[[भारतसार-भाषा Source: EB]]
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भूमिका।
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** प्रियपाठक गण !**
** **आज हम एक परम दुर्लभ भेंट लेकर आपके समक्ष उपस्थित हुए हैं आशा-है आप उसको सादर स्वीकार करके कृतार्थ होंगे।
वह आजकी भेंट ‘भाषा भारतसार’ है। भारतवर्षमें भारतकी कथा परम पुण्यप्रद और इतिहास रूपसे विख्यात है, यदि द्वापरके अन्त और कलिके आरम्भकालका लिखा हुआ कोई इतिहास इससमय उपलब्ध होता है, तो वह भारतहीहै, इसको भगवान् श्रीवेदव्यासजी महाराजने उपाख्यानों सहित एक लक्ष श्लोकोंमें निर्माण कियाहै और वह मर्यादा बाँधदीहै, कि जो भारतमें विद्यमानहै, वह अन्यत्रभी मिल सकता है, किन्तु जो भारतमें नहींहै, वह कहीं नहीं मिल सकता। पर यह ग्रंथबडे विस्तारमें होनेके कारण सर्व साधारण के उपयोगमें यथायोग्य नहीं आता, यद्यपि दो तीन भाषानुवाद इस ग्रंथके दिखाई देतेहैं, किन्तु हम किसी अंशमेंभी उनको पूर्ण और उपयोगी नहीं समझते। उनमें कोई तो केवल वार्तिक मात्रहै, जिसमें भावमात्र है, श्लोकोंके साथ मिलान नहीं है, कोई केवल नकल मात्र है और आनुमानिक टीका है, क्योंकि उनके भाषान्तर कर्त्ता स्वयं संस्कृताभ्यासी नहीं, कोई उपहारी अनुवादहै और जिसका अर्थ यह है कि ग्रंथ किसी प्रकार नकल उडाकर पूरा होजाय और उसमें गुरुस्थल, मर्मस्थल, शंकितस्थलका उद्घाटन हो या न हो, इससे कुछ प्रयोजन नहीं, इसी कारण पाठक पाठिकाओंको इन अनुवादोंसे जैसा चाहिये वैसा लाभ इस समय तक नहीं हुआहै, हमारी इच्छा है कि, यदि समय मिला तो हम इस अभावके दूर करनेकी चेष्टा करेंगे।
परन्तु इससमय जिस भारतकी भूमिका आपके सन्मुख है यह संक्षिप्त महाभारतहै, या यों कहिये कि यह महाभारतका सार है, भगवान् कृष्णद्वैपायन श्रीवेदव्यासजीमहाराजने भारतकी कथामात्रका सार लेकर इस ग्रंथको प्रणयन कियाहै और यह विश्वास दिलायाहै कि इस सारग्रंथके देखनेसे महाभारतकी कथाका संपूर्ण रहस्य अवगत होजाताहै। यद्यपि यह ग्रंथभी संस्कृतहै और इससमय तक इसकाभी श्लोकार्थ रूप अनुवाद नहीं हुआ था और पाठकगण भावार्थरूप भारतसार और स्वर्गीय सबलसिंह चौहानके भारतको पढकर ही अपनी इच्छा पूर्ण किया करतेथे, परन्तु आर्पानुवाद रूप महाभारत इससमय तक दृष्टिगोचर नहीं हुआथा। इस ग्रंथमें लगभग एकसौ सातअध्यायहैंजिसका क्रम इसप्रकार हैं—आदिपर्व ११ अध्याय, सभापर्व ७ अध्याय, वनपर्व २४ अध्याय, विराटपर्व ११ अध्याय, उद्योगपर्व ५अध्याय, भीष्मपर्व ३
अध्याय, द्रोणपर्व ५ अध्याय, कर्णपर्व ३ अध्याय, शल्यपर्व १ अध्याय, गदापर्व ५ अध्याय, स्त्रीपर्व १ अध्याय, सौषुप्तिकपर्व १ अध्याय, शान्तिपर्व १ अध्याय, अनुशासनपर्व २ अध्याय, अश्वमेधपर्व१६ अध्याय, मौसलपर्व २ अध्याय, आश्रमवासिकपर्व १ अध्याय, स्वर्गारोहणपर्व ८अध्याय। इस भाँति इस ग्रंथमें अठारहो पर्वका अध्यायक्रमहै और महाभारतकी संक्षेप रूपसे कौरव पाण्डव सम्बन्धिनी इसमें संपूर्ण कथा विद्यमानहैं। हमने प्रथम भारत सम्बन्धमें इस ग्रंथका अनुवाद करना उपयोगी समझा और पाठक गण भली भाँति इसको समझ सकें, इस कारण इसकी भाषा बहुत सरल रक्खीगई है तथा स्थलानुकूल कहीं कहीं दोहे, चौपाई, सोरठे, छन्द सवैया और पद्यभी इस ग्रंथमें सम्मिलित कियेगये हैं और प्रमाणके लिये अध्यायके आदि अन्तका श्लोक लिखकर संपूर्ण अध्यायके श्लोकांकभी डालदियेहैं. जिससे सोनेमें सुगंधवाली कहावत पूर्णतया चरितार्थ होगई है, विशेष प्रशंसा करना श्लाघा मात्रहै, किन्तु इतना अवश्य कहेंगे कि—यथासंभव श्लोक का कोई पद छोड़ा नहीं गयाहै—यह वात ग्रंथके अवलोकन करनेसे स्वयंही विदित होजायगी।
इस भारतसारमें कितनीही ऐसी विचित्र कथा हैं, जो बृहत् महाभारतमेंभी नहीं हैं और जिनकी ख्याति दूसरे ग्रंथोंमें पाई जातीहै, वास्तवमें यह कथा भारतीय कथाकी पोषकहैंऔर मनन करने योग्यहैं, इसीकारण हमने इस ग्रंथका अनुवाद कर समस्त पाठक जनोंके लाभार्थअपने परम सहायक जगद्विख्यात सेठजी श्रीमान् खेमराज श्रीकृष्णदासजी अध्यक्ष श्रीवेंकटेश्वर—स्टीम् यन्त्रालय–मुम्बई, को सवप्रकारके स्वत्त्व सहित समर्पण कर दियाहै, आशाहै—सज्जन महात्मा पुरुष इस ग्रंथको अवलोकन कर बहुत प्रसन्न होंगे।
अन्तमें अपने परम मित्र मुरादाबाद निवासी बाबू जगन्नाथ प्रसादजी ठाकुर और डाक्टर बासीरामजी स्वर्णकारको भी आन्तरिक धन्यवाद देताहूँ—जोकि ग्रंथ लिखनेमें समय समय पर अनेक भाँतिसे मेरा उत्साह बढ़ाते रहे हैं।
अलीगढ़ निवासी बाबू मदनलालजी शर्मानेभी इस ग्रंथके संकलन कार्यमें विशेष सहायता कीहै, अतएव उनकोमी हार्दिक धन्यवादहैं।
यदि पाठक गणोंको इससे कुछभी लाभपहुँचा तो में अपने परिश्रमको सफल समझँगा इति।
** अनुगृहीत—**
पण्डित कन्हैयालालमिश्र,
मोहल्ला—दीनदारपुरा
मुरादाबाद यू० पी०
[ समर्पणपत्र ]
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अशेष दया दाक्षिण्यादि गुण सम्पन्न राजेन्द्रकुलभूषण वैश्यकुलकमल-
दिवाकर पीलीभीत नगरस्य श्रील श्रीयुक्त-
राजाललताप्रसादजीरायबहादुर कोमलकरकमलेषु।
महोदय ! हिन्दूधर्ममें आपका जैसा विश्वास और अटल भक्ति है, वैसी और किसीमें दिखाई नहीं देती। आपकी समान विशुद्ध हृदय उदार और पुण्यशील पुरुष इस भारतवर्षमें मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। आप वैष्णव धर्मके रक्षक तथा स्तंभ स्वरूप हैं। हरद्वार इत्यादि पुण्यक्षेत्रोंमें श्रीमान्ने अनेक लोकोपकारी कार्य करके सर्वसाधारणका जो उपकार कियाहै, वह किसीसे छिपा नहीं है तथा मातृभाषा देवनागरीमेंभी आपका प्रगाढ़ अनुरागहैइन सब अलौकिक गुणोंको देखकर मैं अपना यह ‘भाषाभारतसार’ नामक ग्रंथ श्रीमान्के कोमल करपल्लवमें सादर समर्पण करताहूँ—आशाहै—श्रीमान् उदारतापूर्वक इस भेंटको स्वीकार कर मुझको उत्साहित करेंगे। इति।
विनीत निवेदक—
कन्हैयालाल मिश्र,
** **दीनदारपुरा—मुरादाबाद यू० पी०
श्रीगणेशाय नमः।
अथ भाषाभारतसारानुक्रमणिका।
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भारतसारभाषाकी विषयानुक्रमणि समाप्त॥
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श्रीकृष्णाय नमः।
अथ भारतसार भाषा
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देर्व १.
प्रथमोऽध्यायः १.
[ मंगलाचरण ]
मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय॥
तनुकी ++ईं परे, श्याम हरित द्युति होय॥१॥
हे व्र++ जीवन नंदनँदन,राधावर गोपाल॥
ना कृपा करिभक्तके, हरहु++ ठिन उरशाल॥२॥
श्रीगणपति शंकर उमा, चरणमल उर लाय॥
श्रीयुत भारतसारकी, टीका लि++त बनाय॥३॥
श्रीमद्वेदव्यासको, पुनि प्रणवौं++ र ++जोर॥
पूर्ण कीजिये पा++रि, मञ्जु मनोरथ मोर॥४॥
नरनारायण भारती, कृपा रहिं ++दान॥
कुरु पांडव इतिहास ++छु, गहित ++रौं बखान॥५॥
वासुदेव श्रीकृष्ण प्रभु, दीजे यह वरदान॥
आदर पावहि ग्रंथ यह, दायक ++ग ++ल्यान॥६॥
जेहि केहि विधि हरियश हे, टत +++ भ्रमजाल॥
तातें भाषा ++रि हत, मिश्र कन्हैयालाल॥७॥
प्रथमोऽध्यायः।
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श्रीकृष्णस्य पदाम्बुजं मनोहरं नत्वाहमादौ मुहुः
सारासारविवेकिनां रतिविदं पाखण्डमूलोच्छिदम्॥
संसारामयभेषजं कृतमखैर्ध्येयं परैराश्रितं
कुर्वे भारतसारशोधनमतः प्रीयान्मुकुन्दः प्रभुः॥१॥
प्रथमे भारतश्रुत्याः फलं जन्मेजयं प्रति।
व्यासस्यागमनं तत्र हस्तिनापुर उत्तमे॥२॥
सबसे प्रथम पापोंके दूर करनेवाले, सार असारके विवेकवालोंको भक्तिके देनेवाले, पाखण्डको जड़से ही उखाड़ (नाश) देनेवाले, संसाररूपी रोगकी महौषधी, यज्ञ करनेवालोंको ध्यान करने योग्य, परमगतिको प्राप्त हुए जनोंके भी आश्रयदाता भगवान् श्रीकृष्णजीके चरणकमलोंको नमस्कार करके भारतसारको लिखताहूँ। इसके द्वारा प्रभु भगवान् मुकुन्द प्रसन्न होवें॥१॥इस प्रथम अध्यायमें हस्तिनापुरमें श्रीवेदव्यासजीका शुभागमन और जन्मेजयके प्रति भारतश्रवणका फलकथन यह कथा होगी॥२॥महाराज जन्मेजयका श्रीवेदव्यासजीको सत्कारपूर्वक आसन दे कुशल प्रश्न करना, और फिर भवितव्य (होनहार)पूछनेपर कहना कि आप हमारी बात नहीं मानेंगे, इससे आपको कष्ट होगा॥३॥ आपके शरीरमें मेरे वचन और श्रीनारदजीके वचनोंको नहीं माननेके कारण कुष्ट रोग होगा, ऐसा ही भवितव्य है और ऐसा होनेपर आपको मेरा स्मरण करना चाहिये॥४॥श्रीवेदव्यासजीके चलेजानेपर होनहारके वशीभूत होनेसे महाराज जन्मेजयका
न्यापर आसक्त होना, और फिर शरीरमें++ होनेपर श्रीवेदव्यासजीको स्मरण करना और उनका आना होगा॥५॥ वेदके जाननेवाले बहुश्रुत ब्राह्मणोंके लिये जो सुवर्णसे सींग मढ़वाकर एकसौ गायें दान करताहै, और वह जो नित्य भारतकी पवित्र कथा सुनताहै, उसको भी उस गौदाताके समान ही फल मिलजाताहै॥१॥ श्रीवेदव्यासजीके होठरूपी दोनेसे निकला हुआ विस्तृत पुण्यरूप पवित्र पापहारी और कल्याणका करनेहारा यह भारतका आख्यान जो वाणीसे कहते अथवा मनन करते हैं, उनको फिर पुष्करमें स्नान करनेकी आवश्यकता क्या है?॥२॥ श्रीवेदव्यासजी महाराजके वचन निर्मल कमल हैं, वह श्रीमद्भगवद्गीताके अर्थकी उग्रगन्धसे सुवासित हैं, अनेक प्रकारके आख्यान उस कमलकी केसर हैं, हरिकथाके सम्बोधनसे बोधित हैं, लोकमें सज्जनरूपी भौंरे आनन्दसे उसको नित्य पान किया करतेहैं। इस प्रकार यह भारतरूपी कमल कलिमलको विनाश करके कल्याणके निमित्त विकास कररहाहै॥३॥ब्राह्मणोंकी गोष्टी दुर्लभ है, गंगाजीका स्नान दुर्लभ है, भगवान् विष्णुकी भक्ति दुर्लभ है और इसीप्रकारसे भारतकी कथा दुर्लभ है॥४॥ नारायण, नरोत्तम, नर, देवी सरस्वती और श्रीव्यासजीको प्रणाम करके जय उच्चारण अर्थात् पुराणादिका पाठ करना चाहिये॥ ५॥ श्रीपराशरजीके पुत्र सत्यवतीके हृदयको आनन्द देनेवाले श्रीव्यासजी महाराजकी जय हो ! जिनके मुखकमलसे निकले वाणीरूप अमृतको (सारा) जगत् पान करताहै॥६॥ कुरुकुलके उत्पन्नकर्त्ता महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यासजी महाराज जन्मेजयको देखनेके निमित्त हस्तिनापुरमें आनकर उपस्थित
हुये॥७॥ उस जगह गंगाजीका मनोहर किनारा देखकर महामुनि श्रीव्यासजी बैठगये, तबउनसे मिलनेके निमित्त महाराज जन्मेजय आये॥८॥ और मस्तक झुकाकर उनके चरणोंमें नमस्कार करके विनती करी कि हे ब्रह्मन् ! आज आपका दर्शन मिलनेसे मेरा जन्म सफल हुआ॥९॥ हे स्वामिन्! आज मैं कृतार्थ और धन्य हुआ तथा मेरा राज भी धन्य है। अव आपका शुभागमन यहाँ किस लिये हुआ है ? सो आज्ञा कीजिये॥१०॥ इस भाँति कहकर महाराज जन्मेजय कृष्णद्वैपायन श्रीवेदव्यासजीके समीप बैठगये, इसी बीचमें श्रीव्यासजी उठकर उनके सारे राज्यको देखने लगे॥११॥ देखा कि—तीन योजन अर्थात् बारह कोसतक लम्बी चौड़ी सभा है, जिसमें करोड़ों तरुण (नौजवान) क्षत्री शूर अस्त्र शस्त्रोंकी विद्यामें कुशल (चतुर) महाराज जन्मेजयके निकट बैठेहुये हैं और महाराज जन्मेजय रत्नसिंहासनपर विराजमान हुये सुधर्मा सभाके बीच देवराज इन्द्रकी तरह शोभा पारहेहैं॥१२॥१३॥ इसप्रकार महाराज जन्मेजयको देखकर श्रीवेदव्यासजी मनमें प्रसन्न होकर इसतरह वचन कहने लगे। श्रीव्यासजी बोले—हे महाराज ! आप अत्यन्त साधु हैं इस समय त्रिभुवनमें आपकी तरह शूर, वीर, साधु, दाता, धर्मात्मा दूसरा कोई भी नहीं है॥१४॥ राजा जन्मेजयने कहा हे ब्राह्मणोत्तम ! आप साक्षात् भगवान् विष्णुके रूप हैं। हे स्वामिन्। इन कौरव पांडवोंका नाश किस तरह हुआ ? ॥१५॥इन कौरव और पाण्डवोंको वरावरी कर सके, ऐसा कोई नहीं था ? कारण कि पाण्डव सत्यवादी अर्थात् सत्य बोलनेवाले योधा, महावली औरपराक्रमी थे। सो उन लोगोंने राज त्यागकर किस लिये वनमें
गमन किया ?॥१६॥ व्यासजीने कहा हे महाराज जन्मेजय ! कौरव और पांडव अपने मद (घमंड) से त्हृदयमें बहुत ही गर्वित होगये थे, इसीसे उन्होंने हमारी बात नहीं मानी और इसी कारण उनको महादुःख भोगना पड़ा॥१७॥ हे पुरुषोत्तम ! मुझको आपके राज्यमें भी उत्पातों (उपद्रवों) का होना दिखाई देरहाहै, यदि आप मेरी बात मानें, तो उसको अभी आपसे कहदूं ॥१८॥क्योंकि आपके दुःखसे हमको भी दुःखी होना पड़ेगा;इसी लिये मैं आयाहूँ यदि आप अपनी भलाई चाहें, तो मेरी बात मानलीजिये॥१९॥ भगवान् कृष्णद्वैपायन श्रीवेदव्यासजीकी यह बात न, हाथ जोड चरणोंमें मस्तक झुकाय महाराज जन्मेजयने विनय सहित कहा॥२०॥ राजा बोले—हें मुनिसत्तम। मैं आपकी कहीहुई सब बातें करूंगा, हे तात ! जिस उपायके करनेसे मेरे राज्यमें उपद्रव नहीं होने पावें, आप कृपापूर्वक वह उपाय बताइये॥२१॥ श्रीव्यासजीने कहा—हे वत्स ! हे नृपोत्तम ! होनीके वशीभूत होकर छः मासके ही भीतर भीतर आपका शरीर बिगड़ जावेगा॥२२॥ महाराज जन्मेजयने कहा—हे देव! मुझे दुःख होनेकी बात आपको किस तरह मालूम होगई ? यह सत्यसत्य बताइये। और वह दुःख कैसे तथा किसका संग करनेपर उत्पन्न होगा ? हे प्रभो ! यह सब बाते आप मुझसे अनुग्रह करके वर्णन कीजिये॥२३॥ श्रीव्यासजीने कहाहे— महाराज जन्मेजय ! उत्तर दिशासे एक घोडा आवेगा, सो आप उसको कभी मत लेना और यदि लेभी लो, तो उसकी पीठपर सवार होकर वनमें मत जाना॥२४॥ और यदि वनमें भी जाओ तो शूकरके देहसे जो सर्वांग सुन्दरी स्त्री प्रकट होवे, उसको ग्रहण मत करना और यदि कदाचित् उसको
ग्रहण भी करलो, तो उसकी बात तो कदापि ही न मानना॥२५॥और यदि उसकी बात भी मानलो, तो उसके साथ श्रेष्ठ अश्वमेध यज्ञ तो कदापि मत करना और हे राजन् ! यदि कदाचित् यज्ञ भी आरंभ करदो, तो उसमें छोटे ब्राह्मणों (बालकों) को तो कदापि निमन्त्रित न करना॥२६॥ और यदि कदाचित् छोटे ब्राह्मणोंकी वरणी भी करो, तो फिर पीछे क्रोधमत करना॥हे राजन् ! यह सबवातें मैंने सत्य ही कही हैं, यह होनहार सबहोकर रहेगा॥२७॥ यद्यपि मैंने सब बातें आपसे खोलकर कहदीहें किन्तु तथापि होनीके वशीभूत होकर आप मेरी बात नहीं मानैंगे और इसलिये नाश होगा जो हो जिस समय आपको दुःख उपस्थित हो; तबआप मुझको स्मरण करना॥२८॥ उस काल मैं शीघ्र ही आनकर आपका दुःख दूर करूंगा।इस तरह उत्तम वचनोंके द्वारा महाराज जन्मेजयको समझा बुझाकर महामुनि श्रीवेदव्यासजीने अपने स्थानको प्रस्थान किया॥२९॥ फिर किसी समय महाराज जन्मेजय अपने हस्तिनापुरमें सुखपूर्वक राज्यसिंहासन पर बैठे हुए थे, इसी समय एक घोडोंका वेचनेवाला व्यापारी आया॥३०॥ उस महावेगवान् सर्वांगसुन्दर घोडेकों देखकर महाराज जन्मेजय मोहित होगये और उसके रूपसे मोहित होकर उसको ले (खरीद) लिया॥३१॥ फिर उस अद्भुत घोडे पर सवार होकर किसी समय महाराज जन्मेंजय वनान्तरमें गये, उसी समय महाराजको वहाँ एक शूकर दिखाई दिया॥३२॥ तबमहाराजने उस शूकरको अपने आगे करके एकही बाणसे उसका प्राण नाश किया; तब उसके देहसे एक अत्यन्त सुन्दरी और यौवनवती कन्या निकली॥३३॥ उसको देखकर
महाराज जन्मेजयने पूँछा हे सुन्दरमुखवाली ! आप कौन हैं ? अप्सरा हैं ? किन्नरी हैं ? देवी हैं ? अथवा किसी ऋषिकी कन्या हैं ?॥३४॥ आपकी समान सुन्दर रूप मैंने किसीमें भी नहीं देखा। महाराज जन्मेजयके इस तरह पूछनेपर उस अप्सराने उत्तर दिया—हे देव ! मैं कुमारी ऋषिकी कन्या हूँ। अपने पिताका वचन मान उन्हींके उपदेशानुसार वर मिलनेकी इच्छासे आपके देशमें आगई हूँ॥३५॥ राजाने कहा—हे कल्याणी ! आपके पिताकी क्या आज्ञा है ? सो सत्य सत्य बताइये॥३६॥ अप्सराने उत्तर दिया—हे महाराज ! मेरे पिताने कहा था कि, जम्बूद्वीपके मध्यमें एक हस्तिनापुर नामवाला उत्तम नगर है, वहाँके राजा जन्मेजय तेरे पति होंगे॥३७॥ इस कारण मैं भी आपसे पूछना चाहतीहूँ किं उत्तम रूपयुक्त आप कौन हैं ? तब राजाने उत्तरमें कहा कि वह राजा जन्मेजय मैं ही हूँ घोडेपर सवार होकर इस वनमें आयाहूँ॥३८॥ यह सुनकर उस कन्याने कहा—यदि आप दो बातोंकी मुझसे प्रतिज्ञा करें, तो मैं आपको पति बनाऊँ। एक तो मुझे पटरानी बनाइये और दूसरी बात यह है कि, आप मेरे साथ अश्वमेध यज्ञ कीजिये। महाराज जन्मेजयने उस कन्याकी यह बातें मानकर उस कन्या के साथ गान्धर्व विवाह किया॥३९॥ इसके पीछेवे दोनों स्त्री पुरुष घोडे पर सवार होकर अपने घर चले आये; फिर (क्रमशः) और सब रानियोंको छोडकर महाराज जन्मेजय इसी स्त्रीमें आसक्त होगये अर्थात् सब तरहसे उसके वशीभूत होगये॥४०॥ इस प्रकार कुछ दिन बीत जाने पर एक दिन उस कन्याने कहा—हे स्वामिन् ! आपने तो मुझको दो वर दियेथे; सो अब इनको सफल कीजिये अर्थात् आपने
मुझको पटरानी तो बनालिया; किन्तु अब मेरे संग अश्वमेध यज्ञ और कीजिये॥४१॥ उसकी यह बात सुनकर महाराज जन्मेजयने अश्वमेध यज्ञका आरम्भ कर दिया और इस काल महाराजाकी आज्ञासे वेदके जाननेवाले (छोटे छोटे) ब्राह्मण आनकर उपस्थित हुए॥४२॥अनन्तर आचार्य और ऋत्विज सब कोई राजमन्दिरमें आगये तबमहाराज और महारानीने सामने बैठकर होम करना प्रारंभ किया॥४३॥ फिर जिस समय एक पहर बीतकर दूसरा पहर वर्त्तमान हुआ;तब ब्राह्मणोंकी आज्ञासे महाराज जन्मेजयने अपने हाथमें (यज्ञीय) घोडेंके उपस्थको पकडा॥४४॥ जो कि फूला हुआ और बढ़ा हुआ था, यह देख रानीके रूपसे मोहित हो वे सब छोटे ब्राह्मण हँसने लगे॥४५॥ जब आहुति पडनेमें देर हुई तब यज्ञीय अग्निने कुपित होकर उस सब हवि (साकल्य) को भोजन करलिया और पीछे राजाका घर तथा हाथी घोडे (इत्यादि के सहित संपूर्ण हस्तिनापुरको) जलाडाला॥४६॥ तब रानी अत्यन्त लज्जित हुई और राजा जन्मेजयने भी क्रोधपूर्वक हाथमें तलवार लेकर उन अठारह उत्तम ब्राह्मणोंका बध करडाला और होमके कुंडमें डाल दिया तदनन्तर अग्निदेवताके कुपित होनेसे सारा मण्डप भस्म होगया और यह सब दशा देखकर वह कन्या (मोहिनी) भी अन्तर्धान होगई॥४७॥४८॥ तब तो उस कर्मके फलसे महाराज जन्मेजय अपने हृदयमें महाव्याकुल हुए और पछता पछताकर कहनेलगे कि हाय ! मैंने कैसा छोटा काम किया॥४९॥ तव इसके पहले महाराजने जो कुछ पुण्यसंचय कियाथा, वह सब नष्ट होगया। (इस तरह अनेक भाँतिसे चिन्ता करतेहुए अठारह ब्राह्मणोंकी हत्या करनेसे) महाराज जन्मेजयके देहमें
गजचर्म नामक कोढकी उत्पत्ति होगई,जिसके द्वारा देह गलना प्रारंभ होगया॥५०॥ दोनों होंठ, नाक, भौंए, दोनों कान, और सारा बदन गलने लगा। फिर पैरोंसे लेकर मस्तकतक संपूर्ण अंग चर्म (खाल) से हीन होगया॥५१॥
मज्जामांसस्य पिण्डञ्च दौर्गन्ध्यमभवद्वपुः।
तदा संस्मारितस्तेन राज्ञा व्यासः समागतः॥५२॥
(अधिक क्या कहाजाय जब) मज्जामाँसका पिंड देह दुर्गन्धमय होगया अर्थात् सारे शरीरसे दुर्गन्ध निकलनेलगी, तब महाराज जन्मेजयने श्रीवेदव्यासजीको याद किया और उनके याद करतेही वे आनकर उपस्थित हुए॥५२॥ इति श्रीभारतसारे आदिपर्वणि कन्हैयालालमिश्रमुरादाबादनि- वासिकृतभाषाटीकायां व्यासागमो नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
द्वितीयोऽध्यायः २.
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ब्रह्महत्यानिवृत्ति नृपकुष्ठविनाशनम्॥
वैशम्पायनविप्रस्य द्वितीये प्राप्तिरुच्यते॥१॥
इस दूसरे अध्यायमें ब्रह्महत्याका दूर होजाना, राजा जन्मेजयके कोढका नाश और राजाके निकट ब्राह्मण वैशम्पायनजीका आना यह कथा वर्णन कीजायगी॥१॥
व्यास उवाच।
त्वं पापी च दुराचारी तवास्यं नविलोकये॥
यन्मया कथितं पूर्वं तत्त्वया न कृतं वचः॥१॥
श्रीव्यासजीने महाराज जन्मेजयसे कहा कि हे राजन् ! तू पापी और दुराचारी है, तेरा मुँह देखना ठीक नहीं. क्योंकि मैंने
कुछ बातें तुझसे पूर्वमें कहीं थीं वह तैंने नहीं करीं॥१॥ महाराज जन्मेजयने कहा—हे देव! मैं मूढ दुष्ट और दुर्बुद्धियुक्तः हूँमैंने पापसे प्रेरित हो गुरुदेवके वचनोंको उल्लंघनपूर्वक क्रोधके फंदेमें बँधकर अठारह ब्राह्मणोंकी हत्या कर डालीहै॥२॥ हे तात ! अब बहुत कहनेका क्या प्रयोजन है ? इस कुष्टरूपी घोर रौरव नरकसे मेरा उद्धार कीजिये। महाराज व्यासजीने यह सुनकर कहा कि, नीले रंगमें अठारह वस्त्र रंगवायकर॥३॥ उन वस्त्रोंका अन्तरपट करके अर्थात् उन वस्त्रोंके भीतर बैठकर नित्य (प्रतिदिन) महाभारतको तत्त्वतः श्रवण कीजिये। तो उन महाभारतके अठारहों पर्व सुनलेनेपर आपकी यह अठारहों हत्या अवश्य नष्ट होजाँयगी इसमें सन्देह नहीं और यदि आप पूर्वकी तरह इस समय भी हमारी बातको सच्चा नहीं मानेंगे तो आपके पापका नाश नहीं होगा॥४॥ उस हत्याके नष्टहोनेका यही लक्षण है कि एक एक पर्वके सुनलेनेपर एक एक वस्त्रका रंग नष्टहोकर निर्मल (सफेद) होता चलाजायगा, अतएव हे महाराज ! आप (एकाग्रमनसे) संपूर्ण महाभारतको सुनलीजिये॥५॥ किसी तरहका आक्षेप नकीजिये, सब सत्य ही मानिये। इस प्रकार भगवान् श्रीवेदव्यासजीकी बात सुननेपर उनके हीमुखारविन्दसे राजा महाभारतके पर्व सुननेलगे। उन पर्वोका वर्णन करते करते श्रीव्यासजी बोले॥६॥ हे महाराज जन्मेजय ! शोभायमान कुरुक्षेत्रके वीच कौरव पांडवोंके महादारुण संग्राममें बलवान् भीमसेनने जिन हाथियोंको आसमानमें बगेला (फेंका) था वे इस समयतक भी आसमानमें भ्रम रहेहैं। महाराज जन्मेजयने श्रीव्यासजीके इस प्रकार वचन सुनकर॥७॥ शिरको कंपाय-
मान किया अर्थात् शिर हिलाकर उनकी इस बातको सत्य नहीं माना तब श्रीव्यासजीने तत्काल आकाशमें पवनको रोककर॥८॥हस्तिनापुरमें महाराजके समीपही उन हाथियोंको गिराया तब तो महाराज जन्मेजयको महान अचंभा हुआ और उनकी बात सच्ची मानकर कहनेलगे॥९॥जन्मेजय बोले—हे ब्रह्मन् ! मैं मूर्ख और अभिमानी हूँ किन्तु अब आपकी शरणमें (आनकर) प्राप्त हुआहूँ। राजाके इस भाँति कहनेपर व्यासजी स्थिर होकर यह कहने लगे॥१०॥श्रीव्यासजीने कहा है महाराज ! जो कि आपने हमारी बात नहीं मानी इस कारण आपके शरीरसे एक हत्या दूर नहीं होगी उसको नाश करनेके लिये आप हमारे साथ बदरिकाश्रमको चलिये॥११॥अनन्तर महाराज जन्मेजय तथा श्रीवेदव्यासजी दोनों बदरिकाश्रमको गये वहाँ पहुँचनेपर व्यासजीने ब्राह्मणोंके आगे निवेदन किया॥१२॥व्यासजी बोले—हे सब ब्राह्मणों! आप मेरी बात सुनिये, यह पवित्र चन्द्रवंशोत्पन्न महाराज जन्मेजय हैं॥१३॥और यह सर्वलोक विख्यात महाराज परीक्षित्के पुत्र हैं, इनकी सत्रह हत्या तो दूर होचुकी हैं, किन्तु एक हत्या अभी बाकी रहगई है उसको आपलोग नष्ट करदीजिये। भगवान् श्रीवेदव्यासजीके वचन सुनकर उन ब्राह्मणोंने उस हत्याको नष्ट कर दिया॥१४॥उन ब्राह्मणोंने उस हत्याको तिल तिल प्रमाण ग्रहण (दूर) किया किन्तु उसका चिह्न व में थोडा रह गया * 1तब व्यासजी और राजा दोनों हस्तिनापुरमें लौट आये॥१५॥फिर व्यासजीने आनकर उन महाराज जन्मेजयको राज्य सिंहासन—
पर बैठालदिया। तबमहाराजने ब्राह्मणोंको बहुत कुछ दान किया॥१६॥अनन्तर व्यासजीने महाराजका पट्टाभिषेक (राज्याभिषेक) करके अपने हाथसे तिलक किया और कहा आपका जो कुछ पूर्वसंचित द्रव्य अर्थात् धन, धान्य, हाथी, घोडे,॥१७॥रत्न भण्डार और सुवर्णमयगृह (घर) है यह सबपदार्थ ब्राह्मणोंको दान कियाकरो और प्रतिदिन महाभारतका पूरा पाठ कर लेनेपर भोजन किया करो॥१८॥ इसप्रकार महाराज जन्मेजयको आज्ञा देकर परमज्ञानी श्रीवेदव्यासजीने अपने स्थानको प्रस्थान किया और राजा पृथ्वी (राज्य) का पालन करनेलगे॥१९॥ उसी दिनसे महाराज जन्मेजय प्रतिदिन महाभारतका पाठ करके दशवें दिन उसके पूर्णहोनेपर भोजन कियाकरतेथे॥२०॥नित्य ऐसा करनेपर उनको महाकष्ट होने लगा, तब उस कष्टके दूर करनेको उन्होंने श्रीवेदव्यासजीसे प्रार्थना करी॥२१॥ व्यासजीने अपने शिष्योंसे कहा कि महाराज जन्मेजय महाभारतका पाठ पूरा करनेपर दशवें दिन भोजन कियाकरते हैं, ऐसा होनेसे उनको बडा ही क्लेश होरहाहै (अत एव जिससे महाराज नित्य भोजन कियाकरें हम शीघ्र ही ऐसा उपाय करे देतेहैं।शिष्योंसे इस भाँति कहकर) श्रीवेदव्यासजीने महाभारतमेंसे उसका सार अंश निकालकर ‘भारतसार’ नामक ग्रंथ रचा और उसको ब्राह्मणश्रेष्ठ अपने शिष्य वैशम्पायन मुनिके द्वारा हस्तिनापुरको भेजदिया॥२२॥ महाराज जन्मेजयका कष्ट दूर करनेको व्यासजीके भेजेहुए मुनिवर वैशम्पायनजी तत्काल हस्तिनापुरमें आनकर प्राप्त हुए महाराजने उनको देखते ही एकाएक सिंहासनसे उठकर अर्घ्य पाद्य दिया॥२३॥और फिर हाथ जोडकर अत्यन्त विनती करतेहुए कहनेलगे। राजा
बोले—हे द्विजोत्तम ! आज मैं धन्य और कृतकृत्य (कृतार्थ) हूँ, तथा मेरा राज्य भी धन्य है॥२४॥ अब जो भगवान् वेदव्यासजीने नित्य पाठ करनेके लिये महाभारतका सार संग्रह (भारतसार) आपके द्वारा भेजाहै हे प्रभो ! वह आप सब ही झसे वर्णन कीजिये॥२५॥ महाराज जन्मेजयके इस प्रकार कहनेपर मुनिवर वैशम्पायनजीने कहा हे राजेन्द्र ! मैं आपसे अत्यन्त सन्तुष्ट हुआहूँ, अब आप भक्ति और श्रद्धाके सहित यह ‘भारतसार’ श्रवण कीजिये, इसके सुनलेनेपर आप सारे पापोंसे छूटजाँयगे इसमें सन्देह नहीं॥२६॥ राजा जन्मेजयने कहा, हे मुनिसत्तम!मैं आपके कहेहुए अठारहों पर्वके सारको आदि मध्य तथा अन्ततक एकग्रचित्तसे सुनूंगा। अत एव आप कृपापूर्वक वर्णन कीजिये॥२७॥ वैशम्पायनजीने कहा, हे राजन् ! महाभारतका एक पद पाठ करनेपर और श्रीमहादेवजीका दर्शन और भगवान् विष्णुका स्मरण करनेपर मनुष्यके सारे पाप छूटजाया करतेहैं॥२८॥
जन्मेजय उवाच।
मे पूर्वजांस्त्वां पृच्छामिपाण्डवान्पाण्डुनन्दनान्॥
ते वीराः कथमुत्पन्ना ब्रूहि मे ऋषिसत्तम॥२९॥
जन्मेजय बोले, हे निसत्तम ! मैं प्रथम अपने पूर्व पुरुषोंके विषयमें ही आपसे पूंछताहूँ कि, पांडुके पुत्र शूरवीर पाँचों पाण्डवोंकी उत्पत्ति किस प्रकारसे हुई ? वहआप मेरेप्रति वर्णन कीजिये॥२९॥ इति श्रीभारतसारे हस्तिनापुरे वैशंपायनप्रवेशो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥
तृतीयोऽध्यायः ३.
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तृतीये शपनं धेनोरजमस्त भेदनम्॥
त्रिपुरासुरपंचत्वमन्यच्चापीह वर्ण्यते॥१॥
इस तीसरे अध्यायमें श्रीपार्वतीजीको कामधेनुका शाप मिलना, और श्रीमहादेवजीके द्वारा ब्रह्माजीका पाँचवा शिर कटना तथा त्रिपुरासुरका वध, यह तथा और भी (उत्तमोत्तम) कथाओंका वर्णन कियाजायगा।
वैशम्पायन उवाच।
पुरा कैलासशिखरे पार्वतीपरमेश्वरौ॥
सिंहासने चोपविष्टौ रेमतुःस्म यथासुखम्॥१॥
वैशम्पायनजीने कहा, हे महाराज ! पूर्वकालमें कैलास नामक मनोहर पर्वतमें सिंहासनपर विराजमान हुए (परमेश्वर) श्रीमहादेवजी और पार्वतीजी सुखपूर्वक रमण कर रहे थे॥१॥उसी अवसरमें बहाँ पाँच बैलोंको संग लिये हुए कामधेनु गाय आई उस कामधेनुको देखकर पार्वतीने हँसकर कहा॥२॥पार्वती बोलीं, अहो ! देखो, कामधेनुका कैसा आश्चर्यकारक साहस है, कि जो गाय देवताओंसे वन्दित (पूजितं) है उसके पाँच भर्त्ता (पति) दिखाई देरहे हैं॥३॥पार्वतीजीकी ऐसी वात सुनकर कामधेनुने उनको शाप दिया॥४॥कामधेनु बोली अहो पार्वती ! मनुष्यशरीर धारण करनेपर तुम भी पाँच भर्त्तावाली होगी यह मेरी बात सत्य ही सत्य जानना, इसमें सन्देह नहीं है॥५॥कामधेनुके इस शापको सुनकर पार्वती दुःखसे अत्यन्त पीडित हुई और श्रीमहादेवजीसे बोलीं, हे नाथ! यह क्या होगा? ॥६॥हे प्रभो! यह शाप किस कारसे छूटेगा ?
इसका उपाय कीजिये। तब श्रीमहादेवजी मनमें बहुत सोचविचारकर ब्रह्माजीकी शरणमें गये॥७॥ अनन्तर नन्दीगणसहित शाप दूर करनेके निमित्त श्रीमहादेवजीको आयाहुआ देखकर सारे देवता उठे और उनकी पूजा करी॥८॥ इसके पीछेफिर ब्रह्माजीने भी उनकी पूजा करी और पाँचों मुखोंसे ॐकार मन्त्रके द्वारा श्रीमहादेवजीकी स्तुति करनेलगे॥९॥ उसकाल ब्रह्माजीके एक मुखसे गधेकी तरह आवाज निकली, उस शिरको दुर्विनीत जानकर ब्रह्माजीके ही अर्थ अर्थात् उनकी ही सुन्दरता सम्पादन करनेके लिये॥१०॥ श्रीमहादेवजीने उनका वह पाँचवा शिर अपने हाथसे तोड (काट) डाला किन्तु ब्रह्माजीका वह कटा हुआ शिर पृथ्वीपर नहीं गिरा; बरन् महादेवजीके हाथसे ही चिपट गया॥११॥ तब उस ब्रह्महत्याके डरसे घबरायेहुए श्रीमहादेवजी अपने घर आये; तब पार्वतीजीने उनके हाथमें ब्रह्माजीका पाँचवा शिर चिपटाहुआ देखकर॥१२॥ गौरी पीठ फेर उनसे बोलीं आप मेरे घरमें मत आइये क्योंकि आपने ब्रह्महत्या की है। गौरीके इस तारहाकारअपमान (निरादर) करनेपर श्रीमहादेवजी अपने घरको छोड॥१३॥ मृत्युलोकमें चलेआये और अलग अलग तीर्थोंमें घूमनेलगे। फिर एक समय किसी ब्राह्मणके घर (एक ब्राह्मणीको) श्रीमहादेवजीने गाय दुहते देखा॥१४॥ तब उस ब्रह्मणने बछडेके भलीभांति विना चौंखैंबीचमें ही उसको खेंचकर बाँधदिया और ऐसा करनेपर उस बछडेने सींगडी लगाकर ब्राह्मणको (पृथ्वीपर) पटकदिया अर्थात् मारडाला॥१५॥ उस ब्राह्मणके मार डालनेपर जब वह बछडा अपनी माताके निकट दूध पीने गया तब गायने उसको नहीं चौंखाया और उसका निवारण
करके कहा कि, तैंने इस ब्राह्मणको क्यों मारडाला ? ब्रह्मघातके दोषको कोई भी नहीं मिटा सकताहै॥१६॥ बालककी हत्या करनेपर एक युगपर्यन्त नरकका भोग करना होताहै, स्त्रीकी हत्या करनेपर वह तीन युगमें दूर हुआकरतीहै, गोहत्या पाँच युग और आत्महत्या (खुदकुशी) कल्पान्ततक रहा करतीहै और ब्रह्महत्या अर्थात् ब्राह्मणकी हत्या करनेवाला मनुष्य तो सर्वकाल ही रौरव नामक नरक भोगता रहताहै॥१७॥ मइयाकी यह बातें सुनकर बछडेने कहा हे माता ! यह दारुण ब्रह्महत्या मुझको नहीं छूसकेगी, मैं (अभी) उत्तमतीर्थोंमें जाकर इस हत्याके धोने (नष्टकरने) का उपाय करताहूँ॥१८॥ अनन्तर आकाशमें जातेहुए श्रीमहादेवजीने उस गाय और बछडेकी यह सब बातें सुनी। तब फिर ब्राह्मणके शरीरसे हत्या निकल कर उस बछडेपर दौडी॥१९॥ उसको देख वह बछडा शीघ्रतासहित भागताहुआ वाराणसी (काशीपुरी) को गया और उस महानगरीमें प्राणत्याग करके रुद्रलोकको प्राप्त हुआ॥२०॥वहाँ मन्दाकिनी गंगाका जल पीनेसे वह बछडा पापरहित हो गया इसी बीचमें श्रीमहादेवजी काशीमें आपहुँचे, तब उनके हाथसे भी ब्रह्माजीका वह शिर गंगाजीमें गिर गया और बाहर जायकर स्थित हुआ, उस ‘दिनसे श्रीमहादेवजी वाराणसी (काशी) में ही वास करने लगे॥२१॥॥२२॥ वैशम्पायनजी बोले, हे महाराज ! जिससमय श्रीमहादेवजीने वाराणसीपुरीमें निवास किया, तब वह हत्या काशीके बाहर ही स्थित रही और ईश्वर श्रीमहादेवजी ब्रह्माजीके शिरको गिराहुआ ‘देखकर बहुत ही सन्तुष्ट हुए॥२३॥फिर जब श्रीमहादेवजी काशीपुरीको छोडकर कैलास जानेके लिये बाहर निकले, तब वह दारुण ब्रह्महत्या फिर रुद्रके
शरीरसे आ चिपटी तबसे श्रीमहादेवजी उस हत्यासे अपने आपही डरते रहतेहैं॥२४॥ और वाराणसीसे बाहर न निकलकर मुक्तिपुरीमें ही स्थित रहतेहैं। फिर (किसी समय) त्रिपुरनामक दैत्यने उत्पन्न होकर तीनों लोकको पीडित (दुःखी) किया॥२५॥ उस काल सारे देवता चिन्ता करनेलगे कि, यह दुष्ट कैसे मरेगा ? तब ब्रह्माजीने कहा, कि इसकी मृत्यु श्रीमहादेवजीके हाथसे होगी॥२६॥ ब्रह्माजीके इसतारहाकार कहनेपर सब देवताओंने गौरी श्रीपार्वतीजीसे जाकर पूछा, कि, हे देवेश्वरी ! श्रीमहादेवजी कहाँ हैं ? उनकी यह बात सुनकर पार्वती बोलीं, कि हे देवताओं ! साक्षात् श्रीमहादेवजी (ब्रह्महत्या दूर करनेके निमित्त) मृत्युलोकके प्रत्येक तीर्थमें भ्रमण करनेको चलेगयेहैं (आपलोग उनको वहीं जाकर खोजिये) ॥२७॥ पार्वतीजीके ऐसा कहनेपर सारे देवता उनको पृथ्वीपर आकर ढूँढतेहुए फिरनेलगे। फिर जब भगवान् विष्णुने देवोत्तम श्रीमहादेवजीको काशीमें देखा॥२८॥ तब सारे देवताओंने शिर झुकायकर उनको प्रणाम किया और उनके धोरे खडे होगये। यह देखकर श्रीमहादेवजीने कहा, हे देवताओ! आपलोग किस लिये आये हैं?॥२९॥ देवता बोले, हे महेश्वर ! इस समय त्रिपुरासुरने समस्त तीनों लोकको जीतलियाहै, इसी लिये हम सब आये हैं अत एव अब आप अपने स्थान (कैलास) को चलिये॥३०॥ सब देवताओंके ऐसा कहनेपर श्रीमहादेवजीने विष्णुसे कहा, हें जनार्दन!मैं ब्रह्महत्यासे डर रहाहूँ इस लिये कैलासको नहीं जाऊंगा, यह कहकर श्रीमहादेवजीने पहिली सब कथा भगवान श्रीहरिसे कह सुनाई॥३१॥ यह सुनाकर महादेवजीने फिर कहा, हे भगवन्
जनार्दन! यदि मेरी हत्या चलीजाय तो मैं हत्यासे छूटकर कैलासमें चलाजाऊंगा॥३२॥ वैशम्पायनजीने कहा, हे महाराज ! भगवान् श्रीहरि श्रीमहादेव- जीके कल्याणार्थ शीघ्र हत्यास्थानमें जाकर कहनेलगे। वासुदेवने कहा, हे हत्या ! तू श्रीमहादेवजीके अंगको छोडदे और (उसके बदलेमें) मुझसे वर माँगले, जो तू माँगेगी मैं तुझको वही दूँगा, यदि ऐसा न करूं अर्थात् तेरी इच्छानुसार तुझको वर न दूं तो मुझको पाप लगे॥३३॥ भगवान् वासुदेवके ऐसा कहनेपर हत्या बोली। हे प्रभो ! आप मुझको मनुष्य, हाथी, घोडे, राजा, भैंसे और ऊंट इत्यादि अठारह अक्षौहिणी सेनाकारक्त दीजिये अर्थात् मैंअठारह अक्षौहिणी सेनाका खून पीना चाहतीहूँ॥३४॥ श्रीहरिने उत्तर दिया, हे हत्या ! द्वापरयुगके बीचमें जिस समय चन्द्रवंशी राजा लोग पृथ्वीपर उत्पन्न होंगे, उस समय मैं तुझको इच्छानुसार रक्त पिलाऊंगा॥३५॥
केशवस्य वचः श्रुत्वा हत्यामुक्तः शिवः स्वयम्॥
शीघ्रमागत्य वै स्वर्गे शिवेन त्रिपुरोहतः॥३६॥
भगवान् केशवकी यह बात सुनकर हत्याने श्रीमहादेवजीको छोडदिया तब हत्यासे रहित होकर वे शीघ्र ही स्वर्गको गये और वहाँ जाकर उन्होंने त्रिपुरनामक दैत्यका वध किया॥३५॥ ॥३६॥ इति श्रीभारतसारे आदिपर्वणि शिवहत्यामुक्तिर्नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥
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चतुर्थोऽध्यायः ४.
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चतुर्थे वासनामुक्तः शिवो गांगेयन्म च॥
इति दाशस्य कन्यायां व्यासोत्पत्तिश्व वर्ण्यते॥१॥
इस चतुर्थ अध्यायमें ‘श्रीमहादेवजीका प्रायश्चित्तसे क्त होजाना, भीष्मजीका जन्म होना और कैवर्त्तकी कन्याके गर्भसे श्रीव्यासजीका उत्पन्न होना’ इन सब कथाओं का वर्णन कियाजायगा॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
स्वस्वे स्थाने गता देवाः स्वस्थाने तु गतो हरिः॥
ब्रह्मणा कथितं रुद्र त्वया हत्याविनाशनम्॥१॥
वैशम्पायनजी बोले, हे महाराज जन्मेजय!त्रिपुरासुरके मारेजानेपर सारे देवता और विष्णुजी अपने २ स्थानको चले गये। तबब्रह्माजीने श्रीमहादेवजीसे कहा कि हे रुद्र ! अब आपको इस हत्याके नष्ट होनेका॥१॥ प्रयत्न (उपाय) करना चाहिये, क्योंकि इसके नष्ट होनेपर ही आपका कल्याण होगा। अत एव जहां देवेश्वर भगवान् मधुसूदन निवास करतेहैं वहाँ चलिये॥२॥अनन्तर भगवान् विष्णुजीके उद्देश्यसे निकलकर ब्रह्मा और महादेवजी वैकुंठमें विष्णुके पास जा पहुँचे। तब शिवजीने कहा, हे देवेश्वर ! मैंने मूढताके वश होकर बडा ही दारुण काम करडालाहै॥३॥हे देव ! अब आप अनुग्रह करके इसके प्रायश्चित्तकी विधि बताइये।महादेवजीके इस प्रकार कहनेपर श्रीभगवान् बोले, हे शंकर ! आप अतिथि (संन्यासी) का रूप धारण करके पृथ्वीपर विचरते हुए बारह वर्षतक तीर्थयात्रा कीजिये॥४॥ और ब्रह्माजीके कपाल (खोपडी) को हाथमें रखकर उसमें प्रतिदिन भोजन कियाकीजिये, इस तरह करतेहुए जब आप गौतमी नदीके तटपर पहुँचेंगे, तब शुद्ध होजायँगे॥५॥ जहाँ सीतेश अर्थात सीतापति भगवान् श्रीरामचन्द्रजी महाराज विराजमान हैं वहीं आप
पवित्र होवेंगे और फिर आगे मैं भी द्वापरमें उस हत्याको (उसकी इच्छानुसार) रुधिर प्रदान करूंगा॥६॥ अनन्तर भगवान् विष्णुके यह वचन सुनकर श्रीमहादेवजीने वैसा ही काम किया इसी कारण गोदावरीके किनारेपर श्रीमहादेवजी ‘कपालेश’ नामसे त्रिलोकमें प्रसिद्ध हुए॥७॥ अनन्तर गोदावरी नदीमें स्नान करते ही श्रीमहादेवजीके हाथसे चिपटाहुआ ब्रह्माजीका कपाल नीचे गिरपडा॥८॥ यदि सिंहराशिपर बृहस्पति और कुंभ राशिपर सूर्य स्थित हों इस प्रकारके उत्तम योगमें जो मनुष्य गोदावरीकी यात्रा करके उसमें स्नान करताहै वह सारे पापोंसे छूटजाताहै इसमें संशय नहीं॥९॥ ब्रह्मा और विष्णुके प्रसाद (कृपा) से श्रीमहादेवजी जिसतीर्थमें पापोंसे छूटकर पवित्र हुए वह तीर्थ स्वर्ग, मर्त्य और रसातलमें भी दुर्लभ है, ऐसा मैं मानताहूँ॥१०॥ इसके पीछे भगवान् श्रीहरिने महादेवजीसे कहा, हे शंकर ! आप पृथ्वीतलपर पाँच देहधारण करके (महाराज पांडुके घर) जन्म लीजिये और हे पर्वती ! आप भी महाराज द्रुपदके यहाँ उसकी पुत्री होकर उत्पन्न हुजिये॥११॥ इस प्रकार भगवान् विष्णुके कहनेपर उनकी प्रेरणासे श्रीमहादेवजी अपने स्थान कैलासमें चलेआये, तब ब्रह्माजीने कोपको उत्पन्न करके श्रीमहादेवजीके घरको भेज दिया॥१२॥अनन्तर वह कोप धीरे धीरे गंगा, गौरी और महादेव इन तीनों जनोंके शरीर में आ घुसा। इस कारण इन तीनोंके बीच आपसमें कलह अर्थात् लडाई झगडा होने लगा॥१३॥तब पिनाकी श्रीमहादेवजी इस प्रकार कोपमें भरगये जैसे अग्नि घीकी आहुति पडनेपर जलतीहै। और फिर क्रोधसहित उन्होंने गंगा और पार्वतीसे कहा॥१४॥
हे गंगा ! तू पृथ्वीमें जाकर शन्तनुकी भार्या होजावे और हे गौरी! तू जाकर महाराज द्रुपदकी पुत्री होजा॥१५॥ अपने भर्ता (पति) के इस प्रकार वचन सुनकर उन दोनोंने अपने मस्तकमें कराघात किया अर्थात् अपना अपना शिर पीटा और फिर कलहसे निवृत्त होकर गौरीने श्रीमहादेवजीसे कहा॥१६॥ गौरी बोली, हे देवदेवेश!जिस जिस स्थानमें आप निवास करेंगे उसी उसी स्थानमें मैं भी रहूँगी और जिस स्थानमें मेरा अवतार (जन्म) हो आप भी उसी स्थानमें जन्म लेकर मेरे कलेवर (देह) को भोग करें॥१७॥ पृथ्वीमें एक अंशके द्वारा मेरा जन्म होगा और आप पाँच अंशमें जन्म ग्रहण कीजिये तो मैं आपके साथ पृथ्वीपर समानभावसे सुख, दुःख अथवा राज्यको भोगूँगी॥१८॥ पार्वतीजीके इस प्रकार कहने पर श्रीमहादेवजीने गंगांसे कहा, हे गंगे ! तू भी पृथ्वीपर मनुष्य रूप धारणकर हस्तिनापुरमें मेरे अंश शन्तनुको वरले अर्थात् उनको अपना पति स्वीकार कर॥१९॥ श्रीमहादेवजीके इस प्रकार वचन सुनकर गंगाने मानवीरूप धारण किया और फिर वह अपनी इच्छानुसार विचरनेवाली कामिनी गंगाके तटपर आनकर प्राप्त हुई॥२०॥ इसी बीचमें चन्द्रवंशीय शन्तनु राजा जो कि आठँवा वसु में एक वसुका स्वरूप और मनुष्यों में शिवका रूप हैं, द्वापरयुगके बीच हस्तिनापुरमें उत्पन्न हुए वे महाराज शन्तनु अपने मन्त्री इत्यादिके सहित शिकार खेलनेके लिये गंगाके किनारेपर आनकर उपस्थित हुए॥ २१॥॥ २२॥ वहाँ गंगानदी सुन्दर स्त्रीका रूप धारण कियेहुए विराजमान थी तब महाराज शन्तनुगंगाको देखकर मोहित होगये॥२३॥और फिर उसके रूपसे मोहित हुए शन्तनु
उसके पास जाकर पूछनेलगे। शन्तनुने कहा, हे सुन्दरी ! तुम कौन हो ? किसकी भार्या हो ? और किसकी पुत्री हो ? सो मुझे बताइये॥२४॥
चौपाई।
शन्तनु मोहे देखत नारी, तब गङ्गासन कह्यो विचारी।
कौन रूप वन हेतु हौ काहा, कहोसत्य सो हमही पाँहा।
गंगाने उत्तर दिया, मैं गंगा हूँ श्रीमहादेवजीके शापसे पृथ्वीतलपर आई हूँ।हिमाचलकी पुत्री हूँ और हे राजन् ! उत्तम वर मिलनेकी अभिलाषा कररही हूँ॥२५॥ महाराज शन्तनुने गंगाके यह वचन सुनकर कहा, हे गंगे ! मैं सारे राजाओंमें श्रेष्ट और भूमण्डलपर एक ही राजा अर्थात् सार्वभौम राजा हूँ, तुम मुझको अपना पति बनाओ॥२६॥ गंगा बोलीं, हे महाराज ! साधु साधु अर्थात् बहुत अच्छा, जिस समयतक आप मेरी बातका पालन करेंगे; तबतक मैं कामचारिणी आपकी भार्या होकर रहूँगी॥२७॥ इतनी कथा सुनकर महाराज जन्मेजयने पूछा कि यह शन्तनुं राजा कौन हैं ? और किसके पुत्र हैं ? सो कहिये। वैशम्पायनजी बोले। हे राजन! चन्द्रवंशीय राजा दुष्कृतके प्रतीपनामसे विख्यात पुत्र हुए इनके पुत्र शन्तनु हुए॥२८॥ महाराज ! प्रतीपके वही शन्तनुराजा पुत्र हैं कि जिनकी भार्या गंगा हुईं। अनन्तर महाराज शन्तनु गंगाकी प्रतिज्ञा स्वीकार करके उनको अपने घर ले आये॥२९॥ और घर आकर कहा‘यदिमैं तुम्हारी बात न मानूँ तो तुम (निःसन्देह) अपने स्थानको प्रस्थान करजाना’ यह कहकर महाराजने अपने घरमें उसके साथ विवाह करलिया॥३०॥ फिर महाराज शन्तनु समयानुसार उसके साथ आनन्दपूर्वक विहार करने
लगे। तब समय प्राप्त होनेपर महाराजके आठ पुत्र उत्पन्न हुए॥३१॥ किन्तु जो जो पुत्र उत्पन्न हो उस उसको ही कामलोभी राजा शन्तनु गंगाके कहनेसे नदीके प्रवाहमें डालदेवे॥३२॥ इस प्रकार पुत्रोंको बहाते बहाते वृद्धावस्था उपस्थित होनेपर महाराजके आठवाँ पुत्र हुआ। तब उसको शन्तनुने नदीमें न डाला (बरन छिपा रक्खा) यह देखकर गंगा बोली हे राजन् ! मैंने पूर्वमें आपसे जो प्रतिज्ञाकराली थी अब आप उसका पालन क्यों नहीं करते ? अतएव अब मैं शापके ऋणसे उऋण होकर अपने स्थान (घर) को चलीजाऊंगी॥३३॥
चौपाई।
अष्टम गर्भहि भा संचारा। तब शन्तनु विनती अनुसारा।
सात पुत्रके नाशे प्राना। यहि तकर मोकों दै दाना।
हँसिकै गंगा तब यह कही। इतने दिन तुमरे सँग रही।
वाचा झूठ आज भइ आनी। हम हैं गँगा कहत बनानी।
अष्टम राजा आप बचाया। यह कनिष्ठ जो अष्टम आया।
गंगापुत्र गोद नृप दीना। स्वर्गहि लोक गमन तब कीना।
हे महाराज ! आपका यह पुत्र अष्टवसुमें अष्टम वसुका रूप है यह तीनों लोक में गाङ्गेय नामसे प्रसिद्ध अजय तथा देवता और दैत्योंका जीतनेवाला होगा॥३४॥ और यह विक्रमशाली पुत्र मेराही जाम ग्रहण करेगा अर्थात् गाङ्गेयं नामसे (सारे संसारमें) प्रसिद्ध होगा। यह बातें कहकर गंगा अपने स्थान कैलासको चलीगई॥३५॥ इसके उपरान्त राजकुमार गाङ्गेय तीनों लोकमें विख्यात हुए और इधर महाराज शन्तनु भी बहुत दिनों पर्यन्त भार्याहीन रहे॥३६॥फिर बुद्धिमान भीष्मने अपने पिताको भार्याहीन देखकर हरिदास कैवर्त्तकी
मत्स्यगन्धा नामवाली कन्यासे अपने पिताका विवाह करादिया॥३७॥ यह सुनकर जन्मेजयने पूछा हे स्वामिन् ! उस हरिदास कैवर्त (मल्लाह) की कन्यासे महाराज शन्तनुका विवाह कैसे हुआ ? हे द्विजोत्तम ! इस बातका मुझको बडाही सन्देह है अत एव आप मेरे इस सारे सन्देहको छेदन (शमन) करदीजिये॥३८॥ वैशम्पायनजी बोले हें जन्मेजय ! सुधन्वा नामवाला एक राजा था वह किसी समय देशान्तर (विदेश) को गया पीछे घरमें उसकी सुशीला नामवाली भार्या ऋतुमती हुई॥३९॥ तव उसने अपने दासीको अपने प्रिय पतिके पास भेजा और वह सिकरीका रूप धरकर तुरन्त उसके पतिके पास गई॥४०॥ तब राजाने एक दोनेमें वीर्य निकालकर उस सिकरीरूपधारिणी दासीको देदिया वह उसको लेकर जैसेही चली कि मार्गमें उसको एक और सिकरी मिलगई और उन दोनोंमें लडाई होनेलगी॥४१॥ तब वह वीर्यका दोना उसके हाथसे छूटकर गंगाजीमें जापड़ा और उसको एक मछली निगलगई तथा मच्छसे सहवास करनेपर उसके द्वारा कन्याका गर्भ धारण करतीहुई॥४२॥ फिर उस मच्छलीको मछली मारनेवाले धीवरने पकड़कर उसका पेट चीरा तब उसमेंसे एक परम सुन्दरी कन्या निकली*2 (जिसको वह हरिदास नामक धीवर पालने लगा) इस प्रकार पालन करते करते वह कन्या पन्द्रहा वर्षकी होगई॥४३॥ हे महाराज ! वह कन्या उस कैवर्त्तके यहाँ रहतीहुई गंगाजीमें नाव चलायाकरतीथी फिर किसी दिन प्रातः मय पराशरमुनि
आनकर प्राप्त हुए॥४४॥ अनन्तर उस सुन्दरी कन्याको नाव चलाताहुआ देखकर ऋषिने कहा हे बाले ! तुम इस नावको यहाँ ले आओ हम उस पार जाना चाहतेहैं॥४५॥ मत्स्यगंधाने मुनिके इस प्रकार वचन सुनकर नावमें बैठालकर मुनिकों पार उतारा फिर जब नावपर बैठकर तपस्वी पराशरजी गंगाके बीचमें आये॥४६॥ तब उसका मुख तथा शरीरकी सुन्दरता देखकर पराशरजी मोहित होगये और उसके साथ कामचेष्टा रची अर्थात् रमण करनेकी इच्छा करतेहुए वह बोले॥४७॥ हे सुन्दरी ! तुम्हारे मुखपर यह दो कमलहैं ? वा मत्स्य हैं ? अथवा कामदेवके बाण हैं ? या खंजन जातिके दो पक्षी हैं ? किंवा नेत्र हैं ? (फिर चाओंको निहारकर कहने लगे) क्या यह शिवकी दो मूर्ति हैं ?या सुवर्णके कलशे हैं ? अथवा कोई और वस्तु हैं ? वातुम्हारे कुच हैं ? और यह वस्त्र हैं ? अथवा बिजली, या तारे हैं ?और हे सुरतिकी प्रीतिको जानने योग्य ! यह क्या पदार्थ हैं ? सो मुझे सत्यही सत्य बतादे क्यों कि मैं (इससमय) कामदेवके वशीभूत होरहाहूँ॥४८॥ इसप्रकार वह उसके रूपसे मोहित हुए मुनिवर पराशरजी बार बार उसके शरीरको छूने लगे किन्तु वह कन्या ऐसाकरानेको वारंवार मना करने लगी॥४९॥ मत्स्यगंधा बोली । हे स्वामिन् ! आप मुझसे कामचेष्टा न कीजिये क्योंकि गंगाके किनारेपर खडे हुए मनुष्य चारों ओरसे देखरहेहैं तब मुनिने कन्याकी यह बात सुनकर उसकी लज्जा रखनेके लिये अपनी तपस्याके प्रभावसे अंधकार उत्पन्न करदिया जिसे सूर्य आच्छादित होगये और दिन तथा रात एकसी होगई तब उन
दोनोंने परस्पर सहवास किया और उस मत्स्यगन्धाने उन ऋषिके प्रभावसे तत्काल गर्भ धारण किया॥५०॥५१॥
दोहा।
यौवनवंतभई सुता, अरु सुगंध तनुसान।
दशों दिशा अँधियार भा, कन्या दिय रति दान॥
तब फिर श्री गंगाजीके सुन्दर तटपर वेदव्यासजीने जन्म ग्रहण किया और पराशरजीने अपना संग करनेके कारण उस कन्याका नाम योजनगन्धा *3 रक्खा॥५२॥ ऐसा करके ब्राह्मण पराशर मुनिने अपने स्थानको प्रस्थान किया तब योजनगन्धाने रूप और उदारता इत्यादि गुणोंसे युक्त पुत्र उत्पन्न किया॥५३॥ जो यह कि कमंडलु और जटाधारण किये वेदव्यासनामक (मुनि) पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए जो कि अपनी माताको नमस्कार करके उसी समय तपस्याके निमित्त वनको जाने लगे॥५४॥
वनान्तरं यदायास्यंस्तदा मात्रा निवारितः॥५५॥
उनको वनान्तरमें जाताहुआ देखकर मइया सत्यवतीने निवारण (मना) किया॥५५॥ इति श्रीभारतसारे आदिपर्वणि भाषायां व्यासोत्पत्तिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥
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पंचमोऽध्यायः ५.
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पञ्चमे व्यासनिर्याणं वने चित्रविचित्रयोः।
निधनं धार्त्तराष्ट्रणां जन्महेतुश्वकथ्यते॥१॥
इस पाँचवे अध्यायमें श्रीवेदव्यासजीका वनको जाना,
चित्र विचित्रकी उत्पत्ति, तथा नाश और धृतराष्ट्र इत्यादिके जन्मका कारण इतनी कथाएँ वर्णन करतेहैं॥१॥
व्यास उवाच।
किमिदं क्रियते मातर्मुञ्च मां मा निषेधय।
यदायदा समायाति दुःखं ते व धातले॥
तदातदाहं स्मर्त्तव्यो ह्यागमिष्यामि निश्चितम्॥१॥
व्यासजीने कहा—हे मइया ! आप यह बाधा क्यों देरहीहैं ? और क्यों निषेध कररहीहैं अतएव निषेध नकरके आप मुझको आज्ञा दीजिये। आपको पृथ्वीतलपर जब जब दुःख (विपद) उपस्थित हो तब तब मुझको याद करना तो मैं आनकर आपकी उस विपदको अवश्य दूर करूंगा॥१॥ देखो जो पत्ते, जल और फलादि पदार्थोंके भोजन करनेवाले थे वे विश्वामित्र और पराशर इत्यादि मुनिजनभी नारीके सुन्दर मुखारविन्दको निहारकर मोहित होगये फिर जो आदमी घृतशर्करायुक्त तथा दूध दही इत्यादि भोजन करतेहैं वे अपनी इन्द्रियोंको किसप्रकार रोकसकतेहैं?यह जगत् दंभस्वरूप है॥२॥ यद्यपि इस भूमिपर मतवाले हाथीके मस्तकको भेदन करनेवाले शूर (पराक्रमी) मनुष्य विद्यमान हैं और बहुत सारे आदमी महाबलवान प्रचंड सिंहके जीतनेको भी समर्थ हैं किन्तु तथापि हम ऐसे शूर वीरोंके सन्मुख दृढतापूर्वक कहतेहैं कि कामदेवके गर्वको खर्व करने (तोड़ने) में विरलेही मनुष्य समर्थ होसकतेहैं अर्थात लाखों करोड़ों मनुष्योंमें भी कोई विरलाही निकलेगा जो कामको जीत सके॥३॥ इस प्रकार (अपनी मातासे) कहकर श्रीवेदव्यासजी शीघ्रता सहित रेवानदीके मनोहर तटपर चलेगये। और उस कन्याने
घर लौट आनेपर फिर दूसरी बार विवाह नहीं किया॥४॥ फिर किसी दिन योजनगन्धाकी गन्धसे मोहित होकर गाँगेय (भीष्मजी) गंगातटपर उसके निकट गये और उस कन्यासे पूछा हे सुन्दरि ! आप किसकी पुत्री हैं ?॥५॥ उनके इस प्रकार पूछनेपर उस कन्याने भीष्मजीको उत्तर दिया कि मैं हरिदास (कैवर्त्त) की कन्या हूँ और जो कि मैं मछलीके पेटसे जन्मी हूँ इसकारण मेरा नाम मत्स्यगन्धा है॥६॥ उस कन्याकी यह बात सुनकर भीष्मजी हरिदासके पास गये, किन्तु कैवर्त्तजातिके लोग दुष्ट होतेहैं और भीष्मजी राजाओंमें श्रेष्ठ थे। जो हो इन्होंने हरिदाससे अपने पिताके लिये उस कन्याको माँगा॥७॥ हरिदास बोला। हे राजन् ! मैं आपके पिताके लिये तो कन्या नहीं देसकता किन्तु हाँ आपके लिये (अवश्य) दे सकताहूँ क्योंकि आपका पुत्र राजा होगा और उनका पुत्र राजा न होकर (सामान्य) जागीरदार होगा॥८॥ हरिदास कैवर्त्तके इस प्रकार कहनेपर राजसत्तम महात्मा भीष्मजीने (उसी समय) कामके वेगको दमन करनेवाला ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया अर्थात् ब्रह्मचारी होगये॥९॥ तब उस कैवर्त्तने इनको वह कन्या देदी और भीष्मजी उसको लेकर अपने घर चले आये तब महाराज शन्तनुने अपने घरमें ही उस बालासे विवाह करलिया॥१०॥ उस कन्याके गर्भ से चित्र विचित्र नामवाले दो पुत्र उत्पन्न हुए। तब इसीबीचमें महाराज शन्तनु मृत्युको प्राप्त होगये॥११॥ अनन्तर महात्मा भीष्मजी मइयाकी करुण अवस्था देखकर पृथ्वीपर आशासन बिछायकर शयन करते, तथा अपनी मइयाको दिन रात वेद शास्त्रऔर पुराणोंकी कथा सुनाते रहते किन्तु यह चित्र विचित्र दोनोंजने
भीष्मजी तथा अपनी मातापर दुर्बुद्धि हुए॥१२॥ और मनमें विचारनेलगे कि हमारी माता सदैव भीष्मके घरमें ही क्यों स्थित रहती हैं ? अथवा उनके घरमें क्यौं जायाकरतीहै ? और यह दोनों जने सूने घरमें क्या करते रहतेहैं ?॥१३॥तब किसी दिन रातमें यह चित्र विचित्र भीष्मको देखनेके लिये उनके घर गये और वहाँ घरके झरोखोंद्वारा भीष्मको देखने लगे॥१४॥ वहाँ देखा कि मातृभक्त भीष्मजी सदाचारमें निरत हैं अर्थात् ब्रह्मचर्यव्रत धारण किये हुए माताको शास्त्र सुनायरहेहैं यह देखकर वे दोनों भाई तापित और लज्जित हुए॥१५॥ तब वे पापाचारी अपनेको धिक्कारते हुए परस्पर कहनेलगे कि हम दोनोंजनेही पाप के भागी हुएहैं अतएव अब इस पापसे छुटकारा मिलनेका उपाय सोचना चाहिये॥१६॥ इसके पीछे सबेरा होतेही उन दोनोंने धर्मात्मा भीष्मजीसे विज्ञप्ति (सूचना) करी कि हे तात ! हमारी आपके प्रति ऐसी पापबुद्धि होगई थी अब इस पापसे हमारा छुटकारा कैसे होगा ?॥१७॥ भीष्मजीने कहा हे भाइयो ! जो आदमी माताकी हत्या करतेहैं और जो हजारों ब्रह्महत्या किया करतेहैं इन दोनोंको समान जानना चाहिये (इनके लिये यही प्रायश्चित्त है कि) वे वनमें जाय शमीकाष्ठ अथवा सूखे पीपलकी खखोडलमें बैठकर अपने शरीरको यदि भस्म करडालें॥१८॥ तबही वे शुद्ध होसकतेहैं अन्यथा उनके शुद्ध होनेकी संभावना नहीं, फिर उनके इस प्रकार कहनेपर चित्र विचित्रने मनमें विचार किया॥१९॥ और उन्होंने उसी विधिके अनुसार महावनमें जाकर प्राण त्याग किया। तब उनके मरजानेपर नरसिंह महात्मा भीष्मजी शोकसे महान् पीडित हुए॥२०॥ और तिस कर्मसे उन्होंने
कामदेवकी बडी भर्त्सना (निन्दा) करी और सोचा कि अब राज्यका धारण (पालन) करनेवाला कोई भी पुत्र नहीं रहा ॥२१॥ तबधर्ममें तत्पर रहनेवाले महात्मा भीष्मजी नित्य (इस वातकी) चिन्ता करने लगे तब उनकी माताने कहा कि मेरे एक प्रथमके पुत्र हैं॥२२॥ जिनका नाम वेदव्यास है और जो महातेजस्वि सदा रेवानदीके तटपर स्थित रहतेहैं।हे वत्स ! वे मुझसे कहगयेहैं कि, विपत्तिके समय मुझको याद करना॥२३॥मैं तेरे स्मरण करतेही अवश्य आऊंगा और तेरी विपत्ति दूर करूँगा, यह सुनकर भीष्मजीने कहा हे माता ! अब आप शीघ्रही उन मुनिको स्मरण कीजिये॥२४॥ भीष्मजीके यह कहनेपर उनकी माताने तत्काल वेदव्यासजीको स्मरण किया। उन्होंने आकर परसभक्तिपूर्वक माताको प्रणाम किया तबभीष्मजीने उनसे पूछा॥२५॥ भीष्मजी बोले हे प्रभो ! यह जो सप्तांग राज्य है सो मुझको सुखदायक नहीं है क्योंकि महाराज शन्तनु के चित्र विचित्र नामक पुत्र मृत्यु को प्राप्त होगये हैं॥२६॥इस समय यह राज्य पुत्रहीन है अत एव आप राज्यका धारण (पालन) करनेवाला पुत्र प्रदान कीजिये। भीष्मजीकी यह बात सुनकर श्रीवेदव्यासजीने कहा कि अम्बिका और अंबालिका नामवालीं जो विचित्रवीर्यकी रानियाँ हैं॥२७॥ वे बिलकुल नंगी होकर मेरी दृष्टिके सम्मुख चली आवें। उनके इस प्रकार आज्ञा देनेपर प्रथम अम्बिका नामवाली रानी आँखोपर पट्टी बाँधकर व्यासजीके सन्मुख आई॥२८॥ उसको आयाहुआ देखकर भगवान् श्रीवेदव्यासजीने अपने मस्ककको कम्पायमान किया। फिर हे राजन् ! दूसरी
अम्बालिका नाम वाली सारे शरीरमें सफेद चन्दन पोतकर आई॥२९॥ उसको देखकर भी व्यासजीने उसी प्रकार मस्तक कंपायमान किया। यह सब बात देखकर भीष्मने व्यासजीसे पूछा॥३०॥ उनके पूछनेपर श्रीवेदव्यासजीने उत्तर दिया कि हे भीष्म ! जो रानी सारे शरीरमें सफेद चन्दन पोतकर (मेरे सामने) आई है, उसके सर्वांग कोढी पुत्र जन्म लेगा। इसमें कुछ सन्देह नहीं॥३१॥ और जो रानी आँखोंको बाँधकर आई है उसके गर्भसे अंधा पुत्र जन्मेगा और तीसरी दासी जो भगवान् विष्णुका नाम जपतीहुई आयी है, उसका पुत्र वैष्णव (उत्पन्न) होगा॥३२॥
एवमुक्त्वा गते व्यासे पुत्रास्ते च प्रजज्ञिरे।
धृतराष्ट्रश्चपाण्डुश्चविदुरो धर्मतत्परः॥
भीष्मेण पालितास्ते चावर्द्धन्त निजवेश्मनि॥३३॥
इस प्रकार कहकर श्रीवेदव्यासजी चलेगये तब उन रानियोंने पुत्र उत्पन्न किये अर्थात् अम्बिकाके धृतराष्ट्र, अम्बालिकाके पाण्डु और दासीके विदुर इन तीन धर्मपरायण पुत्रोंने जन्म लिया॥३३॥ अनन्तर महात्मा भीष्मजीके द्वारा पालेजाते हुए यह तीनों पुत्र अपने घरमें बढने लगे॥३४॥ इति श्रीभारतसारे आदिपर्वणि भाषायां व्यासवरप्रदानं नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥
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षष्ठोऽध्यायः ६.
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षष्ठे दुर्वाससः कुन्ती लेभे मन्त्रंततोऽभवत्।
कर्णश्चकर्णमालस्य पाण्डुशापः स्त्रिया मुनेः॥१॥
इस षष्ठे अध्यायमें कुन्तीको दुर्वासा मुनिसे मंत्र मिलना
कर्णका उत्पन्न होना और कर्णमाल मुनिकी भार्याका पाण्डुको शाप देना इतनी कथा वर्णन करीगई हैं॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
शृणु++रा++न्महाबाहो कथां पापहरां शुभाम्।
ततः कांतारदेशस्य कुन्ती यादवपुत्रि॥१॥
वैशम्पायनजीने कहा हे महाबाहो ! महाराज जन्मेजय ! अब पापोंका नाश करनेवाली अति उत्तम कथा आप सुनिये। कान्तार देशमें यादववशीं एक कुन्तिभोज नामक राजा था जिसके घरमें कुन्ती नामवाली उसकी कन्या थी॥१॥ उस कुन्तीने साक्षात् महादेव स्वरूप लोकविख्यात श्रीदुर्वासामुनिकी भक्ति करी और स्तुति करके उनको सन्तुष्ट कर लिया॥२॥ तब मुनिवर दुर्वासाजीने सन्तुष्ट होकर कहा। हे कल्याणि ! मैं तुझसे प्रसन्न होगयाहूँ इसकारण तुझको एक अति उत्तम मन्त्र प्रदान करताहूँ इस मंत्रके द्वारा तू जिस पतिकी इच्छा करेगी वही आनकर उपस्थित होजायगा॥३॥ इस भाँति मन्त्र देकर दुर्वासामुनिने अपने स्थानको प्रस्थान किया। फिर सबेरा होतेही कुन्ती शोभायमान नदीके तटपर गई और सूर्यका ध्यान और आराधना करके उस मन्त्रके द्वारा उनको आकर्षण किया अर्थात् अपने पास बुलाया॥४॥ उसके बुलाते ही भगवान् सूर्य तत्काल आनकर प्राप्त हुए और कुन्तीसे प्यारे वचन कहनेलगे। सूर्यने कहा हे कुन्ती ! आपने मुझको किसकामके लिये याद कियाहै ? मैं आपको निःसन्देह वरदूंगा॥५॥ कुन्तीने कहा हे भगवन् ! मुनिवर दुर्वासाजीने मुझको एक वर (मंत्र) दियाथा कि तुझको जिस वर (पति) की अभिलाषा होगी वह तत्काल आनकर उपस्थित होगा सो
उस मंत्रकीकेवल परीक्षा करनेके लियेही मैंने आपका स्मरण कियाथा॥६॥ कुंतीके ऐसा कहनेपर भगवान् सूर्यने कहा। हे सु++ ! यदि आपने मुझको बुलाही लियाहै तो अब संभोग प्रदान करो ऐसा होनेसे मैं आपको दाता और धनुषधारियोंमें श्रेष्ठ पुत्र प्रदान करूंगा॥७॥ कुन्ती बोली। हे देव ! आपका तेज अत्यन्त उग्र हैं सो उसके सहनेको मैं समर्थ नहीं हूँ।तब सूर्यने अल्परश्मि अर्थात् अपने तेजको बहुतही कम करके उसके साथ सहवास किया॥८॥ अनन्तर उसके द्वारा कुन्ती शीघ्रही गर्भवती होगई और कर्ण नाम वाले एक पुत्रको उत्पन्न किया। किन्तु (लोक भयके कारण) उस पुत्रको (सन्दूक) में बन्द करके नदीके किनारे पर रखदिया और फिर वहाँसे अपने घरको लौट आई॥९॥ तदनन्तर विकर्त देशके महाराज धृतराष्ट्रका सेवक उस नदीके तटपर आया और उसने सन्दूक खोलकर वह बच्चा निकाललिया और अपनी रानीको सौंपदिया तब उसकी राधानामवाली रानी इस बालकका पालन पोषण करनेलगी॥१०॥ अनन्तर सामुद्रिक शास्त्रकथित सारे राजलक्षणोंसे युक्त सर्वांगसुन्दर वह बालक अपने घरमें चन्द्रमाकी समान (प्रतिदिन) वृद्धिको प्राप्त होने लगा॥११॥ वैशम्पायनजीने कहा हे महाराज ! सर्वज्ञानविशारद अर्थात संपूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता महामतिमान् भीष्मजीने किसी समयमें महाराज शूरसेनको ++त्रचामरादि कुछ देकर उनकी पृथानामवाली कन्या पांडुके निमित्त माँगी तब बुद्धिमान् महाराज शूरसेनने अपनी पुत्री पांडुको व्याहदी। प्रथम महाराज शूरसेनने अपनी पृथा कन्या अपने बडे भ्राता महाराज कुन्तिभोजकी गोदीमें बैठालदी थी इसी कारण पृथाका दूसरा नाम कुन्ती हुआ है फिर मथुरापुरीमें सारे राजाओंके देखतेहुए उस कुन्तीका विवाह किया
और गांधार देशके राजा गान्धारके घर गान्धारी विषकन्या उत्पन्न हुई॥१२॥१३॥१४॥उस देवी गान्धारीने प्रथम विवाहकी वेदीपरही सौ भर्त्ताओं (पतियों) का विनाश किया फिर पीछे यही गान्धारी दीर्घायु धृतराष्ट्रके संग व्याहीगईं॥१५॥ हे कुरूद्धह महाराज जन्मेजय ! किसीसमय अत्यन्त बलवान और मदोन्मत्त महाराज पाण्डु धनुष धारण कियेहुए मृगया (शिकार) के लिये घोर वनमें विचरण कररहेथे॥१६॥ उसी वनमें कर्णमाल नामवाले महायोगी तपस्या कररहेथे उनके कर्णमें क्रीडा करतेहुए पक्षी निवास करतेथे॥१७॥वे पक्षी आपसमें इस तरह बातचीत करनेलगे कि यह ब्राह्मण स्त्रीघाती है, क्योंकि घरमें भार्याको इकली छोड यहाँ आकर तप कररहाहै अतएव इसको इस तपस्याका फल प्राप्त नहीं होगा बरन् प्रत्येक महीनेमें एक वालककी हत्याका पाप लगेगा॥१८॥ उन पक्षियोंकी ऐसी बात चीत सुनकर मुनिने कहा हे पक्षीन्द्र ! मुझको किस निमित्तसे स्त्रीकी हत्या लगेगी ? मैंने तीर्थयात्रा और तपस्या इत्यादि अनेक पुण्य (पवित्र) कार्य कियेहैं॥१९॥ पक्षीन्द्रने उत्तर दिया हे मुनिवर ! जो पुरुष अपनी भार्याको त्यागकर तीर्थयात्रा इत्यादि पुण्य संचय करताहै, तो वे संपूर्ण कार्य विफल होतेहैं और उसको नरक मिलताहै॥२०॥ हे मुनिश्रेष्ट ! आपकी भार्या मृगी (हिरनी) का रूप बनायेहुए आपके वियोगमें दग्धांग होकर वनमें आपको देखती फिरतीहै॥२१॥ पक्षीके इसप्रकार कहनेपर उन मुनिनेभी (तत्काल) मृगका रूप धारण किया और वनान्तरमें जाकर आदरपूर्वक अपनी भार्याको देखने (खोजने) लगे॥ २२॥ वहाँ उन्होंने हिरनियोंके झुंडमें अपनी भार्याको पाया और परस्पर उसी रूपमें उन दोनोंजनोंने सहवास (संभोग) किया॥२३॥ दैवके संयोगसे
महाराज पांडुभी शिकार खेलेते हुए उसी वनमें आपहुँचे और वहाँ उन्होंने मृगोंकेझुंडको देखा उसी झुंडमें वह मुनि और मुनिपत्नी (मृगरूपसे) सहवास कररहेथे॥२४॥महाराज पांडुने व्याधेकी समान होकर बाणसे उन कामासक्त ब्राह्मण तथा ब्राह्मणी दोनोंकोही मारडाला अनन्तर महाराजने वहाँ जाकर उनको उनके असलीरूपमें मराहुआ देखा॥२५॥ तब तो महाराज पांडु महादुःखी होकर कहनेलगे कि हा दैव ! मैंने यह कैसा पापकर्म किया ? (संसार में) मेरी समान पातकी दूसरा नहीं है इन दोनों स्त्री पुरुषोंकी दुःसह हत्या तो कल्पान्तमें भी नहीं छूटेगी॥२६॥ इस प्रकार कहकर महादुःखसे सन्तप्त हो महाराजने हाथसे धनुष छोडदिया और हाथ जोडकर प्रार्थना करने लगे ॥२७॥ हे माता ! जो आपके मनमें इच्छा हो सो ही दंड मुझको दीजिये। राजाकी यह बात सुन उन (आहत) स्त्रीपुरुषने कहा। हे राजन् ! स्त्रीके संभोगकालमें ही आपकी भी मृत्यु होगी॥२८॥
चौपाई।
शाप देइ मुनि तजा शरीरा। महासोच वश भयो नृप बीरा।
सोच रै अपुत्रा भयऊ। महाशाप यह मुनिवर दयऊ।
भीषम निकट कह्यो तिन जाई।ऐसो शाप मुनीश कराई।
तातें वनमें अब तप करिहैं। जा कारणते जगमें तरिहैं।
इस प्रकार शाप देकर उन दोनोंने प्राण त्याग दिया और महाराज पाण्डु दुःख व शोकसे महा व्याकुल होकर अपने घरको चले आये॥२९॥और उन्होंने शास्त्रकी विधिके अनुसार इस (पापका) प्रायश्चित्त किया। इसके पीछे संभोगकालमें महाराजने कुन्तीको इस शापकी सारी बात कहसुनाई॥३०॥ इस दुःखसे दुःखित होकर वह कुन्ती देवताकी आराधनामें तत्पर हुई।तब बहुत दिन बीतजानेपर किसी समय मुनिश्रेष्ठ
दुर्वासा ऋषिआये तब कुन्तीने पुत्रकी अभिलाषाकरके उन मुनिकी पूजा करी॥३१॥ दुर्वासाजीने कहा। हे सुन्दरी ! मैं आपकी भक्तिसे परम सन्तुष्ट हुआ हूँ अतएव वर माँग लीजिये, कुन्ती वोली।हे स्वामिन् ! यदि मेरे प्रति आप संतुष्ट होगये हैं तो मेरे अन्नका पारण कीजिये अर्थात् भोग लगाइये॥३२॥ दुर्वासाजीने कहा। हे कल्याणि ! मैं आपके धरमें पारण (भोजन) तबकरूँगा जब आप एक दिनके पके चावलोंका भोजन देंवें॥३३॥ कुन्ती बोली। हे महामुने ! आपने जो कुछ कहा मैं वही सब करूंगी। यह सुनकर मुनिवर दुर्वासाजी अपने स्नान व नित्य नैमित्तिक कर्म करनेके लिये गंगाजीके किनारे पर चले गये॥३४॥ उसी अवसरमें कुन्तीने भगवान् रवि (सूर्य) की प्रार्थना करी। तब प्रार्थना करते ही सूर्यने आकर कहा मुझको क्या काम करना होगा ? सो बताओ॥३५॥ तब कुन्ती बोली। हे रवि ! आज मैं चावल बोये देती हूँ सो जिस समय पर्यन्त यह चावल पकें तबतक आप आकाशमें टिके रहिये। कुन्तीकी यह बात स्वीकार करके सूर्य दो मास पर्यन्त आकाशमें टिकेरहे इसी बीचमें वे चावलभी पककर तैयार होगये॥३६॥ तबमुनिवर दुर्वासाजीने कुन्तीके घर आकर उस नवीन अन्नका भोजन किया और फिर प्रसन्न होकर कहा हे सुन्दरि!अब आप वर माँगलीजिये ॥३७॥ कुन्ती बोली हे ब्रह्मन् ! मेरे घरमें और तो सारी सम्पत्तियाँ विद्यमान हैं किन्तु एकमात्र पुत्र नहीं है। ब्राह्मण दुर्वासाजीने कहा आप पवित्र होकर सदाचार अर्थात् स्नान दानादिक कर्म कीजिये और फिर मेरे पास आइये तब आपके मनको जो अच्छा लगेगा मैंवही वर प्रदान करूंगा॥३८॥ मुनिवर दुर्वासाजीके ऐसा कहनेपर जब कुन्ती स्नान करनेके निमित्त चली गई, तव गान्धारीने छल किया अर्थात् कुन्तीका
वेष वनाय दुर्वासा मुनिके पास पहुँची और हाथ जोड़ कर कहनेलगी कि हे प्रभो ! अब मुझको वर प्रदान करदीजिये॥३९॥ तब दुर्वासा ऋषिने यह वर दिया हे अनधे! आपके सौ पुत्र उत्पन्न होंगे। यह सुनकर गांधारी हर्षित होतीहुई अपने घरको चली आई॥४०॥ फिर पीछे स्नान दानादि करके कुन्तीभी मुनिवर दुर्वासाजी के सामने आकर खडी हो गई और बोली।हे महामुने! हे स्वामी! अब मुझको प्रसन्नता पूर्वक वरप्रदान कीजिये॥४१॥ यह सुनकर ऋषिने कहा—हे बालिके ! मैं तुझको सौ पुत्र उत्पन्न होनेका वर देचुकाहूँ किन्तु तू उससे भी तृप्त न हुई। कुन्ती बोली। हे ब्रह्मन् ! मेरासा रूप बनाकर (कदाचित) गान्धारी आई होगी और उसीको आपने सौ पुत्र उत्पन्न होनेका वर दिया होगा॥४२॥ तब दुर्वासाजी सोच विचार कर बोले अच्छातुम्हारे भीपांच पुत्र उत्पन्न होंगे। यह सुनकर कुन्ती बोली हे भगवन् ! आपने गान्धारीको तो सौ पुत्र प्रदान किये और मुझको पाँचही पुत्र देतेहो ? इसका क्या कारण है ?॥४३॥ दुर्वासा ऋषि बोले। हे देवि ! तेरे पांचही पुत्र लडाई ठन जानेपर गन्धारीके सौ पुत्रोंको मारडालेंगे क्योंकि उसने बनावटी वेष धारणकरके वर लियाहै॥४४॥ और इसके अतिरिक्त फिर तेरेही पुत्र राजा होकर प्रजाका पालन करेंगे इस मेरी बातको बिलकुल ही सत्य जानना। वैशम्पायनजी बोले। हे महाराज जन्मेजय ! इस प्रकार मुनिवर दुर्वासाजीकी बातें सुनकर उसकुन्तीने अपने पतिकी आज्ञासे॥ ॥४५॥ धर्म, पवन और इन्द्रइन तीनोंके संयोग द्वारा तीन पुत्रोंको उत्पन्न किया। और पाण्डुकी छोटी रानी माद्रीने कुन्तीसे अश्विनीकुमार देवताका एक मन्त्र सीखकर जपा उसके प्रभावसे अश्विनीकुमारोंके अंशस्वरूप माद्रीके दो पुत्रोंने जन्म ग्रहण किया। इस प्रकार कुन्तीके स्मरण करनेपर पांडुकें क्षेत्रमें पांच
पुत्रोंकी उत्पत्ति हुई। कुन्तीके गर्भसे धर्मके अंश द्वारा युधिष्ठिर और पवनके अंशसे भीमसेन नामक पुत्रने जन्म लिया॥४६॥ ४७॥
देवेन्द्रतनयो ह्यासीदर्जुनो रूपसुन्दरः।
नकुलः सहदेवश्च ++द ++जौ माद्रिपुत्रकौ॥४८॥
देवराज इन्द्रके अंशसे रूपमें परम सुन्दर अर्जुन उत्पन्न हुआ और अश्विनीकुमारोंकेअंशसे माद्रीके नकुल और सहदेवनामक दो पुत्रोंने जन्म लिया॥४८॥ इति श्रीभारतसारे आदिपर्वणि भाषायां पाण्डवोत्पत्तिर्नाम षष्ठोऽध्यायः॥ ६॥
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सप्तमोऽध्यायः ७.
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सप्तमे शतपुत्राणां धृतराष्ट्रस्य जन्म च।
कुरुपाण्डवविद्याप्ती राज्यप्राप्तिश्चकथ्यते॥१॥
इस सातवें अध्यायमें धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंका उत्पन्न होना, कौरव पाण्डवोंका विद्या पाना और राज्य मिलना, यह कथाएँ वर्णन करीजातीहैं॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
एवं पांढोर्नृपस्येह पुत्राः पञ्च महौजसः।
++ले++ले प्रसूताश्च ते पुत्राः पाण्डुनंदनाः॥१॥
वैशम्पायनजीने कहा हे महाराज जन्मेजय ! इस प्रकार पांडुराजाके समय समयपर पाँच महापराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए॥१॥ और उधर गान्धारीनेभी उसी समय एक अंडा उत्पन्न किया जिसमेंसे सौ पुत्रोंकी उत्पत्ति हुई इन सौ पुत्रोंको धृतराष्ट्रके जानना चाहिये॥२॥उस अंडेके दो भाग हुए उसके प्रथम भागमें एक मात्र राजा दुर्योधन उत्पन्न हुआ और दूसरे भागमें कलिस्वरूप धृतराष्ट्रके अन्यान्य पुत्र
जन्मे (तिसके भी अग्र भागसे दुःशासनकी उत्पत्ति हुई)॥३॥ वे सब पाले जानेपर (नित्य) चन्द्रकलाके समान बढनेलगे और सबही बुद्धिमान् महोत्साही दानशील प्रियवादी अर्थात् प्यारी बातोंके कहनेवाले॥४॥ सारे सुलक्षणोंसे युक्त शूर आलस्यहीन और कामदेवकी समान सुन्दर कान्तिवालेणानुरागी चतुर नीतिके ज्ञाता, और सत्यवादी थे॥५॥ तब महाराज पाण्डुने लोकपालोंकी समान महाबलवान् व पराक्रमशाली अर्जुन इत्यादि अपने पांच पुत्रोंको देखकर अपनेको इन्द्रसेभी अधिक माना॥६॥ फिर किसीसमय कामी आदमियोंके कामदेवको बढानेवाली वसन्तऋतु आनकर उपस्थित हुई तब महाराज पाण्डुने (उस शापकी बात भूल) कामदेवसे पीडित हो माद्रीके संग सहवास किया॥७॥
चौपाई।
माद्रीपहँ रा++तब++ई। ++रि. रतिकेलि +++न विसराई।
ऋषिहि शाप तब आय तुलाना। पाण्डु नृपति वि यो स्वर्ग पयाना।
गर्भवती माद्री तब भई। पाण्डव नृपति देह वजि दई।
दे++पाण्डु भयो तनुनाशा। दोउ रानी मिलि रुदन प्र++शा।
दाह कर्म राजा++र कीना। गर्भहेतु माद्री रहिलीना।
फिर जिस समय ब्राह्मणीके शापसे महाराज पाण्डुमोहद्वारा माद्रीमें आसक्त होकर स्वर्गको सिधारगये तब माद्रीने लाचार होकर अपने नकुल सहदेव नामक पुत्र कुन्तीको सौंपे और आप अग्निमें प्रवेश करनेका उद्योग करने लगी अर्थात् पतिके साथ सती होजानेकी इच्छा करी॥८॥ क्योंकि जो स्त्री अपने मृत पतिके साथ अग्निमें बैठकर अपने देहको भस्म करडालतीहै वह सती स्त्री अपने अधम पतिकोभी तारदिया करतीहै॥९॥ और अपने मृत पतिके देहपर जितने रुँवें होतेहैं उतनेही वर्ष -
तक वह स्त्री अपने पतिके साथ स्वर्गमें आनन्द भोगतीरहतीहै॥१०॥ भर्त्ताके विना शृँगारका आनन्द और इस लोकमें सुख इस प्रकार प्राप्त नहीं होसकते जिसप्रकार तांतके विना उत्तम वीनभी नहीं वजसकती और पहियेके विना उत्तम रथभी नहीं चलसकता॥११॥ अतएव पतिके विना सौ पुत्रवाली स्त्रीभी (कदापि) सुखी नहीं होसकती। इसके पीछे ब्राह्मणोंके शापसे आरंभ करके महाराज पाण्डुके मरनेतकका सारा हाल मंत्रीने धृतराष्ट्रको जा सुनाया॥१२॥ धृतराष्ट्रने यह सव समाचार सुन मंत्रियों और पुरोहितों समेत गंगातटपर जाय॥१३॥ यथाविधि महाराज पाण्डुकी सब पारलौकिक क्रिया सम्पन्न करी॥१४॥ फिर पैदल, हाथी, रथ, घोडे, बहुत सारा धन, वस्त्र, गौ और सबसामग्री सहित शय्या (महाराज पांडुके निमित्त) ब्राह्मणोंको दिया॥१५॥ तदनन्तर कुन्ती अपने पुत्र गान्धारीको सौंप हस्तिनापुरमें आई और अपने पतिका दुःख प्रकाशित किया॥१६॥ तव गांधारी अपनेही पुत्रोंकी तरह उन माद्रीके पुत्रोंका पालन पोषण करने लगी और धृतराष्ट्रने उन पुत्रोंका नामकरण करवाया॥१७॥ अर्थात् वेदकथित रीतिसे उनके नाम ब्राह्मणोंके द्वारा धरवाये और भाईके उन पुत्रोंको भाईके स्नेहसेही देखनेलगे॥१८॥ वे सब बालक काकपक्षधारी अर्थात कौवेके पंखके समान काले बालोंवाले और सारे गहने पहरे हुए थे वे बूढे पिता धृतराष्ट्रकी प्रेमसे सेवा करनेलगे॥१९॥ वे पाण्डव और कौरव दोनोंही आपसमें स्नेह रखते, और परस्पर एक दूसरेकी शल मनाते थे, जिससे कोई इस वातको नहीं समझ सकताथा कि यह पांडुके पुत्र हैं अथवा धृतराष्ट्रके हैं॥२०॥ सबजने एकही जगह सोते और एकही जगह खाते पीते थे तथा सबबालक कभी गेंद और कभी कौडि-
योंसे खेला करते॥२१॥ वे सबही आपसमें चौषडसे तथा तांतके बाजोंसे रमते थे अर्थात् खेलाकरते और द्रोणाचार्यजीसे धनुष विद्या सीखते थे॥२२॥ वे सब ब्राह्मणश्रेष्ठ द्रोणाचार्यजीसे धनुष विद्या सीखकर उसमें चतुर होगये किन्तु इन सब सीखनेवालोंमें अर्जुन विशेष चतुर हुए और कर्णभी प्रायः अर्जुनके समानही चतुर हुआ॥२३॥ किन्तु दुर्योधन धनुष विद्यामें पारदर्शी (चतुर) नहीं हुआ तब मूर्ख दुर्योधन कर्णको विद्यामें विशेष चतुर देख गुरू द्रोणाचार्यजीसे बोला कि आप इसको न पढाइये॥२४॥
दुर्योधनेन दुष्टेन कर्णं मा पाठयेदिति।
तदा कर्णेन वीरेण शिक्षितं पर्शुरामतः॥२५॥
जब दुष्ट दुर्योधनने कर्णके पढानेको (द्रोणाचार्यसे) मना किया तब वीर कर्णने परशुरामजीसे जाकर पढ़ा॥२५॥ इति श्रीभारतसारे आदिपर्वणि भाषायां दुर्वाससो वरप्रदानं नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥
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अष्टमोऽध्यायः ८.
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अष्टमे कर्णसामर्थ्यं नागरा स्य तोषणम्।
दुर्योधनस्य संतुष्टान्मोचनं सम्यगुच्यते॥१॥
इस आठवें अध्यायमें कर्णकी सामर्थ्य नागराज (वासुकी) का कर्णके प्रति संतुष्ट होना, और दुर्योधनका संकटसे छुटकारा इतनी कथा वर्णन कीजातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
धृतराष्ट्रेण राज्ञा वै ज्येष्ठो दुर्योधनः तः
हस्तिनापुरमध्ये तु राज्यस्थाने निवासितः॥१॥
वैशम्पायनजीने कहा—हे महाराज जनमेजय!धृतराष्ट्रने अपने जेठे पुत्र दुर्योधनको हस्तिनापुरके राज्यसिंहासनपर बैठालदिया॥१॥ तब दुर्योधनने (अन्यान्य) सब राजकुमारोंको अपने वशीभूत करलिया और सूर्यपुत्र कर्णकोभी अत्यन्त प्रीतिसे वशीभूत करलिया॥२॥एक दिन रातके समय दुर्योधनकी प्रिय स्त्री जो कि भानुमती नामसे प्रसिद्ध और सुन्दरी थी महाभाग वासुकीने उसको निश्चय करके उसकी इच्छा करी अर्थात् तिससे अनुराग करनेके अभिलाषी हुए॥३॥ अनन्तर वे महाविषधर नागराज प्रतिदिन पातालसे आगमनपूर्वक दुर्योधनको परास्त करके उस स्त्रीसे सहवास करनेलगे॥४॥ तब कर्णने यह भेद जानकर दुर्योधनसे पूछाहे राजन् ! आपका मुख मलीन क्यों है ? और आप किस दुःखसे पीडित होरहेहैं ?॥५॥ दुर्योधनने उत्तर दिया हे मित्र ! मेरी भार्याको नागराज वासुकी भोगते हैं उस दुःखसे ही मैं अत्यन्त दुःक्षि(दुःखित) रहताहूँ है कर्ण ! यह दुःख किसीसे कहूँभी कैसे ?॥६॥ कर्ण बोला हे दुर्योधन ! आप कुछ चिन्ता न कीजिये और देखिये कि मैं एकही बाणपाशसे उस दुष्टको भूतलशायी करके बाँधलूंगा। इस प्रकार कहकर वीर कर्णने (रात्रिके समय) नागराज वासुकीको बाणपाशसे बाँधलिया॥७॥ उस बाणपाशमें बँधनेसे सर्पराजको अत्यन्त दुःख व संकटप्राप्त हुआ॥८॥ तब नागराजने कहा हे कर्ण ! इस भानुमतीने कामसे मोहित होकर ऐसा कुटिल काम किया कि यंत्रमें बिन्दु लिखकर फिर वह गुप्त सिद्धिदायक यंत्रका पात्र भूमिमें गाडदिया॥९॥ हे राजेन्द्र ! उस यंत्रका एक बिन्दु मेरे मस्तकपर आगिरा इसी कारण मैं उसके घर आयाकरता हूँ॥१०॥ हे नराधिप!वह यंत्रपात्र भानुमतीकी शय्याके
ऊपरी दाहिने पायेके नीचे गडरहाहै सो उसको आप निकाल लीजिये॥११॥ यह सुनकर कर्णने उस नागराजका बन्धन खोलदिया और फिर मनुष्यके मोहित करलेनेवाले उस यंत्रको भूमिसे निकाललिया॥१२॥ उसी दिनसे सर्पराज वासुकी पातालमें चलेगये और कर्णकी कृपासे राजा दुर्योधनको अत्यन्त सुख प्राप्त हुआ॥१३॥ जिसदिन कर्णने नागराजको बन्धनसे मुक्त किया था उसी दिन नागराजने कर्णको यह वर दिया कि, हे महाराज ! हम संग्राममें आपकी सहायता किया करेंगे॥१४॥ इस तरह कहकर नागराजने अपने स्थानको प्रस्थान किया और दुर्योधनने कर्णके प्रति सन्तुष्ट होकर उसको वीस हजारके तीस ग्राम उपहारमें प्रदान किये॥१५॥ इसके अतिरिक्त हे जनमेजय ! राजा दुर्योधनने प्रीतिपूर्वक आधा लाख धन तीन लाख हाथी, घोडे, रथ तथा पैदल ऐसी चतुरंगिणी सेनाभी कर्णको दी॥१६॥ एक समय कर्णने अपने पिता भगवान् सूर्यको भक्तिके द्वारा संतुष्ट करके यह बात पूछी कि हे तात! मैं अपनी महतारीको नहीं जानताहूँ कि वह कौन है ? अतएव हे प्रभो ! आप बता दीजिये॥१७॥
सूर्य उवाच।
अग्निधौतमिदंवस्त्रयस्या स्त्रीह्युपरि धार्यते।
नो दह्यते च या नारी सा ते माता प्रकीर्त्तिता॥१८॥
भगवान् सूर्यने उत्तर दिया हे पुत्र ! यह अग्निधौत वस्त्र अर्थात् अग्निसे जलताहुआ कपडा जिस स्त्रीपर डालाजाय और इस कपडेके तापसे जो स्त्री दग्ध न हो आप उसी स्त्रीको अपनी माता समझलेना॥१८॥ इति श्रीभारतसारे आदिपर्वणि भाषायां कर्णसामर्थ्यादिवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः॥ ८॥
नवमोऽध्यायः९.
अन्योन्यं नवमे वैरं कुरुपाण्डवयोस्तथा।
गरदानेन भीमस्य गंगापातनमुच्यते॥१॥
इस नवम अध्यायमें कौरव पांडवोंके आपसमें वैरकी और भीमसेनको विष देकर कौरवोंका गंगामें डालदेना यह कथा वर्णन की जायगी॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
धृतराष्ट्रसुताः सर्वे पंचैते पाण्डुनन्दनाः।
षोडशाब्दास्तु संजाता महाबलपराक्रमाः॥१॥
वैशम्पायनजीने कहा—हे महाराज जनमेजय ! अब धृतराष्ट्रके सब पुत्र और पांडुके पांचों महा बलवान् व पराक्रमी पुत्र सोलहवर्षकी अवस्थाको प्राप्त हुए॥१॥यह सब मल्लविद्या और पिप्पलीविद्यामें रमनेलगे अर्थात् वनमें उपरोक्त विद्याओंका अभ्यास करनेलगे। फिर किसी दिन उस वनमेंही भीमसेनने सब कौरवोंको परास्त किया॥२॥ फिर किसी दिन भीमसेन अर्जुनसे बोले कि हे भइया ! आज मैंने खेल खेलमेंही सौओं कौरवोंको परास्त किया है॥३॥फिर सारे कौरवोंको वृक्षसे भूमिपर पटक दिया इस तरह कौरव और पाण्डव आपसमें वैर करनेलगे॥४॥ एक वस्तुके अभिलाषी बांधव वैरी हुए और सबकौरव महा बलवान् भीमसेनसे द्वेष (वैर) करनेलगे॥५॥ कारण कि उस वनमें भीमसेनने अकेलेही सारे कौरवोंको वटके वृक्षसे भूमिपर पटक दिया ऐसा करनेपर किसीका शिर फटगया किसीके हाथ पैर टूटगये तथा सारे अंग कट फट गये जब इस तरहसे सब कौरवोंका निरादर हुआ॥६॥
तब एक दिन कर्ण, शकुनी और सौबल इत्यादि एकान्तमें बैठकर मंत्र (सलाह) करनेलगे तब कर्ण दुर्योधनसे कहा॥ ७॥ कि इन महाबली पाण्डवोंसे अपना क्या काम है ? हे राजन् ! देखिये यह पांडुनन्दन महाबलवान् व वीर्यवान् हैं॥ ८॥ आपके पिता धृतराष्ट्रने उनकोही राज्यअंशका भागी कियाहै अब जिस किसी उपायसे उन पांडुके पुत्रोंको मारडालना चाहिये॥९॥ नहीं तो वे आपका राज्यभी छीनलेंगे इसमें सन्देह नहीं। कर्णके इसप्रकार कहनेपर राजा दुर्योधनने कहा॥१०॥ कि भीमको तो अवश्यही मारडालना उचित है इस भाँति कहकर किसी दिन विषमिश्रित मोदक (जहरीले लड्डू) तैयार किये और भोजन करानेके लिये फिर भीमसेनको बुलायागया भीमसेन उन लड्डुओंको खाकर अत्यन्त तृप्त हुए॥११॥ उनके खाजानेपर भीमसेनका शरीर शिथिल होआया औरब भीमसेनको पृथ्वीपर गिराहुआ देखकर दुर्योधनादि कौरवोंने उनको उठाय गंगाजीमें डालदिया॥१२॥ भीमसेनके गिरतेही गंगाकी भीतरी पृथ्वी फटगई और उसमें एक बडा भारीछेद होगया जिसके द्वारा भीमसेन रसातलमें जापहुँचे वहाँ जब सर्पोंने इनको विषसे पीडित देखा तो उन्होंने इनका सारा विष भक्षण करलिया और पांडुनन्दन भीमसेन जीवितहोगये॥१३॥ तब उन नागोंने भीमसेनका अतिथिसत्कार किया और पीछे इनको जलसे बाहर निकालकर (हस्तिनापुर) भेजदिया तब भीमसेन ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर आठवें दिन अपने घर आनपहुँचे॥१४॥
आगते भीमसेने तु सन्तुष्टाः सर्वपाण्डवाः।
राज्यं चक्रुर्महाभागा विष्णुभक्ता धृतव्रताः॥१५॥
अनन्तर भीमसेनके आजानेपर सब पांडव अत्यन्त संतुष्ट हुए और फिर वे व्रतधारी विष्णुभक्त महाभाग पांडव धर्मनीतिसे राज्यका पालन करनेलगे॥१५॥॥ इति श्रीभारतसारे आदिपर्वणि भाषायां नवमोऽध्यायः॥९॥
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दशमोऽध्यायः १०.
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दशमे पाण्डवावास इन्द्रप्रस्थेऽग्नितो भयम्।
हिडिंबादर्शनं जन्म भीमसून्वोर्निगद्यते॥१॥
इस दशवें अध्यायमें पाण्डवोंका इन्द्रप्रस्थमें वास, युधिष्ठिरके यशकी वृद्धि, हिंडम्बनामवाले असुरकी मृत्यु और भीमके दो पुत्रोंकी उत्पत्ति इन कथाओंका वर्णन कियाजाताहै॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
अतः परं प्रवक्ष्यामि पाण्डवानाञ्च कीर्त्तनम्।
यः शृणोति नरो भक्त्या राजसूयफलं लभेत्॥१॥
वैशम्पायनजीने कहा हे महाराज जनमेजय ! अब हम आपसे पाण्डवोंकी कथाका वर्णन करतेहैं जो आदमी भक्तिसहित इस कथाको सुनताहै उसको राजसूययज्ञका फल मिलजाता है॥१॥यह सब कौरव और पाण्डव समुद्रतक सारे भूमण्डलंके अधीश्वर हुए और इधर पांडवोंके दलमें युधिष्टिर राजा हुए॥२॥ हे महाराज ! कौरवदलके राजा दुर्योधन हुए किन्तु युधिष्ठिरके राज्य में प्रजाको वडा सुख हुआ॥३॥ युधिष्टिर अर्जुन नकुल तथा सहदेव यह चारो भ्राता धनुषधारी और भीमसेन गदाधारी हुए। इसके अतिरिक्त नकुल हयाध्यक्ष अर्थात् अश्वविद्यामें चतुर और सहदेव ज्योतिषविद्यामें निपुण हुए॥४॥ और धर्मपुत्र युधिष्ठिर सबबातोंमें चतुर हुए। और पृथ्वीका तीसरा भाग
युधिष्ठिरको देकर पृथ्वीके दो भाग आप ग्रहण पूर्वक कौरव और पाण्डव धर्मानुसार अपना अपना राज्य पालन करनेलगे। फिर हे राजन्! एक दिन मुनिश्रेष्ठदेवर्षि नारदजी॥५॥ ६॥ स्वर्गसे महाराज युधिष्ठिरके पास आकर कहनेलगे। हे पृथ्वीपते! आप दुर्योधनपर भरोसा मत कीजिये॥७॥ बुद्धिमान धर्मपुत्र युधिष्ठिर देवर्षि नारदजीके इस प्रकार वचन सुनकर अत्यन्त सावधानीसे भाइयोंसमेत हस्तिनापुरमें राज्य करनेलगे॥८॥ महाराज युधिष्ठिरके राज्यमें न कभी अकाल पडा और न कभी पाप हुआ बरन उनके शासनकालमें गायें बहुत दूधवाली और पृथ्वी बहुत अनाजवाली हुई॥९॥ भक्ष्य भोज्य सम्पन्न होनेके कारण सर्वत्र मनुष्य सुखी थे। आधि, व्याधि और वुढापे इत्यादिसे कोई आदमी दुःखी नहीं था॥१०॥ इसके पीछे पांडव और अपने पुत्रोंकी अद्भुत कलह देखकर भेदबुद्धियुक्त धृतराष्ट्रने अपने प्रधान वैरोचनसे कहा॥ ११॥ हे वैरोचन! आप इन्द्रप्रस्थपुरीको जाइये और वहां पांडवोंके निवासार्थ अद्भुत मन्दिर तैयार कराइये॥१२॥ वैशम्पायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय! इस प्रकार आज्ञापानेपर मंत्री ज्योंही बाहर निकला उसी समय उस वैरोचनको दुर्योधन मिलगये॥१३॥उसको देखकर दुर्योधनने पूछा।हे मंत्रिवर! आप कहाँको जारहेहैं ? सो कहिये। वैरोचनने उत्तर दिया कि मुझको धृतराष्ट्रने शोभायमान इन्द्रप्रस्थको भेजा है॥१४॥ मैं पांडवोंके रहनेको घरोंकी रचना करूंगा उसके यह वचन सुनकर राजा दुर्योधनने कहा॥१५॥ दुर्योधन बोला। हे मन्त्रशास्त्र विशारद महाबुद्धिमान वैरोचन! जिनको कोई आदमी भी नहीं जानसके आप इस प्रकारके घर बनाइये॥१६॥ आप इन्द्रप्रस्थमें लाक्षामय अत्यन्त विस्तृत मनोहर घर बनवाइये।उनमें
निवास करतेहुए पाण्डवोंको हम जलाडालेंगे इसमें कुछ सन्देह नहीं॥१७॥ मन्त्री वैरोचन ‘ऐसाही करूंगा’ कहकर विदुरजीके स्थानको चलागया और उनको एकान्तमें दुर्योधनकी, सारी बात कह सुनाई॥१८॥ यह हाल सुनकर महात्मा विदुर हाहाकार कर उठे और फिर अत्यन्त प्रिय वचनोंद्वारा वैरोचनसे कहा॥१९॥ कि आप लाक्षागृहके बड़े शिखरके तले (सुरंगाकार) एकछेदकरदीजिये जिसके द्वारा (आग लगनेके समय) धर्मात्मा पांडव बचकर निकलजासकें॥२०॥ ऐसा काम करनेपर क्या ब्रह्मा क्या विष्णु क्या महादेव क्या सारे देवता और क्या लक्ष्मी इत्यादि देवियाँ सब आपके प्रति सन्तुष्ट होंगे॥२१॥ अतएव आप बुद्धिमान् हैं—मेरी बात मानकर तदनुसार काम करेंगे वैरोचन मन्त्रीने उनकी (विदुरजीकी) यह बातें सुनकर॥२२॥घर बनानेकी++मनासे शीघ्र इन्द्रप्रस्थको प्रस्थान किया वहाँ पहुँचकर मंत्रीने सेवकोंद्वारा बहुत सारे घर बनवाकर तैयार करवादिये॥२३॥और फिर पांडवोंके रहनेको जो घर पहले बनायागया था वह घर लाखका निर्माण किया तथा उसके पश्चिमीभागमें दरवाजा रखकर एक पतली शिलाके चारों ओर चूना लगायकर उस दरवाजेको बन्द करदिया गया॥२४॥इस प्रकार वहाँ इन्द्रप्रस्थमें घर बनायकर वह मन्त्री फिर हस्तिनापुरमें लौटआया और सब दुर्योधनादिकोंसे कहा॥२५॥कि मैं आपकी बातको सिद्ध करके हस्तिनापुरको लौटाहूँ॥२६॥ उस वैरोचनमंत्रीकी यह बात सुनकर सब किसीने कहा कि, अब आपने सारा काम सिद्ध कर दिया उसी अवसरमें महाराज धृतराष्ट्रने पांडवोंको॥२७॥ इन्द्र प्रस्थमें भेजा और बोले कि पांडव तथा कौरवोंमें कभी झगडा नहीं होना चाहिये तब पांडव इन्द्रप्रस्थ जानेके समय
विदुरजीके घरको गये॥२८॥ तब महात्मा विदुरजीने उनको हितोपदेश किया उस हितोपदेशको (आदरपूर्वक) ग्रहण करके॥२९॥ पाण्डव मइयाके साथ शोभायमान इन्द्रप्रस्थको चलेगये वहाँ प्रजाके आदर मान करने पर सुखसे निवास करनेलगे॥३०॥ वहाँ वे पांडुनन्दन प्रतिदिन ब्राह्मणोंको भोजन करानेलगे। फिर किसी दिन महाराज युधिष्ठिरने कौरवोंको॥३१॥ भोजन करनेके निमित्त बुलाया। सो वे कौरव महाराज युधिष्ठिरके घर एकमहीने भरतक टिके रहे और जब वह बिदा होकर चले उस समय वैरोचन मंत्रीको घर जलादेनेकी आज्ञा देगये॥३२॥ कौरवोंने महाराज युधिष्ठिरकी आज्ञा पाकर हस्तिनापुरको प्रस्थान किया और नौकर चाकर अन्नदान करनेकी थकावटसे सुस्त होगये। ऐसा अवसर (मौका) देखा॥३३॥ अनन्तर अत्यन्त व्यग्रहुए देखकर वैरोचनने रातमें चारों ओरसे अग्नि लगादी उसी दिन संध्याकाल एक भिल्लिनीभी अपने पांच बेटोंको संग लिये वहाँ आन पहुँची॥३४॥
चौपाई
लाक्षा गृह तब पावक जारा। लागी++य स्वर्गसों धारा।
नगर लोग सब रोदन करहीं। पांडव बिना धीर नहिं धरहीं।
हाय युधिष्ठिर वृकोदर वीरा। हा कुन्ती लक्ष्मणा शरीरा।
हा माद्रीके++त बल धारी। नगर लोग रोदनकर भारी।
किन्तु पांडवोंने उसको घरमें जानेसे रोकदिया। इसी समयमें हे महाराज ! महात्मा विदुरजीने अपने सेवकोंको॥ ३५॥ आग लगनेका समय जानकर पांडवोंके पास भेजदिया और विदुरजीके उन दासोंने जाकर कहदिया कि पश्चिम तरफवाले शिखरके तले एक छोटासा दरवाजा शिलासे ढकरहा है आप उसीके द्वारा इस घरसे बाहर निकलजाइये॥ ३६॥ इसी
बीचमें वह घर अग्निसे जलताहुआ दिखाई दिया—किन्तु अग्नि का इतना प्रकाश होरहाथा कि उसके कारण पांडवोंको निकलनेका रास्ता नहीं दीखा॥३७॥ तब सहदेवजीसे पूछनेपर उन्होंने दरवाजा बताया किन्तु वह भिल्लिनी अपने पांचों पुत्रों समेत वहीं जलकर भस्म होगई॥३८॥ और पांडव लोग तत्काल विदुरजीके कहे और सहदेवजी के दिखाये रास्तेसे बाहर निकल गये॥३९॥ अनन्तर महाबलवान भीमसेनने वैरोचनको अपना घर फूँकतेहुए देखकर उसे उठाकर उसी अग्निमें झोंकदिया॥४०॥ इसप्रकार कार्य करके वे सब पांडव एक अद्भुत वनमें जा पहुँचे और उस वनमें उन्होंने एकचक्रानामवाली पुरीको देखा॥४१॥ अनन्तर पांडवोंने उस वनमें एक ब्राह्मणीसेघर माँगलिया और उसको अपनाही समझकर वहाँ निवास करनेलगे। फिर किसी दिन महा दुःसह बकनामवाला दैत्य॥ ४२॥ उस नगरीमें आनकर नित्य मनुष्यों को भोजन करने लगा तब नगरीके सारे आदमियोंने सलाह करके बकासुरसे निवेदन किया॥४३॥ हे असुरराज ! हम सबजने आपको भोजन करनेके लिये वारी वारीसे नित्य एक मनुष्य दिया करेंगे (आप इस तरह वस्तीको उजाड़ मत कीजिये) तब बकासुरने उनलोगोंकी यह बात सुनकर उसको मानलिया॥४४॥ तबसे हे महाराज!बकासुर प्रतिदिन एक मनुष्यका भोजलगाया करता और वारी वारी से पुरीके सारे आदमी एक मनुष्य नगरीके बाहर जाकर उस दैत्यको दिया करें॥४५॥ एक दिन उस ब्राह्मणीके पुत्रकी वारी आई कि जिसके घरमें पांडव रहा करते थे तब वह ब्राह्मणी रोतीहुई विलाप करने लगी उसके रोनेकी आवाज भीमसेनने सुनी ॥४६॥ तब भीमसेन उस ब्राह्मणीके पास गये और पूछा हे-
मइया ! तुम क्यों रोरही हो ! मुझसे उसका कारण कहसुनाओ मैं अवश्य ही तुम्हारे दुःखको नास करूंगा॥४७॥
चौपाई
तबै ब्राह्मणी कहै विचारी। मम दुख कौन सकैगो टारी॥
नाम बकासुर दैत्य जु आहै। प्रतिदिन सो मानुष वलि चाहै॥
एकचक्रनगरी ++र++रा। मानुष एक खातनितसाजा॥
वर्षपाँच महँ एक घर++परै।ताघरको नर भक्षण करै॥
एक मनुजको चहै अहारा। सो आपद है आज हमारा॥
मोल लेनकी शक्ती नाहीं। यह चरित्र होवे गृहमाहीं॥
ब्राह्मणीने उत्तर दिया। हे स्वामी ! उस बकासुरके भोजन करनेको आज मेरे पुत्रकी बारी है और फिर यह मेरा पुत्रभी इकलौताही है॥४८॥ उसकी यह बात सुनकर भीमसेनने उसके पुत्रका बचाना अंगीकार किया अनन्तर उसी ब्राह्मणीके पुत्रको खानेके लिये वह बकासुर रात्रिमें आया॥४९॥
चौपाई
दोनों हाथ दौरिकर मारा। री++ न शंका पवन कुमारा॥
वृक्ष उखारि एक पुनि++यऊ। जाय असुरके मस्तक हनेऊ॥
तबहिं बकासुर वृक्ष उखारा। महा क्रोध करि भीमहि मारा॥
तब फिर महायुद्ध दोउ ठाना। उठ्यो गर्द लोपित भय माना॥
पीठ उपारि जंघ दियो भारा। धरिग्रीवा तबभूमि पछारा॥
मुखतें रुधिर धार बहिराना। परा भूमि महँ छाँडेउ प्राना॥
मारि बकासुर भीम भुवारा। सुरन कीन्ह तबजयजयकारा॥
तब महाबलवान् भीमसेनने अनेक भाँति युद्ध करके उस असुरको मार डाला और उस दैत्यके मारे जानेपर नगरके सारे मनुष्य परम संतुष्ट हुए॥५०॥ तब सबेरा होतेही उसनगरके सब मनुष्योंने पांडवोंका पूजन किया इसके पीछे जिस स्थानमें हिडम्ब नामवाला दैत्य रहाकरता था, भीमसेन समेत सब पांडव उसके निकटवर्ती वनमेंगये॥ ५१॥ वहाँ पहुँचकर
इन्होंने रात्रिमें निवास किया फिर किसी समय भीमसेन मृगया (शिकार) के लिये गये वहाँ हिडम्बदैत्यकी कन्या हिडम्बाने जो कि झूलेमें झूलरही थी; झूलनेके लिये बलवान् व बुद्धिमान् भीमसेनको स्वीकार करलिया॥५२॥ उसी अवसरमें वहाँ हिडम्बनामक दैत्य आनकर उपस्थित हुआ जिसको भीमसेनने बाहुयुद्धकरके तत्काल यमलोक पहुँचा दिया॥५३॥
भीमेनोत्पादितौ पुत्रौ बर्बरीकघटोत्कचौ।
हिडिम्बायाञ्च तत्रैव मात्रा सह निवासितौ॥
फिर भीमसेनने (गांधर्वविवाहकी रीत्यनुसार उस हिडिंबासे विवाह किया) और बर्बरीक तथा घटोत्कच नामवाले दो पुत्र उत्पन्न किये। वे दोनों पुत्र पिताकी आज्ञानुसार अपनी मइयाकेही पास रहे॥५४॥ इति श्रीभारतसारे आदिपर्वणि भाषाया बकवधानन्तरं भीमस्यसुतोत्पत्तिर्नामदशमोऽध्यायः ॥१०॥
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एकादशोऽध्याः११.
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एकादशे मत्स्यवेधः पाञ्चाली पञ्चभर्तृा।
कुन्त्या वचनतः साभूत्स प्रसङ्ग इहोच्यते॥१॥
इस ग्यारहवें अध्याय में मत्स्यवेध अर्थात् मच्छी बींधना कुन्तीके कहनेसे द्रौपदीका पांच पति स्वीकार करना यह प्रसंग वर्णन कियाजाताहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
ततस्ते पर्वतात्सर्वे प्रस्थिताः पाण्डुनन्दनाः।
द्रुपदस्य च देशं च पञ्चालं प्रापुरादरात्॥१॥
वैशम्पायनजी बोले हे महाराज जनमेजय ! इसके पीछे युधिष्ठिरादिपाण्डुके सब पुत्रोंने उसपर्वतसे प्रस्थान किया और
आदरपूर्वक महाराज द्रुपदके पञ्चाल देशमें आनकर प्राप्त हुए॥१॥ और द्रुपदने जो वहाँ अपने कन्या द्रौपदीके विवाहार्थ मत्स्यवेध (मच्छी बींधने) की प्रतिज्ञा कररक्खीथी, उसकी बात महात्मा पांडवोंने सुनी॥२॥ अनन्तर पांडवगण उस कन्यारूपी रत्नकी अभिलाषा किये प्राप्तरीतिसे धनुष धारणपूर्वक संन्यासीका रूप बनायेहुए महाराज द्रुपकके मण्डपमें पहुँचे॥३॥ उन महाकाय और महावीर पांडवोंको वहाँके किसी राजाने नहीं पहिचाना कि यह पांडव हैं और वहाँ ++श्रेष्ट दुर्योधन इत्यादि भी सब आनकर प्राप्त हुए॥४॥ तदनन्तर कृष्ण इत्यादि सारे यादव और महाबलवान् पृथ्वीके (और भी) सब राजा उपस्थित हुए। तब फिर उस स्थानमें महाराज द्रुपदने एक जलकाकुंड बनवाया और उस कुंडके धोरेही एक वज्रसार स्तंभ खडा करवार उसपर सोनेका मत्स्य रखदिया॥५॥
चौपाई
अति विस्वारी कुंड बनाये। ते +++डाहेंबीच भराये॥
ताके तरे हुताशन लागी। जाको देखि वीरता भागी॥
गाडा++भ वज्रकर ताहा। ऊपर खंभ मच्छकर आहा॥
हीरा मीनिके नयन बनाये। ताके तरे सो चक्र श्रमाये॥
मीन नयननमें वेधहि बाना।सो++न्या पावहि परमाना॥
(तब महाराज द्रुपदने यह प्रतिज्ञा करी कि) जो मनुष्यइसमच्छलीको नीचे जलमें देखकर बाणसे बींध डालेगा। उसको अपनी कन्या व्याहदूँगा। यह सुन अनेक राजाओंने उस मत्स्यके बींधने। उद्योग किया किन्तु कोईभी सफल मनोरथ नहीं हुआ। बरन चोट खाखाकर सब पीछे हटगये और अपने अपने स्थानोंपर जा बैठे। तब महाराज द्रुपदने अत्यन्त दुःखी होकर कहा॥६॥ पद बोले ++अब क्या कियाजाय और किससे
कहाजाय?क्योंकि पांडव वो जलकर मरगये इस समय मुझको ऐसा कोई भी वीर दिखाई नहीं देता जो इस मच्छको बींधसके ?॥७॥ अर्जुनके विना सारी पृथ्वी वीरोंसे खाली होगई, अथवा अर्जुनके विना सम्पूर्ण क्षत्री कुल निर्वीर्य होगया। महाराज द्रुपदके इस प्रकार वचन सुनकर अर्जुन तत्काल सभामेंसे उठे॥८॥
चौपाई
पारथ तब भुज धनुष चढाये। अल++ पंच शर गुरुतें पाये॥
मारा बाण क्रोध तब होई। मीन ननमें बींधेड सोई॥
रोहु वेध पारथ तब कीन्हा। हर्षित इन्द्र दुन्दुभी दीन्हा॥
जय जय जय सब कहहिं पुकारा। द्रुपद सुता जयमा++डारा॥
उस काल अर्जुनको भगवान् वासुदेवके अतिरिक्त और किसी राजाने भी नहीं पहिचाना।तब सब राजाओंके देखते हुए अर्जुनने शीघ्रता सहित अपने धनुषको हाथमें लिया और उसपर बाण चढाकर क्षणभरमें उस मच्छको बींधडाला॥९॥ अनन्तर महाराज द्रुपदने अत्यन्त हर्षित होकर जिसकी सारे राजा लोग इच्छा कररहेथे ऐसी अपनी परम सुन्दर कन्या द्रौपदी अर्जुनको प्रदान करदी॥१०॥ यह सब बात देखकर (अन्यान्य) सब राजालोग गुस्सेमें भरगये और उन संन्यासियोंकी निन्दा करतेहुए उनको डराने धमकाने तथा बकवाद करनेलगे॥११॥ कि कैसे अचंभेकी बात है, जो हमलोगोंके देखते देखते इस कन्याको यह योगी लिये जातेहैं इस प्रकार कहकर वे सब राजा (अस्त्र शस्त्रोंसे सज्जित हो)बैठ खडेहुए और परस्पर कहने लगे इन योगियोंको प्रहार करके वध करडालो॥१२॥ उनकी इसतरह बात चीत सुनकर पवननन्दन भीमसेनने (महाक्रोधि होकर) एक खंभ हाथमें उठालिया और उसके द्वारा उन राजाओंको मारनेलगे तब भीमसेनके हाथसे पिटकर वे राजा दशों
दिशाओंमें भागनेलगे॥१३॥ उनमें कोई कोई तो वहीं मर गया, कोई कोई हाय ! हाय ! करनेलगा अर्थात् हाहाकार करताहुआ भागा। उस दिनसे पाण्डव अत्यन्त प्रसिद्ध होगये इसमें सन्देह नहीं॥१४॥हे जनमेजय ! इसके पीछे महाराज द्रुपदने बडी धूमधामसे अर्जुनके साथ द्रौपदीका विवाह कर दिया और पांडवोंका पूजन करके फिर उसी स्थानमें आदरपूर्वक भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीका भी पूजन किया॥१५॥ और कन्याके दहेजमें उन्होंने हाथी, घोडे, पैदल, रथ, दासी, दास, रत्न, माणिक और मोती++था बहुत सुवर्ण दिया॥१६॥ इस प्रकार विवाह कार्यके सम्पन्न होजानेपर पांडव अपने घरको चलेगये। ++न जबतक यह घर पहुँचें तबतक सहदेवजी इनसेभी जलदी घरको गये॥ १७॥ और घर जाकर धर्मात्मा सहदेवजीने अत्यन्त हर्षित मन होकर अपनी मइया (कुन्ती) से कहा हे माता ! आज हम सब भाइयोंको लक्षण सम्पन्न कोई उत्तम वस्तु मिली हैं॥१८॥ उनकी यह बात सुनकर माता कहनेलगी॥१९॥
चौपाई
माता कह्यो भलो भयोका। पाँचों बन्धु भोग++र राजा॥
पाछेअर्जुन भेद ब++ई। वि++य नाम अरु++न्या पाई॥
नि++न्ती तौरत बा++ना। +=र्म को लिखा होतनहिं आना॥
वचन हमार न मिथ्या होई। पांचों बन्धु भोग++र सोई॥
कुन्ती बोली हे पुत्रो! जो कोई भी उत्तम वस्तु प्राप्तहुई उसको तुम पाँचों भाई आपसमें बाँटकर भोग करो यह मेरी बात सुनकर इसीके अनुसार काम करो इतनेहीमें वे चारों भाईभी घर आपहुँचे॥२०॥ और माताकी यह बात सुनकर उनको बड़ाही अचंभा आया। हे महाराज ! इस तरह विवाह सम्पन्न
करके और राजा द्रुपदसे पूजित (सम्मानित) होकर॥२१॥ वे पांडव सब सेना साथले द्रोणाचार्य व भीष्म इत्यादिसे युक्त शोभायमान इन्द्रप्रस्थको चलेगये॥२२॥
यादवाः कृष्णसहिता गतास्ते द्वारकां प्रति।
गजाह्वये गताः सर्वे कौरवा भीष्मसंयुताः॥२३॥
इस ओर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकरसब यादवोंसमेत द्वारकापुरीको चलेगये और भीष्मजीके सहित सब कौरवोंने हस्तिनापुरको प्रस्थान किया॥२३॥
दोहा
गोवर्द्धन++ गोपालको, ध्यान हृदय महँ आन।
आदि पर्वको ++ति++क यह, बहुविधि कियो बखान॥
पढहिं सुनहिं जे प्रेमसौं,पावहिं सब मन काम।
जियत सर्व++पाप ++रि, अन्त जाँय सुरधाम॥
भगवतकथा विचित्र अति, पढहिं नित्यं++रि ++नेम।
चार पदारथ पावहीं, नितनव मंगल क्षेम॥
++सु चरितं आनन्दनिधि, स++सुखनके मू++।
मिश्र कन्हैयालाल आपहँ, सदा रहो अनुकूल॥
इति श्रीभारतसारे आदिपर्वणि मुरादाबादनिवासि पण्डित कन्हैयालाल मिश्रकृत भाषायां द्रौपदीविवाहो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
आदिपर्व समाप्तम्॥
श्रीहरिः।
भारतसार भाषा
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सभापर्व २.
द्वादशोऽध्यायः १२.
दोहा
विधि हरिहर पद वन्दि पुनि, शारद शीश नवाय।
सभापर्वको ++तिल ++ अब, बरनूं रुचिर बनाय॥
योगी++ जेहि ध्यावहीं, यश गावत श्रुति चार।
विघ्न नाश प्रभु ++ कीजिये, अपनी ओर निहार॥
द्वादशेपाण्डवादाहो मयदैत्यविमोचनम्।
अर्जुनेन सभा लब्धा धनुस्तदिह वर्ण्यते॥१॥
इस बारहवें अध्यायमें खाण्डववनका भस्म होना अर्जुनका मयनामवाले दैत्यको बचाना और फिर अर्जुनको सभा तथा धनुषकी प्राप्ति इन कथाओंका वर्णन कियाजायगा॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
एकस्मिन्समये राजन्कृष्णः कमललोचनः॥
पाण्डवानां हितार्थाय शक्रप्रस्थं जगाम ह॥१॥
वैशम्पायनजीने कहा—हे महाराज जनमेजय ! एक समय कमलनयन भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजी पाण्डवोंके हितकी कामनासे हस्तिनापुरको गये॥१॥ तब श्रीकृष्णचन्द्रजीको आयाहुआ देखकर पाण्डव अत्यन्त हर्षित हुए और कुन्ती, युधिष्ठिर तथा अर्जुनने उनको++तीसे लगायलिया॥२॥ उसी तरह
भीमसेनने भी श्रीकृष्णको हृदयसे लगाया । इसके पीछे नकुल सहदेवने श्रीकृष्णको प्रणाम किया और फिर भगवान् वासुदेव श्रीकृष्णनेभी अत्यन्त विनयपूर्वक धर्मराज युधिष्ठिरकी वन्दना करी॥३॥ अनन्तर श्रीकृष्ण पाण्डवोंके हितकी कामनासे कई महीने वहाँ टिके रहे। एक दिन परवीरघाती अर्जुन और श्रीकृष्ण॥४॥ जहाँ सभामें विराजमान होरहेथे वहाँ अग्निदेवता अजीर्णयुक्त शरीरसे ब्राह्मणका रूप धारण किये आनकर उपस्थित हुए॥५॥ वहाँ आय अग्निदेवताने प्रणाम किया और अत्यन्त दीनभावसे उनके सामने खड़े होगये, तथा अत्यन्त विनयपूर्वककृष्णार्जुनसे कहनेलगे॥६॥हे स्वामिन् ! महाराज मरुतने अत्यन्त विस्तार सहित यज्ञ सम्पादन किया था, और उन्होंने एक वर्ष पर्यन्त घृतकी पूर्णाहुति प्रदान की थी॥१॥ उन्होंने मुझको दिन रात हाथीकी सुंडके समान अखंड आहुतियाँ प्रदान कीथीं जिनसे मेरे (पेटमें) अजीर्ण (वदहजमी) होगईहै सो अब आप मुझको बचाइये॥८॥ अग्निदेवके इसतरह कहनेपर श्रीकृष्णने उत्तर दिया कि आपका यह अजीर्ण कैसे जायगा ? और किस प्रकार आपको सुख मिलेगा ?॥९॥ अग्निने कहा—हे विष्णो ! यदि मैं इससमय देवराज इन्द्रके खांडववनको जलाकर उसकी अनेक वनस्पतियोंको भोजन करूँ तबहीं मेरा यह अजीर्ण जातारहेगा॥१०॥ अग्निकी यह बात सुनकर श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा—हे पार्थ ! हम आप और अग्नि शीघ्रइन्द्रके खांडववनको चलें और वहाँ पहुँचकर तत्कालही अग्निको भोजन कराओ। क्योंकि खाण्डववनको भस्म करके अग्निदेवता सन्तुष्ट होंगे और इनका अजीर्ण जातारहेगा, धर्ममें तत्पर रहनेवाले सबकिसीको सबकाही उपकार करना चाहिये॥११॥१२॥इस प्रकार उनकी बात सुनकर अर्जुन
श्रीकृष्णके सहित अग्रिको साथ ले इन्द्रके सेवकोंसे रक्षित खांडववनको गये॥१३॥ तब अग्निभी वहाँजाकर उसे खांडववनको जलानेलगे। उस वनको जलताहुआ देख वहाँ रहनेवाले इन्द्रके सेवकोंने॥१४॥ इन्द्रके पास जाकर कहा कि, हे स्वामिन् ! किसीके कहनेसे अग्निदेवने आपके खांडववनको जलाडालाहै॥१५॥
दोहा
पावक वनमाँ++ गी, सुरपति क्रोध अपार।
++यकालके मेघ सब, आयउ वैर सँभार॥
चौपाई
वर्षे नीर सबै वन तहाँ। पावक जरै ++ण्डिवन जहाँ॥
अन्धकार मेघन घन ++जा। अतिही क्रोधवन्त सुररा++॥
ए++ बुन्द++ भेदतनाहीं। ह्वैनिशंक पावक वन खाहीं॥
पंशु पक्षी अरु तरुवर जेते \। पाव+++ल जराये तेते॥
जीवजन्तु सब करें पुकारा। दानव दैत्य भये जरिछारा॥
उनकी यह बात सुनकर देवराज इन्द्रने खाण्डववनमें मेघोंद्वारा वर्षा करनी प्रारंभ करदी।वह देखकर महावीर अर्जुनने बाणसमूहसे उस वनके ऊपर छप्परसा रोपदिया॥१६॥ ऐसा करनेपर हे महाराज ! शीघ्रही हुताशन (अग्नि) की रक्षा होगई अर्थात् बादलोंका पानी आगको नहीं निभासका। अनन्तर अग्निके द्वारा जलतेहुए उस वनमें अर्जुनने मयनामवाले दैत्यको मरनेसे बचाया॥१७॥ तब दानवने प्रसन्न होकर अर्जुनको एक ऐसी सभा दी जिस सभाके देखनेवाले आदमीको जल और स्थल का भ्रम होता था इसमें सन्देह नहीं॥१८॥ फिर देवराज इन्द्र अपनी सारी करतूतको व्यर्थहुआ देखकर भगवान् श्रीकृष्णजीके पैरोंमें आगिरे और कृष्ण तथा अर्जुनकी स्तुति करके स्वर्गको चलेगये॥१९॥ तबअग्निने अर्जुनको एक गांडीव धनुष और एक अक्षय तरकस (जिसके बाण कभी खाली न हों) समर्पण
किया और फिर श्रीकृष्णार्जुनकी आज्ञा मिलनेपर वेभी प्रसन्न हो स्वर्गको सिधारगये॥२०॥ अनन्तर अर्जुनभी श्रीकृष्णके सहित उस सभाको लेकर- शीघ्रही इन्द्रप्रस्थको लौट आये और वहाँ आनकर कचहरीके धोरे उस सभाको स्थापित करदिया॥२१॥ फिर धर्मराज युधिष्ठिरकी आज्ञा मिलनेपर भगवान् श्रीकृष्णभी द्वारका जानेको तैयार हुए उस काल अर्जुनसे कृष्णने कहा॥२२॥हे अर्जुन! आप यती (संन्यासी) का रूप बनाकर (द्वारकानगरीमें) सुभद्राको हरनेके लिये आना और समय देखकर रथमें बैठीहुई सुभद्राको हरलेना॥२३॥
वैशम्पायन उवाच।
इति कृष्णमतिं ज्ञात्वा ह्यर्जुनेन तथा कृतम्॥२४॥
वैशम्पायनजी बोले हे महाराज जनमेजय!भगवान् श्रीकृष्णकी ऐसी मति (सलाह) जानकर अर्जुन वैसाही काम किया॥२४॥ इति श्रीभारतसारे सभापर्वणि भाषायां सुभद्राहरणं नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥
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त्रयोदशोऽध्यायः १३.
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त्रयोदशे पाण्डवानां राजसूये महोदयः॥
योगिन्याः सहदेवस्य संग्रामोऽभूत्सथ्यते॥१॥
इस तेरहवें अध्यायमें पांडवोंके राजसुययज्ञका परम उछाह और सहदेव व योगिनीका संग्राम इतनी कथा वर्णन की जायगी॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
एकदा नारदो लोकान्पर्यटन्मुनिसत्तमः॥
युधिष्ठिरं समागत्य वचनं चेदमब्रवीत्॥१॥
वैशम्पायनजी बोले कि, हे महाराज जनमेजय ! एक समय मुनिश्रेष्ठ देवर्षि श्रीनारदजी लोकोमें विचरतेहुए महाराज युधिष्ठिरके निकट आकर इस प्रकार कहनेलगे॥१॥ नारदजी बोले हे महाराज युधिष्टिर ! आपके पिता कुकर्मके फलसे अर्थात् कर्णमाल नामक ब्राह्मणका वध करनेके कारण उसके पापसे नरकमें पड़ेहुए हैं॥२॥ युधिष्ठिर बोले हे देव ! जब कि मेरे पिता नरकमें गयेहैं तब मेरे जीवित रहनेसे क्या फल है?अत एव जिस किसी उपायसे हो पिताको नरकसे छुड़ाना चाहिये॥३॥हे ब्राह्मणोत्तम ! आप शीघ्रही उसका उपाय बताइये मैं उसको निसन्देह करूँगा। नारदजी ने उत्तर दिया। हे महाराज ! आप राजसूय नामवाले महायज्ञका अनुष्टान कीजिये उसके पुण्य प्रताप द्वारा आप अपने पिताको नरकसे निकाल सकेंगे॥४॥ युधिष्ठिरने कहा। हे महामुनि ! वह राजसूय यज्ञ किसविधिसे करना चाहिये ?तथा हे मुनीश्वर ! उसमें किस देवताकी पूजा करनी पडतीहै ? सोभी बतादीजिये॥५॥ नारदजीने उत्तर दिया। हे महाराज! इसयज्ञमें अठासीहजार उत्तमोत्तम ब्राह्मणोंको बुलाना चाहिये और मंडप बनाकर समें सारे राजाओंको बुलायकर बैठालदेना चाहिये॥६॥हे राजन् ! बारहयोजन अर्थात् अडतालीस कोशतक लंबा चौंडा सुन्दर मंडप रसातल (पाताल) में विद्य मान है॥७॥ और द्रव्य लंकामें विद्यमान है, भगवान् श्रीकृष्ण चन्द्रजी द्वारका पुरीमें स्थित हैं और राजा लोग जरासन्धके घर कारागार (जेल खाने) में बन्द् होरहेहैं॥८॥ यदि यह सब पदार्थ आजाँय और इस के पीछेकामधेनुगाय आनकर उपस्थित होजावे तब आपका राजसूययज्ञ होसकताहै देवर्षि नारदजीकी ऐसी बातोंको सुनकर पांडवोंने विचार किया ॥९॥ कि इस विषयमें क्या करना चाहिये ? क्योंकि काम
बहुत ही भारी है॥१०॥ अर्जुनने कहा कि लंकापुरीमें जाकर कांचन तो मैं ले आऊँगा। नकुलने कहा (पातालमें जाकर) मंडप मैं ले आऊँगा॥११॥ सहदेवने कहा कृष्णको लेनेके निमित्त (द्वारकापुरीको) मैं चलाजाऊँगा तब भीमने कहा हे राजेन्द्र ! जिसके बंधन (जेलखाने) में राजालोग पडेहुएहैं॥१२॥ मैं उस जरासन्धको मारकर सब राजाओंको बंधनसे छुडालाऊंगा॥१३॥ अनन्तर धर्मराज युधिष्ठिरने कहा मैं अपने सत्यसे केवल स्मरण करतेही यहाँ कामधेनुको बुलालूंगा। किन्तु सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीको यहाँ लेआकर पीछे कार्यारंभ करनेसे काम ठीक होगा॥१४॥ अनन्तर ज्योतिर्विद अर्थात् ज्योतिषविद्याके जाननेवाले सहदेवजीने अतिभव्य (उत्तम) मुहर्त्तमें चौदशके दिन पश्चिमदिशास्थित द्वारकापुरीके लिये प्रस्थान किया॥१५॥ परन्तु छठ और चौदशके दिन पश्चिम दिशामें रुद्राणी नामवाली दारुण योगिनी रहाकरतीहै वह सामने आई॥१६॥ उसका मुख काला आँखें लाल लाल और हाथमें उत्तम त्रिशूल लियेहुए वह योगिनी सहदेवजीको देखकर बोली तुम कहाँ जातेहो ? सो मुझे बताओ ॥१७॥ सहदेवजीने उत्तर दिया हे पापरहिते ! मुझको राजसूययज्ञका कार्य उपस्थित है इसलिये मैं श्रीकृष्णके लेआनेको द्वारकापुरीमें जारहाहूँ॥ १८॥ योगिनी बोली हे महावीर!मैं इस दिशामें आगे स्थित होरहीहूँ अत एव यदि आप आगे जानाही चाहतेहैं तो मेरे संग युद्ध कीजिये॥१९॥ सहदेवने उत्तर दिया कि हे योगिनी ! मैं पुरुष और तू अबला है फिर मेरा तेरा युद्ध कैसे होसकताहै ? सो बता, योगिनीने कहा हे राजन् ! जिसप्रकार पूर्वकालमें भवानी कालिका और शुंभ दैत्यका युद्ध हुआथा॥२०॥ उसी तरह मेरी आपकी लडाई होगी
इसमें सन्देह नहीं इस प्रकार कहकर वे दोनों जने आपसमें संग्राम करनेलगे॥२१॥ अनन्तर वीरवर सहदेवजीने लडते लडते अर्द्ध चन्द्र बाणके द्वारा उसका वस्त्रकाट डाला जिससे वह योगिनी वस्त्रहीन (नंगी) होगयी यह देखकर सहदेवने युद्धको रोकदिया॥२२॥ योगिनीने कहा । हे वीर ! आप मेरे साथ संग्राम करनेको समर्थ हो (तब फिर पीछे क्यों हटते हो?) सहदेवजीने उत्तर दिया हे योगिनी ! जो लोग नंगी स्त्रीको देखतेहैं उनको नरकमें जाना पडताहै॥२३॥ इसी पापके डरसे मैंने युद्धको त्याग दियाहै अब तुम नया वस्त्र पहरलो तो फिर युद्ध करना आरंभ करदिया जायगा॥२४॥ (अनन्तर दूसरी बार युद्ध आरंभ होनेपर) उस योगिनीके शरीरसे पृथ्वीपर जितनी रक्तकी बूंदे गिरीं उतनेही उस देवीके समान बल व पराक्रमवाले रूप उत्पन्न होगये॥२५॥ उस समय देवी बोली । हे महावीर ! अब आप मेरेयुद्धका संचय देखिये और इस धरातलपर नग्नरूप विना कोई भी क्या देखताहै ?॥२६॥ आप सत्य शूर और दृढव्रत हैं क्योंकि पराई स्त्रीको बहनकी समान मानतेहैं अतएव मैं आप पर प्रसन्न हुईहूँ जो आपके मनको अच्छा लगे मुझसे वही वर माँगलीजिये॥२७॥ सहदेवजीने कहा हे देवि ! यदि आप (सत्यही) मेरे ऊपर सन्तुष्ट होगई हैं तो मुझको ऐसा उत्तम वर दीजिये जिससे मैं पृथ्वीतलपर बहुतसे रूप धारण करनेको समर्थ हूँ॥२८॥ सहदेवजी के ऐसा कहनेपर देवीने तथास्तु कहा अर्थात् उनकी इच्छानुसार वर देकर देवीने अपने स्थानको प्रस्थान किया और सहदेवजी द्वारकानगरीको चलेगये॥२९॥ वहाँ सहदेवजीने राजड्योढीपर उपस्थित होकर विजय नामवाले द्वारपालसे कहा कि आप भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराजसे जाकर यह निवेदन कीजिये कि हस्तिनापुरसे सहदेव आया
है॥३०॥ यह सुन द्वारपालने श्रीकृष्णसे जाकर सारा समाचार निवेदन किया तबकृष्णने द्वारपालको आज्ञा दी कि हे द्वारपाल ! तुम जाकर सहदेवजीसे पूछो कि ‘आप किसकामके लिये आये है?’॥३३॥ तबउस द्वारपालने सहदेवजीसे जाकर पूछा कि ‘हे वीर ! आप किस कार्यके उपस्थित होनेपर यहाँ आये ?’ सहदेवजीने तत्काल उत्तर दिया कि मैं युद्धके निमित्त आयाहूँ॥३२॥ सहदेवजीके ऐसा कहनेपर द्वारपालने श्रीकृष्णसे जाकर सारा हाल ज्योंका त्यों कहसुनाया। तबश्रीकृष्णजीकी आज्ञानुसार छप्पन करोड यादव युद्धके निमित्त रणस्थलमें जानेको तैयार होगये और सहदेवजीके साथ उनका संग्राम होनेलगा। उस काल सहदेवजीकेशरीर उन यादवोंसेभी अधिक होगये॥३३॥ अनन्तर सहदेव और यादवोंमें महा तुमुल (घोर) युद्ध उपस्थित हुआ जिसमें बहुत यादव घायल हुए बहुतसे यमसदनको सिधारे और बहुतसे (जान बचाकर)भाग निकले॥३४॥ तबस्वयं भगवान् श्रीकृष्णने आनकर कहा हे—नरशार्दूल! मैं युद्धमें आपके सुन्दर पराक्रमसे बहुतही सन्तुष्ट हुआहूँ अतएव (आप अपनी इच्छानुसार) वर माँगलीजिये॥३५॥ सहदेवजी बोले हे प्रभो ! मैं आपके प्रति दो वार संतुष्ट (प्रसन्न) हुआहूँ इस कारण आप मुझसे दो वर माँगलीजिये। सहदेवजीकी यह बात सुनकर श्रीकृष्ण कहनेलगे॥३६॥ श्रीकृष्णने कहा हेमहावीर ! अब आप यादवोंके संग युद्ध न कीजिये (और दूसरा वर यह माँगताहूँ कि) आप विना पूछे किसीसे भी ज्योतिषशास्त्र न कहिये॥३७॥ फिर सहदेवजीने कहा हे देव ! यदि आप मेरे प्रति सन्तुष्ट हुएहैंतो मुझको एकही वर दीजिये ! हम युधिष्ठिरादि पाँच भ्राता हैं॥३८॥ तिनमें यदि एक भी भइया मृत्युको प्राप्त होजावे तो आपको भी मरजाना उचित है
और हम लोगोंके दुःख उपस्थित होनेपर आपको हमारी सहायता करनी चाहिये॥३९॥ तब श्रीकृष्णने ‘ऐसाही होगा’ कहकर सहदेवजीको प्रसन्न किया और फिर सहदेव तथा श्रीकृष्ण दोनों हस्तिनापुरमें आनकर उपस्थित होगये॥ ४०॥ उसकाल सब पाण्डव आनन्दित होकर आपसमें एक दूसरेसे मिले। फिर यज्ञका सारा सामान लक्ष्मीकान्त भगवान् श्रीकृष्णको दिखाकर (युधिष्ठिरने) कहा कि॥४१॥
तद्वैयज्ञकर्म करिष्यामस्त्वत्प्रसादाच्च माधव॥४२॥
हे माधव ! (हमलोग) आपके प्रसादसे यज्ञकार्यको आरंभ करतेहैं॥४२॥ इति श्रीभारतसारे सभापर्वणि भाषायां कृष्णहस्तिनापुरप्रवेशो नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥
_________________________
चतुर्दशोऽध्यायः १४.
चतुर्दशे मरुत्सूनोः समरो विजयस्य च।
धनप्राप्तिर्जरासंधो हतस्तदिह कथ्यते॥१॥
इस चौदहवें अध्यायमें पवनकुमार श्रीहनुमान व अर्जुनका संग्राम होना, धनकी प्राप्ति और जरासन्धका मारा जाना यह कथा वर्णन करी जातीहैं॥१॥
जनमेजय उवाच।
कृष्णेन विं कृतं कार्यं धर्मपुत्रेण किं कृतम्।
नकुलार्जुनयोः कर्म राजसूये महाध्वरे॥१॥
महाराज जनमेजयने पूछा। हे मुनिवर ! इस राजसूय नामवाले बडे भारी यज्ञमें श्रीकृष्ण धर्मपुत्र युधिष्ठिर नकुल और अर्जुन इत्यादिने कौन कौनसा काम किया ? सो आप वर्णन कीजिये॥१॥ वैशम्पायनजीने कहा, हे जनमेजय !श्रीकृष्ण
और अर्जुन तो यज्ञके लिये धन लेनेको लंकापुरीमें गये और वे दोनों जने समुद्रके सुन्दर किनारेपर पहुँचे॥२॥ वहाँ अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्णजीकी आज्ञानुसार हनुमानजीको जीतनेके निमित्त लंकापर्यन्त बाणोंका पुलसा बाँधदिया। सकाल पर्वताकार रूप धारण करके आकाशमें उडतेहुए हनुमानजी उस पुलपर आगिरे॥३॥किन्तु हनुमानजीके गिरनेपर भी वह पुल नहीं टूटा क्योंकि जिस समय हनुमानजी गिरे तब श्रीकृष्णने चारसौ कोस पर्यन्त फैला हुआ दूसरा कमठरूप धारण करके जलके भीतर प्रवेशपूर्वक उस पुलको अपनी पीठपर रखलिया॥४॥इस प्रकारसे छल कपट करके उन्होंने कपिराज हनुमानजीको जीतलिया तबसे महाबलवान् हनुमानजी॥५॥ संग्रामके बीच सदैव अर्जुनके ध्वजापर स्थितहुए। इसके पीछे श्रीकृष्ण और अर्जुनको हनुमानजीने लंकापुरीमें पहुँचादिया॥६॥ और वहाँसे (इच्छानुसार) धन लेकर कृष्णार्जुन हस्तिनापुरमें लौटआये। तब धर्मपुत्र युधिष्ठिर अत्यन्त सन्तुष्ट होकर श्रीकृष्णसे कहनेलगे॥७॥ कि हे स्वामिन् ! अब आप इस राजसूययज्ञके सम्बन्धमें हमको आज्ञा प्रदान कीजिये।श्रीकृष्णने युधिष्ठिरकी यह बात सुनकर उत्तर दिया हे महाराज ! प्रथम तो भूमण्डलके सबराजाओंको जीतकर अपने वशमें करलीजिये और फिर सारा सामान इकट्ठा करलेनेपर इस महायज्ञका आरंभ करदीजिये॥८॥ भगवान् श्रीहरिकी यह बात सुनकर धर्मपुत्र युधिष्ठिर अत्यन्त प्रसन्न हुए और पीछे विष्णुतेजसे वर्द्धित अपने सब भाइयोंको दिग्विजय करनेकी आज्ञा प्रदान की॥९॥ सृंजयदेशीय क्षत्रियोंकी सेना सहित सहदेवजीको दक्षिण दिशामें चलेजानेकी आज्ञा दी। मत्स्यदेशीय क्षत्रियोंकी सेना सहित न लको पश्चिम दिशामें और केकयदेशकी सेना साथ
लेकर सव्यसाची (अर्जुन) को उत्तर दिशामें चलेजानेकी आज्ञा दी, और मद्रदेशीय क्षत्रियोंकी सेनाके साथ भीमसेनको पूर्वदिशामें जानेकी आज्ञाप्रदान करी। इन चारोंको भगवान् श्रीकृष्णने स्नेहदृष्टिसे प्रसन्न करके भेजा॥१०॥११॥ इन चारों भाइयोंने शीघ्रही बडे बडे वीर व बलवान् सारे राजाओंको जीतलिया और उनसे धन लाकर युधिष्ठिरको दिया॥१२॥ किन्तु एक मात्र राजा जरासन्धको अजेय सुनकर उसके जीतनेके उपायकी चिन्ता हुई। अनन्तर श्रीकृष्णने सोचा कि प्रथम उद्धवजीने जो उपाय बताया था इस समय वही ठीक जँचताहै॥१३॥ हे तात जनमेजय ! इस भाँति सोच विचार कर भीम अर्जुन तथा श्रीकृष्ण इन तीनों जनोंने ब्राह्मणका रूप धारण किया और फिर जिस गिरिव्रजमें राजा बृहद्रथका बेटा जरासन्ध निवास करता था वहाँ जा पहुँचे॥१४॥ और जिस समय गृहस्थ पुरुषोंके घर अतिथि आयाकरतेहैं उस दुपहरके समय ब्राह्मणवेषधारी इन तीनों राजाओंने ब्राह्मणभक्त जरासन्धके समीप पहुँचकर याचना करी॥१५॥ हे महाराज ! हम अतिथि कुछ माँगनेकी इच्छासे आपके घर आनकर उपस्थित हुएहैं ऐसा समझकर हम आपसे जिस वस्तुकी प्रार्थना करें सो प्रदान करदीजिये ऐसा करनेपर आपका मंगल होगा॥१६॥हे महाशय ! देखिये, पूर्वकालमें सत्यवादी महाराज हरिश्चन्द्र, रंतिदेव, उञ्छवृत्तिवाले शिबि और बलि, व्याध, कपोत इत्यादि अनेक दाता पुरुष इस पलभरमें नाश होनेवाले देहसे दानरूपी कीर्त्ति करके इस समयपर्यन्त स्थिर होरहेहैं इसमें सन्देह नहीं॥१७॥ भगवान् श्रीकृष्णके इस प्रकार कहनेपर राजा जरासंधने जब इनके स्वर स्वरूप और धनुषकी त्यंचासे चिह्नित हाथोंका पहुँचा देखा तब इन लक्षणोंसे उन तीनोंको क्षत्रीय निश्चयकरके मनमें सोचा कि मैं
कहीं इनको पहले देखचुका हूँ॥१८॥ यह निःसन्देह क्षत्रिय है ब्राह्मणोंका वैषबनाये घूमते फिरतेहैं इसलिये यदि यह मुझसे दुस्त्यज आत्माभी माँगेंगे तो मैं इनको अवश्य प्रदान करूँगा॥१९॥ उदारबुद्धि राजा जरासन्धने इस तरह (मनमें विचार कर) कृष्ण अर्जुन और भीमसेनसे कहा हे ब्राह्मणों ! अबआप अपनी कामना बताइये, यदि आप मेरा शिर भी माँगेंगे तो दे दूंगा इसमें सन्देह नहीं करना॥२०॥भगवान् श्रीकृष्ण बोले हे राजेन्द्र ! यदि आप देनेकी प्रतिज्ञा करतेहैं तो हमको द्वन्द्वयुद्ध प्रदान कीजिये क्योंकि हमलोग युद्धकी कामनासे ही आपके पास आयेहैं अन्नकी इच्छा हमें नहीं है ॥२१॥ और अब आप यहभी जानलीजिये कि यह तो कुन्तीके पुत्र भीमसेन हैं, तथा यह इनके भ्राता अर्जुन हैं और इनके मामाका बेटा तथा आपका वैरी मैं श्रीकृष्ण हूँ॥२२॥ यह जानकर जरासन्ध बडे जोरसे ठट्ठामारकर हँसा। जरासन्ध बोला हे कृष्ण ! अर्जुन तो मेरी बराबरीका वीर नहीं हैं और आप मेरे सामनेसे भागही चुकेहैं, हाँ भीमसेनसे अवश्य युद्ध करूँगा इसमें सन्देह नहीं॥२३॥ यह कहकर जरासंधने भीमसेनको एक महती (बडीभारी) गदा दी और फिर आप भी एक गदा लेकर नगरके बाहर निकला॥२४॥ अनन्तर यह रणदुर्मद दोनों वीर एक बहुत अच्छी समतल (बराबर) भूमिमें जाकर युद्ध करनेके लिये उठकर खडे होगये और उन वज्रसरीखी गदाओंसे आपसमें एक दूसरेको मारनेलगे ॥ २५॥ उस काल यह दोनों जने रणभूमिमें नटोंकी तरह दाहिने बाँये इत्यादि अद्भुत मण्डलोंसे अर्थात् भाँति भाँतिके दाव घातसे लड़तेहुए शोभायमान दिखाई देनेलगे॥२६॥ हे महाराज ! जिस प्रकार दो हाथी दाँतोंसे लडा करतेहैं उसी
प्रकार उनके देहोंपर गदाप्रहार होनेपर वज्रपातकी समान चट चट शब्द होनेलगा॥२७॥ हे महाराज ! इस तरह संग्राम करतेहुए उनको सत्ताईस दिन बीतगये किन्तु रात्रिकालमें दोनों जने द्तृदकी समान वर्ताव करते थे अर्थात् एकत्र खान पान और शयन करते थे॥२८॥ फिर किसी दिनरातमें भीमसेनने अपने मामाके पुत्र श्रीकृष्णसे कहा हे माधव ! मैं युद्धमें जरासंधको नहीं जीतसकूंगा॥२९॥ यह सुनकर श्रीकृष्णने भीमसेनको ढारस दिया फिर जिस समय अट्ठाइसवें दिन युद्धारंभ हुआ तब भगवान्ने अपनी प्रखर बुद्धिसे भीमसेनको वैरीके मारडालनेका सरल उपाय॥३०॥ दिखाया अर्थात् अपने कानपर दँतोनकी लकडीको चीरकर दोतरफ वगेलदिया। तब प्रहार करनेवालोंमें चतुर महाबली भीमसेनने श्रीकृष्णका इशारा समझ॥३१॥ वैरीके दोनों पैर पकडलिये और फिर उसको भूमिपर डालकर एक पैरको अपने दोनों पैरोंसे दाब लिया और दूसरे पैरको अपने दोनों हाथोंसे पकड कर॥३२॥ गुदासे आरंभकरके मस्तक पर्यन्त जिस प्रकार बहुत बड़ा मतवाला हाथी पेडके पद्देको तोडकर भूमिपर डालदेताहै उसी तरह जरासन्धको चीरकर उसके दोनों टुकडे दो तरफ फेंकदिये, एक एक भागमें इतने चिह्नथे कि एकचरण, उरू, वृषण, आधी कमर, आधी पीठ, एक स्तन, कंधा॥३३॥ बाहु, नेत्र, भौंह और कान इन चिह्नोंसे युक्त दोनों भागको प्रजाने देखा इसभाँति जरासन्धको तीनवार भीमसेनने विदीर्ण करके फेंका किन्तु तथापि जब दोनों टुकडे उछलकर फिर जुडगये॥३४॥ तब भगवान् श्रीकृष्णने यह यत्न किया कि अपने दँतोंनको प्रथम चीरा और फिर उसके दोनों टुकडे दो तरफ बगेलकर उसके मध्यमें रेतमयी श्रीमहादेवजीकी मूर्ति स्थापन करी।
अनन्तर भीमसेननेभी उसी प्रकार जब जरासन्धके दो टूककरके बीचमें रेतीली रुद्र मूर्त्तिको स्थापित किया तब राजा जरासन्ध मृत्युके वशीभूत हुआ॥३५॥ उस काल मगधेश्वर जरासन्धके मरनेपर बडाही हाहाकार मचगया और तब श्रीकृष्ण व अर्जुन दोनों जनोंने मिलकर भीमसेनकी बहुत बडाई करी॥३६॥ और फिर जरासन्धने अपने यहाँ जिन राजाओंको बन्दी (कैद) कर रक्खाथा उन सबको छुडाया। इन वीस हजार आठसौ राजाओंको जरासन्धने आसानीसे ही युद्धमें जीतकर बँदीकर लियाथा॥३७॥ कैद भुगतनेके कारण वसब राजाओंके शरीर व कपडे बहुत मैले होरहेथे, वे सब पहाडकी गुफासे निकल निकलकर अपने अपने घरोंको चलेगये और राजसूययज्ञमें आनेके लिये उन सबको न्योता दियागया॥३८॥
ततो हत्वा जरासन्धं भीमपार्थजनार्दनाः॥
युधिष्ठिरस्य यज्ञार्थमिन्द्रप्रस्थं समाययुः॥१॥
अनन्तर जरासन्धके मरनेपर भीम, अर्जुन और जनार्दन श्रीकृष्ण महाराज युधिष्ठिरका यज्ञ सम्पन्न करनेके निमित्त इन्द्रप्रस्थमें आनकर प्राप्तहुए॥३९॥ इति श्रीभारतसारे सभापर्वणि भाषायां चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥
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पंचदशोऽध्यायः १५.
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पञ्चदशे माद्रेयेण प्राप्तं मण्डपमुत्तमम्।
शिशुपालस्य पञ्चत्वं राजसूये निगद्यते॥१॥
इस पन्द्रहवें अध्यायमें नकुलको पातालसे मण्डपकी प्राप्ति और राजसूयके बीचमें शिशुपालके मारेजानेकी कथा वर्णन करीजातीहै॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
ततः कृष्णोऽथ नकुलो नागलोकं गतौ तदा।
दृष्ट्वा नागाननेकांश्च कृतः+++हलो म++न्॥१॥
वैशम्पायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय ! इसके पीछे भगवान् श्रीकृष्ण और नकुल नागलोकमें पहुँचे और वहाँ इन्होंने अनन्त नागोंको देखकर बडाही कोलाहल (शोर) मचाया॥१॥ अनन्तर नागोंने हलाहल विष छोडा जो कि चराचरमें व्याप्त होगया तब माद्रीके पुत्र नकुलने श्रीकृष्णकी आज्ञानुसार मध्वा अर्थात् सहतका अ++चलाया॥२॥और इसके पीछे पिपीलिकास्त्र चलाया जिससे सारे नाग भय भीत हो घबरागये तब उन नागोंने भगवान् श्रीकृष्णको देखकर प्रणामपूर्वक मण्डप प्रदान करदिया॥३॥ उस मण्डप पर कंचनके कमल जडरहेथे तब उस अनेक द्रव्योंसे सुन्दर मण्डपको लेकर श्रीकृष्ण और नकुल प्रसन्नतासहित हस्तिनापुरमें चलेआये॥४॥ उस उत्तम मण्डपको देखकर धर्मपुत्र महाराज युधिष्ठिर परमानन्दित हुए और फिर उन्होंने कामधेनुगायको स्मरण किया॥५॥ तब धर्मराज युधिष्ठिरके सत्यसे तत्काल कामधेनु आनकर उपस्थित हुई। वह कामधेनु मनुष्य जिस जिस वस्तुकी कामना करे उसी उसी वस्तुको देनेवालीथी॥६॥ तदनन्तर अत्यन्त उत्सव शान्ति मंगल और यज्ञीय सारे कर्म विधानानुसार सम्पन्न करके महाराज युधिष्ठिरने इन्द्र स्थमें राजसूय नामक महायज्ञका आरंभ करदिया॥७॥ उस स्थानमें (युधिष्टिरके बुलानेपर) अठासीहजार ऋषि आनकर विराज मान हुए। तब महाराज युधिष्ठिरने यज्ञके हूर्त्तमें भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञानुसार ऋत्त्विज ब्रह्मवादी ब्राह्मणोंको वरण किया। वेदव्यासजी, भरद्वाजजी, सुमन्तुजी, गौतमजी, असितजी॥८॥९॥
वशिष्ठजी, च्यवनजी, कण्वजी, मैत्रेयजी, कश्यपजी, अच्युत, विश्वामित्रजी, वामदेवजी, सुमन्तुजी, जैमिनिजी,++क्र++जी, पैलजी, पराशरजी, गर्गजी और मैं (वैशम्पायन)॥१०॥ अथर्वजी, खल्वजी, धौम्यजी, परशुरामजी आ++रिजी, वीतिहोत्रजी, मधुच्छन्दजी, वीररामजी, अकृतव्रण॥११॥ इनके अतिरिक्त महाराज युधिष्ठिरके बुलाये हुए द्रोणाचार्य, भीष्म और कृपाचार्य इत्यादि सब कोई आनकर प्राप्तहुए। अपने पुत्रोंसमेत धृतराष्ट्र और महाबुद्धिमान् विदुरजीभी आनकर उपस्थित होगये॥१२॥ इनको छोड़कर हे जनमेजय !औरभी यज्ञका दर्शन करनेके निमित्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, राजा, रानी तथा प्रजा आनकर उपस्थित हुई॥१३॥ तब ब्राह्मणोंने देवताओंकी पूजाके लिये सुवर्णके हलसे भूमिको पवित्र करके महाराज युधिष्ठिरको यज्ञदीक्षामें दीक्षित किया॥१४॥ तदनन्तरं ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर तथा इन्द्रादि लोकपाल व अपने गणों समेत सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर और नाग आये॥१५॥ फिर मुनि, यक्ष, पक्षी, किन्नर और चारणगणभी पांडुपुत्र महाराज युधिष्ठिरके राजसूययज्ञमें आनकर प्राप्तहुए॥१६॥ तब महाभाग धर्मपुत्र युधिष्ठिरने अमृत अभिषेचनके समय यज्ञकरानेवाले सभापति ब्राह्मणोंकी यथायोग्य पूजा करी॥१७॥ फिर उन्होंने सब किसीसे क्षत्रियोंके पूजनके विषयमें पूछा कि—
चौपाई
पहिले पूंजा काकी कीजे। अक्षत ति++क कौनको दीजे ?
कौन बडो देवनको ईश। ताहि पूज हम नावें शीश॥
क्षत्रियोंमें प्रथम किसकी पूजा करनी उचित है ? सो बताओ। महाराज युधिष्ठिरके ऐसा पूछनेपर सहदेवजीने उत्तर दिया कि हे महाराज ! प्रथम पूजा करनेके लिये भक्तोंके पति अच्युत भगवान श्रीकृष्णही श्रेष्ठ हैं अतएव आप इनकी ही पूजा कीजिये ॥१८॥ क्योंकि एकमात्र इनकी पूजा होजानेपर ही सब देवता
और संपूर्ण ब्रह्माण्ड (संसार) की पूजा होजायगी। यह सुनकर महाराज युधिष्ठिरने उसी मण्डपमें भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा करी॥१९॥ इस प्रकार श्रीकृष्णको पूजित होताहुआ देखकर सारे राजाओंने हाथ जोडकर ‘नमो नमः’ तथा ‘जय ! जय ?’ इत्यादि मांगलिक शब्दोंद्वारा उनको नमस्कार किया और फिर उनपर फूल वरसाये॥२०॥ फिर सबसे पहिले भगवान् श्रीकृष्णको पुजताहुआ देख पुराना वैरी भगवान्का अपराधी शिशुपाल मृत्यु निकट आजानेके कारण श्रीकृष्णको कुवाच्य कहनेलगा अर्थात् गालियाँ देनेलगा॥२१॥ शिशुपाल बोला—
चौपाई
लखि शिशुपाल क्रोध अति कीना। चर्म कृपाण हाथ गहि लीना॥
गरजि जलद इव गिरा गंभीरा। कहेउ नीच सुनु रे यदुवीरा॥
नहिं जानत निजजाति प्रभावा। सकल सभामें शीश पुजावा॥
रे शठ निपट जातिकर हीना। नाम नगर ते भयो कुलीना॥
सनकादिक ऋषि वृन्दन आगे। रञ्चक कान न कीन अभागे॥
हम बैठे सब विपुल भुवारा। ज्येष्ठ बन्धु कल्हँलघु करि डारा॥
बड आश्चर्य द्विजनके आगे। चरण अल्हीर धवावन लागे॥
प्रथम ग्वाल गृह प्रकट अभागा। पुनि यदुवंश कहावनलागा॥
भयो वर्ण संकर जग जाना।सबकर मूढ करत अपमाना॥
सुनि कटुवचन उठे यदुवंशी। राखहि उद्धव आदि प्रशंशी॥
पारथ भीम आदि सबयोधा। कहत न कछुक जरत उर क्रोधा॥
दोहा
निजमन्दिर लखि आगमन, कछु न कहत तेहि पास।
सोच विवश नृपधर्मसुत, लखि नँदनन्द उदास॥
यह कृष्ण, जो कि वर्णाश्रमसे वहिष्कृत (रहित) समस्त धर्मोंका त्याग करनेवालाचोरवृत्तिवाला और निर्गुणी है, किस प्रकार सबसे पहले पूजाजानेके लायक है ?॥२२॥ यह पापी,दुराचारी, मामाका वध करडालनेवाला, गोपाल, कभी और
मूढ गायोंका चरानेवाला कृष्ण किसप्रकार सबसे पहले पूजा जानेके लायक है ?॥२३॥तब भगवान् श्रीकृष्णने उस यज्ञमण्डपमें शिशुपालकेमुखसे निकलेहुए इसप्रकार (एकसौ) वचन सुन महाक्रोधित हो उसपर सुदर्शन चक्र छोडा॥२४॥
चौपाई
उनशिशुपाल प्रचारत आवा। बारबार हरि चक्र फिरावा॥
पाणि सुदर्शन वेष कराला। डरत न++टुक कहत शिशुपाला॥
प्रलयका ++जिमि शंकरकेरे। तेहि प्रकार हरि नयन तरेरे॥
त्यागेउ हार बहु वार++माई। करत रमापति शंभु दुहाई॥
रवि सम तपत सुदर्शन धाये। दनुजन देखि महाभय पाये॥
दोहा
ताके कंठ सुदर्शन, धूमेउवार हजार।
शीश काटि प्रभुरुख निरखि, गयो विष्णु आगार॥
उस सुदर्शनने तत्कालही शिशुपालका शिर काटकर पृथ्वीपर डाल दिया मरनेके समय उसके शरीरसे एक तेज निकला जो कि भगवान् श्रीकृष्णके मुखमें प्रवेश करगया॥२५॥
तस्मिन्पापेहते चैद्येसाधु साध्विति वादिनः॥
सदःस्थिताश्चये लोकाः स्तुतिं कृष्णस्य चक्रिरे॥२६॥
इसभाँति उस पापात्मा शिशुपालके मारेजानेपर सब सभासद साधुसाधु कहतेहुए भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति करनेलगे॥२६॥
य राधावर ++ह धरसोदर।जयति दयानिधि++य दामोदर॥
य++य++जय वृन्दावनवासी। ++क्ष्मीपति वैकुंठ निवासी॥
निज जनहेतु सदा तुम त्राता। मम पति राखिलीन तुम जाता॥
हलधर सहित जयति जय जोरी। राखेउ +++दयानिधि मोरी।
सोरठा
रही प्रीति उर छाय, यदुपतिकी+++र++समु++।
दशा न सो++हिजाय, जोरि पाणि विनतीकरी॥
इति श्रीभारतसारे सभापर्वणि भाषायां चैद्यवधो नाम पञ्चदशोऽध्यायः॥१५॥
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षोडशोऽध्यायः १६.
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षोडशे यज्ञपूर्णार्थमाप्तिर्वायु तस्य च।
विप्रमुख्यस्य मुक्तिश्व पांडुरायस्य वर्ण्यते॥१॥
इस सोलहवें अध्यायमें यज्ञसम्पूर्ण होनेके निमित्त पवननन्दन भीमसेनको एकमुनिका प्राप्त होना और महाराज पांडुको मुक्ति मिलना यह कथा वर्णन करीजाती है॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
ततः प्रवर्त्तिते यज्ञे शिशुपालवधे कृते।
अष्टाशीतिसहस्राणि ऋषयस्तत्र संस्थिताः॥१॥
वैशम्पायनजीने कहा। हे महाराज जनमेजय ! शिशुपालका वध होजानेपर फिर यज्ञको प्रवर्त्तित (आरंभ) कियागया। उस स्थानमें अठासीहजार ऋषि विराजमान होरहे थे॥१॥ वह सब यज्ञकी समृद्धि देखकर महाराज युधिष्ठिरसे कहनेलगे। ऋषियोंने कहा। हे भूपाल ! सुनिये।एक वृत्तान्त है, अर्थात् यज्ञमें संपूर्ण राजा लोग आनकर उपस्थित होगयेहैं, पूर्वकालमें जिस प्रकार राजा बलिने यज्ञ कियाथा,॥२॥ इस समय पृथ्वीतलपर वैसाही यज्ञआपने किया है किन्तु हे महाराज ! इस आपके यज्ञमें एक न्यूनता अवश्य है॥३॥ ऋषियोंके इस प्रकार हनेपर महाराज युधिष्ठिरने श्रीकृष्णसे पूछा हे भगवन् ! इस मेरे यज्ञमें किसबातकी कमीहै ? सो आप बताइये मैं उसको निःसन्देह (पूर्ण) करूँगा। तब श्री कृष्णने उनको उत्तर दिया कि, वनमें एक तापस है॥४॥ वह यदि आपके यज्ञमें नहीं आवेगा तो आपके यज्ञका फल वृथाहै। तब भीमसेन उसको निमन्त्रण देने उसके स्थानमें गये और बोले। हे स्वामिन् ! यज्ञमें चलिये॥५॥ तापसने कहा। राजसूययज्ञके करनेवाले
राजा युधिष्ठिर कौन हैं ? और सुवर्णके सौ पात्र न होनेसे वह यज्ञ कैसे पूरा होसकताहै ?॥६॥ युधिष्ठिरके पिता कौन हैं ? उनके पिताके पिता कौन हैं ? और उनके भी पिता कौन हैं ?यह आप मुझसे सबकहिये॥७॥ भीमसेनने उत्तर दियाहैहे महामुनि !युधिष्ठिर धर्मके पुत्र हैं और सत्य उनके दादा हैं और सन्तोषको आप उनका परदादा जानलीजिये॥८॥ तापसने कहा कि में संतोषरूपी अमृतसे तृप्त होरहाहूँ अतएव यज्ञमें नहीं जाऊंगा। तबभीमसेन उस ब्राह्मणकी नानाभाँतिसे विनती करके उसको यज्ञ मण्डपमें लिवायलाये॥९॥ उसके आनेपर महाराज युधिष्ठिर उसकी पूजा करनेलगे तबउसने (रोतेहुए) शिरको कम्पायमान किया। यह देखकर युधिष्टिरने कहा। हे ब्रह्मन् ! आप रोतेहुए मस्तकको कम्पायमान क्यों करते हैं ?॥१०॥ महाराज युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर उस तापसने उत्तर दिया कि हे महाराज ! इस भूलोकमें कलियुग आनकर प्राप्त होगा जिसके समय में यवनलोग (मुसलमान म्लेच्छ) राजा होकर गौ और ब्राह्मणोंको पीडा देंगे॥११॥इस समय जो ब्राह्मण देवताओंके समान पूजेजारहेहैं उसकाल वेही ब्राह्मण दुःखके भोगनेवाले होंगे। वैशम्पायनजीने कहा। हे जनमेजय!इसके पीछे कृष्ण तापस और ब्राह्मणोंने मिलकर यज्ञका महत्कार्य सम्पादन किया॥१२॥हे राजन् ! वेदके कहुहुए विधानानुसार अन्नदान कियागया। अनन्तर धर्मपुत्र महाराज युधिष्ठिर दुर्योधनसे वोले॥१३॥ हे दुर्योधन महाराज !आप खजानची वनकर ब्राह्मणोंको दान कीजिये तब वैरके कारण दुर्योधनने ब्राह्मणोंको अत्यन्तही द्रव्य देना आरम्भ करदिया किन्तु दुर्योधनके हाथमें पद्म होनेके कारण एक एक बार दान करनेसे खजानेमें दश दश गुण द्रव्य बढ जाताथा॥१४॥
दत्तो महोत्सवस्यान्तोनिरयान्निःसृतः पिता।
पाण्डुर्वै दिव्यदेहस्थो विभाति वृत्रहा यथा॥१५॥
सो महाराज ! दुर्योधनने एक एककी जगह दश दश बार दान दिया। इस प्रकार महामहोत्सवसे यज्ञके सपूर्म्णहोजानेपर युधिष्ठिरके पिता महाराज पाण्डु नरकसे निकलकर दिव्य शरीरधारी हो वृत्रासुरके मारनेवाले देवराज इन्द्रकी समान शोभा पानेलगे॥१५॥ इति श्रीभारतसारे सभापर्वणि भाषायां पाण्डुसद्गतिवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः॥ १६॥
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सप्तदशोऽध्यायः १७.
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सप्तदशेऽमलाकीर्त्तिर्युधिष्ठिरनृपस्य च॥
दुर्योधनापमानं च सभायामिह भण्यते॥१॥
इस सत्रहवें अध्यायमें महाराज युधिष्ठिरका विमल यश और मय दानव कृत सभामें दुर्योधनका अपमान होना यह कथा वर्णन कीजातीहैं॥१॥
जनमेजय उवाच।
राजसूये महायज्ञे धर्मराजस्य बान्धवाः।
किंकिं कर्म कृतं तैस्तु श्रीकृष्णेनाथ कौरवैः॥१॥
महाराज जनमेजयने पूछा हे द्विजोत्तम ! धर्मराज युधिष्ठिरके उस राजसूयनामवाले बड़े भारी यज्ञमें उनके भाइयोंने क्या क्या काम किया ? अथवा भगवान् श्रीकृष्ण और कौरवोंनेही कौन कौन काम किया ? यह आप मुइसे वर्णन कीजिये॥१॥ वैशम्पायनजीने कहा हे नृपोत्तम ! अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिरके उस राजसूय यज्ञका महोदय देखकर वहाँ पर जितने देवता और राजा आयेथे वे सब दित (आनन्दित) हुए॥२॥
किन्तु एक दुर्योधन प्रसन्न नहीं हुआ क्योंकि वह कुरुकुलमें रोगकी समान पापरूप और कलियुगका मूर्त्तिमान स्वरूप था इसी कारण वह पांडुपुत्र महाराज युधिष्टिरकी राज्यलक्ष्मीको जगमगातीहुई देखकर नहीं सहसका॥३॥महाराज जनमेजयने कहा हे ब्रह्मन् ! इस प्रकारके यज्ञमें दुर्योधन क्यों क्रोधित हुआ ? इस दुर्योधनके कोपका सब कारण आप मुझसे सूचित कीजिये॥४॥ और फिर मेरे पिताके दादाके इसप्रकार बडे भारी राजसूययज्ञमें प्रेमसे बँधहुए बाँधवोंने क्या क्या सेवा (काम) किया ? सोभी आप वर्णन कीजिये॥५॥ वैशम्पायनजीने कहा हे राजन् ! उस यज्ञमें भीमसेन भोजनाध्यक्ष हुए अर्थात् इनको रसोईका काम सौपागया, सुयोधन (दुर्योधन) धनाध्यक्ष हुए अर्थात् इनको धन संबंधी काम सौंपागया, सहदेव सबकी पूजा व आदर सत्कार करनेमें नियुक्त हुए, तथा नकुल द्रव्य और सामग्री लाकर इकट्ठी करनेमें नियुक्त हुए॥६॥ अर्जुन ऋषि मुनियोंकी सेवा शुश्रूषा करनेमें नियुक्त हुए, श्रीकृष्ण चरण पखारनेमें नियुक्त हुए, द्रुपदकी पुत्री द्रौपदी भोजन परोसने में नियुक्त हुई, और उदार बुद्धि कर्ण दान करनेमें नियुक्त हुए॥७॥ युयुधान, विकर्ण, हार्दिक्य, विदुरादि बाह्लीक राजाके पुत्र और सन्तर्दन इत्यादि अनेक॥८॥ हे राजेन्द्र ! उस यज्ञमें महाराज युधिष्ठिरको प्रसन्न करनेके निमित्त विविध भाँतिके कामोंमें नियुक्त हुए॥९॥ अनन्तर महाराज युधिष्ठिरने यज्ञके समाप्त होनेपर ब्राह्मण क्षत्रिय और अनेक मंगलोंसे युक्त होकर श्री गंगाजीमें अवभृथ स्नान किया॥१०॥ उस काल सारे नर नारी उत्तमोत्तम वस्त्र, चन्दन, माला, गहने व कपडाद्वारा शोभायमान हो आपसमें भाँति भाँतिका रंग रस छिडकनेलगे॥११॥ तैल सुगन्धित पदार्थोका जल अर्थात् गुलाब
केवडा, वेद,++श्क इत्यादि, तथा हलदी सघन व कुंकुम इन वस्तुओंद्वारा पुरुषोंकरके लेपित नारियाँ उनहीं वस्तुओंका पुरुषोंपर लेपन करती हुईं विहार करनेलगीं॥१२॥ अनन्तर महाराज युधिष्ठिर अपनी रानियों सहित सुवर्णकी माला इत्यादि अनेक गहनोंसे सुशोभित हो’ अच्छेघोडोंवाले रथमें विराजमान होकर ऐसी शोभाको प्राप्त हुए जैसे क्रियाओंके सहित स्वयं यमराज शोभायमान होतेहैं॥१३॥ फिर अन्यान्य राजा रानी और ऋत्विज इत्यादि ब्राह्मणोंने तथा ब्राह्मणोंकी भार्याओंने द्रौपदीके समेत महाराज युधिष्ठिरको स्नान कराया॥१४॥ उस काल वहाँपर मनुष्योंने दुंदुभी (ढोल) इत्यादि बाजे बजाये और स्वर्गमें देवताओंनेभी अपने नगाड़े बजाये।फिर देवता ऋषि, पितर और मनुष्योंने महाराज युधिष्ठिरपर फूल वरसाये॥१५॥ उस स्थानमें जिस जिस वर्ण और आश्रमके मनुष्य गयेथे और जो महापातकी (पापी) थे वे तत्कालही सब पापोंसे छूट गये॥१६॥ अनन्तर महाराज युधिष्ठिरने गंगामें अवभृथ स्नान करनेपर अच्छे नये रेशमीन वस्त्र और गहने पहरकर फिर आभूषण और अनेक रत्नोंद्वारा ब्राह्मणोंकी पूजा करी॥१७॥ इस पीछे नारायणपरायण राजायुधिष्ठिरने अपने बंधु ज्ञाति राजा और सुहृद(मित्र) व और भी सब किसीकी वार वार पूजा करी॥१८॥ फिर महाभाग ऋत्विज और ब्रह्मवादी सभापति ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र और यज्ञमें आये हुए राजा लोग॥१९॥देवता ऋृषि पितर तथा अनेक प्राणिसेवकोंसमेत लोकपाल महाराज युधिष्ठिरद्वारा पूजेजाकर उनकी आज्ञा ग्रहण पूर्वक अपने अपने स्थानोंको सिधारगये॥२०॥ हरिदास अर्थात् भगवान् श्रीकृष्णके परम भक्त राजर्षि श्रीयुधिष्ठिरजीके राजसूययज्ञके महोत्सवकी बडाई करतेहुए वे सब इसप्रकार नहीं
अघातेथे, जिसप्रकार मनुष्य अमृत पीनेसे नहीं अघाताहै॥२१॥ (यज्ञके समाप्त होजानेपर) वियोगकातर महाराज युधिष्ठिरने अपने मित्रसंबंधी और बाँधवोंको व श्रीकृष्णचन्द्रजीको प्रेमपूर्वक बहुत दिनोंतक वहाँही टिकालिया॥२२॥ हे महाराज ! उनको प्रसन्न करनेके लिये भगवान् श्रीकृष्णने साम्ब इत्यादि यादवोंको हस्तिनापुरीमें भेजकर आप वहीं निवास किया॥२३॥इसप्रकार भगवान् श्रीकृष्णजीकी कृपासे धर्मपुत्र महाराज युधिष्टिर उस मनोरथरूपी दुस्तर महासमुद्रसे पार होकर निश्चिन्त हुए॥२४॥ फिर किसी समय दुर्योधन श्रीकृष्णमें चित्त रखनेवाले महाराज युधिष्ठिरके रनवासकी सुन्दरता और राजसूय यज्ञकी महिमा देखकर तापित (दुःखी) हुआ॥२५॥ एकदिन अपने छोटे भाई बाँधव और नेत्रस्वरूप श्रीकृष्णसे युक्त होकर महाराज युधिष्टिर मयदानवकी दी हुई सभामें॥२६॥ कंचनके सिंहासनपर विराजमानहुए ब्रह्मलोकके सी सम्पदा व राजलक्ष्मीसे सेव्यमान और बन्दीजनोंसे प्रशंसित (स्तुतिको प्राप्त हो) इन्द्रकी समान शोभापारहेथे॥२७॥ हे नृपोत्तम ! उसी समय वहाँ अपने भ्राताओंसमेत किरीटधारी अहंकारी हाथमें तलवार लिये राजा दुर्योधन आनकर प्राप्तहुआ॥२८॥ जब मूढमति दुर्योधन उस सुन्दर सभामें आया तो स्थलमें जलका धोखा खाकर उसने अपने फेंटे इत्यादि कपडोंको ऊपर उठाया॥२९॥इसके पीछे फिर आगे बढ कर जलमें स्थलका धोखा खाकर उसमें गिरपडा उस काल मय दानवकी मायासे विमोहित होकर दुष्टात्मा दुर्योधन बहुतही खिन्न (दुःखित) हुआ॥३०॥ तब पांडवोंसमेत सभामें बैठेहुए सब यादव (बड़े जोरसे खिलखिलाकर) हँस पडे फिर श्रीकृष्णकी प्रेरणासे भीमसेनने कहा॥३१॥
भीमसेन बोले कि अन्धे आदमीके सब बेटेभी अन्धेही होते हैं इसमें सन्देह नहीं। श्रीकृष्णके कृत्रिम मना करनेपरभी भीमसेनने वारम्वार यही बांत कही॥३२॥ भीमसेनकी यह बात सुनकरकुरुनन्दन दुर्योधन अत्यन्त लज्जा और क्रोधमें भरा हुआ (शीघ्रतासहित) हस्तिनापुरको चलागया॥३३॥ धर्मराज महाराज युधिष्ठिरके समझा बुझाकर रोकने पर भी वह भ्रष्टबुर्द्धिदुर्योधन नहीं रुका (उसके साथही) और भी सारे कौरव हस्तिनापुरको चले गये॥३४॥ उसकाल सब किसीने हाय ! हाय ! करके कहा कि बडाही बुरा निन्दनीय काम हुआ है किन्तु भगवान् इस विषयमें चुपचाप रहे क्योंकि उनको तो भूमिका भारी भार भञ्जन ( हरण ) करना है॥३५॥
एतत्ते कथितं राजन्यत्पृष्टोहं त्वयाऽनघ।
दुर्योधनस्य दौरात्म्यं राजसूये महाक्रतौ॥३६॥
वैशम्पायनजीने कहा—हे पापरहित जनमेजय! आपने जो हमसे राजसूय नामक महायज्ञमें दुर्योधनकी दुष्टता पूछीथी यह सब वही मैंने आपसे वर्णनकरी है॥३६॥
** इति श्रीभारतसारे सभापर्वणि भाषायां दुर्योधनमानभंगो नाम सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥**
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अष्टादशोऽध्यायः १८.
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अष्टादशेऽक्षविद्या च दुःशासनमहानयम्॥
पाण्डवानां च निर्याणं वनायेति निगद्यते॥१॥
इस अठारहवें अध्यायमें कौरव पांडवोंकी अक्षविद्या (चौषड खेलना) और दुःशासनकी भारी अनीति अर्थात् द्रौपदीका व (सारी) खेंचना, तथा पांडवोंको वनमें निकालदेना, यह कथा वर्णन करी जातीहैं॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
एकस्मिन्समये राजञ्शकुनिश्च सुयोधनः॥
दुःशासनश्चकर्णश्च संहता मन्त्रमाचरन्॥१॥
वैशम्पायनजीने कहा हे राजन् ! एकसमय शकुनि दुर्योधन दुःशासन और कर्ण यह चारों (दुष्ट) मिलकर मंत्रणा (सलाह) करनेलगे॥१॥शकुनिने कहा हे महामते महाराज दुर्योधन ! आप विषाद (दुःख) मत कीजिये, धर्मराज युधिष्ठिरके निकालदेनेका एक उपाय है॥२॥ अर्थात् मैं जुआ खेलना बहुत अच्छा जानता हूँ इस विद्याद्वारा छल कपट करके युधिष्ठिरको जीत वनमें निकाल दूँगा॥३॥ पहले बारहवर्षतक वनमें वास करनेकी बाजी लगाकर जीतूंगा और फिर तेरहवें वर्ष गुप्त रहनेका प्रण करकेउनपर विजयप्राप्त करूंगा॥४॥ मैं युधिष्ठिरके साथ चौषड खेलकर उनको निःसन्देह जीतलूंगा और उसमेंभी यह नियम (शर्त्त) रक्खूँगा कि यदि तेरहवें वर्षमें प्रकट होजाय, तो फिर बारहवर्ष पर्यन्त वनवास करें और एकवर्ष तक छिपे रहें इस प्रकार बाजी लगाकर पुनर्वार वनमें॥५॥ भेजदूँगा। हे राजन् ! आप वृथा क्यों खेदित (दुःखित) होते हैं। फिर जब तेरहवें वर्षमें पांडव गुप्तवास करेंगे, उस समय उनको ढूँढनेके निमित्त॥ ६॥ मैं सैकडों हजारों दूत भेजूँगा और जब वे दूत पांडवोंको खोज निकालेंगे, तो उनको फिर वनमें भेजदियाजायगा। वहाँ वे वारहवर्ष तक फिर वनमें वास करेंगे और एक वर्षतक नष्टचर्यामें रहेंगे इस भाँति पांडव लोग सदैव वनमें ही वास करेंगे इसमें सन्देह नहीं॥७॥ तब आप शत्रुहीन होकर निष्कण्टक राज्य करेंगे इसप्रकार इस चाण्डालचौकडीमें दुष्ट विचार करके॥८॥ जुआ खेलनेके लिये
महाराज युधिष्ठिरको बुलाया, कौरवोंके बुलानेपर युधिष्ठिर भाइयोंके सहित गये॥९॥
चौपाई
विदुर समेत चढे नृप हाथी।चलत भये भीमादिक साथी॥
उठे निशान चले नरनायक। धाये विपुल चहूँ दिशि पाय॥
तुरगारूढ नगिन करवालहि। गहि कर घेरि चले नरपालहि॥
कुरुपति न्यो धर्मसुत्आये। आतुर लक्ष्मण कुँवर पठाये॥
उल++ द्विरद दुःशासन साथा। नायो धर्म राजपद माथा॥
दै अशीश नृप धर्म समोदा।बैठारे कुरुपतिसुत गोदा॥
मुतियन माल दीन्ह पहिराई। दियो विविध पकवान मिठाई॥
कीन बिदा कुरुनाथ कुमारा। आप वितान बीच पगुधारा॥
दोहा
तेहि अवसर आवत भयो, धर्मराज रनवास।
त्याग त्याग पट पालकी, भीतर गईं अवास॥
तथा द्रौपदी कुन्ती और महाराजके नौकर चाकर यह सब भी आये तब पांडव वहाँ कौरवोंके साथ मिलकर हस्तिनापुरमें वास करनेलगे॥१०॥उस स्थानमें पांडवलोग प्रसन्नतापूर्वक रहतेहुए भाँति भाँतिकी क्रीडा करनेलगे।एक दिन शकुनिने इस प्रकार कूट वचन कहे॥११॥ शकुनि बोला ! हे युधिष्ठिर इत्यादि वीरो ! आप मेरी बात सुनिये। यदि आपके मनको अच्छा लगे तो जुआ खेलना प्रारंभ कियाजावे॥१२॥ शकुनिके इसप्रकार कहनेपर होनहारके वशीभूत हो सर्व पांडवोंने तथास्तु कहा अर्थात् कौरवोंके साथ खेलना स्वीकार करलिया॥१३॥ तब कौरव बोले कि जो आदमी हार जावे वह बारहवर्ष पर्यन्त वनवासी रहे और एक वर्ष अर्थात् तेरहवें वर्ष किसी स्थानमें गुप्त रहे यह बाजी वदकर खेलना चाहिये॥१४॥ और हे वीरगण ! यदि वह तेरहवें वर्षमें प्रकट होजावें, तो फिर निःसन्देह वनको चलाजाय और वहाँ (बारह वर्षतक) वास करता रहे
तथा एकवर्ष अज्ञात (गुप्त) रहेऐसा पण करके (बाजी लगायकर) कौरव पांडवोंने खेलना आरंभ किया॥१५॥
चौपाई
तेहि अवसर कुरुपति रु++पाये।पंसासार दुःशासन++ये॥
दीन्ही धार अजातरिपु आगे। कर गहि भीम विलोकना+गे॥
सो कुरुपति निज हाथ बिठाई। लिये धर्म त अक्ष उठाई॥
फरकेउअशुभ नयन भुज बाँये। उर थर हरेउ छींक भई बाँये॥
अष्टधातु आयुध भयकारे।क्षणमहँ सकल धर्म..त हारे॥
तरकस कवच धनुष दस्ताना। चर्म त्रिशूकटार कृपाना॥
शक्ति कराल अस्त्र++ब चीन्हे।पृथक् पृथक् धरि धर्मजदीन्हे॥
तजे अक्ष शकुनी छ कारी। सर्वस गये धर्मसुत हारी॥
चकित लोग ब देखि तमासा। कहैं न परत धर्म व पासा॥
पुनि पुनि परत दाव कुरुपतिको। को जाने परमेश्वरमति++॥
जीती कुरुपति पांडवरानी।कहेउ धर्म तते यह बानी॥
अनुचर भयउ ++मेत समाजा। करहु मानि मम आय काजा॥
कहेउ युधिष्ठिर आयसु होई। माथे मानि रब हम सोई॥
रूख वदन करि कह कुरुराई।द्रुपद सुता अब देहु मँगाई॥
मूर्च्छि परेउ सुनि वचन कठोरा। हाहाकार मच्यो चहुँ ओरा॥
दोहा
भूप युधिष्ठिरकी दशा, लखी ना++हू आन।
देखि अवज्ञा कुरुपतिहि, कोपेउ भीम महान॥
तब प्रथम तो उस जुएके खेलमें महाराज युधिष्ठिरकी जीत हुई और इसके पीछे कौरवोंने पाण्डवोंका सारा धन जीतलिया॥१६॥ फिर महाराज युधिष्ठिर कौरवोंके आगे अपना राज्य, नगर, गृह, द्रव्य, धन, दारा (स्त्री) और बाँधव इत्यादि (सर्वस्व) हारगये॥१७॥ तब तो सारे कौरव मनमें अत्यन्त हर्षित होकर सब किसीको सुनाकर इसप्रकार कहनेलगे कि, हमने सारे
पांडवोंको हरा दिया॥१८॥फिर दुष्टात्मा कौरवोंकी तरफके आदमी कहनेलगे कि किसने जीताहै ? किसने जीताहै ? यह बातें सुननेसे सभामें स्थितहुए सब पाण्डवोंका मुख मलीन होगया॥१९॥ तब राजा दुर्योधन दुःशासनसे (इसप्रकार) कहनेलगे दुर्योधनने कहा हे महाराज दुःशासन ! अब आप सभामें द्रौपदीको जाकर लेआइये॥२०॥ आज्ञा पातेही दुष्ट दुःशासन ऋतुमती, खुलेकेश, लज्जित, उदास और दीन द्रौपदीको बाल खेंचताहुआ उस सभामें लेआया॥२१॥ वहाँ लाकर उस दुष्टात्माने जैसेही उसका वस्त्र निकालकर उसको (नग्न) करनेकी इच्छा करी कि वैसेही प्राणसंकट उपस्थित देखकर द्रौपदीने प्रभु भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजीको स्मरण किया॥२२॥
दोहा
भुज उठाय हरिनगर दिशि, पाहि पाहि पुनि टेरी।
कृष्ण कृष्ण राधारमण, दीन्हीं हाँक करेरि॥
**चौपाई **
राधारमण वचन सुनु मेरे। कीन्ह विलाप कलाप घनेरे॥
बूडत विरह सिन्धु रघुनाथा। जिमि गहि लीन भरत कर हाथा॥
जिमि कपीश ग्रीव उबारा।राखि विभीषण रावण मारा॥
तुम बिनु नाथ++नै को मोरी। दीनदयाल शरण मैं तोरी॥
दैत्यदलन प्रहलाद उबारन।लाग मम गुहारि जगतारन॥
मम अनाथके नाथ गुसांई। सो न होय लज्जा जेहि जाई॥
तुम बिनु आरतपक्ष गही को। राख्नु रमापति लाज गईको॥
पाण्डव त्यागी सुरति हमारी। तुम जनि त्यागहु गिरिवरधारी॥
परवश लाज जातहरिमेरी। त्रिभुवननाथ शरण मैं तेरी॥
बीते समय दयानिधि ऐहो। मोहि उधारि देखि पछितैहो।
त्राह ग्रसे गज कीन पुकारा। तब तुम नाथ न लाय बारा॥
ते तुम नाथ हाँ गिरीधारी। यह पापी खैंचत मम सारी॥
सर्वस हरेउ बचेउ इक वसना। सोऊ हरत बचावत++सना॥
बीच सभा प्रभु मोहि नँगियावत। करुणासिन्धु धाय किन आवत॥
दवा जरत जिमि गोपन राखा। कौरव अ++दीन्ह गृह++खा॥
तब तुमही यदुनाथ उबारा। दीन दयादयाल हाँ यहि बारा॥
दोहा
गोकुल बूडत घेरि वन, जिमि रक्षा तुम कीन्ह।
नाश्यो मातलिसूत मद, गिरिवर कर धरि लीन्ह॥
श्रीपति दीनदयाल अब, तुम पति राखहु मोरि।
फिर हार कैसी करहुगे, जब पट लैहै छोरि॥
द्रौपदी बोली कि, कौरव और पांडवोंके आगे दुःशासन मेरे केश पकडकर वस्त्र हरताहै अर्थात् मुझको इस सभामें नग्न करदेना चाहताहै। इस भाँति चिन्ता करके उसकाल द्रौपदी ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’ इन नामोंको पुकारनेलगी॥२३॥ हे हरे ! मैं इस समय दुःखसागरमें निमग्न होरहीहूँ अतएव मेरे लिये अब आपके नामोंका स्मरणही नौकास्वरूप है। इस तरह वह द्रौपदी भक्तिपरायण होकर ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’ इत्यादि नामोंको उच्चारण करनेलगी॥२४॥ हे विष्णो ! इस समय पिता, बान्धव, भाई, पुत्र, माता, सुहृद और मित्र कोई सहायक नहीं है अतएव अब आपही मेरे शरण्य हूजिये अर्थात् मुझको अपनी शरणमें रखिये॥२५॥ हे कृष्ण ! हे विष्णो ! हे मधुकैटभारे ! हे भक्तोंपर कृपा करनेवाले ! हे भगवन ! हे मुरारे ! हे केशव ! हे लोकनाथ ! हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव ! आप मेरी रक्षा कीजिये॥२६॥
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कवित्त— दुर्जन दुःशासन दुकूल गह्यो दीनबन्धु दीन ह्वैके द्रुपददुलारी यों पुकारी है।
आपुनो सबल छाँडि ठाडे पति पारथसे भीम महाभीम ग्रीवा नीचे करि डारी है॥
अम्बर को अम्बर पहाड कीन्हो शेप कवि भीष्म कर्ण द्रोण सवै मनमें यह विचारी है।
सारी मध्य नारी है कि नारी मध्य सारी है कि सारी है कि नारी है कि सारी है की नारी है॥
चौपाई
द्रुपद तालखि विकल पुकारा। प्रणत पापाहरि बिरद सँभारा॥
द्वारावति तजि नंगे पाँयन। आतुर आय गये नारायण॥
प्रथम पाहि मुखतें++ब काढा।प्रकटे वसनरूप पट बाढा॥
वसन रूप धरि वसन समाने। धीरज द्रुपद ताउर आने॥
++चो प्रथम जोर भरि++ता। निकस्यो वसन वसन मग तेता॥
दोहा
भक्ति प्रेम वश द्रौपदी, देखि बसनको बाढि।
विनयकरत गदगदगिरा, भइ रोमावलि ठाढि॥
इस प्रकार द्रौपदीके कहते कहते ही पांडवोंके पालक भगवान् विष्णु आकर द्रौपदीके वस्त्ररूपमें स्थित होगये॥ २७॥ उस काल सबके देखतेहुए वहां महान् हाहाकार मचा तब उस दुष्ट दुःशासनको द्रोण और भीष्मने (इस काम करनेको) निवारणभी किया॥२८॥ फिर जब अधर्मी दुःशासन द्रौपदीके शापसे घबराकर इस कार्यसे शान्त हुआ, तब भीम इत्यादि वीर कुरुकुलका सत्यानाश करनेको॥२९॥ उठ खड़े हुए, किन्तु धर्मराज युधिष्ठिरने उनको आँखके इशारेसे निवारण करदिया। तब फिर सब पांडव दुःखित चित्तसे उठकर वनको चलेगये॥३०॥
सर्वेषां पश्यतां तत्र भावी केन विलुप्यते॥३१॥
यद्यपि पांडव लोग ऐसे महाबलवान व धर्मात्मा थे किन्तु तो भी वे सब किसीके देखते हुए वनको चलेगये। क्यों कि होनहार बातको कौन टाल सकताहै?॥३१॥ इतिश्रीभारतसारे सभापर्वणि भाषायां पाण्डवप्रस्थानंनामाष्टादशोऽध्यायः॥१८॥
हा करै वैरी प्रबल, जो सहाय यदुवीर।
दश हजार गज बल घट्यो, घट्यो न दशगज चीर॥
इति सभापर्व समाप्तम्॥
श्रीकृष्णाय नमः।
भारतसार भाषा।
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वनपर्व ३.
एकोनविंशोऽध्यायः १९.
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एकोनविंशे चेन्द्रेण शक्रशंकरमे नम्।
नलराजस्य वृत्तान्तमन्यच्चापि निगद्यते॥१॥
इस उन्नीसवें अध्यायमें इन्द्रकील पर्वतपर इन्द्र और शंकरका मिलन और राजा नलका वृत्तान्त तथा कुछ औरभी कथा वर्णन करीजाती है॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
महावनं समासाद्य पाण्डवा दुःखपीडिताः।
शाकान्भक्षितवन्तश्च भीमानीतान्दिनेदिने॥१॥
वैशम्पायनजी बोले।हे महाराज जनमेजय ! उस महावनमें पहुँचकर पांडव दुःखी हुए और प्रतिदिन भीमसेनके लायेहुए (फलादि) शाकका भक्षण करनेलगे॥३॥ शाकके खानेसे वै सब वीर दुबले और बलपराक्रमरहित होगये। तबपांडवोंको भूँखसे घबरायाहुआ देखकर द्रौपदी दुःखके मारे बहुतही पीडित हुई॥२॥देवी द्रौपदी जैसेही दुःखसे कातर हुई कि उसी समय उसने देवर्षि नारदजीका दर्शन किया अर्थात् नारदजी वहाँ आनकर उपस्थित हुए। तब द्रौपदीने उनको प्रणाम करके अपने दुःखका सारा हाल मुनिसे कहसुनाया॥३॥ यह सुनकर देवर्षि नारदजीने द्रौपदीको एक सूर्य देवताका मन्त्र दिया। जो कि अन्न, वस्त्र और (अभिलाषित) सिद्धिका देनेवाला
था॥४॥ तब फिर जिस समय सबेरेही उठकर भलीभाँति विधिपूर्वक स्नान करके द्रौपदी उस मन्त्रके सिद्ध करनेमें निरत हुई और भगवान् सूर्यकी स्तुति करनेलगी, तब सूर्यनारायणने परम सन्तुष्ट होकर उसको वर प्रदान किया॥५॥ और भगवान् सूर्यने अन्नसे भरीहुई एक स्थाली (कसैडी) दी, (उसमें यह गुण था) कि जिस समय तक द्रौपदी भोजन न करे तबतक उसका अन्न क्षय (कम) नहीं हुआ करताथा॥६॥ किन्तु जब द्रौपदी भोजन करचुकनेपर उस कसैडीको धोकर अधोमुख (औंधामुख) करके रखदेवे, तब वह उस दिन अन्नसे खाली रहेगी और अगले दिन फिर अन्नसे भरजायगी॥७॥ इस कसैडीके मिलजानेपर पांडव मनमें बहुत ही हर्षित हुए। तब तो वे पांडव प्रतिदिन (शतशः ब्राह्मणोंको) पंचामृत भोजन कराकर फिर आप भोजन करनेलगे इस कारण वे हृष्ट पुष्ट और तेजस्वी होगये॥८॥ इस प्रकार उस वनमें समस्त पांडव वास किया करतेथे, फिर समय देखकर धर्मके जाननेवाले अर्जुन तीर्थयात्राके निमित्त चलेगये॥९॥ अनन्तर वनवासके समय ही अर्जुनकेसाथ मार्गमें उलूपीका संगम हुआ। यह उलूपी नागकन्या थी। यह भगवान् श्रीमहादेवजीके लिंग (प्रतिमा) पर चढगई थी॥१०॥ इसी कारण इसके पिताने क्रोधित होकर यह शाप दिया, कि तू अर्जुनको पति बना, अस्तु यह अर्जुनकी भार्या बनी और चित्राङ्गदाको अर्जुनके अंश करके बभ्रुवाहन पुत्र हुआ॥ ११॥ इसके पीछे अर्जुन तीर्थयात्रासे लौटकर फिर उस महावनमें आगये और धर्मपुत्र युधिष्ठिरइत्यादिको प्रणाम किया, तथा नकुल, सहदेवको मिले, इस तरह उस वनमें सब पांडव वास करनेलगे॥१२॥ फिर (किसी समय) विजयी अर्जुनने आदरपूर्वक महाराजः युधिष्ठिरसे कहा हे भाई!
में तपस्या करनेके निमित्त दूसरे वनमें जाना चाहताहूँ॥१३॥ क्योंकि तपस्या करके युद्धमें सब कौरवोंको परास्त करूंगा।महाराज युधिष्ठिरने अर्जुनकी यह बात सुनकर॥१४॥ भगवान् श्रीवेदव्यासजीको स्मरण किया और वे तत्काल आनकर उपस्थित हुए। उन्होंने अर्जुनको जय देनेवाली विद्या प्रदान करी अर्थात् इन्द्रका मन्त्र दिया॥१५॥अर्जुनने उस विद्याको लेकर इन्द्रकील नामक पहाडपर प्रस्थान किया, और इस तपकी सिद्धि देनेवाले इन्द्रके मन्त्रका जप किया॥१६॥ फिर महात्मा अर्जुनके तपकी सिद्धि देखकर वनमें घूमनेवाले इन्द्रकील पर्वतवासी देवराज इन्द्रके सेवकोंने इन्द्रसे जाकर कहा॥१७॥ वनचर बोले हे स्वामिन्! आपके वनमें कोई नरोत्तम पुरुष तपस्या कररहा है, वह विष्णु हैं, अथवा पद्मयोनि ब्रह्माजी हैं, वा श्रीमहादेवजी हैं, या वरुणदेवजी हैं॥१८॥ किंवा वह कोई उत्तम देवता है, यह वात हम ठीक ठीक नहीं कहसकते ! उनके इस प्रकार वचन सुनकर देवराज इन्द्रने कहा॥१९॥ हे अप्सराओ ! तुम शीघ्रतासहित अभी उस वनमें चलीजाओ, वहाँ कोई आदमी तपस्या कररहाहै, उसको अपने हावभाव और कटाक्षोंसे लुभालो॥२०॥ इसतरह इन्द्रकी बात सुनकर वे सबअप्सरायें अपने पतियोंके सहित कोई पालकी और कोई हाथीपर सवार होकर उस महावनमें गईं॥२१॥ और वहाँ जाकर अपने हाव भाव व कटाक्षोंसे अर्जुनके लुभानेकी चेष्टा करनेलगीं, किन्तु महायोगी अर्जुनने उन सारी अप्सराओंको तुच्छ करदिया अर्थात अर्जुनकी समाधि किसीप्रकारभी न डिगी॥२२॥ और उन्होंने अनेक भाँतिसे तपस्या करके अपने कामको सिद्ध करलिया, तब उन अप्सराओंने निष्कल हो अर्थात् अपने मनमें हार मान घर जाय गद गद वाणीद्वारा
सब समाचार देवराज इन्द्रसे कहा॥२३॥ तब इन्द्र ब्राह्मणका वेष बनाय कर उस वनमें पहुँचे और अर्जुनसे पूछा। वासवने कहाहे वीर ! आप इस वनमें बखतर और धनुष ग्रहण किये किसनिमित्त तपस्या कररहेहैं ? इन लक्षणोंसे तो हमको ऐसा मालूम होताहै कि आप कोई कामी ऋषि हैं ?॥२४॥ यह कामनाका विषय सर्वथा परितापका (दुःखका) ही देनेवाला होताहै, अत एव आप इसको छोड़कर शान्ति मार्गमें मन लगाइये॥२५॥ आपकी यह तपस्या तो मोक्षके लायक है इसको आप निष्फल मत कीजिये ! देवराज इन्द्रके इस प्रकार वचन सुनकर अर्जुनने उत्तर दिया॥२६॥ अर्जुनने कहा हे विप्रेन्द्र ! आप जो कुछ कह रहे हैं, वह आपका कहना मुझको अयोग्य दीखरहाहै, कारण कि प्रबन्धको विना जाने पूछें कहरहेहो इसलिये आपकी बातें व्यर्थ हैं॥२७॥ यदि बृहस्पतिजीभी प्रबंधके विना जाने पूछे, कोई बात कहें, तो हे ब्राह्मण ! उनकीभी वह बात वृथा होती है, इस कारण अब आप मुझसे ऐसी बात (कदापि) न कहिये॥२८॥ जिस तरह विखरेहुए मेघ दूर होजायाकरतेहैं, इस पहाड़के शिखरपर मैंभी उसीतरह सहस्राक्ष (इन्द्रको) संतुष्ट करके अयशरूपिणी कीचड अलग करदूंगा॥२९॥ इस प्रकार अर्जुनकी बातें सुनकर देवराज इन्द्रने अपना असली रूप धारण कर लिया और आनन्दित चित्त हो अर्जुनकोछातीसे लगाकर कहा॥३०॥ फिर उन्होंने महात्मा अर्जुनको शिवका मंत्र दिया, तब वैरियोंके जीतनेकी अभिलाषासे अर्जुन उस शिव मंत्रकी आराधना करनेलगे॥३१॥ जब परवीरघाती अर्जुनने शिवजीका मंत्र जपा, तिससे श्रीमहादेवजीने प्रसन्न होकर उनको महान् पाशुपत नामक अस्त्र दियां॥३२॥ उसको लेकर अर्जुन शीघ्रतासे उस वनमें गये, जहां धर्मनन्दन
महाराज युधिष्ठिर वास कियाकरतेथे, वे अर्जुनको देखकर अपने मनमें बहुतही हर्षित हुए॥३३॥ फिर किसी समय बलवान् पुरुषोंमें अग्रणी भीमसेनने रास्तेमें पडेहुए एक छोटेसे वानरको देखा॥३४॥ तव भीमसेनने उस वानरसे कहा कि, तू मुझको रास्ता दे।बन्दरने उत्तर दिया आप मुझको उलाँघकर चले जाइये और या किसी दूसरे रास्तेसे चलेजाइये॥३५॥ और यदि यहभी न करो, तो मेरी पूंछ पकड़ मुझको दूर करके अगाड़ी चलेजाइये। वानरके इसप्रकार कहनेपर भीमसेनने वैसाही काम किया॥३६॥किन्तु वह देखनेमें छोटासा वन्दर भीमसेनसे जौभरभी नहीं सरका, तब तो यह बडे अचंभेमें होकर (सोचनेलगे कि) यह वानर रूप धरेहुए कौन है ?॥३७॥ यह ब्रह्मा, विष्णु, महादेवके बीचमें कौनसा देवता है ? या इन तीनोंके अतिरिक्त कोई औरही देवता है ? इस तरह भीमसेनको अचंभेमें देखकर श्रीहनुमान्जीने उनसे कहा॥३८॥हनुमान्जी बोले हे महावीर भीमसेन ! आप मुझको पवनपुत्र हनुमान् जानलीजिये। मैं सुखपूर्वक इस पृथ्वीपर भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी कथा नताहुआ घूमता रहता हूँ॥३९॥हनुमान्जीकी यह बात सुनकर भीमसेन इस प्रकार कहनेलगे। भीमसेनने कहा हे कपिराज ! आपकी समान श्रीरामचन्द्रजीके कटकमें क्या दूसरा कोई बली नहीं था ?॥४०॥ अथवा आप भगवान्ही बन्दरका रूप धरकर पृथ्वीपर घूमतेहैं ? भीमसेनकी यह बात सुनकर कपिराजने उनसे कहा॥४१॥ हनुमान्जी बोले। हे महाबाहो भीम ! आप इस प्रकारका अचंभा मत कीजिये। कारण कि श्रीरामचन्द्रजीके श्रेष्ठ कटकमें मुझसे भी अधिक बलवान् वीर थे॥४२॥ यदि आप यह मेरी वात (सत्य) नहीं मानें, तो मेरे संग
चलिये। मैं आपको एक बडाही आश्चर्य दिखाऊंगा, इसमें सन्देह नहीं॥४३॥ इतनी बातचीतके पीछे भीमसेन और कपिराज हनुमान दोनोंजने समुद्रकी तरफ चलदिये, तब रास्तेमें भीमसेनने एक बडा भारी तालाव देखा॥४४॥ उस तालाबको देखकर पृथाके पुत्र भीमसेनने हनुमान्जीसे कहा। भीमसेन बोले हे कपिराज ! आप देखिये यह बडा भारी तालाव दिखाई देरहाहै॥४५॥ हे महाबाहो ! यदि आप आज्ञा देवें तो मैं इस तालावमें स्नान करूं भीमसेनकी यह बात सुनकर कपिराज हनुमान्जीने उनसे कहा॥४६॥ हे महावीर ! आपने बहुत उत्तम विचार किया। हे महाबलवान् ! आप इस तालावमें स्नान कीजिये।हे भीम ! आप इसमें स्नान करतेही पवित्र होजायँगे॥४७॥ कपिराज हनुमान्जीके इस प्रकार कहनेपर भीमसेनने वैसाही किया, और उस तालांवमें स्नान करते करतेही वे बीचमें डूबगये॥४८॥ फिर जब बुद्धिमान् हनुमानजीने भीमसेनके रोने चिल्लानेकी आवाज सुनी; तो उन्होंने हँसते हँसते भीमसेनको निकाललिया॥ ४९॥ हनुमान्ने अपनी पूँछके सहारेसेही भीमसेनको निकाललिया तब भीमसेन बडा आश्चर्य करके कहने लगे। हे कपिराज ! यह तालाव नहीं हैं, मुझको तो यह समुद्रका अंग दीखरहाहै॥५०॥ क्योंकि मैंने (आजतक) इसकी समान तालाव कहीं भी नहीं देखाहै, हनुमान्जी बोले। हे महाबाहो भीम ! सुनिये इसकी समान दूसरा तालाव नहीं है॥५१॥ हे वृकोदर ! पूर्वकालमें रामरावणके संग्राममें कुंभकर्णके मस्तकका टुकडा बाणोंके प्रहारसे उछलकर यहाँ आ गिराथा उसमें मेघोंकी वर्षाका जल भरगया है, यह आप जानिये॥५२॥ कपिराज हनुमान्जीकी यह बात सुनकर
भीमसेनने मस्तक कंपायमान किया अर्थात् इस बातको सत्य नहीं जाना। तब हनुमानजीने भीमसेनका यह मत जानकर॥५३॥
अंगुष्ठेन शिरोभागः कुंभकर्णस्य भूमितः॥
तं दृष्ट्वा विस्मितो भीमः प्रशंसति कपीश्वरम्॥५४॥
अपने अँगूठेसे कुंभकर्णके शिरका भाग (टुकडा) पृथ्वीसे निकाललिया, उसको देखकर भीमसेनको बडाही अचंभा हुआ और कपिराज हनुमान्जीकी बडाई करी॥५४॥ इति श्रीभारतसारे अरण्यपर्वणि भाषायां भीममानभ्रंशो नामैकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥
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विंशोऽध्यायः २०.
विंशे दुर्वाससस्तृप्तिर्वने कृष्णस्य मे नम्।
राज्ञो नलस्य वृतान्तं किञ्चिदत्र प्रकीर्त्यते॥१॥
इस वीसवें अध्यायमें वनके वीच श्रीकृष्णका मिलना, दुर्वासामुनिका तृप्त होना और महाराज नलका वृत्तान्तं इत्यादि वर्णन किया जाता है॥१॥
वैशंपायन उवाच।
एकदा वनमध्ये तु वर्तमानं युधिष्ठिरम्।
दुर्वासाश्चागतस्तत्र द्वादश्यां पारणाय च॥१॥
वैशम्पायनजी बोले हे जन्मेजय ! एकदिन वनमें वर्तमान महाराज युधिष्ठिरके निकटे मुनिवर दुर्वासाजी द्वादशीका पारण करनेके निमित्त आये॥१॥ उस काल दुर्वासाजी दुर्योधनके पठायेहुए दशहजार चेलोंको संग लेकर आयेथे, किन्तु तब पांडव भोजनकरके निश्चिन्त होचुके थे॥२॥और द्रौपदीने भी खानेसे निवटकर उस कसैडीको खाली करके औंधा रखदियाथा,
तब पांडव उस समय दुर्वासामुनिको आयाहुआ देखकर संभ्रम युक्त हुए॥३॥ तब ऋषिवर दुर्वासाजीने कहा हे पांडवो ! आप हामको भिक्षा दीजिये अर्थात् पारण करवाइये। उनकी यह बात सुनकर पांडव अपने मनमें विचारने लगें॥४॥ फिर सब पांडवोंने मिलकर सोचा कि, इस समय क्या उपाय करना उचित है ? तब यह विचार किया कि, इन ऋषिको तो स्नान करनेके निमित्त भेजदें और अपने आप अग्निमें प्रवेश करके भस्म होजाँय !॥५॥ इस प्रकार उन्होंने निश्चय करके उन ब्राह्मणोत्तमं दुर्वासाजीको तो स्नान करनेके लिये भेजदिया, और आपने बहुत लकडियां इकट्ठीकर चिता रचाय उसको प्रज्वलित किया॥६॥ फिर वे ज्योंही अग्निमें प्रवेश करनेको तैयार हुए कि वैसेही पीताम्बर चक्र और वनमालासे विभूषित भगवान् विष्णु आनकर उपस्थित हुए॥७॥ और द्रौपदीसे कहा कि मैं कलसे व्रती हूँ, अतएव मुझको पारण कराइये। यह सुनकर द्रौपदीने उत्तर दिया हे नाथ ! इस समय मेरी कसैडी खाली होरहीहै॥८॥ और मेरे घरमें अन्नभी बिलकुल नहीं है, हे प्रभो ! यह बात क्या आपको विदित नहीं है ? इसके अतिरिक्त हे नाथ ! इस समय मुनिवर दुर्वासाजी भी अपने (दशहजार) शिष्योंसहित हमारे यहाँ पारण करनेके निमित्त आयेहुएहैं॥९॥ इसी कारण हे प्रभो ! हम सब जने इस जलती हुई अग्निमें प्रवेश करनेकी इच्छा कररहेहैं, द्रौपदीकी यह बातें सुनकर श्रीकृष्णने फिर कहा॥१०॥ श्रीकृष्ण बोले हे द्रौपदी ! आप अपनी इस कसैडीको क्यों नहीं देखतीहो ? कि कहीं कुछ अन्न चिपट तो नहीं रहाहै ? तब उनकी आज्ञानुसार देवी द्रौपदीने ज्योंही उस कसैडीको देखा॥११॥ तो उसमें अन्नका एक किनका चिपटाहुआ दिखाई दिया। फिर उसको द्रौपदीने भगवान श्रीकृष्णके
हाथमें अर्पण किया जिसको श्रीहरिने विश्वार्पण करके भोजन करलिया॥१२॥तब भगवान् श्रीहरि जैसेही उसके द्वारा तृप्त हुए कि वैसेही पांडव इत्यादि सारा ब्रह्माण्ड तृप्त होगया। उसकाल भीमसेनसे उनके पालक श्रीकृष्णने कहा॥ १३॥ हे भीम ! अब आप ब्राह्मणोंको भोजन करनेके निमित्त शीघ्रतासे बुलाय लाइये। यह सुनकर भीमसेन गये और अकेलेही ब्राह्मणों के पास जाकर कहा कि आप लोगोंने इतनी देर क्यों लगादी ? अब शीघ्रही पारण करनेके निमित्त चलदीजिये॥१४॥ तब उन ब्राह्मणोंने भीमसेनसे पूछा क्या श्रीहरि आपके घर पधारेहैं ! भीमसेनने उत्तर दिया कि हाँ श्रीकृष्ण स्वयं ही हमारे घर आये॥१५॥अनन्तर उन मुनियोंने फिर कहा हे भीम ! भगवान श्रीहरिके तृप्त होनेपर अब हम लोगभी (भली भाँति) तृप्त होगये हैं, किन्तु तोभी भीमसेन उनको हठकरके बुलानेलगे॥१६॥ तबतो हे राजन् ! (भीमसेनकी यह जबर्दस्ती देखकर) वाल खुले हुए वे सब ब्राह्मण भाग निकले। ऐसा करके जगन्नाथ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजीने (अपने भक्त) पांडवोंकी रक्षा करी॥१७॥ और फिर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र महाराज युधिष्ठिरसे आज्ञा लेकर अपने स्थानको चलेगये। फिर एक समय वनमें वास करतेहुए धर्मनन्दन महाराज युधिष्टिर के पास श्रीवेदव्यासजी गये और उन धर्मतत्पर आकुल और दुःखी महाराजसे कहने लगे॥१८॥ हे नरव्याघ्र ! आप दुष्टदशाको प्राप्त होरहेहैं अतएव विषाद मत कीजिये। क्योंकि हे महाराज ! पहले सत्ययुगमें राजा नलभी ऐसीही दुष्ट दशाको प्राप्त होचुके हैं॥ १९॥ धर्मपुत्र युधिष्ठिरने पूछा हे स्वामिन् ! वे नलराजा कौन थे और कैसे दुष्ट दशाको प्राप्त हुएथे ? तथा वे पीछे किसतरह सुखी हुए? आप यह सारी बातें मुझसे सत्यही सत्य वर्णन
कीजिये॥२०॥ श्रीवेदव्यासजीने उत्तर दिया हे राजा युधिष्ठिर ! पहिले सत्ययुगमें नलनामक एक परम धर्मात्मा राजा थे, जो कि नलवर नामवाले दुर्ग (किले) में राज्य किया करतेथे॥२१॥ वह महाराज नल रूपवान्, गुणयुक्त, शील, उदारबुद्धि, सत्यवादी और जितेन्द्रिय वीरसेनके पुत्र थे॥२२॥ और भीमनामसे विख्यात एक राजा कुण्डिन नगर में राज्य कियाकरताथा, जिसके घरमें रूप और गुणशालिनी एक दमयन्ती नामवाली कन्या थी॥२३॥चन्द्रमाको लज्जित करनेवाला मुखारविन्द, कमलोंका तिरस्कार करनेवाली आँखें, कंचनकी सुन्दरताको छीननेवाला देहका रंग, श्याम कमलिनीकी सुन्दरताको परास्त करने वाले बाल, हाथियोंके भकी बिको चुरानेवाले दोनों स्तन, भारी नितम्बोंकी स्थली, और बोलनेमें मन हरनेवाला मधुर भाव यह नारीमें स्वाभाविक ही शृंगार हुआ करताहै॥२४॥ ऐसी रूपलावण्यवाली बाला दमयन्तीने स्वयंवरमें आये सारे राजाओंको छोडकर महाराज नलको ही वरा अर्थात् उनके ही गलेमें जयमाला पहिराई॥२५॥ यह देखकर इन्द्र इत्यादि देवता भी दुःखी हुए। वैशम्पायनजी बोले । हे जनमेजय! उन देवताओंने अपना निरादर हुआ समझकर बडा कोप किया और कलियुगसे प्रार्थना करी कि हेमहाराज नलके शरीरमें घुसजाओ ॥२६॥ देवताओंके इस प्रकार कहनेपर कलियुग महाराज नलके समीप आया, और शरीरमें घुसनेके निमित्त बारह वर्षतक राजाके चारों ओर घूमतारहा॥२७॥ किन्तु धर्मात्मा महाराज नलके शरीर में नहीं घुससका, फिर एकदिन उसने घूमतेहुए महाराज नलके शरीरको देखा॥२८॥ उसने ऐसे शरीरको चारों ओर घूमते हुए देखा कि उनकी गुदाका निचला भाग जलके स्पर्शसे रहित है॥२९॥ तब कलियुगने
उसीको अपने घुसनेका रास्ता जाना और फिर तत्काल उसी गुदद्वारसे उनके शरीरमें घुसगया। अनन्तर महाराज नलके शरीरमें कलियुगका स्पर्श होनेपर वे दुष्ट अवस्थाको प्राप्त हुए॥३०॥उनकी प्रतिदिन दुर्बुद्धि और दारुण मनस्ताप होनेलगा, तेजकी हानि होगई और वे अपनी पत्नी (रानी दमयन्ती) का भी प्रतिदिन अविश्वास करने लगे॥ ३१॥ जिस समय कलिका प्रवेश होताहै, उस काल प्रायः धर्म जलजाया करता है, तपस्या चलित होजाया करतीहै, सत्य दूर भागजाया करताहै, भूमि मंदफलवती होजायाकरतीहै, राजालोग कपट करने लगते हैं, ब्राह्मण लोग अधिक याचना करनेसे चंचल हो उठा करतेहैं, सारे मनुष्य नारियोंके वशीभूत होजाया करतेहैं, नारियां चंचल होजाया करती हैं, वेटा वापका शत्रु होजाया करताहै, साधु सन्तोंको दुःख मिला करताहै, और दुष्टात्मा आदमी सुख भोगा करताहै॥३२॥ महाराज जनमेजय बोले हे मुनिवर!जब महात्मा अर्जुन अस्रके निमित्त इन्द्रलोकको चलेगये, तवं उससमय युधिष्ठिर इत्यादि पांडवोंने क्या किया ?॥३३॥ वैशम्पायनजीने कहा हे महाराज ! अस्त्रके निमित्त महात्मा अर्जुनके इन्द्रलोकको चलेजानेपर पुरुषोत्तम पांडव कृष्णा द्रौपदी समेत काम्यवनमें वास करनेलगे॥३४॥ इसके पीछे हे भरतश्रेष्ट ! किसी समय एकान्त स्थानमें द्रौपदीसमेत दुःखित पांडव कोमल और हरी हरी घासपर बैठेहुएथे॥३५॥ तथा दुःखित मनसे अर्जुनका सोच करते करते आँसुओंकी धारा उनके कंठपर आरहीथी, तब महाबाहु भीमने महाराज युधिष्ठिरसे कहा ॥३६॥कि अर्जुनके वियोग और राज्यके नाशसे दुःखी हुए हम क्या करें ? और कहाँ जाँय ? तथा कैसे यह दुःख निश्चय करके छूटे ?॥३७॥ हे महाराज ! आपकी आज्ञा
होनेपरही अर्जुन इन्द्रलोकको गयेहैं और अर्जुनहीको पाण्डुपुत्रोंका प्राण समझना चाहिये, इस बातमें जराभी संशय नहीं है॥३८॥ वे तेजस्वी अर्जुन अनन्त क्लेशोंकी चिन्ता करतेहुए अत्यन्त दुःखित मन होकर आपकी आज्ञासेही बनान्तरको गयेहैं॥३९॥ जिन महात्मा अर्जुनकी भुजाओंके सहारेसे हम सब कोई संग्रामस्थलमें पहुँचकर वैरियोंको जीताहुआही समझतेहैं, और पृथ्वीकों मानों प्राप्त हुआही समझ लेतेहैं॥४०॥ और हम लोग तथा श्रीकृष्णसहित अर्जुन, कर्ण इत्यादि (महाबलवान्) भूपालोंको अपनी साधारण प्रजाकी तरह करके और अपने भुजबलसे सारे पृथ्वीमंडलको विजय करके पालन किया करतेहैं॥४१॥ किन्तु हे महाराज ! हम सब आपके जुएके दोषसेही (दुःखित होकर) इस वनमें आयेहैं और जो हमलोग बलवान् मनुष्योंसे भी अधिक बलवान थे, वेही हम आज हीनपौरुष अर्थात् दुर्बल होरहेहैं॥४२॥हे महाराज ! आप क्षात्र धर्म (क्षत्रियोंके कर्म) को भलीभाँति जानतेहैं कि महात्मा क्षत्रियोंका दूसरा धर्म नहीं है॥४३॥ क्योंकि बुद्धिमान् पण्डितोंने राज्य करनाही क्षत्रियोंका परम धर्म बतलायाहै, अत एव हे महाराज ! आप क्षत्रियोंका धर्म जाननेवाले हैं और धर्मात्मा हैं, फिर दूसरे आदमीकी तरह नहीं हैं॥४४॥ हे महाराज! हमलोगोंको धृतराष्टके बेटोंने राज्यसे बाहर निकालदियाहै सो यदि हम उन सारे कौरवोंको बारह वर्षके प्रथम ही वधकरंडालें, तबही क्षत्रियोंका सनातन धर्म रहसकताहै॥४५॥ इस सबसे पहले दुर्योधन, कर्ण, तथा और भी संग्राम करनेवाले वैरियोंका वध करेंगे, पीछे आप वनसे हस्तिनापुरको लौट आइये॥४६॥ हे महाराज ! ऐसा करनेपर आपको बिलकुलभी दोष स्पर्श नहीं करसकेगा, और हे शत्रुतापन ! कदाचित् आप पाप होनेकी
शंका करें, तोभी अनेक किये हुए यज्ञोंद्वारा॥४७॥ पाप धोकर हे महाबाहो ! अति उत्तम स्वर्गमें जाँयगे। हे राजन् ! यदि आप बालकबुद्धि नहीं करेंगे और मुझको आज्ञादेंगे तो इस पृथ्वीका सारा राज्य अपनाही होजायगा॥४८॥ आप धर्मपरायण अर्थात धर्मके जाननेवाले हैं, अतएव मुझको कौरवोंके मारडालनेकी आज्ञा दीजिये, क्योंकि प्रथम अपराध करचुकनेवालोंके मारडालनेमें कुछभी पाप नहीं लगताहै॥४९॥ हे महाराज ! हमको तो राज्यके विना दिन रात वर्षके बराबर और वर्ष कल्पके बराबर महान् कष्टसे बीतरहाहै॥५०॥ हे राजन् ! आप मेरी वातोंका मनमें विचार कीजिये।यह कालही पुत्र स्त्रीके सहित दुर्योधनका नाश करडालेगा॥५१॥ हे महाराज ! उस दुर्योधनने प्रथम हम लोगों को राज्यसे बाहर करके सारी पृथ्वीको एकमात्र अपनीही आज्ञाके वशीभूत करलियाहै। वैशम्पायनजी बोले भीमसेनके इसप्रकार कहनेपर महाराज युधिष्टिर कहनेलगे॥५२॥ युधिष्ठिरने कहा हे महाबाहो भीम ! आप तेरहवर्ष पीछे गांडीवधनुषधारी अर्जुनके सहित अवश्यही दुर्योधनको मारडालेंगे; इसमें कुछभी संशय मत समझना॥५३॥ क्योंकि हे भीम ! आजतक आपके मुखसे कभी झूंठी बात नहीं निकली है अतएव अब आप थोडेही समय में दुर्योधनका संहार करडालेंगे॥५४॥ महाराज युधिष्ठिर इस प्रकार भीमसेनसे बातें कर रहेथे कि उसी समय वहाँमहायोगी तपोधन बृहदश्वमुनि आनकर उपस्थित हुए॥५५॥ तबधर्मनन्दन महाराज युधिष्ठिरने उन धर्मचारी धर्मात्मा और शास्त्रके जाननेवाले बृहदश्वजीको आया हुआ देखकर सन्मुख जाय मधुपर्कके द्वारा उनकी पूजा करी॥५६॥ और फिर उनको विधिपूर्वक आसनपर बैठालकर धर्मराज युधिष्ठिरने कहा युधिष्टिर बोले हे भगवन् ! अक्षद्यूत (चौप-
डका जुआ) में मेरा सारा धन और राज्य हरगया॥५७॥ मेरे दायभागी कौरवोंने जो कि पराई आजीविका हरनेमें परम प्रवीण और दुष्ट हैं, (मेरा सर्वस्व हरण करलिया) और पीछे हमारी भार्या द्रौपदीकोभी सभामें ले आये, जिससे मुझको एकतरहका अद्भुत दुःख हुआहै॥५८॥ हे ब्रह्मन् ! इस पृथ्वीतलपर मेरी समान दूसरा कोई भी दुःखी नहीं है। युधिष्ठिरकी यह बातें सुनकर मुनिवर बृहदश्वजी बोले हे महाबाहो धर्मराज युधिष्टिर ! आप बिलकुल भी दुःख नहीं कीजिये॥५९॥ हे महाराज ! पहिले सत्ययुगमें राजा नलभी (आपहीकी तरह) दुःखसे पीडित हुएथे। युधिष्ठिरने कहा हे ब्रह्मन् ! वे राजा नल कौन थे? और किस दुःखसे पीडित हुएथे ?॥६०॥ वह दुःख उनको कितने समयतक रहा ? और फिर उनका वह दुःख कैसे छूटा ? (आप यह सारी कथा विस्तारसहित वर्णन कीजिये) बृहदश्वजी बोले। हे महाराज युधिष्ठिर ! पूर्वकालमें वीरसेनके पुत्र एक नलनाम से प्रसिद्ध महाबलवान् राजा थे॥६१॥ वे सर्वगुणसम्पन्न, रूपवान, चौपड खेलनेमें प्रवीण (चतुर) और सारे राजाओंमें उनकी ऐसी प्रतिष्ठाथी, जैसे सब देवता देवराज इन्द्रकी प्रतिष्ठा कियाकरतेहैं॥६२॥ सबके ऊपर वे सूर्यकी समान तेजस्वी, ब्राह्मणोंकी सेवा करनेवाले, वेदके जाननेवाले और निषधदेशके अधिपति थे॥६३॥ पांसे खेलनेमें प्रीति करनेवाले, सत्यवादी, ग्यारह अक्षौहिणी सेनाके पति, सुन्दरी नारियोंकी इच्छा पूरी करनेवाले, उदावुद्धि, जितेन्द्रिय॥६४॥ रक्षक (पालक) और धनुषधारियोंमें श्रेष्ठ साक्षात् स्वायम्भुव मनुकी समान हुए थे। ऐसेही विदर्भदेशके महाराज भीमभी
(महापराक्रमी, ब्राह्मणभक्त, हरिभक्त, और प्रजाकी रक्षा करनेवाले) थे॥६५॥ इसके अतिरिक्त शूर, सर्वगुणी, प्रजाकी कामना करनेवाले विदर्भाधिपति भीम संतानहीन थे। उन महाराजने पुत्रके निमित्त सावधान होकर बहुत कुछ यत्नः किया॥६६॥ हे धर्मराज ! (फिर एक दिन उनके पास) दमन नामक ब्रह्मर्षि आनकर उपस्थित हुए उनके आनेपर पुत्रकी कामनावाले धर्मात्मा राजा भीमने (पूजा करके) उनको सन्तुष्ट किया॥६७॥ फिर जब अच्छे तेजवाले उन मुनिको महाराज भीमने महारानीके सहित आदर सत्कार व पूजा करके सन्तुष्ट किया, तब दमनमुनिने रानी समेत महाराज पर प्रसन्न होकर उनको वरप्रदान किया॥६८॥ अर्थात् महायशा मुनिवर दमनने अच्छे तेजवाले महाराज भीमको एक तो कन्यारत्न, और अत्यन्त उदार द्धि तीन*4 पुत्र कि जैसे दमयन्ती, दम, दान्त, और दमन प्रदान किये॥६९॥ वह सुन्दर कन्या दमयन्तीरूप, तेज, यश और सौभाग्यके द्वारा सम्पूर्ण लोकोंमें यश प्राप्त करके शोभित हुई॥७०॥ वह सब गहनोंसे विभूषित और नवीन अंगवाली सुन्दरी दमयन्ती सखियोंमें इस प्रकार शोभाको प्राप्त हुई कि जैसे बादलोंके बीच बिजली शोभाको प्राप्त होतीहैं ॥७१॥ वह अत्यन्त रूपवती लक्ष्मीकी सदृश और विस्तारित आँखोंवाली थी, उसकी बराबर रूपवती देवता और यक्षोंमें भी कोई नहीं थी॥७२॥
चौपाई
दमयन्ती विधिरूप सँवारी। रतिविमोजेहि प निहारी॥
जाय न सुन्दर वदन बखानी। थवि त होय +विकी वानी॥
मनुष्योंमें भी कामदेवको मोहित करनेवाला ऐसा रूप दिखाई नहीं देता, अधिक कहाँ तक कहें, वह बाला चित्रलिखी पुतली
की समान शोभायमान होरहीथी॥७३॥ और इधर भूमिपर नरशार्दूल महाराज नलभी+णोंकी मूर्ति और रूपमें साक्षात् कामदेवकी समान थे। इस पृथ्वीपर+णोंमें महाराज नलकी समान कोई नहीं था॥७४॥ याचकोंने उन महाराज नलकी सुन्दरताका वर्णन दमयन्तीसे आनकर किया, और निषधराज महाराज नलके समीप दमयन्तीकीसुन्दरताका वर्णन किया॥७५॥ हे कौन्तेय युधिष्ठिर ! जब उन दोनोंने एक दूसरेके रूप +णका हाल सुना तो दोनोंकी विवाह करनेकी अभिलाषा हुई और दोनोंकीही कामवृत्ति बढनेलगी॥७६॥एक दिन वनमें जातेहुए महाराज नलने हंसोंको देखा और उनमेंसे एक हंसको हाथमें पकडलिया॥७७॥ तब वह हंस महाराज, नलसे बोला कि हे नल ! आप मुझको मत मारिये, क्यों कि मैं आपका प्रिय कार्य करूंगा अर्थात् दमयन्तीसे आपका समागम (भेंट) कराऊंगा॥७८॥ व दमयन्ती जिसप्रकार आपके अतिरिक्त किसी दूसरे आदमीकी चाहना न करे, मैं वैसाही उपाय करूंगा। पक्षी इंसके ऐसा कहनेपर महाराज नलने उसको छोड़दिया॥७९॥ अनन्तर वह हंस बिदा हो कर विदर्भदेशको चलेगये, और वहाँ पहुँचकर दमयन्ती के निकट गये॥८०॥ उन हंसोंके वहाँ पहुँचनेपर दमयन्तीने उनको देखा। तब अपनी सखी सहेलियोंसे घिरीहुई वह दमयन्ती उन अद्भुत रूपवाले, हंसोंको देखकर॥८१॥ हर्षित होती हुई उन हंसोंके पकडनेको इधर उधर दौडी, तब वह अनेक वर्णवाले हंस स्त्रियोंके चारों ओर॥८२॥ इधर उधर होकर अलग अलग फिरनेलगे, किन्तु एकही हंस वहाँ ठहरगया कि जिसको महाराज नलने भेजाथा॥८३॥ फिर दमयन्ती जिस हंसके पकड़नेकी इच्छा करतीथी, वह मनुष्यकी वाणी करके दमयन्तीसे बोला॥८४॥
चौपाई
सुनु दमयन्ती बात हमारी। निषधदेश महीपति भारी।
नलराजाउपमा को कहई। देखत रूप मोहि जग रहई॥
तब यह सफल तोर है रूपा। जो पति पावो नलसों भूपा॥
सुनि दमयन्ती हृदय जुडाना। हंस वचन सुनि हर्षित प्राना॥
बह दमयन्ती कर उपाई। जाते वरै मोहि नलराई॥
भये स्वयंवर उनकहँ वरिहौं। अरु काहूको चित्त न धरि हौं।
हंसने कहा हे दमयन्ती ! एक नलनामक निषधदेशके महाराज हैं, जो कि रूपमें कामदेवके तुल्य हैं और सारे मनुष्योंमें एकभी उनकी समान नहीं है॥८५॥ हे वरवर्णिनी ! हे सुमध्यमे ! यदि आप उनकी भार्या बनजाँय, तो यह आपका रूप और जन्म सफल होवे॥८६॥मैंने क्या देवता, क्या गन्धर्व, क्या मनुष्य, क्या सर्प और क्या राक्षस सब किसीकोही देखडालाहै, किन्तु मुझको तो महाराज नलकी समान रूप किसीमें भी दिखाई नहीं दिया॥८७॥ आप तो नारियोंमें रत्न हैं, और निषधाधिपति नल पुरुषोंमें शिरोमणि हैं, अत एव आप महाराज नलको ही वरिये, क्यों कि श्रेष्ठ कन्याका श्रेष्ठपतिसे संगम होनेपरही ठीक होताहै॥८८॥ हे महाराज युधिष्ठिर ! उस हंसके यह बातें कहनेपर दमयन्तीने कहा हे हंस ! मैं आपके कथनानुसार महाराज नलकोही अपना पति बनाऊँगी। किन्तु अब यह बात अच्छे तत्त्वके ज्ञाता महाराज नलसेभी जाकर कहदीजिये॥८९॥
तथेत्युक्त्वांडजःकन्यां वैदर्भस्य विशांपतेः॥
पुनरागत्य निषधान्नले सर्वं न्यवेदयत्॥९०॥
हे महाराज युधिष्ठिर ! दमयन्तीके इस प्रकार कहनेपर पक्षी हंसने ‘ऐसाही होगा’ कहा और फिर उसने निषधदेशमें महाराज नलके पास जाकर सब समाचार निवेदन करदिया॥९०॥
दोहा
हंस देश निषधमहँ, राजहि हा बुझाइ।
कन्या तुमस +उ, कर हर्ष मन राइ॥
इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥
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एकविंशोऽध्यायः २१।
एकविंशे शक्राद्या दमयन्तीं जिघृ+वः।
तैः लिः प्रेरितस्तेन बद्धिभ्रशो नले कृतः॥१॥
इस इक्कीसवें अध्यायमें इन्द्र इत्यादि देवताओंने दमयन्तीके वरनेकी इच्छासे (जिसप्रकार) कलिको भेजकर महाराज नलकी बुद्धिको भ्रष्टकिया, सो कथा वर्णन करीजाती है॥१॥
बृहदश्व उवाच।
दमयन्ती तु यच्छ्रुत्वा वचो हंसस्य भारत।
तदा प्रभृति न स्वस्था नलं प्रति बभूव सा॥१॥
बृहदश्वजीने कहा है भारत। दमयन्तीने जबसे हंसकी बातें सुनीं, उसी दिनसे वह महाराज नलके प्रति आसक्त होगई अर्थात् महाराज नलकी चिन्तासे स्वस्थ न हुई॥१॥ और वह चिन्तापरायण, दीन, विवर्ण, दुबली, दमयन्ती (लम्बेलम्बे) श्वास छोडनेवाली होगई॥२॥ अनन्तर दमयंतीके मनमें कामका आविर्भाव होजानेकेकारण ऊर्द्धदृष्टि अर्थात् ऊंची दृष्टिवाली, भाँति भाँतिकी चिन्ता से युक्त, बडी आँखोंवाली, और पांडुवर्णबाली होगई॥ ३॥ वह शय्या, भोजने और भोगोंमें प्रीति नहीं बाँधती, और हा नाथ ! हा नाथ ! इस प्रकार वारंवार कहती हुई क्या दिन और क्या रात कभीभी नहीं सोतीथी॥४॥ तब उसकी सखियोंने पतिकी कामना करनेवाली दम-
यन्तीकी ऐसी अवस्थाको जान लिया और फिर उन सखियोंने विदर्भराजाके पास जाकर दमयन्तीकी इस अवस्थाका सारा समाचार कह सुनाया ॥५॥ तब अपनी कन्या दमयन्तीको यौवन अवस्था (जवानी) में स्थित देखकर वह महाराज इस कामकी अत्यन्त चिन्ता करनेलगे, क्योंकि कन्याके निमित्त समान वरका खोजना सहज काम नहीं है, महान् काम है॥६॥ इसके पीछे उन्होंने सोच विचार करके अपने करने लायक कार्य दमयन्तीका स्वयंवर ही देखा, और फिर पृथ्वीतलमें जितने राजा थे, उन सबको बुलाकर कार्यका आरंभ करदिया॥७॥तब महाराज भीमके शासनमें रहनेवाले सारे राजा हाथी, घोडे और रथोंके शब्दसे पृथ्वीको शब्दायमान करतेहुए (दमयन्तीके स्वयंवरमें) आये॥८॥ उस काल विचित्र माला व गहनोंसे विभूषित तथा देखनेयोग्य अपनी सेनाके द्वारा शोभायमान नरेश आनकर प्राप्त हुए। फिर उसी अवसरमें प्राचीन ऋषियोंमें श्रेष्ठ॥९॥ महात्मा देवर्षि श्रीनारदजी महाराज और पर्वतमुनि पृथ्वीपर घूमते घामते इन्द्रलोकको चलेगये॥१०॥ फिर जब सब किसीके पूजा करने योग्य इन दोनों मुनियोंने देवराज इन्द्रके भवनमें प्रवेश किया, तब सहस्राक्षने उनका (आदर सत्कार) और पूजा करके कहा॥११॥ इन्द्र बोले। हे ब्रह्मन् ! आपके और सब लोकोंको कुशल तो है ? इस भाँति देवराजने सब लोकोंमें विचरनेवाले सर्वज्ञ नियोंसे कुशल प्रश्न किया ? तब श्रीनारदजी बोले हे वीर ! हे विभो ! ईश्वरकी कृपासे हम दोनों कुशल मंगलसे हैं, और हे मघवन् !हम सब लोकोंमें गयेथे, सो वहाँके सब राजा भी कुशल मंगलसे हैं॥१२॥ बृहदश्वजीने कहा। हे महाराज युधिष्ठिर ! नारदजीकी यह बात सुनकर देवराज इन्द्रने शीघ्र-
तासे कहा, हे देवर्षि श्रीनारदजी महाराज ! ऐसे धर्मके ज्ञाता और पृथ्वीकी रक्षा करनेवाले राजालोग संग्रामके अर्थ अपने प्राणोंको गवाँय दिया करतेहैं॥१३॥ अतएव जो पुरुष शस्त्रके द्वारा प्राणत्याग किया करतेहैं और लडाईमें पीठ नहीं दिखायाकरते, तो जिस तरह यह स्वर्ग मेरी अभिलाषाओंको पूरा किया करताहै, उसी तरह यह लोक उनकीभी सब अखंड कामनाओंका पूरा करनेवाला होताहै॥१४॥ किन्तु मैं उन शूर क्षत्रियोंको यहाँ आयाहुआ नहीं देखताहूँ++दमयन्तीकेलेनेकी अभिलाषा करनेवाले राजालोग आनेवाले हैं॥१५॥ इन्द्रके इस प्रकार कहनेपर नारदजीने कहा हे इन्द्र ! उन राजाओंके यहाँ दिखाई न देनेका कारण सुनिये॥१६॥ एक दमयन्तीनामवाली विदर्भदेशाधिपति महाराज भीमकी कन्या है जो रूपमें विख्यात पृथ्वीकी सारी स्त्रियोंमें बढी चढी है॥१७॥हे देवराज ! उसी दमयन्तीके स्वयंवरमें आप सरीखे सम्पूर्ण राजा और राजकुमार चलेजारहेहैं॥१८॥ और हे बलवान् वृत्रासुरका नाश करनेवाले ! मृत्युलोकके सारे नरेश उस दमयन्तीरूपी रत्नके प्राप्त करनेकी अभिलाषा कररहेहैं, और अधिक प्रार्थना कररहेहैं बरन् वे सब महीपाल दमयन्तीके वरनेकी कामनासे जाही रहेहैं॥१९॥ इस तरह देवर्षि श्रीनारदजी कहतेही थे, कि इसी अवसरमें देवोत्तम साग्निक लोकपाल देवराज इन्द्रके निकट आनकर, उपस्थित हुए॥२०॥ उन सबनेभी आनकर देवर्षि नारदजीकी वे महान् बातें सुनीं और सुनकर वे हर्षित चित्तसे कहनेलगे कि हम सब लोगभी दमयन्तीके उस स्वयंवरमें जाँयगे॥२१॥ हे राजा युधिष्ठिर ! अनन्तर वे सब लोकपाल अपने अपने वाहन और गणोंसमेत विदर्भदेशको चलदिये, जहाँ पहिले सब राजा
लोग जाचुकेथे॥२२॥ हे कौन्तेय! फिर महाराज नलभी (दमयन्तीके स्वयंवरमें) राजाओंका समागम सुनकर वहाँ गये कि जो महा समर्थ और दमयन्तीके अनुकूल थे॥२३॥ तब उन देवताओंने रास्तेमें ही महाराज नलको पृथ्वीपर खडा देखा, कि रूपसम्पदाके द्वारा साक्षात् कामदेव नलकी मूर्त्तिधारण किये खडेहैं॥२४॥ अनन्तर इन्द्र इत्यादि लोकपालोंने महाराज नलको सूर्यकी समान प्रकाशमान देख और उनकी रूपसम्पत्तिसे आश्चर्ययुक्त होकर जो अभिलाषा करतेहुए जारहेथे उसको निष्फल जाना॥२५॥
चौपाई
मारग माँझ मिले न राई। सुरपति वचन ह्यो समुझाई॥
हम व जात स्वयंवर राजा। हँसिकै वचन हे र राजा॥
हमरे हेतु दूत ह्वैजाहू। दमयन्ती हम सौं करिव्यांहू॥
चारि जने हम इक मन माना। नि नल राजा बहुत जाना॥
तब उन देवताओंने अपने विमानोंको अन्तरिक्ष (आकाश) में स्थापन किया, और फिर स्वर्गसे पृथ्वीपर आनकर महाराज नलसे कहा॥२६॥ कि हे महाराज नल ! हम लोग आपकी प्रशंसा सुनकर एक कामके लिये आपके निकट उपस्थित हुए हैं, सो आशाहै कि आप उसको अवश्यही करदेंगे। हे युधिष्ठिर ! उन प्रार्थी देवताओंकी यह बात सुनकर महाराज नलने उत्तर दिया कि, आपका कार्य यदि मेरे द्वारा होसकेगा, तो मैं उसको अवश्य करदूंगा। महाराज नलने उन देवताओंसे इस भाँति प्रतिज्ञा करली, और फिर उन्होंने न देवताओंसे हाथ जोड़कर पूंछा॥२७॥ कि आप लोग कौन हैं ? और वह कौन है ? जिससे मित्रता करनेकी आप अभिलाषा कररहे हैं। तथा आप सबजने कहाँ को जारहेहैं ? कौनसा काम है ? यह सब सत्यही सत्य बतादीजिये॥२८॥ महाराज नलके इसप्रकार कहने पर
देवराज इन्द्रने कहा हे नल ! आप हम सबको दमयन्तीके निमित्त आये हुए देवता जानिये॥२९॥ हे महाराज ! यह मैं देवराज (इन्द्र) हूँ, यह अग्नि हैं, यह जलके अधिपति वरुणजी हैं और यह मनुष्य शरीरके नाशक यमराज हैं॥३०॥ अब आप हमलोगोंके दूत बनजाइये और हमारे सबके यह समाचार दमयन्तीसे जायकर (इसतरह) निवेदन करदीजिये कि, आपके दर्शनोंकी इच्छासे इन्द्रके सहित लोकपाल आये हैं॥३१॥ आपको ग्रहण करनेकी अभिलाषासे इन्द्र, अग्नि, वरुण और यम यह चारों देवता आनकर प्राप्त हुएहैं, अतएव हे कामिनी ! आप इन चारों देवताओंमें एक देवताको रानी होनेके लिये वर लीजिये॥३२॥ देवराज इन्द्रके इस तरह कहनेपर महाराज नलने उत्तर दिया। नलने कहा आपको इस कामके निमित्त मुझे नहीं भेजना चाहिये॥३३॥देवता बोले, हे निषधराज ! पहले आप हमलोगोंसे यह प्रतिज्ञा करचुकेहैं कि ‘यदि इसे होसकेगा, तो मैं आपका काम अवश्य करूंगा’ सो उसको अब कैसे नहीं करोगे ? अत एव आप जल्दीसे जाइये॥३४॥
**दोहा **
बोले नल नृपभवनमहँ, रहैं ब त रखवार।
राजसुतासों जाय वि मि, हिहौंबात तुम्हार॥१॥
चौपाई
इन्द्र कह्मोमम आज्ञा होई। तुमहिं जात देखहि नहिं कोई॥
रि मन दुरित चले नृप तहँवा। राजकुँवरिअन्तःपुर जहँ॥
बृहदश्वजीने कहा हे धर्मराज ! देवताओंके इसप्रकार कहनेपर महाराज नलने जाते जाते कहा कि दमयन्तीके मन्दिरकी बहुतसे योधा रखवाली किया करतेहैं, सो भला उस मन्दिरमें मैं किस तरह घुस सकूंगा?॥३५॥ जब नलने यह बात कही तब उन लोकपालोंने महाराज नलको अश्दृयविद्या देकर फिर कहा कि इस विद्याके द्वारा आप उसके मन्दिरमें बेखटके प्रवेश कर सकेंगे
अनन्तर महाराज नल देवताओंसे बहुत अच्छा, कहकर दमयन्तीके स्थानको गये॥३६॥और वहाँ जाकर सखियोंसे घिरीहुई विदर्भकुमारी दमयन्तीको देखा कि अपने देहकी कान्ति द्वारा प्रकाशमान और उत्तम वर्णवाली॥३७॥अत्यन्त सुकुमार अंगवाली, पतली कमर और सुन्दर नेत्रोंवाली, अपने शील प्रकाशद्वारा चन्द्रमाका आक्षेप करनेवाली॥३८॥ और जिस दमयन्तीके देखनेपर वूढे आदमीकोभी कामेच्छा होतीहै, महाराज नलने उस चारुहासिनी दमयन्तीका दर्शन किया, और उधर दमयन्तीकी सखियाँ महाराज नलको देख भ्रमित हो॥३९॥ उनके तेजसे घर्षित, प्रसन्न और आश्चर्ययुक्त सभांगनसे उठकर महाराज नलकीवडाई करनेलगीं॥४०॥ कि अहो ! इन महात्माका कैसा रूप है ? कैसी महा कान्ति है ? और कैसा धैर्य है ? यह कोई देवता, यक्ष अथवा गन्धर्व होंगे॥४१॥ इस भाँति विचारकर और महाराज नलको देखकर वह वरांगना लजायरहीं इसी कारण महाराज नलसे कोई बात नहीं कहसकीं॥४२॥ इसके पीछे सुन्दरी और मन्द मन्द मुसुकाकर बोलनेवाली बाला दमयन्तीने अचंभेमें भरकर महाराज नलसे कहा॥४३॥ हे सब निर्दोषअंगवाले ! हे वीर ! हे पापरहित ! आप मेरे कामको बढानेवाले देवताओंके समान यहाँ आनेवाले कौन व्यक्ति हैं ? मैं आपको जानना चाहतीहूँ॥४४॥ आप यहाँ किस तरह आपहुँचे ? रक्षक इत्यादिने आपको क्यों नहीं देखा ? क्योंकि मेरे घरकी अनेक वीर रखवाली किया करतेहैं और मेरे पिता महाराज (भीम) का वडा उग्र शासन है॥४५॥
चौपाई
दमयन्ती पूछोनृप पाँहा। तब परिचय दीन्हों नरनाहा॥
जौन प्रकार इहाँको आये। आवत काहु न देखन पाये॥
इन्द्र वरुण यम पावक आये। तेइ दूत++रि मोहि पठाये॥
चारों जन हूँ मन महँ धरहू। एकजने हँ स्वामी करहू॥
विदर्भराजकुमारी दमयन्तीके इसप्रकार पूछनेपर महाराज नलने उत्तर दिया हे कल्याणी ! मुझको आप नल जानिये। मैं देवताओंका दूत बनकर यहाँ आयाहूँ॥४६॥हे शोभने ! आपकी प्राप्ति करनेकी कामनासे इन्द्र, अग्नि, वरुण और यम यह देवता आयेहैं, इनमेंसे एक देवताको आप अपना पति बनालीजिये॥४७॥ उन्होंने जोमुझको अदृश्य होनेकी विद्या दीथी, उसीके सहारेसे मैंने यहाँ प्रवेश कियाहै, हे कल्याणी ! उन सुरसत्तमों (लोकपालों) ने मुझे इसी कामके लिये यहाँ भेजाहै॥४८॥
ततः श्रुत्वा शुभे देवि कुरु त्वं यदि रोचते॥
अत एव हे कल्याणी!हे देवि ! उनकी यह बात सुनकर अब आपको जो अच्छालगे वही कीजिये॥४९॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नामैकविंशोऽध्यायः॥२१॥
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द्वाविंशोऽध्यायः २२.
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द्वाविंशे विबुधान्हित्वा देवी चक्रे नलं ध्रुवम्।
देवेशेभ्यो वरप्राप्तिर्न रा++स्यवर्ण्यते॥१॥
इस बाईसवें अध्यायमें दमयन्तीका देवताओंको छोडकर नलको पति बनाना और फिर उन देवताओंसे महाराज नलको वर मिलना, यह कथा वर्णन करीजातीहै॥१॥
बृहदश्व उवाच।
सा नमस्कृत्य राजानं प्रहस्य नलमब्रवीत्॥
आदौ वृतोऽसि राजेन्द्र देवाः सन्तु यथा ++म्॥१॥
बृहदश्वजीने कहा हे राजाओंमें इन्द्र युधिष्ठिर ! तब वह दमयन्ती महाराज नलको प्रणाम करके कहनेलगी। हे राजन् ! में प्रथमही सुखपूर्वक आपको वर चुकी हूँ, अब उन देवताओंसे मेरा कुछ प्रयोजन नहीं है॥१॥
चौपाई
लज्जित ह्वैदमयन्ती कहई।देव नाग नर चित्त न अहई॥
देवल पति हम तुम कहँ जाना। देव नाग नहिं कोउ मन माना॥
राजा कहेउ दोषमोहि होई। कहैं देव हमहीं सब कोई॥
चर ह्वैआपन काज सँवारा। देव अवज्ञादुख है भारा॥
कह कन्या नृप देवन साथा। पठयहु तुमहिं होन नरनाथा॥
जिय अपने महँ तुमही आनों। तुम तजि कैसे दूसर जानों॥
यहहि कन्या नृपहि बुझाये। देवन पहँ नराजा आये॥
हे पार्थिव ! मेरे मनमें उस इसकी बात जमी हुई है। इसी कारण हे वीर ! आपके निमित्त अन्य राजाओंका मैंने निरादर कर दियाहै॥२॥यदि आप मुझ भजनेवालीका ‘नहीं’ कहकर निरादर करेंगे, तो मैं आपके लिये विष खाकर, अग्निमें जलकर, जलमें डूवकर अथवा रस्सीद्वारा गलेमें फांसी लगाकर अपने प्राण त्यागदूँगी॥३॥महाराज भीमकी कन्या दमयन्तीके इस प्रकार कहनेपर नलने उत्तर दिया। नलने कहा आप लोकपालोंके आगे मुझ मनुष्यकी अभिलाषा कैसे कररहीहैं ?॥४॥ क्योंकि में तो उन महात्मा लोकपालोंके पदरजकी समानभी नहीं हूँ, इस कारण हे सुमध्यमे ! आप उनको ही वरियै अर्थात् उनमें से किसीएकके साथ अपना विवाह करलीजिये॥५॥ गुरु, देवता और ब्राह्मणोंकी आज्ञा भंग करनेसे मृत्यु होती है, अतएव हे निर्दोष अंगोंवाली ! आप मुझको छोडकर उन्हीं उत्तम देवताओंको वरलीजिये॥६॥ महाराज नलकी इसप्रकार बातें सुनकर बुद्धिमती दमयन्ती आँसुओंकी
धारा छोडने लगी और फिर महान् दुःखित हो धीरे धीरे राजा नलसे कहने लगी॥७॥ दमयन्ती बोली हे महाराज नलेश्वर ! इसका एक उपाय है, जो कि आपने तो नहीं देखाहै, किन्तु मैंने देख लियाहै, यदि उस उपायसे काम कियाजायगा, तो फिर आपको किसी तरहकाभी दोष नहीं लगसकेगा॥८॥ हे नरश्रेष्ट ! आप मेरे स्वयंवरमें इन्द्र इत्यादि सब देवताओंके संग मिलित होकर आइये॥९॥ तब मैं हे नलेश्वर ! उन लोकपालोंके सामने ही आपको वरूंगी। हे नरव्याघ्र ! ऐसा होनेपर आपको कुछभी दोष नहीं लगेगा॥१०॥ वैदर्भकुमारी दमयन्तीके इसप्रकार कहनेपर महायशस्वी महाराज नल वहाँ आये, जहाँ इन्द्रके साथ सब देवता स्थित थे॥११॥
चौपाई
देव सबै तब पूं न लीन्हो। तबहीं न यह उत्तर दीन्हो॥
मोहि छाँडि मन और न माना। मैं गुण रूप तुम्हार बखाना॥
सुनत देव भये अन्तर्द्धाना। राजसभा नल करें पयाना॥
तब लोकपालोंने नरेश्वर महाराज नलको आयाहुआ देखकर वहाँका सारा हाल पूछा॥१२॥ देवता बोले हे भूपाल ! उस मन्द मन्द हँसनेवाली दमयन्तीको क्या आपने देखा है? और हे पापरहित ! हमारे लिये उस देवीने आपसे क्या कहा है ? सो बतादीजिये॥१३॥ नलने कहा।हे लोकपालो ! जब कि, आप पूछतेहैं, तो मैं आपसे सब बताये देता हूँ कि, दमयन्तीके घरकी रखवाली दंडधारी सिपाही खडेहुए कररहेहैं, जिससे वहाँ आदमी बहुत कष्ट स्वीकार करकेभी नहीं घुससकता॥१४॥ किन्तु तथापि मुझको घुसतेहुए किसी आदमीनेभी नहीं देखा और आपलोगोंके तेजद्वारा नम्रहुई राजकुमारी दमयन्तीको॥१५॥ मैंने सखियोंसे घिरीहुई देखा और हे देवेश्वरो !मुझकोभी न सारी स्त्रियोंने देखलिया और मुझको
निहार कर वे सब अचंभेमें होगई॥१६॥फिर मैंने उनसे आपकी सुन्दरता और गुणोंका (भलीभाँति) वर्णन किया, किन्तु हे उत्तम देवताओ ! उस दमयन्तीने मेरेही वरनेका संकल्प कररक्खा है, अतएव मुझकोही स्वीकार करतीहै॥ १७॥ इसके पीछे वह बाला मुझसे यह भी बोली कि, हे नरोत्तम ! मेरे स्वयंवरमें आप सब देवताओंके साथ मिलकर तुरन्तही चले आइये॥१८॥ तो हे नरश्रेष्ट ! मैं उनके सामनेही आपको वरूंगी और हे महाबाहो ! ऐसा होनेपर आपको कुछ दोष नहीं लगेगा॥१९॥ हे लोकपालो ! मैंने जो प्रथम आपसे प्रतिज्ञा करी थी, सो उसीके अनुसार सब कामभी करदिया, स्वर्गके देवता इस वातकी साक्षी देसकतेहैं॥२०॥बृहदश्वजीने कहा हे महाराज युधिष्ठिर ! अनन्तर अच्छे काल, उत्तमै तिथि और शुभ मुहूर्त्तके प्राप्त होनेपर महाराज भीमने अपनी कन्याके स्वयंवर में सबराजाओंको बुलाया॥२१॥ तबराजकुमारी दमयन्तीके स्वयंवरकी बात सुनकर वे सारे राजालोग सुवर्णके थंभयुक्त, तथा महा सुन्दर शोभा और तोरणोंसे युक्त॥२२॥इस प्रकारकी रंगभूमिमें जिस भाँति सिंह पहाडपर आताहै उसी तरह आनकर उपस्थित हुए । फिर वहाँ अनेक आसनोंपर सारे राजा बैठगये (और उन्हींके बीचमें यह चारों लोकपाल तथा महाराज नल भी जा बैठे) ॥२३॥ वे सब पुष्पमाला पहरे, सुगन्धित अनुलेपन लगाये, और उत्तम प्रकाशमान मणिजडित कुण्डल धारण कररहे थे, उनको देखकर देवता और गन्धर्वपतिभी अचंभे में होगये॥२४॥ इनके अतिरिक्त जो उस स्वयंवरमें पुरवासी और जनपदवासी आनकर बैठे हुए थे, उनके हाथ परिघके समान दिखाई देरहे थे॥२५॥ राजकुमारी दमयन्तीका स्वयंवर देखनेके निमित्त मूर्त्तिमान् सारे
देवता, और पांचमस्तकके सांप भी आये थे॥२६॥ इसके पीछे सुन्दर मुखवाली राजकुमारी दमयन्तीने अपनी कान्तिसे सारे राजाओंका दृष्टि और मनको हरते हुए रंगभूमिमें प्रवेश किया॥२७॥ और जिस जिसे महात्मा राजाके अंगपर राजकुमारी दमयन्तीकी दृष्टि पडी, वे सबराजा जहाँके तहाँ तसबीरमें लिखे देवताके समान निश्चल होगये॥२८॥ हे भारत ! इसके पीछे (बन्दीजन) सारे राजाओंके नाम व (ण) वर्णन करनेलगे । उनमें जब राजकुमारी दमयन्तीने महाराज नलका नाम सुनकर उधरको देखा, तो उसको एकसी सूरतके पांच नल दिखाई दिये॥२९॥ जब देवी दमयन्ती वालाने एकसी सूरतर्क, पाँच नलों को वैठा हुआ देखा, तो वह सन्देहसे महाराज नलको नहीं पहिचानसकी॥३०॥ उस काल वह देवी दमयन्ती जिस जिसको देखे, उसको मनमें नलही समझे, तब वह भामिनी चिन्ता करती हुई अपनी बुद्धिसे स्वयं ही तर्कना करनेलगी ॥३१॥ कि प्रथम बडोंके मुखसे देवताओंके जो लक्षण सुने थे, इस समय देवी दमयन्तीने अपने हृदयमें उन्हींको विचारकर महाराज नलमें अपने मनको धारणकिया॥३२॥ राजकुमारी दमयन्ती स्वयंवरकी भूमिमें सोच रहीहै मैं देवताओंको किस तरह पहिचानूं ! अथवा महाराज नलको कैसे पहिचानूं ! और यह मेरा दुःख किस प्रकारसे दूर हो !॥३३॥ (उसने फिर सोचा कि) मनुष्य तो भूमि पर चलते फिरते हैं, और देवता आकाशमें विचरते रहतेहैं, वे पृथ्वीपर पैर नहीं रखते, उस देवीने यह विचारकरः महाराज नलको देखा॥३४॥ इसके पीछे राजकुमारी दमयन्ती हाथ जोड काँपतीहुई मन और वचनसे प्रणाम करके देवताओंसे इस तरह कहने लगी॥ ३५॥
चौपाई
विनय रत तब राज दुलारी। हे देवहु मैं शरण तुम्हारी॥
नैषध पति है स्वामी मोरा। करो प्रकट पद वन्दव तोरा॥
सुनिके विनय दयाकर कीन्हे।आपन रूप व++रि धरिलीन्हे॥
चीन्हों नल तब राज कुमारी।जय मा++तिनके गर डारी॥
राजा सत्य वचन कह सोई। देवन तजि जनि हम मन मोई॥
यहै प्रतिज्ञा सत्य हमारी। क्षण यक तुम्हहि करव जनि न्यारी॥
दीन्ह देव पति यह वर दाना। इन्द्र कहेहम पवन् पयाना॥
सुमिरत तुम ढिग तुरतहि ऐहौं। यातें सदा सुक्ख तुम दैहीं॥
दोहा
पावक अग्नीशक्ति दै, वरुण दियो जलवान॥
धर्म माँहि रति यम दई, भये सब अन्तर्धान॥१॥
मैं हंसका वचन सुनकर प्रथमही पतिभांवमें महाराज नलको स्वीकार करचुकी हूँ। हे देवताओ ! अब आप उसी सत्यसे महाराज नलका दर्शन करादीजिये॥३६॥हे देवताओ ! यदि मैं मन तथा वचनसे महाराज नलके साथ छल और कपट नहीं करतीहूँ, तो मुझको उसी सत्यसे उनका दर्शन करादीजिये॥३७॥ तब वे सब देवता राजकुमारी दमयन्तीका दृढ निश्चय और महाराज नलमें अनुराग तथा मनकी पवित्रता व भक्ति देखकर अत्यन्त अचंभेमें हुए॥ ३८॥ तब उन नलरूपधारी सब देवताओंने दमयन्तीका अभीष्ट कार्य सिद्ध किया अर्थात् अपना अपना असल रूप धारण करके उसको महाराज नलका दर्शन करादिया। उस काल दमयन्ती उन सब देवताओंको इकटक नेत्रोंसे देखनेलगी॥३९॥ फिर राजकुमारी दमयन्तीने अत्यन्त रमणीय रंग भूमिमें स्थित तथा पृथ्वीको नहीं छूतेहुए उन सारे देवताओंको जानकर त्यागदिया॥४०॥ अनन्तर बडे बडे नेत्रवाली दमयन्तीने पृथ्वीपर स्थित और पलक मारतेहुए महाराज नलको जानकर लज्जित भावसे उनका
वस्त्र पकडलिया॥४१॥ फिर सुलोचना दमयन्तीने धर्मंप्रिय महाराज नलके गलेमें जयमाला पहिराकर उनको पतिभावमें वरण करलिया॥४२॥ हे भारत ! उस काल बहुतसे राजालोग तो मनमें दुःखि होकर हाहाकार शब्द करनेलगे तथा देवता और महर्षि ‘साधु ! साधु !’ शब्द उच्चारणकरने लगे॥४३॥ फिर जब राजकुमारी निषधाधिपति महाराज नलको वर चुकी, तब उन महातेजस्वी सब लोकपालोंने अपने मनमें सन्न होकर राजा नलको आठ वर दिये॥४४॥ अर्थात् शचीपति इन्द्रने प्रसन्न होकर महाराज नलको यज्ञमें त्यक्ष दर्शन और उत्तम शुभगति यह दो वर प्रदान किये॥४५॥ हुताशन (अग्नि) देवताने महाराजं नलकी इच्छानुसार अपना भाव (प्राकट्य) और लोकमें अपनेही समान प्रभा उनको देदी॥४६॥ यमराजने महाराज नलको अन्तर्धान होनेकी विद्या और धर्ममें परमा स्थिति दी। जलाध्यक्ष वरुणदेवताने उनकी अभिलाषानुसार अपना भाव (प्रकटहोना) प्रदान कर दिया॥४७॥ तथा वरुणजीने महाराज नलको एक उत्तम सुगन्धित मालाभी अर्पण करी इसप्रकार सब देवता महाराज नलको दो दो वर देकर स्वर्गमें चलेगये॥४८॥ इसके पीछे दमयन्तीकेविवाहका अनुभव करके सारे राजालोग अचंभेमें भरे अपने अपने घरोंको चलेगये और फिर ब्राह्मणभी प्रसन्न हो जिस तरह आयेथे, वैसेही अपने अपने घरोंको सिधारगये॥४९॥ इसके पीछे स्त्रीरत्नको पाकर पवित्र यशवाले और बलवान् महाराज नल जिस प्रकार शचीके संग देवराज इन्द्र विहार कियाकरतेहैं, उसी प्रकार उस दमयन्तीके संग रमण करनेलगे॥५०॥ इस प्रकार अत्यन्त दितमन हो वह वीर महाराज नल धर्मानुसार प्रजाका पालन करतेहुए अनेक रचना
करनेलगे अर्थात् प्रजाके हितार्थ उन्होंने अनेक औषधालय, अनाथालय और देवमन्दिर आदि निर्माण किये॥५१॥ फिर उन्होंने नहुषपुत्र ययातिके समान अश्वमेध यज्ञकरके देवराज इन्द्रकी पूजा करी तथा पूर्ण दक्षिणा सहित और भी अनेक यज्ञोंद्वारा धर्म इत्यादि देवताओंका यजन किया॥५२॥ फिर महाराज नल देवताओंके समान मनोहर वन और बगीचियोंमें महारानी दमयन्तीके साथ विहार करनेलगे॥५३॥
चौपाई
यहि प्रकार दमयन्ति विवाही। वेदविदित सब रीति निबाही॥
दाइज भीम नृपति बहु दीन्हो। ह्वैकै बिदा च न कीन्ही॥
बाजे ब++तमनो घन गाजा। नगर आपुनेआयठ राजा॥
ऐसे आय वसे राजधानी। न राजा दमयन्ती रानी॥
केतिक दिवस बीति इमि गय । नाना++लि रंग रवि भयऊ॥
इहि विधि रति रस राजा कीन्हो। इन्द्र सरिस उपमा हँलीन्हो॥
धर्मवन्त नैषधपति राजा। पालै प्रजा पुत्रकेराजा॥
दोहा
राज्य रैंमहाराज न, करि बहु धर्म प्रा श
दमयन्ती अरु राजा, पूजेठ दोनों आश॥
‘एवं स य मानस्तु विरराम नराधिपः’॥५४॥
इस प्रकार नराधिप महाराज नलने देवताओंका यजन (पूजन) करके विराम प्राप्त किया॥५४॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥
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त्रयोविंशोऽध्यायः २३.
त्रयोविंशेलिप्राप्तिर्न राजे नृपोत्तमे॥
तन्निमित्तमभूद्यूतं तत्ख्यातिरिह वर्ण्यते॥१॥
इस तेईसवें अध्यायमें नृपोत्तम महाराज नलके शरीरमें
कलिकी प्राप्ति और उसीके कारण जुएका होना, यह कथा वर्णन करीजातीहै॥१॥
बृहदश्व उवाच।
वृते तु नैषधे भैम्या लोकपाला महौजसः॥
यतो ददृशुरायांतं द्वापरं कलिना सह॥१॥
बृहदश्वजीने कहा हे महाराज युधिष्ठिर ! महाराज नलके दमयन्तीको वर लेनेपर मार्गमें जातेहुए महाबलवान् लोकपालोंने कलिके सहित द्वापरको देखा॥१॥तब उस कलिको देखकर बलवान् वृत्रासुरका नाश करनेवाले देवराज इन्द्रने कहा हे कले ! आप इस समय द्वापरके साथ कहाँ जारहेहैं ? सो बताइये॥२॥ यह सुनकर कलियुगने उत्तर दिया हे इन्द्र ! मैं दमयन्तीको वरनेकी इच्छासे उसके स्वयंवरमें जारहाहूँ, क्योंकि मेरा चित्त दमयन्तीमें आसक्त होगयाहै॥३॥देवराज इन्द्र हँसकर बोले हे कलि ! वह स्वयंवर तो हो बीता और दमयन्तीने हमारे समीपही अर्थात् हम सरीखेलोकपालोंके होतेहुएभी महाराज नलकोही वरलिया॥४॥
चौपाई
यह नि कलियुग उठा रिसाई। बोलेउ वचन क्रोध जिय लाई॥
नलके निकट जात रराई।राज्य छुडाउब निज वरिआई॥
इन्द्रके इसप्रकार वचन सुनकर कलिने बडा कोप किया और फिर उसने देवताओंसे मन्त्रण (सलाह) करके कहा॥५॥ कि मैं देवी दमयन्तीसमेत अवश्य महाराज नलको राज्यसे च्युत (अलग) करदूँगा; क्योंकि ऐसे मनोहर देवताओंको छोडकर दमयन्तीने (एक साधारण मनुष्य) नलको अपना पति बनाया है॥६॥उस कलिके इस प्रकार कहनेपर देवताओंने कहा कि सर्वगुणसम्पन्न धर्मात्मा महाराज नलकी कौन निन्दा करता है ?॥७॥है कले ! उन महाराज नलकीतो
निन्दा करेगा, वह नरकमें गिरेगा, कलियुग और द्वापरसे इस तरह कहकर वे सब देवता स्वर्गमें चलेगये॥८॥ तब उन देवताओंके चलेजानेपर कलि द्वापरसे बोला कि, हे भाई! मैं अपने कोपको नहीं रोकसकता, इस कारण महाराज नलके शरीरमें वसूंगा॥९॥ और उनको राज्यसे भ्रष्ट करके दमयन्तीसे उनका वियोग कराऊंगा। आपभी अक्षविद्या (पांसोंकी विद्या) को भलीभाँति जानतेहैं, अत एव मेरी सहायता कीजिये॥१०॥ बृहदश्वजीने कहा। हे महाराज युधिष्ठिर ! अनन्तर वह कलि द्वापरसे इस प्रकार सलाह करके जहाँ निषेधाधिपति महाराज नल थे, वहाँ आपहुँचा॥११॥ और वह प्रतिदिन महाराज नलके शरीरमें घुसनेका अवसर देखताहुआ निषधदेशमें उनके समीप बहुत समयतक रहा, फिर कलिको बारह वर्ष बीतजानेपर उनके शरीरमें घुसनेका अवसर मिला॥१२॥ अर्थात् एक दिन महाराज निषेधाधिपति नल मूत्र पुरीष त्यागकरनेपर विनाही चरण धोये सन्ध्योपासन करनेलगे, वह कलि उसी समय महाराज नलके शरीर में घुस गया॥१३॥ इस भाँति महाराज नलके शरीरमें प्रवेश करके फिर कलियुगने (नलके भाई) पुष्करसे जाकर कहा कि अब आप महाराज नलके संग चौषड़ खेलनेको चलदीजिये॥१४॥
दोहा
जीति लेहु नलराजही, कह कलियुग समुझाय।
विप्ररूप तब कलियुग, कहेउ तासु ते आय॥
हे पुष्कर ! आप मेरी सहायतासे अक्षच्यूतमें महाराज नलको जीतकर निषेधदेशके राजा वनवैठिये॥१५॥ कलिके इस प्रकार कहनेपर पुष्कर नलके पासको चलदिया। फिर वैरियोंका नाश करनेवाला पुष्कर वीरवर महाराज नलके समीप पहुँचा और निषधाधिपति वीरसेनात्मज महाराज नलसे कहनेलगा॥१६॥
चौपाई
पुष्कर गये तब नलके पासा। जाय रहु यह वचन प्रकाशा॥
जुआ हेतु आयउं तुम पाँई। आज दुवो जन खेलिय भाई॥
नलराजाके मनमें आई। खेलनके हित करेउ उपाई॥
दमयन्तीके वचन न भाये। नल राजा सब द्रव्य मँगाये॥
रानी और मन्त्री समुझावे। राजाकेछु मनहि न आवे॥
पुष्करने कहा हे महाराज ! आइये हम और आप दोनों जने वारंवार चौषड़ खेलें, तब महाराज नलने महात्मा पुष्करकेलानेको सहन नहीं किया॥१७॥और वैदर्भकुमारी महारानी दमयन्तीके देखते महाराज नलने क्षण भरकी भी देर नहीं करी खेलनेका ही अवसर ढूंढने लगे फिर सुवर्ण, रत्न, यान और वस्त्रोंकी जोड़ी॥१८॥ से कलिके भरमायेहुए महाराजने जुआ खेलनेमेंही मनको लगा दिया। उस काल पांसोंके मदसे मत्तहुए राजा नलको किसीकी भी निषेधरूपी भली बात अच्छी नहीं लगी॥१९॥इस प्रकार वैरियोंका नाश करनेवाले महाराज नल चौषड खेलनेमें निरत होगेये। तबदुःख और शोकसे घबराकर सारे पुरवासी॥२०॥महाराजका दर्शन और उनको निवारण करनेके लिये आये। तब द्वारपालने दमयन्तीसे आकर निवेदन किया॥२१॥ कि कु पुरवासी लोग घबरायेहुएसे दरवाजेपर खडेहैं, अत एव आप महाराज नलसे जायकर सब हाल कहो कि आपके पास आनेके लिये सबप्रधान आदि खडेहैं॥२२॥ हे देवि ! धर्मार्थदर्शी वे सब जने महाराजका व्यसन नहीं सह सकतेहैं, तब शोकसे मूर्च्छित हुई दमयन्ती गद्गद वाणीके द्वारा॥२३॥निषधराज नलसे बोली। हे महाराज ! आपके दर्शनोंकी इच्छा किये पुरवासी लोग दरवाजे पर आकर खडेहैं॥२४ ॥ और हे महाराज ! मंत्रीभी आपके दर्शनोंको आनकर दरवाजेपर स्थित हैं, उनको आप देखिये।
इस प्रकार वारंवार प्रार्थना करके॥२५॥सुन्दर रुचिर कटाक्ष और पतली कमरवाली महारानी दमयन्ती विलाप करनेलगी किन्तु महाराजके शरीरमें तो कलियुग घुसरहाथा, इस कारण उन्होंने कुछभी उत्तर नहीं दिया॥२६॥ तबमंत्रीसहित सारे नगरनिवासी आपसमें ‘इस समय महाराज जुआ खेलना वन्द नहीं करेंगे’ इस प्रकार कहते हुए अपने अपने घरको चलेगये॥२७॥
तदा तद्भवने द्यूतं पुष्करस्य नलस्य च।
युधिष्ठिर बहून्मासान्पुष्करो ह्ययजयत्तदा॥२८॥
हे महाराज ! इसके पीछे उस घरमें महाराज नल और पुष्करका बहुत महीनोंतक जुआ होतारहा और उसमें पुष्करकी जीत हुई॥२८॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः॥२३॥
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चतुर्विंशोऽध्यायः २४.
चतुर्विशे सभार्यस्य धर्मस्थस्य महात्मनः।
गतं राज्यं क्षुधार्त्तस्य वार्त्ता चात्र निगद्यते॥१॥
इस चौवीसवें अध्यायमें धर्मस्थित और क्षुधातुर रानी दमयन्तीके सहित महाराज नलके राज्य नष्ट होनेकी कथा वर्णन की जाती है॥१॥
बृहदश्व उवाच।
दमयन्ती तत्तो दृष्ट्वा पुण्यश्लोकं नराधिपम्।
उन्मत्तवदुत्थितं तं नैषधं गतचेतनम्॥१॥
बृहदश्वजीने कहा हे महाराज युधिष्ठिर ! अनन्तर महारानी दमयन्तीने पुण्यश्लोक महाराज नलको उन्मत्तकी मान उठे हुए अचेत देखकर॥१॥ वह भीमकुमारी उद्विग्नचित्त हुई और
फिर हे राजन् ! वह महाराज नलके प्रति महत् कार्य करनेकी चिन्ता करनेलगी॥२॥ वह महाराजके पापकी चिन्ता करती और उनके प्रियकी इच्छा करतीहुई उस दमयन्तीने सर्वस्वहीन महाराज नलके पास जाकर इस तरह कहा॥३॥हे महाराज ! आपका सारा धन जुआ खेलनेसे नष्ट होगया, और तुम्हारे पासके हाथी घोडेभी सब निकल चुके और जिस कोश (खजाने) से बलकी वृद्धि अर्थात् सेना इत्यादि राज्यकी सामग्री बढाकरती है, अब आपके पास वह कोशभी नहीं रहा॥४॥ किन्तु राजकुमारी दमयन्तीकी उन बातोंको महाराज नलने मनमेंभी धारण नहीं किया। तब फिर भीमतनया दमयन्तीने अपनी दाईसे कहा॥५॥ हे कल्याणी ! इस समय मेरे करनेयोग्य महत् कार्य उपस्थित है, अत एव आप वार्ष्णेय सारथी बृहत्सेनके पास मेरे पुत्रको लेजाइये॥६॥ महारानी दमयन्तीकी यह बात सुनकर बृहत्सेनने अपने आज्ञाकारी पुरुषोंके द्वारा पुत्रोंको बुलाया॥७॥ तब देश कालको जाननेवाली पतिव्रता दमयन्तीने मीठी वाणीद्वारा वार्ष्णेयको सन्तुष्ट करके समयानुसार कहा॥८॥ कि आप जिसतरह उत्तम अवस्थामें महाराजका सब हाल जानतेहैं; वैसेही अब विषमस्थितिका हाल जानकर आपको महाराजकी सहायता करनी चाहियें॥९॥ इस समय महाराज नलराजा पुष्करके संग ज्यों ज्यों क्रीडा करतेहैं अर्थात् जुआ खेलतेहैं, वैसेही उनको खेलनेकी लत बढतीजाती है॥१०॥ जिस प्रकार राजा पुष्करका अर्थ (हित) करनेवाले पाँसे उनके वशीभूत होरहेहैं अर्थात् उनको जिताय रहेहैं, उसी प्रकार वे महाराज नलको विपरीत फल देरहेहैं, अर्थात् उनकी हार कराय रहेहैं॥११॥ इस समय वे महात्मा महाराज नल अपने सुहृद (मित्र) और स्वजनोंकी बातभी नहीं
सुनतेहैं, इस कारण मैं समझती हूँ कि उनकी बुद्धि नष्ट होगई॥१२॥ जब कि मोहित हुए महाराज मेरी बात नहीं मानतेहैं इस कारण मैं आपकी शरणागत हूं ! हे सारथे ! आप मेरे कहने को कीजिये॥१३॥अर्थात् आप मेरे दोनों बालकोंको रथमें चढाकर कुण्डिनपुरको लेजाइये और वहाँ मेरे माता पिता इत्यादिकोंके पास इनको रखकर॥१४॥और उनको भली भाँति समुझाय बुझाय फिर यहाँचले आइये। महाराज नलके वार्ष्णेय नामक सारथीने महारानी दमयन्तीकी यह बात सुनकर॥१५॥ महाराज नलके प्रधान अमात्य (मंत्री) से जायकर यह वृतान्त निवेदन किया, तब सारे मंत्रियोंने इस बातका निश्चय करके आज्ञा देदी॥१६॥
चौपाई
सुत कन्या तब रथ बैठावा। सारथि देश विदर्भ पठावा॥
पहुँचो वेगि सारथी तहँवा। देश विदर्भ भीम नृप जहँवा॥
दमयन्ती पठये ले साथा। सुत प्रतिपाल करो नरनाथा॥
खेलैं जुआ कहेउ सो गाथा।चिन्तावन्त भये नरनाथा॥
दोहा
यह कहि तब सो सारथी, राजहि कियो जुहार॥
बहुत देश तहँ देखि कै, अवध नगर पग धार॥
तब वह सारथी उन दोनों बालकोंको रथमें चढायकर विदर्भदेशमें लेगया, और वहाँ घोडोंको रथके निकटही रखकर उस अतिश्रेष्ठ रथसे॥१७॥ इन्द्रसेना नामवाली कन्या और इन्द्रसेन नामक पुत्रको उतार महाराज भीमको सौंपदिया और फिर उनसे आज्ञा लेकर राजा नलकी ओरको चलदिया॥१८॥ तब वह सारथी घूमता घूमता महाराज ऋतुपर्णके नगरमें आपहुँचा और परम दुःखसे उनके पास रहा॥१९॥ तथा महीपति ऋतुपर्णका सारथी होकर उनकी टहल करनेलगा। बृहदश्वजीने कहा, हे युधिष्ठिर ! इधर वार्ष्णोय सारथीके
चलेजानेपर पुण्यश्लोक महाराज नलका जुआ खेलते खेलते॥२०॥ पुष्करने सारा राज्य जीतलिया, कोई वस्तु बाकी न रही तब महाराज नलके सारे राज्य हारजानेपर पुष्कर उनसे हँसकर बोला॥२१॥
चौपाई
स्वर्ण रजत जो लाव भुवारा। धरत दाव पल महँ सब हारा॥
गज तुरंग हारे सब राऊ। एक वार न जीतेर दाऊ॥
हारे वअभूषन जेते।राजस्थान आदि पुर वेते॥
सर्वस हार चुके नल राजा। पासा खेले भयउ अकाजा॥
पुष्कर क++रह्यो क++अहई। दमयन्ती लावहु यह कहई॥
सुनत राउ भा क्रोध अपारा। पर नै हु कछु चलै न चारा॥
कि अब हमारा तुम्हारा जुआ फिर होवे, उसमें आप औरभी दाव लगाइये, किन्तु मैं और तो आपका सर्वस्व जीतचुका, एक मात्र दमयन्ती बची हुईहै, सो यदि आप चाहें, तो अबकी वार उसकाही दाव लगादीजिये॥२२॥ पुष्करके ऐसी बात कहनेपर पुण्यश्लोक महाराज नलकीछाती फटनेलगी, परन्तु उन्होंने पुष्करसे कुछ नहीं कहा॥ २३॥ तब पुष्करको देखकर महाराज नल महाक्रोधित हुए और उन्होंने अपने (अंगोंके) सब गहने उतारकर वहाँ रखदिये॥२४॥और केवल मात्र एक वस्त्र धारण किये वे बाँधवोंके शोक बढानेवाले महाराज नल अपनी विपुल राज्यलक्ष्मी त्यागकर नगरके बाहर निकले॥२५॥
चौपाई
दमयन्ती जान्यो यह राजा। कियो चलन वनकेर समाजा॥
रोय चली दमयन्ती रानी। सो करुणा किमि कहौं बखानी॥
राज्य वजा वन वास सिधाये। विधिने कठिन कलेश दिखाये॥
दासी दास बहुत विलखाई। दमयन्ती नृप पाछे जाई॥
जो जहँ सुने धुनै शिर सोई। बड विषाद नर्हिधीरज होई॥
दोहा
चले जात नृप राजसो, पर जन धीर धराय।
दमयन्ती नल ऊपमा, रामचन्द्रसों पाय॥
उन एक वस्त्र धारण करके जातेहुए महाराज नलके पीछे पीछे महारानी दमयन्तीभी चलदी। तब तीन रात्रितक महाराज नलने दमयन्तीके सहित नगरके बाहर वास किया॥२६॥ इधर राजा पुष्करने सारे नगरमें ढंढोरा पिटवादिया कि, जो आदमी नलको आदर मानसे टिकावेगा या उसके पास जायगा, वह मेरे हाथसे मरनेयोग्य होगा ॥२७॥ तब हे युधिष्ठिर ! पुष्करका यह ढंढोरा सुनकर उससे वैर होजानेके डरसे किसी पुरवासीने महाराज नलका आदर सत्कार नहीं किया॥२८॥ (अधिक क्या हैं) किसीने उन सत्कार करनेयोग्य महाराज नलका वाणीसेभी सत्कार नहीं किया, और वे महाराज वहाँ तीन राततक जलमात्र पीकरही रहे॥२९॥ तबफिर भूखसे अत्यन्त पीडित होकर महाराज नलने नदीके किनारेपर एक मछली मारनेवाले धीमरको देखा और उससे मछली माँगकर॥३०॥ दमयन्तीके हाथमें देदीं, किन्तु वे मछली उसके हाथसे तत्काल गायब होगईं। तब फिर उस नदीमें स्नानकरके महाराजने दमयन्तीसे कहा॥३१॥ कि हे दमयन्ती ! आपने मुझको छोडकर इन मछलियोंको खालिया, इस तरह कहते ही थे कि इनको कुपक्षी दिखाई दिये, तब वे कहने लगे कि, इनसे मेरे उदर पूर्ण होनेका काम चलजायगा अर्थात् यह वस्तु मेरी होचुकी॥३२॥ रानी दमयन्तीसे इस प्रकार कहकर महाराज नलने उन पक्षियोंको अपने वस्त्रसे भलीभाँति ढकदिया अर्थात् उन्होंने उनके ऊपर इस अभिप्रायसे अपना वस्त्र फेंका कि यह निकलकर नहीं जासकें, किन्तु वे सब पक्षी उनके उस वस्त्रको भी लेकर उडगये॥३३॥ और फिर उन सब उडतेहुए पक्षियोंने कहा रे दुर्बुद्धि ! हम
तेरे वस्त्रके हरनेवाले पक्षीरूपधारी पासे हैं॥३४॥ इसके पीछे वे सब पक्षी महाराज नलको भूमिपर नंगा देखकर आपसमें विवाद करने लगे। इस प्रकार पक्षीरूपी पाँसोंको गयाहुआ और अपने आपको नंगा देखकर॥३५॥ पुण्यश्लोक महाराजने दमयन्तीसे कहा हे भद्रे ! मैं जिनके क्रोधित होनेपर संपूर्ण ऐश्वर्यसे च्युत हुआहूँ अर्थात् मेरी सारी सम्पदा नष्ट होगई है॥३६॥ उनको क्षुधित और दुःखित विशेष भाव करके नहीं पासकताहूँ और फिर जिनके कुपित होनेपर मेरे सन्मुख ही आपका निरादर हुआ॥३७॥ उन्होंने ही अब पक्षी होकर मेरे वस्त्रको भी हरलिया, मैं महाविषमभावको प्राप्त होकर इस वनमें दुःखी हुआ हूँ॥३८॥ मैं आपका पति हूं, अतएव मैं जो कुछ कहता हूं, वह अपनी हितकारी बात सुनिये।देखिये ! यह दक्षिणदिशाको बहुतसे रास्ते चले गये हैं॥३९॥ यह अवन्ती पुरी और अवन्त नामक पहाडको अतिक्रम करके फैलाहुआ विन्ध्यनामवाला महापहाड है, इसके पीछे समुद्रमें मिलीहुई पयोष्णी है॥४०॥ यह महर्षियोंके आश्रम हैं जो कि भाँति भाँतिके फूल फलोंसे युक्त हैं, और यह रास्ता विदर्भदेशकों चलागया है, इसी रास्तेसे आदमी कोशलदेशको जायाकरते हैं॥४१॥ इसकी दक्षिणदिशामें यह दक्षिण नामक देश है, आप इस मेरे बताये रास्तेसे अपने बापके घर चली जाइये। महाराज नलके इस भाँति कहनेपर बाष्पकलासहित वाणीरूपी दुःखसे खेदित हो॥४२॥ महारानी दमयन्ती निषधाधिपति महाराज नलसे दीनवचन कहने लगी कि हे नाथ ! इस समय मेरा हृदय काँपरहाहै और मेरे सब अंग भी दुःखित होरहेहैं॥४३॥ हे महाराज !आपकी आज्ञाको वारंवार वर्त्तती अर्थात् पालन करती हुई हृतराज्य, निर्धन, वस्त्ररहित (नंगे) और भूँखसे
आतुर॥४४॥ आपको इस निर्जनवनमें छोडकर मैं कैसे अपने पिताके घर चली जाऊँ ? मैं थकेहुए और उस पहले राज्यसुखकी चिन्ता करतेहुए॥४५॥ हे महाराज ! इस घोर वनमें आपके दुःखको नष्ट करूंगी। क्योंकि भार्याकी समान अमृतरूपी औषधी दूसरी कोई भी विद्यमान नहीं है॥४६॥ यह बात मैं सत्यही कहती हूं कि स्त्रियां सब दुःखोंकी औषधीस्वरूप होतीहैं यह सुनकर महाराज नलने कहा हे सुमध्यमे ! आपने जो बात कही, सो सच्ची है॥ ४७॥ निःसन्देह मनुष्यके दुःखकी औषधी भार्याके समान दूसरी कुछभी नहीं है, हे भीरु ! मैं आपको संकटमें नहीं त्यागना चाहताहूं॥४८॥ हे भीमनन्दिनी ! आपको जो यह डर लगरहा है कि मैं कहीं तुमको त्याग न दूँ, सो इस डरको आप दूर कर दीजिये। दमयन्तीने कहा। हे महाराज ! यदि आप यहाँमुझको नहीं त्यागना चाहतेहैं,॥४९॥तो आप मुझको बेरबेर विदर्भदेशका रास्ता किसलिये दिखारहेहैं ! हे नृपते ! मैं आपसे त्यागीजानेके योग्य नहीं हूँ॥५०॥ हे पृथ्वीपति ! आप अकष्ट चित्त करके मुझको मत त्यागना।हे सुखकारक ! मुझे इस त्यागनेके कारण आप मेरे शोकको बढातेहैं॥५१॥ और हे महाराज ! यदि आपका यही अभिप्राय हो कि मैं विदर्भ देशको चली जाऊँ, तो हम और आप दोनोंही जने साथ साथ विदर्भदेशको चले चलें॥५२॥
दोहा
कुण्डिन पुरको चलहु नृप, जो मन मानै कन्त।
तुम कहँ देखत भीमनृप,++रिहैं प्रेम अनन्त॥
‘विदर्भराजस्तत्र त्वां पूजयिष्यति मानद।
तेन त्वं पूजितो राजन्सुखं व सि तद्गृहे’॥५३॥
हे मानद ! वहाँ विदर्भ देशाधिपति मेरे पिता महाराज भीम आपका (भलीभाँति) आदर (सत्कार) करेंगे। हे राजन् !
उनसे पूजित होकर आप सुखपूर्वक उनके घर वास कीजिये॥५४॥ इतिश्री भारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥
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पञ्चविंशोऽध्यायः २५.
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पञ्चविंशे तु गज्ञ्याश्चविरहश्चनलस्य वै।
व्याधस्य मरणं चैव दुष्टबुद्धेश्चकथ्यते॥१॥
इस पच्चीसवें अध्यायमें जिसप्रकार महाराज नल और रानी दमयन्तीका वियोग होकर दुष्टबुद्धि व्याधकी मृत्यु हुई, सो कथा वर्णन करतेहैं॥१॥
नल उवाच।
यथा राज्यं पितुस्तेऽस्ति तथा मम न संशयः॥
न तु तत्र वसिष्यामि विषमस्थः कथंचन॥२॥
महाराज नलने कहा। हे प्यारी ! आपके पिताका जो राज्य है, सो निःसन्देह मेरा है इसमें कुछभी फरक नहीं है, किन्तु इस समय बडे भारी संकटको प्राप्त हूँ इसलिये वहाँ नहीं रहूँगा हे प्यारी ! (नैक सोचो तो सही) कि मैं वैरियों से पराजित निर्धन और आपके शोकको बढानेवाला होकर कैसे तुम्हारे पिताके घर जाकर वास करूं ?॥२॥ हे कान्ते ! जिस समय आदमी समृद्धिमान् (धनसम्पद) होकर अपनी ससुराल को जायाकरताहै, तबही उससे ससुर इत्यादि सबलोग प्रसन्न होकर बातचीत कियाकरतेहैं॥३॥ और वही आदमी जब निर्धन होकर ससुरालमें जाताहै, तब ससुरालके वही आदमी उससे टेढी टेढी बातें कियाकरतेहैं। इसतरह रानी दमयन्तीसे महाराज
नलने वारंवार कहा॥४॥ और अर्द्धवस्त्रसे आच्छादित कल्याणी दमयन्तीको शान्त किया अर्थात् समझाया बुझाया तबफिर एकवस्त्र धारण किये हुए दोनों जने इधरउधर फिरनेलगे॥५॥इस प्रकार क्षुधातुर (भूँखे) और थकेहुए महाराज नलको एक प्रपा (प्याऊ) दिखाई दी उस प्रपा (प्याऊ) के मिलजानेपर यह दोनों जने वहाँ ठहरगये॥६॥अनन्तर महाराज नल पृथ्वीकी धूरिसे गुंठित, मलीन केशयुक्त, वस्त्रहीन हुए पृथ्वीतलपर दमयन्तीके सहित बैठगये॥७॥ फिर थके हुए महाराज नलने पृथ्वीतलपर रानी दमयन्तीके सहित शयन किया और दमयन्ती लेटते ही नींदके वशीभूत होगई॥८॥ जबअकस्मात् दुःखको प्राप्त हुई सुन्दरी राजकुमारी दमयन्ती सोगई तब महाराज नल दमयन्तीको सोती हुई देखकर॥९॥ उसके त्यागदेनेकी इच्छासे चिन्ता करने लगे। फिर सोचा कि इसरानीको वनमें छोडना चाहिये वा नगरमें त्यागना ठीक होगा ?॥१०॥ इसके छोड देनेपर मुझे सुख मिलेगा अथवा नहीं छोडनेसे मिलेगा ? इस तरह महाराज नलने वारंवार चिन्ता करके रानीके त्यागदेनेको ही अच्छा समझा॥११॥ उन महाराज नल और रानी दमयन्ती दोनोंके पास एकही एक वस्त्र था, इसकारण महाराज नलने रानीके आधे वस्त्र कतरनेका विचारकिया॥१२॥और फिर यह भी सोचा कि इसवस्त्रको इस तरह कतरना चाहिये, जिससे इसको मालूम न हो। महाराज नल इस भाँति विचार करतेहुए वस्त्र कतरनेके लिये प्रियाके चारों और देखने लगे॥१३॥ (उसी समय कलि शोकरूपी) उत्तम खड्गहोकर राजा रानीके बीचमें आकर स्थितहुआ।तबवैरियोंके नाशकरनेवाले महाराज नलने उस खड्गद्वारा उसका आधा वस्त्र कतर कर ग्रहण (धारण) करलिया॥१४॥
और फिर महाराज वैदर्भकुमारी महारानी दमयन्तीको वहांही अचेत सोतीहुई छोडकर भागगये॥१५॥ किन्तु स्नेहसे हृदयबँधा होनेके कारण महाराज नल फिर दमयन्तीके निकट लौट आये, और उसको उसीतरह सोतीहुई देखकर रोने लगे॥१६॥
चौपाई
देखि नृपति उरमें अतिसोगा। देख विधि कीन्हों सयोगा॥
रविशशि जिनकहँ देखेउ नाहीं। सो ममसंग फिरत वनमाहीं॥
मेरे साथ विपिन दुख पैहै। बहु संताप कहाँ लगि सैहै॥
जाउँ याहि वजि जो वनमाँही। आखिर पिताभवन सो ही॥
यह विचार नृपके मनआये। कलियुग हृदय बहुत भरमाये॥
दोहा
क्षण आवै नल निकटही, क्षणकचलै तजिमोह॥
करै विचार अनेक विधि, कबहुँ करै मनक्षीह॥१७॥
(फिर विलाप करते करते कहनेलगे कि) हाय ! पहले जिन महारानी दमयन्तीको वायु और सूर्यभी स्पर्श नहीं करसकतेथे, वही, प्यारी बाला इस समय प्रपा (प्याऊ) में अनाथकी समान सोरहीहै॥१७॥ यह चारुहासिनी वस्त्र कतरलेने पर भी उन्मत्तकी तरह सोहीरहीहै सो यह वरारोहा किस प्रकार जागेगी ?॥१८॥ मुझसे रहित होकर अर्थात् मेरा वियोग होजानेपर यह भीमकुमारी सुन्दर दमयन्ती मृग सर्पादि (हिंसक) जन्तुओंसे सेवित इस घोर वनमें अकेली किसतरह विचरण करेगी ?॥१९॥ इसभाँति (चिन्ताकरतेहुए) महाराज नल वारंवार चलेजाँय, और फिर अपनी प्यारीके निकट पलट आवें। इसतरह कलियुगसे आकर्षित होकर महाराज अज्ञानी होगये॥२०॥ उस काल महाराज नलका दुःखित हृदय दो कारका हो रहा था, वे हिंडोलेकी तरह बेर बेर प्यारीके पास आवें और फिर चलेजावें॥२१॥ फिर वे महाराज नल कलिद्वारा आकृष्ट होनेके कारण सोती हुई अपनी भार्या दमयन्तीको
त्याग करुणाकेसहित विलाप करतेकरते महानकष्टको प्राप्तहुए॥२२॥ जो कि कलियुगके स्पर्शसे महाराजनलका ज्ञान नष्ट होगयाथा, (इसलिये) वे रानीको छोडकर दुःखित चित्तसे निर्जन वनमें चलेगये॥२३॥बृहदश्वजी बोले। हे महाराज युधिष्ठिर ! जब राजा नल चलेगये, तब इधर थकावट दूर होनेपर वरारोहा दमयन्ती जागी और उस निर्जन वनमें डरती काँपती॥२४॥अपने पति महाराज नलको न देखकर दुःख शोकयुक्त व त्रसित हो ‘हे महाराज !’ इस भाँति उच्च स्वरसे नलको पुकारनेलगी॥२९॥
चौपाई
चहुँ दिशि चिते चकित चित भयऊ। हाहा कारे बहु रोदन ठयऊ॥
हा हा स्वामी कन्त हमारे। तजि मोकहँ बन हाँ सिधारे॥
प्रथमहि कह्याँ न छाँडव तोही। जब लगि घट विच जीवन मोही॥
यदि दुख जीवन जात हमारा। वचन झूठ नृप भयउ तुम्हारा॥
कीन्हीं सेवा सदा तुम्हारी ।कौन चूक भइ कन्त हमारी॥
आज्ञा भंग न कबहू कीन्हा \। केहि अघ त्यागि हमहिं दुख दीन्हा॥
धीरज आय देट जो नाहीं। कैसे प्राण रहें तनमाहीं॥
दोहा
संधन विपिन महँ रोवती, दमयन्ती विलखाय।
कौने अवगुण कीन्हेऊ, दीन कन्त दुख आय॥
हा नाथ ! हा नाथ ! हा महाराज ! हा स्वामिन्! आप किस लिये मुझे छोडनेकी कामना करतेहैं ? हाय ! मैं मरी ! नष्ट हुई ! इस विजन वनमें मुझको डर लगरहाहै॥२६॥हे महाराज ! हे धर्मके जाननेवाले ! आप सत्यवादी अर्थात् सच्ची बातकेही कहनेवाले हैं, तब फिर मुझ दीन सोतीहुई और अकेली भार्याको छोडकर किसतरह चलेगये?॥ २७॥ हे पुरुषोत्तम ! अब तक क्या आपने हँसी करी है ? हे महाराज ! हे ईश्वर ! अब मुझको आप अपने स्वरूपका दर्शन दीजिये कारण कि मुझे यहाँ डरलग-
रहाहै॥२८॥ हे महाराज ! आपने देवताओंकी प्रदान करी हुई विद्याद्वारा किसलिये अपने आपेको छिपारक्खाहै ? हे नरेश्वर!मुझसे आप बात क्यों नहीं करते ? हे नाथ! मुझको आपका वियोग भस्म कियेडालता है॥२९॥ हे पार्थिव ! आप मुझे विलपतीहुई भार्याको ढारस बँधाकर क्यों नहीं आलिंगन करते ? मुझको अपने आपका सोच नहीं है, और दूसरोंकी भीकइचिन्ता नहीं हैं॥३०॥ किन्तु मैं केवल मात्र आपकीही चिन्ता कर रहीहूँ कि आप अकेले वनमें कैसे होंगे ? यही समझकर रोरहीहूँ। हे महाराज ! आप भूखे, प्यासे, और थके हुए किस तरह निर्वाह करते होंगे ?॥३१॥ और सांझ समय मुझको वृक्षके मूलमें नहीं देखकर आप विषाद (शोक) करेंगे॥३२॥ इसके अनन्तर वह दमयन्ती दुःखसे अतीव आर्त हो क्रोधसे प्रज्वलित हुई महान् दुःखसे रोती रोती इधर उधर भागनेलगी॥३३॥ तदनन्तर हे विभो ! इस विजन वनमें आप मुझसे बात चीत कीजिये। इसप्रकार कहतीहुई वह बाला वार वार उठ मूच्छित होकर भूमिपर गिरनेलगी॥३४॥ फिर महाराज भीमकुमारी पतिव्रता दमयन्ती अपने मनमें भरोसा बाँधकर उठी, और सच्चा वचन कहनेलगी कि, जिससे और जिस हेतुसे वे निषधाधिपति नल दुःखको प्राप्त होकर दुःख भोग रहेहैं॥३५॥ मेरे वचनसे उस पापात्माको महान् दुःख हो,। जिस पापात्माने पापहीन महाराज नलको ऐसा दुःखी कररक्खाहै॥३६॥वह प्रत्येक जन्ममें महान् दुःखको प्राप्त हो, आजीवन दुःखही भोग करता रहेगा, वह महात्मा महाराज नलकी भार्या दमयन्ती इस प्रकारसे विलाप करनेलगी ॥३७॥ इसके पीछे दमयन्ती हिंसक जन्तुओंसे भरेहुए उस वनमें अपने स्वामी महाराज नलको खोजती हुई बावलेकी तरह
बार बार विलाप करनेलगी॥ ३८॥ इस भाँति दुःखसागरमें डूबीहुई और भर्त्ताके दर्शनकी लालसा करनेवाली मार्गमें विचरतीहुई दमयन्तीको॥३९॥
चौपाई
सर्प एक तब सन्मुख आवा।रानी पद+++भीतर लावा॥
रानी बिक बहुत वि+++ई। हाय ++न्तमोहि लेहु बचाई॥
निषध देश स्वामी जब जैहौ। कहो कन्त मोकहँ कहँ पैहौ॥
व्याध एक तहँ देखेउ जाई। वधिक सर्प कहँ मारेउ आई॥
बधिक सर्प कहूँ डारेउ मारी। पीडित काम++सुनुनारी॥
काम वश्य होइ बोलेउ वानी।++हि हित वनमें फिर भुलानी॥
तब रानीको चिन्ता आई। नलको मनमें पुनि पुनि ध्याई॥
रानी शाप बधिक कहँ दीन्हा। रतभस्म तेहि ल हँ कीन्हा॥
प्राणियोंके ग्रहण करनेवाले बड़े शरीरवाले एक भूँखसे घबराये हुए अजगरने निगल लिया। उस अजगरके निगलजानेपर दमयन्ती बहुतही दुःखित हुई॥४०॥ और महाराज नलका ऐसा सोच करनेलगी, कि जैसा अपनी अनाथ आत्माका भी नहीं किया। हा नाथ ! इस वनमें मुझको अजगरने अनाथके समान निगललिया है॥४१॥ अत एव हे स्वामी ! आप मुझको छुडानेके लिये दौडकर किस निमित्त नहीं आतेहैं ? हे महाराज ! मुझ अधम नारीको आपने शापसे त्याग दियाहै॥४२॥ हे नैषध ! हे राजसिंह ! हे मानदेनेवाले ! आपके क्षुधातुर और मलीन जनित श्रम (थकावट) को कौन न करेगा ?॥४३॥ इसके पीछे एक मृगोंका मारनेवाला व्याध उस गहन वनमें घूमताहुआ दमयन्तीकी करुणाभरी दीन वाणी सुनतेहि शीघ्रतासहित उसके सन्मुख आपहुँचा॥४४॥ और उस मृगव्याधने उस दमयन्तीको इस तरह अजगर द्वारा निगलीहुई देख वेग-
सहित पैने शस्त्रसे उस उरग (अजगर) के मुखको चीरडाला। इस भाँति उस सर्पको मार निर्विचेष्ट करके॥४५॥४६॥ वह वधिक उस दमयन्तीको छुडाय जलसे न लाय और आहार कराय पूछनेलगा॥४७॥ व्याध बोला हे मृगकी मान आंखोंवाली ! आप कौन हैं ? किसकी भार्या हैं ? और हे भामिनी ! इस घोर वनमें किसलिये आईहो?॥४८॥ हे भारत ! उस व्याधके इस तरह पूछनेपर दमयन्तीने अपना सारा हाल उसको सुनादिया॥४९॥ अनन्तर अर्द्धवस्त्रसे ढकीहुई पुष्ट जंघा वस्तनोंवाली, कोमल व नवीन अंगवाली और शरदऋतुके चन्द्रमाकी समानमुखवाली॥५०॥ कमलपत्रकी समान आँखोंवाली और मधुर वचन बोलनेवाली दमयन्तीको देखकर वह मृगव्याध कामके वशीभूत होगया॥५१॥ और फिर वह कामातुर व्याधाभी मीठी मीठी बातोंसे दमयन्तीको सन्तुष्ट करनेकी चेष्टा करनेलगा, तब कामिनी दमयन्तीने उसके इस (बुरे) अभिप्रायको जानलिया॥५२॥ अनन्तर उस दुष्टको देखकर सती दमयन्तीने महान् रोषयुक्त क्रोधसे जलतेहुए कहा अर्थात् उसको यह शाप दिया॥५३॥
ननु पापमतिः क्षुद्रः परार्मृगजीवकः।
उक्तमात्रे तु वचने तथा स मृगजीवकः॥
व्य++पपात मेदिन्यामग्निदग्ध इव द्रुमः॥५४॥
कि ‘यह पापमति नीच गव्याध प्राणहीन होजावे’ पतिव्रता महारानी दमयन्तीके यह बात कहतेही वह मृगजीवी व्याधा अग्निसे जलेहुए वृक्षकी समान प्राणरहित होकर पृथ्वीपर गिरपडा॥५४॥ इतिश्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः॥२५॥
षड्विंशोऽध्यायः २६.
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षड्विंशे नलपत्न्याश्च++ननेऽतिविलापनम्॥
मुनिभिः सह संवादस्तस्या राज्याश्चकथ्यते॥३॥
इस छव्वीसवें अध्यायके बीच महाराज नलकी भार्या दमयन्तीका वनमें अति विलाप करना, और फिर मुनियोंके संग रानीका संवाद होना, यह कथा वर्णन करी जातीहै॥१॥
बृहदश्व उवाच।
सा निहत्य मृगव्याधं प्रतस्थे कमलेक्षणा॥
वनं प्रति वनं शून्यं झिल्लिकागणनादितम्॥१॥
बृहदश्वजीने कहा। हे महाराज युधिष्ठिर ! इसके पीछे वह कमलकी समान आँखोंवाली दमयन्ती उस मृगव्याधका नाश करके झिल्ली इत्यादि पक्षियोंसे शब्दायमान वनमें जापहुँची॥१॥सिंह, व्याघ्र, हिरन, हाथी, सुअर और बन्दरोंसे युक्त, सर्प तथा पल्लीगणसे युक्त, म्लेच्छ और तस्करोंसे सेवित॥२॥शाल, वाँस, नीप, पीपल, इंगुद तथा++दके पेड, किंशुकके पेड, अर्जुनके पेड, चन्दनके पेड और आमलेके पेड, इन पेडोंसे युक्त॥३॥जामन, आम, खैर, ताल बेत इनसे आकुल तथा कालेय, कदम्ब और गूलरद्वारा युक्त॥४॥बेर, बेल और मुलहठीके वृक्षोंसे युक्त, प्रियाल, शप, खजूर, हरड और बहेडेके पेडोंसे युक्त॥५॥भाँति भाँतिकी धातुके शतशः छिद्र, नानाभाँतिके हरे हरे तृण, (घास) तथा कुंज कि जिनमें पक्षिगण (तरह तरहकी सुहावनी और मनभावनी) बोलियाँ बोलरहेहैं, व सूर्यके उत्तापसे रहित॥६॥नदियाँ, सरोवर (तालाव), बावडी और भाँतिभाँतिके पशु व पक्षी,
अनेक असुर पिशाच, साँप और राक्षसगण॥७॥ अनगिन्त पल्वल, तडाग, गिरिकूट, नदियोंके संगम, तथा और भी बहुतसे अद्भुत दर्शनवाले पदार्थ॥८॥ वनैले भैंसे, सुअर, गीदड़, री++ और गैंडोसे रिक्त वनोंमें जाकर विदर्भनन्दिनी दमयन्तीने इन सबको देखा॥९॥ महान तेजस्विता और यशसे मनोहर दमयन्ती वनमें अकेली फिरतीहुई निरन्तर महाराज नलको खोजनेलगी॥१०॥ और वह महाराज भीमकी पुत्री घोर मार्गमें पहुँचकर कहींभी न डरी, किन्तु एक मात्र अपने स्वामीके दुःखसे अवश्य पीडित हुई॥११॥ हे राजन् ! फिर महाराज भीमकी कन्या दमयन्ती स्वामीके शोकसे महान् दुःखित होकर एक पत्थरकी शिलापर बैठगई और विलाप करनेलगी॥१२॥ दमयन्ती बोली। हे सिंहविक्रम ! हे महाबाहो ! हे निषध देशस्थित जनोंके अधिपति ! आप मुझको विजन वनमें छोडकर कहाँ चलेगये ? ॥१३॥हे वीर ! हे नरसिंह !आपने बहुतसी दक्षिणावाले अश्वमेधादि यज्ञ करके मेरे संग उत्तमोत्तम कार्योंको कियाहै॥१४॥ हे नरोंमें सिंह ! हे महाराज। हे राजतिलक ! आप जो मेरे पक्षको स्वीकार करचुके हैं, उसको आप स्मरण कीजिये॥१५॥ हे पृथ्वीपति ! मेरे पासके हंस पक्षियोंने आपके पास पहुँचकर जो बातें कही हैं, उनको आप सहलेनेके योग्य हैं॥१६॥ हे मनुजव्याघ्र ! एक ओर तो अंग और उप अंग समेत चारों वेदका पढना और दूसरी ओर सत्य बोलना यह दोनों समान हैं॥१७॥ अतएव हे राजेन्द्र ! हे नरेश्वर ! हे विभो ! पहिले आपने मुझसे जो कुछ कहाथा अर्थात् प्रतिज्ञा की थी, उसको सत्य कीजिये॥१८॥ हे राजेन्द्र ! आपका दर्शन करके मैं जन्म जन्ममें आपकी प्यारी (भार्या) हूँगी, अत एव इस घोर अटवीमें पहुँचीहुई मुझसे आप बात चीत क्यों नहीं
करतेहैं ?॥१९॥ यह दुष्ट भयंकराकार वनराज कुत्ता भूँखसे घबराकर मुझको खेंचलेताहै अत एव आप मुझको क्यों नहीं बचातेहैं ?॥२०॥ हे कल्याण ! आपने जो प्रथम मुझसे सुख कारक बातें कही थीं, सो उन सब जनोंकी प्यारी बातोंको सत्यकीजिये॥२१॥ हे नाथ ! हे नराधिप ! उन्मत्तकी तरह विलाप करती और आपकी कामना करतीहुई मनोहरसे मनोहर मेरे संग आप किस लिये बात चीत नहीं करतेहैं ?॥२२॥ हे हरिणेक्षण ! हे शत्रुकर्षण ! मुझे अपने झुंडसे छूटीहुई हिरनीके समान अकेली रोतीहुईको आप क्यों नहीं लेजातेहैं ?॥२३॥ हे नाथ ! कुलके शील स्वभाव सम्पन्न और सर्वाङ्गसुन्दरी मैं आपको खोजरहीहूँ और हे नरश्रेष्ठ ! वाणीद्वारा पुकारभी रहीहूँ अब आप दर्शन दीजिये॥२४॥ इसके पीछे दमयन्ती महाराज नलके वियोगमें पागलिनीसी होकर कहनेलगी कि हे अशोक ! क्या आपने महाराज नलका दर्शन कियाहै ? यदि किसीने इस वनमें शंकित नलको देखाहो तो आनकर मुझे बतादीजिये॥२५॥ निषधदेशके महाराज जो नरोंमें उत्तम और वीरसेननामसे विख्यात थे, वे मेरे ससुर हैं॥२६॥ उनके पुत्र वीर, श्रीमान् सत्यवादी, पराक्रमी और क्रमसे पितृराज्यको प्राप्त होकर राज्करनेवाले॥२७॥ महाराज नलनाम वैरियोंका नाश करनेवाले, पुण्यश्लोक, प्रकाशित, ब्राह्मण भक्त, वेदके ज्ञाता और पुण्यवान् हैं॥२८॥ हे पर्वतोत्तम ! आप मुझको उन्हीं महाराज नलकी भार्या जानिये, मैं अपने उन्हीं श्रेष्ठ स्वामीको खोजती खोजती यहां आपहुँचीहूँ॥२९॥ इसके पश्चात् यहांसे दमयन्ती उत्तरदिशाको चलीगई और वह लगातार तीन दिन और तीन रात चलकर चौथे दिन तपस्वियोंसे सेवित एक परम सुन्दर वनमें जापहुँची यह वन बहुत बड़ा और अनेक उपवनोंसे शोभायमान
होरहाथा॥३०॥ वह वन दम, दान और दयासे युक्त तथा शम साम्यादि गुणसम्पन्न वशिष्ट, अत्रि और भृगु इत्यादि ऋषियोंसे शोभित होरहाथा॥३१॥ उनमें बहुतसे ऋषि उपवास सहित, बहुतसे वायुभोजी अर्थात् हवाकाही भोजन करनेवाले, बहुतसे सूखेहुए पत्तोंको खानेवाले, बहुतसे एकमास पर्यन्त उपवास करनेवाले, बहुतसे एकान्तोपवासी और बहुतसे चौथे दिन भोजन करनेवाले थे॥३२॥बहुतसे रूखा आहार करनेवाले, बहुतसे अन्न खानेवाले, बहुतसे शीत ऋतुमें जलके भीतर स्थित रहनेवाले, बहुतसे गरमियोंमें पंचाग्नि तापनेवाले और बहुतसे वर्षाकाल (चौमासे) में बादलोंकी जल वर्षाको सहने वाले थे॥३३॥वे सब मान और अपमानको समान जाननेवाले, जटाधारी, नखधारी, दंडधारी, बहुतसे अदंडी और बहुतसे कषाय और वल्कल वस्त्रके धारण करनेवालेथे॥३४॥ वे सब इन्द्रियोंके जीतनेवाले, महाभाग, तथा भोजपत्र और मृगछालासे युक्त थे, इस प्रकार इन तपस्वियोंसे युक्त उस वनको देखकर दमयन्तीके मनमें अत्यन्त हर्ष हुआ॥३५॥ वह सर्वाङ्गसुन्दरी मनोहर, सर्वलक्षणसम्पन्न, भीमनृपकी प्यारीकन्या वह वरारोहा दमयन्ती॥३६॥ उन सब वयोवृद्ध तपस्वियोंको प्रणाम करके विनयसे नम्र हो बैठगई। तब उन सब मुनियोंनेभी सतीका स्वागत करके कुशल क्षेम पूछी॥३७॥ फिर उन सब तपोधन मुनियोंने पतिव्रता दमयन्तीकी यथाविधि पूजा व आदर मान करके कहा कि हे देवि ! हमको आपका क्या काम करना होगा, सो कहिये १॥३८॥ तब वरारोहा दमयन्तीने आदरसहित उन ऊर्द्धरेता ऋषियोंकी सब कार्योंमें कुशल पूछी॥३९॥ तब वे सब ऋषि बोले। हे कल्याणी ! हमारी तो सर्वत्र अर्थात् सब बातोंमें शल है, किन्तु आप
सर्वाङ्गसुन्दरी और मनोहारिणी कैसे दुःख पारहीहो?॥४०॥ हे उत्तम भौंओंवाली ! आपने इस अपने कोमल शरीरपर शीत और वायु इत्यादिके कठिन दुःख कैसे सहे ? सो हमको बताइये॥४१॥ दमयन्ती बोली। हे ऋपियो ! मैं न देवी हूँ, न यक्षी हूँ, न जलचरी हूँ और न पर्वत देवताहूँ, मुझको तो आप मानुषी जानिये॥४२॥ अब मैं अपना सारा हाल आपसे विस्तार पूर्वक कहदेतीहूँ, सुनिये। मैं विदर्भाधिपति महाराज भीमकी कन्या और निषधाधिपति वीरसेनके पुत्र महाराज नलकी प्यारी भार्या हूँ॥४३॥ हे ब्राह्मणो ! पूर्वकर्मके फलसे मैं आपके समीप आईहूँ। और युद्धमें चतुर अपने भर्त्ता नलको ढूँढरहीहूँ॥४४॥ अपने महात्मा और कृतास्त्र पतिकी तलाशमें दुःखित हुई यहाँ घूमरहीहूँ, यदि मुझको कितनेक दिन रात्रि करके महाराज नलका दर्शन नहीं मिलेगा॥४५॥ तो मैं अपने श्रेययुक्त शरीरका अन्त कर दूँगी अर्थात् प्राण नहीं रक्खूँगी क्योंकि वह स्त्री नारियोंमें अधम (नीच) कहातीहै, जो अपने पतिका शरीरान्त (प्राणान्त) होनेपर॥४६॥ फिर तेजरहित होकर वंशमें जीवित रहतीहै, वह जिस तरह दिनमें चन्द्रमा तेजहीन दिखाईदेताहै, उसी प्रकार दिखाईदिया करतीहै। इस भाँति वनमें अकेली विलपतीहुई भीमनन्दिनी॥४७॥ दूमयन्तीसे उन सत्य बोलनेवाले तपस्वियोंने कहा। हे कल्याणी ! हे शुभे ! आपका भाग्य अच्छा है, अत एव आपको कल्याण प्राप्त होगा॥४८॥ हम लोग महाराज नलको अपनी तपस्याके द्वारा देखरहेहैं, अत एव आप सर्व पापोंसे हीन और सर्व रत्नसम्पन्न निषधराज (नल) का शीघ्रही दर्शन पाओगी॥४९॥ हे कल्याणी ! पहिलेकी समान श्रेष्ठ वचन बोलने और वैरियोंका नाश करनेवाले तथा मांगलिक (कल्याण)
महाराज नलका दर्शन आपको (अवश्य) मिलेगा ! इस प्रकार कहकर वे सब तपस्वी अपने अपने स्थानमेंही अन्तर्धान होगये॥५०॥
चौपाई
पुनि सब ऋषियन आशिष दीन्हो। मिलि हैं नल मुनि जिय कीन्हो
अन्तर्धान भये मुनि राई।चिन्ता उर रानीकेआई॥
अपनौसो मनमें यह जानी। मानुष जन्म कहा तब रानी॥
कर्म वश्य वन फिरौं भुलानी। ऐसे सोचि शनि अकुलानी॥
नलको खोजत ब++दुःख पाये। आपन पतिके दरश न पाये॥
तब दमयन्तीको यह महान आश्चर्य देखकर विस्मय हुआ। वह सोचनेलगी कि मैंने क्या यहाँ पना देखा ? अथवा यहाँ यह क्या आश्चर्यदायक तमाशासा होगया ?॥५१॥ वे सब तपस्वीनिलोग कहाँ चलेगये ? और उनका आश्रम मण्डलहीकहाँको चलागया ? भीमकन्या शुचिस्मिता दमयन्ती वहाँ इसतरह चिन्ता करनेलगी॥५२॥ और फिर वह मुनियोंसे प्रशंसित दमयन्ती एक गहन वनमें चलीगई, और वहाँ उसने बैलोंसे युक्त सार्थवाह (मुसाफिरोंके समाजका ++खिया) को देखा॥५३॥ उस महासार्थको देखकर महाराज नलकी पत्नी वरारोहा और यशस्विनी दमयन्ती वनके बीचमें उसके पास पहुँची॥५४॥ अनन्तर उस भीमनन्दिनी दमयन्तीको उन्मत्तकी समान आधेव से अंग ढके, दुर्बल, विवर्ण, विकल और खुले शिरसे॥५५॥आईहुई देखकर उनमें बहुतसे आदमी काँपने लगे, और बहुतसे डरके मारे भागगये, बहुतसे विडरके उनके आगेही टिके रहे और बहुतसे पुकार करनेलगे॥५६॥ बहुतसारे हँसनेलगे, बहुतसे उसकी बुराई करनेसे और हे भारत ! बहुत से उसके प्रति दया दिखातेहुए पूछनेलगे॥५७॥ कि हे कल्याणी ! आप कौन हैं? किसकी पुत्री हैं? किसकी भार्या
हैं ? और वनमें किसको तलाश करती फिररहीहैं ? आपका दर्शन करनेसे कितनेही आदमी व्यथित होगयेहैं, सो क्या आप मानुषीहैं !॥५८॥ अथवा आप इस वन और पहाडकी अधिष्ठात्री देवी हैं ? सो यह बात सत्यही सत्य बतादीजिये। हे कल्याणी ! हमको आप निःसन्देह देवी ज्ञात होतीहैं, अत एव हम सब लोग आपकी शरणागत हैं॥ ५९॥ आप यक्षी हैं ? वा राक्षसी हैं ? अथवा वरांगना हैं ? हे कल्याणी ! (आपजो कोई भीक्यों न हों) हमारा कल्याण करके अवश्य रक्षा कीजिये॥६०॥ हे कल्याणी ! अब आप वही यत्न कीजिये कि जिससे हमारा यह सारा सार्थ कुशल क्षेमके सहित शीघ्र अपने अभीष्ट स्थानमें जा पहुँचे और सब आदमी सुखी रहें॥६१॥ उस सार्थके इसप्रकार कहनेपर राजकुमारी दमयन्तीने ‘हे सार्थवाहक !’ इस तरह सम्बोधन करके कहा॥६२॥ कि यहाँ उपस्थित बूढे, तरुण, बालक, सब जने सार्थके आगे स्थित स्वामीके दुःखसे आर्त्त॥६३॥ मुझको मानुषी अर्थात् महाराज भीमकी पुत्री और वीरसेनात्मज महाराज नलकी भार्या स्वामीके दर्शनकी अभिलाषाकरतीहुई जानिये॥६४॥ मेरे पिता विदर्भदेशके महाराज और महा भाग्यवान मेरे पति नल निषधदेशके महाराज हैं, ऐसे वैरियोंसे नहीं हारनेवाले महाराज नलको ही में ढूंढती फिररही हूँ॥ ६५॥ यदि आप लोग मेरे प्राणप्यारे पुरुषसिंह, और वोरयोंका संहार करनेवाले महाराज नलको जानतेहों, तो मुझको शीघ्र बताय दीजिये॥६६॥ महारानी दमयन्तीकी यह बात सुनकर शुचिनामवाले सार्थके फौजदारने दमयन्तीसे कहा हे कल्याणी ! आप मेरी बात सुनिये॥६७॥ हे शुभे ! में सार्थका नेता और सबका अधिपति (मालिक) हूँ, किन्तु हे यशस्विनी ! मैंने नलनामक मनुष्यको नहीं
देखाहै॥६८॥ यह सुनकर दमयन्तीने उन सब वणिक् और सार्थप्रेरकसे कहा कि आपका यह सब सार्थ कहाँको जारहाहै, सो मुझको बताइये॥६९॥
सार्थवाह उवाच।
सार्थोऽहं चेदिराजस्य बाहोः सत्यदर्शिनः।
क्षिप्रं जनपदं गंवा नाथोऽयं मनुजात्मजे॥७०॥
सार्थवाहने कहा हे मनुजात्मजे ! यह सार्थ सत्यदर्शी सुबाहुनामक चंदेरीके महाराजका है, मैं सार्थवाह अर्थात् सब सार्थका अधिपति हूँ और जिस स्थानमें महाराज निवास कररहेहैं, उसी जनपदको शीघ्रतासे जारहाहूँ॥७०॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नाम षड्विंशोऽध्यायः॥२६॥
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सप्तविंशोऽध्यायः २७.
सप्तविंशे च सूतेन सार्थेन सहिता सती।
तं हित्वा विपिनं चैद्यं पुरं प्रापेति चोच्यते॥१॥
इस सत्ताईसवें अध्यायमें सूत अर्थात् सार्थवाह और सार्थसहित सती दमयन्तीका उस वनको छोडकर चैद्यपुरको पहुँचना यह कथा वर्णन करीजातीहै॥१॥
बृहदश्व उवाच।
सा तच++त्वाऽनवद्यांगी सार्थवाहवचस्तदा।
अगच्छद्राजशार्दूल विद्युल्लेखेव शारदी॥२॥
बृहदश्वजीने कहा हे राजशार्दूल ! सार्थवाहके यह वचन सुनकर वह निर्दोष अंगवाली दमयन्ती शरदऋतुके विद्युल्लेखाके समान शीघ्रतासे आकर दुःखित और स्वामीके
दर्शनोंकी कामनावाली, धूलिसे ढके शरीरवाली, शुचिस्मिता अर्थात् मन्द मन्द मुसकुरानेवाली दमयन्ती सार्थसहित॥२॥ और पुरुषोंकरके अज्ञात हुई उस श्रेष्ठमहावनमें गमन करतीहुई सूर्यके छिपजानेपर रमणीक सरोवर पर जा पहुँची॥३॥ वह सरोवर शीतल जलवाला, महा विस्तृत अर्थात् वहुत लम्बा चौडा, विमल, कल्हार जातिके कमलोंद्वारा ढकाहुआ और उत्पल जातिके कमलोंद्वारा विराजित॥४॥इस कारण्डवादि पक्षियोंसे भरा और चक्रवाकों (चकवा चकवियों) से शोभायमान था, इस प्रकार उस सरोवरके सहारेसे टिकनेके निमित्त वह सार्थ उसके पास पहुँचा॥५॥ तब उस समय बैलभी, जो कि भाराक्रान्त और भूंख प्यायासे घबरायेहुए थे, अपने कंधोंसे बोझ उतारने और घास इत्यादिके खानेसे परम सुखी हुए॥६॥ वैसेही घोडे, हाथी, रासभ अपने अपने वालकोंके सहित उस श्रेष्ठ सरोवरको देखकर परमानन्दित हुए॥७॥अनन्तर उस वनमें सरोवरके निकट जाकर वणिक् और पथिक जन यथायोग्य स्नान करके टिकगये॥८॥ वहाँ उन मुसाफिरोंने क्रय विक्रय योग्य भाँति भाँतिके अनेक पदार्थोंका व्यापार किया और फिर दूसरे आदमीहिंसक जीवोंसे घिरेहुए कठिन वनका आपसमें हाल कहनेलगे॥९॥इसके पीछे वे सब जने अपने घरके सुख भोग, ++तिका समागम और पुत्र स्त्री, तथा मित्रोंको याद करते करते नींदके वशीभूत होगये॥१०॥ फिर हे महाराज युधिष्ठिर ! वहाँ आधीरातके समय हाथियोंका एक बडा भारी झुंड जल पीनेके निमित्त आया॥११॥ और उस झुंडने वहाँ आनकर उस सार्थयूथ और सार्थ संगीय अनेक हाथियोंको देखा, तब मदसे परिपूर्ण वे सब वनैले हाथी उन ग्राम्य हाथियोंको देखकर उनको मारडालनेकी कामनासे ++पटकर आये, तब उन आतेहुए हाथि-
योंका वेग दुःसह होउठा॥१२॥१३॥ अनन्तर लडाई होनेपर वनैले हाथियोंने ग्रामके हाथियोंको शीघ्रहीमारडाला और स्त्री बालक तथा गजयुक्त वह सार्थभी मथित किया गया॥१४॥ उस समय भागतेहुए घोडे और गधोंका तीनों लोकको भय दायक महान शब्द होनेलगा॥१५॥ बनैले हाथियोंसे मथित होकर कोई भी अपनी रक्षा नहीं करसका और न किसी दूसरेकोही बचासका। तब सार्थवाहने कहा मेरे भाई पुत्र सहायक सबही निहत होगये॥१६॥ और यह कष्टदायक अग्नि उठी है अर्थात् प्रकट हुईहै, इससे अब तुम रक्षा करो, भागते क्यों हो ? सारे रत्न बिखरगयेहैं, इनको लेलो भागे किस लिये जातेहो ?॥१७॥ सार्थवाहकी यह बात सुनकर वे सब लोग झपटकर आये और उन पडेहुए रत्नोंको उठायकर हाय ! हाय ! करनेलगे॥१८॥ जो बात पहिलेकभी नहीं देखीगई ऐसी सब किसीको भयंकर शापके दुष्ट कर्मकी घटना देखकर कमलकी सदृश आँख और चन्द्रमाकी समान मुखवाले घबरायेहुए बालक वनमें टिके रहे। इसके पीछे सारे रत्न, हीरे, प्रवाल, बिगड और टूट फूटकर॥१९॥२०॥ भूमिपर गिरगये। तब उनके द्वारा उसकाल भूमि इसप्रकार शोभायमान हुई, जिस प्रकार शरदऋतुमें नक्षत्रोंके द्वारा आकाश शोभायमान हुआ करताहै और कितनेही आदमी सार्थसे छूटकर दूर जा छिपे॥२१॥ अनन्तर सार्थके सब जने इकट्ठे होकर आपसमें कहनेलगे कि हम लोगोंको यह किस कर्मका फल मिलाहै ? क्या हमलोगोंने महायशवाले मणिभद्रकी पूजा नहीं करीहै !॥२२॥ अथवा हमने श्रीमान् गणेशजीकी पूजा नहीं करी ? वा यक्षोंके अधिपति श्री बेरदेवताकी पूजा नहीं करी?उसीका यह बुरा फलं हुआ। अथवा हमारे महासार्थमें यह जो उन्मत्त-
दर्शनवाली भयंकराकार नारी मनुष्यका अच्छा रूप वनाकर आघुसीहै, उसीका यह फल है ? या अपशकुनोंका विपरीत फल हुआहै ?॥२३॥२४॥ या नवग्रह विपरीत हुएहैं ? अथवा इस उत्पातके होनेका कोई दूसरा कारण है ? इसके पीछे अपरजाति तथा धनहीन और दीनहुए आदमी कहने लगे॥२५॥ कि जो महा दारुण मायामनुष्यका रूप बनाकर सार्थमें घुसतीहुई दिखाई दीथी॥२६॥ वो निःसन्देह राक्षसी, यक्षी, वा भयंकर पिशाची है, यह सारा पाप उसकाही है, इस विषयमें दूसरा विचार नहीं करना चाहिये॥२७॥ अब यदि हमलोग उस सार्थका नाश करनेवाली और अनेक खोटे काम करनेवाली पापिनीको देखेंगे, तो पत्थर, धूरि, लकडी (लाठी) और घूंसोंसे॥२८॥ अवश्यही मारडालेंगे, क्योंकि वह इस हमारे सार्थकी कृत्या है। उन लोगोंकी यह दारुण बात चीत सुनकर दमयन्ती॥२९॥ डरती काँपती वहाँसे दूसरे वनको भागी, और उस पापकी आशंका करतीहुई अपनपेकी निन्दा करनेलगी॥३०॥ कि अहो ! विधाताका मेरे प्रति महान दारुण क्रोध है, जो मेरे पर कुशल नहीं बाँधता है। इसको मैं किस कामका फल समझँ ?॥ ३१॥ यह अवश्य जन्मान्तरका कियाहुआ पाप इस समय आनकर उपस्थित हुआहै, इसी कारण मेरा स्वामी और पुत्रोंसे वियोग हुआ॥३२॥और वे महाराज नल भी विधाताकी गति से महापराभूत होकर सुझ पापिनीकी आशंका करतेहैं, अहो!दैवकी कैसी विचित्रता है ?॥३३॥
कुत्रात्मानं पातयेऽहं यामि च क्व नु हाश्रयम्।
अन्यथा न भवेच्छान्तिर्ध्रुवं देहस्य पातनात्॥३४॥
इस समय मैं अपनपेको कहाँ गिराऊं ? अथवा किसके सहारेमें
जाऊं ? अब इस शरीरको ही अवश्य त्यागदेना चाहिये, क्योंकि दूसरे उपायसे मुझको शान्ति नहीं होगी॥३४॥इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नाम सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥
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अष्टाविंशोऽध्यायः २८.
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अष्टाविंशे नलस्यैव नागेन सह संगमः।
कर्कोटकेन तत्तस्य+++रणमुच्यते॥१॥
इस अट्ठाईसवें अध्यायमें कर्कोटक नामक नागके संग महाराज नलका समागम (मिलन) हुआ और यही समागम नलके सुखका कारण होगया इसीकी कथा वर्णन करीजातीहै॥१॥
बृहदश्व उवाच।
एवं सा दुःख संतप्ता भर्त्तुर्व्यसनकर्शिता।
आक्रम्य सा वनं घोरं ययौ चेदिपुरं प्रति॥१॥
बृहदश्वजी बोले। हे महाराज युधिष्ठिर ! इस भाँति दुःखसे संतप्त और स्वामीके दुःखसे दुर्बल दमयन्ती उस घोर वनको उल्लंघन करके चेदीपुरको चलदी॥१॥और अर्द्धवस्त्र धारण कियेहुए इसने सन्ध्यासमय सत्यदर्शन महाराज सुबाहुके उत्तम नगरमें प्रवेश किया॥२॥तब इस विवर्ण, दुबली, दीन, मुक्तकेशी (खुले शिरवाली) मैले++कुचैले शरीरवाली और उन्मत्तकी समान जातीहुई दमयन्तीको नगरनिवासियोंने देखा॥३॥और फिर वे नगरनिवासी इस बाला दमयन्तीको चेदिराज सुबाहुके पुरमें घुसताहुआ देखकर कुतूहलसे उस राजकुमारीके पीछे पीछे चलदिये॥४॥तब वह दमयन्ती उनलोगोंसे घिरीहुई राजमहलके पास जापहुँची। अनन्तरं सब
जनोंसे युक्त उसको महलके धोरे आयाहुआ देखकर राजमाताने॥५॥ अपनी धायको आज्ञा दी कि, तू जाकर इसको मेरे पास बुला ला।राजमाताकी यह बात सुनकर धाय दमययन्तीके पास गई॥६॥ और फिर वहाँ जाकर उसने शोकसे दुर्बल, उन्मत्तवेशसे ढकी और लक्ष्मीके सदृश आयतनेत्र दमयन्तीसे मीठी वाणी द्वारा कहा॥७॥ हे सुन्दरी ! आप विद्युल्लेखा अर्थात् विजलीकी रेखाके समान परमोत्तम रूपको धारण कररहीहैं, अत एव हमारे मनमें संशय होताहै कि आप कौन हैं ? और किसकी भार्या हैं ? क्यों कि यह आपका मनुष्यरूप मालूम नहीं होता॥८॥ उस धायकी यह बात सुनकर भीमकुमारी दमयन्तीने कहा कि, मुझको आप मानुषी ही जानिये।मैं अपने स्वामीका अनुगमन कर रहीहूँ॥९॥और सैरन्ध्रीका व्रत धारण करके स्वामीके दुःखसे पीडित मैं अकेली केवल मात्र फल और मूल खातीहुई जहाँ सन्ध्या होजातीहै वहीं ठहरजाया करतीहूँ॥१०॥हे देवि ! निषधदेशके महाराज नल मेरे स्वामी हैं जो कि जुएमें वैरीसे हारगये और अब वे भूपाल अपना सारा राज्य छोडकर किसी वनमें चलेगयेहैं॥११॥उन महाराजने बहुतसे दिन तो मेरेही संग बिताये, और फिर वहुतसा समय वीतजानेपर एक दिन मुझ सोतीहुईको त्यागकर॥१२॥और मेरे आधे कपडेको कतरकर निरपराधिनी मुझको छोडदिया। मैं अपने उन्हीं स्वामीको मार्गमें खोजतीहुई दिनरात जलतीरहतीहूँ॥१३॥ और हे सु++! वे महाराज किस तरह देशान्तरको गये ? इस विषयमें मैं कुछभी नहीं कह सकतीहूँ दमयन्तीकी यह वातें सुनकर राजमाताने कहा॥१४॥
चौपाई
कहेउ नृपतिकी तब महतारी। रहो गेह काहू ++कु++री॥
दमयन्ती बोली यह वाता। रहै धर्म रहिहौं तहँ माता॥
होय जौन शुचि सेवौं चरण। इस प्रकार रहिहौंतेहि शरण॥
निरा+++मातु++बखाना। पुत्रि कहेउ सो वचन प्रमाना॥
मम कन्या जो अहै++नन्दा।रहो तासु संग परमानन्दा॥
हे कल्याणी! आप मेरेही यहाँ वास कीजिये क्योंकि आपमें मेरा मन बहुतही लगरहाहै, और हे भद्रे ! मेरे आदमी अर्थात् नौकर चाकर आपके पतिको ढूँढेंगे॥१५॥ अथवा इधर उधर घूमते घामते आपके स्वामी अपने आपही यहाँ आपहुँचेंगे। अत एव हे बाले ! यहाँ वास करनेपर ही आप अपने स्वामीको पाजायँगी॥१६॥ माताकी यह बात सुनकर दमयन्तीने कहा। हे वीरजननी ! मैं आपके घर समयका ठहराव करके रहना चाहतीहूँ॥१७॥
दोहा
बात दूसरे पुरुषसे, झूंठा भोजन त्याग।
और सबै सेवा करूं, यही हमारे भाग॥
अर्थात् मैं झूंठा भोजन, दूसरे पुरुषकी चरण सेवा (पैर दाबना) अथवा पराये पुरुषसे बात चीत कभी नहीं करूंगी ॥१८॥ और यदि कोई मेरी प्रार्थना करेगा अर्थात् मुझको कुदृष्टिसे देखेगा, तो वह पुरुष मारडालनेके लायक होगा और मेरे स्वामीकी खोज (तलाश) में ब्राह्मणोंको भेजना पडेगा॥१९॥ यदि आप मेरी इन सब बातोंको स्वीकार करलें, तो मैं निःसन्देह यहाँ रहसकतीहूँ, इसके अन्यथा होनेसे इस समय मेरा रहना आपके समीप नहीं होगा॥२०॥ दमयन्तीकी यह प्रतिज्ञा सुनकर राजमाता आनन्दित मनसे बोलीं हे सुन्दरी ! आपने जो कहा है, वह मैं सब (यथावत् ) करूंगी, यह आपका व्रत परमोत्तम है॥२१॥
दोहा
जो जो तुम हमसे कही, सो सो सब स्वीकार।
रहो यहाँ आनन्दसौं, ++घर सयानी नार॥
हे भरतवंशोत्पन्न महाराज युधिष्ठिर ! भीमकुमारी दमयन्तीसे इसप्रकार कहकर फिर राजमाताने अपनी सुनन्दा नामवाली दुहिता (पुत्री) से कहा॥२२॥हे सुनन्दे ! तुम इस सैरन्ध्रीको देवरूपिणी समझकर निःशंक हृदयसे निरन्तर इसके साथ आमोद प्रमोद कियाकरो॥२३॥हे युधिष्ठिर !उधर महाराज नलने एक समय विजन वनमें प्राणियोंको दग्ध करतेहुए वनाग्निका दर्शन किया, और उस अग्निके बीचमें इन्होंने किसी प्राणीका शब्दभी सुना॥२४॥कि ‘मुझको कोई छुडाओ’ इस भाँति कोई उच्च स्वरसे शब्दकरताहुआ कहरहाहै कि पुण्यश्लोक कौन है ? तब महाराज ! नल मा भैः ! मा भैः ! अर्थात डरो मत डरो मत कहते हुए अग्निमें उपविष्ट हुए॥२५॥और वहाँ कुंडलाकार सोतेहुए नागराजका दर्शन किया, तब वह नाग हाथ जोडकर काँपताहुआ महाराज नलसे॥२६॥कहनेलगा कि हे नल! आप मुझको नागराज कर्कोटक जानिये।मैंने पूर्वमें ज्ञानवान ब्रह्मर्षि और महातपस्वी॥२७॥सुमन्तुको छलाथा, इस कारण हे नराधिप ! उन्होंने (क्रोधपूर्वक) मुझको शाप दिया, उनके शापसे मैं वनमें घूम फिर नहीं सकताहूँ अर्थात् पैरों चलनेको भी समर्थ नहीं हूँ॥२८॥अब मैं आपको अच्छा उपदेश करताहूँ कि आप मेरी रक्षा करने योग्य हैं अर्थात् मेरी रक्षा कीजिये। ऐसा होनेपर मैं आपका मित्र होजाऊँगा, क्योंकि मेरे समान दूसरा पन्नग कोई भी नहीं है॥२९॥अब मैं आपके सामने अपना आकार बहुत छोटासा बनाये लेताहूँ, आप मुझको शीघ्रतासे उठाकर लेचलिये। इस प्रकार कहकर वह नागेन्द्र अँगूठे की बराबर होगया॥३०॥तब महाराज नल उस नागराजको ग्रहण करके अग्निरहित आकाश देशमें पहुँचकर॥३१॥उस नागके त्यागने की काम-
ना करनेलगे, तब (उस समय) कर्कोटकने कहा, हे स्वामिन् नैषधराज ! आप कितनेक पदोंकी गिन्ती करते हुए चलिये॥३२॥ तो हे महाराज ! मैं आपको परम श्रेय प्रदान करूँगा अर्थात् आपके शरीरको आश्रयभूत करके निर्मल कर दूँगा, तब महाराजने पदोंका गिनना आरंभ किया। किन्तु दशवें पगमें वह नागराज अन्तर्धान होगया॥३३॥ उसके अन्तर्धान होनेपर महाराज नलका पूर्वरूप तत्क्षण अदृश्य होगया, तब वह नल अपनपेको विरूप (बद सूरत) देखकर बडे अचंभेमें हुए और वहीं स्थित रहे॥३४॥ अनन्तर वे महाराज छोटासा रूप धारण करनेवाले उस नागको देखकर आश्चर्य करने लगे तब कर्कोटक नाग समझाता बुझाता हुआ महाराज नलसे कहनेलगा॥३५॥ नागराजने कहा हे महाराज ! मैंने जो आपके उस पूर्वरूपको अदृश्य कियाहै, इससे अब आपको मनुष्य नहीं पहिचान सकेंगे। यह कर्कोटक नाग दमयन्ती और महाराज नल॥३६॥तथा राजर्षि ऋतुपर्णकी कथा कलिका नाश करनेवाली है। हे महाराज नल ! आप जिसके लिये महान् दुःखयुक्त हुएहैं॥३७॥सो आप मेरे विष और विषके दोषसे दुःखित नहीं होंगे, तथा जबतक आप विषयुक्त अंगोंसे रहित नहीं होंगे॥३८॥ तिस समयतक हे महाराज ! आपमें यह दुःख वास नहीं करेगा, क्योंकि आपने मुझे अग्निसे जलतेहुए बचायाहै॥३९॥ अतएव हे नरसिंह ! आपको दाढवाले जीवों और वैरियोंसे डर नहीं होगा और हे नराधिप ! मेरे प्रसादसे आप ब्रह्मवित् अर्थात् ब्रह्मको जाननेवाले होंगे॥४०॥ हे राजन् ! आपको विषजनित पीडा नहीं होगी, और हे राजेन्द्र ! संग्राममें आपको (सदा) विजय प्राप्त होगा॥४१॥ अब हे महाराज ! आप अपनपेको बाहुक सारथीके नामसे प्रसिद्ध करतेहुए राजा ऋतुपर्णके पास चले-
जाइये। वह महाराज अक्षनिपुणताको जानतेहैं॥४२॥ हे निषधाधिपति ! आप इसी समय मनोहर अयोध्यापुरीको चलेजाइये। वे महाराज आपको सुहृद (मित्र) भावसे अक्षहृदय प्रदान करेंगे॥४३॥ और वे इक्ष्वाकुकुलोत्पन्न श्रीमान् महाराज ऋतुपर्ण आपके मित्रभी होंगे। तबआप उत्तम यज्ञोंसे श्रेयः फल पावेंगे॥४४॥ और फिर आपको रानीभी मिलजायगी, शोकमें मन मत कीजिये। क्योंकि आपको रानी और पुत्र दोनोंही मिलेंगे, यह बात मैं सत्यही कह रहाहूँ॥४५॥ और हे महाराज ! जिस समय आप अपना पूर्वरूप देखना चाहें, तो उस समय मुझको याद करना। और मैं जो आपको यह वस्त्र देताहूँ॥४६॥ सो इस वस्त्रको शरीरपर ओढनेसे आप अपने (असली) रूपको प्राप्त होंगे, यह कहकर (नागराजने) महाराज नलको अतीव सुन्दर दो वस्त्र दिये॥४७॥
एवं नलं समादिश्य वासो दत्त्वा च कौरव।
नागराजस्ततो राजंस्तत्रैवान्तरधीयत॥४८॥
हे महाराज युधिष्टिर ! इस प्रकार राजा नलको उपदेश और वस्त्र देकर वह नागराज (कर्कोटक) उसी स्थानमें अन्तर्धान होगया॥४८॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नामाऽष्टाविंशोऽध्यायः॥२८॥
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एकोनत्रिंशोऽध्यायः २९.
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एकोनत्रिंश ++ईशेन्द्र ऋतुपर्णपुरं गतः।
दूतान्संप्रेषयामास भीमोऽपि त्विह कथ्यते॥१॥
इस उनतीसवें अध्यायमें महाराज नलका ऋतुपर्णके नगरमें पहुँचना और राजा भीमका नलकी खोजमें दूतोंका भेजना, यह कथा वर्णन करीजातीहै॥१॥
बृहदश्व उवाच।
तस्मि अन्तर्हिते नागे प्रययौ नैषधो नलः।
ऋतुपर्णस्य नगरं प्राविशद्दशमेऽहनि॥१॥
बृहदश्वजी बोले हे महाराज युधिष्ठिर ! उस नागराजके अन्तर्धान होजानेपर निषेधराज नल यात्रा करतेहुए दशवें दिन महाराज ऋतुपर्णके नगरमें घुसे॥१॥ और उन्होंने राजा ऋतुपर्णके समीप पहुँचकर इस तरह कहा कि हे राजन् ! मैं बाहुकनामसे प्रसिद्ध सारथी हूँ पृथ्वीपर मेरे समान घोडे हांकनेमें चतुर दूसरा कोई भी नहीं हैं॥२॥ आप अर्थ सम्बन्धी कठिन कार्योंमें पूछने योग्य और निपुण कार्योंमें भी मेरी सलाह ले सकतेहैं, इसके अतिरिक्त मैं अन्नसंस्कार अर्थात् रसोई बनानेकी विधि तथा और भी बहुत से कामोंको जानताहूँ॥३॥ हे ऋतुपर्ण ! संसारमें जितने शिल्पकारीके काम हैं, मैं उन सबकोभी (भली भाँति) करसकताहूँ, अत एव आप मुझको स्वीकार कीजिये॥४॥ महाराज नलके ऐसा कहनेपर ऋतुपर्णने कहा हे बाहुक ! आप मेरे यहाँवसिये। आपका कल्याण होगा। आप सब काम करेंगे किन्तु विशेषतः रथके शीघ्र चलानेमेंही बुद्धि देना॥५॥ और सब भाँतिसे ऐसा यत्न करना कि जिससे मेरे घोडे शीघ्र चलाकरें। आप घोडोंके अधीश्वर हुए और वेतन (तनख्वाह) भी आपको सौसे अधिक मिलेगा॥६॥ और यह दोनों वार्ष्णेय और जीवल सदैव आपके निकट उपस्थित रहेंगे, हे बाहुक ! आप इन दोनोंके साथ रमतेहुए मेरे समीप रहिये॥७॥ बृहदश्वजी बोले। हे युधिष्ठिर !ऋतुपर्णके इस प्रकार कहनेपर और उनसे आदर सत्कारको प्राप्त होकर महाराज नल वार्ष्णेय और जीवलके सहित ऋतुपर्णके नगरमें वास करनेलगे॥८॥ उस स्थानमें वास करतेहुए महाराज
नल विदर्भकुमारी दमयन्तीकी चिन्ता करतेहुए संध्याके समय नित्य एक श्लोकको उच्चारण किया करते॥९॥ कि वह तपस्विनी, सन्तापित, भूँख प्याससे आर्त्त थकावट युक्त मुझ मन्दभागीको यादि कुरतीहुई और अर्द्धवस्त्रधारिणी सोतीहुई रानी किस स्थानमें अबस्थित होगी॥१०॥ इस भाँति नित्य रातके समय कहतेहुए महाराज नलसे (एक दिन) जीवलने पूछा कि हे बाहुक ! आप प्रतिदिन किसका सोच किया करते हैं ! सो में सुनना चाहताहूँ॥११॥ तबबाहुरूपी महाराज नलने जीवलको उत्तर दिया कि, किसी मन्दमति व्यक्तिकी अत्यन्त प्यारी स्त्री हुई थी, और वह स्त्री उसको अत्यन्त प्यारा समझती थी॥१२॥ वह मन्दमति किसी अर्थकरके उस स्त्रीसे अलग होगया अर्थात् उन दोनोंका परस्पर वियोग होगया, और वह वनमें घूमता फिरता महान् दुःखसे पीडित हुआ॥१३॥वह शोकसेदिनरात दग्ध होता और रात्रिकालमें स्त्रीको याद करताहुआ एक श्लोक गायाकरताथा॥१४॥ वह सारी पृथ्वी पर घूमता फिरता किसी जगह किसीका सहारा लेकर वारंवार उसको याद करताहुआ दुःखित है॥१५॥ वह स्त्री अत्यन्त कष्ट करके पुरुषके पीछे पीछे वनमें आई, किन्तु उस अल्पपुण्ययुक्त मनुष्यद्वारा त्यागीहुई कहाँ होगी, कदाचित् कही जीती हो॥१६॥ अकेली मार्गादिसे अनभिज्ञ अर्थात् रास्तेको नहीं जाननेवाली, अपने भर्त्ताको खोजती और उचित भूँख प्याससे आतुर वह महान् कठिनतासे जीवित होगी॥१७॥ हे मारिष ! उस मन्दभागी पुरुषने हिंसक पशुओंसे सदा भरेहुए दारुण महावनमें उस स्त्रीको छोडदियाहै॥१८॥ इस भाँति निषधाधिपति नल दमयन्तीको याद और महाराज ऋतुपर्णकी
आज्ञा पालन करतेहुए उस स्थानमें रहनेलगे॥१९॥ बृहदश्वजी बोले हे युधिष्ठिर ! जब महाराज नल राज्यहीन होकर महारानी दमयन्ती समेत वनको चलेगये, तब नलके दर्शनकी अभिलाषासे राजा भीमने ब्राह्मणोंको चारों ओर भेजदिया॥२०॥ उन ब्राह्मणोंको बहुतसा द्रव्य (धन) देकर महाराज भीमने आज्ञा दी कि आपलोग राजा नल और मेरी दमयन्तीको खोजिये॥२१॥ इस कर्मसे यत्न करके पृथ्वीपति नल जानलिये जाँयगे, और जब मेरी पुत्री दमयन्ती मिलजायगी, तो आपको मैं एक हजार गौएँ पुरस्कारमें दूंगा॥२२॥ इसके अतिरिक्त आपको मैं मोतियोंका हार और नगर (शहर) के बराबर बडा ग्रामभी दूंगा, और कदाचित आप लोग महाराज नल और दमयन्तीको यहाँ नहीं लासकेंगे॥२३॥ तो उनका केवल पता लगादेनेपर भी एक हजार गौ प्रदान करदूंगा। इस प्रकार महाराज भीमके आज्ञा देनेपर वे सारे ब्राह्मण हर्षित हो अलग अलग सब दिशाओंमें चलेगये॥२४॥ और वे रानी समेत महाराज नलको पुर और देशोंमें खोजतेहुए चले, उनमें एक सुदेवनामक ब्राह्मण मनोहर चेदिपुरमें जायकर उपस्थित हुआ॥२५॥ और उसने विदर्भकुमारी दमयन्तीको ढुँढतेहुए, वहां महाराजका राजभवन देखा कि महाराजके उत्तम धर्मस्थानमें सुनन्दा राजकन्या समेत स्थित है॥२६॥ वह मन्द++निके परिमाणसे आच्छन्न तथा प्राप्त रूपके द्वारा उत्तम प्रतिमाके समान और शरीरपर विरहरूपी भूतिके जालद्वारा तेजसे ढकी तथा अन्तरमें सूर्यकी किरणके सदृश तेजसम्पन्न है॥२७॥
तां समीक्ष्य विश++क्षीमधिकां मलिनां कृशाम्।
तर्कयामास भैमीति कारणैरुपपादयन्॥२८॥
तब उस बडी आँखोंवाली, अत्यन्त मैली कुचैली और दुबली दमयन्तीको देखकर वह ब्राह्मण अपने मनमें तर्कना करने लगा कि यह महाराज भीमकी पुत्री दमयन्तीही है, उस ब्राह्मणने उसके लक्षणोंसे यह जानलिया॥२८॥इति श्रीभारतसारे वनपर्वणिभाषायांनलोपाख्यानवर्णनं नामैकोन- त्रिंशोऽध्यायः॥२९॥
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त्रिंशोऽध्यायः ३०.
त्रिंशे तु दमयन्त्याश्चसुदेवस्य समागमः।
चैद्यादीनां महाहर्षो विशोकश्चापि कथ्यते॥१॥
इस तीसवें अध्यायमें दमयन्ती और सुदेवका समागम (मिलन) चैद्य इत्यादिका हर्षऔर उनके शोकरहित होनेकी कथा वर्णन करीजाती है॥१॥
सुदेव उवाच।
यथेयं मे पुरा दृष्टा तथा रूपेयमंगना।
अंगनेयं पुरा दृष्टा मन्मथस्य रतिर्यथा॥१॥
सुदेवने कहा अर्थात् अपने जीमें सोचा कि मैंने जिस प्रकार प्रथम इस अंगना (नारी) को देखाथा, यह अबभी उसी रूपसे सम्पन्न दिखाई देरहीहै, क्योंकि मैंने इस स्त्रीको प्रथम कामदेवकी भार्या रतिके समान देखाथा॥१॥ पूनोंके चन्द्रमाकी प्रभाके समान अपनी कान्तिके द्वारा इस स्थानको प्रकाशित करती जिस प्रकार मनुष्य अपनी प्यारी कान्ताका दर्शन करके कृतार्थ हुआ करतेहैं, तैसे इसका दर्शन करके इस समय मैं भी उसी प्रकार कृतार्थ होंगयाहूँ॥२॥ पूर्णचन्द्राननाअर्थात् पौर्णमासीके चन्द्रमाकी समान मुखवाली, श्यामा (सोलह वर्षकी अवस्था युक्त) शोभायमान, गोल पयोधर (स्तन) वाली, अपनी कान्ति-
द्वारा प्रकाश करती और सारी दिशाओंके अँधेरेका नाश करती हुई॥३॥सारे संसारके बीच पूर्णचन्द्रकी चन्द्रिकाके सदृश मैंने दर्शन किया और प्रारब्धके दोष द्वारा इसको उस विदर्भस्वरूप सरोवरसे जन्मीहुई॥४॥मलरूपी कीचडसे लिप्त अंगवाली कमलिनीके तुल्य राहुग्रसित चन्द्रके होनेपर पूर्णिमाकी रातके समान॥५॥ अपने स्वामीके शोकसे अकुलाईहुई दीन सूखे स्रोत प्रवाहवाली नदीके समान टूटे फूटे कमलपत्रकी समान डरेहुए पक्षीकी समान॥६॥ हाथीकी सूंडसे भ्रष्टहुई पद्मिनी (कमलिनी) के समान और अच्छे सुकुमार और कोमल अंगवाली रत्नोंसे भरे घरोंमें वास करनेवाली॥७॥ चिरकालकी निकली कमलिनीके समान दग्धहोती और रूप तथा उदार गुणोंसे युक्त गहने परने लायक, और गहनोंसे हीन॥८॥ नवीन आकाशमें नीले मेघोंसे युक्त चन्द्रलेखाकी समान शोभायमान, उत्तम कामभोगसे हीन, दीन और बन्धुजनोंसे॥९॥ हीन होकर यह शोभा पारहीहै, किन्तु तथापि शोभा नहीं पाती। उधर इससे दीन होकर महाराज नलभी बहुत दुःख करतेहैं॥१०॥ और आत्माकरके शरीरको धारणकरती इधर यह दमयन्तीभी शोकसे दग्ध होरहीहै, इस काले बालोंवाली शतपत्र कमलके पत्रसदृश आँखोंवाली॥११॥ और सुख पानेके योग्य इसको दुःखित देखकर मेरा हृदयभी दुःखित होताहै, अहो ! यह भामिनी निश्चितरूपसे किस समय दुःखके पार जायगी?॥१२॥ चन्द्रमाके समागमसे जिस प्रकार रोहिणी सुखको प्राप्तहुआ करतीहै, उसी प्रकार यह पतिव्रता अपने स्वामीके समागमसे कब सुखको प्राप्त होगी ?॥१३॥ समानशील, समान अवस्था, समान रूप और समान अभि-
मानसे युक्त तथा श्याम नेत्रवाली इस विदर्भकुमारी दमयन्तीके लिये निषधराज नलही योग्य हैं॥१४॥ पूर्णचन्द्रानना अर्थात् पूर्णचन्द्रकी समान मुखवाली और अदृष्टपूर्व (पहले नहीं देखे) दुःखसे युक्त और अपने स्वामीकोही मुख्य माननेवाली इस दमयन्तीको मैं ढारस दूँ॥१५॥बृहदश्वजी बोले। हे युधिष्ठिर ! इस तरह अनेक कारणोंद्वारा चिन्ता करके सुदेव ब्राह्मण भीमकुमारी दमयन्तीके पास जाकर कहनेलगे॥१६॥ सुदेवने कहा हे विदर्भकुमारी ! मैं सुदेव नामवाला ब्राह्मण आपके भ्राताका प्यारा मित्र हूँ। और महाराज भीमकी आज्ञानुसार आपको खोजताहुआ यहाँ आपहुँचा हूँ॥१७॥ आपके पिता महाराज भीम कुशलपूर्वक हैं और उनकी रानी अर्थात् आपकी जननीभी कुशल मंगलसे हैं और रहतेहुए आपके बालक कुशल पूर्वक हैं॥१८॥ किन्तु आपके निमित्त बाँधवलोग मुरदेकी समान हो रहेहैं, बृहदश्वजी वोले। हे युधिष्ठिर ! तबदमयन्तीने भी उस सुदेवको पहचानकर॥१९॥
चोपाई
ब्राह्मणको दमयन्ती चीन्हा। करिप्रणाम बहु रोदन कीन्हा॥
द्विज को लै पुनि निज गृह आई। तबहि सुनन्दा सब सुधि पाई॥
राजमातु तहँ दौरी आई। दमयन्ती कहँ चीन्हेउ जाई॥
भूप मातु पूछी यह बाता। आपन देश नाम कहु ताता॥
भीम भूपके प्रोहित अहहीं। नाम सुदेव हमारो कहहीं॥
रोय सुनन्दा नृपमहतारी। अहो प्रथम नहिं कीन्ह चिन्हारी॥
उनसे क्रमानुसार सब सुत्दृदों व सखियोंकी कुशल पूछी (और फिर उस ब्राह्मणको अपने पिताके नगरमें भेजदिया) ॥२०॥ और फिर सुदेवसे अपने दुःखका सब कारण कहा और फिर दमयन्ती उस ब्राह्मणके साथ राजमाताके पास आई॥२१॥ तब उस (ब्राह्मण) ने विदर्भकुमारी दमयन्तीका सारा चरित्र राजमाताके आगे वर्णन करदिया, तब चेदिराजकी माताने
उसका सत्कार करके कहा॥२२॥हे राजन् ! तब सुदेवको देखकर राजमाता पूछनेलगी, वह कौनसा ग्राम है, जहाँ इस बालाका निवास है ?॥२३॥ यह किसकी भार्या है ? और किसकी पुत्री है ? तथा यह सुन्दर आँखोंवाली अपनी जाति और अपने पतिसे किसतरह छुटगई ?॥२४॥ अथवा हे ब्राह्मण! आपनेही इस यहाँ आईहुई सतीको किस प्रकारसे पहचान लिया ? यह सारां हाल मैं सत्यही सत्य सुनना चाहतीहूँ॥२५॥
एवमुक्तस्तया राजन्ददेवो द्विजसत्तमः॥
सुखोपविष्ट आचष्टे दमयन्त्या यथातथम्॥
हे महाराज ! राजमाताके इस प्रकार पूछनेपर ब्राह्मणोत्तम सुदेवने सुखासनपर बैठे हुए दमयन्तीका सच्चा सच्चा (सारा) हाल वर्णन करदिया॥२६॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नाम त्रिंशोऽध्यायः॥३०॥
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एकत्रिंशोऽध्यायः ३१.
एकत्रिंशे विदर्भे च दमयन्त्यास्तथागमः।
स्वकीयैः परकीयैश्चबलैः सह स कथ्यते॥१॥
इस इकतीसवें अध्यायमें विदर्भराज भीमके पास दमयन्तीका आना और अपनी व पराई सेनाके संग समागम होना, यह कथा कहीजातीहै॥१॥
सुदेव उवाच।
विदर्भराजो धर्मात्मा भीमो भीमपराक्रमः।
++तेयं तस्य कल्याणी दमयन्तीति विश्रुता॥१॥
सुदेवने कहा, हे राजमाता ! विदर्भदेशके जो धर्मात्मा रणमें भयंकर पराक्रम करनेवाले भीमनामक महाराज हैं, यह कल्याणी
दमयन्तीके नामसे प्रसिद्ध उन्हीकी कन्या है॥१॥और निषधाधिपति महायशस्वी बुद्धिमान् और पुण्यश्लोक महाराज वीरसेनके नलनामक पुत्रकी यह कल्याणी दमयन्ती पत्नी है॥२॥ वे महाराज नल अपने भाईसे जुएमें हारकर और राज्यहीन होकर दमयन्ती समेत कहीं चलेगये, जिनको कोईभी नहीं जानसका॥३॥ अत एव हम सारे ब्राह्मण इस दमयन्तीके लियेही भूमिपर घूमरहेहैं, सो यह वाला दमयन्ती आपके यहाँ पुत्रीके स्थानमें मिलगई॥४॥ इसके रूपकी समान दूसरी कोई मानुषी विद्यमान नहीं है, इसकी भौओंके बीचमैं यह जन्मकाही पिप्लु *5 चिह्न है॥५॥इस श्यामाका वह कमलकी समान चिह्न मैंने छिपाहुआ देखा, कारण कि इसका रूप जिस तरह मेघसे चन्द्रमा ढकजाताहै, इसी प्रकार मैलसे ढकरहाहै॥६॥विधाताने यह पिप्लुचिह्न विभूतिके निमित्त रचना किया है, जिस प्रकार चन्द्रमाकी लेखा प्रतिपदाके द्वारा दूषित हुई अधिक शोभा नहीं पाती, इसी प्रकार पिलु चिह्नसे ढकनेपर दमयन्ती अधिक शोभा नहीं पाती॥७॥ किन्तु मैलसे इसका सुन्दर रूप कदापि नष्टनहीं होता, यह विना संस्कार किये कंचनकी समान प्रकाशित होरहीहै॥८॥मैंने इस पिप्लुचिह्नयुक्त देहके द्वाराही इस वाला देवीको पहिचानलियाहै, जिसप्रकार ढकीहुई अग्नि उष्ण चिह्नके द्वारा पहिचानली जाती है॥९॥ हे महाराज ! ब्राह्मण सुदेवकी यह बात सुनकर सुनन्दाने पिप्लु चिह्नके ढकनेवाले उस मैलको दूरकरदिया॥१०॥ तबदमयन्तीको वह पिष्लु चिह्न उस मैलके दूर होजानेपर जिस प्रकार गगन मण्डलमें सूर्य शोभायमान होताहै, उसी प्रकार अत्यन्त प्रकाशित
दिखाइ देनेलगा॥११॥ हे युधिष्टिर ! तब तो उस पिप्लु चिह्नको देखकर सुनन्दा और राजमाता उससे मिलीं और दो घडी तक रोतीहुई स्थित रहीं॥१२॥ फिर राजमाताने धीरे धीरे आँखोओंको रो कर कहा कि मैंने आपको इस पिप्लुचिह्नके द्वारा पहचान लिया कि आप मेरी बहनकी कन्या है॥१३॥ हे शुभदर्शने। मैं और आपकी महतारी दोनों जनी हीं महात्मा दशार्ण देशके महाराज दामाकी पुत्री हैं॥१४॥ वह आपकी महतारी महाराज भीमको समर्पण कीगईंअर्थात् उनका विवाह भीमराजासे हुआ, और मैं महाराज वीरबाहुको अर्पण कीगई आपको मैं दशार्ण देशमें पिताके घर प्रकट हुई देखचुकी हूं ॥१५॥ अत एव जैसा आपके पिताका घर है हेभामिनी ! वैसाही मेरा घर जानो, हे दमयन्ती ! जैसी हमारी सम्पत्ति है वैसीही आपकी है॥१६॥ हे महाराज ! तब तो दमयन्तीने मनमें अत्यन्त हर्षित होकर अपनी महतारीकी बहन (मौसी) को प्रणाम किया और फिर इस तरह कहनेलगी॥१७॥ कि मैं (आपके घर) बिना जानेभी सुखसे रहीहूँ, और आपने मेरी सारी कामनाओंको पूर्ण करके निरन्तर रक्षा की है॥१८॥ किन्तु अब सुखसेभी अधिक सुखपूर्वक वास होगा, इसमें संशय नहीं। हे मइया ! मैंने बहुत दिनोंतक आपके निकट वास किया, अतएव अब मुझको (अपने घर जानेकी) आज्ञा दीजिये॥१९॥ कयों कि वहाँ पहुँचाये हुए मेरे दोनों बालकभी वास कररहेहैं वे माता पितासे हीन और शोकार्त होकर कैसे रहोंगे ?॥२०॥ यदि आप भी मेरे प्रिय कार्यकी इच्छा करतीहैं, तो मेरी इच्छा है कि शीघ्रही विदर्भ देशमें पहुँच, अत एव आप यान (रथ) का प्रबन्ध करदीजिये॥२१॥ हे महाराज ! तब दमयन्तीकी मौसी अत्यन्त+++तहुई और उन्होंने ‘ऐसाही
करतीहूं’ कहकर बहुत सेना करके युक्त अपनेपुत्रकी अनुमति (सलाह) से॥२२॥ श्रीमती राजमाताने अतीव सुन्दर और अन्न पान व सब सामग्री ++क्त नरवाहन अर्थात पालकीमें (बिठाकर) दमयन्तीको वहाँसे (विदर्भनगरको) भेजदिया॥२३॥हे भरतवंशोत्पति युधिष्ठिर !तब वह कल्याणी दमयन्ती उस पालकीके द्वारा बहुत शीघ्र विदर्भदेशमें (अपने पिताके धर) जा पहुँची। उस समय सारे बंधुजनोंने आनन्दित होकर उसका आदर सत्कार किया॥२४॥फिर सबबाँधव, दोनों बालक माता पिता और अपनी सखी सहेलियोंको सकुशल देख कर॥२५॥हे महाराज ! उस यशस्विनी दमयन्तीनेभी उत्तम विधिके द्वारा कुलदेवता और ब्राह्मणोंका पूजन किया॥२६॥
अतर्पयत्सुदेवं च गोसहस्रेण पार्थिवः।
प्रीतो दृष्ट्वैव तनयां ग्रामेण द्रविणेन च।
सा व्युष्टा रजनी तत्र पितुर्वेश्मनि भामिनी॥२७॥
अनन्तर महाराज भीमने अपनी कन्या दमयन्तीको देखकर प्रसन्नतापूर्वक सुदेव नाम ब्राह्मणको हजार गौ, ग्राम और धन अर्पण किया। वह रात दमयन्तीने अपने पिताके ही घर विताई॥२७॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नामैकत्रिंशोऽध्यायः॥३१॥
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द्वात्रिंशोऽध्यायः ३२.
द्वात्रिंशे प्रेरितो भीमः पुत्र्या च न मार्गणे॥
चारान्संप्रेषयामास देशेदेशे तदुच्यते॥१॥
इस बत्तीसवें अध्यायमें पुत्री दमयन्तीके कहनेसे महाराज भीमने नलके ढूंढनेको देशदेशमें अपने दूत भेजे, यह कथा वर्णन करी जातीहै॥१॥
दमयन्त्युवाच।
मां चेदिच्छसि जीवन्तीमसत्यं न वदामि ते॥
नरवीरस्य वै तस्य नलस्यानयने यत॥१॥
दमयन्तीने कहा हे मइया ! मैं यह बात सत्यही कहतीहूँ कि यदि आप मेरा जीवित रहना चाहतीहैं, तो नरवीर महाराज नलके लानेका उपाय कीजिये॥१॥ दमयन्तीके इस प्रकार कहनेपर वह रानी बहुतही दुःखी हुई और आँसुओंसे कंठ रुद्ध होजानेसे कुछ नहीं बोलसकी॥२॥ हे कुरूद्वह युधिष्ठिर ! तब उसकी यह दशा देखकर सारा रनवास हाय ! हाय ! करताहुआ अत्यन्त उदास होगया॥३॥ इसके पीछे रानीने महाभाग महाराज भीमसे कहा कि, आपकी कन्या दमयन्ती अपने स्वामीका (बडा) सोच कररहीहै॥४॥ हे महाराज ! वह लाज शरमको त्यागकर अपने आपही कहरहीहै, इस कारण आप पुण्यश्लोक नलको ढूँढनेके लिये अपने हलकारोंको भेजदीजिये॥५॥ तब रानीके कहनेसे महाराज भीमने अपने वशमें रहनेवाले हलकारोंको भेजकर यह आज्ञा दी कि तुम सब लोग राजा नलके ढूँढनेको चलेजाओ॥६॥ अनन्तर विदर्भाधिपति महाराज भीमकी आज्ञानुसार ब्राह्मण दमयन्तीके समीप गये और पास बैठकर पूछनेलगे॥७॥ तब दमयन्तीने उन ब्राह्मणोंसे कहा कि आप लोग सब देशोंमें पहुँचकर यह बात कहना कि “हे कितव ! आप मेरा आधा वस्त्र कतरकर कहाँ चलेगये !॥८॥ और हे प्यारे ! आप अपनेमें प्रीति करनेहारी और सोतीहुई प्यारीको विजन वनके बीच छोडकर चलेगये, उसको जिस प्रकार आपने देखाहै, वह उसी तरह आपकी प्रतीक्षा कररहीहै॥९॥आपकी वह भार्या अधिक दग्ध होती और आधे कपडेसे ढकरहीहै, महाराज नल ! उस निरन्तर दुःखसे
रुदन करती हुई रानीके प्रति॥१०॥ हे वीर ! आप प्रसन्न होजाइये और हमको उत्तर दीजिये” हे ब्राह्मणो ! इसके अतिरिक्त और जो बात मेरे हितकी हो, सो बभी आप कृपापूर्वक कहिये ॥११॥ जिस तरह पवनद्वारा प्रेरित होकर अग्नि वनको जलाडाला करतीहै, उसीतरह स्वामीको भी निरन्तर भार्याका पोषण और पालन करना चाहिये॥१२॥ सो धर्म जाननेवाले और उत्तम ऐसे आपके दोनों कर्म किस प्रकार नाशको प्राप्त होगये ? कारण कि आप तो लोकमें सदा प्रसिद्ध, बुद्धिमान, कुलीन और दयालु हैं॥१३॥सो अब आप उस दयासे किसतरह खाली होगये ? जो कि मेरा भाग्य नष्ट होगयाहै, इसी कारण मैं आपको दयारहित समझरहीहूँ, इस भाँति जिस किसी स्थानमें महाराज नल हों, आप लोग वहाँ जाकर कहिये॥१४॥ इन बातोंके कहनेपर महाराज जो कुछ भी कहें, सो शीघ्रतापूर्वक मुझसे आनकर कहदो, यदि वे धनसंपत्तिसम्पन्न हों, अथवा धनहीन हों॥१५॥ किंवा समर्थ हों, यह उनकी सब अवस्था समझलीजिये। दमयन्तीके इस प्रकार कहनेपर वे सब ब्राह्मण ++री दिशाओंको चलेगये॥१६॥
चौपाई
ब्राह्मण चले खोज तहँ पाई। ग्राम नाम देशन प्रतिज्ञाई॥
हे महाराज युधिष्ठिर ! वे सारे ब्राह्मण राजा नलको खोजनेके निमित्त और उनका विचार मालूम करनेके निमित्त देश सहित नगर, ग्राम, घोषऔर आश्रमोंमें उनको ढूँढतेहुए जानेलगे॥१७॥
अन्वेषन्तो नलं राजन्प्र++ग्मुर्हि द्विजातयः।
तस्या वाक्यं ततः सर्वे तत्रतत्र वि++पते॥
श्रवयांचक्रिरे वीर दमयन्त्या यथेरित॥१८॥
इस प्रकार वे सव ब्राह्मण महाराज नलको ढूँढतेहुए चले। और हे वीर युधिष्ठिर ! दमयन्तीने उनसे जो वचन
कहेथे, उसी प्रकार वे सब वचन ब्राह्मण जहाँ तहाँ सुनाने लगे॥१८॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः॥३२॥
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त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ३३.
त्रयस्त्रिंशे च पर्णादाद्गतिंज्ञात्वा नलस्य च।
सुदेवो गमनं चक्रे ऋतुपर्णंतदुच्यते॥१॥
इस तैंतीसवें अध्यायमें पर्णाद ब्राह्मणके द्वारा महाराज नलकी गति जानकर सुदेव ब्राह्मण ऋतुपर्णके पास गये, यह कथा कहीजातीहैं॥१॥
बृहदश्व उवाच।
अथ दीर्घस्य पालस्य पर्णादो नाम वै द्विजः।
प्रत्येत्य नगरं भौमीमिदं वचनमब्रवीत्॥१॥
इसके पीछे दीर्घकालमें पर्णाद नामक ब्राह्मण नगरमें आकर भीमकुमारी दमयन्तीसे यह वचन कहनेलगा॥१॥ हे दमयन्ती ! मैं महाराज नलको ढूँढकर आपके निकट आयाहूँ। अयोध्यानगरीमें जाकर राजमार्गमें उपस्थित हो॥२॥ मैंने आपके कहे वचन महाजनोंके निकट सुनाये।तब हे वरवर्णिनीं ! महाभाग ऋतुपर्णने॥३॥ उन बातोंको सुनकर कुछभी नहीं कहा। तब मैंने फिर उस बातको कई वार सुनाया, किन्तु तथापि उनके किसी पार्षद (सभासद्) नेभी कुछ नहीं कहा॥४॥ फिर महाराजसे आज्ञा ग्रहण पूर्वक एकान्त स्थानंमें बाहुक नामक महाराज ऋतुपर्णका चाकर॥५॥ सारथी, विरूप, ह्रस्वबाहु अर्थात् छोटे हाथवाला और रथके शीघ्र चलानेमें होशियार और मीठा भोजन बनानेमें पण्डित (चतुर)॥६॥ उसने
लम्बे लम्बे श्वास लिये और वारंवार रोते रोते मुझसे कुशल पूँछकर फिर यह वचन कहे॥७॥ कि कुलवती नारी विषम भावमें स्थित तथा भ्रष्ट सुखवाले मूढपतिके द्वारा विषम (संकट) में पडकर भी अपनी रक्षा किया करतीहै॥८॥ वह त्यागीजानेसे भी क्रोधित नहीं हुआकरती है, मैं उसकी यह बात सुनकर तुरन्तही यहाँ (आपके पास) चलाआयाहूँ॥९॥ अत एव आप उसकी बातका अर्थ (मर्म) समझकर शीघ्रही महाराजसे निवेदन करदीजिये। पर्णादकी कही यह बात सुनकर फिर आँसूभरी आँखोंवाली॥१०॥ दमयन्तीने अकेलेमें जाकर अपनी मइयासे कहा हे माता ! यह बात महाराज भीमको किसी तरह मालूम न होवे॥११॥ मैं आपके पास उस ब्राह्मण सुदेवको इस रीतिसे भेजेदेतीहूँ कि जिससे महाराज भीमको मेरा अभिप्राय विदित न होसके॥१२॥ यदि आप मेरा प्रिय काम करना चाहतीहैं, तो आपको ऐसा यत्नकरना चाहिये, जिस तरह प्रथम मुझको ब्राह्मण सुदेव बाँधवोंके निकट ले आयाथा॥१३॥ उसी तरह मंगल उत्सव करके महाराज नलको लेआनेके निमित्त हे मइया ! यहाँसे ब्राह्मण सुदेव शीघ्रतासहित अयोध्यापुरीको चलेजाँय और देर जराभी नहीं करें॥१४॥ दमयन्तीने अपनी मातासे इस भाँति कहकर फिर थकावट रहित हुए द्विजोत्तम पर्णादका बहुतसे धनद्वारा आदर सत्कार किया॥१५॥और फिर बोली हे विप्रोत्तम ! जिस समय महाराज नल यहाँ आजायगे, तब मैं आपको और भी बहुत सारा धन अर्पण करूंगी। मेरा बडा भारी काम आपने कियाहै, ऐसा काम दूसरा कोईभी आदमी नहीं करसकता॥१६॥ हे द्विजोत्तम ! जिस कार्यके करनेसे मेरे स्वामी मुझको शीघ्रही मिलजाँय,(अब आप वही काम कीजिये) भीमकुमारी दमयन्तीने इस
प्रकार कहकर उसब्राह्मणंका पूजन करके उसको मांगलिक आशीर्वादोंसे प्रसन्न किया॥१७॥ इसके पीछे वह महामनवाला ब्राह्मण कृतार्थ होकर अपने घरको चलागया। हे युधिधिर ! तब फिर दमयन्तीने ब्राह्मण सुदेवको लाकर॥१८॥ दुःख और शोकसहित अपनी महतारीके सामने कहा कि हे सुदेव ! आप अयोध्यानगरनिवासी महाराजके निकट पहुँचकर॥१९॥ विनयसहित ऋतुपर्णसे मेरे वचन कहिये। दमयन्तीकी यह बात सुनकर सुदेव अयोध्यापुरीको चलदिये॥२०॥ और वहाँ जाकर नृपोत्तम महाराज ऋतुपर्णसे धर्मरूपी वचन कहनेलगे॥२१॥ कि हे महाबाहो ऋतुपर्ण ! हे नृपश्रेष्ठ ! आप दमयन्तीके स्वयंवरमें आइये। क्योंकि वहाँ और भी बहुतसे राजा आयेहुएहैं॥२२॥ हे वैरियोंको दमन करनेवाले ! आजके दूसरे दिन लग्नका समय है, अत एव यदि आपकी इच्छा होय, तो शीघ्र चलदीजिये॥२३॥क्योंकि हे वीर ! दमयन्तीको महाराज नलके जीवित रहने वा मरजानेकी इस समय कुछ खबर नहीं है, इस कारण सूर्योदय (सबेरा) होतेही वह दूसरे पतिको वरलेगी॥२४॥
एवं तदा यथोक्तं वै गत्वा राजानमब्रवीत्।
ऋतुपर्णं महाराजं देषो ब्राह्मणस्तदा॥२५॥
इस प्रकार ब्राह्मण सुदेवने महाराज ऋतुपर्णके निकट जाकर यथोचित सब बात कहदी॥२५॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥३३॥
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चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ३४.
ऋतुपर्णश्चतु++शे नलेन बाहुकेन च।
विदर्भदेशमार्गं तच्चक्रेगमनमुच्यते॥१॥
इस चौंतीसवें अध्यायमें ऋतुपर्णका बाहुक नामक सारथीनलके नामसे प्रकटहुआ और विदर्भ देशके मार्गमें गमनकरता हुआ यह कथा कही जाती है॥१॥
बृहदश्व उवाच।
श्रुत्वा वचः सुदेवस्य ऋतुपर्णो नराधिपः।
सांत्वयञ्श्लक्ष्णया वाचा बाहुकं प्रत्यभाषत॥१॥
बृहदश्वजी बोले। हे युधिष्ठिर ! ब्राह्मण सुदेवकी यह बात सुनकर महाराज ऋतुपर्णने मधुर वाणीद्वारा समझातेहुए अपने बाहुक (सारथी) सेकहा॥१॥हे अश्वविद्याके ज्ञाताबाहुक ! मैं दमयन्तीके स्वयंवरमेंही एकदिनमेंही विदर्भदेश पहुँचजाना चाहताहूँ यदि आपको मेरी यह बात (शर्त्त) स्वीकार हो तो इसका उपाय कीजिये॥२॥
दोहा
आजुहि पहुँचहुँ तहाँसो, वरहूँ भीमजहि जाहि।
आज करों पुरुषारथ, देश विदर्भहि आहि॥३॥
हे कुन्तीके पुत्र ! महाराज ऋतुपर्णके इस प्रकार कहनेपर महामना राजा नलकी छाती दुःखसे फटनेलगी और फिर वे अपने मनमें चिन्ता करनेलगे॥३॥कि क्या दमयन्ती दुःखसे मोहित हो गई ! क्या वह सत्यही वर करनेकी इच्छा कररहीहै ? अथवा उसने मेरे ढूंढ निकालनेको यह उपाय सोचाहै !॥४॥ मुझ पापमति, कृपण, क्षुद्र और अंध मनुष्यने उस रानीको त्याग दिया। अब वह तपस्विनी विदर्भकुमारी संतापित होकर पतिकी इच्छा करतीहुई ऐसा निन्दित काम करतीहै, इस बातका दुःख है॥५॥ जो हो वह सुमध्यमा दमयन्ती अन्य व्यक्तिको पति बनावेगी या नहीं ? इस बातके झूंठ सत्यको मैं वहाँ जाकर निश्चय देखलूंगा॥६॥ और महाराज ऋतुपर्णका कामभी मैं अपने अर्थ करूंगा। बाहुकने इस भाँति निश्चयकर दीनमन
हो॥७॥ हाथ जोड महाराज ऋतुपर्णसे कहा कि हे नराधिप ! मैंआपके वाक्यको जानताहूँ। हे पुरुषव्याघ्र ! इसलिये एकही दिनमें आपको विदर्भ नगर पहुँचादूंगा॥८॥ इसके पीछे बाहुक महाराजके सहित घोडोंकी परीक्षा करनेलगा॥९॥ और फिर दुबले, महावेगवान्, रास्ता तय करनेयोग्य, दश आवर्त्तोंसे युक्त, सिन्धदेशोत्पन्न और वायुकी समान वेग क्त घोडोंको चुनलिया॥१०॥ उन घोडोंको देखकर महाराज++छेक क्रोधसहित कहनेलगे वह क्या कर्मकी प्रार्थना की है ? क्या तुम मुझको छल रहेहो ?॥११॥ हे सूत ! यह थोडे बल और प्राणवाले घोडे किसतरह चलसकेंगे ? क्योंकि इस विदर्भदेशकी मंजिल बहुत लम्बी है, अत एव मैं इच्छित स्थानमें कैसे पहुँच सकूंगा !॥१२॥ बाहुकने उत्तर दिया हे महाराज ! यही घोडे (निर्दिष्ट समयपर) विदर्भदेश पहुँचजायँगे, इस बातमें आप जराभी संशय मत कीजिये अथवा आप इन घोडोंके सिवाय दूसरे जिन घोडोंको बलवान् समझतेहों, तो उनको बतादीजिये मैं उन्हींको आपके रथमें जोतदूँगा॥१३॥ ऋतुपर्णने कहा हे बाहुक ! घोडोंका तत्त्व तो आपही जानतेहैं, इस विद्यामें आप परम चतुर हैं, इस कारण आप जिन घोडोंको समर्थ (निर्दिष्ट स्थान और निर्दिष्ट समयपर पहुँचने योग्य) समझें, उनकोही शीघ्रता सहित रथमें जोत देवें॥१४॥ तब महाराजकी आज्ञानुसार कुलशीलयुक्त और बडे वेगवान् उत्तम घोडोंको चतुर बाहुकने महारथमें जोतदिया॥१५॥ हे राजा युधिष्ठिर ! तब तो महाराज ऋतुपर्ण शीघ्रतासहित उसजुडेहुए रथमें वार होगये। तब पुरुषोत्तम श्रीमान् महाराज नल॥१६॥ तेज बलयुक्त घोडोंको रश्मियों (लगामों) के द्वारा शीघ्रतासे पुचकारतेहुए वेगपूर्वक चलानेलगे॥१७॥ और दूसरे
वार्ष्णेयनामवाले सारथीको बैठालकर महान् वेगसे रथको चलानेलगे, उस बाहुक द्वारा यथायोग्य प्रेरित उत्तम घोडे॥ १८॥ रथी (सवार) को मोहितकरतेहुए आकाशमें उड़नेलगे। इस प्रकार वायुकी समान वेगवान् उन घोडोंको देखकर॥१९॥ अयोध्याधिपति बुद्धिमान् ऋतुपर्ण महान् अचंभेको प्राप्त हुए और रथकाघोष तथा घोडोंका संग्रह देखकर॥२०॥ वार्ष्णोय बाहुकके रथ चलानेकी चतुराई देखकर सोचनेलगा कि क्या यह मातलिनामवाला देवराज इन्द्रका सारथी है !॥२१॥ क्योंकि इस बाहुकमें इसी तरहके महान् लक्षण (चिह्न) दिखाई दे रहेहैं, अथवा यह घोडोंके कुलका तत्त्व (मर्म) जाननेवाले मुनिवर शालिहोत्र हैं !॥२२॥जिन्होंने यह परमोत्तम नरशरीर धारण किया है ? अथवा यह वैरियोंके पुरको विजय करनेवाले महाराज नल हैं ?॥२३॥यह वेही महाराज जानपडतेहैं, फिर यह विचारा कि जो विद्या महाराज नल जानतेहैं वही विद्या यह बाहुक भी जानताहै॥२४॥ और बाहुक तथा नलका वेगभी बराबरही दिखाई देताहै, और बाहुक तथा नलकी बातें भी एकसी मालूम होतीहैं,॥२५॥ यह महावीर्यवान् महाराज नल नहीं हैं, वा उनकी समान कोई और होगा ? क्यों कि इस भूमिपर अनेक महात्मा गुप्तरूपसे भ्रमण किया करतेहैं॥२६॥ प्रारब्धकी गतिसे युक्त होकर वे महात्मालोग भ्रमण किया करतेहैं, और या शास्त्रकथित प्रमाणोंसे गात्रके विरूपभाव प्रति मेरी बुद्धिका भेद होरहा है ॥२७॥हे महाराज युधिष्टिर ! इस प्रकार पुण्यश्लोकंका सारथी वार्ष्णेय अन्तःकरणमें अनेक भाँतिकी चिन्ता करनेलगा॥ २८॥
बलं वीर्यं तथोत्साहं हयसंग्रहणं च तत्।
परं यत्नं च संप्रेक्ष्य परां मुदमवाप ++॥२९॥
अनन्तर महाराज ऋतुपर्ण बल, वीर्य, तथा उत्साह और घोडोंका संग्रह व अन्य भी बहुत यत्न देखकर अतीव प्रसन्न हुए॥२९॥॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः॥३४॥
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पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ३५.
पञ्चत्रिंशे विदर्भेषु प्राप्तिस्तस्य नलस्य च॥
हर्षो भीमस्य राज्ञश्चसर्वेषामिह कथ्यते॥१॥
इस पैंतीसवें अध्यायमें नलका विदर्भ देशमें पहुँचना और महाराज भीम तथा सब किसीको आनन्द प्राप्त होना, यह कथा कहीं जातीहै॥१॥ ·
बृहदश्व उवाच।
स नदीः पर्वतांश्चैव वनानि च सरांसि च॥
अचिरेणातिचक्राम खचरः खे चरन्निव॥१॥
बृहदश्वजी बोले।हे महाराज युधिहिर ! जिस प्रकार आकाशगामी व्यक्ति आकाशमें विचरताहुआ शीघ्र (अभी) स्थानमें जापहुँचताहै, उसीप्रकार महाराज नलने बहुत थोडेसपयमें नदी, पहाड, वन और सरोवरोंको उल्लंघन किया॥१॥ इस तरह रथकेजाते जाते पर ++रजयी महाराज ऋतुपर्णने अपने उत्तरीय वस्त्र (डुपट्टे) को गिराहुआ देखा॥२॥ हे राजन् ! उस डुपट्टेके गिरनेपर महामना महाराज ऋतुपर्णने वेगमें भरकर अर्थात् शीघ्रतासहित सारथीसे कहा कि मैं इस डुपट्टेको लेना चाहताहूँ॥३॥हे सारथे ! आप मनके समान वेगवान् इन उत्तम घोडोंको उस समयतक रोकलो कि जबतक यह वार्ष्णेय मेरे उस डुपट्टेको उठाकर यहाँ ले
आवें॥४॥नलने उत्तर दिया आपका डुपट्टा बहुत दूर गिरा है अर्थात् वह चार कोश दूर रहगया, इसलिये अब वह डुपट्टा आपको नहीं मिलसकता॥५॥ हे युधिष्टिर ! नलके इसप्रकार कहते कहते महाराज ऋतुपर्ण वनमें प्रफुल्लित एक बहेडेके पेडके समीप जा पहुँचे॥६॥उसको देखकर महाराज ऋतुपर्णने शीघ्रही बाहुकसे कहा। हे सारथी ! तुम इस पेडके (पत्ते) गिननेका मेराभी परमबल देखो॥७॥ सबआदमी सब बातें नहीं जानतेहैं, क्योंकि सब बातोंके जाननेवाले तो एक मात्र जगदीश्वरही हैं, अत एव हे बाहुक ! इस पेडपर जितने फल और पत्ते हैं,॥८॥ मैं अक्षज्ञानके द्वारा उन सबको जानताहूँ, इस पेडपर एक लाख और दश हजार पत्ते हैं॥९॥ तथा इसमें दश हजार फल हैं, इसमें संशय नहीं।तब बाहुकने रथको खडाकरके महाराजसे कहा॥१०॥ हे राजन् ! जिस समयतक मैं इस बहेडेके पेंडके पत्ते और फल गिनूं, तबतक आप खडेहुए देखते रहिये। क्योंकि आपने कहा, ‘इतने पत्ते और फल हैं वा नहीं ?’ यह मैं नहीं जानताहूँ॥११॥ हे जनाधिप ! जबतक मैं इस पेडके पत्ते और फल गिनूं, तबतक थोड़ीदेरको इन घोडोंकी लगाम यह वार्ष्णेय थाँभे रहै॥१२॥ तबमहाराजने सारथीसे कहा कि यह समय देर करनेका नहीं है, बाहुकने उत्तर दिया बहेडेके पेड़के पत्र और फलकी गिन्ती मैं (अवश्यही) करूँगा॥१३॥और गणना करलेनेपर फिर विदर्भदेशको चलूंगा, किन्तु आपके काममें विघ्न नहीं पडनेपावेगा तबज्ञानवान् महाराज ऋतुपर्णने कहा अच्छा गिनो॥१४॥ हे पापरहित ! मेरे वताये शाखाके एक देशको गिनो इस प्रकार कहकर तत्त्वके जाननेवाले महाराज, स्वस्थ होगये॥१५॥तब महाराज नलभी शीघ्रतापूर्वक रथसे उतरकर
उस पेड़के निकट पहुँचे और जलदी जलदी फलोंकी गिनती करनेलगे॥१६॥ और फिर जितने फल राजाने बताये थे, उतनेही फल गिनकर अत्यन्त आश्चर्यपूर्वक राजासे कहनेलगे॥१७॥ हे राजन् ! मैंने आपका परम अद्भुत बल देखा, अत एव हे नृपोत्तम ! जिससे यह बात जानलीजातीहै, मैं उसविद्याको सुनना चाहताहूँ॥१८॥ तब जानेमें जल्दी करनेवाले राजा ऋतुपर्णने कहा कि मैं गिन्ती करनेमें निपुण (चतुर) और अक्ष हृदयका ज्ञाता हूँ, यह आप जान लीजिये॥१९॥ बाहुकने कहा हे पुरुषोत्तम ! आप यह (अक्षहृदय) विद्या मुझको दीजिये और (इसके बदलेमें) मुझसे भी अश्वहृदय विद्या लेलीजिये॥२०॥ अनन्तर महाराज ऋतुपर्णने कार्यके गौरव और अश्वहृदयके लालचसे बाहुकसे ‘यही हो’ इस प्रकार अंगीकाररूपी वचन कहा॥२१॥ कि सच्चे परमोत्तम अक्षहृदयको आप लेजीजिये और हे बाहुक ! अश्वहृदय मुझको दीजिये॥२२॥ ऐसा कहनेपर पुरुषोत्तम महाराज ऋतुपर्णने शुद्ध और एकाग्र चित्त हो राजा नलको वह (अक्षहृदय) विद्या अर्पण करदी॥२३॥ तब उस अक्षहृदयके जाननेवाले महाराज नलके शरीरसे कलि कर्कोटकसर्पके तीखे विषको मुख द्वारा उगलताहुआ (बाहर) निकला॥२४॥ इसके पीछे दुःखित हुए उस कलियुगके शरीरसे शापरूपी अग्नि निकली तब कलि विषहीन होकर अपने पहले रूपको प्राप्त हुआ॥२५॥ तब तो निषधाधिपति महाराज नलने महान् कुपित होकर उसको शाप देना चाहा, उस काल कलियुगने डरते और काँपतेहुए हाथ जोडकर कहा॥२६॥ हे महाराज ! आप क्रोधको निवारण कीजिये। क्योंकि मैं आपको परमोत्तम कीर्त्ति (यश) प्रदान करूँगा। हे राजेन्द्र ! पूर्वमें जब आपने उसको त्यागा, तब इन्द्रसेनकी महतारी दम-
यन्तीने क्रोधित होकर मुझको शाप प्रदान किया इसी कारण मैंने महान् पीडित होकर दुःखपूर्वक आपके शरीरमें वास किया॥२७॥२८॥ और वहाँ मैंसर्पराज कर्कोटककेविषसे दिन रात दग्ध होताथा। लोकमें जो मनुष्य सावधान होकर आपका कीर्त्तन करेंगे॥२९॥उनको मुझसे कभी भय नहीं होगा। क्योंकि कर्कोटक नाग, दमयन्ती, नल॥३०॥ और राजर्षि ऋतुपर्णका कीर्त्तन कलिका नाशक है।इस प्रकार कहकर वह कलियुग बहेडेके वृक्षमें घुसगया इसी कारण कलिके संसर्ग दोषसे बहेडेका पेड अपवित्र है॥३१॥ हे महाराज युधिष्ठिर ! उस कलियुगके नष्ट अर्थात् बहेडेमें प्रवेश करनेपर फलोंकी गणना करके परवीरघाती महाराज नल शोकरहित होगये॥३२॥ और फिर उन्होंने अत्यन्त प्रसन्नतायुक्त तथा महान् तेजस्वी वेगवान् घोडोंसे युक्त रथमें सबार होकर गमन किया॥३३॥ उसकाल वे उत्तम घोडे पक्षियोंकी समान उछल उछल कर चलनेलगे और महाराज नलभी मनमें हर्षित होकर उन घोडोंको प्रेरणा करनेलगे॥ ३४॥महाराज नल बडी सावधानीसे विदर्भ देशके सन्मुख जानेलगे और कलियुगभी महाराज नलके चलेजानेपर अपने घरको चलागया॥३५॥
ततो गतज्वरो राजा नलोऽभूद्भुतलाधिपः।
विमुक्तः कलिना राजा सुखरूपो विराजते॥३६॥
तब हे राजन् ! पृथ्वीपति महाराज नल कलिसे छुटकारा पाकर शोकरहित हो सुखपूर्वक विराजमान हुए॥३६॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः॥३५॥
षट्त्रिंशोऽध्यायः ३६.
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षट्त्रिंशे केशिनीदासी न दारैश्चप्रेरिता।
बाहुकं परिपप्रच्छ नल++नाय ++थ्यते॥१॥
इस छत्तीसवें अध्यायमें महाराज नलको जाननेके निमित्त दमयन्तीकी भेजीहुई केशिनी नामवाली दासीने बाहुकसे जाकर पूछा, यह कथा कही जातीहै॥१॥
बृहदश्व उवाच।
ततो विदर्भान्सायाह्ने संप्राप्तं सत्यविक्रमम्।
ऋतुपर्णं जना राजन्भीमाय प्रत्यवेदयन्॥१॥
बृहदश्वजी बोले हे महाराज युधिष्ठिर ! अनन्तर साँझसमय पहुँचेहुए सत्यविक्रम महाराज ऋतुपर्णकी खबर सेवकोंने राजा भीमसे करी॥१॥ हे महाराज ! तब राजा भीमके कथनानुसार महाराज ऋतुपर्णने रथके शब्द द्वारा दशों दिशाओंको++पत करते करते कुंडिनपुरमें प्रवेश किया॥२॥ उस रथके शब्दको वहाँ महाराज नलके घोडोंने सुना, जिसको सुनकर वे अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक नलके सन्मुख आये॥३॥और फिर भीमकुमारी दमयन्तीने नलके रथका वह शब्द सुना और अत्यंत शब्दवाले रथके शब्दको उसके समान जाना॥४॥ दमयन्ती बोली कि यह रथका शब्द भूमिको कम्पायमान करताहुआ मेरे हृदयको अत्यन्त आनन्दित करताहै, (अतएव जानपडताहै कि) इसमें अवश्य महाराज नल हैं॥५॥ किन्तु तथापि में जबतक अपनी आंखोंसे उन चन्द्रमाकी सदृश कान्तियुक्त मुखवाले और अनन्त++णवाले वीर नलको नहीं देखलूँगी, तबतक औरकिसीका कहना सत्य नहीं समझँगी॥६॥ यदि सिंहके समान विक्रान्त
और मतवाले हाथीको परास्त करनेवाले राजेन्द्र नहीं आये, तो किसी दूसरेका कहना नहीं मानूंगी॥७॥ उन महाराजके गुणोंको दिन रात याद करतीहुई मुझ पतिव्रताकी++ती शोकसे वालुकाबांधके समान फटीजातीहै॥८॥ हे भारत ! वह दमयन्ती इस तरह विलाप करती बेसुधि होगई और फिर महाराज नलका दर्शन करनेकी कामनासे ऊंचे महलपर जाचढी॥९॥ और तब उसने मध्यद्वारके बीच रथमें बैठेहुए वार्ष्णेय और बाहुकसमेत महाराज ऋतुपर्णका दर्शन किया॥१०॥ हे युधिष्ठिर ! तत्पश्चात् रथके ऊपरसे उतरकर महाराज ऋतुपर्ण भीमपराक्रमी भीम राजाके निकट गये॥११॥ तब महाराज भीमने उन अकस्मात् शीघ्रतासहित आयेहुए महाराज ऋतुपर्णकी अत्यन्त पूजा करके उनको ग्रहण किया। किन्तु उन महाराज ऋतुपर्णको स्त्रीके विचारकी कुछ खबर नहीं है॥१२॥ अनन्तर महाराज भीमने ऋतुपर्णके कानमें यह बात कही कि हे नराधिप !नलको जाननेके निमित्त दमयन्तीने यह शब्द किया है॥१३॥ हे महाराज ! सो मैंने प्रकट करदिया अब आप सबको जनाइये और विश्राम कीजिये। इस तरह महाराज भीमने दुःखसे कहा। फिर दमयन्तीने सावधान होकर॥१४॥ अपनी केशिनी नामवाली दासीसे कहा। हे अनिन्दिते ! आप इस बाहुक नामक आदमीसे सत्य पूछिये, क्योंकि मुझको इसके विषयमें महती शंका अर्थात् बड़ाभारी सन्देह होरहाहै, कि यह महाराज नलही मालूम होते हैं॥१५॥ जिस प्रकार मेरा मन संतुष्ट होरहाहै और हृदयमें निवृत्ति अर्थात् परमानन्द होरहाहै, वैसाही ब्र++ऋृतुपर्णादका कथन (कहना) भी है। अत एव आप इसके समीप पहुँचकर यह बात कहना ये॥१६॥ और हे अनिन्दिते ! हे श्रोणि ! आप उसके उत्तरको सुनिये इस प्रकार भीमतनया
दमयन्तीने अपनी केशिनी नाम्नी दासीसे कहा॥१७॥ उसी भाँति अत्यन्त सावधानी सहित दूतीने जाकर बाहुकसे कहा और कल्याणी दमयन्तीभी महलपर स्थित हुई देखनेलगी॥१८॥ केशिनीने कहा हे मनुजेन्द्र ! आपका स्वागत हो अर्थात् आपका यहाँ पधारना अति उत्तम हुआ, मैं आपकी कुशल पूछतीहूँ हे पुरुषोत्तम ! अब आप दमयन्तीके शुभ वचन (कल्याणकारक बातें) सुनलीजिये॥१९॥ कि आप किस समय और किस कामके लिये यहाँ पधारे हैं ? यह सब सत्य यथावत् बतादीजिये, क्योंकि विदर्भकुमारी दमयन्ती इस बातको जानना चाहतीहै॥२०॥ बाहुकने उत्तर दिया है सुन्दरी ! महात्मा महाराज ऋतुपर्णने ब्राह्मणसे ऐसी बात सुनी है कि कल सबेरे ही दमयन्तीका दूसरा स्वयंवर होगा॥२१॥ यह सुनतेही चारसों कोश (प्रतिदिन) चलनेवाले वायुकी समान वेगवान् ++ख्यं घोड़ोंके द्वारा हमारे महाराज यहाँ आये हैं, और मैं उनका सारथी हूँ॥२२॥ केशिनीने कहा कि यह जो तीसरा आदमी आपके बीचमें है यह कि काहैं ? और कहाँसे आया है ? तथा आप किसके हैं ! और आपको यह सारथीका काम कैसे मिला ?॥२३॥ बाहुकने कहा हे कल्याणी ! यह पुण्यश्लोक महाराज नलका वार्ष्णेय नामक सारथी है, जो कि नलके चलेजानेपर अब राजा ऋतुपर्णके निकट रहाकरताहै॥२४॥
अहमप्यश्व श++: सूतत्वे च प्रतिष्ठितः।
ऋतुपर्णेन राज्ञा वै भोजने च कृतः स्वयम्॥२५॥
और मैं भी अश्वविद्यामें शल (पण्डित) हूँ इसी कारण मुझको महाराज ऋतुपर्णने सारथीकर्म और भोजन बनानेमें
नियुक्त कररक्खाहै॥२५॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः॥३६॥
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सप्तत्रिंशोऽध्यायः ३७.
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सप्तत्रिंशे नलस्यैव दमयन्त्याश्चमेलनम्॥
पतित्यागभयात्तत्र पूजनं तत्र कथ्यते॥१॥
इस सैंतीसवें अध्यायमें महाराज नल और दमयन्तीका मिलन तथा फिर स्वामीके त्यागके भयमें नलकी पूजाका होना, यह कथा कही जातीहै॥१॥
केशिन्युवाच॥
किंतु जानाति वार्ष्णेयः कुत्र राजा नलो गतः॥
कथं चित्त्वयि वै तेन कथितं स्याच्च बाहुक॥१॥
केशिनीने कहा । हे बाहुक ! क्या यह बात वार्ष्णेयको मालूम है कि महाराज नल कहाँको चलेगये ? आपसे उसने महाराज नलका हाल किसतरह कहा॥१॥ बाहुकने उत्तर दिया कि शुभकर्मकारी महाराजनलके दोनों पुत्रोंको यहाँ रखकर फिर वार्ष्णेय चलागया, यह निषधराजको नहीं जानता॥२॥ हे यशस्विनी ! और किसीकोभी महाराज नलका हाल मालूम नहींहै, क्योंकि वे महीपति अपना रूप नष्टकरके गुप्तरूपसे संसारमें घूमाकरतेहैं॥३॥ महाराज नलका रूप, अवस्था और कैसे चिह्नहैं ? केशिनीने कहा कि प्रथम जिस ब्राह्मणने अयोध्यापुरीमें जाकर॥४॥ (दमयन्तीकी) नलविषयक वात बारबार कहीथी, कि “हे कितव ! आप मेरा आधा कपडा कतरकर कहाँको चलेगये?॥५॥ आप अपनी पतिव्रता अनुरक्त प्यारीको वनमें अकेली सोतीहुई छोड़कर कहाँ चलेगये ? उसको आप
जिसप्रकार छोडगयेहैंवह वैसेही आपकी आज्ञानुसार वर्ततीहुई आपकी प्रतीक्षा कररहीहै॥६॥हे पार्थिव ! वह आधे वस्त्रसे ढकीहुई दिन रात शोकसे जलती रहतीहै और दुःखके मारे सदैव रोती रहाकरतीहै”॥७॥ हे वीर ! आप मेरे प्रति प्रसन्न होकर मेरी बातोंका प्रति उत्तर दीजिये।हे++रुनन्दन युधिष्ठिर ! जब केशिनीने इसप्रकार कहा॥८॥ तब तो महाराज नलका हृदय व्यथित होगया, आँखोंमें आँसूं भरआये, और उन महीपालने जलतेहुए अपने आत्माके दुःखको हटाकर॥९॥ आँसुओंसे संदिग्ध अर्थात् गद्गदवाणीके द्वारा कहा कि जो कुलीन नारी अपने पतिके विषमभावको प्राप्त होनेपर भी उसकी (आज्ञाका) पालन करतीहै॥१०॥ उसने सत्यही स्वर्गको जीतलियाहै, इस बातमें कुछ विचार (सन्देह) नहीं करना चाहिये। विषमत्त अर्थात् विषम संकटमें पडकर मूढ और भ्रष्ट सुखवाले॥११॥ उसने क्रोध फैलजानेसे भार्याका परित्याग किया, सत्कार कीहुई वा निरादरकीहुई भ्रष्टराज्यवाले, श्रीहीन, भूंखसे आतुर और व्यसन (किसीलत) में पड़कर आयेहुए स्वामीका दर्शन करके जो नारी उसकी निरन्तर सेवा करतीहै, वह विष्णुलोकको प्राप्त होजाया करतीहै॥१२॥१३॥ इस प्रकार बातें कहतेहुए महाराज नल अत्यन्त दुःखी हुए और वे महीपाल कुछ न कहकर केवल उस समय रोनेही लगे॥१४॥ तब केशिनीने दमयन्तीके निकट जाकर उससे सब समाचार निवेदन करदिया कि हे भामिनी ! वहाँ नल आपका नाम लेनेपर रोतेहैं॥१५॥ उसकी यह बात सुनकर दमयन्ती अत्यन्त शोकाकुल हुई और फिर महाराज नलकी आशंका करती करती केशिनीसे यह कहनेलगी॥१६॥हे केशिनी ! तुम्हारा कल्याण (भला) हो, तुम बाहुकको परीक्षा करनेको जाओ और वहाँ
ठहर उससे कुछ भी बात चीत न करके केवल उसके चरित्रही देखो॥१७॥ हे भामिनी ! वह जिस समय जो कुछ करे, तहाँउत्तम चेष्टा करनेवाले उसकी चेष्टाको देखो॥१८॥ और फिर उन सारे चिह्नोंको जानकर मुझसे आ कहो। दमयन्तीकी यह बात सुनकर केशिनी तत्काल चलीगई॥१९॥ और बाहुकके सारे चिह्न देखकर फिर लौटी और वह सारा हाल दमयन्तीसे कह दिया॥२०॥ केशिनी बोली। हे दमयन्ती ! दृढ और पवित्र आचारवाला ऐसा आदमी पहले मैंने न कभी देखा और न सुना॥२१॥ जो कि अश्वज्ञान (घोडोंकी विद्या) और अन्नपाचन अर्थात् भोजन बनानेमें बडा चतुर है, और महाराज ऋतुपर्णके निमित्त भाँति भाँतिके अनेक भोजन वनाया करता है॥२२॥ तथा यह बाहुक मंडलमें मंडलाकार, घोडोंकी व्यवस्था और वेगधारणमें चतुर है, और घोडोंको दक्षिण तथा वाम भागके घुमानेमें और घोडोंके पूँछकी तरफ मुँह कर उनके फेरनेमें बहुतही चतुर है॥२३॥उसकी यह सब अद्भुत बातें देखकर मैं अचंभेमें होकर यहाँ आईहूँ इसके अतिरिक्त मैंने और भी उसमें अनेक अचंभेकी बातें देखीहैं॥२४॥ हे कल्याणी ! अग्निके स्पर्श करनेपर भी वह नहीं जलता, और उसके छूनेसे जलका खाली बरतन भी चंदनजलकी समान जलसे भर जाता है॥२५ ॥इनको छोड़कर मैंने और भी अतीव आश्चर्यकारक (तमाशे) देखेहैं, उसके हाथोंसे फूल॥२६॥ मसले जानेपर भी कभी नहीं मुरझातेहैं, ऐसी अद्भुत बातें (लक्षण) देखकर मैं आपके पास चलीआईहूँ॥२७॥ बृहदश्वजी बोले हे युधिष्ठिर ! तब दमयन्तीने (दासीद्वारा) पुण्यश्लोक महाराज नलकी चेष्टाओं (कामों) को सुनकर कर्मचेष्टासे सूचित राजा नलको आयाहुआ समझा॥२८॥ अनन्तर दमयन्तीने चेष्टाओं द्वारा
बाहुकके प्रति अपने स्वामीका सन्देह करके रोते रोते मीठी वाणी द्वारा केशिनीसे फिर कहा॥२९॥ हे केशिनी ! तुम अबकी बार प्रसन्नतापूर्वक फिर जाओ, और उसके रसोई गृहसे धीरे धीरे बाहुकका रांधाहुआ अ++लाकर मुझको दो॥ ३०॥ हे नृपोत्तम युधिष्ठिर ! (आज्ञानुसार) वह दासी वहाँ गई और बाहुकको अन्यान्य कामोंमें लगाहुआ देखकर उसके रांधे अन्नको ले तुरन्तही लौटी और उस अन्नको दमयन्तीके हाथपर रखदिया॥३१॥ प्रथम उनके रांधेहुए अन्नको दमयन्ती बहुतबार देख और चखचुकीथी, उसका विचार किया और फिर उस अन्नको चखकर बाहुकको निश्चित नल समझकर महान् दुःखी हो पुकार करनेलगी॥३२॥ हे भारत ! फिर अत्यन्त व्याकुल हो मुख धोकर अपने दोनों पुत्रपुत्रीको दासी केशिनीके संग (बाहुकके समीप) भेजदिया॥३३॥हे महाराज ! तब केशिनी भाई इन्द्रसेन समेत इन्द्रसेनाको बाहुकके समीप लेगई॥३४॥ उस काल देवपुत्रोंकी समान अपने पुत्र कन्याको (आयाहुआ) देखकर बाहुक महान् दुःखी हुआ और उच्च स्वरसे रोदन करने लगा॥३५॥ तब फिर इस प्रकार पुत्र कन्याको देखकर महाराज नलने केशिनीसे यह बात कही कि, हे कल्याणी ! यह दोनों सुन्दर तो मेरेही पुत्र कन्याकी समान मालूम होतेहैं॥३६॥ क्योंकि इनका दर्शन करनेपर मेरी आँखोंसे सहसा आँसू निकल पड़े। अनन्तर (बाहुकमें) पुण्यश्लोक महाराज बुद्धिमान् नलके सारे लक्षण देखकर॥३७॥ केशिनीने शीघ्रतासहित आनकर दमयन्तीसे सारा हाल कहदिया। तब नलकी शंकायुक्त और दुःखार्त्त दमयन्तीने उस केशिनीको फिर अपनी मइयाके पास यह कहकर’ भेजा, कि मैंने महाराज नलकी आशंकासे बाहुककी बहुतही परीक्षा करी॥३८॥३९॥ (सो उसमें और सारी बातें
तो ठीक ठीक मिलगईं) किन्तु एक मात्र उनके रूपमें सन्देह है, अत एव इस विषयमें में उनकी परीक्षा स्वयं करना चाहतीहूँ, अब महाराज नलके आनेकी बात मेरे पिताजीसे भी प्रकट करदीजिये॥४०॥ विदर्भकुमारी दमयन्तीके इस प्रकार कहनेपर उस देवी रानीने सारा हाल महाराज भीमसे कहदिया और भीमनेभी कन्याका यह अभिप्राय जानकर (इस विषयमें) उसको आज्ञा देदी॥४१॥ हे भरतर्षभ ! इसके पीछे भीमनन्दिनी दमयन्तीने माता पिताकी आज्ञा मिलजानेपर जहाँ उसका घर है, वहाँ महाराज नलका प्रवेश कराया अर्थात् अपने घरमें बुलाया॥४२॥ तबउस समय दमयन्तीको देखतेही महाराज नल सहसा शोक और दुःखसे अभिभूत होगये। उनकी आँखोंमें आँसू भर आये॥४३॥ और इधर वरवर्णिनी दमयन्तीभी महाराजकी यह अवस्था देखकर महान् शोकाकुल हुई॥४४॥ हे महाराज ! तबमैलेवस्त्रवाली, और जटिल अथवा बालोंमें मैलके द्वारा स्वेदपंकवाली दमयन्तीने बाहुकसे कहा॥४५॥ हे बाहुक ! कोई धर्मका जाननेवाला आदमी अपनी सोतीहुई भार्याको वनमें छोडकर चलागया, उस आदमीको आपने कहीं प्रथम देखाहै ?॥४६॥ अपराधहीन, दीन, श्रमसे थकी, माँदी, ऐसी प्यारी भार्याको पुण्यश्लोक महाराज नलके अतिरिक्त दूसरा कौन छोड जायगा ?॥४७॥ हे अरिन्दम ! अर्थात् वैरियोंका नाश करनेवाले युधिष्ठिर ! इस भाँति कहते कहते दमयन्तीकी आँखोंसे शोकके आँसू निकलनेलगे और वह महान् दुःखी हुई॥४८॥ तब महान् शोकयुक्त और लाल लाल आँखोंसे होतेहुए जलस्रावको देख महाराज शोकार्त्त होकर इस तरह कहने लगे॥४९॥ कि हे भीरु ! मेरे जो राज्यका नाश हुआ, सो मैंने स्वयं नहीं किया, वरन् यह सारे काम कलियुगने कियेहैं, अत एव मेरा इसमें
कुछ अपराध नहीं है॥५०॥ आपने भी पूर्व में धर्मकष्ट करके कलिको शापसे नष्ट किया था, अब वही कलि जब मेरे देहसे निकलगया, तब मुझको यह बुद्धि मिलीहै॥ ५१॥ हे बृहत् श्रोणि! जब वह पापात्मा मुझको त्यागकर चलागया, तब मैं आपके निकट आयाहूँ। आपके ही निमित्त मेरा यहाँ आगमन हुआहै, दूसरा प्रयोजन मेरा कुछनहीं है॥५२॥ और आपमें अनुरक्त अर्थात् प्रीति करनेवाला, ऐसे अपने अनुकूल, स्वामीको छोडकर स्त्री अन्यको किस तरह वरतीहैं, जिस प्रकार उत्तमवर्णवाली आप कररही हैं \।\।५३॥ क्योंकि महाराज भीमकी आदेशानुसार उनके दूत प्रत्येक देशमें घूम घूमकर ऐसा कहते फिरते हैं, कि, भैमी दमयन्ती दूसरे पतिको वरण करेगी॥५४॥ स्वतन्त्रवृत्तिसे अपनीही इच्छानुसार अपने समान भर्त्ताको वरेगी यह बात सुनकर ही महाराज ऋतुपर्ण यहां शीघ्रतासहित उपस्थित हुए हैं॥५५॥
दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा नलस्य पारदेवितम्।
प्राञ्जलिर्वेपमाना च भीता वचनमब्रवीत्॥५६॥
तब राजकुमारी दमयन्तीने महाराज नलकी यह उदार बातें सुनकर कंपित और डरते डरते हाथ जोडकर कहा॥५६॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः॥३७॥
अष्टत्रिंशोऽध्यायः ३८.
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अष्टत्रिंशे च संवादो दमयन्त्या नलस्य च।
भीमादीनां महाहर्षो दर्शनादेव कथ्यते॥३॥
इस अडतीसवें अध्यायमें दमयन्ती और नलकासंवाद
और नलके दर्शनसे महाराज भीमादिका महा हर्षित होना यह कथा कही जातीहै॥ १॥
दमयन्त्युवाच।
न मामर्हसि कल्याण पापेन परिशंकितुम् ।
मया तु देवानुत्सृज्य वृतस्त्वं निषधाधिपति ॥१॥
दमयन्तीने कहा हे कल्याण! आप मुझमें पापकी शंका नहीं कीजिये क्योंकि हे निषधराज! मैंने तो देवताओंको छोडकर आपको स्वीकार किया है॥१॥हे महाराज! मैंने आपके जाननेके लिये ही यह उपाय कियाहै, और स्वयंवरके नामसे इस कपटकी रचना की है॥२॥हे पृथ्वीपाल! हे मनुजाधिपति ! इस संसारमें आपके अतिरिक्त वोडोंद्वारा एकदिनमें चार सौ कोश दूसरा कोई आदमी नहीं चल सकता॥३॥ हे पृथ्वीपति! जिस प्रकार अपराध करनेवाले आपका कोई दोषमें अपने मनमें नहीं विचारती हूँ इसी कारण आपके चरण छूती हूँ, अत एव आप मेरे प्रति प्रसन्न होजाइये, जैसा कि सनातन धर्म है॥४॥ और जो इस लोकमें यह सब देहधारियोंका साक्षी सदागतिरूप वायु भीतर वाहर विचरण कियाकरताहै, यदि मैंने कुछभी पापका आचरण कियाहो तो वह वायु मेरे शरीरसे प्राणको दूर कर देवे॥ ५॥ फिर जो इन तीनों लोकके धारण करनेवाले यह तीनों देवता हैं, वेही न्यायानुसार बतावें, जैसा कि सनातन धर्म है॥६॥दमयन्तीके इस तरह कहनेपर आकाशसे वायुने कहा है निषधाधिपति नल! यह दमयन्ती पापिनी नहीं है, अर्थात् इसने कोई पाप नहीं कियाहै, यह बात मैं आपसे सत्यही कहता हूँ॥७॥हे महाराज! हे शीलसागर! मैं इसका साक्षी (गवाह) और रक्षा करनेवाला हूँ, क्यों कि मैंने तीन वर्ष पर्यन्त इस दमयन्तीकी रक्षा की है॥८॥ हे नल!
आपके निमित्तही इसने यह उपायरचना कियाहै, क्योंकि आपके अतिरिक्त इस संसारमें एक दिनमें चारसौ कोश चलनेवाला दूसरा कोई आदमी नहीं है॥९॥ हे पृथ्वीपाल! आपको यह भीमकुमारी दमयन्ती मिलगई, और इसको आप मिलगये, अतएव आप इस (दमयन्तीके विषय) में कुछ सन्देह मत कीजिये, बरन् अब इस अपनी भार्याके संग आप आनन्द विहार कीजिये॥१०॥ इस तरह पवनके कहनेपर गगनमण्डलसे फूल बरसने लगे, देवताओंके नगाडे बजने लगे और फिर सुखदायक पवन चलनेलगा॥११॥ हे राजन्युधिष्ठिर! महाराज नलने इस परम अद्भुत चरित्रको सुनकर उस दमयन्तीको विशोक (शोकहीन) किया॥१२॥ इसकेपीछे महाराज नलने सर्पराज कर्कोटकके दियेहुए दो वस्त्रोंको धारण किया और उस सर्पराजका स्मरण करके अपने पूर्वशरीरको प्राप्त किया॥१३॥
दोहा
करकोटकको ध्यान धार, जप्यो मन्त्र शत आन।
पूर्व रूप निज पायऊ, बाढ्यो हर्ष महान॥
तब भीमनन्दिनी निर्दोष दमयन्तीने पुण्यश्लोक रूपवन्त स्वामीको देखकर उनको ++तीसे लगाया और फिर ऊँचे स्वरसे पुकार करनेलगी॥१४॥ अनन्तर दमयन्तीके स्वामी महाराज नलने पूर्ववत् प्रकाशित होकर अपने दोनों पुत्र कन्याको ++तीसे लगाया और यथावत बडाई करी॥१५॥ फिर शुभानन (सुन्दर मुखवाले) महाराज नलने उस दमयन्तीके मुखको अपनी ++तीसे लगाकर पहिले दुःखसे दुःखी उस कमलनयनीको आलिंगन किया॥१६॥ उसीतरह मैलसे लिपटे अंग और मन्द हँसनेवाली भीम मारी दमयन्ती पुरुषसिंह महाराज नलसे कईबार मिलकर अश्रुयुक्त हो स्थित हुई॥१७॥
चौपाई—पिछले दुःखकी कथा चलाई। नत रुदन कीन्ल्होनलराई॥
क्षमा करहु सब दोष हमारा। इमि विनवत नल बारहि बारा॥
तेहि अवसर सुख किमि कहिजाई।रंक धनद पदवी जनु पाई॥
बारहि बार लई उर लाई। अति आनन्द न हृदय समाई॥
इसके पीछे उन दोनों राजा रानीने एकत्र होकर रात्रि काल में पुरातन (पिछली) वातें करीं और महाराज नलने अपने वनमें घूमनेकी कथा वर्णन करी॥१८॥इसतरह महाराज भीमके घर आपसमें ‘सुखानन्द’ की अभिलाषाकरते हुए नलदमयन्ती रहनेलगे॥१९॥अनन्तर अपनी भार्याके सहित मिलकर वे महाराज नल चौथे वर्ष सारी कामनाओंद्वारा पूर्ण अर्थयुक्त हो इस आनन्दको प्राप्तहुए॥२०॥
सैवं समेत्य व्यपनीवतंद्रा शांतज्वरा हर्षविरुद्धसत्त्वा॥
रराज भैमी समवाप्तकामा शीतांशुना रात्रिरिवोदयेन॥२१॥
और जिस प्रकार चन्द्रमाके उदय होनेपर रात्रि प्रकाशमान होतीहै, उसी तरह बह भीमनंदिनी दमयन्ती अपने स्वामीको पाकर आलस्यहीन भगवान्के रूपको जाननेवाली और लब्धकाम (अपनी सारी कामना पूर्ण होनेवाली) होकर शोभायमान हुई॥२१॥
इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नामाष्टत्रिंशोऽध्यायः॥३८॥
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एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ३९.
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एकोनचत्वारिंशे चक्षुश्वशुरेण च भाषणम्॥
नलस्य भूयो राज्यस्य द्यूतेनाप्तिश्व कथ्यते॥१॥
इस नतालीसवें अध्यायमें महाराज नलकी ससुरसे बातचीत और फिर जुएके द्वारा राज्यका मिलना यह कथा कही जातीहै॥१॥
बृहदश्व उवाच।
अथ रात्र्यां व्यतीतायां नलो राजा स्वलंकृतः॥
वैदर्भ्या सहितो भीमं ददर्श व ++धाधिपम्॥१॥
बृहदश्वजी बोले हे महाराज युधिष्ठिर ! इसके पीछे रात बीत जानेपर गहनोंसे विभूषित और विदर्भकुमारी दमयन्तीके सहित नलने राजा भीमका दर्शन किया॥१॥ तब महाराज नलने अत्यन्त नम्रता (विनय) से अपने ससुरको अभिवादन (प्रणाम) किया और फिर कल्याणी दमयन्तीनेभी पिताकी वन्दना करी॥२॥ तब महाराज भीमने अत्यन्त आनन्दित हो दमयन्तीको पुत्रकी समान ग्रहण किया और यथोचितं आदर सत्कार करके धीर बँधाया॥३॥ उस काल ऐसे महाराज नलका दर्शन करके सारे नगरवासी मनुष्य आनन्दित हुए, तब उनके हर्षका बड़ा भारी शब्द होनेलगा॥४॥ और सब मनुष्य नगरको ध्वजा पताकाओंसे युक्त करके सजानेलगे, उस समय राजमार्गकी पृथ्वी संमार्जन (झाड ब्रुहारकर) जलसिक्त और पुष्पयुक्त करी गई॥५॥फिर (भाँतिभाँतिकी) सामग्री और प्रसादोंसे पुरवासी और देशवासी बधाई बाँटनेलगे और प्रत्येक नगरवासीके दरवाजेपर फूलोंका चूरा गिरायागया॥६॥ फिर जब महाराज ऋतुपर्णने छद्मवेष (बाहुकवेष) धारी महाराज नलको दमयन्तीयुक्त ना तो उस समय उनकोभी बडाही आनन्द हुआ॥७॥
चौपाई
तब ऋतुपर्ण चकितं लखि भयऊ।बहु विनती राजा सन कियऊ॥
क्षमा करो सब दोष हमारा। मैं माया तब जानि न पारा॥
तब नृप भीम अनुग्रह कीन्हो। नृप ऋतुपर्णहि बहु सुख दीन्हो॥
नलहि पाय तब हर्षित राजा। विविध भाँति बजवाये बाजा ॥
पुनि ऋतुपर्ण बिदा तल्हँभयऊ।अवध नगर अपने गृह गयऊ॥
और उन ऋतुपर्णने नलसे कहा। हे महाराज! मैंने आपको नहीं पहिचानाथा, इसी कारण आपकी सेवा नहीं करसका सो (यह अज्ञानकृत अपराध) आप क्षमा करदीजिये॥८॥ नलने उत्तर दिया आपने तो मेरा कुछ अपराध नहीं किया और न मेरे प्रति आप कभी क्रोधितही हुए, तब फिर मैं आपका कौनसा अपराध क्षमा करसकताहूँ?॥९॥ हे महाराज! पूर्व संबंधके योग द्वारा हमारा और आपका एकत्र समागम विधाताने रचदियाथा, इसी कारण आपने मेरी रक्षा करी॥१०॥ इसके पीछे विदर्भराज भीम और निषधराज नलसे आज्ञालेकर महाराज ऋतुपर्ण अपने देशको चलेगये॥११॥ हे युधिष्टिर! महाराज ऋतुपर्णके चलेजानेपर राजा नल बहुत दिनोंतक कुंडिनपुरमें नहीं ठहरे॥१२॥ बृहदश्वजी बोले अनन्तर तेजवान महाराज नल भीमराजाको आनन्दित कर और उनकी आज्ञा ले कुंडिनपुरसे अल्प सैन्ययुक्त निषधदेशको चलेगये॥१३ ॥एक सुन्दर रथ, और सोलह हाथी, पचास घोडे और छै सो पैदलों॥१४॥ की सेनासे पृथ्वीको कम्पायमान करते हुए क्रोधयुक्त महामति महाराज नलने शीघ्रतासहित अपने नगरमें प्रवेश किया॥१५॥ और पुष्करके पास पहुँचकर वीरसेनके पुत्र महाबली नलने कहा कि हे पुष्कर! आप आइये हमारा आपका फिर जुआ हो क्योंकि मैंने बहुत सारा धन उपार्जन करलियाहै॥१६॥मैंने दमयन्तीके सिवाय और भी बहुतसी वस्तुएं इकट्ठी करलीहैं। अत एव हे पुष्कर! आप मेरे साथ फिर जुआ खेलिये॥१७॥ महाराज नलकी यह बात सुनकर पुष्कर खेलनेलगातब फिर नलने राज्य, घोडे और हाथी जीतलिये॥१८॥
चौपाई
यन्त्र मन्त्र नल जेते जाई। हारयोपुष्कर नृपको भाई॥
देश कोश साहस भंडारा। रथ गज द्रव्य अनेक अपारा॥
जीते नल पुष्कर जो हारा। फिर++धित ह्वैकहेउ भुआरा॥
दोहा
दमयन्तीके दास तुम, कुटँबसहित हो आन।
लि दु ++हम कहँ दीन्हेऊ, तुमहि कहै को जान॥
तब फिर (सर्वस्व) हारज़ानेपर पुष्कर तत्क्षण हाथ बाँधकर खडा होगया, स समय उसको समझाबुझाकर हाराज नलने नगरमें बसाया॥१९॥ पुष्कर बोला हे महाराज! जोकि आपने मेरे प्राण बचाये और मुझको राज्यभी अर्पण किया, इस कारण आपकी अखंड कीर्त्ति बढेगी और आप सुखपूर्वक अयुतायुत वर्ष पर्यन्त जीवित रहेंगे॥२०॥
स तथा सत्कृतो राज्ञा ह्याश्वास्य च तदा नृपम्॥
प्रययौ स्वपुरं हृष्टः पुष्करः स्व ++नैर्वृतः॥
अथ तान्सांत्वयामास पौरांश्वंनिषधाधिपः॥२१॥
इस भाँति वह पुष्कर महाराज नलसे सत्कार पाय नलको सन्तुष्ट करस्वजनों समेत अपने नगरको चलागया तब फिर महाराज नलने अपने नगरवासी मनुष्योंको सान्त्वना दी अर्थात् अनेक तरहसे उनको सन्तुष्ट किया॥२१॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलोपाख्यानवर्णनं नाम एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥३९॥
चत्वारिंशोऽध्यायः ४०.
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चत्वारिंशे सभार्यस्यानन्दो राज्यस्य तस्य च॥
नलस्य ऋतुपर्णस्य सत्कीर्त्तनमिहोच्यते॥१॥
इस चालीसवें अध्यायमें रानी दमयन्तीके सहित महाराज
नल तथा उनकी प्रजाको आनन्द प्राप्त हुआ, और राजा ऋतुपर्णका कीर्त्तन यह कथा वर्णन की जातीहै॥१॥
बृहदश्व उवाच ।
प्रयाते पुष्करे राजन्संप्रवृत्ते महोत्सवे॥
महत्या सेनया युक्तो दमयन्तीमुपानयत्॥१॥
बृहदश्वजी बोले। हे युधिष्टिर! जब पुष्कर चलागया, तब महाराज नल महा उत्सवसे वड़ी सेना करके युक्त दमयन्तीको लेआये॥१॥ परवीरघाती अमेयात्मा भीमपराक्रम पिता महाराज भीमने दमयन्तीका सत्कार करके उसको भेजदिया॥२॥ तब महाराज नल पुत्र कन्या समेत विदर्भकुमारी दमयन्तीके आजानेपर हर्षित हुए इस प्रकार शोभा पानेलगे, जिस प्रकार नन्दनवनमें (इन्द्राणी और जयन्तके सहित) देवराज इन्द्र शोभा पातेहैं॥३॥फिर महायशस्वी महाराज नल राज्य पाकर स्थित हुए और उन्होंने यथाविधि बहुतसी दक्षिणावाले विविध यज्ञोंद्वारा परमेश्वरकी पूजा करी॥४॥ वृहदश्वजी बोलें हे युधिष्ठिर! एक दिन महाराज नलने घरके थंभपर बैठेहुए सुन्दर तोतेको निःशल्य (कंटकहीन) बाण द्वारा निपातित किया॥५॥ किन्तु भीमकुमारी दमयन्तीने दयाके वशीभूत होकर उसको हाथके संपुटमें रखलिया, ऐसा होनेपर उसके हाथके पसीनेद्वारा उस तोतेंमें जान आगई अर्थात् वह जीवित होगया॥६॥तब महाराज नलके मनसे दमयन्तीके मछली खाजानेका सन्देह जातारहा इसी तरहहे राजेन्द्र! आपभी सुहृदोंसमेत शीघ्र राज्यकी रक्षा करेंगे॥७॥ हे भरतर्षभ। हे परपुरविजयी युधिष्ठिर! आर्य महाराज नलने रानी दमयन्तीके सहित (जुआ खेलनेसेही) इस प्रकारका दुःख पायाथा॥८॥ उसी तरह हे भरतश्रेष्ठ!
आपभी कृष्णा (द्रौपदी) और बाँधवगणके समेत धर्मकी चिन्ता करतेहुए उत्तम स्थानमें रमण करेंगे॥९॥
चौपाई
होइहौ धर्मज तुमहुँ भुवारा। जो यह कथा नेउसुखसारा॥
सारी चिन्ता मिटहि तुम्हारी। पूजहु यदुपति कृष्ण मुरारी॥
क्षणमहँ दुःख तुम्हारे हरिहैं। सकल मनोरथ पूरण करिहैं॥
जो कोउ जात शरण मोहनकी। पूरी करत आश जन मनकी॥
हे महाराज! तुम जैसे दुःखी जनोंका आश्वासन करनेयोग्य इस इतिहासके श्रवण करनेपर कलियुग नाशको प्राप्त होजाताहै॥१०॥ क्योंकि कर्कोटक नाग, दमयन्ती, नल और राजर्षि ऋतुपर्णका कीर्त्तन कलियुगको नाश करनेवाला है॥११॥ हे नृपोत्तम! जो पुरुष इस (कथा) को सुनातेहैं अथवा जो श्रद्धासहित सुनतेहैं, उनको कलिसमुद्भव ( कलि जनित ) भय विद्यमान नहीं रहता॥१२॥
चौपाई
यहिके++ने पाप तनु भागै। व्याधिहोय सो वनु नहिं लागै॥
दुखी सुनै सब दुख मिटजाई। बन्दीका बन्धन कटजाई॥
राज्यहीन जन राजहि पावे। जेहि दु++ ब तसुने क्षय पावे॥
दोहा
बृहदश्वमुनि भाषेऊ, धर्मराज सुखपाय।
नशै पाप तनु+++बढै, नलचरित्र जो गाय।
हे राजन ! जो इसको नित्य ( निरन्तर ) सुनाते और श्रद्धासे सुनतेहैं, हे महाराज! उनको कलिसे उत्पन्नहुए किसी ताराकारके भय नहीं होते हैं॥१३॥ राजर्षि ऋतुपर्णके स्वयंवरके लिये उसको लेकर वह राजर्षि भीमके स्थानमें गये॥१४॥ एक समय वह ऋषिसेवक महाराज नल पेडकी जडमें सो रहेथे, उसी समय उनके मुखसे निकलकर कलियुग बहेडेमें सभीत आया॥१५॥ ऋतुपर्णने जैसेही उसको देखा, वैसेंही विस्मित होकर उठबैठा, फिर नागने उन महाराज नलको पुनवर काटा॥१६॥
स्वरूपत्वमनुज्ञातो यथापूर्वं तथाभवत्॥
भूयो राज्यमनुप्राप्तो दमयत्न्या युतो नः॥१७॥
फिर महाराज नल अपने स्वरूपको प्राप्त होकर जिस प्रकार पूर्वमें थे, वैसेही होगये और दमयन्तीके सहित पुनर्वारभी राज्यको प्राप्तहुए॥१७॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां नलदमयन्तीसङ्गमो नाम चत्वारिंशोध्यायः॥४०॥
––––––––––––––––––
एकचत्वारिंशोऽध्यायः ४
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चत्वारिंशत्तमे सैके हरिश्चन्द्रन्द्रस्य वर्णनम्।
मुनिना हृतराज्यस्य कीर्तिं धैर्यं च कथ्यते॥१॥
इस इकतालीसवें अध्यायमें मुनि विश्वामित्रजीके द्वारा राज्य हरण होजानेपर महाराज हरिश्चन्द्रकी कीर्त्ति और धैर्यका वर्णन किया जाता है॥१॥
व्यास उवाच।
तस्मात्त्वमपि राजर्षे मा विषादं कुरु प्रभो।
हरिश्चन्द्रोऽपि राजर्षिर्दुःखान्ते सुखमाप्तवान्॥
व्यास जी बोले है राजर्षे! हे प्रभो ! इस लिये आपभी विषाद (शोक) मत कीजिये क्योंकि प्रथम राजर्षि हरिश्चन्द्रनेभी दुःखके पीछे सुख पायाथा॥१॥ हे राजन! पूर्वकालमें त्रेतायुगके बीच सूर्यकुलोत्पन्नब्राह्मण्य (ब्राह्मणभक्त ) धर्मवान्, सत्यसन्ध, सदा पवित्र ॥२॥और निरन्तर धर्मकी सेवा करनेवाले महावीर हरिश्चन्द्र नामक राजा अयोध्यापुरीमें आए। उनके सात्त्विक भावसे इन्द्रपुरी कंपायमान होनेलगी॥३॥ फिर जहाँ सनातन भगवान् विष्णु विराजमान थे, देवराज इन्द्र वहाँही गये। और वहाँ जाकर इन्द्रने मलीन मुख और दीन मनसे
कहां॥४॥इन्द्र बोले। हे स्वामिन्! भारतखंडमें एक हरिश्चन्द्र नामक महाराज जो कि रूपवान् धर्मशील और सूर्यवंशोत्पन्न॥५॥महागुणवान् महातेजस्वी अयोध्याको पालनेमें स्थित है, उनके ण्यप्रभावसे मेरी++रीका नाश (अवश्य ) होजायगा॥६॥इन्द्रकी यह बात सुनकर भगवान् विष्णुने मनमें विचार किया और फिर इन्द्रसे बोले हे इन्द्र! आप अपने स्थानको प्रस्थान कीजिये, मैं उन राजाको साधूँगा॥७॥भगवान् श्रीहरिने इस प्रकार कहकर वहीं विश्वामित्रजीको स्मरण किया और उनके याद करतेही वे विश्वामित्र ऋषि आनकर उपस्थित हुए॥८॥तब भगवान् केशवदेवने उनसे कहा कि हे मुनिवर! आप हरिश्चन्द्रकी अयोध्यानगरीको चलेजाइये और वहाँ जाकर हरिश्चन्द्रको स्वधर्मसे डिगाइये ॥९॥और मेरी आज्ञासे आपको साधुजनको दुःख देनेका पाप नहीं लगेगा, यह सुनकर ब्राह्मणविश्वामित्र हरिश्चन्द्रकी पुरीको चलेगये॥१०॥वहाँ जाकर विश्वामित्रजीने महाराज हरिश्चन्द्रको++सिंहासनपर विराजमान देखा और राजाभी उन ऋषिका दर्शन करके++हा सिंहासनसे उठ खडेहुए ॥११॥और फिर अर्घ्यपादादिके द्वारा उनकी पूजा कर हाथ बाँधे खडे होगये और बोले। हे स्वामिन्! अब मुझपर कृपा करके आज्ञा दीजिये॥१२॥विश्वामित्रने कहा कि हे धर्मज्ञ! यदि आप सन्तुष्ट हुए हैं तो मुझको अपना सारा राज्य प्रसन्नतापूर्वक देदीजिये तो मैं आपको उत्तम धर्मात्मा समझंगा॥१३॥मुनिवर विश्वामिजीके इसप्रकार कहनेपर महाराज हरिश्चन्द्रने++त्रसहित अपना सारा राज्य रानीसे सम्मति करके विष्णुभगवान्की प्रसन्नताके लिये द्वादशी तिथिमें विप्रोत्तम विश्वामित्रजीको अर्पण करदिया
तब विश्वामित्रजीने प्रसन्न होकर फिर कहा हे राजन्! इस (महादान) की मुझको दक्षिणा दीजिये॥१४॥१५॥
विनां दक्षिणा दान, फल नहिं होत नरेशा।
मानो मेरी बात, न मनमें ++रो अँदेशा॥
क्योंकि हे महाराज! जैसे कुशाके विना संध्या और तिलके विना तर्पण करनेसे कुछ फल नहीं होता, ऐसेही दक्षिणाहीन दान करनेसे वह सव निष्फल होजाताहै॥१६॥ महाबुद्धिमान् महाराज हरिश्चन्द्रने उनकी यह बात सुनकर दक्षिणामें तीन भार सुवर्ण देनेका विचार किया॥१७॥ और संकल्पके लिये महाराजने विश्वामित्रज़ीके हाथमें जल दिया तव पीछे विश्वामित्रजीने उनका हाथ पकडकर कहा॥१८॥ हे महाराज! में इस दान कियेहुए राज्यसे दक्षिणा नहीं लेसकता, क्योंकि आपके दान करनेपर अब यह सप्तांग राज्य हमाराही होचुका॥१९॥
सब पृथ्वी दें दान, खजाना अपना गावै।
कहते ऐसी बात, तुझे कुछ लाज न आवै॥
तव फिर इस राज्यका जो कुछ धन है, वह सबभी हमाराही होचुका इसमें सन्देह नहीं। हे महाराज! हे विभो! इसको छोडकर और द्रव्यके द्वारा मुझको दक्षिणा दीजिये॥२०॥ तब महाराजने मनमें निश्चय कर और विह्वल हो विश्वामित्रजीसे कहा कि हे विप्रोत्तम! आप मेरे पुण्यका नाश मत कीजिये॥२१॥
**भूल तो मुझसे होगई, क्षमा करो द्विजराज। **
सभी खजाना आपका, ऋषियनके शिरताज॥
इस प्रकार उनसे विज्ञापन (विनय) करके महाराज फिर कहनेलगे। हरिश्चन्द्र बोले हे विप्र! पुत्र, स्त्री और मुझको आप शिवपुरी (काशी) में लेलिये और हम सबको वहाँ बेचकर
जो धन मिले, उसको हे द्विजोत्तम! आप ग्रहण करलीजिये॥२२॥ बुद्धिमान् विश्वामित्रजी महाराज हरिश्चन्द्रकी यह बात सुनकर मार्गमें निरन्तर दुःख सहातेहुए पुत्र स्त्रीसमेत उनको वाराणसी (काशी) नगरीमें लेआये॥२३॥ वहाँ लेजाकर उन सबको ब्राह्मणविश्वामित्रजीने अलग अलग बेंचडाला, पुत्र रोहिताश्व और रानी तारामतीको एक ब्राह्मणके हाथ बेंचा॥२४॥ और महाराज हरिश्चन्द्रको एक अन्त्यज अर्थात् चाण्डाल (भंगी) के हाथ बेचदिया। फिर किसी दिन ब्राह्मणणोंके साथ (पुष्प लेनेके लिये ) रोहिताश्व वनमें गया॥२५॥ तब उसको फूलोंमें बैठेहुए सांपने काटखाया, और उसके काटतेही रोहिताश्वकी मृत्यु होगई तब उन बालकोंने॥२६॥ आनकर उस बूढेब्राह्मणसेयह सारा हाल सुनांदिया, तब वह ब्राह्मण उस वनमें गया, और रोहितकें (मृतक शरीरको) पवित्र गंगातटपर ले आया॥२७॥ तब (ब्राह्मणकी दासी तारामती) ज्योंही अपने पुत्रको फुंकनेके लिये तैयार हुईं कि त्योंही महाराज हरिश्चन्द्रने आकर कहा कि प्रथम हमको इसका (करस्वरूप)व खंड देदीजिये और फिर अपने पुत्रको फूँकिये॥२८॥
इस महानपतिकी आज्ञाहै ++निये सोई ।
आधा कप्फन दिये बिना नहि फूंकै कोई॥
महाराज हरिश्चन्द्रके यह बात कहनेपर उसने उनको वस्त्रखंड प्रदान किया और तब फिर पीछे अपने बेटेको फूँका। यह अद्भुत (घटना) हुई॥ २९॥ वैशम्पायनजी बोले हे महाराज जन्मेजय! इसके पीछे अब मैंतारामतीकी चेष्टा वर्णन करताहूँ कि वह तारामती ब्राह्णणके घर नित्य देवसेवा किया करतीथी॥३०॥ फिर किसी समय तारामतीने गंगापर पहुँचकर जलमें स्नान किया
उस काल रानीके कंठसूत्रको कौवीने खानेकी चीज समझकर पकडलिया और फिर उसको पानीमें डालदिया सो वह तारामतीके शिरपर स्थित होगया, तब राजाने कोतवालके द्वारा (यह) ढँढोरा पिटवादिया॥३१॥३२॥ कि हमारी रानीका हार गंगाके तटपर जिस किसी चोरने चुराया होगां वह मनुष्य वा स्त्री जो कोई भी हो मारडालाजायगा॥३३॥ राजाका यह ढँढोरा सुनकर नगरवासियोंने (जाकर) कहा हे महाराज। कोई एक स्त्री ब्राह्मणके घरमें दासी बनकर निवास किया करतीहै॥३४॥ हमने उसके मस्तकके ऊपरीभागमें वह कंठसूत्र (हार) देखाहै, उनकी यह बात सुनकर राजाने कहा॥३५॥ काशिराज वोले। कि उस चोर व्यक्ति मनुष्य, स्त्री अथवा नपुंसक (जनखे) को शीघ्रही मारडालो, क्योंकि चोरके मारडालनेमें देर नहीं करनी चाहिये॥३६॥महाराजकी आज्ञानुसार उन सव नगरनिवासियोंने उस स्त्रीको मारडालने के निमित्त यह सब हाल अन्त्यजसे निवेदन किया, तव उस अन्त्यजने सेवक हरिश्चन्द्रको ताराके वधार्थभेजा॥३७॥ उस काल वह स्त्री भली भाँति स्नान करके गंगाकिनारे स्थित थी तब उसी समय उसको मारडालनेके लिये अन्त्यजके भेजेहुए राजा उद्यत होगये॥३८॥ और ज्योंही मारना चाहा तो उसी समय रानीने देखा कि अपने नाथ पृथ्वी के अधीश्वर महाराज हरिश्चन्द्र खडेहैं॥३९॥ तब तो उसने हृदयमें आनन्दित होकर भगवान् विष्णुसेप्रार्थना करी कि हे भगवन्! अपने स्वामीके चरणकमलोंमें मेरी स्मृति निरन्तर रहे, और मुझको प्रत्येक जन्ममें रोहिताश्वकी समान पुत्र और विश्वामित्रके समान गुरु मिलें॥४०॥ हे विष्णो! यह सब देखकर मुझको अपनी सनातनी भक्तिभी प्रदान
कीजिये। इस तरह कहतीहुई वह तत्काल राजाके द्वारा पीडित हुई॥४१॥और फिर महाराज हरिश्चन्द्रने ज्योंही उसके मस्तकपर खड्गाघात करना चाहा कि त्योंही वैकुंठवासी भगवान् श्रीहरि विष्णुने उनका हाथ पकडलिया॥४२॥
चौपाई
तुरतहि प्रकट भये भगवाना। माँगु भूप अस वचन बाताना।
परे चरन नृप कंठ लगाये। रानीके बंधन छुडवाये॥
ह्वैप्रसन्न तब श्रीभगवाना। भूपति कहँ दीन्हों वर दाना॥
अब नृप++र अवधपुर वासा।अन्त++लआय मम पासा॥
करी कृपा हरि कुँवर जियाई। अन्तर्धान भये रराई॥
चलेगये जब प्रभु सुखदानी।तब यह भई गगनसों बानी॥
दोहा
सतराख्यो तनु दृष्ट सहि, बीवगये दिन मंद।
++श तजो धीरज धरो।धन्य धन्य हरिश्चंद्र॥
और कहा हे महाराज! अब आप ऐसा साहस मत कीजिये अर्थात् इसके वध करनेकी हठ छोडदीजिये। हम आपके भावसे अत्यन्त संतुष्ट हुएहैं, इस कारण हे राजेन्द्र! आपके मनमें जो कामना वर्त्तमान हो वही हमसे माँगलीजिये४३॥हरिश्चंद्र बोले हे स्वामिन्! हे जगन्नाथ ! यदि आप (सत्यही ) मेरे प्रति सन्तुष्ट होगयेहैं, तो मैं यह चाहताहूँ कि मुझको आप पुत्र,स्त्री और पुरवासियोंसमेत अपने स्थान (वैकुंठ) ले चलिये॥४४॥कारण कि ब्रह्मपदमें पहुँचेहुए रुषोंको फिर संसारकी फांसीमें बँधना नहीं पडताहै, जब महाराज हरिश्चन्द्रने इस कार प्रार्थना करी तब उसी समय विष्णुरूपी श्रीहरिने॥४५॥
उद्धृता नगरी सर्वा हरिश्चन्द्रोऽपि++द्धृतः॥
सपुत्रः सकलत्रश्च सबन्धुश्च स व++:॥
कृपया जगदीशेन वैकुंठे स्वे निवासितः॥४६॥
(प्रथम) सारी अयोध्यापुरीका उद्धार किया और फिर पुत्र, स्त्री, बाँधव और सेवकोंसमेत महाराजा हरिश्चन्द्रकाभी उद्धार किया। भगवान् जगदीश्वरने अनुग्रह करके पुरवासी इत्यादिके सहित महाराज हरिश्चन्द्रको अपनी वैकुंठपुरीमें वास प्रदान किया॥४६॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां हरिश्चन्द्रोद्धारणं नाम एकचत्वारिंशोऽध्यायः॥४१॥
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द्विचत्वारिंशोऽध्यायः ४२.
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द्विचत्वारिंशेऽध्याये तु मृकण्डात्मजधर्मयोः॥
संवादे प्रलयोत्पत्तिरस्य विश्वस्य वर्ण्यते॥१॥
इस वयालीसवें अध्यायमें मृकण्डपुत्र मार्कण्डेय और धर्मनन्दन युधिष्ठिरके संवादमें इस विश्व (जगत् ) की उत्पत्ति और प्रलयका वर्णन कियाजाताहै॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
एवमुक्त्वा तदा व्यासो जगाम स्वं निकेतनम्॥
एकदा वनमध्ये तु वर्त्तमानं युधिष्ठिरम्॥ १॥
वैशम्पायनजी वोले हे जनमेजय! इसप्रकार कहकर व्यासजीने अपने स्थान (घर) को प्रस्थान किया। फिर एक समय वनमें वर्त्तमान महाराज युधिष्ठिरके समीप॥१॥ अनेक देशोंमें घूमते घामते महामुनि मार्कण्डेयजी आये। तब उनकी पूजा करके धर्मात्मा धर्मनन्दन युधिष्ठिरने पूछा॥२॥ हे स्वामिन्! आप मेरे आगे (संसार) की उत्पत्ति और प्रलयका वर्णन कीजिये। मार्कण्डेयजीने कहा हे महाराज! एक दिन मैं अपने स्थानपर निरन्तर शिष्योंको पढ़ारहाथा॥३॥ उसी अवसरमें (महावे-
गसे) पवन चलनेलगा, जिससे सारे पेड चकनाचूर होगये। और चारों दिशाओंसे जल आनकर मेरे स्थानमें प्राप्त होगया॥४॥
दोहा
पवन झकोरै तेजसौं, शीत भयो दुःखदाय।
घन गरजै लरजै हिया, तन ठिठरायो जाय॥५॥
मैं उस पानी पर तैरता तैरता त्यलोकमें जापहुँचा, वहाँ बालरूपधारी भगवान् विष्णुका मैंने वटके पत्तेपर दर्शन किया॥५॥तब वहाँ मैं उनसे बोला हे नाथ! मैं इससमय बहुतही डराहुआहूँ। यह सुनकर मुझसे उन बाल कुन्दने कहा। हे पुत्र! आप आनकर मेरे मुखमें प्रवेश कीजिये॥६॥यह कहकर वे मुकुन्दभी अपना मुख फैलायकर अवस्थित हुए और मैं तत्काल उनके मुखमें घुसगया और अपने (उसी ) स्थान पर आपहुँचा॥७॥उस कालमें बड़े भारी अचंभेमें भरकर अपने सब शिष्योंसे बोला कि, हे शिष्यगण! अभी तो आप सब जने वायुके द्वारा उडगये थे, तब फिर इस स्थानपर किसतरहसे आपहुँचे?॥८॥यह सुनकर उन शिष्योंने उत्तर दिया कि हे स्वामिन्! हम लोग तो बिलकुल नहीं उडे, किन्तु आप किसलिये विकल होरहेहैं? तब पीछे मैं मनके भीतर ध्यान करताहुआ दारुण तपस्या करनेलगा॥९॥हे राजन् ! उस तपस्याको करते करते दश हजार वर्ष बीतगये। तब मैंने एक दिन भगवान् बालमुकुन्दको स्मरण किया॥१०॥कि अपने करकमलमें चरणारविन्दके अँगूठेको पकडकर मुखमें चचोरतेहुए वटवृक्षके पत्तेके दोनेमें बालरूपसे शयन करनेवाले बालरूपी मुकुन्दको मनसे स्मरण करताहूँ॥११॥कंठमें सुन्दर माला, भालपर सुन्दर तिलक लगाये, सुन्दरताकी दमकसे मेघकी कान्तिके जीतनेवाले, शत्रुओंको करालरूप, भक्तजनरूपी कमलोंको राजहंस बालमु-
कुन्दको मनसे भजताहूँ॥१२॥ गोपाल बालक और संसारके एकही पालक संसारकी माया मतिको मोहका जाल फैलानेवाले, बडे यशस्वी और शिशुपालके काल बालमुकुन्दको मनसे स्मरण करताहूँ॥१३॥ जब मैंने इसतरहसे उनका ध्यान किया, तब वे बालरूपी हरि मेरे प्रति सन्तुष्ट हुए और वे मेरे सन्मुख बोले कि अब आप आदरसहित संसारकी उत्पत्ति देखिये॥१४॥ उसी समय भगवान् विष्णुके नाभिकमलसे ब्रह्माजी प्रकट हुए, तव श्रीहरिने उन ब्रह्माजीको आज्ञा दी कि आप सृष्टि उत्पन्न कीजिये।उनकी आज्ञानुसार ब्रह्माजीने सृष्टिकी रचना करी॥१५॥ फिर भगवान् विष्णुके अन्तर्धान होजानेपर पीछेपंचभूतोंकी उत्पत्ति हुई। हे महाराज युधिष्टिर! इसी विधि (नियम) के अनुसार अनेक प्रलय बीत चुकेहैं॥१६॥
मया विलोकितास्ते वै माधवस्य प्रसादतः।
तस्मात्त्वमपि राजेन्द्र नित्यं भज हरिं ध्रुवम्॥
इत्युक्त्वान्तर्दधे सोऽपि मार्कण्डेयो महामुनिः॥ १७॥
भगवान् माधवके प्रसादसे मैंने प्रलयका दर्शन कियाहै। इस कारण हे राजेन्द्र! आपभी निश्चय करके निरन्तर श्रीहरिका भजन कीजिये। इस प्रकार कहकर महामुनि मार्कण्डेयभी अन्तर्धान होगये॥१७॥ इति श्रीभारतसारे वनपर्वणि भाषायां प्रलयोत्पत्तिकथनं नाम द्विचत्वारिंशोऽध्यायः॥४२॥
इति श्रीभाषाभारतसारे वनपर्व समाप्तम्॥३॥
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श्रीः
भाषा भारतसार
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विराटपर्व।
दोहा
वन्दौंपदपंकज सदा, राधा नन्द कुमार।
पुनि विराट शुभ पर्वकी, भाषा लिखूं धार॥
दयाभवन अति सुख सदन, सदा रहहु अनुकूल।
नाथ न आनहु हृदय महँ, मो ++पामर की भूल॥
चरणकमल वन्दौं रुचिर, कष्ट विनाशन हार।
बूडत हौं भवसिन्धुमहँ, मोहि करो प्रभु पार॥
हौं शरणागत आपकी,++टहु जगजंजाल।
हाथ जोरि विनती करत, मिश्र कन्हैयालाल॥
त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ४३.
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त्रिचत्वारिंश अध्याये विराटस्य पुरं गतिः।
पांडवानां च भीमेन मल्लदर्शनमुच्यते॥१॥
इस तेंतालीसवें अध्यायमें विराट्नगरमें पांडवोंका जाना और भीमसेनका मल्लदर्शन अर्थात् मल्लको मारडालना यह कथा कहीजातीहै॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
प्रथमाब्दाद्द्वादशांतं पाण्डवैरुषितं वनम्।
प्राप्तेत्रयोदशंवर्षंनष्टचर्याचिकीर्षतः॥१॥
वैशम्पायनजी बोले हे जनमेजय! प्रथम वर्षसे आरंभ करके बारहवर्ष पर्यन्त तो पांडव वनमें वसे किन्तु अब तेरहवाँ (अज्ञातवासका) वर्ष आनकर प्राप्त हुआ, उसमें उन्होंने गुप्त-
रीतिसे भ्रमण करनेका विचार किया॥१॥ तब युधिष्ठिरादि सब पांडव विराटनगरमें पहुँचगये और वहाँ प्रत्येकने अपना गुप्त नाम रक्खा उस प्रत्येक नामको आपसे कहताहूँ॥२॥ महाराज युधिष्टिर अपने साथ रहनेवाले धौम्यादि ऋषियोंसे बोले कि हे ऋषियो! अब आप सब जने अपने अपने स्थानको प्रस्थान कीजिये॥३॥ और भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनसे पवित्र हुई द्वारकापुरीमें हमारे सब महावीर, रथी, तथा गजवाले चलेजाँय ॥४॥ और जो अन्यान्य सेवक तथा हमारा काम काज करनेवाले शिबिकावाहक (पालकी उठानेवाले) और शस्त्रोंको धारण करने वाले हैं॥५॥ वे सब मेरे कहने (आज्ञा ) से द्रुपदके स्थानको बिनाविलम्ब चलेजाँय, और हमारी माता कुन्ती भी चलीजाँय॥६॥ महाराज युधिष्ठिरकी यह बात सुनकर वे सब आज्ञानुसार चलेगये और श्रीकृष्णके स्थानपर पहुँचे वहाँ यादवोंने उन सबकी पूजा अर्थात् आदर सत्कार किया॥७॥ और उधर महाराज द्रुपदनेभी युधिष्ठिरके सेवकोंका यथोचित आदर मान किया। तब धर्मराज युधिष्ठिर बोले हे भीम! आप इन शस्त्रोंको शीघ्रतासे इस शमीवृक्षपर रखदीजिये॥८॥ उनकी आज्ञानुसार भीमसेनने उन अस्त्रशस्त्रोंको बाँधकर शमीवृक्षपर स्थापन करदिया। तब युधिष्ठिर बोले हे भाइयो! अब जिस कामके करनेमें आपकी चेष्टा हो; सो सब मेरे आगे कहदीजिये॥९॥ आप सबके बीच जिसमें जैसा ब्राह्मण हो, सो मुझे बता दीजिये और मैं तो ब्राह्मण कंकनामसे विख्यातहूँगा॥ १०॥ (फिर सब कोई अपने अपने गुण बताकर तदनुसारही रूप बनाने लगे) भीमसेन बल्लव नामक सूपकार अर्थात् अन्नपाचक (रसोइये) बने और अर्जुन नर्त्तक (नचनइया) होकर बृहन्नटके नामसे प्रसिद्ध हुए॥११॥नकुल ग्रंथिक नामक अश्वपाल
हुए और सहदेव गौओंकी रक्षा करनेमें अधिष्ठाता हुए॥१२॥ और द्रौपदी मालिनी नामसे विख्यात सैरन्ध्री हुई। इस प्रकार उन सब क्षत्रियोंने अपने अपने गुप्त नाम रखलिये॥१३॥ और जो कि भार्या अपने पतिका नाम नहीं लेसकती, इस कारण द्रौपदीने उन पांडवोंके जय, जयंत, विजय, जयत्सेन और जयद्बल यह नाम रखलिये॥ १४॥ इस तरह वे सब जने निश्चय राजमन्दिरमें आपहुँचे। वहाँ नट, नचनइये और चारणों द्वारा शोभायमान॥१५॥ गीत व बाजोंके शब्दद्वारा तथा पहलवानोंसे सुशोभित श्रेष्ठ वीरों युक्त और अनेक पण्डितोंद्वारा विभूषित॥१६॥ तथा और भी देखनेलायक भाँति भाँतिके अनगिन्त चिह्नोंवाली महाराज विराटकी सभा प्रकाशमान होरहीहै और क्रमशः आदिसे अन्ततक यथोचित रूप व चिह्नोंसे युक्त होरहीहै॥१७॥ तब महाराज विराटभी उस सभामें आनकर प्राप्तहुए और उन महाराजको सभामें आयाहुआ देखकर उन पाण्डवोंने अपनी अपनी चेष्टा कही॥१८॥ तब उन महाराज विराटने इन कंक इत्यादिका यथोचित आदर (मान) किया। ऐसा होनेपर यह गुप्त रीतिसे वहीं वास करनेलगे॥१९॥ इसी भाँति अन्तःपुर (रनवास) में गई हुई सैरन्ध्री द्रौपदीका रानी सुदेष्णाने बहुत आदर मान किया और उसको अपनेही घरमें टिकालिया॥२०॥ तब फिर राजपत्नीसे सैरन्ध्रीने कहा। द्रौपदी बोली। कि मैं महाराज विराट तथा और किसीके प्राप्त करनेयोग्य कभी नहीं हूँ अर्थात् मेरी तरफ पत्नी बनानेकी इच्छासे कोई भी आँख उठाकर नहीं देखसकता॥२१॥ क्योंकि मेरे पति पांच गन्धर्व हैं, जो कि सब गुप्तरीतिसे रहाकरतेहैं अतएव मुझको टेढी निगाहसे जो कोई भी देखेगा, उस दुष्टात्माको वे गन्धर्व तत्क्षण मार डालेंगे॥२२॥ इस तरह
वहाँ पांडवगण गुप्तरीतिसे अपने अपने अधिकार में स्थित रहनेलगे। इसके पीछेचौथे महीने में भाँति भाँतिके पहलवानों सहित॥२३॥ मेघनाद नामसे विख्यात मल्लोंके अधिपति (गुरू) ने महाराज विराटकी सभामें आनकर मल्लयुद्धकी याचना करी अर्थात् ++श्ती चांही॥२४॥ जो कि वह पहलवानोंका उस्ताद महाबलवान् महाकाय अर्थात बडे शरीरवाला, दुर्निवार (पहलवानों से नहीं हटने वाला) था, इस कारण उससे कोईभी नहीं लड़ सका॥२५॥ फिर इसको अखाडेमें बलवके साथ लडनेको अधिकार मिला। तब पहलवान् मेघनाद और बल्लवका शस्त्रहीन घोर बाहुयुद्ध होनेलगा॥२६॥ वे दोनों दारुण, भयंकर, घोर और संसारको आश्चर्य कारक परस्पर महान् शब्दके द्वारा भय बतातेहुए लडनेलगे॥२७॥ मेघनाद नामक महापहलबान सारे पहलवानोंके बीचमें खडा हो हाथोंकी दोनों अँगुली और हाथ पर परस्पर गुंफित करतेहुए आपसमें घूँसोंका प्रहार करनेलगे॥२८॥
चौपाई
**मल्ल युद्ध ++गे दोउ ++रना। मुष्टि घात अरु घा हिं चरना॥ **
मल्ल युद्ध दोउ यहि विधि करहीं। पटहिं धरहिं झूमिझुवि परहीं॥
फिरि फिरि करि बल उठहिं सँभारी। मबल युग न मानहिं हारी॥
तब बल्लव भुज बल अति कीन्हा। मल्ल उठाय डारि महि दीन्हा॥
करिबड क्रोध धरनि पहँडारा। जनु ++र वज्र पर्वतन मारा॥
दोहा
**मृतक तासु तनु क्रोधकरि, दीन्हो द्वरि पँवारि। **
देशदेशके भूप सब करत बढाई झारि॥
फिर सुखपूर्वक आकाशमें उठेहुए पार्श्वसे मसलतेहुए कोपक्त बलवने उसके दोनों चरण पकडकर॥२९॥ अपने शिर चौतर्फाघुमायकर भूमितलपर पटकदिया। उसके मृत हो गिरजानेपर सभामें बैठेहुए सब जने॥३०॥
जयशब्दो नमःशब्दः साधुशब्दप्रसाषिणः।
बल्लवं तु ततो राजा ब मानपुरःसरम्॥
पूजयामास धर्मज्ञो विराटो हर्षसंयुतः॥३१॥
जय जयका शब्द, नमः शब्द, और साधु (धन्य धन्य) शब्द करनेलगे। तब फिर धर्मके जाननेवाले महाराज विराटने अत्यन्त आदर मान पूर्वक आनन्दित मन हो बल्लवका पूजन किया॥३१॥ इति श्रीभारतसारे विराटपर्वणि भाषायां त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः॥४३॥
चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ४४.
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चतुश्चत्वारिंशेऽध्याये कीचकानां वधो यथा।
पाण्डवानाञ्च प्राकट्यंसभायां कौरवैः तम्॥१॥
इस चौवालीसवें अध्यायमें जिस तरहकार कीचक मारा गया और कौरवोंकी सभामें पांडव प्रकट हुए यह कथा वर्णन करी जायगी॥१॥
वैशंपायन उवाच।
मेघनादवधादूर्ध्वं मासमात्रादनन्तरम्।
तथा चरति पांचाली सुदेष्णाया निवेशने॥१॥
वैशम्पायनजी बोले हे जनमेजय! मेघनादके मरनेपीछे एक मास बीतजानेपर सैरन्ध्री सुदेष्णा के घर उसी तरह बर्त्ततीरही॥१॥ इस प्रकार वहाँ बसते हुए कीचक नामसे विख्यात विराटके सालेने उस पतिव्रता, (सती) सैरन्ध्रीका दर्शन किया॥२॥ अपनी बहनकी टहलनी उस रूपवाली देवगर्भाकी तरह प्रकाशमान और दूसरी देवसदृश द्रौपदीका दर्शन करके॥३॥ कीचक ++मबाणसे पीडित होगया और उसने सके++करने की अभि-
लापासे अपनी बहन सुदेष्णाके पास जाकर विनय सहित कहा॥४॥कीचक बोला है बहन सुदेष्णा! आप अपनी सैरिन्ध्रीको मेरे भोगनेके लिये मुझे देदीजिये। यह सुनकर उस सुदेष्णाने उसी तरह उत्तर दिया कि महाबली पांच गन्धर्व॥५॥इसके पति गुप्तरीतिसे यमराजके समान इसकी रक्षा करतेहैं, यदि आप उसके ऊपर दुष्टबुद्धि करेंगे॥६॥तो वे गन्धर्व आनकर आपको मारडालेंगे, इसमें सन्देह नहीं। अत एव पराई स्त्रीके प्रति आपको ऐसी बुद्धि कभी नहीं करनीचाहिये॥७॥स्त्रीके कारणही रावणकी शिरपंक्ति छिन्न हुई अर्थात् शिर काटेगये और फिर प्राप्त नहीं हुए। तब उस दुष्टात्मा कीचकने बहनकी टहलनी॥८॥कामके वशीभूत होकर सैरन्ध्रीसे कहा उसको सुनकर सैरन्ध्रीने कीचकको उत्तर दिया॥९॥हे कीचक! आप मेरे साथ विनोद (रमण) करनेकी (इच्छा) मत कीजिये नहीं तो मेरे पाँच गन्धर्व पति आपको मारडालेंगे॥१०॥यह बात मैं कसम खाकर कहतीहूँ, आप इसमें जराभी झूठ मत समझना।उसकी यह बात सुनकर कीचकने कहा॥११॥हे सैरन्ध्री।यदि पति गन्धर्व बलवान हैं, तो मैं उनसे नहीं डरताहूँ। इसलिये में रातमें तुझे बलात्कार अपने घरको लेजाऊंगा॥१२॥अनन्तर कृष्णा (द्रौपदी) ने उसकी कहीहुई सारी बातें भीमसेनसे निवेदन करदीं। तब भीमसेनने नृत्य घरमें उसका संकेत( इशारा ) स्वीकार किया॥१३॥भीमसेनने कहा हे सैरिन्ध्री! आप कीचकके समीप पहुँचकर यह बात कहिये कि’ भोजन करनेके निमित्त उत्तम मीठे मोदक लेकर आप देवी सुदेष्णाके नृत्यमन्दिरमें पहुँचिये’॥१४॥हे सैरन्ध्री! आप निर्भय रहिये, मैं उस कीचकका नाशकर डालूंगा। तब फिर रात्रिके समय कीचकने काम
मोहित हो॥१५॥ भक्ष्य, भोज्य लेकर नृत्य घरमें प्रवेश किया तब वहाँ खडेहुए भीमसेनने उसका हाथ पकड लिया॥१६॥
चौपाई
गहे भीम तब दोउ भुजदंडा।मल युद्ध तहँ भयउ अखंडा॥
++रि बल भीम ताहि महि डारा। चला पराय अधम हिय हारा॥
मोहि युधिष्ठिर भूप दुहाई। कीचक वधौं जियत नहिं जाई॥
पकरो भीम क्रोध करि धाई। गिरा बहुरि शठ ताल बजाई॥
दोउ महँ हार न कोऊ मानै। कोपि अमित गति युद्धहि ठानै॥
अति बल भीमसेन तब कीन्हा। पटक्यो भूमि कंठ पग दीन्हा॥
मारि दुष्ट प्राणन विनु कीन्हा। मूढ++य अवनि तब दीन्हा ॥
डारेउ भीम वहाँ बलवाना।परेउ अधम तनु श्रृंगसमाना॥
दोहा
मारि दुष्ट धरिखोहमें, मनकी व्यथा नशाय।
अर्द्ध निशा सुत पवनको, निज थल पहुँचो जाय॥
फिर महाबलवान् भीमसेनने पुष्पमालायुक्त उसके बाल पकडलिये। फिर भीमसरीखे वलवानोंमें श्रेष्ठयोधासेपराजित कीचकने॥१७॥ वेगसहित अपने वालोंको छुड़ाकर भीमसेनकी भुजा पकडली। उस काल क्रोधित नरसिंहोंके समान उनदोनोंका बाहुयुद्ध होनेलगाः॥१८॥ अथवा दो वलवान् बैलोंके समान परस्पर मिलनेसे उन दोनोंका अत्यन्त दारुण और घोर प्रहार होनेलगा॥१९॥ वा गर्वित व्याघ्रके तुल्य नाखूँन और दाढरूपी शस्त्रवाले दो मतवाले हाथियोंकी तरह तथा दो वनैले भैसोंकी तरह युद्ध होनेलगा॥२०॥ तब उस पराक्रमी कीचकने भीमसेनको पकड़लिया और उसने वलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेनको धक्केसे हटादिया॥२१॥ अनन्तर उन दोनोंकी बाहुओंका परस्पर शरीरपर आघात होनेपर दोनोंके शरीर मसलगये तब उस युद्धका भयानक शब्द बादलोंके गर्जनेकी समान होनेलगा॥२२॥फिर जिस प्रकार प्रचंड वायु वृक्षोंको कंपाय-
मान कर डालता है, उसीतरह भीमसेनने कीचककी कमरपर चरण प्रहार (लातमार) कर बलपूर्वक पकड़कर कंपित करदिया॥२३॥उस काल कीचक युद्धमें समर्थ होनेपरभी भीमसेनके मसलनेसे दुबला होगया और फिर खून उगलतेहुए कीचकको भीमसेनने भूमिपर डालदिया॥२४॥ किन्तु इतनेपरभी वेगसहित कीचकने उठकर भीमसेनको पकडलिया और भीमसेनने अबकी बारभी उसको नृत्यघरमें गिरादिया॥२५॥ तब उसके गिरनेके धमाकेसे वह घर वारंवार काँपनेलगा। फिर उस नृत्यघरमें बडा भारी उसका प्रतिशब्द अर्थात् झनकार शब्द होनेलगा॥२६॥फिर जिस प्रकार सिंह मृगको गिराकर डराया धमकाया करताहै, ऐसेही भीमसेनभी शिथिल (थके)हुए कीचकको भूमिपर पटककर सवेग धमकी बतानेलगे॥२७॥ फिर भीमसेनने गुस्सेमें भरकर समस्त टूटे फूटे अंगवाले और मरेहुए दुष्टात्मा कीचकके हाथ, पैर और मस्तक तोड मरोरकर शरीरमें प्रविष्ट करदिया॥२८॥ और उसके मांसका पिंड बनाकर देवी (द्रौपदी) के आगे निवेदन किया, फिर रक्तके द्वारा शिला पर इसप्रकार अक्षर॥२९॥ लिखे कि मैंने कीचकका वध कियाहै, यह करके भीमसेनने उसके गहने इकट्ठे करके॥३०॥ लेलिये और उनको मत्स्यराजके दरवाजेपर डालकर फिर अपने स्थानको चलेगये तब उन गहनोंको देखकर सब (नगरनिवासी) महान हाहाकार शब्द करनेलगे॥३१॥ रानी सुदेष्णा शोकसे संतप्त होकर करुणा करतीहुई रोनेलगी और लोकमें सब जनोंने यह बात प्रसिद्ध करी कि इस वीर कीचकको गन्धर्वोंने मारडाला॥३२॥ इसके पीछेसब कीचक और उपकीचकोंसमेत महाराजने भी आकर देखा, तो उनको मांसका पिंड दिखाई दिया॥३३॥ तदनन्तर महाराज विराटने न अ++रोंको देखकर
मन्द मन्द मुसकुरातेहुए कहा कि हे जनगण! आपलोग शिलापर लिखेहुए अक्षरोंको तो बाँचो कि इनमें क्या लिखाहुआहै?॥३४॥ तब वे सब जनेभी उन अक्षरोंको, बाँचकर धीरे धीरे मुसकुराये। फिर उसके सब भाइयोंने उस सैरन्ध्री (द्रौपदी) को अपने भाईके साथ जलादेनेके लिये शीघ्रतासे वनमें लेजाना चाहा, किन्तु द्रौपदीके चिल्ली पुकार मचानेसे भीमसेनने भयंकर रूप धारण पूर्वक(वहाँ पहुँचकर) सबको मारडाला॥३५॥॥३६॥ उस समय गुस्सेमें भरेहुए कालस्वरूप बल्लवने लीलापूर्वकही एकसौ पाँच महाबली कीचकोंका विनाश किया॥३७॥ तब (भीमसेनने) उन सब कीचकोंमें एक कीचककी जीभ तालुसे उखाडली, तब उस गूंगेने महाराजके पास पहुँचकर इशारेसे सारा हाल कहा॥३८॥ तब महाराज उस गूंगेकी बात चीत सुनकर हँसे और सब सभासदभी धीरे धीरे हँसनेलगे। गंधर्वोंने कीचकको आधीरातके समय विनाश किया॥३९॥ इसके पीछे यह सारा हाल सुनकर शकुनि दुर्योधनसे बोला कि, विराटके (साले) कीचकको गन्धर्वोंने वध किया॥४०॥ यह बात सुनकर सभामें बैठेहुए द्रोणाचार्यजीने इस प्रकार कहा कि प्रथम विधाताने यहीरचा होगा, क्योंकि ज्योतिषशास्त्रमें ज्योतिषियोंनेभी कथन कियाहै॥४१॥ कि महात्मा भीमके हाथसेही मतवाले कीचकोंकी तथा हिडिम्ब और बकासुरकी मृत्यु होगी॥४२॥सो पुरातन मुनियोंने भीमके हाथसे इनके मरनेकी बात सत्यही कही है, द्रोणाचार्य की यह बात सुनकर शकुनीने कहा॥४३॥ शकुनी बोले। हे स्वामी। आपकी आज्ञासे द्रोण और भीष्म आदि अनेक भाँतिके भोगोंको भोग रहेहैं, हे राजेन्द्र! यह सब दुष्टबुद्धि निरन्तर पांडवोंकी बात चीत किया करतेहैं॥४४॥
हे नृपश्रेष्ठ।वे पांडवलोग जाने वनमें कहाँ केकहाँ पहुँचगयेहोंगे, नष्ट होगये अथवा मृत्यु प्राप्तकर चुकेहोंगे यह द्रोण इत्यादि इसतरहसे वैरियोंकी बुडाई किया करतेहैं और आपके दोषोंका वर्णन करतेहैं॥४५॥ अथवा यदि दैवमोहित पांडवगण किसी स्थानमें टिकेहुए होंगे, तो मैं उनके जानलेनेका यत्न बताताहूँ॥४६॥ कि जिसके द्वारा वे जानलिये जाँयगे, और जानलेनेपर फिर उनको वनमें वास करना पडेगा, उनके प्रकट होजानेका मैं सब तरहसे अति उत्तम मन्त्र (सलाह) कहताहूँ॥४७॥ हे प्रभो! (वह उपाय यही है कि) आप विराटपुरीके निकट पहुँचकर गायोंको पकडिये यदि वे पांडव वहाँपर होंगे, तो गौ पकडलेनेके अवसरमें अवश्यही आनकर उपस्थित होंगे॥ ४८॥ हे नृपोत्तम! तब उन जानेहुए पांडवोंको बारहवर्षपर्यन्त फिर वनमेंही वसना पडेगा इसमें संशय नहीं जानना॥ ४९॥ कर्णने कहा हे महाराज! आपके बुद्धिमान मामाने बडी सुन्दर बात कही। हे सुयोधन!आप उन पांडवों को जाननेके निमित्तवहाँ गोग्रहण कीजिये॥५०॥ कर्णकी यह बात सुनकर भीष्मजीने कहा यदि आप मेरी सलाह पूछना चाहतेहैं, तो ऐसा काम नहीं करना चाहिये॥५१॥
वीराणां क्षत्त्रियाणाञ्च हीदं कर्म न युज्यते॥
गोग्रहं नैव कुर्वन्ति चोराः पल्लीनिवासिनः॥
आगमिष्यन्ति वे तत्र युद्धाय पालने गवाम्॥५२॥
यह काम वीर क्षत्रियोंके करनेलायक नहीं, क्योंकि इस काम करनेमें उनकी शोभा नहीं होती। इसके अतिरिक्त गौओंको तो पल्ली निवासी भील जाति के चोरभी ग्रहण नहीं
किया करतेहैं बरन वे इस जगह गौओंका पालन करनेके निमित्त युद्ध करनेको आवेंगे॥५२॥
चौपाई
तातैं शान्त रहिय कुरुराई। और दूसरो कर उपाई।
इति श्रीभारतसारे विराटपर्वणि भाषायां चतुश्चत्वा-
रिंशोऽध्यायः॥४४॥
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पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ४५.
पञ्चचत्वारिंशत्तमे मालिका++ड्डबोधनम्॥
शर्मणा विराटस्य समरश्चेति कथ्यते॥१॥
इस पैंतालीसवें अध्यायमें मालीसे पांडवोंका जानना और शर्माके साथ महाराज विराटका संग्राम यह कथा कही जातीहै॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
इति भीष्मवचः श्रुत्वा पुनः शकुनिरब्रवीत्।
शकुनिरुवाच।
वृद्धानां पंडितानाञ्च गृहे वासस्तु युज्यते॥१॥
वैशम्पायनजी बोले, हे जनमेजय! भीष्मजीकी यह बात सुनकर शकुनीने फिर कहा। शकुनी बोला कि बूढे और पंडित आदमियोंको घरमें रहना उचित है॥१॥ क्योंकि वे लोग सभा और घरमें अनेक अद्भुत बातें कियाकरतेहैं। और युद्ध सम्बन्धी बातें तो शूरों कोभी भयंकरहैं॥२॥ शकुनीकी यह बातसुनकर वहाँ जो आदमी स्थित थे, वे सब इसप्रकार अनेक सलाहै जानकर महाराज दुर्योधनसे कहने लगे॥३॥ कि हे महाराज! पहले आप हमारी बात सुनकर पीछे यह काम कीजिये अर्थात् प्रथम पांडवोंको देख आनेके लिये अपने किसी दूतको
भेजदीजिये॥४॥ वह दूत (जिस समय) पांडवोंको जानकर यहां लौट आवे, फिर हम सबको सोच विचारकर यथोचित काम करना चाहिये॥५॥ उन सबकी यह बातें सुनकर धर्मात्मा पुरुषोंमें उत्तम भीष्मजीने एक मालीको बुलाकर इस तरह कहा॥६॥ हे माली! जिस स्थानमें पांडव रहतेहैं, वहाँ आप दूत बनकर चलेजाइये। मालीने उत्तर दिया कि हे भीष्मदेव।मैं उन पांडवोंको किस तरहसे जानूँगा? और वे पांडव कहाँ टिके हुएहैं?॥७॥ भीष्मजीने कहा हे माली! जिस देशमें सुकाल हो, पत्र पुष्पोंकी उत्तम वृद्धि, इच्छानुसार मेघोंकी वर्षा, बहुत ++यावाले पेड॥८॥ सर्व दोषहीन बहुतसे पेड फूल और फलोंसे लदरहेहों, और ब्राह्मण लोग अग्निहोत्र तथा वेदशास्त्रोंके पढने पढानेमें निरत रहतेहों॥९॥ गायें बहुत दूध देनेवाली और सारे आदमी अपने अपने धर्ममें तत्पर हों, और जहाँके आदमी दुःख दरिद्रहीन होकर निरन्तर मुदित (प्रसन्न) रहते हों॥१०॥ जहाँ घर घरमें महा महोत्सव दिखाई देवे, जिस देशमें ऐसे चिह्न (लक्षण) हों, उसी देशमें (आप) महाराज युधिष्ठिरका रहना जानलेना॥११॥ क्योंकि जिस स्थानमें महाराज युधिधिर वास करतेहैं, वहाँ ऐसे चिह्न हुआकरतेहैं। हे माली! आप दुर्योधनके इस कामको करही दीजिये॥१२॥ मालीने भीष्मजीकी उस आज्ञाको ग्रहण करके मस्तकपर धारण किया और फिर शीघ्रतासे विराटके नगरको चलागया॥१३॥ और वहाँ पहुँचकर भीष्मजीने जो कुछ कहाथा, सो सब देखा, तथा पग पग पर उसको गीत और बाजोंकी ध्वनि सुनाई दी॥१४॥ बहुतसे सुन्दर महलोंसे शोभायमान उस विराट नगरको देखा और फिर नगरके दरवाजेमें घुसकर महाराज विराटके मन्दिरको गया॥१५॥ और इस दूतने वहाँ सभामें महाराज युधिष्टिरका
दर्शन किया कि उस सभामें कंकब्राह्मणके रूपसे युधिष्ठिर विराजमान हैं॥१६॥
चौपाई
मालि देखि शुभ++ला दीन्हा। धर्मराज अति विस्मय कीन्हा॥
तब उस मालीने चिकित्सा करी और सुन्दर माला प्रदान की।उसको देखकर महाराज युधिष्ठिर बडे अचंभेमें होगये। तब उस मालीने राजा युधिष्टिरको पहचानकर फिर भीमसेनका भी दर्शन किया॥१७॥ जो कि रसोइयेका वेशबनायेहुए विराटकी महान् पाकशालामें स्थित थे। इसके पीछे कन्याओंको नचानेवाले बृहन्नटका रूप धरे अर्जुनकाभी दर्शन किया॥१८॥ फिर गौ और घोडोंकी रक्षामें नियुक्त नकुल सहदेवको देखा, और रानी सुदेष्णाके यहाँ सैरन्ध्री रूप धारण करके रहनेवालीद्रौपदीकाभी दर्शन किया॥१९॥ इस तरह पांडवोंको देखकर वह माली लौट आया और उसने हस्तिनापुरमें पहुँचकर सभाके बीच बैठेहुए महाराज दुर्योधनसे कहा॥२०॥ माली बोला। हे नृपोत्तम! मैंने चारों भाइयों समेत महाराज युधिष्ठिरका दर्शन कियाहै, इसमें जो बात मैंने भूलसे कहीहो, उसको आपक्षमा कर दीजिये॥२१॥ हे नराधिप!जिस देशमें पांडव टिकेहुए हैं, वहाँ आप नहीं जासकतेहैं, क्योंकि राज्यकी तो बात अलग रही वहाँ जानेसे वे आपके प्राणभी हरलेंगे॥२२॥उसकी ऐसी बातें सुनकर राजा दुर्योधनने कोप करके कहा कि हमको यह शठ सभामें आकर वैरीसे डराताहै, इस कारण इस मालीकोबाँधना और ताडना (प्रहार) करना चाहिये। इसके पीछे दुर्योधनने अपनी सारी सेना वहाँ भेजी और फिर सुशर्माको बुलाकर यह आज्ञादी॥२३॥२४॥
चौपाई
कहोसुशर्मा सो++नृप ऐसे। जो मैं कहूँ करो तुम वैसें॥
संग लेहु सब सैन सुहाई । रोको नृप विराटकी गाई॥
भूपति अमित सैन संग दीन्हो। बिदा वेगि तेहि अवसर कीन्हो॥
गमनी संग चमू चतुरंगा। उठी धूरि छिपगयो पतंगा॥
चली सेन को वर्णै पारा। वाजे गोमु++शं नगारा॥
झाँझ ढोल अरु भेरि सुहाई। मारू राग ++हित सहनाई॥
दोहा—चली चमू चतुरंगिनी, गज तुरंगके यूथ।
रथी, महारथि, अतिरथी, सुभट पदाति वरूथ॥
दुर्योधन बोला हे सुशर्मा! आप चतुरंगिनी सेनाको संग लेकर शीघ्र चले जाइये और विराट नगरकी दक्षिण दिशामें टिककर॥२५॥ दुष्टका गोधन ग्रहण करके नष्ट (तितर बितर) कर दीजिये अथवा गोधन छीन लो और दुष्टोंका नाश, करो। फिर दूसरे दिनमें भी गोधन ग्रहण करनेके लिये उत्तर दिशामें आपहुँचूँगा॥२६॥इस तरह आज्ञा देकर सुशर्माको गोग्रहण करनेके निमित्त भेजा। और वह सुशर्मा विराटनगरको आया॥२७॥ किन्तु प्रस्थान करनेके समय उसको बहुत वुरे वुरे शकुन दिखाईदिये इस भाँति चतुरंगिनी सेनासमेत उस तेजस्वी॥२८॥ महाराज सुशर्माने दक्षिणदिशामें गोधनको ग्रहण किया, तब (यह देखकर) गोपाललोग विराटनगरमें गये॥२९॥
चौपाई
ते नरेश पहँच जाय पुकारे। धेनुवृन्द हर गये तुम्हारे॥
सेना पति पठवहु बलदाई।शत्रु जीतगौलेइ छुडाई॥
गोधन हरो सुशर्मा आई। उठि नरेश चलि ले छुड़ाई॥
जो न नरेश होहु असवारा। तोनहिं गोधन मिलहि तुम्हारा॥
और न सकहि सुशर्महि जीवी। सुनु नरेश मन मान प्रतीती॥
दोहा
क्रोधित ह्वैभूपति कह्यो, सेनापती बुलाय।
जाहु सुशर्मा वीरसों, सुरभी लेहु छुडाय॥
और वडी शीघ्रताके साथ महाभयंकर कोलाहल मचातेहुए
कहनेलगे कि हे राजन्!सुशर्माने सारा गोधन छीन लिया और बहुत सारे गोपालों कोभी मारडाला॥३०॥ उनकी यह बात सुनकर महाराज विराटको बडा अचंभा आ, और फिर राजा विराटने कहा कि (इस समय) विराटनगरमें जो रणशूरयोधा उपस्थित हैं॥३१॥ वे सब मेरी आज्ञानुसार विना विलम्ब (अभी) लड़नेका निश्चय करके अग्रसर हों अपनी अपनी सेना समेत निकल खडेहों॥३२॥ इस प्रकार कहनेपर मदगर्वित बलशाली योधा विराटनगरसे निकले॥३३॥ उस समय आठ हजार रथ, एक लाख घोडे, (सवार) और सुवर्ण घंटोंसे शब्दायमान दश हजार हाथी॥३४॥ और अनगिन्त पैदल शीघ्रतासे निकले।फिर महाराजने कंकके निमित्त सफेद पताका और सफेद वाहन समेत रथ अर्पण किया॥३५॥ तब कंक महाराजसे यह बोले कि हे नृपोत्तम ! आप एक रथ संग्रामशोभी वल्लववको भी देदीजिये॥३६॥ क्योंकि इस बल्लवने प्रथम कई युद्धोंमें अनेक वीरोंको भग्न (न) कियाहै कंककीयह बात सुनकर महाराजने कहा अच्छा यही हो॥३७॥ तब बल्लव कोभी सारथी और घोडोंसमेत एक (उत्तम) रथ दियागया। और फिर महाराज विराट महान् क्रोधयुक्त हो सेनासहित निकले॥३८॥ उस काल (रण) दुन्दुभी तथा शंखोंके भयंकर शब्दसे सब पृथ्वी काँपनेलगी और धूरिने भगवान् सूर्यको छिपादिया॥३९॥ और महाराज विराटके प्रस्थानकालमें (चारों तरफ) अंधकार होगया वहाँ गोधनको अगाडी किये हुए सुशर्मा ठहरा हुआहै॥४०॥ इसके पीछे संग्राम करनेके निमित्त योधाओंको सन्नद्ध (तैयार) देखकर दोनों सेनाओंमें भय उपजानेवाला संग्राम होनेलगा॥४१॥
चोपाई
गाजत गज हींसत हैं घोरा। दुन्दुभि भेरि नाद अति शोरा॥
शंखनाद पूरे+++ब कोई। मारु मारु सब द महँ होई॥
द्वन्द्व घंट ध्वनि अति ठहनाई। मारू राग सहित सहनाई॥
बाजत सेन सेनपर डंका।वर्णि बन्दि जन कहत अतंका॥
द्विरद यूथ देखत अति भारी। भाँदों जलद घटा जनु++री॥
रथ ठट्टके भूमि सब++ये। परै न भूषर तिल छिटकाये॥
अन्ध धुन्ध रण भयउ भयंकर। नाचत हँसत लेत शिर शंकर॥
कट कटाहिं जम्बुक रण धावहिं। पियहिँ रुधिर पल नाहिं अघावहिं॥
गिद्ध आदि पक्षीगण धाये। रण महँ भये तृपित मनभाये॥
उठहिं कबन्ध मुंड विनु धावहिं। धरु धरु मारु मारु गोहरावहिं॥
दोहा
भैरव भूत पिशाच सब, गावत कार कार हेत॥
नाचत चौंसठ योगिनी, रुधिर पियत युत प्रेत॥
घोर आघात पहुँचानेवाले खड्गअत्यन्त दारुण मुद्गर, और भाँतिभाँतिके आकारवाले बाणोंसे भयंकर युद्ध होनेलगा॥४२॥ पैदलसे पैदल, रथीसे रथी और सवारसे सवार लडनेलगा तथा हाथीपर बैठेहुए नायक हाथीवालोंसे लड़नेलगे। इस प्रकार बराबर द्वन्द्वयुद्ध होनेलगा॥४३॥ महाराज विराट और सुशर्मा आपसमें संग्राम करनेलगे। तब उस सुशर्माने एक बाणसे महाराज विराटको मारा॥४४॥ इसके पीछे बलवान सुशर्माने एक एक बाण द्वारा घोडोंको गिरादिया, और फिर एक बाणसे सारथीकोभी पृथ्वीपर डालदिया॥४५॥तब महाराज विराटको मूर्छित अवस्थासे पृथ्वीपर पडा हुआ देखकर महावीर सुशर्माने उनको रथमें डाललिया॥४६॥ और फिर गोधनको आगे करके धीरे धीरे जाने लगा, तव महाराज विराटकी सेनाभी अनाथ होकर नगरकी तरफ॥४७॥ भागनेलगी, उसको देखकर भीमसेनने
महाराज युधिष्ठिरसे कहा कि हे धर्मराज! मैं आपकी आज्ञाके विना कुछभी नहीं करसकताहूँ॥४८॥
अनेन निर्जितः स्वामिन्विराटः शत्रुणा नृपः॥
विलम्बो नात्रकर्त्तव्यो ममाज्ञा दीयतां प्रभो॥
विराटं मोचयित्वा तु गोधनं च हराम्यहम्॥४९॥
हे स्वामिन्! इस वैरीने महाराज विराटको जीतलिया है, अत एव हे प्रभो! विना विलम्ब मुझको आज्ञा दीजिये। जिससे मैं महाराज विराटको छुडाकर गोधन भी छीनलूँ॥४९॥ इति श्रीभारतसारे विराटपर्वणि भाषायां विराटमूच++कथनं नामपञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः॥४५॥
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षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ४६.
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षट्चत्वारिंश अध्याये सुशर्मणः पराजयः।
++यो भीमस्य युद्धाच्च नृपमोचनमुच्यते॥१॥
इस छियालीसवें अध्यायके बीच संग्राममें सुशर्माकी हार और भीमकी जीत तथा महाराज विराटकां छूटना यह कथा कही जाती है॥१॥
वैशंपायन उवाच।
इत्युक्ते भीमसेने तु धर्मो वचनमब्रवीत्।
धर्म उवाच।
गता गावो विराटश्चनीयते शत्रुकर्षण॥१॥
वैशम्पायनजी बोले हे जनमेजय। भीमसेनके इस प्रकार कहनेपर धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा। धर्मराज बोले। गायें तो चली गईं और हे शत्रुकर्षण! अब महाराज विराटकोभी लिये जातेहैं॥१॥ अत एव महाराज विराट प्राप्तकरने योग्य हैं,
अर्थात् उनको छुडालाना चाहिये, इस काममें आप आज्ञाकी प्रतीक्षा क्या कर रहेहैं! क्योंकि जिसका अन्न खाया है, और जिनके यहां बहुत दिनों तक रहे हैं॥२॥ उनकी मन, कर्म वचनसे भलाई करनी चाहिये और तेरहवाँ (अज्ञातवासका) वर्षभी बीतगया, बरन इसके ऊपर ++दिन औरभी बीत गये॥३॥ अत एव हे भीमसेन! अब आप समरमें अपनी इच्छानुसार संग्राम करसकतेहैं, तब धर्मराज युधिष्टिरकी यह आज्ञा मिलनेपर भीमसेन अत्यन्त हर्षित हुए॥४॥ और फिर उन्होंने वैरीको भय उपजानेवाला सिंहनाद (सिंहकी तरह गर्जन) किया, और तब रथको छोड़कर सुशर्माकी तरफ (भीमसेन) दौडपडे॥५॥ इसके पीछे उन्होंने सरलका पेड उखाडकर हाथीपर प्रहार किया और फिर हाथीके मारनेपर उस वृक्षका चकनाचूर होगया॥६॥ तत्पश्चात् लम्बी भुजावाले भीमसेनने हाथीके द्वारा हाथी, रथके द्वारा रथ और घोडोंके द्वारा घोडोंको पृथक पृथक मारा ॥७॥इस तरह समरमें कोप करतेहुए भीमसेनने अर्द्ध पलमें उसकी (सारी ) सेनाका निपात किया और फिर तत्क्षण सुशर्माके निकट जापहुँचे॥८॥ तब बडी भुजावाले सुशर्मानेभी धीरे धीरे बाणोंद्वारा भीमसेनको ताडन किया, उस समय यद्यपि भीमसेन बाणोंद्वारा भस्म शरीर होगये, अर्थात् शरीर छिन्न भिन्न होगया किन्तु तथापि उन्होंने शीघ्रतासे उसके रथको पकड लिया॥९॥ और फिर उसके रथको अपने मस्तकपर घुमाकर भूमिपर पटक दिया, इससे उस रथका चकनाचूर होगया और सुशर्मा व महाराज विराट॥१०॥ दोनोंजने रथसे दशदशकोशकी दूरीपर जाकर गिरे। तब गिरनेसे अत्यन्त घबरायेहुए सुशर्माके बाल पकडकर भीमसेन॥११॥ महाराज युधिष्ठिरके सन्मुख लेआये, और उसका शिर काटनेको
तैयार हुए। तब सुशर्मा युधिष्ठिरसे इस प्रकार कहनेलगा॥१२॥ सुशर्मा बोला। हे नृपोत्तम! आप भीमसेनके यमकी समान उद्योगसे मेरी रक्षा कीजिये अर्थात् इनके हाथसे मेरे प्राण बचाइये, मैं फिर कभी क्षत्रियोंके पक्षमें अनुचित ऐसा काम नहीं करूंगा॥१३॥
दोहा
त्राहि त्राहि हि टेर++गाई। मोहि बचाय ले++नृपराई॥
दास जानिकै मोकहँ छोडो। दयाकरनसों मुँह मति मोडो॥
जीव दान प्रभु अब मुहिं दीजे। अपनो बिरद राखि नृप लीजे॥
तुम हो कृपासिन्धु अनुगामी। बार बार तव चरण नमामी॥
हे कृपासागर! मुझको अपना दास समझ कर छोडदीजिये। हे दयानिधे! (आपकी शरण हूँ) युधिष्ठिर बोले भो भो महाबाहु भीम! अब आप इस सुशर्माको छोडदीजिये॥१४॥ क्योंकि हम लोगोंका जामात्र (जमाई) है, इसलिये वधकरडालनेयोग्य नहीं है। भीमसेन ने कहा हे धर्मनन्दन! मैं अपने इस जमाईकी केशहानि करूँगा अर्थात् इसके बाल मूडूँगा॥१५॥ ऐसा होनेपर इसके सब साले हँसी उडावेंगे, इस तरह कहकर भीमसेनने खड्गद्वारा सुशर्माके॥१६॥ मस्तक और दाढीके बाल आधे आधे मूंडडाले, यद्यपि युधिष्ठिरने इस काममें निषेध (मना) किया, किन्तु तोभी भीमसेनने इस तरह पर सुशर्माका अर्द्ध मुंडन करही डाला॥१७॥ इसके पीछे सुशर्मा मनमें उदास हो कुरुदेशको चलागया, उसके चलेजाने पर वीर भीमसेनने धर्मराज युधिष्ठिरकी आज्ञानुसार अचेत (बेहोश) विराटको॥१८॥ अपने रथमें लिटाय लिया और गोधनको अगाडी करलिया, इसी बीचमें महाराज विराटकी मू++दूर++ तब वे++गगये॥ १९॥
कंकञ्च वल्लवं चाथ ददर्श स्वरथोपरि।
ततो विराटः स्वाधे संविश्य च जगर्ज च।
सर्व बलं जितं सम्यक् प्रस्थितः स्वपुरं प्रति॥२०॥
और उन्होंने अपने रथपर कंक तथा वल्लवका दर्शन किया, तब महाराज विराट अपने रथमें प्रविष्ट होकर गर्जने लगे। कि मैंने सम्यक प्रकारसे सारी सेनाको जीत लिया। इस तरह कहकर अपने नगरकी ओरको चलदिये॥२०॥
चौपाई
संग लिये सब निजकटकाई। चले महोपति शंख बजाई॥
विजय बाजने बाजनलागे। याचक इन्द्र खडे नृप आगे॥
विविध दान तिनको नृप दीन्हा। पुनिनिज नगरगवन प्रभु कीन्हा॥
इति श्रीभारतसारे विराटपर्वणि भाषायां भीमपराक्रमे दक्षिणगोग्रहो नाम षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४६॥
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सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ४७.
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सप्तचत्वारिंशत्तमे गोपूत्तरविकत्थनम्।
अर्जुनस्य च शूरत्वं मार्गे गमनमुच्यते॥१॥
इस सैंतालीसवें अध्यायमें गोग्रहण होनेपर उत्तर कुमारका विकत्थन और अर्जुनका शूरत्व (पराक्रम) तथा मार्गमें गमन यह कथा कहीजातीहै॥३॥
वैशम्पायन उवाच।
शृणु राजन्विचित्रं तमर्जुनस्य पराक्रमम्।
यं श्रुत्वा शूरदेहेषु रोमहर्षश्चजायते॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे जनमेजय! अब आप अर्जुनके उस अद्भुत पराक्रमकी कथा सुनिये। जिसके सुननेपर शूर व्यक्तिका शरीर हर्षके मारे रोमाञ्चित होजाताहे॥१॥ तत्पश्चात राजा
दुर्योधन, भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और सारी सेनाके साथ उत्तर दिशामें गये॥२॥ और वहाँ पहुँचकर उन्होंने सारी गायोंको हरण करके बहुतसे गोपालोंको मार डाला। तब मरनेसे बचेहुए गोपाल विराट नगरमें गये॥३॥ और उस समय उन्होंने महात्मा विराटकी पुरीको सूनी देखकर वहाँसे डरके मारे घबरायेहुए राजभवन (रनवास) में प्रवेश किया॥४॥ हे महाराज जनमेजय! वहाँ वे लोग बडे ऊंचे स्वरसे पुकार करते हुए कहनेलगे कि हे मातः! हमारे गोधनको दुर्योधनने उत्तर दिशामें छीनलिया और बहुत सारे गोपालोंकोभी मारडाला॥५॥ महारानी सुदेष्णा उनकी यह बात सुनकर उत्तर दिया मार और सारी स्त्रियोंसमेत बाहर निकलआई॥६॥ उस समय उत्तर कुमारने अपनी महतारी सुदेष्णासे इस प्रकार कहा कि महाराज विराटने सारी सेनाको जीता और अपने गोधनकोभी पुनः उनलोगोंसे छीन लियाहै ॥७॥तब फिर यह गोपाललोग ऐसी भयंकर चिड्डीपुकार किसलिये मचारहेहैं? यह सुनकर सुदेष्णाने उत्तर दिया कि हे पुत्र! आपके बलवान् पिता तो दक्षिणदिशामें गयेहैं॥८॥ वहाँ उन्होंने सारी सेनाको जीतकर अपना गोधन भी पीछा लेलिया, किन्तु हे पुत्र! यह दुर्योधन भी उसीतरह उत्तर दिशामें आयाहै॥९॥ सो यह महाबली, बडे शरीरवाला, पृथ्वीतलपर अजेय (अजीत) राजा दुर्योधन हमको बलात्कार परास्त करके राज्यको भोग करेगा॥१०॥ किन्तु तोभी क्षात्रधर्मके अनुसार यहाँ ठहरे रहनेका विचार नहीं करना चाहिये। हे उत्तर कुमार! इस अवसरमें हमारी यह पुरी सूनी पंडीहै, अत एव आप क्या करेंगे?॥११॥ मइयाकी यह बात सुनकर उत्तरने उत्तर दिया। उत्तरने कहा। हे माता! आप अपने मनमें धीरज कीजिये। मैं अपना पौरुष (पराक्रम)
दिखाऊंगा॥१२॥मैं रणाङ्गन (युद्धस्थल) में कौरवोंकी सारी सेनाको विजय करूंगा इस तरह कहनेपर ध्रुवस्थानके गीदडोंने॥१३॥शब्द किया। तब उस उत्तरने जयशब्द किया और उस गर्वित बालक उत्तरने मातासे कहा॥१४॥
चौपाई–कौतुक समर देखियो मोरा। रिहौंब++कहत हौं थोरा॥
सर्वसैन्यको इकला मारूं। शीश तोर गहि भुजा उपारूं॥
मोरे रथ नहिं सारथि माई। याही तैं मम जिय घबराई॥
जो मेरो रथ हाँकै कोई।कौरव जियत न छाँड हुँ कोई॥
दोहा– द्रुपद सुता यह बात सुनि, अर्जुनतैं अकु++य।
कह्यो बृहन्नटकुँवरका, तुम रथ हाँ कोजाय॥
उत्तरने कहा। हे मइया! मेरे सामने युद्धमें यह भीष्म द्रोणादि कितने हैं? मैं रणाङ्गनमें अकेलाही सारे कौरवोंका नाश करडालूँगा॥१५॥किन्तु एक मात्र मुझको रथ चलानेबाला कोई सारथी दिखाई नहीं देता, उत्तरकुमारकी यह बात सुनकर सैरन्ध्रीने (द्रौपदी) बोली॥१६॥ सैरन्ध्रीने कहा। प्रथम में इस बृहन्नटको सारथीके रूपमें देखचुकी हूँ। मालिनीकी यह सुन्दर वात सुनकर उत्तर कुमार अत्यन्त आनन्दित हुए॥१७॥ और बोले कि उस वृहन्नटको शीघ्रही बुलाय दीजिये जिससे कि मैं गोहरणके स्थानपर जल्दीसे पहुँच जाऊं! तब उनके बुलानेपर वे बृहन्नटभी तत्काल आनकर उपस्थित हुए॥१८॥ उस काल उत्तरने अत्यन्त आदर मान करके बृहन्नटसे कहा हे वीर! यदि आप महा संग्राम मेरनेके लिये सारथीका काम करनेमें निश्चल होजावें॥१९॥ तो मेरे घोडोंको बहुतही शीघ्र चलावें जिससे मैं विना विलम्ब गोहरणके स्थानपर जाऊँ,और उन सारे कौरवोंको परास्त (जीत) कर अपने गोधनको छीन लाऊँ!॥२०॥बृहन्नट बोले। हे राजकुमार! यह
बात तो सैरन्ध्रीने सच्ची कही कि मैं सारथीका कर्म (रथचलाना) जानताहूँ, किन्तु (इतनी शंका है) कि रथको बिना चलाये मुझको बहुत दिन बीत चुकेहैं॥२१॥ किन्तु तोभी गायोंके निमित्त आपके रथको चलाऊँगा क्योंकि बालक, बूढे, शव, स्त्री, दुःखीजन और रोगयुक्त इनके निमित्त॥२२॥ और गाय तथा ब्राह्मणके निमित्त समय क्या करेगा? बृहन्नटकी यह बात सुनकर उत्तरने कहा॥२३॥हे बृहन्नट! अब आप शीघ्रतासहित मेरे वाहु की समान दृढ (मजबूत) रथको ले आइये और जो घोडे सर्वोत्तम हों, उनको मेरे रथमें जोतदीजिये॥ २४॥ और फिर उस रथमें जल्दीसे सब अजाउ शस्त्रोंकोभी रखदीजिये तो यदि सनातनधर्म है तो मैं उनके द्वारा कौरवोंको जीतलूँगा॥२५॥ उनकी यह बात सुनकर वह बृहन्नट बहुत आनन्दित हुआ और फिर उसने (बहुत अच्छा) कहकर उत्तर कुमारकी आज्ञानुसार काम किया॥२६॥ इसके पीछे हंसवर्ण (सफेद रंग) उक्त, कुलीन, सुवर्णकी किंकिणीद्वारा शोभायमान घोडे अर्जुनका दर्शन करके अत्यन्त हर्षित हुए॥२७॥ फिर अर्जुन बडे सुन्दर रथको सजाकर उत्तरके समीप ले आये और फिर वहाँ उत्तरकुमारसे कहा कि अहो उत्तरकुमार! अब आप इस घोडेजुतेहुए रथमें आबैठिये॥२८॥ अर्जुनकी यह बात सुनकर उत्तरकुमार ज्योंही रथमें बैठनेलगे कि त्योंही उनकी छोटी बहन बाला उत्तराने आनकर कहा॥२९॥ हे भाई! आप मेरे खेलनेके लिये उत्तमोत्तम व लाने योग्य हैं, जो हो! अब आप वैरियोंपर विजय प्राप्तकर विजयलक्ष्मीसे युक्त होकर आइये॥३०॥ उसकी यह बात सुनकर उत्तरकुमारने अपनी माताको प्रणाम किया और मइयाके निवारण (मना) करनेपरभी वे नगरके बाहर निकले॥३१॥ इस तरह नगरसे निकलनेके समय बाँई
तरफसे गधेके रेकनेकी आवाज आई और रथ चलनेपर उसके दाहिनी तरफ मृग आगये॥३२॥
चौपाई
शकुन देखि नृप हर्षित भयऊ। बृहन्नटासों पुनि अस हेऊ॥
रथ हांकहु दुर्योधन आगे। अब विलम्ब होवे केहि लागे॥
निश्चय विजय हमारी ह्वैहै। पावन यश त्रिभुवनमें छइहै॥
इन सब शकुनोंको देखकर राजकुमार उत्तर बहुत प्रसन्न हुए और फिर वे अपनी जीत होनेका निश्चय करके बृहन्नटसे कहनेलगे॥३३॥हे सारथे! आप मेरे रथको शीघ्रतासे वहाँ लेचलिये, जहाँ राजा दुर्योधन स्थित हैं। तब रथके वेगसे आगे कौरवोंकी बडी भारी महान् सेना दिखाई दी॥३४॥ अर्जुन और उत्तरकुमारने अनेक छत्रोंसे युक्त और अपने अपने चिह्नों द्वारा अलंकृत और बडी बडी पताकाओंसे शोभायमान सेनाका दर्शन किया॥३५॥ उस काल रणधौंसोंके शब्द द्वारा, हाथियोंके बढतेहुए शब्दद्वारा घोडोंके हींसने तथा रथोंकी धुरीके शब्द द्वारा॥३६॥और योधाओंके सिंहनादसे पृथ्वीको कम्पायन करनेवाला शब्द होनेलगा। इसतरहका भयंकर शब्द सुननेपर उत्तरकुमार घबराकर कहनेलगा॥३७॥
चौपाई
सारथिसन उत्तर कर जोरा। ले चलु भागि भवन रथ मोरा॥
बार बार तेहि विनय बखानी। एकौ बात न सारथि मानी॥
उत्तरने कहा हे बृहन्नट! आप अब इस पवनवेगवाले रथको और मुझको थामलीजिये क्योंकि मैं रणमें कौरवोंके संग युद्ध नहीं करसकूँगा॥३८॥ यह राजपुत्र महावीर, महाबली और महापराक्रमी हैं, इनके अतिरिक्त भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य और रविनन्दन (कर्ण)॥३९॥ इन सबमें एक एक जनाही मुझको पलभरके वीच मारसकताहै, अतएव यदि आप मेरा जीवित रहना चाहतेहैं, तो शीघ्रही मेरे रथको हटालीजिये॥४०॥ तब
हे बृहन्नट! मैं घर पहुँचकर आपको बहुत सारा धन दूँगा। बृहन्नटने उत्तर दिया कि हे राजकुमार! ऐसी बात क्षत्रीयोधाके कहनेयोग्य नहीं है॥४१॥ क्योंकि जो व्यक्ति गौ लेजानेवाले आदमीके निकटसे भागता है, वह घोर नरकमें चलाजाताहै और आजीवन उसकी निन्दा हुआ करतीहै॥४२॥ गौ लेजाने वालोंके निकट और शरणागत व्यक्तिको बचानेके निमित्त तो संग्राम करना उचित है, भागजाना ठीक नहीं है॥४३॥ क्योंकि यदि वे जीतगये, तो उनको लक्ष्मी मिलतीहै, और यदि रणमें जूझ (मर) गये, तो देवांगना प्राप्त होतीहैं यह शरीर तो क्षणभंगुर है अर्थात् जरा देरमें नाश होजाताहै, तब फिर युद्धमें मरजानेका क्या सोच है?॥४४॥ इसके अतिरिक्त जिस समय संग्राम हुआकरताहै, उस काल स्वर्गीय दरवाजोंके किवाड खुलजाया करतेहैं, और यशरूपिणी अप्सरायें हाथमें वरमाला लियेहुए रणस्थल (रंगभूमि) पर नाचती रहा करतीहैं, प्रारब्धके वश हो संग्राममें बचजानेवाले व्यक्तिके यहाँ जीवित रहनेका यही फल है, अत एव कौन पण्डित पुरुष संग्राममें पहुँचकर फिर पीठ दिखाया करता है? अर्थात युद्धसे विमुख हुआ करताहै॥ ४५॥ सूर्यमण्डलको भेदन करनेवाले इस लोकमें दोही आदमी हैं, एक तो योगकरनेवाला संन्यासी और दूसरा सम्मुख युद्धमें प्राण त्याग करनेवाला॥४६॥ वैरियोंके द्वारा घिरजानेपर शूरवीर जिस जिस स्थानमें प्राणत्याग करतेहैं, उन्होंने यदि कायर हिजडोंकी तरह बात नहीं करी है, तो वे अक्षय लोकको प्राप्त होतेहैं॥४७॥
ज्येष्ठपुत्रो विराट शूरः शोभन उत्तरः।
कौरवैरथ संग्रामं कुरुष्वं निर्भयः स्थितः॥ ४८॥
और फिर आप तो उत्तम शूर वीर महाराज विराटके ज्येष्ठपुत्र उत्तरकुमार हैं, अत एव आप खडे होकर कौरवोंके साथ
निर्भय युद्ध कीजिये॥४८॥ इति श्रीभारतसारे विराटपर्वणि भाषायाम++नवाक्यं नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः॥४७॥
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अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः ४८.
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अष्टचत्वारिंशत्तमे कुरूणां पार्थकीर्त्तनम्।
परस्परं विवादश्चतेषामेव स++थ्यते॥ १॥
इस अडतालीसवें अध्यायमें कौरवोंमें पार्थ (अर्जुन) का कीर्त्तन और उनके बीच आपसमें विवाद (झगडा ) होना, यह कथा कही जातीहै॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
इत्यर्जुनवचः श्रुत्वा उत्तरो वाक्यमब्रवीत्।
उत्तर उवाच।
वीरमुख्यां युद्धवार्त्तां जानासि त्वं बृहन्नट॥ १॥
वैशम्पायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय! अर्जुनकी यह बातें सुनकर उत्तर कुमार कहनेलगे, उत्तरने कहा कि हे बृहन्नट! आप वीर प्रधान युद्धकी वार्त्ताके जाननेवालेहैं॥१॥ किन्तुआप तो नपुंसक होनेके कारण गाने बजाने और नाचनेमें चतुर हैं, मुझको न तो गायोंसे काम है और न कुछ दुर्योधनसेही मतलब हैं॥२॥ यदि मैं मट्ठा पीकर भी जीवित रहजाऊंगा, तो गोधनको पुनः प्राप्त करलूँगा, क्योंकि पण्डित जनको जिस किसी प्रकारसे अपनी रक्षा करनी चाहिये \।\।३\।\। अत एव अब शीघ्रही मेरे रथको विराट नगरकी तरफ फेरिये। यदि आपको अपनी जान प्यारी मालूम होती हो, तो शीघ्र मेरे कहनेके अनुसार काम कीजिये॥४॥ फिर वहाँ इस तरह कहतेहुए अर्जुन और उत्तरकुमारने तथा कौरवपक्षीय सेनाने परस्पर
देखा॥५॥ यह जो नारीरत्न और नरस्वरूप रथमें बैठाहुआ दिखाई देरहाहै, सो यह कौन है? और किस जगहसे आयाहै? इस प्रकारका सारे कौरवोंको अचंभा हुआ॥६॥ योधा और वीरोंके लिये यह कालही आपहुँचाहै, उनकी यह बात सुनकर शकुनी कहनेलगा॥७॥ शकुनीने कहा हे कौरवो! जो कि आपलोगोंने महाराज विराटका धन हरण करके उनके देशकोभी लूटलिया, इस कारण वे राजा विराटही आपसे मित्रता करने की इच्छा कियेहुए अपनी कन्यासमेत आये दीखैहैं॥८॥ हे महाबाहो दुर्योधन! अब आप शीघ्रतासहित (इस कन्यारत्नके संग) अपना विवाह करलीजिये। शकुनीके यह बात कहतेही अनेकानेक कुशकुन॥९॥ उत्पन्न हुए, तब उस सेनामें उनको देखकर महान् अचंभा हुआ। हे नृपोत्तम जनमेजय! उस काल उन कौरवोंके कटकमें मांसभक्षी कूर पक्षी॥१०॥ कोलाहल मचातेहुए शिरोंपर घूमनेलगे। इनके अतिरिक्त औरभी वनैले (वनवासी) हिंसक जन्तु॥११॥ यह सब सेनाके बीचमें आकर अपनी इच्छानुसार क्रीडा करनेलगे। हे नृपोत्तम! इन सब बुरे शकुनको देखकर द्रोणाचार्यजीने कहा॥१२॥ द्रोणाचार्यजी बोले। हे महाराज दुर्योधन! आप इन औरभी बुरेशकुनोंको देखिये कि जो आपके आयुध (हथियार) उज्ज्वल थे, सो अब काले पडगये ॥१३॥इसके अतिरिक्त उल्कापात (तारे टूटना) निर्घात और दिग्दाह अर्थात् दिशाओंका जलनाभी देखिये। घोडे सब रोरहेहैं, सैनिक निर्बल होरहेहैं॥१४॥ और इस आसमानसे धूल बरस रहीहैं, और सूर्य चन्द्रमाकी तरह शीतल होरहेहैं, मैं इन बुरे बुरे शकुनोंको देखकर रणमें वैरीका भय मानता हूँ अर्थात् हम लोग वैरीसे पीडित हों तो कुछअचंभेकी बात नहीं है॥१५॥ हे नराधिपति! इस जगह महा
कठिन लडाई होगी। किन्तु आपके साथ अर्जुनको छोडकर और कौन लड़सकताहै॥१६॥ अंत एव आपको ऐसाही मालूम होताहै कि इस समय अर्जुनकेही संग लडाई होगी॥१७॥ (महाराज दुर्योधनसे इस तरह कहकर फिर द्रोणाचार्यजी भीष्मपितामहसे बोले कि,) हे नदीज! हे गांगेय! जिनकी ध्वजामें! लंकेशवनारि अर्थात् श्रीहनुमानजी विराजित हैं, और जो नगारि (देवराज इन्द्र) के पुत्र हैं, तथा इन्द्रके दिये किरीटको धारण करनेवाले हैं, वह यह अर्जुनजातिके वृक्षसमान नामधारी और स्त्रीवेषधारी अर्जुन अभी हम लोगों और दुर्योधनको पराजित (जीत) कर गायें लेजायँगे, अत एव आप (बहुत सावधानीसे) दुर्योधनकी रक्षा कीजिये॥१८॥
चौपाई
तब गुरु द्रोण पार्थ पहिचान्यो। बही सों यहि भाँति मान्यो॥
शूर सजग ह्वै ++व धनुबाना। लेहु शुल औरशक्ति कृपाना॥
पवन गमन सम अर्जुन आवत। वा विनुको ++गमेंअस धावत॥
दुर्योधन वे द्रोण ++बखाना। अब तुम सजग रहो बलवाना॥
भूपभली कछु परत न दीसी। है आवनिं यह अर्जुन कीसी॥
तव भीष्मजी बोले हे द्रोणाचार्यजी! यह तो मुझको नारी मालूम नहीं होती, और यदि नारीभी है, तो शुंभनिशुंभका नाश करडालनेवाली देवी होंगी, अथवा पुराणपुरुष (भगवान् विष्णु) ने लीलापूर्वक यह मायारूपी शरीर धारण कियाहै॥१९॥ या नारीका सुन्दर वेष धरे प्राणोंके हरने और वैरियोंके नाश करनेवाले अर्जुनही हैं, जो कि वनमें परिश्रम भुगतकर यहाँ आपहुँचेहैं, अत एव इनके हाथसे अब आपही कौरवोंकी रक्षा कीजिये॥२०॥ तब कर्णने कहा कि हे दुर्योधन! वृद्ध और पण्डितजनोंका घरपर रहनाही ठीक है, क्योंकि बूढे और पण्डि तोंका यहाँ (युद्धमें) रहना उचित नहीं॥२१॥ (कैसे अचंभेकी
बात है कि) वे पाण्डव राज्यसे भ्रष्ट और रदेकी तरह होगये, किन्तु तोभी यह भीष्म और द्रोणादि उन वैरियोंको ही निरन्तर याद कियाकरतेहैं॥२२॥ बूढे और पण्डितोंको तो श्राद्ध, दान, होम, विवाह और महोत्सवमें जिमाकर तथा पूजा करके वरासनपर विराजमान करदे॥२३॥यदि अकेला अर्जुन आभी गयाहै, तो वह क्या कर सकताहै? क्या मेरे आगे अकेला अर्जुन टिकसकताहै?॥२४॥कर्णकी यह बात सुनकर कृपाचार्यने कहा हे कर्ण! आप महावीर होकर ऐसी बात कहरहेहैं?॥२५॥अकेलेही अर्जुनने क्या क्या काम सिद्ध नहीं किये हैं? उसी रूपद्वारा देवराज इन्द्रके देखते देखते॥२६॥सवेग खांडववन जलायकर अग्रिको तृप्त करदिया और अकेलाही अर्जुन सुभद्राको उज्ज्वल रथमें चढाकर॥२७॥समस्त यादव और बलभद्रजीके देखते देखते हरकर लेगया और फिर अकेले अर्जुनने ही हिमाचल पहाडपर जाकर दारुण तपस्या करी॥२८॥फिर किरातरूपी कल्याणकारक श्रीमहादेवजीके निकट पहुँचकर उन देवको (युद्धसे) सन्तुष्ट किया और अकेले अर्जुननेही उन धूर्जटि शंकरसे तीक्ष्ण पाशुपत अ++ ग्रहण किया॥२९॥और पूर्वमें अकेले अर्जुननेही भयंकर मत्स्यवधकिया है तथा ++थम जब काम्यक तपोवनमें दुर्योधनको बंधुसमेत॥३०॥चित्राङ्गदनामक गन्धर्वने पकडलिया था तो अकेले अर्जुननेही उनको बन्धुसमेत छुडायाथा, उस समय आप कहाँ स्थित थे॥३१॥फिर राजसूय नामक महान् यज्ञमें वीर अर्जुनने समुद्रपर्यन्तके सारे राजाओंको बलात्कार अपने वशीभूत करलियाथा॥३२॥और समुद्रमें अकेले अर्जुननेही शरजालके द्वारा पुल बाँधदिया; कपिराज श्रीहनुमानजीको जीतकर राक्षसराज विभीषणसे वर्ण (धन) ग्रहण करलाया॥३३॥आपने क्या अर्जुनका पराक्रम
कभी नहीं देखाहै ? अब वही अर्जुन आपको बहुत जल्दी मारडालेगा॥३४॥ अश्वत्थामाने कहा जो व्यक्ति अप्रसिद्ध (अनजान) वंशमें जन्मताहै, वही ऐसी बात कहाकरताहै, हे कर्ण! आप क्या सब वैरियोंको परास्त करचुकेहैं, जो इस समय ऐसा घमंड कररहेहो?॥३५॥ अश्वत्थामाकी यह बात सुनकर कर्णने कहा कि जिस वंशमें बडे वीर क्षत्रिय उत्पन्न हुएहैं, उसी वंशमें मैंनेभी जन्म लियाहै॥३६॥
यस्यास्ति मे कुले जन्म देवा जानन्ति नेतरे।
अर्जुनेन च संग्रामं करिष्याम्यद्यनिश्चितम्।
इत्थं मिथो हि जल्पन्तः ++वें राज्ञा निवारिताः॥ ३७॥
मैं जिस वंशमें उत्पन्न हुआहूँ, उसको देवताही जानतेहैं, इतर मनुष्य नहीं जानते। किन्तु अब मैं अर्जुनके संग निःसन्देह युद्ध करूंगा। इस तरह सब किसीके बकवाजकरनेपर राजा दुर्योधनने सबको रोका॥३७॥ इति श्रीभारतसारे विराटपर्वणि भाषायां दुर्योधनसेनापरस्परविचारो नामाष्ट- चत्वारिंशोऽध्यायः॥४८॥
–––––––––––––––
एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ४९.
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पञ्चाशत्तम एकोन उत्तरस्य पलायनम्।
गोसुखं पार्थशूरत्वं तस्याप्युत्कर्ष उच्यते॥
इस उनचासवें अध्यायमें राजकुमार उत्तरका युद्धसे भागना, गौओंका सुख, अर्जुनका वीरपना और उत्कर्ष यह कथा कही जाती है॥१॥
वैशंपायन उवाच।
उत्तरो भयभीतस्तु रथाद्वेगितरस्तदा।
शीघ्रमुत्प्लुत्य भूमौ च प++यनमथाकरोत्॥१॥
श्रीवैशम्पायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय। तदनन्तर उत्तरकुमार भयभीत होकर वेगसहित रथसे पृथ्वीपर कूदपडे और भागने लगे॥१॥ तब यह देखकर अर्जुनने तत्क्षण उनके पास एकही छलाँगमें जाकर उस भागतेहुए राजपुत्र उत्तरको बाँयेहाथसे पकडलिया॥२॥और उनको फिर रथमें बैठाल कर इस तरह कहनेलगे। बृहन्नटने कहा। हे उत्तरकुमार! आप मेरी बात सुन लीजिये। इन कौरवोंके संग मैं संग्राम करूँगा॥३॥आप केवल धीरज धारण कियेहुए निडर होकर मेरे सारथीका काम कीजिये, तो मैं रणके बीच कौरवोंको जीतकर आपको यश (कीर्त्ति) प्रदान करूंगा॥४॥ उत्तर कुमारने कहा। हे बृहन्नट! आप इन महारथियोंके साथ किस तरहसे संग्राम करसकेंगे? क्योंकि द्रोणाचार्य, भीष्मपिता हे, और कृपाचार्यजीको तो देवता तथा असुरभी नहीं जीत सकतेहैं॥५॥ अत एव अर्जुनके सिवाय दूसरा कौन आदमी इनसे युद्ध कर सकताहै? क्योंकि ++थम महाराज द्रुपदके यहाँ मत्स्यवेधमें इकलाही अर्जुन इन सारे कौरवोंको जीत काहै॥६॥ बृहन्नटने कहा। हे कुमार! आप देखिये वह अर्जुन मैंही हूँ, मैं इन सारे कौरवोंको रणमें परास्त करूँगा और गौएँ छुडाकर महाराज विराटको आनन्दित करूँगा॥७॥ उत्तरकुमारने कहा हे बृहन्नट! आप किसतरहसे अर्जुन हैं। इसकी मुझे प्रतीति दिखाइये अर्थात् अपने वास्तविक अर्जुन होनेकी बातका विश्वास दिलाइये? क्योंकि पाञ्चाली (द्रौपदी) और पाण्डुके पुत्रोंका आपस में कभी वियोग नहीं हुआकरताहै॥८॥ बृहन्नटने कहा हे कुमार! आप ब्राह्मण कंकका रूप बनाये हुए तो महाराज युधिष्ठिरको जानिये, बल्लवको भीमसेन और अश्वपालकको न ल समझिये॥९॥ तथा गौओंकी रक्षा और पालन करनेवालेको सहदेव,
मुझे बृहन्नटको अर्जुन और सैरन्ध्रीको द्रौपदी जानलीजिये॥१०॥ उसी सैरन्ध्रीके लिये भीमसेनने कीचकका वध कियाथा। हे राजपुत्र ! इसप्रकार निश्चय समझकर आप धीरज धारण कीजिये॥११॥
दोहा
उत्तरसों सारथि ही, भय न करहु कछु यङ्क।
क++ निपातौं ++अरि चमू, रहिये आप निशङ्क॥
उत्तरने कहा हे बहुन्नट! यदि आप (सत्यही) अर्जुन हैं, तो अपने दश नाम कहिये अर्थात् उनका अर्थ समझाइये कि किन किन कामोंद्वारा आपके यह दश नाम हुए हैं?॥१२॥ यदि यह बात आप प्रत्यक्ष अर्थात् साफ साफ कहदेंगे, तो मुझे विश्वास हो जायगा। यह सुनकर अर्जुनने कहा हे राजपुत्र! अर्जुन, फाल्गुन, पार्थ, किरीटी, श्वेतवाहन॥१३॥ बीभत्सु, विजय, कृष्ण, सव्यसाची और धनञ्जय। जो पुरुष प्रातः समय उठकर इन दश नामोंका जप कियाकरते हैं॥१४॥ उनमें उद्यम और सामर्थ्य होकर रोगका नाश होजायाकरताहै, और वे सारे पापोंसे छूटकर भगवान् विष्णुके (वैकुंठ) लोकको चले जाया करते हैं॥१५॥ पवित्रताके कारण मेरा ‘अर्जुन’ नाम हुआहै, और जो कि मैं पूर्व फाल्गुनी नक्षत्रमें जन्मा हूँ, इस कारण मेरा ‘फाल्गुन’ नाम हुआ तथा लडाईमें मेरे द्वारा वैरियोंको भय प्राप्त हुआकरता है, इस लिये मेरा ‘बीभत्सु’ नाम हुआ॥१६॥ सब स्थानोंमें विजय होनेके कारण मेरा विजय नाम हुआहै, काला शरीर होनेसे ‘कृष्ण’ नाम हुआ, और जो कि मैं दाहिने तथा बाँये हाथमें समान भावसे धनुष धारण किया करताहूँ ॥१७॥इसलिये मेरा ‘सव्यसाची’ नाम हुआ है तथा धनको जीतनेके कारण मेरा ‘धनञ्जय’ नाम हुआ है जयशील, होनेके कारण ‘जिष्णु’ और जो कि देवराज इन्द्रने मुझको सुन्दर
किरीट अर्पण किया, इससे ‘किरीटी’ हूँ। मेरे रथमें सफेद घोडे जुततेहैं, इसी कारण मेरा ‘श्वेतवाहन’ नाम हुआहै। यह मैंने आपसे अपने दश नाम होनेका कारण वर्णन किया॥१८॥ हे उत्तरकुमार! अब आप मेरे नपुंसकपनेका कारणभी सच्चा सच्चा सुनलीजिये। कि मैं निवात कवचोंके प्रति मारनेके निमित्त अस्त्र शस्त्र सीखनेके लिये॥१९॥ जब सब जनोंके साथ देवराज इन्द्रके (स्वर्ग) में पहुँचा, तो वहाँ उर्वशी नामवाली अप्सरा कामसे मोहित होकर मेरे समीप आई॥२०॥ किन्तु जब मैंने उसकी बात नहीं मानी, अर्थात् उसके संग भोग करना स्वीकार नहीं किया, तब उसने लज्जित व क्रोधित होकर मुझकोशाप देदिया, उसी शापके प्रभावसे मैं एकवर्षतक नपुंसक रहा करताहूँ॥२१॥
चौपाई
सारी++ था तुमहि समझाई। यामें झूठ न जानहु राई॥
सँभर बैठ अब रथपर भ्राता। आन उपाय बनै नहिं बाता॥
हे राजकुमार! अब आप मेरे अर्जुन होनेमें कभी सन्देह मत कीजिये और सारथी भावसे विश्वासयुक्त हो रथके सगुणपर बैठकर स्वयं घोडोंकी लगाम पकड लीजिये॥२२॥और यह जो शमीवृक्ष दिखाई देरहाहै, वहाँ रथको चलाइये, क्योंकि उस पेडपर हमलोगोंके उत्तम (विचित्र) हथियार रक्खेहुए हैं॥२३॥ अर्जुनकी यह बात सुनकर उत्तरकुमारने धीरे धीरे रथ हाँकदिया और उस बहुत छायावाले तथा अनेक खखोडलोंसे युक्त॥२४॥ और सब तरफसे मकरी इत्यादि कीड़े मकोडोंके जालोंद्वारा घिरेहुए उस शमीवृक्षके निकट जायकर प्राप्तहुआ, तब अर्जुनने कहा। हे उत्तर! अब आपही इस रथसे उतरकर हमारे हाथियार लेआइये॥२५॥ तब उत्तर शीघ्रतासहित तुरन्त रथसे उतरकर उस वृक्षके निकट ज्यों ही पहुँचे॥२६॥
त्योंही वहाँ क्रोधित साँप और दुष्ट सरीसृप (विषैले हिंसक जीवों) को देखकर भयसे घबरातेहुए शीघ्र अर्जुनके पास लौट आये॥२७॥ और अर्जुनसे बोले कि आपने मुझे (वृक्षके पास नहीं, बरन्) कालके समीप भेजाथा, यह सुनकर अर्जुन हँसपडे और फिर अपने आपही उस वृक्षके निकट गये॥२८॥ वहाँ पहुँचकर धनञ्जयने उस शमीवृक्षकी परिक्रमा और स्तुति करके कहा हे शमी! आप हमारे पापों और वैरियोंको शमन कीजिये॥२९॥ हे शमीदेव! आप रोगोंको शमनकरके समस्त अर्थोंकी सिद्धि कियाकरतेहैं, वीर अर्जुनने इसतरह प्रार्थना करके भूमिमें नमस्कार किया॥३०॥इसके पीछे वे सारे हथियार स्वयं (अपने आपही ) अर्जुनके पास आगये, तब अर्जुनने तत्काल अपना बल अजमाने और नपुंसकत्व व्रतकी समाप्तिके निमित्त एक बाण द्वारा भूमिको ताडना करी॥३१॥ उसके प्रहारसे महानदी बाणगंगाकी उत्पत्ति हुई, तब बलवान् अर्जुनने नारीव चोली इत्यादिको उतारदिया॥३२॥ अनन्तर स नपुंसकव्रतको विसर्जन (त्याग) करके अर्जुनने स्नान किया, और फिर हृदयमें (भक्तभयहारी, असुरारी और सुखकारी मुरारी गोवर्द्धनधारी) भगवान् श्रीकृष्णचन्द आनन्दकन्द जगद्वन्द्यको स्मरण करके उस सुंदर रथमें जाविराजे॥३३॥ तब भगवान् श्रीकृष्णाका तेज आनकर उत्तर और अर्जुनके शरीरमें प्राप्त होगया और फिर केवल चिन्ता मात्र करतेही महावीर पवनतनय श्रीहनुमानजीभी तत्काल आनकर प्राप्त हुए॥३४॥ और फिर केवल मात्र अर्जुनके स्मरण करनेपर देवदत्त नामक शंखभी आनकर प्राप्त हुआ। तब तो प्रतापशाली अर्जुनने बडे ऊँचे शब्दसे सिंहकी समान गर्जना करके शंखध्वनि करी॥३५॥ उस++ल धनुषकी प्रत्यंचा (डोरे) के शब्द, और कपिराज श्रीहनुमानजीके गर्ज-
नेका शब्द, इन महाभयंकर नादोंसे वज्र गिरनेकेसा शब्द हुआ॥३६॥ तब वहाँकी भूमि काँपनेलगी, समुद्र मार्गको लुप्त करने लगे, और उस भयंकर शब्दको सुनकर सारे कौरव भयसे घबराये॥३७॥ हे महाराज जनमेजय! उनमें कितनेही भीष्मपितामहके निकट, कितनेही द्रोणाचार्यजीके निकट और कितनेही कर्णके पास जाकर ‘रक्षा कीजिये! रक्षा कीजिये!’ इस प्रकार कहनेलगे॥३८॥ वैशंपायनजी बोले हे जनमेजय! वहाँ उस अर्जुनको केवल मात्र दर्शन करनेपरही कौरवोंकी बडी भारी सेना इस तरहसे घबराहटकोप्राप्त होगई॥३९॥ दुर्योधन बोले। हे भीष्मजी। उन पांडवोंके तेरह वर्ष बीतनेमें कितने दिन बाकी रहेहैं। यह बात शीघ्र बतादीजिये। क्योंकि मैं उनको फिर वनमें भेजूँगा॥४०॥ भीष्मजीने उत्तर दिया है महाराज! पांडवोंकी (अवधि ) के तेरहवर्ष बीतचुके, बरन् उसके ऊपर और भी तेरह दिन निकलगये, इसीकारण अब महाबली सव्यसाची अर्जुन कट होगयाहै॥४१॥ तब फिर वीरवर अर्जुनने सबसे पहले दो बाण गुरु द्रोणाचार्यजीपर चलाये जो कि द्रोणाचार्यजीके पैरोंके समीप आनकर प्राप्त हुए॥४२॥
दोहा—एक गिरो गुरुचरणतर, ए++श्रवणढिग आय।
करिप्रणाम पारथ कही, परो भूमि पहँलाय॥
+++पार्थ पुनि बाण युग, गयो पितामहँपास।
परो चरण इक श्रवण मँह, कीन्हो आय प्रकास॥
तब उन दोनों बाणोंको गुरु द्रोणाचार्यजीने चरणोंके आगे गिराहुआ देखकर आज्ञालिये हुए दोनों बाणोंको वहाँसे पीछे लौटादिया॥४३॥ द्रोणाचार्यजीने कहा कि महाबली धर्मात्मा अर्जुनने जो यह दो बाण भेजेहैं, सो उसने युद्धमें अपनी गुरुभक्ति दिखाई है॥४४॥ इसके पीछे उसी तरहके दो बाण
अर्जुनने भीष्मपितामहके प्रति चलाये, उन वाणोंको भीष्मजीनेभी पीछा अर्जुनकेही पास लौटादिया॥४५॥ फिर भीष्मजीने राजा दुर्योधनसे कहा कि, प्रथमसे ही आप और पाँच पांडव थे, और सारे कौरव तथा पांडव दो भाइयोंके बेटे हैं॥४६॥ इसलिये आपसमें बाँटकर इस पृथ्वीको भोग कीजिये, युद्धसे क्या मतलब है? तब तो दुर्योधनने महान क्रोधित होकर कहा॥ ॥ ४७॥ हे प्रभो ! मैं इस पृथ्वीको पांडवोंसे हीन करके राज्य भोगूंगा। दुर्योधनके इस प्रकार कहतेहुए किरीटी अर्जुनने उत्तर कुमारसे कहा कि, मेरे रथको गोधनके सामने पहुँचादो। क्योंकि मैं प्रथम गोधनको लेकर पीछे युद्ध करूंगा॥४८॥४९॥ अर्जुनकी यह बात सुनकर उत्तरकुमार वेगसे रथको गायोंके पास लेगये और वे गायें उस रथका शब्द सुनकर विराटनगरको चलीगई॥५०॥ अर्जुनके सिंहसमान गर्जन, रथकी धुरीके शब्द, शंखध्वनि और बुद्धिमान् अर्जुनके धनुषकी रज्जुके शब्दद्वारा॥५१॥ सारी गायें घबराकर पूँछ उठाती हुई भागीं और तत्काल सब विराटनगरमें जापहुँचीं॥५२॥
ततोऽर्जुनो महावीरो रथं संस्थाप्य तत्र वै।
व्यतिष्ठद्धनुरुद्यम्य उत्तरस्तमभाषत॥५३॥
तब महाशूर अर्जुन उस जगह रथको खडा करके और धनुष लेकर खडे होगये। फिर उनसे कुमार उत्तरने कहा॥५३॥ इति श्रीभारतसारे विराट- पर्वणि भाषायां अर्जुनपराक्रमो नामैकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥४९॥
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पञ्चाशत्तमोध्यायः ५०.
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पञ्चाशत्तम अध्याये संप्रश्नश्वोत्तरस्य च।
पार्थस्य धार्त्तराष्ट्राणां संग्रामागम उच्यते॥१॥
इस पचासवें अध्यायमें अर्जुनसे कुमार उत्तरका प्रश्न और पार्थ तथा धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधनादिकोंके संग्रामका प्रारंभ होना, यह कथा कही जातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
एवं पार्थः स्थितो रा++न्रथारूढश्चसम्मुखे।
तदोत्तरेण वीरेण पृष्टः किंचिच्छुभं वचः॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे राजन् जन्मेजय! इस तरह जब अर्जुन रथमें सवार होकर सामने खडे होगये, तब उस समय वीर उत्तर कुमारने उनसे कुछ उत्तम प्रश्न किया अर्थात् कोई अच्छी बात पूछी॥१॥ कुमार उत्तरने कहा हे अर्जुन! इनमें बडे भारी शूर भीष्मपितामह कौन हैं? और अश्वत्थामा कौंनसे हैं? व कृपाचार्यजी कौन हैं? और रविनन्दन राजा कर्ण कौन हैं?॥२॥ अभिमानियोंमें प्रधान राजा दुर्योधन कौनसे हैं? और धृतराष्ट्र के अन्यान्य (दूसरे) पुत्र कौनसे हैं? और कौरवोंके मामा शकुनी कौनसे हैं॥३॥आप इस समय उनके रूप और चिह्न दिखाइये।अर्जुनने कहा हे वत्स! जिनकी ध्वजा कनकाचल (वर्णके पहाड) की समान प्रकाशमान होरहीहै॥४॥ सूर्यकी समान तेजमान रथ और जिसमें सफेद घोडे जुतरहेहैं, सफेद ध्वजा, सफेदही छत्र और जिसके चामर भी दोनों सफेद हैं॥५॥ और विना इच्छा किये जिनकी मृत्यु (दापि) नहीं होसकती, भार्गव श्रीपरशुरामजी महाराज जिनके गुरु हैं और जिनको सब देवता पराजित नहीं करसकते, ऐसे यह हमारे भीष्मपितामहजी हैं॥६॥ और जिनकी ध्वजाके अग्रभागमें कंचनके दृढ (मजबूत) कलश दिखाई देरहेहैं, और जिनका रथ बडा स्थूल, और अत्यन्त पुष्ट दिखाई देरहाहै॥७॥ तथा सफेद घोडे, सफेद पताका और सफेदही छत्र न दिखाई देरहा है,
यही हमारे और कौरवोंके (पूजनीय) गुरू द्रोणाचार्यजी महाराज हैं॥८॥और जिनके घोडे पाण्डुवर्ण तथा छत्र भी पाण्डुरंगकाही दिखाई दे रहाहै, यह तीनों लोकोंसे नहीं जीते जानेवाले हमारे गुरूके पुत्र अश्वत्थामाजी महाराज हैं॥९॥और जिनकी ध्वजाके अगले हिस्सेमें सूर्यकी नाई चमकतीहुई वेदी दिखाई देरहीहै, अत्यन्त सफेद व सुन्दर पताका और दो छत्र विराजमान हो रहेहैं॥१०॥यह बडे भारी शूर सुबुद्धिमान्, द्रोणाचार्यजीकी बाईं तरफ खडेहुए कृपाचार्यजीमहाराज हैं और जिनकी ध्वजाके अग्रभागमें सुवर्णमय दृढ व्याघ्र दिखाई देरहाहै॥११॥तथा अत्यन्त पीली ध्वजा, पीला छत्र व दो चामर दिखाई देरहेहैं, और जिनके पीले घोडे प्रसिद्ध हैं, सो यह रविनन्दन महाराज कर्ण हैं॥१२॥यह बडे ही शूरवीर और धीरजवान् हैं, और इनका धनुप बाणभी अत्यन्त दृढ है, अतएव इनके ही संग मेरा महान दारुण संग्राम होगा॥१३॥और जिनकी ध्वजा घोडे और चामर अच्छे लाल लाल दीखरहे हैं, और वडवानलकी समान रथ और छत्र भी लालही दिखाई देरहाहै॥१४॥सो यही महावली व पराक्रमशाली राजा दुर्योधनजी हैं और इनकी बाँई तथा दाँई तरफ जो बहुत सारे राजा दिखाई दे रहेहैं॥१५॥यह सब निश्चित गिनेहुए महाराज धृतराष्ट्रके सौ वेटे अर्थात् दुर्योधनके भाई हैं। मैंने आपके (पूछनेके अनुसार) आपसे इन सब वीरोंका वृतान्त वर्णन किया। यह सबही महान दारुण वीर हैं॥१६॥हे उत्तर! अब आप मेरे रथको द्रोणाचार्यजीके निकट लेचलिये, क्योंकि इस समय आकाशमण्डलमें सारे देवता मेरे और गुरू द्रोणाचार्यजीके संग्रामका तमाशा देखनेको उपस्थित हुएहैं।
तब फिर अर्जुनने गुरूजीको गिरानेके लिये दो बाण चलाये॥१७॥१८॥ तब गुरु द्रोणाचार्यजीने अपने अपने बाणोंसे अर्जुनके उन बाणोंको काटडाला। फिर गुरूने शिष्यको ताककर बाणपूरक (बाणोंका समूह) चलाया॥१९॥
चौपाई
हां मारियह वचन सुनायो। समरहु पार्थ द्रोण अब आयो॥
अस ++हि गुरु कोद++चढायो। हो सजग कहि बाण चलायो॥
द्रोण विशिख यहि भाँति चलायो। भूमि अकाश बाणतें छायो।
ते शर पार्थ निमिष महँ++टे। दिशि अरु विदिश बाणते पाटे॥
कोपि द्रोण शर पूरक मारा। किये बाण अर्जुनके क्षारा॥
दोहा
मृत्यु अ++लै द्रोणगुरु, कीन्हो तुरत प्रहार।
वायुवेगकी सदृश सो, चला करत फुंकार॥
न बाणोंके जालको अर्जुनने अपने बाणोंद्वारा काटकर सौ सौ खंड करदिया, तब तो द्रोणाचार्यजी (महान्) क्रोधित हुए और फिर गुस्सेमें भरेहुए गुरु द्रोणाचार्यजीने उस अर्जुनके विनाशार्थ दु शरपञ्चक छोडा॥२०॥ उसको छोडाहुआ देखकर शिष्य अर्जुनने कहा। अर्जुन बोले। भो++रो। आपने मुझको वध कर डालनेके लिये यह शरपंचक (पाँच बाण) चलायाहै॥२१॥ सो यह आपके बाण विफल (वृथा) होजायँगे, कारण कि मैं यहाँ धर्मके निमित्त आयाहूँ, अधर्म के द्वारा तो कभी विष्णुभी नहीं ++त सकते, यह निश्चय है॥२२॥ यह कहकर अर्जुनने अपने पांच बाणोंके द्वारा उन पाँच बाणोंको दश टुकडोंमें काटडाला, और फिर बाणसे गुरू द्रोणाचार्यजीकी ++तीको वींधा॥२३॥
चौपाई
तब हि द्रोण गुरु मूच्छित भयकांस्यन्दन डारि सूत लै भयऊ॥
हाहाकार मच्यो तब भारी। पुनि अर्जुन सब सैन विडारी॥
उस (बाणके द्वारा) द्रोणाचार्यजी महामूच++को प्राप्त होकर रथमें गिरगये। तब सारथी उनको रणस्थलसे बाहर लेगया॥२४॥
इस तरह द्रोणाचार्यजीको हटाकर फिर अर्जुन भीष्मजीके पास पहुँचे और बोले कि हे महावीर पितामह! आप निरन्तर धर्मके मार्गमें स्थित रहनेवाले हैं॥२५॥आपनेही धर्मानुसार हमारे सब पूर्वपुरुषोंका पालन पोषण किया, किन्तु हे नाथ! (इस समय) आप यह क्या निन्दित दुष्ट कर्म करनेको उतारू हुए हैं?॥२६॥ हे स्वामिन्! धर्मसागर आप सरीखे व्यक्तिके देशमें अधर्मकारी पापात्मा भीलजातिके तस्कर (चोर) भी जिस कामको नहीं करना चाहते॥२७॥ ऐसा निन्दित काम गायोंका हरण करना कभी आपके करनेलायक नहीं है, क्योंकि यह बात आप स्वयंही कहचुकेहैं कि अधर्मके काममें प्रवृत्त होनेवालोंकी जीत (कदापि) नहीं होसकती॥२८॥ भीष्मजी ने कहा। हे वत्स! यह आपने सत्य बात कही यह बात मुझको बहुत भाती है, किन्तु साधुजन संगके दोषसे दुष्ट कामको करनेलगजाया करतेहैं॥२९॥ मैं यहाँ दुर्योधनके प्रसंगमें गायोंके हरनेको इस तरह आयाहूँ कि जिस तरह रोगके प्रसंगमें अपने कलेवर (देह) को जलानापड़ताहै॥३०॥ अत एव अब आप यहाँ अपनी इच्छानुसार युद्धका काम कीजिये। तब अर्जुनने उनकी आज्ञासे एक बाण छोडा॥३१॥ उस बाणसे महात्मा भीष्मजी भी रथमें गिरगये तब शत्रुके नाश करनेवाले अर्जुन कर्णपर जापहुँचे॥३२॥ तबयोधा कर्ण कहनेलगा। हे महामते!आप मेरी बात सुनिये। कर्ण बोला। हे अर्जुन! आप महावीर और धर्ममार्गमें टिकेरहनेवाले हैं॥३३॥ अतएव शास्त्रके धर्मानुसार आपकी विजय अवश्य होगी इसमें सन्देह नहीं। किन्तु तथापि मैं इस समय अधर्मके द्वाराभी आपसे संग्राम करूँगा॥३४॥ कर्णने इसतरह कहकर अर्जुनको मारे बाणोंके वींधडाला, और तब तो महावीर अर्जुननेभी महा क्रोधित होकर अपने बहुत से बाण छोडे ॥३५॥
चौपाई—ते सब विशि++कर्ण पुनि++टे। घव शर पारथ पर छाँटे॥
आवत देखे बाण अपारा। अर्जुन अग्निबाण तब मारा॥
कर्ण बाण जारे सब आगी। गे रन सेन सब भागी॥
वरुण बाण तब कर्ण च ++यो। क्षण भीतर न बुझायो॥
तब कर्णने अर्जुनके उन बाणोंको शीघ्रतासे काटडाला और फिर अदृश्य होकर पाँच बाणोंद्वारा अर्जुनके लाटको वींधदिया॥३६॥ उन बाणोंके प्रहारसे वह महावीर अर्जुन रथमें गिरे और फिर उन्होंने उठकर अपने बाणोंसे कर्णको बींधडाला॥३७॥फिर कर्णनेभी बाणोंके वेगसे किरीटी (अर्जुन) को वेधन किया, इस तरह युद्ध उपस्थितहोनेपर बाणोंसे ढकजानेके कारण सूर्य दिखाई नहीं देनेलगे॥३८॥ अर्जुनने सारे बाणोंके वहाँ अन्धकार करदिया, जिससे आपसमें कोई वीर एक दूसरेको नहीं देखसका॥३९॥ उस अंधकारको देखकर कर्णने कहा। कर्ण बोला। हे वीर! आपने सूर्यको ढकनेके लिये जो कर्म साधन कियाहै॥४०॥ सको मैं पहले ही जानगया था अत एव मैं आपको पलायन करने (भागने) वाला समझताहूँ। कर्णके इस तरह बकवाद करतेहुए शब्दके चिह्नद्वारा उन अर्जुनने॥४१॥ अत्यन्त लाघवताके सहारे एक बाण द्वारा कर्णके ता को बींधडाला और दश बाणोंके द्वारा सादर उसकी छातीको वींधा॥४२॥ उन बाणोंके आघातसे रविनन्दन कर्णभी भूमिपर गिरपडे। तब महावीर अर्जुनने कर्णको धराशायी अर्थात् पृथ्वीपर गिरा हुआ देख कर॥४३॥ वह शरान्धकार (बाणोंका अँधेरा ) दूर किया और फिर एक बाणसे (कर्णके) सारथी और दो दो बाणोंद्वारा उसकी ध्वजा और छत्रको (काटकर) पृथ्वीपर डालदिया॥४४॥
अति संकट भा++टक महँ, सेना चली पराय।
तब अर्जुन रणभूमिमहँ, गरज्यो शंख्यबजाय॥
इसके पश्चात् परवीर नाशक अर्जुनने अश्वत्थामा के निकट पहुँचकर धनुषकी प्रत्यंचाका भयकर शब्द किया और फिर (इस तरह) कहा॥४५॥ गुरुभाई! हे गुरुसखा। हे महामते!जिस तरह श्रीद्रोणाचार्यजी महाराजसे आपने विद्या सीखी है, उसी तरह मैंनेभी सीखी है॥४६॥ इस समय दोनोंपर रूजीका प्रेम देखा, मैं तो आपके पिता द्रोणाचार्यजीका अत्यन्त प्यारा चेला हूँ और आप भी उनके अत्यन्त प्यारे पुत्र हैं॥४७॥ इस प्रकार अर्जुनके कहते कहतेही अश्वत्थामाने भाँति भाँतिके बाणों द्वारा अर्जुनकी छातीको वींधडाला, किन्तु कंपिध्वज अर्जुन (जराभी) कम्पित न हुए॥४८॥ तब महावीर अर्जुनने बाणोंके द्वारा आच्छादित करके फिर शीघ्रतासहित एक बाणसे गुरुपुत्र अश्वत्थामाको गिरा दिया॥४९॥ इसके पीछे अश्वत्थामाने पुनर्वार वेगसहित उठकर बाणोंद्वारा अर्जुनके नाभिदेशको विद्ध किया किन्तु तथापि अर्जुन विह्वल (विचलित) नहीं हुए॥५०॥ फिर महाबलवान अश्वत्थामाने लघुता धारण करके अर्थात् अत्यन्त शीघ्रतासहित सोनेकी पुंखके बाणद्वारा ध्वजाके अग्रभागमें स्थित कपिकुञ्जर श्रीहनुमानजीको॥५१॥ महागाढ प्रहार करके मारा। तब हनुमानजी हँसते हुए कहनेलगे। श्रीहनुमानजी बोले हे महोदय! आप बूढे ब्राह्मणके पुत्र मेरे रुँवेंके अग्र भागकोभी॥५२॥नहीं काटसके, अतएव धनुषधारी आपके बलको मैंने भाँति भली जानलिया। श्री हनुमानजीकी यह बात सुनकर द्रोणनन्दन अश्वत्थामा महान् क्रोधयुक्त हुआ॥५३॥ और फिर कपिराज हनुमानजीको मारडालनेकी इच्छासे उसने शूल छोडा तब अर्जुनने उस आतेहुए त्रिशूलको (बाणों द्वारा) काटकर आठ टुकडे करदिये॥५४॥ उस त्रिशूलके टूटफूटकर व्यर्थ होजानेपर अश्वत्थामाने हनुमानजीके मारनेको हाथमें बाण
लिया किन्तु कुपित अर्जुनने उस बाणकोभी काटडाला॥५५॥ तब उसे बाणके कटजानेपर ब्राह्मण अश्वत्थामाकी आँखें लाल लाल होगईं। उस काल महाबली हनुमानजी भाँतिभाँतिसे उसका ठट्ठा करनेलगे॥५६॥ तब तो अश्वत्थामाने (महा क्रोधित होकर) हनुमानजीका नाशही करडालनेके लिये नारायणबाण चलादिया, जिसका निवारण नारायण बाणके सिवाय दूसरा बाण नहीं कर सकताथा॥५७॥ उस नारायणास्त्रके मुखसे क्रूर अग्नि निकलनेलगी और उस अग्निने आकाशको आवृत कर घेर लिया तब वह बाण कपिराज श्रीहनुमानजीके समीपको गया॥५८॥ तब उस समय वीर अर्जुनने नारायणनामवाला अस्त्रछोडकर फिर अश्वत्थामाके बाणको अपने बाणसे ढकदिया॥५९॥
नारायणास्त्रे उभये संवृते विजयेन च।
पुनरन्यं शरं यावन्मुमोच द्रोणनन्दनः॥
तावत्तु पञ्चभिर्बाणैर्विद्धो हृदि पपात च॥६०॥
इस तरह अर्जुनने दोनों नारायणास्त्रोंको एकत्र करलियाइसके पीछे फिर ज्योंही द्रोणनन्दन अश्वत्थामा दूसरा बाण छोडनेलगा कि त्योंही अर्जुनने पांच बाणोंसे उसकी ++तीवींधडाली जिससे वह (पृथ्वीपर) गिर पड़ा॥६०॥ इतिश्रीभारतसारे विराटपर्वणि भाषायां अश्वत्थामामूर्च्छनं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५०॥
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एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ५१.
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एकपञ्चाशत्तमे च कुरूणामजयो जयः।
पार्थस्योत्तरपित्रोश्च संवादस्त्विह कथ्यते॥१॥
इस इक्वावनमें अध्यायमें अजय कौरवोंका पराजय (हारजाना) अर्जुनकी विजय, और उत्तर तथा उनके पिताका संवाद यह कथा कहीजातीहै॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
एतस्मिन्पतिते भूमौ द्रोणपुत्रे कृपस्तदा।
कोपाविष्टः शरैःषड्भिर्विव्याध हृदि चार्जुनम्॥१॥
वैशम्पायनजी बोले हे महाराज जनमेजय! द्रोणपुत्र अश्वत्थामाजीके धराशायी होजानेपर कृपाचार्यजी अत्यन्त कोधयुक्त हुए और उन्होंने छै बाणोंके द्वारा अर्जुनकी छातीको बींधा॥१॥ किन्तु उन बाणोंकों काटकर अर्जुनने सौ बाणोंसे कृपाचार्यजीको विद्ध किया और उन बाणोंके आघातसे मूर्छित होकर वे पृथ्वीपर गिरपडे॥२॥ उस समय राजा दुर्योधन सब योधाओंसे बोला हे वीरो! आप लोग अकेले अर्जुनको नहीं जीतसके॥३॥ हे कर्ण! आपके चाप (धनुष) पुरुषार्थ, बल और पराक्रमको धिक्कार हैं, जो हो अब आप सब वीर एकत्र मिलकर अर्जुनको पकडलीजिये और फिर मारडालिये॥४॥ राजा दुर्योधनकी आज्ञा मिलतेही सारे राजा मिलगये। यथा भगदत्त, कलिंग, सोमदत्त और जयद्रथ॥५॥ तथा धृतराष्ट्रके एकसौ बेटेभी आप में मिलगये। यह सब इकट्ठेहोकर अर्जुनकी तरफ दौडपडे और भाँति भाँतिके अस्त्र शस्त्रोंसे मारनेलगे॥६॥तब महाबलवान् अर्जुनने उनके बाणोंद्वारा अपने रथको छाया (ढका) हुआ देखकर अनेक शस्त्रोंसे उस वाणोंके जालको काट डाला॥७॥ हे जनमेजय! उन दुर्योधनके भेजेहुए अधर्मके वशीभूत राजाओंको तरह तरहके करोड परिमित अत्रोंद्वारा नाश करडालनेमें अर्जुन समर्थ हुए॥८॥ फिर महावीर अर्जुनने मोहन अस्त्र धारण
किया और उसके द्वारा सबको मोहित करना चाहा। यद्यपि उनको वैसेही मार सकतेहैं, किन्तु तथापि अर्जुनने किसी कामकी सिद्धिके अर्थ उनको नींद उत्पन्न करनेवाले मोहनास्त्रको शीघ्रसे चलादिया॥९॥ उस अस्त्रके छोडतेही सारे राजा रथोंमें, हाथियोंपर, घोडोंपर और भूमिपर सोगये तथा यथावत् अपने अपने छत्र चामरादि चिह्नोंसमेत तसबीरकी तरह बेसुध होगये॥१०॥ इसप्रकार जब वे सब मोहित अर्थात् नींदके वशीभूत होकर वहां तसबीरकी तरह होगये तब अर्जुनने शीघ्रतासहित उत्तरसे कहा॥११॥ हे उत्तर कुमार! अब आप रथसे उतरकर अपनी बहनके माँगेहुए इनके विचित्र वस्त्रोंको निडर होकर उतारलीजिये॥१२॥ अर्जुनकी यह बात सुनतेही उत्तर कुमार रथसे उतरे और उन लोगोंके बहुमूल्य वस्त्रोंको उतारलिया॥१३॥ फिर उस समय अर्जुनने रुधिरमें भीजेहुए बाणद्वारा उन सब राजाओंपर यह अक्षर लिखे॥१४॥
कृपालु अर्जुनने दयाके वशीभूत हो यहाँ आपलोगोंके प्राणनहीं लेकर आपका सारा यशही हरण किया है। इस तरह अक्षर लिखनेपर अर्द्धचन्द्राकृति वाले बडे बडे बाणोंद्वारा॥१५॥ अर्जुनने उनके शिरोंके आधे बाल और टिया तथा गहनोंको काटडाला, और फिर एक महापैने बाणसे उनके गलेपर एक लकीर खेंचदी॥१६॥ इसका हेतु यही है कि मैंने कृपाके वशीभूत होकर आपलोगोंका गला नहीं काटा। इसके सिवाय भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, इत्यादि तथा अश्वत्थामा और राजा दुर्योधन॥१७॥ इन सबको बडा और भारी भरकम समझकर ही मैंने रूप नहीं किया अर्थात् इनके बाल और झटिया इत्यादि हीं काटी क्योंकि मैं इनको देवतास्वरूप जानताहूँ अत एव यह मेरे सदा मान्य और पूज्य हैं॥१८॥ इसके पीछे (महावीर)
अर्जुन सिंहसमान गर्जतेहुए नगरकी तरफ चले और उन्होंने महासंग्राममें सारे वैरियोंको परास्त (जीत) कर अपने देवदत्तनामवाले शंखको मुखसे पूर्ण किया उसकी ध्वनि करी॥१९॥
चौपाई—देवदत्त जब पार्थ बजायो। नि आनन्द सेनमें छायो॥
जय जयकार करें ब भारी। अर्जुन रा++ ये बनवारी॥
तत्पश्चात् अर्जुनने (उसी) शमीवृक्षके पास पहुँचकर उन सारे हथियारोंको वहाँ पहलेकीही तरह रखदिया। और फिर (पवननन्दन) श्रीहनुमानजी महाराजसे सम्मति करके बार बार प्रणाम किया॥२०॥ और उन कपिराजसे पुनर्वार आनेकी प्रार्थना करके विदा करदिया। उनके चलेजानेपर वीर अर्जुनने उत्तर कुमारको रथपर बैठाला॥२१॥ और फिर स्वयं वस्त्रोंद्वारा बनायेहुए स्त्रीरूपधारी सारथी हो नगरमें घुसे॥२२॥ और फिर दूतको यह सिखाकर महाराज विराटके पास भेजदिया कि कुमार उत्तरने कौरवोंके देखते देखते उनकी सारी सेनाको जीतलिया॥२३॥ इस तरह सिखा समझाकर दूत भेजागया तब वह दूत महाराज विराटके पास पहुँचा और जिस प्रकार इसको अर्जुनने सिखाया था, वह सब ज्योंका त्यों उनसेकहदिया॥२४॥उस दूतकी यह बात सुनकर सभामें बैठेहुए सब जनोंसमेत महाराज अत्यन्त हर्षित हुए और फिर गर्व करतेहुए कंकसे कहनेलगे॥२५॥ हे कंक! इस समय उत्तर कुमारने विनाही सेनाके प्रथम गोधनको यहाँ भेजकर फिर कौरवोंकी सारी सेनाको जीतलिया॥२६॥ जिन सब भीष्मपितामह आदि धर्मपण्डित कौरवोंने पहले सारे पाण्डवोंको परास्त करदियाथा उन सबको रणस्थलमें मेरा पुत्र लीलापूर्वक ही जीतआया॥२७॥ तीनों लोकमें विख्यात मेरी समान दूसरा राजा इस भूतलपर नहीं है, जिसके पुत्रने देवताओंसे अजीत सब कौरवोंको जीत-
लिया॥२८॥ उसी समय पाँसे खेलते खेलते कंक (युधिष्ठिर) हँसपडे और फिर उन्होंने महाराजको दुःखदेनेवाली (यह) बात कही॥२९॥
दोहा
वि++य बृहन्नटजेहि++ टक, सो++ किमि जीतो जाय।
जुरै युद्ध संग्राम थल, कालहु देइ भगाय।
चौपाई
इतनी नत भूप उर जरेऊ। राते दृग++ रि अति रिस भरे।
तत्क्षणही नर नाह विराटा। हन्यो कं++ षिपंस ललाट॥
कंकने कहा हे राजन्! जिस युद्धमें महाबल और पराक्रमशाली बृहन्नट चलाजाय, उस जगह अवश्यही विजय आयाकरतीहै, इसमें संशयही कि बातका है?॥३०॥ तब महाराज विराटने महान क्रोधित होकर पाँसोंको फेका, तिनमें एक पाँसा कंकके पैरपर लगकर वहांसे उठाला और उनके (कंकके) माथेमें जा लगा॥३१॥ उसके लगनेपर कंकके माथेसे खूँन बहनेलगा तब उसी समय उन्होंने मालिनी (सैरन्ध्री द्रौपदी) से पानी माँगा॥३२॥ फिर वह मालिनी पानी लाकर ज्योंही उनके सामने बैठनेलगी कि त्योंही उसने धर्मराज युधिष्ठिरके माथेपर खूँन देखा॥३३॥ तब उस खूनको डरके मारे घबराई हुई मालिनीने जलके एक बरतनमें लेलिया। क्योंकि उसने सोचा यदि इस खूनको इस समय भीमसेन अर्जुन देखलेंगे॥३४॥ तोवे तत्काल महाराज विराटके वंशका अन्त (नाश ) करडालेंगे; जिनके घरमें हम लोगोंने बहुत दिनों अर्थात् एक वर्ष पर्यन्त निवास कियाहै॥३५॥ उनका तो निरन्तर मंगलही होवे, इसतरहका विचार करके मालिनी घबरागई। तब++द्धि विराटने क्रोधित होकर मालिनीसे कहा॥३६॥ हे मालिनी! तैंने यह कंकका खून इस बरतनमें क्यों रक्खा है? इस प्रकार तरह तरहके वचनरूपी बाणोंसे वह उस मालिनीको वींधनेलगा॥३७॥
उनकी ऐसी बातें सुनकर सैरन्ध्री बोली हे महाराज! आप इस समय वृथा कोप क्यों कररहेहैं?॥३८॥ मैंने जिस लिये इनके खूँनको बरतनमें रखलियाहै, उसका कारण सुनिये।इन कंकका रुधिर जिस देशमें गिरेगा, वहाँ॥३९॥
चौपाई—भूतल रुधिर परै जो येहू। द्वादश वर्ष न वरसै मेहू॥
यह कहि पुनि नि भवन सिधाई। पर विराटके मन नहिं आई॥
दुर्भिक्ष (अकाल) मृत्यु (महामारी) और अनावृष्टि होगी अर्थात् पानी नहीं बरसेगा इस बातमें सन्देह मत करना। इस तरह कहकर फिर मालिनी अपने भवन (घर) को सिधारगई॥४०॥ हे राजन्! उसी अवसरमें वहाँ उस सभामें बृहन्नटसमेत उत्तर कुमार आये और फिर उत्तर धर्मनन्दन युधिष्टिरका॥४१॥ दर्शन करके नमस्कार पूर्वक खडे होगये, तब महाराज युधिष्ठिरने भी अशीश देकर उनकी बडाई करी। फिर उत्तर कुमार डरेहुए आदमीकी तरह युधिष्टिरके पास पहुँच॥४२॥ प्रीतिसे नम्र होकर बार बार प्रणाम करनेलगे, और वारंवार उनके पैरोंमें झुककर ‘रक्षा करो! रक्षा करो!’ इस तरह कहने लगे॥४३॥ धर्मनन्दन युधिष्ठिरके प्रति अपने पुत्रकी ऐसी नम्रता देखकर महाराज विराट बडे अचंभेमें हुए और विचार करनेलगे॥४४॥ कि यह उत्तरकुमार क्या मेरे धोखेमें कंकको वारंवार प्रणाम कररहेहैं? या श्रेष्ठ ब्राह्मण समझकर कररहेहैं? अथवा इसको बूढा समझकर ऐसे नमस्कार कररहे हैं?॥४५॥ अथवा कौरवोंकी सेना देखकर इससेमेरे बेटेको भ्रम होगयाहै। इस प्रकार अचंभेमें भरेहुए महाराज विराटसे उनके बालक उत्तरने कहा॥४६॥ उत्तर कुमार बोले हे पिताजी।इन (महात्मा) कँकके माथेपर यह खूँन कैसा दिखाई देरहाहै? हे तात! मालूम होताहै कि आप अवश्य
अधर्मयु हुएहैं इसमें संशय नहीं॥४७॥ तब अपने पुत्रको इसतरह विकल (घबरायाहुआ) देखकर राजा विराटने कहा हे पुत्र ! यह क्या (तमाशा) करते हो? और ऐसे घबरा क्यों रहेहो। सो तो बताइये॥४८॥
इति नानावदन्तं तं पितरं ह्युत्तरः रे॥
धृत्वाप्युत्थाय चै++न्तेनीत्वा सर्वंन्यवेदयत॥
इस तरह अनेक बातें कहते (पूछते ) हुए पिताकाहाथ पकडकर उत्तरकुमारने उठाया और फिर एकान्तमें लेजाकर उनसे सब हाल कहदिया॥४९॥
चौपाई
उत्तर तब इकान्तमें आयो। भूपति सों यह वचन सुनायो॥
आज वृहन्नटसब दल जीती। कौरव गयो युद्धसों रीती॥
मारि शूर सब दीन्ह भगाई। प्रबल पवन जिमि मेघ उडाई॥
भयो मौज नृप धाम सिधावा। भीतर उत्तर बोलि पठावा॥
युद्धकथा सिगरी हि दीनी। सारथिकी शरजाप्रवीनी॥
है अर्जुन जिन कौरव हमारे।दिवस इते इहि ठौरनिवारे॥
यहि प्रकार सुत हि समुझाये। नि विराट तब अति+++पाये॥
इति श्रीभारतसारे विराटपर्वणि भाषायां विराटोत्तरसंवादे
एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५१॥
द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ५२.
द्विपञ्चाशत्तमेऽध्याये मानप्राप्तिर्विराटतः।
युधिष्ठिरादिपञ्चानां ++धुत्वं चापि++थ्यते॥१॥
इस बावनवें अध्यायमें महाराज विराटसे युधिष्ठिरादि पाँचों पाण्डवोंको मान मिलना और उनकी सज्जनता यह कथा कही जातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
विराटो विस्मितस्तत्र पुत्रेणैवं प्रबोधितः॥
++गाम त्वरया राजा धर्मपादारविन्दयोः॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय! जब पुत्रने यह बातें समुझाईं, तब तो महाराज विराट बडे अचंभेमें हुए और उन्होंने जाकर शीघ्रतासहित धर्मराज युधिष्टिरके चरण कमल पकडलिये॥१॥और फिर साष्टांग प्रणाम करके सान्त्वनासहित अर्थात् उनको सन्तोप देतेहुए इसतरह कहनेलगे। विराटने कहा हे देव! आपही मेरे स्वामी, आपही प्रभु, आपही देवता और आपही मेरे मातापिता हैं॥२॥ हे धर्मनन्दन! मैंने मूर्खतासे जो अपराध कियाहै, उसको आप क्षमा करदीजिये। यह सप्तांग (सात अँगोंवाला) राज्य आपकाही है, और मेरे प्रति करुणा कीजिये॥३॥आप हमारे स्वामी हैं, अत एव हम सबको सेवकके काममें नियुक्त कीजिये। किन्तु हे नाथ! मैं आपसे एक बातकी प्रार्थना करताहूँ आशा है कि, उसको आप अन्यथा नहीं करेंगे?॥४॥ अर्थात् मेरी जो यौवनवती उत्तरा नामवाली पुत्री है, वह अर्जुनके सन्तोषार्थ उनको अर्पण करना चाहताहूँ अत एव मेरे प्रति आप प्रसन्न होजाइये॥५॥ जब महाराज विराटने युधिष्ठिरसे इस तरह कहा, तब विराटके वचनोंको मना करतेहुए अर्जुन धर्मराज युधिष्ठिरके प्रति कहनेलगे॥६॥ अर्जुन बोले। हे भाई! यह उत्तरा मुझको नृत्य घरमें पिताके समान मानचुकी है, और मैंनेभी इसको शिष्यभावद्वारा कन्याकी तरह मानलियाहै॥७॥ अर्जुनकी यह बात सुनकर विराटने कहा हे पार्थ! हे नाथ! हे लम्बी भुजावाले! आप मेरा निश्चय (संकल्प) सुनिये॥८॥ यदि आप मेरी इस कन्या उत्तराको स्वीकार नहीं करेंगे, तो मैं अपने प्राण त्यागदूँगा।
विराटका यह निश्चय जानकर धर्मपुत्र युधिष्ठिरने॥९॥कृपायुक्त हो वाणीद्वारा महाराज विराटको सन्तुष्ट करतेहुए कहा हे राजन्! अब आप मेरी बात सुनिये। हे प्रभो! विषाद मत कीजिये॥१०॥हे राजन्! अर्जुनका षोडशवर्षीय (सोलहवर्षकी अवस्थाका) एवं बडा बलवान युवापुत्र है, जो कि सुभद्राका बेटा और श्रीकृष्णका भानजा है॥११॥हे महाराज! यह वर अत्यन्त उचित है अत एव आप इसको छोडकर दूसरा विचार मत कीजि। विराटने कहा ‘यही हो’ यह देखकर महाराज युधिष्ठिरने आदरसहित वह सारा समाचार लिखकर दूतको श्रीकृष्णके निकट द्वारकापुरीमें भेजदिया कि हे कृष्ण! हे अप्रमेयात्मन्! हे नारायण! हे जगद्गुरो!॥१२॥१३॥हे शरणागत, दीन और दुखियोंकी रक्षा करनेमें तत्पर! हे परमानन्द! मैं धर्मपुत्र युधिष्टिर आपकी शरणागत हूँ अत एव आप मेरी रक्षा कीजिये॥१४॥आपके सिवाय न मेरा दूसरा देवता है और न भाई हैं, इस कारण हे नाथ! आप सब तरहसे मेरे प्रति प्रसन्न हूजिये॥१५॥
चौपाई—दीननाथ दयालु गोसाई। हमारी हमारी सदा सहाई॥
कृपासिंधु देवन ++रसाईं। द्रुपद ताकी लाज बचाईं॥
करी आश प्रह्लाद पुकारे। हरी त्रास हिरनाकुश मारे॥
कही भूप यह त्रिभुवनं राई।सदा रहत तुम मोर सहाई॥
तुम्हरी कृपा विपति भइ दूरी। ह्वैदयालु कीन्हो सुख भूरी॥
अभिमनु व्या रचो है रा++।आइये यहाँ समेत समाजा॥
दोहा—करिआये हो ++रतहो,करिहौं सदा सहाई।
सहित मातुःअभिमन्यु लै,आपुहि पहुँचो आइ॥
दूत द्वारका नगरको, भेजो अति सुख पाय।
वार न लागी बाटमें, कहीं कृष्णसों जाय॥
हे तात! पूर्वमें हमने जो प्रतिज्ञा करीथी, वह तेरहवें वर्षमें नष्टचर्यारूपी प्रतिज्ञाभी यहाँ विराटपुरीमें आपकी आज्ञासे पूरी होचुकी॥१६॥ अब इसके पीछे महाराज विराट आपके भानजेऔर सुभद्राके पुत्रको अपनी कन्या प्रदान करनेके लिये तइयार हुएहैं अर्थात् अभिमन्यु कुमारके साथ अपनी उत्तराकुमारीका विवाह करना चाहतेहैं॥१७॥ अत एव हे विष्णो! इस कामको आप सम्पादन कीजिये, क्योंकि हमलोगोंका दूसरा पालक कोई नहीं है, इस कारण पुत्रसहित सुभद्रा और बहन इत्यादि आप सव जनोंको॥१८॥ जैसी विराटराजाकी सामर्थ्य (सम्पत्ति) है, तदनुसार ही आना उचित है, हे राजन्! महाराज युधिष्ठिर ने इस तरहकी और भी बहुतसी बातें पत्रमें लिखकर दूतको (द्वारका पुरीमें) भेजदिया॥१९॥ हे महाराज! इसके पीछे राजा युधिष्ठिरने राजा द्रुपदके विषयमें विराटको विदित करके उनके बुलानेकोभी दूत भेजा॥२०॥ इसी बीचमें विभव (सम्पत्ति ) युक्त उत्तम हायवाले, सामर्थ्यवान और महान् महाराज विराटने आनन्दित होकर उत्सव किया॥२१॥ फिर पाण्डवोंको बैठालकर उन राजा विराटने तरह तरहके गहने, कपडे और भाँति भाँतिके रत्नोंद्वारा॥२२॥ उनकी पूजा करी (इसप्रकार ) उनको विभूषित करके मान देनेवाले महाराज विराट अत्यन्त आनन्दित हुए। तदनन्तर धर्मात्मा, नृपश्रेष्ठ और भाइयोंके सहित विराजमान युधिष्टिरको॥२३॥सिंहासनपर बैठालकर उनका अभिषेक किया। और उनको अपना सप्ताङ्ग राज्य निवेदन करके आप दास होकर खडे होगये॥२४॥ तब उनकी इस तरह नम्रता और विनय देखकर धर्मराज युधिष्टिरकहनेलगे। धर्मराज बोले। हे महाप्राज्ञ! हे साधो! आप सत्यसन्ध और महारथी है॥२५॥
हम लोगोंने आपका अ++खाया है, और सुखपूर्वक यहाँ निवास कियाहै और न चर्यामें हमने तेरहवाँ वर्ष निकालदियाहै॥२६॥ हे राजेन्द्र! आपके घर रहतेहुए हमारा एक वर्ष आधे पलकी नाईं बीतगया। अत एव हे प्रभो! आपकी तरह हमारा हितकारी राजा दूसरा कोईभी नहीं है॥२७॥
इति नानाविधैर्वाक्यैर्विराटं तोषयन्नृपः॥
धर्मस्तस्थौ च तत्रैव नृपरीत्या सुखेन वै॥२८॥
महाराज युधिष्ठिर इस तरह भाँति भाँतिके वचनोंसे राजा विराटको सन्तुष्ट करतेहुए वहाँ राजाओंकी रीतिके अनुसार सुखपूर्वक रहने लगे॥२८॥ इति श्रीभारतसारे विराटपर्वणि भाषायां युधिष्ठिरराज्याभिषेको नाम द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५२॥
त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ५३.
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त्रिपंचाशत्तमेऽध्याये वा देवागमस्तथा।
अभिमन्योरुत्तराया उद्वाह वै थ्यते॥१॥
इस तिरपनवें अध्यायमें भगवान् वासुदेव श्रीकृष्णका (विराट नगरमें) आना तथा अभिमन्यु और उत्तराका पाणिग्रहण (विवाह) होना, यह कथा कही जाती है॥१॥
वैशंपायन उवाच।
एवं च समये राजन्कृष्णः सात्यकिना सह।
भद्रां रथमारोप्य सपुत्रां सपरिच्छदाम्॥१॥
वैशंपायनजी बोले, हे राजन् जनमेजय! उसी समय भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराज, यादव सात्यकी, पुत्र और बहुतसी सामयीसमेत सुभद्रादेवीको रथमें सवार कराकर॥१॥ बहुत सारी सेनासे युक्त और बहुतसे यादवोंद्वारा (चारों ओरसे)
घिरेहुए आनंदमें भरे मांगलिक उत्सववाली विराटपुरीमें आनकर उपस्थित हुए॥२॥ तब महाराज विराटने तरह तरहकी भेंट सामग्री और बहुतसे रत्नोंद्वारा उन भगवान् माधवका स्वागत किया॥३॥अनन्तर अमृतरूपी वचनोंद्वारा उनको प्रेम उत्पन्न करतेहुए, भगवान् श्रीहरिसे कहने (विनती करने) लगे कि देवदेव! आप कृपालु हैं, और हम आपके दीन दास हैं अत एव हमारी रक्षा कीजिये॥४॥
चौपाई
दोउकर जोर कृष्णके आगे। विनय ++रन विराट नृप लागे॥
श्रीयदुनन्दन मुनि जन वन्दन।कल्मषहर सब दुष्ट निकन्दन॥
जगतारण ख वदन विदारण। दुख टारण गजराज उचारण॥
जग पावन सन्तन मन भावन। व्रज++वन गिरिवर नख ++वन॥
जन मन रञ्जन भव भय भञ्जन। दनुज विमर्दन भव धनु गञ्जन॥
कंस विनाशन प्रभु गरुडासन।यदुवंशी अवतंस प्रकाशन॥
असुर निवारण मुनिजन पारण। कुञ्ज विहारण गणि+++तारण॥
जगधर नगधर पीताम्बर धर। हरि दामोदर हलधर सोदर॥
सिन्धु सुतावर श्रीराधा वर। सर्व निवारण सर्वदेव पर॥
जनक ताभूषण भव भूषण। सुररिपु दूषण ++खलजल पूषण॥
भक्तन हितकर हरिनिशिचारी।शुभगति ++री भव भय हारी॥
दोहा
करि अस्तुति श्रीकृष्णकी, भूपति अति सु++पाय।
बार बार प्रभुचरणमें, रहिगो शीश नवाय॥
हे देव! आप हमारे ऊपर कृपा कीजिये। और हमारा पालन कीजिये। हे जनमेजय! इस तरह राजा विराट स्तुति कर रहेथे कि इसी वीचमें महाराज द्रुपदभी अपनी रानी, सेना और कुटम्ब समेत अपने देशसे चलकर विराटनगरमें आपहुँचे॥५॥ तव महाराज युधिष्ठिरने राजा विराट और श्रीकृष्णके सहित
महीपति द्रुपदकी पूजा करी अर्थात् उनका आदर सत्कार किया और फिर श्रीकृष्णने तरह तरहके (सुन्दर) घरोंमें महाराज द्रुपदको सेना समेत टिकाया॥६॥ इसके पीछेवहां राजा विराट और धर्मनन्दन युधिष्ठिरने उत्तरा तथा अभिमन्युका विवाह किया और फिर श्रीकृष्णनेभीइस समयपर महामहोत्सव किया॥७॥
अनुरूपं वरं लब्ध्वा कृतार्थाऽभूत्तदोत्तरा।
विराटेन च ते सर्वे विधौ येयेसमागताः॥
पूजिता वैष्णवास्तत्र वासोऽलङ्कारवाहनैः॥८॥
तब हमारी उत्तराभी अभिमन्यु कुमारको अपने अनुरूप वर पाकर कृतार्थ होगई। इसके पीछे जो सब वैष्णव पुरुष इस विवाहमें आयेथे, महाराज विराटने वस्त्र, गहने और वाहनों (हाथी घोडे पालकी रथादि) के द्वारा उन सबका पूजन किया॥८॥
दोहा
शुभघटिका शुभलग्न गणि, शुभ वारहि सो पाय।
रचो व्याह अभिमन्युको, मंगल चार कराय॥
भाँवरि पारथ देखि कृत, पांचों भाय हुलास।
रयोव्याह विधिवत सकल, धौम्य सहित षि व्यास॥
दोऊ लकी रीतिसौं, करि विवाहसुखदानि।
वाजी गज रथ हेम मणि, दीन्हों नृप सुख खानि॥
इति श्रीभारतसारे विराटपर्वणि मुरादावादनगरनिवासि कान्यकुब्जवंशावतंस स्वर्गीय
मिश्रसुखानन्दात्मजपण्डितश्रीकन्हैयालालमिश्रकृतभाषाटीकायांमभि-
मन्युविवाहो नाम त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५३॥
इति श्रीभाषाभारतसार विराटपर्व समाप्तम्॥
॥श्रीः॥
भारतसार भाषा
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उद्योगपर्व
जय जय जय ++खमा सदन, भक्तन प्रान अधार।
कृपा करहु मोदा ++पहँ, अपनी ओर निहार॥
तुम्हरी कृपा टाक्ष सौं, भोगत बहु विधि भोग।
सो प्रभु तुमकूँ सुमिरि अब कहू पर्व उद्योग॥
जिन हरिको निर्गुणसगुण, एक अनेक विधान।
बहुमत बहुश्रुति बहुस्मृति, करत विविधविध गान॥
वर्णत विविध विधान सब, नहिं पावत ++छु पार।
++तें य निर्णय कियो, नेति नेति निरधार॥
शीश नाय बिनती करत, मिश्र कन्हैयाला॥
करहु मनोरथ पूर्ण मम, ब्रज जीवन नँदला॥
चतुष्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ५४.
चतुष्पञ्चाशत्तमे च राज्यार्थे प्रार्थना हरौ ।
पाण्डवानां वरप्राप्तिर्विदुरस्य च कथ्यते॥१॥
इस चौअनवें अध्यायमें श्रीकृष्णके सन्मुख राज्यके निमित्त पाण्डवोंकी प्रार्थना और विदुरजीको वर मिलना यह कथा कहीजातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
एवं विवाहे सञ्जाते धर्मः कृष्णमथाब्रवीत्।
धर्म उवाच।
कृष्णकृष्णाप्रमेयात्मन् यदैवं त्वं न चान्यथा॥
सर्वज्ञः+++र्वदः ++र्वःसर्वाधारो महीधरः॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय! इसप्रकार विवाहकार्य समाप्त होजाने पर धर्मराज युधिष्ठिरने श्रीकृष्णसे कहा। धर्मराज बोले हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे अप्रमेयात्मन्! जिस समय देखो, उस समय मेरी रक्षा करनेवाले आपही हैं, दूसरा कोई नहीं है, सर्वज्ञ (सब बातके++ता) सर्वद अर्थात् सारी अभिलाषाओंके देनेवाले, सर्व अर्थात् विश्वरूपी, सर्वाधार (सबके सहारे) और धरणीधर॥१॥ सब किसीके एकही स्वामी, और सारे देहधारियोंके नाथ आप मेरे शरणस्थल हैं हम बारहवर्ष पर्यन्त वनमें गुप्त रीतिसे निवास करतेरहे॥२॥ और हे प्रभो! इस तेरहवें वर्षमें हमने विराटपुरीमें गुप्तरूपसे टिकेरहकर अपनी प्रतिज्ञाको पूरा किया॥३॥ किन्तु अब यह चौदहवाँ वर्ष आनकर उपस्थित है अत एव इस समय हमको क्या करना चाहिये? इसकी आज्ञा दीजिये। धर्मराज युधिष्ठिरकी यह बात सुनकर श्रीकृष्ण कहनेलगे॥४॥ श्रीकृष्ण बोले हे महापण्डित! आपने अति उत्तम बात कही। हे सत्यभाषी! हे दृढव्रत! सत्य बातसे परम तुष्टि और सत्यके द्वाराही परम गति हुआकरतीहै॥५॥ आपने बारह वर्षतक वनमें निवास करके अपनी प्रतिज्ञाको पाला और फिर तेरहवें वर्षमें आपने यथोक्त ++नष्टचर्याभी करी॥६॥ हे महाराज! अब आप मेरी देशकालोचित बात सुनिये।प्रथम ऐसी सम्मति (सलाह) है कि प्रतीतिके संग सन्धि (मेल अथवा सुलह) करलीजावे॥७॥ और यदि उस मे इनके द्वारा पृथ्वीका आधा अंश (हिस्सा) भी प्राप्त होजावे अथवा आधेकाभी आधा अंश प्राप्त होजावे तो इतनीही पृथ्वीसे आपका ठीक काम चलजायगा, हे साधो। इस मिलापको छोडकर दूसरी तरहसे तो गोत्रका नाश हुआजाताहै॥८॥ किन्तु इसमें
सन्देह नहीं कि संग्राम करनेपर आपको सारी पृथ्वी मिलजायगी इस कारण आप दुर्योधनके पास किसी उत्तम (चतुर) मन्त्रीको भेजदीजिये॥९॥ वह वहाँ पहुँचकर आधा राज्य माँगे, फिर उसका आधा अर्थात् चतुर्थ अंश माँगे और यदि कदाचित चौथा अंश राज्य देनाभी स्वीकार न करे तब केवल पांचही ग्राम माँगलेने चाहिये॥१०॥ हे युधिष्ठिर! अथवा वह दुर्योधन माँगनेपर एक ग्रामभी आपको देनेमें रांजी नहीं होगा, तो मुझको प्रायः दीखताहै कि यह सारा राज्य आपके अधिकारमें आजावेगा॥११॥और धृतराष्ट्रके सब बेटे मारेजाँयगे इसमें सन्देह नहीं।श्रीकृष्णकी ऐसी बातें सुनकर युधिष्ठिरने कहा॥१२॥ युधिष्ठिर बोलेहे स्वामिन्! हे प्रभो! आपके समान हमारी भलाई करनेवाला दूसरा कोई नहीं हैं, हे पुरुषोत्तम! जिसके निकट पहुँचकर हम अपने हृदयका दुःख सुनावें आपके अतिरिक्त हमारा ऐसा हितू और कोई भी नहीं है॥१३॥हमारे आपही स्वामी, आपही हितू आपही सुखकी परामर्श देनेवाले बान्धव और आपही सर्वस्व (सब कुछ) हैं। हे प्रभो! आपके सिवाय मेरा दूसरा कोईभी नहीं है॥१४॥ आप सारे कामोंमें कुशल (चतुर) हैं अत एव हे नाथ! मुझपर प्रसन्न हूजिये। और आपही सर्वान्तःकरणसे राजा दुर्योधनके पास जाइये॥१५॥ हे परमानन्द! दुर्योधनके निकट अवश्य आपही जानेलायक हैं दूसरा नहीं, हे विभो! अब आपके चित्तको जो रुचे सो कीजिये॥१६॥ और प्रायः जिस प्रकार युद्ध नहीं करना पडे, आपको शीघ्रतासे वही काम करना चाहिये। क्योंकि युद्धके बिना मुझको जो कुछ भी मिलजायगा, वही पदार्थ मेरे लिये सुखका देनेवाला होगा॥१७॥ धर्मराज युधिष्ठिरकी यह बातसुनकर भीमसेन ने कहा भीमसेन बोले। हे धर्मसागर! हे सत्यवा-
दिन! आप वृथाही भीख किस लिये माँगतेहैं ?॥१८॥ यदि खड्ग(तलवार) की धार द्वारा मोल लियाहुआ एक घासका वीडाभी मिलजाय, तो वह अति उत्तम है। हे देव! युद्ध विना तो सारी भूमिभी मुझको नहीं रुचती है॥१९॥ इस तरह भीमसेनके कहनेपर धर्मराज युधिरिने प्रार्थना करके श्रीकृष्णको भेजदिया। तब श्रीकृष्णजी बहुतसे हलकारों (दूतों) समेत हस्तिनापुरको गये॥२०॥ और फिर सब जनोंको बाहर खडा करके आप विदुरजीके घरमें पहुँचे तब श्रीकृष्णभगवान्को आयाहुआ देखकर विदुरजी अपने मनमें बडेही आनन्दित हुए॥२१॥ और अपने आपको हर्षरूपी समझा, जिस तरह कंगाल आदमीको किसी भाँतिका खजाना मिलजानेपर भी वह बहुत आनन्दको प्राप्त होताहै उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णके आजानेसे भक्त विदुरजी अत्यन्त आनन्दित हुए। विदुरजी बोले हे देवदेव! आपका आगमन दासका पालन करनेके निमित्त हुआ है सो अति उत्तम है॥२२॥२३॥ जिन देवताकी कृपा प्राप्त करनेके लिये योगीजन वनमें वास करते महान दारुण तपस्या करके भाँतिभाँतिसे अपनी कायाको क्लेश दिया करतेहैं॥२४॥ अत एव जो देवता उनके भी नयनगोचर नहीं होते अर्थात् योगीजनोंकोभी जिनका दर्शन नहीं मिलता, वही देवता मेरे घर आयेहैं। अस्तु, आपके चरणकमलोंसे अंकित होनेके कारण आज मेरा घर पवित्र होगया॥२५॥ आपका दर्शन मिलनेसे आज मेरा जन्म सफल होगया, आज मेरे पितरतृप्त होगये, और आज मेरे पितामहभी तृप्त हुए॥२६॥हे गोविन्दः! जो कि आज आप मेरे घर आयेहैं इसलिये मेरे मातामह तृप्त हुए।इसप्रकार विनती करके विदुरजीने उनको वहाँ यथाविधि अर्घ्य दिया॥२७॥ और फिर चरण धोकर वह चरणामृत भक्तिपूर्वक अपने मस्तकपर
दिडका और गोविन्द भगवानको स्नान कराकर चन्दनसे अनुलिप्त (चर्चित) किया॥२८॥ और फिर उत्तम अन्नका भोजन कराय ताम्बूल दिया और उनके आगे मस्तक झुकाय प्रणामपूर्वक विदुरजी कहनेलगे॥२९॥
दोहा
मोतें को संसार ++महँ, महा अधम यदुवीर।
अधम उधारन नाम तव, सुनत होत उर धीर॥
भक्तव++तव नाम नि, तब मन बडो डराय।
सुने पतित पावन बिरद, हर्ष न हृदय समाय॥
चौपाई
पूरब नाथ पाप हम कीन्हा। दासी योनि जन्म विधि दीन्हा॥
अब भाजन नहिं भजन तुम्हारा।केहि विध नाथ मोर निस्तारा॥
विदुरजीने कहा। हे प्रभो! हे देव! आप मुझसे दीनके प्रियकारण वा अप्रिय कारण सत्कार अथवा भोजनको आप क्षमा करके स्वीकार करलीजिये क्योंकि आप तो चिरकाल सारे पदार्थों से परिपूर्ण रहा करते हैं॥३०॥ हे जगन्नाथ! हे नरोत्तम! मैं इस पृथ्वीतलपर दरिद्रियोंमें शिरोमणि हूँ, तब फिर आपका अतिथिसत्कार क्या करसकताहूँ॥३१॥
चौपाई
परम अधीन विदुर मुख बानी। नि श्रीकृष्ण भक्ति रस सानी॥’
कीन्ह प्रबोध नाथ विधि नाना। हृदय++य कीन्हों सन्माना॥
++महो विदुर धर्म अवतारा। परम भक्त अरु ज्ञान उदारा॥
पुनि बोले श्रीकृष्णपानिधाना।चहै विदुर ++सो ले वरदाना॥
श्रीकृष्णजी बोले हे विदुरजी! मैं आपकी भक्तिसे इस समय बहुतही प्रसन्न हुआहूँ, क्योंकि साधु महात्मा पुरुष साधु महात्माओंका दर्शन करकेही सन्तुष्ट हुए, जहाँ तहाँ विचरण किया करतेहैं॥३२॥ ब्राह्मण भोजनसे सन्तुष्ट हुआ करतेहैं, मोर बादलोंके गर्जनेसे सन्तुष्ट हुआ करतेहैं, साधुजन पराये कल्याणसे संतुष्ट हुआकरतेहैं और दुष्ट खल पराई विपत्तिको (देखकर)
सन्तुष्ट हुआकरतेहैं॥३३॥ साधु महात्माजनोंका दर्शनही पुण्यस्वरूप है क्योंकि वे साधु महात्मा तीर्थस्वरूप हैं और फिर तीर्थ तो समयपरही फल दियाकरताहै, किन्तुसाधुका समागम तत्काल फलीभूत होताहै अर्थात् साधुकां दर्शन होजानेपर मनुष्यको उसी समय फल मिलजाया करताहै॥३४॥ विदुरजीने कहा हे जगन्नाथ! मेरे सामने आप ऐसी बात मत कहिये आपके चरणारविन्द त्रैलोक्यवन्दित हैं अर्थात् उनमें तीनों लोक शिर झुकातेहैं फिर मैं जीव तो एक (तुच्छ ) कीडा हूँ॥३५॥ श्रीकृष्णजी बोले अहो विदुर भक्त! मैं आपकी भक्तिसे सन्तुष्ट होगयाहूं, अत एव जो वर आपके मनको रुचिकारक हो, उसीको माँगलीजिये, मैं आपको वही दूँगा, इसमें सन्देह नहीं है॥३६॥ विदुरजीने कहा है नाथ! हे जगन्नाथ! (आपके चरणकमलोंमें) मेरा मन जिस तरह अब विद्यमान है, हे स्वामिन्! उसी तरह चिरकाल आपमें विद्यमान रहे, किसी समयभी आपसे अलग नहीं होवे॥३७॥ केशव! यदि आपके प्रति मेरी अचल (अटल) भक्ति है, तो मेरा चित्त आपके चरणारविन्दोंमें निरन्तर लगारहे, और मेरी आँखें आपके स्वरूपका दर्शन करनेमें चिरकाल (नित्य) लगी रहें। हें मधुदैत्यका नाश करनेवाले! आप मुझको (कृपापूर्वक) यही वरप्रदान कीजिये॥३८॥ हे नाथ! हे विभो! आपकी प्रसन्नताके सिवाय दूसरा वर मुझको कुछ नहीं माँगना है, केवल मात्र यही माँगताहूँ कि आप मुझपर (निरन्तर) प्रसन्न रहें! तब भगवान् जनार्दनने विदुरजीको अपना दृढभक्त देखकर ‘एवमस्तु’ कहा॥३९॥
चौपाई
देखि प्रीति सुनि वचन अमोले। एवमस्तु करुणा निधि बोले॥
फेर विदुर संग चले मुरारी। पहुँचे कुरुपति सभा मँझारी॥
इति तस्मै वरं दत्त्वा विष्णुर्हि विदुरस्तथा।
दुर्योधनसभायां तु जग्मतुश्च मुदान्वितौ॥४०॥
भगवान् विष्णु श्रीकृष्णचन्द्रने इस तरह विदुरजीको वर दिया और प्रसन्नतासहित विदुरजीको संग लेकर दुर्योधनकी सभायें गये॥४०॥ इति श्रीभारतसारे उद्योगपर्वणि भाषायां विदुरवरप्रदानं नाम चतुष्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५४॥
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पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ५५.
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पञ्चपञ्चाशत्तमे च सभायां विदुरेण च।
श्रीकृष्णसंगतिर्धाष्ट्यं कौरवाणां च कथ्यते॥१॥
इस पचपनवें अध्यायमें श्रीकृष्णका विदुर समेत दुर्योधनकी सभामें पहुँचना और कौरवोंकी ढिठाई यह कथा कही जाती है॥१॥
वैशंपायन उवाच।
श्रीकृष्णमागतं दृष्ट्वा विदुरेण समन्वितम्।
प्रेपितं पाण्डवैर्मत्वा सम्मुखे नाभवन्नृपः॥२॥
वैशम्पायनजी बोले हे जनमेजय! अनन्तर श्रीकृष्णजीको विदुरसमेत आयाहुआ देखकर राजा दुर्योधनने समझलिया कि यह पांडवोंके भेजेहुए आयेहैं, इसलिये वह सामने नहीं आया॥१॥ और भीष्म द्रोणादि सारे सभासदों समेत सामने पहुँचकर दूरसे आयेहुए श्रीकृष्णकी शीघ्रता सहित पूजा करी॥२॥ फिर भाँति भाँतिके उपहारोंद्वारा पूजा करके उनको सभामें लेआये और वहाँ आसन प्रदान करके उनके सुखसे बैठजानेपर सब कोई स्तुति करनेलगे॥३॥ तब महामति विदुरजीभी श्रीकृष्णजीके निकट विराजमान होगये, इस प्रकार श्रीकृष्णके
पूर्वक बैठजानेपर राजा दुर्योधन कहनेलगा॥४॥ दुर्योधन बोला हे कृष्ण! आप किस निमित्त आये हैं? और आपने किसके घरमें निवास किया है? हे विष्णो! और आप (इस समय) कहाँसे आरहे हैं? सो आप प्रारंभसे लेकर अन्ततक सत्यसत्य वर्णन कीजिये॥५॥ श्रीकृष्णने कहा हे राजन्! हे सुयोधन! मुझको आप विराटनगरसे चलकर पाण्डवोंके कार्यके निमित्त विदुरजीके घर आयाहुआ जानिये॥६॥ दुर्योधन बोला। हे मधुसूदन। हे पुण्डरीकाक्ष! आप भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य और मुझको छोडकर (दासीपुत्र) विदुरके घर क्यों रहे?॥७॥ और हे नरोत्तम! भोजन भी आपने उसीके घर क्यों किया? श्रीकृष्णने कहा कि हे राजन्! आप भोजनकी बात तो पूछ रहेहैं, किन्तु आदरकी बात क्यों नहीं पूछते ?॥८॥ क्योंकि भोजन तो पचकर निकलजाताहै, किन्तु सम्मान आदर अमर रहताहै यद्यपि प्राण त्यागदेना तो उत्तम है किन्तु मान खंडित होनेपर, जीवत रहना उत्तम नहीं॥९॥ क्योंकि प्राणत्यागनेमें तो क्षणभरकाही दुःख होताहै, किन्तु मानभंग होनेपर दिन दिन दुःख होताहै। यदि मुझको आदरपूर्वक अनेक तरहका शाकभी निवेदन कियाजाय॥१०॥ तो वह मेरे शरीरको प्रसन्न करताहै अर्थात् उसके द्वारा मेरे आत्माकी तृप्ति होतीहै, किन्तु मानहीनतासे निवेदन किया हुआ अमृत भी मेरे प्राणोंकी तृप्ति नहीं कर सकता क्योंकि जो आदमी विना बुलाये पराये घर जायाकरताहै, विना पूछे बात कहताहै॥११॥ और विना दिये आसनपर बैठताहै, उसको रुषों में अधम जानना चाहिये। वह विना मानके जो भोजन किया है उसकी अपेक्षा तो मरजाना उत्तम है, परन्तु वह भोजन उत्तम नहीं॥१२॥ हलाहल विषका पीजाना तो अति उत्तम बात है, क्योंकि वह शीघ्रही
प्राणनाश करडालताहै, किन्तु बाँके टेढे धनी आदमीके घरमें भोजन करना ठीक नहीं॥१३॥ अधम (नीच) आदमी धनकी इच्छा किया करताहै, मध्यम (मझोला) आदमी धन व मान दोनोंकी कामना किया करताहै, और उत्तम आदमी केवल मानकीही चाहना किया करताहै क्योंकि वह मानही महत् पुरुषका धनहै॥१४॥ हे दुर्योधन! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, इनमें विवेकही (ज्ञानही) श्रेष्ठ पुरुषोंका सार है, हे मनुजाधिपति! कुलहीनता करकेभी विवेक (ज्ञान) हुआ करताहै, तिसमें श्रेष्ट पुरुषोंका सार समझना चाहिये ॥१५॥और भी जो सत्यवादी तथा पवित्रतामें तत्पर रहनेवाले उन, शूद्रोंके घरभी भोजन करना उचित है, फिर विदुरजी तो निरन्तर पवित्र रहनेवालेहैं॥१६॥ क्योंकि जो निरन्तर श्रेष्ट मनुष्योंके आचारमें तत्पर हैं और सदैव दूसरे संगसे हीन हैं, जो कुलहीन ज्ञानी है, यदि उनके घर आहार कियाजाय, तो किसी तरहका दोषनहीं लगा करताहै॥१७॥ देखिये तप करकेही कमलोत्पन्न सर्वलोकपितामह भगवान् ब्रह्माजी ब्राह्मण हुएहैं, अतएव जाति कुलीनताका कारण नहीं होसकती॥१८॥ फिर देखिये महामुनि श्रीवेदव्यासजी महाराज कैवत्तीके गर्भसे उत्पन्न होकर तपस्याके द्वाराही ब्राह्मण हुएहैं, अत एव जातिको कुलीनताका कारण नहीं समझना चाहिये॥१९॥ महामुनि श्रीवाल्मीकिजी महाराजभी भीलनीके पेटसे जन्म लेकर तपस्याद्वाराही ब्राह्मण हुएहैं, इसलिये जातिको कुलीनताका कारण नहीं जानना चाहिये॥२०॥ फिर देखिये क्षत्राणी के उदरसे उत्पत्ति लाभ करके महामुनि (तपोधन) विश्वामित्रजी महाराज तपस्याद्वाराही ब्राह्मण और (ब्रह्मर्षि)हुए हैं, इस कारण जातिको कुलीनताका हेतु नहीं जानना॥२१॥ महामुनि ऋष्यशृङ्ग अर्थात् शृंगी ऋषिहिरनीके जठरसे
उत्पन्न होकर तपस्या द्वाराही ब्राह्मण हुएहैं, अत एव जातिको कुलीनताका कारण नहीं समझना॥२२॥ फिर देखिये महामुनि मांडव्यऋषि मंडूकीके पेटसे जन्म पाकर तपस्याद्वाराही ब्राह्मण हुएहैं, अत एव जातिको कुलीनताका कारण नहीं मानना॥२३॥ फिर देखिये अगस्त्यनामवाले महामुनि तो कुंभयोनि हैं अर्थात् इनका जन्म घडेसे हुआहै, किन्तुयह भी तपकरकेही ब्राह्मण हुएहैं, अतएव जातिको कुलीनताका कारण मत समझिये॥२४॥ महामुनि वशिष्ठजी भी उर्वशीके उदरसे उत्पन्न होकर तपस्याद्वारा ही ब्राह्मण हुएहैं, अत एव जाति कुलीनताका कारण नहींहै॥२५॥ फिर देखो महामुनि द्रोणाचार्यभी कंचनके कलशसे उत्पन्न होकर तपस्याद्वाराही ब्राह्मण हुएहैं, अत एव जाति कुलीनताका कारण नहीं होसकती ॥२६॥ हे दुर्योधन! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंमें आचारही पहला धर्म कहागयाहै, और अनाचारको ही अधर्म कहाहै॥२७॥ अन्यान्य जो सत्यभाषी और पवित्र रहनेवाले शूद्र हैं, उनके घरभी भोजन करलेना चाहिये, फिर विदुरजी तो बहुश्रुत ओर ज्ञानवान् आदमी हैं॥२८॥ अब आप पांडवोंकी ओरका हाल सुनिये आप एकसौ भ्राता और हम पांच भ्राता हैं, सो यह संख्या तो आपसमें शत्रुता रहनेतक है, क्योंकि हे महाराज! मिलाप होजानेपर हम और आप एकसौ पांच भ्राता हैं॥२९॥ वह पतिव्रताद्रौपदी दिन दिनमें स्वामीसे मिलकर अग्निमें प्रविष्ट हुआ करतीहै, अत एव वह अग्निस्नाता द्रौपदी पुण्यपापमें लिप्त नहीं होती॥३०॥ और दूसरे किसी आदमीकी बुराई करना वह जानतीही नहीं, क्योंकि वह तो निरन्तर भगवान् विष्णुकी भक्तिमें निरत रहतीहै, सका जन्म विना मैथुनके हुआहै और पांडवभी पापरहित हैं॥३१॥ सत्य बात कहनेवाले, पवित्रा-
चारी, ज्ञानवान्, पक्के व्रतवाले; और संपूर्ण शास्त्रोंके वक्ता महात्मा विदुरजीको कौन उल्लंघन करसकताहै!॥३२॥ दुर्योधन बोला। हे कृष्ण! मानहीन राज्य मानहीन धन और मानहीन ठकुराई भी उत्तम है, किन्तु मानहीन जीवन उत्तम नहीं॥३३॥ घोर वनमें निवास करना अच्छा है, भीख माँगना अच्छा है और पराये घरकी सेवा (टहल) करनीभी अच्छी है, किन्तु मान रहित जीवन अच्छा नहीं॥३४॥ श्रीकृष्णने कहा हे राजन्! अब जिस लिये मैं आयाहूँ, वह मेरा प्रयत्न सुनिये। हे नराधिप। मुझको धर्मपुत्र महाराज युधिष्ठिरने आपके पास भेजाहै,॥३५॥ यदि आप बहुत समयतक राज्य करना चाहतेहैं, तो मेरा कहना कीजिये।पांडवोंने बारह वर्षतक तपस्या करी है, और तेरहवें वर्षमें नष्टचर्या करीहै॥३६॥ हे महाराज! वे पांडव इस समय आपसे केवल पांचही ग्राम मिलजानेकी चाहना करतेहैं, और यदि इतनेपरभी संधि (सुलह) न होवे, तो भवितव्य अर्थात् होनेवाली बात नहीं टलती (यही मानना पडेगा)॥३७॥ जो कि कोप सत्यका नाश करडालताहै, तपस्याको नष्ट कर डालताहै, पूर्वपुण्योंको नष्ट करडालताहै, एवं धर्म और मोक्षका सत्यानाश करडालताहै, अत एव कोपकी सदृश दूसरा वैरी कोई नहीं है॥३८॥ आप एकसौ एक भ्राता और पांच पांडव हस्तिनापुरमें इस सारी भूमिको परस्पर आधी आधी बाँटके भोगिये॥३९॥
चौपाई
विग्रह आपसको नहिं नीका ।++डहु अब ब बात अली++॥
सो अब कहा हमारो कीजे। आधी भूमि बाँट नृप दी++॥
उन वनवसि बहु सहेकलेशू । तेहिते तुम ++हँ उचित नरेशु॥
पंच ग्राम पांडव ++हँ देहू । कल निवारण होय सनेहू।
इनके दिये मिटत है ++रारी। नावर होइहि अनर भारी॥
दोहा
चित्र वीर्यके पाण्डु नृप, चित्राङ्गदके आप।
हौ एकै कछु भेद नहिं, तातें करहु मिलाप॥
हे महाराज! आपको अपने गोत्रका नाश नहीं करना चाहिये। ‘क्योंकि (संधि होनेपर) आप एकसौ पांच भ्राता हैं, और आप सब भ्राता तीनों भुवनमें भलीभाँति शोभाको प्राप्त होतेहो॥४०॥ पैने व तीखे बाणोंकी तो बातही क्या है? आपको फूलोंसेभी तो युद्ध नहीं करना चाहिये क्योंकि लडाईमें ++ख्य मुख्य वीरोंका नाश होनेपर भी विजयमें संदेहही रहाकरतहै॥४१॥ राम और रावण, कंस और नहुष यह चार मूढ तो प्रथम होचुकेहैं किन्तु हे दुर्योधन! इस समय पाँचवें मूढ आप हुए हैं॥४२॥ हे महाराज! जब ( पहिले) चित्रांगद नामक गन्धर्व आपको पकडकर चित्रकेतुवनमें लेगयाथा, तब उस अर्जुननेही आपको छुडायाथा, सो इस बातको आप किस तरहसे भूलगये?॥४३॥ हे दुर्योधन! मैं आपके भलेकी बात कहताहूँ, सो सुनिये। उसको सुनकर आप (तद्नुसार) करना वा मत करना, किन्तु फिर मुझको दोष मत देना॥४४॥ हे महाराज! यदि आप (पांडवोंको) आधा राज्यभी देना नहीं चाहतेहैं, तो आधेका आधा अर्थात् चौथा हिस्सा वा उसकाभी आधा (आठवाँ हिस्सा) ही देदीजिये॥४५॥ हे महाराज! यह मैंने आपसे धर्मराज युधिष्ठिरका संदेशा कहा किन्तु अब भीमसेनका संदेशाभी सुनिये। अर्थात् उन्होंने ऐसा कहाहै कि, दुर्योधनादि कौरव राज्यको त्यागकर वनमें चले जावें॥ ४६॥ नहीं तो मैं उनको बन्धुसमेत, बलसमेत और सेनासमेत यमालयको प्रेरण करूँगा अर्थात् मारडालूँगा। य मेरी बात सत्यही जानना॥ ४७॥ हे राजन! अब जो सहदेवजीने संदेशा कहाहै, उसकोभी आप सावधान होकर सुनलीजिये।
हे कौरवपति! यदि आप महाराज युधिष्ठिरकी बातको स्वीकार नहीं करेंगे, तो आपका सत्यानाश होजावेगा (इसमें सन्देह नहीं)॥४८॥ आप यह सारी बातें मनमें सोंच समझकर मेरा कहना कीजिये क्योंकि जो आदमी मेरी वातको स्वीकार करके (तदनुरूप) काम कियाकरताहै, उसको कभी दुःख नहीं होता॥४९॥ इस कारण हे नृपोत्तम! आप सर्व प्रयत्नसे संधि करलीजिये। दुर्योधनने कहा हे कृष्ण! आपने जो बात कही, सो वह मेरे कानोंमें ही नहीं घुसी॥५०॥ भीष्मपितामह, गुरु द्रोणाचार्य, अथवा कर्ण और शल्य इत्यादि शुर (योधा) तथा महावीर दुःशासन जो कि लोहेकेभी सौभीमसेनका नाश करनेवालाहै॥५१॥ मद्रराज परमप्रसिद्ध जयद्रथ, तथा और भी महावलवान् अनेकानेक सुभट मेरे यहाँ प्रस्तुत हैं, हे कृष्ण! इन सव शूरोंकी बात क्या आपने नहीं सुनीहै!\।\।५२॥ हे जगन्नाथ! आप तो सर्वज्ञ अर्थात् सारी बातें जाननेवाले हैं फिर अब आप जडता (मूर्खता) को प्राप्त होरहेहैं? पांडवोंका वल तो द्रौपदीका वस्त्र (सारी) खींचनेके समय॥५३॥ मैंने प्रथमहीभली भाँति देखलियाहै, अब फिर आप वृथा अज्ञानीकी तरह किसलिये, बकवाजकररहेहैं? श्रीकृष्णने कहा हे दुर्योधन! द्रौपदी आपके खूनसे अपने बालोंको धोवेगी॥५४॥ उस काल आपकी माता गाँधारी देखकर खुले बालोंसे विलाप कलाप करेगी और आपके किरीट और राज्यभंगका दर्शन करूँगा॥५५॥ और यह जो भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य हैं, सो निरन्तर धर्मकी सेवा करनेवाले हैं, अत एव वे धर्मके निमित्त अपनी आत्मा प्रदान करदेंगे । इस बातको आप झूठ मत मानना॥ ६६॥ फिर हे राजन्! कर्ण इत्यादिका बल पुरुषार्थ विराटका गोधन ग्रहण करनेके समय देखलिया गया कि वहाँ अकेले
अर्जुनने उनकी रुईके समान धज्जी धज्जी उडादी॥५७॥ और दयायुक्त अर्जुनने उससमय उनका प्राण न हरकर केवल यशही हरण किया, आप यह (सब कुछ आँखोंसे देखकर भी) फिर मूर्ख आदमीकी तरह बात करतेहो?॥५८॥ रही द्रौपदीके वस्त्रहरणकी बात।सो चीर खेंचनेके समय यदि महाराज युधिष्टिर भीम और अर्जुन इत्यादिवीरोंको निवारण (मना) नहीं करते, तो आपका उसी समय वे सत्यानाश करडालते!॥५९॥ महाराज धर्मराज युधिष्ठिरके साधुपनसे आप लोग अबतक जीवित है, क्योंकि यदि उनका साधुपन नहीं होता, तो अबतक पहलेही अर्थात् कभीके आप सब लोग कालके कराल गालमें चलेगये होते॥६०॥ अत एव महाराज युधिष्ठिरमें आपकी जीवरक्षाके निमित्त सत्य विद्यमान है, सो यदि आप राज्यके आधे अंशको देना स्वीकार नहीं करतेहैं, तो पांच ग्रामही देदीजिये॥६१॥ अर्थात् इन्द्रप्रस्थ, तिलप्रस्थ, वारुणपुर, वाराणसी और पाँचवाँ हस्तिनापुर (उनको) प्रदान कीजिये॥६२॥ दुर्योधनने कहा कि हे कृष्ण! मैं इन्द्रप्रस्थ तो गुरुद्रोणाचार्यजीको दे चुकाहूँ, तिलप्रस्थ पुरोहित कृपाचार्यजीको दे काहूँ, वाराणसी भीष्म पितामहको दे चुकाहूँ और वारुणपुर रविनन्दन कर्णको दे चुकाहूँ॥६३॥ इसके अतिरिक्त हस्तिनापुरमें मैं स्वयं रहताहूँ। हे केशव! हे यदुश्रेष्ठ! इस भूमिपर पांच ग्राम भी खाली नहीं हैं॥६४॥
पुनि रिसाय बोलो कुरुराई । सुनिये कृष्णचन्द्र यदुराई॥
++ई अग्र महि उठे जो जेती । विना युद्ध हौं देउँ न तेती॥
फिर मैंने जो कुछ निश्चय कियाहै, उसको आप आदरसे सुनिये। हे देव! अत्यन्त पैने अग्रभागवाली ईकी नोकसे जितनी भूमिभी वेधी जासकतीहै उतनी भूमि
विना युद्धके मैं नहीं देना चाहता, फिर एक ग्रामकी बात तो दूर रही, क्योंकि वे पांडव म्लेच्छकी समान धर्म करने वाले पापी हैं, अर्थात् एक भार्याको पांच भर्त्ता भोगतेहैं॥६५॥॥६६॥ अत एव हे मधुसूदन। आप उनकी बातभी मेरे आगे मत कीजिये। श्रीकृष्णने कहा आप अंधेके पुत्रभी अंधेही हुएहैं और आपके निकट स्थितहुए यह सब जड हैं॥६७॥ क्योंकि मरनेवाला आदमी निकट आईहुई मृत्युको नहीं देखा करताहै, सत्य है विनाशकाल उपस्थित होनेपर मनुष्यकी मति मारीजाया करतीहै॥६८॥ दैवदंशित होनेपर अर्थात् प्रारब्धके दुष्ट होजानेपर आदमी क्षण भरमें मूर्ख होजाया करताहै, पुरुषका इसमें दोष नहीं हैं, होनेवाली बात अपने आपही होजाया करतीहै ॥६९॥ देखिये श्रीरामचन्द्रजी महाराज कंचनके हिरनको नहीं जानकर उसके पीछे दौडपडे, नहुषने अपनी पालकी उठानेके लिये सात ऋषियोंको जोतदिया, सहस्रार्जुनको यह बुद्धि हुई कि उन्होंने ब्राह्मण जमदग्निसे बछडेसमेत गायको छीनलेना चाहा, और फिर महाराज युधिष्ठिरने जुएमें अपने चारोंभाई तथा रानी द्रौपदीको हारदिया, अत एव अनर्थकाल उपस्थित होनेपर प्रायः अच्छे पुरुष अर्थात् द्विमानोंकी मतिभी मारीजाया करतीहै॥७०॥ देखो कंचनका हिरन पहले कभी नहीं हुआ और न कभी किसीने देखा, तथा न उसकी बातही कभी किसीने सुनी, किन्तु तथापि रघुनन्दन श्रीरामचन्द्रजी महाराजको उसकी तृष्णाहुई। सत्य है विनाशकाल उपस्थित होनेपर आदमीकी बुद्धि विपरीत होजायाकरतीहै॥७१॥ भूमण्डलके नरेशोंमें आप सरीखे महान राजा, विदुरसरीखे युयुधान, भीष्म, द्रोण, कर्ण, तथा कृपाचार्यसरीखे सभापति होनेपरभी और मेरे आने तथा पांडवोंके तनुफलार्थी अर्थात् थोडेसे
फलकी कामनावाले होनेपर भी यदि संधि (सुलह) नहीं होवे, तो अहो। इसको विधाताकाही कठिन बल (अमिट होनपार) समझना चाहिये॥७२॥ हे महामूर्ख दुर्योधन! आप अपने बन्धुबाँधवोंका सत्यानाश करनेवालेहैं क्योंकि रणस्थलके बीच हाथमें गदा लिये हुए क्रोधित यमराजकी समान भीमसेनको॥७३॥ जिस समय आप देखेंगे, तो अपने मनमें दीन होकर उनको सारी पृथ्वी देदेनेके लिये तइयार होजाओगे। फिर महावीर धनुष व तरकस युक्त, लीलापूर्वक वैरीके बाणोंका ग्रास करनेवाले और ध्वजाके अग्रभागमें साक्षात् रुद्ररूपी तथा भ्रुभंगमात्रसे प्रलय करडालनेवाले कपिकुंजर श्रीहनुमानजीवाले महाबलवान् वीर अर्जुन और भीमसेन इन दोनों जनोंका संग्राममें दर्शन करके आप सारी पृथ्वीके देनेको राजी होजायगे। श्रीकृष्णकी ऐसी निठुर बात सुनकर सब कौरव महान् क्रोधित हुए॥७४॥७५॥७६॥
चौपाई
सब कुरु वँशी उठे ++रिसाई। एक एक सन कहैं सुनाई॥
श्रीकृष्णको मारिनिकारो। यामें तनक नाहिं विचारो॥
ग्वाल वंश है जातिको नीचा। आबैठत राजनके बीचा॥
कि तौ पकारे कारागृह दीजै। मिटै प्रपञ्च बात यह कीजै॥
वे हमतेसरवरि कब करते। जो यह उनकर पक्ष न भरते॥
इनहीके बल वे वरियारा। यह अहीर है बडो गँवारा॥
नृपरुख लखि हरि अन्तर्यामी। भये अविउग्रउरग अरिगामी॥
++तुरत तब शारंगपानी । कहि तव मृत्यु निकट नियरानी॥
और ‘इस कृष्णको वध करडालो! वध करडालो!!’ इस प्रकार भगवान् केशवके प्रति कहने लगे, और फिर श्रीकृष्णको मारडालनेकी कामनासे वे कौरव हाथमें खड्ग लेकर खडे होगये॥७॥ इसी बीचमें प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण हंसे
और फिर अपने कामको प्रकट हुआ जान अपने पदाघातसे उस मंडपको कौरवों पर गिराय प्रसन्नतापूर्वक अन्तर्धान होगये। उसके आघातसे किसीका शिर टूटगया, किसी किसीका होठ नेत्र और नासिका टूटफूट गई॥७८॥॥७९॥ किसीके हाथपैर टूटगये, और किसी किसीका तो दमही निकल गया। तब उस समय भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य इत्यादिने दुर्योधनसे कहा॥८०॥ हे दुर्योधन! श्रीकृष्णकी कही बात सच्ची है, आप निःसन्देह अंधेके अंधेही पुत्र हैं, इसी कारण कालरूपी भगवान् श्रीकृष्णके सम्मुख आजानेपर भी उनको आप नहीं पहिचानसके॥८१॥ अरे मूर्ख! तैंने उनकी पूजा, नहीं करी, न मीठे वचनों द्वारा प्रसन्न किया और न हे मंदभागी! सर्व लोकोंके पितामह श्रीकृष्णकी तैंने स्तुतिही करी!॥८२॥ सुरासुरगण उनकी स्तुति किया करतेहैं, तुम्बुरु और नारद इत्यादि उनका यश गाया करतेहैं तथा लक्ष्मीजीभी उन देवकी निरन्तर प्रसन्नता चाहती रहतीहैं॥८३॥ अत एव आप उन पूर्णपरमात्माके सम्मुख क्या चीज हैं? अर्थात् तिनके ++समान भी नहीं हैं, भूमिका भारी भार स्वरूप राजाओंको नाश करनेके लिये॥८४॥ और साधु महात्माओंका पालन करनेके निमित्त (वे भगवान् श्रीकृष्ण) इस पृथ्वीतल पर अवतीर्ण हुए हैं। रे मूर्ख! अब बहुत कहनेसे क्याहै जो कुछतुझसे कहा गया, इसको सत्यही समझलेना॥८५॥ जो कि श्रीकृष्ण यहाँसे अकृतार्थ अर्थात् विफल मनोरथ होकर गयेहैं, इस कारण आपका सर्वनाश होजायगा। हे पुत्र। यह राज्यसे प्रकट हुई लक्ष्मी किसको बुरी लगा करतीहै? अर्थात् इसका मिलना सभी कोई चाहतेहैं॥८६॥ हे तात! जिस समय तक आदमीका भाग्य उदय रहताहै, तब
तकही यह लक्ष्मी स्थिर (अचल ) राहा करतीहै, फिर सर्वनाश उपस्थित होनेपर बुद्धिमान् पण्डित लोग आधी वस्तुको त्याग दिया करतेहैं॥८७॥ और आधीके द्वारा अपना काम चला लिया करतेहैं क्योंकि आधी वस्तुके नहीं देनेपर सारी वस्तुका नाश हो जाना संभव है। वह अत्यन्त दुस्त्यज है; जिस तरह शरीरोत्पन्न व्याधि (रोग) वैरी होतीहै, और वनोत्पन्न औषधी हित करनेवाली हुआ करतीहै, ऐसेही जो दूसराभी हित करनेवाला होता है, वह मित्र और जो भाईभी अहित (अनभल) करने वाला है, उसको वैरी जानना चाहिये। पितामह भीष्म इत्यादिकी इस प्रकार बातें सुनकर महात्मा विदुरजीने कहा॥८८॥८९॥
विदुर उवाच।
एष दुर्योधनो राजा मध्यपिंगललोचनः।
न केवलं कुलस्यान्तं क्षत्रियान्तं करिष्यति॥९०॥
विदुरजी बोले। हे सभासदगण! यह पिंगलनेत्रवाले राजा दुर्योधन केवल अपनेही वशका अन्त (सर्वनाश) नहीं करेंगे बरन् संपूर्ण क्षत्रियोंकाही अन्त करेंगे॥९०॥ इति श्रीभारतसारे उद्योग-पर्वणि भाषायां कृष्णागमनिर्गमो नाम पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५५॥
षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ५६.
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षट्पञ्चाशत्तमेऽध्याये पुनः श्रीकृष्णमेलनम्।
पाण्डवानां कुरूणाञ्च युद्धोद्योगश्चकथ्यते॥ १॥
इस छप्पनवें अध्यायमें युधिष्ठिरादिसे श्रीकृष्णका फिर मिलना, और कौरव पांडवोंके युद्धका उद्योग अर्थात् युद्धकी तैयारी करना यह कथा कही जातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
ततः स केशवो देवो यत्र राजा युधिष्ठिरः॥
तत्र गत्वा तु तत्सर्वं जगाद धर्मनन्दनम्॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे जनमेजय! इसके पीछे भगवान् केशव श्रीकृष्ण जहाँ महाराज युधिहिर थे, वहाँ गये और उन्होंने वहाँ पहुँचकर सारा हाल धर्मराजको सुनादिया॥१॥ कि हे महाराज! वह दुर्योधन राजा आपको आधा राज्य नहीं देना चाहता, न पाँच ग्राम देना चाहताहै और न एक खेटक इत्यादिकी पृथ्वीकाही देना स्वीकार करताहै॥२॥ हे धर्मराज! मैंने दुर्योधनके सम्मुख अनेक धर्मोंको वर्णन करके तरह तरहसे प्रार्थना करी, किन्तु वह आपके लिये एक खेडा और एक खेतभी देना नहीं चाहता॥३॥ इस कारण हे मनुजेश्वर! आप तलवारकी धारके द्वारा राज्य कीजिये क्योंकि वह मूर्ख दुर्योधन विना संग्राम किये जितनी पृथ्वी तीखी सुईसे विंधजाय, उतनीभी देनी नहीं चाहता॥४॥ हे धर्मनन्दन! उसके सब मूर्ख सभासद भी उसीकी बातका अनुमोदन कररहेहैं तब महामना युधिष्ठिरने भगवान् विष्णु श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर॥५॥ वहाँ युद्धका निश्चय करके उद्यम किया और फिर अपने मित्र राजाओंको बुलालानेके लिये देशदेशमें दूत भेजदिये॥६॥ और हे जनमेजय! उनको य पत्र भी लिखा कि हे राजश्रेष्ट गण ! हममें और कौरवों में संग्राम होनेवाला है अतएव आप लोग उसको कैसे नहीं सुनतेहैं?॥७॥ इस लिये आप तैयार होकर शीघ्रही विराट नगरमें चले आइये। जनमेजयने कहा हे स्वामिन्! अब मैं यह जानना चाहताहूँ कि इस तरहका वह अद्भुत युद्ध किस स्थानमें हुआथा!॥८॥ आपसमें युद्ध करनेवाले सब पिता, पुत्र, गुरु और शिष्य कौनसी पृथ्वीपर
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स्थित होकर लडे? हे सुव्रत! यहभी आप मुझसे वर्णन कीजिये॥९॥ वैशंपायनजीने कहा। हे जनमेजय। एकदिन अर्जुन और श्रीकृष्ण युद्ध करनेको भूमि देखनेके लिये दुर्योधनसमेत गये॥१०॥ तब उन्होंने सारे देशोंमें देखते घूमतेहुए कठिन पेडोंवाले और क्रुर जन्तुओंसे सेवित अर्थात हिंसक जीवोंसे भरेहुए बहुत लम्बे चौड़े रुक्षेत्रको देखा॥११॥ जिस स्थानमें सब दयाहीन और धर्मरहित अधर्मी दुष्ट प्राणी निवास किया करतेहैं, वहाँ जैसेही यह तीनों जने जाकर खडेहुए कि वैसेही खेतके जोतनेवाले दो किसान॥१२॥ पिता पुत्र उस खेतमें घुसकर हलकी नोकको भूमिके भीतर चलाने लगे कि उसी समय खेतमें एक सांपने आकर उस पुत्रको काटखाया॥१३॥ ऐसा होनेपर वह पुत्र प्राण त्यागकर गिरपडा।तब उस मरकर गिरेहुए पुत्रको देखकर पिताने सोचा कि कृषिकार्यमें कहीं देर न होजाय इसलिये उसने हलके ऊपर खडा करके हल जोतते जोतते हलके अग्रभाग (फल) द्वारा उस मृतक पुत्रको खेतसे बाहर फेंकदिया और फिर पहलेकी तरहही अपना काम करनेलगा॥१४॥ वहाँके आदमियोंकी ऐसी कडी (छाती) देखकर फिर यह तीनों जने आगेको चलदिये और अभी यह मार्गमें जाहीरहेथे कि इन्होंने एक सुन्दर वधू देखी॥१५॥ वह भोजनके लिये बने (पके) हुए अन्न समेत और जल समेतशीघ्रता सहित आपहुँची उसको देखकर श्रीकृष्ण इत्यादिने पूछा कि आप किसकी भार्या हैं? किसकी कन्या हैं? और यह पानी तथा भोजन किसके ताँई लिये जारहीहैं?॥१६॥ उस नारीने उत्तर दिया। हे महाशय! मेरा पति खेतीका काम किया करताहै, और मेरा ससुरभी खेतीका काम किया करताहै, मैं उन्हीं दोनों जनोंके लिये यह पानी और भोजन लिये
जारहीहूँ॥१७॥ तब उससे श्रीकृष्णने कहा कि आपके पतिकोतो साँपने डसलिया और उसके मरजानेपर तेरे ससुरने उठाकर उसको खेतसे बाहर फेंक दिया॥१८॥ श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर उस स्त्रीने अपने स्वामीके हिस्सेका भोजन आप करलिया, यह बात देखकर इन तीनोंको बडाही अचंभा हुआ॥१९॥ तदनन्तर यह तीनों सोच विचार और यह चरित्र देखकर बडेही आश्चर्ययुक्त हुए और फिर यह तीनोंजने उस खेतसे चलकर॥२०॥ अपने अपने घर आये और युद्धकी तैयारी करने लगे तथा विराटपुरीमें जो नरेश आयेथे, वे अति आनन्दित हुए॥२१॥ महाराज युधिष्ठिरके लानेसे आये हुए वहाँ अनेक राजा आपसमें मिले और फिर महाराज विराटभी पुत्र सेना और युद्धके सामान सहित लडनेके निमित्त सजगये युयुधान, युधामन्यु, उत्तमौजा, और पुत्र, सेना तथा सामग्रीसमेत महाराज द्रुपद॥२२॥२३॥ हर्षित मनसे महाराज विराटके नगरमें आपहुँचे। फिर हिडिम्बाके बर्बरीक और घटोत्कच नामक दोनों महावीर पुत्रभी विराट नगरमें आनकर उपस्थित हुए॥२४॥
चौपाई
द्रुपद नरेश साजि सबयाना।भयो अरूढ बजाय निशाना॥
धृष्टद्युम्नशिखंडी आवत। रारूढ हों शं++ बजावत॥
युद्धमाने सेना व साजे। पणव मृदंग भेरि बहु बाजे॥
पुनि रथ ++जि ++त्यकी आयो। सैन संग निज शंख बजायो॥
++शिराज सेना संग लीन्हीं। रथ अरूढ ह्वैदुन्दुभि दीन्हीं॥
जरासन्ध तु नृप हदेऊ। लै निज कटक चल्यो पुनि तेऊ॥
चालिस सहस्र ++त्रधर राजा। भये अरूढ बाजे पुनि बाजा॥
दोहा
साजे सकल नरेश पुनि, गज़ रथ तुरंग पदात।
रथी महारथ गजपती, कटक क्षोहिणी सात॥
इनके अतिरिक्त और भी सब महावीर विराटनगरमें स्थित हुए तथा और दूसरे भी धर्मराज युधिष्ठिरके योधा कुरुक्षेत्रमें आनकर प्राप्तहुए॥२५॥ वहाँ कौरव और पाण्डवपक्षीय राजा एकत्र मिलित हुए और फिर श्रीकृष्णने महाराज युधिष्ठिरसे आज्ञा लेकर द्वारकापुरीको गमन करतेहुए कहा॥२६॥ हे धर्मनन्दन युधिष्ठिर! मैं अपनी सेनाको संग लेकर शीघ्रही कुरुक्षेत्रमें आनकर उपस्थित हूँगा। और आपका सारा काम करूँगा अत एव आप निर्भय होजाइये॥२७॥ क्योंकि मेरा और आपका काम भिन्न (अलग) नहीं है, उन धर्मराज युधिष्ठिरको इस प्रकार सन्तोष देकर विश्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण अपने घरको चले गये॥२८॥ उनके चलेजानेपर धर्मराज युधिष्ठिरने अपने (सब भाइयों) से कहा, कि आप लोगोंमें किसका कैसा तेज और पराक्रम है? सो मुझे बताइये?॥२९॥ तब हेराजा जनमेजय! भीमसेन दिशाओंको गर्जित अर्थात् शब्दायमान करतेहुए शीघ्रतासहित धर्मराज युधिष्ठिरसे सब राजाओंके देखते देखते यह भक्तियुक्त वचन बोले॥३०॥ हे महाराज! मैं इस महारण (युद्ध) में कौरवोंका नाश करूँगा, और दुःशासनकी राजाओंको उसके कन्धोंसे खाडुँगा॥३१॥ और वहीं उसका खून पीकर द्रौपदीके ऋणसे उऋण हूँगा, तथा इसके पीछेयुद्धमें दुर्योधनको नाश करके गदा घातसे भूतलशायी करूँगा॥३२॥ हे महाराज! सब राजाओंके देखते हुए (सामने) यह जो मैंने प्रतिज्ञा की है उसको मैं भगवान् विष्णुकी सहायतासे अवश्य पालन सत्यकरूँगा॥३३॥ भीमसेन इस प्रकार कहतेही थे कि अर्जुनने कहा कि मेरे साथ जो क्षत्री महासंग्राम करेंगे॥३४॥ उनको मैंभी विष्णुकी सहायतासे अवश्य मारडालूँगा। क्योंकि मनुष्यके भगवान् विष्णुही परम देवता हैं, इसमें झूठ नहीं
है॥३५॥ अर्जुनकी इस प्रकार यह बात सुनकर सहदेवने यह बात कही जब कि इस मूर्ख धृतराष्ट्र के पुत्रने ॥३६॥भगवान्विष्णुकी बातका निरादर किया और धर्मराजकी बातकाभी आदर मान नहीं किया, इस कारण युद्ध आरंभ अठारह दिनके बीचमेंही यह राजा दुर्योधनं॥३७॥ अवश्य माराजायगा इसमें सन्देह नहीं है।पांडवोंकी यह प्रतिज्ञा सुनकर दूत चले गये॥३८॥ उन्होंने हस्तिनापुरमें जाकर दुर्योधनसे सारा हाल कहदिया। वे नमस्कार करके वहाँ जो जो बातें हुईं थीं, उनको इस तरह कहने लगे कि॥३९॥ भीमसेन और अर्जुनने इसभाँति प्रतिज्ञा करी, और फिर उस प्रतिज्ञाको सुनकर सहदेवने यह कहा॥४०॥ कि युद्धारंभसे अठारह दिनके बीचमेंही राजा दुर्योधन माराजायगा, इसमें कुछ सन्देह नहीं हैं॥४१॥ दूतकी कही यह बात सुनकर राजा दुर्योधन घबरागया (और सोचकर निश्चय किया कि) मैं वैरियोंके संग अठारह दिनतक संग्रामही न करूँगा॥४२॥ अपने जीमें यह निश्चय करके डररहते हुए भी निडर व्यक्तिकी तरह सूरत बनायकर दुर्योधन प्रीतिपूर्वक और शीघ्रतासहित भीष्मपितामहके मन्दिरमें गया॥४३॥ वहाँ जाय राजा दुर्योधनने भीष्मपितामहके प्रति वचन कहकर बहुत भाँतिसे उनकी पूजा करी और फिर अपनी भक्तिद्वारा उनको सन्तुष्ट करके कहा॥४४॥ दुर्योधन बोला हे विभो! मैं आपका दास और पोष्य हूँ और निरन्तर पालने योग्य हूँ, तो फिर जिस किसीकी पालीपोषीहुई वस्तुका नाश होताहै, तो पालनकर्त्ता मनुष्यको अवश्यही दुःख हुआकरताहै॥४५॥ दुर्योधनकी यह बात सुनकर भीष्मपितामहने कहा भीष्म बोले हे दुर्योधन! हे महावीर! आप पृथ्वीतलपर एकही राजा हैं॥४६॥ अत एव हमारे बालरूपभावमेंभी निरन्तर
पूजा करनेके लायक हैं। भीष्मजीकी यह बात सुनकर राजा दुर्योधनने कहा॥४७॥ कि हे तात! आप भीमसेन व अर्जुनकी करीहुई प्रतिज्ञा और मेरे नाशको सूचितकरनेवाला सहदेवका वचन सुनिये॥४८॥ इस कारण हे पितामह! आप सर्व प्रयत्नसे हमारा पालन कीजिये। तब गंगापुत्र भीष्मपितामहने दुर्योधनकी यह बात सुनकर॥४९॥
नरनारायणाभ्यां वै युद्धं विचार्यंमया ध्रुवम् ।
मनस्येवं विचिन्त्यासौ भीष्मो वचनमब्रवीत्॥५०॥
विचार किया कि मुझको नर नारायणके साथ युद्ध अवश्यही करना चाहिये। इस प्रकार अपने मनमें चिन्ताकरके भीष्मजीने कहा॥५०॥ इति श्रीभारतसारे उद्योगपर्वणि भाषायां दुर्योधनभीतिर्नाम षट्पंचाशत्तमोऽध्यायः॥५६॥
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सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ५७.
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सप्तपञ्चाशत्तमे च कुरुपाण्डवयोर्बलम्।
अष्टादशाक्षौहिणीकं प्राप्तं तदिह कथ्यते॥१॥
इस सत्तावनवें अध्यायमें कौरव और पांडवोंकी अठारह अक्षौहिणी सेनाका आनकर प्राप्त होना, यह कथा कही जाती है॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
भयत्रस्तं हि राजानं भीष्मो वचनमब्रवीत्।
भीष्म उवाच।
दिनानां दशकं राजँस्तव रक्षां करोम्यहम्॥ १॥
वैशम्पायनजी बोले हे जनमेजय! तब मारे डरके घबरायेहुए दुर्योधनसे भीष्मजी कहनेलगे। भीष्मजीने कहा हे राजन्! दशदिनतक तो मैं आपकी रक्षा करूँगा॥१॥ हे महाराज!
मुझ भीष्मके हाथमें धनुषलिये खडेहोनेपर कालभी असमर्थ होगा, इसलियेमेरी बातको आप लेशमात्रही झूँठ मत समझना॥२॥ फिर राजा दुर्योधनने वहाँसे उठ गुरु द्रोणाचार्यजीके पास जाकर कहा हे गुरो! हे द्रोण! हे महावीर! मैं शिष्य होनेसे आपके पुत्रकी समान हूँ॥३॥ हे तात! इसलिये आपको मेरा पालन करना चाहिये। क्योंकि इस भूतलपर मेरा दूसरा नाथ (स्वामी) कोई नहीं है, इतना कहकर भीमार्जुनकी प्रतिज्ञा और जो सहदेवने बात कहीथी॥४॥ वह सारी बातें कहकर फिर भीष्मपितामहसे जो बात चीत हुई थी, वह सब भी सुनाई, तब द्रोणाचार्यजीने उन सारी बातोंका कारण जानकर कहा॥५॥ द्रोणाचार्यजी बोले हे राजेन्द्र! हे मनुजेश्वर! यदि यह बात है, तो मैं चारदिनतक सर्वप्रयत्नद्वारा यमराजसेभी आपकी रक्षा करूँगा॥६॥ फिर गुरु द्रोणाचार्यजी की आज्ञा लेकर राजा दुर्योधन सूर्यपुत्र कर्णके घर गया,और वहाँ पहुँच कर्णकी वाणी द्वारा श्लाघा (सराहना) करताहुआ कहने लगा॥७॥ हे रविनन्दन!पहला सारा वृत्तान्त जानकर आप हमारा पालन कीजिये। दुर्योधनकी यह बात सुनकर कर्णने उत्तर दिया॥८॥ कर्णने कहा। हे राजन्! यदि यह बात है तो दो दिनतक मैंभी आपकी रक्षा करूंगा, तब फिर राजा दुर्योधनने शल्यके पास जाकर कहा॥ ९॥ दुर्योधन बोला हे शल्य! हे महावीर! हे प्रभो! आप मेरी रक्षा कीजिये। फिर राजा दुर्योधन पूर्ववृत्तान्तको जानकर ज्योंही उसके आगे स्थित (खडा) हुआ॥ १०॥ कि त्योंही शल्य ने भयशंकित मनसे दुर्योधनके प्रति कहा कि हे राजेन्द्र! एकदिनतक मैं भी आपकी रक्षा करूँगा॥११॥ तब फिर राजा दुर्योधनकी एकदिन (अपनी) रक्षा करनेके लिये दूसरा कोई
वीर दिखाई नहीं दिया, तब तो वह मनमें चिन्ता करनेलगा॥१२॥ कि इसके उपरान्त अब क्या करना चाहिये? किसके पास पहुँचकर एक दिनकी रक्षाके लिये प्रार्थना करूँ? मुझको तो ऐसा कोईभी वीर दिखाई नहीं देता!॥१३॥ इस तरह भाँति भाँतिसे अपने मनमें तर्क वितर्क करके निर्बल होजानेपर वह पापी राजा दुर्योधन फिर किसीके पास नहीं गया और एक दिन अपनी रक्षाके लिये अपनपेको ही रक्षक मानकर स्थित रहा॥ १४॥ इसके पीछे राजा दुर्योधन अपने बन्धु बाँधव सारे कौरवोंको संग लेकर अपने आपही कुरुक्षेत्रको चलागया॥१५॥ और पीछेमहाराज युधिष्ठिर भी युद्धके निमित्त निश्चय किये हुए अपने बन्धु बाँधव और सारी सेनासमेत कुरुक्षेत्रको गये॥ १६॥ इसी बीचमें भगवान् श्रीकृष्णभी द्वारका पुरीसे अपनी सारी सेना, तथा बलभद्र और यादवोंसे घिरे हुए वहाँ आपहुँचे॥१७॥ तब उस स्थानमें कौरव और पाण्डव परस्पर मिलेहुए सुखसे स्थित रहे। फिर राजा दुर्योधन और वलवानोंमें उत्तम भीमसेनने॥१८॥ श्रीकृष्णके पास पहुँचकर हे नृपोत्तम जनमेजय!युद्धके लिये प्रार्थनाकरि किन्तु श्रीकृष्णको सोताहुआ देखकर (जानकर) मानी (घमँडी) दुर्योधन॥१९॥ उनके शिरहाने बैठगया, और भीमसेन पांयतोंमें बैठ गये, फिर जब श्रीकृष्ण निद्राभंग होनेपर उठे, तो उन्होंने प्रथम भीमसेनकोही देखा॥२०॥ और कहा कि यह मैं आपका सहायक हुआहूं, आप मेरी बात निश्चित समझिये। यह कहकर फिर ईश्वर श्रीकृष्णने अपने पीछे की तरफ देखा॥२१॥ तो दुर्योधनको देखकर (पूछा) कि हे राजन! आप कब आये? भूपाल! मैं भीमसेनको वचन देचुका, अत एव अब क्या कर सकता हूँ?॥२२॥ हे महाबुद्धिमान्! आप बलभद्र इत्यादि मेरी
सारी सेनाको लेलीजिये। श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर राजा दुर्योधनने कहा॥२३॥ दुर्योधन वोला हे विभो! यह आपकी सारी सेना भीमसेनके पास जावे, और मेरे हिस्सेमें आप आवें, उस दुर्योधनके इसप्रकार कहतेहुएही श्रीकृष्णने उसको भ्रममें डालतेहुए कहा ॥२४॥ श्रीकृष्ण बोले हे नृपसत्तम! न तो मैं युद्धही करूँगा, और न हथियार कोई हाथमें पकडूंगा, ऐसा मानकर जो आपके मनको रुचे ॥२५॥ सोही कीजिये क्योंकि दो कामोंमें एकही काम किया जाताहै, श्रीकृष्णजीने इसतरह दुर्योधनको भ्रमातेहुए वही बात भीमसेनसे कही और फिर सौगन्ध (कसम) खाई॥२६॥कि जो आदमी छल कपट किया करताहै, और पूजा करनेलायक आदमीकी पूजाके नष्ट करनेपर जो पाप लगाकरताहै, यदि शस्त्र पकडुँ, तो मुझकोभी इन सब पापोंमें लिप्त होनापड़े॥२७॥ जो आदमी विश्वासघातका करनेवाला और कृतकार्यका घात करनेवाला है, यदि में शस्त्र पकहूँ तो मुझकोभी इन लोगोंके पापोमें लिप्त होनापडे॥२८॥ इस भाँति तरह तरहकी बातोंसे श्रीकृष्णने उसको विश्वास करादिया, और तब उस मन्द बुद्धिने बलराम इत्यादि सारी सेनाकोही लेलिया॥२९॥ इस प्रकार भीमसेन तथा दुर्योधनने कहकर अपना अपना भाग प्राप्त किया और इधर श्रीकृष्णने बलरामजीसे कुछ मन्त्रण (सलाह) करके उनको तीर्थयात्रा करनेके लिये आज्ञा दी॥३०॥ कारण कि सेनापति बलरामजीके होनेपर भारतमें सेना कदापि संग्राम नहीं कर सकेगी। तब महाराज युधिष्ठिरको कौरवोंके सैन्यसागर बीच श्रीकृष्णस्वरूप सुन्दर नाव मिलगई॥३१॥ अत्यन्त मजबूत (पक्की) और सावत् (छिद्रहीन) और विना सुकृत (पुण्य) के प्राप्त नहीं होनेवाली जिस श्रीकृष्णस्वरूप नौकाका सहारा लेकर महात्मा पुरुष संसारसमुद्रसे तरजाया
करतेहैं॥३२॥ इस भाँति महारथी युधिष्ठिर अपना भाग एकत्रित होनेपर सात अक्षौहिणी सेनाके अधिपति (मालिक) हुए॥३३॥और उधर राजा दुर्योधन ग्यारह अक्षौहिणी सेनाका स्वामी हुआ। इस तरह अपने अपने भागमें स्थित होकर सब कोई युद्धके आरंभमें गर्जना करनेलगे॥३४॥
सिंहवच्छंखनादांश्चकुर्वन्ति गर्जनां तथा।
नेदुर्दुंदुभयस्वत्र सर्वसैन्यसमागमे॥३५॥
और शंखध्वनि करके सिंहकी तरह दहाडनेलगे और वहाँ दोनों सेनाओंके एकत्र होनेमें दुन्दुभी (धौंसे) इत्यादि बाजेभी बुजनेलगे॥३५॥३६॥ इति श्रीभारतसारे उद्योगपर्वणि भाषायां सैन्यसमागमो नाम सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५७॥
अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ५८.
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अष्टपञ्चाशत्तमे च शूरश्लाघा द्विसेनयोः।
वर्वरीकशरीरस्य बलिदानमिहोच्यते॥१॥
इस अट्ठावनवें अध्यायमें दोनों सेनाओंमें योधाकी बडाईका होना और वर्वरीकके देहका भूमिको बलिदान होना यह कथा कही जाती है॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
दुर्योधनस्य सैन्ये ये शूराः सन्ति महारथाः।
ताञ्शृणुष्व महाभाग कथयिष्ये वबायतः॥१॥
वैशंपायनजी बोले। हे महाभाग जनमेजय! अब जो दुर्योधनकी सेना में महारथी और महाशूर हैं, उनका आपके सम्मुख वर्णन करताहूँ, श्रवण कीजिये॥१॥ भीष्मपितामहको अतिरथी कहागयाहै, द्रोणाचार्यजीको अतिरथी कहाहै, द्रोणाचार्य जीका बेटा अश्वत्थामाभी अतिरथी और उसीप्रकार कृपाचार्य
जीकोभी अतिरथी जानना चाहिये॥२॥ यह चारोंजने समान अतिरथी वर्णित हुए हैं, उसी तरह बलवान् कर्णकोभी अतिरथी जानना चाहिये। हे महाराज! अन्यान्य सारे भूपाल भी महाबलशाली हैं और बलवान महारथी कहलातेहैं॥३॥ शकुनि, सौबल, शिव, विक्रम, उलूक, सोमदत्त और महाबलवान् विष्वक्सेन॥४॥ वैकर्त्तन, कलिंग और बाहीक यह महारथी हैं। भगदत्त, विकर्ण, दुःशासन और जयद्रथ॥५॥ यह सब कौरवोंके दलमें महावीर कहेगयेहैं। अब जो पांडवोंके दलमें शूर हैं, हे महाबुद्धिमान् जनमेजय! उनकोभी आप सुनिये॥६॥ अर्जुन, सात्यकी, विराट, द्रुपद, अभिमन्युभीमसेन, वर्वरीक और घटोत्कच॥७॥ नकुल, सहदेव और महाराज युधिष्ठिर यह सब वीरोंमें मुख्य हैं और उनमेंभी इतने अतिरथी कहेगयेहैं॥८॥ अर्थात् पुत्रसमेत अर्जुन (अर्जुन और अभिमन्यु) और वर्वरीक व घटोत्कच इन दोनों बेटों समेत भीमसेन पांडवोंमें यह पाँचों अतिरथी कहेगयेहैं, और भगवान् वासुदेव श्रीकृष्ण इन सबके अग्रणी होकर विराजमान हैं॥९॥ श्रीकृष्णके प्रभावसे वे सारे पांडव उन्हींकी तरह विक्रमशाली (पराक्रम करनेवाले) हैं, और उधर सब कौरवभी भीष्मादिके प्रभावसे रुद्रके सदृश विक्रमवान् होरहेहैं॥१०॥ वैशम्पायनजी बोले। हे जनमेजय! इसके पीछे श्रीकृष्णने भीमसेनके पुत्र वर्वरीकके हाथमें तीन शर (बाण) देखकर उसके नाश करनेकी कामनासे हँसते हँसते इसप्रकार कहा॥११॥ हे भीम अर्जुन इत्यादि महावीरो। आप सब लोग इस वर्वरीकके पौरुष(पराक्रम) धनुष के रूप और तीन बाणों को देखिये॥१२॥ यदि इनके यह बाण भूग (टूट) होगये तो फिर काहेसे लड़ेंगे तब अर्जुनादि महान वीर इतने बाणोंके धारण करनेवाले वृथाही उनका बोझ लादरहेहैं॥१३॥भगवान् विष्णु श्रीकृष्णके इसप्रकार कहने पर बर्वरी-
कने हँसकर उत्तर दिया।बर्बरीकने कहा। हे विष्णो! मैं अपने इस एक बाणसे सारे प्रधान प्रधान राजाओंका नाश करडालूँगा॥१४॥ यदि मेरा एक बाण तूटगया तो मैं अखंड बलमें स्थित होकर दोनों बाणोंसे कृत्या सिद्ध करूंगा, अर्थात् ग्यारह अक्षौहिणी सेनाको नाश करडालूंगा।बर्बरीककी यह बात सुनकर श्रीकृष्णने हँसते हँसते उन भीमनन्दन बर्बरीकसे पूछा हे लम्बी भुजावाले बर्बरीक! आप (इन दो बाणोंके द्वारा) किसतरह कृत्या सिद्ध करलेंगे!॥१५॥ बर्बरीकने उत्तर दिया हे मधुसूदन! मैं एक बाणसे योधाओंकी मृत्युको भलीभाँति देख रहा हूँ और फिर एक बाणसे उन योधाओंके प्राणोंको तत्क्षण निकाललूंगा॥१६॥ तब भगवान् विष्णु श्रीकृष्णने हँसते हुए लमिश्रित वाणीसे कहा, कि यदि आप मेरी मृत्युको भी जानलेवें, तो मैं आपकी बातको पक्का (सच्चा) मानूं!॥१७॥ विष्णु श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर बर्बरीकने आकाशमें अपना बाण छोड़ा जो कि सातलोंकों तक चलागया, किन्तुवहाँ मृत्युको नहीं देखा॥१८॥ फिर वह बाण चारों दिशाओंको देखता हुआ पीछे पातालमें जा घुसा, और वहाँ सांत पातालोंमें पहुँचकर मृत्युको देखा॥१९॥ अनन्तर विष्णुकी पार्ष्णि (एडी) को प्राप्त हो और सिन्दूर त मुखसे एडीमें निशान कर फिर वह बाण बर्बरीककेही पास लौट आया॥२०॥ फिर दूसरे बाणको जैसेही आदर सहित छोडनेलगा कि इसी बीचमें श्रीकृष्णने देखा तो बर्बरीक हँसनेलगा॥२१॥ फिर जब श्रीकृष्णनेअपनी एडीको सिन्दूरसे चिह्नित देखा, तो वे बर्बरीककी महिमाको जानकर (आश्चर्यमें हो) प चाप रहगये॥२२॥ फिर दूसरे दिन श्रीकृष्णने युधिष्ठिरादि पांडवोंको भ्रमातेहुए और भीमात्मज बर्बरीकंका नाश करनेकी कामना करतेहुए उनसे कहा॥२३॥ श्रीकृष्ण बोले। हे पांडवो! वैरीको विजय करने के
निमित्त इस रणभूमिकी बलिदानसे पूजा करनी चाहिये क्योंकि यदि इसकी पूजा नहीं कीजायगी, तो यह सारे पांडवोंको भोजन करजायगी॥२४॥ पाण्डवोंने कहा। हे विभो! इस पृथ्वीतलपर आपके अतिरिक्त हमारी भलाई करनेवाला दूसरा कोईभी नहीं है अत एव आप अब यह बताइये कि हाथी, घोडा और नर इन प्राणियोंके वीच किसका वलिदान होना चाहिये॥२५॥ यह हमसे सब इस समय कहदीजिये कि जिससे लडाईमें हमारी विजय हो, श्रीकृष्णने उत्तर दिया कि बत्तीस लक्षणोंसे युक्त जो वीर योधा हो॥२६॥ उसी योधाको बलि के रूपमें समर्पण करना चाहिये। मनुष्योंमें विजय की कामना करनेवाले उन वीरों को उस शूरकी बलि त्यागकरदेनी चाहिये। तव पांडवोंने कहा हे भगवन्! हमारे कटकमें बलिदेनेके लायक कौन व्यक्ति है? सो वताइये॥२७॥ उनकी यह बात सुनकर श्रीकृष्ण आँखों में आँसू भरलाये और फिर वे विद्वानोंकोभी भ्रम में डालनेवाले (श्रीकृष्ण) बोले॥२८॥ श्रीकृष्णने कहा हे वीरो! यहाँ (इसयोग्य) एक तो मैं हूँ और दूसरा वर्वरीकभी मेरेही तुल्य वीर है, अथवा तीसरा अर्जुन है, इन तीनोंके बीच एकको हनन करना चाहिये इस वातमें संशय नहीं करना॥२९॥ क्योंकि एक व्यक्ति नष्ट होनेपर शेष सब जीवित रहेंगे, और नहीं तो सबकी ही मृत्यु होजायगी, और यदि (यथोचित) वलिदान होगया तो फिर बृहस्पतिजीसे रक्षक होने पर भी अवश्य शत्रुओंका नाश होजायगा॥३०॥ संसाररूपी भगवान् श्रीकृष्णकी यह बातें सुनकर उस बर्बरीकने हँसते हँसते सब पाण्डवोंसे कहा॥३१॥ वर्वरीक बोला कि हे महोदय! इस लडाईमें श्रीकृष्ण और अर्जुन यदि न हुए तो समस्त पांडव निष्फल हैं, इस कारण आप मेरे ही शिरको काटडालिये, जिसमें आपकी विजय होवे॥३२॥ (ऐसा होनेपर सब पांडव राज्य करेंगे फिर
इससे अधिक मेरा अहोभाग्य क्या होगा?) यह, कहते कहतेही बर्बरीकने एक हाथसे तो अपनी चुटिया पकडी॥३३॥और फिर दूसरे हाथसे अपना मस्तक काटकर भगवान् श्रीकृष्णसे इस तरह प्रार्थना करनेलगा कि हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे अप्रमेयात्मन्! हे प्रभो! आप भूमिका भारी भार उतारनेवाले हैं॥३४॥अत एवं यहाँ जिस प्रकारका युद्ध हो, उसको मैं देखनेकी कामना करताहूँ, सो मुझको आप अपनी प्रसन्नतासे वह सारा संग्राम दिखादीजिये। इसके अतिरिक्त दूसरी अभिलाषा मेरी कुछ नहीं है॥३५॥ हेविष्णो! मैं आपका दास हूँ अत एव मुझको मोक्षरूपी अपना परमपद प्रदान कीजिये। भगवान् श्रीहरि अपने भक्तकी यह बात सुनकर अत्यन्त॥३६॥ उद्विग्न (उदास) हुए और फिर हे राजेन्द्र! उन्होंने एवमस्तु अर्थात् (ऐसाही होगा) कहा इसी बीचमें बर्बरीकका मस्तक भगवान श्रीकृष्णके पैरोंमें आगिरा॥३७॥ तब श्रीकृष्ण अपने दोनों हाथोंसे उस शिरको उठाकर पर्वतपर रखदिया और कहा। हे वीर! आप जिस तरहका युद्ध हो उसको यहाँसे देखते रहिये॥३८॥ इस प्रकार श्रीकृष्णने कहकर सारा काम सिद्ध कराया तब युद्धके निमित्त निश्चय कियेहुए पांडव शोकहीन मनुष्यकी समान स्थित हुए। हे राजेन्द्र! यह एक अचंभासा होगया॥३९॥
हेमन्ते प्रथमे मासि त्रयोदश्यां सितेदले॥
भौमवारे भरण्यां च संगरो भूत्तदा महान्॥४०॥
यह महासंग्राम हेमन्तऋतुके प्रथम महीने अर्थात् अगहनमास, तिसमें शुक्लपक्षकी तेरस, और मंगलवार तथा भरणी नक्षत्रमें (आरंभ) हुआ॥४०॥
इति श्रीवेदव्यासकृते श्रीभारतसारे उद्योगपर्वणि मुरादाबादनगरनिवासिकात्यायनकुमारपण्डितकन्हैयालालमिश्र कृतभाषाटीकायामष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥९८॥
इति श्रीभाषाभारतसारे उद्योगपर्वसमाप्तम्॥
––––––––––––
॥श्रीकृष्णाय नमः॥
भारतसार भाषा
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भीष्मपर्व
एकोनषष्टितमोऽध्यायः ५९.
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दोहा—आनँदकन्द मुकुन्दकी, पदरजको शिरनाय।
भाषा+++भीपमपर्वकी, निजमति लि त बनाय॥
नंदनँदन पद वन्दि पुनि, राधाको धरि ध्यान।
चरण म रज कृपासे, कहुँ शुभ चरितःबखान॥
व्रजजन जीवन मूरि प्रभु, राधा नन्दकिशोर।
करहु कृपा मो अधम पहँ, देखि आपनी ओर॥
जयति जयति प्रभु जगत पति, नटवर मदन गोपाल।
भ न रत तुम्हरो दा, मिश्रकन्हैयाला॥
ज्यों बारनकी बार प्रभु, छिन++री न वार।
तैसेही मो दासको, भवतैंलेहु उबार॥
विनय कन्हैयालालकी, नियकन्हैयाला।
कृपादृष्टि करि भक्तके,काटहु जग जंजा॥
और वस्तु++ छु जगतकी, मुहि चहिये प्रभु नाँहि।
यह बाँकी झाँकी सदा, वसी रहे उरमाँहि॥
वृन्दावन वासी सदा, भक्तनके आधार।
मिश्र कन्हैयाला के, कारज देहु सँवार॥
चरित ललित नँदनंदके, हरनं ताप त्रय शूल।
मिश्र कन्हैयालाल पहँ, सदा रहो अनुकूल॥
एकोनषष्टितमे च फाल्गुनस्य महामते।
स्वजनानां दया++मो धर्मरूपश्च कथ्यते॥१॥
इस उनसठवें अध्यायमें अपने स्वजनोंके ऊपर अर्जुनका धर्मरूपी दयाकी कामना करना यह कथा कहीजाती है॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
अतः परं प्रवक्ष्यामि भीष्मपर्वमनुत्तमम्।
यस्य श्रवणमात्रेण देहाभ्यासः प्रमुच्यते॥१॥
वैशंपायनजी बोले। हे जनमेजय! अब मैं इसके पीछे अति उत्तम भीष्मपर्व वर्णन करता हूँ जिसके केवल श्रवण करतेही शरीरका अज्ञान नष्ट होजाताहै॥१॥ जिस समय कौरव और पांडवोंमें यह भारत युद्ध प्रवृत्त (आरंभ) हुआ, उस काल कुरु, भाई और पितामहको देखकर॥२॥ वीर अर्जुन विषादसे दयायुक्त होकर यह कहनेलगे। अर्जुनने कहा हे अच्युत! आप दोनों सेनाओंके बीचमें मेरे रथको खड़ा कर दीजिये॥३॥ जो लडनेकी अभिलाषासे यहाँ वर्तमान हैं, जबतक मैं उनको, देखलूँ कि इस रणके उद्यममें मेरे संग कौन लडनेलायक हैं? उस समयपर्यन्त आप रथको खडा करनेदीजिये॥४॥ दुर्बुद्धि दुर्योधनको संग्राममें प्रसन्न करनेकी कामनावाले जो यहाँ आनकर उपस्थित हुएहैं, मैं इन संग्रामकरनेवालोंको देखूँगा॥५॥ संजय बोले, हे धृतराष्ट्र! डाकेश अर्जुनके इस प्रकार कहनेपर श्रीकृष्णने दोनों सेनाओंके बीचमें उस उत्तम रथको खडा करदिया॥६॥और फिर भीष्म, द्रोण, तथा सारे राजालोगोंके सम्मुख श्रीकृष्ण बोले कि हे अर्जुन! अब आप इन सब मिलेहुए कौरवोंको देखिये॥७॥
चौपाई— पारथ आनि सबै दिशि देखेउ। सबके अग्र पितामह ठेखेउ॥
श्वेतवर्ण रथ सरस यो। श्वेतवर्ण तनु शोभा पायो॥
गुरु द्रोण रथ श्याम हायो। श्यामवर्ण घोडे छबि पायो॥
कृपाचार्यको अर्जुन देख्यो। मनमहँ अति विस्मय करि लेख्यो॥
देख्यो दुर्योधन ौभाई। धवल छत्र शिर शोभा पाई॥
सिन्धु राज देख्यो बहनोई।मामा शल्य जान सब ई॥
दोहा
गुरु पितामह बन्धु त,देख्यो ब परिवार।
इन्हें मारि जय का रौं, दियो धनुष शर डार॥
तब अर्जुनने वहाँ खडेहुए पिता, पितामह, आचार्य और मामा, भाई, बेटे, पोते, सखा॥८॥ ससुर तथा सुहृद दोनों सेनाओंमें देखे, तब कौन्तेय उस अर्जुनने उन सब बाँधवोंको वहाँ खडाहुआ देखा॥९॥ अत्यन्त दयाके वशीभूत हो खेदसहित यह कहा। अर्जुन बोले हे कृष्ण! इन संग्राम करनेकी अभिलाषासे खडेहुए स्वजनोंको देखकर॥१०॥ अंग दग्ध होतेहैं और सुख सुखाजाताहै, मेरे देहमें कम्प होताहै और देहके रुँवें खडेहुएजातेहैं॥११॥ गांडीव धनुषभी मेरे हाथसे छूटापडता है, शरीरकी त्वचा (खाल) चारों ओरसे दग्ध होरहीहै, अत एव अब मैं यहाँ ठहरभी नहीं सकता क्योंकि मेरा मन भ्रमरहाहै॥१२॥ हे केशव! सारे निमित्त (लक्षण) विपरीत दिखाई देरहेहैं, अत एव मैं संग्राममें स्वजनोंको वध करके उत्तम फल नहीं देखरहाहूँ॥१३॥हे कृष्ण! मुझको (अब) विजयकी आकांक्षा नहीं है और न राज्यके सुखकोही चाहताहूँ। हे गोविन्द! हम लोगोंको राज्य, भोग और जीवनसे क्या (योजन) है?॥१४॥ क्योंकि जिनके लिये राज्यभोग और सुखकी इच्छा की जाती है, वेही लोग यह प्राण और धनको त्यागकर वहाँ युद्ध करनेको खडे हुए हैं॥१५॥ आचार्य, पितर, पुत्र, तथा पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले, तथा सम्बन्धी॥१६॥ हे मधुसूदन! चाहें यह लोग मुझको मारही क्यों न डालें, किन्तु तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता। मैं त्रैलोक्यका राज्य मिलनेके
कारणभी इन लोगोंको नहीं मारना चाहता तब फिर थोडीसी पृथ्वीकी तो बात ही क्या कहूँ?॥१७॥
चौपाई—अर्जुन ++ न जगतारण। गोत्र वधन की+केहि कारण॥
बाढै पाप पुण्य सब नाशहि। पावौं अन्त अधोगति वासहि॥
गुरु परिवार बधौं केहि काजहि। जैहौं वनहिं छाँडिकै राजहि॥
हे जनार्दन। हमलोगों को धृतराष्ट्रके बेटोंका नाश करनेसे क्या प्रसन्नता होगी? किन्तु इन आततायियों के मारडालने से केवल पापही लगेगा॥१८॥ इस कारण मैं धृतराष्ट्रके पुत्रअपने बांधवों (भाइयों) को नहीं मारूंगा, क्योंकि हे माधव! इन स्वजनोंका नाश करकेमैं कैसे सुखी हूँगा?॥१९॥ यद्यपि लालचसे हतचित्तवाले यह कौरव कुलके नाश करनेका दोष और मित्रद्रोह से उत्पन्न हुए पातकको नहीं देखते हैं॥२०॥ किन्तु तो भी हे जनार्दन! लक्षयके किये दोषको देखते हुए हमलोगों करके इस पापसे निवृत्त होना कैसे जाननेयोग्य नहीं हैं?॥२१॥ कुलका क्षय होनेपर कुलका सनातन धर्मभी नष्ट होजाता है, और फिर धर्मके नाश होजानेपर संपूर्ण कुलमें अधर्म फैलजाया करता है॥२२॥और फिर हे कृष्ण! अधर्म फैलजानेसे कुलकी स्त्रियां दूषित होजाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियोंके दुष्ट होनेपर वर्णसंकर सन्तान उत्पन्न हुआ करतीहै॥२३॥ उन वर्णसंकरोंकी उत्पत्ति वंशका नाश करने और वंशको नरक प्राप्त करानेके लिये हुआकरती है, अत एव लुप्तपिंडजलाअलिक्रियावाले इन वर्णसंकरकारकोंके पितर नरकमें पतित हुआ करते हैं॥२४॥ वंशका नाश करनेवालोंको इन वर्णसंकरकारक दोषोंसे जातिका धर्मभ्रष्ट होजाताहै और फिर सनातन कुलधर्म भी भ्रष्ट हो जाया करताहै॥२५॥ हे जनार्दन! मैं यह बात सुनचुकाहूँ कि नं कुलके धर्मवाले आदमियों को अवश्यही
नरकमें निवास करना पडता है॥२६॥अहो! हम लोगोंने बडे भारी पाप करनेका निश्चय किया है, जो कि राज्य और सुखके लालचसे स्वजनोंका नाश करनेको तैयार हुएहैं॥२७॥ जो संग्रामका यत्न नहीं करनेवाले और शस्त्रहीन मुझको शस्त्रपाणि अर्थात हाथमें हथियार लियेहुए धृतराष्ट्रके वेटे संग्राममें मारडाल तो ऐसा होनेपर भी मेरा अत्यन्तही कल्याण (भलाई) होवे॥२८॥
संजय उवाच।
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्॥
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥१॥
संजय वोले हे महाराज! इस तरह कहनेपर अर्जुन रथपर बैठगये और धनुषवाणको हाथसे छोड़कर शोकसे अत्यन्त उद्विग्न (उदास) मन होगये॥२९॥ ॥ इति श्रीभारतसारे भीष्मपर्वणि भाषायां श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुनविषादो नाम एकोनषष्टितमोऽध्यायः॥५९॥
षष्टितमोऽध्यायः ६०.
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षष्टितमे नृणां धर्मः कथं स्यान्निरयाद्वतिः।
प्रतिज्ञा भीष्मदेवस्य श्रीकृष्णकपयोच्यते॥१॥
इस साठवें अध्यायमें मनुष्योंका धर्म और नरकसे छुटकारा किस तरह होता है, और भगवान् श्रीकृष्णके अनुग्रहसे भीष्मदेवजीकी प्रतिज्ञा यह कथा कहीजाती है॥१॥
सञ्जय उवाच।
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्॥
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥१॥
संजय बोले हे महाराज धृतराष्ट्र! तब भगवान् मधुसूदन श्रीकृष्णने तैसे कृपा त और आँसूभरी आकुल आँखोंवाले तथा विषादित (खेदित) अर्जुन से कहा॥१॥ श्रीकृष्ण बोले हे अर्जुन! अनार्यसेवित, कीर्त्तिका नाश करनेवाला, नरक देने वाला यह कश्मल (कष्ट) आपको कहाँसे मिलगया?॥२॥ हे पार्थ! आप क्लीन मत बनिये अर्थात् नपुंसकताको प्राप्त मत हूजिये, कारण कि ऐसा भाव आपमें नहीं होना चाहिये, अत एव हे वैरियोंको तपानेवाले! आप अपने हृदयकी इस तुच्छ दुर्बलताको त्यागकर उठ खडेहूजिये॥३॥ अर्जुनने कहा हे मधुसूदन! हे अरिसूदन! जो भीष्मपितामह और गुरु द्रोणाचार्यजी महाराज पूजा करनेलायक हैं, उनके संग हम बाणोंसे किस तरह युद्ध करें?॥४॥ यदि इस लोकमें हम कुरुजनोंका नाश करके उनके रक्तसे सिंचित भोगोंको भोगनेकी इच्छा करें तंब इसकी अपेक्षा तो इन गुरुजनोंका नाश न करके इस लोकमें भीखका मिला अन्नही भोगना उत्तम बात है॥५॥ अत एव हे हरे! मैं गुरु, पितामह, पुत्र, आप्त, नातेदार और बन्धु बाँधवादिको वध करके उनके खूनसे सिंचित भोगोंको किसतरह भोग करूँ?॥६॥ यदि संग्रामके अवसान कालमें स्वजनोंसमेत लक्ष्मीको भोगनेके निमित्त तथा लालचके लिये इन लोगोंके मारडालने पर भी मेरी विजय नहीं हुइ, तो केवल पातकही मेरे मस्तक पर चढा रहेगा!॥७॥ अत एव हे केशव! जिससे मेरा मंगल (भला) हो, वैसेही दयायुक्त हो आपसे पूछताहूँ, आप ‘धर्मसंकटके उत्पत्ति समयमें इसका निर्णय कहिये॥८॥ संजय बोले। हे परंतप धृतराष्ट्र! इस तरह डाकेश अर्जुनने हृषीकेश भगवान् श्रीकृष्णजीसे कहकर फिर कहा। हे गोविन्द! में संग्राम नहीं करूँगा; इस भाँति कहकर अर्जुन प होगये॥९॥
हे भारत! तब हृषीकेश भगवान् श्रीकृष्णने दोनों सेनाओंके बीच विषाद (शोक) करतेहुए अर्जुनसे इस प्रकार हँसते हँसते कहा॥१०॥ श्रीकृष्ण वोले। हे अर्जुन! जिनका शोच नहीं करना चाहिये, आप उनका ही सोच कररहेहैं, और बुद्धिमानोंकी समान वातें करतेहो? क्योंकि पण्डित जन तो मरे तथा जीवित पुरुषोंके लिये सोच नहीं कियाकरतेहैं॥११॥ फिर अपना धर्म देखकर भी आपको कम्पायमान (विचलित) नहीं होना चाहिये, क्योंकि क्षत्रियके पक्षमें धर्मरूपी संग्रामके अतिरिक्त कल्याण कारक दूसरा कोई उपायही नहीं है॥१२॥ हे अर्जुन! खुलेहुए स्वर्गके द्वारस्वरूप तथा दैवेच्छाद्वारा ही प्राप्तहुए ऐसे युद्धको सुखवाले प्रतापशाली क्षत्रियलोगही लाभ कियाकरतेहैं॥१३॥यदि आप अपने धर्मस्वरूप संग्रामको नहीं करेंगे तो धर्म और कीर्त्ति (यश) का नाश करके पापही प्राप्त करेंगे॥१४॥ सारे प्राणी(जीव) आपके अटूट अपयशको वर्णन किया करेंगे फिर समर्थवान् और प्रतिष्टित आदमीका अपयश होजाना तो मृत्युसेही अधिक कष्ट कारक होता है॥१५॥ यद्यपि आप दयाके वशीभूत होकर युद्धको त्याग रहे हैं, किन्तु मनुष्य यही समझेंगे कि आपने डरके मारे ऐसा किया, जिनके वीचमें आप प्रथम अत्यन्त माननीय होकर पीछे तुच्छ नाको प्राप्त होजायगे॥ १६॥ अत एव आपके वैरी आपके समर्थ भावकी निन्दा करतेहुए अयोग्य वचनोंको कहाकरेंगे, इसकी अपेक्षा और महान दुःख क्या होगा?॥१७॥ हे कुन्तीके पुत्र! यदि युद्धमें मृत्यु हुई तो स्वर्गकोप्राप्त होगे, और जो जीत गये, तो पृथ्वीका (राज्य) भोगोगे, अत एव अब आप उठकर सावधानीसे युद्ध कीजिये॥१८॥ आप यदि सुख, दुःख, लाभ, हानि और जीत, हार इनको समान जानकर संग्रामके निमित्त
तैयार होजाँयगे, तो ऐसा होनेपर फिर आपको पातकभी स्पर्श नहीं करेगा॥१९॥ मैंने यह बुद्धि तो आपसे सांख्यके द्वारा कही, अब फिर इसी बुद्धिको योगमें कहता हूँ, सुनिये।यदि आप इस बुद्धिसे काम करेंगे तो आपको कर्मबन्धनसे छुटकारामिलजायगा॥२०॥यह जो बुद्धि मैंने दी है, आप इसीके अनुसार आचरण कीजिये और मैंने यह काम किया, मैंने यह भोजन खाया, इस तरह कदापि न कहना अर्थात् अहंभाव (मैं मेरा) को सर्वथा त्याग दीजिये॥२१॥ हे कुन्तीके पुत्र! आप जो कर्म करें, जो भोजन करें, जो पदार्थ होम करें, जो दान करें और जो तपस्या करें, वह सर्व को अर्पण करदीजिये॥२२॥ कर्मारंभमें तो आप अपना अधिकार रखिये, किन्तु फलमें कदापि न रखना, और न फलके लिये आप कर्म करें और न कर्मके त्यागमें आपका संग होना चाहिये॥२३॥दे धनंजय! आप संग छोडकर और सिद्धि असिद्धिमें समान होकर योगमें अवस्थित होकर कर्म करते रहिये। क्योंकि सिद्धि असिद्धि जो समानभाव है, उसीको योग कहागयाहै॥२४॥ बुद्धिमान् पण्डितजन कर्मजनित फलको छोडकर और फलोंके बन्धनसे मुक्त हो अनामय (रोगहीन) पद पाजाया करतेहैं॥२५॥ आप दुःखमें दुःखी और सुखमें हर्षित नहीं हूजिये, बरन् सुख और दुःख एकसा समझकर कर्म कीजिये, ऐसा होनेपर भी आप कर्मके फलमें नहीं लिपटेंगे॥२६॥
चौपाई—कही कृष्ण पारथ नि लीजे। क्षत्रिय धर्म त्याग नहिं कीजे॥
रण देखे क्षत्री जो डरहीं। अंतकाल सो नरकन परहीं॥
प्रथम कोधकारी रणमें आयहु। अब यह ज्ञान कहाँते पाय॥
गह शस्त्र र युद्ध सँवार। छाँडहु सोच शत्रु संहार॥
++ वश्य है सब सं रा। यामें कछु नहिं दोष तुम्हारा॥
दोहा—मुख विस्तारचो कृष्ण तव, पारथ देखेउनैन॥
जूझे सब सेना मृतक, रणमें कीन्हे शैन॥
चौपाई— सर्व मृतक पारथ जब देखेउ। अपने जिय अचरज +रि लेखेर॥
त्रसित भयो तनु कम्प जनायो। मूँदेउ नैन वचन नहिं आयो॥
अर्जुनको त्रासित हरि जाना। कठिन रूप छाँडेउ भगवाना॥
अर्जुन तबयुग नैन उचारो। सखा रूपसो प्रभुहि निहारो॥
तब पारथ देखेउ बनवारी। जोती6 गहे पिताम्बर धारी॥
अर्जुन पुनि कमलापति आगे। अस्तुति करन जोरि+ रा +गे ॥
तुम प्रभु तीन लोकके करता। दाता जन्म प्राणके हरता॥
अब संशय प्रभु मिटी हमारी। कारहों युद्ध सुनहु गिरिधारी॥
यह कहि धनुष हाथ गहि लीन्हों। देवदत्त ++शं ध्वनि कीन्हो॥
दोहा—दोऊ दल बाजे बजे, गरजे सिंह समान।
क्षत्रियगण रण हाँकदै, साधे शारंग वान॥
परवीरघाती अर्जुन इस प्रकार भगवान् वासुदेव श्रीकृष्णकी वातें सुन और उनसे प्रेरित होकर आरंभके फलसे विरक्त हुए और फिर युद्धका आचरण (उद्यम) किया॥२७॥ हे महाराज! अनन्तर भीष्म पितामहने रणाङ्गनमें आठ दिनतकयुद्ध करके पाण्डवोंकी बहुतसी सेनाको लीलापूर्वकही धराशायी करदिया॥२८॥ इसप्रकार महावली भीष्म पितामहका पराक्रम देखकर श्रीकृष्णको वडाही अचंभा हुआ। तब फिर भीष्मजीने नवाँ दिन उपस्थित होनेपर श्रीकृष्ण से कहा॥२९॥भीष्मजी वोले हे कृष्ण! कृष्ण! हे महावीर! हे कालरूप! आपको नमस्कार है। आप सरीखे महाराजाधिराजके आगे दासानुदास रंक (दरिद्री) भीष्मकी क्या वात है?॥३०॥ हे प्रभो! आप
आधे पलमें इस विश्व (संसार) को उत्पन्न करतेहैं, पालन करतेहैं और फिर संहार करडाला करतेहैं, हे देवेन्द्र! तथापि पिता तुल्य आपके आगे मैं बालककी तरह विनती करताहूँ॥३१॥ कि इस समय मैं अस्त्रविद्याद्वारा आपके मीपही अर्जुनको विजित करूँगा। इस प्रकार कहकर भीष्मपितामह अर्जुनके ऊपर बाणोंकी वर्षा करनेलगे॥३२॥ फिर कहा हे नारायण ! मेरे बाणोंसे ढकेहुए नर (अर्जुन ) की आप रक्षा कीजिये । इस तरह जतलाकर गंगापुत्र भीष्मजीने अपने पांच बाण अर्जुनकी तीमें वींधदिये॥३३॥ तब अर्जुनने तीन टूक करके उन बाणोंको काटडाला, फिर भीष्मजीने अत्यन्त फुरतीसे हाँकमारतेहुए तीन बाणोंद्वारा अर्जुनका ललाट वींधडाला और फिर उन्होंने गृध्रके पंखके पाँखोंवाले दो बाणोंद्वारा अर्जुनकी दोनों कनपटी बहुतही बींध डालीं॥३४॥३५॥ इस तरह भीष्मजीके द्वारा हत अर्थात् बाणवर्षा होनेपर अर्जुन रथसे भूमिपर गिरपडे, और फिर भीष्मजीने गर्जना करते हुए कपिश्रेष्ठ हनुमानजीको सहस्रबाणोंसे मारा॥३६॥ तब वे हनुमानजीभी उन हजार बाणोंका प्रहार होनेपर ध्वजाके अग्रभागसे भूमिपर आगिरे और फिर भीष्मजीके पास पहुँचकर हनुमानजीने कहा॥३७॥ हे भीष्म! हे महावीर! यद्यपि आप बूढे हैं, किन्तु तथापि समरमें महाबलवानं हैं। हे सखे! मैं दशानन (रावण) के बाणोंकोभी संहारगया और उससे त्रस्त नहीं हुआथा॥३८॥ हे महावीर! अब फिर आप मुझको बाणों से किस तरह वेधतेहो? इतना कहकर कपिकुंजर हनुमानजी तडित (बिजली) की तरह उ लें॥३९॥ तब उन उछलेहुए हनुमानजीको फिरभी बहुतसे बाणोंद्वारा भीष्मजीने वींधा, जिससे कपिकुंजर नुमानजीके सारे अंग छिन्न भिन्न होगये और
वे संभ्रान्त होगये॥४०॥ फिर देश देशमें घूमते घूमते वे वीर हनुमानजी एक बडे भारी पहाडपर पहुँचे जो कि सारे पहाडों में शिरमौर था, तब महान क्रोध से जलते हुए रुद्रके अंश हनुमानजीने उस पहाडको उखाडलिया॥४१॥ और उन्होंने बाणधारियोंमें उत्तम भीष्मपितामहके निकट पहुँचकर ज्योंही उनको मारना चाहा, कि वैसेही भीष्मजीने पर्वतसमेत उन हनुमानजीको घोर वाणोंसे मारा॥४२॥ तब हनुमानजी उन बाणोंके प्रहारसे समुद्रकी वेलामें जा गिरे, किन्तु फिरभी वे वानरश्रेष्ठ हनुमानजी शीघ्रता से उठे और पहाडको हाथमें उठाकर॥४३॥ जवतक यह आवें, तबतक भीष्मजीने महान् दुष्कर (कठिन) कर्म किया। इसके पीछे यमराज (काल) की समान भीष्मदेवने सर्वेश्वर श्रीकृष्ण से कहा॥४४॥ हे सबके ईश्वर! अब आप अपनेकी रक्षा कीजिये क्योंकि मैं बडे तीखे अथ च पक्के बाणोंसे आपको मारताहूँ। यह कहकर भीष्मने एक लाख बाणोंसे श्रीकृष्णकी छातीको बींध डाला॥४५॥ फिर जैसेही भीष्मदेवने श्रीकृष्णके ललाट और दोनों कानों को वेधन किया कि, तैसेही कालात्मा ईश्वर श्रीकृष्ण (महान्) क्रोधमें भरगये॥४६॥ हे महाराज! उस काल श्रीकृष्णने भालदेशके वेधनसे भीष्म के प्रति क्रोधको प्राप्त करके तथा दोनों आँखोंको विकराल करके दाँतोंसे होठों को चाबते हुए भीष्मजी को मारना आरंभ किया॥४७॥ अनन्तर श्रीकृष्णजीके केवल मात्र स्मरण करतेही उनका सुदर्शन चक्रे आगया, उसको लेकर भगवान् श्रीकृष्ण जैसेही गेडनेको उद्यत हुए कि वैसेही देवतालोग (महात्मा वीरवर) भी जीपर फूलों की वर्षा करनेलगे॥४८॥ तब उस काल गंगापुत्र भीष्मने श्रीकृष्ण से कहा कि, हे नाथ! मैं आपका अवश्यपराजय करचुका, क्योंकि हे विश्वात्मन्! आपने पूर्वमें प्रतिज्ञा
कीथी, सो अब उसको कैसे भूलगये?॥४९॥ पूर्वमें आप कहचुकेहैं कि ‘मैं शस्त्र नहीं पकडूंगा यह मेरा निश्चित वचन है’ सो हे विष्णो! आपका वह वचन इस समय किधर चलागया? जो हो, इस चक्रको आप त्यागिये, नहीं तो मैं इस चक्रकोभी काटडालूँगा, आपकी भक्तिसेप्राप्त पराक्रमवाला मैं आपको सन्तुष्ट करूंगा, इस बात में कुछ भी संशय नहीं कीजिये। इस तरह कहकर भीष्मजीने पाँच बाणोंके द्वारा रथपर हार करके रथको तोड फोडडाला॥५०॥५१॥ तदनन्तर भीष्मजी मन्द मन्द मुसकुराते हुए श्रीकृष्णके पासगये और फिर उनके चरणों में गिर कहा हे विष्णो! मैंने यह (कठिन) काम आपकेही अनुग्रहसे सम्पन्न कियाहै॥५२॥ (फिर भीष्मजी इस प्रकार श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगे)
**चौपाई—य वृन्दावन विपिन बिहारी।श्रीधर श्रीपति श्रीवनवारी॥
चढे आय हरि पारथ स्यन्दन। जोती गहे आप जगवन्दन॥
- धु साधु श्रीपति वनवारी। सदा भक्त पण रक्षा कारी॥
विप्र सुदामा दारिद भंजन। भक्त वश्य गोपिन मनरंजन॥
गणिका व्याध गीध गज तारण। गोरक्षक गोवर्द्धन धारण॥
ध्रुव + + अचल कियो पर तक्षक। द्रुपद ताकी लज्जा रक्षक॥
महा+ ष्ट प्रहलाद उबारो। निकसि खंभतें दनुजहि फारयो।
रावण कुल समेत वध कीन्हो। लंका राज्य विभीषण दीन्हो॥
शाप शिला गौतमकी नारी। परसत चरण अहल्या तारी॥**
तब भीषम यहि विधितें भाख्यो। दीनबन्धु मेरो प्रण राख्यो॥
दोहा—प्रभु अपनी प्रण टारिकैं, कियो मोर सम्मान।
भीषम प्रण पूरण क्रियो, भक्तवश्य भगवान॥
ब्रह्मा शं+ र देवमुनि, रव चरत तव ध्यान।
जय जय श्रीयदुवंशमणि, जय जय परमसुजान॥
तेनैव कर्मणा नाथ प्रसन्नो भव माधव।
एवं+ ष्णश्चभीष्मश्चयावद्वदति प्रीतितः।
हनुमानर्जुनस्तावत्प्राप्तौ चास्तंगते रवौ॥५३॥
हे नाथ! हे माधव! आप उसी कर्मके द्वारा मेरे पर प्रसन्न हूजिये इसप्रकार श्रीकृष्ण और भीष्म प्रीतिपूर्वक कहतेहीथे कि उसी अवसरमें हनुमान और अर्जुन सूर्यके अस्त समयमें आपहुँचे॥५३॥ इति श्रीभारतसारे भीष्मपर्वणि भाषायां षष्टितमोऽध्यायः॥६०॥
एकषष्टितमोऽध्यायः ६१.
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एकषष्टितमेऽध्याये शूराणां श्लाघिनां तथा।
धनञ्जयेन भीष्मस्य युद्धे पतनमुच्यते॥१॥
इस इकसठवें अध्यायमें शुरप्रशंसित भीष्मजीको रणस्थलमें धनंजयने भूमिपर गिराया यह कथा कही जाती है॥१॥
वैशंपायन उवाच।
दिनानां नवकं भीष्मो युयुधे लीलया नृप।
तस्यां रात्र्यां गताः सर्वे पांडवा भीष्मसन्निधौ॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय! जब भीष्मपितामहने नौ दिनतक लीलापूर्वक युद्ध किया, तब रातके समय युधिष्ठिर इत्यादि सव पांडव भीष्मजीके निकट गये॥१॥ अनन्तर पाण्डवलोग प्रतिदिन उनकी सेवाके लिये जानेलगे, एक समय मार्गमें श्रीकृष्णसे युक्तहुए पांडवोंने आपसमें परामर्श करके भीष्मजी की मृत्युके विषय में विचार किया॥२॥ फिर भगवान् श्रीकृष्णको आया हुआ देखकर भीष्मपितामहने भक्तिसहित दण्डवत् भूमिमें गिरकर उनको वारंवार नमस्कार किया॥३॥ तब श्रीकृष्णने कहा हे वीर! आपकी समान इस पृथ्वी-
तलपर दूसरा वीर नहीं है, इसके पीछे युधिष्ठिरने भक्तिद्वारा प्रसन्न करके भीष्मसे कहा॥४॥ युधिष्ठिर बोले। हे पितामह। हे लम्बीभुजावाले! हे महाबलपराक्रमशाली! आप इच्छामृत्युवाले हैं, अर्थात् जब आप इच्छा करेंगे तभी मरसकतेहैं, अन्यथा नहीं, अत एव हे भगवन्! आपकी समान पृथ्वीतलपर दूसरा कोई नहीं है॥५॥ हे पितामह! आपने हमारी समस्त सेनाका नाश करडाला, हे तात! अब हम सबजने आपकी शरणमें आयेहैं, सो हम कौरवोंको कैसे जीतसकेंगे?॥६॥ हे नाथ! हे पितामह! हम पितृहीन बालक हैं, सो इससमय हमारे माता पिता और रक्षक आपही हैं, दूसरा रक्षा करनेवाला कोई नहीं है, अत एव हमारा पालन कीजिये॥७॥ हे स्वामिन्! यदि आपने अपने मनमें हमारे मारही डॉलनेका निश्चय किया है, तो आप वह बात हमको बतलादीजिये, जिससे हमलोग प्रथमही रण छोडकर भागजांवें!॥८॥ हे धर्मात्मन्! हम और कौरव दोनोंही आपके बालक हैं किन्तु कौरव इस समय बडे बलवान् हैं क्योंकि उनको बलवान् पुरुषोंका सहारा मिलगयाहै॥९॥ हे देव! इस अवसरमें वे लोग प्राप्तराज्यवाले हैं, अर्थात् राजा हैं, अत एव हे तात! आप देखिये कि उनके समान भूमण्डल पर इस समय दूसरा कोई नहीं है॥१०॥ और हे प्रभो! हम लोग बलहीन हैं, स्वल्प हैं; अर्थात् वेतो एक सौ भ्राता हैं, और हम केवल पाँचही भ्राता हैं, तिसपरभी हमको किसी वीरका सहारा नहीं, तथा नष्ट राज्यवाले हैं अर्थात् हमारा राज्यभी छिनगया है, और इसके अतिरिक्त इससमयमें आपनेभी हमको बहुत घायल करदियाहै॥११॥ अत एव हे तात! हे प्रभो! आप तलवार उठाकर मलोगोंकेमस्तक काटडालिये और नहीं तो हे तात! विजय होनेका उपाय
बताइये इस विषयमें श्रीकृष्णजीकीभी यही सम्मति है॥१२॥ हम सरीखा हीन इन तीनों लोकमें दूसरा कोई भी नहीं है। हे पालक! इस कारण हमारा भागही जाना ठीकहै, अथवा अवश्य अवश्य मजाना उचित है॥१३॥ श्रीकृष्ण और युधिष्ठिरकी इस प्रकार सम्मति जानकर भीष्मदेवने धर्मराज युधिष्ठिरसे कहा, भीष्मजी बोले हे धर्मराज ! हे महावाहो! इस भूतलपर आपकी समान दूसरा कोईभी नहीं है॥१४॥ क्योंकि ब्रह्मादि देवता जिनके चरणों की वन्दना करतेहैं, वे श्रीकृष्ण आपके पालक हैं, यह बात आप निश्चित समझिये, अतएव आप फिर अपनेको हीन कैसे कहतेहैं ?॥५॥ सुतरां आप श्रीकृष्ण सरीखे नाथवाले हैं, इस कारण श्रीकृष्ण दुष्टोंका नाश करके और आपको केवल कण्टकहीन राज्य दिलाकर आपका अवश्य पालन करेंगे॥१६॥ क्योंकि जो आदमी धर्म, गौएँ और ब्राह्मणोंकी रक्षा किया करता है, उसकी जीतही होती है हार कभी नहीं हुआ करती, किन्तु हे धर्मपुत्र युधिष्टिर! श्रीकृष्णजीकी भक्तिसे मैं जो कुछ कहता हूँ वह आपको सुनलेना उचित है॥१७॥ कि सेनापति धनुषहाथमें लिये मुझ भीष्मके खडेरहने पर अठारह दिनपर्यन्त आपकी विजय नहीं होगी यह वात में इस समय सच्चीही कहरहाहूँ॥१८॥और आपके कहने से मैं रणकोभी नहीं छोड़सकता, क्योंकि यदि मैं रणको छोडदूँगा, तो लोग मेरी बुराई करेंगे॥१९॥ और जो अब दुर्योधनको छोड़कर आपका सहारा लूँ तो ऐसा होनेपर देवता कहेंगे पिछे डरके मारे भीष्म पाण्डवोंकी शरण में चलागया!॥२०॥ और शास्त्र में भी क्षत्रियके लिये पक्ष छोडनेका निषेध कियागयाहै, क्यों कि जिसका पक्ष जिसने स्वीकार करलिया पुरुषोत्तम क्षत्री उसका पालन (निर्वाह) किया करते हैं॥२१॥ देखिये अब तक भी
दुरासद उस समुद्रसे निकलेहुए कालकूट विषको श्रीमहादेवजी महाराज पालनकर रहेहैं, किन्तु मुझको धर्मके नष्ट कालमें पापियोंको राज्य देना अच्छा नहीं लगताहै॥२२॥ इस लिये हे महाराज सर्वान्तःकरणसे विचार करके मुझको अपना पतन (मरकर गिरजाना) ही अच्छा लगताहै, क्योंकि हे धर्मनन्दन! मेरी मृत्युको छोडकर आपके विजयका दूसरा उपाय मुझको दिखाई नहीं देता॥२३॥ हे धर्मराज! अब मेरे पतनका उपाय आप एकाग्रमनसे सुनिये।हे तात! एक शिखण्डी नामक पुरुषत्वहीन व्यक्ति आपकी सेनामें है॥२४॥ उसको देखकर मैं विमुख होजाऊँगा, कारण कि मैं पढ (नपुंसक) को नहीं देखाकरताहूँ युधिष्ठिरने कहा हे महात्मन्! हमारी सेनामें पुरुषत्वं हीन शिखंडी नामक कौनसा राजा है?॥२५॥जिसकी पापरूप कायाको आप नहीं देखना चाहते हैं? भीष्मजीने कहा। हे राजन्! हे पृथानन्दन! काशीके राजाकी अत्यन्त सुभग सुन्दरी तीन कन्याओंको ॥२६॥मैं स्वयंवरसे सारे राजाओंको परास्त करके चित्र विचित्र दोनों भाइयोंके लिये लेआया॥२७॥ तिनके बीच अबा नाम्नी कन्या मुझसे रास्ते में बोली कि मैं तो अपने मनमें अनुशावको वरचुकी हूँ, यह बात सुनकर मैंने उसको छोडदिया और वह अनुशाल्वके निकट चलीगई॥२८॥ किन्तु इस अनुशाल्वने जब उसको स्वीकार नहीं किया, तब वही कन्या फिर मेरे पास पलट आई और मैंनेभी जब उसको निकाल बाहर किया, तब वह शोभायमान गंगाजीके किनारेपर जापहुँची॥२९॥ वहाँ महर्षि वशिष्टजीने उस अश्रुपूर्ण आँखोंवालीको रोतेहुए देखा। वशिष्टजीने कहा हे बाले! आप क्यों रोरहीहैं? और इस वनमें कैसे आई हैं?॥३०॥आपको क्या दिन क्या रात किसी समय भी सुख दिखाई नहीं देता? क्योंकि आप लम्बे लम्बे
श्वास छोडरहीह, हे बाले! आपको किस बातका दुःख है? सो मुझसमेत पूछते हुए ऋषियोंको बतादीजिये।हें वाले! क्या किसीने आपको पीडित किया है? अथवा किसीने आपका मान भंग करदिया है?॥३१॥ अबलाने कहा हे स्वामिन्! हम महाराज काशिराजकी सुता तीन बहने थीं सो हम तीनोंको उन गंगापुत्र महावीर भीष्मजी ने जीत लिया॥३२॥ उन भीष्मजीने बलकरके अधिक ऐसे स्वयंवर में भूमिके सारे नरेशोंको परास्त करके उत्तम शीलस्वभावयुक्त हम तीनों कन्याओंको लेलिया॥३३॥ उन तीनोंमेंसे एक तो चित्रको प्रदान करी और दूसरी विचित्रको अर्पण करदी किन्तु मुझको उन्होंने छोडदिया, इसी लिये मैंने इस दीन भावको स्वीकार कियाहै॥३४॥ और मेरी वे दोनों बहन सारे सुखों को प्राप्तहुईं, उनको राज्य तथा अभिलषित पति मिला, और मुझे पूर्वकर्मके विपाक (फलसे) ऐसा दारुण दुःख मिला॥३५॥हे विप्र! मुझको शान्तनुके पुत्र भीष्मने पतिहीन करदिया है, हे विप्रेन्द्र! उसी दुःखसे मैं इस वनमें रोरहीहूँ\।॥३६॥क्योंकि जो नारी पतिहीन है वह सुख पानेके योग्य नहीं है, तथा इस लोकमें उसका जन्म लेनाभी निरर्थक है, है द्विजोत्तम! मैं तो यही कहतीहूँ॥३७॥ वशिष्ठजी ने कहा। हे महारानी! हे सुन्दरी! आप दुःखको छोडकर स्थिर हूजिये और हे वाले! आप महाबलवान् जमदग्निपुत्र परशुराम, ऋषिके निकट चलीजाइये॥३८॥ वे श्यामशरीरवाले जमदग्निनंदन परशुरामजी अत्यन्त सुन्दर हैं, तब उस बालाने मुनिवर परशुरामजीके निकट जाकर अपना दुःख निवेदन किया और महान् रोदन करती हुई घोर हाहाकार करनेलगी॥३९॥ परशुरामजीने कहा हे पुत्रि! तू किसलिये रोरहीहै? दुःख छोडकर स्थिर हो। हे महारानी!
हम तुझपर सन्तुष्ट हुएहैं, इस कारण तू अपना उत्तम वर माँगले॥४०॥ अम्बाने कहाहे नाथ! गंगापुत्र भीष्मजी महाराज जो कि देव दानवोंसेभी अजेय हैं, उन्हीं महावीरने मुझे स्त्रीके निमित्त ग्रहण करके मेरा गृह भंग करदिया है॥४१॥ हे राम! आपके प्रसादसे वे गंगापुत्र भीष्मजीही मेरे स्वामी होवें अथवा यदि गाँगेयजी मुझको पतिरूपसे नहीं मिलें, तो मेरा मरजाना ठीक है॥४२॥ ऋषिने कहा हे सुन्दरी! मैं स्वयं हस्तिनापुर में जहाँ भीष्मजी स्थित हैं, चलता हूँ और तू भी मेरे संग चल, तेरे संग भीष्मको विवाह करना चाहिये, यदि वे इस बातको नहीं मानेंगे, तो मैं उनको मारडालूँगा॥४३॥ तब वह बाला सहसा ब्राह्मण परशुरामजीके संग मेरे नगर हस्तिनापुर में आपहुँची, तब मैंने जमदग्निनन्दन पुरुषोत्तम प्रभु परशुरामजीका दर्शन किया॥४४॥ तदनन्तर उनको मैंने अर्घाञ्जलि देकर आसनपर बैठाला और प्रार्थना करी हे पूणोत्तम! आप किस निमित्त और कहाँसे आये हैं?॥४५॥ परशुरामजीने कहा हे महापण्डित गाँगेयजी! एक मेरी हितकर अर्थात् अपने भलेकी बात सुनिये। इस अति उत्तम सुन्दरी अम्बानामवाली बालाको आप विवाहके लिये ग्रहण कीजिये॥४६॥ आपने एक कन्या तो चित्रको दी और एक विचित्रको समर्पण करी अत एव हे महाराज! इस एकको आप लेलीजिये। और यदि आप इस बातको स्वीकार नहीं करें तो हे शन्तनुनन्दन! आप मुझको संग्राम दीजिये अर्थात् मेरे संग युद्ध करने को तैयार हो जाइये॥४७॥ हे द्विजसत्तम! यदि आप इस यशस्विनी, रूपवती, सुभग, सुन्दरी स्त्रीको ग्रहण नहीं करेंगे, तो मैं आपके साथ महान् संग्राम करूँगा॥४८॥ क्योंकि इस बालाने मुझको वनमेंही सूचित किया था कि, यदि मुझको भीष्मजी स्वीकार
नहीं करेंगे, तो फिर आप क्या (उपाय) करेंगे, तब मैंने उत्तर दिया कि, उनके संग संग्राम करूँगा। सो यदि आप इसको अंगीकार नहीं करना चाहें तो मेरे संग सावधानीसे संग्राम कीजिये॥४९॥ हे पांडवो! फिर जब मैंने उस कन्याको स्वीकार (ग्रहण) नहीं किया, तब उन परशुरामजीने मेरे साथ निर्मल प्रातःकाल समय, आकाशमें भगवान् दिवाकरके उदय होनेपर महान् शस्त्रवाला महाघोर और देवासुरोंको भयंकर ऐसा कठिन संग्राम किया। फिर जब मैंने महारौद्र और प्रज्वलित पावक (अग्नि) की समान संहारकारक दारुण अस्त्र छोडा॥५०॥५१॥ उस अवसरमें सारे देवता और सारे पन्नग (सर्प) काँप गये, तब फिर संपूर्ण देवता जमदग्निनन्दन परशुरामजीके पास आनकर प्राप्तहुए॥५२॥ और आकाशमें समस्त योगीजन तथा नारदादि ऋषि और सारे देवता महामुनि जमदग्रिजीको युद्धस्थलमें लिवालाये॥५३॥ और वोले हे ऋपिवर! आपके पुत्र गाँगेय भीष्मजीके वाणोंसे शीघ्रही (अभी) मृत्युको प्राप्त होजाँयगे। जमदग्निने कहा अहो पुत्र! हे महापण्डित! आप मेरी हितकारी वात सुनिये॥५४॥ अर्थात् यदि मेरी बात सुनो और मानो तो अब आप संग्राम नहीं कीजिये। नहीं तो मैं आपको मृत्युशोक तथा भय देनेवाला महारौद्र (दारुण) शाप दूँगा॥५५॥ मैंने एक क्षणभरके संग्राममें भार्गव परशुरामजीको परास्त (विजय) किया। परशुरामजी ने कहा हे गांगेय भीष्मजी! आप मेरी बात सुनकर अब सावधान होजाइये॥५६॥ फिर कुशमुष्टि परिप्लुत हाथमें जल लेकर कहा कि, कुरुक्षेत्रके बीच जिस समय अर्जुन आपके संग संग्राम करेंगे॥५७॥ तबउस काल यही अम्बिका षंढ (नपुंसक) होकर अर्जुनके रथपर विराजित रहेगी जिससे आप महाभयानक काल प्राप्त होनेपर वाण नहीं चलासकेंगे॥
॥५८॥ तथा उसी समय मुझ पुजमदग्निके पुत्र परशुरामद्वारा मृत्यु प्रेरित होगी उस काल अर्जुनके बाणोंसे आपकी मृत्यु होगी, इसमें जराभी संशय मत समझना॥५९॥ महाराज द्रुपदके घरमें शिखंडी भावको प्राप्त होकर यह काशिराजकी कन्या जन्म लेगी वहीं आपका मरण होगा॥६०॥ इस तरह कहकर अर्थात् शाप देकर परशुरामजीने पृष्ठच्छेद करके स्थित उस महादर्भको दन करडाला। इस कारण हे पांडवो! मैं आपसे विमुख हुआ स्थित रहूँगा॥६१॥ हे अर्जुन! मेरे वधके लिये मुझकोपरशुरामजीने यह शाप दिया है, अत एव मैं जैसे ही पीठ फेरकर खडा हूँ, उसी समय आप मुझको दारुण बाणोंसे वींधडालना॥६२॥ हे युधिष्ठिर! मेरी मृत्यु अर्जुनके हाथसे पौषमासके कृष्णपक्षकी सप्तमीके दिन होगी, अत एव हे महावीर! जहाँ मेरा मृत्युदाता है उस स्थानमें आप शीघ्रतासे चलेजाइये॥६३॥ तदनन्तर वे परशुरामजी और कन्याभी कठिन शाप देकर वनान्तरमें चलीगई हे महाप्राप्त! जिस स्थानमें उमामहेश्वर निवास करते हैं, उसी वनमें पहुँचकर वह कन्या तपस्या करनेलगी॥६४॥ तब उसकी तपस्यासे सन्तुष्ट होकर पार्वतीजीने कहा। हे पुत्री! हे काशिराजकी श्रेष्ठ दुहिते! आप वरकी प्रार्थना कीजिये (तुम जो वर लोगी) उसकी सिद्धि आपको कुरुक्षेत्रमें मिलेगी॥६५॥ पार्वतीजीके इस प्रकार कहनेपर अम्बा बोली हे उमे! (यदि आप वर देनाही चाहती हैं) तो यह दीजिये कि, मैं जिस किसी उपाय से गंगापुत्र भीष्मका नाश करसकूं। पार्वतीने कहा कि, हे पुत्रि! आपका शिखंडीरूपसे दर्शन करनेपर दूसरे जन्ममें उन भीष्म की मृत्यु होगी॥६६॥ आप महाराज द्रुपदके भवनमें महाबली शिखंडी हो कुरुक्षेत्रके बीच महान् संग्राममें अर्जुनके रथपर स्थित होकर भीष्मजीका वध करादेंगी॥६७॥ वही
बडे शरीरवाली मुझको मृत्युदायिनी महारानी अम्बा महाराज द्रुपदकी महासेनामें शिखंडी हुई है॥६८॥ द्विजराजके शापसे यह मेरी मृत्युकी सूचक है, इसप्रकारसे महाराज द्रुपदका पुत्र राजा शिखंडी हुआ है॥६९॥ युधिष्ठिरने कहा हे स्वामिन्! हे मानदेनेवाले! मुझको कुछ संशय है सो आप दन (नष्ट) करदीजिये और वह यही सन्देह है कि महाराज द्रुपदकी कन्या शिखंडीभावको किस तरह प्राप्त होगई?॥७०॥ भीष्मजीने कहा हे युधिष्टिर! पाँचालदेशके एक द्रुपदनामक महाराज हैं, उनके घरमें सव लडकियाँही जन्मीं और लडका एकभी नहीं जन्मा॥७१॥ हे राजन्! फिर कुछ दिन बीत जानेपर उनके एक लडकी और भी पैदा हुई, तब उसकाल उन महात्मा द्रुपद राजाने कुछ सोच समझकर॥७२॥ उस लडकीको लडका हुआ, लडका हुआइस तरह कहकर सबमें प्रकट (प्रसिद्ध) किया। अन्यान्य राजाओंके डरसेमहाराजने उसको पुत्र शब्दसे चारों ओर विख्यात किया॥७३॥ हे राजन्! फिर कुछ दिन बीत जानेपर वह पुत्री जवान होगई तब उसका ‘शूरसेन’ नाम हुआ और वह महा विक्रमशाली शूर हुआ॥७४॥ तब तहाँ वंगाधिपति (बंगालके महाराज) ने उसको अपनी कन्या समर्पण करदी अर्थात् उसके सँग अपनी कन्याका विवाह करदिया, तब उस कन्याने यह सारा समाचार अपने पितासे निवेदन कर दिया॥७५॥ उस समय उन बंगाधिपतिने अपने मनमें विचार किया कि, अपने जमाईको बुलायकर घायल करना चाहिये। यह सोच विचारकर अपने जमाईको बुलाया॥७६॥ तब हे राजन्! वह उनका जमाई चिन्ता करनेलगा कि मैं कहाँ जाऊँ अथवा क्या करूँ? इस प्रकार सोचता हुआ वह भ्रममें पडगया॥७७॥ इसके पीछे वह अकेलाही घोडेपर सवार
होकर गहन वनमें चलागया और वहाँ एक वडक पडको देखकर उतरपडा॥७८॥ तब वहाँ एक यक्षराजने इसको देखकर पूछा कि हे महाशय! आप विह्वल किसलिये होरहे हैं? तब इसने सारा हाल उस यक्षसे कहदिया॥७९॥ अनन्तर उस यक्षने सन्तुष्ट हो तीन दिनकी अवधि करके इसको अपना पुरुषत्व (पुरुषपना) प्रदान किया, तब तो यह अपने मनमें बडाही आनन्दित हुआ॥८०॥ और फिर घोडेपर सवार होकर अपने ससुर के घर पहुँचा, तब तीन दिनमें उसके एक लड़का पैदा हुआ॥८१॥ अनन्तर तीन दिन बीत जानेपर यक्षराजने आकर उससे कहा कि अब मेरा पुरुषत्व मुझको देदीजिये॥८२॥ फिर जब द्रुपदपुत्रने उसका पुरुषत्व पी। नहीं दिया, तब यक्षराज और उसमें दारुण संग्राम हुआ! ८३॥ और उस यक्षदेवने इस द्रुपद पुत्रको यह शाप दिया ‘जो कि तैंने मुझसे + ल किया, इसलिये रे दुराचारी! तू षंढ (नपुंसक) होजा॥८४॥ हे महामन्दमति! तू कृतघ्नी है अर्थात् जो तेरे साथ भलाई करताहै उसके संग तू बुराई करता है, अथवा कियेहुए उपकारको न करता है, इस कारण तू शिखंडीपनेको प्राप्त हो’ तबही वह राजा पुरुपत्वहीन होकर शिखंडी हुआहै॥८५॥ अत एव यह प्रत्यक्ष (साक्षात्) नर नारायण इसको रथ में सम्मुख बैठालकर आवें और फिर जब मैं पीठ फेरूँ तब मुझको अर्जुन॥८६॥ हे धर्मनन्दन! भाँति भाँतिके बाणोंसे मेरी पीठमें शय्या करे। हे नराधिप! यह मेरी निश्चित बात है, इस कारण आप इसीके अनुसार कार्यका अनुष्ठान कीजिये॥८७॥ भीष्म की यह बातें सुनकर पाण्डव बहुतही सन्तुष्ट हुए और फिर भीष्म पितामहको शिरसे नमस्कार करके अपने स्थानमें गये॥८८॥ उसी समय (रात्रि) के प्रभात होनेपर भगवान सूर्य उदय हुए तब श्रीकृष्णने शिखंडीसे कहा हे शिखडी! आप आइये और मेरे
आगे निडर हुए बैठे रहिये॥८९॥ हम सब (तीनों) जने संग्राम में चलते हैं, कारण ऐसा होनेपर अपना कोई काम होजानेवाला है, इसमें आप झूठ नहीं समझिये। इस प्रकार कहकर तीनों जने डरते काँपते भीष्मजीके निकट गये॥९०॥
चौपाई—भीष्मदेव तब कहने + गे। सारथि रथहि चलाव आगे॥
यह कहि+ हाँक्यो रथ जबहीं। अशकुन भये बहुत विधि तबहीं॥
सिंहनाद कार हाँक नायो। मानहुँ जलद घटा व रायो॥
क्रोधित है शारँग कर गह्यो। नमित वचन नर हरितैःह्यो॥
सावधान हरि जोती गहिये। पारथकी रक्षा महँ रहिये॥
यह कहि बाण सहस्र प्रहारयो। अर्जुनके तकि तकिकै मारयो॥
दश शर श्याम अंग हत कीन्हो। विंशति शर नुमन्तहि दीन्हो॥
तब अर्जुन लीन्हों कर धनुशर। युद्ध परस्पर होत भयं र॥
वीक्ष्ण बाण पांडु व डारयो। भीषम अन्तरिक्ष हति पारयो॥
जेते शर अर्जुनने डाटे। गंगा व बीचहिते + टे॥
अपर विशिख तीक्षण + र धारयो। ते शर पारथके शिर मारयो॥
अर्जुन सहित भये घायल हारे।तुरंग थकेन च त घुगति रि॥
श्रीपति कह्यो सुनो हो पारथ। रचहु उपाय वजहु पुरुषारथ॥
यह हिक हारे शं बजायो। तबहि शिखंडी आगे आयो।
अर्जुन ह्यो न यदुकेतू। कपट युद्ध कीजै केहिहेतू॥
जबहि शिखंडी आगे आयो। भीषम धनुष डारि शिर नायो॥
दोहा—विना अ+ + लज्जित वदन, हेरत नीचे नैन।
स्थिर हो रथपर रह्यो, ह्योकृष्णसौं बैन॥
चौपाई—दीनबन्धु पा+ + व हित+ + रिन। कपट युद्ध+ रि चाहहु मारन॥
अर्जुन+शिखंडी ओटहि। भीषम उरकीन्हों शर चोटहि॥
तब पारथ नि शर सन्धानहि। हृदय ताकि+ रि मारयो बानहि॥
चरणकमल उर कीन्हो ध्यानहि। रसना रटत+ + ष्णको नामहि॥
रोम रोम यहि विधि शर मारा। वहै प्रवाह रुधिरकी धारा॥
रथतें गिरे गंग त धरनी। जगमें रही सदा यह करनी॥
देखत सब कौरव गण धाये। हाहा शब्दाघात नाये॥
द्रोण कर्ण दुःशासन अत्री। धनुष डारि रोवहिं सब क्षत्री॥
दोहा—पांडवदल आनंद मन, जीवि चले मैदान।
अर्जुनके रथ सारथी, सुन्दर श्रीभगवान॥
तब पांडवोंने अपनी विजयके निमित्त केवल भीष्मजीके कथनानुसारही समस्त कार्य साधन किया, इस प्रकार दशवें दिन संध्याकालमें महाबलवान् भीष्मपितामहजीको धराशायी किया॥९१॥ फिर जब भीष्मजी शरशय्या (बाणोंकी सेज) पर सोगये तब उनका शिर नीचे लटकनेलगा, उस समय (उनकीही आज्ञानुसार) अर्जुनने बाणद्वारा शिरस्त्राण किया अर्थात् ऐसा बाण मारा कि जिसने तकियेका काम दिया और वह टेकस्वरूप होगया॥९२॥ इस प्रकार भीष्मजीके शरशय्या पर शयन करनेपर यमदूत आनकर उपस्थित हुए, उनको देखतेही भीष्मदेव धनुष लेकर उठे॥९३॥ तब वे यमदूत त्राहि त्राहि कहते हुए भागगये, क्योंकि यह महाबलवान् वीर गांगेय भीष्मजी आठवें वसुदेवताका स्वरूप हैं॥९४॥
**कृष्णपक्षे तु सप्तम्यामर्जुनेन निपातितम्॥ **
भीष्मं हि पातितं दृष्ट्वा रुरोद रुनन्दनः॥९५॥
अर्जुनने कृष्णपक्षकी सप्तमीके दिन भीष्मपितामहको धराशायी किया। तब उनको गिराहुआ देखकर रुनन्दन दुर्योधन रोनेलगा॥९५॥
इति श्रीवेदव्यासकृते श्रीभारतसारे भीष्मपर्वणि मुरादावादनगर- निवासिकान्यकुब्जवंशावतंसस्वर्गीयमिश्रसुखानंन्दात्मजपण्डितकन्हैयालालमिश्रकृतभाषाटीकायां भीष्मनिपातो नामैकपष्टितमोऽध्यायः॥६१॥
इति श्रीभाषाभारतसारे भीष्मपर्वसमाप्तम्॥
॥श्रीकृष्णाय नमः॥
भारतसार भाषा
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द्रोणपर्व ७.
द्विषष्टितमोध्यायः ६२.
दोहा—गौरि गिरा गुरु गणपति हि, व्यास मुनिहि शिर नाय।
द्रोणपर्वकी वचनिका, निजमति लि त बनाय॥ऑ
श्रीपति दीन दयाल अव, तुम पति रा हुमोर।
चरण शरण ली आनिकै, विनयकरहुँ कर जोर॥
दीनबन्धु करुणायतन, हरहुठिन उर शाल।
बार बार बिनवत यही, मिश्रकन्हैयाला॥
अपनी ओर निहारकर, देहु भक्ति वरदान।
प्रणव दीन रक्षहु सदा, यहीआपकी बान॥
नाथ न आनहु हृदयमहँ, मोपामरकी भूल।
कृपा दृष्टिकी वृष्टि कर, सदा रहहु अनुकुल॥
वैशंपायन उवाच।
द्विषष्टितम अध्याये चक्रव्यूहकथा तथा।
अभिमन्योरधर्मेण विनाशश्चात्र कथ्यते॥१॥
इस बासठवें अध्यायमें चक्रव्यूहका वृत्तान्त और अधर्मके द्वारा अभिमन्युका माराजाना यह कथा कहीजातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
ततो दुर्योधनो राजा द्रोणाचार्यस्य तत्र वै।
अभिषेकं चकाराथ रणेऽप्येकादशे दिने॥१॥
वैशंपायनजी बोले।हे जनमेजय! इसके पीछे राजा दुर्यो-
धनने रण (संग्राम) में ग्यारहवें दिन द्रोणाचार्यजीको अभिषेक (सेनापति बनाकर तिलक) किया॥१॥तब द्रोणाचार्यजीने वहाँ प्रथम दिन तो विराट इत्यादि मिलेहुए महारथी सुभटोंका नाश किया॥२॥और फिर दूसरे दिन हे राजन्! उत्तम कुमारादि सुभटों (योधाओं) को संग्राममें मारा। तथा भीमसेनने बहुत सारे कौरव पक्षीय वीरोंका नाश किया॥३॥ फिर एक दिन रात के समय दुर्योधनने द्रोणाचार्यजीसे कहा। हे गुरो! हे वीर! हे धर्मात्मन्! हे कौरवोंका पालन करनेवाले!॥४॥ जब कि आपके संग्राम करनेपरभी मेरी जीत नहीं होती, सो यह मेरे ओछे भाग्यकाही कारण है, अस्तु अब क्या करना चाहिये?॥५॥ दुर्योधनकी यह बात सुनकर द्रोणाचार्यजीने कहा द्रोणाचार्यजी बोले। हे दुर्योधन! हे महावीर! हे शूर! हे सत्त्वपरायण!॥६॥हे महाराज! मैं सबेरा होतेही चक्रव्यूह निर्माण करूँगा और उसके द्वारा सब पांडवोंको जीतकर आपको यश दूँगा॥७॥ (किन्तु यह बात भी जबही होगी) जब त्रैलोक्यप्रसिद्ध देवदानवोंसे अजेय महाबलवान और पराक्रमी अर्जुन नहीं होगा॥८॥ क्योंकि अर्जुन के होते हुए कोई भी पांडवोंको नहीं जीतसकेगा, तथा अर्जुन और केशव चक्रव्यूहका युद्ध भी जानते हैं॥९॥ अत एव जिससे अर्जुन युद्ध छोडकर दूसरे स्थानको चला जाय, आप ल करके वैसाही उपाय कीजिये कि हे महाराज! आप प्रार्थना पूर्वक राजाओंके संसप्तकको दूसरे स्थानमें पहुँचा दीजिये॥१०॥ तो वे दोनों महावीर संग्राम करनेके निमित्त वहाँ अवश्यहीचले जाँयगे। इस प्रकार द्रोणाचार्यजीने राजा दुर्योधनको भलीभाँति आज्ञादी॥११॥ तब वह विनयसे नम्र दुर्योधन वहां संसप्तकोंके निकट पहुँचा, और उनको आज्ञादी कि दूरगामी योधा ऐसे आप
अर्जुन और श्रीकृष्णको युद्धार्थ अन्य स्थानमें लेजाओ तब सबेरा होतेही वे संसप्तक आकर॥१२॥१३॥ युद्धके निमित्त अर्जुनको बुलाय दूर लेगये। तब श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा कि जहाँ संसप्तक हैं, वहाँको चलना चाहिये॥ १४॥ क्योंकि द्रोणाचार्यसे पहलेही चलाजाना हमारे लिये हितकारी होगा और नहीं तो जिनके द्रोणाचायजी सहायक हैं, वे कौरव हमारे धातक होंगे॥१५॥ यह अति उत्तम काम प्रकट होगया है, अत एव आप चल कर संसप्तकोंका नाश कीजिये। कपिध्वज अर्जुन श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर॥१६॥ श्रीकृष्ण समेत वहाँगये, जहाँ संसप्तक थे। हे राजन्! इसी बीचमें महाराज विराटकी पुत्री सती॥१७॥ उत्तराको लेनेके निमित्त अक्रूर और सात्यकी गये थे। और उन दोनोंने विराटके मंदिरसे उसको पतिके पास पाया ॥१८॥ वह सुन्दरी उससमय वहाँ पतिके साथ एकान्त में सुखपूर्वक क्रीडा कररहीथी। कामना स्वरूप सुखको प्राप्त हुईअत एव उससे विष्णुरात(परीक्षीत्) पुत्रने जन्म ग्रहण किया॥१९॥ इधर रणस्थलसे अर्जुनके दूर चलेजानेपर कौरव अत्यन्त हर्षित हुए और तव वहाँ द्रोणाचार्यजीने च व्यूहकी रचना करी॥२०॥ वह चक्रव्यूह दुष्प्रवेश अर्थात् योधाभी जिसमें महाकठिनाईसे घुससकें, महाघोर, दुर्जय (जो जीता न जाय) और जिसको महारथीभी नहीं भेदसकें, तब ब्राह्मण द्रोणाचार्यजीने कुछेक मुसकुराते मुसकुराते वहाँ पाण्डवोंको बुलाया॥२१॥ तब महावीर महाराज युधिष्टिर अपनी सारी सेनासे घिरेहुए उस महादारुण चक्रव्यूहपर आये॥२२॥ उसके देखनेपर महाराज युधिष्टिर चिन्तातुर होकर भीमसेनसे कहने लगे। युधिष्ठिर बोले हे भीमसेन! हे महाबाहु! इस चक्रव्यूहके विषयमें मैं क्या करूँ?॥२३॥ मैं इस चक्रव्यूहका युद्ध नहीं
जानता, इसको तो अर्जुन और केशव श्रीकृष्णही जानतेहैं अब मेरे संग आपको वहाँ चलना चाहिये इसमें संशय नहीं॥२४॥ यदि अर्जुन नहीं आसका और हमने इस चक्रव्यूहमें प्रवेश नहीं किया, तो क्षत्रियोंको अधर्म स्पर्श करेगा, इस प्रकार धर्मराजके कहने पर भीमसेनको महामूढ समझकर अर्जुनके पुत्र वीर अभिमन्युने कहा॥२५॥ अभिमन्यु बोले हे तातगण! जब मैं गर्भ में स्थित था, तब आगे मैंने चक्रव्यूहमें प्रवेश करनेका हाल श्रीकृष्णके मुखसे सुनाहै, किन्तु प्रवेश करके फिर उसमेंसे निकलनेका हाल नहीं सुना॥२६॥ अत एव मैं चक्रव्यूहमें प्रवेश करना तो जानता हूँ, किन्तु उसमेंसे निकलना नहीं जानताहूँ, क्योंकि निकलनेका हाल सुनाही नहीं तब महाराज युधिष्ठिरने प्रसन्न होकर अभिमन्युसे कहा॥२७॥
चौपाई–तुम्हें वन विधि आज्ञा दीजे। व्यूह युद्ध वीरनर्तै कीजे॥
पन्द्रह वर्ष वीर कुमारा। तुम हम सबके प्राण अधारा॥
अभिमन्यू इहि भाँति ब+ना। नृप हम कहँ बा क करि जाना॥
अर्जुनपुत्र + सुभद्रा नन्दन। आजु करौं रिपुसैन्य निकन्दनः॥
द्रोण कर्ण सब वीर घनेरे। आज देखिह भुज ब मेरे॥
मारि सबै सरदार गिरावौं। वो अर्जुनका पुत्र हावौं॥
बाँधौं भुज बल बली पुरन्दर। सेना उदधि होइ किमि मन्दर॥
इहि विधि बाण बुन्द झरि लैहौं। शोणित नदी अथाह वहैहौं।
शोच रत नृप आपुअ+ रथ। दे+ + आजु मोर पुरुषारथ॥
दोहा–भीमसेन बोले तबहि, राजा सुन विचार।
छहौं द्वार भेदन कहेउ, सतवाँ जो शिर भार॥
हे महावीर अभिमन्यु! यह म सब जने तुम बालकोंके लियेही बुढापेको प्राप्त हुए हैं अत एव हम आपके निकाललानेके लिये आपकी पीठमें लगेहुए चलेंगे॥२८॥ तब अभिमन्युने
युधिष्ठिर इत्यादिको पीछे करके चक्रव्यूहको भेदन किया, किन्तु वहाँ पांडवोंका बडा शत्रु सिन्धुराज जयद्रथ अड़ाहुआ था॥२९॥ तदनन्तर चक्रव्यूहमें प्रविष्ट होनेके समय महाबली अभिमन्यु वीर अपनी दादी कुन्तीको नमस्कार करनेके निमित्त निडरतासे निकला॥३०॥ और फिर अपनी दादीके पास पहुँचकर अभिमन्यु ने कहा! हे मइया! आप मुझको आज्ञा दीजिये क्योंकि मैं महारणमें संग्राम करनेकेलिये जाताहूँ। अभिमन्युके इस प्रकार कहने पर दादी कुन्तीने अशीश देकर उसके हाथमें एक रक्षाका डोरा (रक्षाबंधन) बाँध दिया॥३१॥ और फिर बोली। हे प्रियपुत्र! जिस समयतक यह डोरा आपके हाथमें बँधारहेगा, तबतक आपकी कुशल रहेगी अर्थात युद्धमें कोई आपका बालभी बांका नहीं करसकेगा, तब फिर अभिमन्यु अपने मनमें जीतकी आशा धारण कियेहुए मार्गमें निकला॥३२॥ अनन्तर अभिमन्युके हाथमें यह डोरा बँधा हुआ देखकर वीर श्रीकृष्णने पूछा कि हे पुत्रयह क्या पदार्थ है? और इससे क्या काम सिद्धं होगा? सो मुझको बतादीजिये॥३३॥ अभिमन्यु कृष्णसे कहा। हे मामा! इसको बाँधकर दादी कुन्तीने मेरी रक्षा की है, अर्थात् इसको रक्षा बन्धन समझिये। तब श्रीकृष्णने शिर हिलाकर कहा कि हे पुत्र! वीरके लिये रक्षाबंधन कैसा?॥३४॥ वीरकीतो शूरता और पराक्रमही निरन्तर रक्षा करताहै, श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर अभिमन्यु ने उस डोरेको तोडडाला और आगे बढ़ा॥३५॥ तब मार्ग में आईहुई महाराज विराटकी पुत्री उत्तरा वहाँ इनको देखकर वोली कि यह कौन वीर आरहा है?॥३६॥इसके ऐसा पूछने पर लोगोंने उत्तर दिया कि हे विराटकन्यै! यह आपके पति हैं। यह सुनकर उत्तराने कहा। अहो कृष्ण! अहो कृष्ण!
आपनेमुझसे ल किया॥३७॥ यह मेरे प्रिय स्वामी इस तरहके रूपसे आरहेहैं, और आप फिर किसभाँति ऐसी बात कहतेहैं? इसके पीछे अभिमन्युनेभी उस विराटनन्दिनी रूपवती उत्तराका दर्शन किया॥३८॥ तंब अभिमन्युनेभी लोगों से पूछाकि मार्गमें यह कौन दिखाई देती है? इनके ऐसा पूछनेपर उन लोगोंने उत्तर दिया कि क्या आप अपनी प्यारी उत्तराको नहीं देखते (पहचानते) हैं॥३९॥ तब अभिमन्युने एक लम्बा श्वास छोडकर कहा कि हे कृष्ण! यह आपने क्या किया! अर्थात् मुझसे आपने क्यों छल किया? क्यों कि हे कृष्ण! आपने मेरे सम्मुख कहाथा कि उत्तरा विषम कन्या और कुरूपवाली है॥४०॥ यह कहकर उन दोनोंने आपसमें एक दूसरे को देखा, तब अभिमन्युके देखनेपर उनकी दृष्टिसे उस देवी उत्तराने तत्काल गर्भ धारण किया॥४१॥ अनन्तर दृष्टिसे पुत्र उत्पन्न करके वह अभिमन्यु रणमें चलागया उससे विष्णुरात परीक्षितका जन्म हुआ॥४२॥ जो कि गर्भकालमेंही भगवान् विष्णुने इनकी रक्षा कीथी, इस कारण यह परीक्षितके नामसे सिद्ध हुए। यह सत्यधर्मपरायण परीक्षित् निरन्तर भगवान् विष्णुकी भक्तिमें निरत रहते थे॥४३॥ इस तरह महावीर अभिमन्यु पुत्र उत्पन्न करके वहाँसे निकला और द्रोणाचार्यके संग्राम में जा कर गर्जना करनेलगा॥४४॥
चौपाई–भीमादिक सब रणमें आये। सिन्धुराजने ते अटकाये॥
अभिमन्यू क्रोधित हो रनमें। मारे बाग कर्णके तनमें॥
ऐसी कठिन कीन्ह पुनि रणी। रुंड मुंड तोपी सब धरणी॥
कुरुपति तबहिं क्रोध अति कीन्हें। मारु मारु यह आज्ञा दीन्हें॥
ला न वीर पार्थसुताटे। तेदिश विदिश गगनमहँ पाटे॥
सप्तरथी भागे शत बारा। हाहाकार करहिं चिक्कारा॥
शोणित सरिता दीन्ह बहाई। योगिनि पीपी रक्त अघाई॥
जूझी अनी भभरिकै भागे। हँसिकेँ द्रोण न अस लागे॥
धन्य धन्य अभिमन्यु गुणसागर। सब क्षत्रिनमहँ बडो उजागर॥
धन्य सुभद्रा जगमें जाई। ऐसे वीर ठर नमाई॥
धन्य धन्य जगमहँ पितु पारथ। अभिमन्यु धन्य धन्य पुरुषारथ॥
दोहा–
दुर्योधन या विधि कह्यो, कर्ण द्रोण सों बैन।
बालक सब सैना वधी, तुम सब देखत नैन॥
तब वहाँ अभिमन्यु भाँति भाँतिके अस्त्र शस्त्रोंसे वैरियोंका नाश करके आगे चला और फिर वैरियोंको भेदकर चक्रव्यूहको भेदन करडाला॥४५॥ इसके पीछे अपनी वडी भारी सेनासे युक्त वीर जयद्रथभी उस अभिमन्युके सम्मुख आकर युद्ध करने लगा। तबद्रोणपक्षीय उस जयद्रथको देखकर युधिष्ठिर और भीमादि सब पाण्डव॥४६॥ श्रीमहादेवजीसे उसके तपकी सिद्धिको प्रत्यक्ष समझकर डरके मारे उसके पास नहीं जासके, क्योंकि उस जयद्रथने पूर्वमें पांडवोंसे परास्तं होकर तपस्या करीथी॥४७॥ तब ईश्वर श्रीमहादेवजीने तपस्या से सन्तुष्ट होकर उसको वर दिया, और तब उसने प्रणाम करके उनसे यही वर माँगा कि मैं रणमें पांडवोंको जीतूं॥४८॥ उसकी यह प्रार्थना सुनकर श्रीमहादेवजीने कहा कि हे जयद्रथ! आप रणमें अर्जुनके सिवाय और सब पांडवों को जीतेंगे॥४९॥ हे जयद्रथ! जो मनुष्य तेरा शिर काटकर भूमिपर गिरावेगा, तो पहले उस गिरानेवालेकाही शिर कटकर भूमिपर जा गिरेगा इसमें संशय नहीं समझना॥५०॥ श्रीमहादेवजीके उसी वरसे डरेहुए भीमसेन इत्यादि वीर जयद्रथके सामने नहीं गये और महावीर उस अभिमन्युने अकेलेही चक्रव्यूहमें प्रवेश कियाथा॥५१॥ और सम्पूर्ण बडे बडे महाबलशाली योधा-
और भटोंको उसने धराशायी किया अर्थात् मारगिराया, हजारों घोडे, घुडसवार, हाथी और उनपर बैठेहुए वीरोंका नाश किया॥५२॥ जब चक्रव्यूहमें घुसकर महावीर अभिमन्युने इसप्रकार वैरियोंको मथन करना आरंभ किया, तब उस (षोडशवर्षीय) बालक अभिमन्युकुमारके उन जयद्रथ इत्यादि महारथियोंने॥१३॥ फुरतीसे युद्ध करनेके कारण दिकज्ञान रहित और विह्वल (घबरायाहुआ) देखकर उसके ऊपर भाँति भाँतिके अस्त्र शस्त्रोंकी वर्षा करी। तब उन योधाओंको तरह तरहके शस्त्रोंद्वारा क्रोधमें भरेहुए सव्यसाचीनन्दन महाबलवान् अभिमन्युने भेदन किया। इस भाँति शस्त्रोंद्वारा प्रहार करनेवाले अभिमन्युके निकट मूढ जयद्रथ इत्यादि॥५४॥५५॥ संपूर्ण त्रियगण बलमें अकेलेही बालकसे हारकर भागनेलगे। इस तरह वे सारे योधा छिन्न भिन्न होकर भागनाही चाहते थे, कि इसी बीचमें जो कि चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकलाथा॥५६॥ उस पापमति जयद्रथने पीछेसे आकर खड्ग (तलवार) द्वारा अभिमन्युका शिर काटडाला। इस दुष्टात्मा जयद्रथने छल से अभिमन्यु कुमारको मारा॥५७॥ किन्तु शिर कटजानेपर भी उस धैर्यवान् वीर अभिमन्युने अनेक भाँतिके अस्त्र शस्त्रोंद्वारा सैकडों योधाओं को बींधडाला तथापि पृथ्वीतलपर नहीं गिरा॥५८॥ तब फिर सव जनोंने एकत्र मिलकर उसको गिरानेकी इच्छासे वींधडाला और दूरसे भाँति भाँतिके बाणोंको मारकर उस बालक अभिमन्युको भूतलशायी किया॥५९॥
दोहा–कुरु पांडव फिरिकै चल्यो, भयो युद्धको शेष।
भीमादिक क्षत्रिय सबै, रोवत धर्म नरेश॥
चौपाई - हाहा अभिमन्यु इमि भाखेउ। देखे बिना प्राण किमि राखे॥
त सपूत तो सों नहिं पावों। अर्जुनको किमि बदन दिखावों॥
रोवत भीम नकु अरु मन्त्री।सैनिक महा क्षत्री॥
रोवत सबै भवन कहूँ आये। र्द्ध बाहु शहि छिटकाये॥
अभिमन्यु हिकै सबहि पुकारत। दोऊ हाथ शीशपैं मारत॥
अन्तःपुर पहुँची यह बानी। श्रवणन ना सुभद्रा रानी॥
कुन्ती नत महा दु पाई। रोदन रत शूल उरछाई॥
सुनत सुभद्रा जननी कै। बिना जीव कठपुतरी जैसे॥
वहत प्रवाह नयनको पानी। हिम ऋतु मनहुँ मकुँभिलानी॥
हाहा पुत्र परम सुखकारी। सुन्दर मुख पै मैं बलिहारी॥
ठोकिट मैं विधि सोये। सुनि ढुं पशु पक्षी सब रोये॥
दोहा - पुत्र मरण श्रवणन नत, धरणी परी अचेत।
नयन नीर कज्जल सहित, मनहुँ ति ञ्जलि देत॥
अभिमन्यु कुमारके पृथ्वीमें गिरजाने पर कौरव अत्यन्त हर्षको प्राप्त हुए और संपूर्ण पाण्डव हाहाकार शब्दसे रोनेलगे॥६०॥ पापात्मा तथा आत्मा नहीं जीतनेवाले अक्षत्र जयद्रथने उस बालकका वध किया कि जिसके मामा तो गोविन्द अर्थात भगवान् श्रीकृष्ण हैं और पिता धनञ्जय (अर्जुन) हैं॥६१॥
अभिमन्युर्वुधं प्राप्तः कालो हि दुरतिक्रमः।
अधर्मत्वात्तदा सूर्यो ययौ चास्ताचलं प्रति॥६२॥
इस प्रकार अर्जुननन्दन अभिमन्यु कुमार मृत्युको प्राप्तहुए। यह काल अत्यन्तही दुर्लंघ्य हैं अर्थात् समयको कोई उल्लंघन नहीं करसकता। तब इस अधर्मके मारे भगवान सूर्यभी शीघ्रता सहित अस्ताचलकी ओर चलेगये॥६२॥
दोहा–कीन्हों सबनि अधर्म सों,बा को हार।
इहि अघके परतापसों, कुरुकु होइहि र॥
इति श्रीभारतसारे द्रोणपर्वणि भाषायामभिमन्युवधो नाम द्विषष्टितमोऽध्यायः॥६२॥
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त्रिषष्टितमोऽध्यायः ६३.
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त्रिषष्टितम अध्याये प्रतिज्ञा फाल्गुनस्य च।
जयद्रथस्य पञ्चत्वमधर्मादेव कथ्यते॥१॥
इस तरेसठवें अध्यायमें फाल्गुन (अर्जुन) की प्रतिज्ञा और अधर्मसे (बालक अभिमन्युका नाश करनेके कारण) जयद्रथका वध होना, यह कथा कही जाती है॥१॥
जनमेजय उवाच॥
अभिमन्यौ वधं प्राप्ते किमकार्षीद्धनञ्जयः।
तदाचक्ष्व द्विजश्रेष्ठ शोकेनोद्विग्नमानसः॥१॥
महाराज जनमेजयने पूछा। हे द्विजश्रेष्ठ! जब अभिमन्यु कुमार मारे गये, तब फिर पुत्रशोकसे उदासमन हुए अर्जुनने क्या किया! यह आप मुझसे वर्णन कीजिये॥ १॥ वैशंपायनजी बोले। हे राजन्! उधर जब अर्जुनने भी रणमें संपूर्ण संसप्तकोंको जीत लिया, तब देवदत्त नामक अपने शंखकी ध्वनि करते तथा जयको धारण करतेहुए आये ॥२ ॥ तब इन्होंने वहाँ पहुँचतेही सब जनोंको विस्मित (अचंभेमें) देखा यह देख आश्चर्य में मन धर्मराज युधिष्ठिरसे अर्जुनने कहा ॥३॥उनको दुःखसे आर्त देखकर अर्जुन पूछनेलगे। अर्जुन बोले। हे धर्मात्मन्! मेरे जीतेजी आप किस बातकाः वृथा सोच कर रहे हैं?॥४॥ मैं भगवान् वासुदेव के प्रसादसे कौरवोंको रणमें जीतूंगा इस बात में कुछ भी संशय मत कीजिये फिर अब आप शोकसे किसलिये कशित (दुर्बल) होरहे हैं ?॥५॥ तब वहाँ जितने आदमी बैठे हुएथे, वे सब अर्जुन के लिये दुःखी होने लगे। और शोक संतप्त पांडवोंके प्रति तहाँ अर्जुन के इस प्रकार कहतेहुए॥६॥
उन सबजनोंने उत्तर दिया कि, आप शोकका कारण नहीं पूछिये।हे पार्थ! आपके पुत्र अभिमन्युके मारेजानेकाकारण जयद्रथही हुआहै॥७॥ यह सुनतेही अर्जुनने क्रोधित होकर प्रतिज्ञा करी किं, जो ब्राह्मण शीतसे डरताहै अर्थात् जाडेके मारे स्नान नहीं करता है, और जो क्षत्रीय रणसे डरता है॥८॥ तो उनको जो पाप लगताहै, यदि (कल) मैं जयद्रथको नहीं मारडालूँ, तो मैं उसी पापमें लिप्त हूँ। जो अज्ञानी आदमी कामी होकर रजस्वला नारीसे भोग करने की कामना करते हैं, जो कूट साक्षी अर्थात् झूठी गवाही देनेवाले, कृतघ्नी और विश्वासघाती हैं॥९॥ यदि मैं (कल) जयद्रथको नहीं मारूँ, तो इन सबके पापमें लिप्तहूँ, मैं सूर्यास्तके प्रथम प्रथमही जयद्रथको हनन करडालूँगा॥१०॥
चौपाई–जयद्रथहिक अवशि संहारौं। ना तरु देह अग्निमहँ जारौं॥
यह प्रण मैं कीन्हीं अपने मन। वर्धौशत्रुकी देहुँ अपन तन॥
और नहीं तो मैं स्वयं अग्निमें प्रवेश करजाऊँगा। यह मेरी निश्चित (अटल) प्रतिज्ञा है। तब अर्जुनकी करीहुई यह प्रतिज्ञा द्रोणाचार्य और दुर्योधनने सुनी॥११॥ फिर वह पाप बुद्धि हर्षयुक्त हो हँसता हुआ द्रोणाचार्यजीसे कहने लगा। दुर्योधन बोला कि, अर्जुनने इस जयद्रथके मारडालने की प्रतिज्ञा की है॥१२॥ अत एव हे गुरो! हे महावीर! आप जयद्रथकी रक्षा कीजिये। क्योंकि हे तात! यदि आपने उसकी रक्षा करली, तो अर्जुनका नाश होजायगा॥१३॥ और उसके नाश होजानेपर तब पांडवोंकी सारी सेना भी भागजायगी और फिर हे विभो! हमको विना संग्राम किये लीला पूर्वक ही जय मिलजावेगी॥१४॥ राजा दुर्योधनकी यह बात सुनकर द्रोणाचार्यजीने उसकी रक्षा की और फिर जयद्रथको बुलाकर
कहा॥१५॥ हे लम्बी भुजावाले मद्रराजजयद्रथ! मैं आपकी रक्षा करूँगा, अत एव उस रणस्थलमें इच्छापूर्वक अपने आपको छिपाये रहिये॥१६॥ जिस समयतक भगवान सूर्य अस्ताचल चूडावलम्बी होंगे अर्थात् हि पेंगे, उस समयपर्यन्त मैं अर्जुनके संग संग्राम करके आपकी रक्षा करूँगा, इसमें कुछभी संशय मत सम ना॥१७॥ अब मेरे विशेष कहनेसे क्या होगा इतनाही कहदेना बसहै कि, यदि इस विषयमें श्रीकृष्णने कुछ ल कपट नहीं किया, तो मैं अवश्य आपकी रक्षा करूँगा। क्योंकि ब्रह्मादिक देवताभी उन भगवान् श्रीकृष्णके छल कपटको नहीं जानसकते, तब फिर मेरी तो बातही क्या है?॥१८॥ वहाँ गुरुजीके इस तरह कहनेपर संभ्रमसे मत्त व स्थूल (मोटे) हाथीको प्राप्त होकर दरवाजेकी सदृश उसकी पीठमें॥१९॥ मद्रराज जयद्रथको भयाकुल जीवकी रक्षा करनेके निमित्त बैठाला। इसके पीछे द्रोणाचार्यजीनेभी युद्धार्थ अर्जुन और श्रीकृष्णको बुलाया॥२०॥ तब श्रीकृष्णने सारे राजाओंके मध्य बातचीत करते हुए शोकग्रसित अर्जुन से कहा कि पीछेसे संग्राम के निमित्त अर्जुनको ही द्रोणाचार्यजी बुलायरहेहैं॥२१॥ श्रीकृष्णजीकी यह बात सुनकर अर्जुन द्रोणाचार्यजीके निकट गये, तब महावीर द्रोणाचार्यजीने नरव्यूह युद्धं करना आरंभ किया॥२२॥जिस व्यूहको महाबलवान् और पराक्रमी महावीर भी भेदन नहीं कर सकते, ऐसे नरव्यूहके मुखपर अवस्थित तथा बाण सन्धान करनेमें पण्डित द्रोणाचार्यजी संग्राम करनेलगे॥२३॥ तब महावीर अर्जुनने भी शरसमूहद्वारा संग्राममें द्रोणाचार्यजीको सन्तुष्ट करके नरव्यूहको भेदन किया॥२४॥ अतुलित तेजस्वी उस अर्जुनने वहाँ द्रोणाचार्यजीसे संग्राम करते करते अनगिन्त हाथी, घोडे और पैदलों को गिरादिया॥२५॥
चौपाई– तब गुरु द्रोण क्रोध जिय कीन्हो। महामार पारथपर कौन्हो ॥
ऐसे बाण द्रोणगुरु जोरे। शरते पग ठहरात न बोरे॥
दोऊ वीर भिरे मैदाना। सरस निरस कहि जात नमाना॥
इन्द्र अस्त्रपारथ तब कीन्हेउ।पढिकै मन्त्र छाँडि शर दीन्हे॥
छूटत वाण शब्द घहराये।अचरज सबहीके उर आयेउ।
हँसिके द्रोण किये सन्धाना। तजेउ स्वामि कार्त्तिककर बाना।
वातें इन्द्र अस्त्र हनि दीन्हेउ\। तब पारथ यम अवहि लीन्हेउ॥
मृत्युक अस्त्रद्रोण परिहारे। तव यम अहि पारथ मारेउ॥
अस्त्र अस्त्रसौ कीन्ह निवारण। तब लागे तीक्षण शर मारण॥
पारथ बाण कीन्ह सन्धाना। इत गुरु द्रोण सरिस मैदाना॥
दोहा– अर्जुन वर्पत वाण इमि, जिमि सावन जलधार।
सघन सैन भेदन करत, निकर जात शर पार॥
वैशम्पायनजी बोले हे राजन्! हे महाबुद्विमान्! इसी बीचमें संग्राम करते हुए भीमसेन के संग जो भगदत्तने पुरुषार्थ किया, सो सुनिये॥२६॥ प्रतापी अभिमानी और महावीर भगदत्तने हाथी पर सवार होकर युद्ध के लिये भीमसेन को बुलाया॥२७॥ तव भीमसेनभी हाथी पर सवार होकर क्रोधसहित आये और फिर दोनों महावीरोंका आपस में संग्राम होनेलगा॥२८॥ तव वीर भगदत्तने भीमसेन के हाथी के शिर में गदाघात करके उसको रणभूमिमें गिरा दिया ॥२९॥ फिर भीमसेननेभी बडी भारी गढ़ा के आघात से उसके हाथीपर आक्रमण किया और नहीं मराहुआ समझकर दूसरी बार फिर मारा॥३०॥ किन्तु दूसरी वार मारनेपर भी वह हाथी पृथ्वीपर नहीं गिरा, क्योंकि वीर भगदत्तने उसको जंघापर धारण कर लियाथा॥३१॥ तब महावलवान् भगदत्त वहाँ उस मृत हाथीके द्वारा भीमसेन के संग सीम करने लगा किन्तु तब उस हाथीने भगदत्तका कहना नहीं
माना॥३२॥ जिसप्रकार सेवकलोग अपने निर्धन स्वामीका कहना नहीं करते, और जिस प्रकार स्त्री अपने दरिद्री पतिका कहना नहीं मानती, उसी प्रकार उस हाथीने भगदत्तका कहना नहीं माना॥३३॥ तब तो भीमसेननेभी महान कोप करके उस मतवाले हाथीको हाथसे पकडकर भगदत्तसमेत पृथ्वीतलपर दे पटका॥३४॥ जब भगदत्त और उसका हाथी पृथ्वीपर पछडगया, तब तो अर्जुनभी महाक्रोधित होकर द्रोणाचार्यजीके संग संग्राम करनेलगे॥३५॥ उस काल अर्जुनके संग्राम करते करते एक घडी दिन बाकी रहगया, तब भगवान् श्रीकृष्णने उस एक घडी दिनको बाकी देखकर उपाय किया॥३६॥ अर्थात् उन्होंने चक्रकेद्वारा सूर्यको ढकदिया। तब रात्रि होगई। हे नृपोत्तम! तब दोनों वीर (द्रोणाचार्य और अर्जुन) सन्ध्या काल देखकर युद्धसे विरत हुए॥३७॥ उस समय अर्जुनने जयद्रथको मार डालनेके लिये शीघ्रतासे दुर्योधनकी सेनामेंघुसकर जयद्रथको इधर उधर देखा॥३८॥ किन्तु जब वहाँ वह जयद्रथ अर्जुनको दिखाई नहीं दिया तब द्रोणाचार्यजीने अपने शिष्यसे कहा। द्रोणाचार्यजी बोले। हे अर्जुन! हे महावीर! आप सत्यवादी और सच्चा युद्ध करनेवाले हैं॥३९॥ हे मन्द! अब आप किसलिये दौड धूप कररहेहैं? क्या आप सूर्यका छिप जाना नहीं देखते हैं? प्रतिज्ञा भंग होनेपर आपसरीखे आदमी वृथाही जन्म लिया करतेहैं, इसमें संशय नहीं॥४०॥ इस कारण बुद्धिमान् पुरुषको सर्व प्रयत्नसे निरन्तर अपनी प्रतिज्ञाकी रक्षा करनी चाहिये। गुरु द्रोणाचार्यजीकी यह बात सुनकर अर्जुन निवृत्त होगया॥४१॥ और फिर अपनी सेनामें प्रविष्ट होकर काष्टराशि विस्तृत करी अर्थात् बहुतसी लकडियां मँगा
चिता बनाई और फिर उसमें अग्नि लगाकर अर्जुनने जैसेही उसमें प्रवेश करना चाहा॥४२॥ उसी समय सब पांडव दुःखसे आर्त्त होकर पृथ्वीपर गिरगये और तैसेही श्रीकृष्णजीने आकर सब कौरवोंके देखते हुए छलसे इसप्रकार वचन कहे श्रीकृष्ण बोलेहे पार्थ! पार्थ! हे महाबुद्धे! आपका अपराध नहीं है॥४३॥४४॥ क्योंकि जव विनाशकाल उत्पन्न होता है तो उत्तम जनोंकोभी बुद्धि छोडकर चलीजायाकरती है, वीरेश, गुरु और ब्राह्मण द्रोणाचार्यजी के संग्राम करतेहुए आपके सदृश॥४५॥ कौन मूर्ख उनको परास्त करनेकी अभिलाषाके निमित्त प्रतिज्ञा करेगा जो हो, अब उत्पन्न कार्यकी सिद्ध करनेमें देरी नहीं करनी चाहिये॥४६॥ अत एव हे बन्धु! आप यहाँ आइये और मुझको मिला दीजिये इसके उपरान्त फिर आप अग्निमें प्रवेश कर जाना, अब मुझे किसी समयभी आपकी समान योग्य रूपवाला मित्र नहीं मिलेगा \।\।४७॥ इस प्रकार कहकर जितने कौरव (अर्जुनके अग्निप्रवेशका तमाशा) देखने आये थे, उन सबको भ्रमाया अर्थात् धोखादिया और फिर मिलनेके समय श्रीकृष्णने अर्जुनके कानमें सब(गुप्त) वृत्तान्त कहदिया॥४८॥ फिर मिलचुकनेपर श्रीकृष्णने कहा कि अब आप शीघ्रतासे अपनी आत्माके कल्याणार्थ अग्निकी परिक्रमा कीजिये इस प्रकार श्रीकृष्णजीके द्वारा सब बात जानाहुआ अर्जुन अपने मनमें सन्तुष्ट हुआ॥४९॥
दोहा–चिता चढन अर्जुन चलेउ, कहेउ कृष्ण समुझाय
धनुष बाण लेकर चढहु, क्षत्रिय धर्म न जाय॥
चौपाई - हरि आज्ञा पारथ मन बढेकः। लेकर धनुष चितापरचढेऊ॥
कुरुपति तब निर न + + गें। कही शनि यंद्रथकेगे॥
**तुबकारण मारेउ+ + सैना।पारथ मरण देखिये नैना॥
यातें और न है+ + ई। देत नयन शत्रुक्षय होई॥
उठि जयद्रथ निहारै जबही। श्रीहारे गगन त यो तबही॥
-
- र्षि दर्शन तब ढिग आये। रवि प्राश भा दि+ + ये॥
चकृत सबहि चंभा मानै। तब श्रीहरि पारथहि ब नै॥
अर्जुन गहरु रत के हि+ + । दे त तुमहिं सिन्धुके राजा॥
तब अर्जुन कीन्हेउ सन्धाना \। कंठ किकैं मार्यो बाना॥
जूझे शीशपरन महि चहेऊ। तब अर्जुन सौंधव हे॥**
- र्षि दर्शन तब ढिग आये। रवि प्राश भा दि+ + ये॥
दोहा - अन्तरिक्ष शिर लै चल, न वचन परिमान॥
नहीं मरन तव होयगो, विहँसि ही भगवान॥
फिर अर्जुन तीन परिक्रमा करताही था, कि उसी समय जयद्रथ प्रकट होगया। तब अर्जुन मारनेमें प्राप्त जयद्रथको प्रकट देखकर॥५०॥ जैसेही भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करते थे, उसी समय श्रीकृष्णने सुदर्शन चक्रको वहाँसे अलग टालिया। तब तो सूर्यको देखकर शीघ्रतासहित॥५१॥ अर्जुनने अर्द्धचन्द्र बाणके द्वारा उस जयद्रथका मस्तक काट डाला। वह कटा आ मस्तक उछलकर जहाँ उसके पिता बैठे थे, वहाँ पहुँचा॥५२॥ वे पिता उस समय आँखें मूँदेहुए वहाँ सन्ध्यामें जलाअलि देरहेथे, तब जयद्रथका मस्तक उनके हाथमें जागिरा॥५३॥ अनन्तर उसके पिताने अत्यन्त अचंभेमें होकर उस मस्तकको भूमिमें डालदिया तब उसके पिताका मस्तकभी उसके संगही भूमिपर गिरा॥५४॥
एवं वै कृष्णपार्थाश्यामद्रराजो निपातितः।
पाण्डवा हर्षितास्तत्र कौरवाः शोकनिर्भराः॥
इस प्रकारसे भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुनने मद्रराज जय-
थका वध किया। तबवहाँ पांडव आनन्दित और कौरवगण शोकसे परिपूर्ण होगये॥५५॥
दोहा–धर्मराज भापनलगे, श्रीहरिसौं यह बैनं।
पारथ प्रणरक्षक सदा, तुमहीपंकजनैन॥
अर्जुन प्रणरक्षक सदा, श्रीवर दीनदयाल।
जाके तुमसे सारथी, ताहि न जीतैकाल॥
इति श्रीभारतसारे द्रोणपर्वणि भाषायां जयद्रथवधो नाम त्रिपष्टितमोऽध्यायः॥६३॥
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चतुःषष्टितमोऽध्यायः ६४.
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चतुःषष्टितमेऽध्याये कुरुसैन्यविमर्दनम्।
घटोत्कचेन वीरेण वधस्तस्यापि कथ्यते॥१॥
इस चौंसठवें अध्यायमें वीर घटोत्कचने कौरवोंकी सेनाका मर्दन (नाश) किया और उसकीभी मृत्यु हुई, यह कथा कहीजातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
एतस्मिन्समये कृष्णो घटोत्कचपुवाच ह।
कृष्ण उवाच।
घटोत्कच महावीर कन्यावर्त्कि स्थितो गृहे॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय। इसी समय भगवान् श्रीकृष्णने घटोत्कचसे कहा श्रीकृष्ण बोले हे घटोत्कच! हे महावीर! आप कन्याकी समान घरमें कैसे हो?॥१॥ क्या आप युद्ध करना नहीं जानते ? जो संग्राममें नहीं गये? श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर उस घटोत्कचने गर्जकर श्रीहरिसे कहा॥२॥ घटोत्कच बोला हे कृष्ण! कृष्ण! हे अ मेयात्मन्! मैं
तो आपका दासानुदास हूँ। हे नाथ! रात्रिकालके समय युद्ध करनेको मैं बलवान हूँ, दिनमें नहीं॥३॥ हे जनार्दन! मैं हिडिम्बाका पुत्र राक्षस हूँ। हे विश्वात्मन्! आपकी आज्ञासे मैं एक क्षणभरमें कौरवोंको॥४॥ अदृश्य होकर पर्वतोंके आघात से मारडालूँगा। उसकी यह बात सुनकर श्रीकृष्णने भीमनन्दन घटोत्कचसे कहा॥५॥ हे महावीर! आप युद्ध करके कौरवोंका नाश कीजिये। आपको राक्षसपनेसे और मेरी आज्ञासे रातमेंभी दोष नहीं लगेगा॥६॥ भीमपुत्र बलवान् घटोत्कचने श्रीकृष्णकी आज्ञा शिरपर चढाकर कौरवोंको मोहित करनेवाली माया फैलाय आकाशमें उछालमारी॥७॥ और वहाँ वादलकी तरह गर्जना करके घोर अंधकार करदिया, जिससे कौरवोंके दलमें किसीको कुछ दिखाई नहीं दिया॥८॥ और फिर आकाशसे पर्वताकार महान पत्थरोंकी अत्यन्तही वर्षा करनेलगा कि जिनके आघातसे हाथी, घोडे रथ और पैदलों समेत सारे कौरव भूमिपर गिरगये॥९॥ किसीका बिलकुलही चूरा करदिया, और किसीका वहाँ शिर फोडदिया और किसी किसीके हाथ, पैर, नाक बिलकुल भंग (तोड) दिये॥१०॥ हे राजन्! तब तो वे सैनिक पत्थरोंसे अंगभंगताके प्राप्त होनेपर अत्यन्तही डरगये और फिर कर्ण व दुर्योधनके निकट पहुँचकर ‘त्राहि! त्राहि!’ अर्थात् रक्षा कीजिये! बचाइये! इस तरह कहनेलगे॥११॥ कोई अदृश्यरूप आकाशमें स्थित होकर कौरवोंका नाश कियेडालताहै। यह सुनकर कौरवपक्षीय वीरोंने बाणोंके जालद्वारा॥१२॥ गगनमण्डलको पूरदिया, किन्तु तथापि उनका यह पराक्रम विफल हुआ। तब फिर अपने आदमियोंकी घबराहट देखकर दुर्योधनने कर्णसे कहा॥१३॥ दुर्योधन बोला हे कर्ण! हे वीर! हे लम्बीभुजावाले!
मेरी सेनाका कौन नाश कररहाहै? विना देखे और विना जाने हम किसको मारें?॥१४॥ कर्ण बोला हे राजन्! घटोत्कच नामक वीर आपकी सेनाका नाश कररहाहै। वह राक्षसी माया फैलाय और उसके द्वारा अन्तर्धान होकर घोर युद्ध कररहाहै॥१५॥ दुर्योधन ने कहा कि जिसने हमको विकल कररखाहै, वह घटोत्कच मुझे दिखाई नहीं देता। हे कर्ण! मैं उस हिडंबानन्दनसे नष्ट हुआ जाताहूँ, अत एव उसके हाथसे आप हम लोगोंको बचाइये॥१६॥ कर्णने कहा, हे महाराज! मैंने भगवान् सूर्यसे पञ्चघातिनी अर्थात् पाँच जनोंका नाश करडालनेवाली शक्ति प्राप्त की थी, किन्तु मेरी विनती करके माता कुन्तीने हठपूर्वक वह शक्ति मुझसे लेली॥१७॥ तदनन्तर मैंने परीक्षाके निमित्त भगवान् दिवाकरसे पाँच वाण लिये, किन्तु मइया कुन्ती स्तुति करके इसे उन पाँच वाणोंकोभी लेगई॥१८॥ मैंने अर्जुनके लिये संग्रह कर रक्खी थी, सो अब वह मेरे निकट नहीं है, क्योंकि इसके उपरान्त इन्द्रने ब्राह्मणरूपसे मेरी प्रार्थना करके॥१९॥ मेरे शरीरका कवच मुझसे लेलिया और मेरा साधुपना (सज्जनता) देख मुझपर सन्तुष्ट हो एक वीरका नाश करनेवाली॥२०॥ शक्ति मुझको अर्पण करी सो हे महाराज! वह मेरे पास है जिसको मैंने केवल अर्जुनको मारने के लियेही धर छोडाहै॥२१॥ दुर्योधनने उत्तर दिया हे कर्ण! यदि हम जीते रहजाँयगे, तो अर्जुनको फिर मारलेंगे। अत एव हे महावीर! आप उस शक्तिको छोडिये। नहीं तो हम सबजने मारेजाँयगे॥२२॥ तबदुर्योधनके ऐसा कहनेपर कर्णने तत्काल उस शक्तिको छोड़ दिया, जो कि ज्वालामालासे महाभयंकर और जिसके आगे धूमकी पंक्ति और पीछे दारुण अग्नि थी॥२३॥ऐसी वह विद्युल्लेखा (विजलीकी समान चमकीली) की तरह प्रकाशमान
शक्ति भीमसेनात्मज घटोत्कचपर पहुँची तब महावीर घटोत्कच उसके मुखको त्याग गगन मण्डलमें॥२४॥ टिककर भाँति भाँतिके पाषाणोंसे उस विचित्र शक्तिको न करने लगा। किन्तु वह शक्ति पत्थरोंसे हत होनेपर पत्थरोंको हटाकर सामने॥२५॥ आपहुँची तब वीर घटोत्कचने उसको पत्थरोंसे फिर न किया। किन्तु न पत्थरोंकाभी चकनाचूर करके वह शक्ति घटोत्कचपर पहुँची॥२६॥ तदनन्तर घटोत्कचने उस शक्तिको अपने नाशके लिये आया समझकर जीवनकी कामना से तरह तरहके बाणोंद्वारा हनन किया॥२७॥
दोहा– कर्ण कही विधिको रचित, टारिसुकै सो कौन।
मारत हौं। अब असुरकहँ, रहैं सबै होइ मौन॥
चौपाई–यह कहि वज्रशक्तिकर लीने। सहस नयनको मिरन कीने॥
ताकि असुर ने कर्ण चलायउ। छिटकी ज्योति अकाशहि धायठ॥
लागी शक्ति असुर उर कैसे। लगत वज्र गिरिवर गिरि जैसे॥
पर्यो भूमितल असुर भयंकर।मुंडमाल लीन्हेउ सो शंकर॥
गई शक्ति सुरपतिके हाथा।अति आनन्द भये गनाथा॥
रोदन करै हिडम्बी कसे। विछुरी गाय वच्छसौं जैसे॥
भी न करुणा ब कीन्हे।कृष्ण देवने समझा दीन्हे॥
करुणा किये छू नहिं होई। जगमें अमर भयो नहिं कोई॥
तब वह घटोत्कच शीघ्रतासे इधर उधर भ्रमण करनेलगा इसी बीचमें उस शक्तिने उसको आंघात किया। उस काल उसने अभयदेनेवाले नारायण श्रीगोविन्दको हृदयमें सुमिरा॥२८॥ तदनन्तर शक्तिसे विंधनेपर उस शरीरको अत्यन्त विस्तृत करके वह भूमिपर आगिरा, और गिरते समयभी उसने कौरवोंकी सेनाका चकनाचूर करके उनके बलको क्षय किया॥२९॥ उस समय वह महासामर्थ्यवाला घटोत्कच मरकर भूमिपर गिरा
तव हृदयमें स्फोट (पीसने) को प्राप्त होकर बहुतसे योधा संग्राम से नाशको प्राप्त होगये॥३०॥ कोई कोई भागगये, कोई कोई हाय! हाय!! शब्द करनेलगे, और पांडव तथा कौरवोंके मनमें आनन्द और शोक हुआ॥३१॥
हयानां दशलक्षं तु योधानामयुतं शतम् ।
रथानां लक्षमेकं तु पातितं भीमसूनुना॥३२॥
भीमनन्दन वटोत्कचने दशलाख घोडे, और दशलाख योधा, तथा एक लाख रथोंका नाश करडालाथा॥३२॥ इति श्रीभारतसारे द्रोणपर्वणि भाषायां घटोत्कचवधो नाम चतुःषष्टितमोऽध्यायः॥६४॥
पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ६५.
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पञ्चषष्टितमेऽध्याये भीमभीमपराक्रमम्।
द्रौपदीवस्त्रकर्पस्य पञ्चत्वमिह कथ्यते॥३॥
इस पैंसठवें अध्यायमें भीमसेनका भीम (भयंकर) पराक्रम और द्रौपदीका वस्त्राकर्षण करने (सारी खेंचने) वाले दुःशासनका साराजाना, यह कथा कहीजाती है॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
ततः प्रभातसमये चतुर्थेऽह्नि समाययौ ।
द्रोणस्तु सुभटैः सार्द्धं युद्धाय कृतनिश्चयः॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय। तदनन्तर चौथे दिन प्रातःसमय सुभटोंके साथ संग्राम करनेका निश्चय करके द्रोणाचार्यजी आये॥१॥ तव वहाँ गुरु द्रोणाचार्य और अर्जुनका युद्ध आरंभ हुआ। फिर द्रोणाचार्यजीने अर्जुनको वींधकर उनकी सेनाको हनन किया॥२॥ तब तो अर्जुननेभी बडी फुरतीसे
द्रोणाचार्यजीको प्रहार करके उनकी सेनाको मारना आरंभ किया और भीमसेनने संग्राममें जीतेहुए महाबली सुभटोंकों हनन किया॥३॥ उन भीमसेनने किसीको गदाघातसे मारा, किसीका घूँसा मारकर दम निकाल दिया, किसीको लातोंकेमारेमारडाला और बहुतोंको उठाकर भूमिपर पछाडदिया॥४॥ उस काल क्रोधित वृकोदर (भीमसेन) का रूप सौगुना भयंकर होगया, तव महावली राजपुत्र उन भीमसेनको महान् क्रोधमें भराहुआ देखकर॥५॥ हाथी, घोडे और रथोंपर सवार होकर तरह तरहके हथियारोंसे उनको हनन करनेलगे॥६॥तब तो महावली भीमसेनने सबप्रकारसेक्रोधित हो भाँति भाँतिके अन शस्त्रोंसे उन संग्राम करतेहुए राजकुमारों के समूहको मारना आरंभकिया॥७॥ उस युद्ध में भीमसेनने धृतराष्ट्र के पुत्रोंको महान क्रोधपूर्वक निपात (नाश) किया। फिर दुःशासन और भीमसेन एकत्र होनेपर दोनों महावीर आपस में संग्राम करनेलगे॥८॥९॥ अनन्तर उन वृकोदर भीमसेनने क्रमशः अर्थात् दुःशासनको पैरसे लेकर शिरतक प्रहार किया और दुःशासनने भीमसेनको मारा तथा वलवान् दुःशासनने अपनी गदा के द्वारा भीमसेनके गदाघातको भी लेलिया॥१०॥ फिर भीमसेनने दुःशासन के गदाघातको अपने शरीर पर धारण किया, और तब दुःशासनने भी भीमसेनके गदाप्रहारको अपने शरीर पर धारणकिया॥११॥
चौपाई—कर गहि गदा भीम तब धाये।हाँक मारि दुःशासन आये॥
दोऊ वीर खेतमहँ कैसे। महामत्त गज उरझे जैसे॥
कर गहि गदा कोप परिहारहिं। एकहि एक कोप करि मारहिं॥
धमकत धाव लगेउ जब तनमें। बाढत कोप दोउके मनमें॥
अस्त्रडारिके दोउ लपटानेउ। क्रुद्धिव तरल युद्ध अरुझानेउ॥
करगहि कच मुष्टिक परिहारहिं। शीशहि शीश कोपिकै मारहिं॥
उरसौं उर पेलतहैं दोऊ। पारि + त नहिं टरते कोऊ॥
दोहा— भीमसैन अति क्रोध कारे, अभिरत अमित अनन्द।
आनि पछारेउ धरणिपहँ, मानहुँ सिंह गयन्द॥
तब क्रोधितहुए भीमसेनने अपने गदाघातसे वीर दुःशासनकी गदाको ताडित किया जिससे वह गदा तत्काल रेणुभावको प्राप्त हुई अर्थात् धूरिके समान उसका चूरा होगया॥१२॥ तब दुःशासनकी गदाको टूटी हुई देखकर भीमसेनने अपनी गढ़ाको पृथ्वीपर फेंक दिया और फिर बाहुसे बाहुको आस्फोटन (चटकाकर) करके महाबली भीमसेन गर्जनेलगे॥१३॥ तब महाबलवान् दुःशासनभी बाहुसे बाहुको फटकारकर सिंहनाद करनेलगा। फिर भीमसेन और दुःशासन दोनों वीर एकत्र मिलकर बाहुयुद्ध करनेलगे॥१४॥ उस काल वे दोनों जने गर्जना करतेहुए अनेक प्रहारोंसे, घूँसोंसे, और लातोंके प्रहारसे तथा नाखून और तोंसे आपसमें एक दूसरेको मारनेलगे॥१५॥ उनकी आँखें लाल लाल होगईं और वे परस्पर जीतकी इच्छा करनेवाले दोनों वीर भयंकर भ्रुकुटी करके दीर्घश्वाँस लेनेलगे॥१६॥ इस प्रकार सब लोकोंको भयंकर उन दोनोंका घोर युद्ध हुआ तब वहाँ महावीर भीमसेनने उस दुःशासनको॥१७॥ छल पूर्वक फुरतीसे भूमिपर पटक दिया, और फिर भीमसेनने उसकी छातीपर पैर रखकर च स्वरसे गर्जना करी॥१८॥ उस काल बाहुसे बाहुको फटकार वह भीमसेन अपने विरानेको भूलगये और फिर उन्होंने वीररसमें सराबोर हो कौरवोंसे इस प्रकार कहना आरंभ किया॥१९॥
दोहा—भीम भयंकररूप धरि, है नैं दोउ सैन।
है कोऊ रक्षा करेै, मौसैकहिये बैन॥
चौपाई—कुरु पांडव जेते हैं क्षत्री।कृष्णं सहित यदुवंशी अत्री॥
अ र नाग नर सुनहु पुरन्दर। धरणी सिन्धु मेरु गिरि+ न्दर॥
चन्द्र सूर्य तुम दोऊ+ ी। तीन लोकं दे तहैं आँखी॥
रक्षा कर दुःशासन भारत। ही भीम हम भुा उपारत॥
सुनि अर्जुनके जिय रिस बाढी। वीक्षण शर निषंगसौं काढी॥
मारि भीम अब करों निपाता। कैसेठ सहिन जाय यह बाता॥
श्रीपति कही उचित नहीं होई। आजु भीम सौं जितही न कोई॥
मैं नरसिंह रूप बल दीन्हा। भीम अंगपरवेशित कीन्हा॥
हाँक मारिके भुजा उपारे। रुधिर द्रौपदीके शिर डारे॥
शिरसौं परत रुधिरकी धारा। द्रुपद सुवा तब बाँधे बारा॥
अरुण वर्ण तनु सोहत+ + से। असुर युद्ध महँ देवी जैसे॥
द्रुपदसुता तब भवन सिधारी। अर्जुन कर्ण रचेउ रण भारी॥
रे रे द्रोण, कर्ण और दुर्योधनादि सब कौरवो! यदि आप पृथ्वीतलपर वीर कहातेहैं, तो मुझकरके ग्रसित अर्थात् पकडे हुए इस दुःशासनकी रक्षा कीजिये॥२०॥ उनसे इसप्रकार कहकर फिर भीमसेनने पांडवोंके प्रति कहा, भो भो अर्जुन! और महावीर कृष्ण! आपही पराक्रमी हैं॥२१॥ अत एव आर्त्तपुरुषके प्राणोंका पालन करनेके लिये आप मेरी बात सुनिये कि आप जितने वीर आनकर प्राप्त हुएहैं, सो सब दुःशासनको छुडाइये॥२२॥भीमसेनकी यह बात सुनकर अर्जुनने क्रोधित होकर इस प्रकार कहा अर्जुन बोले। रे रे वृकोदर भीम!तू मूढ आदमीकी तरह वृथाही गर्ज रहा है॥२३॥ पैरके तले मुँह करके गीधके सदृश नाशकी कामना करके ऐसा कह रहा है, अब तू स्थिर (सावधान) होकर गांडीव धनुषसे छूटे हुए एक सहस्र बाण सह॥२४॥ इस प्रकार कहते कहते वहाँ अर्जुनने धनुषपर बाण चढाया, और जैसेही धनुपको खेंचना चाहा, कि वैसेही
श्रीकृष्ण बोल उठे कि रे मूढ! ठहर, इस भाँति कहकर निषेध किया॥२५॥फिर अपने हाथका झटका देकर उसका धनुष व वाण गिरादिया। इस तरह अर्जुनको रोककर फिर श्रीकष्णने भीमसेनकी स्तुति (प्रशंसा) करते हुए कहा॥२६॥ श्रीकृष्ण वोले। भो भो भीम महावीर! आपकी समान योधा पृथ्वीतल पर दूसरा कोई नहीं है। इस संग्राम में द्रोणाचार्यजी गर्जन करते हैं, और आप उनके गर्जते हुए निडर आदमीकी तरह किसप्रकार गर्जते हैं?॥२७॥आप यहाँ शीघ्रतासहित द्रौपदीके वाकर्षण करने (सारीखेंचने) वाले पापात्मा (दुःशासन) का बकरके जिसप्रकार आपने पूर्व में प्रतिज्ञा की थी उसका पालन कीजिये॥२८॥ भगवान् श्रीकृष्णजीकी यह वात सुनकर भीमसेनने कहा भीमसेन बोले। रे पापी! रे नीच! रे दुष्टात्मन्! रे द्रौपदीके वस्त्र खेचनेवाले!॥२९॥ रे दुःशासन! तैंने जिस हाथके द्वारा द्रौपदीके को खींचाथा और उसको पकड कर भरी सभायें ले आया था, ‘अब जरा अपनी वह हाथ मुझको दिखा तो सही॥३०॥ दुःशासनने (गर्वसहित) उत्तर दिया कि रे भीम! देख यह मेरा हाथीकी झुंडके’ समान वही हाथ है कि जिसने अपने अग्रभागसे द्रौपदीका चीर खेचा, हजारों गायोंका दान किया, और क्षत्रियोंका नाश किया॥३१॥ जहाँ तहाँ वरियोंसे घिरे हुए शूर वीरही मृत्युको प्राप्त हुआकरते हैं और यदि वे नपुंसक (हिजडे तथा डरपोक) आदमीकी तरह वात न करें, तो अक्षय लोक लाभ करलियाकरतेहैं॥३२॥वैशम्पायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय! उस दुःशासनके इस तरह कहते हुए भीमसेनने उसी समय द्रौपदीका वस्त्र खेंचनेवालेकी दहिनी भुजा उखाडली॥३३॥ तब नीचे पडेहुए वीर दुःशासनने महान् क्रोधपूर्वक वाँये हाथके
घूँसेसे भोमसेनकी टूडीमें बडे जोरसे ताडना (प्रहार) करी॥३४॥ उस घूँसेके आघातसे भीमसेन घबरागये और आँखें मूँदकर बैठगये और फिर आँखें खोलकर उसका बाँया हाथभी उखाडलिया॥३५॥ तदनन्तर उसे वीर दुःशासनने दाहिने पैरसे उन भीमसेनकी ती बडे वेगले आघात किया जिससे वे भूमिपर गिरपडे॥३६॥किन्तु फिर महावीर भीमसेन तत्कालही उठे और अपने हाथोंसे दुःशासनके दोनों पैर पकडर गर्जनेलगे॥३७॥
नानाप्रवदतस्तस्य शीर्षमुत्पाटयत्तनोः।
तत्रत्यं रुधिरं पीत्वा सन्तुष्टोऽप्यवदच्छ्वसन्।
अद्यमे दिवसो धन्यश्चाद्यसिद्धो मनोरथः॥३८॥
और फिर तरह तरहके अनेक दुर्वचन कहतेहुए उस दुःशासनका मस्तक धडसे काटडाला तथा शिर काटनेपर जो खून निकला, उसको पीकर भीमसेन सन्तुष्ट हुए और पीछे स्वाँस लेते लेते कहने लगे कि आज मेरा दिन धन्य है और अब मेरी मनोकामना सिद्ध हुई॥३८॥इति श्रीभारतसारे द्रोणपर्वणि भाषायां दुःशासंनवधो नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः॥६५॥
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षट्षष्टितमोऽध्यायः ६६.
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षट्षष्टितम अध्याये द्रोणाचार्यस्य गौरवम्॥
धर्मस्य बलनाशं तद्द्रोणादर्शनमुच्यते॥१॥
इस छासठवें अध्यायमें द्रोणचार्यजीका गौरव, युधिष्ठिरकी सेनाका नाश और द्रोणाचार्यजीका माराजाना, यह कथा कहीजातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
भीमेन निहतं वीरं दुःशा नमरिन्दमम्॥
रुदन्द्रोणं समागत्य राजा वचनमब्रवीत्॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय! जिस समय भीमसेनने वैरिनाशक वीर दुःशासनका वध करडाला, तब राजा दुर्योधनने रोते रोते द्रोणाचार्यजीके समीप जाकर कहा॥१॥ राजा दुर्योधन बोला हे ना! पांडव अर्जुनने आपके देखते देखते हमारे वीरोंका नाश करडाला है, किन्तु आपने एकभी पांडवको क्यों विनाश नहीं किया?॥२॥ दुर्योधनकी यह बात सुनकर द्रोणाचार्यजी मारे क्रोधके व्याकुल होगये और फिर अर्जुनके समीपही पांडवपक्षीय सारी सेनाको मर्दन करनेलगे॥३॥ तब तो क्रोधके मारे मूच्छित होकर अर्जुनभी उस कौरवपक्षीय सब सेनाको तहस नहस करनेलगे और पीछे भाँति भाँतिके अस्त्र शस्त्रोंसे उन दोनोंका परस्पर युद्ध होनेलगा॥४॥
दोहा—गुरू द्रोण अति क्रोधकरि, मारे तीक्षण बान।
पांडवदल जूझे घने, + + यो शर अ मान॥
चौपाई—अर्जुन बाण वृष्टि झरिलाये। कौरव दबहु मारि गिराये॥
उरझे खेत जोरसौं जोरा। गे रण महारण घोरा॥
शूल सांग मुदगर परिहारैं।सम्मुख जाय न शिरझारैं।
जहाँ जहाँ अर्जुन मन धावत। तहाँ तहाँ हारे रथ प चावत॥
पारथ करते जे शर छूटत।अंग भेदि धरनी महँ फूटत॥
गुरू द्रोण उत बाण चलावत। श्वेत श्याम रथ शोभा पावत॥
अर्जुन कोपि कियो सन्धाना।द्रोण अंग मारे शत बाना॥
गुरू द्रोण शर कोपि प्रहारे । सौ शर पारथके उर मारे॥
इहिविधि करहिं युद्धकी करणी। रुंड मुण्ड पाटे सब धरणी॥
भूत बेवाल योगिनी गावहिं। धरु धरु मारु मारु गोहरावहिं॥
दोहा—दोउ दल वीरन रण रचेउ, हि न सकहिं कवि बैन।
शर समूह छायो गगन, रवि नहिं सूझव नैंन॥
तब फिर अर्जुनका गला काटडालनेके लिये द्रोणाचार्यजीने बाणको मन्त्रित करके चलाया। किन्तु अर्जुनने उसको अपने बाणसे (लीलापूर्वकही) कांटडाला॥५॥ तब बीचसे कटजानेपर भी उस बाणका अग्रभाग अर्जुनके प्रति आपहुँचा। फिर फुरतीसे उसके अग्रभागको अर्द्धचन्द्राकृति बाणद्वारा॥६॥ अर्जुनने बीचसे कांटडाला, किन्तु तथापि उसका अग्रभाग फिर आया तब बाणकी नोकसे उन अर्जुनने उस बाणके अग्रभागको॥७॥ काट दूर फेंकदिया, उस काल ‘जय जय’ शब्द होनेलगा, हे नृपोत्तम! इस प्रकार गुरु द्रोणाचार्य और शिष्य अर्जुनका घोर युद्ध होनेलगा॥८॥ किन्तु भगवान् विष्णु श्रीकृष्णजीके अतिरिक्त द्रोणाचार्यजीकी मृत्युके कारणको अर्थात् वे कैसे मरेंगे, इस बातको कोई दूसरा नहीं जानता, अत एव जनार्दन श्रीकृष्णने अर्जुनको श्रमातुर देखकर उसका उपाय बताया॥९॥तब श्रीकृष्णने अत्यन्त वेगसे एक बडे भारीहाथीको मरवाया सो भीमसेनने अश्वत्थामा नामवाले हाथीका विनाश किया॥१०॥ तब संपूर्ण सेनाके मध्यमें श्रीकृष्णने यह शब्द प्रकट किया कि अश्वत्थामा मरगया। इस प्रकार युद्धको तुरही (बाजे) में घोषित (मशहूर) करादिया॥११॥ तब द्रोणाचार्यजीने कहा कि यदि धर्मराज युधिष्टिर कहदेंगे, तो मैं अपने पुत्र अश्वत्थामाको मराहुआ समझँगा। द्रोणाचार्यजीकी यह बात सुनकर श्रीकृष्णने धर्मनन्दन युधिष्ठिरसे कहा॥१२॥
चौपाई—जबहि द्रोण यह वचन नाये। तब हार धर्मराज ढिग आये॥
तब हि द्रोण भूपतिके आगे। कर उठायकै पू नं लागे॥
सत्य वचन तुम सब दिन भाषेउ। हम दृढता तुम ऊपर राखेड॥
जूझें सुत तुम देख्यो नैना। हे नृप सत्य कहो यह बैना।
श्रीहार को भूप कहि दीजे। अपने काज कहा नहिं कीजे॥
कही भूप सुनिये जगवारण।मिथ्या वचन कहहुँ केहि कारण॥
तब श्रीहारे असं कहा बखानी। केहि कारण तुम भारत ठानी॥
जबहि भूप पाँसा मन लाये।तब यह धर्म विचार न आये॥
राजा द्रुपदसुता पटरानी। गहि कर केंश सभा महँ आनी॥
कृष्ण वचन नृपके मन भाये। तब द्रोणहि या विधि समुझाये॥
अश्वत्थामा हत रण भयेऊ। कहि नरकी + जर कहि दयेऊ॥
**आधे वचन द्रोण निपाये।आधे महँ हार बजाये॥
- निकै द्रोण सत्यकरिं जानो। अपनो मरण हृदयमें आनो॥**
श्रीकृष्ण बोले। हे महाराज! अब आपभी उस अश्वत्थामाके मरजानेकी वातको संशय छोडकर कहदीजिये।क्योंकि हे युधिष्ठिर! यदि आप नहीं कहेंगे, तो यह द्रोणाचार्यजी सारे पांडवोंका नाश करडालेंगे॥१३॥तव महाराज युधिष्ठिरनेउन श्रीकृष्णजीकी आज्ञा सार कहदिया कि अश्वत्थामा मरा नहीं मरा’ इस तरह सच्ची और झूठी दोनों बातें युधिष्ठिरने कहीं॥१४॥ तबउन वीर द्रोणाचार्यने महाराज युधिष्ठिरके मुखकीवात कानसे सुनतेही हाथसे तत्काल धनुष छोड दिया॥१५॥ फिर उन्होंने धर्मराज युधिष्टिरके मुखसे दूसरी बार यह वचन सुने कि ‘अश्वत्थामा निःसन्देह मरगया’ वह चाहे नर हो वा हाथी हो॥१६॥ तब उन युधिष्ठिरकी भर्त्सना (निंन्दा) करते हुए द्रोणाचार्यजी कहने लगे। द्रोणाचायजी बोले। हे राजन्! आपने जो इस सत्यव्रतका सेवन किया॥१७॥ सो यह आपने केवल मात्र गुरु ब्राह्मण और वृद्धका नाश करनेके लियेही धारण कररक्खा है, अत एव जिस जगह कुयोनिवाला हो, पण्डितजनों को उसका विश्वास नहीं करना चाहिये॥१८॥ जिस व्यक्ति
की महतारी दुष्टा हुआकरतीहै, उसके उदरसे जो बेटा पैदा होताहै वह मिथ्या वादी (झूठ बोलने वाला) हुआ करता है और महतारी मदसे विह्वल होकर जो काम कियाकरती है॥१९॥ हे राजेन्द्र! उसके कामको बेटा भलीभाँति प्रकाशित (उजागर) किया करताहै। जिस व्यक्तिके दादाने कुमारीसे जन्म लियाहै, और बाप जिसका गोलक है॥२०॥और फिर स्वयंही कुंडज है, वह भला मिथ्या बात क्यों नहीं कहेगा? क्या दुष्टता नहीं जानता है।है धर्म।कलियुगके बीचमें पृथ्वीतल दंभयुक्त होरहाहै॥२१॥और आप सरीखे महत् पुरुषोंके तेजद्वारा अधर्म समेत लोक प्रकाशित होतेहैं, हे महाराज! असत्य द्वारा मेरी मृत्यु समझकर आपने जिस लिये असत्यका सहारा लिया॥२२॥ हे राजेन्द्र! हे धर्मनन्दन! उस कारण आपभी विकल हों। इस तरह संग्राममें भाँति भाँतिके दोष कहते हुए द्रोणाचार्यजीको॥२३॥श्रीकृष्णकी आज्ञानुसार अर्जुनने तरह तरहके बाणोंसे मारा।तब योगेश्वरोंके ईश्वर द्रोणाचार्यजीने अपने शरीरको नाश होताहुआ जानकर॥२४॥ हे राजेन्द्र! ऊर्ध्व स्फोट करके कपालके द्वारसे प्राण तजदिये तब द्रोणाचार्यजीके मृत्यु पाजाने पर महाबलवान् धृष्टद्युम्नको॥२५॥ विधाताने द्रोणाचार्यजीके मारडालनेको रचना किया। इस लिये वह थमें तलवार लियेहुए पास आया और उस तलवारके द्वारा द्रोणाचार्यजीका मस्तक काटकर जिस तरहसे आयाथा, वैसेही चलागया॥२६॥ सुखके अग्रभागमें तो चारों वेद हैं और करके अग्र भागमें बाणसमेत धनुष है, द्रोणाचार्यजीका दोनों बातोंमें सम भाव था। शापसे और बाणसेभी॥२७॥ जब राजा दुर्योधन इस प्रकार अनेक जल्पना (बकवाद) कररहाथा इतनेमें ही भगवान सूर्य अस्ताचलको पहुँचे। वहां अश्वत्थामाने क्रोध
किया॥२८॥ प्रिय पिताकी मृत्यु होनेके कारण क्रोधित हो दुःसह (किसीके न सहनेयोग्य) और भयंकर नारायणास्त्र से पांडवोंका वध करनेके निमित्त॥२९॥ जिस समय उस शस्त्रको अश्वत्थामाने छोडा, तब श्रीकृष्णने कहा। हे अर्जुन! हे अर्जुन! हे महाबाहो! आपभी शीघ्रतासे नारायण बाणको साधिये॥३०॥ और आदर सहित इन दोनों बाणोंको तरकसमें लेआइये! अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर उन्हींकी आज्ञानुसार काम किया॥३१॥
अर्जुनास्त्रेणनिर्विद्धो ह्यश्वत्थामाऽप + + यत।
तदस्त्राद्रक्षितो राजन्वंशाधारः परीक्षितः॥
उत्तराजठरे गत्वा हरिणा + + घुरूपिणा॥१॥
तदनन्तर अर्जुनके अस्त्रसे विद्ध होकर अश्वत्थामा मारागया। तब भगवान् श्रीहरिने, अं**+** **+**ष्ठपर्वकी समान छोटेरूप से उत्तराके गर्भ में प्रवेश कर उस असे वंशाधार परीक्षितकी रक्षाकरी॥३२॥
दोहा—पांडवदल जय जय+ + रत, जीवि+ +डे मैदान।
कौरवद हि मलीन,मन, ज्यों संध्याको भान॥
पांडवके रक्षक सदा, भक्तवश्य भगवान।
द्रोणपर्वकी भाषा यह, नि मति कीन्ह बान॥
इति श्रीभारतसारे द्रोणापर्वणि मुरादाबादनिवासिकात्यायनगोत्रोप पण्डितश्रीकन्हैयाला मिश्रकृतभाषायां द्रोणाचार्यवधो
नाम षट्षष्टितमोऽध्यायः॥३६॥
॥ इति श्रीभाषाभारतसारद्रोणपर्वसमाप्तम्॥७॥
॥श्रीकृष्णाय नमः॥
भारतसार भाषा
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सप्तषष्टितमोऽध्यायः ६७
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**दोहा–नारायण नर शारदा, व्यास मुनिहि धार ध्यान।
-
- र्णपर्वशुभ पर्वकहँ, निजमति करत बा+ न॥
जय यदुपति आनन्द घन, जय वृन्दावन ईश।
कृपा करहु निज दासपहँ, जय जय जय जगदीश॥
आनँद कन्द मुकुन्द हार, प्रभु वृन्दावन चन्द।
चरण शरण ली आनकर, काटहु मम भवफन्द॥
तुमरी कृपा कटाक्षर्ते, सिद्ध होतसब काम।
जन मंगल पावें सदा, जपत आपको नाम॥
श्रीराधावर + + साँवरे, नटवर मदन गोपाल।
मिश्र कन्हैयालाल + + के सब जंजाल॥
सप्तषष्टितमेऽध्याये गोसहस्रस्य पुत्रयोः॥
युद्धे युद्धे महाश्लाघा सूर्यपुत्रस्य कथ्यते॥१॥**
- र्णपर्वशुभ पर्वकहँ, निजमति करत बा+ न॥
इस सडसठवें अध्यायमें गोसहस्र अर्थात् सूर्य और इन्द्रके पुत्रोंमें संग्राम के बीच रविनन्दन कर्णकी श्लाघा (सराहना) वर्णन की जाती है॥१॥
वैशंपायन उवाच।
अथाभिषेकं कर्णस्य चक्रे दुर्योधनो नृपः॥
नानाश+ + कुशलं शल्यं कृत्वा सारथिम्॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय! तदनन्तर राजा दुर्योधनने भाँति भाँतिके अस्त्र शस्त्रोंमें प्रवीन शल्यको सारथी वनाकर (सेनापतिके पदमें) कर्णको तिलक किया॥१॥ तब कर्णने रथपर सवार हो युद्धस्थलमें पहुँचकर गर्जना करी। इस तरह उस कर्णको आयाहुआ देखकर श्रीकृष्णने पार्थ (अर्जुन ) से कहा॥२॥ कि हे अर्जुन! आप अनेक रथोंसे युक्त, भाँति भाँतिके अस्त्रशस्त्रोंसे सुशोभित बडे शरीरवाले, और महाशूर, रथमें बैठेहुए इस कर्णको देखिये॥३॥ उधर शल्य भी कर्णसे बोले हे कर्ण! श्रीकृष्णद्वारा शोभायमान आप इस पवित्र रथको देखिये, जिसकी ध्वजाके अग्रभागमें वैरीको अत्यन्त भय उपजानेवाले कपीन्द्र श्रीहनुमानजी महाराज अवस्थान कररहेहैं॥४॥ और यह अर्जुन भी वैरियोंसे नहीं रुक सकते हैं अर्थात् कोई वैरी इनको निवारण नहीं करसकता है। मेरी इस वातको आप सत्यही सत्य समझिये।तब कर्णने कहा कि ध्वजामेंश्रीमहादेवजीके पुत्र साक्षात् हनुमानजी विराजमान हैं॥५॥ और रथके अग्रभागमें (सारथीकी जगह) साक्षात् नारायण स्वरूप भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराज वैठेहुएहैं, तथा स्वयं अर्जुनभी नरस्वरूप हैं, अत एव विष्णुही हैं इस बातमें कुछभी संशय नहीं जानना॥६॥ इसी कारण इन अर्जुनको कोई निवारण नहीं करसकता यह कुछ अचंभा नहीं हैं, इसभाँति सत्यसागर और उत्तम : संग्राम करनेवाले अर्जुनके निकट मैं जाऊँगा॥७॥ अत एव हे राजेन्द्रशाल्य! अव आप अर्जुनकी ओर मेरे रथको चलाइये। यह सुनकर महात्मा शल्यने कर्णके रथको रणभूमिमें पहुँचायदिया॥८॥
चौपाई–शल्य सारथी रथहि चलावा। नन्दि घोष सन्मुख पहुँचाया॥
अर्जुन कर्ण जुरे हैं कैसे। रघुपति सौं रावण रण जैसे॥
इकतें एक महा बलधारी। वर्ण शूर दोऊ धनु धारी॥
कर्ण पांच शर भालुक लीन्हें। लघु सन्धान किरीटन कीन्हे॥
अर्जुन कर्ण करत रण करणी। रुंड मुंड मंड्यो सब धरणी॥
अर्जुन बाण कोपि परिहार्यो। सहस पैग पाछे रथ वारयो॥
देखि कर्ण तब शर सन्धाना \। मारयो नन्दि घोष तकि बाना॥
पैग तीन रथ पाछे टार्यो। साधु कर्ण यदुनाथ पुकार्यो॥
अर्जुन कह्यो सुनहु जगतारण। साधु वचन भाष्यो केहि कारण॥
सहस पैग हम रथहि हटायो। तीन पैग मेरो रथ आयो॥
तब श्रीपति बोले यह वानी। अर्जुन तुम यह भेद न जानी॥
नन्दिघोष रथ मेह समाना। ध्वज पर परम भार हनुमाना॥
दोहा - महाविश्वंभर रूप धरि, हाँकत हैं यह रत्थ।
टारो रविसुत बाणतें, महावीर समरत्थ॥
तब धनुषधारी अर्जुनने संग्राम करनेकी कामनासे कर्णके रथको आयाहुआ देखकर अपना शरजाल (बाणसमूह) सन्धान किया॥९॥ तबकर्णने अर्जुनके चलायेहुए उन बाणोंको अपने वाणोंसे काटेडाला और पीछे श्रीकृष्णसमेत अर्जुनको अपने बाणोंद्वारा व्यथित करदिया॥१०॥ तदनन्तर कर्णने भाँति भाँतिके बाणोंसे श्रीकृष्ण, अर्जुन और हनुमानजीको हनन किया तथा उनके आतेहुए बाणोंको काटकर अर्जुनकी सेनाको मारनेलगा॥११॥ कर्णको इस तरह फुरतीसे मार करतेहुए देखकर क्रोधित अर्जुनने सोचा कि, इस कर्णके रथको रणभूमिसे बाहर निकालदेना चाहिये॥१२॥ इस प्रकार बुद्धि (निश्वय) करके कर्णके रथको अर्जुनने वेगसे हनन किया तब उन अर्जुनके बाणोंद्वारा हत घोडे, रथी ( रथारोही) और सारथी समेत॥१३॥दो पताका समेत और सब ओरसे दृढ (मजबूत) होनेके कारण वह रथ नहीं टूटसका, किन्तु बाणोंसे हत होकर
बारह कोशकी दूरीपर (अवश्य) चलागया॥१४॥ तब फिर कर्णने शीघ्रतासहित आनकर भाँति भाँतिके अनेक बाणोंद्वारा वहाँ श्रीकृष्णसमेत अर्जुनके रथको हनन किया॥१५॥ तब वहाँ इस प्रकार कर्णके हननकरनेपर हनुमान, घोडे, तथा अनेक अशोंके सामान और महाजनोंके भारी भारवाला वह रथ तीन पग पीछे हट गया॥१६॥ ऐसा होनेपर आकाशमें टिके हुए देवताओंने तत्काल (महावीर) कर्णके ऊपर फूलोंकी वर्षा करी तव अर्जुनने बड़े अचंभेमें होकर कहा॥१७॥ अर्जुन बोले, हे केशव! हे देव! मेरे हनन करनेपर कर्णका रथ तीन योजन (बारह कोस) पीछे हटगया, और मेरे रथको उस कर्णने केवल तीनही पग हटाया॥१८॥ तबफिर हे प्रभो! देवताओंने कर्णपर फूलोंकी वर्षा क्यों करी? श्रीकृष्णने कहा हे पार्थ! कर्णने यह बडाही भारी महान काम किया है॥१९॥ हे अर्जुन! आप मेरे सुखको देखिये और वृथा विपाद (खेद) मत कीजिये। यह कहकर केशव मूर्तिने वहीं अपने मुँहको फैलाया॥२०॥ उसमें अर्जुनने संपूर्ण चराचरको देखा। सात द्वीप और अष्टपर्वतयुक्त विश्व॥२१॥ सात समुद्र युक्त तथा समस्त वनस्पतियोंसे आकुल, इस प्रकार विश्व संसारका अर्जुनने वहाँ दर्शन किया। तब वह ‘हे नाथ! रक्षा कीजिये!’ इस कार कहने लगे॥२२॥ इस प्रकार अर्जुनको अचंभेमें युक्त देखकर श्रीहरिने कहा हे पार्थ? इस वीर कर्णको आप नहीं जीत सकेंगे॥ २३॥ अत एव इसके साथ आप अत्यन्त दृढ (पक्के) होकर संग्राम कीजिये। तबअर्जुन कर्णके संग बहुत दृढ और सावधान होकर युद्ध करनेलगे॥२४॥ उन्होंने अनगिन्त बाणोंके मारे कर्णके रथको ढकदिया। उस काल व अर्जुनके बाणोंका समूह सुईसे भी अभेद्य हुआ॥२५॥तब कोध पूर्वक कर्णने अग्निअ को
अभिमन्त्रित करके अर्जुनके उस बाण समूहको जलाय सिंहनादकिया अर्थात् शेरकी तरह दहाड़ने लगा॥२६॥ तब वह अग्नि म**+** **+**न्शब्द करता हुआ पांडवोंकी सेना में फैलगया, और उसने रथ, घोडे, उंट, तथा वीरोंके कपडे और बाल॥२७॥ चामर पताका और पुत्र इत्यादि व रथंचक्रकी नेमि तथा युद्धमें लडते हुए वीरोंके वखतर इन सबकोही अग्निने जलाडाला। तब अन्यान्य वीरोंने उन तपते और दग्धहोतेहुए अनेक योधाओंको त्यागदिया॥२८॥ तब महाबलवान् अर्जुनने कर्णके उस अग्निअस्त्रको देखकर अपना वारुणास्त्र चलाया, तो कि कौरवोंके दलमें फैलगया॥२९॥ फिर जब वारुणा (जलअस्त्र) कौरवों की सेनामें प्रवृत्त होगया तब उसके द्वारा अग्नि अ तत्काल लय होगया और जलसमूहसे सहस्रतः सिंचित होकर थी, घोडे, रथ और पैदल रथस्थलसे दूर चलेगये॥३०॥ तब तो राजा कर्णने इस प्रकार उस बाणके घातरूपी जलमें अपनी सेनाको डूबा हुआ निहारकर पवनास्त्र छोडदिया, और इस पवनास्त्राने जलास्त्रको नष्ट करडाला॥३१॥ तदनन्तर हे नराधिप। उस अस्त्रके पांडवोंकी सेनामें फैलजानेपर उसके द्वारा हाथी, रथ, घोडे और पैदल रुईकी तरह उड़कर आकाशमें चलेगये॥३२॥ पवनास्त्रके द्वारा तितर वितर हुए मत्त हाथी गगनमण्डलमें पहुँचकर वहाँ वे उत्तम जलभरे मेघकी समान दिखाई देने लगे॥३३॥ तब अर्जुनने उस पवनास्त्रके द्वारा अपनी सारी सेनाको पीडित देखकर हारौद्र (भयंकर) पर्वतास्त्र चलाया, उसके द्वारा वह दारुण पवन सब ओरको विलीन होगया॥३४॥ तब राजा कर्णने पर्वतोंद्वारा व्या कौरव दलको पीडित देखकरं व्या लतासे ऐन्द्रा को धारण किया॥३५॥ और फिर पहाडोंको तोड फोड डालनेके निमित्त
वह अस्त्र पांडवोंकी सेनामें छोडदिया उस ऐन्द्रास्त्रके गिरनेपरसारे पर्वत तत्काल लय (नष्टं) होगये॥३६॥ तबअर्जुनने अपने पांच बाणोंसे उस ऐन्द्रास्त्रके दश टुकडे करडाले। इसके पीछे महाबल पराक्रमशाली अर्जुनने कर्णके॥३७॥ मुकुटसमेत त्रऔर पताकाको तत्काल काटडाला। तव महावीर कर्णनेभी शीघ्रतासहित अर्जुनका छत्र काटडालनेके निमित्त॥३८॥ अर्द्धचन्द्राकृति बाण चलाया तबअर्जुनने दो वाणोंसे उसके तीन टुकडे काटकर करदिये। अभी अर्जुन उस अर्द्धचन्द्रबाणको काटही रहेथे कि इसके प्रथमही कर्णने पाँच बाणांसे उनकी छाती वींधडाली॥३९॥ उस छातीके विंधनेसे अर्जुनको मूर्च्छा आगई। किन्तु तथापि महावली धनञ्जयने तुरन्तही उठकर अपने बाणोंसे उस कर्णकी छातीभी वडाली॥४०॥ और फिर अर्जुनने फुरतीसे चार बाणद्वारा चार घोडोंको हनन किया, एक बाणद्वारा रथ बींधडाला और पीछे एक बाणद्वारा सारथीपर प्रहार किया॥४१॥ तदनन्तर महाबलवान् अर्जुन एक बाणसे कर्णकी छातीमें आघात करके गर्जना करने लगे। और गर्जते गर्जते एक वाणके द्वारा कर्णका धनुषभी काटडाला॥४२॥ फिर अर्जुनने अपने धनुषकी प्रत्यंचा अर्थात् धनुषकी डोरीके टंकारका वडा भारी शब्द किया। इस प्रकार सूर्य और इन्द्रके पुत्रोंका परस्पर वडाही भयंकर संग्राम हुआ॥४३॥ हे राजन्! तबउस काल भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञानुसार भूमि कर्णके रथचक्र (रथके पहिये) निगलगई और फिर उसने उन पहियोंको नहीं छोडा॥४४॥
चौपाई - कूदि कर्ण रथके ढिग आये। गहि चाकां तेहि चहत उठाये॥
कर्ण वीर कीन्हों बल भारी। अर्जुनसौं भाष्यो वनवारी॥
मारहु बाण गहरु जनि लावहु। कर्ण शीश अब काटि गिरावहु॥
**प्रारथ कही उचित नहिं होई। विना अ+ + नहिं मारहि कोई॥.
यह अधर्म करिये केहि कारण। यह नि कह्यो जगतके तारण॥
चक्रव्यूह अभिमन्यू मारे। तादिन कर्ण न धर्म विचारे॥
आज धर्म तुम सोचहु पारथ। तो भारत रण कियो अकारथ॥
कुन्ती दिये बाण सो लीजे। अर्जुन कर्ण वधन तेहि कीजे॥
मारहु तुरत विलंब न लावहु। बहुरि न ऐसो अवसर पावहु \।\।
रथ उठाय करिहै धनु धारन। तब अर्जुन तुम सकहु न मारन॥
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- नि अर्जुन कीन्हेउ सन्धाना।श्रवण प्रयन्त शरासन वाना॥**
दोहा - दीन्ही हाँक प्रचारिकै, चले वज्रसम बान।
धन्य धन्य कहनेलगे, रथपर श्रीभगवान॥
तब पृथ्वीमें रथके पहिये गडजानेपर कर्णने अहंकार (घमंड) से कहा! कर्ण बोला। हे पार्थ! पार्थ! हे लम्बी भुजावाले! एक क्षणभरके लिये आप ठहर जाइये॥४५॥ जब तक मैं पृथ्वीसे अपने रथके पहिये निकालूँ! अर्जुनको वहाँ इस प्रकार निवारण करके फिर कर्ण रथके पहिये निकालनेमें लगगया॥४६॥ तब फिर श्रीकृष्णने उसी अवसर में अर्जुनको छलते हुए कहा श्रीकृष्ण बोले कि, जब तक इसके रथके पहिये भूमिमें गडरहेहैं, तबतकही इसकी निगाह नीचीहै॥४७॥और उसी समय पर्यन्त हे कुन्तीपुत्र! जयके अवसरका मलिया मेट करनेवाले इस कर्णको मारडालिये। अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्णकी यह बात नकर शतशः बाणोंद्वारा॥४८॥ अधोमुख अर्थात् नीचेको मुँह किये शूरवीर और रथके पहियोंको निकालतेहुए कर्णको हनन किया। तब उस काल कर्ण अपने मन में सोचने लगा कि यह अर्जुन श्रीकृष्णकी आज्ञानुसार मेरे नाशकी कामनासे मुझको माररहाहै॥४९॥ इस प्रकार जानकर कर्णने श्रीकृष्णसे कहा। कर्ण बोला भो भो महा-
बाहु कृष्ण! मैं मरने से (जराभी) नहीं डरताहूँ॥५०॥ क्योंकि यदि रणमें जीतगया तो लक्ष्मी प्राप्त होगी और जो हारगया, तो देवाङ्गना मिलेगी, तब फिर युद्धमें इस क्षणभं रकायाके नष्ट होजानेकी क्या चिन्ताहै?॥५१॥
एवं चाधर्मतो युद्धं दृ+ +क्रोधपरिप्लुतः॥
कश्चित्सर्पो द्विपात्कर्णं संप्राप्येदं वचोऽवदत्॥५२॥
इस प्रकार अधर्म युद्ध देखकर कर्ण के निकट क्रोधमें सनाहुआ कोई सर्प आनकर इसतरह कहनेलगा॥५२॥॥ इति श्रीभारतसारे कर्णपर्वणि भाषायां कर्णार्जुनयुद्धं नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः॥६७॥
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अष्टषष्टितमोऽध्यायः ६८
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अष्टषष्टितमेऽध्याये नागराजसहायतः।
कर्णस्य गरुडाप्तिश्चपातः कर्णस्य कथ्यते॥१॥
इस अडसठवें अध्यायमें नागराज कर्णकी सहायता करना, गरुडजीका प्राप्त होना और फिर कर्णका (रणस्थलमें) पतन होना यह कथा कही जाती है॥१॥
वैशंपायन उवाच।
पूर्वं कर्णसखा सर्पो दुर्योधन + + हे धृतः।
मुक्तः कर्णेन पाशाद्वै स सर्पो वाक्यमब्रवीत्॥१॥
वैशंपायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय! यह सर्प पूर्वमें कर्णका मित्र था, जिसको कर्णने दुर्योधनके घर धारण करके फिर पाश (बन्धन) से छोडदिया (इस समय) वही सर्प कहने लगा॥१॥ पुण्डरीक बोला, भो भो लम्बीभुजावाले कर्ण! आपकी समान पृथ्वीतलपर दूसरा कोई नहीं है। अंतएव
यदि आप छेदनकरने योग्य और अभिमंत्रित बाण चलावें॥२॥ तो उस बाणपर मुझको बैठालकर अर्जुनपर चलाइये। उसकी यह बात सुनकर कर्णने वैसाही काम किया॥३॥ अर्थात् नागको बैठालकर बाण छोडा, और उसने अर्जुनके अनेक अस्त्र शस्त्रोंसे ताडित होकरभी श्रीकृष्णार्जुनके शरीरको भेदकर उनके अनेक मर्मस्थलोंमें व्यथा पहुँचाई॥४॥ तब धर्म नन्दन महाराज युधिष्ठिरने कृष्णार्जुनको चेष्टाहीन समझकर सावधानीसे विचार किया और फिर दुःखित तथा विह्वलता (घबराहट) के मारे अज्ञानसे रोतेहुए मूढकी समान होगये॥५॥ हे जनमेजय! उसी समय देवर्षि श्रीनारदजी रणमें आपहुँचे और हँसते हँसते धर्मराज युधिष्ठिरसे बोले कि हे राजन्! आप वृथा क्यों रोरहेहैं?॥६॥ यह अर्जुन और श्री कृष्ण तो साक्षात् नरनारायण हैं, इनकी मृत्यु हैही नहीं। अत एव आप केशवमूर्ति श्रीहरिके वाहन पक्षिराज गरुडजीको स्मरण कीजिये॥७॥ देवर्षि नारदजीके इस प्रकार कहने पर उन्होंने गरुडजीको स्मरण किया और धर्मराज युधिष्ठिरके स्मरण करनेसेभी प्रथमही गरुडजी हाँपते हाँपते तथा साँस छोडते छोडते वहाँ आपहुँचे॥८॥ हे राजन्! उस काल उन गरुडजीके पंखोंकी हवासे कौरव और पांडव दोनों दलोंकी सेना वारंवार चिही पुकार मचातीहुई आकाशको जानेलगी॥९॥ हे महाराज जनमेजय। बहुतसे हाथी, घोड़े, रथ और पैदल नीचेको मुँह किये जिस तरह प्रलय कालमें तिनकों की दशा होजाती है उसी भाँति सब व्याकुल होकर भ्रमने लगे॥१०॥ फिर जहाँ केशव और अर्जुन थे, उसी स्थानमें गरुडजी गये तब सब साँप बिलबिलमें भागगये॥११॥ तब तो उन गरुडजीने उन भागते हुए अनेक सर्पोंका नाश किया और फिर कृष्णार्जुनका विषभी चूँसलिया। तब श्रीकृष्ण और अर्जुन
नागपाशसे छूटकर ऊठ खड़े हुए॥१२॥हे राजन्! तदन्तर गरुडजीने उन भगवान् वासुदेव प्रभु श्रीकृष्णकी तीन प्रदक्षिणा (परिक्रमा) करके उनके पैरोंमें मस्तक झुकाते हुए यह कहा॥१३॥ गरुडजी बोले हे कृष्ण! कृष्ण! हे अमेयात्मन्! अब आप मुझको आज्ञा दीजिये कि मैं क्या करूँ? आपकी आज्ञासे मैं कौरवोंकी सारी सेनाको भक्षण कर जाऊँगा॥१४॥ अथवा विभो! उस सेनाको अपने पंखोंके आघात से समुद्र में गिरादूँगा! गरुडजीकी यह बात सुनकर विभु भगवान् श्रीकृष्णने अपनी आँखेकी सैनसे॥१५॥अपनी वातका पालन करते और अन्यान्य आदमियोंके सन्मुख जनातेहुए उनको निवारण (निषेध) किया अर्थात् उनके इशारेका अभिप्राय यह हैं कि इस कौरव और पांडवोंके समरमें मैं संग्राम नहीं करूँगा॥१६॥क्योंकि हे सुपर्ण! आपभी मेरे अग हैं, अत एव मेरी आज्ञासे आप चले जाइये। तबफिर भगवानकी इस आज्ञाको मस्तक पर चढकर गरुडजी चलेगये॥१७॥ तदन्तर कृष्णार्जुन रथपर सवार होकर जैसेही युद्धके लिये निकले कि तबतक वीर कर्णनेभी पृथ्वीसे अपने रथ के पहिये निकाललिये॥१८॥और फिर वहभी रथपर सवार होकर युद्धके निमित्त तैयार होगया और तबहे राजेन्द्र! सब राजाओंके सुनतेहुए अर्जुनसे कहने लागा॥१९॥ कर्ण बोला। हे अर्जुन! हे महाबाहो! आपका बल केवल कृष्ण ही हैं और देहका बल नहीं हैं जिस समय नागसे विद्ध होकर आप दोनों जने भूमिपर पडे हुए थे॥२०॥उस समय हे वीर मैंने धर्मके डरसे आपको नहीं मारा इसमें कुछभी सन्देह मत समझो। किन्तु हे वीर! जब मेरे रथके पहिये भूमिमें गड़गयेथे तब आप एक क्षणभरको भी॥२१॥ नहीं ठहरे। अत एव हे अर्जुन! आपका कैसा पौरुष(पराक्रम) है? कर्णकी यह बात नकर चुप-
चाप रह दृढ बाण॥२२॥कोप और लाजयुक्त होकर श्रीकृष्णके देखते देखतेअर्जुनने छोडे तब महावीर कर्णनेभी हँसते हँसते अर्द्धचन्द्र महाबाण॥२३॥ अर्जुनका शिर काट डालनेके लिये श्रीहरिके देखते हुए ही छोडा और तब वह बाण अर्जुनके बाणोंद्वारा बीचसे कटजानेपरभी अर्जुनके गलेके धोरे पहुँचही तो गया॥२४॥ तब सारी बातोंके ज्ञाता श्रीकृष्णने उपाय किया, अन्य बाणको प्राप्त होनेवाले ऐसे बाणको देखकर उस दृढताद्वारा आये हुए बाणको अवलोकन कर तथा कर्णकेभी फलको देखकर॥२५॥ अपने भक्तोंका पालन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण शीघ्रता सहित पैरोंके आघात द्वारा रथकों तालवृक्षमात्र भूमिमें लेआये॥२६॥ तब वह बाण अर्जुनका मुकुट काटताहुआ कर्णके पास चलागया। इस प्रकार युद्ध करते करते कर्णके रथके पहियोंको॥२७॥ हे राजन्! पृथ्वी फिर निगलगई कि जैसे प्रथम निगल चुकी थी, और तब श्रीकृष्णकी आज्ञानुसार अर्जुनने अत्यन्त दृढनाशक बाणों॥२८॥ द्वारा कर्णको मारना आरंभ किया। फिर उसी तरह पहिये निकानेके लिये नीचेकोह करके पृथ्वीपर खडे हुए ‘फिर हे पार्थ! आप क्षणभरको ठहरजाइये ’ इस प्रकार॥२९॥ अर्जुनसे कहता कहता घबरागया। किन्तु अर्जुन उस रविनन्दन कर्णको मारतेहीरहे, रुके नहीं तबकर्णभी गर्जना करताहुआ थकगया॥३०॥ और फिर भूमिपर खडा होकर अनेक प्रकारके बाण छोडताहुआ संग्राम करनेलगा किन्तु तथापि वह अर्जुनके दृढ और घोर बाणोंसे मर्ममें अत्यन्तही पीडित हुआ॥३१॥ तब उस महावीरने विह्वल होनेपरभी अनेक बाणोंके जाल छोडे। इस प्रकार सूर्यनन्दन कर्णको भाँति भाँतिके अस्त्रोंसे अर्जुनने निपात किया
॥३२॥ भूमिने पहियोंको निगललिया, बाणोंको मइया कुन्तीने रण करलिया और बूढे ब्राह्मणका रूपं बनाकर देवराज इन्द्रने कवच (बखतर) लेलिया॥३३॥ जमदग्निनन्दन परशुरामजीने उन रविनन्दन कर्णको शाप दियाथा और भूमिका भारी भार उतारनेके निमित्त भगवान् श्रीकृष्णने छल किया॥३४॥ और फिर रणाङ्गनमें महावीर अर्जुनसरीखे प्रतिस्पर्द्धी प्राप्तहुए, अत एव हे राजन्! नाशके इन कठिन कारणोंके होते हुए बिचारा वह कर्ण वहाँ क्या करता?॥३५॥
चौपाई–लाग्यो बाण कर्णके+ से। इन्द्र वज्र पर्वत पर जै॥
काटो शीश परा तब धरनी। गमें रही सदा यह+ + रनी॥
कृष्ण आप जय शंख बजायो। पाण्डव सैन्य देखि सुख पायो॥
हर्षि इन्द्र तब आज्ञा दीन्हो।पुष्पवृष्टिं + + बदेवन कीन्हो॥
जय जय शब्द गगनमहँ बोल्यो। चढि विमान आनन्दित डोल्पो॥
जूझे + + कर्ण जगत् यश पायो। निसरो रथ महि ऊपर यो॥
छुटो चक्र धरणीते जबही। फेर्योशल्य हाँकि रथ तबही॥
सूनो रथ दुर्योधन देखा+ + । जूझे कर्णत्यकार लेखा।
संध्या जानि कियो तब गवना। दोउ सेना आई तब भवना॥
गोसहस्रसुतेनाऽसौ गोसह सुतोवः॥
निश्चितं गोविहीनेन गौश्चहस्वाद्विनिर्गता॥१॥
गोसहस्र (इन्द्र) के वेटे अर्जुनने गोसहस्र (सूर्य) के कर्णका वध किया।तब उस काल गोविहीन महाराज धृतराष्ट्रने अपने मनमें निश्चित रूपसे समझलिया कि आज गौ (भूमि) हाथसे निकलगई॥३६॥इति श्रीभारतसारे कर्णपर्वणि भाषायां कर्णवधो नामाष्टषष्टितमोऽध्यायः॥६८॥
एकोनसप्ततितमोऽध्यायः ६९.
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एकोनसप्ततितमे दातृत्वं सूर्यजस्य च॥
वराप्तिः कृष्णहस्तेन देहदग्धत्वमुच्यते॥१॥
इस उनत्तरवें अध्यायमें रविनन्दन कर्णका दातापन, फिर उनको वर मिलना और भगवान् श्रीकृष्णके हाथसे उनके शरीरका जलना यह कथा कहीजातीहैं॥१॥
वैशंपायन उवाच।
अहंकारगतः पार्थो दृष्ट्वा कर्णंनिपातितम्॥
सूर्यपुत्रो महावीरो मयैकेन निपातितः॥१॥
वैशम्पायनजी बोले हे महाराज जनमेजय! इसके पीछे कर्णको मृतक देखकर अर्जुनके मनमें यह घमंड हुआ कि, महाबलवान् रविनन्दन कर्णको अकेले मैंनेही वधाहै॥१॥ तब अज्ञानी आदमीके समान अर्जुनकी यह बात सुनकर श्रीकृष्णने शिर हिलाया और हँसते हँसते अर्जुनसे कहा॥२॥ श्रीकृष्ण बोले हे मित्र! यह मूर्ख आदमीकी तरह बुद्धि आपमें इस समय कैसे प्रकट हुई कि सूर्यनन्दन कर्णको अकेले मैंनेही रणमें वधा?॥३॥ यदि आप ऐसी बुद्धि करते हैं तो पृथ्वीतलपर आपकी समान जड कोई नहीं है। यह आपका अभिमान बहुत वुरा है कि ‘सूर्यपुत्र कर्णको मैंने मारा’॥४॥हें अर्जुन! कर्णके नाश करनेवालोंका आपसे वर्णन करता हूँ। अर्थात् आप, मैं, माता कुन्ती, पृथ्वी, वासव (इन्द्र) और जमदग्निनन्दन श्रीपरशुरामजी, इनके कारणोंसे (कर्ण) धराशायी हुआहै। इस समय अपना यह दूसरा जन्म इस कर्णके साधनार्थहीहै॥५॥६॥हे पांडव! प्रथम जन्ममें यह महावीर कर्ण हजारकवचवाला था, वहाँ मैंने
धर्मरूपसे भाँति भाँतिकी तपस्या करके इसको वध किया॥७॥ और यह वीर इस जन्ममेंभी अपनेसे कष्ट करके मृत्युको प्राप्त हुआहै।अपने तथा पराये दोष और गुणके॥८॥अन्तरको जो नहीं जाना करताहै, हे अर्जुन! उसको पुरुषोंमें नीच जानना चाहिये। इस प्रकार उन दोनोंकी बात चीत होरहीथी कि उसी समय दुर्योधन कर्णके पास पहुँचा॥९॥और चिन्ता करते करते कहने लगा कि हे मानद! हाय! अब आपके विना मैं भी मरना चाहता हूँ। हे महाबाहो! आप कैसे शयन कररहेहैं? अब उठ खडे हूजिये और आदर सहित संग्राम कीजिये॥१०॥ हे महावीर! आप क्या मेरे पालनका काम करतेहुए भग्नहुएहैं? हे वीर! जो कि आपने मुझको छोडदिया है, इस कारण मुझको पांडव (अवश्य) मारडालेंगे॥११॥अत एवं हे बन्धु! आप उठिये और मुझ अपने सखाका पालन कीजिये। क्योंकि जिसप्रकार वेदको नहीं जाननेवाले ब्राह्मण, जिस प्रकार मदहीन हाथी और जैसे जलहीन नदी होतीहै, उसी तरह मेरी सेनाभी आप (कर्ण) कर्णके विना हीन होरही॥१२॥जिस प्रकार पतिहीन नारी और चन्द्रहीन रात्रि, दग्ध हुआ करतीहै, उसी प्रकार रविनन्दन कर्णके विना मेरी सेनाभी दग्ध हो रही है॥१३॥जिस प्रकार चन्द्रमाके विना नक्षत्र और ग्रह गण शोभा नहीं पाता, उसीप्रकार ‘मरगये कर्ण वीर जिसमें’ ऐसी धृतराष्ट्रकी सेनाका यह शब्द वीर्यहीन और गर्वरहितहुआ रविनन्दन कर्णके विना शोभा नहीं पाता भया॥१४॥ जिस तरह पथ्यहीन रोगी, वर्णहीन जैसे कुल और जिस प्रकार श्वांसहीन देहकी दशा होती है, उसीप्रकार कर्णके विना मेरी सेनाकी दशा होरहीहै॥१५॥
चौपाई–हा हा मित्र परम सुखदायक। महा युद्ध + + रिवेके लायक॥
तुम पायेड निज क्षत्री धर्मा। यह सब दोष हमारे कर्मा॥
बलसों अर्जुन सके न मारन।छल करि वधे जगतके तारण॥
अब काको सेनापति कीजे। जाके बल भारत यश लीजे॥
इहि विधि करत पिलाप कलापा। आयउ भवन भर्यो सन्तापा॥
हे जनमेजय। कर्णके लिये इस भाँति नानावाक्योंसे विलाप कलाप करता युद्धकी स्थिरता होनेके कारण दुर्योधन अपने घरको चलागया॥१६॥ उधर जिस समय अकेला कर्ण श्वांस छोडताहुआ रणांगनमें गिरगया तब भगवान् श्रीकृष्णने कुछेक हँसकर अर्जुनसे कहा॥१७॥ हे पार्थ! आप शिष्य बनकर मेरे साथ चलिये कि जिससे मैं कर्णके धर्मकी परीक्षा करके उसको वर दूं!॥१८॥ क्योंकि वह महान् भक्त, महान् वीर, सत्यवादी, पवित्र रहनेवाला, जितेन्द्रिय, और रणमें शूर है, इसकारण वह सदा शुद्ध कर्ण मुझको बहुतही प्यारा है॥१९॥ इस प्रकार वहाँ कहकर भगवान् श्रीहरिने बुढे ब्राह्मणका रूप बनाया और अर्जुन रूपी एक चेलेके साथ जडखडाते पैरोंसे कर्णके निकट जा पहुँचे॥२०॥ वहाँ जाकर ब्राह्मणने कहा हे कर्ण! कर्ण! हे महावीर! आप पृथ्वीतलपर निरन्तर दान कियाकरतेहैं, आपने भगवान्विष्णुके प्रसादसे अभिलाषित वर पायेहैं॥२१॥ मैं मँगता अत्यन्त पीडित शरीर और निर्धन मनसे आपके सन्मुख आया हूँ, अत एव आप सौवर्षपर्यन्त जीवित रहें॥२२॥ आपका मंगल हो। आपके यहाँ लक्ष्मी अचल रहे। आपकी कीर्त्ति निरन्तर वर्त्तमान रहे। आपके रोग नष्ट होजाँय अर्थात् शरीर आरोग्य रहे। और आपके वंशमें भगवान् श्रीहरिकी अखंड भक्ति होवे॥२३॥ हे कर्ण! आपके स्वर्गमें चलेजानेपर लक्ष्मी तो गोविन्दके पास चलीजायगी, और पृथ्वी महाराज युधिष्ठिर पर जायगी, किन्तु याचकलोग कहाँ जाँयगे?॥२४॥ इधर मेरी कन्या विवाहकरदेनेके लायक हो चुकी है, पर मेरे पास धन
बिलकुल नहीं है, इसलिये मैं आपसे बहुतसा सुवर्ण माँगनेको आपके पास आयाहूँ॥२५॥हे महाराज! पक्षीगणोंके बनमें निवास करना उत्तम है, और पहाडकी चोटीपर वास करनाभी रा नहीं है, तथा अपुत्रिणी (पुत्रहीन) हतारीभी भली है, किन्तु याचकके वंशमें जन्म लेना अच्छा नहीं॥२६॥ देखिये तिनकोसे हलकी रुई होतीहै, किन्तु याचक उस रुईसेभी हलका होता है, सो मुझको वायुने किस लिये नहीं उडाया (इसीडरसे कि) कहीं इसे भी कुछ न माँग बैठे?॥२७॥ मरणकालमें पुरुषके गात्रभंग, दीनस्वर, पसीना और गद्गद कंठका होना इत्यादि जितने चिह्न होतेहैं, वेही सारे चिह्न याचकके शरीर में हुआ करतेहैं॥२८॥ पिनाकपति श्रीमहादेवजीने पंचशर (कामदेव) को जलाकर बहुत अनुचित काम किया और सुन्दर द्रुमलता ओंसे मण्डित खांडववनको महाबलवान् अर्जुनने जलाडाला तथा रावणसे पालीजातीहुई सुन्दर लंकापुरीको पवनकुमार श्रीहनुमानजीने फूँकदिया, किन्तु संसारके बीच ऐसे जनोंको तापदायक दरिद्रको (आजतक) किसीने भी नहीं जलाया?॥२९॥ उसकी इस प्रकार बात सुनकर कर्णने उस ब्राह्मणसे कहा कि मैं इस अवस्थाको प्राप्त होकर पृथ्वीतलपर पडा हुआ हूँ॥३०॥ इस समय यहाँ मेरे पास छभी धन नहीं है, अत एव हे स्वामिन्!आप कृपा करके मेरी भार्याके पास चलेजाइये॥३१॥ मैं आपको अभिज्ञान देता हूँ कि वह आपको धन प्रदान करेगी। कर्णकी यह बात सुनकर उस ब्राह्मणने कहा॥३२॥ ब्राह्मण बोला हे कर्ण! बादल समयपरही पृथ्वीपर पानी बरसाया करतेहैं, वृक्ष समयपर ही फलाकरतेहैं, भूमि समयपरही फलती (नाज उपजाती) है और गायेंभी स यपरही दुहीजायाकरती॥३३॥ यह सब समय रही फलतेहैं, किन्तु
आप (कर्ण) सर्वकाल फलतेरहतेहैं अर्थात् फल दियाकरतेहैं, आपकी यह ख्याति (कीर्त्ति) सुनकरही मैं आपके समीप आयाहूँ॥३४॥ आप निरन्तर सारे पदार्थोंके दाता हैं, आपमें सदैव समय बनारहा करताहै, किन्तु वे कर्ण आज मेरेही भाग्यकी दुर्बलतासे (मंदभाग्यसे) जडताको प्राप्त होरहेहैं!॥३५॥ कर्णने कहा हे द्विजोत्तम! हीरोंसहित एक भार सुवर्णसे यह मेरे दाँत बँधेहुएहैं, आप उन सब दाँतोंको तोडकर वे हीरे और सुवण लेलीजिये॥३६॥ ब्राह्मणने उत्तर दिया हे कर्ण! मैं बूढा हूँ, अत एव मुझमें इतनी शक्ति (ताकत) नहीं है कि आपके उन दाँतोंको तोडसकूं! कर्णने कहा हे नाथ! मुझको पत्थर दीजिये जिससे मैं (स्वयं) दाँत उखाडकर आपको देदूँ॥३७॥ब्राह्मण बोला हे कर्ण! मैं उस पत्थरके देनेमेंभी कदापि समर्थ नहीं हूँ। वैशंपायनजी बोले हे जनमेजय! तब उस अवस्थामें (प्राप्त) भी कर्ण पत्थरके समीपगया॥३८॥ वहाँ भाँति भाँतिके अस्त्रशस्त्रद्वारा छिन्नभिन्न हुए हाथसे पत्थरको उठाकर रविनन्दन कर्णने उन दाँतोंको तोडकर जैसेही देना चाहा॥३९॥वैसेही भगवान् श्रीहरिने अपने (वास्तविक) रूप धारणपूर्वक कर्णका हाथ पकडकर कहा। भो भो महावीर कर्ण! आपके समान पृथ्वीतलपर दूसरा कोई नहीं है॥४०॥ आपने जो काम किया, उससे मैं अब संतुष्ट होगयाहूँ, अत एव हे महापण्डित! आपके मनको जो अच्छालगे, वही वर आप इसे माँगलीजिये॥४१॥ कर्णने कहा हे मधुसूदन! ब्राह्मणके निमित्त तो मेरा धन क्षय होवे, मेरी भार्याके साथ मेरी तरुण अवस्था (जबानी) बीतजावे, और स्वामीके काममें मेरा जीवन (प्राण) निकलजावे, आप मुझको यही वर प्रदान कीजिये॥४२॥ हे मधुसूदन! पात्रके लिये दान करनेमें मेरी वृद्धि रहे, गंगाजीके
किनारेपर मेरी मृत्यु होवे, कृष्णमें मति रहे, और योग्य स्थानमें मेरा रहना तथा श्रेष्ठ वंशमें जन्म हो, यह वर दीजिये॥४३॥ हेमधुसूदन! पुत्रोंसहित आसन, ब्राह्मणोंसे युक्त स्थान और मेरा हृदय सब शास्त्रोंसे युक्त होवे। यह वर आप दीजिये॥४४॥ हे मधुसूदन! आप मुझको ब्राह्मणके हाथसे तिलक, माताके हाथसे भोजन और पुत्र के हाथसे पिंड मिलनेका वर दीजिये॥४५॥ हे मधुसूदन! आप मुझको दुर्भिक्षमें अन्नदान, सुकालमें कंचनदान, और आतुर (डरेहुए) व्यक्तिको अभयदान करनेका वर दीजिये॥४६॥ मेरी बुद्धि पराई नारी और पराये धनमें (लिप्त) न होवे और मेरी जीभ पराई निन्दा करनेवाली कभी न होवे॥४७॥ सत्य, शौच (सदाचार) दया, दान, एकमात्र भगवान् जनार्दन (आप) में भक्ति, इन्द्रियोंको दमन करना और दक्षता (चतुराई) हे मधुसूदन! यह सब आप मुझको प्रदान कीजिये॥४८॥ रोगरहित देह, चिन्ताहीन मन, लक्ष्मीकी स्थिरता और अपनी भक्ति, हे मधुसूदन! मुझको प्रदान कीजिये॥४९॥ क्योंकि हाथोंकी शोभा दान करनेसे हुआ करतीहै, कंकनसे नहीं हुआ करती। शुद्धि ज्ञानसे हुआ करतीहै, स्नानसे नहीं हुआ करती। तृप्ति मानसे हुआ करती है, भोजनसे नहीं हुआ करती और युक्ति भक्तिसे हुआ करती है, किन्तु शिर मुडालेनेसे नहीं हुआकरती॥५०॥ इसके अतिरिक्त समस्त याचकोंकी इच्छानुसार सारे अनाज, कपडे और हेमकर्षण अर्थात् सुवर्णका कर्ष इत्यादि महादान तथा ब्रह्मभोजन में सामर्थ्य हे मधुसूदन! आप मुझको यह संपूर्ण वर प्रदान कीजिये॥९१॥ हे देव! यदि आप सत्यही मुझपर सन्तुष्ट होगयेहैं, तो आप मुझको अदग्ध स्थानमें अर्थात् जहाँ प्रथम कोई नहीं जलायागयाहो, जलाइये इस प्रकार कर्णने जिस जिस बात की प्रार्थना करी, विष्णुभगवान्
श्रीकृष्णने प्रसन्नतापूर्वक वह सब प्रदान करीं॥५२॥ तदनन्तर अर्जुनसहित भगवान् श्रीहरि उसके निकटसे सीधा लेकर वैसेही चलनेलगे कि उसी समय महाराज कर्णने श्रीकृष्णके पादुका (चरणों) को मस्तक से स्पर्श करके॥५३॥ तहाँही प्राण त्याग किया। उस काल भगवान् श्रीकृष्णने उसकी प्रशंसा (बडाई) करी। फिर श्रीकृष्ण और अर्जुन उस कर्णका मृतक शरीर जलानेके निमित्त स्थानको ढूँढतेहुए फिरनेलगे॥५४॥ किन्तु इनको सब जगह भूमि दग्धही मिली, निर्दग्ध कहीं भी दिखाई नहीं दी, तब फिर उन केशवने एक स्थानपर पहुँचकर भूमिसे पूछा कि हे पृथ्वी! तू मुझे सत्य बता कोई तेरे ऊपर जला है?॥५५॥ पृथ्वीने उत्तर दिया। हे केशव! यहाँ सैकडों तो भीष्म जलचुके, सैंकडों द्रोणाचार्य जलचुके, हजारों दुर्योधन जलचुके, और कर्णकी तो गिन्तीही नहीं है अर्थात् असंख्य कर्ण भी जलचुकेहैं॥५६॥
तदा कृष्णेन कर्णोऽसौ वामहस्ते प्रज्वालितः॥
दक्षिणो बलिराज्ञेयः पूर्वदत्तस्तु हस्तकः॥७॥
तब (पृथ्वी की यह बात सुनकर) भगवान् श्रीकृष्णने उस कर्णको बाँये हाथपर जलाया। उन्होंने अपना दाहिना हाथ प्रथम महाराज दैत्याधिपति बलिको देदियाथा और वह उसका दान लेनेसे जलचुकाथा॥५७॥
इति श्रीभारतसारे कर्णपर्वणि मुरादाबादनगरनिवासिकान्यकुब्जकुलभूषणस्वर्गीय-
मिश्रसुखानन्दात्मजपण्डितकन्हैयालालमिश्रकृतभाषायां कर्णवधो
नाम एकोनसप्ततितमोऽध्यायः॥ ६९॥
इति श्रीभाषाभारतसारकर्णपर्व समाप्तम्॥
श्रीकृष्णायनमः।
भारतसार भाषा
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शल्यपर्व ९.
सप्ततितमोऽध्यायः ७०.
दोहा–व्यासदेव पद वन्दिकें, जा मुख वेद पुरान।
शल्यपर्वकी भाषा यह, नि मति करत बखान॥
परम प्रेमनिधि रसिकवर, अवि उदार गुनखान।
+ + पा कर निजदासपहँ, श्री अनन्तभगवान॥
ब्रज न जीवन लाडिले,श्रीराधा चितचोर।
+ + रहु मनोरथ पूर्ण मम, देखि आपुनी ओर॥
क्रीट मुकुट कटि का नी, उर वैजन्ती माल।
इहि+ + विसौं मेरे हिये,बसहु कन्हैयालाल॥
राधावर यह वरं सदा देहु मोहि जनजान॥
निव चितमहँ खटकत रहै, प्रेम भरीमुसकान॥
सप्ततितम अध्याये नृपशल्यस्य पंचता॥
कृपस्य द्रोणपुत्रस्य पलायनमिहोच्यते॥१॥
इस सत्तरवें अध्यायमें राजा शल्यका माराजाना और द्रोणाचार्यके पुत्र अश्वत्थामा तथा कृपाचार्यका रणसे भागना, यह कथा कही जाती है॥१॥
वैशंपायन उवाच।
हृते भीष्मे हृते द्रोणे कर्णे च निधनं गते॥
आशा बलवती राजञ्शल्यो जयति पांडवान्॥
वैशंपायनजी बोले हे राजन्। भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्णसरीखे योधाओंके मरजानेपर अब शल्य पांडवोंको विजय
करेगा? अहो।आशा बडीही ब वान् है॥१॥ तब दुर्योधन राजाने (सेनापति पदमें) शल्यका अभिषेक (तिलक) किया। और फिर वह राजा शल्य सबेरेही रथपर सवार होगया॥२॥ तदनन्तर राजा शल्यको अश्वत्थामा और कृपाचार्य समेत रथमें बैठा देख तथा अर्जुनको थका आ सम भगवान् श्रीकृष्णने पांडवोंसे कहा॥३॥ हे युधिष्ठिर भीमादि सब वीरो! आप लोग समरमें शल्यके सन्मुख जाइये। तब युधिष्ठिरादि श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर॥४
चौपाई—धर्मरा+ +कीन्ही असवारी। पारथ रथ जोते वनवारी॥
**चढे कोपि रथ भीम भयंकर।या+ + ल महँ जैसे शंकर॥
चढि तुरंगपर नकुल हाये। धर्मराज + + हँ शीश नवाये॥
-
- चनरथ सहदेव विराजे। + र असि फरी सारीस विछाजे॥
साँग शूल लीन्हे कोऊ र। कोउ मुदगर ले कोउ धनुर्धर॥
सेन साजि कुरुखेत हि आये। दोउ दल वीरन शोभा पाये॥
बंब निशान बाजने बाजे। होत शब्द मान घन गाजे॥
आगे शल्य हाँकि रथ आये। बाणवृष्टि+ + स्थऊपर+ + ये॥**
शर अनेक बरसत हैं कैसे।लद मन+ + श्रावणमहँ जैसे॥
द्रोणी भीम करत संग्रामा। दोजुरे खेत मैदाना॥
कही शल्य अब स्थिर रहिये। धर्मरा + + मोसो रण करिये॥
यह हि शल्य बाण दस ाँटे। धर्मपुत्र तेहि बीचहि काटे॥
सात बाण मालुक नृप लीन्हे। वे शर चोट शल्यपर कीन्हे॥
कोपि शल्य यमअ हि लीन्हों। पढिके मंत्र फेंकि शर दीन्हों॥
**हाँक मारिके बाण प्रहारहिं। इव नृप इन्द्र बाण सौं मारहिं॥
भूप युधिष्ठिर हाँकै दीन्हो। क्रोधित शक्ति हाथमहँ लीन्हो॥
- चनरथ सहदेव विराजे। + र असि फरी सारीस विछाजे॥
-
- रतहौंअब शल्य सँभारो। आज जानिवो तेज हमारो ॥**
कोधित शल्य खड्ग कर लीन्हे। शक्ति घाव राजा तब कीन्हे॥
छूटत शक्ति शब्द भयो भारी। दशों दिशा कीन्हीं उजियारी॥
वज्रसमान शक्ति जब आई। कुरुपति देखि महाभय पाई॥
वींध्यो शक्ति शल्य कहँ धाई। जीव हीन करि दियो गिराई॥
जूझे शल्य परें तब धरनी। जगमें रही सदा यह करनी॥
धर्मराज जब शल्यहि मारो।देवन सब जय जयति पुकारो॥
लडनेके काममें चतुर राजा शल्यके पास संग्रामके निमित्त गये। तब भाँति भाँतिके पैने बाण और भालोंद्वारा॥५॥ तथा खड्ग गदा और मूशल इत्यादिसे मद्रदेशाधिपति राजा शल्यको मारने लगे। तब धर्मराज युधिष्ठिरने उस शल्यको भी पृथ्वी तलपर गिरादिया॥६॥ सध्याह्नकालमें मद्रदेशाधिपति राजा शल्य स्वर्गको सिधारा। अनन्तर वह घमंडी दुर्योधन शल्यको मराहुआ देखकर॥७॥
विलप्य बहुशस्त्रत्र मन्दिरं निजमाश्रितः॥
अश्वत्थामा कृपस्तत्र रणमध्यात्पलायितौ॥
वहाँ बहुतसा विलाप कलाप करके अपने मन्दिरको चलागया और अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य रणभूमिके बीचसे भागगये॥८॥ इति श्रीभारतसारे शल्यपर्वणि भाषायां शल्यवधो नाम सप्ततितमोऽध्यायः॥७०॥
इति श्रीभाषाभारतसारशल्यपर्व समाप्तम्॥
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श्रीकृष्णाय नमः ।
भारतसार भाषा
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गदा पर्व
एकसप्ततितमोऽध्यायः।
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दोहा—श्रीयदुपति कोमल चरण, वार वार शिरनाय।
गदापर्वाभाष्य अब बहु विधि लिखत बनाय॥
हे राधावर नँद नँदन, हे प्रभु जगदाधार।
मिश्र कन्हैयालालके, कारज देहु सँवार॥
दीनबन्धु सुन्दर सुखद, ब्रजजन माखन चोर।
मोहि सहारो आपको, द्रवहु सो नन्द किशोर॥
जनरक्षक भक्षक विपति, विघ्न विनाशन हार।
मिश्र कन्हैयालालके, दीजे संकट टार॥
एकसप्ततिमेऽध्याये दुर्योधनविलापनम्।
गान्धार्यास्तस्य सम्वादे दुःखहेतुत्वमुच्यते॥१॥
इस इकहत्तरवें अध्यायमें दुर्योधनके विलाप कलाप और गांधारी तथा उस दुर्योधनके सम्वादमें दुःखका कारण, यह था कही जाती है॥१॥
वैशंपायन उवाच।
ततो दुर्योधनो राजा रवौ चास्तंगते सति॥
धृतराष्ट्रं प्रति ययौ ननाम शिरसा च तम्॥१॥
वैशंपायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय! अनन्तर भगवान सूर्यके छिपजानेपर राजा दुर्योधन धृतराष्ट्रके निकट गया, और वहाँ पहुँचकर उनको शिरसे प्रणाम किया॥१॥ दुर्योधन बोला हे तात! आप मेरा हितकारी वह उपाय बताइये जिससे मेरे
जीवका नाश न हो। क्योंकि हे विभो! मुझको रणमें सबेरेही पांडवोंके संग संग्राम करना पडेगा॥२॥ कौरवाधिपति महाराज धृतराष्ट्रने दुर्योधनकी यह दीन वाणी सुनकर रोते रोते कहा कि, (इस विषयमें) में कुछ नहीं जानता इसलिये आप अपनी महतारीसे जाकर पूछिये॥३॥तबफिर राजा दुर्योधनने अपनी महतारी गान्धारीसे पूछा। दुर्योधन बोला हे माता! हे निरन्तर पवित्र रहनेवाली! हे पातित्रतपरायणे। हे शुभ॥४॥ हे पतिव्रताओंमें निरन्तर मुख्य रहनेवाली। अब आप अपने पुत्रका पालन कीजिये। मुझको रणमें सबेरेही पांडवोंसे लडना है॥५॥ हे महतारी! अब आपको वह काम करना उचित है, जिससे मेरा नाश न होवे।क्योंकि अज्ञानी, दुष्ट, मूर्ख, दरिद्री और पितृघाती॥६॥ पापि और हिंसक वैटेकी भी मइया निरन्तर रक्षा ही किया करतीहै। इस प्रकार वेटे दुर्योधनकी बातें सुनकर माता उससे कहनेलगी॥७॥ गान्धारी बोली हे वत्स! मेरी बात सुनिये।आप युधिष्टिरके पास जाइये और उनके चरणोंमें शिरसे नमस्कार करके ‘पाहि! पाहि! अर्थात् रक्षा करो! रक्षा करो! कहिये॥८॥ और तबतक उनके चरणोंको अपने मस्तकपर धरे रहो कभी मत छोडो जवतक वे धर्मात्मा युधिष्टिर आपको मृत्युके भयसे न छुडावें और उनसे वैसीही बातचीतभी करो॥९॥ वे जो कुछ कहें, सो करो, उसके विपरीत काम नहीं करो और गुप्तरूप हुए आपको वहाँ प्रसिद्ध होकर नहीं ठहरना चाहिये॥१०॥ अपनी मइयाकी यह बात सुनकर दुर्योधन धर्मराज युधिष्ठिरके पास गया और उनके चरणोंमें गिरकर बोला॥११॥ दुर्योधनने कहा। हे धर्मराज! आप धर्मबुद्धि हैं, अर्थात् अपनी बुद्धिको निरन्तर धर्ममें रखनेवाले हैं, मैं आपकी शरणमें आयाहूँ अत एव मेरी रक्षा
कीजिये, क्योंकि साधु महात्मा लोग महादीन, खल, और मूर्ख जनोंकीभी रक्षा कियाकरतेहैं॥१२॥ दुर्योधनकी यह दीन बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरने ‘हे बन्धु। हे तात!’ इसभाँति सन्तोष देते हुए उससे कहा कि॥१३॥ युधिष्ठिरने कहा। हे दुयोधन! हे महावीर! आप मानी, शूर, सबके निरन्तर माननीय, बान्धवोंके पालक और साधुजनोंका पालन करनेवाले हैं॥१४॥ हे राजेन्द्र! आप अपने घरको चलेजाइये। अकेले यहाँ कैसे आयेहो? क्योंकि राजाओंको रणभूमिमें अकेले नहीं फिरना चाहिये॥१५॥हे महाराज।आप यहाँ किसलिये आयेहैं, इस प्रकार अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिरकी बात सुनकर दुर्योधनने कहा॥१६॥ दुर्योधन बोला! आप मेरे माता, पिता, बन्धु, स्वामी वा हितकारी हैं, आपके समान निरंतर शत्रु मित्रको समान समझने वाला दूसरा कोई व्यक्ति भूतलपुर नहीं है॥१७॥ हे नाथ! मैं प्रातःकाल उत्तम युद्ध करूँगा। किन्तु हे स्वामिन्। अठारहवें दिन मेरी मृत्यु प्रकट होतीहै॥१८॥ क्योंकि सहदेवजी (जो कि ज्योतिष में पूरे पण्डित हैं) की बात कभी झूठ होनेवाली नहीं है, सो हे प्रभो ! इस बातसे को बहुतही भय लगरहाहै अत एव आप इस भयसे मेरी रक्षा कीजिये॥१९॥ हे प्रभो! जिससे रणमें मेरी मृत्यु नहीं होवे, वही उपाय मुझे बताइये! हे दयासागर! मुझको मेरी माताने आपके पास भेजा है, अत एव आप मेरा पालन कीजिये॥२०॥ दुर्योधनकी ऐसी बातें सुनकर युधिष्ठिर भावद्वारा हतेन्द्रिय और अश्रुयुक्त नेत्र होकर इधर उधर दिशाओंको निहारतेहुए कहने लगे॥२१॥ धर्मराज युधिष्ठिर बोले। हे तात! यदि आप मेरी बात करो तो हे विभो! आप बिलकुल नम (नंगे वस्त्रहीन) बालक और टहलुएकी
तरह॥२२॥ अपनी महतारीके सामने खडे होजाओ। हे सुव्रत! इसमें कुछभी शंका मत करो। हेसुयोधन! आप माता के अगाडी अपने सब अंग दिखाइये॥२३॥ उस मइयाके देखतेही आपका सारा शरीर वज्रकी तरह दृढ (पक्का) होजायगा। हे नृपश्रेष्ठ! जाइये २ और जो कुछ मैंने कहा है, उसको कीजिये॥२४॥ क्योंकि उत्पन्नहुए कामके सिद्ध करनेमें देरी नहीं करनी चाहिये। मेरे इस वचनानुसार कार्य सम्पन्न करलेनेपर फिर आपका नाश कभी नहीं होगा॥२५॥ धर्मराज युधिष्ठिरकी यह बात सुनकर दुर्योधनने उनकी तीन परिक्रमा करी और फिर प्रसन्नता पूर्वक वस्त्रसे मस्तकको ढककर चलदिया॥२६॥ तब यह सारी बात जानकर विश्वात्मा ईश्वर हरिभगवान् श्रीकृष्ण मार्गमें मिले और कालसे छुटकारा पानेवाले उसको जानकर दुर्योधनसे श्रीकृष्ण बोले॥२७॥ हे तात! आप मानी हैं, इस प्रकार सुखदायक बात कहकर फिर उसको अज्ञान उत्पन्न करना और अनभल करनेकी इच्छा कररहेथे, इस कारण मुसकाते मुसकाते नाशरूपी वचन कहने लगे॥२८॥ श्रीकृष्ण बोले हे दुर्योधन! हे महावीर! आपने धर्मराज युधिष्ठिर के समीप पहुँचकर अपना हित करनेवाला कौनसा उपाय पूछाथा? और उन्होंने जो कहा वह हितकारक कौनसा उपाय है॥२९॥ रणभूमिमें वीरोंके देखनेपर वे युधिष्ठिर तो इस समय विकल होगयेहैं और फिर जिस समय उन्होंने ‘अश्वत्थामा’ मरा’ ऐसी झूठी बात कही॥३०॥ तब उनको वूढे ब्राह्मण और गुरु द्रोणाचार्यजीने शाप दिया कि, रे दुष्ट आत्मावाले! जो तैने सत्यव्रत ग्रहण कर रक्खाहै॥३१॥ वह केवल गुरु ब्राह्मण और वृद्धके वधार्थही धारण कियाहै। इस कारण हे पापवुद्धि युधिष्टिर! तू विकल होजा॥३२॥ इस प्रकार शाप
मिलने पर उस दिनसे युधिष्टिर झूठही बोलते रहतेहैं, क्या आप इन सब बातोंको नहीं जानते हैं? जो उनकासहारा लिया॥३३॥ किन्तु तथापि मुझसे उनकी उस अत्यन्त निन्दित बात कहिये तो? हे महाराज! अब आप कभी उनकी बातको ठीक मत मानना॥३४॥भगवान् श्रीहरिने इस प्रकार भाँति भाँति की बातें कहकर उसके मनको भ्रमाया और फिर उन्होंने दाँतोंसे अँगुली दाबकर शिर हिलाया॥३५॥ और फिर वहाँ पांडवपालक श्रीहरिने कुछ नहीं कहा, तब राजा दुर्योधनने इस प्रकार उस विधिको देखकर कहा॥३६॥दुर्योधन बोला भो भो कृष्ण! हे महाबाहो। उन धर्मराज युधिष्ठिरकी कही हुई बात मेरे मनमेंही नहीं बैठी, तब फिर मैं उसके अनुसार काम कैसे करूँगा॥३७॥ उनकी वह बात मैं आपके आगे कहनेको समर्थ नहीं हूँ। किन्तु तोभी हे कृष्ण! आप मेरे बंधु और आप्त हैं, इस कारण आपके आगे कहदेताहूँ॥३८॥और आपभी किसीके आगे मेरे दुःखरूपी वह युधिष्ठिरकी बात मत कहना इस भाँति कहनेपर मूर्ख आदमीकी तरह युधिष्ठिरकी बताई हुई वह हितकारी बात॥३९॥इधर उधर देखकर (चुपकेसे) श्रीकृष्णके कानमें कही। उस भ्रान्त बातके सुननेपर श्रीकृष्णजी हँसनेलगे॥४०॥ श्रीकृष्णजी बोले हे महाबाहो! आप धीरे धीरे भी ऐसी (घृणित) बात न कहिये। क्योंकि दूसरे आदमी सुनपावेंगे। हे राजन्! इस कामको आप अपनी महतारी। गान्धारीके आगे कभी मत करना॥४१॥ वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय! इस तरहकी बातें कहकर श्रीकृष्णने दुर्योधनको भ्रान्त करदिया॥४२॥ और फिर केशवमूर्त्तिने राम! राम!’ शब्द उच्चारण पूर्वक तथा ऊपरी दांतोंद्वारा नीचेके दाँतोंको दाबकर और फिर आधी अँगुलीसे जीभके
अग्रभागको छू कर ‘हाय? हाय?’ करी॥४३॥ इसके पीछे पांडवपालक श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिरकी भर्त्सना (बुराई) करनेलगे। उनकी इस प्रकार बातें सुनकर दुर्योधनने श्रीकृष्णसे कहा॥४४॥ दुर्योधन बोला। हे महावाहो! इसके पीछे अब मुझको क्या काम करना चाहिये? और जिसके साधन करनेपर मेरा भला होवे सो आप मुझे बताइये। क्योंकि आपकी समान पृथ्वीतलपर मेरा हितू दूसरा कोई भी नहीं है॥४५॥ मैं युधिष्ठिरके निकट अपना हित पूछनेके निमित्त अपने आप नहीं गया, वरन मइयाके भेजनेपर मैं उनके पास जापहुँचाथा, अत एव इस विषयमें मेरा अपराध नहीं है॥४६॥ फिर जिस समय श्रीकृष्णने यह सुना कि अपने पुत्र दुर्योधनको गान्धारीने युधिष्ठिरके पास भेजाथा, तबउसके पातिव्रतधर्मसे डरकर श्रीकृष्ण दुर्योधनके प्रति कहा॥४७॥ श्रीकृष्णवोले हे महाराज! इसके पीछे आपको वह कामभी करना चाहिये कि, जिससे आपकी माता तथा युधिष्टिरका वचनभी भंग न हो॥४८॥ अत एव आप अब मालीके घर चलेजाइये और फूलोंका गुह्यगोपन अर्थात् लँगोटा पहरकर फिर वहाँले निःशंक हो अपनी मइया के आगे जा खडे हूजिये॥४९॥किन्तु हे राजन्।मेरी यह वातें अपनी माताके आगे मत कहना यदि आप इस तरह काम सिद्ध करेंगे, तो माता और युधिष्टिर दोनोंमेंसे किसीको भी दुःख नहीं होगा॥५०॥ और आपभी कृतार्थ (धन्य) होजायगे, और फिर कृतकृत्य होनेपर आप वैरियोंका नाश कीजिये।भूमिका भार उतारनेके निमित्त शरीर धारण करनेवाले श्रीकृष्णके कथनानुसार॥५१॥ वह दुर्योधन पुष्पादिका लँगोटा पहनकर माताके सामने गया। और फिर अपनी मइयासे यह कहा कि, हे जननी! मैं आपके आगे आयाहू॥५२॥ दुर्यो-
धनकी ऐसी बात सुनकर माताने कहा। माता बोली आप धर्मराज युधिष्ठिरकेही वचनानुसार आये हैं, अथवा विपरीत भाँतिसेआयेहैं?॥५३॥ मइया गान्धारीकी यह बात सुनकर पुत्र दुर्योधनने कहा, किन्तु लज्जाके मारे अत्यन्त शंकित होकर कृष्णचरित्र नहीं कहा अर्थात् मार्गमें श्रीकृष्णसे जो कुछ बात चीत हुईथी वह मइयाको नहीं सुनाई॥५४॥ हे माता! मैंने धर्मराज युधिष्ठिरके कथनानुसारही सब काम कियाहै, दुर्योधनकी यह बात सुनकर गान्धारीने अपनी आँखोंकी पट्टी खोली॥५५॥ और फिर अपने भर्त्ता के चरणोंका ध्यान करके बडे कष्टसे नेत्र खोले और फिर जैसेही पुत्रवत्सला गान्धारी दुर्योधनके अंगको देखनेलगी॥५६॥ उसी समय उसको युधिष्ठिरके कथनसे कुछ विपरीत लक्षण दिखाई दिया। तब उसने फिरआँखें मीचकर पुत्र दुर्योधनसे कहा॥५७॥ हे बुद्धिहीन पुत्र! मार्गमें तुझको कौन मिलगया? तुझको मार्गमें कही श्रीकृष्ण तो नहीं मिलगये कि जिन्होंने भाँति भाँतिकी बातें कर तेरी मति बौराय दी?॥ ५८॥ दुर्योधन बोला हे माता! आपने सत्य कहा, मुझे मार्गमें श्रीकृष्ण मिलेथे। गान्धारी बोली रे महामूर्ख! यह तो मुझे बतादे कि तैने गुह्य अंगको क्यों ढका?॥५९॥ तैने अपने केवल श्रीकृष्णकी आज्ञानुसार फूलोंसे मनेके लियेही गुह्य अंगको ढकाहै, पुत्र बोला इस समय क्या मेरा नाश होगयाहै? पुष्पाच्छादनरहित॥६०॥ हे मइया! आप मेरे अंगों को (एकवार) फिर देखकर आखों को बांधिये। गांधारी बोली रे महामूर्ख! अब इसके पीछे (दूसरी बार) मेरा देखना निष्फल है। अर्थात् उस देखनेसे तेरा कोई काम सिद्ध नहीं होगा किन्तु मेरी दृष्टि जहाँ जहाँ तेरे देहपर पड चुकी है॥६१॥
दृष्टिस्तदेकभागे वै भंगो नैव कदाचन॥
+ + कटितो भंगमा + + द्य नाशं प्राप्स्यसि केवलम्॥६२॥
उस दृष्टिके एक भागमें तेरा भंग कदापि नहीं होगा। केवल मात्र तेरा कटिदेश भंग होकर तेरी मृत्यु होगी॥६२॥ इति श्रीभारतसारे गदापर्वणि भाषायां मातापुत्रसम्वादो नाम एकसप्ततितमोऽध्यायः॥७१॥
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द्विसप्ततितमोऽध्यायः ७२.
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द्विसप्ततितमेऽध्याये गान्धार्याश्च हरिं प्रति॥
शापो दुर्योधनस्यैवं युद्धं भीमस्य कथ्यते॥१॥
इस बहत्तरवें अध्यायमें भगवान् श्रीहरिकृष्णको गान्धारीका शाप देना और दुर्योधन तथा भीमसेनका संग्राम (युद्ध) होना, ग्रह कथा कहीजाती है॥१॥
वैशंपायन उवाच।
गान्धारी दुःखिताप्येवमुक्त्वा पुत्रं गतप्रभम्॥
प्रोवाच सहसा कृष्णं पातिव्रत्यबलात्सती॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय!गांधारी इस प्रकार कहकर महान् दुःखी हुई फिर वह सती पातिव्रतके बलसे सहसा (शीघ्रतासहित) श्रीकृष्णके प्रति बोली॥१॥ गांधारीने कहा हे कृष्ण! आपने मेरे सारे बेटोंको एक साथही नष्ट कर डाला, अत एव आपका कुलभी किसी निमित्तान्तर (कारणविशेष) के प्राप्त होनेपर क्षय (नाश) होजायगा॥२॥ गांधारीका कहा (दिया) शाप सुनकर सदैव पातिव्रत के प्रभावसे (घबरानेवाले) प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण दुर्योधनकी महतारीसे उत्तम वाक्य बोलतेहुए उसका शाप स्वीकार कर मौन होगये॥३॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज! फिर जब रात्रि बीतने पर जैसेही भगवान् दिननाथ (सूर्य) उदय हुए कि, वैसेही दुर्योधन डरता हुआ शीघ्रता से रथपर सवार हुआ॥४॥ और पाचार्य और अश्वत्थामा इन दोनों आदमियोंसमेत गहरे तथा जलसे भरेहुए पृथूदक नामक तीर्थपर गया और वहाँ रथसे उतरकर उस सरोवरमें घुसगया॥५॥और फिर प्रारंभसे लेकर जलस्तंभमयी विद्याका साधन करनेलगा कि जिससे उसको मरनेका डर न रहे, दुर्योधन वहाँ ऐसेही मंत्रको जपनेलगा॥६॥ अब इधर सब पाण्डवों को यह बात मालूम हुई कि राजा दुर्योधन जीवनके लिये विद्यासाधनेको पृथूदकतीर्थपर चलागयाहै॥७॥ तब हे जनमेजय! भगवान् श्रीकृष्णने शीघ्रतासहित वीर पांडवोंको दुर्योधनके लानेके लिये भेजा और वे सब गुप्तरीतिसे वहाँ पहुँचे॥८॥ तब भीम आदि कितनेही वीरोंने वहाँ पहुँचकर उस पृथूदकतीर्थके धोरेही बुद्धिमान् कृपाचार्य और द्रोणपुत्र अश्वत्थामाको देखा॥९॥ और जब उनको (यह मालूम हुआ कि) वह दुर्योधन इस पृथूदकके भीतर घुसगयाहै, तब तो भीमसेन उसकी अनेकों निन्दा करते हुए कहने लगे॥१०॥ भीमसेन बोले। रे रे गीदड! तू डरके मारे घबराकर जलमें कैसे घुसगया? गुरु द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह, महावीर कर्ण और दुःशासन इत्यादि अपने भाइयों को मरवाकर तथा क्या करनेकी तृष्णा तुझमें अबभी वर्तमान है ?॥११॥१२॥
चौपाई
निकरो नृपबूडो केहि काजा। कुरुवंशहि लाजत हो लाजा॥
+ + त बाँधव रण सबहि जुझायो। आपु भागकै जीव बचायो॥
भारत भूमि धरायो नामा।जलमहँ आनि छिप्यो केहि+ + मा॥
छाँडत हो कत क्षत्री धर्मा।होइहि सोइ लिखा जो कर्मा॥
महागर्व तुम सब दिन कीन्हो। निकरत नहीं भाजि जल लीन्हो॥
धिक् जीवन जलमें है तेरो।इतनी बात अंगवत मेरो॥
अपने बलतेगनत न आना। अबकाहे तुम तजत गुमाना॥
मारहुँ गदा फाटि जल जैहै। गहि करकेश अबहि लैजैहै॥
तैंने बडे भारी चन्द्रवंशमें और क्षत्री कुलमें जन्म लिया है अतएव रे मन्द! तू रण छोड जलमें आ बैठनेसे लजाता क्यों नहीं॥१३॥ क्योंकि क्षत्री लोगोंका तो यही धर्म होता है कि माँगा हुआ रण देवें। वे क्षत्री अपने यशको ही धन समझते हैं, राज्यादि धनकी कामना वे नहीं किया करतेहैं॥१४॥रे महामन्द! रे कौरवोंके वंशमें दूषण! अबतू जलसे बाहर निकल पड।तब भीमसेनका बुलाया राजा दुर्योधन उस जलाशय (तालाव) से॥१५॥क्रोधपूर्वक जपको छोडकर बाहर निकला, और फिर वह महाबली दुर्योधन सिंहनाद करता हुआ शीघ्रही रणमें आपहुँचा॥१६॥तब भगवान् श्रीकृष्ण और धर्मराज युधिष्ठिरने कुरुनंदन दुर्योधनकी बडाई करी। फिर अमावस्याके दिन सबेरेही वज्रशरीर महावली॥१७॥ दीर्घबाहु और हाथमें गदालिये दुर्योधनने प्रसन्न होकर भीमसेनसे कहा है भीमसेन हे महावाहु! आपने राजा जरासन्धका वध किया है॥१८॥ और मृतक हाथीपर सबार शूर भगदत्तका संहार किया, फिर हिडम्ब नामवाले महावीर दानवका नाश किया तथा और भी बहुतसे शूरोंको मारडालाहै॥१९॥ तथा मेरे बांधव कीचक और मेघनादकाभी रणमें वध किया, और हे भीम! तैंने मेरे दुशासनादि महावीर सौ भाइयोंको भी मारदिया॥२०॥
चौपाई
आजु वैर सब लेहुँ निभाई। जो रण भूमि भाग नहिं जाई॥
आजु करौं खणकाल हवाले।परेउ कठिन दुर्योधन पाले॥
इस समय तू मेरी उस भुजाके बलको देख, जो दूसरोंके पक्षमें असहनीय है। और एक क्षणभरके लिये मेरे हाथके चलाये गदा-
घातको सहन कर॥२१॥ (यह कह दुर्योधनने) बाहुसे बाहुको फटकारकर सिंहनाद किया और फिर हे राजन्! भीमसेनभी बाहुओंको आस्फोटन करते हुए सिंहकी समान गर्जनेलगे॥२२॥ इस प्रकार आपस में गदाघात करते हुए वे दोनों वीर संग्राम करने लगे, उसकाल उन दोनोंकी गदाके बड़े भारी शब्दसे दिशायें गर्जनेलगीं॥२३॥ जो कि दोनोंका शरीर वज्रमय था, इस कारण गदाका आघातभी महान दारुण होताथा, और हे राजन्। उन गदाओंसे आगकी सैंकडों चिनगारियाँ उछलतीथीं॥२४॥ उनके चरणप्रहार से पृथ्वी (कभी) ऊँची और (कभी) नीची होजाती थी और महान् फुरतीसे एक दोनों बराबर प्रहार करतेथे॥२५॥
चौपाई
गदा प्रहार शब्द भा कैसे। छूटत वज्र + इन्द्रकर जैसे॥
कोपि भीम तब गदा प्रहारा। महावीर कुरुनाथ हसँभारा॥
दोऊ वीर जोरसौं झपटत। महावीर मन नेकु नडरपत॥
यहि विधि करत युद्धको करणी। भूमिपाल डोलत हैंधरणी॥
महामत्त तनु बुरझो दोऊ। प्रलय युद्ध देखत सबकोऊ॥
गदा गदासौं लागत जबही। निकरव अग्नि भभूका दबही॥
चढे विमान देवगण देखत।अपने मत अचरज करि लेखत॥
दोहा
दुर्योधन तब कोप करि, मार्यो घाव प्रचंड।
गदा रोकि सम्भारिकैं, भीम महाबलवंड॥
तब फिर युद्धमें दुर्योधनने प्रलयकी समान कोप करके अपनी घोर गदाको घुमाकर भीमसेनकी छातीमें मारी॥२६॥ उसके आघातसे भीमसेन उलटे होकर पृथ्वीपर गिरपडे। इसके पीछे दुर्योधन जैसेही भीमसेनको दारुहत वृक्षकी समान करनेलगा॥२७॥ कि वैसेही चैतन्य होकर वह भीमसेन शीघ्रतासे उठ खडेहुए और फिर उन्होंने भी अपनी गदाको घुमाकर राजा
(दुर्योधन) की छातीमें धडाका किया॥२८॥ उस आघातके लगनेपर पीछा प्रहार करके भीमसेनके हाथसे गदा छूटपडी तबउसको देखा, किन्तु वह गदा फिर नहीं मिली। तब भीमसेनने और एक गदा हाथमें लेली॥२९॥ तब भीमसेनके पासकी उस गदाको भी राजा दुर्योधनने ताडित किया, जिससे वहभी चकनाचूर होकर धूरिभावको प्राप्त होगई, तब फिर भीमसेनने और (तीसरी) गदा धारण करी॥३०॥
सापि चूर्णत्वमापन्ना राज्ञा संताडिता सती॥
एवं गदाशतं भिन्नं राज्ञा दुर्योधनेन वै॥
भीमस्य च महाराज तदद्भुतमिवाभवत्॥ ३१॥
किन्तु राजा दुर्योधनके ताडना करनेपर वह गदाभी टूटगई। इसप्रकार एकसौ गदाओंको दुर्योधनने तोडडाला। तब तो हे महाराज जनमेजय! भीमसेनके पक्षमें यह एक अद्भुतसी बात हुई॥३१॥॥ इति श्रीभारतसारे गदापर्वणिभाषायां भीमदुर्योधनयुद्धे द्विसप्ततितमोऽध्यायः॥७२॥
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त्रिसप्ततितमोध्यायः ७३.
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त्रिसप्ततितमेऽध्याये बलभद्रागमस्तथा॥
भीतेभ्यः पाण्डवेभ्यश्च तस्य मानाप्तिरुच्यते॥१॥
इस तिहत्तरवें अध्यायमें वलरामजीका आना और उन वलरामजीको डरेहुए पाण्डवोंसे मानका मिलना यह कथा कही जाती॥१॥
वैशंपायन उवाच।
तदा दुर्योधनो राजा जेष्याम्यद्य वृकोदरम्॥
सिंहवद्व्यनदद्राजा गदाघातैः दारुणैः॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय!तदनन्तर राजा दुर्योधन ‘अब मैं वृकोदर भीमको विजय करलूँगा’ इस प्रकार कह सिंहकी समान दहाडता हुआ सब दिशाओंको शब्दायमान करनेलगा। और फिर अपनी गदाके दारुण आघातसे॥१॥ भीमसेनको ताडित किया। तब तो भीमसेनने भी बडी भारी गढ़ाके द्वारा उस राजा दुर्योधनके माथेमें॥२॥ प्रहार किया। किन्तु उस प्रहारसे वह जरा कंपित (विचलित) नहीं हुआ, बरन् गर्जना करनेलगा। इस तरह उन दोनोंमें परस्पर रोमहर्षण युद्ध होनेलगा॥३॥ उस काल शीघ्रतासहित प्रहार करनेके कारण उन दोनों गदाओंकी आवाज वेगसे एकीभावको प्राप्त होकर + + जारनेलगी॥४॥ अनन्तर देवर्षि श्रीनारदजी युद्धके प्रथमदिन प्रभासक्षेत्रमें गये और वहाँ उन्होंने बलरामजीको आयाहुआ जानकर उनसे यह (+ + का) सारा समाचार कहसुनाया॥५॥ श्रीनारदजीने कहा हे राम! हे महावीर! आप भिक्षुककी तरह क्यों घूमरहेहैं? आप शीघ्र आइये और भीमसेन तथा दुर्योधनका रण देखिये॥६॥ उनकी यह बात सुनकर बलरामजीने नारदजीसे कहा। हे देवर्षि! द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, कर्ण तथा और भी महाबलवानों॥७॥ को छोड़कर भीमसेनके संग राजा दुर्योधनने युद्ध कैसे किया? नारदजीने उत्तर दिया कि (जिनकी बात आप कहरहेहैं) उन सबको तो कालरूपी श्रीहरिने विलीन करदिया अर्थात् सब युद्धमें मरचुके॥८॥ अब एक मात्र राजा दुर्योधनही वृकोदर (भीमके) हाथसे मरनेलायक है अत एव संग्राममें वैरियोंसे घिरकर मरनेवाले व्यक्तिका॥९॥ जो वीर पालन (रक्षा) नहीं करता है, वह ब्रह्मघाती कहलाताहै। देवर्षि नारदजीकी यह बात सुनकर बलरामजी कोधपूर्वक गमन करके॥१०॥ महा-
वेगसे कुरुक्षेत्रकी युद्धभूमिमें आनपहुँचे। तबपांडव लोग उन बलरामजीको (असमय) आयाहुआ देखकर आश्चर्ययुक्त हुए॥११॥ अनन्तर यादवेश्वर बलरामजीको क्रोधसहित आयाहुआ देखकर स्तुतिपूर्वक युधिष्टिरने भगवान श्रीकृष्णकी आज्ञानुसार बलरामजीसे कहा॥१२॥ युधिष्ठिर बोले हे यदुनन्दन! यदुकुलमें जन्मेहुए हम सबजनोंका सम्यक् प्रकार बँधाहुआ स्नेहपाश कदापि दूर नहीं होसकता॥१३॥ हे हलायुध आप जो यहाँ दुर्योधन और भीमसेनके संग्रामकालमें आनकर प्राप्त हुए, यह अति उत्तम वात हुई॥१४॥ उनकी यह बात सुनकर बलरामजीने धर्मनन्दन युधिष्ठिरसे कहा कि हे महाराज! हमने देवर्षि नारदजीके मुखसे यह समाचार सुना कि भीम और दुर्योधन दोनों जने॥१५॥ संग्राम कररहेहैं, तबमें यहाँ उस धर्मरूपी संग्रामको देखनेके लियेही चलाआयाहूँ। वैशंपायनजी बोले हे जनमेजय! इस तरह वहाँ पहुँचकर बलरामजी श्रीकृष्णके धोरे वैठगये॥१६॥ तदनन्तर बलरामजीने हँसते हँसते भूमिपर कालात्मारूपी उन भगवान् श्रीकृष्णसे कहा। बलदेवजी बोले हे कृष्ण! आप पृथ्वीका भार उतारनेके लिये उद्यत हुएहैं॥१७॥
इति वाच ऋषीणां यास्तां सत्या हि कृतास्त्वया।
कथमल्पेन कालेन क्षयं नीताश्च कौरवाः।
बलं युगसहस्रेण देवैरपि सुदुःसहम्॥१८॥
यह जो ऋपियोंका वचन है, सो उसको आपने सच्चा कियाहै और किस तरह बहुत थोडे समयमें कौरवोंके बलका नाश करडाला ? क्योंकि कौरवोंकी उस असह्यसेनाका नाश तो देवताओंसेभी हजार युगमें होना कठिन था॥१८॥ इति श्रीभारतसारे गदापर्वणि भाषायां बलभद्रागमो नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः॥७३॥
चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ७४
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चतुःसप्ततितमेऽध्याये पातो दुर्योधनस्य च।
बलदेवस्य निर्याणं द्वारकां प्रति कथ्यते॥१॥
इस चौहत्तरवें अध्यायमें राजा दुर्योधनका पतन (मारा जाना) और बलदेवजीका द्वारकाकी ओरकोचलाजाना यह कथा कही जातीहै॥१॥
बलदेवं वदतं तं कृष्णो नोवाच संस्मयन्।
स्मयमानं हरिं दृष्ट्वा बलो विस्मितमानसः॥१॥
वैशम्पायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय!इस प्रकार कहतेए बलदेवजीसे भगवान् श्रीकृष्णने धीरे धीरे मुसकरातेहुए कुछ नहीं कहा।तब श्रीहरिको (केवल) हँसताहुआही देखकर बलरामजीके मनमें (बडा) अचंभा हुआ॥१॥ हे राजन्! इस तरहसे बलदेवजी श्रीकृष्णके धोरे बैठेहुए थे कि, इसी बीचमें राजा दुर्योधनने क्रोधसहित॥२॥ अपनी महाघोर गदाको घुमाकर भीमसेनकी छातीमें ताडन (आघात) किया और उसके आघातसे मूर्च्छित होकर भीमसेन पृथ्वीपर गिरपडे॥३॥ तब माताका वैभव देखनेवाला महावीर राजा दुर्योधन उन भीमसेन को मुरदा समझकर ‘मैंने इसको विजय करलिया’ इस तरह कहने लगा॥४॥ इधर भीमसेनको मुरदेकी नाईं देखकर सब पांडवरोदन करनेलगे और फिर उन्होंने ‘हा हतोऽस्मि’ अर्थात् हाय! हमलोग भी मरे इसप्रकार कहकर अपने स्थानमें प्रवेश किया॥५॥ तब भगवान श्रीकृष्णने इस तरह उन पांडवोंको शोकसे पीडित देखकर जिससे उनके शोकका नाश हो ऐसी वाणीसे हँसते हँसते कहा॥६॥ श्रीकृष्ण बोले। हे धर्मराज युधिष्ठिर इत्यादि सब पांडवो! आप मेरी बात सुनिये। यह भीमसेन जी-
वित हैं, और गदा हाथमें लेकर (अभी) उठते हैं, सो आप देखिये॥७॥ वैशम्पायनजी बोले कि, हे राजन्! भगवान् श्रीकृष्ण इसतरह कहतेही थे कि उसी समय भीमसेन गर्जते गर्जते उठ खडेहुए और फिर गढ़ाको उठाकर सबल भीमसेनने दुर्योधनको आह्वान किया अर्थात् ललकारते हुए बुलाया॥८॥ और कहा हे वीर! आप मुझको पृथ्वीपर गिरा कर (सूखे) कैसे चले जायगे? अत एव प्रथम आप मेरे गदाघातको सहिये। इस प्रकार कहकर अपने हाथकी गदाको खडे खडे घुमानेलगे॥९॥ तदनन्तर दाँतोंसे अपने होठोंको पीसता और अरुणवर्ण आँखोंवाला तथा चलितेन्द्रिय राजा दुर्योधन शीघ्रतासे अपनी गदालेकर॥१०॥ समर भूमिमें जापहुँचा और फिर उस वीर दुर्योधनने संग्राममेभीमसेनसे कहा कि, हे कौन्तेय! अब आप शीघ्रतासे प्रहार करलीजिये लो यह मेरा कंधा आपके सामने है॥११॥ दुर्योधनकी यह बात सुनकर भीमसेनने गुस्सेमें भर कर गदासे दुर्योधनके कंधेमें प्रहार किया॥१२॥ किन्तु उस आघातसे राजा दुर्योधन पुष्पहत हाथीकी समान कम्पायमान न हुआ। तबउस अकंपित और हर्षयुक्त दुर्योधनको देखकर॥१३॥ भीमसेनने फिर उसके ब्रह्मरन्धमें गदाघात किया और उस गदाके आघातने दुर्योधनका शिरस्त्राण (मंदील वा पगडी) को मुकुट समेत चूर्ण कर दिया॥१४॥ किन्तु राजाके शिरपर लगनेसे वह गदा चकनाचूर होगई तब तो भीमसेनने महाक्रोध पूर्वक दूसरी गदाको हाथमें लिया॥१५॥ तबदुर्योधनने भीमसेनकी निन्दा करते हुए कहा। राजा बोला हे भीम! हे भीम! हे मंद! तैने मेरे कंधे और उसी प्रकार मस्तकपर गदाके दो प्रहार किये, जिनसे मुझको भ्रमतकभी नहीं हुआ जो होअब तू एक मेरे गदाघातकोभी सह यह कहकर सिंहकी तरह दहाडनेलगा॥१६॥
॥१७॥फिर दुर्योधनने अपनी घोर गदाको घुमाकर भीमसेनके शिरपर धडाका किया कि, जिसके आघातसे भीमसेनकी पगडी और शिरकी कलगी चूर होगई॥१८॥ और उनका शिरभी जर्जर (चलनी) होगया तथा उनको फिर दूसरी वार मूर्छा आगई और वे गिरपड़े॥१९॥ वैशम्पायनजी बोले हे जनमेजय! तबदयायुक्त चित्तवाले भगवान् श्रीकृष्णने भीमसेनको गिरा हुआ देखकर उनका हाथ पकडकर उठाया, (और युद्ध कीजिये) इस प्रकार आज्ञा दी॥२०॥ फिर जब भीमसेनको संज्ञा (होश) प्राप्त हुई, तब उन्होंने प्रहार करनेकी इच्छा करी और अपनी घोर गदाको घुमाते तथा प्रतिघात (प्रतिपक्षीके प्रहार) से शंकित॥२१॥ भीमसेन भग्नगात्र, स्खलितपैर, और भ्रमयुक्तचित्त हुए। इस प्रकार विह्वलताको प्राप्त और प्रहारके सहनेमें असमर्थ, तथा दीनके समान अपने पैरोंके सन्मुख दाँतोंको काटते भीमसेनको देखकर भगवान् श्रीकृष्णने उनके निमित्त संज्ञा करके कटि (कमर) में आघात करने की आज्ञा दी॥२२॥॥२३॥ तबश्रीकृष्णके इशारेको समझकर भीमसेन के हृदयमें महा आनन्द उत्पन्न हुआ और फिर उन्होंने बलपूर्वक दुर्योधनके ऊरूदेश (कमर) में गदाभारी॥२४॥ तबकमर टूटजाने पर दुर्योधन पृथ्वी पर गिरपडा और फिर बोला कि हाय! मुझको इस समय यहां केवल श्रीकृष्णनेही वध कियाहै॥२५॥
चौपाई
गिरि कुरुपति धरणीमहँ ऐसे। काटत मूल परत द्रुम जैसे॥
पूर्व बैर मनमें सुधि आई।भीमसेन तब लात उठाई॥
हा हा शब्द युधिष्टिर कीन्हा।रहहु भीम कहिवे असलीन्हा॥
अष्टादश क्षौहिणी भुवारा। ताको लात न चहिये मारा॥
कृष्ण सहित भाष्योसब राजा। चरण प्रहार करत केहिकाजा॥
क्षत्रीधर्म न भीम विचार्यो। गदा घाव जंघनपर मायो॥
कहीं भीम दुर्योधन वोरहि। जा दिन हरो द्रौपदी चीरही॥
ता दिनमें सब सौ प्रण भाख्यो। तोच्योजंघ प्रतिज्ञा राख्यो॥
इस प्रकार वीर दुर्योधनके भूतलशायी होनेपर भीमसेनने क्रोधपूर्वक सारे राजा और बलरामजीके देखते देखते उसके शिरमें लात मारनेकी इच्छा करी। तब तो भीमसेनका यह अन्याय देखकर क्रोधसे बलरामजीकी आँखें लाल लाल हो आईं और वे हलको उठाकर खडे होगये॥२६॥२७॥ तथा फिर सिंहकी समान दहाडकर उन बलरामजीने भीमसेनको बुलाया और वहाँ कौरवेन्द्र दुर्योधनके देखते हुए भीममेनसे यह वचन कहनेलगे॥२८॥ यह जो पांचो पांडवोंका भी भर्त्ता है, सो प्राकृत (साधारण) आदमी नहीं है, हे भीमसेन! आप मेरे देखते देखते इस ग्यारह अक्षौहिणी सेनाके अधिपति (मालिक) दुर्योधनको चरणसे मस्तकमें किस तरह स्पर्श करते हैं? हे मन्द! वह आपकी नाईं कुयोनिवाला नहीं हुआहै, आप निन्दित योधा, निन्दित वक्ता और निरन्तर कुयोनिमें निरत रहते हैं॥२९॥॥३०॥ इस प्रकार गुस्से में भरेहुए बलरामजीको श्रीकृष्णने समझा बुझाकर शान्त किया। (और फिर भीमसेनसे कहनेलगे) कि हे मन्द! हे सूर्ख! हे वृथा पुष्ट! हे वह्वाशी! अर्थात् अधिक आहार करनेवाले! हे मानहीन!॥३१॥ हे भीम! आप मानवाले और मनुष्योंके निमित्त मान दाता अनेक वीरोंका नाश करनेवाले और महाराजाधिराज इन राजा दुर्योधनको चरणसे कैसे छूतेहैं?॥३२॥इस प्रकार भीमसेनकी भर्त्सना (निन्दा) करके बलरामजीको सन्तुष्ट किया और फिर धर्मपुत्र युधिष्टिर और अर्जुनसमेत श्रीकृष्णने बलरामजीसे कहा॥३३॥ श्रीकृष्णने कहा हे बलदेवजी! आप अत्यन्त उत्तम वीर हैं अत एव यह आपके पुत्र पांडव यादव समेत मैं, तथा पृथ्वीतलके
आदमी॥३४॥ देवलोकमें जो इन्द्रादिदेवता और पातालनिवासी विषके समुद्र स्वरूप शेषादि सर्प॥३५॥विष्णु, महादेव वा ब्रह्मा तथा और भी जितने महाबली शूर हैं, यह सब (मिलकरभी) रणमें आपके सामने खड़े नहीं होसकते, तब फिर अकेले भीमसेनकी तो बातही क्या है?॥३६॥इस प्रकार बलदेवजीसे समझाने वुझाने की बातें कहकर श्रीकृष्णजीने हँसते हुए पांडवोंसमेत बलरामजीके पैरोंको मस्तकसे ग्रहण किया॥३७॥तब इस प्रकार पैरोंमें पडे हुए ब्रह्मा इत्यादिके ईश्वर और लीलापूर्वकही संसारको उत्पन्न, पालन और संहारकर्त्ता भगवान् श्रीकृष्णको देखकर बलरामजीने हलको उतार श्रीकृष्णके चरणोंमें प्रणाम किया। तब वीरवर बलरामजी उठकर लज्जित हुए॥३८॥३९॥फिर उन बलरामजीको लज्जित समझकर मानी दुर्योधनने कहा। दुर्योधन बोला, हे बलदेवजी! आप वृथा विवाद न करके मेरी बात सुनिये॥४०॥जिसप्रकार (मृतक आदमीके ऊपर) कौने इत्यादि आकर मस्तकादिको स्पर्श कियाकरतेहैं, उसी प्रकार यह भीमसेन मेरे मस्तकको चरणसे स्पर्श करता है॥४१॥हे राजेन्द्र! यह सुनकर बलरामजी श्रीकृष्णकी आज्ञा लेकर द्वारकाकी ओर चलेगये और पांडव हर्षित हुए॥४२॥
कृष्णं प्रणेसुस्ते प्रीत्या पालिताः प्रभुणा वयम्।
इति नानाविधैर्वाक्यैस्तुष्टुवुस्तं नरेश्वरम्॥४३॥
और फिर प्रीति पूर्वक उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करके कहा कि हे प्रभो! आपने हमलोगोंका पालन किया। इस तरह भाँति भाँतिके वचनोंसे श्रीकृष्णका स्तव किया॥४३॥ इति श्रीभारतलारेगदापर्वणि भाषायां दुर्योधनपतनं नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः॥७४॥
पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ७५.
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पञ्चसप्ततितमेऽध्याये गान्धार्याश्चविलापनम्।
अयोभीमस्य चूर्णत्वं धृतराष्ट्रेण कथ्यते॥१॥
इस पिञ्चत्तरवें अध्यायमें (दुर्योधनकी मइया) गान्धारीके विलाप कलाप और धृतराष्ट्रका लोहेके भीमको चूर्ण करना यह कथा कहीजातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
जनमेजय महाराज कौरवाणां बलं तदा।
निर्नाथंभूयसा त्रस्तं जगाम च दिशो दश॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे जनमेजय! हे महाराज! (जिस समय राजा दुर्योधन धराशायी हुआ) तब कौरवोंकी सेना अनाथ हो डरती व काँपती दशोंदिशामें चलीगई॥१॥तदनन्तर दुर्योधनके माता पिता पुत्रके समीप आये और उस अपने पापबुद्धिको बुरा कहतेहुए रोदन करनेलगे॥२॥ हे पुत्र! हे पापमति! तू साधु महात्माओंको निरन्तर पीडित कियाकरताथा! इसीलिये हे पुत्र! तू ऐसी दशाको पहुँचगया तुझको रणभूमिमें दैवनेही पतित कियाहै॥३॥ हे महावीर! अब तू उठ क्योंकि हम सब कोई इस समय घरको प्रस्थान करेंगे। हे तात! यदि तू नहीं चले, तो जिस जगहकी तेरे मनमें इच्छा हो, वहाँ हम दोनों (माता—पिता ) को ले चल॥४॥हे वेटा! तू हम दोनों जनोंको ले चल।क्योंकि, हम दोनों तेरे छोडदेनेके लायक नहीं हैं। तब श्रीकृष्ण और युधिष्ठिरने उन दोनोंको इस प्रकार विलाप करते हुए देख॥५॥नम्रतापूर्वक वहाँ दोनों बूढोंके पास पहुँचकर प्रणाम किया और फिर उनको समझा बुझाकर ढाढस बँधानेलगे कि, यह पांडवभी तो आपके
बेटेही हैं॥६॥ और आपकी प्रदान कीहुई भूमिको आपकी आज्ञानुसार भोग करेंगे, फिर ये आपके पालन पोषण करनेलायक और आपके दासानुदास हैं॥७॥और हे मानद! मैंभी यादवों समेत आपका दास हूँ, इस प्रकार सबका चित्त चुरानेवाले श्रीकृष्णने उनको सन्तोष दिया॥८॥ फिर पुत्रके प्रति कौतुक दिखातेहुए गान्धारीसे कहा हे गांधारी! आपभी उठकर खडी होजाइये और इस बेटेका शोक नहीं कीजिये॥९॥ आप युधिष्ठिरके घर चलिये और अपने बेटे युधिष्टिरका पालन कीजिये। तथा वहीं वास और वहीं भोजन कीजिये॥१०॥पहले जब आप भोजन करचुकेंगी तब पीछेसे पांडव भोजन कियाकरेंगे। गान्धारी बोली। हे कृष्ण! जब कि मेरे बेटे भूमिमें गिरपडेहैं, तव मैं भोजन नहीं करूँगी॥११॥ और मैं सारे संगको छोडकर (केवल) काष्टको भोजन कियाकरूँगी। इस प्रकार कहकर जैसेही वह स्थितहुई कि वैसेही उसकी परीक्षाके निमित्त भगवान् श्रीकृष्णने उसके शरीरमें भूँख फैलादी और फिर पक्के कच्चे फलोंसे लदे हुए, बहुतछायावाले तथा विस्तृत आमके पेड उत्पन्न करदिये॥१२॥ ॥१३॥तब तो उस गान्धारीने खानेके निमित्त उन फलोंके लेनेकी अभिलाषाकरी क्योंकि वह उस भूँखके मारे विह्वल और पीडित होरहीथी॥१४॥ इसी बीचमें उसको एक आमका फल दिखाई दिया। किन्तु उसके हाथ उस फलको स्पर्श नहीं करसके केवल दो अंगुल ऊंचा रहगया॥१५॥ तब वह देवी फलकी कामना करती अपने मुरदे बेटेपर चढगई, किन्तु तोभी फलको हाथ नहीं लगा सकी और वह फल तबभी दो अँगुल ऊंचा होगया॥१६॥ फिर गान्धारी अपने सौ बेटोंकी कतार लगाकर उनके ऊपर चढी, तब फिर उसको वह आमका पेडही दिखाई नहीं दिया, बरन् वैसेही भगवान् श्रीकृष्ण
आनकर प्राप्तहुए॥१७॥ श्रीकृष्णने कहा हे देवि! आप अपने इन बेटोंपर किस कारण चढरही हैं? अब भोजन करलीजिये। तब गान्धारीने उत्तर दिया। हे वासुदेव! यह वृद्धावस्था (बुढापा) अत्यन्तही कष्टदायक है और उस कष्टसेभी दरिद्री (निर्धन) आदमीको अत्यन्त दुःखी जानना चाहिये॥१८॥पुत्रशोक होना महान् कष्टकी वात है, और उस पुत्रशोकके कष्टसेभी अधिक कष्टदायक भूँख है (यह सुनकर श्रीकृष्णने कहा कि) सत्ययुगके बीच अस्थिमय प्राण थे अर्थात् हड्डीमें प्राण रहाकरतेथे, त्रेतामें मांसके सहारे॥१९॥द्वापरमें मज्जाके सहारे और कलियुगके बीच अन्नमय प्राण कहेहैं अर्थात् कलियुगमें केवलमात्र अन्नके सहारेसेही प्राण रहा करतेहैं इस कारण मनुष्यको अन्नरूपी ब्रह्मका निरन्तर सेवन करना चाहिये॥२०॥इस अन्नके निमित्तही सारे आदमी पराई सेवा कियाकरतेहैं, अन्नके निमित्तही मनुष्य मारना, घात करना, छल, कपट इत्यादि अन्यान्य महाभयंकर काम किया करते हैं, हे भामिनी! पृथ्वीपर मनुष्य अन्नके निमित्तही यह सारे काम किया करतेहैं। उनके यह वचन सुनकर गान्धारीका मानभंग होगया॥२१॥२२॥ और फिर धृतराष्ट्रको पकडकर धर्मराज युधिष्ठिरके घरको चलीगई। तब वीर महाराज धृतराष्ट्रने लोहेके भीमसेनको॥२३॥ अपनी भुजाओंसे मसलदिया और इस कामसे अपनी आत्माके लिये उन्होंने दूना दुःख करलिया। इस प्रकार होनेपर फिर श्रीकृष्णने जो संग्राममें मृत्युको प्राप्त हो चुकेथे॥२४॥ उन सबकी उत्तरक्रिया अग्निसंस्कार इत्यादि पांडवोंसे कराया। तब कुरुक्षेत्रमें पाण्डवोंसप्तेत विजयी श्रीकृष्ण॥२५॥ तुरही वाजेसहित विजयसथंभ स्थापन कराय और फिर सिंहासनपर कपडे व गहनोंसे सुशोभित॥२६॥
पाण्डवं धर्मराजानं कृतकत्योऽभवत्तदा।
कृष्णः कमलपत्राक्षः सर्वानाहूय पाण्डवान्।
मन्त्रयामास धर्मज्ञो मन्त्रं धर्मपुरःसरम्॥२७॥
पांडु पुत्र धर्मराज युधिष्ठिरको विराजित करके कृतकृत्य हुए। इसके पीछे कमलपत्रकी समान नेत्रवाले श्रीकृष्णजीने सारे पाण्डवोंको वुलालिया और उनके साथ सर्वज्ञ श्रीकृष्ण धर्मसहित मन्त्रण (परामर्श) करनेलगे॥२७॥
दोहा
श्रीयदुपति पदपंकरुह, निज मन सुकुर सम्हार।
गदापर्वको तिलक यह, पूर्ण कियो सुखसार॥
पढहिं सुनहिं जे प्रेमसों, पावहिं पद निर्वान।
विजय विवेक विभूति नितं, विनहिं देहिं भगवान॥
इति श्रीभारततारे गदापर्वणि मुरादाबादनिवासिपरमभागवतस्वर्गीयमिश्रसुखानन्दात्मजपण्डितकन्हैयालालमिश्रकृतभाषायां पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः॥७५॥
इति श्रीभाषाभारतसारगदापर्व समाप्तम्॥
———————
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॥श्रीकृष्णाय नमः॥
भारतसार भाषा।
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स्त्रीपर्व ११.
षट्सप्ततितमोऽध्यायः ७६.
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** दोहा**
श्रीवसुदव+ + कुमारकी, चरण रेणु शिर धार।
भाषा नारी पर्वकी, निजमति लिखत सुधार॥
मुख मुरली करमें लकुट, ग्वालबाल लै साथ।
सदा बसहु मम हृदयमें, व्रजजीवन यदुनाथ॥
करहु दया निजभक्तपहँ,श्रीपति दीनदयाल।
बार बार विनवत यही,मिश्र कन्हैयालाल॥
‘सावित्री’ हरिकी प्रिया, जगकी जीवनमूल।
मिश्र कन्हैयालालपहँ, सदा रहहु अनुकूल॥
षट्सप्ततितमेऽध्याये कुरुस्त्रीणां विलापनम्।
द्रौपदीपुत्रनाशश्चह्यश्वत्थाम्नेह कथ्यते॥१॥
इस छियत्तरवें अध्यायमें कौरवोंकी नारियोंका विलाप करना और अश्वत्थामाके द्वारा द्रौपदीके बालक पुत्रोंका नाश होना यह कथा कहीजातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
तान्दृष्ट्वाशरसंभिन्नाँस्त्रुटितानप्यनेकधा।
तेषां स्त्रियो रुदंत्यस्ताः समाजग्मुः स्वभर्तृकान्॥१॥
वैशंपायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय! तदनन्तर उन योधाओंको बाणोंद्वारा छिन्न भिन्न और भाँति भाँतिसे खंडित उनकी वे सारी नारी रोती पीटती तथा विलाप कलाप
करती अपने अपने भर्त्ताओंके निकट आनकर प्राप्त हुईं॥१॥तहाँ अनेक तरहसे कटे फटे अपने भर्त्ताओंके मृतक शरीरोंको आलिंगन करके ‘हे राजन्! हे प्रभो!’ कहतींहुईं ऊंचे स्वरसे रोदन करनेलगीं॥२॥ हे पृथ्वीपति! इस प्रकार विलाप करतेहुए उन्होंने काष्टराशि इकट्ठी करके चिता रची और फिर अपने अपने भर्त्ताओंके साथ उन चितामें बैठकर वे सब नारियाँ जलगईं॥३॥
अदग्धान्दाहयामास कृष्णः सर्वांश्च पाण्डवैः।
श्वापदैर्भक्षितंसैन्यं निशायां कौरवं कियत्॥४॥
और जो नहीं जलीं, उनको श्रीकृष्णने पांडवोंसे दग्ध करवादिया। फिर रातके समय कौरवोंकी कुछ सेनाको भेडियोंने खाया॥४॥
इति श्रीभारतसारे स्त्रीपर्वणि कन्हैलालमिश्रकृतभाषायां स्त्रीपर्व समाप्तम्॥
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॥श्रीकृष्णाय नमः॥
भारतसार भाषा।
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सौषुप्तिकपर्व १२.
षट्सप्ततितमोऽध्यायः ७६.
** दोहा**
आनँदनिधि घनश्यामके, हिय पदपद्म मनाय।
अब सोपुप्तिक पर्वकी, भाषा लिखत वनाय॥
हे गिरिधर हे मुरलिधर, हे वृन्दावनचन्द।
चरण शरण ली आनकर, काट मम भवंफद॥
हे व्रजजीवन+ +साँवरे, सन्तन सदा सहाय।
मिश्र कन्हैयालालकी, सुरति विसरि जनि जाय॥
सब जानत प्रभुता अमित, कही न काहू जाय।
तदपि यथामति कहइँ सब, सुमिरहिं यादवराय॥
वैशंपायन उवाच।
पतितो यत्र राजा वै भग्नगात्रः सुयोधनः।
अपश्यदश्वत्थामानं रणमध्ये समागतम्॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय!तदनन्तर जिसजगह टूटे फूटे शरीरवाला दुर्योधन पडाहुआथा, वहाँ उसने रणस्थलमें अश्वत्थामाको आयाहुआ देखा तब राजा दुर्योधनउसको अपने पास बुलाकर कहनेलगा॥५॥ दुर्योधन बोला है विप्र!मुझको रणभूमिमें एकभी पांडव मराहुआ दिखाई नहीं दिया। हे गुरुपुत्र!इसी दुःखसे दुःखी होकर अब मेरे प्राण निकल रहेहैं॥६॥अश्वत्थामाने उत्तर दिया हे राजेन्द्र! जिससे आपके प्राण सुखी होकर निकलजाँय, इस कारण मैं
संग्राममें पांच पांडवोंका नाश करडालूंगा। आप मेरी इस बातको सत्यही सत्य समझिये॥७॥ इस प्रकार कहकर अश्वत्थामा ब्राह्मण धर्मराज युधिष्ठिरके डेरेमें जापहुँचा और उस डेरेको**+** + दसहित देखकर उस + देके द्वारा डेरेमें घुसगया और वहाँ सोतेहुए पांडवोंके पांच बालक पुत्रोंको मारडाला॥८॥ और उनके शिर लेकर फिर राजा दुर्योधनके पास चला आया। तब उन शिरोंके देखतेही उस राजा दुर्योधनने शमनभवनको गमन किया अर्थात् मरगया॥९॥ हे राजन्! फिर जब इस समयके बीचमें द्रौपदी जागी, तब वह अपने बालक पुत्रोंको मराहुआ देखकर हाहाकार करनेलगी॥१०॥ उस द्रौपदीके रोनेकी आवाज सुनकर तब वे पांडवभी उठबैठे, और वे पांडव कहनेलगे कि, बालकोंके मारनेका यह (कठोर) काम किसने किया?॥११॥ उनकी यह बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने उनसे कहा कि हे धर्मनन्दन! द्रौपदीके इन पांचों बेटोंको अश्वत्थामाने मारडालाहै॥१२॥ इस प्रकार कहकर श्रीकृष्ण और अर्जुन गुरुपुत्र अश्वत्थामाकी ओर गये। उनको आया हुआ देखकर अश्वत्थामाने॥१३॥ वहाँ अर्जुनको मारडालनेके निमित्त अपना नारायणास्त्र छोडदिया। तब उस नारायणास्त्रको पार्थने॥१४॥ हे महाराज! नारायणके वचनानुसार अपने बाणसे संहार किया। तत्पश्चात् उस संग्राममें शस्त्रहीन होकर ब्राह्मण अश्वत्थामा भागगया॥१५॥ किन्तु श्रीकृष्ण व अर्जुनभी रथमें बैठेहुए उसके पीछे लगेहुए चलेही गये और उन्होंने (लगभग) एक हजार कदम जानेके पीछेही उस अश्वत्थामाको पकडलिया॥१६॥ तब श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा कि, इस दुष्टको मारडालो। क्योंकि बालकोंके मारनेवाले, स्त्रियोंके मारनेवाले, विश्वासघाती॥१७॥ और जो साधुका विनाश करनेवाले
उनके मारडालनेमें कुछ दोषनहीं होता है। श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर अर्जुनने कहा॥१८॥अर्जुन बोले हे मधुसूदन! एक तो हमने ऐसा निन्दित वही कर्म किया, जो राज्यके भोगनेके लालचसे संग्राममें गुरु द्रोणचार्यजीका वध करडाला॥१९॥फिर अव व्राह्मणके वध करनेका दूसरा निन्दित कर्म कैसे करूं? हे स्वासिन्!बताइये तो गुरुके पुत्र अश्वत्थामाको यहाँ किस तरह वधूँ?॥२०॥
दोहा—
तन प्रसेद विगलित वदन, चितवन नीचो नैन।
भीमसेन कर खङ्गलै, क्रोधित बोले वैन॥
चौपाई—
अरे मूढ कार्टोंअब शीशा।द्रौपदि सुनत वैर लै ईशा॥
द्रौपदि देखि दया चित आई। तब माधव सन भाष्योगाई॥
विप्र वधे कर दूपण भारी। बन्धन छोरि देहु वनवारी॥
मृतक सुतनकों फेर न पइहौं। द्विजहत्या परलोक नशेहौं॥
सो सुनि हरि बहुत हि सुख माना। धन्य द्रौपदीं आप बखाना॥
शीश चीरि अर्जुन मणि लीन्हों। पाछे छोड द्रोणसुतदीन्हो॥
एवमुक्त्वातु पार्थेनच्छिन्नातस्य शिखा तदा।
तत्रत्यं मणिपादाय चागतः स्वस्य वीणके।
पूर्ववृत्तान्तमावेद्यद्रौपद्यै ह्यर्पितो मणिः॥२१॥
इस प्रकार कहकर अर्जुनने उस अश्वत्थामाकी चुटिया काटडाली और उसमेंसे निकलीहुई मणिको लेकर अपने डेरेमें चलेगये और पहला सारा हाल जतलाकर फिर वह मणि द्रौपदीको समर्पण करदी॥२१॥
इति श्रीभारतमारे सौप्तिकपर्वणि मुरादाबादनिवासिपण्डितकन्हैयालालमिश्रकृतभाषायामश्वत्थाम्नो मणिहरणं नाम षट्सप्ततितमोऽध्यायः॥७६॥
इति श्रीभाषाभारतसारे सौषुप्तिकपर्व समाप्तम्॥
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॥श्रीकृष्णाय नमः॥
भारतसार भाषा।
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शान्तिपर्व १३.
सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ७७.
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** दोहा**
जिनके सुमरन ध्यानतें, सिद्ध होत सब काज।
मो सम दीन मलीन यहँ, द्रवहु गरीबनिवाज॥
मोहि सहारो आपुको, कृपा करिय भगवान।
शान्तिपर्वको तिलक जेहि, आदर देहिं सुजान॥
सप्तसप्ततिमेऽध्याये पांडवानाञ्च पृच्छताम्।
सदसि निस्सृतं ज्ञानं भीष्मस्यास्याच्च कथ्यते॥१॥
इस सतत्तरवें अध्यायमें पांडवोंके पूछनेपर महात्मा भीष्मजीके मुखसे ज्ञान निकलना यह कथा कहीजातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
एवं कार्यंच सम्पाद्य कृष्णः कमललोचनः।
पांडवाञ्शान्तिशिक्षार्थमानयद्भीष्मसन्निधौ ॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय! इस प्रकार कार्य संपादन करके कमललोचन भगवान् श्रीकृष्ण शान्तिकी शिक्षाके अर्थ पांडवोंको भीष्मपितामहके पास लेआये॥१॥ तब इन लोगोंने वहाँ भीष्मजीके निकट पहुँचकर मीठी मीठी बातोंसे उनको सन्तुष्ट किया और फिर सबजने उनकी आज्ञानुसार बैठकर सावधानीसे सेवा करनेलगे॥२॥ तब धर्मात्मा और वाणीके बोलनेमें चतुर भीष्मजीने उन पांडवोंसे कहा। भीष्मजी बोले हे धर्मराज युधिष्टिर! आपलोग यहाँ मेरे पास
किस निमित्त आयेहैं? और क्या बात पूछना चाहतेहैं?॥३॥ क्योंकि जब मधुसूदन भगवान् श्रीकृष्ण आपके निकट वर्त्तमान हैं, तब फिर आपको किस बातका संदेह है जिस लिये आप आयेहैं, अत एव हे धर्मात्मन्! श्रीकृष्णकी भक्तिसे में निश्चयकरके (ज्ञान) कहूँगा॥४॥ हे धर्मराज युधिष्टिर! आप मेरा वचन सुनिये।आप शान्तिमार्गमें चित्त लगादीजिये।क्योंकि यह भार्या, पुत्र, धन इत्यादि जगत् निष्फल है॥५॥ हे धर्मनन्दन! राज्यको मृगतृष्णाकी समान जाननाचाहिये अथवा स्वप्नेकी माया जानिये, इस कारण आप समानचित्तवाले और जगत्मेंनिवास करतेहुए भगवान् वासुदेव श्रीकृष्णका भजन किये जाओ॥६॥ उन भगवान् वासुदेवकी सेवा करनेपर सब मनुष्योंको भोग, मोक्ष तथा सुख मिलजाया करताहै, जिस आदमीने पवित्र चित्तसे उनकी सेवा की हें॥७॥ उस आदमीको भगवान् श्रीहरिने सुख व सम्पदा प्रदान करीहै और चिन्तारहित अखंड सुख अर्पण कियाहै इसके उपरान्त हे धर्मराज युधिष्टिर! आप मेरा कहना कीजिये॥८॥ यह श्रीकृष्ण पूर्ण ब्रह्मस्वरूप, संसारके उत्पन्नकर्त्ता, पालनकर्त्ता और संहार करनेवाले देव हैं सो आपके धोरे बैठेहुए हैं॥९॥ब्रह्माजीके मानसपुत्र ऊर्ध्वरेतः सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत्कुमारादि और ब्रह्मके ज्ञाता, धर्मशील, इन्द्रियोंके जीतनेवाले ऋषि॥१०॥ (स्वर्गके) सारे देवता, मर्त्यलोकके मनुष्य, पातालवासी सबपन्नग (सर्प), दैत्य, दानव और राक्षस॥११॥ यह सब लोग इन श्रीकृष्णजीकोही सर्वेश्वर जानकर ध्यान किया करतेहैं,और यह श्रीकृष्णही श्रीमहादेव और व्रह्माजीका स्वरूप हैं, तथा यही सृष्टिसंहारके कारण हैं॥१२॥ अतएव हे महामते! आप सर्वप्रयत्नसे भगवान् वासुदेव श्रीकृष्णका भजन कीजिये। क्योंकि
स्थावर और जंगममें इनसे दूसरा और कोई भी विद्यमान नहीं है॥१३॥ यह भगवान् श्रीकृष्ण न स्थूल हैं, न सूक्ष्म हैं, न छोटे हैं, न मोटे हैं, न यह ग सकतेहैं, और न यह मिटसकतेहैं, बरन यह आनन्दस्वरूप हैं॥१४॥ अत एव कोई भी इनको अव्यय (नाशरहित) परमात्मा नहीं समझतेहैं, इस समय उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णने जो मेरे प्रति कृपा करीहै वह मैं अब आपसे कहताहूँ॥१५॥ उन्होंने मुझे क्षत्रिय समझकर मुझको क्षत्रियकी सामर्थ्य प्रदान करी। हे महाराज! इनके संग तीनों भुवनको भोग कीजिये॥१६॥ हे धर्मराज! आपके निमित्त मुझे ख्याति मिली जो कि, आपके सामने क्या कहूँ? इन प्रभु श्रीकृष्णने (भारतयुद्धके बीच) अपनी प्रतिज्ञाका तत्काल त्यागकर मेरी प्रतिज्ञाको पाला॥१७॥
तद्दत्तेन च वीर्येण सन्तोषं प्राप सत्वरम्।
मुक्तिं दातुं स्थितश्चाग्रेहृदयेन जने स्थितः॥१८॥
अपने प्रदान कियेहुए वीर्य (पराक्रम) से शीघ्रतासहित सन्तोषको प्राप्त हुए तथा मुक्ति प्रदान करनेको सन्मुख और जनोंमें अवस्थित हैं॥१८॥
इति श्रीभारतसारे शान्तिपर्वणि मुरादाबादनगरनिवासिपण्डितकन्हैयालालमिश्रकृतभापायां भीष्मोपदेशो नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥७७॥
॥इति श्रीभारतसारभाषाशान्तिपर्व समाप्तम्॥
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॥श्रीकृष्णाय नमः॥
भारतसार भाषा।
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अनुशासनपर्व १४.
अष्टसप्ततितमोऽध्यायः ७८.
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** दोहा**
सुमिर व्यास गणपति चरण, गिरिजा हर भगवान॥
अबअनुशासनपर्वकी, भाषा करत बखान॥
जय कृपालु आनँदभवन, जयति कौशलानंद॥
गोरपक्षधर मुरलिधर, जय जय आनँदकंद॥
जयति सच्चिदानन्द हरि, ईश्वर जगदाधार॥
राखो लज्जा जात निज, जय मम नाथ उदार॥
मोर्तेको संसारमहँ, महा अधम यदुवीर॥
अधम उधारन नाम तब, सुनत होत उर धीर॥
भक्त बछल तुव नाम सुनि, तवमन वडो डराय॥
सुने पतित पावन विरद, हर्ष न हृदय समाय॥
मिश्र कन्हैयालाल यहँ, कृपा करिय जगदीश॥
तबलगि उर भक्ती बढै, जबलगि महि अहिशीश॥
तारा चन्दा जबतलक, रहें गगनके माँहि॥
तबतकभक्ती आपकी, प्रभु मुहि छोडै नाँहि॥
अष्टसप्ततिमेऽध्याये प्रजा धर्मेण पालयन्।
धर्मो राज्यं चकारात्र भ्रातृभिस्वत्तु वर्ण्यते॥२॥
इस अठत्तरवें अध्यायमें धर्मानुसार प्रजाका पालन करतेहुए महाराज युधिष्ठिरने भीम, नकुल, सहदेव और अर्जुन इन चारों भाइयोंसमेत राज्य किया, यह कथा वर्णन करी जातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
**शान्तिंवै कथयित्वा तु पांडवेभ्यस्ततः परम्॥
शासनं कथ्यते राजंस्तेन भीष्मेण धीमता॥१॥ **
वैशंपायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय! बुद्धिमान् भीष्मपितामहने पांडवोंसे शान्ति कहकर फिर तिसके पीछे अनुशासन कहा॥१॥ भीष्मजी बोले। हे धर्मराज युधिष्ठिर! इसके पश्चात् मैं भगवान् श्रीकृष्णके प्रसादसे वैकुंठजानेकी कामना कररहाहूँ, अतएव आप मेरे शासन (आज्ञा) को कीजिये॥२॥ अब आप पूजोपहार (पूजाका सामान) लाकर मेरे आगे रखिये और फिर मेरे देखते हुए भगवान् श्रीकृष्णको स्थापन करके मेरी आज्ञानुसार उनकी पूजा कीजिये॥३॥ और फिर हे धर्मनन्दन! उनके पैरोंका चोवन जो जल चुए, उस चरणामृतसे मुझे स्नान कराइये।क्योंकि उनकी पूजासे बचेहुए पदार्थोंद्वारा मैं पावन (पवित्र) हूँगा॥४॥ प्रथम बाणोंकी सेजपर लेटे हुए मुझको भूमिपर उतारकर भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा कीजिये और ब्राह्मणोंको बुलाकर यथाविधि उनकी भी अर्चना कीजिये॥५॥ क्योंकि भगवान् विष्णु ब्राह्मणकी अर्चना करनेसे संतुष्ट हुआ करतेहैं और कार्त्तिक शुक्लपक्षकी एकादशीके दिन विशेष प्रकारसे॥६॥ भगवान् विष्णु और ब्राह्मणकी पूजा करनी चाहिये और जो व्यक्ति भोजनके लिये आनकर उपस्थित हों, उनको भोजन कराना उचित है॥७॥ वेदपाठ और पुराणोंका पाठ करना चाहिये। फिर सावधान होकर गीता और विष्णुसहस्रनामका पाठभी करना चाहिये॥८॥ और सब जनोंको भगवान् श्रीहरिकी कथा सुननी चाहिये। ब्राह्मणोंको दान देना चाहिये। एकादशीसे आरंभ करके जबतक पूर्णमासीका दिन आनकर प्राप्त होवे॥९॥ तबतक क्तिकी कामना करनेवाले
सर्व जनोंको महोत्सव करना चाहिये और फिर इसके पश्चात् मर्त्यलोक स्थित सारे आदमी ‘जय कृष्ण!’ इस प्रकारका शब्द उच्चारण करें॥१०॥ इस प्रकार मैं पूर्णमासीके अन्तमें निःसन्देह मोक्ष प्राप्त करूँगा अतएव हे राजेन्द्र! आपको भी सर्वकाल भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा करनी उचित है॥११॥ आपको यह यादव श्रीकृष्ण मोक्ष तथा जयके प्रदान करनेवाले हैं, इस प्रकार यह सत्यपालक भगवान् श्रीकृष्ण आपका उद्धार करदेंगे इसमें जराभी झूठ नहीं है॥१२॥ मैंने यह अनुशासन आपसे भक्तिपूर्वक वर्णन किया। अबअन्तमें मेरा अनुशन (अन्न जल भोजन न करनेका) व्रत है, अतएव मैंमौन (चुप) धारण करताहूँ॥१३॥ यह कहकर भीष्मदेवने दृढ मैन धारण किया। तबयुधिष्ठिरादि सब जनोंने ‘जय कृष्ण!’ इस प्रकार कहा॥१४॥ और फिर उन लोगोंने श्रीकृष्णको परम विष्णु समझकर हर्पित चित्तसे प्रणाम किया। इस भाँति भीष्मजीके कथनानुसार सबकाम यत्न सहित संपादन (सिद्ध) करके॥१५॥ श्रीकृष्णसमेत धर्मराज युधिष्ठिर कुरुक्षेत्रमें रहे, इसी समयमें हे राजन्! भगवान् श्रीकृष्णने भीमसेन इत्यादिकोंको सन्मुख करके यथायोग्य बाँटकर देश भागप्रदान किये। हे राजन्! भीम अर्जुन इत्यादि पांडव वहाँ विभाग होनेके समय॥१६॥१७॥ लोभ मोहसे ग्रसित होकर स्पर्धा करनेलगे और फिर परस्पर कहनेलगे कि मैंनेही सम्यक् प्रकार संग्राम कियाहै, कुछ मिथ्या गर्जने वालोंने संग्राम नहीं किया है॥१८॥ इस तरह एक एकसे कहतेहुए वे पांडव गुस्सेमें भरगये और फिर मत्सरयुक्त हो एक एकके संग लडनेकी अभिलाषा करने लगे॥१९॥ इस प्रकार उन पांडवोंको स्पर्द्धासे ईर्षाकरतेहुए समझकर उनके घमंडको उतारतेहुए भगवान् श्रीकृष्ण हँसते हँसते कहनेलगे॥२०॥ श्रीकृष्ण बोले
हे भीमार्जुन इत्यादि वीरो। रणस्थलमें संग्राम करनेवाले आप सबजने मेरी आज्ञानुसार मेरे संग बर्बरीकके निकट चले चलिये॥२१॥ क्योंकि वह आपका युद्ध देखनेके लियेही वहाँ स्थित है। अतएव आप लोगोंमें जिस योधाने जैसा सग्राम किया होगा, उसी प्रकार॥२२॥ वह सत्यवादी होनेके कारण सत्य सत्य बतलादेगा, झूँठ कभी नहीं बोलेगा। श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर भीमसेन इत्यादि॥२३॥ कृष्णके सहित वहाँ गये जहाँ भीमसेनका बलवान् पुत्र स्थित होरहाथा। वहाँ पहुँचकर श्रीकृष्ण भीम नन्दन बर्बरीकसे कहनेलगे॥२४॥श्रीकृष्ण बोले। हे बर्बरीक! हे महावीर! हे पांडवोंके जय देनेवाले! आपने अपने आत्माका नाश करके पिताको राज्य प्रदान किया॥२५॥ अतएव हम जो कुछ आपसे पूछतेहैं, उसका सत्यही सत्य उत्तर ‘दीजिये मिथ्या न बोलिये अर्थात हमको इस युद्धका वृत्तान्त बताइये कि सबसे अधिक वीरता किसकी रही? देखिये, महीने महीने स्त्रीका जो रज उसकी योनिसे रुधिरके रूपमें बहाकरताहै, उस रुधिरको विवादमें झूठ बोलनेवालेके पितर पियाकरतेहैं। भगवान् श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर बर्बरीकने हँसते हँसते कहा॥२६॥२७॥ बर्बरीक बोला हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे अप्रमेयात्मन्! हे नाथ! हे दुष्टनाशक! मैंने तो कृत्या अर्थात् अग्निस्वरूपिणी नारीके सहित आपके सुदर्शन चक्रकाही दर्शन कियाहै॥२८॥ वह योधाओंको काटनेवाला चक्र और उन वीरोंको भोजनकरनेवाली कृत्याका मैंने दर्शन किया है। हे नाथ! मुझे तो दोनों दलोंके बीच वीरोंका संहारकारी दूसरा कोईभी दिखाई नहीं दिया॥२९॥ हे नाथ! आपने जो महाभारस्वरूप वीरोंका संहार करनेवाली कृत्या नियुक्त की उसको मैंने देखा और दुष्टोंका विनाश करनेवाले (एकमात्र)
चक्रका मैंनेदर्शन किया॥३०॥ इसके अतिरिक्त मैंने महावीर पिता इत्यादि सब सुहृद और मित्रोंको दोनों दलोंके संग्राममें केवल गर्जना करते पटवीजनेकी नाँई देखाहै॥३१॥ इस तरह कहतेहुए उस पुत्र वर्बरीकके मस्तकको भीमसेनने समुद्रमें फेंकदेनेके लिये लात मारी, किन्तु वह शिर जौभरभी टससे मस नहीं हुआ॥३२॥ हे राजेन्द्र! तब उस कुछेक हँसतेहुए अत्यन्त अद्भुतस्वरूप बर्वरीकके परम अद्भुत मस्तकको श्रीकृष्ण हाथोंमें उठाकर खडेहोगये॥३३॥उसी समय उस वर्बरीकके मुखसे एक तेज निकला, जो कि श्रीकृष्णके मुखमें प्रवेश करगया, तदनन्तर उस कुण्डलद्वारा विभूषित परम मनोहर इधर उधर चलित शिरको॥३४॥श्रीकृष्णने श्रीमहादेवजीका आभूषण होनेके लिये आकाशमें पहुँचादिया। तत्पश्चात् अपने विक्रमके दाता प्रभु महादेव भगवान् श्रीकृष्णको मानकर भीम अर्जुन इत्यादि संपूर्ण पांडवोंने ईर्षा छोडदी और घमंडहीन होकर चित्तमें सन्तोष प्राप्त किया॥३५॥३६॥और फिर उन्होंने श्रीकृष्णकी सराहना करके उनके दियेहुए देशोंको लेलिया, यह काम होचुकने पर उसी समय भीष्म पितामह वैकुंठ जानेको उद्यत (तैयार) होगये॥३७॥फिर जिससमय पूर्णमासीका दिन आनकर प्राप्तहुआ, तबभगवान् श्रीकृष्णने एक अति उत्तम विमान बुलाया (मँगाया) और उस विमानपर सबार होकर महात्मा भीष्मपितामह निर्मल वैकुंठलोकको चलेगये॥३८॥
दोहा
परम हर्ष नारायण, भीषम तज्यो शरीर।
भये वैकुण्ठ विष्णुपुर, परम अनन्दित धीर॥
चौपाई
धर्मराज तब रोदन कीन्हा। क्रिया कर्म सब करमन दीन्हा॥
कीन्हा कर्म वेदव्यवहारा। शास्त्रन शान्ती कर संचारा॥
श्रीपति कही रावसन बानी। पुरी हस्तिनापुरमहँ आनी॥
श्रीपति संग करहु सब काजा। करहु राज्य हर्षित मन राजा॥
मोरी भक्ति करहु मन लाई। पुहुमी राज्य करो सब भाई॥
हमको बिदा दीजिये राई। हमहुँ द्वारिका देखो जाई॥
हर्षित राजा करें बखाना।गति हमारि तुमही भगवाना॥
मैं अनाथ तुम जनके नाथा। अस्तुति करत बहुत नरनाथा॥
पाँच बंधु सँग द्रौपदि रानी। मिलेठ सबै सँग शारँगपानी॥
तदनन्तर विश्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण सब पांडवोंको लेकर पताका और न्दिरोंसे शोभायमान हस्तिनापुरीको चलेगये॥३९॥वहाँ पहुँचकर श्रीकृष्णने धर्मराज युधिष्ठिरको वरासन अर्थात्सुन्दरसिंहासनपर विराजमान कर शास्त्र तथा वेदके ज्ञाता और प्रवीण भाँति भाँतिके ब्राह्मणों सहित॥४०॥+रही बाजेके शब्दसहि अभिषेकः(राज्यतिलक) किया। उस काल नारियाँ धर्मनन्दन महाराज युधिष्ठिरके निकट बधाइये बाँटनेलगीं॥४१॥और अपने स्वामी तथा बेटोंसमेत वारांगना (र+ + णियाँ) नाचनेलगीं। इस प्रकार महामहोत्सवपूर्वक राज्यमें धर्मराज युधिष्ठिरको स्थापन करके॥४२॥हे नृपोत्तम। श्रीकृष्णने अपने आपको तकृत्य (कृतार्थ) समझा। इस तरह भूमिका भारी भार उतार कर (युधिष्टिरको) निष्कण्टक राज्य प्रदान किया॥४३॥धर्मके पालक और सर्व गुहाशय इन विष्णु भगवान् श्रीकृष्णने वह (अकण्टक राज्य) युधिष्ठिरको अर्पण किया और फिर कुन्ती, द्रौपदी तथा देवी उत्तरा, युधिष्ठिर॥४४॥गान्धारी और महाराज धृतराष्ट्रइन सबको पृथक् पृथक्सन्तुष्ट करके हे राजन्! स्नेहयुक्त श्रीकृष्ण द्वारकापुरीको चलेगये॥४५॥
दोहा
**सात्यकि रथको साजेड, श्रीपति भये सबार।
-
- तें बिदा होय हरि, द्वारावति पगु धार॥**
हर्षित गयेदेव भगवाना।द्वारावती नगर परमाना॥
आये द्वारावति + + य राई। यदुवंशी हर्षित + + ब आई॥
भारत मर+ + था प्रभु गाई। चकित भये निलोग लुगाई॥
धर्मराज राजा+ + + रहीं। सदा धर्म धर्महि हित धरहीं॥
प्रजालोग+ + बकरें अनन्दा।जनु चकोर पाये निशि चंदा॥
वहाँ पहुँचकर मायाद्वारा कपटरूप धरेहुए मनुष्यकी तरह महाविष्णु भगवान् श्रीकृष्णने वसुदेव और उग्रसेनजीके आगे कौरवपांडवोंके (युद्ध) की सब बातें कह सुनाई॥४६॥
वैशंपायन उवाच।
हस्तिनापुरमध्यस्थो राजाधर्मः प्रतापवान्॥
इन्द्राद्यैःपूज्यते नित्यं किं पुनर्मनुजैरपि॥
धर्मेण पालयन्नर्वीं राज्यं चक्रे युधिष्ठिरः॥४७॥
वैशंपायनजी बोले हे जनमेजय। हस्तिनापुरमें स्थित प्रतापबान्महाराज युधिष्ठिर इन्द्रादि देवताओंसे निरन्तर पूजित होतेहैं फिर मनुष्योंकी तो बातही क्या है? इस प्रकार धर्मानुसार पृथ्वीका पालन करतेहुए महाराज युधिष्ठिरराज्य करनेलगे॥४७॥इति श्रीभारतसारे अनुशासनपर्वणि भाषायांयुधिष्ठिरराज्याभिषेको नाम अन- सप्ततितमोऽध्यायः॥७८॥
ऊनाशीतितमोऽध्यायः ७९.
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ऊनाशीतितमेऽध्यायेऽन्यायेन द्रव्यसंचयः॥
कुरूणामिव ऐश्वर्यं हन्तीति ह्युच्यतेऽधुना॥१॥
इस उन्नासी अध्यायमें अन्यायपूर्वक उपार्जित (संचित) द्रव्य कौरवोंके ऐश्वर्यकी तरह नाशको प्राप्त होजाताहै, अब यही कथा वर्णन करी जातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
भूतले ये महावीरा वीर्यसैन्यसमावृताः।
अक्षौहिणीनां दशकं चाष्टौ हत्वा च केशवः॥१॥
वैशंपायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय!पृथ्वीतलपर वीर्य और सेनासे आवृत जो महावीर हैं, तिनकी अठारह अक्षौहिणी सेनाका नाश करके भगवान् केशवने॥१॥धर्मानुसार धर्मनन्दन महाराज युधिष्ठिरको अकण्टक राज्य दिया। इस प्रकार मनमें विचार (पृथ्वीके सब राजा) डरके मारे युधिष्ठिरको कर (मालगुजारि) देनेलगे॥२॥ और यह कहकर कि ‘हमलोग आपके दास हैं’उनके चरणकमलोंमें प्रणाम करनेलगे। जनमेजयने पूछा। हेमुनिवर! भगवान् विष्णुके दिये विक्रमवाले ऐसे महावीर॥३॥ अपनी मृत्युको कहतेहुए किस तरह मृत्युके वशीभूत होगये?दुर्योधन महावीर जो कि वीरोंसे घिराहुआ था॥४॥ वहभी किस तरह नाशको प्राप्त होगया? हे महामुने! यह बताइये। राजा दुर्योधनको भीमसेनने कैसे मारडाला?॥५॥ कारण कि जिसप्रकारका बल भीमसेनमें था, वैसाही बल दुर्योधनमेंभी था। यह दुर्योधन दिनमें नहीं सोताथा और रातमें दही नहीं खाया करताथा॥६॥ वह गर्भवती तथा ऋतुमती नारीसे सहवास (गमन) नहीं किया करता और फिर हे राजन्! नित्य तीनों कालमें संध्याभी किया करताथा सो वह कैसे मरगया?॥७॥ वह राजा दुर्योधन रथी विद्यामें रथीके समान और अश्वविद्यामें प्रमाण करके भीमसेनके तुल्य था, सो वह ऐसा महावीर किस तरहसे मृत्युके वशीभूत होगया?॥८॥ वैशंपायनजी बोले। हे राजेन्द्र! सारे वीरोंके पवित्र कर्त्ता तथा योधाओंको बलदाता उस कुरुक्षेत्रमें महाराज युधि-
ष्ठिर दीक्षित हुए॥९॥ वहाँ पाण्डवोंकी विजय हुई और कौरवोंकी पराजय हुई, ऐसे वेदके योधा युद्ध स्वरूप यज्ञमें पाठ करनेलगे॥१०॥ कुरुक्षेत्रको वेदी कल्पित करके, जनार्दन भगवान श्रीकृष्णको यूपस्तंभ कल्पित करके और दुर्योधन यज्ञका बकरा कल्पित करके सारे नरेशोंके रुधिरका वहाँ संग्रामरूपी कुडमें होम किया॥११॥ तथा अष्टादश अक्षौहिणी सेनाका रक्त हुतद्रव्य अर्थात् साकल्य हुआ। इस प्रकार यह स्वाहा स्वधारहित यज्ञ संपूर्ण कियागया॥१२॥ भगवान श्रीकृष्णने इस भाँति करके युद्धरूपी यज्ञको संपादन किया। क्योंकि धर्मकीही विजय हुआकरतीहै, अधर्मकी नहीं हुआ करती। सत्यकीही जय होतीहै, असत्यकी जय नहीं हुआकरती॥१३॥ क्षमाकीही जय हुआकरतीहै, क्रोधकी नहीं। भगवान विष्णुकीही विजय हुआकरतीहै असुरोंकी नहीं। राज्य धर्मसेही अटल रहा करताहै और वंशभी धर्मके द्वाराही स्थिर रहताहै॥१४॥ हे नृप!जो आदमी अधर्ममें निरन्तर रहाकरतेहैं, उनका नाश शीघ्रही होजायाकरताहै, जो पुरुष ब्राह्मण स्त्री बालक और गायके ति शूर होते हैं अर्थात् इनको अपनी बहादुरि दिखायाकरतेहैं॥१५॥ तो वे लोग जिस प्रकार + च्चा + पत्ता सूखकर गिरजायाकरताहै, उसी तरह अकालमेंही कालके कराल गालमें गिरजायाकरतेहैं, और पापस्वरूप पदार्थके द्वारापुष्टहुए वाहन और आयुध (सवारी तथा हथियार)॥१६॥ युद्धके समय इस तरह विशीर्ण होजायाकरतेहैं कि जिस प्रकार हवासे मेघ विथरजायाकरतेहैं। विषका नाम विष नहीं कहा है, किन्तु ब्राह्मणके धनकोही जहर नामसे कहागया है क्योंकि विषतो एकही आदमीका अर्थात् खानेवालेकाही नाश किया-
करताहै, किन्तु ब्रह्मअंश बेटे और पोतोंसमेत सारेबालका नाश करडालाकरताहै॥१७॥देखिये क्रोधयुक्त ब्राह्मणोंने समुद्रमें पीनेयोग्य पानीको खारी करडाला, क्रोधयुक्त ब्राह्मणोंनेही शापके द्वारा नारायण श्रीकृष्णकाभी भार्या पुत्र और सारे वंशसमेत नाश करडाला, और क्रोधयुक्त ब्राह्मणोंनेही स्वर्गमें देवोत्तम श्रीमहादेवजीके लिंगको उन्मीलित करदिया, अत एव ब्राह्मणोंकेशापसे ग्रसित होकर किस आदमीका नाश नहीं होताहै॥१८॥
ब्रह्म हत्यादिपापानांस्मरणात्क्षयकारकम्॥
सारमेतन्मयाख्यातं निर्मथ्य भारतोदधिम्॥१९॥
हे राजन् जनमेजय! मैंने आपके लिये भारतरूपी समुद्रको मथकर स्मरण करनेसेही ब्रह्महत्या इत्यादि संपूर्ण पापोंका क्षय (नाश) करनेवाला यह**+** र वर्णन किया॥१९॥
इति श्रीभारतसारे अनुशासनपर्वणि मुरादाबादनगरनिवासिपण्डितकन्हैयालालमिश्र- कृतभाषायामेकोनाशीतितमोऽध्यायः॥७९॥
इति श्रीभाषाभारतसारानुशासनपर्व समाप्तम्॥
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॥श्रीकृष्णाय नमः॥
भारतसार भाषा।
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अश्वमेधपर्व १५.
अशीतितमोऽध्यायः ८०
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दोहा
वा देवके+ + चरणदर, बन्दौं + + बारम्बार।
जिनको चिन्तन करतही, मिटत कलेश विकार॥
पाराशर+ + तभागवत, व्यासदेव भगवान।
आचार+ + इतिहासके, करो+ + नाथ+ + ल्यान॥
कीरत+ + वरिव्रजेश्वरी, कृपा करहु जनजान।
यज्ञपर्वको तिलक जेहि, निजमति करहुँ बखान॥
बार बार विनती करत, माँगत यह वरदान।
मिश्र कन्हैयालाल कहँ, देहु सदा कल्यान॥
अशीतितम अध्याये गोत्रहत्यानिवृत्तये॥
राजसूये धर्मंकृते व्यासागमनमुच्यते॥१॥
इस अस्सीवें अध्यायमें गोत्रहत्या निवृत्त होनेके निमित्त धर्मराज युधिष्ठिरका राजसूय यज्ञ करना और व्यासजीका आना यह कथा कहीजातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
एवं पापान्महाराज कौरवाः क्षयमागताः॥
पाण्डवा वर्द्धितास्तत्र पुण्येन हरिसेवनात्॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय! इस तरह वहाँ पापके द्वारा कौरवोंका नाश होगया और पुण्य तथा भगवान् श्रीकृष्णकी सेवाके द्वारा पांडवोंकी वृद्धि हुई॥१॥जनमेजयने कहा हे मुनिसत्तम! मेरे पूर्वपुरुष पितामह युधिष्ठिर महाराज
किस प्रकार पवित्र हुएथे? और किस तरहसे उन्होंने बंधु बाँधवोंसमेत अति उत्तम अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान कियाथा?॥२॥ वैशंपायनजी बोले हे राजन्! सुनिये, मैं धर्मनन्दनमहाराज युधिष्ठिरके कर्म आपसे वर्णन करताहूँ। पितामह भीष्मजीके स्वर्ग चलेजानेपर युधिष्ठिर बहुतही दुःखित हुए॥३॥ और द्रोणाचार्यसरीखे गुरुजनोंका नाश करके महादुःखित हो सोच विचार करनेलगे। उसी समय अपनी इच्छानुसार आनकर प्राप्तहुए भगवान् श्रीवेदव्यासजी महाराजसे उन्होंने आदरसहित पूछा॥४॥ हे ब्रह्मन्! किस उपाय द्वारा मेरा गोत्रनाश करनेका सारा भय (पाप) नष्ट होवेगा? हे तपोधन! यह आप मुझसेवर्णन कीजिये॥५॥ व्यासजीने उत्तर दिया कि हे कुरुनन्दन! आप सब यज्ञोंमें उत्तम अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान कीजिये। क्योंकि हे वीर! पूर्वकालमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीनेभी (ब्राह्मण रावणको मारकर) यही तीन अश्वमेध यज्ञ कियेथे॥६॥ हे वीर! इसतरहका यज्ञकरके आप राज्यको पालन कीजिये। इसभाँति अमिततेजस्वी व्यासजीकी बात सुनकर॥७॥
चौपाई
बोले धर्मराज दुखपाई।कैसे यज्ञकरैंमुनिराई॥
यज्ञयोग मम धन कछु नाहीं। कैसे यज्ञ होय गमाँही॥
विनु धन धर्म कहो कस होई। धनसे हीन पुरुष जग जोई॥
कही व्यास सुनु धर्मकुमारा। अर्थ चहो सुनु वचन हमारा॥
पूर्व मरुत नृप यज्ञ बनाये।++ र नर मुनि जन हर्ष बढाये॥
दिये दान बहु विध परकारा।किये अयाचक मग्न अपारा॥
जैन सके तो तजि नृप गयऊ। गिरि हिमवन्तके बीचहि रहे॥
सो धन लेय यज्ञ प्रण ठानो। धर्मराज सब भेद ब+ + नो॥
द्विजधन लैके यज्ञ बनाओ।यज्ञ करत तो अपयश पाओ॥
व्यास कह्यो सुनु धर्मकुमारा। सो सब द्विजन नहीं अधिकारा॥
पूर्व दैत्यवन राजा गयऊ। ताहि विनाश देवधन लयऊ॥
दोहा—
सोई धन हरिचंद नृप, दीन्हों मुनिको दान।
पा+ +बलिराजा भये, + + ब धन ताको जान॥
धर्मपुत्र युधिष्ठिरने अत्यन्त दीनवाणीसे कहा, हे भगवन! न तो मेरे पास धनही विद्यमान है और न कुछ सहायताही है॥८॥ व्यासजीने कहा हे नृपनन्दन! पूर्वकालमें महाराजं मरुत्तने यज्ञ करके ब्राह्मणोंको बहुत सारा धन दियाथा। तब उसमेंसे बहुत सारे ब्राह्मण कंचनको भूमिपर छोडगयेथे॥९॥अतएव आप हिमालयमें पडेहुए उस सोनेको उठा लाइये।युधिष्टिरने कहा वे महाराज मरुत्त धन्य हैं कि जिन्होंने इस तरहका यज्ञ॥१०॥बहुत कंचनके साथ सम्पन्न कियाहै, जिस यज्ञमें ब्राह्मण ऐसे तृप्त हुए कि बहुतसे कंचनको छोडकर चलेगये। किन्तु मैं उस धनको किस तरहसेले आऊं?॥११॥क्योंकि ब्राह्मणका धन मेरे पक्षमें अत्यन्त कष्टदायक है, इस समय तो अपने बंधु बाँधवोंके मारडालनेका एकही पाप मेरे शिरपर सवार है॥१२॥किन्तु अबयदि मैं ब्राह्मणोंका धन लाताहूँ ती वह दूसरी महान् हत्याभी आनकर मेरे शिरपर सवार होजायगी। व्यासजीने कहा हे महाराज! जब कि, वे लोग उस धनको त्यागचुके तब फिर उस धनपर उनका स्वामित्व (अधिकार) नहीं रहा॥१३॥पूर्वकालमें श्रीपरशुरामजीनेभी महात्मा कश्यपजीको भूमिदान करीथी और दैत्यराज बलिने उस भूमिको विजय करलिया और फिर इस सारी भूमिको क्षत्रियोंने जीतलिया॥१४॥इससे ब्राह्मणोंका अधिकार जातारहाहै, अतएव दोषविद्यमान नहीं है क्योंकि जिस समयमें यह भूमि जिसको मिली उसी राजाका वह धनभी (न्यायानुसार) होचुका॥१५॥धर्मराज युधिष्ठिरने कहा हे भगवन्!
यज्ञमें ब्राह्मणोंकी कितनी संख्या होनी चाहिये? और किस तरह की दक्षिणा होनी उचित है? तथा उसमें घोडा कौनसा उत्तम है? यह सब बातें आप बतादीजिये॥१६॥व्यासजीने कहा हे युधिष्ठिर। इस यज्ञमें वीस हजार ब्राह्मण होने चाहिये, अब इस प्रत्येक ब्राह्मणकी दक्षिणा**++** निये। एक हाथी, एक रथ और एक सुवर्ण अर्थात् आठतोले कंचनके सहित धन॥१७॥तथा एक एक ब्राह्मणके निमित्त रत्न पुष्पद्वारा पूजित एक हजार गौ प्रदान करनी चाहिये और कंचनका एक भार दक्षिणारूपी यज्ञमें व्राह्मणको प्रदान करना उचित है॥१८॥हे राजन्!यह मैंने दक्षिणाकी बात तो कहदी। अब घोडेके विषयमें कहता हूँ, श्यामकर्ण, सफेद शरीरखाला फिर पीला और सफेद पूँछवाला॥१९॥हे राजन्! ऐसा घोडा चैतके महीनेकी पूर्णमासीके दिन छोडदेना चाहिये और एक वर्ष पर्यन्त सब महाबली योधाओंको उसकी रक्षा करनी चाहिये॥२०॥उसकी रक्षामें पुत्र, बांधव अथवा शूरको नियुक्त करना चाहिये और जो स्वयं यज्ञ करे, उसको असिपत्र नामक व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये॥२१॥फिर वह घोडा जिस किसी स्थानमें मल मूत्र करे, वहाँ ब्राह्मणोंके निमित्त एक हजार गौ प्रदान करनी चाहिये और ब्राह्मणोंको होम करना उचित है॥२२॥उस घोडेके माथेपर अपने नाम समेत तथा भलीभाँतिसे लिखेहुए कंचनके पत्तेको बाँधकर यह बात कहनी चाहिये कि॥२३॥इस घोडेको मैंनेछोडदिया है, अतएव जो कोई बली हो, वह इसको पकड़लेवे, तब मैं उसको जीतकर घोडा छीनलूँगा इस मेरी बातको सत्यही सत्य समझना॥२४॥हे वीर!इस विधानानुसार काम होनेपर इस यज्ञकी उत्पत्ति होतीहै और असिपत्र व्रतके सहित यह यज्ञ महापुण्यदायक होताहै॥२५॥ और हे राजेन्द्र! आपकी सहायताके
लियेभी कृष्ण भीम नकुल सहदेव तथा अर्जुन उपस्थित हैं। अतएव हे महाराज! आप इस यज्ञको सर्वथा (सब तरहसे) साधन करसकतेहैं॥२६॥ हे राजन्! वैसा घोडाभी भद्रावती नामवाली नगरीमें विद्यमान है, जिसकी यौवनाश्वनामक वीर निरन्तर रक्षा कियाकरतेहैं॥२७॥ हे युधिष्टिर! वे महाराज यौवनाश्व उस घोडेको दश अक्षौहिणी सेनाके सहित पालरहेहैं। तब श्रीवेदव्यासजीकी कहीं यह बातें सुनकर भीमसेनने कहा॥२८॥ भीमसेन बोले हे मानद!मैं अकेलाही उस भद्रावती नाम्नी नगरीमें चलाजाऊँगा और उस महाबली राजा यौवनाश्वको परास्त (विजय) करके बलात्कार (जवर्दस्ती) उस घोडेको लेकर चलाआऊँगा॥२९॥ क्योंकि जो आदमी भगवान् वासुदेवका ध्यान करके काम किया करतेहैं, उनकी सर्वथा सिद्धि होतीहै, इसमें कुछभी सन्देह नहीं जानना चाहिये॥३०॥ किन्तु भगवान् वासुदेवको भूलकर जो तप व यज्ञ इत्यादि कार्य कियेजातेहैं वह सबअभागे आदमीके विचारकी तरह विकल होजायाकरतेहैं॥३१॥ यदि में उस घोडेको न लासकूँ तो मुझको घोर गति प्राप्त होवे। भीमसेनके इस प्रकार कहनेपर धर्मराज युधिष्ठिरने हर्पित होकर कहा॥३२॥ युधिष्ठिर बोले हे वत्स! आप अकेलेही भद्रावती नगरीमें कैसे चले जाँयगे? क्योंकि महाराज यौवनाश्व और उनके सेवक दोनोंही बलवान हैं॥ ३३॥ आप उन दुष्टोंको रणस्थलमें परास्त करके यहाँ कैसे लौटकर आवेंगे? और वह घोडाभी महान् कठिनाईसे ग्रहण करनेके लायक है अतएव वह घोडा यहाँ किसतरहसे आवेगा?॥३४॥ धर्मराज युधिष्ठिरके इस प्रकार कहनेपर व्यासजीने कहा। व्यासजी बोले, भगवान् वासुदेवको स्मरण करनेसे सारे काम सिद्ध होजाँयगे॥३५॥ इस लिये हे धर्म-
राज! अब आप शीघ्रही भगवान् वासुदेवको स्मरण कीजिये। इस प्रकार कहकर वे व्यासजी अपने स्थानको प्रस्थान करगये॥३६॥ व्यासजीके चलेजानेपर धर्मराज युधिष्ठिरने अपने मनमें उन भगवान् श्रीहरिको स्मरण किया। धर्मनन्दन युधिष्ठिर बोले हा! गोविन्द! इस समय मैं गोत्रके नाशस्वरूप पाप सागरमें म**+** + होरहाहूँ॥३७॥ हे प्रभो! यदि आप यहाँ आगमन नहीं करेंगे, तो मैं इस यज्ञको किस तरह करसकूँगा। इस प्रकार वाक्य कहकर फिर भगवान् श्रीकृष्णका कथामृत पान करनेलगे॥३८॥ युधिष्ठिरने जैसेही उनको स्मरण किया कि, वैसेही भगवान् भी आनकर उपस्थित होगये। वैशंपायनजीने कहा हे जनमेजय! भगवान् श्रीकृष्णको आयाहुआ देखकर पांडव अत्यन्त आनन्दित हुए॥३९॥ फिर यथोचित आलिंगन करके (मिल भेंटकर) अपनी अपनी शल कहनेलगे। तब पीछे श्रीकृष्णने कहा हे धर्मराज! मैं आपसे यह पूछता हूँ कि, आप भयसे किसलिये विह्वल होरहेहैं?॥४०॥ और समरभूमिमें कौरवोंका वध करके अश्वमेधयज्ञकाअनुष्टान करतेहैं अतएव आपने यह बात कैसे सत्य मानली कि मेरी आत्मामें पाप लगरहाहै?॥४१॥ हे महाराज! (यदि ऐसाही है) तो उस सारे पापोंको आप मेरे हाथमें प्रदान कीजिये मैं उन सारे पापोंको नष्टकर डालूँगा। किन्तु हे धर्मराज! आप आनन्दपूर्वक स्थित रहिये॥४२॥ भीमसेन ने कहा हे स्वामिन्! आपके करकमलमें थोडाभी पाप प्रदान करनेपर वह अधिक होजायाकरताहै, इस कारण हे प्रभो! हमलोग शीघ्रतासहित यज्ञ करके आपको उसका फल समर्पण करेंगे॥४३॥ हे राजन्! उनकी यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्णने प्रसन्न मनसे भीमसेनको घोडा ले आनेकी आज्ञदी॥४४॥ हे राजन्!
तब वासुदेव श्रीकृष्णकी आज्ञानुसार वृषकेतु, मेघवर्ण और महावलवान् भीमसेन यह तीनजने निकले॥४५॥ और निडर होकर भद्रावती नगरीकी ओर चले और राजा यौवनाश्वसे पालीजातीहुई उस नगरीमें जापहुँचे॥४६॥ वे वहाँ पहुँचकर उस पुरीके बाहिरी भागमें एक पर्वतपर स्थित होगये। भीमसेन ने कहा। हे पुत्रो ! हम तीनों जने इस पहाडपर उस समयतक यहाँ बैठे रहेंगे॥४७॥ कि जबतक यहाँ अश्वमेध यज्ञका घोडा आवेगा! और उस घोडेके आजानेपर हम उसको निःसन्देह लेलेंगे और तब चलेंगे॥४८॥ भीमसेन इस प्रकार कहतेहीथे कि, इसी बीचमें वह घोडा आपहुँचा जो कि, सब अंगोंमें पूजित और महायोधाओंसे घिराहुआ था॥४९॥ तब घटोत्कचके पुत्र महाबलवान् मेघवर्णने उस घोडेको आयाहुआ देखकर मेघके वर्णकी समान अंधकाररूपी मायाके द्वारा उस घोडेको हरणकरलिया॥५०॥ उस घोडेके हरण कालमें बडाही हाहाकार मचा।तब मेघवर्णने वहाँ बडे बडे योधाओंका नाश किया॥५१॥और तिस पीछे उस घोडेको लेकर भीमसेनके पास चलाआया, तब जैसेही महाबाहु भीमसेन युद्धके लिये निकले॥५२॥वैसेही हे महाराज! कर्णका पुत्र संग्राम करनेको उपस्थित हुआ। इसी बीचमें वीरोंका महान् शब्द होनेलगा और उन वीरोंने जाकर राजासे कहा॥५३॥ हे राजन्! कोई योधा आनकर आपके उस घोडेको लेगया। उनकी यह बात सुनकर राजा यौवनाश्व अपनी सेनासहित॥५४॥ युद्ध करनेका निश्चय करके रणभूमिमें आये। वे महाराज यौवनाश्व जैसेही आये, वैसेही उन्होंने सन्मुख बड़ी भुजावाले सूर्यमंडलकी समान वृषकेतुको देखा। तब वृषकेतुने कहा हे राजन्! आप जिस प्रकार आयेहैं, वैसेही सेनासमेत
पीछेको लौटजाइये और मेरे निकट प्राणत्याग मत कीजिये॥५५॥५६॥ हे नराधिप जनमेजय!वृषकेतु ने महाराज यौवनाश्वसे इस तरह कहकर अपने बाणोंसे अनेक प्रकारके महारथी और महावीरोंको छिन्न भिन्न और आच्छादित करदिया॥५७॥
चौपाई
तब राजा दश बाण चलाये। कर्णपुत्र निज शरन उडाये॥
तीन बाण राजा हूँ मारा। निष्फल कीन्है सबै भुवारा॥
अर्द्ध चन्द्र कुँवरहि तब छाँटे। चमर छत्र गुण शारँग काटे॥
तब राजा धनुषै गुण धारा।++ ठ बाण वृषकेतुहि मारा॥
रक्तबाण कुँवरहि तब लीन्हा। तीन बाणारिसकरि तजि दीन्हा॥
सारथि अश्व तजे तब प्राना! जूझे राजा सब दल जाना॥
अग्निपवनके बाण चलाये।उडिकै सैन्य अग्नि++रि जाये॥
और फिर अपने बाणोंसे हाथियोंको विदारित करके पृथ्वीपर गिरादिया तथा शतशः सवार और पैदलोंको रणमें नाश करडाला॥५८॥उस काल कर्णनन्दन वृषकेतुके द्वारा व सारी सेना इस प्रकार भाग (छिन्नभिन्न) होगई कि जिसप्रकार भगवान् वासुदेवके स्मरण करनेसे संपूर्ण पापोंका नाश होजायाकरताहै॥५९॥उस सेनाके मारेजानेपर राजा यौवनाश्वने आकर कहा। यौवनाश्व बोले। हे कर्णपुत्र! आपको धन्यवाद है। अब आप शीघ्रतासे मुझपर पहिले अपना प्रहार करलीजिये॥६०॥क्योंकि मैं आपको बालक और चपल देखकर (प्रथम) प्रहार करना नहीं चाहता हूँ। वृषकेतुने कहा हे राजेन्द्र! जो कि आपकेबहुत बटे हैं, इस कारण आप बूढे होगयेहो॥६१॥और फिर आप भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनसे हीन हैं, इसलिये मेरे चित्तसे (विचारसे) आप बालक हैं, उनकी यह बात सुनकर राजा यौवनाश्वने अपने दश बाणोंसे हँसते हँसते॥६२॥वृषकेतुकी
छातीमें ताडना (आघात) किया किन्तु वृषकेतुने उन बाणोंको काटकर फिर अपने दश बाणोंसे राजाको मारा॥६३॥ वे बाण राजाको भेदकर पातालके रन्ध्र (छेद) में चलेगये और फिर अर्द्धचन्द्र बाणसे राजाके धनुषको भी काटडाला॥६४॥ तब वे दूसरा धनुष लेकर और साधकर नमित पर्ववाले साठ बाणोंकी कतारद्वारा कर्णनन्दन महावली वृषकेतुको वींधनेलगे॥६५॥ वे बाण उसकी छातीको फाड और उसका खून पीकर फिर लौट आये, तत्पश्चात् कर्णके वीर पुत्रने फिर एक बाणके द्वारा महाराज यौवनाश्वकी छाती बींधडाली॥६६॥ तबकर्णात्मज वीर वृषकेतुके द्वारा वह राजा यौवनाश्व अत्यन्त कष्टको प्राप्त हुए।इतनेहीमें भीमसेन और सुवेगका परस्पर संग्राम होनेलगा॥६७॥ वे दोनों परस्पर वात करतेहुए गदा युद्ध करने लगे। इसी बीचमें मूच्छित राजा यौवनाश्वने॥६८॥ मूर्च्छासे जागकर शीघ्रतासे कर्णपुत्रको नमस्कार किया और फिर दीनकी तरह होकर यह वचन कहनेलगे॥६९॥ यौवनाश्व बोले हे महाशय! आप मेरे प्राणके दाताहैं, अतएव अब दूसरी बार में आपसे युद्ध करना नहीं चाहता। आपने मुझको जीवन दान कियाहें, इस कारण यह मेरा सारा राज्य आप लेलीजिये॥७०॥
चौपाई
हृदय लाय पुनि भेंट्यो राऊ। तुमहीं मेरे प्राण बचाऊ॥
देश राज्य धन प्राण तुम्हारा।धन्य वीर हौ धर्म भुवारा॥
अवरनकेर नहीं है कामा। चलो तहाँ जहँ भीम सुठाँवा॥
यौवनाश्व और कर्ण कुमारा। भीम निकट हर्षित पग धारा॥
हे मारिप! अवमुझे आपके प्रसादसे भगवान् श्रीहरिका दर्शन मिलेगा, अबआप भीमको दिखाइये इस प्रकार कहकर जहाँ वे दोनों रणमें पडेथे, वहाँ पहुँचे॥७१॥ उसी समय
सुवेग और भीमसेन यह दोनों जनेभी युद्ध छोडकर आगये, तब महाराज यौवनाश्वने भीमसेनकी स्तुति करी और फिर उनको शीघ्रतासे अपनी नगरीमें लिवालाये॥७२॥ तब महाबलवान् भीमसेन मेघवर्ण और वृषकेतु कुछ दिनोंतक वहाँ रहकर यौवनाश्व सेना और पुत्रके सहित हस्तिनापुरमें चलेआये॥७३॥ तब यौवनाश्व, वृषकेतु, मेघवर्ण और श्यामकर्ण घोडेके सहित भीमसेनको आयाहुआ जानकर महाराज युधिष्टिर उनके सामने गये॥७४॥ और फिर संसारके आत्मास्वरूप भगवान् श्रीकृष्णभी अपनी जीव मोहिनी माया॥७५॥
कृत्वा जगाम राजानं संमुखं तुरगान्वितम्।
यौवनाश्वं गृहीत्वा तु पुरं प्रावेशयद्धरिः॥
यथायोग्यं च संश्लिष्य स्वेस्वे स्थाने न्यवेशयेत्॥७६॥
विस्तार करके अश्वसहित ऐसे महाराज यौवनाश्वके सामने उपस्थित हुए और फिर श्रीहरिने उन राजा यौवनाश्वको लेकर नगरीमें प्रवेश किया तथा उनसे यथायोग्य मिल भेंटकर उनको अपने अपने स्थानमें टिकाया॥७६॥ इति श्रीभारतसारे अश्वमेधपर्वणि भाषायां यौवनाश्वपुरप्रवेशो नामाशीतितमोऽध्यायः॥८०॥
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एकाशीतितमोऽध्यायः ८१.
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एकाशीतितमेऽध्याये मण्डपादश्वमुत्तमम्॥
अनुशाल्वो जहारासौ कृष्णद्वेषात्तदुच्यते॥१॥
इस इक्यासीवें अध्यायमें मण्डपसे उस श्रेष्ठघोडेको अनुशाल्वने श्रीकृष्णके द्वेष (शत्रुता) से हरण किया, यह कथा कहीजातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
मासमात्रं ततः स्थित्वा कृष्णः प्रोवाच धर्मजम्॥
श्रीकृष्ण उवाच।
चैत्री गता पौर्णमासी धर्मराजं निबोधय॥१॥
श्रीवैंशम्पायनजी बोले हे जनमेजय!तदनन्तर उस स्थानमें श्रीकृष्णजी एक महीनेतक टिके रहकर धर्मराज युधिष्ठिरसे कहनेलगे। श्रीकृष्ण बोले हे धर्मराज! यह चैतके महीनेकी पूर्णमासी आनकर उपस्थित हुईहै, सो आप जानलीजिये॥१॥ और फिर अभी यज्ञका समय बहुत दूर है, क्योंकि उसके ग्यारह महीने हैं, इस कारण में उग्रसेनसे पालित द्वारकापुरीको जाताहूँ॥२॥ हे धर्मनन्दन! आप यौवनाश्वसमेत घोडेको पालिये। फिर हम सबजने आपके न्योता देनेपर आपके यज्ञमें॥३॥ आजाँयगे। तबतक आप यथार्थ उस यज्ञका काम करतेरहिये। वैशंपायनजी बोले, भगवान् वासुदेव श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर धर्मनन्दन युधिष्ठिरने॥४॥ श्रीकृष्णकी इच्छा जानकर उनको चलेजानेकी आज्ञा देदी तबश्रीकृष्णके चलेजाने पर महाराज युधिष्ठिर श्रीवेदव्यासजीके सहित॥५॥ उस घोडेका पालन करने लगे, और फिर मंडप बनवाया तबधर्मात्मा युधिष्ठिरने श्रीवेदव्यासजीसे उन महाराज मरुत्तकी सुन्दर व उत्तम कथा पूछी॥६॥ अनन्तर वहाँ कितनेही दिनोंतक उस सुन्दर कथाको विस्तारसहित सुनतेहुए धर्मराज युधिष्ठिरसे महामुनि श्रीव्यासजीने आदरपूर्वक कहा॥७॥ श्रीवेदव्यासजी बोले। हे पार्थ! (पृथाके पुत्र!) इस प्रकार मैंने यह कथा आपसे वर्णन करी। अबइसके पीछे कहताहूँ कि आप भगवान् श्रीगोविन्द श्रीकृष्णको बुलाइये, जिससे यज्ञआरंभ होजाय॥८॥ इस प्रकार अमित तेजस्वी मुनिवर श्रीव्यासजी महाराजकी बात
सुनकर राजा युधिष्ठिरने भीमसेनसे कहा॥९॥ तब भीमपराक्रमी भीमसेन महाराज युधिष्ठिरकीआज्ञामस्तकपर धरकर श्रीकृष्णको सपरिवार बुलालानेके लिये द्वारकापुरीको गये॥१०॥तब भीमसेन वहाँ जिस समय दरवाजेपर पहुँचे तो उस काल भगवान् श्रीकृष्ण भोजन कररहेथे, अनन्तर कौतुकी श्रीकृष्णने भीमसेनको आयाहुआ समझकर॥११॥ अनेक प्रकारसे मुखका भाव किया और फिर पापड इत्यादि चावनेका शब्द करके उन भीमसेनको बुलाया और भाँतिभाँतिके भोजन जिमाकर उनको पान दिया॥१२॥ फिर उनको उत्तम आसनपर बैठालकर श्रीहरिने कुशल पूछी। तब भीमसेनने कुशलसमाचार कहकर प्रीति दायक वाक्य कहा॥१३॥ हे पापरहित ! धर्मराज युधिष्ठिरके यज्ञके निमित्त आपको आना उचित है, भीमसेनकी यह बात सुनकर वाणी बोलनेमें चतुर श्रीकृष्णजीने॥१४॥ दुँदुभी (बाजा) के द्वारा ढँढोरा पिटवादिया कि, सब किसीको महाराज युधिष्ठिरके (यज्ञमें) चलना होगा, और द्वारकापुरीकी रक्षा करनेके लिये बलराम और वसुदेवजी रहेंगे॥१५॥ और नगरके अन्यान्य आदमीभी हस्तिनापुरको चले इस प्रकार कहकर श्रीकृष्णने सब मनुष्योंको इकट्ठा किया॥१६॥ और फिर सब स्वजन अर्थात् बन्धुबाँधवोंसेरिक्त होकर हस्तिनापुरीमें जापहुँचे और वहाँ कालिन्दी (यमुना) के किनारे अपना डेरा लगाकर॥१७॥ और उनने सब आदमियोंको टिकाकर अपने आप वे श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिरके पास जाकर उपस्थित हुए। तब युधिष्ठिरादि सब कोई भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञानुसार उत्तमोत्तम घोडोंको लेकर॥१८॥ मिलनेके लिये सबजने उनके डेरोंपर आये। तब उस स्थानमें वे सारे पांडव और यादव आदि परस्पर एक
दूसरेसे मिले॥१९॥ तदनन्तर श्रीकृष्णने उस सभामें घोडेको देखकर कहा कि, यह देवकी इत्यादि सारी नारीं कौतुक (तमाशा) देखनेकी कामनासे यहाँ आईं हैं, इस कारण इनको तमाशा दिखाना चाहिये॥२०॥ श्रीकृष्णकी कही हुई यह बात सुनकर धर्मराजने कहा। युधिष्ठिर बोले कि, आप सब वीर घोडेके चौतर्फा खडेहोजाइये॥२१॥और यहाँ ऋषिवर धौम्यको घोडेकी पूजा करनी चाहिये तथा फिर यादवोंकी नारियोंकोभी पूजा करनी उचित है, सारी नारियोंको बलि और पूजोपहारसे इस घोडेकी पूजा करनी चाहिये॥२२॥ हे महीपति यौवनाश्व!डेरोंकी खिडकियोंमें बैठीहुई युवतियाँ वहाँ नाचतेहुए घोडेका दर्शन करें॥२३॥ हे महाराज जनमेजय! इसी समयमें वहाँ अनुशाल्व आपहुँचा, और उसने पहला वैर याद करके तहाँ उस घोडेको हरण किया॥२४॥ हे परीक्षित नन्दन! वह भाईका नाश करनेवाले श्रीकृष्णकी शत्रुताको स्मरण करके गर्जताहुआ उस घोडेको लेगया अबइसके पीछे हे राजन्! श्रीकृष्णजीने जो कुछ किया, सो सुनिये॥२५॥ पांडवोंके घोडेको गयाहुआ देखकर भगवान् श्रीहरि अत्यन्तही लज्जित हुए और धर्मराज युधिष्ठिरसे बोले। हे प्रभो! आप विपाद (शोक) मत कीजिये॥२६॥ क्योंकि मैं, अनुशाल्वका नाश करके उस घोडेको मँगाऊंगा।यह कहकर उन श्रीकृष्णने बीडेको हाथमें उठालिया॥२७॥ तदनन्तर हे राजन्! उस बीडेको हाथमें लेकर श्रीकृष्णने अपने निवास स्थानपर बैठेहुए कहा कि जो कोई शूर हो, वह इस बीडेको ग्रहण करे। तबवे सारे वीर श्रीकृष्णकी यह दारुण (कठिन) बात सुनकर॥२८॥ संकल्प विचारसे हीन हुए और आपसमें एक दूसरेको देखते हुए चुपचाप बैठेरहे। तब भगवान् श्रीकृष्णके
पुत्र श्रीमान् प्रद्युम्नजीने पिताके हाथमें स्थित॥२९॥ उस बीडेको लेकर इस प्रकार वचन कहे।प्रद्युम्न बोले हे पिताजी! मैं अनुशाल्वको वध करके घोडा लेआऊंगा॥३०॥ मैं उस अनुशाल्वको उसकी सेना समेत तिनकेकी तरह (नष्ट) करके घोडा ले आऊंगा, आप लोग मेरा पौरुषः (पराक्रम) देखिये तब श्रीकृष्णने फिर कहा कि, कोई मेरे हाथके इस दूसरे बीडेको ग्रहण करो॥३१॥ और जिसमें पौरुष अर्थात् पराक्रम हो वह प्रद्युम्नके साथ चला जावे, भगवान् श्रीहरिके इसप्रकार कहनेपर महाबली वृषकेतुने॥३२॥ तहाँ उस बीडेको ग्रहण किया और प्रद्युम्नके सामने गया और कहनेलगा। वृषकेतुने कहा। महावीर अनुशाल्वको पकडकर हे गोविन्द! यदि आपके सामने नहीं लेआऊंतो हे प्रभो! मेरी प्रतिज्ञा सुनिये। हे विभो! ब्राह्मणीसे गमन (सहवास) करनेपर शूद्धको जो गति मिलती है,॥३३॥३४॥ यदि मैं आज घोडेको नहीं लेआऊं, तो हे कृष्ण! मुझको वही गति प्राप्त हो। वैशंपायनजीने कहा यह कहकर वृषकेतुने प्रद्युम्नके सहित अनुशाल्वके साथ संग्राम करनेके लिये सेनामें प्रवेश किया॥३५॥ अनुशाल्वने कहा हे प्रद्युम्न! जिस स्थानमें तपस्वी हैं और जिस स्थानमें पतिव्रता नारियाँ हैं॥३६॥ और जहाँ विवेक (ज्ञान) हीन आदमी हैं वहीं आपका पौरुष है, उसकी यह बात सुनकर प्रद्युम्नने पांचबाणोंके द्वारा॥३७॥ युद्धमें अनुशाल्वको सहसा प्रहार किया और अनुशास्वनेभी वेग सहित उन बाणोंको बीचमेंसेही काटडाला॥३८॥ और फिर एक बाणके द्वारा हँसते हँसते प्रद्युम्नके हृदयको विद्ध किया। इस प्रकार वह कृष्णपुत्र प्रद्युम्नछाती विंधजाने पर महान् कष्टको प्राप्त हुए॥३९॥ और बाण द्वारा संग्राममें भ्रमतेहुए श्रीकृष्णके आगे जागिरे, तबमाधव श्रीकृष्ण प्रद्युम्नको इस
तरह गिरा हुआ देख अपने मनमें लज्जित हुए॥४०॥ तब उन्होंने पुत्र प्रद्युम्नको पैरकी ठोकर मारकर इस प्रकार कहा।श्रीकृष्ण बोले। हे मूढ! उठ! उठ! यह द्वारका पुरी नहीं है॥४१॥जहां तू क्रीडा (आनन्दविहार) किया करताहै, वरन् यह (परम दारुण) युद्धका स्थान है, भगवान् श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर भयंकर पराक्रमी भीमसेन॥४२॥प्रद्युम्नके समेत अनुशाल्वके रणमें जाकर प्राप्तहुए। तहाँ पहुँचकर भीमसेनने गदाघातसे॥४३॥इस संग्राममें अनुशावकी बहुतसी सेनाको चकनाचूर करडाला।तब तो वीर अनुशाल्वनेभी एक बाणसे भीमसेनकी छातीमें प्रहार किया, तब वभी श्रीकृष्णके आगे आपडे, भीमसेनकीगिराहुआ देखकर श्रीकृष्ण महान् कोपयुक्त हुए॥४४॥४५॥
चौपाई
मूर्छित भीम देखि जगतारण।आये हव रणको पगु धारण॥
क्रोधित दारुक रथ लै आये। हाँक मारि राजापहँ आये॥
तब अनुशल्य हाँककर दीन्हा। मैं ही इनको वध है कीन्हा॥
भीम काम रणमह मैं मारा। अब बल देखो नन्दकुमारा॥
तबही दैत्यराज परचारा। भारी बाण कीन्ह परहारा॥
चारों बाण तुरंगहि लागे। रथके अश्वतुरन्तहि भागे॥
भो अदेख रथ श्रीभगवाना।तब हारको आगमन ब++ना॥
और स्वयं युद्ध करनेको चलदिये। हे राजन्! यह एक अद्भुत बात हुई। तबश्रीकृष्णने युद्धमें हँसते हँसते अनुशाल्वको तीन बाणोंसे हनन किया॥४६॥ फिर अनुशाल्वनेभी सहसा भगवान् माधवके उन बाणोंको अपने बाणोंसे बीचमेंही काटडाला और फिर इस प्रकार कहा॥४७॥ हे कृष्ण! आप मेरे बाणोंको नहीं काटसकतेहैं, अतएव आप मेरे बाणोंका प्रहार स्थिर (सावधान) होकर सहिये, मैं आपको अवश्यही हनन करूँगा
इस विषयमेंसन्देह नहीं है॥४८॥ यह कहकर उसने भगवान् वासुदेवकी छातीपें बाण मारे, जिन बाणोंके लगनेसे श्रीकृष्ण संतुष्टकी नाईं मूर्छित होगये॥४९॥ तदनन्तर उस अनुशाल्वके तेजसे गोविन्द श्रीकुष्णको संतुष्ट देखकर दारुक नामक सारथी जहाँ महाराजयुधिष्ठिर थे, उस स्थानमें श्रीकृष्णके रथको लेगया॥५०॥ तब भगवान् श्रीकृष्णको ऐसी अवस्थामें देखकर महान् हाहाकार मचगया, और पांडवोंके देखते देखते उनकी सारी सेना भाग खडीहुई॥५१॥ वहाँ सब कोई बेटेबाप और भाई हितू नातेदार, बांधव इनको परस्पर छोडकर भागगये और कुछेक आपसमें इस तरह कहनेलगे॥५२॥ हे बेटे! मैंतेरा बाप लडाईमें गिरगयाहूँ इस कारण तू मुझेदूसरी जगह लेजा। है नराधिप जनमेजय! बेटाभागकर दूर खडाहुआ अपनेबापसे कहरहाहै कि॥५३॥ मैंलडाईसे निकलतेही आपका श्राद्ध गयातीर्थमें जाकर करदूँगा। इस प्रकार वे श्रीकृष्णको मूर्छितदेखकर हाहाकार करतेहुए दौडनेलगे॥५४॥ हे नृप! श्रीकृष्णकी रुक्मिणी इत्यादि सारी पटरानियाँ भीदौडीहुईआईं और फिर श्रीकृष्णकी इस अवस्थामें देखकर सत्यभामाने कहा॥५५॥
** दोहा**
तुम भागे केहि हेतु प्रुभु, कह सति भामा बात।
चण्डिहप अब धरव मैं, दैत्य वधबविख्यात॥ `
सत्यभामा बोली हे स्वामिन्!रणपंडित पुत्रप्रद्युम्नकुमारके बाणद्वारा पीडित होयुद्धसे चलेआनेपर आपने उसके शिरपर किसलिये पैरकी ठोकर मारीथी?॥५६॥ हे जगत्पते! अब आप अनुशाल्वके डरसे पीडित होकर रणस्थर छोडकर यहाँ किस भाँति चलेआये? और वे सब जनभी मृतुके भयसे घबराकर पलायन कृरगये॥५७॥
स्वयं गच्छामि किं नाथ, चण्डीभूत्वा महाहवे।
हंतुं तमनुशाल्वं हि यस्माद्भीतः समागतः॥१॥
हे नाथ! जिस अनुशाल्वके भयसे घबराकर आप यहाँ चले आयेहैं, उस अनुशाल्वको वध करनेके लिये क्या मैंहीं स्वयं चण्डीका रूप धारण करके संग्राममें जाऊं?॥५८॥॥ इति श्रीभारतसारे अश्वमेधपर्वणि भाषायां श्रीकृष्ण मूर्च्छापत्तिर्नामैकाशीतितमोऽध्यायः॥८१॥
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द्व्यशीतितमोऽध्यायः ८२.
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द्व्यशीतितम अध्याये नीलध्वजपराभवः।
अर्जुनादभवत्तावत्तत्साग्रमिह वर्ण्यते॥१॥
इस बयासीवें अध्यायमें अर्जुनके द्वारा नीलध्वजका परास्त होना इस युद्धकीही आदिसे अन्ततक कथा वर्णन करी जातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
इति तस्या वचः श्रुत्वा निर्ययौ भगवान्पुनः।
अनुशाल्वं रणे योद्धुं तस्मिन् ++ले विशाम्पते॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय!सत्यभामाकी यह बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण फिर उस काल रणांगनमें अनुशाल्वसे संग्राम करनेके निमित्त निकलकर चले॥१॥ किन्तु वृषकेतु श्रीकृष्णसे प्रथमही रणमें संग्राम करके और उस दैत्य अनुशाल्वके बाल पकडकर घोडेसमेत श्रीकृष्णके निकट ले आया॥२॥ वृषकेतुको इस अवस्थामें आया हुआ देखकर जनार्दन श्रीकृष्ण परम सन्तुष्ट हुए और उसको धन्य! धन्य! कहनेलगे॥३॥ श्रीकृष्णने कहा हे कर्णनन्दन! आप धन्य हैं,
क्योंकि आपने जो प्रतिज्ञा करीथी उसको सफल किया। आपके अतिरिक्त दूसरा कौन आदमी युद्धमेंसे इस अनुशाल्वको यहाँ लासकताहै?॥४॥वृषकेतुसे इस तरह कहकर घोडे समेत अनुशाल्वको सब जनोंके आगे करके गीत वाद्य इत्यादि मांगलिक उत्सवोंद्वारा॥५॥ कमललोचन भगवान् श्रीकृष्ण हस्तिनापुरमें चले आये। वहाँ श्रीकृष्णने सब जनोंको यथास्थानमें निवास कराया॥६॥ भगवान् हृषीकेशको आये हुए वीस दिन बीतगये। तब चैतके महीनेकी पूर्णमासी प्राप्त होनेपर महाराज युधिष्ठिर दीक्षितहुए॥७॥ उन्होंने द्रौपदीके सहित अत्यन्त भयंकर असिपत्र व्रतको धारण करके अपने अंगीकारकिये हुए घोडेकी यथाविधि पूजा करी॥८॥जहाँ शयनके एक स्थानमें शयन करकेभी स्त्रीपुरुष परस्पर भोग नहीं कियाकरतेहैं, विद्वान ऋषियोंने उसीको असिपत्रव्रतके नामसे पुकारा हैं॥९॥तदनन्तर उन महाराज युधिष्ठिरने वहाँ ब्राह्मणोंकी और घोडेकी पूजा करके गहने और चमर बँधेहुए उस घोडेको छोडदिया॥१०॥ और उस घोडेका पालन (रक्षा) करनेके लिये अर्जुनको भेजा और कहा कि हे धनञ्जय! भगवान् वासुदेवके प्रसादसे आप निर्विघ्न, रहें॥११॥हे पार्थ!हे मारिष! आप रणमें पितृहीन बालक, भागतेहुए, रोगी और बुढे आदमीको मत मारना॥१२॥धर्मराज युधिष्ठिरकी यह बात सुनकर अर्जुनने भगवान् केशवको स्मरण किया और फिर समस्त गुरुजनोंको नमस्कारः करके जो कि उत्तम सहायक थे, चलेगये॥१३॥हे राजन्! वे अर्जुन ब्राह्मण, गौका झुंड, होमकी सामग्री और घोडेको आगे करके माहिष्मतीपुरीमें गये॥१४॥हे भारत! वहाँ वीर नीलध्वज किलेकी रक्षा करताहै और मनुष्य नर्मदा नदीके जलको पीतेहुए
लिंगाकृति श्रीमहादेवजीका दर्शन कियाकरतेहैं, तब वहाँ अर्जुनने भाँति भाँतिसे संग्राम करके उस वीर नीलध्वजको पुत्रसहितजीतलिया जिस राजा नीलध्वजने वह्निसूत्रमंत्रके द्वारा अपने जामाता (जमाई)अग्नि देवताको बुलाकर पांडवोंके दलमें भेजा। जनमेजयने पूछा कि, हे मुनिवर! उस राजा नीलध्वजने अग्नि देवताको अपना जमाई किस तरहसे बनाया॥१५॥१६॥१७॥ और उस राजाने उन महतमा अग्निको अपनी कौनसी कन्या प्रदान करी?हे द्विजोत्तम! यह जो कुछ मैंने पूछा है, सो आप सब वर्णन कीजिये॥१८॥ वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय!सुमध्यमा (पतलीकमरवाली) ज्वाला नाम्नी नीलध्वजकी रानी थी, उसने सुन्दरी और धर्ममें तत्पर रहनेवाली स्वाहानामक कन्याको उत्पन्न किया॥१९॥ तब नीलध्वजने उससे पूछा कि तुझको कौनसा भर्त्ता अच्छा लगताहै! तब उसने अपने पिताको उत्तर दिया कि, मेरे भर्त्ता हव्यवाहन (अग्नि) होंगे॥२०॥ सबलोक अवसान (अन्त) में जिनमें शरीर त्यागतेहैं, तब उस स्वाहाने इस प्रकार कहकर तप करनेका निश्चय किया॥२१॥ अनन्तर उस स्वाहाने वह्निसूक्त मन्त्रद्वारा उन हव्यवाहनका स्तव (स्तुति) किया, तब वे अग्निब्राह्मणका रूप बनाकर नीलध्वजके पास आये॥२२॥ हे राजन्! नीलध्वजने उन ब्राह्मणरूपी अग्निकी पूजा करके फिर पूछा कि हे महाशय! आप कौन हैं? तथा कहाँसे आयेहैं? और आप किस पदार्थको शोधतेहैं?॥२३॥ब्राह्मणने उत्तर दिया कि, हे राजन्! शांडिल्य गोत्रमें जन्मेहुए मुझको आप कन्यार्थी जानिये अर्थात् मैं कन्या लेना चाहताहूँ अतएव आपके घरमें जो बाला विद्यमान है, सो व कन्या मुझको प्रदान करदीजिये॥२४॥ राजाने कहा हे स्वामिन्!यह मेरी कन्या प्रथम पावक
(अग्निदेव) को वरचुकी है, ब्राह्मणने कहा हे राजन्! ब्राह्मणके वेषसे आयेहुए मुझकोही आप अनि जानिये॥२५॥ प्रधानने कहा हे महाराज! हे नीलध्वज! यह ब्राह्मण कन्या लेनेके लिये अब अग्निबनाजाताहै, अतएव हे नाथ! आप अग्निके अतिरिक्त यह स्वाहाकन्या दूसरे किसी व्यक्तिको मत देना॥२६॥ इसके पीछे प्रधान उस ब्राह्मणसे बोला कि, हे द्विजवर! आप मुझको अपने (अग्निदेव) होनेकी (कोई) परीक्षा दिखाइये। प्रधानके इतना कहतेही उस ब्राह्मणके मुखसे ज्वाला (आगका भभूका) निकला, जिससे उस मन्त्रीकी दाढी व मूँछें जलगई। हे राजन्! उस समय बडा विनोद (तमाशा) हुआ॥२७॥ ॥२८॥ तब कन्याकी मातृस्वसा (मौंसी) महाराज नीलध्वजसे यह वचन बोली। हे राजन्! आप ब्राह्मणके निमित्त कन्या कदापि मत देना॥२९॥क्योंकि यह ब्राह्मणके वेशमें कोई इन्द्रजालिक (बाजीगर) दिखाई देताहै। राजाने कहा हे कल्याणी! इस ब्राह्मणको अपने घर प्राप्तकरो॥३०॥ हे बडी आँखोंवाली! यह ब्राह्मण है अथवा अग्निदेवता हैं, इस बातकी परीक्षा कीजिये। तब उस ब्राह्मणसमेत वह देवी घरको चलीगई॥३१॥ और उस ब्राह्मणसे वहाँ जाकर बोली हे विप्र! अब आप मुझको शीघ्र अपनी परीक्षा दिखाइये, तब अग्निदेवताने पित होकर उस घरकोही फूंकदिया॥३२॥ फिर कपडे जलजानेसे वह रंडा नंगी होकर इस प्रकार कहनेलगी कि हे महाराज! अब आप अपने जमाईको अपने घर लिवाजाइये॥३३॥ और इनको वह कन्या देदीजिये, क्योंकि यह निःसन्देह वडवानल (अग्नि) हैं। तब उसी समय राजाने उन विभावसुको बुलाकर॥३४॥ शुभ समयमें उनके साथ अपनी कन्या स्वाहाका विवाह करदिया। हे राजन्! उसी
दिन यह अग्निदेवता महाराज नीलध्वजकें जमाई हुएहैं॥३५॥
सोपि नीलध्वजो राजा ससैन्यो निर्जितो रणे॥
अर्जुनेन च वीरेण प्रसादात्केशवस्य च॥३६॥
हे राजन्! उन्हीं महाराज नीलध्वजको रणमें सेनासमेत वीर अर्जुनने भगवान् केशवके प्रसादसे जीतलिया॥३६॥इति श्रीभारतसारे अश्वमेधपर्वणि भाषायां नीलध्वजनिर्जयो नाम द्व्यशीतितमोऽध्यायः॥८२॥
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त्र्यशीतितमोऽध्यायः ८.
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त्र्यशीतितम अध्यायेऽर्जुनेन सौभरेश्चह।
उद्दालककथाव्याजात्प्तर्वंतदिह भण्यते॥१॥
इस तिरासीवें अध्यायमें उद्दालकऋषिकी कथाके मिस अर्जुनके संग सौभारऋषिका सारा हाल वर्णन कियाजाताहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
नीलध्वजस्य भार्या वै नाम्ना ज्वालेति विश्रुता।
अर्जुनोपार क्रुद्धा वै गता भ्रातृनिवेशनम्॥१॥
वैशंपायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय!नीलध्वजकी भार्या जो कि ज्वालानामसे प्रसिद्ध थी, वह अर्जुनपरक्रोधित होकर अपने भाईके घरको चलीगई॥१॥फिर जिस समय उसको भाईने अपने घरसे निकाल दिया, तब वह श्रीगंगाजीके शोभायमान किनारेपर जाकर जलगई और पीछे वहाँ बाणरूप होकर बभ्रुवाहनके तूण (तरकस) में अवस्थित होगई॥२॥तब श्रीमती गंगाजीके शापानुसार अर्जुनके विनाशके कारण ऐसी उत्पन्नहुई तबउन्ही महाराज नीलध्वजके नगरसे पार्थ (अर्जुन) का घोडा निकला॥३॥ तदनन्तर वह घोडा एक बडी
भारी चारकोशतक लम्बी चौडी शिलाको देखकर उसपर खडा होगया, और वहाँ उसने अपने अंगोंको रगडना आरंभ किया॥४॥तब वह वज्रलेपकी तरह होकर चल नहीं सका, इस भाँति उस घोडेको जड देखकर अश्वपाल (साईस)॥५॥अट्टहाससहित गर्जता आ महाक्रोधमें भरगया और उनमें कितनोंहीने अर्जुनके आगे जाकर उस घोडेका हाल कहा॥६॥ हे राजन्! वह घोडा उस शिलापर बँधरहाहै इसके पीछेअब क्या उपाय कियाजावे? उनकी यह बात सुनकर अर्जुन चिन्तामें मग्न होगये अर्थात् सो विचार करनेलगे॥७॥ फिर अर्जुन इधर उधर देखते ज्योंही आगेको चले कि वैसेही उनको मुनिका एक उत्तम आश्रम दिखाई दिया॥८॥तबवुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ अर्जुनने ब्राह्मणश्रेष्ट सौभरि ऋषिके पास जाकर घोडेके शिलापर लिपटजानेका कारण पूछा॥९॥सौभरिने कहा हे राजन्! सुनिये, मैं इसका कारण कहताहूँ, यह शिला प्रथम ब्राह्मणी अर्थात् उद्दालककी भार्या थी, और यह उद्दालक ऋषिके कहनेके विपरीत काम किया करतीथी॥१०॥एक दिन उन ब्राह्मण उद्दालकजीके पिताका श्राद्ध आनकर प्राप्त हुआ, हे राजन्! उस दिनउनके घर कौंडिन्य नामक श्रेष्ठ मुनि॥११॥तीर्थयात्रा करतेहुए कितनेही शिष्योंसमेत आनकर प्राप्तहुए उनको आया देखकर उद्दालकजी हर्ष युक्त हुए॥१२॥और फिर जैसेही उनको अर्घ्य और आसन इत्यादि देकर ग्लानि सहित उनके सन्मुख बैठे, उसी समय ऋषिवर कौंडिन्यने कहा हे विप्र! आप किस बातका शोच करतेहैं? और कैसा दुःख आपको वर्त्तमान है?॥१३॥उद्दालकजीने कहा।हे स्वामिन्! अगले दिनमें यहाँ मेरे पिताका श्राद्ध होगा, सो उस श्राद्धको मैं कैसे करूँगा? यही मुझको बडी भारी चिन्ताहै॥१४॥
क्योंकि हे ब्रह्मन्! मैं जो बात अपनी प्रिया (भार्या) से कहताहूँ, तो वह उस बातके विपरीत काम कियाकरतीहै। कौण्डिन्यने कहा कि हेउद्दालकजी! आप जरा यहाँ आइये, मैं आपके कानमें कुछ कहूँगा॥१५॥ हे विप्रर्षे! आप जिस जिस कामको करनेकी अभिलाषा करें, उस कामको अपनी भार्यासे विपरीत कहिये अर्थात् यदि उससे भोजन कराना चाहो तो उसके विपरीत यह कहो कि आज भोजन मत बनाना। ऐसा करनेपर फिर आपके सारे काम ठीक होजाँयगे॥१६॥ और मैं गौतमजीके निकट जाकर सबेरेही यहाँ चला आऊँगा। कौण्डिन्यकी इसप्रकार बातें सुनकर उद्दालकजीपरम सन्तुष्ट हुए॥१७॥ अनन्तर ब्राह्मणश्रेष्ठ उद्दालकजीने सन्तुष्टमनसे उसी प्रकार श्राद्धके सब कार्य सम्पन्न किये॥१८॥ फिर अपनी भार्यासे कहा कि, तू इन पिडोंको लेजा कर गंगाजीमें डालआ, तब उस भार्याने उन पिंडोंको शौचकूप (अर्थात् जहां मलत्याग पूर्वक गुदा शुद्ध कीजातीहै) में डाल दिया। तब तो उद्दालकजीने महान् कोप युक्त होकर उस चंडिनीसे कहा॥१९॥ रे रे दुष्टे! दुराचारिणी! तू महाभयंकर शिला होजा। फिर जब अर्जुन आवेगा, तब (इस शापसे) तेरा छुटकारा होगा॥२०॥ सो हे महाराज अर्जुन! यह ऋषिकी शाप दीहुई वही शिलाहैइसको आप छुडाइये। इस प्रकारमुनिके कहनेपर पीछे अर्जुनने वही सब काम किया॥२१॥ तब शिलाका रूप छोडकर परम सुन्दर नारी हो गई और फिर शीघ्र ही अपने घोडेको छुडाय वीर हंसध्वजद्वारा भार्याकी समान पालीजातीहुई चम्पावती नगरीमें चलेगये। उन महाराज हंसध्वजके पांच पुत्र वर्णित हुए हैं॥२२॥२३॥ यथा सुरथ, सुबल, शम, सुन्दरदर्शन और पांचवा सुधन्वा यह सब बेटे तेजस्वी थे॥२४॥ वह महाराज हंसकेतु घोडेको पकड़कर इस कारकी
सेना समेत अर्जुनकी सेनाके सामने खडे होगये और राजाकी आज्ञानुसार दरबाजेपर (खौलते) हुए तेलका कढाव रखदिया गया॥२५॥ फिर कहने लगे कि जो आदमी पिछाडीसे आवेंगे, उन सबको मैं इस तेलके कढावमें गिरा ऊंगा। तब सारे वीर तो संग्राममें आपहुँचे, किन्तु सुधन्वा पिछेडीसे बाहर निकला॥२६॥ क्योंकि उसको भार्याने विरमा रक्खाथा,अतएव हे महाबुद्धिमान्! आप सुनिये जैसेही अपना रथ दरबाजेपर खडा करके सुधन्वा बाहर निकला॥२७॥कि वैसेही अपनी प्यारी नारी प्रभावतीको उसने देखा। प्रभावतीने कहा। हे प्यारे! आप प्रथम मुझको ऋतुदान देकर पीछे संग्राममें जाइये॥२८॥ क्योंकि हे वल्लभ! ऋतुदानके भंग करनेपर बालककी हत्या इत्यादिके महापापमें लिप्त होना पडताहै। प्यारीका यह आ**++** ह (हठ) सुनकर सुधन्वा विलमरहा अर्थात् उसने **++देर ठहरकर स्त्रीको ऋतुदान किया॥२९॥ तब महाराज हंसकेतुने उसके इस++त्सित कर्मकी बात सुनकर++**त्रोंमें आगे गिननेलायक सुधन्वाको किंकरोंकी समान कराया॥३०॥ इसी बीचमें महाराजने पुत्रहन्ता (जल्लाद) को रोहित शंखके पासभेजा तब इस हालको मालूम करके लिखित क्षुभित हो काँपनेलगा॥३१॥ उसी समय वह सुधन्वा तेलभरे कढावके निकट आगया, वहाँ न्याय और अन्यायके वक्ता शंख व लिखित ये स्थितहुए॥३२॥उन्होंने सुधन्वासे कहा आप विलम्ब करके सबसे पीछे क्यों आये? हे महावीर! आप कैसे मूर्ख हैं, क्या आप महाराजकी आज्ञाको नहीं जानतेथे?॥३३॥गुरुके इस प्रकार कहने पीछे सुमति नामक मन्त्री आया। सुमतिने कहा। हे महावीर! मैं क्या करूं? मुझको महाराजका हुक्म वर्तमान होरहा है॥३४॥ वैशंपायननी बोले। हे जनमेजय ! तब उस बुद्धिमान्
सुधन्वाको स्नान कराकर अत्यन्त सुन्दर कपडे पहिराये गये तुलसीदलकी माला धारण कराई तब वह हरिनाम उच्चारण करनेलगा तिस समय उस सुधन्वाको उठाकर तेलके कढावमें डाल दिया॥३५॥ तदनन्तर पुरोहित शंखके सहित महाराज हँसध्वजने उस कढावमें तैरते और ‘हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव!’ इसभाँति भगवान् श्रीकृष्णके पवित्र नामोंको उच्चारण करतेहुए अपने पुत्रका दर्शन किया॥३६॥
चौपाई
अस्तुति कुँवर ++रै रजोरी। दीनदया++शरण मैं तोरी॥
ध्रुव प्रहलाद और पंचारी। तुम्हीं विभीषण लिये उबारी॥
दयानिधान राखि अब लीजे।महिमा प्रकट आपनी कीजे॥
जैसे ग्रहतेंगजहि छुडाओ। ताहीविधि अब मोहि बचाओ॥
कुँवरहि देखि पुरोहित कहै। जातें अग्नि वरायि न रहै॥
की धौं तेल तप्तनहिं आही। की++ छु जरी कुँवरमुखमाही॥
प्रोहित तबहि प्रतिज्ञा धारी। नरिय एकराहे डारी॥
परत कराह फूटि छितराई। प्रोहितके माथे गजाई॥
ता क्षण प्रोहित बहुत लजाना। भक्त द्रोह मैं कियो निदाना॥
दोहा
धनि धनि कुँवर सुधन्वा, तोर हृदय हरिवा।
परे कराहेमें तुझे, राख्यो श्रीनिवास॥
तब शंखने महाराज हंसकेतुसे कहा कि हे राजन्! क्या यह तैल जलतीहुई अग्निसे (भलीभाँति) खौल नहीं गयाहै? अथवा यह किसी औषधी वा मन्त्रका बल समझना चाहिये? आपके बेटेका छल किसीको मालूम नहीं होता। इस कारण आप इस कढाओंमें एक नवीन नारियल गिरवाइये तो उसके द्वारा अग्निऔर तेलकी परीक्षा होजायगी॥३७॥ शंखकी इसप्रकार बात सुनकर लिखितने उसमें नारियल गिरवाया। किन्तु वह नारियल उस खौलतेहुए तेलसे फटकर दोटुकडेहोगये॥३८॥
एकं शं++ललाटे हि द्वितीयं लिखितस्य च॥
लग्नं तदा प्रहारेण मूर्च्छितौ पतितौ भुवि॥३९॥
उन दो टुकडोंमें एक तो शंख और दूसरा लिखितके माथेपर लगा जिसके प्रहारसे वे दोनों मूर्छित होकर भूमिमर गिरपडे॥३९॥ इति श्रीभारतसारे अश्वमेधपर्वणि भाषायां शंखलिखितमूर्च्छनं नाम त्र्यशीतितमोऽध्यायः॥८३॥
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चतुरशीतितमोऽध्यायः ८४.
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चतुरशीतितमेऽध्याये वधं पार्थः सुधन्वनः॥
चकार कृष्णकृपया तत्सविस्तरमुच्यते॥१॥
इस चौरासीवें अध्यायमें भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे पार्थ (अर्जुन) ने सुधन्वाको वध किया इसका विस्तारसहित वर्णन कियाजाताहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
ततः सुधन्वाः सुस्नातः प्रययौ संगरे तदा॥
पार्थसैन्यं तदा घोरं नानाहेतिभिराहनत्॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय! तदनन्तर सुधन्वा भलीभाँति स्नान करके संग्रामस्थानमें आपहुँचा, और तरह तरहके दारुण अस्त्र शस्त्रोंसे अर्जुनकी सेनाको मारनेलगा॥१॥ उसकाल पैदलसे पैदल, रथीसे रथी, सवारसे सवार और हाथीपर चढेहुए हाथीपर चढेहुए पुरुषोंसे संग्राम करनेलगे, इस तरह परस्पर समान प्रतिद्वन्द्वी संग्राम होनेलगा॥२॥ उस सुधन्वाने इसभाँति तुमुल युद्ध किया। तब अर्जुनने वहाँ सुधन्वाकी बहुतसी सेनाका नाश करडाला॥३॥ तदनन्तर अर्जुनने महान् कोपपूर्वक सौ बाण धारण किये और उनको सुधन्वा-
पर चलाया, तब सुधन्वाने हँसते हँसतेही उन सब बाणोंको काटडाला॥४॥ और फिर अपने दश बाणोंसे हँसते हँसतेही कुन्तीपुत्र अर्जुनको ताडन किया। फिरसौ बाणोंसे हजार बाणोंसे फिर अयुत बाणोंसे और लाखों॥५॥बाणोंसे रणमें क्रोधित होकर अर्जुनको ढकदिया और अर्जुननेभी उन बाणोंको अपने बाणोंसे तिल तिल छेदन किया॥६॥
चौपाई
पारथ पावक बाण चलाये।कुँबरके दलको बहुत जराये॥
वारुण बाण कुँबर तब मारा। अग्नि++बुझी वाढी जलधारा॥
वर्षाकी उपमा जनु पाये। पवन बाण तबपार्थ चलाये॥
ज++ गयो सूखि उडन दल लागा। राजहि देखि पुत्र रिस पागा॥
तीस बाण क्रोधित ह्वैछाँटे। ध्वज पता पारथके काँटे॥
कह्यो कुँबर अवपारथ कहिये। सारथि गिरे सारथी चहिये॥
फिर अर्जुनने आग्नेयास्त्र और सुधन्वाने वारुणास्त्र चलाया। इसके पीछेअर्जुनने पवनास्त्र और कुँबर धन्वा बलवान्ने उसका संहार करनेके लिये पर्वतास्त्र चलाया॥७॥ तब अर्जुनने ऐन्द्र शस्त्र पर्वतास्त्रका संहार करनेके लिये चलाया और सुधन्वाने उस अस्रको अपने तीन बाणोंसे हनन किया। इस प्रकार युद्ध होते २ अर्जुनने भगवान् माधवको स्मरण किया॥८॥ उसी समय क्लेश विनाशक भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ आनकर उपस्थित हुए। तब सुधन्वाने विजय (अर्जुन) से कहा॥९॥सुधन्वा बोला हे पार्थ! आप श्रीकृष्णके समीप मेरे मारनेकी प्रतिज्ञा कीजिये।अर्जुनने कहा मैं अर्जुन तीन बाणोंसे तेरा मस्तक काटकर गिरादूँगा॥१०॥यदि मैं तेरे मस्तकको काटकर न गिराऊँ तो मेरे पितर नरकमें पड़ें, मैंने तो यह प्रतिज्ञा करली, और अब आपभी प्रतिज्ञा कीजिये॥११॥ सुधन्वाने कहा हे वीर! मैं सारे राजाओंके देखते देखते आपके तीनों
बाणोंको काहूँगा। यदि मैं यहाँ ऐसा न करूँ तो मुझको घोर गति प्राप्तहो॥१२॥श्रीकृष्ण बोले हे पांडव! अब आप वीर सुधन्वाका पुरुषार्थ देखिये। आपकी यह प्रतिज्ञा वृथा होगी, तीन बाणोंसे सुधन्वा कैसे माराजायगा?॥१३॥जो हो आपने यह बडा साहस किया जो सुधन्वाको तीन बाणोंसे मारनेकी आपने प्रतिज्ञा करी। यह सुनकर महाबाहु अर्जुनने धनुषपर बाणको साधा॥१४॥तब महाप्रतापवान् अर्जुनने अपना कालाग्निकी समान बाण महान् कोपपूर्वक सुधर्माके ऊपर चलाया उस बाणको देखकर गोविंद भगवान् श्रीकृष्णने उसमें अपना पुण्य मिश्रित किया॥१५॥और कहा कि, पूर्वकालमें मैंने गोवर्द्धन पहाडको धारण करके जो गायोंकी रक्षा करीथी, उसी पुण्यके प्रतापसे यह अर्जुनका बाण निश्चय सन्नद्ध होवे॥१६॥ देवतालोगभी स्वर्गसे उन दोनोंका युद्ध देखनेके लिये आये, तबसुधन्वाने अपने बाणोंद्वारा अर्जुनके बाणको काटडाला॥१७॥ फिर अर्जुन जैसेही दूसरे बाणको नियोजित करने (चढाने) लगे, कि, वैसेही उस बाणको भगवान् श्रीकृष्णने पुण्यके द्वारा अधिक भारी करदिया॥१८॥ तब फिर जिस तरह कंजूस आदमी दुःखी होकर अपने धनको छोडदिया करताहैं वैसेही क्रोधपूर्वक अर्जुनने सूर्यमण्डलकी समान उस बाणको छोडा॥१९॥ तब सुधन्वाने उस बाणको देखकर अपना बाण चलाया और गर्जते गर्जते अपने बाणसे अर्जुनके बाणको तीन टुकडे करके काटडाला॥२०॥ उस दूसरे बाणकेभी कट जानेपर बडा हाहाकार मचगया।तब महामना अर्जुनने अपने हाथमें बाण लिया॥२१॥ और उसके पश्चिममें ब्रह्मा,बीचमें रुद्र और मुखमें भगवान श्रीहरिको स्थापन किया। फिर ऐसे बाणको अर्जुनने छोडदिया॥२२॥
चौपाई
शरपर आप चले भगवाना। पारथ सो शर करु सन्धाना॥
कुँबर कहै जाने जगतारन। शरपर बैठे आवत मारन॥
लाग्यो बाण कुँबरके जाई। राजपुत्र शिर काट गिराई॥
जूझे पुत्र जगत यश पायो। हरिके चरण शीराउडि आयो॥
कृष्णहि कृष्ण जपत शिर रहई। धाय कबन्ध अत्ररगहहि॥
शीशहि गहे हँसत भगवाना। पारथ कीन्हों शरसन्धाना॥
श्रीपति शीश हाथमहँ लीन्हा।राजाके रथ डारि सुदीन्हा॥
तब हं ध्वज शिर लै हाथा। रोदन करत ठोकके माथा॥
ब विलाप तब करत भुवारा। ताको नहिं कीन्हो विस्तारा॥
तब राजा शिर चुम्बन कीन्हा। प्रभुके रथहि डारि सो दोन्हा॥
दोहा
हर्षित ह्वैहरिशीश गहि, दीन्हो गगन चलाय।
तहँ शिव शं++ र मुंडकी, माला लीन बनाय॥
फिर भगवान् श्रीकृष्णने अपना रामावतारका जो पुण्य था, वह उस बाणमें अर्पण किया। तब उस बाणको देखकर सुधन्वाने कहा॥२३॥ हे गोविन्द! मुझको शरण देकर अपने चरणोंमें नियुक्त कीजिये।हे मधुसूदन! आप मुझको जन्म जन्मके लिये अपना दासभाव प्रदान कीजिये॥२४॥ यह कहकर सुधन्वाने अपने अतिउत्तम अर्द्धचन्द्रबाणको छोडा और उस बाणसे अर्जुनके बाणको काटडाला॥२५॥
पश्यतां सर्वभूतानां तथा कृष्णस्य पश्यतः
मध्यतश्छेदयामास तदग्रंचाग्रतो ययौ॥
शिरः सकुण्डलं छित्त्वा तदग्रेण मृतोऽभवत्॥२६॥
फिर सारे आदमियोंके देखतेहुए तथा भगवान् श्रीकृष्णकेभी देखते देखते सुधन्वाने उस बाणको बीचसे काटडाला। किन्तु तथापि उस बाणका अग्रभाग सुधन्वाकी तरफ आगे बढा और उस वाणके अग्रभागने सुधन्वाका कुण्डलसमेत मस्तक काट-
डाला। जिससे वह मृत्युको प्राप्त होगया॥२६॥ ॥ इति श्रीभारतसारे अश्वमेधपर्वणि भाषायां सुधन्ववधो नाम चतुरशीतितमोऽध्यायः॥८४॥
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पञ्चाशीतितमोऽध्यायः ८५.
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पञ्चाशीतितमेऽध्याये सुरथेनाभवद्रणः।
पार्थस्य बभ्रुवाहेन संगमस्त्विह कथ्यते॥१॥
इस पचासीवें अध्यायमें सुरथके संग पार्थका संग्राम होना और बभ्रुवाहनके संग अर्जुनका संगम (मिलन) यह कथा कहीजातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
सुधन्वनि हते वीरे भ्राता तस्य महाबलः।
आजगाम रणे योद्धुं हरिपार्थौ गतौ तदा॥१॥
वैशंपायनजी वोले हे महाराज जनमेजय! जिस समय वीर सुधन्वा मारागया। तब उसका महाबली भ्राता संग्राम करनेके लिये रणमें आया। उस काल श्रीकृष्ण और अर्जुन रणसे दूर चलेगये॥१॥फिर जब रथने उनको नहीं देखा, तो वह कहने लगा। सुरथने कहा हे सबजनो! श्रीकृष्ण अर्जुन कहाँ कहनेलगा चलेगये? सो मुझे बताओ॥२॥ वह सुरथ इस तरह कहकर पीछे सबको बाणोंसे हनन करनेलगा तब वे सब लोग उस बाणवर्षासे औंधेमुख होकर भूमिपर गिरनेलगे॥३॥ तबतक वहाँ रणविशारद कृष्ण और अर्जुन आपहुँचे। सुरथने कहा हे अर्जुन! आप मेरे मारनेकी निश्चित प्रतिज्ञा कीजिये॥४॥ अर्जुनने कहा हे वीर! मैं आपके पिताके सन्मुखही अर्थात् उनके देखते देखतेही आपको मारडालूँगा, मेरी तो यह प्रतिज्ञा है
और हे मानद अब आपभी प्रतिज्ञा कीजिये॥५॥(यह सुनकर सुरथने कहा कि,) मैं आपकी**++**तीमें हनन करके आपको भूतलपर गिरादूँगा। वे दोनों वीर इस प्रकार प्रतिज्ञा करके परस्पर संग्राम करनेलगे॥६॥ बाण, भाले, मुद्गर, मूशल और घूंसोंके द्वारा उन दोनोंका परस्पर तुमुल संग्राम होनेलगा॥७॥ तब वीर अर्जुनने सुरथका कुण्डलोंद्वारा शोभायमान मनोहर तथा मन्दमुसकानयुक्त मस्तक भगवान् श्रीकृष्णके समीप ही काटकर गिरादिया॥८॥ किन्तु उस मस्तकने अर्जुनकी छातीमें भी आघात करके उनको पतित किया। तब भगवान् श्रीकृष्णने वह मस्तक गरुडजीको समर्पण किया॥९॥ अनन्तर गरुडजी उस मस्तकको लेकर गंगाके किनारे गये तब श्रीमहादेवजीने उसको देखकर पूछा कि हे खग! आप यह क्या लेआये हैं?॥१०॥ गरुडजीने उत्तर दिया कि हे स्वामिन्! यह सुरथका मस्तक है, मैं इसको तीर्थराज प्रयागमें गिरानेके लिये जारहा हूँ, हय सुनकर श्रीमहादेवजीने उस मस्तककेलिये अपने गणको भेजा॥११॥ किन्तु हे महाराज! जो कि वह गण बलहीन था, इसलिये उससे बलीवर्द जो नन्दिकेश्वर आये, तब उस बलीवर्दकी फुंकारसे गरुड भी भूमिमें लोटनेलगे॥१२॥ फिर वह गरुड जैसे ही प्रयागराजमें पहुँचे कि, वैसे ही उन्होंने वह शिर श्रीगंगाजीमें डालदिया, तब प्रयागमें गिराये जानेपर उस शिरको नंदीने लेलिया॥१३॥ हे महाराज! ऐसा होनेके पीछे हंसकेतु आया और वह जबतक रणभूमिमें आनकर प्राप्त हो उसी समय श्रीकृष्णने अर्जुनके लिये कहा॥१४॥ श्रीकृष्ण बोले, कि आप घोडोंको छोड दीजिये तथा पांडव (अर्जुन) की रक्षा कीजिये क्यों कि मैं धर्मराज युधिष्ठिरके निकट गमन करूँगातब क्लेशविनाशक भगवान श्रीकृष्णने अर्जुनको
पास बुलाकर॥१५॥दोनोंमें सन्धि (सुलह) कराकर घोडेको छुडालिया और फिर उस नगरमें कृष्णार्जुनने पाँच रात्रि तक निवास किया॥१६॥फिर भगवान् श्रीकृष्णने धर्मनन्दन महाराज युधिष्ठिरके पास जाकर यह सारा हाल निवेदन किया। वैशंपायनजीने कहा। हे राजन्! फिर वह अर्जुनका घोडा देशदेशान्तरोंमें घूमता हुआ॥१७॥एक जगह पानी पीनेके लिये जारहाथा कि वैसेही वह घोडा घोडी होगया,यह बात देखकर सब कोई बड़े ही अचंभेमें होगये॥१८॥फिर वह घोडा दूसरे तालावमें ज्यों ही घुसनेलगा कि त्योंही वह व्याघ्र होगया और फिर दैवयोगसे (अकस्मात्) घोडा होगया॥१९॥इस तरह वह घोडा घूमता फिरता किसी समय स्त्रीदेशमें जाकर उपस्थित हुआ। वहाँ यक्षोंकी स्त्रियोंसे युक्त प्रमिला नामवाली रानी॥२०॥चन्द्रानना अपने पराक्रमवाली उस दारुण देशमें राज्य कियाकरती थी, तब उन स्त्रियों समेत रानी और अर्जुनका घोर संग्राम हुआ॥२१॥इसी बीचमें अर्जुनने आकाशगामिनी वाणी सुनी। आकाशवाणी बोली। हे पार्थ! आप नारीके मारडालनेकी हठ नहीं कीजिये॥२२॥बरन् यदि आप जीवनकी अभिलाषा करतेहैं, तो इस रानीसे विवाह करलीजिये आपका मंगल होगा तब उस आकाशवाणीको सुनकर अर्जुनने उसकी आज्ञानुसार यथावत् काम किया॥२३॥और फिर उन नारियोंको लेकर हस्तिनापुर में भेजदिया, हे महाराज! तदनन्तर अर्जुनके घोडेने अनेक देश देशान्तरोंमें भ्रमण किया॥२४॥फिर अर्जुन अपनी सेनासमेत विभीषणकी लंकापुरीमें गये जहाँ मनुष्यभोजी अनेक निशाचर वास करतेहैं॥२५॥तब उन निशाचरोंके संग महात्मा अर्जुनका दारुण संग्राम हुआ अनन्तर उन दैत्योंको जीतकर अर्जुनने बहुत
सा धन लिया। फिर बहुतसे घोडे और हाथियोंको॥२६॥लेकर वोडे समेत अर्जुन निकले। हे महाराज! फिर अर्जुनका वह घोडा मणिपुरमें गया॥२७॥उस नगरीका अर्जुननन्दन बभ्रुवाहन निरन्तर धर्मानुसार पालन किया करताथा, जहां के आदमी सत्यसंकल्प और नारियाँ पतिकी टहलनी अर्थात् पतिव्रता थीं॥२८॥स्त्रियां अपने बालोंको पुष्पोंसे अलंकृत करती हैं, यह देखकर भगवान् वासुदेव और अर्जुन चिन्ता करने लगे॥२९॥पूर्वकालमें जिसतरह विष्णुने दूसरा वैकुण्ठ स्थापित किया होय, वैसे ही इस नगरको देखकर अर्जुनने श्रीकष्णसे कहा॥३०॥
द्वितीयमिव वैकुण्ठं स्थापितं विष्णुना पुरा।
निरीक्ष्य तत्तथारूपं नगरं चार्जुनोऽब्रवीत्॥
वयं तु कुशलं प्राप्ता मरालध्वजशासनात्॥३१॥
पूर्वकालमें जिसतरह भगवान् विष्णुने दूसरा वैकुण्ठ स्थापित किया होय, वैसेही इस नगरको निहारकर अर्जुनने कहा कि हे हंसध्वज! हम सब कुशलपूर्वक आपके शासन (राज्य) में आपहुँचे हैं॥३१॥इति श्रीभारतसारे अश्वमेधपर्वणि भाषायां बभ्रुवाहनपुरप्रवेशो नाम पंचाशीतितमोऽध्यायः॥८५॥
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षडशीतितमोऽध्यायः ८६.
षडशीतितमेऽध्यायेबभ्रुवाहनपार्थयोः॥
युद्धेऽर्जुनबलस्यैव भंगस्तदिह वर्ण्यते॥१॥
इस छियासीवें अध्यायमें बभ्रुवाहन और पार्थ (अर्जुन) के संग्राममें अर्जुनकी सेनाका भंग होना यह कथा वर्णन की जाती है॥१॥
हंसध्वज उवाच।
बभ्रुवाहननामाऽत्र वर्त्तते राजसत्तमः॥
यस्यास्ति हेमसंपूर्णं शकटानां सहस्रकम्॥१॥
हंसध्वज बोले। हे अर्जुन! यहां सारे राजाओंमें उत्तम बभ्रुवाहन नामवाला राजा राज्य किया करताहै। जिसके यहाँ सुवर्णसे भरेहुए एक हजार शकट (**++**कडे वा गाडी) हैं अथवा कंचन निर्मित हजार गाडी हैं॥१॥ हे पार्थ! मैं प्रतिवर्ष अन्यान्य राजाओंसमेत कर देताहूँ यह सर्वगुणसम्पन्न बभ्रुवाहन नारायण श्रीहरिकी समान है॥२॥ इस राजाका धर्ममें तत्पर सुमति नामसे प्रसिद्ध प्रधान (मन्त्री) है, अतएव हे अर्जुन! आप महान् क्लेश उठाकर इस राजाको जीतसकेंगे॥३॥ हंसध्वज इस प्रकार कहते ही थे कि उसी समय अर्जुनके किरीटके अग्र भागपर एक अत्यन्त भयंकर और मृत्युप्रदर्शक गीध आकर बैठगया॥४॥ हे विष्णुरातनन्दन जनमेजय! उसके द्वारा सब जने अचंभेमें होकर घबरागये। इसीबीचमें उस घोडेको बभ्रुवानके सेवकोंने देखा॥५॥ तब वे सेवक अर्जुनके पुत्र बभ्रुवाहनसे जाकर बोले कि हमलोगोंने आसानीसे ही घोडेको पकडलियाहै तब वीर बभ्रुवाहनने अर्जुनकी सेनाको देखा॥६॥ और वह बभ्रुवाहन उस सेनाको तिनकी समान जानकर निर्भय होगया और फिर अपने वीरोंद्वारा भामें लायेहुए उस श्रेष्ठ घोडेका दर्शन किया॥७॥ सारे अंगोंसे पूजित मनोहर तथा समस्त गहनोंसे अलंकृत उस घोडेको चित्रांगदातनय महाबली सिंहासनपर बैठेहुए बभ्रुवाहनने देखकर और पत्रिका (चिठ्ठी) के पढनेसे उस घोडेको धर्मनन्दन महाराज युधिष्ठिरका समझकर और अर्जुनको उस घोडेका पालक (रक्षक) जानकर॥८॥९॥ मन्त्रियोंमें श्रेष्टअपने सुमति नाम मंत्रीसे पूछा कि मेरी महतारी अर्जुनकी
भार्या है जो कि प्रथम पिताके घर नाचाकरती थी॥१०॥एक दिन तालहीन होनेपर अर्थात् तालसे डिगजाने पर मेरे महात्मा पिताने इसको शाप दिया कि तू तालभंग करनेके कारण नकी (ग्राहणी) होकर बहुत समय पर्यन्त जलमें निवास कर।यह शाप देकर पिताने फिर कहा॥११॥कि जब तू दैवयोगसे अर्जुनके चरणोंमें प्राप्त होगी, तब वेही तुझको इस योनिसे छुडाकर तेरे पति होंगे इसमें कुछ भी संशय मत करना॥१२॥ इसप्रकार जब अर्जुनके संपर्कसे मैंने सुन्दर मणिपुरमें जन्म लिया तब उस समय महतारीने मुझको त्यागकर कहा कि हेपुत्र! तू अर्जुनके निकट चलाजा॥१३॥किन्तु मुझको तो इसीजगह बडाभारी राज्य मिलगया सो मैं उन्हीं पांडव अर्जुनका बेटा हूँ। हे सुबुद्धे!मैं इस समय क्या करूँ? और किस तरह मेरा मंगल (कल्याण) होवे?॥१४॥मैंने विनाही सोचे समझे अपने पिताके इस घोडेको लेलिया है। मंत्री सुबुद्धिने उत्तर दिया इसमें सन्देह नहीं पहले इस बातका कुछभी विचार नहीं कियागया॥१५॥अब एकवर्ष पर्यन्त आपको ही इस घोडेका पालन करना चाहिये और हे नृपश्रेष्ठ!इसके अतिरिक्त आप अपना धारणकिया सारा राज्य और धन॥१६॥अर्जुनको समर्पण करदीजिये और उनके निकट जाकर अपने पिताको प्रसन्न कीजिये। वैशंपायनजी बोले। हे जनमेजय!मन्त्री सुमतिकी ऐसी हितकर वातें सुनकर फिर हव बभ्रुवाहन॥१७॥ उस घोडेको लेकर अपनी सेना समेत पिता अर्जुनके पास गये और अपने यहाँसे उनकी भेंटके निमित्त तो सारे पदार्थ लेगयेथे वे सब पदार्थ अर्जुनके सामने रखदिये॥१८॥और विनय तथा आचार सहित नमस्कार करके उनके आगे खडाहोगया। बभ्रुवाहनेन कहा हे पिता! मैं उलूपी द्वारा परिवर्द्धित आपका पुत्र हूँ, अर्थात्
उलूपीने मेरा पालन पोषण करके मुझ को बडा किया है॥१९॥पूर्व कालमें जब आप तीर्थयात्रा करते फिरतेथे तब आपके द्वारा मैं चित्रांगदाके गर्भसे जन्मा था इस तरह उत्पन्न हुए मुझको आप (अपने बभ्रुवाहन नामक पुत्रको) जानिये मैंने आपके घोडेको नहीं जानाथा॥२०॥ हे धनंजय! अब आप मेरे इस सारे राज्यको लेलीजिये और मुझको आज्ञा दीजिये। जब उस बभ्रुवानने इस तरह कहा तब अर्जुनके सेवक हे महाराज! प्रद्युम्न इत्यादि वीरोंने यह बात देखकर अर्जुनसे कहा कि हे वीर! अत्यन्त हितकरबातें कहतेहुए पुत्रको आप किसलिये ग्रहण नहीं करतेहैं?॥२१॥२२॥यह पुत्र आपके पैरोंमें पडाहुआ है, अतएव हे पाण्डव! इसको आप उठाइये और फिर अमित तेजस्वी अपनेपुत्रकी महामतिको अवलोकन कीजिये॥२३॥वैशंपायनजी बोले। हे महाराज! उन प्रद्युम्न इत्यादिकी कही यह बात सुनकर अर्जुन क्रोधयुक्त हुए और फिर उन्होंने होनहाररूपी नाशयोगके द्वारा यह निर्गुण (गुणहीन) वचन कहा॥२४॥ तू भयसे कम्पायमान देहवाला मेरा औरस पुत्र नहीं है बरन तू चित्रांगदा नामवाली वेश्याके गर्भसे जन्मा है॥२५॥यदि तुझमें बल नहीं था तो प्रथम मेरे घोडेको क्यौं पकडा? मेरा तो महाप्रतापी पुत्र अभिमन्यु था, जो कि सुभद्राके अंगसे उत्पन्न हुआथा॥२६॥जिसने द्रोणाचार्य इत्यादिवीरोंको भी संग्रामसे विमुख किया अर्थात् उस अकेले षोडश वर्षीय कुमारने रणसे सप्तमहारथियोंको सात बार भगाया था और महान् विक्रमसे चक्रव्यूह भेदकर धर्मनन्दन महाराज युधिष्ठिर की रक्षा की थी॥२७॥रे मूढ! अभी तो तू मेरे शरोंसे घायल होकर गिरा नहीं है तेरी सेनाभी नहीं मरकर गिरी है, और न मेरे बाण अभीतक तेरीछातीमें हीलगे हैं, तब फिर रे दुर्बुद्धि!अभी
से तू क्यौं घबरागया?॥२८॥तैंने गंधर्वपतिकी कन्याको अपनी महतारी बनायाहै, अतएव रे दुष्ट! उसको तू घर घरमें नचाता गवाता फिर॥२९॥अर्जुनकी ऐसी कडी बातें सुनकरबभ्रुवाहन महान कुपित हुआ और उसने भेंटके सारे पदार्थ लौटा लेकर युद्ध करनेका निश्चय किया॥३०॥इसके पीछे वीर बभ्रुवाहनने हाथी घोडे रथ पैदल और वीरोंको लेकर आगमन किया और चारों ओरसे अर्जुनको घेरलिया॥३१॥और तरह तरहके शस्त्रोंका प्रहार करके अर्जुनकी सेनाको घायल किया। तब पीछे सुवर्णनिर्मित सुंदर रथमें चढकर॥३२॥कार्ष्णिबभ्रुवाहनने अपने पिता अर्जुनसे कहा हे पिताजी! अब आप ठहरिये और मेरा पौरुष (पराक्रम) देखिये मैं दारुण बाणोंसे आपको घायल करताहूँ। इस समय आपकी रक्षा करनेवाला कौन विद्यमान है?अतएव आपही अपना पुरुषार्थ दिखाइये॥३३॥ हे तात! अबआप यत्न करनेपर भी अपने घरको लौटकर नहीं जासकेंगे बरन् पितरोंके स्थानमें प्रस्थान करेंगे। वैशंपायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय! अनन्तर रणप्रिय अनुशाल्व रथमें सवार होकर उस बभ्रुवाहनके निकट आनकर प्राप्त हुआ॥३४॥ उसको वीरस्थान (रणस्थल) में वीरवर बभ्रुवाहनने सेनासमेत सारे राजाओंके देखते देखते भाँति भाँतिके अस्त्रशस्त्रोंसे प्रहार करके पराजित किया अर्थात् जीता॥३५॥इसके पीछे उस अनुशाल्वको मूच्छित (बेहोश) देखकर कृष्णतनय प्रद्युम्न संग्राम करनेके निमित्त आये।किन्तु वीर बभ्रुवाहनने उनको बाण और भालोंसे वींधडाला॥३६॥हे राजेन्द्र! फिर सब किसीके देखतेहुए महान् कश्मल (कष्ट) कोप्राप्तहुए **++**षके नीलकेतु और अपने बेटोंसमेत यौवनाश्व
पुत्रसमेत हंसकेतु और अधिक बलवाले मेघवर्ण यह सबजने उस अकेले बभ्रुवाहनके संग संग्राम नहीं करसके॥३७॥३८॥
चौपाई
वीर अने न पारथ नन्दन। पारथको दल कियो निकन्दन॥
तब अनुशाल्व चेत इ++ धाये। प्रद्युमन चेतव आगे आये॥
हंसध्वज नीलध्वज राई।यौवनाश्वकी सैन सिधाई॥
मेघवर्ण आदिक सरदारा। वह अकेल मणिपुरी भुआरा॥
सबैवीर मिलि शर तब छांटे।पारथपुत्र सबै शर कांटे॥
जूझे वीर खेत तो ला++ न। महामार भइ सक को भा++न॥
लडि लडि शूर तजे सब प्राना। गये अमर पुर बैठि विमाना॥
कुंजर अश्वपदाति नाना। जूझे बहुत न जाँय बखाना॥
दोहा
जैसे लव कुश रामतें, मारु भई विपरीत।
पारथसुत अरु पार्थतें, युद्ध होत यह रीत॥
तदनन्तर उन सबजनोंको बभ्रुवाहनने पांच पांच बाणोंसे हनन किया, तब वे तरह तरहके बाणोंसे घायल होकर भागनेलगे॥३९॥ उनके बीच कितने ही तो मरेहुए हाथीके शरीरोंमें घुसगये किन्तु यह जीवन रक्षाकेलिये वहाँ जैसे ही स्थितहुए कि वैसेही महान् भेडिये आपहुँचे॥४०॥ उन भेडियोंने बलपूर्वक उनको हाथियोंके शरीरोंसे खेंचकर नेत्रहीन करदिया अर्थात् उनकी आँखें निकाल लीं और फिर उनकीछातीको फाडकर वहाँका मांस खाया॥४१॥ अनन्तर वहाँ शिर कटजानेपर भी युद्ध करतेहुए कितने ही योधाओंको अप्सराओंने वरलिया। इसप्रकार उस अर्जुननन्दन बभ्रुवाहनने वहाँ महाघोर संग्राम किया॥४२॥ बभ्रुवाहनने अपने शरजालसे अर्जुनकी सारीसेनाको पृथ्वीपर डालदिया और उससमय दोनों दलोंके वीर छिन्न भिन्न होगये॥४३॥
तेषां किरीटरत्नानि गृहे नीतानि सर्वशः॥
रथवाजिगजद्रव्यं दासीदासगणाश्च ये।
ते नीता बभ्रुवाहेन भग्ने पार्थबले गृहे॥४४॥
तबवभ्रुवाहन उन सबके किरीट तथा रत्न ले आया तथा और भी जो रथ, घोडे, हाथी, पदार्थ, दासी, और दास थे, वभ्रुवाहन अर्जुनकी सेना भग्न होजानेपर उन सबको भी अपने घर ले आया॥४४॥इति श्रीभारतसारे अश्वमेधपर्वणि भाषायां बभ्रुवाहनपार्थसैन्यभंगो नाम षडशीतितमोऽध्यायः॥८६॥
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सप्ताशीतितमोऽध्यायः ८७.
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सप्ताशीतितमेऽध्याये बभ्रुवाहन संयुगे।
वृपकेतोः शिरश्छिन्नं तत्सर्वमिह चोच्यते॥१॥
इस सतासीवें अध्यायमें वभ्रुवाहनके द्वारा संग्राममें वृषकेतुका मस्तक कटना यह सारी कथा वर्णन करीजाती है॥१॥
वैशंपायन उवाच।
संग्रामस्त्वभवद्राजन् बभ्रुवाहनपार्थयोः।
यथा कुशस्य रामस्य वाजिमेधहये हृते॥३॥
वैशंपायनजी बोले हे जनमेजय! तदनन्तर बभ्रुवाहन और अर्जुनका इस तरह संग्राम हुआ, जिसतरह पूर्वकालमें अश्वमेध यज्ञीय घोडेके हरनेपर कुश और श्रीरामचन्द्रजी महाराजका संग्राम हुआ था॥१॥जनमेजयने पूछा कि हे ब्रह्मन्! श्रीरामचन्द्रजी और उनके पुत्र लव कुशका तुमुल संग्राम कैसे हुआ? इस बातका मुझको महान सन्देह है, सो आप उसको छेदन कीजिये॥२॥वैशंपायनजी बोले। हे महाराज! भगवान् श्रीरामचन्द्रजी महावलवान रावण कुंभकर्ण और अन्यान्य राक्ष-
सोंको जीतकर सती श्रीजानकीजीको अपने घर लेआये॥३॥ और फिर श्रीरघुनाथजी महाराजने नौहजार वर्षतक (अयोध्यापुरीमें) राज्य किया। पीछे बहुत समय बीतजानेपर श्रीमति जानकीजी गर्भवती हुई॥४॥ तब श्रीरामचन्द्रजीने उनसे पूछा। हे प्रिये! आपके मनमें क्या रुचि है? उत्तरमें श्रीजानकीजीने निवेदन किया कि हे स्वामिन्! मैं ऋषियोंकी सेवा करना चाहती हूँ॥५॥ मेरे मनमें यही इच्छा वर्तमान है कि, श्रीभागीरथी गंगाके तटपर जाऊँ। श्रीमती जानकीजीकी यह बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी चिन्ता करनेलगे॥६॥ उसी अवसरमें दूतके मुखकी बात सुन श्रीरामचन्द्रजी मनमें बडे दुखी हुए (१) और उन्होंने धोबीकी वह बात मनमें धरली॥७॥ और लक्ष्मणजीको श्रीमती जानकीको वाल्मीकिजीके आश्रममें छोडआनेकी आज्ञा दी। तब लक्ष्मणजीने श्रीरामचन्द्रजीकी उस बातको हितकारी समझकर आज्ञानुसार काम किया॥८॥ वाल्मीकिजीके आश्रममें त्यागीजानेपर फिर श्रीमती जानकीजीने लव और कुश नामक दो पुत्रोंको उत्पन्न किया। इसीबीचमें हे राजा! श्रीरामचन्द्रजीभी विरक्त होगये॥९॥ और तब उन्होंने ब्रह्महत्याका नाश करनेके निमित्त अश्वमेध यज्ञ किया। उसी समय श्रीरामचन्द्रजीका यज्ञीय घोडा मुनिवर वाल्मीकिजीके आश्रमपर जापहुँचा॥१०॥ तहाँ महात्मा कुशने उस घोडेको बलपूर्वक पकडबाँधा, तब भरत लक्ष्मण और शत्रुघ्नके संग महान् संग्राम हुआ॥११॥ और तहाँ महात्मा कुशने इन
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(१) किसी धोवीकी धोवन कुछ दिन दूसरेके घरमें रहकर पीछे अपने घरको पलट आई तब उसके धोवीने दपककर कहा— मैं नहिं राजा रामहूँ, जो काम करूँ यह नीच। रावणके घर रही जानकी, फिर रखली घरबीच॥७॥ अर्थात् मैंरामचन्द्र राजा नहीं हूँजिन्होंने रावणके घरमें रही जानकीको फिर अपने घरमें रखलिया। मेरे घरसे तू अभी निकल।
तीनों जनोंको जीतलिया, और महात्मा लवने श्रीरामचन्द्रजीकी सेनाको पृथ्वीपर गिरादिया॥१२॥ तब तो बलवान श्रीरामचन्द्रजी भी अपनी वडीभारी सेनासमेत वहाँ संग्राममें आये, किन्तु उनको भी उनके वीरपुत्रोंने क्षणभरमें जीतलिया॥१३॥ इसीप्रकार बभ्रुवाहनने भी अपने पिता जय (अर्जुन) को जीत लिया। हे महाराज! आपने जो कुछ पूछा था, हे पापरहित! वह मैंने आपसे सब वर्णन किया॥१४॥ अब मैं इसके आगे आपसे बभ्रुवाहनकी चेष्टा वर्णन करताहूँ। कि उसने रणमें जो कुछ करणी करी सो आप सब सुनिये॥१५॥ जबवीर हंसध्वजने महादारुण संग्राम किया तबवीर बभ्रुवाहनने उसके हजारों रथ तोडडाले॥१६॥ इस तरह हंसध्वजको वहाँ क्षणभरमें बभ्रुवाहनने जीतलिया। फिर जिस समय महावीर महात्मा हंसकेतु गिरगया॥१७॥ तबसमरमें बभ्रुवाहनसे युद्ध करनेकें लिये कुमार सुवेग आया तव महाबलवान् अर्जुननन्दन वभ्रुवाहनने उसको नौ वाणोंसे हनन किया॥१८॥ उसकालपके हुए फलोंकी समान मस्तक गिरनेलगे तबपक्षियोंने छत्ररूपी हाथियोंके पैरोंसे मूशल कल्पित किये॥१९॥ और वहाँ भैरवने हाथियोंके सूंडकी भेरी बनाई तदनन्तर युद्धमें एकही बाणसे अर्जुननन्दन बभ्रुवाहनने उस सुवेगको भी धराशायी किया। हे महाराज! यह एक अद्भुत बात हुई। उसी समय अर्जुन और कर्णनन्दन वृषकेतुयह दोनों जने युद्धके लिये स्थित हुए॥२०॥२१॥ हे राजन्! उस समरमें जो जो निहत हुए वे सब बभ्रुवाहनकी नगरीमें गये तहाँ भाँति भाँतिकी औषधियों द्वारा उलूपीने उनका पालन किया॥२२॥ वैशंपायनजी बोले हे महाराज! तब वहाँ अर्जुनने महाबलवन् वृषकेतुसे कहा कि, हे भाई! इस बलवान् बभ्रुवाहनने हमारी बहुतसी सेना मारडाली
है॥२३॥ इस जगह जो जो वीर दिखाई नहीं दे रहेहैं, वे भागगये अथवा**++लके कराल गालमें गिरगये सो भी मुझे नहीं मालूम।हे नृप! अर्जुन इस प्रकार कह ही रहेथे कि तत्काल उनके सन्मुख ऐसा विघ्न उपस्थित हुआ कि॥२४॥उस अर्जुनके किरीटपर स्थित गीध पक्षी++**रफलकी नाईं वास करनेलगा। यह (कुलक्षण) देखकर अर्जुनने भी वृषकेतुसे कहा॥२५॥कि, आप महाराज युधिष्ठिर और भीमसेनके पास जाकर उनसे कहदो कि या तो मेरी मृत्यु होगी और नहीं तो मेरा अंगभंग, वा सारथी और घोडा मरेगा॥२६॥ क्या आपलोगभी मेरे संग निश्चित मृत्युको प्राप्त होगे, फिर यदि आपलोग मरगये तो वे सेनाके सारे वीर भी मरजाँयगे, इसमें संशय नहीं है॥२७॥हमसे यह महाअकार्य उत्पन्न होगया क्यों कि उधर महाराज युधिष्ठिर असिपत्र व्रत धारण कियेहुए यज्ञमें दीक्षित होरहेहैं अतएव यज्ञका कार्य सम्पन्न नहीं होसकेगा॥२८॥वृषकेतुने कहा। हे धनंजय! मैं मरनेके डरसे रणको छोडकर नहीं जाऊंगा, क्यों कि मेरे पितामह भगवान् सूर्य प्रकाशित होरहे हैं। यदिमैं संग्रामको छोडदूँगा तो वे सूर्य भी मेरे रूपसे गिरपडेंगे॥२९॥वृषकेतुने यह कहकर अपने पाँच बाणोंद्वारा पार्थतनय बभ्रुवाहन को मारा। तब तो बभ्रुवाहनने भी कर्णनन्दन वृषकेतुको बाणोंके ओघोंसे पीडित किया॥३०॥ इसप्रकार कर्णात्मज वृषकेतुने बहुतसारा युद्ध किया। तब वुद्धिमान् बभ्रुवाहनने बडी फुरतीसे॥३१॥
दोहा
मारेउ बाण जु कोप करि, बभ्रुवाह नरेश।
काटि शीश वृषकेतुकर, की++++ द्धकर शेष।
चौपाई
उठ्यो कबन्ध अ++पुनि गहेऊ। ++पारथके रथपर परेक॥
हय रथ पैदल रुंड सँभारे। देखा पार्थ रुदन संचारे॥
हा हा कर्णपुत्र धनुधारी। सुन्दर मुखपर मैं बलिहारी॥
कुन्ती नृप भाई ++य राई। इन बतें हिहौं जाई।
बहु प्रकार तेरोदन++ रई। मूर्छित होधरनि पहँ परई॥
हा हरिसारथि कीन्ह हमारा। आवत को नहिं दोष तुम्हारा॥
कर्णपुत्रका वदनं निहारी। मोहित भये पार्थ धनुधारी॥
शीश गोद ले मुर++पारथ। रसना रटैं श्रीपति सारथ॥
देखे मूर्च्छित पारथ आई। बभ्रुवाहन++ अति सुख पाई॥
** दोहा**
मूर्छित लखिकैं तातकहँ, धनुषहि अग्रउठाय।
कछुक वचन कहि मणिपती, भाषत कटुक सुभाय॥
सुनो पिताजी++न दें, ता++रौं बखान।
शोच किये का काम है, गहो धनुष कर बान॥
बाणेन वृषकेतोर्हि शिरः++ण्ठान्निपातितम्।
पश्चात्++ नन्दुकवत्प्राप्तं पार्थस्य पादयोः शिरः॥ २२॥
एक ही बाण द्वारा वृषकेतुके मस्तकको कंठसे काटकर भूमिपर गिरादिया। पीछे वह शिर गैंदकी समान उछलता अर्जुनके पैरोंमें प्राप्तहुआ॥३२॥इति श्रीभारतसारे अश्वमेधपर्वणि भाषायां वृषकेतुवधो नाम सप्ताशीतितमोऽध्यायः॥८७॥
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अष्टाशीतितमोध्यायः ८८.
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अष्टाशीतितमेऽध्याये बभ्रुवाहनघातितः॥
पुनरुज्जीवितः पार्थः कृष्णेन तदिहोच्यते॥१॥
इस अठासीवें अध्यायमें बभ्रुवाहनके हाथसे अर्जुनका माराजाना और फिर श्रीकृष्णका उनको जीवित करना यह कथा कहीजातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
वृषकेतोः शिरस्तद्वै ग्रामे तु महत्तदा॥
++य केशव रामेति गोविन्देति मुदावदत्॥१॥
वैशम्पायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय! तदनन्तर वह वृषकेतुका महान् मस्तक संग्राममें आनन्दपूर्वक ‘जय केशव! जय राम! और जय गोविन्द’ कहताहुआ गिरा॥१॥ तंब कुण्डलोंसे अलंकृत उसवृषकेतुके मस्तकको दोनों हाथोंसे उठाकर और उसके स्वरूपको निहारकर अर्जुन विलाप करनेलगे॥२॥ अर्जुनने कहा। हा! महान् कष्ट प्राप्त आ! हे पुत्र! आपके विना संग्राममें को दारुण दुःख मिला। अब मैं जाकर धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरसे क्या कहूँगा?॥३॥ हे वत्स! मैंने राज्यके लालचसे आपके पिताको वध किया और अब पीछेआपको भी मरवाडाला अतएव आप क्षमा कीजिये॥४॥ इसप्रकार कह मुक्तकंठसे रोते रोते भगवान् श्रीहरिको स्मरण किया कि हे ज**++थ! आप कहाँ चलेगये हैं? क्या आपको++** खी एकी सुखबर नहीं है?॥५॥ यदि आप स्मरण करनेपर भी नहीं आतेहैं, तो जानपडता है कि इस समय दूसरे किसी भक्तमें आसक्त होरहे हो? अर्जुन यह बात कह मूर्छित होकर भूमिमें गिरपडे॥६॥ उस महासंग्राममें उस वृषकेतुका मस्तक अपनी छातीपर रखकर गिरपडे तब इन पिताको पडेहुए चित्रांगदनन्दन बभ्रुवाहनने॥७॥ धनुषकी कोटीद्वारा पीडित कर हँसते हँसते यह वचन कहा। हे पार्थ! मैं वेश्यासे उत्पन्न हुआ हूँ इसी कारण तोलनेके निमित्त आया हूँ॥८॥ हे तात!वृषकेतुको तो तोलचुका हूँ, किन्तु अब आपको तोलना चाहताहूँ। हे वीर! धनुषकी तराजूके द्वारा मेरे पुरुषार्थसे॥९॥ जो कोई बढजायगा, और जो घटेगा, उसको मैं अभी देखलूँगा। उसकी यह बात सुनकर क्रोध करके युक्तहुए महाबली अर्जुनने क्रोध किया॥१०॥ तदनन्तर वृषकेतुके उस मस्तकको ऊंचा लेकर और धनुषको काकर धारण
किया। फिर शीघ्रतापूर्वक पुत्रसे बोले कि हे बभ्रुवाहन! आप शूर, हैं॥११॥ क्योंकि आपने अकेले ही मेरे सारे वीरोंको मारडाला। अतएव मैं इस महा संग्राममें क्रोधपूर्वक आपका वध करके इन सब को ही छुडालूँगा॥१२॥ हे वीर! अब आप उसी बाणको धारण कीजिये जिससे वृषकेतुको मारा है और मुझको भी उसी बाणसे मारडालिये।यदि आपने मुझको नहीं मारा तो समझलूँगा कि आप इस भूमिपर शूर नहीं हैं॥१३॥ और मेरे उस प्रहारको जो कि पहाडका भी भेदनेवाला है, आप सहन कीजिये। यह कहकर बलवानोंमें श्रेष्ठ अर्जुनने अनेक नाराच (बाण) छोडे॥१४॥ जिन्होंने चित्रांगदनन्दन बभ्रुवाहनकी बहुत सारी सेनाको छेदन करडाला और वभ्रुवाहनके शरीरको भी भेदकर अर्जुन सिंहनाद करनेलगे॥१५॥ फिर जब वभ्रुवाहनने अपनी सेनाको अर्जुनके बाणोंसे व्याप्त देखा, तो उसने बाणोंका जाल छोडा जिन्होंने अर्जुनकी सेनाका नाश करडाला॥१६॥ अनन्तर सेनाका नाश करके फिर शीघ्रतासे अर्जुनको भी मूर्च्छित करदिया इसतरह अर्जुन और बभ्रुवाहनका घोर संग्राम हुआ॥१७॥ सारे गंधर्व और देवता यह बडाभारी तमाशा देखनेलगे। तबबभ्रुवाहनने कहा हे अर्जुन! पूर्वकालमें आपने द्रोणाचार्यजीसे जिस धनुषकी विद्याको सीखा था॥१८॥ उस विद्याको आप कैसे भूलगये! और भगवान् श्रीहरि (कृष्ण) आपके निकट क्यों नहीं आये? हे अर्जुन! आपने मेरी पतिव्रता महतारी चित्रांगदाको दुःखी कियाहै॥१९॥ आपके उसी पापसे सारी बातोंके जाननेवाले जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण नहीं आये हैं, इस प्रकार पुत्रके कहतेहुए अर्जुनने उसको आदरपूर्वक विद्ध किया॥२०॥ तब तो महाबलवान् बभ्रुवाहनेन युद्ध करतेहुए उस अर्जुनका मस्तक अपने एक
ही बाणसे काटकर पृथ्वीपर डालदिया॥२१॥ तब अर्जुनके मरनेपर वहाँ महान् हाहाकार मचा, अनेक रत्नोंसे संयुक्त अर्जुनका मस्तक कार्त्तिकमासकी एकादशी सोमवार उत्तरानामक नक्षत्र और संध्या समय ‘वासुदेव’ उच्चारण करताहुआ छिन्न हुआ॥२२॥२३॥ इसीबीचमें हे महाराज! महाबली अर्जुननन्दन बभ्रुवाहन रत्नोंसे विभूषित परकोटोंवाली अपनी परम मनोहर मणिपुर नगरीमें गया॥२४॥ वहाँ सिंहासन पर विराजमान होकर भाट चारण इत्यादिकोंसे स्तुतिको प्राप्त होनेलगा। हे नृपोत्तम! तब देवर्षि नारदजीके मुखसे युद्ध और अर्जुनके मरनेका समाचार सुनकर चित्रांगदा मणिपुरसेआई इसी बीचमें चित्रांगदाके सामने नगरकी लुगाइयोंने कहा॥२५॥२६॥ हे देवि! आप धन्य हैं क्योंकि आपने वीर और महाबलवान् पुत्र उत्पन्न किया है जिस पुत्रने पृथ्वीके चिरविजयी अर्जुनका नाश किया॥२७॥ उन लुगाइयोंकी यह बात सुनकर वस्त्रालंकारसे अलंकृत पुत्रकी आरती करनेके निमित्त आनकर वह गिरगई॥२८॥ ऐसा होनेपर बभ्रुवाहनके महलमें बडा ही हाहाकार मचगया। तब बभ्रुवाहनने अपनी माताके आगे वह सब निवेदन किया॥२९॥ तब वह बोली तुमने पूर्वमें जो कुछ किया वह मैं सब सुनचुकी हूँ तब वह चित्रांगदा उलूपीके सहित अर्जुनके समीप आई॥३०॥ वहाँ अर्जुन और वृषकेतुके मस्तकको ग्रहण करके वह चित्रांगदा उलूपीसमेत स्थित हो अत्यन्त रुदन करनेलगी॥३१॥ तब माताको रोती हुई देखकर वीर बेटा मरनेको तैयार हुआ। उलूपी बोली। हे पुत्र! हे पिताके मारनेवाले! हे दुर्बुद्धि! तू क्षणभर प्रतीक्षा कर॥३२॥ अब यहाँ वह उपाय करना चाहिये, जिससे धनंजय जीवित होजाय! हे पुत्र! पाताल नगरीमें संजीवक
नामक मणि विद्यमान है॥३३॥हे पुत्र! उसको तू ले आजिससे अर्जुन जीवित होजाय। महाबलवान् बभ्रुवाहन उलूपीकी यह बात सुनकर॥३४॥पुण्डरीकके बलसहित नागलोकको चलागया बभ्रुवाहनने वहाँ पहुँचकर मध्वास्त्र (शहतकाअस्र) चलाया जिससे वहाँके सारे सांप मधुमय होगये॥३५॥ तदनन्तर बभ्रुवाहनने पिपीलिकास्त्र छोडा तब सर्पोंने उस अस्त्रसे व्यथित होकर बभ्रुवाहनकी माँगीहुई मणि उसको समर्पण करदी तब फिर उसको केकर अर्जुननन्दन अपने घरको लौटआया॥३६॥ अनंतर जैसे ही यह बभ्रुवाहन अपने घरको आवे, कि उसी समय धृतराष्ट्रनामक सर्पके दो पुत्र वहाँ आये और अर्जुन तथा वृषकेतु दोनों जनोंका मस्तक लेकर चलेगये॥३७॥ वह दोनों शिरोंको नागलोकमें लेआये। यह एक अद्भुत बात हुई। इसी समयके बीचमें उधर कुन्ती (अर्जुनकी माता) ने सुपना देखा॥३८॥अनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने उसके भावको सोचविचारकर अपने वाहन गरुडजीको स्मरण किया, तबगरुडजी याद करते ही आनकर प्राप्त हुए। तबक्लेशनाशक भगवान् श्रीकृष्ण उनपर सवार होकर॥३९॥ यशोदा, देवकी, भीम और कुन्ती यह सबजने वहाँ अर्जुनको देखनेके लिये गये॥४०॥इन लोगोंने वहाँ वृषकेतुके मस्तकहीन कलेवरको पडाहुआ देखा और इसीप्रकार अर्जुनके भी धडको देखा॥४१॥तबमहाबलवान् वीर बभ्रुवाहनने इन श्रीकृष्ण, भीम इत्यादिको आयाहुआ देखकर सबको नमस्कार किया और स्वयं ही स्थित होकर कहनेलगा॥४२॥बभ्रुवाहनबोला। हे विभो! मैं इस समय संजीवक नामवाली मणि ले आया हूँ उसके द्वारा होनहारसे नष्टहुए अर्जुन जीवित होजाँयगे॥४३॥किन्तु यह मुझको मालूम नहीं कि यहाँ आकर
इन दोनोंके मस्तकोंको कौन लेगया?हे कृष्ण! मुझको अर्जुन और वृषकेतुका मस्तक दिखाई नहीं देता॥४४॥श्रीकृष्णने कहा। आप सबजने मेरी मंत्रयुक्त बात सुनिये कि यदि हम पृथ्वीपर**++**चर्यव्रतसे कहीं भी नहीं डिगेहैं,॥४५॥तो उसी पुण्यके प्रतापसे हे कुंती! अर्जुनका वह शिर आजावे, और जिसने वह शिर लिया है अथवा जो लेगया है, वह मेरी आज्ञासे अभी मस्तकरहित होकर गिरे॥४६॥ देवेश्वर भगवान् श्रीकृष्णके इस प्रकार कहते कहते ही वे दोनों शिर लेजानेवाले महाविषधर (सर्प) नष्ट होकर अर्जुन और वृषकेतुके मस्तक समेत गिरे इस तरह उन दोनोंके शिर मणिपुरमें पहुँचे॥४७॥तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने उस मणिके द्वारा अर्जुनको जिला दिया। और उसी मणिसे फिर कर्णनन्दन वृषकेतुको भी जिलाया॥४८॥
चौपाई
उरमहँ पारथ मणि तब राखे। उठत पार्थ ही श्रीपति भाखे॥
लागे शीश उठो तब कैसे। चुम्बक माँहि लोह लग जैसे॥
कर्णपुत्र रणधीर कुमारा। यौवनाश्व अनुशाल्व भुआरा॥
हंसध्वज नीलध्वज राऊ। जागे सबै चेत तब पाऊ॥
पारथ आदि प्रेमरस पागे। धाय कृष्णके चरनन लागे॥
बभ्रुवाहन लज्जा पाये। सभामाँहि नहिं मुखदिखराये॥
उसकाल आपसमें सबकोई यथा योग्य मिलने भेंटने लगे। तब श्रीकृष्णदेवने अर्जुनसे कहा कि, आप मेरी बात सुनिये॥४९॥हे धनंजय! आपका यह पतन गंगाके शापसे हुआहै और फिर आप मुझ श्रीकृष्णके प्रसादसे जियेहैं इसमें कुछ भी संशय नहीं ॥५०॥
एवं पञ्चदिनान्स्थित्वा रम्ये मणिपुरे तदा।
भीमादींश्चागतांस्तत्र कृष्णः सर्वान् व्यसर्जयत्॥५१॥
इसप्रकार पांच दिनतक सब कोई उस मनोहर मणिपुरमें टिके। इसके पीछे श्रीकृष्णने वहाँ आयेहुए भीमादि सब किसी को बिदा करदिया॥५१॥
दोहा
पांच दिवस, आनन्द बहु, बीते मणिपुर देश।
कह्यो जान घर सबहि पुनि, कृष्णचन्द्र विश्वेश॥
इति श्रीभारतसारे अश्वमेधपर्वणि भाषायां अर्जुनसंजीवनं नामाष्टाशीतितमोऽध्यायः॥८८॥
———————
एकोननवतितमोऽध्यायः ८९.
एकोननवतितमेद्विजरूपधरो हरिः।
मयूरध्वजंजिगायासौ सपार्थस्तत्तु भण्यते॥१॥
इस नवासीवें अध्यायमें अर्जुनके सहित भगवान् श्रीहरिने ब्राह्मणका रूप धारण पूर्वक महाराज मोरध्वजको विजय किया। यह कथा वर्णन कीजातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
स्वयं कृष्णस्तु भगवानर्जुनेन समन्वितः॥
ररक्ष वाजिनं राजन्मुक्तं मणिपुरात्तदा॥१॥
वैशंपायनजी बोले। राजन्! अनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनके सहित स्वयं ही मणिपुरसे निकलेहुए उस घोडेकी रक्षा करी॥१॥ उसी समय सेनासमेत ताम्रध्वजका घोडा दिखाई दिया। तब वे अतिसुन्दर दोनों घोडे आपसमें मिले॥२॥वे दोनों घोडे नाकसे नाकको स्पर्श करके प्रकाशित हुए, तब राजा ताम्रध्वजने अर्जुनको आयाहुआ जाना॥३॥तथा देवोत्तम भगवान् श्रीकृष्णको भी आया जानकर उस घोडेको पकड बाँधा और फिर भाँति भाँतिके शस्त्रोंसे अनेक प्रकार
संग्राम किया॥४॥ और तत्काल सारे वीरोंको जीतकर उस घोडेको अपने नगरमें लेआये। मोरध्वजने कहा। हे पुत्र! तुम बहुत अकाज (**++**राकाम) करके मेरे पास आये हो॥५॥ हे मन्दमति! तुमने घोडेको पकड लिया। हा कष्ट! मैं तुम्हारे द्वारा ठगागया। इसी समयके बीचमें उधर अर्जुनने भगवान् माधव श्रीकृष्णसे कहा॥६॥ हेकृष्ण! कृष्ण! हे अप्रमेय आत्मावाले! ताम्रध्वज महान् योधा है, उससे घोडा कैसे छुडायाजाय?हे भो! इसका उपाय बताइये?॥७॥ श्रीकृष्णने उत्तरमें कहा। हे अर्जुन! आप मेरी बात सुनिये। मोरध्वज नामक महाराज धर्मवान् सत्यसागर, दानी, शूर और विद्वान हैं॥८॥ और ताम्रध्वज नामसे विख्यात इनका एक बडा धनशाली बेटा है, आप मेरे साथ चले आइये मैं तुमको इनकी परीक्षा दिखाऊं॥९॥ मैं उन धर्मात्मा महाराज मोरध्वजके निकट बूढे ब्राह्मणका रूप धारण करके याचना करूँगा और हे सुव्रत! आपके हितार्थ तुमको बालकरूप करूँगा॥१०॥ तब निर्मलप्रातःकालमें भगवान् माधव अर्जुनसमेत वरासन (सुन्दर सिंहासन) पर विराजमान महाराज मोरध्वजका दर्शन करनेको गये॥११॥ और रानीके सहित दीक्षित तथा दोनोंघोड़ोंसे युक्त महाराजके निकट पहुँचकर कहा, हे नृपशार्दूल! आपका मंगल हो आप मुझ आयेहुएको ब्राह्मण समझिये॥१२॥ हे राजन! मैं जिस कारणसे आया हूँ सो कहता हूँ आपसुनिये। हे राजेन्द्र! आपके नगरमें एक सुशील नामक ब्राह्मण निवास करताहै॥ १३॥ उसकी एक रूप यौवन सम्पन्न परम सुन्दरी कन्या है। हे राजन्! मैं उसीको माँगनेके लिये हस्तिनापुरसे॥१४॥ अपने बेटे समेत आयाहूँ। किन्तु मैं जैसे ही आपके नगरकी ओर चला कि वैसे ही वनके घोर मार्गमें एक क्रोधयुक्त
सिंहने॥१५॥ हे महाराज! मेरे देखते देखते जबान बेटेको पकडलिया, तब मैंने डरकेमारे काँपते काँपते उस बेटेके छुडानेका यत्न (उद्यम) किया॥१६॥ मैंने भगवान् नृसिंहजीको याद किया किन्तु मेरे स्मरण करनेपर भी वे नहीं आये। तब हमको दुःखित देखकर आश्चर्ययुक्त चित्त हो सिंहने कहा॥१७॥ हे विप्रेन्द्र! आप इस बेटेके छुडानेमें वृथा ही परिश्रम कररहे हैं क्यों कि हे प्रभो! आपकी तो बात अलग रही मेरे पकडे हुए व्यक्तिको तो काल भी छुड़ाने में समर्थ नहीं है॥१८॥ ब्राह्मणने कहा। हे सिंह! हे महाबलवान्! आप मुझको जीमजाइये और इस मेरे बेटेको छोडदीजिये क्योंकि यदि आप इसका भोग लगावेंगे, तो इसकी आयुका व्यर्थ फल होगा, और पुत्ररहित होजानेसे मेरी जिन्दगी भी व्यर्थ होजायगी॥१९॥ अतएव आप मेरे इस बेटेको किस उपायसे, किस दानसे अथवा किस तपस्यासे छोडसकतेहैं? इसके उत्तरमें उस सिंहने मुझसे जो कुछ कहा, उसको हे महाराज! किसतरह आपकेसामने कहूँ॥२०॥ राजा मोरध्वज बोले। हे द्विजोत्तम! उस सिंहने जो वस्तु भी माँगी होगी, सो मैं दूँगा, इसमें सन्देह नहीं। महाराज मोरध्वजकी यह बात सुनकर उस ब्राह्मणने कहा॥२१॥ हे राजन्! अपुत्रका तो भाव भी महान दारुण है, और मुझको अपना प्राण भी कौंन व्यक्ति देसकता है?उस सिंहने मुझसे महावनमें कहा है कि हे ब्राह्मण देवता! आप वीर मयूरकेतुका आधा शरीर ले आओ तो मैं आपके बेटेको छोडदूँगा! और आपका वृद्ध शरीर तो तपसे दग्ध होरहा है सो मुझको रुचिकारक नहीं है॥२२॥२३॥ अतएव आप मेरे लिये भाँति भाँतिके स्वादिष्ट फलोंसे सेवित और सुन्दर दुग्ध इत्यादि रसोंद्वारा युक्त उस मयूरकेतुको भेदन करके उसका अत्यन्त प्रिय
आधा अंग प्रदान कीजिये॥२४॥ और इस बातको मैं आपसे सत्यप्रतिज्ञा करके कहताहूँ कि जिस समय पर्यन्त आप उस राजपुत्रका आधा अंग लेकर आवेंगे, तबतक मैं आपके इस बेटेको नहीं खाऊंगा॥२५॥ ब्राह्मण (मैं) ने कहा। हे मृगेन्द्र! मेरेलिये राजा अपना शरीर क्यों देगा? सिंहने उत्तर दिया कि शूर लोगोंको दुस्त्यज कुछ भी नहीं है अर्थात् जो व्यक्ति दान करनेमें शूर हुआ करतेहैं उनके पक्षमें कोई पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसको वे नहीं देसकें!॥२६॥ उस अमिततेजस्वी सिंहने मुझसे वनमें इसप्रकार कहा है, तब हे महाराज! मैं पुत्रशोक आतुर होकर अपने चेलेसमेत आपके स्थानपर चला आयाहूँ॥२७॥ इसके सिवाय किसी दूसरे उपायद्वारा में उस सिंहसे अपने वेटेको नहीं पा सकताहूँ। इसप्रकार दारुण वातें कहताहुआ वनमें केसरी (सिंह) आविर्भूत हुआ॥१८॥ उस व्राह्मणकी यह बातें सुनकर महाराज मोरध्वजने कहा। हे द्विजोत्तम! हे विप्रेन्द्र! आप बैठजाइये मैं आपको इसी मण्डपमें अपना शरीर प्रदान करूँगा। इसप्रकार कहकर महाराजने अपने बेटे ताम्रध्वज को राज्य समर्पण किया॥२९॥ तदन्तर गंगाजल और शालिग्राम शिलाके जलसे भलीभाँति स्नान किया औरतुलसीदलकी बनी माला कंठमें पहरकर हँसते हँसते॥३०॥ शरीरमें शंखचक्र अकित करके प्रसन्नतापूर्वक महाराज मण्डपमें आनकर सबसे इसतरह कहनेलगे॥३१॥ महाराज मोरध्वज बोले! हे महोदयगण! यह कृष्ण स्वरूप ब्राह्मण पुत्रके निमित्त मेरे घर पधारे हैं, अतएव मैं इनको अपना देह समर्पण करूँगा, जिससे यह पुत्रयुक्त होंवे॥३२॥मेरे यज्ञमें जो पुरुष आयेहैं, वे सब तमाशा देखें। और करपत्र अर्थात् करौंतसहित घातक लोग भी आनकर उपस्थित होजावें॥३३॥ भूमिमें दो थंभ खडे करदो,
वहाँ मेरे मस्तकको भेदन कीजिये और जिनको यह शरीर सदा प्यारा है, उनको दूषण बोलना उचित नहीं है॥३४॥तब उन महाराज मोरध्वजने प्रसन्न होकर अशेष (अनगिन्त) दान किये और फिर उन प्रतिष्ठित खभोंमें प्रवेश किया॥३५॥और स्वयं ही आरेको लेकर अपने शिरपर रखदिया, फिर ब्राह्मणके चरणधोकर महाराजने कहा॥३६॥ राजा बोले। यज्ञपति भगवान् गोविन्द मेरे देहके आधे भागद्वारा मेरे प्रति प्रसन्न हों अतएव हे द्विजवर! आप मेरे दियेहुए देहके आधे भागको लेलीजिये॥३७॥उन महाराज मोरध्वजने इसप्रकार कहकर अपने देहको आपही भेदडाला। क्यौं कि जिन दाताओंमें धनशाली दाता मनुष्योंके अर्थात् परोपकारके निमित्त देहदान करतेहैं॥३८॥और जिस व्यक्तिने जिस जिस चीजको विचारा है, वह चीज दोनों लोकमें दानके निष्फल भावको प्राप्त होतीहै अतएव मुझे देखकर सारे सभासदोंको आनन्दित होना चाहिये॥३९॥अनन्तर महाराज जैसे ही अपने गात्रको भेदन करनेलगे कि त्यों ही उनकी भार्या (रानी) ने कहा। कुमुदवती बोली। हे ब्राह्मण देवता! आप मेरे शरीरको लेकर उसके द्वारा अपने उस बेटेको छुडालीजिये॥४०॥क्यों कि भार्या भी पुरुषका आधाशरीर होतीहै, ऐसी श्रुति प्रसिद्ध है, इसके अतिरिक्त दान भी जीवसहितही देना चाहिये जीवरहित दान देना कभी उचित नहीं है॥४१॥मेरी मति तो ऐसी है कि जो व्यक्ति दूसरेसे भेदन कियागया है उसको सिंह भी स्वीकार नहीं करता और जो नारी अपने प्राणनाथके सन्मुख मृत्युको प्राप्त होतीहै॥४२॥वह उत्तम गति पालेतीहै इसमें कुछभी सन्देह वा विचार नहीं करना चाहिये। मुदवतीके इसप्रकार कहनेपर ब्राह्मणने
उत्तर दिया कि हे महारानी! सिंहनेकहा हैमुझेबाँया अंग नहीं रुचताहै॥४३॥ इसकारणमुझको दाहिना अंग देना चाहिये। तब मोरध्वजनन्दन ताम्रध्वजने ब्राह्मणसे कहा॥४४॥ हे द्विजोत्तम! इन महाराजका दाहिना अंग मैं हूँ, क्यों कि ‘आत्मा वै जायते पुत्रः’ अर्थात् अपना आत्मा ही पुत्ररूपमें जन्म लेताहै, ऐसी बलवान् श्रुति है॥४५॥ ब्राह्मणने उत्तर दिया। हे पुत्र! आपने ठीक कहा किन्तु अब सिंहकी बात भी तो सुनलीजिये। उसका कथन है कि पुत्र और भार्या द्वारा भेदित महाराज मोरध्वजके॥४६॥ सारे अंग दो भागमें भिन्न (अलग) हों आप उसीको दाहिना अंग समझ लीजिये अतएव फिर मुझ सरीखा ब्राह्मण उस सिंहकी बातको कैसे अन्यथा कर सकता है॥४७॥ वैशम्पायनजी बोले। हे राजन्! तब राजसिंह महाराज मोरध्वजने अपने प्रिय पुत्र (तथा स्त्रीको) निवारण करके प्रसन्नतापूर्वक उन दोनोंके हाथमें आरा दिया॥४८॥ और आप वहाँ बैठेहुए भगवान् श्रीहरिके गुणानुवाद गानेलगे फिर निरन्तर हरिभक्तिमें निरत रहनेवाले पुत्र ताम्रध्वजने आरा हाथमें लेकर अपने पिताको चीरा॥४९॥ जब ताम्रध्वजने कृष्णार्जुनके सामने ही उनको आरेसे चीरा तब हे जनमेजय! उस समय महा हाहाकार मचगया॥५०॥
** दोहा**
उलटे आरा नयन करि, अर्द्ध शीश गयो चीर।
वामनयन मोरध्वजहि, तुर्त चलो तब नीर॥
चौपाई
देखत ही द्विज कह नृपपाहीं। कादर दान लेव द्विज नाहीं॥
देतशरीर रुदन तुम कीन्हा। हमरे वचन चित्त नहिं दीन्हा॥
वह मम पुत्र सिंह लै खाऊ। यह कहि तुरत चले द्विजराऊ॥
संगहि पारथ भी चल दयऊ। लोग सबै अति विस्मित भयऊ॥
तब रानी करवती उतारा। गहे दाबि शिर हाथ भुआरा॥
बोलीनाथ बात सुनिलीजे। विप्रनकहँ सन्तुष्ट करीजे॥
तेज शरीर विमु द्विज जाई। अहो कन्त द्विज लेहु मनाई॥
तब राजा कर शिर धरि लहई। पाछे बात विप्रसौंकहही॥
अहो विप्र विनती सुनि लोजे। पीछे भलेहि गमन प्रभु कीजे॥
करवत नाहीं दुःख हमारे। वरन दुःख द्विज विमुख सिधारे॥
** दोहा**
वाम अंग रोदन करै, हम निष्फल संसार।
दक्षिण अंगहि हर्ष बहु, तैं द्विज काज सँवार॥
इसीसमय महाराज मोरध्वजकी वाँईं आँखमें पानी (आँसू) भर आया और नेत्र लाल लाल होआये यह दशा देखकर उस उत्तम ब्राह्मणने राजासे कहा॥५१॥हे महाराज! अबमें आपके इस अंगको नहीं लूँगा क्यों कि आप रुदन करतेहुए अपने शरीरको छोडते हैं और पण्डित जन अभाव करके नाशहुए दानको नहीं लियाकरतेहैं॥५२॥हे पृथ्वीपति!मुझको पुत्रके विना स्वर्ग भलेही प्राप्त न होवे और मेरे बालकपुत्रको लेकर वह सिंह भी भलेही अपने स्थानको प्रस्थान करे (किन्तु ऐसा दान मैंकदापि न लूँगा)॥५३॥ ब्राह्मणरूपधारी भगवान् जनार्दन इस प्रकार वचन कहऔर महाराज मोरध्वजको त्याग सबके देखते देखते शिष्य अर्जुनसमेत जानेलगे॥५४॥ तबमहारानी कुमुद्वतीने उस ब्राह्मणको जाताहुआ देखकर अपने पतिसे कहा। हे सत्यव्रत! हे बडभागी! हे दानियोंमें शिरोमणि!॥५५॥ यह ब्राह्मण आपके आगे शरीरको त्यागकर जारहेहैं, अतएव हे स्वामिन्! आप जाकर उन अर्द्धशरीरकी याचना करनेवाले ब्राह्मणको निवारणपूर्वक लौटालाइये॥५६॥ क्यों कि यदि यह ब्राह्मण आपके अर्द्धशरीरको विना लिये चलेगये तो आपकी कीर्त्ति विफल होजायगी। रानी
कुमुद्वतीकी यह बात सुनकर महाराज मोरध्वजने ब्राह्मणसे कहा हे मुनिशार्दूल! आप इस तरह मत जाइये किन्तु मेरी बात सुनकर फिर भलेही चलेजाना॥५७॥
दोहा
साधु तुम्हें चाहिये नहीं, जो बिनु बूझे जात।
तनक ठहरिये कृपा करि, ने जाव इक बात॥५८॥
(हे विप्रोत्तम! मेरे वामांगके रुदन करनेका कारण कुछ और ही है) अर्थात् दाहिना अंग तो ब्राह्मणके निमित्त जायगा और मेरा बाँया अंग पृथ्वीपर गिरकर कैसे वृथा जायगा, (इसीलिये यह बाँया नेत्र रुदन करताहुआ आँसू बहारहा है)॥५८॥
चौपाई
नतहि वचन हर्ष द्विज पाये। हर्षित राजहि रूप दिखाये॥
चतुर्भुजी++दर्शन दीन्हा। माँग माँग केर हठ ब कीन्हा॥
दै शरीर सन्तोषा मोही। जगमें भक्त देखियततोही॥
धन्य पुत्र ताम्रध्वज तेरो। जीतो अर्जुन कटकघनेरो॥
माथे हाथ मृतकके दीन्हा। सर्व कलेश नाश कीन्हा॥
राजा कहै सुन जग देवा। माँगहुँ वर सूनौहरि भेवा॥
जैसि परीक्षा हमरी लयऊ। इस्त्रीसुत चिन्ता नहिं भयऊ॥
++लिमहँ होय जु भक्त तुम्हारा। इमि मत जाच ते जगतारा॥
प्रभु तथास्तु कहि वर दयऊ। दून अश्व आप संग लयऊ॥
** दोहा**
यह भाषेउ जगहेतु कहँ, पाय दर्श भगवान।
करै यज्ञ हरि दर्श लहि, होय सदा कल्यान॥
महाराज मोरध्वजके इसप्रकार कहनेपर भगवान् श्रीकृष्ण अपने मनमें प्रेमानन्दसे विह्वल होगये। और वीर उन राजाको आलिंगन करके अपने वास्तविक स्वरूपका दर्शन करातेहुएं कहनेलगे॥५९॥ श्रीकृष्णने कहा। हे राजसिंह!हे मोरध्वज!हे सुव्रत!आप धन्य हैं, मैंने छद्मवेश (बनावटीरूप) द्वारा आपकी सवतरहसे परीक्षा करली है॥६०॥ हे महाबाहो!
अबआप पत्नी और पुत्रसमेत यज्ञ कीजिये। मोरध्वजने कहा। हे गोविन्द! आपने ब्राह्मणके स्वरूपसे मेरे वंशको पवित्र करदिया॥६१॥
किं मे यज्ञेन गोविन्द यदि दृष्टोऽसि केशव।
दृष्टे त्वयि जगन्नाथे पुण्यात्मन्यमितेऽस्तुते॥
यज्ञकोटिकृतं पुण्यं भविष्यति न संशयः॥६२॥
हे गोविन्द! हे केशव! जबकि मैंने आपका दर्शन करलिया, तबफिर यज्ञ करनेसे क्या फल है? क्योंकि हे जगन्नाथ! आपके दर्शनकरनेपर मेरी कीर्त्तिअपरिमित होगई है। और करोड यज्ञ करनेका पुण्य मिलगया है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥६२॥ इति श्रीभारतसारे अश्वमेधपर्वणि भाषायां मयूरध्वजोपाख्यानं नामैकोनतवतितमोऽध्यायः॥८९॥
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नवतितमोऽध्यायः ९०.
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नवतितमेऽध्याये तु चन्द्रहासकथां वदन्।
मुनिस्तच्चारितं पार्थमादिदेशेति वर्ण्यते॥१॥
इस नव्वें अध्यायमें महाराज चन्द्रहासकी कथा वर्णन करते हुए देवर्षि श्रीनारदजीने अर्जुनके प्रति उसका चरित्र कहा, यह कथा वर्णन करीजाती है॥१॥
वैशंपायन उवाच।
तुरगौ तु गतौ राजँस्ततो वै वीरवर्मणः॥
धर्मश्चतुष्पाद्यत्रैव तेन भूपतिना कृतः॥१॥
वैशंपायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय! तदनन्तर वे दोनों घोडेवीरवर्माके नगरमें जापहुँचे जहां उस राजाने धर्मको चतुष्पाद् अर्थात् चार पाँववाला किया है॥१॥और मूत्तिमान् यमराज जिन महाराजके जमाई होकर उस देशमें निवास
कररहेहैं तात्पर्य यह है कि उस सारस्वत नामवाली मनोहर नगरीमें सारे आदमी धर्ममें निरत होरहे हैं॥२॥ अनन्तर महाराज वीरवर्माने उत्तम घोडोंकी रक्षा करतेहुए श्रीकृष्णसमेत अर्जुनको अधिक सेनासहित अपने देशमें आयाहुआ सुना॥३॥ तब तो महाबली महाराज वीरवर्माने उन दोनों घोड़ोंको पकाड लिया और फिर अत्यन्त दारुण संग्राम किया और तुमुलयुद्ध करके सारे वीरोंको घात किया॥४॥ तदनन्तर धर्मराज यमने अर्जुन की बहुत सारी सेनाका नाश करडाला। हे नराधिप!ससुरके आगे वीरोंको हनन करनेवाले ऐसे अत्यंत भयंकर वीर यमराज को देखकर और पीछे वीरवर्माके दामादद्वारा नष्ट कियेगये अपनी सैनाके आदमियोंकोभी देखकर हे भारत! वीर अर्जुनको बडाही अचंभा हुआ तब उसने केशव भगवान् श्रीकृष्णसे कहा॥५॥६॥ हेजगन्नाथ! ऐसा यह कौन देवता है? जिसने आपके समक्ष मनुष्यरूपसे बाणोंद्वारा मेरी सारीसेनाका नाश करडाला?॥७॥ अर्जुनके ऐसा कहने पर माधव श्रीकृष्णने उत्तर दिया कि हे महाबाहो! आप संग्राममें आगे खडेहुए इस व्यक्ति को यमराज जानिये। इनसे महाराज वीरवर्माने कन्याके निमित्त अपने नगरमें रहनेकी प्रार्थना की है॥८॥ अर्जुनने पूछा। हे कृष्ण! यह आपने कैसे अचंभेकी बात कही? इन महाराज वीरवर्माकी पुत्रीको यमराजने किसतरह व्याहा? तथा यह सम्बन्ध (नाता) किसभाँति हुआ! हे केशव! यह सारी कथा आप मुझसे वर्णन करदीजिये॥९॥ श्रीकृष्णने कहा। हे अर्जुन! महाराज वीरवर्माके घर मालिनी नामवाली एक कन्या जन्मी। तब पिताने (बहुतकालपीछे) उसको युवती (जवानीमें भराहुआ) देखकर उससे पूछा॥१०॥ हे पुत्री! सब उत्तम मनुष्योंमें तेरे मनको कौनसा भर्त्ता रुचताहै? तब उस कन्याने पिताको उत्तर दिया मैं यमराजको अपना पति मानचुकी हूँ॥११॥ कि चारों
दिशाओंके मृतजीव जिनकी शरणमें पहुँचा करतेहैं। तब महाबलवान् वीरवर्मा उस लडकीकी यह बात सुनकर॥१२॥ यमसूक्त मंत्रके द्वारा निरन्तर धर्मराजकी स्तुति करनेलगे। इसीबीचमें देवर्षि नारदजीने यमराजके (पास जाकर) उनसे सारा हाल कहदिया॥१३॥ कि महाराज वीरवर्माकी धर्मतत्पर जो एक मालिनी नामवाली कन्याहै, वही आपके स्तवद्वारा आपका ध्यान कररही है, अतएव आप कृपापूर्वक उसको वरलीजिये॥१४॥ देवर्षि नारदजीकी यह बात सुनते ही यमराज चल दिये और वैशाख मासके शुक्लपक्षमें उसके संग विवाह करनेको उद्यत हुए॥१५॥तब यमराजने अष्टोत्तरशत अर्थात् एक सौ आठ महाकाय और महाबली नायकोंको अपने संग चलनेकी आज्ञा दी॥१६॥उन नायकोंमें हे महाराज जनमेजय! एक क्षय नामवाला नायक कहनेलगा। क्षय बोला। हे स्वामी! उस राष्ट्र (देश) में हमारा आना किसतरहसे होगा?॥१७॥क्यों कि वहाँके सारे आदमी ब्राह्मणप्रिय हैं और राजा भी ब्राह्मणोंकी सेवाकरनेवाला है। उत्तरमें यमने कहा आप सब विविधाकार अर्थात् तरह तरहके रूप धरनेवाले, बडे शरीरवाले और बलशाली हो॥१८॥ अतएव आप सब जने जिसभाँति मेरी नगरीमें निवास किया करतेहैं, और जिसतरह मेरी आज्ञा पालन किया करते हो, ऐसे ही आप सबजने महाराज वीरवर्माके देशमें वास करके उनकी आज्ञा पालन करो॥१९॥ वैशंपायनजी बोले। हे महाराज! तब कामरूपी अर्थात् इच्छानुसार चाहें जैसा रूप धरनेवाले सेवकों समेत यमराज उस राजन्याको वरनेके निमित्त सारस्वतनाम्नी नगरीमें गये॥२०॥ और वहाँ पहुँचकर उन यमने उस शर्मिष्ठा मालिनी नामवाली कन्यासे विवाह किया तबसे ही धर्मराज (यमराजा) वीरवर्माके जमाई
हुए हैं॥२१॥ श्रीकृष्ण इसतरह वृत्तान्त कहतेही थे कि वीरवर्मा आपहुँचे। वीरवर्माने कहा। हे अर्जुन! आप महासंग्राममें चराचरको जीतसकते हैं॥२२॥ हे वीर! आपकी इस बातसे मेरा मन प्रसन्न होगया है, वीरवर्माने यह कहकर धनुष छोडदिया और फिर भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंमें गिरगया॥२३॥ और फिर हाथी घोडे और रथादि बहुत सारे द्रव्य देदिये, पीछेपांच रात्रितक वहाँ टिककर आप भी उनके संग निकले॥२४॥ हे नृपोत्तम!अनन्तर वे दोनों घोडे सारस्वत नगरीसे निकलकर महाराज कौंतलकी चन्द्रहास नामवाली नगरीमें जापहुँचे॥२५॥और उनके पीछे श्रीकृष्णार्जुन इत्यादि सारे योधा गये। तब घोडों को न देखकर उन योधाओंने कहा कि अपने घोडे कहाँको चलेगये? उनको न किसीने लिया और न वे आकाशको गये॥२६॥ या वे क्या आकाशमें ही जापहुँचे हैं? इसतरह कहकर सब दुःखितमनसे खडे होगये। उसी समय उन्होंने आकाशमें पुरुषोत्तम श्रीनारदजी महाराजका दर्शन किया॥२७॥ तब उनसेश्रीकृष्ण और अर्जुन इत्यादि सारे योधाओंने घोडोंका पता पूछा। नारदजीने उत्तर दिया हे अर्जुन! आपके वे घोडे कौन्तल नाम्नी नगरीमें चलेगये हैं॥२८॥ जहाँकेमहाबाहु चन्द्रहास नामक राजा हैं, जिनकी समान दूसरा कोई योधा विद्यमान नहीं है। यह सब राजा तो उसकी सोलहवीं कलाको भी नहीं पहुँचे हैं॥२९॥ देवर्षि श्रीनारदजी महाराजकी यह बात सुनकर अर्जुनने फिर कहा हे नाथ! उस कौन्तल नगरीमें चन्द्रहास नामक कौनसा राजा है?॥३०॥ नारदजीने कहा। हे अर्जुन! पूर्वकालमें केरलदेशके महाराज अच्छे धार्मिक हुएथे, उन महाराजके परलोकवासी होनेकी खबर सुनकर उनकी महारानी भी अपने भर्त्ताके संग सती होगई॥३१॥ तब उस
माता पितासे हीन बच्चेको धाय कौन्तल नगरीमें लेआई। ओर वहाँ उसने अपने महाराजके उत्तम बेटेको पाला॥३२॥ उस धायने दूसरोंके पैर दाबने इत्यादि टहल और अन्न पीसने इत्यादिके कामोंसे तीन वर्ष पर्यन्त यत्नसहित उस लडकेको कौन्तल नगरीमें पालन पोषण किया॥३३॥ वह रातमें अपने महाराजका ध्यान किया करतीथी। तब इसको दिन दिनमें स्मरण करके बालक विना वह सती धाय मरगई॥३४॥तब फिर किसी और आदमीने अत्यन्त स्नेहसे इसका पालन किया। तदनन्तर यह बालक पाँच वर्षका होजानेपर अपनी इच्छानुसार विचरण करनेलगा॥३५॥ और बालकोंको देखकर उनके संग वैसे ही रमने लगा अर्थात् खेलने कूदने लगा उसको नगरकी स्त्रियोंमें कोई खाना खिलाने और कोइ**++**न्हवाने लगीं॥३६॥कितनी ही नारियाँ बडे कीमती कपडे देनेलगीं, कितने ही आदमियोंने पैरोंमें पहरनेको चमडेके जूते दिये। और वहुतसे आदमी शिरकेलिये सुन्दर लाल पगडी देनेलगे॥३७॥अनन्तर किसी दिन वह बालक अपनी इच्छानुसार दुष्टबुद्धि नामवाले प्रधानके घरको योगेश्वर और मननशील ब्राह्मणोंके संग जापहुँचा। तब उस ऐसे सुन्दर बालकको॥३८॥देखकर वे सब मुनि अत्यन्त अचंभेमें होगये। और पीछे हे पाण्डुनन्दन! उस वालकके संग भोजन किया॥३९॥ इसके पीछे जिस समय वशीभूत हुए दुष्टबुद्धिने उन मुनियोंकी पूजा करी तब प्रसन्नमनसे उन सत्यव्रतवाले मुनियोंने॥४०॥ आशीर्वादसे बडाई करके कहा कि आप चिरजीवी और सुखी रहो। तदनन्तर हे अर्जुन! उन सब ऋषियोंने दुष्टबुद्धिसे कहा॥४१॥हे महाशय! यह जो आपके सामने पाँच वर्षका बालक दिखाई रहा है, यह कौन है? किसका बेटा है? और कौनसे देशसे
यहाँ आकर प्राप्त हुआ है?॥४२॥ इस प्रकार पूछनेपर दुष्टबुद्धिने उन मुनियोंको उत्तर दिया। दुर्बुद्धि बोला।हे स्वामिन्! इस सुन्दर नगरीमें ऐसे कितने ही बालक निवास करतेहैं किन्तु राजकार्यका भारी बोझ मेरे ऊपर अधिक रहता है, इस कारण मैं उनको जानता नहीं हूँ॥४३॥यह सुनकर मुनियोंने कहा हे दुर्बुद्धे! जो कि यह बालक मनोहर और सारे शुभलक्षणोंवाला है, इस लिये निःसन्देह राज्यका धारण करनेवाला प्रकाशित है, अतएव आप इसको पालिये क्यों कि, यह बालक आपके सन्मुख ही आपकी सम्पत्तिका पालक होगा॥४४॥इस तरह कहकर मुनिलोग चलेगये और वह दुष्टबुद्धि क्रोधयुक्त हो बुद्धि करके बालक को देखकर सुखको प्राप्त नहीं हुआ, तथा वे सारे मुनिजन जैसे आयेथे, वैसे ही अपने अपने स्थानपर जापहुँचे। अनन्तर वह राजमन्त्री अत्यन्त ही तापित हुआ॥४५॥ इसके पीछे वह अपने मनमें चिन्ता करने लगा कि इन मुनियोंने जो कि पूजा करने योग्य हैं, मुझसे कैसी बात कही कि यह बालक तेरी सम्पत्तिका स्वामी होगा। सो मेरी सम्पत्तिका स्वामी भला यह बालक किसतरहसे होगा? और उन मुनियोंकी वह बात भी किस प्रकार वृथा होगी?॥४६॥ इस भाँति विचार करके उस दुष्ट मन्त्रीने उस बालक राजपुत्रके मारडालनेका निश्चय किया और फिर अत्यन्त आतुरता (जल्दी) से अन्त्यजों (चाण्डाल जल्लादों) को वुलाया। उनको आज्ञा दी कि रे पशुघातको! तुम लोग इस बालकको महावनके गह्वरमें लेजाकर वध करडालो और मुझको संतोष करनेवाली इसके देहकी कोई निशानी लाकर दिखाओ, ऐसा होनेपर मैं तुम सबलोगोंको एक एक दूधके घडे समेत तरह तरहकी भैंसे ईनाममें दूँगा॥४७॥४८॥ श्रीनारदजी बोले हे अर्जुन! दुष्ट बुद्धिकी यह बात सुनकर वे चाण्डाल अत्यन्त
हर्षित हुए और फिर सवेरे ही उस बालक पुत्रको लेकर वनके गह्वरमें चलेगये॥४९॥ वहाँ जाकर उन्होंने उस हँसते हुए धर्मात्मा राजकुमारके मारनेको पैनी धारवाले हथियारोंको ले वाल पकडलिये॥५०॥
भ्रमता तेन शिशुना या दृष्टा प्रतिमा हरेः।
शालिग्रामशिला रम्या तांमुखे सोर्भकोक्षिपत्॥५१॥
उस जगह भ्रमण करते करते उस बालक राजपुत्रको एक मनोहर शालिग्राम शिला दिखाई दी, जो कि भगवान् श्रीहरिकी सुन्दर प्रतिमाथी, उसको उठाकर उस बच्चेने अपने मुँहमें डाल लिया॥५१॥॥इति श्रीभारतसारे अश्वमेधपर्वणि भाषायां चन्द्रहासोपाख्याने नवतितमोऽध्यायः॥९०॥
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एकनवतितमोऽध्यायः ९
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एकाधिनवतितमे चन्द्रहासस्य श्रीहरौ।
भक्तिर्विद्याग्रहश्चैव वर्ण्यते नरदुष्करः॥१॥
इस इक्यानवें अध्यायमें भगवान् श्रीहरिमें चन्द्रहासकी भक्तिका होना और नरदुर्लभ विद्याका ग्रह होना यह कथा वर्णन कीजाती हैं॥१॥
नारद उवाच।
सोऽर्भकः पार्थ देवेशं दध्यौ नारायणं स्वयम्।
कृष्ण कृष्ण जगन्नाथ वासुदेव जनार्दन॥१॥
श्रीनारदजी बोले। हे पार्थ!तदनन्तर वह बालक स्वयं ही देवेश्वर नारायणका ध्यान करनेलगा कि हे कृष्ण! कृष्ण! हे जगत्पति! हे वासुदेव! हे जनार्दन!॥१॥हे जगन्नाथ! यह चाण्डाल जल्लाद मुझको पैनीधारवाले खङ्गसे मारता है,
अतएव हे परमानन्द! हे सर्वव्यापी! उससे मेरी रक्षा कीजिये। मैं आपको नमस्कार करताहूँ॥२॥तब देव भगवान्नेउन चाण्डालोंको मोहित किया। तब वे चाण्डाल मोहित होकर आपसमें बातचीत करनेलगे कि भाइयों! यह कैसा बालक है!॥३॥यह तो अत्यन्त कोमल अंगोंवाला कुमार बडी बडी आँखोंवाला लम्बी लम्बी भुजाओंवाला और मनको हरनेवाला है, इस बालकको दुष्टबुद्विने वनमें मार डालनेके लिये क्यों कहा?॥४॥पूर्व पापोंके फलसे तो हम लोग चाण्डालकुलमें उत्पन्न हुए हैं, तब फिर अब बालहत्याके घोर पापसे कैसे होंगे अर्थात् इससे भी नीच किस योनिमें जाँयगे?॥५॥उन चाण्डालोंने परस्पर इसभाँति कहकर उस बालकके शिरस्थानको देखा और फिर उन जल्लादोंको बालकके बाँयें पैरमें एक छठी अँगुली दिखाई दी॥६॥
चौपाई
वामपाद पट अँगुली देखी। काटि लीन्ह तेहि देखि विशेखी॥
दुष्टबुद्धिको दीन्हो जाई।धन सम्पति चाण्डाल हि पाई॥
भई झूँठ विप्रन मुखबानी। बालक हते होति रजधानी॥
दुष्टबुद्धि अति आनँद पाये। घर घर मंगलचार कराये॥
रोवत बाल वनहि चिल्लाई। पशु पक्षी ढिग बैठे आई॥
सो वन गयो शिकार हि राजा। नाम कुलिन्द भक्त रघुराजा॥
ते बालक देखनको धाये। हर्षगात लै++ गोद चढाये॥
तब उन्होंने निश्चय किया कि यही अँगुली निशानीमें लेजाकर उस दुरात्मा दुष्टबुद्धिको दिखादेनी चाहिये।यह कहकर अपने हाथकी तलवारके नोकसे उस बालकके पैरकी (अधिक) छठी अँगुली काटली॥७॥ तब वे शीघ्रतासहित हर्षित मनसे बह निशानी लेकर नगरीमें गये और वहाँ पहुँचकर दुष्टबुद्धिको
नमस्कार करके वह अँगुली दिखाई॥८॥तब वहदुष्टबुद्धि अपने मनमें अत्यन्त आनन्दित होकर कहनेलगा कि मुनियोंकी बातको भी मैंने झूँठ करदिया। इस भाँति कहकर फिर उन जल्लादोंको भैंसों इत्यादिके द्वारा संतुष्टकिया॥९॥और उधर वनमें वह कटी हुई छठी अँगुलीवाला तथा टपकतेहुए खूँनसे सने शरीरवाला बालक राजकुमार हिरनियोंको मोहित करता हुआ अत्यन्त दुःखी होकर महान् रोदन करनेलगा॥१०॥इसके पीछेभगवान श्रीहरिकी स्तुति करनेलगा। हे देवदेवेश! हे कृष्ण! हे नाथ! हे कृपासागर! हे सर्वव्यापी! मुझको कष्टसेरिक्त करके मेरी रक्षा कीजिये।हे स्वामिन्! आपको प्रणाम करताहूँ॥११॥इस तरह कहते दुःखसे आर्त्त और डरके मारे घबरायेहुए उस बालकको देखकर वहाँ पक्षियोंने अपने पंखोंसे**++**या करदी॥१२॥इसीबीचमें वहाँ देशाधिपति महाराज कुलिन्द आनपहुँचे। वे उस देशकी रक्षा करनेके निमित्त वनके गह्वरमें आयेथे॥१३॥तब वहाँ आनकर उन्होंने कमलकी नाई मुखवाले उस बालकको ‘हे गोविन्द! हे राम! हे माधव!’ जपतेहुए देखा॥१४॥तहाँ उस बालकके मुखसे भगवान् श्रीहरिके नाम सुनकर महाराज कुलिन्द बडे ही अचंभेमें हुए और फिर फुरतीसे घोडेसे उतरकर उस बालकको समझाते बुझातेहुए तसल्ली देनेलगे॥१५॥अनन्तर उन बुद्धिमान् महाराजने आँसूँ दूर करके कहा। हे बालक! तेरे बाप कौन हैं? तथा तेरी महतारी कौन है? और तेरे हितकारी सुहृद कहाँपर हैं?॥१६॥और हे बालक! तू इस विजन (सूने) वनमें कैसे स्थित है? सो मुझे बतादे। महाराज कुलिन्दके इस प्रकार पूछनेपर उस बालकने उत्तर दिया।हे महाशय! मेरे मा बाप भगवान् श्रीकृष्ण हैं और उन्होंने ही मुझको पाला है॥१७॥हे महाराज! मैं उनको ही न देखनेके
कारण रोरहा हूँ। हे जनमेजय! उस बालककी यह उत्तम बात सुनकर वे महाराजकुलिन्द चिन्ता करनेलगे॥१८॥और फिर बोले कि मुझ अपुत्रके यह वैष्णव बालक उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार कहकर उस बालककोछातीसे लगाय अपने घोडेकी पीठपर बैठाललिया॥१९॥और उसको अपनी मनोहर नगरीके बीच अपने घर लेजाकर महाराज कुलिन्दने वह मिलाहुआ पुत्र अपनी मेधावती रानीको समर्पण करदिया॥२०॥ तब वह रानी हर्षित होकर बोली कि हे प्राणपति! आपनेमुझको शोकहीन करदिया। श्रीनारदजी महाराज बोले! हे अर्जुन! इसके पीछे बुद्धिमान् कुलिन्दने (अपने नगरमें) महामहोत्सव कराया॥२१॥तदुपरान्त ज्योतिषियोंने कहा। हे राजन्! यह आपका लडका सर्वगुणसम्पन्न, श्रीमान् भगवान् विष्णुकी भक्ति करनेवाला, महायशवाला और चन्द्रहासनामवाला, महाभूपाल होगा, इसमें कुछ संशय नहीं करना॥२२॥तबसे ही हे पार्थ! वह चन्द्रहास प्रतिदिन महाराज कुलिन्दके विचारके संग इस प्रकार बढनेलगा, जिस तरह (शुक्लपक्षमें) चन्द्रमा बढाकरता है॥२३॥फिर जिससमय चन्द्रहास सात वर्षका हुआ, उसकाल वह अक्षरोंका निर्णय पढनेलगा और इसके पीछे वह उत्तम विधिसे विचार कर ‘हरि’ इन दो अक्षरोंको॥२४॥जपनेलगा तब अक्षरपाठक अर्थात् विद्या पढानेवाला क्रोधित होकर रातदिन उस बालकसे कहनेलगा कि ‘हरि’ इन दो अक्षरोंको॥२५॥ हे बालक! वर्णोंके मध्यसे तू किसलिये पढता है? यह सुन चन्द्रहासने उत्तर दिया। मेरे सिद्धवर्णका आम्नाय है और रामआदि गुरुजन हैं॥२६॥इस कारण ‘हरि’ ऐसे अक्षरोंके आलापसे मेरे मुखद्वारा और वर्ण नहीं निकलते
तबगुरुने उस वालक राजपुत्रका हाथ पकडकर शिक्षा दी॥२७॥ कि हे शिष्य! तू क का इत्यादि बारहखडीसे आरंभ करके सब विद्या पढ, अन्यान्य वर्णोंको वृथा ही क्यों उच्चारण करता है? गुरुके इसप्रकार कहनेपर चन्द्रहासने उत्तर दिया कि हे गुरो! जिस शास्त्र वा पुराणमें भगवान् श्रीहरिका नाम वर्णित नहीं है॥२८॥ वह शास्त्र चाहे परब्रह्मका कहाहुआ ही क्यों न हो, किन्तु तथापि उसको नहीं सुनना चाहिये। श्रीनारदजी बोले। हे पार्थ! वह एकादशीका दिन प्राप्त होनेपर न तो अन्नभोजन करे और न झूँठ ही बोले॥२९॥ ब्रह्मविद्या और भगवान् श्रीहरिकी भक्तिमें निरन्तर निरत (तत्पर) रहे। इस तरहका वर्त्ताव करनेलगा।फिर आठवाँ वर्ष लगनेपर मेखलाबंधन कर्म॥३०॥
कृत्वा वेदस्य पठनं कृतं शास्त्रेण संयुतम्।
चन्द्रहासस्ततः पश्चाद्धनुर्वेदं समभ्यसत्॥
करके सम्पूर्ण शास्त्रों समेत वेदोंको अध्ययन किया, और इसके पीछे चन्द्रहासने धनुर्वेदका अभ्यास किया॥३१॥ इति श्रीभारतसारे अश्वमेधपर्वणि भाषायां चन्द्रहासव्रतबन्धो नाम एकनवतितमोऽध्यायः॥९१॥
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द्विनवतितमोऽध्यायः ९२.
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द्विनवतितमेऽध्याये चन्द्रहासस्य प्रस्फुटम्।
माहात्म्यं विप्रभक्तिश्चकथ्यते सुरदुष्करा॥१॥
इस बानवें अध्यायमें चन्द्रहासकी प्रत्यक्ष महिमा और देवदुष्कर अर्थात् देवताओंके पक्षमें भी कठिन ब्राह्मणकी भक्ति कही जाती है॥१॥
नारद उवाच।
अथोनषोडशाब्देऽसौ पितरं वाक्यमब्रवीत्॥
यदि शिक्षसि चेन्मह्यमाज्ञां दिग्विजयाश्रिताम्॥१॥
श्रीनारदजी बोले। हे अर्जुन!फिर जब चन्द्रहास पन्द्रह वर्ष का हुआ तो अपने पितासे यह बात कहनेलगा कि हे पिताजी! यदि आप मुझको सीखदेते ही हैं, तो सबसे पहले दिग्विजय करनेकी आज्ञा दीजिये॥१॥ जिससे मैं जाऊँ और सारे राजाओंको जीतकर धन लाऊं यह सुनकर महाराज कुलिन्दने उत्तर दिया! हे लाल! तुम अकेले कैसे जाओगे!॥२॥ क्यों कि जिनको तुम जीतने कहते हो, वे राजा लोग वडी भारी सेनावाले और महान् कठिनाईसे जीतने लायक हैं, अथवा तुम भगवान् वासुदेवको स्मरण करके हठसे जाओंगे॥३॥ और उधर अपना स्वामी कुन्तलराजाका मन्त्री दुष्टबुद्धिहै, आगे उस दुष्टबुद्धिने मुझे देशदिया किन्तु प्रथम मेरे अधिकारमें एकसौ ग्राम थे॥४॥ इस प्रकार उन महाराजके महाबलवान् शत्रु तुमको आपसमें सुनकर मेरे देशको पीडित करेंगे अर्थात् भाँति भाँतिके दुःख देंगे॥५॥ अपने पिताजीकी यह बात सुनकर वह चन्द्रहास प्रसन्नतापूर्वक पांच रथियोंके समेत धनसे भरे हुए उन देशोंको गया॥६॥ तब धनुषधारी महाबलवान राजा चन्द्रहासने उन सारे राजाओंको जीतकर हजारों हाथी, घोडे॥७॥ तथा सुवर्ण, रत्न और मोतियोंसे भरेहुए बहुतसे छकडोंको लेकर वह चन्द्रहास अपनी चन्दनावती नगरीमें चला आया॥८॥ इसने ज्योंही नगरीमें प्रवेश किया कि त्योंही महाराज कुलिन्दने सामने आकर इसको अभिनन्दन (श्लाघित) किया और फिर उस चन्द्रहासपुत्रको अपने सिंहासनमें अभिषित किया॥९॥ महाराज कुलिन्दने वेदके ज्ञाता ब्राह्मणोंसमेत
पंचमीके दिन अभिषेचन किया अर्थात् पुत्रको अपने राज्यसिंहासनपर स्थापित करदिया। तदनन्तर क्रमानुसार सब पुरवासी और राजाने महोत्सव किया॥१०॥ इस प्रकार जब पुरवासियोंने आदरसत्कार किया, तब चन्द्रहासने कहा है पुरवासियो! आजसे प्रारंभ करके माङ्गलिक दिन और याम प्राप्त होनेपर॥११॥ जो व्यक्ति उत्सव और ब्रह्मचर्य व्रतका पालन नहीं करेगा, वह मेरा पूरा वैरी है, और इसीप्रकार जो आदमी विना भगवान् विष्णुका नाम लिये अर्थात ब्रह्मार्पण किये अन्न भोजन करेगा, वह भी मेरा बडाही वैरी होगा॥१२॥ उन पुरवासियोंको ऐसी आज्ञा दी और उन्होंने भी उस आज्ञाको अपने हृदयमें हितकारी माना तदनन्तर सुवर्ण, रत्न, वस्त्र, धन, धान्य और गहनोंद्वारा॥१३॥ नृपोत्तम चन्द्रहासने वहाँ ब्राह्मणोंकी पूजा करी। फिर बावली, कुए, तालाव, तथा विष्णुके मन्दिर॥१४॥ शिवालय, विद्यार्थियोंके स्थान, मठ, और योगीश्वरोंके आश्रम और बहुत प्रकारकी प्याऊं तथा युद्ध करनेके स्थान बनवाये॥१५॥नारदजी बोले। हे अर्जुन! तब धन धान्यसे भरी पुरी महाराज चन्द्रहासकी चन्दनावती नगरीमें देशदेशके आदमी आनकर प्राप्त हुए॥१६॥ इस तरह उस चन्दनावती नामवाली नगरीका पालन करतेहुए उस पुत्र चन्द्रहाससे उसके पिता महाराज कुलिन्दने कहा हे पुत्र! मुझे महाराज कुन्तलके निमित्त दश हजार निष्कभार द्रव्य देना चाहिये॥१७॥ और पाँच हजार निष्कभार सोना अपने स्वामी दुष्टबुद्धिको देना चाहिये, ढाई हजार निष्कभार इस राजपत्नीको देना चाहिये और साढे बारहसौ निष्कभार उस मंत्रीकी भार्याकोभी देना चाहिये अतएव हे उदारवुद्धि! जिस तरह बुद्धिमान मंत्रियों में श्रेष्ट दुष्टबुद्धिः प्रसन्नता लाभ करें, आपको उसी प्रकार
यत्न करके वह धन शीघ्रही भेजदेना उचित है॥१८॥हे वत्स! इस स्थानसे वह कौन्तलपुर चौबीस कोशकी दूरीपर विद्यमान है, उस नगरीमें महाराज कुन्तल गालव नामवाले पुरोहितसमेत॥१९॥ और मन्त्री दुष्टबुद्धिके सहित सम्यक् प्रकार राज्य कररहेहैं। तब चन्द्रहास अपने पिताजीकी यह बात सुनकर हर्षित हुआ॥२०॥तदनन्तर चन्द्रहासने आसानीसेही मंत्री राजा और उनकी रानियोंके निमित्त वह सारा धन पुरोहित गालवजीके पास भेजदिया॥२१॥और पीछे सुन्दर विनतीकी पत्रिका (चिट्ठी) भेजी, तब उस पत्रिका और धनको लेकर॥२२॥ महाराज चन्द्रहासके सेवक कुन्तलनगरीमें जापहुँचे। वे सेवक वहाँ एकादशीके दिन संध्याकालमें पहुँचे॥२३॥ तब उन सबने स्नान और भगवान् श्रीहरिको प्रणाम करके गीले वस्त्र अथवा चन्दनादिके द्वारा सधन हो उस नगरीमें प्रवेश किया इस भाँति स्नान और चन्दनादिसे शोभितहुए॥२४॥ उन चन्द्रहासके सेवकोंने मंत्री दुष्टबुद्धिके घरमें गमन किया तब उनके गीले कपडे देखकर दुष्टबुद्धि अत्यन्त संतापित हुआ॥२५॥ और मनमें समा**++** कि महाराज कुलिन्द मृत्युकोप्राप्त होगये। इसी कारण सेवकोंकी यह दशा होरहीहै तदनन्तर उस दुष्टबुद्धिने प्रणाम करतेहुए महाराज कुलिन्दके सेवकोंसे कहा॥२६॥ हे सेवको! महाराज कुलिन्द कब मरे? यह काम बडाही खोटा होगया यह सुनकर सेवकोंने उत्तर दिया हे महाशय! मरैंमहाराज कुलिन्दके वैरी और बुराभी उनके वैरियोंकाही हो, महाराज कुलिन्दका अनभल कभी न हो॥२७॥ महाराज कुलिन्दके बुद्धिमान् पुत्र चन्द्रहासने आपकी प्रसन्नताके लिये दिग्विजय करके यह धन भेजदियाहै॥२८॥ उन सेवकोंकी यह बात सुनकर मंत्री दुष्टबुद्धि बडे आश्वर्यको प्राप्त हुआ और
सचिवप्रवरने उन सेवकोंके भोजन करनेको अन्न मँगाया॥२९॥ सेवकोंने कहा हे मंत्रीवर! आज एकादशीका दिन है, अतएव हम हरिवासरमें भोजन नहीं करेंगे। उनकी यह बात सुनकर मंत्री अत्यन्त तापित हुआ॥३०॥ मंत्रीने कहा हे सेवको! जब कि महाराज कुलिन्द जीवित हैं, तो मालूम होताहै कि, तुम लोग अत्यन्त गर्वित होकर मेरे दियेहुए अन्नको नहीं खाते॥३१॥ इस कारण मैंउस कुलिन्दको मजवूत बेडियोंसे बांधकर मारडालूंगा अथवा मरवादूँगा। इस प्रकार कहकर दंडस्वरूप वह धन लेलिया और फिर उन सेवकोंको मारनेके लिये उठा॥३२॥ तबवे सारे सेवक (भागकर) चन्द्रहासके पास चलेगये और उन्होंने मन्द मन्द मुसकुरातेहुए चन्द्रहाससेसारा हाल कहदिया॥३३॥ इसी बीचमें दुष्टबुद्धिभी अपने मनमें विचार करके मदननामक बेटेको महाराजकुन्तलके निकट नगरमें नियुक्त कर॥३४॥ यह मंत्री सत्तम दुष्टबुद्धि जैसेही महाराज कुलिन्दकी नगरीको जानेलगा, कित्योंही विषया नामवाली इसकी कन्याने आनकर कहा॥३५॥विषया बोली हे पिताजी! आप किसको लानेके लिये कहाँ जारहेहैं? यह सुनकर पिताने उत्तर दिया हे पुत्री! हे विषये! हे शोभायमान आँखोंवाली! जाओ तुम घरको चलीजाओ॥३६॥ हेबालिका!तुम अपने मनमें सन्तोष रक्खो, क्यों कि मैं इस समय तुम्हारे लिये वर देखनेके लियेही जारहाहूँ। इस प्रकार कहकर उस दुष्टबुद्धिने अपनी कन्याको समझा बुझादिया॥३७॥ और फिर अपने बेटेको नगरमें नियुक्त करके स्वयं महाराज कुलिन्दके निकट गया। तबमन्त्री दुष्टबुद्धिको अचानक आयाहुआ देखकर महाराज कुलिन्द बडे अचंभेमें हुए और पुत्रसमेत उसको प्रणाम करके अपने घर लिवायलाये। और
नम्रतापूर्वक स्थित होकर पुत्रसहित यथाविधि उसकी पूजा करी॥३८॥३९॥ तब मंत्री दुष्टबुद्विने पूछा हे महाराज! पुत्र कब हुआ कुलिन्दने उत्तर दिया हे मंत्री! यह मेरा औरस पुत्र नहीं है, बरन् यह मनोरथरूपी पुत्र स्वयंही मिलगयाहै॥४०॥ मैं आपके आगे इस सुन्दर पुत्रकी आख्यायिका (कथा) कहताहूँ। मैं एक समय (शिकार) सं**++**क्त होकर वनके गह्वरमें गया॥४१॥ मृगया वहाँ कुन्तलनगरीके सन्मुख दो योजन (आठकोश) विस्तारवाले वनमें घुसा, वहाँ यहवठी अँगुली कटाहुआ बालक मैंने देखा॥४२॥ हे महामते! यह सोलहवर्षकी अवस्थाका बालक मुझको औरस पुत्रसेभी अधिक प्यारा है, इस प्रकार इस चन्द्रहासको आप विष्णुका भक्त जानिये॥४३॥ हे पार्थ! महाराज कुलिन्दके ऐसा कहनेपर वह दुष्टबुद्धि योगीकी तरह अन्तर्दृष्टि (ध्यानदृष्टि) युक्त होकर सोचनेलगा कि, हो न हो यह बालक वही होगा अब यह सोलहवर्षकी अवस्थाका होगया है॥४४॥ मुझको अँगुली दिखाकर चाण्डालोंने धोखा दिया, फिर सोचा कि, होनेवाली बात थी सो तो होली किन्तु मुनियोंका वचन तो मैं अवश्यही मिथ्या करूँगा॥४५॥ तदनन्तर हृदयमें चिन्ताकर हाथ जोडेहुए अन्तरमें मलीन वचनको रखकर कहनेलगा॥४६॥ दुष्टबुद्वि बोला हे महात्मन्! जो कि आपको ऐसा सुन्दर पुत्र प्राप्त हुआहै, इसलिये आज आपका जन्म सफल होगया और मेर हृदयमेंभी इसबातसे आपकी बराबर हर्ष होरहाहै॥४७॥
इत्थं वचः स्माह नि+++भावं क्षुरप्रलिप्तं त्वधुनैव तीक्ष्णम्।
यथा तृणैश्छादितगर्त्त एषः क्षौद्रं यथा विष्टविषं विचित्रम्॥
जिसप्रकार पैनी धारवाली **+++**री शहतमें लपेटीगई हो, गढा तिनकोंसे आच्छादित (ढक) होरहाहो, और जैसे विष-
मिश्रित शहत ही, इसी प्रकार वह दुष्टबुद्धि गुप्तभाववाला विचित्र वचन बोला॥४८॥ इति श्रीभारतसारे अश्वमेधपर्वणि भाषायां चन्द्रहासोपाख्याने दुष्टबुद्धिसमागमो नाम द्विनवतितमोऽध्यायः॥९२॥
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त्रिनवतितमोऽध्यायः ९३.
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त्रिनवतितमेऽध्याये विषयाचन्द्रहासयोः॥
विवाहश्चाऽभवत्प्रेम्णा तत्स्फुटं वर्ण्यतेऽधुना॥१॥
इस तिरानवें अध्यायमें विषया और चन्द्रहासका प्रेम पूर्वक विवाह होगया, सो सब स्पष्ट कथा वर्णन करीजातीहै॥१॥
नारद उवाच।
पुनर्दध्यौ दुष्टबुद्धिः कुबुद्धीनां शिरोमणिः॥
कथं मुनिवचोऽतथ्यं कथं पञ्चत्वमेत्ययम्॥३॥
श्रीनारदजी बोले। हे अर्जुन! इसके पीछे कुबुद्धि पुरुषोंके शिरोमणि उस दुष्टबुद्धिने फिर अपने मनमें विचारा कि मुनियों की बात किस तरह मिथ्या हो। और यह चन्द्रहास कैसे मरे!॥३॥ अतएव महादेवजी महाराजने जिस हलाहलको अपने कंटमें धारण कियाहै उसी गरल (विष) से इस बैरीको नष्टकरडालूंगा क्योंकि इससमय चन्द्रहासके मारनेका दूसरा उपाय मुझको दिखाई नहीं देता॥२॥ इस प्रकार सोच विचारकरवह दुष्टबुद्धि अत्यन्त हर्षित हुआ और फिर चन्द्रहाससे बोला कि हे वत्स! आप अब विचित्र पत्र और लेखनी (कलम) तो लेआइये॥३॥ क्योंकि आपकी जो कुछ अभिलाषा है वह सबएक पत्रमें लिख दो तब में आपको कुन्तल नगरीमें भेज देताहूँ, अनन्तर उससेभी एक पत्रको लेकर प्रधानको एकान्तमें
बैठाल—और पत्र अर्पण किया॥४॥ तब वह धान उस पत्रमें अपनी मतिके अनुसार अक्षर लिखनेलगा कि, मदनके निमित्त स्वस्ति (कुशल) और श्री (सम्पत्ति) होवे।आगे पत्र लिखनेका कारण इस प्रकारहै कि॥५॥ चन्द्रहास अपना अत्यन्त ही अनभल करनेवाला बैरी है, और मैंने इसको अपनी सारी सम्पत्तिका मालिक समझलियाहै, इस बातमें आप जराभी संशय न करें, अतएव हे बेटे! आपको ऐसा काम करना उचित है॥६॥ इसका रूप, अवस्था, कुल, शील, पराक्रम, विद्या तथा धन इन सब बातोंकी तरफ आप आँख उठाकर न देखिये और इस शत्रुके लिये जो कुछ लिखागयाहैं उसके अनुसार काम करनेमें एक पलभरकी भी देर मत कीजिये॥७॥ हे मदन! आप इस बैरीको विष देदीजिये।इसप्रकार पत्र लिखकर चन्द्रहासको भेजदिया॥८॥ और उससे कहादिया कि, आप शीघ्रही घोडेपर सवार होकर चार नौकरों समेत कुन्तलनगरीमें चलेजाइये और हे धर्मात्मन्!यह पत्र मेरे पुत्र मदनको दिखादीजिये॥९॥नारदजी बोले। हे अर्जुन! तब वह चन्द्रहास पत्र लेकर सुन्दर घोडेपर सवार होगया और फिर माता पिताके आशीर्वाद लेकर कुन्तल नगरीको चलदिया॥१०॥ तदनन्तर प्रातः समय कुन्तलग्रामके धोरे क्रीडावनमें जो मनोहर तालाव था, वहाँ स्नान और भगवान श्रीहरिकी पूजा करके पाथेय (++साफिरी) का भोजन किया॥११॥ और फिर उस मनोहर तालावके किनारे थोडी देर विश्राम किया। तदनन्तर कुन्तलपुरमें चंपकमालिनी नामक राजकन्या दासीसमेत और विषयानामक दुष्टबुद्धिकी अच्छे भाग्यवाली सुन्दरीकन्या यह दोनों कन्या सौकन्याओंसे घिरी हुई आईं॥१२॥१३॥ वसंतऋतुमें प्राप्त पुष्पोंको
ग्रहण करनेवाली वनमें आईं, साढेतेरहवर्ष अवस्थावाली युवा अवस्थाके भेदनकरनेसे हुशियार वह कन्या और बुरे कपडे पहरनेवाली तथा प्रकाशमान कंचुक पल्लोंवाली इसप्रकार वह चन्द्रहास और उसी समय कमलिनीके खण्डोंद्वारा सुशोभित तालाव पर पहुँची॥ ३४॥१५॥नारदजी बोले। हे अर्जुन! तब कन्याके उस तालावके किनारे कि जहाँ मोतीकी तरह बालुका (रेता) है छोडेहुए कपडोंका मर्मर शब्द सुना॥१६॥ तदनन्तर उन कन्याओंने जलविहार करके अपने अपने कपडे पहरलिये और फिर सब जनीं वहाँसे निकलकर अपने अपने सुन्दर घरोंको चलीगईं॥१७॥ उन सारी कन्याओंमें मन्त्री दुष्टबुद्धिकी विषया नामवाली कन्या पीछे खडी रहगई, और उसने नृपोत्तम कुमार चन्द्रहासका दर्शन किया॥१८॥ उस काल वह विषया चन्द्रहासके गुणोंद्वारा पकडीहुई आगे नहीं जासकी, हे महाराज अनन्तर उस विषयाने दासी सैरन्ध्रीको बुलाकर अपने पैरोंकी पायजेवें देदीं॥१९॥ फिर आवाज होनेकी शंका करके दोनों वस्त्रोंको हाथमें ऊंचा धरकर इस प्रकार चली कि जिस प्रकारहंसके पास हंसिनी जातीहै अथवा हाथीके पास हथिनी जाती है॥२०॥ इस तरह वह विषया जहाँ नरेश्वर चन्द्रहास सोरहाथा वहाँ पहुँची। विषया पतिको जानकर चारों तरफ निगाह दौडानेलगी॥२१॥ तब उसने वहाँ चन्द्रहासके कंचुक (पगिया) से निकले सुन्दर पत्रको देखा, फिर उसको शीघ्रता सहित हाथमें लेलिया और उसकी मुहरको देखकर अचंभेमें होगई॥२२॥ फिर अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक पिताकेउस पत्रको पढा कि मदनके निमित्त स्वस्ति (कुशल) और श्री (संपत्ति) रहे, आगे पत्र लिखनेका कारण यह है कि,॥२३॥ चन्द्रहास मेरा अनभल करनेवाला पूरा बैरी है, और
मैंने इसको अपनी संपत्तिका मालिक जानलियाहै, इसमें संशय नहीं अतएव हे पुत्र! आपको ऐसा काम करना उचित है,॥२४॥ कि इसका रूप, अवस्था, कुल, शील, पराक्रम, विद्या और धन इनकी तरफ आप आँख उठाकर न देखिये और जो कुछ इस पत्रमें लिखागयाहै, उसके अनुसार काम करनेमें एक पलभरकी भी दैरी मत करना॥२५॥ हे मदन! इस बैरीको आप विष देदेना। इस तरह उस पत्रको पढा और फिर उसके मतलबको टटोलतीहुई वह विषया चिन्ता करनेलगी॥२६॥ उसने मेरी संपत्तिका मालिक और मित्र तुल्य मदनके समान हितकारि इत्यादि अक्षर पत्रमें अच्छे देखे॥२७॥ नारदजी बोले हे अर्जुन! अपनी समान रूपवान् मनोहर वरका दर्शन करके वह विषया हर्षित होकर कहनेलगी कि, इनके निमित्त विष देना चाहिये ऐसा मेरा पिता आनंदसे स्खलित होगयाहै॥२८॥ बुढापेमें शठजानेके कारण अथवा जडबुद्धिसेही अवश्य मेरा पिता इस तरह लिख गयाहै और मदनभी पिताके पत्रको देखकर इसको मारडालेगा॥२९॥इस तरह सोच समझकर सुन्दरी कन्याने नाखूँनसे काजलकोले रसाल जातिके पेडके निर्यासरिक्त करके काजलमें पानी डाल अपने हाथसे मसलकर हर्षित विषयाने ‘इसको विषया देनी चाहिये’ इस प्रकार लिखकर पीछेको लौटचली॥३०॥३१॥ तदनन्तर वह विषया सखियोंसमेत हँसतीहुई अपने घर चलीआई और उधर संध्यासमय चन्द्रहासभी मदनकी सभामें॥३२॥ प्रसन्नताद्वारा आनन्दित मन होकर प्रतापी चन्द्रहास मिलनेके लिये आपहुँचा। तब उसको देखतेही तत्काल उठकर हर्षपूर्ण हृदयवाला मदन॥३३॥ वैष्णवचन्द्रहाससे प्रसन्नतापूर्वक मिला, और फिर उसने चन्द्रहासके दियेहुए पिताके पत्रको पढा॥३४॥
दोहा
हर्षिद दन हृदयमहँ, तुर्तज्योतिषी लाय।
सर्व सुयोग सुमंग, ++ग्न विवाह धराय॥
चौपाई
विषया तहां मनाव भवानी।चन्द्रहास वर दे कल्यानी॥
तृतिया व्रत करिहौं मैं तोरी। तुम जो आश पुजाव मोरी॥
अन्तःपुरै मदन तब गये। जननिहि मर्महतसब भये॥
गोधन समय व्याह परमाना। चन्द्रहास वरविषया वामा॥
विषयाते ++बसखिन सुनाई। सुनकर विषया रहीलजाई।
++ग्न भये तब बाजन बाजे। मंग चार खिन++ब साजे॥
चन्द्राहास को तब अन्हवाये। विषयाकोशृंगारबनाये॥
विविध प्रकार++ग्न धरवाये। ब्राह्मण प्रोहित वहाँबुलाये॥
गोत्र पूछि कह तब मनलाई। चन्द्रहास सब बात सुनाई॥
माता पिता गोत्र हरि अहई। लै कुलिन्द पारावति कहाई॥
दोहा
शाखोच्चार उचारिकैं, वेदजु विविध प्रमान।
शास्त्रधर्म कुलधर्म मत, मदन देव है दान॥
चौपाई
कन्या दान मदन तब कीन्हा।गज तुरंग मणि मुक्ता दीन्हा॥
रजतसुवर्ण बहुत तेहिदीन्हा। सब भंडार शून्य निज कीन्हा॥
होम करी गठबन्धन दयऊ। भाँवरि सात अग्नि पर भयऊ॥
दक्षिण ब्राह्मण ++बही पाये। यहि प्रकारर्ते व्याह कराये॥
सब द्विज और पुरोहित आये। दान देय सबबिदा कराये॥
मंगलचार युवति जन गाये। बहुत गुणी जन याचक आये॥
विष दिवायके मारन चहही। हरिहायतो नारद कहई॥
केवल हरिहि ++दा मन++यि। विष देतेविषया सो पाये॥
परम भक्त प्रभु कपट न करई। एक पिताभक्ती मन धरई॥
ताहि सदा हार रक्षक अहई। काह करै विष नारद कहई॥
दोहा
मंगलदायक वही प्रभु, नारद कहा बखान।
वैशम्पायन भाषेऊ, नव दुखःकी हान॥
तब पत्रका मतलब समझकर वह मदन बहुतही सन्तुष्ट हुआ, और उसने तत्कालही ज्योतिष शास्त्रके पण्डित ब्राह्मणोंको वुलालिया॥३५॥ और उनसे मदनने विषया तथा चन्द्रहासके विवाहकी लग्न पूछी, ब्राह्मणोंने कहा हे मदन! सर्व दोषोंसे हीन लग्न तो इसी समय सुन्दर है॥३६॥ उनकी यह बात सुनकर मदन अत्यन्त हर्षित हुआ और उसने महामाङ्गलिक शब्दोंसे उन दोनोंका विवाहकार्य किया। फिर मदनने वैष्णव चन्द्रहाससे उसका गोत्र पूछा॥३७॥ चन्द्रहास बोला। हे मदन! भगवान् श्रीहरि स्वयं मेरे गोत्रहैं, वेही मेरे पिता हैं, और वेही हरि मेरे दादा तथा परदादा हैं, उनको छोडकर दूसरा कोईभी मेरा सुहृद् (हितकारी) नहीं॥३८॥ इसके पीछे मदनने अपनी बहन विषया चन्द्रहासको दान करदी अर्थात् कन्यादान किया और फिर ऊंची आवाजसे बोला कि लक्ष्मीकान्त भगवान् विष्णु मेरे इस दानसे सन्तुष्ट होवें, तदनन्तर गांठ जोडे और कुंकुम चर्चित शरीरवाले वे दोनों वर दुलहिन शीघ्रतासहित वेदीपर पहुँचे। वहाँ उन्होंने अति उत्तम सप्तपदीके विधानानुसार घीकी आहुतियोंद्वारा हुताशन (अग्नि) को सन्तुष्ट किया॥३९॥ इसके पीछे मदनने अत्यन्त आनन्दित होकर बहुत सारा धन, प्रदान किया तथा गौ, हाथी, रथ, ऊंट, भैंसे और दास दासी॥४०॥ रत्न, माणिक्य और मोती इत्यादितरह तरहके रत्न और गहने भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके निमित्तबहन और बहनोई चन्द्रहासको (दहेजमें) दिये॥४१॥
इदं शिरो मदीयं तु त्वदर्थे यातु निश्चितम्॥
पश्चाद्दानानि दत्तानि याचकेभ्यो बहूनि च॥४२॥
(और फिर सौजन्य दिखाताहुआ बोला कि) आपके निमित्त मेरा यह शिर निश्चय जावे अर्थात् आपके काममें मैं
अपना शिर तक देहूँगा। इस प्रकार कहकर पीछेमदनने याचकों को बहुतसा दान किया॥४२॥ इति श्रीभारतसारे अश्वमेधपर्वणि भाषायां चन्द्रहासविवाहो नाम त्रिनवतितमोऽध्यायः॥९३॥
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चतुर्नवतितमोऽध्यायः ९४.
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चतुर्नवतितमेऽध्याये दुष्टबुद्धिं मृतं तथा।
पुनरुज्जीवयत्सोऽथ वर्ण्यते कृष्णदर्शनम्॥१॥
इस चौरानवें अध्यायमें मंत्री दुष्टबुद्धिका मरना और फिर चन्द्रहासका उसको जिलाना तथा भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन यह कथा वर्णन करीजातीहैं॥१॥
नारद उवाच।
तस्यां तु चन्दनावत्यांकुलिन्दं निगडेऽग्रहीत्।
दुष्टबुद्धिर्बबंधाथ दण्डयामा तां प्रणाम्॥१॥
श्रीनारदजी बोले हे अर्जुन! उधर उस चन्दनावती नगरीमें मन्त्री दुष्टबुद्धिने महाराज कुलिन्दको लेकर बेडियोंसे बाँधलिया और उनकी प्रजाको दंड देनेलगा॥१॥ और महाराज कुलिन्दको भी तरह तरहके कष्ट देताहुआ पीडित करने लगा। दुष्टबुद्धि बोला तैंने चन्द्रहास पुत्रके सहित मेरे धनको न**+++**कर डालाहै॥२॥ अतएव मैंने पुण्यप्रभावके प्रतापसे अत्यन्त विकारकी भावना मानीहै, इस तरह महाराज कुलिन्दको डरा धमकाकर वह दुष्टमतिवाला मंत्री कुन्तलनगरीको चलागया॥३॥ यह जैसे ही मार्गमें जावे कि, तैसेही इसको एक महान् सर्प दिखाई दिया वह पुराना और जर्जर देहवाला सर्प कहनेलगा॥४॥ साँप बोला कि, मैं दिनरात तेरे बापके खजानेपर रहा **+++**आज मुझको उस धनके व्यय (खर्च) करनेवाले तेरे
बेटेने निकाल दिया है॥५॥ उस साँपकी यह बात सुनकर मंत्री वह दुष्टबुद्धि बहुत क्षुभित हुआ और फिर मुसाफिरोंको वक्रदृष्टिसे घूरता, मार धाड करता और ब्राह्मणोंको ताडना देता॥६॥ हे अर्जुन! इस तरहसे वह अपने घर जापहुँचा। तब मदनने अपने पिताको क्रोधित देखकर कहा॥७॥ हे पिता! आप कैसे गुस्सेमें भररहेहैं? मैंने आपकी कौनसी आज्ञा का पालन नहीं किया?बहनको दिया तथा धन, हाथी, रथ इत्यादि सभी कुछ देदिया॥८॥ और वह पुराना धनभी देडाला तथा बहनोई चन्द्रहासको मैंने अपने घरमेंही रखलियाहै। उस मदनकी यह बातें सुनकर दुष्टबुद्धिने अपना वह पत्र पढवाया और उस पत्रका मतलब देखकर मंत्री कलेजेमें जलमरा॥९॥ तब तो कुलिन्दकी संताप जनित शत्रुताको घर, आँगन, विवाहकी वेदी, घरमें और वास स्थानमें स्मरण करताहुआ तथा इधर उधर घूमताहुआ और पूर्वमें किये खोटे कामोंको विचारताहुआ विह्वल होगया अर्थात् उसके मनमें बडीही घबराहट उत्पन्न होगई॥१०॥ नारदजी बोले हे अर्जुन! इस प्रकार उस दुष्टने पुत्रको समझा वुझाकर दंभसे उस चन्द्रहासकी पूजा करी। फिर चौथा दिन आनेपर चतुर्थीकर्म करनेका समय प्राप्त हुआ। तब चतुर्थी कर्मसे निबटकर वह दुष्टबुद्धिछलसहित चिन्ता करनेलगा॥११॥ कि यह चन्द्रहास विशेष प्रकारसे मेरे वंशका नाश करडालेगा, क्योंकि मैं प्रथम इसके पिताको पीडित करचुकाहूँ और उनकी प्रजाकोभी दंड देचुकाहूँ ॥१२॥ मैंने इसके नगरको भग्न किया अर्थात् सारी वस्तीको लूटा और धनभी बहुतसारा लेआया, अतएव जिस समय चन्द्रहास इस बातको सुनेगा, तब वह हमारावंशसमेत मलिया मेट करडालेगा॥१३॥ इस कारण मुझको उचितहै कि विष खवाकर इसको शीघ्रही मारडालूं!ऐसा होनेपर
मेरी बेटी विषया चाहे भलेही रांड होजावे, किन्तु उन मुनियोंकी बातको तो झूँठा करसकूँगा॥१४॥ इस तरह अपने जीमें सोच समझकर चाण्डालों (जल्लादों) को वुलाया, फिर उस पापात्मा दुष्टबुद्धिने सूने स्थानमें बैठकर उनको धीरे धीरे आज्ञा दी॥१५॥ रे रे जल्लादो! मेरी बात सुनो। प्रथम तुम सब लोगोंने निडर होकर मुझको ललिया अर्थात् मैंने जो तुम्हें बालकके कतल करनेको भेजाथा, सो तुमने उस बैरीका कतल नहीं किया॥१६॥ अतएव बालभावसेही उस बालकने इस समय इस सारी भूमिपर अपना कब्जाकरलियाहै, इतनेपरभी मैंने तुमको गँवार और दुर्बल (गरीब) समझकर वध नहीं किया॥१७॥ जोहो अब तुम लोगोंको शीघ्रही मेरी आज्ञा (यथावत्) पालन करनी चाहिये। अर्थात् नगरके बाहर सुन्दर बगीचीमें देवी चण्डिकाके भवनमें॥१८॥ सब जने हाथोंमें तलवार लियेहुए चण्डिकाके मन्दिरमें बैठो, फिर रात्रिकालमें जो आदमी वहाँ आवे उसको तुमलोग मारडालो॥१९॥ पापी दुष्टबुद्धिकी यह बात सुनकर गुप्तवेश बनाये हथियारोंसमेत कालेरंगके कपडे पहरे वे जल्लाद चण्डिकाके भवनको गये॥२०॥ अनन्तर उन चाण्डालोंके चलेजानेपर वह मन्त्री दुष्टबुद्धि शीघ्रता सहित अपने घरको चलागया और वहाँ पहुँचकर विनयपूर्वक चन्द्रहाससे बोला॥२१॥ मन्त्रीने कहा। हे चन्द्रहास! हमारे वंशमें सदासे चण्डिका देवीकी पूजा होती आई है, इसमें सन्देह नहीं,अतएव विवाह होजानेपर अब आपभी उन चंडिका देवीकी पूजा कीजिये॥२२॥ आप आधीरातके समय अकेलेही चण्डिकाके भवनमें जाकर यथाविधि उनकी पूजा कीजिये और फिर अपने घरको लौट आइये॥२३॥ हे अर्जुन! इसी बीचमें उधर बुद्धिमान् कुन्तलराजने अपने गालवनामक पुरोहितको
बुलाकर उनसे देवचेष्टा (सुपना) कही॥२४॥हे स्वामित् गालवजी! भूर्लोकमें वेखटके राज्य करतेहुए मेरा मुख अल्पकान्तियुक्त है, अतएव मस्तकहीन देहकी परछाँईको देखताहूँ॥२५॥इस कारण अबमेरा अन्तकाल आपहुँचाहै, इस बात में संशय नहीं समझना। अब मुझे आप अदृष्टाध्याय सुनाइये जिसके द्वारा मेरा मन परम निवृत्तिको प्राप्त हो?॥२६॥उनकी यह वात सुनकर पुरोहित गालवजीने अदृष्टाध्यायकी कथा वर्णन करी। जिसके सुननेपर वे कुन्तलाधिपति परम निवृत्तिको प्राप्त हुए॥२७॥और फिर पास बैठे हुए मदनको बुलाकर इस प्रकार कहा राजा बोले हे मदन! आप घर जाकर चन्द्रहासको वुलालाइये॥२८॥उसको मैं जमाई बनाकर राज्य दूँगा, इसमें सन्देह नहीं। उनकी यह बात सुनकर मदन परम संतुष्ट हुआ॥२९॥तब मदन ज्योंही घरको चला कि, उसी समय इसने अपने सामने बाँसके पात्रवाले हाथमें चन्दन और फूल लिये चन्द्रहासको देखा॥३०॥तब मदन वैष्णव चन्द्रहासको महाराजके पास भेजकर आप चण्डिकाके मन्दिरकी तरफ चलदिया॥३१॥और चन्द्रहास शीघ्रतासहित महाराजके पास पहुँचा, उसको देखकर महाराज कुन्तलने चंपकमालिनी नामवाली अपनी कन्या समर्पण करदी॥३२॥ अनन्तर महाराज कुन्तल राज्यसमेत कन्यादान करके आप शिवकी बाराणसी (काशी) नगरीको चले गये। इसी बीचमें मदन हाथमें फूल लिये हुए चण्डीभवनको॥३३॥ जैसेही जानेलगा कि, उसी समय उन दुष्ट चाण्डालोंने उसको मारगिराया। तब वह गिरताहुआ मदनभी चण्डिकासे कहनेलगा॥३४॥ हे चण्डिके? मैंने अपना यह मस्तक वैष्णव चन्द्रहासके निमित्त अर्पण कियाहै, इस प्रकार कहकर फिर मदन मृत्युकोप्राप्त होगया, यह बात देखकर वे चाण्डाल अचं-
मेमें होगये॥३५॥ इसी बीचमें चन्द्रहास साधु महात्मा और राजकन्यासे युक्त होकर अति उत्तम मतवाले हाथीपर सवार हुआ॥३६॥ और विवाह विषयक श्रेणीमें जानेलगा, देव बाजोंसे युक्त और दीपमालासे प्रकाशमान तथा चारण व किन्नरों द्वारा स्तुतिको प्राप्त होताहुआ॥३७॥ उस चन्द्रहासका इस भाँति दर्शन करके सब लोक आनन्दित हुए और मन्त्री दुष्टबुद्धिकी बडाई करते हुए कहने लगे कि, हे मन्त्रीवर! नृपोत्तम चन्द्रहास॥३८॥ आपके और महाराज कुन्तलके जमाई आरहेहैं, उनकी यह बात सुनकर मन्त्री दुष्टबुद्धिने क्रोधित होकर कहा॥३९॥ हे लोगो! मैं तुम पापात्माओंकी जीभ जडसे काटडालूँगा।मंत्री यह कहता ही था कि, उसी समय उसने चन्द्रहासको देखा॥४०॥ किं, राजकन्यासमेत उसपर चँवर ढुलरहेहैं, चन्द्रहासको इस तरह देखकर दुष्टबुद्धि विकलतासे आकुल होगया॥४१॥ और फिर जब यह सुना कि, देवीके मन्दिरमें मेरा बेटा मदन गयाहै, तब तो मूर्च्छित होगया तन मदनकी कुछ खबर न रही फिर चेतहोनेपर वह मंत्री अपने घरसे आधीरातके समय चण्डिकाके भवनको गया॥४२॥ वहाँशिर कटेहुए अपने बेटे मदनको देखा, तब मंत्री दुष्टबुद्धि भाँति भाँतिसे विलाप करनेलगा॥४३॥ और फिर करपत्र (करौंत) को उठाकर अपनीछातीमें मारा। हे महाराज! उस समय उन दोनोंकीही मृत्यु हुई॥४४॥ हे अर्जुन! अनन्तर दुष्टबुद्धि और उसके पुत्रके मरनेपर वहाँके रहनेवाले आदमियोंने आकर चन्द्रहाससे सारा हाल कहसुनाया॥४५॥ यह सुनकर चन्द्रहास चण्डिकाकेमन्दिरको गया और वहाँ तप्तकुंड बनाकर हव्य सामग्रीसे होम किया॥४६॥ फिर अपने शरीरका मांस काटकर सूक्तको जपते जपते होमनेलगा और फिर जैसेही
अपना शिर काटकर होमनेको तैयार हुआ कि, त्योंही देवीने संतुष्ट होकर कहा॥४७॥ देवी बोली हे महाराज! जो आपके मनको अच्छा लगे, वही वर माँगलीजिये। चन्द्रहासने उत्तर दिया हे मइया!यदि आप संतुष्ट होगई हैं, तो यह बाप बेटे जीवित होजाँय॥४८॥ तथा मुझको सौख्य प्रदान कीजिये। और हम सब ससुर सालोंमें परस्पर अटूट प्रेम प्रदान कीजिये और इनके सिवाय हे माता! भगवान् श्रीहरिके प्रति चिरकाल तक मेरी भक्ति रहे, यह वरदान कीजिये आपको प्रणाम है॥४९॥ तब वह देवी ‘एवमस्तु’ अर्थात् यही होगा, कहकर अन्तर्धान होगई। इसके पीछे पिता पुत्र खडेहोकर आपसमें मिले॥५०॥ और फिर चन्द्रहासभी उन दोनों वाप बेटोंको अपने घर लेआया श्रीनारदजी बोले कि, हे अर्जुन! हे महाबाहो! अब उधर कुलिन्दने जो कुछ किया, सो सुनिये॥५१॥ अर्थात् चन्द्रहासके चलेजानेपर दुष्टबुद्धिके सतायेहुए महाराज कुलिन्दने अपना सारा धन धामब्राह्मणोंको दान करदिया और फिर आप अग्निमें प्रवेश करके भस्म होनेलगे॥५२॥ फिर जब यह बात दुष्टबुद्धिने सुनी, तब वह कुलिन्दराजको सेवकों समेत कुन्तलनगरीमें लेगया॥५३॥अनन्तर मन्त्री दुष्टबुद्विसमेत यह महाराज कुलिन्द उन सब जनोंको समझा वुझाकर कुलिन्द चन्द्रहासपुत्र समेत दुष्टबुद्धि उस जगह टिकारहा॥५४॥ हे महाराज! वहाँ रहकर सब जने मुदित हुए और चन्द्रहासने बहुत सेवकों समेत संसारके आत्मा भगवान् श्रीहरिको सन्तुष्ट किया॥५५॥ भगवान् श्रीहरिको महाराज चन्द्रहासने कुन्तलपुरमें नित्य प्रसन्न किया इस प्रकार कुन्तलनगरमें तीनसौ वर्षतक चन्द्रहासने राज्य शासन किया॥५६॥ तब विषयाने वढौतरीको प्राप्तहोकर मकरध्वजनामक पुत्र उत्पन्न किया और दूसरी
रानी चम्पकमालिनीने पद्माख्य नामक महाशूर पुत्रको उत्पन्न किया॥५७॥ हे अर्जुन!इस तरह यह चन्द्रहास पूर्वकालमें बालक था सो शालिग्राम शिलाके संसर्ग द्वारा संसार सागरसे पार होगया॥५८॥
चौपाई
शिलामहातम उत्तम अहही। शालिग्राम निरञ्जन लहही॥
मृत्युसमय चरणोदक पावै। पापी तरिवैकुण्ठ सिधावै॥
निरमाल्य जो भक्षत कोई। देव पितृ संतोषित होई॥
दानी दाताद्वीपन राऊ। चन्दन लेपन मुक्ति उपाऊ॥
दोहा
शालिग्राम जहाँ रहैं, देव पितृ सबताहिं।
सर्व तीर्थ जल पुण्य तौ, चरणामृतके माहिं॥
तस्मात्संपूजयेन्नित्यं शालग्रामशिलां++ नरः।
शालिग्रामशिलाचक्रं द्वारकासंभवं तथा।
कलिकाले विशेषेण न जहाति जनार्दनः॥५९॥
इस कारण मनुष्योंको नित्य शालिग्रामशिलाकी पूजा करनी चाहिये। क्योंकि जो मनुष्य शालिग्रामशिला और द्वारकामें प्रकटहुए चक्रकी पूजा किया करतेहैं, उनको भगवान् जनार्दन कलिकालमें कभी नहीं त्यागतेहैं॥५९॥ इति श्रीभारतसारे अश्वमेधपर्वणि भाषायां चन्द्रहासकृष्णसमागमो नाम चतुर्नवतितमोऽध्यायः॥९४॥
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पञ्चनवतितमोऽध्यायः ९५.
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पञ्चनवतितमेऽध्याये राजसूये हरिः स्वयम्॥
धर्मस्य किं किं कृतवान्विस्तरेण तदुच्यते॥१॥
इस पिचानवें अध्यायमें भगवान श्रीहरि (श्रीकृष्ण) ने धर्मराज युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें स्वयं क्या काम किया? वही कथा विस्तार पूर्वक वर्णन करीजातीहै॥१॥
जनमेजय उवाच।
दधार चन्द्रहासस्तु वाजिनौनैव वा मुने।
एतत्सर्वं समाख्याहि मया पृष्टोऽसि वै मुने॥१॥
जनमेजय बोले। हे मुनिसत्तम! उस चन्द्रहासने घोडोंको पकड़ा या नहीं? यह बात मैं पूछताहूँ, सो आप मुइसे सब वर्णन कीजिये॥१॥ वैशम्पायनजीने उत्तर दिया हे महाराज जनमेजय! उस बुद्धिमान् चन्द्रहासने उन घोडोंको नहीं पकडा बरन श्रीकृष्णको अर्जुनसमेत देख उनके चरणोंमें जाकर नमस्कार किया॥२॥ तदनन्तर पुत्रको वराज पदमें प्रतिष्ठित कर माधव भगवान् श्रीकृष्णको तीनरात्रितक अपनी नगरीमें टिकालिया और फिर श्रीकृष्ण तथा घोडोंसमेत आपभी गया॥३॥ हे नृपोत्तम!इसके पीछे यज्ञीय घोडा जिस जिस स्थानमें पहुँचा, वहाँ वहाँके नरेशोंने डर के मारे प्रणाम करके उसको छोडदिया, किसीनेभी नहीं पकडा॥४॥ तदनन्तर हे महाराज! घोडा समुद्र की दिशामें गमन करते करते समुद्रके अगाध जलमें घुसगया॥५॥ तब अर्जुन इत्यादि सारे योधा दुःखको प्राप्त होकर भगवान् श्रीकृष्णसे कहनेलगे। हे भगवान्! इस समय हमको क्या करना चाहिये जिससे वह घोडे मिलजाँय?॥६॥ श्रीकृष्णने उत्तर दिया। हे भाइयो! वे घोडे केवल पांच योधाओंके हंसके समान जलको तग्नेवाले हैं, जिस प्रकार हंसकेतुके तथा पार्थके और बभ्रुवाहनके तथा मेरे॥७॥ और म्यूरध्वजके यह पांचों रथ सर्वत्र गमन कर सकतेहैं, इस तरह कहनेपर भगवान् श्रीकृष्ण और उन महारथियोंने समुद्रमें प्रवेश किया॥८॥ वहाँ जीर्ण क्षुधित और शतशः छिद्रयुक्त द्वीपपर पडे बडके पत्तोंको हाथद्वारा मस्तक पर धरे हुए और लताओंके मन्दिरसे मंडित॥९॥ तथा आँखें मूँदे बैठेहुए महाभागवाले मुनिवर बकदाल्भ्यके
समीप पहुँच कर प्रणाम पूर्वक वे सबजने सन्मुख बैठगये॥१०॥ अनन्तर ज्योंही मुनिवर वकदाल्भ्यजीने आँखें खोलीं कि वैसेही सामने श्रीकृष्णादिकोंका दर्शन किया। तब अर्जुनने उन मुनिका आदर सत्कार किया।मुनिने कहा॥११॥ मुनि बोले। हे अर्जुन! आप मेरी स्तुति नहीं कीजिये क्योंकि आपके स्तुति करनेसे मुझे गर्व नहीं होताहै, हे अर्जुन! प्रथम मुझे गर्व हुआथा, उस काल मैंने अचंभा देखा॥१२॥ चार मुखवाले, आठ मुखवाले और फिर सोलह मुखवाले तथा वत्तीस मुखवाले और फिर चौंसठ मुखवाले ब्रह्माओंका अंडके अंतमें दर्शन किया॥१३॥ हे विभो! ऐसी स्वल्प आयुसे मैंने अपने मस्तकपर बडके पत्तोंको धरलियाहै। हे स्वामिन्! मेरे देखते देखते बीस ब्रह्मा बीतचुकेहैं॥१२॥ हे पार्थ! इसके पीछे फिर जो मैंने दारपरिग्रह अर्थात् विवाह नहीं किया उसका भी कारण वर्णन करताहूँ, आप श्रवण कीजिये॥१५॥ वकदालभ्य बोले। हे अर्जुन! यह दारपरिग्रह अर्थात् भार्याका ग्रहण करना महान् क्लेशदायक और पापका उत्पन्न करनेवाला है, और पापसे निःसन्देह अधोगति अर्थात् नरक प्राप्त होताहै, और उसका पोषण करनेके कारण कार्य अकार्यका सारा विचाररूदी धर्म नष्ट होजाताहै॥१६॥ फिर वह धर्मका विचार नष्ट होनेपर मोक्ष कहाँ? क्यों कि फिर तो आदमीको तृष्णा अत्यन्तही चिपटतीहै, हे वत्स! इस भाँति चिन्ता करे कि मेरे सब कोई शीघ्रतासहित मृत्युको प्राप्त होगये ऐसा विचारकरे और वृद्धिको प्राप्त हो तब वह क्लेशपानेवाला होवे॥१७॥ इसी प्रकार किशोर अवस्था युक्त बहुत सारे बेटोंको मैंदेखूँगा, और मैंने अनगिन्त बेटोंको उत्पन्न कियाहे, अबपोते किस तरह से होंवे और किस प्रकार वे वेदान्त शास्त्र अध्ययन करेंगे?॥१८॥ तथा इनका विवाह
अर्जुन सेनासमेत आरहेथे तब श्रीकृष्णने सेनाको मोहित करनेवाली अपनी माया रची॥२७॥तब इस प्रकार आपसमें सारे राजा मिले और महाआनन्दयुक्त मन हो नारियाँभी नारियोंके साथ मिलीं॥२८॥और उस स्थानमें जो अपनी भार्याओंसमेत ब्रह्मार्षि आनकर प्राप्त हुएथे, वे सब उन बकदाल्भ्यमुनिको प्रणाम करके उनके आगे खडे होगये॥२९॥तदनन्तर हलों द्वारा यज्ञ क्षेत्रको शुद्ध कराकर सुन्दर मध्यम अंगवाली रानी द्रौपदी और नृपोत्तम युधिष्टिर उन सारी औषधियोंको लेकर दीक्षित हुए॥३०॥उस काल ब्रह्मवादी ब्राह्मण मंत्रपाठ करनेलगे और उस स्थानमें होमकुंड बनाकर वे महाराज युधिष्ठिर हव्यसामग्रीको होमनेलगे॥३१॥तपसे प्रकाशमान ऋत्विक् और प्रकाशमान तेजवाले ऋषि वामदेव गौतम, अत्रि, पराशर॥३२॥भरद्वाज, जमदग्निनन्दन परशुराम, कुहांड, भासुर, रैभ्य, सुमन्तु, कौण्डिन्य, जातूकर्ण और गालव इत्यादि॥३३॥यह सब तथा इनके अतिरिक्त औरभी अनेक उत्तम ज्ञानी मुनिजन आनकर उपस्थित हुए । तब महाराज युधिष्ठिरने यज्ञ करके उन सबकी पूजा करी॥३४॥तब वहाँ भगवान् श्रीवेदव्यासजीने धर्मनन्दन युधिष्टिरसे कहा । व्यासजी बोले । हे युधिष्टिर ! गंगा जल लेनेके निमित्त चौसठ नारी भर्त्तासमेत गंगाके सुन्दर किनारेपर जावें॥३५॥यह मैंने आपसे यथायोग्य कारण कहाहै कि गंगाका जल लाओ, सो इसको कीजिये।अपनी भार्यासमेत अत्रिऋषि, अपनी भार्या अरुन्धतीसमेत वशिष्ठऋषि॥३६॥रुक्मिणीसमेत श्रीकृष्ण; सुभद्रासमेत अर्जुन और मायावतीसमेत वीर प्रद्युम्न यह सब अभी विना विलम्व चलेजावें॥३७॥ यह सब जने हाथमें कलशी उठालें, और अनिरुद्धसहित रोचना, हिडिम्बासहित
भीमसेन और भद्रासहित वृषकेतु॥३८॥सत्यवतीके सहित हँसकेतु धमिल्लाके सहित अनुशाल्व यह सबसब जने भार्याओंसमेत गंगाजलकोलेने चलेजावें॥३९॥तब उन सबने हाथ जोड कर श्रीव्यासजी के वचनानुसार सारा काम किया। वैशंपायनजी बोले हे जनमेजय! वे सब कृष्ण अर्जुन इत्यादि नौकरोंकी तरह उपस्थित हुए॥४०॥और फिर सुन्दर जलसे राजा और राजपत्नीको स्नान कराया अथवा राजा और राजमहिषियोंने पवित्र जलसे महाराज युधिष्टिरको स्नान कराया तब तो यह हाल देखकर युधिष्ठिरको महान् गर्व हुआ॥४१॥अनन्तर अपने भक्तोंका पालन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने युधिष्टिरको गर्वित देखकर उनका गर्व तोडनेके निमित्त नौलेको दिखाया॥४२॥जिस स्थानमें वेदकी ध्वनि होरहीथी, और जहाँ मांगलिकतुरही बजरहीथी, तथा जहाँ औरभी महामहिमा होरहीथी, उसी स्थानमें वह नौला आपहुँचा॥४३॥जिसका आधा अंग तो सुवर्णमय था और आधा अंग असली नौलेका था, तब उस चित्ररूपी नौलेको देखकर सबजने अचंभेमें होगये॥४४॥युधिष्ठिर बोले हे कृष्ण! कृष्ण! हे अप्रमेय आत्मावाले! इस अति उत्तम नौलेको तो देखिये। इस प्रकारके सुवर्णमय शरीर और विचित्र रूपवाला नौला किसीने कहींभी नहीं देखाहोगा॥४५॥नौलेने कहा मेरा जो यह आधा अंग सुवर्णमय है, सो इसका कारण सुनिये हे महाराज! पूर्वकालमें तपोवनके बीच सक्तु++स्थ नामक बडे+ +ण॥४६॥उ++वृत्तिवाले ब्राह्मण और धर्मात्मा छैमासमें एक समय पारण (भोजन) करतेथे। हे स्वामिन्! एक दिन वे ब्राह्मण देवता पारण करते थे॥४७॥कि, त्योंही वैश्वदैविक कालमें एक अभ्यागत आपहुँचा तब ब्राह्मणने प्रसन्न होकर अपना भाग उस अभ्यागतको
समर्पण करदिया॥४८॥किन्तु उसके द्वारा जब वह योगी तृप्त न हुआ, तबब्राह्मणने अपनी स्त्रीका भागभी उसको देदिया। फिर भी वह तृप्त न हुआ, तब ब्राह्मणने अपने बेटेका भागभी उसके अर्पण करदिया॥४९॥किन्तु इतनेपरभी वह अतिथि तृप्त न हुआ, तब पुत्रकी बहूने अपना भाग देदिया। इस तरह अर्पण करके उन्होंने हाथ घोडाला॥५०॥जब हाथ धोनेसे वहाँ गिरेहुए लेशमात्र जलसे मैंने अपने देहको क्षालित किया, तो उस जलके प्रभावसेही मेरे देहका अर्द्धभाग सुवर्णमय होगयाहै,॥५१॥अब मुझको मालूमहुआ है कि, पुण्यदेनेवाले महाराज युधिष्ठिर य++करके गंगाजलद्वारा अवभृथ स्नान करते हैं सो मैं वहाँ जाऊँगा॥५२॥और यह जो आधा शरीर नौलेका रहगया है, उसको उस स्नानके जलसे धोऊंगा क्योंकि ऐसा करनेपर यह मेरा आधा शरीरभी सुवर्णमय होजायगा। यही सोच विचार मैंने इस विमल गंगाजलमें आकर स्नान कियाहै॥५३॥किन्तु तथापि हे विभो! मेरा वह आधा शरीर सुवर्णमय नहीं हुआ! अतएव हे महाराज! यह आपका महत्पुण्य उस ब्राह्मणके पुण्यकी बराबर तो कदापि नहींहै॥५४॥ उस नौलेकी यह बात सुनकर सब किसीको बडा अचंभा हुआ। और धर्मराज युधिष्टिरकाभी गर्व जाता रहा, तब वह नौलाभी अन्तर्धान होगया॥५५॥तदनन्तर धर्मराज युधिप्टिरने यज्ञके अन्तमें ब्राह्मणोंकी पूजा करी। वे ब्राह्मण भोजनसे सन्तुष्ट होनेपर वस्त्रोंद्वारा आच्छादित कियेगये और सब गहनोंसे सुशोभित हुए॥५६॥तदनन्तर वे सब ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करके अपने अपने घरोंको चलेगये तथा और भी जितने नरेश आयेथे, उन सबने भी अपने स्थानको प्रस्थान किया॥५७॥ हे नृपोत्तम! इसी बीचमें श्रीकृष्ण तथा अन्यान्य
भूपालगणोंसेरिक्त होकर वे महाराज युधिष्ठिर यगेश्वरकी तरह शोभा पानेलगे॥५८॥उसी समय आपसमें झगडा करतेहुए दो ब्राह्मण आये। उनको देखकर महाराज युधिष्ठिरने कहा कि, हे ब्राह्मणो! तुम दोनोंमें किस बातपर झगडा उत्पन्न हुआहै?॥५९॥तब उनमेंसे एक ब्राह्मणने उत्तर दिया। हे महाराज! मैंने हलसे इस ब्राह्मणका खेत जोताथा, सो उसमेंसे कुछ धन निकल आयाहै जिसको मैं नहीं लेना चाहता॥६०॥और यह ब्राह्मण भी उसको नहीं लेता, तब यह धन किसका समझाजावे?सो आप धर्मानुसार इसका निर्णय करदीजिये। जब इस तरह उन दोनों ब्राह्मणोंमें बहुत झगडा हुआ, तब भगवान् श्रीकृष्णने दोमहीनेतक॥६१॥उस धनको अपने पास घरमें रक्खा और वे ब्राह्मण अपने घरको चलेगये। तब धर्मराज युधिष्टिरने कहा हे जगन्नाथ! आप सर्वज्ञ अर्थात् सारी गुप्त बातोंके जाननेवाले हैं, तब फिर आपने अभीइन ब्राह्मणोंका झगडा क्यों नहीं मिटा दिया?॥६२॥श्रीकृष्णने उत्तर दिया कि हे धर्मराज! अब दोमहीनेके पीछे यह द्वापरयुग बीतजावेगा, और महान् कलि आनकर उपस्थित होगा, जिसमें सारे काम विपरीत हुआकरेंगे॥६३॥जिस समय कलि आघुसेगा, तब धर्म विशेष प्रकार दग्ध (जल) हो जावेगा, तपस्या विचलित होजावेगी, सत्य दूर भागजायगा, भूमि मन्दफलयुक्त होगी, राजा लोग++ल फरेव कियाकरेंगे, लोग नारीके वश होंगे, स्त्रियोंमें चपलता आघुसेगी, बेटे बापसे बैर कियाकरेंगे, साधु महात्मा दुःखको मिलेहोंगे, दुष्टोंको सुख मिलेगा, इस तरह सारा धर्म लोप होजायगा॥६४॥फिर एक समय महाराज धृतराष्ट्रने भीमसेनको आलिंगन करनेकी रुचि प्रकट करी। उनका अभिप्राय यह था कि
भीमको इतने बलसे हृदय लगावें कि उसकी हड्डी पसली चकनाचूर होकर प्राण निकलजाँय। तब श्रीकृष्णने उनका यह छल समझकर लोहेका भीम तइयार किया॥६५॥तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने उसी लोहेके भीमको धृतराष्ट्रसे मिलाया, तब उस दुष्टबुद्धिने उस लोहेके भीमको मसलकर भंजन करडाला॥६६॥तब भीमसेनने उस दिनसे सदाके लिये धृतराष्ट्रको अपमानित किया और वह धृतराष्ट्रभी महात्मा विदुरजीके उपदेश देनेपर प्रज्ञाचक्षु अर्थात् नदृष्टिवाले होगये॥६७॥फिर वे धृतराष्ट्र अपनी भार्या गान्धारी समेत तपोवनमें चलेगये, तब यह जानकर भगवान् वासुदेव श्रीकृष्णने उन पांडवोंसे आज्ञा ली॥६८॥और फिर हे राजन्! वे यदुवंशियों (यादवों) समेत द्वारकापुरीकी ओर चलेगये तब भगवान् श्रीकृष्णके चले जानेपर धर्मराज युधिष्ठिर उनके उत्कट वियोगसे अत्यन्त कातर होगये॥६९॥
व्यासं प्रष्टुमना राजन्गतो व्या++निके नम्॥
भ्रातृभिः हिवो राजंस्तं ददर्श महामुनिम्॥७०॥
हे राजन् जनमेजय! इसके पीछे भगवान् श्रीवेदव्यासजीसे पूछनेकी इच्छावाले महाराज युधिष्ठिर भ्राताओंसमेत उनके घर गये और वहाँ उन महामुनिका दर्शन किया॥७०॥
चौपाई
वैशमप्यान कहैं बखानी। अश्वमेध है पुण्य कहानी॥
दु++सुनैं दारिद्र पराई। रोगी रोग तुरत क्षय पाई॥
निपुःत्री नते सुत पावे। पुरुषन सुनत++न उपजावे॥
सहसन धेनु देइ जो दाना। सर्वतीर्थ++ र++तेअसनाना॥
पर्व अठारह सुन फल होई। अश्वमेध फल जानो सोई॥
++य चरित्र जो सुनु मनलाई। यमके दूत निकट नहिं++ई॥
॥श्रीकृष्णाय नमः॥
भारतसार भाषा।
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मौसलपर्व १६.
षण्णवतितमोऽध्यायः ९६.
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** दोहा**
आनँदनिधि ऋधि सिथि भवन, गिरिजा++वन गणेश॥
मंगलसुत मंगल करहु, काटहु कठिन कलेश॥
नन्दनँदन गोपन सखा, जयःव्रजेश व्रजचन्द॥
सुखासीन सुखके भवन, सुख दीजे सुखकन्द॥
मोर मुकुट शिरपर धरे, कुण्ड++** झलकत कान॥
अधरन पहँ वंशी धरे, गावत मीठी तान॥
सुन्यो चहत मन मोर यह, मुरलीकी ध्वनि घोर॥
करहु मनोरथ पूर्ण प्रभु, नागर नन्दकिशोर॥
जय जय जय नँदलाडिले, व्रजजनजीवनप्रान॥
मिश्र कन्हैयालाल कहँ, देहु भक्ति वरदान॥**
षण्णवतितमेऽध्याये वृष्णीनां विप्रशापजः॥
कुलक्षयः कृष्णमतस्तत्सर्वमिह चोच्यते॥१॥
इस छियानवें अध्यायमें श्रीकृष्णके मतानुसार विप्रशापसे उत्पन्न यदुकुलका नाश होना यह सारी कथा कहीजातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
तमागतं समालोक्य धर्मं बन्धुसमन्वितम्॥
अर्घ्यादिकं ततः कृत्वा ब्रह्मवार्त्ता प्रचक्रतुः॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे जनमेजय! तब भाइयोंसमेत उन धर्मपुत्र महाराज युधिष्ठिरको आयाहुआ देखकर भगवान् श्रीवेद-
व्यासजीने उनको अर्घ्य इत्यादि दिया और फिर मुनिव राजा दोनोंजने आपसमें ब्रह्मवार्त्ता (वेदसम्मत कथोपकथन) करनेलगे॥१॥ (व्यासजीने पूछा) हे राजन्! आपकी सबतरहसेकुशल तो है? आपके यहाँ आनेका कारण क्या है? उनकी यह बात सुनकर महाराज युधिष्ठिरने उत्तर दिया॥२॥युधिष्ठिर बोले। हे स्वामिन्! मुझको एक डर होरहाहै कि, कलियुगमें मैं क्या करूंगा? क्योंकि भगवान् श्रीकृष्णने मुझसे कहाहै कि, कलियुग परम दारुण है॥३॥व्यासजीने उत्तर दिया, हे महाराज! जिनका श्रीकृष्ण पालन करनेवाले हैं, उनको किसका डर होसकता है? क्योंकि महाविष्णु भगवान् श्रीकृष्ण तो आपको माता और भाइयोंसमेत कलियुगमेंभी वैकुंठमें लेजाँयगे यह मेरी निश्चित बात हैं। युधिष्ठिरने कहा हे महाब्रह्मन्! भगवान् श्रीकृष्णकी जिस गतिको ब्रह्मादिदेवताभी नहीं जानते॥४॥५॥हे स्वामिन्! उसको मैं किस तरह जान सकूँगा और वे मधुदैत्यके मारनेवाले श्रीकृष्णभी दूर हैं। व्यासजीने कहा हे धर्मराज! अपना हितकारी मेरा कहना कीजिये॥६॥इस प्रकार मुनिवर श्रीवेदव्यासजीकी कहीहुई बात सुनकर महाराज युधिष्ठिर अपने मनमें बहुत संतुष्ट हुए। तब उनसे आज्ञालेकर युधिष्ठिर हस्तिनापुरमें लौट आये॥७॥फिर तहाँ आकर अर्जुनको द्वारकापुरीमें भेजा। तब अर्जुन प्रसन्नतापूर्वक शीघ्रही द्वारकापुरीमें गये॥८॥वैशम्पायनजी बोले हे जनमेजय! उधर भगवान् श्रीकृष्णने द्वारकानगरीमें पहुँचकर सब जनोंको अपनी सभामें बुलाया, और फिर उनसे अश्वमेध यज्ञमें आयेहुए सारे राजाओंकी कथा वर्णन करी॥९॥तथा ऋषि ऋषिपत्नी और विशेषकर पांडवोंकी कथा वर्णन करी कि पाण्डवोंने चराचर सारे संसारको विजयकिया॥१०॥जो हो महाराज उग्रसेन, वसुदेव और बलराम-
जीके प्रसादसे अब भूमि कंटकहीन होगइहै और महाराज युधिष्टिरको राज्यसिंहासन पर बैठालदियाहै॥११॥इस तरह सब किसीसे कह अपने मन्दिरको चलेगये और हे राजन! अपने मन्दिरमें पहुँचकर भगवान् श्रीहरि स्वयं विचार करनेलगे॥१२॥ मेरे सहारेवाले ऐश्वर्यके द्वारा निरन्तर अत्यन्त वृद्धिको प्राप्त इस यदुवंशका अन्य किसीसेभी नाश नहीं होसकेगा, अतएव मैं बाँसके++च्छेकी आगके समान यदुवंशके भीतर नाशरूपी कलह उत्पन्न करके फिर आप शान्तिधामको प्राप्त हूँगा॥१३॥ हे महाराज जन्मेजय! सत्यसंकल्प और समर्थ ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णने इस तरह सोच विचारकरके विप्रशापके बहानेसे अपने कुलको हरण किया अर्थात् उसका मलियामेट कराय दिया॥१४॥ क्योंकि श्रीकृष्णने सोचा कि जबतक यह कंटकस्वरूप यदुकुल विद्यमानरहेगा, तबतक पृथ्वीको दुःख देनेवाले इस भारी भारका उतरना नहीं समझा जायगा॥१५॥ तदनन्तर पतिव्रता गाँधारीकी बातको स्मरण करके कि, उसने स्वीयवंश नाशके निमित्त जो शाप दियाहै, भगवान् श्रीकृष्णने उस सारे कारणको मनमें विचारकर निश्चय किया कि॥१६॥ मुझे विप्रशापके कारण यदुवंशका नाश करादेना चाहिये, इसमें संशय नहीं है। श्रीकृष्णने ऐसी मति करके कुमारोंको ऋषियोंके निकट जानेकी प्रेरणारूपी आज्ञा दी॥१७॥
चौपाई
पियो सुरा सब यादव बालक। भये मस्त हरि इच्छा पालक॥
बाँधि साम्ब हिय काढि हावन। मूश राखि मध्य हिय रावन॥
-
- भग नारि गर्भिणी बनाई। केशमू+ + ग ना पहराई॥
गैंदनके तहाँ दोउ कुचकीन्हे।सिन्दुर दे शिर मेंदी दीन्हे॥
बिछुआ आदि अभूषण जेते।हाँलो कहौंवि ये+ + ** बतेते॥
जाय बन्दि मुनिवर दुर्वासा।बैठि वचन अ**+ + ** कीन्ही प्रकाशा॥**
- भग नारि गर्भिणी बनाई। केशमू+ + ग ना पहराई॥
हे मुनिवर+ + र्वज्ञ निधाना। पुत्री पुत्र जात नहि जाना॥
जो कृपालु+ + तुरत बताबो। अति शुभयश गतमें पावो॥
ध्यान धरी मुनिवर तहँ देखे। छल समुझे+ + छु और न पेखे॥
क्रोधित मुनिवर बोले बैना। त+ + देख्यो यह कुल नैना॥
** दोहा**
बोले मुनिवर कोप करि, होय सत्य यह बैन।
याही सुतके होतही, मरै कृष्ण सह सैन॥
तब वे सारे बालक साम्बको नारीवेष बनाय ऋषियोंके सामने जाकर बोले हे ऋषियो! आप सब महात्मा, ज्ञानी और जितेन्द्रिय हैं॥१८॥ अतएव बताइये कि, यह लुगाई बेटा जनेगी या बेटी? इस प्रकार कहनेपर उन मुनियोंने क्रोधपूर्वक उनको शाप दिया॥१९॥ हे मन्दबुद्धियो! यह लुगाई वंशका नाश करनेवाला मूशल जनेगी। उन मुनियोंका यह शाप सुनकर जैसेही वे बालक सामने देखनेलगे॥२०॥ कि वैसेही उन्होंने महाघोर लका घातकरनेवाले मूशलको देखा, तब वे सारे बालक उस साम्बके उदरसे निकलेहुए मूशलको लेकर भागे॥२१॥ तब जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण यादवों समेत सभामें बैठेथे, वहाँ उन सब बालकोंको आयाहुआ देखकर श्रीकृष्णने कहा॥२२॥ हे यादवो! आप सब जने देखिये कि, इन पापकर्मकारी बालकोंने केवल वंशका++** **य करनेके निमित्त उन मुनियोंको क्रोधयुक्त कियाहै, इसमें सन्देह नहीं॥२३॥ भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार कहेतेही थे कि, उसी समय उन बालकोंने वहाँ पहुँचकर ऋषियोंका कियाहुआसारा माचार कहसुनाया। और फिर उनके सन्मुख वह मूशल भी दिखाया॥२४॥ तब उस मुशलको देखकर श्रीकृष्णने कहा कि, आप सब लोग देवके किये होनहारको तो देखिये कि, ब्राह्मणोंके शापसे वंशका निःसन्देह नाश होजायगा सो जानलीजिये॥२५॥ अब उस मूश-
लको लेकर समुद्रके किनारे जाइये और वहाँ वज्रिणीके तटपर पहुँचकर शिलापर मूशलको परिश्रमसे रेतो॥२६॥और रेतते रेतते जो थोडा बाकी रहजाय, उसको समुद्र में डालदो। इसतरह भगवान् श्रीकृष्णने सन्मुख बैठेहुए उन सारे यादवोंको आज्ञा देकर सीख दी॥२७॥कि, आप लोग सब धर्म कीजिये। क्योंकि धर्मकुलकी वृद्धि कियाकरताहै। इसप्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्णने वैकुंठ जाने की इच्छा करी॥२८॥ और हे मारिष! सबको प्रभासतीर्थमें भेजा। इसके पीछेकेशवने द्वारकापुरीमें महान् उत्पातोंको देखकर। हे राजेन्द्र! यादवोंसे हितकारी वचन कहे॥२९॥श्रीकृष्णने कहा हे यादवो! आप सब मेरी बात सुनिये।अब यहाँ बडे बडे उत्पात दिखाई देतेहैं जो अतएव मैं समझताहूँ कि, आजसे सातवें दिन यह द्वारकापुरी समुदमें डूबजायगी॥३०॥
गंतव्यं तु प्रभासं वै सर्वथा निश्चया मम॥
इति कृष्णवचः श्रुत्वा गमने त्वरितास्तदा॥३१॥
इस कारण आप सबजनोंको उचित है कि, प्रभासतीर्थमें चले जाओ यह मेरा सर्वथा निश्चय है। भगवान् श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर वे सब जने तुरन्तही जानेके लिये तैयार होगये॥३१॥ इति श्रीभारतसारे शलपर्वणि भाषायां षण्णवतितमोऽध्यायः॥९६॥
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सप्तनवतितमोध्यायः ९७.
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सप्तनवतितमेऽध्याये प्रभासे श्रीहरिः स्वयम्॥
त्यक्त्वा लेवरं योगी गतो वैकुण्ठमीर्यते॥१॥
इस सत्तानवें अध्यायमें योगीश्वर भगवान् श्रीकृष्णका स्वयंभी शरीर त्यागकर वैकुण्ठको चलाजाना यह कथा वर्णन करीजायगी॥१॥
वैशम्पायन उवाच।
उद्धवः कृष्णमालोक्य गमनाय कृतोद्यमम्॥
आमन्त्र्य चार्जुनं तत्र स्थापयित्वा तु वज्रकम्॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे जनमेजय! अनन्तर उद्धवजीने भगवान् श्रीकृष्णको तहाँ मथुरामें व++ को स्थापनपूर्वक उसके सहित अर्जुनको शिक्षादे गोलोकजानेके निमित्त उद्यम करताहुआ देखकर॥१॥ सूने स्थानमें बैठेहुए अपने स्वामी श्रीकृष्णसे कहा उद्धवजी बोले हे प्रभो!आप जिस स्थानमें जानेकी इच्छा कररहेहैं, वहाँ अपने संग मुझको भी लेचलिये॥२॥ क्योंकि मैं आपका बालक और टहलुआ हूँ, अतएव आपको छोडकर यहाँ नहीं ठहर सकूँगा और हे नाथ! यदि आप मुझको छोडकर चलेजाँयगे, तो मैं निःसन्देह अपने प्राण त्यागदूँगा॥३॥ इस प्रकार उद्धवजी तरह तरहकी बातें कह कहकर विह्वल होगये तब उन बोलतेहुए उद्धवजीसे श्रीकृष्णने कहा॥४॥श्रीकृष्ण बोले हे उद्धवजी! मुझको योग नहीं रोकसता, साँख्य तथा धर्मसेभी मैं नहीं रुक सकता, विद्याभ्यासभी रोकनेको समर्थ नहीं है, संन्यासभी नहीं रोकसकता और न मैं इष्टपूर्त्त अर्थात् मंदिर प्रतिष्टादि कर्म तथा वापी कूप तडागादि प्रतिष्ठाकर्मसेही रुकसकताहूँ और दक्षिणाभी मुझको नहीं रोकसकती॥५॥ व्रत, यज्ञ, छन्द, तीर्थ, नियम, यम इन सबके द्वाराभी मैं नहीं रुक सकता, कि, जैसा सर्व संगहीन सत्संग मुझको रोक सकताहै इस तरहसे दूसरा कोई कामभी मेरे रोकनिको समर्थ नहीं है॥६॥ क्योंकि सत्संगके द्वारा दैत्य, राक्षस, पक्षी, मृग, पशुजाति, गंधर्व, अप्सरा, नाग, सिद्ध, चारण और गुह्यक॥७॥ विद्याधर, मनुष्य, वैश्य, शूद्र, नारियाँ, चाण्डाल तथा औरभी रजोगुणी व तमोगुणी स्वभाववाले
प्राणियोंने युगयुगमें॥८॥ हुत मेरे पदोंको पायाहै। वृत्रासुर, प्रह्लादादि, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर और भइया रावणका नाश करानेवाला विभीषण॥९॥ ग्रीव, हनुमान, रीछ जाम्बवान्, गज, गीध (जटायु), वणिक्पथ, व्याध, कुब्जा, और ब्रजकी गोपियाँ ऐसेही यज्ञकर्त्ता चौबोंकी पत्नियां और दूसरे भी॥१०॥ उन लोगोंने वेदोंको नहीं पढा और न उनका सेवनही किया, साधु, महात्माओंकी सेवाभी नहीं करी और न व्रतही किये, इस प्रकारके उन लोगोंने मुझको सत्संगसेही पालियाहै॥११॥ मुझको केवल मात्र भक्तिभावके द्वाराही गोपी, गौवें, पक्षी, वृक्ष, पशुजाति, मृग तथा अपरापर जडबुद्धि युक्त मूर्खगोपालोंने प्राप्तकरलियाहै॥१२॥ इस कारण हे उद्धवजी महाराज! आप प्रेरणा प्रेमकी फाँसी, प्रवृत्ति, निवृत्ति, सुनने योग्य और शास्त्र इस सबको छोडकर॥१३॥ शरीरधारियोंके केवल एकही शरणरूपी मुझको अन्तःकरण के भावसे प्राप्त होजाइये। तब फिर आप मेरे द्वारा निर्भय होजाँयगे॥१४॥ मुझमें मन लगाकर आप इस पृथ्वीमण्डलपर विचरिये और बद्रिकाश्रमसे पहुँचकर दुष्टसंगसे रहित होनेपर॥१५॥ सत्संगसे एक भावद्वारा परम अर्थसे मेरा भजन करतेहुए आप अल्पसमयमेंही मुझको पालोगे, इसमें सन्देह नहीं॥१६॥ दाशाई भगवान् श्रीकृष्णने भक्तशिरोमणि उद्धवजीको इस तरह आज्ञा प्रदान करी और फिर माधव श्रीकृष्णने करुणारूपी वचनोंके द्वारा उन रोतेहुए उद्धवजीको निवारण किया॥१७॥ तब उद्धवजीभी अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्णजीकी पादुका लेकर और उनको अपने मस्तकपर चढाकर। दुःखित चित्त हो उत्तर दिशाको चलेगये॥१८॥ वैशंपायनजी बोले हे जनमेजय!उद्धवजीके चलेजानेपरपृथ्वी, स्वर्ग और आकाशमें
बडे बडे उत्पात ठखडेहुए, उनको देखकर धर्मा भामें विराजमान भगवान् श्रीकृष्णने सब यादवोंसे इसतरकहा॥१९॥अब द्वारावती नगरीमें ऐसे अनेक दारुण घोर उपद्रव होतेहैं, इसकारण हे यदुनन्दनों! अब आप सब जनों को यहाँ एकमुहूर्त्त मात्रभी नहीं टिकना चाहिये॥२०॥ नारियाँ, बालक, बूढे, यहाँसे शखोद्धारको चलेजाँय और हम सब लोग उस प्रभासक्षेत्रको चलेजाँयगे कि, जिस स्थानमें प्राचीकरस्वती हैं॥२१॥इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णकी बात सुनकर उसको बूढ़े यादवोंने मानलिया और फिर नावोंद्वारा सागर उतरकर रथोंमें बैठकर प्रभासक्षेत्रजापहुँचे॥२२॥भगवान् श्रीकृष्णकी आज्ञानुसार प्रभासक्षेत्रमें निश्चिन्तहुए यादवों ने पुण्य किया और गायें, भूमि, कपडे, तरह तरहके रत्न॥२३॥ और बहुत गुणकारी अन्न वहाँ श्रीकृष्णने ब्राह्मणोंको दानकिया। फिर यादवोंने भोजन करके मधुपान किया जिससे वे अचेत होगये और तनकीभी सुधि न रही॥२४॥ तब श्रीकृष्णने उनकी वुद्धि भ्रष्ट करदी, इस कारण वे यादव भ्रष्ट वुद्धि-वाले होगये मधुपान करनेपर मत्त होगये। तदनन्तर वीर और गर्वित मनवाले॥२५॥ तथा भगवान् श्रीकृष्णकी मायाद्वारा मूढ उन यादवोंका आपसमें दारुण संग्राम हुआ। इस प्रकार अपने सारे वंशका नाश होजानेपर केशवने सोचा॥२६॥ कि, अब मैं इस भूमिके शेष भारको उतार चुका। इस प्रकार श्रीकृष्णने समझलिया। तदनन्तर कालरूप धारी श्रीकृष्णने बलरामजीको आया हुआ देखकर कहा॥२७॥ हे शेष! आप पातालको चलेजाइये क्योंकि मैं अब वैकुंठजानेकी इच्छा कररहाहूँ इस प्रकार श्रीकृष्णकी आज्ञापाय बलरामजी शीघ्रतासहित समुद्रके किनारे परपहुँचे और वहाँ योगावलम्बन करके॥२८॥ अपने आत्माको
शेषरूपमें मिलाय उस नरदेहको छोडदिया। तब देवकीनन्दन श्रीकृष्ण बलरामजीके इस तरह निर्याणको देखकर॥२९॥चुप चाप पीपलके नीचे भूमिपर विराजमान होगये और प्रकाशमान तेजयुक्त वे महाविष्णु चतुर्भुजरूप धारणपूर्वक॥३०॥धुएंहीन अग्निके तुल्य दिशाओंको प्रकाशमान करतेहुए और दाहिनी जंघापर कमल सरीखा बाँया पैररखकर तर्कमुद्रा करके बैठे॥३१॥
चौपाई
धरि जानूपर चरण कृपाया। ताहि समय आयो प्रभु काला॥
जान्यो नयन मृगाको सोहत।लेकै धनुष बाण मनमोहत॥
बालिनाम वानर त्रेताकर।धीमर रूप छाँडि दीन्हो शर॥
चरण मध्य चमकत जहाँ जानी। आयो लैन शिकार गिल्यानी॥
देखि कृपालु कृष्ण भगवाना।वन्दि चरण तब ऐंच्यो बाना॥
कह कृपालु बदला तुम लीन्हो। रथहि चढाय परमपद दीन्हो॥
दारुक पास कही अस बाता। ले रथ जाडु अबै तुम ताता॥
दोहा
ऐसे कहते कहत हारे, गहगह हने निशान।
चले व्रह्मपुर आप प्रभु, किंवि णिनाद बिमान॥
गये धाम निज निज सुनहु, इहि विधि कृष्ण कृपाल।
अर्जुनसौं सब यो कह्योदारुक जाय उताल॥
उसी समय जिस जरानामक व्याधने घिसने (रेतने) से बचे हुए उस मूशलके टुकडेद्वारा अपने बाणका फोकबनायाथा उसने आयश्रीकृष्णके चरणको मृगकी शंका करके बींधडाला॥३२॥ किन्तु तैसेही एक चार भुजावाले पुरुषको देखकर उस पापी व्याधेने कहा हे मधुसूदन! मैंने विना जाने यह काम कियाहै,॥३३॥इस कारण हे उत्तमश्लोक! हे पापरहित! आप मुझ पापात्माका अपराध क्षमा करदीजिये। बरन् मुझ पापी और मृगहन्ताको आप वैकुण्ठलोकमें लेचलिये॥३४॥श्रीभगवान्ने
कहा। हे जरे! आप अपने मनमें बिलकुल मत डरिये और अब आप उठखडे हूजिये क्योंकि यह काम मैंनेही कियाहै अर्थात् मेरी ही इच्छासे हुआहै, अतएव आप मेरी आज्ञासे पुण्यवान् पुरुषोंकें परमपद वैकुंठ लोकको चलेजाइये॥३५॥जब इच्छारूपी शरीरवाले भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार आज्ञा दी, तब जरानामक व्याधा उन श्रीकृष्णकी तीनवार प्रदक्षिण (परिक्रमा) कर और नमस्कार करके विमानमें सवार हो स्वर्गलोकको सिधार गया॥३६॥उसी समय रथसे उतरकर दारुकनामक सारथीभी सामने स्थित अमित तेजस्वी उन भगवान् श्रीकृष्णके पैरोंमें गिरपडा और फिर वह सारथी बोला। हे प्रभो! मैं इससमय क्या करूं सो आज्ञा दीजिये॥३७॥श्रीकृष्णने उत्तर दिया हे सारथे! आप द्वारका पुरीको चलेजाइये और आपसमें लडकर जोज्ञाति बाँधवोंका नाश हुआहै तथा संकर्षणका अपने धामको जाना और मेरी दशा सब बाँधवोंसे कहदीजिये॥३८॥इसके सिवाय यहभी जतलादेना कि अब आपको बन्धु बाँधवोंसमेत द्वारकापुरीमें कदापि नहीं रहना चाहिये, क्योंकि मुझसे त्यागी हुई यदुपुरी द्वारावतीको समुद्र तत्काल डुबोदेगा॥३९॥अर्जुन भी मेरी नारियाँ और वंशके बीज स्वरूप वज्रनाभको साथ लेकर मनोवाँछित इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) को चले जावें॥४०॥और फिर महाराज युधिष्ठिरसेभी जो कि सबमें एक ब्रह्मरूपी मनवाले हैं, आप मेरी वात कहदेना कि आप सब जनोंको हि मालयपहाड पर चलाजाना चाहिये, इसमें संशय नहीं कीजिये॥४१॥क्योंकि यदि आप लोग वहाँ नहीं जाँयगे तो आप सबको कलिसे व्याप्त होकर नरकमें जाना पडेगा और कलिसे पीडित होगे इस बातमें जराभी सन्देह न समझना॥४२॥और
आप मेरी भक्तिसे युक्त होकर श्रेष्ठ गति लाभ करेंगे। जब भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार कहा तब वह दारुक सारथी उनकी परिक्रमा करके उदास मनसे द्वारका नगरीमें चलागया॥४३॥तदनन्तर ब्रह्मादिक देवता, सब तपोधन मुनि और सब महर्षि यह सबजने भगवान् श्रीकृष्णका निर्याण देखनेके निमित्त वहाँ आनकर उपस्थित हुए॥४४॥तब विभु भगवान् श्रीकृष्णने उन अपनी विभूतियोंको देखकर अपने गोलोकस्थित आत्मामें इस आत्माको मिलाया और फिर (सदाके लिये) अपनी कमल सी आंखोंको मूँदलिया॥४५॥
लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमङ्गलाम्।
योगधारण्याऽऽ+ + ध्याऽदग्ध्वा धामाविशत्स्व म्॥४६॥
भगवान् श्रीकृष्णने लोकानन्द दायक और धारण करके ध्यानमें कल्याणकारक अपने शरीरको योगधारण स्वरूप अग्निद्वारा दग्ध न करके शरीरसमेतही अपने गोलोक धाममें प्रवेश किया॥४६॥
इति श्रीभारतसारे मौसलपर्वणि मुरादाबादनिवासिपण्डितकन्हैयालालमिश्रकृतभाषायां श्रीकृष्णगोलोकनिर्याणं नाम सप्तनवतितमोऽध्यायः॥९७॥
इति श्रीभाषाभारतसारमौसलपर्व समाप्तम्॥
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॥श्रीकृष्णाय नमः॥
भारतसार भाषा
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आश्रमवासिपर्व ९८.
अष्टनवतितमोऽध्यायः ९८.
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वैशंपायन उवाच।
उद्भवः कृष्णमालोक्य गमनाय कृतोद्यमम्।
आमन्त्र्य चार्जुनं ++ स्यापयित्वा तु वज्रकम् ॥१५॥
महर्षि वैशंपायन जनमेजयसे कहनेलगे कि मथुरामें वज्रको स्थिरकर उससे अर्जुनको शि++ दिलाकर गोलोक जानेको उत्सुक श्रीकृष्णचन्द्रको उद्भवने देखा॥१॥एकान्तमें बैठे स्वामी श्रीकृष्णजीसे वह बोले प्रभो! अपने साथ मुझेभी ले चलिये॥२॥क्योंकि आपका सेवक मैं आप विना और कहीं नहीं रहसकता हे प्रभो! कदाचित् आप मुझे छोडभी जावें तो आप विना जीवित नहीं रहसकता॥३॥ इसप्रकार बडी कातर उक्तिपूर्वक उद्धव व्याकुल होगये तब कृष्ण उनसे हनेलगे॥४॥ कि उद्भव, मुझे योग, सांख्य, धर्म, विद्योपार्जन, संन्यास नहीं रोकसकते, ऐसेही मन्दिर, बाबडी, प, तडाग, प्रतिष्ठा, यज्ञमें प्रचुर दक्षिणादि कोईभी नहीं रोंक सकते॥५॥ व्रतवेदपाठ, तीर्थ, नियम, यम आदि कोई पीछे नाहीं रोकसकता जैसा कि सत्संग रोकताहै॥६॥ सत्संगसे दैत्य, यातुधान, पक्षी, मृग, पशु, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, सिद्ध, चारण,++ क॥७॥ विद्याधर, मनुष्य, वैश्य, शूद्र, स्त्रियां, नीचजाति, रजोगुण और तमोगुणी तियुगमें॥८॥ अनेक मेरे पदको प्राण हुए हैं वृत्रासुर,
प्रह्रादादि, वृषपर्वा, बलि बाणासुर, भ्रतृघातक बिभीषण॥९॥ ग्रीव, हनुमान्, जाम्बवान् ऋक्ष, गज, जटायु, गीधपक्षी, वणिक्पथ, सिकारी, कुब्जा, व्रजमें गोपियां, यज्ञकर्ता चतुर्वेदी ब्राह्मणोंकी स्त्रियां और दूसरेभी॥१०॥ उन्होंने वेदाध्ययन नहीं किया, सत्पुरुप सेवा और व्रत नहीं किये, वह केवल तत्संगसे मुझे प्राप्त हुए हैं॥११॥ गोपी, गौएं, वृक्ष, पशुपक्षी मृग तथा औरभी मूढ भाव वाले अज्ञानी गोपाल हमको प्राप्त हुए हैं॥१२॥ अतएव हे उद्धव तुम प्रेरणा, स्नेह, वन्धन, प्रवृत्ति, निवृत्ति, सुनने योग्य और शास्त्र सबको छोडकर॥१३॥ सम देहियोंके एकही शरण हमको भक्तिभावसे प्राप्त होओ तुम सर्वथा निर्भय होजाओगे॥१४॥ मुझमें मनलगाकर इस भूलोकमें विचरो, बदरीवनमें प्राप्त होकर दुस्संगरहितहो॥१५॥ सत्संगसे एक भाव हुए परमार्थसे हमको भजते तुम थोडेकालमें मुझे प्राप्त होजाओगे॥१६॥ श्रीकृष्णजी इसप्रकार भक्त श्रेष्ठ उद्भवको आज्ञाकरके रोतेहुए उसको करुणापूर्वक रोंकतेहुए॥१७॥ तब उद्धवभी अपने स्वामी श्रीकृष्णजीकी पादुकाओंको ग्रहणकरउन्हें मस्तकमें लगाय दुःखित हुए उत्तरदिशाको पहुँचे॥१८॥ वैशम्पायन ऋषि जनमेजयसे कहतेहैं कि भूमि स्वर्ग और अन्तरिक्षमें वडे २ उत्पात देखकर सुधर्मासभामें विराजेहुए, श्रीकृष्णजी यह कहतेहुए कि॥१९॥ यह घोर उत्पात द्वारकामें होतेहैं अतः हे यादवो! एकक्षणभी यहां न रहो॥२०॥ स्त्रियां बालवृद्ध यहांसे शंखोद्धारमें जावें हम सब प्रभासमें प्राचीसरस्वतीपर प्रभासको पहुँचेंगे॥२१॥ तब सब यदुवृद्ध इस प्रकार कृष्णवचन सुनकर और अंगीकार करके नौकाओंद्वारा सागर तरके रथोंसे प्रभास पहुँचे॥२२॥ वहां श्रीकृष्णकी आज्ञापाय निश्चलहो पुण्य करनेलगे गौ पृथ्वी अकेकरत्न॥२३॥ विविध
अन्न श्रीकृष्णजी ब्राह्मणोंको देतेभये पीछेपारणके अन्तमें मद्य पीतेभये तिससे अचेत होगये॥२४॥ श्रीकृष्णजी भ्रष्टबुद्धियादवोंको मदिरापानसे उन्मत्त जान युद्ध करनेलगे॥२५॥अपना कुलनाश होनेपर श्रीकृष्णजीने विचाराकि॥२६॥पृथ्वीका बाकी रहा भार अब उतरा इतनेमें बलदेवजीको आया देखकर कालरूप धारणकर श्रीकृष्ण बोले॥२७॥अब हम वैकुण्ठगमनकी इच्छा करतेहैं तुम पाताल पहुँचो ऐसा सुन बलदेवजी समुद्रतटपर योग धारण करके॥२८॥ अपने आत्माके शेषरूपमें मिलाकर नर देहका त्याग करतेहुए तब श्रीकृष्णजी॥२९॥ चुपचाप पिप्पलके पास पृथिवीपर बैठगये और तेजस्वी चतुर्भुजरूप धरकर॥३०॥ निर्धूम अग्निके समान दिशाओंको प्रकाशित करतेहुए दक्षिण ऊरुपर लाल चरण कमल धारण करतेहुए तर्कमुद्रासे आसीन श्रीकृष्णको॥३१॥ घिसनेसे बाकी रहेहुए मूसलके खण्डका बाण बनाया हुआ व्याध मृगकी शंकासे मारता हुआ॥३२॥ तत्काल चतुर्भुज पुरुष देख व्याध बोलाकि मैने अज्ञानसे यह पापकिया॥३३॥ हे पवित्रयशवाले ! हे धर्माबतारमुझे क्षमा कीजिये और मुझे वैकुण्ठ लेचलिये॥३४॥ श्रीकृष्ण बोले हे जरे मत डरो खडेरहो यह काम हमारीही इच्छासे हुआ है हमारी आज्ञा माननेसे तुम स्वर्गको जाओ॥३५॥ देहधारी भगवान् से इस प्रकार आज्ञा प्राप्त कर जराभिल्ल उनकी ३ परिक्रमाकर और विमानपर बैठा स्वर्गको सिधारा॥३६॥ दारुकसारथीभी उस रथसे उतर कर सम्मुखस्थित महातेजस्वी उन कृष्णचरणोंमें गिरगया॥३७॥ दारुक बोला मुझे क्या आज्ञा है? श्रीकृष्ण बोले तुम द्वारकामें जाकर परस्पर ज्ञातिनाशका समाचार नाओ॥३८॥ और बल
देवजीका निर्याण सुनाओ तथा मेरा वृत्तभी कहो॥३९॥द्वारकामें सब बन्धुसहित तुम्हारा रहना ठीक नहीं क्योंकि अब समुद्र उसे क्षणमें डुबादेगा॥४०॥अर्जुन मेरी स्त्रियों और बज्रनामको लेकर इन्द्रप्रस्थको जावे॥४१॥सबमें एक ब्रह्मरूपी मतवाले तुम युधिष्ठिरसे मेरी बात कहना कि तुम सब हिमालयको जाना सन्देह न करना॥४२॥यदि न जाओगे तो कलिसे व्याप्तहुए नरकगामी होजाओगे और सताये जाओगे॥४३॥और तुम मेरी भक्ति भावसे युक्त उत्तम गति पाओगे ऐसा श्रीकृष्णजीसे कहागया दारुक सारथि उनकी परिक्रमाकर उदास हुआ पुरको गया॥४४॥तबब्रह्मादिक देवता तपस्वी ऋषि, महर्षि श्रीकृष्णजीके निर्याणको देखनेके लिये आये॥४५॥भगवान् श्रीकृष्णजी उन अपनी विभूतियों को देखकर अपने गोलोकस्थित आत्मामेंइस आत्माको मिलाकर कमल नेत्रोंको मीच देते भये॥४६॥लोककीआनन्ददायी धारणा करके ध्यानमें कल्याणकी करनेवाली अपनी तनुको योगधारण रूपी आग्नसे भस्म न करके देहसहित ही अपने गोलोकप्रति प्रा होते भये॥४७॥
इति श्रीवेदव्यासकृते श्रीभारतसारे आश्रमवासिपर्वणि मुरादाबाडनगरनिवासिकात्यायनकुमार पण्डित कन्हैयालाल मिश्रकृत भाषाटीकायां श्रीकृष्णगोलोकनिर्याणंनामाष्टनवतितमोऽध्यायः॥९८॥
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॥श्रीकृष्णाय नमः॥
भारतसार भाषा।
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स्वर्गारोहणपर्व १८.
नवनवतितमोऽध्यायः ९९.
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** दोहा**
श्रीराधावर साँवरे, कुञ्ज विहारी नाम।
ब्रज भूषण दूषण हरणं, देहु मोहि विश्राम॥
जय जगमाता शारदा, शोभागुणकी खान।
तुम शक्ति भ्रम मातु हो, दीजे विद्या दान॥
जान राममय सबनको, विनय करों करजोर।
करहु कृपा मुझ अधमपर, देख आपनी ओर॥
सीता लक्ष्मण सहित प्रभु, धनुष बाणलिय हाथ।
मिश्र कन्हैयालालके, हृदय बसहु रघुनाथ॥
अष्टनवतितमे तु संवादः कुन्तिधर्मयोः।
श्रीकृष्णविरहाद्दुःखं यत्तत्संक्षिप्य वर्ण्यते॥१॥
इस अठ्ठानवें अध्यायमें कुन्ती और धर्मराज युधिष्ठिरेाका संवाद और भगवान् श्रीकृष्णके वियोगमें उनका दुःखी होना यह कथा संक्षेपसे वर्णन करी जातीहै॥१॥
वैशंपायन उवाच।
कृष्णोक्तं वचनं सर्वे दारुकेण निवेदितम्।
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यथोक्तं चक्रुरादरात्॥१॥
वैशम्पायनजी बोले। हे महाराज जनमेजय! तब भगवान् श्रीकृष्णजीके कहे सँदेशेको दारुक सारथीने द्वारकापुरीमें
जाकर कहदिया। तब उस सँदेशेको आदरसे सुनकर उन सब यादवोंने तदनुसारही काम किया॥१॥तदनन्तर श्रीकृष्णकी रुक्मिणी आदि आठ पटरानियोंने और बलरामजीकी रेवती आदि रानी इन सवने प्रभासक्षेत्रमें पहुँचकर अग्निमें प्रवेश किया॥२॥और फिर जिस समय देवकी और वसुदेवजीने प्रभासक्षेत्रमें प्राणत्याग किया तबवहाँ द्वारकायें भगवान् श्रीकृष्णके वियोग दुःखसे महाराज उग्रसेन भी मृत्युको प्राप्त होगये॥३॥तबअर्जुनभी दुःखार्त्त हो रुदनकरताहुआ हस्तिनापुरको चलागया फिर भगवान् श्रीकृष्णकी सारी रानियाँ मार्गमें नाशको प्राप्त होगईं॥४॥तदनन्तर अर्जुन वज्रनाभसमेत महाराज युधिष्ठिरके पास पहुँचे तबउन अर्जुनको खेदसहित आयाहुआ देखकर युधिष्ठिरने कहा कि॥५॥धर्मराज बोले हे अर्जुन! आप महावीर हैं क्या अब आप अपने स्वामी श्रीकृष्णसे निश्चय त्यागेगयेहो? क्या भगवान् श्रीकृष्ण मुझको दुःखसागरमें डालकर वैकुण्ठको चलेगये?॥६॥इस प्रकार कहतेहुए महाराज युधिष्टिरसे मिलकर अर्जुनने रोते रोते कहा। अर्जुन बोले अपने स्वामी कि जिन्होंने हमारा पालन कियाथा अवश्य गोलोकको प्राप्त होगये॥७॥ उन्होंने वनमें मुनिवर दुर्वासाजीके शापसे हमको बचाया, द्रौपदीको वस्त्रदान करके पालन किया, और हे महाराज! कौरवोंका नाश करके तथा अश्वमेध यज्ञमें सर्वत्र हमारा पालनही कियाहै॥८॥ और अबउन्हीं श्रीकृष्णने हमलोगोंको यह आज्ञा दीहै कि यदि आप स्वर्गधाम वैकुंठजानेकी अभिलाषाकरते हों तो आप लोगोंको हिमाचलमें पहुँच जाना चाहिये॥९॥ और जो आप वहाँ नहीं जाना चाहें, तो लीलापूर्वक राज्य कीजिये। अर्जुनकी यह वात सुनतेही धर्मराज युधिष्ठिरने अपने
कपडोंको दूर फेंकदिया॥१०॥ और फिर उन्होंने खुलेबाल हो विमलस्नान पूर्वक भगवान् श्रीकृष्णको जपकरते बावले तथा मूकव्यक्तिऔर ++ डकी तरह विचरतेहुए कहा॥११॥ युधिष्ठिर बोले हे अर्जुन! जब कि भगवान श्रीकृष्ण इस समय अपने स्थान (गोलोक) को चलेगयेहैं, तब आप सब जनोंकोभी मेरे साथ हिमालय पहाडपर चलना चाहिये॥१२॥ इस प्रकार कहकर धर्मराज युधिष्ठिरने अभिमन्युके पुत्र परीक्षित्को हस्तिनापुरमें युवराजपदपर प्रतिष्ठित किया॥१३॥ और फिर वज्रनाभको वुद्धिमान् युधिष्ठिरने मथुरानगरीमें प्रतिष्ठित किया॥ तब समर्थ वह राजा वज्रनाभ प्रसन्नमनसे माथुरदेशोंमें राज्यशासन करनेलगा॥१४॥ तदनन्तर नृपोत्तम महाराज युधिष्ठिरने वह, सुवर्ण, रत्न तथा अन्यान्य अनेक पदार्थ दान किये फिर पृथ्वीदान उत्तमोत्तम अनेक ग्राम दान करके॥१५॥ अपने सेवक बन्धु राजा और वैश्य इनका विशेष प्रकारसे आदर सत्कार करके महाराज युधिष्टिर वहाँ पहुँचे, जहाँ इनकी जननी कुन्ती विद्यमान थीं॥१६॥ तब मइयाके चरणोंमें शिरसे प्रणाम करके युधिष्ठिरने कहा हे जननी! हे अम्ब! आप घर रहिये और मैं स्वर्गको जाताहूँ॥१७॥ वहाँ दुर्गम और घोर पहाड़ हैं और हिमालय पहाडभी दुर्गम है, रास्तेभी दुर्गम हैं और वहाँकी सारी नदियां भी दुर्गम हैं॥१८॥ शीत पवन धूप इनके ++.रा बडा कष्ट होताहै, उस तीक्ष्णमार्गमें बहुत काँटे पडते हैं और हे मइया! उस हिमाचलका सिलसिलाभी दूर दूरके देशोंतक चलागयाहै और उस रास्तेमें भूख प्यासभी बहुतही उत्पन्न होती है॥१९॥ पुत्र युधिष्ठिरकी यह बातें सुनकर माताने कहा अर्थात् पुत्रकी बात सुनकर कुन्ती पुत्रोंके पास आई और फिर युधिष्ठिर तथा माद्रीके बेटे नकुल सहदेव और
भीमसेनसे कहनेलगी॥२०॥ कुन्ती बोली हे राजन्! हे युधिष्टिर! यहाँ आप सब जनेवैकुंठको नहीं जासकतेहैं, क्योंकि पुत्रस्नेहकी समान दूसरा स्नेह नहीं है और भ्रातृबलकी समान दूसरा बलभी नहीं है॥२१॥ पुत्रके समान दूसरा सुख नहीं हैं और प्राणोंकी समान दूसरा कोई प्यारा नहीं है, इसी प्रकार भीमसेन और अर्जुनकी समान पृथ्वीपर दूसरा वीरभी कोई नहीं दीखता॥२२॥ बेटा बापके दुःखको सहाकरताहै, और मइयाके दुःखकोभी विशेषभावसे सहता है और मैंने अत्यन्त दुःख और ताप सहकर अति उत्तम बेटे पायेहैं॥२३॥पाँचलोकपालोंने सन्तुष्ट होकर वरदानद्वारा आपको प्रदान किया है। हे नराधिपति! आपने बारह वर्षतक राज्य के निमित्त दुःख झेलाहै॥२४॥ तबफिर ऐसे दुःखसे उपार्जन किये राज्यको छोडकर आप किस प्रकार स्वर्गको जातेहैं? हे बेटों! मैं आपके विरहमें नहीं जीसकूँगी॥२५॥
यूयं महापथे वीरा मांत्यक्त्वा वै नराधिप।
सपद्यपहिताः सर्वे कथं राज्यं विराजते॥२६॥
हे वीरों! हे नराधिपों! जब कि आप सब जने मुझको शीघ्रतासहित महाप्रस्थानके लिये तय्यार होगयेहैं, तब फिर यह राज्य किस तरहसे विराजित रहेगा?॥२६॥॥ इति श्रीभारतसारे स्वर्गारोहणपर्वणि भाषायां कुन्तीयुधिष्ठिरसम्वादो नामाष्टनवतितमोऽध्यायः॥९९॥
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शततमोऽध्यायः १००.
अस्मिञ्शततमेऽध्याये स्वर्गारोहणवर्णनम्।
नगरात्पाण्डवानाञ्च विनाशश्चेति वर्ण्यते॥१॥
इस सौवें अध्याय में पांडवोंका स्वर्गारोहणवर्णन और नगरसे पाण्डवोंका निकलना यह कथा कहीजाती है॥१॥
युधिष्ठिर उवाच।
केशवेन यथो++हि शृणु वक्ष्यामि मातृके॥
अस्मिन्कलौ युगे घोरे राज्यं कर्त्तुं न शक्यते॥१॥
युधिष्ठिर बोले हे मइया! मुझसे भगवान् केशवने जिस प्रकार कहा है, सो मैं आपसे वर्णन करता हूँ, सुनिये॥ उन्होंने कहला भेजाहै कि अब आप इस दारुण कलिकालमें राज्य नहीं करसकेंगे॥१॥ इसी कारण मैं अपने भ्राताओंसमेत महाप्रस्थानमें जारहाहूँ, आप विशेष दुःख नहीं कीजिये। और आनन्दित चित्तसे हमको बिदा करदीजिये॥२॥ क्योंकि इस कलियुगमें भइया भइयेको नहीं मानेगा, बेटा बापको नहीं मानेगा, मइयाकोनहीं मानेगा, केवल सबधनकेही लालची होजायगे। इसी कारण मैं स्वर्ग जानेके लिये प्रस्तुत हुआहूँ॥३॥ हे मइया! यदि मैं आपके कहनेसे हार रहजाऊँगा, तो परस्पर आपका और भाइयोंका प्रेम अवश्य नाश होजायगा॥४॥ धर्मराजं युधिष्ठिरकी यह बात सुनकर मइयाने कहा। माता बोली! हे पुत्र युधिष्ठिर! यदि आपसे भगवान् श्रीकृष्णनेही इसप्रकार कहा है॥५॥ तो हे वीर! आप सब जने चलेजाइये किन्तु आपकी जो परस्पर प्रीति है, सो वह नष्टनहीं होनी चाहिये॥ मइया की यह बात सुनकर वे पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरादि अत्यन्त हर्षित हुए॥६॥ तब उन पाँचों बेटोंने नम्रतासे मइयाकी परिक्रमा करके उनको प्रणाम किया और फिर द्रौपदीभी कुन्तीके पैरोंमें गिरी और सासकी प्रदक्षिणा करके॥७॥ कहने लगी। कि हे देवि! यदि मैंने मन, वचन, कर्म से आपका दुर्नय कियाहो, तो वह आपको क्षमा करदेना चाहिये। क्योंकि मैं अब पतियोंके
संग जातीहूँ॥८॥ आपही माता हैं, आपही जाननेलायक हैं, आपही ++रू हैं, और आपही पतिव्रता हैं, अत एव हे देवि॥ आप अपने बेटोंको सीख दीजिये कि, जो पाण्डव भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करेंगे॥९॥ जब द्रौपदीने इस तरह कहा।तब कुन्ती पांडवों को सीख देती हुई बोली हे भद्रे! आप चार भुजावाले और अपने दासींको सुख देनेवाले भगवान् जनार्दनका दर्शन कीजिये॥१०॥ जो भगवान् श्रीहरि मेरुके शिखरके अग्रभागपर वैकुण्ठमें देवताओंसे परिवेष्टित हैं।मइयाके यह वचन सुनकर सन्स्तुष्टचित्तवाले॥११॥ द्रौपदी और पांडुनन्दन युधिष्ठिर इत्यादि नगरसे बाहर निकले।तबउस काल पुरवासी और व्यापारी लोग रोने पीटनेलगे॥१२॥ हे महाराज!और जो उत्तम ब्राह्मण थे, सो रोनेलगे, वनमें पशु रोनेलगे, औरअन्यान्य इतर जनभी रोनेलगे॥१३॥ नदीके तट और पहाडकी गुफामें स्थित ऋषि रोनेलगे, सब लोक रोनेलगे, विशेष क्या कहें? उस समय महान् हाहाकार मचगया॥१४॥ और सब कोई महात्मा पांडुपुत्रोंके पवित्र चरित्रको स्मरण करके कहनेलगे कि, महाराज युधिष्ठिरके समान दूसरा सत्यवादी नहीं है, और न कोई दूसरा युधिष्ठिरके समान दयावान् ही है॥१५॥ नधर्मराजकी समान दूसरा दाता (दानी) है और न उनकी समान रणमें कोई योधाही है और न उनकी समान दूसरा योगीही कहीं दिखाई देताहै॥१६॥ क्षान्ति अर्थात् सहनशीलता, दया, सत्य, धैर्य, सम्पदा और दमन अर्थात् इन्द्रियोंको अपने काबू में रखना यह बातें पांडवोंके संगही चलीगई॥१७॥ जिस समय पांडव जानेलगे तब उस काल भूमि अल्प अन्नवाली होगई, गायें थोडे दूधवाली होगईं और वृक्ष कम फलवाले होगये॥१८॥ विप्रगण अल्पसत्त्ववाले होगये और अल्प बलवीर्यवाले होगये,
तब फिर उसी अवसरमें वे पाँचों पांडुपुत्र शीघ्रता से घर छोडकर निकले॥१९॥ अनन्तर भूमिको देखनेके निमित्तं बहुतरास्तोंसे गमन करनेलगे तब नगर व ग्रामोंसे युक्त और तडाग व बगीचोंसे सुशोभित॥२०॥ भाँति भाँतिके जनपदों (कस्बों) से परिपूर्ण हस्तिनापुरको छोडकर सब पांडव श्रीगंगाजीके सुन्दर किनारेपर आपहुँचे॥२१॥ तदनन्तर परम पवित्र और पापनाशक हरिद्वार में स्नान करके तथा शुभतीर्थोंमें स्नान और जनार्दनभगवान्को प्रणाम करके॥२२॥ तब महाराज युधिष्टिरने अपने भाइयोंसे कहा। युधिष्ठिर बोले अहो भीम! आप मेरी बात सुनिये।हे धनुर्धर अर्जुन! आपभी सुनिये॥२३॥ और हे नकुल! सहदेव! व द्रौपदी! मैं जो कहता हूँ उसको सुनलो। यह आगे जो महापहाड दिखाई देरहा है सो हिमकी कीचडसेदुर्गम है अर्थात् बर्फकी बहुतायतसे इसपर कोई जा नहीं सकताहै॥२४॥ यह सिंह भेडिये और हाथियोंसे भरा आ, तथा सांप व गैंडोंसे सेवित और वानर, सुअर तथा वनैले भैंसोंसे सेवित॥२५॥ वनमानुष, गधे, श्यालकी तरह मुखवाले प्राणी, शूकर और कुत्ते इत्यादि नानारूप जीव तथा भयंकर रूपवाले जीवोंसे सुशोभित॥२६॥ म्लेच++किरात और भीलोंसेबहुत भररहाहै सो ऐसे महाघोर दुर्गम पहाडपर आप लोग नहीं जासकेंगे॥२७॥ अत एव मैं आपके हितकी कामना से कहता हूँ कि, हे महावीर वृकोदर! हे महावीरों!आप सब जने लौटजाओ और भाइयोंसमेत राज्य करो॥२८॥ और++कोभी वहाँ जाना चाहिये। कि जहाँ माधव भगवान् श्रीकृष्ण विराजमान हैं। अत एव आप छोटे भ्राताओंसमेत पीछा लौटजाइये और अर्जुन भी द्रौपदीको लेकर चलेजाँय॥२९॥ और वहाँ जाकर भाई और मन्त्रियोंसमेत अकण्टक (शत्रुहीन) राज्य कीजिये।
धर्मराज युधिष्ठिरकी यह बात सुनकर भीमसेनने कहा॥३०॥ भीमसेन वोले हे महाराज! मुझको राज्यसे कुछ प्रयोजन नहीं और न मैं मरनेसेही डरताहूँ, मैं तो आपके संग वहीं जाऊँगा, जहाँ भगवान् केशवदेव हैं॥३१॥ भीमकी बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरने कहा। युधिष्ठिर बोले। सब भ्राताओं समेत आपको अवश्यही जाना है॥३२॥ तो पिशाच राक्षस और दानव बाधा (दुःख) देंगे। इस प्रकारका कलह करना उचित नहीं क्योंकि मार्ग में चुपचाप चलना चाहिये॥३३॥मौन रहना सब तरहसे उत्तम है अत एव मौनका ही व्रत अवलम्बन करो। हे कौंतेये! शोकके द्वारा अत्यन्त दृढ तपस्याभी सुखजाती है॥३४॥ क्रोध सारे अनर्थोंकी जड है, इसलिये क्रोध त्यागदेना चाहिये। क्योंकि जिसके देहमें दया, सत्य, सहनशीलता और इन्द्रियनिग्रह है, वही उत्तम साधक महाप्रस्थान के मार्गमें जासकताहै॥३५॥
भीम उवाच
यो मह्यं ह्यग्रतो यातिदानवो राक्षसोपि वा।
वज्रहस्तेन राजेन्द्र चूर्णयामि च तत्क्षणात्॥३६॥
भीमसेनने कहा। मेरे अगाडी जो दानव अथवा राक्षस आजायगा हे राजेन्द्र! उसको मैं वज्रहाथ से तत्काल चूरा करडालूँगा॥३६॥इति श्रीभारतसारे स्वर्गारोहणपर्वणि भाषायां युधिष्ठिरभीमसंवादोनाम शततमोऽध्यायः॥१००॥
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एकाधिकशततमोऽध्याय
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पूर्णे शततमेऽध्याये पाञ्चाल्याःपुण्यक्षया॥
स्वर्गारोहे विनाशश्चवर्ण्यते रदु++रः॥१॥
इस अध्यायमें पुण्य नष्ट होनेके कारण स्वर्गारोहणमें देवताओंके पक्षमें दुर्लभ ऐसी पांचाली द्रौपदीकी मृत्यु वर्णन करी जाती है॥१॥
तावत्प्रोचुः समागत्य विद्याधरकुमारिकाः।
रूपयौवनसम्पन्नाः शृणु राजन्युधिष्ठिर॥१॥
तबतक रूप यौवन सम्पन्न विद्याधरकी कुमारियोंने आनकर कहा कि।हे महाराज युधिष्टिर! सुनिये। हम आपको अपना पति बनाना चाहतीहैं॥१॥ महाराज युधिष्ठिरने मार्ग में वरनेके लिये आईहुईं विद्याधरोंकी कन्याओंसे कहा कि, अब भूतलोकमें मुझको शत्रुहीन राज्यकरना नहीं है और रूप तथा तरुण अवस्थावाली अनेक कन्याओंको मैं त्यागचलाहूँ॥२॥ क्योंकि मैंने महाप्रस्थानकी कामनासे सारी भूमिको छोडदिया है, जबतक सर्वदेवनमस्कृत सुमेरु पर्वतका मैं दर्शन नहीं करूँगा॥३॥ तबतक मैं यहाँ नहीं ठहर सकता, धर्मराज युधिष्ठिरकी बात सुनकर वे सब कन्या चलीगईं॥४॥ तदनन्तर जो विद्याधर नामक पहाड बडे बडे शिखरोंद्वारा सुशोभित है, और जो हिमपंक (पालेकी कीचड) तथा मेघमाला द्वारा उज्ज्वल वर्णयुक्त है॥५॥ जिस स्थान में यह पांडुर पर्वत विद्यमान है, वहाँ उत्तम स्थानको पहुँचे।तहाँदिनरात मेघमाला वर्षाती है, और उस पहाडपर बादल निरन्तर घिरे रहतेहैं, कभी उसको नहीं छोडाकरते॥६॥ वहाँ भयंकर बादल दिन रात गर्जते रहते हैं, विजलीके स्फुरणके वेगद्वारा भयंकर और प्राणनाशक बादल गर्जते हैं और वहाँ मार्गके सामने दीर्घनामवाला पहाड अवस्थित हो रहाहै॥७॥ उसके द्वारा स्वर्गमें जाना नहीं हो सकता इस कारण पांडव अचंभेमें होगये। तदनन्तर महाराज युधिष्ठिरने रास्तेको रुकाहुआ जानकर भीमको चिताया॥८॥ हे भीम! आप इस पहाडको भेदन कीजिये जिससे मनुष्यके (आने जानेका) रास्ता होजाय।धर्मराज युधिष्ठिरकी
यह बात सुनकर भीमसेनने उस पर्वतको अपने वज्रकी समान हाथसे ताडित किया॥९॥ ऐसा होनेपर वह पहाड बीचमें टूटफूटगया और बडा पूरा रास्ता होगया।तब वे पांडव उत्तर दिशाके सन्मुख हुए॥१०॥ तदनन्तर त्रैलोक्यविख्यात भद्रकाल नामवाले पहाडपर जापहुँचे जो कि नारंगी, दाडिमी, जंभेरी, केतकी॥११॥ द्राक्षा, मातुलिंग, विजौरा, खजूर, खैर, दाख, केला, रञ्जन, भ्रमरंजन॥१२॥ लालचन्दन, श्रीखंड, मालती, महाकेतकी, इन सब पेडोंसे युक्त है, और तीनों लोकमें जो पेड हैं वे सबही वहां विद्यमान हैं॥१३॥उन कामनादायक वृक्षोंका देव, दानव सेवन करते हैं, और उसी पहाडपर महापवित्र एक अतिउत्तम सुवर्णनगरी है॥१४॥ मैं उस परम मनोहर नगरीका शृंग (शिखर) देख रहा हूँ और गीतोंद्वारा मनोरम ऐसी वाँसकीबीन और मृदंगद्वारा वहाँ भद्रकालीके गण उत्तमोत्तम गीत गारहेहैं।तब वे पांडव जैसेही उस पहाडके पास पहुँचे॥१५॥॥१६॥ कि वैसेही महारानी वीणावती नामवाली कन्या एकलाख कन्याओं समेत मतवाले हाथीपर चढीहुई आपहुँची॥१७॥ वह पांडवोंके लिये पहाड छोडकर पृथ्वीतलपर उतरी।वीणावती बोली हे वीर! आपका स्वागत हो।आपने अतिउत्तम किया अर्थात् भाइयोंके सहित अति उत्तम आगमन किया॥१८॥ आपका दर्शन करनेके लिये हम सारी कन्या राज्य छोड कर यहाँ आई हैं।उनकी यह बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरने कहा॥१९॥ हे देवि! हम सभी पर्वतपरसे उतरे हुए और नहीं त्यागनेयोग्य दारुण कामादिकको त्यागकर स्वर्गके मार्गमें टिकेहैं॥२०॥ वीणावती बोली।हे युधिष्ठिर!जिस कामके द्वारा मेरा काम है, उससे भोगैश्वर्ययुक्त होकर आप भद्रकाली नामक सुन्दर नगरीमें राज्य कीजिये॥२१॥ युधि-
युष्ठिरने उत्तर दिया। हे देवेश्वरी! मैं तो उस स्थानमें जाऊँगा कि, जहां ईश्वर श्रीहरि विराजमान हैं। हे भद्रे! मुझको भ्राताओंसमेत जाना है, इस कारण इस पर्वतपर मैं नहीं ठहरसकता हूँ॥२२॥ तब महाराज युधिष्टिरका यह निश्चय जानकर वे सब सुन्दर कन्या चलीगईं और फिर निराहार तथा पवनकी समान वेगयुक्त वे पांडवभी उत्तर दिशाको चलदिये॥२३॥ तब जहाँ स्वर्गसे आनेवाली और पवित्र मन्दाकिनी नामक गंगा वहती हैं, यह सब पांडव जातीपुष्पोंसे शोभित उसी उत्तम स्थानपर पहुँचे॥२४॥ जो गंगा हंस कारंडवोंसे आकीर्ण होरहीहै, तथा पक्षी चक्रवाकोंद्वारा सुशोभित होरहीहै, और वहाँ पद्मरागोंसे शोभित एक हजार देवद्रोण हैं॥२५॥ सुवर्णके पिंड और रत्नोंद्वारा चारों ओरसे वह मन्दाकिनी शोभायमान होरहीहै, वह प्रसन्नहोनेपर वर और क्रोधित होनेपर शाप प्रदान किया करती है॥२६॥ पराशरमुनिके बेटे श्रीवेदव्यासजी महाराज और उनके बेटे महायोगी श्रीशुकदेवजी हैं, पूर्व समय उन्हीं श्रीशुकदेवजीने शुकवनमें तप तपाथा॥२७॥ उन्हीं श्रीशुकदेवजीने लिंगकी स्थापना की है, और प्रासाद निर्मित किये हैं।चन्दन, पारिजात, पुन्नाग और नागकेशर के द्वारा शोभायमान हैं॥२८॥ अपनी अपनी नारियोंसमेत वहाँ किन्नर और गन्धर्व क्रीडा किया करते हैं, कितनेही हँसते और अन्यान्य किन्नरोंके संग गान करते हैं॥२९॥ वहाँ नदीके किनारे पहाडकी जड में महारानी द्रौपदींजी गिरपडीं और नदी तथा पहाडके मूलमें तत्काल उनके प्राण छूटगये॥३०॥ तब द्रौपदीको गिरा हुआ देखकर भीमसेनने कहा कि, जिसके लिये प्रथम हमने कौरव, दानव और राक्षसोंका नाश किया॥३१॥ बारह वर्ष की संख्या करके महाराज विराटके घरमें कष्टसे बसे
और फिर अग्निकी लपटोंसे युक्त कठिन अग्निके समूहमें दुःखित हुए॥३२॥ और जिसको महान् कष्टसे मत्स्यवेध करके अर्जुनने प्राप्त किया था, इस समय वही तीनोंलोकमें विख्यात द्रौपदी गिरगई॥३३॥
कन्यां साक्षाद्गृहीत्वाहं गतोऽस्मि यत्र तत्पुरः॥
मातुर्वाक्येन पञ्चानां भार्या चैव समायता॥३४॥
और उस साक्षात् कन्या द्रौपदी को लेकर अपनी मइयाके सामने पहुँचे।तबवह मइया के कहनेसे हम पाँचों भ्राताओंकी पत्नी बनी॥३४॥इति श्रीभारतसारे स्वर्गारोहणपर्वणि भाषायां द्रौपदीनिर्याणं नामैकाधिकशततमोऽध्यायः॥१०१॥
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द्व्यधिकशततमोऽध्यायः १०२.
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द्व्यधिकशताध्याये कृतपुण्यस्य संक्षयात्॥
पदनं सहदेवस्य वर्ण्यते दुःसहं नृणाम्॥१॥
इस एकसौ दो अध्यायमें किये हुए पुण्यका क्षय होनेके कारण सहदेवका पतन हुआ जो कि मनुष्यके पक्षमें सहनेयोग्य नहीं है, वही कथा वर्णन करीजाती है॥१॥
युधिष्ठिर उवाच।
तां चैवं मृत्युसंप्राप्तां न शोचामि वृकोदर॥
कालेनैव हता भीम पापा मृत्युवशं गता॥१॥
युधिष्ठिरने कहा है भीम! हम मरीहुई द्रौपदीका सोच नहीं करते, क्योंकि वह पापिनी कालके द्वारा नष्ट होकर मृत्युके वशमें पडगई है॥१॥ भीमसेनने कहा हे राजन्! उस द्रौपदीने कौनसा पाप कियाथा?सो आप कहिये।कि, वह किस कर्मके फलसे मृत्युको प्राप्त हुई? और स्वर्गमें नहीं पहुँचसकी?॥२॥
युधिष्ठिरने उत्तर दिया हे वृकोदर! यह रानी द्रौपदी अर्जुनको (परम) स्नेहसे भोगाकरतीथी, इसकी वैसी प्रीति नकुल सहदेवमें, आपमें, और मुझ युधिष्ठिरमें नहीं थी॥३॥ उसी दोषसेपांचाली मरगई और स्वर्गमें नहीं जासकी, तब महाराज युधिष्ठिरकी यह बात सुनकर उन पांडवोंने दुःख छोडदिया और आगे बढे॥४॥ तब चार कोस मात्र प्रसिद्ध एक गौरनामवाला पहाड़ है, वह मस्त पर कूर्मपृष्ठअर्थात् कछुएकी पीठकी तरह सफा होरहाहै और उसपर पेड नहीं हैं॥५॥ और वह चौतर्फ सुवर्णचर्चित शिखरों समेत ताम्रद्वारा बँधाहुआ है, वहाँ मध्याह्नकालमें रुद्रकी कन्या नित्य आयाकरतीहैं॥६॥ वे वरांगना उस मनोहर पहाडके शिखरपर नाचा करती हैं।फिर नाचने पर अतिउत्तम कन्या जहाँ श्रीमहादेवजी विराजमान रहतेहैं, वहाँ कैलास पर्वत पर गमन किया करती हैं॥७॥ और जो भूमिपर उत्तमक्रम हैं वे सबही वहाँ निर्मित हुएहैं और क्रौंचवनमें गुणों करके पांडवों की तरह प्रसिद्ध॥८॥ ऐसे मुनियोंमें उत्तम क्रौञ्चपाद नामवाले मुनि हैं और उन्हीं मुनिने उस वनको पालन किया है और देवद्रोणनामक महावनमें स्वयं क्रौञ्चपादनामक मुनिदेव निवास करते हैं॥९॥ वहाँ सुवर्ण व रत्नोंद्वारा पूजित तथा काशित वैदूर्यमणिद्वारा निर्मित प्रासाद (महल) दिखाईदेताहै वह सूर्यकी किरणोंके सदृश तेजमान है॥१०॥ तब पाण्डवोंने उस शिवनिर्मित महलमें प्रवेश किया और वे जैसेही श्रीमहादेवजीकी स्तुति करने को तैयार हुए कि त्योंही वहां कन्या आपहुँची॥११॥ तब वे क्रौंचपाद मुनि++न सौम्य पाण्डवोंको देखकर हर्षित हुए।क्रौञ्चपाद बोले हे महाराज! आप राज्य को छोड़कर स्वर्ग के मार्ग में कैसे स्थित हुएहैं?॥१२॥ हे प्रभो! आप मेरे इस पहाडपर जो किं
स्वर्गके स्थानसेभी अधिक मनोहर है, भाइयोंसमेत सुखपूर्वक निरन्तर राज्य कीजिये॥१३॥ धर्मराज युधिटिरने कहा हे मुने! महाभारतका युद्ध समाप्त होनेपर अब घोर कलिकाल उपस्थित होगा, इस कारण भाइयोंको साथ लिये मैं शीघ्रतासहित स्वर्गको जारहाहूँ॥१४॥क्रौञ्चपादने कहा हे राजेन्द्र! हे भारत!आपकी समान योगशील, पराक्रमी, सत्यवादी,पवित्र, तपस्वी, सहनशील और दानी दूसरा कोई नहीं है॥१५॥ युधिष्ठिरने कहा मैं अकण्टक राज्य छोडकर मार्गमें स्थित हुआ हूँ इस प्रकार कहकर महात्मा क्रौंचपाद और श्रीमहादेवजीको प्रणाम किया॥१६॥ और फिर वे पांडुनन्दन उत्तराभिमुख होकर गमन करनेलगे, तब गंगा के तटपर महापुण्यदायक बद्रिकाश्रममें जापहुँचे॥१७॥ जहाँ सारी अभिलाषाओंके पूर्ण करनेवाले अमृतकी सदृश बेरोंके पेड हैं और वह बेर पद्मरागरत्नोंकी तरह प्रकाशमान दिखाई दिया करते हैं॥१८॥ पूर्वकालमें मुनिसत्तम दुर्वासाने श्रे++जरा (बुढापा) और मृत्युनाशक तथा बडेबडे प्राकारसे घिरेहुए कंचनके महल निर्माण कियेथे॥१९॥ वे कंचनके फूल और कमलफूलके द्वारा पूजित और प्रकाशमान होरहेहैं और बडे सुन्दर कंचन व रत्नोंद्वारा तथा कंचन कमल और फूलोंसे अर्चित होरहेहैं॥२०॥ हीरोंकी चमकके सदृश कान्तिमान शिवलिंग हैं, और कंचनमय चर्चित पिंड हैं, इस स्थानके रहनेवाले पुरुष उन भक्तवत्सलकी प्रात, मध्याह्न और संध्या तीनोंकालमें पूजा किया करतेहैं॥२१॥ और ध्यानरूपमें निरत निरन्तर सबसे अधिक ध्यान करनेलायक दयामय जगदीश्वरका ध्यान कियाकरतेहैं।मुनिवर दुर्वासाजी, माण्डव्यजी, या वल्क्यजी और बृहस्पतिजी॥२२॥ उद्दालक, नाचिकेत, पिप्पलाद, विश्वामित्र, दक्ष, तृणबिन्दु, गौतम॥२३॥
कौशिक, विशाल, कण्व कात्यायन, मुनि++धूम, ऋष्यशृंग, गालव॥२४॥ स्वयंदेव, त्रिशंकु, भृगु, अत्रि,++षिध्वज, आपस्तम्ब, महावित्त, वशिष्ठ, मुनिवर अंगिरा॥२५॥ विधञ्जन, त्रिक व औरभी तपस्यारूपी धनवाले ऋषि कहनेलगे॥ तपोधन ऋषि बोले हे महाराज! आप राज्य छोडकर भ्राताओंसमेत कैसे आयेहैं?॥२६॥ क्योंकि आप इस दुर्गम (कठिन) और शीतलपथ (रास्ते) में नहीं जासकेंगे, अत एव सब भाइयोंसमेत यहाँ मनोहारिणी कन्याओंको ग्रहण करो अर्थात् उनसे विवाह करलो॥२७॥और फिर यहाँ आप सब भाई स्वेदगन्ध अर्थात् पसीनेकी गंधरहित होकर निवास कीजिये उनकी यह बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरने उत्तर दिया॥२८॥ हे ऋषिगण! मैं जब तक सर्वदेवनमस्कृत मेरुपर्वतको नहीं देखूंगा और जबतक जहाँ भगवान् माधव श्रीकृष्णजी विराजमान हैं, उस स्थानका दर्शन नहीं करूँगा तबतक किसी लोकको नहीं देखूंगा॥२९॥ मैं भगवान् माधव और आप ऋषियोंके प्रासादसे संसारके स्वामी जगन्नाथ नारायणका दर्शन करूँगा॥३०॥ तब उन ऋषियोंने धर्मराज युधिष्ठिरकी यह बात सुनकर उनको बिदा किया अनन्तर आगेजो मन्दाकिनीके रमणीक किनारेपर कैरात नामवाला पहाड है॥३१॥ तब वे महाबलवान् वायुकी समान वेगवान् सब पांडव वहाँ जापहुँचे।वह पर्वतोत्तम कैरात उत्तमोत्तम तरह तहरके पेडोंसे सुहावना होरहाहै॥३२॥ उन पेडोंमें सदाही फूल खिले रहतेहैं और उनमें सर्व कामनादायक फल++गतेहैं और वे बहुत ऊँचे तथा सुन्दर पेड देवदानवोंको दुर्लभ हैं॥३३॥ इस प्रकार उस मनोहर गिरिराजपर नरोत्तम पांडवोंने उन पेड़ोंको देखा, उसी समय उन पांडुके पुत्रोंको भीलोंकी सेनाने
आकर चारों तरफ से घेरलिया॥३४॥ वे बादलोंकी समान काले काले सब भील भुजाओंको फटकारते और गर्जतेहुए क्रोधित हुए और हाथोंसे हाथको चटकाकर॥३५॥ काले हिरनके चमडेकी समान शरीरवाले बर्बर (असभ्य) बाल बढाये, मणि तथा चमकीले कपडे पहरे ऐसे शूकर जनकी तरह विकराल रूपवाले वे भील बोले॥३६॥ हे भीम! यदि आपमें पौरुष हो, तो हमको युद्ध दो। इस तरह कहते पैरोंसे भूमिको खोदते, और परिक्रमा करने की तरह चारों ओर घूमते॥३॥ और महान् शब्द करके पहाडकी कन्दरामें गर्जनेलगे तब उनका यह हाल देखकर भीमसेन कालकी समान क्रोधित हुए॥३८॥ और तब उन भीमसेनने सिंहकी समान ऐसी गर्जना करी जिसको देवता और दानवभी नहीं सहसकें, तब वह सारे भील न होकर दशों दिशाओंमें भागगये॥३९॥ और भीमकी गर्जनाका शब्द सुनकर बडे अचंभेमें हुए तथा पांचों पाण्डव हर्षित होकर हंसते हुए कहनेलगे कि, यह भील लोग जैसे आये थे वैसेही पीछे लौट गये॥४०॥ इस प्रकार कहकर वे पाण्डुनन्दन आगेको चलदिये और उस पहाडपर इन भीलोंने संग्राम किया। तब वे पाण्डव कैरातकेश्वर नामवाले श्रीमहादेवजीके पास पहुँचे॥४१॥ जहाँपर शतशः मनोहर देवद्रोणोंको अतिक्रम (उलंघन) कर पद्मरागनिर्मित अनेक लिंग और कचनकी सुन्दर पिण्डियाँ विद्यमान हैं॥४२॥ तदनन्तर धर्मराज युधिष्ठिरने भाइयोंसमेत कैरातकेश्वरके मन्दिरमें प्रवेश करके परम कारण देव श्रीमहादेवजीको शिरसे प्रणाम किया॥४३॥ और कहा। हे महादेव! आपकी समान दूसरा देवतां कोई नहीं हैं, आप तीनों लोकके स्वामी हैं आपको प्रणाम है। ओपही सांसारिक सुख और भक्ति और मुक्तिके देनेवाले हैं॥४४॥
छन्द—
जय शिवशंकर शरण भय हरण व्यापक रूप अनूपा।
पाणि त्रिशूल दरिद्रदमन प्रभुजय कृपालु++ररूपा॥
++रमुनि पालक खलकुलघालक कृपासिंधु वृषकेतु।
जय त्रिपुरारी प्रभु कामारी जासु नाम भवसेतु॥
अंग विभूति अभूषण सौहै लखि सुर नर मुनि मोहें।
++ठे शेष गरलकृत भूषण गंगजटा शिर++हैं॥
हमहिं कृतारथ करनेहेतु अब दर्शन देहु कृपाला।
धर्मर++ पुनि पुनि नृप विनवै जय जय दीन दयाला॥
जय शिव सब लायक सब जगनायक गंजन विपति समूहा।
अवगाह थाह नहिं पावत गावत सब सुर++हा॥
नमामि ईश ईश्वरं। पाहि मे प्रमेश्वरम्।
नमामि आशु तोषणम्। समस्त लोक पोषणम्॥
अनेक रूप धारणम्। विभञ्जलो कारणम्।
गिरीश रूप आगरम्। त्रिलोकमें उजागरम्॥
कपाल माल शोभितम्। शरण शरण शरण नितम्।
नमामि गंगधारणम्। अनेक भय निवारणम्॥
सव्यापकं विभुं प्रभो। गुणाकरं कृपालु भो।
दयालु दीननायकम्। सन्तसुःख दायकम्॥
करालकालभक्षकम्। स्वभक्त दीन रक्षकम्।
हिमेशपुत्रि नायकम्। सुसर्वसिद्धि दायकम्॥
निरंकाररूप नाथ। अर्थ चारि प्रभो हाथ।
शैलनाथ शिवानाथ। नागेश्वर रामनाथ॥
शीश गंगचन्द्रभाल। कंठमाँहि नाग माल।
दरश दियो जानि दीन। मैं तो सर्वज्ञ हीन।
बार बार हाथ जोरि। राखो अभिलाष मोरि॥
दोहा
धर्मराज रजोरितहँ, इहि विधि अस्तुति कीन्ह।
कृपासिंधु भूतेशने, तब निज दर्शन दीन्ह॥
विनय कीन्ह महिमाथ धरि, परशि किरात भुआ।
प्रभु मोहि पार लगाइये, जय जय शंभु कृपाल॥
बार बार विनती करी, भूप दण्डवत कीन्ह।
मन वाँछित वर पायो शंभु आशिपहि दीन्ह॥
महाराज युधिष्ठिर इस प्रकार श्रीमहादेवजीकी विनती और बारंबार उनको प्रणाम करके जैसेही मन्दिरसे निकलकर पृथ्वीपर जानेलगे॥५॥
कनिष्टः पतितस्तावज्ज्योतिर्ज्ञानविशारदः॥
सहदेवं मृतं दृष्ट्वा भीमो वचनमब्रवीत्॥४६॥
कि त्योंही ज्योतिषशास्त्रके ज्ञानमें पण्डित छोटे भाई सहदेवजी गिरगये। तब सहदेवजीको मराहुआ देखकर भीमसेनने कहा॥४६॥ इति श्रीभारतसारे स्वर्गारोहणपर्वणि भाषायां स देवपतनं नाम द्व्यधिकशततमोऽध्यायः॥१०२॥
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त्र्यधिकशतमोऽध्यायः १०३.
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त्र्यधिकशततमेऽध्याये कैलासे गमनं तथा॥
चतुर्णां पाण्डवानां च वर्ण्यते सुरदुष्करम्॥१॥
इस एकसौ तीन अध्यायमें चारों पाण्डवों (युधिष्ठिर अर्जुन भीम और नकुल ) का देवदुर्लभ कैलासमें जाना, यह कथा वर्णन करीजाती है॥१॥
भीम उवाच।
निष्ठः पतितोराजन्प्राणैर्मुक्तस्तु तत्क्षणात्॥
भीमस्य वचनं श्रुत्वा धर्मो यावन्निरीक्ष्यते॥१॥
भीमसेनने कहा हे महाराज युधिष्ठिर!छोटे भाई सहदेवजी गिरपडे और तत्कालही उनके प्राणभीछुटगये। धर्मराज युधिष्ठिर भीमकी यह बात सुनकर जैसेही देखनेलगे॥१॥ तैसेही वे सूने घरकी नांई दिखाईदिये यह सहदेवजी ज्योतिषियोंमें प्रधान थे। महाराज युधिष्ठिर विलाप करनेलगे हे सहदेव! प्रथम आपने युद्धमें भगवान् जनार्दनको जीत लियाथा॥२॥
चौपाई
कीन्ह भीमवहँ अति अपघाता। बुद्धिवन्त नहिं देखिय ताता॥
कह्यो भीम भा बन्धु बिछोहू।यह++ नि नृपहि भयो अति कोहू॥
ज्योतिष शास्त्र विशारद भाई।सकल शा++ मति वरनि न जाई॥
वेद निधान सकल गुण मूरे। क्षत्रीय धर्म अस्त्रके पूरे॥
अहह बन्धु गत भये केहि पापा। मिरि भीम अति कीन्ह विलापा॥
धर्म युधिष्ठिर तबसमुझाये। कूर्मशिलापर पुनि चढि आये॥
उसी तरह आपने मायाकरके भगवान् केशवको संतुष्ट किया था, अब आपकी वह माया कैसे और कहाँ चलीगई? जो आप कालके वशीभूत होगये?॥३॥हे प्राण! आपका भूत भविष्य वर्तमानका सारा ज्ञान इससमय कहाँ चलागया? क्योंकि आप तो इन तीनों कालकी सब बातोंके जाननेवाले थे अत एव आप कैसे कालके वशीभूत होगये?॥४॥इसतरह सोचते और सहदेवके कर्णमूलमें शब्द करतेहुए बैठगये और शोकसंतप्त सब भाइयों से कहनेलगे॥५॥ हे भीम! हम लोग यहाँ वृथा क्यों पडे हुएहैं? क्योंकि इस पापोंद्वारा मरेहुए सहदेवका सोच करना ठीक नहीं है युधिष्ठिरकी यह बात सुनकर भीमसेनने कहा हे नराधिप!इन सहदेवजीने कौनसा पांप किया है?सो बताइये॥६॥ भीमकी बात सुनकर महाराज युधिष्ठिर सहदेवका पाप कहनेलगे कि, हे भीम! त्रैलोक्यमें जितना
ज्ञान था, यह सहदेव जानताथा। किन्तु इसने स्वभावसेही अपनी तथा दूसरेकोरक्षा करनेको वह ज्ञान प्रकाशित नहीं किया अर्थात् दूसरे किसी व्यक्तिको नहीं बताया॥७॥ हे भीम! इसीसे मृत्युके सामने स्थित हुआ। जिस समय लाखके घरमें अग्नि प्रज्वलित हुई, तब इस सहदेवने अपनी इच्छानुसार रास्ता नहीं बताया था॥८॥ फिर देखो बैरीसे मोहितहुए हमलोगोंको दुर्योधनने हरादिया किन्तु इस सहदेवने वहाँ बैठे हुए आपको कहकर नहीं रोका॥९॥ इस घोर पापसे यह मरे और स्वर्गमें नहीं जासके। उन पांडवोंने इस प्रकारकी निःसह बात सुनकर दुःख छोडदिया और आगे चले॥१०॥ तदनन्तर वे निर्दय पांडव उत्तरदिशाके सन्मुख गये और फिर वहाँसे पवनकी समान वेगशाली निराहार पांडव मानसरोवरपर जापहुँचे॥११॥ वहाँ एक हाथी निकला जो कि चारसौ कोश लम्बे शरीरवाला और चारसौ कोशही विस्तारवाला था, वह अति श्रेष्ठ मानसरोवर॥१२॥ शतपत्र कमलों और रुपहली कीचडके द्वारा शोभायमान होरहाथा, उस सरोवरके पश्चिमी हिस्से में चन्द्रकान्तनामसे विख्यात एक महानद है॥१३॥ वहाँ चन्द्रकान्तसमान रुद्रोंद्वारा अर्थात् रुद्र जिस प्रकार लिंगकरके शुक्लपक्षमें उसी प्रकार कृष्णमें जल टपकाते हैं। क्योंकि उस जगह चन्द्रमाका प्रभाव नहीं है॥१४॥ चन्द्रमा ग्रह अपनी सोलह कलाओं द्वारा मुखसे भूमिपर प्रकाशित होता है, चन्द्रकान्तिरूप सब चन्द्रकान्तमणि प्रकाशित होरहेहैं॥१५॥ वहाँ निरन्तर भस्म करके प्रकाशित रत्नोंके दीवे जलते रहतेहैं। इन पाण्डवोंने उस मनोहर पहाडको उलाँघकर श्रीमहादेवजीकेमन्दिरका दर्शन किया॥१६॥तब यह जैसेही श्रीमहादेवजीकी
स्तुति करनेलगे कि, वैसेही तत्काल तीन आँख और दश हाथ वाली सुन्दर कन्या आपहुँचीं॥१७॥
वदन्ति पाण्डवैः सार्द्धं वाक्यैश्चैव मनोरमैः।
कन्या ऊचुः।
रथमारुह्य राजेन्द्र कैलासे गम्यतां ध्रुवम्।
शङ्करेण समं तत्र भुंक्ष्व भोगान्मनोरमान्॥१८॥
तब वह कन्या अत्यन्त मनोहर वचनोंद्वारा पाण्डवोंसे हनें लगीं। कन्या बोलीं कि, हे राजेन्द्र! आप रथपर सवार होकर निःसन्देह कैलासको चलिये और वहाँ श्रीमहादेवजीके समान मनोर भोगोंको भोगिये॥१८॥॥ इति श्रीभारतसारे स्वर्गांरोहणपर्वणि भाषायां त्र्यधिकशततमोऽध्यायः॥१०३॥
चतुरधि शततमोऽध्यायः१०४.
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चतुरधिकशततमेऽध्याये नकुलर्जुनयोस्तथा॥
++नं हिमशृङ्गाच्च संक्षेपाच्च तदुच्यते॥१॥
इस एकसौ चार अध्यायमें हिमशृंग (हिमाचलकी चोटी) से अर्जुन और नकुलका गिरना अर्थात् मरण होना, यह कथा संक्षेपसे कहीजातीहै॥१॥
युधिष्ठिर उवाच।
पूर्वमेव प्रतिज्ञातः केशवश्चाग्रतो मया॥
गन्तव्यं माधवो यत्र गम्यः परमकारणम्॥१॥
युधिष्ठिर बोले हे रुद्रकन्याओ! इस कैलासको मैं प्रथमही जानचुकाहूँ, किन्तु मुझको तो अगाडी जिस स्थानमें लक्ष्मीकान्त माधव भगवान् श्रीकृष्ण परमकारण विराजमान हैं, वहाँ
जानाहै॥१॥वे रुद्रकन्या महाराज युधिष्ठिरका यह निश्वय जानकर चलीगईं। तब पहाडसे नीचे उतरकर पांडव जैसेही पृथ्वीतलपर आवें॥२॥ कि त्योंही नकुल गिरपडे और तत्कालही उनके प्राण छूटगये। तब भीमका प्रश्न सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरने उत्तर दिया॥३॥यह (रावणकी) लंकापुरीमें जानेवाले नकुल य में बहुत सारा सोना लेआये। जिस समय यह लंकानगरीमें जाय, वहाँ निडर होकर घुसे॥४॥ तब लंकाधिपति विभीषणने उनके महान् कौतुकको देखतेही घबराकर बहुतसा सुवर्ण भेजदिया॥५॥ हे भीम! जिन नकुलमें इस तरहका बल था सो वेभी कालसे कैसे जीतेगये? किन्तु यमराजने उनको निहत किया, और वे पापके द्वारा मृत्युके वशीभूत होगये॥६॥ भीमसेनने पूछा हे महाराज।नकुलने ऐसा क्या पाप कियाथा, जिससे वे स्वर्गको नहीं जासके? युधिष्टिरने उत्तर दिया हे भीम! तपका लाञ्छन करनेवाले और अनेक रूपवाले नकुलको स्वर्ग नहीं मिला॥७॥क्या अपनी मतिभ्रमहीन भावको प्राप्त हुई है? और क्या हमलोगोंने रक्षा करके अपने अंगको सुखी किया है? अहो! संग्राममें नकुलके बराबर दूसरा कोईबीर वीद्यमान नहीं था?॥८॥ हे पवननन्दन! यह अचंभा है, अत एव हे वृकोदर भीम! इन नकुलका सोच नहीं करना चहिये। धर्मराज युधिष्टिरकी यह बातें सुनकर सबने दुःख छोड दिया और वहाँसे आगे चलदिये॥९॥ तदनन्तर यह पांडव तीनों लोकमें विख्यात और प्रकाशमान नन्दघोष नामवाले पहाडपर जापहुँचे यह पहाड वैदूर्य और पद्मराग मणियोंसे सर्वत्र विभूषित था॥१०॥ सुवर्ण रत्नोंद्वारा और पहाडोंद्वारा वैसे शिखरोंसे शोभायमान होरहाहै और उसकी चोटीपर एक हजार देवद्रोण अवस्थित हैं॥११॥ वह, दूधकी
सदृश कमलोंके द्वारा नित्य तीनों कालमें अर्चित होरहाहै, जहाँ भगवान् श्रीमहादेवजी अवस्थित हैं, रुद्रकन्यायें उन महादेवजीकी पूजा करके कैलासपर जाया करतीहैं॥१२॥ फिर जिस समय वे पांडव जनोंको सुखी करनेवाले नन्दघोषेश्वरके पास पहुँचे तब जैसे ही उनकी स्तुति करके महाराज युधिष्ठिर भीमार्जुन समेत किंचित् दूर स्थानको जातेथे॥१३॥ कि उसी समय अर्जुन पद्मराग रत्नोंकी शिलापर गिरपडे भइया अर्जुनको गिराहुआ देखकर भीमसेन ने कहा॥१४॥ हे महाराज! ज्योंही हम नन्दघोषेश्वरसे निकले कि देवदानवोंसे अजीत अर्जुन गिरगये। भीमकी यह बात सुनकर धर्मराज युधिष्ठिरने कहा॥१५॥ समरमें अर्जुनके अगाडी दूसरा कोई योधा खडा नहीं रह सकताथा, और इन अर्जुनके डरके मारे राजा लोग इस तरह भागजाया करते थे, जिस तरह सिंहको देखकर हाथी भागजाया करतेहैं॥१६॥ और गरुडजी जिस तरह सर्पोको विचलित करते हैं, ऐसेही समरमें इन अर्जुनने भी अपने शरजालसे भीष्म, द्रोण, कर्णको मारकर सारे कौरवोंको विचलित करडालाथा॥१७॥ इन अर्जुननेही बज्रकी समान शरीरवाले सारे योधाओंका नाश किया। अब उन्हीं अर्जुनको कालने नष्ट किया है। हे भीम! यह पाप करके मृत्युके वशीभूत हुएहैं॥१८॥ भीमसेनने पूछा। हे नराधिप! अर्जुनने ऐसा क्या पाप किया था, जिससे यह मृत्युके वशीभूत हुए? वह मैं सुनना चाहताहूँ क्योंकि इसका मुझको बडा अचंभा होरहाहै॥ १९॥
निमिषार्द्धार्द्धभागेन भारते ये समागताः।
तेन ह्यष्टादशाहानि क्लेशिता ननु विग्रहाः।
तेन पापेन संयुक्तः पार्थो मृत्युवशं गतः॥२०॥
महाराज युधिष्ठिरने उत्तर दिया कि, हे भीम! एक पलके चतुर्थांश समयमें संहार करडालनेवाले इन अर्जुनने भारत संग्राममें आयेहुए बैरियोंको अठारह दिनतक क्लेश दिया, उसी पापसे युक्त होकर अर्जुन मृत्युके वशीभूत हुएहैं॥२०॥॥ इति श्रीभारतसारे स्वर्गारोहणपर्वणि भाषायां अर्जुनपतनं नाम चतुरधिकशततमोऽध्यायः॥१०४॥
पञ्चाधिशततमोऽध्यायः १०५.
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पञ्चाधि शतेऽध्याये भीमदेहः पपात ह॥
विलाप तदा धर्मस्वद्वर्णितमने++ धा॥१॥
इस एकसौ पांच अध्यायमें भीमके शरीरकापतन और उनके मरनेपर धर्मराज युधिष्ठिरका अनेक प्रकारसे विलाप करना यह कथा वर्णन करीजाती है॥ १॥
वैशंपायन उवाच।
वाक्यं तु निःस्पृहं श्रुत्वा दुःखक्लेशगतावुभौ॥
नन्दघोषमतिक्रम्यदृष्टवन्तौ वटं प्रति॥१॥
वैशंपायनजी बोले हे महाराज जनमेजय! राजा युधिष्ठिरकी यह निस्पृह (निर्मोह) बात सुनकर दोनों दुःख छोड आगेचले तब इन दोनों जनोंने नन्दघोषको उलाँघकर वडके पेडका दर्शन किया॥१॥ यह वडका पेड वीसकोश विस्तारवाला और अस्सीकोश ऊँचा वर्ण और पद्मरागमणियोंद्वारा उसकी जड चारों ओरसे बँधीहुई है॥२॥तब युधिष्ठिर व भीम दोनोंजने उसकी छायामें विश्राम करके उत्तरके सन्मुख चले तब मोटी वैजयन्तीनामवाली. नदीपर जापहुँचे॥३॥ उसके बीचकी भूमि सुवर्णमयी और मछली तथा कछुओंसे युक्त है, और दोनों
किनारोंपर बनोंकी गया तथा मनोहर बगीचे विद्यमानहैं॥४॥ उस पवित्र नदीके सन्मुख पहुँचकर वहाँ भगवान् श्रीमहादेवजीकी पूजा करी और फिर दोनों जने उस स्वर्गवाहिनी नदीको उतरे॥५॥ उस स्थानमें गन्धर्वोकी अने कन्याएं गीत गारहीहैं, तब वे दोनों पांडव हर्षित होकर शिवालयमें प्रविष्ट हुए॥६॥ कन्याने कहा हे युधिष्ठिर! आप दोनों जनोंको मृत्युलोकसे मनोहर सोम (चन्द्र) लोकमें पहुँचना चाहिये क्योंकि चन्द्रलोक बहुत मनोरम है उस स्थानमें आप कन्याओंको भोग कीजिये॥७॥युधिष्ठिरने उत्तर दिया। हे कन्या! आप मेरे मार्गमें विघ्न नहीं कीजिये क्योंकि मुझको वहाँ पहुँच जाना है, जिस स्थानमें भगवान् केशव श्रीकृष्ण विराजितहैं। इस प्रकार कह भूमिपर सिद्ध सोमेश्वर महादेवजीको प्रणाम करके निकले॥८॥ कि त्योंही सारे वैरियोंके मर्दन करनेवाले महाबली भीम वहाँ सहसा पद्मरागशिलातलपर गिरपडे॥९॥ उस काल बडा भारी शब्द हुआ और भीमके प्राण छूटगये। तहाँ वृक्ष गिरपडे और नदीके दोनों किनारे बिखरगये॥१०॥ यहाँ भीमसेनने मार्ग रोकनेद्वारा मनुष्य और जलचरोंको न किया सारे सर्पोंको विचलित किया और सूर्य चन्द्रमाकोंभी विचलित करडाला॥११॥ सारे साँप कॉंपगये। पृथ्वी काँपगई। शिखरोंपर गंधर्व काँपगये। भूत और राक्षस घबराये॥१२॥ भीमसेनको गिरा आ देखकर महाराज युधिष्ठिर मूर्च्छित होगये और भाईके शोकस द्रमें डूब कर दुःख सागरमें पतित हुए॥१३॥ फिर आँखोंमें आँसूभर दीनमन हो अन्तःकरणके दुःखसे कहनेलगे। हा भीम! हा नरशार्दूल!मनुष्यके शब्दसे हीन इस स्वर्गके मार्गमें आप
किस प्रकार मृत्युको प्राप्त होगये?॥१४॥ हे भीम! हे भाई। आप भाइयोंकी क्रिया करके मुझको स्वर्ग लोकमें भगवान् श्रीकृष्णके निकट लेजानेका वचन दीजिये और सिंह भेडियोंसे भयाकुल महाकठिन पार्वतीय मार्गमें॥१५॥ हे भीम!मुझको छोडकर क्या आप शिवालय (कैलास में चले गये? हे भीम! इस वनेले कठिन मार्ग में आपने हमको किसे सौंपाहै?॥१६॥ आपने महान् संग्राम करके तुंडिकनामक दैत्यको वध किया और महावीर्यवान् हिडम्ब नामक दैत्यका वध किया। हे भइया भीम! आपने दुर्योधनकीभी महासेनाका नाश किया॥१७॥ जिस प्रकार श्रीगंगामहारानी तीनों लोक प्रति अधिक होकर वर्त्तती हैं, उसी तरह बन्दर भेडिये हाथी इनसे आप अधिक होकर वर्त्ततेथे और नारियोंके हरणकालमें आप ++हुयुद्ध किया करतेथे॥१८॥आपने रणांगनमें गयासुर नामक दैत्यके संग संग्राम किया तथा द्रोण और भीष्मको वध किया सो वह आप अब कैसे मृत्युके वशीभूत होगये॥१९॥ हे भीम! आपने जहर मिलेहुए अनेक लड्डू भोजनकिये, और पचागये तो अब आप मृत्युके वश कैसे होगये? तब दूसरा कौन आदमी जीवित रहनेकी कामना करसकताहै?॥२०॥वैशंपायनजी बोले। हे जनमेजय! भइया भीमके भूतलशायी होनेपर उस काल महाराज युधिष्टिर और भी सबभाइयोंका सोच करनेलगे कि, संग्राममें भगवान् श्रीकृष्णके सदृश पराक्रमी भइया अर्जुनभी गिरगये॥२१॥ वही अर्जुन इस समय व्याघ्र, शुकर सेवित दारुण वनमें शयन करगये जिन्होंने सुभद्राके हरणकालमें क्रोधित यादवोंके स्थानमें घुसकर॥२२॥ सबको तिनकेकी नाई करदियाथा, वेही मृत्युके वशीभूत होगये। ऐसे बल, पराक्रमवाले अर्जुन कैसे मृत्युके वशीभूत
शक्र उवाच।
ब्रूहि राजन्महा ++ज्ञ किमर्थं रुवते भवान्।
++गैः न कर्त्तव्यं नृपैश्चैव विशेषतः।
ये मृता हेमशृंगाग्रेगतास्ते परमां गतिम्॥४२॥
इन्द्र बोले हे महाराज! हे महापण्डित! बताइये आप कि लिये रोरहेहैं? क्योंकि स्वर्गमें विशेषभावसे दुःख करना उचित नहीं है। और जिन लोगोंने हिमाचलके शिखरके अ भागमें प्राण त्याग दियाहै न सबको परमोत्तम गति मिल गईहै॥४२॥ इति श्रीभारतसारेस्वर्गारोहणपर्वणि भाषायां युधिष्ठिरशक्र संबादे पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः॥१०५॥
षष्ठाधिकशततमोऽध्यायः १०६.
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षष्ठाधिकशतेऽध्याये भीमांदीनां च दर्शनम्॥
धर्मस्य विष्णुलोके च सम्वाद उपवर्णितः॥१॥
इस एकसौ छे अध्यायमें विष्णुलोकमें भीमादिकोंका दर्शन और विष्णु तथा धर्मराज युधिष्ठिरका सम्वाद यंह कथा कही जाती है॥१॥
शक्र उवाच।
इमां वैतरणीं पुण्यां सर्वपापप्रणाशिनीम्॥
अवगाह्य जलं दिव्यं मा दुःखं कुरु सुव्रत॥१॥
इन्द्र बोले हे सुव्रत युधिष्ठिर। आप सर्वपापनाशिनी और पवित्र इस वैतरणी नदीके जलमें उतरकर स्नानकीजिये। नहीं कीजिये॥१॥ इन्द्रकी यह बात सुनकर महाराज युधिष्ठिरनदीमें स्नान करनेको गये और केवल मात्र समें स्नान कर-
जनमेजय! हिमाचल तथा विन्ध्याचलकी उत्तरीय बगलमें अति उत्तम पीठके शिखर हैं वहाँ सर्वपापनाशक वैतरणी नामवाली नदी वहतीहै॥३३॥ वह नदी देवकन्या तथा सिद्ध, गंधर्व, और किन्नरोंद्वारा शोभायमान होरहीहै, उसी नदीके किनारे पर चन्द्रकान्त मणिकी नाई तेजशालिनी एक मनोहर शिला है॥३४॥ भाइयोंके शोकमें भरेहुए वे महाराज युधिष्ठिर उसी शिलापर जापहुँचे तब वहाँके निवासियोंने कहा। हे महाराज। आप खडेहुए बारबार किस बातका सोच कररहेहैं ?॥३५॥ इस प्रकार वे पूछनेलगे। किन्तु तथापि महादुःखमें मग्न महाराज युधिष्ठिर करुणा करके विलाप करतेहुए रोनेलगे। तब आँसू भरी आँखोंवाले और हीन युधिष्ठिरको देखकर विद्याधरियोंने कहा॥३६॥विद्याधरीं बोलीं हे नरसिंह! आप रोइये मत क्योंकि जन्मेहुए व्यक्तिकी मृत्युही अवश्यही हुआकरतीहै, हे युधिष्टिर! यह काल सारे संसारको अपनी फांसीमें खेंचलिया करताहै॥३७॥ अथवा आपने क्या मौत नहीं देखी या नहीं सुनी? जो इस मृत्युलोक में जन्मेहैं वे सबही मृत्युके वशीभूत हुएहैं॥३८॥हे महापण्डित! प्रस्थानके सिद्ध करनेवाले दामोदर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जिस व्यक्तिकी नारायणमें भक्ति विद्यमान है, लोकसे फिर उसका क्या मतलव है?॥३९॥ आपने उत्तमोत्तम अठासीहजार ब्राह्मणोंको तर्पित (तृप्त) किया है, अत एव हे महाराज! उनके प्रसादसे आप अपने मृत भ्राताओंका दर्शन करेंगे॥४०॥ तदनन्तर महाराज युधिधिरके चरणोंमें इन्द्रने स्वयं ही स्वस्ति करी और इन्द्रने स्वस्ति करके सुन्दर बाणीसे कहा॥४१॥
सिद्ध, गंधर्वसेवित अमरावती अत्यन्त मनोहर नगरी है और यह विचित्र इन्द्रलोक है, इसमें शतशः अप्सराओंके गण निवास कियाकरतेहैं। हे राजेन्द्र! युधिष्टिरको आयाहुआ जानकर॥१३॥ देवतालोग शृंगारसहित नगरीसे निकले और शीघ्र युधिष्ठिरके पास आये तब देवताओंने उन युधिष्टिरको अनेक पदार्थ और अर्घ्यअर्पण किया॥१४॥और इन्द्रलोकमें जो कन्या निवास किया करतीथीं वे सब युधिष्ठिरके आगे खडीं होकर नाचने लगीं। उस काल देवराज इन्द्रने अपने हाथसे महाराजपर चमर ढुलाया और यमराजनेपत्र धारण किया॥१५॥ तदनन्तर महाराज युधिष्टिर इन्द्रलोकको उलाँघकर ब्रह्मलोकमें गये। जो ब्रह्मलोक महाविभवविस्तार और गंधर्वोंके मंगलदायक शब्दोंसे युक्त है॥१६॥ तथा शंखादि बाजोंके शब्दोंसे शब्दायमान उस ब्रह्मलोकको पहुँचे। हे जनमेजय !तदनन्तर ब्रह्मलोकमें जो वरांगना (सुन्दर शरीरवाली) कन्याथीं वे सब सन्मुख आपहुँचीं॥१७॥ उन्होंने संतुष्टहोकर महाराज युधिष्टिरको अर्घ्यप्रदान किया, देवोत्तम ब्रह्माजीके पार्षदभी संतुष्ट हुए और उन्होंनेभी अर्घ्य दिया और ब्रह्मलोकमें प्राप्त हुए महाराज युधिष्टिरपर ब्रह्माजी संतुष्ट हुए॥१८॥ और अनेक आशीर्वादों से उनका स्वागत करते हुए कहा। हे राजेन्द्र।अब आप यहाँ मनोरम भोग भोगये॥१९॥ हे युधिष्टिर! जबतक मैं ब्रह्मा स्वर्गमें रहूँ तबतक आप यहां निवास कीजिये। युधिष्ठिरने उत्तर दिया। हे ब्रह्मन्।मैं विष्णुलोकमें जाकर वहाँ जनार्दन भगवान् का दर्शन करूँगा॥२०॥ भ्राताओंसमेत भगवान् विष्णुको प्रत्यक्ष देखूँगा। ब्रह्माजी बोले जिस स्थानमें आपकी रुचि हो हे नराधिप! आप वहीं सुखसे निवास कीजिये॥२१॥ और
तेही उनका दिव्य रूप होगया॥२॥ वहां भाइयोंको जलदान करके भोजन दिया। तदनन्तर सब रत्नोंसे विभूषित दिव्य रथमें सवार होकर॥३॥दिव्य हारधारी दिव्य वस्त्र और दिव्य कुण्डल धारी महाराज युधिष्ठिरकी देवराज इन्द्रने स्तुति करी और फिर उनको गहने प्रदान किये॥४॥ फिर दियेहुए कटिसूत्रको इन्द्रसे लेकर पांडव युधिष्ठिर ज्योंही ग्रहण करतेथे, उसी समय उनकी पीठपर स्थित होकर एक कुत्ता रोनेलगा॥५॥ उसको रोता हुआ देखकर इन्द्रने महान कोप किया और महान् क्रोधसे उस कुत्तेको ताडित किया, उस प्रहारसे और कुत्ता औरभी दारुण शब्दसे रोनेलगा॥६॥ और फिर कहा हे नरसिंह! मुझको देवराज इन्द्रने ताडित किया है। अत एव आप मेरी रक्षा कीजिये।हे कौन्तेय! आप मुझ भूमिमें पडेहुएको पालन कीजिये॥७॥ वैशंपायनजी बोले हे जनमेजय! जब उस कुत्तेने ऐसा कहा, तब महाराज युधिष्ठिर बोले, हे श्वान! आप शोकसे मत रोओ मैं पृथ्वीमें गिरेहुए आपकी रक्षा करूँगा॥८॥ कुत्तेसे यह कहकर फिर इन्द्रसे कहा मैंपैदलही स्वर्गको चलूँगा और यह कुत्ता रथमें चले। महाराज इसतरह कहतेही थे कि उसी समय धर्मराज अपने रूपको प्रवृत्त करनेलगे॥९॥ अनन्तर महामहिम और धर्मरूप करके भैंसेपर सवार हुए धर्मराजने महाराज युधिष्ठिरसे कहा कि, आप तपोवनमें अच्छे आये अच्छे आये!॥१०॥ फिर धर्मराजने संतुष्ट होकर राजा युधिष्ठिरसे कहा कि, आप निरन्तर सत्यवादी सदा योग्य हो बरन आप सत्यके स्वरूपही हो॥११॥ हे राजेन्द्र! मैं आपसे सन्तुष्ट होगयाहूँ अत एव आप रथमें सवार होकर गमन कीजिये। अनन्तर वे इन्द्रलोकके सन्मुख चलनेलगे और आधे पलमें॥१२॥
भाई और पांचाली द्रोपदी मरगई हैं॥२५॥इस कारण हे देव! मैं बन्धुहीन होकर यहाँ अकेलाही आयाहूँ। आपने मुझे छोडकर मेरे भाइयोंको मृत्युका रक्षक कियाहै॥२६॥ हे देव! पापात्माने भ्राताओंका क्षय (नाश) करडाला हैं। हे केशव! मैंने क्रोधलोभके द्वारा सारे बलवान् भ्राताओंको नष्ट किया है॥२७॥ तो अब भ्रातृहीन होकर मेरे जीनेका क्या प्रयोजन है? श्रीभगवान् ने कहा। हे महाराज! अब आप अपने आत्मामें सोच मत कीजिये।मैं आपके निमित्त आपके भाइयोंका दर्शन कराताहूँ॥२८॥भगवान् विष्णुने इस तरह कहाही था कि उसी अवसरमें महाराज युधिष्ठिरने पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, विदुर और मामा शकुनिको देखा॥२९॥वैसेही महात्माने शीघ्रतासे दुर्योधनका दर्शन किया, जो कि दुःशासन इत्यादि महावीर भाइयोंसे घिराहुआथा॥३०॥ फिर जयद्रथ, कर्ण, धृतराष्ट्र, संजयको देखा और उसीतरह कृतवर्मा और विष्वक्सेन॥३१॥ तथा धृतराष्ट्रके सारे बेटे दोनों पैरोंमें प्रणाम करतेहुए।स्थित हुए उसी समयमें भीम, अर्जुन और अर्जुननन्दन अभिमन्यु॥३२॥नकुल और सहदेव सब भाइयोंको देखा, और बर्बरी समेत घटोत्कचको देखा॥३३॥ अधिक क्या कुरुक्षेत्रके युद्धमें जो लोग निहत हुएथे, वे वहाँ वैकुण्ठमें सब अवस्थान कररहेहैं, उनको देखकर महाराज युधिष्ठिर परमोत्तम वाणीसे बोले॥३४॥ आज मेरा जन्म सफल हुआ। आज मेरी तपस्या सफल हुई। आज मेरा स्वर्ग सफल हुआ और आज मेरी गति सफल हुई॥३५॥ क्योंकि इस विष्णुलोकमें मन्त्रियोंसमेत मेरे भ्राता और पिता इत्यादि सब सुखपूर्वक अवस्थान
जब कि, आप ब्रह्मलोकमें जानेकी रुचि प्रकट करतेहैं, तो आप ब्रह्मलोकको चले जाइये। तब महाराज युधिष्टिर पितामहं ब्रह्माजीको बारम्बार प्रणाम करके और स्तुति करके निकले॥२२॥ सकाल धर्मराजने ++त्र धारण किया, इन्द्र उनके सारथी बने, तदनन्तर वे मेरु पर्वतके शिखर पर स्थित और सुख दायक विष्णुलोक में जाहुँचे॥२३॥तब महाराज युधिष्ठिर को आयाहुआ जानकर भगवान् निकलकर तत्काल सामने आये और फिर पांडव युधिष्टिरको अर्घ्यपात्रद्वारा सब रानियोंने अर्घ्य दिया॥२४॥
चौपाई
विष्णुलोकमहँ भूपति आये।श्रीनिवासके दर्शन पाये॥
देखि भूप दोनों कर जोरी। जय कृपालु राखेउरुचि मोरी॥
जय सच्चिदानन्द घनश्यामा।यह सुनि आप उठे श्रीरामा॥
क्षीर निवास हृदय महँ लाये। गहिभुज अपने ढिग बैठाये॥
नृप वैकुंठ बिराज्यो जाई। देखहु भाग्य विभव बहुताई॥
धन्य युधिष्ठिर देवन कहेऊ। सुरतरु सुमन वृष्टि नभ कियेऊ॥
हरिपुर नृपहि जाय सुखपाई। वहाँ विलोकेउ चारों भाई॥
++हित द्रौपदी रूप अनूपा। द्रोणाचार्य सहित सब भूपा॥
देवरूप तहँ भीष्म पितामह। कर्णसहित राजहिं हरिधामह॥
दुर्योधन आदिक वलवाना। जिन जिन मरत युद्ध रण ठाना॥
कुरुक्षेत्र पर जूझे जेते।हरिपुर मध्य विराजहिं तेते॥
गान्धारी माता तहँ देखा।माद्री सहित धरे शुभ भेखा॥
दोहा
भारतमहँ जे जूझे, स्वर्ग निवासहि झारि।
विविध भाँति सुख पायो, धर्मराजसहित निहारि॥
तब महाराज युधिष्ठिरने जनार्दन भगवान् विष्णुको अनेक दण्डवत प्रणाम करके कहीं। युधिष्ठिर बोले। हे प्रभो ! मेरे सब
चौपाई
यह तनु त्याग पाण्डवन केरा।++नि छूटै चौरासी फेरा॥
व्य++ देव भारतमहँ भा++ग। यहिके चारि निगम हैं साखी॥
जो कोउ सुनै कपट करिदूरी। पाइहि सिद्ध सकल ++ख भूरी॥
जो नर याकहँ जूँठ विचारी। होइहि अधम नरक अधिकारी॥
क्षत्री सुनत समर जय पावै। जो विश्वास मानि यह गावै॥
ब्राह्मण पर्ढेनैं++ त्यागी। वेद निधान होयं बडभागी॥
जो नर नारि सुनै मन लाई। तिनकर पाप सकल मिटिजाई॥
अन्तकाल निर्भय हरि लोका। जाय वसै तजिकै यमशोका॥
++शी प्राग गया सुस्नामा। फल यह सुनि व्यास बखाना॥
दान भने देइ जो कोई। तस फल होय ने यह सोई॥
दोहा
चारिहु वेद सहस्र षट्, शंकर शारद शेश।
भजु हरिचरण विहाय ++ल, सबकर अस उपदेश॥
पढहिं सुनहिं सु++ पावहिं, सन्तत लहहिं अनन्दे।
कृपा करहिं तिनपर सदा, कृष्णचन्द नँदनन्द॥
इष्टदेव भगवान्के, चरण कमल मन लाय।
प्रतिपदको टी++कियो, पढहि जन हरषाय॥
व++ रामगंगानिकट, नगर मुरादाबाद।
भजन करत हरिको तहा, द्विज ज्वालाप्र द॥
तिनको मैं लघु भात हूँ, मिश्र कन्हैयालाल।
जगहित शुभटीका लिख्यो, भाषा मञ्जु रसाल॥
गुणग्राहक परहित करन, अवनि अखण्ड प्रताप।
अंकित है सब जग महँ, जिनके यशकी छाप॥
श्रीकृष्णदातात्मज, खेमराज मतिमान।
तिन हूँ कीन्हों भेंट यह, याहि न++ पैं ++न॥
कररहेहैं॥३६॥ तब भगवान् विष्णु श्रीकृष्णने कहा हे महाराज युधिष्टिर! जिस समयतकस्वर्ग में मेरा निवास रहे, तबतक आपभी यहाँ रहकर अपने भाइयोंसमेत विपुल भोगोंको भोगिये॥३७॥हे जनमेजय! जो नरोत्तम पुरुष पांडवोंके इस स्वर्गारोहणकी कथा सुना करतेहैं वा सुनेंगे वे सारे पापोंसे हीन होकर स्वर्गमें जाँयगे॥३८॥ जो व्यक्ति एकादशी अमावास्या अथवा चन्द्र, सूर्यके ग्रहण तथा अन्यान्य पवित्र दिनमें स्वर्गारोहणकी कथा सुनतेहैं, उनके सारे पाप मिटजाते हैं॥३९॥और विशेषतः श्राद्धकालमें यह पवित्र स्वर्गारोहण पर्व पितरोंको मुक्तिदायक है, तथा यह उत्तम पर्व लिखाजाकर जिस घरमें रक्खा रहता है॥४०॥ उसके मृत्युलोकमें वैवस्वतं (यमराज) का डर नहीं रहता, योगरत्नके द्वारा जिसकी प्राप्ति आ**++**रती है, और श्रीगंगामहारानीके तटपर श्राद्ध करनेसे जो फल मिलाकरताहै॥४१॥ गोदावरी, कावेरी, गौतमी, नर्मदा, प्रभासक्षेत्र और प्रयागराजके बीच जो फल मनुष्यको छै मास में मिलाकरताहै॥४२॥
तत्फलं पुण्यवाक्येन शृण्वन्ति श्रद्धयान्विताः॥
व्यासञ्च पूजयेद्भक्त्या++ लिंकारधेनुभिः॥
गवां च दीयते दानं विष्णुलोके महीयते॥४३॥
वही फल जो व्यक्ति श्रद्धासमेत स्वर्गारोहणपर्वको श्रवण करतेहैं वह इस स्वर्गारोहणके पवित्रं वाक्योंद्वारा पालेतेहैं, फिर कथा सुननेपर कथावाचक श्रीव्यासजीमहाराजकी व**++** गहने और गायोंद्वारा भक्तिसहित पूजा करनी चाहिये और फिर गोदान करना उचित है। ऐसा करनेपर वह मनुष्य विष्णुलोकमें पूजित हुआ करताहै॥४३॥
पुत्र पौत्र ऐश्वर्ययुत, जीवहु कोटि वरीश।
मिश्र कन्हैयालाल यह, निश दिन देत अशीश॥
इति श्रीवेदव्यासकृते भारतसारे स्वर्गारोहणपर्वणि मुरादाबादनगरनिवासि कान्यकुब्जवंशावतंस भुवन विख्यात स्वर्गीय सुखानन्दमिश्रात्मज विद्यावारिधि पण्डित ज्वालाप्रसादमिश्र
कनिष्टलोदर पण्डित कन्हैयाल मिश्र विरचितभाषायां
षडधिचिकशततमोऽध्यायः॥१०६॥
॥इति श्रीभाषाभारतसारस्वर्गारोहणपर्व समाप्तम्॥
इति श्रीभाषाभारतसार संपूर्ण।
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पुस्तक मिलनेका ठिकाना-
** खेमराज श्रीकृष्णदास,**
“श्रीवेङ्कटेश्वर” स्टीम् प्रेस - बम्बई.
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“सत्रह वस्त्र तो सफेद होगये थे किन्तु एक वस्त्रका रंग नहीं गया— अत एव नीलेरंगकेकपडेमें हत्या वास करती है, इस लिये पण्डितजन नीलेरंगके वस्त्र कभी धारण न करें।” ↩︎
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“पेट चीरनेसे बह मछली मरगई यह अद्रिकां नामवाली अप्सरा थी जो कि ब्रह्माजीके शापसे यहाँ मछलीका रूप धारण करके रहतीथी अब मरनेपर फिर ब्रह्मलोकको प्राप्त हुई ।” ↩︎
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“प्रथम यह मछलीके गर्भसे उत्पन्न होनेके कारण मत्स्यगन्धा और सत्य बोलनेके कारण सत्यवती नामसे प्रसिद्ध हुईथी।” ↩︎
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“यह तीनों पुत्र गुण और बलमें अपने पिताकी ही समान हुए थे।” ↩︎
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“यह लालतिलके समान लांछनके नामने प्रसिद्ध है।” ↩︎
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" घोडोंकी लगाम।" ↩︎