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भागसूचना

पञ्चमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीष्म आदि वीरोंका अपने-अपने मूलस्वरूपमें मिलना और महाभारतका उपसंहार तथा माहात्म्य

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मद्रोणौ महात्मानौ धृतराष्ट्रश्च पार्थिवः।
विराटद्रुपदौ चोभौ शङ्खश्चैवोत्तरस्तथा ॥ १ ॥
धृष्टकेतुर्जयत्सेनो राजा चैव स सत्यजित्।
दुर्योधनसुताश्चैव शकुनिश्चैव सौबलः ॥ २ ॥
कर्णपुत्राश्च विक्रान्ता राजा चैव जयद्रथः।
घटोत्कचादयश्चैव ये चान्ये नानुकीर्तिताः ॥ ३ ॥
ये चान्ये कीर्तिता वीरा राजानो दीप्तमूर्तयः।
स्वर्गे कालं कियन्तं ते तस्थुस्तदपि शंस मे ॥ ४ ॥

मूलम्

भीष्मद्रोणौ महात्मानौ धृतराष्ट्रश्च पार्थिवः।
विराटद्रुपदौ चोभौ शङ्खश्चैवोत्तरस्तथा ॥ १ ॥
धृष्टकेतुर्जयत्सेनो राजा चैव स सत्यजित्।
दुर्योधनसुताश्चैव शकुनिश्चैव सौबलः ॥ २ ॥
कर्णपुत्राश्च विक्रान्ता राजा चैव जयद्रथः।
घटोत्कचादयश्चैव ये चान्ये नानुकीर्तिताः ॥ ३ ॥
ये चान्ये कीर्तिता वीरा राजानो दीप्तमूर्तयः।
स्वर्गे कालं कियन्तं ते तस्थुस्तदपि शंस मे ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— ब्रह्मन्! महात्मा भीष्म और द्रोण, राजा धृतराष्ट्र, विराट, द्रुपद, शंख, उत्तर, धृष्टकेतु, जयत्सेन, राजा सत्यजित्द्द दुर्योधनके पुत्र, सुबलपुत्र शकुनि, कर्णके पराक्रमी पुत्र, राजा जयद्रथ तथा घटोत्कच आदि तथा दूसरे जो नरेश यहाँ नहीं बताये गये हैं और जिनका नाम लेकर यहाँ वर्णन किया गया है, वे सभी तेजस्वी शरीर धारण करनेवाले वीर राजा स्वर्गलोकमें कितने समयतक एक साथ रहे? यह मुझे बताइये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहोस्विछाश्वतं स्थानं तेषां तत्र द्विजोत्तम।
अन्ते वा कर्मणां कां ते गतिं प्राप्ता नरर्षभाः॥५॥

मूलम्

आहोस्विछाश्वतं स्थानं तेषां तत्र द्विजोत्तम।
अन्ते वा कर्मणां कां ते गतिं प्राप्ता नरर्षभाः॥५॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! क्या उन्हें वहाँ सनातन स्थानकी प्राप्ति हुई थी? अथवा कर्मोंका अन्त होनेपर वे पुरुषश्रेष्ठ किस गतिको प्राप्त हुए?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं प्रोच्यमानं द्विजोत्तम।
तपसा हि प्रदीप्तेन सर्वं त्वमनुपश्यसि ॥ ६ ॥

मूलम्

एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं प्रोच्यमानं द्विजोत्तम।
तपसा हि प्रदीप्तेन सर्वं त्वमनुपश्यसि ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! मैं आपके मुखसे इस विषयको सुनना चाहता हूँ; क्योंकि आप अपनी उद्दीप्त तपस्यासे सब कुछ देखते हैं॥६॥

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स तु विप्रर्षिरनुज्ञातो महात्मना।
व्यासेन तस्य नृपतेराख्यातुमुपचक्रमे ॥ ७ ॥

मूलम्

इत्युक्तः स तु विप्रर्षिरनुज्ञातो महात्मना।
व्यासेन तस्य नृपतेराख्यातुमुपचक्रमे ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौति कहते हैं— राजा जनमेजयके इस प्रकार पूछनेपर महात्मा व्यासकी आज्ञा ले ब्रह्मर्षि वैशम्पायनने राजासे इस प्रकार कहना आरम्भ किया॥७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न शक्यं कर्मणामन्ते सर्वेण मनुजाधिप।
प्रकृतिं किं नु सम्यक्ते पृच्छैषा सम्प्रयोजिता ॥ ८ ॥

मूलम्

न शक्यं कर्मणामन्ते सर्वेण मनुजाधिप।
प्रकृतिं किं नु सम्यक्ते पृच्छैषा सम्प्रयोजिता ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी बोले— राजन्! कर्मोंका भोग समाप्त हो जानेपर सभी लोग अपनी प्रकृति (मूल कारण)-को ही नहीं प्राप्त हो जाते हैं; (कोई-कोई ही अपने कारणमें विलीन होता है) यदि पूछो, क्या मेरा प्रश्न असंगत है? तो इसका उत्तर यह है कि जो प्रकृतिको प्राप्त नहीं हैं, उनके उद्देश्यसे तुम्हारा यह प्रश्न सर्वथा ठीक है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु गुह्यमिदं राजन् देवानां भरतर्षभ।
यदुवाच महातेजा दिव्यचक्षुः प्रतापवान् ॥ ९ ॥

मूलम्

शृणु गुह्यमिदं राजन् देवानां भरतर्षभ।
यदुवाच महातेजा दिव्यचक्षुः प्रतापवान् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भरतश्रेष्ठ! यह देवताओंका गूढ़ रहस्य है। इस विषयमें दिव्य नेत्रवाले, महातेजस्वी, प्रतापी मुनि व्यासजीने जो कहा है, उसे बताता हूँ; सुनो—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनिः पुराणः कौरव्य पाराशर्यो महाव्रतः।
अगाधबुद्धिः सर्वज्ञो गतिज्ञः सर्वकर्मणाम् ॥ १० ॥
तेनोक्तं कर्मणामन्ते प्रविशन्ति स्विकां तनुम्।
वसूनेव महातेजा भीष्मः प्राप महाद्युतिः ॥ ११ ॥

मूलम्

मुनिः पुराणः कौरव्य पाराशर्यो महाव्रतः।
अगाधबुद्धिः सर्वज्ञो गतिज्ञः सर्वकर्मणाम् ॥ १० ॥
तेनोक्तं कर्मणामन्ते प्रविशन्ति स्विकां तनुम्।
वसूनेव महातेजा भीष्मः प्राप महाद्युतिः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! जो सब कर्मोंकी गतिको जाननेवाले, अगाध बुद्धिसम्पन्न एवं सर्वज्ञ हैं उन महान् व्रतधारी, पुरातन मुनि, पराशरनन्दन व्यासजीने तो मुझसे यही कहा है कि ‘वे सभी वीर कर्मभोगके पश्चात् अन्ततोगत्वा अपने मूल स्वरूपमें ही मिल गये थे। महातेजस्वी, परम कान्तिमान् भीष्म वसुओंके स्वरूपमें ही प्रविष्ट हो गये’॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टावेव हि दृश्यन्ते वसवो भरतर्षभ।
बृहस्पतिं विवेशाथ द्रोणो ह्यङ्गिरसां वरम् ॥ १२ ॥

मूलम्

अष्टावेव हि दृश्यन्ते वसवो भरतर्षभ।
बृहस्पतिं विवेशाथ द्रोणो ह्यङ्गिरसां वरम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतभूषण! यही कारण है कि वसु आठ ही देखे जाते हैं (अन्यथा भीष्मजीको लेकर नौ वसु हो जाते)। आचार्य द्रोणने आंगिरसोंमें श्रेष्ठ बृहस्पतिजीके स्वरूपमें प्रवेश किया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतवर्मा तु हार्दिक्यः प्रविवेश मरुद्‌गणान्।
सनत्कुमारं प्रद्युम्नः प्रविवेश यथागतम् ॥ १३ ॥

मूलम्

कृतवर्मा तु हार्दिक्यः प्रविवेश मरुद्‌गणान्।
सनत्कुमारं प्रद्युम्नः प्रविवेश यथागतम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हृदिकपुत्र कृतवर्मा मरुद्‌गणोंमें मिल गया। प्रद्युम्न जैसे आये थे उसी तरह सनत्कुमारके स्वरूपमें प्रविष्ट हो गये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतराष्ट्रो धनेशस्य लोकान् प्राप दुरासदान्।
धृतराष्ट्रेण सहिता गान्धारी च यशस्विनी ॥ १४ ॥

मूलम्

धृतराष्ट्रो धनेशस्य लोकान् प्राप दुरासदान्।
धृतराष्ट्रेण सहिता गान्धारी च यशस्विनी ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने धनाध्यक्ष कुबेरके दुर्लभ लोकोंको प्राप्त किया। उनके साथ यशस्विनी गान्धारी देवी भी थीं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्नीभ्यां सहितः पाण्डुर्महेन्द्रसदनं ययौ।
विराटद्रुपदौ चोभौ धृष्टकेतुश्च पार्थिवः ॥ १५ ॥
निशठाक्रूरसाम्बाश्च भानुः कम्पो विदूरथः।
भूरिश्रवाः शलश्चैव भूरिश्च पृथिवीपतिः ॥ १६ ॥
कंसश्चैवोग्रसेनश्च वसुदेवस्तथैव च ।
उत्तरश्च सह भ्रात्रा शङ्खेन नरपुङ्गवः ॥ १७ ॥
विश्वेषां देवतानां ते विविशुर्नरसत्तमाः।

मूलम्

पत्नीभ्यां सहितः पाण्डुर्महेन्द्रसदनं ययौ।
विराटद्रुपदौ चोभौ धृष्टकेतुश्च पार्थिवः ॥ १५ ॥
निशठाक्रूरसाम्बाश्च भानुः कम्पो विदूरथः।
भूरिश्रवाः शलश्चैव भूरिश्च पृथिवीपतिः ॥ १६ ॥
कंसश्चैवोग्रसेनश्च वसुदेवस्तथैव च ।
उत्तरश्च सह भ्रात्रा शङ्खेन नरपुङ्गवः ॥ १७ ॥
विश्वेषां देवतानां ते विविशुर्नरसत्तमाः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियोंके साथ महेन्द्रके भवनमें चले गये। राजा विराट, द्रुपद, धृष्टकेतु, निशठ, अक्रूर, साम्ब, भानु, कम्प, विदूरथ, भूरिश्रवा, शल, पृथ्वीपति भूरि, कंस, उग्रसेन वसुदेव और अपने भाई शंखके साथ नरश्रेष्ठ उत्तर—ये सभी सत्पुरुष विश्वेदेवोंके स्वरूपमें मिल गये॥१५—१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्चा नाम महातेजाः सोमपुत्रः प्रतापवान् ॥ १८ ॥
सोऽभिमन्युर्नृसिंहस्य फाल्गुनस्य सुतोऽभवत् ।
स युद्ध्वा क्षत्रधर्मेण यथा नान्यः पुमान् क्वचित् ॥ १९ ॥
विवेश सोमं धर्मात्मा कर्मणोऽन्ते महारथः।

मूलम्

वर्चा नाम महातेजाः सोमपुत्रः प्रतापवान् ॥ १८ ॥
सोऽभिमन्युर्नृसिंहस्य फाल्गुनस्य सुतोऽभवत् ।
स युद्ध्वा क्षत्रधर्मेण यथा नान्यः पुमान् क्वचित् ॥ १९ ॥
विवेश सोमं धर्मात्मा कर्मणोऽन्ते महारथः।

अनुवाद (हिन्दी)

चन्द्रमाके महातेजस्वी और प्रतापी पुत्र जो वर्चा हैं, वे ही पुरुषसिंह अर्जुनके पुत्र होकर अभिमन्यु नामसे विख्यात हुए थे। उन्होंने क्षत्रिय-धर्मके अनुसार ऐसा युद्ध किया था, जैसा दूसरा कोई पुरुष कभी नहीं कर सका था। उन धर्मात्मा महारथी अभिमन्युने अपना कार्य पूरा करके चन्द्रमामें ही प्रवेश किया॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आविवेश रविं कर्णो निहतः पुरुषर्षभः ॥ २० ॥
द्वापरं शकुनिः प्राप धृष्टद्युम्नस्तु पावकम्।

मूलम्

आविवेश रविं कर्णो निहतः पुरुषर्षभः ॥ २० ॥
द्वापरं शकुनिः प्राप धृष्टद्युम्नस्तु पावकम्।

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषप्रवर कर्ण जो अर्जुनके द्वारा मारे गये थे, सूर्यमें प्रविष्ट हुए। शकुनिने द्वापरमें और धृष्टद्युम्नने अग्निके स्वरूपमें प्रवेश किया॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतराष्ट्रात्मजाः सर्वे यातुधाना बलोत्कटाः ॥ २१ ॥
ऋद्धिमन्तो महात्मानः शस्त्रपूता दिवं गताः।

मूलम्

धृतराष्ट्रात्मजाः सर्वे यातुधाना बलोत्कटाः ॥ २१ ॥
ऋद्धिमन्तो महात्मानः शस्त्रपूता दिवं गताः।

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रके सभी पुत्र स्वर्गभोगके पश्चात् मूलतः बलोन्मत्त यातुधान (राक्षस) थे। वे समृद्धिशाली महामनस्वी क्षत्रिय होकर युद्धमें शस्त्रोंके आघातसे पवित्र हो स्वर्गलोकमें गये थे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्ममेवाविशत् क्षत्ता राजा चैव युधिष्ठिरः ॥ २२ ॥
अनन्तो भगवान् देवः प्रविवेश रसातलम्।
पितामहनियोगाद् वै यो योगाद् गामधारयत् ॥ २३ ॥

मूलम्

धर्ममेवाविशत् क्षत्ता राजा चैव युधिष्ठिरः ॥ २२ ॥
अनन्तो भगवान् देवः प्रविवेश रसातलम्।
पितामहनियोगाद् वै यो योगाद् गामधारयत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुर और राजा युधिष्ठिरने धर्मके ही स्वरूपमें प्रवेश किया। बलरामजी साक्षात् भगवान् अनन्तदेवके अवतार थे। वे रसातलमें अपने स्थानको चले गये। ये वे ही अनन्तदेव हैं जिन्होंने ब्रह्माजीकी आज्ञा पाकर योगबलसे इस पृथ्वीको धारण कर रखा है॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः स नारायणो नाम देवदेवः सनातनः।
तस्यांशो वासुदेवस्तु कर्मणोऽन्ते विवेश ह ॥ २४ ॥

मूलम्

यः स नारायणो नाम देवदेवः सनातनः।
तस्यांशो वासुदेवस्तु कर्मणोऽन्ते विवेश ह ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे जो नारायण नामसे प्रसिद्ध सनातन देवाधिदेव हैं उन्हींके अंश वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण थे, जो अवतारका कार्य पूरा करके पुनः अपने स्वरूपमें प्रविष्ट हो गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षोडश स्त्रीसहस्राणि वासुदेवपरिग्रहः ।
अमज्जंस्ताः सरस्वत्यां कालेन जनमेजय ॥ २५ ॥

मूलम्

षोडश स्त्रीसहस्राणि वासुदेवपरिग्रहः ।
अमज्जंस्ताः सरस्वत्यां कालेन जनमेजय ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! भगवान् श्रीकृष्णकी जो सोलह हजार स्त्रियाँ थीं, उन्होंने अवसर पाकर सरस्वती नदीमें कूदकर अपने प्राण दे दिये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र त्यक्त्वा शरीराणि दिवमारुरुहुः पुनः।
ताश्चैवाप्सरसो भूत्वा वासुदेवमुपाविशन् ॥ २६ ॥

मूलम्

तत्र त्यक्त्वा शरीराणि दिवमारुरुहुः पुनः।
ताश्चैवाप्सरसो भूत्वा वासुदेवमुपाविशन् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ देहत्याग करनेके पश्चात् वे सब-की-सब पुनः स्वर्गलोकमें जा पहुँचीं और अप्सराएँ होकर पुनः भगवान् श्रीकृष्णकी सेवामें उपस्थित हो गयीं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतास्तस्मिन् महायुद्धे ये वीरास्तु महारथाः।
घटोत्कचादयश्चैव देवान् यक्षांश्च भेजिरे ॥ २७ ॥

मूलम्

हतास्तस्मिन् महायुद्धे ये वीरास्तु महारथाः।
घटोत्कचादयश्चैव देवान् यक्षांश्च भेजिरे ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उस महाभारत नामक महायुद्धमें जो-जो वीर महारथी घटोत्कच आदि मारे गये थे वे देवताओं और यक्षोंके लोकोंमें गये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनसहायाश्च राक्षसाः परिकीर्तिताः ।
प्राप्तास्ते क्रमशो राजन् सर्वलोकाननुत्तमान् ॥ २८ ॥

मूलम्

दुर्योधनसहायाश्च राक्षसाः परिकीर्तिताः ।
प्राप्तास्ते क्रमशो राजन् सर्वलोकाननुत्तमान् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो दुर्योधनके सहायक थे, वे सब-के-सब राक्षस बताये गये हैं। उन्हें क्रमशः सभी उत्तम लोकोंकी प्राप्ति हुई॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवनं च महेन्द्रस्य कुबेरस्य च धीमतः।
वरुणस्य तथा लोकान् विविशुः पुरुषर्षभाः ॥ २९ ॥

मूलम्

भवनं च महेन्द्रस्य कुबेरस्य च धीमतः।
वरुणस्य तथा लोकान् विविशुः पुरुषर्षभाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये श्रेष्ठ पुरुष क्रमशः देवराज इन्द्रके, बुद्धिमान् कुबेरके तथा वरुण देवताके लोकोंमें गये॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् ते सर्वमाख्यातं विस्तरेण महाद्युते।
कुरूणां चरितं कृत्स्नं पाण्डवानां च भारत ॥ ३० ॥

मूलम्

एतत् ते सर्वमाख्यातं विस्तरेण महाद्युते।
कुरूणां चरितं कृत्स्नं पाण्डवानां च भारत ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महातेजस्वी भरतनन्दन! यह सारा प्रसंग—कौरवों और पाण्डवोंका सम्पूर्ण चरित्र तुम्हें विस्तारके साथ बताया गया॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

सौतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा द्विजश्रेष्ठाः स राजा जनमेजयः।
विस्मितोऽभवदत्यर्थं यज्ञकर्मान्तरेष्वथ ॥ ३१ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा द्विजश्रेष्ठाः स राजा जनमेजयः।
विस्मितोऽभवदत्यर्थं यज्ञकर्मान्तरेष्वथ ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौति कहते हैं— विप्रवरो! यज्ञकर्मके बीचमें जो अवसर प्राप्त होते थे, उन्हींमें यह महाभारतका आख्यान सुनकर राजा जनमेजयको बड़ा आश्चर्य हुआ॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समापयामासुः कर्म तत् तस्य याजकाः।
आस्तीकश्चाभवत् प्रीतः परिमोक्ष्य भुजङ्गमान् ॥ ३२ ॥

मूलम्

ततः समापयामासुः कर्म तत् तस्य याजकाः।
आस्तीकश्चाभवत् प्रीतः परिमोक्ष्य भुजङ्गमान् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उनके पुरोहितोंने उस यज्ञकर्मको समाप्त कराया। सर्पोंको प्राणसंकटसे छुटकारा दिलाकर आस्तीक मुनिको भी बड़ी प्रसन्नता हुई॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्विजातीन् सर्वांस्तान् दक्षिणाभिरतोषयत्।
पूजिताश्चापि ते राज्ञा ततो जग्मुर्यथागतम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

ततो द्विजातीन् सर्वांस्तान् दक्षिणाभिरतोषयत्।
पूजिताश्चापि ते राज्ञा ततो जग्मुर्यथागतम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने यज्ञकर्ममें सम्मिलित हुए समस्त ब्राह्मणोंको पर्याप्त दक्षिणा देकर संतुष्ट किया तथा वे ब्राह्मण भी राजासे यथोचित सम्मान पाकर जैसे आये थे उसी तरह अपने घरको लौट गये॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विसर्जयित्वा विप्रांस्तान् राजापि जनमेजयः।
ततस्तक्षशिलायाः स पुनरायाद् गजाह्वयम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

विसर्जयित्वा विप्रांस्तान् राजापि जनमेजयः।
ततस्तक्षशिलायाः स पुनरायाद् गजाह्वयम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन ब्राह्मणोंको विदा करके राजा जनमेजय भी तक्षशिलासे फिर हस्तिनापुरको चले आये॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् ते सर्वमाख्यातं वैशम्पायनकीर्तितम्।
व्यासाज्ञया समाज्ञातं सर्पसत्रे नृपस्य हि ॥ ३५ ॥

मूलम्

एतत् ते सर्वमाख्यातं वैशम्पायनकीर्तितम्।
व्यासाज्ञया समाज्ञातं सर्पसत्रे नृपस्य हि ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जनमेजयके सर्पयज्ञमें व्यासजीकी आज्ञासे मुनिवर वैशम्पायनजीने जो इतिहास सुनाया था तथा मैंने अपने पिता सूतजीसे जिसका ज्ञान प्राप्त किया था, वह सारा-का-सारा मैंने आपलोगोंके समक्ष यह वर्णन किया है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्योऽयमितिहासाख्यः पवित्रं चेदमुत्तमम् ।
कृष्णेन मुनिना विप्र निर्मितं सत्यवादिना ॥ ३६ ॥

मूलम्

पुण्योऽयमितिहासाख्यः पवित्रं चेदमुत्तमम् ।
कृष्णेन मुनिना विप्र निर्मितं सत्यवादिना ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! सत्यवादी मुनि व्यासजीके द्वारा निर्मित यह पुण्यमय इतिहास परम पवित्र एवं बहुत उत्तम है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वज्ञेन विधिज्ञेन धर्मज्ञानवता सता।
अतीन्द्रियेण शुचिना तपसा भावितात्मना ॥ ३७ ॥
ऐश्वर्ये वर्तता चैव सांख्ययोगवता तथा।
नैकतन्त्रविबुद्धेन दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा ॥ ३८ ॥
कीर्तिं प्रथयता लोके पाण्डवानां महात्मनाम्।
अन्येषां क्षत्रियाणां च भूरिद्रविणतेजसाम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

सर्वज्ञेन विधिज्ञेन धर्मज्ञानवता सता।
अतीन्द्रियेण शुचिना तपसा भावितात्मना ॥ ३७ ॥
ऐश्वर्ये वर्तता चैव सांख्ययोगवता तथा।
नैकतन्त्रविबुद्धेन दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा ॥ ३८ ॥
कीर्तिं प्रथयता लोके पाण्डवानां महात्मनाम्।
अन्येषां क्षत्रियाणां च भूरिद्रविणतेजसाम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वज्ञ, विधिविधानके ज्ञाता, धर्मज्ञ, साधु, इन्द्रियातीत ज्ञानसे सम्पन्न, शुद्ध, तपके प्रभावसे पवित्र अन्तःकरणवाले, ऐश्वर्यसम्पन्न, सांख्य एवं योगके विद्वान् तथा अनेक शास्त्रोंके पारदर्शी मुनिवर व्यासजीने दिव्य दृष्टिसे देखकर महात्मा पाण्डवों तथा अन्य प्रचुर धनसम्पन्न महातेजस्वी राजाओंकी कीर्तिका प्रसार करनेके लिये इस इतिहासकी रचना की है॥३७—३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्चेदं श्रावयेद् विद्वान् सदा पर्वणि पर्वणि।
धूतपाप्मा जितस्वर्गो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ४० ॥

मूलम्

यश्चेदं श्रावयेद् विद्वान् सदा पर्वणि पर्वणि।
धूतपाप्मा जितस्वर्गो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विद्वान् प्रत्येक पर्वपर सदा इसे दूसरोंको सुनाता है उसके सारे पाप धुल जाते हैं। उसका स्वर्गपर अधिकार हो जाता है, तथा वह ब्रह्मभावकी प्राप्तिके योग्य बन जाता है॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्ष्णं वेदमिमं सर्वं शृणुयाद् यः समाहितः।
ब्रह्महत्यादिपापानां कोटिस्तस्य विनश्यति ॥ ४१ ॥

मूलम्

कार्ष्णं वेदमिमं सर्वं शृणुयाद् यः समाहितः।
ब्रह्महत्यादिपापानां कोटिस्तस्य विनश्यति ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो एकाग्रचित होकर इस सम्पूर्ण ‘कार्ष्ण वेदैं1’ का श्रवण करता है उसके ब्रह्महत्या आदि करोड़ों पापोंका नाश हो जाता है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्चेदं श्रावयेत् श्राद्धे ब्राह्मणान् पादमन्ततः।
अक्षय्यमन्नपानं वै पितॄंस्तस्योपतिष्ठते ॥ ४२ ॥

मूलम्

यश्चेदं श्रावयेत् श्राद्धे ब्राह्मणान् पादमन्ततः।
अक्षय्यमन्नपानं वै पितॄंस्तस्योपतिष्ठते ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो श्राद्धकर्ममें ब्राह्मणोंको निकटसे महाभारतका थोड़ा-सा अंश भी सुना देता है, उसका दिया हुआ अन्नपान अक्षय होकर पितरोंको प्राप्त होता है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अह्ना यदेनः कुरुते इन्द्रियैर्मनसापि वा।
महाभारतमाख्याय पश्चात् संध्यां प्रमुच्यते ॥ ४३ ॥

मूलम्

अह्ना यदेनः कुरुते इन्द्रियैर्मनसापि वा।
महाभारतमाख्याय पश्चात् संध्यां प्रमुच्यते ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य अपनी इन्द्रियों तथा मनसे दिनभरमें जो पाप करता है वह सायंकालकी संध्याके समय महाभारतका पाठ करनेसे छूट जाता है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् रात्रौ कुरुते पापं ब्राह्मणः स्त्रीगणैर्वृतः।
महाभारतमाख्याय पूर्वां संध्यां प्रमुच्यते ॥ ४४ ॥

मूलम्

यद् रात्रौ कुरुते पापं ब्राह्मणः स्त्रीगणैर्वृतः।
महाभारतमाख्याय पूर्वां संध्यां प्रमुच्यते ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण रात्रिके समय स्त्रियोंके समुदायसे घिरकर जो पाप करता है वह प्रातःकालकी संध्याके समय महाभारतका पाठ करनेसे छूट जाता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरतानां महज्जन्म तस्माद् भारतमुच्यते।
महत्त्वाद् भारवत्त्वाच्च महाभारतमुच्यते ।
निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४५ ॥

मूलम्

भरतानां महज्जन्म तस्माद् भारतमुच्यते।
महत्त्वाद् भारवत्त्वाच्च महाभारतमुच्यते ।
निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस ग्रन्थमें भरतवंशियोंके महान् जन्मकर्मका वर्णन है, इसलिये इसे महाभारत कहते हैं। महान् और भारी होनेके कारण भी इसका नाम महाभारत हुआ है। जो महाभारतकी इस व्युत्पत्तिको जानता और समझता है वह समस्त पापोंसे मुक्ता हो जाता है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टादशपुराणानि धर्मशास्त्राणि सर्वशः ।
वेदाः साङ्गास्तथैकत्र भारतं चैकतः स्थितम् ॥ ४६ ॥
श्रूयतां सिंहनादोऽयमृषेस्तस्य महात्मनः ।
अष्टादशपुराणानां कर्तुर्वेदमहोदधेः ॥ ४७ ॥

मूलम्

अष्टादशपुराणानि धर्मशास्त्राणि सर्वशः ।
वेदाः साङ्गास्तथैकत्र भारतं चैकतः स्थितम् ॥ ४६ ॥
श्रूयतां सिंहनादोऽयमृषेस्तस्य महात्मनः ।
अष्टादशपुराणानां कर्तुर्वेदमहोदधेः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अठारह पुराणोंके निर्माता और वेदविद्याके महासागर महात्मा व्यास मुनिका यह सिंहनाद सुनो। वे कहते हैं—‘अठारह पुराण, सम्पूर्ण धर्मशास्त्र और छहों अंगोंसहित चारों वेद एक ओर तथा केवल महाभारत दूसरी ओर, यह अकेला ही उन सबके बराबर है’॥४६-४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिभिर्वर्षैरिदं पूर्णं कृष्णद्वैपायनः प्रभुः।
अखिलं भारतं चेदं चकार भगवान् मुनिः ॥ ४८ ॥

मूलम्

त्रिभिर्वर्षैरिदं पूर्णं कृष्णद्वैपायनः प्रभुः।
अखिलं भारतं चेदं चकार भगवान् मुनिः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिवर भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायनने तीन वर्षोंमें इस सम्पूर्ण महाभारतको पूर्ण किया था॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकर्ण्य भक्त्या सततं जयाख्यं भारतं महत्।
श्रीश्च कीर्तिस्तथा विद्या भवन्ति सहिताः सदा ॥ ४९ ॥

मूलम्

आकर्ण्य भक्त्या सततं जयाख्यं भारतं महत्।
श्रीश्च कीर्तिस्तथा विद्या भवन्ति सहिताः सदा ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जय नामक इस महाभारत इतिहासको सदा भक्तिपूर्वक सुनता रहता है उसके यहाँ श्री, कीर्ति और विद्या तीनों साथ-साथ रहती हैं॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ।
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न कुत्रचित् ॥ ५० ॥

मूलम्

धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ।
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न कुत्रचित् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके विषयमें जो कुछ महाभारतमें कहा गया है, वही अन्यत्र है। जो इसमें नहीं है, वह कहीं नहीं है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयो नामेतिहासोऽयं श्रोतव्यो मोक्षमिच्छता।
ब्राह्मणेन च राज्ञा च गर्भिण्या चैव योषिता ॥ ५१ ॥

मूलम्

जयो नामेतिहासोऽयं श्रोतव्यो मोक्षमिच्छता।
ब्राह्मणेन च राज्ञा च गर्भिण्या चैव योषिता ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मोक्षकी इच्छा रखनेवाले ब्राह्मणको, राज्य चाहनेवाले क्षत्रियको तथा उत्तम पुत्रकी इच्छा रखनेवाली गर्भिणी स्त्रीको भी इस जय नामक इतिहासका श्रवण करना चाहिये॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गकामो लभेत् स्वर्गं जयकामो लभेज्जयम्।
गर्भिणी लभते पुत्रं कन्यां वा बहुभागिनीम् ॥ ५२ ॥

मूलम्

स्वर्गकामो लभेत् स्वर्गं जयकामो लभेज्जयम्।
गर्भिणी लभते पुत्रं कन्यां वा बहुभागिनीम् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभारतका श्रवण या पाठ करनेवाला मनुष्य यदि स्वर्गकी इच्छा करे तो उसे स्वर्ग मिलता है और युद्धमें विजय पाना चाहे तो विजय मिलती है। इसी प्रकार गर्भिणी स्त्रीको महाभारतके श्रवणसे सुयोग्य पुत्र या परम सौभाग्यशालिनी कन्याकी प्राप्ति होती है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनागतश्च मोक्षश्च कृष्णद्वैपायनः प्रभुः।
संदर्भं भारतस्यास्य कृतवान् धर्मकाम्यया ॥ ५३ ॥

मूलम्

अनागतश्च मोक्षश्च कृष्णद्वैपायनः प्रभुः।
संदर्भं भारतस्यास्य कृतवान् धर्मकाम्यया ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नित्यसिद्ध मोक्षस्वरूप भगवान् कृष्णद्वैपायनने धर्मकी कामनासे इस महाभारतसंदर्भकी रचना की है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षष्टिं शतसहस्राणि चकारान्यां स संहिताम्।
त्रिंशच्छतसहस्राणि देवलोके प्रतिष्ठितम् ॥ ५४ ॥
पित्र्ये पञ्चदशं ज्ञेयं यक्षलोके चतुर्दश।
एकं शतसहस्रं तु मानुषेषु प्रभाषितम् ॥ ५५ ॥

मूलम्

षष्टिं शतसहस्राणि चकारान्यां स संहिताम्।
त्रिंशच्छतसहस्राणि देवलोके प्रतिष्ठितम् ॥ ५४ ॥
पित्र्ये पञ्चदशं ज्ञेयं यक्षलोके चतुर्दश।
एकं शतसहस्रं तु मानुषेषु प्रभाषितम् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने पहले साठ लाख श्लोकोंकी महाभारत-संहिता बनायी थी। उसमें तीस लाख श्लोकोंकी संहिताका देवलोकमें प्रचार हुआ। पंद्रह लाखकी दूसरी संहिता पितृलोकमें प्रचलित हुई। चौदह लाख श्लोकोंकी तीसरी संहिताका यक्षलोकमें आदर हुआ तथा एक लाख श्लोकोंकी चौथी संहिता मनुष्योंमें प्रचारित हुई॥५४-५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारदोऽश्रावयद् देवानसितो देवलः पितॄन्।
रक्षोयक्षात् शुको मर्त्यान् वैशम्पायन एव तु ॥ ५६ ॥

मूलम्

नारदोऽश्रावयद् देवानसितो देवलः पितॄन्।
रक्षोयक्षात् शुको मर्त्यान् वैशम्पायन एव तु ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंको देवर्षि नारदने, पितरोंको असित देवलने, यक्ष और राक्षसोंको शुकदेवजीने और मनुष्योंको वैशम्पायनजीने ही पहले-पहल महाभारत-संहिता सुनायी है॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतिहासमिमं पुण्यं महार्थं वेदसम्मितम्।
व्यासोक्तं श्रूयते येन कृत्वा ब्राह्मणमग्रतः ॥ ५७ ॥
स नरः सर्वकामांश्च कीर्तिं प्राप्येह शौनक।
गच्छेत् परमिकां सिद्धिमत्र मे नास्ति संशयः ॥ ५८ ॥

मूलम्

इतिहासमिमं पुण्यं महार्थं वेदसम्मितम्।
व्यासोक्तं श्रूयते येन कृत्वा ब्राह्मणमग्रतः ॥ ५७ ॥
स नरः सर्वकामांश्च कीर्तिं प्राप्येह शौनक।
गच्छेत् परमिकां सिद्धिमत्र मे नास्ति संशयः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजी! जो मनुष्य ब्राह्मणोंको आगे करके गम्भीर अर्थसे परिपूर्ण और वेदकी समानता करनेवाले इस व्यासप्रणीत पवित्र इतिहासका श्रवण करता है वह इस जगत्‌में सारे मनोवाञ्छित भोगों और उत्तम कीर्तिको पाकर परम सिद्धि प्राप्त कर लेता है। इस विषयमें मुझे तनिक भी संशय नहीं है॥५७-५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भारताध्ययनात् पुण्यादपि पादमधीयतः ।
श्रद्धया परया भक्त्या श्राव्यते चापि येन तु ॥ ५९ ॥

मूलम्

भारताध्ययनात् पुण्यादपि पादमधीयतः ।
श्रद्धया परया भक्त्या श्राव्यते चापि येन तु ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अत्यन्त श्रद्धा और भक्तिके साथ महाभारतके एक अंशको भी सुनता या दूसरोंको सुनाता है उसे सम्पूर्ण महाभारतके अध्ययनका पुण्य प्राप्त होता है और उसीके प्रभावसे उसे उत्तम सिद्धि मिल जाती है॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य इमां संहितां पुण्यां पुत्रमध्यापयच्छुकम्।
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च ।
संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे ॥ ६० ॥

मूलम्

य इमां संहितां पुण्यां पुत्रमध्यापयच्छुकम्।
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च ।
संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन भगवान् वेदव्यासने इस पवित्र संहिताको प्रकट करके अपने पुत्र शुकदेवजीको पढ़ाया था (वे महाभारतके सारभूत उपदेशका इस प्रकार वर्णन करते हैं—) ‘मनुष्य इस जगत्‌में हजारों माता-पिताओं तथा सैकड़ों स्त्री-पुत्रोंके संयोग-वियोगका अनुभव कर चुके हैं, करते हैं और करते रहेंगे॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हर्षस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ॥ ६१ ॥

मूलम्

हर्षस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अज्ञानी पुरुषको प्रतिदिन हर्षके हजारों और भयके सैकड़ों अवसर प्राप्त होते रहते हैं; किंतु विद्वान् पुरुषके मनपर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चित् शृणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते ॥ ६२ ॥

मूलम्

ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चित् शृणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर पुकार-पुकारकर कह रहा हूँ, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्मसे मोक्ष तो सिद्ध होता ही है; अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं, तो भी लोग उसका सेवन क्यों नहीं करते॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्
धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये
जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ॥ ६३ ॥

मूलम्

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्
धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये
जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कामनासे, भयसे, लोभसे अथवा प्राण बचानेके लिये भी धर्मका त्याग न करे। धर्म नित्य है और सुख-दुःख अनित्य। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य है और उसके बन्धनका हेतु अनित्य’॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमां भारतसावित्रीं प्रातरुत्थाय यः पठेत्।
स भारतफलं प्राप्य परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ ६४ ॥

मूलम्

इमां भारतसावित्रीं प्रातरुत्थाय यः पठेत्।
स भारतफलं प्राप्य परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह महाभारतका सारभूत उपदेश ‘भारत-सावित्री’ के नामसे प्रसिद्ध है। जो प्रतिदिन सबेरे उठकर इसका पाठ करता है वह सम्पूर्ण महाभारतके अध्ययनका फल पाकर परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेता है॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा समुद्रो भगवान् यथा हि हिमवान् गिरिः।
ख्यातावुभौ रत्ननिधी तथा भारतमुच्यते ॥ ६५ ॥

मूलम्

यथा समुद्रो भगवान् यथा हि हिमवान् गिरिः।
ख्यातावुभौ रत्ननिधी तथा भारतमुच्यते ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे ऐश्वर्यशाली समुद्र और हिमालय पर्वत दोनों ही रत्नोंकी निधि कहे गये हैं, उसी प्रकार महाभारत भी नाना प्रकारके उपदेशमय रत्नोंका भण्डार कहलाता है॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्ष्णं वेदमिमं विद्वान् श्रावयित्वार्थमश्नुते।
इदं भारतमाख्यानं यः पठेत् सुसमाहितः।
स गच्छेत् परमां सिद्धिमिति मे नास्ति संशयः ॥ ६६ ॥

मूलम्

कार्ष्णं वेदमिमं विद्वान् श्रावयित्वार्थमश्नुते।
इदं भारतमाख्यानं यः पठेत् सुसमाहितः।
स गच्छेत् परमां सिद्धिमिति मे नास्ति संशयः ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विद्वान् श्रीकृष्णद्वैपायनके द्वारा प्रसिद्ध किये गये इस महाभारतरूप पञ्चम वेदको सुनाता है उसे अर्थकी प्राप्ति होती है। जो एकाग्रचित्त होकर इस भारत-उपाख्यानका पाठ करता है वह मोक्षरूप परम सिद्धिको प्राप्त कर लेता है। इस विषयमें मुझे संशय नहीं है॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वैपायनोष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं
पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च।
यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं
किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन ॥ ६७ ॥

मूलम्

द्वैपायनोष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं
पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च।
यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं
किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वेदव्यासजीके मुखसे निकले हुए इस अप्रमेय (अतुलनीय), पुण्यदायक, पवित्र, पापहारी और कल्याणमय महाभारतको दूसरोंके मुखसे सुनता है उसे पुष्करतीर्थके जलमें गोता लगानेकी क्या आवश्यकता है॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति
विप्राय वेदविदुषे सुबहुश्रुताय ।
पुण्यां च भारतकथां सततं शृणोति
तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव ॥ ६८ ॥

मूलम्

यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति
विप्राय वेदविदुषे सुबहुश्रुताय ।
पुण्यां च भारतकथां सततं शृणोति
तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौ गौओंके सींगमें सोना मढ़ाकर वेदवेत्ता एवं बहुज्ञ ब्राह्मणको जो गौएँ दान देता है और जो महाभारतकथाका प्रतिदिन श्रवणमात्र करता है, इन दोनोंमेंसे प्रत्येकको बराबर ही फल मिलता है॥६८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां स्वर्गारोहणपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत नामक व्यासनिर्मित शतसाहस्री संहिताके स्वर्गारोहणपर्वमें पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५॥

सूचना (हिन्दी)

॥ स्वर्गारोहणपर्व सम्पूर्णम् ॥

भागसूचना

श्रीमहाभारतं सम्पूर्णम्


  1. श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासके द्वारा प्रकट होनेके कारण ‘कृष्णादागतः कार्ष्णः’ इस व्युत्पत्तिके अनुसार यह उपाख्यान ‘कार्ष्णवेद’ के नामसे प्रसिद्ध है। ↩︎