सम्बाधः कौरवाणां महाभुज। आसीन्नराश्वपत्तीनां रथघोषश्च भैरवः॥ अभिमन्योर्वधं श्रुत्वा भृशमार्तो धनञ्जयः। रात्रौनिर्यास्यति क्रोधादिति सर्वे व्यवस्थिताः॥ [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“ङ- अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“ख-व—तवा” ↩︎
-
“* सर्वेषु कोशेषुअत्रैवाध्ययसमाप्तिर्दृश्यते” ↩︎
-
“घ - अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“घ – अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“अ-ङ—षडर्धानि न सन्ति” ↩︎
-
" ख— प्रभाते शिबिरेऽस्माकमुत्पाता बहवोऽभवन् । [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“घ - हासिनम् ख—नासिकम्” ↩︎
-
“ख—अर्धसप्तकमितो नास्ति” ↩︎
-
“घ—नास्तोदमर्धम्” ↩︎
-
“ख-इदमादि अर्धदशकं नास्ति” ↩︎
-
“अ-अष्टार्धानि न सन्ति” ↩︎
-
“ख–ध–अयं पादोऽनन्तरश्च न स्तः” ↩︎
-
“ख—घ—अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“क-ङ-ख—हीमन्तः” ↩︎
-
“ख-ग—भावज्ञा घ-ङ—शास्त्रज्ञा” ↩︎
-
“ख—इदमर्धं नास्ति” ↩︎
-
“ङ—अयं पादोऽनन्तरश्च न स्तः” ↩︎
-
“घ—अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“ख - इदमधं नास्ति” ↩︎
-
“क – वासुदेवमिदं वचः” ↩︎
-
“घ- पुरुषोत्तमः " ↩︎
-
" ख—शुद्धभावसमापन्नो” ↩︎
-
“ख—सर्वलोकानां” ↩︎
-
“क-ख-क्रियता” ↩︎
-
“ख—इदमर्धंनास्ति " ↩︎
-
“ङ—अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“ख-इदमाचर्मवयं नास्ति” ↩︎
-
" ख-ध—इदमर्धंनास्ति” ↩︎
-
“ङ—पञ्चार्धानिन सन्ति” ↩︎
-
“अ-ग-ध—नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“घ - ख—निवेशनेषु मुख्यस्य चित्रसेनस्य सञ्जय । [पाठान्तरम् ]” ↩︎
-
“अ-ख—नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“ब-ख-ग—अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
" ख-इतः अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“अथमध्यायो धकोशे नोपलभ्यते” ↩︎
-
“ख - इ—निवर्तयेथाः पुतांश्च न त्वां व्यसनमाव्रजेत् । [ पाठान्तरम् ]” ↩︎
-
“ख-ङ—भवता यदि” ↩︎
-
“ख-ङ—निवर्तितास्स्युस्संरब्धाः” ↩︎
-
“ख-पुत्राणांराज्यकामुकम्।मध्ये अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
" ङ—पोरुषाण्युच्यमानांश्च अ-आद्ये" ↩︎
-
“ख—अरयचिव राजम्यांस्वस्था युद्धे प्रतापवान् ।[ अधिकः पाठः ] ख—इतः अर्धपञ्चकं नास्ति” ↩︎
-
“घ-ङ—सश्रद्धानाममर्षिणाम’ क-ग—सन्नद्दानां” ↩︎
-
“ख- अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“ध—नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“ख-घ— एवं ब्रुवन्” ↩︎
-
“अ—अर्धत्रयं नास्ति” ↩︎
-
“ख – इदमर्धंनास्ति” ↩︎
-
“ख–घ—इतः अर्धत्रयं नास्ति” ↩︎
-
“* सर्वेषु कोशेषु अतैवाभ्यायसमाप्तिर्दृश्यते।” ↩︎
-
“ख—तस्मिस्तु तुमुले युद्धे वर्तमाने ततोऽर्जुनः ।[अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“क—ते प्राद्रवन्मृशं सर्वे रथिनस्सव्यसाचिनम् ।[अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“ख - युधि शत्रुभिः- मध्ये अर्धमेकं नास्ति” ↩︎
-
“अ - पञ्चार्धानि न सन्ति” ↩︎
-
“ख- इदमादि अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“*सर्वेषु कोशेषु अवैवाध्यायसमाप्तिदश्यते ।” ↩︎
-
“ख- घ—अभीषवाः” ↩︎
-
“घ-नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“ख घ ङ—प्राद्रवन्ति दिशो दश” ↩︎
-
“ख–ध–ङ— क्रुद्धं मृत्युमिवान्तकम्” ↩︎
-
“ख—इतः अर्धपञ्चकं नास्ति” ↩︎
-
“ख—प्रतिविव्याथ तं पार्थश्चिच्छेद च शरासनम्॥ [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“ख—अर्धचतुष्टयमितो नास्ति” ↩︎
-
" ङ–नास्तीदमर्धम् " ↩︎
-
“ख—इदमादि अर्धदशकं नास्ति” ↩︎
-
“क–ग—विक्रमम्” ↩︎
-
“क–ख–ग–घ—पुनः” ↩︎
-
“ख - घ ङ - वेतरे मृगाः” ↩︎
-
“अ-ङ नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“क-ग- सोत्तरायुधयन्त्राश्च” ↩︎
-
“ख - तथाऽऽसीदप्लवां घोरां केशशैवलशाद्बलाम् । [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“ख - द्वादशार्धानीतो न सन्ति 2. घ - नास्तीदमधम्” ↩︎
-
“ङ—पञ्चार्धानि न सन्ति” ↩︎
-
“ङ-पञ्चार्धानि न सन्ति” ↩︎
-
“घ—अयं पादोऽनन्तरश्च न स्तः” ↩︎
-
" घ–अयं पादो नास्ति" ↩︎
-
“क-ख-ग-घ-ङ—वरः” ↩︎
-
“ख—प्रदहिष्यन्ति घ-ङ—प्रसहिष्यन्ति” ↩︎
-
“ख-घ-ङ—न चान्यश्शस्त्रभृद्रणे” ↩︎
-
“ख-घ-ङ—विजयाय सुतस्य ते” ↩︎
-
“ख-घ-ङ—पठन्मन्त्रान्यथाविधि” ↩︎
-
“ग-व—अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“ख—प्रजानां पतयश्चैव सिद्धा लोकहिते रताः ।[अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“ख-घ-ङ—सूत्रेण” ↩︎
-
“ख-ङ-मद्भुतम्” ↩︎
-
“क—नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“ख—अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“* सर्वेषु कोशेषु अत्रैवाभ्यायसमाप्तिदृश्यते” ↩︎
-
“ख-घ-ङ—शोणितोदकम्” ↩︎
-
“अ–क-ख-ग—नाम्तीदमधम्” ↩︎
-
“क—नास्मिन्विज्ञायते राजन् नाप्यन्या बुबुधे क्रिया ।[अधिकः पाठः] ख-घ-ङ—आजघान भृशं क्रुद्धो नवभिर्नतपर्वभिः । [अधिकः पाठः].” ↩︎
-
“क–ग–घ–शरासनः” ↩︎
-
“1. ख–घ–ङ–तयोज्यतलनिर्घोषश् श्रूयते युद्धशौण्डयोः। 2. अ–अर्धत्रयं नास् [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“ख–अर्धवयं नास्ति” ↩︎
-
“क–न तदा ह्यभिषज्येते ख–न तदा च भिषज्येते ग–न तदाऽभ्यभिषज्येते घ–न तदाऽस्याभिषज्येते” ↩︎
-
“क–ङ–साधुबद्धाः” ↩︎
-
“व–रथशिक्षां तु दाशाहों दर्शयामास वीर्यवान् । [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“घ–षडर्धानि न सन्ति” ↩︎
-
“ख–घ–विशिखै” ↩︎
-
“ङ–सप्तार्धानि न सन्ति” ↩︎
-
“क–न सम्भ्रान्तस्तथा भ्रान्तस्तदा स पुरुषोत्तमः । ग–स संभ्रान्तस्तदा पार्थस्तदास्यन् पुरुषानिति । घ–नासंभ्रमत्तदा पार्थस्तदास्यन् पुरुषानिति । [पाठान्तरम् ]” ↩︎
-
“घ–ङ–तवाद्भुततरं लोके भविता वाथवाप्यभूत् । यदधान् पार्थगोविन्दौ पायथामासतू रणे ॥ भयं विपुलमस्मासु धत्तामति महारथौ । तेजो विदधतुश्चोमं यत्सैन्यं तावकं विभो ॥[द्विरुक्तः पाठः]” ↩︎
-
“ख–अर्जुनेन कृते संख्ये शरगर्भगृहे विभो ।[अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“ख–घ–ङ–कृत्स्ना” ↩︎
-
“ख–घ–शल्येषूद्धियमाणेषु” ↩︎
-
“घ–नास्तीदसमर्धंम्” ↩︎
-
“ङ–दशाधनि न सन्ति” ↩︎
-
“क–ख–ग–घ–वेदेभ्य इव” ↩︎
-
“पञ्चमश्लोकादारभ्य साघैकोनचत्वारिंशच्छोकान्ताः श्लोकाः ख–कोशे नात्र दृश्यन्ते। परंतु 87–अध्याये सार्धद्वादशश्लोकानन्तरं अधिकपाठतया वर्तन्ते ।” ↩︎
-
“अ-नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“ख–इतः अर्धवयं नास्ति” ↩︎
-
“क–ख–ड–नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“अ–क–ग–ङ–परिभ्राजस्” ↩︎
-
“ख–कोश एकस्मिन्नेवेदमधं दृश्यते” ↩︎
-
“ङ–अर्धत्रयं नास्ति” ↩︎
-
“ङ–नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“ख–घ–ङ–ध्मास्यामि” ↩︎
-
“ङ–जयद्रथं विसप्तत्या कृपं च दशभिश्शरैः। मद्रराजं विससत्या विव्याधाथ धनञ्जयः ॥[पाठान्तरम् ]” ↩︎
-
“ख–इदमर्धं नास्ति” ↩︎
-
“ङ-अयं पादोऽनन्तरश्च न स्तः” ↩︎
-
“अ - इतोऽधंचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“अ–पञ्चाधनि न सन्ति” ↩︎
-
“ख–घ–सहदेवरथं नृपः” ↩︎
-
“ख–अर्धपक्षकं नास्ति” ↩︎
-
“ख–अयं पादोऽनन्तरश्च न स्तः” ↩︎
-
“ख–इतः पादचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“ख– अर्धवयं नास्ति” ↩︎
-
“घ–ङ–पञ्चार्धानि न सन्ति” ↩︎
-
" घ–ङ–नास्तीदमर्धम्" ↩︎
-
“ख–प्रभिन्न इव कुञ्जरः” ↩︎
-
“घ–अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“ख–पञ्चदशार्धानि न सन्ति” ↩︎
-
“क–इतः पादचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“ख–सृष्टां सृष्टां पुनर्मायां भैमसेनेरलम्बुसः । माययैवाहर प्रक्रुभ्यंस्तव पाण्डव ॥[अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“ख–इतो द्वाविंशत्यर्धानि न सन्ति” ↩︎
-
“ख–इदमधंद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“अ–पञ्चार्धानि न सन्ति” ↩︎
-
“क–ख–कोशयोरेवेदमर्धाष्टकं वर्तते” ↩︎
-
“ख–नवार्धानि न सन्ति” ↩︎
-
“ख–ननाद चातीव स पाण्डवात्मजो रणाजिरे हृष्टमना घटोत्कचः । [पाठान्तरम्]” ↩︎
-
“घ–ङ–षडर्धानि न सन्ति” ↩︎
-
“क–कोशएकस्मिन्नेवेदमर्धं वर्तते” ↩︎
-
“घ–ङ–अर्धचतुष्टयं नास्ति” ↩︎
-
“घ–ङ–अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“अ–पञ्चाधीनि न सन्ति” ↩︎
-
“ख–अर्धचतुष्टयं नास्ति ङ–अर्धवयं नास्ति” ↩︎
-
“ख –अर्धषट्कं नास्ति ङ–अर्धत्रयं नास्ति” ↩︎
-
“ख–इदमधंद्वयं नास्त्रि” ↩︎
-
“ग–हुताशमिव पक्षिणः” ↩︎
-
“ख–इदमद्वयं नास्ति” ↩︎
-
“क–ख–पुलिन्दै” ↩︎
-
“क–ख–ग–नास्तीदमधंम्” ↩︎
-
“क–ख–अप्रमादश्च ते कार्यो द्रोणं प्रति महारथ [अधिकः पाठः]” ↩︎
-
“ख–घ–ङ–प्रविष्टस्” ↩︎
-
“अ–नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“ख–इदम नास्ति” ↩︎
-
" ख–घ–ङ–बले द्रवति तस्मिंस्तु" ↩︎
-
“क–ग–नास्तीदमर्धम्” ↩︎
-
“ख–अर्धषट्कं नास्ति घ–ङ–अर्धवयं नास्ति” ↩︎
-
“अ–अर्धद्वयं नास्ति” ↩︎